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________________ ४०४ 1 तिलोयपण्णत्ती गाथा : ५६४-५६७ मर्थ --पुष्करार्धद्वीपमें यह अन्तराल शून्य और चार स्थानोंमें एक, इन अंकोंके क्रमसे ग्यारह हजार एक सौ दस योजन और पाँचसो उनचाससे भाजित तीन सौ अट्ठावन कला प्रमाण है ।।५६३॥ विशेषार्थ-(७२’ ६१ )x २८-३११ ( 40072° )-(824)७२= x x = " =११११० योजन अन्तराल। एवाणि अंतराणि, पढम - पह - संठिवाण चंवारणं । विदियादीण पहाणं, अह्यिा अभंतरे बहिं ऊणा ॥५६४।। प्रर्य--प्रथम पथमें स्थित चन्द्रोंके ये उपयुक्त अन्तर अभ्यन्तरमें द्वितीयादिक पथोंसे अधिक और बाह्य में उनसे रहित हैं ।।५६४।। दो चन्द्रोंका पारस्परिक अन्तर प्राप्त करनेकी विधिलवरणावि-घउपकाणं, वास-पमाणम्मि रिणय-ससि-दलारणं । बिबाणि फेलित्ता, तसो णिय - चंद - संख - अद्धणं ॥५६५।। भजिदूर्ण जं लख', तं पत्तक्क ससीण विच्चालं । एवं सम्व . पहाणं, अंतरमेवम्मि णिट्ठि ।।५६६॥ अर्थ-लवरणसमुद्रादिक चारोंके विस्तार प्रमाणमेंसे अपने-अपने चन्द्रोंके प्रधं बिम्बोंको घटाकर शेषमें निज चन्द्र-संख्याके अर्धभागका भाग देनपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना प्रत्येक चन्द्रका अन्तराल प्रमाण होता है। इसप्रकार यहापर सब पथोंका अन्तराल निर्दिष्ट किया गया है ॥५६५-५६६।। लवरण समुद्रगत चन्द्रोंका अन्तराल प्रमाणणयणदि-सहस्सा णय-सय-णवणउदि जोयणा य पंच कला। लवणसमुद्दे बोण्हंतुसारकिरणाण विच्चालं ॥५६७।। अर्थ- लवरणसमुद्र में दो चन्द्रोंके बीच निन्यानवै हजार नौ सौ निन्यानबै योजन और पांच कला अधिक अन्तराल है ॥५६७।। विशेषार्थ-ल. समुद्रका विस्तार दो लाख योजन, चन्द्र संख्या चार और इन चारोंका बिम्ब विस्तार (17x४)=२१ योजन है। समुद्र विस्तारमेंसे अर्ध चन्द्रबिम्बोंका विस्तार
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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