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४२४ ] तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ६१८ इसप्रकार स्वयंभूरमणसमुद्र के द्वितीय पथसे लेकर द्विचरम पथ पर्यन्त विशेष अधिक रूपसे होता गया है जिसे जानकर कहना चाहिए ।
विशेषार्थ-स्वयंभूरमणसमुद्रके प्रथम वलयका सूचीव्यास (ज - १५०००० ) है और इस वलयकी स्थूल-परिधिका प्रमाण ३ { – १५०००० + १००००० ) है। इस वलयके चन्द्रोंका प्रमाण ( लाख + --- ) है । सूर्योका प्रमाण भी इतमा हो है अतः इसे दुगुना करने पर २ ( लाख + २ ) प्राप्त होता है। चन्द्र-सूर्यके बिम्ब विस्तारका प्रमाण (4+f) - योजन है। यहाँ पूर्वोक्त नियमानुसार चन्द्र-सूर्यके अन्तरका प्रमाण इसप्रकार है
ज
३ (
-१५००००+१०००००)
२ (२८०... + १७)
-
या (Axixege:° )-1 - ३३३३१३४ योजन ।
यहाँ ज से ज का, ३ से १ का और २ से २८ लाखका अपवर्तन हुआ है । असंख्यात संख्या रूप जगच्छणीकी तुलनामें १५०००० १ लाख और नगण्य हैं अतः छोड़ दिए गये हैं।
स्वयंभूरमणसमुद्रके अन्तिम बलयमें चन्द्र-सूर्यके
अन्तरका प्रमाणएवं सयंभूरमणसमुदस्स चरिम - थलपम्मि चंवाइच्चाणं विच्चालं भण्णमाणे छावाल-सहस्स-एक्क-सय-बायण्ण-जोयण-पमारणं होदि पुणो बारसाहिय-एक्क-सय-कलाओहारो सेणउदि-रूपेणम्भहिय-सप्त-सयमेतं होकि । तं घेदं ४६१५२ धण अंसा ।
एवं अचर-जोइगण-परूवणा समत्ता। प्रर्थ-इसप्रकार स्वयंभूरमणसमुद्रके अन्तिम वलयमें चन्द्र-सूर्योका अन्तराल कहनेपर छयालीस हजार एक सौ बावन योजन प्रमाण और सातसौ तेरानबसे भाजित एक सौ बारह कला अधिक है। वह यह है--४६१५२१।