________________
२६८ ]
तिलोयपणाती
।:२२६-२२९
मेरुस साथियों का अन्तर प्राप्त करनेका विधानपढम-पहादो रविणो, बाहिर-मग्गम्मि गमण-कालम्मि ।
पति- मग - मेत्तियं खिव - विच्चालं मंदरकाणं ॥२२६।।
अर्थ--सूर्यके प्रथम पथसे ( द्वितीयादि ) बाह्य वीथियोंकी अोर जाते समय प्रत्येक मार्ग ( की परिधि के प्रमाण ) में इतना ( यो० ) मिलाते जाने पर मेरु और सूर्य के बीचका अन्तर प्राप्त होता है ।।२२६॥
अहवा
रूऊणं इ8 - पहं, पह-सूचि-चएण गुणिय मेलज्ज ।
तवणादिम-पह-मंदर-विच्चाले होदि इट्ठ - विच्चालं ॥२२७॥
अथवा, एक कम इष्ट पथको पथ सूची चयसे गुणा करके प्राप्त प्रमाणको सूर्यके आदि ( प्रथम ) पथ और मेरुके बीच जो अन्तराल है उसमें मिला देनेपर इष्ट अन्तरालका प्रमाण होता है ।।२२७।।
विशेषापं यथा-मेरुसे पाँचवें पथका अन्तराल प्राप्त करने के लिए--
इष्ट पथ ५ - १ =४; ( पथसूचीचय ) x ४ = १०- ११४५४४८२० + ११४५- ४४८३११६ योजन अन्तर मेरुसे पांचवीं वीथीका है।
प्रथमादि पथों में मेरुसे सूर्यका अन्तरचउबाल-सहस्साणि, अट्ठ-सया जोयणाणि बोसं पि । एवं पढम-पह-द्विव-दिरणयर - कणयदि - विच्चालं ॥२२॥
४४८२० अर्थ-प्रथम पथमें सूर्य और मेरुके बीच चवालीस हजार आठ सौ बीस (४४८२०) योजन प्रमाण अन्तराल है ।।२२८।।
चउबाल-सहस्सा अड-सयाणि बावीस भाणुबिब-जुवा। जोयणया विश्यि-पहे, तिच्वंसु सुमेरु - विघालं ॥२२६॥
४४८२२ । । अर्थ-द्वितीय पथमें सूर्य और मेरुके बीच सूर्यबिम्ब सहित चवालीस हजार आठ सौ बाईस ( ४४८२२६) योजन-प्रमाण अन्तराल है ॥२२९॥
१. द. ४४८२२। ब. ४४०२२। ४८.