SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : ३२० तदुवरि णत्थि सहमणिगोद-लद्धि प्रपज्ज रायस्स ओगाहरण-वियप्पं, सक्क सोगाहणं पत्तत्तादो । तदुर्बार हम बाउकाइय-लद्धि अपज्जलय- प्पहृदि सोलसहं जोवाणं मज्झिमोगाहण- बियप्पं बच्चदि, तप्पाश्रोग्ग-असंखेज्ज -पदेस पूरण-पंचेदिय-लद्धिअपज्जत्त- महष्णोगाहरणा रूऊणावलियाए असंखेज्जदि-भागेण गुणिधमेत्तं तदुवरि बढिदो सि। तावे सुहुम- णिगोद- निव्वत्ति- पज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा दीसइ ॥ १८४ ] अर्थ - इसके ऊपर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तककी अवगाहनाका विकल्प नहीं रहता, क्योंकि वह उत्कृष्ट अवगाहनाको प्राप्त हो चुका है, इसलिए इसके आगे सूक्ष्मदायुकायिक- लब्ध्यपर्याप्तकको आदि लेकर उक्त सोलह जीवोंकी ही मध्यम अवगाहनाका विकल्प चलता है। जब इसके योग्य प्रसंख्यात प्रदेश कम पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य मवगाहना एक कम आवलीके प्रसंख्यातवें भाग से गुणितमात्र ( इस ) के ऊपर वृद्धिको प्राप्त होती है, तब सुक्ष्मनिगोद (१९) निवृत्ति पर्याप्तककी जघन्य अवगाना दिखती है ।। तो पहुदि पदेसुत्तर- कमेण सत्तरसहं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बढवि तबणंतरोगाहणावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेग भागमेतं तदुवरि बडिवो ति । तादे सुम - निगोव-निव्वत्ति अपज्जत्रायस्स उक्कस्सोगाहणा वीसइ || श्रये - फिर यहाँसे आगे प्रदेशोत्तर क्रमसे तदनन्तर अवगाहनाके प्रावलीके असंख्यात भागसे खण्डित एक भागमात्र ( इस ) के ऊपर बढ़ जाने तक उक्त सत्तरह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प बढ़ता जाता है, तब सूक्ष्मनिगोद ( २० ) निर्वृत्यपर्याप्तक्की उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ॥ तदो जबरि णत्थि तस्स ओगाहरण- वियप्पा । तं कस्स होदि ? से काले पज्जती होदि ति बिस्स । तदो पहूदि पदेसुत्तर- कमेण सोलसण्हं मज्झिमोनाहावियप्पं वदि जाव इमा ओगाहणा आवलियाए श्रसंखेज्जवि भागेर खंडिवेग-खंड मे तबुवरि वडियो त्ति । तावे सहुम- णिगोव- गिब्बत्ति - पज्जत्तयस्स ओगाहण - बियप्पं थक्कवि, सव्य-उथकस्सोग्गहण ँ-पत्रात्तादो । तदो पवेसुत्तर - कमेण पण्णारसहं मज्झिमोगाहणविष्पं वच्चदि तपाओग असंखेज्ज-पवेसं वढिदो शि । तावे सुहुम-वाउफाइय- णिव्वणि अपज्जशयस्स सभ्य जहणोगाहणा दीसइ ॥ १. द. ब. क. ज. दि २. द. व. क. ज. पत्तं तादो । ३. ६. ब. गाणं पत्तं तो
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy