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तिलोयपण्णत्ती
[ गापा : २७१-२७६ प्रर्प---प्रत्येक कक्षाकी सब अनीकें स्वभावसे छह सौ ( ६०० ) और विक्रियाकी अपेक्षा पूर्वोक्त ( ६०० ४७-४२०० ) संख्याके समान हैं, ऐसा लोक विनिश्चय मुनि कहते हैं ॥२७०।।
पाठान्तर । थसहाणीयावीणं, पुह पुह चुलसोदि-लक्ख-परिमाणं । पढमाए कक्खाए, सेसासु दुगुण - दुगुण - कमा ॥२७१॥ एवं सत्त - विहाणं, सचाणीयाण' होति पत्तेक्कं । संगायणि . प्राइरिया, एवं रिणयमा परुति ॥२७२।।
पाठान्तरम् । प्रपं-प्रथम कक्षामें वृषभादिक अनीकोंका प्रमाण पृथक्-पृथक् चौरासी लाख है । शेष कक्षाओंमें क्रमशः इससे दूना-दूना है । इसप्रकार सातों अनीकोंमें प्रत्येकके सात-सात प्रकार हैं । ऐसा संगायरिण-आचार्य नियमसे निरूपण करते हैं ।।२७१-२७२।।
सप्त अनीकोंके अधिपति देवसत्ताणीयाहिबई, जे देवा होति बक्सिणिवाणं ।
उत्तर' - इंवाण तहा, ताणं णामाणि बोच्छामि ॥२७॥ प्रर्थ-दक्षिणेन्द्रों और उत्तरेन्द्रोंकी सात अनीकोंके जो अधिपति देव हैं उनके नाम कहते हैं ॥२७३॥
वसहेसु वामयट्ठी, तुरंगमेसु हवेदि हरिवामी। तह मावली' रहेसु, गजेसु एरावदो णाम ॥२४॥ वाऊ पवाति - संघे, गंधवेसु परिदृसंका य ।
गीलंजण" ति देवी, दिक्खादा गट्टयाणीया ॥२७५।।
अर्थ-वृषभोंमें दामयष्टि, तुरगोंमें हरिदाम, रथों में मातलि, गजोंमें ऐरावत, पदाति संघमें वायु, गन्धों में अरिष्टशंका ( अरिष्टयशस्क ) और नर्तक अनीकमें नीलजसा (नीलांजना ) देवी, इसप्रकार सात अनीकोंमें ये महत्तर ( प्रधान ) देव विख्यात हैं ।।२७४-२७५।।
पीढाणोए दोण्हं, अहिवाद - देशो हवेदि हरिणामो । सेसारणीयवईणं, पामेसु गस्थि उवएसो ॥२७६॥'
१.प.ब. क. ज. ठ, सच्चविदाण सत्ताणीमागि । २. व. संघाइणि । ३. ६. ब.क. ज... उरिम। ४. ब... क. ज. ४. मरदली। ५. द. ब. क. नौसंजसो, ज. ठ, पलंजसो। ६. यह गाथा पाठान्तर ज्ञाप्त होती है।