________________
गाथा : १८-२२ ] पंचमो महाहियारो
[ २१९ व्यन्त र प्रासादों (भवनों) की अवस्थिति एवं उनकी संख्याएवाण कहाणं, समतदो वेतराण पासामा ।
सत्तट्ट-पहुवि-भूमी, विण्णास - विचित्त • संठाणा ॥१॥ अर्थ-इन जिनेन्द्र कुटोंके चारों ओर व्यन्तरदेवोंके सात-आठ आदि भूमियोंके विन्यास और अद्भुत रचनाओं वाले प्रासाद हैं ॥१८॥
लंयंत-रयणमाला, वर तोरण-रइद-सुदर-दुवारा ।
जिम्मल-विचित्त-मणिमय-सयपासण-णियह-परिपुण्णा ॥१६॥
अयं-ये प्रासाद लटकती हुई रत्नमालाओं सहित, उत्तम तोरणोंसे रचित सुन्दर द्वारों वाले हैं और निर्मल एवं अद्भुत मणिमय शय्याओं तथा आसनोंके समूहमे परिपूर्ण हैं ॥१९॥
एवं बिह-रूवाणि, तीस-सहस्साणि होति भवणाणि । पुस्खोविद-भवणामर - भषण - समं अण्णणं सयलं ॥२०॥
भवणा समत्ता ॥१॥ प्रयं-इसप्रकारके स्वरूपवाले ये प्रासाद तीस हजार ( ३००००) प्रमाण हैं। इनका सम्पूर्ण वर्णन पूर्वमें कहे हुए भवनवासी देवोंके भवनोंके सदृश है ॥२०॥
भवनोंका वर्णन समाप्त हुआ।
भवनपुरोंका निरूपणवट्टादि' - सरूवाणं, भवण • पुराणं वेदि जेट्ठाणं । जोयण · लक्खं दो, जोयणमेक्कं जहण्णाणं ॥२१॥
१००००० मो।१॥ अर्थ-वृत्तादि स्वरूपवाले उत्कृष्ट भवनपुरोका विस्तार एक लाख ( १०००००) योजन और जवन्य भवनपुरोंका विस्तार एक योजन प्रमाण है ॥२१॥
कूड़ा जिणिद-भवणा, पासादा वेदिया वण-प्पहदी। भवरण - सरिचर्छ सन्वं, भवरणपुरेसु पि दट्टय्वं ॥२२॥
भवणपुरं ।
-
. - --
१. प. बलादि।