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प्राभार
'लिलोयपण्णत्ती' जैसे वृहद्काय ग्रन्थ के प्रकाशन की योजना में हमें अनेक महानुभावों का प्रचुर प्रोत्साहन और सौहार्दपूर्ण सहयोग मिला है। माज तृतीय मोर अन्तिम खण्ड के प्रकाश नावसर पर उन मनका कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करना म२: गीतक बाधिक है।
सर्व प्रथम में परम पूज्य ( स्वर्गीय ) भाचार्य १०८ श्री धर्मसागरजी महाराज के पावन चरणों में अपनी विनीत थवाजलि अर्पित करता हूँ जिनके आशीरचन सदैब मेरे प्रेरणास्रोत रहे हैं। प्राज इस तीसरे खण्ड के प्रकारानावसर पर वे हमारे बीच नहीं है परन्तु उनकी सौम्यपि सदेव माशीर्वाद की मु॥ में मेरा सम्बल रही है। इस पुनीत मास्मा को बत-शत नमन ।
परम पूज्य आचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज का मैं प्रतिशयकता हूं जिनका वात्सल्यपरिपूर्ण परमहस्त सब मुझ पर रहता है । आपका असीम मनुग्रह ही मेरे द्वारा सम्पन्न होने वाले इन साहित्यिक कार्यों को मूल प्रेरणा है। आर्षमागं एवं श्रुत के संरक्षण को आपको बड़ी चिन्ता है । ८२-८३ बर्ष को अवस्था में भी आप निर्दोष मुनिचर्या का पालन करते हुए इन कार्यों के लिए एक पूवा को भांति सक्रिय और तत्पर हैं। मैं इस निस्पृह मारमा के पुनीत चरणों में अपना नमोस्तु निवेदन करता हुआ इनके दोघं एवं स्वस्थ जीवन की कामना करता हूं।
अभीपज्ञानोपयोगी स्वाध्यायशील परमपूज्य चतुर्थ पट्टाधीश माचार्य पूज्य अजितसागरजी महाराज के चरण कमलों में सादर नमन करता हुआ उनके स्वस्थ दोघं जीवन की कामना करता है।
प्रन्य की टोकाकी पूण्य धार्षिका १०५ श्री विशुद्धमतो माता को का मैं चिरकृतश हूं जिन्होंने मुझपर अनुकम्पा कर इस ग्रन्थ के सम्पादन का गुरुत्तर भार मुझे सौंपा। तीनों खण्डों के माध्यम से प्राध का जो नवीनरूप पन पड़ा है वह सब पूज्य माताजी की साधना, कष्ट सहिष्णुता, असीम धैर्य, त्याग-सप और निष्ठा का ही सुपरिणाम है । अग्ध को बोधगम्य बनाने के लिए माताजी ने जितना श्रम किया है उसे शब्दों में मौका नहीं जा सकता । यद्यपि प्रापका स्वास्थ्य अनुकूल नहीं रहता तथापि प्रापने कार्य में अनवरत संलग्न रह कर प्रस्तुत टीका को पित्रों, तालिकाओं पौर विशेषार्थ से समलंकृत कर सुनोष बनाया है। मैं यही कामना करता हूँ कि पूज्य माताजी का रत्नत्रय कुशल रहे भोर स्वास्थ्य भी अनुकूल बने ताकि भापकी यह थ त सेवा अबाधगति से चलती रहे । मैं आयिका श्री के चरणों में पातशः बन्यामि निवेदन करता हूँ।
अयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, असेय पं० पनालालमी साहित्याचार्य, सागर और प्रोफेसर लक्ष्मीचग्यजी अन, अबसपुर का भी आभारी हूं जिन्होंने प्रथम दो खण्ड़ों की भांति इस खण्ड के लिए मी पुरोवाक् और गणित विषयक लेख लिखकर भिजवाया है । 'जम्बूद्वीप के क्षेत्रों और पर्वतों के क्षेत्रफलों की गणना' शीर्षक एक विशेष लेख बिड़ला इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नालोजी, मेसरा ( रांधी ) के प्रोफेसर डा. राधाचरण गुप्त ने भिजवाया है। इस मेख में प्राचीन विधि से क्षेत्रफल निकाले गये हैं जो पूर्णतया ग्रन्थ ( द्वितीमखण्डः चतुर्थ अधिकार ) के मानों से मिल जाते है । मैं प्रोफेसर गुप्त का हृदय से प्राभारी हूँ।