________________
२०६ ]
तिलोयपण्णत्ती
[ माथा : ३२१-३२२ अर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे तीन जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तदनन्तर अवगाहनाके संख्यात-गुग्गी प्राप्त होने तक चलता रहता है । तब दोइन्द्रिय(९४) निति-पर्याप्तककी उत्कुष्ट अवगाहना होती है। यह कहाँ होती है ? इसप्रकार कहनेपर उत्तर देते हैं कि स्वयम्प्रभाचलके बाह्य भागमें स्थित क्षेत्रमें उत्पन्न किसो दोइन्द्रिय (शंख) की उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है । वह कितने प्रमाण है ? ऐसा कहनेपर उत्तर देते हैं कि बारह योजन लम्बे और चार योजन मुखवाले { शंखका ) क्षेत्रफल
व्यासं' तावत् कृत्वा, बदन-दलोनं मुखार्ध-वर्ग-युतम् ।
द्विगुणं चयिभक्तं, सनाभिकेऽस्मिन् गणितमाहुः ॥३२१ । एवेण सुत्तेण खेत्तफलमाणिदे 'तेहत्तरि-उस्सेह-जोयणाणि हवंति ॥७३॥
अर्थ-विस्तारको उतनी बार करके अर्थात् बिस्तारको विस्तारसे गुणा करनेपर जो राश्चि प्राप्त हो उसमेंसे मुखके आधे प्रमाणको कम करके शेषमें मुखके आधे प्रमाणके वर्गको जोड देनेपर जो प्रमाण प्राप्त हो उसे दुना करके चारका भाग देने पर जो लब्ध आचे उसे शंखक्षेत्रका गणित कहते हैं ॥३२१।।
इस सूत्रसे क्षेत्रफलके लानेपर तिहत्तर (७३) उत्सेध वर्ग योजन होते हैं ।
विशेषार्थ--शंखका पायाम १२ योजन और मुख ४ यो० प्रमाण है । क्षेत्रफल प्राप्त करने हेतु गाथानुसार सूत्र इसप्रकार है
_२x[ (आयाम x आ.)-(मुख व्यास ) + (अर्ध मुख ध्यास')]
Mah
यथा
शंखका क्षेत्रफल = २४ [ (१२४ १२) – (४+ २) + (२४२) ] -२ [ १४४-२+४ ] »७३ वर्ग योजन ।
शंखका बाहल्यआयामे मुह-सोहिय, पुणरवि आयाम-सहिद-मुह-भजियं । बाहन्लं णायचं, संखायारट्टिए खेत्ते ॥३२२।।
-
-
-
- - १. यह प्रलोक संस्कृतमें है किन्तु इस पर भी माथा नं. दिया गया है। २ द. ब. तेहसर।