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२४ ] तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ८२-८६ गंदीसर-विदिसासु, अंजण-सेला हवंति चत्तारि । रहकर - माण' - सरिच्छा, केई एवं पवेति ॥२॥
पाठान्तरम् । अर्थ-नन्दीश्वरद्वीपको विदिशाओं में रतिकर पर्वतोंके सदृश परिमाणवाले चार अञ्जनशल हैं । इसप्रकार भी कोई आचार्य निरूपण करते हैं ।। ६२ ।।
पाठान्तर ।
नन्दीश्वर द्वीप में विशिष्ट पुनमले समणका निर्धारण यरिसे-वरिसे चउ-बिह-देवा गंदीसरम्मि दीवम्मि ।
प्रासाढ - कत्तिएसु, फग्गुण - मासे समायंति ॥३॥
अर्थ- चारों प्रकारके देव नन्दीश्वर द्वीपमें प्रत्येक वर्ष आषाढ़, कातिक और फाल्गुन मासमें पाते हैं ।। ८३।।
नन्दीश्वरद्वीपमें सौधर्म प्रादि १६ इन्द्रोंका पूजनके लिए प्रागमन एरावणमारूढो, विव्य - विमूढोए भूसियो रम्मो ।
णालियर - पुण्ण - पाणी, सोहम्मो एदि भत्तीए ।।४।।
अर्थ- इससमय ऐरावत हाथीपर आरूढ़ और दिव्य विभूतिसे विभूषित, रमणीय सौधर्म इन्द्र हाथमें पवित्र नारियल लिए हुए भक्तिसे यहाँ आता है ।। ८४ ॥
बर - वारणमारूढो, बर रयण-विभूषणेहि सोहंतो।
पूग - फल - गोच्छ - हत्थो, ईसाणिदो वि भतीए ॥१५॥
अर्थ- उत्तम हाथीपर आरूढ़ और उत्कृष्ट रत्न-विभूषणोंसे सुशोभित ईशान इन्द्र भी हाथमें सुपारी फलोंके गुच्छे लिये हुए भक्तिसे यहाँ आता है ।। ८५ ।।
वर-केसरिमारूढों, एव-रवि-सारिएछ-कुडलाभरणो।
धूद-फल-गोच्छ-हत्थो, सणवकुमारो वि भत्ति - जुशे ॥८६॥
प्रर्थ उत्तम सिंहपर चढ़कर, नवीन सूर्य के सदृश कुण्डलोंसे विभूषित और हाथमें आम्रफलोंके गुच्छे लिये हुए सनत्कुमार इन्द्र भी भक्तिसे युक्त होता हुआ यहाँ आता है ।। ८६ ॥
१. द. ब. क. ज. साम । २. द. ज. केसर ।