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गाथा : ४१२-४१४ । सत्तमो महाहियारो
[ ३५५ अर्थ-सूर्य के बाह्य पथमें स्थित होनेपर चतुर्थवीथीमें तम-क्षेत्र चौरानबै हजार पांच सौ बयालीस योजन और दससे विभक्त तीन कला ( ९४५४२२ योजन ) प्रमाण रहता है ॥४११।। इसप्रकार मध्यम मार्गके आदिम पथ पर्यन्त ले जाना चाहिए।
मध्यम पथमें तम-क्षेत्रका प्रमाणपंचाणउवि-सहस्सा, बसुत्तरा जोयणाणि तिम्णि कला । पंच-हिदा मज्झ - पहे, तिमिरं 'बहि-पह-ठिये तवणे ॥४१२॥
एवं कुचरिम-मागं ति णेवव्वं ।
प्रयं-सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर मध्यम पथमें तिमिर-क्षेत्र पंचानबे हजार दस योजन और पांचसे भाजित तीन कला ( ९५०१०।३ योजन ) प्रमाण रहता है ।।४१२।। इसप्रकार द्विचरम मार्ग पर्यन्त ले जाना चाहिए।
सूर्यके बाह्य पथमें स्थित रहते बाह्य पथमें तम-क्षेत्रपंचाणउवि-सहस्सा, चउसय-चउगावि जोया अंसा । बाहिर-पह-तम-खेत्तं, विवायरे बाहि - रद्ध - ठिवे ॥४१३॥
९५४९४ । । प्र-सूर्यके बाह्य अध्व ( पथ ) में स्थित होनेपर बाह्य वीथी में तम-क्षेत्र पंचानबै हजार चार सौ चौरानबै योजन और एक भाग { ९५४९४१ । योजन ) प्रमाण रहता है ।।४१३।।
लवणोदधिके छठे भागमें तम-क्षेत्रका प्रमाण
तिय-एक्क-एक्क-अट्ठा, पंचेक्कंक-क्कमेण चउ-मंसा। बहि-पह-ठिव-दिवसयरे, लवणोदहि-छह-भाग-तमं ॥४१४॥
१५८११३ ।।
१ द.प. पिहिपहविदे ।