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गाथा : ४४७-४५२ ] अट्ठमो महाहियारो
[ ५५१ अर्म-विक्रियासे उत्पन्न हुए वे यान-विमान विनश्वर पोर स्वभावसे उत्पन्न हुए वे परमरम्य यान-विमान नित्य एवं अविनश्वर होते हैं ॥४४६।।
धुया-बय-या विविहास नरूपण-पहुदि-परिपुण्णा। धूव - घहि जुषा, चामर - घंटादि - क्रयसोहा ।४४७।। वंदण - माला - रम्मा, मुत्ताहल-हेम-दाम-रमणिज्जा।
सुबर - दुवार - सहिदा, वज्ज-कवाजला विरायंति ॥४४८।।
अर्थ-उपयुक्त यान-विमान फहराती हुई ध्वजा-पताकानों सहित, विविध आसन एवं शय्या आदिसे परिपूर्ण, धूप-घटोंसे युक्त, चामर एवं घण्टादिकसे शोभायमान, बन्दन-मालाओंसे रमणोक, मुक्ताफल एवं सुवर्ण की मालाओंसे मनोहर, सुन्दर द्वारों सहित और वञमय कपाटोंसे उज्ज्वल होते हुए सुशोभित होते हैं ॥४४७-४४८।।
सच्छाई भायणाई, वत्याभरणाइ - प्राइ दुबिहाई।
होंति हु याण-विमाणे, विक्किरियाए सहावेणं ॥४४६॥
अर्थ-यान-विमानमें स्वच्छ भाजन ( बर्तन ), वस्त्र और प्राभरण प्रादिक ( भो ) विक्रिया तथा स्वभावसे दो प्रकार के होते हैं ॥४४९॥
विकिरिया जणिदाई, विणास-सवाई होति सम्वाई।
वस्थाभरणादीया, सहाय - जादारिप णिचाणि ॥४५०।।
अर्थ-विक्रियासे उत्पन्न सब वस्त्राभरणादिक विनश्वर और स्वभावसे उत्पन्न हुए ये सभी नित्य होते हैं ।।४५०॥
इन्द्रोंके मुकुट-चिह्नसोहम्मादिसु अट्ठसु, प्राणव - पहुदीसु चउसु इंदाणं । सूवर-हरिणी-महिसा, 'मच्छा भेकाहि-छगल-सहा य ।।४५१॥ कप्प-तरू मउडेसु, चिल्हाणि णव कमेण भणियारिण । एवेहि ते इंदा, लक्खिज्जते सुराण मझम्मि ॥४५२॥
१. द. ब. मच्छो ।