________________
[ १७ ] कार्यक्षेत्र-उदयपुर नगर के मध्य मण्डी की नाल स्थित १००८ श्री पार्वताय दि० जेन गण्डेलवाल मन्दिर में रहकर इस खण्डका अधिकांश भाग लिया गया था। शेष कार्य १३१२।१९८६ को सलुम्बर में पूर्ण हुआ।
सम्बल-वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी, छोरोपसर्ग विजेता, जगत् के निर्धाज बन्धु १००८ श्री पार्श्वनाथ तीर्थकर देव को चरण रज एवं हृदयस्थित अनुपम जिनेन्द्रभक्ति, आप्त-उपदिष्ट दिव्य वचनों के प्रति अगाधनिष्ठा और प्राचार्य कुन्दकुन्द देव की परम्परा में होने वाले २० वी शताब्दी के भाद्यगुरु समाधिसम्राट चारित्रचक्रवर्ती बाल ब्रह्मचारी प्राचार्य १०८ श्री शान्तिसागरजी महाराज के प्रथम शिष्य नाम दानारी महापोहाना १०८ श्री वीरसागरणी महाराज के प्रथमशिष्य बालब्रह्मचारी पट्टाधीशाचार्य वीक्षा गुरु १०८ श्री शिवसागरणी महाराज, उनके पट्ट पर आरूढ़ मिथ्यात्वरूपी कर्दम से निकालकर सम्यक्त्वरूपी स्वच्छ जल में स्नान कराने वाले परमोपकारी बालब्रह्मचारी पट्टाधीशाचायं १०८ श्री धर्मसागरजी महाराज, प्रभीषणज्ञानोपयोगी, विद्यारसिक, ज्ञानपिपासु, बालब्रह्मचारी विद्यागुरु पट्टाधीशाचार्य १०८ श्री प्रमितसागरजी महाराज, परम श्रद्धेय अनुभववृद्ध, शिक्षागुरु आचार्य कल्प १०८ श्री वृत्तसागरजी महाराज और ग्रन्थ लेखन के लिए असीम भाशीर्वाद प्रदाता १०८ श्री सम्मतिसागरजी बादि सभी आचार्य एवं साधु परमेष्ठियों का शुभाशीर्वाद रूप वरद हस्त ही मेरा सबल सम्बल रहा है। क्योंकि जैसे अन्धा व्यक्ति लकड़ी के आधार बिना चल नहीं सकता से ही देव, शास्त्र और गुरु की भक्ति बिना मैं भी यह महान कार्य नहीं कर सकती थी। ऐसे तारण-तरण देय, शास्त्र गुरु को मेरा हादिक कोटिशः त्रिकाल नमोऽस्तु ! नमोऽस्तु !! नमोस्तु !!!
सहयोग-सम्पायक श्री चेतनप्रकाराणी पाटनी सौम्य मुद्रा, सरल हृदय, संयमित जीवन, मधुर किन्तु सुस्पष्ट भाषा भाषी, विद्वान् और समीचीन जान भण्डार के धनी हैं। आधि और व्याधि तथा म्याधि सदृश उपाधिरूपी रोग से भाप अनिश अपना बचाव करते रहते हैं। निर्लोभ वृत्ति आपके जीवन की सबसे महान् विशेषता है । हिन्दी भाषा पर आपका विशिष्ट अधिकार है। आपके द्वारा किये हुए यथोचित संशोधन, परिवर्तन एवं परिवर्धनों से ग्रंथ को विशेष सौष्ठव प्राप्त हुआ है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म अर्थ प्रादि को पकड़ने की तत्परता प्रापको पूर्व-पुण्य योग से सहज ही उपलब्ध है। सम्पादन कार्य के अतिरिक्त भी समय-समय पर प्रापका बहुत सहयोग प्राप्त होता रहता है ।
प्रो० श्री लक्ष्मीचन्द्रको जन जबलपुर ने पंचम महाधिकार में उन्नीस विकल्पों द्वारा द्वीपसमुद्रों के अल्पबहुत्व सम्बन्धी गणित को एवं तिर्यंचों के प्रमाण सम्बन्धी गणित को स्पष्ट कर, गरिगत की दृष्टि से सम्पूर्ण ग्रंथ का अवलोकन कर तथा गणित सम्बन्धी प्रस्तावना लिखकर सराहनीय सहयोग दिया है।