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तिलोय पण्णत्ती
णाणाविह तुरेहिं णाणाविह महर - गीय- सद्देहि ।
ललियमय'- चचणेहि, सुर ायराइं विराजति ||४२३ ||
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अर्थ- देवोंके नगर नाना प्रकारके तुर्यो ( बादित्रों ), अनेक प्रकारके मधुर गीत-शब्दों और विलासमय नृत्योंसे विराजमान हैं ||४२३ ।।
द्वितीयादि वेदियोंका कथन
आदिम-पायारादो, तेरस लक्खाणि जोयणे गंतु ।
चेटु बि बिदिय वेवी, पढमा मिव सव्व णयरेसु ॥४२४ ॥
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१३००००० |
अर्थ- सब नगरों में आदिम प्राकार ( कोट ) से तेरह लाख ( १३००००० ) योजन जाकर प्रथम ( कोट ) के सदृश द्वितीय बेदी स्थित है ।। ४२४ ॥
[ गाथा : ४२३- ४२७
वेवीणं विचचाले, णिय-जिय-सामी- सरीर रक्खा य । चेट्ठति सपरिवारा, पासावेसु विचित्तेसु ।।४२५।।
बिदिय वेदी गदा ।
श्रयं वेदियों के अन्तराल में प्रद्भुत प्रासादों में सपरिवार अपने-अपने स्वामियोंके शरीररक्षक देव रहते हैं ।। ४३५॥
द्वितीय बेदी का कथन समाप्त हुआ ।
तेलट्ठी- लक्खा रंग, पण्णास सहस्स जोयणाणि तो ।
गंतॄण तक्ष्यि वेवी, पहमा मिव सव्य सायरेसु ॥४२६ ॥
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६३५००००।
अर्थ-- सब नगरोंमें इस (दूसरी वेदी) से आगे तिरेसठ लाख पचास हजार (६३५०००० ) योजन जाकर प्रथम ( कोट ) के सदृश तृतीय वेदी है ||४२६ ||
एदाणं विच्चाले तिप्परिमाणं सुरा विचित्तेसु ।
चेटूति मंदिरेसु णिय णिय परिवार संजुत्ता ||४२७ ॥
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दिय-वेदी गदा ।
१. द. ब. क. ज. द. अलिय । २. ६. का. ज. ठ. जोमणे गं दुध, ब. जोय दु व ।
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