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तिलोयपण्णती
[ गाथा : ५८-६२ अर्थ-नन्दीश्वर द्वीपके बहुमध्यभागमें पूर्व-दिशाकी ओर अजनगिरि नामसे प्रसिद्ध, निर्मल, उत्तम-इन्द्रनीलमणिमय श्रेष्ठ पर्वत है ।। ५७ ।।
जोयण-सहस्स-गाढो, चुलसीवि-सहस्समेत्त-उच्छेहो । सन्वेस्सि घुलसीदी-सहस्स-रुदो अ सम-चट्टो ॥५॥
१००० । ८४००० । ८४००० ! अर्थ-यह पर्वत एक हजार ( १००० ) योजन गहरा, चौरासी हजार (८४०००) योजन ऊँचा और सब जगह चौरासी हजार ( ८४०००) योजन प्रमाण विस्तार युक्त समवृत्त है ।। ५८ ।।
मूलम्मि उवरिमतले, तह-वेदीसो विचित्त-वण-संडा ।
वर-वेदीलो तस्स य, पुन्योदित-यण्णा होति' ॥५६॥
अर्थ-उस ( अंजनगिरि ) के मूल एवं उपरिम-भागमें तट-वेदियों तथा अनुपम वन-खण्ड स्थित है। इसकी जान बेदियोका धन पूक्ति बेदियोंके ही सदृश है ।। ५९ ।।
चार द्रहोंका कथन चउसु दिसा-भागेसु, चत्तारि दहा हवंति तग्गिरिणो । पत्तेक्कमेक्क-जोयण-लक्ख-पमाणा य चउरस्सा ॥६०॥
१०००००। अर्थ-उस पर्वतके चारों ओर चार दिशाओंमें चौकोण चार द्रह हैं। इनमें से प्रत्येक द्रह एक लाख ( १००००० ) योजन विस्तार वाला एवं चतुष्कोण है । ६० ।।
जोयण-सहस्स-गाढा, कुविकपणा य जलयर-विमुक्का । फुल्लंत कमल-कुवलय-कुमुव - करणा - मोद - सोहिल्ला ॥६॥
प्रथ-फूले हुए कमल, कुवलय और कुमुदवनोंकी सुगन्धसे सुशोभित ये इह एक हजार (१०००) योजन गहरे, टंकोत्कीर्ण एवं जलचर जीवोंसे रहित हैं ।। ६१ ।।
पूर्व दिशागत-वापिकानोंका प्ररूपरण णंदा - रदबदीओ, गंदुत्तर - विघोस - णामा य । एदामो वावीमो, पुवादि - पदाहिण - कमेणं ॥२॥
१. द. ब. क. ७. होदि।