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माथा । ८-१३ ] अट्ठमो महाहियारो
[ ४४५ स्वर्ग पटलोंकी स्थिति एवं इन्द्रक विमानोंका पारस्परिक मन्तराल
कणयदि-चूलि-उरि, उत्तरकुरु-मणुव-एक्क-बालस्स।
परिमाणे - पंतरिदो, चे?दि ह इंदो पढमो ॥८॥ अर्थ-कनकाद्रि अर्थात् मेरुकी चूलिकाके ऊपर उत्तरकुरुवर्ती मनुष्यके एक बाल प्रमाणके अन्तरसे ( ऋजु नामक ) प्रथम इन्द्रक स्थिस है ।।८।।
लोय-सिहरादु हेडा, चउ सय-परणवीस चाव होणाणि । इगिवीस - जोयणाणि, गंतुणं इंदो चरिमो ॥६॥
यो २१ । रूण वंडा ४२५ । अर्थ-लोकशिखरके नीचे चारसौ पच्चीस ( ४२५ ) धनुष कम इक्कीस योजन प्रमाण बाकर अन्तिम इन्द्रक स्थित है ॥९॥
सेसा य एक्कसट्टो, एदाणं इंदयाण विच्चाले ।
सव्वे अणाइ-णिहणा, रयण - मया इंक्या होति ॥१०॥ अर्थ-शेष इकसठ इन्द्रक इन दोनों इन्द्रकों के बीचमें हैं । ये सब रत्नमय इन्द्रक विमान अनादि-निधन हैं ॥१०॥
एक्केक्क-इंदयस्स य, 'विच्चालमसंख-जोयणाण-पमा।
एदाणं णामाणि, वोच्छामो प्राणुपुवीए ॥११॥
अर्ष एक-एक इन्द्रकका अन्तराल असंख्यात योजन प्रमाण है । अब इनके नाम अनुकमसे कहते हैं ॥११॥
६३ इन्द्रक विमानोंके नाम--- उज्छु-विमल-चर-णामा, घग्गू वीरारुणा य गंदणया । पलिणं कंचण - रहिरं, 'चंचं मरदं च रिद्धिसयं ॥१२॥
धेलिय-श्चक-रुचिरक-फलिह-तवणीय-मेध-अम्भाई । हारिद्द - पउम - णामा, लोहिन - बज्जाभिहाणेणं ॥१३॥
१.द.व.क.ज. ठ. विच्चाले संखजोयणाण समा। २ द.ब.क.ज, ठ. चंदं मरद पदिसयं ।