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गाया : २७-३० ]
पंचमो महाहियारो
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अर्थ - भूतोंके चौदह हजार ( १४००० ) प्रमाण और राक्षसोंके सोलह हजार ( १६००० ) प्रमाण भवन हैं। शेष व्यन्तर देवोंके भवन नहीं होते हैं ॥ २६ ॥
विशेषार्थ - रत्नप्रभा पृथिवीके खरभाग में भूत व्यन्तरदेवोंके १४००० भवन हैं तथा पक भागमें राक्षसों के १६००० भवन हैं। शेष किन्नरादि छह कुलोंके भवन नहीं होते हैं । व्यन्तरदेवोंके भेदोंका कथन समाप्त हुआ ॥२॥
चैत्य-वृक्षोंका निर्देश
fore किंपुरुसादिय - बेंतर- देवाण अटू भेयाणं । ति- वियप्प - णिलय पुरवो, चेत्त वुमा होंति एक्केक्का ||२७||
अर्थ - किन्नर - किम्पुरुषादिक आठ प्रकारके व्यन्तर देवों सम्बन्धी तीनों प्रकारके ( भवन, भवनपुर, आवास ) भवनों के सामने एक-एक चैत्य - वृक्ष है ||२७||
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कमसो असोय-चंपय-नागद्दुम-तु बुरू य णग्गोषो । कंटय- रुक्खो तुलसी, कदंब विडओ ति ते श्रट्ठ ॥ २८ ॥
अर्थ -- अशोक, चम्पक, नागद्रम, तुम्बुरु, न्यग्रोध ( वद ) कण्टकवृक्ष, तुलसी और कदम्ब वृक्ष, इसप्रकार क्रमशः वे चैत्यवृक्ष आठ प्रकारके हैं ||२८||
ते सव्वे चेत्त-तरू, भावण- सुर- चेत्त रुक्ख सारिच्छा । जीवुप्पचि लयाणं, हेल पुढवी सरूवा
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||२६||
अर्थ – ये सब चैत्यवृक्ष भवनवासी देवोंके वैत्यवृक्षोंके सदृश ( पृथिवीकायिक ) जीवोंकी उत्पत्ति एवं विनाशके कारण हैं और पृथिवीस्वरूप हैं ||२९||
विशेषार्थ -- चैत्यवृक्ष अनादि निधन हैं अतः उनका कभी उत्पत्ति या विनाश नहीं होता है। किन्तु उनके श्राश्रित रहने वाले पृथिवीकायिक जीवों का अपनी-अपनी आयु के अनुसार जन्म-मरण होता रहता है । इसीलिये चैत्यवृक्षोंको जीवों की उत्पत्ति और विनाश का कारण कहा है।
जिनेन्द्र प्रतिमाओं का निरूपण
मूलम्मि चज - दिसासु, चेत-तरूणं जिरिगद - पडिमाओ ।
चत्तारो चत्तारो, चड तोरण सोहमाणाश्री ॥३०॥
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अर्थ - चैत्यवृक्षोंके मूलमें चारों ओर चार तोरणोंसे शोभायमान चार-चार जिनेन्द्रप्रतिमाएँ विराजमान हैं ||३०|