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________________ १५६ ] तिलोयपण्पत्ती [ गाथा : २८२ -- द्वीन्द्रिय जीवोंका प्रमाणपुणो आवलियाए असंखेज्जदि-भागे विरलिदूण अवणिव-एगखंड करिय दिण्णे तत्थ बहुखंडे पढम-पुजे पविखत्ते' बे-इचिया होति । अर्थ-पुन: आवलीके असंख्यातवें भागका विरलनकर अपनीत एक खण्डके समान खण्डकर उसमें से बहुभागको प्रथम पुञ्जमें मिला देनेपर दो इन्द्रिय जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है ।। विशेषार्थ-अलग स्थापित - राशिका बहुभाग प्राप्त करने हेतु उसे आवलीके प्रसंख्यातवें भाग ( 3 ) से गुरिणत करने पर [= (x a ] प्राप्त होते हैं । इन्हें गुण्य मान राशिमेंसे घटा देने पर जो शेष बचता है, वही उसका बहुभाग है। यथा ! = - -- । इस राशिको प्रथम स्थापित राशि पुजमें जोड़ देनेपर दो इन्द्रिय जीव-राशिका प्रमाण प्राप्त होता है। यथा - = + = ६।। . = [ (kxxx )+ = (xx48)] अथवा म. = [ (Exix)+(trxxs)] १.१.ब.क.ज. पक्खे ते।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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