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गाथा । ४१-४७ ] पंचमो महायिासे
[२५३ चउ-गोउर-संजुत्ता, तड-वेदी तेसु होदि पसेयकं ।
तम्मझे वर - बेदी - साहिई रायंगणं रम्मं ॥४१॥
अर्थ :-उनमेंसे प्रत्येक विमानको तट-वेदी चार गोपुरोंसे संयुक्त होती है । उसके बीच में उत्तम वेदी सहित रमणीय राजाङ्गण होता है ।।४।।
रायंगण-बहु-मझे, वर-रयणमयाणि दिव्व-कूडाणि ।
कूडेसु जिण - घराणि, वेदो चउ - तोरण जुदाणि ॥४२॥ अर्थ :- राजाङ्गणके ठीक बीच में उत्तम रत्नमय दिव्य नट और उन कूटोंपर वेदी एवं चार तोररणोंसे संयुक्त जिन-मन्दिर अवस्थित हैं ॥४२॥
से सध्ने जिण-णिलया, मुत्तालि-कणय-दाम-कमणिज्जा ।
वर-वज्ज-कवाड-जुदा, दिव्य - विदाणेहिं रेहति ॥४३॥
अर्थ वे सब जिन-मन्दिर मोती एवं स्वर्णकी मालाओंसे रमणीक और उत्तम वजमय किवाड़ोंसे संयुक्त होते हुए दिव्य चन्दोवोंसे सुशोभित रहते हैं ।।४३।।
दिपंत-रयण-दीवा, अट्ठ-महामंगलेहि परिपुष्णा ।
वंबणमाला-चामर - किकिणिया - जाल - साहिल्ला ॥४४॥
अर्थ-वे जिन-भवन देदीप्यमान रत्नदीपकों एवं अष्ट महामंगल द्रव्योंसे परिपूर्ण और वन्दनमाला, चंबर तथा क्षुद्र घण्टिकानोंके समूहसे शोभायमान होते हैं ११४४।।
एवेसुणसभा, अभिसेय - सभा विचित्त-रयरणमई ।
कीडण - साला विविहा, ठाण - द्वाणेसु सोहंति ।।४५॥
अर्थ-- इन जिन-भवनों में स्थान-स्थान पर विचित्र रत्नोंसे निर्मित नाटय सभा, अभिषेक सभा और विविध क्रीड़ा-शालाएं सुशोभित होती हैं ॥४५॥
मद्दल-मुइंग-पटह-पहृदीहि विविह दिव्य - तूरेहि ।
उदहि-सरिच्छ-रहि, जिण-गेहा णिच्च-हलबोला ॥४६॥ अर्थ-वे जिन-भवन समुद्र सश गम्भीर शब्द करने वाले मर्दल, मृदंग और पटह आदि विविध दिव्य वादित्रोंसे नित्य शब्दायमान रहते हैं ।।४६॥
छत्त-त्तय - सिंहासण - भामंडल - चामरेहि जुत्ताई। जिण • पडिमानो तेसु, रयणमईयो विराजंति ॥४७॥