________________
३७६ ]
तिलोयपत्ती
[ गाथा : ४७२-४७५
जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम नक्षत्रोंके नाम तथा इन तीनोंके
गगन-खण्डोंका प्रमाण
अवरामो जेट्ठद्दा, सदभिस-भरणीनो सादि-असिलेस्सा। होति वरात्री पुणव्यस्सु ति-उत्तरा रोहणि-विसाहाओ॥४७२॥ सेसाओ मज्झिमानो, जहण्ण-भे पंच-उत्तर-सहस्सं । तं चिय दुगुणं तिगुणं, मज्झिम-वर-भेसु णभ-खण्डा ॥४७३।।
१००५ । २०१० । ३०१५ । अर्थ-ज्येष्ठा, पार्दा, शतभिषक, भरणी, स्वाति और पाश्लेषा, ये बह जघन्य; पुनर्वसु, तीन उत्तरा ( उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उत्तरा भाद्रपद ), रोहिणी गौर विशाखा ये उत्कृष्ट; एवं शेष ( अश्विनी, कृत्तिका, मृगशीर्षा, पुष्य, मघा, हस्त, चित्रा, अनुराधा, पूर्वा फा०, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वा भाद्रपद, मूल, श्रवण, धनिष्ठा और रेवती ये ) नक्षत्र मध्यम हैं। इनमेंसे (प्रत्येक ) जघन्य नक्षत्रके एक हजार पाँच ( १००५), (प्रत्येक ) मध्यम नक्षत्रके इससे दुगुने ( १००५४२ २०१० ) और प्रत्येक उत्कृष्ट नक्षत्रके इससे तिगुने ( १००५४ ३ = ३०१५ ) गगनखण्ड होते हैं ॥४७२-४७३।।
अभिजित् नक्षत्रके गगनखण्डअभिजिस्स छस्सयाणि, तीस-जुवाणि हवंति पाभ-खंडा । एवं णक्खचाणं, सीम · विभागं वियाणेहि ॥४७४॥
६३० । अर्ष-अभिजित् नक्षत्रके छह सौ तीस ( ६३०) गगनखण्ड होते हैं। इसप्रकार नभखण्डोंसे इन नक्षत्रोंकी सीमाका विभाग जानना चाहिए ।।४७४।।
एक मुहूर्तके गगनखण्डपत्तक्क रिक्वाणि, सब्याणि मुहुत्तमेत - कालेणं । लंघति गयणखंडे, पणतीसत्तारस - सयाणि ॥४७५।।
१८३५। प्रर्ष-( सब नक्षत्रों से ) प्रत्येक नक्षत्र एक मुहूतं कालमें अठारह सौ पैंतीस (१८३५) गगनखण्ड लांघता है ।।४७५।।