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________________ ८० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २५९ रज्जू पुणो तिय-हिद-पंच-लक्ख-सत्ततीस-सहस्स-पंच-सय ओयणेहि अन्भहियं होदि। तस्स ठवणा ७ । २४ धण जोयणाणि ५३४००० । अर्थ- इनमेंसे अन्तिम विकल्प कहते हैं-स्वयम्भूरमण-द्वीपसे अधस्तन सम्पूर्ण द्वीपोंके दोनों दिशाओं-सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा स्वयम्भरमणद्वीपके एक दिशा-सम्बन्धी विस्तारमें चौबीससे भाजित एक राजू और तीनसे भाजित पाँच लाख सैंतीस हजार पाँचसो योजन अधिक वृद्धि हुई है। उसकी स्थापना इसप्रकार है-राजू + १७५०० यो । तम्खड्ढोणं आणयणटुंगाहा-सुसं सग-सग-वास-पमाण, लक्खूणं तिय-हिवं तु-लक्ख-जुवं । अहया पण-लवस्त्राहिय-बास-ति-भागं तु परिबड्डी ॥२५६।। अर्प-उन वृद्धियोंको प्राप्त करने हेतु गाथा-सूत्र एक लाख कम अपने-अपने विस्तार-प्रमाणमें तीनका भाग देकर दो लाख और मिलानेपर उस वृद्धिका प्रमाण होता है । अथवा पाँच लाख अधिक विस्तारमें तीनका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना उक्त वृद्धिका प्रमाण होता है ।। २५९ ।। विशेषार्थ-गाथानुसार सूत्र इसप्रकार हैवणितवृद्धि विस्तार – १००००० + २००००० यो । अथवा विस्तार + ५००००० यो० उदाहरण-मानलो-इष्ट-द्वीप पुष्करवर है । तदनुसारवर्णित्तवृद्धि = १६००००० - १००००० +२००००० यो० । -७००००० योजन वृद्धि। अथवा, वरिणतवृद्धि ... १६०००००+ ५००००० (द्वितीय सूत्रसे) =५००००० योजन वृद्धि ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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