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गाथा : ५४४ ] अट्ठमो महाहियारो
[ ५७५ अर्थ-अब यहाँ तीस इन्द्रकोंमें स्थित देवोंकी आयुमें वृद्धिहानिका ( चय ) कहते हैं
यहाँ अर्ध (३) सागरोपम मुख और अढ़ाई (२३) सागरोपम ( ऋतु पटल की जघन्य और उत्कृष्टायु ) भूमि है। भूमि मेंसे मुखका प्रमाण घटाकर शेषमें उत्सेध ( एक कम गच्छ) का भाग देने पर एक सागरोपमका पन्द्रहवां भाग (१५ सागर) उपरिम वृद्धिका प्रमाण आता है।
विशेषार्थ-प्रथम युगल में समस्त पटल ( गच्छ ) ३१ हैं और उपर्युक्त जघन्य एवं उत्कृष्ट आयुका प्रमाण घातायुष्कको अपेक्षा है, अत: यहां वृद्धि हानि का प्रमाण
र सागर = ( सा0-2 सा० ): (३१-१ ) है।
एदमिच्छिर-पस्थड'-संखाए गुणिय मुहे पक्खित्ते विमलादोण तीसण्हं पत्थलाणमाउ-प्राणि होंदि । सेसिमेसा संविट्ठी1833333:। IFE :। ।३
।
। ।।। । । सा । अर्थ-इसे ( सा० को एक कम ) इच्छित पटलको संख्यासे गुणा कर मुखमें मिला देनेपर विमलादिक तीस पटलोंमें आयुका प्रमाण इसप्रकार निकलता है
विमल सा०= [ साox(२-१) ]+ सागर चन्द्र सा० - [* साox ( ३-१) J+ सागर
वल्गुन सा० - साox (४ - १)]+३ सा. इसीप्रकार वीर पटलमें 3 सा०, अरुण ३५, नन्दन , नलिन ३१, कंचन ,, रुधिर ३, चन्द्र पु, मरुत् ४. ऋद्धीश, वैडूर्य , रुचक १, रुचिर , अंक :, स्फटिक, तपनीय, मेघ, अन पु, हारिद्र, पद्यमाल
, लोहित, वन, नन्द्यावर्त , प्रभङ्कर 18, पिष्टक , गज, मित्र, और प्रभ१५ या सागरोपम ।
सणकुमार - माहिदे सत्त पस्थडा । एदेसिमाउ - पमाण - माणिज्जमाणे मुहमड्ढाइज्ज-सागरोवमाणि, भूमी 'साद्ध-सत्त-सागरोवमाणि सत्त उस्सेहो होदि । सि संविट्ठी
३। ।३। ।४। ।५। ।६। ।६।५।७।। सा।
१.प. ब. क. ज. ल. पंचद । २. द.न. क, ज. स. साद-सागरोवमाण ।