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तिलोयपण्णत्ती
आतप एवं सम क्षेत्रोंका स्वरूप
मंदरगिरि-मज्भादो, लवणोदहि-छट्ट-भाग-परियंतं । यिदायामा आदव तम खेरां सकट उद्धि-जिहा ॥ २६४॥
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अर्थ- मन्दरपर्वत के मध्य भागसे लेकर लवरणसमुद्रके ले भाग पर्यन्त नियमित आयाम - बाले गाड़ीकी उद्धि ( पहियेके श्रारे ) के सदृश श्रातप एवं तम क्षेत्र हैं ।। २६४।।
प्रत्येक प्रातप एवं तम क्षेत्रको लम्बाई-
तेसीबि - सहस्सारिंग, तिष्णि-सया जोयणाणि तेतीसं ।
स-ति-भागा पत्तेक्कं श्रादय तिमिराण श्रायामो ॥ २६५ ॥
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८३३३३ । १ ।
अर्थ- प्रत्येक आतप एवं तिमिर क्षेत्रकी लम्बाई तेरासी हजार तीनसौ तैंतीस योजन और एक योजनके तृतीय माग सहित है ।। २६५||
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[ गाया : २६४ - २६६
विशेषार्थ - मेरुके मध्यसे लवणसमुद्र के छठे भाग पर्यन्तका क्षेत्र सूर्यके आतप एवं तमसे प्रभावित होता है । लवणसमुद्रका अभ्यन्तर सूची - व्यास ५ लाख योजन है । इसमें ६ का भाग देनेपर ( ५००००० + ६ ) = ८३३३३३ योजन होता है। यही प्रत्येक श्रातप एवं तम क्षेत्रकी लम्बाईका प्रमाण है ॥
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प्रथम पथ स्थित सूर्यकी परिधियों में ताप क्षेत्र निकालने की विधि -
इट्ठ परिरय-रास, ति-गुणिय बस-भाजिदम्मि जं लखौं ।
सा घम्म खेत्त परिही, पठम पहायवे सूरे ॥ २६६ ॥
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है।
अर्थ- इच्छित परिधि राशिको तिगुना करके दसका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहनेपर उस ताप क्षेत्र की परिधिका प्रसारण होता है ।। २९६॥
विशेषार्थ-दो सूर्य मिलकर प्रत्येक परिधिको ६० मुहूर्त में पूरा करते हैं। सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहते सवं ( १६४ ) परिधियों में १८ मुहूर्तका दिन होता है । विवक्षित परिधि में १८ मुहतका गुणा करके ६० मुहूतौका माग देनेपर ताप व्याप्त क्षेत्रको परिधिका प्रमाण प्राप्त होता है । इसीलिए गाथा में ( 14 ) ३ का गुणाकर दसका भाग देने को कहा गया है ।
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