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गाथा : ५६६-५७२ ]
म महाहियारो
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अर्थ - इसप्रकार देवोंके शरीरका यह उत्सेध स्वभावसे उत्पन्न होता है । उनका विक्रियासे उत्पन्न शरीरका उत्सेध नाना प्रकार मोलायमान होता है ।
हैं ।। ५६६ ।।
इसप्रकार उत्सेधका कथन समाप्त हुआ ।। १२ ।। देवायु- बन्धक परिणाम -
प्राउन - बंधण - काले, जलराई तह य
सरिसा हलिंदराए, कोपह प्यहुवीण उदयस्मि ॥ ५६८ ॥
नोट - ताडपत्र खण्डित होने से गाथा का अभिप्राय बोधगम्य नहीं है ।
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एवं वह परिणामा, मणुवा- तिरिया य तेसु कप्पेसु । णिय जिय जोगत्थारणे, ताहे बंधंति देवाऊ ||५६६ ।।
अर्थ - इस प्रकार के परिणामवाले मनुष्य और तिथंच उन-उन करूपों की देवायु बाँधते
सम-दम अमरियम- जुवा, पिडा णिम्ममा गिरारंभा । ते बंधते भाऊ, इंदादि महद्धियादि - पंचाणं ॥ ५७० ॥
अर्थ - जो शम ( कषायों का शमन ), दम ( इन्द्रियों का दमन ), यम ( जीवन पर्यन्त का त्याग ) और नियम यादि से युक्त, दिण्ड अर्थात् मन, वचन और काय को वश में रखने वाले, निर्ममत्व परिणाम वाले तथा आरम्भ आदि से रहित होते हैं वे साधु इन्द्र आदि की आयु अथवा पाँच अनुत्तरों में ले जाने वाली महद्धिक देवों की श्रायु बाँधते हैं ।। ५७० ||
सष्णाण तवेहि-जुदा, मद्दव - विणयादि संजुदा केई । गारव - लि-सल्ल - रहिदा, गंधंति महद्धिग-सुराउं ॥ ५७१ ॥ अर्थ
सम्पन्न, तीन
- सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् तप से युक्त, मादंव और विनय आदि गुणों ( ऋद्धि-गारव, रस- गारव और सात ) गारव तथा तीन ( मिथ्या, माया और निदान ) शल्यों से रहित कोई-कोई ( साधु ) महा ऋद्धिधारक देवों की आयु बाँधते हैं ।।५७१ ।।
ईसो मच्छर-भावं, भय लोभ-वसं च जेण वच्चति ।
विवि-गुणा वर-सीला, बंधंति महद्धिग-सुराणं ।। ५७२ ।।
अर्थ- जो ईर्षा, मात्सर्यभाव, भय और लोभ के वशीभूत होकर वर्तन नहीं करते हैं तथा विविध गुण और श्रेष्ठ शील से संयुक्त होते हैं, वे ( श्रमण ) महा ऋद्धि धारक देवों की आयु बांधते हैं ।।५७२ ||