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________________ ६४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २४७ णिविट्ठ-दीवस्स वा तरंगिणी-रमणस्स घा एय-विस-रु एक्क-लक्खेणब्भहियं होवूण गच्छइ जाव सयंभूरमण-समुद्दो त्ति । अर्थ- उपयुक्त उन्नीस विकल्पोंमेंसे प्रथम पक्षमें अल्पबहुत्वको कहते हैं वह इसप्रकार है जम्बुद्वीपके समस्त विस्तारको अपेक्षा लवण समुद्रका एक दिशा सम्बन्धी विस्तार एक लाख योजन अधिक है। जम्बूद्वीप और लवणसमुद्रके एक दिशा सम्बन्धी सम्मिलित विस्तारकी अपेक्षा धातकीखण्डका एक दिशा सम्बन्धी विस्तार एक लाख योजन अधिक है । इसप्रकार जम्बूद्वीपके समस्त विस्तार सहित अभ्यन्तर समुद्र एवं द्वीपोंके सम्मिलित एक दिशा सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा उनके आगे ( बाहर ) स्थित द्वीप अथवा समुद्रका विस्तार एक-एक लाख योजन अधिक है । इसप्रकार स्वयम्भूरमर। समुद्र-पर्यन्त ले जाना चाहिए। विशेषार्थ -यहाँ जम्बूद्वीपसे लेकर इष्ट दीपा समुद्रते एका पिशा सम्बन्धी गम्मिलित विस्तारसे उनके भागे स्थित द्वीप या समुद्रका विस्तार निकाला जाता है । इस तुलनामें वह एक-एक लाख योजन अधिक रहता है । यथा-जम्बूद्वीपके पूर्ण विस्तारको अपेक्षा लवणसमुद्रका एक दिशा सम्बन्धी विस्तार एक लाख योजन अधिक है। पुनः जम्बूद्वीप और लवणसमुद्रका विस्तार यदि एक दिशामें सम्मिलित किया जाय तो ३ लाख योजन होगा, जिसकी अपेक्षा धातकीखण्डद्वीपका एक दिशा सम्बन्धी विस्तार ४ लाख योजन होनेसे ( ४ लाख – ३ लाख- ) १ लाख योजन अधिक है। तम्चड्ढो-प्राणयण-हेदु इमा सुत्त-गाहा-- इच्छिय-दीवुवहीण', चउ-गुण-रुदम्मि पढम-सूइ-जुदं । तिय-भजिदंतं सोहसु, दुगुणिद-हदम्मि सा हवे बड्डी ॥२४७॥ अर्थ-इस वृद्धि-प्रमाणको प्राप्त करनेके लिए यह गाथा सूत्र है इच्छित द्वीप-समुद्रोंके चौगुने विस्तारमें आदि सूचीके प्रमाणको मिलाकर तीनका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे विवक्षित द्वीप-समुद्रके दुगुने विस्तारमेंसे कम कर देनेपर शेष वृद्धिका प्रमाण होता है ॥२४७।। विशेषार्य-उपयुक्त गाथामें शेष वृद्धिका प्रमाण प्राप्त करनेकी विधि दर्शाई गई है। जिसका सूत्र इसप्रकार है १. द.ब.क, ज. दीवोवहीणं ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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