________________
५४८ ]
तिलोयपणात्ती
[ गाथा : ४३२-४३६
उपवन-प्ररूपणातप्परदो गंतणं, पण्णास - सहस्स - जोयणाणं च ।
होंति हु दिन्व-वाणि, इंद-पुराणं चउ - हिसासु॥४३२।। अर्थ-इसके आगे पचास हजार ६ ) गोगन गा इं. ना पारों दिशाओं में दिव्य वन हैं ।।४३२।।
पुव्वादिसु ते कमसो, असोय-सत्तच्छदाण वण-संडा ।
चंपय-चूवाण तहा, पउम - दह - सरिस - परिमाणा ॥४३३।। अर्ष-पूर्वादिक दिशाओं में वे क्रमशः अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र वृक्षोंके वनखण्ड हैं 11४३३।।
एक्केक्का चेत्त - तरू, तेसु असोयावि-णाम-संजता ।
णग्गोह-तरु-सरिच्छा, वर-चामर-छत्त-पहुदि-जुवा ॥४३४।। अर्थ-उन वनोंमें अशोकादि नामोंसे संयुक्त और उत्तम चमर-छत्रादिसे युक्त न्यग्रोधतरुके सदृश एक-एक चंत्य-वृक्ष है ।।४३४।।
पोक्खरणी-वाबीहि, मणिमय-भवणेहि' संजुदा विउला । सय्य-उड़-जोग्ग-पल्लव-कुसुम-फला भांति धरण - संडा ॥४३५॥
अर्थ-पुष्करिणी, वापियों एवं मणिमय भवनोंसे संयुक्त तथा सब ऋतुओंके योग्य पत्र, कुसुम एवं फलोंसे परिपूर्ण ( वे ) विपुल वन-खण्ड शोभायमान हैं ।।४३५।।
लोकपालोंके क्रीड़ा-नगरसंखेज्ज-जोयणाणि, पुह पुह गंतूण रांदण - वणादो।
सोहम्मावि - दिगिवारणं कोडण - णयराणि चेट्टति ॥४३६॥ अर्थ- नन्दन वनसे पृथक्-पृथक् संख्यात योजन जाकर सौधर्मादि इन्द्रोंके लोकपालोंके क्रीड़ा-नगर स्थित हैं ।।४३६॥
१.प. ब. क. ज. ठ. भरणेहिं ।