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________________ तिलोयपती [ गाया | २५१-२५३ विशेषार्थ- दो क्षेत्रों और नागगिरि एवं नलिनकुटकी परिधि पूर्व परिधिमें मिला देनेपर उपर्युक्त परिधि प्राप्त होती है। यथा - २०९७०४ + १७१५७ - २२६८६२ यो० । खड्गा और अपराजिताको परिधि ३०६ ] अढ चउ-छक्क एक्का, चउ-दुग- अंक-धकमेण जोयणया । एक्क-कला वग्गार जिवाण णयरी मज्भ-परिहो सा ।। २५१ ॥ २४१६४८ । 2 । अर्थ – खड्गा और अपराजिता नगरियोंके मध्य उस परिधिका प्रमाण आठ, चार, ग्रह, एक, चार और दो, इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् २४१६४८ योजन और एक कला है ।। २५१ ।। विशेषार्थ - दो क्षेत्र और ग्राह्वती एवं फेनमालिनी इन दो विभंगा नदियोंकी परिधि पूर्व परिधि में मिला देनेपर ( २२६६६२३ + १४७८६ ) २४१६४८६ योजन परिधि प्राप्त 11= होती है । मंजूषा और जयन्ता पर्यन्त परिधि प्रमाण - पंच-गयण अट्ठा, पंच दुर्गक ककमेण जोयणमा । सप्त कलाओ मंजुस जयंतपुर- मज्झ-परिही सा ॥ २५२ ॥ ✔ २५८८०५ । । अर्थ- मंजूषा और जयन्तपुरोंके मध्य में परिधि पाँच, शून्य, आठ, आठ, अंकों के क्रमसे अर्थात् २५८८०५ योजन और सात कला प्रमाण है ।।२५२ ॥ पाँच और दो, इन विशेषार्थ - दो क्षेत्रों और पद्मकूट एवं सूर्यगिरि वक्षार पर्वतोंकी परिधि, पूर्व प्रमाण में मिला देनेपर उपर्युक्त क्षेत्रोंकी ( २४१६४५३ + १७१५७ यो० } = २५८८०५१ योजन परिधि प्राप्त होती है । श्रौषधिपुर और वैजयन्तीको परिधि - एक्कणव पंच-तिय-सत्त दुगा अंक- वकमेण जोषणया । सत्त कलाश्री परिही, श्रोसहिपुर बद्दजयंताणं ॥ २५३॥ - २७३५९१ । १ । अर्थ - औषधि और वैजयन्ती नगरीकी परिधि एक, नी, पाँच, तीन, सात और दो, इन अंकों क्रमसे अर्थात् २७३५२१ योजन और सात कला प्रमाण है ।। २५३ ।।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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