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गाथा : ३२-३६ ] पंचमो महाह्यिारो
। २५१ तारानोंके नामोंके उपदेशका अभावसंपहि फाल-वसेरणं, तारा-णामारण णस्थि उबएसो।
एदाणं सन्वाणं, परमारगाणि पख्वेमो ॥३२॥
अर्थ-इस समय कालके वशसे तारानों के नामोंका उपदेश नहीं है। इन सबका प्रमाण कहता हूँ॥३२॥
समस्त तानोंका प्रमाण-- दुग-सत्त-चउक्काई, एक्कारस - ठाणएसु सुग्णाई । णव - सत्त - छद्दुगाई, अंकाण कमेण एदेणं ॥३३॥ संगुपियहि संसजसव - पचरंगलहि मजिदव्यो।। सेढी-वग्गो तत्तो, पण-सत्त - त्तिय - चउपकट्टा ॥३४॥ णन-अट्ठ-पंच-णव-दुग-अट्ठा-सत्तट्ठ-णह-चउक्कारिण । अंक - कमे गुणिदथ्यो, परिसंखा सम्व - ताराणं ॥३५॥
___ =४०८७८२९५८९८४३७५ ४ । ७ । २६७९०००००००००००४७२ ।
एवं संखा समत्ता ॥३॥ अर्थ-दो, सात, चार, ग्यारह स्थानोंमें शून्य, नौ, सात, छह और दो, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे गुरिणत संख्यातरूप प्रतरांगुलोंका जगच्छणीके वर्गमें भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसको पांच, सात, तीन, चार, आठ, नौ, आठ, पाँच, नौ, दो, पाठ, सात, आठ, शून्य और चार, इन अंकोंसे गुणा करनेपर समस्त ताराओंका प्रमाण [ { जगच्छणी ( संख्यात प्रतरांगुल ) x{ २६७९०००००००००००४७२) }x (४०८७८२९५८९८४३७५) ] होता है ।।३३-३५।।
___ इसप्रकार संध्याका कथन समाप्त हुना ॥३॥
- चन्द्र-मण्डलोंकी प्ररूपणागंतूणं सीदि - जुवं, अट्ठसया जोयणाणि चित्ताए। उरिम्मि मंडलाई, चंदाणं होति गयणम्मि ॥३६॥
। ८८० । प्रर्य-चित्रा पृथिवीसे पाठ सौ अस्सी ( ८८० ) योजन ऊपर जाकर आकाशमें चन्द्रोंके मण्डल ( विमान ) हैं ।।३६।।