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________________ गाया : २७-३० ] पंचमो महाहियारो [ २२१ अर्थ - भूतोंके चौदह हजार ( १४००० ) प्रमाण और राक्षसोंके सोलह हजार ( १६००० ) प्रमाण भवन हैं। शेष व्यन्तर देवोंके भवन नहीं होते हैं ॥ २६ ॥ विशेषार्थ - रत्नप्रभा पृथिवीके खरभाग में भूत व्यन्तरदेवोंके १४००० भवन हैं तथा पक भागमें राक्षसों के १६००० भवन हैं। शेष किन्नरादि छह कुलोंके भवन नहीं होते हैं । व्यन्तरदेवोंके भेदोंका कथन समाप्त हुआ ॥२॥ चैत्य-वृक्षोंका निर्देश fore किंपुरुसादिय - बेंतर- देवाण अटू भेयाणं । ति- वियप्प - णिलय पुरवो, चेत्त वुमा होंति एक्केक्का ||२७|| अर्थ - किन्नर - किम्पुरुषादिक आठ प्रकारके व्यन्तर देवों सम्बन्धी तीनों प्रकारके ( भवन, भवनपुर, आवास ) भवनों के सामने एक-एक चैत्य - वृक्ष है ||२७|| · कमसो असोय-चंपय-नागद्दुम-तु बुरू य णग्गोषो । कंटय- रुक्खो तुलसी, कदंब विडओ ति ते श्रट्ठ ॥ २८ ॥ अर्थ -- अशोक, चम्पक, नागद्रम, तुम्बुरु, न्यग्रोध ( वद ) कण्टकवृक्ष, तुलसी और कदम्ब वृक्ष, इसप्रकार क्रमशः वे चैत्यवृक्ष आठ प्रकारके हैं ||२८|| ते सव्वे चेत्त-तरू, भावण- सुर- चेत्त रुक्ख सारिच्छा । जीवुप्पचि लयाणं, हेल पुढवी सरूवा · ||२६|| अर्थ – ये सब चैत्यवृक्ष भवनवासी देवोंके वैत्यवृक्षोंके सदृश ( पृथिवीकायिक ) जीवोंकी उत्पत्ति एवं विनाशके कारण हैं और पृथिवीस्वरूप हैं ||२९|| विशेषार्थ -- चैत्यवृक्ष अनादि निधन हैं अतः उनका कभी उत्पत्ति या विनाश नहीं होता है। किन्तु उनके श्राश्रित रहने वाले पृथिवीकायिक जीवों का अपनी-अपनी आयु के अनुसार जन्म-मरण होता रहता है । इसीलिये चैत्यवृक्षोंको जीवों की उत्पत्ति और विनाश का कारण कहा है। जिनेन्द्र प्रतिमाओं का निरूपण मूलम्मि चज - दिसासु, चेत-तरूणं जिरिगद - पडिमाओ । चत्तारो चत्तारो, चड तोरण सोहमाणाश्री ॥३०॥ - अर्थ - चैत्यवृक्षोंके मूलमें चारों ओर चार तोरणोंसे शोभायमान चार-चार जिनेन्द्रप्रतिमाएँ विराजमान हैं ||३०|
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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