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________________ ७२ ] तिलोयपत्ती [ गाथा : २५३ पुणो तिदय-हिंद तिण्णि-लक्ख-पण्णास-सहस्स-जोयणाणि अब्भयिं होवि- ४२ घणजोयणारिण ३५०,०००। अर्थ – उसका अन्तिम विकल्प कहते हैं - स्वयम्भूरमण-समुद्रके अधस्तन सम्पूर्ण समुद्रों के एक दिशा सम्बन्धी विस्तार-समूहकी अपेक्षा स्वयम्भूरमणसमुद्र के एक दिशा-सम्बन्धी विस्तारमें छहरूपोंसे भाजित एक राजू और तीनसे भाजित तीन लाख पचास हजार योजन अधिक वृद्धि हुई है। इसकी स्थापना ( ३ या राजू )+ ३१०४०० योजन । विशेषार्थ-स्वयम्भूरमण समुद्रके पहलेके सभी समुद्रोंके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारसमूहकी अपेक्षा अन्तिम समुद्र के एक दिशा सम्बन्धी विस्तारमें है राजू + ३५०००० योजनोंकी वृद्धि होती है । तध्वड्डी-आणयण-हेदुमिमं गाहा-सुत्त अड-लक्ख-हीण-इच्छिय-वासं बारसहि भजिदे लद्ध। सोहसु ति-चरण-भागेणाहर वासम्मि तं हवे बड्डी ॥२५३॥ अर्थ-इस वृद्धिको प्राप्त करने हेतु यह गाथा-सूत्र कहते हैं-इच्छित समुद्रके विस्तारमेंसे पाठ लाख कम करके शेषमें बारहका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे विस्तारके तीन चतुर्थ भागों से घटा देनेपर जो अवशिष्ट रहे उतनी विवक्षितसमुद्र के विस्तारमें वृद्धि होती है ॥२५३।। विशेषार्थ-गाथानुसार सूत्र इसप्रकार हैवरिणत वृद्धि = x ( इष्ट समुद्रका व्यास ) - (उसका व्यास - ८००००० यो०) उदाहरण-मानलो-इष्ट समुद्र वारुणीवरसमुद्र है । इसका विस्तार १२८ लाख योजन है । तदनुसार उसमेंवरिणत वृद्धि- x ( १२८००००० यो०) - (234००४-०22 यो०) __-९६००००० यो० - १००००००-५६००००० योजन वृद्धि । स्वयम्भूरमरणसमुद्रके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारका प्रमाण अग० + ७५००० यो० है । अतः इसकीवणित वृद्धि = ३ x [जगच्छणी +७५००० यो०]-[जग: +७५०००-८००००० यो ] - जगच्छ्रणी - जग+१४७५०००-७५२१+ १९५० = ९ जगः- १ जग० + 24gee ( ३-3 )+२agga - र
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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