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* गा० २४६ में आनत आदि चारों इन्दों के अनीकों का प्रमाण कहा जाना चाहिए पा किंतु मानत-प्राणत इन्द्रों के अनीकों का प्रमाण न कहकर 'पारण-इंदादि-दुर्गे द्वारा आरण-अच्युत इन दो इन्द्रों के प्रतीकों काही प्रमाण कहा गया है । क्यों ?
* गा० २१५ में वैमानिक देव सम्बन्धी प्रत्येक इन्द्र के प्रतीन्द्रादि दस प्रकार के परिवार देव कहे हैं और गा० २८६ में प्रतीन्द्र, सामानिक और शायस्त्रिश घेवों में से प्रत्येक के दस-दस प्रकार के परिवार देव अपने-अपने इन्द्र सदृश ही कहे हैं? यह कैस सम्भव है ?
* गा० २८७ से २९६ तक सभी इन्द्रों के सभी लोकपालों के सामन्त, प्राभ्यन्तर, माध्यम और बाह्य पारिषद, अनीक, आभियोग्य, प्रकीर्णक और किल्विषिक परिवार देवों का प्रमाण कहा गया है।
* इन्द्रों के निवास स्थानों का निर्देश करते हुए गा० ३४१ से ३४८ तक कितने इन्द्रकों एवं श्रेणीबद्धों में से कौन से नम्बर के श्रेणीबद्ध में इन्द्र रहता है यह कहा गया है किन्तु गा० ३४९
३५० में इन्द्रकों तथा श्रेणीबद्धों की कुल संख्या निर्दिष्ट न करके मात्र जिद्दिट्ट' ( जिनेन्द्र द्वारा . देखे गये नाम वाले ) पद कहकर स्मान बताया गया है ।
* गा० ४१० में सुधर्मा सभा की ऊंचाई ३००० कोस कही गई है। जो विचारणीय है क्योंकि अकृत्रिम मापों में ऊँमाई का प्रमाण प्रायः लम्बाई घोड़ाई होता है। अर्थात ल. ४०० + चौ० २००_..
"= ३०० कोस होनी चाहिए। * गा० ५४८ में लान्तव कल्पके धनीक देवों के विरह काल का प्रमाण छूट गया है।
* गा० ५६८, ५७५ और ५७६ का ताडपत्र खण्डित होने से इन गाथाओं का अर्थ विचारणीय है।
* गा० ६२२ से ६३६ अर्थात् १४ गाथाओं का यथार्थ भाव बुद्धिगत नहीं हुआ। * गा० ६८१ का विशेषार्थ और नोट विशेष रूप से द्रष्टव्य और विचारणीय हैं । * गा० ६५२ से ६८५ का विषय भी स्पष्ट रूप से बुद्धिगत नहीं हुआ।
र ९४०४७४०८१५६२५ योजन कहा गया प्रभारण धन मखम महाधिकार-गा. ४ में १४०४७४०८१५६२५ योजन - योजनों में है किन्तु गाथा में केवल योजन कहे गये हैं।