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।। श्रीवीतरागाय नमः ।।
श्रीमन्नेमिचन्द्र-सिद्धान्तचक्रवर्ती-विरचित
गोम्मटसार-जीवकाण्ड
* हिन्दीटीका-प्रेरक से (स्व०) प्राचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागर जी महाराज
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* हिन्दीटीकाकार के (स्व०) अ. पं. रतनचन्द जैन मुख्तार, सहारनपुर
के सम्पादक * पं. जवाहरलाल जैन सिद्धान्तशास्त्री, भीण्डर
* प्रकाशक ॐ प्राचार्यश्री शिवसागर दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला
शान्तिवीरनगर, श्रीमहावीरजी (राज.)
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सम्पादकीय
ग्रन्थनाम : 'गोम्मटसार संस्कृत टीका की उत्थानिका के अनुसार इस ग्रन्थ की रचना चामुण्डराय के प्रश्न के फलस्वरूप हुई है । चामुण्डराय अजितसेनाचार्य के शिष्य थे । इन्होंने नेमिचन्द्राचार्य का भी शिष्यपना ग्रहण किया था | चामुण्डराय की प्रेरणा से नेमिचन्द्राचार्य ने गोम्मटसार की रचना की । 'गोम्मट' चामुण्डराय का घर का नाम था जो मराठी तथा कन्नड़ भाषा में उत्तम, सुन्दर, आकर्षक एवं प्रसन्न करने वाला जैसे अर्थों में व्यवहृत होता है । 'राय' उनकी उपाधि थी, गोम्मट नाम के कारण ही चामुण्डराय द्वारा बनवायी गयी बाहुबली की मूर्ति गोम्मटेश्वर या 'गोम्मटदेव' नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी नाम की प्रधानता को लेकर ग्रन्थ का नाम भी गोम्मटसार रखा गया जिसका अर्थ है गोम्मट (चामुण्ड ) के लिए निकाला गया धवलादि ग्रन्थ का सार । इसी प्रणय को लेकर ग्रन्थ का नाम 'गोम्मटसंग्रहसूत्र' भी दिया गया है।
गोम्मटसंग सुत्तं गोम्मटसिहरुवरि गोम्मटजिरो य ।
गोम्मटरायविणिम्मिय दक्खिण- कुक्कुडजिणो जयउ ।।६६६ ।। कर्मकाण्ड
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यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि ग्रन्थ के दोनों भागों के नाम जीकाण्ड और कर्मकाण्ड भी टीकाकारों द्वारा दिये गये हैं । (गोम्मटसारनामधेय पंचसंग्रहं शास्त्रं प्रारभमाणः मन्दप्र. टी. पू. ३ | तद्गोम्मटसारप्रथमावयवभूतं जीवकाण्डं विरचयन् मन्दप्रबोधिका टीका ) । मूल ग्रन्थकार ने तो ग्रन्थ का नाम 'गोम्मटसा भी नहीं दिया। उन्होंने तो ग्रन्थ के दूसरे भाग के अन्त में इसका नाम गोम्मटसंग्रहसूत्र ( कर्मकाण्ड गा. ६६५, ६६८) या गोम्मटसूत्र दिया है। गोम्मटसार नाम भी टीकाओं में ही पाया जाता है। टीकाकारों ने एक और नाम भी दिया है- पंचसंग्रह (म. प्र. टीका पृ. २,३ ) किन्तु यह नाम क्यों दिया गया, यह नहीं बताया गया। सम्भवतः अमितगति श्राचार्य के पंचसंग्रह को देख कर और उसी के अनुरूप कथन इसमें देख कर यह नाम दिया गया हो ।'
ग्रन्थकर्ता इस ग्रन्थ के रचयिता श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। आपने पुष्पदन्त भूतबली श्राचार्य द्वारा रचित षट्खण्डागम सूत्रों का गम्भीर मननपूर्वक पारायण किया था। इसी कारण आपको सिद्धान्तचक्रवर्ती की उपाधि प्राप्त हुई थी । ग्रामने स्वयं भी उल्लेख किया है कि जिस प्रकार भरत क्षेत्र के छह खण्डों को चक्रवर्ती निर्विघ्नता से जीतता है, उसी प्रकार प्रज्ञारूपी चक्र द्वारा मैंने भी ग्रह खण्ड (षट्खण्डागम - जीवस्थान, खुद्दाबन्ध, बन्धस्वामित्व विचय, वेदना, वर्गणा और महाबन्ध) निर्विघ्नतया साधित किये हैं |
नेमिचन्द्राचार्य अपने विषय के असाधारण विद्वान् थे । आप देशीय गण के प्रसिद्ध आचार्य श्रीर गणितशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे । गोम्मटसर पर कई विद्वानों ने टीकार्य लिखी हैं। श्री माधवचन्द्र
१. जैन साहित्य का इतिहास प्रथमभाग पृ० ३८६ ( गणेशवर्णी जैन ग्रन्यमाला )
२. जह चक्के य चक्की छक्खंड साहियं श्रविग्र ।
तह महचवण मया
छकड साहियं सम्मं ।। ३६३ || गो. क. का.
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विद्यदेव ने तो आपको चार अनुयोग के पारगामी और भगवान कहा है--'भगवान्नेमिचन्द्रसिद्ध न्तदेवश्चतुरनुयोगचतुरुदधिपारगः, त्रिलोकसार टीका १० । श्रीमद् राजचन्द्र ने भी मभक्षयों से विशेष रूप से गोम्मटसार के पठन - पाठन का अनुरोध किया है, जो इस ग्रन्थ की उपादेयता तथा महत्ता को स्थापित करता है।
गोम्मटसार की रचना प्रापन पन्द्रगिरि पर चानुपासचद्वार विमपित जिनालय में स्थापित इन्द्रनीलमणि की एक हस्तप्रमाण श्री नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा के सम्मुख बैठ कर की थी। षट्खण्डागम के अतिरिक्त काषाय पाहुड (चुणि सूत्रों सहित), तिलोयपण्णत्ती आदि ग्रन्थों के भी प्राप पारगामी विद्वान थे। इन्हीं सिद्धान्त ग्रन्थों के सार - रूप में आपने गोम्मटसार के अतिरिक्त लब्धिसार, क्षपणासार व त्रिलोकसार की रचना की थी।
ग्रन्थकर्ता का समय--गोम्मटसार ग्रन्थ को कर्णाटकीय प्रादिवृत्ति के कर्ता केशववर्णी प्रादि अपने प्रारम्भिक कथन में लिखते हैं कि श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने अनेक उपाधि विभूषित चामुण्डराय के लिए प्रथम सिद्धान्त ग्रन्थ (षट्खण्डागम) के आधार पर गोम्मटसारग्रन्थ की रचना को । स्वयं प्राचार्य देव ने ही गो.क. की अन्तिम प्रशस्ति में राजा गोम्मट अर्थात् चामुण्डगय का जयकार किया है। चामृण्डराय गंगनरेश श्री राचमल्ल के प्रधानमन्त्री एवं मेनापति थे । चामुण्डराय ने अपना चामुण्डराय पुराण मक सं. ६०० तदनुसार वि. सं. १०३१ में पूर्ण किया था। सचमल्ल का राज्यकाल वि. सं. १०४१ तक रहा है, ऐसा ज्ञात होता है। बाहुबली चरित में गोम्मदेश की प्रतिष्ठा का समय वि. सं. १०३७-३८ बतलाया है। गोम्मटेश की प्रतिष्ठा में स्वयं नेमिचन्द्राचार्य उपस्थित थे। इसलिए नेमिचन्द्राचार्य का काल विक्रम की ११ वीं शताब्दी सिद्ध होता है।
अन्यकर्ता के गुरु-त्रिलोकसार की अन्तिम गाथा में श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अपने आपको अभयनन्दी गुरु वा शिष्य कहा है। इसके अतिरिक्त प्राचार्य वीरनन्दी, इन्द्रनन्दी तथा कनकनन्दी का भी अत्यन्त श्रद्धा के साथ उल्लेख किया है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड को निम्नलिखित गाधा के प्रकाश में ग्रन्थकर्ता के दीक्षागुरु का आभास मिलता है। गाथा इस प्रकार है--
जस्स य पायपसाएणणंतसंसारजलहिमुत्तिणो ।
वीरिवर्णविवच्छो, णमामि तं अभयणंदिगुरु ॥४३६॥ वीरनन्दी पौर इन्द्रनन्दी का वत्स जिनके चरणप्रसाद से अनन्तसंसाररूपी सागर मे उत्तीर्ण हो गया, उन अभयनन्दी गुरु को मैं (नेमिचन्द्र ) नमस्कार करता हूँ। अनन्त संसाररूपी सागर से उत्तीर्ण होने का अभिप्राय दीक्षा से ही है । अतः ऐसा लगता है कि उनके दीक्षागुरु प्रभयनन्दी हैं।
ग्रन्थ परिमारण - प्रस्तुत ग्रन्थ जीवकाण्ड में कुल ७३४ प्राकृत गाथाएँ हैं। ये सभी गाथाएं प्राचार्य नेमिचन्द्र द्वारा रचित ही हों, ऐसा नहीं है। परन्तु ग्रन्थकार ने अपने से पूर्वकालिक धवलो जयधवला आदि अन्य ग्रन्थों से भी प्रसंगानुसार गाथाएं लेकर उन्हें अपने ग्रन्थ का अंग बनाया है।'
१. इदि मिचंदमृणिवा अप्पसुदेण मयणदिवच्छेग ।
रइयो तिलोयसारो खमंतु बहुगुणाइरिया ।।१०१-11 २. बटवाडा० परिशी, पृष्ट ३०७ (ज्ञानपीठ) ।
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यथा जीवकाण्ड की गाथा संख्या २, ८, १७, १८, २०, २२, २७ से २६, ३१, ३३, ३४, ४६, ५१, ५५, ५.४, ५६, ५७, ६१ से ६८, १२२, १२८, १४६ से १४८, १५०, १५१, १६६, १७३, १८५, १८६, १६१, १६२, १६४, १६६, १६७, २०१, २०२, २१७ से २२१, २३०, २३१, २३३, २३८ से २४०, २४२, २७२ से २७५,२८३ से २८६,२८८,२६८,३०२ से ३०५, ३१४, ३६६,४३७, ४५६, ४६६ से ४७१, ४७३ से ४७७, ४८२ से ४८५, ५०८ से ५१६, ५५५, ५५६, ५६०, ५६६, ५७३, ५७४, ५८१, ५८८, ६०१, ६२४ से ६२८, ६३२, ६४१, ६४५ से ६४६, ६४८, ६४६ ६५२, ६६६ ये गाथाएं ज्यों-की-त्यों धवला से ली गई हैं। इन गाथानों में किन्हीं को मापने प्रसंगानुरूप यत्किचित् परिवर्तन के साथ भी अपने ग्रन्थ (जीवकाण्ड) में गृहीत किया है । इस तरह गोम्मटसार में पूर्ववर्ती ग्रन्थों से कितनी ही गाथाओं को लेकर उन्हें ग्रन्थ का अंग तो बनाया गया है परन्तु वहाँ 'ग्रन्थकार' अथवा "उक्तं च" आदि के रूप में किसी भी प्रकार की सूचना नहीं दी गई है।
___ इस प्रकार गोम्मटसार (जीवकाण्ड व कर्मकाण्ड) एक संग्रह - ग्रन्थ है। यह बात कर्मकाण्ड की गाथा सं. ६६५' में आये हुए "गोम्मटसंगहमुत्तं" नाम से स्पष्ट है। यह संकलन बहुत ही ध्यवस्थित, सन्तुलित तथा परिपूर्ण है। इसी से दिगम्बर साहित्य में दीर्घ काल से इसका विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। .
इन ::३४ गाथाओं में गागर में सागर भर दिया गया है। धवला ग्रन्थ राज का सार इस जीवकाण्ड में बहुत करके या गया है।
विषय परिचय-गोम्मटसार ग्रन्थ दो खण्डों में है (१) जीवकाण्ड और (२) कर्मकाण्ड । कर्मकाण्ड में याठ कर्मों की विविध अवस्थानों का सांगोपांग वर्णन है । जीवकाण्ड में बाईस अधिकारों में अशुद्ध जोव का गुणस्थानों तथा मार्गणास्थानों के माध्यम से वर्णन किया गया है। यद्यपि इसमें प्रात्मा या जीवद्रव्य की संसारावस्था का वर्णन ही मुख्य है तथापि यह आत्मद्रव्य के शुद्ध एवं
कालिक सहज स्वरूप पर भी प्रकाश डालता है। ग्रन्थ की बीस प्ररूपणा का वर्णन करने वाले अधिकारों की अन्तिम गाथात्रों द्वारा यह सहज ही जाना जा सकता है। गाथा संख्या ६८, ६६, १५२ २०३, २४३, २७६, २८६, ४६०, ४७५, ४८६, ५५६. ५५६, ७३१, शुद्ध जीव अथवा जीव की शुद्ध परिणति विषयक वर्णन भी करती हैं।
ग्रन्थ की प्रथम गाथा मंगलाचरणरूप है और अन्तिम गाथा प्राणीर्वचनात्मक है।
* प्रस्तुत भाषा-टीका *
प्रेरणा-स्रोत-सितम्बर १६७८ में पूज्य गुरुजी (मुख्तार मा०) आनन्दपुर काल में थे। उस समय पूज्य प्राचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज ससंघ बर्षायोग में वहीं विराजमान थे। गुरुजी वहां गो. सा. कर्मकाण्ड के सम्पादन-कार्य में व्यस्त थे। वे शीघ्रता से उसे पूरा करना चाहते थे, क्योंकि वे चाहते थे कि उनके जाने (देह-विसर्जन करने ) से पूर्व यह कार्य पूरा हो जाये, प्रतः
१, गोम्मटसंगहमुत्तं गोम्मटदेवैरण गोम्मटं रइयं ।
कम्मा गिज रटं तच्चदृवधारणटलं च ।। ६६५ गो० का तथा गाथा ६६८ ।।
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१०-१२ घन्टे प्रतिदिन कार्य करते थे । उन दिनों आचार्यकल्पश्री का कहना था कि "जीवकाण्ड तथा लब्धिसार-क्षपणासार का काम भी आपको ही करना है, क्योंकि शुद्धि का यह कार्य आपके जीवन काल में हो गया तो ठीक, अन्यथा बाद में इस कार्य को कोई पूरा करने वाला नही है।" बस, आचार्यकल्पश्री की उक्त प्रेरणा तथा मुनि वर्धमानसागर जी ( सम्प्रति आचार्य श्री ) के प्रबल सम्बल अनुरोध से ही कर्मकाण्ड के कार्य की पूर्णता के पश्चात् लब्धिसार-क्षपणासार का कार्य भी हुआ तथा अन्त में गुरुजी ने जीवकाण्ड की टीका भी लिखी ।
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पूर्व टीकाएँ (संस्कृत / कन्नड़ ) - ( अ ) गोम्मटसार पर सर्वप्रथम एक पंजिका टीका है जो ५००० श्लोक प्रमाण है, भाषा प्राकृतमिश्रित संस्कृत है । इसके रचयिता गिरिकीति हैं। टीका का नाम पंजिका या गोम्मटसार टिप्परण है। इस टीका का निर्माण शक सं. १०१६ ( वि० सं. ११५१ ) में कार्तिक शुक्ला में हुआ । मन्दप्रबोधिकाकार ने इस टीका को सहायता से अपनी जीवकाण्ड टीका लिखी है। इस अप्रकाशित ग्रन्थ की एक प्रति पं. परमानन्दजी शास्त्री के पास दिल्ली में है ।
(आ) मन्दप्रबोधिका टीका गो. जी. की आद्य ३८२ गाथाओं पर ही है, अर्थात् यह टीका अपूर्ण • भाषा संस्कृत है तथा इस टीका के रचयिता श्रभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती है। केशत्रवर्ती ने इस टीका की सहायता से अपनी टीका (कंटकी भाषा कन्नड़ टीका) बनायी है।
(इ) तृतीय टीका केशयवर्णी रचित जीवतत्वप्रदीपिका है। इसकी भाषा संस्कृत मिश्रित कन्नड़ है तथा रचनाकाल ई. सन् १३५६ है ।
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(ई) जीवतत्त्वप्रयोपिका संस्कृत - यह चतुर्थ टीका है जो नेमिचन्द्र द्वारा संस्कृत भाषा में रवी गई है। यह टीका केशववर्णी की संस्कृत मिश्रित कन्नड़ टीका का ही संस्कृत रूपान्तर मात्र है । नेमिचन्द्र ज्ञान भूषण के शिष्य थे। टीका ईसा की १६ वीं शती के प्रारम्भ की है।
ये
यदि इन नेमिचन्द्र ने केश्ववर्ती की टीका को संस्कृतरूप नहीं दिया होता तो पं. टोडरमल जी सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका (भाषाटीका) नहीं बना पाते, यह सत्य है ।
भाषा टीकाएँ - ( १ ) साधिक सात दशक पूर्व गांधी हरिभाई देवकरण ग्रन्थमाला मे भाषा टीका पहली बार प्रकाशित हुई।
इस शास्त्राकार ग्रन्थ के सम्पादक पं० गजाधरलाल जी न्यायतीर्थ तथा पं० श्रीलाल जी कायती थे । यह टीका १३३० पृष्ठों में है । इसमें मूल ग्रन्थ ( प्राकृत गाथाएँ) के साथ दो संस्कृत टीकाएँ (अभयचन्द्रीय मन्दप्रबोधिका तथा नेमिचन्द्रीय जीवतत्त्वप्रदीपिका) तथा एक ढूंढारी भाषा टीका भी थी। यह हूंढारी ( हिन्दी से मिलती-जुलती) भाषा टीका पं० टोडरमल जी कृत है, टीका का नाम सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका है। टोडरमल जी ने राजमल साधर्मी की प्रेरणा से यह टीका लिखी थी जो वि. सं. १८१८ में पूरी हुई ।
१. गो. जी. मन्दप्रबोधिका गा० ८३ की टीका ।
२. अनेक वर्ष ४ किरण १. ११३ ।
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(२) उक्त भाषा टीका के आधार से स्व० ० दौलतराम जी ने हिन्दी पधानुवाद रूप रचना की। यह अप्रकाशित है।'
(३) गुरूणां गुरुवर्य गोपालदास जी बरैया की प्रेरणा से १९१६ ई० में पं० खूबचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री ने गो. जी. की संक्षिप्त, परीक्षोपयोगी, छात्रोपयोगी टीका लिखी जिसके अनेक संस्करण निकले हैं।
इम टीका सम्बन्धी अनेक संशोधन गृरुजी (मुख्तार सा.) ने पं० खूबचन्द जी को भेजे थे, जिन्हें उन्होंने सादर स्वीकार किया था और तदनुसार तुतीय संशोधित संस्करण रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला से प्रकाशित हुआ था।
(४) सन् १६२७ में जीवकाण्ड को अंग्रेजी टीका रायबहादुर जे. एल. जैनी एम. ए. (सम्पा.-जन गजट) द्वारा सम्पादित व अनूदित होकर प्रकाशित हुई। जिसमें ब्र० शीललप्रसाद जी ने भी सहायता की थी। इसकी पृष्ठ संख्या ३४७ है तथा यह अजिताश्रम, लखनऊ से प्रकाणित है।
(५) पं० श्री कैलाशचन्द्र सि. शास्त्रोन जोत्रकाण्ड तथा कर्मकाण्ड का भाषानुवाद नेमिचन्द्र की संस्कृत टीका के आधार से किया तथा संदृष्टियाँ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका से खोली। यह टीका सन् १९७७ (वि. सं. २०३४) में ज्ञानपीठ मे ४ पुस्तकों में प्रकाशित हुई है। (गो. जी. दो पुस्तकों में नथा गो. क. भो दी पुस्तकों में ।)
उक्त सभी भाषाटोकाएँ टोडरमल्लीय सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका के आधार से बनी हैं और टोडरमल्लीय टीका प्रांजल नहीं है । उन्हें धवल, जयधवल, महाधवल के दर्शन प्राप्त नहीं हुए, अन्यथा सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका का परिष्कार वे स्वयं कर लेते । बस, इसी एक मुख्य कारण से मुस्तार सा. ने इस नवोन टीका की धवल, जयधवल व महाधदल के आधार से रचना की है, जिसमें प्रेरक तथा सम्बल-प्रदायक रहे हैं पूज्य प्रा. क. १०८ श्री श्रुतसागर जी महाराज एवं प्रा. वर्धमानसागर जी महाराज।
पं. टोडरमल जी को धबन्नादि के दर्शन नहीं हुए थे, इसके प्रभारणस्वरूप देखिए
(अ) लब्धिसार को प्रथम गाथा की उन्थानिका में लब्धिसार की रचना को जयधवल के पन्द्रहवे अधिकार ( चारित्रमोहक्षपण) से बताया है । परन्तु यह गलत है, क्योंकि लब्धिसार अर्थात् लब्धिसार-क्षपणासार की रचना तो जय धवल के दर्शनमोह उपशामना, क्षपणा तथा चारित्रमोह उपशामना व क्षपणा नामक अधिकारों से हुई है, न कि मात्र पन्द्रहवें अधिकार से । बह उत्थानिका द्रष्टव्य है : श्रीमन्नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवतिसम्यक्त्व चूडामणिप्रभृतिगुणनामांकितचामुण्डरायप्रश्नानुरूपेण कषायप्राभृतस्य जयधवलायद्वितीय सिद्धान्तस्य पंचवशानां महाधिकाराणां मध्ये "पश्चिम
१. गो. जी. प्रस्ता. प.११ रामचंद्रशास्त्रमाला । २. उस्मानाबाद के स्व० नेमिचन्द्र जी वकील ने कर्मकाण्ड के भाग पर मराठी में एक सुन्दर रचना की है, वह छाप
भी चुकी है। (गो. जी. प्रस्ता. पृ० ११ सयचन्द्र शास्त्रमाला चतुर्थ संस्करण)
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स्कंधाख्यस्य पंचदशस्यार्थ संग्रह सम्धिसारनामधेयं शास्त्र प्रारभमारणो" भगवरपंचपरमेष्ठिस्तवप्रपामयिका कर्तव्यप्रतिज्ञा विधसे-. (ब) उन्होंने लब्धिसार (रायचन्द्र शास्त्रमाला प्रकाशन) पृष्ठ ६३४ पर प्रशस्ति में लिखा है
मुनि भूतवली यतिवृषभ प्रमुख भए तिनिहूँ ने तीन ग्रन्थ कोन सुखकार है। प्रथम धवल पर जो अयपवल सीको महाया प्रसिद्ध नाम धार है ।
इसमें लिखा है कि भूतबली तथा यतिवषभ ने धवल, जयधबल, महाधवल की रचना की । जबकि धवल, जयधवल को रचना भगवद् वीरसेन स्वामी तथा जिनसेन स्वामी द्वारा हुई है तथा महाधवल भूतबली की रचना है ।
भूतबली पुष्पदन्त विक्रम की प्रथमशती के प्राचार्य थे तथा यतिवृषभ छठी शती के । जबकि विक्रम की 8 वीं शती में वीरसेनस्वामी ने धवला टीका पूरी की थी। इसके बाद जयधवला रची मई । इस प्रकार भूतबली तथा यतिवृषभ के समय धवल, जयधवल का अस्तित्व भी नहीं था।
जीवकाण्ड टीका के अन्य भी कई बिन्दु अप्रान्जल प्ररूपणरूप है। अतः गुरुजी ने धवलादि के प्राधार से इस विस्तृत टीका की रचना की है।
प्रस्तुत टीका का समय - दि. २२-१०-७६ ईस्वी, कार्तिक शुक्ला २ वि.सं. २०३६, वीर निर्वाण सं. २५०६ को शुभ मुहूर्त में गुरुजी ने टीका लिवनी प्रारम्भ की थी। दि. १६.१२.७६ ईस्वी पौष वदी १२ को इस टीका का प्रथम अधिकार पूरा हुआ था। इस तरह गति से कार्य करते-करते दि. २६.११.८० ईस्वी को ६६६ गाथा तक की टीका पूर्ण हो गई थी।
देह की पूर्णत: अक्षमतावश फिर गुरुजी (मुख्तार सा.) शेष टीका पूरी नहीं कर पाये थे। यह सब उन्हें ज्ञात हो गया था कि अब वे यह कार्य पूरा नहीं कर पायेंगे, इसलिए गुरुजी ने धी विनोदकुमार जी शास्त्री के माध्यम से यह टीका मेरे पास भिजवा दी थी, ताकि मैं इसे पूर्ण कर सकू। पूज्य गुरुजी दि. २८.११.८० की रात्रि को ७-६ बजे ससंयम दिवंगत हुए। हा ! अब वह करणानुयोगप्रभाकर कहाँ ?
प्रस्तुत टीका को शैली—मूलग्रन्थ गोम्मटसार जीवकाण्ड प्राकृत गाथाओं में है। उसके नीचे गाथा का मात्र अर्थ दिया गया है। फिर विशेषार्थ द्वारा अर्थ का स्पष्टीकरण किया गया है। पूरे ग्रन्थ में यही पद्धति अपनायी गयी है। टीका में सर्वत्र आगमानुसारी १०८४ शंका-समाधानों द्वारा विषय स्पष्ट किया गया है। ग्रन्थान्तरों के प्रमाण हिन्दी भाषा में देकर नीचे टिप्पण में ग्रन्थनाम, अधिकार पर्व या सर्ग तथा सूत्र या पृष्ठ संख्या अंकित कर दिये गये हैं (देखो पृ. ११०-११ अादि)। कहीं पर ग्रन्थान्तरों के वाक्य मूल प्राकृत या संस्कृत रूप में ही भाषा टीका में उद्धृत कर दिये हैं (देखो पृ. ११२-१३ आदि) तथा वहीं पर ग्रन्थनाम, गाथा व पृष्ठ भी दे दिये हैं, तो कहीं मूल ग्रन्थ,-वाक्य टीका में देकर फिर ग्रन्थ नाम आदि नीचे टिप्परग में उद्धृत किये हैं (यथा
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.१३० प्रादि), तो कहीं ग्रन्थालरों के उद्धरण हिन्दी में मूल टीका में देकर फिर उसका मूल वाक्य तथा ग्रन्थोल्लेख आदि टिप्पण में किया है। इस तरह इस विषय में गुरुजी अप्रतिबद्ध रहे हैं ! किसी नियत पद्धति का निर्वाह सर्वत्र समरूपेण नहीं किया है। टीका में गणिनीय प्रकरणों को यथासम्भव कोठों द्वारा समझाया गया है [यथा-पृ. ४१, ४४, ४५, ५०, ५१, ५२, ५६, ३६८ आदि] जिससे विषय स्पष्ट हो सके।
अपूर्वता--(१) जीवकाण्ड की यह पहली ऐसी टीका है जिसमें धवलादि के सैकड़ों प्रमाण दिये गये हैं तथा मुख्यतः उसी आधार से यह रची गई है।
(२) गा. ५.१८ में ८ मध्यमांशों का खुलासा किया है जो पूर्व को किसी भी भाषा टीका में इतना स्पष्ट नहीं है।
(३) गा. ३५२-५४ में श्रुतज्ञान के भंगों को विस्तारपूर्वक समझाया है, जो पहले किसी भी टीका में नहीं समझाया गया है।
(४) विभिन्न ग्रन्थों के सहस्रों [कुल २७८५ टिप्परा हैं ] उद्धरणों के दर्शन टीका में होंगे।
(५) किसी मुख्य सिद्धान्त-ग्रन्थ का कुछ भी अंश इस टीका में नहीं पाया हो, ऐसा नहीं हो पाया।
(६) टोडरमल जी कृत भाषा टीका से भी प्रस्तुत टोका बड़ी है। टोडरमलजी की मात्र भाषा टीका (मूल ग्रन्थ की) लगभग उन्नीस हजार प्रलोक प्रमाण है जबकि प्रस्तुत टीका इसमें पीठिका (अठारह सौ श्लोक प्रमाण) तथा अर्थ संदृष्टि अधिकार (लगभग ५ हजार श्लोक प्रमाण) भी सम्मिलित कर दिया जाए तो भी सम्पूर्ण सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका लगभग पौणे छब्बीस हजार श्लोक प्रमाण ही होती है जिससे कि प्रस्तुत टीका कम नहीं है।
विशेष इतना है कि माथा ७२८ की टीका (सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका में] ८८ पृष्ठ प्रमाण है परन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में गुरुजी ने उतनी विस्तृत टीका नहीं करके मात्र... पृष्ठ प्रमाण ही लिखी है [देखो पृ. ७८० ] क्योंकि वह सब विषय धवल पुस्तक में पूर्ण विस्तार से समस्त नक्शों सहित प्रकाशिन हो गया है तथा इतना दुरूह भी नहीं है।
प्रस्तुत टीका में सहायक ग्रन्थ-मुख्तार सा. ने जीवकाण्ड की भाषा टीका करते समय निम्नलिखित शास्त्रों का उपयोग किया है---षट्खण्डागम, कषायपाहुडसुत्त, धवल, जयभवल, महाधवल, जयधवल (फलटण), प्राकृत पंचसंग्रह तथा उसकी विविध टीकाएँ, संस्कृत पंचमंग्रह, लब्धिसारक्षपणासार, गो. जी., गो. क., इनकी टीकाएँ मन्दप्रचाधिका ब सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका, तिलोयपण्णत्ती [सभी प्रकाशन | त्रिलोकसार तथा टीका, लोक विभाग, सिद्धान्तसार-दीपक, सिद्धान्तसारसंग्रह, कातिकेयानुप्रक्षा, आदिपुराण, हरिवंशपुराण, सुशीला उपन्यास, मूलाचार, उसकी प्राचारवृत्ति टीका, मूलाचार प्रदीप, प्राचारसार, वमनन्दिश्रावकाचार, चारित्रसार, चारित्रपाइड, द्वादशअनुप्रेक्षा, पुरुषार्थसिद्धि, रत्नकरण्ड, शास्त्रसारसमुच्चय, रत्नमाला, उपासकाध्ययन । अष्टसहस्री, परीक्षामुख, पालापपद्धति, प्रमेयरत्नमाला, सप्तमंगीतरंगिणी, स्यावाद मंजरी,
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तत्त्वार्थ सूत्र, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, तत्त्रार्थवृत्ति, सुखबोध टीका [ मैसूर प्रकाशन ] वृहद् द्रव्यसंग्रह, लघुद्रव्यसंग्रह । समयसार, प्रवचनसार, प्रवचनसार टीका, पंचास्तिकाय, समयव्याख्या तथा तात्पर्यवृत्ति नामक टीकाएँ, नियमसार, आत्मानुशासन भावप्राभृत, योगसारप्राभृत, जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश, श्वे. कर्मप्रकृति तथा श्वे. विशेषावश्यक भाष्य ।
प्रवशिष्ट टीका अन्तिम वय श्रुत सेवा : स्व. गुरुवर रतनचन्द मुख्तार वृद्धावस्था में तो प्रविष्ट थे ही, देहदशा भी कृश थी तथापि अपनी आयु के अन्तिम दो सवा दो वर्षों में भी वे ग्रन्थों की टीका करने में व्यस्त रहे थे। कर्मकाण्ड ( टीकाकर्त्री प्रा. श्रादिमतीजी) का सम्पादन कार्य श्रापने सन् १६७८ में प्रानन्दपुर कालू में संघ साथ १०-१२ घण्टे नित्य बंठकर २८ दिन में पूरा किया था । मध्यावधि में दि. ९.६.७८ को मुझे पत्र लिखा "रिस्क लेकर इतना परिश्रम कर रहा हूँ जिससे मेरे जाने से पूर्व कर्मकाण्ड का कार्य पूरा हो जाये । यदि ग्रायु शेष रही तो फिर लब्धिसार तथा जीवकाण्ड का कार्य भी करूंगा।"
दि. १३.२.७० को सहारनपुर से आपने लिखा- "मेरा स्वास्थ्य पूर्व की अपेक्षा सुधार पर है किन्तु माइण्ड एण्ड हार्ट अभी तक अपना कार्य पूर्णरूपेण नहीं कर पाते । एक घण्टे पश्चात् माइण्ड थक जाता है तथा सिरदर्द होने लगता है। देह में रक्तसंचार कम हो रहा है। डॉक्टर पूर्ण विश्राम के लिए कहते हैं किन्तु वह मुझसे नहीं होता । कर्मकाण्ड की प्रेसकापी जाँच रहा हूँ, बीच-बीच में घल आदि के प्रमाण देता जाता हूँ । कार्य तो करना ही है, मेरी तो जिनवाणी स्वयं रक्षा करेगी। मुझे उसकी चिन्ता नहीं, जीवन की सफलता श्रुतसेवा में ही है ।" यही सब ३१.३.७६ को आपने फिर लिखा था ।
दि. २६.१०.७९ को मुझ पाभर को उठाते हुए आपने लिखा- "अब तो प्राशा है कि आप करणानुयोग के ग्रन्थों का उद्धार करेंगे। मेरी यह पर्याय तो समाप्त होने वाली है। ज्ञान का फल संयम है, सो वह तो मुझे प्राप्त हुआ नहीं। मैंने धवल ग्रन्थ के श्राधार पर जीवकाण्ड की टीका लिखनी प्रारम्भ कर दी है। यदि यह पूर्ण न हो सकी तो आपको पूर्ण करनी होगी । अब ५-६ घण्टे से afe कार्य करने की शक्ति नहीं रही। मेरे देह विसर्जन के बाद मेरे वाला गोम्मटसार जीवकाण्ड व पंचसंग्रह श्री विनोदकुमार जी आपके पास भेज देंगे । अन्त समय में परिणाम ठीक रहें, यही वीर प्रभु से प्रार्थना है ।'
दि. ३.११.८० को आपका पत्र आया - "जीवकाण्ड की ६५१ वीं गाथा की टीका लिखी जा रही है । ८६-८७ गाथाएं शेष हैं। पत्नी के वायुरोग के कारण घुटनों टांगों तथा हाथों ने ठीक प्रकार से कार्य करना छोड़ दिया है. आटा गूंदने में भी कष्ट होता है । उसकी आँख भी एक हो काम कर रही है । अब वह दिन श्राने वाला है कि भोजन भी नहीं बना सकेगी। मैं यह चाहता हूँ कि आप जीवकाण्ड - आहार मार्गणा की टीका लिख कर भेजने का कष्ट करें किन्तु जो भी लिखा जावे, वह ग्रन्थों के आधार पर लिखा जावे । ग्रन्थान्तरों के नाम व पृष्ठ संख्या भी साथ में लिख दी जावे ।"
1 नोट: - यह मेरी परीक्षा थी। सौंपना इष्ट समझते थे । सो ठीक ही है
गुरुवर्य श्री परीक्षा के अनन्तर ही मुझे शेष टीका का कार्य
1
।
मैंने प्रादेशानुसार टीका लिख भेजी तो ] दि. १२.११.८०
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को पूज्य गुरुवर्यश्री का पत्र आया- "आहारमार्गणा की टीका प्राप्त हुई। प्रायका श्रम प्रशंसनीय है, टीका बहुत सुन्दर है। उसी के आधार पर टीका लिखी जा रही है। मात्र लिखने का इंग बदलना पड़ा। अब मुझे कोई चिन्ता नहीं. यदि टीका अधूरी रही ता प्राप पूर्ण कर देंगे। अभी ७० गाथानों की टीका शेष है। स्वास्थ्य शिथिल है, अतः गति मन्थर है। इसके पश्चात १४.११.८० का आपने मुझे अन्तिम पत्र लिखा। दि. २६.११.८० तक श्राप टीका लिखते रहे थे। ता. २८.११.८० सायं ७ बजे आपने देह-विसर्जन किया ।
शेष टीका मुझ पामर पुरुष को लिखने का आदेश था, अतः मैंने सोत्साह सविनय शेष कार्य पूरा किया है ।
हा! अब वह करणानुयोग - प्रभाकर कहाँ ?
स्व० गुरुवर्यश्री को सानुवाद धवल-जयधवल-महाधवल के (कुल ३६ पुस्तकों के) :- १६३४१ पृष्ठ कण्ठाग्र थे। ऐसे पुरुष की 'समस्त जीवनी का ज्ञानसार' जीवनान्त में लिखी टोका में निक्षिप्त अवश्य हुपा है, अतः इस टोका की प्रमाणता में सन्देह का प्रश्न ही नहीं उठता । विशेष मूल्यांकन तो पाठकों की पीडियों करेंगी।
पूर्णीकृत टीका की वाचना भीण्डर में हुई। उस समय पूज्य अजिप्तसागराचार्य चातुर्मास-रत थे। संघ में पू० वर्धमानसागर जी, पुण्यसागर जी, प्रा० जिनमती जी, विशुद्धमती जी, शुभमती जी, तथा प्रशान्तमती जी भी थे । इन सात पुण्यात्माओं के चरणों में मैं भी बैठता था। इस तरह कुल ६ सरस्वती-पाराधकों के मध्य जीवकाण्ड टीका की वाचना प्रारम्भ हई थी। नित्य २-३ घण्टा वाचना होती थी। कुछ समय बाद प्रा० जिनमती जी व शुभमती जी वाचना में शामिल नहीं हो पाये, अतः हम ६ ही रहे थे । वाचना लगभग दो मास में पूरी हुई थी।
स्मरणोय है कि किसी ने भी गुरुवर्य श्री की टीका में अंश भर भी फेरफार नहीं किया है। मात्र जहां दूसरे ग्रन्थों के उद्धरणों का मूल से मिलान करते समय कुछ शब्द छूटे हुए पाये गये उन्हें पुरा किया है अथवा भाषात्मक परिष्कार किया गया है, अथवा नीचे टिप्पणों में हमने बहुत कुछ दिया है, अन्य कुछ भी नहीं किया गया।
प्राभार : 'गोम्मटसार जीयकाण्ड' की प्रस्तुत वृहत्काय भाषाटीका की रचना एवं प्रकाशनयोजना को मूर्त रूप प्रदान करने में अनेक महानुभावों का प्रचुर प्रोत्साहन एवं सौहार्दपूर्ण सहयोग मिला है। मैं उन सभी के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।
सर्वप्रथम इस ग्रन्थ के भाषाटीकाकार पूज्य गुरुजी स्व. पण्डित रतनचन्दजी मुख्तार की प्रतिभा और क्षमता का सविनय सादर पुण्य-स्मरण करता हूँ और उस पुनीत प्रात्मा के प्रति अपने श्रद्धासुमन समर्पित करता हूँ।
___ मैं प्रस्तुत ग्रन्थ-रचना के प्रेरक परमपूज्य (स्व.) प्राचार्यकरुप १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज के पावन चरणों में अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
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भीगडर में सम्पन्न ग्रन्थ की वासना के अवसर पर जिन सरस्वती-आराधक महान् अात्माओं का सान्निध्य प्राप्त हुआ और जिनकी सहकारिता से इस रचना का परिष्कार हया, उन सबके प्रति मैं अनन्त श्रन्दावनत हूँ। उनका जितना गुणगान किया जावे, वह कम है।
प्राभारी हूँ पूज्य १०८ प्राचार्यश्री वर्षमानसागरजी महाराज और पूज्य प्रायिका १०५ श्री विशुद्धमती माताजी का जिनके आशीर्वचनों से ग्रन्थ का गौरव बढ़ा है। आर्षमार्ग-पोषक इन निःस्पृह आत्माओं के पुनीत चरणों में अपना नमोस्तु निरोशन करते हुए इनके दीका एक माती भीगन की कामना करता हूँ।
प्रस्तुत ग्रन्थ को अापके सम्मुख उपस्थित करने का जटिल तथा श्रमसाध्य कार्य डॉ. चेतनप्रकाश जो पाटनी, जोधपुर ने सम्पन्न किया है। इनके श्रम का मूल्यांकन शब्दों में सम्भव नहीं। ग्रन्थ की सर्वतोमुखी प्रभावर्धन का इनका यह कार्य एक सम्पादक के श्रम से भी अधिक रहा है। आप स्व. पण्डित महेन्द्रकुमार जी पाटनी, काव्यतीर्थ, मदनगंज-किशनगढ़ के सुपुत्र हैं। आपके पिताश्री श्रीमहावीरजी में पूज्य प्राचार्यकरूप श्री श्रुतसागरजी महाराज से मुनिदीक्षा लेकर मुनि समतासागर हुए थे। उन्हीं की धरोहर 'चेतन भी पितृवत् ज्ञान व त्याग का समन्वय है। प्रापने अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का सम्पादन एवं अनुवाद कार्य किया है। यह श्रुताराधक मनीधी सम्पूर्ण रत्नत्रय को त्वरित पाकर निर्वाण पावे यही अभिलाषा है।
मेरे अनुरोध पर अन्य के मुद्रित पृष्ठों को देखकर विदुषी प्रायिका प्रशान्तमती जी ने अनेक संशोधन प्रेषित किये, जिन्हें मैंने शुद्धिपत्र में समाविष्ट किया है। एतदर्थ मैं उनका सविनय सभक्ति कृतज्ञ हूँ।
इसी प्रकार पं. विनोदकुमार जी शास्त्री, सहारनपुर ने भी अपने व्यापार के कार्यों से समय निकाल कर नियमित रूप से मुद्रिन पृष्ठों का सूक्ष्म अवलोकन किया तथा अनेक संशोधन भिजवाये जिन्हें मैंने शुद्धिपत्र में संयुक्त किया है। मैं उनका हृदय से आभारी हूँ तथा उनके सर्वतोमुम्बी उत्कर्ष की कामना करता हूँ।
श्रुतसेवी परम श्रद्धालु तथा निःस्पृह सेवाभावी श्री धूलचन्द हजारीलाल जैन वोरा, चावण्ड सदा मेरे कार्यों में सहायक रहते हैं। श्रीयुत श्रीपालजी भवरलालजी धक्ति , भीण्डर की प्रात्मीयता तथा त्यागवृत्ति भी मेरे उत्साह के प्रबल हेतु बने हैं। मैं इन दोनों धर्मानुरागी महानुभावों का भी अत्यन्त आभारी हैं 1 ग्राभारी हूँ श्रुतानुरागी लाला लखमीचन्दजी कागजी, सुमतप्रसादजी (वर्धमान ड्रग्स, कुचा रोठ) तथा पं. सुरेन्द्रकुमारजी (वेल्युएशन प्रॉफिसर, दरीबा कलां) दिल्ली का जिन्होंने इस अवधि में मेरा देह-उपचार कराया, जिससे मुझे 'जीवकाण्ड' का कार्य करने की विशिष्ट क्षमता प्राप्त हुई।
__ ग्रन्थ का मूल्य कम रखने हेतु हमें उदार दातारों सर्वश्री हरिप्रसादजी जेजानी (नागपुर), ब्र. सुशीलाबाई जी (प्रायिका दीक्षा के उपलक्ष्य में), जवाहरलालजी सर्राफ, इन्दरमलजी शाह, सोभागमलजी मिण्टा (प्रतापगढ़), मूल चन्दजी लुहाडिया (किशनगढ़), श्रीमती अमरीबाई मोतीलालजी बाकलीवाल, श्रीमती फूलाबाई दौलतरामजी बाकलीवाल (मेड़ता सिटी) तथा श्री महावीरप्रसाद जी रांत्रका (अमदाबाद) से अर्थसहयोग प्राप्त हुआ है। हम इन सबके अतीव आभारी हैं।
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ग्रन्थ के स्वच्छ एवं शीघ्र मुद्रण के लिए हिन्दुस्तान पार्ट प्रिन्टर्स, जोधपुर के कर्मचारीगण मेरे धन्यवाद के पात्र हैं।
प्रस्तुत गुन्थ की जो कुछ उपलब्धि है, वह सब इन्हीं श्रमजील धर्मनिष्ठ पुण्यात्माओं की है। मम्पादन-कार्य में रही भूलों के लिए स्वाध्यायी विद्वानों से सविनय क्षमा चाहता हूँ। भद्रं भूयात् । अलम् विज्ञषु ।
जवाहरलाल मोतीलाल जैन वकतावत, भीण्डर
* जीवकाण्ड के कतिपय कठिन प्रसंगों का खलासा *
(१) केवली - समुद्धात (पृ.० ६१-६२; ७२६) केवली समुद्रात ८ समयों में होता है। (भ. प्रा. २१०६) प्रथम समय में दण्ड समुद्घात होता है । दूसरे समय में कपाट समुद्घात होता है । नीसरे समय में प्रतर तथा चौथे में लोकपुरण समुद्घात होता है। पांचवें समय में प्रात्मप्रदेश पुनः प्रतर रूप हो जाते हैं। छठे समय में कपाट रूप, सातवें समय में दण्डाकार तथा पाठवें समय में मूल शरीर के प्राकार म्प हो जाते हैं। (भ. प्रा. २१०६, रा. पा. १२०/१२/७७ तथा धवल १८५) समुद्घान के यही समय होसे, नः नहीं:
यहाँ मूल ग्रन्थ में पृष्ट ६१-६२ तथा ७२६ पर जो कहा है कि पांचवें समय में सयोगकेवली विवरगत (लोक के सर्व प्रदेशों तक फैले हुए) आत्मप्रदेशों का संवरगा (संकोच, सिकूलाब, छिपादया समेटना) करते हैं; इस वाक्य का अर्थ यह है कि चतुर्थ समय में लोकपुरण समुद्घात के अनन्तर पंच
पंचम समय में लोकपुरण को समेटकर प्रात्मप्रदेशों को प्रतररूप कर देते हैं। अर्थात पंचम समय मे दो काम होते हैं .-लोकपूरण समुद्घात का समेटना अर्थात् संत्रोच करना या उपसंहार करना या नाश करना या समाप्त करना या रोकना तथा दूसरा काम है प्रनर समुद्घात रूप ग्रान्मप्रदेश कर देना । वास्तव में तो ये दोनों दो काम नहीं होकर एक काम रूप ही हैं। क्योंकि लोकपुरण पर्याय का विनाश (यानी उपसंहार)ही प्रतर पर्याय का उत्पाद है अथवा लोकपुरण पर्याय का संकोच ही (समेटनाही) वहाँ प्रतररूप उत्पाद का कारण हो जाता है। जिस समय पूर्व पर्याय का नाश होता है उसी समय तो उत्तर पर्याय का उत्पाद होता है। नाण (उपसंहार या संकोच) तथा उत्पाद रूप पर्याय में समयभेद नहीं होता। (आप्तमीमांसा ५६. धवल ४३३५, पंचाध्यायी पूर्वार्ध २३४ प्रादि) अत: पांचवें समय में लोकपुरण पर्याय का उपसंहार ( =- नाश) अथवा संकोच ( -- सिमटाव, रोक होना तथा प्रतर पर्याय का उत्पाद होना; ये दोनों काम होते हैं । जिसका सरल अर्थ यह होता है कि पंचम समय में नोकपुरमा पर्याय का अभाव तथा प्रतर पर्याय का प्रादुर्भाव ( उत्पाद) होता है। आगे भी इसी तरह कहना चाहिए। यथा छठे समय में प्रतर समेटकर (पनर का उपमहार कर) कपाट रूप प्रारम प्रदेश करते हैं, सान समय में कपाट का उपसंहार (नाश राप्ति) करके दण्डरूप यात्मप्रदश करते हैं 1 पाठवं समय में दण्इरूप प्रात्मप्रदेशों का आकार नष्ट करके (उपसंहृत करके या उनको संकृत्रित करके) सर्बप्रदेश मूल शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं अर्थात् मूल शरीराकार हो जाते हैं । (क्षपणासार ६२७, जयधवल १६/१५६-६०)
कोई प्राचार्य पाठवा ममय मूल शरीर में प्रवेश का नहीं गिनते हैं, क्योंकि उम्म अन्तिम (अष्टम) समय में नो रवशरीर में प्रवस्थान है। उनकी दृष्टि में समुद्घात के सात ही समय होते है। इस
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प्रकार मात्र विवक्षा- भेद है, सिद्धान्ततः कोई भेद नहीं पड़ता। (जयधवल १६:१६० तथा जनगजट १६-८-६२ ई०, २० न० मुख्तार सहारनपुर)
इन पाठ ममयों के समुद्घान में किस-किस समय कौन-कौनसा योग होता है, उसकी दर्शक तालिका इस प्रकार है:
* प्रष्टसमयिक समुद्घात की तालिका के
समय
समुद्घात
योग
प्रथम
दण्ड
औदारिक काय योग औदारिक मिश्र काय योग
कपाट
द्वितीय • तृतीय • चतुर्थ
प्रतर
कामरण काय योग
नोकपूरण
पंचम
प्रतर-मंथान
कपाद
औदारिक मिश्र काययोग औदारिक काय योग
सप्तम
दण्ड
• अष्टम
स्वस्थान-स्व गरीर में प्रवेण ।
[प्रा. पंचसंग्रह १६६ जीबसमास अधिकार, धवल ४/२६३, जयधवल १६/१६०, गो. क.५८७, क्षपणासार पृ. ४६६ गा. ६२७ राय चन्द्र शास्त्रमाला | शेष सब सुगम है।
(२) मत्स्य-रचना
प्रस्तुत चित्र (पृ०२१) तथा मूल ग्रन्थ के चित्र (पू. १५४) का सम्बन्धात्मक परिषय
सबसे पहले हम यह ध्यान में ले लें कि यहाँ कुल ६४ अवगाहना स्थान हैं जो प्रस्तुत ग्रन्थ में पृष्ठ १४३ से १४५ तक आये हैं। इनमें प्रथम स्थान मु० निगोद अप० की जघन्य अवगाहना का है। दूसरा स्थान सू० वाय. अपर्याप्त का है .......... इत्यादि। इस तरह चलते-चलते ६४ वा अर्थात अन्तिम स्थान पंचन्द्रिय पर्याप्त की उत्कृष्ट अवगाहना का है। अत: जहाँ यह कहा जाये कि बीसवाँ स्थान या पच्चीसवाँ स्थान या अमुकवां स्थानवहाँ इन चौसठ स्थानों में से उस संध्या का स्थान (पृ. १४३ से १४५ में) देख लेना।
यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि लध्यपर्याप्तक यानी अपर्याप्तक किसी भी जीव की अवगाहना जघन्य से प्रारम्भ होकर अपने निर्वृत्यिपर्याप्नक (अपर्याप्तक) की उत्कृष्ट अवगाहना पर
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समाप्त हुई है तथा सर्वत्र एक-एक प्रदेश अधिक कम से बढ़ना होता है। स्मरण रहे कि इन अल्पबहत्वों में लब्ध्यपर्याप्तक को उत्कृष्ट अवगाहना अप्रकृत रही है।
गो. जी. का यह सब विषय धवल पु. ११ पृष्ठ ५६ से ७४ (सूत्र ३१ से १६) नक से ग्रहण' किया हुआ है।
सूक्ष्म नि अपर्याप्तक अपनी जघन्य अवगाहना से उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ता है। इसकी ३४ बिन्दी लिखी है। इसी तरह प्रथम से १६वीं पंक्ति तक के अपर्याप्त जीव अपनी-अपनी जघन्य से उत्कृष्ट अवगाहनाओं तक बढ़ते हैं। ये पंक्ति १ से पंक्ति १६ तक के जीव [ देखो प्रस्तुत चित्र ]सभी अपर्याप्तक हैं। इस मूल नन्थ के पृष्ठ १५४ पर जो चित्र है उसके तीन भाग हैं:-प्रथम व द्वितीय भाग ऊपर की ओर हैं। नीचे की ओर तृतीय भाग है । प्रथम भाग में अपर्याप्त (लब्ध्यपप्तिक) जीवों की जघन्य अवगाहनाऐं बतायी हैं। यह पृष्ठ १४३ से १४५ में प्रदर्शित ६४ अवगाहना स्थानों में से जो प्रादि के १६ स्थान हैं, उनका चित्र है। फिर मूल ग्रन्थ के पृ. १५४ के चित्र में उपरिम द्वितीय भाग का ग्राफ चित्र अपर्याप्तक |अर्थात निर्वत्यपर्याप्तक] जीवों की उत्कृष्ट अवगाहना सम्बन्धी है। इसमें भी १६ अवगाहना स्थान आ गये हैं, जो ६४ स्थानों [देखें पृष्ठ १४३ से १४५ | में से निम्न संख्या के स्थान हैं:-१८ वां, २१ वां, २४ बां. २७ वाँ, ३० वाँ, ३३ वाँ, ३६ वाँ, ३६ वां, ४२ वां, ४५ वौ, ४८ वा तथा ५५ से ५९ वां। इस प्रकार प्रकृत ग्रन्थ के १५४ दें पृष्ठ के चित्र के ठपरिम भाग में १६ अपर्याप्त के जघन्य स्थान हैं तथा १६ ही अपर्याप्त के उत्कृष्ट स्थान हैं। इन ३२ स्थानों से जो चित्र बनता है वह है सम्मुख मुद्रित चित्र की १६ वीं पंक्ति तक का चित्रण ।
फिर पृष्ठ १५४ के चित्र में जो नीचे का भाग है अर्थात् तृतीय भाग है, वह मात्र पर्याप्त जीवों की जघन्य व उत्कृष्ट अवगाहनाओं का है। इसमें ६४ स्थानों में से शेष ३२ स्थान प्रा गये हैं। ये स्थान ६४ स्थानों में निम्नलिखित संख्या के स्थान हैं:-१७, १९, २०, २२, २३, २५, २६, २८, २६, ३१, ३२, ३४, ३५, ३७, ३८, ४०, ४१, ४३, ४४, ४६,४७, ४६, ५०, ५१ से ५४ तथा ६० से ६४। यह चित्र नीने के भाग का है। प्रतः सम्मुख मुद्रित चित्र में १६ पंक्तियों से नीचे की
टिप्पण-अपनी तुझ्न बुद्धि से मुझे यह भासित होता है कि पृष्ठ १५४ पर मुद्रित चित्र (गो कि ध, ११/७१ में लिया है) मत्स्य-रचना का नहीं है, न ही वहाँ पर घ, ११ में] कहीं 'मस्त्य रचना" लिखा भी है। परन्तु वह नित्र तो ६४ ही अवगाहनानों को एक व्यवस्थित काम [पहले १६ अपर्याप्तों की जघन्म, फिर १६ अपर्याप्तों की उत्कृष्ट तथा नीचे सभी पर्याप्तों की जघन्य एवं उत्कृष्ट = ३२] मे मात्र ग्राफांकित किया गया है । उससे मुक्ति मत्स्य-रचना नो हमने जैसी यहां बतायी है, वह होती है। ऐसी ही रचना गो. जी, की कानड़ी तथा संस्कृत वृत्ति में भी बतायी है। मैंने उसका पूरा प्राधार लिया है।
प्रस्तुन ग्रन्थ के पृष्ठ १५४ पर प्रदत्त चित्र के अनुसार यदि प्रथम १६ स्थानों के क्रमशः असंख्यातगुगात्व का प्राकार बनाया जाये तथा मागे की शेष ४८ अवगाहनानों को यथाक्रम इस प्रकार के प्रागे रेस्त्रांकित किया जाये [याकार प्रदान किया जाये] तो बनने वाला आकार भी किसी मस्स्य रूप होबे, यह असम्भव नहीं है, क्योंकि सकल ब्रह्माण्ड में मत्स्मों (मछलियों के प्राश्चर्यकारी तथा विचित्र विविध प्राकार उपलब्ध होते है ।
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मोर-इस चित्र में विन्दियों के समूह को देखने पर उनकी प्राकृति जैसी होती है पड़ी तो मछली का प्राकार है, मत्स्य-रचना है।
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सत्रहवीं आदि ५ पंक्तियों द्वारा इन सभी पर्याप्त जीवों की जघन्य-उत्कृष्ट कुल ३२ अवगाहनामों का चित्रण किया गया है। जिससे पृष्ठ२१ वाला चित्र बन जाता है जो कि इस मूल ग्रन्थ के पृष्ठ १५४ पर प्रदन चित्र-रचना के भावों के अनुरूप ही है।
* मत्स्य-रचना के प्रस्तुत चित्र का खुलासा * अब सब अवगाह-स्थानों के स्थापन का क्रम कहते हैं। प्रथम सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक के जघन्य अवगाहन स्थान से लेकर उसके उत्कृष्ट अवगाहनस्थानपर्यन्त सोलह स्थान तो गुणित क्रम हैं
और एक स्थान साधिक है। एक-एक स्थान को सूचक संदष्टि दो शून्य है। सो चौंतीस शुन्य दो-दो बिन्दी में बराबर लिखते हुए सतरह जगह लिखना । यहाँ सूक्ष्मनिगोंदलब्ध्यपर्याप्त का जघन्य स्थान पहला है और उत्कृष्ट अठारहवाँ है । किन्तु गुणकारपने की अधिकतारूप अन्तराल सतरह ही हैं । इसनिए सतरह का हो ग्रहण किया है। ऐसे ही आगे भी समझना । इसी तरह उक्त पंक्ति के नीचे दूसरी पंक्ति में सुश्मलध्यपर्याप्तक वायुकायिक जीवके जघन्य अवगाहनस्थान से लेकर उसी के उत्कृष्ट प्रवगाहनस्थान पर्यन्त उन्नीस स्थान हैं। उनकी अड़तीस बिन्दी लिखना । यह दूसरा स्थान होने से ऊपर की पंक्ति में प्रथम स्थान की दो बिन्दी छोड़कर द्वितीय स्थान की दो बिन्दी से लेकर आगे बराबर अडतीम बिन्दी लिखना। तीसरी पंक्ति में सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक तेजस्कायिक के जघन्य अवगाहना से उत्कृष्ट अवगाहना पर्यन्त इक्कीस स्थान हैं। उनकी बयालीस बिन्दी लिखना। सो यह तीसरा स्थान होने से इससे ऊपर की दूसरी पंक्ति के दूसरे स्थान की दो बिन्दी के नीचे के स्थान को छोड़कर तीसरे स्थान की दो बिन्दी मे लेकर बयालीस बिन्दी दो-दो करके इक्कीस स्थानों में लिखना। इसी तीसरी पंक्ति के नीचे चौथी पंक्ति में सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्त प्रकायिक के जघन्य अवगाहन से लेकर उत्कृष्ट अवगाहन पर्यन्न तेईम स्थानों की छियालीस बिन्दी लिखना । यह चौथा स्थान होने से तीसरे स्थान की दो बिन्दी के नीचे को छोड़कर चौथे स्थानकी दो बिन्दी से लेकर छियालीस निन्दी लिखना । इसी तरह इस चतुर्थ पंक्ति के नीचे पांचवीं पंक्ति में सूक्षमलब्ध्यपर्याप्त पृथ्वीकायिक के जघन्य अवगाहन से लेकर उत्कृष्ट अवगाहनपर्यन्त पच्चीस स्थान हैं। उनकी पचास बिन्दी लिखना । सो यह पाँचवाँ स्थान होने में चौथे स्थान को भी दो बिन्दी के नीचे को छोड़कर पांचवें स्थान की दो बिन्दी से लेकर पचास बिन्दी लिखना। इसी तरह उक्त पंक्ति के नीचे छठी, सातवीं, आठवी, नवमी, दशमी, ग्यारहवीं, चारहवों, तेरहवीं, चौदहवीं, पन्द्रहवीं और सोलहवीं पंक्ति में बादरलध्यपर्याप्तक वायुकाय, तेजकाय, अकाय, पृथ्वीकाय, निगोद, प्रतिष्ठित प्रत्येक, अप्रतिष्ठित प्रत्येक, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, 'चोइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन ग्यारह की अपने-अपने जघन्य स्थान से लेकर उत्कृष्ट स्थान पर्यन्त क्रम से सत्ताईस, उनतीस, इकतीस, तेतीस, पतीस, सैंतीस, छियालीस, चवालीस, इकतालीस, इकतालीस तेतालीस स्थान हैं। इनके चौबन, अठावन, बासठ, छियासठ सत्तर, चौहत्तर, बयासी, अठासी, बयासी, बयासी और छियासी विन्दी लिखना। सो ये स्थान छठे सातवें प्रादि होने से ऊपर की पंक्ति के आदि स्थान की दो-दो बिन्दी के नीच को छोड़कर छठे सातवें आदि स्थान को दो बिन्दी से लेकर पंक्ति में लिखना।
इसी प्रकार उस पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक की पंक्ति के नीचे सतरहवीं पंक्ति में सूक्ष्म निगोद पर्याप्त के जघन्य अबगाह्न स्थान से लेकर उत्कृष्ट अवगाह पर्यन्त दो स्थान हैं ।' उनकी चार
१. धवल ११ सूर्य ४७ में ४६ पृष्ठ ५९-६०
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बिन्दी लिखना। इसी प्रकार से मागे एक ही पंक्ति में सूक्ष्म पर्याप्नक वायुकायिक, तेजस्कायिक, प्रकायिक, पृथ्वी कायिक, पुन: बादर पर्याप्त वायुकायिक, तेजस्कायिक, अप्कायिक, पृथ्वीकायिक, निगोद. प्रतिष्ठित प्रत्येक जीवों के अपने-अपने जघन्य अवगाह स्थान को लेकर अपने-अपने उत्कृष्ट अवगाह स्थान पर्यन्त प्रत्येक के दो-दो स्थान हैं। उनकी चार-चार बिन्दी लिखना । इसी प्रकार प्रतिष्ठित प्रत्येक के उत्कृष्ट अवगाहन स्थान से प्रागे उसी पंक्ति में ही अप्रतिष्ठित प्रत्येक पर्याप्तक के जत्रन्य अवगाहन स्थान से लेकर उत्कृष्ट अवगाहनस्थान पर्यन्त तेरह स्थानों की छब्बीस बिन्दिया लिखना । सो पर्याप्त सूक्ष्म निगोंद का आदि स्थान सतरहा है। इसलिए सोलहवें स्थान को दी विन्दु के नीचे को छोड़कर सतरहवें तथा अठारहवें स्थान की चार बिन्दी लिखना। सूक्ष्म वायु, पर्याप्तक का आदि स्थान बीसवाँ है इसलिए उसी पंक्ति में उन्नीसवें स्थान के दो बिन्दी के नीचे को छोड़कर बीसवां-इक्कीसवां दो स्थानों की चार बिन्दी लिखना। इसी तरह बीच-बीच में एक स्थान की दो-दो बिन्दी के नीचे को छोड़-छोड़कर सूक्ष्म पर्याप्त तेजस्काय आदि के दो-दो स्थानों की चार-चार बिन्दी लिखना। उसी पंक्ति में प्रतिष्ठित प्रत्येक के पचास से लेकर स्थान हैं। इसलिए पचासवें स्थान की बिन्दी से लेकर तेरह स्थानों की छब्बीस बिन्दी लिखना । यह सब एक पंक्ति में कहा है । उस पंक्ति के नीचे-नीचे अठारहवीं, उन्नीसवीं, बीसवीं, इक्कीसवीं, पंक्ति में पर्याप्त दोइन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीवों का अपने-अपने जघन्य अवगाहन स्थान से लेकर अपने-अपने उत्कृष्ट अवगाहस्थान पर्यन्त ग्यारह, पाठ, पाठ, दस स्थानों की क्रम से बाईस, सोलह, सोलह और बीस विन्दी लिखना । सो पर्याप्त दोइन्द्रिय के पावन से लेगा धाम हैं। हालिए स्ताद्दी पंक्ति में अप्रतिष्ठित प्रत्येक की जो छब्बीस बिन्दी लिखी थीं, उनके नीचे प्रादि की पचासवें स्थान की दो बिन्दी के नोचे को छोड़कर आगे बाईस हिन्दी लिखना । इसी तरह नीचे-नीचे आदि की दो बिन्दी के नीचे को छोड़कर बावनवे, तरेपनवे, चौवन स्थानों की बिन्दी से लगाकर क्रम से सोलह,सोलह बीस बिन्दी लिखना। इस प्रकार मत्स्य-रचना में मध्म निगोद लमध्यपर्याप्तक के जघन्य अवगास्थान से लगाकर संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के उत्कृष्ट अवगाहन म्थान पर्यन्त सब अवगाहना स्थानों में से प्रत्येक के दो-दो शुन्यों की विवक्षा होने से उन स्थानों की गणना के आश्रय से हीन अधिक भाव को लिये हुए शुन्य स्थापना का क्रम अनादिनिधन प्रागम में कहा है। इसके अनुसार रचना करने पर समस्त अवगाहन की रचना मत्स्याकार होती है ।
सारः -मत्स्य-रचना के उक्त विवरण का संक्षिप्तसार इस प्रकार है-सूक्ष्म अपर्याप्तक निगोद की जघन्य अवगाहना से उसके उत्कृष्ट अवगाह पर्यन्त गुगाकार सोलह हैं, पूनः एक अधिक है। इस प्रकार सतरह स्थानों के प्रत्येक स्थान के दो शून्य के हिसाब से चौंतीस शून्य भवसे ऊपर की पंक्ति में लिखने चाहिए। उसके नीचे सूक्ष्म अपर्याप्तक वायुकायिक के जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त उन्नीस स्थानों के अइनीम शून्य लिखने चाहिए। इसी तरह मुक्ष्म अपर्याप्त तेजस्कायिक से लेकर प्रतिष्ठित प्रत्येक पर्यन्त प्रत्येक के दो स्थान अधिक होने से प्रत्येक पंक्ति में चार शुन्य अधिक होते हैं। इस
n
१. पवल ११ भून ५० से ७६ तक पृष्ट ६० मे ६६। २ धवल ११ भूत्र ८० से नक पृष्ट ६ मे ६८ । ३. , , ,, ३२ में ४८ पृष्ठ ५६ मे ५६ । ४, , , ।। ३२ से ५१ पृष्ट ५६ स ६० ।
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तरह बयालीस, छियालीस पचास, चौवन, अठावन, बासठ, छियासठ सत्तर और चौहत्तर शुन्य होते हैं। आगे भी अपने जघन्य से अपने उत्कृष्ट पर्यन्त स्थान गणना के द्वारा शुन्य गणना जाननी चाहिए। ऊपर की पंक्ति के जघन्य से नीचे की पंक्ति का जघन्य दो शून्य छोड़कर होता है। सतरहवीं पंक्ति में एक में ही बारह जीवों के जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त अपने-अपने योग्य शुन्य लिखकर, उसके नीचे दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों के अपने-अपने जघन्य से अपने-अपने उत्कृष्ट पर्यन्त चार पंक्तियों में अपनी-अपनी स्थान गणना से शून्यों की गणना जानना । इस प्रकार रखने पर सब अवगाहों को रचना मत्स्य के श्राकार होती है ।
अतः
(३) पृष्ठ ७८० गाथा ७२९ में "दोणि श्राहारा" पद से शाहारक काययोग तथा आहारक मिश्र काययोग गृहीत होते है । ( बल २२०२४) तथापि यहाँ आहारक मिश्र काययोग से प्रारम्भ करके आहारक काययोग के अस्तित्व के अन्तिम क्षण तक ग्राहारक शरीर व आहारक अंगोपांग भी नियम से उदित रहते हैं (धवल ७ १५४-५५ ) ग्रतः ग्राहारक शरीर व आहारक अंगोपांग तो युगपत् उदित होते हैं, प्राहारक तथा ग्राहारक मिश्र दोनों योगों में निरन्तर बने रहते हैं । जिनके मन:पर्यय, परिहारविशुद्धि या प्रथमोपशम सम्यक्त्व है उनके प्राहारक शरीर या प्रहारक अंगोपांग का निषेध भी स्वतः सिद्ध हो जाता है । इसी तरह यह भी जानना चाहिए कि मन:पर्ययज्ञानी, प्रथमोपशम सम्यक्त्वी या परिहारविशुद्धि ऋद्धिधारी के आहारक समुद्घात भी नहीं होता, क्योंकि आहारक समुद्घात का अर्थ होता है प्रदारिक शरीर से बाहर निकलता हुआ आहारक शरीर । अतः आहारक शरीर के अस्तित्व में जब शेष तीन नहीं होते तो आहारकसमुद्घात में वे शेष तीन ( मन:पर्यय ज्ञान, उपशम सम्यक्त्व, परिहारविशुद्धि ० ) कैसे हो सकते हैं ? ( धवल ७ ४३१,७१३५५,४५४) ।
आहारकमिश्र काययोगी के मन:पर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धि संयम और उपशम सम्यक्त्व ये तीनों नहीं होते। यह ध्रुवसत्य है । ( धवल २।६६६ ) यही बात आहारक काययोगी के कहना चाहिए । इसी तरह ग्राहारक शरीर तथा अंगोपांग के साथ भी ये शेष तीन मन:पर्यय, परिहारविशुद्धि तथा उपशम सम्यक्त्व नहीं होते । [ धवल ७।६६६, धवल ६।३०५ श्रवल १४।२४६ ] ऐसे भी कहा जा सकता है कि आहारकद्विक, मन:पर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धि संयम ये ऋद्धियां तथा उपशम सम्यक्त्व ये चार साथ-साथ नहीं होते, एक-एक ही होते हैं । ( धवल २७३५, धवल १४।२४७ ) विशेष इतना है कि उपशम सम्यक्त्व को आहारक शरीर का बन्ध तो होता है [ धवल ६३८० तथा जैन गजट दि० ५।१२।६६ | पर उदय नहीं हो सकता। इसी तरह मन:पर्ययज्ञादी ( श्रवल २६५-६६ ) तथा परिहार विशुद्धि संयमी भी श्राहारक शरीर का बन्ध कर सकते हैं, (धवल८३०७ ) मात्र उदय का निषेध है। शेष सब श्रागमानुसार जानकर कहना चाहिए।
-
( ४ ) गाथा ८२ (पृ. १२६) की टीका व अर्थ में लिखा है कि कुर्मोनल योनि में तीर्थकर, दो प्रकार के चक्रवर्ती तथा बलभद्र उत्पन्न होते हैं। इस पर विशेष इतना जानना चाहिए कि जिस कुर्मोन योनि से भरत चक्रवर्ती उत्पन्न हुए थे उसी योनि से अन्य ६६ पुत्र ( भरत के भाई) भी उत्पन्न हुए थे। जिस कैकसी से रावण प्रतिवासुदेव उत्पन्न हुआ था, उसी से भानुकरणं तथा विभीषण भी उत्पन्न हुए (प० पु० पर्व ७ श्लोक १६४ से २२८ ) । जिस योनि से देवकी के कृष्ण (वासुदेव) हुए, उसी योनि से नृपदत्त, देवपाल, अनीकदत्त, घनीकपाल, शत्रुघ्न तथा जिऩशत्रु नामक
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पुत्र भी उत्पन्न हुए थे (हरिवंशपुराण ३५/१ से २६)। इस प्रकार इस हुण्डावसपिणी में कूर्मोन्नत योनि में अन्य जन भी उत्पन्न हुए हैं। इतनी विशेषता जाननी चाहिए।
(५) पृ. २६६ पर तृतीय शंका-समाधान में यह कहा गया है कि उस पाहार से उत्पन्न हुई शक्ति का बाद में उत्पन्न हुए जीवों के उत्पन्न है. म समान में ही ग्रहो जाता है। इसका स्पष्टीकरण यह है कि एक निगादशरीरस्थ सभी जीव साथ-साथ उत्पन्न नहीं होते, किन्तु क्रम में भी उत्पन्न होते हैं (धवल १४ पृ. २२७, २२६, ४८४ आदि) तथापि वे उपचार से एक साथ उत्पन्न हुए ही कहलाते हैं। तथा पूर्व में उत्पन्न जीवों की शक्ति को ( उसी निगोद शरीर में) बाद में उत्पन्न होने वाले जीव अपनी उत्पत्ति के प्रथम समय में ही ग्रहण कर लेते हैं। इसीलिए एक ही निमोद शरीर में पूर्वोत्पन्न तथा पश्चात् उत्पन्न जीत्र एक साथ ही पर्याप्त हो जाते हैं, इत्यादि । शेष सब सुगम है।
(६) पृष्ठ ३२३ पर अन्तिम शंका का समाधान अपूर्ण है। अतः विस्तार सहित पूरा समाधान मूल ध. १४/३१८ से लिया जाता है। यथा
समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्य तीन पल्य की स्थिति वाले ही होते हैं, ऐसा कहने का फल वहाँ पर शेष आयुस्थिति के विकल्पों का निषेध करना है और इस सुत्र को छोड़कर अन्य सूत्र नहीं है जिससे यह ज्ञान हो कि उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्य तीन पल्य की स्थिति वाले ही होते हैं, अत: यह विशेषण सफल है। अथवा एक समय अधिक दो पल्य से लेकर एक समय कम तीन पल्य तक के स्थिति-विकल्पों का निषेध करने के लिए सूत्र में "तीन पल्य की स्थिति वाले", इस पद का ग्रहण किया है। सर्वार्थसिद्धि के देवों की आयु जिस प्रकार निर्विकल्प होती है, उस प्रकार वहाँ की आयु निविकल्प नहीं होती; क्योंकि इस प्रकार की प्राय की प्ररूपणा करने वाला सूत्र और व्याख्यान उपलब्ध नहीं होता। इस प्रकार यहाँ यह बताया गया है कि "तिपलिदोवमट्रिदियरस" तीन पल्य की स्थिति वाले के, इस पद के दा अर्थ बनते हैं-- (१) वहाँ तीन पत्य की ही स्थिति होती है, (२) वहाँ अन्य भी प्रायु विकल्प (एक समय अधिक दो पल्य आदि) बनते हैं।
विशेष यहाँ यह स्मरणीय है कि सत्कर्म पंजिका पृ. ७८ में लिखा है कि-भोगभूमीए कदली. घावमस्थि ति अभिप्याएण। पुणो भोगभूमीए प्राउगस्स घादं स्थिति भणताइयाणमभिष्पाएण".. (धवल १५ परि० पृ. ७८) । अर्थ- उपर्युक्त प्ररूपण भोगभूमि में कदलीघात है, ऐसा कहने वाले प्राचार्यों के अभिप्राय से कहा है। पुनः भोगभुमि में कदलीघात मरण नहीं है ऐसा कहने वाले प्राचार्यों के मत से प्ररूपण ऐसा है कि.............|
इस प्रकार भोगभूमि में भी कदलीघात मानने वाले आचार्य हैं तथा उन प्राचार्यों के अभिप्राय से बहाँ अनेक प्रायुविकल्प बन जाते हैं। अथवा विभिन्न प्रायुनों को बांधकर भी वहां उत्पन्न होने से अनेक प्रायुविकल्प बन जाते हैं। ज, ध. पृष्ठ १६-१०२, धवल १६ पृ. ४२४-२५ भी देख।
तत्त्वार्थ सूत्र २/५३ प्रादि से उपर्युक्त मत भिन्न हैं। शेष सब सुगम है।
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(७) गाथा २६५ पृ. ३६६ ) में प्रागत शब्द "प्रसंखभजिकमा " का विशेषार्थ में स्पष्टीकरण भुलवश नहीं हो पाया है। इसलिए इसका स्पष्टीकरण यहाँ किया जाता है
जिला, पृथ्वी, धूलि तथा जल शक्ति की अपेक्षा ये ४ स्थान पृथक् पृथक् असंख्यात लोकप्रमाण भेदों वाले हैं । तथापि ये भेद यथाक्रम श्रसंख्यातगुणे हीन असंख्यातगुणेहीन हैं। यथा:समस्त कषाय उदयस्थान श्रसंख्यात लोक प्रमाण होते हैं । तथापि उत्कृष्ट स्थान से प्रारम्भ कर जघन्य स्थान पर्यन्त क्रमशः असंख्यात गुणहीन-असंख्यात गुणहीन होते हैं। समस्त कषायोदय स्थानों को प्रसंख्यातलांक से भाजित करने पर बहुभाग मात्र शिलाभेद समान उत्कृष्ट शक्तियुक्त उदयस्थान होते हैं । पुनः शेष एक भाग को असंख्यात लोक से भाजित करके जो बहुभाग प्राप्त हो वे पृथ्वीभेद समान अनुत्कृष्ट शक्तियुक्त उदयस्थान होते हैं । पुनः शेष एक भाग को असंख्यात लोक से भाजित करने पर जो बहुभाग प्राप्त हो तत्प्रमाण धूलिरेखा समान प्रजघन्य शक्तियुक्त उदयस्थान होते हैं । पुनः अन्त में शेष बचे एक भाग मात्र उदयस्थान जलरेखा समान जघन्य शक्तियुक्त होते हैं। ये भी प्रख्यात लोक प्रमाण हैं | इस प्रकार ये चारों स्थान क्रमशः असंख्यातगुणेहीन-हीन होते हैं । प्रकार नायें शक्तिस्थानों में उदयस्थानों का प्रमाण कहा गया ( १०८ प्राचार्य अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती) । O
इस
(८) गाथा ६४० के विशेषार्थ में पृ. ७०९ पर कहा है कि "अन्यथा तीसरी पृथ्वी से निकले हुए कृष्ण आदिकों के तीर्थंकरत्व नहीं बन सकता है", फिर लिखा है कि "तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता के कारण स्वयं इतनी विशुद्धता आ जाती है कि वह स्वयं दर्शनमोह की क्षपणा कर सकता है।" इसका स्पष्टीकरण - रहस्य की बात यह है कि यह जीव तीर्थकर केवली, सामान्य केवली या श्रुत केवली के पादमूल में हो दर्शनमोह की क्षपा करता है । ( भवन ६ / २४६ ) ऐसी स्थिति में जो जीव तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर दूसरे-तीसरे नरक उत्पन्न होते हैं तथा फिर वहाँ से प्राकर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, उनको क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति ऐसे होती है कि ऐसे तीर्थंकर सत्त्व वाले क्षायोपण सम्यक्त्वी चरम शरीरी मनुष्य स्वयं जिन अर्थात् श्रुतकेवली होकर फिर प्रन्य किसी की fafe के बिना, स्वयं ही दर्शनमाह की क्षपणा करने में समर्थ होते हैं । प्रस्ता. पू. १, मूल पृ. ४, जैनगजट १६.४७० ई. पू. ७) 1
( जयधवल १३
श्रीकृष्णा ने श्री नेमिनाथ के समवसरण में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध तो कर लिया था, किन्तु उनको क्षायिक सम्यक्त्व नहीं उत्पन्न हुआ था । सम्यक्त्व से पूर्व श्रीकृष्ण ने नरकायु का बन्ध कर लिया था. यतः वे मरकर तीसरे नरक में उत्पन्न हुए। वहाँ से क्षयोपशम सम्यक्त्व के साथ निकल कर तीर्थकर होंगे। अब यहाँ प्रश्न यह होता कि उनको क्षायिक सम्यक्त्व कैसे प्राप्त होगा ? इसके समाधान के लिए घबल में लिखा है कि जो स्वयं जिन अर्थात् श्रुतकेबली होते हैं, वे स्वयं दर्शनमोह की क्षपणा करते हैं, उनको ग्रन्य केवलो या श्रुतकेबलों के पादमूल की श्रावश्यकता नहीं रहती । श्रतः कृष्ण नरक से आकर मुनि बनकर, श्रुतकेवली (जिन) बनकर फिर स्वयं दर्शनमोह को क्षपणा ( बिना किसी के पादमूल मे गये) कर लेंगे। शेष सब सुगम है ।
वि. २५.१२.१६६२
विदुषाम् अनुचरः
जवाहरलाल जैन सिद्धान्तशास्त्री
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शुद्धिपत्र
অবিন
प्रशुद्ध
शुद्ध
...
भक्ति प्रादि तत्त्वों को चनें, यह निमित्त है। साक्षात् प्रत्यक्ष हेतु मोहनीय कर्म गुणस्थान योग के सद्भाव प्रश्रद्धान प्रमत्तसंयत व अप्रमत्तसंयत अर्थात् सूत्र में विवक्षित नय वेदकसम्यक्त्व सहानवस्था ४३६-६३७ ८००-५५ ५८६-६३७ २५०-२६४
भक्ति एवं अणुनत महावत प्रादि तत्त्वों के बनें । यह साक्षात् हेतु दर्शनमोहनीय कर्म गगास्थान सद्भाव प्रद्धान प्रमत्तसंयत अर्थात् परमागम में मुख्य वेदक सम्याष्टि
महानवस्था १४ कोठा नं. १ ४३६-६३०
६ कोठा न. ५ ८००.८८५ १२ कोठा न. ४ ५८५-६३७ २० कोठा नं. ५ ३५०-२६४
(३६ से १४) इसी प्रथम समानता बन जाती है दसवें गुगाम्यान....पावश्यक है। में ही प्रथम जिस पुष्टि के का वेदक विभाग जीव या काययोग को करने वाला प्रकृति क्योंकि, पहले माग जीवों क्यों अपेक्षा वृद्धि जो पसंझी साधारण
इसी प्रकार प्रथम एकता कही है ये तीनों पंक्तियां काटनी हैं। में ही क्रोध की प्रथम जिस कृष्टि का बेदन
त्रिभाग जीब
योग का उपदेश करने वाला
प्रवृत्ति
क्योंकि, पहले माग सभी जीवों क्योंकि अपेक्षा प्रथवा वृद्धि जो प्रसंज्ञी (?) साधारण जीव
1 २७ ।
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पृष्ठ
पंक्ति
प्रद
शुख
२५
३०
१२३
१४५ १४७ १५१ १५१ ११२
कृष्टियों को
कृष्टियों की को द्विचरम फाली हो
की द्विचरमकालि नक ले का उपाय पंक्ति तीन के अन्त में जोडिए- प्रसंख्यासगुणा है। उममें अनिवत्ति० उपशामक का गूणरिण
गुणकार असंख्यात गुणा है। उससे सूक्ष्मसाम्पराय का
गुरगश्रेरिंग गुणकार असख्यातगुणा है। बारा के निनि:संग
बाण के समान विनिःसंग शेष छह प्रकृतियाँ
शेष कर्म प्रकृतियाँ सूक्ष्म तेजकायिक बादर बनस्पति- सूक्ष्म जकायिक बादर वायुकायिक-मूक्ष्म कायिक
वायुकाविक बादरवनस्पतिकाधिक उपमुक्त के
उपमुक्त आहार के होती हैं, किन्तु मूलाचार
होती हैं। मुलाचार उपपाद जन्म में एकेन्द्रिय
उपपाद जन्म में तथा एकेन्द्रिय स्थित सबसे
स्थित जीवों के सबसे वाली है। इस
बाली है यानी भ्रमर यो चौड़ा है । इस स्वस्थान सूक्ष्म
स्वस्थान में सूक्ष्म घन्यज
जघन्य १४-१५ अवगाहना करके
अवगाहना को ग्रहण करके २० मे प्रावली के
से इसको प्राबली के सूक्ष्म पृश्वीकायिक की
सुभम पृथ्वीकायिक पर्याप्तक की शादर वनस्पतिकायिक शरीर बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर नीचगोत्र रूप
नीच गोत्र के में भेद किया
का प्रभाव किया पहले स्थितिकाण्डक
पहले ; स्थितिकाण्डक भवति' 'संयन
भवति'; अर्थात् पर विधि बाधक होती है
इस नियम के अनुसार 'संगत परिणामों
प्रागों १३:१४, १५; १७ इन्द्रियों
नोट-इन्द्रियों को जगह इन्द्रिय-प्रागों पढ़ें। उसमें मनोबलरूप
उससे उत्पन्न हुए मनोबल रूप २२-२३ भाषावगंगा... शक्ति
"भावगंगा .. शक्ति" मथुन संज्ञा
परिग्रह सजा जान पड़ता है।
ज्ञानरूप पड़ता है। ये इन्द्रियाँ
वे इन्द्रियाँ (उपयोग रूप भावेन्द्रिया) नारकियों के उत्पन्न
नारकिमों में जीवों के उत्पन्न पंक्ति १३ के अन्त में जोड़
सूक्ष्म साम्पराय संयम का जघन्य अंतर एक समय है। क्योंकि मक्ष्म साम्परायिक संयतों के बिना समय जगत में देखा जाता
xcx
Murhwor
१६६
१७६
१८१
१८१ १८७
~
१६१ १६६
[२८ ]
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________________
पृष्ठ
PEE
१६६
२०१
२२३
२२५
१२८
२३८ २४
२४५
**
૨૪=
२४८
२५३
२६२
२६४ २६४
૨૫૪
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२८३
२८४
२८५
२६२
३०४
३०५
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३०८
पंक्ति
२६
२८
५
१५.
२५
११
७
१-२
२७
१३
१०
३०
२४
१८-२०
२-३
दे
२४
**
२५
३०
२
१७
£
१
अशुद्ध
शुद्ध
है । उत्कृष्ट प्रसर छह मास है, क्योंकि अपकरण-प्रारोहण का उत्कृष्ट अन्तर छह मास ही है। छह मास बाद कोई-नकोई सूक्ष्म साम्पराय होता ही है ।
तीसरे में कापोत व नील, चौथे में नील, पाँचवें में नील व कृष्ण लेश्या
तीसरे चौथे नरक में नील ब
कृष्ण लेश्या
५०० धनुष
नरकगति नारकी
६१९७०८४६६६६६४१६२....
प्रथमवर्गमूल अ. . को
द्वितीय वर्गमूल x (तृतीय
इन्द्रियों के उक्त
पुद्गल ऋव्य का... परिमन है ।
व्यय सहित
आप के बिना
सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक हीन्द्रिय... पंचेन्द्रिय
युक्त बनता है ।। १८२ ।। शंका- प्रत्येक वनस्पति में. ....अकान्तिक है ।
नहीं हुई है, जल
मूलादिक, जो श्रागम में प्रतिष्ठित
प्रत्येक
हेतु (भावकलंक) यह तीनों राशियां लोक
जलकायिक जीव
पर्याप्त प्रावली
संपूर्ण बादर पर्याप्त
क्योंकि सम्बन्ध
प्रभाव
गुण से वह
श्रोर भुज्यमान
जिन्होंने पूर्व
[ २९ ]
७] योजन ३ कोस
नरकगति से नारकी
६१६७०८४६६६८ १६४१६२... प्रथमवर्गमूल से ज. श्रे. को द्वितीय वर्गमूल (तृतीय इन्द्रियों के द्वारा उक्त
विशिष्ट संस्थान, महत्व तथा प्रकृष्ट वाशी आदि पुद्गल द्रव्य का परिण मन है ।
व्ययरूप से अधिक
आप के बिना
सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक
त्रीन्द्रिय द्वीन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय युक्त; पृथ्वी श्रादि में बनता है ।। १८२ ।। शंका प्रत्येक वनस्पति में सूक्ष्मता विशिष्ट जीव की सत्ता सम्भव है अतः यह सत्त्वान्यथानुपपत्तिरूप हेतु अनेकान्तिक है । २
नहीं हुई है; ऐसे इनमें जल
जो मूलादिक, ग्रागम में प्रतिष्ठित प्रत्येकपने से
हेतु भावकलंक है, यह तीनों राशियाँ असंख्यातसोक
जलकायिक पर्याप्त जीव
पर्याप्त जीवराशि प्रावली
सम्पूर्ण बादर
क्योंकि कर्म सम्बन्ध
अभाव
गुरण हो वह
और अन्त में भुज्यमान
जिन्होंने कार्मण काययोगकाल में पूर्व
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________________
पंक्ति
पृष्ठ ३१७
२७
३२६
११-१२
३७०
३८०
३८९
२२
अग्रज वर्ग होता है। . .........
वगंणा होती है। अथवा परमाणु
प्रतः परमाणु केवल यौदारिक शरीर की
प्रौदारिक शरीर की केवल पुद्गलों का उत्कर्ष
पुदगलों का संक्लेश से उत्कर्ष एकेन्द्रियों में त्रसों
एकन्द्रियों से त्रसों एक समय........उदय समय है उस तीसरे........
है उसे तीसरे तुल्य प्रसंस्यातगुणे
तुल्य होकर प्रसंध्यातगुरणे सूत, प्रेय
सूत या स्वत, प्रेय जल के द्वारा
जल के मिचनों द्वारा हैं ।।२६५।। हैं । शिला, पृथ्वी, धूलि तथा जल ये चारों स्थान पृथक्-२
प्रसंग्यात लोक प्रमारण होते हुए भी क्रमशः असंख्यात
गुणहीन-२ हैं ॥२६॥ परिवर्तन मात्र विशेष
परिवर्तनमात्र क्रोध के परिवर्तनवार विशेष पदार्थों में की
पदार्थों की प्रप्राय
अबाय अब इस प्रकार........दिये ही हैं। इस प्रकार सभी (११) विकल्पों का
स्पष्टीकरण किया गया। वस्तु का उपरिम
वस्तु का, उपरिम ६११...... ६१२ वें
६०११.... .. ६०१२ बें अनन्त माग जाकर
अनन्त भाग बुद्धियाँ जाकर प्रमाण वृद्धियों में में
प्रमाण अनंतभाग दृद्धियों में से अपरिवर्तित
अपवर्तित के नीचे संख्यात
के नीचे काण्डक प्रमाण संख्यात [(४x ४५)
[(१४४५) जघन्य स्थ
जघन्य स्थान में प्राभृतप्राभृत जितने
प्राभृतप्राभृत के जितने बयासी
तिरासी श्रुक्षजान एक
श्रुतज्ञान में एक एक अक्षर होता है
एक भंग होता है से एक करने
से एक कम करने यथा--प्रकार के
यथा-प्रकार के
१३-१४
२५
४०३
Wa man.
४२६ ४२६
४३१
४३२
४३८
"210
२६.२७
४३६ ४४३
१४६३८ १९५३ श्रुतज्ञान एककम प्राप्त होने उनके प्रवृत्ति
६. ४ १६३० श्रुतज्ञान और तदाबरण कर्म के एक कम प्राप्त होने पर उनके प्रति प्रवृत्ति
[३०]
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अशुद्ध
पृष्ठ
पंक्ति
४४५
साधु की कथा........ लास्य पद हैं। पांच भूतों के भंगविधिविणेष, तत्त्व
४५२
कारणभूत है-क्षेत्राननुगामी वर्ग सानी में क्योंकि सूक्ष्म अवगाहना से ऊपर
*
साधु को कथा लाख पौर ५ पद हैं। बार भूतों के भंगविधिबिशेष, पृच्छाविधि, पृच्छाविधि
विशेष, तत्व करागभूत है-वह तीन प्रकार का है—क्षेत्राननुगामी वर्गानों के संत्र य में क्योंकि वह सूक्ष्म अवगाहना का मान
(प्रमाण) है । परन्तु इससे ऊपर जाते हैं उनको वह जानता है। उन उतना पल्योपम प्रसंख्यातमाग पाता है, यानी ही प्राचार्य जघन्य ध्रुवहार, वर्गणा गुणकार ५ वर्गार संबंधी विकल्पों को लाने हेतु एक रूप का परमाणुप्रचय कुष्ठ कम एक दिवस की बात जानता
४७१
जाते हैं, उन उसने इस पल्योपम प्रसंख्यातवें भाग हो जघन्य ध्रुवहार वर्गण। गुणकार व वर्ग सम्बन्धी एक रूप का कुछ परमाणप्रचय कुछ एक दिवस है।'
२३-२४
४८४ ४५
Ac
४६६
है, सामान्यवानी संख्यातव मात्र जघन्य द्रव्य में .. होता
है ।।४१४॥
४४
५०१
है, कालसामान्यवाची संख्यातवें भाग भाव उतने परमावषि के भेद हैं। इनमें से उत्कृष्ट चरम भेद में द्रव्यहार (अर्थात्
ध्रुवहार) प्रमाण होता है ।। ४१४।। अव्यवहित काल कम इससे इसी प्रकार काल इससे बहुत से उसका संख्यातवा भाग संबंधी उत्कृष्ट क्षेत्र द्वारा प्रथम पृथ्वी रहित अवधि या समस्त . पावली के असंख्यातवें भाग
५०५
५०६
प्रत्यवहित काय कम । इससे इस प्रकार काल बहुत से असंख्यातवा भाग संबधीक्षेत्र द्वारा पृथ्वी सहित अवधि युक्त समस्त पावली के भाग
५०६
५०५
५.
[ ३१
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पाक्ति
५२६ १२६
५२६
xxxxxxxxx
५.२६
५.२६
२३
५४.६
ज्ञाता पदाथों तिर्यक तथा प्रतिज्ञानियों प्रमाण अवधिज्ञान इनसे अधिक विमंगशानी मिथ्याष्टि प्रोच मिथ्याप्टि इसके उदय छेदों पुर्व संयम का कारण असत्य छुरी, विष नामक तीसरे गुरगवत अवधि, सामायिक कषाय का काव असंख्याता चक्षुदर्शन परमार्थ अचक्षुदर्शन की उत्पति कषायों में केवल मसूम कुसूम प्रनवात व तनुवात पर संख्यात मानत, प्रारगत ) स्वर्गा होती है ।। ५३४-३५॥
५७०
ज्ञात पर्यायों तियंच मतिज्ञानियों प्रमाण तथा प्रवधिज्ञान इनसे व अयोगी से अधिक विमंगशानी भी मिथ्याष्टि प्रोच यानी सकल मिथ्याष्टि अप्रत्यास्थानावरण के उदय भेदों पूर्व में संयम का कारण, ऐसे असत्य छुरी, धेनू, विष नामक मुरावत अवधि में सामायिक कषाय का, काय भसंख्यात प्रचक्षुदर्शन परमार्थप्रवक्षज्ञान की उत्पत्ति कषायों से, केवल कुसुम व तनुवात पर एक बार संख्यात ) स्वगः होती है । भवनत्रिक अपर्याप्तों के
___ अशुभत्रिक होती है ।।५३४-३५।। असंख्याल भाग का भाग अब प्रशुभ लेश्या वाली सम्पूर्ण जीवराथि
को तीनों के सामूहिक वर्ग से के भागाहार के गुपकाचरित (यक्षों के विवरण
स्थान); स्पर्श करते हैं । इसलिए प्रतरांगृल गुणित
जगप्रेरिण का संख्यातवाँ भाग प्रमाण गुणकार स्थापित करना चाहिए। सर्वत्र
|
१० १६-२०
५१२ ५६
|
६००
२
असंख्यातवें भाग प्रशुभ लेश्या वाली जीवराझिको
सामूहिक वर्ग मे को भागाहार के गुह्यक चरित (यक्षों के विचरण
स्थान) ये समानार्थक हैं। स्पर्श करते हैं। सर्वत्र
*
*
६१०
[ ३२ ]
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________________
पष्ट
पंक्ति
प्राशुद्ध
११ .
१३४
११
कम नव बटा
कम ८/१४ तथा नव बटा ॥१९६।। स्वस्थान
॥१९६।। स्पष्टीकरण-स्वस्थान स्वस्थान की
स्वस्थान व समृदयात की भाग अथवा
माग प्रसंख्यात बहुमाग अथवा चौड़े माग
चौथे भाग शंका-१:....ही आता है। x x x (तीनों पंक्तियां काटनी है।) लेने पर जीव
लेने पर भी जीव संयम
समय को जानना चाहिए। सख्यात संख्यात प्रसंख्यात व अनन्त भेद बाला
प्रसंन्यात व अनन्त प्रावलियों का वह एक समय
एक समय मावलियों सिख को
सिडों को माम समय १
६ मास = समय
६४३
छह प्रावली प्रमाण वह बड़े वच पटल के चाहिए । यह
संख्यात मावली प्रमाण वह छोटे-बड़े वना पृथ्वी के चाहिए । जघन्य प्रत्येक गरीर वर्गगा
से उत्कृष्ट प्र.श. वर्गणा असंख्यात गुणी है। गुणकार पल्य का प्रसंख्यातवां मार
६६७
१८-१९
होती हैं । इस प्रकार
Eys
होती हैं । अपनी जघन्य से उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणा प्रसंख्यात गुरणी है। जगमश्रेणी के मसंख्यात माग गुणकार
है इस प्रकार पादि में उत्तरोत्तर न्यून तः सू०, स. सि०, राजवातिक की
परम्परा:होते हैं। इस प्रकार पाट गुणस्थान से १४वें
६८०
मादि में न्यून नक्शे के ऊपर इस तरह हेडिंग
लगाना: - होते हैं । पाठ गुणस्थान १४ यह क्रम की प्रोष काल मिला डेन गुणहानि कर्म है
को प्रोष काल में मिला डेढ़ गुणा हानिx कर्म प्रमाण है।
५०४
७०५
[ ३३ 3
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________________
पृष्ठ
शुद्ध
७१०
७२० ७२३ ७२५
होने के पश्चात्
करता हुमा समय
समयों रूप से दाम
रूप मे, दारु भजनीय है। दर्शन
भजनीय है, ऐसा मागम में कहा है।
दर्शनसम्यम्हष्टियों की इच्छा राशि है। सम्यग्दृष्टि हैं। को पल्य
से पल्य करता है वह
करता है, प्रतः वह अतएव
मथबा करते हैं । जहाँ
करते हैं। इसी तरह मारणांतिक समु
दधात में जहाँ समुद्घात श्रेणी
समुद्धात में श्रेणि एक जीव की अपेक्षा
नाना जीवों की अपेक्षा प्रनाहारक सबै
काम होते हैं। एक जीव को अपेक्षा मनात्मभूत हेतु अन्तरंग निमित्त है। मनात्मभूत हेतु है तथा ब्ययोगनिमित्तक
भावयोग तथा बीर्यान्सराय ज्ञानावरण वर्णनावरण के क्षय, क्षयोपशम से उत्पन्न मात्मशाक्ति भात्मभूत अन्तरंग
निर्मित है। असंख्यात........
संख्यात अनुभय पिकलेन्द्रियों
अनुमय वचन बिकलेन्द्रियों सम्यक्त्व
सम्यक्त्ती -पंचेन्द्रिय जीवों
पंचेन्द्रिय तक के जीवों मानने में उनसे अनेकान्त दोष हो ऐसा एकान्त नहीं है ; अर्थात पनेकान्त प्राता है।
जाता; क्योंकि सामायिक व छेदोपस्थापना में विवक्षा-भेद से ही भेद है, बास्तव में नहीं।
७३५
३७.
२६
७४४
२२.२३
७४
२२
[३
]
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गोम्मटसार : जीवकाण्ड
* विषय-सूची *
विषय
पृष्ठ
विषय
१०१
१०३
११४
मंगलाचरण बीस प्ररूपणा प्रोध व पादेश का स्पष्टीकरण मार्गणाओं में विभिन्न प्रहपणामों का
अन्तर्मान गुणस्थान लक्षण गुगास्थान निर्देश गुणस्थानों में भाव गुणस्थान प्रलपणा अधिकार मिध्यान्व : लक्षण व भेद सासादन सम्बग्मिध्वात्व सायोपामिक सम्यक्त्व औरमिक क्षामिक समकित पंचम मुसास्थान प्रमत्तसयत प्रमाद के ५ भेद ३७ हजार मंगों का नक्शा अप्रमत्तसपत अधकरण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरगा नया स्पर्धक व
कृष्टि प्ररूपण सूक्ष्म साम्पराय उपशान्तप्राय क्षीणकषाय सयोगबली
प्रायजितकरण केवली समुद्घात योगनिरोध योग कृष्टियाँ सक्षमक्रिया अप्रतिपाती ध्यान नयोगकेवली गूणधैरिगनिर्जरा के ११ स्थान सिखों का स्वरूप अन्य मत परिहार जीवसमास प्ररूपणा अधिकार निरूक्ति जीवसमास का लक्षण जीवसमास के भेद स्थान, योनि, अवगाहना, कुल विभिन्न वोनियों में जन्म गर्भादि जन्म योनि संख्या गांत तथा जन्म में संबंध विभिन्न गतियों में वेद अवगाहना मत्स्य-रचना कूलों द्वाग जीवसमासों का कथन पर्याप्ति प्ररूपणा अधिकार
लक्षण व भेद ७४ | म्मामी ७६ | पर्याप्तियों के प्रस्थापन व निष्ठापन ७६ | में काल
११८ ११६ १२१ १२८
१३३
१३४
१३५
१५४
१५७
१६१
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विषय
२३८
२४२
२४३
२४४
२५४ २५६ २५८ २६. २६३
२७३
पर्याप्त न नियत्वास ग्रन्त महतं में अपर्याप्त के भव । ममुद्घात केवली की अपर्याप्तता पर ऊहापोह १६५ लकष्यपर्याप्तक आदि में गुणस्थान . हुण्डावसपिगगी में भी स्त्री में सम्यक्त्वी
उत्पन्न नहीं होते प्राण प्ररूपणा अधिकार प्राण लक्षगा भेद, उत्पति की
सामग्री, स्वामी प्रादि संज्ञा अधिकार संज्ञा का लक्षगण व भेद माहारादि संजात्रों के हेतु लक्षण गुशास्थान आदि
१८५ मागंणा-महाधिकार मार्गणा-निरुक्त्यर्थ तथा संख्या
१८८ १४ मार्गणानों के नाम मान्तर मगंगाएँ
१६५ गति-मार्मणा प्ररूपणा मरगति का स्वरूप
१६ आयु, लेण्या, नरक-दुःख नरक में गुगाम्थान : गत्यागति कौन किम नरक तक जाते हैं लियंच गति-स्वरूप मुख-दुः, अन्तर, गुणास्थान तथा जीवसमाम
२०२ । मनुष्य गति : स्वरूप, क्षेत्रसीमा
२०५ मनुष्य गति के दुःख
२०७ तिर्यंचों तथा मनुष्यों के भेद
२०६ देवमति --स्वरूप देवों में दु:ख देवों के भेद व ग्रायु सिधश
२१२ चारों गतियों के जीवों की पथाक्रम संख्या २१४ इन्द्रियमार्गणा निशक्त्यर्थ
इन्द्रियों के भेद व स्वरूप इन्द्रियों का विषयक्षेत्र इन्द्रियों द्वारा प्राप्त अर्थ का ग्रहगा इन्द्रियों का प्राकार व प्रवगाहना अनिन्द्रिय (सिद्ध) एकन्द्रियादि जीवों की संख्या कायमार्गमा भेद, वर्ण पादि ३६ प्रकार की पृथ्वी पृथ्वी, पृथ्वी काय, पृथ्वीकामिक, पृथ्वी जीव सूक्ष्म व बादर में भेद चार स्थाबरों को अवगाहना वनस्पतिकायिक स्वरूप भेद आदि साधारण का स्वरूप (विस्तृत निरूपण) षोडशपदिक अल्पबहत्व नित्यनिगोद अस: स्वरूप, भेद, क्षेत्र कौन-२ निगोदहिन शरीर हैं प्रस व स्थाबरों के प्राकार प्रादि कायमार्गगा में संस्था पोगमार्गणा लक्षण तीनों योगों का स्वरूप स्थित (भाट मध्य के) जीयप्रदेशों में
भी कर्मबन्ध योग प्रौदयिक भाव है। योगों के भेद वचन योग व भेद दस सत्य वचन अनुभय वचन ४ मनोनचनयोग वा हेतु सयोग केवली के मनोयोग श्रौदारिक, मिथ काययोग वैक्रियिक, मिश्र कावयोग आहारक, साहारक मिश्र
२७५ २७७ २७८
१९९
२७६
२०६ २६.
२६१
२६२ २६४
२६६
mr
२६६
३१०
२११
३०१
३०२ ३०४
R
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३७८
३८० ३८० ४०५
३२०
४१७ ४१७ ४२६
४२६
४३२
४४०
४४६
४१
कागंण काययोग वैक्रिविक व आहारक युगपत नहीं अयोगी शरीरों में कर्म-नोकर्म विभाग शरीरों के समय प्रबन व वगंगा की
अवगाहना बिनसोपचय-स्वरूप जचन्य गुण में भी अनन्त प्रविभाग
प्रतिच्छेद होते हैं ५ शगैरों का उत्कृष्ट संचय पांच भी की उत्कृष्ट स्पिति पाँच शरीरों की गुणहानि मौदारिक प्रादि शरीरों का बंध, उदय व
सत्त्व द्रष्य प्रमाण शरीरों के उत्कृष्ट संचय के स्वामी पांगमानणा में जीवों की संख्या वेदमागणा वेद का हेतु किस जीव के कोनसा वेद वेदों के लक्षण प्रवेदी सिद्ध वेदमार्ग में जीवसंख्या कवायमार्गणा कषाय का निरुक्यर्थ कषायों के भेद व कार्य कोध प्रादि कषायों के पर्यायवाचक नाम कपायों के ४, १४, २० भेद नरकादि गति के प्रथम ममयों में
कॉनमी कषाय हो? शक्ति, लेण्या व प्रायुबंध की अपेक्षा
४, १४, २० भेद छहों मेश्याओं में कुछ समान अश काय मार्गणा में जीव ज्ञानमार्गणा निरुक्ति सिद्ध लक्षण ज्ञान के भेद, स्वामी ग्रादि
मिश्रज्ञान का हेतु/मनःपर्यय का स्वामी
३ अज्ञानों के लक्षण ३१४ मतिझान--विविध भेद, सविस्तर
निरूपण श्रुतज्ञान-लक्षगा, भेद, स्वरूप षट्स्थान लि का स्वरूप अक्षरात्मक श्रुतज्ञान द्रव्यश्रुत ब केवल ज्ञान समान नहीं
श्रुत के २० भेदों का प्रपञ्च ३२३ द्वादशांग के सब पद
बाह्य अक्षरों की संख्या 13 श्रुतज्ञान के ६४ प्रक्षरों के एक्संयोगी
मादि सर्व भंगों की गणित
अंगप्रविष्ट तथा अंगबाह्य में विभाजन २३७ बारह अंगों के नाम व पद ३३८ दिव्यध्वनि का स्वरूप
बारहवें अंग के भेद इत्यादि ३४४ अंगवाह्य के भेद ३४५ धावक क्रर्म के उपदेशक तीर्थकर ३४५ अहिसक कैसे ?
श्रुनज्ञान के पर्यायवाचक शब्द ३४५ अवधिज्ञान : स्वरूप, भेद, स्वामी
अन्य भेद व स्वामी ३५१ अवधिजान का विषय ३५२ देशावधि के जघन्यादि
द्रव्य तथा ध्र बहार का स्वरूप, कार्मण ___ वर्गणा का गुणाकार प्रादि
देशावधि के द्रव्य विकल्प ३६३ क्षेत्र व काल के विकल्प कैसे बढ़ते हैं ?
देशावधि के १६ काण्डक ३६५ परमावधि
मविषि नरक में अवधिक्षेत्र मनुष्य-तिर्यंच में अवधि
भवनत्रिक में अवषि का क्षेत्रकाल ३७५ । स्वगरें में अवधिज्ञान
४५३
४६५ ४७१
४७५
४०२
३५८
४८३ ४६६
४८६
४६६
५०५
५०७
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५११
५८०
X
५८५
५२२
५८६ ५८१
मनःपर्य यहान : स्वरूप भेद मादि उत्पत्ति के प्रात्मप्रदेश कहाँ ऋजु विपुलमति में भेद मनःपर्यय का विषय रूपी पदार्थ ऋजुमति का जघन्य उत्कृष्ट द्रव्य विपुलमति का द्रव्य इन दोनों के क्षेत्र दोनों मनःपर्ययों के काल व भाव केवलज्ञान ज्ञानमार्गणा में जीवसंख्या संयम मार्गणा लक्षगा व हेतु पांच संयमों की उत्पमि संयम ४ ही हैं संयमासंयम पांचों मयमों का स्वरूप देशसंयम का स्वरूप प्रसंगप्राप्त ५ अणुव्रनों का चरणानुयोगीय
५६२ ५६३ ५६७
५३२
६०४
विभिन्न गतियों में द्रव्यलेश्या परिमारण व संक्रमण अधिकार कुछ मध्यम अंश सभी लेश्यामों में
समान हैं ३२१ लेश्याकर्म के ६ दष्टान्त
६ लेश्या वालों के स्वभाव
लेश्याओं के २६ अंश ५२५ अपकर्ष स्वरूप
पाठ मध्यम अंश का नक्शा ८ मध्यम ग्रंथों के नाम तथा खुलासा
किस लेश्या बाला किस गति में जावे ५३० पारों गतियों में कहाँ कौन लेश्या
लेश्या (द्रव्य व भाव) का हेतु लेण्या में जीवों की संख्या अल्पबहुत्व
लेण्या क्षेत्र ५४१ ! ७ समुद्घात का स्वरूप
लेश्या में स्पर्श ५४२ लेश्यायों का काल ५४६ लेश्याओं में अन्तर
मलेण्य मिद्धों का स्वरूप भव्य मार्गणा : स्वरूप व जीवसंख्या सम्यक्त्वमार्गणा : लक्षण सम्यक्त्व के इस भेद छह द्रव्य निरूपण छह द्रव्यों में रूपी-अरूपी छह द्रव्यों के लक्षण परमाणु, १ समय में १४ राजू जाता है काल के समय, प्रावली आदि भेद पावली का प्रसंध्यातवाँ भाग भी __ अन्समुहूर्त है
६ मास ८ समय में ६०८ जीव मुक्त ५७३ अर्थ व व्यजन पर्याय ५७६ द्रव्यों का प्राचार ५७७ : छोटे से लोक में सब जीवों का समावेश
१०६ ६१०
६१५
६२०
५५०
६२५
६२८ ६२६
तीन गुणवत शिक्षात्रत शिक्षाबतों के नाम विभिन्न प्राचार्यो
के मत से गणारह प्रतिमामों का स्वरूप असंयत का स्वरूप संयम मार्गणा में जीव दर्शनमार्गणा : लक्षण दर्शन सामग्राही है प्रनात्मज्ञता का दूषण किसे ? शान में दर्शन अधिक है। सभी दर्शनों का स्वरूप दर्शनमार्गणा में जीवसंख्या लेण्यामार्गणा : लक्षण लेण्या के भेद लश्या के बर्ग
६४२
६४५
५७२
६५०
६५२
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।
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विषय
७२१ -
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७३२
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किस तरह? छह द्रव्यों के भेद जीवद्रव्य के चलाचल प्रात्मप्रदेश पुदगल त्र्य चल है २३ पुदगल वगंगानों का निरूपण पुद्गल के मादरबादर प्रादि ६ भेद स्कन्ध, स्कन्धदेश, प्रदेश, परमाणु ६ व्रव्यों के उपकार परमाणु के बन्ध का निरूपण अविभाग प्रतिच्छेद का स्वरूप पंचास्तिकाय नौ पदार्थ पुण्य जीव व पापजीब प्रत्येक गुणास्थान में जीवसंख्या मान, वेद, प्रबगाहन प्रादि की अपेक्षा
एक समय में विभिन्न क्षपकों की संख्या सकलसंयमी की संख्या प्रधम ४ गुणस्थानों के प्रवहार काल पुण्य व पापप्रकृतिया पुष्य का स्वरूप पुण्य मोक्ष का हेतु है पास्रव संवर आदि का लक्ष्य सायिक सम्यक्त्व प्ररूपण क्षायोपशम सम्यक्त्व प्ररूपण उपशम समकित : पांच लविध
आदि का निरूपण सासादन सम्यक्त्व मिथ्यात्व लक्षण सम्यक्त्वमार्गमा में जीवसंख्या
६५३ संही मार्गणा : स्वरूप व संख्या
प्राहार मार्गणा : स्वरूप व स्वामी ६५८
सात समुद्घातों का सोदाहरण म्वरूप केवली समहामात का इन पाटि
समुद्घातों की दिशा ६६६ माहारक/पनाहारक काल ६७० प्राहारमार्गणा में जीवसंख्या ६७१ उपयोग अधिकार : साकार व अनाकार
उपयोग
उपयोग के ८,४ भेद ६५० उपयोगाधिकार में जीव संख्या ५८२ प्रमतर्भावाधिकार ६८३ मार्गणानों में गुणस्थान ६८५ एकेन्द्रियों में श्रतशान
सियों में क्षायिक पारित्र है ६६२ गुरणस्थानों में जीवसमास ६६३ गुणस्थानों में पर्याप्ति व प्राण
गुणस्थानों में संज्ञा ६६६
गुणस्थानों में मार्गरणाएं गुरणस्थानों में उपयोग मालपाधिकार गुणस्थानों में मालाप मागंणामों में भालाप १६, ३८, ५७ जीवसमास कुछ नियम
द्वितीयोपशमी के मनःपर्यय है ७१८ द्वितीयोपशम कहाँ उत्पन्न होता है ?
सिद्धों का स्वरूप ७१९ ] २० भेदों के ज्ञान का उपाय व फल
७५७
७५६
६६५
७६८ ७६६ ७७t
७८१ ७८३
१९
७८६
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।। श्रीमन्नेमिचन्द्राय नमः ॥ + गोम्मटसारः॥
* जीवकाण्डम् *
मङ्गलाचरण और वस्तु-निरूपण की प्रतिज्ञा-- सिद्ध सुद्ध पणमिय जिरिंगदवरणेमिचंदमकलंकं ।
गुरगरयणभूसणुवयं जीवस्स परूवणं वोच्छं ॥१॥ गाथार्थ - जो सिद्ध हैं, शुद्ध हैं, अकलङ्क हैं और जिनके गुणरूपी रत्नों के भूषगों का उदय रहता है, ऐसे जिनेन्द्रवर (श्रेष्ठ) नेमिचन्द्र (नेमिनाथ) भगवान को नमस्कार करके मैं (नेमिचन्द्राचार्य) जीव की प्ररूपरणा कहता हूँ ।।१।।
विशेषार्थ – इस प्रथम गाथा में ग्रन्थकर्ता श्रीमन्नेमिचन्द्राचार्य ने इष्टदेव को नमस्कार करके जीवप्ररूपणा के कथन की प्रतिज्ञा की है।
जो कृतकृत्य हैं, अत: सिद्ध हैं; द्रव्य-भावरूप धातिया-कर्मों मे रहित हैं, अत: शुद्ध हैं । सुधादि अठारह दोषों से रहित हैं, अतः अकलक हैं तथा अनन्त-ज्ञानादि गुणरूप रत्नों की प्रकटना होने से गुणरत्नभुषणोदय हैं, उन नेमिनाथ भगवान को नमस्कार करके, अथवा
घातिया कर्म के नाश में प्रकट अनन्तज्ञानादि नव केवललब्धिरूप अनुपम ऐश्वर्य से सहित होने से जो जिनेन्द्र हैं अर्थात् जिनकी ज्ञानप्रभा से तीनों लोक और तीनों काल व्याप्त हैं, तीर्थरूपी रथ का प्रवर्तन करने में जो नेमि (धुरा ) के समान हैं, तीनो लोकों के नेत्रकमलों को विकसित करने में जो चन्द्र के समान हैं, ऐसे जिनेन्द्र श्रेष्ठ चतुविति तीर्थव र समुदाय को, अथवा कर्मरूपी पर्वतों के भेदन करने वाले जिन हैं उनमें इन्द्र-प्रधान इन्द्रभूति गौतम गगाधर के वर (गुरु) श्री वर्धमान स्वामी को नमस्कार करके जो कि नेमिचन्द्र भी हैं, क्योंकि शिष्यों को अविनाशी पद पर ले जाने से वे "नेमि" हैं तथा चन्द्रवत विश्वतन्वप्रकाशक होने से चन्द्र भी हैं। इस तरह वर्धमान स्वामी ही नेमिचन्द्र हैं; उन्हें नमस्कार करके प्रथया साध्य को सिद्ध कर लेने से जो सिद्ध है; ज्ञानावरणादि पाठ प्रकार के द्रव्यभावरूप कमों से रहित हैं अतः शुद्ध है; परवादियों द्वारा कल्पित दोषों का अभाव होने से जो प्रकलङ्क
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२)गो. मा. जीवकाण्ड
हैं: सम्यक्त्वादि पाठ गुणों के प्रकट हो जाने से जो गुणरत्नभूषण हैं तथा वे सिद्ध जिनेन्द्रवर नेमिचन्द्र भी हैं (कर्मजेता -जिन' ; परम ऐश्वर्य शोभितः इन्द्र; वर- उत्कृष्ट ; नेमि = ज्ञान; चन्द्र = परमसुख भोक्ता: वर नेमि = उत्कृष्ट ज्ञानी : सभी विशेषरा सिद्धों के हैं।); ऐसे सिद्धों को नमस्कार करके मैं (नेमिचन्द्राचार्य) जीवनरूपणा का कथन करूगा।
इस गाथा के तीन चरण मङ्गलरूप हैं, क्योंकि इसमें जिनेन्द्रदेव के गुणों का कीर्तन किया गया है। जिनेन्द्र देव के कीर्तन से विघ्न नाश को प्राप्त होते हैं, कभी भय उत्पन्न नहीं होता, दुष्टदेवता आक्रमण नहीं कर सकते और निरन्तर इच्छित अर्थ की सिद्धि होती है, अतः प्रारम्भ किये गए किसी भी कार्य के प्रादि, मध्य और अन्त में मङ्गल करना चाहिए, क्योंकि निविघ्न कार्य-सिद्धि के लिए जिनेन्द्र गुरकीर्सनलप जलायक है।
मङ्गल दो प्रकार का है-निवद्धमङ्गल, अनिबद्धमङ्गल । निबद्धमङ्गल - ग्रन्थ की आदि में ग्रन्थकर्ता द्वारा मङ्गलस्वरूप गाथा की रचना स्वयं करके जो इष्टदेवता को नमस्कार किया जाता है, वह निबद्धमङ्गल है तथा जो मङ्गलस्वरूप गाथा ग्रन्थकार के द्वारा स्वयं नहीं रची जाती है, वह अनिबद्धमङ्गल है ।
इस गोम्मटसार जीवकाण्ड ग्रन्थ के आदि में जो यह मङ्गलरूप गाथा है, वह निबद्धमङ्गल है. क्योंकि इष्टदेव को नमस्काररूप यह गाथा स्वयं ग्रन्थकर्ता द्वारा रची गई है।
शडा-ग्रन्थ स्वयं मंगलरूप है या अमङ्गलरूप ? यदि ग्रन्थ स्वयं मङ्गलरूप नहीं है तो वह ग्रन्थ भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मङ्गल के अभाव में पाप का कारगा होने से उसका ग्रन्थपने से विरोध है। यदि ग्रन्थ स्वयं मङ्गलरूप है तो फिर उसमें अलग से मङ्गल करने की क्या आवश्यकता है, क्योंकि मंगलरूप ग्रन्थ से ही कार्य की निष्पत्ति हो जाती है ?
समाधान - ग्रन्थ के आदि में मङ्गल किया गया है, तथापि पूर्वोक्त दोष नहीं आता, क्योंकि ग्रन्थ और मङ्गल इन दोनों से पृथक्-पृथक् रूप में पापों का विनाश होता है। निबद्ध और अनिबद्ध मङ्गल पठन में आने वाले विनों को दूर करता है और ग्रन्थ प्रतिसमय असंख्यात गुरिणत धेरिणरूप से पापों का नाश करके उसके बाद सम्पूर्ण कर्मों के क्षय का कारण होता है।
शङ्खा-देवता-नमस्कार भी अन्तिम अवस्था में सम्पुर्ण कर्मों का भय करने वाला होता है, इसलिए मङ्गल और ग्रन्थ दोनों एक ही कार्य को करने वाले हैं। फिर दोनों का कार्य भिन्न क्यों बतलाया गया?
समाधान-सा नहीं है, क्योंकि ग्रन्थकथित विषय के परिज्ञान के बिना केवल देवतानमस्कार में कर्मक्षय का सामथ्र्य नहीं है। मोक्ष की प्राप्ति शुक्लध्यान से होती है, किन्तु देवतानमस्कार शुक्लध्यान नहीं है।
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-
१. विघ्नाः प्रणश्यन्ति भयं न जातु, न दुष्टदेवा: परिलयन्ति ।
अर्थान्यथेष्टाश्च सदा लभन्ते, जिनोनभानां परिकर्तिमन ।। २. पादौ मध्यावमान न मङ्गलं भाषितं वुधैः । तजिनेन्द्रगुणस्तोत्र सदविघ्नप्रसिद्धये ॥ [प. पु. १ पृ. ४२] ३. ध. पु १ पृ. ४३ ।
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मंगलाचरशा/३
यद्यपि इस गाथा में देवता-नमस्कार रूप मंगल किया गया है तथापि तालप्रलम्ब' सूत्र के देशामर्थक होने से मंगलादि छहों अधिकारों का प्ररूपण करता है । कहा भी है
मंगल-निमित-हेऊ परिमारणं णाम तह य कतारं ।
बागरिय छ प्पि पच्छा वक्खारण सत्थमाहरिया ॥ मङ्गल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ता इन छह अधिकारों का व्याख्यान करके प्राचार्य शास्त्र का व्याख्यान करें ।।।
_ 'मगि' धातु मे मंगल शब्द निष्पन्न हुआ है ।२ मंगल का निरुक्ति अर्थ -जो मल का गालन करे, घात करे. दहन करे, नाश करे, शोघन करे, विध्वंस करे वह मंगल है। द्रव्य और भावमल के भेद से मल दो प्रकार का है। द्रव्यमल भी दो प्रकार का है बाह्य द्रव्यमल और अभ्यन्तर द्रव्यमल । पसीना, धलि आदि बाह्य द्रव्य मल है। कठिनरूप से जीवप्रदेणों से बंधे हुए प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप भेदों में विभक्त ज्ञानावरगादि पाठ प्रकार के कर्म अभ्यन्तर द्रव्यमल हैं। प्रज्ञान और अदर्शन आदि परिणाम भावमल हैं। इस प्रकार के मल का जो गालन वारे, बिनाश करे, वंस करे बह मंगल है। अथवा मंग' शब्द मुखवाची है, उसे जो लावे, प्राप्त करे, वह मंगल है।'
मंगल, पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशम्न, शिव, भद्र और सौग्य इत्यादि मंगल के पर्यायवाची नाम हैं। प्राचीन प्राचार्यों ने अनेक शास्त्रों में भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा मंगलरूप अर्थ कहा है। अथवा यदि एक शब्द से प्रकृत विषय समझ में न आवे तो दूसरे शब्दों द्वारा समझ सके इसलिए यहाँ मंगलरूप अर्थ के पर्यायवाची अनेक नाम कहे गये हैं।
___ जीव मंगल है, किन्तु मभी जीव मंगलरूप नहीं हैं, क्योंकि द्रव्याथिकनय की अपेक्षा मंगलपर्याय से परिगान जोव को और पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से केवलज्ञानादि पर्यायों को मंगल माना है।
शङ्का-किस कारण से मंगल उत्पन्न होता है ? समाधान-जीब के प्रौदयिक एवं प्रौपशमिक प्रादि 'भावों मे मंगल उत्पन्न होता है । शङ्का-प्रौदयिक भाव मंगल का कारण कैसे हो सकता है ?
समाधान-पूजा, भक्ति एवं अणुव्रत-महावत आदि प्रशस्त-रागरूप प्रौदयिक भाव और तीर्थङ्कर प्रकृति के उदय से उत्पन्न प्रौदयिक भाव मंगल के कारण हैं।
शङ्का - जोब में मंगल कब तक रहता है ?
समाधान-नाना जीवों की अपेक्षा मंगल सर्बदा रहता है और एक जीव की अपेक्षा अनादिअनन्त, सादि-अनन्त तथा सादि-सान्त रहता है ।
शङ्का-एक जीव के अनादिकाल से अनन्तकाल तक मंगल कैसे सम्भब है ?
.
१. अ. पृ. १ पृ. ८ । २. घ. पु १० 1 ३. ध. पु. १ पृ. ३३.३४ । ४. ध. पु. १ पृ. ३२-३३ । ५. श्र. पु. १ पृ. ३६ ।
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४/गो. सा. जीवकाश
समाधान -द्रव्याथिकनय की मुख्यता से जीव अनादिकाल से अनन्त काल तक सर्वथा एक स्वभाव अवस्थित है अतएव मंगल में भी अनादि-अनन्तपना बन जाता है ।
शङ्का-इस प्रकार जीव को मिथ्याट अपस्था में भी मंगलाने की बात हो जाती ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं, क्योंकि यह इष्ट है। कारण कि जीवत्व का अभाव होने से मिथ्यात्व, अविरति एवं प्रमाद आदि को मंगलपना प्राप्त नहीं हो सकता । मंगलस्वरूप तो जीव ही है और वह जोव केवलज्ञानादि अनन्तधर्मात्मक है।
शङ्खा-केवलज्ञानावरण यादि कर्मबन्धन की (संसार) दशा में मंगलीभूत केवलज्ञानादि का सद्भाव कैसे सम्भव है ?
समाधान--कर्मों के द्वारा आवृत होने वाले केबलनामादि का सद्भाव न माना जावेगा तो आवरण करने वाले केवलज्ञानावरणादि का भी सद्भाव सिद्ध नहीं हो सकेगा।
शङ्का-छद्मस्थ जीव के ज्ञान-दर्शन अल्प होते हैं अत: वे मंगलस्वरूप नहीं हो सकते ?
समाधान नहीं, क्योंकि ट्रयस्थों में पाये जाने वाले एकदेश ज्ञान-दर्शन में यदि मंगलपने का प्रभाव माना जावेगा तो सम्पूर्ण अवयवभुत ज्ञान-दर्शन को भी अमंगलपना प्राप्त हो जावेगा।'
शङ्का-प्रावरण से युक्त जीवों के ज्ञान और दर्शन मंगलीभून केवलज्ञान और केबलदर्शन के अवयव ही नहीं हो सकते हैं ?
समायान-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि केवलज्ञान और केवल दर्शन से भिन्न ज्ञान और दर्शन का सद्भाव नहीं पाया जाता है ?
शङ्का - केवलज्ञान और केवलदर्शन से अतिरिक्त मनिज्ञानादि ज्ञान और चक्षुदर्शनादि दर्शन तो पाये जाते हैं ? इनका प्रभाव कम किया जाता है ?
समाधान-उस ज्ञान और दर्शनसम्बन्धी अवस्थाओं की मतिज्ञानादि और चक्षुदर्शन ग्रादि माना संज्ञाएं हैं। अर्थात् ज्ञानगुण की अवस्था विशेष का नाम मत्यादि और दर्शनगुण की अवस्था विशेष का नाम चक्षुदर्शनादि है । यथार्थ में इन सर्व अवस्थानों में रहने वाले ज्ञान और दर्शन एक ही हैं 1
शङ्का केवलज्ञान और केवलदर्शन के अंकुररूप छद्मस्थों के ज्ञान और दर्शन को मङ्गलपना प्राप्त होने पर मिथ्या दृष्टि जीव भी मंगल संज्ञा को प्राप्त होता है, क्योंकि मिथ्याष्टि जीव में भी वे अंकुर विद्यमान हैं ?
समाधान - यदि ऐसा है तो भले ही मिथ्याप्टि जीब को ज्ञान और दर्शनरूप से मंगलपना प्राप्त हो, किन्तु इतने से ही मिथ्यात्व, अविरति ग्रादि को मंगलपना प्राप्त नहीं हो सकता है।
१. घ. पृ. १ पृ. ३६-३८ ।
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मंगलाचरण/५
शङ्का-मिथ्या दृष्टि जीव सुगति को प्राप्त नहीं होते हैं, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना मिथ्यादृष्टियों के ज्ञान में ममीचीनता नहीं पाई जाती तथा समीचीनता के बिना उन्हें मुगति नहीं मिल सकती। फिर मिथ्याष्टियों के ज्ञान और दर्शन को मंगलपना कैसे है ?
समाधान-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि प्राप्त के स्वरूप को जानने वाले, इधस्थों के ज्ञान-दर्शन को केवलज्ञान और केवलदर्शन के अवयवरूप से निश्चय करने वाले और पावरणरहित अनन्तज्ञान और अनन्त दर्शनरूप शक्ति से युक्त प्रात्मा का स्मरण करने वाले सम्यग्दृष्टियों के ज्ञान और दर्शन में जिस प्रकार पाप का क्षयकारीपन पाया जाता है उसी प्रकार मिथ्या दृष्टियों के ज्ञान और दर्शन में भी पाप का क्षयकारीपन पाया जाता है। इसलिए मिथ्याष्टियों के ज्ञान और दर्शन को भी मंगलपना होने में विरोध नहीं है ।'
जो आत्मा वर्तमान में मंगल पर्याय से युक्त तो नहीं है, किन्तु भविष्य में मंगलपर्याय से युक्त होगी, उसके शक्ति की (नो आगमभाविद्रव्यमंगल की) अपेक्षा मंगल अनादि-अनन्त है। रत्नत्रय को धारण करके कभी भी नष्ट नहीं होने वाले रत्नत्रय के द्वारा ही प्राप्त हुए सिद्ध के स्वरूप की अपेक्षा नंगमनय से मंगल सादि-अनन्त है। अर्थात् रानत्रय की प्राप्ति से सादिपना और रत्नत्रय-प्राप्ति के अनन्तर सिद्धस्वरूप की जो प्राप्ति हुई है उसका कभी अन्त पाने वाला नहीं है। इस प्रकार दोनों धर्मों को विषय करने वाले नेगभनय की अपेक्षा मंगल सादि-अनन्त है।
सम्यग्दर्शन की अपेक्षा मंगल सादि-सान्त समझना चाहिए। उमका जघन्यकाल अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम छ्यासठसागर प्रमागा है।
इस गोम्मटसार जीवकाण्ड ग्रन्थ के प्रारम्भ होने में निमित्त श्री चामुण्डराय हैं। अथवा बद्ध, बन्ध, बन्ध के कारण; मुक्त, मोक्ष और मोक्ष के कारण इन छह तत्त्वों के निक्षेप, नय, प्रमाण और अनयोगद्वारों से भलीभाँति समझकर भव्यजन उसके ज्ञाता बने। यह ग्रन्थ अर्थप्ररूपणा की अपेक्षा तीर्थंकर से और ग्रन्थरचना की अपेक्षा गणधर से अवतीर्ण होकर गुरु-परम्परा से श्री धरसेन भट्टारक को तथा उनसे पुष्पदन्त-भूतबली प्राचार्य को प्राप्त हुआ। इन्हीं प्राचार्यद्वय के षट् खण्डागम एवं वोरसेनाचार्य की धवला टीका से श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती प्राचार्य को प्राप्त हुआ।
इस सिद्धान्तग्रन्थ के अध्ययन का साक्षात् हेतु अज्ञान का बिनाश और सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति, देव, मनुप्यादि के द्वारा निरन्तर पूजा का होना तथा प्रतिसमय असंख्यातगुरिणतरूप से कर्मों की निर्जरा का होना है। शिष्य-प्रतिशिष्य प्रादि के द्वारा निरन्तर पूजा जाना परम्परा-प्रत्यक्षहेतु है । अभ्युदय सुम्न और निःश्रेयससुख की प्राप्ति परोक्ष हेतु है ।
अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वारों की अपेक्षा श्रुत का परिमाण संध्यान है और अर्थ की अपेक्षा परिणाम अनन्त है । इस ग्रन्थ का नाम गोम्मटसार जीवकापड है। इस ग्रन्थ के मुलकर्ता (अर्थक ) श्री वर्द्धमाम भट्टारक हैं, अनुसन्धका गौतम गणधर हैं और उपग्रन्थकर्ता राग-द्वेष-मोह से रहित श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती प्राचार्य हैं। णास्त्र की प्रमागता को दिखाने के लिए ग्रन्थ के कत्ता का कथन किया गया है।
३. घ. पु. १ पृ. ५६ ।
४ ध पू. १ पृ. ५२ ।
१. श्र. पु. १ ३८-३६ 1 २. प. पु. १ पृ. ३६.४७ । ५. घ. पु. १ पृ. ६१ । ६. ध पु. १ पृ. १३ ।
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६/गो. सा. जीत्रकाण्ड
जीव सम्बन्धी बीस प्ररूपणाएँगुरगजीवा पज्जत्ती पारणा सगा य मग्गणापो य ।
उधोगो वि य कमसो वीसं तु परूवरणा भरिणवा ॥२॥ गाथार्थ - गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्रारण, संज्ञा, मागंणा (१४) और उपयोग ये बीस प्ररूपणा कही हैं ।।२।।
विशेषार्थ गुणस्थान १४, जीवसमास १४, पर्याप्ति ६, प्राण १०, संज्ञा ४, मार्गणा १४ और उपयोग १२ हैं। इनमें से १४ मार्गणाओं के अवान्तर भेद.. गति ४, इन्द्रिय ५, काय ६, योग १५, बेद ३, कषाय १६, ज्ञान ८, संयम ७, दर्शन ४, लेण्या ६, भव्यत्व २, सम्यक्त्व ६, संज्ञित्व २ और पाहार २ हैं। गुणस्थान, जीवसमासादि का लक्षण एवं विशेष कथन यथास्थान ग्रन्थकार स्वयं करेंगे।
प्ररूपणा, निरूपणा और प्रज्ञापना अथवा निर्देश, प्ररूपण, विदरण और व्याख्यान ये सभी एकार्थक हैं।
शङ्का-प्ररूपणा किसे कहते हैं ?
समाधान-- गुणस्थानों में. जीवसमासों में, पर्याप्तियों में, प्राणों में, संज्ञाओं में, गतियों में, इन्द्रियों में, कायों में, योगों में, वेदों में, कषायों में, ज्ञानों में, संयमों में, दर्शनों में, लेण्यामों में, भव्यों में,प्रभव्यों में; सम्यक्त्वों में, संजी-प्रसंज्ञियों में, पाहारी-अनाहारियों में और उपयोगों में पर्याप्त और अपर्याप्त विशेषणों से विशेषित करके जो जीवों की परीक्षा की जाती है, उसे प्ररूपणा कहते हैं।
__दो प्रकार से प्ररूपणा का कथन - संखेसो पोधो ति य गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा ।
विस्थारादेसो ति य मगरणसण्णा सकम्मभवा ॥३॥ गाथार्थ संक्षेप या ओघ गुणस्थान की संज्ञा है। गुणस्थान की उत्पत्ति मोह और योग के कारण होती है। विस्तार या आदेश यह मार्गमा की संज्ञा है। मार्गणा की उत्पत्ति में कर्म कारण हैं ।।३।।
विशेषार्थ मोघ या संक्षेप, सामान्य या अभेद से कथन करना मोघ प्ररूपणा है। आदेश या विस्तार, भेद या विशेषरूप से निरूपण करना दूसरी आदेश प्ररूपरगा है। इन दो प्रकार की प्ररूपरगानों को छोड़कर बस्तु-विवेचन का अन्य कोई तीसरा प्रकार सम्भव नहीं है, क्योंकि वस्तु में सामान्य और विशेष धर्म को छोड़कर अन्य तीसरा धर्म नहीं पाया जाता है ।
___ शङ्का विशेष को छोड़कर सामान्य स्वतंत्र नहीं पाया जाता इसलिए आदेश-प्ररूपरगा के कथन से ही मामान्य प्ररूपणा का ज्ञान हो जावेगा । अतएव दो प्रकार का व्याख्यान करना यावश्यक नहीं है।
१. प्रा. प. सं. गा. २, अ. १ ।
२. ध. पु. १ पु. १६०-६१ ।
३. घ. पु. २ पृ. ४१३ ।
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विषमप्रापणा
समाधान-यह आशंका ठीक नहीं है, क्योंकि जो संक्षेपरुचि वाले होते हैं वे द्रव्याथिक अर्थात् सामान्य प्ररूपणा से ही तत्त्व को जानना चाहते है और जो विस्ताररुचि वाले होते हैं, वे पर्यायाथिक अर्थात् विशेष प्ररूपणा के द्वारा तत्त्व को समझना चाहते हैं। इसलिए इन दोनों प्रकार के प्राग्गियों के अनुग्रह के लिए यहाँ दोनों प्रकार की प्रहपायों का कथन किया गया है।
'गुग' कहने से गुरगस्थान का ग्रहण होता है ।
शङ्का - नाम के एक देश के कथन करने से सम्पुर्ण नाम के द्वारा कहे जाने वाले अर्थ का बोध कसे सम्भव है ?
समाधान नहीं, त्रयोंकि बलदेव शब्द के वाच्यभूत अर्थ का उसके एकदेश रूप 'देव' शब्द से भी बोध होना पाया जाता है। इस प्रकार प्रनीति-सिद्ध बात में 'यह नहीं कहा जा सकता' ऐसा कहना निष्फल है, अन्यथा सर्वत्र अज्यवस्था हो जात्रगी।
अथबा औदयिक, प्रौपशपिक, क्षायिक,क्षायोपणमिक और पारिशामिक ये पाँच गुण हैं । कर्मों के उदय से उत्पन्न होने बाला गुगा प्रौदायिक है । कर्मों के उपशम से उत्पन्न होने वाला गुण औपशमिक है । कमों के क्षय से उत्पन्न होने वाला गुगण क्षाधिक है। कर्मों के क्षय और उपशम से उत्पन्न होने वाला गुश क्षायोपमिक है। कमी के उदय, उपशम, मन और क्षयोपशम के बिना उत्पन्न होने वाला गुण पारिणाभिक है। इन गुणों के साहचर्य से प्रात्मा भी गुण संज्ञा को प्राप्त होता है। जिनमें गुरग संज्ञा वाले जीव रहते हैं उन स्थानों की गुणस्थान संज्ञा है। वे गुरगस्थान १४ हैं। उनमें से प्रथम गुणस्थान से बारहवें गुणास्थान तक तो दर्शनमोहनोयकर्म के उदय, उपशम, क्षय व क्षयोपशम की अपेक्षा होते हैं। अन्त के दो गुणस्थान सद्भाव व अभाव की अपेक्षा होते हैं। 'मोहजोगभवा' अर्थात् गुणस्थान संज्ञा मोह और योग से उत्पन्न होती है।
मार्गगणा, गवेषणा और अन्वेषणा ये तीनों एकार्थवाची हैं। सल, संख्या आदि अनयोगद्वारों मे युक्त चौदह गुणास्थान जिसमें या जिसके द्वारा खोजे जाते हैं, वह मार्गणा है । मार्गणाएँ कर्मों के निमित्त मे होती हैं।
___ गुगास्थान और मार्गगाा में शेष प्ररूपरणायों का अन्तर्भावप्रादेसे संलीणा जीवा पज्जतिपासण्णायो ।
उवयोगो वि य भेदे वीसं तु परूवा भरिगदा ॥४॥ गाथार्थ-आदेश अर्थात मागरणात्रों में जीवणमास, पनि, प्राण, संज्ञा और उपयोग का अन्तर्भाव हो जाता है । भेद विवक्षा में बोस प्ररूपणा कही हैं ।।४।।
प्रमागगानों का मार्गणाओं में अन्तर्भाव-- इंदियकाये लोरणा जीवा पज्जत्ति प्रारणभासमरणो । जोगे कानो गाणे अक्खा गदिमग्गणे आऊ ॥५॥ मायालोहे रदिपुवाहारं कोहमारणगम्मि भयं । वेदे मेहुणसण्णा लोहम्मि परिग्गहे सरणा ॥६॥
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८/गो. मा. जीवकाष्ट
सागारो उबोगो गाणे मग्गम्मि दसरणे मग्गे । अरणगारो उवनोगो लोगोत्ति जिणेहिं रिणहिट्ठो ॥७॥
गाथार्थ-इन्द्रियमार्गरणा और कायमार्गणा में जीवसमास, पर्याप्ति, श्वामोच्छु वासप्रारण, वचनबलप्राण एवं मनोबलप्राए का अन्तर्भाव हो जाता है। योगमार्गणा में क्रायबलप्राण का, ज्ञानमार्गणा में पाँच इन्द्रियप्राणों का और गतिमार्गमा में प्रायुप्राग का अन्तर्भाव हो जाता है। माया और लोभकषायमार्गणा में रतिपूर्वक पाहारसंज्ञा का, क्रोध और मानकषायमार्गगा में भय संज्ञा का, वेदमार्गणा में मथुनसंज्ञा का, लोभकषायमार्गणा में परिग्रहसंज्ञा का अन्तर्भाव हो जाता है। साकारोपयोग का ज्ञानमार्गणा में और अनाकारोपयोग का दर्शनमार्गगता में अन्तर्भाव हो जाता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।।५-७।।
विशेषार्थ--इन्द्रिय और काय स्वरूप है, जीवसमास स्वरूप बाला है. इसलिए स्वरूप में स्वरूपवान् का अन्तर्भाव होने से कायमार्गणा में जीवसमास अन्तर्भूत है। इन्द्रिय और काय धर्मी हैं, पर्याप्ति धर्म है अत: धर्म-धर्मी सम्बन्ध के कारण धर्मरूप पर्याप्तियों का धर्मी अर्थात् इन्द्रिय और कायमार्गणा में अन्तर्भाव होता है। उच्छ बास-नि:श्वास, वचनबल और मनोबल प्राण कार्य हैं तथा उच्छ बास, भाषा और मन:पर्याप्ति उनका कारण है, अत: कार्य रूप उच्च बास-नि:श्वास, वचनबल और मनोबल प्राणों का कारणरूप पर्याप्ति में अन्तर्भाव है और पर्याप्ति धर्म-धर्मी सम्बन्ध के कारण इन्द्रिय और कायमार्गणा में अन्तभूत है, अतः उनछ बास-नि:श्वास, बचनबल और मनोबलप्रारण का अन्तर्भाव भी इन्द्रिय और कायमार्गणा में हो जाता है। जीवप्रदेशों के परिस्पन्दन लक्षणवाले काययोगरूप कार्य में कायबलमारण कारण है, इसलिए कार्य-कारणभाव की अपेक्षा योगमार्गणा में कायबलप्राण अन्तर्भूत है। अथवा योग सामान्य है और कायबल विशेष है, अत: सामान्य-विशेषापेक्षा भी योगमार्गशा में कायबल प्राग अन्तर्भूत हो जाता है। ज्ञानमार्गणा में इन्द्रियों का अन्तर्भाव कार्य-कारण सम्बन्ध की अपेक्षा है, क्योंकि इन्द्रियावर राकम का क्षयोपशम कारण है और ज्ञान कार्य है। गतिमार्गरणा और पायुप्रारा सहचर धर्मी हैं, क्योंकि गतिनामकर्म और प्रायुकर्म का उदय साथ-साथ ही पाया जाता है, अत: गतिमार्गणा में प्रायुप्रारण का अन्तर्भाव होता है।
आहार की इच्छा रतिकर्मोदयपूर्वक होती है और रतिकर्म, मायाकपाय तथा लोभकषाय रागरूप कषायें हैं अतः माया और लोभकायमार्गणा में आहार संज्ञा अन्तर्भूत है। भयसंज्ञा में द्वेषरूप, क्रोधकषाय, मानकषाय कारण हैं, अतः कार्यकारणभाव की अपेक्षा भय संज्ञा का कोध-मानकषाय मार्गणा में अन्तर्भाव है । वेदकर्म का उदय कारण है और मथुनसंज्ञा उसका कार्य है इसलिए वेदमार्गमा में मैथुनसंज्ञा अन्त भूत है। लोभकाषाय के उदय से परिग्रहसंज्ञा उत्पन्न होती है, अत: लोभकषायमार्गणा में परिग्रहसंज्ञा का अन्तर्भाव है।
ज्ञानावरण कर्म व क्षयोपशम से उत्पन्न ज्ञान कारगा है एवं साकारोपयोग कार्य है, इसलिए ज्ञानमार्गणा में साकारोपयोग का अन्तर्भाव हो जाता है। इसी प्रकार दर्शनाबरणकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न दर्शन कारण है और अनाकारोपयोग कार्य है, अत: अनाकारोपयोग का दर्शनमार्गणा में अन्तर्भाव हो जाता है।
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गगास्थान/
गुणरान का निरुक्ति अर्थ १जेहिं बु सक्खिज्जते उदयादिसु संभवेहिं भावहिं ।
जीवा ते गुणसण्णा गिद्दिद्या सव्वदरसीहि ॥८॥ माथार्थ-कों की उदयादि प्रवस्थानों के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन परिणामों से जोव लक्षित किये जाते हैं, उन्हें सर्वदशियों ने गुणस्थान इस संज्ञा से निदिष्ट किया है ।।८।।
विशेषार्थ- गाथा ३ में 'मोहजोगभवा' इन शब्दों के द्वारा गुणस्थानों की उत्पत्ति का कारण बतला दिया है। यहाँ भी 'उदयादि' शब्द द्वारा गुणास्थान सम्बन्धी परिणामों की उत्पत्ति का कारण बतलाया गया है । अर्थात मोहनीयकर्म के उदय से मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं। दशनमोहनीयकर्म के क्षयोपशम से मिथ गुणस्थान होता है। (विशेष के लिए देखें गा. ११-१२ का विशेषार्थ) दर्शनमोहनीयकर्म एवं चारित्रमोहनीयकर्म की अनन्तानुबन्धी चतुष्क के उपशम या क्षयोपशम अथक करके चतुर्थगुसस्था हो है पत्याख्यानानकषाय के उदयाभाव से पंचम गुणस्थान होता है। प्रत्याख्यानावरणकषाय के उदयाभाव से ६ से १० तक पाँच गुणस्थान होते हैं। चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम से ११वा तथा क्षय से १२वाँ गुणास्थान होता है। चार घातिया कमों के क्षय से १३-१४ वो गुणस्थान होता है, किन्तु १३३ गुणास्थान में शरीर-नामकर्मोदय के कारण योग है और शरीरनामकर्मोदय का अभाव हो जाने से १४वें गुगास्थान में योग भी नहीं होता । इस प्रकार इन १४ गुणस्थानों में १ से १२ तक दर्शनमोह और चारित्रमोह कर्म के उदय, उपशम, क्षयोपशम तथा क्षय से उत्पन्न होने वाले भावों के निमित्त से होते हैं। १३-१४वाँ गुणस्थान योग के सद्भाव और प्रभाव से होता है।
चार घातिया और चार अघातियाम्प-नाठ ऋर्मों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के बन्ध-उदय-सत्त्व का सम्पुर्णरूप से क्षय हो जाने पर मुक्तावस्था उत्पन्न होती है। यह अवस्था गुणस्थानातीत है, क्योंकि यहां कर्मों का सन्त्र ही नहीं रहा है।
गुगणस्थानों का निर्देश २मिच्छो सासरण मिस्सो, अधिरदसम्मो य देसविरदो य । विरमा पमत्त इदरो, अपुत्व अरिणयट्टि सुहमो य ॥६॥ ४उवसंत खोरणमोहो सजोगकेवलिजिरणो अजोगि य ।
५चौद्दस जीवसमासा कमेण सिद्धा य रणादम्वा ॥१०॥ गाथार्थ --मिथ्यात्व, सामादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देश विरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण संयत, अनिवत्तिकरणसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, उपशान्तमोह, क्षीणमोह सयोगकेबली, अयोगकेवली ये क्रम से चौदह गुणस्थान होते हैं तथा सिद्धों को गुणस्थानातीत जानना चाहिए ।।६-१०।।
१. च.पू. १: प्रा. पं. स. प. २ ५०। ८. प्रा. प सं.अ.१ गा. ४ ५.२ व ५७० । ३. प्राकृतांचसंग्रहे इयगे' पाठः । ४. प्रा. पं. सं. गा. ५ पृ. २ व ५७०। ५. 'चोदमगुरागट्टाणागि य इति पाठो प्राकृतपंचसंग्रहे।
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१० / मो. सा. जीवकाण्ड
farara चौदह गुग्णस्थानों की एवं सिद्धों में श्रपशमिकादि भावों को प्रा प्रो विदिए पुरण पारिणामित्रो भावो । खप्रोवस मिश्रो अविरदसम्मम्मि तिष्णेव ॥ ११ ॥
मिच्छे खलु मिस्से
एदे भाषा यिमा दंसरणमोहं पडुच्च भरिणदा हु । चारितं रात्थि जदो प्रविरद ते ठाणेसु ॥ १२ ॥
गाथार्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान में नियम से प्रदयिकभाव होता है, पुन: द्वितीय सासादन गुणस्थान में पारिणामिकभाव मिश्रगुरणस्थान में क्षायोपशमिक भाव और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में श्रमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीनों भाव सम्भव हैं ||११|| ये भाव दर्शनमोहनीय कर्म की अपेक्षा कहे गए हैं क्योंकि अविरत सम्यग्दष्टि गुणास्थान तक चारित्र नहीं होता है || १२ ||
विशेषार्थ - यद्यपि मिथ्यात्व गुणस्थान में क्षायोपशमिक ज्ञान, दर्शन, लाभ, वीर्य आदि होते हैं, जीवत्व भव्यत्व - अभव्यत्वरूप पारिणामिक भाव भी होते हैं तथापि दर्शनमोहनीय कर्म की अपेक्षा मात्र एक औदयिक भाव होता है।
गाथा में 'मिच्छे' शब्द मिथ्यात्व का द्योतक है। औपशमिक आदि पाँच भावों में से यह श्रीदयिक भाव है। कर्मोदय से जो भाव हो वह प्रदयिक भाव है। मिध्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला मिथ्यात्वभाव कर्मोदयजनित है अतएव प्रदयिक है | दर्शनमोहनीय कर्म की एक मिथ्यात्व प्रकृति का उदय ही मिथ्यात्वभाव का कारण है यतः यह भाव प्रदयिक है।
सासादन गुणस्थान में पारिणामिक भाव है ।
शङ्का सासादन सम्यग्दृष्टिपना भी सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों के विरोधी अनन्तानुबन्धी चतुष्क के उदय के बिना नहीं होता इसलिए सासादन सम्यष्टि को औदयिक क्यों नहीं मानते ?
समाधान- यह कहना सत्य है; किन्तु उस प्रकार की यहाँ विवक्षा नहीं, क्योंकि आदि के चार गुणस्थानसम्बन्धी भावों की प्ररूपणा में दर्शनमोहनीयकर्म के अतिरिक्त शेष कर्मों की विवक्षा का प्रभाव है। इसलिए विवक्षित दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से, उपशम से, क्षय से अथवा क्षयोप्रथम से नहीं होता अतः यह सासादनसम्यक्त्व निष्कारण है और इसलिए इसके पारिणामिकपना भी है ।
जाता ?
शङ्का - इस न्याय के अनुसार तो सभी भावों को पारिणामिकपने का प्रसंग प्राप्त होता है ।
समाधान यदि उक्त न्याय के अनुसार सभी भावों के पारिणामिकपने का प्रसंग श्राता है तो माने दो, कोई दोष नहीं है, क्योंकि इसमें कोई विरोध नहीं जाता है ।
शा-यदि ऐसा है तो फिर अन्य भावों में पारिणामिकपने का व्यवहार क्यों नहीं किया
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प्रस्थान १९ समाधान नहीं, क्योंकि सासादन सम्यक्त्व को छोड़कर विवक्षितकर्म से नहीं उत्पन्न होने वाला अन्य कोई भाव नहीं पाया जाता ।'
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सम्यग्मिथ्यादृष्टि यह क्षायोपशमिक भाव है, क्योंकि प्रतिबन्धी कर्म के उदय होने पर भी जीव के गुण का जो अवयव ( अ श ) पाया जाता है वह गुणांश क्षायोपशमिक कहलाता है । शङ्का - कैसे ?
समाधान गुणों को सम्पूर्ण रूप से घातन की शक्ति का प्रभाव क्षय कहलाता है । क्षयरूप ही जो उपशम होता है वह क्षयोपशम कहलाता है । उस क्षयोपशम में उत्पन्न होने वाला भावक्षायोपशमिक कहलाता है।
IE
शङ्का - सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के उदय रहते हुए सम्यक्त्व की कणिका भी प्रवशिष्ट नहीं रहती है, अन्यथा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के सर्वघातिपना नहीं बन सकता इसलिए सम्यग्मिध्यात्वभाव क्षायोपशमिक है, यह कहना घटित नहीं होता ?
समाधान सम्यग्मिथ्यात्व कर्म का उदय होने पर श्रद्धानाश्रद्धानात्मक करंचित् अर्थात् शवलित या मिश्रित जो परिणाम उत्पन्न होता है । उसमें जो श्रद्धानांश है, वह सम्यक्त्व का श्रवयव है, उसे सम्यग्मिथ्यात्कर्म का उदय नष्ट नहीं करता इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व भाव क्षायोपशमिक है।
शङ्का - अश्रद्धानभाग के बिना केवल श्रद्धानभाग के ही 'सम्यग्मिथ्यात्व' यह संज्ञा नहीं है ग्रतः सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिक नहीं है ?
समाधान - उक्त प्रकार की विवक्षा होने पर सम्यग्मिथ्यात्व भले ही क्षायोपशमिक न होवे, किन्तु अवयवी के निराकरण और अवयव के निराकरण की अपेक्षा वह क्षायोपशमिक है अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्यकर्म का उदय रहते हुए अवयवीरूप सम्यक्त्वगुरण का तो निराकरण रहता है, किन्तु सम्यक्त्वगुण का अवयवरूप अंश प्रगट रहता है। इस प्रकार क्षायोपशमिक भी सम्यग्मिध्यात्वद्रव्यकर्म सर्वघाती होवे, क्योंकि जात्यन्तरभूत सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सम्यक्त्वता का प्रभाव है, किन्तु श्रद्धानभाग अश्रद्धानभाग नहीं हो जाता, क्योंकि श्रद्धान और श्रद्धान में परस्पर एकता का विरोध है | श्रद्धानभाग कर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि इसमें विपरीतता का प्रभाव है । उसमें सम्यग्मिथ्यात्व संज्ञा का प्रभाव भी नहीं है, क्योंकि समुदायों में प्रवृत्त हुए शब्दों की उनके एकदेश में भी प्रवृत्ति देखी जाती है इसलिए यह सिद्ध हुआ कि सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिकभाव है । २
सम्यग्मिथ्यात्वलब्धि क्षायोपशमिक है, क्योंकि वह सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न
होती है ।
शङ्का - सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के स्पर्धक सर्वधानी ही होते हैं इसलिए इनके उदय से उत्पन्न हु सम्यग्मिथ्यात्व उभय प्रत्ययिक ( क्षायोपशमिक) कसे हो सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के स्पर्द्धकों का उदय सर्वघाती नहीं होता 1
१. प. पु. ५. पृ. १६६-१६७ २. श्र. ५ . १६८-१९६ ।
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१२/गो. मा. जीवकाण्ड
शङ्खा-यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान-क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्वरूप अंश की उत्पत्ति अन्यथा बन नहीं सकती, इससे ज्ञात होता है कि सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के स्पर्धकों का उदय सर्वघाती नहीं होता।
सम्यग्मिथ्यात्व के देशघाती स्पर्धवों के उदय से और उसी के सर्वघाती स्पर्धकों के उपशम संज्ञाबाले उदयाभाव से सम्यग्मिथ्यात्व की उत्पत्ति होती है, इसलिए वह तदुभय प्रत्यथिक (क्षायोपशामिक) कहा गया है। तृतीय गुणस्थान में बाधीशनिक भाई है.
शङ्का - मिथ्यादष्टि गुणस्थान से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने वाले जीव के क्षायोपमिक भाव कसे सम्भव है ?
समाधान वह इस प्रकार सम्भव है—वर्तमान समय में मिथ्यात्वक्रर्म के सर्वश्राती स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय होने से, सत्ता में रहने बाले उभी मिथ्यात्वकर्म के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावरूप उपशम होने से और सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के सर्वाती स्पर्धकों का उदय होने से सम्यग्मिथ्या. रत्व गुणस्थान उत्पन्न होता है, अतः वह क्षायोपशमिक सम्भव है।
शङ्का-तृतीय गुरागस्थान में सम्मिथ्यात्वप्रकृति के उदय होने से बहाँ प्रौदायिक भाव क्यों नहीं कहा ?
समाधान - प्रौदायिकभाव नहीं कहा, क्योंकि मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से जिस प्रकार सम्यक्त्व का निरन्वय नाश होता है उस प्रकार सम्बग्मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से सम्यक्त्व का निरन्वय नाश नहीं होता, इसलिए तृतीय गुणस्थान में प्रौदधिकभाव न कहकर क्षायोपशमिक भाव कहा है।
शङ्का-सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का उदय सम्यग्दर्शन का निरन्वय विनाश तो करता नहीं है। फिर सम्य मिथ्यात्त्र प्रकृति को सर्वघाती क्यों कहा?
समाधान---ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति सम्यग्दर्शन की पूर्णता का प्रतिबन्ध करती है, इस अपेक्षा मे सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति को सर्वघाती कहा है।
शङ्का जिस प्रकार मिथ्यात्व के क्षयोपशम से सम्यग्मिथ्यात्व मुगास्थान की उत्पत्ति बतलाई है उसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान अनन्तानुबन्धी कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के क्षयोपशम से होता है, ऐसा क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं कहा, क्योंकि अनन्तानुबन्धी चारित्र का प्रतिबन्ध करती है अर्थात् चारित्रमोहनीय की प्रकृति है इसलिए वहां उसके क्षयोपशम से तृतीयगुणास्थान की उत्पत्ति नहीं कहो गई है। [प्रथम चार गुणस्थानों में दर्शनमोह की विवक्षा है, चारित्रमोह कर्म की विवक्षा नहीं है । ] " जो प्राचार्य अनन्तानबन्धी कर्म के क्षयोपणम से तृतीयगुणस्थान को उत्पत्ति मानते हैं उनके मनानुसार सासादन गुगास्थान को प्रोदयिक मानना पड़ेगा, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि द्वितीय गुणस्थान को प्रौदयिक नहीं माना गया है। अथवा
१. घ. पु. १४ पृ. २१।
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गुणस्थान/१३
मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी के सर्वघाती स्पर्घकों के उदयाभावी क्षय से तथा सदवस्थारूप उपशम से, सम्यक्त्वप्रकृति के देशघाती स्पर्धकों का उदयक्षय होने से, सत्ता में स्थित उन्हीं देशघाती 1. स्पर्शकों का उदयाभावलक्षण उपशम होने से और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सवंघाती स्पर्धकों का उदय
होने से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान उत्पन्न होता है, इसलिए वह क्षायोपमिक है। यहाँ इस प्रकार जो , सम्यग्मिथ्यात्व गुरास्थान को क्षायोपशमिक कहा है वह केवल सिद्धान्त के पाठ का प्रारम्भ करने बालों को परिज्ञान कराने के लिए ही कहा है। वासाब में तो सम्यग्मिथ्यात्वकर्म निरन्वय रूप से माप्त-पागम और पदार्थ विषयक श्रद्धा का नाश करने के लिए असमर्थ है, किन्तु उसके उदय से सत्समीचीन और असत्-असमीचीन पदार्थों का युगपत् विषय करने वाली श्रद्धा उत्पन्न होती है, इसलिए १ सम्पम्मिथ्यात्व गुणस्थान क्षायोपमिक कहा जाता है। यदि इस मुलस्थान में सम्बारेमथ्यात्व-प्रकृति के उदय से सत् और असत् पदार्थ को विषय करने वाली मिश्रसचिरूप क्षयोपशमता न मानी जावे तो उपशमसम्यग्दृष्टि के सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर उस सम्याग्मिथ्यात्व गुणास्थान में क्षयोपशमता नहीं बन सकती है, क्योंकि उपशम सम्यक्त्व से तृतीयगुणस्थान में आये हए जीव के । ऐसी अवस्था में सम्यक्त्वप्रकृति, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन तीनों का उदयाभावीक्षय नहीं पाया जाता।
शङ्का - उपशमसम्यक्त्व मे पाये हुए जीव के तृतीयगुणस्थान में सम्यक्त्वप्रकृति, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन तीनों का उदयाभावरूप उपशम तो पाया जाता है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि इस प्रकार तृतीयगुणस्थान में प्रौपशमिकभाव मानना पड़ेगा ।
शङ्का तृतीय गुरगस्थान में प्रौपणमिकभाव भी मान लिया जाये ? ___ समाधान नहीं, क्योंकि तृतीयगुणस्थान में प्रौपशमिक भाव का प्रतिपादन करने वाला कोई पार्षवाक्य नहीं है। अर्थात् प्रागम में तृतीयगुण स्थान में प्रीपशमिकभाव नहीं बताया है।
यदि तृतीयगुणस्थान में मिथ्यात्वादि कमों के क्षयोपशम से क्षयोपशमभाव की उत्पत्ति मान । ली जाबे तो मिथ्यात्वगुणस्थान को भी क्षायोपभिक मानना पड़ेगा, क्योंकि सादि मिथ्यादृष्टि की । अपेक्षा मिथ्यात्वगुगास्थान में भी सम्यक्त्वप्रति सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के उदयावस्था को प्राप्त हुए स्पर्धकों का क्षय होने से, सत्ता में स्थित उन्हीं का उदयाभाव लक्षण उपशम होने से तथा मिथ्यात्व
कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों का उदय होने से मिथ्यात्वगुणस्थान की उत्पत्ति पाई जाती है । इतने 1 कथन में तात्पर्य यह समझना चाहिए कि तृतीयगुरणस्थान में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति और अनन्ता
नुबन्धी कर्म के क्षयोपशम से भायोपमिव भाव न होकर केवल मिश्रप्रकृति के उदय से मिश्रभाव होता है।'
असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौन सा भाव है ? औपमिकभाव भी है, क्षायिक भाव भी है और शायोपशमिक भाव भी है। मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के मघाती स्पर्धकों के तथा सम्यक्त्वप्रकृति के देशघाती स्पर्धकों के उदयाभावरूप लक्षणवाले उपशम से उपशमसम्यक्त्व उत्पन्न होता है. इसलिए असंयतसम्यग्दृष्टि' यह भाव औपशमिक है। इन्हीं तीनों प्रकृतियों के क्षय से उत्पन्न
१. प. पु. १ पु. १६८ से १७०; सूत्र ११ की टीका ।
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१४/गो. मा. जीन काण्ड
होने वाले भाव को क्षायिक कहते हैं। सम्यक्त्वप्रकृति के देशघाती स्पर्धकों के उदय के साथ रहने वाला सम्यक्त्व परिणाम क्षायोपशमिक कहलाता है। मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभाव क्षय से, उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय से तथा उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से अथवा अनुदय रूप उपशमन से एवं सम्यक्त्वप्रकृति के देशघाती स्पर्धको के उदय से क्षायोपशमिकभाव कितने ही प्राचार्य कहते हैं, किन्तु यह कथन घटित नहीं होता, क्योंकि बसा मानने पर अतिव्याप्ति दोष का प्रसंग आता है।
शङ्का- तो फिर लायोपशामिकमाव करे पास होता है।
समाधान - यथास्थित अर्थ के श्रद्धान को घात करने वाली शक्ति सम्यक्त्वप्रकृति के स्पर्धकों में क्षीण है, अतः उनकी क्षायिकसंज्ञा है। क्षीणस्पर्धकों के उपशम को क्षयोपशम कहते हैं, उसमें उत्पन्न होने से वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक है. यह कथन घटित हो जाता है। इस प्रकार सम्यक्त्व में तीन भाव होते हैं, अन्यभाव नहीं होते ।
शङ्का . . असंयतसम्यग्दृष्टि में गति, लिङ्ग प्रादि भाव पाये जाते हैं, फिर उनका ग्रहण क्यों नहीं किया?
समाधान-असंयतसम्यग्दृष्टि में भले ही गति, लिङ्ग आदि भावों का अस्तित्व रहा पावे, किन्तु उनसे सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता, इसलिए सम्यग्दृष्टि औदयिक प्रदि भावों के व्यपदेश को नहीं प्राप्त होता है, ऐया अर्थ ग्रहण करना चाहिए।
सम्यक्त्वलब्धि सायोपशामिक है, क्योंकि वह सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से उत्पन्न होती है ।
शङ्का - सम्यक्त्वप्रकृति के स्पर्धक देशघाती ही होते हैं । उसके उदय से उत्पन्न हुमा सम्यक्त्व उभयप्रत्यायिक (क्षायोपमिक) कैसे हो सकता है ?
समाधान · नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व के देशघाती स्पर्धकों के उदय से सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है, इसलिए तो वह आर्थिक है और वह औपमिक भी है, क्योंकि वहाँ सर्वघाती स्पर्धकों के उदय का अभाव है।
सम्यक्त्वप्रकृति दर्शनमोहनीय का एक भेद है। उसके (दर्शनमोहनीय के) सर्वघातीरूप से उपशम को प्राप्त हुए और देशघातीरूप से उदय को प्राप्त हुए स्पर्धकों का वेदकसम्यक्त्व (क्षयोपशमसम्यक्त्व) कार्य है, इसलिए वह तदुभय प्रत्ययिक कहा गया है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
उपशमसम्यक्त्व से वेदकसम्यक्त्व को प्राप्त हुए जीव के ऐसी अवस्था में मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय नहीं पाया जाता है, क्योंकि इन दोनों प्रकृतियों के स्पर्धक अन्नरायाम से बाह्य स्थित हैं, मात्र सम्यक्त्व प्रकृति की उदीरणा होकर उदय हुआ है। अथवा क्षायिक सम्यक्त्व के अभिमुख जिसने मिथ्यात्वप्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का क्षय कर दिया है उसके इन दोनों प्रकृतियों का सत्व ही नहीं रहा, उस जीव के भी मात्र
१. ध. पु. ५ पृ. २०७। २. प. पु. १४ पृ. २१-२२ ।
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गुमास्थान/१५
सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से वेदकसम्यक्त्व (क्षयोपशम-सम्पत्व) होता है । इस प्रकार वेदकसम्यक्त्व क्षायोपशमिकभाव है, अत: सम्यक्त्वप्रकृति के उदयमात्र से वेदकसम्यक्त्व (क्षयोपशम सम्यक्त्व) होता है। वेदक सम्यक्त्वप्रकृति के स्पर्धकों की क्षय संज्ञा है, क्योंकि उनमें सम्यग्दर्शन के प्रतिबन्धन की शक्ति का अभाव है। मिथ्यात्व और मिथ इन दोनों प्रकृतियों के उदयाभाव को उपशम कहते हैं। उपर्युक्त शय और उपशम इन दोनों के द्वारा उत्पन्न होने से क्षायोपमिक है ।।
गाथा के कार्य द्वार' मा सहा गया है कि अविरल पदष्टि नामक चतुर्थगुणस्थान तक चारित्र नहीं होता, क्योंकि संयम का घात करने वाले कर्मों के तीव्र उदय से इन चार गुणस्थानों में असंयत होता है अर्थात् अप्रत्याख्यानावरणकषाय चतुष्क के उदय से असंयलभाव होता है, अतः असंयतभाव प्रौदयिक है ।
देणसंयतादि उपग्मि गुगारथानों में भावों का कथन देसविरदे पमत्ते इदरे य खोयसमिय भावो दु । सो खलु चरित्तमोहं पडुच्च भरिणयं तहा उरिं ॥१३॥ तत्तो उरि उवस मभावो उवसामगेसु खबगेसु ।
खइयो भावो रिणयमा अजोगिचरिमोत्ति सिद्ध य ॥१४।। गाथार्थ - चारित्रमोहनीय कर्म की अपेक्षा देशविरत,प्रमत्तसंयत अर्थात् पाँचवें, छठे, सातवें इन तीन गुणस्थानों में क्षायोपमिकभाव होता है ।।१३॥ सप्तम गुणस्थान से ऊपर चारित्रमोहनीय कर्म का उपणम करने वाले के अर्थात् उपशमश्रेणी के पाठवं, नवमें, दसवें और ग्यारहवें गुणस्थान में प्रोपगामिक भाव होता है तथा चारित्रमोहनीय का क्षय करने वाले प्रयोगकेवली पर्यन्त अर्थात् क्षपकश्रेणी के आठवें, नवमें, दसवें, बारहवें, तेरहवे, चौदहवें गुणस्थान में और सिद्धों में भी क्षायिक भाव नियम से होता है ।।१४।।
विशेषार्थ · संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत यह कौनसा भाव है ? क्षायोपमिक भाव है, क्योंकि क्षयोपशमनामक चारित्रमोहनीय कर्म (देशघाती स्पर्धकों) के उदय होने पर संयतासंयत (देशविरत), प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतपना उत्पन्न होता है, अतः ये तीनों ही भायोपशमिकभाव हैं । प्रत्याख्यानावरण करायचतुक, सज्वलन कषायचतुटक और नव नोकषायों के उदय के सर्वप्रकार से चारित्रबिनाश करने की शक्ति का अभाव है, इसलिए उनके उदय को क्षय संज्ञा है। उन्हीं प्रकृतियों के उदय में उत्पन्न हुए चारित्र का प्रावरण नहीं करने के कारण उपशम संज्ञा है।
अथवा सर्वघाती म्पर्धक अनन्तगुरणे हीन होकर और देशघाती स्पर्धकों में परिणत होकर उदय में प्राते हैं। उन सर्वघातो स्पर्धकों का अनन्तगुणहीनत्व ही क्षय है एवं उनका देशघातीस्पर्धकोंरूप से प्रवस्थान होना उपशम है। उन्हीं क्षय और उपशम से संयुक्त उदय क्षयोपशम है । इसो क्षयोपशम से उत्पन्न प्रमत्तसंयत व अप्रमत्तसयत भी क्षायोपशमिक है।
३. घ. पु. ५ पृ २०१; सूत्र ७ 1
१. घ. पु. ५ पृ. २११ । ४. ध पू. ५ पृ. २०३।
२. प. पु. ५ पृ. २०१; मूत्र ६ की टीका। ५. ध. पू १.६२ ।
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१६/ गो. स. जीवकाण्ड
शङ्का – प्रत्याख्यानावरण कषायों की उदीरणा होने पर भी देशसंयम ( संयमासंयम ) को प्राप्ति होती है, अतः उनके सर्वघातीपना नहीं बनता अर्थात् सर्वघातीपना नष्ट होता है ?
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सकलसंयम का अवलम्बन लेकर उनके ( प्रत्याख्यानावरण कपाय के ) सर्वघानीपने का समर्थन किया है।"
देश संयम (संगमा संयम ) की प्राप्ति मानने पर भी प्रत्याख्यानावरण कपाय का सर्वघातीपना नष्ट नहीं होता, क्योंकि प्रत्याख्यानावरकषाय अपने प्रतिपक्षी सर्वप्रत्याख्यानरूप संयमगुरण को घातता है. इसलिए वह सबंधाती है, किन्तु सर्व-अप्रत्याख्यान को नहीं घातता है, क्योंकि प्रत्याख्यानावरण का इस विषय में व्यापार नहीं है, अतः इस प्रकार से परिणत प्रत्याख्यानावरण कषाय के सर्वघाती संज्ञा सिद्ध है। जिस प्रकृति के उदय होने पर जो गुरण उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है, उसकी अपेक्षा वह प्रकृति सर्वघाती संज्ञा को प्राप्त नहीं होती। यदि ऐसा न माना जावे तो प्रतिप्रसङ्ग दोष आ जावेगा ।
श्रप्रत्याख्यानावरण चतुष्क के सर्वघातीस्पर्धकों के उदयक्षय से, उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से, चारों सञ्ज्वलन और नव नोकषायों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावी क्षय से, उन्हों के सदवस्थारूप उपशम से, देशघाती स्पर्धकों के उदय से एवं प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से देशसंयम उत्पन्न होता है । अनन्तानुबन्धी आदि बारह कपायों के सर्वघाती स्पर्धकों उदयक्षय तथा उन्हीं के सदवस्थारूप उपणम से एवं देशघाती स्पर्धकों के उदय से प्रमत्त और अप्रमनगुणस्थान सम्बन्धी संयम उत्पन्न होता है, इसलिए उक्त तीनों ही भाव क्षायोपशमिक हैं, ऐसा कितने ही प्राचार्य कहते हैं, किन्तु उनका यह कहना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उदय के प्रभाव को उपशम कहते हैं' ऐसा अर्थ करके उदय से विरहित सर्वप्रकृतियों को तथा उन्हीं के स्थिति और अनुभाग सम्वन्धी स्पर्धकों को उपशम संज्ञा प्राप्त हो जाती है। अभी वर्तमान में क्षय नहीं है, क्योंकि जिस प्रकृति का उदय विद्यमान है. उसके क्षयसंज्ञा होने का विरोध है. इसलिए ये तीनों ही भाव उदयोपशमिकंपने को प्राप्त होते हैं, किन्तु ऐसा माना नहीं जा सकता, क्योंकि उक्त तीनों गुणस्थानों के उदयोपशमिकपना प्रतिपादन करने वाले सूत्र का प्रभाव है । फल देकर निर्जरा को प्राप्त कर्मस्कन्धों की क्षयसंज्ञा करके उक्तगुरणस्थानों को क्षायोपशमिक कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा होने पर मिध्यादृष्टि आदि सभी भावों के क्षायोपशमिकता का प्रसंग आ जावेगा, अतः पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहरण करना चाहिए, क्योंकि वही निर्दोष है। यहाँ दर्शनमोहनीय की विवक्षा नहीं है, क्योंकि दर्शन मोहनीय कर्म के उपशमादिक से संयमसंयमादि भात्रों की उत्पत्ति नहीं होती है।
उपणमश्रणी सम्बन्धी अपूर्वकरणादि चारों गुरणस्थानवर्ती जीवों के पशमिकभाव है, क्योंकि वे चारित्रमोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों का उपशमन करते हैं ।
शङ्का समस्त कषाय और नोकपायों के उपशम से उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ जीव केोपशमिकभाव भले ही हो, किन्तु पूर्वकरणादि शेष गुणस्थानवर्ती जोवों के प्रोपशमिकभाव नहीं मानना चाहिए, क्योंकि उन गुणस्थानों में समस्त मोहनीय कर्म के उपशम का प्रभाव है ?
१. घ. पू. ११ पृ. ३७ । २. प. पु. ५. २०१ । ३. अ. पु. ५ पृ ९०२-२०३ ।
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गाथा १३-१४
गुणस्थान/१७ समाधान—ऐसी शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि कुछ कषायों के उपशमन किये जाने से उत्पन्न - हुआ है उपशम परिणाम जिसके ऐसे अनिवृत्तिकरण बादरसाम्पराय और सूक्ष्मसाम्पराय संयत के उपशमभाव का अस्तित्व मानने में कोई विरोध नहीं है।
शङ्का-अपूर्वकरणगुणस्थान में किसी भी कषाय का उपशम नहीं होता अतः उसके औपशमिकभाव कसे सम्भव है ?
समाधान-क्योंकि अपूर्वकरण गुणस्थान में अपूर्वकरण परिणामों के द्वारा प्रतिसमय असंख्यातगुणवेणीरूप से कर्मस्कन्धों की निर्जरा करने वाले तथा स्थिति व अनुभागकाण्डकघात द्वारा कम से कषायों की स्थिति और अनुभाग को असंख्यात और अनन्तगुरिणत हीन करने वाले तथा उपशमन क्रिया प्रारम्भ करने वाले ऐसे अपूर्वकरणसंयत के उपशमभाव के मानने में कोई विरोध
शङ्का-कर्मों के उपशमन से उत्पन्न होने वाला भाव औपशमिक होता है, किन्तु अपूर्वकरण संयत के कर्मों के उपशम का अभाव है, इसलिए उसके औपशमिकभाव नहीं माना जा सकता?
समाधान-क्योंकि उपशमन शषित से समन्वित अपूर्वकरणसंयत के प्रौपशमिकभाव के अस्तित्व को मानने में कोई विरोध नहीं है ।
इस प्रकार कर्मों का उपशम होने पर उत्पन्न होने वाला और उपशमन होने योग्य कर्मों के उपशम सम्बना हुआ भी भात्र निन्द कहना है, यह वात सिद्ध हुई । अथवा भविष्य में होने वाले उपशमभावों में भूतकाल का उपचार करने से अपूर्वकरण औपशमिक भाव बन जाता है । जैसे सर्वप्रकार के असंयम में प्रवृत्तमान चक्रवर्ती तीर्थंकर के 'तोर्थङ्कर' यह व्यपदेश बन जाता है ?'
क्षपकश्रेणी के चारों क्षपकों, सयोगकेवली और प्रयोगकेवली के क्षायिकभाव हैं ।
शा--वातिया कर्मों का क्षय करने वाले सयोगकेवली और अयोगकेवली के क्षायिकभाव भले ही हों; क्षीणकषायवीतराग छयस्थ के भी क्षायिकभाव हो सकता है, क्योंकि उसके भी मोहनीयकर्म का क्षय हो गया है, किन्तु सुक्ष्मसाम्पराय आदि शेष क्षपकों के क्षायिकभाव मानना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उनमें किसी भी कर्म का क्षय नहीं होता?
समाधान-ऐसी शंका ठीक नहीं, क्योंकि मोहनीयकर्म का एकदेश क्षपग करने वाले बादरसाम्पराय और सूक्ष्मसाम्पराय क्षपकों के भी कर्मक्षयजनित भाव पाया जाता है ।
शङ्का-किसी भी कर्म को नष्ट नहीं करने वाले अपूर्वकरणसंयत के क्षायिकभाव कैसे हो सकता है ?
समाधान-अपूर्वकरणसंयत के भी कर्मक्षय के निमित्तभूत परिणाम पाये जाते हैं. प्रतः उसके भी क्षायिकभाव बन जाता है।
यहाँ भी कर्मों के क्षय होने पर उत्पन्न होने वाला भाव क्षायिक है तथा कर्मों के क्षय के लिए
१. प. पू. ५ पृ. २०४-२०५ ।
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गाया १५-१८
१८ / गो. सा. जीवकाण्ड
उत्पन्न हुआ भाव भी क्षायिक है, ऐसी दो प्रकार की शब्द व्युत्पत्ति ग्रहण करनी चाहिए। उपचार से पूर्व करसंयत के क्षाधिकभाव मानना चाहिए ।
शङ्का - इसप्रकार सर्वत्र उपचार का आश्रय करने पर अतिप्रसंग दोष क्यों नहीं प्राप्त होगा ? समाधान - - अतिप्रसंग दोष नहीं प्राप्त होगा, क्योंकि प्रत्यासत्ति अर्थात् समीपवर्ती अर्थ के प्रसंग से प्रतिप्रसंग बीष का प्रतिपेध हो जाता है ।'
गुणस्थान- प्ररूपणाधिकार
||१५ ॥
मिध्यात्व गुणस्थान का लक्षण और उसके भेद मिच्छोदरण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तन्त्रयत्थाणं । एयंतं faati विणयं संसदमा एयंत बुद्धवरिसी विवरीश्रो बह्म तावसो विरश्र । इंदोविय संसइयो सकडियो चे अभ्यारणी ।। १६ ।। रमिच्छतं वेदतो जीवो दिवरीयदसरगो होदि ।
र य धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥१७॥ मिच्छाट्टी जीवो उबट्ट पवयणं सद्दहदि । सहदि प्रसन्भाव उवइट्ठ या प्रणुवइट्ठ ॥ १८ ॥
अथवा
गुस्थानातीत सिद्धों में चारित्रमोहनीय कर्म की अपेक्षा क्षायिकभाव होता है, क्योंकि चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न हुए क्षायिकचारित्र का सद्भाव होने से सिद्धों में भी क्षायिकभाव कहा गया है ।
इस प्रकार चतुर्दशगुगास्थानों तथा सिद्धों में भावप्ररूपणा का कथन पूर्ण हुआ ।
गाथार्थ - - मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से होने वाला तस्वार्थ का अश्रद्धान मिध्यात्व है। उसके एकान्त, विपरोल, विनय, संशयित और प्रज्ञान ये पाँच भेद हैं ||१५|| बौद्ध एकान्त मिथ्यादृष्टि हैं, ब्रह्ममत वाले विपरीत मिध्यादृष्टि हैं, तापस विनय - मिथ्यान्टि हैं, इन्द्रमत वाले संशय - मिथ्यादृष्टि हैं और मस्करी प्रज्ञान - मिध्यादृष्टि हैं ||१६|| मिथ्यात्व का अनुभव करने वाला जीव विपरीत श्रद्धान वाला होता है । जैसे पित्तज्वर से युक्त जीव को मधुररस भी रुचिकर नहीं होता वैसे ही मिथ्यादृष्टि
१. घ. पु. ५ पृ. २०५-२०६ । २. ध. पु. १ पृ. १६२. प्रा. पं. सं. १०६, ल. सा. गाथा १०८ । ३. ज. व. पु. १२ पृ. ३२२, प्रा. पं. सं. १४८, ल. सा. गाथा १०६ ।
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गामा १५-१८
गुणस्थान / १६ जीव को यथार्थ धर्म रुचिकर नहीं होता ||१७|| मियादृष्टिजीव नियम से उपदिष्ट यथार्थ प्रवचन का तो श्रद्धान नहीं करता, किन्तु उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भाव (असत् पदार्थों ) का श्रद्धान करता है ।। १५ ।।
विशेषार्थ दर्शनमोहनीयकर्म की मिध्यात्वप्रकृति के उदय से मिथ्यात्वभाव होता है । मिथ्यात्व प्रकृति के उदय के बिना मिथ्यात्त्रभाव उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि मिथ्यात्व विभावभाव है, अशुद्धभाव है । दूसरे द्रव्य के बिना विभाव या अशुद्धता नहीं या सकती । कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में भी कहा है
जह फलिमणी सुद्धो न सयं परिणम रायमाईहि । रंगिज्जदि श्रहिं यु सो रत्तादीहिं बम्बे ॥ २७८ ॥ एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायभाईहि । राइज्जदि श्रहिं यु सो रागावोहि कोलेहिं ॥ २७६ ॥
- जिस प्रकार स्फटिकमरिंग स्वयं शुद्ध है, वह ललाई प्रादि रंग स्वरूप स्वयं तो नहीं परिणमती किन्तु दूसरे लाल आदि द्रव्यों से ललाई आदि रंगस्वरूप परिणमती है, इसी प्रकार ज्ञानी ( आत्मा ) आप शुद्ध है, वह रागादि भावों से स्वयं तो नहीं परिणमता, परन्तु रागादि दोषयुक्त अन्य द्रव्यों से ( मोहनीय कर्मोदय से ) रागादिरूप किया जाता है। अमृतचन्द्र प्राचार्यदेश ने भी समयसारकलश में कहा है
न जातु रागाविनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः । तस्मिनिमित्तं परसंगएव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ॥ १७५ ॥
- अपने रागादिभाव का निमित्त आत्मा स्वयं नहीं होता, उस आत्मा में रागादिक होने में निमित्त परद्रव्य का सम्बन्ध ही है । यहाँ सूर्यकान्तमणि का दृष्टान्त है— जैसे सूर्यकान्तमरिण स्वयं तो प्रतिरूप नहीं परिणमती, उसमें सूर्य का त्रिम्ब अग्निरूप होने में निमित्त है । वस्तु का यह स्वभाव उदय को प्राप्त है ।
सम्मत्तपडिणिबद्ध मिच्छतं जिणवरेहि परिकहियं ।
तस्सोक्ष्येण जीवो मिच्छादिद्वित्ति णादध्वो ॥१६११६ [ स.सा. ]
टीका - "सम्यक्त्वस्य मोक्ष हेतो: स्वभावस्य प्रतिबन्धकं किल मिथ्यात्वं नत्तु स्वयं कर्मैव तदुदयादेव ज्ञानस्य मिथ्यादृष्टित्वं " (अमृतचन्द्राचार्य)
गाथार्थ सम्यक्त्व को रोकने वाला मिध्यात्वकर्म है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ( मैंनेकुन्दकुन्द प्राचार्य ने अपनी ओर से नहीं कहा है ) । उस मिथ्यात्वकर्मोदय से जीत्र मिध्यादृष्टि हो जाता है ।।१६१ ।।
टीकार्थ- मोक्ष के हेतुभूत सम्यक्त्व स्वभाव को रोकने वाला निश्चय से मिथ्यात्व है और वह मिथ्यात्व द्रव्यकर्मरूप ही है । उसके उदय से ज्ञान (जीव ) के मिथ्यास्त्र होता है ।
जीव का वह मिथ्यात्वभाव एकान्त विपरीत, विनय, संशय और अज्ञानरूप पाँच प्रकार
का है।
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२०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १५-१६
१. एकान्त -प्रतिपक्षी की अपेक्षा रहित बस्तु (द्रव्य) को सर्वथा एकरूप कहना व मानना एकान्तमिथ्यात्व है। जैसे—जीव सर्वथा अस्तिरूप ही है या सर्वथा नास्तिरूप ही है, सर्वथा नित्य ही है या सर्वथा क्षणिक ही है। मर्वथा नियतिरूप मानना अथवा अनिर्यात रूप ही मानना, इत्यादि । 'परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सस्वहा वयणा' अर्थात् परमतों का वचन 'सर्वथा' कहा जाने से मिथ्या है । (श्री अमृतचन्द्राचार्य कृत टीका प्रवचनसार)
२. विपरीत-जेमा वस्तुस्वरूप है उससे विपरीत मानना। जैसे- केवलज्ञान के अविभागप्रतिजलेदों में हानि-वृद्धि केवली के कवलाहार, हव्यात्री-मुक्ति, इत्यादि मान्यताएँ विपरीत-मिथ्यात्व
३. बनयिक-मात्र विनय से ही मुक्ति मानना । जैसे-मन-वचन-काय से सुर-नपति-यनिज्ञानी-वृद्ध-बाल-माता-पिता इनकी विनय करने से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी ।
४. संशय- ऐसा है या नहीं इनमें से किमी एक का निश्चय न करना, दोनों में ही डोलायमान रहना । जैसे- स्वर्ग-नरक ग्रादि हैं या नहीं हैं, यह सीप है या चांदी है, मनुष्य प्रादि जीवद्रव्य हैं या पुद्गल आदि अजीवद्रव्य हैं. इत्यादि संशयमिथ्यात्व है।
५. अज्ञान-'यथार्थ कोई नहीं जानता । जैसे - . 'जीब है' ऐसा कौन जानता है ? अर्थात् बोई महीं जानता, इत्यादि अज्ञानमिथ्यात्व है। अथवा मिथ्यात्व के ३६३ भेद भी हैं
असिदिसदं किरियाणं अक्किरियाणं च तह चुलसीदो । सतसट्ठी अण्णाणी बेरणइयाणं च बत्तीसा ॥८७६॥ [गो. सा. कर्मकाण्ड]
–क्रियावादियों के १८०, प्रक्रियावादियों के ८४, अचानवादियों के ६७ और विनयवादियों के ३२ इसप्रकार मर्व मिलकर (१८०+८४+६७ + ३२) ३६३ भेद मिथ्यावादियों के होते हैं ।
मिथ्या, वितथ, व्यलोक और असत्य ये एकार्थवाची नाम हैं। 'दृष्टि' शब्द का अर्थ 'दर्शन' या श्रद्धान' है । मिथ्यात्वकर्मोदय से जिन जीवों की विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञानरूप मिथ्यादृष्टि होती है, वे मिथ्यादृष्टि जीव हैं।
जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति पय वावा ।
जावविया णय वादा तावदिया चेव परसमया ॥'
—जितने भी बचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद अर्थात् नय के भेद होते हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय (मिथ्यामत) होते हैं । (ये सभी नय यदि परस्पर निरपेक्ष होकर बस्तु का निश्चय कराबैं तो मिथ्यादृष्टि हैं।)
'मिथ्यात्व के पाँच ही भेद हैं' ऐसा कोई नियम नहीं है, किन्तु 'मिथ्यात्व पाँच प्रकार का है'
१. प्रवचनसार टीका, धवल ११८१, गो. क. ८६४, स. त. ३/४७ ।
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गाथा १६-२०
गुणम्यान/२१ यह उपलक्षण मात्र है । अथवा मिथ्या शब्द का अर्थ वित्तथ और दष्टि शब्द का अर्थ रुचि, श्रद्धा या प्रत्यय है । इसलिए जिन जीवों की रुचि वितथ होनी है, वे मिथ्यादृष्टि हैं।
'तं मिछस जमसदहणं तच्चाण होइ प्रत्याणं ।
संसइदमभिगहियं प्रणभिग्गहिर्वे ति तं तिविहं । - जो तत्त्वार्थ के विषय में अश्रद्धान उत्पन्न होता है, वह मिथ्यात्व है। उसके संशयित, अभिगृहीत और अनभिगृहीत ये तीन भेद भी हैं।
'सहहह असभावं' अपरमार्थ स्वरूप असद्भूत अर्थ का ही मिथ्यात्व के उदयवश यह मिथ्यादृष्टि श्रद्धान करता है । 'उवट्ठ व अणुवाहट्ट' अर्थात् उपदिष्ट या अनुपविष्ट दुर्गि का ही दर्शन मोह के उदय से मिथ्यादष्टि श्वद्धान करता है । इस गाथासुत्र वचन द्वारा व्यूग्राहित और इतर के भेद से मिथ्यादृष्टि के दो भेदों का प्रतिपादन किया गया है । २ शेष सब सुगम है।
मासादन गुगास्थान का स्वरूप प्रादिमसम्मत्तता समयादो छायलित्ति धा सेसे । अरणअण्णदरुदयादो गासियसम्मो त्ति सासरणवखो सो ।।१६।। ३सम्मत्तरयणपश्वयसिहरादो मिच्छभूमिसमभिमुहो ।
गासियसम्मत्तो सो सासरगणामो मुणेयधो ॥२०॥ अर्थ-ग्रादि सम्यक्त्व (प्रथमोपशम सम्यक्त्व) के काल में एक समय से लेकर छह-मावलि तक काल मेष रहने पर अभ्यतर अनन्तानुबन्धीकषाय का उदय हो जाने से सम्यक्त्व का नाश हो जाता है, वह सामादन नामक गुणस्थान है ।।१६।। सम्यग्दर्शनरूपी रत्न गिरिके शिखर से गिरकर मिथ्यात्वरूपी भूमि के अभिमुख है, अतएब सम्यग्दर्शन नष्ट हो चुका है, उसको सासादन नामक गुरणस्थान जानना चाहिए ।।२०।।
विशेषार्थ-सम्यक्त्व की विराधना करना यह सासादन का अर्थ है। शङ्गा-सासादन किस निमित्त से होता है?
समाधान-सासादन परिणामों के निमित्त से होता है, परन्तु वह परिणाम निष्कारण नहीं होता, क्योंकि वह अनन्तानुवन्धी के तीन उदय से होता है।
सम्यग्दर्शन से विमुख होकर जो अनन्तानुबन्धी के तीव्र उदय से उत्पन्न हुना तीव्रतर संक्लेशरूप दूषित मिथ्यात्व के अनुकूल परिणाम होता है, वह सासादन है । (ज.ध.पु. ७ पृ. ३१३)
शङ्का-सामादन गुणस्थान वाला जीव मिथ्यात्वकर्मोदय के अभाव में मिथ्यादृष्टि नहीं है.
१. प. पु. १. पृ. १६२ (प्रथम संस्करग) । ज. प. पु. १२ पृ. ३२३ । २. ज. प. पु. १२ पृ. ३२३ । ३. प्रा. पं. सं. म. १ गाथा , घ, पु. १ पु. १६६ गा. १०८ । ४. 'मिच्छभाव' यह भी पाठ है।
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२२/गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा १६-२०
समीचीन रुचि का अभाव होने से सम्यग्दष्टि भी नहीं है तथा इन दोनों को विषय करने वाली सम्यग्मिथ्यात्वरूप रुचि का प्रभाव होने से सम्यग्मिश्यावृष्टि भी नहीं है। इनके अतिरिक्त अन्य कोई चौथी दृष्टि है नहीं, क्योंकि समीचीन और असमीचीन तथा उभयरूप दृष्टि के आलम्बन भूत वस्तु के अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु पाई नहीं जाती इसलिए सासादनगुणस्थान असत्स्वरूप ही है ?
समाधान-सासादनगुणस्थान का प्रभाव नहीं है, क्योंकि सासादनगुणस्थान में विपरीताभिनिवेश (विपरीत अभिप्राय) रहता है, इसलिए वह असदृष्टि है।
शङ्खा–यदि असदुष्टि है तो वह मिथ्यादृष्टि है, उसको सासादन नहीं कहना चाहिए।
समाधान-यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन और चारित्र का प्रतिबन्ध करने वाली अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से उत्पन्न हुअा विपरीताभिनिवेश सासादन गृगस्थान में पाया जाता है अतः द्वितीयगुणस्थानवी जीव मिथ्या दृष्टि है, किन्तु मिथ्यात्व कमोदय से उत्पन्न हुअा विपरीताभिनिवेश वहां नहीं पाया जाता इसलिए वह मिथ्यादृष्टि नहीं कहा गया परन्तु सासादन सम्यग्दृष्टि कहा गया है।
शङ्का-मिश्यादृष्टि संज्ञा क्यों नहीं दी गई ?
समाधान-मिथ्यादृष्टि संज्ञा नहीं दी गई क्योंकि सासादन को स्वतंत्र कहने से अनन्तानुबन्धी प्रकृतियों की द्विस्वभावता का कथन सिद्ध हो जाता है ।
दर्शनमोहनीय कर्म के उदय, उपशम. क्षय और क्षयोपशम से सासादनरूप परिणाम उत्पन्न नहीं होता, इसलिए सासादन को मिथ्याष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिथ्यादष्टि नहीं कहा गया । जिस अनन्तानुबन्धी के उदय से द्वितीयगुणस्थान में जो विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनन्तानुबन्धी दर्शनमोहनीय का भेद न होकर चारित्र का प्रावरण होने से चारित्रमोहनीय का भेद है, इसलिए द्वितीयगुणस्थान को मिथ्याष्टि न कहकर सासादनसम्यग्दृष्टि कहा गया है ।
शा-अनन्तानृबन्धी यदि सम्यक्त्व और चारित्र इन गेनों की प्रतिबन्धक है तो उसे उभयरूप (दर्शन-चारित्रमोहनीय) संज्ञा देना न्यायसंगत है ?
समाधान--यह आरोप ठीक नहीं है, क्योंकि यह तो इष्ट ही है, फिर भी परमागम में मुख्य की अपेक्षा इस प्रकार का उपदेश नहीं दिया गया, किन्तु उसे चारित्रमोहनीय कहा गया है ।'
ये चारों ही अनन्तानुबन्धीकपाय सम्यक्त्व और चारित्र के विरोधक हैं, क्योंकि ये सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों को घातने वाली दो प्रकार की शक्ति से संयुक्त होते हैं।
शङ्का—यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान--गुरु के उपदेश से और युक्ति से जाना जाता है कि अनन्तानुबन्धीकायों की शक्ति दो प्रकार की होती है।
१. प्र. पु. १ पृ. १६३-१६५ ।
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गाया १६-२०
गुणस्थान / २३
शङ्का -- अनन्तानुबन्धी कपायों की शक्ति दो प्रकार की है, इस विषय में क्या युक्ति है ?
समाधान – सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का घात करने वाले ये अनन्तानुबन्धी क्रोधादिक न तो दर्शनमोहनीय स्वरूप माने जा सकते हैं, क्योंकि सम्यक्त्वप्रकृति, मिध्यात्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के द्वारा ही आवरण किये जाने वाले सम्यग्दर्शन के श्रावरण करने में इनके फल का प्रभाव है और न अनन्तानुवन्धी को चारित्रमोहनीय स्वरूप भी माना जा सकता है, क्योंकि अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के द्वारा आवरण किये गए चारित्र के आवरण करने में इनके फल का अभाव है । यद्यपि उपर्युक्त प्रकार से इन श्रनन्तानुबन्धी कषायों का प्रभाव सिद्ध होता है, तथापि इनका प्रभाव नहीं है, क्योंकि सूत्र में इनका अस्तित्व पाया जाता है। इन अनन्तानुबन्धी कषायोदय से सासादन की उत्पत्ति होती है अन्यथा उत्पत्ति हो नहीं सकती। इससे अनन्तानुवन्धी के दर्शनमोहनीयता और चारित्रमोहनीयता सिद्ध होती है तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्क का चार व्यापारी नहीं है, क्योंकि वह चारित्र की घातक अप्रत्याख्यानावरणादि प्रकृतियों के उदय प्रवाह को श्रनन्तरूप कर देता है । '
एक जीव की अपेक्षा सासादनसम्यग्दृष्टि का जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल छहआवलि प्रसारण है और एक समय से लेकर एक-एक समय अधिक करते हुए एक समय कम छह ग्रावलि तक मध्यमकाल है। कहा भी है
उवसमसम्मत्तद्वा जस्तियमेसा हु होई प्रवसिट्टा |
परिवज्जेता साणं तलियमेत्ता य तस्सद्धा ॥३१॥ (०० ४१० ३४१ ) उबसमसम्मत्तद्धा जइ छावलिया हवेज्ज श्रवसिड्डा ।
तो सासणं पवज्जइ गो हेदुषकटुकालेसु ॥ ३२ ॥ ( ध०पु० ४ पृ० ३४२ )
- जितने प्रमाण उपशम सम्यक्त्व का काल अवशिष्ट रहता है, उस समय सासादनगुणस्थान को प्राप्त होने वाले जीवों का भी उतने प्रमाण ही सासादन गुणस्थान का काल होता है। यदि उपशम- सम्यक्त्व का काल छह ग्रावलिप्रसारण अवशिष्ट हो तो जीव सासादनगुणस्थान को प्राप्त हो सकता है। यदि छह प्रावलि से अधिक काल अवशिष्ट रहे तो सासादन गुणस्थान को नहीं प्राप्त होता ।।३१-२२ ।।
यद्यपि श्री यतिवृषभाचार्य के मतानुसार जिसने अनन्तानुवन्धी की त्रिसंयोजना करके द्वितीयोपशम को प्राप्त कर लिया है वह भी द्वितीयोपशमसम्यक्त्व से गिरकर सासादन को प्राप्त हो सकता है, तथापि उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है, क्योंकि गाथा १६ में 'प्रादिमसम्मत्त' पद द्वारा प्रथमोसम्यक्त्व को ही ग्रहण किया है। श्री भूतबली प्राचार्य का भी यहो मत है कि प्रथमोपशमसम्यक्त्व से च्युत होकर सासादनगुणस्थान को प्राप्त होता है, द्वितीयोपशम से गिरकर सामादन को प्राप्त नहीं होता है। धवल ग्रन्थानुसार ही गो.जो. ग्रन्थ की गाथाएँ रची गई हैं ।
सासादन को प्राप्त होने पर आवलि के प्रथम प्रसंख्यातवें भाग में मरण होने पर नियम से देवगति में उत्पन्न होता है। उसके ऊपर मनुष्यगति के योग्य प्रावलि के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण
१. ध. पु. ९ पृ. ४२-४३ । २. ज. प्र. पु. ४ पृ. २४ । ३. ध.पु. ५ पृ. ११.
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२४/गो. मा. जीवकाराष्ट
गाथा २१-२२ काल है। इसी प्रकार आगे-पागे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रियों में उत्पन्न होने योग्य काल होता है।
तृतीय गुणस्थान का स्वरुप सम्मामिच्छुदयेण य जत्तरसन्दधाविकज्जेरण । रणय सम्म मिच्छ पि य सम्मिस्सो होदि परिणामो ॥२१॥ बहिगुडमिव बामिस्सं पुहभावं पेय कारिद् सक्कं ।
एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छोत्ति रणादयो२ ॥२२॥ माथार्थ-सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिश्नपरिणाम जात्यन्तर सर्वघातिया सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय का कार्य है । यह मिश्रपरिणाम न सम्यक्त्वरूप है और न मिथ्यात्वरूप है ॥२१जिस प्रकार दही और गुड़ का परस्पर मिश्रण होने से जात्यन्तर पृथकभाव (स्वाद) उत्पन्न हो जाता है जिसे पृथक् करना शक्य नहीं है, उसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिश्रभाव जानना चाहिए ।।२२।।
विशेषार्थ-तृतीयगुणस्थान का नाम सम्यग्मिथ्याष्टि है । दृष्टि, श्रद्धा, रुचि और प्रत्यय (प्रतीति) ये पर्यायवाची नाम हैं । जिस जीव के समीचीन और मिश्या दोनो प्रकार की मिश्रित दृष्टि होती है, वह सभ्यग्मिथ्यादृष्टि जीव है।
शङ्का--एक जीव में एक साथ सम्यक और मिथ्यारूप दृष्टि सम्भव नहीं है, क्योंकि इन दोनों दृष्टियों का एक जीव में एक साथ रहने में बिरोध आता है । यदि कहा जाय कि ये दोनों दष्टियां क्रम से एक जीव में रहती हैं, तो उनका सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि नाम के स्वतन्त्र गुरास्थानों में हो अन्तर्भाव मानना चाहिए । अतः सम्यग्मिथ्यादृष्टि नामक तीसरा गुणस्थान नहीं बनता है।
समाधान--युगपत् समीचीन और असमीचीन श्रद्धावाला जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि है, ऐसा मानते हैं। ऐसा मानने में विरोध भी नहीं पाता है, क्योंकि आत्मा अनेक धर्मात्मक है इसलिए उसमें अनेक धर्मों का सहानवस्थानलक्षरए चिरोध असिद्ध है । यदि कहा जाय कि आत्मा अनेक धर्मात्मक है, यह बात ही प्रसिद्ध है, सो यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि अनेकान्त के बिना अर्थक्रियाकारीपना नहीं बन सकता है।
अथवा, विरोध दो प्रकार का है. परस्पर परिहारलक्षण विरोध और सहामवस्थालक्षण विरोध । इनमें से एक द्रव्य के अनन्तगुणों में परस्पर परिहारलक्षण विरोध इष्ट ही है, यदि गुणों का एक दूसरे का परिहार करके अस्तित्व नहीं माना जावे तो उनके स्वरूप की हानि का प्रसङ्ग पाता है, किन्तु इतने मात्र से गुणों में सहानवस्था लक्षण विरोध सम्भव नहीं है । यदि नानागुणों का एक साथ रहना ही विरोध स्वरूप मान लिया जाये तो वस्तु का अस्तित्व ही नहीं बन सकता, क्योंकि बस्तु का सदभाव अनेकान्त-निमित्तक ही होता है। जो अर्थक्रिया करने में समर्थ है, वह वस्तु है; परन्तु यह अर्थ क्रिया एकान्त पक्ष में नहीं बन सकती है, क्योंकि अर्थक्रिया को यदि एकरूप माना जाये तो पुन:
१. ध.पु. ५ पृ. ३५।
२. प. पु. १ पृ. १७०, प्रा. पं. सं. म. १ गा. १०।
३. ध. पु. १ पृ. १६७ ।
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गाथा २३-२४
गुणस्थान /२५
पुन: उसी प्रक्रिया की प्राप्ति होने से और यदि अनेकरूप माना जावे तो अनवस्था दोष याने से एकान्तपक्ष में अर्थक्रिया के होने में विरोध आता है। इस कथन से चैतन्य और अचैतन्य के साथ भी अनेकान्त दोष नहीं आता है, क्योंकि चैतन्य और अचेतन्य ये दोनों गुण नहीं हैं। जो सद्भावी होते हैं उन्हें गुण कहते हैं, परन्तु ये दोनों सदैव सहभावी नहीं हैं, क्योंकि बन्ध अवस्था के नहीं रहने पर चैतन्य और चैतन्य ये दोनों एकसाथ नहीं पाये जाते। दूसरी बात यह है कि दो विरुद्ध धर्मों की उत्पत्ति का कारण यदि समान अर्थात् एक मान लिया जावे तो विरोध प्राता है' । यह सब कथन काल्पनिक नहीं है, क्योंकि पूर्वस्वीकृत अन्य देवता के अपरित्याग के साथ-साथ अरिहंत भी देव है, ऐसी सम्यग्मिथ्यारूप श्रद्धावाला जीव पाया जाता है ।
यहाँ पर दही और गुड़ का दृष्टान्त दिया गया है जिसका अभिप्राय यह है कि दही का स्वाद खट्टा और गुड़ का स्वाद मीठा होता है तथा दही-गुड़ दोनों को मिलाने से खट्टा-मीठा मिश्रित स्वाद पृथक् जाति ( जात्यन्तर ) का स्वाद हो जाता है । दही-गुड़ के मिश्रित द्रव्य में से अब खटास या मिठास को पृथक् करना जिसप्रकार शक्य नहीं है, उसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व भी जात्यन्तर है जो न सम्यत्वरूप है और न मिथ्यात्वरूप है, किन्तु दोनों का मिश्रितरूप है जिसमें से सम्यक्त्व या मिथ्यात्व को पृथक् करना शक्य नहीं है ।
इस गुणस्थान में होने वाली विशेषताएँ
सो संजमं ण गिरहदि बेसजमं वा रग बंधदे श्राउं । सम्मं वा मिच्छं या पडिवज्जिय मरदि रियमेर ||२३||
सम्मत्तमिच्छ परिणामेसु जहि श्राउगं पुरा बद्ध । तह मरणं मरणंतसमुग्धादो वि य ग मिस्सम्मि ||२४||
गायार्थ -- वह सम्यग्मिध्यादृष्टि संयम या देशसंयम को ग्रहण नहीं करता है और न आयु का अन्ध करता है। सम्यक्त्व या मिथ्यात्व परिणामों में से जिस परिणाम में पहले आयुका बन्ध किया है, नियम से उस सम्यक्त्व या मिथ्यात्व-परिणाम को प्राप्त होकर मरण करता है, क्योंकि मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व ) में मरा नहीं है तथा मारणान्तिक- समुद्घात भी मिश्र स्थान में नहीं है | २३-२४|
विशेषार्थ - - सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव के परिणामों में इतनी विशुद्धता नहीं होती कि वह संयम र्थात् महाव्रत या देणसंयम यर्थात् अणुव्रत को ग्रहण कर सके। कहा भी है-
णय मरइ णेय संजममुवेद तह बेससंजमं वा वि ।
सम्मामिच्छाविट्ठी ण उ मरणंतं समुग्घाश्री ॥ [ धवल पु. ४ पृ. ३४६ ]
- सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव न तो मरता है, न संयम को प्राप्त होता है, देशसंयम को भी प्राप्त नहीं होता है तथा उसके मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं होता है ।
१. प्र. पु. १ पृ. १७४ | २. घ. पु. १ पृ. १६७ तथा उपासकाध्ययन ४ / १४३-४४ ।
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२६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २५
शङ्का-सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव अपना काल पूरा कर पश्चात् संयम को अथवा संयमासंयम को क्यों नहीं प्राप्त कराया गया है ?
समाधान नहीं प्राप्त कराया गया, क्योंकि उस सम्यग्मिध्याष्टि जीब का मिथ्यात्व सहित मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को प्रथवा सम्यक्त्व सहित असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान को छोड़कर दूसरे गुणस्थानों में गमन का अभाव है। (गो. क. गा. ५५६-५५६)
शङ्का--अन्य गुणस्थानों में नहीं जाने का क्या कारण है ?
समाधान---ऐसा स्वभाव ही है और स्वभाव दूसरों के प्रश्न के योग्य नहीं हुआ करता है, क्योंकि उसमें विरोध पाता है । (धवल पु. ४. पृ. ३४३)
जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर और प्रायु का वध करके सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, वह सम्यक्त्व के साथ ही उस गति से निकलता है । अपवा जो मिथ्यादृष्टि होकर और आयु बांधकर सभ्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, वह मिथ्यात्व के साथ ही उस गति से निकलता है (ध. पु.५ पृ.३१) अर्थात् यदि सम्यग्दृष्टि प्रायु-बन्ध करके सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है तो वह सम्यग्मिध्यात्व से असंयतसम्यग्दृष्टि होकर मरण को प्राप्त होता है। यदि मिथ्यात्व के साथ प्राय-बन्ध करके सम्यमिथ्यात्व को प्राप्त होता है तो बह सम्यग्मिथ्यात्व से मिथ्यादष्टि होकर मरण को प्राप्त होता है, ऐसा नियम है।
क्षायोपशामिक सम्यक्त्व का लक्षण सम्मसदेसघादिस्सुक्यादो वेदगं हवे सम्म ।
चलमलिनमगाढं तं गिच्च कम्मखवरणहेदु ॥२५॥ गाथार्थ देशघाती सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से बेदकसम्यक्त्व होता है। वेदकसम्यक्त्व चल, मलिन, अगाढ़रूप होता है तथा नित्य होता है अर्थात् इसकी उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागर की होती है और यह दर्शन मोहनीयकम के क्षय का हेतु है ।
विशेषार्थ-दर्शनमोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियाँ है—सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति, मिथ्यात्वप्रकृति । सम्यक्त्वप्रकृति में लतास्थान के सर्व देशघाती स्पर्द्धक तथा दारुस्थान के अनन्तवें भागरूप स्पर्धक देशघाती हैं। अर्थात प्रथम देशघाती लतारूप स्पर्धक से अन्तिम देशघाती (दारु के अनन्तवें भाग के चरम) स्पर्धक पर्यन्त ये स्पर्धक सम्यक्त्वप्रकृति के होते हैं। सम्यक्त्वप्रकृति में सर्वघाती स्पर्धकों का अभाव है इसलिए सम्यक्त्वप्रकृति सम्यग्दर्शन का पूर्णरूपेण घात करने में असमर्थ है किन्तु उस सम्यक्त्व का एकदेश अर्थात् सम्यग्दर्शन की स्थिरता और निष्कांक्षता का घात करती है। इसका अभिप्राय यह है कि सम्यक्त्वप्रकृति के उदय होने से सम्यग्दर्शन का मल से विनाश तो नहीं होता, किन्तु स्थिरता व निष्कांक्षता का घात होने से सम्यग्दर्शन में चल, मलिन प्रादि दोष लग जाते हैं। जिस कर्म के उदय से प्राप्त, आगम और पदार्थों को श्रद्धा में शिथिलता होती है वह सम्यक्त्व प्रकृति है (धवल पुस्तक ६ पृष्ठ ३६) अथवा उत्पन्न हुए सम्यक्त्व में शिथिलता का उत्पादक और उसको अस्थिरता का कारणभूत कर्म सम्यक्त्वप्रकृति है ।
१. ज.ब.पु. ५ पृ. १२६ ।
२. ज.घ.पु. ५ पृ. १३० ।
३.ध.पु. १३ पृ. १५८ ।
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गाथा २५
शङ्का - प्राप्त, श्रागम और पदार्थों में सन्देह किस कर्म के उदय से उत्पन्न होता है ?
समाधान--- सम्यग्दर्शन का घात नहीं करने वाला सन्देहः सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से उत्पन्न होता है । किन्तु सर्वे सन्देह अर्थात् सम्यक्त्व का सम्पूर्ण रूप से घात करने वाला सन्देह और मूढत्व मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न होता है ।
शङ्का- उस प्रकृति का 'सम्यक्त्व' ऐसा नाम कैसे
'हुआ
समाधान — सम्यग्दर्शन के सहचरित उदय होने के कारण उपचार से 'सम्यक्त्व' ऐसा नाम कहा जाता है । प्राप्त ग्रागम और पदार्थों की श्रद्धा में शिथिलता और श्रद्धा की हानि होना सम्यक्त्व प्रकृति का कार्य है ।
I
सम्यक्त्वप्रकृति के उदय का वेदन होने से इस सम्यग्दर्शन का नाम वेदक- सम्यक्त्व है । वेदक सम्यग्दृष्टि जीव शिथिलश्रद्धानी होता है । बृद्धपुरुष जिस प्रकार अपने हाथ में लकड़ी को शिथिलता पूर्व पकड़ता है, उसी प्रकार वेदक- सम्यग्दृष्टि भी तत्त्वार्थ के विषय में शिथिलग्राही होता है | अतः कुहेतु और कुहष्टान्त से वेदकसम्यग्दष्टि को सम्यक्त्व की विराधना करने में देर नहीं लगती ।
नानात्मीयविशेषेषु चलतोसि चलं स्मृतं । लसत्कल्लोलमाला जलमेकमवस्थितं 11 स्वकारितेत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते । अन्यस्यामिति भ्राम्यन् मोहाच्छ्राद्धोऽपि चेष्टते ।
- नानाप्रकार की आत्मा के विशेषों में चलदोष है । अपने द्वारा स्थापित कराई हुई स्थापित कराई गई मूर्ति में 'यह अन्य का देव प्रकार जल एक होते हुए भी नाना तरङ्गों में से श्रद्धान भी भ्रमरणरूप चेष्टा करता है" ।
१. घ. पु ६ पृ. ३६-४० । संस्कृत टीका । ५. वही ।
गुणस्थान /२७
( गुणपर्यायों में ) जो श्रद्धान, उसमें चलायमान होना अन्तमूर्ति में यह देव मेरा है' और अन्य के द्वारा है' इस प्रकार देव का भेद करना चल दोष है । जिस भ्रमण करता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व प्रकृति के उदय
तवयलब्ध माहात्म्यं पाकात्सम्यक्त्वकर्मणः । मलिनं मलसंगेन शुद्ध ं स्वर्णमियोद्भवेत् ॥
– सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से वेदक- सम्यक्त्व को सम्यग्दर्शन का माहात्म्य प्राप्त नहीं होता जैसे शुद्ध स्वर्ण मल से मलिन हो जाता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन भी सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से शङ्कादि दोषों द्वारा मलिन हो जाता है" ।
स्थान एव स्थितं कम्पमगादमिति कीर्त्यते । वृद्धयष्टिरिवात्स्याना— करतले स्थिता ॥ समेध्यनन्तशक्तित्वे सर्वेषामतामयं । देवोsसमै प्रभुरेषोऽस्मा इत्यास्था सुदृशामपि ।।
२. प्र. पु. १ पृ. ३६८ । ३. ष. पु. १ पृ. १७१-७२ । ४. गो. जी. गाथा २५ की
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२८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २६ -जिस प्रकार बुद्धपुरुष के हाथ की लकड़ी कॉपती रहती है, किन्तु हाथ से गिरती नहीं है सुली प्रकार का बडन मंगल तो होता है, किन्तु यथार्थ श्रद्धान (स्थान) में स्थित रहता है, वहां से च्युत नहीं होता। सर्व अर्हन्त भगवान में अनन्तशक्ति समान होते हुए भी "श्री माान्तिनाथ भगवान शान्ति के कर्ता हैं और श्री पार्श्वनाथ भगवान विघ्नों का नाश करने वाले हैं।" इस प्रकार वेदकसम्यग्दृष्टि का श्रद्धान शिथिल होने के कारण अगाढ़-दोष युक्त है।
वेदकसम्यग्दृष्टि नित्य है अर्थात् तीनों सम्यग्दर्शनों में संसारावस्था का सबसे अधिक काल वेदकसम्यग्दर्शन का है । यह काल ६६ सागर प्रमाण है, जो इस प्रकार है----एक जीव उपशमसम्यक्त्व से बेदकसम्यक्त्व को प्राप्त होकर शेष भुज्यमान प्रायु से कम बीस सागरोपम आयु वाले देवों में उत्पन्न हुआ। फिर वहाँ से मनुष्यों में उत्पन्न होकर पुन: मनुष्यायु से कम बावीस (२२) सागरोपम आयू वाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ से पुनः मनुष्यों में उत्पन्न होकार, भुज्यमान मनुष्यायु से तथा दर्शनमोह के क्षपरण पर्यन्त आगे भोगी जाने वाली मनुष्यायु से कम चौबीस (२४) सागरोपम आयुवाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ से पुन; मनुष्यगति में प्राकर बहाँ बेदकसम्यक्त्व काल के अन्तर्मुहर्त मात्र शेष रहने पर दर्शनमोह की क्षपणा को प्रारम्भ कर कृतकरणीय हो गया। ऐसे कृतकरगीय के अन्तिम समय में स्थित जीव के वेदकसम्यक्त्व का ६६ सागरोपमकाल पाया जाता है।
वेदकसम्यक्त्व 'कर्मक्षपण हेतु है अर्थात् दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय का कारण है, क्योंकि वेदकसम्यग्दृष्टि के अतिरिक्त अन्य कोई भी जीव (मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि या उपशमसम्यग्दृष्टि) दर्शनमोहनीय कर्म की क्षपणा नहीं कर सकता। वेदकसम्यग्दृष्टि, दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों और अनन्तानुबन्धी चतुष्क, इन सप्त प्रकृतियों के अतिरिक्त अन्य कर्मप्रकृतियों के क्षपरण का हेतु नहीं है, क्योंकि वेदक सम्यग्दृष्टि असयंतसम्यग्दृष्टि (चतुर्थ) गुग्गस्थान से अप्रमत्तसंयत (सप्तम) गुणस्थान तक ही हो सकते हैं ।
शा-ऊपर के आठवें आदि मुरास्थानों में बेदकसम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता है ?
समाधान--पाठवें आदि गुणस्थानों में वेदकसम्यक्त्व नहीं होता, क्योंकि प्रगाढ़ प्रादि मलसहित श्रद्धान के साथ क्षपक और उपशमश्रेणी का चलना नहीं बनता ।
औपशभिक व क्षायिक सम्यग्दर्षन का स्वरूप । सत्तण्हं उवसमदो उबसमसम्मो खयाद खइयो य । बिदियकसायुदयादो प्रसंजदो होवि सम्मो ५ ॥२६।।
अर्थ-सात प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यक्त्व और सर्वथा क्षय से क्षायिय सम्यक्त्व होता है । तथा दूसरी-अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहने से यह सम्यक्त्व असंयत होता है (अत एव इस गुणास्थानवर्तीजीव को असंयत सम्यम्दृष्टि कहते हैं ) ॥२६॥
१. गो. जी. गापा २५ की संरकृत टीका।
२. ध. पु. ७ पृ. १८०-१८१ ।
३. प. पु. १. ३५७ ।
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गाथा २७
गृणास्थान/२६
विशेषार्थ-दर्शन और चारित्रगुण का घात करने वाली अनन्तानुबन्धी को चार प्रकृतियाँ और मिथ्यात्व, सम्पग्मिध्यात्व और सम्यकप्रकृति दर्शनमोहनीय कर्म की ये तीन प्रकृतियाँ इसप्रकार सप्त प्रकृतियों के निरवशेष (सम्पुर्ण) क्षय से क्षायिक सम्यग्दृष्टि तथा इन्हीं सात प्रकृतियों के उपशम से उपशमसम्यग्दृष्टि होता है।' क्षायिक और उपशम इन दोनों में सम्यक्त्व को मलिन करने वाली सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय नहीं होने से ये दोनों सम्यक्त्व निर्मल हैं।
कषाय चार प्रकार की है-अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरग, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन। इन चारों में से अप्रत्याख्यानाबरण कषाय की संज्ञा द्वितीय कषाय' है क्योंकि क्रम में यह द्वितीय है। प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग है। 'अ' निषेधार्थ क न होकर 'ईषत्' अर्थवाची है। 'ईषत् त्याग' का प्रावरण करने वाली कषाय अप्रत्याख्यानावरण कषाय है। इस अप्रत्याख्यानावरण संज्ञक द्वितीय कषायोदय के कारण किंचित् भी संयम धारण नहीं कर सकता अत: यह जीव असंयत होता है। अर्थात् अप्रत्याख्यानावरण द्वितीय कषाय के उदय के कारण उपर्युक्त सप्त प्रकृतियों के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से सम्यग्दर्शन हो जाने पर भी संयम धारण नहीं होता। अत: इस गुणस्थानवी जीब को असंयतसम्यग्दृष्टि कहते हैं ।
चतुर्थ गुणम्यान सम्बन्धी विशेषताएं २सम्माइट्ठी जीवो उवइट्ट' पबयणं तु सद्दहदि ।
सद्दाहदि असब्भावं अजाणमारणो गुरुरिणयोगा ॥२७॥ गाथार्थ-सम्यग्दृष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचन का नियम से श्रद्धान करता है तथा स्वयं न जानता हुअा, गुरु के नियोग से असद्भुत अर्थ का भी श्रद्धान करता है ।।२।।
विशेषार्थ—जो सम्यग्दृष्टिजीव है, वह निश्चय से उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान करता है। 'पवयण' का अर्थ है प्रकर्ष युक्त वचन, प्रवचन अर्थात् सर्वज्ञ का उपदेश, परमागम और सिद्धान्त ये एकार्थवाची शब्द हैं, क्योंकि उससे अन्यतर प्रकर्षयुक्त वचन उपलब्ध नहीं होता । अतः इसप्रकार के उपदिष्ट प्रवचन का सम्यग्दृष्टि जीव निश्चयसे श्रद्धान करता है, इसप्रकार सूत्रार्थ का समुच्चय है । 'सद्दादि प्रसम्भावं' ऐसा कहने से सम्यग्दृष्टिजीव गुरुवचन को ही प्रमाण करके, स्वयं नहीं जानते हुए असद्भुत अर्थ का भी श्रद्धान करता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस गाथासूत्र में प्राज्ञा सम्यक्त्व का लक्षरण कहा गया है ।
शा--प्रज्ञानवय असद्भूत अर्थ को स्वीकार करनेवाला जीव सम्यग्दष्टि कैसे हो सकता है ?
समाधान—यह परमागम का ही उपदेश है, ऐसा निश्चय होने से उसप्रकार स्वीकार करने वाले उस जीब को परमार्थ का ज्ञान नहीं होने पर भी उसकी सम्यग्दृष्टिपने से च्युति नहीं होती।
१. प्र. पु. १ पृ. १७१। २. प. पु. १ सूत्र १२ की टीका पृ. १७३, ज. प. पु. १२ पृ. ३२१, प्राकृत पं. म.
[जानपीट] अ. १ गा. १२ एवं लब्धिमार गाथा १०५। ३. ज. प. पु. १२ पृ. ३२१ ।
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३०/गो. मा. जोत्रकाण्ड
गाथा २८-२९
सत्तादो त सम्म दरिसिज्जंतं जदा ग सहहदि । सो चेव हवाइ मिच्छाइट्टी जीवो तदो पहुदी ॥२८॥
गाथार्थ--सूत्र से समीचीनरूप से दिखलाये गये उस अर्थ का जब यह जीव श्रद्धान नहीं करता है, उस समय से यह जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है ।।२८।।
विशेषार्थ-गाथा २७ में कथित असद्भुत पदार्थ के श्रद्धान करने वाले सम्यग्दृष्टि को यदि पुनः कोई परमागम का ज्ञाता विसंवादरहित दूसरे सूत्र द्वारा उस असद्भूत अर्थ को यथार्थरूप से बतलावे, फिर भी वह जीव असत् आग्रहवश असद्भुत को ही स्वीकार करे, यथार्थ को स्वीकार नहीं करे तो उसी समय से वह जीव मिथ्यादृष्टित्व को प्राप्त हो जाता है, क्योंकि वह प्रवचनविरुद्ध बुद्धिवाला है, ऐसा परमागम में कहा गया है। इसलिए यह ठीक कहा है कि प्रवचन में उपदिष्ट हए अर्थ का प्राज्ञा और अधिगम से विपरीतता के बिना बद्धान करना सम्यग्दृष्टि का लक्षण है।'
चतुर्थगुणस्थानवर्तीजीय का और भी विशेष स्वरुप ३गो इंदिएस विरदो पो जीवे थावरे तसे वापि ।
जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥२६॥ गाथार्थ-जो इन्द्रियों के विषयों से विरक्त नहीं है तथा स-स्थावर जीबों की हिंसा से भी विरति रहित है, किन्तु जिसकी जिनेन्द्र के उपदेश पर श्रद्धा है, वह जीव अविरत सम्यग्दृष्टि है ।।२६।।
विशेषार्थ-पांचों इन्द्रियों को और मन को वश में न करना तथा पांच स्थावरकाय और त्रस इन छह काय के जीवों की हिंसा का त्याग न करना, यह बारह प्रकार की अविरति है । आगे माथा ४७८ में असंयम का लक्षण इसप्रकार कहा गया है--
जीवा चोइसभेया इंदियविसया तहट्टवीसं तु ।
जे तेसु णेव विरया असंजदा ते मुणेच्या ॥४७८।। |गो. जी.] -जीवसमास चौदह प्रकार के होते हैं, इन्द्रिय तथा मन के विषय अट्ठाईस प्रकार के होते हैं। जो जीव इनसे विरत नहीं हैं, वे असंयत या अविरत हैं।
शङ्खा-जीव के चौदह भेद किस प्रकार हैं ? समाधान–जीव के चौदह भेद इस प्रकार हैं--
बावरसुहमे गिविय-वि-ति-घरिदिय-प्रसणि-सष्णी य । पज्जत्तापजत्ता एवं ते चोइसा होति ॥१/३४॥ [प्रा.पं.सं.]
१. घ. पु. १५२२२ मूत्र ३६ की टीका, लब्धिमार गा. १०६ । २. ज.ध.पु. १२ पृ. ३२१-२२ । ३. घ. पु. १ सूत्र १२ की टोका पृ. १७३ गा. १११, किन्तु वहाँ ‘वापि' के स्थान पर 'चादि' पाठ है ।
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गाथा ३०
मों:
गुसास्थान / ३१
बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, श्रसंज्ञिपंचेन्द्रिय, संज्ञिपंचेन्द्रिय ये सातों ही पर्याप्त और पर्याप्तक होते हैं । इस प्रकार जीवों के १४ भेद होते हैं ।
शङ्का - इन्द्रियों के २८ विषय किस प्रकार हैं ?
समाधान- इन्द्रियों के २८ विषय इस प्रकार से जानने चाहिए
पंचरस पंचवण्णा बोगंधा फासासरा । मणसविट्ठावीसा इंदियविसया मुणेदव्वा ।। ४७६ ॥ गो.जी.
- मीठा, खट्टा, कषायला, कडुप्रा और चरपरा ये पांच रस, सफेद, पीला, हरा, लाल और काला ये पाँच वर्ण: सुगन्ध और दुर्गन्ध ये दो गन्ध; कोमल-कठोर, हलका भारी, शीत-उष्ण, स्निग्ध-क्ष ये आठ स्पर्श: षड़ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, बैवत, निषाद ये सप्त स्वर तथा एक मन का विषय ऐसे सर्व मिलाकर ये (५+५+२+८+७+१) २८ पंचेन्द्रियों और मन सम्बन्धी विषय हैं ।
शङ्का -- किस कर्म के उदय से जीव असंगत होता है ?
समाधान-संयमचाती कर्मों के उदय से जीव असंयत होता है ।
शङ्का -- एक अप्रत्याख्यानावरण कषायोदय ही असंयम का हेतु है, क्योंकि यही संयमासंयम के प्रतिषेध से प्रारम्भ कर समस्त संघम का पानी होता है । फिर संयमघाती कर्मों के उदय से असंयत होता है' ऐसा कहना कैसे घटित होता है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि दूसरे भी चारित्रावरण कर्मों के उदय के बिना केवल अप्रत्याख्यानावरण में देणसंयम को घात करने का सामर्थ्य नहीं है ।"
गाथा २७ में 'सम्माइट्ठी जीवो उवहट्ठ पत्रयणं तु सहवि' इन पदों के द्वारा कहा गया है कि सम्यग्टजीव नियम से उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान करता है । उसी बात को 'जो सदहवि जिणुत्त सम्माइष्ट्टी' इस वाक्यांश द्वारा कहा गया है, क्योंकि जो 'जिणुस" अर्थात् जिनेन्द्र के द्वारा कहा गया है। ही 'वट्ट' पवयणं' उपदिष्ट प्रवचन है। 'प्रवचन में उपदिष्ट अर्थ का श्रद्धान करना' सम्यग्दष्टिका लक्षण है।
गाथा में सम्यष्टि के लिए जो 'असंयत विशेषण दिया गया है, वह अन्त्यदीपक है, अतः यह अपने से नीचे के समस्त गुणस्थानों के असंयतपनेका निरूपण करता है । इस गाथा में जो सम्यग्दृष्टि पद है, वह गङ्गा नदी के प्रवाह के समान ऊपर के समस्त गुणस्थानों में अनुवृत्ति को प्राप्त होता है अर्थात् पाँचवें आदि समस्त गुणस्थानों में सम्यग्दर्शन पाया जाता है | अ
पंञ्चस गुणस्थान का स्वरूप
पच्चक्खाणुदयादो संजमभावो रंग होदि गवर तु
योववदो होदि तदो देसववो होदि पंचमप्रो ||३०||
१. ध. पु. ७ पृ. ६५ । २. ध. ए १ पृ. १७३ ।
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३२/मो. मा. जीवकाण्ड
गाथा ३०-३१
जो तसबहाउविरदो अविरदनो तह य थावरबहादो।
एक्कसमयम्हि जीवो विरदाविरको जिरोक्कमई ॥३१॥ गाथार्थ---प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सकलसंयम नहीं होता, किन्तु स्तोकव्रत (अणवत) होते हैं। इसलिए देशव्रत अर्थात् अणुवन या देशसंयमरूप पंचम गुणस्थान होता है ।।३०॥ जो जीब जिनेन्द्र देव में अद्वितीय श्रद्धा रखना हा एक ही समय में अस जीवों की हिंसा से विरत है और स्थावर जीवों को हिसा रो अबिरत है, वह विरताविरत होता है ।।३१॥
विशेषार्थ--कषाय चार प्रकार की है--अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन । इनमें से तीसी डिनराख्यातापरा पा सकलसंथम का बात करती है, देशसंयम का पात नहीं करती । कहा भी है--
पढमो सणघाई विदिनो तह घाइ देस विरह ति ।
तइबो संजमघाई अउथो जहखायघाईया ॥११॥ [प्रा.पं.सं.अ.१] -प्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शन का घात करती है। द्वितीय अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशसंयम का घात करती है अर्थात् एकदेशविरति को घातक है । तृतीय प्रत्याख्यानावरग कपाय सकलसंयम की घातक है और चौथी संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र की घातक है।
अतः तृतीय प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय में सकलसंयम तो हो नहीं सकता, किन्तु स्तोक व्रत अर्थात् देशव्रत के होने में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि देशव्रत को घातक द्वितीय अप्रत्याख्यानाबरण कषायोदय का पंचम मुगास्थान में प्रभाव है ।
जो संयत होते हुए भी असंयत होता है, उसे संयतासंयत अथवा विरताविरत वाहते हैं ।
शङ्का-जो संयत होता है वह असंयत नहीं हो सकता है और जो असंयत होता है वह संयत नहीं हो सकता, क्योंकि संयमभाव और असंयम भाव (विरतभाव और अविरतभात्र) का परस्पर विरोध है अतः विरताविरतरूप यह पंचम गुण स्थान नहीं बनता है।
___ समाधान--बिरोध दो प्रकार का है-परस्परपरिहार लक्षग्ग विगेत्र और सहानवस्थालक्षण विरोध । इनमें से एक द्रव्य के अनन्त गुणों में परस्परपरिहारलक्षण विरोध इष्ट है। यदि गुणों का अस्तित्व एक-दूसरे का परिहार करके न माना जाय तो उनके स्वरूप की हानि का प्रसंग आता है, परन्तु इसने मात्रसे गुरषों में महानवस्थालक्षण विरोध सम्भव नहीं है । यदि मानागुणों का एक साथ । रखनाही विरोध स्वरूप मान लिया जावे तो वस्तुका अस्तित्व ही नहीं बन सकता है. क्योंकि वम्तका सद्भाव अनेकान्त निमित्तक है । जो अर्थक्रिया करने में समर्थ है, यह वस्तु है, परन्तु वह प्रक्रिया : एकान्तपक्ष में नहीं बन सकती, क्योंकि अर्थक्रिया को यदि एकरूप माना जावे नो पुनःपुन: उसी अर्थ- . क्रिया को प्राप्ति होने से और यदि अनेकरूप माना जावे तो अनवस्था दोष पाने से एकान्तपक्ष में : अर्थक्रिया के होने में विरोध पाता है।
१. यह गाथा ध. पु. १ सूत्र १३ की टीका के अन्त में पृ. १७५ पर है किन्तु वहाँ पाठ इस प्रकार है---
"जो तस-वहाउ विरो अविरयो, तह य बावर-वहायो। एक्क-समयम्हि जीवा विरयाविरो जिणेक्क्रमई।।११२॥"
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पापा ३०-३१
गुणस्थान/३३ यदि विरुद्ध दो धर्मों की उत्पत्ति का कारण समान अर्थात् एक मान लिया जावे तो विरोध माता है, किन्तु संयमभाव और असंयमभाव इन दोनों को एक प्रात्मा में स्वीकार कर लेने पर भी कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि इन दोनों की उत्पत्ति का कारण भिन्न-भिन्न है । संयमभाव की उत्पत्ति का कारण अस हिंसा से विरति भाव है और असंयमभाव की उत्पत्ति का कारण स्थावरहिंसा से प्रविरति भाव है । इसलिए संयमासंयम अर्थात् विरताविरत नामक पंचम गुणस्थान बन जाता है।
शङ्का-प्रौदयिकादि पाँच भावों में से किस भाव के प्राश्रय से संयमासंयम भाव होता है ?
समाधान-संयमासंयम भाव क्षायोपशमिक है, क्योंकि अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के अर्तमानकालिक सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदयाभावी क्षय होने से और आगामी काल में उदय आने योग्य उन्हीं स्पर्द्धकों के सदवस्थारूप उपशम होने से तथा प्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदय से संयमासंयमअप्रत्याख्यान चारित्र (एकदेशचारित्र) उत्पन्न होता है।
शङ्का-संयमासंयम देशचारित्र की धारा से सम्बन्ध रखने वाले कितने सम्यग्दर्शन होते हैं ?
समाधान- क्षायिक, क्षायोपशमिक और प्रौपशमिक इन तीनों में से कोई एक सम्यग्दर्शन विकल्प से होता है, क्योंकि उनमें से वि.सी एक के बिना अप्रत्याख्यान-चारित्र का प्रादुर्भाव ही नहीं ? हो सकता।
शङ्का--सम्यग्दर्शन के बिना भी देशसंयमी होते हैं ?
समाधान नहीं होते, क्योंकि जो जीव मोक्ष की प्राकांक्षा से रहित है और जिनकी विषयपिपासा दूर नहीं हुई है, उनके अप्रत्याख्यानसंयम (देशचारित्र) की उत्पत्ति नहीं हो सकती।'
चार संज्वलन और नव नोकषायों के क्षयोपशम संज्ञावाले देशघाती स्पर्द्धकों के उदय से संयमासंयम की उत्पत्ति होती है ।
शा--चार संज्वलन और नव नोकषाय इन तेरह प्रकृतियों के देशघाती स्पर्धकों का उदय तो संयम की प्राप्ति में निमित्त होता है, वह संयमासंयम का निमित्त कैसे स्वीकार किया गया?
समाधान-नहीं, क्योंकि प्रत्याख्यानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से जिन चार संज्वलनादिक के देशघाती स्पर्धकों का उदय प्रतिहत, हो गया है, उस उदय के (में) संयमासंयम को छोड़ संयम उत्पन्न करने का सामर्थ्य नहीं होता।
-
-
प्रत्यास्यानावरण कषाय अपने प्रतिपक्षी सर्वप्रत्याख्यान (सकलसंयम) को घातता है इसलिए वह सर्वघाती है, किन्तु समस्त अप्रत्याख्यान को नहीं घातता, क्योंकि उसका इस विषय में व्यापार नहीं है। इस प्रकार से परिणत प्रत्याख्यान कषाय के सर्वघाती संज्ञा सिद्ध है, किन्तु जिस प्रकृति के उदय होने पर जो गुण उत्पन्न होता है उसकी अपेक्षा वह प्रकृति सर्वघाती संज्ञा को प्राप्त नहीं होती। यदि ऐसा न माना जाय तो अतिप्रसंग दोष या जायेगा।
१. घ. पु. १ पृ. १७३ से १७५. सक । २. प. पु. ७ पृ. ६४
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३४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३२-३१
शा--दर्शनमोहनीय कर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशम का प्राधय करके संयतासंयत के औपशामिकादि तीन भावों का कथन भी होना चाहिये था सो क्यों नहीं किया गया ?
समाधान--नहीं, क्योंकि दर्शनमोहनीय कर्म के उपशमादिक से संबमासंयम की उत्पत्ति नहीं होती ।
छठे- प्रमत्तगुणस्थान का लक्षण संजलगणोकसायाणुदयावो संजमो हवे जम्हा । मलजणरएपमादो वि य तम्हा हु पमत्तविरदो सो ॥३२॥ रेवत्तावत्तपमादे जो असइ पमत्तसंजदो होइ । सयल-गुण-सील-कलिलो महम्बई चित्तलायरणो ॥३३॥
पन्द्रह प्रमाद अविकहा तहा कसाया इंदियरिणद्दा तहेव परणयो य ।
च-च-परगमेगेगं होति पमादा हु पाणरसा ॥३४॥ गाथार्थ - मज्वलन और नोकषाय के उदय से संयम होता है, इस संयम के साथ मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद भी है, अतः वह प्रमनविरत है ।।३३।। जो सकल गुरग-शोल से युक्त है, अतएव महाव्रती है, व्यक्त और अव्यक्त प्रमाद में वास करता है अतएव चित्रल आचरणी है, वह प्रमत्तसंयत है ।।३३।। चार विकथा. चार कषाय, पाँच इन्द्रियाँ, एक निद्रा और एक प्रणय (स्नेह) ये पन्द्रह प्रमाद हैं ।।३४।।
विशेषार्थ-प्रकर्ष से मत्त जीव प्रमत्त है। भले प्रकार विरत या संयम को प्राप्त जीव संयत है। जो प्रमाद सहित होते हुए भी संयत है वह प्रमत्तसंयत है ।।
शङ्का-यदि प्रमत्त है तो संयत नहीं हो सकता, क्योंकि प्रमत्त जीव को अपने स्वरूप का संवेदन नहीं हो सकता । जो संयत है, वह प्रमत्त नहीं हो सकता, क्योंकि संयमभाव प्रमाद के परिहार-स्वरूप होता है।
__समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि हिंसा, असत्य, स्तेय, प्रब्रह्म और परिग्रह इन पांच पापों से विरतिभाव संयम है जो कि तीन गुप्ति और पांच समितियों से अनुरक्षित है। वह संयम वास्तव में प्रमाद से नष्ट नहीं किया जा सकता है, क्योंकि प्रमाद से संयम में केवल मल की ही उत्पत्ति होती है।
शडा- यहाँ पर संयम में मल उत्पन्न करने वाला प्रमाद ही विवक्षित है, संयम का नाश करने वाला प्रमाद नहीं है यह कैसे निश्चय किया जाय? - - - -- १. घ. पु. ५ पृ. २०३ । २. घ. पु. १ पृ. १७८, प्रा. पं. स. प. १ गाथा १४ । ३. प. पु. १ पृ. १७८, प्रा.
पं. सं.अ. १ गा. १५। ४. प. पु. १ पृ. १७५ ।
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मामा ३२-३४
गुणस्थान/३५ समाधान-प्रमाद के रहते हुए संयम का सद्भाव अन्यथा बन नहीं सकता, इसलिए निश्चय होता है कि यहाँ पर संयम में मल उत्पन्न करने वाला प्रमाद ही अभीष्ट है। दूसरे, स्वल्पकालवर्ती भन्दतम प्रमाद संयम का नाश भी नहीं कर सकता, क्योंकि सफलसंयम का उत्कृष्ट रूप से प्रतिबन्ध करने वाले प्रत्याख्यानावरण के अभाव में संयम का नाश नहीं पाया जाता है।
यहाँ प्रमत्त शब्द अन्त्यदीपक है इसलिए प्रमत्तसंयत गुणस्थान में पूर्व के सर्व गुणस्थानों में प्रमाद के अस्तित्व को सूचित करता है ।
वर्तमान में प्रत्याख्यानाबरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय से और आगामी काल में उदय में पाने वाले सत्ता में स्थित उन्हीं के उदय में न आने स्प उपशम से (सददस्थारूप उपशम से) एवं संश्वलन कषाय के उदय से प्रत्याख्यान (सकल संयम) उत्पन्न होता है।'
शङ्का---यदि संज्वलन कषायोदय से संयम होता है तो उसे प्रौदयिक भाव कहना चाहिए ? समाधान---नहीं, क्योंकि संज्वलन कषायोदय से संयम की उत्पत्ति नहीं होती है। शङ्का-संज्वलन का व्यापार कहाँ होता है ?
समाधान–प्रत्याख्यानावरण कषाय के सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदयाभावी क्षय से उत्पन्न हुए संयम में मल को उत्पन्न करने में संज्वलनकषाय का व्यापार होता है ।
शङ्का--क्या सम्यग्दर्शन के बिना भी संयम की उपलब्धि होती है ?
समाधान--ऐसा नहीं है, क्योंकि प्राप्त, आगम और पदार्थों में जिस जीव के श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई तथा जिसका चित्त तीन मूढ़तामों से व्याप्त है, उसके संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती।
शङ्का-यहाँ द्रव्यसंयम का ग्रहण नहीं है, यह कैसे जाना जाता है ?
__ समाधान नहीं है क्योंकि भले प्रकार जानकर और श्रद्धान कर जो यम सहित है वह संयत - .. है। इस प्रकार व्युत्पत्ति करने से यह जाना जाता है कि यहाँ पर द्रव्यसंयम का ग्रहण नहीं किया गया है।
शङ्का-ब्यक्त और अव्यक्त से क्या अभिप्राय है ?
समाधान—जो स्व और पर या दोनों में से किसी एक के ज्ञान का विषय हो वह व्यक्त है। जो स्व और पर दोनों में से किसी के ज्ञान का विषय न हो, मात्र प्रत्यक्षज्ञान का विषय हो, वह अध्यक्त है।
शङ्का-प्रमाद किसे कहते हैं ?
समाधान-चार संज्वलनकषाय और नव नोकषाय इन तेरह प्रकृतियों के तीव्र उदय का नाम प्रमाद है। १. घ. पु. १ पृ. १७६ । २. ध. पु. १ पृ. १७७ । ३. प. पु. ७ पृ. ११ ।
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३६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३५-३७ शङ्का-चित्तलायरणो' का क्या अभिप्राय है ?
समाधान-जो पाचरण प्रमादमिश्रित है, वह चित्रल आचरण है, अथवा चित्तल (चीतल) सारङ्ग को कहते हैं इसलिए जो पाचरण सारङ्ग के समान शबलित अर्थात अनेक प्रकार का है, अथवा जो आचरण प्रमाद को उत्पन्न करने वाला है, वह चित्रलाचरण है ।
स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा और राजकथा ये चार विकथाएँ हैं 1 क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं। स्पर्शन, रसना, घारण, चक्ष और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ हैं । दर्शनावरण कर्मोदय से जो शयन करना बह निद्रा है । प्रणय स्नेह को कहते हैं ।
प्रमाद के पांच प्रकार१संखा तह पत्थारो परियट्टरण गट तह समुट्ठि ।
एदे पंग एगार मानसमुक्कित्तणे या ॥३५॥ गाथार्थ-संस्था, प्रस्तार, परिवर्तन, नष्ट, समृद्दिष्ट ये पाँच प्रकार प्रमादसमुत्वीर्तन में जानने चाहिए ।।३।।
विशेषार्थ-संख्या अर्थात् भेद या भङ्गगणना । प्रस्तार अर्थात् न्यास । परिवर्तन अर्थात् अक्षसंचार । नष्ट अर्थात् संख्या रखकर अक्ष का पानयन । उद्दिष्ट अर्थात् अक्ष रखकर संख्या का आनयन । इन पाँच प्रकार से प्रमाद की समुत्कीर्तना करनी चाहिए।
संख्या की उत्पत्ति का क्रम . सव्ये वि पुष्यभंगा उवरिमभंगेसु एक्कमेक्केसु ।
मेलति ति य कमसो गुरिषदे उप्पज्जदे संखा ॥३६॥ गायार्थ-- सर्व ही पूर्व भंग अपने-अपने से ऊपर के प्रत्येक भंग में मिलते हैं अतः इनको परस्पर ग्राम से गुणा करने से भंग-संख्या को उत्पत्ति होती है ।।३६।।
विशेषार्थ-पूर्वभंग विकथा है सो चार प्रकार है। इससे ऊपर चार कषाय हैं । उनमें से प्रत्येक कषाय में चारों विकथाएँ सम्भव हैं । इस प्रकार चार विकथाएँ और चार कषाये इनको परस्पर गुणा करने से सोलह संख्या उत्पन्न होती है । ये मोलह अधस्तन भंग हैं । इनके ऊपर पांच इन्द्रियाँ है। प्रत्येक इन्द्रिय में उक्त १६-१६ भङ्ग सम्भव है। अतः इन
भड साभवहैं। अत: इन पाँच इन्द्रियों से १६ को गुणा करने पर भङ्गों की संख्या ८० उत्पन्न होती है । इनसे ऊपर निद्रा का भी एक भेद है अतः अस्सी (८०) को एक से गुणा करने पर अस्सी ही प्राप्त होते हैं । उसके ऊपर प्रणय (स्नेह) है, वह भी एक प्रकार का है, सो ८० को पुनः एक से गुणा करने पर भो ५० ही भंग होते हैं ।
प्रस्तार-क्रम पढम पमदपमाणं कमेण रिएक्विविय उवरिमारणं च ।
पिडं पडि एक्केक्कं गिक्खित्ते होवि पत्थारो ॥३७॥ १. व. पु. ७ पृ. ४५। २. वही। ३. वही ।
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गाथा ३८०३६
गुणस्थान / ३७
गाथार्थ -- प्रमाद के प्रथम भेद की संख्या (प्रमाण) विरलन करके प्रत्येक एक-एक के ऊपर उपरम प्रमादभेद के पिंडप्रमाण को निक्षेपण करने से प्रस्तार होता है ||३७||
विशेषार्थ - प्रमाद के प्रथम भेद विकथा का प्रमाण चार है। इस चार का विरलन करके चार स्थानों पर एक-एक लिखना चाहिए ( १ १ १ १ ) । इनमें से प्रत्येक के ऊपर उपरिम प्रमाद-भेद कषाय के पिंडप्रमाण चार का निक्षेपण करना चाहिए। (7) । इस प्रकार निक्षेपण करने से प्रमाद के १६ भंग हो जाते हैं । पुनः इन सोलह का विरलन करके एक-एक के ऊपर उपरितन प्रमादभेद इन्द्रिय पिण्डप्रमाण ५ संख्या का निक्षेपण करना चाहिए ( ¥¥¥¥¥ ) । इस प्रकार निक्षेपण करने से प्रभाव के कस्सी () का एक भेद है । इससे यह ज्ञात होता है कि पूर्व साथ पाये जाते हैं ।
प
हो जाते हैं. यह प्रस्तार समस्त प्रमाद, आगे के प्रमाद के प्रत्येक भेद के
प्रस्तार का दूसरा क्रम
वित्तु विदियमेतं पढमं तस्सुवरि विदियमेव वकं । पिंड
गाथार्थ - प्रमाद के दूसरे भेद कषाय की संख्याप्रमाशा एक-एक स्थान पर प्रमाद के प्रथम भेद face की संख्या का स्थापन करके (४४४४) उसके ऊपर प्रमाद के दूसरे भेद को विरलन करके प्रत्येक पिंड पर एक-एक अङ्क का निक्षेपण करना चाहिए ( 23 ) । इस प्रकार निक्षेपण करने पर प्रमाद के १६ भङ्ग हो जाते हैं । ऊपर भी सर्वत्र इसी प्रकार निक्षेपण करना चाहिए। जैसेउपरिम इन्द्रिय संख्या प्रमाण जितने रूप ( ग्रक) हैं, उतने स्थानों पर सोलह पिंड को स्थापित करना चाहिए (१६ १६ १६ १६ १६) । प्रमाद के उपरिम भेद की संख्या को विरलन करके प्रत्येक fre के ऊपर एक एक का निक्षेप करना चाहिए ( ) । इसप्रकार निक्षेपण करने पर प्रमाद के सर्व भङ्ग अस्सी (६०) हो जाते हैं। यह प्रस्तार का दूसरा क्रम है ||३८||
पडि विखेश्रो एवं सव्वत्थ कायन्यो ||३८||
प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा अक्षपरिवर्तन'
तदियो अंतगदी प्रादिगदे संकमेदि विदियक्खो ।
दोणिनि गंतुणंतं श्राविगदे संकमेदि पढमक्खो ॥३६॥
गाथार्थ- - जब तृतीय प्रक्ष- इन्द्रियभेद आदि से लेकर परिवर्तित होता हुआ अन्त को प्राप्त होकर पुनः यादि को प्राप्त होता है तत्र द्वितीय प्रक्ष-कपायभेद में परिवर्तन होता है। इसी प्रकार यह द्वितीय अक्ष भी परिवर्तित होता हुआ अन्त को प्राप्त हो जाता है और उसके साथ-साथ प्रथम अक्ष भी अन्त को प्राप्त हो जाता है अर्थात् जब दोनों पक्ष अपने श्रन्त को प्राप्त होते हैं तब प्रथम अक्ष में परिवर्तन होता है ||३९||
विशेषार्थ - प्रमाद के पाँच भेद हैं- १. विकथा २. कषाय ३. इन्द्रिय ४. निद्रा ५. स्नेह । इनमें
घ. पु. ७ पृ. ४५ गा. १० परन्तु वहाँ 'सिक्यो' के स्थान पर 'शिक्खिसे' पाठ है। छोड़कर दूसरे स्थान पर जाने को परिवर्तन कहते हैं ।
२. एक स्थान को
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३०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४०
से विकथा के ४ भेद हैं-स्त्रीकथा, भवत(भोजन) कथा, राष्ट्रकथा, राजकथा ! कषाय के भी चार भेद हैंक्रोध, मान, माया, लोभ । इन्द्रिय के पाँच भेद हैं-स्पर्शन, रसना, घारण, चक्षु, थोत्र । निद्रा व स्नेह का कोई भेद नहीं है अत: इनमें अक्षसंचार-परिवर्तन नहीं होता । मात्र विकथा, कषाय और इन्द्रिय इनमें ही अक्षसंचार परिवर्तन सम्भव है, क्योंकि इनके उत्तर भेद हैं।
- तृतीय पक्ष--इन्द्रिय के प्रथम भेद स्पर्श के साथ द्वितीय प्रक्ष-कषाय के आदिभेद 'क्रोध' कषाय को रखकर प्रथम अक्ष-विकथा के प्रादिभेद स्त्रीकथा को कहना चाहिए, यह प्रथम पालाप है। द्वितीय पालाप में तृतीय अक्ष के दूसरे भेद रसना इन्द्रिय के साथ वही द्वितीय और प्रथम प्रक्ष के प्रादिभेद क्रोधकषाय व स्त्रीकथा का उच्चारण करना चाहिए । इस प्रकार मात्र तृतीय अक्ष में परिवर्तन करते हुए अन्तिम भेद श्रोत्र इन्द्रिय तक उच्चारण करना चाहिए । पुनः लौटकर तृतीय अक्ष के आदिभेद स्पर्शन इन्द्रिय को ग्रहरणकर उसके साथ द्वितीय प्रक्ष में परिवर्तन करके द्वितीय भेद 'मानकषाय' और प्रथम अक्ष के आदिभेद स्त्रीकथा का उच्चारण करना चाहिए । यह क्रम ततीय अक्ष के अन्तिम भेद तक ले जाना चाहिए । पुनः लौटकर तृतीय अक्ष के आदिभेद को ग्रहण करने पर द्वितीय अक्ष में पपिाय करके तृतीय भेद माया' कपाय और प्रथम अक्ष के प्रादिभेद स्त्रीकथा का उच्चारण करना चाहिए। यह क्रम तृतीय अक्ष के अन्तिम भेद तक ले जाना चाहिए। पुनः लौटकर तृतीय अक्ष के मादिभेद 'स्पर्शन इन्द्रिय' को प्राप्त करके द्वितीय अक्ष-कषाय में परिवर्तन करके उसके अन्तिम भेद 'लोभ' कषाय को ग्रहण कर इनके साथ प्रथम अक्ष के आदिभेद स्त्रीकथा का उच्चारण करना चाहिए। यह
म तृतीय अक्ष के अन्तिम भेद धोत्रेन्द्रिय तक ले जाना चाहिए । इस नालाप में तृतीय अक्ष के अन्तिम भेद धोत्र इन्द्रिय और द्वितीय प्रक्ष के अन्तिम भेद लोभकषाय का ग्रहण होने से तृतीय और द्वितीय दोनों अक्ष अपने अन्त को प्राप्त हो जाते हैं । पुनः लौटकर तृतीय अक्ष का और द्वितीय अक्ष का आदिभेद ग्रहण होने पर प्रथम प्रक्ष में परिवर्तन होकर द्वितीय भेद भक्तकथा' के साथ पालाप होता है। जिस प्रकार स्त्रीकथा के साथ तृतीय अक्ष में पुनःपुनः परिवर्तन कर के और द्वितीय अक्ष में एक बार क्रमशः प्रादि से अन्त तक परिवर्तन करके २० पालाप कहे, उसी प्रकार भक्तकथा, राष्ट्रकथा और अन्तिम राजकथा के साथ भी २०-२० पालाप कहने चाहिए। इस प्रकार अन्तिम पालाप में तीनों अक्ष अपने-अपने अन्त को प्राप्त हो जाते हैं।
द्वितीय प्रस्तार की अपेक्षा अक्ष-संचार का अनुक्रम पढमक्खो अंतगदो प्राविगद संकवि विदियक्षो ।
दोणि वि गंतरांतं प्रादिगदे संकमेदि तदियक्लो ॥४०॥ गाथार्थ--प्रथम अक्ष जब अन्त तक पहुँचकर पुनः प्रादिस्थान पर प्राता है तब दूसरा अक्ष भी संक्रमण कर जाता है और जब ये दोनों अन्त तक पहुँचकर प्रादि को प्राप्त होते हैं तब तृतीय अक्ष का भी संक्रमण हो जाता है ।।४०।।
विशेषार्थ--प्रमाद के प्रथम अक्ष (भेद) विकथा के स्त्री, भक्त, राष्ट्र और राजकथा इन चारों को क्रम से पलटकर कहना चाहिए तथा इनमें से प्रत्येक के साथ कषाय व इन्द्रिय का प्रथम
१. धवल पु. ७ पृ. ४५ माथा ११।
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गुणास्थान/३४
ग्रहण करना चाहिए । पुनः विकथा के चारों भेदों को क्रम से पलट-पलट कर कहना चाहिए, किन्तु हिबार कषाय के दूसरे भेद मान को ग्रहण करके इन्द्रिय का प्रथम भेद स्पर्शन ही ग्रहण करना चाहिए। भी प्रकार मान को छोड़कर कषाय के तीसरे भेद 'माया' को ग्रहण कर विकथा के आदिभेद से अन्तभेद पाय पार पालाप कहने चाहिए, किन्तु इन चारों में भी इन्द्रिय का आदिभेद स्पर्शन कहा जाता है। सी प्रकार कषाय के तृतीय भेद माया को एलदकर अन्तिम भेद लोभ को ग्रहण कर चार पालाप तथा परिवर्तन की अपेक्षा इन्द्रिय के आदिभेद स्पर्शन के साथ कहना चाहिए । इन १६ भंगों में बम प्रक्ष विक्रमा' के जार भेजनाधितो बना एक परकार जगतस-पलट कर पुनः ग्रहण किये गये हैं,
द्वितीय अक्ष 'कषाय' के चार भेद एक ही बार आदि से अन्त तक प्राप्त हुए हैं और इन १६ ही में में तृतीय अक्ष-इन्द्रिय के प्रथम भेद 'स्पर्शन' का ही ग्रहरण हुअा है। पुनः प्रथम प्रक्ष विकथा
पादि से अन्त तक चार बार पलटकर और द्वितीय अक्ष-कषाय को आदि से अन्त तक एक बार पटकर इन १६ पालापों को इन्द्रिय के द्वितीय भेद रसना' के साथ कहना चाहिए। इसी प्रकार ना इन्द्रिय को पलटक र घारग' इन्द्रिय के साथ १६ भेद कहने चाहिए। तृतीय अक्ष इन्द्रिय का परिवर्तन उसके अन्तिम भेद थोत्र इन्द्रिय तक करते हुए पूर्वोक्त १६-१६ आलाप कहने चाहिए। प्रकार तीनों ही (विकथा-कषाय-इन्द्रिय) प्रक्ष अपने-अपने अन्तिम भेद को प्राप्त कराने चाहिए। वितीय प्रस्तार की अपेक्षा अक्षसंचार में परिवर्तन का कथन जानना ।
नष्ट प्राप्त करने का विधान सगमाहि विहत्ते सेसं लक्खित्तु जारण अक्सपएं । लद्धरुवं पक्खिव सद्ध अंते ग रूख-पक्खेत्रो ॥४१॥
गाथार्थ-(प्रमादभंग को) अपने अक्ष पिण्डप्रमाण से भाग देने पर जो शेष प्राप्त हो, उस शेष मक्षित करके अक्षस्थान जानना । लब्ध में एक अङ्क जोड़ना । यदि भाग देने पर राशि शुद्ध हो र पूर्ण रूप से विभाजित हो जाये, शेष शून्य हो तो प्रक्ष का अन्तिम भेद ग्रहण करना चाहिए और र में एक अङ्क नहीं जोड़ना चाहिए ॥४१।।
विशेषार्थ-इस गाथार्थ को प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाता है। का पन्द्रहवाँ भंग प्राप्त करने के लिए १५ को तृतीय पक्ष 'इन्द्रिय' के पिण्ड प्रमाण पांच का भाग पर (१५५) लब्ध तीन और शेष शून्य प्राप्त हुआ । अतः इन्द्रिय प्रक्ष के अन्तिम भेद "श्रोत्रसब का ग्रहण होता है। लब्ध तीन को पुनः द्वितीय अक्ष 'कषाय' के पिण्ड प्रमाण चार से भाग पर (३:४) लब्ध शून्य और शेष तीन रहे । अतः शेष तीन को लक्षित करके कषाय के तृतीय मायाकषाय' का ग्रहण होता है। लब्ध शून्य में एक जोड़ने से (०+१) एक प्राप्त हुया । इस को प्रथम अक्ष-विकथा के पिण्ड प्रमाण चार से भाग देने पर (१-:४) लब्ध शून्य और शेष एक हुमा । अतः बिकथा के पहले भेद 'स्त्रीकथा' का ग्रहण होता है । इसलिए स्नेहवान् निद्रालु इन्द्रिय के वशीभूत मायावी स्त्रीकथालापी ऐसा प्रमादका १५वाँ भंग है । यह कथन प्रथम पार की अपेक्षा जानना चाहिए ।
रस पु. पृ. ४६ गाथा १२ ।
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४०/गो. सा, जीवकाण्ड
गाया ४२
द्वितीय प्रस्तार की अपेक्षा प्रमाद दा : ५ना मंग निकालने के लिए १५ को प्रथम अक्ष. विकथा के पिण्डप्रमाण चार से भाग देने पर (१५:४) लब्ध ३ और शेष भी तीन ही प्राप्त होते हैं। शेष तीन को लक्षित करके विकथा के तृतीय भेद 'राष्ट्रकथा' का ग्रहण होता है । लब्ध तीन में एक अङ्क जोड़ने पर (३ +१) चार प्राप्त होते हैं । इस चार को द्वितीय अक्ष-कषाय के पिण्ड प्रमाण चार से भाग देने पर (४:४) लब्ध एक और शेष शून्य प्राप्त होता है, क्योंकि यह राशि शुद्ध है । अतः कषाय के अन्तिम भेद लोभ का ग्रहण होता है। लब्ध एक में एक अङ्क नहीं मिलाने से एक ही रहा । इस एक को तृतीय अक्ष-इन्द्रिय के पिण्ड प्रमाण पाँच का भाग देने पर (१५) लब्ध शून्य और शेष एक प्राप्त होता है। अतः इन्द्रिय के प्रथम भेद 'स्पर्शन' का ग्रहण होता है । इस प्रकार द्वितीय प्रस्तार की अपेक्षा प्रमाद का पन्द्रा भंग-राष्ट्रकथालापी लोभी स्पर्शनेन्द्रिय के वशीभूत निद्रालु स्नेहवान् है । प्रमाद के अन्य भंगों को इसीप्रकार सिद्ध करके जानना चाहिए ।
पालाप की संख्या प्राप्त करने का विधान संठाविदूण रूवं उवरीदो संगुरिंगत्तु सगमाणे । अवणिज्ज प्रगकिवयं कुज्जा एमेव सम्वत्थ ॥४२॥
गाथार्थ-एक अल को स्थापन करके अपने पिण्डप्रमाण से गुणा करे, जो गुरगनफल प्राप्त हो उसमें से अनङ्कित को घटाना चाहिए। ऐसा सर्वत्र करना चाहिए अर्थात् अन्तिम नृतीय अक्ष से प्रथम अक्ष तक यह क्रम ले जाना चाहिए ॥४२॥
विशेषार्थ-शङ्का- अनङ्कित किसे कहते हैं ?
समाधान-अक्ष के विवक्षित भेद से आगे के भेदों की संख्या को 'अनंकित' कहते हैं। जैसेविकथा अक्ष का प्रथमभेद स्त्रीकथा विवक्षित है। स्त्रीकथा से आगे भक्तकथा, राष्ट्रकथा, राजकथा, ये तीन कथाएँ हैं अतः 'तीन' संख्या अनङ्कित है।
उदाहरण द्वारा इस गाथा का अर्थ स्पष्ट किया जाता है । जैसे—स्नेहवान, निद्रालु श्रोत्रेन्द्रिय के वशीभूत मायावी स्त्रीकथालापी इस आला की संख्या ज्ञात करनी है कि यह कौनसा भंग है? एक का अङ्क स्थापित करके प्रथम अक्ष-विकथा के पिण्डप्रमाण चार से उसे गुणा करने पर (१४४) गुणनफल चार प्राप्त होता है। विकथा के भेदों में से स्त्रीकथा प्रथम भेद है, इसके धागे अन्य तीन विकथाएँ और होने से अनङ्कित का प्रमाण तीन प्राप्त हुआ । उक्त गुणनफल चार में से विकथा सम्बन्धी अनङ्कित ३ घटाने से (४-३) १ शेष रहता है । इस एक को द्वितीय अक्ष-कषाय के पिण्ड प्रमाण चार से गुरणा करने पर गुरणनफल (१४४) चार प्राप्त होता है । कषाय के चार भेदों में से 'माया' तृतीय भेद है और भागे एक लोभकषाय शेष रहने से अनङ्कित के प्रमाण एक को उक्त गुणनफल ४ में से घटाने पर शेष (४-- १) तीन रहते हैं । इस तीन को तृतीय अक्ष इन्द्रिय के पिण्ड प्रमारग ५ से गुणा करने पर(३ x ५) गुणनफल १५ प्राप्त होते हैं । चूंकि इन्द्रिय के पाँच भेदों
१. घ. पु. ७ पृ. ४६ गाथा १३; किन्तु वहाँ पाठ भेद है-'अबणिज्ज अरणंकिदयं' के स्थान पर 'अबणेज्जोणं कदियं" यह पाठ है तथा 'एमेव सम्वत्थ' के स्थान पर 'पढमंतियं जाव' यह पाठभेद है ।
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माषा ४३
गुणस्थान/४१
में श्रोत्रेन्द्रिय अन्तिम भेद है अत: अनङ्कित का अभाव है । इसीलिए गुणनफल १५ में से घटाने योग्य संख्या का भी प्रभाव होने से यहाँ घटाया नहीं है । इस प्रकार 'स्नेहवान्, निद्रालु श्रोत्रेन्द्रिय के वशी
भूत मायावी स्त्रीकथालापी' इस पालाप की संख्या १५ प्राप्त हुई अर्थात् उक्त भङ्ग १५वा है। उक्त । विधान से अन्य भी पालापों की संख्या प्राप्त करनी चाहिए।
प्रथम प्रस्सार की अपेक्षा नष्ट व उद्दिष्ट सम्बन्धी यंत्र का कथन इगि-बि-ति-घ-परण ख-परण वस-पपरपरसं ख-बीस-ताल-सट्ठी य । संठविय
पमदठाणे पछुद्दिट्ट च जारण तिट्ठाणे ॥४३॥ गायार्थ-प्रथम पंक्ति में एक, दो, तीन, चार व पाँच स्थापन करने (लिखने) चाहिए। उसके नीचे द्वितीय पंक्ति में शून्य, पाँच, दस व १५ स्थापन करने चाहिए। उसके नीचे तृतीय पंक्ति में शून्य । बीस, चालीस और साठ स्थापन करने चाहिए । इन स्थानों के द्वारा प्रमाद सम्बन्धी नष्ट व उद्दिष्ट । प्राप्त कर लेना चाहिए ।।४३॥
विशेषार्थ---
प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा प्रमाद सम्बन्धी नष्ट-उद्दिष्ट निकालने का यंत्र
wom
। इन्द्रिय प्रमाद | स्पर्शन १ | रसना
२ . घारण
३ वक्षु ४ | थोत्र ५
। ऋषाय प्रमाद | क्रोध ० | मान
५ . माया १० लोभ १५
। विकथा प्रमाद | स्त्री ० | भोजन २० ! राष्ट्र ४० राज ६० ।
-
जिन अङ्गों या शून्य को परस्पर जोड़ने से विवक्षित संख्या प्राप्त हो, उन अङ्कों को ज्ञात कर उन प्रङ्गों पर या शून्य पर प्रमाद का नो-जो भेद हो वही प्रमाद का पालाप है। इतनी विशेपता है कि उसके पागे निद्रालु व स्नेहवान् भी लगा लेना चाहिए 1 उपयुक्त यंत्र को दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं-प्रथम उदाहरण मान लो छत्तीसवाँ पालाप ज्ञात करना है- बीस, पन्द्रह और एक को परस्पर जोड़ने से (२०+१५.१-३६ प्राप्त होता है। वीस पर भोजनकथा. पन्द्रह पर लोभकषाय और एक पर स्पर्शनेन्द्रिय अत: छत्तीसवाँ भङ्ग (आलाप) भोजन कथालापी लोभी स्पर्शनेन्द्रिय के वशीभूत निद्रालू, स्नेहवान् ।
द्वितीय उदाहरण—इकतालीसा पालाप ज्ञात करना है-चालीस, शून्य और एक को परस्पर जोड़ने से (४० 4.0+१-४१ संख्या प्राप्त होती है। चालीस पर राष्ट्रकथा, शून्य पर क्रोधकषाय और एक पर स्पर्शन इन्द्रिय । अतः इकतालीसवाँ पालाप राष्ट्रकथालापी क्रोधी स्पर्शन इन्द्रिय के वशीभूत निद्रालु स्नेहवान् । ये दोनों उदाहरण नष्ट को ज्ञात करने के लिए हैं। उद्दिष्ट निकालने हेतु प्रथम उदाहरण
प्राणेन्द्रिय के वशीभूत, मानी, राजकथालापी, निद्रालु और स्नेहवान् पालाप की संख्या ज्ञात करनी है। प्राणेन्द्रिय पर संख्या तीन, मानकषाय पर संख्या पाँच, राजकथा पर संख्या साठ; इन
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४२ / गो. सा. जीवकाण्ड
=
तीनों संख्याओं को जोड़ने से (३+५६० ) ६६ प्राप्त होते हैं । अतः 'घ्राणेन्द्रिय के वशीभूत मानी राजकथालापी निद्रालु और स्नेहवान्' यह ६८ व आलाप है। द्वितीय उदाहरण इस प्रकार है---
'चक्षुइन्द्रिय के वशीभूत लोभी स्त्रीकथालापी निद्रालु स्नेहवान्' इस आलाप की संख्या ज्ञात करनी है । चक्षु इन्द्रिय पर संख्या चार, लोभकषाय पर संख्या पन्द्रह और स्त्रीकथा पर शून्य है । इन तीनों को जोड़ने से ( ४ / १५ + ० ) १६ प्राप्त होते हैं। अतः 'चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत लोभी स्त्रीकालापी निद्रालु स्नेहवान्' यह १६ व आलाप है। इसी प्रकार अन्य भी नष्ट-उद्दिष्ट ज्ञात कर लेने चाहिए ।
द्वितीय प्रस्तार की अपेक्षा नष्ट व उद्दिष्ट ज्ञात करने का यंत्र
इगि बि-ति-च-य-च-उ-वारं ख- सोल-राग- ट्ठदाल-चउसट्ठि । संठविय पमदठाणे, गठ्ठद्दट्ठे च जारा तिट्ठा ||४४ ||
गाथार्थ - प्रथम पंक्ति में एक, दो, तीन व चार: द्वितीय पंक्ति में शून्य, चार, आठ, बारह् और तृतीय पंक्ति में शून्य, सालहू, बत्तीस, अड़तालीस व चौंसठ स्थापित करने ( लिखने) चाहिए । इन तीन स्थानों के द्वारा प्रमाद सम्बन्धी नष्ट व उद्दिष्ट जानने चाहिए || ४४ ॥ ॥
विशेषार्थ
द्वितीय प्रस्तार की अपेक्षा प्रभाव सम्बन्धी नष्ट व उद्दिष्ट ज्ञात करने का यंत्र -
विकथा प्रभाव
स्त्री
भोजन २ राष्ट्र ३
कषाय प्रमाद
क्रोध
मान ४ माया
इन्द्रिय प्रमाद स्पर्शन रसना १६ धारण ३२
१
の
J
गाथा ४४
म
राज ४
लोभ १२
चक्षु ४५
श्रोत्र ६४
जिन श्रों को या शून्य को परस्पर जोड़ने में विवक्षित संख्या प्राप्त हो, उन ग्रङ्कों को ज्ञात कर उन अकों पर या शुन्य पर प्रमाद का जो-जो भेद हो, वही प्रमाद का आलाप है । इतनी विशेषता है कि उसके आगे निद्रालु व स्नेहवान् भी लगा लेना चाहिए ।
इस यंत्र को स्पष्ट करते हुए नष्ट ज्ञात करने के लिए प्रथम उदाहरण देते हैं- प्रतीसवाँ आलाप ज्ञात करना है। बत्तीस, चार व दो को परस्पर (३२+४+२= ) जोड़ने से ३८ प्राप्त होते हैं । दो के प्र पर भोजनकथा, चार के श्र पर मानकषाय और बत्तीस पर घ्राणेन्द्रिय है | अतः अड़तीसवां बालाप - 'भोजनकथालापी मानी घ्राणेन्द्रिय के वशीभूत निद्रालु व स्नेहवान्' होगा ।
नष्ट ज्ञान करने के लिए दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-सोलहवाँ श्रालाप ज्ञात करना है । चार, बारह और शुन्य इन तीनों को जोड़ने से ( ४+१२+०) १६ होते हैं। चार के प्रङ्क पर राजकथा, बारह अङ्क पर लोभकषाय और शून्य पर स्पर्शनेन्द्रिय है | अतः १६वा आलाप-राजकथालागी लोभी स्पर्शनेन्द्रिय के वशीभूत निद्रालु व स्नेहवान् " है ।
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मृगस्थान/४३ नष्ट सम्बन्धी दो उदाहरण कहने के पश्चात् अब उद्दिष्ट जाल करने के लिए उदाहरण देते हैं-'भोजनकथालापी मायावी चक्षुइन्द्रिय के वशीभूत निद्रालु स्नेहवान्' इस पालाप की संख्या ज्ञात करनी है । भोजनकथा पर अङ्क दो, माया कषाय पर अङ्क पाठ, चक्षु इन्द्रिय पर प्रङ्क अड़तालीस हैं, इन तीनों को जोड़ने से (२++४==) ५८ प्राप्त होते हैं। अतः उक्त 'भोजनकथालापी मायावी चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत निद्रालु स्नेहवान्' पालाप की संख्या ५८ है, इसी प्रकार अन्य नष्टों के पालाप और अन्य पालापों के उद्दिष्ट ज्ञात कर लेने चाहिए।
शङ्का--गाथा ४३ व ४४ में निद्राप्रमाद व स्नेहप्रमाद के कोष्ठक वयों नहीं बनाये गये?
समाधान-निद्राप्रमाद व स्नेहप्रमाद के दो व तीन प्रादि उत्तरभेद नहीं हैं अतः उनके कोष्ठक नहीं बनाये गये हैं । यदि कोष्ठक बनते भी तो निद्राप्रमाद के स्थान पर शून्य और स्नेहप्रमाद के स्थान पर शुन्य रखा जाने से तथा इन दोनों शुन्यों को जोड़ने से संख्या में कोई अन्तर न पड़ने के कारण निद्राप्रमाद व स्नेहप्रमाद के कोष्ठक नहीं बनाये गये ।
अथवा प्रमाद के ३७५०० भङ्ग भी हैं जो इस प्रकार हैं-स्नेह के दो भेद, निद्रा पाँच प्रकार की, इन्द्रिय पाँच व मन ये छह, कषाय व नोकषाय मिलकर पच्चीस और विकथा २५ । इनको परस्पर गुणा करने से (२४५४६४२५४२५) ३७५०० भङ्ग होते हैं ।
नष्ट व उद्दिष्ट ज्ञात करने के लिए यंत्र इस प्रकार बनाये जाते हैं जितने मूल भेद हो उतनी पंक्तियां यंत्र में होती हैं । जिस मूलभेद के जितने उत्तरभेद हों, उस मूलभेद की पंक्ति में उतने कोठे होते हैं । मुलभेद और उत्तरभेद यथाक्रम लिखे जाते हैं । प्रथम पंक्ति के कोठों में यथाक्रम एक दो तीन प्रादि संख्या लिखी जाती है । उसके नीचे की पंक्ति अर्थात् दूसरी पंक्ति के प्रथम कोठे (अनन्तानुबन्धी ) में शून्य लिखा जाता है । द्वितीय कोठे में वह संख्या लिखी जाती है, जो संख्या (२५) प्रथम पंक्ति के अन्तिम (संगीतवाद्यकथा) कोठे में लिखी गई थी, क्योंकि इस प्रथम पंक्ति से पूर्व कोई पंक्ति नहीं है । द्वितीय पंक्ति के तृतीयादि (अनन्तानुबन्धी मायादि) कोठों में क्रम से द्वितीय (अनन्तानुबंधीमान) कोठे की संख्या को दुगुनी २५४२ (५०), तिगुनी २५४३ (७५). चौगुणी २५४४ (१००), आदि २५४२४ (६००) पर्यन्त संख्या लिखी जाती है । द्वितीय पंक्ति के नोचे तृतीय
इन्द्रिय) पंक्ति के प्रथम (स्पर्शनेन्द्रिय) कोठे में शून्य लिखा जाता है। प्रथम पंक्ति के अन्तिम कोठे की संख्या (२५) और द्वितीय पंक्ति के अन्तिम कोठे की संख्या (६००) इन दोनों संख्याओं को जोड़ने से जो प्रमाण (६२५) आवे उतनी (६२५) संख्या तृतीय (इन्द्रिय) पंक्ति के द्वितीय (रमना) कोठे में लिखी जाती है । इसके पश्चात् तृतीय आदि कोठों में द्वितीय कोठे की संख्या की दुगुगणी (६२५४२), तीनगुणी (६२५४३), चारगुरणी (६२५४४) आदि संख्या यथाक्रम लिखी जाती है। इसी प्रकार चतुर्थ, पंचमादि पंक्तियों के कोठों में से प्रथम कोठे (स्त्यानगद्धि) में शून्य और द्वितीय कोठे (निद्वानिद्रा) में पूर्व पंक्तियों के अन्तिम कोठों की संख्याओं का जोड़ {२५ + ६०० + ३१२५ = ३७५०) और नृतोय आदि कोठों में द्वितीय कोठे को दुगुणी (३७५०x२), तीनगुणी (३७५०४३) अादि संख्या लिखी जाती है। प्रत्येक पंक्ति के अन्तिम कोठों की संख्याओं को परस्पर
जोड़ने से कुल भंगों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है । इस विधान के अनुसार प्रमाद के ३७५०० भंगों __ के दो प्रस्तारों को अपेक्षा दो यंत्र बनाये जाते हैं, जो इस प्रकार हैं: -
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४४ गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४३ प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा प्रमाद के साढ़े सैंतीस हजार (३७५००) भगों में
मा उद्दिष्ट शश करने का यंत्र पंक्ति ५
पंक्ति ४ पक्ति ३ पंक्ति २ पंक्ति । विकथा २५
कषाय २५
इन्द्रिय ६ । निद्रा ५ । स्नेह २ १ स्त्री ०१ अने. मोघ
१ स्पर्शन १ स्त्पानगृद्धि १ स्नेह । २ प्रर्थ २+E+५०१४४०४१५०० २ अन. मान २+ +५०-६०२ मता निवानिद्रा २० ३ मोजन
३ अन, माया ६०x२ =१२०८+२=१० १५००x२:३०००
३ प्रचलाप्रवला ४ अन. लोभ ६०४३=१८०३ धारण ४ राज १५००४३-४५००
२x२= ५ अप्रत्या. क्रोध ६०x४ - २४० १०x२-२० ५ चोर
निद्रा १५००x४-६०० अप्रत्या.मान ६०४५%=३००४ चक्ष १५००४५-७५००७ अप्रत्या. माया ६.४६ =३६०/ १०४३=३०.....
र प्रचला ७परपाखण्ड १५.०४६-१०००८ अप्रत्या. लोभ ६०४७-४२०५ श्रोत्र
२X४ = ८ देश १५००-3---१०५
है प्रत्या. क्रोध .xc=४०] १०x४-४०
१. प्रत्या, मान ६x६-५४०६ मन ६ भाषा १५०.xs=१२०००
११ प्रत्या. माया ६.४१०-६०० १.४५=५० १० गुणत्रन्ध १५००४६=१२१.००१२ प्रत्या. लोभ ६०x११ =६६ ११ देवी १५००x१०=१५०००१३ संज्व. क्रोध ६०x१२-७२० १२ निष्ठर १५०.४११-१६५००१४ संज्व. मान ६०x१३ = ७८० |१३ परपैशुन्म १५००४१२ =१०००१५ संज्व. माया ६५ x १४ =८४०
१६ संज्व. लोभ ६०४ १५ = ६०० १४ कन्दर्प १५००-१३-१६५००
१७ हास्य ६.x१६=१६. १५ देशकाला- १५००x४-२१०
२०१८ रति ६.४१५-१०२० । नुचित
J१६ अरवि ६०x१८ -१००० १६ भण्ड १५००x१५- २२५००२. शोक ६ux१६-११४०| १७ मूर्ख . १५.०४ १६ : २४०००२१ भय ६०x२० - १२०० १८ प्रात्मप्रशंसा १५००x१७-२५५०२२ जुगुप्सा ६०४२१-१२६० १६ परपरिवाद १५०x१८ २२०००
...२३ स्यौवेद ६०x२२-१३२०
२४ पुरुषवेद ६०x२३-१३८० २० परजुगुप्सा १५०० x १६ - २८५००
२५ नपुसकवेद ६.४२४ =१४४० २१ परपीड़ा १५००४ २० - ३०००० २२ कलह १५२० र २१ = ३१५०० २३ परिग्रह १५.०४ २२ = ३३००० २४ कृष्याद्यारम्भ १५०० ४२३ -३४५०० २५ संगीतवाद्य १५०० ४२४ = ३६:००
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कामा ४३
गुणस्थान /४५ द्वितीय प्रस्तार की अपेक्षा प्रमाव के साढ़े सैंतीस हजार (३७५००) भङ्गों में
नष्ट-उद्दिष्ट ज्ञात करने का यंत्र शक्ति ५ पंक्ति ४ पंक्ति ३ पंक्ति २
पंक्ति । सह २ | निद्रा ५ । इन्दिय ६ | कषाय २५
विधा।
०
| रसमा ६२५ मन. मान
-१२५०
लेह. स्त्यानद्धि ०
ग्रन, कोष
स्त्रीकथा | निद्रानिद्रा
मर्थकथा १८७५० ३७५० H०० प्रथलाप्रचला
अन. माया २५४२=५०
भोजनकथा २५] ३७५०x२धारण ६२५४२ ग्रन लोभ २५४३-७५
राजकथा
अप्रत्या. कोध २५४४-१०० +२५) निद्रा चक्षु ६२५४३ अप्रत्या. र २५ -११
होरकथा ३७५०४३११२५०
अप्रत्या. मापा २५४६= १५० दरकथा ३७५३४४ श्रोत्र ६२५४४ अप्रत्या. लोभ २५४७%2१७५
परपाखण्डकथा =१५००० =२५०० प्रत्या, क्रोध २५४८=२००
देशकथा प्रत्या. मान २५४६%२२५ मन ६२५५
भापीकथा ३१२५
प्रत्या, माया २५-१०-२५० प्रत्या, लोभ २५-११-२७५
गुणवन्धकथा संज्य, क्रोध २५४१२-३०० देवीकथा सज्व, मान २५४१३:.:. ३२५
निष्ठुरकथा
संज्व. माया २५४१४ =३५० लोट : द्वितीय प्रस्तार में प्रथम प्रस्तार
संज्व. लोभ २५४१५-३७५
परपशुन्यकथा की अपेक्षा मुख्यतः यही भेद है कि हास्य २५४१६-४००
कन्दर्पकथा यंत्र में विकथा, कषाय, इन्द्रिय,
रति २५४१७-४२५ देशकालानुचितकथा निद्रा व स्नेह की पंक्तियों के क्रमांक अरति. २५४१५='४५०
अण्डकथा क्रमशः १, २, ३, ४, ५ होते हैं,
२५-११-४७५ जो प्रथमप्रस्तार से ठीक उलटे हैं,
मूर्ख कथा
२५४२०- ५०० यंत्र बनाने की शेषविधि वही है जुगुप्सा २५४२१-५२५
प्रात्मप्रशंमा कथा जैसी कि विशेषार्थ में कही है।
स्त्रीवेद २५४२२-५५० परपरिवादका पुरुषवेद २५४२३ - ५७५
परजुगुप्साका नघु सकवेद २५४२४ = ६००
परपीडाकथा
गोक
कलहकथा परिग्रहकथा
कृध्याद्यारम्भकथा
संगीतवाद्यकथा
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४६ / गो. सा. जीवकाण्ड
सातवें अप्रमतसंगत गुगुस्थान का स्वरूप संजलरपरोकसायाणुदश्री मंझे जदा तदा होदि । प्रमत्तगुणो तेा य प्रपमत्तो संजदो होदि || ४५ ||
गाथा ४५
गायायें – संज्वलन कषाय और नोकषाय का जब मन्द उदय होता है, तब श्रप्रमत्तगुणस्थान होता है और उसी से प्रप्रमत्तसंयत होता है ॥४५॥
विशेषार्थ -संज्वलन कोष मान-माया लोभ और हास्य रति प्ररति-शोक-भय-जुगुप्सा- स्त्रीवेदपुरुप्रवेद-नपुसकवेद ये नव नोकषाय, इन १३ प्रकृतियों के तीव्र उदय का नाम प्रमाद है।' इसी से यह भी सिद्ध हो जाता है कि चार संज्वलन कषाय और नव नोकषाय के मन्द उदय का नाम प्रप्रमाद है । श्रेणीमा रोहण से पूर्व सकलसंयमी के इन तेरह प्रकृतियों का कभी तीव्रोदय होता है और कभी मन्दोदय तीव्रोदय होने पर प्रमत्तसंयत नामक छठा गुरणस्थान प्राप्त हो जाता है और मन्दोदय होने पर अप्रमत्तसंगत नामक ७ गुणस्थान रहता है, किन्तु श्रप्रमत्तसंयत के काल से प्रमत्तसंयत का काल दुगुना है। इस प्रकार प्रमत्त व अप्रमत्तगुणस्थान में जो भूला करता है, वह स्वस्थान अप्रमत्तसंयत है ।
जिनका संयम प्रमादसहित नहीं होता, वे अप्रमत्तसंथत हैं। संयत होते हुए जिन जीवों के पन्द्रह प्रकार का प्रमाद नहीं पाया जाता, वे अप्रमत्तसंयत हैं ।
शङ्का - शेष सम्पूर्ण संयतों का इसी अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में अन्तर्भाव हो जाता है इसलिए शेष संगत गुणस्थानों का अभाव हो जाएगा ?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि जो आगे कहे जाने वाले अपूर्वकरणादि विशेषरणों से युक्त नहीं हैं और जिनका प्रमाद ग्रस्त हो गया है, ऐसे संगतों का ही श्रप्रमत्तसंगत गुणस्थान में ग्रहण होता है; इसलिए आगे के समस्त संयत गुणस्थानों का श्रप्रमत्तसंयत गुणस्थान में अन्तर्भाव नहीं होता ।
शङ्का - यह कैसे जाना जाये कि यहाँ पर आगे कहे जाने वाले पूर्वकरणादि विशेषणों से युक्त संयतों का ग्रहण नहीं होता ?
समाधान- आगे के संयत जोवों का यहाँ ग्रहण नहीं होता, यदि ऐसा नहीं माना जाये तो आगे के संयतों का निरूपण बन नहीं सकता, इससे ज्ञात होता है कि यहाँ अपूर्वकरणादि विशेषणों से रहित प्रमत्तसंयतों का ही ग्रहरण किया गया है।
वर्तमान समय में प्रत्याख्यानावररगीय कर्मों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय से और आगे उदय में आने वाले उन्हीं के उदयाभाव लक्षण उपगम से तथा संज्वलन कषायों के मन्द उदय होने से प्रत्याख्यान की उत्पत्ति होती है, इसलिए यह गुणस्थान भी क्षायोपशमिक है। संयम के कारणभुत
१. " को पमादो णाम? चदुसंजल रगवणोकसायरणं तिब्बोदओ ।" धवल पु. ७ पृ. ११ । २. "प्रथमत्तद्भादो प्रमत्तढाए डुगुणत्तादो - अवल पु. ३ पृ. ६० । ३. प्राकृत पंचसंग्रह प्र. १ गा. १६, व धवल पू. १ पृ. १७९; सूत्र १५ की टीका में भी यह गाथा है।
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पापा ४६-४७
गुगास्थान ४७
सम्यक्त्व की अपेक्षा, सम्यक्त्व के प्रतिबन्धक कौ के क्षय, क्षयोपशम और उपशम से यह गुरगस्थान हित्पन्न होता है । इसलिए क्षायिक, क्षायोपशमिक और प्रौपमिक भी (यह गुणस्थान) है ।
स्वस्थान अप्रमत्तसंयत एवं सातिशाम अप्रमनसंयत का स्वरूप गट्ठासेसपमावो वयगुणसोलोलिमंडियो गाणी । अणुबसमम्रो प्रखवनो भारणिलीणो हु अपमत्तो ॥४६।। इगवीसमोहखवणुवसमरराणिमित्तारिण तिकरणारिण तहिं । पढम प्रधापवसं करणं तु करेदि अपमत्तो ॥४७॥ युग्मम् |
गाथार्थ-जिस संयत के सम्पूर्ण व्यकाव्यक्त प्रमाद नष्ट हो चुके हैं और जो समग्र ही महाव्रत, भट्ठाईस मूलगुण तथा शील से युक्त है और शरीर-प्रात्मा के भेदज्ञान में तथा मोक्ष के कारण भूत ध्यान में निरन्तर लीन रहता है, ऐसा अप्रमत्त जब तक उपशमक या क्षपक श्रेणी का आरोहण नहीं करता तब तक उसको स्वस्थान अप्रमत्त अथवा निरतिशय अप्रमत्त कहते हैं ।।४६।। अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान-संज्वलन सम्बन्धी क्रोधमानमायालोभ तथा हास्यादिक नव नोकषाय मिलकर मोहनीय की इक्कीस प्रकृतियों के उपशम या क्षय करने को प्रात्मा के ये तोन करण अर्थात् तोन प्रकार के विशुद्ध परिणाम निमित्तभूत हैं—अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण । उनमें से सातिशय अप्रमत अर्थात जो श्रेणी चढ़ने के सम्मुख है, वह प्रथम अधःप्रवृत्तकरण को ही करता है ।।४७॥
विशेषार्थ-चतुर्थना स्थान से सप्तम गुणस्थान पर्यन्त किसी भी गुणस्थान में जिस वेदक सम्यग्दृष्टि ने प्रधःकरण, अपूर्वक रण। और अनिवृत्तिकरण इन तीनों कररणों द्वारा अनन्तानुबन्धीकषाय की विसंयोजना करके, पुन: तीन करणों के द्वारा दर्शनमोहनीय की (सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, मिथ्यात्व) तीन प्रकृतियों का उपशम करके द्वितीयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है। अथवा इन तीन प्रकृतियों का क्षय करके क्षायिक सम्यग्रष्टि हो गया है वह द्वितीयोपशम सम्यादृष्टि या क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहनीय कर्म की अप्रत्याख्यानावरमादि २१ प्रकृतियों का उपशम करने के योग्य होता है, किन्तु चारित्रमोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के क्षपण के योग्य क्षायिक सम्यग्दष्टि ही होता है, क्योंकि द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि क्षपकश्रेणी पर आरोहण नहीं कर सकता। । ऐसा सम्यग्दृष्टि प्रमत्त से अप्रमत में और अप्रमत्त से प्रमत्त में संख्यात बार भ्रमण करके अनन्तगुणी
विशुद्धि के द्वारा विशुद्ध होता हुआ सातिशय अप्रमत्त हो जाता है । .. जो निर्विकल्प समाधि में स्थित है, वास्तव में वहो ज्ञानी है, क्योंकि उसके बुद्धिपूर्वक राग-द्वेष का अभाव हो गया है। जो राग-द्वेष को हेय जानसा हुआ भी बुद्धिपूर्वक राम-द्वेष करता है वह वास्तविक ज्ञानी नहीं है।
. . ४६वीं गाथा का विशेषार्थ:-स्वस्थान-अप्रमत्त गुणस्थान में गमनागमन प्रादि क्रिया होती है। । अन्यथा अप्रमत्तगुणस्थान में परिहार विशुद्धिसंगम के अभाव का प्रसंग प्रा जाएगा, क्योंकि जो
.. प्राकृत पंचसंग्रह म. १ गा. १६ व ध.पु. १ पृ. १७६ सूत्र १५ की टीका ।
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४८/मो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४५-४६
निरन्तर ध्यान में रत हैं उनके क्रिया का प्रभाव होने से परिहारविशुद्धिसंयम सम्भव नहीं है । कहा भी है "जिसकी प्रात्मा ध्यानरूपी अमृत के सागर में निमग्न है, जो बचन-यम (मौन) का पालन करता है कौर सिसने नया मीर-सम्बन्धी सम्पूर्ण व्यापार संकुचित कर लिया है, ऐसे जीव के शुभाशुभ क्रियाओं का परिहार बन ही नहीं सकता, क्योंकि गमनागमन प्रादि क्रियात्रों में प्रवृत्ति करने वाला हो परिहार कर सकता है, प्रवृत्ति नहीं करने वाला नहीं। इसलिए ऊपर के ध्यानावस्था को प्राप्त गुणस्थानों में परिहारविशुद्धिसंयम नहीं बन सकता" ।।
४७वीं गाथा का शेष विशेषार्थ:-सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान में स्थिति काण्डकघात व अनुभागकाण्डकघात न होने के कारण अनुपशामक और अक्षपक विशेषण दिया गया है। द्वितीयोपशम-सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबन्धी चतुष्क का विसंयोजन हो जाने से और दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों का उपशम हो जाने से अथवा क्षायिक सम्यग्दृष्टि के इन सात प्रकृतियों का क्षय हो जाने से चारित्रमोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियां शेष रह जाती हैं, जिनका उपशम या क्षय करने के लिए अध करण, अपुर्वकरण व अनिवृत्तिकरण ये तीन करण होते हैं। इन तीन करणों में से अपूर्वकरण तो पाठवें गुणस्थान में होता है और अनिवृत्तिकरण नौवें गुणस्थान में होता है। अधःकरण नामक कोई गुणस्थान नहीं है प्रतः प्रथम अधःकरण सातिशय अप्रमत्तगुणस्थान में होता है। इस सातिशय अप्रमत्तगुरणस्थान में अधःकरण द्वारा प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि बढ़ती है, अप्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग बन्न अनन्तगुणा-अनन्तगुणाहीन विस्थानिक होता है और प्रशस्त प्रकृतियों का अनुभागबन्ध अनन्तगुणा-अनन्तगुणा वृद्धिगत होता हुया चतु:स्थानिक होता है। प्रत्येक बन्धापसरण द्वारा स्थितिबन्ध घटता हुआ होता है। ये चार आवश्यक कार्य अधःकरण से प्रारम्भ हो जाते हैं ।
• प्रथमकरण की अनःप्रवृतकरण संजा का कारण
• उसके काल एवं उसमें होने वाले परिणामों का प्रमाण जमा उवरिमभावा हेडिमभावेहि सरिसगा होति । तमा पढम करणं प्रधापवत्तोत्ति सिद्दिठं ॥४॥ अंतोमहत्तमेत्तो तक्कालो होदि तत्थ परिणामा । लोगारणमसंखमिदा उवरुरि सरिसवड्ढिगया ॥४६॥
गाथार्थ-अधःप्रवृत्तकरण के काल में ऊपर के समयवर्ती जीवों के परिणाम नीचे के समयवों जीवों के परिणाम के सण अर्थात संख्या और विशुद्धि की अपेक्षा समान होते हैं, इसलिए प्रथमकरण को अध:प्रवत्तकरण कहा गया है ।।४८1। इस अधःप्रवृत्त करण का काल अन्तम हर्त प्रमाण है और इसके परिणामों की संख्या असंख्यातलोक प्रमाण है। ये परिणाम ऊपर-ऊपर समान वृद्धि को प्राप्त होते गये हैं ।।४।।
विशेषार्थ-जिस परिणाम विशेष के द्वारा उपशमादिरूप विवक्षित भाव उत्पन्न किया जाता है, वह परिणाम 'करण' कहलाता है। जिस करणा में विद्यमान जीव के करणरूप परिणाम अर्थात
१. प. पु. १ पृ. ३७५ ।
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आमा ४८-४९
गुणस्थान / ४९
परितन ( आगे के ) समय के परिणाम नीचे के ( पूर्व के ) समय के परिणाम सदृश प्रवृत्त होते हैं, अधःप्रवृत्तकररण है । इस करण में उपरिम समय के परिणाम नीचे के समय में भी पाये जाते यह उक्त कथन का तात्पर्य है |
प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और श्रनिवृत्तिकरण इन तीनों का काल यद्यपि अन्तर्मुहूर्तहै, तथापि श्रनिवृत्तिकरण का काल सबसे कम है, उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरण का काल और उससे संख्यातगुरणा अधः प्रवृत्तकरण का काल है ।
अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय तक पृथक्-पृथक् प्रत्येक समय में संख्यात लोक प्रमाण परिणामस्थान होते हैं जो कि छह वृद्धियों के क्रम से अवस्थित और स्थितिपसरणयादि के कारणभूत हैं । श्रधः प्रवृत्तकरण के प्रथम समय में असंख्यातलोक प्रमाण रामस्थान होते हैं । पुनः द्वितीय समय में वे ही परिणामस्थान अन्य अपूर्वपरिणामस्थानों के विशेष ( चय) अधिक होते हैं ।
शङ्का - विशेष (वय) का प्रमाण कितना है ?
समाधान - प्रथम समय के परिणामस्थानों में अन्तर्मुहूर्त का भाग देने पर जो एक भाग आमा (संस्यातलोकप्रसारण) परिणाम प्राप्त होते हैं, उतना है ।
इस प्रकार इस प्रतिभाग के अनुसार प्रत्येक समय में विशेषाधिक परिणामस्थान करके प्रमः प्रवृत्तकररण के अन्तिम समय तक ऐसे हो जानना चाहिए ।
अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में जो परिणामस्थान होते हैं, उनके अन्तर्मुहूर्त काल के जितने समय हैं, उतने खण्ड करने चाहिए ।
शङ्का - इस ग्रन्तर्मुहूर्त का क्या प्रमाण है ?
समाधान — प्रधः प्रवृत्तकरणकाल का संख्यातवाँ भाग इस अन्तर्मुहूर्त का प्रमाण है ।
प्रथम समय के परिणामस्थानों के जितने खण्ड होते हैं, उतने समयों का निर्वर्मणाकाण्डक होता है, क्योंकि वहीं तक प्रथम समय के परिणामों की सदृशता सम्भव है। उससे आगे प्रथम समय परिणामों की सदृशता का विच्छेद हो जाता है । प्रथम समय के परिणामों के या अन्य समय के परिणामों के जो खण्ड होते हैं, वे परस्पर सदृश नहीं होते, विसदृश होते हैं, क्योंकि वे खण्ड एक-दूसरे की अपेक्षा विशेष अधिक क्रम से अवस्थित हैं । अन्तर्मुहूर्त का भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो वह विशेष का प्रमाण है । पुनः प्रथम खण्ड को छोड़कर इन्हीं परिणामस्थानों को दूसरे समय में परिपाटी को उल्लंघन कर स्थापित करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इस द्वितीय समय में श्रसंख्यात बैंक प्रमाण अन्य अपूर्व परिणामस्थान होते हैं। वे प्रथम समय के अन्तिमखण्ड के परिणामों में मुहूर्त का भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो, उतने अन्तिमखण्ड परिणामों से विशेष अधिक होते इन परिणामों को द्वितीय समय के अन्तिम खण्डरूप से स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार
अ.ष. पु. १२ पृ. २३३ । २. ज ध. पु. १२ पृ. २३६-३७ ।
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५०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४८-४६
स्थापित करने पर दूसरे समय में भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण परिणामखण्ड प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार ततीय आदि समयों में भो परिणामस्थानों की रचना अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय के प्राप्त होने तक कम से करनी चाहिए ।
अथवा, अध:प्रवृतकरण के प्रथम समय के परिणामस्थानों की खण्ड-विधि को इस प्रकार जानना चाहिए। यथा-दूसरे समय के जघन्य परिणाम के साथ प्रथम समय का जो परिणामस्थान : समान होता है, उनसे भिन्न पूर्व के समस्त परिणामस्थानों को ग्रहणकर प्रथम समय में प्रथमखण्ड । होता है।
पुनः तृतीय समय के जघन्य परिणामों के साथ प्रथम समय का जो परिणामस्थान । समान होता है उससे पूर्व के (नीचे के) पहले ग्रहण किये गये समस्त परिणामों से शेष बचे हुए । परिणामस्थानों को ग्रहण कर वहीं दूसरे खण्ड का प्रमागा होता है। इसप्रकार इस क्रम से जाकर पुनः प्रथम निर्वगणा काण्डक के अन्तिम समय के जघन्य परिणाम के साथ प्रथम समय के परिणामस्थानों में जो परिणामस्थान सरश होता है उससे 'पूर्व के (नीले के) पहले ग्रहण किये गये समस्त परिणामों से शेष बचे हुए परिणामस्थानों को ग्रहण कर प्रथम समय में द्वि चरम खण्ड का प्रमाण उत्पन्न होता है तथा उससे आगे के शेष समस्त विशुद्धिस्थानों के द्वारा अन्तिमखण्ड का प्रमाण उत्पन्न होता है और ऐसा करने पर अधःप्रवृत्तकरण काल के संख्यात भाग करके उनमें से एक भाग के जिनने समय होते हैं, उतने ही खण्ड हो जाते हैं । इसी प्रकार अधःप्रवत्तकरण के अन्तिम समय के प्राप्त होने तक द्वितीयादि समयों में भी पृथक-पृथक् पूर्वोक्त कहो गई विधि से अन्तर्मुहूर्तप्रमाण खण्ड जानने चाहिए । इस प्रकार कहे गये समस्त परिणामस्थानों की संदृष्टि है--
१००००००००००० | १०००००००००००० | १००००००००००००
१००००००००००००००
१००००००००००
१०००००००००००
१०००००००००००० | १०००००००००००००
१०००००००००
१०००००००००००
१००००००००००००
१००००००००
१००००००००००
१०००००००००००
१००००००००
१०००००००००
१००००००००००
१००००००
१०००००००
१००००००००
१०००००००००
१०००००
१००००००००
१००००
१०००००
१००००००
इस संदष्टि में अधःप्रवृत्तकरण का काल पाठ समय प्रमाण मानकर प्रत्येक समय के परिरणामों को खण्ड रूप से चार-चार भागों में विभाजित किया गया है। इस सम्बन्ध में कल्पित प्रकसंदृष्टि इस प्रकार है
- .- .- .-- १. ज. प. पु. १२ पृ. २३८ । २. ज. प. पु. १२ पृ. २३४-२३८
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वाया ४-४९
गुणस्पान/५१
प्रधःप्रवृत्तकरण के परिणामों को अनुकृष्टि-रचना की कल्पित अङ्क-संदृष्टि
समय, की | परिणामी का क्रम संख्या ।
प्रसारण
प्रथमखण्ड
द्वितीयखण्ड | तृतीयखण्ड । द्वितीय खण्ड
चतुर्भखण्ड
२२२
२१८
काण्डक अन्तिम निर्वगंगा
२१४
-
२१०
-
-
--
१६४
काण्डक विचरम निवर्गणा । द्वितीय निवंगणा ।
काण्डक
-
-
-
१८२
१५४
-
-
काण्डक प्रथम निवर्गणा
-
-
१. सुशीला उपन्यास (स्व. पं. गोपालदासजी बरया) पर्व १६ पृ. २१०-११ पर इसी संदृष्टि को निम्न प्रकार से विशिष्ट स्पष्टीकरण के साथ प्रस्तुत किया गया है
[पृष्ठ ५२ पर देखें
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५२ / गो. सा. जीवकाण्ड
परिणामों की संख्या
और नम्बर
२२२
नं० ६११-६१२ २१८
नं० ६०-८५५
२१४ ५८६९० २१०
५३५ – ७४४
४६५६१०
२०२ ४३६६२० १६५
३०६ - ५६५ १६४ ३४१-५३४ १६०
२६५ – ४८४
१८६
२५० – ४३५
१८२ २०६३८७
ی؟
१६३ – ३४०
for
१२१ – २६४
१७०
८० -- २४६
१६६
२०४० २०५
१६२ १--१६२
नं ०
**
६९१-७४४
५३
६२८-६९०
५२ १६९-६२७
५१
५३५-५८५
५.० ४e५-५३४
YE
४३६-४८४
४८
३८८-४३५
૭
२४१-३०७
૬ २६५-३४०
४५ २५०-२१४
४४
२०६-२४६
४३ १६३-२०५
४२
१२१-१६२
४१
८०-१२०
४०
४०-१७६
३६
१-३६
अनुकृष्टि रचना
५५
७४५-७६३
૪
६११-७४४
५३
६३८-६९०
५२
५८६ - ६३७
노민
५३५-५८५
४०
४८५-५३४
xe
४३६-४८४
४८
३८८-४३५
४७
३४१-३८७
४६
२१५-३४० ४५ २५० - २६४ ** २०६-२४६ ४३ १६३ - २०५
४२ १२१-१६२
४१ ८०-१२०
४०
४०७६
५६
८०-८५५
५५.
७४५-७६६
५४
६६१-७४४
५३
६३८-६६०
५.२
५०५-६२७
५१
५३५-५५ ५० ४८५ - ५३४
४६ ४२६-४८४
४८
३८०-४३५
४७
३४१-३८७
૪૬ २५-३४०
૪૧ २५०-२१४
४४ २०६-२४६ ४३
१६३ - २०५ ४२ १२१-१६२ ४१ ८०-१२०
गाथा ४८-४९
५७
१६-१२
북두
८००-६८५
५५
७४५-७६६
५४
६६१-७४४
५३ ६३८-६६०
५२ ५०६-१३७ ५१ ५३५-५६५
५० ४६५-५३४
YE
४३६-४८४
४५ १८८-४३५
४७
३४१-३०७
YE
२९५-३४०
४५ १५०-२६४ ४४ २०६-२४६ ४३ १६३ - २०५ ४२ १२१-१६२
१६२ के २६, ४०, ४१
भावार्थ- जैसे प्रथम समय सम्बन्धी परिणाम र ४२ ये चार खण्ड इस क्रम से किये गये हैं कि नम्बर १ से ३६ तक २६ ऐसे परिणाम है जो ऊपर किसी भी समय में नहीं पाये जाते, इतने ही परिणाम' का नाम प्रथम खण्ड है। दूसरे खण्ड में नम्बर ४०७६ तक ४० परिणाम ऐसे है जो प्रथम और द्वितीय दोनों समयों में पाये जाते है। तीसरे खण्ड में नम्बर ८० १२० तक ४१ परिणाम ऐसे है जो प्रथम, द्वितीय और तृतीय इन तीनों समयों में पाये जाते हैं और चतुर्थ में नम्बर १२१-१६२ त ४२ परिणाम ऐसे हैं, जो प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ इन चारों समयों में पाये जाते हैं। इसी प्रकार अन्य समयों में भी जानना करण के ये समस्त परिणाम ऊपर पूर्व पूर्व परिणाम से उत्तर-उत्तर परिणाम अनन्त धनन्त गुणी विसृजता लिये हुए हैं।
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या ४६.४६
गुगास्थान/५३ __ इस असंघष्टि में अधःप्रवृत्तकरण के अन्तम त काल के १६ समय कल्पित किये गये हैं और प्रसंख्यातलोकप्रमाण कुल परिणामों की संख्या ३०७२ कल्पित करके अनुकृष्टि-रचना की गई जिससे वास्तविक कथन सरलता से समझ में आ जावे।
संदृष्टि का आलम्बन लेकर अनुकृष्टिरचना का प्ररूपण किया जाता है-अधःप्रवृत्तकरण में प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड के परिणाम (३६ से ५४) उपरिम समय सम्बन्धी परिणामों में से किन्हीं भी परिणामों के सण नहीं होते हैं। वहीं पर दूसरे खण्ड के परिणाम (४०) सिरे समय के प्रथमखण्ड के परिणामों के समान होते हैं । इसी प्रथम समय के तीसरे आदि खण्डों के परिणामों का भी तृतीय आदि समयों के प्रथम खण्ड के परिणामों के साथ कम से पुनरुक्तपना तब
जानना चाहिए जब तक कि प्रथम समय सम्बन्धी अन्तिम खण्ड के परिणाम प्रथम निर्वगंणाकाण्डक के अन्तिम समय के प्रथमखण्ड सम्बन्धी परिणामों के साथ पुनरुक्त होकर समाप्त होते हैं। इसी प्रकार अध:प्रवृत्तकरण के द्वितीयादि समयों के परिणामखण्डों को भी पृथक-पृथक विवक्षित कर यहाँ के द्वितीयादि खण्डगत परिणामों का विवक्षित समय से अनन्तर उपरिम समय से लेकर ऊपर एक समय कम निर्वर्गणा काण्डक प्रमारण समयपंक्तियों के प्रथमखण्ड के परिणामों के साथ पुनरुक्तपनेका कथन करना चाहिए। जले द्वितीय समय का द्वितीयखण्ड (४१) तृतीय समय के अपमखण्ड (४१) के समान है। इतनी विशेषता है कि सर्वत्र प्रथम खण्ड के परिणाम अपुनरुक्त होते हैं। अर्थात् प्रत्येक समय के प्रथम खण्ड के परिणाम अगले समय के किसी भी खण्ड के परिणामसरश नहीं होते । इसी प्रकार द्वितीय निर्वर्गणाकाण्डक के परिणामस्खण्डों का तृतीय निवर्गणाकाण्डक के परिणामखण्डों के साथ पुनरुक्तपना होता है, किन्तु यहाँ पर भी प्रथम खण्ड के परिणाम अपुनरुक्त होते हैं। तृतीय, चतुर्थ, पंचम आदि निर्बर्गरणाकाण्डकों के खण्डों के परिणाम अनन्तर उपरिम निर्वर्गणाकाण्डकों के खण्ड-परिणामों के साथ पुनरुक्त होते हैं। इसी प्रकार यह क्रम द्विचरम निर्वर्गणाकाण्डक के प्रथमादि समयों के प्रथमखण्ड को छोड़कर शेष सभी परिणामखण्ड अन्तिम निर्वर्गरणाकाण्डक के परिणामों के साथ पुनरुक्त होकर समाप्त होता है । अन्तिम निर्वर्गरणाकाण्डक के परिणामों के स्वस्थान में पुनरुक्त-अपुनस्तपने का अनुसन्धान परमागम के अविरोध पूर्वक करना चाहिए. जो इस प्रकार है
अन्तिम निर्वर्गणाकाण्डक के प्रथम समय का प्रथमखण्ड ऊपर के समय के किसी खण्ड के सहश नहीं है। प्रथम समय का द्वितीय स्खण्ड और दूसरे समय का प्रथम खण्ड परस्पर सरश हैं। प्रथम समय का तृतीय खण्ड और द्वितीय समय का द्वितीयखण्ड ये दोनों सदृश हैं। इसी प्रकार जाकर पुन: प्रथम समय का अन्तिमखण्ड और द्वितीय समय का टिचरम खण्ड ये दोनों सदृश हैं । इसी प्रकार अन्तिम निर्वर्गणाकाण्डक के द्वितीय समय के परिणामखण्डों का और तृतीय समय के परिणामखण्डों का सन्निकर्ष करना चाहिए। इसी प्रकार ऊपर भी पिछले का तदनन्तर के साथ सत्रिकर्ष करना चाहिए। इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरण में अनुकृष्टि प्ररूपणा समाप्त हुई।
-
अधःकरण के खण्डों के परिणामों की विशुद्धि की अपेक्षा अल्पबहुत्व का कथन किया जाता है। स्वस्थान और परस्थान के भेद से अल्पबहुत्व दो प्रकार का है।
१. ज.ध.पु. १२ पृ. २४१ अन्तिम अनुच्छेद । २. ज.ध.पु. १२ पृ. २४०-२४२ ।
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५४ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४८-४९
स्वस्थान अल्पबहुत्व – प्रथः प्रवृत्तकररण के प्रथम समय में प्रथम खण्ड के जघन्य परिणाम की विशुद्धि सबसे स्तोक है। प्रथम समय के द्वितीय खण्ड के जघन्य परिणाम की विशुद्धि अनन्तगुणी है। तृतीय खण्ड के जघन्य परिणाम की विशुद्धि श्रनन्तगुणी है। प्रथम समय के अन्तिम खण्ड के जघन्य परिणाम की विशुद्धि अनन्तगुणी है, इस स्थान के प्राप्त होने तक इसी प्रकार जानना चाहिए। प्रथम समय में प्रथम खण्ड का उत्कृष्ट परिणाम स्तोक है, उससे वहीं पर द्वितीयखण्ड का उत्कृष्ट परिणाम अनन्तगुरणा है, उससे वहीं पर तीसरे खण्ड का उत्कृष्ट परिणाम अनन्तगुरणा है। इसी प्रकार अन्तिमखण्ड के उत्कृष्ट परिणाम तक अनन्तगुणा क्रम जानना चाहिए। जिस प्रकार प्रथम समय के खण्डों का कथन किया गया है, उसी प्रकार दूसरे समय से लेकर अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय तक प्रत्येक खण्ड के प्रति प्राप्त जघन्य और उत्कृष्ट परिणामों का स्वस्थान अल्पबहुत्व का कथन करना चाहिए। स्वस्थान अल्पबहुत्व का कथन समाप्त हुआ' ।
परस्थान अल्पबहुत्व - अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में जघन्यविशुद्धि सबसे स्तोक है । उससे दूसरे समय में जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योंकि प्रथम समय के जघन्य विशुद्धि स्थान से षट्स्थान क्रम से असंख्य विद्युद्धिस्थानों को उल्लंघन कर स्थित हुए दूसरे खण्ड के जघन्यविशुद्धि स्थान का दूसरे समय में जघन्यपना देखा जाता है । जाकर स्थित हुए प्रथम निर्वणाकाण्डक के अन्तिम समय के प्राप्त होने तक इसी क्रम से जघन्यइस प्रकार अन्तर्मुहूर्त ऊपर विशुद्धि प्रतिसमय अनन्तगुणित क्रम से जाती है।
प्रथम निर्वणाकाण्डक की चरमसमय की जघन्यविशुद्धि से उसी निर्वर्गराकाण्डक के प्रथम समय की उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योंकि उक्त जघन्यविशुद्धि प्रथम समय के अन्तिमखण्ड की जघन्यविशुद्धि के सदृश है और यह उत्कृष्टविशुद्धि, उक्त अन्तिमखण्ड की उत्कृष्ट विशुद्धि है जो श्रसंख्यात लोक प्रमाण षट्स्थान पतित वृद्धिरूप परिणामस्थानों को उल्लंघन कर अवस्थित है ।
प्रथम निर्वाकाण्ड के अन्तिम समय की जघन्यविशुद्धि से दूसरे निर्वाकाण्डक के प्रथम समय की जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है अथवा प्रथम निर्वर्गयाकाण्डक के प्रथम समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अर्थात् अन्तिमखण्ड (४२) की उत्कृष्टविशुद्धि से द्वितीय निर्वर्गरणाकाण्डक के प्रथम समय की जघन्यविशुद्धि ( ४३ की ) श्रनन्तगुरणी है, क्योंकि उत्कृष्टविशुद्धि उपने से अवस्थित है और यह जघन्यविशुद्धि अष्टाक स्वरूप है जो उक्त उर्वक से श्रागे है ।
उससे प्रथम निर्वर्गेणाकाण्डक के द्वितीय समय को उत्कृष्टविशुद्धि ( ४३ की उत्कृष्टविशुद्धि ) अनन्तगुणी है, क्योंकि उक्त जघन्यविशुद्धि द्वितीय समय के प्रतिमखण्ड (४३) के जघन्य परिणाम. स्वरूप है और यह उसी अन्तिमखण्ड (४३) की उत्कृष्टविशुद्धि है जो जघन्य से असंख्यात लोकप्रमाण पदस्थानपतित-वृद्धिस्थानों का उल्लंघन कर अवस्थित है ।
इस प्रकार इस पद्धति ( रीति ) से अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण एक ( प्रत्येक ) निर्वाकाण्डक को अवस्थित कर उपरिम और अधस्तन जघन्य और उत्कृष्ट परिणामों का अल्पबहुत्व कहना चाहिए। यह सब बहुत्व सभी निर्वर्गराकाण्डकों का क्रम से उल्लंघन कर पुनः द्विरम निर्वगंगा काण्डक के अन्तिम समय की उत्कृष्टविशुद्धि (५३ को उत्कृष्टविशुद्धि ) से श्रधः प्रवृत्तकरण के अन्तिमसमय की
१. ज. व.पु. १२ पृ. २४४ । २. ज.ध.पु. १२ पृ. २४५ ।
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माथा ४८-४६
गुगणस्थान/५५
अपयविशुद्धि (५४ की जघन्यविशुद्धि) अनन्तगुणी होकर जघन्यविशुद्धि का अन्त प्राप्त होने तक करना चाहिए।
प्रथम निर्वर्गग्गाकाण्डक के दुसरे समय की उत्कष्ट विमुद्धि से ! ४३ की निशुद्धि से) लापर द्वितीय निवर्गणाकाण्डक के दूसरे समय की जघन्यविशुद्धि (४४ को जघन्यविशुद्धि) अनन्तगरणी है। इससे ऊपर प्रथम निर्वर्गणाकाण्डक के तीसरे समय की (४४ की) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है। इससे ऊपर द्वितीय निर्वर्गणाकाण्डक के तृतीय समय की जघन्यविशुद्धि (४५ की जघन्यविशुद्धि) अनन्तगुणी है। इससे ऊपर प्रथम निर्वर्गणाकाण्डक चतुर्थसमय को उत्कृष्टविशुद्धि (४५ की । उत्कृष्टविशुद्धि) अनन्तगुरणी है। इस प्रकार जानकर द्वितीय निवर्गणा
काण्डक के अन्तिम समय की जघन्यविद्धि अनन्तगुणी है, इसके प्राप्त होने तक अल्पबहुत्व करते जाना चाहिए। इस प्रकार अनन्तर उपरिम निर्वर्गणाकाण्डक के जघन्य परिगामों का अन्तर अधस्तन निर्बर्गणाकाण्डक के उत्कृष्ट परिणामों के साथ क्रम से अनुसन्धान करते हुए अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय की जघन्य विशुद्धि द्विचरम निर्वर्गणाकाण्डक के अन्तिम समय की उत्कृष्ट विशुद्धि से अनन्तगुणी होकर । जघन्य-विशुद्धियों के अन्त को प्राप्त होती है । इस स्थान के प्राप्त होने । तक ले जाना चाहिए।
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द्विचरम निर्वर्गणाकाण्डक के अन्तिम समय की उत्कृष्टविशुद्धि मे। ऊपर अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय की जघन्यविशुद्धि (५४ की जघन्य विशुद्धि) अनन्तगुरणी है। इसमे अन्तिम निर्वर्गणाकाण्डक के प्रथम समय की उत्कृष्टविशुद्धि (५४ को उत्कृष्टविशुद्धि) अनन्तगणी । है। इस प्रकार समनन्तर पूर्व समयों को देखते हुए उत्कृष्टविशुद्धि ही अनन्तगुणी ले जानी चाहिए। उत्कृष्टविशुद्धि का यह क्रम अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। यह विषय इस चित्र से स्पष्ट हो जाता है
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विशेष—इस चित्र में १ से १६ तक की संख्या अध:प्रदत्तकरण के समयों की सूचक है। कोष्ठक के भीतर की संख्या निर्वर्गरगाकाण्डक में चार-चार समय होते हैं। 'ज' जघन्य का और 'उ' उत्कृष्ट का सूचक ५ है। १, ४० आदि संख्या जघन्य परिणाम का प्रमाण प्रगट करती है । १६२, २०५ आदि संख्या उत्कृष्ट परिणाम के प्रमाण की सूचक है ।। - जघन्य से अन्य जघन्य, जघन्य से उत्कृष्ट, उत्कृष्ट से जघन्य, २ उत्कृष्ट से अन्य उत्कृष्ट इन सब स्थानों में विशुद्धि अनन्तगुरणी बढ़ती है। ।
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१. ज.ध.पु. १२ पृ. २४६ से २४६ तक । २. ज.ध.पु. १२ पृ. २५० ।
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५६/मो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५०
पुनरुक्त प्रथमस्थान और अन्तिम समय के अन्य दो स्थान
पुनरुक्त अन्तिम स्थान और प्रथम समय के अन्य दो स्थान
अधःप्रवृत्तकरण में प्रथम समय का प्रथमखण्ड और अन्तिम समय का अन्तिमखण्ड अपुनरुक्त है तथा शेष सभी खण्ड पुनरुक्त है।
| ४० ४१
४२
इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरण का कथन पूर्ण हुअा। अब अपूर्वकरण का कथन करते हैं
मपूर्वकरण गुणस्थान अंतोमुत्तकालं गमिकरण अधापयत्तकरणं तं ।
पडिसमयं सुज्झतो अपुष्धकरणं समल्लियइ ॥५०॥ ___ गाथार्थ---अन्तर्मुहूर्तकाल के द्वारा अधःप्रवृत्तकरण को व्यतीतकर प्रतिसमय विशुद्ध होता हुआ अपूर्व.रण का प्राध्य करता है ॥५०॥
विशेषार्थ–सातिशय-अप्रमत्त अपने योग्य अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि के द्वारा बढ़ता हा उन विशुद्ध परिणामों से सातादि प्रशस्त प्रकृतियों के चतु:स्थानीय अनुभाग का
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५१-५२
गुग्णस्थान / ५७
समय अनन्तगुणा-अनन्तगुणा बन्ध करता हुआ, असाता आदि प्रशस्त प्रकृतियों के द्विस्थानिक भाग को प्रतिसमय अनन्तगुणाहीन बाँधता हुआ संख्यातहजार स्थितिबन्धापसररण करके इन चार कोंके द्वारा अधःप्रवृत्तकररण को व्यतीत कर दोनों श्रेणियों में से किसी एक श्रेणी के अपूर्वमें प्रवेश करता है जहाँ प्रथम समय से ही अपूर्व - अपूर्व परिणाम होते हैं, वही अपूर्व करण स्थान है।
अपूर्वकका निर्थं
'एव गुणट्ठाणे, विसरिससमयद्वियेहिं जीवेहि । पुध्वमपत्ता जह्मा होंति अपूण्या हृ परिणामा ||५||
भिसमय द्वियेहि जीवेहि रग होदि सवदा सरियो । करणेहि एक्कसमयडियेहिं सरिसो विसरिसो वा ॥ ५२ ॥
गाथार्थ - इस गुणस्थान के उत्तरोत्तर समयों में स्थित जीवों के परिणाम विसरश होते हैं र्थात् समानरूप नहीं होते । उपरिम समय में जो विशुद्धपरिणाम होते हैं वे परिणाम अधस्तन पूर्वसमय में प्राप्त नहीं होते इसलिए प्रतिसमय अपूर्व प्रपूर्व परिणाम होते हैं || ५१ || पूर्वकरण के सर्वकाल में भिन्न समयों में स्थित जीवों के परिणाम सदृश नहीं होते, किन्तु एक ही समय में स्थित यों के परिणाम सर भी होते हैं और विसा भी होते हैं ।। ५२ ।।
विशेषार्थ - अपूर्व कर रणप्रविष्टशुद्धि संयतों में सामान्य से उपशामक व क्षपक दोनों प्रकार के शाम होते हैं । करण शब्द का अर्थ परिणाम है और जो पूर्व समयों में नहीं हुए वे अपूर्व परिणाम है। नाना जीवों की अपेक्षा अपूर्वकरण की आदि से लेकर प्रत्येक समय में क्रम से बढ़ते हुए प्रसंख्यातMisप्रमाण परिणाम वाला यह गुणस्थान है । इस गुणस्थान में विवक्षित समयवर्ती जीवों के परिणाम अन्य समयवर्ती जीवों के द्वारा श्रप्राप्य होने से पूर्व हैं । विवक्षित समयवर्ती जीवों के परिणामों से भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम असमान अर्थात् विलक्षण होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक समय में होने वाले अपूर्व परिणामों को पूर्वकरण कहते हैं । प्रपूर्वकरण में अपूर्व विशेषरण द्वारा मषः करण का निषेध किया गया है, क्योंकि जहाँ पर उपरितन समयवर्ती जीवों के परिणाम अधस्तन यवर्ती जीयों के परिणामों के साथ सहश भी होते हैं और विसा भी होते हैं, ऐसे अधःप्रवृत्त में होने वाले परिणामों में अपूर्वता नहीं पायी जाती है ।
शङ्का - पूर्वशब्द 'पहले कभी नहीं प्राप्त हुए' अर्थ का वाचक है, असमान अर्थ का वाचक नहीं है, इसलिए यहाँ पर अपूर्व शब्द का अर्थ असमान या विसा नहीं हो सकता है ।
समाधान — ऐसा नहीं है, क्योंकि पूर्व और समान ये दोनों शब्द एकार्थबाची हैं, इसलिए पूर्व और असमान इन दोनों का अर्थ भी एक ही समझना चाहिए ।
शङ्का - अपूर्वऋरारूप परिणामों में प्रवेश करने वाले कौन जीव होते हैं ?
समाधान - प्रपूर्वकरण परिणामों में प्रवेश करने वाले सातिशय-प्रप्रमत्तसंयतजीव होते ६.पु. १ पृ. १०३ गा. ११७: प्रा. पं सं. श्र. १ गा. १८ । २. भ.पु. १. १८३ गा. ११६ : प्रापं सं. १ १७ ॥
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५८) गो. सा. जीवकाण्ड
हैं । अपूर्वकरण को प्राप्त होने वाले उन सब क्षपक और उपशामकजीत्रों के परिणामों में अपूर्वपने की अपेक्षा समानता पाई जाती है, इसलिए वे सब मिलकर एक अपूर्वकरण गुणस्थान होता है ।
पडसमयमसंख लोगपरिणामा । प्रणुकट्ठी पत्थि यिमे ॥५३॥
तारिसपरिणामद्वियजीया हू जिरोहि गलियतिमिरेहिं । स्ववणुवसमणुज्जया भरिया ।।५४।।
मोहस्स पुकररा
तोमुहुत्तमेत्ते कमउढापुण्वगुणे
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गाथार्थ - अपूर्वकरण गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है और इसमें परिणाम क्रमशः प्रतिसमय बहते हुए असंख्यात लोकप्रभाग होते हैं वे परिणाम उत्तरोत्तर प्रतिसमय समानवृद्धि को लिये हुए हैं। इस अपूर्वकरण गुणस्थान में नियम से अनुकृष्टि रचना नहीं होती ।। ५३ ।। अपूर्व परिणामों को धारण करने वाले जीव मोहनीय कर्म की ( शेष प्रकृतियों का ) क्षपण अथवा उपशमन करने में उद्यत होते हैं । अज्ञानरूपी अन्धकार से सर्वथा रहित जिनेन्द्रदेव ने ऐसा कहा है ।। ५४ ।।
विशेषार्थ - ( १ ) पूर्वकरण गुणस्थान का काल यद्यपि सामान्य से अन्तर्मुहूर्त कहा गया है। तथापि अधःप्रवृत्तकररण के अन्तर्मुहूर्त काल से संख्यातगुणा हीन है । ( २ ) अधःप्रवृत्तकरण के परिणामों की अपेक्षा अपूर्वकरण के परिणाम असंख्यातलोक गुण हैं। (३) अपूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय तक के परिणाम प्रतिसमय क्रम से बढ़ते गये हैं अर्थात् संख्याव विशुद्धता दोनों ही प्रतिसमय बढ़ती गई हैं। अपूर्वकरण के प्रतिसमय परिणामों की खण्ड- रचना नहीं होती, क्योंकि इस गुरगस्थान में उपरितन समयवर्ती जीवों के परिणाम अधस्तन समयवर्ती जीवों के परिणामों के सण नहीं होते हैं । अधःप्रवृत्तकररण में उपरितन समय के परिणाम प्रधस्तन समयों के परिणामों के सदृश होते हैं इसलिए अधः प्रवृत्तकरणा में परिणामों की अनुकृष्टि रचना होती है ।
अपूर्व परिणामों को धारण करने वाले जीव अर्थात् साठवें गुणस्थानवर्ती जीव मोहनीय कर्म की शेष २१ प्रकृतियों का क्षय करने में अथवा उपशम करने में उद्यमशील होते हैं ।
शङ्का - आठवें गुग्गस्थान में न तो कर्मों का क्षय ही होता है और न उपशम ही होता है फिर इस गुणस्थानवर्ती जीवों को क्षपण व उपशमन में उद्यमशील कैसे कहा गया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि भावी अर्थ में भूतकालीन अर्थ के समान उपचार कर लेने पर आठवें गुरणस्थान में यह संज्ञा बन जाती है ।
शङ्का - इस प्रकार मानने से तो प्रतिप्रसङ्ग दोष प्राप्त होगा ?
समाधान — नहीं, क्योंकि प्रतिबन्धक मरण के प्रभाव में अर्थात् आयु के शेष रहने पर नियम से चारित्रमोह का उपशम करने वाले तथा चारित्रमोह का क्षय करने वाले, अतएव उपशमन और क्षरण के सम्मुख हुए जीव के क्षरण व उपशमन में उद्यमशील यह संज्ञा बन जाती है ।
१. ब. पु. १ पृ. १५० १२. घ. पु. १ पृ. १५१ । ३. ध.नु. १ पृ. १८३ सूत्र १६ की टीका 1
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पापा ५५-५६
गुणास्थान /५६ शा-क्षपक श्रेणी में होने वाले परिणामों में कर्मों का क्षपण कारण है और उपशम श्रेणी में होने वाले परिणामों में कर्म का उपशमन कारण है, इसलिए इन भिन्न-भिन्न परिणामों में एकता से बन सकती है ? . समाधान--नहीं, क्योंकि क्षपक और उपशामक जीवों के होने वाले उन परिणामों में अपूर्वता की अपेक्षा समानता पायी जाती है, इससे उनके एकता बन जाती है ।।
अपूर्वकरण के परिणामों में प्रतिसमय कम से वृद्धि को स्पष्ट करने के लिए अंकसंदृष्टि इस
. अपूर्व करण के परिणामों की संख्या अङ्कसंदृष्टि में ४०१६ है । काल =समय है। प्रथम समय के परिणाम ४५६, द्वितीयादि समयों के परिधान क्रमशः ७ ८ ::. . .५.२०. १३६१२-५६५ हैं । इस प्रकार प्रतिममय परिणामों में वृद्धि होती जाती है।
बिहापयले एसपि पाऊ उपसमंति उपसमया ।
___ खवयं दुक्के खवया णियमेण खवंति मोहं तु ॥५५॥ - गाथार्य--जिनके निद्रा और प्रचला का बन्ध नष्ट हो चुका है और आयु (अवशेष) है वे पशामक जीव मोह का उपशमन करते हैं तथा क्षपकश्रेणी प्रारोहणा करने वाले क्षपक नियम से मोह का क्षय करते हैं ॥५५॥
विशेषार्थ--अपूर्वकरणगुणस्थान के सात भाग होते हैं। उन सात भागों में से प्रथम भाग में मीनावरण कर्म की निद्रा और प्रचला प्रकृतियों को बन्ध-व्युच्छित्ति होती है, क्योंकि स्त्यानगृद्धित्रिक की तो बन्धब्युच्छित्ति सासादन नामक द्वितीय गुणास्थान में हो जाती है । अपूर्वकरण के छठे भाग में अरमविक (परभव में उदय में आने वाली) नामकर्म की तीस प्रकृतियों की बन्ध-व्युच्छित्ति होती है । पान्तम-सातवें भाग में हास्य-रति, भय-जुगुप्सा इन चार नोकषाय को बन्ध-व्युच्छित्ति होती है तथा हास्य, रति, अर ति, शोक, भय और जुगुप्सा इन छह नोकषायों का उदय-विच्छेद भी होता हैं ।। प्रशमश्रेणी आरोहक के अपूर्वकरण के प्रथम भाग तक मरण नहीं होता है, किन्तु प्रथम भाग के आचात् मरण भजनीय है । यदि मरण नहीं होता तो चारित्रमोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों का लियम से उपशम करता है और यदि मरण हो जाता है तो नियम से वैमानिक देवों में असंयत सम्यगरिट होता है । क्षपकणी पर चढ़ने वाले जोबों का मरण नहीं होता, वे तो नियम मे २१ प्रकृतियों
क्षय करते हैं। . इस अपूर्वकरगगुणस्थान में चार नवीन आवश्यक प्रारम्भ हो जाते हैं- १. स्थितिकाण्डकघात प्रशुभकर्मों का अनन्त बहुभागप्रमाण अनुभागकाण्डकघात, ३. प्रतिसमय गुणश्रेणीनिर्जरा और गुणसंक्रमरण । एक स्थितिकाण्डकघात के काल में संन्यात हजार अनुभागकाण्डकघान होते हैं 1
अनिवृत्तिकरणगुणस्थान का म्यरूप 'एक्कम्हि कालसमए संठाणादीहि जह गियति ।
रए रिणयति तह चिय परिणामेहि मिहो जे हु ॥५६॥ प. पु. १ पृ. १८१-१८२ सूत्र १६ की टीका । २. ज. प. पु. १३ पृ. २१७-२२८। ३. घ. पु. १ ] १८६ सूष १७ की टीका; प्रा. पं सं. प्र. १ गा, २० ।
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६०/ गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५६-५७
'होंति अरिणयट्टिणी ते पडिसमयं जेस्सिमेक्कपरिणामा । विमलयर - कारण - हुयवह- सिहाहि णिद्दढ कम्म - वरणा ||५७|| ( जुम्मम् )
गाथार्थ -- एक ही काल (समय) में अवस्थित जीवों के जिस प्रकार संस्थान आदि की अपेक्षा भेद है. उसी प्रकार वे जोन परिणामों की अपेक्षा परस्पर निवृत्ति ( भेद ) को प्राप्त नहीं होते, थलएव वे निवृत्तिकरण कहलाते हैं । उनके प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि से बढ़ता हुआ एकसा ही परिणाम होता है । वे परिणाम प्रति विमल ध्यानरूपी अग्नि की शिखाओं से कर्मरूप बन को जला डालते हैं ।। ५६-५७ ।।
विशेषार्थ- समान समयवर्ती जीवों के परिणामों की भेदरहित वृत्ति को श्रनिवृत्ति कहते हैं । अथवा निवृत्ति शब्द का अर्थ व्यावृत्ति भी है, अतएव जिन परिणामों की निवृत्ति अर्थात् व्यावृत्ति नहीं होती, उन्हें अनिवृत्ति कहते हैं । "
निवृत्तिकरण गुणस्थान वाले जितने भी जीव हैं वे सब प्रतीत, वर्तमान और भविष्यकाल सम्बन्धी किसी एक समय में विद्यमान होते हुए भी समान परिणाम वाले ही होते हैं और इसीलिए उन जीवों की गुणश्रेणी निर्जरा भी समान रूप से होती है । यदि एक समय स्थित अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवालों को विसदृश परिणाम वाला कहा जाता है तो जिस प्रकार एक समय स्थित पूर्वकरण गुरणस्थान वालों के परिणाम विसदृश होते हैं, प्रतएव उनको अनिवृत्ति यह संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकती है उसी प्रकार इन परिणामों को भी अनिवृत्तिकरण यह संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकेगी।
शङ्खा -- अपूर्वकरणगुणस्थान में भी कितने ही परिणाम इस प्रकार के होते हैं अतएव उन परिणामों को भी अनिवृत्ति संज्ञा प्राप्त होनी चाहिए ।
समाधान- नहीं, क्योंकि उनके निवृत्तिरहित होने का कोई नियम नहीं है ।
शङ्का - इस गुणस्थान में जीवों के परिणामों की जो भेदरहित वृत्ति बनलाई है वह समान समयवर्ती जीवों के परिणामों की ही विवक्षित है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- - 'अपूर्व करा' पद की अनुवृत्ति से ही यह सिद्ध होता है कि इस गुरगुस्थान में प्रथमादि समयवर्ती जीवों का द्वितीयादि समयवर्ती जीवों के साथ परिणामों की अपेक्षा भेद है। इससे यह तात्पर्य निकल आता है कि 'अनिवृत्ति' पद का सम्बन्ध एकसमयवर्ती परिणामों के साथ ही हैं ।
शङ्का - जिनने परिणाम होते हैं, उतने ही गुणास्थान क्यों नहीं होते हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि जितने परिणाम होते हैं, यदि उतने ही गुणस्थान माने जावें तो व्यवहार ही नहीं चल सकता, इसलिए प्रध्यार्थिक नय की अपेक्षा नियत संख्या वाले ही गुगास्थान कहे गये हैं ।
१. व. पु. १. १८६ सूत्र १७ की टीका; ३. घ. पु. १ पृ. २१८ सूत्र २७ की टीका ।
प्रा. पं. सं. १ मा २१ । २. ध. पु. १ पृ. १८३-१८४ ।
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या ५६-५७
गुणस्थान / ६१
इस गुणस्थान मोही की ही लिया करता है और कितनी ही त्रकृतियों का प्रागे उपशम करेगा, इस अपेक्षा यह गुरास्थान औपशमिक है। कितनी ही प्रकृतियों का काय करता है तथा कितनी ही प्रकृतियों का श्रागे क्षय करेगा, इस दृष्टि से यह क्षायिक भी है।
शङ्का - क्षपक का स्वतन्त्र गुरणस्थान और उपशामक का स्वतन्त्र गुणस्थान इस प्रकार क-पृथक दो गुरणस्थान क्यों नहीं कहे गये ?
समाधान- नहीं, क्योंकि इस गुणस्थान के कारणभूत अनिवृत्तिरूप परिणामों की समानता दिखलाने के लिए उन दोनों ( क्षपक व उपशामक) में समानता बन जाती है अर्थात् उपशामक और आप इन दोनों के अनिवृत्तिपने की समानता है ।
दसवें गुरगस्थान तक सभी जीव कषायसहित होने के कारण, कषाय की अपेक्षा संयतों को 'यतों के साथ साता पाई जाती है, इसलिए दसवें गुणस्थान तक मंदबुद्धिजनों को संशय उत्पन्न की सम्भावना है, अतः संशय-निवारण के लिए संयत विशेषण देना श्रावश्यक है |
निवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश करने के प्रथम समय में सभी कर्मों के प्रस्तउपशाम साकरण, निवत्तीकरण और निकाचनाकरण युगपत् व्युच्छ्रिन्न हो जाते हैं । उनमें से जो कर्म कर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रमण के योग्य होकर पुनः उदीरणा के विरुद्ध स्वभावरूप से रिसात होने के कारण उदयस्थिति में अपकर्षित होने के प्रयोग्य है, वह अप्रशस्त उपशामना की प्रेमा उपशान्त कहलाता है और उसी का नाम अप्रशस्तोपशामनाकरण है । इसी प्रकार जो कर्म आकर्षण और उत्कर्षा की अविरुद्ध पर्याय के योग्य होकर पुनः उदय और परप्रकृति संक्रमणरूप न सके, वह निघत्तीकरण है । जो कर्म उदयादि ( उदय, परप्रकृतिसंक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण ) के अयोग्य होकर अवस्थान में प्रतिबद्ध है, वह अवस्थान विशेष निकाचनकरण है। अनिवृत्तिगुणस्थान से पूर्व ये तीनों करण प्रवृत्तमान थे, किन्तु अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रथम समय खनकी व्युच्छित्ति हो जाती है । इन तीनों करणों के व्युच्छिन्न होने पर सभी कर्म श्रपकर्षण; संकर्षण, उदीरणा श्रौर परप्रकृतिसंक्रमण के योग्य हो जाते हैं ।
निवृत्तिकरण गुणस्थान में स्थितिबन्ध क्रम से घटते हुए पत्योपम के श्रसंख्यातवें भाग मारा हो जाता है। तत्पश्चात् संख्यात हजार स्थितिकाण्डकों के व्यतीत होने पर ज्ञानावरण. एनावरण और अन्तराय इन तीनों कर्मों की प्रकृतियों का अनुभागबन्ध क्रमशः देशघाती होने लगता देशात करने के बाद संख्यात हजार स्थितिबन्धों के व्यतीत होने पर अन्तरकरण होता है ।
विशेषता है कि क्षपकश्रेणी में जब अनिवृत्तिकररणगुणस्थान का संख्यात बहुभाग काल व्यतीत जाता है और संख्यातवाँ भाग शेष रह जाता है तब अन्तरकरण से पूर्व क्षपक दर्शनावरण की
द्वित्रिक का और नामकर्म की नरकगति आदि १३, इन सर्वे (१३३) १६ प्रकृतियों का करता है, उसके पश्चात् प्रत्याख्यानावरण व अप्रत्याख्यानावर रूप क्रोध, मान, माया. लोभ
कषायों का क्षय करता है, किन्तु कवायप्राभृत का उपदेश तो यह है कि पहले घाठ कपायों का करता है, तत्पश्चात् १६ प्रकृतियों का क्षय करता है। इन दोनों प्रकार के वचनों का संग्रह करने
पु. १ पृ. १०४, १०५ १६ १७ की टीका । २. ध. पु. १. १८५ |
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६२/गो. सा. जीवकाण्ड
वाले के पापभीस्ता नष्ट नहीं होती है । इन दोनों वचनों में से कौनसा सत्य है, यह केवली या श्रुतकेवली ही जान सकते हैं, इस समय उसका निर्णय नहीं हो सकता।
अन्तरकरण करने के पश्चात् क्षपक क्रमशः नपुसकवेद, स्त्रीवेद, छह नोकषाय, पुरुषवेद, संज्वल नक्रोध, संज्वलनमान, संज्वलनमाया, संज्वलन बादरलोभ का अनिवृत्तिकरण मुरास्थान में क्षय करता है, किन्तु उपशामक इन प्रकृतियों का उपशम करता है, इतनी विशेषता है कि संज्वलन के साथ साथ प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरण कषायों का भी उपशम करता है ।'
अनिवृत्तिकररणगुणस्थान के अन्तिम-भाग में होने वाले कार्य पुन्वापुश्वरफड्डयवादरसुहुमगयकिट्टिअणुभागा ।
हीएकमाणंतगुणेरणवरादु वरं च हेतुस्स ॥५८।। गाथार्थ-पूर्वस्पर्धक से अपूर्व स्पर्धकों का अनुभाग, अपूर्वस्पर्धकों से बादरकृष्टि का अनुभाग और बादरकृष्टि से सूक्ष्मकृष्टि का अनुभाग क्रमशः अनन्तगुणा हीन होता है । पूर्व-पुर्व के जघन्य से उत्तर-उत्तर का उत्कृष्ट अनुभाग और अपने उत्कृष्ट से अपना जघन्य अनुभाग भी अनन्तगुणे हीनक्रम से होता है ।।५८॥
विशेषार्थ-अवेदी होने के प्रथम समय में चार संज्वलन कपायों का अनुभाग सत्त्व इसप्रकार है.--मानसंज्वलन में अनुभाग सबसे कम है, उससे क्रोध-संज्वलन में विशेष अधिक है, उससे मायासंज्वलन में विशेष अधिक है और उससे लोभ-संज्दल न में विशेष अधिक है । यहाँ पर विशेष अधिक का प्रमाण अनन्तस्पर्धक है । उस प्रथम समय में अश्वकर्णकरण करने के लिए जो अनुभागकाण्डक होता है उस अनुभागकाण्डक में त्रोध के स्पर्धक स्तोक हैं, इससे मान के स्पर्धक विशेष अधिक हैं, इससे माया के स्पर्कक विशेष अधिक हैं, इससे लोभ के स्पर्धक विशेष अधिक है । घात करने के लिए ग्रहण किये गये स्पर्धकों से अवशिष्ट अनुभागस्पर्धक लोभ संज्वलन में अल्प हैं, माया में उससे अनन्तगुरिणत हैं, मान में उससे अनन्तगुणित हैं और क्रोध में उससे अनन्तगुरिणत हैं । यह अश्वकर्णकरण के प्रथम समय की प्ररूपणा क. पा. चूर्तिणसूत्र ४.७६ से ४८६ (पृ.७८८) तक है । अश्वकर्णकरण, आदोलकर अपवर्तनोद्वर्तनाकरण ये तीनों एकार्थक नाम हैं ।
अश्वकर्ण अर्थात् जो परिणाम घोड़े के कान के समान क्रम से ही यमान होते हुए चले जाते हैं, उन परिणामों की अश्वकर्यकरण संज्ञा है । प्रादोल नाम हिंडोले का है । जिस प्रकार हिंडोले के स्तम्भ और रस्सी के अन्तराल में त्रिकोण आकार घोड़े के कर्ण (कान) के समान दिखता है, इसी प्रकार यहाँ पर भी क्रोधादि संज्वलन कषाय के अनुभाग का सनिवेश भी ऋम से घटता हुआ दिखता है, इसलिए इसे पादोलकरण भी कहते हैं। क्रोधादि संज्वलन कषायों का अनुभाग हानिवृद्धिरूप से दिखाई देने के कारण इसको अपवर्तनोद्वर्तनाकरग भी कहते हैं । (क. पा. सु. पृ. ७८७)
अश्वकर्ण करण करने के उसी प्रथम समय में चारों संज्वलन कषायों के अपूर्वस्पर्धक करता है। [क. पा. चणिसूत्र ४६० | जिन स्पर्धकों को पहले कभी प्राप्त नहीं किया, किन्तु जो क्षपकश्श्रेणी में
१. ध. पु. १ गूत्र २.७ की टीका।
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गुगास्थान ६३
ही प्रश्वकर्णकरण काल में प्राप्त होते हैं और जो संमारावस्था में प्राप्त होने वाले पूर्वस्पर्धकों से
मन्तगुणित हानि के द्वारा क्रमशः हीयमान स्वभाव वाले हैं, वे अपूर्वस्पर्धक हैं । यातितः उन आपकों की लामामा .-सर्व प्रक्षपक जीवों के सभी कर्मों के देशघाती स्पर्धकों
की प्रादिवर्गणा तुल्य है। सर्वघातियों में भी केवल मिथ्यात्व को छोड़कर शेष सर्वधाती कर्मों की माविवर्गणा तुल्य है, इन्हीं का नाम पूर्वस्पर्धक है। तत्पश्चात् वही प्रथमसमयवर्ती अवेदी जीव उन स्पधंकों से चारों संज्वलन कषायों के अपूर्वस्पर्धकों को करता है। [क. पा. चणिसूत्र ४६३-६४] यपि यह प्रथम समयवर्ती अवेदी क्षपक चारों ही कषायों के अपूर्वस्पर्धकों को एक साथ ही निवृत्त रता है तथापि प्रथम लोभ के अपूर्वस्पर्धक करने का विधान कहते हैं-संज्वलनलोभ के पूर्व स्पर्धकों से खान के असंख्यातवें भाग को ग्रहण कर प्रथम देशघाती स्पर्धक के नोचे अनन्तब भाग में अन्य
स्पर्धक निवृत्त किये जाते हैं । वे यद्यपि गण ना की अपेक्षा अनन्त हैं, तथापि प्रदेश गणहानिमानान्तर के स्पर्धकों के असंख्यातवे भाग का जितना प्रमाण है, उतने प्रमाण वे अपूर्वस्पर्धक होते
अर्थात् पूर्वस्पर्धकों के प्रथम (जघन्य अनुभाग वाले) देशघाती स्पर्धकों की आदिवर्गणा में जितने विभागप्रतिच्छेद होते हैं उन अविभागप्रतिच्छेदों के अनन्तवें भाग मात्र ही अविभागप्रतिच्छेद सबसे तिम अपूर्वस्पर्धक की अन्तिमवर्गणा में होते हैं । इस प्रकार से निवृत्त किये गये अपूर्वस्पर्धकों का माण प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर के भीतर जितने स्पर्धक होते हैं, उनके असंख्यातवें भाग मात्र हमाया गया है । पूर्व स्पर्धकों को प्रादिवर्गणा एक-एक वर्गणा विशेष से हीन होती हुई जिस स्थान र दुगुण हीन होती है, वह एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर है।
प्रथम समय में जो अपूर्वस्पर्धक निर्वत किये गये हैं उनमें प्रथमस्पर्धक की प्रादिवर्गणा में विभागप्रतिच्छेदाग्र अल्प हैं । द्वितीय स्पर्धक की आदिवर्गणा में अविभागप्रतिक छेदाग्र अनन्त बहुभाग मधिक हैं । द्वितीय स्पर्धक की अादिवर्गणा के अविभागप्रतिच्छेदों से तृतीय स्पर्धक की आदिवर्गणा अविभागप्रतिच्छेद कुछ कम द्वितीय भाग से अधिक हैं। तृतीय स्पर्धक की आदिवर्गणा के अविभाग स्वच्छेदों से चतुर्थस्पर्धक की आदिवर्गणा के अविभागप्रतिच्छेद कुछ कम तृतीय भाग से अधिक हैं ।
प्रकार से जब तक जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण स्पर्धकों में अन्तिम स्पर्धक को प्रादिवर्गरणा अपने अन्तर नीचे की श्रादिवर्गणा से उत्कृष्ट संख्यातवें भाग से अधिक होकर संख्यातवें भाग वृद्धि के
को न प्राप्त हो जावें तब तक इसी प्रकार चतुर्थ पंचम आदि भाग अधिक ऋम से ले जाना चाहिए । से मागे (प्रादि से लेकर) जब तक जघन्य परीतानन्तप्रमारण स्पर्धकों में अन्तिम स्पर्धक की आदि नीशा अपने अनन्तर नीचे के स्पर्धक की प्रथमवर्गणा से उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातने भाग से अधिक कर असंख्यातवें भाग वृद्धि के अन्त को न प्राप्त हो जावे तब तक असंख्यातवे-भागवृद्धि का क्रम
रहता है । इसके आगे अन्तिम स्पर्धक तक अनन्तभाग वृद्धि का क्रम जानना चाहिए । * प्रथम समय में जो अपूर्वस्पर्धक निर्वनित किये गये, उनमें प्रथम स्पर्धक की आदिवर्गणा अल्प
इससे अन्तिम अपूर्वस्पर्धक की प्रादिवर्गणा अनन्तगुणी है । इससे पूर्व स्पर्धक की आदिवर्गरणा सतगुणो है । अश्व कर्णकरण के प्रथम समय में जिस प्रकार संज्वल न लोभ के अपूर्व स्पर्धकों की
३. क. पा.
कामपाहुष्ट चूणि सूत्र ४६६-६७ । २. क. पा. सृत्त पृ. ३६० ; ज. प. पु. १पू. ३३४ । अणिमूत्र ४६८-५०० ।
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६४ / गो. सा. जी काण्ड
प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार संज्वलन माया, मान और शोध के अपूर्वस्पर्धकों की भी प्ररूपणा करनी चाहिए | "
प्रथम समय में जो अपूर्वस्पर्धक निवृत किये गये हैं, उनमें क्रोध के प्रपूर्वस्पर्धक सबसे कम हैं, इससे मान के पूर्व स्पर्धक विशेष अधिक हैं, इससे माया के अपूर्वस्पर्धक विशेष अधिक हैं और लोभ के पूर्व स्पर्धक विशेष अधिक हैं। यहाँ सर्वत्र विशेष का प्रमाण अनन्तवाँ भाग है । "
प्रथम समय में निर्वर्तित उन्हीं पूर्वस्पर्धकों के लोभ की आदिवर्गणा में प्रविभागप्रतिच्छेदा अल्प हैं, इससे माया की आदिवर्गणा में अविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं । इससे मान की प्रादिवर्ग में अविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं और इससे क्रोध की आदिवर्गणा में श्रविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं । इस प्रकार चारों कषायों के जो अपूर्वस्पर्धक हैं उनमें अन्तिम प्रपूर्वस्पर्धक की दिवा में विभागप्रतिच्छेद चारों ही कषायों के परस्परतुल्य और अनन्तगुणित हैं । "
क. पा. चूणिसूत्र ५०५ से ५१४ तक के कथन को स्पष्ट करने के लिए अङ्क- संदृष्टि इस प्रकार है— क्रोधादि चारों कषायों के अपूर्वस्पर्धकों की संख्या क्रमशः १६-२० २४ २८ है और आदिवर्गणा में अविभागप्रतिच्छेद क्रमशः १०५, ८४, ७०, ६० हैं । आदिवfरणा को अपनी-अपनी अपूर्व स्पर्धक शलाकाओं से गुरण करने पर प्रत्येक कशय के अन्तिम स्पर्धक की प्रादिवर्गरणा के विभागप्रतिच्छेदों का प्रसारण श्रा जाता है, जो परस्पर तुल्य होते हुए भी अपनी आदिवर्गा की पेक्षा अनन्तगुणित होता है ।" यथा-
आदिवर्ग के विभागप्रतिच्छेद अपूर्वस्पर्धक शलाका
अन्तिम स्पर्धक की आदिवर्गणा के प्रविभागप्रतिच्छेद
क्रोध
१०५
×१६
गाथा ५८
मान
८४
x२०
१. क. पा. चूरि ४. क. पा. सुप्त पृ. ७६२ । ५. क. पा. सूत्र ५२२ से ५२६ ।
माया लोभ
६०
x २६
५०
x२४
१६८०
१६८०
१६८०
१६८०
अश्वकर्णकरण के प्रथम समय में लता समान प्रनन्तवाँ भाग प्रतिबद्ध पूर्वस्पर्धकों में से और स्तन पूर्वस्पर्धकों में से प्रदेशाग्र के असंख्यातवें भाग का अपकर्षण करके उदीरणा करने पर अनुभाग का अनन्तवाँ भाग उदयरूप से पाया जाता है और अनुदी भी रहता है, किन्तु उपरिम अनन्तबहुभाग अनुदीर्ण ही रहता है । बन्ध की अपेक्षा प्रथम अपूर्वस्पर्धक को आदि करके लता समान स्पर्धकों के अनन्त भाग तक अपूर्वस्पर्धक निवृत्त होते हैं। इतनी विशेषता है कि उदयस्पर्धकों की अपेक्षा ये बन्धस्पर्धक अनन्तगुणित हीन अनुभाग शक्तिवाले होते हैं । *
अब अश्वकर्णकरण के द्वितीय समय की प्ररूपणा की जाती है। यथा- अश्वकर्णकरण के द्वितीय समय में वही स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक और वही स्थितिबन्ध होता है, किन्तु अनुभागवन्त्र नन्तगुणा हीन होता है तथा गुणश्रेणी असंख्यातगुणी होती है । जिन अपूर्वस्पर्धकों को प्रथम समय में निवृत्त किया था, द्वितीय समय में उन्हें भी निवृत्त करता है और उनसे असंख्यातगुणित होन
५६१ से ५०४ । २. क. पा. मिसूत्र ५०५ से ५०६ । ३. क. पा. चूग्णसूत्र ५१० ५१४ ।
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मापा ५७-५८
गृगाम्यान/६५ अन्य भी अपूर्वार्धकों को निवृत्त करता है।' तृतीय समय में भी यही क्रम है। विशेषता केवल यह है कि उन्हों अपूर्वस्पर्धकों को तथा अन्य भी अपूर्वस्पर्धकों को निर्वत करता है। जिस प्रकार संतीय समय में निरूपण किया गया है, उसी प्रकार प्रथम अनुभागकाण्डक का अन्तिम समय जब तक । उत्कीर्ण न हो जावे तब तक यही क्रम जानना चाहिए । - इसके अनन्तर काल में अनुभागसत्त्व में विशेषता इस प्रकार है संज्वलनलोभ में अनुभागसत्त्व सबसे कम है, इससे संज्वलनमाया में अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है। इससे संज्वलनमान में अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है, इससे संज्वलनक्रोध में अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है। इससे आगे सम्पूर्ण अश्वकर्मकरण के काल में भी यही क्रम है। अश्वकर्णकरण के प्रथम समय में निर्वतित अपूर्वस्पर्धक बहुत हैं, द्वितीय समय में निर्वतित अपूर्वस्पर्धक असंख्यातगुणित हीन हैं। तृतीय समय में निर्वतित
पूर्वस्पर्धक द्वितीय समय से भी असंख्यातगुणित होन हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर समयों में जो अपूर्व-अपूर्व स्पर्धक निवृत्त किये हैं वे उत्तरोत्तर असंख्यातगुरिंगत हीन हैं। यहाँ पर गुरणाकार मूल्योपम का असंख्यातवा भाग है ।
अपनकर्णकरण के अन्तिम समय में लोभ के प्रथम अपूर्वस्पर्धक की अादिवर्गणा में अविभागप्रतिच्छेद अल्प हैं, द्वितीय अपूर्वस्पर्धक की आदिवर्गणा में अविभागप्रतिच्छेद दुगुने हैं। तृतीय अपूर्वस्पर्धक की आदिवर्गगणा में अविभागप्रतिच्छेद तिगुने हैं। इसी प्रकार चतुर्थ-पंचमादि अपूर्वस्पकों को आदिवर्गणाओं में चौगुने, पाँचगुने आदि अविभागप्रतिच्छेद जानने चाहिए। इसी प्रकार माया, मान और क्रोध के अपूर्वस्पर्धकों में अविभागप्रतिच्छेद जानने चाहिए । . अश्वकर्णकरण के अन्तिम समय में चारों संज्वलनों का स्थितिबन्ध आठ वर्ष और शेष कर्मों का स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्ष है। नाम. गोत्र और वेदनीय का स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्ष है और चारों धातिया कर्मों का स्थितिसत्त्व संख्यातहजार वर्ष है। इस प्रकार अश्वकर्णकरण का काल श्रमाप्त होता है ।
यहाँ से अागे अनन्तर समय से लेकर चादरकृष्टिकरण काल है। हास्यादि छह कमी के जंक्रमण को प्राप्त होने पर जो क्रोधवेदककाल है, उस क्रोधवेदककाल के तीन भाग हैं 1 उसमें से प्रथम विभाग अश्वकर्णकरणकाल है. द्वितीयविभाग कृष्टिकरण काल और तृतीयविभाग कृष्टिवेदक काल है । अश्वकर्ण करण के समाप्त होने पर तदनन्तर काल में चारों संज्वलन कषायों का स्थिति
म अन्तमहर्त कम आठवर्ष और शेष कर्मों का स्थितिबन्ध पूर्व के स्थितिबन्ध से संख्यातगुणा हीन है। प्रथम समयवर्ती कृष्टिकारक कोय के पूर्व स्पर्धकों से और अपूर्व स्पर्धकों से प्रदेशाग्र का अपकर्षण कर क्रोध-कृष्टियों को करता है। इसी प्रकार मान के स्पर्धकों से प्रदेशाग्र का अपकर्षण कर मानकृष्टियों को करता है, मायास्पर्धको से प्रदेशाग्र का अपकर्षण कर मायाकृष्टियों को करता है और सोमस्यर्थकों से प्रदेशाग्र का अपकर्षण कर लोभकृष्टियों को करता है। ये सब चारों कषायों की अष्टियां गणना की अपेक्षा एक स्पर्धक की वर्गणामों के अनन्तवें भाग प्रमाण है।
क.पा. रिण मूत्र ५२७ से ५३० तक । २. क.पा. चूणिमूत्र ५३७ । ३, क.पा. चूशिसूत्र ५४१ । ४. क.पा. हरिणसूत्र ५४२-५५३ । ५. क.पा. चूणिसूत्र ५५४ से ५५७ । ६, क.पा. गिासूत्र ५७ मे ५८२ ।
क. पा. चणि सूत्र ५८३ से ५६० ।
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६६ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५७-५८६८
प्रथम समय में निवृत्त हुई प्रत्येक कषाय को तीन-तीन संग्रहकृष्टियों में से लोभ की जधन्यकृष्टि सबसे मन्द अनुभाग वाली है, द्वितीयकृष्टि अनन्तगुरण है। इस प्रकार अनन्तगुणितश्रेणी से प्रथम संग्रहकृष्टि की अन्तिम कृष्टि तक जानना चाहिए । प्रथम संग्रहकृष्टि की अन्तिमकृष्टि से द्वितीय संग्रहकृष्टि की जघन्यकृष्टि अनन्तगुणी है। यह गुणाकार बारहों ही संग्रहकृष्टियों के स्वस्थान गुणाकारों से अनन्तगुरणा है । प्रथम संग्रहकुष्टि में जो कम है वही क्रम द्वितीयसंग्रह कृष्टि में भी है । प्रथम संग्रहकृषि से द्वितीयसंग्रहकृष्टि की जघन्यकुष्टि के अनुभाग में जिस अनन्तगुणे का अनुपात था वही अनुपात द्वितीयसंग्रहकृष्टि से तृतीयसंग्रहकृष्टि की जघन्यकृष्टि में जानना चाहिए। इस प्रकार से लोभ की तीन संग्रहकृष्टियाँ हैं । लोभ की तृतीयकृष्टि की अन्तिमकृष्टि से माया का जघन्यकृष्टिगत अनुभाग अनन्तगुणा है । माया की भी उसी क्रम से तीन संग्रह कृष्टियाँ होती हैं। माया की तृतीय संग्रहकृष्टि की अन्तिम कृष्टि से मान की जघन्यकृष्टि का अनुभाग अनन्तगुणा है। मान की भी उसी क्रम से तीन संग्रहकृष्टियां होती हैं। मान की तृतीय संग्रहकृष्टि की अन्तिमकृष्टि से क्रोध की जघन्य कृष्टि का अनुभाग अनन्तगुणा है। क्रोध की भी तीन संग्रहकृष्टि उसो क्रम से होती हैं । क्रोध की arata fष्ट की अन्तिम कृष्टि से लोभ के प्रपूर्वस्पर्धकों की जघन्य (आदि ) वर्गणा अनन्तगुणी है ।"
कृष्टि सम्बन्धी गुणाकारों का अल्पबहुत्व इस प्रकार है एक-एक संग्रहकृष्टि में अनन्तकृष्टियों होती हैं और उनके अन्तर भी अनन्त होते हैं । उन श्रन्तरों की कृष्टिअन्तर यह संज्ञा है । संग्रहकृष्टियों के संग्रहकृष्टियों के अधस्तन उपरिम अन्तर ग्यारह होते हैं। उनकी संज्ञा 'संग्रहकृ ष्टिअन्तर है। लोभ की प्रथम संग्रहकृष्टि में जघन्यकृष्टिप्रन्तर अर्थात् जिस गुणाकार से गुरिणत जघन्यकृष्टि अपनी द्वितीयष्टि का प्रमाण प्राप्त करती है, वह गुणाकार सबसे कम है, इससे द्वितीय कृष्टि का अन्तर अनन्तगुणा है । इसी प्रकार अनन्तर - अनन्तररूप से जाकर अन्तिम कृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है। लोभ को ही द्वितीय संग्रहकृष्टि में प्रथमकृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है। इस प्रकार श्रनन्तरअनन्तर रूप से अन्तिम कृष्टि अन्तर पर्यन्त अनन्तगुणा गुणाकार जानना चाहिए। पुनः लोभ की ही तृतीयसंग्रहकृष्ट में प्रथम कृष्टि श्रन्तर अनन्तगुणा है। इस प्रकार अनन्त र अनन्तर रूप से जाकर अन्तिम कृष्टि अन्तर ( गुरणाकार ) अनन्तगुरणा है ।
यहाँ से प्रागे माया की प्रथम संग्रहकृष्टि में प्रथम कृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है। इस प्रकार अनन्तरः अनन्तररूप से माया की भी तीनों संग्रहकृष्टियों के कृष्टि अन्तर यथाक्रम से अनन्तगुरिंगतश्रेणी के द्वारा ले जाने चाहिए। यहां से आगे मान की प्रथम संग्रहकृष्टि में प्रथम कृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है । इस प्रकार मान की भी तीनों संग्रहकृष्टियों के कृष्टि अन्तर यथाक्रम से अनन्त - गुणितश्रेणी के द्वारा ले जाने चाहिए। यहाँ से प्रागे क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टि में प्रथम कृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है । इस प्रकार क्रोध की भी तीनों संग्रहकृष्टियों के कृष्टि अन्तर यथाक्रम से अन्तिम अन्तर तक अनन्तगुणित श्रेणी के द्वारा ले जाने चाहिए । इन स्वस्थान गुणाकारों के अन्तिम गुणाकार से लोभ की प्रथम संग्रहकृष्टि का अन्तर अनन्तगुणा है। इससे द्वितीय संग्रहकृष्टिअन्तर अनन्तगुणा है और इससे तृतीय संग्रहकृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है। लोभ और माया का अन्तर अनन्तगुणा है । माया का प्रथम संग्रहकृष्टि अन्तर अनन्तगुरणा है। इससे द्वितीय संग्रहकृष्टि
१. क. पा. चुसूित्र ५६१ से ३०७ । २. क. पा. चूणिसूत्र ६०८ से ६२० ।
३. क. पा. सूत्र ६२१-६२६ ।
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गाथा ५७-५८
गुगाम्थान/६७
अन्तर अनन्तगुरणा है। इससे तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। माया और मान का अन्तर अनन्तगुरणा है। मान का प्रथमसंग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। इससे द्वितीय संग्रहकृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है। इससे तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्त गुणा है। मान का और क्रोध का अन्तर मनन्तगुणा है। क्रोध का प्रथम संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है । इससे द्वितीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। इससे तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुरणा है। क्रोध की अस्लिमकृष्टि से लोभ के मपूर्वस्पर्धकों की आदिवर्गरणा का अन्तर अनन्तगुणा है।'
बादर कृष्टिकरणकाल के अन्तिम समय में चारों संज्वलनों का स्थितिबन्ध अन्तमुहर्त से अधिक चार मास होता है, शेष कमों का स्थितिबन्ध संख्यात सहस्रवर्ष है। मोहनीयकर्म का स्थितिसत्त्व संख्यात-सहस्र वर्षों से घटकर अन्तर्मुहूर्त से अधिक पाठ वर्ष प्रमाण हो जाता है, शेष तीन पातिया कर्मों का स्थितिसत्त्व संख्यात हजार वर्ष है तथा नाम, गोत्र और वेदनीयकर्म का स्थितिसत्त्व असंख्यात सहस्रवर्ष है ।
बादरकृष्टियों को करने वाला पूर्वस्पर्धकों और अपूर्वस्पर्धकों का वेदन करता है, किन्तु कृष्टियों का बेदन नहीं करता है। संज्वलन क्रोध की प्रथम स्थिति में प्रावली मात्र शेष रहने पर कृष्टिकरण काल समाप्त हो जाता है। कृष्टिकरणकाल के समाप्त होने पर अनन्तर समय में कृष्टियों को द्वितीय स्थिति से अपकर्षण कर उदयावली के भीतर प्रवेश कराता है। उस समय में चारों संज्वलनों का स्थितिबन्ध चार माह है और स्थितिसत्त्व आठ वर्ष है, शेष तीन घातियाकर्मों का स्थितिबन्ध एवं स्थितिमत्त्व संख्यात सहस्रवर्ष है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्म का स्थितिबन्ध संख्यात सहस्रबर्ष तथा स्थितिसत्त्व असंख्यात सहस्र वर्ष है। . संज्वलनक्रोध का जो अनुभागसत्त्व एक समय कम पावली के भीतर उच्छिष्टावलि रूप से अवशिष्ट है वह सत्रधातो है, जो दो समय कम दो प्रावलिप्रमाण नवकसमय प्रबद्ध हैं, वे देशघाती है और उनका वह अनुभागसत्त्व स्पर्ध कस्वरूप है। शेष सर्व अनुभागसत्त्व कृष्टिस्वरूप है ।
बादरकृष्टिवेदककाल के प्रथम समय में ही प्रथम संग्रहकृष्टि से प्रदेशाग्र का अपकर्षण करके प्रथम स्थिति को करता है। उस समय में कोध की प्रथम संग्रहकृष्टि के असंख्यात बहुभाग उदीर्ण अर्थात् उदय को प्राप्त होते हैं तथा क्रोध की इसी प्रथम संग्रहकृष्टि के असंख्यात बहभाग बन्ध को प्राप्त होते हैं, किन्तु शेष दो संग्रहकृष्टियाँ न बँधती हैं और न उदय को प्राप्त होती हैं ।५.
श्रोध की प्रथमकृष्टि का वेदन करने वाले की जो प्रथम स्थिति है, उस प्रथमस्थिति में एक समय अधिक प्रावली के शेष रहने पर क्रोध की प्रथमकृष्टि का चरमसमय वेदक होता है। तदनन्तर समय में क्रोध की द्वितीय कृष्टिप्रदेशाग्र को अपकषित कर क्रोध की प्रथम स्थिति को करता है। उस समय क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टि के जो दो समय कम दो प्रावली प्रमाण नवक समयप्रबद्ध हैं वे और उदयावलि में प्रविष्ट जो प्रदेशाग्र हैं वे, प्रथमकृष्टि में शेष रहते हैं । उस
१.क.पा. स्पिसूत्र ६२७ से ६४२ । २. क.पा. चूरिण सूत्र ६७३ से ६७७ । ३. क. पा. चूणिसूत्र ६.७८ से ६८५। ४. क. पा. चूणिमूत्र ६८६ से ६८८ । ५. क. पा. चूगिभूत्र ६६१-६२। ६. क. पा. चूणिमूत्र
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६८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५७-५८
ममय क्रोध की द्वितीयकृष्टि का प्रथम समय वेदक होता है ।
शङ्का-जिस प्रकार क्रोध की प्रथम कृष्टि का वेदन करने वाला चारों कषायों' की प्रथम कृष्टियों को बांधता है, उसी प्रकार क्रोध की द्वितीयकृष्टि का वेदन करने वाला क्या चारों ही कषायों की द्वितीयकृष्टियों को बांधता है अथवा नहीं बाँधता है ? २
समाधान-जिस कषाय की जिस कृष्टि का वेदन करता है उस कषाय की उस कृष्टि को बाँधता है तथा शेष कषायों की प्रथम कृष्टियों को बांधता है।'
क्रोध की द्वितीय कृष्टि का बेदन करने वाले क्षपक के जो प्रथमस्थिति है, उस प्रथम स्थिति में आवली और प्रत्यावली काल के शेष रह जाने पर ग्रागाल और प्रत्यागाल न्युच्छिन्न हो जाते हैं। उसी प्रथम स्थिति में एक समय अधिक पावली के शेष रहने पर उस समय क्रोध की द्वितीयकृष्टि का चरमसमयवर्ती वेदक होता है। उस समय में चारों संज्वलन कषायों का स्थितिबन्ध दो मास और कुछ कम बीस दिवस प्रमाण है, शेष घातिया कमों का स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्वप्रमाण है, शेष कर्मों का स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्ष प्रमाण है। उस समय चारों संज्वलनों का स्थितिसत्त्व पाँच वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम चार-मास प्रमाण है: शेष तीन धातिया कर्मों का स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्रवर्ष प्रमाण है । नाम-गोत्र-वेदनीयकर्म का स्थितिसत्व असंख्यातवर्ष प्रमाण है।
तदनन्तर समय में क्रोध की ततीय कृष्टि से प्रदेशाग्र का अपकर्षण कर प्रथमस्थिति को करता है। उस समय में श्रोध की तृतीय संग्रहकृष्टि की अन्नर कृष्टियों के असंख्यात बहुभाग उदोर्ण होते हैं और उन्हीं के असंख्यात बहभाग बँधते हैं। इतनी विशेषता है कि उदीर्ण होने वाली अन्तरकृष्टियों से बँधने वाली अन्तर कृष्टियों का परिमारग विशेष हीन होता है।"
क्रोध की सतीयकृष्टि को वेदन करने वाले की प्रथम स्थिति में एक समय अधिक प्रावली के शेष रहने पर चरम समयवर्ती क्रोध वेदक होता है और उसी समय में क्रोधसंज्वलन की जघन्य स्थिति का उदीरक होता है । उस समय चारों संज्वलन कषायों का स्थितिबन्ध दो मास है और स्थितिसत्त्व पूर्ण चार वर्ष प्रमाण है ।
नदनन्तर समय में मान को प्रथमकृष्टि का अपकर्षण करके प्रथम स्थिति को करता है। .यहाँ पर जो संज्वलनमान का सर्ववेदक काल है, उस वेदक काल के विभाग मात्र प्रथमस्थिति है। तब मान की प्रथम संग्रहकृष्टि को वेदन करने वाला उस प्रथम संग्रहकृष्टि की अन्तरकृष्टियों के असंख्यात वहुभाग वेदम करता है और तब ही उन उदीर्ण हुई कृष्टियों से विशेष हीन कृष्टियों को बांधता है तथा शेष कषायों की प्रथम संग्रहकृष्टियों को ही बाँधता है। मान की प्रथम संग्रह कृष्टि को वेदन करने वाले की जो प्रथम स्थिति है, उसमें जब एक समय अधिक पावलीकाल शेष रहता है तब तीनों संज्वलन कषायों का स्थितिबन्ध एक मास और अन्तमुर्हत कम बीस दिवस है तथा स्थितिसत्त्व तीन वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम चार मास है । ८ ।।
१. क. पा. चूणि सूत्र ११३६ से ११४१। २. क. पा. चूरिंगसूत्र ११५७ । ३. क. पा. चूरिणसूत्र ११६० । ४. क.पा. चूणिमूत्र ११७५ से ११८२ । ५. क.पा. चूणिसूत्र ११८३ से ११८५। ६. क.पा. चूणिसूत्र ११८७ से ११६० । ७. क.पा. चूणिसूत्र ११६१ से ११६५। ८, क.पा. चूणिसूत्र ११६८ से ११६६ ।
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गाथा ५७-५८
गुणरथान/६६
तदनन्तर काल में मान की द्वितीय संग्रहकृष्टि से प्रदेशाग्र का अपकर्ष रण करके प्रथमस्थिति को करता है।' मान की वितीयकृष्टि को बेदन करने वाले के प्रथमस्थिति में जब एक समय अधिक श्रावली शेष रह जाता है, उस समय तीनों संज्वलन का स्थितिबन्ध एकमास और कुछ कम दस दिवस होता है तथा स्थितिसत्त्व दो वर्ष और कुछ कम पाठ मास रह जाता है।
तदनन्तर समय में मान की तृतीयकृष्टि से प्रदेशाग्र को अपकर्षित करके प्रथमस्थिति को करता है और उसी विधि से मान की तृतीयकृष्टि को वेदन करने वाले को प्रथमस्थिति में एक समय अधिक प्रावलीकाल शेष रह जाता है, उस समय वह मान का चरमसमय वेदक होता है। तब तीनों संज्वलनों का स्थितिबन्ध एक मास और स्थितिसत्त्व दो वर्ष होता है 13
तदनन्तर समय में माया की प्रथम कृष्टि से प्रदेशाग्र का अपकर्षण कर प्रथमस्थिति को करता है और उसी विधि से माया को प्रथम कृष्टि को बेदन करने वाले की प्रथमस्थिति में एक समय अधिक प्रावलीकाल शेष रह जाता है, उस समय उन दोनों संज्वलनों का स्थितिबन्ध कुछ कम २५ दिवस और स्थितिसत्व एक वर्ष और कुछ कम पाठ मास होता है।
तदनन्तर काल में माया को द्वितीयकृष्टि से प्रदेशाग्र का अपकर्षण करके प्रथमस्थिति को करता है । प्रथमस्थिति में एक समय अधिक आवली काल गेष रहने के समय दोनों संज्वलनों का स्थितिबन्ध कुछ कम बीस दिवस प्रमाण और स्थितिसत्त्व कुछ कम सोलह मास है। तदनन्तर काल में माया की ततीय कृष्टि से प्रदेशाग्र को अपषित करके प्रथम स्थिति को करता है। उस प्रथमस्थिति में एक समय अधिक प्रावली काल शेष रहने पर माया का चरमसम यवतों वेदक होता है 1 उस समय दोनों संज्वलनों का स्थितिबन्ध अर्धमास और स्थितिसत्त्व एक वर्ष है, शेष तीन धातिया को का स्थितिबन्ध मासपृथक्त्व तथा स्थितिसत्त्व संख्यातसहलवर्ष है; तथा प्रायु बिना शेष तीन अघातिया कर्मों का स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष और स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्ष है।'
तदनन्तर काल में लोभ की प्रथम संग्रहकृष्टि से प्रदेशाग्र का अपकर्षण करके प्रथम स्थिति को करता है। लोभ की प्रथम स्थिति को वेदन करने वाले के जब एक समय अधिक प्रावली काल शेष रह जाता है तब लोभ का स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त है और स्थितिसत्त्व भी अन्तर्मुहूर्त है, तीन घातिया कर्मों का स्थितिबन्ध दिवसपृथक्त्व होता है, शेष कर्मों का स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्व होता है। घातिया कर्मों का स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्रवर्ष और तीन अघातिया का स्थितिसत्त्व असंख्यात बर्ष है।
तत्पश्चात् अनन्तर काल में लोभ की द्वितीयकृष्टि से प्रदेशाग्र का अपकर्षणा करके प्रथमस्थिति को करता है। उसी समय में लोभ को द्वितीय और तृतीयकृष्टि के प्रदेशाग्र को सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि रूप करता है जिनका अबस्थान लोभ की तृतीयकृष्टि के नीने है ।
संज्वलन लोभ कषाय के अनुभाग को बादर-साम्परायिक-कृष्टियों से भी अनन्तग गिगात
१. क. पा. चूगिसूत्र १२०० । २. क. पा. चूमिासूत्र १२०२। ३. के. पा. चूणिसूत्र १२०४ से १२०८ । ४. क.पा. चुगिसूत्र १२०६ मे १२१२ पृ. ८६०। ५. क.पा. पूणिसूत्र १२१३ से १९१६ । ६. क.पा. चुणिमूत्र १२१७ से १२२४ । ७. क.पा. चूमिसूत्र १२२५ से १२३२। ६. क.पा. चूणिसूत्र १२३३ से १२३६ ।
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७०/गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा ५७-५८
हानि के रूप से परिणमित कर अत्यन्त सूक्ष्म या मन्द अनुभागरूप से अवस्थित करने को सूक्ष्मसाम्परायिक-कृष्टिकरण कहते हैं। सर्व जघन्य वाद र कृष्टि से सर्वोत्कृष्ट सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि का भी अनुभाग अनन्तरिणत हीन होता है। इसीलिए सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियों का स्थान लोभ की ततीय कृष्टि के नीचे है। लोभ की द्वितीय कृष्टि का बेदन करने वाला प्रथम समय में ही सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों की रचना करना प्रारम्भ करता है। यदि संज्वलन लोभ के द्वितीय विभाग में सूक्ष्मसाम्पराधिक कृष्टियों की रचना न करे तो तृतीय विभाग में सूक्ष्मकृष्टि का बेदकरूप से परिरगमन नहीं हो सकता।'
लोभ की द्वितीय कृष्टि के वेदन करनेवाले के जो प्रथमस्थिति है उस प्रथम स्थिति में जब एक समय अधिक पावली काल गेप रह जाता है उस समय वह चरमसमयवर्ती बादरसाम्परायिक होता है । उसी समय में अर्थात् अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अन्तिम समय में लोभ की संक्रम्यमारण चरम बादर साम्परायिक कृष्टि सामस्त्यरूप से सूक्ष्मसाम्पर। यिक कृष्टियों में संक्रान्त हो जाती है। लोभ की द्वितीय बादरकृष्टि के एक समय कम दो प्रावली प्रमाण नवकसमपप्रबद्धों को छोड़कर तथा उदयावली-प्रविष्टद्रव्य को छोड़कर शेष सर्व कृष्टियाँ संक्रमण को प्राप्त हो जाती हैं अर्थात् सूक्ष्मप्टि रूप परिरम जाती हैं ।
संज्वलन कोध को उत्कृष्ट कृष्टि भी प्रथम अपूर्वस्पर्धक की प्रादिवर्गणा अर्थात् अपूर्वस्पर्धकों की जघन्यवर्गणा के अनुभाग के अनन्तबै भाग है । इस प्रकार कृष्टियों में अनुभाग उत्तरोत्तर अल्प है । यत: जिसके द्वारा संज्वलन कषायरूप कर्म कृश किया जाता है उसकी कृष्टि यह संज्ञा सार्थक है । यह कृष्टिका लक्षण है ।
सभी संग्रहकृष्टियाँ और उनकी अवयव कृष्टियाँ समस्त द्वितीय स्थिति में होती हैं, किन्तु जिस कृष्टिके का वेदन होता है, उसका ग्रंश प्रथस्थिति में होता है।
किसके कितनी संग्रहकृष्टियाँ बनती हैं, इसका स्पष्टीकरण-यदि क्रोध कषाय के उदय के साथ क्षपकश्रेणी चढ़ता है तो उसके बारह संग्रष्टियाँ होती हैं। मानकषाय के उदय के साथ चढ़ने वाले के नौ संग्रहकृष्टियाँ होती है। माया के उदय के साथ क्षपकश्रेणी चढ़ने वाले जीव के छह संग्रह-कृष्टियाँ होती हैं। लोभकषाय के उदय के साथ क्षपकणी चढ़ने वाले के तीन संग्रहकृष्टियों होती हैं । एक-एक संग्रहकृष्टि की अवयव या अन्तरकृष्टियाँ अनन्त होती हैं । प्रत्येक कषाय में तीन-तीन संग्रहकृष्टियाँ होती हैं।
कृष्टियों के बेवककालों का अल्पमहत्य--अन्तिम बारहवीं कृष्टि को (सूक्ष्मक्रष्टिरूप परिणमाकर) अन्तमुहर्त तक वेदक करता है, तथापि उसका वेदक काल सबसे कम है। ग्यारहवीं कृष्टि का बेदककाल विशेष अधिक है। दसवीं कृष्टि का वेदककाल विशेष अधिक है। नवमी कृष्टि का वेदककाल विशेष अधिक है। पाठवीं कृष्टि का वेदककाल विशेष अधिक है। सातवीं कृष्टि का वेदककाल विशेष अधिक है। छठी कृष्टि का देदककाल विशेष अधिक है। पांचवीं कृष्टि का वेदककाल बिशेष अधिक है। चतुर्थकृष्टि का वेदक काल विशेष
३. क. पा. चूणिमूष ७३१ मे ७३६ ।
१. जयधवल के आधार से । २. क. पा. चूर्णिसूत्र १२६५-६७ । ४. क. पा. गाथा १६८। ५. क. पा. नूणिसूत्र ७०६ से ७१४ ।
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गुणस्थान/७१
अधिक है। तृतीयकृष्टि का वेदककाल विशेष अधिक है। दूसरी कृष्टि का वेदककाल विशेष अधिक है। प्रथम कृष्टि का बेदककाल विशेष अधिक है । यहाँ सर्वत्र विशेष का प्रमाण स्व
ष्टि-वेदककाल के संख्यातवें भाग है।' न उपशम व क्षपक श्रेणी सम्बन्धी क्रियाभेद--अश्वकर्णकरण, अपूर्वस्पर्धक ब बादरकृष्टि न क्रियाओं सम्बन्धी उपर्युक्त कथन क्षपकश्रेणी की अपेक्षा किया गया है । इतनी विशेषता है कि सपनामश्रेणो में अश्वकर्णकरण, अपूर्वस्पर्धकरण और बादरकृष्टिकरण नहीं होते, किन्तु लोभ
वककाल के द्वितीय विभाग में पूर्वस्पर्धकों से प्रदेशपुज का अपकर्षण करके सबसे जघन्य लता समान अनुभाग वाये सत्र की विपक्ष मे गादिराग-पादिलो से अनन्तगुणी हीन सूक्ष्मटियों को करता है।
इस द्वितीय विभाग का नाम कृष्टिकरणकाल है, क्योंकि यहां पर स्पर्धकगत अनुभाग का अपवर्तन कर कृष्टियों को करता है । अत: इस लोभवेदक काल के द्वितीय विभाग की कृष्टिकरणाबाल यह सार्थक संज्ञा है । जिस प्रकार क्षपक श्रेणी में (बादर) कृष्टियों को करता हुआ सभी पूर्व परमपूर्वस्पर्धकों का पूर्णरूप से अपवर्तन कर (बादर) कृष्टियों को ही स्थापित करता है, उस प्रकार हो सम्भद नहीं है, क्योंकि सभी पूर्वस्पर्धकों के अपने-अपने स्वरूप को न छोड़कर उस प्रकार अवस्थित भी हुए सब स्पर्धकों में से असंख्यातवें भाग प्रमाण द्रव्य का अपकर्षण कर एक स्पर्धक की वर्गणामों अनन्तवें भाग प्रमाण अनुभाग से सूक्ष्मकृष्टियों की रचना उपशम श्रेणी में करता है ।
तीवमन्द अनुभाग सम्बन्धी अल्पबहुत्व-तीव-मन्द अनुभाग की अपेक्षा जघन्यकृष्टि स्तोक है से दूसरी कृष्टि अनन्तगुणी है, उससे तीसरी कृष्टि अनन्तगुणी है । इस प्रकार अन्तिमकृष्टि पर्यन्त तन्तगुरिणत श्रेणी रूप से क्रम चालू रहता है।
कृष्टिकरणकाल के अवसान की प्ररूपणा -कृष्टिकरणाकाल में प्रावली और प्रत्यावली के न रहने पर प्रागाल और प्रत्यागाल न्युच्छिन्न हो जाते हैं । प्रत्यावली में एक समय शेष रहने पर मन संज्वलन की जघन्य स्थितिउदीरणा होती है । उसी समय स्पर्धकगत लोभ सम्बन्धी सर्व प्रदेश
उपशान्त हो जाता है, किन्तु कृष्टिगत प्रदेशज अभी भी अनुपशान्त रहता है, क्योंकि सूक्ष्मसम्पराय के काल में कृष्टियों की उपशामना देखी जाती है, यही अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्परायिक मत है, क्योंकि यहाँ पर अनिवृत्तिकरणकाल का अन्त देखा जाता है । 1 इस प्रकार क्षपश्रेणी सम्बन्धी पूर्व-अपूर्वस्पर्धक व बादर-सूक्ष्मकृष्टि और उपशमश्रेणी वन्धी पूर्वस्पर्धक ब सूक्ष्मकृष्टि का कथन पूर्ण हुआ ।
__दसवें गुणस्थान-सूक्ष्मसाम्पराय का स्वरूप धुदक्कोसु भयवत्थं होदि जहा सुहमरायसंजुतं । एवं सुहमकसानो सुहमसरागोत्ति रणावध्यो ।। ५६ ॥
३. ज.ध.पू.१३
३१५ ।
४. क. पा.
३७से८४६२, ज, व.पु.१३५.३०७ । " असासूत्र २५८३ ५. ज.घ. पु. १३ पृ. ३१८-३१६ ।
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७२/गो, सा, जीवकाण्ड
गाथा ५६-६०
अणुलोहं वेदंतो जीवो उबसामगो व खवगो वा ।
सो सुहमसंपरानो जहखादेणूगो किंचि ॥ ६०॥ गाथार्थ-धुले हुए कसूम्भी बस्त्र में जिस प्रकार सूक्ष्म लालिमा रह जाती है उसी प्रकार (बादरकषाय का प्रभाव हो जाने पर भी) सूक्ष्म कषाय युक्त जीव या सूक्ष्मसराग है, ऐसा जानना चाहिए ।।५६ ।। जो उपशमक या क्षमक सूक्ष्म लोभ का वेदन कर रहा है वह सूक्ष्मसाम्परायिक चारित्र वाला है और वह यथाख्यात चारित्र से किचित् न्यून है ।।६।।
विशेषार्थ:-अनिवत्तिकरण परिणामों के द्वाश पचपि राम-ध रूप कषाय को धो दिया है अर्थात उसका अभाव कर दिया है तथापि धुले हुए कसूम्भी बस्त्र के समान सूक्ष्म लोभरूप राग या कषाय शेष रह जाती है । उस सूक्ष्म लोभोदय के कारण उपशामक अथवा क्षपक का सुश्मसाम्पराय चारित्र यथाख्यातचारित्र से कुछ न्यून रह जाता है।
सूक्ष्मकषाय को सूक्ष्मसाम्पराय कहते हैं। उसमें जिन संयतों का प्रवेश हो गया है वे सूक्ष्मसाम्प रायसंयत दसवें गुणस्थानवर्ती हैं। उनमें उपशमक और क्षपक दोनों होते हैं। सूक्ष्मसाम्पराय की अपेक्षा उनमें भेद नहीं होने से उपशमक और क्षपक इन दोनों का एक ही गुणस्थान होता है। इस गुणस्थान में अपूर्व और अनिवृत्ति इन दोनों विशेषणों की अनुवृत्ति होती है। इमलिए ये दोनों विशेषगा भी सूक्ष्मसाम्पराय के साथ जोड़ लेने चाहिए अन्यथा पूर्ववर्ती गुणस्थानों से इस गुरगस्थान की कोई भी विशेषता नहीं बन सकती।'
इस गुणस्थान में जीव कितनी ही प्रकृतियों का क्षय करता है, आगे क्षय करेगा और पूर्व में क्षय कर चुका है इसलिए इसमें क्षायिकभाव है तथा कितनी ही प्रकृतियों का उपशम करता है, आगे उपशम करेगा और पहले उपशम कर चुका है, इसलिए इसमें औपशामिकभाव है।
प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसापरायिक क्षपक के सूक्ष्मकृष्टियों के असंख्यात बहुभाग उदीर्ण होते हैं। संख्यातसहस्र स्थितिकाण्डकों के व्यतीत हो जाने पर मोहनीय कर्म का अन्तिम स्थितिकाण्डक उत्कीर्ण होता है। उस स्थितिकाण्डक के उत्कीर्ण हो जाने पर पागे मोहनीयकर्म का स्थितिघात नहीं होता, क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान का जितना काल शेष है उतना ही मोहनीय कर्म का सत्व है और उस स्थितिसत्त्व को अधःस्थिति के द्वारा निर्जीर्ण करता है।
चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक के नाम और गोत्रकर्म का स्थितिबन्ध आठमुहूर्त प्रमाण होता है, वेदनीयकर्म का स्थितिबन्ध बारह मुहूर्त प्रमाण होता है, शेष तीन घातिया कर्मों का स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है ।
क्रोध के उदय से चड़े हुए प्रथम समयवर्ती लोभवेदक बादरसाम्परायिक संयत के समस्त लोभ-वेदककाल के माधिक दो बटे तीन भाग प्रमाण (3) प्रथमस्थिति होती है। उस स्थिति का कुछ कम प्राधा सूक्ष्मसाम्परायिक संयतका काल है।
१. भ. पु. १ पृ. १८७ २. घ. पु १ पृ. १८८। ३. क.पा, बुरिणसूत्र १३३६ से १३४६ । ४. क. पा. चूगिमूत्र
१३६८ से १३७० । ५. ज. व. पु. १३ पृ. ३२० ।
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गुस्गस्थान /
. जो कृष्टियाँ प्रथम समय में की गई हैं उनके उपरिम असंख्यातवें भाग को छोड़कर और पीष्टियां अन्तिम समय में की गई हैं उनकी जघन्यकृष्टि से लेकर असंख्यात भाग को
डकर शेष कृष्टियाँ उदीर्ण हो जाती हैं। इतनी विशेषता है कि प्रथम समय में की गई कृष्टियों से नहीं देदे जाने वाले उपरिम असंख्यातवें भाग के भीतर की कृष्टियाँ अपकर्षण द्वारा (अनुभाग
अपेक्षा) अनन्तगुरणी हीन होकर मध्यमकृष्टिरूप से वेदी जाती हैं तथा अन्तिम समय में रची गई नष्टयों में से जघन्यकृष्टि से लेकर नहीं बेदे जाने वाली अधस्तन असंख्यातवें भाग के भीतर की कृष्टियां सतगुणी होकर मध्यमकृष्टि रूप से वेदी जाती हैं, क्योंकि अपने रूप से ही उनके उदय-अभाव का मान किया गया है किन्तु मध्यम आकार रूप होकर उनके उदय की सिद्धि का प्रतिषेध नहीं है । । प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक सभी कृष्टियों के प्रदेशज को गुणश्रेणीरूप से पणमाता है अर्थात् प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणीरूप से कृष्टियों के प्रदेशपुञ्ज को उपशमाता है । बम समय में सर्वकृष्टियों में पल्यापम के असंख्यातवें भाग का भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो तिने प्रदेशपुञ्ज को उपशमाता है । पुनः दूसरे समय में सर्व कृष्टियों में पल्योपम के असंख्यातवें भग का भाग देने पर जो एक भाग लब्ध प्रावे उतने प्रदेशपुञ्ज को उपशमाता है. किन्तु प्रथम सय में उपशमाये गये प्रदेशज से असंख्यात गुणे प्रदेशपुज को उपशमाता है ।
शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-परिणामों के माहात्म्य से जाना जाता है । ___इस प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान के अन्तिम समय को प्राप्त होने तक सर्वत्र गुणश्रेणी कम से उपशमाता है । दो समय कम दो प्रावली प्रमाण नवकसमयप्रबद्धों को भी उपशमाता । बादरसाम्परायिकसंयत ने पहले जो स्पर्धकगत उच्छिष्टावली छोड़ दी थी, वह कृष्टिरूप से परिणाम कर स्तिबु कसंक्रम के द्वारा प्राप्त होती है । प्रथम समय में उदीर्ण हुई कृष्टियों के अग्राम से सात सबसे उपरिम कृष्टि से लेकर नीचे असंख्यातवें भाग को छोड़कर शेष कृष्टियाँ द्वितीय समय उदीर्ण होती हैं।
शंका ऐसा किस काररग से है ? . समाधान ---- यदि ऐसा न हो तो प्रथम समय के उदय से दूसरे समय का उदय अनन्तगुरणा हीन नहीं बन सकता।
प्रथम समय में उदीर्ण कृष्टियों से द्वितीयसमय में उदाएं हुई कृष्टियां असंख्यातवें भाग प्रमाण विशेष हीन हैं, क्योंकि अधस्तन अपूर्व लाभ से उपरिम परित्यक्त भाग बहुत होता है। इसी प्रकार समसाम्परायिक संयन के अन्तिम समय के प्राप्त होने तक तृतीयादि समयों में भी कथन करना
।
अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसामयिका उपशामक के ज्ञानावरगा, दर्शनाबरण और अन्तराय
क. पा चूणिमूत्र २७६-२७३ । २. ज. घ, यु. १३ पृ. ३२२ । ३. ज. प. पु. १३ पृ. ३२३ । ४. क. पा. परिणसूत्र २७६ । ५. ज. प. पु. १३ पृ. ३२४-२५ ।
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७४/ गो. सा. जीवकाण्ड
गाया ६१
कर्मों का स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त प्रमारा होता है। नाम और गोत्र कर्मों का स्थितिबन्ध सोलह मुहूर्तप्रमाण होता है । वेदनीय कर्म का स्थितिबन्ध चौबीस मुहूर्तप्रमारण होता है । तदनन्तर समय में सम्पूर्ण मोहनीय कर्म उपशान्त हो जाता है । '
वाय-फाय - श्रणुभागावी अनंतगुणहोणे । लहाणुहि दियो हंद सुम- संपराश्री सो ॥१२१॥
- पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धक के अनुभाग से अनन्तगुणे हीन अनुभाग वाले सूक्ष्मलोभ में जो स्थित है, उसे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती समझना चाहिए ||१२१ ।।
उपशान्तकषाय गुणस्थान का स्वरूप
'कदकफलजुदजलं वा सरए सरबारियं व रिणम्मलयं । सयलोवसंत मोहो उवसंतकसायनो
होदि ॥ ६१ ॥
गाथार्थ - कतफल से युक्त निर्मल जल के समान अथवा शरद् ऋतु में होने वाले सरोवर के निर्मल जल के समान सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले निर्मल परिणामों की उपशान्तकपाय संज्ञा है ॥ ६१ ॥
विशेषार्थ - जिनकी कषायें उपशान्त हो गई हैं, वे उपशान्तकषाय जीव हैं, क्योंकि मोहनीय कर्म के बन्ध, उदय, उदीरणा, अपकर्षरण और उत्कर्षरण आदि सभी कररणों का उपशान्तरूप से अवस्थान देखा जाता है । अब यहाँ से लेकर अन्तर्मुहूर्तकाल तक उपशान्तकषाय- वीतराग छद्यस्थ होकर स्थित रहता है । समस्त कषायों के उपशान्त हो जाने से उपशान्तकषाय, समस्त राग परिणामों का उदय नष्ट हो जाने से वीतराग, छद्म प्रर्थात् ज्ञानावरण-दर्शनावरण स्थित होने से स्थ इस प्रकार उपणान्तकषाय- वीतराग छद्मस्थ होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक ग्रत्यन्त स्वच्छ परिणामों के साथ प्रवस्थित रहता है।
शङ्का - अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक उपशान्तकाय भाव के साथ अवस्थित क्यों नहीं
रहता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक उपशम पर्याय का अवस्थान असम्भव है । समस्त उपशान्त काल में वह अवस्थित परिणाम वाला होता है, क्योंकि वहाँ परिणामों की हानि और वृद्धि के कारणभूत कषायोदय का प्रभाव है । अतः अवस्थित यथाख्यात विहारशुद्धिसंयम से युक्त सुविशुद्ध वीतराग परिणाम के साथ प्रतिसमय अभिन्नरूप से उपशान्तकपाथ वीतराग के काल का पालन करता है। अवस्थित परिणाम वाले जीव के अनवस्थित आयामरूप से तथा अनवस्थित प्रदेशपुरंज के अपकर्ष रूप से गुरणश्रेणी विन्यास सम्भव नहीं है, क्योंकि इसका निषेध है। इसलिए पुरे ही उपशान्त काल के भीतर किये जाने वाले गुणश्रेणी निक्षेप के आयाम की अपेक्षा और अपकर्षित
१. क. पा. त्रैणिसूत्र २८२ से २८५ । २. धवल पु. १ पृ. १८८ ।
३. सकयगहलं जलं वा सरए सरवारिष्यं व रिम्लए ।
समलोवसंत मोहो उन संत कसायनो होई ॥१२२॥
धवल पु. १ पृ. १८९ ।
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दाथा ६१
मुगास्थान/७५ किये जाने वाले प्रदेशज की अपेक्षा वह गुणश्रेणी अवस्थित होती है ।'
अवस्थित परिणाम होने से समग्र उपशान्तकाल के भीतर केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण के अनुभाग-उदय की अपेक्षा अवस्थित वेदक होता है । निद्रा और प्रचला अध्र व उदयवाली प्रकृतियाँ हैं. इसलिए इनका कदाचित् वेदक और कदाचित् अवेदक होता है । यदि वेदक होता है तो जब तक वेदक रहता है तब तक अवस्थित वेदक ही होता है, क्योंकि अवस्थित परिणामवाला है।
तराय कर्म की भी पाँचों प्रकृतियों का अवस्थित वेदक ही होता है, क्योंकि अवस्थित एक भेदरूप परिणाम के होने पर इनके उदय का दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है। शेष लब्धिकर्माशों का अर्थात् अन्तरायकर्म को पाँच प्रकृतियों के अतिरिक्त चार ज्ञानावरगा और तीन दर्शनावरण प्रकृत्तियों का अनुभाग-उदय वृद्धि हानि या अवस्थानरूप होता है ।
शङ्का-लब्धिकर्माण किसे कहते हैं ?
समाधाम-जिनका क्षयोपशमरूप परिणाम होता है वे लब्धिकर्माश हैं, क्योंकि क्षयोपशमसब्धि होकर कर्माशों की लब्धिकांश संज्ञा की सिद्धि होने में विरोध का अभाव है। इन समस्त शब्धिकर्माशों का अनुभाग-उदय अवस्थित ही होता है, यह नियम नहीं है।
शङ्का-ऐसा किस कारण से होता है ?
समाधान-क्योंकि परिणाम प्रत्यय होने पर भी यहाँ पर उनकी छह प्रकार की वृद्धि, छह प्रकार की हानि और अवस्थित रूप परिणाम सम्भव है। यथा-सर्वप्रथम अवधिज्ञानावरण को कहते है--उपशान्त कषाय में यदि अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम नहीं है तो अवस्थित उदय होता है, क्योंकि नवस्थितपने का कारण नहीं पाया जाता । यदि अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम है तो वहीं छद्धि, छहहानि और अवस्थित रूप अनुभाग का उदय होता है, क्योंकि देशावधि और परमावधि ज्ञानी । जीयों में असंख्यातलोक प्रमाण भेद रूप अवधिज्ञानावरण सम्बन्धी क्षयोपशम के अवस्थितपरिणाम
के होने पर भी वृद्धि, हानि और अवस्थान के बाह्य एवं आभ्यन्तर कारणों की अपेक्षा से तद्रूप परिकणाम होने में विरोध नहीं है। सर्वावधिज्ञानो जीव उत्कृष्ट क्षयोपशम से परिणत होता है और उसके
अवधिशानावरण का उदय अबस्थित होता है, उससे अन्यत्र उसका उदय छहवृद्धि छहहानि और अवस्थितरूप से अनवस्थित होता है । इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानावरण की अपेक्षा भी कथन करना चाहिए। इसी प्रकार शेष ज्ञानावरगा पीर दर्शनावरण की अपेक्षा भी आगमानुसार जानकर कथन करना चाहिए।
जो नामकर्म और गोत्रकर्म परिगाम-प्रत्यय होते हैं, उनके अनुभागोदय की अपेक्षा अवस्थित। वेदक होता है।
शङ्का-वे कौन प्रकृतियाँ हैं ?
समाधान-मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकगरीर, तंजसशरीर, कार्मरणशरीर, छह संस्थानों में से कोई एक संस्थान, औदारिक शरीर अंगोपांग, तीन उत्तम संहननों में से कोई एक संहनन
१. ब. ध. पु. १३ पृ. ३२६ से ३२८ । २. ज. प. पु. १३ पृ. ३३१ । ३. ज. प. पु. १२ पृ. ३३२-३३३ ।
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७६/गो. सा. जीवकाण्ड
गोश ६२
वर्ण, गन्त्र, रस, स्पर्श, अगस्लघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगति में से कोई एक, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर और दुःस्वर में से कोई एक, सुभग, प्रादेय, यश कीति और निर्माण ये प्रकृतियाँ हैं। इनमें से तंजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्ण, गन्ध, रस, शीत-उष्या-स्निग्ध-रूक्ष स्पर्श, अगुरुलघ, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सूभग, प्रादेय, यशःकीति और निर्माण ये प्रकृतियाँ परिणाम प्रत्यय हैं । उच्चगोत्र पारणाम प्रत्यय है। इस प्रकार परिणाम प्रत्यय वाले इन नाम और गोत्र कर्मों का अनुभागोदय की अपेक्षा अवस्थित वेदक है, क्योंकि परिणाम प्रत्यय वाले उनके अवस्थित परिणाम विषयक होने पर दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है । परन्तु यहाँ पर बेदी जाने वाली भवप्रत्यय शेष सातावेदनीय आदि प्रघातिया प्रकृतियों के छहवृद्धि और छहहानि के क्रम से अनुभाग को यह वेदता है।'
उपशान्तकषाय गुणस्थानवी जीव के यद्यपि कषाय सत्ता में विद्यमान है तथापि उपशान्त है अर्थात् अनुदयस्वरूप है । अतः रागोदय के अभाव में उसका चित्त निर्मल है। उस निर्मलता को स्पष्ट करने के लिए गाथा में दो दष्टान्त दिये हैं—१. जैसे गंदले जल में कतक फल अथवा निर्मली डाल देने से कीचड़ नीचे बैठ जाती है और जल निर्मल हो जाता है। २. वर्षा ऋतु में सरोवर का जल गंदला रहता है, किन्तु शरद् ऋतु आने पर मिट्टी आदि जो जल में मिश्रित थी, सरोवर में नीचे चली जाती है और सरोवर का जल स्वच्छ हो जाता है। इन दोनों दृष्टान्तों द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि कीचड़ या मिट्टी आदि सत्ता में बैठी है, किन्तु जल को मलिन नहीं कर रही है । इस प्रकार मोहनीय कर्म सत्ता में विद्यमान है किन्तु उदर में ग्राकर चित्त को मलिन नहीं कर रहा है । कीचड़ अादि का अस्तित्व होने के कारण पुनः जल को मलिन कर सकती है, उसी प्रकार भवक्षय या कालक्षय के कारण सत्ता में बैठा हुआ मोहनीय कर्म चित्त को पुन: मलिन कर देता है ।
क्षीणमोह नामक प्रारहवें गूगगस्थान का स्वमाप *रिणस्सेसखोरणमोहो फलिहामलभायणुदयसमचित्तो ।
खीणकसानो भगदि पिगंथो बीयरायहि ॥ ६२॥ गाथार्थ-जिसने मोह का निःशेष रूप से क्षय कर दिया है, स्फटिकमणि के निर्मल भाजन में रखे हुए स्वच्छ जल के समान जिसका चित्त निर्मल है. वीतरागदेव ने ऐसे निर्ग्रन्थ को क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती कहा है।
विशेषार्थ-मोह दो प्रकार का है. -द्रव्यमोह और भावमोह । प्रकृति-स्थिति-अनुभाग और प्रदेश के भेद से द्रव्यमोह चार प्रकार का है। राग और द्वेष के भेद से भावमोह दो प्रकार का है। जिसने द्रव्यमोह और भावमोह को उनके भेदों ब प्रभेदों सहित पूर्णरूप से नष्ट कर दिया है अतः उनका कोई भी अंश किसी प्रकार से शेष नहीं रहा है. इसलिए गाथा में "णिस्सेस-खीण-मोहों' पद दिया गया है। मोहनीय कर्मोदय के कारण अथवा राग-द्वेष के कारण चित्त में नानाप्रकार की तरंगें उठती थीं, जिससे समचित्त (तरंगों रहित चित्त, निर्मलचित्त-शान्तचित्त) का अभाव था, किन्तु मोह नष्ट हो जाने पर तरंगों का उठना समाप्त हो गया है अतः चित्त 'समचित्त' हो गया । इस 'सम
१. ज. प. पु. १३ पृ. ३३२-३३४ । २. घ. पु. १ पृ. १६० ; जयधयल मूल पृ. २२६४ । प्रा. पं. सं. १/२५ ।
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गाथा ६२
गुग्णस्थान / ७७
चित्त' को स्पष्ट करने के लिए गाथा में "कलिहामलभायणुदय" पद के द्वारा स्फटिकमरिण के निर्मल भाजन में रखे जल का दुष्टान्त दिया है । इस दृष्टान्त के द्वारा यह बतलाया गया है कि कीचड़ या मिट्टी आदि की सत्ता भी श्रभाव को प्राप्त हो जाने से जल पुनः मलिन नहीं हो सकता, उसी प्रकार मोह के सत्र का भी नाश हो जाने से चित्त पुनः मलिन नहीं हो सकता, अतः सर्वदा के लिए चित्त 'समचित्त' हो गया । यद्यपि यह भाव "णिस्सेसखी रग मोहो" से भी ग्रहण हो सकता या तथापि "फलिहामल भायणुवय" दृष्टान्त द्वारा इस भाव को अधिक स्पष्ट कर दिया गया है। arer में आया हुआ गंथो' अर्थात् निर्ग्रन्थ शब्द विशेष महत्व रखता है। साधु पाँच प्रकार के होते हैं - १. पुलाक, २. वकुश, ३. कुशील, ४. निर्ग्रन्थ और ५. स्नातक १ । बाह्य परिग्रहत्याग की अपेक्षा ये पाँचों ही निर्ग्रन्थ हैं तथापि पुलाक, वकुश और कुशील के मोहनीय कर्मोदय के कारण अन्तरंग परिग्रह विद्यमान है। क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती के अन्तरंग परिग्रह का कारण मोहनीयकर्म का क्षय हो जाने से उसकी निर्ग्रन्थ संज्ञा वास्तविक है तथा अन्तर्मुहूर्त पश्चात् केवलज्ञान व केवलदर्शन उत्पन्न होने वाला है इसलिए भी उसकी निर्ग्रन्थ संज्ञा है । यद्यपि उपशान्तमोह गुणस्थावर्ती के भी अन्तरंग परिग्रह का प्रभाव होने से निर्ग्रन्थपना है तथापि अन्तरंग परिग्रह के कारस्भूत मोहनीय कर्म का सत्त्व होने से गाथा ६१ में उसको निर्ग्रन्थ संज्ञा नहीं दी गई है। श्री पूज्यपादस्वामी व श्री अलकदेव यादि श्राचार्यों ने भी अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा जिसको केवलज्ञान व केवलदर्शन उत्पन्न होने वाला है' इस विशेषण के द्वारा मात्र क्षीणमोह को ही निर्ग्रन्थ संज्ञा दी है ।
जो कर्मबन्ध कराते हैं, वे ग्रन्थ अर्थात् परिग्रह हैं ( ग्रन्थाः परिग्रहाः ) । अन्तरंग और बहिरंग के भेद से परिग्रह दो प्रकार का है । अन्तरंग परिग्रह चौदह प्रकार का है- १. मिथ्यात्व २. हास्य, ३. रति, ४. अरति ५ शोक, ६. भय, ७. जुगुप्सा, प. स्त्रीवेद ६. पुरुषवेद, १०. नपुंसक वेद ११. क्रोध, १२. मान १३. माया, १४. लोभ । बाह्य परिग्रह १० प्रकार का है- १. क्षेत्र, २. वास्तु, ३. सुवर्ण, ४. चांदी, ५. धन, ६. धान्य, ७. दासी, ८. दास, ६. वस्त्र, १०. भाण्ड । इन २४ प्रकार के परिग्रहों से जो सर्वात्मना निवृत्त है, वह निर्ग्रन्थ है ।"
इस गुणस्थान में नाम, स्थापना और द्रव्यनिक्षेपरूप क्षीणकषाय का ग्रहण नहीं है. किन्तु भावनिक्षेपरूप क्षीणकषाय का ही ग्रहगा है ।
क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती प्रथम समय से ही सर्व कर्मों के प्रकृति- स्थिति अनुभाग श्रीर प्रदेश का प्रवन्धक हो जाता है । भात्र योग के निमित्त से एक समय की स्थितिवाले सातावेदनीय का पथ बन्ध होता है। एक समय अधिक प्रावली मात्र उपस्थकाल के शेष रहने तक तीनों घातिश कर्मों की उदीरणा करता रहता है। क्षीणकषाय के द्विचरम समय में द्वितीय शुक्लध्यान के द्वारा निद्रा और प्रचला इन दोनों कर्मप्रकृतियों के उदय और सत्व का एक साथ व्युच्छेद हो जाता है।
1
१. 'धुलाकवकुश कुशील निर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः | त. सु. प्र. ९ / ४६ ] २. सम्यग्दर्शन नित्वरूपं च भूषावेशायुधविरहितं तत्सामान्ययोगात् सर्वेषु हि पुलाकादिषु निर्ग्रन्यशब्दो युक्तः । | त.रा.दा. प्र. ९ / ४६ / ६ ] । ४. ग्रन्थन्ति रचयन्ति ३. कष्वं मुहूर्तादुद्भिद्यमान केवलज्ञानदर्शनभाजो नियन्याः त.रा.वा. ९ / ४६ / ४ ] | संसारकारणं कर्मबन्धमिति प्रस्थाः परिग्रहाः मिध्यात्ववेदादयः श्रन्तरङ्गाश्चतुर्दश बहिरंगाश्च क्षेत्रादयो दश तेभ्यो निष्क्रान्तः सर्वात्मना निवृत्तो निन्य इति । (गो. जी. मं. प्र. टीका ) 1 ५ ध.पू. १ पृ. १६० ।
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७८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६२ शङ्का-ध्यान परिणाम के विरुद्ध स्वभाव वाली निद्रा ब प्रचला का उदय कैसे सम्भव है ?
समाधान-ऐसी शंका ठीक नहीं क्योंकि ध्यान-उपयुक्त के भी निद्रा-प्रचला का प्रवक्तव्य उदय सम्भव है।
तदनन्तर चरम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों धातिया कर्मों के उदय तथा सत्त्व का एक साथ व्युच्छेद हो जाता है।'
जाव ण छदुमत्थादो तिहं धावीण वेवगो होइ।
सागर रेल खयां सध्यष्ट्र सम्वदरसी य॥ जब तक क्षीणकषाय वीतरागसंयत छमस्थ अवस्था से नहीं निकलता है तब तक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घातिया कर्मों का वेदक रहता है । इसके पश्चात् यनन्तर समय में तीनों धातिया कर्मों का क्षय करके सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन जाता है ।
शङ्का-क्षीणकषाय के चरम समय में घातिया कर्मों के साथ अघातिया कर्म भी निमल क्षय को क्यों नहीं प्राप्त हो जाते ?
समाधान-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि घातिया कर्मों के समान अघातिया कर्मों का विशेष स्थितिघात नहीं होता । क्षीराकषाय के अन्तिम समय में भी तीन अघातिया कर्मों का स्थितिसत्त्व पल्य के असंख्यातवें भाग रह जाता है । अघातिया कर्मों के विशेष घात का या भाव प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि घातिया कर्मों की अपेक्षा अघातिया कर्मों में उतने अप्रशस्तभाव का अभाव है। घाती कर्म की अपेक्षा समानता होने पर भी जैसे प्रातिया कर्मों में मोहनीय कर्म अधिक अप्रशस्त है, अतः उसका विशेष घात होकर अन्तर्मु इर्त पूर्व विनाश हो जाता है । इसी प्रकार कर्मपने की अपेक्षा समानता होने पर भी अघातिया की अपेक्षा घातिया विशेष अप्रशस्त होने से दूसरे शुक्लध्यान के द्वारा क्षीणकषाय के अन्तिम समय में निर्मूल क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। यह कथन उत्पादानुच्छेद नय के द्वारा किया गया है।
शान्तक्षीणकषायस्य पूर्वजस्य त्रियोगिनः । शुक्लायं शुक्ललेश्यस्य मुख्यं संहननस्य तत् ॥१॥ द्वितीयस्याद्यवत्सर्वं विशेषत्वेकयोगिनः ।
विघ्नावरणरोधाय क्षीणमोहस्य तत्स्मृतम् ॥२॥ -प्रथम शुक्लध्यान उपशान्तकषाय व क्षोणकषाय वालों के होता है, किन्तु वे पूर्व के ज्ञाता होने चाहिए। यह ध्यान उत्कृष्ट संहनन वाले, शुक्ललेण्या में विद्यमान और तीनों योगों से युक्त जीवों के होता है । द्वितीय शुक्लध्यान का कथन भी प्रथम शुक्ल ध्यान के समान है। विशेषता इतनी है कि द्वितीय शुक्लध्यान क्षीणमोहगुणस्थान में एक योगवाले के, ज्ञानावरग-दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों का क्षय करने के लिए होता है।'
-.
१. ज.ध. मूल पृ. २२६५; चूरिणसूत्र १५६३ से १५६६ ; ज.ध. १६/१२०-१२५ । २. क.पा. सुत्त पृ. ८६६ । ३. ज.ध. मूल पृ. २२६६-६७ तथा ज.ध. १६ पृ. १२५-२६ । ४, ज.ध. मूल पृ. २२६६ तथा ज.ध. १६ पृ. १२३ ।
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गगगरपान/७१
तेरहवें सयोगकेवली गुणस्थान का स्वरूप 'केवलणाणविवायरकिरण-फलाबप्पणासिअण्णाणो । पवकेवललद्ध ग्गमसुजरिणय-परमप्प-चवएसो ॥६३।। असहाय-पाण-दंसरण-सहिनो इदि केवलो हु जोएण ।
जुत्तो ति सजोगजिरणो, प्रणाइरिणहरणारिसे उत्तो ॥६४६ गाथार्य--जिसका केवलज्ञानरूपी सूर्य की अविभागप्रतिच्छेदरूप किरणों के समूह से (उत्कृष्ट भनन्तानन्त प्रभार) अज्ञान अन्धका सर्वथा नष्ट हो गया हो और जिसको नद केवललब्धियों के प्रकट होने से परमात्मा' यह व्यपदेश प्रारत हो गया है। वह इन्द्रिय, पालोक आदि की अपेक्षा न रखने बाले ज्ञानदर्शन से युक्त होने के कारण केवली और काययोग से युक्त रहने के कारण सयोगी तथा पातिकर्मों से रहित होने के कारण जिन कहा जाता है । ऐसा अनादिनिधन पार्ष आगम में कहा है ॥६३-६४।।
विशेषार्थ--जिस प्रकार प्रातःकाल सूर्य के उदय होने पर उसकी किरणों के कलाप (समूह) से रात्रिकालीन अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञानाबरणादि घातिया कर्मों के क्षय होने के काल में केवलज्ञानरूपी सूर्य के उदय होने पर उसके सर्वोत्कृष्ट-अनन्त अविभागप्रतिच्छेदों के द्वारा सर्वज्ञेयविषयक अज्ञानरूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है अर्थात् समस्त ज्ञेय उस केवलज्ञान में प्रतिभासमान हो जाते हैं, कोई भी पदार्थ अप्रनिभासित नहीं रहता। कहा भी है--
'जो ज्ञये कथमज्ञः स्यावसति प्रतिबन्धरि ।
दाहोऽग्निदाहको न स्यावसति प्रतिबन्धरि ॥१३॥ -जानावरणरूप प्रतिबन्धक के नहीं रहने पर ज्ञाता अर्थात् केदलज्ञानी ज़यों के विषय में अज्ञ कैसे रह सकता है जैसे प्रतिबन्धक (मरिण, मंत्रादि) के नहीं रहने पर दाह स्वभाव होने से अग्नि दाह्यपदार्थ को कैसे नहीं जलायेगी अर्थात् अवश्य जलायेगी।
केवलज्ञान मात्र शैयों को जानता है, क्योंकि केवलज्ञान जेयप्रमाण है जैसा कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने जिनेन्द्रदेव की साक्षी से प्रवचनसार गाथा २३ में 'णाण गेयपमाणमुद्दिट्ट" इन शब्दों द्वारा कहा है । यदि केबली अज्ञेयों को भी जानने लगे तो 'जान ज्ञेयप्रमाण है इस सिद्धान्त से विरोध प्रा जायेगा । इसीलिए श्री स्वामी कार्तिकेयाचार्य ने 'णेयेण विणा कहं गाणं' ज्ञयों के बिना केवलज्ञान कैसे हो सकता है ? ऐसा कहा है, अर्थात् जो ज्ञेय नहीं हैं उनको केवली नहीं जानता। यदि कहा जावे कि कोई भी अज्ञेय नहीं है तो अज्ञेय के अभाव में ज्ञेय का भी सद्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि सब सप्रतिपक्ष पदार्थों की उपलब्धि अन्यथा बन नहीं सकती।" श्रीवीरसेनाचार्य ने पञ्चास्तिकाय गाथा के आधार पर यह मिटान्त सिद्ध किया है कि सर्व पदार्थ सप्रतिपक्ष हैं, क्योंकि कुन्दकुन्दाचार्य ने 'सब पयस्था सप्पडिवखा' इन शब्दों द्वारा इस सिद्धान्त का उपदेश दिया है।
२. प. पु. १ पृ. १६२ तथा ज. घ. मूल पृ. २२७० ।
१. घ. पु. १ पृ. १६१; ज.ध. मूल पृ. २२७० । ३. ज. प. पु. १ पृ. ६६। ४. ध, पु. १४ पृ. २३४ ।
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८०/गो. सा.. जोत्रकाण्ड
गाथा ६३-६४
__ चार घातिया कर्मों के क्षय होने से नव केवललब्धियाँ उत्पन्न होती हैं । ज्ञानावरण कर्म के क्षय होने पर क्षायिकज्ञान', दर्शनावरण कर्म के क्षय होने पर क्षायिकदर्शन', मोहनीय कर्म का क्षय होने पर क्षायिक सम्यक्त्व व क्षायिकचारित्र' और अन्त रायकर्म के क्षय होने पर क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिकवीर्य' इस प्रकार क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र, क्षायिकादान, क्षाधिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षाधिक उपभोग और क्षायिकवीर्य ये नौ क्षायिक भाव हैं जिनको नब केवलल ब्धि कहा गया है । उपयुक्त ज्ञानाबरणादि कर्म देवत्व अर्थात परमात्मपद के घातक हैं । इन कर्मों का क्षय हो जाने पर नव केवललब्धियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और उनके साथ-साथ परमात्मपद भी प्राप्त हो जाता है ।
असहायज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनोव्यापार की अपेक्षा से रहित है। सर्वार्थसिद्धि आदि में भी कहा है केवलस्थासहायत्वात्' (१:३०)तथा श्रीवीरसेनाचार्य ने भी कहा है 'केबलमसहायम्' । घातिया कर्मों का क्षय हो जाने से ज्ञान व दर्शन असहाय हो गया इसलिए उनकी केवली संज्ञा है ।
तेरहवें गुणस्थान में पुद्गल धिपाकी शरीर नामकर्म का उदय है तथा द्रव्यमन, बचन व काय से युक्त हैं इसलिए तेरहवें गुणस्थान में कर्मों को ग्रहण करने की शक्तिरूप योग विद्यमान है ।" योग का कार्य सातावदनीय कामं का श्राप भी तेरहवें गुणस्थान में पाया जाता है। अतः वे सयोगकेवली हैं। अथवा मन-वचन और काय की प्रवृत्ति को योग कहते हैं। जो केवली योग के साथ रहते हैं वे सयोगकेवली हैं । अथवा बचन और काय के परिस्पन्द लक्षण वाले योग का सदभाव है जो ईर्यापथ बन्ध का हेतु है । ऐसे योग के साथ विराजमान केवली सयोग ही हैं।
यहाँ केवलज्ञानादि के स्वरूप का कथन करते हैं। यथा-केवलज्ञान में केवल प्राब्द का अर्थ है जो ज्ञान असहाय है अर्थात् इन्द्रिय, आलोक और मन की अपेक्षा के बिना होता है । इस प्रकार केवल जो जान वह केवलज्ञान है । जो सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट अर्थों में अप्रतिहतप्रसारवाला है, जो करण, क्रम और व्यवधान से रहित है तथा जिसकी वृत्ति ज्ञानावरण कर्म के पूरा क्षय होने से प्रगट हुई है ऐसा निरतिशय और अनुतर ज्योतिरत्ररूप केवलज्ञान है; यह उक्त कथन का तात्पर्य है। फिर भी उसको जो प्रानन्त्य विशेषरण दिया है वह उसके अविनश्चरपने की प्रसिद्धि के लिए दिया है. क्योंकि जैसे घट का प्रध्वंसाभाव सादि-अनन्त होता है उसी प्रकार क्षायिक भाव के सादि-अनन्त स्वरूप से अवस्थान का नियम उपलब्ध होता है। अथवा केवलज्ञान का 'अनन्त' यह विशेपरण समस्त द्रव्य और उनकी अनन्त पर्यायों को विषय करने वाले उस केवलज्ञान के परमोत्कृष्ट अनन्त परिणामपने की प्रसिद्धि के लिये जानना चाहिए। कारण कि प्रमेय अनन्त हैं. अतः उनकी परिच्छेदक ज्ञानशक्तियों को। भी अनन्त सिद्ध होने में प्रतिषेधका अभाव है । यह सब कथन केबल उपचार मात्र हो नहीं है किन्तु परमार्थ से ही सकल प्रमेय राशि के अनन्त गुणरूप और ग्रागमप्रमारग से जानने में आने-वाली ऐसी केवलज्ञानसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदसामर्थ्य उपलब्ध होती है । इस प्रकार यथोक्त अविभागप्रतिच्छेदों का अस्तित्व केवल कल्पनारूप नहीं है, वस्तुतः वह द्रव्य है। इसलिये इसकी अनन्तता
१. ज. ध. पु. १ पृ. ६७। २. ज. प. पु. १ पृ. २१, ध. पु. १ पृ. १६१; ज.ध. मूल पृ. २२६६, ज. घ. पु. १६ पृ. १३१ । ३. ज. प. पु. १ पृ. २३ । ४. गो. जी. गा. २१६ । ५. प. पु. १ पृ. १६१। ६. ज. प. मूल पृ.२२६६, ज. प्र. पु. १६ पृ. २३० ।
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-६३-६४
efta ही है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। कहा भी है
जो क्षायिक है, एक है, अनन्तस्वरूप है, तीनों कालों के समस्त पदार्थों को एक साथ जानते है, निरतिशय है, क्षायोपशमिकज्ञानों के अन्त में प्राप्त होनेवाला है, कभी च्युत होने वाला नहीं और सूक्ष्म, व्यवहित तथा विप्रकृष्ट पदार्थों के व्यवधान से रहित है, वह केवलज्ञान हैं ।"
गुणस्थान / ८१
इसी प्रकार केवलदर्शन का भी व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि केवलज्ञान के समान ही सुना आवरण करने वाले दर्शनावरण कर्म के अत्यन्त क्षय होने से वृत्ति को प्राप्त होने वाले और मस्त पदार्थों के अवलोकन स्वभाव वाले दर्शनोपयोग के भी अनन्त विशेषण से युक्त केवल संज्ञा के होने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं पाया जाता ।
यहाँ ऐसा नहीं मानना चाहिए कि "ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग में कोई भेद नहीं है, क्योंकि के विषय में भेद नहीं उपलब्ध होता तथा दोनों समस्त पदार्थों के साक्षात्वा रण स्वभाव वाले हैं, लिए उन दोनों में एक से ही कार्य चल जाने के कारण दूसरे उपयोग को मानना व्यर्थ है; " क्योंकि स्वरूप से उन दोनों का विषयविभाग अनेक बार दिखला माये हैं । इसलिये सकल और म केवलज्ञान के समान प्रकलंक केवलदर्शन भी केवलरूप अवस्था में है ही, यह सिद्ध हुआ । सत्या यागमविरोध आदि दोषों का होना अपरिहार्य है ।
वौर्यान्तराय कर्म के निर्मूल क्षय से उद्भूत्तवृत्तिरूप श्रम और खेद यदि अवस्था का विरोधी खराय से रहित, प्रप्रतिहत सामर्थ्य वाला वीर्य अनन्त वीर्य कहा जाता है । परन्तु वह इस भगवान् अशेष पदार्थविषयक ध्रवरूप ( स्थायी) उपयोग परिणाम के होने पर भी प्रखेद भाव रूप उपकार प्रवृत होता हुआ उपयोगसहित ही है, ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि उसके बलाधान के बिना सुरतर उपयोगरूप वृत्ति नहीं बन सकती । अन्यथा हम लोगों के उपयोग के समान अरिहन्त केवली उपयोग के भी सामर्थ्य के बिना अनवस्थान का प्रसंग प्राप्त होता है। कहा भी है
हे भगवन् ! आपके वीर्यान्तराय कर्म का बिलय हो जाने से अनन्त वीर्य शक्ति प्रगट हुई है । भूतः ऐसो अवस्था में समस्त भुवन के जानने यादि अपनी शक्तियों के द्वारा आप अवस्थित ।। १ ।। *
इस कथन से प्रात्यन्तिक अनन्त सुखपरिणाम भी इस भगवान् के व्याख्यान किया गया जानना चाहिए, क्योंकि जिसकी अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन और प्रनन्त वीर्य से सामर्थ्यं वृद्धि को स हुई है, जो मोह रहित है, जो ज्ञान और वैराग्य की श्रतिशय परमकाष्ठा पर अधिरूढ़ है, उसका परम निर्वाणरूपी वस्त्र है ऐसे सुख की प्रात्यन्तिकरूप से उत्पत्ति उपलब्ध होती है । किन्तु
और वैराग्य के प्रतिशय से उत्पन्न हुए सुख से अन्य सुख नाम की कोई वस्तु नहीं ही है, क्योंकि सिरागसुख है वह न्यायपूर्वक निष्ठुरता से विचार किया गया एकान्त से दुःखरूप हो है । उसी कार कहा भी है
जो इन्द्रियों के निमित्त से प्राप्त होने वाला सुख है, वह पराश्रित है, बाधा सहित है, बीच-बीच
बबल पु. १ पृ. १८८ । २. जयधवल मूल पृ. २२६६ ।
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८२गो, सा. जीवकागड
गाथा ६३-६४
में छूट जाने वाला है, बन्ध का कारण है और बिषम है । वास्तव में, वह सदाकाल दुःखस्वरूप ही है ।।२।।
जो मुख विरागभाव को निमित्त कर नहीं उत्पन्न हुआ है वह कुछ भी नहीं है, ऐसा हम निश्चय करके स्थित हैं। यदि वह निमित्त है तो आपके सिवाय बह स्पष्ट रूप से अन्य नहीं ही है जिससे कि आप में ही केवल निमित्त रूप से अस्तित्व है ।।३।।
इसलिये जिसमें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तविरति की प्रधानता है जो अनुपरत वृत्तिवाला है : निरतिशय है, स्वभावभूत प्रात्मा को उपादान करके जो सिद्ध होता है, अतीन्द्रिय है और जो द्वन्द्वभाव से रहित है, वह अनन्तमुख है। इससे असातावेदनीय के उदय का । सद्भाव होने से सयोगकेवली भगवान् में अनन्तसुखाभाव और उसके साथ होने वाली कवलाहारवृत्ति का निश्चय करनेवाला वादी निराकृत हो गया है, क्योंकि उसमें उस (असातावेदनीय) का उदय सहकारी कारणों की विफलता के कारण परघात के उदय के समान अकिंचित्कर है। इसलिये उनके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, अनन्तविरति और अनन्तसुखपरिणामपना होने से सयोगकेवली भगवान् सिद्धपरमेष्ठी के समान भोजन नहीं करते हैं, यह सिद्ध होता है ।
अनन्तवीर्य को उपलक्षण करके पूरे अन्तरायकर्म के क्षय से अनन्तदान, अनन्तलाभ, अनन्तभोग और अनन्त-उपभोगरूप लब्धियाँ उत्पन्न हुई हैं, क्योंकि अनन्तवीर्य के समान उन लब्धियों की उत्पत्ति के प्रति कोई विशेषता नहीं है । परन्तु वे लब्धियाँ समस्त प्राणीविषयक अभयदान की सामर्थ्य के कारण, तीनों लोकों के अधिपतित्व का सम्पादन करने से तथा प्रयोजन के रहते हुए स्वाधीन अशेष भोगोपभोग सम्बन्धी बस्तुओं का सम्पादन होने से उपयोगसहित ही हैं, ऐसा जानना चाहिए। इसलिये पहले ही दोनों प्रकार के मोहनीय कर्म के क्षयसे जिसने प्रात्यन्तिक सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र की शुद्धि को प्राप्त किया है. ज्ञानावरण और दर्शनाबरणरूप मूल और उत्तर प्रकृतियों के क्षय के अनन्तर ही जिसकी क्षायिक अनन्तकेवल ज्ञान और क्षायिक अनन्त केवलदर्शन पर्याय प्रकटित हुई है, तथा अन्तराय कर्म के क्षय से जो अनन्तवीर्य, अनन्तदान, अनन्तलाभ, अनन्तभोग और अनन्त-उपभोगरूप नौ केवल-लब्धियोंरूप से परिणत हुआ है, वह कृतार्थता की परमकाष्ठा को प्राप्त होता हा अहत्परमेष्टी, स्वयम्भू, जिन, केवली. सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और सयोगकेवली इस रूप से कहा जाता है । यहाँ जिनादिरूप शब्दों की पदार्थ-व्याख्या संगम है, इसलिये उनका विस्तार नहीं करते हैं।
"वे भगवान् महत्परमेष्ठीदेव प्रसंख्यातगुणी श्रेणिरूप से प्रदेशपुज की निर्जरा करते हुए विहार करते हैं।" इस सुत्र का अर्थ यह है कि प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूप से कर्मप्रदेशों को ये भगवान् धुनते हुए धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति के लिये यथायोग्य धर्मक्षेत्र में देवों और असुरों से अनुगत होते हुए बड़ी भारी विभूति के साथ प्रशस्त विहायोगति के निमित्त से या विहार करनेरूप स्वभाव वाले होने से विहार करते हैं।
__ शङ्का-कदाचित् यह मत हो कि इन ग्रहत्परमेष्ठी भगवान का व्यापारातिशय और उपदेश रूप अनिणय अभिप्रायपूर्वक ही हो सकता है, अन्यथा यत्किचित् करने रूप दोष का अनुषंग प्राप्त
१. जयप्रवल मूल पृ. २२७० ।
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गुणस्थान/३
होता है और ऐसा मानने पर इच्छा सहित होने से ये भगवान् असर्वज्ञ ही प्राप्त होते हैं । किन्तु ऐसा स्वीकार करना अनिष्ट ही है ?
समाधान-किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि अभिप्राय से रहित होने पर भी कल्पवृक्ष के समान इन भगवान् के पदार्थ के सम्पादन की सामर्थ्य बन जाती है । अथवा प्रदीप के समान इन भगवान की बह सामर्थ्य बन जाती है क्योंकि दीपक नियम से कृपालुपने से अपने प्रौर पर के अन्धकार का निवारण नहीं करता, किन्तु उस स्वभाव वाला होने के कारण ही वह अपने प्रौर पर के अन्धकार का निवारण करता है । जैसा कहा है1 हे जगद्गुरो ! आपने जमत के लिये जो हित का उपदेश दिया है वह कहने की इच्छा के बिना ही दिया है, क्योंकि ऐसा नियम है कि कल्पवृक्ष बिना इच्छा के हो प्रेमीजनों को इच्छित फल देता है।
हे मुने ! आपकी शरीर, वचन और मन की प्रवृत्तियाँ बिना इच्छा के ही होती हैं, पर इसका अर्थ यह नहीं कि आपकी मन, वचन और कायसम्बन्धी प्रवृत्तियाँ बिना समीक्षा किथे होती हैं । हे धीर ! प्रापकी चेष्टायें अचिन्त्य है।
कहने की इच्छा का सन्निधान होने पर ही वचन की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती, क्योंकि यह हम स्पष्ट देखते हैं कि मन्दबुद्धि जन इच्छा रखते हुए भी शास्त्रों के वक्ता नहीं हो पाते ।' इत्यादि ।
इसलिये परम-उपेक्षालक्षणरूप संयम की विशुद्धि को धारण करने वाले इन भगवान के बोलने और चलनेरूप व्यापार प्रादि अतिशयविशेष स्वाभाविक होने मे पुण्यबंध के हेतु नहीं हैं, ऐसा महो जानना चाहिए । जैसा कि आर्ष में कहा है :
तीर्थकर परमेष्ठी का विहार लोक को सुख देने वाला है, परन्तु उनका यह कार्य पुण्य फल वाला महीं है और उनका बचन दान-पूजारप प्रारम्भ को करने वाला तो है फिर भी उनको कमी से लिप्त नहीं करता।
पुन: इस महात्मा का वह बिहारातिशय भूमि को स्पर्श न करते हुए ही आकाश में भक्तिवश औरित हुए देवसमूह के द्वारा रचे गये स्वर्णकमलों पर प्रयत्न विशेष के बिना ही अपने माहात्म्य विशेषवश प्रवृत्त होता है, ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि योगियों की शक्तियाँ अचिन्त्य होती हैं ।
ऐसे वे केवली उत्कृष्ट से कुछ कम एक पूर्व कोटि काल तक विहार करके तत्पश्चात् प्रायुकर्म मन्तमहत शेष रहने पर अधातिकर्मों की स्थिति को समान वरने के लिए पहले प्रावजित-करण नाम की दूसरी क्रिया को प्रारम्भ करता है।
राजूर-श्रावजितकरण क्या है ? समाधान केवलीसमुद्घात के अभिमुख होना आवर्जितकरण कहा जाता है। उसे यह अन्तर्मुहूर्त काल तक पालन करता है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रायजितकरण
. जयघवल मूल पृ. २२७१ ।
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५४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाया ६३-६४
हुए बिना केवलीसमुद्घात किया का अभिमुखीभाव नहीं बन सकता। उसी काल में ही नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म के प्रदेशपिण्ड का अपकर्षण करके उदय में थोड़े प्रदेशज को देता है। अनन्तर समय में असंख्यातगुणे प्रदेशज को देता है। इस प्रकार असंख्यातगुणी श्रेरिणरूप से निक्षेप करता हना शेष रहे सयोगी के काल से और अयोगी के काल से विशेष रूप से अवस्थित गुणश्रेगिशीर्ष के प्राप्त होने तक जाता है। परन्तु यह गुरणश्रेरिणशीर्ष उसके अनन्तर अधस्तन समय में वर्तमान रहते हुए स्वस्थान सयोगिकेवली द्वारा निक्षिप्त किये गये गुणश्रेरिणायाम से संख्यातगुरगहीन स्थान जाकर अवस्थित है, ऐसा जानना चाहिए। परन्तु प्रदेशज की अपेक्षा उससे यह असंख्यातगुणे प्रदेशविन्यास से उपलक्षित होता है ऐसा कहना चाहिए ।
शङ्का यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान–ग्रह ग्यारह गुणधेशियों के स्वरूप का निरूपा करने वाले गाथा सूत्र से जाना ।। जाता है।
उस गुणश्रेरिणशीर्ष से उपरिम अनन्तर स्थिति में भी असंख्यातगुरणे प्रदेशज को ही सींचता है। उसके बाद ऊपर सनविशेषहीन प्रदेशपुंज की ही निक्षिप्त करता है। इस प्रकार आजितकरणकाल के भीतर सर्वत्र गुणश्रेणिनिक्षेप जानना चाहिए । यहाँ पर दृश्यमान प्ररूपणा जानकर ले । जाना चाहिए।
शङ्का--आवजित क्रिया के अभिमुख हुए सयोगी कोवली के यह गुणधेरिणनिक्षेप स्वस्थान । सयोगी केवली के समान अवस्थित पायाम वाला होता है या गलितशेष आयाम वाला होता है ?
समाधान-निक्षेप रूप करने की क्रिया में यह अवस्थित प्रायामबाला होता है. ऐसा निश्चय करना चाहिए।
इससे आगे सयोगी केवली के द्विचरम स्थितिकाण्ड की अन्तिम फालि के प्राप्त होने तक इस विषय में अवस्थित रूप से इस गुणगि निक्षेप सम्बन्धी प्रआयाम को प्रकृति का नियम देखा जाता है।
और यह प्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि यह सूत्र से अविरुद्ध परम गुरुत्रों के सम्प्रदाय के बल से सुनिश्चित होता है।
शा--स्वस्थानकेवली के या आजित क्रिया के अभिमुख हए केवली के अवस्थित एक रूप परिणाम के रहते हुए इस स्थान में गुणणिनिक्षेप का इस प्रकार विसदृशपना कैसे हो गया है, इसका क्या कारण है ?
समाधान-यहाँ पर ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि बीतराग परिणामों में भेद का अभाव होने पर भी वे अन्तरंग परिणामविशेष अन्तम हुर्तप्रमारण प्रायु की अपेक्षा सहित होते हैं और । प्रावर्जितकरण रूप भिन्न क्रिया के साधनभाव से प्रवृत्त होते हैं. इसलिये यहाँ पर गुणभेरिणनिक्षेप के विसदृश होने में प्रतिबन्ध का अभाव है ।
इम प्रकार अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल तक प्राजिलकरणविषयक ध्यापार विशेष का !
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१. जयधवल मूल पृ. २२७८ ।
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गाथा ६३-६४.
गुणस्थान५ अनुपालन कर उसके समाप्त होने पर इसके बाद अनन्तर समय में केवलि समुद्घात करता है, यह इस सूत्र का अर्थ के साथ सम्बन्ध है।
शङ्खा-केवलिसमुद्घात किसका नाम है ?
समाधान-कहते हैं, उद्गमन का अर्थ उद्घात है 1 इसका अर्थ है-जोव के प्रदेशों का फैलना । समीचीन उद्घात को समुद्घात कहते हैं। केवलियों के समुद्घात का नाम केवलिसमुद्धात है। प्रघातिकर्मों की स्थिति को समान करने के लिये केवलीजीव के प्रदेशों का समय के अविरोधपूर्वक ऊपर, नीचे और तिरछे फैलना केवलिसमुद्घात है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
यहाँ केवलिसमुद्वात पद में 'केवलि' विशेषरा शेष समस्त समुदघात विशेषों के निराकरण ३ करने के लिए जानना चाहिए, क्योंकि उन समुद्घातों का प्रकृत में अधिकार नहीं है । वह यह केवलिसमुद्घात दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूर के भेद से चार अवस्थारूप जानना चाहिए।'
शङ्का-केबलियों के समुद्घात सहेतुक होता है या निर्हेतुक ? निहें तुक होता है यह दूसरा विकल्प तो बन नहीं सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर तो सभी केवलियों को समुद्घात करने के । अनन्तर हो मोक्ष का प्रसंग पाएगा। यदि यह कहा जावे कि सभी केवली समुद्घात पूर्वक ही : मोक्ष जाते हैं। ऐसा मान लिया जाए तो क्या हानि है ? तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि
ऐसा भागने पर लोकमा समुधाता मारो नाले फेशियों की वर्षपृथक्त्व में २० संख्या ही होती है । यह नियम नहीं बन सकता है । केवलियों के समृद्घात सहेतुक होता है यह प्रथम पक्ष भी नहीं बनता
है, क्योंकि, केवलिसमुदघात का कोई हेतु नहीं पाया जाता है। यदि यह कहा जावे कि तीन अघातिया कर्मों की स्थिति से प्रायुकर्म की स्थिति की असमानता हो समुद्घात का कारण है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि क्षीणकषाय मुरगस्थान की चरम अवस्था में संपूर्ण कर्म समान नहीं होते हैं, इसलिए सभी केवलियों के समुद्घात का प्रसंग पाजाएगा ।
समाधान—यतिवृषभाचार्य के उपदेशानुसार क्षीणकषाय गुणस्थान के चरम समय में संपूर्ण अधातिया कर्मों को स्थिति ममान नहीं होने से सभी केवली समुद्घात करके हो मुक्ति को प्राप्त होते । हैं परंतु जिन प्राचार्यों के मतानुसार लोकपूरण समुद्घात करनेवाले केवलियों की बीस संख्या का नियम है, उनके मतानुसार कितने ही केवली समुद्घात करते हैं और कितने नहीं करते हैं ।
शङ्का-कौन से केवली समुद्रात नहीं करते हैं ?
समाधान—जिनकी संसार-व्यक्ति अर्थात् संसार में रहने का काल वेदनीय आदि नीन कर्मों की स्थिति के समान है वे समुद्धात नहीं करते हैं, शेष केवली समुद्घात करते हैं ।
शङ्का—अनिवृत्ति आदि परिणामों के समान रहने पर संमारव्यक्ति-स्थिति और शेष तीन कर्मों की स्थिति में विषमता क्यों रहती है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, व्यक्तिस्थिति के घात के कारणभूत अनिवृनिरूप परिणामों के
१. जयधयल मूल पृ. २२७८; धवल पु. १ पृ. ३०० सूत्र ६० को टीका। २. धवल पु. १ पृ. ३०१-३०२ ।
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८६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६३-६४ समान रहने पर संसार को उसके अर्थात् तीन कर्मों की स्थिति के समान मान लेने में विरोध प्राता है।
शक्षा-संसार के विच्छेद का क्या कारण है ?
समाधान-द्वादशांग का ज्ञान, उनमें तीव्र भक्ति, केवलिसमुद्घात और अनिवृत्तिरूप परिणाम ये सब संसार के विच्छेद के कारण हैं । परन्तु ये सब कारण समस्त जीवों में संभव नहीं हैं, क्योंकि दश पूर्व और नौ पूर्व के धारी जीवों का भी क्षपकश्रेणी पर चढ़ना देखा जाता है। अतः वहाँ पर संसार-व्यक्ति के समान कर्म स्थिति नहीं पाई जाती है। इस प्रकार अन्तर्मुहर्त में नियम से निपतन स्वभावाले ऐसे पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण या संख्यात पावलीप्रमाण स्थितिकाण्डकों का निपतन करते हुए कितने ही जीव समुद्घात के बिना ही आयु के समान शेष कर्मों को कर लेते हैं। तथा कितने ही जीव समुद्घात के द्वारा शोष कर्मों को प्रायुकर्म के समान करते हैं । परन्तु यह संसार का घात केबली में पहले संभव नहीं है, क्योंकि, पहले स्थितिकाण्डक के घात के समान सभी जीवों के समान परिणाम पाये जाते हैं।
शङ्का-जबकि परिणामों में कोई अतिशय नहीं पाया जाता है अर्थात् सभी केवलियों के परिणाम समान होते हैं तो पीछे भी संसार का पात मत होनो ?
समाधान--नहीं, क्योंकि, वीतरागरूप परिणामों के समान रहने पर भी अन्तर्मुहूर्तप्रमारण पायुकर्म की अपेक्षा से आत्मा के उत्पन्न हुए अन्य विशिष्ट परिणामों से संसार का घात बन जाता है।
शा-अन्य प्राचार्यों के द्वारा नहीं न्याम्यान किये गये इस अर्थ का इस प्रकार व्याख्यान करने वाले प्राचार्य सूत्र के विराद्ध जा रहे हैं. ऐसा क्यों न माना जाय ?
समाधान- .. नहीं, क्योंकि, वर्षपृथक्त्व के अन्तराल का प्रतिपादन करने वाले सूत्र के वशवर्ती प्राचार्यों का हो पूर्वोक्त कथन से विरोध आता है।
शा--छह माह प्रमागा आयुकर्म के शेष रहने पर जिस जीव को केवलज्ञान उत्तान हुआ है वह समुद्घात करके ही मुक्त होता है। शेष जीव समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते हैं । यथा--
धम्मासाउबसेसे उप्पणं जस्स केवलं जाणं ।
स-समुग्यानो सिन्झइ सेसा भज्जा समुग्घाए ॥१६७।। इस गाथा का उपदेश क्यों नहीं ग्रहण किया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, इस प्रकार विकल्प के मानने में कोई कारण नहीं पाया जाता है, इसलिए पूर्वोक्त गाथा का उपदेश नहीं ग्रहण किया है ।
जिन जीवों के नाम, गोत्र और वेदनीयकर्म की स्थिति प्रायुकर्म के समान होती है, वे समुद्घात नहीं करके हो मुक्ति को प्राप्त होते हैं। दूसरे. जीव समुद्घात करके ही मुक्त होते हैं ।।१६।।
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१. घवल पु. १ पृ. ३०३ । २. धवल पु. १ पृ. ३०४ ।
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पाबा ३-६४
गुणस्थान/८७
___ इस प्रकार पूर्वोक्त गाथा में कहे गये अभिप्राय को तो किन्हीं जीवों के समुद्घात होने में और किन्हीं जीवों के समुद्घात के नहीं होने में कारण कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि, संपूर्ण जीवों में समान अनिवृत्तिरूप परिणामों के द्वारा कर्मस्थितियों का बात पाया जाता है, अतः उनका प्रायु के समान होने में विरोध पाता है। दूसरे, क्षीणकपाय गुणस्थान के चरम समय में तीन अघातिया कर्मों का जघन्य स्थितिसत्त्व पल्योपम के संज्यात भाग जीयों के पास जाता है। इसलिये भी पूर्वोक्त अर्थ ठीक प्रतीत नहीं होता है। है शङ्का--पागम तो तर्क का विषय नहीं है, इसलिए इस प्रकार तर्क के बल से पूर्वोक्त गाथाओं
अभिप्राय का खण्डन करना उचित नहीं है ? ___ समाधान-- नहीं, क्योंकि, इन दोनों गाथाओं का प्रागमरूप से निर्णय नहीं हुआ है । अथवा, अदि इन दोनों गाथाओं का आगमरूप से निर्णय हो जाने पर इनका ही ग्रहण रहा पावे । ' सयोगकेवनी भगवान सर्वप्रथम प्रथम समय में दण्डसमुद्घात करते हैं । शङ्का --- बह दगइसमुद्घात क्या लक्षणवाला है ?
समाधान--कहते हैं, अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रायुकर्म के शेष रहने पर केवली जिन समुद्घात करते हुए पूर्वाभिमुख होकर या उत्तराभिमुख होकर कायोत्सर्ग से करते हैं या पल्यंकासन से करते हैं । वहाँ कायोत्सर्ग से दण्डसमुदघात को करने वाले केवली के मूल शरीर की परिधिप्रमाग कुछ कम चौदह राज लम्बे दण्डाकाररूप से जीवप्रदेशों का फैलना दण्डसमुद्घात है । यहाँ कुछ कम का प्रमाण लोक के नीचे और ऊपर लोकपर्यन्त बातबलय से रोका गया क्षेत्र होता है ऐमा यहाँ जानना चाहिए, क्योंकि स्वभाव से हो उस अवस्था में वातवलय के भीतर केवनी जिन के जीवप्रदेशों का प्रवेश नहीं होता। इसी प्रकार पत्यकासन से समुद्घात करने वाले केवनी जिन के दण्डसमुद्घात कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मुल शरीर की परिधि से उस अवस्था में दण्ड समुद्घात की परिधि तिगुगगी हो जानी है। यहां कारग का कथन मुगम है । इस प्रकार की अवस्थांविशेष का नाम दण्डसमुद्घात कहा जाता । है, क्योंकि सार्थक संज्ञा के ज्ञानवश यथोक्तविधि से दण्डाकाररूप से जीव के प्रदेशों का फैलना दण्डसमूदद्यात है परन्तु इस दण्ड-समुद्घात में विद्यमान केवली जिन के औदारिककाय-योग ही होता है, क्योंकि उम अवस्था में शेष योगों का अभाव है। अब इस दण्डस मुदघात में विद्यमान केवली जिन के बारा किये जाने वाले कार्यों के भेदों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं
केयलो जिन दण्डसमुद्यात में (आयु कर्म को छोड़कर) शेष अघातिकर्मों के प्रसंख्यात बहुभाग का हनन करते हैं।'
उस दण्डसमुद्घात में विद्यमान केवली जिन अायुकर्म को छोड़कर तीन अघातिकमों की पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण तत्काल उपलभ्यमान स्थितिमत्कर्म के असंख्यात बहभाग का धात करके असंख्यातवे भागप्रभागा स्थिति को स्थापित करते हैं, यह उक्त वाथन का तात्पर्य है।
१. जयघबल मल पृ. २२७८४६ । 1 २. यह कषायपाहून मूत्र का एक सूय है जिसकी मागे जयधवला टोका भी लिखी गई है। इसी तरह गाथा ६४
की शेष सम्पूर्ण टीका कपायपाहुड और उसकी जयधवला टीका ज्यों की त्यों अनूदित करते हुए ही लिखी गई है।
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८ / गो. सा. जीवा
गाथा ६३-६४
াङ्कা- -- इस प्रकार एक समय द्वारा ही इस प्रकार का स्थितिघात कैसे हो गया ? समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्यों केबलिसमुद्घात की प्रधानता से उसकी उपपत्ति होने में कोई बाधा उपलब्ध नहीं होती ।
अब यहीं पर अनुभाग घात का माहात्म्य दिखलाने के लिए इस सूत्र को कहते हैं
तथा शेष अनुभागसम्बन्धी प्रशस्त अनुभागों के अनन्त बहुभागों का घात करते हैं ।
उक्त क्षपक क्षीणकषाय गुणस्थान के द्विचरम समय में घात करके जो अनुभाग शेष रहा उसके अनन्त बहुभाग का घात कर अनन्तवें भाग में अप्रशस्त प्रकृतियों के अनुभाग सत्कर्म को स्थापित करता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । प्रशस्त प्रकृतियों का यहाँ पर स्थितिघात हो होता है, अनुभागघात नहीं होता ऐसा ग्रहण करना चाहिए । गुणश्रेणिनिर्जरा का जिस प्रकार आवजितकरण में प्ररूपण किया है उसी प्रकार यहाँ पर भी प्ररूपण करना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार केवली जिन दण्डसमुद्घात करके उसके बाद श्रनन्तर समय समुद्घात से परिणमन करने वाले के स्वरूपविशेष का निर्धारण करने के लिए उत्तर सूत्र का अवतार होता है
कपाट
उसके बाद दूसरे समय में केवली जिन कपाटसमुद्घात करते हैं।
जो कपाट के समान हो वह कपाट है ।
शङ्का – उपमार्थ क्या है ?
समाधान - जैसे कपाट मोटाई की अपेक्षा अल्प ही होकर चौड़ाई और लम्बाई की अपेक्षा चढ़ता है उसी प्रकार यह भी मूल शरीर के बाहुल्य की अपेक्षा अथवा उसके तिगुणे बाहल्य की अपेक्षा जीवप्रदेशों के प्रवस्थाविशेषरूप होकर कुछ कम चौदह राजुप्रमाण यायाम की अपेक्षा तथा सात राजुप्रमाण विस्तार की अपेक्षा वृद्धि हानिगत विस्तार की अपेक्षा वृद्धि को प्राप्त होकर स्थित रहता है वह कपाटसमुद्घान कहा जाता है, क्योंकि इस समुद्घात में स्पष्टरूप से ही कपाट का संस्थान उपलब्ध होता है |
इस समुद्घात में पूर्वाभिमुख और उत्तराभिमुख केवलियों के कपाट क्षेत्र के विष्कम्भ के भेद का अवधारण कर पूर्वाभिमुख और उत्तराभिमुखकेवलियों का अच्छी तरह ज्ञान हो जाता है । परन्तु इस अवस्थाविशेष में विद्यमान केवली के श्रदारिक मिश्र काययोग होता है, क्योंकि उनके कारण और श्रदारिक इन दो शरीरों के अवलम्बन से जीवप्रदेशों के परिस्पन्दरूप पर्याय की उपलब्धि होती है। अब इस अवस्थाविशेष में विद्यमान जीव के द्वारा किये जाने वाले कार्यभेद को दिखलाने के लिए आगे के सूत्र का प्रारम्भ करते हैं
कपाट समुद्घात के काल में शेष रही स्थिति के असंख्यात बहुभाग का हनन करता है । प्रशस्त प्रकृतियों के शेष रहे अनुभाग के अनन्तबहुभाग का हनन करता है ।'
१. जयधवल मूल पृ. २२७६ ।
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मामा ६६.६४
गुणस्थान/८६ सुगम होने से यहाँ पर उक्त दोनों मूत्रों में कुछ व्याख्यान करने योग्य नहीं है । यहाँ पर भी 1 गुणश्रेरिण-प्ररूपणा प्रावजितकर। के समान है । इस प्रकार वलिसमुद्घात की तीसरी अवस्थाविशेष में विद्यमान केवली के स्वरूप का प्ररूपण करने के लिये आगे के सूत्रप्रबन्ध को कहते हैं
तत्पश्चात् तीसरे समय में मन्थ नाम के समुदघात को करता है।
जिसके द्वारा कर्म मथा जाता है उसे मन्य कहते हैं । अघातिकर्मों के स्थिति और अनुभाग के निर्मथन के लिये केवलियों के जीवप्रदेशों की जो अवस्था विशेष होती है, प्रतर संज्ञावाला बह मन्थ समुद्धात है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इस अवस्था विशेष में विद्यमान केवली के जीवप्रदेश चारों ही पार्श्वभागों से प्रतराकाररूप से फैलकर सर्वत्र वातवलय के अतिरिक्त पूरे लोकाकाश के प्रदेशों को भरकर अवस्थित रहते हैं, ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि उस अवस्था में केवली के जीवप्रदेशों का स्वभाव से ही वातवलय के भीतर संचार नहीं होता। इसी को प्रतरसंज्ञा और रुचक संज्ञा पागम में कड़ि के बल से जाननी चाहिये । परन्तु इस अवस्था में केवली जिन कार्माकाययोगी और अनाहारक हो जाता है, क्योंकि उस अवस्था में मूल शरीर के आलम्बन से उत्पन्न हुए जीवप्रदेशों का परिस्पन्द सम्भव नहीं है तथा उस अवस्था में शरीर के योग्य नोकर्म पुद्गलपिण्ड का ग्रहण नहीं होता । तब इसी अवस्था में स्थिति और अनुभाग का पहले के समान घात करता है, इस बात का कथन करने के लिये उत्तरसूत्र अवतीर्ण हुअा है
स्थिति और अनुभाग की उसी प्रकार निर्जरा करता है।'
स्थिति के असंख्यातबहुभाग का और अप्रशस्त प्रकृतियों के अनन्त बहुभाग का पहले के समान बात करता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । यहाँ पर प्रदेशज की भी उसी प्रकार निर्जरा करता है, यह याक्य शेष करना चाहिए, क्योंकि प्रावजितकरण से लेकर स्वस्थान केवली की गुणगिनिर्जरा से प्रसंख्यातगुणी गुणवेशिनिर्जरा की अवस्थित निक्षेपरूप पायाम के साथ प्रवृत्ति की सिद्धि में बाधा नहीं उपलब्ध होती । इस प्रकार यह केवलिस मुम्घात के भेद का कथन किया। अब चौथे समय में लोकपूरणसंजक समुद्घात को अपने सम्पूर्ण प्रदेशों द्वारा समस्त लोक को पूरा करके प्रवृत्त करता है, इसका ज्ञान कराने के लिये आगे के सूत्र का प्रारम्भ करते हैं
तत्पश्चात् चौथे समय में लोक को पूरा करता है।
बातवलय से रुके हुए लोकाकाश के प्रदेशों में भी जीव के प्रदेशों के चारों ओर से निरन्तर प्रविष्ट होने पर लोकपूरण संज्ञक चौधे केवलिसमुद्घात को यह केवली जिन उस अवस्था में प्राप्त होते हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। यहाँ पर भी कार्मणकाययोग के साथ यह अनाहारक ही होता है, क्योंकि उस अवस्था में शरीर की रचना के लिये प्रौदारिक शरीर नोकर्मप्रदेशों के आगमन का निरोध देखा जाता है । इस प्रकार लोक को पूरा करके चौथो अवस्था में कार्मणकाययोग के साथ विद्यमान केवली जिन के उस अवस्था में समस्त जोत्र प्रदेणों के समान योग का प्रतिपादन करने के लिये आगे के सूत्र का प्रारम्भ करते है__ लोकपूरण समुद्घात में योग को एक वर्गणा होती है, इसलिए यहाँ समयोग ऐसा जानना
१ जयधवल मूग पू. २२८८ ।
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६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६३-६४
लोकपूरगा समुद्घात में विद्यमान इस केवली जिन के लोकप्रमाण समस्त जीवप्रदेशों में योगसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद वृद्धि-हानि के बिना सदृश ही होकर परिणमते हैं, इसलिए सभी जीवप्रदेश परस्पर सदश धनरूप से परिणत होकर एक वर्गणारूप हो जाते हैं । इसलिए यह केवली उस अवस्था में समयोग जानना चाहिए, क्योंकि समस्त जीवप्रदेशों में योगणक्ति के सदशपने को छोड कर बिसदृशपना नहीं उपलब्ध होता, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । और यह समयोगरूप परिणाम सूक्ष्म निगोदजीव की (योगसम्बन्धी) जघन्य वर्गरणा से असंख्यात गुणा तत्प्रायोग्य मध्यम वर्गणा रूप से होता है ऐसा निश्चय करना चाहिए । अपूर्व स्पर्धककी विधि से पहले की अवस्था में सर्वत्र अनुभागों के असंख्यात और अनन्तबहुभागों का घात करता है, क्योंकि उसके घात के लिए ही समुद्घात क्रिया का व्यापार होता है, यह उवत कथन का तात्पर्य है । इस प्रकार इस लोकपूरण समुद्घात में विद्यमान केवली जिन द्वारा स्थिति के असंख्यात भागों के घातित होने पर घाल होने से शेष रहा स्थितिसत्कर्म बहुत अल्परूप से स्थित होकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयाम वाला होकर स्थित रहता है, इस बात का ज्ञान वाराने के लिये आगे के सूत्र का अवतार करते हैं--
लोकपूरण समुद्यात में कमों की स्थिति को अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थापित करता है ।
यह सूत्र मुगम है । अब क्या यह अन्तमुहूर्तप्रमाण स्थिति आयुकर्म की स्थिति के समान है । या संख्यातगुणी है या अन्य प्रकार की है : इस आशंका के होने पर निःशंक करने के लिये इस सूत्र को कहते है -
शेष अघातिकर्मों को स्थिति प्रायुकर्म की स्थिति से संख्यातगणी है।
इस रामय भी पायुकर्म की स्थिति के समान इन अघातिकर्मों का स्थितिमत्कर्म नहीं होता है, किन्तु उससे संख्यातगुणा ही होता है, ऐसा निश्चय करना चाहिए । यहाँ इस विषय में दो उपदेश पाये जाते हैं, ऐगा कितने ही प्राचार्य कहते हैं ।
शङ्का-वह कैसे?
समाधान-महावाचक आर्यमा थमा के उपदेश के अनुसार लोकपुररण समुद्घात के होने पर प्रायुकर्म की स्थिति के समान नाम, गोत्र और बेदनीयकर्म का स्थिति सत्कर्म स्थापित करता है। महावाचक नागहस्ति श्रमण के उपदेश के अनुसार लोकपूरण समुद्घात होने पर नाम, गोत्र और वेदनीयकर्म का स्थितिसत्कर्म अन्तर्मुहुर्त प्रमाग होता है । इतना होता हुआ भी प्रायुक्रर्म की स्थिति से संख्यासगुणा स्थापित करता है। परन्तु यह व्याख्यान-सम्प्रदायरिंग के विरुद्ध है, क्योंकि चरिणसूत्र में स्पष्टरूप से ही आयुकर्म की स्थिति से शेष अघातिकर्मों की स्थिति संख्यातगुणी निर्दिष्ट की है। इसलिए प्रवाहमान उपदेश यही प्रधान रूप से अवलम्बन करने योग्य है, अन्यथा सूत्र के प्रतिनियत होने में आपत्ति आती है । इस प्रकार इन दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूर समृद्घातों के स्वरूपविशेष का और वहाँ किये जाने वाले कार्यभदों का निरूपण करके अब इसी अर्थ को उपसंहार रूप से स्पष्ट करते हुए पागे के दो सूत्र कहते है
__केवलिसमुद्घात के इन चार समयों में अप्रशस्त कर्मप्रदेशों के अनुभाग को अनुसमय अपवर्तना होती है ।
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गाथा ६३-६४
गुगास्थान/११
क्योंकि इन चार समुद्घात के समयों में अप्रशस्त कर्मों का प्रतिसमय अपवर्तनाघात अनन्तर कहे गए अनुभागघात के वश से स्पष्टरूप से उपलब्ध होता है।
तथा एक समय वाला स्थितिकाण्डकघात होता है ।
चारों ही समयों में प्रवृत्तमान स्थितियात एक समय के द्वारा हो सम्पन्न हो जाता है, यह अनन्तर ही कह पाये हैं। इसलिए आवजितकरण के अनन्तर इस प्रकार के केवलिसमुद्घात को करके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की अन्तर्मुहूर्त प्रआयामरूप से स्थिति को शेष रखता है। इस प्रकार यह अतिक्रान्त समस्त मुत्रपबन्ध का समुदाय रूप अर्थ है। अब लोकपुरण क्रिया के समाप्त होने पर समुदघातपर्याय का उपसंहार करने वाला केवलो जिन क्या अक्रम से उपसंहार करके स्वस्थान में निपतित होता है या उतरने वाले का कोई क्रमनियम है; ऐसी आशंका के निराकरण के लिए उतरने वाले का सूत्र से सूत्रित होने वाला किंचित् प्ररूपण करगे - १
यथा-लोकपूर-समुद्घात का उपसंहार करता हृया फिर भी मन्थ-समुद्घात को करता है, क्योंकि मन्थरूप परिणाम के बिना केवलिसमद घात का उपसंहार नहीं बन सकता । तथा लोकपरणसमुद्घात का उपसंहार करने के अनन्तर ही समयोग परिणाम को नाश करके सभी पूर्वस्पर्धक समय के अविरोधपूर्वक उद्घाटित हो जाते हैं ऐसा जानना चाहिए । पुनः मन्थसमुद्घात का उपसंहार करता हुआ कपाट-समुद्घात को प्राप्त होता है, क्योंकि कपाट परिणाम के बिना उसका उपसंहार करना नहीं बन सकता । तत्पश्चात् अनन्तर समय में दण्डसमुद्घातरूप से परिणमकर कपाटसमुद्घात का उपसंहार करता है, क्योंकि दण्डसमुद्घात का उसके अनन्तर ही होने का नियम देखा जाता है। उसके बाद तदनन्तर समय में स्वस्थानरूप केवलीपने से दण्डसमुवात का उपसंहार करता है। उस समय न्यूनता और अतिरिक्तता से रहित मूल शरीर के प्रमाण से केवली भगवान् के जीवप्रदेशों के अवस्थान का नियम देखा जाता है। इस प्रकार केवलिसमुद्घात से उतरने वाले केवली जिन के ये तीन समय होते हैं, क्योंकि चौथे समय में स्वस्थान में अन्तर्भाव देखा जाता है। अथवा चौथे समय के साथ केवलिसमुद्घात से उतरने वाले केवली के चार समय लगते हैं, ऐसा किन्हीं प्राचार्यों के व्याख्यान का क्रम है। उनका अभिप्राय है कि जिस समय में स्वस्थान केबलिपने में (यानी मूल शरीर में) ठहरकर दण्डसमुद्घात का उपसंहार करता है वह भी समुद्घात में अन्तर्भूत ही करना चाहिए । समुद्घात में उतरने वाले प्रतरगत केवली जिन के पहले के समान कार्मरणकाययोग होता है । कपाट समुद्घातको प्राप्त केवली के औदारिक-मिथकाययोग होता है, तथा दण्डसमुदवात को प्राप्त केवली के औदारिक काययोग होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । यहाँ पर उपयुक्त पड़ने वाली प्रार्या गाथाएँ हैं..
केबली जिन के प्रथम समय में दण्डसमुद्घात होता है, उत्तर प्रर्थात् दूसरे समय में कपाटसमुद्घात होता है, तृतीय समय में मन्थान समुद्घात होता है और चौथे समय में लोकव्यापी-समुद्घात होता है ।।१।।
पाँचवें समय में लोकपुरण-समृदयात का उपसंहार करता है, पुनः छठे समय में मत्थानसमुद्घात का उपसंहार करता है, सातवें समय में कपाट समुद्घात का उपसंहार करता है और आठवें
१. जयधवन मूल पृ. १२८१-८२ ।
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९२ / गो. सा. जीवकाण्ड
समय में दण्डसमुद्घात का उपसंहार करता है ॥२॥१
गाथा ६३-६४६
इसके बाद केवलसमुद्धात प्ररूपणा समाप्त होती है।
अब उतरने वाले केवली जिन के प्रथम समय से लेकर स्थितिघात और अनुभागघात की प्रवृत्ति कैसी होती है ? ऐसी आशंका होने पर निःशंक करने के लिये आगे का सूत्र कहते हैंफेलिसा से उसी के प्रथम से लेकर शेष रही स्थिति के संख्यात बहुभाष का हनन करता है ।
एत्तो अर्थात् उतरने वाले के प्रथम समय से लेकर शेष रही अन्तर्मुहूर्त प्रसारण स्थिति के संख्यात बहुभाग को काण्डक रूप से ग्रहण कर स्थितिघात करता है, क्योंकि वहाँ अन्य प्रकार सम्भव नहीं है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
तथा वहाँ शेष रहे अनुभाग के प्रनन्त बहुभाग का हनन करता है ।
पहले घात करने से शेष बचे अनुभाग सत्कर्म के अनन्त बहुभाग का काण्डक रूप कर अनुभागधात यह जीव करता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
ग्रहण
इसके श्रागे स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डक का उत्कीरणकाल श्रन्तर्मुहूर्तप्रमाण
होता है।
लोकपुरसमुद्घात के सम्पन्न होने के अनन्तर समय से लेकर प्रत्येक समय में स्थितिघात श्रीर अनुभागधात नहीं होता । किन्तु स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात का काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रवृत्त होता है । इस प्रकार यह यहाँ सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । इस प्रकार इतनी विधि से केवलसमुद्घात का उपसंहार करके स्वस्थान में विद्यमान केवली जिन के संख्यात हजार स्थितिकाण्ड और अनुभागकाण्ड के समय के अविरोधपूर्वक हो जाने पर तदनन्तर योगनिरोध करता हुआ इन दूसरी क्रियाओं को रचता है, इसका ज्ञान कराने के लिये आगे के सूत्र प्रबन्ध को प्रारम्भ करते हैं --
१. जयधवल मूल प्र. २२८२ । २. जयधवल मूल पृ. २२८२-८३ ।
श्रागे अन्तर्मुहूर्त जाकर बादर-काययोग के द्वारा बादर- मनोयोग का निरोध करता है ।
मन, बचन और काय की चेष्टा प्रवृत्त करने के लिये कर्म के ग्रहण के निमित्त शक्तिरूप जो जीव का प्रदेशपरिस्पन्द होता हैं वह योग कहा जाता है । परन्तु वह तीन प्रकार का है-मनोयोग, वचनयोग और काययोग। इसका अर्थ सुगम है, उनमें से एक-एक अर्थात् प्रत्येक दो प्रकार का हैबादर और सूक्ष्म | योगनिरोध क्रिया के सम्पन्न होने से पहले सर्वत्र वादरयोग होता है। इससे आगे सूक्ष्मयोग से परिणमन कर योगनिरोध करता है, क्योंकि बादरयोग से ही प्रवृत्त हुए केबली जिन के योग का निरोध करना नहीं बन सकता है । उसमें सर्वप्रथम यह केवली जिन योगनिरोध के लिये चेष्टा करता हुआ बादरकाययोग के अवलम्बन के बल से बादर मनोयोग का निरोध करता है,
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गाथा ६३-६४
गुणस्थान /६३
क्योंकि बादर काययोगरूप से व्यापार ( प्रवृत्ति) करता हुआ ही यह केवली जिन बादर मनोयोग की शक्ति का निरोध करके सूक्ष्म रूप से संज्ञी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त के सबसे जघन्य मनोयोग से घटते हुए श्रसंख्यात गुणहीन रूप से उसे स्थापित करता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तप्रमारण काल तक बादर काययोग के रूप से विद्यमान केवली जिन बादर मनोयोग की शक्ति का निरोध करके तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल के द्वारा उसी वादर काययोग का अवलम्बन करके बादर वचनयोग की शक्ति का भी निरोध करता है, ऐसा प्रतिपादन करते हुए आगे के सूत्र को कहते हैं
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल से बादरकाययोग द्वारा बादरवचनयोग का निरोध करता है ।
यहाँ पर बादर बचनयोग ऐसा कहने पर द्वीन्द्रिय पर्याप्त के सब से जघन्य वचनयोग श्रादि परम योगशक्ति का ग्रहण करना चाहिए । उसका निरोध करके उसे द्वीन्द्रिय पर्याप्त के जघन्य वचनयोग से नीचे असंख्यात गुरणहीन रूप से स्थापित करता है इस प्रकार यह इस सूत्र का
भावार्थ है ।
उसके बाद श्रन्तर्मुहूर्त काल से बादर काययोग द्वारा बादर उच्छ्वास- निःश्वास का निरोध करता है ।
यहाँ पर भी वादर उच्छवास निःश्वास ऐसा कहने पर सूक्ष्म निगोद निर्वृत्तिपर्याप्त जीव के पानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए सब से जघन्य उच्छ्वास - निःश्वासशक्ति से श्रसंख्यातगुणी संजीपञ्चेन्द्रिय के योग्य उच्छ्वास- निःश्वास रूप परिस्पन्द का ग्रहण करना चाहिए । उसका निरोधकर उसे सबसे जघन्य सूक्ष्मनिगोद की उच्छ्वास निःश्वास शक्ति से नीचे असंख्यातगुणी होन सूक्ष्मभाव से स्थापित करता है, इस प्रकार यह यहाँ सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । '
शङ्का सूत्र में निर्दिष्ट नहीं किया गया इस प्रकार का विशेष कैसे जाना जाता है ?
समाधान इस प्रकार की आशंका यहाँ नहीं करनी चाहिए, क्योंकि व्याख्यान से उस प्रकार के विशेष का ज्ञान होता है ।
उसके बाद प्रन्तर्मुहूर्तकाल से बादर काययोग के द्वारा उसी बादर काययोग का निरोध करता है ।
यहाँ पर भी बाबर काययोग से व्यापार करता हुआ ही अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा उसी बादरकाययोग को सूक्ष्म भेद में स्थापित कर निरोध करता है; यह सूत्र का अर्थ के साथ सम्बन्ध है, क्योंकि सूक्ष्म निगोद के जघन्य योग से भी असंख्यातगुणी हीन शाचित रूप से परिणमकर सुक्ष्म रूप से उसकी इस स्थान में प्रवृत्ति का नियम देखा जाता है । यहाँ पर उपयोगी दो श्लोक हैं
जो श्री पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव जधन्य योग से युक्त होता है उससे भी प्रसंख्यातगुणे हीन मनोयोग का केवली जिन निरोध करता है || १ ||
१. जयघवल मूल पृ. २२८३ ।
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६४ / गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा ६३-४६
न्द्रिय जीव और साधारण क्रम से वचनयोग और उच्छ्वास को जिस प्रकार धारण करते हैं उनके समान उनसे भी कम दोनों योगों को केवली भगवान् जीतते हैं ? जघन्य पर्याप्तक जिस प्रकार काययोग को धारण करते हैं उससे भी कम काययोग को केवली भगवान् जीतते हैं ||२||
इस प्रकार यथाक्रम बादर मनोयोग, बादर वचनयोग, बादर उच्छ्वास - निःश्वास और बादर काययोग की शक्तियों का निरोध करके इन योगों की सूक्ष्मपरिस्पन्दरूप शक्तियों को अव्यक्तरूप से शेष करके पुनः सूक्ष्म काययोग के व्यापार द्वारा सूक्ष्म शक्तियों को भी उनकी इस परिपाटी के अनुसार निरोध करते हैं, इस बात का ज्ञान कराने के लिये आगे के सूत्रप्रबन्ध को कहते हैं---
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म काययोग के द्वारा सूक्ष्म मनोयोग का निरोध करता है।
यहाँ पर सूक्ष्मयोग ऐसा कहने पर संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त के सबसे जघन्य मनोयोग परिणाम से असंख्यातगुरगाहोन अवक्तव्यस्वरूप द्रव्य मननिमित्तक जीवप्रदेश परिस्पन्द का ग्रहण करना चाहिए | उसका निरोध करता है-नाश करता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल से सूक्ष्म काययोग के द्वारा सूक्ष्म वचनयोग का निरोध करता है । यहाँ पर भी सूक्ष्म बचनयोग ऐसा कहने पर द्वीन्द्रिय पर्याप्तक के सबसे जघन्य वचन योगशक्ति होनरूप भक्ति करनी चाहिए। अन्य शेष कथन सुगम है ।
से नीचे
Ta
उसके बाद श्रन्तमुहूर्तकाल से सूक्ष्मकाययोग के द्वारा सूक्ष्म उच्छ्वास का निरोध करता है ।'
यहाँ भी उच्छ्वास शक्ति का सूक्ष्मपना सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक जीव के सब से जघन्य होता है । उसरूप परिणाम से नीचे इस सयोगिकेवली की उच्छ्वासशक्ति असंख्यातगुणो हीन रूप से जाननी चाहिए | इस प्रकार यह योगनिरोध करने वाला केवली जिन सूक्ष्म काययोग के द्वारा परिस्पन्दात्मक क्रिया करते हुए मन, वचन और उच्छ्वास निःश्वास की सूक्ष्म शक्तियों का भी यथोक्तक्रम से निरोध करके पुनः सूक्ष्मकाययोग का भी निरोध करते हुए योगनिरोधनिमित्तक इन करणों को करता है, इस बात का ज्ञान कराने के लिये गला सूत्रप्रबन्ध याया है
उसके बाद अन्तर्मुहूर्तकाल जाकर सूक्ष्म काययोग के द्वारा सूक्ष्म काययोग का निरोध करता हुआ इन करणों को करता है ।
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल जाकर सूक्ष्म काययोग के बल से उसी सूक्ष्म काययोग का निरोध करता हुआ वहाँ सर्व प्रथम अनन्तर कहे जाने वाले इन कारणों को प्रबुद्धिपूर्वक हो प्रवृत्त करता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । परन्तु वे करा कौन हैं ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
प्रथम समय में पूर्व स्पर्धकों को नीचे करके अपूर्व स्पर्धकों को करता है ।
पूर्व स्पर्धकों से नीचे इससे पूर्व अवस्था में सूक्ष्म काययोग की परिस्पन्दरूप शक्ति को सूक्ष्म निगोद के जघन्य योग से प्रसंख्यातगुणी हानि रूप से परिणामाकर पूर्व स्पर्धकस्वरूप ही होकर प्रवृत्त
१. जयथबल मूल पृ. २२८४ ।
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माथा ६३-६४
गुगाम्यान /६५
होतो हुई इस समय उमसे भी अच्छी तरह अपवर्तना करके अपूर्व स्पर्धकरूप से परिणमाता है ।
इस क्रिया की अपूर्व-स्पर्धककरण संज्ञा है । अब इस करग की प्ररूपा करने के लिये यहाँ पर सर्व। प्रथम पूर्व स्पर्धकों की जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमारण रचना करनी चाहिए। ऐसा करने पर
सूक्ष्म निगोद जीव के जघन्य स्थान से सम्बन्ध रखने वाले स्पर्धकों से ये स्पर्धक असंस्थानगुगणे हीन होकर अवस्थित हैं, अन्यथा उससे (सूक्ष्मनिगोदजीव के जघन्य स्थान सम्बन्धी स्पर्धकों से) इसका (सयोगिकेवली के पूर्व-स्पर्धकों का) सुक्ष्मपना नहीं बन सकता। इस प्रकार स्थापित इन पूर्वस्पर्धकों के नीचे असंख्यातगुणहानिरूप अपकषित कर अपूर्व स्पधंकों की रचना करते हुए योग निरोध करने बाले इस सयोगिकेवली जिन के प्ररूपणाप्रबन्ध को अगले सूत्र के अनुसार बतलाबगे--
[योगनिरोध करने वाला यह सयोगिकेवली जीव] पूर्व स्पर्धकों की प्रादि वर्गणा के अविभागप्रतिस्छेदों के प्रसंस्थातवें भाग का अपकर्षण करता है ।
पूर्वस्पर्धकों से जीव-प्रदेशों का अपकर्षगा करके अपूर्व स्पर्धकों की रचना करता हुअा पूर्व स्पर्धकों की आदिवर्गणा के अविभागप्रतिच्छेदों का असंख्यातवें भाग रूप से अपकर्षण करता है। इस प्रकार इस सूत्र का अर्थ के साथ सम्बन्ध है। पूर्वस्पर्धकों की प्रादिवर्गणा के अविभागप्रतिच्छेदों से असंख्यातगुणे होन अविभागप्रतिच्छेदरूप से जो वप्रदेशों का अपकर्षगा करके अपूर्व स्पर्धकों की रचना करता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है, क्योंकि अपूर्व स्पर्धकों की अन्तिम वर्गणा के अविभागप्रतिच्छेदों में पूर्वस्पर्धकों की प्रादिवर्गणा से असंख्यात गुगाहानि का नियम देखा जाता है। यहाँ पर प्रसंख्यात गुगाहानि का भागहार पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है
और वह जोव जीवप्रदेशों के प्रसंख्यातवें भाग का अपकर्षण करता है।
पूर्वस्पर्धक की राब वर्गगणानों से, जीबप्रदेशों के असंख्यातवें भाग का अपकर्षण भागहाररूप प्रतिभाग से, अपकर्षगा करके पूर्वोक्त अविभागप्रतिच्छेदशक्तिरूप से परिणमा कर उन अपूर्व स्पर्धकों की रचना करता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। और इस प्रकार अपकर्षित किये गये जीवप्रदेशों का अपूर्वस्पर्धकों में निषेक-विन्यास का क्रम कहते हैं। यथा-प्रथम समय में जीवप्रदेशों के असंख्यातवें भाग का अपकर्षण करके अपूर्वस्पर्धकों की आदिवर्गरणा में जीवप्रदेशों के बहुभाग का मिचम करता है. क्योंकि सबसे जघन्य शक्ति में परिणामन करने वाले जीवप्रदेशों के बहुत सम्भव होने में विरोध का प्रभाव है । दूसरी वर्गगा में विशेषहीन जीवप्रदेशों को जगश्रेणी के असंख्यातवें भागरूप प्रतिभाग के अनुसार सिंचित करता है। इस प्रकार सिंचित करता हुया अपूर्वस्पर्धकों को अन्तिम वर्गगा के प्राप्त होने तक जाता है। पुनः अपूर्वस्पर्धक की अन्तिम वर्गरणा से पूर्वस्पर्धकों की प्रादिवर्गणा में असंख्यातगुणहीन जीवप्रदेशों को सिंचित करता है । यहाँ पर हानि का गुणकार पस्योपम के असंख्यातबै भागप्रमाण होता हुआ भी साधिक अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारप्रमाण होता है, ऐसा जानना चाहिये। इसके कारण की गवेषणा सुगम है। उससे आगे समय के अबिरोधपूर्वक विशेष हानिरूप जीवप्रदेशों के विन्यासक्रम को जानना चाहिए। इस प्रकार यह प्ररूपा अपूर्वस्पर्धकों को करने वाले के प्रथम समय में होती है। इसी प्रकार द्वितीय प्रादि समयों में भी अन्तर्मुहुर्त काल तक अपूर्वस्पर्धकों को समय के अविरोधपूर्वक रचना करता है । इस प्रकार इस अर्थ को स्पष्ट करते हुए पागे के सूत्र को कहते हैं
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१६ गो.मा. जीवकाण्ड
गाथा ६३-६४
इस प्रकार अन्तमुहूर्त काल तक अपूर्व स्पर्धकों को करता है।'
यह सूत्र सुगम है। परन्तु उन स्पर्धकों को प्रत्येक समय में असंख्यातगुणहीनक्रम से रचता है। इस बात का ज्ञान कराने के लिये इस सूत्र को कहते हैं----
__उन अपूर्व स्पर्धकों को प्रसंख्यातगुरगहीनश्रेणी रूप से और जीवप्रदेशों की संख्यातगुणीश्रेणी रूप से रचना करता है।
इस सूत्र का भावार्थ--प्रथम समय में रचे गये अपूर्व स्पर्धकों से असंख्यातगुणहीन अपूर्वस्पर्धक दूसरे समय में उनसे नीचे रचता है । पुन: दूसरे समय में रचे गये अपूर्व स्पर्धकों से असंख्यातगुणे हीन अन्य अपूर्व स्पर्धकों को उनसे नीचे तीसरे समय में रचता है । इस प्रकार प्रसंख्यात मुरगहीन श्रेणी रूप से अन्तर्मुहुर्तकाल के अन्तिम समय तक जानना चाहिए । परन्तु जीवप्रदेशों की असंख्यातगुरगी श्रेणिरूप से अपकर्षणापत होती है, न पचम भाग में अपना पिद जिगे गये प्रदेशों से दूसरे समय में अपकर्षित किये जाने वाले प्रदेशों की असंख्यातगुरण प्रमाण से प्रवृत्ति देखी जाती है। इसी प्रकार तीसरे आदि समयों में भी असंख्यातगुणी श्रेणिरूप से जीवप्रदेशों की अपकर्षणा जाननी चाहिए।
अब द्वितीयादि समयों में भी अपकर्षित किये गये जीवप्रदेशों की निषकसम्बन्धी श्रेणिप्ररूपणा इस प्रकार जाननी चाहिए । यथा--प्रथम समय में अपकषित किये गये जीवप्रदेशों से असंख्यातगुणे जीवप्रदेशों को इस समय अपकर्षित करके दूसरे समय में रचे जाने वाले अपूर्व स्पर्धकों की प्रादि वर्गणा में बहुत जीवप्रदेश्यों को रचता है। उसके प्रागे अपूर्व स्पर्धकों की अन्तिम वर्गरणा के प्राप्त होने तक विशेषहीन-विशेषहीन रचता है। पूनः प्रथम समय में रचे गये अपूर्व स्पर्धकों में जो जघन्य स्पर्धक है उसकी प्रादिवर्गणा में असंख्यातगुणहीन जीवप्रदेशों को निक्षिप्त करता है। उससे प्रागे सर्वत्र विषहीन जीवप्रदेश निक्षिप्त करता है। इसी प्रकार तृतीयादि समयों में भी अपकर्षित किये जाने वाले जीवप्रदेशों की यही निषेकप्ररूपणा इसी रूप से जाननी चाहिए । अब इस सब काल के द्वारा रचे गये अपूर्व स्पर्धकों का प्रमाण इतना होता है, इस बात का कथन करते हुए आगे के सूत्र को कहते हैं .
ये सब अपूर्व स्पर्धक जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । यह सूत्र सुगम है। वे सब अपूर्व स्पर्धक जगश्रेणी के वर्गमूल के भी असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । शङ्का-इसका क्या कारण है ?
समाधान—क्योंकि इनसे असंख्यातगुग्गे पूर्वस्पर्धकों के भी जगश्रेणी के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भागप्रमाणपने का निर्णय होता है । अब ये अपूर्व स्पर्धक पूर्व स्पर्धकों के भी असंख्यातवें भागप्रमागा हैं इस बात का ज्ञान कराने वाले प्रागे के सूत्र को कहते हैं
१. जयघवल मूल पृ. २२८५।
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माथा ६३.६४
गुगास्थान/७
ये सम्पूर्ण अपूर्वस्पर्धक पूर्वस्पर्धकों के भी असंख्याता भाग प्रमाण हैं।
यह सूत्र गतार्थ है। इतनी विशेषता है कि पूर्वस्पर्धकों में पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण गुणहानियाँ सम्भव हैं। उनमें एक गुणहानिस्थान में जितने स्पर्धक हैं उनसे भी ये अपूर्वस्पर्धक
असंख्यातगुणहीन प्रमाण जानने चाहिये ।। पारी :
शङ्का-सूत्र में एसा कथन तो नहीं किया गया है । इसके बिना यह कैरो जाना जाता है ?
समाधान-यह आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सूत्र के अविरुद्ध परम गुरु के सम्प्रदाय के अल से उस प्रकार से अर्थ की सिद्धि में विरोध का अभाव है और व्याख्यान से विशेष का ज्ञान होता है, ऐसा न्याय है ।
___ इस प्रकार इस प्ररूपणा के अनुसार अन्तर्मुहूर्नप्रमाण काल तक अपूर्व स्पर्धकों को करने के । काल का पालन करने वाले जीव के उस काल के अन्तिम समय में अपूर्व स्पर्धकक्रिया समाप्त होती
है। इतनी विशेषता है कि अपूर्व स्पर्धकों की क्रिया के समाप्त होने पर भी पूर्वस्पर्धक सबके सब उसी प्रकार अगस्थित रहते हैं, क्योंकि उनका अभी भी विनाश नहीं हुआ है । यहाँ सर्वत्र स्थितिकाण्डक
और अनुभागकाण्डकों का तथा गुरणश्रेणीनिर्जरा का कथन पहले कहे गये क्रम से ही जानना चाहिए, .बयोंकि सयोगिकेवली के अन्तिम समय तक उन तीनों की प्रवृत्ति होने में प्रतिबन्ध का प्रभाव है । इसके बाद अपूर्व स्पर्धककरणविधि समाप्त हुई। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक अपूर्व स्पर्धककरण के काल का पालन कर उसके बाद अन्तर्मुहर्त काल तक पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धकों का अपकर्षण करके योगसम्बन्धी कृष्टियों की रचना करने वाले सयोगिकेवली जिन के आगे के प्ररूपणाप्रबन्ध के अनुसार बतलावेंगे
इसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक कृष्टियों को करता है ।
पूर्व और अपूर्वस्पर्धकरूप से ईंटों की पंक्ति के प्राकार से स्थित योग का उपसंहार करके सूक्ष्म-सूक्ष्म खण्डों की रचना करता है, उन्हें कृष्टियों कहते हैं । अविभागप्रतिच्छेदों के आगे क्रमवृद्धि और हानियों का प्रभाव होने के कारण स्पर्धक के लक्षण से कृष्टि के लक्षरण की यहाँ विलक्षणता माननी चाहिए, क्योंकि असंख्यातगुणी वृद्धि और हानि के द्वारा ही कृष्टिगत जीवप्रदेशो में योगशक्ति का अवस्थान देखा जाता है । इस प्रकार की लक्षण बाली कृष्टियों को यह योग का निरोध करने वाला केवली अन्तर्मुहूर्त काल तक करता है । इस प्रकार यहाँ पर यह सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है ! प्रब कृष्टियों के इसी लमरण को स्पष्ट करने के लिए प्रागे के सूत्र का अवतार हुआ है--
अपूर्वस्पर्धकों को प्राविवर्गणा के अविभागप्रतिच्छेदों के असंख्यातवें भाग का अपकर्षण
पूर्वोक्त अपूर्व स्पर्धकों की सबसे मन्द शक्ति से युक्त जो प्रादिवर्गणा है उसके असंख्यातवें भाग का अपकर्षण करता है । उससे असंख्यात गुणाहीन अविभागप्रतिच्छेदरूप से योगशक्ति का अपकर्षरण करके उसके असंख्यातवें भाग में स्थापित करता है । यह उक्त कथन का तात्पर्य है । यहाँ
है. जयघवल मूल पृ. २२८७ ।
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गो.सा. जीवकाण्ड
गाथा ६३-६४
पर कृष्टियों और स्पर्धकों के सन्धि सम्बन्धी गुणकार अविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इस प्रकार अविभागप्रतिच्छेदों का असंख्यात गुगाहानि के द्वारा अपवर्तन करके कृष्टियों को करता हुमा प्रथम समय में कितने जीवदेशों को कृष्टिरूप से अपकर्षित करता है ऐमी आशंका होने पर निःशंक करने के लिये प्रागे के सूत्र का प्रारम्भ करते हैं---
जीवप्रदेशों के असंख्यातवें भाग का अपकर्षण करता है ।
पूर्व और अपूर्व स्पर्धकों में अबस्थित लोकप्रमाण जीवप्रदेशों के प्रसंन्यातवें भागप्रमाण जीवप्रदेशों को कृष्टि करने के लिए अपकर्षित करता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । यहाँ प्रतिभाग अपकर्षरण-उत्कर्षरग भागहार रूप है।
__ शङ्का---इस प्रकार अपकर्षित किये गये जीवप्रदेशों वा कृष्टियों में किस रचनाविशेषरूप से निक्षित करता है ?
समाधान-कहते हैं-प्रथम समय में वृष्टियों को करने वाला योगनिरोध करने वाला जीव पूर्वस्पंधकों में से और अपूर्वस्पर्धकों में से पत्योपम के असंख्यातवें भागरूप प्रतिभाग से जीवप्रदेशों को अपकर्षित कर प्रथम कृष्टि में बहुत जीवप्रदेशों को निक्षिात करता है । दूसरी कृष्टि में विशेषहीन जीवप्रदेशों को निक्षिप्त करना है।
शङ्का---यहाँ पर प्रतिभाग का प्रमागा क्या है ?
समाधान--यहाँ पर जगश्रेणी के असंख्यात भागप्रमाण निषेक भागहार प्रतिभाग का प्रमाण है।
इस प्रकार निक्षेप करता हुमा अन्तिम कृष्टि के प्राप्त होने तक निक्षेप करता जाता है। पुन: अन्तिम कृष्टि से अपुर्व स्पर्धकों की ग्रादिवर्गणा में असंख्यात गुणहीन जीवप्रदेशों को मिचि। कर उससे आगे विशेष हानिरूप से सिंचित करता है, ऐसा जानना चाहिए । पुनः दूसरे समय में प्रथम समय में अपकर्षित किये गये जीवप्रदेशों से असंख्यातगूणे जीवप्रदेशों को अपकषित करके उस काल में रची जाने वाली प्रथम अपूर्व कृष्टि में बहत जीवप्रदेशों को सिंचित करता है । दूसरी कृष्टि में असंख्यातवें भागप्रमागा विशेषहीन जीवप्रदेशों को निक्षिप्त करता है । इस प्रकार निक्षेप करता हुआ दूसरे समय में की जाने वाली अपूर्व कृष्टियों की अन्तिम कृष्टि तक निक्षिप्त करता जाता है। पुनः दूसरे समय की अन्तिम अपूर्व कृष्टि से प्रथम समय में रची जाने वाली अपूर्व कृष्टियों को जो जघन्य कृष्टि है उसके ऊपर असंख्यातवें भागहीन जीवप्रदेशों को सिंचित करता है, क्योंकि उसमें पूर्व में निक्षिप्त किये जीवप्रदेशमात्र और एक कृष्टि विशेषमात्र हीन है। इससे आगे सर्वत्र अन्तिम कृष्टि के प्राप्त होने तक विशेषहीन ही जीवप्रदेशों को निक्षिप्त करता है। कृष्टि और स्पर्धक को सन्धि में पूर्वोक्त क्रम ही कहना चाहिए। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तकाल तक असंख्यातगुणीहीन श्रेणिरूप से अपूर्वकृष्टियों को रचता है। परन्तु कृष्टिकरण काल के अन्तिम समय तक कृष्टियों में असंख्यातगुरगी धेगिरूप से जीत्रप्रदेशों को सिंचित करता है। अब इसी अर्थ के स्पष्टीकरण के लिये आगे का सूत्रप्रबन्ध पाया है--२
- - - - १. जयघवल मूल पृ. २२८७ । २. जयषवल मूल पृ० २२८ ।
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गाथा ६३-६४
गुणस्थान /26 यहाँ पर असंख्यातगुणी होन श्रेणिरूप से कृष्टियों को अन्तर्मुहूर्तकाल तक करता है। यह सूत्र सुगम है। असंख्यातगुणीश्रेणिरूप से जीवप्रदेशों को करता है ।
यह सूत्र भी सुगम है। अब यहाँ पर रची जाने वाली कृष्टियों में अधस्तन-अधस्तन कृष्टियों से उपरिम-उपरिम कृष्टियों का कितना गुणकार होता है, ऐसी आशंका का निराकरण करने के लिये ___ श्रागे के सूत्र द्वारा कृष्टियों के गुणकार के प्रमाण का निर्देश करते हैं -
कृष्टिगुणकार पल्योपम के असंख्यातये भाग प्रमाण है ।
उक्त कथन का यह तात्पर्य है-जघन्य कृष्टि के सदृश धनबाली कृष्टियाँ असंख्यात जगप्रतरप्रमाण हैं। वहाँ एक जघन्य कृष्टि के योगसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदों को पल्योपम के असंख्यातवें भाग से गणित करने पर एक जीवप्रदेश के आश्रय से जघन्य कृष्टि के अनन्तर उपरिम एक कृष्टि में योगसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। इसी प्रकार दूरी दि में भी मतिः कृषिष्ट के प्राप्त होने तक गुणकार प्ररूपणा जाननी चाहिए । पुनः एक अन्तिम कृष्टि के योग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदों को पल्योपम के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर अपूर्वस्पर्धकों की आदिवर्गणा में एक जीवप्रदेश के अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। इस के आगे जीवप्रदेश प्रागमानुसार अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा विशेष अधिक होते हैं, ऐसा जानना चाहिए । इस प्रकार एक जीवप्रदेश का आश्रयकर कहा है। अथवा जघन्य कृष्टि को पल्योपम के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर दूसरी कृष्टि होती है। इस प्रकार अन्तिम कुष्टि के प्राप्त होने तक यह मुणकार जानना चाहिए। यह गुणकार जब तक सदृश धनवाली कृष्टियाँ हैं उनको देखकर कहा है । पुनः अन्तिम कृष्टि के सदृश धनवाले पूरे अविभागप्रतिच्छेद समुदाय से अपूर्व स्पर्धकों की आदिवर्गणा में सहश धनवाले सब अधिभागप्रतिच्छेदों का समुह असंख्यात गुणहीन होता है ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि उपरिम अविभागप्रतिच्छेद गुणकार से अश्वस्तन जीवप्रदेशगुणकार असंख्यातगुणा देखा जाता है ।'
शा- यहाँ पर गुणकार का प्रमाण क्या है ? समाधान-यहाँ पर गुणकार का प्रमाण जगथेणी के असंख्यातवें भाग है।
शेष कथन जानकर कहना चाहिए । इस प्रकार कृष्टिगुणकार के प्रतिपादन द्वारा कृष्टियों के लक्षण का प्ररूपण करके अब अन्तर्मुहूर्तप्रमाणकाल के द्वारा रची जाने वाली इन योग सम्बन्धी कृष्टियों के प्रमाण विशेष वा अवधारण करने के लिये आगे के सूत्र का प्रारम्भ करते हैं
योग सम्बन्धी कृष्टियाँ जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ।
क्योंकि, जगश्रेणी के प्रथम वर्गमूल के भी असंख्यातवें भाग प्रमारण इनके जगणी के असंख्यातवें भाग प्रमारण की सिद्धि निर्बाधरूप से उपलब्ध होती है। अब इनका अपुर्व स्पर्धकों से भी
१. अर्थात् चरमकृष्टि में “जीवप्रदेश संग्ख्या ४ अवि. प्रति." रूप गुमानफल से अपूर्वम्पर्धक की प्राधिवगणा में 'एक वर्गणा के जीवप्रदेश र प्रवि. प्रति. प्रत्येक जीवप्रदेश' यह गुणनफल कम है।
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१००/गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा ६३-६४
असंख्यात गुणहीनपना अविरुद्ध है, इस बात का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं
वे योग सम्बन्धी कृष्टियाँ अपूर्व स्पर्धकों के भी प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण हैं।
एक गुणहानि स्थानान्तर की स्पर्धकशलाकाओं के असंख्यातवें भागप्रमाण अपूर्वस्पर्धक होते हैं । पुनः इनके भी असंख्यात भाग प्रमाग गे योग कृष्टियाँ एक स्पर्धक सम्बन्धी वर्गणाओं के असंख्यातवें भाग प्रमाण जानना चाहिए। इस प्रकार यह इस सूत्र का भावार्थ है । इस प्रकार कृष्टियों को करने के लिये अन्तर्महुर्त काल का पालन करने वाले इस जीव के कृष्टिकरणकाल के यथाक्रम समाप्त होने पर उसके बाद अनन्तर काल में जो प्ररूपगगा विशेष है उसका निर्णय करने के लिए आगे का सूत्रप्रबन्ध गाया है--
___ कृष्टिकरणकाल के समाप्त होने पर अनन्तर समय में पूर्वस्पर्धकों और अपूर्वस्पर्धकों कानाश करता है।
जब तक कृष्टिकरण के काल का अन्तिम समय है तब तत्रा पूर्वम्पर्धक और अपूर्वस्पर्धक अविनष्ट म्प से दिखाई देते हैं, क्योंकि उनके असंख्यातवें भागप्रमाण ही सदृश धनवाले जीवप्रदेशों का प्रत्येक समय में कृष्टिकरण रूप से परिणमन उपलब्ध होता है। पूनः तदनन्तर समय में सभी पूर्व और अपूर्वस्पर्धक अपने स्वरूप का त्याग करके कृष्टि रूप से परिणमन करते हैं, क्योंकि जघन्य कृष्टि से लेकर उत्कृष्ट कृष्टि के प्राप्त होने तक उन कृष्टियों में सदृश धनरूप से उनका उस काल में परिणमन का नियम देखा जाता है। इस प्रकार कृष्टिकरणकाल समाप्त हुआ । अब इसके बाद अन्तर्मुहर्तकाल तक कृष्टिगत योगवाला होकर सयोगिकाल में जो अवशेष काल रहा उसका पालन करता है, इस बात का ज्ञान कराने के लिये प्रागे के सूत्र का अवतार हुअा है।'
अन्तर्मुहूर्तकाल तक कृष्टिगत योगवाला होता है। यह सूत्र सुगम है । अब कृष्टिगत योग का वेदन करने वाला यह सयोगीकेवली क्या अन्तर्मुहूर्त तक अवस्थित भाव से वेदन करता है या अन्य प्रकार से बेदन करता है? इस तरह इस प्रकार
आशंका का निराकरण करेंगे। यथा-प्रथम समय में कृष्टिवेदक कृष्टियों के असंख्यात बहभाग का वेदन करता है। पुनः दूसरे समय में प्रथम समय में वेदी गई कृष्टियों के अधम्तन और उपरिम असंख्यात भागविषयक कृष्ट्रिय अपने स्वरूप को छोड़कर मध्यम कृष्टिरूप से बेदी जाती हैं। इस प्रकार प्रथम समयसम्बन्धी योग में दूसरे समयसम्बन्धी योग असंख्यात मूगहीन होता है। इस प्रकार तृतीय आदि समयों में भी जानना चाहिए । इसलिए प्रथम समय में बहुत कृष्टियों का वेदन करता है, दूसरे समय में विशेषहीन कृष्टियों का वेदन करता है । इस प्रकार अन्तिम समय तक विशेषहीन क्रम के कृष्टियों का वेदन करता है, ऐसा कहना चाहिए।
अथवा प्रश्रम समय में स्तोक कृष्टियों का [परमुख ] वेदन करता है, क्योंकि प्रथम समय में अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागविषयक कृष्टियाँ ही विनाश होती हुईं प्रधानरूप से विवक्षित हैं। दूसरे समय में असंख्यातगुणी कृष्टियों का वेदन करता है, क्योंकि प्रथम समय में विनाश को
१. जयधवल मूल पृष्ठ २२८६ ।
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गाथा ६३-६४
गुणस्थान/१०१
प्राप्त हुई कृष्टियों से दूसरे समय में अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भाग से सम्बन्ध रखने वाली प्रसंख्यानगुणी कृष्टियों का विनाश करता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक असंख्यातमुणी श्रेणिरूप मे यह जीव कृष्टिगत योग का अंदन करता है, क्योंकि प्रत्येक समय में मध्यम कृष्टिरूप से परिणमन करने वाली कृष्टियों की असंख्यातगुणरूप से प्रवृत्ति देखी जाती है ।
शङ्का-प्रथमादि समयों में क्रम से वेदी गई कृष्टियों के जीवप्रदेश द्वितीयादि समयों में अपरिस्पन्दस्वरूप से अयोगी होकर स्थित रहते हैं. ऐसा क्यों नहीं मानते ?
समाधान--नहीं, क्योंकि एक जीव में अक्रम से भयोगरूप और अयोगरूप पर्यायों की प्रवृत्ति होने में विरोध पाता है।
इस तरह प्रतिममय अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियों को असभ्यातगुणी थेणिम्प से मध्यम कृष्टियों के प्रकार से परिणमाकर विनाश करता है, यह सिद्ध हुया । इस प्रकार का अर्थ सूत्र में नहीं है, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि 'अन्तिम समय में कृष्टियों के असंख्यात बहुभाग का नाश करता है' इस प्रकार आगे कहे जाने वाले सूत्र में स्पष्ट रूप से इस अर्थविशेष का सम्बन्ध देखा जाता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक कृष्टिगत योग का अनुभव करने बाने अतिसूक्ष्म काययोग में विद्यमान सयोगिकेवली के उस अवस्था में ध्यान-परिणाम कैसा होता है ऐसी प्राशंका होने पर निःशंक करने के लिये ग्रागे के सूत्र का प्रारम्भ करते हैं--
तथा सूक्ष्म क्रियारूप अप्रतिपाती ध्यान को ध्याता है।
जिसमें सुक्ष्म क्रियारूप योग हो वह सूक्ष्म क्रियारूप तथा नीचे प्रतिरात नहीं होने से अप्रतिमाति; ऐसे तीसरे शुक्लध्यान को उस अवस्था में ध्याना है. यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
शंका--...इस ध्यान का क्या फल है ?
समाधान-योग के प्रास्रव का अत्यन्त निरोध करना इसका फल है, क्योंकि सूक्ष्मतर कायपरिस्पन्द का भी यहाँ पर अन्वय के विना निरोध देखा जाता है। कहा भी है--
काययोगी और अद्भुत स्थिति वाले सर्वज्ञ के योगक्रिया का निरोध करने के लिए तीसरा शुक्लध्यान कहा गया है ॥१॥'
शंका--समस्त पदार्थों को विषय करने वाले ध्र व उपयोग से परिणत केबली जिनमें एकाग्र चिन्तानिरोध का होना असम्भव है, ऐसा अभीष्ट है, अत: ध्यान की उत्पत्ति नहीं हो सकती।
समाधान--यह कहना सत्य है, क्योंकि जिन्होंने समस्त पदार्थों का साक्षात्कार किया है और जो क्रमरहित उपयोग से परिणत हैं ऐसे सर्वज्ञदेव के एकाग्रचिन्तानिरोधलक्षण ध्यान नहीं बन सकता, क्योंकि यह अभीष्ट है । किन्तु योग के निरोध मात्र से होने वाले कर्मास्रव के निरोधलक्षण ध्यानफल की प्रवृत्ति को देखकर उस प्रकार के उपचार की कल्पना की है, इसलिये कुच्छ
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१. जयधवल मूल पृ० २२६० ।
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१०२ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६३-६४
भी हानि नहीं है । अथवा चिन्ता का हेतु होने से भूतपूर्वपने की अपेक्षा चिन्ता का नाम योग है, उसके एकाग्रपने से निरोध करना एकाग्रचिन्तानिरोध है । इस प्रकार के व्याख्यान का आश्रय करने से यहाँ ध्यान स्वीकार किया है, इसलिये कोई दोष नहीं है । उस प्रकार कहा भी है-
स्थों का एक वस्तु में प्रन्तर्मुहूर्त काल तक चिन्ता का प्रवस्थान होना ध्यान है, परन्तु केवलीजिनों का योग का निरोध करना हो ध्यान है ।
इसलिए ठीक कहा है कि योग का निरोध करने वाले केवली भगवान् कर्म के ग्रहण की सामर्थ्य का निरन्दय निरोध करने के लिये सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती संज्ञक परर्म शुक्लध्यान ऐसे लक्षण वाले ध्यान को ध्याते हैं । इस प्रकार ध्यान करने वाले परम शुक्लध्यानरूप अग्नि के द्वारा प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूप से कर्मनिर्जरा का पालन करने वाले तथा स्थितिकाण्डक का और अनुभाग काण्ड का क्रम से पतन करने वाले इस परम ऋषि के योगशक्ति क्रम से हीन होती हुई सयोगकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में पूरी तरह से नष्ट होती है। इस प्रकार इस बात के प्रतिपादन करने की इच्छा से आगे के सूत्र को कहते हैं-
कृष्टि वेदकछसयोगिकेवली जीव कृष्टियों के अन्तिम समय में असंत बहुभाग का नाश करता है ।
कृष्टिवेदक के प्रथम समय से लेकर समय-समय में कृष्टियों के असंख्यातवें भाग का असंख्यात गुणी श्रेणिरूप से क्षय करके नाश करता हुआ सयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में कृष्टियों के असंख्यात बहुभाग का नाश करता है, क्योंकि उसके बाद योगप्रवृत्ति का प्रत्यन्त उच्छेद देखा जाता है, इस प्रकार यह यहाँ सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है |
ra नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मों के अन्तिम स्थितिकाण्डक को ग्रहण करता हुआ जितना योगिकाल घोष हैं और सब अयागिकाल है । तत्प्रमाण स्थितियों को छोड़कर गुणश्रेणिशीर्षक के साथ उपरि सब स्थितियों को ग्रहण करता है । उसी समय प्रदेशपुंज का अपकर्षण करके उदय में अल्प प्रदेश को देता है, श्रनन्तर समय में असंख्यातगुणे प्रदेशपुंज को देता है । इस प्रकार प्रसंख्यातगुणी श्रेणिरूप से निक्षेप करता हुआ स्थितिकाण्डक की जघन्य स्थिति से अवस्तन ग्रनन्तर स्थिति के प्राप्त होने तक जाता है ।
1
यही गुण शीर्ष हो गया। इस गुणश्रेणिशी से स्थितिकाण्डक की जो जघन्य स्थिति है उसमें प्रसंख्यातगुणा देता है। उससे उपरिम अनन्तर स्थिति से लेकर विशेष होन प्रदेशपुंज का निक्षेप करता हुआ पुरानी गुणश्रेणिशीर्ष तक निक्षेप करता जाता है । पुनः पुराने गुणशीर्ष से लेकर उपरिम अनन्तर स्थिति में असंख्यात गुणहीन प्रदेशपुंज देता है। उससे आगे सर्वत्र विशेषहीन प्रदेशपुज निक्षेप करता है। यहाँ से लेकर गलितशेष गुणश्रेणि हो जाती है । इस प्रकार अन्तिम स्थितिकाण्डक को द्विचरमफालि हो जाना चाहिए ।"
पुनः अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालि के द्रव्य को ग्रहण करके उदय में स्लोक प्रदेशपुंज को देता है । तदनन्तर समय में असंख्यातगुणे प्रदेशपुरंज को देता है। इस प्रकार असंख्यातगुणी
१. जयधवल मूल . २२६१ ।
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गाथा ६५
गृश
!
.३
श्रेणिरूप से निक्षेप करता हया अयोगिकेवली के अन्तिम समय तक जाता है। अब इसी समय में योगनिरोधक्रिया और सयोगिकेवली के काल की समाप्ति होती है । इससे आगे गुणश्रेणि और स्थितिधात तथा अनुभागघात नहीं है । केवल अधःस्थिति के द्वारा असंख्यातगुणी श्रेणिरूप से कर्मनिर्जरा का पालन करता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । यहीं पर सातावेदनीय के प्रकृतिबन्ध की व्यूच्छित्ति होती है तथा उनतालीस प्रकृतियों की उदीरणान्युच्छित्ति जाननी चाहिए। उसी समय आयु के समान नाम, गोत्र और वेदनीथ कम स्थितिसत्कर्म रूप हो जाते हैं, इस बात का ज्ञान कराने के लिये ग्रामे के सूत्र का प्रारम्भ करते हैं -
योग का निरोध होने पर [स्थिति की अपेक्षा प्रायु के समान कर्म होते हैं ।
केवलिसमृद्घात क्रिया द्वारा तथा योगनिरोध रूप काल के भीतर स्थितिघात और अनुभागघात के द्वारा घात करने से शेष रहे नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म इस समय प्रायुकर्म के समान होकर प्रयोगिकेवली के काल के बराबर उनका स्थितिसत्कर्म हो जाता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इस प्रकार इतने प्ररूपणाप्रबन्ध द्वारा सयोगिकेवली गुणस्थान का पालन करके उस काल के समाप्त होने पर यथावसर प्राप्त प्रयोगिकेवली गुणस्थान को प्राप्त होता है, इस बात का प्रतिपादन करते हुए आगे गाथा कहते हैं---
प्रयोगकेवली गुणम्यान का कथन सोलेसि संपत्तो विरुद्ध पिस्सेस पासवो जीयो ।
कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होदि ॥६५॥" गाथार्थ-जिसने शील के स्वामित्व को प्राप्त कर लिया है, सम्पूर्ण प्रास्रवों का जिसने निरोध किया है और जो नूतन बध्यमान कर्म रज से भी रहित है, वह गतयोगकेवली यानी प्रयोगकेवली कहलाता है।
विशेषार्थ--
पहला विशेषण है.-सोलेसि संपत्तो अर्थात् जिन्होंने समस्त गुण और शील का अविकल (पूर्ण) स्वरूप से आधिपत्य प्राप्त कर लिया है, वे गोलों के ईश 'जीलेश' कहलाते हैं। शीलेश का भाव शैलेश्य है।
शा-- यदि शैलेशय का यह अर्थ है, तो इस विशेषण का चौदहवें गुणस्थान में प्रारम्भ नहीं होना चाहिए था, क्योंकि अरिहन्त परमेष्ठी भगवान ने सयोगकेवली अवस्था में भी सकल गुण-शील के आधिपत्य को अविकल स्वरूप से प्राप्त कर लिया है, अन्यथा सयोगकेवली को अपरिपूर्ण गुण-गील होने से, परमेष्ठीपना प्राप्त नहीं हो सकता, जसे हमारे गुण व शील पूर्ण न होने से हमें परमेष्ठीपद प्राप्त नहीं है।
समाधान-~-आपका कहना सत्य है, सयोगकेवलो ने भी आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लिया है । वे अशेषगुणों के खजाने हैं, निष्कलंक हैं और परम-उपेक्षा लक्षण बाले यथाख्यात विहारशुद्धि संयम
१. घवल १११६६ पर भी यह गाया है ।
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१०४/गो. सा. औषकाण्ड
माथा ६५
को पराकाष्ठा में अधिष्ठित हैं। इस प्रकार सयोगकेवली के सकलगुण और शील प्रगट हो गये हैं, यह स्वीकार है, किन्तु उनके योग के निमित्त से होने वाले प्रास्तब मात्र के सत्त्व की अपेक्षा सम्पूर्ण कर्मनिर्जरा रूप फल वाला सकल संवर नहीं उत्पन्न हुआ है, जबकि अयोगकेवली ने समस्त प्रास्रवों के द्वार रोक दिये हैं और प्रतिपक्ष रहित प्रात्मलाभ प्राप्त कर लिया है, इस अभिप्राय से 'मौलेश्य' विशेषण प्रयोगकेवली के साथ लगाया गया है, इसमें कोई दोष भी नहीं है।'
शील के १८००० भेदों का स्वामित्व-प्राधिपत्य अयोगकेवली प्राप्त करते हैं। शील के १८००० भेदों को मूलाचार में इस प्रकार बताया है--
ओए करणे सपणा, इंदिय भोम्मादि समणधम्मे य ।
अण्णोष्णेहि प्रभत्था, अट्ठारससील सहस्साई॥ तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पाँच इन्द्रिय, दस पृथिबोकायिक प्रादि जीवभेद, उत्तमक्षमादि दशधर्म इनको परस्पर गुणा करने से (३४३४४४५४१०x१०) शील के १८००० भेद होते हैं। प्राचारसार अधिकार १२ में भी कहा है
धर्मगुप्तिभिः करणसंज्ञाऽक्ष-प्राणसंयमैः ।
अष्टादशसहस्राणि शोलान्यन्योन्यसंगुणैः ॥२॥ १० धर्म, ३ गुप्ति, ३ करण, ४ संज्ञा, ५ इन्द्रिय और १० प्राणसंयम (१०४३४३४४४५४१०) इनको परस्पर गुणा करने पर शील के १८००० भेद होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार से भी गोल के १८००० भेद जिनागम में बताये गये हैं।
दुसरा विशेषण है--णिरुद्धणिस्सेस प्रासयों' अर्थात् समस्त प्रास्रव का निरोध कर देने से नवीन कर्मों का परम संवर हो गया है। मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद और कषाय से जिन कर्मों का आस्रव होता था, उन कमों के आस्रव का निरोध अधस्तन गुणस्थानों में हो गया। योग से पासव होता था उसका भी प्रयोगकेवली के अभाव हो गया, इसलिए प्रयोगकेवली के अशेष प्रास्रव का निरोध हो जाने से यह विशेषण सिद्ध हो जाता है।
तीसरा विशेषण है- "कम्मरविप्पमुषको' बन्ध के हेतुभुत आस्रव का निरवशेषरूप से निरोध हो जाने से तथा सत्त्वरूप कर्मों का प्रतिसमय अधःस्थिति गलन के कारण निर्जीर्ण होने से प्रयोगकेबली कमरज से विमुक्त हैं। अथवा नवीन कर्मरज से लिप्त न होने के कारण कर्मरज से विमुक्त हैं।
शङ्कर-पुरातनकर्म अपना फल देकर प्रकर्मभाव को प्राप्त होते हैं, उनके फलस्वरूप जो प्रात्मपरिणाम होते हैं, उन परिणामो के कारण अयोगकेवली कर्मरज से लिप्त होने चाहिए थे।
समाधान नहीं, मोहनीयकर्म का अभाव हो जाने से शेष चार अघातिया कर्म निःशक्त हो जाते हैं, अत: वे अपना कार्य करने में असमर्थ हैं।
१. ज.प. मूल पृ. २२६२ एवं ज.प. १६/१८३।
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गाथा ६५
गुणस्थान/१०५
शा--मोहनीयकर्म के अभाव में भी प्रघातियाकर्म अपना कार्य करते हैं, अन्यथा जीव का मारीर में रुके रहना, प्रात्मा के अमूर्तिक स्वभाव का घात एवं ऊर्ध्वगमन स्वभाव का घात हो नहीं सकता था।
समाधान-यद्यपि अघातिया कर्मोदय से ये कार्य होते हैं. तथापि इन कार्यों के कारण जीव कमरज से लिप्त नहीं होता, क्योंकि कर्मरज से लिप्त करने का कार्य लेश्या' का है। प्रयोगकेवली के लेश्या का अभाव है। कारण के अभाव में उससे होने वाली कार्य भी असम्भव है। दूसरे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय व योग कर्मबन्ध के हेतु हैं। प्रयोगकेवली के इन सब हेतुनों का अविकलरूप से नाश हो जाने के कारण भी कर्मबन्ध का अभाव है। यदि अहेतुक बन्ध माना जावे तो मोक्ष के प्रभाव का प्रसंग पा जाएगा।
प्रयोगके वली 'समुच्छिन्न क्रियानिवर्ती अथवा व्युपरतत्रियानिवर्ती नामक चतुर्थ शुक्लध्यान को ध्याते हैं । योग को क्रिया कहते हैं। मन, वचन और काय का सर्व व्यापार समुच्छिन्न अथवा ज्युपरत (नष्ट) हो जाने से यह अन्तिम शुक्ल ध्यान समुच्छिन्न किया है। इस ध्यान से प्रयोगकेवली गिरते नहीं अथवा 'न निवर्तते' लौटते नहीं, ऐसा इस शुक्लध्यान का स्वभाव होने से यह समुच्छिन्नक्रिया निवर्ती शुक्लध्यान है। अलेश्या के सम्बल सहित इस ध्यान का फल कायत्रय (औदारिक, तेजस, फार्मणकाय) के बन्धन से मुक्ति को देखकर 'भगवान ध्यान करते हैं। ऐसा कहा जाता है। पूर्ववत् यहाँ भी उपचार से ध्यान है। केवली के ध्र व-उपयोगरूप परिणति के कारण ध्यान के लक्षणस्वरूप एकाग्रचिन्ता निरोध का अभाव है, अत: केवली के परमार्थ से ध्यान नहीं है । समस्त प्रास्त्रवद्वार का निरोध करने वाले केवली के अपनी प्रात्मा में ही अवस्थान होने का फल सर्व कर्मों की निर्जरा होने से ध्यान की प्रतीति करनी चाहिए । कहा भी है
सुर्य स्यावयोगस्य शेषकर्मच्छिदुसमम् ।
फलमस्याभुतं धाम, परतीर्था दुरासवम् ॥१५॥ -शेषकर्मों को छेदने हेतु प्रयोगकेवली के चतुर्थशुक्लध्यान होता है। यह कठिनाई से प्राप्त होने वाला है. इसका फल अद्भुत मोक्षधाम की प्राप्ति है । यह ध्यान मिथ्यातीर्थ बालों को दुष्प्राप्य
अयोगकेवली गुणस्थान के काल का नाम शलेश्यखा' है। उस काल का प्रमाण पाँच हुस्वाक्षर (अ इ उ ऋल) उच्चारण मात्र है । अयोगकेवली गुणस्थान के द्विचरमसमय में अनुदय रूप वेदनीय
कर्मप्रकृति व देवगति आदि अनुदयरूप ७२ प्रकृतियों का क्षय होता है एवं चरमसमय में उदयरूप । बेदनीयकर्मप्रकृति, मनुष्यायु, मनुष्यगति प्रादि उदयस्वरूप १३ प्रकृतियों का क्षय होता है ।
यद्यपि उदय और अनुदयरूप इन दोनों प्रकार की कर्मप्रकृतियों की स्थिति समान है तथापि अनुदयरूप कर्मप्रकृनियों एकसमय पूर्व स्वजाति-उदयप्रकृतिरूप स्तिबुकसंक्रमण द्वारा संक्रमण कर परमुखरूप से उदय में आती हैं। प्रयोगकेवली के चरमसमय तक स्थितिवाली अनुदय प्रकृतियाँ द्विचरमसमय में स्तिबुकसंक्रमण द्वारा उदय प्रकृतिरूप संक्रमण कर जाने के कारण चरमसमय में १. 'सिम्पतीनि लेश्या' प.पु. १ पृ. १४६ । २. "अन्तर्मुहुर्तमलेण्याभावेन भगवत्ययोगिकेवलिनि" (ज.प. मूल पृ. २२६२)। ३. "कारणबिनाश तत्कार्यासम्भवः" | ४. ज. ध, मुल पृ. २२६३ ज. घ. १६/१८५ । ५. ज. ध, मूल पृ. २२६३, ज. घ. पू. १६.१५५-८६ ।
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गाथा ६५
१०६/गो. सा. जीवकाण्ड अनुदय प्रकृतियों का सत्त्व न रहने से द्विचरमसमय में उनका क्षय कहा गया है । यह कथन उत्पादानुच्छेद की अपेक्षा किया गया है। विचरमसमय में सत्त्व से व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियाँ देवगति, पाँच शरीर, पाँच शरीरबन्धन, पाँच शरीरसंघात, छह संस्थान, तीन अगोपांग, छह संहनन, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पात्र रस. पाठ स्पर्ण, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपधात, परघात, उच्छवास, प्रशस्तबिह्मयोगति, प्रत्येकशरीर, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दु:स्वर, दुर्भग, अनादेय, दया कीलि, गिर्जा नीतगो मोर को भेदनीयों में से अनुदय प्राप्त एक वेदनीय : ये ७२ प्रकृतियाँ अयोगकेवली के द्विचरमसमय पर्यन्त होती हैं, किन्तु इन ७२ प्रकृतियों के अतिरिक्त मनुष्यगत्यानुपूर्वी भी अनुदय प्रकृति है । अत: श्री वोरसेनस्वामी ने इस प्रकृति की भी सत्त्वव्युच्छित्ति द्विचरमसमय में बतलायी है। (धवल पुस्तक ६।४१७)
उदयरूप एक वेदनीय, मनुष्यगति, मनुष्यायु, पञ्चेन्द्रिय जाति, स, बादर, पर्याप्त, सुभग, प्रादेय, यश-कीर्ति, तोर्थकर और उच्चगोत्र ये बारह प्रकृतियाँ प्रयोगकेवली के अन्तिम समय में ब्युच्छिन्न होती हैं, किन्तु श्री जिनसेनाचार्य ने मनुष्यगत्यानुपूर्वी सहित तेरह प्रकृतियों की व्युच्छित्ति बतलाई है। मनुष्यगति के साथ-साथ ही मनुष्यगत्यानुपूर्वी का भी बन्ध होता है। अत: मनुष्यगति के साथ हो मनुष्यगत्यानुपूर्वी की सत्त्वव्युच्छित्ति कही गई है।
__जिनके योग विद्यमान नहीं है. अतिक्रान्त कर गया है वे अयोगी हैं, जिनके केवलज्ञान पाया जाता हैं वे केवली हैं जो योगरहित होते हुए केवली होते हैं वे अयोगकेवली हैं।
शंका-सयोगकेवली के तो मन है, अतः उनके तो केवलज्ञान सम्भब है, किन्तु अयोगकेवली के मन के अभाव में केवलज्ञान कैसे सम्भव है ?
समाधान—यह कहना ठोक नहीं है, क्योंकि ज्ञानावरण कर्म के क्षय से जो ज्ञान उत्पन्न हुना है और जो अक्रमवर्ती है, उसकी मन से उत्पत्ति मानना विरुद्ध है।
शंका---जिस प्रकार मति आदि ज्ञान, स्वयं ज्ञान होने से अपनी उत्पत्ति में कारक की अपेक्षा रखते हैं, उसी प्रकार केवलज्ञान भी ज्ञान है, अतएव उसको भी अपनी उत्पत्ति में कारक को अपेक्षा रखनी चाहिए।
समाधान नहीं, क्योंकि क्षायिक और क्षायोपशमिक ज्ञान में साधर्म्य नहीं पाया जाता। शङ्का-- अपरिवर्तनशील केवलज्ञान प्रत्येक समय में परिवर्तनशील पदार्थों को कैसे जानता है ?
समाधान-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि पदार्थों को जानने के लिए तदनुकल परिवर्तन करने वाले केवलज्ञान के ऐसे परिवर्तन के मान लेने में कोई विरोध नहीं पाता है।
शङ्का--जेय की परतन्त्रता से परिवर्तन करने वाले केवलज्ञान की फिर से उत्पत्ति क्यों नहीं मानी जाय ?
समाधान--नहीं, क्योंकि केवल उपयोग सामान्य की अपेक्षा केवलज्ञान की पुनः उत्पत्ति नहीं होती है। विशेष की अपेक्षा उसकी उत्पत्ति होते हुए भी वह विशेष केवलज्ञान इन्द्रिय, मन और आलोक
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गाथा ६६-६७
गुरणस्थान/१०७
से उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि जिसके केवलज्ञानावरणादि कर्म नष्ट हो गये हैं, ऐसे केवलज्ञान में इन्द्रियादिक की सहायता मानने में विरोध प्राप्ता है।
शा-यदि केवलज्ञान असहाय है, तो वह प्रमेय को भी न जाने ?
समाधान--ऐसा नहीं है, क्योंकि पदार्थों का जानना उसका स्वभाव है और वस्तु के स्वभाव दूसरों के प्रश्नों के योग्य नहीं हुया करते हैं। यदि स्वभाव में भी प्रश्न होने लगे तो फिर वस्तुओं की व्यवस्था ही नहीं बन सकती। (धवल पु. १ पृ. १६८-१९६)
चौदह गुणस्यानों में होने वाली प्रायुकर्म के बिना शेष सात कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा
सम्मत्तुप्पत्तीये सावय-विरदे परातकम्मंसे । दसणमोहक्खवगे फसाय-उवसामगे य उपसंते ॥६६॥ खवगे य खीरणमोहे, जिणेसु वन्या असंखगुणिवकमा।
तविवरीया काला संखेज्जगुणषकमा होंति ॥६॥' गाथार्थ—सम्यक्त्वोत्पत्ति अर्थात सातिशय मिथ्याष्टि, श्रावक अर्थात् देशवती. विरत अर्थात महादती, अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन करने वाला, दर्शनमोह का क्षय करने वाला, चारित्रमोह का उपशम करने वाला, उपशान्तकषाय, चारित्रमोह का क्षपण करने वाला, क्षीणमोह, स्वस्थानजिन और योगनिरोध करने वाले जिन, इन स्थानों में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है, परन्तु निर्जरा का काल (गुणश्रेणी प्रआयाम) उससे विपरीत है अर्थात् आगे से पीछे की ओर बढ़ता हुआ है जो संख्यातगुणितहीन श्रेणिरूप है ।। ६६-६७॥
विशेषार्थ—ये दोनों गाथाएँ निर्जीर्ण होने वाले प्रदेश और काल मे विशेषित ग्यारह गुणश्रेणियों का कथन करती हैं।
'विशुद्धियों के द्वारा अनुभागक्षय होता है और उससे प्रदेशनिर्जरा होती है। इस बात का ज्ञान कराने से जीव और कर्म के सम्बन्ध का कारण अनुभाग ही है, इस बात को बतलाने के लिए उक्त कथन किया गया है । गुणश्रेणीनिर्जरा का कारण भाव है । 'सम्मत्तप्पत्ती' अर्थात् दर्शनमोह का उपशम करके प्रथमसम्यक्त्व की उत्पत्ति का उपाय । 'सावय' अर्थात् देशविरति । 'विरदें' अर्थात् संयत । प्रणतकम्मसे' अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषाय की विसयोजना करने वाला । 'दसणमोहाखवगे' अर्थात् दर्शनमोह की क्षपणा करनेवाला । 'कसायउवसामगे' अर्थात् चारित्रमोहनीय का उपशम करने वाले। 'उवसंते' अर्थात् उपशान्त कषाय । 'खवगे' चारित्रमोह की क्षपणा करने वाला । 'खीरगमोहे क्षीणकषाय । “जिगेस' अर्थात् स्वस्थानजिन और योगनिरोध में प्रवर्तमानजिन । इस प्रकार इन गाथाओं
१. ये दोनों गाथाएँ ध. पु१२ पृ. ७८ प्रथम चूलिकारूप से दी गई है। वहाँ पाठ इस प्रकार है -
"सम्मत्तुप्पत्ती वि य सावयविरदे अण्तकम्मसे । दसगमोहक्खवए कसायउवसामए य उवसते ॥ ७ 11 खबए य स्रीणमोहे जिणे य शियमा भवे असंखेज्जा । तन्धिखरीदो कालो संखेजगुणाप य सेडीए 11 ८ ॥" २. घ. पु. १२ पृ. ७६ ।
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१०८ / गो. सा जीवकाण्ड
के द्वारा ग्यारह प्रकार की प्रदेशगुणश्रेणी निर्जंग की प्ररूपणा की गई है ।"
'तव्ववदोकालो' परन्तु इनका गुणश्रेणिनिक्षेप अध्वान उससे विपरीत है, अर्थात् श्रागे से पीछे की ओर वृद्धिगत होकर जाता है। पूर्व के समान असंख्यातगुणित श्रेणीरूप से प्राप्त वृद्धि का प्रतिषेध करने के लिए 'संखेज्जगुरणवकमा' अर्थात् संख्यातगुणितक्रम है, ऐसा कहा है। इसका विशेष कथन इस प्रकार है -
गाथा ६६-६७
' दर्शनमोह का उपशम करने वाले का गुणश्रेणिगुणकार सबसे स्तोक है ।। १७५ ।
'गुण' शब्द का अर्थ गुणकार है तथा उसकी श्रेणी, श्रावली या पंक्ति का नाम गुणश्रेणी है । मोहनीय का उपशम करने वाले के प्रथम समय में निर्जरा को प्राप्त होने वाला द्रव्य स्लोक है । द्वितीयसमय में निर्जरा को प्राप्त होने वाला द्रव्य उससे श्रसंख्यातगुणा है। उससे तीसरे समय में निर्जरा को प्राप्त होने वाला द्रव्य असंख्यातगुणा है। इस प्रकार दर्शनमोह के उपशमक के अन्तिम समय पर्यन्त ले जाना चाहिए। यह गुणकार पंक्ति गुणश्रेणी है। गुणश्रेणी का गुण गुणश्रेणिगुणकार कहलाता है । इसका भावार्थ यह है कि "सम्यक्त्व की उत्पत्ति में जो गुणश्रेणिगुणकार सर्वोत्कृष्ट है वह भी आगे कहे जाने वाले गुरणकार की अपेक्षा स्तोक है । ३
I
"उससे संयतासंयत का गुणश्रेणिगुणकार श्रसंख्यातगुणा है ॥ १७६ ॥ । '
संयतासंयत की गुणश्रेणी निर्जरा का जो जघन्य गुणाकार है वह पूर्व के उत्कृष्ट गुणकार की अपेक्षा भी असंख्यातगुणा है । "
"उससे अधः प्रवृत्तसंयत का गुणश्रेणिगुणकार प्रसंख्यातगुणा है ।।१७७॥ '
संयतासंयत के उत्कृष्ट गुणश्रेणिगुणकार की अपेक्षा स्वस्थानसंयत का जघन्यगुणकार संपतगुणा है ।
शङ्का – यतः संयमासंयम रूप परिणाम की अपेक्षा संयमस्य परिणाम अनन्तगुणा है । अतः संयमासंयम परिरणाम की अपेक्षा संयमपरिणाम द्वारा होने वाली प्रदेशनिर्जरा भी अनन्तगुणो होनी चाहिए, क्योंकि इससे दूसरी जगह सर्वत्र कारण के अनुरूप ही कार्य की उपलब्धि होती हैं ।
समाधान- नहीं, क्योकि प्रदेशनिर्जरा का गुरणकार योगगुरणकार का अनुसरण करने वाला है, अतएव उसके अनन्तगुणे होने में विरोध प्राता है। दूसरे, प्रदेशनिर्जरा में अनन्तगुणत्व स्वीकार करना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर गुणश्रेणिनिर्जरा के दूसरे समय में ही मुक्ति का प्रसङ्ग आएगा। तीसरे कार्य कारण का अनुसरण करता ही हो, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि अन्तरङ्ग काररण की अपेक्षा प्रवृत्त होने वाले कार्य के बहिरंग कारण के अनुसरण करने का नियम नहीं बन सकता |
शंका-सम्यक्त्वसहित संयम और संप्रमासंयम से होने वाली गुणश्रेणिनिर्जरा सम्यक्त्व के विना संयम और संयमासंयम से होती है, यह कैसे कहा जा सकता है ?
१. घ. पु. १२ पृ. ७९ । २. घ. पु. १२ पृ. ८० । ३. घ. पृ. १२ पृ. ८०
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माया ६६-६७
गुणस्थान / १०६
समाधान-नहीं, क्योंकि यहाँ सम्यक्त्वपरिणाम को प्रधानता नहीं दी गई है । अथवा संयम वही है जो सम्यक्त्व का अविनाभावी है अन्य नहीं, क्योंकि अन्य में गुणश्रेणिनिर्जरारूप कार्य नहीं उपलब्ध होता । इसलिए संयम के ग्रहण करने से ही सम्यक्त्वसहित संयम की सिद्धि हो जाती है ।"
'उससे अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करने वाले का गुणश्रेणिगुरपकार प्रसंख्यातगुणा
11 295 11'
स्वस्थानसंयत के उत्कृष्ट गुणश्रेणिगुणकार की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत जीवों में अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करने वाले का जघन्य गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है। यहाँ सब जगह गुणश्रेणिगुणकार' ऐसा कहने पर गलमान (निर्जीणें होने वाले) प्रदेशों का गुणश्रेणिगुणकार और निसिचमान ( निक्षिप्त किये जाने वाले ) प्रदेशों का गुणश्रेणिगुणकार ग्रहण करना चाहिए ।
शङ्का - यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान - यह गुणश्रेणिगुणकार' ऐसा सामान्य निर्देश करने से जाना जाता है।
शङ्का--संयमरूप परिणामों की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करने वाले असंयतसम्यग्दृष्टि का परिणाम ( विशुद्धि की अपेक्षा ) अनन्तगुणाहीन होता है। ऐसी अवस्था में उससे असंख्यातगुणी प्रदेश निर्जरा कैसे हो सकती है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संयमरूप परिणामों की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी कवायों की बिसंयोजना में कारणभूत सम्यक्त्वरूप परिणाम अनन्तगुणे ( विशुद्ध ) उपलब्ध होते हैं ।
शङ्का -- यदि सम्यक्त्वरूप परिणामों के द्वारा अनन्तानुबन्धी कषायों की बिसंयोजना होती है। तो सभी सम्यग्दृष्टियों में उसकी विसंयोजना का प्रसंग आता है ?
समाधान -- सर्व सम्यग्दृष्टियों में अनन्तानुबन्धी की त्रिसंयोजना का प्रसंग नहीं या सकता, क्योंकि विशिष्ट सम्यक्त्वरूप परिणामों के द्वारा ही अनन्तातुबन्धी कषायों की विसंयोजना स्वीकार की गई है।
'उससे दर्शनमोह का क्षय करने वाले जीव का गुणश्रेणिगुणकार प्रसंख्यातगुणा है ।। १७६ ।।'
अनन्तानुबन्धो की विसंयोजना करने वाले जीव के दोनों गुणश्रेणिसम्बन्धी उत्कृष्ट गुणकार की अपेक्षा दर्शनमोह का क्षय करने वाले जीव के दोनों प्रकार (गलमान और नित्रिमान प्रदेशों ) की गुणश्रेणियों का जघन्य गुणकार प्रसंख्यातगुणा है । अतीत अनागत और वर्तमान प्रदेशगुणश्रेणिगुणकार पल्योपम के प्रसंख्यातत्रं भागप्रमाण जानना चाहिए ।
'उससे कषायोपशासक का गुरगुरणकार प्रसंख्यातगुणा है ।।१८०॥
१. ध. पु. १२ पृ. ८१ २ . पु. १२ पृ. ८२३
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११०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६६-६७
दर्शनमोहनीय का क्षय करने वालो की दोनों प्रकार की गुणश्रेणियों के उत्कृष्ट गुणकार की अपेक्षा कषायों का उपशम करने वाले का जघन्य गुणकार असंख्यातगुणा है। दर्शनमोहनीय क्षपक के गुणश्रेणिगुणता नो अपूर्णगरमशागतः डा गुपाणिगुणकार असंख्यातगुणा है ।
शंका---इस प्रकार त्रारित्रमोहक्षपकों के भी पृथक्-पृथक् गुणकार के अल्पवहुत्व की प्ररूपणा करने पर गुणश्रेणिनिर्जरा म्यारह प्रकार की न रहकर पन्द्रह प्रकार की हो जाती है ?
समाधान--गुणश्रेणिनिर्जरा पन्द्रह प्रकार की नहीं होती, क्योंकि नैगमनय का अवलम्बन करने पर तीन उपशामकों और तीन क्षपकों के एकत्व की विवक्षा होने पर ग्यारह प्रकार की गुणश्रेणिनिर्जरा बन जाती है।
'उससे उपशान्तकषायवोतरागछास्थ का गुणधेरिणगुणकार असंख्यातगुणा है ॥१८१॥'
यहाँ मोहनोयकर्म को छोड़कर शेषकर्मों को दोनों गुणश्रेणियों के गुणकार सम्बन्धी अल्पवद्दुत्व की प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि यहाँ उपशम भाव को प्राप्त मोहनीयकर्म की निर्जरा सम्भव नहीं है।
'उससे कषायक्षपक का गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ।। १८२ ॥'
उपशान्त कषाय की दोनों गुणधेणियों सम्बन्धी उत्कृष्ट गुणकार को अपेक्षा द्रव्याथिकनय से अभेद को प्राप्त हुए तीनों क्षपकों का जघन्य भी गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ।
'उससे क्षोणकषायवीतरागछपस्थ का गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ॥१८३॥'
मोहनीयकर्म के बन्ध, उदय व सत्त्र का प्रभाव हो जाने से कमनिर्जरा की शक्ति अनन्तगुणी नृद्धिंगत हो जाती है।
'उससे अधःप्रवृस [स्वस्थान] केवली संयत का गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ॥१४॥'
धातियाकर्मों के क्षीण हो जाने से कर्मनिर्जरा का परिणाम अनन्तगुणीवृद्धि को प्राप्त हो जाता है।
'उससे योगनिरोधकेवली संयत का गुणवेरिणगुणकार असंख्यातगुणा है ॥१५॥' क्योंकि ऐसा स्वभाव है।
अब तश्विरीया काला संखेज्जगुणक्कमा होति' गाथासूत्र के इस पद का विशेष कथन किया जाता है
'योगनिरोधकेवली संयत का गुणधेणिकाल सबसे स्तोक है ॥१८६॥'
योगनिरोध करने वाले सयोगकेवली प्रायु को छोड़कर शेष कर्मों के प्रदेशों का अपकर्षण कर १. घ. पु. १२ पृ. ८३ । २. ध. पु. १२ पृ. ४ ।
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गाथा ६५
गुस्थान / १११
उदय में स्तोक देता है। उससे द्वितीय समय में असंख्यातगुणा देता है। उससे तृतीयस्थिति में संख्यातगुणानिक्षिप्त करता है। इसप्रकार अन्तर्मुहूर्तकाल तक निक्षिप्त करता है। उससे आगे के समय में असंख्यातगुणे दोन प्रदेश निक्षिप्न करता है। आगे अपनी-अपनी प्रतिस्थापनावली को प्राप्त नहीं होने तक विशेष ( चय) होन निक्षिप्त करता हूँ । यहाँ गुणश्रेणी कर्मप्रदेशनिक्षेप का अध्वान स्तोक है, क्योंकि वह सबसे जघन्य श्रन्तर्मुहूर्त प्रमाण है ।
'उससे अधःप्रवृत्तकेयली संयत का गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ।।१८७।'
यहाँ भी उदयादि गुणश्रेणी का क्रम पहले के समान ही कहना चाहिए। विशेष इतना है कि गुणश्रेणिप्रदेशनिक्षेप के अध्वान से अधःप्रवृत्त केवली के गुणश्रेणिप्रदेशनिक्षेप का अध्वान संख्यातगुणा है । गुणकार संख्यातसमय है ।
पूर्वं
'उससे क्षीणकषाय वीतरागछथस्थ का गुणश्रेणिकाल संख्यात गुणा है ॥१८८॥
गुणकार संख्यात समय है ।"
'उससे कषायक्षपक का गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ।। १८६ ।। '
गुणकार संख्यात समय है ।
'उससे उपशान्तकषायवीतरागच्छध्वस्थ का गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ॥ १६०॥ 'उससे कषायजपशामक का गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ॥११॥ '
'उससे दर्शनमोहक का गुणश्रेणिकास संख्यातगुणा है ॥ १६२॥ ।
'उससे अनन्तानुबन्धी विसंयोजक कर गुरश्रेणिकाल संख्यातगुरगा है ॥१३॥'
'उससे अधःप्रवृत्तसंयत का गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ॥१६४॥ ।'
अधःप्रवृत्तसंयत और एकान्तानुवृद्धि आदि क्रियाओं से रहित संयत इन दोनों का अर्थ एक है ।
'उससे संयतासंयत का गुणश्रेरिखकाल संख्यातगुणा है ।। १२५ ।। '
'उससे दर्शन मोहोपशामक का गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ।। १६६ ।।'
सर्वत्र गुणकार संख्यातसमय है । इस प्रकार गुणधेरिनिर्जंग के ग्यारह स्थानों का कथन पूर्ण हुआ 1
गुणस्थानातीत सिद्धों का स्वरूप
विह कम्म वियला सोदोभूदा खिरंजरगा रिगच्चा । श्रमुरणा दिकिच्चा लोयग्गरिवासियो सिद्धा ।। ६६ ।।
१. व. पु. १२ पृ. ८५ ।
२. घबल पु. १२ पृ. ६६-६७ । ३. व. पु. १ पृ. २०० प्रा. पं. सं. अ. १ मा. ३१ ।
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११२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६८
गाथार्थ--जो पाठप्रकार के कर्मों से रहित हैं, अत्यन्त शान्तिमय हैं, निरञ्जन हैं, नित्य हैं, आठगुणों से युक्त हैं, कृतकृत्य हैं और लोक के अग्रभाग पर निवास करते हैं, वे सिद्ध भगवान हैं ।।६८।।
विशेषार्थ-सिद्ध, निष्ठित, निष्पन्न, कृतकृत्य और सिद्ध-साध्य ये एकार्थवाची नाम हैं।' मुक्तजीव सिद्ध होते हैं। वे सिद्ध भगवान, ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-वेदनीय-मोहनीय-आयु-नाम-गोत्र और अन्तराय इन मूल प्रकृतिरूप पाठकों का क्षय कर देने से अष्टविध कर्मरहित हैं। इन पाठकर्मों की उत्तरप्रकृतियाँ १४८ हैं और उत्तरोत्तर प्रकृतियां असंख्यात हैं, अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा अनन्त हैं । इन सब प्रकृतियों-सम्बन्धी स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के बन्ध-उदय-सत्त्व आदिका सम्पूर्ण रूप से क्षय कर देने से इन कर्मों से 'वियला' विगत अथवा प्रच्युत हैं । अथवा सिद्धभगवान द्रव्यकर्मभाबकर्म और नोकर्म ऐसे तीन प्रकार के कर्ममल से रहित हैं ।
दुसरा विशेषरण है "सोवीमूदा" पूर्व संसारावस्था में जन्म-मरणादि भवदुःखों से तथा रागद्वेष-मोहरूप दुःखों के ताप से तप्तायमान अशान्त थे । मोक्षावस्था में भवभ्रमण दुःखताप का, रागद्वेषताप का अभाव हो जाने से और आत्मोत्पन्न अनन्त सुखामृत का पान करने से 'सीदीभूदा' अर्थात् अत्यन्त शान्त हो गये हैं । तृतीय विशेषण है 'रिणरंजणा' अजन अर्थात् कज्जल, कालिमा । यह जिस प्रकार पदार्थ के स्वरूप को मलिन कर देती है, उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्म विशुद्ध अात्मस्वभावअनन्तज्ञानादि की' मलिनता के कारण होने से कर्म अजन हैं । इन कर्मों को निष्क्रान्त कर देने से सिद्धभगवान निरंजन हैं । बन्ध के हेतु मिथ्यादर्शन, अबिरति, प्रमाद, कषाय का नाश हो जाने से
और नवीनकर्म के पास हेतु योग निरोध हो जाने से भी जिवान निरंजन हैं। चतुर्थ विशेषण 'णिच्चा' अर्थात् नित्य हैं । यद्यपि सिद्धों में प्रतिसमय काल के निमित्त से अगुरुलघगण के द्वारा स्वाभाविक अर्थपर्यायरूप उत्पाद-व्यय होता रहता है, तथापि अनन्तज्ञानादि विशुद्ध चैतन्य की अपेक्षा और सामान्य द्रव्य-आकार की अपेक्षा सिद्ध भगवान नित्य हैं अर्थात् अपने शुद्धस्वभाव व द्रव्याकार से कभी विचलित नहीं होते।
पंचम विशेषण 'अद्वगुणा' है। अष्टकर्मों के क्षय होने से सिद्धों में क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन, क्षायिकवीर्य, सूक्ष्मत्व (अमूर्तिकत्व), अवगाहनत्व, स्वाभाविक अगुरुलधु, अव्याबाध ये पाठगुण उत्पन्न हो जाते हैं । कहा भी है
मोहो खाइयसम्मं केवलणाणं च केवलालोयं । हणवि प्रावरणवुगं अणंतविरियं णेवि विग्धं तु । सुहमं च णामकम्म हदि प्राऊ हणेवि अवगहणं । अगुरुलहुगं गोवं अन्वावाहं हणेइ वेयणियं ॥
[गो.जी. कन्नड़ी टीका ६८] मोहनीयकर्म के क्षय से (१)क्षायिकसम्यक्त्व, ज्ञानाबरण-दर्शनावरण इन दो आवरणको के नाम से क्रमश: (२) केवलज्ञान और (३) केवल दर्शन, अन्तरायकम के विनाश से (४) अनन्तवीर्य, नामकर्म के नाश से (५) सूक्ष्मत्व (अमूर्तत्व), आयुकर्म के नाश से (६) अवगाहनत्व, गोत्रकर्म के नाश से (७)अगुरुलघुत्व और वेदनीयकर्म के नाण से ( ) अव्याबाधत्व ये पाठगुण सिद्धों में
१. घ. पु. १ पृ. २००।
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गाचा ६८
गुणस्थान/११३
प्रकट होते हैं। यहाँ प्रष्ट कर्मों के क्षय से प्राठगुण कहे गये हैं, तथापि सिद्धों में अनन्तगुण हैं। जैसे चारित्रमोह के क्षय से क्षायिक चारित्र, अकषाय, अवेद, वीतराग आदि गुण भी सिखों में हैं किन्तु उन 'गुणों का इन पाठगुणों में अन्तर्भाव हो जाता है ।
छठा विशेषण किचकिच्चा' है । प्रयोगकेवली के जब तक चरमनिषेक का अन्तिमशुक्लध्यान के द्वारा क्षय नहीं हुआ तब तक वे कृतकृत्य नहीं हुए, क्योंकि उनको उदयस्वरूप कर्मों का क्षय करना था। समस्त कर्मों का पूर्णरूप से क्षय हो जाने पर मोक्ष अर्थात् सिद्धावस्था प्राप्त हो जाने से सिद्धभगवान को अब कुछ करना शेष नहीं रहा । केवलज्ञान-दर्शनादिरूप परिणाम स्वाभाविक हैं, कृत्य नहीं हैं । सातवाँ विशेषण 'लोयग्गणिवासिणों' है। यद्यपि अनन्तानन्तप्रदेशी आकाशद्रव्य एक है तथापि धर्मास्तिकाय के कारण उसका लोकाकाश और अलोकाकाशरूप विभाजन हो गया, क्योंकि गमन में सहकारी कारण धर्म द्रव्य के अभाव में जीव व पुद्गल द्रव्य धर्मद्रव्य से आगे नहीं जा सकते। कहा भी है--
लोयालोयविभेयं गमणं ठाणं च जाण हेहि । आइ नहि ताणं हेऊ किह लोयालोयववहारो॥१३४॥ [नयचर] जादो प्रलोगलोगो जेसि सम्भावावो य गमण-ठिकी।
नो डि य मरस विभता अनिता लोयमेना य॥ [पंचास्तिकाय] श्री अमृतचन्द्राचार्य कृस टीका-"धर्माधमो विद्यते लोकालोक-विभागान्यथानुपपतः।" यदि धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य न हो तो लोकाकाश व अलोकाकाश का विभाग नहीं हो सकता था । धर्मास्तिकाय से विभाजित आकाशद्रव्य के लोकाकाश क्षेत्र के अग्र अर्थात् उपरितन तनुवातवलय के अन्तिमभाग में सिद्धभगवान स्थित हैं । यद्यपि आत्मा का ऊर्ध्वगमनस्वभाव है और अनन्तवीर्य है तथापि वह सहकारीकारण धर्मास्तिकाय को अपेक्षा रखता है । सहकारीकारण के सन्निधान में ही प्रात्मा का गतिपरिणाम सम्भव है । गति में कारणभूत धर्मास्तिकाय के अभाव में तनुवातबलय से पागे सिद्ध भगवान का गमन नहीं होता, अतः दे लोक के ऊपर तनुपातवलय में स्थित हो जाते हैं । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने पंचास्तिकाय में कहा है--
प्रागासं अवगासं गमरणदिदिकारणेहि देवि जदि । उड्डंगविप्पधाणा सिद्धा चिट्ठति किध तत्थ ॥१२॥ जा उरिटाणं सिद्धाणं जिणवरेंहि पणत ।
तहमा गमणवारणं प्रायासे जाण गस्थित्ति ॥१३॥ श्री अमृतवाचार्यकृत टीका--"सर्वोत्कृष्टस्वाभाविकोर्ध्वगतिपरिणता भगवन्तः सिद्धाबहिरङ्गान्तरङ्गसाधनसामग्र्यां सत्यामपि फुतस्तत्राकाशे तिष्ठन्ति इति । यसो गत्या भगवन्तः सिद्धाः लोकोपर्यवसिष्ठन्ते ततो गतिस्थिसिहेतुत्वमाकाशे नास्तीति निश्चेतव्यम् । लोकालोकावच्छेवको धर्माधर्मावेब गतिस्थितिहेतु मंतव्याविति ।"
इन गाथाओं से व टीका से यह स्पष्ट है कि अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग दोनों कारणों के मिलने पर गति होती है। श्री सिद्धभगवान सर्वोत्कृष्ट स्वाभाविक ऊर्ध्वगति से परिणत हैं, किन्तु बहिरङ्गकारण धर्मद्रव्य के प्रभाव में लोक के ऊपर अग्रभाग में ठहर जाते हैं, क्योंकि उससे अागे गमन नहीं
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११४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६९
कर सकते ।। सिद्धों के ये सातों विशेषण परमतों की मान्यताओं के निषेध के लिए दिये गये हैं ।
जिन्होंने समस्त कर्मों का निराकरण कर दिया है, जिन्होंने बाह्य पदार्थों की अपेक्षा रहित, अनन्त, अनुपम, स्वाभाविक और प्रतिपक्षरहित सुख को प्राप्त कर लिया है, जो निर्लेप हैं, अचलस्वरूप को प्राप्त हैं, सम्पूर्ण अवगुणों से रहित हैं, सर्वगुरणों के निधान हैं, जिनका स्वदेह अर्थात् आत्मा का आकार चरमशरीर से कुछ न्यून है, जो कोश से निकले हुए बाण के विनिःसंग हैं और लोक के अग्नभाग में निवास करते हैं, व सिद्ध हैं ।
सर्वार्थ सिद्धिइन्द्रक विमान के ध्वजदण्ड से बारह योजन ऊपर जाकर पाटवीं पृथिवी स्थित है। आठवीं पृथिवी के ऊपर सात हजार पचास धनुष जाकर सिद्धों का आवास है। चार हजार धनुष का घनोदधिवातबलय, दो हजार धनुष का घनवातवलय, १५७५ धनुष में से ५२५ धनुष प्रमाण सिद्धों को अवगाहना घटाने पर (१५७५-५२५)=१०५० धनुष तनुवातवलय, इस प्रकार (४००० + २०००+१०५०) =७०५० धनुष ऊपर जाकर सिद्धभगवान का निवास है 1 सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना पाँच के वर्ग से युक्त ५०० अर्थात् ५२५ धनुष और जघन्य अवगाहना सादेतीन हाथप्रमाण है 1५ सर्व सिद्धों की अवगाहना का प्रमाण कुछ कम चरमशरीर के प्रमाण है। एक सिद्धजीव से अबगाहित क्षेत्र के भीतर जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम प्रवगाहना से सहित अनन्तसिद्ध जीव होते हैं। मनुष्यलोक (ढाईद्वीप) प्रमाण स्थित तनुवातवलय के उपरिमभाग में सर्व सिद्धों के मस्तक सदृश होते हैं ।
गाथा के अन्त में 'सिद्ध' पद है। वे सिद्ध अञ्जनसिद्ध, पादुकासिद्ध, गुटिकासिद्ध, दिग्विजयसिन्च, खड्गसिद्ध आदि लौकिकसिद्धों से विलक्षण तथा सम्यक्त्वादि अष्टगुणों के अन्तर्भूत निर्नाम, निर्गोत्र, प्रमुर्तत्वादि अनन्तगृण लक्षरणवाले होते हैं ।
गाथा में सिद्धों के जो सात विशेषण दिये हैं वे अन्य मतों का निराकरण करने को दृष्टि से दिये गये हैं । अतः अब उसी को स्पष्ट करने के लिए आगे एक गाथा द्वारा कथन करते हैं
सिद्धों के उक्त सात विशेषणों का प्रयोजन सवासिव संखो मक्कडि बुद्धो याइयो य येसेसी।
ईसरमंडलिवंसरणविदूसरराष्ट्र कयं एवं ॥६६॥' गाथार्थ-सदाशिव, सांख्य, मस्करी (संन्यासी), बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, ईश्वर, मंडलि इन दर्शनों अर्थात् मतों को दूषण देने के लिए (गाथा ६८ में) सिद्धों के विशेषण कहे गये हैं ।।६।।
विशेषार्थ-सदाशिव मत वाले जीव को सदा मुक्त और कर्ममल से अस्पृष्ट शाश्वत मानते हैं । उसका निराकरण करने के लिए 'सिद्धभगवान पाटकों से रहित हैं' ऐसा कहा गया है । पूर्व में
१, सकलकर्मविप्रमुक्तः परमात्मा सिद्धपरमेष्ठी ऊर्ध्वगमनस्वभावत्वाल्लोकानपर्यन्तमूर्ध्व गत्वा तत्रंब तिष्ठति ततो बहिर्गमनसहकारि-धर्मास्तिकायाभावात् न गच्छति । (सिवान्तचक्रवर्ती-श्रीमदभमचन्द्रसूरि कृत टोका) २. घ. पु. १. पृ. २०० । ३. ति. प. ८/६५२ । ४. ति. प. ६/३। ५. लि. प. ६/६1 ६. ति. प. ६/१। ७. ति. प. ६/१४-१५ । ८. पं. का. गा. ९३, जयसेनाचार्यकृत टीका । ६. यह गाथा थी माषचन्द्र विद्यदेव विरचित है।
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गाथा ६६
गुणस्थान / ११५
I
बँधा हुआ होता है उसी के लिए 'मुक्त' पद का व्यवहार होता है । जैसे सकिल से बंधे हुए चोर के लिए 'मुक्त' शब्द का व्यवहार होता है। अबद्ध होने से प्राकाशादि के लिए 'मुक्त' शब्द का व्यवहार नहीं होता। इससे सिद्ध हो जाता है कि बन्धपूर्वक ही मोक्ष होता है । प्रात्मा अनादिकाल से कर्मों से बँधी हुई हैं, उन कर्मों का क्षय हो जाने पर मोक्ष होता है । यह आगम में प्रसिद्ध है । मिथ्यादर्शनादि से बन्ध होता है। सम्यग्दर्शनादि श्रर्थात् सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यक् चारित्र से मोक्ष होता है, इसका तर्कशास्त्र से समर्थन होता है ।
सांख्य मत मानता है कि प्रकृति को ही बन्ध-मोक्ष व सुख-दुःख होता है. आत्मा को बन्ध-मोक्ष व सुख-दुःख नहीं होता । उसको दूषण देने के लिए 'सोदोमूदा' अर्थात् 'शान्तिमय हो गये' सिद्धों का यह विशेषण दिया गया है। आत्मा ही मिथ्यादर्शनादि भावरूप परिणत होती है और उसके कारण कर्मबन्ध होता है जिसका फल दुःखरूप भवाताप है । सम्यग्दर्शनादि परिणत आत्मा को मोक्ष होता है और उसका फल सुखरूप शान्तिभाव है। इससे सिद्ध है कि श्रात्मा को ही बन्ध - मोक्ष व सुख-दुःख होता है। प्रकृति (प्रधान) प्रचेतन है, उसको सुख-दुःख का अनुभव नहीं हो सकता ।
Reet का सिद्धान्त है कि मुक्तजीव के भी पुनः कर्मरूप प्रञ्जन का संश्लेष सम्बन्ध होने से - वे भी पुनः संसारी हो जाते हैं, क्योंकि सब जीवों के मुक्त हो जाने पर संसार के प्रभाव का प्रसंग आ जायेगा इसलिए मस्करी ने यह सिद्धान्त बनाया कि मुक्तजीव भी पुनः कर्मों से बँधकर संसारी हो जाते है जिससे संसारोजीव हमेशा पाये जाते हैं । अतः मस्करीमत का निराकरण करने के लिए सिद्धों का 'मिरजण' विशेषरण दिया गया है । समस्त भावकर्म द्रव्यकर्म से पूर्णरूप से मुक्त हो जाने के कारण विशुद्धस्वभाववाले के बन्ध के कारण मिथ्यादर्शनादि भावकर्म का प्रभाव है इसलिये भावकर्म का कार्यभूत बन्ध सम्भव है, अन्यथा मोक्ष निर्हेतुक हो जायेगा और संसार के अभाव का प्रसंग श्रा जायेगा । संसार में अनन्तानन्तजीव हैं, अनन्तकाल तक मुक्त होते रहने पर भी संसारी जीवों का अभाव नहीं होगा । प्रायरहित और व्ययसहित होने पर भी जिस राशि का अन्त न हो वह अनन्त है ।
मतवाले मानते हैं कि 'ज्ञान-संतान का प्रभाव मोक्ष है इसका निराकरण करने के लिए freear' प्रर्थात् नित्य विशेषरण दिया है। मोक्ष तो उपादेय है और उसके लिए तप व योग आदि : प्रयत्न किया जाता है। यदि ज्ञानसंतान क्षयरूप मोक्ष हो तो ऐसे मोक्ष के लिए कोई भी प्रयत्न नहीं करेगा, क्योंकि अनिष्ट फल के लिए प्रयत्न करना अशक्य है । लोक में प्रसिद्ध है कि बुद्धिमान पुरुष कभी अपने हित के लिए प्रवृत्ति नहीं करता । सभी पुरुष अपूर्वलाभ के लिए प्रयत्न करते हैं न कि मूल- विनाश के लिए। जीवादि सब द्रव्य श्रनादिनिधन हैं, इसका समर्थन तर्कशास्त्र से भी होता है । NOTHING IS CREATED NOTHING IS DESTROYED अतः द्रव्यार्थिकनय से जीव द्रव्य नित्य है । वौद्धों का द्रव्यों को क्षणिक मानना प्रत्यक्ष विरुद्ध भी है ।
"
नैयायिक और वैशेषिक दार्शनिकों का मत है कि "बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, तथा संस्कार, श्रात्मा के इन नौ विशेषगुणों की अत्यन्त व्युच्छित्ति (नाश ) मुक्ति है 1 उनका निराकरण करने के लिए 'अट्टगुणा' विशेषण दिया गया है। परमात्मा के स्वाभाविक केवलज्ञानादि गुण हैं। गुणों का नाम होने पर उन गुणों से अभिन्न स्वरूप द्रव्य के नाश का प्रसङ्ग प्राप्त हो जायेगा । मुक्ति में ज्ञानादि गुणों का प्रभाव मानने पर परमात्मा के अचेतनत्व का प्रसङ्ग मा जाएगा, जैसेज्ञानगुण के प्रभाव से आकाशादिक अचेतन हैं। चेतना का स्व और पर संवेदन (जानना) स्वभाव है ।
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११६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १६
जिस मोक्ष में स्वगुण का नाश होता हो, ऐसे अनिष्ट फलवाले मोक्ष के लिए तत्त्ववेत्ता का तप और योगादिरूप प्रयत्न प्रयुक्त है । अर्थात् तत्त्ववेत्ता ऐसे अनिष्ट फलवाले मोक्ष के लिए प्रयत्न नहीं करते । मोक्ष में स्वाभाविक गुरणों का नाश नहीं होता, अपितु स्वाभाविक गुण विद्यमान हो जाते हैं।
ईश्वरवादी परमात्मा को सदा मुक्त मानते हुए भी उसको सृष्टि का कर्ता मानते हैं । उनका निराकरण करने के लिए किवकिच्चा' विशेषण दिया है अर्थात परमात्मा कृतकृत्य हैं, ऐसा कहा गया है । त्रिकालगोच र अर्थात् अनादिनिधन अनन्तद्रव्य और उनके गुरण व पर्याय रूप लोकालोक सव को जानते व देखते हुए भी तथा अनन्तसुखामृत का अनुभवन करते हुए भी तथा अनन्तवीर्य होते हुए भी समस्त कल्मषता का नाश कर देने से विशुद्ध स्वभाववाले सिद्धपरमेष्ठी परमात्मा लोकशिखर पर प्रकाशमान हो रहे हैं, जैसे निर्मल रत्न का दर्पण प्रकाशमान होता है । प्रयोजन के अभाव के कारण तथा कर्मनिर्जरा और तत्सम्बन्धी अनुष्ठान कर त्रुकने के कारण परमात्मा बाह्य कार्य कुछ भी नहीं करते । उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप जगमावि तो वा निमित्कार पालय के प्राश्रय से स्वत: हो रहा है। विचारशील चतुर पुरुषों को, 'परमात्मा सृष्टिकर्ता है' यह कथन अयुक्त ही प्रतिभासित होता है। तर्कशास्त्रों में भी ईश्वरसृष्टिकर्तृत्व का अर्थात् जगत्सृष्टिवाद का बहुधा निराकरण किया गया है: उन तर्कशास्त्रों से भी समर्थन होता है। अतः ईश्वर जगत्सृष्टि का कर्ता नहीं है ।
मंडलि-वार्शनिकों का मत है कि परमात्मा का ऊर्ध्वगमनस्वभाव है और उसमें कछ भी रुकावट न होने से परमात्मा ऊपर चले जा रहे हैं ।' उसका निराकरण करने के लिए 'लोयग्गरिगवासिगो' अर्थात् 'लोक के अग्रभाग में निवास करने वाले' ऐसा विशेषरा दिया है । जीव और पुद्गलों के गमन में सहकारी कारण धर्मद्रव्य है । वह धर्मास्तिकाय जितने क्षेत्र को व्याप्त करके रहता है उतने ही क्षेत्र में जीव और पुद्गलों का गमन होता है, उससे बाह्मक्षेत्र में गमन का अभाव है। लोक भी उतना ही है । गमन की निवृत्तिरूप स्थिति का हेतु अधर्मास्तिकाय भी उतने ही क्षेत्र में ठहरा हुआ है । इसलिए सकलकर्म से रहित सिद्धपरमेष्ठी परमात्मा ऊर्वगमन स्वभाव के कारण लोक के अग्रभाग पर्यन्त ऊपर जाकर वहीं पर ठहर जाते हैं, क्योंकि गमन में बहिरंग सहकारीकारण धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोकाग्र से आगे नहीं जाते । अन्यथा सहकारी कारण धर्मास्तिकाय के प्रभाव में भी और सर्वगत सर्व आकाश के सहकारीकारण होने पर सर्वजीव-पुदगलों का सर्वश्रआकाश को व्याप्त करके गमनागमन का प्रसंग आ जाने से लोक और अलोक के विभाग का अभाव दुनिवार हो जाएगा, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि लोक और अलोक का विभाग सर्वसम्मत है । इस प्रकार परमात्मा के लोकाग्रनिवास सिद्ध हो जाता है।'
शंका--सिद्धों और अरिहन्तों में क्या भेद है ?
समाधान --आठकों को नष्ट करने वाले सिद्ध होते हैं और चार घातिया कर्मों को नष्ट करने वाले अरिहन्त होते हैं । यही उन दोनों में भेद है ।
शंका-चार घातियाकर्मों के नष्ट हो जाने पर अरिहन्तों की आत्मा के.समस्त गुण प्रकट हो जाते हैं इसलिए सिद्ध और अरिहन्त परमेष्ठी में गुणकृत भेद नहीं हो सकता है ?
१. सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमदभयचन्द्र सूरि को टीका के आधार से यह विशेषार्थ लिखा है।
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गार्थ ७०
जीवसमास/९१७ समाधान--ऐसा नहीं है, क्योंकि अरिहन्तों के अधातिया कर्मों का उदय और सत्त्व दोनों पाये जाते हैं, अतएव इन दोनों परमेष्ठियों में गुरराकृत भेद भी है।
शा-वे अघातियाकर्म शुक्लध्यानरूप अग्नि के द्वारा अर्ध-जले हो जाने के कारण उदय और सत्त्वरूप से विद्यमान रहते हुए भी अपना कार्य करने में समर्थ नहीं हैं ?
समाधान—ऐसा भी नहीं है, क्योंकि शरीर के पतन का अभाव अन्यथा सिद्ध नहीं होता है, अतः अरिहन्तों के आयु आदि शेष कर्मों के उदय और सत्त्व की सिद्धि हो जाती हैं।
शा-कर्मों का कार्य तो चौरासीलाख योनिरूप जन्म, जरा और मरण से युक्त संसार है । वह अघातिया कर्मों के रहने पर भी अरिहन्त परमेष्ठी के नहीं पाया जाता है तथा प्रघातिया कर्म प्रात्मा के मुरणों का घात करने में असमर्थ भी हैं । इसलिए अरिहन्त और सिद्ध परमेष्ठी में गुणकृत भेद मानना ठीक नहीं है।
समाधान --ऐसा नहीं है, क्योंकि जीव के ऊर्ध्वगमन स्वभाव के प्रतिबन्धक आयुकर्म का उदय और सुख गुण के प्रतिबन्धक वेदनीयकर्म का उदय अरिहन्तों के पाया जाता है, इसलिए अरिहत्तों और सिद्धों में गुणकृत भेद है ।
शा-ऊर्ध्वगमन आत्मा का गुण नहीं है, क्योंकि उसको आत्मा का गुण मान लेने पर इसके प्रभाव में प्रात्मा का भी प्रभाव मानना पड़ेगा। इसी कारण सुख भी प्रात्मा का गुण नहीं है। दूसरे, वेदनीय कर्मोदय केवलियों में दुःख उत्पन्न नहीं करता है, अन्यथा केवलीपना नहीं रहेगा।
समाधान–यदि ऐसा है तो रहो, क्योंकि वह न्यायसंगत है। फिर भी सलेपत्व और निर्लेपत्व को अपेक्षा और देशभेद की अपेक्षा उन दोनों परमेष्ठियों में भेद सिद्ध है ।'
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में गुणस्थान प्ररूपणा नामक प्रथम अधिकार पूर्ण हुमा ।
२. जीवसमास-प्ररूपरणा
जीवसमास का निरुक्तिपूर्वक सामान्य लक्षण 'जेहि प्रणेया जीवा, पज्जते बहुविहा वि तज्जादी ।
ते पुरण संगहिदत्था, जीवसमासा ति विष्णेया ॥७॥ गाथार्य-जिन धर्मविशेषों के द्वारा नाना जीव और उनकी नानाप्रकार की जातियाँ जानी जाती हैं, जातियों का संग्रह करने वाले ऐसे उन धर्मों को जीवसमास कहते हैं ।।७।।
१. धदल पु. १ पृ. ४७-४८।
२. प्रा.पं.सं.गा. १/३२ ।
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११८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ७१ विशेषार्थ-- यद्यपि जीव बहुत हैं और बहुत प्रकार के हैं (जैसे पृथ्वी, रेत, पत्थर प्रादि तथा जल, प्रोस, बर्फ प्रादि; तेज हवा, अांधी, मन्द ह्वा आदि ; दावानल, बड़वानल, ज्वाला आदि अग्नि; वृक्ष, घास, पौधा आदि वनस्पति) तथापि इन सबके एक स्पर्शन-इन्द्रिय है। इस सदृशधर्म की अपेक्षा ये सब अनन्तानन्त जीव एकन्द्रिय जाति में गांभित हो जाते हैं। विवक्षित सामान्यधर्म के द्वारा जो लक्षित किये जायें या जाने जायें वे सब जीव एकजाति में अन्तर्भूत होते हैं। जीवसमास में उन जातियों का संग्रह किया जाता है। उस जाति का जिसमें संग्रह किया जाय, वह जीवसमास है।
उत्पत्ति के कारण की अपेक्षा जीवसमास का लक्षण तसचदुजुगारणमज्झ, अविरुद्ध हि जुबजाविकम्मुदये ।
जीवसमासा होति ह तभवसारिच्छसामणा ॥७१।। गाथार्थ - अस प्रादि चार युगलों के मध्य अविरुद्धकर्मप्रकृतियों से युक्त जातिनामकर्मोदय होने पर जो तद्भवसादृश्यसामान्य है, वह जीवसमास है ॥७१।।
विशेषार्थ-नामकर्म को स-स्थावर, बादर-सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त व प्रत्येक साधारण इन आठ प्रकृतियों के मध्य स-बादर-पर्याप्त-प्रत्येक अथवा त्रस-बादर-अपर्याप्त-प्रत्येक; ये परस्पर अविरुद्धप्रकृतियाँ हैं। श्रस के साथ स्थावर-सूक्ष्म-साधारण इन तीन का विरोध है । स्थावर के साथ अस का विरोध है, शेष छह प्रकृतियाँ अविरुद्ध हैं, किन्तु सूक्ष्म व बादर परस्पर में विरुद्ध हैं। इसी प्रकार शेष दो युगलों की प्रकृतियाँ भी परस्पर विरुद्ध हैं। एकेन्द्रियादि जाति नामकर्म की पांच प्रकृतियों में से किसी एक जाति-नामकर्मोदय के साथ यथासम्भव इन पाठप्रकृतियों में से चार अविरुद्ध मिल जाने पर जो तद्भव (तेषु भर्व विद्यमानं तद्भवं) अर्थात् उनमें विद्यमान जो सादृश्यसामान्य है, वह जीवसमास है। जैसे एकेन्द्रिय जाति-नामकर्मोदय के साथ पृथिवी स्थावरकाय-बादर-पर्याप्तप्रत्येकणरीर मिलाने से इसमें और एकेन्द्रियजाति-नामकर्मोदय के साथ जलस्थावरकाय बादर-पर्याप्तप्रत्येकशरीर मिला देने पर इसमें अर्थात् इन दोनों में एकेन्द्रियजाति, स्थावर, बादर, पर्याप्त व प्रत्येक सादृश्यसामान्य है अतः इन दोनों का बादर-एकेन्द्रियपर्याप्त यह एक जीवसमास है। सादृश्यसामान्य को तिर्यक्सामान्य भी कहते हैं। जैसे एक काली गाय, दूसरी गौरी गाय ; इन दोनों में गो-पना सादृश्यसामान्य है। अर्थान्तरों में अर्थात् भिन्न-भिन्न पदार्थों में जो सदृशपरिणाम होता है वह सादृश्यसामान्य अथवा तिर्यक्सामान्य है ।' कहा भी है ।।
"सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत्॥४॥" [परोक्षामुख : चतुर्थ समुद्देश]
-~-सदश अर्थात् सामान्य परिणाम तिर्यक्सामान्य है । जैसे खण्डी-मुण्डी श्रादि गायों में गोपना समानरूप से रहता है ।।४।।
इस गाथा में सूचित किया गया है कि बादर व सूक्ष्म तथा पर्याप्त-अपर्याप्त नामकर्मोदय के कारण जीवसमास में भेद हो जाते हैं।
१. मन्दप्रबोधिनी टीका के प्राधार से ।
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नाफा ७२-७३
जीवसमास के १४ भेद
'बादरहमे इंदिय-वितिचउरिषिय अस सिणी य । पज्जत्तापज्जत्ता एवं ते चोदसा होंति ॥७२॥
"
. जीवसमास / ११६
गाथार्थ - बादरए केन्द्रिय, सूक्ष्मएकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चारइन्द्रिय, श्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, इन सात के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से (७ x २ = ) १४ जीवसमास होते हैं || ७२ ||
विशेषार्थ - एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं, बादर अर्थात् स्थूल और दूसरे सूक्ष्म । एकेन्द्रिय जीवों में पांचों स्थावर गभित हो जाते हैं । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय ये तीनों विकलत्रय जीव नस होते हैं। पंचेन्द्रिय जीव भी संज्ञी व प्रसंज्ञी के भेद से दो प्रकार के होते हैं। ये पंचेन्द्रिय जीव भी त्रस ही होते हैं । स जीव बादर ही होते हैं, सूक्ष्म नहीं होते, इस कारण बादर व सूक्ष्म की पेक्षा द्वीन्द्रियादि के सूक्ष्म व बादर ये दो भेद नहीं होते । इस प्रकार बादर व सूक्ष्म की अपेक्षा एकेन्द्रियों के दो, संज्ञी असंज्ञी की अपेक्षा पंचेन्द्रिय के दो तथा विकलत्रय के तीन ये सब ( २+२+३) सात भेद पर्याप्त पर्याप्त होते हैं, अतः सात को दो से गुरगा करने पर चौदह जीवसमास होते हैं । वे इस प्रकार हैं
१. पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय अनन्तजीव, २. अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय अनन्तजीव ३. पर्याप्तसूक्ष्मएकेन्द्रिय-अनन्तजीव, ४. अपर्याप्त सूक्ष्मए केन्द्रिय अनन्तजीव, ५. बादर पर्याप्त हीन्द्रिय संस्थातजीव, ६. बादर अपर्याप्त द्वीन्द्रिय असंख्यातजीव ७. बादर पर्याप्त त्रीन्द्रिय असंख्यातजीव, म. बादर अपर्याप्तत्रीन्द्रिय संख्यातजीव ६ बादरपर्याप्तिचतुरिन्द्रिय असंख्यातजीव, १०. बादर अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय असंख्यात जीव, ११. संजीपर्याप्त पंचेन्द्रिय असंख्यात जीव. १२. संज्ञी अपर्याप्त पंचेन्द्रिय असंख्यातजीव, १३. असंजीपर्याप्तपंचेन्द्रिय प्रसंख्यातजीव, और १४. असंज्ञी अपर्याप्त पंचेन्द्रिय• असंख्यात जीव | इस प्रकार संक्षेप से ये चौदह जीवसमास होते हैं ।
उन्नीस तथा ५७ जीवसमास
भू-प्राउ-उ-बाऊ पिञ्चच दुग्गविगि गोदथूलिवरा ।
पत्तेयपदिद्विवरा तसपरण पुण्णा पुण्णवुगा ॥७३॥
गाथा - पृथ्वी कायिक, अप् (जल) कायिक, तेजकायिक, वायुंकायिक, साधारणवनस्पतिकायिक के दो भेद नित्यनिगोद व चतुर्गतिनिगोद इन छह भेदों में प्रत्येक के स्थूल (बादर) व इतर (सूक्ष्म) दो-दो भेद इस प्रकार बारह प्रत्येक वनस्पति के दो भेद संप्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित ये दो मिलकर स्थावर के चौदह भेद, इनमें त्रस के पाँच भेद मिलाने से ( १४ + ५) १६ भेद हो जाते हैं । - प्रत्येक के पर्याप्त व दो प्रकार के अपर्याप्त ( २ + १) ये तीन भेद करने से ( १६ x ३ ) ५७ जीवसमास हो जाते हैं ।। ७३ ।।
विशेषार्थ - भू- कायिक अर्थात् पृथ्वी कायिक, श्राजकायिक अर्थात् जलकायिक, ते कायिक अर्थात
१. प्रा. पं. सं. १/३४ |
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१२० गो. सर. जीव काण्ड
गाथा ७३
तेजकायिक अथवा अग्निकायिक, वाउकायिक अर्थात् वायुकायिक ये चार स्थावरकाय तो प्रत्येक शरीरबाले ही होते हैं। जो साधारण शरीरवाले वनस्पतिकायिक जीव हैं, वे निगोदिया होते हैं । निगोद दो प्रकार का है - नित्यनिगोद और चतुर्गतिनिगोद । पृथ्वी कायिक अपकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, नित्यनिगोद और चतुर्गतिनिगोद इन छह में प्रत्येक के बादर और सूक्ष्मभेद होने से ( ६x२) बारह भेद हो जाते हैं । प्रत्येकशरीरवाली वनस्पतिकायिक भी प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित के भेद से दो प्रकार की है । प्रत्येकवनस्पति बादर ही होती है (सूक्ष्म नहीं होती ) अतः इसमें सूक्ष्म बादर ऐसे दो भेद नहीं होने से दो भेद ही हैं। इन्हें बारह भेदों में मिलाने से (१२२) १४ भेद स्थावर कायसम्बन्धी होते हैं । त्रस के पाँच भेद हैं- द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञीपंचेन्द्रिय, श्रसंज्ञीपंचेन्द्रिय ।
सजीव भी सब बादर ही होते हैं । स्थावरकायसम्बन्धी उपयुक्त १४ भेदों में त्रसकायसम्बन्धी ये पाँच भेद जोड़ देने से जीवसमास के १६ भेद हो जाते हैं । इन १६ जीवसमासों में प्रत्येक के पर्याप्त और . दो प्रकार के पर्याप्तरूप (निवृत्ति - अपर्याप्त, लब्धि अपर्याप्तरूप) तीन-तीन भेद होने से (१९४३) ५७ भेद जीवसमास के हो जाते हैं ।"
जाति-जीवों के सद्यपरिणाम को जाति कहते हैं। यदि जाति नामकर्म न हो तो. खटमल खटमलों के साथ, बिच्छू बिच्छयों के साथ, चींटियाँ चींटियों के साथ, धान्य-धान्य के साथ और शालि शालि के साथ समान नहीं होंगे, किन्तु इनमें परस्पर सदृशता दिखाई देती है । अथवा जो कर्म एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय भाव का बनाने वाला है, वह जाति नामकर्म है । शङ्का -- जाति तो सदृशप्रत्यय ग्राह्य है, परन्तु तृण (घास ) और वृक्ष में समानता है नहीं, क्योंकि दोनों में सदृशभाव उपलब्ध नहीं होता (यद्यपि दोनों के एकेन्द्रियजाति नामकर्म का उदय है ) । समाधान- नहीं, क्योंकि जल व याहार ग्रहण करने की अपेक्षा दोनों में समानता पाई जाती है।
स- जिस कर्म उदय से गमनागमन भाव होता है, वह त्रस नामकर्म है । जिस कर्म के उदय से जीव के सपना होता है, वह सनामकर्म है। जिसके उदय से हीन्द्रियादिक में जन्म होता है वह बस नामकर्म है ।
स्थावर - जिस कर्म के उदय से जीवों के स्थावरपना होता है वह स्थावर नामकर्म है ।" यदि स्थावर नामकर्म न हो तो स्थावर जीवों का प्रभाव हो जावेगा, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि स्थावर जीवों का सद्भाव पाया जाता है। जिसके निमित्त से एकेन्द्रियों में उत्पत्ति होती है वह स्थावर नामकर्म है । वे स्थावरजीव पाँच प्रकार के हैं, पृथ्वी, आप, तेज, वायु र वनस्पति ।
शङ्का - जल, अग्नि और वायुकायिक जीवों का संचरण होता है. अतः वे स हैं ?
समाधान - जल, श्रग्नि और वायुकायिक जीवों में जो गमन होता है वह गमनरूप परिणाम पारिणामिक है, अतः वे नम नहीं हैं ।
१. मं. प्र. टीका के धाधार से । २. ध. पु. ६ पृ. ५१ । ३. ध. पु. ५. ध. पु. ६ पृ. ६१ । ६. सर्वार्थसिद्धि । ७. ध. पु. १३ पृ. ३६३ । =/201
१३ पृ. ३६३ । ४. घ. पु. १३ पृ. ३६५ ।
८. ध. पु. ६ पृ. ६१ ।
६. सर्वार्थसिद्धि
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बाबा ७४
जीवसमास/१२१
बावर--अन्य बाधाकर शरीर का निर्वतक कर्म बादर नामकर्म है। यदि बादर नामकर्म न हो तो बादरजीदों का प्रभाव हो जावेगा, किन्तु ऐसा है, नहीं क्योंकि प्रतिधाती शरीरवाले जीवों की भी उपलब्धि होती है।
सूक्ष्म--सूक्ष्मशरीर का निर्वर्तक कर्म सूक्ष्मनामकर्म है । यदि सूक्ष्मनामकर्म न हो तो सूक्ष्म जीवों का अभाव हो जावेगा, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि अपने प्रतिपक्षी के अभाव में बादरकायिक जीवों के भी प्रभाव का प्रसंग पाता है। जिनके शरीर की गति का जल-स्थल आदि के द्वारा
प्रतिघात नहीं होता, वे सूक्ष्मजीव हैं । । पर्याप्त—जिसके उदय से प्राहारादि पर्याप्तियों की रचना होती है, वह पर्याप्ति नामकर्म है। वह छहप्रकार का है । आहारपर्याप्ति नामकर्म, शरीरपर्याप्तिनामकर्म, इन्द्रियपर्याप्तिनामकर्म, प्राणापानपर्याप्तिनामकर्म, भाषापर्याप्ति नामकर्म और मनःपर्याप्तिनामकर्म ।' यदि पर्याप्ति नामकर्म न हो तो सभी जीव अपर्याप्त हो जायेंगे, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि पर्याप्तजीवों का सद्भाव पाया जाता
अपर्याप्त—जिसकर्म के उदय से जीव पर्याप्तियों को समाप्त करने के लिए समर्थ नहीं होता बह अपर्याप्तनामकर्म है । यदि अपर्याप्त नामकर्म न हो तो सभी पर्याप्तक ही होंगे, किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रतिपक्षी के अभाव में विवक्षित के भी प्रभाव का प्रसंग पाता है।
प्रत्येकशरीर-शरीरनामकर्म से रचा गया शरीर जिसके निमित्त से एक आत्मा के उपभोग का कारण होता है, वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से एकशरीर में एक ही जीव | जीवित रहता है वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है ।' यदि प्रत्येक शारीर नामकर्म न हो तो एक शरीर में एक जीव का ही उपलम्भ न होगा, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि उनका सद्भाव पाया जाता है।"
साधारणशरीर-बहुत आत्माओं के उपभोग का हेतुरूप साधारण शरीर जिसके निमित्त से होता है, वह साधारण शरीर नामकर्म है ।१२ यदि साधारण नामकर्म न हो तो सभी जीव प्रत्येकशरीर हो जायेंगे, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि प्रतिपक्षी के अभाव में विवक्षित जीव के भी प्रभाव का प्रसंग प्राप्त होता है।
जीवसमास का विशेष कथन करने वाले चार अधिकारों का नामनिर्देशःठाणेहिं वि जोगीहिं वि देहोग्गाहणकुलाणभेदेहि ।
जीवसमासा सम्वे परुविवव्या जहाकमसो ॥७४।। गाथार्य-सर्व जीवसमासों की प्ररूपणा यथाक्रम स्थान, योनि, शरीर की अवगाहना और कुल के भेदों के द्वारा करनी चाहिए ॥७४॥
१.स. सि. ८/११। २. प. पु. ६ पृ. ६१। ३. स. सि. १/११। ४. प. पु. ६ पृ. ६२। ५. स्वा. का. अनु, गा. १२३ । ६. स.सि. ८/११। ७. प.पु. ६ पृ. ६५। ८. प.पु. ६ पृ. ६२। ९. स.सि. ८/११ । १०. घ. पु. १३ पृ. १६५। ११. प.पु. ६ पृ. ६२ । १२. ध.पु. १३ पृ. ३६५। १३. प.पु. ६ पृ. ६३ ।
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१२२/गो. सा. जोधकाण्ड
गाथा ७५-७८
विशेषार्थ–एक जोवसमास, दो जीवसमास, तीन जीवसमास इत्यादि जीवसमास के भेद करके कथन करना जीवसमास की स्थान के द्वारा प्ररूपणा है। उत्पत्ति के आधार को योनि कहते हैं । सचित्त प्रादि योनि के भेदों के द्वारा जीवसमासों का कथन करना, जीवसमास की योनि द्वारा प्ररूपरणा है । सूक्ष्मलब्ध्यपर्याप्तनिगोदिया जीव की जघन्य अवगाहना से लेकर पाँच सौ धनुष के महामत्स्य की उत्कृष्ट अवगाहना तक अवगाहन विकल्पों के द्वारा जीवसमासों का कथन करना, शरीरप्रवगाहना के द्वारा जीवसमास प्ररूपणा है। नानाशरीरों की उत्पत्ति में कारणभूत नोकर्मवर्गणा अनेक प्रकार की है। उन नोकर्मवर्गणाओं के भेद से कुलों में भेद हो जाते हैं। कुलभेव की अपेक्षा जीवसमास का कथन करना कुल के द्वारा जीवसमास प्ररूपणा है। सर्व उत्तरोत्तर विशेषभेदों सहित जीवसमासों का कथन करना चाहिए । विशेषगों के द्वारा जो परीक्षा की जाती है, उसे प्ररूपरणा कहते हैं।
प्रथम स्थान-अधिकार द्वारा जीवममास की प्ररूपरणा सामण्णजीव तसथावरेसु इगिविगलसयल चरिमदुगे । इंदियकाये चरिमस्स य तिचदुरपणमेद हे ।।५।। परणजुगले तससहिये तसस्स दुतिचदुरपरणगभेदजुदे । छन्चुगपत्तेपालि य तसस्स तियचदुरपरणगभेदजुवे ।।७६॥ सगजुगलह्मि तसस्स य पणभंगजुदेसु होंति उरणधीसा । एमादुरणवीसोत्ति य इमिचितिगुरिणदे हवे ठाणा ।।७७।। सामण्णेरण तिपती पढमा विदिया अपुण्णगे इदरे ।
पज्जते द्धिप्रपज्जतेऽपढमा हवे पंती ॥७॥ गाथार्थ--सामान्यजीव, त्रस व स्थावर, एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-सकलेन्द्रिय, अन्तिम (सकलेन्द्रिय) के दो भेद करने से, इन्द्रिय, काय, फिर अन्तिम (वसकाय) के दो भेद करके, तीनभेद करके, चारभेद करके और पाँचभेद करके पंचस्थावरों में मिलाने पर ७-८-६-१० स्थान हो जाते हैं ।।७५|| पाँच स्थावरयुगलों में त्रस मिलाने से तथा त्रस के दो, तीन, चार और पाँच भेद करके मिलाने से ११-१२-१३-१४-१५ स्थान होते हैं । छह युगलों और प्रत्येकवनस्पति में त्रस के तीनचार-पाँच भेद करके १६-१७-१८ स्थान होते हैं 11७६।। स्थाबर के सातयुगलों में बस के पाँच भेद मिलाने से १६ वां स्थान होता है। इन एक से १६ तक सर्वस्थानों को एक-दो व तीन से गुणा करने पर स्थान उत्पन्न हो जाते हैं ॥७७।। इन १६ स्थानों की तोन पंक्ति करनी । प्रथमपंक्ति सामान्य को अपेक्षा, द्वितीय पंक्ति पर्याप्त व अपर्याप्त की अपेक्षा, तृतीयपंक्ति पर्याप्त-नित्यपर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्त की अपेक्षा करनी चाहिए ।।७।।
विशेषार्थ-(१) सामान्यजीव, (२) त्रस व स्थावर (३) एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सालेन्द्रिय, (४) एकेन्द्रिय, बिकलेन्द्रिय, संजीपंचेन्द्रिय और अंसंज्ञीपंचेन्द्रिय, (५) एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय,
१. प.पु. २ पृ.
।
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गाषा ७५-७६
जीवसमास/१२३
श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, (६) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक, (७) पृथ्वीकायिक,अप्रकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, विकलेन्द्रिय, सकलेन्द्रिय, (८) पृथ्वी कायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, विकलेन्द्रिय, संजीपंचेन्द्रिय और असंज्ञोपंचेन्द्रिय,(8) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय, (१०) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकाधिक, वनस्पतिकायिक, इन पाँच स्थावरकाय में अस के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय. संशीपंचेन्द्रिय और असंजीपंचेन्द्रिय इन पाँच भेदों को मिलाने से दसस्थान हो जाते हैं । जीव। समास में जो प्रथमस्थान है वह संग्रहात्मक द्रव्याथिकनय की अपेक्षा है और शेष स्थान भेद रूप होने । से व्यवहारनय की प्रधानता से हैं ॥७५।। (११) पाँच स्थावरकाय के बादर व सूक्ष्म की अपेक्षा पाँधयुगल अर्थात् बादरपृश्वीकायिक-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक, बादरप्रकायिक-सूक्ष्मअप्कायिक, बादरतेज
कायिक-सूक्ष्मतेजकायिक, बादरवनस्पतिकायिक-सूक्ष्मवनस्पतिकायिक, इस प्रकार स्थावर के १० भेदों । में त्रसका यिक मिलाने से जीवसमास के ग्यारहस्थान, (१२) इन्हीं पाँच युगलों अर्थात् बादर व । सूक्ष्मपृथ्वी-अप-तेज-वायु-वनस्पतिकायिकों में त्रस के विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय ये दो भेद मिलाने से बारह स्थान (१३) उन्हीं पाँच स्थावरयुगलों में अर्थात् स्थावर के उक्त दस भेदों में त्रस के विकलेन्द्रिय, संज्ञीपंचेन्द्रिय व असंझीपंचेन्द्रिय ये तीन भेद मिलाने से तेरह स्थान, (१४) उन्हीं पांच स्थावर युगलों में अस के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय ये चार भेद मिलाने से चौदहस्थान, (१५) उन्हीं पाँच स्थावर युगलों में उस के द्वीन्द्रिय, ओन्द्रिय, अन्त तामाकोर असंज्ञोपंचेन्द्रिय इन पांच भेदों को मिलाने से पन्द्रहस्थान, (१६) स्थावर के छह युगल व प्रत्येकवनस्पतिकायिक अर्थात् बादरपृथ्वीकायिक-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक, सूक्ष्मप्रकायिक, बादर तेजकायिक-सूक्ष्म तेजकायिक, दादर वायुकायिक-सूक्ष्मवायुफायिक, बादर नित्यनिगोद (साधारण वनस्पतिकायिक) सूक्ष्मनित्यनिगोद, बादरचतुर्गति निगोद-सूक्ष्मचतुर्गतिनिगोद इन छह युगलों के बारह और प्रत्येकवनस्पति इस प्रकार स्थावरकायिक के १३ भेदों में विकलेन्द्रिय, संज्ञीपंचेन्द्रिय व असंज्ञीपंचेन्द्रिय प्रस के इन तीन भेदों को मिलाने से १६ स्थान. (१७)स्थावर के उक्त १३ भदों में वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय. चतरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय अस के ये चार भेद मिलाने से १७ स्थान, (१८) स्थावर के उक्त तेरह स्थानों में दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय संजीपंचेन्द्रिय और प्रसंज्ञीपंचेन्द्रिय अस के पाँच भेद मिलाने से १८ स्थान होते हैं ।।७६॥ (१६) स्थावर के सात युगल अर्थात बादर पृथ्वीकायिक-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक बादरअप्कायिक-सूक्ष्मप्रकायिक, बादरतेजकायिक-सूक्ष्मतेजकायिक, बादरवायुकायिक-सूक्ष्मवायुकायिक, बादरनित्यनिगोद-सूक्ष्मनित्यनिगोद, बादरचतुर्गतिनिगोद-सूक्ष्मचतुर्गतिनिगोद, सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक-अप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतिकायिक में द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संझीपंचेन्द्रिय, असंजीपंचेन्द्रिय स के इन पाँच भेदों को मिलाने से जीवसमास के १६ स्थान होते हैं । एक से उन्नीस पर्यन्त सर्वस्थानों को एक से, दो से और तीन से यथाक्रम गुगणा करने से अन्तिम उन्नीसस्थान, ३८ स्थान और ५७ स्थान जीवसमास के हो जाते हैं ॥७७|| जीवसमास के एक से उन्नीस पर्यन्त इन सर्व स्थानों की तीन पंक्तियाँ करनी चाहिए अर्थात् एक, दो, तीन, चार आदि इस प्रकार एक-एक बढ़ते हुए १६ तक जीबसमास के १६ स्थान होते हैं । इन उन्नीस स्थानों की तीन पंक्तियाँ करनी चाहिए । उनमें से प्रथमपंक्ति सामान्य की अपेक्षा से है, क्योंकि इसमें पर्याप्त ब अपर्याप्त का विकल्प नहीं है।
१. ये तु साधारणवनस्पतिकायिकास्ते नित्यचतुगंतिनिगोदजीवाः बादराः सूश्माश्च भवन्ति । (वा. का. अनु. गा. १२४ की टीका)।
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१२४ / गो. सा. जयकाण्ड
गाया ३६
इस प्रथम पंक्ति में उन १३ स्थानों में से प्रत्येक को एक से गुणा करने पर वही अङ्क प्राप्त होगा अर्थात् एक से १६ पर्यन्त १९ स्थान प्राप्त होंगे । द्वितीयपंक्ति में अपूर्ण श्रर्थात् अपर्याप्त और इतर अर्थात् पर्याप्त की विवक्षा होने से दो गुणा करने से प्रत्येक स्थान के अङ्क दुगु हो जाते हैं अर्थात् दो, चार, छह, आठ आदि इस प्रकार दो-दो बढ़ते हुए ३८ पर्यन्त स्थान प्राप्त होते हैं। पुनः श्रप्रथमा अर्थात् तृतीयपंक्ति में पर्याप्त, लब्ध्यपर्याप्त और निर्ऋत्यपर्याप्त की विवक्षा होने से प्रत्येक अङ्क को तीन से गुणा करने पर तीन छह-नौ-बारह आदि तीन-तीन को वृद्धि होते हुए सत्तावन (५७) तक जीवसमास के स्थानों की संख्या प्राप्त होती है। यद्यपि दूसरी व तीसरी पंक्तियाँ प्रप्रथमा हैं, किन्तु गाथा में द्वितीय पंक्ति का पृथक उल्लेख होने से अप्रथमा के द्वारा तृतीय पंक्ति का ग्रहण होता है || ७८ || १
थ. पु. २ पृ. ५६१ पर जीवसमासों के स्थानों का कथन इसप्रकार है---दो अथवा तीन, चार . अथवा छह छह अथवा नौ आठ अथवा बारह, दस अथवा पन्द्रह बारह अथवा अठारह चौदह अथवा इक्कीस, सोलह अथवा चौबीस, अठारह अथवा सत्ताईस, बीस अथवा तीस, बावीस अथवा तंतीस, चौबीस अथवा छत्तीस, छब्बीस अथवा उनचालीस, अट्ठाबीस अथवा बयालीस, तीस अथवा पैतालीस, . बत्तीस अथवा अड़तालीस, चौंतीस अथवा इक्कावन, छत्तीस प्रथवा चौपन अड़तीस अथवा सत्तावन, जीवसमास होते हैं । इनका विशेष स्पष्टीकरण ध. पु. २. के पृ. ५६१ से ५६६ तक है, वहाँ से जान लेना चाहिए ।
धवलाकार आचार्य श्री वीरसेनस्वामी ने निर्वृतिपर्याप्त व निर्वृत्यपर्याप्त की अपेक्षा से संख्या का कथन किया है अथवा निवृत्तिपर्याप्त निर्वृत्यपर्याप्त श्रीर लब्ध्यपर्याप्त की अपेक्षा कथन किया है, 'सामान्य की अपेक्षा संख्या का कथन नहीं किया है, किन्तु गोम्मटसार जीवकाण्ड गा. ७८ में सामान्य की अपेक्षा से भी संख्या का कथन प्रथभपंक्ति में किया गया है । यद्यपि धवला टीका और गोम्मटसार जीवकाण्ड में जीवसमासस्थान संख्या में मात्र सामान्य की अपेक्षा संख्या का कथन करने और न करने का . ही अन्तर है, अन्य कोई अन्तर नहीं है तथापि भेदों के विशेषविवरण में बहुत अन्तर है। जैसे गोम्मट'मार में त्रस और स्थावर ऐसे दो जीवसमासों का कथन किया गया है, किन्तु धवला टीका में पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो जीवसमास कहे गये हैं । विशेष जानने के लिए घ. पु. २ पृ. ५६१ से ५६६ तक देखना चाहिए । जीवसमास की स्थान संख्या का विवरण इस प्रकार है-
1
सामान्य की अपेक्षा -- पर्याप्त पर्याप्त की अपेक्षा पर्याप्त नित्यपर्याप्तअपर्याप्त की अपेक्षा -
१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ६, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १६ २, ४, ६, ८, १०, १२, १४, १६, १८, २०, २२, २४, २६, २८, ३०, ३२, ३४, ३६, ३५ ३, ६, ६, १२, १५, १८, २१, २४, २७, ३०, ३३, ३६, ३९, ४२, ४५, ४८, ५१, ५४. ५७
हम जीवसमासों का कथन
sfraणं इगिविगले ससिगियजलथलखगाणं । गन्भभवे सम्मुच्छे दुतिगं भोगयलखेचरे दो दो ॥ ७६ ॥
१. मन्दप्रबोधिनी टीका के आधार से ।
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समा ७१-५०
जीवसमास/१२५
प्रज्जवमलेच्छमणुए, तिदुभोगभूमिजे दो यो ।
सुरणिरये दो दो इवि, जीवसमासा हु अडणउदी ॥५०॥ गाथार्थ--एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों के इक्कावन (५१), (पंचेन्द्रियतिर्यचों में) जलचर, . स्थल पर प्रौर नभचर के संजी व असंज्ञियों में गर्भज के दो और सम्मुर्छन के तीन भेद तथा भोग
भूमिज थलचर और नभचर के दो-दो भेद होते हैं ।।७६ ।। आर्यखण्ड के मनुष्यों के तीनभेद, म्लेच्छखंड के मनुष्यों के दो भेद, भोगभूमिज मनुष्यों के दो और कुभोगभूमिज मनुष्यों के दो भेद, देवों के और नारकियों के दो-दो भेद; इस प्रकार कुल ६८ जीवसमास होते हैं ।।१०।।
विशेषार्थ--एकेन्द्रिय स्थावर के पूर्वोक्त सातयुगलों के १४ तथा विकलेन्द्रिय के ३, इसप्रकार इन (१४ + ३) १७ भेदों को पर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्त-निवृत्यपर्याप्त इन तीन से गुणा करने पर एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियसम्बन्धी (१७४३) ५१ विशेष जीवसमास होते हैं, क्योंकि इन १७ में सभी का सम्मूर्छन जन्म पाया जाने से पर्याप्तादि तीनों भेद होते हैं । कर्मभूमिज संशी व असंज्ञो पंचेन्द्रियतिर्यचों के जलचर, यलचर, नभचर में गर्भजों के पर्याप्त व निवृत्त्यपर्याप्त ऐसे दो-दो भेद होते हैं, क्योंकि गर्भजों में
सध्यपर्याप्तक नहीं होते 1 इस प्रकार गर्भज संजी व असंज्ञी कर्मभुमिज तिर्यंचों में बारह जीवसमास ! होते है, किन्तु इन्हीं के सम्मूर्छनों में लब्ध्यपर्याप्तक भी होते हैं अतः सम्मूच्र्छनों में (संज्ञी-असंज्ञी २,
जलचर-थलचर-नभचर ३, पर्याप्त-निर्वृत्त्यपर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्त ३-२४३४३) १८ जीवसमास होते है। इसप्रकार कर्मभूमिज पन्द्रियांत/त्रों के। १२ - १८) ३० जीवसमास होते हैं । इनमें भोगभूमिजों
के चार जीवसमास मिलाने पर पंचेन्द्रियतियं चों के समस्त जीवसमास (३० + ४) ३४ होते हैं। इन्हीं । ३४ जीव समासों में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियसम्बन्धी ५१ भेद मिलाने पर तिर्यचों के (३४ + ५१)
८५ जीवसमास हो जाते हैं।
कर्मभूमिज ग्रार्थखण्ड के मनुष्यों में पर्याप्त, नित्यपर्याप्त और लध्यपरित ये तीन जीवसमास हैं, किन्तु म्लेच्छखण्ड में लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य नहीं होते, अतः पर्याप्त और निर्दयपर्याप्त रूप दो ही भेद होते हैं । इसी प्रकार भोगभूमि और कुभोगभूमि में भी लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य नहीं होते अतः उनमें भी मनुष्यों के दो-दो जीवसमास पाये जाने से मनुष्यसम्बन्धी सर्व (३+२+२+२) जीवसमास होते हैं । देवगति के दो तथैव नरकगति के भी दो जीवसमास हैं. क्योंकि देवों और नारकियों में पर्याप्त और नित्यपर्याप्त ये दो ही भेद पाये जाते हैं; लब्ध्यपर्याप्तक भेद देवों और नारकियों में नहीं होता। इसप्रकार पंचेन्द्रियति र्यच सम्बन्धी उक्त ३४ भेदों में मनुष्य, देव, मरकगति सम्बन्धी (६+४) १३ भेद मिलाने में चारों गतियों के पंचेन्द्रियजीव सम्बन्धी (३४+१३) ४७ जीवसमास होते हैं । एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय सम्बन्धी ५१ भेद मिलकर (४७ + ५१) जीवसमास हो जाते हैं। (मन्दप्रबोधिनी टीका के प्राचार से)
स्वामिकार्तिकयामुप्रेक्षा गाथा १३१-१३२-१३३ की टीका में श्री शुभचन्द्राचार्य ने जीवसमास के जो १५ स्थान बताये हैं, वे इस प्रकार हैं--सम्मुर्छनतिर्यचों के ६६ और गर्भज तिर्यचों के १६ भेद होते हैं।
शङ्का--सम्मूच्र्छन किसे कहते हैं ? समाधान- शरीर के प्राकार रूप परिणमन करने की योग्यता रखने वाले पुद्गलस्कन्धों का
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१२६/गो.मा. जीवकाण्ड
गाथा ७६-८०
चारों ओर से एकत्र होकर जन्म लेने वाले जीव के शरीरम्प होने का नाम सम्मूर्छन है और सम्मूर्छन से जन्म लेने वाले जीव सम्मूर्छन जीव हैं।'
शङ्का-गर्भज किसे कहते हैं ?
समाधान-जन्म लेने वाले जीव के द्वारा रज और वीर्यरूप पिण्ड को अपने शरीररूप से परिणमाने का नाम गर्भ है । उस गर्भ से उत्पन्न होने वाले गर्भज कहलाते हैं । अर्थात् माता के गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीव गर्भजन्मवाले हैं।
सम्मूच्र्छन तिर्यंचों के २३ भेदों के ६६ जीवसमास होते हैं । वे २३ भेद इस प्रकार हैं -सूक्ष्म धबादर पृथ्वीकायिक के दो, सक्ष्म ब बादर जलकायिक २, सूक्ष्म व बादर अग्निकायिक २, सूक्ष्म व बादर वायुकायिका २, सूक्ष्म व बादर नित्यनिगोद-साधारणवनस्पति कायिक २, सूक्ष्म व बादर चतुर्गतिनिगोद साधारण वनस्पतिकायिक २, प्रतिष्ठितप्रत्येक बनस्पतिकामिन बाबर है, अप्रतिष्ठित प्रत्येक बनस्पति बादर ही है १, इस प्रकार एकेन्द्रिय स्थावरों के १४ भेद होते हैं। शंख-सीप आदि द्वीन्द्रिय, कन्ध-चींटी आदि श्रीन्द्रिय, डाँस मच्छर प्रादि चतरिन्द्रिय ये ३ विकलेन्द्रिय तिर्यंच । कर्मभूमिज जलचर संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच २, कर्मभूमिज नभचर संजी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच २, कर्मभूमिज स्थल चर संज्ञी व असंजी पंचेन्द्रिय तिर्यंच २ इस प्रकार कर्मभूमिज पंचेन्द्रिय तिर्यचों के ६ भेद । एकेन्द्रिय के १४, विकलत्रय के ३ प्रौर पंचेन्द्रिय के ६ ये सब मिलकर (१४+३+६=१२३ भेद सम्मूच्र्छन तिर्यंचों के होते हैं। इनमें से प्रत्येक पर्याप्त, नित्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त ऐसे तीन प्रकार के हैं । इसलिए २३ को इन तीन से गुणा करने पर (२३४३) सम्मूछनतिर्यंचों के ६६ जीवसमास होते हैं। इनमें गर्भजतिर्यचों के १६ भेद मिला देने पर तिर्यचसम्बन्धी कुल ८५ जीवसमास होते हैं । गर्भजतिर्यच सम्बन्धी १६ भेद इस प्रकार हैं—मछली आदि कर्मभूमिज गर्भज जलचर संजीअसंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच २, हिरण प्रादि-कर्मभुमिज-गर्भज-स्थलचर-संजी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच , पक्षी आदि कर्मभूमिज गर्भज नभचर संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यंच २, भोगभूमिज स्थलचर गर्भज संज्ञी ही होता है अतः उसका १ भेद, भोगभूमिज नभचर तिर्यंच भी संजी ही होता है इसलिए उसका भी एक (१) ही भेद । ये सभी तिर्यंच पर्याप्त और नित्यपर्याप्त के भेद से दो-दो प्रकार के हैं, प्रतः गर्भज तिर्यचों के (८x२) १६ भेद हो जाते हैं।
शङ्का-निगोद किसे कहते हैं ?
समाधान--जो शरीर अनन्तानन्त जीवों को स्थान देता है वह निगोदशरीर है । 3 अभिप्राय यह है कि जिस एक शरीर में अनन्तानन्त जीव रहते हैं वह निगोद शरीर है।
१. सं समन्तात् मूर्च्छनं जायमान जीयानुप्राहकाणां जीवोपकाराणां शरीराकार-परिणमनयोग्यपुद्गलस्कन्धानां समुच्छ यरणं तस्विद्यते येषां ते सम्भूच्नशरीराः । (स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा) गा. १३०टीका । २. जायमानजीवेन शुक्रशोरिंगतरूपपिण्डस्य गरणं शरीरत योपादान गर्मः ततो जाता ये गर्भजा; तेषां गर्भजानां जन्म उत्पनिर्देषां ने गभंजन्मानः मातुगर्मसमुत्पन्ना इत्यर्थः। (स्वा. का. अनु. गा. १३०) ३. "नियतां गां भूमि क्षेत्रमनन्सानन्तजीवानां ददाति इति निगोदं । मिगोदं शरीरं येषां ते निगोदशरीरा इति निरुतेः" (स्वा. का. अनु. गा. १३१ टीका) ।
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जीवनमाम / १२७
शङ्का - सप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पति और अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति से क्या अभिप्राय है ?
समाधान - जिन प्रत्येक वनस्पतियों के प्राय साधारणशरीर अर्थात् निगोद रहता है वे प्रतिष्ठित - प्रत्येक शरीर वनस्पति हैं। जो साधारण अर्थात् निगोदरहित हैं वे अप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पति हैं । "
गाय ७६८०
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1
'गर्भजमनुष्य कर्मभूमिज श्रार्य व म्लेच्छ तथा भोगभूमिज व कुंभोगभूमिज इस प्रकार मनुष्यों के चार भेद हैं । इनमें से प्रत्येक पर्याप्त व निर्ऋत्यपर्याप्त होते हैं । अतः गर्भजमनुष्यों के आठ भेद और एक लब्ध्यपर्याप्त सम्मूर्च्छन मनुष्य; ये कुल ( ६+१) ६ जीवसमास मनुष्यसम्बन्धी जानने चाहिए | देव पर्याप्त व निर्वृत्यपर्याप्त के भेद से २ प्रकार के तथैव नारकी भी पर्याप्त व निर्ऋत्यपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं। इसप्रकार देव नारकीसम्बन्धी ४ जीवसमास होते हैं। सर्व मिलकर समस्त जीवसमास स्थान लियंचों के ८५, मनुष्यों के ६, देवों के २ नारकियों के २ ( ६५ +९२+२) कुल ६८ होते हैं ।
जीवसमाससम्बन्धी तीन प्रक्षेपक गाथाएँ
सुवरकुजलसेवा freeaagrata - णिगोव- धूलिदरा । पदिठिवर पंचपत्तिय विलतिपुण्णा पुष्णयुगा ॥१॥ इगिविगले इगिसीवी श्रसणिसरिगगयजलथलखगाणं । गभभवे सम्पुच्छे इतिगतिभोगथलखे घरे दो दो ||२|| प्रज्जबसम्मुगमे मलेच्छभोगतिय कुणरपणतीस सये ।
सुररिये वो दो इवि जीवसमाला हु छहियचारिस ||३||
गाथार्थ शुद्ध पृथ्वीकायिक, स्वरपृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, नित्यनिगोद और वर्गसिनिगोद इनके बादर और सूक्ष्म पाँच प्रकार की सप्रतिष्ठित और प्रप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति तथा free मे सर्वं पर्याप्त और दो प्रकार के अपर्याप्त (निर्ऋत्यपर्याप्त लयपर्याप्त होते हैं। इस प्रकार एकेन्द्रिय
विकलेन्द्रिय के १ जीवसमास, संज्ञी और प्रसंगी जलचर थलचर नभचर, इनमें भी गमंजों के दो और सम्मूर्छन 'के तीन भेद, तीन प्रकार की भोगभूमियों में थलचर-खेचर के दो-दो । भार्यखण्ड में मनुष्य सम्मूच्छे होते हैं । ग्राण्ड के स्लेच्छखंड के तीन भोगभूमि के एक कुभोगभूमि के इस प्रकार गर्भज मनुष्यों के छह भेदों में पर्याप्त निर्याप्त ये दो ही प्रकार होते हैं । १३५ प्रकार के देव नारकियों में भी ( पर्याप्त निस्यपर्याप्त ) ये दो-दो होते है । इस प्रकार सब मिलकर ४०६ जीवसमास होते हैं ।। १-३||
विशेषार्थ - मिट्टी ग्रादि शुद्ध पृथ्वीकायिक है और पाषाण प्रावि खरपृथ्वीकायिक हैं। इस प्रकार पृथ्वीकायिक के दो भेद, जलकायिक, प्रतिकायिक, वायुकायिक, नित्यनिगोदसाधारण वनस्पत्ति और चतुर्गतिनिगोवसाधारण वनस्पति इन सातों के बादर व सूक्ष्म के भेद से ( ७२ ) चौदह भेद: पाँच (वृण, बेल, कन्दमूल, नींबूसंतरे श्रादि के छोटे वृक्ष, श्रम श्रादि के बड़े वृक्ष, थे ) प्रकार की प्रत्येक वनस्पतिकायिक प्रतिष्ठित और प्रतिष्ठित
१. प्रतिष्ठितं साधारणशरीरैराश्रितं प्रत्येकशरीरं येषां ते प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीरा । तैरनाश्रितशरीरा अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीराः स्युः । (स्वा. का. अनु. गा. १२० टीका ) |
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१२८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १
के भेद से इस प्रकार (१०) की; द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ये तीन (३) बिकलत्रय, सर्व मिलकर (१४+१०+३) २७ भेद एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियसम्बन्धी हैं। इनमें से प्रत्येक पर्याप्त, नित्यपर्याप्त व सध्यपर्याप्त के भेद से तीन प्रकार का होता है। अतः २७ में ३ का गुणा करने पर एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय के (२७४३) १ भेद हो जाते हैं । कर्मभूमिज पंचेन्द्रियतिथंच जलचर, थलचर, नभचर में संजी व प्रसंज्ञी के भेद से छह प्रकार के हैं, इनके गर्भजों में पर्याप्त व निईत्यपर्माप्त की अपेक्षा १२ भेद तथा सम्मुर्छनों में पर्याप्त, नित्यपर्याप्त, लब्ध्यपर्याप्त की अपेक्षा १८ भेद हैं; उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य भोगभूमि के थलचर व नभचर पंचेन्द्रिय तियंचों में पर्याप्त, नित्यपर्याप्त को प्रपेक्षा १२ भेद, इस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यसम्बन्धी {१२ + १८ + १२) कुल ४२ भेद होते हैं ।
आर्यखण्ड में लब्ध्यपप्तिक सम्मूछन मनुष्य होते हैं अतः सम्मूच्र्छन मनुष्यों का एक भेद; भायखण्डम्लेच्छखण्ड-उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य भोगभूमिज तथा कुभोग भूमिज मनुष्य ये छह प्रकार के ग प्रकार के भवनवासी देव, आठ प्रकार के वामध्यंतरदेव, पांच प्रकार के ज्योतिषीदेव और ६३ पटलों के वैमानिकदेव ये सब मिलकर (१० + + + ५ + ६३) ८६ प्रकार के देब और ४६ पाथड़ों के ४६ प्रकार के नारकी । इस प्रकार मनुष्य, देव और नारकी सम्बन्धी (६ + ८६ + ४६) १४१ भेद, पर्याप्त व नित्यपर्याप्त के भेद से (१४१४२) २८२ होते हैं । एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय के ८१, पंचेन्द्रिमतिर्यंच के ४२, सम्मूर्छन मनुष्य का १, गर्भजमनुष्य देव व नारकी के २८२, ये सब मिलकर (८१ + ४२ + १+२८२) ४०६ जीवसमास होते हैं।
इस प्रकार जीवसमास प्ररूपणा में स्थान का कपन पूर्ण हुप्रा ।
योनि अधिकार में प्राकृतियोनि के भेदों का कथन एवं शंखावतंयोनि में गर्मनिषेध प्ररूपण
'संखावत्तयजोणी कुम्मुण्णयसपत्तजोरणी य । तत्थ य संखावत्ते रिणयमा विवज्जदे गब्भो ॥१॥
गाथार्थ-शंखावर्तयोनि, कर्मोन्नतयोनि, वंशपत्रयोनि के भेद से प्राकृतियोनि तीन प्रकार की है। इनमें शंखावर्त योनि नियम से गर्भरहित होती है ।।१।।
विशेषार्थ-जिस योनि का आवर्त शंख के समान हो, वह शंखावर्त योनि है। जो योनि कूर्म (कछुए) की पीठ के समान उन्नत हो वह कुर्मोन्नतयोनि है। बांस के पत्ते के प्राकारवाली योनि वंशपत्रयोनि है। इनमें से शंखावतंयोनि में गर्भ का नियम से निषेध है। शंखावतंयोनिबाली स्त्रियाँ वंध्या (बाँझ) होती हैं। जैसे देवाङ्गना और चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से स्त्रीरत्न, ये नियम से वंध्या होती हैं।
शङ्का-गर्भ किसे कहते हैं ?
समाधान—'गर्भ: शुक्रशोगितगरणं' शुक और शोणित के गरण को गर्भ कहते हैं 1 मांखावर्तयोनि भोगभूमियों में नहीं होती।
१. मूलाचार पर्याप्ति अधिकार गा. ६१। प्राधार से।
२. श्री यमुनन्दि प्राचार्यकृत मूलाचार दीका एक म. प्र. टीका के
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गाथा ८२
जीवसमास/१२९
कुर्मोन्नत और वंशपय योनि में उत्पन्न होने वाले जीवों का निर्देश 'कुम्मुण्णपजोगीए, तित्थयरा दुविहचक्कवट्टी य । रामा वि य जायते, सेसाए सेसगजरणो य ॥२॥
गाथार्थ कूर्मोन्नतयोनि में तीर्थकर, दो प्रकार के चक्रवर्ती ब बलभद्र उत्पन्न होते हैं । शेष तृतीययोनि में शेष (अन्य) मनुष्य उत्पन्न होते हैं ।। ८२।।
विशेषार्थ - कूर्मोनतयोनि विशिष्ट सर्वशुचि प्रदेशवाली व शुद्धपुद्गलों के प्रचय (समूह) वाली होती है। उसमें तीर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव और प्रतिवासुदेव तथा बलदेव उत्पन्न होते हैं। शेषजन अर्थात् भोगभूमिज आदि वंशपत्रयोनि में उत्पन्न होते हैं। गाथा में 'दुविह चक्कवट्टी' दो प्रकार के चक्रवर्ती कहे गये हैं, सो सकलचक्रवर्ती और अर्धचक्रवर्ती के भेद से चक्रवर्ती दो प्रकार के होते हैं । वासुदेव और प्रतिवासुदेव अर्थात् नारायण और प्रतिनारायण ये दोनों अर्धच प्रवर्ती होते हैं । 'रामा' 1 से अभिप्राय नारायण के भाई बलदेव का है।'
जन्म के भेद और तत्सम्बन्धी गुणयोनियां जम्मं खलु सम्मुच्छरणगब्भुववादा दु होदि तज्जोणी । सच्चित्त-सीदसउंडसेदर मिस्सा पत्तेयं ।।८३॥
गाचार्य-सम्मूर्छन, गर्भ और उपपाद निश्चय से इन तीन प्रकार का जन्म होता है। जन्म की योनियां सचित्त, शीत, संवृत तथा इनकी प्रतिपक्षी अचित्त, उष्ण, विवृत एवं प्रत्येक की मिश्र होती हैं। इनमें से यथासम्भव प्रत्येक योनि को सम्मूर्छन आदि जन्म के साथ कहना चाहिए ॥८३॥
विशेषार्थ --संसारीजीवों का जन्म या उत्पत्ति पूर्वभव के शरीर को छोड़कर उत्तरभव के शरीर का ग्रहण करना है। यद्यपि परमार्थ से बिग्रहगति के प्रथम समय में उत्तरभवसम्बन्धी प्रथम पर्याय के प्रादुर्भाव को जन्म कहते हैं, क्योंकि पूर्वपर्याय का विनाश (व्यय) और उत्तरपर्याय का
प्रादुर्भाव (उत्पाद) एकसमय में होते हैं; जैसे अंगुलि के ऋजुपने का विनाश जिस समय में होता है । उसी समय में बऋाने का उत्पाद होता है, दोनों में समयभेद नहीं है, तथापि सम्मूछनादिरूप से युगलपिण्ड के ग्रहण करने को उपचार से जन्म कहते हैं. क्योंकि पूर्वपर्याय के अभाव और उसी समय उत्तरपर्याय के प्रादुर्भावरूप जो जन्म होता है उसके समीपवर्ती समय में शरीरग्रहण का प्रथमसमय होने से पर्याय का उत्पाद उपचार से जन्म कहलाता है। जैसे-गंगातट को उपचार से गंगा कहा जाता है, क्योंकि समीपता का सदभाब उपचार में निमित्त है 1 अथवा जगति से उत्पन्न होने वालों की अपेक्षा जो उत्तरभव का प्रथम समय है बही परीरप्रहण का प्रथम ममय है और वही पूर्वभव के विनाश का समय है, क्योंकि उत्पाद और व्यय युगपत होते हैं, अत: ऋजगति से उत्पन्न होने वालों की अपेक्षा शरीरग्रहण का प्रथमसमय जन्म का मुख्यलक्षण है । संसारी जीवों का जन्म तीनप्रकार से होता है-सम्मूर्छनजन्म, गर्भजन्म और उपपादजन्म । तत्वार्थसूत्र में भी कहा है- “सम्मूच्र्छनगर्भोपपादा
१. मूलाचार पर्याप्ति अधिकार गा. ६२ ।
२. मूलाचार टीका व म.प्र. टीका के प्राधार से ।
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१३०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ८२-८३
जन्म" (२/११)
सम्मृचन–'सं'-समन्तात अर्थात् ऊर्ध्व, अधः, तिर्यकरूप तीनों लोकों में ऊपर-नीचे-तिरछे सभी दिशाओं से शरीर के योग्य पुद्गल परमाणुओं का इकट्ठा होकर शरीर बनना सम्मूर्च्छन है। गर्भ और उपपादजन्म से विलक्षण सम्मूर्द्धनजन्म है।
गर्भ- स्त्री के उदर अर्थात् गर्भाशय में शरीरपरिणति के कारणभूत शुक्र और शोणित के परस्पर गरण अर्थात् मिश्रण को गर्भ कहते हैं । अथवा माता के उदर द्वारा उपभुक्त के प्रात्मसात् करने को अर्थात् गरग करने को गर्भ कहते हैं। 'गर्भ' यह रूढ़ि शब्द है तथा जरायुज, अण्डज और पोतजादि जन्म का बाचक है ।
उपपाद–प्राप्त होकर जिसमें जीव हलन-चलन करता है उसे उपपाद जन्म कहते हैं। देवों में सम्पूट शय्या (सीप के आकार की शय्या) को और नरकों में उष्ट्रादि मुखाकार बिल-स्थान को उपेत्य-प्राप्त करके या आश्रय करके शरीररूप परिणमने योग्य पुद्गलस्कन्धों की प्राप्ति उपपाद है। 'उपपाद' यह रूढ़ि शब्द देव-नारकियों के जन्म का बाचक है।
सम्मुर्छन, गर्भ और उपपाद जन्म के उत्पत्ति स्थान को योनि कहते हैं । योनि के यद्यपि ८४ लान भेद हैं, तथापि सचित्त आदि गुण विशेष की अपेक्षा उनके नौ भेद हो जाते हैं। सम्भूनर्छन, गर्भ, उपपादरूप जन्मविशेषों में से प्रत्येक को यथासम्भव सचित्तादि गुरायोनियां होती हैं। वे गुरायोनियां इस प्रकार है-"सचित्तशीतसंक्ताः सेतरा मिश्राश्चकशस्तथोनयः"३ सचित्त, शीत, संवृत तथा इतर अर्थात इनके प्रतिपक्षभूत अचित्त, उष्णा और वित्त तथा प्रत्येक के मिश्र अर्थात् सचित्ताचिस, शीतोष्ण और संवृतविवृत्त ये जन्म की योनियाँ है । प्रात्मा के चैतन्य विशेषरूप परिणाम को चित्त कहते हैं । जो गुद्गलपिण्ड उस चित्त के साथ वर्तन करते हैं अर्थात् रहते हैं वे सचित्त हैं । शीत, यह स्पर्शगुण का एक भेद है। शुक्लादि के समान यह द्रव्य और गुण दोनों का वाची है। अतः शीतस्पर्श गुरगवाला द्रव्य भी शीत कहलाता है अर्थात् बहुलशीतस्पर्शवाला पुद्गलद्रव्य शीत कहा गया है। जो भलेप्रकार का हो वह संवत है। यहाँ अन्तनिगूढ़ अवयव को अर्थात् जो देखने में न ग्रावे ऐसे अवयवरूप स्थान को संत कहते हैं। ये तीनों ही इतर-प्रतिपक्षी सहित हैं । इतर का अर्थ अन्य भी है। इनके साथ रहने वाले इतर-सेतर कहलाते हैं। वे इतर अचित्त, उष्ण और विवृत हैं । चेतनरहित पुद्गलपिंड अचित्त है । बहुलस्पर्शगुणवाला पुद्गल द्रव्य उष्ण है । भले प्रकार प्रकट अवयव विवृत है । उभयात्मक अर्थात् उभयरूप को मिश्र कहते हैं । यहाँ उभयगुरण से मिश्रित को मिथ कहा गया है । सचित्ताचित्त मिश्रित, शीतोष्णमिश्चित, संवृतविवृतमिश्रित ।
गाथा में 'पत्तेयं' शब्द का ग्रहण मिश्र में क्रम का ज्ञान कराने के लिए किया गया है जिससे यह ज्ञान हो कि सचित्त का मिश्रण अचित्त के साथ है, शरेतादि के साथ नहीं। इसी प्रकार शीतउष्ण और संवृत-विवृत मिश्रित हैं ।
शङ्का -- इस तरह तो योनि और जन्म में कोई भेद नहीं है ।
१. म.प्र. टीका के आधार से। २. त. सूत्र न. २ सूत्र ३२ । ३. स.सि., राजपातिक और मन्दप्रबोधिनी टीका
के प्राचार से।
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गाथा ४
जीवसमास/१३१
समाधान—ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आधार और प्राधेय के भेद से योनि और जन्म में भेद है । सचित्तादिक योनियाँ प्राधार हैं और जन्म के भेद आधेष हैं क्योंकि सचित्तादि योनिरूप प्राधार में सम्मूर्च्छनादि जन्म के द्वारा आत्मा शरीर, आहार और इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहगा करता है ।
गर्भ प्रादि जन्मों के स्वामी पोतजरायुजमंडअजीवाणं गम्भदेवरिपरयाणं । उववाद सेसाणं सम्मुच्छरणयं तु सिद्दिढ ॥४।।
___ गाथार्थ--पोत, जरायुज और अंडज-जीवों का गर्भजन्म होता है । देव और नारकियों का उपपाद जन्म होता है । शेष जीवों का सम्मूर्छन जन्म होता है, ऐसा परमागम में कहा गया है ।।४।।
विशेषार्थ-पोत-जरायु, अण्ड आदि सर्व प्राबरण के बिना जिसके सब अवयव पूरे हुए हैं और जो योनि से निकलते ही हलन-चलनादि सामर्थ्य से युक्त है, वह पोत-गर्भजन्म है।
जरायुज-जो जाल के पमा बारिणयों न प्रापरम और जो मांग र शोणित से बना है, यह जरायु है। उसमें उत्पन्न होने वाला जरायुज कहलाता है ।
अण्डज–जो नख की त्वचा के समान कठिन है, गोल है और जिसका प्रावरण शुक्र व मोणित से बना है उसे अण्ड कहते हैं, उसमें जिसका जन्म होता है, वह अण्डज है।'
शा-चोटियों के भी अपडे देखे जाते हैं ?
समाधान-अण्डों की उत्पत्ति गर्भ में ही होती हो, ऐसा कोई नियम नहीं है । उपर्युक्त लक्षणवाले अण्डों की उत्पत्ति तो गर्भ में ही होती है, अन्यप्रकार के अण्डों के लिए गर्भ में उत्पत्ति होने का नियम नहीं है।
जरायुजों में ही भाषाध्ययन आदि क्रियाएँ देखी जाती हैं तथा चक्रधर, वासुदेवादि महाप्रभाव. । खाली उसी में उत्पन्न होते हैं एवं सम्यग्दर्शनादि (रत्नत्रय) मार्ग के फलस्वरूप मोक्षसुख का सम्बन्ध
भी जरायुज से है, अन्य से नहीं । पोत से अभ्यहित अण्डज हैं, क्योंकि अण्डजों में अक्षरों के उच्चारण करने में कुशल तोता, मैना आदि होते हैं। पोत, जरायुज और अण्डज ही गर्भजन्म वाले होते हैं अथवा गर्भजन्म वाले ही पोत, जरायुज व अण्डज होते हैं। देव और नारकियों के ही उपपाद जन्म होता है अथवा उपपाद जन्म ही देव-नारकियों के होता है। गर्भजन्म और उपपादजन्म वालों के सिवाय जो शेष रहे मनुष्य और तिर्यच हैं, उनके सम्मूच्र्छन जन्म ही होता है। एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय पर्यन्त सभी जीव तथा लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रिय मनुष्य-तिथंच नियम से सम्मूच्र्छन ही होते हैं । संज्ञी च असंज्ञी पर्याप्तक तिर्यंचों में भी किन्हीं के सम्भूर्छन जन्म होता है।
१. सर्वार्थसिद्धि । २. सर्वार्थसिद्धि २/३३ । ३. ध. पु. १ पृ. ३४६ । ४. राजवातिक २/३३ । ५. 'जरायुजाण्डअपोतानां गर्भ:' (त. सू. प्र. २ सू. ३३)। ६. 'देवनारकामामुपपाद.' (त. सू. प्र. २ सू. ३४)। ७. 'शेषाणां समच्छेनं (त. मू. प्र. २ सू. ३५) ।
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१३२ / गो.सा. जीवकाण्ड
गाथा ८५-८७
कमर
का कथन
उववावे प्रच्चित्तं गब्भे मिस्सं तु होदि सम्मुच्छे | सच्चित्तं श्रच्चित्तं मिस्सं च य होदि जोगी हु ॥१८५॥ |
गाथार्थ - उपपाद जन्म में प्रचित्तयोनि होती है, गर्भजन्म में मिश्रयोनि होती है और सम्मूर्च्छन जन्म में सचित्त, श्रचित्त एवं मिश्र तीनों प्रकार की योनियां होती हैं ।। ६५ ।।
विशेषार्थ -- सम्मूर्च्छन- गर्भ- उपपाद जन्मों में सचित्तादि योनियों का विभाजन इसप्रकार है
उपपादजन्मत्राले देव नारकियों में सम्पुट शय्या व ऊँट मुखाकार आदि उत्पत्ति- बिल-स्थान विवक्षित जीवोत्पत्ति से पूर्व चित्त ही हैं, क्योंकि वे योनियाँ अन्य जीवों से अनाश्रित हैं. अथवा इनके उपपादप्रदेशों के पुद्गल प्रचेतन हैं। उपपादजन्म में सचित्त व मिश्रयोनि नहीं होती । गर्भजन्म में मिश्रयोनि ही होती है, क्योंकि पुरुषशरीर से गलित चित्त शुक्र का स्त्री के सचित्त शोणित के साथ मिश्रण होने से मिश्रयोनि होती है । केवल अचित्त शुक्र के या केवल सचित्त स्त्रीशोरिणत के योनि सम्भव नहीं है । अथवा माता के उदर में अचेतन वीर्य व रज से चेतन आत्मा का मिश्रण होने से मिश्रयोनि है | सम्मूर्च्छन जन्म में सचित, श्रचित्त और मिश्र तीनों ही प्रकार की योनियाँ होती हैं । एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सम्मूर्च्छन जन्मवालों में किन्हीं की घोनियाँ सचित्त होती हैं, किन्हीं की योनियाँ अचित्त होती हैं और किन्हीं की सचित प्रचित्त मिश्र होती हैं । साधारण शरीर वाले निगोदिया सम्मूर्च्छन जीवों के सचित्तयोनि होती है। शेष सम्मुन्छेनों में किसी के अचित्तयोनि और किसी के मिश्रयोनि होती है।' अन्यत्र ( मुलाचार में ) भी उपर्युक्त कथन का विषय एक गाथा के द्वारा प्रतिपादित किया गया है।
उवावे सीदुसणं, सेसे सोदुसरमिस्तयं होदि । उववादेखेसु य संउड वियलेसु विउलं तु ॥ ८६ ॥ गब्भजजीवाणं पुण मिस्सं नियमेण होदि जोणी हु । समुच्छण पंचक वियलं या विउलजोरगी हु ॥८७॥
गायार्थ— उपपादजन्म में शीत और उपरण दो प्रकार की योनियाँ होती हैं। शेष जन्मों में शीत, उष्ण और मिश्र ये तीन ही घोनियां होती हैं । उपपादजन्म वालों की तथा एकेन्द्रियजीवों की योनि संवृत हो होती है, विकलेन्द्रिय जीवों की विवृतयोनि होती है ॥८६॥ गर्भजन्म वालों की संवृतविवृत से मिश्रित मिश्रयोनि होती है। पंचेन्द्रिय सम्मूर्च्छन जीवों की विकलेन्द्रियों की तरह विवृतयोनि होती है ॥८७॥
विशेषार्थ - श्री प्रकलंकदेव ने ( राजवार्तिक २/३३, २४-२६ में ) कहा है कि देव, नारकी
१. मं. प्र. टीका एवं राजवार्तिक के आधार से । २. अचित्ता खलु जोशी नेरइयाणं च होइ देवाणं । मिस्सा य गजम्मा तिविहा जोली दु सेसाणं ।। १२ / ५६ ॥ ( पर्याप्त अधिकार ) ।
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गाथा
जीवसमास/१३३ और एकेन्द्रियों के संतयोनियां होती हैं, विकलेन्द्रिय जीवों के विवृतयोनियाँ होती हैं । गर्भजों के मिथ (संवृत-विवृत मिली हुई) योनियाँ होती हैं। मूलाधार में भी कहा है--
एइंदिय रहया संपुडजोरणी हवंति देवा य ।
विलिविया य वियडा संपुडवियडा य गम्भेसु ॥१२/५८।। (पर्या. प्रवि.) है एकेन्द्रिय, नारकी तथा देवों के संवतयोनियां होती हैं। विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के विवृतयोनियां होती हैं । गर्भजों में संवृत-विवृत अर्थात् मिश्रयोनियाँ होती हैं। राजवातिक व मूलाचार इन दोनों ग्रन्थों में सम्मुर्छन जन्मवाले पंचेन्द्रियजीवों की योनि के विषय में कथन नहीं किया, किन्तु गो. सा. जीवकाण्ड की उक्त गाथा ८७ के उत्तरार्ध में सम्मूछनपंचेन्द्रियजीवों को विवतयोनि बसलाई गई है।
उपपादजन्म में कहीं शीतयोनि है और कहीं उष्णयोनि है । जैसे रत्नप्रभा प्रथम पृथ्वी से लेकर घूमप्रभा नामक पाँचवीं पृथ्वी के तीन चौथाई तक नरकबिलों में उष्णयोनि है। पांचवें नरक के भेष चौथाई बिलों में, छठे व सातवें नरकों के समस्त बिलों में शीतयोनि है। शेष मर्भज व सम्मळुन जीवों में शीत, उष्ण व मिथ तीनों प्रकार की योनियों होती हैं, किन्तु मूलाचार अ. १२
मा.६० में तेजकायिक जीबों के उष्ण योनि कही है तथा संस्कृतटीका में सिद्धान्तचक्रावर्ती श्री । इसुनन्दि आचार्य ने अप्कायिक के मात्र शीतयोनि बतलाई है। उपपादजन्म में एकेन्द्रियरूप सम्मुर्छन सन्म में संवृतयोनि होती है जैसे सम्पुट शय्या व उष्ट्र मुखाकार उपपादस्थान, इनमें विवक्षितजीव की उत्पत्ति के अनन्तर और दूसरे जीव के उत्पन्न होने से पूर्व नियम से संवृत रहती है, पुनः विकलेन्द्रियरूप सम्मळून जन्म में विवृतयोनि होती है । गर्भजन्म में संवृत-विवृत मिश्रित होती है, क्योंकि 1. पुरुषशरीर से गलितशुक्र विवृत है और स्त्री का शोरिणत संवृत है, इन दोनों का मिश्रण गर्भ है अत:
गर्भजन्म में संवृत-विवृत मिश्रयोनि होती है । अन्य दो अर्थात् संवृत या विवृतयोनि नहीं होती। । पंचेन्द्रियों के सम्मळुन जन्म में विकलेन्द्रिय के समान विवृतयोनि ही होती है।' कहा भी है
२एइंदिय णेरड्या संपुडोणी हवंति देवा य । विलंबिया य वियजा संपुरबियडा य गम्भेसु ॥ सीदुण्हा खलु जोपी गेरइयाणं तहेव देवाणं । तेऊण उसिण जोणी तिथिहा जोगी बु सेसाणं ॥
योनियों की संख्या सामण्णेरण य एवं एव जोगीयो हवंति वित्थारे ।
लक्खाण चतुरसीवी जोगीरो होंति रिणयमेण ॥८॥ . गाथार्य-सामान्य से योनियां नौ प्रकार की हैं। विस्तार से योनियों के नियम से चौरासी लाख भेद हैं ।।८८||
१. म. प्र. हीका के प्राधार से।
२. मनाचार १२/५८ ६ ६२ (पर्याप्ति अधिकार) ।
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• १३४ / गो. सा. जीवकाण्ड
विशेषार्थं सचित्त, शीत, संवृत, श्रचित्त, उष्ण, विवृत, सचित्ताचित्तमिश्र, शीतोष्णमिश्र, संवृतविवृत मिश्र, योनियों के ये नौ प्रकार हैं ।' प्रत्यक्षज्ञानियों ने दिव्यचक्षु के द्वारा इन नव प्रकार की योनियों को देखा है और शेष छद्मस्थों ने श्रागम के कथन से जाना है 13 सामान्य से अर्थात् संक्षेप कथन की अपेक्षा योनियाँ नौ प्रकार की होती हैं, किन्तु विशेष अर्थात् विस्तार की अपेक्षा योनियों के ८४ लाख भेद हैं। ---
गाथा ६-६०
योनियों के ८४ लाख भेद
रिच्चिदरधादुसत्त य तरुदस वियलिदियेसु छच्येव । सुरणिरयतिरियचउरो चोट्स मणुएसु सदसहस्सा ॥ ८६ ॥
गाथार्थ - नित्यनिगोद, इतर (चतुर्गति) निगोद, धातु अर्थात् पृथ्वीकायिक अपकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक इस प्रकार इनमें सात-सात शतसहस्र (७ लाख ) योनियाँ हैं । तरु अर्थात् वनस्पतिकायिक में दसलाख, विकलेन्द्रियों ६ लाख, देव नारकी व तिर्यचों में चार-चार लाख, मनुष्यों में १४ लाख योनियाँ होती हैं ||२६|
विशेषार्थ नित्यनिगोद की सात लाख, इतर ( चतुर्गति) निगोद की सात लाख । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक ये चारों धातु कहलाती हैं। इन चारों में प्रत्येक की सात-सात लाख योनियाँ होती हैं। इस प्रकार इन छहकायिक जीवों में कुल ४२ लाख योनियाँ होती हैं । तरु अर्थात् प्रत्येक वनस्पति की दस लाख योनियां । विकलेन्द्रियों को ६ लाख घोनियों में हीन्द्रिय की २ लाख, श्रीन्द्रिय की २ लाख और चतुरिन्द्रिय की २ लाख योनियाँ हैं । देवों की चार लाख, नारकियों की चार लाख, पंचेन्द्रिय तिर्यचों की ४ लाख योनियाँ हैं तथा मनुष्यों की १४ लाख योनियाँ हैं । ये सर्व मिलकर (४२÷१०+६+४+४+४+ १४= ) ६४ लाख योनियाँ होती हैं । * इस प्रकार चतुर्गतिज जीवों की कुल ८४ लाख योनियाँ होती हैं ।
शङ्का – नित्यनिगोदिया कौन जीव हैं और अनित्य निगोदिया कौन जीब हैं ?
समाधान — जो निगोदिया जीव तीनों काल में सपर्याय पाने योग्य नहीं होंगे वे नित्यनिगोद हैं। जो निगोदिया जीव त्रसपर्याय प्राप्त कर चुके या भविष्य में प्राप्त करेंगे वे निगोदपर्यायस्थ जीव अनित्यनिगोद हैं। कहा भी है
"के पुननित्यनिगोता: के चाऽनित्यनिगोता: ? त्रिष्वपि कालेषु प्रसभावयोग्या येन भवन्ति से नित्य निगोता: । त्रसभावमवाप्ता श्रवाप्स्यन्ति च ये ते श्रनित्यनिगोताः ।
इस प्रकार जीवसमास प्ररूपणा में योनिप्ररूपणा पूर्ण हुई ।
गतियों और जन्मो का सम्बन्ध; लब्ध्यपर्याप्तक जीवों की सम्भावना और असम्भावना जयदादा सुरणिरया गम्भजसम्मुच्छिमा है परतिरिया । सम्मुच्छिमा
मणुस्साऽपज्जत्ता
एलिक्खा ||
१. मुलाचार १२ / ५८ ।
२. रा. वा. २ / ३२/२०१
३. बारस
४. मं. प्र. टीका व राज वा. प्र. २ सु. ३२ वा २७ के आधार से ।
अणुवेक्शा गाथा ३५, मूलाचार १२ / ६३ । ५. रा. बा. २ / ३२ / २७ ।
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पाषा ११-१३
जीवसमास/१३५ पंचक्खतिरिक्खायो गब्भजसम्मुच्छिमा तिरिवखारणं । भोगभुमा गन्भभवा, परपुण्णा गब्भजा चेव ।।६।। उववादगम्भजेसु य, लद्धिअपज्जतगा खणियमेण । गरसम्मुच्छिमजीवा, लद्धि प्रपज्जत्तगा चेव ॥१२॥
गाथार्थ देव और नारकियों का उपपादजन्म होता है। मनुष्य और तिर्यंचों के गर्भ व । सम्मूर्छन जन्म होता है । एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और अपर्याप्त मनुष्यों का सम्मूच्र्छन जन्म ही होता
है॥६० ।। पंचेन्द्रिय तिथंचों का जन्म गर्भज भी होता है और सम्मूर्छन भी होता है । भोगभूमिया तियंचों का जन्म गर्भज ही होता है । पर्याप्त मनुष्यों का जन्म गर्भज ही है ।।६१|| उपपाद जन्म में और गर्भजन्म में नियम से लब्ध्यपर्याप्तक नहीं होते। सम्मुर्छन मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक ही होते है ।।६२॥
विशेषार्थ-देव और नारकी औपपादिक ही होते हैं। नरक बिलों में रहने वाले जीव नारको ही होते हैं। कहा भी है--"देवनारकारणामुपपादः" अर्थात् देव और नारकियों का उपपाद जन्म ही होता है, अन्य जन्म नहीं होता। मनुष्य व तिथंच गर्भज भी होते हैं और सम्मूर्छन भी होते हैं। अपर्याप्त-[लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य सम्मूर्छन ही होते हैं। एकेन्द्रिय जीव व विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) नियम से सम्मूच्र्द्धन होते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यच गर्भज भी होते हैं, सम्मूर्छन भी होते हैं, किन्त तियंचों में भोगभमिया गर्भज ही होते हैं। "गरपुण्णा" अर्थात पर्याप्त मनष्य भी गर्भज ही होते हैं। उपपाद जन्म वालों में अर्थात देव-नारकियों में तथा गर्भज मनुष्य-तिर्यचों में, विशिष्ट तिर्यचमनुष्यों में नियम से लब्ध्यपर्याप्तक नहीं होते । सम्मूर्च्छन मनुष्य नियम से लब्ध्यपर्याप्त क ही
नरकादि गतियों में वेद सम्बन्धी नियम गरइया खलु संहा परतिरिये तिणि होति सम्मुच्छा । संढा सुरभोगभुमा पुरिसित्थीवेवगा चेव ॥१३॥
गाथार्थ -नारकी नियम से नपुसक होते हैं । मनुष्यों और तिर्यंचों में तीनों वेद होते हैं । सम्मूछन जन्म वाले नपुंसक होते हैं। देवों में तथा भोगभूमिया जीवों में पुरुष व स्त्रीवेद ये दो ही वेद होते है ।।६३॥
विशेषार्थ नारको नियम से द्रव्य और भाव से नपुंसक वेद वाले होते हैं। मनुष्यों और | सिधचों में द्रव्य से और भाव से स्त्री, पुरुष और नपुंसक ये तीनों वेद होते हैं। सम्मुच्र्छन तिथंच व : मनुष्य द्रव्य से और भाव से नपुसकबेदी ही होते हैं। सम्मूछन मनुष्य स्त्री की योनि कांख, स्तन के
मूलभाग में तथा चक्रवर्ती को पट्टरानी को छोड़कर अन्य स्त्रियों के मल-मूत्रादि अशुचि स्थान में
१. त.सू. २/३४ ।
२. म.प्र. टीका के आधार से ।
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१३६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६३ उत्पन्न होते हैं । ' देव तथा भोगभूमिया द्रव्य से व भाव से स्त्री व पुरुषवेदी ही होते हैं । इस सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र अध्याय २ के निम्नलिखित सूत्र भी द्रष्टव्य हैं
"नारकसम्मूच्छिनो नपुसकानि ॥५०॥ न देवाः ॥५१॥ शेषास्त्रिवेदाः ॥५२॥"
नोकषाय चारित्रमोहनीयकर्म के भेद नपुसकवेदोदय से भावनपुंसकवेद होता है और अशुभनामकर्मोदय से द्रव्य नपुसकवेद होता है। नारकी व सम्मूर्छन; इन जीवों के नपुंसकवेद चारित्रमोहनीयकर्म का भी उदय होता है और अशुभ नाम कर्म का भी उदय होता है अतः नारकी व सम्मूर्छन जीव भाव से व द्रव्य से नसकवेदी ही होते हैं, स्त्रीवेदी या पुरुषबेदी नहीं होते । देव और भोगभूमिया शुभगति बाले जीव हैं। वे स्त्री-पुरुष सम्बन्धी सातिशय सुख का अनुभव करते हैं, अत: उनमें नपुसक्रवेद नहीं होता। शेष मनुष्य-तिर्यंचों अर्थात् कर्मभूमिज मनुष्य-तिथंचों में स्त्री-पुरुषनपुसक ये तीनों बंद होते हैं। वेद का अर्थ लिंग भी है। द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग के भेद से वह दो प्रकार है। नामकर्मोदय से होने वाले योनि, मेहनादि को द्रलिंग कहते हैं। चारित्रमोहनीयकर्मरूप वेदोदय से भावलिंग होता है 13 अन्यत्र भी कहा है
एइंदिय विलिदिय णारय सम्मुच्छिमा य खलु सन्चे। लेने गया ने गाया होंति णियमा दु॥७॥ वेवा य भोगभूमा असंखवासाउमा मणुयतिरिया । ते होंति बोसु वेदेसुणत्थि तेसि तदियवेदो ॥८॥ पंचिदिय वु सेसा सण्णि असण्णी य तिरिय मणुसा य ।
ते होंति इस्थिपुरिसा णसगा चावि बेहि ॥६॥ -एकेन्द्रिय-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक ; विकलेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ; नारक अर्थात् सातों पृथ्वियों के नारकी ; सर्व सम्मूर्छन-सम्मूर्च्छन संज्ञी व सम्मुर्छन असंज्ञी पंचेन्द्रियों के नियम से नपुसकबेद ही होता है। अर्थात् सर्व एकेन्द्रिय, सर्वविकलेन्द्रिय, सर्वनारको और सर्व सम्मूर्च्छनसंज्ञी-असंज्ञी पंचेन्द्रियों के वेद की अपेक्षा नियम से नपुसकवेद ही होता है। देवभवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी, कल्पबासी; भोगभूमिज तिर्यंच व मनुष्य, असंख्यातवर्ष की आयुवाले भरत-ऐरावतक्षेत्र सम्बन्धी सुषमा-सुषमादि तीन भोगभूमिकालों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य और तिर्यंच तथा सर्वम्लेच्छखण्डों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य-तिर्यंच स्त्री व पुरुष इन दो वेदवाले ही होते हैं, उनमें तृतीय अर्थात् नपुसकवेद नहीं होता। शेष पंचेन्द्रियों में अर्थात् देव-नारकी तथा भोगभुमिज, असंख्यातवर्षायुष्क [भोगभूमि के प्रतिभाग में उत्पन्न होने वाले और म्लेच्छखंडों में उत्पन्न जीवों के सिवाय शेष बचे पंचेन्द्रिय संज्ञी व असंज्ञी जीवों में (मनुष्य-तियंत्रों में) स्त्री-पुरुष-नपुसक ये तीनों ही द्रव्मवेद एवं भाववेद पाये जाने हैं। १. कर्मभूमि में चक्रवर्ती, द्र वगैरह बड़े राजाओं के सैन्यों में मलमूत्रों का जहाँ क्षेपण करते हैं, ऐसे स्थानों पर वीर्य. नाक का मल, कफ, कान और दांतों का माल और मत्यन्त अपवित्र प्रदेश इनमें तो तत्काल उत्पन्न होते हैं। जिनका शरीर अंगुल के असंख्यात भाग मात्र रहता है और जो जन्म लेने के बाद शीघ्र नष्ट होते हैं और जो लध्यपर्याप्तक होते हैं, उनको सम्मूच्र्छन मनुष्य कहते हैं । ज. मि. कोश माग ४ पृ. १२८। २. म.प्र. टीका के प्राधार से । ३. तत्त्वार्थ राजवातिक के प्राधार से। ४. मूलाचार पर्याप्ति अधिकार । ५. श्री वसुनन्दिप्राचार्यकृत मूलाचार टीका ।
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गाथा ६४
जीवसमास/१३७
सर्वजघन्य और सर्वोत्कृष्ट अवगाहना के स्वामी 'सुहमणिगोव-अपज्जत्तपस्स जादस्स सदियसमयम्हि । मंगुलप्रसंखभागं जहरणमुक्कस्सयं मच्छे ॥४॥
गाथार्थ-उत्पन्न होने के तीसरे समय में सूक्ष्म निगादिया-लब्ध्यपयाप्तक की अङ्ग ल के प्रसंख्यातव भाग प्रमाण जघन्य शरीर अवगाहना होती है और उत्कृष्ट शरीर अवगाहना मत्स्य की होती है ||१४||
विशेषार्थ-अन्यतर सूक्ष्मनियोद जीव लब्ध्यपर्याप्तक जो कि त्रिसमयवर्ती पाहारक है, जभवस्थ होने के तृतीयसमय में वर्तमान है, जघन्य योगवाला है और शरीर की सर्वजघन्य अवगाहना में वर्तमान है। उसके शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है। पर्याप्त का निराकरण करने के लिए 'अपर्याप्त के' ऐसा निर्देश किया गया है।
शङ्का–पर्याप्त का निराकरण किसलिए किया गया है ? ___ समाधान... अपर्याप्त की जघन्य अवगाहना से पर्याप्त को जघन्य अवगाहना बहुत पाई जाती है, अत: उसका निषेध किया गया है। विग्रहगति में जघन्य अवगाहना भी पूर्व (उक्त) अवगाहना के सदृश है अतः उसका निषेध करने के लिए 'त्रिसमयवर्ती आहारक' ऐसा कहा गया है । ऋजुगति से त्पन्न हुआ, इस बात के ज्ञापनार्थ 'तृतीयसमयवर्ती तद्भवस्थ' ऐसा कहा गया है ।
शङ्कर-एक, दो या तीन विग्रह करके उत्पन्न कराकर छठे समयवर्ती तद्भवस्थ निगोदजीव के जघन्य स्वामीपना क्यों नहीं ग्रहण किया गया।
समाधान नहीं ग्रहण किया गया, क्योंकि पांच समयों में असंख्यातगुरिणतश्रेणी से वृद्धि को प्राप्त हुए एकान्तानुवृद्धियोग से बढ़ने वाले उक्त जीव के बहुत अवगाहना का प्रसंग आता है। है शङ्का-प्रथमसमयवर्ती आहारक और प्रथमसमयवर्ती तद्भवस्थ हुए निगोदजीव के जघन्य अवगाहना का स्वामीपना क्यों नहीं कहा गया ? . समाधान नहीं, क्योंकि उस समय पायतचतुरस्रक्षेत्र के आकार से स्थित उक्त जीव में अवगाहना का स्तोकपना बन नहीं सकता।
शङ्का-जुगति से उत्पन्न होने के प्रथमसमय में प्रायतचतुरस्र स्वरूप से जीवप्रदेश स्थित रहते हैं, यह कैसे जाना जाता है ? 1 समाधान-यह प्राचार्य परम्परागत उपदेश से जाना जाता है। - शङ्का--द्वितीय समयवर्ती पाहारक और तद्भवस्थ होने के द्वितीयसमय में वर्तमान जीव के बघन्य स्वामीपना क्यों नहीं कहा गया है ?
. मूलाचार पर्याप्ति अ. १२ गा. ४७ का भी पूर्वार्ध इसी प्रकार है।
२. ध.पु. ११ पृ. ३३ सूत्र २० ।
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१३८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १४
समाधान नहीं, क्योंकि द्वितीयसमय में भी जीवप्रदेश समचतुरस्र स्वरूप से अवस्थित रहते हैं।
शा-द्वितीयसमय में जीवप्रदेशो का विष्कम्भ के समान मायाम हो जाता है, यह कहाँ से जाना जाता है ?
समाधान- यह परमगुरु के उपदेशों से जाना जाता है।
शङ्का-तृतीयसमयवर्ती आहारक और तृतीयसमयवर्ती ही तद्भवस्थ निगोदजीव के जघन्य स्वामीपना किसलिए दिया गया है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उस समय में चतुरस्रक्षेत्र के चारों ही कोनों को संकुचित करके जीवप्रदेशों का वर्तुल अर्थात् गोल आकार से अवस्थान देखा जाता है।
शङ्का-उस समय जीवप्रदेश व लाकार अवस्थित होते हैं, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान—वह इसी सूत्र से जाना जाता है ।
उत्पन्न होने के प्रथमसमय से लेकर जघन्य उपपादयोग और जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग से तीनों समयों में प्रवृत्त होता है. इस बात को बतलाने के लिए 'जघन्य योगवाले के ऐसा सूत्र में निर्देश किया गया है। तृतीय समय में अजधन्य भी अवगाहना होती है. अतः उनका प्रतिषेध करने के लिए 'शरीर की सर्वजघन्य अवगाहना में वर्तमान' यह कहा गया है। इन विशेषणों से विशेषता को प्राप्त हुए सूक्ष्मनिगोद जीव के जघन्य अवगाहना होती है।"
जो मत्स्य एक हजार योजन की अवगाहनावाला है, उसकी उत्कृष्ट अवगाहना होती है। इस सूत्रांश से जो मत्स्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को आदि लेकर उत्कर्ष से एक प्रदेश कम हजार योजन प्रमाणतक आयाम से स्थित हैं, उनका प्रतिषेध किया गया है।
शङ्का-उत्सेध और विष्कम्भ की अपेक्षा महामत्स्य सदृश पाये जाने वाले मत्स्यों का ग्रहण करने पर भी कोई दोष नहीं है, अत: उनका ग्रहण क्यों नहीं किया गया?
समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जब तक महामत्स्य के प्रायाम, विष्कम्भ और उत्सेध का परिज्ञान नहीं हो जावे तब तक प्राप्त मत्स्यों के प्रायाम. विष्कम्भ और उत्सेध का परिज्ञान होना किसी प्रकार से सम्भव नहीं है । महामत्स्य का आयाम किसी अन्य सूत्र से नहीं जाना जाता है, क्योंकि इस सूत्र से ज्येष्ठ प्राचीन सूत्रभूत कोई अन्य वाक्य सम्भव नहीं है ।
महामत्स्य का आयाम एक हजार योजन, विष्कम्भ पांच सौ योजन और उत्सेध दो सौ पचास योजन प्रमाण है।
शा—यह सूत्र के बिना कैसे जाना जाता है ?
१. भ. पु. ११ पृ. ३४-३५ । २. घ. पु. ११ सू. ८ पृ. १५ ॥
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जीयसमास/१३६
समाधान—यह प्राचार्य-परम्परा के प्रवाह-स्वरूप से आये हुए उपदेश से जाना जाता है और महामत्स्य के विष्कम्भ व उत्सेध का ज्ञापक सूत्र है ही नहीं, ऐसा नियम भी नहीं है क्योंकि 'खोयणसहस्सो त्ति' अर्थात् एक हजार योजनवाला इस देशामक सुत्रवचन से उनकी सूचना की गई है।
ये विष्कम्भ और उत्सेध महामत्स्य के सब जगह समान हैं। मुख और पूछ में विष्कम्भ एवं उत्सेध का प्रमाण इतने मात्र ही है, क्योंकि इनमें भिन्न विष्कम्भ और उत्सेध की प्ररूपणा करने वाला सूत्र व व्याख्यान नहीं पाया जाता है । तथा इसके बिना हनार योजन का निर्देश बनता भी नहीं है।
यहाँ के मत्स्य को देखकर 'महामत्स्य का मुख और पूछ अतिणय सूक्ष्म हैं' ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किन्तु यह घटित नहीं होता तथा कहीं-कहीं मत्स्य के अङ्गों में व्यभिचार देखा जाता है अथवा ये विष्कम्भ और उत्सेध समकरण सिद्ध हैं, ऐसा कितने ही प्राचार्य कहते हैं। दूसरी बात यह है कि अतिशय सूक्ष्ममुख से युक्त महामत्स्य एक सौ योजन की अवगाहना वाले अन्य तिमिगलादि मत्स्यों को निगलने में समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें बिरोध पाता है । अतएव व्याख्यान में महामत्स्य के उपर्युक्त विष्कम्भ और उत्सेध को ही ग्रहण करना चाहिए ।
एक हजार योजन आयाम, पाँच सौ योजन उत्सेध और उसके आधे अर्थात् डाईसी योजन विस्तारवाले महामत्स्य का क्षेत्र भी बनफलम का संकास प्रमाण जांगूल होता है।'
तिलोयपणती भाग २ अ. ५ पृ. ६४० पर कहा है कि स्वयंप्रभाचल के बाह्यभाग में स्थित क्षेत्र में उत्पन्न किसी सम्मूच्र्छन महामत्स्य के सर्वोत्कृष्ट अवगाहना दिखती है जिसकी एक हजार योजन लम्बाई, पाँच सौ योजन विस्तार और इससे आधी अर्थात् ढाई सौ योजन ऊँचाई अवगाहना है। उसके प्रमाणांगुल करने पर चार हजार पाँच सी उनतीस करोड़ चौरासी लाख तेरासी हजार दो सौ करोड़ रूपों से गुणित प्रमागधनांगुल होते हैं । अर्थात् १०००-५००४ २५० - १२५०००००० पोजन घनफल x ३६२३८७८६५६ == ४,५२.६८,४८,३२,००,००,००,००० प्रमाए घनांगुल ।
जघन्य अवगाहना से लेकर उत्कृष्ट अवगाहना तक एक-एक प्रदेश की वृद्धि के क्रम से मध्यम अवगाहना के असंख्यात भेद होते हैं । इस प्रकार अवगाहना के सम्पूर्ण विकल्प असंख्यात होते हैं, क्योंकि एक घनांगुल में असंख्यातप्रदेश होते हैं ।
एकेन्द्रियादि जीवों की उत्कृष्ट प्रवगाहना साहिय सहस्समेकं बारं कोणमेकमेक्कं च ।
जोयणसहस्सदीहं पम्मे वियले महामच्छे ॥६५।। गाथार्थ - पद्म (कमल) एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और महामत्स्य पंचेन्द्रियः इनकी उत्कृष्ट दीर्घता (अवगाहना) कम से कुछ अधिक एक हजार योजन, बारह योजन, एककोश कम एक योजन, एक योजन और एक हजार योजन है ।।६।।
Entr-hi...
१. घ. पु. ११ पृ. १५-१६ । २. प. पू. ४ पृ. ३५-३६ । ३, जीवराज ग्रन्थमाला, सोलापुर में प्रकाशित ।
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१४०/गो, सा. जीवकाण्ड
गाथा ६३
विशेषार्थ.--स्वयंप्रभनगेन्द्रपर्वत के परभाग में स्थित त्रसकायिक जीवराशि प्रधानहै , क्योंकि यह राशि इतर कर्मभूमिज जीवों की अपेक्षा दीर्घायु और बड़ी अवगाहनाबाली है। स्वयंप्रभपर्वत के परभाग में स्थित सबसे बड़ी अवगाहना होती है, इस बात का ज्ञान कराने के लिए यह गाथासूत्र है
"संखो पुरण बारह जोयणाणि गोम्ही भव तिकोसं तु ।
भमरो जोयणमेगं मच्छो पुण जोवरण सहस्सो ॥१२॥ - शंख नामक द्वीन्द्रिय जीव बारह योजन की लम्बी अवगाहनावाला होता है । गोम्ही नामक श्रीन्द्रियजीव तीन कोस लम्बी अवगाहनावाला, भ्रमर नामक चतुरिन्द्रियजीव एक योजन लम्बी अवगाहनावाला और महामत्स्य नामक पंचेन्द्रियजीच एक हजारयोजन लम्बी अवगाहनावाला होता है।
पद्म अर्थात् एकेन्द्रिय आदि जीवों को उत्कृष्ट अवगाहना का घनफल इस प्रकार है-स्वयंप्रभाचल के बाह्य भाग स्थित क्षेत्र में उत्कृष्ट अवगाहना वाला पद्म (कमल) होता है जो एक कोश अधिक एक हजार योजन ऊंचा और एक योजन मोटा समवृत्त होता है जिसका धनफल प्राप्त करने के लिए त्रिलोक्सार में निम्नलिखित गाथा कहो गई है
"बासो तिगुणो परिहो वासचउत्थाहदो कु खेत्तफलं ।
खेत्तफलं वेहगुणं खातफलं होइ सन्यत्थ ॥१७॥" उत्कृष्ट अवगाहना वाले एकेन्द्रियजीव-कमल का व्यास एकयोजन, परिधि तिगुणी अर्थात् १४३=३ योजन । व्यास की चौथाई १ योजन, व्यास की चौथाई से परिधि को गुणा करने पर । ३४= वर्गयोजन क्षेत्रफल होता है । इस क्षेत्रफन्न को ऊँचाई से गुणा करने पर ४१००० - ७५०१ घनयोजन स्वातफल होता है । इसके प्रभाणांगुल का प्रमाण ७५०१४३६२३८७८६५६= . २७१८५८८४६६२४८ प्रमाणघनांगुल होता है ।
स्वयंप्रभाचल के बाह्य भाग में स्थित उत्कृष्ट अवगाहनाबाले द्वौन्त्रिय शंख का मुख चार योजन और और लम्बाई १२ योजन है । उसका धनफल प्राप्त करने के लिए ति. प. में निम्नलिखित गाथासूत्र कहा है -
व्यासं तावत् कृत्वा, बदनदलोनं मुखार्षवर्गयुतम् ।
द्विगुणं चर्षिभक्त सनाभिकेऽस्मिन् गणितमाहः ॥५/३१६॥' एदेण सुशेण खेत्तफलमारिणये तेहत्तरि-उस्सेह-ओयणाणि होति ।७३।
"पायामे मुह-सोहिय पुणरवि प्रआयाम सहिद मुहभजियं ।
बाहल्लं रणायवं संखायारट्टिए खेत्ते ॥३२०।। एदेण सुत्तेण बाहल्ले प्राणिदे पंचजोयणपमाणं होदि । पुष्वसाणीव-तहत्तरिभूद-खेत्तफल पंचजोयराबाहल्लेण गुणिवे घरगजोयसारित तिपिएसयपण्णट्ठी होति ॥३६॥ १. व. पु. ४ पृ. ३३ । २. ति. प. पू. ६३६ भाग २ (सोलापुर) 1 ३. प्रामामकदो मुहदलहीसा मुहवासप्रशवग्गजुदा । विगुणा बेहेण हदा संखावत्तस्स खेत्तफलं ।। ३२७ ।। (त्रिलोकसार)! ४. ति. प. अ. ५। ५. ति. प. भाग २ पृ. ६३८, सोलापुर ।
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गाथा
जीवसमास/१४१
बारह योजन विस्तार को उतनी बार करके अर्थात् १२ योजन विस्तार का वर्ग करने पर जो राशि (१२४ १२-- ) १४४ योजन है, उसमें से मुख (४ यो.) के आधे २ यो, को कम करने पर (१४४ - २ = ) १४२ यो. में मुख के आधे २ योजन के वर्ग (२) योजनको जोड़ देने पर (१४२ + ४ =)१४६ यो. को दुगुणा करके (१४६ ४२ - २६२ यो., इसमें चार का भाग देने पर (२६२:-४ =)७३ वर्गयोजन शंख का क्षेत्रफल प्राप्त होता है ।३१६1
आयाम १२ यो. में से मुख ४ यो, को कम करके (१२-४ = ) गेप बचे ८ में १२ यो. आयाम को मिलाकर (८+ १२ =)२० यो, में मुख ४ यो. का भाग देने पर (२०:४=) ५ यो. शंख का बाहल्य होता है ॥३२०।। शंख के क्षेत्रफल ७३ यो. को बाहल्य ५ से गुणा करने पर (७३४५ =) ३६५ यो. धनफल प्राप्त होता है। ३६५४३६२३८७८६५६-- १३२२७१५७०१४४० प्रमाणधनांगुल शंस्त्र का धनफल प्राप्त होता है ।
स्वयंप्रभाचल के बाह्म भाग में स्थित उत्कृष्ट अवगाहनावाली श्रीन्द्रियजीव गोम्ही का घनफल इस प्रकार है-गोम्ही का पायाम योजन, इसके आठवें भागप्रमाण विस्तार (४१) योजन और विस्तार का प्राधा बाहुल्य ३४1-योजन । इन तीनों को परस्पर गुणा करने से kxx = १२ घन योजन खातफल प्राप्त होता हैं। जिसका घनप्रमाणांगुल १४३६२३८७८६५६-११६४३६३६ घनप्रमाणांगुल होते हैं।
स्वयंत्रभाचल के बाह्म भाग में स्थित चतुरिन्द्रियजीव भ्रमर की उत्कृष्ट अवगाहना एक योजन आयाम, आधा योजन ऊंचाई और आधे योजन की परिधि प्रमाण विस्तार अर्थात् विष्कम्भ होता है। आधे (३) योजन की परिधि (३४३) = ३ योजन विष्कम्भवाली है। इस विष्कम्भ योजन के प्राधे (३४) = यो., ऊंचाई योजन से गुणा करके (x)= योजन को प्रायाम १ योजन से गुणा करने पर (ax१) न योजन भ्रमर का खातफल अर्थात् घनफल है। इसके प्रमाणघनांगुल (६४३६२३८७८६५६) = १३५८६५४४६६ होते हैं ।
उत्कृष्ट अवगाहना वाले पंचेन्द्रियजीव महामत्स्य का धनफल गा. ६४ की टीका में बताया गया है।
पर्याप्तक द्वीन्द्रियादि जीवों की जघन्य अवगाहना का प्रमाण तथा उसके स्वामी
बितिचपपुण्णजहण्णं अणुधरीकुथुकारणमच्छीम् ।
सिन्छयमच्छे विवंगुलसंखे संखगुणिवकमा ।।६।। गाथार्थ सर्व जघन्य अवगाहना द्वीन्द्रिय जीव में अनुन्धरी को, वीन्द्रियजीव में कुथु की, चतुरिन्द्रिय जीव में काणमक्षिका की और पंचेन्द्रियजीव में सिक्थमत्स्य की होती है, जो घनांगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण है, किन्तु संख्यातगुणे क्रम से है ।।६।।
विशेषार्थ- गाथा में 'वि' द्वीन्द्रिय जीव का, 'ति' तीन इन्द्रिय जीव का, 'च' चतुरिन्द्रिय जीव का
१. ति. प. भाग २ पृ. ६३८, सोलापुर।
२. ति.प. भाग २ पृ. ६३६-६३७, सोलापुर 1
३. ति प. भाग
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१४२/गो.सा. जीवकाण्ड
माया १७.१००
और पंचेन्द्रिय जीव का बोधक है। द्वीन्द्रिय पयाप्तक जीव की जघन्य अवगाहना अनुन्धरी के होती है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तक जीव की जघन्य अवगाहना कुथु के होती है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक जीव की जघन्य अवगाहना कारणमक्षिका के होती है। पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव की जघन्य अवगाहना सिक्थ (तंदुल) मत्स्य के होती है।' .
द्वीन्द्रिय पर्याप्तक जीव की जघन्य अवगाहना से श्रीन्द्रिय पर्याप्तक जीव की जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी, इससे चतुरिन्द्रिय जीब को जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी, इससे पंचेन्द्रिय पर्याप्तकजीव की जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी होती है। इस प्रकार ये जघन्य अवगाहना संख्यातगुरिगत क्रम से है। सर्वत्र गुणाकार संख्यातसमय है। ये सर्व जघन्य अवगाहनाएँ घनांगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण हैं, क्योंकि संख्यात के बहुत भेद हैं। जैसे-दस से बीस संख्यातगुणा है, बीस से चालीस संख्यातगुणा है, चालीस से ८० संख्यातगुणा है। यद्यपि ये चारों संख्याएँ संख्यातगुरिगतक्रम से हैं तथापि दो अङ्क प्रमागता का उल्लंघन नहीं करती अर्थात ये चारों हो दो अङ्क प्रमाण हैं। इसी प्रकार चारों जघन्य अवगाहनाएँ भी संख्यातगुणित क्रम से स्थित हैं, तथापि धनांगुल के संख्यातवें भाग का उल्लंवन नहीं करती, परस्पर संख्यातगुणित होते हुए भी अंगुल के संख्यातवें भाग ही रहती हैं। सर्व जघन्य से सर्वोत्कृष्ट पर्यन्त अवगाहना के स्वामी तथा इन अवगाहनामों की हीनाधिकता
एवं गुणकार का प्रमाण सुहुमरिणवातेप्राभूयातेग्रा पुरिण पदिदिदं इदरं । बितिचपमाविल्लागं एयाराणं . तिसेढीय ॥७॥ अपदिद्विवपत्तेयं, बितिचपतिचबिअपदिट्ठिदं सयलं । तिचबिअपदिट्ठिदं च य सयलं बादालगुरिणदकमा ९८॥ प्रवरमपुण्णं पढम सोलं पुरण पढमबिदियतवियोली। पुण्णिदर पुण्णयाणं जहण्णमुक्कस्समुक्कस्स ।।६।। पुषगजाणं तत्तो वरं अपुण्णस्स पुण्णउक्कस्सं । बोपण्णजहणोति असंखं संखं गणं तत्तो ॥१०॥
गाथार्थ -सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म तेजकायिकअपर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्मपृथ्वीकायिक अपर्याप्तक, बादरवायुकायिक अपर्याप्तक, चादरतेजकायिक अपर्याप्तक, बादरमप्कायिक अपर्याप्नक, बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक, बादरनिगोद अपर्याप्तक, बादरनिगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकाथिक अपर्याप्तक, बादर अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक, द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक, श्रीन्द्रिय अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, इन १६ में से आदि के ११ की तीन श्रेणियाँ करनी चाहिए ।।१७। तीन श्रेणियों के
- - १. प.पु. ११ पृ. ७३ ।
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गाथा ७-१००
जीवसमास/१४३
पश्चात् पर्याप्त अप्रतिष्ठितप्रत्येक वनस्पतिकायिक, पर्याप्त द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पंचेन्द्रिय की जघन्य अवगाहना, तत्पश्चात् अपर्याप्त त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-अप्रतिष्ठित प्रत्येक-सकल अर्थात् पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट प्रवगाहना तत्पश्चात् पर्याप्तत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-अप्रतिष्ठित प्रत्येकपंचेन्द्रिय की उत्कृष्टअवगाहना ये सब स्थान क्रम से लिखने चाहिए। इनमें से ४२ स्थान गुणकार: ।हैं ॥॥ आदि केस
के सोलहस्थान अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना के हैं। प्रथमश्रेणी में पर्याप्तक को जघन्य अवगाहना, द्वितीयश्रेणी में अपर्याप्तक को उत्कृष्ट अवगाहना, तृतीयश्रणो में पप्तिक की उत्कृष्ट अवगाहनावाले जीव हैं ||६|| तृतीय श्रेणी के पश्चात् पाँचस्थान पर्याप्त की जघन्य अवगाहना के, पुनः पत्रिस्थान अपर्याप्तक को उस्कृष्ट अवगाहना के हैं। द्वीन्द्रिय पर्याप्तक की जघन्य अवगाहना पर्यन्त असंख्यात गुणकार हैं, उसके पश्चात् संख्यात गुणकार हैं ॥१०॥
विशेषार्थ--इन गाथानों में प्रतिपादित विषय ध.पु. ११ के 'जीवसमासों में अवगाहना दण्डक' से लिया गया है अत: उसो अवगाहना दण्डक के अनुसार यहाँ विशेष स्पष्टीकरण किया गया है ।
१. सूक्ष्म निगोद-अपर्याप्तकजीव की जघन्य अवगाहना सबसे स्तोक है, वह अवगाहना एक उत्सेधधनांगुल में पल्योपम के असंख्यातवेंभाग का भाग देने पर जो लब्ध पावे, उतनी है । २. सूक्ष्मवायुकायिक अपर्याप्तक को जघन्य अवगाहना उससे असंख्यातगुणी है। यहाँ गुणकार प्रावली का असंख्यातवांभाग है । "प्रचप्ति' कहने पर लब्ध्यपर्याप्तक ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि नित्यपर्याप्तक को जघन्य अवगाहना आगे कही जाने वाली है। ३. उससे सूक्ष्मतेजकायिक अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। गुरणकार मावली का असंख्यातवा भाग है । यहाँ लब्ध्यपर्याप्तक ही ग्रहण करना चाहिए। ४. उससे सूक्ष्मजालकायिक अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । गुणकार प्राबली का असंख्यातवां भाग है । यहाँ भी लब्ध्यपर्याप्तक ही ग्रहण करना चाहिए । ५. सूक्ष्मपृथ्वीकायिक लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना उससे असंख्यातगुणी है। गुणकार आवली का असंख्यातवा भाग है। ६. उससे बादर वायुकायिक अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। यहाँ गुणकार पल्य का असंख्यातवाँ भाग है। ७. उससे बादरतेज. कायिक अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवा भाग है। ६. उससे बादर जलकायिक अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। ६. उससे बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। १०, उससे बादरनिगोदजीव अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। ११. उससे निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । गुरणकार पस्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। १२. उससे बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातनां भाग है। १३. उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवा भाग है । १४, त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। १५. चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना उससे असंख्यातगुणी है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवा भाग है। १६. उससे पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुरणो है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । ये पूर्व प्ररूपित सर्व जघन्य अवगाहनाएं लब्ध्यपर्याप्तक की हैं । आगे निवृत्तिपर्याप्तक और नित्यपर्याप्तक की कही जायेंगो। १७. उससे
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१४४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाया ६७-१००
निर्वृत्तिपर्याप्तक सूक्ष्मनिगोदजीब को जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । गुणकार प्रावली का असंख्यातवाँ भाग है। १६. उसके ही अपर्यापलक के (सूक्ष्मनियोद नित्यपर्याप्तक के ही) उत्कृष्ट प्रवगाहना उससे विशेष अधिक है। यहाँ अपर्याप्तक से नित्यपर्याप्तक का ग्रहण किया गया है, क्योंकि किसी अन्य के साथ प्रत्यासत्ति नहीं है। विशेष का प्रमाग अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । आवला का असंख्यातों भाग उसका प्रतिभाग है, किन्तु किन्हीं प्राचार्यों के अभिप्राय से वह एल्योपम के प्रसंख्यातये भाग प्रमाण है। १३. उसकेही पर्याप्तक घी उत्कृष्ट प्रवगाहना उससे विशेष अधिक है । विशेष का प्रमाण अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र है। २०. उससे सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है, गुणाकार पावली का असंख्यातवाँ भाग है। २१. उसके नित्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है । विशेष का प्रमाण अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। २२. उसके पर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है । विशेष का प्रमाग अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है। २३. उससे सूक्ष्मतेजकायिक निर्वतिपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातमुरणी है । गुणकार प्रावली का असंख्यातवा भाग है। २४. उसके ही अपर्याप्तक (
नित्यपर्याप्तक) की उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है, विशेष का प्रमाण अंगुल का असंख्यातवां भाग है। २५. उसके ही निर्वृतिपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है । विशेष का प्रमाण अंगुल के असंख्यात गाय प्रमाण है। २६. उससे सूक्ष्म जलकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तक की जघन्य अबगाहना असंख्यातनगी है, गुणकार आवली का असंख्यातवाँ भाग है। २७. उसके ही नित्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है । विशेष का प्रमाण अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है। २८. उसके निर्वृत्तिपर्याप्तक को उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। विशेष का प्रमाण अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है। २६. उससे सूक्ष्मपृथ्वीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। गुणकार प्रावली का असंख्यातवाँ भाग है । ३०. उसके ही निर्व त्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है। अधिक का प्रमाण अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है। ३१. उसके ही निर्वृतिपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। विशेष अधिक का प्रमाण अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है। ३२. उससे बादरवायूकायिक निव'तिपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगणी है। गणकार पल्योपम का असंख्यातवा भाग है। ३३. उसके ही नित्यपर्याप्तक को उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। विशेष अधिक का प्रमाण अंगूल के असंख्यातवें भाग है। ३४, उसके ही निर्वत्तिपप्तिक की उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । विशेष अधिक का प्रमाण अंगुल असंख्यातवा भाग है। ३५. उससे बादरतेजकायिक नितिपयप्तिक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगणी है। गुणकार पल्योपम का असंख्यातवा भाग है। ३६. उसके ही नित्य पर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है । विशेष अधिक का प्रमाण अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है। ३७. उसके ही निर्वृत्तिपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है । विशेष अधिक का प्रमाण मंगल का असंख्याता भाग है। ३८. उससे चादर जलकायिक निर्वत्तिपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। ३६. उसके ही नित्यपर्याप्तक को उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । विशेष अधिक का प्रमाण अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है । ४०. उसके ही नितिपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । विशेष अधिक का प्रमाण अंगुल का असंख्यातवाभाग है। ४१ उससे बादर पृथ्वीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यागुणी है। गुणकार का प्रमाण पल्यापम का असंख्यातवाँ भाग है। ४२. उसके ही निवृत्त्यपप्तिक की उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है। विशेष अधिक का प्रमाण
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गाथा १०१
जीवसमास/१४५ अंगुल का असंख्यातबाँभाग है। ४३. उसके ही निवृत्तिपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है। विशेष अधिक का प्रमाण अंगुल का असंख्यातवाँभाग है। ४४. उससे बादरनिगोद निर्वृत्तिपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । गुणकार पल्योपम का असंख्याताभाग है । ४५. उससे उसके ही नित्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। विशेष अधिक का प्रमाण अंगुल का असंख्यातवांभाग है। ४६. उससे उसके ही नित्तिपर्यापतक की उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। विशेष अधिक का प्रमाण अंगुल का असंख्याताभाग है। ४७. उससे निगोद प्रतिष्ठितपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँभाग है। ४८. उससे उसके ही निर्वत्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट प्रवगाहना विशेष अधिक है। विशेष अधिक का प्रमाण अंगुल के प्रसंन्यातवें भाग है। ४६. उससे उसके ही नित्तिपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। विशेष अधिक का प्रमाण अंगुल के असंख्यातवेंभाग प्रमाण है। ५.०. उससे बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर निवृत्तिपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। गुणकार का प्रमाण पल्योपमा मालवाला जब हीकिय नितिपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना - संख्यातगुणी है । गुणकार का प्रमाण पल्योपम का असंख्याताभाग है । ५२. उससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्नक की जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी है। गुणकार संख्यात समय है । ५३. उससे चतुरिन्द्रिय । निर्वृत्तिपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी है। गुणकार का प्रमाण संख्यात समय है।
५४. उससे पंचेन्द्रिय निर्वृतिपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी है। गुणकार संख्यात समय है । ५५. उससे श्रीन्द्रिय नित्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुरणी है। गृणकार संख्यातसमय । है। ५६. उससे चतुरिन्द्रिय नित्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाह्ना संख्यातगुरणी है । गुणाकार का । प्रमाण संख्याससमय है। ५७. उससे द्वीन्द्रिय निर्वत्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी
है। गुणकार संख्यात समय है। ५८. उससे बादर वनस्पति कायिक प्रत्येक शरीर नित्यपर्यास्तक की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। गुणकार संख्यात समय है। ५६. उससे पंचेन्द्रिय निर्वत्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है । गुणकार संख्यात समय है। ६०. उससे त्रीन्द्रिय निर्वृतिपर्याप्तक की उत्कृष्ट प्रवगाहना संख्यातगुरणी है। गुणकार संख्यातसमय है । ६१. उससे चतुरिन्द्रिय निवृत्तिपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना संस्थातगुणी है। गुरग कार संख्यातसमय है। ६२. उससे द्वीन्द्रिय निर्वृतिपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। गुरगकार संख्यात समय है। ६३. उससे बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर निवृत्तिपरितक की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुरणी है। गुरणकार संख्यातसमय है। ६४. उमसे पंचेन्द्रिय निर्वृतिपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यात गुणी है । गुणकार संश्यात समय है ।'
गुगण काररूप असंख्यात का और श्रेगिगत २२ स्थानों में अधिक का प्रमाण
सुहभेवरगुरणगारो प्रावलिपल्ला असंखभागो दु । सट्ठाणे सेढिगया अहिया तत्थेक पडिभागो ॥१०॥
गाथार्थ- स्वस्थान सुक्ष्य और बादरों का गुणकार क्रम से आवली का असंख्यातवाँभाग और पत्य का असंख्यात बाँभाग है, किन्तु श्रेणीगत स्थान एक प्रतिभाग प्रमाण विशेष अधिक है ।।१०११॥
विशेषार्थ- इस गाथा में प्रतिपादित विषय ध.पु. ११ सूत्र ५ से १६ में प्रतिपादित
१. घ.पु. ११ पृ. ५६-६६ सूत्र ३१-१४ ।
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१४६ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १०२ १०३
विषय के अनुसार ही है यतः यहाँ विशेषार्थ में उन्हीं सूत्रों का आधार लिया गया है। एक सूक्ष्मजीव से दूसरे सूक्ष्मजीव की श्रवगाहमा का गुणकार आवली का प्रसंख्यातवां भाग है। तात्पर्य यह है कि 'एक सूक्ष्मजीव से दूसरे सूक्ष्मजीव की अवगाहना असंख्यातगुणी है' ऐसा जहाँ भी कथन किया गया है वली का प्रसंख्यातवां भाग गुणकार होता है। सूक्ष्म से वादरजीव की प्रवगाहना का गुणकार पल्मोपम का असंख्यात बाँभाग है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय की श्रवगाहना से जहां वादरजीव को अवगाहना संख्यातगुणी कही है वहाँ पत्योपम का असंख्यातवाँ भाग गुरपकार होता है । बादर से सूक्ष्म का अवगाहनागुरणकार श्रावली का प्रसंख्यातवाँ भाग है । बादर की अवगाहना से जहाँ सूक्ष्म एकेन्द्रिय की अवगाहना असंख्यातगुणी कही है वहाँ आवली का असंख्यातवभाग गुणकार होता है । बादर से वादर का अवगाहना - गुरणकार पल्योपम का असंख्यातवाँभाग है । वादर नामकर्म से युक्त जीवों का ग्रहरण होने से हीन्द्रियादि जीवों का भी ग्रहण होता है । एक बादरजीव से दूसरे बादरजीव की अवगाहना जहाँ असंख्यातगुणी होती है वहाँ पल्योपम का असंख्यातवाँभाग गुणकार होता है । कहीं पर एक बादरजीव से दूसरे बादरजीव की अवगाहना का गुणकार संख्यातसमय है । हीन्द्रियादिक निर्वृ' स्यपर्याप्तकों और उनके पर्याप्तकों में अवगाहना का गुणकार संख्यात समय होता है ।"
सूक्ष्मनिगोदिया लक्ष्यपर्याप्तक की जघन्यमवगाहन से सूक्ष्म वायुकामिक की जघन्यश्रवगाहना की गुणकार ग्रावली के असंख्यातवें भाग की उत्पत्ति का क्रम तथा दोनों के मध्य की श्रवगाहनायों के भेदों का कथन अवरुवरि इगिपवेसे जुबे प्रसंखेज्जभागवढीए । श्रादी खिरंतर मदो एगेगपसपरिवढी ॥ १०२ ॥ प्रवरोग्गाहणमाणे जहणपरिमिदश्रसंखरा सिहिदे । प्रवरस्तुवर जेटुमसंखेज्जभागस्स ॥१०३॥
उढ्ढे
गाथार्थ- जघन्य श्रवगाहना के प्रमाण में एक प्रदेश मिलाने से असंख्यात भागवृद्धि का प्रादिस्थान होता है। इसके ऊपर निरन्तर एक-एक प्रदेश की वृद्धि होती जाती है। जघन्य अवगाहना के प्रदेशों में जघन्य परीतासंख्यात का भाग देने से जो लब्ध श्रावे उतने प्रदेशों की वृद्धि हो जाने पर असंख्यात भागवृद्धि का उत्कृष्ट स्थान होता है ॥। १०२-१०३॥ ॥
विशेषार्थ- -इन दोनों गाथानों में जो विषय प्रतिपादित है वह ध. पु. ११ सु. २१ की टीका में है. अतः यहाँ विशेषार्थ में उसी को आधार बनाया है। पत्योपम के प्रसंख्यातवें भाग का विरलन करके घनांगुल को समखण्ड करके देने पर एक-एक रूप के प्रति सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव की जघन्य अवगाहना प्राप्त होती है । पश्चात् इसके आगे एक प्रदेश अधिक अवगाहना से निगोद पर्याय में ही स्थित जीव की प्रजधन्य अवगाहना होती है । यह द्वितीय श्रवगाहनाविकल्प श्रसंख्यातभागवृद्धि के द्वारा वृद्धिंगत हुआ है। वह इस प्रकार है— जघन्य अवगाहना का नीचे विरलन करके उपरि एक अंक के प्रति प्राप्त राशि को ( जघन्य अवगाहना को ) समखण्ड करके देने पर एकप्रदेश प्राप्त होता है । जघन्य अवगाहना के ऊपर दो प्रदेशों को बढ़ाकर स्थित जीव की द्वितीय अजघन्य अवगाहना होती है। यहाँ भी असंख्यातभागवृद्धि ही है। तीन प्रदेश अधिक जघन्य
१. ध पु. ११ पृ. ६६-७० ।
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यांचा १०४-१०५
जीवामारा/१४७
प्रगाहना में रहने वाले जीव की तृतीय अजघन्य अवगाहना है। इस प्रकार एक-एक प्राकाशप्रदेश को बढ़ाकर जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण प्राकाशप्रदेशों की वद्धि होने तक ले जाना चाहिए । प्रपन्य अवगाहना को जघन्य परीतासंग्ख्यात से खण्डित करके उनमें से एकखण्ड प्रमाण वृद्धि हो आने पर असंख्यातभागवृद्धि ही रहती है।'
तस्सुवरि इगिपदेसे, झुई प्रवत्तवभागपारम्भी। घरसंखमवहिदवरे, रूऊणे प्रवरउरिजुदे ॥१०॥ तन्वड्डीए चरिमो तस्सुरि रूव संजुदे पढमा ।
संखेज्जभागउड्ढी उबरिमदो रूवपरिवढी ॥१०॥ गाथार्थ-प्रसंख्यातभागवृद्धि के उपयुक्त अन्तिमस्थान अथवा असंख्यात भागवृद्धि के उत्कृष्ट अयान के आगे एताप्रदेश की वृद्धि होने पर प्रवक्तव्य भागहार का प्रारम्भ होता है । जघन्य अवगाहना को उत्कृष्ट संहरात से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उससे एक कम संख्या तक मधन्य में प्रदेशवृद्धि होने पर प्रवक्तव्य वृद्धि का उत्कृष्टस्थान होता है । इससे एक प्रदेश की वृद्धि जीने पर संख्यात भागवद्धि का प्रथमस्थान होता है । उसके ऊपर एक प्रदेश की वृद्धि होने पर भी सल्यातभागवृद्धि ही होती है ।।१०४-१०५।।
विशेषार्थ- अागम में वृद्धि छह प्रकार की कही गई है—अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धि । इसीलिए श्री वीरसेन स्वामी ने अन्यज प्रवगाहना को जघन्यपरीतासंख्यात से खण्डित करके उसमें एकखण्ड के मिलाने पर भी असंख्यातआगवृद्धि का उत्कृष्ट स्थान अर्थात् अन्तिमस्थान स्वीकार नहीं किया, किन्तु उससे उपर भी एक-एक प्रदेश की वृद्धि को असंख्यातभागवृद्धि ही कही है, क्योंकि जघन्य अवगाहना को उत्कृष्ट संख्यात से क्षण्डित करने पर जो एकखण्ड प्राप्त हो, उतने प्रदेशों की वृद्धि का अभाव है। इस प्रकार एक-एक प्रदेश की वृद्धि करते हुए जाकर जघन्य अवगाहना को उत्कृष्टसंख्यात से खण्डित करके उसमें से एक खण्डमात्र जघन्य अवगाहना के ऊपर वृद्धि हो चुकने पर संख्यातभागवृद्धि की आदि और प्रसंख्यातभागबद्धि की परिसमाप्ति हो जाती है ।
जघन्यपरीतासंस्थात में से एक कम कर देने पर उत्कृष्टसंख्यात होता है। जघन्य परीतासंख्यात से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतनी वृद्धि हो जाने पर यद्यपि असंख्यातभागवृद्धि । की समाप्ति हो जाती है और उत्कृष्ट संख्यात से भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतनी वृद्धि होने पर संख्यातभागवृद्धि का प्रारम्भ होता है। जैसे. १०० में ५ का भाग देने पर २० प्राप्त हुए। १२० हो जाने पर पांचवें भाग की वृद्धि समाप्त हो जाती है। १०० में ४ का भाग देने पर लब्ध २५ प्राप्त होता है। १२५ पर चौथाई भाग की वृद्धि होती है। प्रश्न यह है कि १०० पर २१-२२-२३-२४ की वृद्धि न तो पांचवें भाग की वृद्धि कही जा सकती है और न चौथाई
१. प. पु. ११ पृ. ३६ से ३८ । २. प्रा. प. सूत्र १७ पृ. ५ (शांतिवीरनगर प्रकाशन ] । गो. सा. 'जीवकाण्ड गा. FF ३२२ । ३. घ. पु. ११ पृ ३८ ।
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१४८/गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा १०६-१०७
भाग वृद्धि। इसी प्रकार जघन्य असंख्यातवें भाग की वृद्धि समाप्त हो जाने पर और उत्कृष्ट संख्यातवेंभाग को वृद्धि प्रारम्भ होने से पूर्व की वृद्धियाँ न तो असंख्यातवें भाग वृद्धि हैं, और न संख्यातवें भाग वृद्धियाँ हैं, इसलिए गोम्मटसारकार ने उनकी प्रवक्तव्यवृद्धि संज्ञा दी है, किन्तु धवलाकार ने उनको असंख्यातवेंभागवृद्धि कहा है, क्योंकि वे उत्कृष्ट संख्यातवें भागवृद्धि से हीन हैं। इसप्रकार दोनों गायों में मात्र संसाभेद है. भाव में कोई अन्तर नहीं है और न संख्यातवें भाग की वृद्धि प्रादि में कोई अन्तर है।
प्रवरद्ध अवरुरि उड्ढ़े तब्वढिपरिसमत्ती हु । रूले तदुवरि उड्ढे होदि अवत्तवपढमपदं ॥१०६।। रूऊरणवरे अवरस्सुरि संवढिवे तदुक्कस्सं ।
तहि पवेसे उढे पठमा संखेज्जगुरणवढी ॥१७॥ गाथार्थ-जघन्य अवगाहना के प्रमाण के प्राधे की वृद्धि हो जाने पर संख्यात भाग वृद्धि की परिसमाप्ति हो जाती है। उसके ऊपर एक प्रदेश की वृद्धि होने पर अवक्त व्यवृद्धि का प्रथम स्थान होता है । जघन्य अवगाहना के ऊपर एक प्रदेश कम जघन्य अवगाहना प्रमाण वृद्धि होने पर प्रवक्तव्यवृद्धि का उत्कृष्ट स्थान होता है । उसमें एकप्रदेश की वृद्धि हो जाने पर संख्यातगुणवृद्धि का प्रथम स्थान होता है ॥१०६-१०७।।
विशेषार्थ-उत्कृष्टसंख्यात का विरलन करके जघन्य अवगाहना को समलण्ड करके देने पर विरलनरूप के प्रति (संख्यातभागवृद्धि के आदिस्थान में) वृद्धिंगत प्रदेशों का प्रमाण प्राप्त होता है। यहाँ से लेकर ऊपर संख्यातभागवद्धि होकर जाती है, जब तक उपरिम विरलन (पल्यापम के असंख्यातवें भाग प्रमाण) अर्धभाग स्थित रहता है । यहाँ संख्यातगुणवृद्धि की प्रादि और संख्यातभागवद्धि की समाप्ति हो जाती है।
जघन्य संख्या दो है, क्योंकि संख्या दो में प्रारम्भ होती है और गणना एक से प्रारम्भ होतो है। किसी राशि को एक से भाग या गुणा करने पर हानि या वृद्धि नहीं होती अत: एक को सख्यासंज्ञा नहीं दी है। जघन्य अवगाहना को जघन्यसंख्यात दो से भाजित करने पर जघन्यअवगाहना का अर्धभाग प्राप्त होता है । जवन्य अवगाहना के ऊपर ज. अ. के अर्धभाग प्रमाण प्रदेशवृद्धि हो जाने पर संख्यातवेंभागबृद्धि का अन्तिम स्थान प्राप्त हो जाता है और जघन्य अवगाहना के ऊपर जघन्य अवगाहना प्रमाण प्रदेशों की वृद्धि हो जाने पर संख्यातगुणवद्धि प्रारम्भ होती है, क्योंकि जघन्य अवगाहना का प्रमाण दुगुणा हो जाता है, किन्तु इन दोनों के मध्य के स्थान न तो संख्यातभागवृद्धि रूप हैं और न संख्यातगुण वृद्धिरूप हैं। इन स्थानों को गोम्मटसारकार ने अवक्तव्यस्थान की संज्ञा दी है, किन्तु ये स्थान जघन्यसंख्यातगुणवृद्धि स्थान से हीन है। अतः इन स्थानों को संख्यातभागवृद्धि में गर्भित किया है, क्योंकि संख्यातगणवृद्धि के ग्रादिस्थान से पूर्व के स्थान संख्यात भागवृद्धिरूप होगे !
संन्यातगुणवृद्धि के ग्रादिस्थान से लेकर फिर भी एकप्रदेश अधिक, दो प्रदेश पधिक क्रम से
१. घ. पु. ११ पृ. ३६। २. त्रिलोकसार 1
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जीaante / १४९
अवगाहना की वृद्धि होकर जघन्य अवगाहनाप्रमाण प्रदेशों के बढ़ जाने पर तिगुणीवृद्धि होती है । उस अवगाहना का भागहार जघन्य - अवगाहनासम्बन्धी भागहार के तृतीय भाग प्रमाण (3) होता है । पश्चात् एक प्रदेश अधिक, दो प्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से जघन्य अवगाहना मात्र प्रदेशों की वृद्धि होने पर चतुगुणी वृद्धि होती है । वहाँ भागहार जघन्य अवगाहनासम्बन्धी भागहार (पल्योपम के संख्यात भाग) के चतुर्थभाग प्रमाण होता है। इस प्रकार जघन्य अवगाहनासम्बन्धी गुणकार के उत्कृष्ट संख्यात मात्र तक ले जाना चाहिए ।"
गाथा १०८-१११
प्रवरे बरसंखगुणे तच्चरिमो सहि रूव संजुत्ते । उग्गाहरणम्हि पढमा होदि प्रवत्तन्वगुरणषड्ढी ॥। १०८ ।। प्रवरपरित्तासंखेर वरं संगुरिणय रूथपरिहीणे । तच्चरिमो मनुत्रे सिंजगुणपढमं ॥ १०६ ॥
गाथार्थ जघन्य अवगाहना को उत्कृष्ट संख्यात से गुणा करने पर संख्यातगुणवृद्धि का उत्कृष्ट स्थान होता है। उस अवगाहना में एकप्रदेश मिलने पर प्रथम प्रवक्तव्य गुणवृद्धि होती है । जघन्यपरीतासंख्यात से जवन्यमवगाहना को गुणा करके एक कम करने पर अवक्तव्य गुणवृद्धि का अन्त होता है । अवक्तव्यगुणवृद्धि के उस अन्तिम स्थान में एक मिलाने पर प्रसंख्यातगुणवृद्धि का प्रथमस्थान होता है ।। १०८ १०२ ।।
विशेषार्थ - जघन्य अवगाहनासम्बन्धी गुणकार के उत्कृष्ट संख्यात हो जाने पर अवगाहना उत्कृष्टसंख्यातगुणो हो जाती है। उस अवगाहना का भागहार, जघन्य अवगाहना सम्बन्धी अर्थात् पत्योपम के असंख्यातवेंभाग प्रमाण भागहार को उत्कृष्टसंख्यात से खंडित करने पर उसमें से एक खण्ड के बराबर होता है। उसके ऊपर एक प्रदेश अधिक दो प्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से एक जघन्य अवगाहनामात्र प्रदेशों की वृद्धि हो जाने पर प्रसंख्यातगुणवृद्धि का प्रारम्भ और संख्यातगुरपवृद्धि का अन्त होता है । इस श्रवगाहना का भागहार जघन्य अवगाहनासम्बन्धी भागहार (पत्योपम का प्रसंख्यातवाँ भाग) को जघन्य परीतासंख्यात से खण्डित करने पर उसमें एकखण्ड के बरावर होता
है ।
गोम्मटसार में उत्कृष्टसंख्यातगुणवृद्धि के पश्चात् और जघन्य असंख्यातगुणवृद्धि के पूर्वस्थानों को वक्तव्यगुणवृद्धिरूप कहा गया है । धवलाकार ने उन स्थानों को संख्यातगुणवृद्धिरूप कहा है। मात्र संज्ञा-भेद है, अन्य कुछ भेद नहीं है ।
आवलियासंखभाग गुरागारे ।
बाउसोग्गाहरणं कमलो ॥ ११०॥
बुतरेण तत्तो, तप्पाग्गे जावे, एवं उवरि वि श्रो, पदेसर्वाढक्कमो जहाजोग्गं ।
सत्यत्येक कहि य, जीवसमासारण विच्चाले ॥ १११ ॥
गाथार्थ --- असंख्यात गुणवृद्धि के उक्त प्रथम स्थान के ऊपर एक-एक प्रदेश की वृद्धि तब तक
१. ध. पु. ११ पृ. ३६ ॥ २. प. पु. ११ पृ. ३६-४० ।
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१५०/मो. सा. जीव काण्ड
गाथा ११०-१११
होती है जब तक सूक्ष्म अपर्याप्त वायुकायिक की जघन्य अवगाहना की उत्पत्ति के योग्य प्रावली के असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार हो जाने ॥११०।। इसीप्रकार पाये सर्वत्र प्रत्येक जीवसमास के अन्तराल में यथायोग्य प्रदेशवृद्धि क्रम से अवगाहना-स्थानों को जानना चाहिए ।।१११।।
विशेषार्थ-पश्चात् यहाँ से (जघन्य परोतासंख्यातगुणवृद्धि से) आगे एक प्रदेश अधिक, दो प्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से असंख्यातगणवद्धि के चालु रहने पर सुक्ष्मलयपर्याप्तक निगोद जीव की
विगाहना में प्रावली के असंख्यातवें भागमात्र गणकार के प्रविष्ट हो जाने पर सूक्ष्मवायुकायिक लयपर्याप्नक को जघन्य अवगाहना के सहश सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जोब को अजवन्य-अनुत्कृष्ट प्रवगाहना होती है ।' अब सूक्ष्मनिगोद जीव की अवगाहना को छोडकर और सक्षम वायकायिक लब्ध्यपप्तिक की जघन्य अवगाहना को ग्रहण करके एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से चारवृद्धियों (असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातमुणवृद्धि) द्वारा सूक्ष्मवायुकाथिक लब्ध्यपर्याप्तक की अजघन्य-अनुत्कृष्ट अवगाहना को सूक्ष्मतेजकायिक लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना के समान हो जाने तक बढ़ाना चाहिए। तत्पश्चात् बायकायिम ओनोडकर जानकाचिन नामपर प्ता की जघन्य अवगाहना को ग्रहण करके प्रदेश अधिक श्रम से चारवृद्धियों द्वारा सूक्ष्मजलकायिक लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना के सहश हो जाने तक बढ़ाना चाहिए । पुनः तेजकायिक को छोड़कर और सूक्ष्मजलकायिक लध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना को ग्रहण करके एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से चार वृद्धियों द्वारा सूक्ष्मपृथ्वीकायिक लमध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना के सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिए। पुनः जलकायिक को छोड़कर और सूक्ष्मपृथ्वीकायिक लब्ध्यपर्याप्तक को जघन्य अवगाहना को ग्रहण करके एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से चार वृद्धियों द्वारा बादरवायुकायिक लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य-अवगाहना के सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिए। विशेष इतना है कि यहाँ गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँभाग है, क्योंकि वह परस्थान गुणकार है। पुन: सूक्ष्म पृथ्वीकायिक को छोड़कर और बादरवायुकायिक लन्थ्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना को ग्रहण करके एकप्रदेश अधिक इत्यादि कम से चारवद्धियों द्वारा बादरतेजकायिक लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना के सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिए। यहाँ भी गुणकार पल्पोपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, क्योंकि वादर से बादरजीव को अवगाहना का गुणकार पल्योगम के असंख्यातवें भागप्रमाण है । बादरवायुकायिक को छोड़कर और बादर तेजकाथिक-लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना को ग्रहण करके एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चारवृद्धियों द्वारा बादर जल कायिक लब्ध्यपर्याप्तक को जघन्य अवगाहना के सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिए। यहाँ भी गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँभाग है। पश्चात् बादरतेजकायिक को छोड़कर और बादरजलकायिक लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना को ग्रहण करके एकप्रदेण अधिक इत्यादि क्रमसे चारवृद्धियों द्वारा बादरपृथ्वीकायिक लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना के सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिए। पुनः बादर जलकायिक को छोड़कर और बादरपृथ्वीकायिक लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना को ग्रहण करके एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से चारद्धियों द्वारा बादरनिगोद लयपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना के सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिए। पश्चात् बादरपृश्वीकायिक को छोड़कर और बादरनिगोद लन्थ्यपर्याप्ता की जघन्य अवगाहना को ग्रहण करके प्रदेशअधिक क्रम से चारवृद्धियों द्वारा निगोद
१. व. पृ. ११ पृ. ४०.
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गाथा ११०-१११
जीवममास/१५१
प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्यग्रवगाहना के सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिए । बादरनिगोद को छोड़कर और निगोदप्रतिष्ठित लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना को ग्रहण करके एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से चारवृद्धियों द्वारा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना के सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिए। यहां भी गुणकार पल्य के असंख्यातवेंभाग प्रमाण है। निगोदप्रतिष्ठित लब्ध्यपर्याप्तक को अवगाहना को छोड़कर बादरवनस्पतिकाधिकप्रत्येकशरीर लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना को ग्रहणकर एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से मारवृद्धियों द्वारा द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना के सरश हो जाने तक बढ़ाना चाहिए। यहाँ भी गुणकार पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है। अब प्रत्येक शरीर लमध्यपर्याप्तक को छोड़कर द्वौन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना को ग्रहणकर चारवृद्धियों द्वारा श्रीन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तक को जघन्य अवगाहना के सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिए । यहाँ भी गुणकार पल्योपम का प्रसंख्यातवांभाग है। अब द्वीन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तक को छोड़कर त्रीन्द्रिय लबध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना को ग्रहण करके एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से चारवृद्धियों द्वारा चतुरिन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तक को जघन्य अवगाहना के सरश हो जाने तक बढ़ाना चाहिए। यहाँ भी गुणकार पल्योपम का मसंख्यातवांभाग है। पश्चात् श्री.न्द्रय को छोड़कर चतुरिन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना करके एकप्रदेश अधिक इत्यादिक क्रमसे नारवद्धियों द्वारा पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना के सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिए । यहाँ भी गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँभाग है। तत्पश्चात् पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक को ग्रहण करके एकप्रदेश अधिक इत्यादि ऋमसे चारवृद्धियों द्वारा सूक्ष्मनिगोद निवृत्तिपर्याप्त की जघन्य-अवगाहना के सम होने तक बढ़ाना चाहिए। यहाँ गुणकार प्रावली का असंख्यातवाँभाग है। अब सूक्ष्मनिगोदनिवृत्तिपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना को ग्रहण करके एकप्रदेश अधिक इत्यादिश्रम से आवलो के असंख्यातवें भाग से खण्डित कर उसमें से एक खण्डप्रमाण बढ़ाना चाहिए। इसप्रकार बढ़कर यह अवगाहना सूक्ष्म निगोदनित्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट प्रवगाहना के सरण होती है। पश्चात् इसको ग्रहण करके एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से इसी अवगाहना को पावली के असंख्यातवैभाग से खण्डित कर उसमें एकखण्डप्रमाण जबतक अधिक न हो जावे तबतक बढ़ाना चाहिए। इसप्रकार बढ़कर यह अवगाहना सूक्ष्मनिगोद पर्याप्तयाको उत्कृष्ट अवगाहना के समान होती है। फिर इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से चारवृद्धियों द्वारा सूक्ष्मवायुकामिक पर्याप्तक की जघन्य अवगाहना के प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। यहाँ गुणकार प्रावली का प्रसंस्थातवा भाग है। यह गुणकार सूक्ष्मजीवों में सर्वत्र कहना चाहिए। पश्चात् इसको ग्रहण करके एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से इस अवगाहना के ऊपर इसी अवगाहना को प्रावली के असंन्यातवैभाग से खण्डिन कर एकखण्डप्रमाण बढ़ाना चाहिए। इसप्रकार बढ़ाने पर सूक्ष्मवायुकायिक नित्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना होती है। पश्चात् उसके ऊपर एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से उक्त अवगाहना को ही प्रावली के प्रसंख्यातवें भाग से खण्डितकर एक खण्डप्रमाणवृद्धि हो जाने पर सूक्ष्मवायुकायिकपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना प्राप्त होती है । पश्चात् इसको एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से चारवृद्धियों द्वारा सुक्ष्मतेजकायिक पर्याप्तक की जघन्य अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए । पश्चात् इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से असंख्यातभागवृद्धि द्वारा आवली के असंख्यातवें भाग से खण्डित कर एक खण्डप्रमारण महाना चाहिए जब तक सुक्ष्म तेजकायिक निवृत्त्यपर्याप्त को उत्कृष्ट अवगाहना न प्राप्त हो जाये। पश्चात् इसको एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से असंख्यातभागवृद्धि द्वारा बढ़ाना चाहिए जब तक सूक्ष्मतेजकायिक पर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना के समान न हो जाये। फिर इस अवगाहना को एकप्रदेश
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१५२/गो. सा. जीबकापड
गाथा ११०-१११ अधिक इत्यादि क्रम से चारवृद्धियों द्वारा सूक्ष्मजलकायिक पर्याप्तक की जघन्य अवगाहना के सहश होने तक बढ़ाना चाहिए। पश्चात् इस अवगाहना को देश अधिन इमादिगा : 'आतंकवासभागवृद्धि द्वारा बढ़ाना चाहिए जब तक सूक्ष्मजलकायिक निर्वृत्त्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना के सदृश न हो जावे । फिर इस अवगाहना के ऊपर एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से बढ़ाना चाहिए जबतक सूक्ष्मजलकायिक पर्याप्तक की उत्कृष्ट प्रधगाहना के सदृश न हो जावे । पश्चात् इस अवगाहना को एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से चारवृद्धियों द्वारा सूक्ष्मपृथ्वीकायिक की जघन्यअवगाहना के सदृश होने तक बढ़ाना चाहिए। पश्चात् इस अवगाहना को एक प्रदेश अधिक इत्यादि प्रम से असंख्यातभागवृद्धि द्वारा मुक्ष्मपृथ्वीकायिक निवृत्त्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट प्रवगाना तक बढ़ाना चाहिए। पश्चात् इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से असंख्यातभागवृद्धि द्वारा सूक्ष्मपृश्वीकायिक पर्याप्त की उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए। तत्पश्चात् इस अवगाहना को एक प्रदेश अधिक इत्यादि जाम से चारवृद्धियो द्वारा बादरवायुकायिक पर्याप्तक की जघन्य अवगाहना के प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। यहाँ गुणकार पल्पोपम का असंख्याताभाग है। पश्चात् इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादिक्रम से असंख्यातभागवृद्धि द्वारा बादरवायुकायिक नित्यपर्याप्तक को उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए।' तत्पश्चात इरा अबगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से असंख्यातवें भाग वृद्धि के द्वारा बादरवायुकायिक पर्याप्तक की उत्वृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए। फिर इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से चार वृद्धियों द्वारा बादरतेजकायिक पर्याप्तक को जघन्य अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए । यहाँ गुणकार पत्योपम का असंख्यातवाँभाग है। पश्चात् इस अबगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से असंख्यातभागवृद्धि द्वारा बादरतेजकायिक निर्वृत्त्यपर्याप्त की उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए। पश्चात् इस छ.वगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से असंख्यात भागवृद्धि द्वारा बादरतेजकायिक पर्याप्त की उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए । तत्पश्चात् इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से चारों वृद्धियों द्वारा वादरजलकायिक पर्याप्तक की जघन्य अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए । यहाँ गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । पश्चात् इस अवगाहना को एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से असंख्यातभागवृद्धि द्वारा बादरजलकायिक निवृत्त्य पर्यातक की उत्कृष्ट अवगाहमा तक बढ़ाना चाहिए। फिर इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से असंख्यातभागवृद्धि द्वारा वादरजलकायिक पर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए। तत्पश्चात् इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से नारों वृद्धियों द्वारा बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक की जघन्य अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए। यहाँ गुणवार पत्योपम का असंख्यातयाँ भाग है। फिर एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम मे असंख्यातभाग वृद्धि के द्वारा बादरपृथ्वीकायिक नित्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए। फिर इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से असंख्यातभागवृद्धि द्वारा बादरपृथ्वीकायिक पर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए। फिर इस अवगाहना की एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से चारों वृद्धियों द्वारा बादरनिगोदपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए। यहाँ गुणकार पत्य का असंख्यातवाँभाग है। फिर इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि ऋम से असंख्यातभागवृद्धि के द्वारा बादरनिगोदनित्यपर्याप्तक को उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए । फिर इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से असंख्यातभागवृद्धि द्वारा बादर निगोदपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए । तत्पश्चात एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम
१. पवल पु. ११ पृ. ४६ ।
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माया ११२
जीतसमास १५३
से चार वृद्धियों द्वारा निगोद प्रतिष्ठित पर्याप्तक की जघन्य गहना तक बढ़ाना चाहिए । यहाँ गुणकार पल्य का असंख्यातवांभाग है। फिर इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि कम से असंख्यातभागवृद्धि द्वारा निगोद प्रतिष्ठित नित्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहनातक बढ़ाना चाहिए। फिर इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि ऋम से असंख्यातभागवृद्धि द्वारा निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए। तत्पश्चात् इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि कम से चारों वृद्धियों द्वारा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्यापतक की जघन्य अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए। यहाँ गुणकार पत्योपम का असंख्यातवाँभाग है। फिर इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से चारों वृद्धियों द्वारा द्वीन्द्रिय पर्याप्तक की जघन्य अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए । यहाँ गुणकार पत्य का असंख्यातवाँभाग है।'
अब उत्सेधनांगुल का भागहार संख्यातरूपप्रमाण हो जाता है । इसके आगे इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से तीनद्धियों (असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि) द्वारा श्रीन्द्रिय पर्याप्तक की जघन्य अवगाना तक बढ़ाना चाहिए । यहाँ गुणकार संख्यात समय है । फिर इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि तीनवृद्धियों द्वारा चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक की जघन्य अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए। फिर इस प्रवगाहना को एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से तीन बृद्धियों द्वारा पंचेन्द्रिय पर्याप्तक की जघन्य अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए। फिर इस प्रवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से तीन बद्धियों द्वारा श्रीन्द्रिय नित्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए। पश्चात् इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि ऋम से तीनवृद्धियों द्वारा चतुरिन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए । तत्पश्चात् इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से तीन वृद्धियों द्वारा द्वीन्द्रिय निवृत्त्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए। पश्चात् इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से तोनवृद्धियों द्वारा बादरवनस्पतिकायिक शरीर निर्वृत्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए। फिर इस अवगाहना को एकप्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से तीनवृद्धियों द्वारा पंचेन्द्रिय नित्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट प्रवगाहना तक बढ़ाना चाहिए । फिर भी इस अवगाहना को एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से तीन वृद्धियों द्वारा त्रीन्द्रिय पर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए । पश्चात् इस अवगाहना को एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से तीन वृद्धियों द्वारा चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक को उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए। फिर इस अवगाहना को एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से तीनवृद्धियों द्वारा हीन्द्रिय पर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए, फिर इस अवगाहना को एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से तीन वृद्धियों द्वारा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तक की उत्कृष्ट प्रदगाहना तक बढ़ाना चाहिए । तत्पश्चात् एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से तीन वृद्धियों द्वारा पंचेन्द्रिय पर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ाना चाहिए।
मत्स्यरचना की अपेक्षा पूर्वोक्त स्थानों में प्रवगाहना मेदों का अन्तर्भाव हेद्रा जेसि जहष्णं वारं उक्कस्सयं हवे जत्थ । तत्थंतरगा सव्ये तेसि उग्गाहरण वि अप्पा ।।११२॥
१. धवल पु. ११ पृ. ४६ ।
२. ध, पु ११ पृ. ४० से ५१ ।
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LEAlery
गाथार्थ-जिन जीवों की जघन्य अवगाहना का पहले कथन किया गया है और अनन्तर उत्कृष्ट अवगाहना का जहाँ-जहाँ कथन किया गया है उनके मध्य में जितने भी भेद हैं उन सबका मध्य के स्थानों में अन्तर्भाव हो जाता है ।।११२।।
विशेषार्थ -विवक्षित जीव की जघन्य अवगाहना कहाँ है और उत्कृष्ट अवगाहना कहाँ है? तथा जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना के मध्य में अन्य कितने स्थान हैं ? इसको एक दष्टि में सरलता पूर्वक ध. पू. ११ पृ.७१ पर मत्स्य रचना द्वारा बताया गया है। उसके अनुसार यहाँ वह संदृष्टि संलग्न की जा रही है। इस मत्स्य रचना में प्रथम १६ अवगाहना स्थान त्रिसमयवर्ती पाहारक और त्रिसमयवर्ती तद्भवस्थ लब्ध्यपर्याप्तक जीवों की जघन्य अबगाहना के हैं। लब्ध्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट प्रवगाहना से निर्वस्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिकता के बिना असंख्यातगुणी पायी जाती है इसलिए लब्ध्यपर्याप्तकों की उत्कृष्ट अवगाहना को ग्रहण नहीं किया। जो जीव अनन्तरसमय में पर्याप्त होने वाला है उस निर्व त्यपर्याप्तक के उत्कृष्ट अवगाहना होती है। जो पर्याप्त होने के प्रथम समय में वर्तमान है तथा जघन्य उपपादयोग और जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग से आकर जघन्य परिणामयोग व जघन्य अवगाहना में रहने वाला है उस पर्याप्त के जघन्य अवगाहना होती है। उत्कृष्ट अवगाहना में वर्तमान व परम्परा पर्याप्ति से पर्याप्त उत्कृष्ट योग वाले पर्याप्त जीव के उत्कृष्ट अवगाहना होती है।"
नि वा ते निगोद वायुकायिक तेजकायिक जलयिक पृथ्वीकायिक प्रतिष्ठित
जल पृ
प्र प्रत्येक वनस्पति प्रत्येक वन.
अप्र द्वित्रि च अप्रति. द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय जघन्य उत्कृष्ट
ज उ
+ मुघल सावर काप+ +-
समस्याण +-- भादर यावर का+
त्रा कम्य +सा मगार काय+ + - कादर स्थार - . . . . .+ सनिक ने अफम भरणन+ +-.नित्यपतिक जीवों की उत्कृष्ट अपमान
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Forsीबीजम्प
र अमरना
सादर स्यार Ya
-पक मनापति-ME
मनि
- निच क नस्पति मानीब,
१. प. पु. ११ पृ. ७१.७३ ।
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पाषा ११३-११७
जीवसमास/१५५
कुलों के द्वारा जीवसमासों का कथन 'बावीस सत्त तिपिप य, सत्त य कुलकोडिसयसहस्साई ।
या पुढविदगागरिण, बाउक्कायाण परिसंखा ॥११३॥ कोडिसयसहस्साई, सत्त? रणय य अहवीसाई । बेइंदिय सेइंगिय, चरिदिय हरिदकायाणं ॥११४॥ प्रयत्तेरस बारस, वसयं कुलकोडिसदसहस्साई । जलचर-पक्खि--चउप्पयउरपरिसप्पेसु रणव होति ।।११५॥ छप्पंचाधियवीस, बारसकुलकोडिसदसहस्साई । सुरणेरइयणराणं, जहाकम होंति णेयाणि ॥११६।। एया य कोडिकोडी सत्ताउदो य सदसहस्साई ।
पणं कोडिसहस्सा, सव्वंगीणं कुलाणं य ॥११॥ गाथार्थ-पृथ्वीकायिक की २२ लाख, जलकायिक सी १७ लाख, अग्निकायिक की ३ लाख और वायुकायिक की ७ लाख कुलकोटि है ।।११३।। द्वीन्द्रियों की ७ लाख, श्रीन्द्रियों की प्राठ लाख, । चतुरिन्द्रियों को ६ लाख वनस्पतिकायिकों की २८ लास्त्र कुलकोटि है ।।११४॥ जलचरों की साढ़े । बारह लाख कुलकोटि, पक्षियों की बारह लाख कुलकोटि, चतुष्पद पशुओं की १० लाख कुलकोटि, परिसपों (छाती के सहारे चलने वालों) की हलाख कुलकोटि है ।।११।। देवों की २६ लाख, नारकियों की २५ लाख और मनुष्यों की १२ लाख कुलकोटि ज्ञातव्य है ॥११६।। सर्व जीवों के कुलों की संख्या एक कोडाकोड़ो सत्तानवे लाख पचास हजार कोटि है ॥११७॥
विशेषार्य--उक्त पाँच गाथाएँ मूलाचार के पंचाचार अधिकार तथा पर्याप्ति अधिकार में भी पाई हैं। उनमें मनुष्यों की १४ लाख कुलकोटि कहीं है और सर्वजीवों की एक सौ साढ़े निन्यानवे लाख कुलकोटि है । किन्तु गोम्मटसार व प्राचारसार में मनुष्यों की १२ लाख कुलकोटि कही है और सब जीवों की १६७३ लाख कुलकोटि कही है । इस समय श्रुतकेवली का अभाव है, अतः यह निर्णय नहीं हो सकता कि इन दोनों में से किस संख्या को ग्रहण करना चाहिए ।
शङ्का-कुल किसे कहते हैं ?
समाधान–सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री अभयचन्द्र सूरि ने मन्दप्रबोधिनी टीका में-- "उच्चर्गोत्रनीचर्गोत्रयोः उत्तरोत्तरप्रकृतिविशेषोदय: संजाताः वंशाः कुलानि" अर्थात् ऊँच और नीचगोत्र रूप
१. गा. १९३ से ११७ ये पाँच गाथाएं मारिणकचन्द्र ग्रन्थमाला से एवं फलटन से प्रकाशित मूलाचार के क्रमशः १. २८५ (द्वितीय भाग, मा. १६६-१६६ और पृ. १३१-१३२ गा २६ से ३३ तक सदृशता लिये हुए हैं किन्तु मनुष्यों की कुलकोटि उक्त अन्यों में १४ लाख बतायी है। प्राचारसार भ. ११६ श्लोक ४२-४५ में भी यही कथन पाया जाता है।
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१५६/गो. सा, जीवकाण्ड
गाथा ११८ उत्तरोत्तर प्रकृतिविशेषों के उदय से जो वंशों की उत्पत्ति होती है, वे ही कुल हैं । मूलाचार की टीकानुसार "शरीर के कारण मन क वर्षणा के पद को कुल कहते हैं।"
शंका-कुल और योनि में क्या अन्तर है ?
समाधान-जाति के भेदों को कुल कहते हैं और जीवों की उत्पत्ति के कारण (जिसमें से जीवों की उत्पत्ति होती है) प्राधार स्थान को योनि कहते हैं। जैसे-बड़, पीपल, कृमि, सीप, चौंटी भ्रमर, मक्खी, गौ, घोड़ा इत्यादि, नथा क्षत्रियादि कुल हैं । कंद, मूल, अण्डा, गर्भ, रस, स्वेदादि योनि हैं।'
शङ्का-कुल, योनि, मार्गणादि के ज्ञान से क्या लाभ है ?
समाधान-कुल , योनि, मार्गरण के आश्रय से सर्वजीवों का स्वरूप जानकर अपनी श्रद्धा को नि:शंक अर्थात् संशयरहित करना चाहिए। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी मूलाचार में कहा है
"फल जोणिमगरणा वि य रणावरवा चेव सग्यजीवाणं । रणाऊण सम्व जीवे रिगस्संका होवि कावया ॥३७॥"
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में जीवसमासप्ररूपणा नामक द्वितीय अधिकार पूर्ण हुना।
३. पर्याप्ति-प्ररूपणाधिकार
पर्याप्ति व अपर्याप्ति का लक्षण तथा जीव के पर्याप्त-अपर्याप्त भेद 'जह पुण्णापुण्णाई, गिहघडवस्थावियाई दवाई।
तह पुण्णिदरा जीवा, पज्जत्तिदरा मुणेयच्या ॥११॥ गाथार्थ-जिस प्रकार गृह, घट और वस्त्र प्रादि अचेतन द्रव्य पुर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकार के होते हैं, उसी प्रकार जीव भी पूर्ण और अपूर्ण दो प्रकार के होते हैं। पूर्णजीव पर्याप्तक और अपूर्णजीव अपर्याप्तक कहलाते हैं ॥११८।।
विशेषार्थ-सम्पूर्णता के हेतु को पर्याप्ति कहते हैं। प्राहार, शरीर, इन्द्रिय, पानपान, भाषा
१. मूलाचार टीका के प्राधार से । २. यह गाथा घ. पु. २ पृ. ४१७ पर है। प्रा. पं. सं. पृ. २ प्र. १ गा, ४३ भी है, किन्तु वहाँ 'पुण्दिरा जीवा पत्तिदरा' के स्थान पर 'पुण्णापुण्यानो पन्जत्तियरा' पाठ है। ३. 'पज्जती'-पर्याप्तयः सम्पूर्णताहेतवः (मूलाचार पर्याप्ति अधिकार १२. गा. ४. की टीका) ।
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गाथा ११६
पर्याप्ति/१५७
और मनरूप शक्तियों की पूर्णता को पर्याप्ति कहते हैं। इन शक्तियों की अपूर्णता को अपर्याप्ति कहते हैं। इस पर्याप्ति और अपर्याप्ति के भेद से जीव भी दो प्रकार के हो जाते हैं। पर्याप्तजीव और अपर्याप्तजीव । पर्याप्त नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई शक्ति से जिन जीवों की अपने-अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने रूप अवस्था विशेष प्रगट हो गई है, उन्हें पर्याप्तजीव कहते हैं । अपर्याप्त नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई शक्ति से जिन जीवों की शरीरपर्याप्ति पूर्ण न करके मरनेरूप अवस्था विशेष उत्पन्न हो जाती है उन्हें अपर्याप्सजीव कहते हैं। सभी जीव शरीर पर्याप्ति के निष्पन्न होने पर पर्याप्त कहे जाते हैं । जिन जीवों की पर्याप्ति पूर्ण नहीं हुई है, किन्तु पर्याप्त नामकर्म का उदय है वे जीव भी पर्याप्त कहलाते हैं, क्योंकि भविष्य में उनकी पर्याप्ति नियम से पूर्ण होगी । होने वाले कार्य में यह कार्य हो गया इस प्रकार उपचार कर लेने से इनकी पर्याप्त संज्ञा करने में कोई विरोध नहीं पाता । अथवा पर्याप्त नामकर्मोदय से पयप्ति संज्ञा दी गई है 14
पर्याप्तियों के भेद तथा उनके स्वामी "पाहारसरीरिविय--पज्जत्ती प्राणपारणभासमरणो ।
चत्तारि पंच छप्पि य, एईविय-वियलसारणीणं ॥११॥ गाथार्थ - आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति. इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छवास पर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति । एकेन्द्रियजीवों के इनमें से पहली चार पर्याप्तियां होती हैं। विकलचतुष्क के पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं । संजी जीवों के छह पर्याप्तियों होती हैं ।।११६।।
विशेषार्थ—सामान्य की अपेक्षा पर्याप्तियाँ छह हैं । आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, प्रवासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति, मनः पर्याप्ति । पर्याप्तियाँ छह ही होती हैं इससे अधिक नहीं।
आहारपर्याप्ति--- शरीर नामकर्म के उदय से जो परस्पर अनन्त परमाणुओं के सम्बन्ध से उत्पन्न हुए हैं और जो पात्मा से व्याप्त प्रकाशक्षेत्र में स्थित हैं ऐसे पुद्गलविपाकी आहारवर्गरणा सम्बन्धी पदगलस्कन्ध कर्म स्कन्ध के सम्बन्ध से कथंचित् मूर्तपने को प्राप्त हुए आत्मा के साथ समवायरूप से सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं। उन पुद्गलस्कन्धों को खल भाग और रसभाग के भेद से परिणामाने रूप प्रात्म शक्ति की पूर्णता को आहारपर्याप्ति कहते हैं ।'
१. आहारशरोरेन्द्रियानापानभाषामन, शक्तीनां निष्पत्तेः कारणं पर्याप्तिः। (व. पु. १ पृ. २५६ व प. पु. ३ परिशिष्ट पृ. २३) २. शक्तिनामर्घनिष्पन्नावस्था अपर्याप्तिः ! (ध. पु. १ पृ. २५७)। ३-४. 'पर्याप्तनामकर्मोदय जनितशक्त्याविर्भाबितवृत्तयः पर्याप्ताः । अपर्याप्तमामकर्मोदयअनितशक्त्याविर्भावितवृत्तयः अपर्याप्ताः । (ध. पु. १ पृ. २६७) । ५. शरीरपर्याप्त्या निष्पन्न : पर्याप्त इति मण्यते । (प. पु. १ पृ. ३१५-१६) । ६. प. पु. १ पृ. २५४ । ७. यह गाथा प्रा. पं. सं. पृ. १० पर गा. ४४ है, किन्तु पृ. ५७३ गा. २६ में 'वियलमणशीणं' के स्थान पर 'विकलऽसपिणासपोरणं' पार है। व. पु. २ पृ. ४१७ पर भी यह गाथा है, किन्तु 'छप्पि' के स्थान पर 'छवि' तथा 'वियल' के स्थान पर 'विगल' पाठ है। मुलाचार पर्याप्ति अधिकार १२ गा. ४ व ५ में भी इस गाथा का विषय प्रतिपादित है। -६. घ. पु. १ पृ. २५४ व पु. ३ परिशिष्ट पृ.३० ।
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१५०/गो, सा. ओवकाण्ड
माथा११६
शरीर पर्याप्ति तिल की खली के समान उस खलभाग को हड्डी आदि कठिन अवयवरूप से और तिल के तेल के समान रसभाग को रस, रुधिर, वसा, वीर्य आदि द्रव अवयवरूप से परिणमन करने वाले औदारिक प्रादि शरीररूप परिणमाने की शक्ति की पूर्णता को शरीर पर्याप्ति कहते
इन्द्रियपर्याप्ति- योग्य देश में स्थित रूपादि से युक्त पदार्थों को ग्रहण करने रूप शक्ति की पूर्णता को इन्द्रियपर्याप्ति कहते हैं, किन्तु इन्द्रियपर्याप्ति के पूर्ण हो जाने पर भी उसी समय बाद्य पदार्थों का ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि उस समय उसके उपकरणरूप द्रव्येन्द्रियाँ नहीं पायी जाती हैं।
श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति-उच्छवास और निःश्वासरूप शक्ति की पूर्णता को श्वासोच्छवास पर्याप्ति कहते हैं।
भाषापर्याप्ति-भाषावर्गणा के स्कन्धों के निमित्त से चार प्रकार की भाषारूप से परिणमन कराने की शक्ति को पूर्णता को पोष्टि कहते हैं :
मनःपर्याप्ति-मनोवर्गरणामों से निष्पन्न द्रव्यमन के अवलम्बन से अनुभूत अर्थ के स्मरणरूप शक्ति की उत्पत्ति को मनःपर्याप्ति कहते हैं।
मन सहित जीवों को संज्ञी कहते हैं। मन दो प्रकार का है-द्रव्यमन और भावमन । पुद्गलविपाकी अंगोपांग नामकर्म के जदय की अपेक्षा रखने वाला द्रव्यमान है। तथा वीर्यान्तराय और नो-इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा से आत्मा में जो विशुद्धि उत्पन्न होती है, वह भावमन है।
शखा-जोव के नवीन भव को धारण करने के समय ही भावेन्द्रियों की तरह भावमन का भी सत्त्व पाया जाता है इसलिए जिस प्रकार अपर्याप्तकाल में भावेन्द्रियों का सदभाब कहा जाता है उसी प्रकार वहाँ पर भावमन का सद्भाव क्यों नहीं कहा गया?
समाधान नहीं, क्योंकि बाह्य न्द्रियों के द्वारा अग्राह्य द्रव्यमन का अपर्याप्त अवस्था में अस्तित्व स्वीकार कर लेने पर, जिसका निरूपण विद्यमान है ऐसे द्रव्यमन के असत्व का प्रसंग आ जाएगा।
शङ्का पर्याप्ति के निरूपण से ही द्रव्यमन का अस्तित्व सिद्ध हो जाएगा।
समाधान-नहीं, क्योंकि बाह्य अर्थ की स्मरणशक्ति की पूर्णता में ही पर्याप्ति इस प्रकार का व्यवहार मान लेने से द्रव्यमन के अभाव में भी मनःपर्याप्ति का निरूपण बन जाता है। 'बाह्य पदार्थों की स्मरणरूप शक्ति से पूर्व द्रव्यमन का सद्भाव बन जाएगा' ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यमान के योग्य द्रव्य की उत्पत्ति के पहले उसका सत्त्व मान लेने में विरोध प्राता है। अतः अपर्याप्तावस्था में भावमन के अस्तित्व को नहीं कहना द्रव्यमान के अस्तित्व का ज्ञापक है, ऐसा समझना चाहिए ।
१ से ५ तक घ.पु. १५,२५५ व . ३ परिशिष्ट पृ. ३०-३१। ६. प.पु. १५, २५६.६०।
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गाथा १११
पर्याप्ति १५६ सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री वसुनन्दि प्राचार्यकृत मूलाचार टोका के अनुसार भी पर्याप्तियों का स्वरूप द्रष्टव्य है, अतः उसे भी यहाँ दिया जा रहा है
पाहारपर्याप्ति- प्रौदारिक, वक्रियिक और प्राहारक इन तीन शरीर के योग्य प्राहारवर्गणा को पाराकर इनका तुलनामा रु. परिणामन करने में जिस कारण के द्वारा जीव समर्थ होता है, ऐसे कारण की सम्पूर्णता प्राप्त होना आहारपर्याप्ति है।
शरीरपर्याप्ति-शरीर बनने योग्य पुद्गल द्रव्य को ग्रहणकर जिस कारण से औदारिक, वैक्रियिक और पाहारक शरीररूप परिणमाने में जीव समर्थ होता है, ऐसे कारण की सम्पूर्णता प्राप्त होना शरीरपर्याप्ति है।
इन्द्रियपर्याप्ति--एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के योग्य पुद्गलद्रव्यों को ग्रहण कर जिस कारण से यह प्रात्मा स्वकीय स्वकीय स्पर्शादि इन्द्रियविषयों को जानने में समर्थ होता है, ऐसे कारण की पूर्णता प्राप्त होना इन्द्रियपर्याप्ति है।
प्रानपानपर्याप्ति-श्वासोच्छवास के योग्य पुद्गलद्रव्यों का अवलम्बन लेकर जिस कारण से श्वासोच्छ्वास की रचना को यह प्रात्मा करता है, उस कारण की पूर्णता को प्रानपानपर्याप्ति कहते हैं।
भाषापर्याप्ति - चार प्रकार की भाषा के प्रायोग्य पुद्गलद्रव्य को प्राश्रय करके जिस कारण धार भाषारूप परिणमाने में यह आत्मा समर्थ होता है, उस कारण की सम्पूर्णता भाषापर्याप्ति है।
मनःपर्याप्ति--चार प्रकार के मन के योग्य पुद्गलद्रव्य का आश्रय करके जिस कारण से चारप्रकार की मनःपर्याप्तिरूप रचना करने में आत्मा समर्थ होता है, उस कारण की सम्पूर्णता मनःपर्याप्ति है।'
उपर्युक्त छहों पर्याप्तियां संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होती हैं। शङ्का--क्या सम्यग्मिथ्याष्टिगुणस्थान वाले के भी छह पर्याप्तियाँ होती हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि इस गुणस्थान में अपर्याप्तकाल नहीं पाया जाता है 1 शरदेशविरतादि ऊपर के गुणस्थानबालों के छहपर्याप्तियां क्यों नहीं होती ?
समाधान नहीं, क्योंकि छह पर्याप्तियों की समाप्ति [-पूर्णता] का नाम ही पर्याप्ति है और यह समाप्ति चतुर्थ गुरणस्थान तक ही होने से पंचमादि ऊपर के गुणस्थानों में नहीं पायी जाती, क्योंकि अपर्याप्ति की अन्तिम अवस्थावर्ती एकसमय में पूर्ण हो जाने वाली पर्याप्ति का आगे के गुणस्थानों में सत्त्व मानने से विरोध आता है।'
पाँच पर्याप्तियो और पांच अपर्याप्तियाँ होती हैं ।
१. मूलाधार भाग दो, पृ. १७६ पर्याप्ति अधिकार १२ गाथा ४ की टीका।
२. घ.पु. १ पृ. ३१२ ।
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१६०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ११९
शङ्का-पाँच पर्याप्तियाँ छह पर्याप्तियों के अन्तर्गत ही हैं इसलिए पृथकरूप से पाँच पर्याप्तियों का कथन करना निष्फल है।
समाधान-नहीं, किन्हीं जीवविशेषों में छहों पर्याप्तियां पायी जाती हैं और किन्हीं जीवों में पांच ही पर्याप्तियां पायी जाती हैं। इस बात को बतलाने के लिए गाथा में 'पंच' शब्द दिया गया है।
शङ्कर-वे पाँच पर्याप्तियाँ कौनसी हैं ?
समाधान-सनःपर्याप्ति के बिना शेन पनि पर्याप्लियो यहाँ ग्रहण की गई हैं।
वे पाँच पर्याप्तियां विकल अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीत्रों के होती हैं, क्योंकि माथा में 'बियल' शब्द के द्वारा विकल चतुष्क का ग्रहण होता है।
शङ्का-विकलेन्द्रियजीवों में भी मन है, क्योंकि मन का कार्य विज्ञान जो मनुष्यों में है. बह विकलेन्द्रिय जोवों में भी पाया जाता है ?
समाधान--यह बात निश्चय करने योग्य नहीं है, क्योंकि विकलेन्द्रियों में रहने वाला विज्ञान मन का कार्य है, यह बात प्रसिद्ध है।
शङ्का-मनुष्यों में जो विशेष ज्ञान होता है, वह मन का कार्य है, यह बात तो देखी जाती है ।
सभाधान-मनुष्यों का विशेष विज्ञान यदि मन का कार्य है तो रहो, क्योंकि वह मनुष्यों में देखा जाता है।
शङ्का--मनुष्यों में मन के कार्यरूप से स्वीकार किये गये विज्ञान के साथ विकलेन्द्रियों में होने बाले विज्ञान की ज्ञानसामान्य की अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है, इसलिए यह अनुमान किया जाता है कि विकले न्द्रियों का विज्ञान भी मन से होता है।
समाधान--नहीं, क्योंकि भिन्न जाति में स्थित विज्ञान के साथ भिन्न जाति में स्थित विज्ञान की समानता नहीं बन सकती है। 'विकलेन्द्रियों के मन नहीं होता' यह आगम-वाक्य प्रत्यक्ष से बाधित नहीं होता, क्योंकि वहाँ पर प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति ही नहीं होती।
शता--विकलेन्द्रियों के मन का अभाव है, यह बात किस प्रमाण से जानी जाती है ?
समाधान—प्रागमप्रमाण से जानी जाती है कि विकलेन्द्रियों के मन नहीं होता ।
शङ्का—आर्ष को प्रमाण कैसे माना जावे ?
समाधान--जैसे प्रत्यक्ष स्वभावतः प्रमाण है, उसी प्रकार आर्ष भी स्वभावतः प्रमाण है।
१. प. पु. १ पृ. ५१३ । २. प. पु. १ पृ. ३१४ ।
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गाथा १२०
पर्याप्ति/१६१
चार पर्याप्तियाँ और चार अपर्याप्तियां होती हैं। वे चार पर्याप्तियाँ आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति और पानपान पर्याप्ति हैं। किन्हीं जीवों में चार पर्याप्तियों अथवा किन्हीं में चार अपर्याप्तियाँ होती हैं । ये चारों पर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय जीवों के ही होती हैं, दूसरों के नहीं।
शङ्का-एकेन्द्रिय जीवों के उच्छवास तो नहीं पाया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि एकेन्द्रियजीवों के श्वासोच्छ्वास होता है, यह बात आगमप्रमाण से जानी जाती है।
शङ्का प्रत्यक्ष से यह पागम बाधित है ? ___ समाधान-जिसने सम्पूर्ण पदार्थों को प्रत्यक्ष कर लिया है, ऐसे प्रत्यक्षप्रमाण से यदि बाधा सम्भव हो तो वह प्रत्यक्षबाधा कही जा सकती है, किन्तु इन्द्रियप्रत्यक्ष तो सम्पूर्ण पदार्थों को विषय नहीं करता है, जिससे कि इन्द्रियप्रत्यक्ष की विषयता को नहीं प्राप्त होने वाले पदार्थों में भेद किया जा सके ।
शङ्खा–छह पर्यापित, पाँच पर्याप्ति अथवा चार पर्याप्तियों से पूर्णता को प्राप्त हुए पर्याप्तक कहलाते हैं । तो क्या उनमें से किसी एक पर्याप्ति से पूर्णता को प्राप्त हुआ पर्याप्तक कहलाता है या सम्पूर्ण पर्याप्तियों से पूर्णता को प्राप्त हुमा पर्याप्तक कहलाता है ? समाधान--सभी जीव शरीरपर्याप्ति के निष्पन्न होने पर पर्याप्तक कहे जाते हैं ।
प्रत्येक व समस्त पर्याप्तियों के प्रारम्भ व पूर्ण होने का काल पज्जत्ती पट्ठवणं जुगवं तु कमेण होवि गिट्ठवणं ।
अंतोमुत्तकालेपहियकमा तत्तियालाया ।।१२०॥ गाथार्थ--पर्याप्तियों का प्रस्थापन युगपत् होता है, किन्तु निष्ठापन क्रम से होता है। इन पर्याप्तियों का काल' अधिक-अधिक क्रमबाला होने पर भी अन्तर्मुहूर्तवाला है ॥१२०।।
विशेषार्थ इन छहों पर्याप्तियों का प्रारम्भ युगपत् होता है, क्योंकि जन्मसमय से लेकर ही इनका अस्तित्व पाया जाता है, किन्तु पूर्णता क्रम से होती है। प्रथम अन्तर्मुहूर्त के द्वारा प्राहार पर्याप्ति की निष्पत्ति होती है । उसके संख्यातवेंभाग अधिक काल के द्वारा शरीर पर्याप्ति की निष्पत्ति होती है। अर्थात् जन्मसमय से जितना काल पाहारपर्याप्ति निष्पन्न होने में लगता है उसका संख्याताभाग अधिक काल शरीरपर्याप्ति निष्पन्न होने में लगता है। जितना काल शरीर पर्याप्ति को निष्पत्ति में लगता है उसका संख्यातवाँभाग अधिक काल इन्द्रियपर्याप्ति की निष्पत्ति में लगता है और उसका संख्याताभाग अधिक काल पानपान पर्याप्ति की निष्पत्ति में लगता है। उसका भी संख्यातवाँभाग अधिककाल भाषापर्याप्ति की निष्पत्ति में लगता है। उससे भी उसका संख्याताभाग अधिककाल मनःपर्याप्ति की निष्पत्ति में लगता है।
१. प. पु. १ पृ. ३१४.३१५ ॥२. प. पु. १ पृ. ३१५-३१६। ३. एतासां प्रारम्भोऽक्रमणे जन्मसमयादारम्य तासां सस्वाभ्युपगमात् । निष्पत्ति तु पुन: क्रमेण । घ. पु. १ पृ. २५५-२५६ । ४. सिद्धान्तरकवर्ती श्रीमद् अभयचन्द्रसूरि कृत टीका के प्राधार पर ।
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१६२/मो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १२१ उपयुक्त कथन को अंकसंष्टि द्वारा इसप्रकार समझा जा सकता है किसी जीव का जन्म ८ बजे हुआ, ८ बजकर २ मिनट पर आहारपर्याप्ति पूर्ण हुई, ८ बजकर २ मिनट १२ सेकिण्ड पर शरीरपर्याप्ति पूर्ण हुई। ८ बजकर २ मिनट २५ सेकण्ड पर इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण हुई। 5 बजकर २ मिनट ४० सेकण्ड पर पानपान पर्याप्ति पूर्ण हुई 1 ८ बजकर २ मिनट ५६ सेकण्ड पर भाषापर्याप्ति पूर्ण हई और ८ बजकर ३ मिनट १४ सेकंण्ड पर मनःपर्याप्ति पूर्ण हुई। एक-दो समयों में पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती यह बतलाने के लिए अन्तर्मुहूर्त का ग्रहण किया है। पर्याप्तियों को पूर्ण करने का जघन्य भी और उत्कृष्ट भी काल समान है।
पर्याप्त व निवन्यपर्याप्त का काल पज्जत्तस्स य उदये, णियणियपज्जत्तिरिणविदो होदि । जाव सरीरमपुण्णं, खिम्वत्ति प्रपुण्णगो ताथ ॥१२१।।
गाथार्थ-पर्याप्त नामकर्म का उदय होने पर अर्थात् जिस जीव के पर्याप्त नामकर्म का उदय होता है, वह अपने-अपने योग्य पर्याप्तियों को निष्पन्न करने वाला होता है। जब तक अर्थात् जितने काल तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक यह जीव नित्यपर्याप्लक रहता है ।।१२१॥
विशेषार्थ---जिस जीव को सर्वपर्याप्तियाँ नियम से पूर्ण होंगी उस जीव के पर्याप्त नामकर्म का उदय होता है । पर्याप्त नामकर्म का उदय होने पर जब तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती उतने काल तक अर्थात् आहार व शरीर दोनों पर्याप्तिकाल तक अथवा अन्तर्मुहूर्त काल तक यह जीव निर्वृ त्यपप्तिक रहता है ।
योग तीन प्रकार का है -उपपादयोग, एकान्तानुवृद्धयोग, परिणाम योग। उत्पन्न होने के प्रथम समय में उपपादयोग होता है। उत्पन्न होने के द्वितीय समय से लेकर शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त रहने के अन्तिम समय तक एकान्तानुवद्धियोग होता है। पर्याप्त होने के प्रथम समय से लेकर आगे सर्वत्र परिणामयोग होता है । निर्वृत्त्यपयोप्तकों के परिणामयोग नहीं होता। किन्तु एक मत यह भी है कि सर्वपर्याप्तियों के पूर्ण होने पर जीव पर्याप्त होता है । एक भी पर्याप्ति के अपूर्ण रहने पर अपर्याप्तकों में परिणामयोग नहीं होता।
जो जीव नरकों के दुःखों से अत्यन्त पीड़ित होकर नरक से पाकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है, उसके औदारिक मिश्रकाययोग का काल अल्प होता है, क्योंकि उस समय उसके योग की बहुलता देखी
१. "एग-दो समए हि पज्जतीनो ए समारणेदि सि जागाबाई तोमुत्तगहणं कादं । पजानिसमायणकालो जहण्णो उक्कस्सनो वि अस्थि ।" घ. पु. १० पृ. २३६ । २. उप्पणाविदियसमयम्प डि जाच सरीरपज्जत्तीए अपज्जत्तय वचरिमसमभो ताद एगताणुवदि जीगो होदि । पज्जत्तमसमयप्पहन्दि उरि सम्वत्थ परिणाम जोगो चेव । णिवत्तिग्रपज्जत्तारण पत्निं परिणामजोगो । (घ. पु. १० पृ. ४२०-२१) ३. सव्वाहिं पज्जत्तीहि पज्जनयदो । एक्काए वि पउजत्तीए असमत्ताए पजप्तएम परिणामजोगो ण होदि । (4. पु. १. पृ. ५५) 1
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गाथा १२२-१२४
पयाप्ति १६३
जाती है। सुख से लालित-पालित हुए तथा दुःखों से रहित विमानवासी देव मरकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले के प्रौदारिकमिश्रकाययोग का काल दीर्घ होता है, क्योंकि मन्दयोग से अल्पपुदगलों को ग्रहण करने वाला है । अथवा योग महान् ही रहा प्रावे और योग के वश से पुद्गल भी बहुत से पाते रहें तो भी उक्तप्रकार के जीव के अपर्याप्तकाल बड़ा ही होता है, क्योंकि विलास से दूषित जीव के शीघ्रतापूर्वक पर्याप्तियों को सम्पूर्ण करने में असमर्थता है।'
विमानवासी देवों में उत्पन्न होने वालों के अपर्याप्तकाल लघु होता है और नरकों में अपर्याप्तकाल बड़ा होता है। एक द्रव्यलिंगी साधु उपरिम ग्रंवेयकों में उत्पन्न हया और सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त के द्वारा पर्याप्तपने को प्राप्त हुआ। एक सम्यग्दृष्टि भावलिङ्गी संयत सर्वार्थ सिद्धि विमानबासी देवों में उत्पन्न हया और सर्वलघ अन्तमहर्तकाल से पर्याप्तियों की पूर्णता को प्राप्त हुआ । कोई एक तिर्यञ्च अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न छापा और सबसे बड़े अन्तमुहूर्त काल से पर्याप्तियों को पूर्णता को प्राप्त हुना। कोई एक बद्धनरकायुष्क मनुष्य सम्यक्त्व को प्राप्त होकर दर्शनमोहनीय का क्षपण करके और प्रथमपृथिवी के नारकियों में उत्पन्न होकर सबसे बड़े अन्त मुहूर्तकाल से पर्याप्तियों को पूर्णता को प्राप्त हुआ। दोनों के जघन्य कालों से दोनों ही उत्कृष्टकाल संख्यातगुणे हैं। लब्ध्यपर्याप्तक का स्वरू
सध्यपर्याप्तक के उत्कृष्टभवों की व एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय सम्बन्धी मवों की संख्या तथा एकेन्द्रिय सम्बन्धी भवों का स्पस्टीवार एस
उदये दु अपुण्यस्स य सगसगपज्जत्तियं रए रिणवदि । अंतोमुहत्तमरणं लद्धि अपज्जागो सो दु ॥१२२॥ "तिण्णिसया छत्तीसा, छावटुिसहस्सगाणि मरणारिण । अंतोमुत्तकाले, तावदिया चेव खुद्दभवा ॥१२३।। सोयी सट्ठी तालं, वियले चउवीस होति पंचक्खे ।
छाट्टि च सहस्सा, सयं च बत्तीसमेयवखे ॥१२४।। १. एक्को सम्मादिट्ठी बाबीससागरोवमाणि दुक्खैक्करसों होदूण जीविदो । छट्ठीदो उन्चट्टिय मामे मु उप्पण्णो ....."परमाणुपोग्गलबहुला प्रागच्छति, तम्स जोगबहुत्तदमरणादो । एम्स जहणिया ओरालियमिस्सकायजोगस्स श्रद्धा होदि । (घ. पु. ४ पृ. ४२२) २. सम्बट्टसिद्धिविमाणवासियदेवस्स तेत्तीससागरोबमाणि सुहृलालियस्स पमुट्ठदुक्खस्स माणुसगम्भे उम्पण्णस्स, तस्थ मंदो जोगो होदि ति पाइरियपरंपरागभुवदेसा । मंदजोगेश थोवे पोग्गले गेण्हंतस्स पोरालियामम्सद्धा दोहा होदि ति उत्त होदि । अधवा जोगो एत्य महल्लो चेव हो जोगवसेण बहुप्रा पोग्गला आगच्नु, तो बि एदस्स दोहा अपज्जतद्धा होदि, विलिसाए दूसियम्स लहूं पज्जत्तिसमागणे असामत्थियादो। [.पु. ४ पृ. ४२३] । ३. एकको दवलिंगी उबरिमगेवेज्जेसु उन्धपणो, सव्वलहुमंतोमुहुत्तेण पत्ति गदो। सम्मादिट्टी एकको संजदो सत्यदेवेम् उपवणो, सव्वलहुमंतो मुहुनेग पज्जति गदो। (घ.पु. ४ पृ. ४२८) । ४. "एकको तिरिकालो मणुस्सो वा मिच्छादिट्ठी सत्तमपुढविगैरइएसु उबवणो सचिरेगा अतोमुहुत्तेण पन्जसि गदो। एकको बद्धरिणरयाउनो सम्मन पडिवज्जिय दंसणमोहणीयं खविय पढमपुढविणे रइरसु उपज्जिय सव्यचिरेरण अंतोमुहुत्तेण पज्जत्ति गदो। दोण्हं जहणकाले हितो उक्कस्सकाला दो वि सं जगुणा । (प.पु. ४ पृ. ४२६)। ५. घ.पु. ४ पृ. ३६५ ।
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१६४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १२५
पुढविदगागणिमारद ---साहारणथल - सुहमपत्तेया।
एवेसु अपुण्णेसु य एक्केक्के बार खं छक्कं ॥१२॥ गाथार्थ-अपर्याप्त नामकर्म-उदय के कारण अपनी-अपनी पर्याप्तियों को निष्ठापित (पूर्ण) न करके अन्तर्मुहूर्त काल में मरण को प्राप्त हो जाते हैं, वे लब्ध्यपर्याप्तक हैं ॥१२२।। अन्तर्मुहूर्तकाल में लब्ध्यपर्याप्तक जीव ६६३३६ बर मरण को प्राप्त होता है, इतने ही क्षुद्रभव होते हैं ।।१२३॥ विकलेन्द्रियों के ८०-६० व ४० भव और पंचेन्द्रियों के २४ भव तथा एकेन्द्रियों के ६६१३२ भव होते हैं ।।१२४।। बादर व सूक्ष्मपृथ्वी-जल-अग्नि-बायु और साधारण वनस्पति ये दस तथा एक प्रत्येक वनस्पति इन ११ लब्ध्यपप्तिकों में से प्रत्येक के ६०१२ भव होते हैं ।।१२।।
विशेषार्थ--स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा गाथा १३७ में लब्ध्यपर्याप्तक का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है
उस्सासद्वारसमे भागे जो मरदि ए य समाणेवि ।
एक्को वि य पजसी लद्धि-अपुण्णो हवे सो छ । अर्थात् जो जीव श्वास नाही) के अठारहवें भाग में मर जाता है और एक भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं करता है वह लब्धिअपर्याप्तक जीव है। गो.जी.गा. १२२ में 'अन्तमुहूर्त' से अभिप्राय नाड़ी के अठारहवें भाग से है, क्योंकि 'अन्तर्मुहूर्त' के बहुत भेद हैं। एक मिनट में लगभग ८० नाड़ी होती है और ६० सेकण्ड होते हैं अतः एक नाड़ी का इ सेकण्ड अर्थात् । सेकण्ड होता है। सेकण्ड का अठारहाभाग अर्थात् ३४ एक सेकण्ड के २४वें भाग प्रमाण लब्ध्यपर्याप्तक की आयु होती है। लब्ध्यपर्याप्तक के एक भव को क्षद्रभव भी कहते हैं। एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव चारों पर्याप्तियों में से एक भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं करता। द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव पाँचों पर्याप्तियों में से एक भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय लन्ध्यपर्याप्तक के छहों पर्याप्तियों में से एक भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती। अपनी पर्याप्ति निष्ठापन की योग्यता जिसकी अनिष्पन्न हो यह लब्ध्यपर्याप्तक का निरुक्ति अर्थ है ।'
नीरोग, स्वस्थ सुखिया मनुष्य के एक मुहूर्त में ३७७३ श्वास (नाड़ी) होते हैं । कहा भी है
पाढयानलसानुपहतमनुजोच्छ्वासैस्त्रिसप्तसप्तत्रिमितेः ।
पाहुमुहूर्तमंतमुहूर्तमष्टाष्टजितस्विभागयुतैः ॥ अर्थात् धनवान, आलसरहित नीरोग मनुष्य के एक मुहूर्त (४८ मिनट) में ३७७३ उच्छ्वास होते हैं। इन ३७७३ उच्छ्वासों में से ८८ उच्छ्वास कम करके उच्छ्वास का त्रिभाग मिला देने से अन्तर्मुहूर्त का प्रमाण (३७७३-८८=)३६८५ उच्छ्वास; - उच्छ्वास = ३६८५ उत्तछ्वास कहा गया है।
१. लब्ध्या स्वस्य पर्याप्तिनिष्ठापनयोग्यतया अपर्याप्ता अनिष्पना: लजयपर्याप्सा इति निरुक्तेः । स्वा.का. अ. मा. १३७ की टीका २. गो. जी. का. गा. १२५ की दीका से उ त।
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गाथा १२६
पर्याप्ति/१६५
। पर्याप्त मनुष्य व तिर्यंच की जघन्य आयु अन्तमुहूर्त प्रभारण है, किन्तु लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य व तिर्यंच की जघन्य आयु उच्छ्वास के अठारहवेंभाग प्रमाण है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित श्लोक द्रष्टव्य है
प्रायुरन्तमुहूर्तः स्यादेषोस्याष्टादशांशकः ।
उच्छ्वासस्थ जघन्यं च नृतिरिश्चां लवध्यपूर्णके ।। उच्छ्वास के अठारहवें भाग से ३६८५१ उच्छ्वास प्रमाग अन्तर्मुहूर्त को भाग देने पर [१३५६६ ६६३३६ लध्यपर्याप्तकों के क्षुद्रभव होते हैं। अर्थात एक जीव निरन्तर लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्पन्न होता रहे तो वह अधिक से अधिक ६६३३६ बार उत्पन्न हो सकता है। इन ६६३३६ क्षद्रभवों में से ६६१३२ क्षद्रभव एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक सम्बन्धी हैं। द्वीन्द्रिय-श्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकों के क्रमश: ८०-६०-४०-२४ क्षद्रभव होते हैं। ये सब मिलकर (६६१३२ + ८० ५. ६० + ४० + २४ =)६६३३६ क्षुद्र भब होते हैं। इस सम्बन्ध में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी भावपाड़ में कहा है
छत्तीसं-तिषिण-सया-छावद्विसहस्सवार मरणाणि । अंतो मुत्तमम्झे पत्तोसि निगोयवासम्हि ।।२।। विलिवए असीदी सट्ठी चालीसमेव जाणेह ।
पंदिदि शमी गुदमरतो मुहत्तस्स ॥२६॥ उपर्युक्त एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक सम्बन्धी ६६१३२ भवों का खुलासा इस प्रकार है-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक के ६०१२, बादरपृथ्वीकायिक के ६०१२, सूक्ष्म अकायिक के ६०१२, वादर प्रकायिक के ६०१२, सूक्ष्मतेजकायिक के ६०१२, बादरतेजकायिक के ६०१२, सूक्ष्मवायुकायिक के ६०१२,
दरबायुकायिक के ६०१२. सूक्ष्मसाधारण बनस्पतिकायिक के ६०१२, बादर साधारण बनस्पतिकायिक के ६०१२, प्रत्येक वनस्पतिकायिक के ६०१२। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के २४ भव इस प्रकार हैं-मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक के ८, असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यच के ८, संजी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तियंत्र के ८ क्षुद्रभव हैं ।
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समुदपात अवस्था में केवलियों की अपर्याप्तता का कारण पज्जत्तसरीरस्स य, पज्जत्तुदयस्स कायजोगस्स ।
जोगिस्स अपुण्णत्तं अपुण्णजोगोत्ति रिणद्दिळं ॥१२६।। गाथार्थ पर्याप्त पारीरवाले तथा पर्याप्त नामकर्मोदयवाले काययोगी के अपर्याप्तता अर्थात् अपूर्ण योग कहा गया है ।।१२६॥
१. गो. सा. जी. मा १२५ की टीका से उद्धृत । २. पवेन्द्रियलमध्यपर्याप्त के चतुधितिः (२४), अतु मनुष्यलबध्यपर्याप्तकेऽष्टी (5), असंज्ञिप चेन्नियलमध्यपर्याप्तकेऽष्टो (८), संज्ञिपंचेन्द्रिये लब्ध्यपर्याप्तकेऽष्टो (८) मिलित्वा पवेन्द्रिपलब्ध्यप प्रीप्तके चतुर्विशतिर्भवन्ति (२४); स्वा. का. प्र. गा. १२७ की टीका ।
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१६६/गो. सा, जीवकाण्ड
गाथा १२६
विशेषार्थ - तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयागकेवली के यद्यपि प्रौदारिकशरीर पूर्ण है और पर्याप्त नामकर्म का उदय भी है तथापि समुद्घात के काल में औदारिकमिश्र व कामणकापयोग होते हैं। ये दोनों योग अपर्याप्त अवस्था में होते हैं,' पर्याप्तावस्था में नहीं होते अतः इन दो योगों की संज्ञा अपूर्णयोग दी गई है। इन अपूर्णयोगों के कारण हो सयोगकेवली को कपाट, प्रतर व लोकपूरण अवस्था में अपर्याप्त कहा गया है ।
राङ्का-समुद्घात किसे कहते हैं ?
समाधान - घातनेरूप धर्म को धात कहते हैं। जिसका प्रकृत में अर्थ कर्मों की स्थिति और अनुभाग का विनाश होता है। उत्तरोत्तर होने वाले घात उद्घात है और समीचीन उद्घात
समुद्घात है ।
शडा-'समुद्घात' शब्द में न तो स्थिति-अनुभागधात कहा गया है और न उसका अधिकार है। यहाँ समुद्घात में कर्मों की स्थिति व अनुभाग का घात विवक्षित है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - प्रकरणवश यह जाना जाता है कि केवलिसमुद्भात में कर्मों को स्थिति और अनुभाग घात विवक्षित है।
शा-इस घात में समीचीनता है, यह कंसे सम्भव है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि बहुत काल में सम्पन्न होने वाले धातों से एक समय में होने वाले इस घात में समीचीनता का अविरोध है ।।
शङ्का केवलियों के समुद्घात सहेतुक होता है या निर्हेतुक ? निर्हेतुक होता है, यह दूसरा विकल्प तो बन नहीं सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर सभी केवनियों को समुद्घात करने के अनन्तर ही मोक्षप्राप्ति का प्रसङ्ग प्राप्त हो जाएगा। यदि कहा जाए कि सभी केवली समुद्घातपुर्वक ही मोक्ष जाते हैं, ऐसा मान लिया जाए तो इसमें क्या हानि है ? सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर लोकपूरण समुद्घात करने वाले केवलियों की वर्षपृथक्त्व के अनन्तर बीस संख्या होती है, यह नियम नहीं बन सकता है। केलियों के समुद्घात सहेतुक होता है, यह प्रथम पक्ष भी नहीं बनता है, क्योंकि केबलिस मुद्घात का कोई हेतु नहीं है। यदि कहा जाय कि तीन अघातिया कर्मों की स्थिति से प्रायुकर्म की स्थिति की असमानता ही समुद्घात का कारण है सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि क्षीणकषाय गुणस्थान की चरम अवस्था में सम्पूर्ण कर्म समान नहीं होते हैं, इसलिए सभी केबलियों के समुद बात का प्रसंग पा जाएगा।
१. पोरालिमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं बघ.पु. १ पृ. ३१५) अपर्याप्नेदेव कामणकाययोग इति निश्चीयते । (व.पु. १ पृ. ३१६) २. “घानं घात: स्थित्यनुभवयोविनाश इति यावत् 1 जपरिघात उप्रातः, समीचीन: उद्घात: समुद्घातः ।” (ध.पु. १ पृ. ३००) ३. "कथममुक्तमनधिकृतं पावगम्यत इति चेन्न, प्रकरण घालदवगतेः। कयमस्य घातस्य ममीचीनत्वमिति चेन, भूयःकालनिष्पाद्यमानपातेभ्योऽस्यकसमयिकस्य समीचीनत्वादिशेचात् ।" (च.पु. १ पृ. ३००-३०१)।
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पर्याप्त / १६७
समाधान - श्री यतिवृषभाचार्य के उपदेशानुसार क्षीणकषायगुणस्थान के चरमसमय में सम्पूर्ण घातिया कर्मों की स्थिति समान नहीं होने से सभी केवली समुद्घात करके ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं, परन्तु जिन आचार्यों के मतानुसार लोकपूरण समुद्घात करने वाले केवलियों की बीस संख्या का नियम है, उनके मतानुसार कितने ही केवली समुद्घात करते हैं और कितने ही नहीं करते हैं ।
शङ्का – कौन से केवली समुद्घात नहीं करते हैं ?
समाधान - जिनकी संसार व्यक्ति अर्थात् संसार में रहने का काल वेदनीय आदि तीन कर्मों की स्थिति के समान है वे समुद्घात नहीं करते, शेष केवली समुद्घात करते हैं । '
गाया १२६
शङ्का – अनिवृत्ति आदि परिणामों के समान रहने पर संसारव्यक्ति-स्थिति और शेष तीन कर्मों की स्थिति में विषमता क्यों रहती है ?
स्थिति
समाधान--- -नहीं क्योंकि संसार की यदि के कारणभूत अनिवृत्तिरूप परिणामों के समान रहने पर संसार को उसके अर्थात् तीन कर्मों की स्थिति के समान मान लेने मैं विरोध आता है ।
शङ्का - संसार के विच्छेद का क्या कारण है ?
समाधान- द्वादशाङ्ग का ज्ञान, उनमें तीव्रभक्ति, केवलिसमुद्घात और अनिवृत्तिरूप परिणाम ये सब संसार के विच्छेद के कारण हैं । परन्तु ये सब कारण समस्त जीवों में सम्भव नहीं हैं, क्योंकि दसपूर्व और नीपूर्वधारी जीवों का भी क्षपकश्रेणी पर चढ़ना देखा जाता है । ग्रतः वहाँ पर संसारव्यक्ति के समान कर्मस्थिति नहीं पायी जाती है। इस प्रकार ग्रन्तर्मुहूर्त में नियम से नाम को प्राप्त होने वाले पत्योपम के श्रसंख्यातवे भागप्रमाण या संख्यात ग्रावलीप्रमाण स्थितिकाण्डकों का विनाश करते हुए कितने ही जीव समुद्घात के बिना ही प्रायु के समान शेष कर्मों को कर लेते हैं तथा कितने ही जीव समुद्घात के द्वारा शेषकर्मों को प्रायु के समान करते हैं। परन्तु यह संसार का घात केवली में पहले सम्भव नहीं है, क्योंकि पहले स्थितिकाण्डक के घात के सभी जीवों के समान परिणाम पाये जाते हैं ।
शङ्का - जबकि परिणामों में कोई अतिशय नहीं पाया जाता है, अर्थात् सभी केबलियों के परिणाम समान होते हैं तो पीछे भी संसार का घात मत हो ?
समाधान- नहीं, क्योंकि वीतरागरूप परिणामों के समान रहने पर भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण श्रायुकर्म की अपेक्षा आत्मा के उत्पन्न हुए ग्रन्थ विशिष्ट परिणामों से संसार का घात बन जाता है ।
शङ्का - अन्य श्राचार्यों के द्वारा नहीं व्याख्यान किये गये इस अर्थ का इस प्रकार व्याख्यान करते हुए आप सूत्र के विरुद्ध जा रहे हैं, ऐसा क्यों न माना जाय ?
१. ध. पु. १ पृ. ३०१-३०२ ।
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१६८/गो. सा. जीयकाण्ड
माथा १२६ समाधान नहीं, क्योंकि वर्षपृथक्त्व के अन्तराल का प्रतिपादन करने वाले सूत्र के वशवों प्राचार्यों का ही पूर्वोक्त कथन से विरोध पाता है ।
शा-छह मासप्रमाण आयुकर्म के शेष रहने पर जिस जीव को केवलज्ञान उत्पन्न हया है, वह समुद्घात करके ही मुक्त होता है, घोष जीव करते भी हैं और नहीं भी करते हैं। कहा भी है
छम्मासाउवसेसे उत्पण्णं जस्स केवलं गाणं ।
स-समुग्यानो सिजभइ सेसा भज्जा समुग्घाए ॥१६७॥ इस गाथा का अर्थ क्यों नहीं ग्रहण किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि इसप्रकार का विकल्प मानने में कोई कारण नहीं पाया जाता है, इसलिए पूर्वोक्त गाथा का अर्थ ग्रहण नहीं किया है। शङ्का--जेसि आउ-समाई णामा गोवाणि वेयरणीयं च ।
से अकय समुग्घाया वध्वंतियरे समुग्धाए ॥१६८।। अर्थात् जिन जीवों के नाम, गोत्र और वेदनीयकर्म की स्थिति आयुकम के समान होती है, वे समुद्घात नहीं करके ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं, दूसरे जीव समुद्घात करके ही मुक्त होते हैं।
समाधान—इसप्रकार पूर्वोक्त गाथा (१६८) में कहे गये अभिप्राय को तो किन्हीं केबलियों के समुद्घात होने में और किन्हीं के समुद्घात नहीं होने में कारण कहा नहीं जा सकता, क्योंकि सम्पूर्ण केबलियों में समान अनिवृत्तिरूप परिणामों के द्वारा कर्मस्थितियों का घात पाया जाता है। प्रतः उनका (वेदनीय-नाम-गोत्रकर्म स्थिति का) आयु के समान होने में विरोध प्राता है। दूसरे क्षीणकषायगुणस्थान के चरम समय में तीन अघातियाकर्मों की जघन्यस्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग सभी जीवों के पायी जाती है। इसलिए पूर्वोक्त कथन ठीक प्रतीत नहीं होता।
शङ्का-पागम तो तर्क का विषय नहीं है, इसलिए इस प्रकार तर्क के बल से पूर्वोक्त गाथानों के अभिप्राय का खण्डन करना उचित नहीं है।
समाधान--नहीं, क्योंकि इन दोनों गाथानों का आगमरूप से निर्णय नहीं हुआ है । अथवा यदि इन दोनों गाथाओं का आगमरूप से निर्णय हो जाए तो इनका ही ग्रहण रहा भावे ।
शङ्का-कपाट, प्रतर और लोकपूरणसमुद्घात को प्राप्त केवली पर्याप्त हैं या अपर्याप्त ?
समाधान--उन्हें पर्याप्त तो माना नहीं जा सवाता, क्योंकि "ौदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है ।" इस सूत्र से उनके अपर्याप्तपना सिद्ध है।
शङ्का-सम्यग्मिथ्याष्टि, संयतासंयत और संयत मुणस्थानों में जीव नियम से पर्याप्तक होते
१. वसुनन्दिश्रावकाचार गा. ५३० । २. प. पु. १ पृ. ३०१ से ३०४। ३. "पोरालियमिस्सका यजोगो अपज्जत्ताणं" घ. पु. १ पृ. ३१५ सूत्र ७६ व गो. जी. का. गा, ६८ ।
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गाया १२६
पर्याप्ति/१६६
हैं।' इस प्रकार सूत्र में निर्देश होने के कारण यही सिद्ध होता है कि सयोगवली के अतिरिक्त अन्य औदारिकमिश्रकाय योगवाले जीव अपर्याप्तक हैं ।
समाधान--1ोसा नहीं है, क्योंकि 'पाहारकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है। इस सूत्र से संयत भी कथंचित् अपर्याप्तक सिद्ध होते हैं।
शङ्खा-'पाहारकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है' यह सूत्र अनवकाण है, अर्थात् इस सूत्र की प्रवृत्ति के लिए कोई दूसरा स्थल नहीं है अतः इस सूत्र से संपत नियम मे पर्याप्तक होते हैं। यह सूत्र वाधा जाता है, किन्तु औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के ही होता है, इस सूत्र से 'संघत पर्याप्तक हो होते हैं' यह सूत्र नहीं बाधा जाता, क्योंकि 'पीदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है' यह सूत्र सावकाश होने के कारण (इस सूत्र को प्रवृत्ति के लिए सयोगियों के अतिरिक्त अन्य स्थल भी होने के कारण) निर्बल है। अत: माहारक समुद्घात जीवों के जिस प्रकार अपर्याप्तपना सिद्ध किया जा सकता है, उस प्रकार समुद्घात केवलियों के अपर्याप्तपना सिद्ध नहीं किया जा सकता ?
समाधान नहीं, क्योंकि 'संयत नियम से पर्याप्तक होते हैं यह सूत्र भी सावकाण देखा जाता है (सयोगी के अतिरिक्त अन्य स्थल में भी इस सूत्र की प्रवृत्ति देखी जाती है ।) अतः निर्बल है और है इसलिए 'औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के ही होता है' इस सूत्र की प्रवृत्ति को नहीं रोक सकना !
शङ्का--पूर्वोक्त दोनों सूत्र सावकाश होते हुए भी सयोगोगुणस्थान में युगपत् प्राप्त होते हैं । फिर भी 'परो विधिधिको भवति' 'संयतजीव नियम से पर्याप्तक होते हैं। इस सूत्र के द्वारा 'ग्रौदारिकमिनकाययोग अपर्याप्तकों के ही होता है' यह सूत्र बाधा जाता है, क्योंकि यह सूत्र पर है ।
समाधान--नहीं, क्योंकि 'पर' शब्द 'इष्ट' अर्थ का वाचक है। ऐसा मान लेने पर 'संयनजीव नियम से पर्याप्तक होते हैं। इस सूत्र के द्वारा 'औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है यह सूत्र बाधा जाता है, उसी प्रकार पूर्व अर्थात् 'औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है, इस सूत्र से संयतजीव नियम से पर्याप्तक होते हैं। यह सूत्र भी बात्रा जाता है अत: शंकाकार के पूर्वोक्त कथन में अनेकान्नदोष आ जाता है ।
शा-'संयतजीब नियम से पर्याप्तक होते हैं। इस सूत्र में 'नियम 'शब्द सप्रयोजन है या निष्प्रयोजन ?
समाधान- इन दोनों पक्षों में दूसरा पक्ष तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि श्री पुष्पदन्त प्राचार्य के बचन द्वारा कहे गये तत्वों में निरर्थकता होना विरुद्ध है और सूत्र की नित्यता का प्रकाशन करना भी "नियम' शब्द का फल नहीं हो सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर जिनसूत्रों में 'नियम' शब्द नहीं पाया जाता है, उन्हें अनित्यता का प्रसङ्ग आ जाएगा। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर 'प्रौदारिककाययोग पर्याप्तकों के होता है' इस सूत्र में 'नियम' शब्द का अभाव होने से अपर्याप्तकों में भी औदारिककाययोग के अस्तित्व का प्रसङ्ग प्राप्त होगा जो कि इप्ट नहीं है । अतः
१. 'सम्मामिच्छाइदिठ-मजदासं जद-संजद-ट्ठाणे णियमा पज्जत्ता' IIEI (घ. पु. १ पृ. ३२६) । २. 'माहारमिस्सकावजोगो अपज्जत्ताणं । (घ. पु. १ मुब ७८) ।
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१७० /गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १२७
सूत्र में पाया हुआ 'नियम' शब्द ज्ञापक है नियामक नहीं है । यदि ऐसा न माना जाए तो उसको अनर्थकप ने का प्रसंग या जाएगा।
शङ्का-इस 'नियम' शब्द के द्वारा क्या ज्ञापित होता है ? __समाधान–इससे यह ज्ञापित होता है कि 'सम्यग्मिध्यादृष्टि, संयतासंयत और संयत जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं' यह सुत्र अनित्य है । इससे उत्तर शरीर को उत्पन्न करने वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत और संयतों के तथा कपाट, प्रतर और लोकपुरण समुद्घात प्राप्त केवलियों के अपर्याप्तपना सिद्ध हो जाता है।
शा- जिसका प्रारम्भ किया हुआ शरीर अर्ध अपूर्ण है उसे अपर्याप्त कहते हैं, परन्तु सयोगी अवस्था में शरीर का प्रारम्भ तो होता नहीं अतः मयोगकेबली के अपर्याप्तपना नहीं बन सकता?
समाधान- नहीं, क्योंकि कपाट आदि समुद्घात अवस्था में सयोगकेवली छह पर्याप्तिरूप शक्ति से रहित होते हैं अतएव वे अपर्याप्त कहे गये हैं।'
केवलीसमुद्घात अवस्था में वचनबल (वचनयोग) व श्वासोच्छ्वास का अभाव हो जाने से मात्र काययोग रह जाता है इसीलिए गाथा में समुद्घातगत के स्थान पर काययोगी कहा गया है।
लपपर्याप्त, नित्यपर्याप्त व पर्याप्तावस्था में सम्भावित गुगास्थान लद्धिअपुण्णं मिच्छे, तत्थवि विदिये चउत्थ छ8 य ।
रिणब्यत्तिनपज्जत्ती, तत्यधि सेसेसु पज्जत्ती ॥१२७॥ गाथार्थ--लब्ध्यपर्याप्तकजीव मिथ्यादृष्टि होते हैं । नित्यपर्याप्तक नीव मिथ्यात्व, सासादन, असंयतसम्यग्दृष्टि व प्रमत्तविरत गुणस्थानों में होते हैं। पर्याप्तजीव उक्त गुणस्थानों में और शेष गुणस्थानों में होते हैं।
विशेषार्थ--लबध्यपर्याप्तकजीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होते हैं, अन्य गुणस्थानों में । लब्ध्यपर्याप्तक जीव नहीं होते हैं। सासादनगुणस्थान में लब्ध्यपर्याप्तक जीव उत्पन्न नहीं होते । सम्यग्मिथ्यादृष्टियों, असंयतसम्यग्दृष्टियों, देशसंयतों और सकलसंयतों में लब्ध्यपर्याप्तकजीब नहीं होते । नित्यपर्याप्तकजीव मिथ्यात्व (प्रथम), सासादन (द्वितीय), असंयतसम्यग्दष्टि (चतुर्थ) और प्रमत्तसंयत (छठे) गुणस्थान में होते हैं। इससे आगे के गणस्थानों में नहीं होते। सम्यग्मिथ्यात्व (तृतीय) गुणस्थान में और देशसंयत (पाँचवें) गुणस्थान में भी नित्यपर्याप्तकजीव नहीं होते।
शङ्का–प्रमत्तसंयतगुणस्थान में नित्यपर्याप्त कैसे सम्भव है ? क्योंकि अपर्याप्तावस्था में संयम असंभव है।
समाधान---शंकाकार प्रागम के अभिप्राय को नहीं समझा । आगम का अभिप्राय
१. ध पु. २ पृ. ४४१-४४४ । २. लब्ध्याप्तेिषु मिध्याइष्टिब्यतिरिक्तशेषगुणासम्भयात् । (प. पु. १ पृ. २०८)।
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माथा १२७
पर्माप्ति/११
तो इस प्रकार है कि - माहारक शरीर को उत्पन्न करने वाला प्रमत्तसंयतगुणस्थानवर्ती साधु प्रोदारिकशरीरगत छह पर्याप्तियों की अपेक्षा पर्याप्तक भले ही रहा प्रावे, किन्तु पाहारकशरीर सम्बन्धी पर्याप्ति के पूर्ण नहीं होने की अपेक्षा वह साधु अपर्याप्तक है।
शङ्का-पर्याप्त और अपर्याप्तपना एक जीत्र में एक साथ सम्भव नहीं है, क्योंकि एक साथ एक जीब में इन दोनों के रहने में विरोध पाता है।
समाधान--नहीं, क्योंकि एकसाथ एक जीव में पर्याप्त और अपर्याप्त सम्बन्धी योग सम्भव नहीं हैं. यह बात इष्ट ही है ।
शङ्का-तो फिर पूर्व शंका का कथन क्यों न मान लिया जाय, क्योंकि समाधान के कथन में विरोध आता है ?
समाधान -नहीं, क्योंकि भूतपूर्व नय की अपेक्षा विरोध प्रसिद्ध है। अर्थात् औदारिकशरीर सम्बन्धी परितपने की अपेक्षा आहारकमिश्न अवस्था में भी पर्याप्तपने का व्यवहार किया जा सकता है । अथवा द्रव्यार्थिकनय के अवलम्बन की अपेक्षा आहारकशरीर सम्बन्धी छह पर्याप्तियों के पूर्ण नहीं होने पर भी पर्याप्त कहा है।
शङ्का--उस द्रध्याथिकनय का दूसरी जगह अबलम्बन क्यों नहीं लिया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि वहाँ पर द्रव्याथिकनय के अवलम्बन के निमित्त नहीं पाये जाते । शङ्का- तो फिर यहाँ द्रव्याथिकनय का अवलम्बन किसलिए लिया जाता है ?
समाधान --माहारक.शरीर सम्बन्धी अपर्याप्तावस्था को प्राप्त हए प्रमत्तसंयत की पर्याप्त के साथ समानता दिखाना ही यहाँ पर द्रव्यार्थिवनय के अवलम्बन का कारण है।
शङ्का--जिसके प्रौदारिकशरीर सम्बन्धी छह पर्याप्तियां नष्ट हो चुकी हैं और अाहारकशरीर सम्बन्धी पर्याप्तियां अभी तक पूर्ण नहीं हुई हैं ऐसे अपर्याप्तक प्रमत्तसंयत के संयम कैसे हो सकता है ? और दूसरे पर्याप्तकों के साथ किस कारण से समानता हो सकती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि जिसका लक्षण ग्रानव का विरोध करना है, ऐसे संयम का मन्दयोग अर्थात पाहारकमिश्च योग के साथ होने में कोई विरोध नहीं पाता है। यदि इस मंदयोग के साथ संयम के होने में विरोध पाता है तो समुद्घात को प्राप्त हुए केवली के भी संयम नहीं हो सकेगा, क्योंकि वहाँ भी अपर्याप्तसम्बन्धी योग का सद्भाव पाया जाता है, इसमें कोई बिशेषता नहीं है। दुःखाभाव की अपेक्षा इसकी दुसरे पर्याप्तकों के साथ समानता है । जिसप्रकार उपपादजन्म, गर्भजन्म या सम्मूच्र्छन जन्म से उत्पन्न हुए शरीरों को धारण करने वालों को दुःख होता है, उस प्रकार पाहारकशरीर को धारण करने वालों के दुःख नहीं होता है, इसलिए उस अवस्था में प्रमत्तसंयत पर्याप्त है। इसप्रकार का उपचार किया जाता है, या दुःख के बिना ही पूर्व प्रौदारिकपारीर का
१. भ. पु. १ पृ. ३१८ । २. प. पु. १ पृ. ३३० । ३. प. पु. १ पृ. ३१ । ४. प. पु. १ सूत्र ७८ की टीका ।
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१७२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १२८
परित्याग होता है । अतएव प्रमत्तसंयत अपर्याप्तावस्था में भी पर्याप्त है; इसप्रकार का उपचार किया जाता है । निश्चयनय का प्राश्चय करने पर तो वह अपर्याप्त ही है ।
नित्यपर्याप्तावस्था में सम्यक्त्व और लन्ध्यपर्याप्तावस्था में सासादन के अभाव का नियम
'हेटिम छप्पुढवीणं, जोइसिवरणभवरणसव्वइत्थीणं ।
पुगिणदरे रहि सम्मो, ण सासणो रणारयापुण्णे ।।१२८॥ गाथार्थ--नीचे को छह पृथ्वियों के, ज्योतिषी-वाणव्यन्तर-भवनवासी देवों के और सर्व स्त्रियों के निवृत्त्यपर्याप्तक अवस्था में सम्यग्दर्शन नहीं होता। नारकियों के अपर्याप्तावस्था में सासादन गुणस्थान भी नहीं होता है ॥१२८।।
विशेषा -हनामा देशकर्षन है : नारकियों के अपर्याप्तावस्था में सासादनगुणस्थान नहीं होता। इसके द्वारा चारों गतियों को अपर्याप्तावस्था में कौनसे गुणस्थान होते हैं और कौनकौन से नहीं होते हैं, इसका कथन करने की सूचना दी गई है अत: उसी का यहाँ कथन करते हैं। तद्यथा
शङ्का-मिथ्याष्टिगुणस्थान में नारकियों का सत्त्व रहा भावे, क्योंकि नारकियों में उत्पत्ति का निमित्त कारण मिथ्यादर्शन पाया जाता है, किन्तु अन्य गुणस्थानों में नारकियों का सत्त्व नहीं पाया जाना चाहिए, क्योंकि अन्य गुणस्थानों में नारकियों में उत्पत्ति का कारणभूत मिथ्यात्व नहीं पाया जाता है।
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि नरकायु के बन्ध बिना मिथ्यादर्शन-अविरति और कषायों में नरकोत्पत्ति की सामर्थ्य नहीं है। पहले बंधी हुई प्रायु का पीछे से उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन से निरन्वयविनाश भी नहीं होता है, क्योंकि ऐसा मान लेने पर पार्ष से विरोध आता है। जिन्होंने नरकायु का बन्ध कर लिया है, ऐसे जीव जिस प्रकार संयम को प्राप्त नहीं हो सकते हैं उसी प्रकार सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं होते हैं यह बात भी नहीं है, क्योंकि ऐसा मान लेने पर सूत्र से विरोध प्राता है। जिन जीवों ने पहले नरकायु का बन्ध किया और पीछे से सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ ऐसे बद्धायुष्क कृत कृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि या क्षायिकसम्यग्दृष्टि की नरक में उत्पत्ति होती है। ऐसे सम्यग्दृष्टि नरक में अपर्याप्तावस्था में पाये जाते हैं, किन्तु सासादनगुणस्थान वाले मरकर नरक में उत्पन्न नहीं होते हैं, मयोंकि सासादन सम्यग्दृष्टियों की नरक में उत्पत्ति नहीं होती है ।
शङ्कर-जिसप्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि नरक में उत्पन्न नहीं होते हैं, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टियों की मरकर नरक में उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए।
समाधान-सम्यग्दृष्टि मरकर प्रथमपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं, इसका आगम में निषेध नहीं है ।
१. घ. पु. १ पृ ३३०-३१ । २. यह माथा फुछ पाटान्तर के साथ ध, पु. १ पृ. २०६ पर इस प्रकार है--"सु हेट्टिमासु पुढचीसु, जोइसवरण मवरण सच्च इत्थीसृ । गैदेसु समुप्पज्जा सम्माइठी दु जो जीवो ।। १३३॥' अथका प्रा. पं. सं. गा. १६३ इमप्रकार है-"छसु हेट्टिमासु पुढवीसु जोइसपरणभवरण सव्व इत्थीसु। बारस मिच्छावादे सम्माइटिस्स रणस्थि उपवादो ॥" (पृ. ४१) । ३. प. पु. १ पृ. २०५ ।
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माथा १२८
पर्याप्ति/१७३ शङ्का-जिसप्रकार सम्यग्दष्टि भरकर प्रथम पृथ्वी में उत्तम होते हैं उसीप्रकार द्वितीयादि पृथ्वियों में सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न क्यों नहीं होते ?'
समाधान-असंयत सम्यग्दृष्टि जीव द्वितीयादि प्रश्चियों में उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि सम्यग्दृष्टियों के शेष छह पृश्वियों में उत्पन्न होने के निमित्त नहीं पाये जाते ।
अशुभलेश्या के सत्त्व को नरक में उत्पत्ति का कारण कहना ठीक नहीं है, क्योंकि मरण के समय असंयतसम्यग्दृष्टिजीव के नीचे की छह पृथ्बियों में उत्पत्ति की कारणरूप अशुभलेश्या नहीं पायी जाती है । मरकायु का सत्त्व भी सम्यग्दृष्टि के नीचे की छह पृथ्वियों में उत्पत्ति का कारण नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन रूपी खड्ग से नीचे की छह पृथ्वी सम्बन्धी प्रायु काट दी जाती है। नीचे की छह पृथ्वी सम्बन्धी प्रायु का कटना प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि प्रामम से इसकी पुष्टि होती है इसलिए यह सिद्ध हुआ कि नीचे की छह पृथ्वियों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होता है ।
शङ्का-सम्यग्दर्शन की सामर्थ्य से नरकायु का छेद क्यों नहीं हो जाता ? 'समाधान-नरकायु का छेद अवश्य होता है, किन्तु उसका समूल नाश नहीं होता। शङ्का समूल नाश क्यों नहीं होता ?
समाधान-अागामी भव को बांधी हुई आयु का समूलनाश नहीं होता, इस प्रकार का स्वभाव है। जो प्रायुकर्म का बन्ध करते समय मिथ्यादृष्टि थे और जिन्होंने तदनन्तर सम्यग्दर्शन ग्रहण किया है ऐसे जीवों की नरकादि गति में उत्पत्ति रोकने की सामर्थ्य सम्यग्दर्शन में नहीं है।
नरकगति के कथन के पश्चात् अब तिर्यचगति सम्बन्धी गुणस्थानों का कथन करते हैं -
तियंच मिथ्याष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी ।
शङ्का-जिसने तीर्थङ्कर की सेवा को है और जिसने मोहनीय की सात प्रकृतियों का क्षय कर दिया है, ऐसा क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव दुःखबहुल तिर्यंचों में कैसे उत्पन्न होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि तिर्यंचों के नारकियों की अपेक्षा अधिक दुःख नहीं पाये जाते हैं ।
तियच सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत्तगुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होते हैं । तिर्यंचों में उत्पन्न हुए भी क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव अणुनतों को नहीं ग्रहण करते हैं, क्योंकि क्षायिकसम्यग्दृष्टि 'यदि तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं तो भोगभूमि तिर्यंचों में ही उत्पन्न होते हैं और भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रतों का ग्रहण करना बन नहीं सकता।
१. व. पु. १ पृ. २०७। २. ध.पृ. १ पृ. ३२४ । ३. ध.पु. १ पृ. ३२६ । ४. घ.पु. १ पृ. ३३६ । ५. तिरित्रखा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइठिाणे सिया पज्जत्ता मिया अपज्जत्ता ।।४।। (पू.१ पृ. ३२५)। ६. प.पू. १ पृ. ३२५। ७. "सम्ममिच्छाइटिठ-संजदासंजदटठाणे णियमा पज्जत्ता।। ८५।।"च.पु. १ पृ. ३२६ । ८. तिरिक्खा संजदासंजदहाणे खइय सम्माइट्ठी गस्थि" ध.पु. १ पृ. ४०२ ।
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१७४/गो. सा. जीव कापड
गाथा १२८
शङ्का-जिन्होंने दान नहीं दिया है ऐसे जीव भोगभूमि में कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ?
समाधान --नहीं, क्योंकि भोगभूमि में उत्पत्ति का कारण सम्पग्दर्शन है और वह जिनके पाया जाता है उनके वहाँ उत्पन्न होने में कोई विरोध नहीं आता है तथा पात्रदान की अनुमोदना से रहित जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो नहीं सकते, क्योंकि उनमें पात्रदान का प्रभाव नहीं बन सकता है।'
क्षायिक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति मनुष्य काम में ही होती है। अतः हिसा मनुष्य ने पहले तिर्यंचायु का बन्ध कर लिया है और अनन्तर उसके क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुया है, ऐसे जीव के उत्तम भोगभूमि में उत्पत्ति का मुख्य कारण क्षायिक सम्यग्दर्शन ही जानना चाहिए, पात्रदान नहीं। फिर भी वह पात्रदान की अनुमोदना से रहित नहीं होता है।
पंचेन्द्रियतिर्य चिनी मिथ्यादृष्टि और सासादनगुरणस्थानों में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं, किन्तु सम्यग्मिथ्याष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयतगुणस्थानों में नियम से पर्याप्त होते
शङ्का-जिस प्रकार बद्धायुष्क क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव नारकसम्बन्धी नपुसकवेद में उत्पन्न होता है, उसी प्रकार तियेच स्त्रीवेद में क्यों नहीं उत्पन्न होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि नरक में एक नपुसकवेद का ही सद्भाव है। जिस किसी गति में उत्पन्न होने वाला सम्यग्दृष्टिजीव उस गति सम्बन्धी विशिष्ट वेदादिक में ही उत्पन्न होता है इससे यह सिद्ध हुया कि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर तिर्यचिनी में उत्पन्न नहीं होता।
मनप्य मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में पर्याप्त भो होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं। 'सम्यग्मिथ्याष्टि, संयतासंयत और संपतगुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होते हैं। इसी प्रकार यानी मनुष्य सामान्य के कथन के समान मनुष्यपर्याप्त होते हैं ।
शङ्का-जिसके शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं हुई है उसको पर्याप्त कैसे कहा जाय ?
समाधान नहीं, क्योंकि द्रव्याथिकनय की अपेक्षा उसके भी पर्याप्तपना बन जाता है । भात पक रहा है. यहाँ पर जिस प्रकार चावलों को भात कहा जाता है, उसी प्रकार जिसके सभी पर्याप्तियां पर्ण होने वाली हैं ऐसे जीव के अपर्याप्तावस्था में भी पर्याप्तपने का व्यवहार विरोध को प्राप्त नहीं होता है अथवा पर्याप्ननामकर्म के उदय की अपेक्षा उसके पर्याप्तपना समझ लेना चाहिए।'
मनुष्यिनियों में मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं, किन्तु सम्यग्मिथ्याष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतगुणस्थानों में .
१. घ. पु. १ पृ. ३२७ । २. पंचिदियतिरिक्ख-जोरिणगीसु मिच्छाइटि-सासणसम्माइठिट्टाणे मिया पज्जनियामो सिया अप्पज्जत्तियाग्रो ॥७॥ सम्मामिच्छाइटिठन्यसंजदसम्माइदिठ-संजदासंजद-ठाणे णियमाएज्जत्तिया यो ॥८८||"प.पु. १ पृ. ३२८ । ३. "मणुस्सा मिच्चाइट्ठि-सासरणसम्माइदिव-प्रसंजदसम्माइट्ठि ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ।।१६।।"(प.पु. १ पृ. ३२६) ४ सम्मामिलाइटि-संजदासजद-संजदहारणे गियमा पज्जता ||६०1" (व.पु. १ पृ. ३२६) । ५. एवं मणुस्स-पज्जत्ता ||६॥ प.पु १/३३१ । ६. ध.पु. १ पृ. ३३१ ।
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गाथा १२८
पर्याप्ति/१७५
नियम से पर्याप्तक होते हैं।'
शंका हुण्डावसर्पिणी कालसम्बन्धी स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि जीव क्यों उत्पन्न नहीं होते ? समाधान-उनमें सम्यग्दृष्टिजीव नहीं उत्पन्न होते !
शङ्का—यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? मार्गदर.
समाधान—इसी पार्षसूत्र से जाना जाता है। शङ्का-तो इस पागम से द्रव्यस्त्रियों का मुक्ति जाना भी सिद्ध हो जाएगा?
समाधान नहीं, क्योंकि वस्त्रसहित होने से द्रव्यस्त्रियों के संयतासंयत्तगुणस्थान होता है प्रतएव द्रव्यस्त्रियों के संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।'
शङ्का-वस्त्रसहित होते हुए भी उन द्रव्यस्त्रियों के भावसंयम के होने में कोई विरोध नहीं पाता।
समाषान-द्रव्यस्त्रियों के भावसंयम भी नहीं है, क्योंकि भावसंघम के मानने पर उनके भाव असंयम का अविनाभावी वस्त्रादि का ग्रहण करना नहीं बन सकता है।
शङ्का-तो फिर स्त्रियों में चौदह गुणस्थान होते हैं, यह कथन कैसे बन सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि भावस्त्री में अर्थात् स्त्रीवेद युक्त द्रव्यपुरुष में चौदहगुणस्थानों का सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है।
शङ्का-बादरकषायगुरणस्थान के ऊपर भाववेद नहीं पाया जाता इसलिए भाववेद में चौदह गुणस्थानों का सद्भाव नहीं हो सकता है ।
समाधान नहीं, यहाँ पर वेद की प्रधानता नहीं है, किन्तु गतिप्रधान है और वह पहले नष्ट नहीं होती है।
शङ्कायद्यपि मनुष्यगति में चौदहगुणस्थान सम्भव हैं फिर भी उसे वेद विशेषण से युक्त कर देने पर उसमें चौदहगुणस्थान सम्भव नहीं हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि विशेषण के नष्ट हो जाने पर भी उपचार से उस विशेषण युक्त संज्ञा को धारण करने वाली मनुष्यगति में चौदह गणस्थानों का सदभाव मान लेने में कोई बिरोध नहीं आता है। यहाँ वेदों की प्रधानता नहीं है, किन्तु गति की प्रधानता है। गति पहले नष्ट नहीं होती, अर्थात् मनुष्यगति तो १४ वे गुणस्थान तक रहती है और उसी को प्रधानता से चौदहगुणस्थान कहे गए हैं।
१. मणुसिणीसु मिच्छाइट्ठी-सासणसम्माइछि ठाणे सिमा पनिज तायाम्रो सिवा अपजत्तियानो १६२॥ सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्माइछि संजदासजद संजदाणे णियमा पम्मत्तियायो ।।६३।। (च. पु. १ पृ. ३३२) । २. प. पु १ पृ. ३३२-३३ । ३. प. पु. १ पृ. ३३२-३३३ ।
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१५६ गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १२८
'भावयेद" तो मनुष्यगति का विशेषण है । नवम गुणस्थान तक तो भाववेद सहित मनुष्यगति का सद्भाव रहता है फिर नवम गुणस्थान के ऊपर दसवें आदि गुरास्थानों में भाववेद रूप विशेषण के नष्ट हो जाने पर भी मनुष्यगति तो बनी रहती है। इसीलिए उस मनुष्यगति की प्रधानता से, भाववेद (स्त्री प्रादि) के नष्ट हो जाने पर भी उस साथ रहने वाली विशेष्यरूष मनुष्यगति के सद्भाव में उपचार से भाववेद (स्त्री प्रादि) की अपेक्षा भी १४ गुणस्थान कहे गए हैं।
इसका खुलासा लेश्या के दृष्टान्त से समझ लेना चाहिए। शास्त्रकारों ने १३ वें गुणस्थान लकलेश्या बताई।परन्तलेश्या तो कषायों के उदय सहित योगप्रवत्ति में होती है।[कषायानरंजितयोगप्रवृत्तिः लेश्या इति परन्तु लेश्या में योग (विणेध्य) की प्रधानता होने से, तेरहवे गुणस्थान में कषाय (विशेषण) के नष्ट हो जाने पर भी साथी योग (विशेष्य) की विद्यमानता मात्र देखकर वहाँ लेश्या कह दी है । वैसे ही यहाँ भी वेद (विशेषण) के नष्ट हो जाने पर भी विशेष्यरूप मनुष्यगति के सद्भाव को देखकर १४ वें गुणस्थान तक वेद कहा है।
देव मिथ्याष्टि, सासाब नसम्यग्दृष्टि और असंपतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में पर्याप्त भी होते हैं और अपयाप्त भी होते हैं ।' सम्यग्मिथ्यावृष्टिगुणस्थान में नियम से पर्याप्त होते हैं ।
शङ्का-विग्रहगति में कामगाणारीरवाले के पर्याप्ति नहीं पाई जाती, क्योंकि विग्रहगति काल में छह पर्याप्तियों की निष्पत्ति नहीं होती । उसीप्रकार विग्रहगति में वे अपति भी नहीं हो सकते, क्योंकि पर्याप्तियों के प्रारम्भ से लेकर समाप्ति पर्यन्त मध्य की अवस्था में 'अपर्याप्त' यह संज्ञा दी गई है, किन्तु जिन्होंने पर्याप्तियों का प्रारम्भ ही नहीं किया है ऐसे विग्रहगति सम्बन्धी एक, दो या तीन समयवर्ती जीवों के अपर्याप्त संज्ञा नहीं प्राप्त हो सकती, क्योंकि ऐसा मान लेने पर अतिप्रसंग दोष आता है । इसलिए विग्रहाति में पर्याप्त और पर्याप्त से भिन्न कोई तीसरी अवस्था कहनी चाहिए।
___ समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि विग्रहगति को प्राप्त जीवों का अपर्याप्तों में ही अन्तर्भाव किया गया है और ऐसा मान लेने पर अतिप्रसंग दोष भी नहीं पाता, क्योंकि कार्मरणशरीर में स्थित जीवों की अपर्याप्तकों के साथ सामर्थ्याभाव, उपपादयोगस्थान, एकान्तवृद्धियोगस्थान और गति तथा प्रायुसम्बन्धी प्रथम, द्वितीय, तृतीयसमय में होने वाली अवस्था के द्वारा जितनी समीपता पायी जाती है उतनी शेष प्राणियों की नहीं पाई जाती । इसलिए कामण काययोग में स्थितजीवों का अपर्याप्तकों में ही अन्तर्भाव किया जाता है । अतः सम्पूर्ण प्राणियों की दो ही अवस्थाएँ होती हैं, इनसे भिन्न कोई तीसरी अवस्था नहीं होती।'
शङ्का-सम्यग्मिथ्याष्टिजीव पर्याप्तक ही होते हैं, यह क्यों ?
समाधान-क्योंकि तीसरे गुणस्थान के साथ मरण नहीं होता तथा अपर्याप्तकाल में भी सम्याग्मिथ्यात्वगुणस्थान की उत्पत्ति नहीं होती।
१. ' देवा मिच्छ इटि-सापण तम्माइडि-प्रसं जदसम्माइट्ठिाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ॥४॥" (ध.पु. १ पृ. ३३४) । २. "सम्मामिच्छा इटिठ-टाणे णियमा पज्जत्ता ॥६५॥"(प.पु. १ वृ. ३३५.)। ३. प.पु. १ पृ. ३३४१ ४. व. पु. १ पृ. ३३४ ॥
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गापा १२८
पर्याप्ति/१७७ शङ्का-"तीसरे गुणस्थान में पर्याप्त ही होते हैं" ऐसा नियम स्वीकार कर लेने पर लो एकान्तवाद प्राप्त होता है।
समाधान नहीं, क्योंकि अनेकान्तभित एकान्तबाद के सभाव मानने में कोई विरोध नहीं पाता है।'
भवनबासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देव और उनकी देबियाँ तथा सौधर्म और ऐशान कल्पवासिनी देवियाँ ये सब मिथ्यावृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पति भी होते हैं और अपर्याप्त भी। किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में नियम से पयप्ति होते हैं ।
शङ्का-सम्यग्मिथ्याष्टिजीव भले ही भवनवासी आदि देवों में और देवियों में उत्पन्न नहीं होते, यह तो ठीक है, परन्तु यह बात नहीं बनती कि असंयतसम्यग्दृष्टि उक्त देव-देवियों में उत्पन्न नहीं होते।
समाधान नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि की जान्य देवों में उत्पनि नहीं होती है।
शङ्का जघन्य अवस्था को प्राप्त नारकियों और तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले सम्यग्दृष्टिजीव उनसे उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त भवनवासी आदि देव व देवियों में तथा कल्पवासी देबियों में क्यों नहीं उत्पन्न होते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि जो प्रायुकर्म का बन्ध करते समय मिध्यादृष्टि थे और जिन्होंने सदनन्तर सम्यग्दर्शन को ग्रहण किया है ऐसे जीवों की नरकादि गति में उत्पत्ति के रोकने की सामर्थ्य सम्यग्दर्शन में नहीं है।
शङ्का-सम्यग्दृष्टि जीवों की जिस प्रकार नरकगति आदि में उत्पत्ति होती है उसी प्रकार देवों में उत्पत्ति क्यों नहीं होती ?
समाघान-यह कहना ठीक ही है, क्योंकि यह बात इष्ट ही है । ५
शङ्का–यदि ऐसा है तो भवनवासी आदि में भी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति प्राप्त हो जाएगी?
समाधान नहीं, क्योंकि जिन्होंने पहले आयुकर्म का बन्ध कर लिया है ऐसे जीवों के सम्यग्दर्शन का उस गतिसम्बन्धी आयुसामान्य के साथ विरोध न होते हुए भी उस-उस गतिसम्बन्धी विशेष में उत्पत्ति के साथ विरोध पाया जाता है। ऐसी अवस्था में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी,
१. घ.पु. १ पृ. ३३५। २. "भत्रणवासिय-बारगात र-जोइसिय-देवादेवीग्रो सोधम्मीसारण कप्पवासिय देवीपोच मिग्छाइदिइ-गासणसम्माइदिठ-ठाणे सिया पजत्ता सिया अपज्जत्ता, सिया परजतियानो सिया प्रपज्जत्तियानो ||९६।" (प.पु. १ पृ. ३३५) ३. सम्माभिच्छाइट्टि-प्रसंजद-सम्माइटि उ-ठाणे णियमा पज्जत्ता रिणयमा पज्जत्तियायो ।।१७॥" (ध.पु. १ पृ. ३३६) ४. प.पु. १ पृ. ३३६ । ५. ध. पु. १ पृ. ३३६ ।
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१७/गो.सा. जीवकाण्ड
गाथा १२८
प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्बिषिक देवों में, नीचे के छह नरकों में सर्वप्रकार की स्त्रियों में, नपुसकवेद में, एकेन्द्रियों में, विकलत्रयों में, लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में और कर्मभूमिज तिर्यचों में मसयतसम्यग्दृष्टि का उत्पत्ति के माथ विरोध सिद्ध हो जाता है । इसलिए इतने स्थानों में सम्यम्दष्टजीव उत्पन्न नहीं होते हैं।'
सौधर्म-ऐशान स्वर्ग से लेकर उपरिम अवेयक के परिमभाग पर्यन्न देवों में मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में जीव पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं ।
शक्षा...सानत्कुमार स्वर्ग से लेकर ऊपर स्त्रियाँ उत्पन्न नहीं होती हैं, क्योंकि सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में देवांगनाओं के उत्पन्न होने का जिस प्रकार कथन किया गया है, उस प्रकार आगे के स्वर्गों में उनकी उत्पत्ति का कथन नहीं किया गया है इसलिए वहां स्त्रियों का प्रभाव रहने पर । जिनका स्त्री-सम्बन्धी संताप शान्त नहीं हुआ है, ऐसे देवों के देवाङ्गनाओं के बिना मुम्म कैसे हो सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि सानत्कुमार आदि कल्पसम्बन्धी स्त्रियों की उत्पनि सौधर्म व ऐशान स्वर्गों में होती है।
शङ्का-तो सानत्कुमार आदि कल्पों में स्त्रियों के अस्तित्व का कथन करना चाहिए ?
समाधान नहीं, क्योंकि जो दूसरी जगह उत्पन्न हुई हैं तथा जिनको देश्या, आयू और बल सानत्कुमारादि कल्पों में उत्पन्न देवों से भिन्न प्रकार के हैं : ऐसी स्त्रियों का सानत्कुमार आदि कल्पों में उत्पत्ति की अपेक्षा अस्तित्व मानने में विरोध पाता है ।
भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देव तथा सौधर्म-रेशान कल्पवासी देव मनुष्यों के समान शरीर से प्रवीचार करते हैं। मैयन-सेवन को प्रवीचार कहते हैं। जिनका काय में प्रवीचार होता हैं, उन्हें काय से प्रवीचार करने वाले कहते हैं। सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्प में देव स्पर्श से प्रवीचार करते हैं अर्थात ये देव देवाङ्गनाओं के स्पर्शमात्र से ही अत्यन्त प्रीति को प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार वहाँ की देवियां भी देवों के स्पर्शमात्र से अत्यन्त प्रीति को प्राप्त होती हैं। ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तवापिष्ठ कल्पों में रहनेवाले देव अपनी देवाङ्गनामों के शृंगार, प्राकार, बिलास, प्रशस्त तथा मनोज्ञ देष व रूप के अवलोकन मात्र से ही परमसुख को प्राप्त होते हैं इसलिए वे रूप से प्रवीचार करने वाले हैं। शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार कल्पों में रहने वाले देव देवाङ्गनायों के मधुर संगीत, कोमल हास्य, ललित शब्दोच्चार और भूषणों के शब्द सुनने मात्र से ही परमप्रीति को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे शब्द से प्रवीचार करने वाले हैं। प्रानत, प्रागत. आरण और अच्युत कल्पों के देव अपनी देवाङ्गनामों का मन में संकल्प करने मात्र से ही परमसुख को प्राप्त होते हैं इसलिए वे मन से प्रबोचार करने वाले
१. ध. पु. १ पृ. ३३.७ । २. सोधम्मीमारग-प्पहडि जाव उपरिम-उमरिम-गेवजे ति विमाला वासिय-देशेसु मिच्छाइदिठ-सत्यम्प सम्माइटि-असंजदसम्माइटिट-ट्टागो सिया गज्जत्ता सिया अपम्जता ॥६८|| (व. पु. १ पृ. ३३७) ।
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मिं
गाथा १२९
प्राण / १७६
हैं। वेदना के प्रतिकार को प्रवीचार कहते हैं । उस वेदना का अभाव होने से नववेक से लेकर ऊपर के सभी देव प्रवीचार रहित हैं, अतः निरन्तर सुखी हैं । "
सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में देव नियम से पर्याप्तक होते हैं। नव अनुदिशों में और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पाँचों अनुत्तर विमानों में रहने वाले देव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं । "
इसप्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में पर्याप्ति प्ररूपणा नामक तीसरा अधिकार पूर्ण हुआ।
४. प्राणप्ररूपणाधिकार
प्राण का निरुक्तिपूर्वक लक्षण
* बाहिर जहा तव प्रभंतहि पाणेहिं । पारति जेहि जीवा, पाणा ते होंति रिगद्दिट्ठा ॥ १२९ ॥
गाथार्थ - जिस प्रकार बहिरंग परिणामों के द्वारा जीव जीता है उसी प्रकार जिन अभ्यन्तर प्राणों के द्वारा जीव जीता है वे प्राण हैं। ऐसा कहा गया है ।। १२६ ।।
विशेषार्थ - इस गाथा में प्रारण का लक्षण कहा गया है। जिनके द्वारा श्रात्मा जीवन संज्ञा को प्राप्त होता है वे प्राथ हैं ।" जिनके द्वारा जीव जीता है वे प्राण हैं। जिनके संयोग से जीव जन्म लेता है और वियोग से मरण को प्राप्त होता है, वे प्राण हैं । " जिनके द्वारा जीव जीते हैं अथवा जीवित के व्यवहार योग्य होते हैं, वे प्रारण हैं।
प्राण दो प्रकार के हैं - बाह्यप्राण अर्थात् द्रव्यप्राण और अभ्यन्तरप्राण अर्थात् भावप्राण |
६. ष. पु. १ पृ. ३३८-३३६ । २. सम्मामिच्छादि का रिशयमा पज्जत्ता ॥ ६६॥" (ध. पु. १ पृ. ३३६) । ३. श्रणुदि श्रणुत्तर विजय षड्जयंत जयंताबराजित सम्यसिद्धि विमाणवासिय देवा असंजद-सम्माइलि ठाणे सिया पज्जता सिया थपज्जता ॥ १०० ॥" (ध. पु. १ पृ. ३३६) । ४. यह गाथा प. पु. १ पृ. २५६ पर गा. १४१ और प्रा. पं. सं. पृ. १० गा. ४५ है, किन्तु 'पाणंति' के स्थान पर 'जीवंति' और "शिविट्ठा के स्थान पर 'बोहब्बा' पाठ है । ५. प्राणिति एमिरात्मेति प्राणा: । ( ष. पु. १ पृ. २५६ )। ६. प्राणिति जीवति एभिरिति प्राणा: । (ध.पु. २. ४९२ ) । ७. "जेसि जोए जम्मदि मरदि विभोगम्म ते वि दह पारणा ॥१३६ ।। " येषां जोए संयोगे जम्मदि जीवो जायते उत्पद्यते येषां वियोगे सति जीवो ब्रियते जीवितब्य रहितो भवति तेऽपि दशप्राणाः कथ्यन्ते" (स्वा.का. अनु. पू. ७७ ) । ६. जीवति जीववद् व्यवहार योग्या भवति ते प्राणाः । (श्री अभयचन्द्रसूरि कृत टीका ) |
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१८०/गो. सा. जीबकाण्ड
माथा १२६
द्रव्येन्द्रिय प्रादि द्रव्यप्राण है तथा क्षायांपशामक भावन्द्रियादि भावप्राण हैं।' अभ्यन्तर प्राण-इन्द्रियावरण (मतिज्ञानावरण) कर्म का क्षयोपशम प्रादि। बाह्यप्राण-अभ्यन्तरप्राणों का कार्य जैसे आँखों का खोलना, बन्द करना आदि इन्द्रिय व्यापार, कायचेष्टा, वचनव्यापार, उच्छ्वास-निःश्वासरूप प्रवृत्ति इत्यादि ।
शङ्का-पर्याप्ति और प्राण में क्या भेद है?
समाधान- नहीं, वपोंकि इनमें हिमवान और विन्ध्याचल पर्वत के समान भेद पाया जाता है। आहार, शरीर, इन्द्रिय, पानपान, भाषा और मनरूप प्रक्तियों की पूर्णता पर्याप्ति हैं और जिनके द्वारा प्रात्मा जीवन संज्ञा को प्राप्त होता है, वे प्राण हैं। यही इन दोनों में भेद है।
शङ्का पाँचों इन्द्रियाँ, आयु और कायबल ये प्राणसंज्ञा को प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि वे जन्म से लेकर मरण तक भव को धारण करने रूप से पाये जाते हैं और उनमें से किसी एक का अभाव होने पर मरण भी देखा जाता है, परन्तु उच्छ्वास, मनोबल और वचनबल इनको प्राणसंज्ञा नहीं दी जा सकती, क्योंकि इनके बिना भी अपर्याप्त अवस्था में जीवन पाया जाता है ।
समाधान नहीं, क्योंकि उच्छवास, मनोबल और वचनवल के बिना अपर्याप्तावस्था के पश्चात् पर्याप्तावस्था में जीवन नहीं पाया जाता है इसलिए उन्हें प्राण मानने में कोई विरोध नहीं प्राता।
शङ्का–पर्याप्ति और प्राण के नाम मात्र में विवाद है, वस्तुतः कोई विवाद नहीं है ?
समाधान नहीं, क्योंकि कार्य और कारण के भेद से उन दोनों में भेद पाया जाता है तथा पर्याप्तियों में आयु का सद्भाव नहीं होने से, मनोबल-वचनबल-उच्छ्वासरूप प्राणों के अपर्याप्तावस्था में नहीं पाये जाने से पर्याप्ति और प्राण में भेद समझना चाहिए ।
शङ्का- वे पर्याप्तियाँ भी अपर्याप्तकाल में नहीं पाई जाती हैं, इसलिए अपर्याप्तकाल में उनका सद्भाव नहीं रहेगा।
समाधान नहीं, क्योंकि अपर्याप्तकाल में अपर्याप्तरूप से उनका सद्भाव पाया जाता है । शङ्का---'अपर्याप्तरूप' इसका क्या तात्पर्य है ?
समाघान--पर्याप्तियों की अर्धनिष्पत्ति (अपूर्णता) अपर्याप्ति है । इसलिए पर्याप्ति, अपर्याप्ति और प्राए में भेद सिद्ध हो जाता है। अथवा इन्द्रियादि में विद्यमान जीवन के कारणपने की अपेक्षा न करके इन्द्रियादिरूप शक्ति की पूर्णतामात्र को पर्याप्ति कहते हैं और जो जीवन के कारण हैं वे
१. द्रव्येन्द्रियेन्द्रियादिद्रव्यप्राणा, भावेन्द्रियादि-भायोपामिफभाषप्राणाः । (बृहद्रव्यसंग्रह गा. ३ की टीका)। २. "वाप्राणैः अभ्यन्तरपारणकार्यनयनोन्मीलनादीन्द्रियव्यापारकायचेष्टावान्यापारोच्छ्वास निःश्वासप्रवृत्तिरूपर्जीवाः । प्राणति जीवंति तथा अभ्यन्तरः इन्द्रियावरणक्षयोपशमादिभिः यीवाः जीवंति" (श्री अभयचन्द्रसूरिकृत टीका)। ३. घ. पु १ पृ. २५६-५७ ।
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गाथा १५०
प्रासा/१८१ प्राण हैं, यही इन दोनों में भेद है।' पाहार, शरीर, इन्द्रिय, भानपान, भाषा और मनरूप परिणमाने को शक्ति की पूर्णता पर्याप्तियाँ हैं । विषयग्रहणरूप व्यापार की व्यक्ति प्राण हैं । इसप्रकार दोनों में भेद जानना खाहिए।
प्राणों के भेद पंचवि इंदियपाणा मरणवचकायेसु तिणि बलपारा । प्राणापाणप्पारणा पाउगपाणेग होंति दह पारणा ॥१३०।।
गाथार्थ-पाँच इन्द्रिय प्राण, मन-वचन-काय ये तीन बलप्राण, पानप्राण और आयुनाण ये मब दस प्राण होते हैं ।। १३०॥
विशेषार्थ-मूल चार प्रागा हैं—१. इन्द्रियप्राण २. बलप्राण ३, पानपानप्राण ४. प्रायुप्राण ।। इनके अवान्तर दस भेद हो जाते हैं। इन्द्रिय पाँच-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्ष और श्रोत्र । बल तीनमनोबल, वचनबल, कायबल । प्रायु, श्वासोच्छ्वास, इसप्रकार ये सब मिलकर (५+३+१+१) दस प्राण हो जाते हैं।
उक्त पाँचों इन्द्रियों का एकेन्द्रिय आदि पाँच जातियों में अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि चक्षुरिन्द्रियावरण आदि कर्मों के क्षयोपशम के निमित्त से उत्पन्न हुई इन्द्रियों की एकेन्द्रिय आदि जातियों के साथ समानता नहीं पायी जाती। उसी प्रकार इन पांचों इन्द्रियों का इन्द्रिय पर्याप्ति में भी अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि चक्षुरिन्द्रिय प्रादि को आवरण करने वाले कर्मों के क्षयोपशमरूप इन्द्रियों को और क्षयोपशम की अपेक्षा बाह्य पदार्थों को ग्रहण करने की शक्ति के उत्पन्न करने में निमित्तभूत पुद्गलों के प्रचय को एक मान लेने में विरोध आता है, उसीप्रकार मनोबल का मनःपर्याप्ति में भी अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि मनोवर्गणा के स्कन्धों से उत्पन्न हुए पुद्गल प्रचय को और उससे मनोबलरूप प्रात्मबल को एक मानने में विरोध आता है तथा वचनबल भी भाषापर्याप्ति में अन्तर्भूत नहीं होता, क्योंकि आहारवर्गणा के स्कन्धों से उत्पन्न हुए पुद्गलप्रचय का और उससे उत्पन्न हुई भाषावर्गणा के स्कन्धों का श्रोग्रेन्द्रिय के द्वारा
ग्रहण करने योग्य पर्याय से परिणमन करानेरूप शक्ति की परस्पर समानता का अभाव है। कायबल । का भी भारी रपर्याप्ति' में अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि वीर्यान्तराय के उदयाभाव और उपशम से
११. "जीवन हेतुत्वं तत्स्थमनपेक्ष्यशक्तिनिष्पत्तिमात्र पर्याप्तिरुच्यते, जीवनहेतवः पुनः प्रारमा इति त्यो दः ।"
(घ. पु. १ पृ. २५७)। २. "माहारशरीरेन्द्रियप्राणभाषामनोऽर्थग्रहण-शक्तिनिष्पत्तिरूपाः पर्याप्तयः विषयग्रहण व्यापार-व्यक्तिरूपाः प्रागाः इति मेंदो ज्ञातव्यः ।" ( स्वा. का, अनु, गा, १४१ टोका पृ. ८० ) । ३. यह गाथा घ. पु. २ पृ. ४२१ पर गा. २३६ है। प्रा. पं. सं. पृ. ५७३ पर गा, २८ है तथा मूसाचार पर्याप्ति अधिकार मा. १५० है, किन्तु 'कायसु' के स्थान पर 'काए' पाठ है और 'दह' के स्थान पर 'दम' है। प्रा. पं. सं. में 'होति' के स्थान पर 'हुति' है । मुद्रित गो. जी. में 'पारणपाण' जो प्रशुद्ध प्रतीत होता है प्रतः धवन आदि के आधार पर 'ग्राणापारणप्पाण' शुष्ठ पाठ रखा गया है । ४. "तिकाले चदुपारणा इन्दियबलमाउआणपाणो य" (वृहद्रव्यसंग्रह गा. ३)।
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१८२, गो. सा. जीवकाण्ड
पाथा १३१-१३३
उत्पन्न हुए क्षयोपशम की और खल रसभाग की निमित्तभूत शक्ति के कारण पुद्गल प्रचय की एकता नहीं पाई जाती। इसी प्रकार उच्छ्वास-निःश्वास प्रारण कार्य है जो प्रात्मोपादानकारगक होता है। उच्छ्वास निःश्वास पर्याप्ति कारण है और पुद्गलोपादान निमित्तक है, प्रतएव इन दोनों में भेद समझ लेना चाहिए।
___ द्रव्य और भावप्राणों की उत्पत्ति की सामग्री वीरियजुवमदिखउवसमुत्था पोइंदियेंदियेसु बला ।
देहुदये कायारणा वचीबला प्राउ पाउदये ॥१३१॥ गाथार्थ ---वीर्यान्तराय कर्मसहित मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से इन्द्रियप्रारण और नोइन्द्रिय (मन) बल प्रारण उत्पन्न होने हैं । शरीर नामकर्मोदय से कायबल, पानप्राण, बचनबलप्रारण एवं पायुकर्मोदय से आयुप्राण उत्पन्न होते हैं ॥१३१॥
विशेषार्थ-मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम के साथ-साथ वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने पर नोइन्द्रिय (मन) व इन्द्रियों में बल आ जाना है अर्थात् अपने-अपने विषय को ग्रहण करने को शक्तिरूप लब्धि नामक भावेन्द्रिय उत्पन्न हो जाती है । इस प्रकार इन दो कर्मों के क्षयोपशम से पांच इन्द्रियप्राण द मनोबलप्रारण ये छहप्रारण उत्पन्न होते हैं। शरीर नाम कर्मोदय से शरीर में चेष्टा करने की शक्तिरूप काय बल नामक सातवाँ प्राण उत्पन्न होता है। उनछ्वाम-निःश्वास नामकर्म के उदय से सहित शरीर नामकर्मोदय होने पर उनछ्वास-निःश्वासरूप प्रवृत्ति करने में कारण ऐसी शक्ति रूप पानप्रारण नामक पाठवा प्राग होता है। स्वरनामकर्मोदय सहित शरीर नामकर्म का उदय होने से वचन व्यापार में कारण ऐसी शक्ति विशेषरूप वचनबल नामक नयाँ प्राण होता है। आयुकर्मोदय से नारक आदि (नरवा-तियंच-मनुष्य-देव) पर्यायरूप भव धारण की शक्तिरूप प्रायु नामक दसवां प्राण उत्पन्न होता है। छहों पर्याप्तियाँ मात्र एक पर्याप्ति नामकर्मोदय से निष्पन्न होती हैं, उस प्रकार किसी एक कर्मोदय से दसों प्राण उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि 'प्राण' नामक कर्मप्रकृति नहीं है, किन्तु भिन्न-भिन्न कर्मों के कारण भिन्न-भिन्न प्रारण उत्पन्न होते हैं, यही शान इस गाथा के द्वारा कराया गया है।
प्राणों के स्वामी 'इंदियकायाऊरिण य पुण्णापुण्णेसु पुण्णगे पारणा ।
बीइंदियादिपुण्णे वचीमणो सपिपुण्णेव ॥१३२॥ 'दस सण्णोणं पारणा सेसेगणंतिमस्स वे ऊरणा ।
पज्जत्तेसिदरेसु य सत्त दुगे सेसगेगूणा ॥१३३॥ गाथार्थ- इन्द्रिय, कायबल और ग्रायु ये तीन प्राण पर्याप्त जीवों में भी होते हैं तथा अपर्याप्त जीवों में भी होते हैं, किन्तु पर्याप्त जीवों में पानपान प्राण भी होता है। द्वीन्द्रियादि पर्याप्त जीवों
१. प्र. पु. २ पृ. ४१२-१३ 1 २. सिद्धान्तचक्रवती श्रीनदभय चन्द्रसूरि कृत टीका । ३. घ. पु. २ पृ. ४१८ पर इस गाथा सम्बन्धी विषय दिया गया है । ४. मह गाथा घ. पु. २ पृ. ४१८ पर भी है।
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गाथा १३२-१३३
प्रागा / १८३
में नवल और संजी पर्यातक जीवों में मनोबल प्रारण भी होते हैं ।। १३२ ।। संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में दस प्राण होते हैं और शेष पर्याप्तजीवों में एक-एक प्रारण कम होता गया है, अन्त में दो प्राण कम होते हैं । अपर्याप्तकों के दो जीवसमासों में सात-सात प्राण हैं. शेप में एक-एक कम है ॥ १३३ ॥
विशेषार्थ गाथा १२० में कहे गये दसप्रारण संज्ञीपर्याप्तकों के होते हैं । ग्रानपान, बचनबल और मनोबल इन तीन प्रागों के बिना शेष सातप्रागा संज्ञी-पंचेन्द्रिय-पर्याप्तकों के होते हैं। दस प्राणों में से मनोबल के बिना शेष नौ प्रास असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के होते हैं और अपर्याप्त अवस्था को प्राप्त इन्हीं जीवों के वचनवल तथा आनपान प्राणों के विना शेष सातप्राण होते हैं । प्रसंज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्त केनोप्राणों में से श्रोत्रिय प्रारण को कम कर देने पर शेष पाठ प्राण चतुरिन्द्रिय पर्याप्तजीवों के होते हैं । इन्हीं चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तजीवों के अनशन और वचनबल के बिना शेष छह प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रियपर्याप्त जीवों के पाठ प्राणों में से चक्षुरिन्द्रिय कम कर देने से शेष सात प्राण त्रीन्द्रिय पर्याप्त जीवों के होते हैं। इन सात प्राणों में से प्रानपान और वचनबलप्राण कम कर देने पर शेष पाँच प्राण त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकों के होते हैं । त्रीन्द्रिय पर्याप्तकों के सातप्राणों में से घ्राणेन्द्रिय कम कर देने पर शेष छह प्राण हीन्द्रियपर्यातकों के होते हैं । उन छह प्रारणों में से प्रानपान और बचनबल कम कर देने पर शेष चारप्राण हीन्द्रिय अपर्याप्तकों के होते हैं । द्वीन्द्रिय पर्याप्तकों के प्राणों में से रमनेन्द्रियप्रारण और वचनवल इन दो प्राणों को कम कर देने पर शेष चारप्राण एकेन्द्रिय-पर्यातकों के होते हैं। उन चार में से ग्रानपान प्राण कम कर देने से शेष तीन प्राण एकेन्द्रिय पर्यातकों के होते हैं । '
प्राकृतपञ्चसंग्रह में पू. १० पर इन गाथाओंों में उक्त विषय और भी स्पष्ट किया गया है
उस्सासो पज्जत्ते ससि काय - इंदियाऊरिण । वचि पज्जत्ततसाणं चित्तवलं सज्जिते ॥४७॥ दसणं पारणा सेसे गृणंतिमस्स ने ऊरणा । पज्ञत्तेसु दरेसु अ सत्त दुए सेसा ||४८ || पुणे सfor सव्वे मणरहिया होंति ते दु इयरम्मि । सोदविघारण जिन्भारहिया सिगिंदभारा ॥ ४६ ॥ पंचख पारणा मरण वचि उस्सास ऊणिया सव्वे । करण विगंधरसणारहिया सेसेसु ते अपुष्णेसु ||५० ||
एइंदियादिपज्जत् ४ / ६ / ७/८ /६/१० । सर्पिण पचिदियादि - अपज्जत्तेसु । ७ / ७ /६/५/४ / ३ |
उपर्युक्त गाथाओं में क्षोगावपाय बारहवें गुणस्थान तक के जीवों के प्राणों का कथन किया गया है, अब सयोगोजिन और अयोगोजिन के प्राणों का विचार किया जाता है।
सयोगी जिन के पाँच भावेन्द्रियाँ और भावमन नहीं रहता है, अतः इन छह के बिना चारप्राण पाये जाते हैं तथा केबलीसमुद्घात की अपर्याप्तावस्था में वचनबल और श्वासोच्छ्वास का अभाव
१. ध. पु. २. ४१८१
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१८४/मो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १३२-१३३ हो जाने से अथवा तृतीय शुक्लध्यान के काल में प्राय ब.कायबल ये दो ही प्राण होते हैं, परन्तु कितने ही प्राचार्य द्रव्येन्द्रिय को पूर्णता की अपेक्षा दस प्राण कहते हैं, उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता, क्योंकि सयोगीजिन के भावेन्द्रियाँ नहीं पाई जातीं। पाँचों इन्द्रियावरणकमो के क्षयोपशम को भावेन्द्रियों कहते हैं, किन्तु जिमका आधरणकर्म समूल नष्ट हो गया है, उनके वह क्षयोपशम नहीं होता। यदि प्राणों में द्रव्येन्द्रियों का ही ग्रहण किया जाये तो संज्ञीजीवों के अपर्याप्त काल में सातप्रारणों के स्थान पर कुल दो ही प्राण कहे जायेंगे, क्योंकि उनके द्रव्येन्द्रियों का प्रभाव होता है । अतः यह सिद्ध हुआ कि सयोगीजिन के चार अथवा दो ही प्रारण होते हैं।'
अयोगीजिन के आयु नामक एक ही प्राण होता है।
शङ्का --एक प्रायुप्रास होने का क्या कारण है ?
समाधान---झानावरणकर्म के क्षयोपशम स्वरूप पांच इन्द्रियप्राण तो अयोगकेवली के हैं नहीं, क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय हो जाने पर क्षयोपशम का अभाव पाया जाता है | इसीप्रकार पानपान, भाषा और मनःप्रारण भी उनके नहीं हैं, क्योंकि पर्याप्तिजनित प्राण संज्ञा वाली शक्ति का उनके अभाव है। इसोप्रकार उनके कायवल नाम का प्राण भी नहीं है, क्योंकि उनके शरीर नामकर्मीदय जनित कर्म और नोकर्मों के प्रागमन का अभाव है। इसलिए प्रयोगकेवली के एक आयुप्राण ही होता है। उपचार का प्राश्रय लेकर एकमाण, छमारा अथवा सातप्राण भी होते हैं। यह काथन । अप्रधान अर्थात् गौरा है।
'जहाँ मुख्य का अभाव हो, किन्तु उसके कथन करने का निमित्त या प्रयोजन हो वहाँ पर उपचार किया जाता है। अयोगी जिन के मुख्य इन्द्रियों का तो अभाव है, क्योंकि वे ज्ञानावरण के क्षयोपशमस्वरूप हैं, किन्तु पंचेन्द्रियजाति नामकर्मोदय के कारण अयोगकेवली पंचेन्द्रिय हैं। इसलिए पाँच इन्द्रियप्राणों का उपचार बन जाता है । शरीरनामनाम का यद्यपि उदय नहीं है तथापि सत्त्व है
और औदारिक शरीर भी है अतः कायबल प्रारण का भी उपचार किया जा सकता है । इस प्रकार पाँच इन्द्रियों के उपचार से एक आयुनाण और पाँच इन्द्रिय प्राण, छहप्रारणों का उपचार बन जाता है । इन छहप्रारणों में कायबल प्राण मिला देने से सात प्राणों का उपचार बन जाता है।
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में प्राणप्ररूपणा नामक चतुर्थ अधिकार पूर्ण हुप्रा ।
१. 'तम्हा सजोगिकेवलिस्स पारिपाया दो पाशा या ।" (4. पु. २ पृ. ४४४-४५ व पृ. ६५१) २. "पाउम पाणों एपको चेद" (प. पु. २ पृ. ४४५) ३. घ, पु. २ पृ. ४४५-४६ । ४. "मुख्याभावे सति प्रयोजने निमिसे घोपचारः प्रवर्तते ।।२१२।। (पालापपद्धति)।
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गाथा १३४-१३५
संज्ञा/१८५.
५. संज्ञा-प्ररूपणाधिकार
संज्ञा का लक्षण व भेद 'इह जाहि बाहिया वि य जीवा पायंति दारुणं दुक्खं । सेवंताधि य उभये तानो चत्तारि सणाप्रो ॥१३४॥
गाथार्थ-जिनसे बाधित होकर जीव इस लोक में दारुण दुःख प्राप्त करते हैं और जिनका । सेवन करने पर भी जीव दोनों ही भवों में दारुण दुःख को प्राप्त होते हैं वे चार संज्ञाएँ हैं ।। १३४।।
विशेषार्थ आहारादि की वांछा से बाधित होकर, संक्लेशित होकर, पीड़ित होकर जीव इस । भव में दारुण अर्थात् तीन दुःख पाता है। वांछित पदार्थ का सेवन करने से जीव इस भव में । और परभव में अर्थात् दोनों भवों में तीव दुःखों को प्राप्त होता है। ये संसार (बाछाएँ) चार . है-पाहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा । यहाँ वांछा को संज्ञा कहा गया है। वांछा
ही इस लोक और परलोक में महान् दुःख का कारण है।
शाहारसंज्ञा' का लक्षण ब कारण 'आहारदसणेण य तस्सुबजोगेण प्रोमकोठाए । सादिवरुदीरणाए हववि है प्राहारसण्णा हु ॥१३॥
गाथार्थ-ग्राहार देखने से, उसके उपयोग से, कोठे (पेट) खाली होने से और साता-इतर . अर्थात् असातावेदनीय कर्म की उदीरणा होने से आहारसंज्ञा होती है ॥१३५।।
विशेषार्थ-आहार के विषय में जो तृष्णा या आकांक्षा होती है वह आहारसंज्ञा है। यह आहारसंज्ञा अन्तरंग और बहिरंग कारण मिलने पर उत्पन्न होती है। इसमें अन्तरंग कारण सातावेदनोय कर्म के प्रतिपक्षी असातावेदनीयकर्म का तीन उदय व उदीरणा है। बहिरंग कारण१. उदररूपी कोठे का रिक्त होना, क्योंकि जब पेट खाली होता है तब भूख लगती है और भोजन की बांछा होती है। २. नाना प्रकार के रसयुक्त सुन्दर भोजन-पानादि को देखने से उसकी वांछा होती है । ३. पूर्व में मुक्त सुन्दर-सुस्वादु पाहार प्रादि की स्मृतिरूप उपयोग होने से प्राहारसंशा उत्पन्न होती है।५
१. प्रा. पं. सं. (भारतीय ज्ञानपीठ) पृ. ११ गा. ५१ प्र. १ पृ. ५७४ गा. ४०, किन्तु वहाँ 'वाहिया' के स्थान पर हाघिदा' पाठ है। २. मण्ण च उठिबहा आहार-भय-मेहुण-परिगह्मण्ण चेदि ।" (ध. पु. २ पृ. ४१३) । १. प्रा. पं. सं. पृ. ११ मा. ५२; पृ. ५७४ गा. ४१, किन्तु कुछ पार भेद है। ४. "ग्राहारे या तृष्णा कांक्षा साहार सज्ञा ।" (ध. पु. २ पृ. ४१४)। ५. श्रीमदभय चन्द्रसूरि कृत टीका ।
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१८६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १३६-१३७
भयसंज्ञा का लक्षण व कारण 'अइभीमदसणेग य तस्सुवजोगेण प्रोमसत्तीए । भयकम्मुदीरणाए भयसण्णा जायवे चहिं ॥१३६॥
गाथार्थ-अति भयानक रूपादि के देखने, उसकी ओर उपयोग करने, शक्ति की हीनता और भयकर्म पी जीरा रूप धारद रखों नरसंज्ञा उरणार होती है ।। १३६॥
विशेषार्थ-भयसंज्ञा भवरूप है ।। १. तीन भयंकररूप-बेष-क्रियादि तथा ऋर पशु सिंह सर्यादि के अवलोकन से । २. भयंकर डाकू, व्याघ, सिंह, सीदि की स्मृति से। ३. मनोबल की हीनता से। इसप्रकार इन तीन बहिरंग कारणों से और भय नोकषाय कर्म की उदीरणारूप अन्तरंग कारण मे भयसंज्ञा उत्पन्न होती है। भय के कारण भागने की अथवा शरणस्थान की खोज करने की इच्छा होतो है । शक्तिहोन जीव जब अपने से अधिक बलशाली व हानिकारक पदार्थ को देखता है तो वह उससे डरकर शरण लेने की इच्छा करता है तथा शरण्य स्थान की खोज में भागता है।
मैथुनसंज्ञा का लक्षरण य कारण 'परिणदरसभोयरोण य तस्सुवजोगेण कुसीलसेवाए।
वेदस्सुदीरणाए मेहुणसण्णा हवदि एवं ॥१३७॥ गाथार्थ- गरिष्ठ रस युक्त भोजन करने से, पूर्वभुक्तविषयों का ध्यान करने से, कुशील का सेवन करने से और वेद कर्म की उदीरणा से मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है ।।१३७।।
विशेषार्थ-तीनों वेदों के सामान्य उदय के निमित्त से मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है। तीनों वेदों का भेद न करके सामान्य नेद कर्म के तीव्र उदयरूप उदीरणा के कारण मैथुनसंज्ञा होती है। तीनों वेद कर्मों में से किसी भी एक की उदीरणा से मथुन संज्ञा उत्पन्न होती है। यह अन्तरंग कारण है। कामोत्पादक गरिष्ठ व स्वादिष्ट भोजन करने से, पूर्व में भोगे हुए विषयों को याद करने से, कृशीलसेवन से, कुशील (विट) पुरुषों की संगति से, कुशोल काव्य व कथादि सुनने से, कुशील नाटकसिनेमान्टेलीविजन व चित्र आदि के देखने से अर्थात् इन बहिरंग कारणों से मैथुन संज्ञा अर्थात् रतिक्रीड़ा करने की वांछा उत्पन्न होती है।६ स्त्रियों की रागकथा सुनना, स्त्रियों के मनोहर अङ्गों को देखना, पूर्व में भोगे हुए भोगों को स्मरण करना, पौष्टिक भोजन करना, अपने शरीर का संस्कार प्रादि करना इन कारणों से भी मैयुनसंज्ञा होती है। अतः इनका त्याग करना चाहिए।
१. कुछ अशर-भेद के साथ प्रा. पं. सं. पृ. ११ गा. ५३; पृ. ५५४ गा. ४२ है। २. "भयसंज्ञा मयामिका" (घ. पु. २ पृ. ४१४)। ३. सिद्धान्त चक्रवर्ती श्रीमद् प्रमय चन्द्रसूरि कु.त टीका । ४. प्रा. पं. सं. (भारनीय ज्ञानपीठ) पृ. १२ मा. ५६; पृ. ५७४ गा. ४३। ५. "वेदत्रयोदयसामान्पनिबन्यनं मैथुनसंजा" (. . २ पृ. ४१३।। ६. श्रीमद् प्रभवचन्द्र गिद्धान्तचक्रवती कृत टीका। ७. "स्त्री रागकथातन्मनी
मनि बागपूर्वरतागुस्मरण वृष्येप्टरसस्वशरीरसस्कारत्यागा: पञ्च' (मो, शा. प्र. ७ सू. ७) ।
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माथा १३८-१३९
परिग्रहसंज्ञा का लक्षा व कारण 'उवयरणदंसणेण य तस्सुवजोगेरण सुच्छिदाए य । लोहस्सुदीरणाए परिग्गहे जापदे
सा ।।१३८ ।
गायार्थ - उपकरणों को देखने से, उनका उपयोग करने से, उनमें मुर्च्छाभाव रखने लोभकपाय कर्म को उदीरणा से मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है ॥ १३८ ॥
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संज्ञा / १८७
विशेषार्थ - बाह्यपदार्थों के निमित्त से जो लोभ होता है वह परिग्रहसंज्ञा है । 2 मृदु शय्या, सुन्दर भोजन, सुगन्धित पुष्प, रूपवती स्त्री, सुवर्णादि इन्द्रियों के भोग के साधनभूत उपकरणों के देखने से, उनका स्मरण करने से, उनमें ममत्वभाव रखने से इन बाह्य कारणों से तथा अन्तरंग में लोभकषाय को विशेष उदीरणा से परिग्रहसंज्ञा उत्पन्न होती है ।
अप्रमत्तगुणस्थान में संज्ञा का अस्तित्व
पट्टमदर बढमा सग्ला खहि कारणाभावः । सेसा कम्मत्थितेणुवयारेस्थि रंग हि कज्जे ॥ १३६ ॥
तथा
गाथार्थ - जिनका प्रमाद नष्ट हो गया है अर्थात् अप्रमत्त गुणस्थान में प्रथम (आहार) संज्ञा नहीं है, क्योंकि वहाँ पर कारण का प्रभाव हो गया है। शेष तीन संज्ञाएँ उपचार से हैं, क्योंकि उनके कारणस्वरूप कर्म का उदय यहाँ पाया जाता है, किन्तु वे संज्ञाएँ कार्यरूप परिणत नहीं होतीं ।। १३६ ।।
विशेषार्थ - - मिथ्यादृष्टि प्रथमगुणस्थान से प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक आहार-भय-मंथुनपरिग्रह ये चारों संज्ञाएँ होती हैं । श्रप्रमत्तगुणस्थान में प्रथम संज्ञा अर्थात् प्रहारसंज्ञा नहीं होती, क्योंकि आहारसंज्ञा का अन्तरङ्ग कारण असातावेदनीय कर्म की उदीरणा का प्रभाव हो गया है । सातावेदनीय असातावेदनीय कथा श्रयुकर्म की उदीरणा प्रमत्तगुणस्थान तक ही होती है । श्रप्रमत्तसंयतादि गुणस्थानों में वेदनीय व श्रायुकर्म की उदीरणा का अभाव हो जाता है । श्रप्रमत्तसंयत गुणस्थान में भय-मैथुन व परिग्रह संज्ञा होती हैं, क्योंकि उनके कारण नोकपाय भयकर्म वेदकर्म व arrer at rateur पाई जाती है। अपूर्वकरण पाठवे गुणस्थान भयकर्म की उदीरणाव्युच्छित्ति हो जाने से निवृत्तिकरण ( नौवें ) गुणस्थान में भय संज्ञा नहीं है। नौवें गुणस्थान के श्रवेदभाग में बेदकर्म की उदीरणा नहीं होती अतः वहाँ पर मैथुन संज्ञा भी नहीं होती । उपशान्तमोह श्रदि गुणस्थानों में लोभकषाय की उदीरणा का अभाव हो जाने से परिग्रहसंज्ञा का भी अभाव हो जाता है । अप्रमत्तादि गुणस्थानों में कर्मोदीरणा निमित्त कारण के सदभाव से उन संज्ञाओं का aftara उपचार मात्र से कहा गया है, किन्तु वहाँ उनका कार्य शरण, रतिक्रीड़ा व परिग्रह की वांछा नहीं होती । कर्मों का मन्द मन्दतर व मन्दतम अतिसूक्ष्म अनुभागोदय होने से तथा विशेष संयम महित होने से ध्यानयुक्त महामुनियों के मुख्यरूप से भय आदि संज्ञाएँ नहीं होतीं, अन्यथा
१. प्रा. पं. सं. पृ. ५७४ गा. ४४ तथा पृ. १२ गा. ५५ १ पू. ४१३) । ३. श्रीमदभचन्द्रसूरि सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत टीका ।
२. श्रालीढबाह्यार्थ लोभतः परिग्रहसंज्ञा (६ पु. २
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१८८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १४०
शुक्लध्यान व घातियाकर्मों का क्षय कदाचित् घटित नहीं हो सकता। इस प्रकार जोवनमुक्त जीवों के अभाव का प्रसंग आ जाएगा। जीवनमुक्त जीवों (अहेन्ती) का अभाव होने से परममुक्त (सिद्ध) जीवों का भी प्रभाव हो जाएगा। जिस प्रकार वैदिकमत वाले संसारी जीवों की मुक्ति का प्रभाव मानते हैं वैसे ही महन्त के मत में भी मुक्ति के प्रभाव का प्रसङ्ग आ जाएगा। इसलिए मोक्ष के इच्छुक स्याहादियों को क्षपकश्रेणी में आहार आदि चारों संज्ञाओं का प्रभाव मानना चाहिए। इस प्रकार पाहारसंज्ञा का निषेध हो जाने से केवलियों के कवलाहार मुक्ति कैसे सम्भव है ? स्त्रियों (महिलापों) के परिग्रहसंज्ञा के सद्भाव के कारण क्षपक श्रेणी-ग्रारोहण का अभाव होने से स्त्रियों की मुक्ति कैसे सम्भव है ? परमागम में स्त्रियों के वस्त्रत्यागपूर्वक संयम का निषेध है । प्रागमान्तर- जिसमें श्वेतवस्त्र आदि का विधान बताया गया है, युक्ति-पागमप्रमाण से उस आगमान्तर का खण्डन हो जाने से वह पागमान्तर (अन्य आगम) प्रागमाभास सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार केलियों के कवलाहार का और स्त्री-मुक्ति का निषेध हो जाता है ।'
शङ्का-यदि ये चारों संज्ञाएं बाह्य पदार्थों के संसर्ग से होती हैं तो अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती जीबों के संज्ञाओं का प्रभाव हो जाना चाहिए ?
समाधान नहीं, क्योंकि अप्रमत्तों में उपचार से उन संज्ञानों का सद्भाव स्वीकार किया गया है।
अप्रमत्तसंयत जीवों के भय, मैथुन और परिग्रह ये तीन संज्ञाएँ होती हैं, क्योंकि असातावेदनीय कर्म की उदीरणा का अभाव हो जाने से अप्रमत्तसंयत के आहारसंज्ञा नहीं होती, किन्तु भय आदि संज्ञानों के कारणभूत कर्मों का उदय सम्भव है। इसलिए उपचार से वहाँ भय, मथुन और परिग्रह संज्ञाएं हैं।
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में संज्ञा प्ररूपणा नामक पंचम अधिकार पूर्ण वा।
* "मार्गणा-महाधिकार"*
मंगलाचरण धम्मगुणमग्गणायमोहारिबलं जिणं रगमंसित्ता । मग्गणमहाहियारं विविहहियारं भणिस्सामो ॥१४०॥
१. श्रीमदमयचन्द्रमूरि सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत टीका। २. तत्रोपचारतस्तत्सत्त्वाम्मुपगमात् (ध. पु. २ पृ. ४१३) ३. तिषिा सपणानो, प्रसादावेदणीवस्मुदीरणामावादो प्राहारसम्या अपमत्तसंसदस्स पत्थि । कारमा भूव कम्मोदय-संभवादो उवयारेण भय-मेहुण-परिग्गाहसष्णा अस्थि । (ध. पु. २ पृ. ४३३)।
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• गाथा १४१
मार्गणा/१८६
गाथार्थ--धर्मरूपी धनुष, ज्ञान-दर्शन-संयम आदि गुणरूपी प्रत्यंचा अर्थात् डोरी और चौदहमार्गणारूपी बाणों से मोहरूपी शत्रु के बल को नष्ट करने वाले जिन भगवान को नमस्कार करके विविध अवान्तर अधिकारों से युक्त मार्गरणा महाधिकार कहता हूँ ।।१४०।।
दिमाई– मन रम्प, कयोंकि पुरयग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्बारित्र की एकता ही रत्नत्रय है। कर्म मात्रुनों के प्रधान नायक मोह को रत्नत्रय के बिना नहीं जीता जा सकता 1 रत्नत्रय के द्वारा ही मोह की शक्ति क्षीण की जा सकती है अतः रत्नत्रयधर्म को धनुष की उपमा दी है, क्योंकि धनुष के द्वारा युद्ध में शत्रु के बल को नष्ट किया जाता है। धनुष में डोरी होती है, जिसको खींचकर बाण छोड़े जाते हैं। गुण का अर्थ भी डोरी होता है। प्रात्मा का लक्षण चेतनागुरण है अतः चेतनागुरण को डोरी की उपमा दी है। बागी के बिना मात्र धनुष से शत्रु का बल नष्ट नहीं किया जा सकता । जिनमें जीवतत्त्व का विशेष कथन है ऐसी चौदहमार्गरगानों के ज्ञान से श्रद्धान दृढ़ होता है और रत्नत्रय निर्मल होता है । अत: चौदहमार्गणाओं को बारण की उपमा दी है। इस प्रकार जिसने रत्नत्रय धनुष, चेतनागुण डोरी और चौदहमार्गणामों रूप बाणों के द्वारा मोहशत्रु को जीत लिया है अर्थात् रत्नत्रय के द्वारा जिसने मोह को नष्ट कर दिया है, वही वास्तविक 'जिन' है। ऐसे जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करके अपने रत्नत्रय की निर्मलता तथा कर्मनिर्जरा के लिए श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने मार्गरणा महाधिकार का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की है। इस मार्गणा महाधिकार में गति, इन्द्रिय, काय आदि चौदह अन्तर अधिकार हैं इसलिए इस अधिकार को महाधिकार की संज्ञा दी गई है।
मार्गणा का निरुक्ति-अर्थ तथा उसकी संख्या का निर्देश 'जाहि व जासु व जीवा मग्गिज्जते जहा तहा दिट्ठा । तानो चोद्दस जाणे सुयगाणे मगरणा होति ॥१४१॥
गाचार्य जीव जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में खोजे जाते हैं-अनुमार्गण किये जाते हैं, उन्हें मार्गणा कहते हैं । जीबों का अन्वेषण करने वालो ऐसी मार्गणाएँ श्रुतज्ञान में चौदह कही गई हैं ।।१४।।
विशेषार्थ- मार्गणा किसे कहते हैं। सत् , संख्या आदि अनुयोगद्वारों से युक्त चौदह जीवसमास जिसमें या जिसके द्वारा खोजे जाते हैं, उसे मार्गणा कहते हैं। जिसके द्वारा या जिसमें जीव खोजे जाते हैं या विचार किये जाते हैं, वह मार्गणा है और उसके १४ भेद हैं 13 जैसा श्रुतज्ञान या प्रवचन में कहा गया है हे भव्य ! वैसा जानना चाहिए। गुणस्थाम, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण व संज्ञा प्ररूपणामों के द्वारा जीव का संक्षेप से विचार होकर अब गति, इन्द्रिय प्रादि मार्गरसानों के द्वारा विस्तार से पांच भावों से युक्त जीव का विचार किया जाएगा । गति, इन्द्रिय आदि पाँच भावों
१. यह गाथा घ. पु. १ पृ. १३२, प्रा. पं. सं. पृ. १२ गा. ५६, पृ. ७४ गा. ४५ पर भी है, किन्तु 'सुयणारखे' के स्थान पर 'सुदगगाणे' पाट दिया है । २. चतुर्दपाजीवसमासाः सदादिविशिष्टा: मार्यन्तेऽस्मिन्म नेन वेति मार्गणम् (ध, यु. १ पृ. १३६) ३. याभिर्यासु वा जीवाः मृग्यन्ते विचार्यन्ते ताश्चतुर्दशमार्गणा भवन्तीति । (श्रीमदभयचन्द्रसूरि कृत टीका)।
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१९० / गो. सा. जीवकाण्ड
अर्थात् पर्यायों में जीव वर्तन करता है, जिसके द्वारा श्रुत जाना जावे वह श्रुतज्ञान है । यहाँ श्रुतज्ञान से अभिप्राय वाक्यरूप द्रव्यश्रुत का है जो गुरु-शिष्य-प्रशिष्य की परम्परा से अविच्छिन्न प्रवाहरूप से चला श्राया है । कालदोष से या प्रमाद से यदि शास्त्रकार कहीं स्खलित हो गये हों तो उसको छोड़कर परमागम के व्याख्यान के द्वार को ग्रहण करना चाहिए ।"
गाथा १४२
शङ्का -- लोक में अर्थात् व्यावहारिक पदार्थों का विचार करते समय भी चारप्रकार से अन्वेषण देखा जाता है। वे चार प्रकार ये हैं- मृगयिता, मृग्य, मार्गेरणा और मार्गणोपाय | किन्तु यहाँ लोकोत्तर पदार्थ के विचार में वे चारों प्रकार नहीं पाये जाते, इसलिए मार्गणा का कथन करना नहीं बन सकता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इस प्रकरण में भी वे चारों प्रकार पाये जाते हैं । वे इसप्रकार हैं-- जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भव्य पुण्डरीक मृगयिता है अर्थात् लोकोत्तर पदार्थं का अन्वेषण करने वाला है। चौदह गुणस्थानों से युक्त जीव मृग्प अर्थात् अन्वेषण करने योग्य है । जो मृग्य प्रर्थात् चौदह गुणस्थान विशिष्ट जीव के आधारभूत है अथवा अन्वेषण करने वाले भव्य जीव को अन्वेषण करने में अत्यन्त सहायक कारण हैं, ऐसी गति आदिक मार्गणा है । शिष्य श्रीर उपाध्याय प्रादिक मार्गरणा के उपाय हैं । *
चौदह मार्गणात्रों का नाम निर्देश
'गइ इंदियेसु काये जोगे वेदे कसायाने य ।
संजम सरणलेस्सा भवियासम्मत्तसणिश्राहारे ।। १४२ ।।
गाथार्थ -- गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कपाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेमा, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार ये चौदह मार्गणाएँ हैं ।। १४२ ।।
विशेषार्थ - - गति में, इन्द्रिय में, काय में, योग में, वेद में, कषाय में ज्ञान में, संयम में, दर्शन में, लेश्या में, भव्य में, सम्यक्त्व में, संज्ञी में और आहार में जीवसमालों (गुणस्थानों) का अन्वेषण कया जाता है । इस गाथा सूत्र में 'य' शब्द समुच्चयार्थक है। मार्गगाएं चौदह ही होती हैं । *
शङ्का--गाथा सूत्र में सप्तमी विभक्ति का निर्देश क्यों किया गया है ?
समाधान -- उन गति आदि मार्गणाओं को जीवों का प्राधार बतलाने के लिए सप्तमी विभक्ति का निर्देश किया है । इसी प्रकार प्रत्येक पद के साथ तृतीयाविभक्ति का भी निर्देश हो सकता है ।
शङ्का - जयकि प्रत्येक पद के साथ सप्तमी विभक्ति पाई जाती है तो फिर तृतीया विभक्ति कैसे सम्भव है ?
४. घ.
१. सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमदमयचन्द्रसूरि कृत टीका । २. ध. पु. १ पृ. १३३-३४ । ३. प्रा. पं. स. पू. १२ गा. ५७, पृ. ५७५ गा. ४६ । मूलाचार पर्याप्ति अधिकार पृ. २७६ गा. १५६ । ध. पु. १ पृ. १३२ सूत्र ४ । पु. १ पृ. १३२ । ५. अ. पु. १ पृ. १३३ ।
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गाथा १४२
मार्गणा/१६१
समाधान -ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस गाथासूत्र में प्रत्येक पद के साथ जो सप्तमी विभक्ति का निर्देश है वह देशामर्शक है, इसलिए तृतीया विभक्ति का भी ग्रहण हो जाता है ।।
शङ्कर--इस गाथा सूत्र में मृगयिता, मृग्य और मार्गणोपाय इन तीन को छोड़कर केवल मार्गणा का ही उपदेश क्यों दिया गया है ?
समाधान-यह मानकीक नहीं है. क्योंकि निमामि : नादचक पद देशामर्शक है । अथवा मार्गमा पद शेष तीनों का अविनाभावी है, इसलिए केवल मार्गणा कथन करने से शेष तीनों का कथन हो जाता है ।
गति--जो प्राप्त की जाये, वह गति है। । गति का ऐसा लक्षण करने से सिद्धों के साथ अतिव्याप्ति दोष भी नहीं पाता, क्योंकि सिद्धों के द्वारा प्राप्त करने योग्य गुणों का अभाव है। यदि केवलज्ञानादि गुणों को प्राप्त करने योग्य कहा जावे सो भी कथन नहीं बन सकता, क्योंकि केवलज्ञानस्वरूप एक प्रात्मा में प्राप्य-प्रापक भाव का विरोध है। उपाधिजन्य होने से कषायादिक भावों को ही प्राप्त करने योग्य कहा जा सकता है, किन्तु वे सिद्धों में पाये नहीं जाते हैं, इसलिए सिद्धों के साथ अतिव्याप्ति दोष नहीं पाता ।
इन्द्रिय--जो प्रत्यक्ष में व्यापार करती हैं उन्हें इन्द्रियाँ कहते हैं। अक्ष इन्द्रिय को कहते है और जो अक्ष-अक्ष के प्रति विद्यमान रहता है उसको प्रत्यक्ष कहते हैं, जो कि इन्द्रियों का | विषय अथवा इन्द्रियजन्य ज्ञान पड़ता है। जो इन्द्रियविषय अथवा इन्द्रियज्ञानरूप प्रत्यक्ष में व्यापार करती हैं, वे इन्द्रियाँ हैं। वे इन्द्रियाँ स्पर्श, रस, रूप, गन्ध और शब्द नाम के ज्ञानाबरणकर्म के क्षयोपशम से और द्रव्येन्द्रियों के निमित्त से उत्पन्न होती हैं। क्षयोपशमरूप भावेन्द्रियों के होने पर ही द्रव्येन्द्रियों की उत्पत्ति होती है, इसलिए लब्धिरूप भावेन्द्रियाँ कारण हैं और द्रव्येन्द्रियों
कार्य हैं। इसीलिए द्रव्येन्द्रियों को भी इन्द्रिय यह संज्ञा प्राप्त है। अथवा उपयोगरूप भावेन्द्रियों । की उत्पत्ति द्रव्येन्द्रियों के निमित्त से होती है अतः भाबेन्द्रियाँ कार्य हैं और द्रव्ये न्द्रियाँ कारग हैं। , इसलिए भी द्रव्येन्द्रियों को इन्द्रिय यह संज्ञा प्राप्त है। यह कोई अदृष्ट कल्पना नहीं है, क्योंकि । कार्यगत धर्म के कारण में और कारणगत धर्म के कार्य में उपचार जगत् में प्रसिद्धरूप से पाया जाता है ।
काय--जो संचित किया जाता है, वह काय है। यहाँ पर जो संचित किया जाता है वह काय है ऐसी व्याप्ति बना लेने पर काय को छोड़कर ईट आदि के संचयरूप विपक्ष में भी यह ध्याप्ति घटित हो जाती है अतः व्यभिचार दोष पाता है, ऐसी शंका मन में निश्चय करके प्राचार्य कहते हैं इस प्रकार ईट आदि के संचय के साथ व्यभिचार दोष भी नहीं आता, क्योंकि 'पृथ्वी' आदि स्थावर नाम कर्मोदय व अस नाम कर्मोदय से जो संचित किया जाता है वह काय है, ऐसी व्याख्या की गई है।
१. प्र.पु. १ पृ. १३३ । २. ध.पु. १ पृ. १३४ । ३. 'गम्यत इति गतिः' (मुलाचार पर्याप्ति अधिकार पृ. २७६६ गा. १५६ टीका; अ.पु. १ पृ. १३४ । ४. ध.पु. १ पृ. १३४ । ५. “प्रत्यक्षनिरतानीन्द्रियाणि । प्रक्षागीन्द्रि"पाणि ।" (च.पु. १ पृ. १३५ । ६. प.पु. १ पृ. १३५ । ७. "चीयत इति कायाः" (ध.पु. १ पृ. १३८)। 5. प.पू. १ पृ. १३८ ।
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१९२/गो. सा. जीव काण्ड
गाथा १४२ __ योग-जो संयोग को प्राप्त हो, वह योग है ।' संयोग को प्राप्त होने वाले वस्त्रादिक से व्यभिचार दोष भी नहीं पाता, क्योंकि वे आत्मा के धर्म नहीं हैं। कषायों के साथ भी व्यभिचार दोष नहीं पाता, क्योंकि कषाय कर्मों के ग्रहण करने (आस्रव) में कारण नहीं है ।२ अथवा प्रदेशपरिस्पन्दरूप आत्मा की प्रवृत्ति से कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत वीर्य की उत्पत्ति को योग कहते हैं। अथवा प्रात्मा के प्रदेशों के संकोच और विस्तार रूप होने को योग कहते हैं। (प्रा. पं. १/५५)
वेद जो वेदा जावे अथवा अनुभव किया जावे वह बेद है।'
शङ्का-वेद का इस प्रकार लक्षण करके आठ कर्मों के उदय को भी वेद संज्ञा प्राप्त हो जाएगी, क्योंकि वेदन की अपेक्षा वेद और पाठकर्म दोनों ही समान हैं। जिस प्रकार बेद वेदनरूप है उसी प्रकार ज्ञानाचरणादि पाट कर्मों का उदब भी वेदनरूप है।
समाधान-ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि सामान्यरूप से की गई कोई भी प्ररूपणा अपने विशेषों में पाई जाती है। इसलिए विशेष का ज्ञान हो जाता है। अथवा रौढिक शब्द की व्युत्पत्ति रूढ़ि के अधीन होती है। अतः वेद शब्द पुरुषवेदादि में रूढ़ होने के कारण 'वेद्यते' अर्थात जो वेदा जाए इस व्युत्पत्ति से वेद का ही ग्रहण होता है, ज्ञानावरणादि पाठकों के उदय का नहीं। अथवा प्रात्मप्रवृत्ति में मथुनरूप सम्मोह को उत्पन्न करने वाला वेद है।"
कषाय—मुख, दुःखरूपी नाना प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले कर्मरूपी क्षेत्र का जो कर्षण करती है अर्थात् फल उत्पन्न करने के योग्य करती है, वह कषाय है।
शङ्का-- यहाँ पर कषाय शब्द की "कषन्तीति कषायाः" अर्थात् जो कसे वह कषाय है, इस प्रकार की व्युत्पत्ति क्यों नहीं की?
समाधान –'जो कषे वह कषाय है' इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर करने वाले किसी भी पदार्थ को कषाय माना जाएगा। अतः कषाय के स्वरूप को समझने में संशय उत्पन्न हो सकता है, इसीलिए जो कषे वह कषाय है इस प्रकार की व्युत्पत्ति नहीं की गई तथा इस व्युत्पत्ति से कषाय के समझने में कठिनता आ जाएगी, इस भीति से भी 'जो वषे, वह कषाय है' कषाय शब्द की इस प्रकार की व्युत्पत्ति नहीं की गई।
ज्ञान-सत्यार्थ का प्रकाश करने वाला, सो ज्ञान है। शङ्का-भिभ्याष्टि का ज्ञान भूतार्थ का प्रकाशक कैसे हो सकता है ?
१. 'युज्यत इति योगः' (व.पु. १ पृ. १३६)। २. ध.पु. १ पृ. २३६-२४० । ३. "वद्यत इति वेबः" (प. पु. १ पृ. १४०-४१)। ४. "प्रथयात्मप्रवृत्तेमशुनसम्मोहोत्पादो वैदः” (मूलाचार पर्याप्ति अधिकार गा. १५६ टीका, पृ. २७६; घ, पु. १ पृ. १४१ । ५. "सुखदुःखरूपबहुशस्यकर्मक्षेत्र कृपन्तीति कषायाः।" (श्र. पु. १ पृ. १४१)। ६. "भूतार्थप्रकाशक ज्ञानम्" (मूलाचार पर्याप्ति अश्विकार १२, गा. १५६ टोका पृ. २७७; घ. पु. १ पृ. १४२ ।
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गाथा १४२
मार्गणा/१६३
___ समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि और मिथ्याष्टियों के प्रकाश में समानता पाई जाती है। - शङ्का यदि दोनों के प्रकाश में समानता है तो फिर मिथ्यादृष्टि जीव अज्ञानी कैसे हो सकते हैं ?
समाधान---यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्वकर्मोदय से वस्तु के प्रतिभासित होने पर भी संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को निवृत्ति नहीं होने से मिध्यादृष्टियों को अज्ञानी कहा है।
शङ्खा--ऐसा होने पर तो दर्शनोपयोग की अवस्था में ज्ञान का प्रभाव प्राप्त हो जाएगा?
समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दर्शनोपयोग को अवस्था में ज्ञानोपयोग का प्रभाव इष्ट ही है।
शा---यदि ऐसा मान लिया जाए तो इस कथन का कालानुयोग में आये हुए 'एग-जीवं पाच्च प्रणाविभो अपज्जवसिदों' इत्यादि सूत्र के साथ विरोध क्यों नहीं प्राप्त होमा ? अर्थात् एक जोब की अपेक्षा मत्यज्ञान व श्रुताज्ञान का काल अनादि-अनन्त है, इस सूत्र से विरोध क्यों नहीं
आएगा?'
___ समाधान-ऐसी शङ्का करना ठीक नहीं है, क्योंकि कालानुगम में जो ज्ञान की अपेक्षा कथन किया है वहीं क्षयोपशम की प्रधानता है।
शङ्का-मिथ्याज्ञान सत्यार्थ का प्रकाशक कसे हो सकता है ?
समाधान-ऐसी शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि चन्द्रमा में पाये जाने वाले द्वित्व का दूसरे इ. पदार्थों में सत्व पाया जाता है। इसलिए उस ज्ञान में भूतार्थता बन जाती है।
EMA
__ अथवा सद्भाव का निश्चय करने वाला शान है। इससे संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय अवस्था में ज्ञान का अभाव प्रतिपादित हो जाता है, क्योंकि शुद्धनय की विवक्षा में तत्त्वार्थ का उपलम्भ करने वाला ज्ञान है। इससे यह सिद्ध हो गया कि मिथ्याष्टि ज्ञानी नहीं है। जिसके द्वारा द्रव्य, गुरण व पर्यायों को जानते हैं, वह ज्ञान है ।
शङ्का-ज्ञान तो प्रात्मा से अभिन्न है, इसलिए वह पदार्थों को जानने के प्रति साधकतम कारण कैसे हो सकता है? .
समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि साधकतम कारण स्वरूप ज्ञान को प्रात्मा से सर्वथा भिन्न अथवा अभिन्न मान लेने पर प्रात्मा के स्वरूप की हानि का प्रसंग पाता है और कथंचित :भेदरूप ज्ञान को जाननक्रिया के प्रति साधकतम कारण मान लेने में कोई विरोध नहीं पाता है।
3
.. १. घ. पु. १ पृ. १४२ ।
4. पु. १ पृ. १४३)।
२. घ. पु. १ पृ. १४३ । ३, "अथवा सद्भावविनिश्चयोपसम्भक ज्ञानम्" ४. "द्रव्ययणपर्यायानेन जानातीप्ति ज्ञानम् ।" (घ. पु. १ पृ. १४३) ।
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१९४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १४२
संयम-संयमन करने को संयम कहते हैं । ' संयम का इस प्रकार लक्षण करने पर भावचारित्रशून्य द्रव्यचारित्र संयम नहीं हो सकता, क्योंकि 'सं' शब्द से उसका निराकरण हो जाता है।
शङ्का-यहाँ पर यम शब्द से समितियों का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि समितियों के नहीं होने पर संयम नहीं बन सकता?
___ समाधान--ऐसी शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि संयम में दिये गये 'सं' शब्द से सम्पूर्ण समितियों का ग्रहण हो जाता है ।
दर्शन--जिसके द्वारा देखा जाए वह दर्शन है। इससे चक्षु इन्द्रिय और आलोक के साथ अतिप्रसङ्ग दोष भी नहीं आता है, क्योंकि ये आत्मा के धर्म नहीं हैं। (चक्षु से यहाँ द्रव्य चक्षु से प्रयोजन है।)
शा--जिसके द्वारा देखा जाए वह दर्शन है। इस प्रकार लक्षण करने पर ज्ञान और दर्शन में कोई विशेषता नहीं रहती है ?
समाधान नहीं, क्योंकि अन्तर्मुख चित्प्रकाश दर्शन है और बहिर्मुख चित्प्रकाश ज्ञान है, इसलिए इन दोनों के एक होने में विरोध आता है।
शङ्का--वह चैतन्य क्या वस्तु है ?
समाधान--त्रिकाल विषयक अनन्त पर्याग रूप जीव के स्वरूप का अपने-अपने क्षयोपशम के अनुसार जो संवेदन होता है, वह चैतन्य है। अतः सामान्य-विशेषात्मक बाह्यपदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान और सामान्य-विद्योषात्मक प्रात्मस्वरूप को ग्रहण करने वाला दर्शन है ।
अथवा पालोकनवृत्ति दर्शन है । इसका अभिप्राय यह है—जो अवलोकन करता है वह पालोकन या प्रात्मा है । वर्तन (व्यापार) नुत्ति है । पालोकन (आत्मा) की वृत्ति 'पालोकन बृत्ति' है । बहु स्वसंवेदन है, उसी को दर्शन कहते हैं । अथवा प्रकाशवृत्ति दर्शन है। इसका अभिप्रायप्रकाश ज्ञान है । उसके लिए प्रात्मा की बत्ति 'प्रकाशवृत्ति' है वही दर्शन है। अथवा विषय और विषयी के संपात से पूर्व अवस्था दर्शन है।'
लेश्या--जो लिम्पन करती है वह लेश्या है। भूमिलेपिका के साथ अतिव्याप्ति दोष भी नहीं पाता है, क्योंकि "कर्मों से आत्मा को" इतने अध्याहार की अपेक्षा है। अर्थात जो कर्मों से प्रात्मा को लिप्त करती है वह लेश्या है ।'' अथवा कपाय से अनुरंजित मन-वचन-कायरूप योग को प्रवृत्ति १. संयमन संयमः (ध. पु. १ पृ. १४४)। २. घ. पु. १ पृ.१४४ । ३. "दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम्" (प. पु. १ पृ. १४५) ४. ध. पु. १ पृ. १४५। ५. "तत: सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं जान • तदात्मकस्वरूपग्रहरणं दर्शनमिति सिद्ध" (ध. पु. १ पृ. १४७)। ६. "मालोकनवृत्तिा दर्शनम् । प्रस्य गमनिका, पालोकत इत्यालोकनमात्मा, वर्तन वृत्तिः; मालोकनस्य वृत्तिरालोकनवृत्तिः स्वसंवेदनं तद्दर्शन मिति लक्ष्यनिर्देशः ।" [ध. पु. १ पृ. १४८-१४६] । ७. प्रकाशवृत्तिा दर्शनम् । अस्य गमनिका प्रकाशो ज्ञानम् तदर्थमात्मनोवृत्ति: प्रकाशवृत्तिः प्रकाशवृत्तिस्तदर्शनम् ।" (ध. पु. १ पृ. १४६) । ८. "विषयविषयिसंपातात् पूर्वावस्था दर्शनमित्यर्थ:" (ध, पु. १ पृ. १४६) । १. लिम्पतीति लेश्मा। न भूमिले पिकवाऽतिव्याप्तिदोषः कर्मभिरा मानमित्यध्याहारापेक्षित्वात्" (घ. पु. १ पृ. १४६) । १०. प. पु. ७ पृ. ७ व पु. ८ पृ. ३५६ ।
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गाथा १४३-१४४
मागंणा / १९५
लेश्या है। इससे वीतरागियों के केवलयोग को लेश्या नहीं कह सकते हैं ऐसा निश्चय नहीं कर लेना चाहिए, क्योंकि लेश्या में योग की प्रधानता है, कषाय प्रधान नहीं है । कषाय तो योगप्रवृत्ति का विशेषरण है, अतएव उसकी प्रधानता नहीं हो सकती । आत्मा और प्रवृत्ति ( कर्मों) का संश्लेष सम्बन्ध करने वाली वेश्या है ।
भव्य--1
- जिसने निर्वाण को पुरस्कृत किया है, वह भव्य है और इससे विपरीत भव्य है । * सम्यक्त्य -- प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य की अभिव्यक्ति सम्यक्त्व का लक्षण है ।" शंका- इसप्रकार सम्यक्त्व का लक्षण मान लेने पर असंयतसम्यग्दष्टि गुणस्थान का प्रभाव हो जाएगा ?
समाधान - श्रापका कथन शुद्धनय का आश्रय करने पर ही सत्य कहा जा सकता है । अथवा तत्त्वार्यश्रद्धान सम्यग्दर्शन है । अथवा तत्त्वरुचि सो सम्यग्दर्शन है । ७
संज्ञी - जो शिक्षा, क्रिया, उपदेश, आलाप को ग्रहण करता है, वह संज्ञी है; उससे विपरीत असंज़ी है।
आहार --प्रदारिक प्रादि शरीर के योग्य पुद्गल पिण्ट को ग्रहण करना आहार है, उससे विपरीत अनाहार है ।
शान्तर मार्गणाओं के भेद, सान्तरमार्गलाओं के उत्कृष्ट व जघन्यकाल का प्रमाण एवं विरहकाल का कथन 'उयसम सुहुमाहारे, वे गुब्विय मिस्स - पर-प्रपज्जते । सासरणसम्मे मिस्से, सांतरगा मग्गगा ।। १४३ ।। सत्तदिरणा छम्मासा वासपुधतं च बारसमुहुत्ता । पल्लासंखं तिह वरमवरं एगसमयो दु ॥ १४४ ॥
१०
१. अथवा कषायानुरञ्जिता कायवाङ मनोयोगप्रवृत्तिश्या" ( प. पु. १ पृ. टीका; घ. पु. १६ पृ. ४८५ व ४५ स. सि. अ. २ सू. ६ । प्रवृत्तिसंश्लेषकार लेश्या ।" [मूलाचार पृ. २७७ व ध. पु. १ पृ. सद्विपरीतोऽभव्यः।" [मूलाचार श्र. १२ गा. १५६
टीका पृ. २७७
१४६ ) ; पञ्चास्तिकाय गा. ११६ २. ध. पु. १ पृ. १५० । ३. "आत्म१४९ | 1 ४. "निर्वाणपुरस्कृतो भव्यः व. पु. १ पृ. १५०-५१ ] मूलाचार श्र. १२ पृ. २७७ ] ।
व
८.
५. "प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सम्यक्त्वं" | छ. पु. १ पृ. १५१, ६. "तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् [घ. पु. १ पृ. १५१ . सू.अ. १ सू. २ ] । सभ्यवत्यम्" [त्र. पु. १ पृ. २५१ मूलाचार श्र. १२ गा. १५६ टीका पृ. २७७ ] ग्राहकः संज्ञी, तद्विपरीतोऽसंजी ।" [मूलाचार प. अ. १२, गा. १५६ टीका पृ. २७७ ६. शरीरायोग्यपुद्गलपिण्ड ग्रहणमाहारः तद्विपरीतोऽनाहारी" [मूलाचार पर्याप्ति टीका, पृ. २७७. पु. १ पृ. १५२-५३] । १०. मनुया य अपज्जत्ता वेउब्बिय मिस्तहारया दोषि । सुहूमो सासरण मिस्सो उचसमसम्मो य संतरा मठ ॥५५/३
७. " श्रथवा तत्त्वरुचिः "शिक्षा क्रियोपदेशालाध. पु. १ पृ. १५२] । अधिकार १२ गा. १५६
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१६६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाया १४५
'पढमुवसमसहिदाए, विरदाविरदोए चोद्दसा दिवसा।
विरवीए पण्णरसा, विरहिवकालो दु बोध्यो ॥१४५।। गाथार्थ - उपशम सम्यक्त्व, सूक्ष्मसाम्पराय, आहारकयोग, पाहारकमिश्रयोग, क्रियिकमिश्रयोग, मनुष्य अपर्याप्त, सासादनसम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व ये पाठ अन्तरमार्गणा हैं ।।१४३।। इनका उत्कृष्ट विरहकाल क्रमश: सातदिन, छहमाह, वर्षपृथक्त्व, वर्षपृथक्त्व, बारहमुहूर्त और अन्तिम तीनमार्गणाओं का विरहकाल पल्य के असंख्यातवेंभाग ; प्रथमोपशम सम्यक्त्वसहित विरताविरतपंचम गुरगस्थान का चौदह दिन और सकलसंयम का पन्द्रह दिन है। इन सबका जघन्य अन्तरकाल एकसमय है ।।१४४-१४५।।
विशेषार्थ--अन्तर, उच्छेद, विरह, परिणामान्तरगमन, नास्तित्वगमन और अन्यभावव्यवधान ये मब एकार्थवाची नाम हैं । २ 'रात्रिंदिव' यह दिवस का नाम है, क्योंकि सम्मिलित दिन व रात्रि से दिवस का व्यवहार देखा जाता है। प्रथमोपशमसम्यक्त्व का नानाजीवों की अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर सात दिवस मात्र होता है। यदि कोई भी जीव प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि न हो तो उसका उत्कृष्ट विरहकाल सातदिनस मात्र है हौन धन प्रान्त मात्र है
___ ग्राहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों का अन्तर जपन्य से एकसमय होता है, क्योंकि एक समय तक आहारक और पाहारक मिश्रकाययोगियों के बिना तीनों लोकों के जीव पाये जाते हैं, उत्कर्ष से अन्तर वर्षपृथवत्व प्रमाण है, क्योंकि पाहारक काययोग और आहारकमिश्रकाययोग के बिना समस्त प्रमत्तसंपतों का वर्षपृथक्त्व काल तक अवस्थान देखा जाता है। आहारककाययोग और पाहार कमिश्र काययोग प्रमत्तसंयत-छठे गुणस्थान में ही होता है।
बैंक्रियिकमिथकाययोगियों का अन्तर जघन्य से एकसमय होता है, क्योंकि सब क्रियिकमिथकाययोगियों के पर्याप्तियां पूर्ण कर लेने पर एकसमय का अन्तर होकर द्वितीयसमय में देवों या नारकियों के उत्पन्न होने पर वैक्रियिकमिश्रकाय योगियों का अन्तर एकसमय होता है। वक्रियिकमिश्रकाययोगियों का अन्तर उत्कर्ष से बारह मुहूर्त है, क्योंकि देव अथवा नारकियों में न उत्पन्न होने वाले जोव यदि बहुत अधिक काल तक रहते हैं तो बारह मुहूर्त तक ही रहते हैं । अर्थात् देवों अथवा नारकियों में अधिक से अधिक बारहमुहूर्त तक कोई भी जीब उत्पन्न न हो, ऐसा सम्भव है।
मनुष्य अपर्याप्त अर्थात् लन्थ्यपर्याप्त मनुष्यों का अन्तर जघन्य से एकसमय है, क्योंकि जगत्श्रेणी के असंख्यातवेंभाग मनुष्य अपर्याप्तकों के मरकर अन्यगति को प्राप्त होने पर एकसमय अन्तर होकर द्वितीय समय में अन्य जीवों के मनुष्य अपर्याप्तकों में उत्पन्न होने पर एक समय अन्तर प्राप्त होता है। मनुष्य अपर्याप्तकों का अन्तर उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्यातवांभाग मात्र है, क्योंकि मनुष्य अपर्याप्तकों के मरकर अन्यगति को प्राप्त होने के पश्चात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग
१. सम्मत्ते सत्त दिणा विरदाविरदे य बदसा होति । विरदेसु य पण्या रसं बिरहिम काल य बोहब्वो ॥२०॥ (प्रा. पं. सं. जीवममास अधिकार): २. "अन्तरमुच्छेदो विरही परिणामांतरगमणं स्थित्तयमणं अण्णाभावबहाणमिदि एयरो " (ध. पु. ५ पृ. ३) । ३. घ. पु. ७.पू. ४६२ सूत्र ५८-५६ । ४. प. पु.७ पृ. ४८५-४६६ सूत्र २७-२८-२६ । ५. घ. पु. ७ पृ. ४८५ सूत्र २४.-२५-२६ । ।
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गाथा १४६
गतिमार्गणा/१७
मात्र काल के बीत जाने पर पुन: नियम से मनुष्य अपर्याप्तकों में उत्पन्न होने वाले जीव पाये जाते हैं।"
सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्याइष्टि जीवों का अन्तर जघन्य से एकसमय है, क्योंकि सासादनसम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यारष्टि गुणस्थानों के जघन्य से एकसमय अन्तर के प्रति कोई विरोध नहीं है । उत्कर्ष से यह अन्तर पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण है, यद्यपि सम्यग्मिथ्याष्टियों के अस्तित्व का उत्कृष्टकाल भी पस्योपम के असंख्यातवेंभाग मात्र है, तथापि उससे उनका विरहकाल प्रसंख्यातगुणा होते हुए भी पल्योपम' का असंख्याताभाग है, क्योंकि पल्योपम का असंख्यातवांभाग अनेकप्रकार का है।'
प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टियों में विरताविरति (संयतासंयत) नामक पाँचवें गुणस्थानवर्ती जीवों का उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिवस है और विरति अर्थात् संयतों का उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह दिवस है। कहा भी है
सम्मत्ते सत्तविणा विरताविरदीए चौद्दस हवंति ।
विरदीसु न पणरसा विरहिद कालो मुणेयग्यो ।३१।।' ___ उपशमसम्यक्त्त्र में सात दिन, उपशमसम्यक्त्वसहित विरताविरति अर्थात् देशयत में चौदह दिन और विरति अर्थात् प्रमत्त-अप्रमत्त महाविरतियों में पन्द्रह दिन प्रमाण जानना चाहिए।
उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत का नाना जीवापेक्षा जघन्य अन्तर एकसमय और उत्कृष्ट अन्तर चौदह रात-दिन है। उपशमसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयतों व अप्रमत्तसंयतों का जघन्य अन्तरकाल एकसमय मात्र है और उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह रात-दिन है ।
___इन गाथाओं द्वारा यह भी ज्ञात हो जाता है कि शेष मार्गणाओं का अन्तर नहीं है, वे निरन्तर हैं। यद्यपि 'अन्तर नहीं है' और 'निरन्तर' ये दोनों गाद अन्तर के अभाव के द्योतक है तथापि 'अन्तर नहीं है' यह शब्द प्रभाव प्रधान है इसलिए यह प्रसज्यप्रतिषेध सम्बन्ध है। 'निरन्तर है यह शब्द अन्तर के प्रभाव के साथ-साथ उनके अस्तित्व को भी सिद्ध करता है अतः यह पयुदास प्रतिषेध है।"
६. गति-मार्गणाधिकार गतिमार्गणा के अन्तर्गत गति शब्द का निरुक्ति अर्थ एवं गति के भेद गइउदयजपज्जाया चउगइगमरणस्स हेउ वाह गई। गारयतिरिक्खमाणुसदेवगइ त्ति य हवे चदुधा ॥१४६।।
.१. प. पु. ७ पृ. ४८१ सूत्र -६-१०। २. ध, पु. ७ पृ. ४६२-६३ सूत्र ६०-६१-६२ । ३. घ. पु. १५ पृ. ४ |
४. ६. पृ. ७ पृ. ४६२ । ५. प. पु. ५ पृ. १६६ सूत्र ३६०-६१ । ६. घ. पु५ पृ. १६७ सूत्र ३६४-६५ । १७. भ. पु. ७ पृ. ४७१ । . . . . . . . . ।
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१६८/मो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १४७
गाथार्थ-गति कर्मोदय जनित पर्याय 'गति' है अथवा चारों गतियों में गमन करने के कारण को गति कहते हैं। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इस प्रकार बह गति चार प्रकार की है ।।१४६।।
विशेषार्थ–जहाँ को गमन किया जाय वह गति है।'
शङ्का-गति का इस प्रकार निरुक्ति अर्थ करने पर तो प्राम, नगर, खेट, कर्वट आदि स्थानों को भी गति मानने का प्रसंग पाता है ?
समाधान नहीं पाता, क्योंकि रूढ़ि के बल से गति नामकर्म द्वारा जो पर्याय निष्पन्न की जाती है उसमें गति शब्द का प्रयोग किया जाता है। गति नामकर्म के उदयाभाव के कारण सिद्धगति प्रगति कहलाती है।
अथवा एक भव से दूसरे भव में संक्रान्ति गति है। और सिद्धगति प्रसंक्रान्ति रूप है। कहा भी है
गह-कम्म-विरिणवत्ता जा चेट्टा सा गई मुणेयव्या।
जीवा हु साउरंगं गच्छंति त्ति य गई होइ ॥४॥ गति कम से जो चेष्टा विनिवृत्त की जाती है उसको गति जानना चाहिए अथवा जिसके निमित्त से चतुर्गति में जाते हैं, वह गति है।
नरकगति, प्रियंगति, मनुष्यगति, देवगति के भेद से वह गति चार प्रकार की है।
नरकगति का स्वरूप "ण रमंति जदो णिचं, दव्वे खेत्ते य काल-भाये य ।
अण्णोहि य जह्मा, तह्मा ते गारया भरिगया ॥१४७॥ गाथार्थ- जिस कारण से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो स्वयं तथा परस्पर में कभी प्रीति भाव को प्राप्त नहीं होते इसलिए वे भारत (नारक) कहे जाते हैं ।।१४।।
विशेषार्थ-व्रव्य-खाद्य व पेय पदार्थ । क्षेत्र-बिल आदि स्थान । काल-ऋतु प्रादि काल । भाव-संक्लेशरूप भाव। जो इनमें तथा एक दूसरे में रत नहीं हैं, जो हिंसादिक असमीचीन कार्यों में व्यापृत हैं उन्हें निरत कहते हैं और उनकी गति को निरतगति कहते हैं। अथवा जो नर अर्थात प्राणियों को काता (पीड़ा) देता है, पीसता है वह नरक है। नरक यह एक कर्म है। इससे जिनकी उत्पत्ति होती है वे नारक हैं और उनकी गति नारकगति है। अथवा जिस गति का उदय सम्पूर्ण अशुभ कर्मों के उदय का सहकारी कारण है वह नरकगति है। जो परस्पर में प्रीति नहीं रखते हैं वे नरत हैं और उनकी गति नरतगति है ।
१. "गम्यत इति गतिः" (ध. पु. ७ पृ. ६ ; मूलाचार अ. १२ पृ. २७६) । २. "प्रथवा भवाद् भवसक्रांतिर्गतिः" (ध. पु. ७ पृ. ६ मूलाचार पर्याप्ति अधिकार मा. १५६ टीका पृ. २७६)। ३. श्र. पु. १ पृ. १३५, प्रा. पं. सं. गा. ६० पृ. ५७६ । ४. “सा चर्षिया नरकगतितिर्यग्गतिमनुष्यगतिदेवतिभेदेन ।" (मूलाधार म. १२ गा. १५६ की टीका)। ५. प.पु. १ पृ. १०२;प्रा.पं. सं(ज्ञानपीठ) अ. १ गा. ६० पृ. १३। ६. प. पु. १ पृ. २०३ ।
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गाथा १४७
गतिमार्गणा/१६९
या
नगमादि नयापेक्षा नारकी जीवों का कयन करते हुए कहा भी है--
"किसी मनुष्य को पापी लोगों का समागम करते हुए देखकर नैगमनय से कहा जाता है कि मह पुरुष नारकी है ।।१॥ [जब वह मनुष्य प्राणिवध का विचार कर सामग्री का संग्रह करता है तब वह संग्रहनाय से नारकी है। मसहागनम मा नचन इस प्रकार है. जब कोई मनुष्य हाथ में धनुष व बाण लिये मृगों की खोज में भटकता फिरता है तब वह नारकी कहलाता है । ऋजुसूत्रनय का कथन इसप्रकार है-जब पाखेट स्थान पर बैठकर वह पापी मृगों पर प्राघात करता है तब वह नारकी कहलाता है। सम्बनय कहता है कि- जब जन्तु प्राणों से विमुक्त कर दिया जाता है तभी वह प्राधान करने वाला हिंसा कर्म से संयुक्त मनुष्य नारकी है। समभिरूढनय का वचन इसप्रकार है--जब मनुष्य नारक कर्म (नरकायु) वा बंधक होकर नारककर्म से संयुक्त हो जावे तभी वह नारकी कहा जावे। जब वह मनुष्य नरकगति में पहुँचकर नरक के दुःख अनुभव करता है तब वह एयंभूतनय से नारकी
अधोलोक में नीचे-नीचे सात पृथिवियाँ हैं-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातम प्रभा। इन सातों पृथिवियों में प्रथम प्रादि सात नरक हैं जिनके नाम क्रम से घर्मा, बंशा, शैला (मेघा), अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी हैं। उन नरकों में ८४,००,००० बिल हैं जो नारकियों के निवासस्थान हैं। उन नरकों में क्रमशः एक, तीन, सात, दस, सतरह, बाईस और तैतीस सागरोपम उत्कृष्ट आयु है। जघन्य अायु प्रथम नरक में दस हजार वर्ष है, आगे द्वितीय आदि नरवों में पूर्व नरक की एक समय अधिक उत्कृष्ट आयु को उत्तर नरक की जघन्य आयु समझना चाहिए। प्रथम पृथ्वी के नारकी दुर्गन्धयुक्त अपवित्र, अल्प मात्रा में प्राप्त मिट्टी को शीघ्र ही खा जाते हैं। इससे असंख्यातगुणा अशुभ ग्राहार व्रामसे द्वितीय आदि पृथिवियों में जानना जाहिए।
प्रथम नरक में अवधिज्ञान का क्षेत्र एक योजन प्रमाण है। आगे आधे-ग्राधे वोम को हानि होवार सप्तम नरक में वह एक कोस मात्र क्षेत्र रह जाता है। प्रथम आदि चार नरकों में और पांचवें 'अरिष्टा नामक नरक के दो तिहाई अर्थात् दो लाख बिलों में उष्णता की वेदना होती है। पांचवीं प्रथिवी के शेष एक लाख बिलों में तथा छठे-सातवें नरक के (१००००० + ६६६९५+५) दो लाख बिलों में अति शीतवेदना होती है।
प्रथम दो नरकों में कापोतलेश्या, तीसरे-चौ ये नरक में नील व कृष्णलेश्या, छठे नरक में दुःकृष्ण लेश्या और सातवें में महाकृष्ण लेश्या है। प्रथम धर्मा नरक में उत्पन्न हुए नारकी पीड़ित होकर जन्मस्थान से ५०० धनुष प्रमाण ऊपर उछलते हैं तथा शेष नरकों में वे क्रमशः दुने-दूने ऊपर उछलते हैं। उन नरकों में जीवों को पोर, तीव, महाकष्टभीम, भीष्म, भयानक, दारुण, बिपुल, उग्र और तीक्ष्ण दुःस्त्र प्राप्त होता है ।
स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में नरकों के दुःखों का वर्णन इस प्रकार है - "नरकायु पाप कर्मोदय से जीव भरकों में उत्पन्न होता है और पाँच प्रकार के अनेक दुःखों
१. गा. १ से ६ तक, घ. पू. ७ पृ. २६-२६ ।
२. लोकविभाग का वा विभाग ।
३. गाथा ३४ से ३१ ।
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२००/गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा १४७ को सहन करता है। अन्यगति के दुःखों से भी नरकगति के दुःख अधिक हैं। असुरोदीरित दुःख, शारीरिक दुःख, मानसिक दुःख, क्षेत्रजनित दुःख, परस्परोदीरितदुःख ये पाँच प्रकार के दुःख हैं। नरकों में अशुभ अपृथक् विक्रिया होती है। नारकी बारण प्रादि आयुधों की तथा बज्राग्नि आदि की अपने से अपृथक् विक्रिया करते हैं। वे नारकी अग्नि, बायु, शिला, वृक्ष, क्षारजल और विष आदि के स्वरूप को प्राप्त होकर एक दूसरे को भयानक कष्ट पहुंचाते हैं। वे नारकी व्याघ्र, गिद्ध, चील, काक, चक्रवाक, भेड़िया और कुत्ता इत्यादि हिंसक जीव रूप विक्रिया करके परस्पर दुःख देते हैं । नारकी वध, बन्धन आदि बाधाओं से तिल-तिल बराबर छेदन करने से ताड़न, भक्षण
आदि द्वारा दूसरे नारकी को सताकर सन्तुष्ट होते हैं। नरक भूमि तपे हुए लोहे के समान स्पर्श युक्त, छरा के समान तीक्ष्ण बाल से संयुक्त, सुई के समान नुकीले तृणों से व्याप्त होती है जिसके स्पर्शमात्र से हजारों बिच्छ्रों के काटने वी वेदना से भी अत्यन्त दुःसह वेदना होती है। नरकों में चारों ओर ज्वालासों एवं विस्फूलिगों से व्याप्त अंगवाली लोहे सदृश प्रतिमाएँ,छरी व बाण आदि के समान तीक्ष्या पत्तों वाले असिपत्र वन, सैकड़ों गुफाओं एवं यंत्रों से उत्कट ऐसे भयानक वेतालगिरि, अचिन्त्य कूट शाल्मलि, वैतरणी नदियाँ तथा उलकों के खन से दुर्गन्धित एवं करो कीडों के समूह से व्याप्त ऐसे तालाब हैं जो कातर नारकियों के लिए दस्तर हैं। अग्नि से भयभीत होकर दौड़ते हुए वे नारवी वैतरणी नदी पर जाते हैं और शीतलजल समझकर उसके खारे जल में जा गिरते हैं। उस खारे जल से शरीर में दाहजनित पीड़ा का अनुभव करने वाले बे नारकी वेग से उठकर छाया की अभिलाषा से असिपत्र वन में प्रविष्ट होते हैं, वहाँ पर भी वे गिरने वाले असिपत्रों के द्वारा छेदे जाते हैं। असिपत्रों के द्वारा उन नारकियों के पैर, भुजाएँ, कन्धे, कान, होंठ, नाक, सिर आदि छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। नरकों में शीत व उष्ण की वेदना असह्य होती है। वहाँ की पृथ्वी दुःसह दुःखों को देने वाली है। नरकों में क्षुधा, तृषा और भय के कष्ट का वेदन निरन्तर हुआ करता है। नरकों में उबलते (खौलते) हुए जल से परिपूर्ण काडाहे, जलते हुए विचित्र सूल और बहुत सी भट्टियों ऐसे बहुत से यातना के साधन स्वभाव से भी प्राप्त होते हैं और विक्रिया द्वारा भी बनाये जाते हैं।
"प्रथम तीन नरकों में कुमार्गगत चारित्रबाले अर्थात् दुष्ट आचरण करने वाले असुरकुमार देव भी उन नारकियों को अत्यन्त बाधा पहुँचाते हैं, उन नारकियों को परस्पर में लड़ाकर आनन्द को प्राप्त होते हैं। नारकी जीवों को इष्ट वस्तुओं का लाभ न होने से अनिष्ट वस्तुओं का संयोग होने से तथा अपमान व भय के कारण महान् मानसिक दुःख होता है। नारकी जीवों के शरीर के तिल प्रमाण खण्ड हो जाने पर भी वे मरण को प्राप्त नहीं होते। उनका अकालमरण नहीं होता। उनके शरीर के खण्ड पारे के समान बिखर कर पुनः जुड़े जाते हैं।' नारकियों के शरीर में अनेक प्रकार के रोग निरन्तर रहते हैं। अन्य भव में जो स्वजन था नरक में वह भी कुपित होकर दुःख देता है। नरकों के एक समय के दुःख भी हजारों जिह्वानों द्वारा कहे नहीं जा सकते ।"
जो मद्य पीते हैं, मांसभक्षण करते हैं, जीवों का घात करते हैं, शिकार करके हर्ष मानते हैं, मोह-लोभ ब क्रोध आदि के कारण असत्य वचन बोलते हैं, काम से उन्मत्त परस्त्री में प्रासक्त, रात-दिन मैथुन सेवन करने वाले, दूसरों को ठगने वाले, परधन हरने वाले, चोरी करने वाले पापा
१.लोकविभाग अष्टम विभाग ।
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गाथा १४७
गतिमार्गग्गा/२०१
चारी जीव नरक में उतान्न होते हैं। बहत प्रारम्भ और बहन परिग्रह वाले जीव नरकायु बाँधते हैं और मरकर नरकों में उत्पन्न होते हैं । मूर्छा ही परिग्रह है।
नारकी जीव असंथात है जो प्रसन्ध्यात जगधेगीप्रमाण है । प्रथम नरक में सबसे अधिक नारकी हैं और द्वितोयादि नरकों में प्रथम नरक के असंख्यातवें भाग नारको हैं। एक जीव की प्रपेक्षा कम से कम अन्तमुहर्त काल तक नरकगति वारकी जीव का प्रचार होता है, क्योंकि नरक से निकलकर गोपक्रान्तिक तिर्यंच अथवा मनुष्यों में उत्पन्न होकर सबसे कम प्रायु के भीतर नरकायु बाँधकर मरकर पुनः नरक में उत्पन्न होने वाले जीव के नरकगति से अन्तम टूर्त प्रस्तर पाया जाता है। अधिक से अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्तकाल तक नरवगति में नारको जीव का अन्तर होता है, क्योंकि नरक से निकलकर अविवक्षित गतियों में व एकेन्द्रियों में प्रावली के असंख्यातवें भागप्रमारण पुद्गल परिवर्तन काल तक परिभ्रमण करके पुनः नरक में उत्पन्न होने पर यह अन्तरकाल पाया जाता है ।
मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यमिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में नारकी होते हैं ।६ सासादनगुणस्थान के साथ नरक में उत्पत्ति का विरोध है ।" सम्यग्दृष्टि (क्षायिक या कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि ) मरकर प्रथम पृथ्वी (नरक) में उत्पन्न होते हैं, किन्तु द्वितीयादि पृथिवियों (नरकों) में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते।
प्रथम नरक तक प्रसंज्ञी, द्वितीय नरक तक सरीसर, तीसरे नरक तक पक्षी, चौथे नरक तक भजंगादि, पानवे नरक तक सिंह, छटे नरक तक स्त्री, सालब नरक तक मत्स्य एवं मनुष्य उत्पन्न होते हैं।
नरक से निकले हुए जीव गर्भज, कर्मभूमिज. संजी एवं पर्याप्त मनुष्य या ति मन्त्रों में हो जन्म लेते हैं, किन्तु सातवें नरक से मिथ्यात्य सहित ही निकलता है और तिर्यंचों में उत्पन्न होता है। नरक से निकलकर जीव नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र और चक्रवर्ती नहीं होते, किन्तु प्रथमद्वितीय व तृतीय नरक से निवलकर तीर्थकर हो सकता है । चतुर्थ नरक से निकलकर चरमशरीरी, पाँचवें से निकलकर संयमी, छठे नरक से निकलकर देशवती, सान से निकलकर बिरले ही सम्यक्त्व को धारण करते हैं। प्रथमादि तीन नरकों में कोई जातिस्मरण से, कोई दुर्वार वेदना से और कोई देवों द्वारा धर्मोपदेण से सम्यग्दर्शन को ग्रहण करते हैं। शेप चार नरकों में नारको जातिस्मरण और वेदनानुभव से सम्यग्दर्शन को ग्रहण करते हैं। इन चार नरकों में देवकृत धर्मोपदेष्टा नहीं है. क्योंकि देवों का गमन तीसरे नरक तक ही होता है, उससे नीचे नहीं। विशेष. . ध. पृ. ६ गति-प्रागति चूलिका के कथन में पृ. ४८४ सूत्र २०५ में श्री भूतवली प्राचार्य ने लिखा है कि मानवे नरक से निकलकर सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्व प्राप्त नहीं करता है ।
नारकी जीव संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक होते हैं तथा उनके वैऋिषिक शरीर होता है।
१. तिलोयपालि दुसरा अधिकार । २. त.म.प्र.६। ५. घ.पु. ७ पृ. १८७-८ । ६. प.गु. १ पृ. २०४ सूत्र २५। १. ति. प. दुसरा अधिकार ।
३. त.मू. प्र. ७ ४. घ.. ७ पृ. २४५ । ७. प.पु. १ पृ. २०५ । ८, प. पु. १ पृ. २०७1
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२०२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १४%
तिवंचर्गात का स्वरूप तिरियति कुडिलभावं, सुविउलसण्णा गिगिट्टिमण्णाणा ।
अच्चतपावबहुला, तह्मा तेरिच्छया भरिगया ।।१४८।। गायार्थ—जो मन-वचन-काय की कुटिलता को प्राप्त हैं, जिनके आहारादि की संज्ञा सुव्यक्त है, जो निकृष्ट अज्ञानी हैं और जिनके अत्यधिक पाप की बहुलता पायी जाती है, वे तिर्यंच' कहे गये हैं ।।१४८।।
विशेषार्थ -समस्त जाति के तिर्यनों में उत्पत्ति का जो कारण है. बह तिर्यंचगति है। अथवा तियंचगति नामकर्म के उदय से प्राप्त तियंच पर्यायों का समूह बह तिर्यंचगति है। अथवा तिरस्, चक्र, कुटिल ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं अत: जो कुटिलभाव को प्राप्त होते हैं, वे तिर्यंच हैं। तिर्यचों की गति तिर्यंचगति है ।
तिर्यंचों को जो सुख-दुःख होता है वे उसको अपने मन में सहन कर लेते हैं। वचनों के द्वारा दुसरों को प्रकट नहीं कर सकते या सुख-दुःख में भाग लेने के लिए दूसरों को बुला भी नहीं सकते। मुख में जो वृत्ति होती है बहू काय से नहीं करते । यद्यपि मुशिक्षित लोता मैना प्रादि संजी पंचेन्द्रिय तिर्यचों में से किसी के मन-वचन-काय की ऋजु प्रवृत्ति होती है तथापि एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञ पंचेन्द्रिय तियच तक व प्रशिक्षित-संजी पंचेन्द्रिय तिर्यंच प्रायः मन-वचन-काय के कुटिल भावों में प्रवर्तते हैं। मनुष्य एकान्तक्षेत्र में व नियतकाल में भोजन, मैथुन आदि क्रिया करता है, किन्तु मनुष्यों के समान नियंत्रों की ये क्रियाएँ गढ़ क्षेत्र में नहीं होती, सुविवत स्थान में प्रकट रूप से होती हैं। मनुष्यों के समान तिर्यंचों में गुण दोष का विवेफ, नित्यथुताभ्यास व तत्त्वज्ञानादि शुभोपयोग नहीं होता इसलिए तिर्थचों को अज्ञानी कहा गया है। तियंत्रों में महाव्रत, गुण व शील का अभाव होने से और एकेन्द्रियादि में सम्यग्दर्शनादि शुभोपयोग का अभाव होने से तीवसंक्लेश परिणामों की प्रचुरता होने से तिर्यचों में अत्यन्त पापबहुलता कहना युक्त ही है।'
तिर्यचगति के दुःखों का वर्णन स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में गाथा ४० से ४३ में इस प्रकार है
"अनेक प्रकार के तिर्यंचों में जन्म लेकर वहाँ गर्भावस्था में भी छेदन आदि के दुःख पाता है। एकेन्द्रिय, विकलत्रय संज्ञी-असंज्ञी पंचेन्द्रिय आदि नाना प्रकार के तिर्यचों में उत्पन्न होकर गर्भ व सम्मुर्छन जन्म में छेदन, शीत, उष्ण, भूख, प्यास आदि के दुःख पाता है। तिर्यंचों में सर्वत्र भौतिकृत भयानक दुःखों को महता है। बलवान व्याघ, सिंह, भाल, बिलाव, कुत्ता, मगरमच्छ मादि बलहीन तिर्यंचों को मार डालते हैं, भक्षरण पर जाते हैं। म्लेच्छ, भील, धीवर आदि पापी दुष्ट मनुष्यों के द्वारा मारा जाता है। सर्वत्र भयभीत होकर मारा-मारा फिरता है । तिर्यच परस्पर एक दूसरे को खा जाते हैं अतः दारुण दुःखों को सहते हैं। भूख, प्यास ताड़न, मारण, वध, बन्धन,
१. ध, पु. १ पृ. २०२ पर भी यह गाथा कुछ पा भेदठ के साथ है। तद्यया—'सुविटल' के स्थान पर 'सुवियर्ड' और 'भगिया' के स्थान पर 'णाम पाठ है । प्रा. पं. सं. पृ. ५७६ गा. ६२, वहां भी 'सुवियर्ड' पार है। 'गिग मिटि के स्थान पर 'गिगट्ठ' गाठ है। २. घ. पु. १ पृ. २०२। ३. श्रीमदभषचन्द्रसूरि कृत टीका।
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गाथा १४८
गतिमार्गमा/२७३ प्रतिभारवहन आदि अनेक प्रकार के दुःख सहते हैं ।" तियंचगति के दुःख प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। मायाचारी के कारण तिर्यंचायु का वध कर जीव तिर्यचों में उत्पन्न होकर नाना प्रकार के दुःखों को सहता है ।।
तिर्यंचगति में तिर्यंचजीव द्रव्यप्रमाण से अनन्त हैं, काल की अपेक्षा अनन्तानन्य अवसर्पिणी और उत्सपिणियों से अपहृत नहीं होते हैं ।
शङ्का-तिपंच जीव अनन्तानन्त अवसर्पिणी और उत्सपिणियों से क्यों नहीं अपहृत होते ?
समाधान—क्योंकि यहाँ पर केवल अतीतकाल सम्बन्धी उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल का ग्रहण किया गया है ।
तिर्यच पाँच प्रकार के होते हैं--सामान्यतियंच, पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिनी और पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्त (लब्ध्यपर्याप्त)। इनमें से सामान्य तिर्यंचों की संख्या का कथन ऊपर कर चुके हैं।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंचपर्याप्त, पंचेन्द्रिय तियंचयोनिनी, पंचेन्द्रियतिथंच अपर्याप्त असंख्यात हैं।
तिर्यंचगति से तिर्यंचजीव का अन्तर कम से कम क्षुद्भवग्रहण मात्र काल तक होता है, क्योंकि तियंचगति से निकलकर मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक में उत्पन्न हो कदलीधात युक्त क्षुद्रभवग्रहण मात्र काल तक रहकर पुन: तिर्यंचों में उत्पन्न हुए जीव के क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण अन्तर पाया जाता है । अधिक से अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व काल तक तिर्यचगति से अन्तर पाया जाता है, क्योंकि तियंचजीव के तिर्यंचों में से निकलकर शेष गतियों में सागरोपमशतपृथवत्व काल से ऊपर ठहरने का अभाव है। किन्तु पंचेन्द्रिय तिर्यंच चतुष्क का उत्कृष्ट अन्तर असंख्यातपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्तकाल होता है, क्योंकि विवक्षित गति से निकलकर एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय आदि अविवक्षित गतियों में असंख्यात पुद्गल परिवर्तन काल तक परिभ्रमरण कर विवक्षित गति में उत्पन्न होने पर यह अन्तर काल गाया जाता है।
तिर्यंचों में पाँच गुणस्थान होते हैं --मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंग्रत । जिसप्रकार बद्धायुष्क असंयतसम्यग्दृष्टि और मासादनसम्पष्टि गुणस्थानबालों का तिर्यंचगति के अपर्याप्तकाल में सद्भाव सम्भव है, उसप्रकार सम्यग्मिथ्याष्टि और संयतासंयतों का तिर्यत्रगति के अपर्याप्तकाल में सद्भाव सम्भव नहीं है, क्योंकि अपर्याप्त काल के साथ सम्यग्मिध्यारष्टि व संयतासंयत का विरोध है। पंचेन्द्रिय तिर्यचों के चार भेदों में भी पाँच गुणस्थान होते हैं, किन्तु लब्ध्यपर्याप्तकों में एक मिथ्याष्टि गुणस्थान के अतिरिक्त अन्य गुणस्थान असम्भव हैं 10
१. "माया तैयंग्योनस्य"(त. सू. प्र. ६ सूत्र १६)। २. विशेष के लिए देखिए प. पु. ३ पृ. ३०-३१ । ३. ध. पु. ७ पृ. २५२ । ४. घ. पु. ७ पृ. १८६ । ५. ध. पु. ७ पृ. १६ । ६. घ. पु. १ पृ. २०७ । ७. घ. पु. १ पृ. २०८ ।
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२०४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १४९
• शङ्का-तिर्यचनियों के अपर्याप्तकाल में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का प्रभाव कैसे माना जा सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि तियचनियों में असंयतसभ्यष्टियों की उत्पत्ति नहीं होती। शङ्का-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान---यह निम्न गाथा सूत्र से जाना जाता है
छसु हेट्ठिमासु पुढधोसु जोइस-चरण-भवरण-सव-इत्थीसु ।
रणेदेसु समुप्पज्जइ सम्माइट्ठी दु जो जीयो ॥१३३॥ अर्थात-प्रथम नरक पृथ्वी के अतिरिक्त नीचे की छह नरक पृथिवियों में, ज्योतिषीबाणव्यन्तर और भवनवासी देवों में, गर्वप्रकार की स्त्रियों में सम्यग्दृष्टजीव उत्पन्न नहीं होता।'
तियचों में चौदह जीवसमास होते हैं।
तिर्यंच जीवों के चारों संज्ञाएं, समस्त इन्द्रियाँ, छहों काय, ग्यारह योग (वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक और आहारक मिश्र को छोड़कर), तीनों वेद, क्रोधादिक चारों कषाय, छह ज्ञान (३ ज्ञान ३ अज्ञान), दो संयम (असंयम, देशसंयम), केवलदर्शन को छोड़कर शेष तीन दर्शन, द्रव्य और भावरूप से छहों लेश्याएँ, भव्यत्व-अभव्यत्व और ग्रहों सम्यक्त्व होते हैं। ये सब तिमंच संज्ञी एवं प्रसंजी, आहारक एवं अनाहारक तथा ज्ञान एवं दर्शनरूप दोनों उपयोगों सहित होते हैं।
__ कितने ही तिर्यच जीव प्रतिबोध से और कितने ही स्वभाव से भी प्रथमोपशम एवं वेदक सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं। इसके अतिरिक्त बहुत प्रकार के तिथंचों में से कितने ही मुख-दुःख को देखकर, कितने ही जातिस्मरण से, कितने ही जिनेन्द्र महिमा के दर्शन से और कितने ही जिनबिम्ब के दर्शन से प्रथमोपशम एवं वेदक सभ्यपत्य को ग्रहण करते हैं।'
मनुष्यगति का स्वरूप "मण्णंति जदो पिच्चं, मणेण णि उरणा मणुक्कड़ा जम्हा । मण्णुब्भवा य सम्थे, तम्हा ते माणुसा भरिणदा ॥१४६॥
गाथार्थ-जो नित्य ही हेय-उपादेय को जानते हैं, शिल्प आदि अनेक कलाओं में प्रवीण है, धारणा प्रादि दृढ़ उपयोगवाले हैं और मनु (कुलकरों) की सन्तान हैं, अत: वे मनुष्य हैं ऐसा कहा गया है ।।१४६।।
विशेषार्थ-जो जीव निरन्तर हेय-उपादेय, तत्व-प्रतत्त्व, प्राप्त-अनाप्त तथा धर्म-अधर्म के
१ घ. पु. ६ पृ. २०१। २. ति, प. अधिकार ५, गाथा ३०७-३०६। ३. ति. प. अ. ५ गाथा ३१०-३११ । ४. प्रा. पं. सं. (जानपीठ) पृ. १३ गा. ६२. ब पृ. ५७६ गा, ६३-"मण्णंति जदो णिचं भगए गिउण। जदो दु जे जीवा । मषटक्कड़ा य जम्हा सम्हा ते माणुसा भणिया ।"
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गाथा १४६
गतिमागणा/२०५
विषय में विचार करके निश्चय करते हैं, अवधारण करते हैं, आचरण करते हैं, सूक्ष्म रहस्य को जानते हैं, दूरदर्शी हैं, जिनके चिरकाल तक धारणा बनी रहती है और जो सातिशय उपयोग से विशिष्ट हैं, वे मनुष्य हैं । अथवा जब भोगभूमि का काल समाप्त होने लगा और कर्मभूमि का काल प्रारम्भ होने लगा तब प्रतिश्रुत प्रथम मनु (कुलकर) से लेकर भरत चक्रवर्ती पर्यन्त १६ मनु (कुलकर) युग (चतुर्थकाल) की प्रादि में हर जिन्होंने उस समय की कठिनाइयों को दूर करने का उपाय प्रजा को बतलाया और जीवन सुखरूप रहे ऐसा उपदेश दिया, इसलिए वे पिता तुल्य हुए। कर्म भूमि में जो मनुष्य हैं बे सब उनकी सन्तान हैं। मनु की सन्तान होने के कारण उनकी भी मनुष्य संज्ञा है।
मनुष्य मानुषोत्तर पर्वत तक ही पाये जाते हैं २ मानुषोत्तर पर्वत से परे मनुष्य नहीं पाये जाते। मनुष्यों का स्थान जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और आधा पुष्कर वरद्वीप ये ढाईद्वीप तथा लवणसमुद्र व कालोदधि ये समुद्र जिनकी विष्कम्भसूची ४५००००० योजन है, वहीं तक है । अर्थात् अन्य तीन गतियों की अपेक्षा मनुष्यों का स्थान सबसे अल्प है अर्थात् असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
शङ्का----मनुष्यों का क्षेत्र ४५००००० लाख योजन होने का क्या कारण है ?
समाधान-मनुष्यगति से ही जीव मुक्त होकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त होता है, अन्य तीन गतियों से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। सिद्धक्षेत्र का प्रमाण ४५००००० योजन है, अतः मनुष्यक्षेत्र का प्रमाण भी ४५७०००० योजन है ।
शङ्का-किसी भी स्थान से जीव मुक्त होकर सिद्धक्षेत्र पर जा सकता है, ऐसा क्यों न मान लिया जाये?
समाधान- मुक्त जीवों की गति एक समय मात्र में मोड़ा रहित होती है। जिस स्थान से जीब मुक्त होता है, ऋजुगति से जाकर ठीक उस स्थान के ऊपर सिद्धक्षेत्र में जाकर विराजमान हो जाता है। यदि सिद्धक्षेत्र के नीचे के स्थान के अतिरिक्त अन्यस्थान से मुक्ति हो तो सिद्धक्षेत्र में जाने के लिए उस जीव को मोड़ा लेना पड़ेगा और आर्ष से विरोध आ जाएगा।
शङ्का--नारकियों को मुक्ति की प्राप्ति क्यों नहीं होती ?
समाधान--नारकियों के नित्य ही अशुभ लेश्या होती है। कृष्णा, नील, कापोत अशुभ लेश्या हैं । अशुभलेश्यावाला संयम धारण नहीं कर सकता और संयम. के बिना मुक्ति नहीं हो सकती।
शङ्का-देवों के शुभ लेश्या ही होती है फिर देव मुक्ति क्यों नहीं प्राप्त करते हैं ?
समाधान-देवों के शुभ लेश्या होते हुए भी उनके अाहार प्रादि की पर्याय नियत है। जिनकी पर्याय नियत होती हैं वे संयम धारण नहीं कर सकते, क्योंकि वे स्वेच्छापुर्वक आहारादि का
१. श्रीमदभयचन्द्रसूरि कृत टीका। २. "प्राङ् मानुषोत्तरान्मनुष्या." स. सू. प्र. ३ सूः ३५। ३. "अविग्रहा जीवस्य" प्र. २ सू. २७"(त. सू.)। ४. "नारकानित्माशुभतरलेश्या......."[प्र. ३. सू. ३ त. सू.] ।
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२०६/गो. सा. जीव काण्ड
गाथा १४६
त्याग करके उपवासादि नप धारण नहीं कर सकते। निर्जरा का मुख्य कारण तप है ।'
शङ्का - तिर्यंच मोक्ष क्यों नहीं जाते ?
समाधान-तियचों के नीचगोत्र का ही उदय है और जिनके नीचगोत्र का उदय होता है वे भी संयम धारण नहीं कर सकते ।
शङ्का-क्या सभी मनुष्य मोक्ष जा सकते हैं ? समाधान----कर्मभूमिज मनुष्यों को ही मोक्ष होता है. भोगभूमिज मनुष्यों को मोक्ष नहीं होता।
शङ्खा --भोगभूमिज मनुष्यों के वज्रर्षभनारात्रसंहनन भी होता है और तीन शुभ लेण्या भी, फिर उनको मोक्ष क्यों नहीं होता?
समाधान-भोगभुमिज मनुष्यों को प्राहारपर्याय नियत है। उत्तम भोगभूमिज मनुष्य तीन दिन के पश्चात् आहार करते हैं, मध्यम भोगभूमिज दो दिन के पश्चात् और जघन्य भोगभूमिज एक दिन के अन्तराल से आहार करते हैं। वे अपने नियतकाल से पूर्व पाहार नहीं कर सकते और नियत काल का उल्लंघन भी नहीं कर सकते अर्थात नियतकाल पर भोगभूमिज को प्रहार अवश्य ग्रहण करना पड़ता है इसलिए वे संयम धारण नहीं कर सकते। संयम बिना मात्र सम्यग्दर्शन व ज्ञान से मुक्ति नहीं हो सकती। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भो प्रवचनसार में कहा है.-"सहहमारणो अस्थे असंजदो वा ण णिव्यादि ॥२३७॥" पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भी यदि असंयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता। यह जीन श्रद्धान और ज्ञान सहित भी है परन्तु पौरुष के समान चारित्र के बल से रागद्वेषादि विकल्परूप असंयमभाव से यदि अपने को नहीं हटाता है तो ज्ञान और श्रद्धान इसका क्या हित कर सकते हैं ? अर्थात् ज्ञान और श्रद्धान इस जीव का कुछ भी हित नहीं कर सकते। इसलिए संयम से शुन्य ज्ञान व श्रद्धान से सिद्ध अवस्था प्राप्त नहीं होती।
शा-कर्मभूमिज मनुष्यों में क्या सभी मोक्ष जा सकते हैं ?
समाधान-द्रव्यस्त्रियाँ मोक्ष नहीं जा सकती, क्योंकि उनके वस्त्रों का त्याग नहीं बन । सकता ।
शङ्का-क्या सभी पुरुष मोक्ष जा सकते हैं ?
समाधान-कर्मभूमि क्षेत्र में छहखण्ड होते हैं। उनमें से एक प्रार्यखण्ड और पाँच म्लेच्छखण्ड होते हैं। म्लेच्छन्त्रण्ड में उत्पन्न हुए पुरुषों को मोक्ष नहीं होता। सब म्लेच्छखण्डों में एक मिथ्या
१. "तपसा निर्जरा " [त. सू. अ. E मू. ३]। २. "अयं जीवः श्रद्धानज्ञानमहितोऽपि पौरुपस्थानीय चारित्रवलेन रागादिबिकल्पादसंयमाद्यदि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं ज्ञान वा कि कुर्यान किमपि"[प्र. सा. गा. २३७ ता. व.] । "असंवतस्य च यथोदितात्मतत्त्वप्रतीलिरूप श्रद्धान यथोदितात्मतत्त्वानतिरूपं शानं वा कि कुर्यात ।" [प्र. सा. गा. २३७ की अमृतचन्द्राचार्य कृत टीका] । ३. ततः संयमशून्यात् श्रानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः [वहीं । ४. "भावासंयमविना भाविवस्वादिउपादानान्यथानुपपरोः ।" [ध. पु. १ पृ. ३३३] ।
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गाया १४३
गतिमार्गणा/२०७
गुणस्थान ही रहता है ।'
शङ्का - भार्यखण्ड में उत्पन्न हुए क्या सभी पुरुष दीक्षा लेकर मोक्ष जा सकते हैं ?
समाधान - श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार गाथा २२४ / १० में व श्री जयसेनाचार्य ने उसकी टीका में इसप्रकार कहा है "यण्णेसु तीसु एक्को" जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीन वर्णों में से एक हो “कल्लागो" नीरोग शरीरधारी हो “तयोसहो वयसा" तप करने में समर्थ हो, प्रतिवृद्ध व प्रतिबाल न होकर योग्य वय सहित हो। "सुमुहो" जिसके मुख का भाग भंग-दोष रहित निर्विकार हो तथा इस बात का बतलाने वाला हो कि इसके भीतर निर्विकार परम चैतन्य परिरति शुद्ध है । "कुछ रहिदो" जिसका लोक में दुराचारादि के कारण से कोई अपवाद न हो, “लगगहणे हववि जोगी" ऐसा गुणधारी पुरुष ही जिनदीक्षा ग्रहण करने के योग्य होता है ।
इससे यह सिद्ध होता है कि प्रखण्ड में उत्पन्न हुए सभी पुरुष दीक्षा ग्रहणकर मोक्ष नहीं जा
सकते ।
मनुष्यगति के दुःख - 'स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा' संसारभावना के आधार से जब यह जीव माता के गर्भ में खाता है तब वहाँ इसके श्रङ्ग - उपाङ्ग संकुचित रहने के कारण यह घोर दुःख सहता है और जन्म के समय योनि से निकलते हुए भी इसे तीव्र दुःख सहना पड़ता है। बचपन में माता-पिता मर जाते हैं तो दुःखी होता हुआ दूसरे के उच्छिष्ट भोजन से पलता है और भिखारो बनकर जीवन बिताता है। दुष्कर्मों- बुरे कार्यों को करके पापकर्मों को बाँधता है और उन पापकर्मोदय से दुःख भोगता है । आश्चर्य है कि मनुष्य फिर भी हिंसा यादि पाप करता है, दान पूजन तपश्चरण ध्यान यदि पुण्यकार्य नहीं करता। बिरले पुरुष ही वेवक या क्षायिकसम्यग्दृष्टि होकर श्रावक के १२ व्रतों को या पाँच महाव्रतों को धारणकर विशुद्ध परिणामसहित निन्दा-गर्दा करते हुए पुण्य का उपार्जन करते हैं । [अपने दुष्कृत्यों को स्वयं कहना निन्दा है । गुरु के सामने अपने दोषों को कहना गर्दा है । ] " पुण्यशाली मनुष्यों के प्रर्थात् पुण्योदय सहित मनुष्यों के भी धन, धान्य, पुत्र, स्त्री, मित्र आदि इष्ट पदार्थों का वियोग और सर्प, कण्टक व शत्रु आदि अनिष्ट पदार्थों का संयोग देखा जाता है। श्री श्रादिनाथ तीर्थंकर के पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत समर्थ होते हुए भी छोटे भाई श्री बाहुबली से पराजित होकर अपमानित हुए। बहुत पुण्यवान को भी पंचेन्द्रियों की विषय भोगरूप समस्त सामग्री व धनधान्यादि नहीं मिलते। अल्प पुण्यवाले व पुण्यहीन पुरुषों को तो मिलता ही नहीं । समरत वांछित पदार्थ प्राप्त हो जाये ऐसा पुण्य किसी के पास नहीं है। कोई मनुष्य स्त्री न होने के कारण दुःखी है और यदि किसी के स्त्री भी है तो पुत्र की उत्पत्ति न होने के कारण दुःखी है और यदि किसी के पुत्र भी हो जावे तो अनेक शारीरिक रोगों के कारण दुःखी है। यदि शरीर भी स्वस्थ नीरोग है तो धन-धान्यादि सम्पत्ति के प्रभाव के कारण दुःखी है। यदि सम्पति भी है तो बाल्यावस्था या युवावस्था में मरा हो जाने के कारण दुःखी है । कोई दुष्ट स्त्री के कारण दुःखी है, कोई जुहारी, मांसभक्षी, मद्यपयादि दुर्व्यसनी पुत्र के कारण दुःखी है । किसी का भाई या कुटुम्बी वैरी है, किसी की पुत्र दुराचारिणी है अतः वे इन कारणों से दुःखी हैं। कोई सुपुत्र मर जाने के कारण, कोई प्रियस्त्री के
१. "सम्बमिलिच्छ स्वयं प्रकाशनं निन्दनम् गर्हणं गुरुसाक्षिकात्मदोषप्रकाशनं " [ स्वा. का. गा. ४८]
मिति. प. स. प्र. गा. २६३७] । २. गा. ४५ से ५७ | ३. ग्रात्मकृतदुष्कर्मणः
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२)गो. मा. जीवकाण्ड
मर जाने, कोई घर व कुटुम्बीजनों के आग में जल जाने से दुःखी है। मनुष्यगति में यह जीव इसप्रकार क्षुधा तृषा आदि के नाना दुःख सहन करता हुआ भी अपनी बुद्धि को धर्म में नहीं लगाता और गृह व व्यापार सम्बन्धी चारम्भों को नहीं छोड़ता । संमार में आज जो धनवान है वह कल धनहीन afrat देखा जाता है और जो धनहीन है वह अनेक ऐश्वर्य व सम्पदा से युक्त देखा जाता है, राजा से सेवक बन जाता है और सेवक नरनाथ ( राजा ) हो जाता है, शत्रु मित्र बन जाता है। जैसे रामचन्द्रजी का मित्र विभीषण बन गया था। मित्र शत्रु हो जाता है जैसे रावण का शत्रु विभीषण हो गया था । यह सब विचित्रता पुण्य-पाप कर्मोदय के कारण होती है। यह सब कुछ प्रत्यक्ष देखने और अनुभव करते हुए भी इस जीव को संसार शरीर और भोगों से विरक्तता नहीं प्राती यह बड़े प्राश्चर्य की बात है ।
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यद्यपि मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त व मनुष्यनी संख्यात हैं, किन्तु लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य असंख्यात हैं। अतः सामान्य मनुष्य भी असंख्यात हैं जिनकी संख्या इसप्रकार प्राप्त की जा सकती है सूच्यंगुल के प्रथम वर्गमूल को उसके ही तृतीय वर्गमूल से गुणित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसे शलाका रूप से स्थापित कर रूपाधिक मनुष्यों और रूपादिक मनुष्य अपर्याप्तों द्वारा जगश्रेणी अपहृत होती है ।" इसका अभिप्राय यह है कि सूच्यंगुल के प्रथम वर्गमूल को सूच्यंगुल के तृतीय वर्गमूल से गुणा करने पर जो गुणनफल प्राप्त हो उस गुग्गुणनफल से जगश्रेणी को भाजित करने पर जो भागफल प्राप्त होता है वह सामान्य मनुष्यों की संख्या से एक अधिक है। इसमें से पर्याप्तमनुष्यों व मनुष्यनियों की संख्या कम कर देने से लच्ध्यपर्याप्त मनुष्यों की संख्या प्राप्त होती है।
शङ्का
-रूप का प्रक्षेप किसलिए किया जाता है ?
समाधान- - चूंकि जगणी कृतयुग्म राशिरूप है, मनुष्यराणि तेजोजरूप है, इसलिए उसमें रूप का प्रक्षेप किया जाता है ।
गाथा १४३
मनुष्यगति में एक जीव के निरन्तर रहने का उत्कृष्टकाल ४७ पूर्वकोटि अधिक तीन पयोग प्रमाण है । जो जीव प्रविवक्षित पर्याय से आकर मनुष्यगति में उत्पन्न हुआ और ४७ पूर्वकोटि तक कर्मभूमिज मनुष्यों के तीनों वेदों में परिभ्रमण करके दान देकर अथवा दान का अनुमोदन करके तीन पत्योपम प्रयुस्थिति वाले भोगभूमिज मनुष्यों में उत्पन्न हुआ उस जीव के यह उत्कृष्ट कान प्राप्त होता है । 3
कम से कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक मनुष्य का मनुष्यगति से अन्तर होता है, क्योंकि मनुष्यगति से निकलकर तिर्यचगति में उत्पन्न हो क्षुद्रभव काल तक रहकर पुनः मनुष्यगति में उत्पन्न होने सेक्षुद्रभवकाल का जधन्य अन्तर पाया जाता है। अधिक से अधिक प्रसंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्तकाल तक मनुष्य का मनुष्यगति से अन्तर होता है, क्योंकि मनुष्यगति से निकलकर एकेन्द्रियादि तिर्यचगति में प्रावली के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण मुद्गलपरिवर्तन प्रमाण काल तक भ्रमण कर पुनः मनुष्यगति में उत्पन्न होने वाले जीव के यह उत्कृष्ट अन्तरकाल पाया जाता है । *
१. व. पु. ७ पृ. २५६ सूत्र २७ ॥ २. ध. पु. ७ पृ. २५६ । पृ. १६६-१६० ।
३. व. पु. ७ पृ. १२६ ।
४.घ.पु. ७
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गतिमागंणा / २०६
मनुष्य श्रायुबन्ध के बिना जीव मनुष्यों में उत्पन्न नहीं हो सकता । अल्पारम्भ और अल्पपरिग्रह में सन्तोषी प्राणी मनुष्य - श्रायु का बन्ध करता है ।"
गाया १५०
मनुष्यगति ही ऐसी गति है जिसमें चौदह गुणस्थान सम्भव हैं, अन्य तीन गतियों में चौदह गुणस्थान सम्भव नहीं हैं ।
मनुष्य पर्याय सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि देव भी यह चाहता है कि मैं कब मनुष्य होऊँ और संयम धारण कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त करूँ, किन्तु खेद है कि मनुष्य इस अमूल्य पर्याय को पाकर भी विषयभोगों के लिए देवगति की वांछा करता है जहाँ संयम धारण नहीं हो सकता ।
तियंवों तथा मनुष्यों के अवान्तर भेट
सामगा पंचिदी, पज्जता जोणिखी अपज्जत्ता |
तिरिया गरा तहा वि य, पंचिदियभंगदो होला ।। १५० ।।
गाथार्थ - सामान्य तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रियतिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिनी, पंचेन्द्रियतियंच लब्ध्यपर्याप्तिक इस प्रकार तिर्यंचों के पाँच भेद हैं। इसी प्रकार मनुष्यों के भी भेद हैं, किन्तु पंचेन्द्रिय भंग नहीं होता ।। १५० ।।
विशेषार्थ - तिर्यंचगति में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक जीव होते हैं। सामान्य तिर्यंच में उन सर्व जीवों का ग्रहण हो जाता है। एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय तिर्यत्र नरकायु, देवायु, देवगति, नरकगति, देवगत्यानुपूर्वी, नरकगत्यानुपूर्वी वैक्रियिकशरीर, वैऋियिक गोपांग का बन्ध नहीं कर सकते, किन्तु पंचेन्द्रिय तिर्यंच इन कर्मप्रकृतियों का बन्ध कर सकते हैं। एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के तिर्यधों में एक मिध्यात्वगुणस्थान होता है, किन्तु पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में पाँच गुणस्थान सम्भव है । इत्यादि विशेषताओं के कारण पंचेन्द्रिय तिर्यत्रों का पृथक भेद किया गया है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त व लब्ध्यपर्याप्त दोनों प्रकार के होते हैं। पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यवों में तीन वेद होते हैं। गर्भंज व सम्मूर्च्छन दोनों प्रकार के होते हैं, किन्तु लब्ध्यपर्याप्तक सम्मूच्छेन जन्मवाले तथा नपुंसकवेदी ही होते हैं । अतः पंचेन्द्रिय नियंत्रों के भी पर्याप्त व लब्ध्यपर्याप्त ऐसे दो भेद हो गये। पंचेन्द्रिय तिर्यंचपर्याप्त में सम्यग्दृष्टि जीब उत्पन्न हो सकता है, किन्तु योनिनी पंचेन्द्रिय तिर्यचों में सम्यग्वष्टि जीव उत्पन्न नहीं हो सकता, इत्यादि कारणों से पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनी पृथक् भेद कहा गया है ।
मनुष्यों में सभी पंचेन्द्रिय होते हैं एकेन्द्रिय आदि जीव नहीं होते, अतः मनुष्यों में पंचेन्द्रियरूप पृथक् भेद नहीं कहा गया । मनुष्यों में चार भेद ही होते हैं- मनुष्य मनुष्यपर्याप्त मनुष्यिती और लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य | जिसप्रकार तियंत्रों में इन भेदों के कारण कहे गये हैं, वे ही काररण मनुष्यों के भेदों में भी जानना चाहिए। मनुष्यनी से प्रयोजन भावमनुष्यिती से है । कर्मभूमि में ही वेद-वैषम्य है । जो द्रव्य से तो पुरुषदेवी हैं अर्थात् जिनके शरीर की रचना तो पुरुषों के शरीर के समान है, किन्तु भाव स्त्री जैसे हैं वे मनुष्यनियों ही में ग्रहण किये गये हैं। मनुष्यिनियों के छहों संहनन व चौदह
१. "पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य " ( त. सू. प्र. ६ ) ।
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२१०/गो, सा. जीवकाण्ड
गाथा १५१ गुणास्थान सम्भब हैं, किन्तु महिलाओं के तीन हीन संहनन' व पांच गुणस्थान' ही हो सकते हैं, अतएव उनके संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती ।
शङ्का-मनुष्यिनियों में चौदहगुणस्थान होते हैं, यह कथन कैसे सम्भव है ?
समाधान नहीं, क्योंकि भावस्त्री युक्त मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों का सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं पाता।
शङ्का- बादर कषाय नाँव गुणस्थान के ऊपर भाववेद नहीं पाया जाता है, इसलिए भाववेद में चौदह गुणस्थानों का सद्भाव नहीं पाया जाता है। [ अनिवृत्तिगुरणस्थान में वेदोदय की व्युच्छित्ति ही जान पर अवेद अवस्था हो जाती है । सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान से लेकर प्रयोगकेवली गुणस्थान तक पाँच गुणस्थान प्रवेदी के होते हैं । ]
समाधान नहीं, क्योंकि यहाँ पर वेद को प्रधानता नहीं है, किन्तु गति प्रधान है और वह गति पहले नष्ट नहीं होती।
शङ्का--यद्यपि मनुष्यगति में चौदहगुणस्थान सम्भव हैं फिर भी उसे वेद विशेषण से युक्त कर देने पर उसमें चौदह गुणस्थान सम्भव नहीं हो सकते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि विशेषरण के नष्ट हो जाने पर भी उपचार से उस विशेषण युक्त संज्ञा को धारण करने वाली मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों का सदभाव मान लेने में कोई विरोध नहीं पाता है।
देवों का स्वरूप दोव्वंति जदो पिच्चं, गुणेहि अट्ठ हि दिव्यभावेहिं ।
भासंत विश्वकाया, तह्मा ते वणिया देवा ॥१५॥ गाथार्थ -जो दिव्य भाव युक्त पाठ गुणों से निरन्तर क्रीड़ा करते हैं और जिनका शरीर प्रकाशमान व दिव्य है, वे देव कहे गये हैं ।। १५१।।
विशेषार्थ-जो अणिमा आदि पाठ ऋद्धियों की प्राप्ति के बल से क्रीड़ा करते हैं, वे देव हैं। देवों की गति देवगति है। अथवा जो अणिमादि ऋद्धियों से युक्त 'देव' इस प्रकार के शब्द, ज्ञान और व्यवहार में कारणभूत पर्याय का उत्पादक है, ऐसे देवगति नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई पर्याय को देवगति कहते हैं । यहाँ कार्य में कारण के उपचार से यह लक्षण किया गया है।
जो देवपर्याय के कारण अणिमा आदि आठगुणों (ऋद्धियों के द्वारा बीड़ा करते हैं, तीनों लोकः (ऊर्वलोक, मध्यलोक, अधोलोक) में परिवार सहित बिना रुकावट के विहार करते हैं,
१. गो. क. गाथा ३२ । २. "सवासरत्वादप्रत्यारूपानगुणस्थितिनां संयमानुपपत्तेः ।" (प. पु. १ पृ. ३३३)। ३. प. पु. १ पृ. ३३३ । ४. श्र.पु. १ पृ. २०३ । प्रा. पं. स(सानपीठ)पृ. १३ गा. ६३ ; पृ. ५७६ गा. ६४ किन्तु 'दिवंति' के स्थान पर कीडंति पाठ है। ५. ध, पु. १ पृ. २०३ ।
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गाथा १५१
गतिमार्गणा/२११
पंचपरमेष्ठी की स्तुति करते हैं, सदा पंचेन्द्रिय के विषयभोगों से सुखी रहते हैं, रूप, लावण्य श्रीर यौवन से जिनका वैक्रियिक शरीर जाज्वल्यमान प्रकाशमान रहता है, वे जीव देव हैं । '
देवों में दुःख - जिस किसी प्रकार महान् कष्टों से चार प्रकार के देवों में उत्पन्न होता है। इन्द्र, सामानिक, त्रास्त्रिशदादि महाऋद्धिधारी देवों की विक्रिया आदि ऋद्धियों को तथा सम्पदा ( विभूति) को देखकर मानसिक दुःख होता है । इन्द्र, सामानिक, त्रयस्त्रिशत् आदि महाऋद्धि वाले देवों को पाँच इन्द्रियों के सुख की तृष्ण से तथा प्रिय देवाङ्गना आदि के वियोग से दुःख होता है। जिन जीवों का सुख पाँच इन्द्रियों के स्पर्श आदि विषयों के आधीन है उनकी तृप्ति कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती । तृप्ति न होने से भोगों की तृष्णा निरन्तर बनी रहती है जिसके कारण वे सदा दुःखी रहते हैं। यद्यपि देवों को शारीरिक दुःख प्रायः नहीं होता है, क्योंकि उनके सुर्वक्रियिक शरीर है, किन्तु उनको मानसिक दुःख होता है। शारीरिक दुःख से मानसिक दुःख अतिप्रचुर होता है। जिसको मानसिक दुःख या चिन्ता होती है उसको विषयभोग, सुखदायक सामग्री भी दुःखदायक लगती है। देवों का सुख देवियों के नवशरीर, विक्रिया आदि मनोहर विषयों के श्राधीन है, वह विषयजनित सुख भी कालान्तर में द्रव्यान्तर के सम्बन्ध से दुःख का कारण बन जाता है, क्योंकि देवियों की लेश्या, आयु व बल देवो से भिन्न प्रकार का होता है। * इसलिए वे देवाङ्गनाएँ कालान्तर में दुःखदायक बन जाती हैं । ग्रन्य सुखदायक इष्ट सामग्री का परिणमन भी इच्छानुसार न होने से वह इष्टसामग्री भी दुःख का कारण हो जाती है ।
"एवं सुट्ठ प्रसारे संसारे दुक्ख - सायरे धोरे ।
कि कर व प्रत्थि सुहं वियारमाणं सुणिच्छियदो ॥ ६२ ॥
-यदि परमार्थं से विचारा जावे तो अत्यन्त साररहित दुःख के सागररूप संसार में किसको कहाँ सुख हो सकता है अर्थात् इस असार संसार में जब देव भी दुःखी हैं तो अन्य किसी को सुख कैसे हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि सभी प्राणी दुःखो हैं ।
देवों के भेद - देव चार निकाय वाले हैं। * भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक | जिनका स्वभाव भवनों में निवास करना है, वे भवनवासी हैं। असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार बातकुमार, स्तनितकुमार उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिवकुमार के भेद से दस प्रकार के भवनवासी देव हैं। इनकी वेश-भूषा, शस्त्र, थान वाहन और क्रीड़ा आदि कुमारों के समान हैं इसलिए सब भवनवासियों में कुमार शब्द है । रत्नप्रभा पृथ्वी के पंकबहुल भाग में असुरों के भवन हैं और खरभाग में शेष नौ प्रकार के भवन हैं । " जिनका नानाप्रकार के देशों में निवास है वे व्यन्तरदेव हैं । वे आठप्रकार के हैं किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच । रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में सातप्रकार के व्यन्तरों के तथा पंकबहुल भाग में राक्षसों के श्रावास हैं। ज्योतिर्बंध होने के कारण इनकी ज्योतिषी संज्ञा है । सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीक ये पाँच प्रकार ज्योतिषी देवों के हैं ।
१. सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमदभयचन्द्र सूरि कृत टीका । २. स्वामितकेयानुप्रेक्षान्तर्गत मे ६९ । ३. प्र. पु. १ पृ. ३३६ ॥ ४. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा संसार भावना (त. सू. प्र. ४ सु. १ ) ६. सर्वार्थसिद्धि ४ / १० । ७. सर्वार्थसिद्धि ४ / ११ ।
संसार भावना गाया ५८ ५. "देवाश्चतुशिकायाः "
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२१२/मो. सा. जीवकाण्ट
गाथा १५२
भूमिभाग से ७९० योजन ऊपर जाकर नौ सौ योजन तक ज्योतिषीदेवों से व्याप्त नभःप्रदेश ११० योजन मोटा और घनोदधि वातवलय पर्यन्त असंख्यात द्वीप-समृद्र तक विस्तृत लम्बाई वाला है।' जो विशेषतः अपने में रहने वाले जीवों को पुष्मात्मा मानते हैं के दिमान हैं और दोन विमानों में होते हैं, वे वैमानिक हैं। कल्पोपपत्र और कल्पातीत के भेद से वे दो प्रकार के हैं। कल्पोपपन्न में १६ स्वर्ग हैं--सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, प्रतार, सहस्रार, ग्रानत, प्राणत. पारण और अच्युत । इन १६ स्वर्गों में १२ इन्द्र होते हैं क्योंकि मध्य के पाठ स्वर्गों में चार इन्द्र होते हैं। इनके ऊपर नौ ग्रेवेयक, नवअनुदिश और विजय, वैजयन्ल, जयन्त, अपराजित, सत्रार्थसिद्धि ये पांच अनुत्तर विमान हैं। इन सबकी कल्पातीत संज्ञा है, क्योंकि इनमें मब अहमिन्द्र होते हैं।
देवगति में एक जीव के रहने का काल जघन्य से १० हजार वर्ष है, क्योंकि तिर्यंच या मनुष्यों से निकलकर जघन्य आयु वाले देवों में उत्पन्न होकर वहां से च्युत होने वाले जीव के १० हजार वर्ष मात्र काल देवगति में पाया जाता है। अधिक से अधिक तंतीस मागरोपम काल तक जीव देवगति में रहना है, क्योंकि तैतीस सागर की देवायु बाँधकर सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न होतर तैतीस सागरोपम काल तक वहां रहकर निकले हुए जीव के उक्त काल पाया जाता है।
शङ्का -दीर्घायु स्थितिवाले देवों में सात-पाठ भवों का ग्रहण करने से और भी अधिककाल देवगति में पाया जा सकता है।
समाधान- नहीं पाया जा सकता। देव, नारकी, भोगभूमिज तियंत्र और भोगभूमिज मनुष्य, इनके मरने पर ठीक तत्पश्चात् उसी पर्याय में उत्पत्ति नहीं पाई जाती, क्योंकि इसका अत्यन्ताभाव
एक जीव का देवगति से जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त काल तक होता है, क्योंकि देवगति से प्राधर गोपक्रान्तिक पर्याप्त तिर्यचों या मनुष्यों में उत्पन्न होकर पर्याप्तियां पूर्णकर देवायु बांध पुन: देवों में उत्पन्न हुए जीव के देवगति से अन्नमुहत अन्तर पाया जाता है। अधिक से अधिक असंख्यात पुद्गल परिबर्तन प्रमाण अनन्त काल तक अन्तर होता है, क्योंकि देवगति से आकर शेष तीन गतियों में अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गल परिवर्तन काल तक पग्भ्रिमरण करके पुनः देवगति में उत्पन्न होने में कोई विरोध नहीं है।
सिद्धगति का स्वरूप *जाइजरामरणभया, संजोगविजोगदुक्खसण्णाभो ।
रोगादिगा य जिस्से, ण संति सा होदि सिद्धगई ॥१५२॥ गाथार्थ - जहाँ जन्म, जरा, मरण, भय, संयोग, वियोग, दुःख, संज्ञा और रोगादिक नहीं होते वह सिद्धगति है ।।१५२।।
विशेषार्थ--गतिमार्गणा के अन्तर्गत सिद्धों के स्वरूप का कथन होने के कारण यद्यपि गाथा
१. सर्वार्थसिद्धि ४/१२ । २. सर्वार्थ सिद्धि ४/१६ मे १६ । ३. व. पु. . १२७ सूत्र २६-२७ की टीका। ४, .पु. ७ पृ. १८६-६०। ५. प.पु. १ पृ. २०४ तथा प्रा.पं. सं. (मानपीठ) पृ. १४ गा. ६४, पृ. ५७६ गा. ६५ ।
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गाथा १५२
गतिमार्गगणा/२१३
में तथा धवल पु. १ सूत्र २४ में सिद्धों के साथ 'गति' शब्द का प्रयोग उपचार से किया गया है नथापि गा. १४६ में तथा धवल पु. १ पृ. १३४-३५ पर गति का जो लक्षण दिया गया है उससे सिद्धों का निराकरण हो जाता है, क्योंकि सिद्धों के गति नामझाम का उदय नहीं है । ध. पु. १ पृ. १३४ पर तो इस विषय को स्पष्ट करते हुए कहा है कि-गति का ऐसा लक्षण करने से सिद्धों के साथ अतिव्यापित दोष भी नहीं पाता, क्योंकि सिखों के द्वारा प्राप्त करने योग्य गुरणों का अभाव है।" गति नामकर्मोदय के अभाव के कारण सिद्धगति प्रगति कहलाती है, अथवा एक भव से दूसरे भव में संक्रान्ति का नाम गति है और सिद्धगति असंक्रान्तिरूप है ।'
कर्म के वश से भव-भव में अपने शरीरपर्याय की उतात्ति होना जन्म है। इस प्रकार उत्पन्न हुई शरीर-पर्याय का बयरूप हानि के द्वारा शीर्ण होना बुद्धता है। अपनी आयु का क्षय हो जाने के कारण इस शरीरपर्याय का व प्राणों का त्याग सो मरण है। अनर्थ की आशंका के कारण अपकारक पदार्थों से भाग जाने की इच्छा सो भय है। क्लेश के कारणभूत अनिष्ट द्रव्यों का संगम सो संयोग है। सुख के कारणभूत इष्ट द्रव्यों का नाश सो वियोग है। इनसे उत्पन्न हुआ आत्मा का निग्रह सो दुःख है। शेष तीन माहार, मेथुन व परिग्रह की वांछा सो संज्ञा है। रोग, मानभंग, वध, बन्धन आदि की वेदना जिस गति में नहीं है और न उत्पन्न होती है, वह सिद्धगति है। क्योंकि इनकी उत्पत्ति के कारगभूत कर्मों का भय हो गया है । परनन्त जान-दर्शन-मुख-वीर्यादि अपने स्वाभाविक गुणों की उपलब्धिरूप सिद्धपर्याय है। इस सिद्भगति की प्राप्ति उस जीव को होती है जिसने परम प्रकृष्ट रत्नत्रय से परिगात होकर शुक्लध्यान विशेष से उत्पन्न हुए संवर निर्जरा के द्वारा समस्त कर्मों का क्षय करके अपनी मुक्तावस्था प्राप्त कर ली है और स्वाभाविक ऊर्ध्वगमन के द्वारा लोक का अग्रभाग प्राप्त कर लिया है, ऐसी सिद्धपरमेष्ठी पर्यायरूप सिद्धगति होती है ।
आत्मस्वरूप की प्राप्ति अर्थात् अपने सम्पूर्ण गुणों से यात्मस्वरूप में स्थित होना सिद्धि है। ऐसे सिद्धि स्वरूप की गति सिद्ध गति है । ३ सिद्ध, निष्ठित, निष्पन्न, कृतकृत्य और सिद्धसाध्य ये एकार्थवाची नाम हैं । जिन्होंने समस्त कर्मों का निराकरण कर दिया है, वाह्य पदार्थों की अपेक्षा रहित-अनन्तअनुपम-स्वाभाविक और प्रतिपक्ष रहित ऐसे सुख को जिन्होंने प्राप्त कर लिया है, जो निलेप हैं, अचलस्वरूप को प्राप्त हैं, सम्पूर्ण अवगुणों से रहित हैं, सर्वगुरणों के निधान हैं, जिनका स्वदेह अर्थात प्रात्मा का प्राकार चरमशरीर से कुछ न्यून है और जो लोक के अग्रभाग में विराजमान हैं वे सिद्ध हैं।
माण्डलिक मत बाले यह मानते हैं कि जीव का ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने के कारगा प्राकाश में ऊपर-ऊपर चले जा रहे हैं, कहीं पर भी ठहरते नहीं। कर्मो का अभाव हो जाने के कारण ऊ बंगमन स्वभाव में कोई बाधा डालने वाला नहीं रहा । आचार्य कहते हैं कि कार्य की सिद्धि अन्न रंग और बहिरंग दोनों कारणों से होती है । धर्मद्रव्य बाह्य (निमित्त) कारण और ऊबंगमन स्वभाव अन्तरंग (उपादान) कारण हैं । लोकाकाण के अन्त तक हो धर्मद्रव्य का सद्भाव है। उससे आगे धर्मद्रव्य का अभाव है । अतः निमित्तकारण (धर्मद्रव्य) के प्रभाव के कारण सिद्ध भगवान में कार्वगमन
१. “गदिकम्मोदयाभावासिद्धि गदो अगदी । अथवा भवाद्भवसंक्रान्तिर्गतिः प्रक्रान्तिः सिद्धगतिः । (ध.पु. ७ पृ. ६)। २. "मिपरमेष्ठी पर्यायका सिद्धिति भवति ।" सिद्धान्त चक्रवर्ती श्रीमदभय चन्द्रसरि कृत टीका । ३. ध. पु १ 2. २०३ । ४. ध. पु. १ पृ. २००। ५. "धर्मास्तिकायाभावात्' (त सू. प्र. १० मूत्र ) ।
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२१४ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १५३-१५४
शक्ति होते हुए भी वे लोक के अग्रभाग में स्थित हो जाते हैं । माण्डलिक कार्य के होने में निमित्त को नहीं मानता, अतः उसके खण्डन के लिए यह विशेषण दिया गया है।
नरकगति में जीवों की संख्या
सामण्णा रइया घणभंगुलाब दियमूलगुणसेढी । बिदियादि बारवस छत्तिदुरिण अपदहिया सेवी ।। १५३ ।। हेमिपुढचीणं रासिविहोरो दु सन्यराती दु । पदमावरिणमि रासी णेरइयाणं तु रिद्दिट्ठो ॥ १५४॥
गाथार्थ - घनांगुल के द्वितीय वर्गमूल से जगच्छ्रेणी को गुरिगत करने पर जो लब्ध प्राप्त हो, उतना सामान्य से सर्वनारकी जीवों का प्रसारण है। द्वितीय आदि अधस्तन छह नरकों में नारकियों का प्रमाण क्रमशः बारहवें वर्गमूल से भाजित, दसवें वर्गमूल से भाजित, आठवें वर्गमूल से भाजिल, वर्गमूल से भाजित, तीसरे वर्गमूल से भाजित तथा द्वितीय वर्गमूल से भाजित जगच्छ्रेणी प्रमाण है। नीचे की छह पृथिवियों के नारकियों का जितना प्रमाण हो उसको सम्पूर्ण नारक राशि में से घटाने पर जो शेष रहे उतना प्रथम पृथिवी के नारकियों का प्रमाण है ।। १५३ - १५४ ।।
विशेषार्थ धवल ग्रन्थ में प्रमाण तीन प्रकार से बतलाया गया है मादा की अपेक्षा, काल की अपेक्षा और क्षेत्र की अपेक्षा । यहाँ पर मात्र क्षेत्र की अपेक्षा नारकियों का प्रमाण बतलाया गया है । गणना की अपेक्षा नारकी असंख्यात हैं । काल की अपेक्षा नारकी जीव प्रसंख्याता संख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिरिंग से अपहृत होते हैं।' क्षेत्र की अपेक्षा नारकी जीव असंख्यात जगच्छ्रेणी प्रमाण हैं जो जगत्प्रतर के असंख्यात भागप्रमाण हैं। उन जगच्छ गियों की विष्कम्भसूची सूच्यंगुल के द्वितीय वर्गमूल से मुणित उसी का प्रथम वर्गमूल है।
शंका-उपयुक्त गाथा १५३ में घनांगुल का द्वितीय वर्गमूल कहा गया है और धवलग्रन्थ में 'शुच्यंगुल के द्वितीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल' कहा गया है। इन दोनों प्रार्थग्रन्थों में विषमता क्यों है ?
समाधान--- इन दोनों प्राग्रन्थों में विषमता नहीं है, मात्र शब्दों की विभिन्नता है। दोनों की राशि का प्रमाण समान है, उसमें विभिन्नता नहीं है ।
शङ्का - समानता किस प्रकार है ?
समाधान-सूच्यंगुल के द्वितीय वर्गमूल से सूच्यंगुल के द्वितीय वर्गमूल को गुणा करने पर सूच्यंगुल का प्रथम वर्गमूल आता है। सूच्यंगुल का प्रथम वर्गमूल गुरिणत द्वितीय वर्गमूल अर्थात् द्वितीय वर्गमूल गुणित द्वितीय वर्गमूल पुनः गुणित द्वितीय वर्गमूल (द्वितीय वर्गमूल x द्वितीय वर्गमूल X द्वितीय वर्गमूल ) । इस प्रकार परस्पर गुणित करने पर सूच्यंगुल के द्वितीय वर्गमूल का घन (सूच्यंगुल का द्वितीय वर्गमूल ) प्राप्त होता है जो प्रांगुल के द्वितीय वर्गमूल के समान है ।
१. ध. पु. ७ पृ. २४४ सूत्र २-३ । २. पू. ७ . २४५ सूत्र ४-५ । ३. घ. पु. ७ पृ. २४६ सूत्र ६ ।
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गाथा १५३-१५४
गतिमार्गरगा/२१५
शङ्का - यह भी कैसे?
समाधान-सूच्यंगुल का द्वितीय वर्गमूल - सूच्यंगुल का द्वितीय वर्गमूल x सूच्यंगुल का द्वितीय वर्गमूल ; अर्थात् “सूच्यं गुल - मूच्यंगुल x सूच्यंगुल" का द्वितीय वर्गमूल । इस प्रकार सूच्यंगुल को परस्पर तीन बार गुणित करने से सूच्यंगुल का धन प्राप्त होता है। सूच्यंगुल का धन ही घनांगुल है । अत: धनांगुल का द्वितीय वर्गमूल कहा गया है। इस प्रकार दोनों पार्षग्रन्थों में प्रमाण राशि समान है, उसमें भिन्नता नहीं है ।
शङ्का-ध.पु. ७ पृ. २४६ सूत्र १३ की टीका में कहा है कि "जगच्छ्रेणी के प्रथम बर्गमूल को आदि करके उसके बारहवें, दसवें, पाठये, छठे, तीसरे और दुसरे वर्गमूल तक पृथक्-पृथक गुणाकर व गुण्य क्रम से अवस्थित छह राशियों का परस्पर गुणा करने पर यथाक्रम से द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ और सप्तम पृथिवियों के नारकियों का प्रमाण प्राप्त होता है।" किन्तु उपयुक्त गाथा में कहा है कि जगच्छे णी को बारहवें, दसवें, आठवें, छठे, तीसरे और दूसरे वर्गमूलों से भाजित करने पर द्वितीयादि नीचे के छह नरकों के नारकियों की संख्या का प्रमाण प्राप्त होता है। इस प्रकार इन दोनों आगमों में विरोध क्यों है ?
समाधान-इन दोनों प्रागमों में विरोध नहीं है, क्योंकि दोनों आगमों में नारकियों की संख्या में भेद नहीं है।
शङ्का-धवलग्रन्थ में वर्गमूलों को परस्पर गुणा करने से संख्या बतलाई गई है और उपमुक्त गाथा में भाग देने से संख्या बतलाई गई है। गुणा करने से संख्या वृद्धि को प्राप्त होती है और भाग देने से संख्या हीन होती है। अतः इन दोनों पागमों में द्वितीयादि पृथिवियों के नारकियों की संख्या में अवश्य भेद होना चाहिए ?
समाधान नहीं, क्योंकि बड़ी संख्या को भाग देने से जो प्रमारण प्राप्त होता है वही प्रमागा छोटी संख्याओं को परस्पर गुणा करने से प्राप्त हो सकता है। जैसे सप्तम पृथ्वी के नारकियों का जो प्रमाण जगच्छणी के प्रथम वर्गमूल व द्वितीय वर्गमूल को परस्पर गुणा करने से प्राप्त होता है वही प्रमाण जगच्छ्रणी को द्वितीय वर्गमूल से भाग देने पर प्राप्त होगा।
शङ्का --यह कैसे सम्भव है ?
समाधान–सम्भव है, क्योंकि जगच्छणी को उसके ही द्वितीय वर्गमूल से भाजित करने पर उसका प्रथम वर्गमूल गुणित उसका द्वितीय वर्गमूल लब्ध प्राप्त होता है । जगच्छणी के प्रथमवर्गमूल को उसी के द्वितीय वर्गमूल से गुणा करने से उसका प्रथमवर्गमूल x उसका द्वितीय वर्गमूल प्राप्त होता है । मान लिया जाए कि जगच्छेणी 'ज' है । बीजगणित के अनुसार 'ज' का प्रथम वर्गमूल जर है और द्वितय वर्गमूल ज है । इनको परस्पर गुणा करने पर गुणनफल ज प्राप्त होता है, क्योंकि गुग्णा करने में घात जोड़ी जाती है (
२ ३)। 'ज' को यदि द्वितीय वर्गमूल ज से भाग दिया जावे तोजा प्राप्त होता है, क्योंकि भाग में धात घटाई जाती है (१-2 - 1)। अङ्कसंदृष्टि में जगच्छेणी २५६ है। २५६ का प्रथम वर्गमूल १६ और द्वितीय वर्गमूल ४ है। इन दोनों को परस्पर मुशा करने से (१६४४) ६४ प्राप्त होते हैं। जगच्छ्रेणी '२५६' को उसके द्वितीय वर्गमूल ४ से भाजित करने पर (२५६ : ४) ६४ प्राप्त होते हैं । इसीप्रकार अन्य पृथिवियों का प्रमाण जान लेना चाहिए ।
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२१६ गो, सा. जीवकाण्ड
गाथा १५५-१५६
द्वितीय पृथ्वो के नारकी (ज.थे.)) तृतीयपृथ्वी के नारवी (ज.श्रे.) है। चतुर्थपृथ्वी के नारकी (ज.थे.)। पंचमपृथ्वी के नारकी (ज.श्रे.)है। छठी पृथ्वी के नारकी (ज.श्रे.) और सातवीं पृथ्वी के नारकी (ज.श्रे.)हैं हैं। (सब अंक धात हैं।) सर्व नारकियों का प्रमाण घनांगूल के द्वितीय बर्गमूल से गुणित ज.श्रे. में से इन सबको घटाने पर प्रथम पृथ्वी के नारकी जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है जो सर्व नारकी जीवों के प्रमाण से किचित् ऊन है। इसप्रकार सर्वनारकियों का तथा सातों पृथ्वियों के नारकियों का पृथक्-पृथक प्रमाण कहा गया है।
तिर्यचगति के जीवों का प्रमाण संसारी पंचक्खा, तप्पुण्णा तिगदिहीण्या कमसो । सामण्णा पंचिदी, पंचिदियपुरगतेरिक्खा ॥१५५।। छस्सयजोयणकदिहिव जगपदरंजोणिणीग परिमाणं ।
पुण्णूणा पंचक्खा, किरियप्रएपशिला ।१६।। गावार्थ -संसारी जीवराशि में से तीनों गतियों को जोवराशियों का प्रमाण घटाने पर - सामान्य तिर्यंच जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है। सम्पूर्ण पंचेन्द्रिय जीवराशि में से तीनगतियों के
जीवों का प्रमाण कम कर देने पर पंचेन्द्रियतिथंच जीवों की संख्या प्राप्त होती है। समस्त पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के प्रमाण में से तीन गतियों के पर्याप्त जीवों का प्रमाण घटाने पर पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्थचों की संख्या प्राप्त हो जाती है। छह सौ योजन के वर्ग से भाजित जगत्प्रतर तिर्यवनियों का प्रमांग है। पंचेन्द्रियतिथंचों के प्रमाण में से पर्याप्त पंचेन्द्रियतियचों को संख्या घटाने पर उपलब्धगशि पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंचों का प्रमाण है ॥१५५-१५६५
विशेषार्थ--उपर्युक्त कथन को ठीक प्रकार से ग्रहण करने के लिए संसारी जीवों का प्रमाण, पंचेन्द्रिय जीवों का प्रमाण तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों का प्रमाण जानना आवश्यक है। सर्व जीवगणि अनन्त है और अनन्त अनेक प्रकार का है---
'णाम ठवणा दधियं सस्सव गणणापदेसियमवंतं । एगो उभयादेसो विस्थारो सम्व भावो य॥८॥
नाम अनन्त, स्थापना अनन्त, द्रव्यानन्त, शाश्वतानन्त, गणनानन्त, अप्रदेशिकानन्त, एकानन्त. उभयानन्त, विस्तारानन्त, सर्वानन्त और भावानन्त । इस प्रकार यह ग्यारह प्रकार का अनन्त है ।
शङ्कर-इन ग्यारह प्रकार के अनन्तों में से किस अनन्त की अपेक्षा सर्व जीवराशि को अनन्त कहा गया है?
समाधान-गणनानन्त की अपेक्षा सर्व जीवराशि को अनन्त कहा गया है। गणनानन्त भो तोनप्रकार का है—परीतानन्त, युक्तानन्त गोर अनन्तानन्त । इन तीन प्रकार के
१. प. पु. ३ पृ. ११ ॥
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गाथा १५६
गतिमार्गरणा / २१७
गणनानन्तों में से भी सर्व जीवराशि अनन्तानन्त है, क्योंकि काल की अपेक्षा सर्व जीवराशि अनन्तानन्त वर्सापरियों और उत्सर्पिणियों के द्वारा अपहृत नहीं होती है ।" वह अनन्तानन्त भी तीनप्रकार का है । जघन्य अनन्तानन्त उत्कृष्ट अनन्तानन्त और मध्यम अनन्तानन्त ।
शङ्का – इन तीनों श्रनन्तानन्तों में से जीवराशि कौन सा श्रनन्तानन्त है ?
समाधान -- जीवराशि मध्यम अनन्तानन्त है, क्योंकि जहाँ-जहाँ 'मनन्तानन्त' कहा जाता है वहाँ-वहाँ प्रजनन्यानुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम अनन्तानन्त का ग्रहण होता है ।
शङ्का – यह मध्यम श्रनन्तानन्त भी अनन्तानन्त विकरूपरूप है। उनमें से किस विकल्प से प्रयोजन है ?
समाधान -- जघन्य अनन्तानन्त से अनन्त वर्गस्थान ऊपर जाकर और उत्कृष्ट अनन्तानन्त से अनन्त वर्गस्थान नीचे प्राकर- जो राशि उत्पन्न होती है वह राशि यहाँ पर अनन्तानन्त पद से ग्राह्य है । श्रथवा जघन्य अनन्तानन्त के तीन बार वर्गित संवर्गित करने पर जो राशि उत्पन्न होती है । उससे श्रनन्तगुणी और छहद्रव्यों के प्रक्षिप्त करने पर जो राशि उत्पन्न होती है उससे अनन्तगुणी हीन मध्यम अनन्तानन्त राशि से प्रयोजन है । "
शङ्का-तीन बार वर्गित संवर्गित करने से उत्पन्न हुई यह महाराणि सम्पूर्ण जीवराशि से अनन्तगुणी हीन है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान – जघन्य श्रनन्तानन्त के उत्तरोत्तर वर्ग करने पर जधन्य अनन्तानन्त के अधस्तन वर्गस्थानों से ऊपर मध्यम अनन्तानन्तगुणं वर्गस्थान जाकर सम्पूर्ण जीवराशि की वर्गशलाका उत्पन्न होती है, जबकि तीन बार वर्गित संवर्गित करने से उत्पन्न राशि की वर्गशलाका इससे पूर्व ही उत्पन्न हो जाती है (यानी जघन्य अनन्तानन्त के अवस्तन वर्गस्थानों से ऊपर कुछ अधिक जघन्य परीतामतगुणे वर्गस्थान जाकर ही उत्पन्न हो जाती है) । इससे जाना जाता है कि जीवराशि की वर्ग जलाका से तीन बार वर्गित संवर्गित● की वर्गशलाकाएँ अनन्तगुणी हीन हैं । अतः राशि भी अनन्तगुणी हीन है ।
बात यह है कि व्यय होने पर समाप्त होने वाली राशि को अनन्तरूप मानने में विरोध प्राता है। इसप्रकार कथन करने से अर्धपुद्गलपरिवर्तन के साथ व्यभिचार दोष भी नहीं आता, क्योंकि पुद्गल परिवर्तनको उपचार से अनन्त माना है।
शङ्का -- जिसमें छह द्रव्य प्रक्षिप्त किये गये हैं, यह राशि कौनसी है ?
समाधान- तीन बार वर्गित संवर्गित राशि में सिद्ध, निगोदजीव, वनस्पतिकायिक, पुद्गल, काल के समय और अलोकाकाश ये छह अनन्तराशियों मिला देनी चाहिए।
सिद्धाणिगोवजोबा वणक्कदो कालो य पोगला चेय । सव्वलो गागासं
छप्पेदे-गंत पक्वा ||३१२ ॥ । [ ति.प.प्र. ४ ]
१. "श्रताणताहि
सपरिण-उस्सप्पिणीहि रंग श्रवहिरंति काले
मार्गणं तत्राजन्योत्कृष्टानन्तानन्तं ग्राह्यम् ।" [त.रा.वा. ३ २८ ] |
।।" [ प.पु. ३ पृ. २७]
३. व.पु. ३ पृ. १६
२. यत्रानन्तं
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२१८ /मो. सर. जीव काण्ड
गाथा १५६
प्रक्षिप्त करने योग्य इन छह राशियों के मिलाने पर छह द्रव्य प्रक्षिप्त राशि होती है । इसप्रकार तीन बार वर्गित संवर्गित राशि से अनन्तगुणे और छह द्रव्य प्रक्षिप्त राशि से अनन्तगुणे हीन इस मध्यम अनन्तानन्त की जितनी संख्या होती है तम्मात्र जीवराशि है ।"
यह
शङ्का "अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के द्वारा जीव अपहृत नहीं होते, " कहना उचित नहीं है, क्योंकि जीवराशि से काल के समय अनन्तगुणे हैं ? कहा भी है
धम्या मागास निणि वि तुला होंति थोवाणि । astig जीव- पोग्गल - कालागासा प्रणतगुणा ॥१६॥
अर्थात् "धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य और लोकाकाश इनके प्रदेश समान होते हुए भी स्तोक हैं तथा जीवद्रव्यराशि इससे अनन्तगुणी हैं। उससे पुद्गलराशि अनन्तगुणी है, उससे काल के समय अनन्तगुणे हैं, उससे आकाश के प्रदेश अनन्त गुणे हैं।" इससे जाना जाता है कि जीवराशि भले ही समाप्त हो जाओ, किन्तु काल के समय समाप्त नहीं हो सकते, क्योंकि जीवराशि से काल के समय अनन्तगुणे हैं।
ही ग्रहण किया है। जिसप्रकार लोक में प्रस्थ ( विभक्त है, अनागत, वर्तमान और अतीत। है । जो बनाया जा रहा है वह वर्तमान प्रस्थ है है वह अतीस प्रस्थ है। एक गाथा इसप्रकार है
समाधान- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि जीवराशि का प्रमाण निकालने में प्रतीत काल का धान्य मापने का काष्ठ का माप विशेष ) तीनप्रकार उनमें से जो निष्पन्न नहीं हुआ है वह अनागत प्रस्थ और जो निष्पन्न हो चुका है और व्यवहार के योग्य उनमें से अतीत प्रस्थ के द्वारा सम्पूर्ण बीज मापे जाते हैं। इस सम्बन्ध में
* पत्यो तिहा विहतो अरगागदो वट्टमारतीवो य ।
एवेसु अवोषेण तु मिजिये सब बीजं तु ॥२०॥
प्रस्थ तीन प्रकार का है, अनागत, वर्तमान और अतीत। इनमें से अतीत प्रस्थ के द्वारा सम्पूर्ण बीज मापे जाते हैं। इसी प्रकार काल भी तीन प्रकार का है अनागत, वर्तमान और अतीत | उनमें से प्रतीत काल के द्वारा सम्पूर्ण जीवराशि का प्रमाण जाना जाता है। और भी कहा है
"कालो तिहा विहतो प्रणागयो बट्टमाशतीदो य । एदेसु प्रदीदेण दु मिज्जिदे जीवरासी वु ॥२१॥
काल तीन प्रकार का है, अनागत काल, वर्तमान काल और अतीतकाल । इनमें से प्रतीतकाल के द्वारा सम्पूर्ण जीवराशि का प्रमाण जाना जाता है । इसलिए जीवराशि का प्रमाण समाप्त नहीं होता है, परन्तु अतीत काल के सम्पूर्ण समय समाप्त हो जाते हैं । सोलह राशिगत अल्पबहुत्व से यह जाना जाता है। वह सोलह राशिगत अल्पबहुत्व इस प्रकार है वर्तमान काल सबसे स्तोक । अभव्य जीवों का प्रमाण वर्तमान काल से जधन्ययुक्तानन्तगुणा है । अभव्य राशि से
१. धवला पु. ३ पृ. २४-२५-२६ । २. ध. पु. ३ पृ. २६ । ३. घ. पु. ३ पृ. २६
४. ध.पु. ३ पृ. २१ ।
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गाथा १५६
गतिमार्गणा/२१६
सिद्धकाल अनन्तगुणा है। सिद्धकाल से सिद्ध संख्यातगुणे हैं। सिद्ध जीवों से प्रसिद्धकाल असंख्यातगुणा है। असिद्धकाल से अतीत काल विशेष अधिक है अथवा सिद्धराशि को संख्यातनावली से गुणा करने पर अतीत काल का प्रमाण प्राप्त होता है।' अतीत काल से भन्यमिथ्याष्टि जीव अनन्तगुरणे हैं। भव्य मिथ्यादष्टियों से भव्यजीव विशेष अधिक हैं। भव्य जीवों से सामान्य मिथ्याष्टि जीव विशेष अधिक हैं। सामान्य मिथ्याष्टियों से संसारी जीव विशेष अधिक हैं। संसारी जीवों से सम्पूर्ण जीव विशेष अधिक हैं, सिद्ध जीवों का जितना प्रमाण है उतने विशेष अधिक हैं। सम्पूर्ण जीवराशि से पुद्गल द्रव्य अनन्तगुणा है। यहाँ सम्पूर्ण जीवराशि से अनन्तगुणा गुणकार है । पुद्गल द्रव्य से अनागतकाल अनन्तगुणा है। यहाँ सम्पूर्ण पुद्गल द्रव्य से अनन्तगुणा गुणकार है। अनागत काल से सम्पूर्ण काल विशेष अधिक है। सम्पूर्ण काल से अलीकाकाश अनन्तगुणा है। यहाँ सम्पूर्ण काल से अनन्तगुणा गुणकार है। अलोकाकाश से सम्पूर्ण आकाश विशेष अधिक है। इस प्रकार इस अल्पबहुत्व से प्रतीत हो जाता है कि प्रतीत काल से सम्पूर्ण जीव अनन्तगुरणे हैं। अत: प्रतीत काल के सम्पूर्ण समय अपहृत हो जाते हैं, परन्तु जीवराशि अपहृत नहीं होती। मोक्ष को जाने वाले जीवों की अपेक्षा संसारी जीवराशि का व्यय होने पर भी मिथ्या दृष्टि जीवराशि का सर्वथा विच्छेद नहीं होता । यदि अनन्तानन्त अवसर्पिणी और उत्सपिणियों से सम्पूर्ण जीवराशि अपहृत हो जावे तो सर्व भव्यजीवों के व्युच्छेद का प्रसंग आता है।'
शङ्का- अतीत काल से अपहृत किस प्रकार किया जाता है ?
समाधान । एक ओर अनन्तानन्त अवसपिणियों और उत्सपिणियों के समयों को स्थापित करके और दूसरी ओर मिथ्यादृष्टि जीवराशि को स्थापित करके, काल के समयों में से एक-एक समय और उसी के साथ मिथ्यादृष्टि जीवराशि के प्रमारग में से एक-एक जीव कम करते जाना चाहिए । इस प्रकार उत्तरोत्तर काल के समय और जीवराशि के प्रमाण को कम करते हुए चले जाने पर अनन्तानन्त अवसपिरिणयों और उत्सपिणियों के सब समय समाप्त हो जाते हैं, परन्तु मिध्यादृष्टि जीवराशि का प्रमाण समाप्त नहीं होता ।'
सर्व जीबराशि (जो मध्यम अनन्तानन्त है) में से सिद्ध जीवराशि (संख्यातावली गुरिणत प्रतीत काल) को घटा देने पर संसारी जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है । संसारी जीवराशि में से असंख्यात नारकी, असंख्यात मनुष्य व संख्यातदेव इन तीन मतियों की संख्यातरूप संख्या को कम कर देने से सामान्य तिर्यंचों का प्रमाण प्राप्त होता है जो अनन्त है तथा संसारी जीवराशि से कुछ कम है । तियंच जीवराशि भी अनन्तानन्त अवसपिणी-उत्सपिणियों से अपहृत नहीं होती ।५.
पंचेन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं । जघन्य असंख्यातासंख्यात भी नहीं हैं और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात भी नहीं हैं, किन्तु मध्यम असंख्यातासंख्यात हैं । अर्थात् सुच्यं गुल के प्रसंन्यात भाग के वर्ग से जगत्प्रतर को भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतना पंचेन्द्रिय जीवों का प्रमागा है । प्रथवा सूच्यंगुल को पावली के असंख्यातवें भाग का भाग देने पर जो लब्ध हो उसके वर्ग से जगत्प्रतर
१. "तीदो मज्जावलिहद मिखाणं पमाणं तु ॥५५॥" | गो.जी.] २. घ.पु. ३ पृ. २८-३३। ३. ध. पू. ७ पृ. २५१ । ४.ध.पु. ३ पृ. २८ । ५. "प्रणतारणताहि ग्रीसप्पिरिण-उम्मम्पिणीहि रस अबहिरंति कालेगा।।१६।।" [प. पु. ७ पृ. २५१] ।
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२२०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १५६
को भाग देने पर पंचेन्द्रिय जीवों का प्रमाण प्राप्त होता हैं। इसमें से असंख्यात नारकी, असंख्यात देव तथा असंख्यात मनुष्य इन तीनों असंख्यातराशियों के घटाने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का प्रमाण प्राप्त होता है।
जगत्प्रतर को सूच्यंगल के ख्यातवें भाग के वर्ग से भाजित करने पर पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों । का प्रमाण प्राप्त होता है जो मध्यम प्रसंख्यातासंख्यात है । इसमें से असंख्यातनारकी, संख्यातमनुष्य व असंख्यातदेव इन नीन गतियों के प्रमाण को घटाने पर पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों का प्रमाण प्राप्त । होता है।
देव-प्रबहारकाल को संख्यातरूपों से गुणित करने पर पंचेन्द्रिय विर्यच योनिनी जीवों का अवहारकाल होता है । अथवा छह सौ योजन के अंगुल करके वर्ग करने पर २१२३ कोड़ाकोड़ी, छत्तीस कोड़ी लाख और ६४ कोड़ी हजार (२१२३,३६,६४,००००००००००) प्रतरांगुल पंचेन्द्रिय तिथंच योमिनी का अवहारकाल होता हैं ।
पंचेन्द्रिय तिर्थच योनिनियों के अवहारकाल से सम्बन्ध रखने वाला यह कितने ही प्राचार्यों का व्याख्यान घटित नहीं होता है, क्योंकि तीन सौ योजनों के अंगुलों का वर्गमात्र व्यन्तर देवों का अवहारकाल होता है।
शङ्का - यह पूर्वोक्त पंचेन्द्रिय तिर्थच योनिनियों के अवहारकाल का व्याख्यान असत्य है और वागव्यन्तर देवों के प्रवहारकाल के प्रमाण का व्याख्यान सत्य है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- इस विषय में पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनी सम्बन्धी अवहारकाल का व्याख्यान असत्य ही है और व्यन्तर देवों के प्रवहारकाल का व्याख्यान सत्य ही है, ऐसा एकान्तमत नहीं है, किन्तु उक्त दोनों व्याख्यानों में से कोई एक व्याख्यान असत्य होना चाहिए अथवा दोनों ही व्याख्यान असत्य हैं ।"
पटखंडागम के मूल सूत्रों में तो 'क्षेत्र की अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिनी जीवों के द्वारा देवअवहारकाल से संख्यातगुणे काल से जगत्प्रतर अपहृत होता है' ऐसा वहा है। देव-अवहारकाल २५६ अंगुल का वर्ग है । क्षेत्र की अपेक्षा देवों का प्रमाण जगत्प्रतर के २५६ अंगुल के वर्गरूप प्रतिभाग से प्राप्त होता है।
श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती का मत तो यही है कि ६०० योजन के वर्ग से जगत्प्रतर को भाग देने पर पंचेन्द्रिय योनिनी का प्रमाण प्रा'त होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं । काल की अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसपिरिणयों के द्वारा अपहृत होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा पंचेन्द्रिय लियंच अपर्यापतों के द्वारा देवों के अवहारकाल से असंख्यातगुण हीन काल के
१. "खेत्तेण पंचिटिएमु पदरमवहिरदि प्रसंगुलम्स असोज्जाद भाग बग्ग पडिमाशा ||२२|| [३, पृ. ३ पृ. ३१४; ध. पु. ७ पृ. २७. मूत्र ६४] । २. घ, पु. ७ पृ. २५३ । ३. प. पु. ३ पृ. २३० । ४. प. पु. ३ पृ. २३१ । ५. ध. पृ. ३ पृ. २३० सूत्र ३५ द घ. पु. ७ पृ. २५३ सूत्र. २१ । ६. ध. पु. ७ पृ. २६० मूत्र ३३ । ध. 'पु. ३ पृ. २६८ सूत्र ५५
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गाथा १५७-१५६
गतिमार्गणा / २२१
द्वारा जगत्प्रतर अपहृत होता है।' पैंसठ हजार पाँच सौ छत्तीस (२५६ का वर्ग ) प्रतरांगुल देवों के अवहार काल में आवली के असंख्यातव भाग का भाग देने पर पंचेन्द्रिय नियंत्र अपर्याप्त का अवहारकाल होता है । * सामान्य पंचेन्द्रिय तिर्यच के प्रमाण में से पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त राशि को घटा देने पर पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त तिथेचों का प्रभार प्राप्त होता है ।
शङ्का - पंचेन्द्रिय तिर्यंच सामान्य में से मात्र पंचेन्द्रिय पर्याप्त क्यों कम किये गये, पंचेन्द्रिय तिच योनि का प्रसारण भी कम होना चाहिए, क्योंकि पंचेन्द्रिय तिर्थच योनिनी भी पर्याप्त होते हैं ।
समाधान- नहीं, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त में तीनों वेदवाले जीव या जाते हैं । श्रतः पंचेन्द्रिय तिच पर्यातकों के प्रमाण में पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिनियों का प्रमाण भी गर्भित है ।
इस प्रकार तिर्यंचगति सम्बन्धी संख्या - प्ररूपणा समाप्त हुई ।
मनुष्यों का प्रमाण, पर्याप्तमनुष्यों, मनुष्यनी और पर्याप्त मनुष्यों की संख्या गुलआदिमत दियपदभाजि देगूला
1
सामगमणुसरासी पंचमकदिघरणसमा पुष्णा ।। १५७ ।। 'तललीन मधुगविमलं धूमसिलागाविचोरभयमेरू । तटहरिखझसा होंति हु माणुसपज्जत्तसंखका ॥ १५८ ॥ पज्जत्तमणुस्साणं, तिचउत्थो माणुसीण परिमाणं । सामण्णा पुण्णूरणा मणुवप्रपज्जत्तगा होंति ।। १५६।।
गाथार्थ - सूच्यंगुल के प्रथम और तृतीय वर्गमूल से जगच्छ्रेणी को भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो, उसमें से एक कम करने से प्राप्त राशिप्रमाण सामान्य मनुष्य हैं। तथा पांचवें वर्ग के श्रप्रमाण पर्याप्त मनुष्य हैं ।। १५७ ॥ तकार से सकार पर्यन्त गाथा में विद्यमान अक्षरों से सूचित ( उलटे क्रम से ) क्रमश: छह, तीन, तीन, शून्य, पाँच, नौ, तीन, चार, पाँच, तीन, नौ, पाँच, साल, तीन, तीन, चार, छह, दो, चार, एक, पाँच, दो, छह, एक, आठ, दो, दो नौ और सात अङ्क प्रमाण मनुष्य पर्याप्तकों की संख्या है ।११५८ || पर्याप्त मनुष्यों के प्रमाण का तीन चौथाई (३) मनुष्यिनियों का प्रमाण हैं । सामान्य मनुष्यराशि में पर्याप्त मनुष्यराशि कम करने पर जो राशि शेष रहे उतने प्रमाण अपर्याप्त मनुष्य होते हैं ।। १५६ ।।
विशेषार्थ - मनुष्यगति में मनुष्य द्रव्यप्रमाण से असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा मनुष्य
१. पंचिदियतिरिवख अपज्जता दव्यमाणे केवडिया श्रसंखेज्जा ||३७|| श्रसंखेज्जासंखेज्जाहि ओसपिरिण उस्सपिरोहि अवहिरंति कालेगा ||३८|| खेतेा पंचिदियतिरिक्ख प्रपज्जत्तेहि पदरमबहिरदि देव बहार कालादी असंखेज्ञगुणहीशा कात्रेण ।। ३६ ।। " [ध. पु. ३ पृ. २३६२. पु. ३ पृ. २३६ । ३. "पंचिदियतिरिक् पज्जनविवेदा" [ध. पू. ३ पृ. २३८ ] प्रसंसेज्जा" ध.पु. ७ पृ. २५४ ।
।
४. घ. पु. ७ पृ. २५८ ।
५. "मणुमगदीए मणुम्सा दव्यमाणेा
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२२२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १५७-१५६ असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सपिणियों ने अपहृत होते हैं । ' सूच्यंगुल के प्रथमवर्गभूल को उसके तृतीय वर्गभूल से गुणित करके जगच्छ्रेणी को भाग देने से एक अधिक मनुष्य राशि का प्रमाण प्राप्त होता है। एक कम कर देने से मनुष्यों की संख्या प्राप्त होती है ।
शा-एक कम किसलिए किया गया है ?
समाधान--चूकि जगच्छणी कृतयुग्म राशिरूप है और मनुष्यराशि तेजोज है, अतः मनुष्यराशि में एक प्रक्षेप करके ज.श्रे. को भाग देने पर सूच्याङ्ग ल का प्रथमवर्गमूल गुणित तृतीयवर्गमूल प्राप्त होता है।
शङ्कर-'कृतयुग्म' और 'तेजोज कौनसी राशि हैं ?
समाधान-जो राशि चार से अपहत होती है वह कृतयुग्मराशि है। जिस राशि को चार से अपहृत करने पर तीन अङ्क शेष रहते हैं वह तेजोजराशि है। कहा भी है
___ चोहस बादरम्म सोलस कदजुम्मेरथ कलियोजो।
तेरस सेजोजो खलु पण्णरसेवं व विष्णेया ।।३।। अर्थ-चौदह को बादरयुग्म, सोलह को कृतयुग्म, तेरह को कलिलोज और पन्द्रह को तेजोज राशि जानना चाहिए।
तेजोजराशि में एक प्रक्षिप्त करने से कृतयुग्म राशि हो जाती है। जैसे.-१५ तेजोजराशि में १ मिलाने से (१५ + १) १६ कृतयुग्मराशि हो जाती है, जिसके द्वारा कृतयुग्म ज.श्रे. विभाजित हो जाती है।
___ज.श्रे. को सूच्यंगुल के प्रथमवर्गगूल व तृतीयवर्गमूल से विभक्त करने पर ज.श्रे. का प्रमाण असंख्यातयोजन कोटि रह जाता है। इस प्रकार सामान्य मनुष्य राशि का प्रमाण मध्यम असंख्यातासंख्यात सिद्ध हो जाता है ।
कोडाकोड़ाकोड़ी के ऊपर और कोड़ाकोड़ाकोड़ी के नीचे अर्थात् द्विरुपवर्गधारा में छठे वर्ग से ऊपर और सातवें वर्ग से नोचे, इनके बीच की संख्या प्रमाण मनुष्य पयप्ति हैं। यद्यपि यह सामान्य कथन है, तथापि प्राचार्य परम्परागत गुरूपदेश से पंचम वर्ग के घनप्रमाण (पंचमवर्गx पंचमवर्गx पंचमवर्ग-षष्ठवर्गxपंचमवर्ग) मनुष्य पर्याप्तराशि है ।
__तकारादि अक्षरों में से किस अक्षर के द्वारा कौन-सी संख्या ग्रहण की जाती है उसके लिए निम्नलिखित श्लोक जानना
१. "असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अहिरंति कालेण" प.पु. ७ पृ. २५५ सूत्र २४ । २. "मणुसमाणुस अपज्जतएहि रूचं रूवापक्लित्तएहि सेडी अबाहिरदि अंगुलबम्गमूले तदियश्वम्ममूलगुरिणदेरण" ध.पु. ७ पृ. २५६ सूत्र २७ । ३. "जो रासी चदुहि पहिरिज्जदि सो कदजुम्मो। जो तिगम्मो सो तेजोजो।" घ. पु. १० पृ. २२-२३ । ४. प. पु. १० पृ. २३ । ५. "तिस्से मेडीए प्रायामो असंवेज्जायो जोवराकोडीम्रो" घ. पु. ७ पृ. २५६ सूत्र २७ । ६. "मणुसपजत्ता दब्दपमाणेण कोडाकोडाकोडीए उरि कोडा कोडाकोलाकोडीए हेटदो छण्हवरगारगमुवरि सत्तण्हं वग्गाएं हेलदो" ध. पु. ७ पृ. २५७; ध. पु. ३ पृ. २५३ ।।
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गाथा १५७-१५६
कटप पुरस्थवर्णनं वनवपंचाष्टकल्पितः क्रमशः । स्वर अन शून्यं संख्या मात्रोपरिमाक्षरं त्याज्यम् ॥'
गतिमा गंगा/ २२३
अर्थ - क, स्व आदि
अक्षरों से ( क ख ग घ ङ च छ ज झ ) क्रमश: १, २, ३, ४५, ६, ७, ८, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध से क्रमश: १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ६ प फ ब भ म से क्रमश: १, २, ३, ४ १ य, र, ल, व, स ह से कम श्रद्धों का ग्रहण करना चाहिए। स्वर त्र और न शून्य के सूचक हैं । को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि इनसे किसी प्रक का बोध नहीं होता ।
१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८ मात्रा और उपरम अक्षरों
मनुष्य पर्याप्त जीवराशि पाँचवें वर्ग (बादल) के घनप्रमाण है, यह कथन युक्ति से घटित नहीं होता, क्योंकि "कोड़ाकोड़ाकोड़ी के ऊपर और कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी के नीचे मनुष्यपर्याप्तराशि है" षट्खण्डागम के इस सूत्र के साथ उक्त कथन का विरोध आता है। पंचम वर्ग (बादल) का धन २६ अङ्क प्रमाण है, किन्तु एक के आगे २१ शून्य रखने से २२ अङ्क प्रमाण कोड़ाकोटाकोड़ी होती है और एक अंक के आगे २८ शुन्य रखने से २६ प्र प्रमाण कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी होती है । परन्तु पंचम वर्ग के धन का प्रमाण २६ अंक प्रमाण होते हुए भी कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी नामक इस संख्या से बढ़ जाता है। दूसरे, यदि बाबालरूप पंचमवर्ग के घनप्रमाण मनुष्य पर्याप्त राशि हो तो वह राशि मनुष्यक्षेत्र (६१६७०८४६६६६६४१६२०००००००० प्रतराङ्गल प्रमाण क्षेत्र) में समा जानी चाहिए ।' यदि ७६२२८१६२५१४२६४३३७५६३५४३६५०३३६ प्रमाण मनुष्यपर्याप्त जीवराणि को संख्यात प्रतराङ्गल से गुणा क्रिया जावे तो उस प्रमाण को मनुष्यक्षेत्र से संख्यातगुणे का प्रसङ्ग प्रा जाएगा।
शङ्का - मनुष्यक्षेत्र का क्षेत्रफल तो प्रमाणप्रतराङ्गल से प्राप्त किया है, उसमें संख्यात उत्सेभाङ्गलमात्र श्रवगाहना से युक्त मनुष्यपर्याप्तराशि कैसे समा जाएगी ?
समाधान - ऐसी शङ्का ठीक नहीं, क्योंकि सबसे उत्कृष्ट अवगाहना से युक्त (३ कोस ) मनुष्यपर्याप्त राशि में संख्यानप्रमाण- प्रतराङ्गलमात्र अवगाहना के गुणकार स्वरूप मुख विस्तार पाया जाता है । उसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त राशि से संख्यातगुणे सर्वार्थसिद्धि के देवों की भी जम्बूद्वीप प्रमाण सर्वार्थसिद्धि के विमान में रहने के लिए अवकाश नहीं बन सकता, क्योंकि सर्वार्थसिद्धि विमान के क्षेत्रफल से संख्यातगुणी अवगाहना से युक्त देवों का वहाँ अवस्थान मानने में विरोध प्राता है, अतः 'मनुष्यपर्याप्त राशि एककोड़ाकोड़ाकोड़ी से अधिक है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
पर्याप्त मनुष्यराशि के चार भागों में से तीन भाग प्रमाण मनुष्यिनियाँ हैं और एक चतुर्थांश पुरुष व नपुंसक राशि है। 'मनुष्यिती' शब्द से द्रव्यस्त्री अर्थात् महिलाओं का ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि द्रव्यस्त्री वस्त्र का त्याग नहीं कर सकती और वस्त्र असंयम का अविनाभावी है | इसलिए द्रव्य स्त्रियों के संयमासंयम रूप पञ्चम गुणस्थान ही हो सकता है, संयम नहीं हो सकता, किन्तु मनुष्यनियों के संयम भी हो सकता है ।
१. गो. जी का. गा. १५८ की सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टोका | २. ध. पु. ३ पृ. २५.५ । ३. श्र. पु. ३ पृ. १५८ । ४. व. पु. ७ पृ. २५६
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२२४/गो.सा. जीवकाण्ड
गाथा १५७-११६
सामान्य मनुष्यराशि अर्थात् सूच्यंगुल के प्रथम व तृतीय वर्गमूलों से भाजित ज. श्रे. में से संख्यातप्रमाण मनुष्यपर्याप्त राशि घटाने पर भी अपर्याप्तमनुष्यों का प्रमाण असंख्यात प्राप्त होता है, अतः 'अपर्याप्तमनुष्य द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। यहाँ नित्यपर्याप्तों को ग्रहण न करके लब्ध्यपर्याप्तकों को ग्रहण करना चाहिए। काल की अपेक्षा लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य असंख्यातासंख्यात अवसपिणियों और उत्सपिणियों के द्वारा अपहत होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा ज. श्रे. के असंख्यातवेंभागप्रमाण लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य हैं। उस ज. श्रे. के असंख्यातवें भागरूप घेणी का धायाम असंख्यात करोड़ योजन है।
सूच्यगल के तृतीय वर्गमूल से गुरिगत प्रथम वर्गमूल को मालाकारूप से स्थापित करके रूपाधिक लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों के द्वारा जगच्छ्रेणी अपहृत होती है।
शहा–ज. श्रे, के असंख्यातवें भागरूप श्रेणी का आयाम असंख्यात करोड़ योजन है। यहाँ पर श्रेणी के असंख्यातवें भाग को श्रेणी क्यो कहा गया है ?
समाधान–ज. श्रे. के असंख्यातवें भाग को भी श्रेणी कहते हैं, क्योंकि अवयवी के नाम की अवयव में प्रवृत्ति देखी जाती है। जैसे-ग्राम के एक भाग के दग्ध होने पर ग्राम जल गया, ऐसा कहा जाता है। अथवा, इस प्रकार का सम्बन्ध कर लेना चाहिए कि उस श्रेणी के प्रसंख्यातवें भाग का प्रायाम अर्थात लम्बाई असंख्यात करोड़ योजन है। "अपज्जत्तएहि रूबपक्खित्तएहि रूवा पक्खित्तएहि रूवं पक्खित्तएहि" इन तीनों भी स्थानों में किसी भी मन मे रूपिक याप्त मनुष्यराशि का प्रक्षेप करना चाहिए। पुनः लब्ध में से रूपाधिक पर्याप्त मनुष्यराशि को घटा देने पर लब्ध्यपस्तिक मनुष्यों का प्रमाण होता है। सूच्या ल के प्रथम वर्गमूल को तृतीय वर्गमूल से मुणित करके जो लब्ध आवे, उससे ज. थे. को भाजित करने में लब्धराशि में से एक कम कर देने पर सामान्य मनुष्यराशि का प्रमारण पाता है और इसमें से पर्याप्तक मनुष्यों का प्रमाण घटा देने पर लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों का प्रमारण प्राप्त होता है।
अल्पबहुत्व
अयोगकेवली मनुष्य सबसे स्तोक हैं. उनसे चारों (4-६-१०-११) गुणस्थानवी उपशामक संख्यातगुणे हैं। चारों (८-६-१०-१२) गुणस्थानवर्ती क्षपक, उपशामकों से संख्यातगुणे हैं। सयोगकेवली चारों क्षपकों से संख्यातगणे हैं। अप्रमत्तसंयत मनुष्य सयोगकेवलियों से संख्यातगुणे हैं। प्रमत्तसंयत मनुष्य अप्रमत्तसंयतों से संख्यातगुरगे हैं। प्रमत्तसंयतों से संयतासंयत मनुष्य संख्यातमुणे हैं। संयतासंयत मनुष्यों से सासादन सम्यग्दृष्टि मनुष्य संख्यातगुण हैं। सासादन सम्यग्दृष्टियों से सम्यग्मिथ्याष्टि मनुष्य संख्यातगुरगे हैं। सम्यग्मिथ्याष्टि मनुष्यों से असंयत
१. "मणुस अपज्जत्ता दन्वपमाणेण केवडिगा? असंखेज्जा ॥५॥" घ. पु. ३ पृ. २६२। २. प. पु. ३ पृ. २६२ । ३. "असंवेज्जासक्षेत्राहि प्रोसप्पिसा-उम्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण" ध, पु. ३ पृ. २६२ सूत्र ५१ । ४. "खेतेण सेटीए असंखेज्जदिभागो। तिस्स सेढीए आयामो असंखेज्जाम्रो जोयग-कोडीमो। मणुस-अपज्जत्तेहि रूया पश्यितेहि सेठिमबहिरदि अंगुल बग्गमूलं तदियवम्गमूलगुरिण देण ॥५२॥" प.पु. ३ पृ. २६२ । ५. ध.पु. ३ पृ. २६३-२६४ ।
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गाथा १६०-१६३
गतिमार्गणा/२२५ सम्यग्दृष्टि मनुष्य संख्यातगुणे हैं। असंयतसम्यादृष्टि मनुष्यों से मनुष्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टि मनुष्य संख्यातगुणे हैं। मनुष्य पर्याप्त मिथ्यादृष्टियों से पर्याप्त मनुष्यिनी मिथ्याष्टि संख्यातमुखी हैं। मनुष्य अपर्याप्तकों का अवहारकाल असंख्यातगुणा है। मनुष्यनपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं।' सामान्य मनुष्यों में सासादन सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानप्रतिपन्न जीवों की जो संख्या कही गई है उसके संख्यातवें भाग मनुष्यनियों में सासादन सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानप्रतिपन्न जीवों का प्रमाण है, क्योंकि अप्रशस्त वेदोदय के साथ प्रचुर जीवों को सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता है।
शङ्का-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-"नपुसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सबसे स्तोक हैं, स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुणे हैं और पुरुषवेदी असंयत्तसम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुरणे हैं", इस अल्पबहुत्व के प्रतिपादन करने वाले सूत्र से स्त्रीवेदियों के अल्प होने के कारण इनका स्तोकपमा जाना जाता है तथा इसी से सासादन सम्यग्दृष्टि आदि के भी स्तोकपना सिद्ध हो जाता है, परन्तु इतनी विशेषता है कि उन सासादनसम्यग्दृष्टि आदि मनुष्यनियों का प्रमाण इतना है, यह नहीं जाना जाता है, क्योंकि इस काल में इस प्रकार का उपदेश नहीं पाया जाता है ।
देवति के जीवों का प्रमागा तिण्णिसयजोययाणं, वेसवछप्पण्णभंगुलारणं च । कविहिदपदरं तर, जोइसियाणं च परिमाणं ॥१६०॥ घरणभंगुलपठमपवं, तदियपई सेढिसंगुणं कमसो । भवणे सोहम्मदुगे, देवाणं होदि परिमाणं ॥१६१॥ तत्तो एगारगवसगपरणचउरिणयमूलभाजिदा सेढी। पल्लासंखेज्जदिमा, पलेयं प्रारणदादिसुरा ।।१६२॥ तिगुणा सत्तगुरणा वा, सम्वट्ठा माणुसीपमारगायो ।
सामण्णदेवरासी, जोइसियादो विसेसहिया ।।१६३॥ गाथार्य- जगत्प्रतर में तीन सौ योजन के वर्ग का भाग देने पर व्यन्तरदेवों का प्रमाण प्राप्त होता है और दो सौ छप्पन अङ्गल के वर्ग का भाग देने पर ज्योतिषी देवों का प्रमाण प्राप्त होता है ॥१६०|| घनाङ्ग ल के प्रथमवर्गमूल ज.श्रे. को गुणा करने पर भवनवासी देवों का प्रमाण प्राप्त होता है और ज.श्रे. को घनाङ्ग ल के तृतीयवर्गमूल से गुणा करने पर सौधर्म-ईशान युगल के देवों का प्रमाण प्राप्त होता है ।।१६॥ उससे ऊपर अपने ज.वे. के ग्यारहवें, नौवें, सातवें, पांचवें और चौथे वर्गमूल से भाजित ज.थे. प्रमाण तीसरे (सानत्कुमार) कल्प से बारहवें (सहस्रार) कल्प तक ५ कल्पयुगलों में देवों का प्रमाण जानना । अानतादि (२६ विमानों) में देवों का प्रमाण पल्य के असंख्यातवेंभागप्रमाण है ।।१६२॥ सर्वार्थसिद्धि के देव मनुष्यिनियों से तीनगुणे या सातगुणे हैं तथा सामान्यदेवराशि ज्योतिपीदेवों से कुछ अधिक है ।।१६३।।
१. घ. पु. : पृ. २६६ । २. ध. पु. ३ पृ. २६१-२६२ ।
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२२६/गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा १६०-१६३
विशेषार्थ - शङ्का-देवगति में देव द्रव्यप्रमाण से कितने हैं ?
समाधान- -देवगति में देव द्रव्यप्रमाण से असंख्यात हैं। यहाँ असंख्यात से संख्यात और अनन्त का प्रतिषेध जानना चाहिए।'
शङ्का क्षेत्र की अपेक्षा देवों का प्रमाण कितना है ? ___ समाधान-क्षेत्र की अपेक्षा देवों का प्रमाण जगत्प्रतर को दो सौ छप्पन अङ्गल के वर्ग से भाग देने पर प्राप्त होता है।
'अगल' ऐसा सामान्यपद कहने पर यहाँ सूच्यङ्गल का ग्रहण होता है। २५६ सूच्यङ्गल का वर्ग ६५५३६ प्रतराङ्ग ल होता है। इससे जगत्प्रतर को भाग देने पर देवराशि का प्रमास होता है। इसप्रकार देवराशि अजघन्यानुत्कृष्ट (मध्यम) असंख्यातासंख्यातप्रमाण सिद्ध होती है।
शङ्का-काल की अपेक्षा देव कितने हैं ? समाधान - काल की अपेक्षा देव असंख्यातासंख्यात अवसपिणी-उत्सपिणियों से अपहृत होते
इसप्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल की अपेक्षा सामान्य से देवरामि का प्रमाण कहा। तदनन्तर भवनबासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों का पृथक्-पृथक् प्रमाण कहते हैं।
शङ्का - भवनबासीदेव द्रव्यप्रमाण से कितने हैं ? समाधान-भवनवासीदेव द्रव्यप्रमाण से असंख्यात हैं। शङ्का ---क्षेत्र की अपेक्षा भवनवासीदेव कितने हैं ?
समाधान- क्षेत्र की अपेक्षा भवनवासीदेव असंख्यातजगच्छे णीप्रमाण हैं, जो जगत्प्रतर के असंन्यानवेंभागप्रमाण है और जिसकी विष्कम्भसूची सूच्यङ्गल को सूच्यङ्गल के ही वर्गमूल से गुणित करने पर उपलब्ध होती है। अर्थात् सूच्यङ्गल को सूत्र्याल के प्रथमवर्गमूल से गुरिणत करने पर (सूच्यङ्ग लप्रथमवर्गमूल x सूच्यङ्ग लप्रथमवर्गमूल x सूच्यङ्ग लप्रथमवर्गमूल) घनाङ्ग ल का प्रथमवर्गमूल प्राप्त होता है यही ज.श्रे. की विष्कम्भमूची है। इस विष्कम्भसूची से जगच्छेगी को गुगित करने पर भवनवासी देवों का प्रमाण प्राप्त होता है।
शङ्का-काल की अपेक्षा भवनवासीदेव कितने हैं ?
समाधान-काल की अपेक्षा भवनवासीदेव असंख्यातासंस्यात अवमपिणो-उत्सपिणियों से अपहृत होते हैं ।
१. ध. पु.७ पृ. २५२, मूत्र ३०-३१ । २. श्र. पु. ७ पृ. २६०, सूत्र ३३ । ३. "म गुलमिदि कुत्तै एल्थ सूचिन गुलं बेत्तव' प. पु. ३ पृ. २६८, सूत्र ५५. को टीका। ४. व. पु. ७ पृ. २६०-६१। ५. ३. पु. ७ पृ. २६०, सूत्र ३२। ६.प. पु. ७ पृ. २६१-२६२, सत्र ३७-३८ । ७. घ. पु. ३ पृ. २७१, सूत्र ५५ की टीका । ८. घ.पृ.७
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गाया १६०.१६३
गतिमायणा/२२७
शङ्का --वाणव्यन्तरदेव द्रव्यप्रमाण से कितने हैं ? समाधान बाराव्यन्तरदेव द्रव्य प्रमाण से प्रसंख्यात हैं। शङ्खा-क्षेत्र की अपेक्षा वाणष्यन्तरदेवों का प्रमाण कितना है ?
समाधान-क्षेत्र की अपेक्षा वासव्यन्तरदेवों का प्रमाण जगत्प्रतर के संख्यात सौ योजनों के वर्गरूप प्रतिभाग से प्राप्त होता है।
'संख्यात सौ योजन' से अभिप्राय तीन सौ योजन के अङ्ग ल करके बर्गित करने पर उत्पन्न हुई (५३०८४१६००००००००००) प्रतराजलराशि से है।
शङ्का–काल की अपेक्षा बाणव्यंन्तरदेव कितने हैं ? . समाधान - काल की अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सपिरिणयों से अपहृत होते हैं।
यदि तिर्यचिनियों का अवहारकाल तद्योग्य संख्यातगुणित छह सौ योजनों के अङ्ग लों का वर्गमात्र हो तो वाणव्यन्तरों का अवहारकाल तीनसौ योजनों के अङ्ग लों के वर्गरूप प्रतराङ्गल प्रमाण हो सकता है। यदि पंचेन्द्रिय तिर्यचिनियों का अवहारकाल छह सौ योजनों के अगुल के वर्ग रूप ही है (मा. १५६) तो वाणयन्तरदेवों का अवहारकाल तीन सौ योजन के अङ्गुलों के वर्ग के संख्यातवैभाग होना चाहिए, अन्यथा अल्पबहुत्व के सूत्र के साथ इस कथन का विरोध प्राता है । उक्त अवहारकाल से भाजित जगत्प्रतर वागव्यन्तरदेवों का प्रमाण है ।
द्रव्याथिकनय की अपेक्षा स्थलरूप से ज्योतिषीदेवों का प्रमाण सामान्य देवराशि के समान अर्थात् २५६ सूच्यङगुल के वर्ग से भाजित जगत्प्रतर प्रमाण है, किन्तु पर्यायाथिकानय की अपेक्षा विशेषता है, वह इस प्रकार है-वाणन्यन्तर आदि देव ज्योतिषीदेवों के संख्यातवभाग हैं। उनसे सामान्यदेवराशि को अपवर्तित करने पर संख्यात लब्ध आते हैं। उस लब्ध संख्यात का विरलन करके सामान्यदेवराशि को समानखण्ड करके देने पर विरलितराशि के प्रत्येक एक के प्रति वाणव्यन्तर आदि देवराशि प्राप्त होती है। इस वाणव्यन्तर आदि देवराशि को सामान्य देवराशि में से घटा देने पर ज्योतिषीदेवों का प्रमाण प्राप्त होता है।
एक कम अधस्तन विरलन से देव-नवहारकाल को भाजित करने पर प्रतराङ्गल का संख्यातवाँभाग लब्ध पाता है, उसे देव-अवहारकाल में मिला देने पर ज्योतिषीदेवों का अबहारकाल होता है।
___ जैसा कि पहले कह चुके हैं कि “ज्योतिश्रीदेवों का प्रमाण २५६ सूच्यङ्गल के वर्ग से भाजित
१. प.पु. ७ पृ. २६२-६३, सूत्र ४०-४१ । २. प.पु. ७ पृ. २६३, सूत्र ४३ । ३. "संवेज्जोयगणेत्ति वुत्ते तिपिणजोयणसय मंगुलं काऊरण पग्गिदे जो उप्पज्जदि ससी सो घेत्तम्वो" (प.पु. ३ पृ. २७३ सूत्र ६३ की टीका) ४. घ.पु. ७ पृ. २६३, सूत्र ४२ । ५. "बाररावेंतरदेवा संखेजगुरा" (ध.पु. ७ पृ. ५८५, सूत्र ४०)। ६. च.पु. । ३ पृ. २७३-७४ । ७. "जोइसियदेवा देवगईणं मंगो" [घ.पु. ३ पृ. २७५, सूत्र ६५] । ८. ध.पु. ३ पृ. २७५-७६, सूत्र ६५ की टीका । १. प. पु. ३ पृ. २७६, सूत्र ६५ की टीका |
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२२० / गो. सा. जीवकाण्ड
गाय १६०-१६३
जगत्प्रतर प्रमाण है, किन्तु यदि यह प्रभाग सामान्यदेवों का है तो २५६ सूच्यङ्गुल के वर्ग प्रमाण सामान्यदेव सम्बन्धी अवहारकाल में प्रतराङ्गुल का संख्यातवाँ भाग मिला देने से ज्योतिषीदेवों का अवहारकाल प्राप्त होता है। इस अवहारकाल से जगत्प्रतर को भाजित करने पर ज्योतिषीदेवों का प्रमाण प्राप्त होता है ।
शङ्का - "सौधर्म, ऐशान कल्पवासी देव द्रव्यप्रमाण से कितने हैं ?
समाधान - सौधर्म, ऐणानकल्पवासीदेव द्रव्यप्रमाण से असंख्यात है ।
शङ्का - क्षेत्र की अपेक्षा सोधर्म, ऐशानकल्पवासीदेव कितने प्रमारण हैं ?
समाधान --- क्षेत्र की अपेक्षा सौधर्म - ऐशानकल्पवासी देव असंख्यात जगच्छ्रेणी प्रमाण हैं। अथवा जगत्प्रतर के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । उन असंख्यात जगच्छ्रेणियों की विष्कम्भसूची सूच्यङ्गुल के तृतीय वर्गमूल से गुणित सूच्यङ्गुल के द्वितीय वर्गमूल प्रमाण है ।
सूच्यगुल के द्वितीय वर्गमूल (तृतीय वर्गमूल X तृतीय वर्गमूल ) को सूच्यङ्गुल के ही तृतीय वर्गमूल से गुणित करने पर - ( सूच्यगुल तृतीय वर्गमूल xसू. तु. वर्गमूल सू. तृ. वर्गमूल ) नागुल का तृतीय वर्गमूल प्राप्त होता है, अतः घनाङ्गुल के तृतीय वर्गमूल प्रमाण सौधर्म -ऐशान कल्पों में देव हैं।
x
=
शङ्का - काल की अपेक्षा सौधर्म - ऐशानकल्पवासी देव कितने हैं ?
समाधान-काल की अपेक्षा सौधर्म - ऐशान कल्पवासीदेव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणीउत्सर्पिणियों से अपहृत होते हैं ।"
शङ्का - सानत्कुमारकरूप से सहस्रारकल्प तक के देवों का कितना प्रमाण है ?
समाधान - सानत्कुमारकरूप से सहस्रारकल्प तक के देवों का प्रमाण ज. श्रे के प्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । सामान्य से ज. श्र. के असंख्यातवें भागत्व की अपेक्षा सप्तमपृथ्वी के नारकियों से कोई भेद नहीं है । विशेष की अपेक्षा भेद है, क्योंकि यहाँ यथाक्रम से ग्यारहवां, नौवाँ, सातवाँ, पाँचव और चौथा, इन ज. के वर्गमूलों की श्रेणीभागहाररूप मे उपलब्धि है ।" अर्थात् सानत्कुमार माहेन्द्रकल्प में ग्यारहवें वर्गमूल से भाजित ज श्रे, ब्रह्म ब्रह्मोत्तरकल्प में नवें वर्गमूल से भाजित ज ., लान्तवकापिष्ठ कल्प में सातवें वर्गमूल से भाजित ज श्रे, शुक्र- महाशुक्रकल्प में पाँचवें वर्गमूल से भाजित ज. . तथा शतार - सहस्रारकल्प में चतुर्थ वर्गमूल से भाजित ज थे. प्रमाण देवराशि है ।
शङ्का -- श्रानत से अपराजित विमान तक के विमानवासी देव द्रव्यप्रमारण से कितने हैं ?
समाधान प्रान्त से अपराजित विमानतक के विमानवासीदेव द्रव्यप्रमाण से पत्योपम के श्रसंख्यातवें भाग प्रमारण हैं । यहाँ अन्तर्मुहूर्त से पत्थोपम अपहृत होता है।
टोका ।
१. ध.पु. ७ पृ. २६४, सूत्र४५-४६ । २. ध.पु. ७ पृ. २६५, सूत्र ४०-५० । ३. व. पु. ७ पृ. २६५, सूथ ५० की ४. ध. पु. ७ पृ. २६४, सूत्र ४७ ।. ५. घ. पु. ७ पृ. २६६ ॥ ६. प. पु. ७ पृ. २६६, सूत्र ५२-५४ ।
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माया १६४
इन्द्रियमार्गणा/२६
यहाँ अन्तर्मुहुर्त का प्रमाण पावली का असंख्यातवा भाग अथवा संन्यात प्रावलियां नहीं है । यद्यपि संख्यात्त प्रावलियों का अन्तर्मुहूर्त होता है, तथापि कार्य में कारण का उपचार करने से असंख्यात प्रावलियों के अन्त मुहूर्तपने का कोई विरोध नहीं है ।'
सर्वार्थ सिद्धि विमानवासी देव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा संख्यात हैं। यहाँ संख्यात का प्रमाण मनुष्यिनियों से तिगुना जानना ।
इस प्रकार गोम्मटसार जीबकाण्ड में हठा गतिमार्गणा अधिकार पूर्ण हुआ।
७. इन्द्रिय-मार्गणाधिकार
इन्द्रिय का निरुक्ति अर्थ 'अहमिदा जह देवा, प्रविसेसं अहमहं ति मण्णंता ।
ईसंति एक्कमेक्क, इंवा इव इंदिये जाण ॥१६४।। गाथार्थ --जिस प्रकार अहमिन्द्रदेव बिना किसी विशेषता के "मैं इन्द्र हूँ, मैं इन्द्र हूँ" इस प्रकार मानते हुए प्रत्येक स्वयं को स्वामी मानते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियों को जानना चाहिए ।।१६४१॥
विशेषार्थ-इन्द्र, सामानिक आदि भेद न होने के कारण कल्पातीत ग्रंबेयक आदि विमानवासी अहमिन्द्रदेवों में परस्पर कोई विशेषता नहीं है, अतः अपने-अपने व्यापार में ''मैं ही हूँ" ऐसा स्वतंत्ररूप से अपने को मानते हुए प्रत्येक पृथक-पृथक स्वामी-सेवक की प्राधीमता रहित प्रवर्तते हैं। इसी प्रकार हीनाधिकता के भेद से रहित स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ भी अपने-अपने स्पर्श आदि विषय को ग्रहण करने में "मैं ही हूँ' ऐसा अपने आपको स्वतंत्र मानते हुए दूसरे की अपेक्षा बिना प्रत्येक इन्द्रिय स्वामीपने से वर्तन करती है। स्पर्शन इन्द्रिय को अपना स्पर्शरूप विषय जानने में रसना इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं रहती। इसी प्रकार रसना आदि इन्द्रियाँ भी अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा रहित, अपनेअपने विषय को स्वभाव से जानती हैं ।
इन्दन अर्थात् ऐश्वर्यशाली होने से यहाँ इन्द्र शब्द का अर्थ प्रात्मा है और इन्द्र (आत्मा) के लिङ्ग (चिह्न) को इन्द्रिय कहते हैं । जो इन्द्र (नामकर्म) से रची जावे, वह इन्द्रिय है।"
इन्द्रियाँ अपने-अपने नियत विषय में ही रत हैं अर्थात् नियत विषय में ही व्यापार करती हैं, अतः संकर और व्यतिकर दोष से रहित हैं। अपने-अपने विषय को स्वविषय कहते हैं, उसमें जो निश्चय से अर्थात् अन्य इन्द्रियों के विषय में प्रवृत्ति न करके केवल अपने ही विषय में रत हैं, बे इन्द्रियाँ हैं।
अथवा अपनी-अपनी वृत्ति में जो रत हैं, वे इन्द्रियाँ हैं। इसका स्पष्टीकरण यह है कि
१. प. पु. ७ पृ. २६७। २. प. पु. ३ पृ. २८६। ३. घ.पु. १ पृ. १३७ । प्रा.पं.सं. (ज्ञानपीठ) पृ. १४ था. ६५, पृ. ५७६ गा. ६६ । ४. सिद्धान्त चक्रवर्ती श्रीमदभयचन्द्रमूरि कृत टीका । ५. ध.पु. १ पृ. २३३ ।
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२३०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १६५ संशय और विपर्ययज्ञान के निर्णय आदि के करने में जो प्रवृत्ति होती है वह वृत्ति है। उस अपनोअपनी वृत्ति में वे रत हैं, अतः वे इन्द्रियाँ हैं।
शङ्का-जब इन्द्रियाँ अपने विषय में व्यापार नहीं करती हैं तब व्यापार-रहित अवस्था में उनको इन्द्रिय संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकेगी ?
___ समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि रूद्धि के बल से ऐसी व्यापार-रहित अवस्था में भी उनमें इन्द्रियव्यवहार होता है। . . .
अथवा जो अपने अर्थ में निरत हैं, वे इन्द्रियाँ हैं। "अर्यते" अर्थात् जो निश्चित किया जावे वह अर्थ है। उस अपने विषयरूप अर्थ में जो व्यापार करती हैं वे इन्द्रियाँ हैं। अथवा, अपने-अपने स्वतंत्र विषय का स्वतंत्र आधिपत्य करने से वे इन्द्रियाँ कहलाती हैं।'
इन्द्रियों के भेद और उनका स्वरूप मदिन यदानोरूपनुअधिसुही सज्जबाही था।
भाविदियं तु दवं, देहुदयजयेहचिण्हं तु ॥१६॥ गाथार्थ-मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई विशुद्धि एवं उससे उत्पन्न हुग्रा ज्ञान भावेन्द्रिय है तथा शरीर नामकर्मोदय से शरीर में उत्पन्न हुए चिह्न द्रव्येन्द्रियाँ हैं ।।१६५॥
विशेषार्थ- इन्द्रियों के दो भेद हैं-भावेन्द्रिय और द्रव्येन्द्रिय । मतिज्ञानाबरण और वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से प्रात्मा में विशुद्धि अर्थात अर्थ ग्रहण करने की शक्ति उत्पन्न होती है, उस अर्थ ग्रहण की शक्ति को लब्धि कहते हैं । लब्धि को योग्यता भी कहते हैं। उस विशुद्धि के द्वारा प्राने विद्ययभूत अर्थग्रहणरूप व्यापार उपयोग है। लब्धि और उपयोग ये दोनों भावेन्द्रियाँ हैं। चैतन्य की पर्याय भाव है और उस चैतन्य का लक्षण अथवा चिह्न भायेन्द्रियाँ हैं। जातिनामकर्मोदय सहित शरीरनामकर्मोदय से शरीर में स्पर्शनादि भावेन्द्रियों के चिह्नस्वरूप द्रव्येन्द्रियाँ हैं। पुद्गलद्रव्य की पर्यायरूप इन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय है ।
शङ्का--द्रव्येन्द्रिय में पुद्गल का प्रयोग नहीं हुआ प्रतः द्रव्येन्द्रिय को पुद्गलद्रव्य को पर्याय क्यों कहा गया है ?
समाधान नाम के एकदेश से सम्पूर्ण नाम का ग्रहण हो जाता है, अत: पुद्गलद्रव्य के 'द्रव्य ऐसा एकदेश मात्र कहने से पुद्गल द्रव्य का ग्रहण हो जाता है।
भावेन्द्रिय के लब्धि और उपयोग रूप दो भेद हैं। प्राप्ति को लब्धि कहते हैं। इन्द्रिय की निवृत्ति के कारणभूत ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम विशेष को लब्धि कहते हैं। अथवा जिसके
१. घ.पु. १ पृ. २३७ । २. "विशुद्धिः अर्थग्रहणशक्ति: लब्धिः ।"[मि.च. थी अ. सूरि कृत टीका] । ३. "दव्यं. पुद्गलद्रव्यपर्यायः तटूपमिद्रियं द्रव्येन्द्रिय' बिही] । ४. "नामैकदेशस्य नाम्नि वर्तनात्" वही] । ५. न.मू., २ सु. १८। ६. "लम्भन लब्धिः " सर्वार्थसिद्धि प्र.२ सुत्र- की टीका।
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म
इन्द्रियमाणा / २३१
सन्निधान से श्रात्मा द्रव्येन्द्रिय की रचना में व्यापार करता है, ऐसे ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम को लब्धि कहते हैं । क्षयोपशमरूप लब्धि के निमित्त 'आलम्बन से उत्पन्न होने वाले ग्रात्मपरिणाम को उपयोग कहते हैं ।'
गाथा १९५
निर्वृत्ति और उपकरण, ये द्रव्येन्द्रिय के दो भेद हैं । २ रचना को निवृत्ति कहते हैं। यह रचना, कर्म करता है । निवृत्ति दो प्रकार की है - बाह्यनिवृत्ति और आभ्यन्तर - निर्वृत्ति ।
शङ्का -- बाह्यनिर्वृत्ति किसे कहते हैं
समाधान --- इन्द्रिय संज्ञा को प्राप्त ग्रात्मप्रदेशों में प्रतिनियत आकाररूप और नामकर्म के उदय से श्रवस्था विशेष को प्राप्त पुद्गलप्रचय को बाह्यनिवृत्ति कहते हैं ।
शङ्का — श्राभ्यन्तरनिर्वृत्ति किसे कहते हैं ।
समाधान- प्रतिनियत चक्षु श्रादि इन्द्रियों के प्राकाररूप से परिशात हुए लोकप्रमाण यथवा उत्सेधागुल के असंख्यातवें भागप्रमाण आत्मप्रदेशों की रचना को श्राभ्यन्तर निवृत्ति कहते हैं । "
जिसके द्वारा उनकार किया जाता है, अथवा जो निर्वृति का उपकार करता है वह उपकरण है । बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से उपकरण भी दो प्रकार है। नेत्र की दोनों पलकें और नेत्ररोम आदि नेत्रेन्द्रिय के बाह्य उपकरण हैं । कृष्णमण्डल और शुक्ल मण्डल नेत्रेन्द्रिय के अभ्यन्तर- उपकरण हूँ ।
शङ्का - जिस प्रकार स्पर्शन-इन्द्रिय का क्षयोपशम सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में उत्पन्न होता है, उसो प्रकार चक्षु यादि इन्द्रियों का क्षयोपशम क्या सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में उत्पन्न होना है या प्रतिनियत आत्मप्रदेशों में ? आत्मा के सम्पूर्ण प्रदेशों में क्षयोपशम होता है; यह तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रात्मा के सम्पूर्ण अवयवों से रूपादिक की उपलब्धि का प्रसङ्ग मा जाएगा। यदि कहा जावे कि सम्पूर्ण अवयवों से रूपादिक की उपलब्धि होती ही है, सो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि सर्वाङ्ग से रूपादिक का ज्ञान होता हुआ पाया नहीं जाता। इसलिए सर्वाङ्ग में क्षयोपशम नहीं माना जा सकता है। यदि श्रात्मा के प्रतिनियत अवयवों में चक्षु आदि इन्द्रियों का क्षयोपशम माना जाए सो भी नहीं बनता, क्योंकि ऐसा मान लेने पर "आत्मप्रदेश चल भी हैं, अचल भी हैं और चलाचल भी हैं" इस प्रकार से वेबनाप्राभूत के सूत्र से श्रात्मप्रदेशों का भ्रमण अवगत हो जाने पर जीवप्रदेशों की भ्रमरूप अवस्था में सम्पूर्ण जीवों को अन्धेपने का प्रसङ्ग आ जाएगा ?
समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीवों के सम्पूर्ण श्रात्मप्रदेशों में क्षयोपशम की उत्पत्ति स्वीकार की गई है. परन्तु ऐसा मान लेने पर भी जीव के सम्पूर्ण श्रात्मप्रदेशों द्वारा रूपादि की उपलब्धि का प्रसङ्ग भी नहीं आता है, क्योंकि रूपादि के ग्रहण करने में सहकारी कारणरूप बाह्य जीव के सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में नहीं पाई जाती है । '
१. व.पु. १ पृ. की टीका |
२३६ । २. त. सू. श्र. २ सू. १७ । ३. स. सि. प्र. २ सु. १७ की टीका । ४. स. सि. २/१७ ५. ध. पु. १२.३६७-६८ सूत्र ५-७ एवं धवल १३ / २६६ | गो. श्री. ग. ५६२; त. रा. बा. घ. ५ सु. ८ वा. १४ । ६. ष. पु. १ पृ. २३२-३३ ।
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२३२ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १६६-१६७
शङ्ख-कर्म स्कन्धों के साथ जीव के सम्पूर्णप्रदेशों के भ्रमण करने पर जीवप्रदेशों से समवाय सम्बन्ध को प्राप्त शरीर का भी जीवप्रदेशों के समान भ्रमण होना चाहिए ?
नामदेव गई है, क्योंकि जीवप्रदेशों की भ्रमणरूप अवस्था में शरीर का जीवप्रदेशों के साथ समवाय सम्बन्ध नहीं रहता है ।
शङ्का - भ्रमण के समय शरीर के साथ जीवप्रदेशों का समवायसम्बन्ध नहीं मानने पर मरण प्राप्त हो जाएगा ?
समाधान- नहीं, आयुकर्म के क्षय को मरण का कारण माना है ।
शङ्का - तो जीवप्रदेशों का शरीर के साथ पुनः समवाय सम्बन्ध कैसे बन जाता है ?
समाधान- इसमें भी कोई बाधा नहीं है, क्योंकि जिन्होंने नाना अवस्थाओं का उपसंहार कर लिया है, ऐसे जीवप्रदेशों का शरीर के साथ पुनः समवायसम्बन्ध उपलब्ध होता हुआ देखा जाता है । तथा दो मूर्त पदार्थों के सम्बन्ध होने में कोई विरोध भी नहीं आता है। अथवा जीवप्रदेश और शरीरसंघटन के हेतुरूप कर्मोदय के कार्य की विचित्रता से यह सब होता है। जिसके अनेक प्रकार के कार्य अनुभव में घाते हैं, ऐसे कर्म का सस्त्र पाया ही जाता है ।
शङ्का - द्रव्येन्द्रिय प्रमाण जीवप्रदेशों का भ्रमण नहीं होता है, ऐसा क्यों नहीं माना जाता ?
समाधान- नहीं, यदि द्रव्येन्द्रियप्रमाण जीवप्रदेशों का भ्रमरण नहीं माना जावे तो श्रत्यन्त द्रुतगति से भ्रमण करते हुए जीवों को घूमती हुई पृथ्वी आदि का ज्ञान नहीं हो सकता है। इसलिए आत्मप्रदेशों के भ्रमण करते समय द्रव्येन्द्रियप्रमाण श्रात्मप्रदेशों का भी भ्रमण स्वीकार कर लेना चाहिए ।"
शङ्का - उपयोग इन्द्रियों का फल है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति इन्द्रियों से होती है, ऋतः उपयोग को इन्द्रियसंज्ञा देना उचित नहीं है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि कारण में रहने वाले धर्म की कार्य में अनुवृत्ति होती है। लोक में कार्य, कारण का अनुकरण करते हुए देखा जाता है। जैसे घट के श्राकार से परिणत हुए ज्ञान को घट कहा जाता है. उसी प्रकार इन्द्रियों से उत्पन्न हुए उपयोग को भी इन्द्रिय संज्ञा दी गई है । २
इन्द्रिय- अपेक्षा जीवों के भेद
॥ १६६॥
फासरसगंधरूये, सद्दे गाणं च चिण्हयं जेसि । इतिचदुपचयिजीवा यि भेयभिण्णा एइंदियस्स फुसणं, एक्कं बि य होदि सेसजीवाणं । होंति कमउड्डियाई, जिन्भाघाच्छ्सिोत्ताइं ॥१६७॥
१. ध. पु. १ पृ. २३३-६४ । २. घ. पु. १ पृ. २३७ ।
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गाथा १६६-१६७
इन्द्रियमाणा / २३३
गाथार्थ - स्पर्श-रस- गन्ध-रूप और शब्द का ज्ञान जिनका चिह्न है, ऐसे एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय- श्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव हैं और वे अपने-अपने भेदों सहित हैं ।। १६६ ।। एकेन्द्रियजीव के एक स्पर्शन-इन्द्रिय ही होती है, शेष जीवों के क्रम से जिह्वा, घाण, चक्षु और श्रोत्र बढ़ते जाते हैं ।। १६७ ।। विशेषार्थ जिनके एक ही इन्द्रिय पाई जाती है वे एकेन्द्रिय जीव हैं ।
शङ्का - वह एक इन्द्रिय कौनसी है ?
समाधान - वह एक इन्द्रिय स्पर्शन है ।
शङ्का - स्पर्शनेन्द्रिय किसे कहते हैं ?
समाधान- बीर्यान्तराय और स्पर्शनेन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम से तथा अड्गोपाङ्ग नामकर्म के उदयरूप आलम्बन से जिसके द्वारा आत्मा पदार्थों को स्पर्ण करता है अर्थात् पदार्थगत स्पर्शगुण की मुख्यता से जानता है, वह स्पर्शन- इन्द्रिय है ।
स्पर्शनेन्द्रिय का यह लक्षण करणकारक की अपेक्षा से है । इन्द्रिय की स्वतंत्रविवक्षा में साधन भी होता है। जैसे - वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशमादि पूर्वोक्त कारणों के रहने पर जो स्पर्श करती है उसे स्पर्शन इन्द्रिय कहते हैं ।
शङ्का - स्पर्शन इन्द्रिय का विषय क्या है ?
समाधान स्पर्शन इन्द्रिय का विषय स्पर्श है ।
शङ्का - स्पर्श का क्या अर्थ है ?
समाधान --- जिस समय द्रव्यार्थिकनय की प्रधानता से वस्तु ही विवक्षित होती है, उस समय इन्द्रिय के द्वारा वस्तु का ही ग्रहण होता है, क्योंकि वस्तु को छोड़कर स्पर्शादिक धर्म पाये नहीं जाते । इसलिए इस विवक्षा में जो स्पर्श किया जाता है, उसे स्पर्श कहते हैं और वह स्पर्श वस्तुरूप ही पड़ता है तथा जिस समय पर्यायार्थिकनय की प्रधानता से पर्याय विवक्षित होती है, उस समय पर्याय का द्रव्य से भेद होने के कारण उदासीन रूप से अवस्थितभाव का कथन किया जाता है, अतः स्पर्श में भावसाधन भी बन जाता है। जैसे स्पर्शन ही स्पर्श है ।
-
शङ्कर - यदि ऐसा है तो सूक्ष्म परमाणु आदि में स्पर्श का व्यवहार नहीं बन सकता, क्योंकि उसमें स्पर्शनरूप क्रिया का भाव है ?
समाधान यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सूक्ष्म परमाणु प्रादि में भी स्पर्श है, अन्यथा परमाणु के कार्यरूप स्थूल पदार्थों में स्पर्धा की उपलब्धि नहीं हो सकती थी, किन्तु स्थल पदार्थों में स्पर्श पाया जाता है, इसलिए सूक्ष्म परमाणुत्रों में भी स्पर्श की सिद्धि हो जाती है, क्योंकि न्याय का यह सिद्धान्त है कि जो अत्यन्त असत् होते हैं उनकी उत्पत्ति नहीं होती है । यदि सर्वथा असत् की उत्पत्ति मानी जाए तो अतिप्रसङ्ग हो जाएगा। इसलिए यह समझना चाहिए कि परमाणुत्रों में स्पर्शादिक अवश्य पाये जाते हैं, किन्तु वे इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं होते ।
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२३४/गो. सा. जीरकाण्ड
गाथा १६५-१६७
शङ्का-जबकि परमाणुओं में रहने वाला स्पर्श इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता है, तो उसको पर्श संज्ञा कैसे दी जा सकती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि परमाणुगत स्पर्श के इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने की योग्यता का सदैव प्रभाव नहीं है।
शङ्का-परमाणों में रहनेवाला स्पर्श इन्द्रियों के द्वारा कभी भी ग्रहण करने योग्य नहीं है ।
समाधान-नहीं, क्योंकि जब परमाणु स्थूल कार्यरूप से परिमात होते हैं तब तद्गत धर्मों को। इन्द्रिय द्वारा ग्रहण करने की योग्यता पाई जाती है।
शङ्का-वे एकेन्द्रिय जीव कौन-कौन से हैं ? समाधान-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पांच एकेन्द्रिय जीव हैं।
शा--इन पाँचों के एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है, शेष इन्द्रियाँ नहीं होतीं, यह कैसे जाना जावे ?
समाधान- नहीं, क्योंकि पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय वाले होते हैं, इसप्रकार कथन करने वाला प्रार्षवचन पाया जाता है ।
शङ्का-वह प्रार्षवचन कौन सा है ? समाधान --वह पार्षवचन यह है--
'जागदि पस्सवि भुजवि सेवदि पासिविएण एक्केण ।
कुणदि य तस्सामित्तं थायरु एइंवितो तेण ॥१३५।। अर्थ-क्योंकि स्थावरजीव एक स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा ही आनता है, देखता है, खाता है, सेवन करता है और उसका स्वामीपन करता है, अतः वह एकेन्द्रियजीव है ।
अथवा, वनस्पत्यन्तानामेकम्" तस्वार्थसूत्र के इस वचन से जाना जाता है कि उनके एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है। इस सूत्र का अर्थ इसप्रकार है-'अन्त' शब्द अनेक अर्थ का वाचक है। कहीं पर अवयवरूप अर्थ में प्राता है; जसे-'वस्त्रान्त:' वस्त्र का अवयव । कहीं पर समीपता अर्थ में आता है, जैसे-'उदकान्तं गतः जल के समीप गया। कहीं पर अवसानरूप अर्थ में आता है, जैसे 'संसारान्तं गतः संसार के अन्त को प्राप्त हुना। उनमें यहाँ विवक्षा से 'अन्त' शब्द का भवसानरूप अर्थ जानना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि वनस्पति पर्यन्त जीवों के एक स्पर्शनेन्द्रिय होती है।
शङ्का-पृथ्वी से लेकर बनस्पतिपर्यन्त जीवों के पाँच इन्द्रियों में से कोई एक इन्द्रिय प्राप्त होती है, क्योंकि 'एक' स्पर्शन-इन्द्रिय का बोधक नहीं है, वह तो सामान्य से संख्यावाची है, इसलिए पाँच इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय का ग्रहण किया जा सकता है ?
१. घ.पु. १ पृ. २३६, प्रा.पं.स. १/६६।
२. त.सू.प्र. २ सूत्र २२ ।
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गाषा १६६-१६७
इन्द्रियमार्गणा/२३५ समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ 'एक' शब्द प्राथम्यवाची है, अतः उससे 'स्पर्शनरसनप्राणचक्षुःश्रोत्रारिण" इस सूत्र में आई हुई सबसे प्रथम स्पर्शन-इन्द्रिय का ही ग्रहण होता है।
वीर्यान्तराय और स्पर्शनेन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम पर, रसनादि शेष इन्द्रियावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय होने पर तथा एकेन्द्रियजाति नामकर्म के उदय की वशतिता के होने पर एक स्पर्शन इन्द्रिय उत्पन्न होती है ।
एकेन्द्रिय जीब के एक स्पर्शनेन्द्रिय । द्वीन्द्रिय जीव के स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ । श्रीन्द्रिय जीव के स्पर्शन-रसना-घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ । चतुरिन्द्रिय जीव के स्पर्शन-रसना-प्राण और चक्ष ये चार इन्द्रियाँ तथा पंचेन्द्रिय जीव के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र, ये पाँच इन्द्रियों होती हैं।
__ एक-एक इन्द्रिय का बढ़ता हुआ क्रम जिन इन्द्रियों का पाया जावे, ऐसी एक-एक इन्द्रिय के बढ़ते हुए क्रमरूप पाँच इन्द्रियाँ होती हैं।
जिनके दो इन्द्रियाँ होती हैं, वे दो इन्द्रिय जीव हैं। वे दो इन्द्रिय जीव शंख, शुक्ति और कृमि प्रादिक द्वीन्द्रियजीव हैं। कहा भी है--
"कुक्खिकिमि-सिप्पि-संखा-गंडोलारिट-अयष-खुल्ला य ।
तह य बराडय जीवा या बीइंदिया एदे ॥१३६॥ अर्थात् कुक्षि-कृमि (पेट के कीड़े), सीप, शंख, गण्डोला (उदर में उत्पन्न होने वाली बड़ी कृमि), अरिष्ट, अक्ष (चन्दनक नाम का जलचर जीव विशेष), क्षुल्लक (छोटा शंख) और बौड़ी श्रादि द्वीन्द्रिय जीव हैं।
शङ्का–वे दो इन्द्रियाँ कौन सी हैं ?
समाधान स्पर्शन और रसना । स्पर्शन का लक्षण कहा जा चुका है। रसना इन्द्रिय का । स्वरूप-वीर्यान्तराय रसनेन्द्रियावरण (मतिज्ञानावरण) कर्म के क्षयोपशम से तथा अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय के अवलम्बन से जिसके द्वारा स्वाद का ग्रहण होता है वह रसना इन्द्रिय है ।
शङ्का - रसना इन्द्रिय का विषय बया है ? समाघान-रसना इन्द्रिय का विषय रस है । शङ्का-रस शब्द का क्या अर्थ है ?
समाधान—जिस समय प्रधानरूप से वस्तु विवक्षित होती है उस समय बस्तु को छोड़कर पर्याय नहीं पाई जाती, इसलिए बस्तु ही रस है। इस विवक्षा में रस के कर्मसाधनपना
२. घ.पृ. १ पृ. २३६-४०1 ३. प.पु. १ पृ. २५८-५६ । ४. घ. पु. १ पृ. २४१ ।
१. स.मू.अ. २ सूत्र १६ । ५. घ, पु. १ पृ. २४१ ।
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२३६ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १६६-१६७
है, जैसे- जो चला जाए, वह रस है । तथा जिस समय प्रधानरूप से पर्याय विवक्षित होती है, उस समय द्रव्य से पर्याय का भेद बन जाता है, अतः जो उदासीनरूप से प्रवस्थित भाव है, उसी का कथन किया जाता है । इस प्रकार रस के भावसाधनपना भी बन जाता है । जैसे- प्रास्वादन में श्राने रूप क्रियाधर्म को रस कहते हैं ।
शङ्कास्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियों की उत्पत्ति किस कारण से होती है ?
समाधान- वीर्यान्तराय और स्पर्शन व रसनेन्द्रियावरण ( मतिज्ञानावरण) कर्म का क्षयोपशम होने पर शेष इन्द्रियावरण कर्म के सर्वघाती स्पर्द्ध कों के उदय होने पर अङ्गोपाङ्गनामकर्म के उदय के अवलम्बन से तथा द्वीन्द्रिय जाति नामकर्म के उदय की वशवर्तिता होने पर स्पर्शन श्रीर रसना ये दो इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं।"
जिनके तीन इन्द्रियाँ होती हैं वे त्रीन्द्रिय जीव हैं ।
शङ्का -- वे तीन इन्द्रिय जीव कौन से हैं ?
समाधान कुन्यु और खटमल आदि श्रीन्द्रिय जीब हैं। कहा भी है-
--
कुथु पिपीलिक मक्कुण विच्छिन जू इंवगोष गोम्ही य । गिट्टियावि तोदिया जीवा ॥१३७॥
मा
अर्थात् कुथु, पिपीलिका, खटमल बिच्छू, जू, इन्द्रगोप कनखजूरा, उत्तिरंग, नट्टियादिक ये सब श्रीन्द्रिय जीव हैं ।
शंका- वे तीन इन्द्रियाँ कौन-कौन सी हैं ?
समाधान - स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियां हैं। स्पर्शन - रसना का स्वरूप पहले कहा जा चुका है।
शंका- प्राणेन्द्रिय किसे कहते हैं ?
समाधान घ्राण शब्द करणसाधन है, क्योंकि पारतन्त्र्य विवक्षा में इन्द्रियों के करणसाधन होता है, इसलिए वीर्यान्तराय और घ्राणेन्द्रियावरण ( मतिज्ञानावरण) कर्म के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय के आलम्बन से जिसके द्वारा सूंघा जाता है, वह प्राणेन्द्रिय है । अथवा इन्द्रियों की स्वातंत्र्य विवक्षा में धारणशब्द कर्तृ साधन भी होता है, क्योंकि लोक में इन्द्रियों की स्वातन्त्र्य विवक्षा भी देखी जाती है। जैसे - यह मेरी आँख अच्छी तरह से देखती है, मेरा कान सुनता है, अतः पहले कहे हुए वीर्यान्तरायादि के क्षयोपशमादि कारण मिलने पर जो सूंघती है, वह घ्राण इन्द्रिय है ।
घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध है। जो सूंघा जाए वह गंध है अथवा सुघे जाने रूप क्रिया गन्ध है। वीर्यान्तराय और स्पर्शन - रसना घ्राणेन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से, अंगोपांग नामकर्मोदय के
१. घ. पु. १ पू. २४२ । २. घ. पु. १. २४५ ३. ध. पु. १ पृ. २४५
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गाथा १६६-१६७
इन्द्रियमार्गणा/२३७
अबलम्बन से तथा श्रीन्द्रियजाति नामकर्म के उदय की वशतिता के होने पर स्पर्शन, रसना एवं नाण ये तीन इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं।'
जिनके चार इन्द्रियाँ पाई जाती हैं, वे चतुरिन्द्रिय जीव हैं। मच्छर, मक्खी प्रादि चतुरिन्द्रिय जीव हैं । कहा भी है --
भक्कडय-भमर-महुवर-मसय-पदंगा य सलह-गोमच्छी।
मन्छो सदंस कीडा या परिदिया जीवा ॥१३८॥ अर्थात् मकड़ी, भौंरा, मधु-मक्खी, मच्छर, पतङ्ग, शलभ, गोमक्खी, मक्खी, डॉस प्रादि चतुरिन्द्रिय जीव हैं।
वीर्यान्तराय और चाइन्द्रियावरण के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय से 'जिसके द्वारा पदार्थ देखा जाता है वह चाइन्द्रिय है। यद्यपि 'चक्षिङ् धातु अनेकार्थक है, तथापि यहाँ दर्शनरूप अर्थ की विवक्षा है। स्वातंत्र्य विवक्षा में चक्षु इन्द्रिय के कर्तृ साधन भी होता है। जैसे-- यह मेरी आँख अच्छी तरह से देखती है, इसलिए पूर्वकथित चक्षुइन्द्रियावरणादि कारणों के मिलने पर जो देखती है, वह चक्षुइन्द्रिय है।'
शङ्का-चक्षुइन्द्रिय का विषय क्या है ? समाधान --चक्षुइन्द्रिय का विषय 'वर्ण' है । जो देखा जाए वह वर्ण है।
शङ्का--स्पर्शन, रसना, प्राण और चक्षु, इन चारों इन्द्रियों की उत्पत्ति किन कारणों से होती है ?
समाधान- 'वीर्यान्तराय और स्पर्शन, रसना, घ्राण, चाइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम, शेष थोत्रइन्द्रियावरणकर्म के सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदय, अङ्गोपाङ्गनामकर्म के उदयालम्बन तथा चतुरिन्द्रियजाति नामकर्म के उदय को वशवतितारूप कारणों के होने पर इन चार इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है।
शङ्का--'पञ्चेन्द्रियजीव किसे कहते हैं ?
समाधान-जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु यौर श्रोत्र ये पांचों इन्द्रियाँ पाई जावें, वे पञ्चेन्द्रिय जीव हैं।
शा-पञ्चेन्द्रियजीव कौन-कौन से हैं ? समाधान-जरायुज, अण्डज आदि पञ्चेन्द्रियजीव हैं। कहा भी है -
संसेविम-समुच्छिम-उम्भेदिम-प्रोववाविया चेव । रस-पोतंरजजरजापंचिदिया जीवा ॥१३६॥
१. ध, पु. १ प. २४६ । २. घ. पु. १ पृ. २४७ । ३. वही। ४. प. पु. १ पृ. २४८]
५. वही । ६. बही ।
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२३८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथ १६ अर्थात् स्वेदज, संमूच्छिम, उद्भिज्ज, प्रौपपादिक, रसज, पोत, अण्डज और जरायुज ये सभी पञ्चेन्द्रियजीव हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षुइन्द्रिय के सम्बन्ध में पूर्व में कहा जा चुका है।
शंका-'श्रोत्रेन्द्रिय किसे कहते हैं ?
समाधान--वीर्यान्तराय और श्रोत्रइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम तथा अगोपाग नामकर्म के पालम्बन से जिसके द्वारा सुना जाता है प्राथवा जो सुनती है वह थोरेन्द्रिय है ।
शंका-श्रोत्रेन्द्रिय का विषय क्या है ? समाधान -श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है । जो सुना जाए वह शब्द है । अथवा ध्वनिरूप क्रिया को शब्द कहते हैं । शंका–पाँचों इन्द्रियों की उत्पत्ति के कारण क्या हैं ?
समाधान-वीर्यान्त राय और स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु तथा श्रोग्रेन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम तथा अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के आलम्बन के साथ-साथ पञ्चेन्द्रियजाति नामकर्म के उदय की वशवर्तिता पाँचों इन्द्रियों की उत्पत्ति के कारण हैं।
___ यद्यपि वीर्यान्तराय व इन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम से इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है, तथापि यहाँ जाति नामकर्मोदय की प्रधानता है । मनुष्य, देव और नारकी तो पञ्चेन्द्रिय ही होते हैं, नियंत्रों में भी सिंह, मृग, शुक, मछली आदि पञ्चेन्द्रिय होते हैं।
पाँचों इन्द्रियों का विपक्षेत्र धणुवीसडवसयकदी, जोयणछादाल-हीपतिसहस्सा ।
प्रटुसहस्स धणूरणं, विसया दुगुणा असगि त्ति ॥१६८।। गाथार्थ-स्पर्शनादि इन्द्रियों का विषयक्षेत्र क्रमशः (स्पर्शन) बीस की कृति (वर्ग) अर्थात् ४०० धनुष, (रसना) पाठ का वर्ग ६४ धनुष, (घ्राण) दस का वर्ग १०० धनुष, (चक्ष) दो हजार नव सौ चौपन योजन तथा (श्रोत्र) पाठ हजार धनुष प्रमाण है । आगे असंजीपञ्चेन्द्रिय पर्यन्त विषयक्षेत्र दुगुना-दुगुना होता गया है। .
विशेषार्थ-एकेन्द्रिय जीव के स्पर्शन इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषयक्षेत्र वीस का वर्ग अर्थात ४०० धनुष प्रमाण है, द्वीन्द्रिय के स्पर्शन इन्द्रिय का ही उत्कृष्ट क्षेत्र ८०० धनुष, त्रीन्द्रिय के १६०० धनुष, चतुरिन्द्रिय जीव के ३२०० धनुष और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव के ६४०० धन्य है। इस प्रकार एकेन्द्रिय से असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय तक स्पर्शन इन्द्रिय सम्बन्धी उत्कृष्ट विषयक्षेत्र दूना-दूना जानना चाहिए।
द्वीन्द्रिय जीव के रसना इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषयक्षेत्र ६४ धनुष प्रमाण है, श्रीन्द्रिय जीव के
१. घ. पु. १ पृ. २४६।
२. प. पु. १ पृ. २५० ।
३. ध. पु. १ पृ. २४ ।
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गाथा १६८
इद्रियमार्गरपा/२३६
१२८ धनुष, चतुरिन्द्रिय जीव के २५६ धनुष और असंज्ञी पंचेन्द्रियजीव के ५१२ धनुष प्रमाण है। श्रीन्द्रियजीव के प्राण इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषयक्षेत्र १०० धनुष, पतुरिन्द्रियजीव के २०० धनुष तथा असंजी पञ्चेन्द्रियजीव के ४०० धनुष प्रमाण है। चतुरिन्द्रियजीव के चक्ष इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषयक्षेत्र २६५४ योजन और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के ५६०८ योजनप्रमाण है। असंजी पंतेन्द्रियजीव के श्रोत्र-इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषयक्षेत्र ८००० धनुष प्रमाण है।' इस प्रकार पुद्गलपरिणामयोग से ये विषयक्षेत्र जानने चाहिए। एकेन्द्रियादि जीव अपनी-अपनी उत्कृष्ट शक्ति से युक्त स्पर्शनादि इन्द्रियों के उक्त प्रमाणानुसार दूर स्थित पदार्थों को विषय करते हैं।
शङ्खा - इतनी दूर तक स्थित स्पर्श, रस, गन्ध आदि विषयों को ये इन्द्रियाँ ग्रहण नहीं कर सकती हैं, क्योंकि ये इन्द्रियाँ प्राप्त अर्थ को ग्रहण करती हैं ?
समाधान-ऐसी शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियों का बिना प्राप्त किये अर्थ को ग्रहण करना सिद्ध है। युक्ति तथा आगम से इन इन्द्रियों का प्राप्त किये बिना अर्थ को ग्रहण करना विरुद्ध नहीं है।
शङ्का-- बह युक्ति क्या है ?
समाधान · एकेन्द्रियजीव पाद अर्थात जड़ को फैलाने से दूर स्थित वस्तु को भी जान लेते हैं अर्थात् जिस दिशा में सुवर्ण आदि वस्तुएं गड़ी हुई हैं उधर ही एकेन्द्रिय वनस्पति जीव अपनी जड़ फैला देते हैं तथा वस्तु युक्त प्रदेश में नाल-शिरात्रों को फैला देते हैं। आगम में भी स्पर्शन आदि इन्द्रियों को अप्राप्तग्राही माना गया है, क्योंकि स्पर्शन आदि युक्त मतिज्ञान के ३३६ भेद कहे गए हैं।
चतुरिन्द्रियजीव २६५४ योजन दूर स्थित पदार्थों को अपनी आंखों से देख सकता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। स्पर्शमादि इन्द्रियाँ तो प्राप्तग्राही हैं, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय प्राप्तग्राही नहीं है, अन्यथा अपने में स्थित अंजन आदि को भी जानने में समर्थ होती । चक्षुरिन्द्रिय पदार्थ के पास जाकर उसे नहीं जानती, अन्यथा अाँख का प्रदेश चक्षुरहित हो जाता। ज्ञानरूपीचक्षु पदार्थ के पास जाता है ऐसा भी मानना युक्तिसंगत नहीं है, ऐसा मानने से प्रात्मा अज्ञ हो जाएगा। आँख क्रम से अपनो विषयभूत वस्तु के पास जाती है, ऐसा भी नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से बीच के सभी पदार्थों के ज्ञान होने का प्रसंग पाएगा। अत: वश्च अप्राप्तार्थवाही ही है, स्पर्शनादि इन्द्रियों के समान प्राप्तार्थग्राही नहीं है।
शिक्षा पालाप आदि के ज्ञान से रहित असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ५६०८ योजन दूर पर स्थित चक्षुविषय रूप को चक्षुरिन्द्रिय द्वारा जानता है अतः प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय के चक्षुरिन्द्रियविषय ५६०८ योजन है। (मूला. पर्याप्ति अधिकार गाथा ५३ की टीका)।
असंज्ञी पंचेन्द्रिय के श्रोत्र-इन्द्रिय-विषय पाठ हजार धनुष है अर्थात् पाठ हजार धनुष अन्तर
१-२. प. पु. ६ पृ. १५८ पर तथा मूलाधार पर्याप्ति अधिकार में भी इस विषय के सम्बन्ध में उपयोगी गाथाएँ दी गई है।
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२४० गो, सा. जीवकाण्ड
गाथा १६६-१७० पर उत्पन्न हुए शब्द को प्रसंगी पंचेन्द्रिय जीव श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा जानता है। पुद्गल द्रव्य का अर्थात् मूर्त द्रव्य का विशिष्ट संस्थान अथवा महत्त्व, वर्णादिक प्रगट होना पुद्गल द्रव्य का परिणमन है। सूर्यबिम्ब आदि पुद्गल द्रव्य के परिणमन हैं और वे विशिष्ट इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं।'
संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव का इन्द्रिय-विषय-क्षेत्र सणिस्स वार सोदे तिण्हं गय जोयगारिए चक्खुस्स। सत्तेतालसहस्सा
वेसदतेसट्ठिमदिरेया ॥१६६।। गाथार्थ - संज्ञी पंचेन्द्रिय जीब के थोत्र-इन्द्रिय का विषय-क्षेत्र बारह योजन है। तीन इन्द्रियों का विषय-क्षेत्र नब-नब योजन है। चक्षुरिन्द्रिय का विषयक्षेत्र कुछ अधिक संतालीस हजार दो सौ तरेसठ योजन है ।। १६६॥
विशेषार्थ-इस सम्बन्ध में थवल पु. ६ पृ. १५८ पर तथा मूलाचार पर्याप्त्यधिकार १२ पृ. २१२-२१३ पर ये गाथाएँ हैं
पासे रसे य गंधे विसनो एव जोयसा मुणेयध्वा । बारह ओयण सोदे चबुस्सु पक्खामि ॥५२॥ सत्तेतालसहस्सा वे वेव सया हवंति तेक्वा ।
चक्विवियस्स विसनो उपकस्सो होदि अधिरित्तो ॥५३॥ संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के स्पर्श, रस व गन्धविषयक क्षेत्र नौ योजन प्रमाण तथा श्रोत्र का - बारह योजन प्रमाण है, चक्षु-इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय सैतालीस हजार दो सौ प्रेसठ योजन से कुछ । अधिक है।
जिनके इन्द्रियों का क्षयोपशम अतिशय तीव्र है ऐसे चक्रवर्ती प्रादि संनी पंचेन्द्रिय जीवों के नत्र योजन दुर तक स्पर्शन-इन्द्रिय के द्वारा स्पर्श का, रसनेन्द्रिय द्वारा रस का, प्राणेन्द्रिय द्वारा गन्ध का ज्ञान होता है और श्रोत्र-इन्द्रिय द्वारा बारह योजन दूर पर स्थित शब्द का ज्ञान होता है। चक्षुरिन्द्रियावरण के तीय क्षयोपशम वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त चक्रवर्ती आदि चक्षु-इन्द्रिय के द्वारा संतालीस हजार दो सौ रेसठ योजन से कुछ अधिक (* योजन अधिक) अर्थात् एक कोस, बारह सौ पन्द्रह दंड (धनुष), एक हाथ, दो अंगुल कुछ अधिक यब के चतुर्थभाग दूर पर स्थित पदार्थ को जानते हैं।
___क्षु इन्द्रिय के उत्कृष्ट विषयक्षेत्र की सिद्धि तिम्सियसद्धिविरहिदलक्खं बसमूलताडिदे मूलं ।
रणवगुरिणदे सहिहिदे चक्खप्फासस्स प्रद्धाणं ॥१७॥ १. मूलाचार पर्याप्त्यधिकार १२ गा. ५४ की संस्कृत टीका पृ. २१२ । २. घबल पु. ६ पृ. १५८ | मूलाचार पर्याप्त्यधिकार १२ पृ. २१२ पर गाथा ५५ व मूलाचार (फलटन से प्रकाशित) पृ. ५६४ पर मा. १०६ है किन्तु उत्तरार्च में कुछ शब्दभेद है। ३. श्रवल पु.६ पृ. १५८ । मूलाचार पर्याप्त्यधिकार १२ पृ. २१३ पर माथा ५६ तथा मूलाचार (फलटन) पृ. ५६५ पर गा. १०८ है। ४. मूलाचार उपमुक्त गाथानों की श्रीवसुनन्दि माचार्यकृत संस्कृत टीका। ५. मूलाचार (फलटन) पृ. ५६५ पर गाया १०६ इसी प्रकार है ।
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इन्द्रियमाणा / २४१
गाथार्थ - तीन सौ साठ कम एक लाख (१००००० - ३६० - ६६४० ) योजन को दस के वर्गमूल से गुणा करने से जो मूलराशि प्राप्त हो उसको नौ से गुरणा करके साठ से भाग देने पर क्षुइन्द्रिय के विषय का अध्वान प्राप्त होता है ।। १७० ।।
गाय १७०
विशेषार्थ – सूर्य की १८४ गलियाँ हैं । इन गलियों में से जब सूर्य अभ्यन्तर प्रथम गली में होता है तब सूर्य जम्बूद्वीप में १८० योजन भीतर होता है । जम्बूद्वीप की विष्कम्भ सूची एक लाख योजन है । इसमें से दोनों ओर के १८० योजन ( १८० x २ ) अर्थात् ३६० योजन करने पर ग्रभ्यन्तर गली की विष्कम्भ सूची (१००००० - ३६० = ९९६४० ) योजन प्राप्त होती है । इस विष्कम्भ सूची को दस 'वर्गमूल से गुणा करने पर अभ्यन्तर गली की परिधि होती है, जिसका प्रसारण निकटतम ३१५०८६ योजन है । इस परिधि पर एक सूर्य को दो रात-दिन अथवा ४८ घंटे या ६० मुहूर्त लगते हैं। जब सूर्य अभ्यन्तर प्रथम गली में होता है तब दिन ग्रठारह मुहूर्त का होता अतः अयोध्या है।" अतः सूर्योदय होने के नव मुहूर्त पश्चात् सूर्य अयोध्यानगरी पर होता है । नगरी से सूर्योदय तिनी दूरी पर होता है उसका प्रमाण प्राप्त करने के लिए अभ्यन्तर प्रथम गली की परिधि को साठ से भाग देने पर सूर्य का एक मुहूर्त का गमनक्षेत्र प्राप्त हो जाता है।" पुनः उसको नौ से गुणा करने पर मुहूर्त का गमनक्षेत्र प्राप्त होता है अर्थात् अयोध्यानगरी से सूर्योदय की दूरी प्राप्त हो जाती है । अभ्यन्तर प्रथम गली की परिधि ३१५०८६ योजन है, इसको ६० से भाग देकर 2 से गुणा करने पर अथवा ( - ) २० से भाग देकर ३ से गुणा करने पर ( ३१५०८६४ ) = ४७२६३० योजन प्राप्त होते हैं ।" योजन में एक कोस, बारह सौ पन्द्रह धनुष एक हाथ, दो अंगुल और यव का कुछ अधिक चतुर्थभाग प्राप्त होते हैं। इस सम्बन्ध में ये गाथाएँ भी उपयोगी हैं
अस्सीदिदं विगुणं दोषविसेसस्स वग्ग बहुगुणियं । सद्विहितं विद्धमाणातं चक्खू ।।५७ ॥ *
मूलं
जब सूर्य अभ्यन्तर प्रथम गली में होता है तब वह जम्बूद्वीप में १५० योजन अभ्यन्तर की बोर होता है। दोनों ओर से १५० योजन कम करने पर द्विगुण (१५०x२) अर्थात् ३६० योजन, जम्बूद्वीप की विष्कम्भ सूची एक लाख योजन में से कम करने पर शेष ( १००००० - ३६० ) = ६६६४० रह जाते हैं । इसका वर्ग करके फिर इसको १० से गुणा करके वर्गमूल करने पर अभ्यन्तर 'गली की परिधि का प्रमाण ३१५०८६ होता है । इसको ६० से भाग देवर से गुणा करने पर चक्षूइन्द्रिय का उत्कृष्ट क्षेत्र प्राप्त होता है ।
श्रादिमपरिहि तिगुणिय बीसहिदो लद्धमेत्ततेसट्ठी ।
दुसया सत्तत्तालं सहस्सया वीसहरिदससंसा ॥ ४३० ॥ १० एवं चप्पासोषिक व वेलस्स होदि परिमाणं ।। ४३१ ।। पूर्वार्ध
- यादिम गली की परिधि को तिगुणा करके बीस का भाग देने पर सैंतालीस हजार दो सौ
१. नि. प. ७/२१६
६. ति.प. ७ / २६६ ॥ की संस्कृत टीका ।
יין
२. वि.प. ७ / ४२६ । ३. ति.प. ७ / २५४ । ४. वि.प. ७ / २६६ ५. श्र.मागा. ३:६ । ७. त्रि.सा.गा. ३५९ ३६१ व सस्कृत टीका | ८. मुलाचार पर्याप्यधिकार १२ गाथा ४६ C. मूलाचार पर्यायधिकार १२ । १०. वि.प. ७/४५० ११. ति.प. ७/४३१ पूर्वा
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२४२/गो. मा. जीवकागड़
गाथा १७१-१७३
सठ योजन और एक योजन के बीस भागों में से सात भाग; इतना लब्ध प्राप्त होता है। ४.७२६३३ योजन, यही चक्षुइन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय है।
इन्द्रियों के प्राकार व प्रवगाहना का कैयन चक्खू सोदं घाणं जिम्भायारं मसूरजवरणाली । अतिमुत्तखुरप्पसमं फासं तु प्रणेयसंठाणं ॥१७१॥' अंगुलप्रसंखभागं सखज्जगुणं तदो बिसेसाहय । ततो असंखगुरिणदं अंगुलसंखेज्जयं तत्तु ।।१७२।। सुहमरिगगोव-अपज्जत्तयस्स जादस्स तदियसमयसि ।
अडगुलप्रसंखभागं जहरणमुक्कसयं मच्छे ॥१७३॥ गाथार्थ-चक्षु-इन्द्रिय का संस्थान अर्थात् आकार मसूर के समान है, श्रोत्र इन्द्रिय का प्राकार यवनाली के सदृश है । कदम्ब के फूल जैसा प्राकार घ्राण-इन्द्रिय का है । जिह्वा इन्द्रिय का प्राकार खरपे जैसा है । स्पर्शन-इन्द्रिय अनेक प्राकार वाली है ।।१७१॥ चक्षु-इन्द्रिय की अवगाहना अङ्गल के असंख्यातवें भाग है । इस से संख्यात गुरणी श्रोत्र-इन्द्रिय की अवगाहना है । उससे विशेष-अधिक घ्राण-इन्द्रिय की अवगाहना है । उससे असंख्यात गुणी जिह्वा इन्द्रिय की अवगाहना है फिर भी अङ्गुल के संख्यातवें भाग है ।। १७३।। सुक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक के उत्पन्न होने के तृतीय समय में अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्शन-इन्द्रिय की जघन्य-अवगाहना होती है और मत्स्य के उत्कृष्ट अवगाहना होती है ।।१७३।।
विशेषार्थ-मसूर के समान ग्राकार वाली सौर घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमारण चक्षु इन्द्रिय की वाह्य निर्ध त्ति होती है । यव को नाली के समान आकार वाली अंगृल के असंख्यातवें भाग प्रमारण श्रोत्र-इन्द्रिय की बाह्य निवृत्ति होती है। कदम्ब के फूल के समान आकार बाली और घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण घ्राण इन्द्रिय की बाह्य-निईत्ति होती है। अर्ध-चन्द्र अथवा खुरपा के समान आकारवाली और घनांगुल के संख्यातवें भाग प्रभाग रमना-इन्द्रिय अर्थात् जिह्वा-इन्द्रिय को बाह्य निर्वृत्ति होती है। स्पर्शन-इन्द्रिय की बाह्य नित्ति अनियत श्राकार बाली होती हैं । वह जघन्य प्रमागा की अपेक्षा धनांगुल के असंख्यानवे भाग प्रभाग सूक्ष्म निगोदिया लबध्यअपर्याप्तक जीव के उत्पन्न होने के तृतीय समयवर्ती शरीर में होती है और उत्कृष्ट प्रमाण को अपेक्षा संख्यात धनांगुल प्रमाण महामत्स्य आदि अस जीवों के शरीर में होती है ।
चक्ष-इन्द्रिय की अवगाहना रूप प्रदेश सबसे स्तोक है। उनसे संव्यातगुणे श्रोत्र इन्द्रिय के प्रदेश हैं । अर्थात् चक्षुइन्द्रिय अपनी अवगाहना से जितने प्रानाशप्रदेशो को व्याप्त करती है उससे संख्यातगणे आकाश प्रदेशों को व्याप्त कार थोत्र-इन्द्रिय रहती है। उससे विशेष अधिक प्राकाश
१, पह गाथा धवन पू. १ प्र. २३६ : प्रा. प. सं. पृ. १४ मा. ६६; मुलाचार पर्याप्यधिकार १२ गा. ५० है किन्तु शब्दभेद है। २. यह गाथा मूलाचार पर्याप्त्यविकार १२ गाथा ४७ है किन्तु उत्तरार्ध में शब्दभेद है। ३. प्रा. प.सं. १/६६। ४. धवल पु.१५. २३४-२६५ ।
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गाथा १७४
इन्द्रियमाणा / २४३
प्रदेशों को घ्राण-इन्द्रिय व्याप्त करती है। उससे प्रसंख्यातगुणे श्राकाशप्रदेशों में रसना इन्द्रिय रहती है और उससे संख्यात गुरणे अजघन्य स्पर्शन-इन्द्रिय के प्रकाशप्रदेश हैं । '
अनियि जीवों का कथन
रवि इंदिय-कररण- जुदा श्रवग्गहादोहिं गाया अथे । dr य इंदिय- सोषखा श्ररिंग दियारांत - खारख -- सुहा ॥ १७४॥ *
गाथार्थ - वे अनिन्द्रिय जीव इन्द्रिय रूप अर्थ को ग्रहण नहीं करते, उनके इन्द्रियसुख सुख अनिन्द्रिय है ।। १७४ ।।
कररण से युक्त नहीं हैं और श्रवग्रह आदि के द्वारा भी नहीं है, क्योंकि उनका अनन्त ज्ञान और अनन्त
विशेषार्थ - जिनके इन्द्रियाँ नहीं होतीं, वे अनिन्द्रिय जीव हैं ।
शङ्कर वे कौन हैं ?
समाधान- शरीररहित सिद्ध भगवान प्रतिन्द्रिय हैं ।
शङ्का- उन सिद्ध भगवान में भावेन्द्रिय और तज्जन्य उपयोग पाया जाता है, अतः वे इन्द्रिय सहित हैं
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समाधान- नहीं, क्योंकि क्षयोपशमजन्य उपयोग के इन्दियत्व है । परन्तु जिन के समस्त कर्म क्षीण हो गये हैं, ऐसे सिद्धों में क्षयोपशम नहीं होता, क्योंकि वह क्षायिक भाव के द्वारा दूर कर दिया जाता है।
शङ्का - प्रर्थ किसे कहते हैं ?
समाधान- 'जो जाना जाता है' वह ग्रंथ है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार वर्तमान पर्याय में अर्थपर पाया जाता है।"
शंका यह व्युत्पत्त्यर्थं अनागत और अतीत पर्यायों में समान है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि अनागत और यतीत पर्यायों का ग्रहण वर्तमान अर्थ के ग्रहणपूर्वक होता है । अर्थात् अतीत और अनागत पर्यायें भूतशक्ति और भविष्यत्शक्ति रूप से वर्तमान अर्थ में ही विद्यमान रहती हैं। यतः उनका ग्रहरण वर्तमान अर्थ के ग्रहणपूर्वक ही हो सकता है, इसलिए उन्हें अर्थ यह संज्ञा नहीं दीं जा सकती । केवलज्ञान आत्मा और अर्थ से अतिरिक्त किसी इन्द्रियादिक सहायक की अपेक्षा से रहित है ।
१. धवल पु. १ पु. २३५ । पृ. ५७७ पर गाथा ७२ है ४.
२. यह गाथा धवल पु. १ पृ. २४६ पर तथा प्राकृत पंत्र संग्रह ( ज्ञानपीठ) प्रा. पं. सं. पू. १५ परगा ७४ में कुछ शब्दभेद है। ३. वबल पु. १ पृ. २४८ । पृ. १ पृ. २४६ । ५. 'अपरिच्छिद्यते इति न्यायतस्तत्रार्थमोपलम्भात् । [ जयधवल पु. १
पृ. २२ ]; 'श्रर्यंत इत्यर्थ: निश्चीयत इत्यर्थः । ' [ सर्वार्थ सिद्धि १/२ ] । ६. जयधवल पु. १ पृ. २३ ।
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२४४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १७५
शा-किस गुण के द्वारा अर्थ संज्ञा प्राप्त होती है ?
समाधान ..प्रमेयत्व गुण के द्वारा अर्थ संज्ञा प्राप्त होती है, क्योंकि प्रमाग के द्वारा जानने के योग्य जो स्व और पर स्वरूप है, वह प्रमेय है ।'
शङ्का—यह गुण किस के प्राधार रहता है ?
समाधान—यह गुण द्रव्य के प्राधार रहता है, क्योंकि जितने भी गुगा हैं वे सब द्रव्य के माश्रय से रहते हैं।
शङ्का---वर्तमान पर्याय को अर्थ संज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है, क्योंकि उसके ग्राश्रय प्रमेयत्व गुण नहीं है।
समाधान-वर्तमान पर्याय का द्रव्य के साथ तदात्म-सम्बन्ध होने के कारण वर्तमान पर्याय को अर्थसंज्ञा प्राप्त हो जाती है। कहा भी है--
परिणभदि जेरण दब्वं तत्कालं तम्मय त्ति एण्णत्त ।। जिस काल में द्रव्य जिस पर्याय रूप परिणमन करता है उस काल में वह द्रव्य उस पर्याय से तन्मय होता है। प्रतीत व अनागत पर्यायों से दव्य वर्तमान में मग नहीं होता हातः उनको अर्थ संज्ञा प्राप्त नहीं होती। वे तो प्रध्वंसाभाव और प्रागभाव रूप हैं, सद्भाव रूप नहीं हैं ।
शङ्कर नामानन्त आदि के भेद से अनन्त अनेक प्रकार का है उनमें से यहाँ पर किस अनन्त से प्रयोजन है ?
समाधान–यहाँ पर विनाश रहित अनन्न से प्रयोजन है। अन्त बिनाश को कहते हैं, जिसका अन्न अर्थात् विनाश नहीं होता, वह अनन्त है।
शङ्का-क्या सिद्धों में अनन्त ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान और अनन्त मुख ये दो ही गुगा हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि केवल दर्शन, सम्यक्त्व , वीर्यादि गुण अनन्त ज्ञान व मुख के सहचारी हैं अत: उल्लेख के बिना भी शेष सब गुणों का ग्रहण हो जाता है। वे गुरण भी स्वाभाविक हैं ।
संक्षेप से एकेन्द्रिमादि जीवों की मन्या का कथन थावरसंखपिपीलियभमरमणुस्सादिगा समेदा जे ।
जुगवारमसंखेज्जाणतारणंता णिगोदभवा ।।१७५॥ गाथार्थ –स्थावर काय (साधारण वनस्पति के अतिरिक्त), शंख (द्वीन्द्रिय), पिपीलिका
१. 'प्रमाणेन स्त्रपररूपं परिकछेयं प्रमेयम् ।' [पालापपद्धति मूत्र ६८] । २. 'द्रध्यानया निगुणा गुरणतः ।' [तत्त्वार्थ सूत्र ५४१। ३. प्रवचनसार गा. ८। ४. "ग्रन्तो विनाणः, न विद्यते अन्तो यम्य तदनन्तम् ।" [धवल पु. ३ पृ.१५]। ५. सिद्धान्तचक्रवर्ती धीमदभयचन्द्र मुरि कृत टीका।
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गाथा १७५
इन्द्रियमार्गणा/२४५
(श्रीन्द्रिय), भ्रमर (चतुरिन्द्रिय), और मनुष्यादि (पंचेन्द्रिय) ये सब पृथक्-पृथक् अपने-अपने उत्तरभेदों सहित द्विवार असंख्यात अर्थात असंख्यातासंख्याल है। निगोदिया अर्थात् साधारण वनस्पति अनन्तानन्त है ।।१७५।।
विशेषार्थ- स्थावर अर्थात् निगोदिया जीवों के अतिरिक्त समस्त एकेन्द्रिय जीव अपने भेदप्रतिभेद सहित अर्थात् पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येकवनस्पतिकायिक जीच, असंख्यातासन्यात हैं। निगोद जीवों का पृथक कथन किया गया है इसलिए स्थावरों में निगोद प्रहरण नहीं किया गया है। द्वीन्द्रिय जीवों में उत्कृष्ट अवगाहना शंख की है अतः शंख कहने से समस्त द्वीन्द्रिय जीवों का ग्रहण हो जाता है। सर्व परिचित श्रीन्द्रिय जीव चींटी (पिपीलिका) है। अतः पिपीलिका कहने से समस्त त्रीन्द्रिय जीवों का ग्रहण हो जाता है। चतुरिन्द्रिय जीवों में भ्रमर की उत्कृष्ट अवगाहना है अतः भ्रमर कहने से समस्त चतुरिन्द्रिय जीवों का ग्रहण हो जाता है। पंचेन्द्रियों में मनुष्य की प्रधानता है, क्योंकि मनुष्यगति में ही जीव संयम के द्वारा कर्मबन्धन को काटकर मुक्ति प्राप्त कर सकता है। अतः मनुष्यादि कहने से चारों गतियों के समस्त पंचेन्द्रिय जीवों का ग्रहण हो जाता है (द्विक वार असंख्यात कहने से असंख्यातासंख्यात का ग्रहरण होता है, क्योंकि 'असंख्यातासंख्यात' में असंख्यात शब्द का दो बार प्रयोग होता है।)
एकेन्द्रिय जीव, एकेन्द्रिय सूक्ष्म जीव, एकेन्द्रिय बादर जीव, एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव, एकेन्द्रिय सूक्ष्म पर्याप्त जीव, एकेन्द्रियबादर पर्याप्त जीव, एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव, एकेन्द्रियसूक्ष्म अपर्याप्त जीव, एकेन्द्रिय बादर अपर्याप्त जीव, इस प्रकार एकेन्द्रिय जीवों की नौ राशियाँ द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा अनन्तानन्त हैं, क्योंकि निगोदिया जीव भी एकेन्द्रिय हैं। कालप्रमाण की अपेक्षा अनन्तानन्त अवसपिरणी-उत्सपिणयों से अपहुत नहीं होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण है।'
शङ्का-उक्त नौ राशियों वाले एकेन्द्रिय जीवों में जगत्प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण जीव त्रसों में से प्राकर उत्पन्न होते हैं और उतने ही जीव एकेन्द्रियों में से निकल कर त्रसों में उत्पन्न होते हैं। श्राय और व्यय समान होने के कारण इन नौ राशिय एकेन्द्रिय जीवों का कभी अन्त नहीं होगा। इमलिये यह कथन अनुक्तसिद्ध होने से यह सूत्र प्रारम्भ करने योग्य नहीं है।
समाधान- इन पूर्वोक्त नौ राशियों के प्राय और व्यय यदि समान होते तो यह सूत्र गाथा प्रारम्भ करने योग्य न होती, किन्तु इन राणियों का व्यय प्राय से अधिक है, क्योंकि पूर्वोक्त नौ राशियों में से निकल कर त्रसों में उत्पन्न होकर तथा सम्यक्त्व को ग्रहण करके संसारपर्याय का नाश कर दिया है वे पुनः उन पर्यायों में प्रवेश नहीं करते हैं। इसलिये ये नौ राशियाँ नियम से व्यय सहित हैं। इसलिये ये नौ राशियां व्यय सहित हैं। इस प्रकार इन नौ राशियों का व्यय सहित होने पर भी ये नौ रामियां कभी भी बिच्छिन्न नहीं होती हैं, क्योंकि अतीन काल से वे अपने एक स्वरूप से स्थित हैं। यदि सम्पूर्ण जीव राशि से अतीत काल अनन्तगुणा होता नो अतीन काल से सम्पूर्ण जीवराशि अपहृत होती, परन्तु ऐसा है नहीं. क्योंकि इस प्रकार की उपलब्धि नहीं होती ।
शङ्का-व्यतीत हुए काल के द्वारा सम्पूर्ण जीवराशि का व्युच्छेद क्यों नहीं होता ?
१. घबल पु. ७ पृ. २६७-२६८ सूत्र ५७-६० ।
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२४६/गो. सा. बीवकाण्ड
गाथा १७५ समाधान नहीं, क्योंकि विवक्षित राशि को प्रतिपक्ष भूत भव्यराशि का व्युच्छेद मान लेने पर अभव्यत्य की सत्ता के नाश का प्रसंग आ जाता है। अभव्यों का अभाव नहीं है, क्योंकि उनका अभाव होने पर संसारी जीवों का प्रभाव प्राप्त होता है। संसारी जीवों का अभाव होने पर असंसारी (मुक्त) जीवों के भी अभाव का प्रसंग आता है।
. शङ्का-संसारी जीवों का अभाव होने पर प्रसंसारी (मुक्त) जीवों का प्रभाव कैसे सम्भव है ?
समाधान-संमागे जीवों का अभाव होने पर प्रसंसारी (मुक्त) जीव भी नहीं हो सकते, क्योंकि सब पदार्थों की उपलब्धि सप्रतिपक्ष होती है। कहा भी है
सत्ता सम्पयत्था सविस्तरूवा प्रणंसपज्जाया।
भंगुष्पायधुक्त्ता सप्पडिवखा हवा एक्का ।।' सब पदार्थ सत्तारूप हैं, सविश्वरूप हैं, अनन्त पर्यायवाले हैं, व्यय-उत्पाद-ध्र व से युक्त हैं, सप्रतिपक्ष रूप हैं और एक हैं। इस प्रकार इस गाथा में 'सब्व पयत्या सप्पडिवक्खा' इन शब्दों द्वारा श्री कुन्दकुन्द प्राचार्य ने 'सर्व पदार्य सप्रतिपक्ष हैं। इस सिद्धान्त का उल्लेख किया है । जिसका उपयोग श्री वीरसेन प्राचार्य ने अनेक स्थलों पर किया है। इतना ही नहीं, किन्तु संसारी और असंसारी (मुक्त) जीवों का अभाव होने पर जीव मात्र का अभाव हो जायगा। जीव के प्रभाव हो जाने पर जीव के प्रतिपक्ष अजीव के अभाव का भी प्रसंग पाएगा। इस प्रकार भव्य जीवों का प्रभाव हो जाने पर समस्त द्रव्यों के प्रभाव का प्रसंग पा जाएगा, अत: मुक्त होते रहने पर भी निगोद एकेन्द्रिय राशि का कभी अन्त नहीं होगा। क्योंकि आय के बिना व्यय होते रहने पर भी जिस राशि का अन्त न हो वह राशि प्रयन्त है। निगोद राशि को छोड़कर शेष एकेन्द्रिय राशि प्रसंख्यातासंख्यात है।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव तथा उन्हीं के पर्याप्त और अपर्याप्त जीव द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा असंख्यात अवसपिणियों-उत्सपिरिणयों के द्वारा अपहुत होते हैं ।
'अपर्याप्त' शब्द से अपर्याप्त नामवार्म से युक्त जीवों का ग्रहगा होता है, अन्यथा 'पर्याप्त' नाम कर्म उदय से युक्त निवृत्त्यापर्याप्ति जीवों का भी ग्रहण हो जाएगा। इसी प्रकार 'पर्याप्ति' शब्द से पर्याप्ति नामकर्म के उदय से युक्त जीवों का ग्रहण होता है, अन्यथा पर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त नित्यपर्याप्त जीवों का ग्रहण नहीं होगा। द्वीन्दिय, पोन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति नाम कर्म के उदय से युक्त हीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव हैं।'
___ शंका-जिन जीवों के दो इन्द्रियाँ पाई जाती हैं वे द्वीन्द्रिय जीव हैं ऐसा कहने में क्या दोप प्राता है ?
___ समाधान-नहीं, क्योंकि ऐमा अर्थ ग्रहण करने पर अपर्याप्त काल में विद्यमान जीवों के
१. धवल घु. ३ पृ. ३०६-३०७ । २. धवल पु. १४ पृ. २३४ । ३. धवल पु. १४ पृ. २३४, पंचास्तिकाय गा. ८ | ४. "जासि संवारणं प्रायविरहियारण संखेज्जा संखेज्जेहि बइज्जमाणाणं पि वोन्छेदो रण होदि तासि मणलमिदि सगा।' .पु. १४ पृ. २३५। ५. धवल पु. ३ पृ. २१० व २१२ सूत्र ७७-७८ । ६. घवल पु. ३ पृ. २११ ।
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गाथा १७६-१७७
गतिमार्गगा २४७ इन्द्रियाँ नहीं होने से उनके ग्रहण नहीं होने का प्रसंग प्राप्त हो जायगा ।
शंका-क्षयोपशम को इन्द्रिय कहते हैं, द्रव्येन्द्रिय को इन्द्रिय नहीं कहा गया है। इसलिए अपर्याप्त काल में द्रव्येन्द्रियों के नहीं रहने पर भी द्वीन्द्रिय आदि पदों के द्वारा उन जीवों का नहण हो जाता है ?
समाधान-यदि इन्द्रिय का अर्थ क्षयोपशम किया जाय तो जिनका अयोपशम नष्ट हो गया है, ऐसे सयोगकोचलो के प्रनिन्द्रियपने का प्रसंग प्राजाता है।
शङ्का-ग्रागाने दो। समाधान नहीं, क्योंकि सूत्र सयोगकेवली को पंचेन्दिय रूप से प्रतिपादित करता है ।।
शडा ये द्वीन्द्रिय प्रादि सर्व जीवराशियाँ सर्वकाल आय के अनुरूप व्यय से युक्त होने के कारण कभी विच्छेद को प्राप्त नहीं होती हैं, फिर 'असंख्यात अवसपिरिणयों-उत्सपिरिणयों के द्वारा अपहृत होती हैं यह कथन कसे घटित हो सकता है ?
समाधान-यह सत्य है कि द्वीन्द्रियादि जीव राशियाँ विच्छिन्न नहीं होती हैं, किन्तु इन राणियों का पाप के बिना यदि व्यय ही होता तो निश्चय से ये विच्छिन्न हो जातीं। यदि ऐसा न माना मार्गदर गाय तो 'हीन्द्रिा प्राविमा इरशंसा है' यह कथन नहीं बन सकता।'
इसी प्रकार पंचेन्द्रिय जीव, एनेन्द्रिय पर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव भी असंख्यात हैं।
एकेन्द्रिय जीत्रों में पर्याप्त और अपर्याप्त की अपेक्षा भागाभाग का कथन तसहीगो संसारी एयक्खा तारण संखगा भागा। पुण्गाणं परिमाण संखेज्जदिम . अपुण्णाणं ।।१७६॥ बादरसुहमा तेसिं पुण्णापुण्णेत्ति छविहाणपि ।
तक्कायमगरवाये भरिगज्जमारणकमो यो ।।१७७॥ गाथार्थ—स जीवराशि से हीन संसारो जीत्रराशि एकेन्द्रिय जीव हैं। उसका संख्यात ब्रहृभाग पर्याप्त है और संख्यात एक भाग अपर्याप्त हैं ।।१७६॥ एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म पीर बादर के भेद से दो प्रकार के हैं, उनमें भी पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं। इस प्रकार एकेन्द्रियों की ६ राशियों की संख्या का क्रम कायमार्गणा में कहा जायगा, ऐसा जानना 1॥१७॥
विशेषार्थ सम्पूर्ण जीवराशि में प्रनिन्द्रिय जीवों (मुक्त जीवों) को कम कर देने पर संसारी जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है। उसमें से दोन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को अथवा श्रम जीवों को कम कर देने पर एकेन्द्रिय जीत्र राशि का प्रमारण प्राप्त होता है 1 इम एकेन्द्रिय जीवराशि में बादर-एकेन्द्रिय-पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव इनसे
१. धवन पू. ३ पृ. ६११ ।
२. धवल पु. ३ पृ. ३१२ ।
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२४८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १७८-१८०
असंख्यात गुरगे हैं। असंख्यात लोक गुगणकार है। बादर-एकेन्द्रिय जीव बादर-एकेन्द्रिय-अपर्याप्त जीवों के प्रमाण से विशेष-अधिक है। बादर-एकेन्द्रिय-पर्याप्त जीवों का जितना प्रमाण है, उतने निष-अधिक हैं। सान्निय-गपत जीव बादर-एकेन्द्रियों के प्रमाण से असंख्यातगुणं हैं। असंख्यात लोक गुणकार हैं। एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकों के प्रमाण से विशेष-अधिक हैं। वादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकों का जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेष-अधिक है। सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-पर्याप्तक जीव एकेन्द्रियभपर्याप्तक जीवों के प्रमाण से संख्यात गुरणे है। गुणकार संख्यात समय है। एकेन्द्रिय-अपर्याप्त जीव सूक्ष्म-एकेन्द्रिय पर्याप्तकों के प्रमाण से विशेष अधिक हैं। बादर-एकेन्द्रिय-पर्याप्तकों का जितना प्रमाण है उतने विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म-एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के प्रमाण से विशेष अधिक हैं । बादर-एकेन्द्रिय-पर्याप्तकों के प्रमाण से रहित सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-पर्याप्तकों का जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेष अधिक है। एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्मएकेन्द्रियों के प्रमाण से विशेष अधिक है। बादर-एकेन्द्रियों का जितना प्रमाण है उतने विशेष अधिक हैं।"
अङ्कसंदृष्टि-- एकेन्द्रियजीवराशि २५६ । सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-जीवराशि २४० । बादरएकेन्द्रिय-जीवराशि १६ । सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-पर्याप्त-जीवराशि १८० । सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-अपर्याप्त जीवराशि ६०। बादर-एकेन्द्रिय-अपर्याप्त-जीबराशि १२ । बादर-एकेन्द्रिय-पर्याप्त-जीवराशि ४ । एकेन्द्रियअपर्याप्तक जीव ७२ । एकेन्द्रिय-पर्याप्तक १४ ।
बस जीवों की संख्या का प्रमाण बितिचपमाणमसंखेण वहिदपदरंगलेरण हिवपदरं । होगकम पडिभागो प्रावलियासंखभागो दु ॥१७॥ बहुभागो समभागो चउण्णमेदेसिमेषक भागल्छि । उत्तकमो तत्थबि बहुभागो बहुगस्स दे प्रो दु ॥१७॥ तिविपचपुण्णपमाणं पदरंगलसंखभागहिदपदरं ।
होगकम पुण्णूरगा वितिचपजीचा अपज्जता ॥१०॥ माथार्थ----असंन्यात से विभक्त प्रतरांगुल का जगत्प्रतर में भाग देने पर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की संख्या का प्रमाण प्राप्त होता है। परन्तु द्वीन्द्रियादि पूर्व-एवं की अपेक्षा श्रीन्द्रिय-आदि उत्तर-उत्तर का प्रमाण क्रम से हीन होता गया है। इसका प्रतिभाग पावली का असंख्यातवाँभाग है।।१७८॥ बहभाग के चार समान खण्ड करके एक-एक खण्ड उक्त क्रम से एक-एक राशि को देना चाहिए। अप एक भाग में से बहभाग बहत संख्या वाले को देना, ऐसे अन्त तक करना चाहिए ।।१७६।। प्रतरांगुन के संख्यातवें भाग से जगत्प्रतरको खण्डित करने पर द्वीन्द्रिय, बीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों का प्रमाण प्राप्त होता है जो कम से हीन है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों के प्रमाणों में से उन-उनके पर्याप्तकों का प्रमाण कम कर देने पर शेष अपर्याप्तकों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है ।।१०।।
१. धवल पु. ३ पृ. ३२४-३२५। २, पवन पु. ३ पृ. ३२०-२१ ।
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गाथा १७८-१०
इन्द्रियमार्गणा २४६ विशेषार्थ-प्रतरगंगुल के असंख्यातवें भाग से जगत्प्रतर को भाजित करने पर द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है। किन्तु द्वीन्द्रिय जीवों के प्रमाण से त्रोन्द्रिय जीवों का प्रमाण हीन है और त्रीन्द्रिय जीवों के प्रमाण से चतुरिन्द्रिय जीवों का प्रमाण हीन है। चतुरिन्द्रिय जीवों के प्रमाण से पंचेन्द्रिय जीवों का प्रमाण हीन है। इस प्रकार ये क्रम से हीन हैं। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-पावली के असंख्यातवें भाग से प्रतर अंगुल को भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो, उससे जगत्प्रतर को भाग देने पर उस राशि का प्रमाण प्राप्त होता है। उस स राशि प्रमाण को माबली के असंख्यातवें भाग से भाजित कर एक भाग को पृथक् स्थापित करके, बहुभाग के चार सम खण्ड करके, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन चारों को हीन अधिकता से रहित एक-एक समखण्ड देना चाहिए। पृथक स्थापित एक भाग को पुन: प्रावली के असंख्यातवें भाग से खण्डित करके, बहुभाग कोहीन्द्रिय जीवराशि को देना चाहिए, क्योंकि इन चारों में द्वीन्द्रिय जीवराशि का प्रमाण सबसे अधिक है । शेष एक भाग को पुनः आवली के असंख्यातवें भाग से खण्डित कर बहुभाग त्रीन्द्रिय जीवराशि को देना चाहिए, क्योंकि अवशिष्ट श्रीन्द्रिय आदि तीन राशियों में श्रीन्द्रिय राशि अधिक है। शेष एक भाग को पुनः प्रावली के असंख्यातवें भाग से खण्डित कर बहुभाग चतुरिन्द्रिय जीवराशि को देना और शेष एक भाग पंचेन्द्रिय जीवराशि को देना चाहिए, क्योंकि पंचेन्द्रिय जीवराशि सबसे कम है। इन अपनी-अपनी देय राशियों के अपने-अपने समखण्डों में मिलने पर द्वोन्द्रिय आदि जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है।
श्रीन्द्रिय पर्याप्त जीव, द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीव, पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव और चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवों का प्रमाण प्राप्त करने के लिए जगत्प्रतर को प्रतरांगुल के संख्यातवें भाग से खण्डित करना चाहिए। जो लब्ध प्राप्त हो उसको प्रावली के असंख्यातवे भाग से भाग देकर बहभाग के चार सम खण्ड कर एक-एक समखण्ड त्रीन्द्रिय पर्याप्त जीवों को, द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवों को, पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों को और चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवों को देना चाहिए। शेष एक भाग को प्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित कर बहुभाग श्रीन्द्रिय पर्याप्तकों के समस्खण्ड में मिलाना चाहिए। अबशेष एक भाग को पुनः प्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित कर बहुभाग द्वीन्द्रिय के समरखण्ड में मिलाना चाहिए। अवशेष एक खण्ड पुनः प्रावली के असंख्यातवें भाग से खण्डित कर बहुभाग पंचेन्द्रियपर्याप्त जीवों के समखण्ड में मिलाना चाहिए और शेष एक भाग चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवों के समखण्ड में मिलाना चाहिए। इस प्रकार मिलाने से जो राशि उत्पन्न हो वह श्रीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय पयप्ति, पंचेन्द्रियपर्याप्त और चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है जो क्रम से हीन होता गया है । पर्याप्त जीवराशियों को अपनी सामान्यजीवराशियों में से घटाने पर अपर्याप्त जीवराशियों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है । धबलग्रंथ में इस विषय का कथन इस प्रकार है-प्रतिभाग और भागहार ये दोनों
.( अंगुल
अंगुल एकार्थवाची शब्द हैं । अंगुल के असंख्यातवें भाग का बर्ग --
--- x - --
(असंख्यातवाँ भाग असंख्यात वाँ भाग प्रतसंगुल )
- - पंचेन्द्रिय जीवों का प्रमाण लाने के लिए जगत्प्रतर का प्रतिभाग [ भाजक] है और . असंन्यातवाँ भाग)
१-२. सिद्धान्त चक्रवर्ती श्रीमदभयचन्द्रसूरि कृत टीकानुसार ।
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२५० / मो. सा. जीवकाण्ड
गाया १०१
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( प्रतगंगुल } .. सूच्यं गूल के संध्यान भाग का बर्ग ------ पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों का प्रमाण लाने के लिए
(संन्यातवाँ भाग) जगत्प्रतर का प्रतिभाग है। श्रावली के असंख्यातवें भाग में सूच्यंगुल को भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त
१. प्रतरागुल हो उसको वर्गित करने पर
जीवों का प्रवहारकाल[ = भाजक! "(पावली का असंख्यात. भाग होता है। द्वीन्द्रियों के अवहारकाल को प्रावली के असंख्यानवें भाग से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसको उसी द्वीन्द्रियों के अवहारकाल में मिला देने पर हीन्द्रिय अपर्याप्त जीवों का अवहारकाल होता है। इस दोन्द्रिय अपर्याप्तकों के प्रवहार काल को प्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसे उसी द्वीन्द्रिय-अपर्याप्त के अवहारकाल में मिला देने पर श्रीन्द्रिय जीवों का अबहारकाल होता है। इन त्रीन्द्रिय जीवों के अवहारकाल को प्रावली के असंख्यात भाग से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो, उसको उसी अवहारकाल में मिला देने पर पोन्द्रिय अपर्याप्त जीवों का अवहारकाल होता है। इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय-अपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवों के अवहारकाल को क्रम से प्रावली के असंख्यातवें भाग से खण्डित करके उत्तरोत्तर एक-एक भाग से अधिक करना चाहिए। अनन्तर पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों के अवहारकाल को प्रावली के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर प्रतरांगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण त्रीन्द्रिय पर्याप्तकों का अबहारकाल होता है। इसे पावली के असंख्यातवें भाग से भाजित कर जो लब्ध प्राप्त हो उसको उसी त्रीन्द्रिय पर्याप्तकों के अवहारकाल में मिला देने पर द्वीन्द्रिय पर्याप्तकों का अवहारकाल होता है। इस द्वीन्द्रिय-पर्याप्तकों के प्रवहारकाल को प्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित कर जो लब्ध प्राप्त हो उसको उसी द्वीन्द्रिय-पर्याप्तकों के अबहारकाल में मिला देने पर पंचेन्द्रिय-पर्याप्तकों का अबहारकाल होता है । पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक जीवों के इस अवहारकाल को प्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसको उसी पञ्चेन्द्रियपर्याप्त जीवों के प्रबहार काल में मिला देने पर चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवों का अवहारकाल होता है। इन अवहारकालों से पृथक्-पृथक् जगत्प्रतर के भाजित करने पर अपने-अपने द्रव्य (जीवराशि) का प्रमाण आता है।'
उपर्युक्त सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमद् अभयचन्द्रसुरि कृत टीका और अध्यात्मग्रन्थ धवल इन दोनों कथनों में मात्र विधि का अन्तर है। इन दोनों कथनों के अनुसार प्राप्त जीवराशियों के प्रमाण में अन्तर नहीं है ।
इस प्रकार गोम्मटसार जीवक्राण्ड में इन्द्रिय मार्गणा नामक साता अधिकार पूर्ण हुना।
८. कायमार्गरणा अधिकार जाईप्रविणाभावीतसथावरउदयजो हवे कानो । सो जिमदगि भरिणतो पुढवीकायादि छदमेग्रो ॥१८१॥
१. धवल पु. ३ पृ. ३१५-३१६ ।
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गाथा १५१
कामा / २५१
गाथार्थ -- जाति नामकर्म के अविनाभावी बस व स्थावर नामकर्मोदय से काय होती है। वह जिनमत में पृथ्वीकाय आदि के भेद से छह प्रकार की कही गई है ।।१५१||
विशेषार्थ जाति नाम के साथ बिनाभावी पण रखने हा बस व स्थावर नामकर्म है । उस के उदय से उत्पन्न हुई मात्मा की त्रसरूप व स्थावररूप पर्याय काय है, ऐसा सर्वज्ञ वीतराग के मत में कहा गया है। त्रस जीव है अथवा स्थावर जीव है सो काय है । ऐसा व्यवहार होता है, कहा जाता है । उद्वेगजनित क्रियावाला त्रस और स्थितिक्रियावाला स्थावर यह लक्षण निरुक्ति से सिद्ध हो सकता है। जो पुद्गलस्कन्धों के द्वारा संचित किया जाता है, वह काय है जैसे औदारिक आदि शरीर । शरीर में स्थित श्रात्मा भी उपचार से काय है। जीवविपाकी जाति नामकर्म अस व स्थावर नामकर्म का कार्य होने से जोव की पर्याय ही काय है, ऐसा व्यवहार होता है। पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म वा कार्य होने से शरीर भी काय शब्द से ग्रहण किया जाता है । वह काय पृथ्वी, अप् तेज, वायु, वनस्पति और त्रस के भेद से छह प्रकार की है।
I
जो संचित किया जाता है, वह काय है । ईट आदि के संचय के साथ व्यभिचारदोष भी नहीं आता है, क्योंकि पृथ्वी आदि कर्मोदय से' इतना विशेषण लगा लेना चाहिए ।
शंका- पुद्गलविपाकी औदारिक आदि शरीर नामकर्मोदय से जो संचित किया जाता है, वह काय है, ऐसी व्याख्या क्यों नहीं की गई ?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि सहकारी रूप पृथिवी श्रादि नाम कर्मोदय के प्रभाव में केवल श्रदारिक आदि शरीर नामकर्मोदय से नोकर्म वर्गणाओं का संचय नहीं हो सकता ।
शङ्का - कार्मणकाययोग में स्थित जीव के पृथिवी श्रादि के द्वारा संचित हुए नोकर्म पुद्गल का प्रभाव होने से कायपना प्राप्त हो जाएगा ?
"
समाधान - ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि नोकर्मरूप पुद्गलों के संचय का कारण पृथिवी आदि कर्म सहकृत श्रीदारिक आदि नामकर्म का सत्व कार्मर काययोग रूप अवस्था में भी पाया जाता है, इसलिए उस अवस्था में भी कायपने का व्यवहार बन जाता है ।
अथवा योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचित हुए प्रौदारिक आदि रूप पुद्गल पिण्ड काय हैं ।
शङ्का - काय का इस प्रकार लक्षण करने पर भी पहले जो दोष दिया गया है, वह दूर नहीं होता । अर्थात् इस प्रकार भी जीव के कार्मणकाययोग अवस्था में अकायपने की प्राप्ति होती है ।
धन-ऐसा नहीं है, क्योंकि योगरूप आत्म-प्रवृत्ति से संचित हुए कर्म रूप पुद्गल पिण्ड का कार्य काययोग अवस्था में सद्भाव पाया जाता है । श्रर्थात् जिस समय आत्मा कार्मण काययोग की अवस्था में होता है, उस समय उसके ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का सद्भाव रहता है, अतः उसके कायपना बन जाता है।
१. सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमदभव चन्द्रसूरि कृता टीका । २. धवल पु. १ पृ. १३२७-१३८ ।
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२५२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १८१
शङ्का -कामग काययोग अवस्था में योगरूप आत्म प्रवृत्ति से संचय को प्राप्त हए नोकर्म पुदगल पिण्ड का असत्व होने के कारण कार्मणकाय योग में स्थित जीव के 'काय' यह व्यपदेश नहीं बन मकता ?
समाधान-नोकर्म पुदगलपिण्ड के संचय के कारणभूत कर्म का कार्मण काययोग अवस्था में सद्भाव होने से, कार्मणकाययोग में स्थित जीव के 'काय' यह संज्ञा बन जाती है। कहा भी है--
अप्पप्पवृत्ति-संचिद-पोग्गल-पिंड वियाग कायो ति ।
सो जिणमदम्हिणिनो पुढवित्रकायादयो सो दो ॥६॥ योगरूप यात्मप्रवृत्ति से संचय को प्राप्त हुए आदारिकादि पुद्गल पिण्ड काय है। यह काय जिनमत में पृथिवीकाय आदि के भेद से छह प्रकार का कहा गया है और वे पृथिवी आदि छह काय सकाय और स्थावरकाय के भेद से दो प्रकार के होते हैं ।
पृथिवीरूप शरीर को पृथिवीकाय कहते हैं, वह जिनके पाया जाता है, उन जीवों को
पृथिवीकायिक कहते हैं।
शङ्का-पृथिवी कायिक का इस प्रकार लक्षण करने पर कार्मण काययोग में स्थित जीवों के पृथिवीकायिकपना नहीं बन सकता है ?
समाधान-यह बात नहीं है, जिस प्रकार जो कार्य अभी नहीं हुआ है, उसमें 'यह हो चुका' इस प्रकार का उपचार किया जाता है, उसी प्रकार कामणका योग में स्थित प्रथिवीकायिक जीवों के भी पृथिवीकायिक यह संज्ञा बन जाती है । अथवा जो जीव पृथिवीकायिक नामकामोदय के यशवर्ती हैं, उन्हें पृथिवीकायिक कहते हैं । इसी प्रकार जलकायिक प्रादि को भी जान लेना चाहिए।
शङ्का--पृथिबी आदि कर्म तो प्रसिद्ध हैं ?
समाधान--नहीं, क्योंकि पृथिवीकायिक आदि कार्य का होना अन्यथा बन नहीं सकता, इसलिए पृथिवीप्रादि नामकर्मों के अस्तित्व की सिद्धि हो जाती है।
शङ्काः-स्थानशील अर्थात् ठहरना ही जिनका स्वभाव है, वे स्थावर हैं, ऐसी व्याख्या के अनुसार स्थावरों का स्वरूप क्यों नहीं कहा ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वैसा लक्षण मानने पर वायुकायिक, अग्निकायिक और जलकाय जीवों की एक देश से दूसरे देश में गति होने से उन्हें अस्थावरत्व का प्रसंग प्राप्त होगा ।
शङ्का-वायुकायिक और अग्निकायिक को अस्थावर-पना प्राप्त होता है तो होने दो, क्योंकि आगम में इनको अस कहा है।
प्रतिशङ्का-..बह कौनसा आगम है ? प्रतिशङ्का का उत्तर --वह आगम इस प्रकार है--
ति स्थावरतणुजोगा परिणलारणलकाइया य तेसु तसा ।
मरणपरिणामविरहिदा जीवा एइंविया या ।। १. धवल पु. १ पृ. १३८-१३६ । २. पंचास्तिकाय गा. १११ ।
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गाथा १८२
काय मार्गगा/२५३
- उन पांच में से पृथ्वी काय जलकाय और वनस्पतिकाय ये तीन तो स्थावर हैं, अग्निकाय और वायुका ये दो स हैं। पृथ्वी, जल, वनस्पति, अग्नि, बायु ये पाँचों ही मनपरिणाम से रहित हैं और एकेन्द्रिय भी हैं।
समाधान- नहीं, क्योंकि उक्त प्रागमसूत्र है ऐसा निर्णय नहीं हुआ है। दूसरे इस आगम का द्वादशांग के सूत्र से विरोध श्राता है।
शङ्का - वह सूत्र कौनसा है ?
समाधान- 'तरूकाइया वोइंदिय- पहूडि जाव जोगिकेवलिति । 9 हीन्द्रिय से आदि लेकर प्रयोगकेवली तक उस जीव होते हैं । पारिशेष न्याय से इसी सूत्र के द्वारा यह जाना जाता है कि एकेन्द्रिय जोत्र स्थावर है । उक्त आगम में भी अग्निकायिक और वायुकायिक को एकेन्द्रिय कहा गया है अतः स नहीं हो सकते किन्तु वे स्थावर हैं, ऐसा पारिशेष न्याय से सिद्ध हो जाता है।
स्थानशील स्थावर होते हैं, यह निरुक्ति की तरह प्रधानता से अर्थ का ग्रहण नहीं है स्थावर नामकर्मोदय के कारण स्थावर हैं। * कर लिया है वे त्रस है । "
।
व्युत्पत्ति मात्र ही है, इसमें 'गो' शब्द की व्युत्पत्ति पृथिवी - श्रप्-तेज वायु और वनस्पति ये पांचों ही नामकर्म के उदय से जिन्होंने त्रस पर्याय को प्राप्त
स
शङ्का – 'त्रसी उद्वेगे' इस धातु से त्रस शब्द की उत्पत्ति हुई है। जिसका यह अर्थं होता है कि जो उद्विग्न अर्थात् भयभीत होकर भागते हैं, वे बस हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि गर्भ में स्थित अण्डे में बन्द, मूच्छित और सोते हुए जीवों में उक्त लक्षण घटित नहीं होने से, उनके प्रसत्व का प्रसंग श्राजाएगा। इसलिए चलने और ठहरने की अपेक्षा त्रस और स्थावर नहीं समझने चाहिए । "
पृथिवी, अप्
तेज और वायु इन चारों के शरीर में वर्णादि चारों गुणों का सद्भाव पुढची प्राकते ऊबाऊ कस्मोव येण तत्थेव । विचक्कजुदो तारणं देहो हवे पियमा ।। १८२ ॥
गार्थ पृथिवी, पू (जल), तेज (अग्नि) और वायु इनका नामकर्मोदय से अपने-अपने योग्य वर्ग-रस गंध और स्पर्श युक्त बनता है ।। १८२ ।।
शरीर नियम से अपने-अपने
विशेषार्य-वैशेषिक की मान्यतानुसार पृथिवी, जल, अग्नि और बायु ये चार धातुएँ हैं, इनमें से पृथिवी में वर्ण-रस-गंध-स्पर्श चारों हैं, किन्तु जल में गंध नहीं है। अग्नि में गन्ध और रस इन दो
१. पटुखंडागम संत प्ररूपणा सूत्र ४४ । २. " के पुनः स्थावरा इति वेदेकेन्द्रिया: ।
परिशेषात् । " धवल पु. १ पृ. २७५-२७६]। स्थावराः स्थावरनामकर्मोदय जनित विशेषत्वात् ।" ६. धवल पू. १. २६६ ।
कथमनुक्तमवगम्यते
३. धवल पु. १ पृ. २६५-२६६ । ४. "एते पञ्चापि [घवल पु. १ पृ. २६५] । ५. धवल पु. १ पृ. २६६
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२५४ मो. सा. जीयकाण्ड
गाथा १२ का अभाव है और वायु में गंध-रस और रूप इन तीनों का अभाव है। किन्तु बैशेषिक का ऐसा कहना युक्त नहीं है, क्योंकि इन चारों घातुओं के शरीर के निर्माण का कारण एक ही प्रकार के परमाण हैं, किन्तु परिणमन विशेष के कारण किसी में कोई गुण व्यक्त रहता है और कोई मुरण अव्यक्त रहता है । किसी में गन्ध गुण अव्यक्त रहता है, विसी में गन्ध और रस और किसो में गन्धरस और वर्ण ये तीन गुण अव्यक्त रहते हैं, जिसके कारण इन्द्रियों द्वारा उनका ग्रहण नहीं होता; किन्तु किसी भी परमाणु या धातु में पर्श-स-गंध-वर्ग इन चार गुणों में से किसी भी गुण का प्रभाव नहीं होता है । क्योंकि गुण का अभाव होने से परमाणु का विनाश हो जाएगा।
वैशेषिक मत को दृष्टि में रखते हाए यह गाथा रची गई है क्योंकि इस में मात्र पृथिवी आदि चार स्थावरों के शरीरों में स्पर्श-रस-गन्ध और वर्ण इन चारों गुणों का कथन किया गया है। उनमें से स्पर्श गुरुग पाठ प्रकार का है...मृदु, कर्कश (कठोर), गुरु (भारी), लघु (हल्का), शीत (ठंडा), उष्ण (गर्म), स्निग्ध (सच्चिाकण), रूक्ष । तिक्त, आम्ल, कटु (काड़वा), मधुर और कषायला के भेद से रस पंच प्रकार का है । सुगन्ध और दुर्गन्ध के भेद से गन्ध दो प्रकार की है। कृष्ण, नील, पीत, शुक्ल और लाल के भेद से वर्ण पाँच प्रकार का है। विसंयोगी त्रिसंयोगी आदि की अपेक्षा गुणों के संख्यात-असंख्यात भेद हो जाते हैं। लवण रस का मधुर रस में अन्तर्भाव हो जाता है। जलादि में गन्ध आदि अव्यक्त होने पर भी स्पर्शगुण के व्यक्त रूप सद्भाव के कारण उन गन्ध-प्रादि अव्यक्त गुरगों का भी वोध हो जाता है, क्योंकि स्पर्शगुण के साथ अन्य गुणों का अविनाभावी सम्बन्ध है, इसलिए स्पर्शगुण की प्रधानता है ।
पृथिवी के पृथिवी, शर्करा आदि ३६ भेद हैं जो इस प्रकार हैं
पुढवी य वालुगा सक्करा य उबले सिला य लोणे य । प्रय तंव त उय सोसय रूप्प सुवगणे य बहरे य ॥६॥ हरिवाले हिंगुलये मरणोसिला सस्सगंजण पावले य । अम्भपडलग्भवालु य वादरकाया मणिविधीया ॥१०॥ गोमज्झगेय रुजगे के फलिहे लोहिदके य । चंदप्पभे य वेलिए जलकते सूरकते य ॥११॥ गेरु य चंदण ववग क्यमोए तह मसारगल्लो य ।
ते जाण पुढविजीचा जाणित्ता परिहरवव्वा ॥१२॥ मिट्टी रूप पृथिवी, नदियों की बालू रेत, तीक्षण और चौकोर यादि प्राकार वाली शर्करा (कंकर), गोल पत्थर, बड़ा पत्थर, समुद्र आदि में उत्पन्न होने वाला नमक, लोहा, तांबा, जस्ता, १. "स्पादिवले गंधस्यामावात्तेजमि गंधरसयोः बायो गंव-रस-रूपाणामनुपलब्धेरिति "श्लोकबातिक अ. ५ मूत्र २३ श्लोक १ कातिक १] २. "क्वचित्परमाणों गंधगृणे, क्वचित् गंधरसमुणयोः क्वचित् गंधरसरूपगुणेषु प्राकृष्यमारणेषु तदविभक्तप्रदेशः परमाणुरेव विनश्यतीति । न तदपकर्षो युक्तः । ततः पृथिव्यप्लेजोवायुरूपस्य धातुचतुष्कस्यक एवं परमाणकारणं । परिणामबशात् विचित्रो हि परमाणोः परिणामगुण: क्वचित् कस्पचिद्गरणस्य व्यक्ताठयक्तत्वेन विचित्र परिणतिमादधाति ।" पंचास्तिकाय माथा ७० श्री अमतचन्द्राचार्य कृत टोका] । ३. "लवण रसग्ध मधुररसे अन्तर्भावो वेदितव्यः ।" [तत्वायुभि ५/२३ की टीका] ४. मुलाचार पंचाचार अधिकार ५ गा.१-१२॥
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गाथा १८२
काश्रमार्गणा / २५५
सीसा, चांदी, सोना, वज्र ( हीरा ), हरिताल, हिंगुल, मैनसिल, हरे रंगवाला सस्यक, अंजन, मूंगा, भोडल, चिकनी और चमकती हुई रेती, कर्केतनमरिण, राजवर्तकमणि, पुलकवर्ग मरिण, स्फटिकमरिंग, परागमणि, चन्द्रकान्तमरिण, बेडूर्यमणि, जलकान्तमणि सूर्यकान्तमरिण, गेरु, रुधिराक्षमणि, चन्दनगंधमणि, मरकतमरिंग, पुखराज, नीलमरिण और विद्र ुममणि ये सब पृथिवी के भेद हैं। इनके भेद से पृथिवीकायिक जीव भी छत्तीस प्रकार के हो जाते हैं ।
प्रोसा य हिमो धूमरि हरवणु सुद्धोदवो धणुवगे । ते जाण श्राउजीवा जारिणत्ता परिहरेवण्या ॥ १३३॥ २
प्रोस, बर्फ, कुहरा, स्थूल विन्दु जय, सूक्ष्म बिन्दुरूप जल चन्द्रकान्तमणि से उत्पन्न हुआ जल भरना प्रादि से उत्पन्न हुआ जल, समुद्र, तालाब और धनवात प्रादि से उत्पन्न हुमा घनोदक अथवा हरदणु अर्थात् तालाब और समुद्र आदि से उत्पन्न हुआ जल तथा घनोदक अर्थात् मेघ आदि से उत्पन्न हुआ जल ये सब जिनशासन में जलकायिक जीव कहे गये हैं । 3
इंगाल- जाल अच्ची-मुम्मुर सुद्धागणी य प्रगणी य । अष्णे वि एवमाई तेउबकाया समुद्दिट्ठा ॥"
-- अंगार, ज्वाला, अचि (अग्निकरण, स्फुलिंग), सुर ( कण्डे की अग्नि ), शुद्ध - अग्नि (बिजली या सूर्यकान्त आदि से उत्पन्न हुई अग्नि ), धूमादि सहित सामान्य ग्रग्नि । ये सब अग्निकाय जीव कहे गये हैं।
याब्भामो उक्कलि मंडली गुजा महा घण सणु य । एदे उ वाउकाया जीवा जिरण इंद- णिद्दिट्ठा ॥
-- सामान्य वायु, उद्भ्राम (चक्रवात), उत्कलि ( जलतरंगों के साथ तरंगित होने वाली वायु), मण्डली ( पृथिवी से स्पर्श करके घूमता हुआ वायु), गुंजा (गुंजायमान वायु), महावात ( श्रांधी ), धनवात और तनुवात ये सब वायुकायिक जीव हैं ।
पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इनमें से प्रत्येक चार प्रकार का है। पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवी कायिक पृथ्वीजीव, जल, जलकाय, जलकायिक, जलजीव; अग्नि, अग्निकाय, अग्निकायिक, afrata: वायु, वायुकाय, वायुकायिक, वायुजीव |
पृथिवी मार्ग में उपमदत धूलि पृथिवी है। यह प्रचेतन और कठिन गुण को धारण करती
१. वि. प. २/११-१४: धवल १/२७४ : प्रा. पं. १/७७ सि. सर. दीपक ११/३२-३५, धवल पू. १३. २७२-२७३ सूत्र ४२ की टीका । २. मुलाचार पत्राचार अधिकार ५ का १३ । ३. धवल पु. १ पृ. २७३ सूत्र ४२ की टीका | ४. मूलाचार पंचाचार अधिकार ५ गा. १४, धवल पु. १ गा. १५१ सि.सा. दीपक १९/४५४५ । ५. धवल पू. १ पृ. २७६ सूत्र ४२ की टीका । ६. धवल पु. १. २७३ गा. १५२; मूलाचार पंचाचार अधिकार ५ गा. १५ । ७. तत्त्वार्थ वृत्ति र सू. १३१. ६३-६४ | मुलाबार (फलटन से प्रकाशित) पु. १२०-१२१ ।
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२५६ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाया १=२
है । प्रचेतन होने के कारण पृथिवी में स्थावर नामकर्म का उदय नहीं है फिर भी प्रथन क्रिया के कारण पृथिवी कही गई है ।
पृथिवीकाय - काय शब्द का अर्थ शरीर होता है। पृथिवी जीव जिस काय को छोड़कर अन्यत्र जन्म लेने को चला गया है, ऐसा जो पृथिवीकायिक का शरीर वह पृथिवीकाय है। जैसे मृत मनुष्य का शरीर । ऐसे ही ईंट आदि । यह भी अचेतन है । इसके स्थावर पृथिवीकाय नाम कर्मोदय नहीं है। इसकी बिराधना में हिंसा का दोष नही है ।
पृथिवीकायिक- जिसमें पृथिवी जीव विद्यमान है, वह पृथिवीकायिक है। इसकी विराधना में दोष है ।
पृथिवीजीव- जिसके पृथिवी स्थावरकाय नामकर्म का उदय है परन्तु अभी तक पृथिवी को अपना शरीर नहीं बनाया है, ऐसे विग्रहगति स्थित जीव को पृथिवीजीव कहते हैं। इसके कार्मण काययोग होता है ।
जल - जो जल प्रासोड़ित हुआ है, जहाँ-तहाँ फेंका गया है अथवा वस्त्र से गालित हुआ है, वह जल है ।
जलकाय -- जिस जलकायिक में से जीव नष्ट हो चुके हैं अथवा गर्म जल जलकाय है । जलकायिक- जलजीव ने जिस जल को शरीररूप से ग्रहण किया है, वह जलकायिक है । जलजीव - विग्रहगति में स्थित जीव जो एक, दो या तीन समय में जल को शरीर रूप से ग्रहण करेगा. वह जलजीव है ।
अग्नि-इधर-उधर फेंकी हुई अग्नि, जलादि संसिक्त अग्नि, प्रचुर भस्म से श्राच्छादित अग्नि, जिसमें थोड़ी सी उष्णता है, वह अग्नि है ।
अग्निकाय -- भस्म आदि अथवा जिस अग्निकायिक को अग्निजीव ने छोड़ दिया है, वह अग्निकाय है ।
अग्निकायिक- जिस अग्नि रूपी शरीर को अग्निजीव ने धारण कर लिया है, वह अग्निकायिक है ।
प्रमिजीव - जो जीव अग्नि रूपी शरीर को धारण करने के लिए जा रहा है विग्रह गति में स्थित ऐसा जीव प्रग्निजीव है ।
वायु - धूलि का समुदाय जिसमें है ऐसी भ्रमण करने वाली वायु वायु है ।
वायुका - जिस वायुकायिक में से जीव निकल गया है, ऐसी बायु का पुद्गल वायुकाय है । वायुकायिक- वायुजीव से युक्त वायु वायुकायिक है ।
वायु जीव- वायुरूपी शरीर को धारण करने के लिए जाने वाला ऐसा विग्रहगति में स्थित
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माथा १८२
कायमार्गरणा/२५७
जीव वायुजीव है। इस विषय में सिद्धान्तसारदीपक के अध्याय ११ का भी अवलोकन करना
चाहिए।
शा-इन चार भेदों में से कौनसे चेतन हैं और कौनसे अचेतन हैं ?
समाधान --आदि के दो भेद अचेतन हैं, निर्जीव हैं। शेष दो 'कायिक' न विग्रहगति स्थित जीव सचेतन हैं ।
शङ्का-दोनों सचेतनों में परस्पर क्या अन्तर है ?
समाधान-तीसरा भेद कायिकजीव तो शरीर सहित है और चौथा भेद जीव शरीर रहित है। शरीर सहित व शरीर रहित इन दोनों सचेतनों में यह अन्तर है।
शङ्का--दोनों अचेतनों में क्या अन्तर है?
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समाधान-प्रथम अचेतन भेद वर्तमान में जीवरहित होने के कारण अचेतन है किन्तु वह पृथिवी आदि जीवों की उत्पत्ति के लिए योनौ स्थान बना हुआ है । उसमें जीव जन्म ले सकता है, जीव के जन्म लेने पर वह सचेतन हो जाएगा । जैसे मार्ग में मर्दन की हुई धूलि जब तक मार्म चलता रहता है अचेतन है, किन्तु रात्रि में गमनागमन बन्द हो जाने से पृथिवी जीवों की उत्पत्ति हो जाती है और वह अचेतन धूलि सचेतन बन जाती है। किन्तु ईंट आदि पृथिवीकाय में पृथिवी जीव की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार प्रथम भेद विलोडित जल, दोहरे वस्त्र रूपी यंत्र द्वारा गालित जल' अथवा हाइड्रोजन ब आक्सीजन इन दो वायू से बना जल, अथवा चन्द्रकान्तमणि से उत्पन्न हृमा जल वर्तमान में अचेतन है किन्तु कालान्तर में जलकाय जीवों की उत्पत्ति हो जाने से वह सचेतन हो जाएगा किन्तु दूसरा भेद जलकाय रूप उष्ण जल है। अलकाय जीवों का योनि स्थान नष्ट हो जाने से उष्ण जल में जलकाय जीवों की पुनः उत्पत्ति नहीं होती। प्रचर भस्म से आच्छादित अग्नि अथवा विद्युत् रूप अग्नि अथवा सूर्यकान्त मरिण से उत्पन्न हुई अग्नि वर्तमान में अचेतन है किन्तु भस्म के हट जाने पर ब कालान्तर में इस प्रथम तेज भेद में अग्निजीव की उत्पत्ति होने से सचेतन हो जाते हैं। परन्तु दुसरा भेद अग्निकाय, जिसमें उष्णता दूर हो गई है ऐमी भस्म में अग्निकाय जीव उत्पन्न नहीं हो सकते। इस प्रकार प्रथम भेद संचेतन हो जाता है और दूसरा काय भेद सचेतन नहीं होता है. यही इन दोनों में भेद है। कालान्तर में सचेतन हो जाने के कारण प्रथम भेद किंचित् प्रारणाश्चित भी कहा गया है।
१. तत्त्वार्थवृत्ति २/१३ पृ. १४; मूलाचार (फलटन) पृ. १२१ । २. “चतुर्गामपि पृथिवीशब्दवाच्यत्वेऽपि शुद्धपुद्गल पृथिव्या , जीयपरित्यकधिवीकायस्य च नेह ग्रहण तयोर नेतनत्वेन तत्कर्मोदयासम्भवातस्कृतधिधीव्यपदेशासिद्धः। लम्जीवाधिकारात्पृथिवीकायत्वेनगृहीत्वतः पृथिवीकायिकरय विग्रहगत्यापनस्य पृथिवीजीवस्य ग्रहणं तमोरेब पृथिवीर श्रावग्नामकर्मोदयमद्रावात्पृथिवीन्यप देशघटनात् ।" (मुवानवोट का तत्वार्थ सूत्र २/१३] । ३. "एवं विलोहितं यत्रत विक्षिप्तं वस्त्रादिगालितं जलमाप उच्यते ।" [तत्त्वाचति २/१३] ; "मथ जलम्य प्रासुकावं कियकालमिति वर्गायन्ति-- मुहर्त गालितं तयं प्रासुर्फ प्रहरवयम् । उगोदकमहारानं ततः मम्मूच्छिम भदत् ।।२१।।" [श्रीशिवकोटियाचार्यप्रणीत रत्नमाला] ।
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२५:/गो. सा, जीवकाण्ड
गाथा १५३
बादरसुहमुदयेण य बादरसुहुमा हवंति तद्देहा ।
घादसरीरं थूलं प्रधाददेहं हवे सुहमं ।।१८३॥ मायार्थ यादर व मूक्ष्म नाम कर्मोदय से उन प्रथिवीकायिक प्रादि जीवों का शरीर बादर व सूक्ष्म होता है, घात लक्षण वाला शरीर बादर (स्थूल) होता है और अघात लक्षण वाला शरीर सूक्ष्म होता है ।।१८३।।
विशेषार्थ-स्थावर जीव दो प्रकार के हैं—बादर व सूक्ष्म । जिनके जीवविपाकी बादर नामकर्म का उदय है, वे यादर जीव हैं। जिनतो सुक्ष्म जीव-विपात्री-नामकर्म का उदय है, वे सूक्ष्म जीव हैं। यादर जीवों का शरीर भी बादर होता है और सूक्ष्म जीवों का शरीर भी मूक्ष्म होता है ।'
शङ्का-बादर शब्द स्थूल का पर्यायवाची है और स्थूलता का स्वरूप नियत नहीं है, अतः यह ज्ञात नहीं होता कि कौन-कौन जीव स्थल हैं । जो चाइन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य हैं वे स्थूल है, यदि ऐसा कहा जाए तो भी नहीं बनता, क्योंकि ऐसा मानने पर जो स्यूल जीव चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने के समय नहीं हैं. उनको राशन कारपति हो जाएगी। जिनका चक्ष इन्द्रिय द्वारा ग्रहण नहीं होता उनको बादर मान लेने पर सूक्ष्म और वादर में कोई भेद नहीं रह जाएगा।
समाधान नहीं, क्योंकि यह आशंका पागम के स्वरूप की अनभिज्ञता की योतक है। वह बादर शब्द स्थूल का पर्यायवाची नहीं है. किन्तु बादर नामकर्म का वाचक है। इसलिए वादर नामकर्म के उदय के सम्बन्ध से जीव भी बादर हो जाता है।
शङ्गा-- शरीर की स्थूलता को उत्पन्न करने वाले कर्म वो बादर और सूक्ष्मता को उत्पन्न करने वाले कर्म को सूक्ष्म कहते हैं। तथापि जो चल इन्द्रिय द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है, वह सूक्ष्म शरीर है और जो उसके द्वारा ग्रहण करने योग्य है वह बादर शरीर है। अत: सूक्ष्म और बादर कर्म के उदयवाले सूक्ष्म और वादर शरीर से युक्त जीवों को सूक्ष्म और बादर संज्ञा हठात् प्राप्त हो जाती है। इससे यह सिद्ध हुआ जो चक्षु से ग्राह्य हैं, बे बादर हैं और जो चक्ष से अग्राह्य हैं, वे सूक्ष्म हैं । यदि यह लक्षण न माना जाय तो सूक्ष्म और बादर में कोई भेद नहीं रह जाता ?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि स्थूल तो हो और चक्षु मे ग्रहण करने योग्य न हो, इस कथन में कोई विरोध नहीं है।
शङ्का- सूक्ष्म शरीर से असंख्यातगुणी अधिक अबगाहना वाले शरीर को बादर कहते हैं और उस शरीर से युक्त जीवों को उपचार से बादर कहते हैं। अथवा बादर शरीर से असंख्यातगुणी हीन । अवगाहनावाले शरीर को सूक्ष्म कहते हैं । उस सूक्ष्मशरीर से युक्त जीव को उपचार से सूक्ष्म कहते हैं।
१. श्रीमदभयचन्द्रसुरिकृतदीका । २. "यदुदयाद् जीवानां चक्षुपिशरीरत्वलक्षणं बादरत्वं भवति तद् बादर नाम, पृथिव्यादेरेकैकशरीरम्प चक्षु झवाभावेऽपि बादरपरिणामविशेषाद् बहूनां समुदायचक्षुषा ग्रहणं भवति । तद्विपरीतं मूक्ष्मनाम, यदुदयाद् वदनां समुदितानाग पि जन्तु शरीगणां चक्षुर्माह्यता न भवति ।" श्वेताम्बर कर्म प्रकृति
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कामार्ग २५६
समाधान- यह कल्पना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सबसे जघन्य बादर शरीर से सूक्ष्म नामकर्म के द्वारा निर्मित सूक्ष्म शरीर की अवगाहना असंख्यातगुणी होने से उपर्युक्त कथन में अनेकान्त दोष श्राता है। इसलिए जिन जीवों के बादर-नामकर्म का उदय पाया जाता है, वे बादर हैं और जिनके सूक्ष्म नामकर्म का उदय पाया जाता है, वे सूक्ष्म हैं, यह बात सिद्ध हो जाती है ।"
शङ्का - सूक्ष्म नामकर्म के उदय और बादर नामकर्म के उदय में क्या भेद है ?
समाधान — बादर नामकर्म का उदय दूसरे मूर्त पदार्थों से आघात करने योग्य शरीर को धारण करता है और सूक्ष्म नामकर्म का उदय दूसरे मूर्त पदार्थों के द्वारा श्राघात नहीं होने योग्य शरीर को उत्पन्न करता है । यही इन दोनों में भेद है।
गाथा १८३
शङ्का सूक्ष्म जीवों का शरीर सूक्ष्म होने से ही अन्य मूर्त द्रव्यों के द्वारा आघात को प्राप्त नहीं होता है, अतः मूर्त द्रव्यों के साथ प्रतिघात का नहीं होता मुक्षा नामकर्म के में नहीं मानना
चाहिए
समाधान -- नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर दूसरे मूर्त पदार्थों के द्वारा आघात को नहीं प्राप्त होने से सूक्ष्म संज्ञा को प्राप्त होने वाले सूक्ष्म शरीर से प्रसंख्यातगुणे हीन अवगाहना वाले और बादर नामकर्म के उदय से बादर संज्ञा को प्राप्त होने वाले बादर शरीर की सूक्ष्मता के प्रति कोई विशेषता नहीं रह जाती है, अतएव उसका भी मूर्त पदार्थों से प्रतिघात नहीं होगा, ऐसी आपत्ति आएगी ।
शङ्का प्रजाने दो ?
समाधान- नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर सूक्ष्म और बादर नामकर्म के उदय में कोई विशेषता नहीं रह जाएगी ।
शङ्का – सूक्ष्म नामकर्म का उदय सूक्ष्मशरीर को उत्पन्न करने वाला है। इसलिए इन दोनों के उदय में भेद है ।
समाधान नहीं, क्योंकि सूक्ष्म शरीर से भी श्रसंख्यातगुणीहीन अवगाहना वाले और बादर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुए बादर शरीर की उपलब्धि होती है । 3
इस उपर्युक्त कथन से यह बात सिद्ध हुई कि जिसका मूर्त पदार्थों से प्रतिघात नहीं होता है, ऐसे शरीर का निर्धारण करने वाला सूक्ष्म नामकर्म है और उससे विपरीत अर्थात् मूर्त पदार्थों से प्रतिघात को प्राप्त होने वाले शरीर को निर्माण करनेवाला बादर नामकर्म है । "
afratern जीव दो प्रकार के हैं बादर और सूक्ष्म अर्थात् बादर पृथिवीकायिक और सूक्ष्म पृथिवीकायिक | जलकायिक जोव दो प्रकार के हैं बादर जलकायिक और सूक्ष्म जलकायिक | श्रग्निकायिक जीव दो प्रकार के हैं । बादर अग्निकायिक और सूक्ष्म अग्निकाधिक । वायुकायिक जीव दो प्रकार के हैं - बादर वायुकाविक और सूक्ष्म वायुकायिक ।
१. "बादश्यांद जीव अपज्जन्त्तयस्स जहणिया मोगाणा असंखेज्जगुगा ॥४०॥ पञ्जन्त्रयस्त्र जहणिया श्रोगाहणा श्रसंखेज्जगुणा ||४७ ।। " [. पु. ११ पृ. ५८-५६]। २५० । ३. धवल पु. १ पृ. २५१ । ४. व. पु. १ पृ. २५३ । ५. घ. पु. १ पृ. २६७ ।
सुहुमरिगोदजीब रिव्वत्ति
२. प. पु. १ पृ. २४९
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२६०/मो. सा. जीवकाण्ड
चारों के
संभागस्स विदमाणं तुं 1
तद्देहगुल श्राधारे थूला प्रो सम्वत्थ खिरंतरा सुहुमा ॥ १८४॥ । '
गाथा १६४
गाथार्थ - हे भव्यो ! बादर और सूक्ष्म दोनों प्रकार के चारों स्थावर जीवों की अवगाहना धनांगुल के प्रसंख्यातवेंभाग प्रमाण है | स्थूल अर्थात् बादर जीव प्राधार की अपेक्षा रखता है किन्तु सूक्ष्म जीव व्यवधान के बिना सर्वत्र भरे हुए हैं ।। १८६४ ॥
विशेषार्थ प्राठ यव से द्रव्य अंगुल निष्पन्न होता है, उसको तीन बार परस्पर गुरिणत करने से घनांगुल हो जाता है । उस द्रव्य घनांगुल में जितने प्रकाण के प्रदेश हों, उन प्रदेशों के असंख्यात खण्ड करने पर उनमें से एक खण्ड, अंगुल का असंख्यातवां भाग होता है। पृथिवी, जल, अग्नि और वायुकायिक बादर व सूक्ष्म जीवों के शरीर की उतनी अवगाहना होती है अर्थात् घनांगुल के श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण आकाशप्रदेशों को उक्त जीवों का शरीर रोककर ठहरता है ।
शङ्का – घनांगुल प्रमारण आकाशप्रदेशों का भागहार क्या है ?
समाधान- पल्य का असंख्यातवां भाग
- यह जघन्य श्रवगाहना का प्रमाण है या उत्कृष्ट श्रवगाहना का ?
समाधान - सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त जीव की जघन्य शरीर अवगाहना से लेकर वादर पर्याप्त पृथिवीकायिक की उत्कृष्ट शरीर अवगाहना पर्यन्त जितनी भी शरीर अवगाहना है अर्थात् दर व सूक्ष्म feat कायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों की सर्व शरीर अवगाहनाओं का प्रमाण अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है ।
शङ्का - सब शरीरों की अवगाहना भिन्न-भिन्न होती है, उन सबका प्रमाण एक कैसे हो सकता है ?
समाधान- अंगुल के असंख्यातवें भाग के असंख्यात भेद हैं, क्योंकि असंख्यात संख्या भी असंख्यात प्रकार की होती है। सामान्यदृष्टि से वे सब अंगुल के असंख्यातवें भाग हैं तथापि विशेषदृष्टि से उनमें परस्पर होनाधिकता है ।
शङ्का - विशेषरूप हीनाधिकता है या गुणाकार रूप हीनाधिकता है ?
समाधान - विशेषरूप हीन- अधिकता भी है और गुणाकार रूप हीन- अधिकता भी है। यह पूर्व में शरीर अवगाहना के कथन से स्पष्ट है ।
शङ्का - अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग में गुणाकार वृद्धि होने पर भी अंगुल का असंख्यातवभाग ही बना रहता है यह कैसे सम्भव है ?
१. "अंगुल संभागं बादरहुमा" [मूलाचार पर्यात्यधिकार १२ गा. ४६]; "देसेहि बादरा खलु सुमेहि गिरंतरो लोश्रो ।।" [मूलाचार पर्याप्यधिकार १२ गा. १६१] । २. गो. जी.गा. ६४-११२ ।
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गाभा १६५
कायमागंगा/२६१
___ समाधान - अंगुल के असंख्यातवें भाग में असंख्यातगुणी वृद्धि होने पर पूर्व की अपेक्षा प्रमाण में वृद्धि होती है, तथापि असंख्यात से गुणा करने पर जो लब्ध प्राप्त होता है, उसका प्रमाग भी अंगुल का असंख्यातवा भाग ही होता है। जैसे ४ संख्या १०० संख्या का संग्च्यातवा भाग है। चार को संख्यात (५) से गुणा करने पर भी जो संख्या (४४५ - २०) प्राप्त होती है, वह भी १०० संख्या का संख्यातवाँ भाग है।
जो बादर शरीर हैं वे अन्य के प्राधार से रहते हैं, जैसे बादर जीव वातवलय के, पाठ पृथिवियों के तथा विमान पटलों के आश्चय से रहते हैं;' जिससे बे नीचे न गिर जावें। और जो सूक्ष्म शरीर हैं वे जल, स्थल ग्रादि में अर्थात् लोकाकाश में सर्वत्र पाये जाते हैं, क्योंकि वे व्याघात से रहित हैं। वादर जीब लोक के एकदेश में रहते हैं परन्तु लोक का एक प्रदेश भी सूक्ष्म जीवों से रहित
शङ्का । यदि सूक्ष्म जीवों का शरीर ध्याघात से रहित है तो वे लोकाकाश के बाहर क्यों नहीं पाये जाते।
समाधान–जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक हो जीव-पुद्गलों का गमन पाया जाता है । गमन में बाह्य सहकारीकारण धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोकाकाश के बाहर जीव-पुद्गलों का गमन सम्भव नहीं है।
तेरह गाथानों द्वारा वनस्पति स्थावर काय का कथन उवये दु वरणफदिकम्मस्स य जीवा वरणफदि होति ।
पत्तेयं सामपणं पदिद्विविवरेत्ति पत्तेयं ॥१८॥ गाथार्थ-- वनस्पति कर्मोदय से जीव वनस्पति होता है। वह वनस्पति प्रत्येक और सामान्य (साधारण) के भेद से दो प्रकार की होती है। प्रत्येक वनस्पति भी दो प्रकार की होती है... प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति और अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति ।।१८५॥
विशेषार्थ-स्थावर नामकर्म के उत्तर भेद पाँच हैं। पृथिवी, अय् (जल), तेज (अग्नि), वायु और वनस्पति । इन पाँचों में से बनस्पति स्थावर नाम कर्मोदय से जीव बनस्पतिकायिक होता है। जिनके प्रत्येकशरीर नामकर्मादय से प्रत्येकशरीर होता है वे प्रत्येकवनस्पति हैं। जिनका प्रत्येक अर्थात् पृथक्-पृथक् शरीर होता है वे प्रत्येकशरीर जीव हैं जैसे खैर आदि वनस्पति । एक जीव के एक शरीर होता है।
शङ्का--प्रत्येक शरीर का इस प्रकार लक्षण करने पर पृथिवीकाय प्रादि पांचों स्थावरों के शरीरों की भी प्रत्येक शरीर संज्ञा प्राप्त हो जाती है।
१व २. मूलाचार पर्याप्त्यधिकार १२ गा. १६१ की टीका पृ. २८२। ३. लोकालोकावच्छेदको धमधिचिव गतिस्थिति हेतू मन्तव्याविति ।। पंचास्तिकाय गाथा ६३ की टीका। तह्मा घम्माधम्मागमरण द्विदिकारणारिण गासं । इदि जिगणवरेहि भागदं लोगसहावं सांगताणं ।। पं.का.गाथा || ४. "प्रत्येक पृथकशरीरं येषां ते प्रत्येक शरीगः।" [घवन पु. १ पृ. २६८ ५. "एकम्य जीवस्य एक शारीरमित्यर्थः ।" [श्री अभयचन्द्राचार्य कृत टीका]।
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२६२ / मो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १८५
समाधान यह ग्राशंका आपत्तिजनक नहीं है, क्योंकि पृथिवीकाय आदि को प्रत्येकशरीर मानना इष्ट ही है ।
शङ्का - तो फिर पृथिवीकाय आदि के साथ भी प्रत्येक विशेषण क्यों नहीं लगाया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि जिस प्रकार वनस्पतियों में प्रत्येक वनस्पति से निराकरण करने योग्य साधारण वनस्पति पाई जाती है, उस प्रकार पृथिवी आदि में प्रत्येकमारीर से भिन्न अर्थात् साधारणशरीर ऐसा कोई भेद नहीं पाया जाता, इसलिए पृथिवी आदि में यह विशेषण देने की कोई प्राव श्यकता नहीं है ।"
शङ्का प्रत्येक वनस्पति में बादर और सूक्ष्म ये दो विशेषण नहीं पाये जाते हैं, इसलिए प्रत्येक वनस्पति को अनुभयपना प्राप्त हो जाता है । परन्तु बादर और सूक्ष्म इन भेदों को छोड़कर अनुभयरूप कोई तीसरा विकल्प पाया नहीं जाता है, इसलिए प्रनुभयरूप विकल्प के अभाव में प्रत्येकशरीर वनस्पतियों का भी प्रभाव प्राप्त हो जाएगा ?
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समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रत्येक वनस्पति का बादररूप से अस्तित्व पाया जाता है, इसलिए उसका प्रभाव नहीं हो सकता ।
शङ्का - प्रत्येक वनस्पति को बादर नहीं कहा गया है, फिर कैसे जाना जाय कि प्रत्येक वनस्पति बादर ही होती है ।
समाधान- नहीं, क्योंकि प्रत्येक वनस्पति का दूसरे रूप से अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता है, इसलिए बादर रूप से उसके अस्तित्व की सिद्धि हो जाती है ।
शङ्का प्रत्येक वनस्पति में यद्यपि सूक्ष्मता - विशिष्ट जीव की सत्ता सम्भव है, क्योंकि सत्वान्यथानुपपत्ति रूप से उसकी सिद्धि हो जाती है । इसलिए यह सत्वान्यथानुपपत्ति रूप ग्रनैकान्तिक हैं।
समाधान- नहीं क्योंकि बादर यह लक्षण उत्सर्ग रूप ( व्यापक ) होने से संपूर्ण प्राणियों में पाया जाता है। इसलिए प्रत्येकवनस्पति जीव बादर ही होते हैं, सूक्ष्म नहीं, क्योंकि जिस प्रकार साधारण शरीर में उत्सर्गविधि की बाघक अपवादविधि पाई जाती है अर्थात् साधारणशरीरों में बादर भेद के अतिरिक्त सूक्ष्म भेद भी पाया जाता है, उसी प्रकार प्रत्येक वनस्पति में अपवाद विधि नहीं पाई जाती । उनमें सूक्ष्मभेद का सर्वथा अभाव है ।
शङ्खा – प्रत्येक वनस्पति में बादर मह लक्षण उत्सर्गरूप है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि प्रत्येकवनस्पति और बसों में बादर और सूक्ष्म ये दोनों विशेषण नहीं पाये जाते, इसलिए सूक्ष्मत्व उत्सर्गरूप नहीं हो सकता, क्योंकि आगम के बिना प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सूक्ष्मत्व का ज्ञान नहीं हो सकता, यतएव प्रत्यक्ष आदि से प्रसिद्ध सूक्ष्म को बादर की तरह उत्सर्ग
मानने में विरोध आता है।
१. वयल गु. १ पृ. २६
२. घवल पु. १ पृ. २६९ ।
३. धवल पु. १ पृ. २६९ ।
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गाथा १८६-१८७
काय मार्गणा / २६३
बादरनिगोद से प्रतिष्ठित वनस्पति, संप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति है ।
शङ्का - जो बादर निगोद से प्रतिष्ठित हैं ऐसी कौनसी वनस्पतियाँ हैं ?
समाधान - थूहर प्रदरख और मूली आदिक वनस्पति बादरनिगोद से प्रतिष्ठित हैं । १
वीज श्रादि की अपेक्षा वनस्पति के भेद तथा सप्रतिष्ठित प्रतिष्ठित प्रवस्था का कचन मूलगापोरबीजा खंदा तह संदबीजबीज रहा ।
समुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणंतकाया य ।। १८६१ । १
गाथार्थ - मूलबीज, अग्रवीज, पर्वबीज, कन्दबीज, स्कन्धवीज, बीजरूह और सम्मूच्छ्रिम ये ta area सप्रतिष्ठित प्रत्येक और प्रतिष्ठित प्रत्येक के भेद से दोनों प्रकार की कही गई
हैं ।। १६६ ।।
विशेषार्थ -- जिन वनस्पतियों का बीज मूल है, वे मूलबीज वनस्पतियाँ हैं जैसे अदरक, हल्दी श्रदि । जिन वनस्पतियों का बोज उनका ही अग्रभाग है वे अग्रबीज हैं, जैसे ग्रायंक (नेत्रवाला) आदि । जिन वनस्पतियों का बीज उनका पर्व है, वे पर्वबोज बनस्पतियाँ हैं जैसे सांठा यादि। जिन वनस्पतियों का बीज कन्द है व वनस्पतियों कन्दबीज जाननी जैसे पिडालु, रतालु, सूरण यादि। जिन वनस्पतियों का बीज स्कन्ध है, वे स्कन्धबीज बनस्पतियाँ हैं जैसे सालार ( सलई), पलास श्रादि । जो वनस्पतियाँ अपने बीज से ही लगी हैं वे बीजरूह हैं जैसे गेहूँ, शालि यादि । जिन वनस्पतियों का मूलादि नियत बीज नहीं है, चारों ओर से पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण करके उपजी हैं वे सम्मूच्छिम वनस्पतियाँ हैं, जैसे दूब यादि ।
यद्यपि मूल आदि सभी वनस्पतियों का सम्मूर्च्छन जन्म है, गर्भज नहीं है तथापि जिसका कोई नियत बोज नहीं है तथा ( सत्र की अन्य प्रकार से प्राप्ति का प्रभाव है ) यद्वा तद्वा अनुकूल वातावरण मिलने पर कहीं पर भी स्वयमेव उत्पन्न हो जाती हैं, ऐसा एक सम्मूच्छिम वनस्पतिकाय का एक भिन्न भेद कहा गया है। ये सब वनस्पतियाँ प्रत्येक शरीर होते हुए अनन्तानन्त निगोद जीवों के शरीरों से प्रतिष्ठित होने के कारण परमागम में अनन्तकाय कही गई हैं । तथा 'च' शब्द से अप्रतिष्ठित का हरण करने से ये वनस्पतियाँ संप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित दोनों प्रकार की होती हैं। प्रतिष्ठितप्रत्येक की उत्कृष्ट अवगाहना घनांगुल के श्रसंख्यातवेंभाग प्रमाण है ।
बीजे जोगीभूवे जीवो चंकमदि सो व प्रणो वा ।
जे वि य मूलादीया ते पत्तेया पढमदाए ॥ १८७॥ *
गाथार्थ - योनिभूत बीज में वही जीव या अन्य जीव उत्पन्न होता हैं ये मुलादि प्रथम अवस्था में प्रत्येक अर्थात् प्रतिष्ठित प्रत्येक होती हैं ।१८७।।
१. धवल पु. १ पृ. २७१ । २ स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा पू. ६६ । यह गाथा नं. १६० है ।
वल पु. १ पृ. २७३ प्रा. पं. सं. पू. १७ गाथा ८१ व पृ. ५७गामा ७६ ३. श्रीमद् प्रभयचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती कृत टीका । ४. जीवतत्वप्रदीप टीका में
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२६४ / गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा १८८-११०
विशेषार्थ - मूलबीज, अग्रवीज, पर्ववीज, कन्दबीज, स्कन्धवीज, बीजरूह अर्थात् जीव की
के प्रधानों में जिनकी अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति नष्ट नहीं हुई है। जल, पृथिवी, वायु व ऋतु आदि का निमित्त मिलने पर वही जीव, जो पहले उस बीज में था, या अन्य जीव गत्यन्तर से ग्राकर उस बीज में उपजता है । मुलादिक, जो आगम में प्रतिष्ठित प्रत्येक प्रसिद्ध हैं, वे भी शरीरग्रहण के समय या अन्तर्मुहूर्त काल तक अप्रतिष्ठितप्रत्येक रहती हैं । अन्तर्मुहूर्त पश्चात् उनके श्राश्रय निगोदजीव हो जाते हैं तब वे प्रतिष्ठितप्रत्येक हो जाती हैं ।"
श्री मात्रचन्द्र विद्यदेव कृत तीन गाथाओं में प्रतिष्ठित प्रप्रतिष्ठित का विशेष लक्षण गूढ सिरसंधिपन्नं समभंग महीरुहं च छिण्णरुहं । साहार सरीरं तव्विधरीयं च पत्तेयं ॥ १८८॥ मूले कंदे छल्लीपवालसाल बलकुसुमफलबोजे । समभंगे सदिगंता असमे सदि होंति पत्तेया ॥ १८६॥ कंदस्स व मूलस्स व सालखंदस्स वावि बहुलतरी । छल्ली सामंतजिया पत्तेयजिया तु तणुकदरी ॥ १६०॥ *
गाथार्थ - जिनकी स्नायु रेखाबन्ध और गाँठ प्रकट हों, जिनका [ भंग करने पर ] समान भंग हो और दोनों भंगों में परस्पर ही रुक-अन्तर्गत सूत्र तंतु नहीं लगा रहे तथा छिन्न करने पर भी जो उग जावे उसे साधारण वनस्पति कहते हैं और इससे विपरीत को प्रत्येकवनस्पति कहते हैं ॥ १८८ ॥ जिन वनस्पतियों के मूल कन्द, त्वचा, नवीन कोंपल ग्रथवा अंकुर, क्षुद्रशाखा ( टहनी), पत्र, फूल, फन्न तथा बीज; इनको तोड़ने से समान भंग अर्थात् बराबर-बराबर दो टुकड़े हों, बिना ही ही रुक के भंग हो जाय उनको सुप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते हैं। इसके विपरीत जिनका भंग समान न हो उनको प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते हैं ॥१८६॥ जिस बनस्पति के कन्द, मूल, क्षुद्रशास्खा या स्कन्ध ( तना) की छाल मोटी हो, उसको ग्रनन्तजीय संप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं । जिसकी छाल पतली हो उसको अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते हैं ||१०||
विशेषार्थं स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा १२८ कोटीका में पृष्ठ ६६ पर पण्डित कैलाशचन्द्रजी ने लिखा है कि जिस प्रत्येक वनस्पति की बारियाँ, फाँकें और गांठें दिखाई न देती हों, जिसे तोड़ने पर खट से बराबर-बराबर दो टुकड़े हो जाँय और बीच में कोई वार वगैरह न लगा रहे तथा जो काट देने पर भी पुनः उग जाए वह साधारण अर्थात् संप्रतिष्ठितप्रत्येक है। यहाँ सप्रतिष्ठिप्रत्येक शरीर वनस्पति को साधारण जीवों का श्राश्रय होने से साधारण कहा है। जिस वनस्पति में उक्त बातें न हों अर्थात् जिसमें धारियाँ आदि स्पष्ट दिखाई देती हों, तोड़ने पर समान टुकड़े न हों, टूटने पर तार लगा रह जाए उस वनस्पति को प्रतिष्ठित प्रत्येकशरोर कहते हैं। मूलाचार में पंचाचाराधिकार की गाथा २१६ जीवकाण्ड की उक्त गाथा १६ के समान है। वहां भी वसुनन्दि सिद्धान्तवर्ती ने ऐसा ही
१. श्रीमदन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती कृत टीका अनुसार । रूप है। ३. ये तीनों गाथाएँ स्वा का. अनु. गा. १२० की
२. यही गाथा भूलाचार अधिकार ५ में २१६वीं गाथा टीका में पृ. ६६ पर माई हैं। ( रायचन्द्र ग्रन्थमाला]
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गाथा १६१
कायमार्गा/२६५
विशेषार्थ अपनी प्राचारवृत्ति में किया है। इतना विशेष है कि वहाँ जहीरुक" के उदाहरण माप मंजीठ [मंजिष्ठ] आदि वनस्पतियाँ कही हैं । 4 ... पहील्ह विचले होरूम बास बस्य वही वहं पुनः सूत्राकाराविजितं मंजिष्ठाविकम् । अब इसी गाथा का सोदाहरण खुलासा किया जाता है---
गृहसिर--अर्थात् जिन प्रत्येक शरीर वनस्पतियों की बहिःस्नायुक अदृश्य हो अर्थात् बाह्य लकीर धारी जैसी अहण्य हो (बाहरी लम्बी लकीर दिखाई न देतो हो) वे गूढसिर वनस्पतियों हैं। ककड़ी, तरोई, भिगी आदि पर बाह्य लम्बी लकीरें स्पष्ट नजर अाती हैं, पर कच्ची अवस्था में ये नहीं दिखतीं। गूढसंधि--जिन प्रत्येकवनस्पतियों में सन्धि के बीच में छेहा प्रकट न हुआ हो जैसे नारंगी, दाडिम यादि में पतला पीला छेहा दो भागों के बीच में होता है किन्तु ज्यादा कच्ची अवस्था में वह छेहा प्रकट नहीं होता, अथवा जिनमें फाँक नहीं पड़ी हों जैसे कच्चे सन्तरे, नारंगी आदि में, चे गूढ संधि हैं। गूढ़पर्व--पर्व गांठ को कहते हैं जैसे गन्ने, बाँस आदि को दो पोरियों के बीच में बहुत कड़ी गांठ होती है। जिन प्रत्येक वनस्पतियों में वह गाँठ प्रकट नहीं हुई हो वे गूढपर्व हैं। इस
प्रकार ऐसी कच्ची अवस्था में (जबकि ये सिरा, सन्धि या पर्व दिखते नहीं) गूढ़सिरा, गुढ़सन्धि और । गढ़पर्व ये तीनों प्रकार की प्रत्येक वनस्पतियाँ साधारण होती हैं। सप्रतिष्ठित प्रत्येक के आश्रय बादर । साधारण अर्थात् निगोद रहता है, अत: आधार में प्राधेय का उपचार करके सप्रतिष्ठित प्रत्येक । बनस्पति को साधारण कहा जाता है। समभंग-जिन प्रत्येक वनस्पतियों के भंग (टुकड़े) करने । पर सदृश छेद हो जायें जैसे चाकू आदि से टुकड़े करने पर समान भाग होते है और परस्पर तन्तु भी
न लगा रहे तो वे समभंग वनस्पतियाँ हैं। ये भी साधारण अर्थात् सप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतियाँ है। छिनरह-जो काटने पर भी उग जाएँ वे छिन्न रुह प्रत्येकवनस्पतियां हैं जैसे पालू आदि। ये भी साधारण अर्थात् सप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतियाँ हैं। इनसे विपरीत लक्षण वाली अगूढ़सिरा, अमूलसन्धि, अगूढपर्व, असमभंग, छिन्न-अरूह; ये बनस्पतियाँ अप्रतिष्ठित प्रत्येक हैं । यथा- नारियल, इमली, ताल-वृक्ष का फल, आम्र आदि ।
साधारप जीवों का स्वरूप साहारणोदयेण रिणगोदसरीरा हवंति सामण्णा ।
ते पुरण दुविहा जीवा बावरसुहमात्ति विष्णेया ॥१६१॥ गाथार्थ साधारण नामकर्मोदय से निगोदशरीर बाला साधारण वनस्पतिकायिक जीव होता है । ऐसे जीव बादर व सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के होते हैं ॥१६१॥
विशेषार्थ-- स्थावर नामकर्म के उत्तरोत्तर भेदस्वरूप साधारण नामकर्म के उदय से जीव साधारण-वनस्पति होता है। उस जीव का निगोदशरीर अर्थात् साधारण शरीर होता है ।
शङ्का-साधारण शरीर कौनसा होता है ?
समाधान-जिन अनन्त जीवों का भिन्न-भिन्न शरीर न होकर, समान रूप से एक शरीर पाया जाता है, वे साधारणशरीर जीव हैं।' १. धवल पु. १ पृ २६६ ।
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२६६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १६२
शन-भिन्न-भिन्न जीवों से पृथक-पृथक बँधे हुए पुद्गल बिपाकी होने से पाहार-वर्गणामों के स्कन्धों को शरीर के साकार रूप से परिशमन कराने में कारण रूप और भिन्न-भिन्न जीवों को भिन्नभिन्न फल देनेवाले ग्रौदारित नोकर्मस्कन्धों के द्वारा अनेक जीवों के एक शरीर कसे उत्पन्न किया जा सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि जो एकदेश में अवस्थित हैं और परस्पर संबद्ध जीवों के साथ समवेत हैं, ऐसे पुद्गल वहाँ पर स्थित सम्पूर्ण जीवसम्बन्धी एक शरीर को उत्पन्न करते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं पाता क्योंकि साधारण रूप कारण से उत्पन्न हुआ कार्य भी साधारण होता है। क्योंकि कारण के अनुरूप ही कार्य होता है, इसका निषेध नहीं किया जा सकता ।'
शङ्का-निगोद किसे कहते हैं ?
समाधान-नि' नियनामनन्सजीवानामेकामेव, 'गो' भूमि, क्षेत्र, निवास, 'द' ददातीति निगोदम् अर्थात् जो एक सीमित स्थान में अनन्तानन्त जीवों को स्थान देता है, वह निगोदशरीर है ।'
साहारगमाहारो साहारणमाएपारणगहणं च ।
साहारणजीवाणं साहारणलक्खरणं भरिणयं ॥१९॥ गायार्थ—साधारण आहार और साधारण उच्छ्वास-निःश्वास का ग्रहण यह साधारण जीवों का साधारण लक्षण कहा गया है ।।१९२।।
विशेषार्थ—इस सूत्र गाथा द्वारा शरीरी और शरीर दोनों का ही लक्षण कहा गया है, क्योंकि एक के लक्षण का ज्ञान होने पर दूसरे के लक्षण का भी ज्ञान हो जाता है।
शरीर के योग्य पुद्गल स्कन्धों का ग्रहण करना आहार कहलाता है। वह साधारण अर्थात् सामान्य होता है।
शंका - एक जीव के द्वारा ग्रहण किया गया पाहार उस काल में वहाँ अनन्त जीवों का कैसे हो सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि उस पाहार से उत्पन्न हुई शक्ति का बाद में उत्पन्न हुए जीवों के उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही ग्रहण हो जाता है ।
शङ्का–यदि ऐसा है तो 'माहार साधारण है' इसके स्थान में 'ग्राहारजनित शक्ति साधारण है ऐसा कहना चाहिए?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कार्य में कारण का उपचार कर लेने से आहारजनित शक्ति को भी पाहारसंज्ञा सिद्ध होती है 14
१. धवल पु. १ पृ. २७० । २. स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा संस्कृत टीका पृ. ६६ । ३. धबल पु. १ पृ. २७० व गु. ३ पृ. ३३२ ; प्रा. पं. सं. पृ. १७ गा. ८२; धवल पु. १४ पृ. २२२ पर यह मूल गाथा १२२ है। ४. धवल पु. १४ पृ. २२६ । ५. जयधवल पु. १४ पृ. २२७ ।
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गाथा १६२
कायमार्गणा/२६७
'पारण' शब्द का अर्थ उच्छ्वास है और 'अपाण' शब्द का अर्थ निःश्वाम है।' जन आनापान का ग्रहण अर्थात् उपादान सब जीवों के साधारण अर्थात् सामान्य है।
शङ्का-किन जीवों के साधारण है ?
समाषान-साधारण जीवों के साधारण है। गाथासूत्र में 'साहारण जीवाणं' शब्द के द्वारा ऐसा कहा गया है।
शङ्का-साधारण जीव कौन है ? समाधान -एक शरीर में निवास करनेवाले जीब साधारण हैं ।
अन्य शरीरों में निवास करनेवाले जीवों के उनसे भिन्न शरीर में निवास करने वाले जीवों के साथ साधारणता नहीं है, क्योंकि उनमें एक शरीर के आवास से उत्पन्न हुई प्रत्यासत्ति का अभाव है। इसका अभिप्राय यह है सबसे जघन्य पर्याप्तिकाल के द्वारा यदि पहले उत्तपन्नए निगोद जीव शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, आहारपयोप्ति और उच्छवासनिःश्वासपर्याप्ति से पर्याप्त होते हैं तो उसी शरीर में उनके साथ उत्पन्न हुए मन्द योगवाले निगोद जीव भी उसी काल द्वारा इन पर्याप्तियों को पूरा करते हैं, अन्यथा पाहारग्रहण प्रादि का साधारणपना नहीं बन सकता। यदि दीर्घकाल के द्वारा पहले उत्पन्न हुए जीव चारों पर्याप्तियों को प्राप्त करते हैं तो उसी शरीर में पीछे से उत्पन्न हुए जीव उसी काल के द्वारा उन पर्याप्तियों को पूरा करते हैं। यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
शंका-शरीरपर्याप्ति और इन्द्रियपर्याप्ति ये सबके साधारण हैं, ऐसा क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं, क्योंकि गाथासूत्र में 'पाहार' और 'पानापान' पद का ग्रहण देशामर्षक है, इसलिए उनका भी इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है।
साहारणागि जेसिं पाहाहस्सास-काय-पाणि ।
ते साहारण-जीवा ताणंत-प्पमारगाणं ॥१२६॥ -जिन अनन्तानन्त जीवों का पाहार, श्वासोच्छवास, शरीर और आयु साधारण होती है वे साधारणकायिक जीव हैं। एक समय में एक साय उत्पन्न होने वाले अनन्तानन्त सव साधारण जीवों 1 की आयु समान होती है, अर्थात् हीनाधिक नहीं होती।
एयस्स अणुग्गहणं बहरण साहारणाणमेयस्स । एयस्स जं बहरवं समासदो तं पि होवि एयस्स ॥१२३॥
--एक जीव का जो अनुग्रहण अर्थात् उपकार है वह बहुत साधारण जीवों का है और इसका भी है। तथा बहुत जीवों का जो अनुग्रहण है वह मिलकर इस विवक्षित जीव का भी है।
१. धवल पु. १४ पृ. २२६ । २. धवल पु. १४ पृ. २२७ । ३. धवल पु. १४ पृ. २२८ । ४. स्वामिकार्तिकेयामुप्रेक्षा । ५. धवल पु. १४ पृ. २२८ ।
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गाथा १६२
२६८ /गो. मा. जीवकाण्ड
एक निगोद जीव का अनुग्रहण अर्थात् पर्याप्तियों को उत्पन्न करने के लिए जो पुद्गलपरमाणों का ग्रहण है या निष्पन्न हुए शरीर के जो परमाणु पुद्गलों का ग्रहण है, वह उस शरीर में उस काल में रहनेवाले और नहीं रहने को बहुत पामार जनों लोता है। कोगि उस पाहार से उत्पन्न हुई शक्ति यहाँ के सब जीवों में युगपत् उपलब्ध होती है । अथवा उन परमाणुओं से निष्पन्न हुए शरीर के अवयवों का फल सब जीवों में उपलब्ध होता है।
शा-.यदि एक जीव में योग से आये हुए परमाणु-पुद्गल उस शरीर में रहने वाले अन्य जीवों के ही होते हैं तो योगवाले उस जीव का वह अनुग्रहण नहीं हो सकता, क्योंकि उसका सम्बन्ध अन्य जीवों के साथ पाया जाता है।
समाधान - इस एक योगवाले जीव का भी वह अनुग्नहगा होता है, क्योंकि उसका फल इस जीव में भी उपलब्ध होता है।'
शंका-एक जीव के द्वारा दिये गये पुद्गलों का फल अन्य जीव कैसे भोगते हैं ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि एक के द्वारा भी दिये गये धन-धान्यादिक को अविभक्त धनवाले भाई लड़की पिता पुत्र और नाती तक के जीव भोगते हुए देखे जाते हैं।
शा-उसी शरीर में निवास करनेवाले जीवों के योग से आये हुए परमाणुपुद्गल एक विवक्षित जीव के होते हैं या नहीं होते ?
समाधान—बहुत जीवों का जो अनुग्रहण है वह मिलकर एक का अर्थात् विवक्षित निगोद जीव का भी होता है, क्योंकि एक शरीर में निवास करने वाले अनन्त जीवों के योग से आये हुए परमाणु पुद्गल-कलाप से उत्पन्न हुई शक्ति इस जीव में पाई जाती है ।
शङ्का–यदि ऐसा है तो उन बहुत जीवों का वह अनुग्रहण अर्थात् उपकार नहीं होता है, क्योंकि उसका फल अन्यत्र ही एक जीव में उपलब्ध होता है ?
समाधान- 'एक' शब्द अन्तभित वीप्सारूप अर्थ को लिये हुए है, इसलिये यह फलित हुआ कि एक-एक जीव का भी वह अनुग्रहण है, क्योंकि उन पुद्गलों से अन्य जीवों में शक्ति के उत्पन्न होने के काल में ही अपने में भी उसकी उत्पत्ति होती है।
समगं बक्कंतागं समग तेसि शरीरणिप्पत्ती ।
समगं च अणुग्गहणं समग उस्सासणिस्सासो ॥१२४॥ –एक शरीर में उत्पन्न होने वालों के उन के शरीर की निष्पत्ति एक साथ होती है, एक साथ अनुग्रहण होता है और एक साथ उच्छ्वास-नि:मबास होता है ।
एक शरीर में जो पहले उत्पन्न हुए अनन्त जीव हैं और जो बाद में उत्पन्न हुए अनन्त जीव हैं, वे सब एक साथ उत्पन्न हुए कहे जाते हैं ।
--
१. धवल पु. १४ पृ. २२८ ।
२. धबल पु. १४ पृ. २२६ ।
३. धवल पु. १४ पृ. २२६ ।
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गाथा १६३
काय मार्ग/२६
शङ्का - भिन्न काल में उत्पन्न हुए जीवों का एकसाथपना कैसे बन सकता है ?"
समाधान नहीं, क्योंकि एक शरीर के सम्बन्ध से उन जीवों के भी एकसाथपना होने में कोई विरोध नहीं आता ।
शङ्का - एक शरीर में बाद में उत्पन्न हुए जीव हैं, ऐसी अवस्था में उनकी प्रथम समय में ही उत्पत्ति कैसे हो सकती है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि प्रथम समय में उत्पन्न हुए जीवों के अनुग्रहण का फल बाद में उत्पन्न हुए जीवों में भी उपलब्ध होता है, इसलिए एक शरीर में उत्पन्न होने वाले सत्र जीवों की प्रथम समय में ही उत्पत्ति इस न्याय के अनुसार बन जाती है ।
इस प्रकार दोनों प्रकारों से एक साथ उत्पन्न हुए जीवों के उन के शरीर की निष्पत्ति सम अर्थात् म से ही होती है तथा एक साथ अनुग्रहण होता है, क्योंकि उन का श्रनुग्रहण समान है । जिस कारण से सब जीवों के परमाणु पुद्गलों का ग्रहण समगं अर्थात् प्रक्रम से होता है, इसलिए आहार, शरीर, इन्द्रियों की निष्पत्ति और उच्छ्वास- निःश्वास की निष्पत्ति समगं अर्थात् प्रक्रम से होती है । अन्यथा अनुग्रह के साधारण होने में विरोध प्राता है। एक शरीर में उत्पन्न हुए अनन्त जीवों की चार पर्याप्तियाँ अपने-अपने स्थान में एक साथ समाप्त होती हैं, क्योंकि अनुग्रहण साधारण रूप है । यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
जस्थेवकुमरद्द जीवो तत्थ दु मरणं हवे प्रणंताणं ।
areas जत्थ एक्को बक्कमणं तत्थणंताणं ॥ १६३ ॥ *
गाथार्थ -- जिस शरीर में एक जीव मरता है वहाँ अनन्त जीवों का मरण होता है और जिस शरीर में एक जीव उत्पन्न होता है वहाँ अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती है ।। १२३ ।।
विशेषार्थ - जिस शरीर में एक जीव मरता है वहाँ नियम से अनन्त निगोद जीवों का भर होता है ।
शङ्का ---इस स्थल पर अवधारण कहाँ से होता है ?
समाधान-गाथासूत्र में आये हुए 'दु' शब्द का अवधारण रूप ग्रर्थ के साथ सम्बन्ध है ।
संख्यात, असंख्यात या एक जीव नहीं मरते हैं, किन्तु निश्चय से एक शरीर में निगोदराशि के अनन्त जीव ही मरते हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । तथा जिस निगोद शरीर में एक जीव arraft अर्थात् उत्पन्न होता है उस शरीर में नियम से अनन्त निगोद जीवों की 'बक्कमणं' अर्थात् उत्पत्ति होती है। एक संख्यात और प्रसंख्यात जीव एक निगोदशरीर में एक समय में नहीं उत्पन्न
१. धवल पु. १४ १ २२६ २. धवल पु. १४ पु. २३० । ३. धवल पु. १४ पृ. २३० पर यह मूलगाथा १२५ है किन्तु ' जत्थेव ' के स्थान पर 'जस्थेउ' तथा 'हवे' के स्थान पर 'भये' है । घथल पु. १ पृ. २७०; प्रा. पं. सं. पू. १७
गाथा ८३ ।
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२७०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १३३
होते हैं, किन्तु अनन्त जीव ही उत्पन्न होते हैं, यह जापर का पर्व है। मे। कन्धनबद्ध होकर ही उत्पत्र होते हैं, अन्यथा प्रत्येक शरीरवर्गणा और बादर व सूक्ष्म निगोद वर्गरंगा के अनन्न प्राप्त होने का प्रसंग पाता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि वैसी वे पाई नहीं जाती ।' कहा भी है
बादरमुठुमरिणगोदा श्रद्धा पुट्ठा य एयमेएरण ।
ते हु अणंता जीत्रा मूलययूहल्लयादीहि ॥१२६॥ --बादरनिगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जीव ये परस्पर बद्ध और स्पष्ट होकर रहते हैं । तथा वे अनन्त जीव हैं जो मूली, यूअर और प्रार्द्रक आदि के निमित्त से होते हैं ।
एक शरीर में स्थित बादर निगोद जीव वहाँ स्थित अन्य बादर निगोद जीवों के साथ तथा एक शरीर में स्थित सुक्ष्म निगोद जीव वहाँ स्थित अन्य सूक्ष्म निगोद जीवों के साथ बद्ध अर्थात समवेत होकर रहते हैं। वह समवाय देशसमवाय और सर्वसमवाय के भेद से दो प्रकार का है। वे देशसमवाय से बद्ध होकर नहीं रहते, किन्तु परस्पर सब अवयवों से स्पष्ट होकर ही वे रहते हैं; अबद्ध और अस्पृष्ट होकर वे नहीं रहते।
शङ्का-इस प्रकार अवस्थित होकर कितने जीव रहते हैं ?
समाधान-इस प्रकार अवस्थित होकर वे संख्यात या असंख्यात नहीं होते, किन्तु वे जीव अनन्त होते हैं।
शङ्खा -वे किस कारण से होते हैं ?
समाधान - भूली, थूप्रर और आर्द्रक आदि कारणों से होते हैं। यहाँ पर 'आदि' शब्द से वनस्पतियों के अन्य भेद भी ग्रहण करने चाहिए। इसके द्वारा बादर निगोद की योनि कही गई है, सूक्ष्म निगोद की नहीं, क्योंकि जल-थल और आकाश में सर्वत्र उनकी योनि देखो जाती है। तात्पर्य यह है कि मूली, थूअर और प्रार्द्रक प्रादि वनस्पतियों के शरीर बादर निगोद की योनि होते हैं।
इसलिए मूली, थर और आर्द्रक आदि तथा मनुष्य प्रादि के शरीरों में असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरोर होते हैं। वहाँ एक-एक निगोद शरीर में अनन्तानन्त बादरनिगोद जीत्र और सूक्ष्म निमोद जीव प्रथम समय में उत्पन्न होते हैं। वहीं पर द्वितीय समय में असंख्यात गुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार पावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल व्यतीत होने तक असंख्यात गुणे हीन श्रेणीरूप से निरन्तर जीव उत्पन्न होते हैं। पुनः एक, दो और तीन समय से लेकर उत्कृष्ट रूप से आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाग काल व्यतीत होने तक अन्तर देकर पुनः एक, दो और तीन समय से लेकर उत्कृष्ट रूप से प्रावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक जीव निरन्तर उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सान्तर-निरन्तर कम से तब तक जोव उत्पन्न होते हैं, जब तक उत्पत्ति सम्भव है। इस प्रकार इस क्रम से उत्पन्न हुए बादर निगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जीव एक शरीर में बद्धस्पष्ट होकर रहते हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
१. घबल पु. १४ पृ. २३१। २. धवल पु. १४ पृ. २३१ ।
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गाथा ११४-१६६
कायमार्गग्गा /२७१
जोवराशि प्राय रहित और ध्यय सहित हैं। क्योंकि उसमें मोक्ष जाने वाले जीव उपलब्ध होते हैं। किन्तु संसारी जीवों का प्रभाव प्राप्त नहीं होता। इसकी सिद्धि के लिए आगे की गाथा कही जाती है
स्कन्ध, अण्डर, पायास, पुलवि व निगोद शरीरों का स्वरूप व संख्या खंधा असंखलोगा अंडर-प्रावास-पुलवि-देहा वि । हेदिल्लजोरिणगाप्रो असंखलोगेष गुरिगदकमा ।।१६४॥ जम्बूदीनं परहो सोसल सायद तपाई वा । खंधंडरावासापुलविशरीराणि विट्ठता ॥१६॥
गाथार्थ-जम्बूद्वीप, जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र, भरत क्षेत्र में कोशल देश, कोशल देश में साकेतनगरी और साकेतनगरी में घर होते हैं, उसी प्रकार स्कन्ध, स्कन्ध में अण्डर, अण्डर में प्रावास, आवास में पुलवि और पुल वि में निगोदशरीर होते हैं ।।१६५॥ स्कन्ध असंख्यात लोकप्रमाण हैं । अण्डर, आवास, पुलवि और निगोदशरीर ये उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित क्रम से स्थित हैं ॥१६॥
विशेषार्थ-स्कन्ध, अण्डर, आवास, पुलवि और निगोद शरीर ये पांच हैं। उनमें से जो बादरनिगोद का आश्रयभूत है, बहुत वक्खारों से युक्त है तथा वलेजंत-वारिणय-कच्छउड समान है ऐसे मूली, थअर और लता आदि संज्ञा को धारण करने वाला स्कन्ध कहलाता है। वे स्कन्ध असंख्यात लोक प्रमाण होते हैं, क्योंकि बादरनिगोद प्रतिष्ठित जीव असंख्यातलोक प्रमाण पाये जाते हैं। जो उन स्कन्धों के अवयव हैं और जो बलंज प्रकच्छउड के पूर्वापर भाग के समान हैं,
उन्हें प्रण्डर कहते हैं। जो अण्डर के भीतर स्थित हैं तथा कच्छउडअण्डर के भीतर स्थित वक्रवार । के समान हैं उन्हें प्रावास कहते हैं। एक-एक स्कन्ध में असंख्यात लोक प्रमाण अण्डर होते हैं। ३ तथा एक-एक अण्डर में असंख्यात लोक प्रमागा प्रावास होते हैं। जो प्रावास के भीतर स्थित हैं
और जो कच्छउड-अपहर-वक्खार के भीतर स्थित पिशवियों के समान हैं. उन्हें पुलवि कहते हैं। एक-एक आवास में असंख्यात लोकप्रमाण (पुलवियों) होती हैं। तथा एक-एक आवास को पृथकपृथक एक-एक पुरन वि में असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरीर होते हैं, जो औदारिक, तंजस और कार्मण पुद्गलों के उपादान कारण होते हैं और जो कच्छउड अण्डर ववस्वार पुलवि के भीतर स्थित द्रव्यों के समान पृथक-पृथक् अनन्तानन्त निगोद जीवों से श्रापूर्ण होते हैं। अथवा जम्बूद्वीप, भरत, जनपद, ग्राम और पुर के समान स्कन्ध, अण्डर, आवास, पुलवि और शरीर होते हैं।'
एक निगोदशरीर में द्रव्य की अपेक्षा जीवों का प्रमाण एगणिगोदशरीरे जीवा दन्बप्पमारणदो विट्ठा । सिद्ध हि अणतगुणा सध्धेरण वितीयकालेण ॥१६६।।
11. पवल पु. १४ पृ. ८६। २. धवल पु. १४ पृ. २३४ मूल गा. १२८; धवल पु. १ पृ. २७० व ३६४, पु. ४
पृ.४७८; प्रा.पं.सं. पृ. १७ गा. ८४, मूलाचार पर्याप्त्यधिकार १२ गा. १६३ ।
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२७२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १६४-१६६
गाथार्थ-एक निगोद शरीर में द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा देखे गये जीव सब अतीन काल के द्वारा सिद्ध हुए जीबी से भी अनन्तगुण हैं ।।१६६।।
विशेषार्थ-संसारी जीवों की व्युच्छित्ति कभी नहीं होती। उसका एक हेतु इस गाथा में कहा गया है। एक निगोदशरीर में द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा अनन्त जीव हैं ।
शंका-बे कितने हैं ? समाधान --अतीत काल में जो सिद्ध हुए हैं, उनसे अनन्तगुणे एक निगोद शरीर में होते हैं।' शङ्का ..वह कौनसी युक्ति है जिससे एक निगोद शरीर में अनन्त जीव उपलब्ध होते हैं ? समाधान-सब जीव राशि का अनन्त होना यही युक्ति है।
पायरहित जिन संख्याओं का व्यय होने पर सत्त्व का विच्छेद होता है वे संख्याएं संख्यात और असंख्यात संज्ञावाली होती हैं। प्राय से रहिए जिन संख्याओं का संख्यात और असंख्यात रूप से व्यय होने पर भी विच्छेद नहीं होता है, उनकी अनन्त संज्ञा है और सब जीवराशि अनन्त है, इसलिए वह विच्छेद को नहीं प्राप्त होती, अन्यथा उसके अनन्त होने में विरोध आता है ।
शडा-अर्धपुद्गलपरिवर्तन के साथ व्यभिचार आता है, क्योंकि अर्धवृद्गल परिवर्तन काल अनन्त होते हुए भी उसका विच्छेद होता है ?
समाधान- यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनन्त संज्ञाबाले केवलज्ञान का ही विषय होने से उसकी (उपचार से) अनन्तरूप से प्रसिद्धि है। मेय में मान की संज्ञा प्रसिद्ध है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रस्य से मापे गये यवों में प्रस्थ संज्ञा की उपलब्धि होती है।
शंका-सब अतीत काल के द्वारा जो सिद्ध हुए हैं, उनसे एक निगोदशरीर के जीव अनन्तगुरणे हैं, यह के से जाना जाता है ?
समाधान-युक्ति से ही जाना जाता है। यथा-प्रसंग्यातलोक प्रमाण निगोदशरोरों में यदि सब जीवराशि उपलब्ध होती है तो एक निगोद शरीर में कितने जीव प्राप्त होंगे। इस प्रकार फलराशि से गुणित इच्छाराशि में प्रमाणराशि का भाग देने पर एक निगोदशरीर में जीदों का प्रमाण सब जीवराशि के असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। परन्तु सिद्ध जीव यदि अतीतकाल के प्रत्येक समय में यदि असंख्यात लोकप्रमाण सिद्ध होवें तो भी अतीत काल से असंख्यात गुरणे ही होगे। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि सिद्ध जीव अतीत काल के असंख्यातवेंभाग प्रमाण ही उपलब्ध होते हैं।
शङ्का-राब जीवराशि अतीत काल से अनन्त गुणी है यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? समाधान- षोड़शपदिक अल्प बहुत्व से जाना जाता है । शङ्का-षोड़शपदिक अल्पबहुत्व किस प्रकार है ?
१. घवल पु. १४ पृ. २३५।
२. धवल पु. १४ पृ. २३५-२३६ ।
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माया १६४-१९६
कायमार्गगणा/२७३
समाधान · . वर्तमानकाल सबसे स्तोक है। अभव्य जीवों का प्रमाण उससे अनन्तगुणा है। जघन्य युक्तानन्त यहाँ पर गुणाकार रूप से अभीष्ट है। अभव्य राशि से सिद्धकाल अनन्तगुणा है। छहमहीने के अष्टम भाग में एक मिला देने पर जो समयसंख्या प्राप्त हो उससे भक्त अतीतकाल का अनन्तबांभाग यहाँ पर मुरणाकार है। सिद्धकाल से सिद्ध संख्यातगुण हैं। यहाँ पर दस प्रथक्त्व गुणाकार है। सिद्ध जीवों से प्रसिद्ध काल असंख्यातगुणा है। यहाँ पर संख्यात पावलिकाएँ गुणाकार है। प्रसिद्ध काल से अतीत काल विशेष अधिक है। सिद्धकाल का जितना प्रमाण है उतना विशेष अधिक है ।' प्रतीत काल से भव्य मिथ्याष्टि अनन्तगुरणे हैं । भव्य मिथ्यादृष्टि का अनन्तवाभाग गुरगाकार है। भव्य मिथ्याष्टियों से भव्य जीव विशेष अधिक हैं। सासादन गुणस्थान से अयोगी केवली प्रस्थान तक जीवों का जितना प्रमाण है उतने विशेष अधिक हैं। भव्य जीवों से सामान्य भिल्याष्ट विशेष अधिक है। अमला राशि में
मोनादिरह गुरगस्थानवी जीवों के प्रमाण को कम कर देने पर जो राशि अवशिष्ट रहे, उतने विशेष अधिक हैं। सामान्य मिथ्याइष्टियों से संसारी जीव विशेष अधिक है। सासादन यादि तेरह गुणस्थानवी जीवों का जितना प्रमाण है उतने बिशेष प्रधिक हैं। संसारी जीवों से सम्पूर्ण जीव विशेष अधिक हैं। सिद्ध जीवों का जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं। सम्पूर्ण जीवराशि से पुद्गल राशि अनन्तगृगो है। यहाँ पर सम्पूर्ण जीवरामि से अनन्तगुणा गुणाकार है। पुद्गल से अनागत काल अनन्तगुरणा है। यहाँ पर सर्व पुद्गल द्रव्य से अनन्तगुणा गुणाकार है।' अनागत काल से सम्पूर्ण काल विशेष अधिक है। वर्तमान और अतीत कालमात्र विशेष अधिक है। संपूर्ण काल से अलोकाकाश अनन्तगुणा है। सम्पूर्ण काल से अनन्तगणा गुणाकार है। अलोकाकाश से सम्पुर्ण प्राकाश विशेष अधिक है। लोकाकाण के प्रदेश प्रमाण विशेष अधिक है। इस प्रकार इस अल्पबहत्व से यह प्रतीत हो जाता है कि अतीतकाल से मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं ।५. इसलिए सिद्ध हुआ कि सिद्धों से एक निगोद शरीर के जीव अनन्तगुरणे हैं। प्रतएव सभी अतीतकाल के द्वारा एक निगोदशरीर के जीव भी सिद्ध नहीं होते हैं। उन निगोदों में जो जीव स्थित हैं बे दो प्रकार के हैं- चतुर्गति और नित्यनिगोद। जो देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होकर पुन: निगोद में प्रवेश करके रहते हैं वे चतुर्गति निगोद जीव हैं। प्रतीत काल में सपने को प्राप्त हुए जीव यदि बहुत अधिक होते हैं तो अतीतकाल से असंख्यातगुणे ही होते हैं। अन्तमुहूतकाल के द्वारा यदि प्रतर के असंख्यातवेंभाग प्रमाग जीव त्रसों में उत्पन्न होते है तो तीतकाल में कितने प्राप्त होंगे? इस प्रकार फल राशि से गुणित इस छाराशि में प्रमाणराशि का भाग देने पर अतीतकाल से असंख्यातगुणी अस राशि होती है। इससे जाना जाता है कि अतीतकाल में उस भाव को नहीं प्राप्त हुए जीवों का अस्तित्व है और जीवों के सिद्ध होने पर भी संसारी जीवों का विन्छेद नहीं होता।
__ अतीतकाल में उस भाव को नहीं प्राप्त हुए जीवों का अर्थात् नित्यनिगोद जीवों का अस्तित्व है और संसारी जीवों का विच्छेद नहीं होता, यह एक गाथा द्वारा कहा जाता है
१. घवल पु. ३ पृ. ३० । २. सर्व जीवराशि का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्तलोक प्रमाण वर्गस्थान प्राग जाकर सब पुद्गल द्रव्य प्राप्त होता है। धवल पु. १३ पृ. २६२-२६३ । ३. सब पद्गलद्रव्य का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्तलोक मात्र वगंस्थान प्रागे जाकर सर्व काल प्राप्त होता है 1 घवल पृ. १३ पृ. २६३। ४. सन कालों का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर सब प्रकाश श्रेणी प्राप्त होती है। ५. बनल पृ. ३ पृ. ३०-३१। ६.धवल पु. १४. २३६ ।
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२७४ गो. मा. जीवकारह
गाथा १६५
निन्वनिगोद का लक्षण अस्थि अणंता जीवा जेहि ण पत्तो तसारण परिणामो ।
भावकलंक-सुपउरा गिगोदवासं रण मुचंति ॥१६॥ गाथार्थ-जिन्होंने बस भाव को नहीं प्राप्त किया है, ऐसे अनन्तजीव हैं, क्योंकि वे भावकन्कप्रचुर हैं इमलिये निगोदवारा को नहीं त्यागते ॥१६७।।
विशेषार्थ-जिन्होंने अतीतकाल में कदाचित भी बस परिणाम नहीं प्राप्त किया है ऐसे अनन्तजीव नियम से है। अन्यथा संमार में भव्य जीवों का प्रभाव प्राप्त होता है। उनका प्रभाव है नहीं, क्योंकि उनका (भव्य जीवों का) अभाव होने पर प्रभव्य जीवों का भी अभाव प्राप्त होता है। और वह भी है नहीं, क्योंकि उनका (भव्य और अभव्य जीवों का) अभाव होने पर संसारो जीवों का भी प्रभाव प्राप्त होता है (क्योंकि संसारी जीव भव्य व अभव्य दो ही प्रकार के हैं और संसारी जीवों का प्रभाव भी नहीं है क्योंकि संसारी जीवों का अभाव होने पर असंसारी (मुक्त) जीवों के भी प्रभाव का प्रसंग पाता है।
शङ्का-संसारी जीवों का अभाव होने पर असंसारी (मुक्त) जीवों का प्रभाव कैसे सम्भव है ?
समाधान - संसारी जीवों का अभाव होने पर प्रसंसारी जीव भी नहीं हो सकते, क्योंकि सब सप्रतिपक्ष पदार्थों की उपलब्धि अन्यथा नहीं बन सकती ।'
इसलिए सिद्ध होता है कि अतीतकाल में असभाव को नहीं प्राप्त हए अनन्त जीव हैं। यहां पर उपयुक्त गाथा इस प्रकार है
सत्ता सव्वपयस्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया !
भंगुष्पायधुबत्ता सम्पतिवरखा हवइ एक्का ॥१८॥ —मत्ता सब पदार्थों में स्थित है, विश्वस्वरूप है, अनन्तपर्यायवाली है, व्यय-उत्पाद और ध्रु वत्व से युक्त है, सप्रतिपक्ष है और एक है।
वे त्रसपरिणाम को क्यों नहीं प्राप्त हुए हैं। इसके समाधान में सुत्रगाथा के उत्तरार्ध में कहा है : 'भावकलंकसुपजरा' अर्थात भावकलङ्क (संमलेश); उसकी वहाँ अत्यन्त प्रचुरता है। एकेन्द्रिय जाति में उत्पत्ति का हेतु (भावकलंक) यह उक्त कथन का तात्पर्य है। उसकी प्रचुरता होने से यहाँ के जीवों ने निगोदवास को नहीं त्यागा है अर्थात् नहीं छोड़ा है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इस प्रकार नित्य निगोद जीवों का लक्षण भी कहा गया है।
१. धवल पु. १४ पृ. २३३ पर मूनगाथा १२७ है किन्तु 'सूपउरा' के स्थान पर 'भपउरा' है। मुलाचार पर्याप्त्यधिकार गा. १६२ पृ. २०२; धवल पु. १ पृ. २७१, पु. ४ पृ. ४.७७; प्रा.पं.सं. गा. ८५ पृ. १६ । २. "जेहि अदीदकाले कदचि वि तस परिणामो गण पत्तो ते तारिसा प्रणेता जीवारिणयमा अस्थि ।" घवल पू. १४ पृ. २३३ । ३. “सवस्स सप्पडि वक्रवस्म उवलंभण्णहाणुवदत्ती दो।" [धवल पु. १४ पृ. २३४] । ४. धवल पु. १४ पृ. २३४, पंचास्तिकाय गा. ८1 ५. धवल पु. १४ पृ. २३३-२३४ ।
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गाथा १६६
कारण/२७५
श्रम जीवों का स्वरूप
बिहि तिहि चदुहि पंचह सहिया जे इंदिएहि लो । तसकाया जीवा या वीरोबसेर ।। १६८ ।। '
ते
गाथार्थ -- लोक में जो दो इन्द्रियों से तीन इन्द्रियों से चार इन्द्रियों से और पाँच इन्द्रियों से सहित जीव हैं श्री वीर भगवान के उपदेश अनुसार उनको त्रसकाय जानना चाहिए ।। १६८ ।। २
विशेषार्थ - यस जीव स्पर्शन व रसना इन दो इन्द्रियों से सहित हैं, स्पर्शन रसना और घ्राण इन तीन इन्द्रियों से सहित हैं अथवा स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु इन चार इन्द्रियों से सहित हैं तथा स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों से सहित जीव हैं ।
इनमें से जो स्पर्शन व रसना इन दो इन्द्रियों से सहित हैं वे द्वीन्द्रिय जीव हैं, जैसे शंख, कौड़ी, सीप, जोंक व लटयादि । जो स्पर्शन, रसना व प्रारण इन तीन इन्द्रियों से सहित हैं वे त्रीन्द्रिय जीव हैं जैसे चींटी, बिच्छू, पटार, जू' व खटमल आदि । जो स्पर्शन, रसना, घाण व चक्षु इन चार इन्द्रियों सहित हैं वे चतुरिन्द्रिय जीव हैं जैसे मक्खी, पतंग, भौरा, मधुमक्खी, मकड़ी यादि चतुरिन्द्रिय जीव हैं। जो स्पर्शन, रसना, धारणा, चक्षु और श्रोत्र इन पाँचों इन्द्रियों से सहित हैं वे पंचेन्द्रिय जीव हैं जैसे पक्षी, हाथी, घोड़ा, सर्प, मनुष्य, देव, नारकी श्रादि । पंचेन्द्रिय जीवों का जन्म अनेक प्रकार का होता है । अण्डज अर्थात् अण्डे से उत्पन्न होने वाले जैसे पक्षी आदि । जरायुज जिनके ऊपर मांस श्रादि का जाल लिपटा रहता है ऐसे जेर सहित जन्म लेने वाले मनुष्य, गाय, भैंस आदि । जो पंचेन्द्रिय तिर्यत्र गर्भ में जरायु आदि प्रावरण से रहित होकर रहते हैं वे पोतायिक हैं । चमड़े के पात्र में रखे हुए वृत आदि में चमड़े के संयोग से उत्पन्न होने वाले रसायिक हैं। पसीने से उत्पन्न होने वाले जीव संस्वेदिम कहे जाते हैं । सर्व ओर से पुद्गलों को ग्रहण करके शरीर बनाने वाले संमूर्च्छन जन्मवाले हैं। पृथिवी, काठ, पत्थर आदि को भेदकर उत्पन्न होने वाले जीव उद्भेदिम है जैसे रत्न या पत्थर आदि को चीरने से निकलनेवाले मेंढक देव और नारकियों के उपपादस्थानों में उत्पन्न होने वाले देव और नारकी जीव उपपादिम है ।
जिनके जीवविपाकी त्रस नाम कर्म का उदय है वे सजीव हैं ।
शङ्का - जो भयभीत होकर गति करें, वे बस हैं। ऐसा क्यों नहीं कहा गया ?
समाधान- यह व्युत्पत्त्यर्थ ठीक नहीं है, क्योंकि गर्भस्थ ग्रण्डस्थ, मूच्छित, सुषुप्त आदि में बाह्य भय आदि के निमित्त मिलने पर भी हलन चलन नहीं होता; प्रत: इनमें सत्व का प्रसंग आ जाएगा | आगम में भी हीन्द्रिय से लेकर प्रयोगकेवली जीवों को बस कहा गया है।
शङ्का - सजीव क्या सूक्ष्म होते हैं अथवा बादर ?
समाधान- त्रस जीव बादर ही होते हैं, सूक्ष्म नहीं होते ।
१. धवल पु. १ पृ. २७४ प्रा.पं.सं. पू. १८ . ८६ । २. "ढोखियादयस्त्राः ||१४|| [ तत्त्वार्थ सूत्र श्र. २ ] | ३. तत्त्वावृत्ति २ / १४ । ४. राजवार्तिक २ / १२ / १-२ । ५. "तसकाइया नीइ दिय-प्पहूडि जाव जोगिकेवलि ि।। ४४ । चत्र पु. १ पृ. २७५ ॥
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२४८ गो. मा जीवकाग
गाथा १२५
शङ्का-यह कैसे जाना जाता है ?
___समाधान · क्योंकि त्रम जीव मूक्ष्म होते हैं, इस प्रकार कथन करनेवाला आगमप्रमाण नहीं पाया जाता।
त्रस जीवों का क्षेत्र उबबादमारगतिन परिच तशमुनिमायाग सतसा
तसरणालिबाहिरह्मि य एस्थित्ति जिहि रिपट्टि ॥१९॥ गाथार्थ-- उपपादगत और मारणान्तिक समुद्घातगत त्रमों के अतिरिक्त शेष अस जीव सनाली के बाहर नहीं पाये जाते, ऐसा जिनों के द्वारा कहा गया है ।।१६६।।
विशेषार्थ-उपपाद एक प्रकार का है और वह भी उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही होता है। विधक्षितभव के प्रथम समय में जो पर्याय की प्राप्ति है वह उपपाद है। प्राणत्याग मरण है, 'अंतः' का अर्थ अवसान है। जिसका अबसान काल है वह 'मरणांतकाल है, अर्थात् वर्तमान भव की स्थिति का चरम अन्तमुहर्त वह मरणान्तकाल है। मरणान्तकाल में होने वाले समुद्रात मारणांतिक समुद्घात हैं उत्तरभव की उत्पत्ति के स्थान तक जीवप्रदेश फैल जाते हैं यह मारणांतिक । समुद्घात का लक्षण है । अपने वर्तमानशरीर को नहीं छोड़कर ऋजुगति द्वारा अथवा विग्रहगति । द्वारा प्रागे जिसमें उत्पन्न होना है ऐसे क्षेत्र तक जाकर शरीर से तिगुणे विस्तार से अथवा अन्य प्रकार से अन्तमुहर्त तक रहने का नाम मारणान्तिक समुद्घात है। मारणान्तिक समुद्घात निश्चय से जहां आगे उत्पन्न होना है ऐसी दिशा के अभिमुख होता है। किन्तु अन्य समुदातों के इस प्रकार एक दिशा में गमन का नियम नहीं है, क्योंकि उनका दशों दिशाओं में भी गमन पाया जाता है। (परन्तु । रा.बा. १/२०११२ में लिखा है कि आहारक व मारणांतिक समुद्घात एक दिशा में होते हैं। शेष । पाँच समुद्घात छहों दिशाओं में होने हैं।) मारणांतिक समुद्घात की लम्बाई उत्कृष्टतः अपने उत्पद्यमान क्षेत्र के अन्त तक है, किन्तु इतर समुद्घातों का यह नियम नहीं है ।५ 'च' शब्द से केवली समुद्घात को भी छोड़कर ऐसा ग्रहण करना चाहिए। उपपाद, मारणान्तिक समुद्घात और केबली समुद्धात इन तीन अवस्थाओं के अतिरिक्त स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना समुद्घात; कषाय समुद्घात, वक्रियिक समुद्घात, तेजस्कशरीर-समुद्घात, पाहारकशरीर समुद्घात इन सात अवस्थाओं को प्राप्त सर्व अस जीव वस नाली में ही पाये जाते हैं, बस नाली के बाह्य लोक में नहीं पाये जाते। एक राजू विष्कम्भ वाली और चौदह राजू लम्बी लोक के मध्य में स्थित अस नाली है। अस नाली की यह अन्वर्थ संज्ञा है। क्योंकि वह नाली के समान है। कहा भी है
लोय बहुमझदेसे रुक्खे सारव रज्जुपवरजुवा । चोइसरज्जुत्त गा तसणाली होवि गुरगणामा ॥१४३॥"
१. धवल पु. १ पृ. २७२ । २. "उववादो एयविहो । सो वि उप्पण्ण पढमसमए चेव होदि ।" [धवल पु. ४ पृ. २६] । ३. "वित्रक्षितभवप्रथमसमयपर्यायप्राप्तिः उपपादः।" श्रीमदमयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कृत टीका] ४. "मरण प्रागात्याग: ............जीवप्रदेशामसर्पणलक्षणः ।" श्रिीमदमयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवती कृत टीका पृ. ४४४] । ५. धवल पु. ४ पृ. २७ । ६. श्रीमदभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत टीका । ७. त्रिलोकसार ।
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गाथा २००
कायमामंगा/२७७
लोक के बहुमध्य प्रदेशों में अस नाली उसी प्रकार विद्यमान है जिस प्रकार वृक्ष के मध्य में सारभूत लकड़ी विद्यमान रहती है। यह अस नाली एक राजू लम्बी, एक राजू चौड़ी और चौदह राजू ऊँची है जिसका क्षेत्रफल (१x१४१४) १४ धनराज है। लोक ३४३ धनराजू है। उसमें मात्र १४ धनराजू प्रमाण वाली मनाली है, अर्थात् उस असनाली में असजीव पाये जाते हैं। शेष (३४३-१४) ३२६ धनराजू में मात्र स्थावर जीव ही प्राप्त होते हैं. त्रस नहीं । उपपादमारशान्तिक समुद्घात एवं केवली समुद्रात वाले सजीवों के प्रात्मप्रदेशों का सत्व अवश्य ३२६ घनराजू में पाया जाता है।
शङ्का-उपपाद के समय त्रस जीव असनाली से बाहर किस प्रकार रहते हैं ?
समाधान-कोई वायुकायिक श्रमनाली से बाहर वातवलय में स्थित है। उसने द्वीन्द्रिय आदि अस पर्याय की आयु का चन्ध किया। वायुकायिक जीव आयु के अन्तिम समय में मरा करके अगले समय में त्रस नामकर्म का उदय आ जाने से त्रस हो गया, किन्तु वसनाली तक आने में एक समय लगेगा। वहीं विग्रहगति का प्रथम समय है। इस प्रकार असनाली से बाह्य एकेन्द्रिय पर्याय छोड़कर बस में उत्पन्न होने वाले के अस आयु के प्रथम समय की उपपाद अवस्था में श्रम जीव असनाली से बाहर रहता है।
शङ्का--मारणान्तिक समुद्घात में त्रसजीव सनाली के बाह्य भाग में क्यों जाता है ?
समाधान--सनाली में स्थित किसी अस जीव ने तनुवातवलय में उत्पन्न होने के लिए वायुस्थावर काय का बन्ध करके अस प्रायु के चरम अन्तर्मुहूर्त में आगामी भव के उत्पत्तिस्थान तनुवातघलय को स्पर्श करने के लिए मारणान्तिक समुद्घात किया । जिसके कारण उस बस जीव के आत्मप्रदेश प्रसनाली से तनुवातवलय तक फैल गये। इस प्रकार त्रसजीव के आत्म-प्रदेश असनाली से बाहर स्थित हो जाते हैं।
शङ्का-केवली समुद्घात की किन अवस्थाओं में प्रसनाली से बाहर आत्मप्रदेश रहते हैं ?
समाधान-कपाट, प्रतर और लोकपूर्ण तथा संकुचित होते हुए पुनः प्रतर व कपाट अवस्थाओं के पांच समयों में केवली भगवान के प्रात्मप्रदेश असनाली से बाहर रहते हैं। केवलीसमुद्घात का स्वरूप पूर्व में कहा जा चुका है ।
वनस्पतियों की भांति अन्य जीवों में भी प्रतिष्टित-प्रतिष्ठित भेद पुढवीआदिचजण्ह केवलियाहारदेवरिपरयंगा।
अपदिट्टिदा रिणगोवेहि पदिदिदंगा हवे सेसा ॥२००।। गायार्थ-पृथिवी आदि चार स्थावरका यिकों का शरीर, केवलियों का शरीर, आहारक शरीर, देव व नारकियों का शरीर अप्रतिष्ठित है, शेष जीवों के शरीर निगोद से प्रतिष्ठित होते है ।।२०।।
१. त्रिलोकसार पृ. १५४ ।
२. सिद्धान्तवक्रवर्ती श्रीमदभयचन्द्र कृत टीका पृ. ४४४ ।
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२७८/गो. सा. जीवनागर
गाथा २०१-२०२
विशेषार्थ-पृथिवोकायिक, अपक्रायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक इन चार स्थावरों के शरीर, केवलियों के शरीर, माहारक शरीर, देवों का शरीर और नारकियों का शरीर इन आर जीवों के शरीरों के आथित बादर निगोद जीव नहीं रहते, अतः ये पाठ प्रकार के शरीर अप्रतिष्ठित हैं। शेष वनस्पतिकायिकों के शरीर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों के शरीर व मनुष्यों के शरीर, ये सब शरीर मप्रतिष्ठित हैं, क्योंकि इनके आश्रय से बादरनिगोद जीव रहते हैं।
स्थावरका यिक और सकायिक जीवों का ग्राकार मसुरंबुखिदुसई कलाबधयसािहो हवे देहो ।
पुढवी आदि चउण्हं तरुतसकाया अणेययिहा ।।२०१॥ गाथार्थ मसूर, जलबिंदु, सुइयों का समूह और ध्वजा इनके मग पृथिवी आदि चार स्थावरों का शरीर होता है। बनस्पतिकायिक और असकाय जीवों का शरीर अनेक प्रकार का होता हैं ।।२०।।
विशेषार्थ-पृथिवीकायिक जीव के शरीर का आकार (संस्थान) मसूर अन्न के समान वृत्ताकार है। अप्कायिक जीव के शरीर का संस्थान (आकार) कुशाग्र पर प्रोस विन्दु के समान वर्तुलाकार है। तेज (अग्नि) कायिक जीव के शरीर का संस्थान (याकार) सुइयों के समान अवं बहुमुख रूप है। वायुकायिक जीव के शरीर का संस्थान (आकार) ध्वजा (पताया! ) के समान प्रायतचतुरस्त्र है। इन चारों स्थावर जीवों के शरीर की अवगाहना घनांगुल के असंख्यात भाग प्रमाण है जो दृष्टिगोचर नहीं है। जो इन्द्रियगोचर होता है, वह पृथिवी आदि बहुत जीवों के शरीरों का समूह है । 'तरूणां' बनस्पतिकायिक अर्थात प्रत्येक वनस्पति व वादर साधारण वनस्पति-सूक्ष्म साधारण बनस्पति इनके शरीरों का संस्थान (आकार) और ब्रस अर्थात् द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियपंचेन्द्रिय जीवों के शरीरों का संस्थान अनेक प्रकार का है, अर्थात् अनियत संस्थान (आकार) है । इन .. शरीरों को अवगाहना यथासम्भव धनांगुल के असंख्यातवें भाग, संख्यातवें भाग व संध्यात घनांगुल । प्रमाण है।
संप्तारी जीव काय के द्वारा ही कर्म भार का वहन करता है, इसका उदाहरण
जह भारवहो परिसो वहइ भरं गेहिऊण कावलियं ।
एमेव वहद जीवो कम्मभरं कायकावलियं ।।२०२।।* गाथार्थ -जिस प्रकार भार को ढोनेवाला पुरुष कावड़ को लेकर भार को ढोता है, उसी प्रकार यह जीव शरीररूपी काबड़ को लेकर कर्मरूपी भार को होता है 11२०२।।
१. सिद्धान्तचक्रावर्ती श्रीमदभयवन्द्र कृत टोका पृ. ४४६ । २. "मसुरियासम्म बिदुसूइकलावापडायसंठामा । कामाणं संठाणं हरिदत्तमा गसंठागा ॥१२/४८।।''[ मूलाचार पर्याप्त्यधिकार पृ. २०६] । ३. मूलाचार गाथा १२/४८ की टीका तथा सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमदभय चन्द्र कृत टीका अनुसार । ४. धबल पु. १ पृ. १३६ पर गा. ८७ है किन्तु 'गेहिऊण' के स्थान पर 'मेण्हिऊरण' तथा 'कावलिय' के स्थान पर 'कायोलि' पाठ है तथा प्रा.पं.सं. पृ.१६ पर गा. ७६ है।
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गाथा २०३-२०४
कायमागंगा/२७६
विशेषार्थ - जैसे भार को होने वाला पुरुष कावड़ में भार को रखकर विवक्षित स्थान तक लेजाता है. उसी प्रकार संसारीजीव काय रूपी कावड़ अर्थात् औदारिक आदि नोकर्मशरीरमयी कावड़ में ज्ञानावरण आदि कर्मभार को ग्रहण करके नाना योनिस्थानों में ढोता है। वही पुरुष कावड़ भार से पूर्णरूपेण परिमुक्त होकर उस भार से उत्पन्न दुःख से रहित होकर किसी इष्ट स्थान पर सुखपूर्वक ठहरता है। उसी प्रकार कोई निकट भव्य, क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्य लब्धि, करण लब्धि, इन पांच लब्धियों को प्राप्त होकर सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र से सम्पन्न होकर, वह तत्त्वज्ञानी शरीररूपी कावड़ के द्वारा कर्मभार ढोने को छोड़कर, उन कर्मोदय से होनेवाले नाना प्रकार के दुःख दूर हो जाने से, लोकाग्र इष्ट स्थान पर सुखपूर्वका रहता है। भव्य जनों के हितार्थ प्राचार्य का यह अभिप्राय है ।।
कायमार्गणा से रहित सिद्धों का म्वरूप जह कंचरणमग्गिगयं मुचइ किट्टण कालियाए य ।
तह कायबंध मुक्का अकाइया झारपजोगेण ।।२०३॥ गाथार्य-जिस प्रकार अग्नि को प्राप्त होने पर सोना कीट और कालिमा को छोड़ देता है उसी प्रकार ध्यान को प्राप्त हा जीव काय-बन्धन से मुक्त होकर अकाय हो जाता है ।।२०३||
विशेषार्थ-जिस प्रकार संसार में मलिन सुवर्ण को प्रज्वलित अग्नि में तपाने और अन्तरंग में रसादि भावना से संस्कत करने पर वह बहिरंग कौटमल को और कालिमा अन्तरंग मल को छोड देता है. फलस्वरूप जाज्वल्यमान सोलहवानी का शुद्ध स्वर्ण प्राप्त हो जाता है और सर्व मनुष्य उसकी सराहना करते है । उसी प्रकार तप रूप अग्नि के प्रयोग से धर्मध्यान व शक्लध्यान की भावना के द्वारा विशेष रूप से दाध निकट भव्य जीब औदारिक व तेजस शरीर के बन्धन से और कार्मरण पारीर के संप्रलेष बन्धन से मुक्त होकर अशरीर अकायिक सिद्ध परमेष्ठी हो जाते हैं। अनन्तज्ञानादि स्वरूप की उपलब्धि को प्राप्त करके लोकान में विराजमान हो जाते हैं । सर्व लोक के जीवों द्वारा स्तुति, प्रणाम करने योग्य, पूजित व सराहनीय हो जाते हैं । जिनके काय अर्थात् शरीर है वे संसारी हैं और इससे विपरीत जो कायरहित हैं वे अकायिक हैं तथा मुक्त हैं।
श्री माधवचन्द्र विद्यवेव ग्यारह गाथाओं द्वारा कायमार्गणा में पृथिवीकाय आदि जीवों की संख्या का कथन करते हैं -
पाउड्ढरासिवारं लोगे अण्णोण्गसंगुरणे तेऊ ।
भूजलवाऊ अहिया पडिभागोऽसंखलोगो दु ॥२०४।। गाथार्थ--साढ़े तीन बार गितसंवर्गित विधि में लोक को परस्पर गुणा करने से तेजस्कायिक जीवों की संख्या,प्राप्त होती है । तेजस्कायिक जोवों से पृथिवीकायिक जीव विशेष अधिक है। उनसे
१. सिद्धान्त चक्रवतीं श्रीमदभयचन्द्र कृत टीका अनुसार । २. श्र.पु. १ पृ. २६६ पर गाथा १४४ है किंतु 'जोगेगा' के स्थान पर 'जोएण' है । तथा प्रा. पं. सं. पृ. १८ गाथा १७ है।
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२८० गो. मा. जीव काण्ड
गाघा २०४
जलकायिक जीव विशेष प्राधिक हैं, उनसे वायुकायिक जीव विशेष अधिक हैं। विशेष अधिक के लिए प्रतिभाग असंख्यात लोक है ।।२०४।।
विशेषार्थ- 'सूत्र अविरुद्ध प्राचार्यपरम्परा से आये हुए उपदेश के अनुसार तेजस्कायिक जीवराशि की संख्या उत्पन्न करने की विधि इस प्रकार है—एक धन लोक को शलाका रूप से स्थापित करके और दूसरे घनलोक को विरलित करके उस विरलित राशि के प्रत्येक एक के प्रति घनलोक को देय रूप से देकर और परस्पर वर्गितसंगित करके शलाकाराशि में से एक कम कर देना चाहिए। तब एक अन्योन्य गुणकार शलाका प्राप्त होती है । परस्पर वर्गित संगित करने से उत्पन्न हुई उस राशि की वर्गशलाकाएँ पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र होती हैं। उस उत्पन्न राशि की अर्धचंद्रद शलाकाएँ असंख्यात लोक प्रमाण होती हैं और वह उत्पन्न राशि भी असंख्यात लोकप्रमाण होती है । पुन: इस उत्पन्न हुई महाराशि को विरलित करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एक के प्रति उसी उत्पन्न हुई महाराशि को देय रूप से देकर परस्पर वागत सगित करके शलाका राशि में से दूसरी बार एक कम करना चाहिए । तब अन्योन्य मुणकार शलाकाएँ दो होती हैं और वर्गशलाकाएँ, अर्धच्छेदशलाकाएँ तथा उत्पन्न राशि असंख्यात लोकप्रमाण होती है । इसी प्रकार लोकप्रमाण शलाकाराशि समाप्त होने तक इसी क्रम से ले जाना चाहिए। तब अन्योन्य गुणकार शलाकाओं का प्रमाण लोक होगा और शेष तीन राशियाँ अर्थात् उस समय उत्पन्न हुई महाराशि और उसकी यर्गशलाकाएं तथा अर्धच्छेदशलाकाएँ असंख्यात लोकप्रमाण होंगी। पुनः इस प्रकार उत्पन्न हुई महाराशि को विरलित करके और इसी राशि को शलाकारूप से स्थापित करके विरलित राशि के प्रत्येक एक के प्रति उसी उत्पन्न हुई महाराशि के प्रमाण को देय रूप से देकर गितसंगित करके शलाका राशि में से एक कम कर देना चाहिए । तब अन्योन्य गुणकार शलाकाएँ एक अधिक लोकप्रमाण होती हैं । शेष तीनों राशियाँ अर्थात् उत्पन्न हुई महाराशि, वर्गशलाकाएं और अर्धच्छेदशलाकाएँ असंख्यात लोकप्रमाण होती हैं। पुनः उत्पन्न हुई महाराशि को विरलित करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एक के प्रति उसी उत्पन्न हुई महाराशि को देकर गितसंगित करके शलाकाराशि में से दूसरी बार एक घटा देना चाहिए। उस समय अन्योन्य गुरणकार अलाकाएं दो अधिक लोकप्रमाण होती हैं। शेष तीनों राशियाँ लोकप्रमाण होती हैं। इस प्रकार इसी क्रम से दो कम उत्कृष्ट संख्यातमात्र लोकप्रमाण अन्योन्य गुणकार शलाकाओं के दो अधिक ल अन्योन्य गुणकार शलाकामों में प्रविष्ट होने पर चारों राशियाँ भी असंख्यात लोकप्रमाण इसी प्रकार दूसरी बार स्थापित शलाकाराशि समाप्त होने तक इसी क्रम से ले जाना चाहिए। तब भो चारों राशियाँ असंख्यात लोकप्रमाण होती हैं। पुनः अन्त में उत्पन्न हुई महाराणि को शलाकारूप से स्थापित करके और दूसरी उसी उत्पन्न हई महाराशि के प्रमाण को बिरलित करके और उत्पन्न हुई उसी महाराशि के प्रमाण को बिरलित राशि के प्रत्येक एक के प्रति देय रूप से देकर परस्पर वगित संगित करके शलाकाराशि में से एक कम कर देना चाहिए। तब भी चारों राशियाँ असंख्यात लोकप्रमाण होती हैं। इसी प्रकार तीसरी बार स्थापित शलाकाराशि समाप्त होने तक इसी क्रम से ले जाना चाहिए। तब भी चारों राशियाँ असंख्यात लोक प्रमाण हैं। पुनः अन्त में इस उत्पन्न हुई महा राशि को तीन प्रति राशिरूप करके उनमें से एक राशि को शलाकारूप से स्थापित करके, दूसरी एक राशि को विरलित करके और उस विरलित रात्रि के प्रत्येक एक के प्रति एक राशि के
१. घ. पु. ३ पृ. ३३४-३३६ ब विनोकसार पृ. ७८ ।
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गाथा २०५
कायमार्गगा/२८१
प्रमाण को देय रूप से देकर परस्पर वगितसंवगित करके शलाकाराशि में से एक कम कर देना चाहिए। इस प्रकार पुनः पुनः करके तब तक ले जाना चाहिए जब तक कि अतिक्रान्त शलाकाओं से अर्थात् पहली दूसरी और तीसरी बार स्थापित अन्योन्य गुणकार शलाकात्रों से न्यून चौथी बार स्थापित अन्योन्य गुणकार शलाकाराशि समाप्त होती है। तब तेजस्कायिक राशि उत्पन्न होती है। उस सेजस्कायिक राशि की अन्योन्य गुणकार शलाकाएँ चौथोबार स्थापित अन्योन्य गुरणकार शलाका राशि प्रमाण हैं।
__ 'तेजस्कायिक राशि को असंख्यात लोकों के प्रमाण से भाजित करने पर जो लब्ध पाने उसे उसी तेजस्कायिक राशि के प्रमाण में प्रक्षिप्त करने पर पृथिवीकायिक राशि का प्रमाण प्राप्त होता है। इस पृथिवीकायिक राशि को असंख्यात लोकों के प्रमाण से भाजित करने पर जो लब्ध प्रावे
उसे उसी पृथिवीकायिक राशि में मिला देने पर अप्कायिक राशि का प्रमाण होता है। इस अप्कायिक मा राशि को असंख्यात लोकों के प्रमाण से भाजित करने पर जो लब्ध पावे उसे उसी अप्कायिक राशि में मिला देने पर वायुकायिक राशि का प्रमाण होता है ।
अपदिद्विवपत्तेया असंखलोगष्पमारण्या होति ।
तत्तो पदिहिदा पुरण असंखलोगेण संगुरिणवा ॥२०५।। गायार्थ --अप्रतिष्ठित प्रत्येक बनस्पतिकायिक जीव असंख्यात लोक प्रमाण हैं और उनसे सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव असंख्यात लोकगुणे हैं ।।२०५।।
विशेषार्थ--एक सागरोपम में से एक पल्योपम को ग्रहण करके और उस पल्योपम को श्रावली के असंख्यातवें भाग से खंडित करके वहाँ जो एक भाग लब्ध प्राप्त हो उसे पृथक् स्थापित करके शेष बहुभाग को पल्य कम सागर में मिला देने पर बादर तेजस्कायिक राशि की अर्धच्छेद शलाकाएँ होती हैं। जो एक भाग पृथक्-पृथक् स्थापित किया था, उसे फिर भी प्राबली के असंख्यातवें भाग से वंदित करके वहाँ जो एक भाग लब्ध प्राप्त हुआ उसे घटाकर अवशेष बहुभाग को बादर तेजस्कायिक राशि के अर्धच्छेदों में मिला देने से बादर वनस्पति (अप्रतिष्ठित) प्रत्येकप्रारीर जोबों की अर्धच्छेदशलाकाएँ होती हैं। इसी प्रकार वादरनिगोदप्रतिष्ठित की अर्धच्छेदशलाकाएँ प्राप्त हो जाती हैं। अर्थात् शेष एक भाग को पुनः प्रावली के असंख्यातवें भाग से खंडित कर, लब्ध प्राप्त एक खंड को पृथक स्थापित कर शेष बहुभाग को बादर बनस्पति अप्रतिष्ठित प्रत्येक जीवों की अर्धच्छेदशलाकानों में मिला देने पर निगोद-प्रतिष्ठित प्रत्येक बनस्पति की अर्धच्छेदशलाकाएँ होती हैं।
अपनी-अपनी अर्धच्छेद गलाकाओं को विरलन करके और उस बिरलित राशि के प्रत्येक एक को दो रूप करके परस्पर गुणित करने पर अपनी-अपनी राशि उत्पन्न होती है। बादर वनस्पति अप्रतिष्ठित प्रत्येक जीव राशि के अर्धच्छेद अल्प हैं, अत: यह राशि अल्प है। और निगोद प्रतिष्ठित राशि के अर्धच्छेद अधिक हैं अतः नगोद प्रतिष्ठित राशि अधिक है। अधिक अर्धच्छेदों को धनलोक के अर्धच्छेदों से भाजित करने पर जो लब्ध प्रात्रे उसको विरलित करके और उस
१. घबल पु. ३ पृ. ३४१ । २. धवल पु. ३ पृ. ३४४ । ३. त्रिलोकमार गा. ७५ ।
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२८२ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २०६२०८
विरलित राशि के प्रत्येक प्रति एक के प्रति घनलोक को देयरूप से देकर परस्पर गुरिणत ( असंख्यात लोक प्रमाण ) करने से जो राशि उत्पन्न हो उससे बादर वनस्पति अप्रतिष्ठित प्रत्येक की जोवराणि को गुणित करने पर बादरनिगोद प्रतिष्टित जीवराशि का प्रमाण प्राप्त हो जाता है । "
तसरासिपुढविश्रादी - चक्क पत्तेय हो रण- संसारी ।
साहारा जीवाणं परिमार होदि जिरादिट्ठ ॥ २०६ ॥
गाथार्थ – सराणि पृथिवी आदि चार स्थावरकाय जीव और प्रत्येक वनस्पति इन सबको संसारी जीवराशि में से कम करने पर साधारण जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है, ऐसा जिनदेव ने कहा है ||२०६ ||
विशेषार्थ- प्रतरांगुल के प्रसंख्यातवें भाग से भाजित जगत्प्रतर प्रमाण सराणि (गा. २११), असंख्यात लोक प्रमाण पृथिवीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय व प्रत्येक वनस्पति (गा. २०४ २०५ ) इन सब राशियों की संख्या को सर्व संसारी जीवराशि के प्रभार में से घटाने पर जो शेष रहे वह साधारण वनस्पतिकायिक जीवों की अर्थात् निगोद जीवों की संख्या है। यह संख्या अनन्तानन्त है जो सिद्ध जीवों के प्रमाण से अनन्तगुणी है ( गा. १२६) ।
सगसग-प्रसंखभागो बादरकायारण होदि परिमाणं । पडिभागो पुव्वरिगद्दिट्ठो ॥ २०७ ॥
सेसा
सुहुमपमाणं
गाथार्थ श्रमनी - श्रपनी राशि का असंख्यातवाँ भाग बादरकाय जीवों का प्रभार है और शेष बहुभाग प्रमाण सूक्ष्मकाय जीव हैं । प्रतिभाग का प्रमाण पूर्व (गा. २०४ ) में कहा जाचका है ||२०७ ॥
विशेषार्थ - गाथा २०४ में 'पडिभागोऽसंखलोगो' इन शब्दों द्वारा प्रतिभाग का प्रमाण संख्यात लोक कहा गया है। अपनी-अपनी राशि को असंख्यात लोक से विभाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतने बादरकाय जीवों का प्रमाण है और शेष बहुभाग सूक्ष्मकाय जीवों का प्रमाण है जो बादर जीवों के प्रमाण से असंख्यातगुरणा है । पृथिवीकाय जीवराशि में असंख्यात लोक का भाग देने पर जो एक भाग प्रमाण लब्ध प्राप्त हो उतने बादर पृथिवीकाय जीव हैं । पृथिवीकाय राशि में से बादर जीवों का प्रमाण घटा देने पर शेष बहुभाग सूक्ष्म पृथिवीकाय जीवों का प्रमाण है । इसी प्रकार जलकाय आदि राशियों में चादर व सूक्ष्म जीवों का प्रमाण प्राप्त कर लेना चाहिए । बादर पृथिवीकायिक जीव स्लोक हैं, उनसे असंख्यातगुणे सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव हैं । गुणाकार असंख्यात लोक है।
सुमेसु संखभागं संखा भागा अपुण्णना इदरा । जस्ति पुण्णद्वादो पुष्पद्धा संखगुरिणबकमा ॥२०८ ||
१. भबल पु. ३ पू. ३४६-३४७
२. धवल पु.. ३ पृ. ३६६ २
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बाथा २०६
कायमार्गा/२८३
गाथार्य-सूक्ष्मकाय जीवों के संख्यातवेभाग अपर्याप्त जीव हैं और संख्यात बहुभाग प्रमाण पर्याप्त जीव हैं, क्योंकि सूक्ष्म लब्धिअपर्याप्त जीवों की आयु से सूक्ष्मपर्याप्त जीवों की आयु संख्यातगुणो है ।।२०।।
विशेषार्थ सूक्ष्म अपर्याप्त जीवों की संख्या से सूक्ष्म पर्याप्तजीवों की संख्या संख्यातगुणी है, दमोंकि अपनी राशि के संस्था एनाभा नपा अपर्याप्त जीव हैं और संख्यातवें बहुभाग प्रमाण पर्याप्त जीव हैं। एकभाग से बहुभाग संख्यात गुरणा है। सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव सूक्ष्मपृथिवीकायिक अपर्याप्तों से संख्यातगुणे हैं। संख्यात समय गुणाकार है। इसी प्रकार अपकायिक, तेजकायिक और वायुकायिक जीवों के विषय में जानना चाहिए।'
सूक्ष्म पृथिवीकायिक सूक्ष्मजलकायिक, सूक्ष्मतेजकायिक, सूक्ष्मवायुकायिक, सूक्ष्मवनस्पतिकायिक, सूक्ष्म निगोद जीव और उनके ही पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवों का काल सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्मएकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त के काल के समान है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव कितने काल तक होता है ? एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। सूक्ष्मएकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव कितने काल तक होते हैं ? एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रभव ग्रहण प्रमाण है। पर्याप्तक जीवों की जघन्य आयु से लब्ध्यपर्याप्तक जीव की जघन्य आयु संख्यातगुणी हीन होती है। जघन्य काल में जघन्य जीवों का संचय और दीर्घकाल में अधिक जीवों का संचय होता है। जो अनुपात काल का है वही अनुपात संचित जीवों की संख्या का है। जैसे अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुगास्थान के काल से प्रमत्तसंयत छठे गुणस्थान का काल दुगुणा है अतः अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों की संख्या से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या दुगुणी है। सूक्ष्म अपर्याप्तकों की आयु से सूक्ष्म पर्याप्तकों की प्रायु संख्यातगुणी है। इसी अनुपात से सूक्ष्मअपर्याप्तजीवराशि से सूक्ष्मपर्याप्तजीवराशि संख्यातगुणी है । गुणाकार का प्रमाण संख्यात समय है।
पल्लासखेज्जवहिदपदरंगुलभाजिदे जगप्पदरे ।
जलभूरिणपवादरया पुष्णा प्रावलिप्रसंखभजिदकमा ॥२०६३ गाथार्थ –पल्य के असंख्यातवें भाग से विभक्त प्रतरांगुल, उससे भाजित जगत्प्रतर प्रमाण बादर जलकायिक जीव हैं। इसको पावली के असंख्यात भाग से विभक्त करने पर पृथिवीकायिक बादर पर्याप्त जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः उसको प्रावली के असंख्यातवें भाग से भाग देने पर निगोद से प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कायिक पर्याप्त जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है, पुनः उसको पावली के असंख्यातवें भाग में भाग देने पर अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति पर्याप्त जीवों का प्रमारण आता है ।।२०६।।
१. "सुहमपुतबिकाइयपज्जत्ता संखेज्जगुरगा। को गुणगारो ? संग्वेज्जस मया ।" [श्रवल पृ. ३ पृ. ३६७] । २. "एवं चाउ-तेउ-वाउणं जाणि ऊरण पत्तन्वं । “धवल पु. ३ पृ. ३६६]। ३. धवल पु. ४ पृ. ४०५ सूत्र १५१ । ४. धवल पु. ४ पृ. ३६४-३६५ सूत्र १२२, १२३, १२४ । ५. धबल पु. ४ पृ. ३९६ मूत्र १२५-१२६ । ६. घवल पु. ४ पृ. ३६६ सूत्र १२६ को टीका । ७. धवल पु. ३ पृ. ६०१
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२८४ / मो. सा. जीवकाण्ड
विशेषार्थ यहाँ 'अंगुल' शब्द कहा गया है, उससे प्रमाणांगुल का ग्रहण करना चाहिए।" उस प्रमाणांगुल के असंख्यातवें भाग का जो वर्ग अर्थात् प्रतरांगुल का असंख्यातवाँ भाग, जो पल्य के श्रसंख्यातवें भाग से प्रतरांगुल को भाग देने से प्राप्त हुआ, तद्रूप प्रतिभाग अर्थात् भागाहार या अवहारकाल है । इस अवहारकाल से बादर जलकायिक पर्याप्त जीवों के द्वारा जगत्प्रतर ग्रपहृत होता है ।
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गाथा २१०
मल्योपम के असंख्यातवें भाग सूच्यंगुल को भाजित करके जो लब्ध प्रावे उसको वर्गित करने पर प्रतरांगुल का असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है। यह बादर अपकायिक पर्याप्त जीवों का अवहारकाल होता है । इस बादर अकायिक पर्याप्तजीवों के अवहारकालको प्रावली के प्रसंख्यातवें भाग से गुणित करने पर बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त जीवों का अवहार काल होता है । इस बादर पृथिवी कायिक पर्याप्त जीवों के श्रवहारकाल को आवली के असंख्यात भागसे गुणित करने पर बारनिगोद-प्रतिष्ठित पर्याप्त जीवों का अवहारकाल होता है। इस बादर - निगोद-प्रतिष्ठित पर्याप्त जीवों के बहार काल को आवली के प्रसंख्यातवें भाग से गुरिणत करने पर बादर अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति पर्याप्त जीवों का अवहार काल होता है। यहाँ अवहारकाल के उत्तरोत्तर अधिक होने का कारण यह है कि पूर्व पूर्ववर्ती अपनी-अपनी राशि बहुत पाई जाती है। इन अवहार कालों से जगत्प्रतर को भाजित करने पर अपने-अपने द्रव्य का प्रमाण प्राप्त होता है । 3
जितना - जितना भागाहार ( अवहार काल अर्थात् भाजक ) बढ़ता जाता है, उतना उतना ही लब्ध ( भाग्यफल) हीन होता जाता है । इस करणसूत्र के अनुसार बादर जलकायपर्याप्तजीवों का अवहारकाल रूप है, अतः वादर जलकाय पर्याप्त जीवों का प्रमाण अधिक है । बादर पृथिवीकाय पर्याप्त जीवों का अवहारकाल शावली के असंख्यातवें भाग गुरणा है अतः बादर पृथिवीकाय पर्याप्त राशि श्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित बादर जलकाय पर्याप्त जीवराशि प्रमाण है अर्थात् बादर जलकाय पर्याप्त जीवराशि को आवली के असंख्यातवें भाग से भाग देने पर जो प्रमाण प्राप्त हो, उतनी बादर-पृथिवोकाय पर्याप्त जीवराशि है। बादर - पृथिवीकाय पर्याप्त जीवों के अवहार काल सेवादर - प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति पर्याप्त जीवों का अवहार काल आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण गुणा है अतः बादर पृथिवीकाय पर्याप्त जीवराशि को आवली के असंख्यातवें भाग से खंडित करने पर एक खंड प्रमारग बादर प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति पर्याप्त जीवराशि है । इसको भी पुन: श्रावली के प्रसंख्यातवें भाग से अपहृत करने पर बादर अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति पर्याप्त जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि इसका अवहार काल पूर्व अवहार काल से ग्रावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण गुणा है । इस प्रकार पूर्व - पूर्व अवहारकाल से उत्तरोत्तर अवहार काल श्रावली के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा होता जाता है । पूर्वपूर्व बादर-पर्याप्त जीवराशि की अपेक्षा उत्तरोत्तर बादर पर्याप्त प्रावली के असंख्यातव भाग प्रभाग श्रसंख्यातगुणी होन होती गई है ।
बिदा लिलोगारणम संवं संखं च तेउबाऊणं ।
पज्जतारण पमाणं तेहि विहीरगा अपज्जता ॥२१०॥
१. "एल्य अंगुलमिदि उत्ते पमाणांगुलं घेतदवं ।” [ धवल पु. ३ पृ. ३४६ ] । २. धवल पु. ३ पृ. ३४६ । ३. धवल पु. ३ पृ. ३५० ।
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गाथा २११
कायमार्गणा: २८५
गाथार्थ-धनावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण यादर अग्निकायिक पर्याप्त जीव हैं और लोक के संख्यातवें भाग प्रमाण बादर वायुकायिक पर्याप्त जीब हैं। अपनी-अपनी संपूर्ण बादर पर्याप्त राशि में से बादर पर्याप्तों का प्रमाण घटाने पर बादर अपर्याप्तकों का प्रमाण प्राप्त होता है ।।२१०॥
विशेषार्थ –बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीव द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं जो असंख्यात प्रावलियों के वर्गरूप है किन्तु पावली के धन के भीतर हैं अर्थात् घनावली से हीन है। प्रावली के असंख्यातवें भाग से प्रतरावली को भाजित करके जो लब्ध पावे, उससे प्रतरावली के उपरिम वर्ग को भाजित करने पर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि होती है। यह असंख्यात प्रतराबली प्रमाण है। इसका स्पष्टीकरण :--प्रतरावली का उसी के उपरिम वर्ग में भाग देने पर प्रतरावली का प्रमाण पाता है। प्रनगवली के द्वितीय भाग का प्रन रावली के उपरिम वर्ग में भाग देने पर दो प्रतराबनियाँ लब्ध पाती हैं। प्रतरावली के तृतीय भाग का प्रतराबली के उपरिम वर्ग में भाग देने पर तीन प्रतरावलियां लब्ध पाती हैं। इसी प्रकार नीचे जाकर पावली के असंख्यात भाग से प्रतरावली को खण्डित करके जो लब्ध प्रावे (प्रतरावली का असंख्यातवाँ भाग) उसका प्रतरावली के उपरिम वर्ग में भाग देने पर प्रसंस्थान प्रतानियां लध माती है। इतना धादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीवों का प्रमाण है।'
प्रावलियाए बग्गो प्रायलियासंखभागगुरिणदो दु।
तह्मा घणस्स अंतो बादरपज्जत्ततेऊणं ॥७७॥ -च कि प्रावली के असंख्यातवें भाग से प्रावली के बर्ग को गुगित कर देने पर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि का प्रमाण होता है, इसलिए वह प्रमाण घनावली के भीतर है।
बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात जगत्प्रतर प्रमाण हैं जो लोक के संख्यातवें भाग है । संख्यात से घनलोक को भाजित करने पर बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है।
जगसेढीए वम्मो जगसेटीसंखभागगुणिदो दु।
तहमा घणलोगंतो बावरपज्जत्तवाऊणं ॥७॥ ---जगच्छ्रेणी के वर्ग को जगन्छेणी के संख्यातवें भाग से गुणित करने पर बादर वायुकायिक पर्याप्ति राशि पाती है। इसलिए उक्त प्रमाण घनलोक के भीतर प्राता है ।
साहारणबादरेसु असंखं भागं असंखगा भागा।
पुण्णाणमपुण्णाणं परिमाणं होदि अणुकमसो ॥२११॥ गाथार्थ – साधारण बादर जीवों में असंख्यातवें भाग तो पर्याप्त जीव हैं और असंख्यात बहुभाग अपर्याप्त जीवों का प्रमाण है ।।२११।।
विशेषार्थ-वादरनिगोद पर्याप्त जीव सबसे स्नोक हैं। बादरनिगोद अपर्याप्त जीव असंख्यात
१. धवल पु. ३ पृ. २५० सूत्र ६१ व. २५१ । २. धवल पू. ३ पृ. ३५५ । ३. बवल पू. ३. ३५५ मुत्र ९४ | ४. श्रवल पु. ३ पृ. ३५६ । ५. धवल पु. ३ पृ. ३५६ ।
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२८६/गो, सा. जीवकाण्ड
पाथा २१२
गुरणे हैं। असंख्यात लोक गुणाकार है। जिन अनन्तानन्त जीवों का साधारण रूप से एक ही शरीर होता है, उन्हें निगोदजीव कहते हैं। इस प्रकार साधारण और निगोद पर्यायवाची शब्द हैं। जितनी भी बादरनिगोदराशि है उसमें असंख्यात लोक का भाग देने पर एकभाग प्रमाण बादर निगोद पर्याप्त जीव हैं और शेष बहुभाग प्रमाण बादर निगोद अपर्याप्त जीव हैं। यह उपयुक्त अल्पबहुत्व से सिद्ध हो जाता है।
शा-बादरों में पर्याप्त जीवों के स्तोक होने का क्या कारण है ?
समाधान-बादर पुण्य प्रकृति है और पर्याप्ति भी पुण्य प्रकृति है। उक्त निगोविया जीवों में जिनके बादर और पर्यारित दोनों पुण्यप्रकृतियों का उदय हो, ऐसे जीव स्तोक होते हैं। यहाँ पर संचयकाल की विधक्षा नहीं है, किन्तु पुण्यप्रकृति की विवक्षा है।
प्रावलिप्रसंखसंखेगवहिदपदरंगुलेग हिदपदरं ।
कमसो तसतप्पुण्णा पुण्णूरगतसा अपुण्णा हु ।।२१२॥ गाथार्थ--पावली के असंख्यातवें भाग से भाजित प्रतरांगुल का जगत्प्रतर में भाग देने पर त्रस जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है और पावली के संख्यातवें भाग से भाजित प्रतरांगुल का जगत्प्रतर में भाग देने पर पर्याप्तत्रस जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है। सामान्य त्रस राशि में मे पर्याप्त त्रसों का प्रमारा घटा देने पर शेष अपर्याप्त प्रसों का प्रमाण है ।।२१२।।
विशेषार्थ—सकायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवों का प्रमाण पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकों के प्रमाण के समान है।
शङ्का-द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकों को एकत्र करने पर सकायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवों का प्रमाण होता है। तव फिर उसकायिक लध्यपर्याप्तकों की प्ररूपणा पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकों को प्ररूपणा के समान कैसे हो सकती है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उभयत्र अर्थात् पंचेन्द्रिय लध्यपर्यातक और असकायिक नब्ध्य पर्याप्तक, इन दोनों का प्रमाण लाने के लिए प्रतरांगुल के असंख्यातवें भाग रूप भागाहार को देखबार इस प्रकार का उपदेश दिया है। अर्थ की अपेक्षा जो उन दोनों की प्ररूपणा में विशेष है, उसका गणधर भी निवारण नहीं कर सकते। अत: पंचेन्द्रियों के प्राधार से त्रस जीवों के प्रमाण का कथन किया जाएगा, क्योंकि दोनों में भागहार की समानता पाई जाती है ; जैसे
क्षेत्र की अपेक्षा पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के द्वारा सुच्यंगुल के असंख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रतिभाग से और सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रतिभाग से जगत्प्रतर अपहृत होता है।
१. धवल पु. ३ पृ. ३७२३ २. "जेसिमवंताणंतजीवाणमेक्क चेव सरीरं भवदि साधारणस्येण ते रिणगोदजीवा भांति 1" धवल पृ. ३ पृ. ३५७ । ३. धवल पु. ३ पृ. ३६२ सूत्र १०२ । ४. धवल पु. ३ पृ. ३६३ । ५. धवल पु. ३ पृ. ३१४ सूत्र २ ।
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गाथा २१३-२१५
कायगार्गणा/२८७
क्षेत्र की अपेक्षा त्रसकायिकों द्वारा सूच्यंगल के असंख्यातवे भाग के वर्ग म्हप प्रतिभाग से और इसकायिक पर्याप्तकों के द्वारा सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रतिभाग से जगत्प्रतर अपहुत होता है।'
इस सूत्र द्वारा कथित अर्थ को स्पष्ट करने के लिए विकलेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय जीवों का तथा उनके पर्याप्त व अपर्याप्त जीवों का प्रमाण लाने के लिए अबहार कालों का (भागाहारों का) कथन किया जाता है।
पावली के असंख्यातवें भाग से सुच्यंगुल को भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसको वर्गित करने पर द्वीन्द्रिय जीवों का अवहार काल होता है। द्वीन्द्रियों के अवहारकाल को प्राबली के असंख्यातवें भाग से भाजित करने पर जो लब्ध आबे उसे उसो द्वीन्द्रियों के अवहारकाल में मिला देने पर द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीवों का अवहारकाल होता है। इसी द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकों के अबहारकाल को प्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित करने पर जो लब्ध प्रावे उसे उसी द्वीन्द्रिय अपर्याप्त अवहारकाल में मिला देने पर त्रीन्द्रिय जीवों का अवहारकाल होता है । पुनः इस श्रीन्द्रिय जीवों के अवहारकाल को प्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित करने पर जो लब्ध आबे, उसे उसी त्रीन्द्रिय जीवों के वहारकाल में मिला देने पर प्रोन्द्रिय अपर्याप्तकों का अवहारकाल होता है। इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त; पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों के अवहारकाल को ऋम से प्रावली के असंख्यातवें भाग से खण्डित करके उत्तरोत्तर एक-एक भाग से अधिक करना चाहिए। अनन्तर पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों के अवहारकाल को प्रावली के असंख्यातवें भाग से गणित करने पर प्रतरांगुल के संध्यातवें भाग प्रमाण त्रीन्द्रिय पर्याप्त जीवों का अवहारकाल होता है। इसे आवली के असंख्यातवें भाग से भाजित करने पर जो लब्ध पावे उसे उसी त्रीन्द्रिय पर्याप्तकों के अवहारकाल में मिला देने पर द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवों का अवहारकाल होता है । इस द्वीन्द्रिय पर्याप्तकों के अबहारकाल को प्रावली के असंख्यातब भाग से भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी द्वीन्द्रिय पर्याप्त प्रवहार काल में मिला देने पर पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों का अवहार काल होता है। इस पचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के प्रवहारकाल को प्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित कर देने पर जो लब्ध प्रावे उसे उसी पंचेन्द्रिय पर्याप्त अवहारकाल में मिला देने पर चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवों का प्रवहारकाल होता है। यहाँ सर्वत्र राशि विशेष से राशि को अपतित करके जो लब्ध प्रावे उसमें से एक कम करके भागहार रूप प्रावली का असंख्यातवें भाग उत्पन्न कर लेना चाहिए। इन अवहार कालों में से पृथक्-पृथक जगत्प्रतर को भाजित करने पर अपने-अपने द्रव्य का प्रमाण आता है।
प्रावलिप्रसंखभागेगवहिद-पल्लूपसायरछिदा । बादरतेपरिणभूजलवादाणं चरिमसायरं पुण्णं ॥२१३।। तेवि विसेसेरणहिया पल्लासंखेज्जभागमेत्तेण । तम्हा ते रासीमो असंखलोगेण गुरिणवकमा ।।२१४॥ दिण्णच्छेदेणव हिंदट्टच्छेदेहि पयदविरलणं भजिये।
लद्धमिदइटरासीरमरणोपहदीए होदि पयदधणं ॥२१५।। १. धवल पु. : पृ. ३६१ सूत्र १७०। २. धवल पु. ३ पृ. ३१५-३१६ । ३. घबल पु. ३, पृ. ३१५-१६ ।
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२८८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाया २१३-२१५ गाथार्थ-यावली के असंख्यातवें भाग से भाजित पत्य को सागर में से घटाने पर जो शेष रहे उतने बादरतेजस्काय जीव के अर्धच्छेद हैं। अप्रतिष्ठित प्रत्येक, प्रतिष्ठित प्रत्येक, वादर पृथिवीकायिक, बादरजलकायिक जीवों के अर्धच्छेदों का प्रमाण ऋम से पावली के असंख्यातवें भाग का दोबार, तीन बार, चार बार, पांच बार, पल्य में भाग देकर सागर में घटाने से जो लब्ध शेष रहता है, उतना-उतना है। बादरवायुकायिक जीवों के अर्धच्छेदों का प्रमाण पूर्णसागर प्रमाण है ।।२१३॥ यह प्रत्येक अर्धच्छेद राशि अपनी पूर्व-पूर्व राशि से पल्य के असंख्यातवें भाग उत्तरोत्तर अधिक है । अत: उत्तरोत्तर जीवों का प्रमाण अपने से पूर्व जीवों के प्रमाण से असंख्यात लोकगुणा है ।।२१४।। देय राशि के अर्धच्छेदों से भाजित इष्ट राशि के अर्धच्छेदों का प्रकृत बिरलन राशि में भाग देने से जो लब्ध प्राप्त हो उतनी बार इष्ट राशि को रखकर परस्पर गुणा करने से प्रकृत धन प्राप्त होता है ।।२१।।
विशेषार्थ-एक सागरोपम में से एक पत्य को ग्रहण करके और उस पल्य को ग्रावली के असंख्यातवें भाग से खंडित करके जो एकभाग लब्ध आवे उसको पृथक स्थापित करके शेष बहुभाग को उसी राशि में अर्थात् पल्य कम सागर में मिला देने पर बादरतेजकायिक राशि की अर्धच्छेदशलाकाएँ होती हैं । जो एकभाग पृथक् स्थापित किया था उसको फिर भी प्रावली के असंख्यातवें भाग से खंडित करो, बहुभाग को बादरतेजकायिक के अर्धच्छेदों में मिलाने पर बादर अप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पति जीवों को अर्धच्छेद शलाकाएँ होती हैं। शेष एकभाग के पुनः पावली के असंख्यातवें भाग से खंडित कर बहुभाग को ग्रहण कर बादर अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति के अर्धच्छेदों में मिलाने से बादरनिगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति जीवगशि के अर्धच्छेदशलाकाएँ होती हैं। पुनः शेप एकभाग को प्रावली के असंख्यातवें भाग से खंडित कर बहुभाग को बादरनिगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक बनस्पतिकायिक जीवराशि के अर्धच्छेदों में मिलाने से बादर पृथिवीकायिक जीवराशि की अर्धच्छेदशलाकाएं होती हैं। शेष एक भाग को पुनः प्राबली के प्रसंध्यातवेंभाग से खंडित करके भाग को बादर पथिवीकायिक जीवराशि के अर्धच्छेदों में मिलाने से बादर जलकायिक जीव राशि की अर्धच्छेद शलाकाएं होती हैं। जो एकभाग शेष रहा था उसको बादर जलकायिक जीवराशि के अर्धच्छेदों में मिलाने से सम्पूर्ण एक सागर के अर्धच्छेद प्रमाण बादर वायुकायिक जीवराणि की अर्धच्छेद शलाकाएं होती हैं।
बादर तेजस्कायिक राशि की अर्धच्छेदशलाकारों का विरलन करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एक को दो रूप करके परस्पर गुणित करने पर बादर तेजस्कायिक जीवराशि उत्पन्न होती है । अथवा घनलोक के अर्धच्छेदों से बादर तेजस्कायिक राशि के अर्धच्छेदों के भाजित करने पर जो लब्ध प्राबे, उसे विरलित करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एक के प्रति घनलोक को देकर परस्पर गुणित करने पर बादर तेजस्कायिक राशि उत्पन्न होती है। अथवा बादर तेजस्कायिक राशि के अर्धच्छेदों को बादर वनस्पति अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर जीवों के अर्धच्छेदों में से घटाकर जो राशि शेष रहे उसे बिरलित करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एक को दो रूप करके परस्पर गुणित करने से जो राशि उत्पन्न हो उससे बादर वनस्पति अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर जीवों की राशि के भाजित करने पर वादर तेजस्कायिक राशि उत्पन्न होती है। अथवा. बादर वनस्पति अप्रतिष्ठित प्रत्येक राशि के जितने अधिक अर्धच्छेद हों उतनी बार बादर वनस्पति अप्रतिष्ठित
१. घवन पु. ३ पृ. ३४४ ।
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गाथा २१६
योगमार्गरणा/२८१
प्रत्येक शरीर राशि के अर्धच्छेद करने पर भी बादर तेजस्कायिक राशि उत्पन्न होती है। अथवा धनलोक के अर्धच्छेदों से अधिक अर्धच्छेदों के भाजित करने पर वहाँ जो लब्ध प्राबे उसे विरलित करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एक के प्रति धनलोक को देय रूप से देकर परस्पर गुणित करने पर जो राशि प्रावे उससे बादर वनस्पति अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर जीवराशि के भाजित करने पर बादर तेजस्कायिक राशि पाती है। इसी प्रकार बादर निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, बादर पृथिवीकायिक, बादर प्रकायिक और बादर वायुकायिक जीवों के अपने-अपने अर्धच्छेदों से बादर तेजस्कायिक राशि उत्पन्न कर लेनी चाहिए।
बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवराशि के अर्धच्छेदों को विलित करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एक को दो रूप करके परस्पर गुणित करने पर बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीव राशि उत्पन्न होती है। अथवा घनलोक के अर्घच्छेदों से बादर वनस्पतिकायिक अप्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर राशि के अर्धच्छेदों के भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो, उसको विरलित करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एक-एक के प्रति घनलोक को देय रूप से देकर परस्पर गुणित करने पर बादर वनस्पतिकायिक अप्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर राशि उत्पन्न होती है। बादर तेजस्कायिक राशि से बादर वनस्पति अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर राशि के उत्पन्न करने पर अधिक अर्धच्छेद प्रमाण बादर तेजस्कायिक राशि के दुगुरिणत-दुगुणित करने पर बादर वनस्पतिकायिक अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर जीव राशि उत्पन्न होती है। अथवा-अधिक अर्धच्छेदों को विलित करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एक को दो रूप करके परस्पर गुणा करने से जो राशि उत्पन्न हो, उससे बादर तेजस्कायिक राशि को गुणित करने पर बादर वनस्पतिकायिक अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर जीवराशि होती है। अथवा अधिक अर्धच्छेदों को घनलोक के अर्धच्छेदों से भाजित करके जो लब्ध पावे उसे विरलित करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एक-एक के प्रति घनलोक को देयरूप से देकर परस्पर गुणित करने से जो राशि उत्पन्न हो उनसे बादर तेजस्कायिक जीवराशि को गुणित करने पर बादर वनस्पति अप्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर जीवराशि उत्पन्न होती है। बादर निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर वनस्पति, बादर पृथिबीकायिक, बादर अप्कायिक और बादर वायुकायिक जीवराशि के प्रमाण से बादर वनस्पतिकायिक, अप्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर राशि के उत्पन्न करने पर जिस प्रकार इन राशियों से तेजस्कायिक जीवराशि उत्पन्न की मई, उसी प्रकार उत्पन्न करनी चाहिए। बादर निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक, बादर पृथिवी कायिक, वादर प्रकायिक और बादर वायुकायिक की इसी प्रकार प्ररूपरणा करनी चाहिए।
इस प्रकार गोम्मटमार जीवकाण्ड में कायमार्गणा नामक पाठवा अधिकार पूर्ण हुषा।
९. योगमार्गणाधिकार
योग का सामान्य लक्षण पुग्गलविवाइदेहोदयेप मरावयणकायजुत्तस्स । जीवस्स जा हु सत्ती कम्मागमकारणं जोगी ॥२१६।।
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२६०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २१६
___ गाथार्थ-पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव को जो कर्मों के ग्रहण में कारणभूत शक्ति है, वह योग है ।।२१६।।
विशेषार्थ-इस गामा में योग बन तहण का है। मन आत्म-प्रदेशों में कर्मों को। ग्रहण करने की शक्ति का नाम योग है। आत्मा में यह शक्ति स्वाभाविक नहीं है, किन्तु पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त संसारी जीव में उत्पन्न होती है। जिनके । पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म का उदय नहीं है, ऐसे चौदहवें गुणस्थानवर्ती जिनदेव के योग का । अभाव हो जाता है और वे अयोगकेबली हो जाते हैं ।
जो संयोग को प्राप्त हो वह योग है ।' संयोग को प्राप्त होने वाले वस्त्र आदि के साथ व्यभिचार दोष नहीं पाता, क्योंकि वे आत्मधर्म नहीं हैं। यद्यपि कषाय प्रात्मधर्म है तथापि उसके साथ । भी व्यभिचार दोष नहीं पाता, क्योंकि कपाय कर्मों के ग्रहण करने में कारण नहीं पड़ती। वह तो। स्थितिबन्ध व अनुभागबन्ध में कारण है ।* अथवा प्रदेशपरिस्पन्द रूप प्रात्मा की प्रवृत्ति के निमित्त से कमों को ग्रहण करने में कारणभूत वीर्य की उत्पत्ति योग है । अथवा आत्मप्रदेशों का संकोचविकोत्र । योग है।
मणसा वचसा कारण चावि जुत्तस्स विरिय-परिणामो। जोवस्स प्परिणयोभो जोगो त्ति जिणेहि गिट्ठिो ॥॥
मन, वचन और काय के निमित्त से होने वाली क्रिया से युक्त प्रात्मा के जो बोर्यविशेष उत्पन्न होता है, वह योग है। अथवा जीव के प्रणियोग (परिस्पन्दरूप क्रिया) योग है। ऐसा जिन का ! उपदेश है। मन की उत्पत्ति के लिए जो परिस्पन्दरूप प्रयत्न होता है, वह मनोयोग है। वचन की। उत्पत्ति के लिए जो परिस्पन्द रूप प्रयत्न होता है, वह वचनयोग है। काय की क्रिया के लिए जो ! परिस्पन्द रूप प्रयत्न होता है वह काययोग है।
शङ्का-प्रयत्न बुद्धिपूर्वक होता है और बुद्धि मनोयोगपूर्वक होती है। ऐसी परिस्थिति में मनोयोग शेष योगों का अविनाभावी है, यह बात सिद्ध हो जानी चाहिए? अनेक प्रयत्न एक साथ होते हैं, यह बात सिद्ध हो जाती है ?
समाधान-अनेक योग एक साथ नहीं हो सकते, क्योंकि कार्य और कारण इन दोनों की एक । काल में उत्पत्ति नहीं हो सकती।
मन, वचन और काय के अवलम्बन से जीवप्रदेशों में परिस्पन्द होना योग है। जीवप्रदेशों का जो संकोच-विकोच व परिभ्रमण होता है , वह योग कहलाता है।
१. "वुज्यत इति योगः ।" [धवल पु. १ पृ. १३६] । २. "ठिदि-अणुमागा कसायदो होति ।" [गो. क. गा, २५७] । ३. "मथवात्मप्रवृत्तेः कदिान निबन्धनवीर्योत्पादो योग: 1 अयवात्मप्रदेशानां सङ्कोचविकोचयोगः ।" [धवल पु. १ पृ. १४०] 'प्रात्मप्रवृत्तेसंकोचविकोचो योग.।" [धवल पु. ७ पृ. ६। ४. धवल पु. १ पृ. । १४०। ५. घघल पु. १ पृ. २७६ । ६. "मनोवाक्कायावष्टंभबलेन जीवप्रदेशपरिस्पन्दो योग इति ।" [धवल पु. ७ पृ ६] । ७. धवल पु. १० पृ. ४३७ ।
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याथा २१६
योगमार्गणा/२६१
शङ्खा -जीव की गमनरूप क्रिया भी तो योग है ।
समाधान-जीव के गमन को योग नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अघातिया कमों के क्षय से ऊर्ध्वगमन करने वाले प्रयोगकेवली के सयोगत्व का प्रसंग प्रा जायेगा।'
मन से उत्पन्न हुए परिस्पन्द-लक्षण वीर्य के द्वारा जो योग होता है वह मनोयोग है। वचन से उत्पन्न हुए प्रात्मप्रदेश-परिस्पन्द-लक्षण बीर्य के द्वारा जो योग होता है वह वचनयोग है। काय से उत्पन्न हुए आत्म-प्रदेश-परिस्पन्द-लक्षण वीर्य के द्वारा जो योग होता है, वह काययोग है। मनोवर्गणा से निष्पन्न हुए द्रव्यमन के अवलम्बन से जो जीव का संकोच-विकोच होता है, वह मनोयोग है, भाषावना सम्बन्धी पुद्गलस्कन्धों के अवलम्बन से जो जीवप्रदेशों का संकोच-विकोच होता है, वह वचनयोग है । जो चतुर्विध शरीरों के अवलम्ब से जीव-प्रदेशों का संकोच-विकोच होता है, वह काययोग है।
शा-जो जीवप्रदेश अस्थित हैं, उनके कर्मबन्ध भले ही हो, क्योंकि अस्थित (परिस्पन्द, चल) रूप प्रात्मप्रदेश योगसहित हैं। किन्तु जो जीवप्रदेश स्थित (अचल, परिस्पन्द रहित) हैं, उनके कर्मबन्ध का होना सम्भव नहीं है, क्योंकि वे योग से रहित हैं।
प्रतिशका-यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
प्रतिशखा का उत्तर-जीबप्रदेशों का परिस्पन्द न होने से ही जाना जाता है कि वे योग से रहित हैं। परिस्पन्द रहित जीवप्रदेशों में योग की सम्भावना नहीं है, क्योंकि वैसा होने पर सिद्ध जीवों के भी सयोग होने की मापत्ति पाती है।४ ।
शङ्का का समाधान- मन, बचन और काय सम्बन्धी क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव का उपयोग (प्रयोग) होता है, वह योग है और कर्मबन्ध का कारण है। परन्तु वह प्रयत्न थोड़े से जीवप्रदेशों में नहीं हो सकता, क्योंकि एक जीव में प्रवृत्त हुए उक्त योग की थोड़े से अश्यवों में प्रवृत्ति मानने में विरोध पाता है, अथवा एक जीव में उसके खण्ड-खण्ड रूप से प्रवृत्ति होने में विरोध प्राता है । इसलिए स्थित (अचल, अपरिस्पन्दात्मक) जीवप्रदेशों में कार्मबन्ध होता है। दूसरे योग से सम्पूर्ण जीवप्रदेशों में नियम से परिस्पन्द होता है. ऐसा नहीं है. क्योंकि योग से अनियम से उसके होती है। तथा एकान्ततः नियम नहीं है. ऐसी भी बात नहीं है, क्योंकि जीवप्रदेशों में जो परिस्पन्द उत्पन्न होता है, वह योग से ही उत्पन्न होता है, ऐसा नियम पाया जाता है । इस कारण स्थित (अचल) जीवप्रदेशों में भी योग के होने से कर्मबन्ध को स्वीकार करना चाहिए।
शा-योग कौनसा भाव है ?
समाधान–'योग' यह अनादि पारिणामिक भाव है। इसका कारण यह है कि योग न तो औपशमिक भाव है, क्योंकि मोहनीय कर्म का उपशम नहीं होने पर भी योग पाया जाता है । न वह
......
१. “न जीवगमणं जोगो, अजोगिस्स प्रघादिकम्मखएण वुठं गच्छंतरस ति सजगताप मंगादो ।" [धवल, पु. १० पृ. ४३७] । २. धवल पु. १ पृ. ३०८ । ३. धवल पु. ७ पृ. ७६ ४. धवल पु. १२ पृ. ३६६ । ५. प्रवल .१२ पृ. ३६७ ।
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२६२/गो, सा, जीयकाण्ड
गाधा २१६
क्षायिक भाव है, क्योंकि आत्मस्वरूप से रहित योग की कर्मों में पप मे उत्पत्ति मानने में विरोष पाता है। योग घातिकर्मोदयजनिन भी नहीं है, क्योंकि घातिकर्मोदय के नष्ट होने पर भी मयोगकेवली में योग का सद्भाव पाया जाता है। योग अघातिकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि अधातिकर्मोदय के रह) पर भी प्रयोगकेवली में योग नहीं पाया जाता । योग शरीर नामकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि पुद्गलविपाको प्रकृतियों के जीव-परिस्पन्दन का काररंग होने में विरोध है ।
शङ्का-कार्मणशरीर पुद्गल विषाको नहीं है, क्योंकि उससे पुद्गलों के वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान प्रादि का आगमन आदि नहीं पाया जाता है। इसलिए योग को कामरण शरीर से उत्पन्न होने वाला मान लेना चाहिए ?
समाधान -नहीं, क्योंकि सर्वकर्मों का प्राश्रय होने से कार्मणशरीर भी पुदगलविपाकी ही है। इसका कारण यह है कि यह सर्व कर्मों का प्राश्रय या प्राधार है ।
शङ्का - काम णशरीर के उदय विनष्ट होने के समय में ही योग का विनाश देखा जाता है । इसलिए योग कार्मणशरीरजनित है, ऐसा मानना चाहिए ?
समाधान-नहीं, क्योंकि यदि ऐसा माना जाय तो अघातिकर्मोदय के विनाश होने के अनन्तर हो बिनष्ट होनेवाले पारिणामिक भव्यत्व भाव के भी प्रौदयिकापने का प्रसंग प्राप्त होगा।
इस प्रकार उपयुक्त विवेचन से योग के पारिणामिकपना सिद्ध हुआ। अथवा 'योग' यह पौयिक भाव है, क्योंकि शरीर नामकर्म के उदय का विनाश होने के पश्चात् ही योग का विनाश पाया जाता है। ऐसा मानने पर भव्यत्वभाव के साथ व्यभिचार भी नहीं पाता है, क्योंकि सम्बन्ध के विरोधी भव्यत्व भाव की कर्म से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है ?
योग कौनसा भाव है, षट्खण्डागम में एक अन्य विकल्प का कथन निम्न प्रकार है"क्षायोपशमिक लब्धि से जीव मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होता है ।।
शङ्का-जीवप्रदेशों के संकोच और त्रिकोच अर्थात् विस्तार रूप परिस्पन्द 'योग' है। यह परिस्पन्द कर्मों के उदय से उत्पन्न होता है, क्योंकि कर्मोदय से रहित सिद्धों के वह नहीं पाया जाता। प्रयोगकेवली में योग के अभाव से यह कहना उचित नहीं है कि योग प्रौदयिक नहीं होता, क्योंकि अयोगकेवली के यदि योग नहीं होता तो शरीर नामकर्म का उदय भी तो नहीं होता। शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला योग उस कर्मोदय के बिना नहीं हो सकता, क्योंकि वैसा मानने से अतिप्रसंग दोष उत्पन्न होगा। इस प्रकार जब योग प्रौदयिक होता है तो योग को क्षायोषश मिक क्यों कहा जाता है ?
समाधान --ऐसा नहीं, क्योंकि जब शरीर नामकर्म के उदय से शरीर बनने के योग्य बहत से पुद्गलों का संचय होता है और बीर्यान्त राय कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभाव से ब उन्हीं स्पर्धकों के मत्वोपशम से तथा देशघाती स्पर्धकों के उदध से उत्पन्न होने के कारण क्षायोपश मिक
१. थ. पु. ५ पृ. २२५-२२६ । २. ध. पु. ७ पृ. ७५ ।
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गाथा २१७-२१६
योगमार्गणा / २६३
at बढ़ता है तब उस वीर्य को पाकर चूकि जीवप्रदेशों का संकोच - विकोच बढ़ता है, इसलिए योग क्षायोपशमिक है ।"
शङ्का-यदि वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए बल की वृद्धि और हानि से जीवप्रदेशों के परिस्पन्द की वृद्धि और हानि होती है, तो जिसके अन्तराय कर्म क्षीण हो गया है ऐसे सिद्ध जीव में योग की बहुलता का प्रसंग आता है ?
समाधान- नहीं आता, क्योंकि क्षायोपशमिक बल से क्षायिक बल भिन्न देखा जाता है । क्षायोपशमिक बल की वृद्धिहानि से वृद्धि-हानि को प्राप्त होने वाला जीवप्रदेशों का परिस्पन्द क्षायिक बल से वृद्धि हानि को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने से तो अतिप्रसंग दोष आजायेगा ।
शङ्का - यदि योग वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, तो सयोगकेवली में योग प्रभाव का प्रसंग श्राता है ?
समाधान- नहीं आता, क्योंकि योग में क्षायोपशमिक भाव तो उपचार से माना गया है । असल में योग प्रदयिक भाव ही है । औदयिक योग का सयोगकेवली में प्रभाव मानने में विरोध आता है।
योग मार्गादधिक है, क्योंकि वह नामकर्म की उदीरणा व उदय से उत्पन्न होती है । 3 योग की उत्पत्ति तत्प्रायोग्य अघातिया कर्म के उदय से होती है, अतः योग औदयिक भाव है। शङ्का - योग को क्षायोपशमिक भी तो कहा गया है ?
समाधान - वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से योग की वृद्धि देखकर क्षायोपशमिक कहा गया है। वह भी घटित हो जाता है | ४
योगविशेष का लक्षण
मरवरपाण पत्ती सच्चासच्चु भयप्रणुभयत्येसु ।
५
तण्णामं होवि तदा तेहि दु जोगा हु तज्जोगा ||२१७ ।। सब्भावो सच्चमरणो जो जोगो तेरा सच्चमरगजोगो । तदिवरीदो मोसो जाणुभयं सच्चमोसं ति ॥२१८॥ रंग सच्चमो जुत्तो जो दु मरणो सो प्रसच्च मोसमरणो । जो जोगो तेरण हवे सच्चमोसो दु मरणजोगो ॥ २१६ ॥ *
१. ध. पु. ७ पृ. ७५ । २. धवल पु. ७ . ७६ ३. धवल पु. ९ पृ. ३१६ । ४. धवल पु. १० पृ. ४३६ । ५. मुद्रित पुस्तक में 'सम्भाषमणे सच्चो' यह पाठ है जो प्रशुद्ध प्रतीत होता है किन्तु धवल पु. १. २८१ पर 'सन्भावसच्चमरण' यह पाठ है, इसको ही यहाँ पर पड़ा किया गया है। ६. धवल पु १ पृ. २६२ । प्रा.पं.सं
० पु. १८
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२६४ /गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २१७-२१९
गाथार्थ-सत्य, असत्य, उभय और अनुभय पदार्थों में जो मन वचन की प्रवृत्ति होती है उस समय में मन और वचन का वही नाम होता है और उसके सम्बन्ध से उस प्रवृत्ति (योग) का भी वही नाम होता है ।।२१७।। सद्भाव सो सत्य है उस सम्बन्धी मन सत्यमन है । उस सत्यमन से होनेवाला योग सत्य मनोयोग है, इससे विपरीतयोग मृषामनोयोग है, उभय रूपयोगसत्यमृषामनोयोग है ।।२१८॥ जो मन, सत्य और मृषा से युक्त नहीं होता वह असत्यमृषामन है, उससे होने वाला योग असत्यमृषामनोयोग है ।।२१।।
विशेषार्थ-मनोयोग चार प्रकार का कहा गया है। इस सम्बन्ध में निम्न सूत्र है--
-'भणजोगो चम्विहो, सच्चमणजोगो मोसमणजोगो सचमोसमराजोगो असन्धमोसमरणजोगो चेदि ।।४६॥" [षट् खण्डागम संत-परूवणा धवल पु. १ पृ. २८०] मनोयोग चार प्रकारका है, सत्यमनोयोग, मृषामनोयोग, सत्यमूषामनोयोग, असत्यमृषामनोयोग ।।४६॥
सत्य, अवितथ और अमोघ, ये एकार्थवाची शब्द हैं। सत्य सम्बन्धित मन सत्यमन है और उसके द्वारा जो योग होता है वह सत्यमनोयोग है । इससे विपरीतयोग मृषामनोयोग है । जो योग सत्य और मृषा इन दोनों के संयोग से उत्पन्न होता है वह सत्यमृषा मनोयोग है। सत्यमनोयोग और मृषा मनोयोग से व्यतिरिक्त योग असत्यमृषामनोयोग है।
शङ्कर-असत्यमृषामनोयोग अर्थात् अनु भयमनोयोग कौनसा है ?
समाधान—समनस्क जीवों में वचनप्रवृत्ति मानसशानपूर्वक होती है, क्योंकि मानसज्ञान के बिना उनमें वचन-प्रवृत्ति नहीं पाई जाती। इसलिए उन चारों में से सत्यवचननिमित्तक मन के निमित्तसे होने वाले योग को सत्यमनोयोग कहते हैं। असत्य बचन-निमित्तक मन से होने वाले योग को असत्य मनोयोग कहते हैं। सत्य और मृषा इन दोनों रूप बचननिमित्तक मनसे होने वाला योग उभय मनोयोग है। इन तीनों प्रकार के वचनों से भिन्न आमन्त्रण प्रादि अनुभय वचन निमित्तक मन से होने वाला योग अनुभय मनोयोग है। तथापि यह कथन मुख्यार्थ नहीं है, क्योंकि इसकी सम्पूर्ण मन के साथ व्याप्ति नहीं पाई जाती है। अर्थात् उक्त कथन उपचारित है क्योंकि बचन की सत्यादिकता से मन में सत्य आदि का उपचार किया गया है ।
शङ्का--यहाँ पर निर्दोष अर्थ कौनसा लेना चाहिए ।
समाधान-मन की यथार्थ प्रवृत्ति सत्यमन है ।२ जैसी वस्तु है वैसी प्रवृत्ति करने वाला सत्य मन है। इससे विपरीत मन असत्यमन है। सत्य और असत्य इन दोनों रूप मन उभय मन है। तथा जो संशय और अनध्य बसाय रूप ज्ञान का कारण है वह अनूभय मन है। अथवा मन में सत्य, असत्य आदि बचनों को उत्पन्न करनेल्प योग्यता है, उसकी अपेक्षा से सत्यवचनादि के निमित्त से होने के कारण जिसे पूर्व में उपचार कहा गया है, वह कथन मुख्य भी है।
मामान्य मनोयोग, सत्यमनोयोग तथा असत्यमृषामनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोग
१. धवल पु. १ पृ. २८१ ।
२. यथावस्तुप्रवृक्ष मनः सत्यापन: । [धवल पु. १ पृ. २८१] ।
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गाथा २१७-२१६
योगमार्गणा/२६५
केवली पर्यन्त होते हैं।'
शङ्का–चार मनोयोगों के अतिरिक्त (सामान्य) मनोयोग इस नाम का पांचां मनोयोग कहाँ से प्राया?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भेदरूप चार प्रकार के मनोयोगों में रहने वाले सामान्य योग के पांचवीं संख्या बन जाती है।
शङ्का-वह सामान्य क्या है, जो चार प्रकार के मनोयोग में पाया जाता है।
समाधान–यहाँ पर सामान्य से मन की सदृशता का नहण करना चाहिए। मन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है, वह मनोयोग है।
शङ्का पूर्वप्रयोग से प्रयत्न के बिना भी मन की प्रवृत्ति देखी जाती है ?
समाधान-यदि प्रयत्न के बिना भी मन की प्रवृत्ति होती है तो होने दो, क्योंकि ऐसे मन से होने वाला योग मनोयोग है, यह अर्थ यहाँ पर विवक्षित नहीं है। किन्तु मन के निमित्त से जो परिस्पन्दरूप प्रयत्नविशेष होता है, वह यहाँ पर योगरूप से विवक्षित है।
शङ्का--केवलीजिन के सत्यमनोयोग का सद्भाव रहा आवे, क्योंकि वहाँ पर वरतु के यथार्थ ज्ञान का सद्भाव पाया जाता है। परन्तु उनके असत्यमृषामनोयोग का सद्भाव सम्भव नहीं है, क्योंकि वहाँ पर संशय और अनध्यवसायरूप ज्ञान का प्रभाव है ?
समाधान--नहीं, क्योंकि संशय और अनध्यबसाय के कारण रूप बचन का कारण मन होने से उस में भी अनूभयरूप धर्म रह सकता है। अतः सयोगी जिन में अनुभय मनोयोग का सद्भाव स्वीकार कर लेने में कोई विरोध नहीं पाता है।
शङ्का-केवली के वचन संशय और अमध्यवसाय को पैदा करते हैं, इसका क्या तात्पर्य है ?
समाधान –केवली के ज्ञान के विषयभूत पदार्थ अनन्त होने से और श्रोता का क्षयोपशम अतिशय रहित होने से केवली के वचनों के निमित्त से संप्रय और अनध्यवमाय को उत्पत्ति हो सकती है।
शङ्का-तीर्थडरों के वचन अनक्षर रूप होने के कारण स्वनिरूप हैं, इसलिए वे एकरूप हैं, और एकरूप होने के कारण वे सत्य और अनुभय रूप दो प्रकार के नहीं हो सकने ।
समाधान---नहीं, क्योंकि केवली के वचनों में 'स्यात्' इत्यादि रूप से अनुभयवचन का सद्भाव पाया जाता है । इसलिए केवली की ध्वनि अनक्षरात्मक ही है, यह बात प्रसिद्ध है।
शङ्का-बेवली के द्रव्यमन का सद्भाव रहा आवे परन्तु वहाँ पर उसका कार्य नहीं पाया जाता।
१. "मगा जोगो मुम्नमाजोगो असच्चमोसमणजोगो मणि मिच्छाइटि-प्पडि जाव सजोगिने बलि ति ।।५०१॥" [धवल पु. १ पृ. ९८२] । २. धवल. पु. १ पृ. २८ ।
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२९६ / गो. सा. जीवकाण्ड
नाथा २२०-२२१
समाधान- द्रव्यमन के कार्यरूप उपयोगात्मक क्षायोपशमिक आन का अभाव भले ही रहा आवे, परन्तु द्रव्यमन के उत्पन्न करने में प्रयत्न तो पाया हो जाता है, क्योंकि द्रव्यमन की वर्मणाओं को लाने के लिए होने वाले प्रयत्न में कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं पाया जाता। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि उस मन के निमित्त से जो आत्मा का परिस्पन्द रूप प्रयत्न होता है, वह मनोयोग है ।"
शङ्का - जब केवली के (भाव) मन नहीं है, तो उससे सत्य और अनुभय इन दो प्रकार के वचनों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि उपचार से मन के द्वारा उन दोनों प्रकार के वचनों की उत्पत्ति का विधान किया गया है।
सत्य मनोयोग और उभयमनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक पाये जाते है । "
शङ्का - क्षपक और उपशमक जीवों के सत्यमनोयोग और अनुभव मनोयोग का सद्भाव रहा आवे, परन्तु शेष दो अर्थात् ग्रसत्यमनोयोग और उभयमनोयोग का सद्भाव नहीं हो सकता है, क्योंकि इन दोनों में रहने वाला श्रप्रमाद वह असत्य और उभयमन के कारणभूत प्रमाद का विरोधी है। अर्थात् क्षपक और उपशमक प्रमादरहित होते हैं, इसलिए उनके असत्य मनोयोग और उभयमनोयोग नहीं पाये जा सकते हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि आवरणकर्म से युक्त जीवों के विपर्यय और अनध्यवसाय के कारणभूत मन का सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है । परन्तु इसके सम्बन्ध से क्षपक या उपशमक जीव प्रमत्त नहीं माने जा सकते, क्योंकि प्रमाद मोह की पर्याय है ।
दसविहसच्चे वयणे जो जोगो सो दु सच्चवचिजोगो । तविरोश्रो मोसो जाणुभयं सच्चमोसो ति ॥ २२० ॥ * जो सोव सच्चमोसो सो जारण प्रसच्च मोसवचिजोगो । श्रमणाणं जा भासा सरपणातरणी श्रादी ॥२२॥ *
गाथार्थ दस प्रकार के सत्यवचन में जो योग होता है, वह सत्य वचन योग है। इससे विपरीत योग मृषा वचनयोग है। सत्य-मृषा वचनयोग उभय वचनयोग है। जो वचन न तो सत्यरूप हो और न मृषा ही हो वह असत्यमृषा वचनयोग है। प्रसंज्ञो जीवों की भाषा और संज्ञो जीवों में जो मंत्र आदि भाषा है वह ग्रनुभय भाषा है ।। २२०-२२१॥
१. बबल पु. १ पृ. २८४ । २. धवल पु. १ पृ. २६५ ३. "मोममरण जोगोसच्चमो समणजोगी सएि मिच्छाइट्टि - प्हुडि जाव खीशा कसाय- बीयराय-दुमत्या त्ति ॥५१॥" [त्र. पु. १ पृ. २६५ ] ४. श्रदल पु. १ पृ. २०६६ प्रा. पं. सं. पृ. ११ मा ६१ व पृ. ५७८ गा. ८५ ५. जल पु. १ पृ. २८६ प्रा. पं. स. पू. १९ गा. ९२ व पृ. ५७८ मा. ८६ ॥
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गाथा २२०-२२१
योगमार्गा/२६७
विशेषार्थ-"धचिोगो चउदिवहो सच्चचिजोगो मोसवचिजोगो सच्चमोसचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो चेदि" [धवल पु. १ पृ. २८६] ।
बचनयोग चार प्रकार का है:-सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचन योग और अनुभय वचनयोग । सामान्य बचनयोग और अनुभय वचनयोग द्वीन्द्रिय जीव से लेकर सयोगकेवली तेरहवे गुणस्थान तक होता है।
शा-अनुभय मन के निमित्त से जो वचन उत्पन्न होता है वह अनुभय वचन है, यह पूर्व में कथन किया गया है। ऐसी अवस्था में द्वीन्द्रियादि असंज्ञीजीवों के अनुभय वचनयोग कैसे हो सकता है ?
समाधान - यह कोई एकान्त नहीं है कि सम्पूर्ण बचन मन से ही उत्पन्न होते हैं । यदि सम्पूर्ण वचनों की उत्पत्ति मन से ही मान ली जावे तो मन रहित केवलियों के वचनों का अभाव प्राप्त होगा।
शङ्का-विकलेन्द्रिय जीवों के मन के बिना ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती और ज्ञान के बिना वचनों की प्रवृत्ति नहीं हो सकती ?
___ समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि मन से ही ज्ञान की उत्पत्ति है, यह कोई एकान्त नहीं है। यदि मन से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है यह एकान्त मान लिया जाता है, तो शेष इन्द्रियों से ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि सम्पूर्ण ज्ञान की उत्पत्ति मन से मानते हो । अथवा मन से समुत्पनत्वरूप धर्म इन्द्रियों में रह भी तो नहीं सकता, क्योंकि दृष्ट, श्रुत और अनुभूत को विषय करनेवाले मानस ज्ञान का दूसरी जगह मानने में विरोध पाता है । यदि मन को चक्षु आदि इन्द्रियों का सहकारी कारण माना जाय, तो भी नहीं बनता, क्योंकि प्रयत्न सहित आत्मा के सहकार की अपेक्षा रखने वाली इन्द्रियों से इन्द्रियज्ञान की उत्पत्ति पाई जाती है।
शङ्का-समनस्व जीवों में सो ज्ञान की उत्पत्ति मनोयोग से ही होती है । समाषान-नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर केवलज्ञान से व्यभिचार आता है।
शंका-तो फिर ऐसा माना जाय कि समनस्क जीवों के जोक्षायोपशमिक ज्ञान होता है वह मनोयोग से होता है।
समाधान-यह कोई दोष नहीं, यह तो इष्ट ही है । शंका-मनोयोग से वचन उत्पन्न होते हैं, यह जो पहले कहा गया था, वह कैसे घटित होगा?
समाधान—यह शंका कोई दोषजनक नहीं है, क्योंकि 'मनोयोग से वचन उत्पन्न होता है' यहाँ पर मानस ज्ञान की 'मन' यह संज्ञा उपचार से रखकर कथन किया है।
१. "वचिजोगो प्रमच्चमोसवचिजोगो बीई दियः प्पडि जावसजोगिकेवलि ति ॥५३।।" [धवल पु. १ ३.२५७]। २. धवल पु. १ पृ. २८७ ।
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२६८/मो. सा. जीवकाण्ड
गाया २२२-२२४
शङ्का विकलेन्द्रियों के बचनों में अनुभयपना कैसे प्रासकता है ?
समाधान-विकलेन्द्रियों के बचन अनध्यवसाय रूप ज्ञान के कारण हैं, इसलिए उन्हें अनुभयरूप कहा है।'
शङ्का-विकलेन्द्रियों के वचनों में ध्वनिविषयक अध्यवसाय अर्थात् निश्चय तो पाया जाता है, फिर उन्हें अनध्यवसाय का कारण क्यों कहा जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि यहाँ पर अनध्यवसाय से वक्ता के अभिप्राय विषयक अध्यवसाय का अभाव विवक्षित है।
सत्य वचनयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवली गुणस्थान तक होता है । दसों ही प्रकार के सत्यवचनों के उपयुक्त तेरह गृणस्थानों में पाये जाने में कोई विरोध नहीं आता है, इसलिए उनमें दसों प्रकार के सत्यवचन होते हैं ।
मृषावचनयोग और सत्यमृषाबननयोग संज्ञी मिथ्याष्टि से लेकर क्षीण कषाय-बीतरागछपस्थ गुणस्थान तक पाये जाते हैं।'
शङ्का-जिसकी कापायें क्षीण हो गई हैं ऐसे जीव के वचन असत्य कैसे हो सकते हैं ?
समाधान--ऐसी शंका व्यर्थ है, क्योंकि असत्य बचन का कारण अज्ञान बारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है, इस अपेक्षा से वहाँ पर असत्य वचन के सद्भाव का प्रतिपादन किया है और इसीलिए उभय संयोगज सत्यमृषा वचन भी बारहवें गुणस्थान तक होता है, इस कथन में कोई विरोध नहीं आता।
___ शङ्का-वचनगुप्ति का पूरी तरह से पालन करने वाले कषायरहित जीवों के वचनयोग कैसे सम्भव है ? समाधान नहीं, क्योंकि कषाय रहित जीवों में अन्तर्जल्प के पाये जाने में विरोध नहीं पाता ।"
दृष्टान्तपूर्वक दस प्रकार के सत्य वचन जगवदसम्मदिठवरगाणामे रूवे पटुच्चववहारे । संभावरगे य भावे उवमाए दसविहं सच्चं ॥२२२॥ भत्तं वेवी चंदप्पहपडिमा तह य होवि जिरणदत्तो। सेदो दिग्धो रज्झदि कुरोत्ति य जे हवे वयणं ॥२२३॥ सक्को जंबूदीवं पल्लवि पायवज्जवयणं च । पल्लोवमं च कमसो जगपदसच्चादि दिट्ठता ।।२२४॥
१. धवल पु. १ पृ. २८७। २. "सच्चवचिजोगो सणिमिच्छाइद्वि-प्पटि जाव सजोगि केवलि ति ।।५४॥" [धवल पु. १ पृ. २८८] । ३, "मोसवचि जोगो सच्चमोस वचिजोगो सणिण मिच्छाइट्टि-प्पटुडि जाब खीणाकमाय-वीयराय-छदुमत्था ति ।। ५५।।'' [धवल पृ. १ पृ. २८६] । ४. धवल पु. १ पृ. २८६ ।
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गाथा २२२-२२४
योगमार्गगा / २६६
गाथार्थ - जनपद सत्य, सम्मति सत्य, स्थापना सत्य, नाम सत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यसत्य, व्यवहार सत्य, सम्भावना सत्य भाव सत्य, उपमा सत्य । यह दस प्रकार का सत्य है । जैसे ( १ ) भक्त, (२) देवी ( ३ ) श्री चन्द्रप्रभु प्रतिमा, (४) जिनदत्त, (५) श्वेत ( ६ ) लम्बा, बडा, (७) भात पकता है, (६) इन्द्र जम्बूद्वीप को उलटा कर सकता है, (६) पाव वचन, (१०) पल्योपम ; ये क्रमसे जनपद सत्य श्रादि के दृष्टान्त हैं ||२२२-२२४ ।।
विशेषार्थ - ( १ ) जिस देशमें जो शब्द रूढ़ हो रहा है या प्रवृत्ति में प्रारहा है वह जनपदसत्य है, जैसे श्रोदन को महाराष्ट्र में भातु कहते हैं, प्रांध्रप्रदेश में वंटक या मुकूडु कहते हैं । कर्णाट देशमें 'कुलु' कहते हैं । द्रविड़ देश में 'चोर' कहते हैं। इस प्रकार श्रोदन भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न नामों से कहा जाता है। जिस देश में 'प्रोदन' जिस नाम से कहा जाता है उस देश मे वह शब्द जनपद सत्य है । ( २ ) संवृति अर्थात् कल्पना और सम्मति अर्थात् बहुत मनुष्य उसी प्रकार मानते हैं अथवा सर्वदेश में समान रूप से रूढ़ नाम संवृति सत्य है, इसी को सम्मति सत्य भी कहते हैं जैसे पटरानी के अतिरिक्त अन्य महिलाओं को देवी कहना । (३) एक वस्तु में अन्य वस्तु की स्थापना करके उसे मुख्य वस्तु के नाम से कहना स्थापना सत्य है जैसे श्री चन्द्रप्रभ तीर्थंकर की प्रतिमा को श्री चन्द्रप्रभ कहना 1 ( ४ ) अन्य अपेक्षा रहित मात्र व्यवहार के लिए किसी का नाम रखना । जैसे मात्र व्यवहार के लिए किसी व्यक्ति का नाम जिनदत्त रख देना । यद्यपि वह जिनके द्वारा दिया हुआ नहीं है तथापि मात्र व्यवहार के लिए जिनदत्त कहा जाता है। ( ५ ) यद्यपि पुद्गल में अनेक गुण हैं तथापि रूप की मुख्यता से कहना रूप सत्य है, जैसे मनुष्य में स्पर्श-रस-गंध व यादि अनेक गुण विद्यमान हैं तथापि गोरा रूप होने के कारण गोरा मनुष्य कहना । इसमें व गुरण की मुख्यता है अन्य गुण गौण हैं । यह रूप सत्य है । ( ६ ) अन्य वस्तु की अपेक्षा से विवक्षित वस्तु को हीन या अधिक कहना वह प्रतीत्य सत्य है इसको श्रापेक्षिक सत्य भी कहा जाता है । जैसे यह दीर्घ है सो ह्रस्व की अपेक्षा दीर्घ कहा गया है । यद्यपि दीर्घ की अपेक्षा वह लघु भी है, परन्तु उसकी विवक्षा नहीं है। ( ७ ) नैगमादि नयों
से किसी नय की मुख्यता से वस्तु को कहना बहू व्यवहार सत्य है । जैसे नंगम नय की मुख्यता से 'भात पक रहा है।' यद्यपि चावलों के पकने के पश्चात् भात होगा । परन्तु भात पर्याय रूप परिणमन होने वाला है, भ्रतः नैगम नय की अपेक्षा उसको भात कहने में कोई दोष नहीं है । यह व्यवहार सत्य है । अथवा संग्रह नय की अपेक्षा सर्वपदार्थ सत् रूप हैं क्योंकि सत् कहने से सर्व पदार्थों का ग्रहण हो जाता है यह भी व्यवहार सत्य है । (८) श्रसम्भव का परिहार करता हुआ सम्भावना की अपेक्षा वस्तु-धर्म का विधान करना सो सम्भावना सत्य है जैसे इन्द्र में जम्बूद्वीप को उलटने की शक्ति है । यद्यपि इन्द्र ने जम्बुद्वीप को न कभी उलटा है और न उलटेगा तथापि इन्द्र की शक्ति के विधान की अपेक्षा यह सत्य है । यह सम्भावना सत्य है । इसमें क्रिया की अपेक्षा नहीं रहती, क्योंकि क्रिया श्रनेक बाह्य कारणों के मिलने पर उत्पन्न होती है । ( ६ ) अतीन्द्रिय पदार्थ के सम्बन्ध में सिद्धान्तवचन अनुसार विधि व निषेध का संकल्प रूप परिणाम सो भाव है । उस भाव को कहने वाले वचन भाव सत्य हैं। जैसे जो सूख गया है या अग्नि में पकाया गया है या यंत्र द्वारा छिन्न-भिन्न किया गया है अथवा खटाई वा नमक से मिश्रित वस्तु प्रासुक है; इसका सेवन करने से पाप नहीं होता ऐसा पापवर्जनरूप वचन भाव सत्य है । यद्यपि उसमें इन्द्रिय ग्रेगोचर सूक्ष्म जीवों की सम्भावना हो सकती है किन्तु प्रतीन्द्रिय ज्ञानी ने श्रागम में प्रासूक कहा है अतः उनको प्राक कहना भाव सत्य है । (१०) जो किसी प्रसिद्ध पदार्थ की समानता श्रन्य पदार्थ में कहना वह उपमा सत्य है । अथवा दूसरे प्रसिद्ध सदृश पदार्थ को उपमा कहते हैं । उपमा के आश्रय से जो वचन बोले
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३००/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २२५-२२७
• जाते हैं वे उपमा सत्य हैं; अंस पहलोपम: स्य नाम गडढे का है। जिसने असंख्यातासंख्यात रोम
के अग्रभाग उस गड्ढे में आते हैं, उतने असंख्यातासंख्यात समय प्रमाण काल को पल्योपम काल कहते हैं।
अनुमयवचन के भेदों का कथन आमंतरिग पारणवरणी याचरिण यापुच्छरणीय पण्णवरणी। पच्चक्खाणी संसयययणी इच्छाणुलोमा य ॥२२॥ णवमी अणक्खरगदा असच्चमोसा हवंति भासाओ।
सोदाराणं जम्हा वत्तावत्तं ससंजराया ॥२२६।। गाथार्थ-आमंत्रणी, आज्ञापनी, याचनी, आपृच्छनी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी, संशयवचनी, इच्छानुलोम्नी, अनारगता ये मव प्रकार की अनुभयात्मक भाषा है, क्योंकि सुनने वाले को व्यक्त और अव्यक्त दोनों ही अंशों का ज्ञान होता है ।।२२५-२२६।।
विशेषार्थ-~"हे देवदत्त यहाँ पायो" इस प्रकार के बुलाने वाले बचन प्रामंत्रणी भाषा है। 'यह कार्य करों इत्यादि प्राज्ञारूप वचन आज्ञापनी भाषा है। यह मुझको दो' इत्यादि याचनारूप वचन याचनीभाषा है । "यह क्या है" इत्यादि प्रपनारमक वचन आपृच्छनी भाषा है। "मैं क्या करूँ" इत्यादि सूचनात्मक बचन प्रज्ञापनी भाषा है। "मैं यह त्याग करता हूँ" ऐसे त्याग या परिहार रूप वचन प्रत्याख्यानी भाषा है । 'यह बकपंक्ति है या ध्वजा पंक्ति है' इस प्रकार के संशयात्मक वचन संशयवचनी भाषा है । 'मुझे भी ऐसा ही होना चाहिए' इस प्रकार की इच्छा व्यक्त करने वाले बचन इच्छानुलोम्नी भाषा है । द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीवों की अनक्षरात्मक भाषा होती है, जो अपनी-अपनी समस्या रूप संकेत को व्यक्त करने वाली है। यह नवमी अनक्षरगत भाषा है । यह नी प्रकार की भाषा अनु भय वचन रूप है, क्योंकि इनके सुनने से व्यक्त और अव्यक्त दोनों ही अंशों का बोध होता है। सामान्य अंश व्यक्त होने से ये भाषाएँ असत्य भी नहीं हैं और विशेष अंश व्यक्त न होने से ये सत्य भी नहीं हैं।
शा-अनक्षरी भाषा में सामान्य अंश भी व्यक्त नहीं है, फिर उसमें अनुभयवचनपना कैसे संभव है?
समाधान--बोलने वाले का अनक्षर भाषा द्वारा पुख-दुःखादि के अलवन द्वारा हर्ष आदि का अभिप्राय जाना जाता है। अतः अनक्षरी भाषा में भी सामान्य अंश व्यक्त है। अनक्षरी भाषा वाले जीवों के संकेत रूप वचन होते हैं, उन वचनों द्वारा उनके सुख-दुःख के प्रकरण आदि का अवलम्बन करके उसके माध्यम से उनके हर्ष श्रादि का अभिप्राय जाना जाता है ।
चारों प्रकार के मनोयोग तथा वचनयोग का मूल कारगर मणवयरगाणं मूलरिणमित्तं खलु पुण्णदेहउदो दु ।
मोसुभयाणं मूलरिणमित्तं खलु होदि आवरणं ॥२२७॥ १. सिद्धान्त चक्रवर्ती श्रीमदभयचन्द्र मूरि टीका अनुसार । २. सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमदभयचन्द्रकृत टीका अनुसार ।
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गाथा २२८-२२६
योगमार्गगणा/३०१
गाथार्थ - (सत्य व अनुभय) मनोयोग और वचनयोग का मूल कारण पर्याप्ति नामकर्म का उदय और शरीर नामकर्म का उदय है । मृषा व उभय मनोयोग और वचन योग का मूल कारण प्रावरण का तीन अनुभागोदय है ।।२२७।।
विशेषार्थ · गाथा के पूर्वार्ध में यद्यपि सामान्य मन व बचन यांग का कथन है किन्तु सामान्य मन व वचन से सत्ता ब अनभय मनोयोग और वचनयोग का ग्रहण होता है क्योंकि विशेष के बिना सामान्य 'स्वरविषारण बत्' है।' मृषा और उभय का कथन गाथा के उत्तरार्ध में किया गया है इसलिये भी पूर्वार्ध में सामान्य से सत्य व अनभय का ग्रहण होता है। मषा व उभय मनोयोग और वचनयोग का मुख्य कारण आवरणकर्म के अनुभाग का उदय है अन्यथा क्षीणमोह बारहवें गणस्थान में मृषा व उभय मनोयोग और बचनयोग का कथन न किया जाता। मात्र मोहनीय कर्म ही मृषा व उभय मनोयोग और वचनयोग का कारण नहीं है, यद्यपि केबली भगवान के यथार्थ ज्ञान होने से सत्य बचनयोग तो संभव' है तथापि केवली के बचनों के निमित्त से श्रोता को संशय और अनध्यवसाय की उत्पत्ति हो सकती है क्योंकि श्रोता क्षायोपशमिक ज्ञान वाला तथा अतिशय रहित है इसलिए केवली के अनुभयवचन योग भी सिद्ध हो जाता है।'
___सयोगकेवली के मनोयोग की सम्भावना मणसहियाणं वयणं दिट्ठ तप्पुयामिदि सजोगाए । उत्तो मणोधयरेरिंगदियणाण होगम्मि ॥२२८।। अंगोवंगुदयादो दवमरण? जिरिंणदचंदाह्म ।
मरगवागरणखंधाणं आगमरणादो दु भणजोगो ॥२२६।। गाथार्थ--मनसहित जीवों के वचन प्रयोग मनोज्ञान पूर्वक ही होता है अतः इन्द्रियज्ञान रहित सयोगकेबली में उपचार से मनोयोग कहा गया है। अङ्गोपाङ्ग नामकर्मोदय से द्रव्य मन होता है, उस द्रव्य मन के लिये केबली भगवान के मनोवर्गणाओं का आगमन होता है, इसलिए भी मनोयोग कहा गया है ॥२२८-२२६।।
विशेषार्थ- शङ्खा केवली के अतीन्द्रिय ज्ञान होता है, इसलिए उनके मन नहीं पाया
जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि उनके द्रव्य मन का सद्भाब पाया जाता है ।
शङ्का-केवली के द्रव्यमन का सद्भाव रहा भावे, परन्तु वहाँ पर उसका कार्य नहीं पाया जाता है ?
समाधान द्रव्य मन के कार्यरूप क्षायोपशामिक ज्ञान का अभाव भले ही रहा ग्रावे, परन्तु द्रव्य मन के उत्पन्न करने में प्रयत्न तो पाया जाता है, क्योंकि द्रव्य मन की बर्गरगानों को लाने के लिए होने वाले प्रयत्न में कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं पाया जाता। इसलिए यह सिद्ध हुया कि उस मन के निमित्त से जो आत्म-परिस्पन्द रूप प्रयत्न होता है, वह मनोयोग है।
१. "निविशेप हि सामान्यं भवेत् ख र विषाणवत ।" [अालापपद्धति गा.६] । २. धवल पु. १ पृ. २८३ ।
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३०२/गो. सा. जीवकापड
गाथा २३०-२३१ शङ्का-केवली के द्रव्य मन को उत्पन्न करने में प्रयत्न विद्यमान रहते हुए भी वह अपने कार्य को क्यों नहीं करता है?
समाधान-नहीं, क्योंकि केवली के मानसिक ज्ञान के सहकारी कारण रूप क्षयोपशम का अभाव है, इसलिए उनके मनोनिमित्तक ज्ञान नहीं होता है।
शङ्कर-जबकि केबली के यथार्थ में अर्थात् क्षायोपशमिक मन नहीं पाया जाता है, तो उससे सत्य और अनुभय इन दो प्रकार के वचनों की उत्पत्ति कसे हो सकती है ?
समाधान --नहीं, क्योंकि उपचार से मन के द्वारा उन दोनों प्रकार के वचनों की उत्पत्ति का विधान किया गया है।
सौदारिक काययोग और औदारिक मिश्रयोग पुरुमहदुदारुराल एयट्ठो संविजाण तह्मि भवं । औरालियं तमुच्चइ पौरालियकायजोगो सो ॥२३०॥ पोरालिय उत्तत्थं विजाण मिस्संत अपरिपुण्णं तं ।
जो तेरण संपजोगो पोरालियमिस्सोगो सो ॥२३॥ गाथार्थ-पुरु, महान् उदार और उराल ये शब्द एकार्थवाचक हैं। उदार में जो होता है वह प्रौदारिक है और उसके निमित्त से होने वाला योग प्रौदारिक काययोग है ।।२३०।।
हे भव्य ! ऐसा जानो कि जिसका पहले स्वरूप कहा है. वही शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता है अर्थात् शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है तब तक मिश्र है और उसके द्वारा होने बाले योग को श्रीदारिक मिश्र योग कहते हैं ।।२३१॥
विशेषार्थ-औदारिक शरीर द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीवप्रदेशों में परिस्पन्द का कारणभूत जो प्रयत्न होता है वह औदारिककाययोग है। कार्मरण और औदारिक वर्गणाओं के द्वारा उत्पन्न हुए वीर्य से जीव के प्रदेशों में परिस्पन्द के लिए जो प्रयत्न होता है वह औदारिकमिधकाययोग है। उदार, पुर और महान् ये एक ही अर्थ के वाचक शब्द हैं। उसमें जो शरीर उत्पन्न होता है वह प्रौदारिक शरीर है।
शङ्का-प्रौदारिकगरीर महान् है, यह वात नहीं बनती है, क्योंकि वर्गणा खण्ड में कहा है-- *प्रौदारिकशरीर द्रव्य संबन्धी वर्गणाओं के प्रदेश सबसे अल्प हैं । उससे असंख्यातगुणे वैक्रियिकशरीर १. धवल पु. १ पृ. २८४ व २८५। २. ये दोनों गाथाएँ धवल पु. १ पृ. २६१ पर गाथा १६० व १६१ है तथा प्रा.पं.सं. ५२० पर गाथा ६३ व १४ है किन्तु कुछ अक्षरों में अन्तर है। ३. यवल पृ. १ पृ. २८१ व २६ । ४. "पदेसअप्पाबहुए ति सवयोवामो श्रीरालियसरीरदव्वयगणाप्रो पदेस ट्ट दाए ।।७८५।। वे उवि यसरीर दब्वबम्मरणामो पदेसदाए प्रसस्नेज्जगुणाग्रो ॥७८६।। प्राहारसरीर दत्ववमहाशी पदेसवाए कसंखेज्जगुणायो ।७८७।। तेजासरीरदव्य वम्गरगायो पदेसट्ठदाए प्रपंतगुणाभो ।।७८८|| भासा-ममा-क.म्म यसरदाववागणाम्रो पदेसठ्ठदाए प्रपंतमुरणामो ||७८६| धवल पु. १४ पृ. ५६०-५६२] ।
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गाथा २३०-२३१
योगमार्गरण:/३०३
द्रव्यसंबन्धी वर्गणा के प्रदेश हैं । उससे असंख्यातगुणे माहारकशरीर द्रव्यसंबन्धी वर्गणा के प्रदेश हैं । उससे अनन्तगुणे तेजसशरीर द्रव्य संबन्धी वर्गणा के प्रदेश हैं। उससे अनन्तगुरणे भाषाद्रव्यवगंगा के प्रदेश हैं। उससे अनन्तगुरो मनोद्रव्यवर्गणा के प्रदेश हैं और उससे अनन्तगुणे कार्मणशरीर द्रव्यवर्गणा के प्रदेश हैं।"
समाधान-प्रकृत में ऐसा नहीं है, क्योंकि अवगाहना की अपेक्षा औदारिकशरीर को स्थलता बन जाती है। जैसाकि वर्गणा खण्ड में कहा है- १कार्मारा शरीर संबन्धी द्रव्यवर्गणा की अवगाहना सबसे सूक्ष्म है । मनोद्रव्य वर्गणा की अवगाहना इससे असंख्यातगुणी है । भाषाद्रव्यवर्गणा की अवगाहना इससे असंख्यातगुरगी है। तेजस शरीर संबन्धी द्रव्यवर्गणा की अवगाहना इससे असंख्यातगुणी है। प्राहारशरीरसंबन्धी द्रव्यवर्गणा की अवगाहना इससे असंख्यातगुणी है। वैक्रियिक शारीर संबन्धी द्रव्यवर्गणा की अवगाहना इससे असंख्यातगुणी है । औदारिक शरीर संबन्धी द्रव्यवर्गणा . की अवगाहना इससे असंख्यातगुणी है।
अथवा अवगाहना की अपेक्षा उगल है। पोप शीरों की प्रगाहमा परा शरीर की अबगाहना बहुत है, इसलिए प्रौदारिकशरीर उराल है।
शङ्का--इसकी अवगाहनाके बहुत्व का ज्ञान कैसे होता है ?
समाधान—क्योंकि महामत्स्य का प्रौदारिक शरीर पांच सौ योजन विस्तार वाला और एक हजार योजन अायाम वाला होता है। इससे इसकी अवगाहना का बहुत्व जाना जाता है।
___ शङ्का-सूक्ष्मपृथिवी, जल, अग्नि, वायु और साधारण शरीरों के स्थूलपने का अभाव है। उन सूक्ष्मपृथिवी आदि शरीरों में औदारिक शरीर कैसे सम्भव है ?
समाधान नहीं; क्योंकि सूक्ष्मतर वैक्रियिक शरीर प्रादि की अपेक्षा सूक्ष्मशरीरों में अर्थात सूक्ष्म पृथिवीकायिक प्रादि जीवों के सूक्ष्मशरीरों में स्थूलपना बन जाता है अथवा परमागम में सूक्ष्म पृथिवीकायिक आदि जीवों के शरीर को औदारिक कहा है।
शङ्खा---उदार शब्द से उराल शब्द की निष्पत्ति होने पर प्रौदारिक शरीर की महत्ता कैसे वनती है?
समाधान--क्योंकि प्रौदारिक शरीर निवृत्तिगमन का हेतु है और अठारह हजार शीलों की उत्पत्ति का निमित्त है, इसलिए इसकी महत्ता बन जाती है।
शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पूर्व अन्तर्मुहूर्त काल तक औदारिक मिश्रकाययोग होता है, क्योंकि उस समय मात्र औदारिक वर्गणाओं के निमित्त से प्रात्म-प्रदेश परिस्पन्द नहीं होता, किन्तु
१. "प्रोग्याहरायप्पाबहुए नि सब्वत्थोदाम्रो कम्मइयसरीरदश्ववग्गणाग्रो प्रोगाहगाए ।।७६०|| मरणदानवग्गणामो प्रोगाणाए प्रसंखेज्ज गुणासो ६१॥ मासादयवग्गणाप्रो प्रोगाहरणाए असंवेज्जगुणायो ।।७६२६ तेजासरीरदबव रगरगामी प्रोगाहणाए असंखेज्जगुगायो ||७६३॥ माहारसरीरदब्वबग्गरायो योगाहणाए असंखेज्जगुरणपो ॥७६४।। वेवियगरीर दव्य वरगरणामो घोगाहगाए असखेज्जगुरायो ।।७६५।। योरालियसरीरपव्वदागरणायो प्रोगाहणाए असंखेज्जगुहाप्रो ॥७६६||" बदल गु. १४ पृ. ५६२-५६४ । २. धवल पु. १४ पृ. ३२२। ३. सिद्धान्तनवती थीमदमयचन्द्र कृत टीका। ४. धवल पू. १४ पृ. ३२३ ।
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३०४ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २३२-२३३
कर्मशरीर के संबन्ध से युक्त होकर ही श्रदारिक वर्गणाओं से योग होता है। श्रदारिक वर्गणा और कार्मणवर्गणा इन दोनों के निमित्त से योग होता है, अत: यह प्रदारिक मिश्र काययोग है । औदारिक काययोग और श्रदारिकमिश्रकाययोग तिर्यंचों और मनुष्यों के होता है । " शङ्का -- देव और नारकियों के औौदारिकशरीर नामकर्म का उदय क्यों नहीं होता ?
समाधान- नहीं होता, क्योंकि स्वभाव से ही उन के श्रीदारिक शरीर नामकर्म का उदय नहीं होता | अथवा देवगति और नरकगति नामकर्म के उदय के साथ औदारिक शरीर नामकर्म का विरोध है, इसलिए उनके औदारिक शरीर का उदय नहीं पाया जाता । फिर भी तियंचों और मनुष्यों के प्रदारिक और औदारिक मिश्रकाययोग ही होता है ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि इस प्रकार का नियम करने पर तिर्यंचों और मनुष्यों में कार्यंणकाययोग आदि के प्रभाव की आपत्ति आ जाएगी । इसलिए प्रदारिक और औदारिकमिश्र काययोग मनुष्यों के और तिचों के ही होता है, ऐसा नियम जानना चाहिए।
वैक्रियिक काययोग और वैक्रियिक मिश्रकाययोग
विविहगुरण इड्डितं विविकरियं वा हु होदि वेगुध्वं । तिस्से भवं च णेयं बेगुब्वियकायजोगो सो ॥ २३२ ॥ ३ वेगुव्वियत्तत्थं विजारण मिस्सं तु अपरिपुष्णं तं । जो तेरण संपजोगो गुव्विय मिस्सजोगो सो ॥ २३३॥ *
गाथार्थ–विवध गुण-ऋद्धियों से युक्त प्रथवा विशिष्ट क्रियावाला शरीर विक्रिय अथवा विमुर्व है । उसमें उत्पन्न होने वाले योग को वैगुर्विक वैक्रियिक काययोग जानना चाहिए। हे भव्य ! जब तक उक्त स्वरूपवाले वैऋियिक शरीर की पर्याप्त अपरिपूर्ण रहती है तब तक वक्रियिक मिश्रकाय जानना चाहिए। और उसके द्वारा होने वाला संप्रयोग वैकियिक मिश्र काययोग है ।।२३२-२३३ ।।
विशेषार्थ - विविध गुण - ऋद्धियों से युक्त है इसलिए वैऋियिक है । * रिंगमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व, वशित्व और कामरूपित्व इत्यादि अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ हैं। इन ऋद्धि गुणों से युक्त है, ऐसा समझकर वैश्रिधिक है, ऐसा कहा है ।
विविध अर्थात् नाना प्रकार की शुभ-अशुभ रूप अणिमा महिमा आदि गुण, उनकी ऋद्धि अर्थात् महत्ता से संयुक्त देवनारकियों का शरीर वह वैगुर्व है, वैगुर्विक या वैक्रियिक है। जिसमें
१. "ओरालियकाय जोगो श्रोरालिय मिस्स कायजोगो तिरिषद मणुरसारणं ॥ ५७॥ " ३. घदल पु. १ पृ. २६१ गाथा १९२ व प्रा. पं.स. पू. २१
।
२. ष. पु. १ पृ. २९५-२६६ । है किन्तु कुछ शब्द भेद है गाथा ६० है किन्तु शब्द भेद नं. २३३ पर लिखी गई है । ६. धवल पु. १४ पृ. ३२५ ।
[ घबल पु. गाधा ६५
१ पृ. २६५ ] | पृ. ५७८ गाया
४. घवल पु. १ पृ. २६२ गाथा १६३ व प्रा.पं.सं. पू. २१ गाथा ६६ व पृ. ५७८ यह गाथा नं. २३४ है किन्तु धमल व पंचसंग्रह की गाथाओं के अनुसार यह ५. "विविहइङ्किगुण जुत्तमिदि वेजविषयं ।। २३८ ।। श्रवल पु. १४. ३२५ ] /
I
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गाथा २३४
योगमागंगा/३०५ नानाप्रकार के गुग से वह बिगुर्व है। जिसका प्रयोजन विगुर्व है वह वैगुर्षिक है। अथवा विविध नाना प्रकार की क्रिया व अनेक अणिमा आदि विकार का नाम विक्रिया है। जिसका प्रयोजन विक्रिया है वह वैक्रियिक है। उस वैक्रियिक शरीर के लिए, उस शरीर रूप परिणमने योग्य वैऋियिक पाहार वर्गणामों के ग्रहण से उत्पन्न हुई शक्ति से जीवप्रदेशों में परिस्पन्द का कारणभूत जो प्रयत्न होता है वह वैक्रियिक काययोग है। जब तक वक्रियिक शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक कार्मण और वैक्रियिक वर्गणाओं के द्वारा उत्पन्न हुए वीर्य से जीवप्रदेशों में परिस्पन्द के लिए जो प्रयत्न होता है वह वैक्रियिक मिश्र काययोग है। अन्तमुहर्त प्रमाण अपर्याप्त काल में मात्र वक्रियिक वर्गणाओं के निमित्त से प्रात्मप्रदेशों में परिस्पन्द नहीं होता, किन्तु कार्मणशरीर के सम्बन्ध से युक्त होकर ही वैक्रियिक शारी सम्बन्धी परतों के निमित्त से योग होता है, इसलिए यह मिश्रयोग है ।
वक्रियिक काययोग की सम्भावना कहाँ-कहाँ बादर-तेऊवाऊपंचिदियपुण्णगा विगुवंति ।
पोरालियं सरीरं विगुन्धरणप्पं हये जेसि ।।२३४॥ गाथार्थ-बादर तेजकायिक-वायुकायिक और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव प्रौदारिफ शरीर द्वारा विक्रिया करते हैं इनमें से जिनके शरीर में यह योग्यता पाई जाती है वे विक्रिया करते हैं ।।२३४१५
विशेषार्थ-देव और नारकियों में वक्रियिक काययोग और वैक्रियिक मिश्र काययोग होता है ।
शङ्का-तिर्यंचों और मनुष्यों के इन दोनों योगों का उदय क्यों नहीं होता?
समाधान-नहीं, क्योंकि तिर्यंचगति और मनुष्यगति कर्मोदय के साथ वैक्रियिक शरीर नामकर्म के उदय का विरोध आता है अर्थात् तिर्यंच और मनुष्यगति में वक्रियिक शरीर नामकर्म का उदय नहीं होता, यह स्वभाव है। इसलिए तिर्यंच और मनुष्यों के वैक्रियिक काययोग और बैंक्रियिकमिश्र काययोग नहीं होता।
शङ्का-तिर्यंच और मनुष्य भी वैक्रियिक शरीरवाले सुने जाते हैं। वह कैसे संभव होगा?
समाधान-नहीं, क्योंकि औदारिक शरीर दो प्रकार का है, विक्रियात्मक और प्रतिक्रियात्मक । जो विक्रियात्मक औदारिक शरीर है वह मनुष्यों और तिर्यंचों के वैफियिक रूप से कहा गया है किन्तु उसमें नाना गुण और ऋद्धियों का अभाव होने के कारण उसको वैक्रियिक शरीर में ग्रहण नहीं किया गया।
चार शरीर जिनके होते हैं, वे चार शरीरवाले जीव हैं। शङ्खा --वे चार शरीर कौन-कौनसे हैं ?
१. श्रीमदभवचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत टीका। २. यद्यपि यह गाथा २३३ नं. पर है किन्तु धवल ग्रंथ की दृष्टि से इसको नं. २३४ दिया है। ३. "वेब्वियकायजोगो वेउब्विय मिस्सकाय जोगो देवणेरइयाणं ।।५८॥" [घवल पु. १ पृ. २९६] ।
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३०६/गो. सा, जीवनागड
गाथा २३५-२३०
समाधान-ग्रौदारिकगरीर-वैऋियिक शरीर-तैजसशरीर और कार्मणशरीर; अथवा औदारिकशरीर-ग्राहारकशरीर-तैजस शरीर-कार्मरण शरीर; इनके साथ विद्यमान चार शरीर वाले जीव होते हैं।'
__ योगमार्गरणा के अनुवाद से पांचों मनोयोगो, पाँचों वचनयोगी और औदारिक काययोगी जीव तीन शरीर वाले और चार शरीर वाले होते हैं ।
शङ्का-उत्तर शरीर की बिक्रिया करने वाले जीवों के औदारिक काययोग कैसे सम्भव है ? समाधान नहीं, क्योंकि उत्तर शरीर भी औदारिककाय है ।
शङ्खा-औदारिक शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुए विक्रिया स्वरूप शरीर का औदारिकपना नहीं रहता?
समाधान—यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा होने में विरोध प्राता है।'
परन्तु विवक्षावश अन्यत्र ऐसा भी कहा है कि यह विबिया रूप शरीर भी औदारिक है, हेसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि बिक्रिया रूप शरीर को औदारिक होने का निषध है । वैक्रियिकशरीर मामकर्म का उदीरणा काल जघन्य से एक समय मात्र है, क्योंकि तिर्यंचों या मनुष्यों में एक समय के लिए उत्तर शरीर को विक्रिया करके द्वितीय समय में मृत्यु को प्राप्त हुए जीव के एक समय काल पाया जाता है।' अग्निकायिक, वायुकायिका, बादर अग्निकायिक, बादरवायुकायिक, उनके पर्याप्त, सकायिक और सकायिक पर्याप्त जीवों में विक्रिया करनेवाले जीव होते हैं, इसलिए उनमें वैश्रियिक शरीर सम्भव है।
पाहारक काययोग और आहारक मिश्रयोग पाहारस्सुदयेण य पमत्तविरदस्स होवि पाहार । असंजमपरिहरराट्ट संदेहविरणासण्टुं च ॥२३५।। रिणयसेसे केवलिवुगविरहे रिपक्क मरणपहुदिकल्लाणे। परखेत्त संविते जिजिरणधरवंदरगट्ट च ॥२३६।। उत्तमअंगम्हि हवे धाबुबिहीणं सुहं असंहणणं । सुहसंठाणं धवलं हत्थपमाणं पसत्थुदयं ।।२३७।। प्रवाघादी अंतोमुहृत्तकालट्ठिदी जहप्पिणदरे । पज्जत्तीसंपुण्णे मरणंपि कदाचि सभवाइ ॥२३८।।
१. घबल पु. १४ पृ. २३८ । २. “जोगाणवादेण पंचमरण जोगी पंचवचि जोगी प्रोगलिय कायजोगी अत्धि जीवा तिसरीरा चदु सरीरा ॥१४४॥" [धवल पु. १४ पृ. २४२] । ३. धवल पु. १४ पृ. २४२-२४३ । ४. धवल पृ. १४ पृ. ४०२१ ५. श्रवल पु. १५ पृ. ६४ । ६. धवल पृ. १४ पृ. २४२ ।
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गाय। २९६-२४०
योगमार्गला/३०७
पाहरदि प्रणेग मुरगी सुहमे अत्थे सयस्स सदेहे । गत्ता केवलिपासं तम्हा पाहारगो जोगो ॥२३६॥' पाहारयमुत्तत्थं विजाण मिस्सं तु अपरिपुण्णं तं । जो तेग संपजोगो प्राहारयमिस्सजोगो सो ॥२४०॥'
गाथार्थ-असंयम के परिहार तथा सन्देह को दूर करने के लिए प्रमत्तसंयत मुनि के आहारक शरीरनामकर्मोदय से पाहारक शरीर होता है ।।२३५॥ निज क्षेत्र में केवली विक (केवली व श्रतकेवली) का अभाव होने पर किन्तु दूसरे क्षेत्र में सद्भाव होने पर तप आदि कल्याणकों के दर्शन के लिए और चैत्य व चैत्यालय की वन्दना के लिए भी पाहारक शरीर उत्पन्न होता है ॥२३६।। यह आहारक शरीर उत्तमाङ्ग से उत्पन्न है, सप्त धातुओं से रहित है, शुभ है, संहनन से रहित है, शुभ संस्थान वाला है, धवल है, एक हस्त प्रमाण अवगाहना बाला है, प्रशस्त नामकर्मोदय का कार्य है ॥२३७।। व्याघात से रहित है, इसकी जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण है। पर्याप्ति के पूर्ण होने पर कदाचित् मरण भी सम्भव है ।।२३८॥सपने को सन्देह होने पर मुनि इस शरीर के द्वारा केबनी के पास जाकर सूक्ष्म पदार्थ का आहरण (ग्रहण) करता है, इसलिए इस शरीर के द्वारा होने वाला योग आहारककाययोग है ।।२३६।। उक्त स्वरूपवाला पाहारक शरीर जव तक अपर्याप्त रहता है तब तक वह आहारकमिथ है। उसके द्वारा होनेवाला संप्रयोग वह पाहारकमिश्र काययोग है ।।२४०॥
विशेषार्थ-3जिसके द्वारा आत्मा सूक्ष्म पदार्थों को ग्रहण करता है अर्थात् आत्मसात् करता है वह आहारक शरीर है। उस पाहारक शरीर से जो योग होता है, वह पाहारककाययोग है।
शङ्का-दारिक स्कन्धों से सम्बन्ध रखनेवाले जीवप्रदेशों का हस्तप्रमाण, शंख के समान धवल बर्णवाले और शुभ अर्थात् समचतुरस्र संस्थान से युक्त अन्य शरीर के साथ कैसे सम्बन्ध हो सकता है?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीव के प्रदेश अनादिकालीन बन्धनों से बद्ध होने के कारण मूर्त हैं, अतएव उनका मूर्त आहारक शरीर के साथ सम्बन्ध होने में कोई विरोध नहीं आता है । और इसीलिए उनका फिर से प्रौदारिक शरीर के साथ संघटन होना भी विरोध को प्राप्त नहीं होता है।
शङ्का-जीब का शरीर के साथ सम्बन्ध करने वाला आयु कर्म है 1 जीव तथा शरीर का परस्पर वियोग होना मरण है। इसलिए जिसकी आयु नष्ट हो गई है ऐसे जीव की फिर से उसी शरीर में उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध प्राता है अत: जीव का प्रौदारिक शरीर के साथ पुनः संघटन नहीं बन सकता। अर्थात् एक बार जीवप्रदेशों का पाहारक शरीर के साथ सम्बन्ध हो जाने के पश्चात् पुनः उन प्रदेशों का पूर्व औदारिक शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता?
१.व २. धवल पु. १ पृ. २६४; प्रा.पं.सं. पृ. २१ गाथा १७-६% ।
३. धवल पु. १ पृ. २९२ 1
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३०८/गो. सा. जीवकाण्ई
माथा २३५-२४० समाधान नहीं, क्योंकि पागम में जीव और शरीर के वियोग को मरण नहीं कहा गया। अन्यथा उनके संयोग को उत्पत्ति मानना पड़ेगा।
शड्डा-जीव और शरीर का संयोग उत्पत्ति रहा पावे, इसमें क्या हानि है ?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि पूर्व भव में ग्रहण किये हुए पायुकर्म के उदय होने पर जिन्होंने उत्तर भव सम्बन्धी आयुकर्म का बन्ध कर लिया है और भुज्यमान प्रायु से सम्बन्ध छूट जाने पर भी जिन्होंने पूर्व अथवा उत्तर इन दोनों शरीरों में से किसी एक शरीर को प्राप्त नहीं किया है ऐसे जीवों की उत्पत्ति पाई जाती है। इसलिए जीव और शरीर के संयोग को उत्पत्ति नहीं कह सकते।
शङ्का-उत्पत्ति इस प्रकार की रह आवे, फिर भी मरण तो जीव और शरीर के वियोग को ही मानना पड़ेगा?
समाधान—यह कहना ठीक है, तो भी जीव और शरीर का सम्पूर्ण रूप से वियोग ही मरण कहा जा सकता है। उनका एकदेश से वियोग होना मरण नहीं कहा जा सकला, क्योंकि जिनके कण्ठ पर्यन्त जीवप्रदेश संकुचित हो गये हैं ऐसे जीवों का भी मरण नहीं पाया जाता है। यदि एकदेश वियोग को भी मरण माना जावे तो जीवित शरीर से छिन्न होकर जिसका हाथ अलग हो गया है उसके साथ व्यभिचार दोष या जाएगा। इसी प्रकार पाहारक शरीर को धारण करना, इसका अर्थ सम्पूर्ण रूप से औदारिक शरीर का त्याग करना नहीं है, जिससे आहारक शरीर को धारण करने वाले का मरण माना जावे।
यह पाहारक शरीर सूक्ष्म होने के कारण गमन करते समय वैक्रियिक शरीर के समान न तो पर्वतों से टकराता है, न शस्त्रों से छिदता है और न अग्नि से जलता है। प्राहारक और कार्मण की वर्गणाओं से उत्पन्न हुए वीर्य के द्वारा जो योग होता है वह आहारक मिश्र काययोग है ।'
___ असंयम-बहुलता, आज्ञा-कनिष्ठता और अपने क्षेत्र में विरह, [केवली, श्रुतकेवली का अभाव] इस प्रकार इन तीन कारणों से साधु पाहारक शरीर को प्राप्त होते हैं। जल, स्थल और आकाश के एक साथ दुष्परिहार्य सूक्ष्म जीवों से प्रापूरित होने पर असंयम बहुलता होती है । उसका परिहार करने के लिए हंस और वस्त्र के समान धवल, अप्रतिहत, आहार वर्गणा के स्कन्धों से निर्मित और एक हाथ प्रमाण उत्सेधवाले आहारक शरीर को प्राप्त होते हैं इसलिए पाहारक शरीर का प्राप्त करना असंयम-बहुलता निमित्तक कहा जाता है । अाझा, सिद्धान्त और आगम ये एकार्थवाची शब्द हैं। उसकी कनिष्ठता अर्थात् अपने क्षेत्र में उसका थोड़ा होना प्राज्ञाकनिष्ठता है। यह द्वितीय कारण है। प्रागम को छोड़कर द्रव्य और पर्यायों के अन्य प्रमाणों के विषय न होने पर तथा उनमें सन्देह होने पर, अपने सन्देह को दूर करने के लिए परक्षेत्र में स्थित 'श्रुत केवली और केवली के पादमुल में जाता हूँ, ऐसा विचार कर आहारक शरीर रूप से परिण मन करके गिरि, नदी, सागर, मेरुपर्वत, कुलाचल और पाताल में केबली और श्रत केवली के पास जाकर तथा विनय से पूछकर सन्देहरहित होकर लौट पाता है। परक्षेत्र में महामुनियों के केवलज्ञान की उत्पत्ति और
१. धवल पु. १ पृ. ५६५-५६३ । २. धवल पु. १ पृ. ५६३ ।
३. धवल टु. १४ पृ. ३२६ ।
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गाथा २३५-२४०
योगमार्गणा/३०६ परिनिर्वाणगमन तथा तीर्थंकरों के परिनिष्क्रमण (दीक्षा) कल्याएवा, यह तीसरा कारण है। विक्रियाऋद्धि से रहित और आहारकलब्धि से युक्त साधु अवधिज्ञान से या श्रुतज्ञान से या देवों के आगमन के विचार से केवलज्ञान की उत्पत्ति जानकर 'वन्दनाभक्ति से जाता है ऐसा विचार कर माहारक शरीर रूप से परिणमन कर उस प्रदेश में जाकर उन केवलियों की और दसरे जिनों व जिनालयों की बन्दना करके बापिस पाता है। इन तीनों ही कारणों का अवलम्बन लेकर ग्रहण किये जाने वाले आहारक शरीर की नाम निरुक्ति यह है-'निपुरण' अर्थात् अण्हा और मदु यह उक्त कथन का तात्पर्य है। स्निग्ध अर्थात धवल, सुगन्ध, सृष्ठ और सून्दर यह उक्त कथन का तात्पर्य है। अप्रतिहत का नाम सूक्ष्म है। याहार द्रव्यों में से आहारक शरीर को उत्पन्न करने के लिए निपुणतर और स्निग्धतर स्कन्धों को बाहरण करता है अर्थात् ग्रहण करता है, इसलिए आहारक कहलाता है।
शङ्कर निपुण और स्निग्ध सूक्ष्मतर कैसे हो सकते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि प्रथम अवस्था को देखते हुए तर और तम प्रत्यय के विषयभूत पदार्थों के सूक्ष्मतर होने में कोई विरोध नहीं पाता ।
अथवा आहारक द्रव्य प्रमाण है। उनमें से निपुणों में अतिनिपुण, निष्णातों में अतिनिष्णात और सूक्ष्मों में अतिसूक्ष्म को प्राहरण करता है अर्थात् जानता है, इसलिए आहारक कहा गया है।
शङ्खा- यदि आहारक शरीर वर्गणाएँ पाँचों वर्णवाली होती हैं तो माहारक शरीर धवल होता है, यह कंसे कहा गया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि विस्रसोपचय की धवलता को देखकर यह उपदेश दिया है।
शङ्का-आहारक शरीर वर्गणाएँ पाँच रसवाली होती हैं, अतः अशुभ रस की संभावना होने पर आहारक शरीर मधुर होता है, यह कैसे बन सकता है?
समाधान-- नहीं, क्योंकि अप्रशस्त रस वाली वर्गणाणों का अव्यक्त रस होने से वहाँ मधुर रस का उपदेश दिया गया है ।
आहारकशरीर वर्गणाएँ बो गन्धबाली होती हैं । यहाँ पर भी सुगन्धपना पूर्व के समान कहना चाहिए।
आहारकशरोर वर्गणाएँ पाठ स्पर्शवाली होती हैं । यहाँ पर भी आहारक शरीर का शुभस्पर्श पूर्व के समान कहना चाहिए। अथवा अशुभ रस, अशुभ गन्ध और अशुभ स्पर्शवाली वर्गणाएँ आहारक शरीर रूप से परिणमन करती हुई शुभ रस, शुभ गन्ध और शुभ स्पर्श रूप से परिशमन करती हैं, ऐसा यहां पर कहा गया है ।
याहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग ऋद्धि प्राप्त छठे गुगास्थानवर्ती प्रमत्तसंयत के
१. बबल पु. १४ पु. ३२६-३२७ । २. धबल पु. १४ पृ. ५५७-५५६ ।
३. घबल पु. १४ पृ. ५५८ ।
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३१गो. सा, जीवकाण्ड
गाथा २९५-२४०
ही होता है ।।५।।
शङ्कर-यहाँ पर क्या प्राहारक ऋद्धि की प्राप्ति से संपतों को ऋद्धिप्राप्त कहा गया है, या उनको पहले बैंक्रियिक ऋद्धि प्राप्त हो गई है इसलिए उनको ऋद्धिप्राप्त कहा गया है। इन दोनों पक्षों में से प्रथम पक्ष तो ग्रहण करने योग्य नहीं है, क्योंकि इतरेतराश्रय दोष पाता है। इसी को स्पष्ट किया जाता है.... जब तक पाहारक ऋद्धि प्राप्त नहीं होती तब तक उनको ऋद्धिप्राप्त माना नहीं जा सकता, और जब तक वे ऋद्धिप्राप्त न हों तब तक उनके पाहारक ऋद्धि उत्पन्न नहीं हो सकती। दूसरा विकल्प भी नहीं बन सकता क्योंकि एक ऋद्धि का उपयोग करते समय उनके दूसरी ऋद्धियों की उत्पत्ति का अभाव है। यदि दूसरी ऋद्धियों का सद्भाब माना जाता है तो माहारक ऋद्धिबालों के मनःपर्ययज्ञान की उत्पत्ति भी माननी चाहिए. क्योंकि दूसरी ऋद्धियों के समान इसके होने में कोई विशेषता नहीं परन्तु याहारक ऋद्धि वाले के मनःपर्ययज्ञान माना नहीं जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर आगम से विरोध आता है।
समाधान–प्रथम पक्ष में जो इतरेतराश्रय दोष दिया है, वह तो आता नहीं है, क्योंकि पाहारक ऋद्धि स्वतः की अपेक्षा करके उत्पन्न नहीं होती है, क्योंकि स्वत: से स्वतः की उत्पत्तिरूप क्रिया के होने में विरोध पाता है। संयम-अतिशय की अपेक्षा आहारक ऋद्धि की उत्पत्ति होती है, इसलिए 'ऋद्धिप्राप्त संयतानाम्' यह विशेषण भी बन जाता है। यहाँ पर दूसरी ऋद्धियों के उत्पन्न नहीं होने पर भी कारण में कार्य का उपचार करके ऋद्धि के कारणभूत संयम को ही ऋद्धि कहा गया है, इसलिए ऋद्धि के कारणरूप संयम को प्राप्त संयतों को ऋद्धिप्राप्तसंयत कहते हैं और उनके पाहारक ऋद्धि होती है, यह बात सिद्ध हो जाती है। अथवा संयमविशेष से उत्पन्न हुई आहारकशरीर के उत्पादनरूप शक्ति को आहारक ऋद्धि कहते हैं, इसलिए भी इतरेतराश्रय दोष नहीं पाता है। दूसरे विकल्प में दिया गया दोष भी नहीं आता है, क्योंकि एक ऋद्धि के साथ दूसरी ऋद्धियाँ नहीं होती हैं, ऐसा माना नहीं गया। एक अात्मा में युगपत् अनेक ऋद्धियाँ उत्पन्न नहीं होती, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि गणधरों के युगपत् सातों ऋद्धियाँ होती हैं।
शङ्का-आहारक ऋद्धि के साथ मनःपर्ययज्ञान का विरोध बहा गया है ?
समाधान-यदि पाहारक ऋद्धि के साथ मनःपर्ययज्ञान का विरोध है तो रहा आवे, किन्तु आहारक ऋद्धि का अन्य सम्पूर्ण ऋद्धियों के साथ विरोध है, ऐसा नहीं कहा गया है।
आहारकमिश्रकाययोगी का जघन्य काल व उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । शङ्का यहाँ एक समय जघन्यकाल क्यों नहीं होता ? समाधान नहीं होता, क्योंकि यहाँ भरण और योग परावृत्ति का होना असम्भव है ।
१. "आहारकायजोगो प्राहार मिम्सकाय जोगे संजदारणमिड्ढिपत्ताणं ।। ५६ ।। {धवल पु. १ पृ. २६७] । २. धवल पु. १ पृ. २६७-२६५। ३. प्रवल पु. १ पृ. २९८ । ४. "आहारमिस्सकायजोगी केवचिरं कालादो होदि ? ||१८|| जहण्णरण प्रतीमुहृत्तं ।।१०।। उक्कस्सेण अंतोमुगुत्तं ।।११।। (धवल पृ. ७ पृ. १५५)। ५. धवल पु. ७. १५५ ।
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गाथा २३५-२४०
योगमार्गणा, ३११
__ अाहारकमिश्नकाययोगी का जघन्यकाल से उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। पूर्व में जिमने अनेक बार याहारक शरीर को उत्पन्न किया है ऐसा कोई एक प्रमत्तसंयत जीव अाहार कमिथकाययोगी हुआ और सबसे लघु अन्तर्मुहूर्त से पर्याप्तकपने को प्राप्त हुआ । इस प्रकार से जघन्यकाल प्राप्त होता है। नहीं देखा है मार्ग को जिसने अर्थात् पूर्व में कभी पाहारक शरीर उत्पन्न नहीं किया, ऐसा कोई प्रमत्तसंवत जीव आहारकमिश्रकामयोगी हुआ और जघन्यकाल से संख्यातगुणे सबसे बड़े काल अर्थात अन्तर्मुहूर्त द्वारा पर्याप्तियों की पूर्णता को प्राप्त हुआ । इस प्रकार उत्कृष्टकाल प्राप्त होता है।'
पाहारकाकाययोगी का एकाजीव अपेक्षा जघन्यकाल एकसमय है । मनोयोग या वचनयोग में विद्यमान कोई एक प्रमत्तसंयत जीव आहारक काययोग को प्राप्त हुआ और द्वितीय समय में मरा अथवा मूल शरीर में प्रविष्ट हो गया । इस प्रकार एक समय काल प्राप्त होता है।
आहारककाययोगी जीव का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है ।।२१२।। मनोयोग या वचनयोग में विद्यमाम कोई एक प्रमत्तसंयत जीव प्राहारक काय योग को प्राप्त हृया। वहाँ पर सर्वोत्कृष्ट अत्तम हर्त काल रह करके अन्य योग को प्राप्त हुमा ।५ इस प्रकार उत्कृष्टकाल प्राप्त होता है।
जिस जीव के प्राहारकशरीर का उदय होता है उसके पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस ये चार उदयस्थान नामकर्म के होते हैं। पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान इस प्रकार हैंमनुष्यगति, तैजस शरीर, कार्मरण शरीर, आहारक शरीर, प्राहारक-मङ्गोपांग, वर्णचतुष्क, उपघात, अगुरुलघु, पञ्चेन्द्रिय जाति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, प्रादेय, अस चतुष्क, समचतुरस्रसंस्थान, सुभग, यशस्कोर्ति और निर्माण । शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त होने पर परघात और प्रशस्तविहायोगति इन दो प्रकृतियों के मिलने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। आनापान पर्याप्ति के पूर्ण होने पर उज्छव वास प्रकृति मिलने से प्राईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। भाषा पर्याप्ति से पर्याप्त होने पर सुस्वर प्रकृतिक के उदय होने से उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इन चार उदयस्थानों से स्पष्ट हो जाता है कि आहारक शरीर में संहनन नामकर्म का उदय न होने से अस्थि (हड्डी) आदि सात धातु नहीं होती।
रोम के अग्रभाग के आठवें भाग प्रमाण सिरच्छिद्र दशम द्वार से आहारक पुतला निकलता है । अतः उत्तांग से उत्पन्न होता है, ऐसा कहा है।
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१. घबल पृ. ४ पृ. ४३३। २. “एग जीवं पडुन्च जहण्यगोगा एगसमयो ।।२११।।'' (धवल पु. ४ पृ. ४३१) । ३. घवल पु. ४ पृ. ४३२ । ४. "उक्कास्सेण मंतोमुहत्तं ।।२१२।। (धवल पु. ४ पृ. ४३२)। ५. धवल पु. ४ पृ. ४३२ । ६. "ग्राहारसीरुदयं जस्स य हाणारण तस्स चत्तारि | पणुवीस, सत्तबीस, अट्ठावीसं च उगुतीस ।।१७०।। तत्थ इमं पणुषीस मणुसगई तेय, कम्म प्राहारं । तस्रा य अंगोवंगं वषाच उनकं च उपघायं ।।१७१।। मगुरुयलहु चिदिय-थिराथिर सुहासुहं च प्रादेज्ज । तसचव समचवरं सुहयं जसरिंग मिण भय एगोदु ।।१७२।। एमेव ससबीसं सीरपज्जत्तयस्स परघायं । पविखनिय पसस्थगई भगो वि एत्य एगो दु ।। १७३।। एमेवट्ठावीस मारणापम्जत्तयस्म उम्सास । पक्खित्ते तह चेय य भंगो विय एन्थ एगी दु ।।१७४।। एमेकापतीरां भासा पज्जत्तयस्स सुस्सरयं । पविखविय एय भंगो सव्वे मंगा दु चत्तारि ।।१७५।। [प्रा.पं.सं. पृ. ३७१-३७३ मप्ततिका अधिकार] । ७. "रोपागाष्टम भागप्रमाणशिरोदशम द्वारच्छिन्नादाहारक-पुतलक निर्गच्छति ।" [ तत्वार्थवृत्ति २/४६) ।
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३१२/गो. सा. जोयकाण्ड
गाथा २४१ कामण काययोग कम्मेव य फम्मभवं कम्मइयं जो दु तेरण संजोगो ।
कम्मइयकायजोगो इगिविगतिगसमयकालेसु ॥२४१॥' गाथार्थ--कर्मों का समूह अथबा कामणशरीर नामकर्म के उदय से होने वाली काय कामलाकाय है। उसके द्वारा होने वाला योग कार्मण काययोग है। यह योग एक, दो अथवा तीन समय काल तक होता है ||२४१।।
विशेषार्थ --विग्रहगति को प्राप्त वारों गतियों के जीवों के तथा प्रतर व लोकपूरण समुद्घात को प्राप्त केबलोजिन के कार्मणकाययोग होता है ।। ६० ।।'
विग्रह देह को कहते हैं। उसके लिए जो गति होती है, वह विग्रहगति है । यह जीव औदारिक आदि पारीरनामकर्मोदय से अपने-अपने शरीर की रचना करने में समर्थ नाना प्रकार के पुदगलों को ग्रहण करता है, अतएव संसारी जीवों के द्वारा शरीर का ग्रहण किया जाता है। इसलिए देह को विग्रह कहते हैं। ऐसे विग्रह अर्थात शरीर के लिए जो गति होती है वह विग्रहगति है। प्रथवा 'वि' का अर्थ विरुद्ध और 'ग्रह' का अर्थ 'घात' होने से विग्रह शब्द का अर्थ व्याघात भी होता है, जिसका अर्थ पुद्गलों के ग्रहण करने का निरोध होता है । इसलिए विग्रह अर्थात् पुद्गलों के ग्रहण करने के निरोध के साथ जो गति होती है, वह बिग्रहमति है। उसको भले प्रकार से प्राप्त जीव विग्रहगति समापन्न है। उ अर्थात विग्रहगति को प्राप्त जीवों के कामरणकाययोग होता है। जिससे सम्पर्ण शरी उस बीज भुत कार्मणशरीर को कार्मराकाय कहते हैं। वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणा के निमित्त से जो प्रात्मप्रदेशों का परिस्पन्द होता है वह योग है। कार्मग काय से जो योग उत्पन्न होता है वह कार्मणकाययोग है । वह विग्रहगति प्रर्थात् बक्रगति में विद्यमान जीवों के होता है। एक गति से दूसरी गति को गमन करने वाले जीवों के चार प्रकार की गतियाँ होती हैं, इषगति, पाणिमुक्तागति, लांगलि कागति और गोमूत्रिकामति । उनमें पहली इषगति विग्रहरहित होती है। शेष तीन गतियाँ विग्रहसहित होती हैं। सरल अर्थात् धनुष से छूटे हुए बाण के समान मोड़ारहित गति को इषगति कहते हैं । इस गति में एक समय लगता है। जैसे हाथ से तिरछे डाले गये जल की एक मोडाबाली गति होती है, उसी प्रकार संसारी जीवों की एक मोडावाली गति पाणिमुक्ता गति है। यह गति दो समयवाली होती है । जैसे हल में दो मोड़े होते हैं, उसी प्रकार दो मोड़े वाली गति लांगलिका गति है। यह गति तीन समयवर्ती होती है। जैसे-गाय का चलते समय मूत्र का करना अनेक मोड़े वाला होता है उसी प्रकार तीन मोड़ेवाली गति गोमूत्रिका गति है। यह चार समय वाली होती है। इषुगति को छोड़कर शेष तीनों विग्रहगतियों में कार्मण काययोग होता है।
सब कर्मों का प्ररोहण अर्थात् प्राधार उत्पादक और सुख-दुःख का बीज है इसलिए कार्मण शरीर है ।।२४१॥५ कर्म इसमें उगते हैं इसलिए कार्मणशरीरप्ररोहण है। कुष्माण्डफल के वृत्त के समान कामशरीर सब कर्मों का आधार है। सब कर्मों का उत्पादक भी है, क्योंकि कार्मणशरीर
रीर उत्पन
--.-..-..
...
-
-
१. धवल पु. १ पृ. २६५, प्रा. पं. सं. प. २१ गा. ६ व पृ. ५७८ गा. ६३ । २. "कम्मइय कायजोगो विग्महगइसमावण्णागणं केवलीयं वा समुग्घाद गाणं ॥६०॥ [धवल पु. १ पृ. २६८] । ३. व. पु. १ पृ. २६६३०० । ४. धवल पु. १ पृ. ३००। ५. सिख कम्माणं पाहणुप्पादयं सुदुक्खाणं विजमिदि कम्मइय ।।२४१।।" [धवल पु. १. पृ. ३२८] ।
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गाथा २४२
योगमार्गणा/३१३
के बिना सब कर्मों को उत्पत्ति नहीं होती। इसीलिए वह सुखों और दुःखों का भी चीज है। क्योंकि उसके बिना उनका सत्त्व नहीं होता। इसके द्वारा नामकर्म के अवयवरूप कार्मण शरीर की प्ररूपणा की है। आगामी सब कर्मों का प्ररोहक, उत्पादक और त्रिकाल बिषयक समस्त सुख दुखों का बीज है, इसीलिए पाठों कर्मों का समुदाय कामरणशरीर है ।'
दूसरे शरीर को शाम करने के लिए मोहाली गति में कर्मयोग होता है। कर्मकृत प्रात्मप्रदेश परिस्पन्दन रूप कर्मयोग के द्वारा कर्मों का आदान और देशान्तर-गमन दोनों होते हैं । २
योगप्रवृत्ति का प्रकार वेगुधियाहारयकिरिया र समं पमतविरदम्हि ।
जोगोवि एक्ककाले एक्केव य होदि रिणयमेरग ॥२४२॥ गाथार्थ-प्रमत्तसंयत छठे गुगास्थान में वंत्रियिक शरीर और ग्राहारक शरीर की क्रिया युगपत् नहीं होती है। सभी जीवों के एक काल में एक ही योग होता है ।।२४२।।
विशेषार्थ...इस गाथा से यह व्यक्त होता है कि वैक्रियिषा ऋद्धि और पाहारकद्धि युगपत् प्रमत्तसंयत मुनि के सम्भब हैं, किन्तु वैऋियिक शरीर की उत्पत्ति और आहारक शरीर की उत्पत्ति युगपत् सम्भव नहीं है। विशेष इस प्रकार है --
"कोई देवपर्याय से मनुष्यगति प्राप्त करके दीक्षा ग्रहण कर प्रमत्तसंयत होकर आहारक शरीर की रचना करता है। उस भूतपूर्व देव के संयम की अपेक्षा पाँच शरीर भी सम्भव हैं। जैसे घी का घड़ा। प्रमत्तसंयत के आहारक और वैक्रियिक दोनों शरीरों का उदय होते हुए भी दोनों शरीरों की एक काल में प्रवृत्ति का अभाव होने से एक के त्याग द्वारा औदारिक तेजस कार्मण आहारक ये चार पारीर युगपत् संभव हैं। अस्तित्व की अपेक्षा वैक्रियिक शरीर होने से पाँच शरीर हैं। बऋियिक शरीर लब्धि प्रत्यय भी है, इस सूत्र को यहाँ पर लगा लेना चाहिए ।'३
नस्वार्थसुत्रकार का मत इस से भिन्न प्रकार का है। वहाँ पर एक जीव में मात्र चार शरीर तक का ही अस्तित्व स्वीकार किया गया है। इस सुत्र की टीका में श्री अकलंकदेव ने पाँच शरीर का स्पष्ट रूप से निषेध किया है। क्योंकि पाहारक शरीर संयत मनुष्य के होता है उसके वैऋिषिक शरीर नहीं होता । देव और नारकियों के वैश्रियिक शरीर है, किन्तु उनके आहारक शरीर नहीं होता। युगपत् आहारक शरीर और वैक्रियिक शरीर का अस्तित्व संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि मनुष्य व तिर्यंचों के विक्रियात्मक शरीर को वैऋियिक न मानकर, औदारिक
१. प्रवल पु. १४ पृ. ३२८-३२६ । २. तत्त्वार्थवृत्ति २/२५ । ३. कश्चिद् देवो मनुष्यगतिमवाप्य दीक्षामुपादाय प्रमत्तसयतः सन याहारकशरीर नियति । तरय देवचरस्य संयतस्य अपेक्षया पञ्चापि भवन्ति घतघटवत । प्रमत्तसंयनस्य प्राहारक क्रियिकशरीराश्यानेऽपि त्योरेककाले प्रवृत्त्यभावात एकतरत्यागेन युगपदीदारितजसकार्मणाहारकारिण नत्वारि, वैऋियिक वा अस्तित्वमाश्रित्य पञ्चापि भवन्ति । लविध प्रत्ययवक्रियिकापेक्षया योज्यम् ।" [तस्वार्थ राजवार्तिक २/४३ टिप्पण न. ३ पृ. १५०] । ४. “तदादीनि भाज्यानियुगपदेकस्मिन्ना
२/४३ ।।" ५. "वै क्रिविकाहारकयोयुगपदसंभवात् पञ्चाभावाः। यस्य संयतम्याहारकं न तस्य वकिपिकम, यस्य देवस्य नारकम्प वा वैक्रियिकं न तस्याहारकमिति युगपत्पश्चातामसंभवः ।"[त. रा. बा.२/४३/
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३१४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाचा २४३
मानकर चार शरीर के ही अस्तित्व का कथन किया है। यदि ग्रागे के दो सूत्रों के आधार पर उसको बैंक्रियिक माना जाय तो पांच शरीर का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है।
शङ्का तीनों योगों की प्रवृत्ति युगपत् होती है या नहीं ?
समाधान :- युगपत् नहीं होती, क्योंकि एक प्रात्मा के तीनों योगों की प्रवृत्ति युगपत् मानने पर योग-निरोध का प्रसंग प्राजाएगा।
शङ्का-कहीं पर मन, वचन और काय की प्रवृत्तियो युगपत् देखो जातो हैं ?
समाधान–यदि देखी जाती हैं, तो उनकी युगपत् वृत्ति होयो। परन्तु उस के मन-वचन मोर काय पनि निरनो प्रयास होते हैं. उनकी युगपत् वृत्ति सिद्ध नहीं हो सकती है। क्योंकि प्रागम में इस प्रकार का उपदेश नहीं मिलता है।
शङ्का- दो या तीन योग एक साथ क्यों नहीं होते ? समाधान नहीं होते, क्योंकि उनकी एक साथ प्रवृत्ति का निषेध किया गया है। शङ्का-- अनेक योगों की एक साथ वृत्ति पाई तो जाती है ?
समाधान नहीं पाई जाती, क्योंकि इन्द्रियों के विषय से परे जो जीवप्रदेशों का परिस्पन्द होता है, उसका इन्द्रियों द्वारा ज्ञान मान लेने में विरोध आता है। जीवों के चलते समय जीवप्रदेशों के संकोच-विकोच का नियम नहीं है. क्योंकि सिद्ध होने के प्रथम समय में जब जीव यहाँ से (मध्यलोक से) लोक के अग्रभाग को जाता है तब उसके जीवप्रदेशों में संकोच-विकोच नहीं पाया जाता।
इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि एक समय में एक ही योग होता है। एक जीव में एक से अधिक अर्थात् दो तीन योग युगपत् नहीं हो सकते ।
स्वाभाविक ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण शुद्ध जीव मध्य लोक से लोकाग्र स्थित तनुवातवलय तक जाता है, किन्तु शरीर नाम कर्मोदय न होने से योग अर्थात् आत्मप्रदेश परिस्पन्द नहीं होता।
योगरहित प्रयोगी जेसि रण संति जोगा सुहासुहा पुण्णपावसंजरगया । ते होंति अजोगिजिरणा अगोवमाणतबलकलिया ॥२४३॥"
१. "श्रीपपादिक वैक्रियिकम् ॥४६॥ लब्धिप्रत्ययं च ॥४७॥" [तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ] । २. धवल पु. १ पृ. २७६ । ३. धवल पु. ५ पृ. ७७, धवल १०/४३७। ४. यली गाथा प्रा. प. सं. पृ. ५७८ गा. १४ है व पृ. २२ गा. १०० है किन्तु 'ग्रजोगि' के स्थान पर 'अजोह' और 'बल' के स्थान पर गुण है तथा धवल पु. १ पृ. २८० पर भी है किन्तु 'प्रजोगि' के स्थान पर 'प्रजोई है ।
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/३१५
गायार्थ- जिन जीवों में पुण्य और पाप के उत्पादकशुभ और अशुभ योग नहीं होते हैं वे अनुपम और अनन्त बल सहित प्रयोगी जिन हैं || २४३ ||
विशेषार्थ - शङ्का - अशुभ योग क्या हैं ?
समाधान — हिंसा, चोरी और मैथुन यादिक अशुभ काययोग हैं। और असभ्य वचन यादि यशुभ वचन योग हैं। मारने का विचार, मनोयोग हैं।
गाथा २४३
असत्य वचन, कठार वचन ईर्षा, डाह आदि अशुभ
शङ्का - शुभ योग क्या हैं
समाधान हिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि शुभ कार्य योग हैं। शुभ वचनयोग हैं। अर्हन्त भक्ति, तप की रुचि श्रुत का विनय आदि विचार शुभ मनोयोग हैं ।
सत्य, हित, मित बोलना
शङ्का-योग के शुभ और अशुभ भेद किस कारण से हैं ?
समाधान- जो योग शुभ परिणाम के निमित्त से होता है, वह शुभ योग हैं और जो योग अशुभ परिणाम के निमित्त से होता है वह अशुभ योग है ।
शङ्का - जो शुभ कर्म का कारण है वह शुभ योग है और जो अशुभ कर्म का कारण है वह अशुभ योग है। ऐसा क्यों नहीं कहा गया ?
समाधान- नहीं, यदि इस प्रकार इनका लक्षरण किया जाएगा तो शुभयोग ही नहीं हो सकता, क्योंकि शुभ योग से भी ज्ञानावरणादि अशुभ कर्मों का प्रात्रव होता है। शुभ अशुभ योग का जो लक्षण कहा गया है, वही सही है ।
शङ्का - यदि ऐसा है अर्थात् शुभ योग से भी प्रशुभ कर्मों का प्रात्रव होता है तो शुभयोग पुण्य का उत्पादक है, यह कैसे कहा गया ?
समाधान - श्रघातिकर्मों में जो पुण्य और पाप हैं, उनकी अपेक्षा पुण्य-पाप हेतुता का निर्देश है। अथवा 'शुभ पुण्य का ही कारण है' ऐसा अवधारण ( निश्चय ) नहीं किया, किन्तु 'शुभ ही पुण्य का कारण है ।' यह अवधारण किया गया है ।
शङ्का - पुण्य किसे कहते हैं ?
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समाधान जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे श्रात्मा पवित्र होती है वह पुण्य है जैसे सातावेदनीय आदि । 1
शङ्का सातावेदनीय यादि पुण्य प्रकृतियाँ तो बंध रूप होने के कारण लोहे की बेड़ी हैं वे आत्मा को कैसे पवित्र कर सकती हैं ?
१. तत्त्वाथ राजवानिक व सर्वार्थसिद्धि ६/३ |
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३१६/गो, सा, जीवकाण्ड
गाथा २४४
समाधान- सातावेदनीय, तीर्थंकर, उचगोत्र, मनुष्यायु इत्यादि बयालीस पुण्यप्रकृतियों हैं। ये पुण्यप्रकृतियाँ तीर्थकरादिक पदों अर्थात् अर्हन्त पद के सुख को देने वाली हैं। इसलिये पुण्य का लक्षण जो आत्मा को पवित्र करता है, यह यथार्थ है।
शरीर नामाई के दिय से बोरवन फर्मत नो बगरणाओं को ग्रहगा करने की शक्ति प्रात्मा में उत्पन्न होती है। जिनके शरीर नामकर्म के उदय का अभाव हो गया उनके उसके कार्यभूत योग का भी प्रभाव हो जाता है, क्योंकि कारण के अभाव में कार्योत्पत्ति असम्भव है। अत: चोदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगीकेवली और गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान के शरीर नामकर्म का उदय न होने से योग का अभाव है। सातवें गुणस्थान से तेरहवं गुणस्थान तक शुभ योग है। पहले गुणस्थान से छठे गुणस्थान तक शुभ और अशुभ दोनों योग हैं।
शंका - योग का अभाव होने से सिद्ध भगवान के बल के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि हमारे योग के प्राश्रय से हो बल देखा जाता है ?
समाधान--सिद्ध भगवान का बल हमारे जमा बल नहीं है। सिद्ध भगवान का वन अनन्न है। लोक-अलोक समस्त ज्ञेयों को युगपत् जानने में उनको खेद या थकावट नहीं होती। इसीलिए गाथा में अनुपमअनन्तबलकलिताः' शब्द दिया है।
शरीर में कर्म-नोकर्म का विभाग पोरालियवेगुन्वियमाहारयतेजरणामकम्मुदये ।
चउरणोकम्मसरीरा कम्मेय य होदि कम्मइयं ॥२४४॥ गाथार्थ- प्रौदारिक, वैक्रियिक, प्राहारक, नेजस नामकर्म के उदय से होने वाले ये चार शरीर नोकर्म हैं। कर्म ही कार्मण शरीर हैं ।।२४४।।
विशेषार्थ-कर्म के उदय से होने वाले चार शरीर (औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस) नोकर्म हैं।
शङ्खा—औदारिक प्रादि चार शरीरों की 'नोकर्म' संज्ञा क्यों है ?
समाधान—'नो' शब्द का प्रयोग निषेध के लिए भी होता है और ईषत् के लिए भी होता है। जैसे नोकषाय में 'नो' शब्द का प्रयोग ईषत् के लिए हुआ है उसी प्रकार 'नोकर्म' में नो शब्द का प्रयोग ईषत् के लिए हुआ है। ये प्रौदारिक आदि चार शरीर काम के समान यात्मा के गुणों को नहीं घातते। जैसे कार्मण शरीर प्रात्मा के गुणों को घातता है और चारों गतियों में परिभ्रमण कराता है उस प्रकार से औदारिक आदि चार शरीर न तो आत्मा के गुणों को धातते हैं और न चारों गतियों में परिभ्रमण कगते हैं। इसलिए चार शरीरों की नोक्रम संजा है। ये चारों शरीर कार्मण
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१. "पुण्यप्रकृतपस्तीर्थपदादिमुखखानयः ।" (मूलाचार प्रदीप पांचवा अधिकार क्लोक १५८ पृ. २००]; "पुणग फला परहंता'' [प्रवचनसार गाथा २३], "पहन्त: मलु सकलसम्यकपरिपक्वपुरवाल्पपादपप.ला एव भवन्ति ।' [आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीका] । २. गो.जी गा, २१६ ।
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गाथा २४५-२४०
योगमार्गशा/३१७
शरीर के सहकारी कारण हैं, इसलिए भी इनकी नोकर्म संज्ञा है।
शङ्का--तेजस शरीर किसे कहते हैं ?
समाधान तेज और प्रभा गुण से युक्त होने के कारण इसकी नैजसशरीर संज्ञा है ।।२४०।।' शरीर स्कन्ध के पद्मरागमणि के समान वर्ण का नाम तेज है तथा शरीर से निकली हुई रश्मिकला का नाम प्रभा है। इसमें जो हया है वह तेजसशरीर है।
कार्मण शरीर नामकर्म के उदय से कार्मरणशरीर होता है। ज्ञानाबरणादि पाठ प्रकार के कर्मस्कन्धसमूह ही कार्मण शरीर हैं । इन कर्मस्कन्धसमूह के बिना अन्य की कार्मणशरीर संज्ञा परमागम में नहीं कही गई है।
औदारिकादिक शरीरों के समयप्रवद्ध और वर्गणाओं का प्रवगाहना प्रमाणा परमाणुहि अणंतहि वग्गणसण्णा हु होदि एक्का हु। ताहि अर्णतहि णियमा समयपबद्धो हवे एक्को ॥२४५।। ताणं समयपबद्धा सेढि असंखेज्जभागगुरिगदकमा । गंतेण य तेजबुगा परं परं होदि सुहमं खु ।।२४६॥ प्रोगाहरणारिण ताणं समयपबद्धारण वग्गणारणं च । अंगुल-असंख-भागा उवरुवरिमसंखगुणहीणा ॥२४७।। तस्समयबद्धबग्गरणयोगाहो सूइभंगुलासंख- ।
भागहिदविवअंगुलमुवरि तेरण भजिदकमा ॥२४॥ गाथार्थ-अनन्तानन्त परमाणुओं की वर्गणा संज्ञा है अर्थात् अनन्तानन्त परमाणुओं की एक वर्गणा होती है। अनन्तानन्त उन वर्गणाओं का एक समयप्रबद्ध होता है ।।२४५।। औदारिक, वंऋियिक और ग्राहारक इन तीन शरीरों के समय प्रबद्ध उत्तरोत्तर क्रम से असंख्यातगुणे हैं । गुणाकार श्रेणी का असंख्यातवाँ भाग है। तेजस और कार्मण के समयप्रबद्ध अनन्तगुरणे हैं। किन्तु ये पांचों हो शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं ॥२४६।। इन शरीरों के समय प्रबद्ध और वर्गणाओं की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग है। आगे-भागे अवगाहना असंख्यातगुणी-असंख्यातगुणीहीन होती गई है ॥२४७।। प्रौदारिक आदि शरीरों के समयप्रवद्ध व वर्गणा की अवगाहना सुच्यंगुल के असंख्यातवें भाग से भाजित धनांगुल प्रमाणा है, किन्तु यह अवगाहना उत्तरोत्तर क्रम से मूच्यंगृल के असंख्यात भाग से भक्त होकर हीन होती गई है ॥२४॥
विशेषार्थ समगुण वाले परमाण अर्थात वर्गों की एक पंक्ति करने से वर्ग होता है। ऐसा करने पर अभव्यों से अनन्तगुणों और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण वर्ग (परमाणु) प्राप्त होते हैं ।
१. लेयपहा .जुत्तमिदित जदयं ।।२४०।। धवल पु. १४ पृ. ३२७ । २. धवल पु. १४ पृ. ३२५-३२८ । ३. पर पर मुझमम् ॥३७।। प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक् त जसात् ।।३८।। अनन्तगुणे परे ।। ३६ ।। [तस्वार्थ सूत्र अध्याय २] । ४. "राएगुग्णा पछुतीकृताः वर्गा वर्गगा।" [रा.वा २/५/४]।
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३१८ गो. सा. जीबकाण्ड
गाथा २४५.२४% द्रव्याथिक नय का अवलम्बन करने पर इन सब की 'वर्गणा' संज्ञा है । वर्गों के समूह का नाम वर्गणा है। वर्गणा एक होती है, परन्तु वर्ग अनन्त होते हैं। अभव्यों से अनन्तगुणे अर्थात् सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण वर्गणानों का एकसमय प्रबद्ध होता है। इतना द्रव्य प्रतिससय बाँधा जाता है, इसलिए इसकी समयप्रबद्ध संज्ञा है।' सिद्धराशि के प्रतन्तवें भाग के अनन्त भेद हैं। इसलिए अभव्य राणि से अनन्तगुणा, ऐसा मध्यम अनन्तानन्त सिद्धों के अनन्तवें भाग से ग्रहण करना चाहिए।
प्रौदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर के योग्य पुद्गल स्कन्धों की आहा रद्रत्र्यवर्गणा संज्ञा है। अनन्तानन्तप्रदेशी परमाणु पुद्गल द्रव्य वर्गणा के ऊपर और प्रथम अग्रहण द्रव्य वर्गणा के नीचे यह आहारवर्गणा स्थित है ।
पाहारवर्गणा के वर्गणाग्र (वर्गणा समूह) के असंख्यात खण्ड करने पर वहाँ वहुभाग प्रमाण पाहारक शरीर प्रायोग्य बर्गणाग्र होता है। शेष के इसंख्यात खण्ड करने पर बहुभाग प्रमाण वैक्रियिक शरीर प्रायोग्य वर्गणार होता है। तथा शेष एकभाग प्रमाण ग्रोहानि र प्रायोग्य वर्गणाग्न होता है। स्तोक वर्गणानों में स्तोक ही आते हैं इसलिए औदारिक शरीर वर्गणा स्तोक है, ऐसा कितने ही प्राचार्य कथन करते हैं। किन्तु यह अर्थ ठीक नहीं है, क्योंकि तेजस शरीर वर्गणा आदि में इस अर्थ की प्रवृति नहीं देखी जाती।
औदारिक शरीर द्रव्य वर्गणाएं प्रदेशार्थता (प्रदेशगणना) की अपेक्षा सबसे स्तोक हैं ॥७८५।। यह अल्पबहुत्व, योग से आनेवाले एकसमयप्रबद्ध की वर्गणामों का कहा जा रहा है, सब वर्गणाओं का नहीं। एक योग से पानेवाली औदारिक शरीर द्रव्यवर्गणाएं प्रदेशाग्र और वर्गणा की अपेक्षा स्तोक हैं।५ वैक्रियिक शरीर द्रव्य वर्गणाएँ प्रदेशार्थता की अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं ||७८६॥ जिस योग से औदारिक शरीर के लिए आहार वर्गणानों में से औदारिक शरीर वर्गणाएँ एक समय में प्रागमन प्रायोग्य होती हैं, उन्हीं वर्गणानों में से उसी समय में अन्य जीव के उसी योग से वैक्रियिकशरीर के लिए पागमनयोग्य वर्गणाएँ असंख्यातमूणी होती हैं, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। जगच्छणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण गुणाकार है। प्राहारक शरीर द्रव्य वर्गणाएँ प्रदेशार्थता की अपेक्षा असंख्यात मुरगी हैं ॥७८७।। उसी समय में उसी योग से आहार वर्गणात्रों में से आनेवाली आहारक शरीरद्रव्य वर्गणाएं असंख्यातगुणी होती हैं, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। ज.श्रे. के असंख्यातवें भाग प्रमाण गुणाकार है।
संजस शरीरद्रव्यवर्गणाएँ प्रदेशार्थता की अपेक्षा अनन्तगुणी हैं ॥७८८। उसी समय में उसी योग के द्वारा तैजस शरीर द्रव्य वर्गणानों में से तेजस शरीर के लिए ग्रानेवाली वर्गरणाएँ
१. "एवं कदे प्रभवसिद्धिएहिं प्रणतगुणा सिद्धाणमतभागमेत्ता लद्धा भवंति । एदेसि सन्वेसि वि दवडियणए अवलंबिदे वग्गणा इदि मण्णा। बग्गाणं समूहो वम्मरणा, तेसि व असमूहो वग्यो । बरगणा एगा, वग्गा अणंता ।'' [धवल पु. १२ पृ. १३-६४] । २. "समये प्रबध्यत इति समयप्रबद्धः ।" [धवल पु. १२ पृ. ४५८] । ३. "पोरालिय-वेउब्धिय-प्राहारसरीर पायोग्गपोग्गलक्खंधाणं ग्राहारदब्ध गरा ति सप्एा। ताणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदम्ववग्गरागामुपरि पाहारदब्ववग्गगाणाम ।।७६) पाहारदरुववाणास मुबरि अगह इम्बवग्गणा रणाम ||८०॥" [धवल पु. १४ पृ. ५६] । ४. धवल यु. १४ पृ. ५६०-५६।। ५. धवल पु. १४ पृ. ५६० । ६. धवल पु. १४ पृ. ५६१ । ७. धवल पु. १४ पृ. ५६१ ।
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पापा २४५-२४०
योगमार्गग/३१
प्रदेशाग्र की अपेक्षा अनन्तगुणी होती हैं, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तभागगुरगाकार है। भाषा वर्गणाएँ, मनोवर्गणाएँ और कार्मण शरीर बर्गणाएं प्रदेशार्थता की अपेक्षा अनन्तगुणी हैं ।।७८६ ।। उसी समय में उसी योग से भाषा वर्गणाओं में से भाषा रूप पर्याय से परिणमन करने वाली वर्गणाएँ प्रदेशाग्र की अपेक्षा अनन्तगुणी होती हैं। उसी समय में उसी योग से मनोद्रव्य वर्गणाओं में से द्रव्यमान के लिए आनेवाली वर्गणाएं प्रदेशाग्र की अपेक्षा अनन्तगृगी होती हैं। उसी समय में उसी योग से कार्मण द्रव्य वर्गणानों में से पाठों को के लिए गोदाली वर्गणार की मेला अनन्तगुणी होती हैं। सर्वत्र गुणाकार अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवं भाग प्रमाण होता है ।'
अवगाहना अल्पबहुत्व-कार्मणशरीर द्रव्य वर्गणाएँ अवगाहना की अपेक्षा सबसे स्तोक हैं। क्योंकि एक धनाङ्गल में अङ्ग ल के असंख्यातवें भाग का भाग देने पर एक कार्मण वर्गणा की अवगाहना उत्पन्न होती है। मनोद्रव्य वर्गणाएं अवगाहना की अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं। अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण गुणाकार है। भाषावर्गणाएं अवगाहना की अपेक्षा असंख्यातगुणी है ।।७६२।। अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण गुणाकार है। तैजसशरीर द्रव्यवर्गणाएँ अवगाहना की अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं ।। ७९३|| अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण गुणाकार है। ग्राहारक शरीर द्रव्य वर्गणाएँ अवगाहना की अपेक्षा असंख्यात गुणी हैं ।।७६४॥ अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाग गुणाकार है बैंक्रियिक शरीर द्रव्य वर्गणाएं अवगाहना की अपेक्षा असंख्यात गुणी हैं ||७६५|| अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण गुणाकार है। औदारिक शरीर द्रव्य बर्गरगाएँ अवगाहना की अपेक्षा असंख्यात गुणी हैं ॥७६६।। अंगुल का असंख्यातवाँ भाग गुणाकार है ।
इस सब का अभिप्राय यह है कि औदारिक शरीर स्थूल है इससे वैऋियिक शरीर सूक्ष्म है। वक्रियिक शरीर से प्राहारक शरीर सूक्ष्म है। आहारक शरीर से तैजस शरीर सूक्ष्म है । और तेजस शरीर से कार्मरण शरीर सूक्ष्म है। यह कथन अवगाहना की अपेक्षा किया गया है, किन्तु प्रदेश की अपेक्षा औदारिक शरीर से असंख्यातगुणे प्रदेश वक्रियिक शरीर में हैं और वैश्रियिक शरीर से असंख्यात गुणे प्रदेश आहारक शरीर में हैं। पाहारक शरीर से अनन्तगुणे प्रदेश तेजस शरीर में है और तेजस शरीर से अनन्तगुरणे प्रदेश कार्मण शरीर में है।
शा-यदि ऐसा है तो पूर्व प्रारीर से उत्तर शरीर महापरिमाण वाला प्राप्त होता है। ___ समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बन्धविशेष के कारण परिमाण में भेद नहीं होता। __ जैसे रुई का ढेर और लोहे का गोला ।'
इन पांचों शरीरों के समयप्रबद्ध में परमाणुओं की संख्या यद्यपि उत्तरोत्तर अधिक-अधिक । होती गई है तथापि अवगाहना सूक्ष्म-सूक्ष्म होती गई है। प्रौदारिक शरीर का समयप्रबद्ध व वर्गणा
की अवगाहना, घनांगुल को सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग से भाजित करने पर प्राप्त होता है उसको पुनः सूच्यंगल के असंख्यातवें भाग से भाग देने पर वैक्रियिक शरीर के समय प्रबद्ध व वर्गणा की अवगाहना होती है। उसको पुनः सूत्यंगुल के असंख्यातवें भाग से भाग देने पर आहारक शरीर के समयप्रबद्ध व वर्गणा को अवगाहना होती है पुनः सूरयंगुल के असंख्यातवें भाग से खंडित करने पर
१. धवल पु. १४ पृ. ५६२ । २. धवल पु. १४ पृ. ५६२-५६४ । ३. सर्वार्थसिद्धि २१३५-३६ ।
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३२०/गो, सा, जीवकाण्ड तंजस शरीर सम्बन्धी समयप्रबद्ध व वगणा का अवगाहना का प्रमाण प्राप्त होता है । उसको भी सूच्यंगुल के असंख्यातचे भाग से भाग देने पर कार्मण शरीर के समयप्रबद्ध व वर्गशा की अवगाहना प्राप्त होती है।
बिनसोपचय का स्वरूप जीवादो गंतगुणा पडिपरमाणुम्हि विस्ससोयचया ।
जीवेण य समवेदा एक्केवक पडिसमारणा हु॥२४६॥ गाथार्य- (कर्म और नोकर्म के) प्रत्येक परमाणु पर जीवराशि से अनन्तगुणे विनसोपचय हैं, वे जीव के साथ समवेत हैं । एक-एक के प्रति समान हैं ।।२४६।।।
विशेषार्थ-शङ्का-विस्रसोपचय किसकी संज्ञा है ?
समाधान—पाँच शरीरों के परमाणपुद्गलों के मध्य जो पुद्गल स्निग्ध प्रादि गुणों के कारण उन पाँच शरीरों के पुद्गलों में लगे हुए हैं, उनकी बिनसोपचय संज्ञा है। उन विस्रसोपचयों के सम्बन्ध के कारण पाँच शरीरों के परमाणु रुप पुद पनगान निम्न आदि गुण हैं, उनी भी विस्रसोपच्य संज्ञा है, क्योंकि यहाँ कार्य में कारण का उपचार किया है।
एक-एक प्रौदारिक प्रदेश (परमाणु ) में सब जीवों से अनन्तगुणे विभाग प्रतिच्छेद होते हैं । शङ्का-अविभागप्रतिच्छेद किसे कहते हैं ? समाधान एक परमाणु में जो जघन्य वृद्धि होती है, उसे अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं ।
इस प्रमाण से परमाणुओं के जघन्यगुण अथवा उत्कृष्ट गुण का छेद करने पर सब जीवों से अनन्तगुरणे अनन्त अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। एक-एक परमाणु में जितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं, एक-एक परमाणु में एक बन्धनबद्ध विस्रसोपचय परमाणु भी उतने ही होते हैं, क्योंकि कार्य कारण के अनुसार देखा जाता है। यहाँ पर सब जीवों से अनन्तगुणत्व की अपेक्षा समानता है, संख्या की अपेक्षा नहीं, क्योंकि जघन्य अनुभाग के कारण लगे हुए स्तोक विस्रसोपचयों से निष्पन्न जघन्य प्रत्येक शरीर वर्गरणा की पेक्षा जघन्य अनुभाग से अनन्तगुणे अनुभाग के कारण आये हुए बिनसोपचयों से निष्पन्न उत्कृष्ट प्रत्येक शरीर बर्गरणा के अनन्तगुणे होने का प्रसंग आता है।
शङ्का-विस्रसोपचयों की अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा कैसे है ?
समाधान-कार्य में कारण का उपचार करने से अबिभाग प्रतिच्छेदों के कार्यरूप बिनसोपचयों की वह संज्ञा सिद्ध होती है।
पुद्गलपरमाणु और जीवप्रदेश परस्पर में अनुगत हो जाते हैं। अथवा परमाणु की जीवप्रदेश संज्ञा होने में कोई विरोध नहीं पाता। अतः जीवेन सह समवेताः' ऐसा कहा गया है । १. धवल पु. १४ पृ. ४३० । २. "यविभागपडिच्छेदपरूवरणदाय एक्के कम्पि पोरालियपदेसे केवटिया अविभागपडिच्छेदा ॥५०३॥ अयंता अविभागपडिच्छेदा सम्वजीवेहि अणंत गुणा ॥५०४||"[श्वल पु. १४ पृ. ४३१ । ३. धवल पु. १४ पृ. ४३१ । ४. धवल पु. १४ पृ. ४३२ । ५. "जीव-पोम्गलाणमणगायाणगयत्ते परमाणम्स वि जीवपदसवदा साविरोहादो वा।" [घवल पु. १४ पृ. ४३६] ।
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गाथा २४६
योगमार्गणा/३२१ प्रौदारिक शरीर के अविभागप्रतिच्छेद सबसे स्तोक हैं। उनसे क्रियिकशरीर के अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं। सब जीवों से अनन्तगुरणागुणाकार है। उनसे आहारक शरीर के अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं । गुणाकार सब जीवों से अनन्तगुणा है । उनसे तैजस शरीर के अविभाग-प्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं । सब जीवों से अनन्तगुणा गुणाकार है। उनसे कार्मण शरीर के अविभाग प्रतिच्छेद अनन्तगुरणे हैं। सब जीवों से अनन्तगुणागुणाकार है ।'
दुसरे प्रकार से बिस्रसोपचय का कथन इस प्रकार है-जिन्होंने औदयिक भाव को नहीं छोड़ा है और जो समस्त लोकाकाश के प्रदेशों को व्याप्त कर स्थित हैं, ऐसे जीवों के द्वारा छोड़े गये पाँच शरीरों की विस्रसोपचय प्ररूपणा की जाती है। पाँच शरीरों का एक-एक परमाणु जीव से मुक्त होकर भी सब जीवों से अनन्तगुणे विस्रसोपचयों से उपचित होता है। इसलिए ये ध्र वस्कन्ध सान्तर निरन्तर वर्गणाओं में समान धन वाले होकर अन्तर्भाव को प्राप्त होते हैं। वे सब लोक में से प्राकर बद्ध हुए हैं।
शङ्का यह कथन किसलिए आया है ?
समाधान-अपने-अपने कहे गये हेतु के अनुसार कर्म के योग्य सादि अनादि और सब जीवप्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाहपने को प्राप्त हुआ पुद्गल बँधता है। इस वचन के अनुसार जिस प्रदेश पर जो जीव स्थित हैं, वहाँ स्थित जो पुद्गल हैं, वे मिथ्यात्व प्रादि (मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग) कारणों से जिस प्रकार पाँच रूप से परिणमन करते हैं, उसी प्रकार यहाँ पर स्थित हुए ही विस्रसोपचय भी क्या बन्ध को प्राप्त होते हैं या नहीं? इस बात का निर्णय करने के लिए यह कथन आया है ।
दे पांचों शरीरों के स्कन्ध समस्त लोक में से आये हए विस्रसोपचयों के द्वारा बद्ध होते हैं। सब लोकाकाश के प्रदेशों पर स्थित हुए पुद्गल समीरण आदि के वश से या गति रूप परिणाम के कारण प्राकर उनके साथ सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं । अथवा पांचों शरीरों के पुद्गल जीव से मुक्त होने के समय में ही समस्त आकाश को व्याप्त कर रहने हैं।"
ग्रौदारिक शरीर के जो एक गुणयुक्त वर्गणा के द्रव्य हैं, वे बहुत हैं और वे अनन्त बिनसोपचयों से उपचिन हैं ।।५३६॥ अनन्त विस्रसोएचयों से उपचित एक गुगायुक्त वर्गणा के द्रव्य शलाकाओं की अपेक्षा बहुत है।
शङ्का-- एक गुणा से क्या ग्रहण किया जाता है ?
समाधान-जघन्य गुण ग्रहण किया जाता है। वह जघन्य गुण अनन्त अविभागप्रतिच्छेदों से निष्पन्न होता है।
शङ्का---यह किम प्रमाण से जाना जाता है ?
१. ३वल पु. १४ पृ. ४३७-४३८ सूत्र ५१५-५१६ । २. ' ते च सब्बलोगागदेहि बद्धा ।।५२२॥" [धवल पु. १४ पृ. ४३६ । ३. ६.पु. १४ पृ. ४३९-४४०। ४. ध.पु. १४ पृ. ४४० । ५. 'ओरालियसरीरस्म जे एम गुणजुत्तदम्गपाए दवा ते बहुप्रा प्रणतेहि विस्सासुबचएहि उवचिदा ||५३६।। [ध.पु. १४ पृ. ४५०] ।
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३२२ / गो. सा. जीवकाष्ट
समाधान — 'अनन्त वित्रसोपचयों से उपचित हैं', यह सूत्र अन्यथा बन नहीं सकता है। इस सूत्र से जाना जाता है कि वह अनन्त प्रविभागप्रतिच्छेदों से निष्पन्न होता है ।
गाथा २४९
शंका- एक प्रविभागप्रतिच्छेद के रहते हुए एक विस्रसोपचय न होकर अनन्त वित्रसोपचय संभव हैं ।
समाधान- यह ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसी अवस्था में उनका सम्बन्ध बिना कारण होता है, ऐसा प्रसंग प्राप्त हो जाएगा। यदि कहा जाय कि उसका विस्रसोपचयों के साथ बन्ध भी हो जाएगा सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जघन्य गुण वाले के साथ बन्ध नहीं होता' इस सूत्र के साथ विरोध आता है ।
जो दो गुणयुक्त वर्गणा के द्रव्य हैं, वे विशेष होन हैं और वे अनन्त वित्रसोपचयों से उपचित हैं ।। ५४० ।। *
शङ्का - यदि अनन्त प्रविभागप्रतिच्छेदों से युक्त जघन्यगुण में 'एक गुण' शब्द प्रवृत्त रहता है तो दो जघन्यगुणों में दो गुण' शब्द की प्रवृत्ति होनी चाहिए, अन्यथा 'दो' शब्द की प्रवृत्ति नहीं उपलब्ध होती ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जघन्यगुण के ऊपर एक अविभाग प्रतिच्छेद की वृद्धि होने पर दो गुण भाव देखा जाता है ।
शङ्का - एक ही प्रविभागप्रतिच्छेद की द्वितीय गुरण संज्ञा कैसे है ?
समाधान - क्योंकि मात्र उतने ही गुणान्तर की वृद्धि द्रव्यान्तर में देखी जाती है। गुण के द्वितीय अवस्था विशेष की द्वितीय गुण संज्ञा है और तृतीय अवस्था विशेष की तृतीय गुण संज्ञा है, इसलिए जघन्य गुण के साथ द्विगुणपना और त्रिगुणपना यहाँ बन जाता है । अन्यथा द्विगुणगुणयुक्त वर्गणा के द्रव्य ऐसा सूत्र प्राप्त होगा । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि इस प्रकार का सूत्र उपलब्ध नहीं होता । गुण युक्त वर्गणा के द्रव्य शलाकाओं की दृष्टि से पूर्व की शलाकाओं से भागहीन हैं।
इस प्रकार
शङ्का - जिस प्रकार पारिणामिक भाव रूप से स्थित हुए परमाणु रूप पुद्गलों में एक परमाणु के सम्बन्ध का निमित्तभूत वर्गणा गुण सम्भव है, उस प्रकार जीव से प्रवेद रूप इन प्रदारिकशरीर पुद्गलों में क्यों सम्भव नहीं है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व आदि कारणों से बन्ध होते समय ही जिसमें सब जीवों से अनन्तगुणो बन्धन गुणवृद्धि को प्राप्त हुए हैं तथा जीवों से पृथक् होकर भी जिन्होंने प्रदयिक मात्र का त्याग नहीं किया है, ऐसे प्रहारिक परमाणुयों में अनन्त बन्धन गुरण उपलब्ध होते हैं। इसी प्रकार
१. "न जघन्यगुणानाम् ||३४||" [ तत्वार्थ सूत्र . ५ ] । २. "जे विस्मासु एहि उवचिदा ।। ५४० ॥ [ धमल पु. १४ पृ. ४५० ]
दुगुरात वगाए दव्या ते विसेसहीणा मणतेह ३. धवल पु. १४ पृ. ४५० - ४५१ ।
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गाथा २५-२५१
योगमार्गण। ३२३
तीन, चार, पाँच, संख्यात, असंख्यात, अनन्त और अनन्तानन्त गुणयुक्त वर्गणा के जो द्रव्य हैं वे विशेष हीन हैं और वे अनन्त विनसोपचयों से उपचित हैं ॥५४१।। इसी प्रकार चार शरीरों की अपेक्षा जानना।
कर्म होर नोकर्म के उत्कृष्ट संचय का स्वरूप तथा स्थान उपकस्सटिदिचरिमे सगसगउक्कस्ससंचयो होदि । पणदेहाणं वरजोगाविससामग्गिसहियारणं ।।२५०॥ श्रावासया हु भयप्रद्धाउस्सं जोगसंफिलेसो य ।
प्रोकटुक्कट्टण्या छच्चेवे गुरिणवकम्मंसे ।।२५१॥ गाथार्थ-उत्कृष्ट योग आदि अपनी-अपनी सामग्री सहित पांचों ही शरीर वालों के उत्कृष्ट स्थिति के अन्त समय में अपना-अपना उत्कृष्ट संचय होता है। कमों के उत्कृष्ट संचय से युक्त जीव के उत्कृष्ट संचय करने के लिए ये छह आवश्यक कारण होते हैं -भवाद्धा, आयुष्य, योग, संवलेश, अपकर्षण, उत्कर्षण ।।२५०-२५१॥
विशेषार्थ-प्रौदारिक शरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र का स्वामी तीन पल्य की आयु वाला उत्तरकुरु और देवकुरु का अन्यतर मनुष्य होता है ।
स्त्रीवेद और पुरुषवेद के कारण तथा सम्यक्त्व और मिथ्यात्व आदि गुणों के कारण द्रव्य विशेष नहीं होता, इस बात का शान कराने के लिए अन्यतर (कोई भी) पद का निर्देश किया गया है ।
शङ्का-देवकुरु व उत्तरकुरु मनुष्य के अतिरिक्त अन्य के उत्कृष्ट स्वामित्व का किसलिए निषेध है ?
समाधान-क्योंकि अन्यत्र बहुत साता का अभाव है, क्योंकि असाता से श्रीदारिक शरीर के बहुत पुद्गल का अपचय होता है ।
शङ्का-उत्तरकुरु और देवकुरु के सब मनुष्य तीन पल्य की स्थिति वाले ही होते हैं, इसलिए 'तीन पल्य की स्थिति बाले के' यह विशेषण युक्त नहीं है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उत्तरकुरु ब देवकुरु के मनुष्य तीन पल्य की स्थिति वाले ही होते हैं, ऐसा कहने का फल वहाँ पर शेष नायुस्थिति के विकल्पों का निषेध करना है।
उसी मनुष्य ने प्रथम समय में तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योग से आहार ग्रहण किया । शरीर के योग्य पुद्गलपिण्ड का ग्रहण करना आहार है। तद्भवस्थ होने के द्वितीय या तृतीय
१. 'एवं ति चदु-पंच-छ-सत्त-अट्ठ-पथ-दस-संघज्ज-प्रसंखेज अगात-श्रण तणतगुग जुत्तबग्गाए दवा ते विमेसहोला प्रणतेहि विम्सासुवचएहि उचिदा !।५४१।। एवं चदुरणं समीराण ।।५४३।। [पथल पु. १४ पृ. ४५२-५३] । २. "पोरालिवसरीरस्म उक्करसयं पदेसग्गं कस्म ।। ४ १३।। अथादरस्म उत्तरकुम-देवकुरु-मणुमरसतिपलि दीवमाछदियस्स ॥४१८।।' [धवल पु. १४ पृ. ३६७-३६८] । ३. धवल पु. १४ पृ. ३६८-३६६ । ४. 'तेणेव पढमममय माहरएस परमसमय तम्भवत्येण उक्कस्सेश जोगेण पाहारियो॥४१६।। [प. पु. १४ पृ. ३६६ ||
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३२४ / गो. सा. जीवकाण्ड
गायाः २५० २५१
समय जो ग्राहारक होता है उसका प्रतिषेध करने के लिए 'प्रथम समय में तद्भवस्थ होकर आहार ग्रहण किया' यह विशेषण दिया है ।
शङ्का - विग्रहगति से उत्पन्न होने में क्या दोष है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि दो समय में संचित हुए द्रव्य के प्रभाव का प्रसंग आता है । उत्कृष्ट वृद्धि से वृद्धि को प्राप्त हुआ ||४२०|| १ प्रथम समय के योग से द्वितीय समय का योग असंख्यातगुणा हैं। दूसरे समय के योग से तीसरे समय का योग असंख्यात गुणा है। इस प्रकार एकान्तानुवृद्धि योग के अन्तिम समय तक लेजाना चाहिए। जघन्य वृद्धि का प्रतिषेध करने के लिए 'उत्कृष्ट वृद्धि से वृद्धि को प्राप्त हुआ' यह कहा है । ३
सबसे लघु मुहूर्त काल द्वारा सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ ||४२१ । ३ छहों पर्याप्तियों के पूरे होने के काल जघन्य भी हैं और उत्कृष्ट भी हैं। उसमें प्रन्तर्मुहूर्त प्रमाण सर्व जघन्य काल द्वारा स पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ ।
शंका- लघु पर्याप्तकाल किसलिए ग्रहण किया जाता है ?
समाधान – क्योंकि पर्याप्तकालीन परिणामयोग से अपर्याप्तकालीन एकान्तानुवृद्धियोग प्रसंख्यातगुणे हीन होते हैं। अतः उनके द्वारा बहुत पुद्गलों का ग्रहण नहीं होता। इसलिए अपर्याप्त काल लघु ग्रहण किया गया।
उसके बोलने के काल अल्प हैं ||४२२ || * भाषा के व्यापार से जो परिश्रम होता है, उससे तथा भाषारूप पुद्गलों का अभिघात होने से बहुत श्रदारिक शरीर पुद्गलों की निर्जरा होने का प्रसंग आता है, इसलिए भाषाकाल स्तोक चाहिए ।
मनोयोग के काल अल्प हैं ||४२३ ।। * चिन्ता के कारण जो परिश्रम होता है, उससे गलने वाले मुगलों का निषेध करने के लिए “मनोयोग के काल अल्प हैं" यह कहा है ।
छविछेद है ||४२४|| छवि शरीर को कहते हैं। उसके नख आदि का क्रियाविशेष के द्वारा खंडन करना छेद है । चे छेद यहाँ पर अल्प अर्थात् स्तोक हैं। जिनसे शरीरपीड़ा होती है, वे वहां प हैं ।
आयुकाल के मध्य कदाचित् विक्रिया नहीं की ।। ४२१|| तीन पत्य की आयु का पालन करते हुए कदाचित् विक्रिया नहीं की, क्योंकि श्रदारिक शरीर का त्याग कर विक्रिया रूप को ग्रहण करनेवाले के केवल औदारिक शरीर की निर्जरा होने का प्रसंग आता है। यह विक्रिया रूप शरीर भी श्रीदारिक है, ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि विक्रिया रूप शरीर के श्रदारिक होने का निषेध है । "
१.
३.
कस्मियाए बड्डी बडदो ||४२०१ धवल पु. १४ पृ. ४oo नमुने मल सम्बाहि पज्जतीहि पज्जतयदी ॥४२१|| " प्रणाम भामायां ॥४२२।। । धवल पु. १४ . ४०१
יך
२. धवल पू. १४
[ धबल पु. १४ ध्रु. ४०० ] | ५. अप्पमो मरा जोगदान १४२३॥ धवल पू. १४ पृ. ४०१]। ७. "अंतरेण कदाइ विधिदो
[ धवल पु.
१४ पृ. ४०१ ] । ६. "अप्पा छविच्छेद || ४२४) ॥४२५॥ [ ध.पु. १४ पृ. ४०१] । ८. ध. पु. १४ पृ. ४०२ ।
पृ. ४०० ।
४. "तहम
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गाथा २५०-२५१
योगमार्गमा ३२५
जीवितव्य काल के स्तोक शेष रहने पर योग यवमध्य के ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा।' बहुत पुद्गलों का संग्रह करने के लिए वहाँ अन्तमुहर्त काल तक ही रहा, क्योंकि अधिक काल तक वहाँ रहना सम्भव नहीं है। तीन पल्य प्रमाण काल के भीतर जब-जब सम्भव है तब-तब यवमध्य के ऊपर के योग स्थानों में ही परिणमन करता है।
अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तर में प्रावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक रहा ||४२७॥ क्योंकि जो अन्तिम जीवगुणहानि है वहाँ आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल का
आश्रय लेकर अन्तिम योग से वहाँ के योग असंख्यातगुणे होते हैं किन्तु वहाँ पर पावली के असंख्यातवें भाग से अधिक काल तक ठहरना सम्भव नहीं है। यवमध्य के ऊपर रहता हुआ जब-जब सम्भव है तब-तब अन्तिम जीवगुणहानि-स्थानान्तर में ही रहता है ।
चरम और द्विचरम समय में उत्कृष्ट योग को प्राप्त हुआ ।।४२८।। ३ क्योंकि योगवृद्धि से प्रदेशबन्ध की वृद्धि बहुत होती है, तथा उत्कृष्ट योग के साथ दो समय. तीन समय और चार समय को छोड़कर सर्वत्र भवस्थिति के भीतर बहुत काल तक परिणमन करने की शक्ति का प्रभाव है। इस भव में जब सम्पद है, टया-तत कदमोग को ही प्राप्त हुआ है।
शङ्का-यहाँ पर संक्लेश का कथन क्यों नहीं किया ?
समाधान:- क्योंकि मर कर ऋजुगति के प्राप्त होने पर कषाय की वृद्धिहानि से कोई प्रयोजन नहीं। संक्लेश के सद्भाव में अवलम्बन करण के करने से बहुत नोकर्मपुद्गलों के गलने का प्रसंग प्राप्त होता है, इसलिए संक्लेश वास का ग्रहण नहीं किया गया ।
अन्तिम समय में तद्भवस्थ हुए उस जीव के प्रौदारिकशरीर का उत्कृष्ट प्रदेशाग्र (प्रदेणसमुह) होता है ।।४२६॥
उपसंहार-किसी मनुष्य या तिथंच ने दान या दान के अनुमोदन से तीन पल्य की रियतित्राले देवकुरु या उत्तरकुरु के मनुष्य को प्रायु का बन्ध किया। इस प्रकार इस क्रम से मरकर ऋजु गति से देवकुरु या उत्तरकुरु में मनुष्य उत्पन्न हुआ। पुनः प्रथम समय में प्राहारक और प्रथम समय में तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट उपपादयोग से आहार ग्रहण कर, उन ग्रहण किये गये नोकर्मप्रदेशों को तीन पल्य के प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय तक गोपुच्छाकार से निक्षिप्त किया फिर द्वितीय समय से लेकर उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग से वृद्धि को प्राप्त होता हुआ अन्तर्मुहूर्त काल तक असंख्यातगुणित श्रेणिरूप से नोकर्म प्रदेशों को ग्रहण कर तीन पल्प प्रभाग काल में निक्षिप्त किया। पुनः अतिशीघ्र पर्याप्तियों को समाप्त करके और परिणामयोग को प्राप्त होकर उपर्युक्त कही गई विधि से पाकर जो अन्तिम समय में स्थित होता है, वह उत्कृष्ट द्रव्य का स्वामी होता है ।
वैक्रियिकशरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र का स्वामी बाईस सागर की स्थितिवाला आरण और
१. "थोवाघससे जीविदवाए ति जोगजवमस्मरबरिमतो मुहूत्तद्धमच्छिदो ।। ४२६।। धबल पु. १४ पृ. ४०२ । २. "चरिमे जीत्रगुणहारिणवाणं तरे भावलियाए प्रसंघ जदिभागमच्छिदो ॥४२७।।" [धवल पु. १४ पृ. ४०३] । ३. "चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्स जोगं गदो ॥४२८|| [धवल पु. १४ पृ. ४०३] । ४. "तस्स चरिम समयतभवत्यस्स तरस पोरालियसरीररस उवकरसयं पदेसम्गं ।।४२६।।''[ध.पू. १४ पृ. ४०४]। ५. ध.पु. १४ पृ. ४०४-४०५ ।
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३२६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २५०.२५१ अच्युत कल्पवासी अन्यतर देव है ।। ४३१-४३२।।' सम्यक्त्व और मिथ्यात्व ग्रादि के निमित से द्रव्य विशेष नहीं होता।
शङ्का-दीर्घ आयुवाले सर्वार्थसिद्धि के देवों में उत्कृष्ट स्वामी क्यों नहीं होता?
समाधान- नहीं, क्योंकि नौ ग्रेवेयक प्रादि ऊपर के देवों में उत्कृष्ट योग के परावर्तन के बार प्रचुरमात्रा में नहीं उपलब्ध होते ।
ऊपर अवगाहना ह्रस्व है, इसलिए वहाँ पर स्वामित्व नहीं कहा गया, ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि योग के बणसे आनेवाले कर्म व नाकम पुगलों को अवगाहना विशेष के कारण संख्याविशेष उत्पन्न नहीं होती।
शङ्का-नीचे के देवों में उत्कृष्ट स्वामित्व क्यों नहीं कहा गया ? समाधान नहीं, क्योंकि वहाँ पर लम्बी आयु का अभाव है।
शडा-सातवीं पृथिवी के नारकियों को आयु लम्बी होती है और उत्कृष्ट योग भी है, वहाँ उत्कृष्ट स्वामित्व क्यों नहीं कहा ?
समाधान--नहीं, क्योंकि वहाँ संक्लेशों की बहुलता है, इसलिए उनमें बहुत नोकर्मों की निर्जरा होती है।
उसी देव ने प्रथम समय में आहारक और प्रथम समय में तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योग से पाहार ग्रहण किया ।।४३३॥ उत्कृष्ट वृद्धि से वृद्धि को प्राप्त हुआ। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण सर्व लघुकाल के द्वारा सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हवा ॥४३५|| उसके बोलने के काल अल्प हैं ।।४३६॥ मनोयोग के काल अल्प हैं ।।४३७।। उसके छविच्छेद नहीं होते ॥४३८।। क्योंकि वैऋियिक शरीर में छेद ब भेद आदिक नहीं पाये जाते । उसने अल्पतर विक्रिया की ||४३६।। क्योंकि बहुत विक्रिया करने से बहुत परमाणु पुद्गलों के गलन होने का प्रसंग प्राप्त होता है। जीवितव्य के स्तोक मेष रहने पर वह योग यवमध्य के ऊपर अन्तर्मुहतं काल तक रहा ।।४४०॥ अन्तिम जीव गुणहानिस्थानान्तर में प्रावली के प्रसंख्यातवें भाग काल तक रहा ||४४१॥ चरम और द्विचरम समय में उत्कृष्ट योग को प्राप्त हुा ।।४४२।। अन्तिम समय में तद्भवस्थ हुए उस जीव के वै कियिक शरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र होते हैं ।।४४३॥
__ आहारक शरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्न का स्वामी उत्तर शरीर की विक्रिया करनेवाला अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव है ।।४४५-४४६।। अवगाहना प्रादि की अपेक्षा द्रध्य भेद नहीं है। प्रमाद के होने पर संयत के आहारक शरीर का उदय होता है। उसी जीव ने प्रथम समय में गाहारक और प्रथम समय में तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योगद्वारा प्राहार को ग्रहण किया । १. बेउन्धियसरीरस्स उन मस्सयं पदेसग्गं कस्स || ४३१।। अपणदरस्म मारण मच्चुद कप्पवासियदेबस्स वावीससागरोनमछिदिप्रस्म ।। ४३२।।" [पवल पु. १४ पृ. ४११] । २. धवल पु. १४ पृ. ४११। ३. धवल पु. १४ पृ. ४१२-४१३ । ४. “उक्कासपदेरण माहारसरी रस्स उक्कस्सयं पदेसम्गं कस्स । अण्णदरस्म पमत्तसंजदस्स उत्तरसरं विउत्रियम्स ।। ४४६।।" [धवल पु. १४ पृ. ४१४] ।
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गाथा २५०-२५१
योगमार्गणा/३२७
शङ्का-याहारक शरीर का 'प्रथम समय तद्भवस्थ' विशेषरग कैसे बन सकता है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि औदारिक शरीर को छोड़कर आहारव शरीररूप से परिणत हुए जोत्र का अवान्तरगमन है, इसलिए 'प्रथमसमयतद्भवस्थ' विशेषण बन जाता है।'
उत्कृष्ट वृद्धि से वृद्धि को प्राप्त हुआ ।।४४८॥ सबसे लघु अन्तमुहर्त काल द्वारा सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हुप्रा ।।४४६।। उसके बोलने के काल अल्प हैं ।।४५०॥ मनोयोग के काल अल्प हैं ।।४५१।। छविच्छेद नहीं हैं ॥४५२।। निवृत्त होने के काल के थोड़ा शेष रह जाने पर योगययमध्यस्थान के ऊपर परिमित्तकाल तक रहा ।।४५३।। अन्तिम जीवगुणहानि स्थानान्तर में प्रावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक रहा ।।४५४।। चरम और द्विचरम समय में उत्कृष्ट योग को प्राप्त हुमा ।।४५५॥ निवृत्त होनेवाला वह जीव अन्तिम समय में आहारक शरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र का स्वामी है ।।४५६॥
औदारिक शरीर सम्बन्धी कथन में विशेष रूप से कथन हो चुका है तथापि जो विशेषता है, उसका कथन इस प्रकार है--प्रमत्तसंयत आहारक शरीर को उत्पन्न करता हुआ अपर्याप्त काल में अपर्याप्तयोग वाला होता है अन्यथा उत्कृष्ट वृद्धि द्वारा आहारक मिन काल के वृद्धि नहीं बन सकती। दुसरे, निषेक-रचना करने पर अवस्थित रूप से ही निषेक रचना होती है, गलितावशेष निधेकरचना नहीं होती।
शङ्का -- यह किस कारण जाना जाता है ? समाधान—क्योंकि पाहारकशरीर की निर्जरा होने का कान अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा गया
यदि कहा जाय कि कालभेद के बिना एक ही समय में निक्षिप्त हुए प्रदेशों का एक समय के बिना अन्तर्मुहूर्त में गलना सम्भव है सो ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा होने में विरोध आता है। इसी प्रकार तिथंच और मनुष्यों में वैफियिकशरीर की निषेक-रचना वाहनी चाहिए, अन्यथा वहाँ पर क्षीण होने का काल अन्तर्मुहुर्त प्रमाण होने में विरोध पाता है ।
तजस शरीर के उत्कृष्ट प्रदेशानका स्वामी अन्यतर पूर्वकोटि को प्रायुवाला जीव जो नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों के आयु कर्म का बन्ध करता है ।।४६०॥ जो पूर्वकोटि अायुबाला जीव सातवीं पृथिवी के नारकियों में आयुकर्म का बन्ध करता है वह तैजसशरीर के छयासठ सागर प्रमाण स्थिति के प्रथमसमय से लेकर अन्तिम समय तक गोपुच्छाकाररूप से निषेक रचना करता है। जो सातवी पृथिवी के नारकियों की आयु का बन्ध करता हुआ स्थित है वहीं तेजस शरीरनोकर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करता है, ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिए, किन्तु जो पूर्वकोटि की आयुवाला पर्याप्त और उत्कृष्ट योगबाला जीव मागे पूर्वकोटि के विभाग शेष रहने पर सातवीं पृथिवी के मारकियों की आयु का बन्ध करने में समर्थ है, वह तेजस शरीर नोकर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करता है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा पूर्व कोटि की पायवाला बांधता है, इस प्रकार के नियम करने का कोई फल नहीं रहता।
१. प.पु. १४ पृ. ३३६ ।
२. घवल पु. १४ पृ. ४१५ ।
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३२८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २५०-२५१ शङ्का-पूर्वकोटि की प्रायुवाले जीव के ही तैजस शरीर की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध क्यों कराया?
समाधान--क्योंकि वहाँ पर उत्कृष्ट योग के परावर्तन के बार प्रचुरता से उपलब्ध होते हैं।
शङ्का-यदि ऐसा है तो पूर्वकोटि को प्रायुवालों में ही भ्रमण कराकर तंजसशरीर नोकर्म का उत्कृष्ट संचय क्यों नहीं प्राप्त होता?
समाधान नहीं, क्योंकि बहुत बार मरकर उत्पन्न होनेवाले जीव के अपर्याप्त योगों के द्वारा स्तोक द्रव्य के संचय का प्रसंग प्राप्त होता है ।
नारकियों की आयु का बन्ध होते समय कुछ कम दो पूर्वकोटि से हीन तैंतीस सागर की आयु का बन्ध होना चाहिए, अन्यथा नारकी के अन्तिम समय में छयासठ सागर की परिसमाप्ति होने में विरोध प्राता है।
__ जो पूर्वकोटि की आयुबाला उपर्युक्त विवक्षित जीव सातवीं पृथिवी के नारकियों के प्रायुकर्म का बन्ध करता है वह क्रम से मरा और नोचे सातवीं पृथिवी में उत्पन्न हुा ।४६१॥
कदलीघात के बिना जीवन धारण कर मरा । शङ्का-सातवीं पृथिबी में ही क्यों उत्पन्न कराया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वहाँ पर संक्लेश के कारण बहुत द्रव्य का उत्कर्षण उपलब्ध होता है । तथा अन्यत्र इस प्रकार का संक्लेश नहीं पाया जाता।
शंका–पायु के प्रमाण का कथन क्यों नहीं किया ?
समाधान-उस की प्रायु कुछ कम होती है, इसलिए आयु के प्रमाण का कथन नहीं झिया। वहां से निकलकर फिर भी पूर्वकोटि की पाबुवालों में उत्पन्न हुअा 11४६२॥
शङ्का-पुनः पूर्वकोटि की प्रायुबालों में क्यों उत्पन्न हुप्रा ? समाधान- क्योंकि वहाँ पर उत्कृष्ट योग के परावर्तन के धार प्रचुरता से पाये जाते हैं।
उसी क्रम से प्रायु का पालन करके मरा और पुनः नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न हुआ ।।४६३।। अर्थात् कदलीचात और अपवर्तनाघात के बिना जीवन धारण कर मरा। दूसरी पूर्वकोटि के अन्त में प्रथम तैतीस सागर समाप्त करके तैतीस सागर की प्रायुबाले नारकियों में उत्पन्न हुआ। नीनों अपर्याप्त कालों (दो नरक के और एक तिर्यच का) के प्रथम समय में आहारक हुए और प्रथम समय में तद्भवस्थ हुए उसी जीव ने उत्कृष्ट योग से प्राहारक को ग्रहगा
१. घ. पृ. १४ पृ. ४१६-४१७ । २. "कमगा कालगदसमारणो अघो सत्तमाए पुढविए, उन्न्यण्गो ।।४६१।। [धन्नल पु. १४ पृ. ४१७] ३. “तदो उचठ्ठिदसमासो पुरणरावे पुरत्र कोडाउए सुत्रअण्णो" ॥४६२।। [प्र. पु. १४ पृ. ४१०] । ४. ५६३ से ४७४ तक के सूत्र पृ. ४१८-४२१ तक प. बु. १४ में हैं ।
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गाथा २५०-२५१
योगमार्गगा/३२६
किया ।।४६४।। पर्याप्त काल बढ़ाने के लिए विग्रहगति से उत्पन्न होने का निषेध किया गया।
उत्कृष्ट दिने बजि को प्राप्त ||४६५।। सबसे अल्प अन्तर्मुहर्त काल के द्वारा सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हो ।।४६६। वहाँ तैतीस सागर आयूप्रमाण भवस्थिति का पालन करता हुप्रा बहुत-बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त होता है। बहुत-बहुत बार विपुल संक्लेश परिणाम वाला होता है ।।४६७, ४६८, ४६६।। बहुत पुद्गलों का संग्रह करने के लिए उत्कृष्ट योगवालों में घुमाया। संचित हुए तेजस पुदगलों का उत्कर्ष करने के लिए सक्लेश का कथन पाया है । प्रौदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर और पाहारकशरीर के पुद्गलों का उत्कर्ष नहीं होता, क्योंकि उन शरीरों के कथन में संक्लेश का कथन नहीं पाया है। इस प्रकार परिभ्रमण करके जीवितव्य के स्तोक शेष रहने पर योग यवमध्य के ऊपर अन्तर्मुहुर्त काल तक ठहरा ।।४७०।। अन्तिम जीवगुणहानि स्थानान्तर में प्रावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक रहा ॥४७१।। द्विचरम और त्रिचरम समय में उत्कृष्ट संक्लेश को प्राप्त हुया ॥४७२॥ चरम और द्वि चरम समय में उत्कृष्ट योग को प्राप्त हुया ॥४७३।। चरमसमयवर्ती तद्भवस्थ बह जीव तैजस शरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र का स्वामी है ॥४७४।। छयासठ सागर स्थिति के प्रथम समय में जो तेजस शरीर पुद्गल स्कन्ध बँधा था, स्वामित्व के अन्तिम समय में वह अन्तिम गोपुच्छ मात्र शेष रहता है जो कर्मस्थिति के द्वितीय समय में बाँधा वह स्वामित्व के अन्तिम समय में चरम और द्विचरम गोपुच्छ मात्र शेष रहता है [इसी प्रकार चलते हुए कर्मस्थिति के अन्तिम समय में बाँधा हुआ समयप्रबद्ध पूर्णरूपेण (पूरा का पूरा) शेष रहता है। ] इस प्रकार अन्तिम समय में डेढ़ गुणहानि मात्र समयप्रबद्ध प्रमाण तेजस शरीर का द्रव्य होता है। कार्मणशरीर प्रदेशाग्र का स्वामी निम्न जीव है
जो जीव बादर पृथिवीकायिक जीवों में कुछ अधिक दो हजार सागरोपम से कम कमस्थिति प्रमाणकाल तक रहा।
शङ्खा--अपकायिक, वायुकायिक व वनस्पतिकायिक जीवों में क्यों नहीं उत्पन्न कराया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि उनके पर्याप्त व अपर्याप्त योग से पृथिवीकायिक जीवों का पर्याप्त व अपर्याप्त योग असंख्यातगुरणा है।'
शङ्कर--बादर पृथिवीकायिकों में सम्पूर्ण कर्मस्थिति प्रमारण काल तक क्यों नहीं घुमाया ? ___समाधान नहीं, क्योंकि एकेन्द्रियों में प्रसों का योग और आयु असंख्यातगुणी होती है और बे संक्लेश-बहुल होते हैं, इसलिए पृथिवीकायिकों में घुमाने के पश्चात् प्रसों में घुमाया । यदि एकेन्द्रियों में ही रखते तो इनकी अपेक्षा त्रसों में जो असंख्यातगुणे द्रव्य का संचय होता है वह नहीं प्राप्त होता। यही कारण है कि सम्पूर्ण कर्मस्थिति प्रमाण काल तक एकेन्द्रियों में नहीं घुमाया है ।
शखा-सकामिकों में अपनी स्थिति प्रमाण काल के भीतर उत्कृष्ट द्रव्य का संचय करके पुनः बादर पृथिवीकायिकों में उत्पन्न होकर वहाँ अन्तर्मुहुर्त रह कर फिर वसस्थितिकाल तक सों में भ्रमण करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न कराते। इस प्रकार कर्मस्थितिप्रमाण काल तक बयों नहीं घुमाया ?
१. प.पु. १७ पृ. ३२ । २. घ.पु. १० पृ. ३३ ।
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३३० / गो. सा. जीव काण्ड
गाथा २५० - २५१
समाधान — नहीं, क्योंकि त्रस स्थिति को पूर्ण करके जो जीव एकेन्द्रिय में उत्पन्न होता है, उसका बसों में संचित हुए द्रव्य को बिना गाले निकलना नहीं होता ।"
वहाँ (बादर पृथिवीकायिकों ) में परिभ्रमण करने के बहुत और पर्याप्तभव थोड़े होते हैं ॥८॥ उत्पत्ति के वारों का नाम भव है ।
शङ्का - पर्याप्तों में ही बहुत बार क्यों उत्पन्न कराया ?
समाधान — अपर्याप्तकों के योगों से पर्याप्तकों के योग असंख्यातगुणे पाए जाते हैं । शङ्का -- योगों की बहुलता क्यों अभीष्ट है ।
समाधान - योग से प्रदेशों की अधिकता सिद्ध होती है।
पर्याप्तकाल दीर्घ और अपर्याप्तकाल थोड़े होते हैं ॥ ६ ॥ अर्थात् पर्याप्तकों में उत्पन्न होता हुआ दीर्घ आयु वालों में ही उत्पन्न होता है और अपर्याप्तों में उत्पन्न होता हुआ अल्प प्रयुवालों में ही उत्पन्न होता है । * दीर्घ श्रायुवाले पर्याप्तों में उत्पन्न होकर भी सबसे अल्प काल द्वारा पर्याप्तियों को पूर्ण करता है । *
जब-जब श्रायु को बाँधता है तब-तब उसके योग्य जघन्य योग से बाँधता है। कर्म का उत्कृष्ट प्रदेशसंचय कराने के लिए जघन्य योग से ही आयु का बन्ध कराया जाता है अन्यथा उत्कृष्ट संचय नहीं हो सकता । उत्कृष्टयोग के काल में आयु का बंध होने पर, जघन्ययोग से आयु को afने वाले के कर्मो का जो क्षय होता है, उससे असंख्यातगुणे द्रव्य का क्षय देखा जाता है । ७
उपरिम स्थितियों के निषेक का उत्कृष्टपद होता है और श्रधस्तन स्थितियों के निषेकों का जन्यपद होता है || ११ | एकेन्द्रियों में यद्यपि उत्कृष्ट स्थिति-बन्ध एक सागर है । तथापि एक सागर काल बीतने पर समयप्रबद्ध के सब कर्मस्कन्ध नहीं गलते, क्योंकि उत्कर्षण द्वारा उनका स्थितिसत्त्व बढ़ा लिया जाता है ।
शङ्का - यदि ऐसा है तो अनन्तकाल तक उत्कर्षण कराकर संचय को क्यों नहीं ग्रहण किया
जाता ?
समाधान नहीं, क्योंकि कर्मस्कन्धों की उतने काल तक उत्कर्षण शक्ति का प्रभाव है । 'व्यक्त अवस्था को प्राप्त हुई कर्म स्थिति शक्ति रूप कर्म स्थिति का अनुसरण करने वाली होती है । "
गुणित कर्माशिक जीव विशेष अधिक प्रक्षिप्त
अथवा बध्यमान और उत्कर्षमाण प्रदेशान को निक्षिप्त करता हुआ अंतरंग कारणवश प्रथम स्थिति में थोड़े प्रक्षिप्त करता है द्वितीय स्थिति में करता है, तृतीय स्थिति में विशेष अधिक प्रक्षिप्त करता है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति के प्राप्त
घ पु १० पृ. ३७ ॥
पृ. ४३ ॥
३. व. पु. १० पृ. ३६ ॥
४.
१. ध. पु. १० पु. ३४ । २. व. पु. १० पृ. ३५ । ५. व. पु. १० ३८ । ६. ष पु. १० पृ. ३८ । ७. ध. पु. १० पृ. ३६ ८. ध. पु. १ ६. "वत्तिकम्मट्ठदि अणुसारिणी सत्ति कम्मट्ठदित्ति वयणादो ।" [ष. पु. १० पृ. ४२.] ।
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गाथा २५० २५१
योग मागंरा/३३१
होने तक विशेष अधिक के क्रम से प्रक्षेप करता है ।" इस विलोम विन्यास का कारण गुणितकर्माशिकत्व और अनुलोम विन्यास का कारण क्षपितकर्माशिकत्व है, न कि संक्लेश और विशुद्धि
बहुत बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त होता है || १२ || ३ बहुत - बहुत बार बहुत संक्लेश रूप परिणामवाला होता है ।।११।। द्रम्य मकर्षण कने के लिए और उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध कराने के लिए बहुत - बहुत बार संबलेश रूप परिणामों को प्राप्त कराया जाता है ।"
इस प्रकार परिभ्रमण करके नादर त्रस पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ, अभिप्राय यह है कि स स्थिति से रहित कर्मस्थिति प्रमारण काल तक एकेन्द्रियों में परिभ्रमण करके फिर बादर स पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ ।
शङ्का - बादर शब्द का प्रयोग क्यों किया गया ?
समाधान - सूक्ष्मता का निषेध करने के लिए ।
शङ्का- - अस कहने से ही सूक्ष्मता का प्रतिषेध हो जाता है, क्योंकि सूक्ष्म जीव नसों में नहीं पाये जाते ?
समाधान — नहीं, क्योंकि यहां पर सूक्ष्मनामकर्म के उदय से जो सूक्ष्मता उत्पन्न होती है उसके बिना विग्रहगति में वर्तमान असों की सूक्ष्मता स्वीकार की गई है। क्योंकि उनका शरीर सनसानन्त वित्रोपचयों से उपचित प्रदारिकनोकर्म स्कन्धों से रहित हैं । "
सों में परिभ्रमण करने वाले उक्त जीव के पर्याप्त भव बहुत होते हैं और अपर्याप्त भव थोड़े होते हैं ||१५|| पर्याप्त काल दीर्घं होता है और पर्याप्त काल थोड़ा होता है ।। १६ ।। जब-जब श्रायु को बाँधता है तब-तब उसके योग्य जघन्य योग से बांधता है || १७ | | उपरिम स्थितियों के निषेक का उत्कृष्ट पद होता है और नीचे की स्थितियों के निषेक का जघन्यपद होता है ||१८|| बहुत - बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त होता है ||१६|| बहुत - बहुत बार बहुत संक्लेश परिणाम वाला होता है || २०१
इस प्रकार परिभ्रमरण करके अन्तिम भवग्रहण में नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न हुआ ||२१|| उत्कृष्ट संतलेश से उत्कृष्ट स्थिति को बाँधने के लिए और उत्कृष्ट उत्कर्षण कराने के लिए सातवें नरक में उत्पन्न हुआ । कर्म-स्थिति को बढ़ाने का नाम उत्कर्षण है । कर्मप्रदेशों की स्थितियों के अपवर्तन का नाम अपकर्षरण है । अन्य नरक पृथिवियों में तीव्र संक्लेश और दीर्घं आयु स्थिति का प्रभाव है । "
प्रथम समय में आहारक और प्रथम समय में तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योग के द्वारा कर्ममुगलों को ग्रहण किया ||२२|| उत्कृष्ट वृद्धि से वृद्धि को प्राप्त हुआ ||२३|| अन्तर्मुहूर्त द्वारा अतिशीघ्र सभी पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ ||२४|| एक भी पर्याप्ति के अपूर्ण रहने पर पर्याप्तकों में
१. घ. पु. १० पृ. ४३ ॥ ५. घ. पू. १० पृ. ४७-४८ ।
२. ष. पु. १० पृ. ४४ । ६. घ. पु. १० पृ. ५०-५१
३. ध. पु. १० पृ. ४५ । ४. घ. पु. १० पु. ४६ । ७. ध. पु. १० पृ. ५२-५३ ।
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३३२/नो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २५२ परिणामयोग नहीं होता किन्तु धवल पु. १० पृ. ४२२, ४२७ व ४३१ पर शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त होने के प्रथम समय से परिणामयोग होता है ऐसा कहा गया है ।' अपर्याप्तयोग से पर्याप्त योग असंख्यात गुणा होता है इसलिए सर्व लघु काल में पर्याप्त हुआ ऐमा व हा गया है । बहाँ भवस्थिति तेतीस सागरोपम प्रमाण है ।।२५।। आयु का उपभोग करता हुँप्रा बहुत-बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त होता है ॥२६॥ बहुत-बहुत बार बहुत संक्लेश परिणाम वाला होता है ।।२७।। इस प्रकार परिभ्रमण करके जीवन के थोड़ा शेष रह जाने पर योग यामध्य के ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रहा ॥२८॥' अन्तिम जीव गुरगहानि स्थान में प्रावली के असंख्यातवें भाग काल तक रहा ॥२६॥ द्विचरम व त्रिचरम समय में उत्कृष्ट संक्लेश को प्राप्त हुआ ||३०|| चरम और द्विचरम समय में उत्कृष्ट योग को प्राप्त हुआ ।।३१।। उस चरम समय में तद्भवस्थ जीव के कार्मरण शरीर उत्कृष्ट होता है ।।३२॥
पाँच शारीरों को उत्कृष्टस्थिति का प्रभागा पल्लतियं उवहीणं तेत्तीसांतेमुहत्त उवहीणं ।
छायट्ठी कम्मदिदि बंधुक्कस्सहिदी तारणं ॥२५२॥ गाथार्थ-तीन पल्य, तैतीस सागर, अन्तमुहर्त, छयासठ सागर और कर्मस्थितिबंध प्रमाण इन पांचों शरीरों की उत्कृष्ट स्थिति है ॥२५२॥
विशेषार्थ—प्रौदारिक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य प्रमाण है, क्योंकि प्रौदारिक शरीर मनुष्य व तियचों के होता है। मनुष्य और तिर्यचों की उत्कृष्ट प्रायु तीन पल्य प्रमाण होती है।' अत: औदारिक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य प्रमाण कही है। वैक्रियिक शरीर देव व नारकियों के होता है। उनकी उत्कृष्ट आयु तैतीस सागर है। अतः वैक्रियिक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागर कही गई है। ग्राहारक शरीर का स्वामी प्रमत्तसंयत है। प्रमत्तसंयत गुरगस्थान का काल अन्तमुहूर्त है । अतः प्राहारक शरीर की स्थिति अन्तर्मुहृतं कही गई।
तेजसशरीर और कार्मण शरीर इन दोनों शरीरों का सब जीवों के अनादिकाल से सम्बन्ध अत: इनकी स्थिति विवक्षित समयप्रबद्ध की अपेक्षा से कही गई है।
है ।
१. ध.पु. १० पृ. ५४-५५ "एक्काए वि पज्जतीए असमत्ताए पज्जत्तएसु परिगामजोगो रुप हो दि ति।" [३. पु. १. पृ. ५५] "सो जहरणपरिणामजोगो तसि कत्थ होदि ? सरीरपज्जत्तीएपज्जत्त मदरस पढमम मए व होदि ।" [घ.पु. १. पृ. ४२२,४२१,४३१] अर्थात् शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त होने के प्रथम समय में परिणाम योग होता है। यह दूसरा मत है 1 २. ध. पू. १ पृ. ५५ । ३. ध. पु. १० पृ. ५५-५७ । ४. ध.पु. १० पृ. ६८। ५. ध पु. १० पृ. १०-१०६ । तथा पृ. २२४ सूत्र ३४। ६. "नस्थिती परावरे विपल्योपभारतम् हत ।।३।। तिर्यग्योनिजानां च ।।३६।।' (तत्त्वार्थ सूत्र न. ३)। ७. "देवनारकाणामुपपाद: ।।२.३४।। प्रौपपादिक वैक्रियिकम् ।।२/४६।।" (तत्त्वाचंसूत्र)। ८. "महातम :प्रभायां त्रयस्त्रिशत्सागरोपमा स्थिति नि ।।३/४३ । विजयादिषु त्रयस्त्रिशत् सागरोपमाणि उत्कृस्टा स्थितिः ।। ४ । ३२/३" (राजवातिक)। ६. 'शुभ विशुद्धमायापातिचाहार के प्रमत्तसंयतस्यंब ।। ४६ । (तस्वायंसूत्र प्र. २)। १०.धवल पुस्तक ४ । ११. 'अनादिसंबन्धे च ।।४।। सर्वरय ।।४।। (तस्त्रार्थ सूत्र प्र. २) ।
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गाथा २५३
योगमार्गणा/३३३
जो प्रदेशाग्र तेजसशरीर रूप से प्रथम समय में बाँबे जाते हैं उनमें से कुछ एक समय तक रहते हैं, कुछ दो समय तक रहते हैं. कुछ तीन समय तक रहते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे छयासठ सागर काल तक रहते हैं ।।२४७॥ अर्थात अनादि से संसार में परिभ्रमण करते हुए जीव के जहाँ कहीं भी स्थापित करके तैजसगरीर को प्रदेशरचना उपलब्ध होती है।'
जो प्रदेशाग्र कार्मरण शरीर रूप से बाँधे जाते हैं उनमें से कुछ एक समय अधिक पावली प्रमागावाल तक रहते हैं, कुछ दो समय अधिक पावलोप्रमाणकाल तक रहते हैं और कुछ तीन समय अधिक मावली प्रमाणकाल तक रहते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट रूप से कर्मस्थिति प्रमाणकाल तक रहते हैं ।।२४८।। यहां पर कर्मस्थिति ऐसा कहने पर सत्तर कोडाकोड़ी सागर का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पाठों कर्मों के समुदाय को कार्मग शरीर रूप से स्वीकार किया गया है। प्रथम समय जो प्रदेशाग्र बाँधे जाते हैं उनमें से कुछ एक समय अधिक प्रावली काल तक रहते हैं, क्योंकि बन्धावली के बाद के समय में द्रव्य का अपकर्षण करके उदय में निक्षिप्त करने पर उस विक्षित एक समय अधिक प्रावली रूप उदय समय उदीयमान कर्मप्रदेश का अवस्थान काल एक समयाधिक पावली होता है तथा ऐसे उस कर्मप्रदेश में लाये गये द्रव्य का दो समय अधिक प्रावली के अन्तिम समय में अकर्मपना देखा जाता है।'
उपसंहार-एक जीव की अपेक्षा, मिश्र काल अर्थात् अपर्याप्त काल को छोड़कर पांचों शरीरों का काल इस प्रकार है-तिर्यंच और मनुष्यों के औदारिक शरीर का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम प्रमाण है । यहाँ पर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मिश्रकाल कम किया गया है 1 मूल वैफियिक शरीर का काल जघन्य से अपर्याप्त काल सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त कम तैतीस सागर है। उत्तर वैक्रियिक शरीर का काल देवों के जघन्य व उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है।
शङ्खर-तीर्थंकरों के जन्मोत्सव तथा नन्दीश्वर द्वीप में जिनचंत्यालयों की पूजन में अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल लगता है। वहाँ देवों का उत्तर वैक्रियिक शरीर इतने काल तक कैसे रहता है ?
समाधान-पुनःपुन: विक्रिया करने से उत्तर क्रियिक शरीर की सन्तति का बिच्छेद नहीं होता।
ग्राहारक शरीर का जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सन्तति की अपेक्षा तेजस व कार्मण शरीर अभव्यों के अनादि-अनन्त हैं। किसी भव्य के अनन्त काल तक भी सान्त नहीं होते। किसी भव्य के अनादि सान्त है। सन्तामनिरपेक्ष तेजस शरीर की स्थिति छयासठ सागर है और कार्मरा शरीर की स्थिति कर्मस्थिति प्रमाण अर्थात् सत्तर कोटाकोटी सागर प्रमाण है ।
पांचों शरीरों के गुणहानि मायाम का प्रमाण अंतोमुहुत्तमेतं गुणहाणी होदि आदिमतिगारणं । पल्ला संखेज्जदिमं गुणहाणी तेजकम्माणं ।।२५३।।
१. धवन्न पु. १४ पृ. ३३५। बातिक २/१/८ ।
२. धवल पु. १४ पृ. २३५ ।
३. धधल पु. १४ पृ. २३५-२३६ ।
४, राज
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३३४/गो. सा, जीवकाण्ड
गाथा २५३
गाथार्थ -आदि के तीन शरीरों का गुणहानि-पायाम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। तेजस शरीर और कार्मण शरीर इन दोनों का गुणहानि अायाम पल्य के असंख्यातवें भाग है ।।२५३।।
विशेषार्थ-प्रथम निषेक के द्रव्य को निषेक भागाहार (दो गुणहानि) से भाग देने पर चय का प्रमाण प्राप्त होता है। प्रत्येक निर्षक एक-एक चय हीन होता जाता है। प्रथम निषेक के द्रव्य से घटते-घटते जब तक प्रथम निषेक के द्रव्य का प्राधा होता है तब तक एक गुणहानि पायाम है। दोगुणा हीन अर्थात् प्राधा हो जाने पर द्वितीय गुणहानि का प्रारम्भ हो जाता है। क्योंकि प्रत्येक गुणहानि में द्रव्य दो गुणा हीन (अर्ध) होता जाता है, अतः इसका नाम गुणहानि सार्थक है। एक गुणहानि में जितने निषेक होते हैं उनका नाम गुणहानि मायाम या गुरगहानि अध्वान होता है ।'
औदारिक शरीर, वक्रियिका शरीर और आहारक शरीर को एक गुणहानि की लम्बाई का प्रमाण अन्तमुहूर्त है और तीनों गुणाहानि स्थानान्तर समान हैं। परन्तु तेजस शरीर और कामण शरीर की गुणहानि का प्रमाण पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र है; 3 जो अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति को अपनी-अपनी नानागुणहानियों से भाग देने पर प्राप्त होता है ।
औदारिक और वैक्रियिक इन दोनों शरीरों के भव के प्रथम समय में जो प्रदेशाम निषिक्त होते हैं, उससे ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल (एक मुणहानि) जाकर वहाँ की स्थिति में निषिक्त (सिंचित) हुअा प्रदेशाग्र दुगुणाहीन होता है। पुनः द्विगुणहीन निषेक से ऊपर उतना ही अवस्थित अध्वान जाकर जो अन्य निषेक है वह उससे दुगुणा हीन है। इस प्रकार उत्कृष्ट रूप से तीन पल्य और तैतोस सागर होने तक दुगुणाहीन होता जाता है। उत्तरोत्तर विवक्षित दुगुणे हीन निषेक से ऊपर अवस्थित अन्तर्मुहूर्त अध्वान जाकर स्थित निषेक दुगुणा हीन होता है। इस क्रम से तीन पल्य और तैतीस सागर को अन्तिम स्थिति के प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए।
एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर अन्तमुहर्त प्रमाण है तथा नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है ।।२७४|| गुणहानिस्थानान्तर अन्तर्मुहर्त प्रमाण है यह बात सूत्र से ही जानी जाती है, क्योंकि वह युक्ति की विषयता का उल्लंघन कर स्थित है। परन्तु नानागुणहानिशलाकाओं का प्रमाण सूत्र और युक्ति दोनों से जाना जाता है। अन्तमुहर्त को यदि एक गुणहानि शलाका प्राप्त होती है तो तीनपल्य तथा तेंतीस सागरों की कितनी गुणहानिशलाकाएं प्राप्त होंगो, इस प्रकार फल राशि से गुणित इच्छारराशि में प्रमाण राशि का भाग देने पर नानागुणहानिस्थानान्तर पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण लब्ध प्राप्त होता है। एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर स्तोक है, क्योंकि वह अन्तमुहूर्त प्रमाण है। उससे नानागुणहानिस्थानान्तर असंख्यात गुणे हैं, गुणाकार पल्य का असंख्यातवाँ भाग है।।
अत्र आहारक शरीर के प्रदेश विन्यास विषयक प्ररूपणा की जाती है--प्रथम समय में पाहारक हुए और प्रथम समय में तद्भवस्थ हुए जीव के द्वारा जो प्रथम समय में प्रदेशाग्र निक्षिप्त
१. सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमदभगचन्द्र बृात टीका। २. प्रबल गु. १४ पृ. ३४० ६३८ । ३. धवल पु, १४ पृ. ३४० व ३४२ । ४. ध. पृ. १४ पृ. २४६-३४७ । ५. "एगपदेसमुणहाणिठ्ठाणंतरमंतोमुहुसं णागापदेश गुराहाशिवाणंतराणि पलिदोवमम्स असखेज्जदि भागो ॥२७४||" घिवल १४ पृ. २४७]। ६.ध.पू. १४ पृ. ३४८ ।
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योगमाया / ३३५
गाथा २५४-२५५
होता है उससे अन्तर्मुहूर्त जाकर वह दुगुणाहीन हो जाता है || २७७ ||
शङ्का श्रदारिक शरीर और वैक्रियिक शरीर के साथ ही आहारक शरीर की प्ररूपणा क्यों नहीं की ?
समाधान- क्योंकि गुणहानिशलाकाओं की संख्या में भेद है ।
गुणहानि अवस्थित है जो श्रन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यात समय है । अन्तर्मुहूर्त की एक गुणहानिशलाका प्राप्त होती है तो श्राहारक शरीर के साथ रहने के प्रमाण काल के भीतर वे कितनी प्राप्त होंगी, इस प्रकार फलराशि से गुणित इच्छाराशि में प्रमाणराशि का भाग देने पर संख्यात नानागुणहानिशलाकाएँ प्राप्त होती हैं। नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर स्तोक है, क्योंकि संख्यात हैं और उनसे एक प्रदेशगुणहानि स्थानान्तर असंख्यात गुणा है । गुणाकार अन्तर्मुहूर्त है।
तंजस शरीरवाले और कार्मण शरीरवाले जीव के द्वारा तैजस शरीर और कार्मण शरीर रूप से प्रथम समय में जो प्रदेशाग्र निक्षिप्त होता है उससे पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर वह दुगुणा हीन होता है, पत्य के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर वह दुगुणा हीन होता है ।। २८२ ।। इस प्रकार उत्कृष्ट रूप से छ्यासठ सागर तथा कर्मस्थिति श्रन्त तक दुगुणाहीन - दुगुणाहीन होता हुआ जाता है || २८३ ।। एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर पल्य के असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रभार है और नानाप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर पल्य के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं || २८४ ।। नानाप्रदेशगुण हा निस्थानान्तर स्तोक हैं ||२६५ ॥ उनसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर प्रसंख्यातगुणा है ।। २८६ ।। ३
श्रीदारिकादि शरीरों के बन्ध, उदय और सत्त्व अवस्था में द्रव्य प्रमाण एक्कं समयबद्ध बंधदि एक्कं उदेदि चरिमम्मि । गुहागरण दिवढं समयपबद्ध हवे सतं ।। २५४ ॥ । खबर य दुसरीरागं गलिदवसेसा उमेत्तठिदिबंधो । गुणहारणी विवढं संचयमुदयं च चरिमहि ।। २५५||
गाथार्थ --- प्रतिसमय एकसमय प्रबद्ध का बन्ध होता है और एक ही समयप्रबद्ध का उदय होता है। अन्त में डेढ़ गुणहानि प्रसारण समयप्रबद्ध द्रव्य का सत्व रहता है। किन्तु प्रौदारिक और वैकिक शरीर में यह विशेषता है कि इन दोनों शरीरों के बध्यमान समयप्रबद्धों की स्थिति भुक्त आयु से अवशिष्ट प्रायु की स्थिति प्रमाण होती है। श्रायु के श्रन्त समय में डेढ़ गुणहानि मात्र संचय तथा उदय होता है ।। २५४-२५५ ।।
पदे
१. "आहारसरि तेरव पहम समय श्राहारएण पदमसमयतव्भवत्येा ग्रहारसरीरनाए जं पत्रमसमए दो तो हत्तं गंगा दुगु होणं ॥ २७७॥ [ धवल पु. १४ पृ. २४८ ] २. घवल पु. १४ . २४६ ३. घ. पु. १४ पृ. ३५०-३५१ ।
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३३६ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २५४-२५५.
विशेषार्थ - तीन पल्यों के प्रथम समय में जो बद्ध नोक है, उसे उन्हीं तीन पत्यों के प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय तक गोपुच्छाकार रूप से निक्षिप्त करता है। जो दूसरे समय में बद्ध नोक प्रदेशा है उसे दूसरे समय से लेकर गोपुच्छाकार रूप से निक्षिप्त करता हुआ तब तक जाता है जब तक तोन पल्यों का द्वि चरम समय है । पुनः नोकर्मस्थिति के अन्तिम समय में विवक्षित समयप्रबद्ध के चरम व द्विचरम गोपुच्छ को निक्षिप्त करता है, क्योंकि ऊपर प्रायुस्थिति का प्रभाव है । तीसरे समय में बद्ध जो नोकर्म प्रदेशाग्र है उस तीसरे समय से लेकर निक्षिप्त करता हुआ तब तक जाता है जब तक द्विचरम समय प्राप्त होता है । अनन्तर अन्तिम समय में विवक्षित समयप्रबद्ध के चरम, द्विचरम और त्रिचरम गोपुच्छों को निक्षिप्ल करता है। पुनः इस प्रकार जाकर तीन पत्यों के द्विचरम समय में जो बद्ध नोकर्म प्रदेशाग्र है, उसके प्रथम गोपुच्छ को द्वित्ररम समय में निक्षिप्त करके पुनः कोश में विक्षिप्त करता है। तीन पल्यों के अन्तिम समय में जो बद्ध नोकर्म है उसका पूरा पुंज बनाकर उसे अन्तिम समय में ही निक्षिप्त करता है।'
इस प्रकार तीन पल्य के अन्तिम समय में जो प्रदेशाग्र संचित होता है उसे जोड़ा जाय तो अन्तिम समय में संचित हुए कुलद्रव्य का प्रभारग डेढ़ गुणहानि गुरिणत समयप्रबद्ध प्रमाण होता है ।
इसी प्रकार वैयिक शरीर आदि शेष चारों के विषय में जानना चाहिए इतनी विशेषता है कि आहारकशरीर, तेजसशरीर और कार्मण शरीर में अवस्थित रूप से ही निषेकरचना होती है, गलितशेष निषेक रचना नहीं होती । अर्थात् प्रहारक शरीर के प्रत्येक समयप्रबद्ध की निषेकरचना अन्तर्मुहूर्त के जितने समय हैं उतने प्रमाण होगी, ( गलितावशेष कालमात्र प्रमाण ही नहीं), तेजस शरीर की निषेकरचना, छ्यासठ सागर के जितने समय हैं, उतने प्रमाण होती है । सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर के जितने समय हैं उनमें सात हजार वर्ष के समय घटाने पर जो शेष रहे तत्प्रमारण कार्मरण शरीर की बन्ध के समय निषेकरचना होती है । प्रतिसमय एकसमयप्रबद्ध मात्र द्रव्य बँधता है, क्योंकि एक समय में बंधने वाले कर्म व नोकर्म द्रव्य की समयप्रवद्ध संज्ञा है । किसी समय प्रबद्ध का प्रथम निषेक, किसी का द्वितीय निषेक, किसी-किसी का तृतीय चतुर्थादि निषेक श्रीर किसी का चरम निषेक, किसी का द्विचरम निषेक, किसी का त्रिचरम आदि निषेक, इन सबके युगपत् एक समय में उदय में आने से सब मिलकर एकसमयप्रबद्ध द्रव्य उदय में आता है ऐसा कहा जाता है। कहा भी है
समयपबद्धपमा होदि तिरिच्छेण चट्टमामि । पडिसमयं बंधुद एक्को समयबद्धो सत्तं समयपबद्ध दिवsaगुणहाणि ताडियं ऊणं । तिको सवदिदम्बे मिलिदे हवे नियमा ।।६४३ |
१६४२ ।।
- विवक्षित वर्तमान समय में एक समय प्रद्ध बँधता है और एक समयबद्ध मात्र द्रव्य उदय में आता है। ऐसा निर्य रूप रचना से जाना जाता है । सत्त्व द्रव्य कुछ कम डेढ़गुणहानि गुणित समयबद्ध प्रमाण है । यह त्रिकोण रचना यंत्र के सब द्रव्य को जोड़ देने से नियम से इतना ही प्राप्त होता है । ६४२-६४३।।
१. लपु १४ पृ. ४०६ -४०७ । २. धवल पु. १४ पृ. ४१५
३. गोम्मटसार कर्मकाण्ड |
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माथा २५६-२५८
पोगमार्गगा/३३७
गोम्मटसार कर्मकाण्ड की टीका में त्रिकोणयंत्र दिया हुआ है। उस त्रिकोण यंत्र से यह सिद्ध हो जाता है कि 'डे दगुरबहानि प्रमाण समयप्रबद्ध हमेशा सत्ता में रहता है, किन्तु औदारिक पारीर, वैक्रियिक शरीर और पाहारक शरीर इन तीनों शरीरों का डेढ़ गुरमहानि समयप्रबद्ध अपनीअपनी स्थिति के अन्तिम समय में होता है।
_ विशेष के लिए इस सम्बन्ध में गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. ६४२ व १४३ की टीका देखनी चाहिए।
पोरालियवरसंचं देवुत्तरकुरुवजावजीवस्स । तिरियमणुस्सस्स हवे चरिमदुचरिमे तिपल्लठिदिगस्स ।।२५६।। वेगुस्वियवरसंच बाथीस-समुद्दपारणदुगम्हि । जह्मा वरजोगस्स य बारा अण्णत्थ रणहि बहुगा ॥२५७॥ तेजासरीरजेटु सत्तमचरिमम्हि बिवियवारस्स । कम्मस्स वि तस्थेव य पिरये बहुवारभमिदस्स ॥२५८॥
गाथार्थ-तीन पल्योपम की स्थितिबाले देवकुरु अथवा उत्तरकुरु में उत्पन्न हुए तिथंच या मनुष्य के चरम व द्वित्र रम समय में औदारिक शरीर का उत्कृष्ट संचय होता है ।।२५६॥ बाईस सागर की युवाले पारण-अच्युत स्वर्ग के देवों में ही वैऋियिक शरीर का उत्कृष्ट संचय होता है, क्योंकि उत्कृष्ट योग के बार आदि अन्यत्र बहुधा नहीं होते ॥२५७।। सप्तम पृथिवी में दूसरी बार उत्पन्न हुए नारकी के तैजस शरीर का उत्कृष्ट संचय होता है। अनेक बार नरकों में भ्रमण करके सप्तम पृथिवी में उत्पन्न हुए नारकी के अन्तिम समय में कार्मरा शरीर का उत्कृष्ट संचय होता है ।।२५८॥
विशेषार्थ—गाथा २५६ में तीन पल्य की आयु वाले देवकुरु व उत्तरकुरु के मनुष्य व तिर्यंच दोनों को प्रौदारिक शरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र का स्वामी कहा है, किन्तु धवल पु. १४ पृ. ३६८ सूत्र ४१८ में मात्र मनुष्य को स्वामी कहा है, वह सूत्र इस प्रकार है
"अण्णदरस्स उत्तरकुरुदेवकुरुमणुअस्स तिपलिदोवमद्विवियस्स ॥४१८॥"
उपर्युक्त गाथा में चरम व विचरम दोनों समयों में स्वामी बताया गया है, किन्तु धवल पु. १४ सूत्र ४२६ में मात्र चरम समय में स्वामी बतलाया गया है । वह सूत्र इस प्रकार है ...
"तस्स चरिमसमयतम्भवत्थस्स तस्स पोरालियसरीरस्स उपकस्सयं पदेसग्मं ॥४२६॥"
गाथा २५७ में वैक्रियिक शरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र के स्वामित्व का कथन तो किया गया है, किन्तु समय का कथन नहीं है । धवल पु. १४ पृ. ४१३ सूत्र ४४३ में उसके स्वामित्व का काल चरमसमय बतलाया गया है । वह सूत्र इस प्रकार है---
"तस्स चरिमसमक्तम्भवत्यस्स तस्स बेउन्सियसरीररस उक्करसयं पदेसम्म ॥४४३३॥"
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३३८ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २५६-२६०
इन गाथाओं में आहारक शरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र के स्वामी का कथन नहीं है, किन्तु धवल ५. १६५. ४१४-४९५६ तक आहारक शरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र के स्वामी का कथन है ।
गाथा २५० २५१ की टीका में इन पाँच शरीरों के उत्कृष्ट धवल पु. १४ व धवल पु. १० के आधार पर विस्तारपूर्वक हो चुका है। पर कथन नहीं किया गया । गाथा २५० - २५१ के विशेषार्थं से देखना चाहिए।
ग्यारह गाथाओं द्वारा श्री माधवचन्द्र
प्रदेशाय के स्वामी का कथन पुनरुक्त दोष के कारण यहाँ
करते हैं
NA
विद्यदेव योगमार्गणा में जीवों की संख्या का कथन
योगमाया में जीवों की संख्या
बादरपुण्णा तेऊ समरासीए प्रसंखभागमिदा । विषिकरियस तिजुत्ता पल्ला संखेज्जया पल्ला संखेज्जाय - बिदंगुलगुरिगद से ढिमेत्ता वेगुब्वियपंचषखा भोगभूमा पुह
बाऊ ||२५||
हु ।
विगुध्वंति ।। २६०।।
गाथार्थ - बादर पर्याप्त अग्निकायिक जीवराणि का असंख्यातवाँ भाग विक्रिया शक्ति से युक्त है। बादर पर्याप्त वायुकायिक जीवों में पत्य के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण जीव विक्रियाशक्ति से युक्त हैं ||२५|| पल्य के असंख्यातवें भाग से गुणित घनांगुल से जगच्छेणी को गुणा करने पर पंचेन्द्रिय वैऋियिक शक्ति वाले जीवों का प्रमाण जाता है । भोगभूमिया पृथक विक्रिया भी करते
1125011
विशेषार्थ ग्रोध की अपेक्षा चार शरीर वाले जीव असंख्यात हैं अर्थात् जगत्प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण या श्रसंख्यात ज.श्रे. प्रमाण है । उन जगच्छ गियों की विष्कम्भ सूची पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र घनांगुलप्रमारण है ।" इस संख्या में तिर्यचों की प्रधानता है, क्योंकि मनुष्य में विक्रिया शक्तियुक्त जीव संख्यात होते हुए भी बहुत अल्प हैं। इसीलिये तिर्यचो में विक्रिया करने वाली राशि पत्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र घनांगुलों से गुरिणत ज.श्रे. प्रमाण है। पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और अपर्याप्त जीवों का भङ्ग पंचेन्द्रिय तिर्यचों के समान कहा गया है, इससे भी ज्ञात होता है कि पंचेन्द्रियतिर्यचों की मुख्यता है । क्योंकि अग्निकायिक व वायुकायिक इन दोनों में भी मिलकर विक्रिया करने वाली राशि पत्योपम के प्रसंख्यातवें भाग है ।" किन्तु पंचेन्द्रियतिर्यंच,
3
१. "दुसरोग दव्वपमाणे केवडिया ? असंखेज्जर, पदरस्त असते. मागो, श्रसंखेज्जाओ ढीम्रो, तासि सेटी विक्मसूत्री पलिदो असले. मागमेतघणं गुलागि ।" [ धवल पु. १४ पृ. २४९ ] । २. "तिरिवसे विन्चमारारात्री पत्रिदोदमस्त असंखेज्जदिमागमेत घांगुलेहि गुणिसेवितो ।" [ धवल गु. ३. ६६-६७ ।। ३, "पंचदिग्र-पंचिदियमज्जत्ता तस-तसपज्जत्ता पाँचदिय तिरिक्स मंगो ।" [ घबल पु. १४ पृ. २५१ ।। ४. एड दिय बादरइ दिवपज्जत्ता चदुसरीरा दव्यमाखेण वडिया ? श्रसंखेज्जा, पलिदो असे भावो ।" [वल पु १४ पृ २१० }।
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गाथा २६१
योगमार्गणा/३६१
पंचेन्द्रियतिर्यच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिनी जीवों में चार गरीर बाले जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं जो जगत्प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ।' अथवा पल्योपम के असंख्यात भाग प्रमाण घनाङ्गलों से ज.श्रे. को गुणित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतने वहाँ चार शरीर वाले अर्थात् वित्रिया करने वालों का प्रमाण है।
बादर अग्निकायिक पर्याय जोवराशि धनावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उसका भी असंख्यातवाँभाग विक्रिया शक्ति से युक्त है। पल्य के असंख्यातवें भाग बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव वक्रियिक शक्ति युक्त हैं । विक्रिया शक्ति से युक्त बादर वायुकायिक और बादर अग्निकायिक दोनों मिलकर भी पल्य के असंख्यातवेंभाग प्रमाण हैं । विक्रिया शक्ति युक्त मनुष्य व तिर्यंच पल्य के असं. ख्यात भाग से गुष्टि जनांगल मे जशे को मुगा करने पर जो आवे तत्प्रमाण है । भोगभूमिब मनुष्य व तिर्यंच और कर्मभूमिज मनुष्यों में चक्रवर्ती मूल शरीर से पृथक् उत्तर शरीररूप विक्रिया भी करते हैं।
देवेहि सादिरेया तिजोगिणो तेहि हीण तसपुण्णा ।
बियजोगिणो तदूरगा संसारी एक्कजोगा हु॥२६॥ गाथार्थ-तीन योग वाले जीव देवों से कुछ अधिक होते हैं। तीन योगवाले जीवों को प्रस परित राशि में से घटाने पर दो योग वाले जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है। संसारी जीवों में से तीन योग वाले और दो योग बाले जीवों को कम करने पर एक योग वाली जीवराशि प्राप्त होती है ।।२६१।।
विशेषार्थ-ज्योतिषी देवों से साधिक समस्त देवों का प्रमाण है, क्योंकि वानव्यन्तर आदि शेष सम्पूर्ण देव ज्योतिषी देवों के संख्यातवें भाग प्रमाण है। इस देवराशि में नारको, संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त नियंच व पर्याप्त मनुष्यों का प्रमाण मिलाने से तीन योग वाले जीवों का प्रमाण प्राजाता है । सुच्यंगुल का प्रथम वर्गमूल गुरिगत द्वितीय वर्गमुल प्रमाण जगश्रेणियाँ नारकियों का प्रमाण है। बादाल के घनप्रमाण मनुष्य राशि है।६ संख्यात गुणित २५६ अंगूल के वर्ग से भाजित जगत्प्रतरप्रमाण संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यच हैं। इन तीन राशियों को देवराशि में मिलाने से साधिक देवराशि होती है।
शङ्का-इन तीन राशियों के मिलाने से देवराशि दुगुणी-तिगुणी आदि क्यों नहीं होती ?
समाधान नहीं, क्योंकि शेष तीन गति संबन्धी संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों की संख्या देवगति के संख्यातवें भाग प्रमाण है ।
१. धवल पु. १४ पृ. २४६ । २. घडल पु. १४ पृ. ३०३ । ३. श्रीमदभपचन्द्र मूरिकृत टीका । ४. "वारपर्वतरादि सेस सब्वेदेवा जोइसियदेवारा संखेजदि भागमेत्ता हवंति ।" [धवल पु. ३ पृ. २७५] । ५. "तासि संकीत विक्वंभसूची अंगुलबग्गमूलं विदियवग्गमूलगुरिणदेण ।। १७॥" [धवल पु. ३ पृ. १३१] । ६. "मणुमपज्जत्ता धायालयग्गस्स घरगमेता ।"[चवल पु. ३ पृ. २५५] । ७. "सम्वे देव सणिणणो चेय । तेसि संखेदि भागमेचा तिगदि सणिणो होति ।" [धवल पु. ३ पृ. ४८२] ।
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४०/गो, सा. जीवकाण्ड
गाथा २६२-२६३
संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के ही मन, वचन और काय ये तीन योग होते हैं। संज्ञी जीवों की संख्या देवों से कुछ अधिक कही गई है। बस पर्याप्त राशि में तीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंजी पंचेन्द्रिय जीव भी गभित है। जिनके वचन और काय ये दो योग होते हैं। अतः स पर्याप्त राशि के प्रमाण (प्रतरांगुल के संख्यानवें भाग से भाजित जगत्प्रतर)3 में से संक्षी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों का प्रमाण घटाने से शेष द्वीन्द्रियादि असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों तक की संख्या शेष रह जाती है जो वचन ब काय योगी होते हैं। समस्त संसारी जीवराशि में से तीन योगबाले और दो योग वाले जीवों की संख्या घटाने पर शेष मात्र एक काययोगी जीवों की संख्या रह जाती है जो अनन्त है।'
इस प्रकार इस गाथा द्वारा वियोगी द्वियोगी और एकयोगी जीवों की संख्या का कथन किया गया है। तीन योगी और दो योगी जीव असंख्यात हैं और एक योगी जीव अनन्त हैं ।
अंतोमुहत्तमेला चउमरगजोगा कमेण संखगुणा । तज्जोगो सामगं चउवचिजोगा तदो दु संखगुरगा ।।२६२।। तज्जोगो सामण्णं कानो संखाहदो तिजोगमिदं ।
सगरमासानिमा मगाशगंगुणे दु सगरासी ॥२६३॥ गाथार्थ-पृथक-पृथक तथा सामूहिक रूप से चारों मनोयोगों का काल अन्तर्मुहूर्त है, किन्तु क्रम से संख्यातगुणा-संख्यातगुणा है। उन चारों कालों के जोड़ रूप सामान्य मनोयोग काल से चारों बचनयोगों का काल संख्यात गुणा है। चारों वचनयोगों के जोड़ रूप काल अर्थात् सामान्य वचनयोग के काल से काययोग का काल संख्यातगुणा है। तीनों योगों के जोड़ रूप काल से तीन योग वाली राशि को विभक्त करके अपनी-अपनी राशि के कालसे गुणा करने पर अपनी-अपनी राशि का प्रमाण प्राप्त होता है ।।५६२-५६३॥
विशेषार्थ - काल के अनुसार योग में जोबसंख्या होती है, क्योंकि योगकाल में ही तत् योग सम्बन्धी जीवों का संचय होता है। चारों मनोयोग और सामान्य मनोयोग तथा चारों वचनयोग ब सामान्य बचनयोग का काल क्रम से संख्यात गुणा है जो इस प्रकार है-सत्यमनोयोग का काल सबसे स्तोक है। भृषामनोयोग का काल उससे संख्यात गुणा है। उससे उभय मनोयोग का काल संख्यात गुणा है । उस से अनुभव मनोयोग का काल संख्यात गुणा है। इससे सामान्य मनोयोग का काल विशेष अधिक है। उससे सत्यवचनयोग का काल संख्यात गुणा है। उससे मृषा बचन योग का काल संन्यात गुणा है। उससे उभय वचनयोग का काल संख्यात गुणा है। उससे अनुभय वचनयोग का काल संख्यातगुणा है। उससे सामान्य वचनयोग का काल विशेष अधिक है। उससे काययोग का काल संख्यात गुणा है ।
मनोयोग, वचनयोग और काययोग के कालों के जोड़ से तीन योगवाली राशि को जो मात्रिक
१. "मणिपयाणुवादगण मग मिक्लाइट्ठी दबपमाणेण केवडिया देवेहि सादिरेयं ।।१:५।"च.पु. ३ पृ. ४८२ || २. "दीन्द्रिवादयस्वमाः ॥१४।।" [तत्त्वार्थ मूत्र न. २]। ३. "पदग्गुलस्स संघज्जाद भागेरा जगपरे भागे हिदे तमकाइयपाता भवति ति वुत्तं भर्वाद ।" [घवल पु. ३ पृ. ३६२] । ४. "एदे दो वि रासी प्रो अणता।" {धवल पु. ३ पृ. ३६५] । ५. घबल पु. ३ पृ. ३८८ ।
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गाथा २६४-२:५
योगमार्गगगा/३४१
देवराशि प्रमाण है, खण्डित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसकी तीन प्रतिराशियां करके पुनः उन्हें अपने-अपने काल से गुणित कर देने पर मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगियों की राशियाँ प्राप्त होती हैं। पुनः चारों मनोयोगों के कालों के जोड़ से मनोयोगी जीवराशि को खंडित करके जो लब्ध आवे उसकी चार प्रतिराशियों करके अपने-अपने काल से गुणित करने पर सत्यमनोयोग प्रादि चारों मनोयोगियों की पृथक्-पृथक् संख्या प्राप्त हो जाती है।'
इसी प्रकार चारों वचनयोगों के कालों के जोड़ से बचनयोगी जीवराशि को जो कि ऊपर प्राप्त हुई है उसे खंडित करके जो लब्ध प्राप्त हो उसकी चार प्रति राशियाँ करके अपने-अपने योगकाल से गुणित करने पर सत्यवचनयोगी प्राधि जोक का नाम प्राप्त होता है। इतनो विशेषता है कि अनुभय बचनयोगी जीवराशि में द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय वचन योगी जीवराशि मिलाने से अनुभय वचनयोगियों की जीवसंख्या प्राप्त हो जाती है।'
कम्मोरालियमिस्सयोरालद्धासु संचिदणंता । कम्मोरालियमिस्सय पोरालियजोगिणो जीया ॥२६४।। समयत्तयसंखावलिसंखगुणावलिसमासहिदरासी।
सगगुरगगरिगवे थोवो असंखसखाहदो कमसो ॥२६॥ गाथार्थ कार्मणकाययोग काल, प्रौदारिकमिश्नकाययोग काल और औदारिककाययोग काल में एकत्र होने वाले कार्मणकाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी तथा औदारिककाययोगी जीव अनन्तामन्त हैं ॥२६४।। कार्मण काययोग का काल तीन समय, औदारिकमिश्रकाययोग का काल संख्यात प्रावली और उससे भी संख्यात गुणित प्रावलियां औदारिककाययोग का काल है। इन तीनों कालों के जोड़से एक योगवाली जीवराशि में भाग देकर अपने-अपने कालसे गुणा करने पर अपनी-अपनी राशि का प्रमाण प्राप्त होता है। कार्मणकाययोगी जीवराशि सबसे कम है, उससे असंध्यात गुणी औदारिक-मिथ-कापयोगी जीवराशि है और उससे संख्यात गुणी औदारिक काययोगी जीवराशि है ।।२६५।।
विशेषार्थ यहाँ पर साधारण वनस्पति अर्थात् निगोदराशि की प्रधानता है क्योंकि निगोद राशि के अतिरिक्त अन्य सब गतियों के जीव असंख्यात हैं। उस निगोदराशि में भी सूक्ष्म जीव मुख्य हैं। क्योंकि बादर निगोद से सूक्ष्म निगोद जीव असंख्यात गुरणे हैं। उन सूक्ष्म निगोद जीवों में भी अपर्याप्तकों से पर्याप्तक जीव संख्यातगुणे हैं। सूक्ष्म पर्याप्तक निगोद जीवों की आयु अन्तर्मुहूर्त मात्र है। किन्तु यह आयु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होते हुए भी अपर्याप्त काल से संख्यात गुणी है। कार्मग काययोग का उत्कृष्ट काल तीन समय है, क्योंकि अनाहारक अवस्था में ही कार्मण काययोग होता है और अनाहारक अवस्था का उत्कृष्ट काल तीन समय है।६ अपर्याप्त काल संख्यात आवली प्रमाण है। और एक मावली में जघन्य युक्तासंख्याप्त समय होते हैं 1% अतः
१. धवन पू. ३ पृ. ३१४। २. धवल पु. ३ पृ. ३८६-३६०। ३. धवल पु. ३ पृ. ३७० । ४. घवल पु. ३ पृ. ३७२-३७३ । ५. धवल पु. ४ पृ. ३६२ । ६. "एक द्वी श्रीन वाऽनाहारकः ।।३०।। { तत्त्वार्थ स्त्र अध्याय २]। ७. त्रिलोकमार गाथा ३७ ।
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३४२/मो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २६६-२६६
कार्मण काययोग काल से अपर्याप्तकाल असंख्यातगुणा है । अपर्याप्त बाल से पर्याप्त काल संख्यातगुणा है। इन तीनों कालों का योग भी अन्तर्मुहूर्त होता है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के असंख्यात भेद हैं।
तिथंधों और मनुष्यों के अपर्याप्त काल से पर्याप्त काल संख्यात गुणा है क्योंकि कार्मभुमिजों की मुख्यता है। उन कालों के जोड़ से तिर्यच राशि को खंडित करके जो लब्ध आबे उसे अपर्याप्त काल से गुणित करने पर अपर्याप्त राशि का प्रमाण प्राप्त होता है। अपर्याप्त काल में दो योग होते हैं । विग्रह गति में अर्थात् अनाहारक अवस्था में कार्मण काययोग और आहारक अवस्था में औदारिक मिधकाययोग। संख्यात प्रावली मात्र अन्तर्मुहर्त काल में यदि सर्व अपर्याप्त जीवराशि का संचय होता है तो तीन समयों में कितना संचय प्राप्त होगा? इस प्रकार इच्छाराशि से फलराशि को गुणित करके जो लब्ध प्रावे उसे प्रमाण से भाजित करने पर अन्तमुहूर्त से भाजित सर्व जीवराशि अर्थात इतने जीव कार्मण का सयोगी होते हैं। इसको असंख्यात्त से गुणा करने पर औदारिक मिश्रकाययोगियों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है।
सोवकमाणुवक्कमकालो संखेज्जवासठिदिवाणे । प्रावलिप्रसंखभागो संखेज्जावलिपमा कमसो ॥२६६॥ तहिं सध्ये सुद्धसला सोवक्कमकालदो दु संखगुणा । तत्तो संखगुणूरगा अपुण्यकालम्हि सुखसला ॥२६७।। तं सुद्धसलागाहिदरिणयरासिमपुण्णकाललाहिं । सुद्धसलागाहिं गुणे बेतरवेगुम्वमिस्सा हु ॥२६॥ तहिं सेसदेवणारय-मिस्सजुदे सम्वमिस्सवेगुध्वं । सुरणिरय-कायजोगा बेगुम्वियकायजोगा हु ॥२६॥
गाथार्थ-संख्यात वर्ष की स्थिति वाले वानव्यन्तर देवों में सोपक्रमकाल और अनुपक्रमकाल क्रमश: पावली के असंख्यातवें भाग ब संख्यात प्रावली प्रमाण हैं ॥२६६। उस संख्यात वर्ष की स्थिति में सर्वशुद्ध शलाका का प्रमाण सोपक्रमकाल से संख्यात गुरगा है। अपर्याप्त काल सम्बन्धी शुद्ध शलाका का प्रमाण सर्वशुद्धशलाकाओं से संख्यातगुणा हीन है ॥२६७॥ व्यन्तर देवों के प्रमाण में शुद्ध शलाका वा भाग देने से जो प्राप्त हो उसको अपर्याप्त काल सम्वन्धी शुद्ध शलाका से गुणा करने पर वैक्रियिक मिश्र काययोगी व्यन्त र देवराशि उपलब्ध होती है ।।२६८॥ वैक्रियिक मिश्रकाययोगी व्यन्तर देवराशि में शेष देव व नारकी वैक्रियिक मित्रयोगियों का प्रमाण मिला देने पर सर्व वैक्रियिक मिश्र काययोगियों की संख्या प्राप्त हो जाती है। पर्याप्त देव व नारकी काययोगियों का जो प्रमाण है उतने वैक्रियिक काययोगी जीव हैं ।।२६६।।
विशेषार्थ-उत्पत्ति का नाम उपक्रमण है। जिस काल में निरन्तर उत्पत्ति होती है वह सोपक्रमकाल है। यह सोपक्रमवाल उत्कृष्ट रूप से पावली के प्रसंग्यातवें भाग प्रमाण है। उसके
१. धवल पु. ३ पृ. ३६६ । २. धवल पृ. ३ पृ. ४०३ ।
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गाथा २७०
योगमार्गणा/३४३
पश्चात् उत्पत्ति का अन्तर पड़ जाता है। वह अन्तरकाल जघन्य से एकसमय और उत्कृष्ट संख्यात श्रावली प्रमाण है। देबों में संख्यात वर्ष की आयु वाले व्यन्तर देत्र अधिक उत्पन्न होते हैं अतः उनकी अपेक्षा कथन किया गया है। संस्थात वर्ष में सोपत्र मकाल शन्नाकानों में (उत्पत्ति काल के बारों में) यदि सर्व देवराशि एकत्र होती है तो अपयप्ति काल सम्बन्धी उपक्रम शलाकाओं में कितने जीवों का संचय होगा । इस प्रकार त्रै राशिक गरिणत करके इच्छाराशि से प्रमाणराशि को भाजित करके जो लब्ध प्राप्त हो उसका देवराशि में भाग देने से वैक्रियिक मिश्रकाययोगो देवों का प्रमाण प्राप्त होता है, जो देवराशि के संख्यातवें भाग मात्र है।' असंख्यात वर्ष की आयु बालों में अनुपक्रम काल बड़ा होगा, अतः उनमें वैक्रियित्र मिथकाययोगियों का प्रमाण अल्प होगा इसलिए उनकी विवक्षा नहीं की गई। दैनियिक मिश्रकाययोगी देवराशि में नारक मिथकाययोगियों की संख्या मिला देने से समस्त वक्रियिक मिश्रकाययोगियों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है।
वैक्रियिक काययोगी देवों के संख्यात भाग से कम है । अपनी-अपनी राशि के संख्यातवें भाग से न्यून देवों की जो राशि है उतना बक्रियिककाययोगियों का प्रमाण है। देव और नारकियों की राशि को एकत्र करके मनोयोग, वचनयोग और काययोग के काल के जोड़ से खण्डित करके जो लब्ध श्रावे उसकी तीन प्रतिराशियां करके अपने-अपने काल से गुरिणत करने पर अपनी-अपनी राशियों का प्रमाण होता है। चूकि मनोयोगी जीवराशि और वचनयोगी जीवराशि देवों के संख्यातवें भाग है, इसलिये वैक्रियिक काययोगी राशि का प्रमाण कुल राशि से संख्यातवें भाग कम होता है । ३
श्राहारककाययोगी तथा ग्राहारकमिश्वकाययोगियों का प्रमाण श्राहारकायजोगा चउवण्णं होंति एकसमयहि ।
पाहारमिस्सजोगा सत्तावीसा दु उक्कस्सं ॥२७॥ __ गाथाथ--- एक समय में आहारक काययोग वाले जीव अधिक से अधिक चौपन हैं। और माहारक मिश्र काययोगी सत्तावीस हैं ॥२३० ।।
विशेषार्थ-ग्राहारककाययोगी प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही होते हैं, अन्यत्र नहीं होते। उपर्युक्त गाथा में आहारकमिशवाययोगी यद्यपि सत्तावीस कहे गये हैं, क्योंकि यह कथन प्राचार्य परम्परा से प्राये हुए उपदेश अनुसार है, किन्तु धवल पु. ३ सूत्र १२० में सत्तावीस न कहकर संख्यात कहे हैं। अर्थात् आहारक मिथकाययोग में जिनदेव ने जितनी संख्या देखी हो, उतने संख्यात जीव होते हैं, सत्तावीस नहीं ; क्योंकि सूत्र में 'संख्यात' यह निर्देश अन्यथा बन नहीं सकता । तथा पाहारक मिश्र योगियों से आहारक काययोगी जीव संख्यात्तगुणे हैं, इससे भी प्रतीत होता है कि आहारक मिश्र काययोगी जीव संख्यात हैं, सत्तावीस नहीं। कदाचित् कहा जाये कि दो भी तो संख्यात हैं, परन्तु उसका यहाँ पर ग्रहण नहीं किया गया, क्योंकि अजघन्यानुत्कृष्ट संख्या का ही ग्रहण किया
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१. प्रवल पु. ३ पृ. ४०० । २. "श्वियकायजोगी दवपमारगरण केवडिया ? देवाणं संखेजदिभागणं ||६४-६५॥" [धवल पु. ७ पृ. २७६] । ३. धवल पु. ३ पृ. ३६८-३६६ । ४. "माहारकाय जोगीसु पमत्तसंजदा दवपमागरण केवडिया? चदुनण्णं ।।११६।।" [घवल पु. ३ पृ ४.१] । ५. "ग्राहारमिम्सकाय जोगीसु पमत्तसंजदादच्वपमाण केडिया ? संखेज्जा।।१२०।।" [श्रयल पु. ३ पृ. ४०२] ।।
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३४४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २७१.२७२
है। अथवा सर्व अपर्याप्त काल से जघन्य पर्याप्त काल भी संख्यात गुणा है, इससे भी यह प्रतीत होता है कि आहारक मिश्र काययोगी सत्तावीस नहीं लेने चाहिए।'
इस प्रकार मोम्मटसार जीवकाण्ड में योगमार्गरणा नामका नबाँ अधिकार पूर्ण हुप्रा ।
१०. वेदमार्गणाधिकार
वेदमार्गणा पुरिसिच्छिसंढवेदोषयेण पुरिसिच्छिसंढो भावे । रणामोदयेरा दव्ये पाएण समा कहिं बिसमा ॥२७१।। वेदस्सुदीररगाए परिणामस्स य हवेज्ज संमोहो ।
संमोहेण ण जाण दि जीवो हि गुरणं व दोष वा ॥२७२।। गाथार्थ-पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुसकवेद कर्म के उदय से भावपुरुषवेदी, भावस्त्रीवेदी और भावनपुंसकवेदी होता है। अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय से द्रव्यपुरुषवेदी, द्रव्यस्त्रीवेदी और द्रव्यनपुसक वेदी होता है। द्रव्य और भाव ये दोनों वेद प्राय: सम (सदृश होते हैं, परन्तु कहीं पर विषम भी हो जाते हैं ।।२७१॥ वेद नोकषाय के उदय व उदीरणा से परिणामों में सम्मोह होता है। सम्मोह के कारण जीव गुरग व दोष को नहीं जानता ।।२७२।।
विशेषार्थ-वेद दो प्रकार का है द्रव्यवेद और भाववेद । अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय से शरीर में योनि, लिङ्ग (मेहन) आदि की रचना होती है वह द्रव्यवेद है। वेद नोकषाय, मोहनीय कर्मोदय व उदीरणा से जीव में पुरुष व स्त्री अथवा दोनों से रमण करने के भाव उत्पन्न होते हैं और जीव मोहित होकर विवेकहीन हो जाता है तथा गुण व दोष का विवेक जाता रहता है। जैसे-मदिरापान करके जीव उन्मत्त हो जाता है, कर्त्तव्य-प्रकर्तव्य, कार्य-अकार्य इत्यादि का विचार नहीं रहता। ऐसी दशा वेदकर्म के तीवोदय में हो जाती है। इस विषय में निम्नलिखित गाथाएं उपयोगी हैं--
ग्रेवस्सुदीरणाए बालत्तं पुण रिणयकछुवे बहुसो। इत्यो-पुरिस-पउंसय वेयंति तदो हववि वेदो ॥१०१।। तिम्वेव एव सव्वे विजीवा विट्ठा हु दम्व-भायादो । ते चेव हु विवरीया संभवंति जहाकम सम्वे ॥१०२॥ उदयादु णोकसायाण भाववेदो य होइ जंतूणं । जोगी य लिंगमाई गामोदय दव्ववेदो दु ॥१०३॥ इत्थी पुरिस राउंसय वेया खलु वश्व-भावदोहोति ।। ते चेव य विवरोया हवंति सम्वे जहाकमसो ॥१०४॥
१. धवल पु. ३, ४०९ । २. प्राकृत पंचसमह (ज्ञानपीठ से प्रकाश्चित) पृ. २२ ।
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गाघा ९७३
वेदमार्गणा/३४५
वेदकर्म की उदीरणा होने पर जीब नानाप्रकार के बालभाव (उन्मनभाव) करता है। और स्त्रीभाव, पुरुषभाव और नपुसकभाव का बेदन करता है। वेदकर्म के उदय से होने वाला भाव ही भाववेद है। द्रव्य और भाव की अपेक्षा सर्व ही जीव तीनों वेद वाले दिखलाई देते हैं। वे सर्व ही विपरीत वेदवाले (विषम वेद वाले) यथाक्रम संभव है। नोकषाय के उदय से जीव के भाववेद होता है तथा योनि, लिंग आदि द्रव्यवेद, नामकर्म के उदय से होता है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद ये तीनों ही वेद निश्चय से द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार के होते हैं और वे सर्व यथाक्रम विपरीत विषम भी परिणत हो जाते हैं।
प्रात्मप्रवृति (मात्मा की चैतन्य रूप पर्याय) में मैथुनरूप चित्तविक्षेप के उत्पन्न होने को वेद कहते हैं। नामकर्म के उदय से शरीर में मुछ, दाढ़ी, लिंग आदि का होना द्रव्यपुरुष है। नामकर्मोदय से शरीर में शेमरहित मुख, स्तन, योनि प्रादि का होना द्रव्यस्त्री है। नामकर्म के उदय से मूछ, दाढ़ी, लिंग आदि तथा स्तन, योनि आदि दोनों प्रकार के चिह्नों से रहित शरीर का होना द्रव्यनपुसक होता है। प्रचुरता से द्रव्य और भाव वेद सदृश ही होते हैं, क्वचित् कर्मभूमिज मनुष्य व तिर्यंचों में विसदृश (विषम) भी हो जाते हैं। जैसे द्रव्य से पुरुषवेद किन्तु भाव से स्त्री या नपुसकवेद। द्रव्य से स्त्रीवेद भाव से पुरुष या नपुंसकवेद । द्रव्य से नपुसकवेद भाव से स्त्री या पुरुषवेद । इस प्रकार से विसरमा वेदों की भी सम्भावना है। इन तीनों बेदों के स्वामित्व का कथन इस प्रकार है
एइंदिय विलिविय णारय सम्मुस्छिमा य खलु सम्ये । बेदे णपुसगा ते गावव्वा होति णियमातु ॥७॥ बेया य भोगभूमा असंखवासाउगा मणुयतिरिया । ते होंति दोसुवेदेसु रणस्थि तेसि तवियवेदो ॥८॥ पंचेन्दिया दुसेसा सण्णि प्रसण्णिय तिरिय मणसा य ।
ते होंति इस्थिपुरिसा णपुसगा चावि वेदेहि ॥१६॥ -पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक। एकेन्द्रिय जीव: द्वीन्द्रिय-वीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय विकलेंद्रिय जीव; नारकी और सर्व सम्मूर्च्छन जीव अथवा संजी सम्मुर्द्धन तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय सम्मूर्छन ये सब नियम से नपुंसकवेदी होते हैं अर्थात् द्रव्य व भाव से नपुंसक वेदयाले होते हैं। देव, भोगभूमिया, असंख्यात वर्ष की आयुवाले अर्थात् भोगभूमि प्रतिभाग में (भरत व ऐरावत क्षेत्र के भोगभूमिया काल में) उत्पन्न होने वाले तथा सर्वम्लेच्छ खण्डों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य व तिर्यचों के पुरुष व स्त्री ये दो ही वेद होते हैं, नपुसकवेद नहीं होता। इनमें वेदवैषम्य नहीं होता। शेष संज्ञो व असंज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य-तिर्यंचों में स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीनों वेद होते हैं और इनमें वेदविषमता भी होती है।
__ यथाक्रम तीनों वैदों के लक्षण पुरुगुरणभोगे सेदे करोदि लोयम्मि पुरगुरणं कम्मं ।
पुरुउत्तमो य जहा तह्मा सो वरिणो पुरिसो ॥२७३।।* १. धवल पु. १ पृ. १४१ "अथवात्मप्रवृत्तमैथुनसमाहीत्पादो वेदः।" २. श्रीमदभय चन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कृत टीका। ३. मूलाचार पर्याप्ति अधिकार १२ पृ. ३४०-३४१ । ४. मूलाचार पर्याप्ति अधिकार १२ गाधा ८८ पृ. २४१ ॥५. यह गाथा धवल पु. १ पृ. ३४१, तथा पु. ६ पृ. ४७ और प्रा.पं.सं. गाथा १०६ पृ. २३ पर भी है ।
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पापा २७३
वेदमार्गणा/३४५
वेदकर्म की उदीरणा होने पर जीव नानाप्रकार के बाल भाव (उन्मत्तभाव) करता है। और स्त्रीभाव, पुरुषमाव और नपुसकभाव का वेदन करता है। वेदकर्म के उदय से होने वाला भाव ही भाववेद है। द्रव्य और भाव की अपेक्षा सर्व ही जीव तीनों वेद वाले दिखलाई देते हैं। वे सर्व ही विपरीत वेदवाले (विषम वेद वाले) यथाक्रम संभव है। नोकषाय के उदय से जीव के भाववेद होता है तथा योनि, लिंग आदि द्रव्यवेद, नामकर्म के उदय से होता है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद ये तीनों ही देद निश्चय से द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार के होते हैं और वे सर्व यथाक्रम विपरीत विषम भी परिणत हो जाते हैं ।
___ आत्मप्रवृत्ति (आत्मा की चैतन्य रूप पर्याय) में मथुनरूप चित्तविक्षेप के उत्पन्न होने को वेद कहते हैं।' नामकर्म के उदय से शरीर में मूछ, दाढ़ी, लिंग आदि का होना द्रव्यपुरुष है । नामकर्मादय से शरीर में रोमरहित मुख, स्तन, योनि प्रादि का होना द्रव्यस्त्री है। नामकर्म के उदय से मुछ, दाढ़ी, लिग आदि तथा स्तन, योनि ग्रादि दोनों प्रकार के चिह्नों से रहित शरीर का होना द्रव्यनपु सक होता है। प्रचरता से द्रव्य और भाव वेद सदृश ही होते हैं, क्वचित् कर्मभूमिज मनुष्य व तिर्यंचा में विसरश (विषम) भी हो जाते हैं। जैसे द्रव्य से पुरुषवेद किन्तु भाव से स्त्री या नपुसकवेद। द्रव्य से स्त्रीवेद भाव से पुरुष या नपुसकवेद । द्रव्य से नपुसकवेद भाव से स्त्री या पुरुषवेद। इस प्रकार से बिसदश वेदों की भी सम्भावना है। इन तीनों वेदों के स्वामित्व का कथन इस प्रकार है
एइंदिय विलिदिय णारय सम्मुच्छिमा य खलु सम्वे । वेदे णपुसगा ते रणादवा होति रिणयमादु १८७॥ देवा य भोगभूमा असंखदासाउगा मणुयतिरिया। से होंति बोसुयेवेसु पत्थि सेसि तदियवेदो ॥८॥ पंचेन्दिया दु सेसा सणि प्रसपिण्य तिरिय मणुसा य ।
ते होंति इत्थिपुरिसा णपुंसगा चावि हि ।।' —पृथिवीकायिक, जलकायित्रा, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक । एकेन्द्रिय जीव; हीन्द्रिय-श्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय विकलेंद्रिय जीव; नारकी और सर्व सम्मूर्छन जीव अथवा संजी सम्मुर्छन तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय सम्मूर्छन ये सब नियम से नपुसकवेदी होते हैं अर्थात् द्रव्य व भाव से नपुंसक वेदवाले होते हैं। देव, भोगभूमिया, असंख्यात वर्ष की आयुवाले अर्थात् भोगभूमि प्रतिभाग में (भरत व ऐरावत क्षेत्र के भोगभूमिया काल में) उत्पन्न होने वाले तथा सर्वम्लेच्छ खण्डों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य व तिर्यचों के पुष व स्त्री ये दो ही वेद होते हैं, नपुसकवेद नहीं होता। इनमें बेदवैषम्य नहीं होता। शेष संक्षी व प्रसंज्ञो पंचेन्द्रिय मनुष्य-तियचों में स्त्री, पुरुष और नपुसका तीनों वेद होते हैं और इनमें वेदविषमता भी होती है।
___ यथाक्रम तीनों वेदों के लक्षण पुरुगुणभोगे सेवे करोदि लोयम्मि पुरुगुणं कम्मं ।
पुरुउत्तमो य जह्मा तह्मा सो वणिो पुरिसो ।।२७३।। १. धवल पृ. १ पृ. १४१ "अथवात्मप्रवृत्तमैथुनसम्मोहोत्पादो वेदः ।। २. श्रीमदभय चन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कृत टीका। ३. मूलाधार पर्याप्ति अधिकार १२ पृ. ३४०-३४१ । ४. मूलाचार.पाप्ति अधिकार १२ गाथा ८८ पृ. २४१ ।५. यह गाथा घबल पु. १ पृ. ३४१, तथा पु. ६ पृ. ४७ प्रौर प्रा.पं.सं. गाथा १०६ पृ. २३ पर भी है ।
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३४६/गो, मा. जीवकाण्ड
गाथा २७४-२७५
गाथार्थ--जो उत्तम गुण और उत्तम भोगों में स्वामीपने का अनुभव करता है, जो लोक में उत्तम गुणयुक्त कार्य करता है और जो उत्तम है, वह पुरुष है ।।२७३।।
विशेषार्थ-जो उत्कृष्ट गुणों में और उत्कृष्ट भोगों में शयन करता है वह पुरुष है। अथवा जिस कर्म के उदय से जीव सोते हुए पुरुष के समान गुणों से अनबगत होता है और भोगों को प्राप्त नहीं करता वह पुरुष है। जिसके स्त्री सम्बन्धी अभिलाषा पाई जाती है, वह पुरुष है। जो श्रेष्ठ कर्म करता है वह पुरुष है।'
शङ्का-जिसके स्त्रीविषयक अभिलाषा पाई जाती है, वह उत्तम कर्म कैसे कर सकता है ?
समाधान-ही, क्योंकि उत्तमक को कसी रूप सामध्य से युक्त जीव के स्त्रीविषयक अभिलाषा पाई जाती है, अतः वह उत्तम कर्म को करता है, ऐसा कथन उपचार से किया है ।
छादयदि सयं दोसे रणयदो छादवि परं वि दोसेण ।
छादणसीला जह्मा तह्मा सा वणिया इत्थी ॥२७४॥' गाथार्य जो अपने को दोषों से आच्छादित करती है और दूसरों को भी दोषों से आच्छादित करती है। आच्छादनशील होने के कारण वह स्त्री कही गई है ।।२७४।।
विशेषार्थ - जो दोषों से स्वयं अपने को भी और दूसरों को भो आच्छादित करती है वह स्त्री है। स्त्रीरूप जो वेद है वह स्त्रीदेद है । अथवा जो पुरुष की आकांक्षा करती है, वह स्त्री है, इसका अर्थ पुरुष की चाह करने वाली होती है। जो अपने को स्त्रीरूप अनुभव करता है वह स्त्रीवेद है। स्त्रीरूप वेद को स्त्रीवेद कहते हैं । जो कोमल वचन, कटाक्ष रूप अवलोकन, अनुकूल प्रवर्तन आदि द्वारा पुरुष को अपने वश में करके पापक्रियानों से दूषित करती है, वह स्त्री है। यद्यपि तीर्थकर की माता आदि कुछ स्त्रियाँ ऐसी भी हैं जिनमें यह लक्षण घटित नहीं होता तथापि प्रचुरता की अपेक्षा यह लक्षण कहा गया है।
णेवित्थी रणेष पुमं राउंसो उहलिङ्गविदिरित्तो ।
इट्ठावग्गिसमारणगवेदरणगरुप्रो कलुसचित्तो ॥२७॥ गाथार्थ-जो न स्त्री है और न पुरुष है, किन्तु स्त्री और पुरुष सम्बन्धी दोनों प्रकार के लिंगों से रहित है, अावा की अग्नि के समान तीव्र वेदना से युक्त है और सर्वदा स्त्री व पुरुष विषयक मैथुन की अभिलाषा से उत्पन्न हुई बेदना से जिसका चित्त कलुषित है, उसे नपुंसक कहते हैं ।।२७५।।
विशेषार्थ-जो न स्त्री है और न पुरुष है, बह नपुंसक है। जिसके स्त्री और पुरुषविषयक
१. धवल पु. १ पृ. ३४१ । २. घपल पु. १ पृ. २४१ । ३. यह गाथा धवल पु. १ पृ. ३४१ व पुस्तक ६ पृ. ४६ तथा प्रा.प.सं. पृ. २३ पर भी है। ४. धवल पु. १.३४०। ५. यह गाथा धवल पु. १, ३४२ व पु. ६ पृ. ४७ तथा प्रा.पं.सं. गाथा १०७ पृ. २३ पर भी है ।
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गाथा २७१
वेदमार्गणा/३४७ दोनों प्रकार की अभिलाषा पाई जाती है, उसे नपुसक कहते हैं ।' अथवा नपुसक वेद नोकषाय के उदय से जो प्रात्मपरिणाम होते हैं वह नपुंसकवेद है। जिसके दाढ़ी, मूछ व लिंग इत्यादि पुरुष के चिह्न तथा स्तन, योनि इत्यादि स्त्री के चिह्न ये दोनों चित नहीं पाये जाते. वह नपुसक है ।
वेदरहित जीव तिरणकारिसिट्टपागग्गिसरिसपरिणामयणम्मुक्का ।
अवगयत्रेवा जीवा सगसंभवरांतवरसोक्खा ॥२७६॥ गाथार्थ-तृण की अग्नि, कारीष-अग्नि, इष्टपाक अग्नि (आवा की अग्नि) के समान तीनों वेदों के परिणामों से रहित जीव अपगतवेदी होता है। ऐसे जीव आत्मासे उत्पन्न होने वाले अनन्त और सर्वोत्कृष्ट सुख को भोगते हैं ।।२७६।।।
विशेषार्थ-जिनके तीनों प्रकार के वेदों से उत्पन्न होने वाला सन्ताप (अन्तरंग दाह) दूर होगया है, व अपगतबेदो जोव है। प्रौपशमिक व क्षायिक लब्धि से जोब अपगतवेदी होता है। विवक्षित वेद के उदय सहित उपशम श्रेणी चढ़ कर मोहनीयकर्म का अन्तर करके, यथायोग्य स्थानों में विवक्षित वेद के उदय, उदीरणा, अपकर्षण, उत्कर्षण, परप्रकृतिसंक्रम, स्थितिकाण्डक, और अनुभाग काण्डक के बिना जीव में जो पुद्गल स्कन्धों का अवस्थान होता है, वह उपशम है । उस समय जो जीव की बेद के अभाव रूप लब्धि है, उसीसे जीव अपगतवेदी होता है।
विवक्षित वेद के उदय से क्षपक श्रेणी को चढ़ कर, अन्तरकरण करके यथायोग्य स्थान में विवक्षित वेद सम्बन्धी पुद्गल स्कन्धों के स्थिति व अनुभाग सहित जीवप्रदेशों से नि:शेषतः दूर हो जाने को क्षय कहते हैं। उस अवस्था में जो जीव का परिणाम होना है वह क्षायिक भाव है। उस क्षायिक लब्धि से जीव अपगतवेदी होता है ।
शङ्का—वेद का प्रभाव और प्रभाव सम्बन्धी लब्धि ये दोनों जब एक ही काल में उत्पन्न होते हैं, तब उनमें प्राधार-प्राधेय भाव या कार्यकारण भाव कैसे बन सकता है ?
समाधान-बन सकता है, क्योंकि समान काल में उत्पन्न होने वाले छाया और अंकुर में कार्य-कारण भाव देखा जाता है तथा घट की उत्पत्ति के काल में ही कुशूल का प्रभाव देखा जाता है।
शा-तीनों वेदों के द्रव्य कर्मों के क्षय से भाववेद का अभाव भले ही हो, क्योंकि कारण के प्रभाव से कार्य का अभाव मानना न्यायसंगत है। किन्तु उपशमधेणी में त्रिवेदसम्बन्धी पुद्गल द्रव्यस्कन्धों के रहते हुए भाववेद का प्रभाव घटित नहीं होता, क्योंकि कारण के सद्भाव में कार्य का प्रभाव मानने में विरोध प्राता है ?
समाधान-विरोध नहीं आता, क्योंकि जिनकी शक्ति देखी जा चुकी है, ऐसी औषधियां जब किमी प्रामरोग सहित अर्थात् अजीर्ण के रोगी को दी जाती हैं, तब अजीर्ण रोग से उन औषधियों की शक्ति प्रतिहत हो जाती है और वे अपना कार्य करने में असमर्थ पाई जाती हैं। -. १. धवल पु. १ पृ. ३४१ । २. यह गाथा धवल पु. १ पृ. ३४२ तथा प्रा पं. सं. गा, १०८ पृ. २३ पर है। ३. धवल पु. १ पृ. ३४२ । ४. धवल पु. ७ पृ. ८१-८२ ।
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३४८ / गो. सा. जीवकाण्ड
यद्यपि निवृत्तिकरण के अवेदभाग के प्रारम्भ से जीव श्रपगतवेदी हो जाता है तथापि यहाँ पर उसकी त्रिवक्षा नहीं है, किन्तु केवली की विवक्षा है। क्योंकि स्वात्मोत्पन्न श्रनन्त उत्कृष्ट सुख केवली के ही सम्भव है ।' छद्मस्थ अवस्था में ज्ञान दर्शन स्वभाव का घात होने से स्वाभाविक अनन्त व उत्कृष्ट सुख सम्भव नहीं है, किन्तु स्वभाव का घात रूपी दुःख विद्यमान है ।
गावा २७७-२७८
वेदमाता में जीवसंख्या
जोइ सिवा रणजोरिंग रितिरिवखपुरुसा य सगिरो जीवा । तसे पम्मलेस्सा
गु
गाथार्थ - ज्योतिष देवों से संख्यातगुणे हीन व्यन्तर हैं। उनसे संख्यातगुगो हीन योनिनी तिर्यंच हैं। उनसे संख्यातगुणे हीन पुरुषवेदी तिर्यच हैं। उनसे संख्यातगुणे हीन संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यंच हैं। उनसे संख्यातगुणे हीन संजी पंचेन्द्रिय तेजोलेश्या वाले जीव हैं। उनसे संख्यातगुणे हीन संशी पंचेन्द्रिय पद्मलेश्मा वाले जीव हैं ॥ २७७॥
कमेरदे ।।२७७ ।।
विशेषार्थ – पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनी जीव भवनवासी देवियों से संख्यातगुण हैं । वानव्यन्तर देव पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिनियों से संख्यातगुणे हैं। वहीं पर देवियाँ देवों से संख्यातगुणी हैं । ज्योतिषी देव बानव्यंतर देवियों से संख्यातगुणे हैं । तथा वहीं पर देवियों देवों से संख्यातगुणी हैं। यह ख़ुद्दाबन्ध के सूत्र से जाना जाता है। देवों के संख्यात बहुभाग देवियाँ होती हैं तथा तिथंच योनिनी जीव देवियों के संख्यातवें भाग हैं ।
3
इगिपुरिसे बसीसं देवी तज्जोगभजिददेवोधे । सगगुलगारेण गुणे पुरुषा महिला य देवेसु || २७८ ॥
गाथार्थ - एक देव के बत्तीस देवियां होती हैं। उनके योग से देवघोष राशि को भाग देकर ने-अपने गुणाकार से गुणा करने पर देव और देवियों का प्रमाण प्राप्त होता है ।। २७८ ॥
विशेषार्थ - यदि एक देव है तो उसकी बत्तीस देवियाँ होती हैं । इस प्रकार एक और बत्तीस को जोड़कर (१+ ३२) तैंतीस से देवराशि को खण्डित करने पर एक खण्डं प्रमाण देव हैं इस एक खण्ड को देव प्रोघ राशि में से कम करने पर देवियों का प्रमाण प्राप्त होता है । "
देवों से देवियाँ बत्तीस गुणी होती हैं, ऐसा व्याख्यान भी देखा जाता है ।"
देवों से देवियाँ बत्तीस गुग्गी हैं, इस प्रकार आचार्य परम्परा से आये हुए उपदेश से जाना
१. श्रीमंदभयचन्द्र सूरि सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत टीका । २. प्रवचनसार गा. ६० श्री श्रमुतचन्द्राचार्य कृत टीका "खेदस्यायतनानि घातिकर्माणि ।" तथा गा. ५५ श्री जयसेन श्राचार्य कृत टीका- "यावतांशेन सूक्ष्मार्थं न जानाति तावतांशेन चित्खेदकारणं भवति । खेदश्च दुःखम् ।” २. व. पु. ३ पृ. ४९३-४१४ । ४. "देवरास तेत्तीमखंडारिण काणेगखंडमवदेि देवी पमाणं होदि ।" [ ष. पु. ७ पृ. २८१] । ५. देवहितो देवी बताओ ति वस्त्रासारखादोस ।" [ ध.पु. ३ पृ. २३२] ।
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वेदमार्गणा / ३४६
जाता है। इन देवियों से कुछ अधिक स्त्रीवेदी जीव हैं। देत्रियों में तिर्यत्र व मनुष्य सम्बन्धी स्त्रीवेदी राशि को जोड़ देने पर सर्व स्त्रीवेदी राशि प्राप्त होती है ।
गाय। २७६
देहि सादिरेया पुरिसा देवीहिं साहिया इत्थी । तेहि विहीरण सवेदो रासी संढारण परिमाणं ॥२७६॥
गाथार्थ - देवों से कुछ अधिक पुरुषवेदियों का प्रमाण है और देवियों से कुछ अधिक स्त्रीवेद वाले हैं । सवेद राशि में से पुरुषवेदी और स्त्रीवेदियों का प्रमाण घटाने पर शेष नपुंसकों का प्रमाण है || २७६ ।।
विशेषार्थ - पुरुषवेदी जीव देवों से कुछ अधिक है।
से
देवराशि के तैंतीस खण्ड करके उनमें एक खण्ड देवों में पुरुषवेदियों का प्रमाण है । उसमें तिर्यच व मनुष्य सम्बन्धी पुरुषवेद राशि को जोड़ देने पर सर्व पुरुषवेदियों का प्रमाण होता है। इसी कारण पुरुषवेदियों का प्रमाण देवों से कुछ अधिक कहा गया है। इसी प्रकार देवियों से स्त्रीवेदियों का साधिक प्रमाण कहा गया है ।
कुल सफेद रात्रि है। उस से गुरुदेव स्त्रीवेदी की असंख्यात राशि कम करने पर भी नपुंसक वेद राशि अनन्तानन्त शेष रहती है । जो अनन्तानन्त अवसर्पिणीउत्सर्पियों से पहृत नहीं होती है वह नपुंसक राशि क्षेत्र की अपेक्षा अनन्तालोक प्रमाण है ।"
निगोद राशि नपुंसक वेदी ही है और निगोद राशि अनन्तानन्त है । श्रतः नपुंसक वेदी भी अनन्तानन्त कहे गये हैं । अथवा एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक जीव शुद्ध नपुंसक वेदी होते हैं।
शङ्का - चींटियों के ग्रण्ड़े देखे जाते हैं ।
समाधान -- ग्रण्डों की उत्पत्ति गर्भ में ही होती है, ऐसा कोई नियम नहीं है । "
शङ्का - एकेन्द्रिय जीवों के द्रव्यवेद नहीं पाया जाता है फिर एकेन्द्रिय जीवों के नपुंसक वेद कास्तित्व कैसे बतलाया ?
है |
समाधान — एकेन्द्रियों में द्रव्यवेद मत होश्रो, क्योंकि वेद के कथन में उसकी प्रधानता नहीं अथवा द्रव्यवेद की एकेन्द्रियों में उपलब्धि नहीं होती है, इसलिए उसका अभाव नहीं सिद्ध होता । किन्तु सम्पूर्ण प्रमेयों में व्याप्त होकर रहने वाले उपलम्भप्रमाण ( केवलज्ञान ) से उसकी सिद्धि हो जाती है ।
१. "तेहितो देवप्रो बसी सगुणा हवंति त्ति धाइरिय २ व ३. "देवीहिमादिरेयं ॥ १०६ ॥ तिरिक्त मणुस्सा
७ पृ. २०१ ।। ४. "देवेहि सादियं ।। १०५ ।। " धबल पु. ७ पृ. २८२ ] । दचपमाण केवडिया ? ॥१०६॥ प्रणंता ॥१०॥"
६
५. बबल पु. ७ पृ. २८२ । [ धवल पु ७१.२८२ ] ।
सयवेदा ७. "अगतागताहि श्रसरि उस्सप्पिणीहि प्रबहिरति ॥१०६॥ खेत्ते
अणंतारणंता लोगा ।" [ धवल पु. ७ पृ.
२८२-२८३ ।। ८. "तिरिखा मुद्धा बु सगवेदा एइ विमम्महूडि जाब चउरिदिया ॥ १०६ ॥ [ प्र.पु. २. ३४५] | ६. घवल पु. १ पृ. २४६ ॥
परंपरागयुवदेसादो सव्वदे । " [ष. पु. ३.४१४] इत्थि वेदरासि पक्खिसे सव्वित्थिविंदरासी होदि ।" [ध.पु.
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३५०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २८०-२८१ शङ्का-जो स्त्रीभाव और पुरुषभाव से सर्वथा अनभिज्ञ हैं ऐसे एकेन्द्रियों के स्त्री और पुरुषविषयक अभिलाषा कैसे बन सकती है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि जो पुरुष स्त्रीवेद से सर्वथा अज्ञात है और भूगृह के भीतर वृद्धि को प्राप्त हुआ है ऐसे युवा पुरुष के साथ उक्त कथन का व्यभिचार प्राता है।'
तीनों वेदों की प्रवृत्ति क्रमसे ही होती है युगपत् नहीं, क्योंकि वेद पर्याय है। जैसे विवक्षित कषाय केवल अन्तमुहर्त रहती है, वैसे सभी वेद केवल एक अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त नहीं रहते, क्योंकि जन्म से लेकर मरण तक किसी एक वेद का उदय पाया जाता है ।
अपगतवेदी जीव द्रव्यप्रमाण से अनन्त हैं।
गब्भणपुइथिसणी सम्मुच्छरणणिपुण्णगा इदरा । कुरुजा असणिणगब्भजणपुइस्थीवाणजोइसिया ॥२०॥ थोवा तिसु संखगरणा तत्तो प्रावलिप्रसंखभागगरणा ।
पल्लासखेज्जगुणा तत्तो सम्वत्थ संखगुणा ॥२८॥ गाथार्य-गर्भज संज्ञी नपुसक १, संजी गर्भज पुरुष २, गर्भज संजी स्त्रीवेदो ३, सम्मुच्छन संज्ञी पर्याप्त ४, सम्मूर्छन संज्ञी अपर्याप्त ५, भोगभूमिया ६, असंज्ञी गर्भज नपुसक वेदी ७, असंही गर्भज पुरुषवेदी ८, गर्भज प्रसंज्ञा स्त्रीवेदी ६, वानव्यन्तर देव १०, ज्योतिषी देव ११ । ये ग्यारह स्थान क्रम से हैं। पहला स्थान सबसे स्तोक है। उसके आगे के तीन स्थान श्रम से संख्यातगुणें हैं। फिर एक स्थान प्राबली के असंख्यातवें भाग गुरगा है। फिर एक स्थान पाल्य के असंख्यातवं भाग गुणा है। इससे आगे के सर्व स्थान संख्यातगुणे-संख्यातगुणे हैं ।।२८०-२८१।।
विशेषार्थ-उपर्युक्त कथन वेदमार्गणा में अल्पवहुत्त्व बतलाने के लिए किया गया है। यह कथन पंचेन्द्रिय तिर्यंच की अपेक्षा किया गया है।
१. संजी नपुसक वेदी गर्भज सबमें स्तोक हैं ॥१३४॥ २. उससे संज्ञी पुरुषवेदी गर्भज संख्यातमुरणे हैं ।।१३५।। क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवे भाग मात्र प्रतरांगुलों का जगत्प्रतर में भाग देने पर संजी नपुसकवेदी गर्भजों का प्रमाण होता है अतएव वे स्तोक हैं। दूसरे संज्ञी गर्भज जीवों में नपुसकवेदियों की प्रायः सम्भावना नहीं है। ३. उससे संज्ञी स्त्रीवेदी गर्भज संख्यातगुणे हैं ।।१३६॥ क्योंकि संज्ञी गर्भजों में पुरुषवेदियों से स्त्रीवेदी बहुत पाये जाते हैं। ४. संज्ञो नपुसकवेदी सम्मूच्छिम पर्याप्त संख्यातगुणे हैं ।।१३७।। क्योंकि संजी गर्भजों से संज्ञी सम्मूच्छिम जीव संख्यातगुरणे हैं। सम्मूच्छिम स्त्रीवेदी व पुरुषवेदी नहीं होते। ५. संझी नपुसकवेदी सम्मूच्छिम अपर्याप्त असंख्यातगुणे हैं ।।१३८।। आवली का असंख्यातवाँ भाग गुणाकार है, जो परम गुरु के उपदेश से जाना जाता है। ६. संजी स्त्रीवेदी व पुरुषवेदी गर्भज असंख्यातवर्घायुष्क दोनों ही तुल्य असंख्यात गुरणे हैं ॥१३६॥
१. धवल पु. १ पृ. ३४४ । २. घनल पु. १ पृ. ३४६ । ३. धवल पु. ७ पृ. २८३ । ४. धवल पु. ७ पृ. ५५५ "पचिदियतिरिक्ष जोगिा एसु पयदि ।"
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गया २५२
शङ्का दोनों वेदों की समानता कैसे है ?
समाधान - प्रसंख्यातवर्षायुष्कों अर्थात् भोगभूमियों में स्त्री-पुरुष युगलों की ही उत्पत्ति होती है । नपुंसक वेदी, सम्मूच्छिम व असंज्ञी स्वप्न में भी वहां सम्भव नहीं है, क्योंकि वे प्रत्यन्ताभाव से निराकृत हैं । यहाँ गुणाकार पल्योपम का असंख्यात भाग है। यह प्राचार्य परम्परागत उपदेश से जाना जाता है। इससे सन्य प्रतिक्रान्त राशियों के लिए जगत्तर का भागाहार पत्योपम के असं ख्यातवें भाग मात्र प्रतरांगुल प्रमाण होता है । किन्तु यहाँ संख्यात प्रतरांगुल भागाहार है ।
कषायमार्गणा/३५१
13. भोगभूमियों से प्रसंज्ञी नपुंसक वेदी गर्भज संख्यातगुणे हैं ।। १४० ॥ क्योंकि नोइन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम पंचेन्द्रियों में बहुतों के नहीं होता । ८. असंज्ञी पुरुषवेदी गर्भज संख्यातगुणे हैं ।। १४१ ॥ C. इनसे संज्ञी स्त्रीवेदी गर्भज संख्यातगुणे हैं ॥ १४२ ॥ भोगभूमियों से लेकर असंजी स्त्रीवेदी गर्भज राशि तक जगत्प्रतर का भागाहार संख्यात प्रतरांगुल है ।"
२
१०. पंचेन्द्रिय योनिनी तिर्यंचों से (यानी असंज्ञी स्त्रीवेदी गर्भजों से ) बानव्यंतर देव संख्यातगुणे हैं ||४०|| गुणकार संख्यात समय है । ११. वानव्यन्तर देवों से ज्योतिषी देव संख्यातगुरणे है ।। ४२ ।। संख्यात समय गुर है। मखानु, वेदमार्गणा ( धवल ७ पृ. ५५५ से ५५८ ) के अनुसार नौ स्थान तो ऊपर के अनुसार ही हैं। पर दसवाँ तथा ग्यारहवाँ स्थान इस प्रकार है- ( १० ) श्रसंज्ञी स्त्रीवेदी गर्भजों से प्रसंज्ञी नपुंसक सम्मूर्च्छन पर्याप्त संख्यातगुणे हैं। (११) असंज्ञी नपु० सम्मूर्च्छन पर्याप्तों से प्रसंज्ञी नपु० सम्मूर्च्छन अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार आवली का असंख्यातवाँ भाग है ।
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इस प्रकार गोम्मटसार जीनकाण्ड में वेदमार्गणा नाम का दसव अधिकार पूर्ण हुआ ।
११. कषायमार्गणाधिकार
कषाय का निरुक्तिसिद्ध लक्षण ( कृष् धातु की अपेक्षा )
सुहदुक्ख सुबहसस्सं कम्मवखेत्तं कसेदि जीवस्स ।
संसारदूरमेरं ते कसा श्रोत्ति णं बेंति ॥ २६२ ॥ ३
गायार्थ – सुख-दुःख श्रादि अनेक धान्य को उत्पन्न करने वाले तथा जिसकी संसाररूप मर्यादा अत्यन्त दूर है ऐसे कर्मक्षेत्र को जो कर्षण (फल उत्पन्न करने योग्य) करती है, वह कषाय है ।। २८२॥
विशेषार्थ - शङ्का- 'कषन्तीति कषाया:' अर्थात् जो कसे वे कषाय हैं इस प्रकार की व्युत्पत्ति क्यों नहीं की ?
१. धवल पु. ७ पृ. ५५५ से ५५८ तक, सूत्र १३४- १४२ । २. धवल पु. ७ पृ. ५६५ सूत्र ४० व ४२ । ३. प्रा.पं.सं. २३गा. १०८ व पू. ५७९ मा १०० धवल पु. १ पृ. १४२ गा. ६० ।
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३५२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २८३
समाधान- जो कसे, उन्हें कषाय कहते हैं । कषाय शब्द की इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर करने वाले किसी भी पदार्थ को कषाय माना जायगा। अतः कषायों का स्वरूप समझने में संशय उत्पन्न हो सकता है, इमलिए 'जो कसे वह कषाय है' इस प्रकार की व्युत्पत्ति नहीं की गई ।'
कषाय का निरुक्तिसिद्ध लक्षण (कष् धातु की अपेक्षा) सम्मत्त-देस-सयल-चरित-जहक्खादचरणपरिणामे । घादंति या कषाया चउसोल असंखलोगमिदा ॥२८३।।
गाथार्थ-सम्यग्दर्शन, देशनारित्र, सकलचारित्र और यथाख्यातचारित्र परिणामों को जो घातती है, वह कषाय चार प्रकार की, सोलह प्रकार की अथवा असंन्यात लोकप्रमाण भेद वाली है ॥२८३।।
विशेषार्थ-कषाय मोहनीयकर्म रूप है। मोहनीयकर्म आत्मा के श्रद्धागुण व चारित्रगुण को मोहित करता है अर्थात् विपरीत करता है। आत्मा के उक्त गुणों को घातने की अपेक्षा वह चार प्रकार की है। काम के सम्मारिकार हो पाते हातानुबन्धी कधाय है। किंचित् त्याग रूप एकदेशचारित्र को जो घाते वह अप्रत्याख्यानावरण कषाय है। जो सकलचारित्र (महायतरूप चारित्र) का घात करे वह प्रत्याख्यानावरण कषाय है। जो यथाख्यात चारित्र का घास करे वह संज्वलन कषाय है। चार गुणों को घातने की अपेक्षा कषाय के उपयुक्त चार भेद हो जाते हैं।
पदमो सण घाई विवियो सह घाई असपिरासि । तइनो संजमघाई चउत्थो जहखाय घाईया ॥११॥
-प्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शन का घात करती है, द्वितीय अप्रत्याख्यानाबरण कषाय देशाविरति (देशचारित्र, देशसंयम) की घातक है । नृतीय प्रत्याख्यानावरण वाषाय सकल संयम (महानत्त, सकलनारित्र) का बात करती है और चतुर्थ संज्वलन कषाय यथाख्यातचारित्र को घातक है।
सम्यक्त्वं हनन्त्यनस्तानुबन्धिनस्ते कषायकाः । अप्रत्याख्यानरूपाश्च देशवतविघातिनः ॥२५॥ प्रत्याख्यानस्वभावाः स्युः संयमस्य विनाशकाः । चारित्रे तु यथाख्याते कुयु : संज्वलनाः क्षतिम् ॥२६॥
-सम्यक्त्व को घात करनेवाली कषायें वे अनन्तानुवन्धी वाषाय हैं। देशवत (देशचारित्र) को घातकरने वाली अप्रत्याख्यानावरण कषाय है। संयम (महाव्रतरूप सकलचारित्र) का विनाश करना प्रत्याख्यानावरण कषाय का स्वभाव है। संज्वलन कषाय यथास्यात चारित्र का घात करती है।
१. धवल पु. १ पृ. १४१ । २. प्रा.प.सं.पृ. २५। ३. उपासकाध्ययन, कल्प ४६, पृ. ३३१-३३२ ।
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गाथा २८३
पढमाविया कसाया सम्मतं देससयलचारितं । जहलाएं घावंति य गुणणामा होंति सेसावि ।। ४५ ।।
मार्ग/ ३५३
- प्रथम आदि अर्थात् अनन्तानुबन्धी, प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन ये चारों कषाय, क्रम से सम्यक्त्व को, देशचारित्र को सकलचारित्र को और यथास्यात चारित्र को घातती हैं। इसलिए इन कषायों के नाम भी घातने गुण के अनुसार हैं ( सार्थक हैं ) ।
शङ्का - प्रनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शन की घातक कैसे हो सकती है ? वह तो चारित्रमोहनीय कर्म की प्रकृति है अतः चारित्रगुरण की घातक हो सकती है। सम्यग्दर्शन की घातक तो मिथ्यात्वप्रकृति है ।
समाधान- विपरीत ग्रभिनिवेश मिध्यात्व है और वह विपरीताभिनिवेश मिथ्यात्वप्रकृति और अनन्तानुबन्धी कषाय प्रकृति इन दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है । सासादन गुणस्थान वाले के का उदय तो पाया ही जाता है। इसलिए वहाँ पर भी दोनों अज्ञान ( मिथ्याज्ञान )
सम्भव है । '
शङ्का - सासादन किसे कहते हैं ?
समाधान - सम्यक्त्व की विराधना प्रसादन है। जो इस प्रासादना से युक्त है, उसे सासादन कहते हैं । अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से जिसका सम्यग्दर्शन नष्ट हो गया है, किन्तु जो मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुए मिथ्यात्वरूप परिणामों को नहीं प्राप्त हुआ है फिर भी मिध्यात्व कर्म के अभिमुख है, उसे सासादन कहते हैं ।
शङ्का - सासादन न सम्यक्त्व रूप है, न मिथ्यात्व रूप है और न मिश्ररूप है इसलिए सासादन गुरणस्थान सम्भव नहीं है ?
समाधान ऐसा नहीं हैं, क्योंकि सासादन गुणस्थान में विपरीत अभिनिवेश अर्थात् विपरीत अभिप्राय रहता है, इसलिए वह असद्द्दष्टि माना गया है।
शङ्का - यदि ऐसा है तो इसे मिध्यादृष्टि कहना चाहिए। इसे सासादन संज्ञा देना उचित
नहीं है ।
समाधान- नहीं, क्योंकि सम्यग्दर्शन और चारित्र का प्रतिबन्ध करने वाली अनन्तानुबन्धी काय के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीत अभिनिवेश दूसरे गुणस्थान में पाया जाता है, इसलिए द्वितीयगुणस्थानवर्ती मिथ्याहृष्टि है। किन्तु मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश नहीं पाया जाता, इसलिए उसे मिथ्यादृष्टि नहीं कहते हैं। केवल सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं ।
शङ्का - इस कथन के अनुसार जब वह सासादन गुणस्थानवर्ती प्रसष्टि ही है तो फिर उसे मिथ्यादृष्टि संज्ञा क्यों नहीं दो गई ?
१. "मिध्यात्वं नाम विपरीताभिनिवेशः। स च मिथ्यात्वादनन्तानुबन्धिनश्चोत्पद्यते ।" [घवल पु. १ पृ. ३६१] । २. घबल पु. १ पृ. १६३-१६४ ।
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२५४/गो, सा, जीवकाण्ड
गाथा २८३
समाधान ऐसा नहीं है, क्योंकि सासादन गुणस्थान को स्वतन्त्र फहने से अनन्तानुबन्धी प्रकृतियों की द्विस्वभाबता का कथन सिद्ध हो जाता है।
शङ्का-अनन्तानुबन्धी सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का प्रतिबन्धक होने से उसे उभयरूप संज्ञा देना न्यायसंगत है ?
समाधान--यह प्रारोप ठीक नहीं है, क्योंकि यह तो हमें इष्ट ही है फिर भी परमागम में मुख्य नय की अपेक्षा इस तरह का उपदेश नहीं दिया है ।'
शा- अनन्तानुबन्धी कषायों की शक्ति दो प्रकार की है, इस विषय में क्या युक्ति है ?
समाधान --अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से सासादन भाव की उत्पत्ति अन्यथा हो नहीं सकती, इस अन्यथानुपपत्ति से अनन्तानुबन्धी के दर्शनमोहनीयता सिद्ध होती है। चारित्र में अनन्तानुबन्धी का व्यापार निष्फल भी नहीं है, क्योंकि चारित्र की घातक अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के अनन्त उदय रूप प्रवाह के कारणभूत अनन्तानुवन्धी कषाय के निष्फलत्व का विरोध है ।।
प्रत्याख्यान और संयम एकार्थवाले नाम हैं। अप्रत्याख्यान अर्थात् ईषत् (अल्प) प्रत्याख्यान (त्याग)। अल्पत्याग को अथवा संयमासंयम को या देशचारित्र को अप्रत्याख्यान कहते हैं । उसका यावरण करने वाली कषाय अप्रत्याख्यानावरण कषाय है ।'
प्रत्याख्यान अर्थात् संयम का जो आवरण करती है, वह प्रत्याख्यानावरण कषाय है। जो सम्यक् प्रकार जलता है वह संज्वलन कषाय है ।
शङ्का–संज्वलन कषाय में सम्यक्पना क्या है ?
समाधान–चारित्र के साथ जलना ही इसका सम्यक्पना है। चारित्र का विनाश नहीं करते हुए यह कषाय उदय को प्राप्त होती है, यह अर्थ कहा गया है ।
शङ्का---चारित्र का विनाश नहीं करने वाले संज्वलन कषाय के चारित्रावरणता कैसे बन सकती है?
समाधान नहीं, क्योंकि संज्वलनकषाय संयम में मल को उत्पन्न करके यथाख्यात चारित्र की प्रतिबन्धक होती है। इसलिए संज्वलन कषाय के चारित्रावरणता मानने में कोई विरोध नहीं है।'
अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से कषाय चार प्रकार की है। इन चारों में से प्रत्येक के क्रोध, मान, माया, लोभ भेद करने से कषाय १६ प्रकार की है। जैसे अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, अप्रत्याख्यानावरण कोध-मान-माया-लोभ प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया, संज्वलन लोभ । प्रत्यास्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरण कषायों के समान चारों संज्वलन
१. घवल पु. १. पृ. १६५ 1 २. अत्रल पु. ६ पृ. ४२.४३ । ३. धवन पु. ६ पृ. ४३.४४ । ४. धवल पु. ६ पृ. ४४ । ५. घवल पु. ६ पृ. ४४ 1
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गाथा २८३
कषायमार्गणा/३५५
कषायों के बन्ध और उदय के युगपत् अभाव के प्रति प्रत्यासत्ति नहीं है, इस बात को बतलाने के लिए क्रोध आदि प्रत्येक पद के साथ संज्वलन शब्द लगाया गया है।
शङ्का--असंख्यात लोकप्रमाण किस प्रकार हैं ?
समाधान-उदयस्थानों की विशेषता की अपेक्षा असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं, क्योंकि तीव, तीव्रतर, मन्द, मन्दतर इत्यादि अनेक भेदों के उदय में आने की अपेक्षा चारित्रमोहनीय कर्मप्रकृतियों के असंख्यात लोकप्रमाण भेद हो जाते हैं।
शङ्का--क्रोध किसे कहते हैं ? समाधान-क्रोध, कोप, रोष आदि क्रोध रूप परिणाम हैं। कहा भी है
कोहो य कोव रोसो य अक्खम संजलण कलह बढी य ।
झंझा बोस विवावो बस कोहेयढ़िया होति ॥१॥ - क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, वृद्धि, झंझा, द्वेष और विवाद ये दस क्रोध के पर्यायवाची शब्द जानने चाहिए। क्रोध, कोप और रोष ये गाब्द सुबोध हैं क्योंकि ये ऋध, कुप् भीर रुष धातु से बने हैं। क्षमा रूप परिणाम का न होना अक्षमा है। इसका दूसरा नाम अमर्ष है । जो भले प्रकार जलता है, वह संज्वलन है, क्योंकि और
काले घाला होने से क्रोध अग्नि है। कलह का अर्थ प्रतीत (ज्ञात) है। क्रोध से पाप, अयश, कलह और बैर आदि वृद्धि को प्राप्त होते हैं इसलिए क्रोध का नाम वृद्धि है, क्योंकि सभी अनर्थों की जड़ क्रोध है । तीवतर संवलेश परिणाम का नाम झंझा है। उसका हेतु होने से क्रोध-कषाय का नाम भी झंझा है । द्वेष का अर्थ अप्रीति है, आन्तरिक कलुषता इसका तात्पर्य है । बिरुद्धवाद का नाम विवाद है। स्पर्धा और संघर्ष इसके नामान्तर हैं। इस प्रकार ये दस क्रोध के पर्यायवाची शब्द हैं।'
शङ्का-मान किसे कहते हैं ? समाधान-माण मद वप्प थंभो उपकास पगास तध समुषकस्तो ।
प्रत्तुक्करिसो परिभव अस्सिव दसलक्षणो मारो ॥२॥ —मान, मद, दर्प, स्तम्भ, उत्कर्ष, प्रकर्ष, समुत्कर्ष, आत्मोत्कर्ष, परिभव और उसिक्त, इन दस लक्षण वाला मान है। जाति आदि के द्वारा अपने को अधिक (बड़ा) मानना मान है। उन्हीं जाति ग्रादि के द्वारा पाविष्ट हुए जीव का मदिरापान किये हुए जीव के समान उन्मत्त होना मव है। मद से बड़े हुए अहंकार का दर्प होना वर्ष है। सन्निपात अवस्था में जिस प्रकार मनुष्य स्खलित
१. धवल पु. ६ पृ. ४५ । २. "पुनःसर्वेऽप्युदयस्थानविशेषापेक्षया प्रसंख्यातलोकप्रमिता भवन्ति । कुतः? तत्कारणचारित्रमोहनीयोत्तरोत्तरप्रकृतिविकल्पानामसंख्याल लोकमात्रत्वात ।" [ कर्मप्रकृति ग्रन्थ गाथा ६१ टीका , ३२ (ज्ञानपीठ)] । ३. जयधवल पु. १२ वंजरणे परिणयोगद्दार' पृ. १८६ गा. १। ४. जयधवल पृ. १२ पृ. १६६-२८७, "क्रोध: कोपो रोष: संज्वलनमाक्षमा तथा कलहः । झंझा-द्वेष-विवादो वृद्धिरिति क्रोधपर्यायाः ॥१||" ५. जयधवल पु. १२ 'बजरणे अरिणयोगद्दार' पृ. १८७ गा. २ ।
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३.५६/मो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २८३
रूप से यद्वातद्वा बोलता है, उसी प्रकार मदवश उत्पन्न हुए दर्प से स्खलित यद्वातद्वा बोलते हुए स्तब्ध हो जाना स्तम्भ है। उसी प्रकार उत्कर्ष, प्रकर्ष और समुत्कर्ष ये तीनों भी मान के पर्यायवाची नाम घटित हो जाते हैं, क्योंकि ये तीन भी अभिमान के द्योतक हैं ।' अपने उत्कर्ष का नाम प्रात्मोस्कर्ष है। मैं ही जाति आदिरूप से उत्कृष्ट हूँ, मुझसे अन्य कोई दूसरा उत्कृष्ट नहीं है, इस प्रकार के अध्यवसाय का नाम प्रात्मोत्कर्ष है। दूसरे को परिभवन अर्थात् नीचा दिखाना परिभव है, दूसरे का अपमान करना परिभव है । अपने उत्कर्ष और दूसरे के परिभव के द्वारा उद्धत होता हुआ उत्चिति अर्थात् गवित होना उरिसक्त है। इस प्रकार मान के ये दस पर्यायवाची नाम हैं ।
माया य सादिजोगो गियी वि य वंचणा प्रणुज्जुगदा ।
गहणं मणपणमगरण कक्क कुहक गृहणच्छण्णो ॥३॥' --माया, सातियोग, निकृति, वञ्चना, अनुजुता, ग्रहण, मनोज्ञमार्गणा, कक्क, कुहक, गृहन और छन्न माया कषाय के ये ग्यारह पर्यायवाची नाम हैं। कपटप्रयोग का नाम माया है । कुटिल व्यवहार का नाम सातियोग है। ठगने के अभिप्राय का नाम निकृति है। विप्रलन्मन का नाम वश्वना है। योग की कुटिलता का नाम अनुजुता है। दूसरे के मनोज्ञ अर्थ को प्राप्त कर उसका अपलाप करने का नाम ग्रहण है अर्थात् भीतरी वञ्चना के अभिप्राय का निभृताकार रूप से गूढ मंत्र करना। मिथ्या विनय आदि उपचारों द्वारा दूसरे से मनोज्ञ अर्थ के स्वीकार करने के अभिप्राय का नाम मनोजमार्गण है। दम्भ का नाम कल्क है। भूटे मन्त्र, तन्त्र और उपदेशादि द्वारा.लोक का उपजीयन करना कुहक है। भीतरी दुराशय का बाह्य में संवरण करना (छिपाना) निगृहन है। छद्मप्रयोग करना छन्न है । प्रतिसन्धान और विश्रम्भधात प्रादि 'छन्न' है।
कामो रागरिणवाणो छंदो य सुदो य पेज्ज दोसो य ।
हाणुराग पासा इच्छा मुच्छा य गिद्धी य ॥४॥ सासव पत्यण लालस अविरवि तण्हा य विज जिम्भा य। लोभस्स णामधेज्जा वीसं एमट्ठिया भणिया ॥५॥
--काम, राग, निदान, छन्द, सूत, प्रेय, दोष, स्नेह, अनुराग, पाशा, इच्छा, मूळ, गृद्धि, साशता, प्रार्थना, लालसा, अविरति, तृष्णा, विद्या और जिह्वा ये २० लोभ के एकार्थक नाम कहे गये हैं। इष्टस्त्री और इष्टपति या पुत्र प्रादि परिग्रह की अभिलाषा का नाम काम है। मनोज्ञ विषय के अभिष्वंग का नाम राग है। जन्मान्तर के सम्बन्ध से संकल्प करने का नाम निदान है अर्थात जन्मान्तर में भी इस प्रकार की भोगसम्पन्नता कैसे होगी, इस प्रकार अनागत विषय की प्रार्थना में अभिसन्धान का होना निदान है। मन के अनुकूल विषय के बार-बार भोगने में मन के प्रणिधान का नाम छन्द है। नाना प्रकार के विषयों के अभिलाषरूप कलुषित जल के द्वारा 'सूयते प्रति परि-.. -- १. ज.प. पु. १२ पृ. १८७-१८८। २. "म्तम्भ-मद मान-दर्प-समुत्कर्ष-प्रकर्षापच । आत्मोत्कर्ष-परिभवा उतिसक्तश्चेति मानपर्यायाः । [ज.ध.पु १२ पृ. २८८]। ३. जयधवल पु. १२ 'वजणे अणियोगद्दार' प. १८८ मा. ३ । ४. ज.ब.पु. १२ पृ१८८-१८६ “मायाय सातियोगो निकृतिरों बचना तयान जुता। ग्रहणं मनोज्ञमागरण-कहक-हक गूहनच्छन्नम् ।” (जमवल पु. १२ पृ. २८६) । ५. जयघबल पु. १२ 'बजरणे अणियोगद्दार' पृ. १८६ गा, ४-५ ।
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गाथा २५३
कायमार्गणा/३५७
सिंचित करना सूत नाम का लोभ है। 'स्व' का जो भाव वह स्वता कहलाता है। अर्थात् ममकार जिसमें है वह स्वत नाम का लोभ है।' प्रिय के समान वह प्रेय है। प्रेय नामक दोष प्रेय-वोष है।
शङ्खा-इसके प्रेय रूप होने पर दोषपना कैसे बन सकता है, क्योंकि दोनों के एक होने का निषेध है ?
समाधान-नहीं, आलादन मात्र हेतुत्व की अपेक्षा परिग्रह की अभिलाषा के प्रेयरूप होने पर भी संसार के बढ़ाने का कारण होने से दोपरा बन जाता है:
— इष्ट वस्तु में अनुराग सहित मन का प्रणिधान होना स्नेह है। इसी प्रकार अनुराग का भी व्याख्यान करना चाहिए। अविद्यमान अर्थ की आकांक्षा करना प्राशा नामक लोभ है। अथवा जो पाश्यति अर्थात प्रात्मा को कृश करता है वह प्राधा नाम का लोभ है। बाह्य और पाभ्यन्तर परिग्रह की अभिलाषा का नाम इच्छा है। परिग्रह संम्वन्धी अतितीव्र अभिष्वंग का नाम मुच्र्छा है। उपात्त और अनुपात परिग्रहों में अत्यधिक तृष्णा का नाम गद्धि है। प्राशा के साथ जो रहता है वह मास है और शास का भाव शासता है। अथवा जो शाश्वत हो वह शाश्वत है। यह भी लोभ का एक नाम है। परिग्रह के ग्रहण करने के पहले और बाद में सदा-सदा बने रहने के कारण लोभ शाश्वत कहलाता है। प्रष्टरूप से अर्थन अर्थात चाहना प्रार्थना है, अर्थात प्रष्टरूप से धन की चाह करना प्रार्थना है। लालसा और गुद्धि ये एकार्थवाची शब्द हैं। विरमणं विरतिः' जिसमें विरति नहीं उसका नाम अविरति है। असंयम का हेतु होने से प्रविरति लाभपरिणाम स्वरूप है, क्योंकि हिंसा सम्बन्धी अविरमरण अर्थात् अविरति के सभी भेद लोभ कषाय निमित्तक होते हैं। विषय सम्बन्धी पिपासा का नाम तृष्णा है । विद्या शब्द से लोभ लिया गया है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति वेदन के प्राधीन है, इसलिए लोभ भी विद्यारूप से उपचरित किया गया है। लोभ लोभ से बढ़ता है। इस प्रकार विद्या के समान होने से लोभ का नाम विद्या है। जिस प्रकार विद्या की प्राराधना कष्टसाय है उसी प्रकार लोभ का पालम्बनभूत भोगोपभोग काटसाध्य होने से प्रकृत में लोभ को विद्या कहा है। असन्तोष रूप साधर्म्य का आश्रय कर जिह्वा लोभ का पर्यायवाची नाम है।
क्रोध दोष है, क्योंकि क्रोध के करने से शरीर में सन्ताप होता है, पारीर कांपने लगता है, कान्ति बिगड़ जाती है, आँखों के सामने अंधियारी छा जाती है, कान बहरे हो जाते हैं, मुख से शब्द नहीं निकलता, स्मृति लुप्त हो जाती है, आदि। गुस्से में आकर मनुष्य अपने पिता और माता आदि प्राणियों को मार डालता है। गुस्सा सकल अनर्थों का कारण है।
___ मान दोष है, क्योंकि वह क्रोध के अनन्तर उत्पन्न होता है और क्रोध के विषय में कहे गये समस्त दोषों का कारण है। माया पेज्ज (राग) है, क्योंकि उसका पालम्बन प्रिय वस्तु है। अपने लिए प्रिय वस्तु की प्राप्ति आदि के लिए ही माया की जाती है। वह अपनी निष्पत्ति के अनन्तरकाल में मन में सन्तोष उत्पन्न करती है अर्थात् मायाचार के सफल हो जाने पर मनुष्य को प्रसन्नता होती है। लोभ पेज्ज है, क्योंकि प्रसन्नता का कारण है।
१. जपन्य बल पु. १२ पृ. १८६-१६० । २. ज.ध. पु. १२ पृ.१६०-१६२ । "कामो रागनिदाने पर सुता प्रेयदोपनामानः । स्नेहानुराग मामा, मूजननागृद्धिसंज्ञाश्च ।।४॥ साशता प्रार्थना तृष्णा. नालसा विरतिस्तथा । विद्या जिन्छा च लोभस्य पर्यायाः विशतिः स्मृताः ॥५॥" (जयधबल पृ. १६२)। ३. जयघवल पु. १ पृ. ३६५.३६६ ।
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३५८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २८४
शङ्का-क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों दोष हैं, क्योंकि वे स्वयं पात्रवरूप हैं या प्रास्रव के कारण हैं ?
समाधान -- यह कहना ठीक है, किन्तु यहाँ पर कौनसी कपाय आनन्द की कारण है और कौनसी पानन्द की कारण नहीं है, इतने मात्र की विवक्षा है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है। अथवा प्रेम में दोषपना पाया ही जाता है । अतः माया और लोभ प्रेय (पेज्ज) हैं।'
व्यवहारनय की अपेक्षा त्रोध दोष है, मान दोष है, माया दोष है और लोभ पेज्ज है।
शा-क्रोध और मान दोष हैं यह कहना युक्त है, परन्तु माया को दोष कहना ठीक नहीं, क्योंकि माया में दोष का व्यवहार नहीं देखा जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि माया में भी अविश्वास का कारणपना और लोकनिन्दितपना देखा जाता है। जो वस्तु लोकनिन्दित होती है वह प्रिय नहीं हो सकती, क्योंकि निन्दा से हमेशा दुःख उत्पन्न होता है। लोभ पेज्ज है, क्योंकि लोभ के द्वारा बचाये हुए दूध्य से जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता है ।
शब्दनय की अपेक्षा क्रोध दोष है, मान दोष है, माया दोष है, लोभ दोष है किन्तु लोभ कथंचित पेज्ज है।
कोषात्प्रोतिविनाशं मानाद्विनयोपधातमाप्नोति ।
शाठयात्प्रत्ययहानि सर्वगुणविनाशको लोभः ॥१४६॥' --क्रोध से प्रीति का नाश होता है, मान से विनय का घात होता है, शठता से विश्वासघात होता है। लोभ से समस्तगुरा पाते जाते हैं ।
क्रोध, मान और माया से जीव को संतोष और परमानन्द की प्राप्ति नहीं होती। लोभ कथंचित् पेज्ज है, क्योंकि रत्नश्रय के साधन विषयक लोभ से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति देखी जाती है, तथा शेष पदार्थ विषयक लोभ पेज्ज नहीं है, क्योंकि उससे पाप की उत्पत्ति देखी जाती है।
शा-धर्म भी पेज्ज नहीं है ?
समाधान- यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सुख और दुःख के कारणभूत धर्म और अधर्म को पेज्ज और दोषरूप नहीं मानने पर धर्म और अधर्म के भी प्रभाव का प्रसङ्ग प्राप्त होता है।'
शक्ति की अपेक्षा क्रोधादि चार कषायों के भेद सिल पुढविमेवधूलीजल राइसमारगो हबे कोहो । पारयतिरियरणरामरगईसु उप्पायरो कमसो ॥२८४।।
१. जयघवत पु. १ पृ. ३६६ । २. जयधवल पु. १ पृ. ३६७-३६८ । ३. जयधवल गु. १ पृ. ३६६ । ४, जयधवल पृ. १ पृ. ३६६-६७०।
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गाचा २६४-२८७
कायमार्गरगा/३५६
सेल टिकट्टवेत्ते णियभेएगणुहरंतो माणो । णारयतिरियण रामरगईसु उप्पायनो कमसो ॥२८॥ वेणुधमूलोरम्भयसिंगे गोमुत्तए य खोरप्पे । सरिसीमाया णारयतिरियरगरामरगईसु खिवि जियं ।।२८६।। किमिरायचक्कतणुमलहरिहराएरण सरिसनो लोहो ।
गारयतिरिक्खमाणुसदेवेसुप्पायनो कमसो ॥२८७।।' गाथार्थ-क्रोध चार प्रकार का है-पत्थर की रेखा के समान, पृथिवी की रेखा के समान, लिरेखा सहश और जलरेखा सदश । ये चारों प्रकार के क्रोध क्रम से नरक, तिर्यच, मनुष्य तथा देवगति में उत्पन्न करने वाले हैं ।। २८४॥ मान भी चार प्रकार का है-पाषाण सदृश, अस्थि सदृश, काष्ठ सदृश, बैंत सदृश। ये भी क्रमसे नारक, तिर्यच, मनुष्य तथा देवगति में उत्पादक हैं ।।२८५॥ माया भी चार प्रकार की है-बाँस की जड़ सदृश, मेढ़े के सींग के सदश, गोमूत्र सदृश और खुरपा सदृश । यह माया भी क्रम से नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में उत्पत्ति की कारण है ।।२८६॥ लोभ भी चार प्रकार का है-इमिग महण, जमाल हमा, पीरल जग बौर हल्दी के रंग के समान । यह भी क्रम से नरक, तिर्यंच मनुष्य और देवगति में उत्पत्ति का कारण है ।।२८७।।
विशेषार्थ- श्री भगवान गुरगधर भट्टारक विरचित कषायपाहुड के चतुस्थान नामक पाठवें अधिकार में गाथा २, ३ व ४ के द्वारा इस विषय का कथन किया गया है। वे गाथाएं इस प्रकार हैं
गग-पुढवि-धालु गोदयराईसरिसो चउग्यिहो कोहो । सेलघण-अट्ठि-दारुम-लदासमाणो हदि मारणो ॥२॥ वसजिण्हगसरिसी मेंह बिसाणसरिसी य गोमुत्ती । अवलेहणी समारणा माया चि चउन्विहा भरिणवा ॥३॥ किमिरागरत्तसमगो अक्खमलसमो ये पंसुलेखसमो ।
हालिद्दवत्थसमगो लोभोवि चविहो भरिणवो ॥४॥ क्रोध चार प्रकार का है-नगराजिसदृश, पृथिवीराजि सदृश, बालुकाराजि सदृश और उदकराजि सदृश | मान भी चार प्रकार का है- शैलपन समान, अस्थि समान, दारु समान और लता समान । माया भी चार प्रकार की है—बाँस की जड़ के सदृश, मेढे के सींग के सदृश, गोमूत्र के सदृश और अवलेखनी के सदृश । लोभ भी चार प्रकार का है-कृमिराग के सदृश, अक्षमल के सदृश, पांशुलेप के सदृश और हारिद्र वस्त्र के सदृश ।।२.४।।
इन चार गाथाओं में क्रोध आदि चारों कषायों के उदाहरण सहित प्रत्येक के चार भेदों का नाम-निर्देश किया गया है। उनमें से 'णगराइसरिसो' यह शब्द पर्वत शिलाभेद सदृश क्रोध का
१. धवल पु. १ पृ. ३५० गा. १७४.१७७, प्रा.पं.स.पू. २४ गा. १११-११४; वर्मप्रकृति ग्रन्थ (ज्ञानपीठ) पृ. १२१ ब १२२ गा. ५७-६० । २. जयश्रवल पु. १२ पृ. १५२ व १५५ ।
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३६० / गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा २८४-२८७
द्योतक है। सर्वकाल में अविनाशरूप साधर्म्य को देखकर यह उदाहरण कहा गया है। जैसे पर्वत शिलाभेद किसी भी दूसरे कारण से उत्पन्न होकर पुनः कभी दूसरे उपाय द्वारा सन्धान की प्राप्त नहीं होता, तदवस्थ ही बना रहता है। इसी प्रकार जो क्रोध परिणाम किसी भी जीव के, किसी भी पुरुष विशेष में उत्पन्न होकर किसी भी दूसरे उपाय से उपशम को प्राप्त नहीं होता है, प्रतिकार रहित होकर उस भव में भी उसी प्रकार बना रहता है और जन्मान्तर में भी उससे उत्पन्न हुआ संस्कार बना रहता है । इस प्रकार का तीव्रतर क्रोध परिणाम शिलारेखा सदृश कहा जाता है ।
इसी प्रकार पृथिवी रेखा सदृश क्रोध है, किन्तु यह क्रोध पूर्व के प्रोध से मन्द अनुभागवाला है, क्योंकि चिरकाल तक अवस्थित होने पर भी इसका पुनः दूसरे उपाय से सन्धान हो जाता है। यथा ग्रीष्मकाल में पृथिवी का भेद हुमा अर्थात् पृथिवी के रस का क्षय होने से वह भेदरूप से परिणत हो गई। पुन: बर्षाकाल में जल के प्रवाह से वह दरार भर कर उसी समय संघान को प्राप्त हो गई। इसी प्रकार जो क्रोध परिणाम चिरकाल तक अबस्थित रहकर भी पुनः दूसरे कारण से तथा गुरु के उपदेश आदि से उपशम भाव को प्राप्त होता है, वह इस प्रकार का तीव्र परिणामभेद पृथिवीरेखा सदृश है। यहाँ दोनों स्थलों पर 'राइ' शब्द अवयव के विच्छिन्न होने रूप भेदपर्याय का वाचक है।
धुलि राजि सदृश' ऐसा कहने पर नदी के पुलिन ग्रादि में बालुका राशि के मध्य उत्पन्न हुई रेखा के समान क्रोध ऐसा ग्रहण करना चाहिए। बह अल्पतर काल तक रहता है, इसे देखकर कहा है। यथा नदी के पुलिन प्रादि में बालुका राशि के मध्य पुरुष के प्रयोग से या अन्य किसी कारण से उत्पन्न हुई रेखा जैसे हवा के अभिघात प्रादि दूसरे कारण द्वारा शीघ्र ही पुन: समान हो जाती है अर्थात् रेस्त्रा मिट जाती है। इसी प्रकार क्रोध परिणाम भी मन्द रूप से उत्पन्न होकर गुरु के उपदेशरूपी पवन से प्रेरित होता हुआ अति शीघ्र उपशम को प्राप्त हो जाता है ।
इसी प्रकार उदकराजि के सदृश भी क्रोध जान लेना चाहिए। किन्तु इससे भी मन्दतर अनुभाग वाला और स्तोकतर काल तक रहने वाला होता है। क्योंकि पानी के भीतर उत्पन्न हुई रेखा का बिना दूसरे उपाय के उस समय ही विनाश देखा जाता है। यहाँ उभयत्र अन्त के दो क्रोधों में 'राइ' शब्द रेखा का पर्यायवाची है।'
इसी प्रकार मान के भी चारों स्थानों को जानना चाहिए। इतनी विशेषता है 'सेल' से शिला समझना चाहिए। अतिस्तब्ध भाव की अपेक्षा यह उदाहरण कहा गया है। इसी प्रकार अस्थि, दारु और लता के समान मान व.षाय का अर्थ कर लेना चाहिए।'
__ माया सम्बन्धी चार स्थानों के उदाहरण के निर्देश द्वारा कथन किया गया है। बाँस की टेढ़ीमेढ़ी जड़ की गाँठ के सदृश पहली माया होती है। इसके टेपन के निष्प्रतिकारपने का आश्रय कर यह उदाहरण दिया गया है। जैसे बांस की जड़ की गाँठ नष्ट होकर तथा शीर्ण होकर भी सरल नहीं की जा सकती, इसी प्रकार अतितीव्र वक्र भाव से परिणत माया परिणाम भी निरूपक्रम होता है। माया की दूसरी अवस्था मेढ़े के सींग के सदृश है। यह पूर्वमाया से मन्द अनुभागवाली है, क्योंकि अतिवलित वक्रतारूप से परिणत हुए भी मेले के सींग को अग्निताप आदि दूसरे उपायों द्वारा सरल
१. जयघवन पु. १२ पृ. १५३-१५४ । २. जमधवल पृ. १२ पृ. १५४ ।
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गाथा २८८-२८७
कपायमागंगा/३६१
करना शक्य है । तथा गोमूत्र सदृश और अवलेखनी या खुरपा के सदृश माया के क्रम से वऋभाव की हानि के तारतम्य के सम्बन्ध से कथन करना चाहिए। यहाँ पर अबलेखनी पद से दांतों को साफ करने वाला लकड़ी का टुकड़ा (दातुन या जीभी) लेना चाहिए।'
लोभ का प्रथम स्थान कृमिराग लोभस्थान है। कृमिराग कीट विशेष होता है। वह नियम से जिस वर्ण के आहार को ग्रहण करता है, उसी वर्ण के अतिचिक्का डोरे को अपने मल त्यागने के द्वार से निकालता है। उस सूत्र द्वारा जुलाहे अतिकीमती अनेक वर्णवाले नाना वस्त्र बनाते हैं उस वर्ण के रंग को यद्यपि हजार कलशों की सतत धारा द्वारा प्रक्षालित किया जाता है, नाना प्रकार के क्षारयुक्त जलों द्वारा धोया जाता है तो भी उस रंग को थोड़ा भी दूर करना शक्य नहीं है, क्योंकि वह प्रतिनिकाचितस्वरूप है, अग्नि से जलाये जाने पर भी भस्मपने को प्राप्त होते हुए उस कृमिराग से अनुरक्त हुए वस्त्र के उस वर्ण का रंग कभी छुटने योग्य न होने से वैसा ही बना रहता है । इसी प्रकार जीव के हृदय में स्थित अतितीव लोभ परिणाम जिसे कृश नहीं किया जा सकता, वह ऋभिराग के रंग के सदृश कहा जाता है।'
अन्यद्धि (दूसरा) लोभ निकृष्ट वीर्यवाला और तीव्र अवस्था परिणत होता है । वह अक्षमल सदृश होता है। रथ के चक्के को या गाड़ी के तुम्ब को धारण करने वाली लकड़ो प्रक्ष कहलाती है और उसका मल अक्षमल है । अर्थात् अक्षांजन के स्नेह से गीला हुअा मषीमल । अति चिक्कण होने से उस अक्षमल को सुखपूर्वक दूर करना शक्य नहीं है, उसी प्रकार यह लोभ परिणाम भी निघत्त स्वरूप होने से जीव के हृदय में अबगाढ़ होता है। इसलिए उसे दूर करना शक्य नहीं है।'
तीसरा लोभस्थान धूलि लेप के सदृश है। जिस प्रकार पर में लगा हुआ धूलि का लेप पानी के द्वारा घोने आदि उपायों द्वारा सुखपूर्वक दूर कर दिया जाता है, वह चिरकाल तक नहीं ठहरता, उसी के समान उत्तरोत्तर भन्द स्वभाव वाला यह लोभ का भेद भी चिरकाल तक नहीं ठहरता । पिछले लोभ से अनन्तगुणाहीन सामर्थ्यवाला होता हुआ थोड़े ही काल में जरा से प्रयत्न द्वारा दूर हो जाता है ।
जो लोभ की चौथी मन्दतर अवस्था विशेष है, वह हरिद्रवस्त्र के समान कही गयी है। हल्दी से रंगा वस्त्र हारिद्र कहलाता है । जैसे हल्दी के द्रव से रंगे गये वस्त्र का वर्ण रंग चिरकाल तक नहीं ठहरता, वायु और आतप आदि के निमित्त से ही उड़ जाता है। इसी प्रकार यह लोभ का भेद मन्दतम अनुभाग से परिणत होने के कारण चिरकाल तक आत्मा में नहीं ठहरता। क्षण मात्र में ही दूर हो जाता है। इस प्रकार प्रकर्ष और अप्रकर्ष वाले तीव्र और मन्द अवस्था के भेद से विभक्त होने के कारण लोभ भी चार प्रकार का कहा गया है।
अल्पबद्धत्व इस प्रकार है--लता के समान जघन्य वर्गणा के अविभागप्रतिच्छेदों से दारु के समान जघन्यवर्गणा के अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं । लता के समान दूसरी वर्गणा के अविभागप्रतिच्छेदों से दारू के समान दूसरी वर्गणा के अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं। इस प्रकार लता के समान उत्कृष्टवर्गणा के अविभागप्रतिच्छदों से दारु के समान उत्कृष्टवर्गणा के अविभाग
३. जयश्वल पु. १२ पृ. १५६ ।
१. जयधवल पु. १२ पृ. १५५। २. जयधवल पु. १२ पृ. १५६। ४. जयश्रवल पू. १२ पृ. १५६-१५७ । ५. जयधवल पु. १२ पृ. १५७ ।
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३६२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २०४-२८७
प्रतिच्छेद अनन्तगणे हैं । इस स्थान के प्राप्त होने तक लेजाना चाहिए। इस प्रकार उत्तरोत्तर अनुभाग व्यवस्था के अनुसार यह क्रम निश्चित होता है कि लता के समान समस्त अनुभागअविभागप्रतिच्छेदों से दारु के समान समस्त अनुभाग के अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुग्गे हैं। इसी प्रकार दारु के समान अनुभाग से अरिथ के समान अनुभाग अनन्तगुणे हैं। उससे भी शैल के समान अनुभाग अनन्तगृणे हैं।'
___ कषायों की चालीस कोड़ाकोली सागरोपम स्थितिबन्ध करने वाले जीव के अन्तिम स्थिति में एकस्थानीय, स्थानीय, स्थानीय और चतु:स्थानीय विशेषता को लिये हुए देशघाती और सर्वधाती सब प्रकार के परमाणु पाये जाते हैं। तथा प्राबाधा के बाद की समनन्तर जघन्य स्थिति में भी वे अविशेष रूप से सम्भव हैं 1 एकस्थानीय अनुभाग उत्कृष्टस्थिति में भी प्राप्त होता है और चतुः स्थानीय अनुभाग जघन्य स्थिति में भी प्राप्त होता है, क्योंकि सभी स्थितिविशेषों में अपने-अपने चारों स्थान बिना विशेषता के पाये ज.ते हैं।'
सन्वावरणीयं पुण उपकरसं होई दारु असमाने ।
हेवा देसावरणं सवावरणं च उवरिल्लं ॥७६।। --दारु के समान मान में प्रारम्भ के एकभाग अनुभाग को छोड़कर शेष सब अनन्तबहुभाग तथा उत्कृष्ट अनुभाग सर्वावरणीय हैं (सर्वघाती हैं) । उससे पूर्व का लता समान अनुभाग और दार का प्रथम अनन्तवें भाग अनुभाग देशावरण है। दारु समान अनुभाग से आगे का अस्थि व शैल रूप अनुभाग सर्वावरण (सर्वघाती) है । यह क्रम माया, लोभ व क्रोध सम्बन्धी चारों स्थानों में मिरवशेष रूप से नियम से जानना चाहिए।
असेजी जीव द्विस्थानीय अनुभाग का वेदन करता हुआ नियम से द्विस्थानीय अनुभाग को बांधता है, क्योंकि उनमें प्रकारान्तर सम्भव नहीं है । संज्ञी पंवेन्द्रिय जीव (श्रेणी में) एकस्थानीय अनुभाग का वेदन करता हुआ नियम से एकस्थानीय अनुभाग को ही बाँधता है शेष अनुभागों को नहीं बाँधता । द्विस्थानीय अनुभाग का वेदन करता हुआ द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतु:स्थानीय अनुभाग को बाँधता है । त्रिस्थानीय अनुभाग का वेदन करता हुन्या विस्थानीय और चतु:स्थानीय अनुभाग को बाँधता है । तथा चतुःस्थानीय अनुभाग का वेदन करता हुआ नियम से चतु:स्थानीय अनुभाग को बांधता है । वह शेष स्थानों का प्रबन्धक है ।।
ऋोधकषाय के चारों स्थानों नग, पृथ्वी आदि का उदाहरणपूर्वक जो अर्थसाधन किया गया है बह कल विषयक साधर्म्य का प्राश्रय लेकर किया गया है। शेष कषायों के बारह स्थानों का भाब की मुख्यता से उदाहरणपूर्वक अर्थसाधन किया गया है। मान का भाव स्तब्धता है। माया का भाव अनर्जुगल वक्रता है । लोभ का भाव असन्तोषजनित संबलेशपना है।
जो जीत्र (श्रेणी में) अन्तर्मुहूर्त तक होने वाले भाब को धारण कर क्रोध का वेदन करता है, वह उदकराजि के समान ही क्रोध का बेदन करता है, क्योंकि उदकराजि के समान उसका
१. जयघवल पु. १२ पृ. १६२-१६३ । २. जयघवल पु. १२ पु. १५८ । ३. जयधवल पु. १२ पृ. १६४ ॥ ४ जयधवल पु. १२ पृ. १६५ ५. जयधवल पु. १२ पृ. १७१ । ६. जयधवल पु. १२ पृ. १७९-१८० ।
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गाथा २८
कपायमानणा/३६३
चिरकाल तक अबस्थान के बिना उसी समय विलय देखा जाता है। यह संयम का घात नहीं करता, क्योंकि वह मन्द अनुभाग स्वरूप होता है, किन्तु संयम की अतिविशुद्धता (अत्यन्त शुद्धि) का प्रतिबन्धक है, क्योंकि उसका प्रमादादि रूप मल के उत्पन्न करने में व्यापार होता है।'
जो जीत्र अन्त महत काल का उल्लंबन कर अर्धमास के भीतर तक श्रोध का वेदन करता है वह नियम से बालुकारेखा के समान क्रोध का अनुभव करता है, क्योंकि बालुकारेखा के समान क्रोध परिणाम का अन्तमुहर्त को उल्लंघन कर अर्धमास के भीतर तक अवस्थान देखा जाता है। कषाय के उदय से उत्पन्न हुए शल्य रूप से परिगत कलुष परिणाम के उतने काल तक अवस्थाम को देख कर ऐसा कहा गया है। अन्यथा क्रोधोपयोग के अवस्थान काल के अन्तमुहूर्त प्रमाण कथन करनेवाले सूत्र के साथ विरोव आता है। यह क्रोध परिणाम का भेद अनुभव में प्राता हुआ संयम का घात करके जोव को संयमासंघम में स्थापित करता है ।
जो जीव नियम से अर्धमास बिताकर छह माह के भीतर तक क्रोध का बेदन करता है, क्योंकि उससे उत्पन्न हश्रा संस्कार पृथिवीभेद के समान छह माह के भीतर तक अवस्थित देखा जाता है। वह पृथिवी रेखा के समान तृतीय क्रोध है। यहाँ पर भी कषायपरिणाम शल्य रूप से मात्र छह मास तक अवस्थित रहता है। अन्यथा सूत्र के साथ विरोध आता है । यह क्रोध परिणाम अनुभव में प्राता हुआ जीव में संयमासंयम का घात कर जीव को सम्यक्त्व में स्थापित करता है।
किसी के प्रति उत्पन्न हुआ क्रोध श्यत्य होकर हृदय में स्थित हुना, पुन: संस्थात, प्रसंख्यात और अनन्त पर्वों के द्वारा उसी जाव को देखकर प्रकृष्ट ऋध को प्राप्त होता है, क्योंकि उससे उत्पन्न हुए संस्कार का निकाचित रूप से उतने काल तक अवस्थित रहने में विरोध का अभाव है। उक्त प्रकार का क्रोधपरिणाम पर्वतरेखा के समान है। क्योंकि पर्वत शिलाभेद के समान उसका अनन्त काल के द्वारा पुनः सन्धान (जोड़) उपलब्ध नहीं होता। बेदन में प्राता हुया यह क्रोध परिणाम सम्यक्त्व सम्यग्दर्शन) का घात कर मिथ्यात्व भाव में स्थापित करता है। सबसेतीव्र अनुभाग बाला यह चौथा क्रोधभेद है।
यद्यपि उदकराजि, धूलिराजि, पृथिवीराजि और पर्वतराजि के उपयुक्त लक्षणों का तथा संज्वलन, प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण और अनन्तानुवन्धी क्रोध के लक्षणों का परस्पर सारश्य है, तथापि उदकराजि आदि क्रोध और संज्वलन आदि क्रोध में अन्तर है। असंज्ञी के पाषाणराजिब प्रथिवीराजि का बन्ध व उदय नहीं है तथापि अनन्तानबन्धी व अप्रत्याख्यान बन्ध व उदय पाया जाता है। अप्रत्याख्यानाबरण के उदय के अभाव में अप्रत्याख्यानावरण का बन्ध नहीं होता किन्तु पृथिवी राजि (विस्थानिक) के उदयाभाव में पृथिवीराजि (त्रिस्थानिक) का वन्ध होना है। नरकादि गतियों में उत्पत्ति के प्रथम समय में बहुलता की अपेक्षा क्रोधादिक के उदय का नियम
गारयतिरिक्खगरसुरगईसु उप्पण्णपढमकालन्हि । कोहो माया मारणो लोहबानो अरिणयमो वापि ॥२८॥
१. जवधवल पु. १२ पृ. १०। ४. जयधवल पु, १२ प. १२२ ।
२. जसधवल पु. १२ पृ. १८१।
३. जयधवल पु. १ पृ. १८१-१२ ।
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३६४) गो. सा. जीवकाण्ड
गाथार्थ---नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देवगति में उत्पन्न होने के प्रथम काल माया, मान व लोभ का उदय होता है। अथवा ऐसा नियम नहीं भी है || २६८ ॥
गाथा २८६
श्रम से क्रोध,
विशेषार्थ - नरकों में उत्पन्न होने वाले जीवों के सर्वप्रथम क्रोध कषाय का उदय पाया जाता है । मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीव के प्रथम समय में मानकषाय के उदय के नियम का उपदेश देखा जाता है। तिर्यचों में उत्पन्न होने के प्रथम समय में माया कषाय के उदय का नियम देखा जाता है । देवों में उत्पन्न होने वाले जीवों के सर्वप्रथम लोभ कषाय का उदय होता है। ऐसा प्राचार्यपरम्परागत उपदेश है ।' नरक, मनुष्य, तिच और देवगतियों में उत्पन्न हुए जीवों के प्रथम समय में यथाक्रम से क्रोध, मान, माया और लोभ का उदय देखा जाता है ।
शंका- देवों में उत्पन्न होने के प्रथम समय में लोभ को छोड़ कर शेष कषायों का उदय नहीं पाया जाता है?
समाधान — यह कहना तब ठीक होता जब यहाँ भी वैसा अभिप्राय विवक्षित होता । किन्तु प्रकृत में चूणिसूत्रकार का अभिप्राय है कि देवों में उत्पन्न होने के प्रथम समय में इस प्रकार का नियम नहीं पाया जाता । सामान्य से सब कषायों का उदय वहीं विरोध को नहीं प्राप्त होता । देवों में उत्पन्न होने के प्रथम समय में सब कषायों का उदय सम्भव है ।
शङ्का - क्रोधादि कषायों में उपयुक्त हुए जीवों का मरण की अपेक्षा जघन्यकाल एक समयमात्र है ऐसा जीवस्थान यादि ग्रन्थों में कहा है, वह यहाँ पर क्यों स्वीकार नहीं किया गया ?
समाधान नहीं, क्योंकि चूर्णिसूत्र के अभिप्राय अनुसार उस प्रकार काल को स्वीकार करना सम्भव नहीं है ।"
श्री भूतबली श्राचार्य के कथनानुसार देवगति यादि में उत्पन्न होने के प्रथम काल में लोभ आदि कषायों के उदय होने का नियम देखा जाता है, किन्तु श्री यतिवृषभाचार्य कृत चूरिणसूत्रों के अनुसार उक्त प्रकार का नियम नहीं पाया जाता है। जैसा कि घवल व जयधवल के उपर्युक्त कथनों से स्पष्ट है ।
इस गाथा का निर्माण श्री भूतबली के कथनानुसार हुआ है, किन्तु गाथा में 'अशियमो वा' इन शब्दों द्वारा श्री यतिवृषभाचार्य के मत की भी सूचना दी गई है । इस प्रकार भिन्न-भिन्न दो महान् श्राचार्यों के दो भिन्न भिन्न मत हैं । इन दोनों में से कौन ठीक है, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वर्तमान में श्रुतकेवली का प्रभाव है ।
कषायरहित जीव
श्रप्यपरो भयबाधरबंधासंजमरिण मिल - कोहादी । जैसि गत्थि कसाया अमला अकसाहरणो जीवा ||२६||*
१. श्रवल पु. १ पृ. ४४५ ।
४. जयबवल
२. त्रवल पु. ७. १६१ । २. जयघवल पू. ७ पृ. २२५ षु. १३ š. १५ । ५. यह गाया घवल पु. १ पृ. ३५१, तथा प्रा. पं. संग्रह पु. २५ गा. ११६ पर भी है ।
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गाथा २६० २६४
कषाय मार्गेणा / ३६५
गाथार्थ-स्त्र और पर को तथा दोनों को बाधा देने, बन्धन करने तथा श्रसंयम की निमित्तभूत क्रोध आदि कषाय जिनके नहीं है तथा जो बाह्य और अभ्यन्तर मल से रहित हैं, वे जीव अकपायी हैं ||२६||
विशेषार्थ - क्रोधादि कषाय निज को कर्मबन्ध को कारण है तथा पर में कषाय उत्पन्न करने की कारण होने से पर को भी बन्ध की काररण है । अथवा निज में कोन आदि कषाय उत्पन्न होने से तथापर में कायोत्पत्ति को कारण होने से निज और पर दोनों को बन्ध करने वाली है। इसी प्रकार कपाय करने वाला स्वयं दुखी होता है, दूसरों को दुःख उत्पन्न करता है अथवा निज और पर दोनों को बाधा उत्पन्न करने वाली कषाय है । कषाय के आवेश में इन्द्रियसंयम और प्रारणी-संयम दोनों संयम नष्ट हो जाते हैं। जिन जीवों में ये क्रोध आदि कपायें नहीं हैं वे कपाय जीव हैं । ये जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म इन तीनों कर्म-मलों से रहित हैं, यह सिद्धों की अपेक्षा कथन है । अथवा जो भावकर्ममल से रहित हैं वे अमल हैं, यह कथन ग्यारहवें प्रादि गुणस्थानों की अपेक्षा है । '
शङ्का - कौन-कौन गुग्गुस्थानवर्ती जीव कषायी होते हैं ?
समाधान- उपशान्तकषायवीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषायवीतराग स्थ सयोगकेवली और प्रयोगकेवली इन चार गुणस्थानों में कषायरहित जीव होते हैं ।
शङ्का--उपशान्तकषाय गुणस्थान को कषायरहित कैसे कहा ? क्योंकि अनन्त परमाणुरूप द्रव्यकषाय का सद्भाव होने से वह कषाय रहित नहीं हो सकता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि कषाय के उदय के अभाव की अपेक्षा उसमें कषायों से रहितपना बन जाता है ।
शक्ति, या व आयुबन्ध की अपेक्षा कपाय के भेद अर्थात् स्थान कोहादिकसायाणं चउचउदसथीस होंति पदसंखा । सत्तीले साम्राजगबंधा बंधगदभेदेहि
॥२६०॥
सिलसेल वेणुमूषिक मिरायादी कमेण चत्तारि । कोहादिकसायाणं सति पडि होंति खियमेण ॥। २६१ || frog feared froहादी छक्कमेण भूमिम्हि । arrat सुक्कोत्तिय धूलिम्मि जलम्मि सुक्केषका ।। २६२ ॥ सेलग किन्हे सुशां खिरयं च य भूगएगबिट्ठाले । रियं इगिबितिनाऊ तिट्ठाणे चारि से सपदे ||२३|| धूलिगछक्कट्ठारो चउराऊतिगदुगं च उवरिल्लं । पश्चदुठाणे देवं देवं सुष्णं च तिद्वाणे ॥ २६४ ॥
१. श्रीमदभचन्द्रसूरि सिद्धान्तचक्रवर्ती कूल टीका । २. श्रवल पु. १ पू. ३५२ ।
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३६६/गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा २६०-२६५ सुण्णं दुगइगिठाणे जलम्हि सुण्णं असंखभजिदकमा !
चउचोदसबीसपदा असंखलोगा हु पत्तेयं ॥२६५॥ गाथार्थ --- क्रोधादि चार कषायों के शक्ति की अपेक्षा चार, लेश्याओं की अपेक्षा चौदह, आधुबन्ध की अपेक्षा बोस स्थान होते हैं ।।२६०]। शिलाभेद, पौलस्तम्भ, बाँस की जड़, कृमिराग ये चार क्रमसे क्रोध आदि कषायों की शक्ति की अपेक्षा भेद हैं ॥२६१॥ शिला समान शक्तिभेद में कृष्णा लेश्या, पृथिवी समान कषाय भेद में कृष्ण आदि ऋगसे छहों लेश्याएं, धूलि समान कषायभेद में छहों लेश्यायों से लेकर शुक्ल लेश्या पर्यन्त छह स्थान, जलरेखा समान कषायस्थान में शुक्ल लेश्या का एक स्थान होता है ॥२६२॥ पौलगत कृष्ण लेण्या में शून्य तथा नरकायु बन्ध, पृथिवी समान कषायभेद के दो स्थानों में एक नरकायु का ही बन्ध होता है। उसके पश्चात् तीन स्थानों में क्रमसे एक प्रायु, दो प्रायु और तीन आयु का बन्ध होता है। शेष चार, पाँच व छह लेश्या बाले स्थानों में चारों आयु का बन्ध होता है ।।२६३।। धूलिभेद गत छहों लेश्यावाले स्थानों में क्रम से चार अायु, तीन यायु और दो माथु का बन्ध, उसके आगे पाँच लेश्यावाले और चार लेण्या वाले स्थान में एक देव शायु का बन्ध, तीन लेश्या वाले स्थान में देवायु का बन्ध व शून्य है ॥२६४।। दो लेश्या वाले और एक लेश्या बाले स्थान में शुन्य । जलभेदगत एक लेण्या स्थान में शून्य । इस प्रकार चार, चौदह और बीस स्थान कहे गये हैं। प्रत्येक के असंख्यात लोकप्रमाण भेद होते हैं ॥२६॥
विशेषार्थ -- सर्वप्रथम कपायों के शक्ति की अपेक्षा चार भेद करने चाहिए। जैसे क्रोध के शिलाभेद, पृथिवीभेद, धूलि (बालुका) भेद, जलभेद; मान के शैलस्तम्भ, अस्थिस्तम्भ, काष्ठ स्तम्भ और बेंत स्तम्भ ; माया के बासमूल की वऋता, मेढ़े के सींग की वक्रता, गोमूत्र वऋता, खुरपा वक्रता, लोभ के चार भेद कृमिगग, चक्रमल, शरीर मल, हरिद्र रंग। इन च र स्थानों के लेश्या की अपेक्षा भेद करने चाहिए। शिलाभेद में एक कृष्ण ही लेश्या है, इसलिए उत्तरस्थान एक है। पृथिवीभेद में छहों लेश्या हैं अतः छह स्थान इस प्रकार हैं-१. कृष्ण लेश्या, २. कृष्ण व नील लेश्या का मिश्चित स्थान, ३. कृष्ण, नील व कापोत लेण्या का मिधित स्थान, ४. कृष्ण, नील, कापोत व पीत लेश्या वा मिथित स्थान, ५, कृष्ण, नील, कापोत, पीत व पद्म लेश्या का मिश्रित स्थान, ६. कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पब और शुक्ल लेश्या का मिथित स्थान. ये छह उत्तरस्थान लेश्या की अपेक्षा पृथिवी शक्ति स्थान के हैं। इसी प्रकार धूलिभेद के छहों लेश्या, पचलेश्या, चारलेश्या, तीन शुभ लेश्या, दो शुभ लेश्या और एक शुक्ल लेण्या की अपेक्षा, मह स्थान जानने चाहिए। जलभेद में शुक्ल लेश्या एक ही स्थान है। लेश्या की अपेक्षा कुल स्थान-शिलाभेद का १, पृथिवीभेद के छह, लिभेद के बह, अलभेद का १ (१-६+६+१) इस प्रकार १४ होते हैं।
प्राथूबन्ध की अपेक्षा शिलाभेद में दो उत्तरोतर स्थान एक प्रबन्ध दूसरा नरकायु का इस प्रकार दो स्थान, पृथिवी भेद में कूल ८ स्थान----१. कृष्णलेल्या नरवायु, २. कृष्णा नील लेश्या नरकायु, ३. कृष्ण नील कापोत मिश्चित लेश्या में १ नरकायु, २. नरकायु तिचायु, ३. नरकायुतिर्यंचायु और मनुष्पायु ये तीन, ४, कृष्ण आदि चार मिश्रित लेश्या में चारयायु का एक स्थान, ५. ऋण प्रादि पाँच मिश्रित लेश्या में चारों आयु का एक बन्धस्थान, ६. छहों मिश्रित लेश्या में चारों आयु का एक बन्प्रस्थान इस प्रकार पृथिवीभेद के छह लेश्या स्थानों में आयुबन्ध के ८ स्थान
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गाथा २६०-२६५
कायमागंगा/ ३६७
होते हैं । धुनिभेद में प्रायुबन्ध के ६ स्थान इस प्रकार हैं-१, छहों मिश्रित लेश्या स्थान में १ चारों आयु का बन्ध स्थान, २. नरक निमा तीन आयु का बन्ध स्थान, ३. मनुष्य व देवायु का बन्ध स्थान ये तीन प्रायुबन्ध स्थान; २. कृष्ण बिना पांच लेश्याओं के मिश्रित स्थान में वायु का एक बन्ध स्थान ३. कृष्ण नील बिना चार लेश्याओं के मिश्रित स्थान में देवायु का एक बन्धस्थान; ४. पीतादि तीन शुभ लेश्या मिश्रित स्थान में एक देवायु का बन्ध स्थान दूसरा प्रबन्ध स्थान इस प्रकार दो स्थान; ५. पद्म व शुक्ल मिश्रित लेण्या में एक प्रबन्ध स्थान, ६. शुक्ल लेश्या में एक प्रबन्ध स्थान इस प्रकार धूलिभेद के छह लेश्या-छह लेश्या स्थानों में प्रायु बन्ध के (३-१-१+२+१+१) ६ स्थान होते हैं। जलभेद के एक लेश्यास्थान में प्रायुबन्ध का एकस्थान होता है। चार शक्तिभेदों के १४ लेश्यास्थानों में (२+ ८ ++१) २० आयुबन्ध स्थान होते हैं। यह विषय मागे दी गई तालिका पर दृष्टि डालने मात्र से स्पष्ट हो जाता है ।
इन गाथाओं से तथा धवल पु. १६ पृ. ४६६ से ४६७ के कथनों से ऐसा प्रतीत होता है कि छहों लेश्याओं में कुछ अंश ऐसे हैं जो छहों लेण्याओं में साधारण हैं, अन्यथा पृथिवी व धूलि भेद में छह लेण्या का एक स्थान सम्भव नहीं हो सकता तथा वह स्थान भी चारों प्रायुबन्ध के योग्य हो।
तीन मन्दता की अपेक्षा जघन्य व उत्कृष्ट संक्रम और प्रति ग्रह के अल्पबहुत्व इस प्रकार हैनीललेश्या का जघन्य लेश्यास्थान स्तोक है। नीललेश्या के जिस स्थान में कृष्णलेश्या से प्रतिग्रहरण होता है, वह नीललेण्या का जघन्य प्रतिग्रह स्थान उससे अनन्तगुणा है । कृष्ण का जघन्य संक्रमरथान
और जघन्य या दोनों ही शुरुष व पास हैं। नीला 4 जघन्य संक्रमस्थान अनन्तगुणा है। कृष्ण का जवन्य प्रतिग्रहस्थान अनन्तगुणा है। नील का उत्कृष्ट प्रतिग्रहस्थान अनन्त गुणा है । कृष्ण का उत्कृष्ट संक्रमस्थान अनन्तगुणा है। नील का उत्कृष्ट संक्रमस्थान और उत्कृष्ट नीलस्थान दोनों ही तुल्य व अनन्तगुणे हैं । कृष्ण का उत्कृष्ट प्रतिग्रह स्थान अनन्तगुणा है। उत्कृष्ट कृष्णलेण्यास्थान अनन्तगुणा है ।
इस अल्पचहत्व से यह स्पष्ट हो जाता है कि कृष्ण लेश्या और नीललेझ्या के कुछ मध्यम अंश परस्पर समान हैं। इसी प्रकार नील लेश्या और कापोतलेश्या के संक्रमणस्थान व प्रतिग्रहस्थानों के अल्पबहुत्व कथन से यह सिद्ध हो जाता है कि नील और कापोतलेण्या के कुछ मध्यम अंश एक हैं। इसी प्रकार कापोत व तेजोलेश्या, तेजोलेश्या व पपलेश्या, पालेश्या व शुक्ल लेश्या के संक्रमण व प्रतिग्रहस्थानों के अल्पबहत्व के कथन से यह सिद्ध हो जाता है कि ऊपर व नीचे की लेश्याओं के कुछ मध्यम अंश परस्पर सदृश हैं। अतः निम्नलिखित अल्पबहुत्व कहा गया है
कापोत का जघन्यस्थान सबसे मन्द अनुभाग से संयुक्त है, नीललेश्या का जघन्यस्थान उससे अनन्तगुणा है । कृष्णलेश्या का जघन्य स्थान उससे अनन्तगुणा है, तेजलेश्या का जघन्य स्थान अनन्तगुणा है, पद्मलेश्या का जघन्यस्थान अनन्त गुणा है, शुक्ल लेश्या का जघन्य स्थान अनन्तगुणा है, कापोत का उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है, नील का उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है, कृष्ण का उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुरणा है, तेज का उत्कृष्ट स्थान अनन्त गुरणा है, पद्म का उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है, शुक्ल का उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुरणा है ।
१. प्रबल पु. १६ पृ. ४९८ । २. धवल पु. १६ पृ. ४८९ ।
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कषाय के शक्तिस्थाम, सेश्यास्थान और प्रायुबन्धापन्ध स्थान सम्बन्धी तालिका
गाथा २६०-२६५]
शाक्ति स्थान
लेश्यास्थान १४
आयुबन्धाबन्ध स्थान २०
० प्रबन्ध
शिलाभेद समान
१ कृष्णलेश्या
१ नरकायु
१ कृष्ण
२ कृष्ण, नोल
३ कृष्णादि तीन लेश्या
पृथ्वीभेद समान
४ कृष्णादि चार लेश्या ५ कृष्णादि पांच लेश्या ६ कृष्णादि छह लेश्या
१ नरकायु १ नरकायु १ नरकायु २ नरकतिर्यंचायु ३ नरकतिर्यंचमनुष्यायु ४ सर्व प्रायु ४ सर्व प्रायु ४ सर्व प्रायु ४ मी आयु ३ मनुष्यदेव तिर्यंचायु २ मनुष्यदेवायु १ देवायु १ देवायु १ देवायु
६ कृष्णादि छह लेश्या
धुलिरेखा समान
५ कृष्ण बिना पांच लेश्या ४ कृष्ण, नील बिना चार लेश्या
३ पीतादि तीन लेश्या
० प्रबन्ध
२ पद्म और शुक्ल दो लेश्या
० अबन्ध
१ शुक्ल लेश्या
० प्रबन्ध
जलरेखा समान
१. शुक्ल लेश्या
० प्रबन्ध
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गाथा २६९-२९७
कषायमार्गणा/३६६
शङ्का--शुक्ल लेश्या में स्थित जीव पद्म, तेज, कापोत और नील लेण्यानों को लांघकर कैसे एक साथ कृष्णलेश्या में परिणत हो सकता है ?
समाधान-मध्यम शुक्ल लेश्या वाला देव-प्राथु के क्षीण होने पर जघन्य शुक्ललेण्या प्रादि से परिणमन न कर शुभ तीन शेश्यालों में मिलता है।'
यद्यपि इन प्रशारणों में यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया है तथापि इन प्रकरणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि द्रहों लेण्याओं के कुछ मध्यम अंग परस्पर समान हैं।
इस विषय का किसी भी प्राचार्य ने उल्लेख नहीं किया है अतः यह विषय ग्राह्य नहीं है किन्तु विचारणीय है । विचारार्थ ही इस विषय को यहाँ पर लिखा गया है ।
कषायमार्गणा में जीवों की संख्या पुह पुह कसायकालो रिणरये अंतोमुहत्तपरिमारयो । लोहादी संखगुणो देवेसु य कोहपहुवीदो ॥२६॥ सम्वसमासेगवहिवसगसगरासी पुगोवि संगुरिणदे ।
सगसगगुरणगारेहि य सगसगरासीरणपरिमाणं ॥२६॥' माथार्थ-नारकियों में पृथक्-पृथक् कषाय का काल यद्यपि अन्तर्मुहूर्त है तथापि लोभादि कषायों का काल पूर्व पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर संख्यात गुणा है। इसी प्रकार देवों में क्रोधादि कषायों का काल पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर संख्यात गुणा है। समस्त कषायों के उदयकाल के जोह का--अपनी-अपनी गति सम्बन्धी जीवराशि में भाग देने से जो लब्ध प्राप्त हो उसको अपनीपानी गति सम्बन्धी विवक्षित कषाय के उदय काल से गुणा करने पर तत्तत् कषाय सम्बन्धी जीवराशि का प्रमाण प्राप्त होता है ।।२९६.२६७॥
विशेषार्य- क्रोध कषाय का काल, मान कषाय का काल, माया कषाय का काल और लोभ भाषाय का काल जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तमुहर्त है। नरक गति में लोभ का काल सबसे स्तोक है, उससे माया का काल संख्यात मुणा है, उससे मान का काल संख्यात गुणा है उससे क्रोध का काल संख्यातगुणा है, इसी प्रकार देवगति में भी जानना चाहिए, इतनी विशेषता है कि लोभ का काल संख्यातगुणा है, इस स्थान के प्राप्त होने तक विलोम क्रमसे जानना चाहिए। इस का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
नरक गति में शोध मान पुनः क्रोत्र मान यह अवस्थित परिपाटी है। इस परिपाटी से
- -.. १. धवल पु. ८ पृ. ३२२। २. गाथा ४६९-५२६ की टीका भी देखें। ३. गो. जी. (कलकत्ता संस्करण) शास्त्राकार पृ. ६३२ और ६३४ पर वृत्तियों में लिखा है कि वे गाथाएँ माघवचन्द्र विद्यदेव की है। ४. कोषद्धा माणद्घा मायाद्धः लोइया जहाणियाम्रो वि उनकस्सियानो वि तोमुहतं । ज.ध. पु. १२ पृ. १५] । ५. ज.ध. पु. १२ पृ. १६ ।
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३७०/ गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा २६६-२९७
हजारों बार परिवर्तन करके तदनन्तर एक बार माया रूप परिवर्तन होता है, क्योंकि नारकी जीव अत्यन्त दोषबहुल होते हैं, इसलिए उनमें क्रोध और मान की प्रचुरता पाई जाती है। इस प्रकार पुनः पुनः परिवर्तन होने पर मायारूप परिवर्तन भी संख्यात हजार बार हो जाते हैं तब विसरश परिपाटी के अनुसार एक बार लोभ सम्बन्धी परिवर्तनबार होता है । माया सम्बन्धी प्रत्येक परिवर्तनबार जांध और मान के संख्यात हजार परिवर्तनबारों का अविनाभावी है। इस प्रकार माया सम्बन्धी संख्यात हजार परिवर्तन बारों के होने के पश्चात् एक बार लोभ रूप से परिणामता है।
शङ्का - ऐसा किस कारण से होता है ?
समाधान-अत्यन्त पापबहुल नरकगति में प्रेयस्वरूप लोभ परिणाम अत्यन्त दुर्लभ है। इस प्रकार यह क्रम अपनों विवक्षित स्थिति के अन्तिम समय तक चलता रहता है। इसकी संदृष्टि इस प्रकार है-नरक गति में संख्यात वर्ष की आयु वाले भव में या असंख्यात वर्ष की आयु वाले भव में क्रोध-मान ११०० पुनः क्रोध-मान २२० ० इस प्रकार के संख्यात हजार परिवर्तनबारों के हो जाने पर अन्तिम बार में क्रोध होकर मान का उल्लंघन कर एक बार माया रूप परिवर्तन होता है । उसको संदृष्टि यह है -३ २ १ ०। फिर भी इसी पूर्वोक्त विधि से ही क्रोध मान इस प्रकार संख्यात हजार परिवर्तन वारों के हो जाने पर पुनः अन्तिम बार में क्रोध होकर मान का उल्लंबन कर मायारूप एक बार परिवर्तन करता है। इसकी संरष्टि ३ २ १ ०। फिर भी इसी पूर्वोक्त विधि से संख्यात हजार माया सम्बन्धी परिवर्तनबारों के भी समाप्त हो जाने पर उसके अनन्तर जो परिपाटी होती है उसमें क्रोध होकर मान व माया का उल्लंघन कर एक वार लोभ रूप में परिणमता है। उसकी संदृष्टि ३ २ ० १ है। फिर भी इसी विधि से ३३ : माया परिवर्तन बारों के संख्यात हजार बार परिवर्तित होने पर पुनः क्रोध होकर तथा मान और माया का उल्लंघन कर एक बार लोभ रूप से परिगमता है। उसकी संदृष्टि ३ २ ० १ है। फिर भी इसी क्रम से ३ : माया के परिवर्तन बारों के संख्यात हजार बार हो जाने पर एक बार लोभ परिणमता है। उसकी संदृष्टि ३ २ ० १ है। इस प्रकार पहले प्राप्त हुई आयु के अन्तिम समय तक जानना चाहिए। यहाँ क्रोध, मान, माया और लोभ के परिवर्तन बारों का पुरा योग-क्रोध २७, मान १८, माया ६, लोभ ३ ।।
इन परिवर्तन वारों का अल्पबहुत्व निम्न प्रकार है -
इस प्ररूपणा के अनुसार एक ग्रहण में नरव गति में संख्यात वर्षवाले भव में या असंख्यात वर्ष वाले भव में लोभ के परिवर्तनबार सबसे स्लोक हैं। क्योंकि नरकगति में लोभ के परिवर्तन बार अत्यन्त विरल पाये जाते हैं। उससे माया कषाय के परिवर्तन यार संख्यातगुगों हैं, क्योंकि लोभ के एका-एक परिवर्तन बार में माया के परिवर्तन बार संख्यात हजार होते हैं। उनसे मान कषाय के परिवर्तनबार संख्यातगुण हैं क्योंकि माया के एक-एक परिवर्तनबार में मान के परिवर्तनबार संख्यात हजार होते हैं। उनसे क्रोध के परिवर्तनबार विशेष अधिक हैं विशेष का प्रमाण अपना संख्यातवाँ भाग है। मान के परिवर्तनबारों से लोभ और माया के परिवर्तनमात्र विशेष अधिक हैं।
१. "गिरम गइए कोहो मारणो कोही मानो ति वार-सहस्सारिण परियत्तिदूग्ण सइ माया परिवसदि !"[ज.व. पु. १२. पृ. ६४] । २. ज.ध. पु. १२ पृ. ३५] । ३. ज.ध. पु. १२ पृ. ३६ ।
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गाथा २२६
कायमार्गगा/३७१
अर्थात मानकषाय के परिवर्तन बारों में लोभ और माया के परिवर्तन नारों के मिला देने से क्रोध के परिवर्तनवार पाजाते हैं।' अंक संदष्टि अनुसार लोभ के परिवर्तनबार ३. माया के परिवर्तनबार संख्यात मुणे अर्थात् ६, मान के परिवर्तन बार संख्यात गुणे अर्थात् १८ । इस १५ में ३ व ६ मिला देने पर (१८ +३+६) २७ क्रोध के परिवर्तनबार प्राप्त होते हैं।
देवगति में लोभ-माया पुनः लोभ-माया इस प्रकार संख्यात हजार बार जाकर तदनन्तर एक मान रूप परिणमन होता है। क्योंकि प्रेयस्वरूप लोभ ओर माया की वहाँ बहलता से उत्पत्ति देखी जाती है इसलिए लोभ और माया के द्वारा संख्यात हजार बारों को प्राप्त होकर सके बाद लोभरूप से परिणमन कर माया के योग्य स्थान में माया का उल्लंघन कर एक वार मान रूप से परिवर्तित होता है। इस प्रकार इस क्रम से पुनः पुनः करने पर मान के परिवर्तितबार भी संख्यात हजार हो जाते हैं। तदनन्तर अन्य प्रकार का परिवर्तन होता है। मान के संख्यात हजार परिवर्तन बारों के होने पर एक बार क्रोवरूप परिवर्तन होता है। प्रत्येक मानकषाय का परिवर्तनबार लोभ और माया के संख्यात हजार परिवर्तन बारों का अधिनाभावी है, इस क्रम से मानकषाय के संख्यात हजार परिवर्तन बारों के हो जाने पर एक बार क्रोधरूप से परिवर्तित होता है। क्योंकि देवगति में अप्रशस्ततर क्रोध परिणाम की प्रायः उत्पत्ति नहीं है। इस प्रकार प्राप्त हुई आयु के अन्तिम समय तक यह परिवर्तनक्रम होता रहता है। अंक संदृष्टि में लोभकषाय के परिवर्तनबार २७, माया के १८, मान के ६ और क्रोध के ३३
देवगति में क्रोधकषाय के परिवर्तनबार सब थोड़े हैं। उनसे मानकषाय के परिवर्तनबार संख्यातगुणे हैं। उनसे मायाकषाय के परिवर्तनबार संख्यातगुरो हैं । उनसे लोभकषाय के परिवर्तनबार विशेष अधिक हैं। विशेष का प्रमाण अपना संख्याताभाग है जो श्रोध और मान के परिवर्तनबार हैं, उतना है। देवगति के कषाय सम्बन्धी काल का योग करके उससे देवों की ओघ जीवराशि को खण्डित करके जो लब्ध प्रावे उसकी चार प्रति राशियाँ करके उन्हें परिपाटी क्रम से उन्हें क्रोधादिक के कालों से गुरिणत करने पर अपनी-अपनी राशियां होती हैं। इसी प्रकार नारकियों में जानना चाहिए।
मनुष्य तथा तिर्यचों में कषाय सहित जीवों का प्रमाण रणरतिरिय लोहमायाकोहो मारणो विदियादिव्य ।
प्रावलिप्रसंखभज्जा समकालं या समासेज्ज ॥१८॥ गाथार्थ-जिस प्रकार द्वीन्द्रिय आदि जीवों की संख्या प्राप्त की है उसी क्रम से मनुष्य व तिर्थचों के लोभ, माया, क्रोध न मान वाले जीवों का प्रमाण पावली के असंख्यातवें भाग क्रम से प्राप्त कर लेना चाहिए। अथवा निज-निज काल का प्राश्रय करके उक्त कषाय वाले जीवों का प्रमाण निकालना चाहिए ।।२६८।।
विशेषार्थ-मोघ से मान का काल सबसे स्तोक है। उससे क्रोध का काल विशेष अधिक है । उससे माया का काल विशेष अधिक है। उससे लोभ का काल विशेष अधिक है। प्रवाहमान
१. जयघवल' पृ. १२ पृ. ३८.४० । २. जयधवल पु. १२ पृ. ३७ । ३. जयश्वल पु. १२ पृ. ३८ । ४. जयधवल पु. १२ पृ. ४०-४१ । ५. धवल पु. ३ पृ. ४२७ ।
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३७२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २६६
( श्रीनाग हस्ती ) उपदेश अनुसार कालों का परस्पर विशेष अन्तर्मुहूर्त है । ग्रन्तर्मुहूर्त अनेक प्रकार का है- संख्यात मावलीप्रमारण, लावली के संख्यातवेंभाग प्रमाण तथा ग्रावली के प्रसंख्यातवेंभाग प्रमाण । यहाँ पर आवली के असंख्यातर्वेभाग प्रमाण परस्पर कपायों के कालों का विशेष है, क्योंकि पूर्वाचार्यो का सम्प्रदाय उसी प्रकार पाया जाता है। इस प्रकार प्रोध से तिर्यंचगति और मनुष्य गति की प्रधानता से अल्पबहुत्व कहा गया है, क्योंकि मनुष्य व तिर्यंचों के अतिरिक्त अन्य गतियों में मान का काल सबसे स्तोक नहीं होता ।"
ओघ से लोभ, माया, क्रोध, मान इस परिपाटी से असंख्यात परिवर्तनबारों के हो जाने पर एक बार लोभकषाय का परिवर्तनबार अधिक होता है। इस प्रकार लोभ सम्बन्धी असंख्यात परिवर्तनबारों के अतिरिक्त हो जाने पर सम्बन्धी नारों से वाया परिवर्तनबार प्रतिरिक्त होता है । इस प्रकार माया सम्बन्धी प्रसंख्यात परिवर्तनबारों के अतिरिक्त हो जाने के बाद मान सम्बन्धी परिवर्तनबारों से क्रोध सम्बन्धी परिवर्तनबार अतिरिक्त अर्थात् अधिक होते हैं । यह प्ररूपणा ओध से की गई है । उसमें भी तियंचगति और मनुष्यगति में श्री प्ररूपणा से प्रदेश प्ररूपणा में कोई भेद नहीं है अतः यह कहा गया है कि इसी प्रकार तियंचगति और मनुष्यगति में जानना चाहिए।"
माथा का काल को
चारों कषाय वाले मनुष्य व तिर्यंचों की संख्या परस्पर समान नहीं है, क्योंकि चारों कषायों का काल समान नहीं है। तिर्यंच और मनुष्यों में मान का काल सबसे स्तोक है। क्रोध का काल मान के काल से विशेष अधिक है। आवली के असंख्यातवें भाग से विशेष अधिक है। के काल से विशेष अधिक है। आवली के असंख्यातवें भाग से विशेष अधिक है । लोभ की काल माया के काल से विशेष अधिक है। आवली का असंख्यातवां भाग विशेष अधिक है। इस प्रकार कालों के विसर रहने पर जिनका निर्गम और प्रवेश समान है और सन्तान की अपेक्षा गंगानदी के प्रवाह के समान जो ग्रवस्थित हैं, ऐसी वहां स्थित उन राशियों की सदृशता नहीं बन सकती। चारों कषायों के कालों का योग करके उसका चारों कषाय वाली अपनी-अपनी राशि में भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो, उसकी चार प्रतिराशियाँ करके मानादि कषायों के कालों से परिपाटी क्रम से गुणित करने पर अपनी-अपनी राशियाँ होती हैं । 3
इस प्रकार गोम्मटणार जीवकाण्ड में कषायमार्गरणा नाम का ग्यारहवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ।
१२. ज्ञानमार्गणाधिकार
ज्ञान का निरुक्तिसिद्ध सामान्य लक्षण
जागइ तिकालविसए बव्वगुणे पज्जए य बहुभेदे |
पच्चवखं च परोवस्वं श्रणेण गाणेति णं बेंति ।।२६६||
गाथार्थ - जिसके द्वारा निकालविषयक द्रव्य और बहुभेद सहित उनके गुण तथा उनकी
१. ज. घ. पु. १२ प्र. १७-१८ । २. कषायपाहुत्त पृ. ५६६-५७० सूत्र १०७ ११० १३. धवल पु. ३ पृ. ४२५ । ४. यह गाना धवल पु. १ में गाथा नं. ६१ पृ. १४४ पर है तथा प्रा.पं.सं. पू. २५ मा. ११७ व प्र. ५७१. १०६ ।
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गाघा २९६
ज्ञानमार्गरणा/३७३
अनेक प्रकार की पर्याय प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जानी जाती हैं, वह ज्ञन कहा गया है ॥२६६!!
विशेषार्थ-भूतार्थ (सत् रूप अर्थ) को प्रकाश करने वाला ज्ञान है ।' शङ्का--मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भूतार्थ का प्रकाशक कैसे हो सकता है ?
समाधान--ऐसा नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के ज्ञात में समानता पाई जाती है ।
शङ्का-यदि दोनों के ज्ञान में समानता पाई जाती है. तो मिथ्यादष्टि जीव अज्ञानी कैसे हो
सकते हैं?"-यदि दोनों के का
__समाधान-मिथ्यात्व सहित ज्ञान को ही ज्ञान का कार्य नहीं करने से अज्ञान कहा है। जैसे पुत्रोचित कार्य को नहीं करने वाले पुत्र को ही अपुत्र कहा जाता है ।
शङ्का-ज्ञान का कार्य क्या है ?
समाधान-तत्त्वार्थ में रुचि, निश्चय, श्रद्धा और चारित्र का धारण करना ज्ञान का. कार्य है। यह कार्य मिथ्या दृष्टि जीव में नहीं पाया जाता इसलिए उसके ज्ञान को अज्ञान कहा है। इच्छा प्रकट करना रुचि है। स्वरूप का निर्णय करना निगम है। निर्णय से गलापमान न होना आता है। अथवा फल दो प्रकार का होता है ---साक्षात् फल और पारम्पर्य फल । वस्तु सम्बन्धी प्रज्ञान की निवृत्ति होना यह ज्ञान का साक्षात् फल है। हान, उपादान और उपेक्षा ये पारम्पर्य फल हैं। हान अर्थात जानने के पश्चात् अनिष्ट या अहितकर वस्तु के परित्याग करने को हान कहते हैं । उपादानजानने के पश्चात् इष्ट या हितकर वस्तु का ग्रहण करना उपावान है। बीतराग दशा में पदार्थ को जानने के पश्चात् उसमें हेय-उपादेय की बुद्धि उत्पन्न नहीं होती, किन्तु उपेक्षा या उदासीनता रूप माध्यस्थ भाव पैदा होता है यह उपेक्षा है।
जो जानता है, वह ज्ञान है अर्थात् साकार उपयोग ज्ञान है अथवा जिसके द्वारा यह आत्मा जानता है, जानता था अथवा जानेगा, ऐसे ज्ञानावरण कर्म के एकदेश क्षय से अथवा सम्पूर्ण ज्ञानावरण के क्षय से उत्पन्न हुए आत्मा के परिणाम को ज्ञान कहते हैं ' कर्म-कर्तृ भाव का नाम आकार है, उस प्रकार के साथ जो उपयोग रहता है, उसका नाम साकार है । प्रमाण से पृथक भुत कर्म को आकार कहते हैं । अर्थात् प्रमाण में अपने से भिन्न बहिर्भूत जो विषय जो प्रतिभासमान होता है, उसे प्राकार कहते हैं।
द्रव्य अनादि अनन्त है । द्रव्यदृष्टि से म तो द्रव्य का नाश होता है और न किसी नवीन द्रव्य
-
"-.in
१. "भूतार्थ प्रकाशकं ज्ञानम्" धिबन पु. १ पृ. १४२] व मूलाचार पृ. २७७] । २. धवल पु. १ पृ. १४२ । 3. धवल पु. १ पृ. ३५३ व ववल पृ. ५ पृ २२४ । ४. भावपाहुङ्ग गा.८२ टोका। ५. श्री पं. हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री कृत 'अनुवादप्रमेयरत्नमाला' पृ. ३००-३०१। ६. धवल पु. १ पृ. ३५३ । ७. "कम्म-कतार. नावो अागारो तेरण आगारेण सह वट्टमारणो उबजोगो सागासे त्तिा' [धवल पु. १३ पृ. २०७] । ८. "पमाणदो, पुषभूदं कम्ममाया ।" [जयधवल पु. १ पृ. ३३१] ।
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३७४/गो. सा. जोत्रकाण्ड
गाथा २६६
का उत्पाद होता है इसलिए गाथा में द्रव्य को त्रैकालवर्ती कहा है। ऐसे बहुत प्रकार के द्रव्य, उनके गुण और उनकी पर्यायें जिसके द्वारा जानी जाती है वह ज्ञान है। जीव और अजीब दो प्रकार के द्रव्य हैं। पुद्गल, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य, काल द्रव्य के भेद से अजीव द्रव्य पाँच प्रकार का है। ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य आदि जीवद्रव्य के गुण हैं। स्पर्श रस गन्ध वर्ण आदि युद्गल द्रव्य के गुण हैं। संसारी मुक्त अथवा स स्थावर आदि जीवद्रव्य की पर्याय हैं। मण और स्कन्ध आदि पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं
वह ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से दो प्रकार का है। --प्रत्यक्ष-जो अक्ष कहिये अात्मा के आश्रित हो वह मुख्य प्रत्यक्ष ज्ञान है ।' 'क्ष' अर्थात् प्रात्मा, उससे “पर" (अन्य)जो इन्द्रियाँ उनके द्वारा अभिवर्द्धन को प्राप्त होने वाला ज्ञान परोक्ष है।
जो ज्ञान अनन्त शुद्ध है, चैतन्य सामान्य के साथ जिसका अनादि सम्बन्ध है, जो एक अक्ष कहिये आत्मा से प्रतिनियत है-जिसको इन्द्रिय प्रादि व प्रकाश आदि की सहायता की श्रावश्यकता नहीं है, जो अनन्त शक्तिशाली होने के कारण अनन्त है, ऐसा वह प्रत्यक्ष ज्ञान समस्त जेयों को जानता है, कोई भी ज्ञेय उस ज्ञान से बाहर नहीं रहा । इस प्रकार प्रत्यक्ष ज्ञान के पांच विशेषण दिये गये हैं। अर्थात् कि टिगोषणों .प्रक्षा को रगलाया गया है ।
जं परवो विष्णाणं तं तु परोक्खं त्ति भणिवमत्थेसु ।
जवि केवलेण रणावं हदि हि जीवेण पञ्चवं ॥५॥ -जेय पदार्थ सम्बन्धी जो ज्ञान पर के निमित्त या सहायता से होता है, वह ज्ञान परोक्ष है और जो ज्ञान केवल (बिना इन्द्रियादि की सहायता के) आत्मा के द्वारा जानता है बह प्रत्यक्ष जान है ।
अथवा विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। दूसरे ज्ञान के व्यवधान से रहित और विशेषता से होने वाले प्रतिभास को वेशद्य कहते हैं। अविशदस्वरूप वाला जो ज्ञान है वह परोक्ष है।
असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। अथवा केवलज्ञान आत्मा और अर्थ से अतिरिक्त किसी इन्द्रियादिक सहायक की अपेक्षा से रहित है, इसलिए भी वह केवल अर्थात् असहाय है।" कर्मों के क्षयोपशम आदि, स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र इन्द्रियों को व मन की तथा प्रकाश आदि की सहायता की अपेक्षा के बिना ही केवलज्ञान ज्ञेयों को जानता है इसलिये वह असहाय है किन्तु जयों की अपेक्षा रहती है क्योंकि केवल ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है (प्रवचनसार गा. २३) और ज़यों के बिना ज्ञान उत्पन्न हो नहीं सकता। इसलिए अर्थ (जयों) की सहायता की अपेक्षा रहती है ।
१. "प्रक्षमात्मानं प्रत्याश्रित प्रत्यक्षमिति मुख्य प्रत्यक्षम्" [प्रमेयरत्नमाला पृ. ४३] २. "अक्ष प्रात्मा तस्मात् परावृत्तं परोक्षम् । अथवा पररिन्द्रियादिभिक्ष्यते सिंच्यतेऽभिवईत इति परोक्षम् ।” [प्रमेयरत्नमाला पृ.४३] । ३. प्रवचनसार माथा ५४ श्री अमृत चन्द्रावार्यकृत टीका। .प्रवचनसार । ५. विशदं प्रत्यक्षम ||१|| प्रतोत्यन्त राब्यवघानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासन बैशम् ।।२/४ प. मु.।। परोक्षामितरत् ।।३/१।। परीक्षामुख)। ६. "केवलमसहाय” [जयधवल पु. १ पृ. २१] | "प्रात्मार्थव्यतिरिक्त सहायनिरपेक्षत्वाद्वा केवल मसहायम् ।" जयबवल १४२३]"। ८. "साणं ऐयष्पमासा मुठ्ठि ।।" [प्रवचनसार गाथा २१] । ६. "णेयेण विणा कहं गाणं।" (स्वामिकार्तिकेयानृप्रेक्षा गाथा २४७] ।
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गाथा ३००-३०१
ज्ञानमार्गणा/३७५
___ज्ञान के भेद, मिथ्याज्ञान का कारण और उसका स्वामी पंचेव होंति वारणा मदिसुदमोहीमणं च केवलयं । खयउयसमिया चउरो केवलणाणं हवे खइयं ॥३०॥ अण्णागतियं होदि हुसण्णाणतियं ख मिच्छ अरणउदये।
गयरि विभंग गाणं चिदियसणिपुण्णेव ।।३०१॥' ___गाथार्थ - ज्ञान पाँच प्रकार का है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान; मनःपर्ययज्ञान तथा केवलज्ञान । इनमें से आदि के चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं और केवलज्ञान क्षायिक है ।।३००। आदि के तीनों समीचीन ज्ञान, मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी का उदय होने पर अज्ञान हो जाते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि विभंग ज्ञान संज्ञो-पंचेन्द्रिय पर्याप्त के ही होता है ।।३०१॥
विशेषार्थ-ज्ञान आठ प्रकार का है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मति ज्ञान, श्रुतकुजान और विभंगज्ञान । इनमें से आदि के पाँच ज्ञान सम्यग्ज्ञान हैं और अन्त के तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान हैं।
णाणं अविरप्पं मविसुदिपोहो अगाणणाणारिण ।
मणपज्जयकेवलमवि पच्चरखपरोक्ख मेयं च ॥५॥ शङ्खा ---अज्ञान कहने पर क्या ज्ञान का अभाव ग्रहण किया गया है ? ज्ञान के अभाव में जीव के अभाव का प्रसंग पाता है, क्योंकि ज्ञान जीव का लक्षण है। यदि अज्ञान कहने पर ज्ञान का अभाव न माना जाय तो फिर प्रतिषेध के फलाभाव का प्रसंग पाता है ?
समाधान-प्रथम पक्ष में कहे गये दोष की प्रस्तुत कथन में संभावना नहीं है, क्योंकि यहाँ पर प्रसज्य प्रतिषेध अर्थात् अभाव मात्र से प्रयोजन नहीं है। दूसरे पक्ष में कहा गया दोष भी नहीं पाता, क्योंकि यहां जो अज्ञान शब्द से ज्ञान का प्रतिषेध किया गया है, इराकी आत्मा को छोड़ अस्य समीपवर्ती प्रदेश में स्थित समस्त द्रव्यों में स्व-पर विवेक के प्रभावरूप सफलता पायी जाती है। ग्रथोत स्व-पर विवेक से रहित जो पदार्थज्ञान होता है उसे ही यहाँ अज्ञान कहा है ।
शङ्का-तो यहाँ सम्यग्दृष्टि के ज्ञान का भी प्रतिषेध क्यों न किया जाय, क्योंकि विधि और प्रतिषेध भाव से मिथ्याष्टि ज्ञान और सम्यग्दृष्टि ज्ञान में कोई विशेषता नहीं है ?
समाधान--यहाँ अन्य पदार्थों में परत्वबुद्धि के अतिरिक्त भाव अर्थात् पदार्थ सामान्य का अपेक्षा प्रतिषेध नहीं किया गया जिससे सम्यग्दृष्टि ज्ञान का भी प्रतिषध हो जाय । किन्तु ज्ञातवस्तु में बिपरीत श्रद्धा उत्पन्न करने वाले मिथ्यात्व व मनन्तानुबन्धी के उदय के बल मे जहां पर जीव में अपने जाने हुए पदार्थ में श्रद्धान नहीं उत्पन्न होता, वहाँ जो ज्ञान होता है, वह अज्ञान है, क्योंकि उस में ज्ञान का फल नहीं पाया जाता।
१. “मतिश्रुतावधिमनःपर्य के बलानि ज्ञानम् ।" [तस्वार्थसूत्र १/6]। २. "मतिश्रतावश्यो विपर्ययएन ।' [त.मू. १/३१] । ३. बृहद् द्रव्यसंग्रह गा. ५। ४. घवान पु. ७ पृ. ८४-८५ ।
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३७६ / गो. सा. जीव काण्ड
गाथा ३००-३०१
शङ्का-घट, पट, स्तम्भ आदि पदार्थों में मिथ्यादृष्टियों के भी यथार्थज्ञान व श्रद्धान पाया
जाता है ?
समाधान- नहीं पाया जाता, क्योंकि उनके उस ज्ञान में भी अनध्यवसाय श्रर्थात् प्रनिश्चय देखा जाता है। यह बात प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि 'यह ऐसा ही है' ऐसे निश्चय का वहाँ अभाव होता है । अथवा यथार्थ दिशा के सम्बन्ध में विमूढ़ जीव वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श इन चार इन्द्रियविषयों के ज्ञानानुसार श्रद्धान करता हुआ भी अज्ञानी कहलाता है, क्योंकि उसके यथार्थ ज्ञान की दिशा में श्रद्धान का प्रभाव है। इसी प्रकार स्तंभादि पदार्थों में यथाज्ञान श्रद्धा रखता हुआ भी जीव जिन भगवान के वचनानुसार श्रद्धान के प्रभाव में अज्ञानी कहलाता है । '
क्षायोपशमिक लब्धि से जीव मत्यज्ञानी श्रादि होता है ||४५ | | ३ अर्थात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और तीन प्रज्ञान क्षायोपशमिक भाव हैं ।
शङ्का-मति प्रज्ञानी के क्षायोपशमिक लब्धि कैसे मानी जा सकती है ?
समाधान क्योंकि, उस जीव के मत्यज्ञानावरणकर्म के देशघाती स्पर्धकों के उदय से मत्यज्ञानित्व पाया जाता है।
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शका - यदि देशघाती स्पर्धकों के उदय से अज्ञानित्व होता है तो प्रज्ञामित्व को औदयिक भाव मानने का प्रसंग आता है ?
समाधान- - नहीं प्राता, क्योंकि वहाँ सर्वघाती स्पर्धकों के उदय का प्रभाव है ।
शङ्का - तो फिर अज्ञानित्व में क्षायोपशमिकत्व क्या है ?
समाधान- आवरण के होते हुए भी आवरणीय ज्ञान का एकदेश जहाँ पर उदय में पाया जाता है, उसी भाव को क्षायोपयामिक नाम दिया गया है। इससे अज्ञान को क्षायोपशमिक भाव मानने में कोई विरोध नहीं माता । अथवा ज्ञान के विनाश का नाम क्षय है । उस क्षय का उपशम हुआ एकदेशक्षय है। इस प्रकार एकदेशीयक्षय की क्षयोपशम संज्ञा मानी जा सकती है। ऐसा क्षयोपशम होने पर जो ज्ञान या अज्ञान उत्पन्न होता है, वही क्षायोपशमिक लब्धि है ।
इसी प्रकार ताज्ञान, विभंगज्ञान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान को भी क्षायोपशमिक भाव कहना चाहिए। विशेषता केवल यह है कि इन सब ज्ञानों में अपने-अपने श्रावरणों के देशघाती स्पर्धकों के उदय से क्षायोपशमिक लब्धि होती है ।
शङ्का - इन सातों ज्ञानों के सात ही आवरण क्यों नहीं होते ?
समाधान- नहीं होते, क्योंकि पाँच ज्ञानों के अतिरिक्त अन्य कोई ज्ञान पाये नहीं जाते। किन्तु इससे मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान का प्रभाव नहीं हो जाता, क्योंकि उनका यथाक्रम से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में अन्तर्भाव होता है ।
१. घवल पु. ७ पृ. ८६ । २. ग्रोवस मिया एलबीए ।" [बचल पु. ७ पृ. ५६] । ३. धवल पु. ७ पृ. ८७
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माथा ३०१
ज्ञानमार्गगा/३७७
शङ्का-- पहले इन्द्रिय मार्गणा और योग मार्गणा में सर्वघाती स्पर्धकों के उदय क्षय से, उन्हीं स्पर्धकों के सत्वोपशम से तथा देशघाती स्पर्धकों के उदय से क्षायोपशमिक भाव की प्ररूपणा की गई है। किन्तु यहाँ पर सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय और उनके सत्त्वोपशम इन दोनों का प्रतिषेध करके केवल देशघाती स्पर्धकों के उदय से क्षायोपशामिक भाव कहा गया है। इस प्रकार स्ववचन विरोध क्यों नहीं होता? '
समाधान --- नहीं होता, क्योंकि यदि सर्वधाती स्पर्धकों के उदयक्षय से संयुक्त देशघाती स्पर्धकों के उदय से ही क्षायोपशमिक भाव मानना इष्ट हो तो स्पर्शनेन्द्रिय, काययोग और मतिज्ञान व श्रुतज्ञान इनके क्षायोपशमिक भाव प्राप्त नहीं होगा; चूकि स्पर्शनेन्द्रियावरण, वीर्यान्तराय, मतिज्ञान तथा श्रतज्ञान इनके प्रावरणों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय का सब काल में प्रभाव है । अर्थात् उक्त प्राबरणों के सर्वघाती स्पर्धकों का उदय कभी होता ही नहीं है। इसमें कोई स्ववचनविरोध भी नहीं है, क्योंकि इन्द्रियमार्गणा और योगमार्गरणा में अन्य प्राचार्यों के व्याख्यान क्रम का ज्ञान कराने के लिए वहाँ वैसा प्ररूपण किया गया है। जो जिससे नियमत: उत्पन्न होता है वह उसका कार्य होता है और वह दूसरा उसको उत्पन्न करने वाला कारण होता है। किन्तु देशघाती स्पर्धकों के उदय के समान सर्वधाती स्पर्धकों के उदयक्षय नियम से अपने-अपने ज्ञान के उत्पादक नहीं होते, क्योंकि क्षीणकषाय के अन्तिम समय में अवधि और मनःपर्यय ज्ञानावरणों के सर्वघाती स्पर्धकों के क्षय से अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न होते हुए नहीं पाये जाते ।'
शता-जीव केवलज्ञानी कैसे होता है ? केवलज्ञान क्षायिक भी नहीं है, क्योंकि क्षय तो प्रभाव को कहते हैं और प्रभाव को कारण मानने में विरोध प्राता है।
समाधान - क्षायिक लब्धि से जीव केवलज्ञानी होता है। केवलज्ञानावरण का क्षय तुच्छ अर्थात् अभावरूप मात्र है, इसलिए वह कोई कार्य करने में समर्थ नहीं हो सकता, ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि केवलज्ञानावरण के बन्ध, सत्व और उदय के अभाव सहित तथा अनन्तवीर्य, वैराग्य सम्यक्त्व व दर्शन आदि गुणों से युक्त जीवद्रव्य को तुच्छ मानने में विरोध आता है। किसी भाव को अभाबरूप मानना विरोधी बात नहीं है, क्योंकि भाव और प्रभाव स्व भाव से ही एक दूसरे को सर्वात्म
प से आलिंगन करके स्थित पाये जाते हैं। जो वात पाई जाती है उसमें विरोध नहीं रहता, क्योंकि विरोध का विषय अनुपलब्धि है और इसलिए जहाँ जिस बात की उपलब्धि होती है, उसमें फिर विरोध का अस्तित्व मानने में ही विरोध आता है । ५
शङ्का -अनन्तानुबन्धी के उदय से भी मिथ्याज्ञान होता है, ऐसा क्यों कहा गया है ? मात्र मिथ्यात्व बाहना पर्याप्त था, क्योंकि मिथ्यात्व के उदय से ही विपरीत अभिनिवेश होता है।
समाधान - सामादन गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय न होते हुए भी मिथ्याज्ञान (प्रज्ञान) होता है। इस बात को वतलाने के लिए अनन्तानुबन्धी का उदय भी अज्ञान में कारण है। विपरीत अभिनिवेश को मिथ्यात्व कहते हैं और वह मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी इन दोनों के निमित्त से
१. धवल पु. ७ ८६-७ । २. धवल पु. ७ पृ. ८८ । ३. 'केवलरगाणीणाम कथं भवदि ॥४६।। ण खइयं पि, खनो रणाम प्रभावो तम्स कारणत्तविहादो।" [धवल पु.७ पृ.८८ 480] । ४. "खड्याए लगीए ।। ४७||" व टीका [धवल पु. ७ पृ. ६०-६१] ।
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३७५/गो, सा. जीवकाण्ड
गाथा ३०२
उत्पन्न होता है। सासादन गुणस्थान में अनन्तानुबली का जग सो पाया हो पाता है, इसलिए यहाँ पर दोनों प्रज्ञान होते हैं ।
शाडूा- एकेन्द्रियों में श्रोत्रइन्द्रिय का अभाव होने से शब्द का ज्ञान नहीं हो सकता इसलिए श्रुतप्रज्ञान भी नहीं हो सकता?
समाघान—यह कोई एकान्त नहीं है कि शब्द के निमित्त से होने वाले पदार्थज्ञान को ही श्रुतज्ञान कहते हैं। रूप आदि लिंग से जो लिंगी का ज्ञान होता है वह भी श्रुतज्ञान है; जैसे वनस्पतिकायिक की हित में प्रवृत्ति और अहित से निवृत्ति देखी जाती है ।
मिश्रज्ञान का कारण और मनःपर्ययज्ञान का स्वामी मिस्सुक्ये सम्मिस्सं अण्णारतियेण गारगतियमेव ।
संजमविसेससहिए मणपज्जवरणारणमुद्दिढ ॥३०२॥ गाथार्य-सम्बग्मिथ्यात्व मिश्रप्रकृति के उदय से तीन अज्ञान और तीन ज्ञान का परस्पर मिश्रण होने वाले तीन मिश्रज्ञान होते हैं। जिनके विशिष्ट संयम होता है, उन्हीं के मनःपर्यय ज्ञान होता है ।।३०२॥
विशेषार्थ दर्शनमोहनीय कर्म की मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व) प्रकृति के उदय से सम्यग्मिथ्यादृष्टि तीसरा गुणस्थान होता है। उस सम्यग्मिथ्याष्टि गुणस्थान में प्रादि के तीनों ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि) तीनों प्रज्ञान (मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, विभंग ज्ञान) से मिश्रित होते हैं। मतिज्ञान से मत्यज्ञान मिथित होता है, श्रुतज्ञान श्रुताज्ञान से मिश्रित होता है, अवधिज्ञान विभंगज्ञान से मिश्रित होता है। प्रर्थात् तीनों ही ज्ञान अज्ञान से मिश्रित होते हैं । 3
शङ्का-यथार्थ श्रद्धान से अनुबिद्ध अवगम को ज्ञान कहते हैं और अयथार्थ श्रद्धा से अनुविद्ध अवगम अज्ञान है। ऐसी दशा में भिन्न-भिन्न जोवों के आधार से रहने वाले ज्ञान-अज्ञान का मिश्रण नहीं बन सकता?
समाधान - यह कहना सत्य है, क्योंकि यह इष्ट है, किन्तु यहाँ सम्यग्मिथ्याष्टि गुणस्थान में यह अर्थग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति मिथ्यात्व तो हो नहीं सकती, क्योंकि उससे अनन्तगुरगे होन शक्तिवाले सम्यग्मिथ्यात्व में विपरीत अभिनिवेश को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं पाई जाती है और न वह सम्यवत्व प्रकृति रूप ही है, क्योंकि सम्यक्त्व प्रकृति से अनन्तगुणी अधिक शक्ति वाले सम्यग्मिथ्यात्व का यथार्थ श्रद्धा के साथ साहचर्य सम्बन्ध का विरोध है। इसलिए जात्यन्तर होने से सम्पग्मिथ्यात्व जात्यन्तररूप परिणामों का ही उत्पादक है। अतः सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से उत्पन्न हुए परिणामों से युक्त ज्ञान 'सम्यग्ज्ञान' संज्ञा को प्राप्त नहीं हो सकता है, क्योंकि उस ज्ञान में यथार्थ श्रद्धा का अन्वय नहीं पाया जाता है। उसको अज्ञान भी नहीं कह सकते, क्योंकि वह अयथार्थ श्रद्धा के साथ सम्पर्क नहीं रखता है। इसलिए वह ज्ञान १. घवल पु. १ सूत्र ११६ की टोका। २. धवल पु. १ सूत्र ११६ की टीका । ३. "मम्मामिच्छाइट्ठि-हाणे तिण्णि विणापाणि अण्णाणण मिस्साणि । मिणिबोहिया मदिप्रपाणेण मिस्सयं, सुवणारा सूद-प्रणागोगा मिसयं सोहिमगाणं विभंगणाणे मिस्सयं । तिणि वि गारपारिग प्रणाणेए मिस्सारण वा इदि ॥११॥ [श्रवल पु. १ पृ. ३६३] ।
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गाथा ३०३-३०४
ज्ञानमार्गा/३७६
सम्यग्मिथ्यात्व परिणाम की तरह जात्यन्तर रूप अवस्था को प्राप्त है। अतः एक होते हुए भी मिश्र कहा जाता है । '
यथावस्थित प्रतिभासित पदार्थ के निमित्त से उत्पन्न बोध ज्ञान है। न्यूनता यदि दोषों से युक्त यथावस्थित प्रतिभासित हुए पदार्थ के निमित्त से उत्पन्न बोध अज्ञान है । जात्यन्तर रूप कारण से उत्पन्न ज्ञानजात्यन्तर ज्ञान है। इसी का नाम मिश्रज्ञान है।
मनः पर्ययज्ञान प्रमत्तसंगत से लेकर क्षीणकषायवीतराग छद्मस्य गुणस्थान तक होता है । " क्योंकि मन:पर्ययज्ञान के स्वामी संयमी होते हैं ।
शङ्का - देशचारित्र आदि नीचे के गुणस्थानवर्ती जीवों के मन:पर्ययज्ञान क्यों नहीं होता है? समाधान- नहीं होता, क्योंकि संयमासंयम और असंयम के साथ मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति मानने में विरोध याता है ।
शङ्का - यदि संयम मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति का कारण है तो समस्त संयमियों के मन:पर्ययज्ञान क्यों नहीं होता है ?
समाधान- यदि मात्र संयम ही मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति का कारण होता तो ऐसा भी होता । किन्तु मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति में अन्य भी कारण हैं, इसलिए उन दूसरे हेतुओंों के न रहने से समस्त संयतों के मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता। इसलिए गाथा में 'संजमविसेससहिए' दिया है।
शङ्का - वे दूसरे विशेष कारण कौनसे हैं ?
समाधान- विशेष जाति के द्रव्य, विशिष्ट क्षेत्र व विशिष्ट काल आदि अन्य कारण हैं, जिनके बिना सभी संयमियों के मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता । *
स्वयं ग्रन्थकार मन:पर्ययज्ञान के भेद श्रादि का विशेष कथन गाथा ४३५ से ४५९ तक
करेंगे |
तीनों भज्ञानों के लक्षण
विस- जंत-कूड-पंजर-बंधादिसु विणुवदेस- करो
जा खलु पवत्तद्द मदी- अण्णारणं ति खं बेंति ॥ ३०३ ॥ *
भारहरामायाविव एसा ।
प्राभीयमासुरव तुच्छा प्रसाहरणीया सुयश्रण्णाांति णं बेंति ।। ३०४ ॥ *
१. धवल पू. १ सूत्र ११६ टीका पृ. ३६३-३६४ । २. धवल पु. १ सूत्र ११६ की टीका पृ. ३६४ ॥ ३. "मरणपज्जवशाणी पमत्तमंजन -पहूडि जान खीलकसाय- बीदराग छदुमत्या ति ।। १२१|| " [ धवल पु. १ पृ. ३६६ ] ४. धवल पु १ सूत्र १२१ की टीका पू. ३६६-३६७ । ५. बबल पु. १ पृ. ३५८ मा. १७६; प्रा. पं. संग्रह पु. २५ गा. ११८ व पृ. ५७६ गा. १०७ । ६. धवल पु. १ पृ. ३५८ गा. १८० प्रा. पं सं. पू. २६ गा. ११६ व पृ. ५७६ मा १०५
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३८० गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३०५-२०६
विवरीयमोहिणाणं खनोवसमियं च कम्मबीजं च ।
वेभंगोत्ति पउपचइ समतरणारगीरण समपम्हि ॥३०५॥' गाथार्थ परोपदेश के बिना जो विष, यंत्र, कूट, पंजर तथा बन्ध आदि के विषय में बुद्धि प्रवृत्त होती है, उसको ज्ञानीजन मत्यज्ञान कहते हैं ।।३०३॥ “पाभीयमासुरक्खा" चौरशास्त्र हिंसाशास्त्र अथवा "पाभीमासुरक्खयं" कालासुर कृत वेद हिंसा शास्त्र, महाभारत, रामायण आदि के तुच्छ और परमार्थ शून्य होने से, साधन करने के अयोग्य उपदेशों को ऋषिगण श्रुताज्ञान कहते हैं ।। ३०४॥ जो क्षायोपशमिक अवधिज्ञान मिथ्यात्व सहित होने से विपरीत स्वरूप है और नवीन कर्म का बीज है, वह सम्पूर्णज्ञानियों के द्वारा आगम में कुअवधि या विभंग ज्ञान कहा गया है ॥३०॥
विशेषार्थ—जिसके खाने से या सूधने आदि से मरण हो जाय वह विष है, जिसमें पशु, पक्षी, मछली प्रादि स्थलचर, नभचर, जलचर जीव पकड़े जायें वह जाल है। जिसमें पशु-पक्षी आदि बन्द रखे जावें वह पिजरा है । रस्सी (जेवरी) आदि जिससे जीव बाँधे जावें वह बन्ध है। इस प्रकार जीवों के मारने व बाँधने आदि के कारणरूप यंत्र आदि की रचना, जो परोपदेश के बिना की जाती है, वह मत्यज्ञान है । यदि परोपदेशपूर्वक इन कार्यों को करे तो श्रुताज्ञान है। इस प्रकार परोपदेश बिना हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह प्रादि पाप के कारणभूत पदार्थों में की ऊहापोह करना, रचना करना इत्यादि कुज्ञान है। दूसरों को भय उपजाने वाले ऐसे हिंसा, चोरी आदि का कथन करने वाले शास्त्र, हनुमान आदि को वानर कहने वाले और रावण प्रादिको राक्षस कहने वाले शास्त्र. एक शीलवती भार्या को पंचभर्तारी कहने वाले शास्त्र परमार्थशन्य शास्त्र हैं। ऐसे शास्त्रों को श्रुत-अज्ञान कहा गया है।
विशिष्ट ज्ञान अर्थात् अवधिज्ञान का भंग (विपरीत) रूप परिणमन विभंगज्ञान है। वस्तु का अयथार्थ या विरुद्ध प्रत्यक्ष ज्ञान होना विभंगज्ञान है। अवधिज्ञानावरण कर्म केक्ष योपशम से जो ज्ञान विपरीत-अभिनिवेश सहित होता है वह विभंगज्ञान है। मिथ्यात्व के कारण वस्तु का अन्यथा ज्ञान होता है। यह विभंगज्ञान अयथार्थ होने से कर्मबन्ध का ही कारण है. संवर-निर्जरा का कारण नहीं है।
नौ गाथाघों द्वारा मतिज्ञान का कथन अहिमुह-णियमियबोहणमाभिरिणबोहियरिणदिइंदियजम् ।
अवगह-ईहावायाधारणगा होति पत्तेयं ॥३०॥ गाथार्थ - इन्द्रिय और अनिन्द्रिय (मन) को सहायता से अभिमुख और नियमित पदार्थ का ज्ञान आभिनिबोधिक ज्ञान है। प्रत्येक के अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ऐ चार भेद हैं ।।३०६।।
विशेषार्थ-- मतिज्ञान का दूसरा नाम 'ग्राभिनिबोधिक' भी है। पाभि-नि+बोधक है। 'ग्राभि' अर्थात अभिमुख ; 'नि' अर्थात् नियमित पदार्थ का पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा जो बोध=
पम् ।
१. धवल पू.१ पृ. ३५६ गा.१८१: प्रा. पं. सं पृ. २६ गा. १२० ब पृ. ५७६ गा, १०१। २. यह गाथा धवल पु. १ पृ. ३५६ मा. १८२ और प्रा.पं. संग्रह पृ.२६ गा. १२२ है किन्तु उत्तराधं "बहु-प्रोग्गहाइणा लग्नु कय-छत्तीसति-मय भेयं ।'' इम प्रकार है।
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गाथा ३०६
ज्ञानमागंगा/३८१
ज्ञान होता है वह आभिनिबोधिक है। इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य क्षेत्र में पदार्थ का अवस्थित होना अभिमुख कहलाता है। स्पर्शन इन्द्रिय स्पर्श में नियमित है; रस, गंध, वर्ण व शब्द में नियमित नहीं है। अर्थात् स्पर्शनइन्द्रिय का विषय स्पर्शनियत है। इसी प्रकार रसना इन्द्रिय का विषय रसनियत है । प्राण इन्द्रिय का विषय गन्ध नियत है। चक्षुइन्द्रिय का विषय वर्ण व प्राकार आदि नियत है। श्रोत्र इन्द्रिय का विषय शब्द नियत है ।' प्रत्येक इन्द्रिय अपने-योग्य क्षेत्र में स्थित (अभिमुख) अपने नियत विषय को ही जानती है।
___ अभिमुख और नियमित अर्थ के अवबोध को अभिनिबोध कहते हैं। स्थूल, वर्तमान और अनन्तरित अर्थात् व्यवधान रहित अर्थ अभिमुख है। अथवा इन्द्रिय और नोइन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य अर्थ का नाम अभिमुख है। चक्षरिन्द्रिय में रूप नियमित है, श्रोत्रेन्द्रिय में शब्द, घ्राणेन्द्रिय में गन्ध, जिह्वन्द्रिय में रस, स्पर्शनेन्द्रिय में स्पर्श और नोइन्द्रिय (मन) में दृष्ट, ध्रुत और अनुभूत पदार्थ नियमित हैं । अथवा, अन्यत्र उनकी प्रवृत्ति न होने से उसका नियम है । अर्थ, इन्द्रिय, आलोक और उपयोग के द्वारा ही रूपज्ञान की उत्पत्ति होती है। अर्थ, इन्द्रिय और उपयोग के द्वारा ही रस, गन्ध, शब्द और स्पर्शज्ञान की उत्पत्ति होती है। दृष्ट, श्रत और गनुभूत अर्थ तथा मन के द्वारा नोइन्द्रिय ज्ञान की उत्पत्ति होती है। यह यहाँ नियम है। इस प्रकार के अभिमूख और नियमित पदार्थों में जो बोध होता है वह आभिनिबोध है । प्राभिनिबोध ही ग्राभिनिबोधिक ज्ञान कहलाता है। नियम के अनुसार अभिमुख अथों का जो ज्ञान होता है वह पाभिनिवोधिक ज्ञान है। यह ज्ञान परोक्ष है।
अक्ष का अर्थ आत्मा है । अक्ष से जो इतर वह पर है। आत्मा से इतर कारणों के द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह परोक्षज्ञान है। उपात्त और अनुपात्त इतर कारणों की प्रधानता से जो ज्ञान होता है वह परोक्ष है। यहाँ 'उपात्त' गाब्द से इन्द्रियाँ व मन तथा 'अनुपात्त' शब्द से प्रकाश व उपदे शादिक का ग्रहण किया गया है। इनकी प्रधानता से होने वाला जान परोक्ष है। जिस प्रकार गमनशक्ति से युक्त होते हुए भी स्वयं गमन करने में असमर्थ व्यक्ति का लाठी आदि पालम्बन को प्रधानता से गमन होता है, उसी प्रकार मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर ज स्वभावी; परन्तु स्वयं पदार्थ को ग्रहण करने में असमर्थ हुए आत्मा के पूर्वोक्त प्रत्ययों की प्रधानता से उत्पन्न होने वाला ज्ञान पराधीन होने से परोक्ष है।
मति (प्राभिनिबोधिक) ज्ञान चार प्रकार का है-अवग्रह. ईहा, अवाय और धारणा !' अवग्रह आदि चारों ही ज्ञानों की सर्वत्र कम से उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि उस प्रकार की व्यवस्था नहीं पाई जाती है। इसलिए कहीं तो केवल अवग्रह ज्ञान ही होता है, कहीं अवग्रह और ईहा ये दो या अवग्रह और धारणा ये दो होते हैं : कहीं पर अवग्रह, ईहा और अवाय ये तीन भी होते हैं, और कहीं पर अन्नग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों ही होते हैं।' अवग्रह आदि का स्वरूप स्वयं - - ...१. "म्बक-म्बकेन्द्रियेषु नियमितं ।"(धवल पु. ६ पृ. १६०। २. धवल पृ. ६ पृ. १५ । ३. धवल पु. १३ पृ. २०६। ४. प्रवल पु.६ पृ. १५। ५. धवल पु. १३ पृ. २०१-२१०। ६. धवल पु. ६ पृ. १६ । ७. धवल पु. १३ पृ. २१०। ८. 'प्रक्ष प्रात्मा ।' [धवल पु. ६ पृ. १४३] । ६. धवल पु. ६ पृ. १४३ । १०. बबल पू. ६ पृ. १८ । “तदो कहि पि पोग्ग हो चेय । कहि पि योग्ग हो घारगा य दो चचेय । कहि पि योगगहा ईहा य" टिपण नं. २।।
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३८२/गो. सा. जीवकाण्ड
माथा ३०७-३००
ग्रन्यकार प्रागे कहेंगे, इसलिए यहाँ पर इनका स्वरूप नहीं लिखा गया है ।
अवग्रह ब ईहा का लक्षण तथा प्रवग्रह के भेद विसपारणं विसईरणं संजोयाणंतरं हवे रिणयमा । अवगहरणाणं गहिवे विसेसकंखा हवे ईहा ॥३०७।। बेंजणप्रत्यायग्गहभेदा हु हवंति पत्तपत्तस्थे । कमसो ते वावरिदा पढम ए हि चक्खुमणसाणं ॥३०॥'
गाथार्थ-विषय और विषयी के संयोग के अनन्तर नियम से अवग्रह ज्ञान होता है। ग्रहण किये गये पदार्थ की विशेष जिज्ञासा ईहा ज्ञान है ॥३०७॥ प्राप्त अर्थ और अप्राप्त अर्थ के कारण क्रम से व्यंजनावग्रह और अविग्रह के भेद से अवग्रह दो प्रकार का हो जाता है। उत्पत्ति क्रम की अपेक्षा पहले व्यंजनावग्रह तशा पीछे अर्थावग्रह इस ऋम से होते हैं। चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता ॥३०८।।
विशेषार्थ-विषय और विषयी के सम्बन्ध होने के अनन्तर जो प्रथम ग्रहण होता है वह अवग्रह ज्ञान होता है । अवग्रह से ग्रहण किये गये पदार्थ के विशेष को जानने के लिए अभिलाषारूप जो ज्ञान होता है वह ईहा है। विषय और विषयी के सम्बन्ध के अनन्तर जो आद्य ग्रहण होता है वह अवग्रह है। 'पुरुष' इस प्रकार अवग्रह द्वारा गृहीत अर्थ में भाषा, आयु और रूपादि विशेषों से होने वाली पाकांक्षा का नाम ईहा है। विषय और विषयी का सम्पात होने के अनन्तर जो प्रथम ग्रहण होता है, वह अवग्रह है। रस प्रादिक अर्थ विषय है, छहों इन्द्रियाँ विषयी हैं। ज्ञानोत्पत्ति की पूर्वावस्था ही विषय व विषयी का सम्पात है, जो दर्शन है । यह दर्शन ज्ञानोत्पत्ति के कारण-भूत परिणाम-विशेष की सन्तति की उत्पत्ति से उपलक्षित होकर अन्तमुहूर्त काल स्थायी होता है। इसके बाद जो वस्तु का प्रथम ग्रहण होता है वह अवग्रह है। यथा - चक्षु के द्वारा 'यह घट है, यह पट है ऐसा ज्ञान होना अवग्रह है। जहाँ घटादि के बिना रूप, दिशा और आकार आदि विशिष्ट बस्तुभात्र ज्ञान के द्वारा अनध्यबसायरूप से जानी जाती है यहाँ भी अवग्रह ही है, क्योंकि अनवगहीत अर्थ में ईहादि ज्ञानों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसी तरह शेष इन्द्रियों का भी अवग्रह वहना चाहिए। विषय और विषयी के योग्य देश में प्राप्त होने के अनन्तर आद्यग्रहण अवग्रह है। बाहरी पदार्थ विषय है और
न्द्रयां विषयी हैं। इन दोनों की ज्ञान उत्पन्न करने के योग्य अवस्था का नाम संपात है। विषय और विषयी के संपात के अनन्तर रत्पन्न होने वाला ज्ञान अवग्रह कहलाता है। वह अवग्रह भी दो प्रकार का है.- अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह। उनमें अप्राप्त अर्थ का ग्रहण अर्थावग्रह है, जैसे चक्षरिन्द्रिय के द्वारा रूप को ग्रहण करना। प्राप्त अर्थ का ग्रहण व्यंजनावग्रह है, जैसे स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा स्पर्श को ग्रहण करना । -- ....-.- .- -.. १. मुद्रित ग्रन्थों में गाथा ३०८ का नं. गाथा ३०५ है और गाथा ३०७ का नं. गाथा ३०८ | किन्तु यहाँ पर जिस गाथा में प्रवग्रह ज्ञान का लक्षगा कहा गया है वह प्रथम लिखी गई है, उसके पश्चात् अवग्रह ज्ञान के भेद बाली गाथा लिम्दी गई है। २. धवल १ ११. ३५४ । ३. धवल पु. ६. १४४ । ४. धवल पु. १३ पृ. २१६-२१७ । ५. धवल पु. ६ पृ. १६ पृ. १७।
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गाथा ३०७-३०८
शानमार्गगगा/३८३
स्पष्ट ग्रहण का नाम अर्थावग्रह है, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अस्पष्ट ग्रहण के व्यंजनावग्रह होने का प्रसंग आता है।
शङ्का - ऐसा हो जायो ?
समाधान नहीं, क्योंकि चक्षु से भी अस्पष्ट ग्रहण देखा जाता है, इसलिए उसे व्यंजनावग्रह होने का प्रसंग पाता है। पर ऐसा नहीं है, क्योंकि चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता;' सूत्र में उसका निषेध किया है।
आशुग्रहण का नाम अर्थावयह है, यह कला भी ठीक नहीं है, पपोंकि ऐसा मानने पर धीरेधोरे ग्रहरण होने को व्यंजनावग्रह का प्रसंग पाता है। पर ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर धीरेधीरे ग्रहण करने वाला चाक्षुष अवग्रह भी व्यंजनावग्रह हो जाएगा। तथा क्षिप्र और अक्षिप्र ये विशेषण यदि दोनों अवग्रहों को नहीं दिये जाते हैं तो मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद नहीं बन सकते हैं।
शडा-मन और चक्षु के सिवाय शेष चार इन्द्रियों के द्वारा अप्राप्त अर्थ का ग्रहण करना नहीं उपलब्ध होता है ? २ कहा भी है--
पुठं सुणेइ सद्ध अपुट्ट वेय पस्सदे रुवं ।
गंधं रसं च फासं बलु पुठं च जाणादि ।।५४॥ -- -श्रोत्र से स्पृष्ट शब्द को सुनता है, परन्तु चक्षु से रूप को अस्पृष्ट ही देखता है। शेष इन्द्रियों से गन्ध, रस और स्पर्श को बद्ध व स्पृष्ट ही जानता है। इस सूत्र से इन्द्रियों के प्राप्त पदार्थ का ही ग्रहण करना सिद्ध होता है ?
समाधान- इस गाथा का अर्थ इस प्रकार है--चक्ष रूप को अस्पृष्ट ही ग्रहण करती है, 'च' शब्द से मन भी अस्पृष्ट ही वस्तु को ग्रहण करता है। शेष इन्द्रियाँ गन्ध, रस और स्पर्ण को बद्ध अर्थात् अपनी-अपनी इन्द्रियों में नियमित व स्पृष्ट ग्रहण करती हैं, 'च' शब्द से अस्पृष्ट भी ग्रहण करती हैं। 'स्पृष्ट' शब्द को सुनता है यहाँ भी 'बद्ध' और 'च' शब्द जोड़ना चाहिए, क्योंकि ऐसा न करने पर दूषित व्याख्यान की अापत्ति पाती है। क्योंकि धव वृक्ष अप्राप्त निधि को ग्रहण करता हुया देखा जाता है और तु बड़ी की लता आदि अप्राप्त बाड़ी व वृक्ष आदि को ग्रहण करती हुई देखी जाती है। इससे शेष चार इन्द्रियाँ भी अप्राप्त अर्थ को ग्रहण कर सकती हैं, यह सिद्ध होता है ।
पदार्थ के पूरी तरह से अनिःसृतपने को और अनुक्तपने को अप्राप्त नहीं कहा गया है जिससे उनके अवग्रहादि का कारण इन्द्रियों का अप्राप्यकारीपना होवे ।
शङ्खा---तो फिर अप्राप्यकारीपने से क्या प्रयोजन है ? यदि पूरी तरह से अनिःमृतत्व और
१. "न चक्षुर्गनन्द्रियाभ्याम् ।" [तत्त्वार्थ सूव १/१६]। २. घ. पु. १३ पृ. २२०। ३. घ. पु. ६ . १५६ स. स. १/१६, रा. वा. १/१६-३ : वि. भा. ३३६ (नि, ५) आदि । ४. धवल पु. ६. पृ. १६० । ५. धवल पू. १३ पृ. २३०, धवल पु. ११ भूत्र ११५ की टीका। ६. धवल पु. १ पृ. ३५६ ।
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३८४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३०७-३०८
अनुक्तत्व को प्राप्त नहीं कहा जाता तो चक्षु और मन से अनिःसृत और अनुक्त के अवग्रहादि कैसे हो सकेंगे? यदि चक्षु और मनसे भी पूर्वोक्त अनिःसृत और अनुक्त के अवग्रहादि माने जावेंगे तो उन्हें भी प्राप्यकारित्व का प्रसंग पाजाएगा?
समाधान-नहीं, क्योंकि इन्द्रियों के ग्रहण करने के योग्य देश में पदार्थों की अवस्थिति को ही प्राप्ति करने हैं। पेष्टी गवस्था में सा. गन्ध और स्पर्श का उनको ग्रहण करनेवाली इन्द्रियों के साथ अपने-अपने योग्य देश में अवस्थित रहना स्पष्ट ही है। प्राब्द का भी धोत्र इन्द्रिय के साथ अपने योग्य देश में अवस्थित रहना स्पष्ट है। उसी प्रकार रूप का चक्ष के साथ अभिमुख रूप से अपने देश में अवस्थित रहना स्पष्ट है क्योंकि रूप को ग्रहण करने वाले चक्षु के साथ रूप का प्राप्यकारीपना नहीं वनता है। इस प्रकार अनिःसृत और अनुक्त पदार्थों के अवग्रहादिक सिद्ध हो जाते हैं।'
शङ्का-अवग्रह निर्णय रूप है अथवा अनिर्णय रूप है ? प्रथम पक्ष में अर्थात् निर्णय रूप स्वीकार करने पर उसका अवाय में अन्तर्भाव होता है, परन्तु ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि वैसा होने पर उसके पीछे संशय की उत्पत्ति के प्रभाव का प्रसंग आएगा तथा निर्णय के विपर्यय व अनध्यवसाय होने का विरोध भी है। अनिर्णय स्वरूप मानने पर अवग्रह प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि बसा होने पर उसका संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय में अन्तर्भाव होगा?
समाधान नहीं, क्योंकि विशदावग्रह और अविशदावग्रह के भेद से अवग्रह दो प्रकार का है। उनमें विशद अवग्रह निर्णय रूप होता हुअा अनियम से ईहा, अवाय सौर धारणा ज्ञान की उत्पत्ति का कारग है। यह निर्णय रूप होकर भी अवाय संज्ञावाला नहीं हो सकता, क्योंकि ईहा प्रत्यय के पश्चात् होने वाले निर्णय की अवाय संज्ञा है।
नमें भाषा आयु व रूपादि विशेषों को ग्रहण न करके व्यवहार के कारगभूत पुरुषमात्र के मत्वादि बिशेषों को ग्रहण करने वाला तथा अनियम से जो ईहा आदि की उत्पत्ति में कारण है वह अविशदावग्रह है। यह अविशदावग्रह दर्शन में अन्तर्भूत नहीं है, क्योंकि वह विषम और विषयी के सम्बन्ध काल में होने वाला है।
शङ्का-अविशदावग्रह अप्रमाण है, क्योंकि वह अनध्यवसाय स्वरूप है ?
समाधान—ोसा नहीं है, क्योंकि वह कुछ विशेषों के अध्यवसाय से सहित है। उक्त ज्ञान विपर्यय रवरूप होने से भी प्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसमें बिपरीतता नहीं पाई जाती। यदि कहा जाय कि वह च कि विपर्यय ज्ञान का उत्पादक है अतः अप्रमाण है, सो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि उससे विपर्यय ज्ञान के उत्पन्न होने का कोई नियम नहीं है। संशय का हेतु होने से भी वह अप्रमाण नहीं है, क्योंकि कारणगुणानुसार कार्य के होने का नियम नहीं पाया जाता, तथा अप्रमाणभूत संगय से प्रमाणभूत निर्णय प्रत्यय की उत्तत्ति होने से उक्त हेतु व्यभिचारी भी है। संगय रूप होने से भी वह अप्रमाण नहीं है, क्योंकि स्थाणु और पुरुष आदि रूप दो विषयों में प्रवर्तमान व चलस्वभाव संशय की अचल व एक पदार्थ को विषय करने वाले अविशदावग्रह के साथ एकता का विरोध है। इस कारण ग्रहण किये गये वस्त्वंश के प्रति अविशदादग्रह को प्रमाण स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि वह व्यवहार के योग्य है।
-- --- - १. धवल पु. १ पृ. ३५७। २. पबल पु. ६.१४४-१४६ ।
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गाथा ३०७-३०८
ज्ञानमागणा/१८५
ईहा ज्ञान --अवग्रह से ग्रहण किये गये पदार्थ के विशेष को जानने के लिए अभिलापारूप जो ज्ञान होता है वह ईहा ज्ञान है ।' अवग्रह से ग्रहण किये गये अर्थ को विशेष जानने की आकांक्षा ईहा है। अर्थात् अवग्रह के द्वारा जो पदार्थ ग्रहण किया गया है, उसकी विशेष जिज्ञासा ईहा है। जैसे किसी पुरुष को देखकर क्या यह भव्य है ? अथवा क्या यह अभव्य है? इस प्रकार की विशेष परीक्षा करने को ईहा ज्ञान कहते हैं। ईहा ज्ञान सन्देह रूप नहीं है, क्योंकि ईहात्मक विचार रूप बुद्धि से सन्देह का विनाश पाया जाता है। सन्देह से उपरितन तथा अवाय ज्ञान से अधस्तन ऐसी अन्तराल में प्रवृत्त होनेवाली विचार-बुद्धि का नाम ईहा है ।
शङ्का-विशेष रूप से तर्क करना श्रुतज्ञान है । इस शास्त्रवचन के अनुसार ईहा वितर्करूप होने से श्रुतज्ञान है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि प्रवग्रह से प्रतिगृहीत अर्थ का आलम्बन करने वाला वितर्क ईहा है और भिन्न अर्थ का आलम्बन करनेवाला वितर्क श्रुतज्ञान है।
शङ्का-अवग्रह से पुरुष को ग्रहण करके, क्या यह दक्षिण का रहनेवाला है या उत्तर का, इत्यादि विशेष ज्ञान के बिना संशय को प्राप्त हुए व्यक्ति के उत्तरकाल में विशेष जिज्ञासा के प्रति जो प्रयत्न होता है उसका नाम ईहा है । इस कारण अवग्रह गृहीत विषय को ग्रहण करने तथा संशयात्मक होने से ईहा प्रत्यय प्रमाण नहीं है ?
समाधान-गृहीत-ग्रहण अप्रमारणता का कारण नहीं है, क्योंकि उसका कारण संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय है। दूसरे, ईहाप्रत्यय सर्वथा गृहीतग्राही भी नहीं है, क्योंकि अवग्रह से गृहीत वस्तु के उस अंश के निर्णय की उत्पत्ति में निमित्तभूत लिंग को, जो अवग्रह से नहीं ग्रहण किया गया है, ग्रहण करने वाला ईहा ज्ञान गृहीतग्राही नहीं हो सकता। एकान्ततः अग्रहीत को ही प्रमाण ग्रहण करते हो सो भी नहीं है, क्योंकि ऐसा होने पर अगृहीत होने के कारण खरविषाण के समान असत् होने से वस्तु सत्] के ग्रहण का विरोध होगा। ईहा प्रत्यय संशय भी नहीं है, क्योंकि निर्णय की उत्पत्ति में निमित्त भूत लिंग के ग्रहण द्वारा संशय को दूर करनेवाले विमर्शप्रत्यय के संशय रूप होने में विरोध है। संशय के अाधारभूत जीव में समवेत होने से यह ईहा प्रत्यय अप्रमाण नहीं हो सकता। क्योंकि संशय के विरोधी और स्वरूपतः संशय से भिन्न उक्त प्रत्यय के अप्रमाण होने का विरोध है। अनध्यवसायरूप होने से भी ईहा अप्रमाण नहीं हो सकती, क्योंकि कुछ विशेषों का अध्यवसाय करते हुए संशय को दूर करने वाले उक्त प्रत्यय के अनध्यवसाय रूप होने का विरोध है। अतएव परीक्षा प्रत्यय (ईहा प्रत्यय) प्रमाण है, यह सिद्ध होता है। कहा भी है--
प्रवायावययोत्पत्तिस्संशयावयवच्छिया ।
सम्यगनिर्णयपर्यता परीक्षेहेति कथ्यते ॥४७॥ --संशय के अवयवों को नष्ट करके अवाय के अवयवों को उत्पन्न करनेवाली जो भले प्रकार निर्णयपर्यन्त परीक्षा होती है, वह ईहा प्रत्यय है ।।४७।।
१. घबल पु. १ पृ. ३५४ । २. "वितर्कः श्रुतम् ।" [त.सू. ६/३३] ।
३. धवल पु. ६ पृ. १७।
४. चंचल
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३८६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाया ३०७-३०
शङ्खा- ईहादिक प्रत्यय मतिज्ञान नहीं हो सकते, क्योंकि वे श्रुतज्ञान के समान इन्द्रियों से उत्पन्न नहीं होते।
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि इन्द्रियों से उत्पन्न हुए अवग्रह ज्ञान से उत्पन्न होने वाले ईहादिकों को उपचार से इन्द्रियजन्य स्वीकार किया गया है।
शङ्का - वह औपचारिक इन्द्रियजन्यता श्रुतज्ञान में भी मान लेनी चाहिए?
समाधान नहीं, क्योंकि जिस प्रकार ईहादिक की अवग्रह से गृहीत पदार्थ के विषय में प्रवृत्ति होती है, उस प्रकार चूकि श्रुतज्ञान की नहीं होती, अत: व्यधिकरण होने से श्रुतज्ञान के प्रत्यासत्ति का अभाव है। इस कारण श्रुतज्ञान में उपचार से इन्द्रियजन्यत्व नहीं बनता । इसलिए श्रुत के मतिसंज्ञा भी सम्भव नहीं है।'
___अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ में उसके विशेष को जानने की इच्छा होना ईहा है। यह प्रानध्यवसायस्वरूप अवग्रह से उत्पन्न हुए संशय के पीछे होती है, क्योंकि शुक्ल रूप क्या बलाका है या पताका है, इस प्रकार संशय को प्राप्त हुए जीव के ईहा को उत्पत्ति होती है। अविशद अवग्रह से पीछे होने वाली ही ईहा है, ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है। क्योंकि विशद अवग्रह के द्वारा 'यह पुरुष' इस प्रकार ग्रहण किये गये पदार्थ में भी 'क्या यह दाक्षिणात्य है या उदीच्य है', इस प्रकार के संशय को प्राप्त हुए मनुष्य के भी ईहाज्ञान की उत्पत्ति उपलब्ध होती है।
शङ्का-संशय प्रत्यय का अन्तर्भाव किस ज्ञान में होता है ? समाधान-ईहा में, क्योंकि वह ईहा का कारण है। शङ्का—यह भी क्यों ? समाधान—क्योंकि कारण में कार्य का उपचार होने से । वस्तुतः वह संशय प्रत्यय अवग्रह
शङ्का ईहा का क्या स्वरूप है ?
समाधान-संशय के बाद और अवाय के पहले बीच की अवस्था में विद्यमान तथा हेतु के अवलम्बन से उत्पन्न हुए विमर्शरूप प्रत्यय को ईहा कहते हैं ।
ईहा अनुमानज्ञान नहीं है क्योंकि अनुमानज्ञान अनवगृहीत अर्थ को विषय करता है और अवगृहीत अर्थ को विषय करने बाले ईहाज्ञान तथा अनवगृहीत अर्थ को विषय करने वाले अनुमान को एक मानना ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न अधिकरण बाले होने से इन्हें एक मानने में विरोध प्राता है। इनके एक न होने का यह भी एक कारण हैं कि ईहाज्ञान अपने विषय से अभिन्नरूपलिंग से उत्पन्न होता है और अनुमानज्ञान अपने विषय से भिन्न रूप लिंग से उत्पन्न होता है, इसलिए इन्हें एक मानने में विरोध पाता है। संशयज्ञान के समान वस्तु का परिच्छेदक नहीं होने से ईहाज्ञान
१. घवल पु. ६ पृ. १४६-१४८ ।
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ज्ञानमार्गला / ३८७
अप्रमाण है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि ईहाज्ञान वस्तु को ग्रहण करके प्रवृत्त होता है और दाक्षिणात्य व उदीच्य विषयक लिंग का उसमें ज्ञान रहता है इसलिए उसमें अप्रमाणता सम्भव न होने के कारण उसे अप्रनाग मानने में विरोध श्राता है । प्रविशद अवग्रह के बाद होने वाली ईहा श्रप्रमाण है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि वह वस्तुविशेष की परिच्छित्ति का कारण है और वह वस्तु के एकदेश को जान चुकी है तथा वह संशय और विपर्ययज्ञान से भिन्न है । अतः उसे श्रप्रमाण मानने में विरोध आता है । वह अनध्यवसायरूप होने से अप्रमाण है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि संशय का छेदन करना उसका स्वभाव है, शुक्लादि विशिष्ट वस्तु को सामान्यरूप से वह जान लेती है तथा त्रिभुवनगत वस्तुओं में से शुक्लता को ग्रहण कर एक वस्तु में प्रतिष्ठित करने की वह इच्छुक है; इसलिए उसे अप्रमाण मानने में विरोध प्राता है ।
गाथा ३०६
अवग्रह ज्ञान के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ में विज्ञान, आयु, प्रमाण, देश और भाषा आदिरूप विशेष से जानने की इच्छा सो ईहा ज्ञान है । ग्रवग्रह ज्ञान के पश्चात् और प्रवाय ज्ञान के पूर्व जो विचारात्मक ज्ञान होता है, जिसका स्वभाव अवग्रह ज्ञान में उत्पन्न हुए सन्देह को दूर करना है, वह हाज्ञान है ।"
प्रवाय व धारणा ज्ञान
ईहणकरणेण जदा सुरिगान होदि सो प्रवाधो दु 1
कालांतरेवि गिरिणदवत्युसमररणस्स कारणं तुरियं ॥ ३०६ ॥
गाथार्थ - ईहा ज्ञान के द्वारा जब भले प्रकार निर्णय होजाता है, पदार्थ के विषय में वह सुनिश्चय अवाय ज्ञान है। निर्णीत वस्तु के कालान्तर में स्मरण का कारण चौथा धारणा ज्ञान है ।
विशेषार्थ - ईहा के द्वारा जाने गये पदार्थ का निश्चयरूप ज्ञान अत्राय मतिज्ञान है । कालान्तर में भी विस्मरण न होने रूप संस्कार को उत्पन्न करने वाला ज्ञान धारणा मतिज्ञान है ||३०६ ॥
हा के अनन्तर हारूप विचार के फलस्वरूप जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह श्रवाय ज्ञान है, अर्थात् ईहा ज्ञान में विशेष जानने की प्राकांक्षारूप जो विचार होता है, उस विचार के निर्णयरूप ज्ञान को वाय कहते हैं। स्वगत लिंग का ठीक तरह से ज्ञान हो जाने के कारण संशयज्ञान के निराकरण द्वारा उत्पन्न हुआ निर्णयात्मक ज्ञान सवाय है। यथा-ऊपर उड़ना व पंखों को हिलाना बुलाना आदि चिह्नों के द्वारा यह जानलेना कि यह बलाकापंक्ति ही है, पताका नहीं है, या वचनों के सुनने से ऐसा जान लेना कि यह पुरुष दाक्षिणात्य ही हैं, उदीच्य नहीं है; यह श्रवाय ज्ञान है ।"
शङ्ख?–अवग्रह् और अवाय इन दोनों ज्ञानों के निर्णयत्व के सम्बन्ध में कोई भेद न होने से एकता क्यों नहीं है ?
समाधान - - निर्णयत्व के सम्बन्ध में कोई भेद न होने से एकता भले ही रही आवे, किन्तु
२. घदल पु. १ सूत्र ११५ की टीका
१. जयधवल पु. १ पृ. ३३६ ॥ ४. घवल पु. १३ पृ. २१८ ।
३. जयभवत्व पु. १ पू. ५६३
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३८८/गो. मा. जीवकार
गाथा ३६
विषय और विपयी के सन्निपात के अनन्तर उत्पन्न होने वाला प्रथम ज्ञान विशेष अवग्रह है और ईहा के अनन्तर काल में उत्पन्न होने वाले सन्देह के प्रभावरूप अवायज्ञान होता है, इसलिए अवग्रह और अवाय इन दोनों ज्ञानों में एकता नहीं है।
शङ्का-लिंग से उत्पन्न होने के कारण अवाय श्रुतज्ञान है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ से पृथग्भूत अर्थ काम लम्बन हारलेशाली,
मिस लिंगनित बुद्धि को श्रुतज्ञानपना माना गया है। किन्तु अवाय ज्ञान अवग्रह गृहीत पदार्थ को ही विषय करता है और ईहाज्ञान के पश्चात् उत्पन्न होता है, इसलिए वह श्रुतज्ञान नहीं हो सकता है।'
शङ्का-प्रवायज्ञान मतिज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि वह ईहा से निर्णीत लिंग के पालम्बन घल से उत्पन्न होता है। जैसे अनुमान ?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि अवग्रह से गृहीत पदार्थ को विषय करने वाले तथा ईहा प्रत्यय से विषयोकृत लिंग से उत्पन्न हुए निर्णयरूप और अवग्रह से गृहीत पदार्थ को विषय करने वाले अवाय प्रत्यय के मतिज्ञान न होने का विरोध है और अनुमान अवग्रह से गृहीत पदार्थ को विषय करने वाला नहीं है, क्योंकि वह अवग्रह से निणीत लिंग के बल से अन्य वस्तु यानी अन्यपदार्थ में उत्पन्न होता है।
जिससे निति पदार्थ का विस्मरण नहीं होता, वह धारणा है । अवायज्ञान से निर्णय किये गए पदार्थ का कानान्तर में विस्मरगा न होना धारणा है। जिस ज्ञान से कालान्तर अर्थात् अागामी कान में भी अविस्मरण के कारणभूत संस्कार जीव में उत्पन्न होते हैं उस ज्ञान का नाम धारणा है। अवाय के द्वारा जाने हुए पदार्थ के कालान्तर में विस्मरण नहीं होने का कारणभूत ज्ञान धारणा है । यथा-'वही यह बलाका है जिसे प्रातःकाल हमने देखा था, ऐसा ज्ञान होना धारणा है।
शङ्का—फलज्ञान होने से ईहादिक (ईहा, अवाय, धारणा) ज्ञान अप्रमाण हैं ?
समाधान ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अवग्रह ज्ञान के भी दर्शन का फल होने से अप्रमाणता का प्रसंग पाता है। दूसरे सभी ज्ञान कार्य रूप ही उपलब्ध होते हैं, इसलिए भी ईहादिक ज्ञान अप्रमाण हैं ?
शङ्का गृहीतग्राही होने से ईहादिक ज्ञान (हा, अबाय, धारण) अप्रमाण हैं ?
समाधान—ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सर्वात्मना अगृहीत अर्थ को ग्रहण करने वाला कोई भी ज्ञान उपलब्ध नहीं होता है। दूसरे, गृहीत अर्थ को ग्रहण करना यह अप्रमाणता का कारण भी नहीं है, क्योंकि संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रूप से जाघमान ज्ञानों में ही अप्रमाणता देखी जाती है।
:
१. धवल पु. ६ पृ. १८। २. घवल पु. ६ पृ. १४८ । ३. धवल पु. ६ पृ. १४४ । ५. धवल पु. १३ पृ. २१८-२१६ ।
४. धवल पृ. ६ पृ. १८ ।
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गाथा ३१०-३११
ज्ञानमार्गम्गा/३८१
अवग्रहादिक चारों की सर्वत्र क्रम से उत्पत्ति का नियम भी नहीं है, क्योंकि अवग्रह के पश्चात नियम से संशय की उत्पत्ति नहीं देखी जाती। संशय के बिना विशेष की आकांक्षा नहीं होती जिससे कि प्रवग्रह के पश्चात् नियम से ईहा उत्पन्न हो और न ईहा से नियमतः निर्णय उत्पन्न होता है, क्योंकि कहीं पर निर्णय को उत्पन्न न करने वाला ईहा प्रत्यय ही देखा जाता है। अयाय से धारणाज्ञान भी नियम से नहीं उत्पन्न होता, क्योंकि उसमें भी व्यभिचार पाया जाता है। इस कारण अवग्रह से लेकर धारणा तक चारों ज्ञान मतिज्ञान हैं।' अर्थात् चारों ज्ञानों की उत्पत्ति सदा अमशः हो ही, इस नियम के प्रभाव को कारण बारों की मिता सिद्ध होती है। यदि चारों एक भतिज्ञानरूप होते तो सदा चारों को नियमतः व क्रमश: होना पड़ता। क्योंकि ये चारों ही ज्ञान इन्द्रियों से उत्पन्न होते हैं और दूसरे, इन्द्रियों से उत्पन्न हुए ज्ञान के द्वारा विषय किये गये पदार्थ को ही ये ज्ञान विषय करते हैं, इसलिए ये चारों ज्ञान (अवराह, ईहा, अवाय धारणा) मतिज्ञान कहलाते हैं ।
अब ईहादिक के जघन्य कालों का अल्पबहुत्व कहा जाता है
दर्शनोपयोग के काल से चाइन्द्रियजनित अवग्रह का काल विशेष अधिक है। इससे श्रोत्र इन्द्रिय अवग्रहज्ञान का काल विशेष अधिक है। इससे घ्राणइन्द्रिय प्रवग्रहज्ञान काल विशेषअधिक है। इससे जिह्वाइन्द्रियजन्य अवग्रहज्ञान-काल विशेष अधिक है। इससे मनोयोग का जघन्यकाल विशेष अधिक है। इससे बचनयोग का जघन्य काल विशेष अधिक है। इससे काययोग का जघन्य काल विशेष अधिक है। इससे स्पर्शन इन्द्रियजनित अवग्रहज्ञान का जघन्य काल विशेषाधिक है। सर्वत्र विशेष का प्रमाण संख्यात, पायलियाँ लेना चाहिए।
शंका-मन से उत्पन्न होने वाले अवग्रह जान का अल्पवहुत्व क्यों नहीं कहा ?
समाधान-मन से उत्पन्न होने वाले अवग्रहजान के काल का मनोयोग के काल में अन्तर्भाव हो जाता है इसलिए उसका पृथक् कथन नहीं किया गया ।
अवायज्ञानोपयोग का जघन्य काल स्पर्शन इन्द्रिय से उत्पन्न हुए अवग्रहज्ञान के काल से विशेष अधिक है। यह अवायज्ञान का काल सभी इन्द्रियों में समान है। ईहा का जघन्य काल अप्राय के उक्त काल से विशेषअधिक है।
शेष सब सुगम है।
मतिज्ञान के एक, चार प्रादि करके तीनसौ-छत्तीस पर्यन्त भेदों का कथन
एक्कचउक्कं चउबीसदावीसं च तिपडि किच्चा। इगिछञ्चारसगुरिगदे मदिरगाणे होति ठारणारिण ॥३१०।।(३१४) बहु बहुविहं च खिप्पाणिस्सिवणुत्तं धुवंच इदरं च । तत्थेक्केषके जादे छत्तीसं तिसयमेवं तु ॥३११॥ (३१०)
१. धवल पु. ६ पृ. १४८ । २. ज.ध.पु. १ पृ. ३३७ । ३. ज.ध.पु. १ पृ. ३३४-३३६ ।
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३६०/गो. सा. जीवकाण्ड
गांधा ३१०.३११ गाथार्थ---एक, चार, चौबीस और अट्ठाईस इनकी तीन-तीन पंक्तियाँ करनी। इन तीनों पंक्तियों के प्रकों को एक, छह व बारह से गुरणा करने पर मतिज्ञान के भेदों की संख्या प्राप्त होती है। बहु, बहुविध, क्षित, अनिमृत, अनुक्त और ध्र व और इनके प्रतिपक्षी, इनमें से प्रत्येक मतिज्ञान का विषय होने से मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं ।।३१० । ३११॥ (३१४,३१०'
विशेषार्थ सामान्य की अपेक्षा मतिज्ञान एक प्रकार का है। व्यंजनावग्रह की अपेक्षा चार प्रकार का है—१. श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनावग्रह, २. घ्राणेन्द्रिय ब्यंजनावग्रह, ३. जिह्वन्द्रिय व्यंजनावग्रह, ४. स्पर्शनेन्द्रिय व्यंजनावग्रह २ व्यंजनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता। चार इन्द्रियों की अपेक्षा चार भेद कहे गए हैं। व्यंजनावग्रह के पश्चात् ईहा-अबाय-धारणाज्ञान नहीं होता, मात्र व्यंजमावग्रह होता है, अत: व्यंजन-ईहा आदि का कथन नहीं किया गया है। अर्थ अर्थात-पदार्थ के पाँचों इन्द्रियों और मन इन छहों से अवग्रह-ईहा-अवाय-धारणा होते हैं अतः अर्थ की अपेक्षा छह अवग्रह, छह ईहा, छह अवाय और छह धारणा इस प्रकार २४ भेद होते हैं। इन चौबीस में चार व्यंजनावग्रह मिला देने से (२४+४) २८ भेद हो जाते हैं।
बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और ध्रुब तथा इनके प्रतिपक्षभूत पदार्थों का आभिनिबोधिक ज्ञान होता है। अर्थात् वह, अल्प, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, निःसत, अनिसृत, उक्त, अनुक्त, ध्र व, अध्र व इन बारह प्रकार के पदार्थों के आश्रय से मतिज्ञान होता है । इन बारह से अट्ठाईस को गुणा करने से (२८ x १२) ३३६ भेद मतिज्ञान के होते हैं।
विशिष्ट स्पष्टीकरण इस प्रकार है-मतिज्ञान चौवीस प्रकार का होता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है, चक्षुइन्द्रिय से उत्पन्न होने वाला मतिज्ञान चार प्रकार का है, अवग्रह, ईहा, प्रबाय और धारणा। इसी प्रकार शेष नार इन्द्रियों से और मन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान अवग्रह, ईहा, अबाय और धारणा के भेद से चार-चार प्रकार का होता है। इस प्रकार ये सब मिलकर चौबीस भद हो जाते हैं। अथवा मतिज्ञान अट्ठाईस प्रकार का होता है। उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--अवग्रह दो प्रकार का होता है अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह। उनमें चक्षु और मन से अर्थावग्रह ही होता है, क्योंकि इन दोनों से प्राप्त अर्थ का ग्रहण नहीं पाया जाता है। शेष चारों ही इन्द्रियों के अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह ये दोनों पाये जाते हैं। चौबीस प्रकार के अर्थमतिज्ञान में चार प्रकार का व्यंजनावग्रह मिलाने से (२४ + ४) २८ प्रकार का हो जाता है। बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और ध्रव तथा इनके विपरीत अल्प, एकविध, अक्षिप्र, निःसत, उक्त और अध्र व; इन वारह प्रकार के पदार्थों को मतिज्ञान विषय करता है। अत: इन्हें पूर्वोक्त २८ प्रकार के मतिज्ञान में पृथक्-पृथक प्रत्येक में मिला देने पर [अर्थात् गुणा करने पर] मतिज्ञान (२८४१२) तीनसौ छत्तीस प्रकार का हो जाता है।
१. मुदित पुस्तकों में गाथा ३१० की क्रम संख्या ३१४ है और माधा से ३१२ की क्रम सं. ३१० है किन्तु गाथा ३१४ के बिना गाया ३१ - का अर्थ स्पष्ट नहीं हो सकता अत: गाथा की क्रम सं. में परिवर्तन किया गया है । २. श्र.पू. १३ पृ. २२१ सूत्र २६६ ३. "व्यंजनस्यावग्रहा ।।१८।। न चक्षुरनिदियाभ्यां ।।१६॥ तत्त्वार्थ सत्र प्र.१]। ४. घ.पु. १३ सूत्र २८, ३०, ३२, ३४ पृ. २२७, २३०-३१, २३२, २३३ । ५. "बहु-बहुविध-क्षिप्रानिःसृतानुक्तध्रुवागां मेतराणाम् । १६। [तत्त्वार्थ सूत्र अ. १] । ६. घ.पु. १ पृ. ३५४ । ७. ज.ध.पु. १ पृ. १४ ।
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गाथा ३१०-३११
ज्ञानमार्गणा/३६१
का:-- वक्ष से बहुत कामबाह करता है, चक्ष से एक का अवग्रह करता है, इत्यादि । इस प्रकार चारिन्द्रिय अवग्रह बारह प्रकार है। ईहा, अवाय और धारणा इनमें से प्रत्येक चक्षु के निमित्त से बारह प्रकार है। इस प्रकार चक्षु इन्द्रिय के निमित्त से मतिज्ञान के अड़तालीस भेद होते हैं। मन के निमित्त से भी इतने ही भेद होते हैं, क्योंकि इन दोनों के व्यंजनावग्रह नहीं होता । शेष चार इन्द्रियों में से प्रत्येक के निमित्त से साठ भंग होते हैं, क्योंकि उनमें व्यंजनावग्रह के बारह भेद भी होते हैं ।ये सब एकत्र होकर (४८ + ४८ + ६०+६०+६०.६.) तीन सौ छत्तीस होते हैं।'
अथवा इस प्रकार से भी स्पष्टीकरण किया जा सकता है- अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद से पाभिनिवोधिक ज्ञान चार प्रकार का है। एक इन्द्रिय के यदि अवग्रह आदि चार ज्ञान प्राप्त होते हैं तो छह इन्द्रियों के कितने ज्ञान प्राप्त होंगे? इस प्रकार राशिक प्रक्रिया द्वारा फलराशि से गुणित इच्छाराशि को प्रमाण राशि से भाजित करने पर चौबीस प्राभिनिबोधिक ज्ञान उपलब्ध होते हैं। इन चौबीस भेदों में जिह्वा, स्पर्शन, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रिय सम्बन्धी चार व्यंजनावग्रहों के मिलाने पर आभिनिबोधिक ज्ञान के अट्ठाईस भेद होते हैं । बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और ध्रव तथा इनके प्रतिपक्षभूत पदार्थों का आभिनिबोधिक ज्ञान होता है। चक्षु के द्वारा बहुत का अवग्रहज्ञान होता है, चक्षु के द्वारा एक का अवग्रहज्ञान होता है इत्यादि चक्षु-अवग्रहज्ञान के बारह भेद हो जाते हैं। इसी प्रकार चक्षु, ईहा, अवाय और धारणा के भी बारह-बारह भेद हो जाते हैं। पहले उत्पन्न किये गये ४, २४, २८ भेदों को दो स्थानों में रखकर छह और बारह से गुणा करके और पुनरुक्त भंगों को कम करके क्रम से स्थापित करने पर इन भेदों का प्रमाण होता है ४४१२= ४८ २४-१२-२८८, २८४१२-३३६ । इनमें प्रवग्रह आदि की अपेक्षा ४८ भेद, इन्द्रिय व मन के अर्थावग्रह प्रादि की अपेक्षा २८८ भेद तथा व्यंजनावग्रह के ४८ भेद मिलाने पर (२५८+ ४८) कुल ३३६ भेद हो जाते हैं। बात यह है कि मूल में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये ४ भेद हैं । इन्हें ५ इन्द्रिय और एक मन (६)से गुरिंगत कर देने पर २४ भेद होते हैं। इसमें व्यंजनावग्रह के ४ भेद मिला देने पर २८ भेद हो जाते हैं। ये अट्ठाईस उत्तरभेद हैं, अत: इनमें अवग्रह आदि ४ मूल भेद मिला देने पर ३२ भेद हो जाते हैं। [धवल १३/२३४] ये भेद तो इन्द्रिय और अवग्रहादि की अलगअलग विवक्षा से हुए।
अब जो बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त व ध्रुव : ऐसे ६ प्रकार के पदार्थ बताये हैं तथा इनके प्रतिपक्षभूत ६ इतर पदार्थों को मिलाकर [यानी एक, एकविध आदि को मिलाकर] १२ प्रकार के पदार्थ बताये हैं। उनसे अलग-अलग उक्त |४, २८, २८ व ३२] विकल्पों को यदि मुरिगत किया जाता है तो मतिज्ञान के निम्न विकल्प उत्पन्न होते हैं: ..
प्रथम स्थान ४-६- २४ २४४६= १४४
द्वितीय स्थान ४-१२-४८ २४४१२=२८८
३२४६=१६२
३२४.१२=३०४
.१.भ.पु. ६ पृ. १५५-१५६ व ध.पु. ६ पृ. १६-२१1
२. व.पु. १३ पृ. २३३-२४० ।
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३६२/गो, सा. जीवकाण्ड
गाथा ३१२-३१४
इस प्रकार कुल ८ विकल्प बने । इनके साथ मूल विकल्प .. ४, २४, २८, ३२ भी मिला देने पर कुल १२ विकल्प (भेद) हो जाते हैं । यथा:--४, २४, २८, ३२, २४,१४४, १६८, १६२, ४८, २८८, ३३६, ३८४ परन्तु इनमें २४ नामक संख्या दो बार आई। अतः एक ही प्रकार की संख्या दो बार पाजाने से इसे पुनरुक्त. मानकर एक चौबीस को अलग कर, एक बार ही चौबीस लिखने पर ऐसे भेद-समूह बनते हैं
४ २४ २८ ३२ १४४ १६८ १९२ ४८, २८५, ३३६, ३८४; इन्हें संख्या कम से जमाने पर ऐसा रूप बनता है
४, २४, २८, ३२, ४८, १४४, १६८, १६२, २८८, ३३६,३८४; स्मरणीय है कि २४, २४ जो दो बार पाए थे वे यद्यपि भिन्न-भिन्न प्रकार से बने थे। यथा पहली २४ भेद रूप संख्या:U६ इन्द्रिय ४४ अवग्रहादि भेद-२४" रूप हैं। दसरी २४ भेद रूप संख्या:-'अवग्रहादि ४४६/बह, बहुविध, क्षिप्रादि पदार्थ - २४ रूप है। फिर भी ये उस २४ रूप भेद के दो भंग हुए हैं। मूल स्थान तो २४ रूप एक ही हुआ; अतः एक बार ही चौबीस लिखा गया है । [ध.१३/२४१]
अब इस प्रकार साधित ११ विकल्पों में से ऊपर मूल में ४, २४, २८, ४८, २८८, ३३६ इन' छह को ही खोला है। शेष विकल्प टिप्पण में खोल दिये ही हैं।
के स्वरूप का कथन
बहुपत्तिजाविगहणे बहुबहुविमियरमियरगहर, म्हि । सगरणामादो सिद्धा खिप्पादी सेवरा य तहा ।।३१२॥ वत्थुस्स पदेसादो वत्थुग्गहरणं तु वत्थुदेसं वा । सकलं वा अवलंबिय अरिगस्तिदं अण्णवत्थुगई ॥३१३॥ पुक्खरगहणे काले हथिस्स य बदरगगवयगहरणे वा। वत्थंतर-चंदस्स य घेणुस्स य बोहणं च हवे ॥३१४॥
गाथार्थ-एक जाति के बहुत व्यक्ति 'बह' है। इससे विपरीत अर्थात् बहू जाति के बहुत व्यक्तिः 'बहुविध' हैं। इनके प्रतिपक्षी तथा क्षिप्रादि र उनके प्रतिपक्षियों का उनके नाम से ही अर्थ सिद्ध है ॥३१२।। वस्तु के एकदेश को देखकर समस्त वस्तु का ज्ञान होना अथवा वस्तु के एकादेश या पूर्ण वस्तु का ग्रहण होने पर उसके अवलम्बन से अन्य वस्तु का ज्ञान होना यह सब अनिःसृत है ।।३१३।। जल में डबे हए हस्ती की सूड को देखकर उसो समय हस्ती का ज्ञान होना देखकर उसी समय उससे भिन्न किन्तु उसके सदृश चन्द्रमा का ज्ञान होना अथवा गवय को देखकर गौ | ज्ञान हाना, यह सब प्रनिःमृत ज्ञान है ।।३१४॥
विशेषार्थ-'बहु' शब्द को संख्यावाची और वैपुल्यवाची ग्रहण किया है, क्योंकि दोनों प्रकार का अर्थ करने में कोई विशेषता नहीं है। बहुशब्द संख्यावाची है और वैपुल्यवाची भी है । उन दोनों का ही यहाँ ग्रहण है, क्योंकि इन दोनों ही अर्थों में समानरूप से उसका प्रयोग होता है। संख्या में
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गाथा ३१२-३१४
ज्ञानमार्गगा/३९३
यथा--एक, दो, वहुत । वैपुल्य में यथा--बहुत भात, बहुत दाल ।'
शङ्का-बहु अवग्रह आदि ज्ञानों का प्रभाव है, क्योंकि ज्ञान एक-एक पदार्थ के प्रति अलगअलग होता है।
समाधान नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर सर्वदा एक पदार्थ के ज्ञान की उत्पत्ति का प्रसंग आता है।
शङ्का-ऐसा रहा प्रावे ?
समाधान-नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर नगर, बन और छावनी में भी एक पदार्थ के ज्ञान की उत्पत्ति का प्रसंग पाजाएगा ।
शङ्का - नगर, वन और स्कन्धावार में चूकि एक नगर, एक वन और एक छावनी इस प्रकार एकवचन का प्रयोग अन्यथा बन नहीं सकता, इससे विदित होता है कि ये बहुत नहीं हैं ? ।
समाधान-नहीं, क्योंकि बहुत्व के बिना उन तीन प्रत्ययों की उत्पत्ति में विरोध पाता है। दूसरे एकवचन का निर्देश एकत्व का साधक है. ऐसी भी कोई बात नहीं है। क्योंकि वन में अवस्थित धवादिकों में एकत्व नहीं देखा जाता। सादृश्य एकत्व का कारण है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ उसका विरोध है ।
दूसरे जिसके मत में विज्ञान एक अर्थ को ही ग्रहण करता है, उसके मत में पूर्व विज्ञान की निवृत्ति होने पर उत्तर विज्ञान की उत्पत्ति होती है या पूर्वविज्ञान की निवृत्ति हुए बिना ही उत्तरविज्ञान की उत्पत्ति होती है ? पूर्व विज्ञान की निवृत्ति हुए बिना तो उत्तरविज्ञान की उत्पत्ति हो नहीं सकती, क्योंकि "विज्ञान एकमन होने से एक अर्थ को जानता है," इस वचन के साथ विरोध प्राता है और ऐसा होने पर "यह इससे भिन्न है" इस प्रकार के व्यवहार का लोप होता है। तीसरे, जिसके मत में एक विज्ञान अनेक पदार्थों को विषय नहीं करता है, उसके मत में मध्यमा और प्रदेशनी अंगुलियों का एक साथ ग्रहण नहीं होने के कारग तद्विषयक दीर्घ और ह्रस्व का आपेक्षिक व्यवहार नहीं बनेगा । चौथे, प्रत्येक विज्ञान को एक-एक अर्थ के प्रति नियत मानने पर स्थाणु और पुरुष में 'वह इस प्रकार उभयसंस्पर्शी ज्ञान न हो सकने के कारण तन्निमित्तक संशयज्ञान का प्रभाव होता है। पांचवें, पूर्णकलश को चित्रित करने वाले और चित्रकर्म में निष्णात चैत्र के क्रिया व कलशविषयक विज्ञान नहीं हो सकने के कारण उसकी निष्पत्ति नहीं हो सकती है। कारण कि एक साथ दो, तीन ज्ञानों के प्रभाव में उनकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध पाता है। छठे, एक साथ बहत का ज्ञान नहीं हो सकने के कारण योग्यप्रदेश में स्थित अंगलिपंचक का ज्ञान नहीं हो सकता । जाने गये अर्थ में भेद होने से विज्ञान में भी भेद है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि नाना स्वभाव वाला एक ही त्रिकोटि परिणत विज्ञान उपलब्ध होता है। शक्तिभेद वस्तुभेद का कारण है, यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि अलग-अलग अर्थक्रियाकारी न होने से उन्हें वस्तुभूत नहीं माना जा सकता।' इस प्रकार बहुत वस्तुओं का एक साथ ग्रहण करना बहु-अवग्रह है। यह बहु-अवग्रह
३. धवल
१. घ.पु. १३ पृ. २३५; व ध.पु.६ पृ. ३४४ । २. घ.पु. १३ पृ. २३५-२३६ ब च.पु. ६ पृ. ३४६ । पु. १३ पृ. २३६ व धवल पु. पृ. १४६, १५०, १५१ ।
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३६४/गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा ३१२-३१४
अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि योग्य देश में स्थित पांचों अंगुलियों का एक साथ उपलम्भ पाया जाता है ।।
एक अर्थ को विषय करनेवाला विज्ञान एकप्रत्यय है।
शङ्का-ऊर्ध्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग प्रादि रूप अवयवों में रहनेवाली अनेकता से अनुगत एकता पाई जाती है, अतएव वह एकप्रत्यय नहीं है ?
समाधान -नहीं, क्योंकि यहाँ इस प्रकार की ही जात्यन्तरभूत एकता का प्रहण किया है।' एक शब्द के व्यवहार का कारणभूत प्रत्यय एकप्रत्यय है ।'
शा-अनेकधर्मात्मक वस्तुओं के पाए जाने से एक अवग्रह नहीं होता है। यदि होता है तो एकधर्मात्मक वस्तु की सिद्धि प्राप्त होती है, क्योंकि एकधर्मात्मक वस्तु का ग्रहण करने वाला प्रमाण पाया जाता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि एक वस्तु का ग्रहण करनेवाला ज्ञान एक-अवग्रह काहलाता है। तथा विधि और प्रतिषेध धर्मों के वस्तुपना नहीं है, जिससे उनमें अनेक अवयह हो सके ? किन्तु विधि और प्रतिषेध धर्मों के समुदायात्मक एक वस्तु होती है उस प्रकार की वस्तु के उपलम्भ को एक अवग्रह कहते हैं। अनेक वस्तु विषयक ज्ञान को अनेक अवसह कहते हैं। किन्तु प्रतिभास तो सर्व ही अनेक धर्मों का विषय करनेवाला होता है, क्योंकि विधि और प्रतिषेध इन दोनों में किसी एक ही धर्म का अनुपलम्भ है, अर्थात् इन दोनों में से एक को छोड़कर दूसरा नहीं पाया जाता, दोनों ही प्रधान-अप्रधान रूपसे साथ-साथ पाये जाते हैं।
विध का ग्रहण भेद प्रकट करने के लिए है, अत: बहुविध का अर्थ बहुत प्रकार है। जाति में रहनेवाली बहुसंख्या को अर्थात् अनेक जातियों को विषय करने वाला प्रत्यय बहुविध कहलाता है। गाय, मनुष्य, घोड़ा और हाथी प्रादि जातियों में रहने वाला अक्रम प्रत्यय चक्षुर्जन्य बहुविध प्रत्यय है। तत, बितत, घन और सुषिर आदि शब्दजातियों को विषय करने वाला अक्रम प्रत्यय श्रोत्रज बहुविध प्रत्यय है। कपूर, अगुरु, तुरुष्क (सुगन्धित द्रव्य विशेष) और चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों में रहने वाला योगपद्य प्रत्यय | = ज्ञान] घ्राणज बहुविध प्रत्यय है। तिक्त, कषाय, प्राम्ल, मधुर और लवरग रसों में एक साथ रहने वाला प्रत्यय रसनज बहुविध प्रत्यय है। स्निग्ध, मृदु, कठिन, उष्म, गुरु, लघु और शीत आदि स्पों में एक साथ रहने वाला स्पर्शज बहुविध प्रत्यय है। यह प्रत्यय प्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि यह पाया जाता है और जिसकी प्राप्ति है उसका अपह्नव नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा करने में अव्यवस्था की मापत्ति के साथ जातिविषयक बहप्रत्यय के निमित्त से होने वाले बहवचन के भी व्यवहार के प्रभाव की आपत्ति पाएगी।
एक जाति को विषय करने के कारण इस बहुविध प्रत्यय के प्रतिपक्षभूत प्रत्यय [ = ज्ञान] को एकविध कहते हैं।
१. धवल पृ. ६ पृ. १६ । २. धवल पु. १३ पृ. २३६ । ३. थवल पु. ६ पृ. १५१ । ४, पवल पु. ६ पृ. १६ । ५. धवल पु. ६ पृ. १५१-१५२ व धवल पु. १३ पृ. २३७ ।
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गाथा ३१२.३१४
ज्ञानमार्गणा/३६५ शङ्का-एक और एकविध में क्या भेद है ?
समाधान-एक व्यक्ति रूप पदार्थ का ग्रहण करना एक प्रवग्रह है और एक जाति में स्थित एक पदार्थ का अथवा बहुत पदार्थों का ग्रहण करना एकविध प्रवग्रह है।' अथवा एकविध का अन्तर्भाव एकप्रत्यय में नहीं होता , क्योंकि वह एक निगल एता में सम्बद्ध रहने वाला है और यह एकविध अनेक व्यक्तियों में सम्बद्ध एकजाति में रहने वाला है। जाति और व्यक्ति एक नहीं होने से उनको विषय करने वाले प्रत्यय भी एक नहीं हो सकते ।'
शीन अर्थ को ग्रहण करने वाला प्रत्यय क्षिप्रप्रत्यय है । क्षिप्र वृत्ति अर्थात् शीघ्रवस्तु को ग्रहण करने वाला क्षिप्रप्रत्यय है । प्राशुग्रहण क्षिप्र-अवग्रह है । ६ धीरे (शनैः) ग्रहण करना अक्षिप्रअवग्रह है। जिस प्रकार नूतन सकोरे को प्राप्त हुआ जल उसे धीरे-धीरे गीला करता है, उसी प्रकार पदार्थ को धीरे-धीरे जानने वाला प्रत्यय अक्षिप्र-प्रत्यय है ।
वस्तु के एकदेश का अवलम्बन करके पूर्णरूप से वस्तु को ग्रहण करनेवाला तथा वस्तु के एकदेश अथवा समस्त बस्तु का अवलम्बन करके वहाँ अविद्यमान अन्य वस्तु को विषय करने वाला भी प्रनिःसृत प्रत्यय है। यह प्रत्यय प्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि घट के अग्भिाग का अवलम्बन करके कहीं घट प्रत्यय की उत्पत्ति पायी जाती है, कहीं पर अर्वाग्भाग के एक देश का अवलम्बन करके उक्त प्रत्यय को उत्पत्ति पायी जाती है, कहीं पर गाय के समान गवय होता है। इस प्रकार अथवा अन्यप्रकार से एक वस्तु का अवलम्बन करके वहाँ समीप में न रहने वाली अन्य वस्तु को विषय करनेवाले प्रत्यय की उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर अर्वाग्भाग के ग्रहण काल में ही परभाग का ग्रहण पाया जाता है और यह प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि अन्यथा वस्तुविषयक प्रत्यय की उत्पत्ति बन नहीं सकती। तथा अम्भिाव मात्र वस्तु हो नहीं सकती क्योंकि उतने मात्र से अर्थक्रियाकारित्व नहीं पाया जाता।
शङ्का-अग्भिाग के पालम्बन से अनालम्बित परभागादिकों का होनेवाला ज्ञान अनुमान ज्ञान क्यों नहीं होगा?
समाधान नहीं, क्योंकि अनुमान ज्ञान लिंग से भिन्न अर्थ को विषय करता है। अग्भिाग के ज्ञान के समान काल में होने वाला परभाग का ज्ञान तो अनुमान ज्ञान हो नहीं सकता, क्योंकि वह अवग्रह स्वरूप ज्ञान है । भिन्न काल में होने वाला भी उक्त ज्ञान अनुमान ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि ईहा के बाद में उत्पन्न होने से उसका अवाय ज्ञान में अन्तर्भाव होता है।
कहीं पर एक वर्ष के सुनने के समय में ही आगे कहे जाने वाले वर्णविषयक ज्ञान की उत्पत्ति उपलब्ध होती है, कहीं पर दो, तीन आदि स्पर्शवाली अतिशय अभ्यस्त वस्तु में एक स्पर्श का ग्रहण होते समय ही दूसरे स्पर्श से युक्त उस वस्तु का ग्रहण होता है। तथा कहीं पर एक रस के ग्रहणसमय में ही उस प्रदेश में असन्निहित दूसरे रस से युक्त वस्तु का ग्रहण होता है। इसलिए भी अनिःसृत प्रत्यय असिन्द नहीं है। दूसरे प्राचार्य 'अनिःसृत' के स्थान में 'निःसृत' पाठ पढ़ते हैं, परन्तु वह
१. धवल पु, ६ पृ. ५० | २. धवल पु. पृ. १५२ । ३. धवल पु. १३ पृ. २३७ । ४. घवल पु. १३ पृ. २३७ । ५. बवल' पु.६ पृ. १५२ । ६. धवल पु.६ पृ. २०। ७. धवल पु. १३ पृ. २३७ बघवल पु. ६ पृ. १५२ व धवल पृ.६ पृ.२०। ८. घ.पु. ६ पृ. १५२-१५३ ।
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३६६ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३१२-३१४
घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने पर एक मात्र उपमा प्रत्यय ही वहाँ उपलब्ध होता है। इसका प्रतिपक्षभूत निःसृत प्रत्यय है, क्योंकि कहीं पर किसी काल में वस्तु के एकदेश के ज्ञान की ही उत्पत्ति देखी जाती है ।" अभिमुख अर्थ का ग्रहण करना निःसृत अवग्रह है और अनभिमुख अर्थ का ग्रहण करना अनिःसृत - श्रवग्रह है। अथवा उपमान- उपमेय भाव के द्वारा ग्रहण करना निःसृत प्रवग्रह है, जैसे कमलदलनयना अर्थात् इस स्त्री के नयन कमलपत्र के समान हैं। उपमान- उपमेय भाव के बिना ग्रहण करना ग्रनिःसृत अवग्रह है ।
नियमित गुण - विशिष्ट अर्थ का ग्रहण करना उक्त प्रवग्रह है। जैसे चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा धवल पदार्थ का ग्रहण करना और घ्राणेन्द्रिय के द्वारा सुगन्धित द्रव्य का ग्रहण करना इत्यादि । अनियमित गुण - विशिष्ट द्रव्य का ग्रहण करना श्रनुक्त श्रवग्रह है। जैसे चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा गुड़ आदि के रस का ग्रहण करना और घ्राणेन्द्रिय के द्वारा दही श्रादि के रस का ग्रहण करना ।
कृतिश्रनुयोगद्वार में भी कहा है कि प्रतिनियत गुणविशिष्ट वस्तु के ग्रहण के समय ही जो गुरण उस इन्द्रिय का विषय नहीं है ऐसे गुण से युक्त उन वस्तु का ग्रहण होना श्रनुक्त प्रत्यय है । यह प्रत्यय सिद्ध भी नहीं है, क्योंकि चक्षु के द्वारा लवण, शर्करा और खांड के ग्रहण के समय ही कदाचित् उसके रस का ज्ञान हो जाता है, दही की गंध के ग्रहणकाल में ही उसके रस का ज्ञान हो जाता है, प्रदीप के स्वरूप का ग्रहण होते समय ही कदाचित् उपके कान हो जाता है और संस्कारसम्पन्न किसी के शब्दश्रवण के समय ही उस वस्तु के रसादि का ज्ञान भी देखा जाना है। इसका प्रतिपक्षभूत उक्त प्रत्यय है । ४
शङ्का - मन से मुक्त का विषय क्या है ?
समाधान- अष्ट, अश्रुत और अनुभूत पदार्थ | इन पदार्थों में मन की प्रवृत्ति प्रसिद्ध भी नहीं है क्योंकि ऐसा नहीं मानने पर उपदेश के बिना द्वादशांग श्रुत का ज्ञान नहीं बन सकता है। शङ्का - निःसृत और उक्त में क्या भेद है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि उक्तप्रत्यय निःसृत और अनिःसृत उभय रूप होता है, इसलिए उसे निःसृत से अभिन्न मानने में विरोध आता है।*
पूर्वोक्त अनुक्त अवग्रह ग्रनिःसृत अवग्रह के अन्तर्गत नहीं है, क्योंकि एक वस्तु के ग्रहण काल में ही उससे पृथग्भूत वस्तु का उपरिम भाग के ग्रहणकाल में ही परभाग का और अंगुलि के ग्रहणकाल में ही देवदत्त का ग्रहण करना श्रनिःसृत श्रवग्रह है ।"
नित्यत्व विशिष्ट स्तम्भ यादि का ज्ञान स्थिर अर्थात् ध ुव प्रत्यय है। स्थिर ज्ञान एकान्त रूप है, ऐसा निश्चय करना युक्त नहीं है, क्योंकि विधिनिषेध के द्वारा यहाँ पर भी अनेकान्त की विषयता देखी जाती है। बिजली और दीपक की लौ श्रादि में उत्पाद - विनाशयुक्त बस्तु का ज्ञान अवप्रत्यय है । उत्पाद, व्यय और धौव्य युक्त वस्तु का ज्ञान भी अन वप्रत्यय है, क्योंकि पह
१. श्र. पु. १३ पृ. २३५ । ध. पू. १६ प्र. १५३-१५४ |
२. अ.पु. ६ पृ. २० ॥ ५. सवल पु. ६ पृ. २३१,
३. ध. पु ६ पृ. २०१ ४. व. पु. ६ पृ. २३८-२३१, घवल पु. १३ १५४ १५५ । ६. बबल पु. ६ पृ. २० ॥
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गाया ३१२-३१४
ज्ञानमार्गगा। ३१७
ज्ञान ध्र ब ज्ञान से भिन्न है ।' यह वही है, वह मैं ही हूँ' इस प्रकार का प्रत्यय ध्रुव कहलाता है। इसका प्रतिपक्षभूत प्रत्यय प्रभ्र व है ।।
अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा इन चारों के और प्राभिनिबोधिक के पर्यायवाची नाम१. अवग्रह अवदान, सान, अवलम्बना और मेधा ये अवग्रह के पर्यायवाची नाम हैं। जिसके द्वारा घटादि पदार्थ 'अवगृह्यते' अर्थात् जाने जाते हैं वह अवग्रह है। जिसके द्वारा 'अवदीयते खण्ड्यते' अर्थात् अन्य पदार्थों से अलग करके विवक्षित अर्थ जाना जाता है वह अवग्रह का अन्य नाम प्रवचन है। जो अनध्यवसायको 'स्यति, छिनत्ति, हन्ति, विनाशयति' अर्थात् छेदता है नष्ट करता है, वह अवग्रह का तीसरा नाम 'सान' है। जो अपनी उत्पत्ति के लिए इन्द्रियादिक का अवलम्बन लेता वह अवग्रह का पाए म यसमधना है। जिसके द्वारा पयार्थ 'मेध्यप्ति' अर्थात् जाना जाता है बह अवग्रह का पाँचवाँ नाम मेधा है।
ईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा ये ईहा के पर्याय नाम हैं ।।३८।।
जिस बुद्धि के द्वारा उत्पन्न हुए संशय का नाश करने के लिए 'ईहते' अर्थात् चेष्टा करते हैं वह 'ईहा है। जिसके द्वारा प्रबग्रह से ग्रहण किये गये अर्थ के नहीं जाने गये विशेष की 'ऊह्यते' अर्थात् तर्कणा करते हैं वह 'कहा है। जिसके द्वारा संशय के कारणभूत विकल्प का 'अपोह्यते' अर्थात् निराकरण किया जाता है वह 'प्रपोहा' है। अवग्रह से ग्रहण किये गये अर्थ के विशेष की जिसके द्वारा गवेषणा की जाती है वह गवेषणा' है। अपग्रह से ग्रहण किया गया अर्थ जिसके द्वारा विशेष रूप से मीमांसित किया जाता है (विचारा जाता है) वह 'मीमांसा' है।४
अवाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति, प्रामुण्डा और प्रत्यामुण्डा, ये अवाय के पर्याय नाम हैं ॥३६॥
जिसके द्वारा मीमांसित अर्थ 'अवेयते' अर्थात् निश्चित किया जाता है वह 'प्रवाय' है। जिसके द्वारा अन्वेषित अर्थ थ्यवसीयते' अर्थात् निश्चित किया जाता है वह 'व्यवसाय है। जिसके द्वारा ऊहित अर्थ 'बुद्धयले अर्थात् जाना जाता है वह बुद्धि' है। जिसके द्वारा तर्कसंगत अर्थ विशेष रूप से जाना जाता है वह "विज्ञप्ति' है। जिसके द्वारा विक्रित अर्थ प्रामुड्यते' अर्थात् संकोचित किया जाता है वह 'प्रामुडा' है। जिसके द्वारा मीमांसित अर्थ अलग-२ 'प्रामुण्ड्यते' अर्थात् संकोचित किया जाता है वह प्रत्यामुण्डा है।
धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा ये एकार्थ नाम हैं ।।४०।।
धरणी के समान बुद्धि का नाम घरणी है। जिस प्रकार घरणी (पृथिवी) गिरि, नदी, सागर, वृक्ष, भाड़ी और पत्थर प्रादि को धारण करती है उसी प्रकार जो बुद्धि निति अर्थ को धारण करती है वह 'धरणी' है। जिसके द्वारा निीत अर्थ धारण किया जाता है वह 'धारणा' है। जिसके द्वारा निर्णीत रूपसे अर्थ स्थापित किया जाता है वह 'स्थापना' है। कोष्ठ के समान बुद्धि का नाम 'कोष्ठर' है। कोष्ठा कुस्थली को कहते हैं। उसके समान जो निर्णीत अर्थ को धारण करती
१. धवल पु. १३ पृ. २३६ २. धवल पु.
पृ. १५४ । ३. धवल पु. १३ पृ. २४२ । ४. धवल पू. १३ पृ. २४२ ।
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३६८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३१५
है वह बुद्धि 'कोष्ठा' कही जाती है। जिसमें विनाश के बिना पदार्थ प्रतिष्ठित रहते हैं वह बुद्धि 'प्रतिष्ठा' है ।
संज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता ये एकार्थबाची नाम हैं ।।४१।।
जिसके द्वारा समीचीन रूपसे जाना जाता है, वह 'संज्ञा' है। स्मरण करना स्मृति है। मनन करना मति है। चिन्तन करना चिन्ता है । यद्यपि ये शब्द अलग-अलग धातु से बने हैं तो भी रूढ़ि से पर्यायवाची हैं।
एकेन्द्रिय जीव के लब्ध्यक्षर ज्ञान से लेकर छह वृद्धियों के साथ स्थित असंख्यात लोकप्रमाण मतिज्ञान के विकल्प होते हैं, उन सब ज्ञानों का इन्हीं भेदों में अन्तर्भाव हो जाता है ।
॥ इति मतिज्ञानम् ॥
श्रुतज्ञान का सामान्य लक्षण प्रत्थादो अत्यंतरमुवलंभतं भरपंति सुदरगाणं ।
प्राभिरिणबोहियपुग्वं पियमेरिणह सद्द पमुहं ॥३१५।।* गाथार्थ-मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ के अवलम्बन से तत्सम्बन्धी दुसरे पदार्थ का ज्ञान श्रुतज्ञान है। यह ज्ञान नियम से मतिज्ञानपूर्वक होता है। यहाँ शब्दजन्य श्रुतत्रान मुख्य है ।।३१५।।
विशेषार्थ--शब्द और धूमादिक लिंग के द्वारा जो एक पदार्थ से तत्सम्बन्धी दूसरे पदार्थ का ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान हैं। उनमें शब्द के निमित्त से उत्पन्न होने वाला श्रुतज्ञान मुख्य है। बह दो प्रकार का है अंग और अंगबाह्य । अंगश्रुत बारह प्रकार का है और अंगबाह्य चौदह प्रकार का है।' 'श्रुतज्ञान' मतिज्ञानपूर्वक होता है, क्योंकि मतिज्ञान के बिना श्रुतज्ञान की उत्पत्ति नहीं पाई जाती है।
'श्रुत' शब्द कुशल शब्द के समान जहत्स्वार्थवृत्ति है। जैसे कृश (तीक्ष्ण नोकवाली घास) काटने रूप क्रिया का आश्रय करके सिद्ध किया गया कुशल शब्द सब जगह 'पर्यवदात' (विमल या मनोज्ञ) अर्थ में आता है, उसी प्रकार 'श्रुत' शब्द भी धवण क्रिया को लेकर सिद्ध होता हुआ भी रूढ़ि बश किसी ज्ञान विशेष में रहता है, न कि केवल श्रवण से उत्पन्न ज्ञान में ही ! वह भी श्रुतझान मतिपूर्वक अर्थात् मतिज्ञान के निमित्त से होने वाला है, क्योंकि 'कार्य को जो पालन करता है अथवा पूर्ण करता है वह पूर्व है' इस प्रकार पूर्व शब्द सिद्ध हुआ है ।
शङ्का--भतिपूर्वत्व की समानता होने से श्रुतज्ञान में कोई भेद नहीं होता?
समाधान-- ऐसा नहीं है, क्योंकि मतिपूर्वत्व के समान होने पर भी प्रत्येक पुरुष में श्रुतज्ञाना१. धवल पु. १३ पृ. २४३ । २. घयल पु. १३ पृ. २४४ । ३. सर्वार्थसिद्धि ।।१३। ४. धवल पु. १३ पृ. २४४। ५. यह गाथा धनल पु. १ में पृ. ३५६ पर गाथा १५३ है, तथा प्रा. पं. सं. य. १ गाथा १२२ पृ. २६ पर भी है। ६. धवल पु. १ सूत्र ११५ की टीका पृ. ३५७ । "श्रुतं मतिपूर्व द्वय्नेक-द्वादशभेदम् ॥१५२०:।" [त. म.] । ७. जय धवल पु. १ पृ. २४ ।
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गाथा ३ १६
ज्ञानमार्गा/३६६
वरण के क्षयोपशम बहुधा भिन्न होते हैं, अतः उनके भेद से और बाह्य निमित्तों के भी भेद से श्रुत को होनाधिकता का सम्बन्ध होता है ।
शङ्का - जब आद्यश्रुतविषयता को प्राप्त हुए प्रविनाभावी वर्ण-पद-वाक्य आदि भेदों को धारण करने वाले शब्दपरिगत पुद्गलस्कन्ध से और चक्षु आदि के विषय से संकेतयुक्त पुरुष घट से जलधारणादि कार्यरूप अन्य सम्बन्धी को अथवा अग्नि भादि से भस्म आदि को जानता है तब श्रुत से श्रुत का लाभ होता है, श्रतः श्रुत का मतिपूर्वत्व लक्षण श्रव्याप्ति दोषयुक्त है
?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि व्यवधान के होने पर भी पूर्व शब्द की प्रवृत्ति होती है। जैसे मथुरा से पूर्व में पाटलिपुत्र है । इसलिए मतिपूर्व-ग्रहण में सक्षात् मतिपूर्वक और परम्परा मतिपूर्वक भी ग्रहण किया जाता है ।"
श्रुतज्ञान के निमित्त से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह भी श्रुतज्ञान ही है। फिर भी 'भतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है' इस सूत्र के साथ विरोध नहीं प्राता, क्योंकि उक्त सूत्र श्रुतज्ञान की प्रारम्भिक प्रवृत्ति की अपेक्षा कहा गया है।
पूर्व निमित्त और कारण ये एकार्थवाची हैं ।
श्रुतज्ञान के भेद
लोगाराम संखमिदा प्रणवखरप्पे हवंति छट्टारणा । anagarपमा रुकरण भक्खरगं ।।३१६॥
गाथा - पदस्थानपतित वृद्धि की अपेक्षा अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान के असंख्यात लोकप्रमाण भेद होते हैं । अक्षरात्मक श्रुतज्ञान का प्रमाण द्विरूप वर्गधारा में छठे वर्गस्थान एकट्ठी में से एक
वाम है ।। ३१६ ।।
विशेषार्थ - सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक के जो जघन्य ज्ञान होता है उसका नाम लब्ध्यक्षर है । शङ्का - इसकी अक्षर संज्ञा किस कारण से है ?
समाधान-नाश के बिना एक स्वरूप से अवस्थित रहने से केवलज्ञान प्रक्षर हैं। क्यों उसमें वृद्धि हानि नहीं होती । द्रव्याधिक नय की अपेक्षा सूक्ष्म निगोदलब्ध्यपर्याप्तक ज्ञान भी वही है, इसलिए इस ज्ञान को अक्षर कहते हैं ।
शङ्का - इसका प्रमारग क्या है ?
समाधान- इसका प्रमाण केवलज्ञान का अनन्तवाँ भाग है ।
यह ज्ञान निरावरण हैं, क्योंकि अक्षर का अनन्त भाग नित्य उद्घाटित रहता है अथवा
१. धवल पु. ६ पृ. १६० १६१ । २. धवल पु. १३ पु. २१० ।
३. सर्वार्थसिद्धि १/२०१
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४००/गो, सा, जीवकाण्ड
गाथा ३१६
इसके प्रावृत्त होने पर जीव के प्रभाव का प्रसंग प्राता है। इस लब्ध्यक्षर ज्ञान में सब जीवराशि का भाग देने पर सब जीवराशि से अनन्तगुरणे ज्ञानविभागप्रतिच्छेद पाते हैं।
शा-लब्ध्यक्षर ज्ञान सब जीवराशि से अनन्तगुणा है, यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान-वह परिकर्म से जाना जाता है । यथा-"सब जीवराशि का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोकप्रमाण वर्गस्थान आगे जाकर सब पुद्गल द्रश्य प्राप्त होता है। पुनः सब पुद्गल द्रव्य का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोकमात्र बर्गस्थान आगे जाकर सब काल प्राप्त होता है। पुन: सब कालों का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर सब आकाशश्रेणी प्राप्त होती है। पुनः सब आकाशश्रेणी का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्तलोक मात्र वर्गस्थान आगे जाकर धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अगुरुलघु गुण प्राप्त होता है । पुन: उसके भी उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्तलोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर एक जीव का अगुरुलघुगुरण प्राप्त होता है। पुन: इसके भी उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक काक्षरसावयास होता है। ऐसा परिवार में कहा है। इस लब्ध्यक्षर ज्ञान में सब जीवराशि का
भाग देने पर ज्ञानाविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा सब जीवराशि से अनन्तररणा लब्ध होता है। इस प्रक्षेप को प्रतिराशिभूत लबध्यक्षर ज्ञान में मिलाने पर पर्यायज्ञान का प्रमाण उत्पन्न होता है। पुनः पर्यायज्ञान में सब जीवराशि का भाग देने पर जो लब्ध पावे उसे उसी पर्यायज्ञान में मिलादेने पर पर्यायसमासज्ञान उत्पन्न होता है। पुन: इसके आगे अनन्तभाग वृद्धि, असंख्यातभाग वृद्धि, संख्यातभाग वृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातमुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि क्रम से असंख्यात लोकमात्र पर्याय.. समासज्ञान स्थानों के द्विचरम स्थान के प्राप्त होने तक पर्याय सभासज्ञान स्थान निरन्तर प्राप्त होते रहते हैं। पुनः एक प्रक्षेप की वृद्धि होने पर अन्तिम पर्याय समास स्थान होता है। इस प्रकार पर्यायसमासजान स्थान असंख्यात लोकमात्र छह स्थान पतित प्राप्त होते हैं।
पुनः अन्तिम-पर्यायसमासज्ञान में सब जीवराशि का भाग देने पर जो लब्ध पावे, उसको अन्तिम-पर्यायसमासज्ञान में मिलाने पर अक्षरज्ञान उत्पन होता है। यह अक्षरज्ञान सूक्ष्म निगोद लवध्यपर्याप्तक के अनन्तानन्त लब्ध्यक्षरों के बराबर होता है। इस अक्षरज्ञान से पूर्व के सब ज्ञान अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान हैं, जो असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान पतित हैं।
अक्षर के तीन भेद हैं--लब्ध्यक्षर, निवृत्त्यक्षर और संस्थान अक्षर। सूक्ष्म-निगोदलब्ध्यपर्याप्तक से लेकर श्रुतकेबलो तक जीव के जितने क्षयोपशम होते हैं उन सब की लब्ध्यक्षर संज्ञा है। जीवों के मुख से निकले हुए शब्द की नित्यक्षर संज्ञा है। उस नित्यक्षर के व्यक्त और अव्यक्त ऐसे दो भेद हैं। व्यक्त निर्वृत्त्यक्षर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के होता है। अध्यक्त नित्यक्षर द्वीन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तक होता है। संस्थानाक्षर का दूसरा नाम स्थापना-अक्षर है।
शङ्खा --- स्थापना क्या है ?
१, धवल पु १३ पृ. २६२-२६४ । २. धवल पु. १३ पृ. २६४ ॥
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जानमागंणा / ४०१
समाधान - 'यह वह अक्षर है' इस प्रकार प्रभेद रूप से बुद्धि में जो स्थापना होती है, या जो लिखा जाता है, वह स्थापना अक्षर है ।
शङ्का - इन तीन अक्षरों में से प्रकृत में कौनसे अक्षर से प्रयोजन है ?
समाधान - लब्ध्यक्षर से प्रयोजन है, शेष अक्षरों से नहीं है; क्योंकि वे जड़ स्वरूप हैं । जघन्य लब्ध्यक्षर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक के होता है और उत्कृष्ट चौदह पूर्व धारी के होता है । जघन्य निर्ऋत्यक्षर हीन्द्रिय पर्याप्तक श्रादिकों के होता है और उत्कृष्ट १४ पूर्वधारी के होता है इसी प्रकार संस्थानाक्षर का भी कथन करना चाहिए। एक अक्षर के द्वारा जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह जवन्य अक्षर श्रुतज्ञान है । इस अक्षरज्ञान के ऊपर दूसरे अक्षर की वृद्धि होने पर अक्षरसमास नामका श्रुतज्ञान होता है । अक्षरों को मिलाकर एक पद नाम का श्रुतज्ञान होता है ।" इस प्रकार एक-एक अक्षर की वृद्धि होते हुए संख्यात
गाथा ३१७
जितने अक्षर हैं उतने ही अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के भेद हैं। क्योंकि एक-एक अक्षर से एक-एक श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है। अक्षरों का प्रमाण इस प्रकार है
वर्गाक्षर पच्चीस, अन्तस्थ चार और ऊष्माक्षर चार इस प्रकार तैंतीस व्यंजन होते हैं । अ, , उ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, इस प्रकार ये नौ स्वर अलग-अलग ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के भेद से सत्ताईस होते हैं ।
शङ्का - ए, ऐ, श्रो, श्री इनके हस्व भेद नहीं होते ?
समाधान--- नहीं, क्योंकि प्राकृत में उनमें इनका सद्भाव मानने में कोई विरोध नहीं आता । प्रयोगवाह मं, अः और ये चार ही होते हैं। होते हैं । " इस प्रकार सब अक्षर चौंसठ (६४)
एकमात्रो भवेद्धस्वो द्विमात्रो दीर्घ उच्यते । त्रिमात्रस्तु लुतो ज्ञेयो व्यंजनं त्वद्धं मात्रकम् ॥१२॥३
एक मात्रा वाला ह्रस्व है, दो मात्रा वाला दीर्घ तीन मात्रा वाला प्लुत जानना चाहिए और व्यंजन अर्थ मात्रा वाला होता है ।
इन चौंसठ अक्षरों से अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के चौंसठ विकल्प होते हैं। इन प्रक्षरों की संख्या की राशि प्रमाण २' का विरलन कर परस्पर गुणा करने पर एकट्ठी अर्थात् १६४४६७४४०७३७०६५५१६१६ प्राप्त होता है । इस संख्या में से एक कम करने पर पूर्ण श्रुत के समस्त अक्षरों का प्रमाण प्राप्त होता है। इतने ही अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के विकल्प हैं और इतना ही उत्कृष्ट श्रुतज्ञान का
प्रमाण है ।
बीस प्रकार के श्रुतज्ञान का कथन पज्जायक्खर पद संघार्द दुगवारपाई च य पाहुडयं
पडिवत्तियारिणजोगं च । वत्यु पुध्वं च ॥३१७॥
१. धवल पु. १३ पृ. २६४-२६५ । २. घवल पु. १३ पृ. २४७ । १३ पृ. २४६ ।
३. धवल पु. १३ पृ. २४८ ।
४. घवल पु.
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४.०२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३१८
तेसि च समासेहि य वीसविहं वा हु होदि सुदरगाणं । प्रावरणस्स वि भेदा तत्तियमेत्ता हवंति ति ॥३१॥
गापार्थ-पर्याय, अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्तिक, अनुयोग, प्राभृत प्राभृत, प्राभृत वस्तु और पूर्व ये दस और दस इनके समास जैसे पर्यायसमास आदि, इस प्रकार श्रुतज्ञान के बीस भेद हैं। श्रुतज्ञानावरण के भी इतने ही भेद होते हैं ।।३१७-३१८।।
विशेषार्थ—पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार, अनुयोगद्वारसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृतप्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व और पूर्वसमास, ये श्रुतजान के बीस भेद जानने चाहिए।
"समास" प्राब्द का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिए, अन्यथा श्रुतज्ञान के बीस भेद नहीं बन सकते।
अक्षर (अविनाशी) संज्ञक केवलज्ञान के अनन्त भाग प्रमाण लकयक्षर ज्ञान में सब जीवों का भाग देने पर सब जीवराशि से अनन्तगुरणे ज्ञानाविभागप्रतिच्छेद लब्ध को लब्ध्यक्षरज्ञान में मिलाने पर पर्यायज्ञान उत्पन्न होता है ।
शङ्का---पर्याय किसका नाम है ? समाधान -- ज्ञानाविभागप्रतिच्छेदों के प्रक्षेप (मिलाने) का नाम पर्याय है।
पर्यायज्ञान में सब जीबराशि का (अनन्त का) भाग देने पर जो लब्ध प्रावे, उसको उसी पर्यायज्ञान में मिला देने पर पर्यायस मासज्ञान उत्पन्न होता है। (पर्यायज्ञान में अनन्तभाग वृद्धि के होने पर) पर्यायसमासज्ञान उत्पन्न होता है। पुनः इसके ऊपर षट्स्थानपतित वृद्धियों के द्वारा असंख्यात लोकमात्र पर्यायसमासज्ञान उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार पर्यायसमासज्ञान असंख्यात लोकप्रमाण प्राप्त होते हैं, परन्तु पर्यायज्ञान एक प्रकार का ही होता है। प्रक्षेपों का समास जिन ज्ञानस्थानों में होता है, उन ज्ञानस्थानों की पर्याय-समास संज्ञा है, परन्तु जहाँ एक ही प्रक्षेप होता है, उस ज्ञान की पर्याय संज्ञा है। पर्यायसमास ज्ञानों को अक्षरज्ञान के पूर्ण होने तक ले जाना चाहिए। अक्षरज्ञान के आगे उत्तरोत्तर एक-एक अक्षर की वृद्धि से जाने वाले ज्ञानों को अक्षरसमास संज्ञा है। यहाँ अक्षरज्ञान से आगे छह द्धियाँ नहीं हैं, किन्तु दुगुणे-तिगुरणे इत्यादि ऋम से अक्षरवद्धि ही होती है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, परन्तु कितने ही प्राचार्य अक्षर-ज्ञान से लेकर आगे सब जगह क्षयोपशम ज्ञान के छह प्रकार की वृद्धि होती है, ऐसा कहते हैं। किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि समस्त श्रुतज्ञान के संख्यातवें भागरूप अक्षरज्ञान से ऊपर छह प्रकार की वृद्धियाँ संभव नहीं हैं।
१. धवल पु.१३ पृ. २६० पर गाथा न. १ इस प्रकार है-"पज्जय-मस्वर-पद-संघादय पडिबत्ति-जोगदाराई। पाहुए पाहुड-वत्थू गुल्बसमासा य बोखम्वा ॥१॥” २. घबल पु. १३ पृ. २६२ । ३. प.पु. १३ पृ. २६३-२६४ । ४. ध.पु. १२ पृ. ४.७६-४८० व पु. ६ पृ. २२-२३ ।
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माथा ३१६-३२२
ज्ञानमार्गणा/४०३ शङ्का--अक्षरश्रुतज्ञान के ऊपर छह प्रकार की वृद्धि द्वारा श्रुतज्ञान की वृद्धि क्यों नहीं होती?
समाधान नहीं, क्योंकि अक्षरजान सकल श्रुतज्ञान के संख्यातवें भाग प्रमामा होता है। अतः उसके उत्पन्न होने पर संख्यात भाग वृद्धि और संख्यात गुण वृद्धि ही होती है । छह प्रकार की वृद्धियाँ नहीं होती, क्योंकि एक अक्षर रूप ज्ञान के द्वारा जिसे बल की प्राप्ति हुई है, उसके छह प्रकार की वृद्धि के मानने में विरोध पाता है।
इसके ग्रागे स्वयं ग्रन्थकार पर्याय, पावरमारा कापिसानी का साया पास्थान नतिसद्धियों का गाथानों द्वारा कथन करेंगे; इसलिए यहाँ पर उनका कथन नहीं किया गया है।
पर्यायज्ञान का स्वरूप सहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स पढमसमयम्हि । हववि हु सवजहणं रिगच्चुग्घाई णिरावरणम् ॥३१॥ सुहमणि, गोवअपज्जत्तगेसु सगसंभवेस भमिकरण । चरिमापुण्णतिवक्काणादिमवक्कट्टियेय हवे ॥३२०॥ सुहमणिगोवअपज्जत्तयस्स जादस्स पढमसमयम्हि । फासिदिय-मदिपुव्वं सुदरगाणं लखिमक्खरयं ॥३२१॥ गदरि विसेसं जाणे सुहमजहणं तु पज्जयं पारणं ।
पज्जायावरणं पुरण तदरणंतरणाणभेदम्हि ॥३२२॥ गाथार्थ- सुक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्त अपने ६११ भवों में भ्रमग करके अन्तिम ६१२वें लण्यपर्याप्त भव में तीन मोड़े लेकर उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म निगोदिया जीव के उत्पन्न (उत्पाद) के प्रश्रम समय में अर्थात् प्रथम मोड़े में सर्व जघन्य नित्य-उद्घाटित निरावररण स्पर्शन-इन्द्रियजन्य-मतिज्ञानपूर्वक लब्ध्यक्षर श्रतज्ञान होता है। सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपप्ति के इस जघन्यज्ञान से पर्यायज्ञान में इतनी विशेषता है कि पर्यायज्ञानावरण के कारण वह पर्यायज्ञान और उसके आगे के ज्ञानभेद सावरण हैं अर्थात् लब्ध्यक्ष र ज्ञान की तरह नित्य-उद्घाटित नहीं हैं ।। ३१६-३२२।।
विशेषार्थ-पर्याय श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में धवलग्रन्थ में दो मत पाये जाते हैं। वर्गणा खण्ड में इस प्रकार कथन किया गया है--"नाश के बिना एक स्वरूप से अबस्थित रहने से केवलज्ञान "अक्षर" संजक है। क्योंकि उसमें वृद्धि और हानि नहीं होती। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक का ज्ञान भी वही है, इसलिए यह ज्ञान भी अक्षर है। यह ज्ञान निरावरण है, क्योंकि अक्षर का (केवल ज्ञान का) अनन्तवाँ भाग नित्य उद्घाटित रहता है अथवा इसके प्रावृत होने पर जीव के प्रभाव का प्रसंग पाता है। इस लब्ध्यक्षर ज्ञान में सब जीबराशि का भार देने पर सब
१. प.पु. १३ पृ. २६७-२६८ । २. मुद्रित पुस्तकों में इस गाथा की क्रम संध्या ३१६ है किन्तु प्रकरण की अपेक्षा यह गाथा ३२२ होनी चाहिए । इस कारण क्रम में परिवर्तन किया गया है ।
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४०४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३१६-३२२
जोवराशि से अनन्तगुणे ज्ञानाविभागप्रतिछेद प्राप्त होते हैं। इस प्रक्षेप को लब्ध्यक्षर ज्ञान में मिला देने पर पर्यायज्ञान का प्रमाण उत्पन्न होता है (लब्ध्यक्षर ज्ञान में अनन्तवें भाग वृद्धि होने पर पर्यायज्ञान उत्पन्न होता है)। इस पर्यायज्ञान में सब जीवराशि का भाग देने पर, लब्ध को पर्यायज्ञान में मिला देने पर (अनन्तवें भागवृद्धि) पर्यायसमासज्ञान होता है । पुन: इसके प्रागे अनन्त भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्त गुणवृद्धि के क्रम से असंख्यातलोकमात्र पर्यायसमासज्ञान निरन्तर प्राप्त होते हैं, यहाँ पर मात्र लब्ध्यक्षरज्ञान को नित्य उद्घाटित निरावरण कहा गया है, पर्यायज्ञान को निरावरण नित्य उद्घाटित नहीं कहा गया है ।
पर्याय किसका नाम है ? ज्ञानाविभागप्रतिच्छेदों का नाम पर्याय है। उनका समास जिन ज्ञानरथानों में होता है, उन ज्ञानस्थानों की पर्यायसमास संज्ञा है, परन्तु जहाँ एक ही प्रक्षेप होता है, उस ज्ञान की पर्यायसंज्ञा है।
दूसरा मत इस प्रकार है-क्षरण अर्थात् विनाश का अभाव होने में केवलज्ञान अक्षर है। उसका अनन्तवाँ भाग पर्याय नाम का मतिज्ञान है। वह पर्याय नाम का मतिज्ञान व केवलज्ञान निरावरण और अविनाशी हैं। इस सूक्ष्म-निगोद लब्धि-अक्षर से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह कार्य में कारण के उपचार से पर्याय कहलाता है। इस पर्याय श्रुतज्ञानसे जो अनन्तवें भाग अधिक श्रुतज्ञान होता है वह पर्यायसमासज्ञान कहलाता है। अनन्तभाग वृद्धि, असंहयातभागवृद्धि, संख्यात भाग वृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्त गुण वृद्धि इन छहों वृद्धियों के समुदायात्मक यह पइस्थान वृद्धि होती है ।।
इस दूसरे मत में सर्वजघन्य मतिज्ञान को पर्याय संज्ञा है। वह मतिज्ञान सर्वजघन्य लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान को कारण है, अतः कार्य में कारग का उपचार करके उस श्रुतज्ञान (लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान) को भी पर्यायज्ञान कहा गया है। अर्थात् पर्याय नामक मतिज्ञान के समान पर्याय श्रुतज्ञान भी निराबरण नित्य उद्घाटित है। किन्तु पूर्वमत में लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान के ऊपर अनन्तभाग वृद्धि होने पर पर्याय ज्ञान की उत्पत्ति है। वहाँ पर लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान निरावरण नित्य-उद्घाटित कहा गया है, पर्यायज्ञान में एक प्रक्षेप की वृद्धि हो जाने से उसको नित्य-उद्घाटित निराबरण नहीं कहा गया है।
इन दोनों मतों को दृष्टि में रखते हुए सम्भवत: उपयुक्त गाथाओं की रचना हुई है। इन दोनों मतों में से कौनसा मत ठीक है. यह कहीं नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वर्तमान में श्रुतकेवली का अभाव है। अत: दोनों मतों का संकलन कर दिया गया है।
लब्ध्यपर्याप्तक सूक्ष्मनिगोद जीव में नित्य उद्घाटित तथा आवरणरहित ज्ञान कहा गया है, यह भी सूक्ष्म निगोद में ज्ञानावरण कर्म के सर्व जघन्य क्षयोपशम की अपेक्षा से ग्रावरण रहित है, किन्तु सर्वथा प्रावरणरहित नहीं है। यदि उस जघन्यज्ञान का भी प्रावरण हो जाए तो जीव का ही प्रभाव हो जाएगा। वास्तव में तो जपरिवर्ती क्षायोपशमिक ज्ञान की अपेक्षा और केवलज्ञान की अपेक्षा वह ज्ञान भी प्रावरणसहित है; क्योंकि संसारी जीवों के क्षायिकज्ञान का अभाव है, इसलिए
१. ध.पु. १३ पृ. २६२-२६४ । २. घ.पु. १३ पृ. २६४ । २१-२२ ।
३. धवल पु. १३ पृ. २६४ ।
४, धवल पु. ६ पृ.
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गाथा ३२३-३३१
जानमार्गगा/१०५
निगोदिया का ज्ञान क्षायोपशमिक ही है। यदि यात्मा के एकप्रदेश में भी केवलज्ञान के अंश रूप निराबरण ज्ञान होवे तो उस एकस देश से भी लोकालोक प्रत्यक्ष हो जावे, किन्तु वह निगोदिया फा नित्यउद्घाटित ज्ञान सबसे जघन्यज्ञान होने से सबसे थोड़ा जानता है, यह तात्पर्य है ।'
षट्स्यानवृद्धि का स्वरूप अवरुवरिस्मि अणंतमसंखं संखं च भागवड्ढीए । संखमसंखमणतं गुणवड्ढी होंति हु कमेण ॥३२३॥ जीवाणं च य रासो असंखलोगा बरं खु संखेज्ज । भागगुणम्हि य कमसो अवद्विदा होति छट्ठारणा ।।३२४॥ उन्त्रकं चउरकं पणछस्सत्तक अट्ठ-अंक च । छन्चड्ढीणं सर कमसो संविट्टिकरण? ॥३२५॥ अंगुलप्रसंखभागे पुब्बगवड्ढीगदे दु परवड्ढी । एक वारं होदि हु पुणो पुरणो चरिम उड्ढित्ती ॥३२६।। आदिमछट्ठारणम्हि य पंच य वड्ढी हवंति सेसेसु । छन्वड्ढीयो होति हु सरिसा सवत्थ पदसंखा ॥३२७॥ छठ्ठाणाणं प्रादी अट्ठक होदि चरिममुय्यक । जम्हा जहणणार अट्ठक होदि जिरग दिट्ठ ॥३२८।। एक्कं खलु अट्ठकं सत्तक कंडयं लदो हेट्ठा । रुवाहियकंडएण य गुरिषदकमा जावमुव्वकं ॥३२६।। सम्वसमासो रिणयमा रूवाहियकंडयस्स बग्गस्स । बिबस्स य संवग्गो होदित्ति जिणेहि रिणद्दिट्ट ॥३३०॥ उक्कस्ससंखमेतं तत्तिचउत्थेकदालछप्पण्णं ।
सत्तदसमं च भाग गंतूरणय लद्धिअक्खरं दुगुणं ॥३३॥ गाथार्थ - जघन्य के ऊपर क्रम से अनन्तभाग वृद्धि, असंख्यातभाग वृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि होती है ।।३२३।। समस्त जोवराशि, असंख्यात लोकप्रमाण राशि, उत्कृष्ट संख्यात राशि ये तीन राशि, पूर्वोक्त अनन्तभागवृद्धि प्रादि छह
- - - १. वृहद दव्यसंग्रह गाथा ३ की संस्कृत टीका-- "यच्च लब्ध्यपर्याप्तसूक्ष्मनिगोदजीने निन्योवघाट निराबरणज्ञानं श्रयले तदपि सुक्ष्मनिगोमवंजघन्यक्षयोपशमापेक्षया निराबरगं, न च सर्वथा ।................किन्तु दितादित्यविम्बवत निविडलोचनपटलबद वा स्तोक प्रकाशयतीत्यर्थः ।" वृहदतव्यसंग्रह, श्री गणेश वर्णी दि. जैन ग्रंथमाला, पृ.६६-६७।
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४०६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३२३-३३१
स्थानों में भामाहार अथवा गुणाकार की क्लम से अवस्थित राशि हैं ॥३२४।। संदृष्टि के लिए क्रम से छह वृद्धियों की ये संज्ञा है उर्वत, चतुरङ्क, पंचाकू, षडङ्क, सप्ताङ्क, अष्टाङ्क ॥३२५।। अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण पूर्व वद्धि होनेपर एक बार उत्तरवद्धि होती है। पूनः पुनः यह क्रम चरमवद्धि पर्यन्त होता है ॥३२६॥ आदि षट्स्थान में पांच दिया होती है। शेष सर्व षट्स्थानों में छह वृद्धियाँ होती हैं। पदों की संख्या सर्वत्र सरश है ।।३२७।। षट्स्थानों में पादिस्थान अष्टाङ्क और अन्तिम स्थान उर्वङ्क होता है। क्योंकि जघन्य ज्ञान भी अष्टाङ्ग है ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है ।।३२८|| एक षट्स्थान में एक ही अष्टाङ्क और सप्ताङ्क काण्डक प्रमाण होते हैं। उसके नीचे उर्वक तक एक अधिक काण्डक प्रमाण से क्रम से गुणित करते जाना चाहिए ॥३२॥ सर्व वृद्धियों का जोड़ एक अधिक काण्डक के बर्ग को और धन को परस्पर गुणा करने से प्राप्त होता है, ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है ।।३३०॥ उत्कृष्ट संख्यातमात्र असंख्यातभाग वृद्धिस्थानों के हो जाने पर अथवा उत्कृष्ट संख्यात के तीन चौथाई स्थानों के होजाने पर अथवा इकतालीस बटा छप्पन से गृणित उत्कृष्ट संख्यात, इतने स्थानों के हो जाने पर अथवा उत्कृष्ट संस्थात के सात बटा दस स्थानों के हो जाने हर लब्ध्यक्षर ज्ञान दुगुणा हो जाता है ।।३३१॥
विशेषार्थ-अनन्तभाग बुद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्त गुरगवृद्धि; इन छहों वृद्धियों के समुदायात्मक यह एक षड्वृद्धिस्थान होता है ।। अनन्तभाग वृद्धिस्थान काण्डक प्रमाण जाकर एक बार असंख्यात भागवृद्धि होती है। फिर भी काण्डकप्रमारग अनन्तभागवृद्धि के स्थान जाकर द्वितीय बार असंख्यात भागवृद्धि होती है। इस क्रम से काण्डक प्रमाण असंख्यात भाग वृद्धियों के हो जाने पर पुनः काण्डक प्रमाण अनन्तभाग जाकर संख्यात भाग वृद्धि होती है। पश्चात् पूर्वोद्दिष्ट समस्त अधस्तन अध्वान जाकर द्वितीय वार संख्यातभाग वृद्धि होती है। पुन: उतना मात्र अध्वान जाकर तृतीय बार संख्यात भाग वृद्धि होती है। इस प्रकार काण्डक प्रमाण संख्यात भाग वृद्धियों के हो जाने पर, संख्यात भाग वृद्धि की उत्पत्ति के योग्य एक अन्य अध्यान जाकर एक बार संख्यातगुण वृद्धि होती है। पश्चात पुनः (पूर्वोद्दिष्ट) समस्त अधस्तम अध्वान जाकर द्वितीय बार संख्यातगुण वृद्धि होती है। इस विधि से काण्डक प्रमाण संख्यातगुणवृद्धियों के हो जाने पर, पुनः संख्यातगुणवृद्धि विषयक एक अन्य अध्वान जाकर असंख्यात गुणवृद्धि होती है। फिर अधस्तन समस्त अध्वान जाकर द्वितीय बार असंख्यात गुणवृद्धि होती है। इस प्रकार काण्डक प्रमाण असंख्यात गुणवृद्धियों के हो जाने पर, पुन: असंख्यात गुरावृद्धिविषयक एक अन्य अध्वान जाकर एक बार अनन्तगुणवृद्धि होती है। यह एक षट्स्थान है। ऐसे असंख्यात लोकमात्र षट्स्थान होते हैं ।२ काण्डक प्ररूपणा में अनन्त भागवृद्धिकाण्डक, असंख्यातभागवुद्धिकाण्डक, संख्यातभागवृद्धिकाण्डक, संख्यातगुणवृद्धिकाण्डक, असंख्यातगुरगबृद्धिकाण्डक, अनन्तगुणवृद्धिकाण्डक होते हैं ॥२०२।।
षट्स्थान प्ररूपणा में अनन्तभागवृद्धि किस वृद्धि के द्वारा वृद्धिंगत हुई है ? अनन्तभागवृद्धि सब जीवों से वृद्धिगत हुई है। इतनी मात्र वृद्धि है ॥२०४।।" यहाँ पर सब जीवराशि की संख्या से प्रयोजन है। सब जीवराशि का जघन्य स्थान में भाग देने पर जो लब्ध हो वह वृद्धि का प्रमाण है। जघन्यस्थान को प्रतिराशि करके उसमें वृद्धिप्राप्त प्रक्षेप को मिलाने से अनन्त भागवृद्धि का प्रथमस्थान
१. प.पु. ६ पृ. २२ ।
२. घ.सु. १२ पृ. १२०-१२१ ।
३. घ.पु. १२ पृ. १२८ ।
४. ध.पु. १२ पृ. १३५ ।
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गाथा ३२३-३३१
ज्ञानमार्गापा/१०७
क
उत्पन्न होता है।'
असंख्यातभागवृद्धि प्रसंख्यातलोकभागवृद्धि द्वारा होती है। इतनी मात्र वृद्धि होती है ॥२०६॥ "असंख्यातलोक" ऐसा कहने पर जिन भगवान के द्वारा (धुतकेवली के द्वारा) जिनका स्वरूप जाना गया ऐसे असंख्यात लोकों का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इस सम्बन्ध में विशिष्ट उपदेश का अभाव है। अनन्तभागवृद्धिकाण्डक के अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थान में प्रसंख्यातलोक का भाय देने पर जो लब्ध हो उसको उसी में मिला देने पर असंख्यात भागवृद्धि का प्रथम स्थान उत्पन्न होता है। यह स्थानान्तर अधस्तन स्थानान्तर से अनन्तगुणा होता है । गुणाकार असंख्यातलोक से अपवर्तित एक अधिक सब जीवराशि है।' इसका स्पष्टीकरण
माना कि उस विवक्षित स्थान के प्रविभागप्रतिच्छेद "क" हैं, जिसके कि वाद वाला स्थान अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थान है; और ठीक तत्पश्चात् असंख्यातभागवृद्धिस्थान प्राता है । तो
विवक्षित स्थान के अविभाग प्रतिच्छेद == 'क' अत: इसके ऊपर होने वाली अनन्तभागवृद्धि - ----
जीवराशि अतः "क" अविभाग प्रतिच्छेदों में उक्त अनन्तभागवृद्धि को मिलाने पर--
(जीवराशि xक) + क जीवराशि
जीवराशि यही अन्तिम अनन्तभागवृद्धि स्थान है। अब इसके ठीक बाद असंख्यातभाग वृद्धिस्थान है। वह इतना होगा := अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थान + अन्तिम अनन्तभागवृद्धि स्थान का असंख्याताभाग (जीवराशि - क) + क (जीवराशि x क) + क जीवराशि
जीवराशि x असंख्यातलोक क (जीवराशि + १ क (जीवराणि+१) जीवराणि + जीबराशि - असं. लोक
क(जीवराशि १) नोट --इस असंख्यातभागवद्धिस्थान में मात्र वृद्धि = ---
__ जीवराशि x असं.लोक अब अधस्तन स्थान में वृद्धि थी = ----- ...... {A)
जीवराशि
-
--
---
-
-
-
-
--
-
+
- इतनी है।
१. ध.पु. १२ पृ. १३५। २. घ.पु. १२ पृ. १५१ । ३. धवल पु. १२ पृ. १५१ ।
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४०८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३२३-३१
... (B)
-
-
X
-
----
क (जीवराशि+१) यहां असंख्यात भागवृद्धि है = -
___ जीवराशि x असं. लोक अब अधस्तन स्थान की वृद्धि (A) से असंख्यातभागवृद्धि (B); कितनी गुणी है ? इसे मात करने के लिए मार्गख्यात गाजि (B) कालन्त स्मारक वृद्धि अर्थात् अनन्तभागवृद्धि (A) का भाग देना पड़ेगा?
___ क (जीवराशि+१) क भाग देने पर -
जीवराशि x असं. लोक जीवराशि क (जीवराशि :- १) जीवराशि
जीवराशि x असं.लोक क ऊपर के क और जीवराशि को नीचे के क और जीवराशि से अपवर्तित करने पर यानी काटने पर, यानी सदृश धन का अपनयन करने पर :
(जीवराशि १)
असंख्यात लोक = असंख्यात लोक से भक्त एक अधिक जीवराशि ।
इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि गुणकार असंख्यात लोक से अपवर्तित एक अधिक सब जीवराशि प्रमाण है।
__ संख्यातभागवृद्धि एक कम जघन्य असंख्यातभागवृद्धि द्वारा वृद्धि को प्राप्त होती है ॥२०॥ 'एक कम जघन्य असंख्यात' से उत्कृष्ट संख्यात का ग्रहण होता है । इस उत्कृष्ट संख्यात का एक अधिक काण्डक से गुणित काण्डक प्रमारण वृद्धियों में से अन्तिम अनन्तभाग वृद्धि स्थान में भाग देने पर जो लब्ध हो उसको उसी स्थान में प्रतिराशि करके मिलाने पर संख्यातभागवृद्धि का प्रथम स्थान होता है। इसमें से एक अविभागप्रतिच्छेद कम होने पर स्थानान्तर होता है। यह अधस्तन अनन्तभागवृद्धि स्थानान्तरों से अनन्तगरणा है। असंख्यातभागवृद्धि स्थानान्तरों से असंख्यातगुणा है। उपरिभ अनन्तगुणवृद्धि के अधस्तन अनन्तभागवृद्धि स्थानान्तरों से अनन्तगुणा है । असंख्यातगुणवृद्धि के अधस्तन असंख्यात भागवृद्धि स्थानान्तरों से असंख्यातगुणा है । अनन्तगुणवृद्धि के अधस्तनवर्ती संख्यात भागवृद्धि स्थानान्तरों से संख्यातवें भाग से होन, संख्यातगुणा हीन अथवा असंख्यातगुणाहीन है ।'
संख्यात गुणवृद्धि एक कम जघन्य असंख्यात गुणवृद्धि से वृद्धिंगत होती है। काण्डक प्रमाण संख्यातभाग वृद्धियां जाकर फिर प्रागे संख्यात भाग वृद्धि के विषय में स्थित अनन्तभागवृद्धि स्थान को उत्कृष्ट संख्यात से गुणित करने पर संख्यातगुणवृद्धि होती है। अघस्तन स्थान में इस
१. ध.पु. १२ पृ. १५४ ।
२. घ.पु. १२ पृ. १५४ ५ १५५ । ३. प.पु. १२ पृ. १५५ ।
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गाथा ३२६-३३१
ज्ञानभारा/४०६
वृद्धि को मिलाने पर संख्यातगुणवृद्धि का प्रथम स्थान होता है। यह स्थान ग्रधस्तन उर्व स्थानान्तरों की वृद्धि से प्रनन्तगुण वृद्धि वाला होता है, चतुरंक स्थानान्तरों की वृद्धि से असंख्यातगुण वृद्धि वाला, पंचांक स्थानान्तरों की वृद्धि से प्रसंख्यातगुणवृद्धि वाला होता है ।" उपरिम भ्रष्टा के अधस्तन उर्वक स्थानान्तरों से अनन्तगुरणा, प्रथम षट् स्थान में उपरिम प्रथम सप्तांक से स्तन चतुरंक स्थानान्तरों से असंख्यात गुणा तथा द्वितीय असंख्यातगुण वृद्धि से अधस्तन संख्यातभाग वृद्धि स्थानान्तरों से संख्यातगुणा, संख्यातभाग हीन, संख्यातगुणा हीन अथवा प्रसंख्यातगुणा होन है ।
असंख्यात गुणवृद्धि प्रसंख्यात लोक गुणाकार से वृद्धिगत है ।। २१२ ॥ काण्डकप्रमाण छह अंकों के हो जाने पर यथाविधि वृद्धि को प्राप्त उपरि षडंक के विषय (स्थान) में स्थित अन्तिम उक को असंख्यात लोकों से गुणित करने पर असंख्यात गुणवृद्धि उत्पन्न होती है। उर्वक को प्रतिराणि करके उसमें उसे (अर्थात् वृद्धि को ) मिलाने पर असंख्यातगुरण वृद्धिस्थान होता है। असंख्यात गुणवृद्धि में से एक विभाग प्रतिच्छेद कम कर देने पर स्थानान्तर" होता है । यह प्रधस्तन श्रनन्तभागवृद्धि स्थानान्तरों से अनन्तगुणा असंख्यात भाग वृद्धि, संख्यात भाग वृद्धि और संख्यातगुण वृद्धि स्थानान्तरों से असंख्यातगुरणा, उपरिम गुणवृद्धि स्थान के नीचे स्थित अनन्त भागवृद्धि स्थानान्तरों से अनन्त गुणा, असंख्यात भाग वृद्धि स्थानान्तरों से असंख्यात गुणा, संख्यात भागवृद्धि स्थानान्तरों से संख्यात गुगा संख्यातभाग हीन, संख्यातगुण हीन अथवा प्रसंख्यातगुण हीन तथा संख्यात गुणवृद्धि व श्रसंख्यात गुणवृद्धि स्थानान्तरों से श्रसंख्यातगुणाहीन है । आगे जानकर लेजाना चाहिए। *
अनन्तगुणवृद्धि सब जीवों के गुरणाकार से वृद्धिंगत है || २१४ ॥ १ श्रधस्तन उवक को सच जीवराशि से गुणा करने पर अनन्त गुणवृद्धि होती है। उसी को प्रतिराशि करके अनन्तगुणवृद्धि के मिलाने पर अनन्तगुणवृद्धि स्थान होता है । यहाँ पर भी स्थानान्तरों से तुलना करनी चाहिए। इस प्रकार असंख्यात लोक मात्र पद्स्थानों में स्थित वृद्धियों की प्ररूपणा करनी चाहिए ।
यहाँ अनन्तभाग वृद्धि की उर्वक संज्ञा है, असंख्यातभाग वृद्धि की चतुरंक, संख्यातभागवृद्धि की पंचांक, संख्यातगुणवृद्धि को षडंक, प्रसंख्यात गुणवृद्धि की सप्तांक और अनन्तगुणवृद्धि की अष्टक संज्ञा जाननी चाहिए ।" उ और ३ का अंक ( ३ ) सदृश है इसलिए अनन्तभागवृद्धि की संज्ञा त्र्यंक न रख कर उर्वक रखदी गई, प्रयोजन तीन के अंक से ही है। क्योंकि तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ ये छह स्थान हो जाते हैं। शेष स्थानों की चतुरंक ग्रादि संज्ञा यथाक्रम संख्या दी गई है।
शङ्का अष्टांक किसे कहते हैं ?
समाधान - अधस्तन उर्वक को सब जीवराशि से गुणित करने पर जो प्राप्त हो उतने मात्र से जो स्तन उक से अधिक स्थान है, वह अष्टांक है ।
शङ्का – जघन्य स्थान प्रष्टांक है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- 'जघन्य स्थान से अनन्तभागवृद्धिस्थानों का कोडक जाकर प्रसंख्यात भाग वृद्धि का
१. घवल पु. १२ पृ. १५५-१५६ । २. वल पू. १२ पृ. १५६ । १५६-१५७ । ५. धवल पु. १२ पृ. १५७-१५६ । ६. धवल पु.
३. ध. पु. १२ पृ. १२ पृ. १७० ।
१५६ । ४. धवल पु. १२ पृ. ७. धवल पु. १२ पृ. १३१ ।
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४१० / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३२३-३३१
स्थान होता है।' यह जो प्ररूपणा की गई है उससे जाना जाता है कि जघन्य स्थान उर्वक नहीं है। क्योंकि उर्वक होने पर समस्त काण्डक प्रमाण गमन घटित नहीं होता । वह चतुरंक भी सम्भव नहीं है, क्योंकि काण्ड प्रसारण असंख्यात भागवृद्धियां जाकर प्रथम संख्यात वृद्धि होती है। ऐसा वहीं कहा गया है ! वह पंचांक भी नहीं हो सकता, क्योंकि संख्यात भागवृद्धि काण्डक जाकर संख्यातगुणवृद्धि होती है, ऐसा कहा गया है। वह षष्ठांक भी सम्भव नहीं है, क्योंकि काण्डक मात्र संख्यात गुणवृद्धि जाकर प्रसंख्यात गुणवृद्धि होती है, ऐसा वचन है। वह सप्तांक भी नहीं हो सकता, क्योंकि काण्डक प्रमाण असंख्यात गुणवृद्धि जाकर अनन्त गुणवृद्धि होती है ऐसा सूत्र वचन है । अतएव परिशेष स्वरूप से वह जघन्य स्थान ऋष्यांक ही है ।"
क्योंकि जघन्य स्थान ग्रष्टांक है अतः प्रथम षट्स्थान में अनन्तगुणवृद्धि सम्भव नहीं है । शेष स्थानों में प्रथम स्थान अनन्त गुणवृद्धि का होता है अतः शेष षट् स्थानों में छहों वृद्धियाँ सम्भव हैं किन्तु प्रथम पट् स्थान में पाँच वृद्धियाँ होती हैं ।
शङ्का–काण्डक का प्रमाण कितना है ?
समाधान — काण्डक का प्रमाण अंगुल का प्रसंख्यातवाँ भाग है। उसका (अंगुल का ) भागहार क्या है, विशिष्ट उपदेश का अभाव होने से उसका परिज्ञान नहीं है ।
अनन्तभागवृद्धिकाण्डक प्रमाण जाकर असंख्यात भाग वृद्धि का स्थान होता है ।। २१५ ३ | ३ अनन्तभागवृद्धियों के काण्डक का वर्ग और एक काण्डक जाकर संख्यात भागवृद्धि का स्थान होता है ॥२२० ॥ * एक असंख्यात भाग वृद्धि के नीचे यदि काण्डक प्रमाण अनन्त भाग वृद्धियाँ होती हैं तो एक अधिक काण्डक प्रमाण असंख्यात भाग वृद्धियों के नीचे वे (अनन्तभाग बुद्धियाँ) कितनी होंगी, इस प्रकार प्रमाण से फलगुणित इच्छा को अपवर्तित करने पर [ ( काण्डक ) x ( काण्डक + १ ) ] काण्डक सहित काण्डक के वर्ग प्रमाण अनन्तभाग वृद्धियाँ होती हैं । अंक संदृष्टि में काण्डक - ४ ४× (४+१)- [(४× ४ ) + ४] इतनी अनन्तभाग बृद्धियाँ बिना संख्यात भागवृद्धि उत्पन्न नहीं हो सकतीं ।
शङ्का - संख्यात भाग वृद्धि के नीचे काण्डकप्रमाण हो असंख्यात भाग वृद्धियाँ होती हैं। प्रब राशिक करने पर एक अधिक काण्डक अनन्तभाग वृद्धिस्थानों का उत्पन्न कराना कैसे योग्य है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संख्यातभाग वृद्धि के नीचे प्रसंख्यात भागवृद्धियाँ काण्डक प्रमाण ही होती हैं, किन्तु अन्य एक प्रसंख्यातभाग वृद्धि के विषय (स्थान) को प्राप्त होकर संस्थात भाग वृद्धि के योग्य ग्रध्वान में असंख्यात भाग वृद्धि न होकर संख्यात भाग वृद्धि उत्पन्न होती है। इसलिए उक्त कथन दोष को प्राप्त नहीं होता ।
असंख्यात भाग वृद्धियों का काण्डक वर्ग व एक काण्डक जाकर (१६+४) संख्यात गुणवृद्धि का स्थान होता है ।। २२१|| एक संख्यातभाग वृद्धि के नीचे यदि काण्डकप्रमाण असंख्यात भाग
१. घवल पु. १२ पृ. १३०-१३१ । २. धवल पु. १२ पृ. १६३ । ३. धवल पु. १२ पृ. १६३ । ४. घवल पु. १२ पृ. १२६ । ५. घबल पु. १२ पृ. १६६-१६७ । ६. धवल पु.
१२ पृ. १६७ ।
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गाथा ३२३-३३१
शानभाग/४११
वृद्धियाँ पायी जाती हैं तो एक अधिक काण्डक प्रमाण संख्यातभाग वृद्धियों के नीचे वे कितनी पायी जावेंगी। इस प्रकार प्रमाण से फलगुरिणत इच्छा को अपरिवर्तित करने पर काण्डकासहित काण्डकवर्गप्रमाण असंख्यात भाग वृद्धियाँ होती हैं ।'
संख्यात भाग द्धियों का काण्डक वर्ग और एक काण्डक जाकर (१६+४) असंख्यात गुणवृद्धि का स्थान होता है ॥२२२।। एक संख्यात गुरग वृद्धि के नीचे संख्यात भाग वृद्धियाँ होती हैं तो एक अधिक काण्डक प्रमाण संख्यात गुणवृद्धियों के नीचे वे कितनी होंगी; इस प्रकार प्रमाण से फलगुरिणत इन्छा को अपर्तित करने पर काण्डक सहित काण्डकवर्गप्रमारग संख्यात भाग वृद्धियां होती
संख्यातगुण वृद्धियों का काण्डक-वर्ग और एक काण्डक जाकर (१६+४) अनन्तगुणवृद्धि का स्थान होता है ।।२२३।। एक असंख्यातगुण वृद्धि के नीचे यदि काण्डक प्रमाण संख्यातगुणवृद्धियाँ होती है तो एक अधिक काण्डक प्रमाण असंख्यात गुणवृद्धियों के नीचे वे कितनी होंगी, इस प्रकार प्रमाण से फलगुणित इच्छा को अपवर्तित करने पर अष्टांक के नीचे काण्डक सहित काण्डका वर्ग प्रमाण संख्यातगुणवृद्धि स्थान होते हैं।'
इस प्रकार एक षट्-स्थान-पतित के भीतर अनन्त भाग वृद्धियाँ पांच काण्डकों की अन्योन्याभ्यस्त राशि (४४४४४४४४४ अर्थात् ४४४२१०२४) व चार काण्डक वर्ग के वर्ग, तथा छह कापडकघन, व चार काण्डकवर्ग और एक काण्डक प्रमाण हैं। अंक संदृष्टि १०२४ + (२५६ + २५६ : २५६+२५६) + (६४ + ६४ + ६४+६४ + ६४ + ६४) + (१६+१६+ १६+१६+४ इतनी बार अनन्तभाग वृद्धि होती है। असंख्यातभागवृद्धियो एक काण्डकावर्ग संवर्ग व तीन काण्डकघन तथा तीन काण्डक वर्ग और एक काण्डक प्रमाण होती है २५६ + (६४+६४+६४) + (१६ +१६+ १६) +४। संख्यात भाग वृद्धियां काण्डक धन व दो काण्डक वर्ग और एक काण्डक प्रमाण होती हैं। ६४+ (१६ +१६) + ४। संख्यात गुणवद्धियो काण्डकवर्ग व काण्डकप्रमाण है-१६+४। असंख्यात गुणवद्धियाँ काण्डक प्रमाण -४ । अष्टांक एक है जो जघन्य स्थान है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित सुत्र भी है-"अनन्तगुणवृद्धि के नीचे अनन्तभाग वृद्धियाँ-पांच बार गुरिणत काण्डक, चार काण्डकवर्गावर्ग, छह काण्डकघन, चार काण्डकवर्ग और काण्डक प्रमाण होती है । (४४४४४४४४४-१०२४) + (४ काण्डकवर्गावर्ग= ४४२५६) + (४३४६) + (४२४४) + ४ अथवा १०२४ + २५६ + २५६ + २५६ + २५६ ६४ + ६४ + ६४ + ६४ । ६४ |- ६४+१६ + १६+१६+१६+ ४ ॥२२॥
अनन्तगुणवृद्धि के नीचे असंख्यात भाग वृद्धियाँ एक काण्डकवर्गावर्ग, तीन काण्डकघन, तीन काण्डकवर्ग और एक काण्डक होती है ।।२२८।। [(४४४५) + (४३४३) + (४२४३)+ ४] अथवा [२५६+६४+६४ + ६४ -- १६ + १६ + १६ + ४] "
अनन्तभाग वृद्धिस्थान के नीचे संख्यात भाग वृद्धियों का प्रमाण एक काण्डक घन, दो काण्डक वर्ग और एक काण्डक होता है [४३(४२४२)+४] २२६।। अथवा [६४ + १६ + १६ + ४]
१. धवल पु. १२ पृ. १६७। २. पक्षल पु. १२ पृ. १६७-१६८। ३. घबल पु. १२ पृ. १६ । ४. धवल पु. १२ पृ. १६२-१३३ । ५. धवल पु. १२ पृ. २०१। ६. धवल पु. १२ पृ. २०१। ७. प.पु. १२ पृ. १६६ ।
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४१२/ गो. सा. जोक्काण्ड
गाथा ३२३-३३१
संख्यातगुणवृद्धियों का काण्डकवर्ग और काण्डक (१६+४) जाकर अनन्तगुणवृद्धि का स्थान होता है ॥२२३॥ यहाँ सर्वत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण कापइक को अङ्कसंदृष्टि चार (४) का अङ्क है।
असंख्यात गुणवृद्धि काण्डक प्रमाण जाकर अनन्त गुणवृद्धि का स्थान उत्पन्न होता है ।।११६॥
शङ्का--- संख्यात भागवृद्धि क्रम से बढ़ते हुए जघन्य स्थान कितना अध्वान जाकर दुगुणा हो जाता है ?
समाधान - अज्ञानी जनों को बुद्धि उत्पन्न कराने के लिए तीन प्रकार से दुगुणवृद्धि की प्ररूपणा की गई है। वह स्थूल, सूक्ष्म और मध्यम के भेद से तीन प्रकार है। स्थल प्ररूपणा इस प्रकार है-जघन्य स्थान के प्रागे उत्कृष्ट संख्यात प्रमाग संख्यात भाग वद्धि स्थानों के बं दुगुण वृद्धि होती है, क्योंकि उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण संख्यात प्रक्षेपों से एक जघन्य स्थान के उत्पन्न होने से वृद्धिजनित जघन्य स्थान के साथ अोघ जघन्य स्थान उससे दुगुणा हो जाता है।
शङ्का यह प्ररूपणा स्थून कैसे है ?
समाधान-क्योंकि इसमें पिशुल आदिकों को छोड़कर प्रक्षेपों से ही उत्पन्न जघन्य स्थान से दुगुणत्व की प्ररूपणा की गई है ।
मध्यम प्ररूपणा इस प्रकार है-अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र संख्यात भाग वृद्धिस्थानों में उत्कृष्ट संख्यात मात्र संख्यात भाग वृद्धिस्थानों के प्रथम स्थान से लेकर रचना करनी चाहिए। उनमें उत्कृष्ट संख्यात का तीन चतुर्थ भाग मात्र (1) अध्वान आगे जाकर दुगुण वृद्धि होती है। उत्कृष्ट संख्या के लिए संदृष्टि में सोलह (१६) अङ्क ग्रहण किये जाते हैं। उत्कृष्ट संख्यात का जघन्य स्थान में भाग देने पर संख्यातभागवृद्धि होती है। उसको जघन्य स्थान में मिलाने पर प्रथम संख्यातभागवृद्धि स्थान होता है। दो प्रक्षेपों और एक पिशुल को जघन्य स्थ मिलाने पर द्वितीय संख्यातभाग वृद्धि स्थान उत्पन्न होता है। तीन प्रक्षेपों, तीन पिशुलों और एक पिशुलापिशुल को जघन्यस्थान में मिलाने पर तृतीय संख्यातभाग वृद्धिस्थान होता है। चार प्रक्षेपों, छह पिशुलों, चार पिशुलापिशुलों और एक पिशुलापिशुलपिशुल को जघन्य स्थान में मिलाने पर चतुर्थ संख्यात भाग वद्धि स्थान होता है। इस प्रकार से प्रागे भी जानकर लेजाना चाहिए। विशेष इतना है कि प्रक्षेप एकसे लेकर एक अधिक क्रमसे बढ़ते हैं। पिशुल एक कम बीते हुए अध्वान के संकलन स्वरूप से बढ़ते हैं। पिशुलापिशुल दो कम गये हुए अध्वान के द्वितीय बार संकलन के स्वरूप से बढ़ते हैं। पिशुलापि शुलपिशुल तीन कम गये हुए अध्वान के तृतीय बार संकलन स्वरूप से जाते हैं। इस प्रकार से आगे भी कहना चाहिए। उनकी यह संदृष्टि है
१. श्रवल पु. १२ पृ. १६८ ।
२. धवल पु. १२ पृ. १६५।
३. धवल पु. १२ पृ. १७४-१७४ ।
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज
गाथा ३२३-३३१
जानमार्गा/४१३
संदृष्टि में यहाँ प्रक्षेप बारह (१२), पिशुल बासठ (६६) और पिशुलापिशुल दो सौ बीस (२२०) मात्र हैं। इसप्रकार स्थापित करके दुगुणी वृद्धि को प्ररूपणा करते हैं ।
शङ्का - उत्तृष्ट संख्यात के तीन चतुर्थ भाग ००००००००००००
(१६४१-१२) मात्र प्रक्षेप हैं। इनको पृथक स्था० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ०
पित करके फिर यहां उत्कृष्ट संन्यात के चतर्थ भाग ००००००००००
मात्र सकल प्रक्षेप यदि होते हैं तो दुगुनी वृद्धि का ००००००००
स्थान होता है परन्तु इतना है नहीं। अतएव यहाँ दुगुणी वृद्धि नहीं उत्पन्न होती है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि पिशुलों की अपेक्षा उत्कृष्ट संख्यात के चतुर्थ भाग मात्र प्रक्षेप पाये जाते हैं । यथा- उत्कृष्ट संख्यात के तीन चतुर्थभाग मात्र
आगे जाकर स्थित संख्यात्तभागवृद्धिस्थान में उत्कृष्ट संख्यात के एक कम तीन चतुर्थ भाग के संकलन प्रमाण पिशुल हैं। एक को आदि लेकर एक अधिक क्रम से स्थित उनका समीकरण करने में प्रथम स्थान के एक पिशुल को ग्रहण कर अन्तिम पिशुलों में मिलाने पर उत्कृष्ट संख्यात के तीन चतुर्थ भाग मात्र पिंशुल होते हैं। द्वितीय स्थान में स्थित दो पिशुलों को ग्रहण वार दो कम द्विचरम पिशुलों में मिलाने पर यहाँ भी उत्कृष्ट संख्यात के तीन चतुर्थ भाग मात्र पिशुल होते हैं। तृतीय स्थान में स्थित ०००००००००००० वीन पिगुलों को ग्रहण कर तीन विचरम पिशुलों में ११०००००००००००० मिलाने पर उत्कृष्ट संन्यात के तीन चतुर्थ भाग २००० ० ० ० ० ० ० ० ० मात्र पिशुल होते हैं। इस प्रकार सबका समीकरण करने पर उत्कृष्ट संख्यात के तीन चतुर्थ भाग - ०० ० ००० ० ० ० ० ० ० प्रायत और एक कम तीन चतुर्थ भाग के अर्घभाग प्रमाण विस्तृत क्षेत्र होकर स्थित होता है । वह यह है ।
० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ०
फिर इसमें से उत्कृष्ट संख्यात के चतुर्थ भाग विष्कम्भ और उसके तीन चतुर्थ भाग आयाम के प्रमाण से छीलकर पृथक स्थापित करना चाहिए।
ܘ ܀ ܀ ܀ ܘ ܘ ܘ ܘ ܘ ܘ ܘ ܘ?
४० ० ० ० ० ० ० ० ००० ०
.m.
.
शेष क्षेत्र उत्कृष्ट संख्यात के ती लायत और उत्कृष्ट संख्यात के ही अर्धग्रंक से कम आठवें भाग विस्तृत क्षेत्र होकर स्थित होता है।
फिर इसके तीन खण्ड करके उनमें तृतीय खण्ड में से उत्कृष्ट संख्यान के पाटवें भाग मात्र पिशुलों को ग्रहण कर द्वितीय खण्ड की हीन पंक्ति में मिलाने पर प्रथम और द्वितीय खण्ड उत्कृष्ट संख्यात के चतुर्थभाग आयाम और उसके आठवें भाग विष्कम्भ से स्थित होते हैं। फिर उनमें से
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४१४ / गो. सा. जीवकाण्ड
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द्वितीय खण्ड को ग्रहरण कर प्रथम खण्ड के ऊपर स्थापित करने पर उत्कृष्ट संख्यात के चतुर्थ भाग विष्कम्भ और प्रायामयुक्त समचतुस्र क्षेत्र होता है। इसको उत्कृष्ट संख्यात के चतुर्थ भाग विष्कम्भ और उसके तीन चतुर्थ भाग प्रायाम वाले पूर्व के क्षेत्र में मिला देने पर उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण आयाम और उसके चतुर्थ भाग मात्र विष्कम्भ युक्त क्षेत्र होकर स्थित रहता है । उसका प्रमारण यह है
००
०
००००००००००००००००
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20 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 ४००
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गाथा ३२३-३३१
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००००ooooooo
यहाँ कि उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण पिशुलों को ग्रहण कर एक संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप होता है, श्रतएव समस्त प्रक्षेप उत्कृष्ट संख्यात के चतुर्थ भाग प्रमाण होते हैं। इन (४ ) प्रक्षेपों को पहले उत्कृष्ट संख्यात के तीन चतुर्थ भाग प्रमाण (१२) प्रक्षेपों में मिलाने पर उत्कृष्ट संख्यात (१६) प्रमाण संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप होते हैं। ये सब मिलकर एक जघन्य स्थान होता है। इसे एक जघन्य स्थान में मिलाने पर दुगुनी वृद्धि होती है। शेष पिशुल और पिशुला पिशुल उसी प्रकार से स्थित रहते हैं । यह भी स्थूल अर्थ है ।
अब इसकी अपेक्षा सूक्ष्म अर्थ की प्ररूपणा करते हैं - उत्कृष्ट संख्यात के छप्पन खण्ड करके उनमें से इकतालीस खण्ड प्रथम संख्यातभागवृद्धिस्थान से आगे जाकर अथवा उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण संख्यातभागवृद्धिस्थानों के श्रन्तिम स्थान से पन्द्रह खण्ड नीचे उतर कर वहां के स्थान में दुगुणी वृद्धि का स्थान उत्पन्न होता है । यथा - इकतालीस मात्र खण्ड ऊपर चढ़ कर स्थित वहाँ के स्थान में ( ४१ ) खण्ड प्रमाण ही सकल प्रक्षेप पाये जाते हैं ।
अब यहाँ पन्द्रह खण्ड प्रमाण सकल प्रक्षेपों के होने पर एक जघन्य स्थान उत्पन्न होता है । उनकी उत्पत्ति का विधान बतलाते हैं - वहाँ के स्थान सम्बन्धी पिशुलों का प्रमाण इकतालीस खण्डों के संकलन मात्र है ( ४१ ) ।
शङ्का - वह एक अंक से कम है, ऐसा क्यों नहीं कहते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि स्तोक स्वरूप होने से यहाँ उसकी प्रधानता नहीं है ।
फिर उनका समीकरण करने पर इकतालीस खण्ड प्रमाण आयाम और इकतालीस के द्वितीय भाग प्रमाण त्रिष्कम्भ से युक्त होकर क्षेत्र स्थित होता है - २०३४ । इस प्रकार से स्थित क्षेत्र के भीतर पन्द्रह खण्ड विस्तृत और इकतालीस खण्ड प्रायत क्षेत्र को ग्रहण करने के लिए पहले आयाम के प्रमाण से पन्द्रह खण्ड मात्र पिशुलों के बराबर विष्कम्भ को छोड़ कर एक खण्ड के द्वितीय भाग से अधिक पाँच खण्ड प्रमाण विस्तृत और इकतालीस खण्ड प्रमाण प्रायत क्षेत्र को खण्डित करके अलग करके पृथक् स्थापित करना चाहिए ३४१। फिर इसमें से एक खण्ड के अर्थ भाग मात्र विष्कम्भ और इकतालीस खण्ड मात्र आयाम से क्षेत्र को ग्रहण कर पृथक् स्थापित करना चाहिए । फिर इसमें से एक खण्ड के प्रभाग मात्र विष्कम्भ और एक खण्ड मात्र आयाम से काट कर पृथक् स्थापित करना चाहिए ३ इस ग्रहण किये गये क्षेत्र से शेष क्षेत्र इतना होता है । ३४ । इस क्षेत्र के
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गाथा ३३२
जानमार्गशा/४१५
पायाम की ग्रोर से पाठ खण्ड करके विष्कम्भ के ऊपर जोड़ देने पर चार खण्ड विष्कम्भ और पाँच खण्ड पायाम युक्त क्षेत्र होता है ४ ५। इसको पाँच खण्ड बिष्कम्भ और इकतालीस खण्ड आयाम युक्त क्षेत्र के मिर के ऊपर स्थापित करने पर पाँच खण्ड विष्कम्भ और पैतालीस खण्ड अायाम युक्त क्षेत्र होता है ५४५। इसके तीन खण्ड करके एक खण्ड के विष्कम्भ के ऊपर मेष दो खण्डों के विष्कम्भ को जोड़ देने पर विष्कम्भ और आयाम से पन्द्रह खण्ड मात्र समचतुष्कोण क्षेत्र होता है १५ १५। इसको ग्रहण कर पन्द्रह खण्ड विष्कम्भ और इकतालीस खण्ड आयाम युक्त क्षेत्र के सिर पर स्थापित करने पर पन्द्रह खण्ड विष्कम्भ और छप्पन खण्ड पायाम युक्त क्षेत्र होता है १५५ । आयाम के छप्पन खण्डों में उत्कृष्ट संख्यात मात्र पिशुल होने हैं। उत्कृष्ट संख्यात मात्र पिशुलों से भी एक सवाल प्रक्षेप होता है क्योंकि एक सकल प्रक्षेप को उत्कृष्ट संख्यात' से खण्डित करने पर एक विशाल पाया जाता है। इसलिए इसमें पन्द्रह खण्ड मात्र सकल प्रक्षेप पाये जाते हैं। इन सकल प्रक्षेपों को इकतालीस खण्ड मात्र सकल प्रक्षेपों में मिलाने पर छप्पन खण्ड मात्र सकल प्रक्षेप होते हैं । वे सब मिलकर एक जघन्यस्थान होता है, क्योंकि ठप्पन खण्ड मात्र सकल प्रक्षेपों द्वारा उत्कृष्ट संख्यात मात्र सकल प्रक्षेप उत्पन्न होते हैं।
शङ्का--उत्कृष्ट संख्यान मात्र प्रक्षेपों से जघन्य स्थान होता है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-उसका कारण यह है कि जघन्य स्थान में उत्कृष्ट संख्यात का भाग देने पर उसमें से जो एक भाग प्राप्त होता है, उसको सकल प्रक्षेप स्वीकार किया गया है।
इस जघन्य स्थान को भूल के जघन्य स्थान में मिलाने पर दुगुणी वृद्धि होती है। फिर एक खण्ड के अर्धभाग विष्कम्भ और एक खण्ड' पायाम रूप पूर्व में अपनीत करके स्थापित क्षेत्र की ओर से छप्पन खण्ड करके एक खण्ड के ऊपर शेष खण्डों के स्थापित करने पर एक खण्ड को एक मौ बारह से खण्डित करने पर उसमें से एक खण्ड मात्र सकन्न प्रक्षेप होते हैं। ये सकल प्रक्षेप और शेष पिशुलापिशुल अधिक होते हैं। यह प्ररूपणा भी स्थूल ही है।
अक्षरात्मक श्रुतज्ञान का कथन करने की प्रतिज्ञा एवं असंखलोगा अणक्खरप्पे हयंति छाहरणा । ते पज्जायसमासा अक्खरगं उरि वोच्छामि ॥३३२॥
गाथार्थ-इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण घटस्थान अनक्षरात्मक श्रुनज्ञान पर्यायसमास है। इनका कथन करके अब अक्षरात्मक श्रुतज्ञान का कथन करता हूँ ॥३३२।।
विशेषार्थ--अक्षर के तीन भेद -लध्यक्षर, निर्वतयक्षर, संस्थान अक्षर। सूक्ष्म निगोद लन्ध्यपर्याप्नक से लेकर श्रुतकेवली तक जीवों के जितने क्षयोपशम होते हैं उन सबकी लब्ध्यक्षर संज्ञा है। जीवों के मुख से निकले हुए प्राब्द को निर्वृत्त्यक्षर संज्ञा है। उस नित्यक्षर ने व्यक्त और अव्यक्त ये दो भेद हैं। उनमें से व्यक्त नित्यक्षर संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के होता है। अध्यक्त नित्यक्षर दोन्द्रिय से लेकर संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तक जीवों के होता है। संस्थानाक्षर
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४१६/ गो. सा. जीव काण्ड
गाथा १३३-३३४
का दूसरा नाम स्थापना अक्षर है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । 'यह यह अक्षर है' इस प्रकार अभेद रूप से बुद्धि में जो स्थापना होती है या जो लिखा जाता है वह स्थापना अक्षर है ।"
अक्षर श्रुतज्ञान
चरिमुच्वंकेर व हिदप्रत्थक्व र गुरिगदचरिममुच्वकं । प्रत्यवखरं तु गाणं होदित्ति जिणेहि पिट्ठि ॥ ३३३ ॥
गाथार्थ - अन्तिम उर्वक से अर्थाक्षर को भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उससे अन्तिम उको गुणित करने पर अर्थाक्षर ज्ञान होता है, ऐसा जिन (श्रुतकेवली ) द्वारा कहा गया है ।। ३३३ ।।
विशेषार्थ - प्रसंख्यात लोकप्रमाण षड् वृद्धियाँ ऊपर जाकर पर्यायसमास श्रुतज्ञान का उर्वक रूप अन्तिम विकल्प होता है । उस अन्तिम विकल्प को अर्थात् उदक को अनन्त रूपों से गुणित करने पर अक्षर नामक श्रुतज्ञान होता है ।
शङ्कर - उक्त प्रकार के इस श्रुतज्ञान की 'अक्षर' ऐसी संज्ञा क्यों हुई ?
समाधान- नहीं, क्योंकि द्रव्य श्रुत प्रतिबद्ध एक अक्षर से उत्पन्न श्रुतज्ञान की उपचार से 'अक्षर' ऐसी संज्ञा हुई ।
अन्तिम पर्यायसमासज्ञान स्थान में सब जीवराशि का भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसको उसी (अन्तिम पर्याय समास ज्ञान) में मिलाने पर अक्षरश्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । "
इस प्रकार अक्षरज्ञान के सम्बन्ध में धवल ग्रन्थ में दो मत पाये जाते हैं । एक मत के अनुसार अन्तिम पर्यायसमासज्ञान में अनन्तगुण वृद्धि होने पर अक्षरज्ञान उत्पन्न होता है। दूसरे मतानुसार अन्तिम पर्याय समास ज्ञान में अनन्तभाग वृद्धि होने पर अक्षरज्ञान उत्पन्न होता है। श्रुतकेवली के प्रभाव में यह नहीं कहा जा सकता कि इन दोनों में से कौनसा ठीक है । इसलिए दोनों मतों का संकलन करदिया गया है ।
इन दोनों मतों को दृष्टि में रखते हुए गा. ३३३ में अनन्तगुण वृद्धि व अनन्तभाग वृद्धि न कहकर यह कहा गया है कि अन्तिम पर्यायसमासज्ञान से अक्षरज्ञान को भाजित करके जो लब्ध प्राप्त हो उससे अन्तिम पर्यायसमास को गुणित करने पर अक्षरज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इस कथन का उपर्युक्त दोनों मतों में से किसी भी मत से विशेष नहीं होता ।
श्रुतनिबद्ध विषय का प्रमाण
पण वणिज्जा भावा श्रणंतभागो दु श्ररण भिलप्पाणं । पथरिगज्जाणं पुरण अनंतभागों सुवरिणबद्धो ॥ ३३४ ॥ । *
१. घवल पु. १३ पृ. २६४-२६५ । २. धवल पु. ६ पृ. २२ ३. धवल पु. १३५. २६४ ८ जयधवल पु. १ पृ. ४२, धवल पु. ६ पृ. ५७ व पु. १२ पू. १७१ पर भी हैं ।
४. यह गाथा
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गाथा ३३५
ज्ञानमार्गणा/४१७
गाथार्थ-अनभिलाप्य पदार्थों (जो पदार्थ शब्दों द्वारा नहीं कहे जा सकते हैं) के अनन्तवें भाग प्रमाण प्रज्ञापनीय (प्रतिपादन करने योग्य) पदार्थ है। प्रज्ञापनीय पदार्थों के अनन्तवभाग प्रमाण श्रुत-निबद्ध पदार्थ हैं ।। ३३४।।
विशेषार्थ- दा गाथा में कालमा नमार अनातभाग पदार्थ अनभिलाप्य हैं, जिनका ज्ञान बिना उपदेश के होता है । श्रुतज्ञान उपदेशपूर्वक ही होता है, ऐसा एकान्त नियम नहीं है।
शङ्खा --श्रुतज्ञान व केवलज्ञान दोनों सदृश हैं। ऐसा कहा जाता है, वह ठीक नहीं है क्योंकि इस गाथा में कहा गया है कि श्रुतज्ञान का विषय समस्त पदार्थ नहीं है, किन्तु प्रज्ञापनीय पदार्थों का अनन्तवाँ भाग है।
समाधान-समस्त पदार्थों का अनन्तवा भाग द्रव्य श्रुतज्ञान का विषय भले ही हो, किन्तु भावश्रुतज्ञान का विषय समस्त पदार्थ हैं। क्योंकि ऐसा मानने के बिना तीर्थंकरों के वचनातिशय के प्रभाव का प्रसंग होगा ।
शङ्का-पूर्णश्रुत कैसे उत्पन्न हो सकता है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अनुक्तावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के द्वारा वह उत्पन्न हो सकता है।
इस गाथा में द्रव्यश्रुत का प्रमाण बतलाया गया है। भावश्रुत की अपेक्षा इस गाथा की रचना नहीं हुई है । भावश्रुत की अपेक्षा श्रुतज्ञान और केवलज्ञान सदृश हैं ।
अक्षरसमासज्ञान तथा पदज्ञान का स्वरूप एयक्खरादु उरि एगेगेरणक्खरेण बढतो ।
संखेज्जे खलु उड्ढे पदणाम होदि सुदरगाणं ॥३३५।। गाथार्थ -एक अक्षरज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते जब संख्यात अक्षरों की वृद्धि हो जाय तब पद नामक श्रुतज्ञान होता है ।।३३५।।
विशेषार्थ--अक्षर श्रुतज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर की ही वृद्धि होती है, अन्य वृद्धियों नहीं होती हैं, इस प्रकार प्राचार्य परम्परागत उपदेश पाया जाता है। कितने ही प्राचार्य ऐसा कहते हैं कि अक्षर श्रुतज्ञान भी छह प्रकार की वृद्धि से बढ़ता है, किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि समस्त श्रुतज्ञान के संख्यातवें भागरूप अक्ष रज्ञान से ऊपर छह प्रकार की वृद्धियों का होना सम्भव नहीं है।
अक्षरशुतज्ञान से ऊपर और पदश्रुतज्ञान से अधस्तन श्रुतज्ञान के संख्यात विकल्पों की 'अक्षर
१. "सुदकेवले च गाणं दोण्ािवि सरिसागि होति" गो. जी. गा. ३६६]। २. बदल पु. ६ पृ. ५७ । ३. धवल पु. १२ पृ. १७१ । ४. घबल पु. ६ पृ. २२-२३ ।
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४१८ / गो. सा. जीवकाण्ड
समास' यह संज्ञा है । अन्तिम अक्षरसमास श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षरज्ञान के बढ़ने पर पदनामक श्रुतज्ञान होता है । "
अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद इस प्रकार पद तीन प्रकार का है। उनमें से जितने अक्षरों के द्वारा अर्थ का ज्ञान होता है। वह अर्थपद है वह अर्थपद अनवस्थित है, क्योंकि अनियत अक्षरों के द्वारा अर्थ का ज्ञान हो जाता है और यह बात प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि 'अ' का अर्थ विष्णु है, 'इ' का अर्थ काम है और 'क' का अर्थ ब्रह्मा है, इस प्रकार इत्यादि स्थलों पर एक-एक अक्षर से ही अर्थ की उपलब्धि होती है । आठ अक्षर से निष्पन्न हुआ प्रमाणपद है । यह अवस्थित है, क्योंकि इस की आठ संख्या नियत है ।
गाथा ३३६
प्रथंपद---जैसे "सफेद गौ को रस्सी से बाँधो" या "अग्नि लाओ" या "छात्र को विद्या पढ़ाओ" थवा "वालक को दूध पिलाओ" इत्यादि ।
प्रमाणपद - श्लोक के चार पाद होते हैं। प्रत्येक पाद में आठ-आठ प्रक्षर होते हैं । प्रत्येक पाद की 'प्रमाणपद' संज्ञा है, क्योंकि प्रमाणपद की प्राठ संख्या नियत है ।
यहाँ पर न तो अर्थपद से प्रयोजन है और न प्रमाणपद से प्रयोजन है, किन्तु मध्यमपद से प्रयोजन है।
तिथिहं पट्टि पमाणपदमत्यमज्झिमपदं व मक्रिमपdu बुत्ता पुठबंगाणं पदविभागा ॥ १६ ॥ ३
तिविहं तु पवं भणिदं श्रत्थपद - पमाण- मज्झिमपदं ति । मिपदेण भणिदा पुण्यंगाणं पदविभागा ॥ ६६ ॥ *
पद, प्रमाणपद और मध्यम पद, इस तरह पद तीन प्रकार का कहा गया है। इनमें मध्यम पद के द्वारा पूर्व अंगों के पदविभाग होते हैं ।
मध्यम पत्र के अक्षरों का प्रमाणा
सोलससमचतीसा कोडी तियसीदिलक्खयं चेव ।
सत्तसहस्साहसया अट्ठासीदो य पदवणा ।। ३३६॥
गाथार्थ - सोलहसी चौतीस कोटि तिरासी लाख सात हजार भाट सौ अठासी ( १६३४८३०८) एक मध्यमपद में अक्षर होते हैं ||३३६ ।।
विशेषार्थ - सोलह सौ चौंतीस करोड़ तेरासी लाख, श्रहत्तर सौ अठासी ( १६३४८३०७८८८ ) ग्रक्षरों को लेकर द्रव्यश्रुल का एक पद होता है । इन अक्षरों से उत्पन्न हुआ भावश्रुत भी उपचार से 'पद' कहा जाता है।
१. धचल . ६ . २३ । २. चवल पु. १३ पृ. २६५-२६६ । ३. बबल पु. १३ पृ. २६६ ४. धवल पु. ६ पृ. १९६, जयधवल पु. १ पृ. ६२ । ५. घवल पु. ६ पु. २३
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गाथा ३३७
ज्ञानमार्गणा/४१६
षोडशशसं चतुस्त्रिशतकोटीनां त्र्यशीतिमेव लक्षाणि । शतसंख्याष्टासप्ततिमष्टाशीति च पववर्णान् ॥६॥' सोलससदयोतीस कोडी सेसीवि चेव लक्खाई सससहस्सट्ठसदा अट्ठासीदा य पदवण्णा ॥१८॥ सोलहसयचौतीसं फोडीयो तियप्रसीदिलवस्वं च।
सत्तसहस्सट्ठसवं प्रछासीदी य पदवण्णा ॥३७॥' सोलह सौ चौतीस करोड़ तिरासी बाम गार गार साल नौ सदली इतने वर्ण (अक्षर) एक मध्यम पद के होते हैं। इतने अक्षरों को ग्रहणकर एक मध्यम पद होता है। यह मध्यम पद भी संयोगी अक्षरों की संख्या की अपेक्षा अवस्थित है, क्योंकि उसमें उक्त प्रमाण से अक्षरों की अपेक्षा वृद्धि और हानि नहीं होती। इन पदों में संयोगी अक्षर ही समान हैं, संयोगी अक्षरों के अवय व अक्षर नहीं, क्योंकि उनकी संख्या का कोई नियम नहीं है । इस मध्यमपद के द्वारा पूर्व और अंगों के पदों की संख्या का प्ररूपण किया जाता है ।
संघात श्रुतज्ञान एयपवादो उरि एगेगेणक्खरेण बडढतो।
संखेज्जसहस्सपदे उड्ढे संघावरणाम सुवं ॥३३७॥ गाथार्थ-इस एक मध्यम पद के ऊपर भी एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते संख्यात हजार पदों की वृद्धि हो जाने पर संघात नामक श्रुतज्ञान होता है ।।३३७॥
विशेषार्थ-इस पदनामक श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर-प्रमित श्रुतज्ञान के बढ़ने पर पदसमास नामक श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार एक-एक अक्षर अादि के क्रम से पदसमास नामका श्रुत बढ़ता हुया तब तक जाता है जब तक कि संघात नामका श्रुतज्ञान प्राप्त होता है।
शङ्का–पद के ऊपर अन्य एक पद के बढ़ने पर पदसमास श्रुतज्ञान होता है, ऐसा न कहकर पद के ऊपर एक अक्षर बढ़ने पर पदसमास श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है, ऐसा क्यों कहा गया है जबकि अक्षरपद नहीं हो सकता ?
समाधान यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि पद के अवयवभुत अक्षर को भी पद संज्ञा होने में कोई विरोध नहीं पाता। अवयव में अवयवी का व्यवहार अप्रसिद्ध है, यह बात भी नहीं है; क्योंकि 'वस्त्र जल गया, गाँव जल गया' इत्यादि उदाहरणों में वस्त्र या गांव के एक अवयव में ही अवयवी का व्यवहार पाया जाता है ।
शङ्का- अक्षर श्रुतज्ञान के ऊपर छह प्रकार की वृद्धि द्वारा श्रुतज्ञान की षट्म्थान पतित वृद्धि क्यों नहीं होती?
१. घबल पु. ६ पृ. १६५। २. प. पु. १३ पृ. २६६ । ३. जयधवल पु. १ पृ. ६२। ४. प. पु. १३ पृ.१६६ । ५. घ. 'पृ. १३ पृ. २६७। ६. जयधवल पु. १.१२। ५. घ. पु ६ पृ. २३ । ७. प. पु. १३ पृ. २६७ ।
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४२०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३३८-३३६
समाधान - नहीं होती, क्योंकि अक्षरज्ञान सकलथवज्ञान के संख्यातवें भाग प्रमाण होता है। उसके उत्पन्न होने पर संख्यात भाग वृद्धि और संख्यात गुणवृद्धि ही होती है। छह प्रकार की वृद्धियाँ नहीं होती, क्योंकि एक अक्षररूप ज्ञान के द्वारा जिसे बल की प्राप्ति हुई है उसके छह प्रकार की वृद्धि के मानने में विरोध आता है।'
संख्यात पदों के द्वारा संघात नामक श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। चारों गतियों के द्वारा मार्गणा होती है। उनमें जितने पदों के द्वारा नरकगति की एक पृथिबी निरूपित की जाती है उतने पदों की
और उनसे उत्पन्न हुए श्रुतज्ञान की 'संघात' ऐसी संज्ञा होती है। इसी प्रकार सर्व गतियों का और सर्व मार्गणाओं का प्राश्रय करके कहना चाहिए। प्रतिपत्ति के जितने अधिकार होते हैं उनमें से एक-एक अधिकार की संघात संज्ञा है । ३
प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान एक्कदरगविरिणरूवयसंघादसुदादु उपरि पुव्वं वा ।
वणे संखेज्जे संघादे उड्ढम्हि पडिवत्ती ।।३३८॥
थार्थपरक शिका निरूपण करने वाले संघात श्रुतज्ञान के ऊपर पूर्व के समान एक-एक अक्षर की क्रम से वृद्धि होते-होते जब संख्यात हजार संघात की वृद्धि हो जाय, तब एक प्रतिपत्तिनामक श्रुतज्ञान होता है ।।३३८।।
विशेषार्थ-संघात श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर-अमित श्रुतज्ञान के बढ़ने पर संघातसमास नामक श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार संघात-समास नामक श्रुतज्ञान तब तक बढ़ता हुआ जाता है जब तक कि एक अक्षर श्रुतज्ञान से कम प्रतिपत्ति नामक श्रुतज्ञान प्राप्त होता है। यहाँ पर भी संघात के प्रतीत होने पर बह भी संधात है, ऐसा समझकर संघात-समास वन जाता है। जितने पदों के द्वारा एक गति, इन्द्रिय, काय और योगादि मार्गणा प्ररूपित की जाती है, उतने पदों की प्रतिपत्ति यह संज्ञा है ।६ अनुयोगद्वार के जितने अधिकार होते हैं उनमें से एक-एक अधिकार की प्रतिपत्ति संज्ञा है। संख्यात संघात श्रुतज्ञानों का प्राश्रय कर एक प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान होता हैं।'
अनुयोग ध्रुतशान चउगइसरूवरूवयपरिवत्तीदो दु उबरि पुव्यं वा ।
वण्णे संखेज्जे पडियत्तीउढम्हि परिणयोगं ॥३३६।। गाथार्थ-चारों गतियों के स्वरूप का निरूपण करने वाले प्रतिपत्ति ज्ञान के ऊपर पूर्व के. सदृश एक-एक अक्षर की कम से वृद्धि होते-होते जब संख्यात प्रतिपत्ति की वृद्धि हो जाती है तब एक अनुयोग श्रुतज्ञान होता है ।। ३३६।।
.
१. धवल पु. १३ पृ. २६५। २. धवल पु. ६ पृ. २३ । ३. धवल पु. १३. २१६ । ४. धवल पु. ६ पृ. २३-२४ । ५. धवल पू. १३ पृ. २६६ । ६. धवल पु. ६ पृ. २४ । ७. एबल पु. १३ पृ. २६९ ।
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गाथा ३४०-३४१
ज्ञानमार्गणा/४२१
विशेषार्थ- प्रतिपत्ति नामक श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर प्रमाण श्रुतज्ञान के बढ़ने पर प्रतिपत्ति-समास नामक धतज्ञान उत्पन्न होता है। इस प्रकार प्रतिपत्ति समास श्रतज्ञान ही बढता हुआ तब तक चला जाता है, जब तक एक अक्षर से कम अनुयोगद्वार नामक श्रुतज्ञान प्राप्त होता है ।' पुनः इसमें एक अक्षर की वृद्धि होने पर अनुयोगद्वार श्रुतज्ञान होता है ।
शंका-अनुयोगद्वार यह किसकी संज्ञा है ?
समाधान-प्राभूत के जितने अधिकार होते हैं, उनमें से एक-एक अधिकार को प्राभृतप्राभृत संज्ञा है और प्राभूतप्राभुत जितने अधिकार होते हैं, उनमें से एक-एक अधिकार की अनुयोगद्वार संज्ञा है।
चौदह मार्गणानों से प्रतिबद्ध जितने पदों के द्वारा जो अर्थ जाना जाता है, उतने पदों की और उनसे उत्पन्न हुए श्रुतज्ञान की 'अनुयोग' यह संज्ञा है ।
प्राभुतप्रामृत श्रुतज्ञान चोइसमगरगसंजुद-परिणयोगादुवरि वढिदे वण्णे । चउरादीनरिणयोगे दुगवारं पाहुडं होदि ॥३४०॥ अहियारो पाहुयं एयट्ठो पाहुडस्स अहियारो ।
पाहुउपाहुडणामं होदित्ति जिणेहिं गिद्दिट्ठ ॥३४१॥ गाथार्थ-चौदह मार्गणाओं का कथन करने वाले अनुयोग से उपर पूर्वोक्त क्रमअनुसार एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते जब चतुरादि अनुयोगों की वृद्धि हो जाय तब प्राभृतप्राभूत श्रुतज्ञान होता है ।।२४०।। प्राभूत और अधिकार ये दोनों एक अर्थ के बाचक हैं। अत एव प्राभूत के अधिकार की प्राभृतप्राभृत संज्ञा है, ऐसा जिन (श्रुतकेवली) ने कहा है ।।२४१।।
विशेषार्थ-अनुयोग श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर प्रमाण श्रुतज्ञान के बढ़ने पर अनुयोग समास श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार अनुयोग समास नामक श्रुतज्ञान एक-एक अक्षर की उत्तर बद्धि से बनता हा तब तक जाता है जब तक कि एक अक्षर से कम प्राभतप्राभत नामक श्रतज्ञान प्राप्त होता है। उसके ऊपर एक अक्षर प्रमाण तज्ञान के बढ़ने पर प्राभतप्राभत नामक थतज्ञान उत्पन्न होता है, संख्यात अनुयोगद्वार रूप श्रुत ज्ञानों के द्वारा एक प्राभूतप्राभुत नामक थुतज्ञान उत्पन्न होता है।
शङ्का प्राभृतप्राभृन यह क्या है ? समाधान-संख्यात अनुयोग द्वारों को ग्रहण कर एक प्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञान होता है ।
वस्तु नामक श्रुतज्ञान के एक अधिकार को प्राभूत और अधिकार के अधिकार को प्राभृतप्राभूत कहते हैं।
१. घवल पु. ६ पृ. २४ । २. धवल पु. १३ पृ. २६६-२७० । ३. बबल पु. ६ पृ. २४ । ४. घवल पु. ६ पृ. २४ । ५. घवल पु. १३ पृ. २७० ।
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४२२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३४२-३४३
प्रामत का स्वरूप दुगवारपाराशर उरि रहाणे कमेरा सर नीले ।
दुगवारपाहुडे संउड्ढे खलु होदि पाहुउयं ॥३४२॥ गाथार्थ--प्राभूतप्राभृत ज्ञान के ऊपर क्रम से एक-एक वृद्धि होते-होते जब चौबीस प्राभूतप्राभूत की वृद्धि होजाय तब एक प्राभृत श्रुतज्ञान होता है ॥३४२।।
विशेषार्थ-एक वस्तु में २० प्राभूत होते हैं और एक प्राभृत में २४ प्राभृतप्राभृत होते हैं । अर्थात् एक वस्तु में बीस अधिकार होते हैं और प्रत्येक अधिकार में चौबीस-चौबीस अवान्तर अधिकार होते हैं।
प्राभूतप्राभूत श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर प्रमाण श्रुतज्ञान के बढ़ने पर प्राभूतप्राभूत समास श्रु तज्ञान उत्पन्न होता है। उसके ऊपर एक अक्षर आदि की वृद्धि के क्रम से प्राभूतप्राभूत समास तब तक बढ़ता हुअा जाता है जब तक एक अक्षर कम प्राभृत नामक श्रुतज्ञान प्राप्त होता है। उसके ऊपर एक अक्षर प्रमाण श्रु तज्ञान के बढ़ने पर प्राभृत नामक अ तज्ञान उत्पन्न होता है।' संख्यात (२४) प्राभृतप्राभृतों को ग्रहण कर एक प्राभृतश्रुतज्ञान होता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
वस्तु श्रुतज्ञान वीसं-वीसं पाहुपहियारे एक्कवत्थुअहियारो। एषकेषकवरणउड्ढी कमेण सम्वत्थ गायया ॥३४३॥
गाथार्थ –बीस-बीस प्राभृतअधिकारों का एक बस्तु अधिकार होता है। सर्वत्र क्रम से एकएक अक्षर की वृद्धि होती है ।।३४३।।
विशेषार्थ-प्राभृत श्र तज्ञान के ऊपर एक अक्षर के बढ़ने पर प्राभृत समास नामक शुतज्ञान उत्पन्न होता है। इस प्रकार एक-एक अक्षर की वृद्धि के क्रमसे प्राभृत समास नामक थ तज्ञान तव तक बढ़ता हुअा जाता है जब तक कि एक अक्षर से कम बीसवाँ प्रामृत प्राप्त होता है। इस पर एक अक्षर की वृद्धि होने पर बीसौं प्राभूत हो जाता है अर्थात् वस्तुनामक शुतज्ञान उत्पन्न होता है।
एक्केक्काम्हि य वत्यू वीसं वीसं च पाहुडा भणिवा ।
विसम-समा हि य वत्थू सव्धे पुण पाहुडेहि समा ॥८६॥ --एका-एक वस्तु में बीस-बीस प्राभूत कहे गये हैं। पूर्वो में वस्तु सम व विषम है किन्तु वे सब वस्तुएँ प्रामृत को अपेक्षा सम हैं।
१. घवल पु. ६ पृ. २४-२५ ।
२. धवल पु. १३ पृ. २७० ।
३. धवल पु. ६ पृ. २५ ।
४. धवल पु..
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गाथा ३४४-३४५
जानमागंगा/४२३
चौदह पूर्षों में से प्रत्येक में कितनी यन्तु हैं, इसका कथन दस चोदसड अट्टारसयं बारं च बार सोलं च ।
बीसं तीसं पण्णारसं च दस चदुसु वत्थूणं ॥३४४॥ गाथार्थ-- चौदह पूर्त में से प्रत्येक में क्रम से दस, चौदह, पाठ, अठारह, बारह, बारह, सोलह, बीस, तीस, पन्द्रह, दस, दस, दस, दस वस्तु नामक अधिकार हैं ।।३४४।।
विशेषार्थ---चौदह पूर्वो के अधिकारों (वस्तुओं) के प्रमाण को बतलाने वाली गाथायें इस प्रकार हैं
वस चौद्दस अट्ठारस वारस य बोसु पुटवेसु । सोलस बोसं तीसं दसमम्मि य पण्णरस पत्थू ॥१४॥ एदेसि पुष्वाणं एवदियो यत्थुसंगहो भणिदो।
सेसाणं पुन्वाणं वस बस बर) परिणवयामि ॥८५' -दस, चौदह, पाठ, अठारह, दो पूर्षों में बारह, सोलह, बीस, तीस और दसवें में पन्द्रह, इस प्रकार क्रम से प्रादि के इन दस पूर्वो की इतनी मात्र वस्तुओं का संग्रह कहा गया है। शेष चार पूर्वी की दस-दस बस्तु हैं । इनको मैं नमस्कार करता हूं ।।८४-८५।।
यथावाम से इनके अंकों की रचना
| १० १४ | ८ | १८ ! १२ | १२ | १६ [२० | ३० : १५ | १० | १० : १० । १०।२
प्रतिपूर्व च वस्तुनि झासव्यानि यथाक्रमम् ॥७२।। दश चतुर्दशाष्टौ चाष्टादशवादशद्वयोः ।। दश षड्विंशतिस्त्रिंशत् तत्तत् पंचदशेष तु ।।७३॥ यशैवोत्तरपूर्वाणां चतुर्णा बरिणतानि वे ॥७४।। पूर्वाध
-प्रत्येक पूर्व में यथाक्रम वस्तुओं का प्रमाण जानना चाहिए-दस, चौदह, आठ, अठारह, दो स्थानों अर्थात् दो पूर्वो में बारह, सोलह, वीस, तीस, पन्द्रह, यह दस पूर्वो का प्रमाण है इसके पश्चात् चार पूर्बो में दस-दस जानना चाहिए।
चौदह पूर्वो के नाम उपायपुश्वगारिणय-विरियपबादस्थिरणत्थियपवादे । रणारणासच्चपवावे पादाकम्मप्पवावे य ॥३४५।।
१. घ.पु. ६ पृ. २२७ । २. घ.पु. ६ पृ. २२७ । ३. हरिवंशपुराण सन १० ।
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४२४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३४६
पच्चक्खाणे विज्जाणुवादकल्लाणपारणवादे य।
किरियाविसालपुब्वे कमसोथ तिलोयबिंदुसारे य ॥३४६।। गाथार्य-उत्पादपूर्व, आग्रायणीयपूर्व, वीर्यप्रवादपूर्व, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व, सत्यप्रवादपूर्व, प्रात्मप्रवादपूर्व, कर्मप्रचारपूर्व, प्रमान वारपूर्ग, जीनुदान, कल्याणवादपूर्व, प्राणवादपूर्व, क्रियाविशालपूर्व, त्रिलोकबिन्दुसारपूर्व क्रमशः पूर्वज्ञान के चौदह भेद हैं ।। ३४५-३४६।।
विशेषार्थ-बारहवाँ इष्टिबाद अङ्ग पाँच प्रकार का है—परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। उनमें से पूर्वगत चौदह प्रकार का है। यथा-उत्पादपूर्व, आग्रायणीय, वीर्यानप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, प्रात्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुप्रवाद, कल्याणप्रवाद, प्राणाबाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार। इन चौदह पुर्यों में क्रमसे दस, चौदह, पाठ, अठारह, बारह बारह, सोलह, बीस, तीस, पन्द्रह, दस, दस, दस और दस, इतनी वस्तुएं अर्थात् महा-अधिकार होते हैं। प्रत्येक वस्तु में बीस-बीस प्राभृत अर्थात् अवान्तर अधिकार होते हैं। एक-एक प्राभृत में चौबीस-चौबीस प्राभृतप्राभूत होते हैं।'
वस्तुज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि के क्रम से पद, संघात, प्रतिपत्ति, अनुयोग, प्रामृतप्राभृत आदि की वृद्धि होते-होते जब दस वस्तु की वृद्धि होजाय तब प्रथम उत्पादपूर्व का ज्ञान हो जाता है। इसके आगे श्रम से एक-एक अक्षर आदि की वृद्धि होते-होते चौदह वस्तु की वृद्धि होने में एक अक्षर कम रह जाय वहाँ तक उत्पादपूर्व समास ज्ञान होता है। उसमें एक अक्षर की वृद्धि होजाने पर प्राग्रायणीयपूर्व का ज्ञान पूर्ण होजाता है। इसके प्रागे एक अक्षर अ तज्ञान की वृद्धि हो जाने पर आग्रायणीय समासज्ञान होता है। इसके आगे क्रमसे एक एक अक्षर की वृद्धि होते-होते एक अक्षर से न्यून पाठ वस्तु ज्ञान हो तब तक प्राग्रायणीय समासज्ञान होता है। इस पर एक अक्षरज्ञान की वृद्धि होजाने पर तीसरे वीर्यानुप्रवाद पूर्व का ज्ञान पूर्ण हो जाता है । इसके आगे एक अक्षर श्रुतज्ञान की वृद्धि होजाने पर बीर्यानुप्रवाद समासज्ञान होता है। एक अक्षर कम १८ वस्तु ज्ञान तक वीर्यानुप्रवाद समासज्ञान होता है। इसमें एक अक्षर की वृद्धि हो जाने पर अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व का ज्ञान होता है । इस पर एक अक्षर की वृद्धि हो जाने पर अस्तिनास्ति प्रवाद समासज्ञान होता है। क्रमसे एक-एक अक्षर की वद्धि होते हए एक अक्षर कम १२ वस्तज्ञान तक अस्तिनास्तिप्रवाद समासज्ञान होता है। इसमें एक अक्षर की वृद्धि हो जाने पर ज्ञानप्रवादपूर्व का ज्ञान हो जाता है। इसके आगे भी एक अक्षर की वृद्धि हो जाने पर ज्ञानप्रवाद समासज्ञान होता है। क्रमशः एक-एक अक्षर की वृद्धि होते हुए एक अक्षर कम बारह वस्तु का ज्ञान होने तक ज्ञानप्रवाद समासज्ञान होता है। पुनः उसमें एक अक्षर की वृद्धि हो जाने पर सत्यप्रबाद पूर्व का ज्ञान हो जाता है। इसके आगे इसी क्रम मे सत्यप्रवादसमास, आत्मप्रवाद, प्रात्मप्रवादसमास, कर्मप्रवाद, कर्मप्रवादसमास, प्रत्याख्यानप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद समास, विद्यानुवाद, विद्यानुवाद समास, कल्याणवाद, कल्याणवादसमास, प्राणवाद, प्राणबादसमास, प्रियाविशाल, क्रियाविशाल समास और लोकबिन्दुसार का कथन करना चाहिए।
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१. जयघवल पृ. १ पृ. २६-२७ ।
२. श्रीमदाचार्य प्रभयनन्दि सिवान्तचक्रवती कृत टीका के आधार से ।
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गाथा ३४७-३४६
सानमार्गरगा१४२५
चौदह पूर्वो में समस्त वस्तुओं और प्राभूतों की संख्या परगरपउदिसया वत्थ पाहुडया तियसहस्सरणवयसया।
एनेसु चोइसेसु वि पुग्वेसु हवंति मिलिदासि ॥३४७॥ गाथार्थ-इन चौदह पूर्वो की सर्व वस्तु मिलकर एक सौ पचानवे [१९५] होती हैं और प्राभृतों का प्रमाण तीन हजार नौ सौ [३६०० ] होता है ।। ३४७।।
विशेषार्थ-इन चौदह पूर्व में वस्तुओं की संख्या क्रम से १०, १४, ८, १८, १२, १२, १६, २०, ३०, १५, १०, १०, १०, १० होती है। इन सब वस्तुओं का जोड़ १९५ होता है ।
एक्केक्कम्हि य वत्थू वीसं बोस व पाहुडा भरिगवा । विसम-समा हि य वत्थु सम्वे पुरण पाहुडे हि समा ॥८६॥
-एक-एक वस्तु में बीस-बीस प्राभृत कहे गये हैं। पूर्वो में वस्तुएँ सम व विपम हैं, किन्तु प्राभृत सम हैं । पूर्वो के पृथक्-पृथक् प्राभृतों का योग यह है-२००, २८०, १६०, ३६०, २४०, २४०, ३२०, ४००, ६००, ३००, २००, २००, २००, २०० । सब वस्तुओं का योग एक सौ पचानवे (१६५) होता है । सब प्राभृतों का योग (१९५४२०) तीन हजार नौ सौ मात्र होता है ।'
पूर्वकथित बीस प्रकार के श्रुतज्ञान का पुन:कथन प्रत्यक्षरं च पदसंघात पडिवत्तियारिणजोग च । दुगवारपाहुडं च य पाहुख्य वत्थु पुष्वं च ॥३४८॥ कमवण्णुत्तरवढिय तारण समासा य अक्खरगवाणि । पारावियप्पे वीसं गथे बारस य चोद्दसयं ॥३४६।।
गाथार्य-अक्षरश्रुत (द्रव्यश्रुत) के अर्थप्रक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्तिक, अनुयोग, प्राभृतप्राभृत, प्राभृत, वस्तु और पूर्व तथा इन पर क्रमश: एक-एक अक्षर की वृद्धि होने पर उनके अर्थ-अक्षर समास
आदि ये अठारह भेद होते हैं। इनमें पर्याय और पर्याय समास मिलने से श्रुतज्ञान के बीस भेद हो जाते हैं । अंथरचना की अपेक्षा से अङ्गप्रविष्ट बारह प्रकार का और अङ्गबाह्य सामायिक आदि चौदह प्रकार का है।
विशेषार्थ-अक्षर, अक्षरसमास आदि अठारह प्रकार के श्रुत का कथन गा. ३३३-३४७ तक तथा पर्याय व पर्यायसमास थुलज्ञान का कथन गा. ३१ से ३३२ तक तथा बीस प्रकार श्रुत के भेद गाथा ३१७-२१८ में कहे जा चुके हैं। अतः पुनरुक्ति के दोष के कारण इन बीस प्रकार के श्रुत का कथन यहाँ नहीं किया गया है। आगे गाथा ३५६ से ३६५ तक द्वादशाङ्ग का तथा गा. ३६६३६७ में अकयाह्य के १४ भेदों का कथन किया जाएगा। अतः यहाँ पर बारह एवं चौदह भेदों के
१. ध.पु. ६ पृ. २२६ ।
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४२६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३५०-१५१
नाम मात्र दिये जाते हैं। प्राचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, व्याख्या-प्रज्ञप्ति, धर्मकथाङ्ग, उपासकाध्ययनाङ्ग, अन्तःकृद्दशाङ्ग, अनुत्तरोपपादिकदशाङ्ग, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र, इष्टिवादाड,ये बारह भेद अङ्ग-प्रविष्ट के हैं । सामायिक, चतविशस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनायक, कृतिकर्म, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, निषिद्धिका; ये अङ्गबाह्य श्रुत के चौदह भेद हैं।' इन बारह अङ्गों और चौदह प्रकीर्णकों का कथन आगे गाथा ३५६-३६८ में किया जाएगा।
द्वादशाङ्ग के समस्त पदों की संख्या बारुत्तरसयकोडी तेसीवी तहय होंति लक्खाणं ।
अट्ठावण्णसहस्सा पंचेव पवाणि अंगाणं ॥३५०॥ गापार्य-द्वादशाङ्ग के समस्त पद एक सौ बारह करोड़ बयासी लाख अट्ठावन हजार पाँच (११२८३५८००५) होते हैं ।।३५०।।
विशेषार्य--.सोलह सौ चौंतीस करोड तिरासी लाख सात हजार आठसौ प्रठागी अक्षरों का एक मध्यम पद होता है। इस मध्यम पद के द्वारा अङ्गों और पूर्वो का पदविभाग कहा गया है। उपर्युक्त बारह अंगों में ऐसे मध्यम पदों की संख्या बतलाई गई है।
वारससदकोडीनो तेसीवि हर्षति तह य लक्खाई। अट्ठावणसहस्सं पंचव पदाणि सुवणाणे ॥२०॥ अट्ठावणणसहस्सा दोणि य छप्पण्णमेत्तकोडोनी । तेसीविसवसहस्सं पदसंखा पंच सुवरणाणे ॥
[जयधवल पु. १ पृ. ६३ नवीन संस्करण पृ. ८४] -श्र तज्ञान एक सौ बारह करोड़ (छप्पन करोड़ के दुगुने) तिरासी लाख अठ्ठावन हजार पांच पद होते हैं।
शुतज्ञान के कुल अक्षर एक कम एकही प्रमाण हैं (१८४४६७,४४०७३७०,६५५१६१५) । इस संख्या को मध्यम पद के अक्षरों (१६३४८३०७८८८) से भाग देने पर एक सौ बारह करोड़ तिरासी लाख, अट्ठावन हजार, पाँच पद संख्या प्राप्त होती है और ८०१०८१७५ अक्षर शेष रहते हैं। इन शेष अक्षरों से चीदह प्रकीर्णक रूप अङ्ग बाह्य की रचना होती है। इसे गाथा द्वारा कहते हैं
अङ्गबाह्य अक्षरों की संख्या प्रडकोडिएयलक्खा अट्ठसहस्सा य एयसविगं च । पणत्तरि वण्णाप्रो पइण्ण्यागं पमाणं तु ॥३५१॥
२, गो. जी. गा.३३६ व धवल पू.१३
१.गो. जी. गा.३५७८३६७-३६८ | धवन पु.१.११व६६ पृ. २६६ ।
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गाथा ३५२-३५४
ज्ञानमार्गणा/४२७ गायार्थ—पाठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पचहत्तर प्रकीर्णक के अक्षरों का प्रमाण है ।।३५१॥
विशेषार्थ-समस्त संयोगी अक्षरों का प्रमाण १८४४६७४४०७३७० ६५५१६१५ इस अक्षरसंख्या को पदअक्षरसंख्या १६३४८३०७८८८ से भाग देने पर १८४४६७४४०७३७०६५५१६१५-१६३४८३०७८८=११२८३५८००५ भाज्यफल और ८०१०८१७५ अक्षर शेष रहते हैं । जो एक पद की अक्षर संख्या से न्युन है। इन अक्षरों के द्वारा अङ्गबाह्य चौदह प्रकीर्णकों की रचना होती है। इनका कथन आगे गाथा ३६७-३६८ में किया जाएगा।
समस्त प्रक्षरों का प्रमाण प्राप्त करने की विधि तेत्तीस वेंजरगाइं सत्तावीसा सरा तहा भरिगया । चत्तारि य जोगवहा चउसट्ठी मूलवण्णाप्रो ॥३५२॥' चउसद्धिपतं हितलिय बुरा न वारण अंगुणं किन्चा । रुऊरणं च कए पुरण सुवरणारणस्सक्खरा होंति ॥३५३॥ एकठु च च य छस्सत्तयं च च य सुण्णसत्ततियसत्ता।
सुण्णं णव पण पंच य एक्कं छक्केक्कगो य पणगं च ॥३५४॥ ___गाथार्य-ततीस व्यंजन, सत्ताईस स्वर तथा चार योगवाह ये सब (३३+२७+ ४) ६४ मूल वर्ण (मूल अक्षर) कहे गये हैं ।।३५२।। इन चौंसठ अक्षरों का विरलन कर और प्रत्येक के ऊपर दो को देकर परस्पर गुणा करके एक घटाने पर श्रुतज्ञान के अक्षरों का प्रमाण होता है ।।३५३।। वे अक्षर एक पाठ चार चार छह सात चार चार शून्य सात तीन सात शून्य नव पाँच पाँच एक छह एक पात्र हैं ।।३५४।।
विशेषार्थ-वर्गाक्षर पच्चीस, अन्तस्थ चार और उमाक्षर चार इस प्रकार तेंतीस (३३) ध्यंजन होते हैं। अ, इ, उ, ऋ, लु, ए, ऐ, ओ, औ ये नौ स्वर होते हैं। इनमें से प्रत्येक हस्व, दीर्घ
और प्लुत के भेद से स्वर सत्ताईस (२७) होते हैं । अयोगवाह अं अः क और पये चार ही अयोगवाह होते हैं। इस प्रकार सब अक्षर (२७+३३ + ४) ६४ होते हैं ।
एकमात्रो भवेदप्रस्थो विमात्रो वीर्घ उच्यते।
त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो व्यंजनं स्वर्द्ध मात्रकम् ॥१२॥ एक मात्रा वाला वर्ण ह्रस्व, दो मात्रा वाला दीर्घ, तीन मात्रा वाला प्लुत जानना चाहिए। और व्यं जन अर्ध मात्रा वाला होता है ।।१२। इन चौंसठ अक्षरों के संयोगाक्षर लाने का विधान
संजोगावरणटु खउमट्टि पायए दुबे रासि । अण्णोषणसमभासो रूयूरणं णिहिसे गरिणदं ॥४६॥'
१. घपल पु. १३ पृ. २४८ । २-३. धवल पु. १३ पृ २४८ ।
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४२८,गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३५२-३५४
उसके लिए गणित गाथा-संयोगावरणों को लाने के लिये चौसठ संख्या प्रमाण दो राशि (दो का अङ्क) स्थापित करे। पश्चात् उनका परस्पर गुणा करके जो लब्ध अावे उसमें से एक कम करने पर कुल संयोग अक्षर होते हैं ।।४६।।
अक्षरों की चौंसठ संख्या का विरलन करें। यहाँ चौंसठ अक्षरों की स्थापना इस प्रकार हैअ आ आ ३, इ ई ई ३, उ ऊ ऊ ३, ऋ ऋऋ३, ल ल ल'. ३, ए ए २ ए ३, ऐ ऐ २ ऐ ३, यो ओ २ प्रो ३, प्रौ औ २ औ ३, क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न प फ ब भ म, य र ल व श ष स ह क प अं अः।
शङ्खा-- इन अक्षरों में के ख, ग ५ , इन पांच धारणाओं का क्यों नहीं ग्रहण किया ?
समाधान नहीं, क्योंकि स्वररहित कवर्ग का अनुसरण करने वाले संयोग में उत्पन्न हुई धारणाओं का संयोगाक्षरों में अन्तर्भाव हो जाता है।'
इन अक्षरों की संख्या राशि(६४)प्रमाण '२' अङ्क का बिरलन कर-जैसे २२२२२२२२ २२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२ २ २२२२२२२२२२२२२२२२२२ परस्पर गुणा करने से १८४४६७४४०७३७०६५५१६१६ यह राशि प्राप्त होती है। इस संख्या में से एक कम करने पर संयोगी अक्षरों का प्रमाण प्राप्त होता है।
चौंसठ अक्षरों की संख्या का विरलन कर और उसको द्विगुणित कर वर्गित-संवर्गित करने पर एकसंयोगी और द्विसंयोगी आदि श्रुतज्ञान के विकल्प कसे उत्पन्न होते हैं और उस उत्पन्न हुई राशि में से एक कम किसलिए किया जाता है, ऐसा पूछने पर कहते हैं-प्रथम अक्षर का एक ही भंग होता है, क्योंकि उसका शेष अक्षरों के साथ संयोग नहीं है। अागे दूसरे अक्षर की विवक्षा करने पर दो भंग होते हैं, क्योंकि स्वस्थान की अपेक्षा एकभंग, पहले व दूसरे अक्षर से दूसरा भंग; इस प्रकार दो ही भंग होते हैं।
शङ्का–संयोग क्या है ? क्या दो अक्षरों को एकता संयोग है ? क्या उनका एक साथ उच्चारण करना संयोग है ? क्या उनकी एकार्थता (एकार्थबोधकाता) का नाम संयोग है ?
समाधान-दो अक्षरों की एकता तो संयोग हो नहीं सकती, क्योंकि एकत्व भाव मानने पर द्वित्व का नाश हो जाने के कारण उनका संयोग होने में विरोध पाता है। सहोच्चारण का नाम भी संयोग नहीं है, क्योंकि चौसठ प्रक्षरों का एक साथ उच्चारण करना बनता नहीं है। इसलिए एकार्थता का नाम संयोग है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
शशा-एक अर्थ में विद्यमान बहुत प्र.क्षरों की एक अक्षर संज्ञा कैसे हो सकती है ?
समाधान ---यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अर्थ के द्वारा उन सभी का एकत्व पाया जाता है।
१. घवल पु. १३ पृ. २४६ । २. चवल पु. १३ पृ. २४६ । ३. धवल पु. १३ पृ. २५० ।
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गाथा ३५२-३५४
ज्ञानमार्गणा / ४२६
वर्तमान काल में बहुत प्रक्षरों का एकअक्षरपना नहीं उपलब्ध होता है, ऐसा निश्चय करना भी युक्त नहीं है, क्योंकि वर्तमान काल में भी 'त्वक्म्य' इत्यादिक बहुत अक्षरों के एक अर्थ में विद्यमान होते हुए एकाक्षरता उपलब्ध होती है। स्वरों से अन्तरित न होकर एक अर्थ में विद्यमान व्यंजनों के ही एकअक्षरपना नहीं है, किन्तु स्वरों के द्वारा अन्तर को प्राप्त हुए बहुत व्यंजनों के भी एकाक्षरपना अविरुद्ध है, क्योंकि अत्यन्त भिन्न अक्षरों की एक अर्थ में वृत्ति होने की अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं है । '
प्रथम और द्वितीय अक्षरों के भंगों को एक साथ लाने के लिये प्रथम और द्वितीय ग्रक्षरों की संख्या का विरलन कर और उसको दूना कर परस्पर गुरणा करने से चार होते हैं (,, ) = ४ | फिर इसमें से एक अंक के घटा देने पर [ ( ४-१ ) तीन; ] प्रथम और द्वितीय अक्षरों के एक संयोग और द्विसंयोग रूप से तीन अक्षर होते हैं और श्रुतज्ञान के विकल्प भी उतने ही होते हैं। क्योंकि कारण का भेद कार्यभेद का अविनाभावी होता है । इसी कारण से विरलन कर और विरलित राशि प्रमाण दो अंकों को स्थापित कर परस्पर गुणा करके एक कम किया जाता है ।
तीसरे अक्षर के विवक्षित होने पर एकसंयोग से एकअक्षर होता है १ । प्रथम और तृतीय अक्षरों के द्विसंयोग से दूसरा भंग होता है २ । द्वितीय और तृतीय अक्षरों के द्विसंयोग से तीसरा भंग होता है ३ । प्रथम द्वितीय और तृतीय अक्षरों के त्रिसंयोग से चौथा भंग होता है ४ । इस प्रकार तृतीय अक्षर के एक दो और तीन संयोगों से चार भंग लब्ध होते हैं ४ । अव प्रथम और द्वितीय अक्षरों के भंगों के साथ तृतीय अक्षर के भंग लाना इष्ट है । इसलिए तीन अक्षरों का विरलन कर और तत्प्रमाण दो स्थापित कर परस्पर गुणा करने पर आठ भंग उत्पन्न होते हैं (, ८) इनमें से एक करने पर प्रथम, द्वितीय और तृतीय अक्षरों के सब मिलकर (८१) सात भंग होते हैं । जितने अक्षर होते हैं, उतने ही श्रुतज्ञान के विकल्प होते हैं, क्योंकि सर्वत्र कारण का अनुसरण करने वाले कार्य होते हैं । इसीलिए अन्योन्य गुरित राशि में से एक कम किया जाता है । "
१
י
—
अब इनके उचारण का क्रम कहते हैं— प्रकार के एक्संयोग से एक अक्षर उपलब्ध होता है १ । आकार के भी एक संयोग से एक प्रक्षर विकल्प उपलब्ध होता है १ । आकार के भी एक संयोग से एक अक्षरविकल्प उपलब्ध होता है ? | इस प्रकार एक संयोगी अक्षर तीन होते हैं ३ । पुनः अकार और लाकार के द्विसंयोग से चौथा क्षरविकल्प होता है ४ । पुनः प्रकार और आकार के द्विसंयोग से पाँच अक्षरविकल्प होता है ५ । पुनः आकार और आकार के द्विसंयोग से छठा अक्षर विकल्प होता है ६ । पुनः प्रकार, आकार और आकार के त्रिसंयोग से सातवाँ अक्षरविकल्प होता है ७ । जितने अक्षर होते हैं उतने ही श्रुतज्ञान के विकल्प होते हैं, क्योंकि सर्वत्र कारण का अनुकरण करने वाले कार्य उपलब्ध होते हैं । इसलिए अन्योन्य गुणित राशि में से एक कम करते हैं । "
अव चतुर्थ अक्षर के विवक्षित होने पर एकसंयोग से एकभंग होता है १ । प्रथम और चतुर्थ के संयोग मे दुसरा अक्षर द्विसंयोगी होता है २ । द्वितीय और चतुर्थ अक्षरों के द्विसंयोग से तीसरा ग्रक्षर होता है ३ | तृतीय और चतुर्थ अक्षरों के द्विसंयोग से चौथा अक्षर होता है ४ । प्रथम द्वितीय और चतुर्थ अक्षरों के त्रिसंयोग से पाँचवाँ अक्षर होता है ५ । प्रथम तृतीय और चतुर्थ अक्षरों के
१. बबल पु. १३ पृ. २५० । २. धवल पु. १३ पृ. २५१-२५२ । ३. धवल पु. १२. २५२ ।
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४३०/गो, सा. जीवकाण्ड
माथा ३५२-३५४
त्रिसंयोग से छठा अक्षर होता है ६ । पुनः द्वितीय तृतीय और चतुर्थ अक्षरों के विसंयोग से सातवाँ अक्षर होता है । पुनः प्रथम द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अक्षरों के चतुःसंयोग से पाठवाँ अक्षर होता है । इस प्रकार चौथे अक्षर के पाठ भंग होते हैं । अब पूर्वोक्त भंगों के साथ चतुर्थ अक्षर के भंगों के लाने पर चार अङ्कों का विरलन और विरलितराशि के प्रत्येक एक को द्विगुणित कर परस्पर गुणित करने पर ( १,२,१)सोलह (१६) भंग होते हैं। एक कम करने पर चार अक्षरों के एकसंयोग, द्विसंयोग, त्रिसंयोग और चतुर्थसंयोग रूप अक्षरों के भंग (१६-१) पन्द्रह (१५) होते हैं।' यहाँ इनके उस्चारण का क्रम कहते हैं । यथाप्रकार का एकसंयोग से एक अक्षर होता है १ । आकार का भी एकसंयोग से दूसरा अक्षर होता है। प्राकार३ का भी एकसंयोग से तीसरा अक्षर होता है ३ । इकार का एकसंयोग से चौथा अक्षर होता है ४ । पुनः अकार और प्राकार के द्विसंयोग से पांच अक्षर होता है ५। पुनः प्रकार और प्रा३कार के द्विसंयोग से छठा अक्षर होता है । पुनः प्रकार और इकार के द्विसंयोग से सातवाँ अक्षर होता है ७। पुनः आकार और आकार के हिसंयोग से प्राठवाँ अक्षर होता है । पुनः श्राकार और हकार के द्विसंयोग से नौवों अक्षर उत्पन्न होता है। पुनः प्रा३कार और इकार के द्विसंयोग से दसवाँ अक्षर होता है। पुन: प्रकार, प्राकार और पा३कार के त्रिसंयोग से ग्यारहवां अक्षर होता है ११ । पुनः प्रकार, आकार और इकार के त्रिसंयोग से बारहवाँ अक्षर होता है १२ । पुनः प्रकार, प्रा३कार और इकार के त्रिसंयोग से तेरहवाँ अक्षर होता है १३ । पुनः प्राकार, आकार और इकार के त्रिसंयोग से चौदहवाँ अक्षर होता है १४ । पुनः प्रकार, प्राकार, आकार और इकार के चार संयोग से पन्द्रहवां अक्षर होता है १५ ! इस प्रकार नार पक्षों से एक, दो, तीन और चार संयोग से पन्द्रह अक्षर उत्पन्न होते हैं। यहाँ पन्द्रह ही श्रुतज्ञान के विकल्प होते हैं और तदावरण के विकल्प भी उतने ही होते हैं। यत: इस विधि से अक्षर उत्पन्न होते हैं अतः अन्योन्याभ्यस्त राशि सर्वत्र एक अंक से कम करनी चाहिए। इस विधि से शेष अक्षरों का कथन समझना चाहिए। इस विधि से चौंसठ अक्षरों के १८४४६७४४०७३७०६५५१६१५ इतने मात्र संयोग अक्षर उत्पन्न होते हैं तथा उनसे इतने ही श्रुतज्ञान उत्पन्न होते हैं । अथवा
एकोत्तरपदवृद्धो रूपायर्भाजितश्च पवद्धः।
गच्छः संपातफलं समाहतः सन्निपातफलम् ॥' --एक से लेकर एक-एक बढ़ाते हुए पद प्रमाण संख्या स्थापित करो। पुनः उसमें अन्त में स्थापित एक से लेकर पद प्रमाण बढ़ी हुई संख्या का भाग दो। इस क्रिया के करने से सम्पात फल गच्छप्रमाण प्राप्त होता है। उस सम्पातफल अर्थात् एकसंयोगी भंग को प्रेसठ बटे दो (६३) आदि से गुणा कर देने पर सन्निपातफल (=द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी आदि भंग) प्राप्त होता है ।
इस करणगाथा के द्वारा सब संयोगाक्षरों के और श्रुतज्ञान के विकल्प उत्पन्न होते हैं। यथा -
-- -
- - - - - - - - - - - - - ६४ ६३ ६२ ६१ ६. ५६ ५८ ५७ ५६ ५५ ५४ ५३ ५२ ५१ ५० ४६
१. घ. पु. १३ पृ. २५२-२५३ । २. ध. पु. १३ पृ. २५४ । पु. १२.१६२, जयघवल पु.२ पृ. ३००।
३. ध, पु. १३ गा. १४ व पु. ५ पृ. १६३ व
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गाथा ३५२-३५४
जानमार्गणा/४३१
१७ १८
३१ ३२ ४६ ४५
०३६ ३५ ३४ ३३ २६ ३५ २६ २७ २६ १६ ४. १ ४२ ४३ ४ ४५ ४६ ४७ ४८
॥ १ ४२ ३२ ३१ ३० २६ २८ २७ २६ २५ २४ २३ २२ २१ २० १८ १८ १७ ४६ ५. ५१ ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ ५७ ५८ ५१ ६० ६१ ६२ ६३ ६४
१६ १५ १४ १३ १२ ११ १० १ ८ ५ ६ ५ ४ ३ २ १ इनको स्थापित कर अन्तिम चौंसठ में एक का भाग देने पर (६४) चौंसठ सम्पातफल (यानी एकसंयोगी भंग) लब्ध होता है।'
शङ्का-सम्पातफल किसे कहते हैं ?
समाधान-एकसंयोग भंग का नाम सम्पात है और उसके फल को सम्पातफल कहते हैं। पुनः श्रेसठ बटे दो (६) से सम्पातफल को गुरिणत करने से चौंसठ अक्षरों के द्विसंयोग भंग (२३४६४)२०१६ होते हैं। यथा-प्रकार के विवक्षित होने पर जब तक शेष प्रेसठ (६३)अक्षरों पर क्रम से अक्ष का संचार होता है तब तक सठ भंग प्राप्त होते हैं ६३ । पुनः प्राकार के विवक्षित होने पर प्रा३कार आदि बासठ (६२) अक्षरों पर क्रम से जब तक अक्ष का संचार होता है तब तक बासठ (६२)भंग प्राप्त होते हैं ६२ । पुनः प्रा३कार के विवक्षित होने पर इकार आदि इकसठ अक्षरों पर क्रम से अक्ष का संचार होने पर इकसठ (६१) द्विसंयोगी भंग प्राप्त होते हैं ६१। पुनः इकार के विवक्षित होने पर ईकार आदि साठ अक्षरों पर क्रम से जब तक अक्ष का संचार होता है तब तक इकार के द्विसंयोग से साठ भंग (६०) प्राप्त होते हैं ६० । पुनः ईकार आदि उनसठ अक्षरों के द्विसंयोगी भंग क्रमसे उत्पन्न कराने चाहिए ५६ । इस प्रकार उत्पन्न हुए द्विसंयोगी भंगों को एक साथ मिलाने पर दो हजार सोलह मात्र भंग उत्पन्न होते हैं । अथवा
संकलणरासिमिच्छे बोरासि थावयाहि रूवहियं ।
तत्तो एगदरद्ध एगदरगुणं हवे मरिणवं ॥१५॥ -~-यदि संकलनराशि का लाना अभीष्ट हो तो एकराशि वह जिसकी कि संकलन राशि अभीष्ट है तथा दूसरी राशि उससे एक अंक अधिक, इस प्रकार दो राशियों को स्थापित करें। पश्चात् उनमें से किसी एक राशि के अर्धभाग को दूसरी राशि से गुणित करने पर गणित अर्थात् विवक्षित राशि के संकलन का प्रमाण होता है ।।१५।।
इस गाथा के द्वारा एक को ग्रादि लेकर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक तिरेसठ गच्छ की संकलना के ले पाने पर चौंसठ अक्षरों के द्विसंयोग भंग दो हजार मोलह होते हैं (६x६४ =
--------... .......
१. धवल पु.१३ पृ. २५४.२५५ । ३. श्रवल पृ. १३ पृ. २५५-२५६ । ४. धवल पु.१६ पृ. २५६ । २. कारण देखो गो क.गाथा ७६९ की टीका, पू. ०६१ सम्पादक-रतनचन्द मुख्तार ।
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४३२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३५२-२५४
२०१६) अब चौंसठ अक्षरों के त्रिसंयोग भंगों का कथन करने पर पूर्व में उत्पन्न हुए २०१६ द्विसंयोगी भूगों को बासठ बटा तीन (३२) से गुरिंगत करने पर त्रिसंयोगी भंग (२०१६x६२) ४१६६४ होते हैं। व तज्ञान के एकसंयोगी, द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी आदि चौंसठ संघोगी तक के कुल भंगों का योग १ कम एकट्टीप्रमाण होता है जिसका विवरण इस प्रकार है
--- श्रुतमान के ६४ प्रक्षरों के एक संयोगी, द्विसंयोगी आदि भंग -
शकसंयोगी मंग
:-=६४
विसंयोगी भंग
६४.६३.६२
त्रिसंयोगी मंग
चतुःसंयोगी मंग
पंचसंयोगी मंग
----=७६२४५१२
६४.६३.६२.६१.६०.५६
---=७४६७४३६८
पसंयोगो मंग
सप्तसंयोगी भम
६४,६३,६२.६१.६०.५६.५५
----६२१२१६१९२ १. २. ३. ४. ५. ६. ७
अष्टसंयोमी भंग
६४.६३.६२.६१-६०.५६.५८,५७
-=४४२६१६५३६८
६४.६३.६२.६६.६७.५६.५८.५७.५६
--- =२७५४०१८४५१२
नवसंयोगी मंग
बससंयोगी मंत्र
-
६४.६.३.६२.६१.६०.५६.५८.५७.५६.५१ -- - - - -
-- १. २. ३. ४. ५. ६. ७. E......
१५१४७३२१४८१६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
गाया ३५२-३५४
ग्यारह संयोगी भंग
बारह संयोगो स
मंग
तेरह संयोगी भंग
चौदह संयोगी भंग
सगाई
संयोगी प
सोलह संयोगी मंग
सत्तरह संयोगी मंग
अठारह संयोगी भंग
उसी संयोगी मंग
बीस संयोगी मंच
इक्कीस संयोगी भंग
बाईस संयोगी मंग
ܫܫ܀
६४.६३.६२.९१.६०.५३.५०.५७.५६.५५.५४
१.२.१.४.५.६. ७. ८. ६.१०.११
=
६४.६३.६२.६१.६०.५६.५८.५७.५६.५५. ५४.५३
१. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९.१०.११.१२
६४.६३.६२.५६.५.५.५४.५३.५२
१. २. ३..... १०.११.१२.१३
६४.६३.६२.... ४५.५४.५३.५२.५१
११.१२.१३.१४
६४.६३.६२.... ५४.५३.५२.५१.५०
१.२.३ . १२.११.१४.१५
६४.६३.६२. ५१.५२.५१.५०.४६
१३. १४.१५.१६
६४.६३.६२.... ५२.५१.४०.४९.४८
१.२.३
१४.१५.१६.१७
१.२.३
१.२.३
BEPL
६४.६३.६२....५१.५०.४९.४५.४०
१.२.३
१५.११.१७.१०
६४.६३.६२....५०.४९.४८.४७.४६
www.
१. २. ३ १६.१७.१८.१९
६४.६३.६२... ४९.४८, ४७.४६.४५
१.२.३ १७.१०.१९.२०
६४.६३.६२.... ४८.४७.४६.४५.४४
१.२.३ १८.१९.२०.२१
६४.६१.६२.... ४६.४५,४४,४३
१. २. ३.११.२०.२१.२२
ज्ञानमार्गगाव / ४३१
७४३५६५७८१८२४
२२८४२१४७०३०५६
- १३१३६८५००१२२२४
४७५५६६६६५०८१६
= १५९५१६६६६६६२७२०
=४५०५२६६३७०७१५८०
१३७९३७०१७५२०३५२०
= ३६०१६८०७८१०१६०५०
=७१६५७८१२५६२२७२०
= १६६१६७२५७८२६५११२०
४११०७६१६२७७१३५६८०
=०३४७४४४४३२३७१२०
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________________
गोसासीभारत
गाथा ३५२-३५४
.. तेईस संयोगी मंग
६४.६३.५२ ....४५.४४,४३.४२ ---
---१४६७२१४२७५९१६९९६८० १. २..३ ...२०.२१.२२.२३
रोबोम संयोगी भंग
६४.६३.६२ ....४.४३.४२.४१ = ----
--- =२५०६४६१०५४६६६६६१२० १. २. ३ .. २१.२२.२३.२४
पच्चीस संयोगी भंग
-
१४.६३.६२ .. ४३.४२.४१.४० -
---४०१०३८५६८७५१४६५७६२ १. २.३ ..२२.२३.२४.२५
छब्बीस संयोगी मंग
-६.१२५७८२३१२७१९८६८८
---- ----.-..--...--
१. २. ३....२३.२४.२५.२६
सत्ताईस संयोगी भंग = ------ -------- =८४६६३६६७८७१३१६६७२
१.२.३ .... २४.२५.२६.२७
.. ...५४.६३.६२....४०.३६.३८,३७ प्रदाईस संयोगी मंग = ------------ =१११८७७०२६२६८५२३१८८८
१.२.३....२५.२६.२५.२८
६४.६३.६२....३६.३८.३७.३६ उनतीस संयोगी भंग - ---
----९३८१८२६४७४०२१७७१२ १. २. ३ .. २६.२७.२८.२२
=
तीस संयोगी भंग
. ..
६४.६३.१२....३८.२७.३६.३५ .
---------------- =१६२०२५८०१०१३०३४७४२४ १.२.३.... २७.२८.२६.३.
इकतीस संयोग भंग
=
---------=१७७७०१००७६०६५३४२३३६ १.२.३ ....२८.२६.३०.३१
६४.६३.६२....३६.३५.३४.३३ घसीस संयोगी मंग - --
---- =१-३२६२४१४०४४२५६०५३४ १. २. ३.... २६.३०.३१.३२
Page #469
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________________
गाया ३५२-३५४
संतस संयोगी मंग
तो संयोगी भंग
पैंतीस सयोगी मंग
सत्ती योगी बंद
संतीस संयोगी भंग
प्रडतीस संयोगी मंग =
उनपालीत संयोगी मंग=
लीन मंग
६४.६३.६२.३७.२५.३५.३४
=
इकतालीस संयोगी भंग
बयालोस संयोगी मंग =
१.२.३.२८.२९.३०.३१
६४.६३.६२ ३८.३०.०६.३५ १. २. ३.. २७.२८.२६.३०
६४.६३.६२... ३६.२८.३७.३६
१. २. ३ २६.२७.२८.२६
६४.६२.६२....४०.३६.३०.३७
१. २. ३ २५.११.२०
६४.६३.६२.... ४१.४०.३६.३६ २४.२५.२६.२७
१.२.३
-- =१३८८८१८२६४७४०२६७७६२
६४.६३.६२. ४२.४१.४०.३६ १. २. ३....२३.२४.२४.२६
६४.६३.६२.४३.४२.४१.४०
१. २. ३२२.२३.२४.२५
६४.६३.६२... ४४.४३.४२.४१
१.२. ३ २१.२२.२३.२४
...
६४.६३.६२....४६, ४५,४४,४३
ज्ञानमार्गगा / ४३५
१७७७०१००७६०६५५४२३३६
६४.६३.६२ .... ४५.४४,४५.४९ १. २. ३ २०.२१.२२.२३
१. २. ३१६.२०.२१.२२
= १६२०२०६०१०२३०३४७४२४
१११८७७०२१२१८५२३६८८८
= ८४६६३६६७८४७५३१६६७२
-६०१५५७८५३१२७१६०६०८
४०१०३८५६८०५१४६५७१२
==२५०६४६१०५४६६६६६१२०
- १४६०२१४२७५६१६६६६८०
= ८०३४७४४८४४३२३७६२०
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________________
४३६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३५२-३५४.
६४.६३.६२....४८.४७.४६.४५.४४ तैतालीस संयोगी भंग = -
-----४११०७६६६८७७६३५६८० १.२.३ .... १८.१६.२०.२१
६४.६३.१२...४६,४८.४७.४६.४५ चवालीस संयोगी भंग =---------------१९६१६७२५७८२१५११२०
१.२.३ .... १७.१५.११.२०
६४.६३.६२....५७.४६.४८,४७,४६ पंतालीस संयोगी भंग - -----
--.-- =७१९८७८१२५६२२७२७ १.२.३ .... १६.१७.१ ८.१६
६४.६३.६२....५१.५०.४६.४८.४७ छियालीस संयोगी भंग = --
-- =३६०१६८८७६१०१८०८० १.२.३ .... १५.१६.१७.१८
संतालीस संयोगी मंग -
६४.६३.६२....५२.५१.५०.४६.४८
----- -१३७६३७०१७५२८३५२० १.२.३ .... १४.१५.१६.१७
६४.६३.६२ ..५३.५२.५१.५७ अड़तालीस संयोगी भंग = --
--...-४८८५२६६३७०७९५८० १.२.३ .... १३.१४.१५.१६
६४.६३.६२....५४.५३.५२.५.१.५० उनपचास संयोगी मंग = --
---१५६५१८६६६८६२७२० १.२.३ .... १२.१३.१४.१५
पचास संयोगी मंग
६४.६३.६२....५५.५४.५३.५२.५१ . ----
-----=४७८५५६६६६५८८१६ १.२.३ .... ११.१२.१३.१४
इकावन संयोगी भंग =
६४.६३.६२.... ५६.५५.५४.५३.५२
----१३१३६.५८८१२२२४ १. २. ३ .... १०.११.१२.१३
६४.६३.६२.६१.६७.५६.५८.५७.५६.५५. ५४. ५३ - -
-- =३२८४२१४७०३०५६
बावन संयोगी भंग
तिरेपन संयोगी मंग
-
६४.६३.६२.६१.६७.५६.५८.५७.५६.५५.५४ ------
--- =७४३५६५७८१८२४ १. २. ३, ४. ५. ६. ७. ८. १. १०. ११
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________________
माथा ३५२-३५४
ज्ञानमार्गमा/४३७
६४.६३.६२.६१.६०.५६.५८.५७.५६.५५ = --------------
चौपन संयोगी मंग
=१५१४७३२१४८१६
६४.६२.६२.६१.६०.५९.५८.५७.५६ ---- ------०२७५४०५८४५१२
पचपन संयोगी मंग
-
६४.६३.६२.६१.६०.५६.५८.५७ =------
---४४२६१६५३६
छप्पन संयोगी भंग
मना
संयोगीभंग
-
६४.२३.५२.६१.५०.२१.१५ -------------६२१२१६१९२ १, २. ३. ४, ५, ६-५
अदाबन संयोगी भंग
=
६४.६३.६२.६१.६०.५६ -
-------७४१७४३६८
६४.६२.६२.६१.६०
---=७६२४५१२
उनसठ संयोगी अंग
=
साठ संयोगी मंग
इकसठ संयोगी भंग
--
--
-=४१६६४
बासट संयोगी मंग
-
---- =२०१६ १.२
प्रेस संयोगी भंग
=-=६४
चौमठ संयोगी मंग
= १
- कुलयोग १८४६७४४०७३७०६५५१६१५= एक कम एकट्ठी
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________________
४३८/गो. सा. जीयकाण्ड
गाथा ३५२-३५४
गरछकदी मूलजुवा उत्तरगच्छादिएहि संगुणिदा। छहि भजिवे जं लद्धं संकलगाए हये कलणा ॥१६॥'
-गच्छ का वर्ग करके उसमें मूल को जोड़ दें, पुनः प्रादि-उत्तर सहित गच्छ से गुणित करके उसमें छह का भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो वह संकलना की कलना होती है ।।१६।।
इस गाथा द्वारा पूर्वोक्त त्रिसंयोगी भंग लाने चाहिए। यहाँ गच्छ बासठ है। उसका वर्ग इतना होता है--६२४६२-३८४४ । पुनः इसमें मूल वासठ को मिला देने पर इतना होता है-- ३८४४+६२ =३६०६ । पुनः इसे प्रादि-उत्तर सहित गच्छ से गुणित करने पर इतना होता है३९०६४ (१+१+ ६२) = २४६६८४ । पुनः इसमें छह का भाग देने पर पूर्वलब्ध त्रिसंयोगी भंग इतने होते हैं-२४६६८४:६-४१६६४ ।
इसका कारण यह है कि चौंसठ अक्षरों को क्रम से स्थापित कर पूनः प्रकार के विवक्षित होने पर प्रथम और द्वितीय अक्ष को ध्रुव करके तोसरा अक्ष आ३कार आदि बासठ अक्षरों पर जब तक संवार करता है तब तक बासठ विसंयोगी भंग प्राप्त होते हैं ६२ । पुनः प्रथम अक्ष को प्रकार पर ही स्थापित कर शेष दो प्रक्षों को प्रा३कार और इकार पर स्थापित कर पुनः इनमें से प्रारम्भ के दो पक्षों को ध्र व करके तृतीय अक्ष के कम से संचार करने पर इकसठ त्रिसंयोगी भंग प्राप्त होते हैं ६.१ !
पुनः प्रकार अक्ष को धब करके शेष दो पक्षों को इकार और ईकार पर स्थापित कर तृतीय प्रक्ष के क्रम से संचार करने पर साठ त्रिसंयोगी भंग प्राप्त होते हैं ६० । इस प्रकार प्रकार अक्ष को ध्र व करके शेष दो अक्ष क्रम से संचार करते हुए जब तक सब अक्षरों के अन्त को प्राप्त होते है तब तक प्रकार के बासठ संख्या के संकलन मात्र (१.४६३ -- १६५३) = त्रिसंयोगी भंग उत्पन्न होते हैं।
पुनः आकार के विवक्षित होने पर शेष दो अक्ष क्रम से संचार करते हुए जब तक सब अक्षरों के अन्त को प्राप्त होते हैं तब तक इकसठ संख्या के संकलन मात्र (३.४६२ = १८६१) आकार के त्रिसंयोगी भंग उत्पन्न होते हैं ।
पुनः प्रा३कार के विवक्षित होने पर साठ के संकलनमात्र (--x.3 = १९५३) मा३कार के त्रिसयोगी भंग उत्पन्न होते हैं ।
पूनः इकार के विवक्षित होने पर उनसठ के संकलन मात्र (५.४६० = १७७०) इकार के त्रिसंयोगी भंग उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार ईकार प्रादि अक्षरों में प्रत्येक प्रत्येक के यथाक्रम से अट्ठावन, सत्तावन, छप्पन आदि संख्याओं के संकलनमात्र भंग उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार उत्पन्न हुई सब संकलनाओं को मिलाने पर चौसठ अक्षरों के सब त्रिसंयोगी भंग उत्पन्न होते हैं । उनका प्रमाण यह है--४१६६४ ।
१. धवल पृ. १३ पृ. २५६ ।
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________________
गाथा ३५२-३५४
जानमागण/४३
अब चौंसठ अक्षरों के चार संयोगी भंगों का प्रमाण उत्पन्न कराने पर इकसठ बटे चार से ४१६६४ इन त्रिसंयोगी भंगों के गुणित करने पर चौसठ अक्षरों के सब चार संयोगी भंग उत्पन्न होते हैं । उनका प्रमाण यह है---६३५३७६ ।
इसी प्रकार पाँच संयोगी और छह संयोगी आदि भंग उत्पन्न करा कर सब भंगों को एकत्र करने पर पहले उत्पन्न कराये गये एक कम एकट्ठीमात्र संयोगाक्षर और उनके निमित्त से उत्पन्न हुए उतने मात्र ही अतज्ञान उत्पन्न होते हैं।
शङ्का--एक अर्थ में विद्यमान दो आदि अक्षरों का संयोग भले ही होवे, परन्तु एक अक्षर का संयोग नहीं बन सकता ; क्योंकि संयोग द्विस्थ होता है अतः उसे एक में मानने में विरोध पाता है ?
___ समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि एक अर्थ में विद्यमान दो प्रकारों का एक अक्षर रूप से परिणमन देखा जाता है।
'या श्रीः सा गौः' यह असंयोगी एक अक्षर का उदाहरण नहीं है, क्योंकि, यह संयुक्त अनेक अक्षरों से निष्पन्न हुआ है। तथा यह एक संयोगाक्षर का भी उदाहरण नहीं है, क्योंकि भिन्न जाति के अक्षरों के संयोग को एक अक्षरसंयोग मानने में विरोध आता है। तथा 'वीरं देवं नित्यं वन्दे, वृपभं वरदं सततं प्रणमे, वीरजिन वीतभयं लोकगुरुं नौमि सदा, कनकनिभं शशिवदनं अजितजिनं शरणमिये' इत्यादि के साथ व्यभिचार भी दिखाना चाहिए ।
फिर एकसंयोगी भंग कैसे प्राप्त होता है, ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि
अक्षरों के संयोग की विवक्षा न करके जब अक्षर ही केवल पृथक्-पृथक् विवक्षित होते हैं तब श्रुतज्ञान के अक्षरों का प्रमाण चौंसठ होता है, क्योंकि इनसे पृथग्भूत अक्षरों के संयोग रूप अक्षर नहीं पाये जाते । श्र तज्ञान भी चौंसठ प्रमाण ही होता है, योंकि संयुक्त और प्रसंयुक्त रूप से स्थित व तज्ञान के कारणभूत अक्षर चौंसठ ही देखे जाते हैं ।
शङ्का - अक्षरों के समुदाय से उत्पन्न होने वाला श्रु तज्ञान एक अक्षर से कैसे उत्पन्न होता
समाधान-कारण कि प्रत्येक अक्षर में श्रुतज्ञान के उत्पादन की शक्ति का अभाव होने पर उनके समुदाय से भी उसके उत्पन्न होने का विरोध है ।
बाह्य एक-एक अर्थ को विषय करने वाले विज्ञान की उत्पत्ति में समर्थ अक्षरों के समुदाय को संयोगाक्षर कहते हैं। यथा---'या श्रीः सा गीः' इत्यादि । ये संयोगाक्षर, इनसे उत्पन्न हुए थ तज्ञान एक कम एकट्ठी प्रमाण होते हैं।
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४४०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३५५-३५६
एक कम एकट्ठीप्रमाण अक्षरों का सङ्गप्रविष्ट और मङ्गवाह्य में विमाजन
मज्झिमपदवखरवाहिदवण्णा ते अंगपुज्यगपदाणि । सेसक्खरसंखा प्रो पइण्णयाणं पमाणं तु ॥३५५।।
गाथार्थ-मध्यमपद के अक्षरों से समस्त अक्षरों को विभाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतने पदप्रमाण अक्षर तो अंग व पूर्व सम्बन्धित हैं। शेष अंगबाह्य के अक्षरों की संख्या है ।।३५५।।
विशेषार्थ- अक्षरसंयोग की अपेक्षा द्रव्य श्रुत का प्रमाण एक लाख चौरासी हजार चार सौ सड़सठ कोडाकोड़ी चवालीस लाख तिहत्तर सौ सत्तर करोड़ पंचानवेलाख इक्यावन हजार छह सौ पन्द्रह (१८४४६७४४०७३७०६५५१६१५) होता है। क्योंकि चौंसठ अक्षरों के एक दो संयोगादि रूप भंगों से इतने संयोगाक्षरों की उत्पत्ति होती है। पद की अपेक्षा अंगश्रुत (द्वादशांग) का प्रमाण एक सौ बारह करोड़ तेरासी लाल अट्ठावन हजार पांच (११२८३५८००५) पद प्रमाण है।
शा-- इतने पदों का प्रमाण कसे प्राप्त होता है ?
समाधान--सोलह सौ चौंतीस करोड़ तेरासी लाख अठत्तर सौ अठासी (१६३४८३०७८८८) संयोग अक्षरों का एक मध्यमपद होता है। एक मध्यमपद के संयोगाक्षरों का पूर्वोक्त सब अक्षरों में भाग देने पर पूर्वोक्त अंगपदों की उत्पत्ति होती है ।
फोटोशतं वावश व कोटयो लक्षाण्यशीतिस्न्यधिकानि चैव । पंचाशदष्टौ च सहलसंख्या एतच्छतं पंचपदं नमामि ॥६॥
—एक सौ बारह करोड़ तेरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच (११२८३५८००५) पद संख्या श्रुतज्ञान की है। शेष ८०१०८१७५ अक्षर रहते हैं। इनमें ३२ अक्षरों का भाग देने पर २५०३३८०३३ प्रमाण पद चौदह प्रकीर्णकरूप अंगबाह्य का प्रमाण है। अर्थात् अंगबाह्य के अक्षरों का प्रमाण ८०१०८१७५ तथा प्रमाणपदों का प्रमाण २५०३३८०३३ है १५
अर्थपदों से गणना करने पर अंगश्रुत का प्रमाण संख्यात होता है।
बारह अंगों के नाम और उनके पदों की संख्या पायारे सुद्दयडे ठाणे समवायरणामगे अंगे । तत्तो विक्खापण्णसीए रगाहस्स धम्मकहा ।।३५६।।
१. गो.जी.गा. ३५०। २. गो.जी.गा. ३३६ । ३, प.पु. १ पृ. १६५। ४. गो.जी.गा. ३५१ । ५. प.पु. ६ पृ. १९६ व ज.ध.पु. १ पृ. ६३ । ६. घ.पु. १ पृ. १६६ ।
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ज्ञानमारणा/४४१
तोबासयप्रझयणे अंतय. णुत्तरोववाददसे । पाहाणं वायरणे विवायसुत्ते य पदसंखा ॥३५७॥ अट्ठारस छत्तीसं बादालं अडकडी अडवि छप्पण्णं । सत्तरि अट्ठावीसं चउदालं सोलससहस्सा ॥३५॥ इगिदुगपंचेयारं तिबीसदुतिरणउ दिलवल तुरियादी । चुलसीविलक्खमेया कोडी य विवागसूत्तम्हि ॥३५६।। वापरणनरनोनानं एयारंगे जुदी हु बादम्हि ।
कनजतजमताननम जनकनजयसीम बाहिरे वण्णा ॥३६०॥ गाथार्थ - अाचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, धर्मकथाङ्ग, उमासकाध्ययमाङ, अन्त:शाङ्ग, अनुत्तरौपपादिक्रदशाङ्ग, प्रश्नव्याकरण और विपाकसत्र, इन ग्यारह अङ्गों के पदों की संख्या कम से अठारह हजार, छत्तीस हजार, बयालीस हजार, एक लाख चौंसठ हजार, दो लाख अट्ठाईस हजार, पाँच लाख छप्पन हजार, ग्यारह लाख सत्तर हजार. तेईस लाख अट्ठाईस हजार, बानबे लाख चवालीस हजार, तिरानवे लाख सोलह हजार पद हैं। विपाकसूत्र में एक करोड़ चौरासी लाख पद हैं। इन पदों का जोड़ चार करोड़ पन्द्रह लाख दो हजार होता है (४१५०२०००)। बारहवें दृष्टिबाद अंग में सम्पूर्ण पद १ अरब ८ करोड़ ६८ लाख ५६ हजार ५ होते हैं। अङ्गबाह्य सम्बन्धी अक्षरों का प्रमाण पाठकरोड़, एक लाख, आठ हजार एक सौ पचहत्तर होता है ।।३५६-३६०।।
विशेषार्थ—अंगप्रविष्ट के अर्थाधिकार बारह प्रकार के हैं। वे ये हैं आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्राप्ति, नाथ वा ज्ञातृ धर्मकथा, उपासकाध्ययन, अंतकृद्दशा, अनुत्तरौपपादिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद ।
प्राचारांग--- अठारह हजार पदों के द्वारा यह बतलाया गया है कि किस प्रकार चलना चाहिए? किस प्रकार खड़े रहना चाहिए, किस प्रकार बैठना चाहिए? किस प्रकार शयन करना चाहिए? किस प्रकार भोजन करना चाहिए? किस प्रकार संभाषण करना चाहिए? जिससे कि पाप का बन्ध न हो ?
कधं चरे कधं चिट्ट कधमासे कधं सए । कथं भुजेज्ज भासेक्स कथं पावंण बज्झवि ।।७०॥ जवं चरे जवं चिटु जदमासे जवं सए ।
जवं भुजेज भासेज्ज एवं पार्षण बज्झदि ॥७१।।' —यत्नपूर्वक चलना चाहिए, यत्नपूर्वक ठहरना चाहिए, यत्नपूर्वक वैठना चाहिए, यत्नपूर्वक सोना चाहिए, यत्नपूर्वक भोजन करना चाहिए और यत्नपूर्वक भाषण करना चाहिए, इस प्रकार पापबन्ध नहीं होता।
१. प्र.पु. १ पृ. १६; पु. ६ पृ. १६७ व ज.ब.पु. १ पृ. १२२ ।
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४४२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाचा ३५६-३६०
इस प्राचाराङ्ग में चर्याविधि, पाठ शुद्धियों, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों के भेदों की प्ररूपणा की जाती है। इत्यादि रूप से यह मुनियों के प्राचरण का वर्णन करता है।
सूत्रकृताङ्ग-छत्तीस हजार (२६०००) पद प्रमाण सूत्रकृताङ्ग में ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्य, छेदोपस्थापना और व्यवहारधर्म क्रियानों की दिगन्तर शुद्धि से प्ररूपणा की जाती है।' तथा यह स्वसमय और परसमय का भी निरूपण करता है । यह अंग स्त्री सम्बन्धी परिणाम, क्लीवता, अस्फुटत्व, काम का आवेश, विलास, प्रास्फालन-सुख और पुरुष की इच्छा करना आदि स्त्री के लक्षणों का प्ररूपण करता है ।
___ स्थानांग-यह अंग बयालीस हजार पदों के द्वारा जीव और पुदगल यादि के एक को प्रादि लेकर एकात्तर क्रम से स्थानों का वर्णन करता है । यथा
एक्को चेव महागा सो दुवियप्पो तिलक्खरणो भणिदो। चदु संकमणाजुत्तो पंचगगुणप्पहारणो य ॥६४॥ छक्कपक्कमजुत्तो उवजुत्तो सत्तभंगि सम्भावो।
प्रवासवो णवट्ठो जीवो दसट्टाणिनो भरिणी ॥६५॥ --यह जीव महात्मा अविनश्वर चैतन्य गुण से अथवा सर्वजीव साधारण उपयोगरूप लक्षण से युक्त होने के कारण एक है। वह ज्ञान और दर्शन, संसारी और मुक्त, अथवा भव्य और प्रभव्य रूप दो भेदों से दो प्रकार का है। ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना की अपेक्षा, उत्पादव्यय ध्रौव्य की अपेक्षा, अथवा द्रव्यगुणपर्याय की अपेक्षा तीन प्रकार का है। नरकादि चार गतियों में परिभ्रमण करने के कारण चार संक्रमणों से युक्त है। औपशमिक आदि पांच भावों से युक्त होने के कारण पांच भेद रूप है। मरण समय में पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व व अधः इन छह दिशाओं में गमन करने रूप छह अपक्रमों से सहित होने के कारण छह प्रकार है। सात भंगों से उसका सद्भाब सिद्ध है, अतः बह सात प्रकार है। ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के प्रास्रब से युक्त होने, अथवा आठ कर्मों या सम्यक्त्वादि पाठ गुणों का माश्रय होने से आठ प्रकार का है। नौ पदार्थ रूप परिणमन करने की
क्षा नौ प्रकार है। पृथिवी, जल, तेज, वायु, प्रत्येक व साधारण वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय रूप दस स्थानों में प्राप्त होने से दस प्रकार का है ।
समवायांग में एक लाख चौंसठ हजार (१६४०००) पदों द्वारा सर्व पदार्थों की समानता का विचार किया जाता है। वह समवाय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार का है। उनमें से प्रथम द्रव्य समवाय का कथन इस प्रकार है--धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश परस्पर समान हैं।'
शङ्का . प्रदेशों को द्रव्यपना कैसे सम्भव है ?
१. धवल पु. ६ पृ. १६७। २. जयधवल पु. १ पृ. १२२ । ३. धवल पु. १ पृ. ६६, पु. ६. पृ. १६८-१६६। ४. धवल पु. १ पृ. १६ । ५. जयघवल पु. १ पृ. १२२ । ६. धवल पु. १ पृ. १००, पु.१ .१९८, जयधनल पु. १ पृ. १२३ । ७. धवल पु. ६ पृ. १६८-१.६। . धवल पु. १ पृ. १६६। १. अयधवल पु. १ पृ. १२४ ॥
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माथा ३५६-३६.
ज्ञानमार्गणा/४३
समाधान--नहीं, क्योंकि पर्यायाथिकनय का अवलम्बन करने पर प्रदेशों के भी द्रव्यत्व की सिद्धि हो जाती है। प्रदेशकल्पना पर्यायाथिकनय की मुख्यता से होती है, इसलिए पर्यायाथिकनय का अवलम्बन करके प्रदेश में द्रव्य की सिद्धि हुई है।' जम्बूद्वीप, सर्वार्थ सिद्धि, अप्रतिष्ठान नरक और नन्दीश्वर द्वीपस्थ एक वापी, इनके समान रूप से एक लाख योजन विस्तार की अपेक्षा क्षेत्र समवाय होने से क्षेत्र-समवाय है । अथवा प्रथम नरक का पहला इन्द्रक सीमन्तक बिल, मनुष्यक्षेत्र, सौधर्मकल्प का पहला इन्द्रक ऋतुविमान और सिद्धलोक ये चारों क्षेत्र की अपेक्षा सण हैं, यह क्षेत्र समवाय है। समय, प्रावली, क्षण, लब, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, युग, पूर्व, पर्व, पाय, सागर, अबसपिणी, और उत्सपिणी ये परस्पर समान है। अर्थात् एक समय दुसरे समय के समान है. एक प्रावली दूसरी पावली के समान है। इसी तरह प्रागे भी समझना चाहिए। यह काल समवाय है। केवलज़ान केबलदर्शन के बराबर है यह भाव समवाय है।'
व्याख्याप्रज्ञप्ति-यह दो लाख अट्ठाईस हजार पदों द्वारा क्या जीव है, क्या जीव नहीं है, जीव कहाँ उत्पन्न होता है और कहाँ से आता है, इत्यादिक साठ हजार प्रश्नों के उत्तरों का तथा छयानवे हजार छिन्नच्छेदों से ज्ञापनीय शुभ और अशुभ का वर्णन करता है ।
नाथ धर्म कथा अथवा जात धर्म कथा पांच लाख छप्पन हजार पदों द्वारा सूत्र पौरुषी अर्थात् सिद्धान्तोक्त विधि से स्वाध्याय के प्रस्थापन में भगवान तीर्थकर की तालु व अोष्ट पुट के हलन-चलन के बिना प्रवर्तमान समस्त भाषाओं स्वरूप दिव्य ध्वनि द्वारा दी गई धर्मदेशना की विधि का, संशययुक्त गणाधरदेव के संशय को नष्ट करने की विधि का तथा बहुत प्रकार कथा व उपकथानों के स्वरूप का कथन करता है।
शङ्का-दिव्यध्वनि कैसी होती है ?
समाधान-वह सर्वभाषामयी है, अक्षर-अनक्षरात्मक है, जिसमें अनन्तपदार्थ समाविष्ट हैं (अनन्त पदार्थों का वर्णन है), जिसका शारीर बीजपदों से घड़ा गया है, जो प्रात: मध्याह्न और सायंकाल इन तीन संध्याओं में छह-छह घड़ी तक निरन्तर खिरती रहती है और उक्त समय को छोड़कर इतर समय में गणधरदेव संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को प्राप्त होने उनके प्रवृत्ति करने (उनके संशयादि को दूर करने) का जिसका स्वभाव है, संकर और व्यतिकर दोषों से रहित होने के कारण जिसका स्वरूप विशद है और उन्नीस (अध्ययनों के द्वारा) धर्मकथानों का प्रतिपादन करना जिसका स्वभाव है। इस प्रकार स्वभाववाली दिव्यध्वनि समझनी चाहिए।
उपासकाध्ययन ग्यारह लाख सत्तर हजार पदों के द्वारा ग्यारह प्रकार के श्रावक धर्म का निरूपण करता है। यहाँ उपयोगी माथा इस प्रकार है
दसण-यब-सामाइय-पोसह-सच्चित्त रादिभत्ते य । बम्हारंभ - परिगगह-अणुमणमुद्दिट्ट देसविरदी य ॥७॥"
१. जयधवल पु १ पृ. १२४ । २. चवल पु.६ पृ. १६६ ।
पृ. २०० व जयधवल पु. १ पृ. १२५ । ५. धवल पु. ७. धवल पु. १ पृ. १०२ व धवल पु. ६ पृ. २०१ ।
३. 'जयषवल पु.१पृ. १२४-१२५। ४. पवल पू. पृ. २०० । ६. जयवबल पु. १ पृ. १२६ ।
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४४४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३५६-३६०
दर्शनिक, अतिक, सामायिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तिविरत, ब्रह्मचारी, प्रारम्भविस्त, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत इन ग्यारह प्रकार के श्रावकों के लक्षण, अत धारण करने की विधि और उनके आचरण का वर्गान करता है।
अन्तकृशांग तेबीस लाख अट्ठाईस हजार पदों के द्वारा एक-एक तीर्थंकर के तीर्थ में नाना. प्रकार के दारुण उपसगों को सहन कर प्रातिहार्य (अतिशय विशेषों) को प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त हुए दस-दस अन्तकृतकेवलियों का वर्णन करता है। तस्वार्थभाष्य में भी कहा है -"जिन्होंने संसार का अन्त किया वे अन्तकृतकेवली हैं 1 श्री वर्द्धमान तीर्थकर के तीर्थ में नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक, बलीक, किष्किबिल, पालम्ब, अष्टपुत्र ये दस अन्तकृत केवली हुए हैं। इसी प्रकार श्री ऋषभदेव आदि तेबीस तीर्थंकरों के तीर्थ में अन्य दस-दस अनगार दारुण उपसगों को जीत कर सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से अन्तकृत केवली हुए। इस अंग में उन दस-दस का वर्णन किया जाता है अत एव वह अन्तकृद्दशांग कहलाता है ।"
अनुत्तरौपपादिकवशांग नामक अंग में जागो लाख तीन हजार पनों हार' एक-एक तीर्थ में नाना प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहकर और प्रतिहार्य प्राप्त करके पाँच अनुत्तर विमानों में गये हुए दस-दस अनुत्तरौपपादिकों का वर्णन करता है। तत्त्वार्थभाध्य में भी कहा है-उपपाद जन्म ही जिनका प्रयोजन है उन्हें प्रोपपादिक कहते हैं। विजय, वैजयन्त, जयन्त अपराजित और सर्वार्थ सिद्धि ये पाँच अनुत्तर विमान हैं। जो अनुत्तरों में उपपाद जन्म से पैदा होते हैं, वे अनुत्तरोपपादिक हैं। ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिकेय, प्रानन्द, नन्दन, शालि भद्र, अभय, बारिषेरग और चिलातपुत्र ये दस अनुत्तरौपपादिक श्री वर्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में हुए हैं। इसी तरह श्री ऋषभनाथ आदि तेवीस तीर्थंकरों के तीर्थ में अन्य दस-दस महा साधु दारुण उपसर्गों को जीतकर विजयादिक पाँच अनुत्तरों में उत्पन्न हुए। इस प्रकार अनुत्तरों में उत्पन्न होने वाले दस साधुनों का वर्णन जिसमें किया जाय वह अनुत्तरोपपादिक दशांग नाम का अंग है।
प्रश्नव्याकरण नामका अंग तेरानवे लाख सोलह हजार पदों के द्वारा आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निवेदनी इन चार कथानों का (तथा भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल सम्बन्धी धनधान्य, लाभ-अलाभ, जीवित-मरण, जय और पराजय सम्बन्धी प्रश्नों के पूछने पर उनके उपाय का) वर्णन करता है।
जो नाना प्रकार की एकान्त दृष्टियों का और दूसरे समयों का निराकरणपूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्य और नौ प्रकार के पदार्थों का प्ररूपरग करती है, उसे श्राक्षेपसी कथा कहते हैं। जिसमें पहले परसमय के द्वारा स्वसमय में दोष बतलाये जाते हैं, अनन्तर परसमय की आधारभूत अनेक एकान्तदृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना की जाती है और छह द्रव्य नौ पदार्थों का प्ररूपण किया जाता है, उसे विक्षेपणो कथा कहते हैं। पुण्य के फल का कथन करने वाली कथा को संवेदनी कथा कहते हैं।
शङ्का पुण्य के फल कौनसे हैं ?
१. घवल पु. १ पृ. १०२, पु. १ पृ. २०१, जयधवल पु. १ पृ. १२६-१३०। २. श्रवल पु. १. १०२-१७३ व घवल पु. ६ पृ. २०१। ३. पवन पु. १ पृ. १२३.१०४, पु. ६ पृ. २०२, जयववस पु. १ पृ. १३ ।
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गापा ३५६-३६०
ज्ञानमार्गणा/४४५
समाधान-तीर्थङ्कर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं।
पाप के फल का वर्णन करने वाली कथा को निर्वेदनी कथा कहते हैं। शङ्का--पाप के फल कौनसे हैं ?
समाधान-नरक, तिर्यंच और कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्रय आदि की प्राप्ति पाप के फल हैं।
अथवा, संसार, शरीर और भोगों में वैराग्य को उत्पन्न करने वाली कथा को निवेदनी कथा कहते हैं बाहा भी है
आक्षेपणी तत्वविधानभूतां विक्षेपणी तत्त्वदिगन्तशुद्धिम् ।
शंवेनिगी धर्मजागा निदि वार मान विरागाम् ॥'
-तत्त्वों का निरूपण करने वाली आक्षेपणी कथा है। तत्व से दिशान्तर को प्राप्त हुई दृष्टियों का शोधन करने वालो अर्थात् परमत की एकान्तदृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना करने वाली विक्षेपणी कथा है। विस्तार से धर्म के फल का वर्णन करने वाली संवेगिनी कथा है और वैराग्य उत्पन्न करने बाली निर्वेदिनी कथा है।
इन कथानों का प्रतिपादन करते समय जो जिनवचन को नहीं जानता है अर्थात् जिसका जिनवचन में प्रवेश नहीं है, ऐसे पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश नहीं करना चाहिए क्योंकि जिसने स्वसमय के रहस्य को नहीं जाना है और परसमय की प्रतिपादन करने वाली कथानों के सुनने से व्याकुलित चित्त होकर वह मिथ्यात्व को स्वीकार न कर लेवे, इसलिए स्वसमय के रहस्य को नहीं जानने वाले पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश न देकर शेष तीन कथाओं का उपदेश देना चाहिए। उक्त तीन कथानों द्वारा जिसने स्वसमय को भलीभांति समझलिया है, जो पुण्य और पाप के स्वरूप को जानता है, जिस तरह मज्जा अर्थात हड़ियों के मध्य में रहने वाला रस हड्डी से संसक्त होकर ही शरीर में रहता है, उसी तरह जो जिनशासन में अनुरक्त है, जिनवचन में जिसको किसी प्रकार की विचिकित्सा नहीं रही है, जो भोग और रति से विरक्त है और जो तप, शील पौर नियम से युक्त है, ऐसे पुरुष को ही पश्चात् विक्षेपणी कथा का उपदेश देना चाहिए। प्ररूपण करके उत्तम रूप से ज्ञान कराने वाले के लिए, यह अकथा भी तब कथारूप हो जाती है। इसलिए योग्य पुरुष को प्राप्त करके ही साधु की कथा का उपदेश देना चाहिए। यह प्रश्नव्याकरण नाम का अंग प्रश्न के अनुसार स्त, नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवित, मरण, जय, पराजय, नाम, द्रव्य, आयु और संख्या का भी प्ररूपण करता है ।
विपाकसूत्र नाम का अंग एक करोड़ चौरासी लाख पदों के द्वारा पुण्य और पापरूप कर्मों के फल का वर्णन करता है।
ग्यारह अंगों के कुल पदों का जोड़ चार करोड़ पन्द्रह लाख दो हजार पद है । १. प. पु. १ पृ. १०६ गा. ६५ ।
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४४६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३६१.३६६
बारह. अंग दृष्टिवाद के भेद और उनके पदों का प्रमाण चंदरविजंबुदीक्यदीवसमुद्दयवियाहपण्णत्ती परियम्म पंचविहं सुत्तं पढ़मारिणजोगमदो ॥३६१॥ पुथ्वं जलथलमाया प्रागासयरूवगमिमा पंच । भेदा ४ चूलियार तेसु पमाणं इण कमसी ॥३६२॥ गलनम मनगंगोरम मरगत जगातनोननं जजलक्खा । मननन धममननोनननामं रनधजधराननजलाची ॥३६३॥ पाजकनासेनाननमेवारिग पदाणि होति परिकम्मे । कानवधिवाचनाननमेसो पुरण चूलियाजोगो ॥३६४॥ पण्णदाल पणतीस तीस पण्णास पण तेरस । रगउदो दुदाल पुब्बे पणवण्णा तेरससयाई ॥३६॥ छस्सय पण्णासाई चउसयपण्णास छसयपणुधीसा ।
बिहि लगखेहि दु गुरिणया पंचम रूऊरण छज्जुदा छ? ।।३६६॥ गाथार्थ-बारहवें दृष्टिवाद अंग के पांच भेद हैं-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चलिका। परिकर्म के पाँच भेद हैं—चन्द्रप्रजप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीप-समुद्र-प्रज्ञप्ति, व्याख्याप्रज्ञप्ति। चूलिका के पांच भेद हैं-जलगता, स्थलगता, मायागता, आकाशगता, रूपगता । इनके पदों का प्रमाण क्रम से चन्द्रप्रज्ञप्ति में छत्तीस लाख पाँच हजार, सूर्यप्रज्ञप्ति में पांच लाख तीन हजार, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में तीन लाख पच्चीस हजार, द्वीप-समुद्र-प्रज्ञप्ति में बावन लाख छत्तीस हजार, व्याख्याप्रज्ञप्ति में चौरासी लाख छत्तीस हजार पद हैं। सत्र में अठासी लाख पद हैं। प्रथमानयोग में पाँच हजार पद हैं। चौदह पूर्व में पचानवे करोड़ पचास लाख पद हैं। पांचों चूलिकामों में से प्रत्येक में दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ पद हैं। पाँचों परिकर्म के पदों का जोड़ एक करोड़ इक्यासी लाख पाँच हजार है। पांचों चूलिका के पदों का जोड़ दस करोड़ उनचास लाख छयालीस हजार है । ५०, ४८, ३५, ३०, ५०, ५०, १३००,६०, ४२, ५५, १३००, ६५०, ४५० तथा ६२५; इन चौदह संख्याओं में से प्रत्येक को दो-दो लाख से गुरिणत करें। विशेष यह है कि प्राप्त १४ गुणनफलों में से पंचम गुणनफल में एक कम करना चाहिए तथा छठे गुणनफल में ६ जोड़ने चाहिए। इस प्रकार अब प्राप्त अभिनव चौदह ही संख्याएं चौदहपूर्वो में से प्रत्येक पूर्व के पदों की संख्यारूप है। [सार यह है कि चौदह पूर्त में क्रम से एक करोड़, छयानवे लाग्य, सत्तर लाख, साठ लाख, एक कम एक करोड़, एक करोड़ छह, छब्बीस करोड़, एक करोड़ अस्सी लाख, चौरासी लाख, एक करोड़ दस लाख, छब्बीस करोड़, तेरह करोड़, नौ करोड़ और चौदहवें पूर्व में बारह करोड़ पचास लाख पद है] ॥३६१-३६६।।
विशेषार्थ- 'दृष्टिवाद अंग' यह गोण्य नाम है, क्योंकि इसमें अनेक दृष्टियों का वर्णन है। यह अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति, अनुयोग आदि की अपेक्षा संध्यात रूप है और अर्थ की अपेक्षा
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गाथा ३६१-३६६
ज्ञानमार्गणा/४४७
अनन्त रूप है।' क्योंकि इस दृष्टिवाद के प्रमेय अनन्त हैं । इसमें तदुभयवक्तव्यता (स्वसमय और पर समय दोनों बक्तव्यता) है।
इस दृष्टिवाद अंग के पाँच अधिकार हैं-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। उनमें से परिकर्म के पांच भेद हैं--चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति ।
चन्नप्राप्ति नामका परिकर्म छत्तीस लाख पाँच हजार पदों के द्वारा चन्द्रमा की आयु, परिवार, ऋद्धि. गति और बिम्ब की ऊँचाई आदि का वर्णन करता है। सूर्यप्रज्ञप्ति नामका परिकर्म पाँच लाख तीन हजार पदों के द्वारा सूर्य की आयु, भोग, उपभोग, परिवार, ऋद्धि, गति, बिम्ब की ऊंचाई, दिन की हानिवृद्धि, किरणों का प्रमाण और प्रकाश आदि का वर्णन करता है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति नामका परिकम तीन लाख पच्चीस हजार पदों के द्वारा जम्बूद्वीपस्थ भोगभूमि और कर्मभूमि
हए नाना प्रकार के मनष्य तथा दूसरे तिर्यंच ग्रादि का और पर्वत, द्रहनदी, बेदिका, वर्ष, आबाम, अकृत्रिम जिनालय आदि का वर्णन करता है। द्वीपसागरप्रज्ञप्ति नामका परिकर्म बावन लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा उद्धारपल्य से द्वीप और समुद्रों के प्रमाण का तथा द्वीपसागर के अन्तर्भूत नाना प्रकार के दुसरे पदार्थों का वर्णन करता है। व्याख्याप्रजाप्ति नामका परिकर्म चौरासी लाम्ख छत्तीस हजार पदों के द्वारा रूपी अजीवद्रव्य प्रर्थात् पुदगल, अरूषी अजीबद्रव्य अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश और काल, भव्यसिद्ध और अभव्यसिद्ध जीव इन सबका वर्णन करता है।
दृष्टिवाद अंग का सूत्र नाम का अर्थाधिकार अठासी लाख पदों के द्वारा जीव प्रबन्धक ही है, अलेपक ही है, अकर्ता ही है, अभोक्ता भी है, निर्गुण ही है, अणुप्रमाण ही है, जीव नास्तिस्वरूप ही है, जीव अस्तिस्वरूप ही है, पृथिवी आदिक पाँच भूतों के समुदायरूप से जीव उत्पन्न होता है, चेतना रहित है, ज्ञान के बिना भी सचेतन है, नित्य ही है, अनित्य ही है, इत्यादि रूप से क्रियावादी, अत्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयबादियों के तीन सौ वेसठ मतों का पूर्वपक्षरूप से वर्णन करता है। यह राशिकवाद, नियतिवाद, विज्ञानवाद, शब्दवाद, प्रधानवाद, द्रध्यवाद और पुरुषवाद का भी वर्णन करता है । कहा भी है
अट्ठासी-पहियारेसु 'घउण्हमहियारणमत्थरिणद्देसो । पढमो प्रबंधयाणं विदियो तेरासियाण बोद्धन्वो ॥३६॥
तवियो य रिणयइ-पक्खे हबइ चउत्थो ससमम्मि । ..-इस सुत्र नामक अधिकार के अठासी अधिकारों में से चार अधिकारों का अर्थनिर्देश मिलता है। उनमें पहला अधिकार प्रबन्धकों का दूसग त्रैराशिकवादियों का, तीसरा नियतिवाद का समझना चाहिए तथा चौथा अधिकार स्वसमय का प्ररूपक है ।
दृष्टिवाद अंग का प्रथमानुयोग अर्थाधिकार पाँच हजार पदों के द्वारा पुराणों का वर्णन करता है। कहा भी है -
१. प.पु. १ पृ. १०६ । २. "अस्थादो प्रणत, पमेयारणंतियादो" [धवन पू. ६ पृ. २१२] । ३. पवल पु. १ पृ.
१०१
४. धवल पु.१.११२ ।
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४४८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाया ३६१-३६६
बारसविहं पुराणं जगदिद्ध अिणवरेहि सन्देहि । तं सव्यं वण्णेदि हु जिरगवंसे रायवंसे य॥७७।। पढमो अरहताणं विदियो पुण चकवट्टि-वंसो दु। विज्जहराणं तदियो चउत्थयो वासुदेवाणं ॥७॥ हाता-चसो तत् प्रजमो माहो व गणममणाणं । सत्तमप्रो कुरुवंसो प्रष्टुममो तह र हरिबंसो ॥७॥ एवमो य इक्खुयाणं समो विय कासियाण बोद्धय्यो।
वाईणेक्कारसमो बारसमो गाह-वंसो दु ॥०॥' -जिनेन्द्रदेव ने जगत् में बारह प्रकार के पुराणों का उपदेश दिया है। वे समस्त पुराण इंश और राजवंशों का वर्णन करते हैं। पहला अरिहन्त अर्थात तीर्थकरों का, दूसरा चक्रतियों का. तीसरा विद्याधरों का. चौथा नारायण-प्रतिनारायणों का, पाँचवाँ चरणों का,
, छठा प्रज्ञाधमरणों का वंश है। सातवाँ कुरवश, पाठवाँ हरिवंग, नवाँ इक्ष्वाकुवंश, दसों काश्यपवंश, म्यारहवाँ वादियों का बंश पोर बारहवां नाथवंग है।७७-
दृष्टिवाद अंग का पूर्वगत नामका अर्थाधिकार पंचानवे करोड़ पचास लाख और पांच पदों द्वारा उत्पाद, व्यय और प्रौव्य आदि का वर्णन करता है।
जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता और आकाशगता के भेद से चूलिका पाँच प्रकार की है। उनमें से जलगता चूलिका दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ पदों द्वारा जल में गमन और जलस्तम्भन
भन के कारणाभत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चर्यारूप अतिशय आदि का बन करती है। स्थलगता चूलिका उतने ही २०१८६२०० पदों द्वारा पृथिवी के भीतर गमन करने के कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरणरूप आश्चर्य आदि का तथा वास्तुविद्या और भूमि-सम्बन्धी दूसरे शुभअशुभ कारणों का वर्णन करती है। मायागता चूलिका उतने ही २०६५६२०० पदों द्वारा (मायारूप) इन्द्रजाल आदि के कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरण का वर्णन करती है । रूपगता अलिका उतने ही २०६८६२०० पदों द्वारा सिंह, घोड़ा और हरिणादि के स्वरूप के काररूप से परिणमन करने के कारणभूत मंत्र, तंत्र और तपश्चरण का तथा चित्रकर्म, काष्ठकर्म, लेप्यकर्म और लेनकर्म आदि के लक्षण का वर्णन करती है । आकाशगता धूलिका उतने ही २०१८१२०० पदों द्वारा आकाश में गमन करने के कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरण का वर्णन करती है ।
इन पांचों ही चूलिकाओं के पदों का जोड़ दस करोड़ उनचास लाख छयालीस हजार पद है।
जो पूर्वो को प्राप्त हो अथवा जिसने पूर्वो के स्वरूप को प्राप्त कर लिया हो उसे पूर्वगत कहते हैं। इस तरह 'पूर्वगत' यह गीण्यनाम है। वह अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वार की अपेक्षा संख्यात और अर्थ की अपेक्षा अनन्तप्रमाण है। तीनों वक्तब्यताओं में से यहाँ स्वसमयवक्तव्यता समझनी चाहिए । अर्थाधिकार के चौदह भेद हैं । वे ये हैं-उत्पादपूर्व, अग्रायणीयपूर्व, वीर्यानुप्रवादपूर्व, अस्तिनास्तिप्रबादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व सत्यप्रवादपूर्व, प्रात्मप्रवादपूर्व, कर्मप्रवादपूर्व,
१. ध. पु. १ पृ. ११२ ।
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ज्ञानमार्गणा / ४४६
प्रत्याख्यानपूर्व विद्यानुप्रवादपूर्व, कल्याणवादपूर्वं प्रारणावायपूर्व, क्रियाविशालपूर्व और लोकबिन्दुसार पूर्व
गाथा ३६१-३६६
उनमें से, उत्पादपूर्व दसवस्तुगत दो सौ प्राभूतों के एक करोड़ पदों द्वारा जीव, काल और पुद्गल द्रव्य के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का वर्णन करता है । [ ग्रग्र अर्थात् द्वादशांगों में प्रधानभूत वस्तु के ययन अर्थात् ज्ञान को प्रग्रायण कहते हैं और उसका कथन करना जिसका प्रयोजन हो उसे प्राणीपूर्व कहते हैं ।] यह पूर्व चौदह वस्तुगत दो सौ अस्सी प्राभृतों के छ्यानवे लाख पदों द्वारा अंगों के अग्र अर्थात् परिमाण का कथन करता है । वीर्यानुप्रवादपूर्व प्राठ वस्तुगत एक सौ साठ प्राभृतों के सत्तर लाख पदों द्वारा आत्मवीर्य, परवीर्य, उभयवीर्य, क्षेत्रदीर्य, भाववीर्य और लपवीर्यं का वर्णन करता है । ग्रस्तिनास्तिप्रवादपूर्व अठारह वस्तुगत तीन सौ साठ प्राभृतों के साठ लाख पदों हारा जीव और सभी के नास्ति का वर्णन करता है। जैसे जीव, स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा कथंचित् अस्तिरूप है । परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा कथंचित् नास्तिरूप है। जिस समय वह स्वद्रव्यचतुष्टय और परद्रव्यचतुष्टय द्वारा अक्रम से युगपत् विवक्षित होता है, उस समय स्यादवक्तव्य रूप है। स्वद्रव्यादिरूप प्रथमधर्म और परद्रव्यादि रूप द्वितीयधर्म में जिस समय क्रमसे विवक्षित होता है, उस समय कथंचित् अस्ति नास्ति रूप है । स्यादस्तिरूप प्रथम धर्म और स्यादवक्तव्य रूप तृतीय धर्म से जिस समय विवक्षित होता है, उस समय कथंचित् अस्ति वक्तव्यरूप है । स्यान्नास्तिरूप द्वितीय धर्म और स्यादवक्तव्यरूप तृतीय धर्म से जिस समय क्रम से विवक्षित होता है उस समय कथंचित् नास्ति वक्तव्यरूप है । स्यादस्तिरूप प्रथम धर्म, स्यानास्तिरूप द्वितीय धर्म और स्यादवक्तव्यरूप तृतीय धर्म से जिस समय क्रम से विवक्षित होता है, उस समय कथंचित् ग्रस्ति नास्ति प्रवक्तव्यरूप जीव है। इसी तरह अजीवादिक का भी कथन करना चाहिए ।
ज्ञानप्रवादपूर्व बारह वस्तुगत दो सौ चालीस प्राभृतों के एक कम एक करोड़ पदों द्वारा पाँच ज्ञान तीन प्रज्ञानों का वर्णन करता है तथा द्रव्याथिकनय और पर्यायाथिकनय की अपेक्षा अनादिअनन्त, अनादि सान्त, सादि अनन्त और सादि सान्त रूप ज्ञानादि तथा इसी तरह ज्ञान और ज्ञान के स्वरूप का वर्णन करता है । सत्यप्रवादपूर्व बारह वस्तुगत दो सौ चालीस प्राभृतों के एक करोड़ छह पदों द्वारा वचनगुप्ति, वावसंस्कार के कारण, वचनप्रयोग, बारह प्रकार की भाषा, अनेक प्रकार के वक्ता, अनेक प्रकार के असत्यवचन और दस प्रकार के सत्यवचन इन सबका वर्णन करता है । असत्य नहीं बोलने को अथवा वचनसंयम अर्थात् मौन के धारण करने को वचनगुप्ति कहते हैं। मस्तक, कण्ठ, हृदय, जिह्वामूल, दांत, नासिका, तालु और औट ये आठ वचनसंस्कार के कारण हैं। शुभ और शुभ लक्षणरूप बचन प्रयोग का स्वरूप सरल है । अभ्याख्यानवचन, कलहवचन, पशून्यवचन, अवद्धप्रलापवचन, रतिवचन, अरतिवचन, उपधिवचन, निकृतिवचन, प्रतिवचन, मोषवचन, सम्यग्दर्शनवचन और मिथ्यादर्शन वचन के भेद से भाषा बारह प्रकार की है। यह इसका कर्ता है इस तरह अनिष्टकथन करने को श्रभ्याख्यानभाषा कहते हैं । परस्पर विरोध बढ़ाने वाले वचनों को कलवचन कहते हैं । पीछे से दोष प्रकट करने को पैशून्यवचन कहते हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सम्बन्ध से रहित वचनों को प्रलापवचन कहते हैं । इन्द्रियों के शब्दादि विषयों में राग उत्पन्न करने वाले वचनों को रतिवचन कहते हैं। इनमें अरति उत्पन्न करने वाले वचनों को प्ररतिवचन कहते हैं। जिस वचन को सुनकर परिग्रह के अर्जन और रक्षण करने में आसक्ति उत्पन्न होती है, उसे उपधिवचन कहते हैं। जिस वचन को अवधारण करके जीव वाणिज्य में ठगने रूप प्रवृत्ति
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४५०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३६१-३६६
करने में समर्थ होता है उसे निकृतिवचन कहते हैं। जिस वचन को सुनकर तप और ज्ञान से अधिक गुणवाले पुरुषों में भी जीव नम्रीभूत नहीं होता है उसे अप्रणतिवचन कहते हैं। जिस वचन को सुनकर चौर्यकर्म में प्रवृत्ति होती है उसे मोषवचन कहते हैं। समीचीनमार्ग का उपदेश देनेवाले वचन को सम्यग्दर्शनवचन कहते हैं। मिथ्यामार्ग का उपदेश देने वाले वचन को मिथ्यावर्शन वचन कहते हैं। जिनमें वक्तृपर्याय प्रकट हो गई है ऐसे द्वीन्द्रिय से आदि लेकर सभी जीव वक्ता हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाम की अपेक्षा प्रसव अनेक प्रकार है।
मूल पदार्थ के नहीं रहने पर भी सचेतन और अचेतन द्रव्य के व्यवहार के लिए जो संज्ञा की जाती है उसे नामसत्य कहते हैं। जैसे-ऐश्वर्यादि गुणों के न होने पर भी किसी का नाम 'इन्द्र' ऐसा रखना नामसत्य है। पदार्थ के नहीं होने पर भी रूप की मुख्यता से जो वचन कहे जाते हैं, उसे रूपसत्य कहते हैं। जैसे --चित्रलिखित पुरुष प्रादि में चैतन्य और उपयोगादिक रूप अर्थ के नहीं रहने पर भी 'पुरुष' इत्यादि कहना रूपसत्य है। मूल पदार्थ के नहीं रहने पर भी कार्य के लिए जो द्यतसम्बन्धी अक्ष (पासा) आदि में स्थापना की जाती है, उसे स्थापनासत्य कहते हैं। सादि और अनादि भावों की अपेक्षा जो वचन बोला जाता है उसे प्रतीत्यसत्य कहते हैं। लोक में जो वचन संवृति अर्थात् कल्पना के आश्रित बोले जाते हैं, उन्हें संवृतिसत्य कहते हैं। जैसे पृथिवी धादि अनेक कारणों के कहने पर भी जो पंक अर्थात् कीचड़ में उत्पन्न होता है उसे पंकज कहते हैं। धूप के सुगन्धित चूर्ण के अनुलेपन और प्रघर्षण के समय अथवा पम, मकर, हंस, सर्वतोभद्र और क्रौंच आदिरूप व्यूहरचना के समय सचेतन अथवा अचेतन द्रव्यों के विभागानुसार विधिपूर्वक रचनाविशेष के प्रकाशक जो वचन हैं उन्हें संयोजनासत्य कहते हैं। आर्य और अनार्य के भेद से बत्तीस देशों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्राप्त करानेवाले वचन को जनपदसत्य कहते हैं। ग्राम, नगर, राजा, गण पाखण्ड, जाति और कुल आदि धर्मों के उपदेश करने वाले जो बचन हैं उन्हें देशसत्य कहते हैं। छद्मस्थों का ज्ञान यद्यपि द्रव्य की यथार्थता का निश्चय नहीं कर सकता है तो भी अपने गुण अर्थात् धर्म के पालन करने के लिए यह प्रासुक है, यह अप्रासुक है इत्यादि रूप से जो संयत और श्रावक के वचन हैं, उन्हें भावसस्य कहते हैं। प्रागभगम्य प्रतिनियत छह प्रकार की द्रव्य और उनकी पर्यायों को यथार्थता को प्रकट करने वाले जो वचन हैं उन्हें समयसत्य कहते हैं।
प्रात्मप्रयादपूर्व सोलह वस्तुगत तीन सौ बीस प्राभूतों के छब्बीस करोड़ पदों द्वारा जीव वेत्ता है. विष्णु है, भोक्ता है, बुद्ध है इत्यादि रूप से आत्मा का वर्णन करता है। कहा भी है--
जीबो कत्ता य बत्ता य पाणी भोसाय पोग्गलो। वेदो विण्हू सयंमू य सरीरी तह मागवो ॥१॥ सत्ता अंतू य माणी य माई जोगी य संकडो। असंकडो य खेत्तण्ड अंतरप्पा तहेव य ॥२॥'
.--जीव कर्ता है, वक्ता है, प्राणी है, भोक्ता है, पुद्गल है, वेद है, विष्णु है, स्वयम्भू है, गरीरी है, मानव है, सक्ता है, जन्तु है, भानी है, मायावी है, योगसहित है. संकुट है, असंकुट है, क्षेत्रज्ञ है और अन्तरात्मा है ।।८१-८२।।
१. घ.. १ पृ. ११८-११६ ।
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ज्ञानमा गंगा/ ४५१
जीता है, जीवित रहेगा और पहले जीवित था, इसलिए जीव है। शुभ और अशुभ कार्य करता है इसलिए कर्त्ता है। सत्य-असत्य और योग्य-अयोग्य वचन बोलता है, इसलिए वक्ता है । इसके प्राण पाये जाते हैं इसलिए प्राणी है । देव, मनुष्य, तिर्यच और नारकी के भेद से चार प्रकार के संसार में पुण्य और पाप का भोग करता है, इसलिए भोक्ता है। छह प्रकार के संस्थान और नाना प्रकार के शरीरों द्वारा पूर्ण करता है और गलाता है, इसलिए पुद्गल है। सुख और दुःख का बेदन करता है, इसलिए वेद है । अथवा जानता है, इसलिए वेद है। प्राप्त हुए शरीर को व्याप्त करता है इसलिए विष्णु है । स्वतः ही उत्पन्न हुआ है. इसलिए स्वयम्भू है । संसार अवस्था में इसके शरीर पाया जाता है, इसलिए शरीरी है। मनु ज्ञान को कहते हैं, उसमें यह उत्पन्न हुआ है, इसलिए मानव है । स्वजन सम्बन्धी मित्रवर्ग में आसक्त रहता है, इसलिए सकता है। चार गति रूप संसार में उत्पन्न होता है और दूसरों को उत्पन्न करता है, इसलिए जन्तु है । इसके मानकषाय पाई जाती है, इसलिए मानी है । इसके माया कषाय पाई जाती है, इसलिए मायी है। इसके तीन योग होते हैं, इसलिए योगी है। अतिसूक्ष्म देह मिलने से संकुचित होता है इसलिए संकुट है। सम्पूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करता है, इसलिए असंकुट है । क्षेत्र अर्थात् अपने स्वरूप को जानता है, इसलिए क्षेत्रज्ञ है । आठ कर्मों के भीतर रहता है इसलिए अन्तरात्मा है ।
गाथा २६७
कर्मप्रवावपूर्व बीस वस्तुगत चार सौ प्राभृतों के एक करोड़ अस्सी लाख पदों द्वारा श्राउ प्रकार के कर्मों का वर्णन करता है। प्रत्याख्यानपूर्व तीस वस्तुगत छह सौ प्राभृतों के चौरासी लाख पदों हारा इव्य भाव आदि की अपेक्षा परिमितकालरूप और अपरिमितकालरूप प्रत्याख्यान, उपवासविधि, पाँच समिति और तीन गुप्तियों का वर्णन करता है । विद्यानुवादपूर्व पन्द्रह् वस्तुगत तीन सौ प्राभृतों के एक करोड़ दस लाख पदों द्वारा अंगुष्ठप्रसेना आदि सात सौ अल्प विद्याओं का, रोहिणी आदि पांच सी महाविद्याओं का और अन्तरिक्ष, भीम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन, चिह्न इन आठ महानिमित्तों का वर्णन करता है। कल्याणवादपूर्व दस वस्तुगत दो सौ प्राभृतों के छब्बीस करोड़ पदों द्वारा सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र और तारागणों के चारक्षेत्र, उपपादस्थान, गति, वक्रगति तथा उनके फलों का, पक्षी के शब्दों का और अरिहन्त अर्थात् तीर्थंकर, बलदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती आदि के गर्भावतार नादि महाकल्याणकों का वर्णन करता है। प्राखावायपूर्ण दस वस्तुगत दो सौ प्राभृतों के तेरह करोड़ पदों द्वारा शरीरचिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, भूतिकर्म श्रर्थात् शरीर आदि की रक्षा के लिए किये गए भस्मलेपन, सूत्रबन्धनादि कर्म, जांगुलिप्रक्रम (विषविद्या) और प्राणायाम के भेदप्रभेदों का विस्तार से वर्णन करता है । क्रियाविशालपूर्व दसवस्तुगत दो सौ प्राभृतों के नौ करोड़ पदों द्वारा लेखनकला आदि बहत्तर कलाओं का स्त्रीसम्बन्धी चौंसठ गुग्गों का, शिल्पकला का, काव्यसम्बन्धी गुरदोषविधि का और छन्दनिर्माण कला का वर्णन करता है । लोकबिन्दुसारपूर्व दसवस्तुगत दो सौ प्राभृतों के बारह करोड़ पचास लाख पदों द्वारा आठ प्रकार के व्यवहारों का, चार प्रकार के बीजों का, मोक्ष को ले जाने वाली क्रिया का और मोक्षसुख का वर्णन करता है
इन चौदह पूर्वो में सम्पूर्ण वस्तुनों का जोड़ एक सौ पच्चानवे है और सम्पूर्ण प्राभूतों का जोड़ तीन हजार नौ सौ है ।
श्रङ्गबाह्य श्रुत के भेद
सामाइयचवीसत्थयं तदो बंदरगा पक्किम | वेणइयं किदियम्मं दसवेयालं च उत्तरायणं ।।३६७।।
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४५२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३६७-२६८
कप्पयवहारकप्पाकप्पियमहकप्पियं च पुंडरियं ।
महपुडरीयरिणसिहियमिदि चोद्दसमंगबाहिरयं ।।३६८।। गाथार्थ -अङ्गबाह्य श्रुत के चौदह भेद हैं—सामायिक, चतुर्विशस्तव, बन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प्य, महाकल्प, पुंडरीक, महापु'डरीक, निपिद्धिका ।।३६७-३६८।।
विशेषार्थ-अंगबा ह्य अर्थात् अनंगद्युत १४ प्रकार का है–सामायिक, चतुर्विशतिस्तब, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशबैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका ।'
द्रव्य सामायिक, क्षेत्र सामायिक, काल सामायिक और भाव सामायिक के भेद से सामायिक चार प्रकार की है।
गामे ठवणा दवे खेत्ते काले व तहेव भावे य।
___सामाइम्हि एसो सिक्खेदो छविहरे पो ॥१७॥ [मूलाचार ७] अथवा नामसामायिक, स्थापनासामायिक, द्रव्यसामायिक, क्षेत्रसामायिक, कालसामायिक और भावसामायिक इन छह भेदों द्वारा समता भाव के विधान का वर्णन करना सामायिक है।' सचित्त और अचित्त द्रव्यों में राग और द्वेष का निरोध करना द्रव्य सामायिक है। ग्राम, नगर, खेट, कवंट, मंडव, पट्टन, द्रोणमुख और जनपद आदि में रागद्वेष का निरोध करना अथवा अपने निवासस्थान में साम्पराय (कषाय) का निरोध करना क्षेत्रसामायिक है। बसन्त आदि छह ऋतुविषयक कषाय का निरोध करना कालसामायिक है। जिसने समस्त कषायों का निरोध कर दिया है, तथा मिथ्यात्व का वमन कर दिया है और जो नयों में निपुण है, ऐसे पुरुष को बाधारहित और अस्खलित जो छह द्रव्यविषयक ज्ञान होता है वह भाव सामायिक है। अथवा तीनों ही संध्याओं में या पक्ष और मास के सन्धि दिनों में, या अपने इच्छित्त समय में बाह्य और अन्तरङ्ग समस्त पदार्थों में कषाय का निरोध करना सामायिक है। सामायिक नामक प्रकीर्णक इस प्रकार काल का आश्रय करके और भरतादि क्षेत्र, संहनन तथा गुणस्थानों का आश्रय करके परिमित और
सामायिक की प्रहपणा करता है। मनष्यों-तिर्यचों आदि के शभ-प्रशभ नामों में रागद्वेष का निरोध करना नाम सामायिक है। सुन्दर स्थापना या असन्दर स्थापना में रागद्वेष का निरोध करना स्थापना सामायिक है। जैसे कुछ मूर्तियाँ सुस्थित होती हैं, सुप्रमाण तथा सर्व अवयवों से सम्पूर्ण होती हैं, तदाकाररूप तथा मन को पालाद करने वाली होती है तो कुछ मूर्तियाँ दुःस्थित प्रमाणरहित, सर्व अवयवों से परिपूर्णता रहित, अतदाकार भी होती हैं [मूर्तिनिर्माता के यहाँ दोनों ही प्रकार की जिनमूनियाँ देखी जा सकती हैं ] इनमें रागद्वेष का अभाव होना स्थापना सामायिक है।
चतुर्विशलिस्तव अर्थाधिकार उस-उस काल सम्बन्धी चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना करने की
१. धवल पु. ६ ८. १७-१८८ । २. जयधवल पू.१ पृ. ६५। ३. धवल पु.१ पृ.६६। ४. जयधवल पु.१ प्र. 81-88 एवं नवीन संस्करण पृ. ६६-६०। ५. मूलाचार ७/१७ संस्कृत टीका एवं ज्ञानपीठ प्रकाशन का मूलाचार माग १ पृ. ३६३ से ३६५ ।
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गाथा ३६७-३६८
ज्ञानमा ४५३
विधि, उनके नाम, संस्थान, उत्से, पांच महाकल्याणक, चौंतीस अतिशयों के स्वरूप और तीर्थकरों की वन्दना की सफलता का वर्णन करता है । '
शङ्का छह काय के जीवों की विराधना के कारणभूत श्रावकधर्म का उपदेश करने वाले होने से चौबीसों ही तीर्थंकर सावद्य सदोष हैं। दान, पूजा, शील और उपवास ये चार धावकों के धर्म हैं, यह चारों प्रकार का श्रावक धर्म छहकाय के जीवों की विराधना का कारण है, क्योंकि भोजन बनाना, दूसरों से बनवाना, अग्नि का जलाना, अग्नि का खुवना और खुबवाना आदि व्यापारों से होने वाली जीवविराधना के बिना दान नहीं हो सकता। उसी प्रकार वृक्ष का काटना और कटवाना, ईंट का गिरना और गिरवाना तथा उनको पकाना और पकवाना आदि छह काय के जीवों की विराधना के कारणभूत व्यापार के बिना जिनभवन का निर्माण करना अथवा करवाना नहीं बन सकता । तथा अभिषेक करना अवलेप करना, संमार्जन करना, चन्दन लगाना, फूल चढ़ाना और धूप का जलाना आदि जीववध के अविनाभावी व्यापारों के दिन पूजा कर नहीं
सकता ।
अपनी स्त्री को पीड़ा दिये बिना शील का परिपालन नहीं हो सकता है। इसलिए शील की रक्षा भी सावध है । अपने पेट में स्थित प्राणियों को पीड़ा दिये बिना उपवास बन नहीं सकता । इसलिए उपवास भी सावध है । अथवा 'स्थावर जीवों को छोड़कर केवल त्रस जीवों को मत मारों श्रावकों को इस प्रकार का उपदेश देने से जिनदेव निरवद्य नहीं हो सकते । अथवा अनशन, अवमोदर्य, वृत्ति परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, वृक्ष के मूल में, सूर्य के आतप में और खुले हुए स्थानों में निवास करना, उत्कुटासन, पत्यंकासन, अर्धपत्यकासन, खड्गासन, गवासन, वीरासन, विनय, वैयावृत्य और ध्यान यादि क्लेशों में जीवों को डालकर उन्हें ठगने के कारण भी जिन निरवद्य नहीं हैं इसलिए वे वन्दनीय नहीं हैं ।
समाधान - यद्यपि तीर्थंकर पूर्वोक्त प्रकार का उपदेश देते हैं तो भी उनके कर्मबन्ध नहीं होता, क्योंकि जिनदेव के तेरहवें गुणस्थान में कर्मबन्ध के कारणभूत मिध्यात्व असंयम और कषाय का श्रभाव हो जाने से वेदनीयकर्म को छोड़कर शेष समस्त कर्मों का बन्ध नहीं होता । वेदनीय कर्म में भी स्थितिबन्ध व ग्रनुभागबन्ध नहीं होता, क्योंकि उनके कषाय का अभाव है। योग के कारण प्रकृतिबन्ध व प्रदेशबन्ध के अस्तित्व का भी कथन नहीं किया जा सकता, क्योंकि स्थितिबन्ध के बिना उदय रूप से आने वाले निषेकों में उपचार से अन्ध के व्यवहार का कथन किया गया है। साथ ही श्रसंख्यात गुणी श्रेणीरूप से वे प्रतिसमय पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा करते हैं, इसलिए उनके कर्मों का संचय नहीं बन सकता | तीर्थंकरों के मन वचन काय की प्रवृत्तियाँ इच्छापूर्वक नहीं होतीं जिससे उनके नवीन कर्मों का बन्ध होवे । जिस प्रकार सूर्य व कल्पवृक्ष की प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक होती हैं उसी प्रकार उनके मन-वचन-काय की प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक समझना चाहिए ।
तित्थयरस्स बिहारी लोप्रसुहो नेव तत्थ पुष्णफलो । च वाणपूजारंभयरं तं रंग
वयणं
१. धवल पु. १ पृ. ६६ । २. जयधवल पु. १ पृ. १००-१०१ । ४. जयधवस पु. १ पृ. १०५ । नवीन संस्करण पृ. ६६ ।
लेवेइ ॥ ५४॥
३.
जयबल पु. १ पृ. १०१-१०२ ।
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४५४/गो. सा. श्रीवकाण्ड
गाथा ३६७-३६८
तीर्थकर का विहार संसार के लिए सुखकर है परन्तु उससे तीर्थकर को पुण्यरूप फल प्राप्त नहीं होता। तथा दान पूजा आदि प्रारम्भ के करनेवाले वचन, उन्हें कर्मबन्ध से लिप्त नहीं करते हैं।
संजद-धम्मकहा वि य उवासयाणं सवारसंतोसो।
तसवहविरई सिक्खामावरघादो ति सामुमदो ॥५५॥' -संयतासंयतों की धर्मकथा से स्वदारसन्तोष और प्रसवधविरति का उपदेश दिया गया है उससे स्थावरघात की अनुमति नहीं दी गई है। संयम के उपदेश द्वारा निवृत्ति ही इष्ट है, उससे फलित होने वाली प्रवृत्ति इष्ट नहीं है।
पावागमदाराई प्रणाइरूवट्टियाई जीवम्मि ।
तत्थ सुहासवदारं उग्घाईते कउ सदोसो ॥१७॥ -जीवों में पापासव के द्वार अनादिकाल से स्थित हैं, उनके रहते हुए जो जीव शुभास्त्रब के हा का उद्घाटन करता है
मामूटः कर्मों को करता है) वह सदोष कसे हो सकता है ? ॥२७॥
इसलिए चौबीसों तीर्थकर निरवद्य हैं और इसीलिए वे विबुधजनों द्वारा वन्दनीय हैं ।
यदि कोई ऐसी आशंका करे कि तीर्थकर मुरदुन्दुभि, ध्वजा, चमर, सिंहासन, धवल और निर्मल छत्र, भेरी, शंख तथा काहल (नगारा) आदि परिग्रह रूपी गुदड़ी के मध्य विद्यमान रहते हैं
और वे त्रिभुवन को अवलम्बन देने वाले हैं अर्थात् तीन लोक के सहारे हैं, इसलिए वे निरबद्य नहीं हैं; सो उसकी ऐसी आशंका भी ठीक नहीं है क्योंकि चार घाती कर्मों के प्रभाव से प्राप्त हुई नो केवललब्धियों से वे शोभित हैं। इस कारण उनका पाप के साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता है । इत्यादिरूप से चतुर्विशति तीर्थकर विषयक दुर्नयों का निराकरण करके नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव के भेद से भिन्न २४ तीर्थंकरों के स्तवन के विधान का और उसके फल का कथन चतुविशतिस्तव करता
"चौबीसों तीर्थंकरों के गुणों के अनुसरण द्वारा उनके १००८ नामों का ग्रहण करना अर्थात् पाठ करना नामस्तव है। जो सद्भाव और असद्भावरूप स्थापना में स्थापित है और जो बुद्धि के द्वारा तीर्थकरों से एकरव अर्थात अभेद को प्राप्त है अतएव तीर्थंकर के समस्त अनन्त गुणों को धारण करती हैं, ऐसी कृत्रिम तथा प्रकृत्रिम जिनप्रतिमानों के स्वरूप का अनुसरण करना अथवा उनका कीर्तन करना स्थापना-स्तव है ।
"जिनभवन का स्तवन जिनस्थापनास्तव अर्थात् मुर्ति में स्थापित जिनभगवान के स्तवन में अन्तर्भूत है, अतः उसका यहाँ पृथक् प्ररूपण नहीं किया है। जो विष, शस्त्र, अग्नि, पित्त, वात और कफ से उत्पन्न होनेवाली अशेष वेदनाओं से रहित हैं, जिन्होंने अपने प्रभामंडल के तेज से दशों दिशाओं
१. ज.ध.पु. १ पृ. १०५। २. ज.प.पु. १ पृ. १०६ । ३. ज.प.पु. १ पृ. १०८। ४. जयधवल पु. १ पृ. १०८/८४ ।
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गाथा ३६०-३६८
जानमामंगा/४५५
में बारह योजन तक अन्धकार को दूर कर दिया है, जो स्वस्तिक, अंकुश प्रादि चौंसठ लक्षणचिह्नों से व्याप्त हैं, जिनका शुभ संस्थान अर्थात् समचतुरस्र संस्थान और शुभ संहनन अर्थात् वज्रवषभनाराच संहनन है, सुरभि गंध से जिन्होंने विभवन को ग्रामोदित कर दिया है, जो रक्तनयन, कटाक्षरूप बाणों का छोड़ना, स्वेद, रज आदि विकार आदि से रहित हैं, जिनके नख और रोम योग्य
में स्थित हैं. जो क्षीरसागर के तट के तरंगयक्त जल के समान शुभ्र तथा सवर्णदंड से युक्त चौंसठ चामरों से सुशोभित हैं तथा जिनका वर्ण (रंग) शुभ है ऐसे चौबीसों तीर्थंकरों के शरीरों के स्वरूप का अनुसरण करते हुए उनका कीर्तन करना द्रव्यस्तव है। उन चौबीस जिनों के अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, अनन्त सुख, क्षायिक सम्यक्त्व, अन्याबाध और विरागता आदि गुणों के अनुसरण करने की प्ररूपणा करना भावस्तव है।"
--एक तीर्थंकर को नमस्कार करना वन्दना है।'
शङ्का--एक जिन और एक जिनालय की वन्दना कर्मों का क्षय नहीं कर सकती है क्योंकि इससे शेष जिन और जिनालयों की प्रासादना होती है, इसलिए वह प्रासादना द्वारा उत्पन्न हुए अशुभ कर्मों के बन्धन का कारण है। तथा एक जिन या जिनालय की वन्दना करने वाले को मोक्ष या जैनत्व नहीं प्राप्त हो सकता है, क्योंकि वह पक्षपात से दूषित है । इसलिए उसके ज्ञान और चारित्र में कारण सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है। अतएव एक जिन या जिनालय को नमस्कार करना नहीं बन सकता है?
समाधान-एक जिन या जिनालय की बन्दना करने से पक्षपात तो होता ही नहीं है, क्योंकि बन्दना करने वाले के 'मैं एक जिन या जिनालय की ही वन्दना करूंगा, अन्य की नहीं ऐसी प्रतिज्ञारूप नियम नहीं पाया जाता है। तथा इससे वन्दना करने वाले ने शेष जिन और जिनालयों की नियम से बन्दना नहीं की ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख आदि के द्वारा अनन्त जिन एकत्व को प्राप्त हैं, अर्थात् अनन्त ज्ञानादि गुरण सभी में समानरूप से पाये जाते हैं, इसलिए उनमें इन गुणों की अपेक्षा कोई भेद नहीं है, अतएव एक जिन या जिनालय की वन्दना करने से सभी जिन या जिनालयों की वन्दना हो जाती है। यद्यपि ऐसा है तो भी चविंशतिस्तव में वन्दना का अन्तर्भाव नहीं होता है, क्योंकि द्रव्याथिकनय और पर्यायाथिकनय के एकत्व अर्थात् अभेद मानने में विरोध प्राता है। तथा सभी पक्षपात अशुभ कर्मबन्ध के हेतु हैं ऐसा नियम भी नहीं है, क्योंकि जिनका मोह क्षीण हो गया है ऐसे जिन भगवान विषयक पक्षपात में अशुभ कर्मों के बन्ध की हेतुता नहीं पाई जाती है अर्थात् जिन भगवान का पक्ष स्वीकार करने से प्रशुभ कर्मों का बन्ध नहीं होता है। यदि कोई ऐसा अाग्रह करे कि एक जिन की वन्दना का जितना फल है, शेष जिनों की वन्दना का भी उतना ही फल होने से शेष जिनों की वन्दना करना सफल नहीं है। अत: शेष जिनों की बन्दना में अधिक फल नहीं पाया जाने के कारण एक जिन की ही वन्दना करनी चाहिए। अथवा अनन्त जिनों में छपस्थ के उपयोग की एक साथ विशेषरूप प्रवृत्ति नहीं हो सकती है, इसलिए भी एक जिन को बन्दना करनी चाहिए, सो इस प्रकार का यह एकान्त आग्रह भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि इस प्रकार सर्वथा एकान्त का निश्चय करना दुर्नय है। इस तरह यहाँ जो प्रकार बताया है उसी प्रकार से विवाद का निराकरण करके बन्दनास्तव एक जिन की वन्दना की
१. जयघवल . १ पृ. ११०/८५ । २. जयब वल पु. १ पृ. १११/८६-८७ ।
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४५६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३६७-३६८
निदोषता का ज्ञान कराकर वन्दना के भेद और उनके फलों का प्ररूपगा करता है ।
देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ऐपिथिक और प्रौत्तमस्थानिक ; इसप्रकार प्रतिक्रमण सात प्रकार का है। सर्वातिचारिक और निविधाहारत्यागिक नाम के प्रतिक्रमण उत्तम स्थान प्रतिक्रमण में अन्तर्भूत होते हैं। २८ मूलगुणों के अतिचार विषयक समस्त प्रतिक्रमण ईपिथ प्रतिक्रमण में अन्तर्भूत होते हैं, क्योंकि ईपिथ प्रतिक्रमण अवगत अतिचारों को विषय करता है। इस कारण प्रतिक्रमण ही होते हैं।
शङ्का-प्रत्याख्यान तथा प्रतित्रामण में क्या भेद है?
समाधान—द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव के निमित्त से अपने शरीर में लगे हुए दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान से अप्रत्याख्यान को प्राप्त होकर पुनः प्रत्याख्यान को प्राप्त होना, प्रतिक्रमण है।
[अभिप्राय यह है कि मोक्ष के इच्छुक ब्रती द्वारा रत्नत्रय के विरोधी नामादिक का मन, वचन और काय से बुद्धिपूर्वक त्याग करना प्रत्याख्यान है। त्याग करने [प्रत्याख्यान करने] के अनन्तर ग्रहण किए हुए बतों में लगे हुए दोषों का गहीं और निन्दा पूर्वक परिमार्जन करना प्रतिक्रमण है। यही इन दोनों में भेद है।]
शङ्का-यदि प्रतिक्रमण का उक्त लक्षण है तो औतमस्थानिक नामक प्रतिक्रमण नहीं हो सकता है, क्योंकि उसमें प्रतिक्रमण का लक्षण नहीं पाया जाता है।
समाधान -- नहीं, क्योंकि जो स्वयं प्रतिक्रमण न होकर प्रतिक्रमण के समान होता है वह भी प्रतिक्रमण कहलाता है। इस प्रकार के उपचार से उत्तमस्थानिक में भी प्रतिक्रमणपना स्वीकार । किया है।
शङ्खा-ौत्तमस्थानिक (उत्तमस्थानिक) में प्रतिक्रमणपने के उपचार का क्या निमित्त है ? समाधान-इसमें प्रत्याख्यान सामान्य ही प्रतिक्रमणपने के उपचार का निमित्त है ?
शङ्का उत्तम स्थान के निमित्त से किए गए प्रत्याख्यान में प्रतिक्रमण का उपचार किस प्रयोजन से होता है ?
समाधान--मैंने पांच महाव्रतों का ग्रहण करते समय ही शरीर और कषाय के साथ आहार का त्याग कर दिया था, अन्यथा शुद्धनय के विषयभूत ५ महायतों का ग्रहण नहीं बन सकता है। ऐसा होते दृए भी मैंने शक्तिहीन होने के कारण ५ महाव्रतों का भंग करके इतने काल तक उस पाहार का सेवन किया। इस प्रकार अपनी गहीं करके उत्तम स्थान के काल में प्रतिक्रमण की प्रवृत्ति पाई जाती है। इसका ज्ञान कराने के लिए प्रोत्तमस्थानिक प्रत्याख्यान में प्रतिक्रमण का उपचार किया गया है । दस प्रकार प्रतिक्रमण प्रकीर्णक इन प्रतिक्रमणों के लक्षण और भेदों का वर्णन करता है ।
१-२. जयघबल पुस्तक १५.११३ प्रकरण ८८-८६ |
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ज्ञानमार्गणा/४५७
विनयप्रकीर्णकविनय पाँच प्रकार का है - ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तपश्निय और औपचारिक विनय । जो पुरुष गुणों में अधिक हैं उनमें नम्रवृत्ति का रखना विनय है ।" भरत, ऐरावत व विदेह में साधने योग्य द्रव्य क्षेत्र-काल और भाव का आश्रय कर ज्ञानविनय, दर्शनविनय, वारिविनय, तपविनय, उपचार विनय इन पाँचों विनयों के लक्षरण, भेद और फल का कथन विनयप्रकीर्णक में है ।
गाथा ३६७-३६८
कृतिकर्मप्रकीर्णक-जिनदेव, सिद्ध, प्राचार्य और उपाध्याय की वन्दना करते समय जो क्रिया की जाती है, वह कृतिकर्म है । उस कृतिकर्म के आत्माधीन होकर किये गये तीन बार प्रदक्षिणा, तीन अवनति, चार नमस्कार और बारह प्रावर्त आदि रूप लक्षण, भेद तथा फल का वर्णन कृतिकर्म प्रकीर्णक करता है। यहाँ उपयुक्त गाथा है
दुश्रोणदं जहाजावं वारसावत्तमेव वा । उसी तिसुद्ध च किवियम्मं पउजए || ६४॥ *
है
काय
— यथाजात के सदम क्रोध आदि विकारों से रहित होकर दो अवनति, बारह प्रावर्त, चार शिरोनति और तीन शुद्धियों से संयुक्त कृतिकर्म का प्रयोग करना चाहिए ||६४ || दोनों हाथ जोड़कर सिर से भूमि स्पर्श रूप नमस्कार करने का नाम श्रवनति है । यह अवनति एक तो पंचनमस्कार की आदि में की जाती है और दूसरी चतुविशति की आदि में की के संयमन रूप शुभ योगों के बर्तने का नाम श्रावर्त है। पंचनमस्कार मंत्रोच्चारण के आदि व अन्त में तीन-तीन आवर्त तथा चतुविशतिस्तव के आदि व अन्त में तीन-तीन इस प्रकार बारह प्रावर्त किये जाते हैं । अथवा चारों दिशाओं में घूमते समय प्रत्येक दिशा में एक-एक प्रणाम किया जाता है, इस प्रकार तीन बार घूमने पर वे बारह होते हैं। दोनों हाथ जोड़कर सिर के नमाने का नाम शिरोनति है। यह क्रिया पंचनमस्कार और चतुर्विंशतिस्तव के आदि व अन्त में एक-एक बार करने से चार वार की जाती है । यह कृतिकर्म जन्मजात बालक के समान निर्विकार होकर मन बचन काय की पूर्व किया जाता है।
1
दशकालिक प्रकीर्णक - विशिष्ट काल विकाल है । उसमें जो विशेषता होती है वह वैकालिक है। वे वैकालिक दस हैं । उन दस वैकालिकों का दशवेकालिक नाम का अधिकार (प्रकीर्णक) है। यह् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय कर आचारविषयक विधि व भिक्षाटन विधि की प्ररूपणा करता है । ७
उत्तराध्ययन प्रकीर्णक - जिसमें अनेक प्रकार के उत्तर पढ़ने को मिलते हैं, वह उत्तराध्ययन प्रकीर्णक 15 चार प्रकार के उपसर्गों (देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यंचकृत, अचेतनकृत) और बाईस परीषहों (क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, श्ररति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, श्राक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और श्रदर्शन ये बाईस परीषह
३. जयधवल
१. " गुणाविषु नीति विनयः ।" [ जयघवल पु. १. ११७] । २. धवल पु. १. १८९ । पु. १ पृ. ११८ । ४. धवल पु. ६ पृ. १५६ । ५. मूलाचार ७/१०४ को टीका । ६. धवल पु. १ पृ. ६७ ७. धवल पु. ६. पं. १६०८ ८. धवन पु. १ पृ. है ।
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४५८/गो, सा. जीवकाण्ड
पाथा ३६७-३६
हैं) के सहन करने के विधान का और उनके सहन करने के फल का तथा इस प्रश्न के अनुसार यह उत्तर होता है; इसका वर्णन करता है।"
कल्यव्यवहार प्रकीर्णक-कल्प्य नाम योग्य का है और व्यवहार नाम प्राचार का है। योग्य प्राचार का नाम कल्प्यव्यवहार है । साधुओं को पीछी, कमण्डलु, कवली (ज्ञानोपकरण विशेष)
और पुस्तकादि जो जिस काल में योग्य हो उसकी प्ररूपणा करता है तथा अयोग्य-सेवन और योग्यसेवन न करने के प्रायश्चित्त की प्ररूपणा करता है।
कल्प्याकल्प्य प्रकीर्णक-द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव की अपेक्षा मुनियों के लिए यह योग्य है और यह अयोग्य है, इस तरह इन सबका कथन करता है ।४ साधुनों के जो योग्य है और जो योग्य नहीं है उन दोनों की ही, द्रव्य-क्षेत्र और काल का प्राश्रय कर, प्ररूपणा करता है। साधुओं के और असाधुओं के जो व्यवहार करने योग्य है और जो व्यवहार करने योग्य नहीं है इन सबका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय कर कल्प्याकल्प्य प्रकीर्णक कथन करता है।
महाकल्प्य प्रकीर्णक-दीक्षा-ग्रहण, शिक्षा, आत्मसंस्कार, सल्लेखना और उत्तमस्थानरूप आराधना को प्राप्त हुए साधुओं के जो करने योग्य है, उसका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का प्राश्रय लेकर प्ररूपण करता है। काल और संहनन का आश्रयकर साधनों के योग्य द्रव्य और क्षेत्र आदि का वर्णन करता है। उत्कृष्ट संहननादि विशिष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर प्रवृत्ति करने वाले जिनकल्पी साधुनों के योग्य त्रिकाल योग आदि अनुष्ठान का और स्थविरकल्पी साधुओं की दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, प्रात्मसंस्कार, सल्लेखना आदि का विशेष बर्णन है। भरत ऐरावत और विदेह तथा वहाँ रहने वाले तिर्यत्र व मनुष्यों के, देवों के एवं अन्य द्रव्यों के भी स्वरूप का छह कालों का आश्रय कर निरूपण करता है।
पुण्डरीक प्रकीर्णक-भवनवासी, वानव्यन्त र, ज्योतिष्या, कल्पवासी और बमानिक सम्बन्धी इन्द्र और सामानिक आदि में उत्पत्ति के कारण भूत दान, पूजा, शील, तप, उपवास, सम्यक्त्व, संयम और अकामनिर्जरा का तथा उनके उपपाद स्थान और भवनों का वर्णन करता है। अथवा छ से विशेषित देव, असुर और नारकियों में तिर्यंच व मनुष्यों की उत्पत्ति की प्ररूपणा करता है। इस काल में तिर्यंच और मनुष्य इन कल्पों व इन पृथिवियों में उत्पन्न होते हैं, इसकी यह प्ररूपणा करता है। यह अभिप्राय है।
महापुण्डरीक प्रकीर्णक-काल का आश्रय कर देवेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव व वासुदेवों में उत्पत्ति का वर्णन करता है।" अथवा समस्त इन्द्र और प्रतीन्द्रों में उत्पत्ति के कारणरूप तपोविशेष आदि माचरण का वर्णन करता है । अथवा देवों की देवियों में उत्पत्ति के कारणभूत तप, उपवास आदि का प्ररूपण यह प्रकीर्णक करता है ।।
१. जयघवल पु. १ पृ. १२०-१२१ । २. धवल पु. १ पृ. ६८1 ३. धवल पृ. ६ पृ. १२० । ४. धवल पु. १ ६८ । धवल पु ६ पृ. १६० ५. जयधवल पु. १ पृ. १२१ । ६. जगप्रवल पु. १ पृ. १२१ । ७. धवल पु. १ पृ. १८ . धवल पु. ६ पु. १६१। ६. जयघवल पु.१ पृ. १२१ व धवल पु. १ पृ.६८ । १०. धवल पु.१.१६१। ११. धवन' पु. ६ पृ १६१ । १२. धवल पू.१ पृ.६ । १३. ज.ध. १/१२१, नवीन संस्करण पृ. १११ ।
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गाथा ३६७-३६८
ज्ञानमार्गणा/४५६
निषिद्धिका प्रकीर्णक..-प्रमादजन्य दोषों के निराकरण करने को निषिद्धि वाहते हैं और इस निषिद्धि अर्थात् बहुत प्रकार के प्रायश्चित्त के प्रतिपादन करने वाले प्रकीर्णक को निषिद्धिका कहते हैं।' अथवा काल का आश्रय कर प्रायश्चित्त विधि और अन्य आचरण विधि की प्ररूपणा करता है।
श्रुतज्ञान के इकतालीस पर्यायवाची शब्द--
प्रावचन, प्रवचनीय, प्रवचनार्थ, गतियों में मार्गणता, आत्मा, परम्पराल ब्धि, अनुत्तर, प्रवचन, प्रबचनी, प्रवचनाद्धा, प्रवचनसंनिकर्ष, नयविधि, नयान्तरविधि, भंगविधि, भंगविधिविशेष, तत्व, भूत, भव्य, भविष्यत्, अवितथ, अविहत, वेद, न्याय्य, शुद्ध, सम्यग्दृष्टि, हेतुवाद, नयवाद, प्रवरवाद, मार्गवाद, श्रुतवाद, परवाद, लौकिकवाद, लोकोत्तरीयवाद, अग्नन्य, मार्ग, यथानुमार्ग, पूर्व, यथानुपूर्व और पूर्वातिपूर्व ; ये श्रुतज्ञान के पर्याय नाम हैं ॥५०॥
'बच्' धातु से वचन शब्द बना है। 'उच्यते भण्यते कथ्यते इति वचनम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो कहा जाता है वह बचन है। बचन पद से शब्दों का समुदाय लिया जाता है। प्रकृष्ट वचन को प्रवचन कहते हैं।
शङ्का-प्रकृष्टता कैसे है ?
समाधान–पूर्वापरविरोधादि दोष से रहित होने के कारण, निरवद्य अर्थ का कथन करने के कारण और बिसंवाद रहित होने के कारण प्रकृष्टता है ।
प्रवचन अर्थात् प्रकृष्ट शब्दकलाप में होने वाला ज्ञान या द्रव्यश्रुत प्रावचन कहलाता है। शङ्का--जबकि द्रव्यश्रुत वचनात्मक है तब उसकी थचन से ही उत्पत्ति कैसे हो सकती है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है क्योंकि श्रुतसंज्ञा को प्राप्त हुई वचनरचना चूकि वचनों से कथंचित भिन्न है, अतएव उनसे उसकी उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं पाता । अथवा 'प्रवचनमेव प्राबचनम्' ऐसी व्युत्पत्ति का प्राश्रय करने से उक्त दोष नहीं पाता।
प्रअन्धपूर्वक जो वचनीय अर्थात् व्याख्येय या प्रतिपादनीय होता है, वह प्रवचनीय कहलाता है। शङ्का- इसका सर्वकाल किसलिए व्याख्यान करते हैं ?
समाधान—क्योंकि वह व्याख्याता और श्रोता के असंख्यातगुणी श्रेणी रूप से होनेवाली कर्मनिर्जरा का कारण है । कहा भी है -
सज्झायं कुवंतो पंचिदियसंवुडो तिगुत्तो य । होदि य एयागमणो विरणएण समाहिदो भिक्खू ॥२१॥
१. धवल पु. १ पृ. ६ । २. धवल
पु. ६ पृ. १९१ । ३. धवल पु. १३ पृ. २८० ।
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४६०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३६७-३६८
जह जह सुदमोगाहिदि अदिसयरसपसरमसुदपुच्वं तु । तह तह पल्हाविमवि णव णवसंवेगसद्धाए ॥२२॥ जं अण्णाणी कम्मं खयेइ भवसयसहस्सकोडीहि ।
तं गाणी तिहि गुत्तो खवेद अंतोमुहत्तेण ॥२३॥ -स्वाध्याय को करने वाला भिक्षु पाँचों इन्द्रियों के व्यापार से रहित और तीन गुप्तियों से सहित होकर एकाग्रमन होता हुआ विनय से संयुक्त होता है ।।२१। जिसमें अतिशय रस का प्रसार है और जो अभुतपूर्व है ऐसे श्र त का बह जैसे-जैसे अवगाहन करता है वैसे ही वैसे अतिशय नवीन धर्मश्रद्धा से संयुक्त होता हुआ परम आनन्द का अनुभव करता है ।।२२॥ अज्ञानी जीव जिस कर्म का लाखों करोड़ों भवों के द्वारा क्षय करता है उसका ज्ञानी जीव तीन गुप्तियों से गुप्त होकर अन्तमुहर्त में क्षय कर देता है ।।२३।।
द्वादशांग रूप वर्गों का समुदाय वचन है, जो 'अयंत गम्यते परिच्छधते अर्थात् जाना जाता है, वह अर्थ है। यहाँ अर्थ पद से नौ पदार्थ लिये गये है। वचन और अर्थ ये दोनों मिल कर बचनार्थ कहलाते हैं। जिस पागम में वचन और अर्थ ये दोनों प्रकृष्ट अर्थात् निर्दोष हैं, उस पागम की प्रवचनार्थ संज्ञा है।
शङ्गा–प्रत्यक्ष व अनुमान से अनुमत और परस्पर विरोध से रहित सप्तभंगी रूप वचन सुनयस्वरूप होने से निर्दोष है। अतएव जब वचन को निर्दोषता से ही अर्थ की निर्दोषता जानी जाती है तब फिर अर्थ के ग्रहण का कोई प्रयोजन नहीं रहता ?
समाधान यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि शब्दानुसारी जनों का अनुग्रह करने के लिए 'अर्थ' पद का कथन किया है।
अथवा, प्रकृष्ट वचनों के द्वारा जो 'अयंते गम्यते परिच्छिद्रद्यते' अर्थात् जाना जाता है वह प्रवचनार्थ अर्थात द्वादशांग भावनत है। जो विशिष्ट रचना से प्रारचित हैं, बहुत अर्थवाले हैं, विशिष्ट उपादान कारणों से सहित हैं और जिनको हृदयंगम करने में विशिष्ट प्राचार्यों की सहायता लगती है, ऐसे सकल संयोगी अक्षरों से द्वादशांग उत्पन्न किया जाना है; यह उक्त कथन का तात्पर्य
यत: गतिशब्द देशामर्थक है, अत: गति शब्द का ग्रहण करने से चौदहों मागंणास्थानों का नहा होता है। गतियों में अर्थात् मार्गरणास्थानों में चौदह गुणस्थानों से उपलक्षित जीव जिसके द्वारा खोजे जाते हैं, वह गलियों में मार्गणता नामक श्रति है। द्वादशांग का नाम प्रात्मा है क्योंकि वह आत्मा का परिणाम है। और परिणाम परिणामी से भिन्न होता नहीं है, क्योंकि मिट्टी द्रव्य से पृथग्भूत घटादि पर्याय पाई नहीं जाती।
__शङ्का द्रव्यश्चत और भावश्च त ये दोनों ही आगमसामान्य की अपेक्षा समान हैं। अतएच जिस प्रकार भावस्वरूप द्वादशांग को 'अात्मा' माना है, उसी प्रकार द्रव्यथ त के भी प्रात्मस्वता का प्रसंग प्राप्त होता है।
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गाथा ३६७.३६८
ज्ञानमार्गरपा/४६१
समाधान नहीं, क्योंकि वह द्रव्यश्र त प्रात्मा का धर्म नहीं है। उसे जो पागम संज्ञा प्राप्त है, वह उपचार से प्राप्त है। वास्तव में, वह आगम नहीं है।
मुक्तिपर्यन्त इष्ट वस्तु को प्राप्त कराने वाली अणिमा आदि विक्रियायें लब्धि कही जाती हैं। इन लब्धियों की परम्परा जिस प्रागम से प्राप्त होती है या जिसमें उनकी प्राप्ति का
कहा जाता है वह परम्परालग्धि अर्थात् प्रागम है। उत्तर प्रतिवचन का दूसरा नाम है। जिस श्रु त का उत्तर नहीं है बह श्रु त अनुत्तर कहलाता है। अथवा उत्तर शब्द का अर्थ अधिक है, इससे अधिक चूंकि अन्य कोई भी सिद्धान्त नहीं पाया जाता, इसीलिए इस थ त का नाम अनुत्तर है।
___ यह प्रकर्ष से अर्थात कुतीयों के द्वारा नहीं स्पर्श किये जाने स्वरूप से जीवादि पदार्थों का निरूपण करता है, इसलिए वर्ण-पंतयात्मक द्वादशांग को प्रवचन कहते हैं। प्रथवा कारणभूत इस ज्ञान के द्वारा प्रमाण प्रादि के अविरोध रूप से जीवादि अर्थ कहे जाते हैं, इसलिए द्वादशांग भावथ त को प्रवचन कहते हैं।
शङ्खा–ज्ञान को करणपना कैसे प्राप्त है ?
समाधान नहीं, क्योंकि ज्ञान के बिना अर्थ में अविसंवादी वचन की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। इस हेतु का सुप्त और मत्त के वचनों के साथ व्यभिचार होगा, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उनके अविसंवादी होने का कोई नियम नहीं है।
जिसमें प्रकृष्ट बचन होते हैं वह प्रवचनी है, इस व्युत्पत्ति के अनुसार भावागम का नाम प्रवचनी है। अथवा जो कहा जाता है वह प्रवचन है, इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रवचन प्रर्थ को कहते हैं। वह इसमें है इसलिए वोपादान कारणक द्वादशांग ग्रन्थ का नाम प्रवचनी है । अद्धा काल को कहते हैं, प्रकृष्ट अर्थात् शोभन वचनों का काल जिस धति में होता है वह प्रवचनाखा अर्थात् ध तज्ञान है।
शङ्का-श्र तज्ञानरूप से परिणत हुई अवस्था में शोभन वचनों की ही प्रवृत्ति किसलिए होती है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अशोभन वचनों के हेतुभूत रागादित्रिक [राग, द्वेष, मोह] का वहाँ अभाव है।
'जो कहे जाते हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार बचन शब्द का अर्थ जीवादि पदार्थ है। प्रकर्ष रूप से जिसमें वचन सन्निकुष्ट होते हैं, वह प्रवचन सन्निकर्ष रूप से प्रसिद्ध द्वादशांग थुतज्ञान है।
शङ्का-सन्निकर्ष क्या है ?
समाधान-एक वस्तु में एक धर्म के विवक्षित होने पर उसमें शेष धर्मों के सत्यासत्व का विचार तथा उसमें रहने वाले उक्त धर्मों में से किसी एक धर्म के उत्कर्ष को प्राप्त होने पर शेष धर्मों के उत्कर्षानृत्कर्ष का विचार करना सन्निकर्ष कहलाता है ।
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४६२ गो. सा. जीवकाण
गाथा ३६७-२६८
अथवा, प्रकर्ष रूप से वचन अर्थात् जीवादि पदार्थ अनेकान्तात्मक रूप से जिसके द्वारा संन्यस्त अर्थात प्ररूपित किये जाते हैं, वह प्रवचमसंन्यास अर्थात् उक्त द्वादशांग श्रुतज्ञान ही है।
नय नंगम आदिक हैं। वे सत् व असत आदिस्वरूप से जिसमें 'विधीयन्ते' अर्थात कहे जाते हैं वह नयविधि पागम है। अथवा नंगमादि नयों के द्वारा जीवादि पदार्थों का जिसमें विधान किया जाता है वह नयविधि-यागम है। नयान्तर अर्थात् नयों के नंगमादिक सात सौ भेद बिषयसांकर्य के निराकरण द्वारा जिसमें विहित अर्थात निरूपित किये जाते हैं वह नयान्तरविधि अर्थात् श्रुतशान है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शील, गुण, नय, वचन और द्रव्यादिक के भेद भंग कहलाते हैं। उनका जिसके द्वारा विधान विया जाता है वह भंगविधि अर्थात् श्रुतज्ञान है। अथवा, भंग का अर्थ स्थिति और उत्पत्ति का अविनाभाबी बस्तुविनाश है। वह जिसके द्वारा विहित अर्थात् निरूपित किया जाता है वह भंगविधि अर्थात् श्रुत है।
विधि का अर्थ विधान है। भंगों की विधि अर्थात् भेद विशेप्यते' अर्थात् पृथक रूप से जिसके द्वारा निरूपित किया जाता है वह भंगविधिविशेष अर्थात् श्रुतज्ञान है । द्रव्य, गुरग और पर्याय के विधिनिषेध विषयक प्रश्न का नाम पृच्छा है। उसके क्रम और अक्रम का तथा प्रायश्चित्त का जिसमें विधान किया जाता है, वह पृच्छाविधि अर्थात् श्रुत है। अथवा पूछा गया अर्थ पृच्छा है, बह जिसमें विहित की जाती है अर्थात् कही जाती है, वह पृच्छाविधि श्रुत है। विधान करना विधि है। पृच्छा की विधि पृच्छाविधि है। वह जिसके द्वारा विशेषित की जाती है वह पृच्छाविधिविशेष है। अरिहन्त, आचार्य, उपाध्याय और साधु इस प्रकार से पूछे जाने योग्य है तथा प्रश्नों के भेद इतने ही हैं; ये सब चकि सिद्धान्त में निरूपित किये जाते हैं अत: उसकी पृच्छाविधि विशेष यह संज्ञा है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। 'तत्' इस सर्वनाम से विधि की विवक्षा है, तत् का भाव तत्व है।
शङ्का-श्रुत की विधि संज्ञा कैसे है ?
समाधान - चुकि वह सब नयों के विषय के अस्तित्व का विधायक है, इसलिए श्रुत की विधि संजा उचित ही है।
तत्त्व श्रुतज्ञान है। अागम अतीत काल में था, इसलिए उसकी भूत संज्ञा है। वर्तमान काल में है इसलिए उसकी भव्य संज्ञा है। वह भविष्य काल में रहेगा इसलिए उसकी भविष्यत् संज्ञा है। आगम अतीत, अनागत और वर्तमान काल में है, यह उक्त बथन का तात्पर्य है। इस प्रकार वह मागम नित्य है।
शङ्का ऐसा होने पर पागम को अपौरुषेयता का प्रसंग पाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि बाच्य-वाचकभाव से तथा वर्ण. पद ब पंक्तियों के द्वारा प्रवाह रूप से चले पाने के कारण आगम को अपौरुषेय स्वीकार त्रिया है ।
इस कथन से हरि, हर और हिरण्यगर्भ आदि के द्वारा रचे गये बचन पागम हैं; इसका निराकरण जान लेना चाहिए । वितश्र और असत्य ये समानार्थक शब्द हैं । जिस श्रुतज्ञान में वितथपना नहीं पाया जाता वह अस्तिथ अर्थात् तथ्य है। मिथ्याष्टियों के वचनों द्वारा जो न वर्तमान में हता
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गाथा ३६७-३६८
ज्ञानमार्गा /४६३
जाता है, न भविष्य में हता जा सकेगा और न भूतकाल में हता गया है वह अविहत-श्रुतज़ान है । प्रमोष पदार्थों को जो वेदता है, वेदेगा और बेद चुका है, वह वेद अर्थात् सिद्धान्त है। इससे सूत्रकण्ठों अर्थात् ब्राह्मणों की मिथ्यारूप ग्रन्थ कथा वेद है, इसका निराकरण किया गया है। न्याय से युक्त है इसलिए श्रुतज्ञान न्याय्य कहलाता है । अथवा ज्ञेय का अनुसरण करने वाला होने से या न्याय रूप होने से सिद्धान्त को न्याय्य कहते हैं ।
वचन और अर्थगत दोषों से रहित होने के कारण सिद्धान्त का नाम शुद्ध है। इसके द्वारा जोवादि पदार्थ सम्यक् प्रकार से देखे जाते हैं अर्थात जाने जाते हैं, इसलिए इसका नाम सम्यग्दृष्टिश्रुति है। इसके द्वारा जीवादिक पदार्थ सम्यक् प्रकार से देखे जाते हैं अर्थात् श्रद्धान किये जाते हैं, इसलिए इसका नाम सम्यग्दष्टि है। अथवा सम्यग्दृष्टि के साथ श्रुति का अविनाभाव होने से उसका नाम सम्यग्दृष्टि है। जो लिग अन्यथानुपपत्तिरूप एक लक्षण से उपलक्षित होकर साध्य का अबिनाभावी होता है, उसे हेतु कहा जाता है। वह हेतु दो प्रकार का है-साधनहेतु और दूषणहेतु । इनमें स्वपक्ष की सिद्धि के लिए प्रयुक्त हुआ हेतु साधनहेतु और प्रतिपक्ष का खण्डन करने के लिए प्रयुक्त हुआ दूषण हेतु है। अथवा जो अर्थ और आत्मा का 'हिनोति' अर्थात् ज्ञान कराता है उस प्रमाणपंचक को हेतु कहा जाता है। उक्त हेतु जिसके द्वारा 'उच्यते' अर्थात् कहा जाता है, वह श्रुतज्ञान हेतुवाद कहलाता है। ऐहिक और पारलौकिक फल को प्राप्त का उपाय नय है। उसका बाद प्रथात् कथन इस सिद्धान्त के द्वारा किया जाता है, इसलिए यह नयवाद कहलाता है।
स्वर्ग और अपवर्ग का मार्ग होने से रत्नत्रय का नाम प्रबर है। उसका वाद अर्थात् कथन इसके द्वारा किया जाता है, इसलिए इस आगम का नाम प्रवरवाद है। जिसके द्वारा मार्गण किया जाता है, वह मार्ग अर्थात् पथ कहलाता है। बह पांच प्रकार का है-नरकगतिमार्ग, तिर्यग्गतिमार्ग, मनुष्यगतिमार्ग, देवगतिमार्ग और मोक्षगतिमार्ग । उनमें से एक-एक मार्ग कृमि व कीट आदि के भेद से अनेक प्रकार का है। ये मार्ग और मार्गाभास जिसके द्वारा कहे जाते हैं वह सिद्धान्त मार्गवाद कहलाता है । धुत दो प्रकार का है-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । इसका कथन जिस वचनकलाप के द्वारा किया जाता है, बह द्रव्यश्रुत श्रुतवाद कहलाता है । मस्करी, कणभक्ष, अक्षपाद, कपिल, शौद्धोदनि, चार्वाक और जैमिनि मादि तथा उनके दर्शन जिसके द्वारा 'परोद्यन्ते' अर्थात् दूषित किये जाते हैं वह राद्धान्त (सिद्धान्त) परवाद कहलाता है। लौकिक शब्द का अर्थ लोक ही है ।
शंका -लोक किसे कहते हैं ? समाधान—जिसमें जीवादि पदार्थ देने जाते हैं अर्थात् उपलब्ध होते हैं, उसे लोक कहते हैं ।
वह लोक तीन प्रकार का है अवलोक, मध्यम लोक और अधोलोक। जिसके द्वारा इस लोक का कथन किया जाता है, वह सिद्धान्त लौकिकवाद कहलाता है। लोकोत्तर पद का अर्थ अलोक है, जिसके द्वारा उसका कथन किया जाता है वह श्रुत लोकोत्तरवाद कहा जाता है। चारित्र से श्रुत प्रधान है, इसलिए उसकी अग्रप संज्ञा है।
शङ्का-चारित्र से श्रुत की प्रधानता किस कारण है ?
समाधान- क्योंकि श्रुतज्ञान के बिना चारित्र की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए चारित्र की अपेक्षा श्रुत की प्रधानता है। अथवा, अग्रच शब्द का अर्थ मोक्ष है। उसके साहचर्य से श्रुत भी
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४६४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३६६
अग्रय कहलाता है। मार्ग, पथ और श्रुत ये एकार्थक नाम हैं। किसका मार्ग? मोक्ष का। ऐसा मानने पर "सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष के मार्ग हैं।" इस कथन के साथ विरोध होगा, यह भी सम्भव नहीं है क्योंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के अविनाभावी द्वादशांग को मोक्षमागंरूप से स्वीकार किया है।
यथावस्थित जीवादि पदार्थ जिसके द्वारा अनुमृग्यन्ते' अर्थात् अन्वेषित किये जाते हैं वह श्रुतज्ञान यथानुमार्ग कहलाता है। लोक के समान अनादि होने से श्रुत पूर्व कहलाता है। यथानुपूर्वी और यथानुपरिपाटी ये एकार्थवाची शब्द हैं। इसमें होने वाला श्रुतज्ञान या द्रव्यश्रुत पथानुपूर्व कहलाता है। सब पुरुष व्यक्तियों में स्थित श्रुतज्ञान और द्रव्यश्रुत यथानुपरिपाटी से सर्वकाल अवस्थित है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। बहुत पूर्व वस्तुनों में यह श्रुतज्ञान अतीव पूर्व है, इसलिए श्रुतज्ञान पूर्वातिपूर्व कहलाता है ।
शङ्का-इसे अतिपूर्वता किस कारण से प्राप्त है ?
समाधान--क्योंकि प्रमाण के बिना शेर बस्तु-पूर्वो का ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए इसे अतिपूर्व कहा है।
श्रुतज्ञान का माहात्म्य सुदकेवलं च गाणं वोणिवि सरिसारित होति बोहादो।
मुदस्सारणं तु परोक्खं पच्चक्खं केवलं गा ॥३६६॥ गायार्थ बोध अर्थात् ज्ञान की अपेक्षा श्र तज्ञान तथा केवलज्ञान दोनों ही सदृश हैं। श्रतज्ञान परोक्ष है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है ।।३६६।।
विशेषार्थ-'अक्ष' अर्थात् आत्मा से पर (भिन्न ) इन्द्रिय व प्रकाश प्रादि के द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न हो बह परोक्ष है। इन्द्रिय, मन व प्रकाश आदि की सहायता के बिना प्रात्मा के द्वारा जो ज्ञान पदार्थों के विषय में उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है। इसका विशद कथन पूर्व में किया जा चुका है।
स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने ।
भेदः साक्षारसाक्षाच झवस्त्वन्यतमं भवेत् ।।१०५॥' –सम्पुर्ण तत्त्वों के प्रकाशक स्याद्वाद और केवलज्ञान में प्रत्यक्ष और परोक्ष का भेद है। जो वस्तु दोनों ज्ञानों में से किसी भी ज्ञान का विषय नहीं होती है, वह प्रवस्तु है। यहाँ पर स्यावाद श्रुतज्ञान का पर्यायवाची है। श्रु तज्ञान और केवलज्ञान दोनों सम्पूर्ण प्रों को जानते हैं। उनमें अन्तर यही है कि श्र तज्ञान परोक्ष रूप से अथों को जानता है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष रूप से जानता है । जो सम्पूर्ण श्रत का ज्ञाता हो जाता है, वह थ तकेवली है । अतकेवली थ तज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों को जानता है। थुतकेवली में और केंबली में ज्ञान की अपेक्षा कोई भेद नहीं है,
१. अष्टसहली फ्लोक १०५ पृ. २८८ (नारायण सागर प्रेस, बम्बई)।
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माथा ३७०
ज्ञानमागंगा/४६५ भेद केवल प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जानने का है। गाथा में पहले श्रत शब्द का प्रयोग किया है और बाद में केवलज्ञान शब्द है। इससे प्रतीत होता है कि दोनों में से कोई एक ही पूज्य नहीं है। इसका कारण यह है कि दोनों परस्पर हेतुब हैं। केवलज्ञान से श्रुत की उत्पत्ति होती है और श्रुत से केवलज्ञान की, बीज वृक्ष के समान ।
शङ्का-श्व तज्ञान सर्वतत्त्वों का प्रकाशक कैसे हो सकता है, क्योंकि सर्व पर्यायों को नहीं जानता है।
समाधान -थ तज्ञान द्रव्य की अपेक्षा सर्वतत्त्वप्रकाशक कहा गया है, पर्याय की अपेक्षा नहीं।
प्रादि सप्ततत्त्वों का प्रकाशन केवलज्ञान के समान श्रतज्ञान भी करता है। केवली दसरों के लिये जीवादि तत्त्वों का प्रतिपादन करता है उसी प्रकार आगम भी करता है। उनमें इतनी विशेषता है कि केवली अर्थों को प्रत्यक्ष जानता है और श्र तज्ञान परोक्ष रूप से जानता है। केवली कालिक द्रव्य की एक समय में होने वाली अनन्त पर्यायों को जानता है और श्र तज्ञानी उनमें से कुछ पर्यायों को जानता है। केवली भी दिव्यध्वनि के द्वारा सर्व पयायों का प्रांतपादन नहीं कर सकते, क्योंकि सर्व पर्यायें वचनों के अगोचर हैं। इसी प्रकार आगम में भी कुछ पर्यायों का कथन है। जो इन दोनों ज्ञानों का विषय नहीं हो, वह अवस्तु है।
॥इति श्रुतज्ञानम् ॥
अवधिज्ञान अव होयदि ति प्रोही सीमारणाणेत्ति वणियं समये ।
भव-गुरणपच्चयविहियं जमोहिणाणेत्ति णं बेंति ॥३७०॥' गाथार्थ-विषय की अपेक्षा सीमित ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। इसीलिए पागम में इसे सीमाज्ञान कहा है। यह भवप्रत्यय और गुगप्रत्यय के द्वारा उत्पन्न होता है, ऐसा ज्ञानीजन कहते हैं ।।३७०॥
विशेषार्थ-"अवाग्धानात् अवधिः' जो अधोगत पुद्गल को अधिकता से ग्रहण करे वह अवधि है 13 अथवा अवधि, मर्यादा और सीमा ये शब्द एकार्थवाची हैं। अबधि से सहचरित ज्ञान भी अवधि कहलाता है।
शंका—अबधिज्ञान का इस प्रकार लक्षरण करने पर मर्यादारूप मतिज्ञान आदि अलक्ष्यों में यह लक्षण चला जाता है, इसलिए प्रतिव्याप्ति दोष प्राप्त होता है ?
समाधान- ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि रूढ़ि की मुख्यता से किसी एक ही ज्ञान में अवधि शब्द की प्रवृत्ति होती है । मति व न तज्ञान परोक्ष हैं पर अवधिज्ञान प्रत्यक्ष है, इसलिए भी भेद है।
१. 'मति अतयोनिबन्धी द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ।''[त. सू. प्र. १ सूत्र २६]। २. प्रा. पं. सं. पृ. २६ गा, १२३, ध, पु. १ पृ. ३५६ गा, १८४ । ३. व.पु. १ पृ. १३ । ४. जयधवल पु. १ पृ. १६;थ, पु. ६ पृ. २५ ।
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४६६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३७०
शा-अवधिज्ञान में अवधि शब्द का प्रयोग किस लिए किया गया है ?
समाधान—इससे नोचे के सभी ज्ञान सावधि हैं और ऊपर का केवलज्ञान निरवधि है। इसका ज्ञान कराने के लिये अवधिज्ञान में अवधि शब्द का प्रयोग किया गया है।
शा-इस कथन का मनःपयंयज्ञान से व्यभिचार दोष पाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि मनःपर्ययज्ञान भी अवधिज्ञान से अल्प विषय वाला है, इसलिए विषय की अपेक्षा उसे अबधिज्ञान से नीचे स्वीकार किया है। फिर भी संयम के साथ रहने के कारण मन:पर्ययज्ञान में जो विशेषता आती है, उस विशेषता को दिखलाने के लिए मनःपर्ययज्ञान को अवधिज्ञान से नीचे न रखकर ऊपर रखा है इसलिए कोई दोष नहीं है।'
शङ्का-मर्यादा अर्थ में रूढ अवधि शब्द ज्ञान के अर्थ में कैसे रहता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि जिस प्रकार असि से सहवरित पुरुष के लिए उपचार से असि कहने में कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार अवधि से सहचरित ज्ञान को प्रबंधि कहने में कोई विरोध नहीं है । मति-श्रु तज्ञान परोक्ष हैं इसलिए अवधि शब्द से उनका प्रहरण नहीं हो सकता, क्योंकि अवधिज्ञान प्रत्यक्ष है।
शङ्का-मतिज्ञान भी तो प्रत्यक्ष देखता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि मतिज्ञान से वस्तु का प्रत्यक्ष उपलम्भ नहीं होता है। मतिज्ञान से बस्तु का एकदेश प्रत्यक्ष जाना जाता है । एकदेश सम्पूर्ण बस्तु नहीं हो सकता । जो भी वस्तु है वह भी मतिज्ञान के द्वारा प्रत्यक्षरूप से नहीं जानी जाती, क्योंकि वह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप परोक्ष मतिञान का विषय है । अतः यह सिद्ध हुआ कि मतिझान प्रत्यक्ष नहीं है।
शङ्खा–यदि ऐसा है तो अवधिज्ञान भी प्रत्यक्ष-परोक्षात्मकता को प्राप्त होता है, क्योंकि बस्तु त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायों से उपचित है, किन्तु अवधि ज्ञान के प्रत्यक्ष द्वारा उस प्रकार की वस्तु के जानने की शक्ति का अभाव है ?
समाघान-नहीं, क्योंकि अवधिज्ञान में प्रत्यक्ष रूप से वर्तमान समस्त पर्यायों से विशिष्ट वस्तु का ज्ञान पाया जाता है तथा भूत और भावी असंख्यात पर्यायों से विशिष्ट वस्तु का ज्ञान देखा जाता है।
शङ्खा-ऐमा मानने पर भी अवधिज्ञान से पूर्ण वस्तु का ज्ञान नहीं होता, इसलिए अबधिज्ञान के प्रत्यक्ष परोक्षात्मकता प्राप्त होती है ।
समाधान---नहीं, क्योंकि व्यवहार के योग्य एवं द्रव्याथिक और पर्यायाथिक इन दोनों नयों के समूह हर वस्तू में अवधिज्ञान के प्रत्यक्षता पाई जाती है।
१. जयधवल पु. १ पृ. १७ व प. . ६ पृ. १३ । २. धवल पु. पृ. १२-१३। ३. घ. पु. ६ पृ. २६ ।
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ज्ञानमार्गा/४६७
के
शङ्का - अवधिज्ञान अनन्त व्यंजन पर्यायों को नहीं ग्रहण करता है, इसलिए वह वस्तु एकदेश को जानने वाला है ।
गाथा ३७९
समाधान नहीं, क्योंकि व्यवहारनय के योग्य व्यंजनपर्यायों की अपेक्षा यहाँ पर वस्तुत्व माना गया है ।
शंका - मतिज्ञान में भी यही क्रम क्यों न माना जाय ?
समाधान — नहीं, क्योंकि मतिज्ञान के वर्तमान अशेष पर्याय विशिष्ट वस्तु के जानने का प्रभाव है, तथा मतिज्ञान के प्रत्यक्ष रूप से अर्थग्रहण करने के नियम का प्रभाव है।
वह अविज्ञान दो प्रकार का है- भवप्रत्यय अवधिज्ञान और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान भव उत्पत्ति और प्रादुर्भाव ये पर्यायवाची नाम हैं। जिस अवधिज्ञान का प्रत्यय ( कारण ) भव है, वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है ।
शङ्का - यदि भव मात्र ही अवधिज्ञान का कारण है तो देव व नारकियों की उत्पत्ति के प्रथम समय में ही अवधिज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न हो जाता ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि छह पर्याप्तियों से पर्याप्त भव को ही यहाँ अवधिज्ञान की उत्पत्ति का कारण माना गया है ।
सम्यक्त्व से अधिष्ठित अणुव्रत और महाव्रत गुण जिस अवधिज्ञान के कारण हैं, वह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है ।
शङ्का- यदि सम्यक्त्व, श्रणुव्रत और महाव्रत के निमित्त से अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो सब असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतों के अवधिज्ञान क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम रूप परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं । उनमें से अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम के निमित्तभूत परिणाम अतिशय स्तोक हैं और वे सबके सम्भव नहीं हैं, क्योंकि उनके प्रतिपक्षभूत परिणाम बहुत हैं। इसलिए उनकी उपलब्धि क्वचित् ही होती है ।"
दोनों प्रकार के अवधिज्ञान के स्वामी
भइगो सुरगिरयाणं तित्थेवि सध्वअंगुत्थो । गुणपच्चइगो गर तिरियाणं संखादिचिभयो । ३७१||
गाथार्थ --: - भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियों के होता है तथा तीर्थंकरों के भी होता
२. "तं च योहिशाणं दुविहं भब पचचयं देव गुगपच्चइयं चैव ।। ५३ ।। " घवल पु.
१.
वल पु. ६ पृ. २७-२८ ।
१३ पृ. २६० । ३. धवल पु. १३ पृ. २६० । ४. ध. पु. १३ पृ. २११-२६२ ।
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४६८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३७१ है और यह सम्पूर्ण अङ्ग से उत्पन्न होता है । गुणप्रत्यय अबधिज्ञान मनुष्य व तिर्यचों के होता है और संखादि त्रिलों से होता है ।।३७१।।
विशेषार्थ - जो भवप्रत्यय अवधिज्ञान है, वह देव और नारकियों के होता है ।।
शङ्का-जो अवधिज्ञान भवप्रत्यय होता है वह देव और नारकियों के ही होता है, यह किसलिए कहा गया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि देवों और नारकों के भवों को छोड़कर अन्य भव उसके कारण नहीं हैं।
'घवल' ग्रंथ में तथा 'तत्त्वार्थसूत्र में भवप्रत्यय अवधिज्ञान मात्र देव और नारवियों के कहा गया है, किन्तु गाथा में तीर्थंकरों के भी भवप्रत्यय कहा गया है। यद्यपि तीर्थंकर कोई भव नहीं है तथापि तीर्थंकर नरक या स्वर्ग से आकर ही उत्पन्न होते हैं। नरक व स्वर्ग में भवप्रत्यय अवविज्ञान होता है और वह भवप्रत्यय-अवधिज्ञान उनके साथ आता है, इस अपेक्षा से पंचकल्याणकतीर्थकारों के अवधिज्ञान को भव-प्रत्यय अवधिज्ञान कहा गया है।
मिथ्याष्टियों के अवधिज्ञान नहीं होता, ऐसा कहा पुरत नहीं है कि हिचरित अवधिज्ञान की ही विभंगज्ञान संज्ञा है।
शङ्का-देव और नारकी सम्यग्दष्टियों में उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान भवप्रत्यय नहीं है, क्योंकि उनमें सम्यक्त्व के बिना एक मात्र भव के निमित्त से ही अवधिज्ञान की उत्पत्ति उपलब्ध नहीं होती है।
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व के बिना भी पर्याप्त मिथ्यादृष्टियों के अवधिज्ञान की उत्पत्ति होती है, इसलिए वहाँ उत्पन्न होने वाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय ही है ।
शङ्का--देव और नारकियों का अवधिज्ञान भव प्रत्यय होता है, ऐसा सामान्य निर्देश होने पर सम्यग्दृष्टियों और मिथ्याष्टियों का अवधिज्ञान पर्याप्तभव के निमित्त से ही होता है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-त्रयोंकि अपर्याप्त देव और नारकियों के विभंग ज्ञान का प्रतिषेध अन्यथा बन नहीं सकता। इसीसे जाना जाता है कि उनके आवधिज्ञान पर्याप्त भव के निमित से ही होता है।
शङ्का-विभंगज्ञान के समान अपर्याप्तकाल में अवधिज्ञान का भी निषेध क्यों नहीं करते ?
समाधान नहीं, क्योंकि उत्पत्ति की अपेक्षा उसका भी वहाँ विभंगज्ञान के समान ही निषेध देखा जाना है। सम्यग्दृष्टियों के उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही अवधिज्ञान होता है, ऐसा नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर विभंगज्ञान के भी उसी प्रकार की उत्पत्ति का प्रसंग आता है। सम्यवत्व से इतनी विशेषता हो जाती है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर भवप्रत्ययपना नष्ट १. "जंत भव-इयं तं देव-रयाणं 11५४ाय. प.१३ पृ. १९]"मयप्रत्ययोऽयधिदेवनारकाणाम ॥२॥" [त. सू. १] । २. ध. पृ १३ पृ. २६२ । ३. ध. पु. १३ पृ. २६० । ४, ध, पु. १३ पृ. २६०-२६१ ।
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गाथा ३७१
ज्ञानमार्गणा ४६६ होकर उसके गुणप्रत्ययपने का प्रसंग प्राता है। पर इसका यह भी अर्थ नहीं है कि देवों और नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में अवधिज्ञान का अत्यन्त प्रभाव है, क्योंकि तिर्यंचों और मनुष्यों में सम्यवत्व गुण के निमित्त से उत्पन्न हुया अवधिज्ञान देव और नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में भी पाया जाता है। विभंग में भी यह अम्म लागू हो जाएगा, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अवधिज्ञान के कारणभूत अनुकम्पादि का अभाव होने से [देवों में] अपर्याप्त अवस्था में उसका अवस्थान नहीं रहता।
जो गुरणप्रत्यय अवधिज्ञान है, वह तिर्यचों और मनुष्यों के होता है ।२ क्योंकि तियंच और मनुष्य भवों को छोड़कर अन्यत्र अणुवत और महाव्रत नहीं पाये जाते ।
शङ्का-देव और नारक सम्बन्धी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवों में अवधिज्ञान का सद्भाव भले ही रहा आवे, क्योंकि उनके अवधिज्ञान भयनिमित्तक होते हैं। उसी प्रकार देशविरति आदि ऊपर के गुणस्थानों में भी अवधिज्ञान रहा अावे, क्योंकि अवधिज्ञान की उत्पत्ति के कारणभूत गुणों का वहाँ पर सद्भाव पाया जाता है। परन्तु असंयत सम्यग्दृष्टिमनुष्य व तिर्यंचों में उसका सद्भाव नहीं पाया जाता, क्योंकि अवधिज्ञान की उत्पत्ति के कारणभूत भव और गुण असंयत सम्यग्दृष्टि तिर्यच व मनुष्यों में नहीं पाये जाते?
समाधान नहीं, क्योंकि अबधिज्ञान की उत्पत्ति के कारणरूप सम्यग्दर्शन का असंयत सम्यग्दृष्टि तिर्मय और मनुष्यों में मायाव नाम मात्रा है।
शङ्का-चूंकि सम्पूर्ण सम्यग्दृष्टियों में अवधिज्ञान की अनुत्पत्ति अन्यथा बन नहीं सकती इससे ज्ञात होता है कि सम्यग्दर्शन अवधिज्ञान की उत्पत्ति का कारण नहीं है ।
प्रतिशत-यदि ऐसा है तो सम्पूर्ण संयतों में प्रवधिज्ञान की अनुत्पत्ति अन्यथा वन नहीं सकती, इसलिए संयम भी अवधिज्ञान की उत्पत्ति का कारण नहीं है, ऐसा क्यों न मान लिया जाये ?
प्रतिशङ्का का उत्तर-विशिष्ट संयम ही अवविज्ञान की उत्पत्ति का कारण है, इसलिए समस्त संयतों के अवधिज्ञान नहीं होता।'
शङ्का का समाधान । यदि ऐसा है तो यहाँ पर भी यही मान लेना चाहिए कि असंयत सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्यों में भी विशिष्ट सम्यक्त्व ही अवधिज्ञान की उत्पत्ति का कारण है, इसलिए सभी सम्यग्दृष्टि तिबंच और मनुष्यों में अवधिज्ञान नहीं होता है, किन्तु कुछ के ही होता है, ऐसा मान लेने में क्या विरोध पाता है ? अर्थात् कुछ भी विरोध नहीं पाता।
शा- प्रौपथमिक, क्षाथिक और क्षायोपशमिक; इन तीनों ही प्रकार के विशेष सम्यग्दर्शनों में अवधिज्ञान की उत्पत्ति में व्यभिचार देखा जाता है। इसलिए सम्यग्दर्शन विशेष अवधिज्ञान की उत्पत्ति का कारण है, यह नहीं कहा जा सयाता है।
१. बबल पु. १३ पृ. १६१। २. "जं तं मुरणपन्चइयं त तिरिकात्र गणुस्साणं ॥५५।।" [धवल पु. १३ पृ. २६२) । ३. धवल पु.१ पृ. ३६५ ।
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४७०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३७१
प्रतिशङ्का-यदि ऐसा है तो संयम में भी सामाविक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराम और यथाख्यात इन पाँच प्रकार के विशेष संयमों के साथ और देश बिरति के साथ भी अवधिज्ञान की उत्पत्ति का व्यभिचार देखा जाता है, इसलिए अवधिज्ञान की उत्पत्ति संयम विशेष के निमित्त से होती है, यह भी तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सम्यग्दर्शन और संयम इन दोनों को अवधिज्ञान की उत्पत्ति में निमित्त मानने पर आक्षेप और परिहार समान हैं ।
प्रतिशङ्का का उत्तर-प्रसंख्यात लोकप्रमाण संयमरूप परिणामों में कितने ही विशेष जाति के परिणाम अवधिज्ञान की उत्पत्ति के कारण होते हैं, इसलिए पूर्वोक्त दोष नहीं पाता है।
शङ्का का समाधान- यदि ऐसा है तो असंख्यात लोकप्रमाण सम्यग्दर्शन रूप परिणामों में दूसरे सहकारी कारगों की अपेक्षा से युक्त होते हुए कितने ही विशेष जाति के सम्यक्त्व रूप परिणाम (ही) अवधिज्ञान की उत्पत्ति में कारण हो जाते हैं, यह बात निश्चित हो जाती है।'
जिस अवधिज्ञान का करण | चिह्न जिन चिह्नों से अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। जीव-शरीर का एकदेश होता है वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्र के बिना शरीर के सब अवयवों से होता है वह अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान है। तीर्थकर, देवों और नारकियों के अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान ही होता है। क्योंकि वे शरीर के सब अवयवों द्वारा अपने विषयभूत अर्थ को ग्रहण करते हैं । कहा भी है
पोरइय-देत-तियोजिमजस्साशातिरं दे ।
जाएंति सम्वदो खलु सेसा देसेण जाणंति ॥२४॥ नारकी, देव और तीर्थकर अपने अवधिक्षेत्र के भीतर सर्वांग से जानते हैं और शेष जीव शरीर के एकदेश से जानते हैं । शेष जीव शरीर के एकदेश से ही जानते हैं। म नहीं करना चाहिए, क्योंकि परमावधिज्ञानी और सर्वावधिज्ञानी गणधरादिक अपने शरीर के सब अवयवों से अपने विषयभूत अर्थ को ग्रहण करते हैं। इसलिए शेष जीव शरीर के एकदेश से और सर्वाग से जानते हैं, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
शङ्खा-अवधिज्ञान अनेकक्षेत्र ही होता है, क्योंकि सब जीवप्रदेशों के युगपत् क्षयोपशम को प्राप्त होने पर शरीर के एकदेश से ही बाह्य अर्थ का ज्ञान नहीं बन सकता?
समाधान नहीं, क्योंकि अन्य देशों में करण-स्वरूपता नहीं है, अतएव करणस्वरूप से परिणत हुए शरीर के एकदेशा से ज्ञान मानने में कोई विरोध नहीं पाता। सकरण क्षयोपशम उसके बिना जानता है, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस मान्यता का विरोध है। जीवप्रदेशों के एकदेश में ही अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर एकक्षेत्र अवधिज्ञान बन जाता है, ऐसा निश्चय करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उदय को प्राप्त हुई गोपुच्छा सब जीवप्रदेशों को विषय करती है, इसलिए उमका देणस्थायिनी होकर जीव के एकदेश में ही क्षयोपशम मानने में विरोध आता है। इससे अर्थात् उत्पत्ति करणों (चिह्नों) के पराधीन होने से अवधिज्ञान की प्रत्यक्षता विनष्ट हो जाती है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह अनेकक्षेत्र में उसके (करणों के) पराधीन न होने पर उसमें प्रत्यक्ष का
१. प.पु. १ पृ. ३६५-३६६1 २. ध.पु. १३ पृ. २६५।
३. प.पु. १३ पृ. २६५-२६६ ।
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गाथा ३७२
ज्ञानमार्गणा/४७१
लक्षण पाया जाता है ।
एकक्षेत्र अवधिज्ञान की अपेक्षा शरीरप्रदेश अनेक संस्थान संस्थित होते हैं ।।५७॥ जिस प्रकार शरीरो का और इन्द्रियों का प्रतिनियत प्राकार होता है, उस प्रकार अवधिज्ञान के कररण अर्थात् उत्पत्ति चिह्न रूप शरीरप्रदेशों का नहीं होता, किन्तु अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम को प्राप्त हुए जीवप्रदेशों के करणरूप शरीरप्रदेश अनेक संस्थानों से संस्थित होते हैं। अर्थात् अनेक आकार के होते हैं। गा. २०१ में पृथिवीकाय आदि के शरीरों के प्राकार और गा. १७१ में इन्द्रियों के प्रतिनियत प्राकारों का कथन हो चुका है। अवविज्ञान के करणरूप अर्थात् उत्पत्ति-स्थान स्वरूप शरीरप्रदेशों का प्राकार श्रीवत्स, कलश, शेख, साथिया और नन्दावर्त आदि होते हैं ।।५८||' यहाँ आदि शब्द से अन्य भी शुभ संस्थानों का ग्रहण करना चाहिए। एक जीव के एक ही स्थान में अवधिज्ञान का करण होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि किसी भी जीव के एक, दो, तीन, चार, पांच और छह आदि क्षेत्ररूप शंखादि शुभ संस्थान सम्भब हैं। ये संस्थान तिर्यंचों और मनुष्यों के नाभि के उपरिम भाग में होते हैं, नीचे के भाग में नहीं होते, क्योंकि शुभ संस्थानों का अधोभाग के साथ विरोध है। तथा तिन और मनुष्य विभंगानियों के नाभि से नीचे गिरगिट आदि अशुभ संस्थान होते हैं, ऐसा गुरु का उपदेश है, इस विषय में कोई सूत्रवचन नहीं है। विभंगज्ञानियों के कालान्तर में सम्यक्त्व प्रादि को उत्पत्ति के फलस्वरूप अवधिज्ञान के उत्पन्न होने पर गिरगिट
आदि अशुभ प्राकार मिटकर नाभि के ऊपर शस्त्र आदि शुभ प्राकार हो जाते हैं, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
कितने ही प्राचार्य अवधिज्ञान और विभंगज्ञान का क्षेत्र संस्थान-भेद तथा नाभि के नीचे. ऊपर का नियम नहीं है, ऐसा कहते हैं, क्योंकि अवधिज्ञानसामान्य की अपेक्षा दोनों में कोई भेद नहीं है। सम्यक्त्व और मिथ्यात्व की संगति से किये गये नाम-भेद के होने पर भी अबधिज्ञान की अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर अतिप्रसंग दोष पाता है। इसी अर्थ को यहाँ प्रधान करना चाहिए।
अवधिज्ञान के भेद गुणपच्चइगो छद्धा, अणुगावट्ठिदपबड्डमारिणदरा ।
देसोही परमोही सम्वोहित्ति य तिघा ओही ॥३७२॥ गाथार्थ-गुणप्रत्यय अवधिज्ञान छह प्रकार का है, अनुगामी, अवस्थित, वर्धमान ये तीन और तीन इनके इतर अर्थात् उलटे देशावधि, परमावधि और सर्वावधि के भेद से अवधिज्ञान तीन प्रकार का है ।।३७२।।
विशेषार्थ-- वह अवधिज्ञान अनेक प्रकार का होता है - देशावधि, परमावधि, सविधि,
१. विवक्षित प्रकरण में राजवातिककार ने ऐसा कहा है कि करणों के प्राधीन प्रवधिज्ञानोपयोग होने पर भी प्रवधिज्ञान पराश्रीन या परोक्ष नहीं कहा जा सकता ! यतः इन्द्रियों में ही "पर" शब्द देखा जाता है। अर्थात इन्द्रियों को ही पर कहा गया है। करणों (चिह्नों) को नहीं । रा.वा. १/२२/४/३ । २. "खेसदो ताव प्रवेबसंडारण संउिदा ॥५७." [ध.पु. १३ पृ. २६६] 1 ३. "सिरिबन्छ-कलप-संज-सोस्थिय-गांदावतादीरिण संठागाणि रणादम्बारिण भवति ॥५८।।" [.पु. १३ पृ. २६५] : ४. ध.पु. १३ पृ. २६७-६८ ।
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४७२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाणा ३७२ हीयमान, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाती, अप्रतिपाती, एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र ।।५६।। इनमें से एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र का कथन गा. ३७१ की टीका में किया जाचका है अत: इन दो का कथन यहाँ पर नहीं किया जाएगा। देशावधि, परमावधि और मविधि का कथन आगे किया जाएगा।
यद्यपि गाथा में गुणप्रत्यय अवधिज्ञान छह प्रकार का है. ऐसा निर्देश किया गया है तथापि गुणप्रत्यय शब्द से यहाँ पर सामान्य अवधिज्ञान ग्रहण करना चाहिए।
शङ्का-गुणप्रत्यय अवधिज्ञान अनेक प्रकार का होता है, ऐसा क्यों न ग्रहण किया जावे ?
समाधान नहीं, क्योंकि भवप्रत्यय अबधिज्ञान में भी अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी और अननुगामी भेद उपलब्ध होते हैं ।
कृष्णपक्ष के चन्द्रमण्डल के समान जो अबधिज्ञान उत्पन्न होकर वृद्धि और अवस्थान बिना निःशेष विनष्ट होने तक घटता ही जाता है वह होयमान अवधिज्ञान है। इसका देशावधि में अन्तर्भाव होता है, परमावधि और सर्वावधि में नहीं, क्योंकि परमावधि और सर्वावधि में हानि नहीं होती। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर शुक्ल पक्ष के चन्द्र मण्डल के समान, प्रतिसमय अवस्थान के बिना जब तक अपने उत्कृष्ट विकल्प को प्राप्त होकर अगले समय में केवलज्ञान को उत्पन्न कर विनष्ट नहीं हो जाता तब तक बढ़ता ही रहता है वह वर्धमान अवधिशान है। इसका देशावधि, परमावधि और सर्वावधि में अन्तर्भाव होता है, क्योंकि वह तीनों ही ज्ञानों का सहारा लेकर प्रवस्थित है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर कदाचित् बढ़ता है, कदाचित् घटता है और कदाचित् अबस्थित रहता है वह अनवस्थित अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर वृद्धि व हानि के बिना दिनकरमण्डल के समान केवलझान के उत्पन्न होने तक अवस्थित रहता है वह अवस्थित श्रयधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर जीव के साथ जाता है वह अनुगामी अवधिज्ञान है। वह तीन प्रकार का है -क्षेत्रानुगामी, भवानुगामी और क्षेत्र-भवानुगामी । उनमें से जो अवधिज्ञान एकक्षेत्र में उत्पन्न होकर स्वतः या परप्रयोग से जीव के स्वक्षेत्र या परक्षेत्र में विहार करने पर विनष्ट नहीं होता है वह क्षेत्रानुगामी अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर उस जीव के साथ अन्य भव में जाता है वह भवानुगामी अवधिज्ञान है । जो भरत, ऐरावत और विदेह आदि क्षेत्रों में तथा देव, नारक, मनुष्य और तियेच भवों में भी साथ जाता है वह क्षेत्र-भवानुगामी अवधिज्ञान है । जो अननुगामी अवधिज्ञान है क्षेत्राननुगामी, भवाननुगामी और क्षेत्रभवाननुगामी। जो क्षेत्रान्तर में साथ नहीं जाता है, पर भवान्तर में साथ जाता है वह क्षेत्राननूगामी अवधिज्ञान है। जो भवान्तर में साथ नहीं जाता है, पर क्षेत्रान्तर में साथ जाता है वह भवाननुगामी अवधिज्ञान है। जो क्षेत्रान्तर और भवान्तर दोनों में साथ नहीं जाता, किन्तु एक ही क्षेत्र और भव के साथ सम्बन्ध रखता है वह क्षेत्र-भवामनुगामी अवधिज्ञान है । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर निर्मूल विनाश को प्राप्त होता है वह सप्रतिपाती अवधिज्ञान है। इसका पूर्वोक्त अवधिज्ञानमें प्रवेश नहीं होता है, क्योंकि हीयमान, वर्धमान, अनवस्थित, अवस्थित, अनुगामी और अननुगामी इन छहों ही
१. "तं च ग्रागेयविहं देसोही परमोही सम्वोही हायमाणयं वड्डमाणयं अवट्टिदं अणुगामी प्रगणुगामी सप्पडिदादी अप्पडियादी एयरखेत्तमरोयक्खेत ।। ५६।।" [घवल पु. १३ पृ. २६२] 1 . धवल पु १३ पृ. २६३-२६४ । ३. बिजनी की चमक की तरह बिनापाशील अवधि प्रतिपाती है। रा.वा. १/२२/४/पृ. ८२।
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गाथा ३७३
शानमार्गला/७३
अवधिज्ञान से भिन्न स्वरूप होने के कारण उनमें से किसी एक में उसका प्रवेश मानने में विरोध प्राता है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर बोवलज्ञान उत्पन्न होने पर विनष्ट होता है, अन्यथा विनष्ट नहीं होता, वह अप्रतिपासी अवधिज्ञान है। यह भी उन विशेष स्वरूप पहले के अवधिज्ञानों में अन्तर्भूत नहीं होता। क्योंकि यह सामान्य स्वरूप है।'
यद्यपि प्रकृत गाथा में तथा तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपाती और अप्रतिपाती ये दो भेद नहीं कहे गये हैं तथापि छह भेदों से भिन्न ये दो भेद भी कहने योग्य हैं। इसीलिए धवल ग्रन्थ में इनका भी कथन पाया जाता है। अतः यहाँ भी प्ररूपरणीय जान कर उनका स्वरूपाख्यान किया है। इनका कथन षट् खण्डागम के मूल सूत्र ५६ में है ।
भवपच्चइगो प्रोही देसोही होदि परमसव्योही।
मुगपच्चाइगो णियमा देसोही वि य गुरणे होदि ।।३७३।। गाथार्थ-भवप्रत्यय अत्रधिज्ञान देशावधि ही होता है। परमावधि और सर्वावधि नियम से गुण प्रत्यय ही होते हैं। देशावधि भी गुणप्रत्यय होता है ।।३७३॥
विशेषार्थ परमावधि ज्ञान में परम शब्द का अर्थ ज्येष्ठ है। परम ऐसा जो अवधि वह परमावधि है। ___ शङ्का-इस परमावधि ज्ञान के ज्येष्ठपना कैसे है ?
समाधान—चूकि यह परमावधि ज्ञान देशावधि की अपेक्षा महाविषयवाला है, मनः पर्ययज्ञान के समान संयत मनुष्यों में ही उत्पन्न होता है, अपने उत्पन्न होनेवाले भव में ही केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण है और अप्रतिपाती है, इसलिए ज्येष्ठ है । परमावधि ज्ञान के उत्पन्न होने पर बह जीव न कभी मिथ्यात्व को प्राप्त होता है और न कभी असंयम को प्राप्त होता है। इसलिए उसका मरण सम्भव न होने से देवों में उत्पाद नहीं होता।
सर्वावधि ज्ञान-विश्व और कृत्स्म ये 'सर्व' शब्द के समानार्थक शब्द हैं । सर्व है मर्यादा जिस जान को वह सर्वावधि है। यहाँ सर्व शब्द समस्त द्रव्य का बाचक नहीं है, क्योंकि जिसके परे अन्य द्रव्य न हो उसके अवधिपना नहीं बनता, किन्तु सर्व शब्द सबके एकदेशरूप रूपी द्रव्य में वर्तमान ग्रहण करना चाहिए। इसलिए सर्वरूपगत है अवधि जिसकी ; इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिए। अथवा जो पाचन और विसर्पणादि को प्राप्त हो वह पुद्गल द्रव्य सर्व है। वही जिसकी मर्यादा है वह सर्वावधि है।' यह सर्वावधिज्ञान भी चरमशरीरी संयत के होता है। अथवा 'सर्व' का अर्थ केवल ज्ञान है, उसका विषय जो-जो अर्थ होता है वह भी उपचार से सर्व कहलाता है। सर्व अवधि अर्थात मर्यादा जिस ज्ञान की होती है ( केवलज्ञान से ज्ञात अर्थ है मर्यादा जिसकी) वह सविधिज्ञान है। यह भी निर्ग्रन्थों के ही होता है ।
१. धवल पु. १३ पृ. २६४-२६५। २. धवल पु. पृ. ४१ । ३. घतल्ल पु. १३ पृ. ३२३ । ४. धवल पु. ६ पृ. ४७ । ५. धवल पू. १३ पृ. ३२३ ।
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४७४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३:१४-३७५ देशावधि– 'देश' का अर्थ सम्यक्त्व है, क्योंकि वह संयम का अवयव है। वह जिस ज्ञान की अवधि (मर्यादा) है वह देशावधि ज्ञान है। उसके होने पर जीव मिथ्यारव को भी प्राप्त होता है और असंयम को भी प्राप्त होता है, क्योंकि ऐसा होने में कोई विरोध नहीं है।'
परमावधि ज्ञान और सर्वावधि ज्ञान चरमशरीरी संयतों के ही होता है ; देव व नारकियों के संयम सम्भव नहीं है अतः देव ब नारकियों के परमावधि व सविधि ज्ञान नहीं होता। परिशेष न्याय से उनके देशावधिज्ञान ही होता है। इसीलिए देव ब नारकियों के भवप्रत्यय अवधिज्ञान को देशावधि कहा गया है। सर्वावधि व परमावधि ज्ञान संयतों के ही होता है, अत: वे गुण प्रत्यय ही होते हैं। मनुष्य व तिर्यंचों के जो देशावधि ज्ञान होता है वह गुणप्रत्यय ही है क्योंकि मनुष्य और तिर्यचों के भवप्रत्यय अवधिज्ञान नहीं होता, वह देव व नारकियों के होता है ।
देसोहिस्स य प्रवरं परतिरिये होदि संजदम्हि वरं । परमोही सम्वोही चरमसरीरस्स विरदस्स ॥३७४।।
गाथार्थ- जघन्य देशावधि ज्ञान मनुष्य व तियचों के होता है। उत्कृष्ट देशावधिज्ञान संयत के ही होता है। परमावधि और सर्वावधि ज्ञान चरमशरीरी विरत (संयत) के होता है ।।३७४।।
विशेषार्थ - "उक्कस्सं माणुसेसु य माणुस-तेरिच्छए जहण्णोही ।'3 उत्कृष्ट अवधिज्ञान तिर्यंच, देव और नारकियों के नहीं होता, क्योंकि उनके संयम नहीं हो सकता, मात्र मनुष्यों के होता है, उनमें भी संयमी मनुष्य के होता है अन्य के नहीं। अर्थात् उत्कृष्ट अवधिज्ञान महा ऋषियों के ही होता है। जघन्य अवधिज्ञान देव व नारकियों के नहीं होता, किन्तु सम्यग्दृष्टि मनुष्य व तियचों के ही होता है। आगे गाथा ३७८ में जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना प्रमाण और काल प्रावली का असंख्यातवाँ भाग (गाथा ३८३ में) कहा जाएगा। किन्तु नरक में जघन्य क्षेत्र एक कोस (गाथा ४२४) और देवों में जघन्य पच्चीस योजन (गाथा ४२६) वाहा जावेगा; इससे जाना जाता है कि जघन्य अवधिज्ञान देब व नारकियों के नहीं होता। परमावधि और सविधि का कथन ३७३ के विशेषार्थ में किया जा चुका है।
पडिवावी देसोही अप्पडिवादी हवंति सेसा प्रो।
मिच्छतं अविरमणं ग य पडिवज्जति चरिमदुगे ॥३७५।। गायार्थ-देशावधि प्रतिपाती है और शेष दो अप्रतिपाती हैं। अन्तिम दो अवधिज्ञान मिथ्यात्व व असंयम को प्राप्त नहीं होते ।।३७५।।
विशेषार्थ—देशावधिज्ञान के होने पर जीव गिरकर मिथ्यात्व को भी प्राप्त होता है और असंयम को भी प्राप्त होता है। इससे सिद्ध होता है कि देशावधि प्रतिपाती है । परमावधिज्ञान
१. धवल पु. १३ पृ. ३२३ । २, धवल पु. १३ पृ, २६२ सूत्र ५४ व ५५। ३. धवल पु. १३ पृ. ३२७ गाथा १७ का पूर्वार्ध। ४. धवल पू. १३ पृ. ३२७। ५. "तत्थ मिच्छत पि गच्छेज्ज असंजमं पिगच्छेज्ज, प्रविरोहादो। "[धवल पु. १३ पृ. ३२३]
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गाथा ३७६
ज्ञानमार्गणा/४७५
अपने उत्पन्न होने के भव में ही केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण है और अप्रतिपाती है। परमावधिज्ञान की उत्पत्ति संयतों के ही होती है। परमावधिज्ञान के उत्पन्न होने पर यह जीव न कभी मिथ्यात्व को प्राप्त होता है और न कभी असंग्रम को प्राप्त होता है ।
शङ्का–परमावधि ज्ञानी के मरकर देवों में उत्पन्न होने पर असंयम की प्राप्ति कैसे नहीं
होती?
___समाधान-नहीं, क्योंकि परमावधिज्ञानियों का प्रतिपात नहीं होने से देवों में उनका उत्पाद सम्भव नहीं है।
सर्व का अर्थ केवलज्ञान है । सर्ब अवधि अर्थात् सर्व है मर्यादा जिम्म ज्ञान की, वह सर्वावधि
हीयमान अवधिज्ञान का परमावधि और सविधि में अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि परमावधि और सर्वावधि में हानि नहीं होती। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर शुक्ल पक्ष के चन्द्रमण्डल के समान, जब तक अपने उत्कृष्ट विकल्प को प्राप्त होकर केवलज्ञान को उत्पन्न कर विनष्ट नहीं हो जाता, तब तक प्रतिसमय बढ़ता ही रहता है वह वर्धमान अवधिज्ञान है उसका परमावधि सर्वावधि में अन्तर्भाव होता है। इससे सिद्ध है कि परमावधि ब सर्बावधि अप्रतिपाती हैं और मिथ्यात्व व असंयम को प्राप्त नहीं होते।
परमावधिज्ञान और सर्वावधिज्ञान अप्रतिपाती, अविनश्वर हैं, केवलज्ञान के उत्पन्न होने तक रहते हैं ।
द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा अवधिज्ञान का विषय दव्यं खेत्तं कालं भावं पडि रूवि जाररावे मोही।
प्रवरादुक्कस्सोत्ति य वियप्परहिदो दु सखोही ॥३७६॥ गाथार्थ-जघन्य भेद से लेकर उत्कृष्ट भेद तक सर्व ही अवधिज्ञान द्रव्य क्षेत्र काल भाव से रूपी द्रव्य को जानते हैं। सर्वावधि ज्ञान में जघन्य उत्कृष्ट का विकल्प नहीं है ।।३७६।।
महास्कन्ध से लेकर परमाणु पर्यन्त समस्त पुद्गल द्रव्यों को असंख्यात लोकप्रमाण क्षेत्र, काल और भावों को तथा कर्म के सम्बन्ध पुद्गल भाव (मूर्तीपने) को प्राप्त हुए जीवों को जो प्रत्यक्ष रूप से जानता है, वह अवधिज्ञान' है।६ अरूपी (अमूर्त) द्रव्य का प्रतिषेध करने के लिए रूपगत विशेषण दिया है।
शङ्का- यदि इस (अवधिज्ञान) के द्वारा केवल रूपी द्रव्य ही ग्रहण किया जाता है तो फिर
१, "सगुप्पणभवे नेव केवसणाणुष्पत्तिकारपत्तादो, अपरिवादित्तादो वा। "[धवल पु. ९ पृ. ४१] । २. परमोहिणासे सो जीदो मिच्छतं रा कयावि मच्छदि, असंजम पि गो गच्छदि ति भरिषद होदि ।" [धबल पु. १३ पृ. ३२३]। ३. "सब केवलगाएं। सम्वमोही मज्जामा जस्स पास्स त सवोहिरणारणं ।" [धवल पु. १३ पृ. ३२३] ४. धवल पु. १३ पृ. २६३। ५. प. पु. १३ पृ. ३२८१ ६. ज.ध.पु. १ पृ. ४३ ।
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४७६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३७७-३८३
इससे अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायों का ग्रहण नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे रूपी नहीं हैं। रूपोपने का प्रभाव भी उनमें द्रध्यत्व के अभाव से है ?
समाधान . . यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उन पुद्गल पर्यायों के कथंचित् रूपी द्रव्यत्व सिद्ध है । "रूपिष्ववधेः"२ सूत्र द्वारा भी अवधिज्ञान का विषय रूपी पदार्थ कहा गया है। और "रूपिणः पुद्गलाः" ।।५।।* सूत्र द्वारा पुद्गल द्रव्य को रूपी कहा गया है। जीब अनादिकाल से कर्मबन्ध से बँधा हुआ होने के कारण मूर्त (रूपी) पने को प्राप्त है। इसलिए संसारी जीव भी अवधिज्ञान का विषय हो जाता है । सर्वावधि एकविकल्परूप है। उसमें जघन्य, उत्कृष्ट और तद्व्यतिरिक्त विकल्प नहीं है ।
अवधिज्ञान के विषयभूत जघन्य प्रमाण पोकम्मुरालसंचं मज्झिमजोगज्जियं सविस्सचयं । लोयविभत्तं जाररादि अवरोही दध्यदो रिणयमा ॥३७७।। सुहमरिणगोदप्रपज्जत्तयस्त जादस्स तदियसमम्हि । अवरोगाहरणमारणं जहण्यं प्रोहिखेत्तं तु ॥३७८।। अवरोहिखेत्तदोहं वित्थारुस्सेहा रण जाणामो । अण्णं पुण समकरणे अवरोगाहरणपमाणं तु ॥३७॥ अवरोगाहरणमाणं उस्सेहंगुल-असंखभागस्स । सूइस्स य घणपदरं होदि हु तक्खेतसमकरणे ॥३०॥ अवरं तु प्रोहिखेत्तं उस्सेहं अंगुलं हवे जम्हा । सुहमोगाहणमारणं उरि पमाणं तु अंगुलयं ॥३८१॥ अवरोहिखेत्तमझे अवरोही अवरवन्धमवगमदि । तहवस्सवगाहो उस्सेहासंखघणपदरा ॥३२॥ प्रावलिप्रसंखभागं तीदविस्सं च कालयो प्रवरं।
प्रोही जाणादि भावे कालपसंखज्जभागं तु ॥३८३॥ गाथार्थ --मध्यम योग के द्वारा अजित, बिनसोपचय सहित नोकर्म औदारिक वगंगणाओं में लोक का भाग देने से प्राप्त द्रव्य को नियम से जघन्य अवधिज्ञान जानता है ।।३७७।। सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक निगोदिया की, उत्पन्न होने से तीसरे समय में जो जघन्य प्रवगाहना होती है, जितना उसका
१. प.पु. ६ पृ. ४४ । २. तत्त्वार्यसूत्र अ. १ सूत्र २७ । ३. तत्वार्थसूत्र अ. ५। ४, "अरणादि वंधरणवद्धतादो।" [ज.ध.पु. १५. २८५। ५. त. रा. वा. ६. "एल्थ जहणतकस्स तव्यतिरित्तवियप्पा रात्यि, सम्वोहीए एयवियप्पत्तादो।" [ध.पु. ६ पृ. ४८]।
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माथा ३७७-३८३
ज्ञानमार्गणा/४७७
प्रमारण है उतना जघन्य अवविज्ञान का क्षेत्र है ॥३७८।। जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्र की ऊँचाई, लम्बाई और चौड़ाई के भिन्न-भिन्न प्रमाण का इस समय ज्ञान नहीं है किन्तु समीकरण करने पर जितना जघन्य अवगाहना का प्रमाण होता है उतना हो जघन्य अवधि का क्षेत्र है 11३७६।। जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्र का समीकरण करने पर उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण अर्थात् सूच्वंगुल के असंख्यातवें भाग उत्सेध, विष्वम्भ पायामरूप घनप्रतर प्रमाण जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र होता है ।। ३८०॥ जघन्य अवधिक्षेत्र का प्रमाण (माप) उत्सेधांगुल से है क्योंकि सूक्ष्म अवगाहना से ऊपर की अवगाहनायें प्रमाणांगुल से हैं ॥३८१|| जघन्य अवधिज्ञान के जघन्य अवधिक्षेत्र में जितने जघन्य द्रव्य समा जाते हैं, उन द्रव्यों की अवगाहना उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग के धनपतरप्रमाण है ।।३८२।। जघन्य अवधिज्ञान प्रावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण अतीत व अनागत काल को जानता है । भाव की अपेक्षा काल के असंख्यातवें भाग को जानता है ।।३८३।।
विशेषार्थ-देशावधि तीन प्रकार है-जघन्य, उत्कृष्ट, अजघन्यानत्कृष्ट । जघन्य अवधि विषय की प्रमाणप्ररूपणा के बिना जघन्य देशावधि को प्रमाणप्ररूपणा का कोई उपाय है नहीं, अतः जघन्य विषय की प्ररूपणा के द्वारा जघन्य अवधि के प्रमाण की प्ररूपणा की जाती है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के भेद से विषय चार प्रकार है।
जघन्य द्रव्य का प्रमाण-कर्म से रहित ब अपने विस्रसोरचय सहित औदारिक शरीर नोकर्म द्रव्य में घनलोक का भाग देने पर एकभागप्रमाण जघन्य अवधि द्रव्य होता है ।
शङ्का-विस्रसोपचयसहित औदारिकशरीर जघन्य, उत्कृष्ट और तद्व्यतिरिक्त के भेद से तीन प्रकार है; उनमें से किसको घनलोक से भाजित किया जाता है ?
समाधान-न तो जघन्य द्रव्य को और न उत्कृष्ट द्रव्य को घनलोक से भाजित किया जाता है, किन्तु जिन भगवान से देखा गया है स्वरूप जिसका ऐसा तद्व्यतिरिक्त द्रव्य घनलोक से भाजित किया जाता है। कारण कि क्षपित व गुणित विशेषण से विशिष्ट द्रव्य के निर्देश का अभाव है। संख्या में ही यह नियम है ऐसा प्रत्यवस्थान (समाधान) करना भी उचित नहीं है, क्योंकि यहाँ भी संख्या का अधिकार है।
शङ्का-जघन्य अवधिज्ञान क्या इसी द्रव्य को जानता है अथवा अन्य को भी? यदि इसे ही जानता है तो अपने अवधिक्षेत्र के भीतर स्थित जघन्यद्रव्य स्कन्ध से एक परमाण अधिक, दो परमाण अधिक इत्यादि ऋम से स्थित स्कन्धों के ग्रहण का प्रभाव हो जाएगा। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि अपने क्षेत्र के भीतर स्थित अनन्त भेदों से भिन्न स्कन्धों के ग्रहण न होने का विरोध है और यदि | अपने अवधिक्षेत्र के भीतर स्थित जघन्य द्रव्य से परमाणु अधिक स्कन्धों को भी वह जानता है तो यही जघन्य अवधि-द्रव्य न होगा, क्योंकि अन्य भी जघन्य अवधिद्रव्य देखे जाते हैं ?
समाधान- जघन्य अवधि द्रव्य एक प्रकार है ऐसा नहीं कहा गया है, किन्तु वह अनन्त विकल्प रूप है । उन अनन्त विकल्प रूप जघन्य अवधिज्ञान विषयक स्कन्धों में से यह गाथोक्त स्कन्ध अतिजघन्य कहा गया है। इस स्कन्ध से एक. दो तीन ग्रादि परमाणुओं से न्यून स्कन्ध जघन्य
१. ध.पु. ६ पृ. १४-१५ ।
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४७८ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३७७-३८३
देशावधि के विषय नहीं हैं, क्योंकि वे जघन्य के विषयभूत द्रव्यस्कन्ध के बाहर अवस्थित हैं ।
शङ्का - जघन्यवधि के विषयभूत उत्कृष्ट स्कन्ध का प्रमाण क्या है ?
समाधान - जघन्य प्रवधिक्षेत्र के भीतर जो पुद्गल स्कन्ध समाता है वह उसका उत्कृष्ट द्रव्य है। उससे एक, दो तीन आदि अनन्त परमाणु तक अपने उत्कृष्ट द्रव्य से सम्बद्ध होते हुए भी जघन्य ज्ञान के द्वारा जानने योग्य नहीं है। क्योंकि ये जघन्य अवधिज्ञान के उद्योत से वाह्यक्षेत्र में स्थित हैं ।
जघन्यदेशावधि का जघन्य क्षेत्र - उत्सेध बनांगुल में पल्योपम के प्रसंख्यातवें भाग का भाग देने पर एकभाग प्रमाण देशावधि का जघन्य क्षेत्र होता है ।"
शङ्का – यह कहाँ से जाना जाता है ?
समाधान - श्रोगाहणा णियमा दु सुहम-गिोद-जोवस्त । अद्देही तद्देही जहणिया खेत्तदो प्रोही ॥४॥
- से एक विद जी की जितनी जघन्य श्रवगाहना होती है, उतने क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अवधि है । अर्थात् एक उत्सेध घनांगुल को स्थापित कर उसमें पत्योपम के असंख्यातवें भाग का भाग देने पर जो एक खण्डप्रमाण लब्ध प्राता है उतनी तीसरे समय में श्राहार को ग्रहण करने वाले और तीसरे समय में तद्भवस्थ हुए सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव की जघन्य अवगाहना होती है । जितनी यह श्रवगाहना होती है, उतने ही क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अवधिज्ञान होता है । "
शङ्का - सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव की प्रवगाहना की एक प्रकाशपंक्ति की भी अवगाहना संज्ञा है, इसलिए क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अवधिज्ञान तत्प्रमाण क्यों नहीं ग्रहण करते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि जघन्य विशेषण से युक्त अवगाहना का निर्देश किया है। एक प्रकाशपंक्ति जघन्य अवगाहना होती है, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि समुदाय रूप अर्थ में वाक्य की परिसमाप्ति इष्ट है। इसलिए सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तिक जीव की श्रवगाहना में स्थित सब श्राकाशप्रदेशों का ग्रहण किया है।
शङ्का - यहां पर श्रवयवरूप अर्थ में वाक्य की परिसमाप्ति ग्रहण नहीं की गई है, यह किस प्रमाण से जानते हो ?
समाधान - प्राचार्य परम्परा से आए हुए अविरुद्ध उपदेश से जानते हैं ।
अतः जितनी जघन्य ग्रवगाहना होती है. क्षेत्र की अपेक्षा उतना जघन्य अवधिज्ञान है । यह सिद्ध होता है।
१. व. पु. ६ पृ. १५-१६ । २. घ. पु. ६ पृ. १६ध. पु. १३ पृ. ३०१ महाबंध पु. १ पृ. २१ । ३. ध. पु. १३ पृ. ३०१-३०२ ॥
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गाथा ३.७७-३८३
ज्ञानमार्गरणा/४७९
शङ्का-इस जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्र को एक आकाशप्रदेशगंक्तिरूप से स्थापित करके उसके भीतर स्थित जघन्य द्रव्य को जानता है, ऐसा यहाँ छपा नहीं ग्रहण करते?
समाधान नहीं, क्योंकि ऐसा ग्रहण करने पर जघन्य अवगाहना से असंख्यातगुणे जघन्यअवधिज्ञान के क्षेत्र का प्रसंग प्राप्त होता है। जो जघन्य अवधिज्ञान से अवरुद्ध क्षेत्र है, वह जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र कहलाता है। किन्तु यहाँ पर वह जघन्य अवगाहना से असंख्यातगुणा दिखाई देता है। यथा-जितना जघन्य अवगाहना के क्षेत्र का प्रायाम है तत्प्रमाण जवन्य द्रव्य के विष्कम्भ और उत्सेध रूप से स्थित अवधिज्ञान के क्षेत्र का क्षेत्रफल लाने पर जघन्य अवगाहना को जघन्य द्रव्य के विष्कम्भ और उत्सेध से गुणित करने पर जघन्य अवगाहना से असंख्यात गुणा क्षेत्र उपलब्ध होता है। परन्तु यह क्षेत्र इसी प्रकार होता है, यह कहना भी योग्य नहीं है। क्योंकि "जितनी जघन्य अवगाहना है उतना ही जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र है।" ऐसा प्रतिपादन करने वाले सूत्र के साथ उक्त कथन का विरोध होता है। और इस तरह से स्थापित जघन्यक्षेत्र के अन्तिममाकाशप्रदेश में जघन्य द्रव्य समा जाता है, ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि एक जीव से सम्बन्ध रखने वाले, बिनसोपचयसहित नोक मं के पिण्डरूप और घनलोक का भाग देने पर प्राप्त हुए एक खण्डमात्र जअन्य द्रव्य की एक बर्गरगा की भी अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण अवगाहना उपलब्ध होती है। अवधिज्ञानी एक आकाशप्रदेशमुची रूप से जानता है, यह कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर बह जघन्य मतिज्ञान से भी जघन्य प्राप्त होता है और जघन्य द्रव्य के जानने का अन्य उपाय भी नहीं रहता। इसलिए जघन्य अवधिज्ञान के द्वारा अवरुद्ध हुए सब क्षेत्र को उठाकर घनप्रतर के प्राकाररूप से स्थापित करने पर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव की जघन्य अवगाहना प्रमाग होता है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। जघन्य अवधिज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले क्षेत्र का क्या विष्कम्भ है, क्या उत्सेध है और क्या आयाम है; ऐसा पूछने पर कहते हैं कि इस सम्बन्ध में कोई उपदेश उपलब्ध नहीं होता। किन्तु घनप्रतराकाररूप से स्थापित अवधिज्ञान सम्बन्धी क्षेत्र का प्रमाण उत्सेधधनांगुल के असंख्यातवें भाग है, यह उपदेश अवश्य ही उपलब्ध होता है।
इस पल्योपम के असंख्यातवें भाग का बनांगुल में भाग देनेपर घनांगुल के असंख्यातवें भाग सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र उत्सेध, विष्कम्भ व पायाम रूप क्षेत्र पाता है। यह जघन्य अवधिक्षेत्र अर्थात् जघन्य अवधिज्ञान से विषय किया गया सम्पूर्ण क्षेत्र है और घनप्रत राकार से ही सब अवधिक्षेत्र अवस्थित है, ऐसा नियम नहीं है। किन्तु सूक्ष्म निगोद जीव के अवगाहनाक्षेत्र के समान अनियत आकारवाले अवधिक्षेत्रों का समीकरण कर घनप्रतराकार से करके प्रमाणप्ररूपणा की जाती है, ऐसा करने के बिना उसका कोई उपाय नहीं है।
सूक्ष्म निगोद जीव को जवन्य अवगाहना मात्र यह सब ही जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र अबधिज्ञानी जीव और उसके द्वारा ग्रहण किये जानेवाले द्रव्य का अन्तर है, ऐमा कितने ही प्राचार्य कहते हैं। परन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करने से सूक्ष्म निगोद जीव की जघन्य अवगाहना से अघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्र के असंख्यातगुणे होने का प्रसंग पाएगा।
शङ्का-असंख्यातगुणा कसे होगा?
समाधान --क्यों कि, जघन्य अवधिज्ञान के विषयभूत क्षेत्र के विस्तार और उत्सेत्र से पायाम को गुणा करने पर उससे असंख्यातगुणत्व सिद्ध होता है और असंख्यातगुणत्व सम्भव है नहीं, क्योंकि,
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४८०/गो. सा. जीवकाण्ड
माथा ३७७-३८३ 'जितनी सूक्ष्म निगोद जीव की जघन्य अवगाहना है उतना ही जघन्य अवधि का क्षेत्र है ऐसा कहनेवाले गाथासूत्र के साथ विरोध होगा। चूकि अवधिज्ञानी एक श्रेणी में ही जानता है, अतएव सूत्रविरोध नहीं होगा, ऐसा कितने ही प्राचार्य कहते हैं। परन्तु यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर चक्षु-इन्द्रियजन्य ज्ञान की अपेक्षा भी उसमान्यता का प्रसंग आगा। कारण कि चक्षु इन्द्रियजन्य ज्ञान से संख्यात सूच्यंगुल विस्तार, उत्सेध और पायाम रूप क्षेत्र के भीतर स्थित बस्तु का ग्रहण देखा जाता है। तथा वैसा मानने पर इस जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्र का आयाम असंख्यात योजन प्रमाण प्राप्त होगा।
शङ्का--यदि उक्त अवधिक्षेत्र का आयाम असंख्यातगुणा प्राप्त होता है तो होने दीजिए, क्योंकि, वह इष्ट ही है ?
समाधान-ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसके काल से असंख्यातगुरणे अर्ध मास काल से अनुमित असंख्यातगुणे भरत रूप अवधिक्षेत्र में भी असंख्यात योजन प्रमाण आयाम नहीं पाया जाता। दूसरे, उत्कृष्ट देशाबधिज्ञानी संयत अपने उत्कृष्ट द्रव्य को आदि करके एक परमाणु आदि अधिक ऋम से स्थित घनलोक के भीतर रहनेवाले सब पुद्गलस्कन्धों को क्या युगपत् जानता है या नहीं जानता ? यदि नहीं जानता है तो उसका अवधिक्षेत्र लोक नहीं हो सकता, क्योंकि, वह एक प्राकाशश्रेणी में स्थित पुद्गलस्कन्धों को ग्रहण करता है और यह एक आकाशपंक्ति घनलोक प्रमाण हो नहीं सकती, क्योंकि, घनलोक के असंख्यातवें भाग रूप उसमें घनलोकप्रमाणत्व का विरोध है। इसके अतिरिक्त वह कुलाचल, मेरुपर्वत, भवनबिमान, पाठ पृथिवियों, देव, विद्याधर, गिरगिट और सरीमपादिकों को भी नहीं जान सकेगा, क्योंकि, इनका एक प्राकाश में प्रवस्थान नहीं है। और वह उनके अवयव को भी नहीं जानेगा, क्योंकि, अवयवी के अज्ञात होनेपर 'यह इसका अवयव है' इस प्रकार जानने की शक्ति नहीं हो सकती। यदि वह युगपत् सब घनलोक को जानता है तो हमारा पक्ष सिद्ध है, क्योंकि वह प्रतिपक्ष से रहित है।
सूक्ष्म निगोद जीव की अवगाहना को धनप्रतराकार से स्थापित करने पर एक आकाश विस्तार रूप अनेक श्रेणीको ही जानता है, ऐसा कितने ही प्राचार्य कहते हैं। परन्तु यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा होनेपर 'जितनी सूक्ष्म निगोद जीव की जघन्य अवगाहना है उतना ही जघन्य अवधि का क्षेत्र है', ऐसा कहने वाले गाथासूत्र के साथ विरोध होगा और छद्मस्थों के अनेक श्रेणियों का ग्रहण विरुद्ध नहीं है, क्योंकि, चक्ष-इन्द्रियजन्य ज्ञान से अनेक श्रेणियों में स्थित पुद्गलस्कान्धों का ग्रहण पाया जाता है।
अवधिज्ञान के जघन्यक्षेत्र का प्रमाण सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्त निगोदिया जीव की जघन्य अवगाहना के सदृश है अतः उसका क्षेत्र उत्सेधांगुल से कहा गया। उससे प्रागे क्षेत्र का कथन प्रमाण धनांगुल से है, क्योंकि देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्यों के उत्सेध के कथन के सिवा अन्यत्र प्रमाणांगुल की अपेक्षा कथन होता है।'
जघन्य काल--अंगुल के असंख्यात खण्डों में से एक खण्ड मात्र जिस अवधिज्ञान का क्षेत्र
।
१. ध. पु. १३ पृ. ३०४ ।
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गाचा ३८४-३८७
शानमारमा/४१
होता है वह काल को अपेक्षा प्राबली के असंख्यात भाग को जानता है, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। पावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल के भीतर अतीत और अनागत द्रव्य को जानता है। यह अभिप्राय है । पावली के असंख्यातवे भाग का प्रावली में भाग देने पर जघन्य अवधि का काल प्रावली के असंख्यातवें भाग मात्र होता है। इतने मात्र काल में जो कार्य हो चुका हो और जो होनेवाला हो उसे जघन्य अवधिज्ञानी जानता है।
शङ्का-इसका काल इतना ही है, यह जैसे जाना जाता है ?
समाधान-जघन्य क्षेत्र व काल क्रमश: घनांगुल और पावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है (गा. ४०४)। इस गाथा सूत्र के कथन से जाना जाता है ।
जघन्य भाव-अपना जो जाना हा द्रव्य है उसकी अनन्त वर्तमान पर्यायों में से जघन्य अवधिज्ञान के द्वारा विषयीकृत पावली के असंख्यातवें भाग पर्यायें जघन्य भाव ही जघन्य द्रव्य के ऊपर स्थित रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श प्रादि रूप सब पर्यायों को उक्त अवधिज्ञान जानता है, ऐसा कहते हैं। किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि वे अनन्त हैं । और उत्कृष्ट भी अवधिज्ञान अनन्त संख्या के जानने में समर्थ नहीं है। क्योंकि आगम में वैसे उपदेश का प्रभाव है।
शङ्का - द्रव्य में स्थित अनन्त पर्यायों को प्रत्यक्ष से न जानता हुमा अवधिज्ञान प्रत्यक्ष से द्रव्य को कैसे जानेगा?
समाधान नहीं, क्योंकि उक्त अवधिज्ञान पर्याय के अवयवों में रहनेवाली अनन्त संख्या को छोड़कर असंख्यात पर्यायावयत्रों से विशिष्ट द्रव्य का ग्राहक है।
शङ्का - अतीत व अनागत पर्यायों की 'भाव' संज्ञा क्यों नहीं की गई ? समाधान नहीं की गई, क्योंकि उनको काल स्वीकार किया गया है ।
द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा देशावधि ज्ञान के विकल्प अवरद्दध्यादुवरिमदव्ववियप्पाय होदि धुवहारो । सिद्धारणंतिमभागो अभवसिद्धादरपंतगुणो ॥३८४॥ धुवहारकम्मवग्गरणगरणगारं कम्मवगणं गणिदे । समयपबद्धपमाणं जाणिज्जो प्रोहिविसयम्हि ।।३८५।। मणदव्ववग्गणाण वियप्पाणंतिमसमं ख धुवहारो। अवरुक्कस्सविसेसा रूवहिया तबियप्पा हु ॥३८६॥ प्रवरं होदि अरणंतं प्रतभागेरण अहियमुक्कस्सं ।।
इदि मणभेदाणंतिमभागो दन्वम्मि धुवहारो ॥३८७॥ १. व. पु. १३ पृ. ३७५। २. ध. पृ. ६ पृ. २६-२७ । ३. घ. पु. ६ पृ. २७-२८ |
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४०२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३८४-३८६
धुवहारस्स पमाणं सिद्धाणंतिमपमारणमेतं पि । समयपबद्धरिणमित्तं कम्मरणयगरणगरगादो दु ॥३८८॥ होदि अणंतिमभागो तगणगारो वि देसमोहिस्स ।
दोऊरणवश्वभेद-पमारणद्ध बहार-संवग्गो ॥३६॥ गाथार्थ -- अवधिज्ञान के जधन्यद्रव्य के ऊपर दूसरा द्रव्य विकल्प प्राप्त करने के लिये जघन्यद्रव्य को ध्रुवहार से खण्डित कर एक खण्डप्रमाण द्रव्य का दूसरा भेद होता है । वह ध्र वहार सिद्धों के अनन्तवें भाग और अभव्यों से अनन्तगुणा होता है ।।३८४॥ यह ध्र वहार कर्मवर्गणा की संख्या प्राप्त करने के लिए गुणकार है, झमवर्गीको इस ध्रुवहार से गुरणा करने पर समयप्रबद्ध प्रमाण प्राप्त होता है जो अवधिज्ञान का विषय है और अवधिज्ञान इस समयप्रबद्ध को जानता है ॥३८५।। जघन्यद्रध्य मनोवर्गणा से उत्कृष्टद्रव्य मनोवर्गण। जितनी अधिक हैं उसमें एक मिलाने पर मनोवर्गणा के विकल्प (भेदों) का प्रमाण प्राप्त होता है। उसका अनन्तवा भाग ध्र बहार है ।।३८६।। जघन्य मनोवगणा अनन्त प्रमाण रूप है और उसका अनन्तवा भाग अधिक उत्कृष्ट मनोवर्गणा है। इस प्रकार मनोवर्गणा के भेदों का अनन्तवाँ भाग द्रव्य के लिए ध्रवार है ॥३८७॥ सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण मात्र ध्र बहार का प्रमाण है। अथवा समयबद्ध के निमित्त कर्मवर्गणा का जो गुणाकार है उसका अनन्तवाँ भाग है । वह गुणाकार भी दो कम देशावधि के द्रव्य विकल्प मात्र ध्र बहार को परस्पर संवर्ग करने से प्राप्त होता है ।।३८८-३८६।।
विशेषार्थ-तिथंच और मनुष्यों में विनसोपचय सहित प्रौदारिक शरीर को घनलोक से भाजित करने पर जो एकभाग लब्ध प्राप्त होता है, वह जघन्य अवधिज्ञान का द्रव्य है। मनोद्रव्यवर्गगा के अनन्तवें भागरूप अवस्थित विरल न राशि (ध्र बहार) का विरलन करके उसपर जघन्य अवधिज्ञान के द्रव्य को समान खण्ड करके देने पर (यानी ध्र बहार से भाजित करने पर) जो एक बिरलन के प्रति द्रव्य प्राप्त होता है (जो लब्ध प्राप्त होता है) वह दूसरे देशावधिज्ञान का द्रव्य होता है। क्योंकि पूर्वोक्त जघन्यद्रव्य की अपेक्षा करके एक दो परमाणु यादिकों से हीन पुद्गलस्कन्धों के ग्रहण करने में समर्थ, ऐसे ज्ञान के निमित्तभूत अवधिशानावरण के क्षयोपशम का प्रभाव है।
शङ्का-यह कैसे जाना जाता है?
समाधान–'अवधिज्ञानावररण की असंख्यात लोकप्रमाण प्रकृतियाँ हैं । इस वर्गणासूत्र से जाना जाता है।
__ भाव का द्वितीय विकलर लाने के लिए जिन (श्रुतकेवली) द्वारा देखा गया है स्वरूप जिस का, ऐसे असंख्यात से गुणा करना चाहिए, अर्थात् भाव की अपेक्षा देशावधि का द्वितीय विकल्प प्रथम विकल्प से असंख्यात गुणा है। क्षेत्र और काल जघन्य ही रहते हैं, क्योंकि उनकी वृद्धि का अभाब हैं ।
१. धवल पु.१३ पृ. ३२२ धवल पु.६ पृ. २८ । २. "मोहिणाणा वरणीयरस कम्मस्स प्रजिज्जाश्रो पमडीयो ।। ५.२।।" [प्र. पु. १३ पृ. २८६] । ३. घ. पु. पृ. १८
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माथा ३६०-३६१
ज्ञानमार्गणा/८३ उपर्युक्त गाथाओं में जिसको ध्र वहार कहा गया है उसको धवल ग्रन्थ में अवस्थित-विरलन राशि कहा गया है। उपर्युक्त गाथाओं में ध्र बहार का प्रमाण दो प्रकार से बतलाया गया है, मनोवर्गणा का अनन्तवाँ भाग, दूसरा सिद्धों का अनन्तवाँ भाग। यद्यपि समयप्रबद्ध प्राप्त करने के लिये भी कार्मण वर्गणाओं को सिद्धों के अनन्तवें भाग से गुरगा करना पड़ता है और एक कार्मरणवर्गणा में सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण कर्मवर्ग होता है तथापि ध्र वहार प्रमाण सम्बन्धी सिद्धी का अनन्तवा भाग इस अनन्तवें भाग से भिन्न है । उपयुक्त छह गाथाओं में ध्र वहार (अयस्थित विरलनराशि) के प्रमाण को नाना प्रकार से सिद्ध किया गया है किन्तु उन मव का निष्कर्ष यह है कि वह प्रमाण मनोवर्गरणा के अनन्त-भाग अथवा सिद्धों के अनन्तवें भाग है।
देशावधि ज्ञान के द्वितीय आदि विकल्पों का कथन गाथा ३६४ अादि में किया जाएगा। इन बिकल्पों को प्राप्त करने के लिए इस ध्र वहार से ही भाग दिया गया है। समयप्रबद्ध के लिए जो सिद्धराशि का अनन्त वाँ भाग है उसका भी अनन्तवाँ भाग ध्र वहार का प्रमाण है। अभिप्राय यह है कि समयबद्ध कार्मगवर्गणा x सिद्धों का अनन्तवा भाग प्रमाण अनन्त । अब यहां इस समीकरण में जो "सिद्धों का अनन्तवाँ भाग" कहा है उसका भी अनन्तवा भाग स्वरूप ध्र बहार है । देशावधिज्ञान के विषयभुत द्रव्य की अपेक्षा जितने भेद हैं, उनमें से दो कम करके जो शेष बचे उतनी बार नवहार को परस्पर गूण कसेसेकामावण को मार सिद्धका अनन्तवा भाग प्राप्त होता है। देशावधि का द्रव्य-अपेक्षा द्विचरमभेद का विषय कामरावर्गणा है। अतः चरमभेद कम करने से द्विचरम भेद प्राप्त होता है और जघन्यभेद गुणाकार से प्राप्त हुआ नहीं। अतः देशावधि का जघन्य भेद और चरमभेद इन दो को द्रव्य सम्बन्धी विकल्पों में से कम किया गया है।
कार्मण वर्गरणा का गुणाकार तथा देशावधि के क्षेत्रविकल्पों का प्रमाण अंगुल असंखगुरिणदा खेत्तवियप्पा य दबभेवा छ । खेतवियप्पा अवरुषकस्सविसेसं हवे एस्थ ॥३६०।। अंगुलप्रसंखभागं अधरं उक्कस्तयं हवे लोगो ।
इदि बग्गरणगुणगारो असंखधुवहारसंवग्गो ।।३६१।। गाथार्थ –अंगुल का असंख्यातवाँ भाग देशावधि का जघन्य क्षेत्र है और लोकाकाश उत्कृष्ट क्षत्र है । जघन्यक्षेत्र से उत्कृष्टक्षेत्र जितना विशेष अधिक है, यहाँ पर उतने क्षेत्र विकल्प हैं । उन क्षेत्रविकल्पों को अंगुल के असंख्यातवें भाग से गुणा करने पर देशावधि के द्रव्य विकल्पों का प्रमाण प्राप्त होता है। इस प्रकार असंख्यात ध्र वहारों का संवर्ग करने पर कार्मणवर्गरणा का गुणाकार होता है ।।३६०-३६१॥
विशेषार्थ— यहाँ पर देशावधि के क्षेत्रविकल्पों के आधार से देशावधि के द्रव्य विकल्पों का प्रमारण बतलाया गया है। देशावधि का जघन्य क्षेत्र गा. ३७८ में कहा जा चुका है। तत्सम्बन्धी निम्नलिखित उपयोगी गाथा है--
योगाहरणा जहण्णा णियमा दु सुहमणिगोदजीवस्स ।
जद्देही सद्देही जहणिया खेत्तदो प्रोही ॥३॥ १. धवल पु. १३ पृ. ३.१ व पु. १ पृ. १६, महाबंध पु. १ पृ. २१ ।
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४८४/गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा ३१२-२६३
एक उ पस में बल्योपके प्रसंख्यातवें भाग का भाग देने पर जो एक खण्ड प्रमाण क्षेत्र पाता है, उतनी तीसरे समय में ग्राहार को ग्रहण करने वाले और तीसरे समय में तद्भवस्थ हुए सुक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्यास्तक की जघन्य अवगाहना होती है । जितनी वह अवगाहना होती है, उतना देशावधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र होता है।' देशावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र लोकप्रमाण है । इस उत्कृष्ट
उत्सेघघनांगुल क्षेत्र में से जघन्य क्षेत्र को घटाने पर [ लोक- -
-क्षेत्रविशेष प्राप्त होता
पल्य असंख्यात है जो असंख्यात प्रमाण है, क्योंकि समस्त लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात हैं।
पूर्व-पूर्व के द्रव्यविकल्प को प्र.वहार से भाजित करने पर उत्तरद्रव्य विकल्प उत्पन्न होता है । अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्य विकल्प हो जाने के पश्चात् देशावधि के क्षेत्रसम्बन्धी विकल्प में एक आकाशप्रदेश की वृद्धि होती है। क्षेत्र के एक विकल्प होने के लिए अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्य विकल्प होते हैं तो समस्त क्षेत्रविकल्प होने के लिए अंगुल के असंख्यातवें भाग से गुणित क्षेत्रविकल्प प्रमाण द्रव्यविकल्प होते हैं। इस प्रकार क्षेत्रविकल्प गुणित अंगुल के असंख्यातवें भाग" प्रमाण द्रव्य विकल्प होते हैं ।
इस प्रकार गाथा ३८६ के अनुसार दो क्रम असंख्यातप्रमाण द्रव्यविकल्प मात्र ध्र बहारों को परस्पर गुणा करने से कर्मवर्गणा गुणाकार प्राप्त होता है ।
____ कर्मवर्गणा गुणाकार का प्रपारण यग्गरणरासिपमारगं सिवाणंतिमपमारण मेत्तं पि । दुगसहियपरमभेद-पमारणवहाराण संवग्गो ॥३९२॥ परमावहिस्स भेदा सगोगाहणवियप्पहवतेऊ ।
इदि धुवहारं वग्गरणगुरणगारं वगणं जाणे ॥३६३।। गाथार्य-कार्मणवर्गणा राशि का प्रमाण सिद्धों के अनन्तवें भाग मात्र है तथापि दो अधिक परमावधि के भेद प्रमाण ध्र वहार को संवर्ग करने पर भी कार्मणवर्गणा का प्रमारण प्राप्त हो जाता है |॥३६३।। तेजस्कायिक जीवों की अवगाहना के जितने विकल्प हैं उनसे तेजस्कायिक जीवराशि को गुणा करने पर जो प्रमाण प्राप्त हो उतने परमावधि के द्रव्य विकल्प हैं । इस प्रकार'ध्र बहार बर्गमा गुणाकार व वर्ग का प्रमाण जाना जाता है ।।३६२-३६३।।
विशेषार्थ—सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग
१. "जद्देही जात्रद्धा एसा प्रोगाहरणा तहेट्टी तात्रद्धा चेव जण्णिमा प्रोही खेसदो होदी।” [धवल पु. १३ पृ. ३०२]। २. "देसोहि उक्कम्सखेत्तं लोगमेतं" धवल पु. १३ पृ. २८] "असंख्येमाः प्रदेशाः धर्माधर्मकजीवानाम् ।।८।। लोकाकाशे प्रवगाहः ॥१२॥ धर्मावर्मयोः कृत्स्ने ।।१३॥" [तस्वार्थ सूत्र प्र. ५] ३. "गुलम्म नसंखेज्जदि भागमेत्ता दय-वियप्पा उपाएयब्वा । तदो जहपण खेलरसुयरिएगो प्रागारापदेसी वतायेदवो। एवं ववादिदे खेत्तस्स किदिवियप्पो होदि ।" [धवल पु.६ पृ. २६] ।
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गाथा ३६४-३९७
ज्ञानमार्गणा/४८५
है। उससे असंख्यातगुणी बादरतेजस्कायिक पर्याप्त की उत्कृष्ट अवगाहना है । उत्कृष्ट अवगाहना में से जघन्य अवगाहना को कम करके शेष में जघन्य अवगाहना सम्बन्धी एक रूप का प्रक्षेप करके सामान्य तेजस्कायिक राशि को गुणित करने पर, परमावधि के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शलाकाराशि उत्पन्न होती है। उसको पृथक् स्थापित करना चाहिए। देशावधि के उत्कृष्ट द्रव्य को अवस्थित विरलन से (ध्रुवहार से) समखण्ड करके देने पर उनमें एकरूपधरित परमावधि का जघन्य द्रव्य होता है । शलाकाओं में एक रूप कम करना चाहिए। पुनः परमावधि के जघन्य द्रव्य को अवस्थित बिरलना से (ध्र वहार से) समखण्ड करके देने पर उनमें एक खण्ड परमावधि का द्वितीय द्रव्य विकल्प होता है शलाकारों में से एक रूप कम करना चाहिए। पुनः द्वितीय विकल्प के जघन्य द्रव्य को अबस्थित विरलना से (ध्र बहार से) समखण्ड करके देने पर उनमें एक खण्ड तृतीय विकल्प रूप द्रव्य होता है। शलाकाओं में से अन्य एक रूप कम करना चाहिए। चतुर्थ, पंचम, छठे और सातवें
आदि विकल्पों को इसी प्रकार ले जाना चाहिए, क्योंकि यहाँ कोई विशेषता नहीं है । परमावधि के द्विचरम द्रव्य को अवस्थित विरलना (भ्र बहार) से समखण्ड' करके देने पर अन्तिम द्रव्यविकल्प होता है। परमावधि के उत्कृष्ट (अन्तिम) द्रव्य को अवस्थित विरलना से (ध्र बहार) समखण्ड करके देने पर एक परमाणु प्राप्त होता है, वही सर्वावधि का विषय है। सर्वावधि एकविकल्प रूप है।'
जितनी परमावधि की शलाकाराशि है उतने ही परमावधि के विकल्प हैं और उतनी ही बार ध्र बहार से द्रव्य खण्डित किया गया ।परमाबधि के विकल्प के अतिरिक्त एक बार परमाणु प्राप्त करने के लिये ध्र बहार का भाग दिया गया। देशावधि का द्विचरम विकल्प कार्मण वर्गणा है अतः कार्मण वर्गणा को देशावधि का नरम अर्थात् उत्कृष्ट विकल्प प्राप्त करने के लिए ध्र वहार का भाग दिया : गया । देशावधि का चरम भ्र वहार और सर्वावधि का ध्रुवहार ये दो ध्र वहार परमावधि के विकल्पों में मिलाने पर दो अधिक परमावधि के विकल्प प्रमाण ध्र बहार हुए । इन ध्रुवहारों को परस्पर गुणा करने से जो प्रमाण (संख्या) प्राप्त हो उससे परमाणु अर्थात् वर्ग को गुणा करने से कर्मवर्गणा प्राप्त होती है। कार्मणवर्गणा को इस संख्या से भाजित करने पर परमाणु अर्थात् बर्ग प्राप्त होता है। इस प्रकार वर्गगुणाकार, वर्गणा व वर्ग का प्रमाण कहा गया।
देवावधि के द्रव्य-विकल्प देसोहिअवरदवं धवहारेणवहिदे हये विदियं । तदियादिवियप्पेसु वि असंखवारोत्ति एस कमो ॥३६४॥ देसोहिमज्झभेदे सविस्ससोथचयतेजकम्मंग । तेजोभासमणाणं वगरणयं केवलं जत्थ ॥३६५।। पस्सदि ग्रोही तत्थ असंखेज्जानो हवंति दीउबही । वासारिण असंखेज्जा होति असंखेज्जगुरिगदकमा ॥३६६॥ तत्तो कम्महस्सिगिसमयपबद्ध विविस्ससोयचयं ।
धुवहारस्स विभज्ज सन्योही जाव लाव हवे ॥३६७।। १. धवल पु. १ पृ. ४४.४८ ।
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४८६ / गो. मा. जीवकाण्ड
एदम्हि विभज्जते दुचरिमदेसावहिम्मि वग्गरणयं । चरिमे कम्मइयसि गिवग्गण मिगिवार भजिदं तु ॥ ३६८ ॥
गाथा - देशावधि के जघन्य द्रव्य में एक बार ध्रुवहार का भाग देने पर देशावधि के द्वितीय विकल्प का द्रव्य प्राप्त होता है। द्वितीय विकल्प में ध्रुबहार का भाग देने पर तृतीय विकल्प का द्रव्य प्राप्त होता है । इस प्रकार क्रम से ध्रुवहार का भाग देने पर असंख्यात विकल्प उत्पन्न करने चाहिए ।। ३६४ || देणावधि के मध्यभेदों का विषय जहाँ पर विस्रसोपचय सहित तेजस शरीर, विसोपचय सहित कार्मरण शरीर, विसोपचय रहित तैजसवर्गणा, विसोपचय रहित भाषावर्गणा तथा वित्रोपचय रहित मनोवर्गणा होता है वहाँ पर देशावधि का क्षेत्र प्रसंख्यात द्वीप समुद्र और काल असंख्यात वर्ष होता है किन्तु पूर्व-पूर्व की अपेक्षा क्षेत्र व काल क्रम से असंख्यात गुणा असंख्यात गुणा होता है ।। ३६५ - ३६६ ।। इसके आगे अवधिज्ञान का विषय वित्रसोपचय रहित कार्मल का एक समयप्रबद्ध होता है । इस प्रकार जब तक सर्वावधि का द्रव्य ( एक परमाणु) प्राप्त न हो तब तक ध्रुबहार का भाग देते जाना चाहिए ।।३६७।। इस समय प्रबद्ध को ध्रुबहार से भाग देने पर द्विरम देशावधि की कार्मणवगंरेरणा प्राप्त होती है। इसमें बहार का भाग देने पर देणावधि के चरम भेद का प्रश्य प्राप्त होता है
गाथा ३६४-३६८
विशेषार्थ - देशावधि और परमावधि के द्रव्य की प्ररूपणा में मेरु पर्वत के समान अवस्थित मनोद्रव्यवर्गणा के अनन्त भाग (बहार ) का विरलन करके उसके ऊपर देशावधि के जघन्य द्रव्य को समखण्ड करके देने पर उसमें एकरूपधरित खण्ड का द्वितीय विकल्प होता है; क्योंकि पूर्वोक्त जघन्य द्रव्य की अपेक्षा करके एक, दो परमाणु प्रादिकों से होन पुद्गल स्कन्ध के ग्रहण करने में समर्थं ऐसे देशावधि ज्ञान के निमित्तभूत अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम का अभाव है, क्योंकि 'अवधि ज्ञानावरण कर्म की असख्यात लोकप्रमाण ही प्रकृतियाँ हैं' ऐसा वर्गणासूत्र ("ओहिणागावरणस्स श्रसंखेज्जलोग मेत्तीश्रो चैव पयडीओ ।" धवल पु. १३ पृ. २८६ ) है । पश्चात् बहुरूपर्धारित खण्डों को छोड़कर एकरूप धरित द्वितीय विकल्प रूप द्रव्य को अबस्थित भागहार ( धबहार ) के प्रत्येक रूप के ऊपर समखण्ड करके देने पर उनमें एक खण्ड तृतीय विकल्प रूप द्रव्य होता है। क्षेत्र और काल जघन्य ही रहते हैं । पुनः शेष खण्डों को छोड़ करके एकरूपधरित तृतीय विकल्परूप द्रव्य को अवस्थित विरलना (ध. बहार ) पर समखंड करके देने पर उनमें से एक खण्ड पर प्राप्त द्रव्य चतुर्थ विकल्प रूप द्रव्य होता है । इस प्रकार अभ्रान्त होकर, पाँच, छह, सात यादि अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग मात्र द्रव्य के विकल्प हो जाने पर क्षेत्र का द्वितीय विकल्प होता है । परन्तु काल जघन्य ही रहता है ।" इसके आगे मध्य विकल्पों अर्थात् देशावधि के मध्य विकल्पों में अवधिज्ञान का विषय क्रम से इस प्रकार है
सेया कम्मइय सरीरं तेया दव्वं च ageमसंखेज्जा दीव-समुद्दा
य
भासदध्वं च ।
वासा
य ।। ३
तेजस शरीर, कार्मण शरीर तेजोद्रव्य (विश्वसोपचयरहित तैजस वर्गणा ), भाषाद्रव्य ( विसोपचय रहित भाषावगंणा) और मनोवर्गणा को जानता है । वहाँ क्ष ेत्र असंख्यात द्वीप समुद्र और काल असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है ।
१. ध. पु. ६ पृ. २८-५६ । २. महाबंध पु. १ पृ. २२ प. पु. १३ पृ. ३१० । .
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गाथा ३६४-३६८
ज्ञानमार्गरणा/४७ तेजस नोकर्म के संचित हुए प्रदेशपिण्ड को तैजसशरीर कहते हैं। उसे जानता हुआ क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात द्वीप-समुद्रों को जानता है और काल की अपेक्षा असंख्यात वर्ष सम्बन्धी अतीत और अनागत द्रव्य को जानता है। पाठ को सम्बन्धी कर्मस्थिति के संचय को कार्मणशरीर कहते हैं। उसे जानता हुआ भी अवधिज्ञानी क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात द्वीपसमुद्रों को और काल की अपेक्षा असंख्यात कर्मों को जानता है। इतनी विशेषता है कि तेजसशरीर सम्बन्धी क्षेत्र और काल से इसका क्षेत्र और काल असंख्यातगुणा होता है ।
शङ्का-तेजसशरीर नोकर्म के संचय से कार्मरणशरीर का संचय अनन्नगुणा होता है, इसलिए क्षेत्र और काल असंख्यातगुणे नहीं बनते ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्रदेशों की अपेक्षा अनन्तगुरणे होने पर भी तेजस स्कन्धों से कार्मण स्कन्ध अतिसूक्ष्म होते हैं, इसलिए इसके क्षेत्र और काल के प्रसंख्यातगुरणे होने में कोई विरोध नहीं आता। दूसरे ग्राह्यता (ग्रहणयोग्यता) कुछ परमाणुप्रचय के विस्तार की अपेक्षा नहीं करती है, क्योंकि, चक्ष के द्वारा ग्रहरा किये जाने योग्य भिण्डी और रजगिरा के करगों की अपेक्षा बहुत परमाणुगों के द्वारा निर्मित पवन में वह (ग्राह्यता) नहीं पाई जाती। कि तैजसशरीर की अवगाहना से कार्मण शरीर की अवगाहना एक जोवद्रव्य सम्बन्धी होने से समान होती है, इसलिए अवधिज्ञान के द्वारा ग्राह्य गुण (ग्रहणयोग्यता) भी दोनों के सश हों, ऐसा कह्ना भी युक्त नहीं है, क्योंकि समान अवगाहनारूप से स्थित औदारिकशरीर और कार्मणशरीर के साथ तथा दूध और पानी के साथ इस बारा व्यभिचार आता है।
तेजस द्रव्य का अर्थ विस्त्रसोपचय से रहित एक तंजसवर्गणा है। उसे जो अवधिज्ञान ग्रहण करता है, उस अवधिज्ञान से सम्बन्ध रखनेवाले क्षेत्र का प्रमाण असंख्यात द्वीप-समुद्र होता है और काल असंख्यात्त वर्ष होता है। इतनी विशेषता है कि कार्मणशरीर के क्षेत्र और काल से इसका क्षेत्र और काल असंख्यातगुणा होता है, क्योंकि कार्मणशरीर के कर्मपुज से तंजस को एक वर्गणा के प्रदेश अनन्तगुणे हीन उपलब्ध होते हैं या उससे सूक्ष्म होते हैं।
शङ्का-'तेजस द्रव्य' ऐसा कहने पर उसका एक समयप्रबद्ध क्यों नहीं ग्रहण किया जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि आगे कहे जाने वाले द्रव्यार्थता नामक अनुयोगद्वार में द्रव्य शब्द की रूढ़िवश वर्गणा अर्थ में ही प्रवृत्ति देखी जाती है ।
भाषा द्रव्य का अर्थ भाषाबर्गणा का एक स्कन्ध है। उसे जो अवधिज्ञान जानता है उस अवधिज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले क्षेत्र का प्रमाण असंख्यात डीप-समुद्र और काल का प्रमाण असंख्यात वर्ष है। किन्तु तैजसवर्गणा सम्बन्धी क्षेत्र और काल से भाषावर्गरणा सम्बन्धी क्षेत्र और काल असंख्यातगुणा होता है।
शङ्खा--तेजस की एक वर्गणा के प्रदेशों से अनन्तगुगणे प्रदेशों द्वारा एत्र भाषावर्गणा निष्पन्न होती है। अतः ऐसे अत्यन्त भारी स्कन्ध को विषय करने बाला अवधिज्ञान बड़ा कैसे हो सकता है ?
समाधान--नहीं, क्योंकि तैजस की एक वर्गगा की अवगाहना से असंध्यात गुणो हीन, अवगाहना को धारण करने वाली भाषावर्गणा यद्यपि प्रदेशों की अपेक्षा अनन्त गुणी होती है, फिर भी उसे विषय धरने बाले अवधिज्ञान के बड़े होने में कोई विरोध नहीं पाता।
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४८०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३६६ शङ्का--भाषावर्गणा की अवगाहना तेजसवर्गरणा की अवगाहना से असंख्यातमुणी हीन होती है, यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान -- वह "कार्मणशरीरद्रध्यवर्गणा की अवगाहना सबसे स्तोक होती है। उससे मनोद्रच्यवर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुणी होती है। उससे भाषाद्रव्यवर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुणी होती है। उससे तेजस शरीरद्रव्यवर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुगी होती है। उससे पाहारकशरीरद्रव्यवर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुणी होती है। उससे वैफियिक शरीर द्रव्य वर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुणी होती है। उससे औदारिकशरीरद्रव्यवर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुरणी होती है।" इस अल्पबहुत्व से जाना जाता है।
किन्तु. इसकी प्रधानता नहीं है, क्योंकि अवगाहना को अल्पता ज्ञान के बड़ेन का कारण नहीं है, यह पहले कहा जा चुका है। इसलिए सूक्ष्मता ही भाषाज्ञान के बड़ेपन का कारण है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
शङ्कही सूक्ष्म र का नया है? समाधान—जिसका ग्रहण करना कठिन हो, वह सूक्ष्म कहलाता है। यह अर्थ अन्यत्र भी कहना चाहिए । शा-गाथासूत्र में 'च' शब्द किसलिए पाया है ? समाधान–बह अनुक्त अर्थ का समुच्चय करने के लिए गाया है ।
इसलिए मनोद्रव्य सम्बन्धी एक वर्गणा को जानने वाला क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात द्वीप-समुद्रों को और काल की अपेक्षा असंख्यात वर्षों को जानता है, इस अर्थ का यहाँ ग्रहण होता है। इतनी विशेषता है कि यह भाषावर्गणा सम्बन्धी क्षेत्र और काल की अपेक्षा असंख्यातगुरो क्षेत्र और काल को जानता है। यद्यपि भाषा की एकवर्गणा के प्रदेशों से अनन्तगुरणे प्रदेशों द्वारा एक मनोद्रव्यवर्गरणा निष्पन्न होती है, तो भी मनोद्रव्य वगंगा की अवगाहना भाषावर्गणा की अवगाहना से असंख्यातगुणी हीन होती है, इसलिए मनोद्रव्यवर्गणा को विषय करने वाला अवधिज्ञान बड़ा होता है, यह कहा है। कामणद्रव्यवर्गणा को जानने वाला क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात द्वीपसमुद्रों को और काल की अपेक्षा असंन्यातवर्षों को जानता है। इतनी विशेषता है कि एक मनोद्रव्य वर्गणा को विषय करने वाले अवधिज्ञान के क्षेत्र और काल की अपेक्षा एक कार्मणद्रव्यर्गणा को विषय करने वाले अवधिज्ञान का क्षेत्र और काल असंख्यातगुणर होला है ।
___ कार्मणवर्गरणा द्रव्य को अवस्थित विरलन (ध्र बहार) पर सम खाड करके देने पर देशावधि का उत्कृष्ट द्रव्य होता है।'
____ द्वन्य प्रादि विकल्पों की संख्या का प्रमाण अंगुलप्रसंखभागे व्यषियप्पे गवे दु खेत्तम्हि । एगागासपदेसो वड्ढदि संपुण्णलोगोत्ति ॥३६॥
१. कम्मदय वग्गगादब्बमध दिवविरलाए समाह करियदिगो देसोहि उक्कस्स दवं होदि । घ. (पृ. ३५ पंक्ति १० ।
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गया ६६६-४०३
जानमार्गमा / ४८६
प्रावलिप्रसंखभागो जहणकालो कमेण समयेण । बदि देसोहिवरं पल्लं समकरणयं जाब ||४००॥ मंगलप्रसंखभागं धुवरूयेण य असंखवारं तु । श्रसंखसंखं भाग प्रसंखवारं तु श्रद्ध खगे ||४०१ || ध्रुवद्ध वरूयेण य प्रवरे खेत्तम्हि वड्ढिदे खेत्ते । अवरे, कालम्हि पुणो एक्केक्कं चड्ढदे समयं ||४०२ || संखातीवासमा पत्रपभिगो संखा कालं श्रस्सिय पढमादी कंडये वोच्छं ||४०३ ||
।
गाथार्थ - अंगुल के प्रसंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्य विकल्प हो जाने पर क्षेत्र में एक आकाशप्रदेश बढ़ता है। जब तक सम्पूर्ण लोक न हो जाये तब तक इसी क्रम से वृद्धि करनी चाहिए ।। ३६६॥ श्रावली का असंख्यातवाँ भाग जघन्य काल का प्रसारण है, वह क्रम से एक-एक समय बढ़ता है जब तक देशावधि का उत्कृष्ट काल एक समय कम पल्य न हो जावे ||४००॥ अंगुल के असंख्यातवें भाग संख्यातवार व वृद्धि होती है । अंगुल के असंख्यातवें भाग व संख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात वार नववृद्धि होती हैं ||४०१ || जघन्य क्षेत्र में ध्रुव व अन व रूप से क्षेत्रवृद्धि होने पर जघन्य काल में एक-एक समय की वृद्धि होती है || ४०२ ॥ प्रथम पर्व में ( ध्रुव व अध्रुव) उभय रूप से असंख्यात समयों की वृद्धि होती है। क्षेत्र और काल के शाश्रय से प्रथमादि काण्डकों का कथन किया जाएगा ||४०३ ||
विशेषार्थ – अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्य और भाव के विकल्प हो जाने के पश्चात् जघन्य क्षेत्र के ऊपर एक श्राकाशप्रदेश बढ़ता है। इसप्रकार बढ़ने पर क्षेत्र का द्वितीय विकल्प होता है, परन्तु काल जघन्य ही रहता है।" पश्चात् पूर्व के द्रव्यविकल्प को अवस्थित भागहार के ऊपर समखण्ड करके देनेपर उनमें एक खण्ड उपरिम द्रव्यविकल्प होता है। पूर्व के भावविकल्प को तत्प्रायोग्य असंख्यात रूपों से गुणा करने पर अवधि का उपरिम भावविकल्प होता है। इस प्रकार पुन:पुनः करके अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग मात्र द्रव्य और भाव के विकल्प उत्पन्न कराने चाहिए । इस प्रकार उक्त विकल्पों को उत्पन्न कराने पर द्वितीय क्षेत्र विकल्प के ऊपर एक प्रकाशप्रदेश को बढ़ाना चाहिए । तत्र क्षेत्र का तृतीय विकल्प होता है । काल जघन्य ही रहता है। धीरे-धीरे भ्रान्ति से रहित, निराकुल, समचित्त व श्रोताओं को सम्बोधित करनेवाला व्याख्यानाचार्य अंगुल के प्रसंख्यातवें भागमात्र द्रव्य और भाव के विकल्पों को उत्पन्न कराके क्षेत्र के चतुर्थ, पंचम, छठे एवं सातवें श्रादि अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र तक अवधि के क्षेत्रविकल्पों को उत्पन्न कराके पश्चात् जघन्य काल के ऊपर एक समय बढ़ावें । इस प्रकार बढ़ाने पर काल का द्वितीय विकल्प होता है । फिरसे भी अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्य और भाव के विकल्पों के बीत जानेपर क्षेत्र में एक आकाशप्रदेश बढ़ाना चाहिए। इस क्रम से अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र विकल्पों के बीत जानेपर काल में एक समय बढ़ाकर काल का तृत्तीय विकल्प उत्पन्न कराना चाहिए ।
१. धवल पु. ६ पृ. २६ ।
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४६० गो. सा. जीयकाण्ड
गाथा २६९-४०३
शङ्कर-यहाँ शंकाकार कहता है कि अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रविकल्पों के बीत जाने पर काल में एक समय बढ़ता है, यह घटित नहीं होता; क्योंकि, इस प्रकार बढ़ाने पर देशावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र नहीं उत्पन्न हो सकता, व अपने उत्कृष्ट काल से असंख्यातगुणा काल उत्पन्न होगा। वह इस प्रकार से--देशावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र लोक है। उत्कृष्ट काल एक समय कम पल्य है। ऐसी स्थिति में एक समय के यदि अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रविकल्प प्राप्त होते हैं तो पावली के असंख्यातव भाग से कम पल्य में कितने क्षेत्रविकल्प प्राप्त होंगे, इस प्रकार इच्छाराशि से गुणित फलराशि में प्रमाण राशि का भाग देनेपर असंख्यात घनांगल ही उत्पन्न होते हैं, न कि उत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र लोक | अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रविकाल्पों के बीत जाने पर यदि काल का एक समय बढ़ाता है तो गंगाल के प्रगंगात- भाग से हीन लोक में कितनी समयवृद्धि होगी, इस प्रकार फलराशि से गुणित इच्छाराशि को यदि प्रमाणराशि से अपतित किया जाय तो लोक का असंख्यातवाँ भाग पाता है, न कि देशावधि का उत्कृष्ट काल समय कम पल्य । इसलिए प्रावली के असंख्यातवें भाग से हीन समय कम पल्य का जघन्य अवधिक्षेत्र से रहित लोक में भाग देने पर लोक का असंख्यातवा भाग पाता है। इतने क्षेत्रविकल्पों के बीतने पर काल में एक समय वृद्धि होनी चाहिए, क्योंकि, अन्यथा पूर्वोक्त दोषों का प्रसंग आएगा?
समाधान-यह घटित नहीं होता, क्योंकि, एकान्ततः ऐसा स्वीकार करने पर वर्गणा के रासत्र में कहे हए क्षेत्रों की अनुत्पत्ति का प्रसंग ग्राएगा। बह इस प्रकारसे—काल की अपेक्षा पावली के संख्यातवें भाग को जाननेवाला क्षेत्र से अंगुल के संख्यातवें भाग को जानता है, इस प्रकार सूत्र में कहा गया है। काल से कुछ कम प्रावली को जाननेवाला क्षेत्र से घनांगुल को जानता है। काल की अपेक्षा प्रावली को जाननेवाला क्षेत्र से अंगुलपृथक्त्व को जानता है । काल की अपेक्षा अर्ध मास को जाननेवाला क्षेत्र की अपेक्षा भरत क्षेत्र को जानता है । काल की अपेक्षा साधिक एक मास को जानने वाला क्षेत्र से जम्बूद्वीप को जानता है । काल की अपेक्षा एक वर्ष की जाननेवाला क्षेत्र से मनुष्यलोक को जानता है, इस प्रकार इत्यादि क्षेत्र नहीं उत्पन्न होंगे, बयोंकि, लोक के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र की वृद्धि होने पर काल में एक समयकी वृद्धि स्वीकार की है और सूअविरुद्ध युक्ति होती नहीं है, क्योंकि, वह युक्त्याभास रूप होगी।
शङ्का-यदि यह नहीं घटित होता है तो न हो । परन्तु फिर उत्कृष्ट क्षेत्र और काल की उत्पत्ति कैसे सम्भव है ?
समाधान-वृद्धि के नियम का अभाव होने से उनकी उत्पत्ति घटित होती है। प्रथमतः अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र विकल्पों के बीत जानेपर काल में एक समय बढ़ता है । वह इस प्रकार है- प्रावली के संस्थातवें भाग में से जघन्य काल को कम कर देने पर शेष प्रावली के संख्यातवें भाग मात्र कालवृद्धि होती है। इसे विरलिन कर जघन्य अवधिक्षेत्र से कम अंगुल के संख्यातवें भाग मात्र अवधि की क्षेत्र वृद्धि को समखण्ड करके देने पर प्रत्येक समय में अंगुल का असंख्यातवाँ भाग प्राप्त होता है । यहाँ यदि अवस्थित क्षेत्रवृद्धि है तो एक-एक रूपरित क्षेत्रों के बढ़ने पर काल में भी उस ही छोत्र का अधस्तन समय एक-एक बढ़ाना चाहिए । अथवा, यदि अनवस्थित बृद्धि है तो भी प्रथम विकल्प से लेकर अंगुल के असंख्यातवें भाग वृद्धि के असंख्यात विकल्प ले जाने चाहिए, क्योंकि प्रथम अंगुल के प्रसंख्यात भाग मात्र क्षेत्रविकल्पों के बीत जाने पर काल में एक समय बढ़ता है, ऐसा गुरु का उपदेश है। पुनः उपरिम अंगुल के असंख्यातवें भाग अथवा उसके ही संख्यातवें भाग
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गाथा ३९६-४०३
· · ज्ञानमार्गरणा/४६१
प्रमाण क्षेत्रविकल्पों के बीतने पर काल में एक समय बढ़ता है, ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि, दोनों ही प्रकारों से वृद्धि होने का कोई विरोध नहीं है।
• जघन्य काल को कुछ कम प्रावली में से कम कर के शेष का विरलन कर जघन्य क्षेत्र से हीन धनांमुल को समखण्ड करके प्रत्येक समय के ऊपर देकर अवस्थित थ अनवस्थित वृद्धि के विकल्पों में अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग व संख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रविकल्पों के बीतनेपर काल में एक समय बढ़ता है, ऐसी पूर्व के समान प्ररूपणा करनी चाहिए। इस प्रकार जाकर अनुत्तर विमानवासी देव काल की अपेक्षा पल्प म के असंख्यातवें भाग और धोत्र को अपेक्षा समस्त लोकनाली को जानते हैं, अतएव जघन्य काल से रहित पल्मोपम के असंख्यातवें भाग का विरलन कर जघन्य क्षेत्र से हीन जघन्य प्रादि प्रध्वान को समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक रूप के प्रति असंख्थात जगत्प्रतर मात्र लोक का असंख्यातवाँ भाग प्राप्त होता है। यहाँ एकरूपधरित मात्र क्षेत्रविकल्पों के बीत जानेपर काल में एक समय बढ़ता है, ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि, इस प्रकार अधस्तन क्षेत्र और काल के अभाव का प्रसंग पाएगा। इसलिए घनांगुल के असंख्यातवें भाग, कहीं पर धनांगुल के संख्यातवें भाग, कहीं घनांगुल, कहीं धनांगुल के वर्ग, इस प्रकार जाकर कहीं पर जगणी, कहीं जगत्प्रतर और कहीं पर असंख्यात जगत्प्रतरों के बीतनेपर एक समय बढ़ता है। ऐसा कहना चाहिए। इसलिए उत्कृष्ट क्षेत्र और काल की उत्पत्ति में कोई विरोध नहीं है, यह सिद्ध हुआ ।
अब इस प्रकार तब तक ले जाना चाहिए जब तक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की द्विचरम समान वृद्धि नहीं प्राप्त होती ।
शङ्का-द्विचरम समानवृद्धि किसे कहते हैं ?
समाधान-जिस स्थान में चारों की युगपत् वृद्धि होती है उसकी समान वृद्धि ऐसी संज्ञा है। उसमें चरम समानबृद्धि को छोड़कर उससे नीचे की वृद्धि द्वि चरम समानवृद्धि है।
उतना अध्वान जाकर वहाँ जो कुछ भी भेद है उसे कहते हैं-वहाँ हिचरम सभानवृद्धिसे ऊपर कितने काल विकल्प हैं ? एक समय रूप एक विकल्प । किन्तु क्षेत्रविकल्प असंख्यात श्रेणी मात्र, अथवा संख्यात श्रेणी मात्र, अथवा जगश्रेणी मात्र, अथवा घेणी के प्रथम वर्गमूल मात्र, अथवा द्वितीय वर्गमूल मात्र, अथवा धनांगुल मात्र, अथवा घनांगुल के [संख्यातवें भाग मात्र, अथवा घमांगुल के ] असंख्यातवें भाग मात्र क्या होते हैं या नहीं होते, ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि वे अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र ही होते हैं : कारण कि ऐसा प्राचार्यपरम्परागत-उपदेश है। अथवा, उक्त धोत्र विकल्पों के विषय में ज्ञान नहीं है, क्योंकि तत्सम्बन्धी युक्ति ब सूत्र का प्रभाव है। क्षेत्रविकल्पों से द्रव्य और भाव के विकल्प' असंख्यातगुरणे हैं। गुणकार अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है, क्योंकि, अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र द्रब्य और भाव के विकल्पों के बीत जानेपर क्षेत्र में एक आकाशप्रदेश की बुद्धि होती है। इस प्रकार द्विचरम समानबुद्धि की प्ररूपणा की गई है।
पुनः विचरम समानवृद्धि के औदारिक द्रव्य को अवस्थित बिरन्नना से समखण्ड करके देनेपर उससे आगे का द्रव्य विकल्प होता है। विचरम समानवृद्धि के भाव को उसके योग्य असंख्यात रूपों से गणित करनेपर तदनन्तर भावविकल्प होता है। इस प्रकार अंगुल के असंख्यातव
असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्य व भाव के विकल्पों के बीत जानेपर क्षेत्रमें एक प्राकाशप्रदेश बढ़ता है। इस प्रकार इस क्रमसे द्रव्य और
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४६२ /मो. सा. जीवकाण्ड
गाया ३१६-४०३
भाव के द्विचरम विकल्प तक ले जाना चाहिए । पुनः अन्तिम देणावधि के उत्कृष्ट द्रव्य को उत्पन्न करते समय द्विचरम श्रदारिक द्रव्य को छोड़कर एक समय बन्ध के योग्य कार्मण वर्गणा द्रव्य को अवस्थित विरलना से समखण्ड कर के देने पर देशावधि का उत्कृष्ट द्रव्य होता है | देशावधि के द्विचरम भाव को तत्प्रायोग्य संख्यात रूपों से गुरिणत करने पर देशावधि का उत्कृष्ट भाव होता है। क्षेत्र के ऊपर एक आकाशप्रदेश बढ़ने पर देशावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र लोक होता है, क्योंकि, वर्गरणा में 'जब तक लोक है तब तक प्रतिपाती है, ऊपर ग्रप्रतिपाती है ऐसा कथन है, अर्थात् क्षेत्र को अपेक्षा उत्कर्ष से लोक को विषय करनेवाला देशावधि प्रतिपाती है और इससे धागे के परमावधि व सर्वावधि प्रप्रतिपाती हैं । द्विचरम काल के ऊपर एक समय का प्रक्षेप करने पर देशावधि का उत्कृष्ट काल एक समय कम पल्य होता है ।
ऐसी जो अन्य प्राचार्यों के व्याख्यानत्रम की प्ररूपणा है वह युक्ति से घटित नहीं होती, क्योंकि, वैसा मानने पर सर्वार्थसिद्धि-विमानवासी देवों के उत्कृष्ट अवधिद्रव्य से उत्कृष्ट देशावधिद्रव्य के अनन्तगुणत्व का प्रसंग प्राएगा। वह इस प्रकार से लोक के संख्यातवें भाग को शलाका रूप से स्थापित करके मनोद्रव्यवर्गेणा के श्रनन्तवें भाग का विस्रसोपचय रहित अपने अवधिज्ञानावरणकर्मधानुसार भाग पर मन्दिम एक लण्ड को सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव जानता है, परन्तु उत्कृष्ट देशावधिज्ञानी एक बार खण्डित एक समय प्रबद्ध को आनता है। और एक समय प्रबद्ध और नाना समयप्रबद्ध कृत भेद भी नहीं है, क्योंकि यहाँ पल्योपम के प्रसंख्यातवें भाग मात्र उसके गुणकार की प्रधानता का अभाव है। यह देवों के उत्कृष्ट द्रव्य की उत्पादनविधि प्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि, वह अपने क्षेत्र में से एक प्रदेश उत्तरोत्तर कम करते हुए अपने अवधिज्ञानावरणकर्म का अनन्तवाँ भाग है' इस सूत्र से सिद्ध है । इस कारण जघन्य द्रव्य से भागे उसके योग्य विकल्पों के बीत जाने पर विस्रसोपचय सहित श्रदारिक द्रव्य को छोड़कर विस्रसोपचय रहित कार्मण समयप्रबद्ध देना चाहिए, क्योंकि, प्रदारिक विस्रसोपचयों से कार्मण विस्रसोपचय अनन्तगुणे हैं और यह बात प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, “प्रौदारिक शरीर का विस्रसोपचय सबसे स्तोक है, उससे वैऋियिक शरीर का विसोपचय अनन्तगुणा है, उससे शाहारक शरीर का विस्रसोपचय अनन्तगुणा है, उससे तेजस शरीर का विस्त्रसोश्चय अनन्तगुणा है, उससे कार्मण शरीर का बिस्रसोपचय श्रनन्तगुणा है" इस प्रकार वर्गरासूत्र से उसे अनन्तगुणत्व सिद्ध है ।
शङ्का - विxसोपचयों को छोड़कर श्रीदारिक परमाणुओं को ही अवस्थित विरलना से क्यों
नहीं देते ?
समाधान--- नहीं देते, क्योंकि, वे विरलन राशि से अनन्तगुणे हीन हैं, ऐसा गुरु का उपदेश है ।
शङ्का-विरलन राशि से कार्मण द्रव्य अनन्तगुणा है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान – 'आहार वर्गणा के द्रव्य स्तोक हैं, तेजस वर्गणा के द्रव्य उससे अनन्तगुरणे हैं, भाषा वर्गणा के द्रव्य उससे अनन्तगुणे हैं, मनोत्रगंरेरणा के द्रव्य अनन्तगुणे हैं, कार्मण वर्गेणा के द्रव्य अनन्तगुणे हैं। इस वर्गणासूत्र से बह जाना जाता है ।
पूर्व के समान असंख्यात द्रव्य और भाव के विकल्पों के बीत जाने पर जब जघन्य श्रवधिक्षेत्र
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ज्ञानमार्गा/४६३.
को प्रावली के प्रसंख्यातवें भाग से गुणा किया जाता है तब क्षेत्र का द्वितीय विकल्प होता है। इसी प्रकार असंख्यात क्षेत्रविकल्पों के बीत जाने पर जब जघन्य काल को आवली के असंख्यातवें भाग से गुपित किया जाता है तब काल का द्वितीय विकल्प होता है। इस प्रकार देशावधि के उत्कृष्ट विकल्प तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार कितने ही प्राचार्य देशावधि का प्ररूपण करते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता है, क्योंकि, यहाँ हम पूछते हैं कि पूर्व व्याख्यान में कहे हुए अध्वान के सदृश ही इस व्याख्यान का अध्वान है अथवा विसदृश ? उक्त दो पक्षों में समान पक्ष युक्त है नहीं, क्योंकि ऐसा होने पर क्षेत्र और काल को प्रसंख्यात लोकपने का प्रसंग होगा । वह इस प्रकार से – प्रावली के संख्यातवें भाग मच्छेदों से लोक के अर्धच्छेदों को अपवर्तित करके प्राप्त राशि का विरलन कर प्रत्येक रूप के प्रति गुग्गुकारभूत प्रावली का असंख्यातवाँ भाग देना चाहिए। विरलन मात्र क्षेत्रविकल्पों के बीत जाने पर अवधि का क्षेत्र असंख्यात लोकप्रमाण होता है, क्योंकि, विरलन मात्र आवली के असंख्यात भागों को परस्पर गुणित करने पर लोक की उत्पत्ति होती है। यहाँ पत्योपम के असंख्यातवें भाग श्रध्वान में ही श्रवधिक्षेत्र प्रसंख्यात लोकमात्र हो गया है। इससे ऊपर जाने पर स्वयमेव क्षेत्र को श्रसंख्यात लोकपने का प्रसंग आएगा और यह इष्ट नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र लोक मात्र हैं, ऐसा स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार काल के भी असंख्यात लोकपने के प्रसंग की प्ररूपणा करनी चाहिए और देशावधि का उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है, ऐसा अभीष्ट नहीं है, क्योंकि, आचार्य परम्परागत उपदेश से देशावधि का उत्कृष्ट काल एक समय कम पल्यप्रमाण सिद्ध है ।
या ४०९
द्वितीय (असमान) पक्ष भी नहीं बनता, क्योंकि, पूर्वोक्त अध्वान से अधिक अध्वान स्वीकार करने पर पूर्वोक्त दोष का प्रसंग श्राएगा। यदि पत्योपम के श्रसंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र विकल्पों को स्वीकार करें तो वह भी नहीं बनता, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करने पर देशावधि के असंख्यात लोक मात्र क्षयोपशमविकल्पों के अभाव का प्रसंग होगा, तथा काल के ग्रावली के असंख्यातवें भागत्व का प्रसंग भी होगा। दूसरी बात यह है कि क्षेत्र और काल के क्षयोपशम प्रसंख्यातगुणित क्रम से देणावधि में अवस्थित नहीं हैं ।
देशावधि के ११ काण्डक
अंगुलमावलियाए भागमसंखेज्जदोवि संखेज्जो । गुलावलितो प्रावलियं चांगुलपुधत्तं ॥ ४०४ ||
गाथार्थ - जहाँ अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है वहाँ काल आवली के संख्यातवें भाग मात्र है। जहाँ क्षेत्र श्रंगुल के संख्यातवें भाग है वहाँ काल प्रावली का संस्थातवाँ भाग है । जहाँ क्षेत्र अंगुल प्रमाण है वहाँ काल अंतरावलीय ( देशोन ग्रावली ) है । जहाँ काल आवलीप्रमाण है वहाँ क्षेत्र अंगुल - पृथवस्त्र है ॥ ४०४ ॥
विशेषार्थ 'अंगुल' से प्रमाणधनांगुल ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि देव, नारकी, तिर्यंच और
१. धवल पु. १३ पृ. ३०४, पू. पू. २४, म. बं. पु. १ पृ. २१ ।
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४६४ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४०५
मनुष्यों के उत्सेध के कथन के सिवा अन्यत्र प्रमाणांगुल आदि का ग्रहण करना चाहिए, ऐसा गुरु का उपदेश है । इस अंगुल के प्रसंख्यात खण्ड करने चाहिए। जिनमें से एक खण्डमात्र जिस अवधिज्ञान का अवधि से सम्बन्ध रखनेवाला क्षेत्र धनप्रतर प्राकार रूप से स्थापित करने पर होता है वह काल की अपेक्षा आवली के असंख्यातवें भाग को जानता है, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। श्रावली के असंख्यातवें भाग काल के भीतर अतीत और अनागत द्रव्य को जानता है ।
शंका- अवधिज्ञान क्षेत्र और काल का क्या एक ही विकल्प होता है या अन्य भी विकल्प है ? समाधान-गाथा में 'दो वि संखेज्जा' ऐसा कहा है अर्थात् क्षेत्र और काल ये दोनों ही संख्यातवें भाग प्रमाण भी होते हैं ।
शङ्का – किनके संख्यातवें भाग. प्रमाण होते हैं ?
समाधान - अंगुल के और प्रावली के ।
क्षेत्र की अपेक्षा अंगुल के संख्यातवें भाग को जानने वाला काल की अपेक्षा श्रावली के संख्यातव भाग को ही जानता है। क्षेत्र की अपेक्षा एक अंगुल प्रमाणक्षेत्र को जानने वाला काल की अपेक्षा श्रावली के भीतर जानता है। यहाँ पर 'अंगुल से प्रमाणघनांगुल का और 'आवलियंती' से कुछ कम आवली का ग्रहण होता है। जिस अवधिज्ञान का क्षेत्र घनप्रतराकार रूप से स्थापित करने पर अंगुल पृथक्त्व प्रमाण होता है वह काल की अपेक्षा एक सम्पूर्ण आवली को जानता है ।"
श्रावलियधत्तं घणहत्थो तह गाउनं मुहसंतो ।
जोधरण भिष्णमुहत्तं विवसंतो पण्णवीसं तु ॥ ४०५ ||
।
नकोस
गाथार्थ - जहाँ काल श्रावली पृथक्त्व प्रमाण है वहाँ क्षेत्र घनहाथ है । जहाँ क्षेत्र है वहां काल अन्तर्मुहूर्त है। जहां क्षेत्र घनयोजन है वहाँ काल भिन्नमुहूर्त है। जहाँ काल कुछ कम एक दिवस प्रमाण है वहां क्षेत्र पच्चीस घन योजन है ॥४०५॥
विशेषार्थ - जिस अवधिज्ञान का क्षेत्र धनप्रतराकार रूप से स्थापित करने पर नहस्त प्रमाण होता है वह काल की अपेक्षा श्रावली पृथक्त्व है । जिस अवधिज्ञान का क्षेत्र घनप्रतराकाररूप से स्थापित करने पर घनकोस प्रमाण होता है वह काल की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त है । जिस अवधिज्ञान का क्षेत्र घनप्रतराकार रूप से स्थापित करने पर घनयोजन प्रमाण होता है वह काल की अपेक्षा भिन्न मुहूर्त अर्थात् एक समय कम मुहूर्त है ।
शङ्का - अवधिज्ञान निवद्ध क्षेत्र का घनाकार रूप से स्थापित करके किसलिए निर्देश किया
गया है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि अन्यथा काल प्रमाणों से पृथग्भूत क्ष ेत्र के कथन करने का अन्य
E
१. धवल पु. १३. ३०४-३०५ । २. धवल पु. १३ पृ. ३०६ पु. ६ पृ. २५, म.बं. पु. १ पृ. २१ । मुद्रित पुस्तकों में पाठ अशुद्ध है ।
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गाथा ४०६
मानमार्गा/४६५
कोई उपाय नहीं है। इसलिए अवधिज्ञान निरुद्ध क्षेत्र को घनाकार रूप से स्थापित कर उसका निर्देण किया गया है।
शङ्का-यहाँ सूचीयोजन व प्रतरयोजन क्षेत्र का ग्रहण क्यों नहीं किया गया ?
समाधान नहीं, क्योंकि ऐसा होने पर जघन्य क्षेत्र की अपेक्षा यह असंख्यातगुणा हीन प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि काल का भिन्न मुहूर्त प्रमाण उपदेश अन्यथा बन नहीं सकता। कथनाभिप्राय यह है कि अवधि का जघन्य काल कावली का असंख्यातवा भाग है और उससे यहाँ प्रकृत में आकर काल "भिन्नमुहूर्त' प्रमित हो गया। और इस तरह जघन्य काल से यहाँ का काल तो असंख्यातगुणा हो गया। तो जघन्य क्षेत्र [घनांगुल के असंख्यातवें भाग] से भी यहाँ का क्षेत्र (घनयोजन) नियम से असंख्यातगुणा होना ही चाहिए। इसी से जाना जाता है कि यह योजन धनयोजन ही है। अन्यथा सूची योजन तथा प्रतर योजन ही यहां का क्षेत्र मानने पर यहाँ का क्षेत्र उत्सेध घनांगुल के असंख्यातवें भाग रूप जघन्यावधि क्षेत्र से भी असंख्यात गुणाहीन हो जाएगा।
जिस अवधिज्ञान का क्षेत्र घनाकार रूप से स्थापित करने पर पच्चीस घनयोजन होता है, वह काल की अपेक्षा विसंतो' मामी कुछ एक दिवस है।
भरहम्मि प्रद्धमासं साहियमासं च जंबुदीवम्मि ।
यासं च मणुअलोए पासपुधतं च रुचगम्मि ।।४०६॥' गाथार्थ--जहाँ घनरूप भरतवर्ष क्षेत्र है, वहाँ काल प्राधा महीना है। जहाँ घनरूप जम्बूद्वीप क्षेत्र है वहां काल साधिक एक महीना है। जहाँ मनुष्यलोक क्षेत्र है वहाँ काल एक वर्ष है। जहाँ रुचकवर द्वीप क्षेत्र प्रमाण है वहाँ काल वर्ष पृथक्त्व है ।।४०६।।
विशेषार्थ - भरतक्षत्र पांच सौ बीस सही छह बटे उन्नीस (५२६१) योजन प्रमाण है, क्योंकि समुदाय में प्रवृत्त हुए शब्द वयवों में भी रहते हैं, ऐसा न्याय है, यहाँ इसका घनरूप भरतक्षेत्र लेना चाहिए, क्योंकि यहाँ कार्य में कारण का उपचार किया गया है ।
यहाँ काल अर्ध मास होता है। जिस अवधिज्ञान का क्षेत्र घनाकार रूप से स्थापित करने पर भरतक्षेत्र के घनप्रमाण होता है, वह काल की अपेक्षा अर्धमास की बात जानता है यह अभिप्राय है। यहाँ जम्बूद्वीप पद से एक लाख योजन के घनप्रमाण जम्बुद्वीप से प्रयोजन है । इतना क्षेत्र होने पर काल साधिक एक महीना होता है। संतालीस लाख योजन के घनप्रमाण मनुष्यलोक होता है। उस मनुष्यलोकप्रमाण क्षेत्र के होने पर काल एक वर्ष प्रमाण होता है। रुचकवर द्वीप के बाह्य दोनों पावों तक मध्यमयोजनों की रुचकबर संज्ञा है, क्योंकि अवयवों में प्रवृत्त हुए शब्द समुदाय में भी रहते हैं, ऐमा न्याय है। उसका घन भी रुचकवर कहलाता है, क्योंकि यहाँ कार्य में कारण का उपचार किया गया है। इतना क्षेत्र होने पर काल वर्ष पृथक्त्व प्रमाण होता है।
१. ध. पु. १३ पृ. ३०६ ।
२. घ, पृ. १३ पृ. ३०७, पु. १ पृ. २.५, म. बं. पु. १ पृ. २१ ।
३. प. पु. १३
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४६६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाया ४०७
शङ्का-अर्घ और पूर्ण चन्द्र के आकार रूप से स्थित भरत, जम्बूद्वीप, मनुष्यलोक और रुचकवर द्वीप आदि क्यों नहीं ग्रहण किये जाते ?
___ समाधान --नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर अंगुल आदि में भी उस प्रकार के ग्रहण का प्रसंग पाता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर अव्यवस्था का प्रसंग आता है।' (अतः इनके धनात्मक ही क्षेत्र गृहीत किए जाते हैं।)
संखेज्जपमे काले दीव-समुद्दा हवंति संखेज्जा ।
कालम्मि असंखेज्जे दोब-समुद्दा असंखेज्जा ॥४०॥ गाथार्थ-जहाँ काल संख्यात वर्ष प्रमाण होता है, वहाँ क्षेत्र संख्यात द्वीप-समुद्र प्रमाण होता है और जहाँ काल असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है, वहीं क्षेत्र असंख्यात द्वीप-समुद्र प्रमाण होता है । ॥४०७॥
विशेषार्थ-काल के प्रमाण की अपेक्षा अवधिज्ञान से सम्बन्ध रखनेवाले क्षेत्र के प्रमाण का कथन करने के लिए यह गाथा पाई है। 'संखेज्जदिमे काले' अर्थात संख्यात काल के होने पर। यहाँ काल' शब्द वाचौसालापवादोनो, अन्यथा जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र भी असंख्यात द्वीप-समुद्रों के घनयोजन प्रमाण प्राप्त होगा।
शङ्का-काल शब्द वर्षवाची है, यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान-क्योंकि काल-सामान्य में विशेष काल का ग्रहण सम्भव है और समय, आवली, मुहर्त, दिवस, अर्धमास और मास से सम्बन्ध रखने बाले अवधिज्ञान के क्षेत्र का निरूपण पहले हो चुका है।
___ अवधिज्ञान द्वारा संख्यात वर्षों सम्बन्धी अतीत और अनागत द्रव्यों को जानता हुमा क्षेत्र की अपेक्षा संख्यात द्वीप-समुद्रों को जानता है । उस अवधिज्ञान के क्षेत्र को घनाकार रूप से स्थापित करने पर वह संख्यात द्वीप-समुद्र के अायाम धनप्रमाग होता है। काल के असंख्यात वर्ष प्रमाण होने पर अवधिज्ञान सम्बन्धी क्षेत्र घनरूप से स्थापित करने पर असंख्यात द्वीप-समुद्रों का पायाम धनप्रमाण होता है।
गाथा ४०४ में प्रथम तीन काण्डकों का, गा. ४०५ में चौथे काण्डक से लेकर सातवें काण्डक तक चार काण्डकों तक चार काण्डकों का, गाथा ४०६ में प्राठवें काण्डक से ग्यारहवें काण्डक तक चार काण्डकों का तथा गा. ४०७ में बारहव काण्डक का व शेष सात काण्डकों का कथन है।
[नालिका पृष्ठ ४६७ पर देखें
३. प. पु. १३ पृ. ३०८।
१. . पृ. १३ पृ. ३०७-३०८ । २. ध पु. १३ पृ. ३०८, म. बं पु. १ पृ. २१। ४. धवल पु. १३ पृ. ३०८-३०६ ।।
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गाथा ४०८ ४०६
काण्डक
प्रथम
द्वितीय
तृतीय
चतुर्थ
पञ्चम
षष्ठ
सप्तम
अष्टम
नवम
दसव
ग्यारहवाँ
बारहवाँ
१३ वें से १६ वें तक
क्षेत्र
जघन्य --- अंगुल के
संख्यातवें भाग
• उत्कृष्ट - अंगुल के संख्यातवें भाग
घनांगुल
पृथक्त्व घनांगुल
हस्तप्रमाण
एक कोस
एक योजन
पच्चीस योजन
भरतक्षेत्र
जम्बूद्वीप
मनुष्यलोक रुचक द्वीप
संख्यात द्वीपसमुद्र श्रसंख्यात द्वीपसमुद्र
ज्ञानमार्गगणा/४९७
काल
श्रावली का प्रसंख्यातवाँ भाग
आवली का संख्यातवाँ भाग
कुछ कम एक मावली
·
श्रावली आवली पृथक्त्व अन्तर्मुहूर्त भिन्न मुहूर्त
कुछ कम एक दिन अर्ध मास
साधिक एक मास
एक वर्ष
वर्ष पृथक्त्व
संख्यात वर्ष
असंख्यात वर्ष |
काण्डकों में ध्रुज व अध्रुव वृद्धि
कालव से सेवहिद- खेतविसेसो धुवा हवे चड्ढी ।
श्रद्धवबड्ढीवि पुणो अविरुद्ध इट्ठकंडम्मि || ४०६ || अंगुल संभागं संखं या अंगुलं च संखसंखं एवं सेठीपरस्स
तस्सेव । श्रद्ध ु घ
बजे ||४०||
गाथार्थ - कालविशेष से क्षेत्रविशेष को भाजित करने पर बवृद्धियों का प्रमाण आता है । इष्टकाण्डक में अनव वृद्धि का भी विरोध नहीं है । घनांगुल के प्रसंख्यातवें भाग वा घनांगुल के संख्यातवें भाग व अंगुलमात्र, वा संख्यात घनांगुल मात्र वा प्रसंख्यात घनांगुलप्रमाण क्षेत्र की वृद्धि होने पर एक समय की वृद्धि होती है, इसी प्रकार से रणी व जगत्प्रतर के आश्रय से अव वृद्धियों का कथन करना चाहिए ॥४०८-४०६ ॥
विशेषार्थ- जघन्य काल (आवली का असंख्यातवाँ भाग) को कुछ कम ग्रावली में से घटाकर शेष का विरलन कर जधन्यक्षेत्र (अंगुल का प्रसंख्यातवाँ भाग) से होन घनांगुल को समखण्ड करके प्रत्येक समय के ऊपर देकर अवस्थित व अनवस्थित वृद्धि के विकल्पों में अंगुल के असंख्यातवें भाग व संख्यातवें मात्र क्षेत्र विकल्पों के बढ़ने पर ( बीतने पर ) काल में एक समय बढ़ना है, पूर्व के (गा. ४०१ के) समान ऐसी प्ररूपणा करनी चाहिए। इस प्रकार जाकर अनुत्तर विमानवासी देव काल की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवें भाग और क्षेत्र की अपेक्षा समस्त लोकनाली को जानते हैं । श्रतएव जघन्य काल से रहित पत्थोपम के असंख्यातवें भाग का विरलन कर जघन्य क्षेत्र से होन जघन्य आदि अध्वान को समखण्ड करके देने पर प्रत्येक रूप के प्रति असंख्यात जगत्प्रतर मात्र लोक का प्रसंख्यातवां भाग प्राप्त होता है । यहाँ एकरूपधरित मात्र क्षेत्र विकल्पों के बीत जाने पर काल में एक समय बढ़ता है,
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४६८ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४१०-४११
कहीं पर घनांगुल, कहीं प्रभाव का प्रसंग आएगा।
ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार यधस्तन क्षेत्र और काल इसलिए घनांगुल के प्रसंख्यातवें भाग कहीं पर घनांगुल के संख्यातवें भाग पर घनांगुल के वर्ग (संख्यात व असंख्यात घनांगुल) इस प्रकार जाकर कहीं पर जगच्छू रंगी कहीं पर जगत्प्रतर और कहीं पर असंख्यात जगत्प्रतरों के बीतने पर एक समय बढ़ता है, ऐसा कहना चाहिए, इसलिए उत्कृष्ट क्षेत्र और काल की उत्पत्ति में कोई विरोध नहीं है ।'
अवस्थित विरलन व श्रनवस्थित विरलन का अभिप्राय न वहार व अन वहार से है 'गोम्मटसार' में जिसे बहार व बहार कहा गया है उसी को घवल ग्रन्थ में अवस्थित विरलन व अनवस्थित विरलन कहा है।
उत्कृष्ट देशावधि के विषयभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव का प्रमाण कम्मइवग्गणं धुवहारेपिगिवारभाजिदे दयं । उक्कस्सं खेत्तं पुरण लोगो संपुण्णश्रो होदि ॥ ४१० ॥ पल्लसमकरण काले भावेण श्रसंखलोगमेत्ता हु । दव्यस्सय पज्जाया वरदेसोहिस्स विसया हु ॥ ४११ । ।
गाथार्थ - कार्मण वर्गरणा में एक बार ध्रुबहार का भाग देने से देशावधि के उत्कृष्ट द्रव्य का प्रमारण आता है । तथा सम्पूर्ण लोक उत्कृष्ट क्षेत्र का प्रमाण है। एक समय कम एक पल्योपम उत्कृष्ट काल है । संख्यात लोक प्रमाण द्रव्य की वर्तमान पर्यायें उत्कृष्ट भाव का प्रमाण है ।। ४१०-४११।।
विशेषार्थ - कार्मणवर्गरणा द्रव्य को अवस्थित विरलना (बहार ) से समखण्ड करके देने पर देशावधि का उत्कृष्ट द्रव्य होता है । देशावधि के द्विचरम भाव को तत्प्रायोग्य असंख्यात रूपों गुणित करने पर देशावधि का उत्कृष्ट भाव होता है। क्षेत्र के ऊपर एक झाकाशप्रदेश बढ़ने पर देशावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र लोक होता है । द्विचरम काल के ऊपर एक समय का प्रक्षेप करने पर देशावधि का उत्कृष्ट काल एक समय कम पल्य होता है ।" देशावधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र लोकप्रमाण है और उत्कृष्ट काल एक समय कम पल्य प्रमारण है।
विभंगज्ञान का जघन्य क्षेत्र तिर्यंचों और मनुष्यों में अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट क्षेत्र सात प्रायद्वीप समुद्र है। (धवल पु. १३ पृ. ३२८ ) ।
१. ध. पु. ६ पृ. ३३-३४ २. कम्पयत्रगणा दव्यमवदित्रिरात समयं करिय दिगो सोहिवकस्तदव्वं होदि ।" [च.. पू. ३५] ३. "मोहि दुरिमभावं नयायोगासंज्जरूवेहि गुणिदे देसोहि उक्कस्मभावो होदि ।" [ब.पु. पू. ३५]। ४. " खेत्तस्वरि एगागास पदेसे वड्ढि लोगो देसोहीए उक्कस्स खेत्तं होदि । " [ .पु.पू. ३५] । ५. "दुरिकाजस्सुवरि एगसमए पक्खिते देखोहीए जक्कस्सकालो होदि ।" [ ध.पु. ६ पू. ३६ ] । ६. "मोहिउक्कत्सवेत्तं लोगमेत्तं, कालो समऊण पल्लं ।" [ ध.पु. १३ पृ. ३२८ ]
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गाथा ४१२-४१४
ज्ञानमार्गणा/४६
काले चदुण्ण वुड्ढी कालो भजिदवो खेत्तयुड्ढी य ।
युड्ढीए दव-पज्जय भजिदव्वा खेत्त-काला हु ॥४१२।।' गाथार्थ- 'काल' चारों (द्रव्य, दोत्र, काल, भाव) की वृद्धि के लिए होता है [काल की वृद्धि होने पर चारों की वृद्धि होती है । दोत्र की वृद्धि होने पर काल की वृद्धि होती भी है और नहीं भी होती। तथा द्रव्य और पर्याय (भाव) की वृद्धि होने पर पोत्र और काल की वृद्धि होती भी है और नहीं भी होती ॥४१२।।
विशेषार्थ-"कालो चदुण्ण वुड्ढी' अर्थात् काल चारों की वृद्धि के लिए होता है। किन चारों की ? काल, शेत्र, द्रव्य और भावों की । काल की वृद्धि होने पर द्रव्य, क्षेत्र और भाव भी नियम से इद्धि को पाप्त होते हैं। कालो भजिदब्बो खेतवर ढोए' धोत्र की वृद्धि होने पर काल कदाचित् वृद्धि को प्राप्त होता है और कदाचित् वृद्धि को नहीं भी प्राप्त होता है । परन्तु द्रव्य और भाव नियम से वृद्धि को प्राप्त होते हैं, क्योंकि द्रव्य सौर भाव की वृद्धि हुए बिना क्षेत्र को वृद्धि नहीं बन सकती। वाढीए दध्वपज्जय' अर्थात् द्रव्य और पर्यायों की वृद्धि होने पर क्षेत्र और काल की वृद्धि होती भी है और नहीं भी होती, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। परन्तु द्रव्य की वृद्धि होने पर पर्याय (भाव) की वृद्धि नियम से होती है। क्योंकि पर्याय (भाव) के बिना द्रव्य नहीं पाया जाता है। इसी तरह पर्याय की वृद्धि होने पर भी द्रव्य की वृद्धि नियम से होती है, क्योंकि द्रव्य के बिना पर्याय होना असम्भव है। इस गाथा के अर्थ की देशावधि ज्ञान में योजना करनी चाहिए, परमाबधि ज्ञान में नहीं।
शङ्कर—यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान—यह प्राचार्य परम्परा से आये हुए सूत्राविरुद्ध व्याख्यान से जाना जाता है। परमावधिज्ञान में तो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की युगपत् वृद्धि होती है, ऐसा यहाँ व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि सूत्र के अविरुद्ध ब्याख्यान करने वाले प्राचार्यों का ऐसा उपदेश है।'
परमावधि का निरूपण देसावहिवरदव्वं धुवहारेरावहिदे हवे रिणयमा । । परमाबहिस्स अधरं दवपमाणं तु जिणविट्ठम् ।।४१३॥ परमावहिस्स भेदा सगउग्गाहणवियप्पहदतेऊ ।
चरमे हारपमारगं जेटस्स य होदि दवं तु ॥४१४॥ गाथार्थ-देशावधि के उत्कृष्ट द्रव्य में ध्र बहार (अवस्थित विरलना) का भाग देने मे परमावधि के जघन्य द्रव्य का प्रमारण प्राप्त होता है ऐमा जिन (श्रुतकेवली) ने कहा है ॥४१३॥ तेजस्कायिक जीबराशि में उस ही की अवगाहना के विकल्पों से गुणा करने पर जो प्रमाण प्राप्त हो, जघन्य द्रव्य में उलनी बार ध्र वहार का भाग देने से अन्तिम भागाहार के द्वारा उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त होता है ।।४१४।।
१. प्र.पु. ६ पृ. २६ व पु. १३ पृ. ३०६, म.ब.पु. १ पृ. २२ । ३. धवल पु. १३ पृ. ३०६-३१० ।
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५००/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४१५
विशेषार्थ—सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग है। उससे असंख्यातगुणी बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना है। उत्कृष्ट अवगाना में से जघन्य अवगाहना को घटाकर और एक मिलाने से तेजस्कायिक जीवों को अवगाहना के विकल्पों का प्रमाण प्राप्त होता है । उससे तेजस्कायिक जीवराशि को गुणित करने पर परमावधि के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शलाकाराशि उत्पन्न होती है। शलाकाओं में से एक रूप कम करना चाहिए। पुनः परमावधि के जघन्य द्रव्य को अवस्थित विरलन से मम खण्ड करके देने पर उनमें एकखण्ड परमावधि का द्वितीय द्रव्यविकल्प होता है। पुनः द्वितीय विकल्प द्रव्य को अवस्थित विरलना (ध्र बहार) से समखण्ड करके देने पर उनमें एक खण्ड तृतीय विकल्प रूप द्रव्य होता है। शलाका में से अन्य एक रूप कम करना चाहिए। चतुर्थ, पंचम, छठे और सातवें आदि विकल्पों को इसी प्रकार ले जाना चाहिए, क्योंकि यहाँ कोई भी विशेषता नहीं है। इस प्रकार परमावधि के द्विचरम विकल्प तक अथवा एक कम शलाका राशि के समाप्त होने तक ले जाना चाहिए। परमावधि के द्विचरम द्रव्य को अवस्थित विरलना (ध्र वहार) से समखण्ड करके देने पर अन्तिम द्रव्य विकल्प है उसकी रूपगत संज्ञा है। वह परमावधि का उत्कृष्ट विषय है। शलाकारों में से एक-एक रूप कम करते-करते सब शलाकायें समाप्त हो जाती हैं । शलाकारूप उन अग्निकायिक जीवों के द्वारा परिचिटमा लिये गये अनट परमानों से प्रारब्ध रूपगत द्रव्यों को परमावधिज्ञान उपलब्ध करता है (जानता है) (यह अभिप्राय है )। इसके द्वारा परमावधिज्ञान के उत्कृष्ट द्रव्य का कथन किया गया है।
सव्वावहिस्स एक्को परमाणू होवि शिवियप्पो सो । गंगामहारणइस्स पवाहोव्य धुवो हवे हारो ॥४१५॥
गाथार्थ-सर्वावधि का विषय एक परमाणु मात्र है, वह निर्विकल्प रूप है। भागहार गंगा महानदी के प्रवाह के समान ध्र व है ।।४१५।।
विशेषार्थ -परमावधि के उत्कृष्ट द्रव्य को अवस्थित विरलना (ध्र बहार) से समखण्ड करके देने पर रूप के प्रति जो एक-एक परमाणु प्राप्त होता है वह सर्वावधि का विषय है । यहाँ जघन्य उत्कृष्ट और तद्व्यतिरिक्त विकल्प नहीं है, क्योंकि सर्वावधि एक विकल्प रूप है, अर्थात् अन्य विकल्प न होने से बह निर्विकल्प है।"
देशावधि ज्ञान के जघन्य द्रव्य को ध्र बहार से खण्डित करने से देशावधि को द्वितीय द्रव्यविकल्प होता है (गा. ३६४) । इस प्रकार देशावधि के जघन्यद्रव्य से लेकर सर्वावधि तक अथवा अवधिज्ञान के उत्कृष्ट द्रव्य परमाणु मात्र प्राप्त होने तक ध्र बहार या अवस्थित विरलना रूप भागाहार प्रवाह रूप में चला जाता है इस लिए गाथा में 'गंगा महानदी के प्रवाह' का दृष्टान्त दिया गया है।
१. धवल पु. ९ पृ. ४४-४५, धवल पु. १३ पृ. ३२५। २. धवल पु. ६ पृ. ४४ व ४५, धवल पु. १३ पृ. ३२४ व ३२५। ३. धवल पु.१३ पृ. ३२४ । ४. वल पु.६.४८ ।
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गाथा ४१६-४१८
ज्ञानमार्गगा/५०१
परमोरि इस्लभेदा नेत्तिसेना हु तेत्तिया होति ।
तस्सेव होतकालवियप्पा विसया असंखगुरिणदकमा ॥४१६।। गाथार्थ-द्रव्य की अपेक्षा परमावधि के जितने भेद हैं, उतने ही भेद क्षेत्र और काल की अपेक्षा हैं, परन्तु उनका विषय असंख्यात गुणित क्रम से है ॥४१६।।
विशेषार्थ- परमावधि ज्ञान में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की युगपत् वृद्धि होती है। इसी लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धी विकल्पों के लिए एक ही शलाकाराशि है, भिन्न-भिन्न शलाकाराशि नहीं है। तेजस्कायिक के अवगाहना विकल्पों से तेजस्कायिक जोवराशि को गुणा करने से वह शलाकाराशि उत्पन्न होती है। क्षेत्रोपम अग्नि जीवों से देशावधि के उत्कृष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव की खण्डन और गुणन रूप बार शलाका से शोधित द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को उत्कृष्ट परमावधि जानता है। इस सब कथन से सिद्ध होता है कि परमावधि में जितने भेद द्रव्य के हैं उतने ही भेद धोत्र, काल और भाव के हैं । उनमें कोई विभिन्नता नहीं है ।
प्रावलिमसंखभागा इच्छिवगच्छधरणमारणमेत्ताओ। देसावहिस्स होते काले वि य होति संवग्गे ॥४१७।। गच्छसमा तत्कालियतीवे रूऊरणगच्छधणमेत्ता । उभये वि य गच्छस्स य घरगमेत्ता होति गुणगारा ॥४१८।।
गाथार्य-इच्छित गच्छ के संकलम धन प्रमाण मात्र आवली के असंख्यातधे भागों का संवर्ग करने पर देशावधि के उत्कृष्ट क्षेत्र व काल का गुरणाकार होता है । इच्छित गच्छसंख्या को इच्छित गच्छ से अन्यवाहित पूर्व के गच्छ के संकलित धन में, अर्थात् विवक्षित गच्छप्रमाण में से एक कम करके जो संख्या उत्पन्न हो उसके संकलित धन में, मिलाने से विवक्षित गच्छ के संकलित धन का प्रमाण होता है, उतने प्रमाण पावली के असंख्यातवें भागों को संवर्ग (परस्पर गुणा) करने से गुणाकार का प्रमारण होता है ।।४१७-४१८।।
विशेषार्थ-जिस नम्बर के भेद की विवक्षा हो, एक से लगाकर उस विवक्षित भेद पर्यन्त एक-एक अधिक अंकों को जोड़ने से जो प्रमाण पावे उतना ही उसका संकलित धन होता है। जैसे प्रथम भेद में १ ही अंक है अतएव उसका संकलित धन 'एक' जानना चाहिए। दूसरे भेद में संकलित धन का प्रमाण-..१+२=३ है। तीसरे भेद में संकलित धन का प्रमाण १+२+३ = ६ होना है। चतुर्थ भेद में संकलित धन का प्रमागग १ + २-३+४= १० होता है। पंचम भेद में संकलित धन का प्रमाण =१५ २३ : ४ - ५-१५ होता है। छठे भेद में संकलित धन का प्रमाण = १+२+ ३+४+ ५ + ६ - २१ होता है। इस तरह से जिस स्थान में जितना भी संकलित धन का प्रमाण पाता है उतनी बार पावली के प्रसंख्यातवें भागों को रखकर परम्पर गृरिणत करने पर जो प्रमाण प्रात्रे
१. "परमोहीए पुगण दव-खेत-काल-भावारामक्कमेण अपडी होदि नि वत्तव्वं ।" [धवल पु. १३ पृ. ३१०] । २. धवल पु. १३ पृ. ३२५। ३. धवल पु. ६ पृ. ४७ ।
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५०२ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४१६
बही उस विवक्षित भेद का गुणकार होता है। जैसे छठे स्थान का संकलित धन २१ है तो २१ बार आवली के असंख्यातवें भागों को रखकर परस्पर गुणित करने पर जो गुणनफल आवे वह छठे स्थान का गुणकार हुआ। इसी तरह अन्य स्थानों के भी गुणकार निकाल लेने चाहिए। फिर प्राप्त अपनेअपने गुणकारों से देशावधि के उत्कृष्ट क्षेत्र लोक को गुणा करने पर जो प्रमाण यावे यह परमावधि के उस नम्बर के भेद का क्षेत्र प्रसारण होगा | तथा उसी गुरणकार से देणावधि के उत्कृष्ट काल ( एक समय कम पल्य) को गुणित करने पर परमावधि के उस विवक्षित भेद के काल का प्रमाण आता है। जैसे छठे स्थान का संकलित धन = २१ है । अतः इक्कीस बार बावली के असंख्यातवें भागों की रखकर परस्पर गुणित करने पर जो गुणनफल आवे उससे लोक को गुणित करने पर तो परमावधि के छठे भेद का क्षेत्रप्रमाण आएगा । तथा यदि उसी विवक्षित गुणनफल को १ कम पल्य से गुणा करें तो परमावधि के छठे भेद का काल प्रमाणा होगा |
धवला में परमावधि के उत्कृष्ट क्षेत्र का गुणकार उत्पन्न करके बताया है कि:तेजस्कायिक जीवों के अवगाहना-स्थानों से गुपित तेजस्कायिक जीवों की राशि को गच्छ करके क्योंकि इतने ही परमावधि के भेद हैं, एक-एक को आदि लेकर एक-एक अधिक संकलन के [ जैसे-प्रथम स्थान १, दि. १ + २ = ३, तू. १+२+३=६, चतुर्थस्थान १+२+३+४ = १० श्रथवा ४५५
= १० अथवा एक कम चार अर्थात् ३ की संकलना ६+४= १० इत्यादि ] लाने पर
२
तेजस्कायिकराशि के वर्ग को लांघ कर उससे उपरिम वर्ग के नीचे यह राशि उत्पन्न होती है। इस शलाका संकलनराशि का विरलन करके प्रावली के असंख्यातवें भाग को प्रत्येक रूप के प्रति देकर परस्पर गुणित करके उससे देशावधि के उत्कृष्ट क्षेत्र घनलोक को गुणित करने पर परसावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र होता है । '
प्रकारान्तर से उन्हीं गुणकारों की उत्पादनविधि यह है कि जैसे छठे भेद का संकलित धन लाना है तो ६ रख दो। फिर ६ से एक स्थान पूर्व अर्थात् ५ है, उस ५ का गच्छ धन १५ है अतः १५ में ६ को जोड़ दो तो २१ हुए । यही विवक्षित स्थान का संकलित धन होगा। इतनी आवली के असंख्यातवें भागों को रख कर परस्पर गुणित करने पर विवक्षित स्थान का गुणकार होता है ।
परमावहिवर होतेय हिदउक्कस्स प्रोहिणेत्तं तु । सव्वावहिगुणगारो काले वि श्रसंखलोगो दु ।।४१६ ।।
गाथार्थ - उत्कृष्ट अवधिज्ञान के क्षेत्र में परमावधि के उत्कृष्ट क्षेत्र का भाग देने से जो लब्ध प्राप्त हो वह सर्वावधि क्षेत्र के लिए गुणकार है। तथा सर्वावधि काल का प्रमाण लाने के लिये असंख्यात लोक गुणकार है ||४१६||
विशेषार्थ परमावधि के क्षेत्र का, तेजस्कायिकों की कायस्थिति और अवधि निबद्ध क्षेत्र परस्पर गुणकार के वर्ग की अर्धच्छेद- शलाकाओं के ऊपर असंख्यात लोकमात्र वर्गस्थान जाकर
१. घवल पु. ९ पृ. ४८-४६ ।
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गाथा ४२०-४२१
ज्ञानमार्गगा/५०३ स्थित अबधिनिबद्ध क्षेत्र में भाग देने पर जो लब्ध हो उतने मात्र गुणकार होता है, अन्य नहीं ।
परमाधिकाल को उसके योग्य असंख्यात रूपों से गुणा करने पर सर्वावधि का काल अर्थात् . उत्कृष्ट काल होता है ।
शङ्कर--यह एक ही लोक है, परमावधि और सर्वावधि असंख्यात लोकों को जानते हैं, यह कैसे घटित होता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यदि सब पुद्गल राशि असंख्यात लोकों को पूर्ण करके स्थित हो तो भी वे जान लेंगे। इस प्रकार उनकी शक्ति का प्रदर्शन किया गया है।
इच्छिदरासिच्छेदं विष्णच्छेदेहि भाजिदे तत्थ । लद्धमिदिण्णरासीरणभासे इच्छिदो रासी ।।४२०॥ विष्णच्छेदेरगयहिदलोगच्छेदेरण पदधणे भजिदे ।
लडमिवलोगगुणणं परमावहिचरिमगुणगारो ॥४२१।। ___ गाथार्थ-देय राशि के अर्धच्छेदों द्वारा इच्छित राशि के अर्धच्छेदों को विभाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतनी बार देयराशि को परस्पर गुणा करने से इच्छित राशि उत्पन्न होती है ।।४२०।। देयराशि के अर्धच्छेदों से विभक्त लोक के अर्घच्छेद, उनका विवक्षित पद के (संकलित) धन में भाग देने पर प्राप्त लब्ध प्रमाण बार लोक को परस्पर गुणा करने से जो राशि उत्पन्न हो वह परमावधि के विवक्षित भेद में गुरणकार होता है। इसी तरह परमावधि के चरम भेद में भी गुणकार निकालना चाहिए ॥४२।।
विशेषार्थ -देय राशि यदि चार हो तो उसके अर्धच्छेद दो, यदि इच्छित राशि २५६ हो तो उसके अर्धचंद्रद ८ । दो से पाठ को विभक्त करने पर लब्ध चार (8= ४) प्राप्त होते हैं। उतनी वार अर्थात् चार बार देयराणि (४) को परस्पर गुरणा करने से (४४४४४४४) इच्छित राशि २५६) उत्पन्न हो जाती है। यह गाथास्वरूप प्रथम करण सूत्र का अभिप्राय है।
द्वितीय गाथा की अंकः संस्टि- देय राशि (४) के अर्धच्छेद (२) ।
लोक (२५६) के अर्धच्छेद (८)। परमावधि के अन्तिम पद की क्रमसंख्या (६४) का संकलम धन (२०५०) ।
देय राशि के अर्धच्छेद (२) से विभक्त लोक के अर्धच्छेद (८) (-४) चार है। इस चार से अन्तिम पद (६४) के संकलन धन (२०८०) को भाग देने से (१९८० = ५२०) प्राप्त होते हैं । ५२० बार लोक (२५६) को परस्पर गुणा करने से अन्तिम पद का गुणकार होता है। परमार्थत: यहाँ देय राशि प्रावली का असंख्यातवाँ भाग है उसके अच्छेदों का भाग लोक के अर्धरछेदों में देने पर
६-२. धवल पु. १ पृ. ५। ३. घवल पु. १ पृ. ५०-५१ ।
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५०४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४२२-४२३
जो प्रमाण प्रावे, उसका भाग परमावधि के विवक्षित भेद के संकलित धन में देने से जो प्रमाण यावे; उतनी जगह लोक को स्थापित करके परस्पर में गुणित करने पर जो प्रमाण प्राबे वह उस विवक्षित भेद में गुणकार होता है। उस गुणकार से देशावधि के उत्कृष्ट क्षेत्र लोक को गुणा करने पर जो प्रमाण प्रावे उतना परमावधि के उस विवक्षित भेद में क्षेत्र का प्रमाण होता है। तथा उसी गुणकार से देशावधि के उत्कृष्ट काय (समय कम पल्य) को गरिएत करने पर परमारभि ने उनी जिगाति भेद संबंधी काय का प्रमाण आता है। इस करणसुत्र के अनुसार किसी भी पद का गुणकार प्राप्त किया जा सकता है।
इस सम्बन्ध में प्रवलकार ने निम्न प्रकार से कथन किया है
देय राशि के अर्धच्छेदों से युक्त विरलन राशि के अर्धच्छेद उत्पन्न राशि की वर्गशलाका होते हैं। विरलन राशि के अर्धच्छेद यहाँ तेजकायिक जीवों के अर्धच्छेदों से कुछ अधिक दूने है, क्योंकि वे तेजकायिक राशि के वर्ग से नीचे स्थित राशि के अधच्छेद करने पर उत्पन्न होते हैं। इनका प्रक्षेप करने पर प्रादि के वर्ग से लेकर परमावधि के चढ़ित अध्वान होता है। तेजकायिक राशि के अर्धच्छेदों से कुछ अधिक दुगुरणे मात्र इस चढ़ित अध्वान को तेजकायिक राशि की वर्गशलाकामों से खण्डित कर अर्धरूप कम। इससे तेजकायिक राशि की वर्गशलाकानों को गुणित करने पर तेजकायिक राशि से ऊपर चढ़ित अध्वान होता है। यह परमावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र होता है।'
प्रावलिनसंखभागा जहण्णदश्वस्स होंति पज्जाया । कालस्स जहरणादो प्रसंस्खगुणहीणमेत्ता हु ॥४२२।। सन्योहित्ति य कमसो प्रावलिअसंखभागगुरिणदकमा ।
दव्वारणं भावाणं पदसंखा सरिसगा होति ।।४२३।। गाथार्थ-पावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य द्रव्य को पर्याय अवधिज्ञान का जधन्य भाव विषय हैं । वे पर्यायें जघन्य-काल से असंख्यातगुणहीन हैं ।।४२२॥ जघन्य देशावधि से लेकर सर्वावधि पर्यंत द्रव्य तो क्रम से खण्डित होता जाता है और भाव आवली के प्रसंध्यातवें भाग से गुणित होता जाता है । अत: द्रव्य व भाव के पदों की संख्या सदृश है ।।४२३।।
विशेषार्थ - पावली के असंख्यातवें भाग का प्रावली में भाग देने पर जघन्य अवधि का काल पावली के असंख्यातवें भाग मात्र होता है। अपने विषयभूत जघन्य द्रव्य की अनन्त वर्तमान पर्यायों में से जघन्य अवधिज्ञान के द्वारा विषयीकृत पावली के असंख्यातवें भाग मात्र पर्यायें जघन्य भाव है। किन्तु काल की अपेक्षा इन वर्तमान पर्यायों का प्रमाण असंख्यात गुणहीन है । अर्थात् काल के असंख्यातवें भाग प्रमाण भावों की (वर्तमान पर्यायों की) संख्या है।
देशावधिज्ञान के द्वितीय विकल्प में द्रव्य तो हीन और भाव अधिक होता जाता है किन्तु क्षेत्र और काल जघन्य ही रहते हैं, क्योंकि यहाँ उनकी वृद्धि का अभाव है। इसी प्रकार तृतीय, चतुर्थ
१. धवल पु. ६ पृ. ४६1 २. ध.पु. ६ पृ. २६-२७ ।
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गाथा ४२४-४२५
भानमार्गणा/५०५
आदि अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्य और भाव विकल्प उत्पन्न हो जाने पर तत्पश्चात् जघन्य धोत्र के ऊपर एक आकाश प्रदेश बढ़ता है परन्तु काल जघन्य ही रहता है। इससे जाना जाता है कि द्रव्य व भाव की अपेक्षा अवधिज्ञान की पद-संख्या सदृश है। किन्तु क्षेत्र की अपेक्षा पद-संख्या हीन है। इस प्रकार क्षेत्र पद-संरया से काल पद-संख्या अल्प है।
सत्तमखिदिम्मि कोसं कोसस्सद्ध पचड्ढवे ताय । जाव य पढमे गिरये जोयरामेक्कं हवे पुण्णं ॥४२४।।
गाथार्थ- सातवीं पृथिवी (सातवें नरक) में अबधिज्ञान का क्षेत्र एक कोस है। इसके ऊपर अर्ध-अर्ध कोस की वृद्धि तब तक होती गई जब तक प्रथम नरक में अबधिज्ञान का क्षेत्र सम्पूर्ण एक योजन (४ कोस) हो जाता है ।।४२४।।
विशेषार्य-नारकियों में जघन्य अवधिशान का क्षेत्र गन्यूक्ति (एक कोस) और उत्कृष्ट क्षेत्र एक योजन प्रमाण है। सातवीं पृथिवी में नारकियों के अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र गव्यूति प्रमाण और प्रयधिज्ञान का काल विषय उत्कृष्ट रूप से अन्तर्मुहूर्त है। छठी पृथिवी में अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र डेढ़ गव्युति (कोस) प्रमाण है और काल अन्तमुहर्त है। पांचवों पृथिवी में उत्कृष्ट अबधिज्ञान का क्षेत्र दो गन्यूति (कोस) प्रमाण और काल अन्तर्मुहूर्त है। चौथी पृथिवी में नारकियों के उत्कृष्ट अवधिज्ञान के क्षेत्र अढ़ाई गव्युति प्रमाण और वहाँ उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। तीसरी प्रथिबी में उत्कृष्ट अवधिज्ञान का क्षेत्र तीन गव्यूति (कोस) प्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त प्रमाण है। दूसरी पृथिवी में नारकियों के उत्कृष्ट अवधिज्ञान का क्षेत्र साढ़े तीन गव्यूति प्रमाण और वहाँ उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। पहली पृथिवी में नारकियों के उत्कृष्ट अवधिज्ञान का क्षेत्र चार गन्यूति (एक योजन) प्रमाण है और वहीं उत्कृष्ट काल एक समय कम मुहुर्त प्रमाण है।
शङ्का-माथा में काल नहीं कहा गया फिर वह किम प्रमाण से जाना जाता है। समाधान- वह “गाउग्रं मुहत्तंतो । जोयणभिण्णामुहत्तं” इस गाथा ४०५ से जाना जाता है ।
मनुष्य ब तिर्यचों में जघन्य व उत्कृष्ट प्रवधिज्ञान तिरिये प्रवरं प्रोघो तेजोयंते य होदि उक्कस्सं ।
मणुए प्रोघं देवे जहाकम सुरह वोच्छामि ॥४२५॥ गाथार्थ-तिर्यंचों में अवधिज्ञान जघन्य देशावधि से लेकर तेजस शरीर को विषय करने वाले
१. प.पु. ६ पृ. २८-२६ । २. "गाउन जहणण मोही रिशरएस अ जोयणुक्रमं ।" [ध.पु. १३ पृ. ३२६ गा. १६; म बं.पु. १ पृ. २३] । मूलाचार पर्याप्ति अधिकार १२ गा. १११ । ३. प.पु. १३ १. ३२६-३२७ । ४. 'तेपासरीरलंबो उपकस्सेण दु तिरिक्त्य जोरिंग गिरासु ।३१६ पूर्वाध।। उक्कस्स माणुसेस य माणुस-तेरिच्छा जहण्रमोही । उक्कस्म लोगमेसं पतिवादी तेण परमपडिवादी ।।१५।।'' [भ.पु. १, पृ. ३२५ + ३२७ ; म.बं.
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५०६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा४२६-४२३
भेद पर्यंत होता है। मनुष्यों में (जघन्य देशावथि से लेकर सर्वावधि पर्यंत) प्रोष के समान है, देवों में अवधिज्ञान का कथन आगे की गाथाओं में यथाक्रम किया जाएगा, सो सुनो।।४२५।।
विशेषार्थ- तिरिये' अर्थात् पंचेन्द्रिय तियंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिनी जीवों को ग्रहण करना चाहिए। जघन्य अवधिज्ञान मनुष्य और नियंचों के होता है, देव और नारकियों के नहीं होता । एक धनलोक का औदारिक शरीर में भाग देने पर जो भागफल अर्थात लब्ध प्राप्त होता है वह जघन्य अवधिज्ञान का विषय भूत द्रव्य होता है। क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग होकर भी सबसे जघन्य अवगाहना प्रसास होता है। मधिज्ञान का काल प्राबली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। यह मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यचों के ही होता है। लियंचों में उत्कृष्ट द्रव्य तेजस शरीर प्रमाण, उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यात योजन और उत्कृष्ट काल असंख्यात वर्ष मात्र है। मनुष्यों में उत्कृष्ट द्रव्य एक परमाणु, उत्कृष्ट क्षेत्र व काल असंख्यात लोक है।' अथवा तिर्यंचों में उत्कृष्ट द्रव्य तेजस शरीर के संचयभूत प्रदेशों के प्रमाण होता है। उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यात द्वीप-समुद्र प्रमाग और काल असंख्यात वर्ष होता है।
भवनत्रिक में अवधिज्ञान पणुवीसजोयगाई दिवसंतं च य कुमारभोम्माणं । संखेज्जगुणं खेत्तं बहुगं कालं तु जोइसिगे ॥४२६॥' असुराणमसंखेज्जा कोडीनो सेसजोइसंताणं । संखातीदसहस्सा उक्कस्सोहीण विसो दु ॥४२७॥ प्रसुराणमसंखेज्जा बस्सा पुरण सेसजोइसंताएं । तस्संखेज्जदिभागं कालेग य होदि रिणयमेरग ॥४२८।। भवरणतियारामधोधो थोवं तिरियेण होदि बहुगं तु ।
उड्ढेण भवरणवासी सुरगिरिसिहरोत्ति पस्संति ॥४२६।। गाथार्थ-कुमार अर्थात् भवनवासी तथा भोम (व्यन्तरों) का [जघन्य क्षेत्र पचीस योजन और काल अंतःदिवस (कुछ कम एक दिन) है। ज्योतिषी देवों की अवधि का क्षेत्र संख्यात गुणा और काल बहुत अधिक है ।।४२६।। असुर कुमारों के अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यात करोड़ योजन तथा ज्योतिषी देवों तक शेष देवों का उत्कृष्ट अवधि का क्षेत्र असंख्यात हजार योजन है ।।४२७।। असुरकुमारों की उत्कृष्ट अवधि का काल असंख्यात वर्ष है। ज्योतिषी पर्यन्त शेष देवों की उत्कृष्ट अवधि का काल नियम से असंख्यातवा भाग है ।।४२८॥ भवनत्रिक के अवधिज्ञान का क्षेत्र नीचे की ओर स्लोव होता है किन्तु तिर्यग रूप से अधिक होता है। भवनवासी ऊपर की सुरगिरि (मेरु) के शिखर पर्यंत देखते (जानते ) हैं ॥४२६।।
१. प.पु. ११ पृ. ३२५७-३२८ । २. प.पु. १३ पृ. ३२५-३२६ । ३. प्र.पु. ६ पृ. २५, पु. १३ पृ ३१४ : म.ब.पु.१ पृ २२; मूलाचार पर्यारित अधिकार १२ मा १०१। ४, ध.पु. ६ पृ. २५, पृ. १३ पृ. ३१५ : मूलाचार पर्याप्ति अधिकार १२ गा. ११० । म.बं. पु. १ पृ. २२ ।
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गाथा ८३०-४३४
ज्ञानमार्गगा/५०७
विशेषार्थ - 'कुमार' अर्थात् दस प्रकार के भवनवासी, 'भोम' अर्थात् पाठ प्रकार के वानभ्यंतर देवों का क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अवधिज्ञान पच्चीस योजन होता है। क्योंकि उनके अवधिज्ञान सम्बन्धी क्षेत्र को घनाकार रूप से स्थापित करने पर पच्चीस योजन धन प्रमाण क्षेत्र उपलब्ध होता है। काल की अपेक्षा तो ये कुछ कम एक दिन की बात जानते हैं । क्षेत्र की अपेक्षा ज्योतिषी देवों के जघन्य अवधिज्ञान का प्रमाण संख्यात घनयोजन होता है। इतनी विशेषता है कि व्यन्तरों के जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्र से ज्योतिषियों के जघन्य अवधिज्ञान का होत्र संख्यातगुणा है । इनका काल यद्यपि भवनवासियों के काल से बहत होता है, किन्तु वह उसमें विशेष अधिक होता है, या संख्यातगुणा होता है, यह नहीं जाना जाता क्योकि इस प्रकार का कोई उपदेश इस समय नहीं पाया जाता है। असुर पद से यहाँ प्रसुर नाम के भवनवासी देव लिये गये हैं । उनके उत्कृष्ट क्षेत्र को घनाकार रूप से स्थापित करने पर यह असंख्यात करोड़ योजन होता है । इतनी विशेषता है कि शेष भबनबासी, वानव्यंतर और ज्योतिषी देवों का अवधिज्ञान सम्बन्धी क्षेत्र असंख्यात हजार योजन होता है। नौ प्रकार के भबनवासी, आठ प्रकार के व्यंतर और पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों के उत्कृष्ट अवधिज्ञान का क्षेत्र असूरकुमारों के उत्कृष्ट अवधिज्ञान के क्षेत्र से संख्यातगुणाहीन है। क्योंकि हजार की अपेक्षा करोड संख्यात गुणा होता है। असुरकुमारों का उत्कृष्ट काल असंख्यात वर्ष है तथा ज्योतिषियों तक शेष देवों का (नौ प्रकार के भवनवासी, आठ प्रकार के व्यंतर और पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों का भी उत्कृष्ट अवधिज्ञान काल असंख्यात वर्ष होता है तथापि वह असुरकूमारों के उत्कृष्ट काल की अपेक्षा संख्यातगणाहीम होता है। भवनवासी. वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवों का अवधिज्ञान सम्बन्धी क्षेत्र नीचे की ग्रोर अल्प होता है किन्त तिरछा बहत होता है। इसके अतिरिक्त भवनवासी देव ऊपर देखते हए उत्कृष्ट रूप से मेरु की चलिका के अन्तिम भाग तक देखते हैं।'
कम्पवासी देवों के अवधिमान का कथन सक्कीसारखा पढ़मं बिवियं तु सरपक्कुमारमाहिदा । तदियं तु बम्हलांतब सुषकसहस्सारया तुरियं ॥४३०॥ पारगदपारगदवासी प्रारण तह अच्चुदा य पस्संति । पंचमखिदिपेरंत छट्टि गेवेज्जगा देवा ॥४३१॥' सम्वं च लोयगालि पस्संति अणुत्तरेसु जे देवा । सक्खेते य सकम्मे रूबगदमतभागं च ॥४३२॥ कप्पसुराणं सगसगरोहोखेतं विविस्ससोवचयं । प्रोहीदवपमाणं संठाविय धुवहरेण हरे ॥४३३।। सगसगखेत्तपदेससलायपमारणं समप्पदे जाव ।
तस्थतरणचरिमखडे तत्थतरोहिस्स दध्वं तु ।।४३४॥ १. धवल पु. १३ पृ. ३१४-३१६ तक । २. धवल पु. ६ पृ. २६: पु. १३ पृ. ३१; म.बं. १ पृ. २२; मूलाचार अधिकार १२ गा १७७१ ३. धवल पु. १ पृ २६, पु. १३ पृ. ३१८ : म. बं. पु. १ पृ. २३, मू. चार १२ गा. १०८। ४, धवल पु. १ पृ. २६, पु. १३ पृ. ३१६; म. बं. १ पृ.३।।
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५०८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथ। ४३०-४३६
सोहम्मीसारणारणमसंखेज्जानो हु वस्सकोडीयो । उरिमकप्पचउक्के पल्लासंखेज्जभागो दु ॥४३५॥ तत्तो लांतवकपप्पहुबी सवत्थसिद्धिपेरंतं । किचूरण-पल्लमेतं कालपमाणं जहाजोगं ॥४३६।।
गाथार्थ-'सषकीसारणा' सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के देव अवधिज्ञान के द्वारा पृथिवी (नरक) पर्यन्त देखते (जानते ) हैं । सानत्कुमार माहेन्द्र के देव दुसरी पृथिबी तक जानते हैं। ब्रह्म-ब्रह्मोत्तरलान्ताय-फापिष्ठ स्वर्ग के देव तोसगै पृथिवी तक जानते हैं। शुक्र-महाशुक्र-शतार-सहस्रार स्वर्ग के देव चौथी पृथिवी (नरक) तक जानते हैं ।।४३०।। प्रानत-प्राणतबासी तथा प्रारण-अच्युतनिवासी देव पाँचवीं पृथिवी (नरक) तक जानते हैं और वेबकवासी देव छठी पृथिवी नरक तक जानते हैं।।४३१|| अनुत्तर के देव अवधिज्ञान द्वारा सर्व लोकनाली को जानते हैं। कल्पवासी सब देव अपने-अपने क्षेत्र के जितने प्रदेश हों उतनी बार अपने-अपने विनसोपचय सहित अवधि ज्ञानावरग कर्म के द्रव्य में ध्र बहार का भाग देने पर जो अन्तिम एक भाग लब्ध पाता है, उसको जानते हैं ।।४३२-४३३-४३४।। सौधर्म और ऐणान स्वर्ग के देवों की अवधि का काल असंख्यात कोटि वर्ष है। इसके ऊपर चार कल्पों में अवधिकाल पल्य का असंख्यातवाँ भाग है । उसके मागे लान्तब स्वर्ग से लेकर सर्वार्थ सिद्धि तक अवधि विषयक काल यथायोग्य कुछ पल्य मात्र है ।।४३५-४३६॥
विशेषार्थ-सौधर्म और ईशान कल्पवासी देव अपने विमान के उपरिम तल-मण्डल से लेकर प्रथम पृथिवी (नरक) के नीचे के तल तक डेढ़ राज् लम्बे और एक राज विस्तारवाले क्षेत्र को देखते हैं । सानतकुमार और माहेन्द्र कल्पवासी देव अपने विमान के ध्वजादण्ड से लेकर नीचे दूसरी पृथिवी के नीचे के तल भाग तक चार राजू लम्बे और एक राजू विस्तारबाले धोत्र को जानते हैं । ब्रह्मब्रह्मोत्तर कल्पवासी देव अपने विमान शिखर से लेकर नीचे तीसरी पृथिवी के तल भाग तक साढ़े पाँच राजू लम्बे और एक राज विस्तारवाले क्षेत्र को जानते हैं । लान्तव और कापिष्ठ विमानवासी देव अपने विमान शिस्त्रर से तीसरी पृथित्री के नीचे के तल तक छह राजू लम्बे और एक राजू विस्तार वाले क्षेत्र को जानते हैं।
शङ्का-ये क्षेत्र एक राज विस्तारवाले हैं, यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान-मागे के गाथा सूत्र (४३२) में प्रयुक्त 'सव्वं च लोयरपालि' पदों की अनुवृत्ति प्राने से यहाँ सिहावलोकन न्याय से 'छह राजू प्रायत सब लोक नाली को देखते हैं यह इस सूत्र का अर्थ सिद्ध है। इसीसे उक्त क्षत्रों का विस्तार एक राज जाना जाता है।
शुक्र और महाशुक्र कल्पवासी देव अपने विमान के शिखर से लेकर चौथी पृथिवी के तलभाम तक साढ़े सात राजू लम्बी और एक राजू विस्तार वाली लोकनाली को देखते हैं । शतार और सहस्रार कल्पवासी देव अपने विमान के शिस्नर से लेकर नोचे चौथी पृथिवा के नीचे के तल भाग तक प्राट राजू
१. धवले पु. ११ पृ. ३१६-३१७ ।
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शान मागा,५७६
लम्बी और एक राजू विस्तारवाली लोकनाली को देखते हैं । पानत और प्राणत कल्पवासी देव अपने विमान के शिखर से लेकर नीचे पांचवीं पृथिवी के नीचे के तलभाग तक साढ़े नौ राज लम्बी और एक राज विस्तारवाली लोकनाली को देखते हैं । पारण और अच्युत ब.ल्पवासी देव अपने विमान के शिखर से लेकर नीचे पांचवीं पृथिवी के नीचे के तलभाग तक दम राजु लम्बी और एक राजू विस्तार वाली लोय. नाली को देखते हैं। नौ ग्रेवेयक विमानवासी देव अपने-अपने विमानों के शिखर से लेकर नीचे छठी पृथिवी के नीचे के तलभाग तक साधिक ग्यारह राजू लम्बी और एक राज विस्तार वाली लोकनाली को देखते हैं। नौ अनुदिश और पाँच अन्तर विमानबासी देव अपने-अपने विमान के शिखर से लेकर नीचे निगोदस्थान से बाहर के बातवलय तक कुछ कम चौदह राज लम्बी और एक राजु विस्तारवाली सब लोकनाली को देखते हैं ।
शङ्का- गाथा में नौ अनुदिश का नामोल्लेख वयों नहीं किया गया ?
समाधान-गाथा में 'सव्वंच पद है। यहाँ जो 'च' शब्द है वह अनुक्त अर्थ का समुच्चय करने के लिए है। इससे गाथासूत्र में अनिर्दिष्ट नौ अनुदिशवासी देवों का ग्रहण किया है। लोकनाली पाद अन्तदीपक है ऐमा जानकर उसकी सर्वत्र योजना करनी चाहिए। यथा-सौधर्म कल्पवासी देव अपने विगान के शिखर से लेकर पहली पृथिवी तक सब लोकनाली को देखते हैं । सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पबासी देव दूसरी पृथित्री तक सबलोकनाली को देखते हैं । इसी प्रकार आगे सर्वत्र कथन करना चाहिए, कारण कि इसके बिना नी अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानवासी देवों के सब लोकनाली विषयक अवधिज्ञान प्राप्त होता है, परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि प्रथम तो अपने-अपने विमानों के शिखर से ऊपर के विषय का ग्रहण किसी को नहीं होता। दूसरे, नौ अनुदिश और चार अनुत्तर विमानवासी देवों के सातवीं पृथिवी के अधस्तन तल से नीचे का ग्रहण नहीं होता। तीसरे, सर्वार्थ सिद्धिविमानवासी देव भी सब लोकनाली को नहीं देखते हैं, क्योंकि उनके अपने विमानशिखर से ऊपर का कुछ कम इक्कीस योजन [१२+८+ (१--४२५}] बाहल्यवाले एक राजू प्रतररूपोत्र के अतिरिक्त सब लोकनाली क्षेत्र का ग्रहण होता है।
शङ्का-नौ अनुदिश और चार अनुत्तर विमानवासी देव सातवीं पृथिवी के अधस्तन तल से नीचे नहीं देखते हैं, यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान - यह सूत्राविराद्ध प्राचार्य के बचन से जाना जाता है।'
नौ अनुदिश और चार अनुत्तर विमानवासी देव तथा सर्वार्थ सिद्धि विमानवासी देव अपने विमानशिखर से लेकर अन्तिम वातवलय तक एक राजु प्रतर विस्ताररूप सब लोकनाली को देखते हैं ऐसा कितने ही प्राचार्य उक्त गाथा सूत्र (४३२) का व्याख्यान करते हैं, सो उसको जानकर कशन करना चाहिए ।
अपने-अपने क्षेत्र को शलाकारूप से स्थापित करके अपने-अपने कर्म में मनोद्रव्यवगंगा के
१. धवल पृ. १३ पृ. ३१ । २. धवल पु. १३ पृ. ३१६ । ३. धवल पृ. १३ पृ ३२० । पृ. ३२० ।
४. धवल पृ. १३
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५१०/गो. सा. जीव काण्ड
गाया ४३०-४३६
अनन्तबें भाग की, जितनी शलाकायें स्थापित की हैं, उतनी बार भाग देने पर जो अन्तिम रूपगत पुदगल प्राप्त होता है, वह उस-उस देव के अवधिज्ञान का विषय होता है। यहाँ पर 'च' प्राब्द अनुक्त अर्थ का समुच्चय करने के लिए आया है। इससे मनोद्रव्य वर्गणा के अनन्तवे भाग रूप भागाहार तदवस्थित रहता है, यह सिद्ध होता है।
सौधर्म-ऐशान स्वर्ग के देवों के अवधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य - लोक के संख्यातवें भाग प्रमाण अपने क्षेत्र को शलाकारूप से स्थापित करके और मनोद्रव्यवर्गणा के अनन्तवें भागका बिरतन करके विरलित राशि के प्रत्येक एक के प्रति सब द्रव्य को समान खण्ड करके देने पर शलाका राशि में से एक आकाशान कर देना चाहिए । पुनः यहाँ विरलित राशि के एक अंक के प्रति जो राशि प्राप्त होती है उसे उक्त विरलन राशि के ऊपर समान खण्ड करके स्थापित करें और शलाकाराशि में से दूसरी शलाका कम करें। यह क्रिया सब शलाकाओं के समाप्त होने तक करें। यहाँ सबसे अन्तिम क्रिया के करने पर जो एक अंक के प्रति प्राप्त पुदगल द्रव्य निष्पन्न होता है उसकी संज्ञा रूपगत है। उसे सौधर्म और ऐशान कल्प के देव अपने अवधि ज्ञान द्वारा देखते हैं। इसी प्रकार सब देवों में अवधिज्ञान के विषयभूत द्रव्य के प्रमाण का कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपने-अपने क्षेत्र को शलाका रूप से स्थापित कर यह क्रिया करनी चाहिए।
शङ्का - यह द्रव्य देत्रों में क्या उत्कृष्ट है या अनुरकृष्ट है ?
समाधान-- नहीं. क्योंकि देव जाति विशेष के कारण ज्ञान के प्रति समान भाव को प्राप्त होते हैं, अतएव उनमें अवधिज्ञान के द्रव्य का उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट भेद नहीं होता।'
शङ्का-यह सूत्र कल्पवासी देवों की ही अपेक्षा से है, शेष जीवों की अपेक्षा से नहीं है. यह किस प्रमाण से जाना जाता है?
समाधान—यह तिर्यंच और मनुष्यों में अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्र का कथन करने वाले सूत्र (गाथा सूत्र ३७८) से जाना जाता है और वार्मरण शरीर को जाननेवाले जीवों के अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस कथन का 'असंखेज्जा दीव-समुद्दा' इस गाथा सूत्र (४०७) के साथ विरोध आता है।
सौधर्म और ऐशान कल्पवासी देवों के काल की अपेक्षा अवधिज्ञान का विषय असंख्यात करोड़ वर्ष है। सानतकुमार-माहेन्द्र का काल की अपेक्षा अवधिज्ञान विषय पल्योपम के असंख्यातवें भाग है। मह्म-ब्रह्मोत्तर के अवविज्ञान का विषय काल की अपेक्षा पल्यापम के असंख्यातव भाग है लान्तव से लेकर उपरिम |वेयक तक के देवों का काल विषय कुछ कम पल्योरम प्रमाण होता है।
राजा--ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर कल्पों में काल पल्य का असंख्यातवां भाग कहा गया है। फिर यहाँ उनमे कुछ अधिक क्षेत्र को देखनेवाले लान्तव और कापिष्ट के देवों में उक्त काल कुछ कम पल्य प्रमाण भे हो सकता है ? 3
१. धवल पु. १३ पृ. ३२१ । २. धवल पु. १३ पृ. ३२२ । ३. धवल पृ. १३ पृ. ३१७ ।
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ज्ञानमार्गा/ ५११
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भिन्न स्वभाव वाले विविध कल्पों में अपने कल्प के भेद से अवधि ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम भिन्न होने में कोई विरोध नहीं है। परन्तु क्षेत्र की अपेक्षा काल के लाने पर सौधर्म कल्प से लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों तक उक्त काल पस्योपम का संख्यातवाँ भाग होना चाहिए, क्योंकि एक घनलोक के प्रति यदि एक पल्यकाल प्राप्त होता है तो धनलोक के संख्यातवें भाग के प्रति क्या लब्ध होगा ? इस प्रकार शशिक करके फलराशि से गुणित इच्छा राशि में प्रभाणराशि का भाग देने पर पल्योपम का संख्यातवाँ भाग काल उपलब्ध होता है । परन्तु यह सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा गुरु का उपदेश नहीं पाया जाता । अतः क्षेत्र की अपेक्षा किये विना जहाँ जी काल कहा है, उसका ग्रहण करना चाहिए।"
गाथा ४३७-४४०
अथवा ये सभी देव काल की अपेक्षा कुछ कम एक पल्य के भीतर प्रतीत अनागत द्रव्य को जानते हैं। यह भी गुरु का ही उपदेश है। इस विषय का कथन करने वाला वर्तमान काल में कोई सूत्र नहीं है।
जोइसितारोही खेत्ता उत्ता प होंति घणपदरा ।
कष्पसुराणं च पुरषो विसरित्थं प्रायदं होदि ॥४३७||
गाथार्थ --- विशेषार्थ सहित - भवनवासी व्यन्तर श्रीर ज्योतिषी देवों का प्रवधिविषयक क्षेत्र घन व प्रतर रूप नहीं है, क्योंकि गोलाकार तिर्यक रूप क्षेत्र अधिक है और ऊर्ध्वं अधः अल्प है । कल्पवासी देवों का अधिक्षेत्र प्रायत की अपेक्षा विसा है तिर्यग रूप से सभी विमानवासी देवों का क्षेत्र राजूप्रतर है । अर्थात् तियंग रूप अल्प है और ऊपर नीचे की तरफ अधिक है। जैसे सौधर्म से ईशान का क्षेत्र ऊपर से नीचे डेढ़ राजू तथा सानतकुमार माहेन्द्र ऊपर से नीचे चार राजू इत्यादि जानते हैं । अर्थात् श्रायत विस है। किन्तु तिर्यग् रूप सदृश है क्योंकि सबका तिर्यग क्षेत्र एक राज् प्रतर प्रसारण है || ४३७॥
॥ इति श्रवधिज्ञानम् ॥
मन:पर्ययज्ञान का स्वरूप
चितियमचितियं या श्रद्ध ं चितिय मरणेय भेयगयं । मापज्जवं ति उच्चइ जं जागइ तं खु गरलोए ||४३८ || मरणपज्जवं च दुविहं उजुविउलमदित्ति उजुमदी तिविहा । उज्जुमरात्रयणे काए गदत्थविसयात्ति रियमेर ||४३६ ॥ विलमदोषिय छद्धा उजुगाणुजुवयरणकायचित्तमयं । प्रत्थं जारगदि जम्हा सद्दत्यगया हु तारणत्था ||४४० ॥
१. धवल पु. १३ पृ. ३१८ । २. धवल पु. १३ पृ. ३२० ३. धवल यु. १ पृ. ३६०, प्रा. पं. सं. अ. १
मा. १२५ ।
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५१२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३३८-४४०
गाथार्थ –चिन्तित-प्रचिन्तित, व अर्धचिन्तित इत्यादि अनेक भेदयुक्त द्रव्य को मनुष्यलोक में जो जानता है, वह मनःपर्यय जान मन गया ।।३॥ यशान दो प्रकार का है---ऋजुमति व विपुलमति। उनमें से ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान तीन प्रकार का है- ऋजुमनगत, ऋजुवचनमत, ऋजुकायगत ज्ञेय (अर्थ) को नियम से विषय करता है ।।४३६।। विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान छह प्रकार है। ऋजुमनगत, ऋजुबचनगत व ऋजुकायगत चिन्तन किये जा रहे अर्थ (ज्ञेय) को बिषय करने वाले तथा कुटिल मन वचन काय के द्वारा चिन्तन किये जाने वाले ज्ञान की अपेक्षा विपुलमति के छह भेद हो जाते हैं। मनःपर्यय ज्ञान के विषय शब्दगत व अर्थगत दोनो ही प्रकार के होते हैं ।।४४०॥
विशेषार्थ-परकीय मनोगत अर्थ मन कहलाता है ।' 'पर्यय' में परि शब्द का अर्थ सब ओर, और अय शब्द का अर्थ विशेष है। मन का पर्यय मनःपर्यय है। उस मन को पर्यायों अर्थात् विशेषों को मनःपर्यय कहते हैं। मन की पर्याय को मनः पर्यय कहते हैं। तथा उसके साहचर्य से जान भी मनःपर्यय, कहलाता है। इस प्रकार मनःपर्यय रूप जो ज्ञान है वह मन पर्थयज्ञान है। मन की पर्यायों अर्थात् विशेषों को जो ज्ञान जानता है वह मनःपर्यय ज्ञान है । मनःपर्यय का ज्ञान मन:पर्यय ज्ञान है। इस प्रकार यहाँ षष्ठी तत्पुरुष समास है ।
शा--सामान्य को छोड़कर केवल विशेष का ग्रहण करना सम्भव नहीं है। क्योंकि ज्ञान का विषय केवल विशेष नहीं होता, इसलिए सामान्य-विशेषात्मक वस्तु को ग्रहण करनेवाला मनःपर्यय. ज्ञान है, ऐसा कहना चाहिए?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह हम को इष्ट है। शङ्का- तो मनःपर्ययज्ञान के विषयरूप से सामान्य का भी ग्रहण होना चाहिए। समाधान-नहीं, क्योंकि सामर्थ्य से उसका ग्रहण हो जाता है।"
अथवा मनःपर्यय यह संज्ञा रूढिजन्य है, इसलिए चिन्तित और अचिन्तित दोनों प्रकार के अर्थों में (ज्ञेय में) विद्यमान ज्ञान को विषय करने वाली यह संज्ञा है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । अवधिज्ञान के समान यह ज्ञान भी प्रत्यक्ष है। क्योंकि यह इन्द्रियों से नहीं उत्पत्र होता है।
अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्यय ज्ञान नियम से अल्प है, किन्तु यह मन:पर्यय क्योंकि संयम के निमित्त से उत्पन्न होता है, इसलिए अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्यय ज्ञान महान है, यह वतलाने के लिये इसका अवधिज्ञान के बाद निर्देश किया है।
शङ्का-यदि संयममात्र मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति का कारण है तो समस्त संयमियों के मनःपर्ययज्ञान क्यों नहीं होता? - - - - १.स. मि.१/४ धवल पु.६ पृ. २८, पू.१३ पृ.२१२ व ३२८ । २. धबल पू.१३ पृ. ३२८ । ३. धवल पु. ६ पृ. २८ । ४. जयधवल पु. १ पृ. १९-२० | ५. धवल पु.९ पृ. २८ । ६. धवल पु. १३ पृ. ३२८ । ७. धवल पु. १३ पृ. २१२। ८. धवल पु. १३ पृ. २१२ । ६. धवल पु. १३ पृ. २१३ ।
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गाथा ४३८-४०
जानमार्गरगा/५१३
समाधान-यदि केवल संयम हो मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति का कारण होता तो ऐसा भी होता, किन्तु मनःपर्ययशान की उत्पत्ति के प्राय भी कारण हैं, इसलिए उन दुसरे हेतुओं के न रहने से समस्त संयतों के मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता ।
शङ्का- वे दूसरे कारण कान से है ?
समाधान—विशेष जाति के द्रव्य, क्षेत्र और कालादि अन्य कारण हैं, जिनके बिना सभी संयमियों के मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता ।'
शङ्का--देशविरति आदि नीचे के गुणस्थानवर्ती जीवों के मनःपर्यय ज्ञान क्यों उत्पन्न नहीं
होता?
समाधान नहीं, अयोंकि संयमासंयन और असंयम के साथ मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है।
वह मनःपर्ययज्ञान ऋजुमति और बिपुलमति के भेद से दो प्रकार का है। तथा ऋजूमति और विपुलमति विशेषगों के द्वारा विशेषता को प्राप्त हुए मनःपर्ययज्ञान के एकत्व का अभाव है। जो ऋजुमतिमन:पर्यय ज्ञान तीन प्रकार का है वह ऋजुमनोगत को जानता है, ऋजु वचनगत को जानता है और ऋजु कायगत को जानता है ॥६२।।'
शङ्का--मन को ऋजुपना कैसे प्राता है ?
समाधान-जो अर्थ जिस प्रकार से स्थित है उसका उस प्रकार से चिन्तन करने वाला मन ऋजु है और उससे विपरीत चिन्तन करने वाला मन अनजु है।
शङ्का-वचन में ऋजुपना कैसे आता है ?
समाधान—जो अर्थ जिस प्रकार से स्थित है उस-उस प्रकार से ज्ञापन करने वाला वधन ऋज़ है तद् विपरीत वचन अनृजु है ।'
शङ्का- काय में ऋजुपना कैसे प्राता है ?
समाधान -जो अर्थ जिस प्रकार से स्थित है उस को उसी प्रकार से अभिनय द्वारा दिखलाने बाला काय ऋज़ है और उससे विपरीत काय अन्जु है।
उनमें से जो ऋजु अर्थात् प्रगुरण होकर मनोगत अर्थ को जानता है, वह ऋजुमति मनः पर्यय ज्ञान है । वह मन में चिन्तवन किये गये पदार्थ को ही जानता है । वह अचिन्तित, अर्धचिन्तित और विपरीतरूप से चिन्तित अर्थ को नहीं जानता है।
१. धवल पू. १ पृ. ३६७। २. पवल पु. १पृ. ३६६ । ३. जमघवल पु. १३. २०: पवन पु. ६ पृ. २८ । ४. "उजु-विउल मदि बिसेसरणेहि जिसेसिदमण-पज्जवणारगरस एयलाभादेरण" [धवल पु. १३ पृ. ३२६] । ५. धवल पु. १३ पृ. ३२६ मूत्र ६२ । ६. धवल पु. १३ पृ. ३३० ।
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५१४ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४३८-४४०
जो ऋजु प्रर्थात् प्रगुण होकर बिचारे गये व सरल रूप से ही कहे गये अर्थ को जानता है वह भी ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान है । यह नहीं बोले गये, आधे बोले गये और विपरीत रूप से बोले गये अर्थ को नहीं जानता है, क्योंकि जिस मन:पर्यय ज्ञान में मतिऋजु है वह ऋजुमतिमन:पर्यय ज्ञान है, ऐसी इसकी व्युत्पत्ति है ।"
शङ्का - ऋजुवचनगत मन:पर्ययज्ञान को ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान संज्ञा नहीं प्राप्त होती ? समाधान- नहीं, क्योंकि यहाँ पर भी ऋजुमन के बिना ऋजु वचन की प्रवृत्ति नहीं होती । शङ्का - चिन्तित अर्थ को कहने पर यदि जाना जाता है तो मन:पर्यय ज्ञान को श्रुतज्ञान प्राप्त
होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि यह राज्य या यह राजा कितने दिन तक समृद्ध रहेगा ? ऐसा चिन्तन करके ऐसा ही कथन करने पर यह ज्ञान चूंकि प्रत्यक्ष से राज्यपरम्परा की मर्यादा और राजा की आयुस्थिति को जानता है, इसलिए इस ज्ञान को तान मानने में विरोध आता है ।
जो ऋजुभाव से विचार कर एवं ऋरूप से अभिनय करके दिखाये गये अर्थ को जानता है वह भी ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान है, क्योंकि ऋजुमति के बिना काय की क्रिया के ऋजु होने में विरोध आता है।
शङ्का - यदि मन:पर्ययज्ञान इन्द्रिय, नोइन्द्रिय और योग आदि की अपेक्षा किये बिना उत्पन्न होता है तो वह दूसरों के मन, वचन और काय के व्यापार की अपेक्षा किये बिना ही क्यों नहीं उत्पन्न होता है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान की उस प्रकार से उत्पत्ति देखी जाती है । शङ्का ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान उसकी अपेक्षा किये बिना क्यों नहीं उत्पन्न होता ? समाधान- नहीं, क्योंकि मन:पर्यय ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की यह विचित्रता है।
शङ्का - ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान मन से प्रचिन्तित, वचन से अनुक्त और अनभिनीत अर्थात् शारीरिक चेष्टा के अविषयभूत अर्थ को क्यों नहीं जानते हैं ?
समाधान- नहीं जानते, क्योंकि उसके विशिष्ट क्षयोपशम का प्रभाव है ।
दूसरे की मति में स्थित पदार्थ मति कहा जाता है। विपुल का अर्थ विस्तीर्ण है। विपुल है मति जिसकी वह विपुलमति कहा जाता है । 3
जो विपुल मतिमनः पर्यय ज्ञान है वह छह प्रकार का है— ऋजुमनोगत को जानता है, प्रमृजुमनोगत को जानता है, ऋजुवचनगत को जानता है, अनृजुवचनगत को जानता है, ऋजुकायगत को जानता है और अनुजुकायगत को जानता है ।
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९. धवल पु. १३ पृ. ३३० ॥
२. चवल पु. १३ पृ. २३१
३. घ. पु. ६ पृ. ६६
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ज्ञानमार्ग/५१५
यथार्थं मन, वचन और काय का व्यापार ऋजु कहलाता है। तथा संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूप मन, वचन और काय का व्यापार श्रनृजु कहलाता है। अर्धचिन्तन या श्रचिन्तन का नाम अनव्यवसाय है । दोलायमान ज्ञान का नाम संशय है । अयथार्थ चिता का नाम विपर्यय है । विचार करके जो भुल गये हैं उसे भी वह ज्ञान जानता है। जिसका भविष्य में चित्तवन करेंगे उसे जानता है, क्योंकि अतीत और अनागत पर्यायों का अपने स्वरूप से जीव में गाया जाना सम्भव है ।"
गाथा ४४१-४४४
मन:पर्ययज्ञानसंग के हो होगा है और संयत मनुष्य ही होते हैं अतः मन:पर्यय ज्ञानी मनुष्यलोक में ही होते हैं। मनुष्य नरलोक में ही होते हैं, बाहर नहीं होते, क्योंकि प्रतीत काल में भी पूर्व के वैरी देवों के सम्बन्ध से भी मानुषोत्तर पर्वत के आगे मनुष्यों का गमन नहीं है । मनः पर्यय ज्ञान के विषयक्षेत्र का कथन गा. ४५५ - ४५६ में किया जाएगा।
मन:पर्ययज्ञान तो मतिज्ञान पूर्वक ही होता है, किन्तु अवधिज्ञान अवधिदर्शन पूर्वक होता है
तियकालविसयरूवि चितितं वट्टमाण जीवेण ।
उजु मदिराणं जापदि भूदभविस्सं च विउलमदी ||४४१ ||
गाथार्थ - - वर्तमान जीव के द्वारा चिन्त्यमान त्रिकालविषयक रूपी द्रव्य को ऋजुमति मनः पर्ययज्ञानो जानता है, किन्तु विपुल-मति मन:पर्ययज्ञानी भूत और भविष्यत् द्रव्य को भी जानता है ।। ४४१ ।।
विशेषार्थ ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान मन में चिन्तवन किये गये पदार्थ को ही जानता है, अचिन्तित पदार्थ को नहीं, किन्तु विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान चिन्तित व प्रचिन्तित ( जिसका भूत में चितवन हो चुका या भविष्य में चिन्तवन होगा ) ऐसे कालवर्ती रूपी द्रव्य ( पुद्गल व संसारीजीव) ४ को भी जानता है।" इसका विशेष कथन गा. ४४८, ४४६ व ४५० में किया जाएगा।
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मन:पर्ययज्ञान किन प्रदेशों से उत्पन्न होता है नया द्रव्य मन के श्राकार आदि का कथन सन्वंगअंगसंभवचिण्हा दुष्पज्जदे जहा ओहो । मरणपज्जयं च दध्वमरणादो उप्पज्जदे गियमा ||४४२॥ हिवि होदि हु बध्यमणं वियसिय अट्ठच्छदारविवं था । अङ्गोबंगुदयादो मग्रखंधदो रियमा ।।४४३ ।। रगोइंदियत्ति सण्णा तस्स हत्रे सेसइंदियाणं वा । वत्तत्ताभावादो मामरा पज्जं च तत्थ हवे ||४४४ ||
१. ध. पु. १३ पृ. २४० ॥ २. " ती काले पुन्ववदरिषदेव संबंधेरण त्रि माणुसुत्तरमेलादो पन्दो मणुसा गमरणाभावादो ।" [घ.पू. ७ पृ. ३८०] । ३. "मशापज्जवराणं मदि पृथ्वं नेव, मोहीगाणं पुरुष श्रोहिदमण पुव" [ श्र.पु. ६ प्र. २९ ] | ४. "संसारी जीव मूर्त है" [ध.पु. १३ पृ. ३३३ । ५. ध. पु. ६ पृ. २८ ।
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५१६ गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४४२-४४४
गाथार्थ – जिस प्रकार अवधिज्ञान शंखादि शुभ चिह्नों से युक्त समस्त प्रङ्ग से उत्पन्न होता है, उस प्रकार मन:पर्ययज्ञान जहाँ पर द्रव्य मन होता है उन्हीं प्रदेशों से उत्पन्न होता है ॥४४२|| ग्राङ्गोपाङ्गनामकर्म के उदय से मनोवर्गणा के स्कन्धों के द्वारा हृदयस्थान में नियम से विकसित आठ पांखडी के कमल के श्राकार में द्रव्यमन उत्पन्न होता है || ४४३ || भी है। क्योंकि शेष इन्द्रियों के समान द्रव्यमन व्यक्त नहीं है । मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न होता है || ४४४ ||
उस द्रव्यमन की नोइन्द्रिय संज्ञा द्रव्यमन के होने पर ही भावमन तथा
विशेषार्थ - शङ्का - जिस प्रकार अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशमगत जीवप्रदेशों के संस्थान का (शंखादि चिह्नों का ) कथन किया है, उसी प्रकार मन:पर्यय ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशमगत जीवप्रदेशों के संस्थान का कथन क्यों नहीं करते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि मन:पर्ययज्ञानावरण का क्षयोपशम विकसित बाट पांडयुक्त कमल जैसे प्राकार वाले द्रव्यमन प्रदेशों में उत्पन्न होता है, उसमे इसका पृथग्भूत संस्थान नहीं होता ।"
मन अर्थात् मतिज्ञान के द्वारा मानस को अर्थात् मनोवर्गणा के स्कन्धों से निष्पन्न हुई नोइन्द्रिय को ग्रहण करके पश्चात मन:पर्ययज्ञान के द्वारा जानता है।
शंका- नोइन्द्रिय अतीन्द्रिय है, उसका मतिज्ञान के द्वारा कैसे ग्रहण होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि ईहारूप लिंग के अवलम्बन के बल से अतीन्द्रिय अर्थों में भी मतिज्ञान की प्रवृत्ति देखी जाती है। अथवा मन अर्थात् मतिज्ञान के द्वारा भानस अर्थात् मतिज्ञान के विषय को ग्रहण करके पश्चात् मनःपर्यय ज्ञान प्रवृत्त होता है । "
प्रवधिज्ञान व मन:पर्ययज्ञान संज्ञी जीवों के ही होता है । मन सहित जीव संज्ञी हैं । मन दो प्रकार का है, द्रव्यमन व भावमन । उनमें पुद्गलविपाकी अंगोपांग नामकर्म के उदय की अपेक्षा रखने वाला द्रव्यमन है। तथा वीर्यान्तराय और नो इन्द्रियावरण ( मतिज्ञानावरण) कर्म के क्षयोपराम रूप श्रात्मा में जो विशुद्धि उत्पन्न होती है, वह भावमन है |
शङ्का - जोव के नवीनभव को धारण करने के समय ही भावेन्द्रियों की तरह भाव मन का भी सत्त्व पाया जाता है, इसलिए जिस प्रकार अपर्याप्तकाल में भावेन्द्रियों का सद्भाव कहा जाता है, उसी प्रकार वहाँ पर भावमन का सद्भाव क्यों नहीं कहा ?
समाधान- नहीं, क्योंकि बाह्य इन्द्रियों के द्वारा जिसके द्रव्यमन ग्रहण नहीं होता, ऐसे भाव मन का अपर्याप्त रूप अवस्था में अस्तित्व स्वीकार कर लेने पर, जिसका निरूपण विद्यमान है, ऐसे द्रव्यमन के सत्र का प्रसंग आजाएगा।
इससे जाना जाता है कि द्रव्य मन के सद्भाव में ही भावमन उत्पन्न होता है और मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो सकता है। किन्तु द्रव्यमन के अभाव में न तो भावमन होता है और न मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हो सकता है ।
१. भ.पु. १२ पृ. ३३१-३३२ ।
६. भ.पु. १३ . ३४१
३. पु. १ पृ. २५६
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गाधा ४४५-४७
ज्ञानमागरणा,५१७
शङ्का-मन को इन्द्रिय संज्ञा क्यों नहीं दी गई ?
समाधान- नहीं, क्योंकि जिस प्रकार शेष इन्द्रियों का वाय इन्द्रियों से ग्रहण होता है उस प्रकार मन का नहीं होता, इसलिए मन को इन्द्र (आत्मा) का लिंग चिह्न) नहीं कह सकने ।।
मरणपज्जवं च पारणं सत्तसु विरदेसु सत्तइड्ढोणं । एगाविजुदेसु हवे बड्दतविसिट्टचरणेसु ॥४४५।। इंदियणोइंदियजोगादि पेक्खित्तु उजुमदी होदि । रिपरवेक्खिय विउलमदी प्रोहि चा होदि खियमेरग ॥४४६।। पडिवादी पुरण पढमा अप्पडिवादी हु होदि बिविया हु ।
सुद्धो पढमो बोहो सुद्धतरो बिदियबोहो दु ॥४४७।। गाथार्थ - सात गुणस्थान वाले संयमी के, मात ऋडियों में से किसी एक ऋद्धि से युक्त या एकाधिक ऋद्धि से युक्त तथा बर्धमान व विशिष्ट चारित्र को धारण करने वाले के मनःपर्ययज्ञान होता है ।।४४५।। इन्द्रिय, मन और योग की अपेक्षा करके ऋजुमनि मनःपर्ययज्ञान होता है। अवधिज्ञान की तरह बिपुलमति मन पर्ययज्ञान इनकी अपेक्षा के बिना नियम से होता है ।।४४६॥ प्रथम अर्थात् ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान प्रतिपाती है। द्वितीय अर्थात् विपुलमति मनःपर्ययज्ञान अप्रतिपाती है। प्रथमबोध (ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान) शुद्ध है। द्वितीय बोध अर्थात् विपुलमति मनःपर्ययजान शुद्धतर होता है ।। ४४७।।
विशेषार्थ-"मणपज्जवणाणी पमत्तसंजद-प्पहडिजाक खीसकसायवीदराग-छदमत्था ति॥१२१॥ मन:पर्ययजानी जीव प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीरणकषाय वीतराग-द्यस्थ गूणस्थान तक होते हैं ।।१२।। पर्याय और पर्यायी में अभेद की अपेक्षा से मनःपर्ययज्ञान का ही मन:पर्ययज्ञानी रूप से उल्लेख किया है। प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरणमंयत, अनिवृत्तिवरणसंयत, सूक्ष्म साम्पराय संयत, उपशान्त मोह और क्षीणमोह अर्थात् छठे गुणस्थान से बारहवें गुरणस्थान तक इन सात गुग्गस्थानों में मनःपर्यय ज्ञानी जीव होते हैं। सयोगकेवली तेरहवे गुणस्थान में और अयोगकेवलो चौदहवें मुणस्थान इन दो गुणस्थानों में मात्र केवलज्ञान होता है, वहां पर क्षायोपशमिक मनःपर्य गजान नहीं होता।
शङ्का-ऋजुम तिमनःपर्ययज्ञान इन्द्रिय, नोइन्द्रिय और मन, वचन, काय के व्यापार की अपेक्षा किये बिना क्यों नहीं उत्पन्न होता? विपुलमति तो उक्त सभी की अपेक्षा किए बिना ही होता है ?
समाधान---नहीं, क्योंकि मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्भ के क्षयोपशम की यह विचित्रता है।' अतः ऋजुमति मनःपर्यय तो इन्द्रियादि की अपेक्षा करके ही होता है।
१. घ पु. १ पृ. २६०-२६१।
२. श्र. पु. १ पृ. ३६६। ३. घ. पृ. १३ पृ ३३१ ।
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५१८ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४४५-४४७
शङ्का - ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानी मन से अचिन्तित, वचन से अमुक्त और अभिनीत (शारीरिक चेष्टा के श्रविषयभूत) अर्थ को क्यों नहीं जानता ?
समाधान- नहीं जानता, क्योंकि उसके विशिष्ट क्षयोपशम का प्रभाव है।"
ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानी अन्विन्तित अनुक्त और अभिनीत अर्थ को नहीं जान सकता, इसलिए ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान को मन, बचन व काय के व्यापार की अपेक्षा करनी पड़ती है । किन्तु विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानी प्रचिन्तित अर्थ को भी जानता है (गो. जी. गा. ४३८) अतः उसे इन्द्रिय, नो इन्द्रिय और योग की अपेक्षा नहीं करनी पड़ती।
शंका- यह ज्ञान मन सम्बन्ध से होता है अतः इसे मतिज्ञान होने का प्रसङ्ग आता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि मन:पर्यय ज्ञान में मन की अपेक्षा मात्र है । यद्यपि वह केवल क्षयोपशम शक्ति से अपना कार्य करता है, तो भी केवल स्व और पर के मन की अपेक्षा उसका व्यवहार किया जाता है। जैसे --' आकाश में चन्द्रमा को देखो' यहाँ आकाश की अपेक्षा मात्र होने से ऐसा व्यवहार किया गया है। अर्थात् यहाँ मन की अपेक्षा मात्र है। दूसरों के मन में अवस्थित अर्थ को यह जानता है, इतनी मात्र यहाँ मन की अपेक्षा है ।
"विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥२४॥ विशुद्धि और अप्रतिपात की अपेक्षा ऋजुमति और विपुलमति इन दोनों मन:पर्ययज्ञानों में अन्तर है । है, किन्तु विपुलमति मन:पर्ययज्ञान विशुद्धतर और प्रतिपाती है। अतः ऋजुमति कम विशुद्ध और प्रतिपाती
उपशान्त
मन:पर्ययज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर ग्रात्मा में जो निर्मलता आती है, वह विशुद्धि है। गिरने का नाम प्रतिपात है और नहीं गिरना श्रप्रतिपात है। कपाय जीव का चारित्रमोहनीय के उदय से संयम - शिखर छूट जाता है जिससे प्रतिपात होता है और क्षीणकषाय जीव के पतन का कारण न होने से प्रतिपात नहीं होता । इन दोनों की अपेक्षा ऋजुमति और विपुलमति में भेद है। ऋजुमति से विपुलमति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भात्र की अपेक्षा विशुद्धतर है । उत्तरोत्तर सुक्ष्म द्रव्य को विषय करनेवाला होने से ही विशुद्धि जान लेनी चाहिए, क्योंकि इनका उत्तरोत्तर प्रकृष्ट क्षयोपशम पाया जाता है, इसलिए ऋजुमति से विपुलमति में विशुद्धि अधिक है । *
प्रतिपात की अपेक्षा भी विपुलमति विशिष्ट है, क्योंकि इसके स्वामियों के प्रवर्द्धमान चारित्र पाया जाता है । परन्तु ऋजुमति प्रतिपाती है, क्योंकि इसके स्वामियों के कषाय के उदय से घटता हुआ ( हीयमान) चारित्र पाया जाता है । *
ऐसा नियम है कि विपुलमति मन:पर्ययज्ञान उसी के होता है जो तद्भव मोक्षगामी होते हुए भी क्षपकक्षणी पर चढ़ता है, किन्तु ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है। वह तद्भवमोक्षगामी के भी हो सकता है और अन्य के भी हो सकता है। इसी प्रकार जो क्षपक श्रेणी
१. प. पु. पृ. ६३ । २. सर्वार्थसिद्धि अ. १ सू. ६ । ३. त.सू.अ. १ । ४. व ५, सर्वार्थसिद्धि . १ लू. २४ ।
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गाथा ४४-४४३
ज्ञानमार्गा /५१६
पर चढ़ता है उसके भी हो मकता है और जो क्षपक श्रेणी पर नहीं चढ़कर उपशमश्रेणी पर चढ़ता है या नहीं भी चढ़ता है उसके भी हो सकता है। इस प्रकार ऋज़मति मनःपर्यय ज्ञान और विपुल मति मनःपर्ययज्ञान का परस्पर विशुद्धि व प्रतिपात की अपेक्षा कथन किया गया।
परमरणसिट्रियमः ईहामविरणा उजद्रियं लहिय । पच्छा पच्चक्खेरग य उजुमदिरणा जाणदे रिणयमा ॥४४८।। चितियचितियं वा अद्ध चितियमयभेयगयं । प्रोहि वा विउलमदी लहिऊरण विजारगए पच्छा ।।४४६।।
गाथार्थ-दूसरे के मन में ऋजु स्थित अर्थ को ईहा मतिज्ञान के द्वारा ग्रहण करके पीछे ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान के द्वारा नियम से प्रत्यक्ष जानता है ।।४४८॥ चिन्तित, अचिन्तित, अर्घचिन्तित इत्यादि अनेक भेदों से युक्त पदार्थ को ग्रहण करके पश्चात् विपुलमति मनःपर्ययज्ञान अवधिज्ञानबत् प्रत्यक्ष जानता है ।। ४४६।।
विशेषार्थ- मतिज्ञान के द्वारा दूसरों के मानस (मन में उत्पन्न हुए चिह्न) को ग्रहण करके ही मनःपर्ययज्ञान के द्वारा मन में स्थित अर्थ को जानता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है।' मन अर्थात् मतिज्ञान के द्वारा मानस को अर्थात् मनोवर्गणा के स्कन्धों से निष्पन्न हुई नोइन्द्रिय को ग्रहण करके पश्चात् मनःपर्ययज्ञान के द्वारा जानता है।
शङ्का · नोइन्द्रिय अतीन्द्रिय है, उसका मतिज्ञान के द्वारा कैसे ग्रहण होता है ?
समाधान--नहीं, क्योंकि ईहारूप लिंग के अवलम्बन के बल से अतीन्द्रिय अर्थों में भी मतिज्ञान की प्रवृत्ति देखी जाती है। अथवा मन अर्थात् मतिज्ञान के द्वारा मानस अर्थात् मतिज्ञान के विषय को ग्रहण करके पश्चात् मनःपर्ययज्ञान प्रवृत्त होता है, ऐसा कथन करना चाहिए।'
ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान चिन्तित अर्थ को भी जानता है, किन्तु विपुलमति ज्ञान चिन्तित, अचिन्तित और अर्धचिन्तित अर्थ को भी जानता है। पैतालीस लाख योजन के भीतर विद्यमान चिन्तित, अर्धचिन्तित व अचिन्तित अर्थ को प्रत्यक्ष जानता है।'
इसका विशेष कथन गाथा ४३८ के विशेषार्थ में किया जा चुका है।
१. "मदिरणागेण पति मणं घेलूगा चेत्र भागपज्जवणाणण मरणम्मिट्टिदप्रत्ये जागदि ति मगिदं होदि ।" [घ.पु.१३ पृ. ३३.२ । २. "मणेश मदिरगाणेग, मागासं गोइदियमणोवग्गणस्खंघरिणत्तिदं. पडिबिदइत्ता घेत्तण पच्छा मरण पज्जवरणारोण जागादि । गोइदियमदिदियं काध मदिरगाणेगा घेण्पदे ? ण, ईहालिगाव भबलेग अदिदिएस नि प्रत्येसु बुलिदंसगादो । अथवा मणेरण मदिमााणेगा माग.सं मदिनागविण्यं पढिविदइत्ता तवलंभिय पच्छा मणपज्जवणाणं पयदि त्ति वत्तव्वं ।” [व.पु. १३ पृ. ३४१] । ३. "कित बित्तियचिति यमद्धचितिय च जाणदि'' [ध.पु.१३ ४ ३२६] । ४. "घितिम-प्रचिनिय-अचिंतियवस्थाणं पग दालीम जोयशासक्खध्मनरे बट्टमारणारा जपच्चलेगा परिच्छिति कृराई" [ज.प.पु. १.४३] ।
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५२० / गो. सा. जीवकाण्ड
गया ४५०-४५१
दव्यं खेत्तं कालं भावं पडि जीवलक्खियं रूचि । जुविलमदो जारदि अवरवरं मज्झिमं च तहा ॥४५०॥
गाथार्थ - ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान व त्रिपुलमति मन:पर्ययज्ञान जीव के द्वारा लक्षित किये गये जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट रूपो ( संसारी जीव पुद्गल ) को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा के अनुसार जानता है ।।४५० ।।
विशेषार्थ - यह ज्ञान मन:पर्यय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। क्षायोपशमिक भाव में देशघातिया स्पर्धकों का उदय रहता है। देशघातिया स्पर्धकों के अनुभाग के कारण ही ऋजुमति मन पठान व विलपतिनजी चिन्तित रूपी पदार्थ को द्रव्य, क्षेत्र काल व भाव की मर्यादा लेकर जानता है । जितना क्षयोपशम होगा उसके अनुसार ही स्थूल या सूक्ष्म द्रव्य को निकटवर्ती या दूरस्थित अर्थ को होनाधिक काल की मर्यादा के अन्दर के द्रव्य को तथा अल्प व बहुत भावों को जानता है ।
मतिज्ञान अथवा श्रुतज्ञान से मन, वचन व काय के भेदों को जानकर पीछे वहाँ स्थित अर्थं को प्रत्यक्ष से जानने वाले मन:पर्यय ज्ञानी का विषय द्रव्य-क्षेत्र - काल व भाव के भेद से चार प्रकार का है । '
शङ्का - जीव मुर्त है यतः यह मूर्त अर्थ को जाननेवाले अवधिज्ञान से नीचे के मन:पर्ययज्ञान के द्वारा कैसे जाना जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि संसारी जीव मूर्त आठ कर्मों के द्वारा अनादिकालीन बन्धन से बद्ध है, इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता । *
"रूपिणः पुद्गलाः || इस सूत्र से गुद्गल द्रव्य का मूर्त होना सिद्ध है । श्रतः मन:पर्यय ज्ञानी संसारी जीव और पुद्गल दोनों रूपी द्रव्यों को जानता है। मन:पर्ययज्ञान का विषय द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव के भेद से चार प्रकार का है। उनमें से प्रत्येक जघन्य, उत्कृष्ट व अजघन्य अनुत्कृष्ट ( मध्यम या तद्व्यतिरिक्त) प्रमाण बाला है ।
'जीव लक्खिय' गाथा में इस पद के द्वारा यह कहा गया है कि मन:पर्ययज्ञान का विषय वही रूपी द्रव्य हो सकता है जो जीव के द्वारा चिन्तित हो ।
ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान का जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्य प्रमा
प्रवरं दव्वमुदालियसरीरस्थिज्जिण्णासमयबद्ध ं तु । afबियरिगज्जण्णं उक्कस्तं उजुमदिरुस हवे ||४५१ ॥
१. "मदिगणे वा मुदणाणेा वा मग वचि काय भेदं गाए पच्छात्तत्थट्टिदमत्यं पचत्रस्त्रेण जाणं तस्ल महायज्जवरणागणस्स दव- वेत्त-काल- भावभे विस चउब्विहो ।" [घवल पु. ६ पृ. ६३] २. धवल पु. १३ पृ. ३३३ । ३. त. सू. अ. ५ ।
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गाथा '४५१
ज्ञानमार्गणा/५२१ गाथार्थ-औदारिक शरीर की एक समय संबंधी निर्जरा का प्रमाण ऋजुमति का जवन्य द्रव्य है तथा उत्कृष्ट चक्षुरिन्द्रिय की निर्जराप्रमारण द्रव्य है ।।४५१।।
विशेषार्थ द्रव्य की अपेक्षा वह जघन्य से अनन्तानन्त विस्रसोपचय से सम्बन्ध रखनेवाले प्रौदारिव शरीर के एक समय में निर्जरा को प्राप्त होने वाले द्रव्य को जानता है और उत्कृष्ट रूप से एक समय में होने वाले इन्द्रिय के निर्जरा को प्राप्त होने वाले द्रव्य को जानता है। इन उत्कृष्ट और जघन्य के मध्यम के जितने द्रव्य विकल्प हैं उन्हें अजघन्यानुत्कृष्ट ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञानी जानता है ।
ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान जघन्य से एक समय सम्बन्धी औदारिक शरीर को निर्जरा को जानता है।
शडा-वह प्रीदारिक शरीर की निर्जरा जघन्य, उत्कृष्ट और तद्व्यतिरिक्त के भेद से तीन प्रकार की है। उनमें से किस निर्जरा को वह जानता है ?
समाधान -तद्व्यतिरिक्त औदारिक शरीर की निर्जरा को जानता है, क्योंकि यहां सामान्य निर्देश है।
नक ज्ञान उमार्ग से व राम गहन्धी इन्द्रिय निर्जरा को जानता है ।।
शङ्का-प्रौदारिक-शरीर-निर्जरा और इन्द्रिय-निर्जरा के बीच कोई भेद नहीं है. क्योंकि, इन्द्रियों से भिन्न औदारिक शरीर का अभाव है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ सब इन्द्रियों का ग्रहण नहीं है। शङ्का-फिर कौनसी इन्द्रिय का ग्रहण है ?
समाधान - चक्षुरिन्द्रिय का ग्रहण है, क्योंकि वह शेष इन्द्रियों की अपेक्षा अल्प प्रमाण रूप है व अपने प्रारम्भक पुद्गलों की श्लक्ष्णता अर्थात् सूक्ष्मता से भी युक्त है ।
शङ्का-घाण और श्रोत्र इन्द्रिय की अपेक्षा चक्षुरिन्द्रिय के विशालता देखी जाती है ?
समाधान -ऐसा नहीं है, क्योंकि चक्षुगोलक के मध्य में स्थित मसूर के प्राकार वाले तारा को चक्षुरिन्द्रिय स्वीकार किया है।
शङ्का-चक्षुरिन्द्रिय निर्जरा भी जघन्य, उत्कृष्ट और तद्व्यतिरिक्त के भेद से तीन प्रकार है, उनमें कौनसी निर्जरा का ग्रहण है ?
समाधान-तद्व्यतिरिक्त निर्जरा का ग्रहण है, क्योंकि उसका सामान्य निर्देश है।
जघन्य व उत्कृष्ट द्रव्य के मध्यम द्रव्यविकल्पों को तद्व्यतिरिक्त ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी जानता है । १. प. पु. १३ पृ. ३३७ । २. .पु. ६ पृ. ६३ । ३. घ.पु. ६ पृ. ६४ ।
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५२२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४५२-४५५
विपुलमति मनःपर्ययज्ञान के द्रव्य का प्रमाण मणध्ववागणारगमगंतिमभागेरा उजुगउक्कस्सं । खंडिदमेत्तं होदि हु विउलमदिस्सावरं दध्वं ॥४५२॥ अष्टुण्डं कम्मारणं समयपवद्ध विविस्ससोवचयम् । धुवहारेरिगगिवारं भजिदे विदियं हवे दव्यं ॥४५३॥ तविदियं कप्पारणमसंखेज्जाणं च समयसंखसमं ।
धुवहारेणवहरिदे होदि हु उक्कस्सयं दत्वं ॥४५४॥ गाथार्थ --मनोद्रव्य वर्गणा के अनन्तवें भाग से ऋजुमतिज्ञान के उत्कृष्ट द्रव्य को खण्डित करने पर विपुलमति ज्ञान के जघन्य द्रव्य का प्रमाण प्राप्त होता है ।।४५२॥ विनसोपचयरहित अष्टकर्मों के समयप्रबद्ध को एक बार ध्र बहार का भाग देने पर द्वितीय द्रव्य विकल्प होता है ।।४५३।। विपुलमति के द्वितीय द्रव्य में असंख्यातकल्पों के समय प्रमाण बार वभागाहार का भाम देने से उत्कृत नाम का प्रभाव होता है :१४५४।।
विशेषार्थ--विपुलमति मनःपर्ययज्ञान जघन्य द्रव्य की अपेक्षा एक समयरूप इन्द्रियनिर्जरा को जानता है।
___ शङ्का--ऋजुमतिज्ञान का उत्कृष्ट द्रव्य ही उससे बहुत श्रेष्ठ विपुलमति का विषय कैसे हो सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अनन्त विकल्प रूप घरिन्द्रिय की अजघन्यानुत्कृष्ट निर्जरा के ऋजुमति द्वारा विषय किये गए उत्कृष्ट द्रव्य की अपेक्षा उसके योग्य हानि को प्राप्त एक समयरूप इन्द्रियनिर्जरा का द्रव्य विपुलमति का जघन्य या प्रथम] विषय माना गया है। अर्थात् विपुलमति के जघन्य द्रव्य का प्रमाण होता है। [विपुलमतिज्ञान के विषयभूत] उत्कृष्ट द्रव्य के ज्ञापनार्थ उसके योग्य असंख्यात कल्पों के समयों बो शलाकारूप से स्थापित करके मनोद्रव्य वर्गणा के अनन्तभाग का विरलन कर विनसोपचय रहित व पाठकों से सम्बद्ध अजघन्यानुत्कृष्ट एम.समयबद्ध को समखण्ड करके देने पर उनमें एक खण्ड द्रव्य का द्वितीय विकल्प होता है। इस समय शलाकाराशि में से एक कम करना चाहिए। इस प्रकार इस विधान से शलाकाराशि समाप्त होने तक लेजाना चाहिए। इनमें अन्तिम द्रव्यविकल्प को उत्कृष्ट त्रिपलमति जानता है। जघन्य प्रौर उत्कृष्ट द्रव्य के मध्यमविकल्पों को तव्यतिरिक्त विपुलमति जानता है । यहाँ 'मनोद्रव्य वर्गणा का अनन्तवा भाग' ध्र वहार है।
व जुगति य विपुलमति नान के विषयभूत क्षेत्र का प्रमाण गाउयपुधत्तमवरं उक्करसं होदि जोयणपुधत्तं । बिउलमदिस्स य अबरं तस्स पुधत्तं वरं खु परलोयं ॥४५५।।
१. घ.पू. ६
६६-६७ । २. प्र.पु. ६ पृ. ६७ ।
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गाथा ४५६
शानमार्गणा/५२३
गरलोएत्ति य वयणं विक्खंभरिणयामयं ण वस्स ।
जम्हा तग्घरगपवरं मरणपज्जवखेत्तमुद्दिट्ट ॥४५६॥ गाथार्थ ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान विषयक जघन्य क्षेत्र कोस पृथक्त्व और उत्कृष्ट क्षेत्र योजनपृथक्त्व है । विपुलमति का जघन्यक्षेत्र योजन पृथक्त्व तथा उत्कृष्ट क्षेत्र मनुष्यलोक प्रमाण है ॥४५५।। 'नरलोक' यह वचन विष्कम्भ अर्थात् सूचिठ्यास का नियायक है न कि वृत्ताकार (परिधिप नरलोक का । स्योंकि मन पर्ययज्ञान का वह घनप्रतर रूप क्षेत्र वाहा गया है ॥४५६।।
विशेषार्थ क्षेत्र की अपेक्षा ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान जघन्य से गव्यूति पृथक्त्व प्रमाण क्षेत्र को और उत्कर्ष से योजन पृथक्त्व के भीतर की बात जानता है, बाहर क्री नहीं ।' जघन्य व उत्कृष्ट क्षेत्र के मध्यम विकल्पों को तद्व्यतिरिक्त-ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी जानता है ।
दो हजार धनुष की एक गब्यूति (कोस) होती है। उसको आठ से गुणित करने पर गन्यूति पृथक्त्व होता है। इसके घनप्रमाण क्षेत्र को ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी जघन्य से जानता है ।
शङ्का-प्रवधिज्ञान का जघन्यक्षेत्र अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण कहा है और उसका काल पावली का असंख्यातवाँ भाग है। परन्तु अवधिज्ञान से अल्पतर इस ज्ञान का जघन्य क्षेत्र गव्यूति पृथक्त्व कहा है और काल दो-तीन भवग्रहण प्रमाण कहा है, यह कैसे बन सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि दोनों ज्ञान भिन्न-भिन्न जाति बाले हैं। अधिज्ञान संयत व असंयत सम्बन्धी है, परन्तु मन:पर्ययज्ञान संयत सम्बन्धी ही है। इससे इनकी पृथक-पृथक जाति जानी जाती है। इसलिए दोनों ज्ञानों में विषय की अपेक्षा समानता नहीं है। दूसरे, जिस प्रकार चक्षु इन्द्रिय रसादि को छोड़ कर रूप को ही जानती है, उसी प्रकार मनःपर्यय ज्ञान भी भवविषयक समस्त अर्थपर्यायों के बिना यतः भव-संज्ञक दो-तीन व्यञ्जन पर्यायों को ही जानता है, इसलिए वह अवधिज्ञान के समान नहीं है। बहुत काल के द्वारा निष्पन्न हुए सात-पाठ भवग्रहण का यह अपरिच्छेदक है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अशेष अर्थपर्यायों को नहीं विषय करनेवाले और भवसंज्ञक व्यञ्जन पर्यायों को विषम करनेवाले उस ज्ञान की बहुत समयों से निष्पन्न हुए भवों में प्रवृत्ति मानने में कोई विरोध नहीं पाता।
पाठहजार धनुषों का एक योजन होता है। उसे पाठ से गुणित करने पर योजन पृथक्त्व के भीतर धनुषों का प्रमाण होता है। इनका घन ऋजुमतिमनःपर्यय ज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र होता
विपुलमति मनःपर्ययज्ञान क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से योजन पृथक्त्व प्रमाण क्षेत्र को जानता है। ऋजमति का उत्कृष्ट क्षेत्र और विपूलमति का जघन्य क्षेत्र समान नहीं है, क्योंकि योजन पृथक्त्व में अनेक भेद देखे जाते हैं 13 उत्कर्ष से मानुषोत्तर शल के भीतर जानता है बाहर नहीं जानता ।
१. घ.पु. १३ पृ. ३३८; म.वं.पु. १ पृ. २५, सर्वार्थसिद्धि १/२३ । घ.पु. ६ पृ. ६५१ २ धपु १३ पृ. ३३६ । ३. श्र.पु. १३ पृ. ३४३ सूत्र ७६-७७, म. पु. १ पृ. २६ । ४. ध.पु. ६ पृ. ६७ ।
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५२४ मो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४५५-४५६
मानुषोत्तर शैल यहाँ उपलक्षणभूत है, वास्तविक नहीं है। इसलिए मैंतालीस लाख योजन क्षेत्र के भीतर स्थित जीवों की चिन्ता के विषयभूत त्रिकालगोचर पदार्थ को वह जानता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। इससे मानुषोत्तर शैल के बाहर भी अपने विषयभूत क्षेत्र के भीतर स्थित होकर विचार करने वाले देवों और तिर्यचों को चिन्ता के विषयभूत अर्थ को भी विपुलमति मनःपर्ययज्ञान जानता है ।
कितने ही प्राचार्य मानुषोत्तर शैल के भीतर ही जानता है, ऐसा कहते हैं। उनके अभिप्रायानुसार मानुषोत्तर शैल से बाहर के पदार्थों का ज्ञान नहीं होता। मानुषोत्तर शैन के भीतर स्थित होकर चिन्तित अर्थ को जानता है, ऐसा भी कितने ही प्राचार्य कहते हैं। उनके अभिप्रायानुसार लोक के अन्त में स्थित अर्थ को भी प्रत्यक्ष जानता है। किन्तु दोनों ही अर्थ ठीक नहीं हैं, क्योंकि तदनुसार अपने ज्ञानरूपी पुष्पदल के भीतर आये हुए द्रव्य का अनवगम बन नहीं सकता । मनःपर्यपज्ञान मानुषोत्तर शैल के द्वारा रोक दिया जाता है, यह तो कुछ सम्भव है नहीं, क्योंकि स्वतंत्र होने से व्यवधान से हिट डासान की पत्ति में बाधा का होना सम्भव नहीं है। दूसरे, लोक के अन्त में स्थित अर्थ को जानने वाला यह ज्ञान वहाँ स्थित चित्त को नहीं जाने, यह भी नहीं हो सकता, क्योंकि अपने क्षेत्र के भीतर स्थित अपने विषयभूत अर्थ का अनवगम बन नहीं सकता। परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर क्षेत्र के प्रमाण की प्ररूपणा निष्फल ठहरती है । इसलिए पैतालीस लाख योजन के भीतर स्थित होकर चिन्तवन करने वाले जीवों के द्वारा विचार्यमारण द्रव्य यदि मनःपर्ययज्ञान की प्रभा से अवष्टब्ध क्षेत्र के भीतर होता है तो जानता है, अन्यथा नहीं जानता ।
उत्कर्ष से विपुलमति मानुषोत्तर पर्वत के भीतर की बात जानता है बाहर की नहीं। तात्पर्य यह कि पैतालीस लाख योजन धनप्रतर को जानता है।
आकाशश्रेणी की एक श्रेणी क्रम से ही जानता है, ऐसा कितने ही प्राचार्य कहते हैं किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने पर देव, ममुष्य एवं विद्याधरादिकों में विपुलमति मन:पर्थयज्ञान की प्रवृत्ति न हो सकने का प्रसंग आजाएगा। मानुषक्षेत्र के भीतर स्थित सब मूर्त द्रव्यों को जानता है, उससे वाह्य क्षेत्र में नहीं, ऐसा कोई प्राचार्य कहते हैं। किन्तु वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर मानुपोत्तर पर्वत के समीप स्थित होकर बाह्य दिशा में उपयोग करने वाले के ज्ञान की उत्पनि न हो सकने का प्रसंग होगा। यदि कहा जाय कि उक्त प्रसंग पाता है तो आने दीजिये, सो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसके उत्पन्न न हो सकने का कोई कारण नहीं है । क्षयोपशम का अभाव, सो कारण तो है नहीं, क्योंकि उसके बिना मानुपोत्तर पर्वत के अभ्यन्तर दिशाविषयक ज्ञान की उत्पत्ति भी घटित नहीं होती। अत: क्षयोगशम का अस्तित्व मिद्ध है। मानुषोत्तर पर्वत से व्यवहित होने के कारण परभाग में स्थित पदार्थों में जान की उत्पत्ति न हो, यह भी नहीं हो सकता, क्योंकि असंख्यात प्रतीत व अनागत पर्यायों में व्यापार करनेवाले तथा अभ्यन्तर दिशा में पर्वतादिकों से व्यवहित पदार्थों को भी जाननेवाले मन:: पर्यवज्ञानी के अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष का मानुषोनर पर्वत से अनिघात हो नहीं सकता। मानुषोत्तर पर्वत
१. ध.पृ. १३ पृ. ३४३ । २. घ. पु. १३ पृ. ३४३-३४४ ॥
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गाथा ४५७-४५८
ज्ञानमार्गणा/५२५
के भीतर यह वचन क्षेत्र का नियामक नहीं है, किन्तु मानुषोत्तर पर्वत के भीतर पैनालीस साख योजनों का नियामक है, क्योंकि, विपुलमति मनःपर्ययज्ञान के उद्योत सहित क्षेत्र को घनाकार से स्थापित करने पर पंतालीस लाख योजन ही होता है।
ऋजुमति व विपुलमति विषयक काल का कपन दुगतिगभवा हु प्रवरं सत्तभवा हवंति उक्कस्सं ।
अडणवभवा हु अवरमसंखेज्ज विउलउक्कस्सं ॥४५७।। गाथार्थ - ऋजुमति विषयक जघन्य काल दो तीन भव और उत्कृष्ट सात पाठ भव प्रमाण है। विपुलमति विषयक प्राट नौ भव जघन्य काल है और उत्कृष्ट काल असंख्यात भव हैं ॥४५७।।
विशेषार्थ--ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान काल की अपेक्षा जघन्य से दो तीन भवों को जानता है ।१६५॥
शंका-यदि दो ही भवों को जानता है तो तीन भवों को नहीं जान सकता, और यदि तीन को जानता है तो दो को नहीं जानता, क्योंकि तीन को दो रूप मानने में विरोध पाता है।
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वह वर्तमान भव के बिना दो भवों को और वर्तमान के साथ तीन भवों को जानता है, इसलिए दो और तीन भव कहे गए हैं।
प्रकृप्ति-अनुयोगद्वार में कहा है कि उत्कर्ष से सात और पाठ भवों को जानता है ।।६६।। यहाँ पर भी वर्तमान भव के बिना मातु भवों को, अन्यथा पार भवों को जानता है । अनियतकाल रूप भवग्रहमा का निर्देश होने से यहाँ काल का नियम नहीं है, ऐमा जानना चाहिये जघन्य और उत्कृष्ट काल के मध्यम विकल्पों को तद् व्यतिरिक्त ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान जानता है।
कृति एवं प्रकृति अनुयोगद्वार में भी कहा है कि विपुलमति मनःपर्ययज्ञान काल की अपेक्षा जघन्य से सात-पाठ भवग्रहण को और उत्कर्ष से असंख्यात भवग्रहण को जानता है । इतने काल के जीवों की गति, प्रागति, मुक्त, कृत और प्रतिसेवित अर्थ को प्रत्यक्ष जानता है. यह उक्त कथन का तात्पर्य है । परन्तु विपुलमति के जघन्य काल के विषय में इन दोनों (कृति एवं प्रकृति) अनुयोगद्वारों से भिन्न कथन इस गाथा में किया गया है।
मनः पर्यगज्ञान के विषयभून भायों का कथन प्रावलिपसंखभागं अवरं च वरं च वरमसंखगुणं ।
तत्तो असंखगुरिणदं असंखलोगं तु विउलमदी ।।४५८।। गाथार्थ---भाव की अपेक्षा ऋजुमति का जघन्य व उत्कृष्ट विषय प्रावली के भाग प्रमाण
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१. ध. पृ १ पृ. ६७-६८ । २. ध, पृ. १३ गृ. ३३८: प. पु. . ६५1 ३. घ. पु. ६ पृ. ६५ । ४. ध. पु ६ पृ. ६५-६६, पु. १३ पृ. ३४२ सूत्र ७४ । ५. 4. पु. १३ पृ. ३४२ सूत्र ७५ ।
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५२६ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाया ४५६-४६०
भावों की संख्या है, जघन्य से उत्कृष्ट प्रसंख्यात गुणा है। विपुलमति का जनन्य भाव विषयक प्रमाण, ऋजुमति के उत्कृष्ट से असंख्यातगुणी है। और उत्कृष्ट प्रसंख्यात लोक प्रमाण है || ४५८ । ।
विशेषार्थ - जघन्य व उत्कृष्ट ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान भाव को अपेक्षा जघन्य व उत्कृष्ट द्रव्यों में अपने-अपने योग्य असंख्यात वर्तमान पर्यायों को जानता है ।" त्रिपुलमति ज्ञान भाव की अपेक्षा जो-जो द्रव्यज्ञाता हैं उन-उनकी वर्तमान असंख्यात पदार्थों को जानता है ।
मदन्तं कर्म खाणं । जादि इदि मस्यपज्जवलाणं कहिवं समासे
||४५६ ||
गाथार्थ - मध्यम द्रव्य क्षेत्र काल और भाव को मध्यम मन:पर्यय ज्ञान जानता है । इस प्रकार मन:पर्ययज्ञान का संक्षेप से कथन किया गया ॥ ४५६ ॥
विशेषार्थं जघन्य से अधिक और उत्कृष्ट से कम वह मध्यम होता है उसको ही प्रजघन्य अनुत्कृष्ट अथवा तद्व्यतिरिक्त भी कहते हैं । जघन्य और उत्कृष्ट तो एक-एक ही प्रकार का होता है, किन्तु मध्यम के अनेक भेद होते हैं। ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान व विपुलमति मन:पर्ययज्ञान का, द्रव्य-क्षेत्र व काल की अपेक्षा कथन करते हुए मध्यम द्रव्य क्षेत्र काल का भी कथन हो चुका है। वहाँ पर देख लेना चाहिए ।
केवलज्ञान
संपुष्णं तु समगं केवलमसवत्त सम्बभावगयं । लोयालोयवितिमिरं केवल पाणं
मुदवं ।।४६०||
गाथार्थ - जो ज्ञान सम्पूर्ण है समग्र है, केवल है, सपत्नरहित है, सर्वपदार्थगत है, लोकालोक में अन्धकार - रहित है, उसको केवलज्ञान जानना चाहिए || ४६० ।।
a
विशेषार्थ "तं च केवलणाणं सगलं, संपुष्णं प्रसवतं * ॥१॥ ग्रर्थात् वह केवलज्ञान सकल है, सम्पूर्ण है और असपत्न है । अखण्ड होने से बह सकल है ।
शङ्कर- यह प्रखण्ड कैसे है ?
समाधान - समस्त बाह्य अर्थो में प्रवृत्ति नहीं होने पर ज्ञान में खण्डपना श्राता है, वह इस ज्ञान में संभव नहीं है, क्योंकि इस ज्ञान के विषय त्रिकालगोचर अशेष बाह्य पदार्थ हैं।
अथवा द्रव्य, गुण और पर्यायों के भेद का ज्ञान अन्यथा नहीं बन सकने के कारण जिनका अस्तित्व निश्चित है, ऐसे ज्ञान के अवयवों का नाम कला है; इन कलाओंों के साथ वह अवस्थित रहता है इसलिए सकल है । 'मम्' का अर्थ सम्यक् है, सम्यक् अर्थात् परस्पर परिहार लक्षण विरोध के
१. ध. पु. ९ पृ. ६५ । २. ध. पु. पू. ६६ । ३. व. पु. १. २६०. १६६ प्रा. पं. सं. अ. १ मा १२६ ४. भ. पु. १३ पृ. ३४५ ५. घ. पु. १३ पृ. ३४५ ।
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गाया ४६१-४६२
जान मागंला / ५२७
होने पर भी, सहानवस्थान लक्षण विरोध के न होने से चूंकि यह अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, विरति (चरित्र) एवं क्षायिक सम्यक्त्व आदि श्रनन्त गुणों से पूर्ण है, इसलिए इसे सम्पूर्ण कहा जाता है। वह सकल गुणों का निधान है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । ' सपत्न' का अर्थ शत्रु है, केवलज्ञान के शत्रु घातिया कर्म हैं। वे इसके नहीं रहे हैं, इसलिए केवलज्ञान असपत्न है । उसने अपने प्रतिपक्षी घातिचतुष्क का समूल नाश कर दिया है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।"
केवलज्ञान असहाय है, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनस्कार की अपेक्षा से रहित है । शङ्का - केवलज्ञान आत्मा की सहायता से होता है, इसलिए उसे केवल ( असहाय ) नहीं कह सकते हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि ज्ञान से भिन्न आत्मा नहीं पाया जाता इसलिए केवलज्ञान को केवल (अ) कहने में कोई नहीं है।
शङ्का - केवलज्ञान अर्थ की सहायता लेकर प्रवृत्त होता है इसलिए उसको केवल (असहाय } नहीं कह सकते हैं।
समाधान- -नहीं, क्योंकि नष्ट हुए प्रतीत अर्थों में और अनुत्पन्न हुए अनागत अर्थों में भी केवलज्ञान की प्रवृत्ति पाई जाती है, इसलिए केवलज्ञान अर्थ की सहायता से होता है, यह नहीं कहा जा सकता है ।
शङ्का - यदि विनष्ट और अनुत्पन्न रूप से ग्रसत् पदार्थों में केवलज्ञान की प्रवृत्ति होती है तो खरविषाण में भी उसकी प्रवृत्ति होयो ?
समाधान नहीं, क्योंकि खरविपारण का जिस प्रकार वर्तमान में सत्य नहीं पाया जाता है, उसी प्रकार उसका वर्तमान में भृतशक्ति और भविष्यत्शक्ति रूप से भी सत्त्र नहीं पाया जाता है। अर्थात् जैसे वर्तमान पदार्थ में उसकी अतीत पर्यायें, जो पहले हो चुकी हैं। भूतशक्तिरूप से विद्यमान हैं और अनागत पर्यायें, जो आगे होने वाली हैं भविष्यत्शक्ति रूप से विद्यमान हैं, उस तरह खरविषाण ( गधे का सींग) यदि पहले कभी हो चुका होता तो भूतशक्तिरूप से उसकी सत्ता किसी पदार्थ में विद्यमान होती, तथैव वह आगे होने वाला होता तो भविष्यत्शक्तिरूप से उसकी सत्ता किसी पदार्थ में विद्यमान रहती, किन्तु खरविषाण न तो कभी हुआ और न कभी होगा। अतः उसमें केवलज्ञान की प्रवृत्ति नहीं होती है ।
ज्ञानमागंगा में जीवसंख्या का निरूपणा
दुगमिवसुदोहा पल्लासंखेज्जया हु मरणपज्जा | संखेज्जा केवलिगो सिद्धादो होंति प्रतिरिक्ता ॥ ४६१ || हिरहिदा तिरिक्ता मदिणाणिश्रसंखभागगा मणुना । संखेज्जा हु तदूणा मदिरणारणी श्रहिपरिमाणं ॥। ४६२ ।।
१. ध. पु. १३. ३४५-३४६ ।
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५.२८/गी. सा. जीवकाण्ड
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पल्ला संखघणं गुल हद से ठितिरिक्त-गविविभङ्गजुदा परसहिदा किंचूरणा चदुगदिवेभङ्ग - परिमाणम् ||४६३ ||
सणारा सि-पंचय परिहीणी सव्वाजीवरासी हु । मबिसुवणारी पत्तेयं होदि परिमाणं ||४६४॥
1
गाथार्थ - चारों (नारकी, तिर्यन, मनुष्य और देव ) गति सम्बन्धी मतिज्ञानियों और श्रुतज्ञानियों का प्रमाण पत्य के असंख्यातवें भाग है। मन:पर्यय ज्ञानवाले संख्यात है, केवली (केवलज्ञानी) सिद्धों से कुछ अधिक हैं || ४६१|| अवधिज्ञान रहित तिर्यंच, तथा मतिज्ञानियों की संख्या के असंख्यातवें भाग प्रमाण अवधिज्ञान रहित संख्यात मनुष्य इन दोनों राशियों को मतिज्ञानियों की संख्या में से कम करने पर शेष अवधिज्ञानियों का प्रमाण है ।। ४६२ ॥ पल्य के असंख्यातवें भाग से गुणित घनांगुल प्रमाण जगश्रेणियां, इतने विभंगज्ञानी तिथंच हैं; तथा विभंगज्ञानी मनुष्य तथा देव नारकी सम्यरष्टियों से रहित शेष सब देव व नारकी; यह चतुर्गति सम्बन्धी सब विभंगज्ञानियों की संख्या है || ४६३ || सर्व जीवराशि में से पाँच सम्यग्ज्ञानियों की संख्या कम करने पर कुमति व कुश्रुत ज्ञानियों का प्रमाण होता है ||४६४||
गाथा ४६३-४६४
विशेषार्थ - आवली के असंख्यातवें भाग का श्रावली में भाग देने पर जो लब्ध प्रावे वह अर्थात् आवली का प्रसंख्यातवाँ भाग प्रसंयत सम्यग्दृष्टि जीवों के प्रमाण के निकालने के विषय में अवहारकाल का प्रमाण होता है । यह काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। यह असंयत सम्यग्दृष्टियों का ओध अवहारकाल ही मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवों का अवहार काल है। इस अवहार काल ( श्रावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण अन्तर्मुहूर्त) से पत्य को भाग देने पर मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानियों का प्रसारण प्राप्त होता है । इस अवहार काल को प्रावली के प्रसंख्यातवें भाग से भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी प्रवहार काल में मिला देने पर अवधिज्ञानियों का अवहार काल होता है । इस अवहार काल से पत्योपम को भाजित करने पर अवधिज्ञानियों-असंयत सम्यक्त्वी का प्रमाण प्राप्त होता हैं । अवधिज्ञानी संयतासंयत अवधिज्ञानी असंयत सम्यविश्वयों के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण ही हैं । [ क्योंकि अवधिज्ञानी असंयत सम्यक्त्वी के अवहार काल से अवधिज्ञानी संयतासंयत का अवहार काल असंख्यातगुणा बताया है। (ध. ३/३३६-४० ) ] अवधिज्ञानी प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव अपनी-अपनी राशि के संख्यातवें भाग मात्र हैं, किन्तु वे इतने ही होते हैं यह स्पष्ट नहीं जाना जाता है, क्योंकि वर्तमान काल में इस प्रकार का गुरु का उपदेश नहीं पाया जाता है । इतना विशेष है कि अवधिज्ञानी उपशामक चौदह घोर क्षपक अट्ठाईस होते हैं । '
मन:पर्ययज्ञानी संख्यात हैं । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में मन:पर्ययज्ञानी जीव वहाँ स्थित दो ज्ञान वाले जीवों के संख्यातवें भाग मात्र होते हैं, क्योंकि लब्धिसम्पन्न ऋषि बहुत नहीं हो सकते | फिर भी वे इतने ही होते हैं, यह ठीक नहीं जाना जाता है, क्योंकि वर्तमान काल में इस
1
१. ध. पु. ३ पृ. ६५ १ ५. घ. पु. ३ पृ. ४४१ ।
२. ध. पु. ३ पृ. ४३६ ।
३. घ. पु. ३ पृ. ४३६१
४. घ. पु. ३ पृ. ४४१ |
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गाथा४६१-४६४
ज्ञानमार्ग/ ५२६
प्रकार का उपदेश नहीं पाया जाता है । इतना विशेष है कि मन:पर्ययज्ञानी उपशामक दस और क्षपक बीस होते हैं । "
केवलज्ञानी जीवों में सयोगी जिन लक्षपृथक्त्व है। इनसे अधिक सिद्ध प्रमाण केवलज्ञानियों की संख्या है । केवलज्ञानियों में सिद्ध-राशि की मुख्यता है, क्योंकि वे अनन्त हैं। संयोगकेवली और that संख्यात हैं। सयोगकेवली और प्रयोगकेवली से अधिक सिद्धराशि केवलज्ञानियों की संख्या होती है ।
मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीव अनन्त हैं, क्योंकि जितने भी मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीव है वे सब मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी हैं। क्योंकि दोनों प्रकार के अज्ञानों से रहित मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीव नहीं पाये जाते हैं । भिथ्यादृष्टि जीव अनन्त हैं । अनन्त होते हुए भी वे मध्यम अनन्तानन्त प्रमाण हैं । सासादनसम्यष्टि पल्य के असंख्यातवें भाग हैं। "
शङ्का - विभंगजानी मिध्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीव हैं, इसलिये श्रोषमिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्वष्टियों के प्रमाण से मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीव कम कम हो जाते हैं ।
समाधान- नहीं, क्योंकि मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी को छोड़कर विभंग ज्ञानी जीब पृथक् नहीं पाये जाते हैं इसलिये इनका प्रमाण मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्वष्टियों के समान है ।
सर्व जीवराशि के अनन्त खण्ड करने पर उनमें से बहुभाग मत्यज्ञानी और श्रुतानी मिथ्यादृष्टि जीव हैं । शेष एक भाग के अनन्त खण्ड करने पर उनमें से बहुभाग केवलज्ञानी जीव हैं । शेष एक भाग के असंख्यात खण्ड करने पर बहुभाग विभंगज्ञानी मिध्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खण्ड करने पर बहुभाग प्रमाण मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी असंयत सम्यग्दृष्टि जीव हैं । इन्हीं मनिज्ञानी और श्रुतज्ञानी असंयत सम्यग्दष्टियों की प्रतिराशि करके और उसे ग्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसकी उसी प्रतिराशि में से घटा देने पर अवधिज्ञानी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवराशि होती है।७ अंक संदृष्टि अनुसार ज्ञानमार्गणा में विभिन्न ज्ञानियों को संख्या इस प्रकार है
प्रत्यशानी भुताज्ञानी विभंगज्ञानी मति श्रुतज्ञानी श्रवधिज्ञानी मन:पर्ययज्ञानी केवलज्ञानी
असंख्यात असंख्यात
प्रसंख्यात
좋은
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में ज्ञानमार्गसा नामक बारयाँ अधिकार सम्पूर्ण हुआ ।
अनन्त
१३
35
tɣ
संख्यात
।
ܐ
अनन्त
!
सजीवराशि
अनन्त
१६
४. घवल
१. धवल पु. ३ पृ. ४४२-४४३ । २. धवल पु. ३ पृ. ६५ सुत्र १४ । ३. धवल पु. ३ पृ. ४३६ । ५. ३ पृ. १० सु. २ । ५. घवल पु. ३ पृ. ६३ सूत्र ६ । ६. बनल पु. ३ पृ. ४३७ । ७. घवन पु. ३ पृ. इयं संदृष्टि लायां तृतीये पुस्तके प्रस्तावनाया सप्तशतितमे पृष्टांके रागस्ति । लत्र सर्वासां 4: प्रदत्ताः सन्ति ।
४४२ ।
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५३०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ८६५-४६६
१३. संयममार्गणाधिकार
संयम का लक्षगा बदसमिवि-कसायाणं दंडारणं तहिदियारण पंचण्हं ।
धारणपालग-रिणग्गह-चाग-जो संजमो भरिगो' ॥४६॥ गाथार्थ--श्रतों का धारण करना, समितियों का पालन करना, कषायों का निग्रह करना, (मन-वचन-काय रूप) दण्डों का त्याग करना तथा पाँच इन्द्रियों का जीतना संयम कहा गया है ।।४६५॥
विशेषार्थ-संयमन करने को संयम कहते हैं। इस प्रकार का लक्षण करने पर मात्र द्रव्य-यम (भावचारित्र शून्य द्रव्यचारित्र) संयम नहीं हो सकता, क्योंकि संयम शब्द में ग्रहण किये गये 'सं शब्द से उसका निराकरण हो जाता है ।
शङ्का--यहाँ पर यम से सभी समितियों का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि ममितियों के न होने पर संयम नहीं बन सकता है ?
समाधान - ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि संयम में दिये गये 'सं' शब्द से सम्पूर्ण समितियों का ग्रहण हो जाता है।
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँचों महाव्रतों का धारण करना, ईर्याभापा-एषणा-प्रादाननिक्षेपण-उत्सर्ग इन पांच समितियों का पालन, क्रोध, मान, माया व लोभ इन चार कषायों का निग्रह करना, मन, वचन और काय रूप इन तीन दण्डों का त्याग करना और पाँच इन्द्रियों (स्पर्शन, रसना, प्रारण, चक्षु, श्रोत्र) के विषयों का जीतना संयम है ।
शङ्का.... कितने ही मिथ्यादृष्टि जीव संयत देखे जाते हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। संयम में 'सम्' उपसर्ग सम्यक अर्थ का वाची है, इसलिए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक 'यता:' अर्थात् जो बहिरंग और अन्तरंग प्रायवों से विरत हैं वे संयत हैं। क्योंकि आप्त, आगम और पदार्थों में जिस जीव के श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई है, तथा जिसका चित्त तीन मूढ़ताओं से व्याप्त है, उसके रांयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
मंगय की उत्पत्ति का कारण बादरसंजलणुदये सुहमुदये समखये य मोहस्स । संजमभावो पियमा होदित्ति जिणेहि रिणहि ॥४६६।।
१. धवल पू.१ पृ.१४५ गाथा ६२: प्रा. पं.सं. न. गाथा १२७.२७ . २. धवल पू.१.१४४ । ३. अथल पु. १ पृ. ३५८ । ४. धवल पु. १ पृ. ३६६ । ५. धवल पु. १ पृ. १७७ ।
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गाथा ४६७
संयममार्गणा/५३१
गाथार्थ-चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम, क्षय या क्षयोपशम होने पर बादर संज्वलन या सूक्ष्म साम्पराय के उदय के रहते हुए भी नियम से संयमभाव उत्पन्न होता है, इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ।।४६६।।
विशेषार्थ ... वर्तमान में प्रत्याख्यानावरण चारिश्रमोहनीय कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय (रदय के अभाव रूप क्षय) होने से और आगामी काल में उदय में आने वाले सत्ता में स्थित उन्हीं के उदय में न प्राने रूप उपशम से तथा संज्वलन कपाय के बादर देशघाती या सूक्ष्म देशघाती स्पर्धकों के उदय में आने पर संयम उत्पन्न होता है, इसलिए संयम क्षायोपशमिक है।
शङ्खा-संज्वलन कषाय के उदय से संयम होता है, इसलिए उसको (संयम को) प्रौदयिक क्यों नहीं कहा गया ?
समाधान नहीं, क्योंकि संस्तु कपाल सदा से गंगा की उत्पत्ति नहीं होती है।
शथा. तो संज्वलन का व्यापार कहाँ पर होता है ?
समाधान -प्रत्यास्यानावरण कषाय के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभाबी क्षय से और सदबस्थारूप उपशम से उत्पन्न हुए संयम में मल उत्पन्न करने में संज्वलन का व्यापार होता है।
औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशामिक लब्धि से जीव संयत होता है ।
चारित्राबरण कर्म के मर्वोपशम से जिस जीव की कमायें उपशान्त हो गई हैं उसके संयम होता है । इस प्रकार औपमिक लब्धि से संयम की उत्पत्ति होती है।
चारित्रावरण कर्म के क्षय से भी संयम की उत्पत्ति होती है, इससे क्षायिक लब्धि द्वारा जीव संबत होता है।
चारों संज्वलन कषायों और नी नोकषायों के देशघाती स्पर्धकों के उदय से संयम की उत्पत्ति होती है, इस प्रकार संयत के क्षायोपशमिक लब्धि भी पाई जाती है।
शङ्कर-देश घानी स्पर्धकों के उदय को क्षयोपशम नाम क्यों दिया गया ?
समाधान- सर्वघाती स्पर्धक अनन्तगुणहीन होकर और देशघाती स्पर्धकों में परिणत होकर उदय में आते हैं । उन सर्वघाती स्पर्धकों की अनन्तगुणहीनता ही क्षय है और उनका देशघाती स्पर्धकों के रूप से अबस्थान होना उपशम है । उन्हीं क्षय और उपशम से संयुक्त उदय क्षयोपशम कहलाता है। उसी क्षयोपशम से उत्पन्न संयम भी इसी काररग क्षायोपशामिक होता है।'
बादरसंजलणुदये बादरसंजमतियं खु परिहारो । पदिदरे सुहुमुदये सुहमो संजमगुणो होवि ॥४६७।।
१. धवल पु. १ पृ. १५६-३:४७ ।
२. धवल पु. ७ पृ. ६२ मूत्र ४६ । ३, धवल पु. ७ पृ. ६२ ।
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५३२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४६८
जहखासजमो पुण उवसमदो होदि मोहणीयस्स ।
खयदो वि य सो णियमा होदित्ति जिणेहि णि ट्ठि।।४६८।। गाथार्थ. मात्र बादर संज्वलन कषाय के उदित होते हुए भी तीन बादर संयम (सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि होते हैं। किन्तु परिहारविशुद्धिसंयम प्रमत्त और अप्रमत्त संयत इन दो गुणस्थानों में होता है । सूक्ष्म लोभ के उदय होने पर भी सूक्ष्मसाम्पराय संयम होता है ॥४६७।। मोहनीयकर्म का उपशम होने पर तथा क्षय होने पर नियम से यथाख्यात संयम होता है । ऐसा जिन (श्रुतकेवली) ने कहा है ।।४६८।।
विशेषार्थ--'मैं सर्व प्रकार के सावद्ययोग से विरत हूँ।' इस प्रकार द्रव्याथिक नय को अपेक्षा सकल सावायोग के त्याग को सामायिक शुद्धि-संयत कहते हैं ।
शङ्का-इस प्रकार एक व्रत के नियमवाला मिथ्याष्टि क्यों नहीं हो जाएगा?
समाधान नहीं, क्योंकि जिस में सम्पूर्ण चारित्र के भेदों का संग्रह होता है, ऐसे सामान्यग्राही द्रव्यार्थिक नय को समीचीन दृष्टि मानने में कोई विरोध नहीं पाता है ।
शङ्का—यह सामान्य संयम अपने-अपने सम्पूर्ण भेदों का संग्रह करनेवाला है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- 'सर्वसावधयोग' पद के ग्रहण करने से ही, यहाँ पर अपने सम्पूर्ण भेदों का संग्रह कर लिया गया है, यदि यहाँ पर संयम के किसी एक भेद की ही मुख्यता होती तो 'सर्व' शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता था, क्योंकि ऐसे स्थल पर 'सर्व' शब्द का प्रयोग करने में विरोध पाता है।
इस कथन से यह सिद्ध हुआ कि जिसने सम्पूर्ण संयम के भेदों को अपने अन्तर्गत कर लिया है, ऐसे अभेद रूप से एक यम को धारण करने वाला जीव सामायिकशुद्धि संयत कहलाता है ।
उस एक प्रत का छेद अर्थात् दो तीन आदि के भेद से उपस्थापन करने को अर्थात् व्रतों के प्रारोपण करने को छेदोपस्थापना शुद्धि संयम कहते हैं । सम्पूर्ण व्रतों को सामान्य को अपेक्षा एक मानकर एक यम को ग्रहण करनेवाला होने से सामायिकशुद्धि संयम द्रव्याथिकनयरूप है। और उसी एक नत को पांच अथवा अनेक प्रकार के भेद करके धारण करने वाला होने से छेदोपस्थापना-शुद्धिसंयम पर्यायाधिक नय रूप है। वहाँ पर तीक्ष्णबुद्धि मनुष्यों के अनुग्रह के लिए द्रव्याथिकनय का उपदेश है और मन्दबुद्धि जनों के लिए पर्यायार्थिक नय का उपदेश है। इसलिए इन दोनों संयमों में अनुष्ठानकृत कोई भेद नहीं है ।
शङ्का उपदेश की अपेक्षा संयम भले ही दो प्रकार का हो, वास्तव में तो वह एक ही है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि यह कथन हमें इष्ट ही है। शङ्का - जबकि इन दोनों की अपेक्षा अनुष्ठानकृत संयम के दो भेद नहीं हो सकते हैं तो संयम
१. धवल पु. १ पृ. ३६६। २. धवल पु. १ पृ ३३० ।
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गाया ४६६
संयममार्ग/ ५३३
के ( सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात) इन पाँच भेदों का उपदेश कैसे बन सकता है ?
समाधान यदि पाँच प्रकार का संग्रम घटित नहीं होता है, तो मत हो ।
शङ्का - संयम कितने प्रकार का है ?
समाधान- संयम चार प्रकार का है, क्योंकि पाँचवा संयम पाया ही नहीं जाता ।"
जिसके हिंसा का परिहार हो प्रधान है ऐसे शुद्धिप्राप्त संयतों को परिहार शुद्धिसंयत कहते हैं। तीस वर्ष तक अपनी इच्छानुसार भोगों को भोग कर सामान्य रूप से अर्थात् सामायिक संयम को शौर विशेष रूप से अर्थात् छेदोपस्थापना संयम को धारण कर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार परिमित या अपरिमित प्रत्याख्यान के प्रतिपादन करने वाले प्रत्याख्यान पूर्व रूपी महार्णव में अच्छी तरह प्रवेश करके जिसका सम्पूर्ण संशय दूर हो गया है और जिसने तपोविशेष से परिहारऋद्धिको प्राप्त कर लिया है, ऐसा जीव तीर्थकर के पादमूल में परिहारशुद्धिसंयम को ग्रहण करता है ।
परिहार-शुद्धि-संयम प्रमत्त और प्रप्रमत्त इन दो गुणस्थानों में होता है । *
शङ्का - ऊपर के आठवें श्रादि गुणस्थानों में परिहार-शुद्धि-संयम क्यों नहीं होता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि जिनकी श्रात्माएँ ध्यानरूपी अमृत के सागर में निमग्न हैं, जो बचनयम (मौन) का पालन करते हैं और जिन्होंने आने-जाने रूप शरीर सम्बन्धी सम्पूर्ण शरीर व्यापार को संकुचित कर लिया है, ऐसे जीवों के शुभाशुभ क्रियाओं का परिहार बन ही नहीं सकता है, क्योंकि गमनागमन आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करने वाला ही परिहार कर सकता है, प्रवृत्ति नहीं करने वाला नहीं । इसलिए ऊपर के आठवें आदि ध्यान अवस्था को प्राप्त गुणस्थानों में परिहार-शुद्धि-संयम नहीं बन सकता है ।
शङ्का - परिहार ऋद्धि की आगे के आठवें आदि गुणस्थानों में भी सत्ता पाई जाती है, अतः एव वहाँ पर भी इस संयम का सद्भाव मान लेना चाहिए ?
समाधान- नहीं, क्योंकि यद्यपि आठवें आदि गुणस्थानों में परिहार ऋद्धि पाई जाती है, किन्तु वहाँ पर परिहार करने रूप उसका कार्य नहीं पाया जाता। इसलिए आठवें आदि गुणस्थानों में परिहार- विशुद्धि-संयम का प्रभाव कहा गया है।"
मिक क्षायिक और क्षायोपशमिक लब्धि से जीव सामायिक - छेदोपस्थापन शुद्धि संयत
होता है ।
शङ्का – सामायिक और छेदोपस्थापन संयम क्षयोपगम लब्धि में भले ही हो, किन्तु उनके शनिक और क्षायिक लब्धि नहीं हो सकती, क्योंकि अनिवृत्तिकररण गुणस्थान से ऊपर इन संयतों
१ धवल पु १ पृ. ३७७ । ४. धवल पु. १ पृ. २७५ ॥
२. धवल पु. १ पृ. ३७० ३७१ ।
३. वल पु. १ पृ. ३०५ सूत्र १२६ ॥ ५. धवल पु. १ पृ. ३७६ । ६. धवल पु. ७ पृ. ६२ सूत्र ४६ ।
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५३४/गो. सा. जीवकाण्ड
का अभाव पाया जाता है। नीचे के अर्थात् अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन दो क्षपक व उपशामक गुणस्थानों में चारित्रमोहनीय की क्षपणा व उपशमना होती नहीं है, जिससे उक्त संयतों के आयिक व प्रौपशमिक लब्धि सम्भव हो सके ?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि क्षपक व उपशामक सम्बन्धी अनिवृत्ति गुणस्थान में भी लोभ संज्वलन को छोड़कर शेष चारिश्रमोहनीय के क्षपण व उपशमन के पाए जाने से वहीं क्षायिक और औपशमिक लब्धियों की सम्भावना पाई जाती है। अथवा क्षपक और उपशामक सम्बन्धी अपूर्वकरण के प्रथम समय से लगाकर ऊपर सर्वत्र क्षायिक और औपशमिक संयम लब्धियाँ हैं ही, क्योंकि उक्त गुगास्थानों के प्रारम्भ होने के प्रथम समय से लेकर थोड़े-थोड़े क्षपण और उपशामन रूप कार्य की निष्पत्ति देखी जाती है । यदि प्रत्येक समय कार्य की निष्पत्ति न हो तो अन्तिम समय में भी कार्य पूरा होना सम्भव नहीं है।
शङ्खा -- एक ही चारित्र के प्रापशमिक आदि तीन भाव कैसे होते हैं ?
समाधान-जिस प्रकार एक ही चित्र पतंग अर्थात् बहुवर्ण पक्षी के बहुत से वर्ण देखे जाते हैं, उसी प्रकार एक ही चारित्र नाना भावों से युक्त हो सकता है।'
क्षायोपशमिक लब्धि से जीव परिहारशुद्धिसंयत होता है ।
चार संज्वलन और नव नोकषायों के सर्वघाती स्पर्धकों के अनन्तगुणी हानि द्वारा क्षय को प्राप्त होकर देशघाती रूप से उपशान्त हुए स्पर्धकों के उदय के सद्भाव में परिहारविशुद्धिसंयम की उत्पत्ति होती है, इसलिए क्षायोपशमिक लब्धि से परिहार शुद्धिसंयम होता है, ऐसा कहा गया है।
शङ्का-चार संज्वलन और नव नोकषाय इन तेरह प्रकृतियों के देशघाती स्पर्धकों का उदय यदि संयम की उत्पत्ति में निमित्त होता है तो वह संयमासंयम का निमित्त कैसे स्वीकार किया गया है?
___समाधान - नहीं, क्योंकि प्रत्याख्यानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से जिन चार संज्वलनादि के देशघाती स्पर्धकों का उदय प्रतिहत हो गया है, उस उदय के संयमासंयम को छोड़ संग्रम को उत्पन्न करने का सामर्थ्य नहीं होता। अर्थात् प्रत्याख्यानाबरण के सर्ववाती स्पर्धकों के उदय का ग्रभाव संयमोत्पत्ति में निमित्त कारण है।'
साम्पराय काषाय को कहते हैं। जिन संयतों की पाय सूक्ष्म हो गई है, वे सूक्ष्म साम्परायसंयत हैं। सामायिक व छैदोपस्थापना संयम को धारण करने वाले साधु जब अत्यन्त सुक्ष्म कषाय बाले हो जाते हैं तब वे सूक्ष्म साम्परायशुद्धि संयत कहे जाते हैं।
औपशमिक और क्षायिक लब्धि से सूक्ष्म-साम्परायिक-संयत होते हैं ।' उपशामक और क्षपक दोनों प्रकार के सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानों में सूक्ष्मसाम्परायसंयम की प्राप्ति होती है, इसीलिए औषशामिक व क्षायिक लब्धि से सूक्ष्मसाम्पराय-संयम होता है।
३. धवल पु. ७
६४।
४. धवल पु. १
१. धवल पु. ७ पृ. ६३ । २. प्रवल पू. ३ पृ.६४ सूत्र ५१। पृ. ३७१। ५. धवल पृ. ७ पृ. ६५। ६. प्रवल पु. ७ पृ. ६५ ।
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संयम मार्ग ५३५
चारित्रमोहनीय कर्म के उपराम से उपशान्तकपाव गुरुस्थान होता है और क्षय से क्षीणमोह आदि गुणस्थान होते हैं । उपशान्तकपाय, क्षीणकषाय आदि गुणस्थानों में यथाख्यात विहारशुद्धिसंयम की प्राप्ति होने से श्रमिक व क्षायिक लधि से यात संयम होता है। ऐसा कहा गया है ।
จ
गाथा ४६९
तदिय कसादये य विरदाविरदो गुणो हवे जुगवं । विदिक सादरण य प्रसंजमो होदि यिमेर ||४६६ ||
गाथार्थ -- तीसरी कषाय के उदय से विरताविरत गुणस्थान होता है। दूसरी कपाय के उदय से नियम से संयम होता है ॥४६६ ||
विशेषार्थ – कपायें चार प्रकार की हैं। उनमें से प्रथम कषाय अनन्तानुबन्धी है, द्वितीय कषाय अप्रत्याख्यातावरण है, तृतीय कषाय प्रत्याख्यानावरण है और चतुर्थ कपाय संज्वलन है । इनमें से प्रथम अर्थात् ग्रनन्तानुबन्धी कषाय सम्यवत्व का घात करती है अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषायोदय के अभाव में सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है । प्रत्याख्यानावरण नामक द्वितीय कषाय देशसंयम का घात करती है । देशसंयम को विरताविरत, संयमासंयम, देशव्रत एवं अणुव्रत भी कहते हैं। इसके उदय के अभाव में देशसंयम उत्पन्न होता है। तृतीय प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय मे देशसंयम हो संज्वलन सकता है, किन्तु संयम नहीं हो सकता, क्योंकि तृतीय कषाय सकलसंयम की घातक है । चतुर्थ कषाय के उदय में सकल संयम तो हो सकता है, किन्तु यथाख्यातशुद्धि संयम नहीं हो सकता, क्योंकि संज्वाय यथास्यात संयम की घातक है । २
'तीसरी कपाय का उदय' इसका अभिप्राय यह है कि जिसके प्रथम दो कृपाय का उदय नहीं है, किन्तु तृतीय कषाय का उदय है, क्योंकि कषायों के उदय का प्रभाव प्रथम श्रादि के क्रम से होता है। तृतीय कषाय का उदय सकलसंयम का तो घात करता है किन्तु विरताविरत, (संयमासंयम या देशसंयम ) का घात नहीं करता । जिसके प्रथमादि दो कषायों के उदयाभाव होने से विरताविरत उत्पन्न हो गया है, किन्तु तृतीय कषायोदय के कारण सकलसंयम उत्पन्न नहीं हुआ है, किन्तु विरताविरत का बात भी नहीं हुआ है, इस अपेक्षा से तृतीय कषाय के उदय को विरताविरत पंचम गुणस्थान का कारण कहा है। 'तृतीय कषायोदय' में प्रथम व द्वितीय कषायोदय का प्रभाव गर्भित है । वास्तव में प्रथम व द्वितीय कषायोदय का अभाव विरताविरत गुणस्थान का कारण है । कपायोदय होने पर एकदेशसंयम भी नहीं हो सकता है अतः प्रप्रत्याख्यानावरण के उदय में जीव असंयमी रहता है। जिसके प्रत्याख्यानावरण का उदय है उसके ऊपर की काय प्रत्याख्यानावरण व संज्वलन कषाय का उदय अवश्य होता है ।
अप्रत्याख्यानावर
जीव क्षायोपशमिक लब्धि से संयतासंयत होता है। चार संज्वलन और नव नोकपायों के क्षयोपणम संज्ञावाले देशघाती स्पर्धकों के उदय से संयमासंयम की उत्पत्ति होती है। प्रत्याख्यानावरण के सर्वघातीकों के उदय से जिन चार संज्वलनादिक देशघाती स्पर्धकों का उदय प्रतिहत हो गया है उस उदय के संयमासंयम को छोड़कर संयम उत्पन्न करने का सामर्थ्य नहीं है।' अर्थात् प्रत्याख्या
२. गो. क. गा. ४५ : गो. जी. गा. २८२ ।
३. धवल पु ७ पृ. २४ सूत्र ५१ ।
१. धनल पु. ७ पृ. ९५ । ४. धवल 3. ७ पु. ६४ ।
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५३६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४६-४७३
नावरण कषाय का उदय संयम का घालक है, संयमासंयम का घातक नहीं है । प्रत्याख्यानावरण कपायोदय में संयमासंयम गुरगस्थान के होने में कोई बाधा नहीं आती।
संयम के पानी कर्मों के उदय से लीव असंयत होता है ।'
शङ्का-एक अप्रत्याख्यानावरण का उदय ही असंयम का हेतु माना गया है, क्योंकि वही संयमासंयम के प्रतिषेध से प्रारम्भ कर समस्त संयम का पाती होता है । तब फिर 'संयमपाती कर्मों के उदय से असंयत होता है ऐसा कहना कसे घटिस होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि दूसरे भी चारित्रावरण कर्मों के उदय के बिना केवल अप्रत्याख्यानावरण के देशसंयम को घात करने का सामर्थ्य नहीं है।
शङ्का-संयम तो जीव का स्वभाव है, इसलिए यह अन्य के द्वारा विनष्ट नहीं किया जा मकता, क्योंकि उसका विनाश होने पर जीवद्रव्य के भी विनाश का प्रसंग आ जायेगा?
समाधान नहीं पाएगा, क्योंकि जिस प्रकार उपयोग जीव का लक्षण माना गया है, उस प्रकार संयम जीव का लक्षण नहीं होता।
शङ्का-लक्षण किसे कहते हैं ?
समाधान-जिसके प्रभाव में द्रव्य का भी प्रभाव हो जाता है वही उम द्रव्य का लक्षण है जसे-पुद्गल का लक्षण रूप-रस-गन्ध-स्पर्श है तथा जीव का लक्षण उपयोग है। अतएव संबम के अभाव में जीव द्रव्य का प्रभाव नहीं होता।
मामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि संयम संगहिय सयलसंजममेयजममणुत्तरं दुरवगमं । जीवो समुव्यहंतो सामाइयसंजमो होदि ॥४७०॥ छेत्तूरण य परियासं पोराणं जो ठवेइ अप्पारणं । पंचजमे धम्मे सो छेदोवट्ठावगो जीवो ॥४७१।।' पंचसमिदो तिगुत्तो परिहर इ सदावि जो हु सायज्ज । पंचेक्ज मो पुरिसो परिहारयसंजदो सो हु ॥४७२॥' तीसं वासो जम्मे वासपुधत्तं स्खु तित्थयरमूले । पच्चक्खाणं पढिदो संझरणदुगाउयविहारो ॥४७३॥
१. धवल पु. ७ J. ६५ मुत्र ५५ । २. धवल पु. ७ पृ. ६५। ३. धवल पु. ७ पृ. ६६। ३७२ गा १७, प्रा. पं. सं. गा. १२६ पृ. २८1 ५. घवल पु. १ पृ. ३७२ गा. १८६, पृ.२८। ६. धवल पु. १. ३६२ गा १८६ प्रा.पं.सं.गा. १३१ . २८ ।
४. धवल पु.१ पृ. प्रा.पं.मं गा. १३०
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गाथा ४७०-४७३
संयममागमा / ५३७
गाथार्थ - जिसमें समस्त संयमों का संग्रह कर लिया गया है, ऐसे लोकोत्तर और दुरधिगम्य अभेदरूप एक यम को धारण करने वाला जीवापारिक संग होता है जो पुरानी साव व्यापाररूप पर्याय को छेदकर पाँच यम रूप धर्म में अपने को स्थापित करता है, वह जीव छेदोपस्थापक संयभी है ||४७१ ।। जो पाँच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त होता हुआ सदा ही सावद्ययोग का परिहार करता है तथा पाँच यम रूप छेदोपस्थापना संयम को और एक यम रूप सामायिक संघम को धारण करता है, वह परिहारशुद्धि संयत होता है ||४७२ || जन्म से तीस वर्ष के पश्चात् तीर्थंकर के पादमूल में वर्ष पृथक्त्व तक प्रत्यास्थान पूर्व पढ़ने वाले के परिहारविशुद्धि संयम होता है। इस संयमवाला संध्या कालों को छोड़कर दो कोम गमन करने वाला होता है ||४७३ ||
विशेषार्थ - मूल शब्द 'समय' है। उससे 'सामायिक' शब्द की उत्पत्ति हुई है । 'समय' शब्द के दो अवयव हैं 'सम्' और 'अय' 'सम्' उपसर्ग का अर्थ 'एक रूप है अथवा 'एकीभूत' है । 'य' का अर्थ 'गमन' है । समुदायार्थ एकरूप हो जाना समय है। और समय ही सामायिक है। सम्यग्दर्शन सभ्यग्ज्ञान, संयम और तप से जो जीव का ऐक्य होना वह समय है । यह समय ही सामायिक है । २ वह सामायिक दो प्रकार की है -नियतकाल और श्रनियतकाल | स्वाध्याय आदि नियतकाल सामायिक है और ईर्यापथ आदि अनियतकाल सामायिक है । सामायिक को गुप्ति नहीं कह सकते, क्योंकि गुप्ति में तो मन के व्यापार का भी निग्रह किया जाता है, जबकि सामायिक में मानस प्रवृत्ति होती है। इसे प्रवृत्तिरूप होने से समिति भी नहीं कह सकते, क्योंकि सामायिक संयम में समर्थ व्यक्ति को समितियों में प्रवृत्ति का उपदेश है। सामायिक कारण है और समिति कार्य है ।" जीवित-मरण, लाभ-लाभ, संयोग-वियोग में, शत्रु-मित्र, सुख-दुःख में समता परिणाम सामायिक है । सर्व प्राणियों में मैं समता और रागद्वेषरहितता धारण करता हूँ। मेरा किसी के साथ बंर नहीं है, मैं सम्पूर्ण अभिलाषाओं का त्याग करता हूँ और निलभता स्वीकार करता हूँ। यह सामायिक का स्वरूप है ।" वह सामायिक छह प्रकार की है-
नामवरणा दच्चे खेत्ते काले तहेव भावे य ।
सामाइयहि एसो रिक्वेश्रो छव्विहो यो ||१७|| [ मुलाचार श्रधि. ७ ]
सामायिक छह प्रकार की है नाम सामायिक, स्थापना सामायिक, द्रव्य सामायिक, क्षेत्र सामायिक, काल सामायिक और भाव सामायिक | अथवा सामायिक में यह छह प्रकार का निक्षेप है।
नामसामायिक - वस्तु के शुभ नाम और अशुभ नाम सुनकर उनमें रागद्वेष का त्याग करना नामसामायिक है ।
स्थापना सामायिक कोई स्थापना शुभाकार युक्त, प्रमारणयुक्त, सर्व अवयवों से परिपूर्ण, साकार, मन को आह्लादित करने वाली होती है और कोई स्थापना अशुभग्राकार युक्त प्रमाणरहित, सर्व अवयवों से परिपूर्ण और भतदाकार होती है । उन पर रागद्वेष नहीं करना स्थापनासामायिक है ।
३. स. सि. ६ । १. रा. वा. ६।१८। ३ ४ ३
१. सर्वार्थसिद्धि ७ / २१ 1 २. मूलाचार ७ / १८ पृ. ४०४ । ५. मुलाचार गा. २३ पृ. २६ । ६. मूलाचार गा. ४२ पृ. ५२ ।
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५३८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४७७-४७३
द्रव्यसामायिक- सोना, चांदी, मोती, रत्न, मृतिका, लकड़ी, मिट्टी का ढेला, कण्टकादिवों में समदर्शन अर्थात् रागद्वेष का अभाव रखना द्रट्यसामायिक है ।
क्षेत्रसामायिक श्रोई क्षेत्र रम्य होता है जैसे उपवन, नगर, नदी, कुआ, सरोवर आदि और कोई क्षेत्र अप्रिय होता है जैसे रुक्ष, कण्टक से भरा हुमा, विषम, रमहीन-शुष्क, अस्थि-पाषाणों से राहित ऐसे प्रदेश तथा जीर्ण उपवन, शुष्क नदी, रेतीला [जल रहित] प्रदेश, बालुका प्रदेश इनके ऊपर राग द्वेष का त्याग करना क्षेत्रसामायिक है।
कालसामायिक--वसन्त ग्रीस्मादिक छह ऋतु, रात्रि, दिवस, शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष इत्यादिक काल पर रागद्वेष रहित होना काल सामाधिक है।
भावसामायिक-सर्व जीवों में मैत्री भाव रखना तथा अशुभ परिणामों का त्याग करना भाव सामायिक है ।
सर्व सावधयोग का त्याग रूप एकसंयम अथवा अभेदसंयम सोहो सामायिक संयम है इसका सविस्तार कथन गाथा ४६७-४६६ मा दीका में धवलादि के प्राचारः परश्या जाचका है। यह सामायिक संयम अनुत्तर अर्थात् अनुपम है और दुर्लभ है । जिन्होंने पिच्छी लेकर अंजुलि बोड़ली है तथा जो सावधान बुद्धिवाले हैं वे मुनि व्याक्षिप्त-चित्त न होकर, खड़े होकर एकाग्र मन होते हुए प्रागमोक्त विधि से सामायिक करते हैं। अथवा पिच्छी से प्रतिलेखन करके शुद्ध होकर; द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव शुद्धि करके प्रकृष्टरूप से अंजलि को मुकुलित कमलाकार बनाकर : अथवा प्रतिलेखन (पिच्छिका) सहित अंजुलि जोड़कर सामायिक करते हैं ।
छेदोपस्थापना संयम-सामायिक संयम ग्रहण करने के पश्चात् प्रमादवश यदि सावध क्रिया हो जाय तो प्रायश्चित्त विधान से दोष का छेद करके अपनी प्रात्मा को पंच प्रकार के संयम रूप धर्म में स्थापना करना छेवोपस्थापना संयम है । छेद का अर्थ प्रायश्चित्त है अर्थात प्रायश्चित्त के द्वारा उपस्थापना (अपनी प्रात्मा को धर्म में स्थापना करना) छेदोपस्थापना संयम है । अथवा दोष लगने पर तप या दीक्षाकाल का छेद करके उपस्थापना अर्थात् निर्दोष संयम में प्रात्मा की स्थापना करना छेदोपस्थापना संयम है।
स-स्थावर आदि जीवों की उत्पत्ति और हिंसा के स्थान छदमस्थ के अप्रत्यक्ष होने के कारण प्रमादबश स्वीकृत निरबद्य क्रियाओं में दुषण लगजाने पर उसका सभ्यक प्रतिकार करना छेदोपस्थापना है। अथवा सावध कर्म हिंसादि के छेदों से पांच प्रकार के हैं, इत्यादि विकल्पों का होना छदोपस्थापना है।
श्री अजितनाथ से श्री पाशवनाथ तक बाईम तीर्थंकरों ने सामायिक संयम का उपदेश दिया था। श्री वृषभनाथ और श्री महावीर प्रभु ने छेदोपरथापना का उपदेश दिया है। कथन करने में, पृथक पृथक चिन्तन करने में और समझ लेने में सुगम होने से पाँच महाधनों का वर्णन किया है।
१. मूलाचार पृ. ४०२-४०३ अधिकार ७ माथा १७ की दीका। २. मूलाचार अधिकार ७ मा. ३६ पृ. ४१५ । ३. संस्कृत टीका के अाधार में। ४. रावा.-१८।६-७ ।
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गाथा ४७४
मंयममार्गमा ५३९
थी आदिप्रभु के तीर्थ में शिष्य सरल स्वभावी और जड़बुद्धि थे, अत: सामायिक संयम का उन्होंने व्रत, समिति और गुप्ति आदि प्रकार से भेदप्रतिपादन किया। श्री महावीर के तीर्थ में शिष्य जड़बुद्धि और वक्र थे, उनको व्रतों में स्थिर करना कठिन था, अत: उनके लिए व्रत, समिति, गुप्ति प्रादि प्रकार से भेद प्रतिपादन किया। श्री अजितनाथ से श्री पार्श्वनाथ पर्यन्त शिष्य व्युत्पन्न और वक्रतारहित थे अत: उनके लिए अभेद रूप सामायिक संयम का कथन है।
जिसमें प्रारिरावध के परिहार के साथ-साथ विशिष्ट शुद्धि हो वह परिहारविशुद्धि संयम है । जिसने तीस वर्ष की आयु तक अपनी इच्छानुसार भोगों को भोग कर सामान्य से एकरूप सामायिक संयम को और विशेष रूप से पांच समिति व तीन गुप्ति सहित छेदोपस्थापना संयम को धारण कर पृथक्त्व वर्ष तक तीर्थंकर के पादमूल की सेवा की हो और जो प्रत्याख्यान नामक नवम पूर्व का पारङ्गत होकर, जन्तुओं की उत्पत्ति विनाश के देशकाल द्रव्य आदि स्वभावों को जानकर अप्रमादी, महावीर्य, उत्कृष्ट निर्जराशील, अतिदुष्कर चर्या का अनुष्ठान करने वाला हो वह परिहारशुद्धि संयम को धारण करता है। वह तीनों संध्या काल के सिवाय प्रतिदिन दो कोस गमन करता है किन्तु रात्रि में गमन नहीं करता है।
परिहारधिसमेतः षड्जीवनिकायसंकुले बिहरम् । पपसेव पनपत्रं न लिप्यते पापनिवहेन ।'
परिहारविशृद्धि ऋद्धि सहित मुनि छह काय के जीव समूह वाले स्थान में विहार करने पर भी पाप से निप्त नहीं होते जैसे कमलपत्र जलसमूह में रहता हुआ भी जल से लिप्त नहीं होता । परिहारविशुद्धि का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि परिहारविशुद्धि संयम को प्राप्त होकर जघन्यकाल तक रहकर अन्य गुणस्थान को प्राप्त हो जाने पर अन्तर्मुहूर्त काल होता है । उत्कृष्ट से कुछ कम पूर्व कोटि काल है। सर्व सुखी होकर तीस वर्ष बिताकर, पश्चात् वर्षपृथक्त्व से तीर्थंकर के पादमूल में प्रत्याख्यान नामक पूर्व को पढ़ कर तत्पश्चात् परिहारशुद्धिसंयम को प्राप्तकर और कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष तक रहकर देवों में उत्पन्न हुए जीव के यह काल होता है। इस प्रकार अड़तीस वर्षों से कम पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण परिहारशुद्धि संयम का काल होता है । कोई प्राचार्य सोलह वर्षों से और कोई वाईस वर्षों से कम पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण कहते हैं ।
सामायिक संयम, छेदोपस्थापना संयम और परिहारविशुद्धि संयम इन तीनों संयमों का स्वरूप धवल ग्रन्थ के अाधार पर विस्तार भा, ४६४-४६८ की टीका में कहा गया है । वहाँ पर भी देखना चाहिए।
सूक्ष्म-साम्पराय-संयम का स्वरूप अणुलोहं वेवंतो जीवो उवसामगो व खवगो वा । सो सुहमसांपराश्रो जहखादेणगो किंचि ॥४७४।।'
१. मुलाचार अधिकार ७ गा, ३६.३८ पृ. ४१४-४१५ । २. संस्कृत टीका मे उद्धा । ३. भ. प. ७ पृ. १६५ सूत्र १४८ । ४. ज.ध.२ पृ. १२०, ध. पु . १६५ सूत्र १४६ । ५.ध.प.१ पृ. ३७३, प्रा.प. सं. प्र.१ गा, १३२ ।
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५४० / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४.३५
गाथार्थ – उपशमश्रेणी
या क्षणी आरोहक सूक्ष्म लोभ का अनुभव करनेवाला जीव सूक्ष्मसाम्पराय संगत है। किन्तु यह संयम यथाख्यात संयम से कुछ न्यून है ||४७४||
विशेषार्थं - - सामायिक, छेदोपस्थापना संयम को धारण करने वाले साधु जब अत्यन्त सूक्ष्म कषाय वाले हो जाते हैं अर्थात् लोभ की सूक्ष्म कृष्टि के उदय का वेदन करने वाले साधु के सूक्ष्म साम्पराय संघम होता है। यह संयम यथाख्यात संयम से कुछ न्यून होता है, क्योंकि अभी तक अत्यन्त सूक्ष्म लोभ का उदय है, पूर्णतः कषायी नहीं हुआ। यथास्यात संयम अकषायी जीवों के होता है ।"
सूक्ष्म स्थूल प्राणियों के वध के परिहार में जो पूर्ण रूप से अप्रमत्त हैं, अत्यन्त निर्वाध उत्साहशील, अखण्डित चारित्र, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान रूपी महापत्रन से धोंकी गई प्रशस्त श्रध्यवसाय रूपी अग्नि की ज्वालाओं से जिसने मोह कर्म रूपी ईंधन को जला दिया है या उपशम करदिया है, ध्यान विशेष से जिसने कषाय के विषांकुरों को खोंट दिया है. सूक्ष्म मोहनीय कर्म के बीज को भी जिसने नाश के मुख में धकेल दिया है, उस परम सूक्ष्म लोभ कषायवाले साधु के सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र होता है। यह संयम ( चारित्र) प्रवृत्ति निरोध या सम्यक् प्रवृत्ति रूप होने पर भी गुप्त और समिति से भी आगे और बढ़कर है। यह दसवें गुणस्थान में, जहाँ मात्र सूक्ष्मलोभ टिमटिमाता है, होता है। अतः पृथक रूप से निर्दिष्ट किया गया है।
इस सूक्ष्म साम्पराय संग्रम का कथन गा. ६६७-६६८ के विशेषार्थ में भी है ।
यथाख्यात संयम का स्वरूप
उवसंते खोणे वा प्रसुहे कम्मम्मि मोहणीयम्मि |
3
छदुमट्टो व जिरगो या जहखादो संजदो सो टु ||४७५ ||
गाथार्थ - अशुभ मोहनीय कर्म के उपशान्त अथवा क्षय हो जाने पर छद्मस्थ व अर्हन्त जिन के यथाख्यात शुद्धि संयम होता है ।।४७५ ॥
विशेषार्थ - - परमागम में विहार अर्थात् 'कषाय के प्रभावरूप अनुष्ठान' का जैसा प्रतिपादन किया गया है, तदनुकूल विहार जिनके पाया जाता है उन्हें यथाख्यात बिहार संयत कहते हैं । " उपशान्तकषाय व क्षीणकषाय अर्थात् ग्यारहवें बारहवें गुणस्थान वाले छमस्थ वीतराग अथवा छद्मस्थ
कषायी हैं । सयोगकेवली तेरहवें गुणस्थानवर्ती और प्रयोगकेवली चौदहवें गुरगस्थानवर्ती जिन हैं। इन चारों गुणस्थानों में कपाय का प्रभाव हो जाने से, प्रात्मस्वभाव की यथावस्थित अवस्था लक्षणवाला यथास्यात संयम होता है ।"
चारित्रमोह के सम्पूर्ण उपगम या क्षय से श्रात्मस्वभाव स्थिति रूप परम उपेक्षा परिणति यथाख्यात संयम है। पूर्व संयम का अनुष्ठान करने वाले साधुयों ने जिसे कहा और समझा तो है, पर
१. ध. पू. १ पृ. ३७१ । २. रा. वा. ६०१८।६-१० । ३. धवल पु. १ पृ. ३७३ गा. १९१: प्रा. पं. सं. थ. १ गा. १३३ । ४. धवल पु. १ . २७१ ५. संस्कृत टीका के प्राधार से ।
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गाथा ४७६-४.१७
संयममागणा/५४१
मोह के उपशम या क्षय के बिना प्राप्त नहीं किया, वह अथाख्यात संयम है। प्रध शब्द का प्रानन्तर्य अर्थ है, अर्थात् जो मोह के उपशम या क्षय के अनन्तर प्रकट होता है । अथवा इस संयम को यथाख्यात इसलिए कहते हैं कि जसा परिपूर्ण शुद्ध आत्मस्वरूप है, वैसा ही इसमें प्राख्यात | प्राप्त होता है।'
शङ्का-मोहनीयकर्म को अशुभ क्यों कहा गया है ?
समाधान-मोहनीयकर्म ही संसार की जड़ है । मोहनीय कर्मोदय से रागद्वेष होते हैं जिनके कारण कर्मबन्ध होता है इसलिए मोहनीय कर्म को अशुभ कहा गया है।
"रत्तो बंधदि कम्म मुचदि जीयो विरागसंपत्तो" ॥१५० पूर्वार्ध ॥ [ समयसार] रागीऔर कर्म को जाता है और वार को प्राप्त हुमा कर्मों से टूटता है । "रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चवि कम्मेहिं रागरहिदप्पा पूर्वार्धं २।७।। [प्रवचनसार] रागी जीव कर्मों को बांधता है और रागरहित प्रात्मा कर्मों से मुक्त होता है । शङ्खा -- योग भी तो बन्ध का कारण है ? समाधानः- जो कपायी जीव हैं उनके योग से मात्र ईपिथ आस्रव होता है । "सकपाधाकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः" ।।४।। [त. सू. अध्याय ६ ]
कषाय सहित के साम्परायिक प्रास्रव होता है और कषाय रहित के ईपिथ प्रास्रव होता है अर्थात् अगले समय में अकर्म भाव को प्राप्त हो जाता है। इसलिये योग वन्ध का कारण नहीं है, योग के साथ जो कषाय है वही बन्ध का कारण है।
'सकषायत्याज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानावत्ते स बन्धः" ॥२॥ [त. सू. अ. ८]
जीव कषायसहित होने से जो कर्मों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है वह बन्ध्र है। इस सूत्र से भी स्पष्ट है कि कषाय वन्ध का कारण है।
देशविरत का स्वरूप पंचतिहिचहु विहेहि य अणुगुणसिक्खावएहि संजुत्ता । उच्चंति देसविरया सम्माइट्टी झलियकम्मा ॥४७६।।* वंसरणवयसामाइय पोसहसचित्तरायभत्ते य । बह्मारंभपरिग्गह अणुमण मुद्दिट्ठदेसविरदेदे ।।४७७॥
१. रा. वा. ६।१८।११-१२। २. घ. १ पृ. ३७३ गाथा ११२, प्रा. पं. स. भ. १ गाथा १३५ चारित्र प्रामत गाधा २२। ३.ध.११ पृ. ६७३ माथा ११३ पु.६ प्र. २०१ गाथा ७४; प्रा. प. म. प्रध्याय १ गाथा १३६, चारित्र पाहु गाथा २१, बारस अणुबेक्वा गाथा ६६ वसुनन्दि थावकाचार गाथा ४।
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५४२ / गो. सा. जत्रकाण्ड
गाथार्थ - पाँच प्रणत, तीन गुणवत, चार शिक्षाव्रतों से सहित सम्यग्ग्रष्ट देशविरत कहे. जाते हैं। संयमासंयम के कारण वे निरन्तर कर्मनिर्जरा वाले होते हैं ||४७६ ॥ दर्शनिक, व्रतिक, सामायिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्त विरत, ब्रह्मचारी प्रारम्भविरल, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत ये देशविरत के ग्यारह भेद हैं ||४७७ ।।
विशेषार्थ - हिंसा, सत्य, चोरी, श्रब्रह्म और परिग्रह इन पाँच पापों से एकदेशविरति पाँच ग्रणुव्रत हैं। श्री तत्वार्थसूत्र में कहा भी है- हिंसानृतस्ते या ब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरति तम् ॥ १॥ देशसर्वतोऽणुमहती ||२||”
थूले तसकाय परिहारो
थले मोसे तितिवखयले य ।
गाया ४७९-४5.9
परिहारंभपरिमाणं ॥ २३॥ [ चारित्रपाहुड़ ]
स्थूल असंबंध, स्थूल असत्य कथन, स्थूल चोरी, परस्त्री का परिहार तथा परिग्रह और आरम्भ का परिमाण ये पाँच अणुव्रत हैं ।
शङ्का हिंसा किसे कहते हैं ?
समाधान - " प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा" || ७|१३|| [तस्वार्थसूत्र ] । कषाय सहित अवस्था से युक्त जो ग्रात्मा का परिणाम होता है वह प्रमत्त कहलाता है। तथा प्रमत्त प्रमाद श्रर्थात् का योग प्रमत्तयोग है। इसके सम्बन्ध से इन्द्रियादि दस प्रारणों का यथासंभव व्यपरोपण अर्थात् वियोग करना हिंसा है । इससे प्राणियों को दुःख होता है इसलिए अधर्म है । केवल प्राणों का वियोग करने से अधर्म नहीं होता, यह बतलाने के लिये सूत्र में 'प्रमत्तयोगात्' अर्थात् 'प्रमत्तयोग से ' यह पद दिया है। प्राणों का विनाश न होने पर भी केवल प्रमत्तयोग से हिंसा हो जाती है। कहा भी है -
"मरवु व जियदु व जीवो प्रयदाचारस्स शिच्छिदा हिंसा ।
पयदस्स णत्थि बंधो हिसामितेण समिवस्स || ३|१७|| [ प्रवचनसार ]
१. सर्वार्थसिद्धि ७११३ ।
-- जीव मर जाय या जीता रहे तो भी यत्नाचार से रहित पुरुष के नियम से हिंसा होती है । समिति सहित यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले के प्राणव्यपरोपण हो जाने पर भी संकल्पी हिंसा निमित्त बन्ध नहीं होता । वास्तव में राग आदि भाव हिंसा है, कहा भी है
प्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहंसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिलागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ ॥ । [ पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
- निश्चय करके रागादि ( राग-द्वेष ) भाबों का उत्पन्न न होना अहिंसा है और रागादि भावों की उत्पत्ति हिंसा है। ऐसा जैन आगम में निश्चय से कथन किया गया है।
स्वयमेवात्मनात्मानं हिनत्यात्मा
प्रमादवान् । पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः ॥
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गाथा ४७६-४७७
संघममारणा: ५४३
-प्रमाद से युक्त प्रात्मा पहले स्वयं अपने द्वारा ही अपना घात करता है, इसके बाद दुसरे प्राणियों का वध होवे या न होने ।'
"थूले तसकायवहे" प्रस्य अर्थ:--स्थूले त्रसकायवधे परिहारः। [चारित्र पाहुड़ गा. २३ टीका]-*
-स्थूल रूप से त्रस जोवों की हिंसा का त्याग करना अहिंसाणुव्रत है । शङ्का-असत्य किसे कहते हैं ? समाधान - "असदभिधानमनृतम्"॥७॥१४॥ असत् बोलना अन्त है ।
'सत्' शब्द प्रशंसाबाची है। जो सत् नहीं वह असत् है। असत् का अर्थ अप्रशस्त है । तात्पर्य यह है कि जो पदार्थ नहीं है, उसका कथन करना अनून (असत्य) है । ऋत का अर्थ सत्य है और जो ऋत (सत्य) नहीं है वह अनूल है।
शङ्का-अप्रशस्त किसे कहते हैं ?
समाधान जिससे प्राणियों को पीड़ा होती है, वह अप्रशस्त है। चाहे वह विद्यमान अर्थ को विपय करता हो चाहे विमान को जिन वन से हिमा हो यह वचन अनत है ।२ अन्त वचन का एकदेशत्याग सत्य अणुव्रत है ।
"थूले मोसे-स्थूलमृषाबाबे परिहारः।" [चारित्र पाहुड गा. २३ टीका) स्थूल रूप से असत्य कथन का त्याग करना सत्याणुवत है।
शङ्का-- चोरो किसे कहते हैं ?
समाधान-- "प्रदत्तादानं स्तेयम् ।" बिना दी हुई वस्तु का लेना स्तेय (चोरी) है । 'पादान' प्रब्द का अर्थ ग्रहण है। बिना दी हुई वस्तु का लेना अदनादान है और यही स्तेय (चोरी) है।
शङ्का-यदि स्तेय का पूर्वोक्त अर्थ किया जाता है तो कर्म और नोकर्म का ग्रहण भी स्तेय है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जहाँ देना और लेना सम्भव है वहीं स्तेय का व्यवहार होला है।
शङ्का स्तेय का उक्त अर्थ करने पर भी भिक्षु के नाम-नगरादिक में भ्रमण करते समय गली, कू.चा, दरवाजा आदि में प्रवेश करने पर विना दी हुई वस्तु का ग्रहण प्राप्त होता है ?
समाधान यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वे गली, कुचा और दरवाजा आदि मव के लिए खुले हैं। ये भिक्ष जिनमें किंवाड़ ग्रादि लगे हैं उन दरवाजे आदि में प्रवेश नहीं करते, क्योंकि वे
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६. मर्थिसिद्धि ७।१३। २, ममिद्धि ७।१४। ३. सर्वार्थसिद्धि ७।१५ ।
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५४०/गो. सा. जीव काण्ड
गाथा ४७६-४७७
सब के लिए खुले नहीं हैं। प्रथवा 'प्रमत्तयोगात्' इस पद की अनुवृत्ति होती है, जिससे यह अर्थ होता है कि प्रमत्तयोग से बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण करना स्तेय है । गली कूचा आदि में प्रवेश करने वाले वक्ष के तो है नहीं इसलिए वैसा करते हुए भिक्षु के स्तेय का दोष नहीं लगता ।'
स्तेय का एकदेशत्याग प्रचार्यानुव्रत है।
"तितिवखधूले य-1 - तितिक्षा रथले चौर्यस्थले परिहारः ।" [ चारित्र पाहुड गा. २३ टीका ] स्थूल रूप से चोरी का त्याग करना अत्र व्रत है |
शङ्का अब्रह्म किसे कहते हैं ?
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समाधान-"मैथुनमब्रह्म" || १६|| चारित्रमोहनीय का उदय होने पर राग परिणाम से युक्त स्त्री और पुरुष के जो एक दूसरे को स्पर्श करने की इच्छा होती है वह मिथुन है और इसका कार्य मैथुन है। 'प्रमत्तयोगात्' इस पद की अनुवृत्ति होती है। इसलिए रतिजन्यसुख के लिए स्त्रीपुरुष की मिथुन विषयक जो चेष्टा होती हैं वही मंथुन रूप से ग्रहण की जाती है। अहिंसादिक गुण जिसके पालन करने पर बढ़ते हैं वह ब्रह्म है और जो इससे रहित है वह अब्रह्म है । मैथुन में हिंसादिक दोष पुष्ट होते हैं, क्योंकि जो मैथुन के सेवन में दक्ष है, वह चराचर सब प्राणियों की हिंसा करता है |
मैथुनाचरणे मूढ ! त्रियन्ते जन्तुकोटयः ।
योनिरन्ध्रमुत्पन्ना लिङ्गसंघट्टपीडिता ॥ २१॥ [ ज्ञानार्णव मैथुन अधिकार १३ |
- अरे मूढ़ ! स्त्रियों के साथ मैथुन करने से, उनके योनिरूप छिद्र में उत्पन्न हुए करोडों जीव लिङ्ग के आघात से पीड़ित होकर मरते हैं । "घाए घाए प्रसंखेज्जा" लिङ्ग के प्रत्येक प्रत्येक आघात में असंख्यात करोड़ जीव मरते हैं ।
हिस्यन्ते तिलनात्यां तप्तायति विनिहिते तिला यद्वत् ।
बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ||१०८ || [ पुरुषार्थ सिद्धच पाय ] - जिस प्रकार तिलों की नली में तप्त लोहे का सरिया डालने से तिल नष्ट होते हैं उसी प्रकार मंथुन के समय योनि में भी बहुत जीव मरते हैं ।
ܩ
परिहारो पर पिम्मे परिहारः क्रियते परप्रेम्णि परदारे ।" [ चारित्र पाहुड गा. २३ टीका ] पर प्रिया का त्याग अर्थात् स्वदारा के अतिरिक्त सम्पूर्ण स्त्रियों का त्याग ब्रह्मचर्यानुव्रत है । शङ्का - परिग्रह किसे कहते हैं ?
समाधान--"मूर्च्छा परिग्रहः " ||१७|| मुर्च्छा परिग्रह है ।
१. मसिद्धि ७३१५ । २. सर्वार्थसिद्धि ७ । १६ ।
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गाथा ४७६-४७१
संयममागरणा ५४५ शङ्का- मूर्छा क्या है ?
समाधान-गाय भैंस, मणि और मोती आदि चेतन-अचेतन बाह्य उपधि का तथा रागादि रूप अभ्यन्तर उपधि का संरक्षण, अर्जन और संस्कार आदि रूप व्यापार मूर्छा है। मूर्दा धातु का सामान्य अर्थ मोह है । और सामान्य शब्द तद्गत विशेषों में ही रहते हैं। ऐसा मानलेने पर यहाँ मूळ का विशेष अर्थ ही लिया गया है, क्योंकि यहाँ परिग्रह का प्रकरण है।'
शंका . मूर्छा का यह अर्थ ग्रहण करने पर भी बाह्य वस्तु को परिग्रहपना प्राप्त नहीं होता, क्योंकि मूळ इस शब्द से प्राभ्यन्तर परिग्रह का संग्नह होता है ?
समाधान--यह कहना सत्य है ; क्योंकि प्रधान होने से आभ्यन्तर का ही संग्रह किया गया है। यह स्पष्ट ही है कि बाह्य परिग्रह न रहने पर भी 'यह मेरा है ऐसा संकल्प वाला पुरुष परिग्रहवान
शङ्का - यदि बाह्य पदार्थ परिग्रह नहीं हैं और मूछ का कारण होने से यह मेरा है। इस प्रकार का संकल्प ही परिग्रह है तो ज्ञानादिक भी परिग्रह ठहरते हैं, क्योंकि रागादि के समान ज्ञामादिक में भी 'यह मेरा है इस प्रकार का संकल्प होता है ?
समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि 'प्रमत्तयोगात्' इस पद की प्रवृत्ति होती है। इसलिए जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र बाला होकर प्रमादरहित है, उसके मोह का अभाव होने से मुच्र्छा नहीं है, अतएव परिग्रहरहितपना सिद्ध होता है। दूसरे, बे ज्ञानादिक अहेय हैं और आत्मा के स्वभाव हैं, इसलिए उनमें परिग्रहपना नहीं प्राप्त होता। परन्तु रागादिक तो कर्मोदय से होते हैं, अत; व प्रात्मा का स्वभाव न होने से हेय हैं, इसलिए उनमें होनेवाला संकल्प परिग्रह है। सब दोष परिग्रहमुलक होते हैं। यह मेरा है। इस प्रकार के संकल्प के होने पर संरक्षण आदि रूप भाव होते हैं। और इसमें हिंसा अवश्यंभाविनी है। इसके लिए असत्य बोलता है, चोरी करता है तथा नरकादिक में जितने दुःख हैं वे सब परिग्रह से उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार जो परिग्रह से तृष्णा घटाकर परिग्रह का परिमाण कर लेता है वह अपरिग्रह अणुव्रत का धारक है ।
"परिगहारम्भपरिमाणं-परिग्रहाणां सुवर्णादीनामारम्भारगां सेवाकृषिवाणिज्यादीनां परिमाणं क्रियते ।" [चारित्रपाहुड गा. २३ टीका] । सुवर्णादि परिग्रह तथा खेती, व्यापार प्रादि प्रारंभों का परिमार। करना परिग्रहपरिमारणाणुवत है।
'अणु' शब्द अल्पवाचो है जिसके व्रत अणु अर्थात अल्प हैं, वह अणुव्रतवाला है ।
शङ्का- गृहस्थ के व्रत अल्प कैसे होते हैं ?
समाधान -- गृहस्थ के पूर्ण रूप से हिंसादि दोषों का त्याग सम्भव नहीं है, इसलिए उसके व्रत अल्प होते हैं। यह बस जीवों को हिंसा का त्यागी है इसलिए उसके पहला अहिंसा अणुवत होता है।
१. सर्वार्थरिद्धि ७।१७। २. सर्वार्थ सिद्धि ७:१७ ।
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५४६/27. ता. जीवका
गाथा ४७६-४७७ गृहस्थ स्नेह और मोहादिक के वश से गृहविनाश और ग्रामविनाश के कारण असत्य वचन से निवृत है, इसलिए उसके दूसरा सत्याणुव्रत होता है। श्रावक राजा के भय आदि के कारण तथा दूसरे को पीडाकारी जानकर बिना दी हुई वस्तु को लेना छोड़ देता है। साथ ही बिना दी हुई वस्तु के लेने से उसकी प्रीति घट जाने के कारण उसके तीसरा अचौर्याणवत होता है। स्वीकार की हुई या बिना स्वीकार की हुई परस्त्री का संग करने से जिसकी रति हट जाती है उसके परस्त्रीत्याग नामका चौथा अणुव्रत होता है। गृहस्थ धन, धान्य और क्षेत्र प्रादि का स्वेच्छा से परिमाण कर लेता है, इसलिए उसके पांचवां परिग्रह परिमारण अणुव्रत होता है ।'
तीन गुणवत-दिग्वत, देशव्रत, अनर्थदण्डवत अथवा दिग्वत, अनर्थदण्डवत, भोगोपभोगपरिमाण व्रत ।
शङ्का-इनको गुणवत क्यों कहा गया है ?
समाधान-क्योंकि ये पाठ मूलगुरणों को अथवा पूर्वोक्त पाँच अणुव्रतों की वृद्धि करते हुए उनमें उत्कर्षता लाते हैं।
दिग्वतः-पूर्वादि दिशाओं में प्रसिद्ध चिह्नों के द्वारा मर्यादा करके नियम करना दिग्विरतिव्रत है । उस मर्यादा के बाहर प्रस-स्थावर हिंसा का त्याग हो जाने से उत्तने ग्रंश में महावत होता है। मर्यादा के बाहर लाभ होते हुए भी उसमें परिणाम न रहने के कारण लोभ का त्याग हो जाता है ।
प्रविधाय सुप्रसिद्ध मर्यादा सर्वतोप्यभिज्ञानैः ।
प्राच्याविभ्यो दिग्भ्यः कर्तध्या विरतिरविचलिता ॥१३७॥ [पुरुषार्थ सिद्धघ पाय] -~-सुप्रसिद्ध ग्राम नदी पर्वतादि नाना चिह्नों से सब मोर मर्यादा को करके पूर्वादि दिशाओं से गमन न करने की प्रतिज्ञा करना दिग्बत है।
"दिसिविदिसिमाण पढम" अर्थात दिशाओं और विदिशाओं का परिमारग करना प्रथम गृणव्रत है । अर्थात् पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर ये चार दिशाएं हैं तथा ऐशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ऊर्ध्व और अधो ये छह विदिशाएं हैं। इनमें आने-जाने की सीमा करना पहला विग्यत नामक गुणवत है।
दिग्वलयं परिगणितं कृत्वाऽतोऽहं बहिर्न यास्यामि । इति संकल्पो दियतमामृत्यणुपाप-विनिवृत्यै ॥६॥ [रत्नकरण्डधारकाचार अवधर्वहिरणपाप-प्रतिविरतेदिग्वतानि धारयताम् ।।
पंचमहाव्रतपरिणतिमणुक्तानि प्रपद्यन्ते ।।७०॥ [रत्नकरण्डश्रावकाचार] दशों दिशाओं को मर्यादित करके जो सुक्ष्म पाप की निवृत्ति के अर्थ मरणपर्यन्त के लिए यह संकल्प करता है कि 'मैं दिशाओं की इस मर्यादा से बाहर नहीं जाऊंगा' यह दिशाओं से विरतिरूप 'दिग्बत' कहा जाता है । दिशाओं के नत धारगा करने वाले के अणुव्रत, मर्यादा के बाहर सूक्ष्म पापों
१. सर्वार्थसिद्धि ७।२। २. त. स. ७।२१: पृषार्थसिद्धय पाय गा. १३५-१४५। ३. चारित्रपाहुड गा, २४; रत्नकरण श्रावकाचार पलो. ६७ टीका। ४. स. सि २१ । ५. चारित्रपाहुद्ध गा. २४ ।
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गाथा ४७६-४७७
संयममार्गणा/५४७
की भी निवृत्ति हो जाने के कारण, पंच महाव्रतों की परिणति को (महायतों जैसी अवस्था को) प्राप्त होते हैं।
इति नियमितदिग्भागे प्रवर्तते यस्ततो बहिस्तस्य ।
सकलासंयमबिरहावयहिंसावतं पूर्णम् ॥१३८॥ [पुरुषार्थसिद्धय पाय |
--इस प्रकार जो मर्यादाकृत दिग्विभाग में प्रवृत्ति करता है, उसके उस क्षेत्र से बाहर समस्त असंयम के त्याग के कारण, अहिंसाव्रत पूर्ण हो जाता है अथवा परिपूर्ण अहिंसावत होता है।
अनर्थदण्ड -उपकार न होकर जो प्रवृत्ति केवल पाप का कारण है वह अनर्थदण्ड है। इससे विरत होना अनर्थदण्डविरति है।'
अभ्यंतरं विगवधेरपायिकेभ्यः सपापयोगेभ्यः ।
विरमणमनर्थदण्डवतं विद्युतधराऽग्रण्यः ॥७४॥ [रत्नकरण्डश्रावकाचार]
-दिशाओं की मर्यादा के भीतर निष्प्रयोजन पापयोगों से (पापमय मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों से) जो विरक्त होना है, व्रतधारियों में अग्रणी मणघरदेव उसे अनर्थदण्डवत कहते हैं।
मनमः पात्र मारता-सामान, पापोपदेश, प्रमादचरित, हिंसाप्रदान और अशुभ श्रुति । दूसरों का जयपराजय, मारना, बाँधना, अंगों का छेदना और धन का अपहरण आदि कैसे किया जाय? इस प्रकार मन से विचार करना अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड है ।२
वध-बन्ध-च्छेदावेद्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः ।
आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ॥७॥ [रत्नकरण्डश्रावकाचार]
-द्वेषभाव से किसी को मारने-पीटने-बांधने या उसके अंगच्छेदनादि का तथा किसी की हार अर्थात् पराजय का और रागभावों से परस्त्री प्रादि का अर्थात् दूसरों की जय व पुत्र-धन-धान्य आदि की वृद्धि का जो निरन्तर चिन्तन है अर्थात् व्यर्थ का मानसिक व्यापार है, उसे जिनशासन में गणधर देव ने अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड कहा है। उससे विरति अपध्यान नामक अनर्थदण्डवत है।
पापद्धिजयपराजयसङ्गरपरदारगमनचौर्यायाः ।
न कवाचनापि चिन्त्या, पापफलं केवलं यस्मात् ॥१४१॥ [पुरुषार्थसिद्धय पाय
–शिकार, जय, पराजय, युद्ध, परस्त्री-गमन, चोरी आदिक का किसी समय में भी नहीं चिन्तन करना चाहिए, क्योंकि इन अपध्यानों का फल केवल पाप ही है। यह अपध्यान नामक अनर्थ दण्ड है । इससे बिरतिभाव वन है ।
तिर्यंचों को क्लेश पहुँचाने वाले वगिज का प्रसार करने वाले और प्राणियों की हिंसा के कारणभूत आरम्भ आदि के विषय में पापबहुल वचन बोलना पापोपदेश नामका अनर्थदण्ड है।
----- १. गर्षि प७ि /२१ । २. ससिदि७/२१ । ३. ससिजि ७/२१ ।
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५४८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४७६-४७७
तिर्यक क्लेश-परिणज्या-हिंसारम्भ-प्रलम्भनादीनाम् ।
कथा-प्रसंग-प्रसवः स्मर्तव्यः पाप उपदेशः ॥७६॥ रत्नकरण्ड थावकाचार]
—तिर्यचों के वाणिज्य की तथा क्लेशात्मक वाणिज्य की या तिर्यचों के क्लेश तथा क्रयविक्रयादि रूप वाणिज्य की अथवा तिर्यचों को वलेशकारी बाणिज्य की, प्राणियों के वध रूप हिसा की, कृष्यादि सावद्य प्रारम्भ की, ठगने रूप विषयों की कथानों के प्रसंग हेड़ने को पापोपदेश नाम का अनर्थवण्ड है । इसका त्याग अनर्थदण्डवत है।
विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पगोविनां पुंसाम् ।
पापोपदेशदानं कदाचिवपि नव वक्तव्यम् ।।१४२॥ पुरुषार्थसिद्धय पाय] -विद्या, ब्यापार, लेखनकला (मुनीम, क्लर्क), खेती, नौकरी और कारीगरी से जीविका करने वाले पुरुष को पाप का उपदेश मिले ऐसा वचन किसी समय नहीं बोलना चाहिए।
बिना प्रयोजन वृक्ष आदि को छेदना, भूमि को कूटना, पानी सींचना आदि पापकार्य प्रमावचरित नाम का अनर्थदण्ड है।' इसका दूसरा नाम प्रमादचर्या भी है।
क्षिति-सलिल-दहन-पवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदं ।
सरणं सारणमपि च प्रमावचाँ प्रभाषन्ते ॥५०॥[रत्नकरण्डश्रावकाचार] —पृथ्वी, जल, अग्नि तथा पवन के व्यर्थ आरम्भ को अर्थात् बिना प्रयोजन पृथ्वी के खोदने को, जल के छिड़कने, अग्नि जलाने-बुझाने को, पंखे से पवन ताड़ने को, व्यर्थ के वनस्पतिच्छेद को और व्यर्थ के पर्यटन को प्रमादचर्या नाम का अनर्थदण्ड कहते हैं । इसका त्याग अनर्थदण्डव्रत है।
भूखननवृक्षमोट्टनशावलवलनाम्बुसेचनादीनि ।
निष्कारणं न कुर्याद्दलफल-कुसुमोच्चयानपि च ॥१४३॥ -पृथ्वी खोदना, वृक्ष या घास उखाड़ना, अतिशय घासबाली जगह रोंदना, पानी सींचना प्रादि और पत्र, फल-फूल तोड़ना भी बिना प्रयोजन न करें। यह तीसरा प्रमाश्चर्या-अनर्थदण्ड व्रत
द
विष, कांच, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, चाबुक और लकड़ी आदि हिंसा के उपकरणों का प्रदान करना हिसाप्रदान नाम का अनर्थदह है।
परशु-कृपाण-खनित्र-ज्वलनायुध-शुङ्गि-शृङ्खलावीनाम् ।
वघहेतूनां दानं, हिंसादानं अवंति बुधाः ॥७७॥ रत्नकरण्डश्रावकाचार]
- - फरसा, बलवार, गैती, कुदाली, अग्नि, प्रायुध (छुरी, कटारी, लाठी, तलवार आदि) बिष, सांकल, इत्यादि वध के कारणों का अर्थात् हिंसा के उपकरणों का जो निरर्थक दान है उसको ज्ञानीजन हिंसादान नाम का अनर्थदण्द कहते हैं । इसका त्याग अनर्थदण्डवत है।
१. सर्वार्थ सिद्धि पा२१ ।
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गाथा ४७६-४७७
संयममार्गणा / ५४६
असिधेनु विषहुताशनलाङ्गल-करवाल का कादीनाम् । वितरणमुपकररणानां हिंसायाः परिहरेद्यत्नात् ।। १४४ । । [ पुरुषार्थसिद्धध ुपाय ]
- छुरी, विष, अग्नि, हल, तलवार, धनुष, आदि हिंसा के उपकरणों का वितरण करना यत्न से छोड़ दे । इसका नाम हिंसादान प्रनर्थदण्ड व्रत है ।
हिंसा और रामादि को बढ़ाने वाली दुष्ट कमाओं को सुना और उनकी शिक्षा देना अशुभ श्रुति नाम का अर्थदण्ड है ।
प्रारम्भ - संग साहस- मिध्यात्व-राग-द्वेष-मद-भवनैः ।
चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति ॥७२॥ [ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ]
— व्यर्थ के आरम्भ (कृष्यादि सावद्यकर्म ), परिग्रह (धन, धान्यादि की इच्छा ), साहस ( शक्ति तथा नीति का विचार न करके एकदम किये जाने वाले भारी असत्कर्म), मिथ्यात्व, द्वेष, राग, मद और मदन ( रति काम) के प्रतिपादनादि द्वारा चित्त को कलुषित मलिन करने वाले शास्त्रों को सुनना, (नाविल पढ़ना, सिनेमा देखना, टेलीविजन देखना, रेडियो सुनना, आदि) दुःश्रुति अशुभ श्रुति नाम का अनर्थदण्ड है। इसका त्याग अनर्थदण्ड व्रत है ।
रागादिवर्द्धनानां कुष्टकथा-नामबोधबहुलानाम् ।
न harat कुर्वीत श्रवणार्जन शिक्षणादीनि ॥ १४५ ॥ [ पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
- रागद्वेष को बढ़ाने वाली तथा बहुत करके अज्ञानता से भरी हुई दुष्ट कथाओं का सुनना, संग्रह करना, सिखाना किसी भी समय न करे। यह बुःश्रुति नामक पाँचवाँ अनर्थदण्ड है। इसका न करना अनर्थदण्ड व्रत है ।
अब तवार्थसूत्र के अनुसार देशव्रत नामक तीसरे गुरणव्रत का कथन किया जाता है । भोगोपभोग परिमाण व्रत का कथन शिक्षाव्रतों में किया जाएगा ।
ग्रामादिक को निश्चित मर्यादारूप प्रदेश देश कहलाता है। उससे बाहर जाने का त्याग कर देना देश बिरति व्रत है । यहाँ भी दिग्विरति व्रत के समान मर्यादा के बाहर महाव्रत है।
तत्रापि च परिमाणं ग्रामापरणभवनपाटकादीनाम् । प्रविधाय नियतकालं करणीयं विरमणं देशात् ॥ १३६ ॥
इति विरतो बहुवेशात् तस्य हिंसा विशेष परिहारात् । तत्कालं विमलमति: यहां विशेषेण ॥। १४० ॥ [ पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
- उस दिग्वत में भी ग्राम, बाजार, मन्दिर, मुहल्लादिकों का परिमाण करके मर्यादाकृत क्षेत्र से बाहर किसी नियत समय पर्यन्त त्याग करना चाहिए। इस प्रकार बहुत क्षेत्र का त्यागी
१२. सर्वार्थसिद्धि ७।२१ ।
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५५०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४७६-४७७
निर्मल बुद्धिवाला धावक उस नियमित काल में मर्यादाकृत क्षेत्र से बाहर हिंसा के त्याग से विशेषता सहित अहिमा व्रत को अपने आश्रय करता है ।
वेशावकाशिकं स्यात्काल-परिच्छेदनेन देशस्य ।
प्रत्यहमणुव्रताना प्रतिसंहारो विशालस्य ।।६२॥ [रत्नकरण्डश्रावकाचार]
--दिग्बत में ग्रहण किये हुए विशाल देश का काल की मर्यादा को लिए हुए जो प्रतिदिन घटाना है, वह अणुव्रतधारी श्रावकों का देशानकाशिक (देशनिवृत्ति परक) व्रत है ।।
वसुनन्दि श्रावकाचार में देशत्रत को यद्यपि गुणनत कहा गया है, किन्तु उसका स्वरूप भिन्न प्रकार कहा गया है
वय-भंगकारणं होइ जम्मि देसम्मि तस्थ रिणयमेरा ।
कोरइ गमगरिएयत्ती तं जारण गुणवधयं विवियं ॥२१५॥ बसुनन्दिश्रावकाचार]
-जिस देश में रहते हुए प्रतभंग का कारण उपस्थित हो, उस देश में नियम से जो गमननिवृत्ति की जाती है, उसको दूसरा देशवत नाम का गुणव्रत जानना चाहिए ।
यत्र व्रतस्य भंगः स्याद्देशे तत्र प्रयत्नतः ।
गमनस्य निवृत्तिःया सा देशविरतिर्मता ।।१४१॥ [गुणभूषण श्रावकाचार] —जिस देश में व्रतभंग की सम्भावना हो उस देश में प्रयत्नपूर्वक गमन का त्याग करने से देशत्रत होता है।
शिक्षावत शिक्षावत-जिन व्रतों के पालन करने से मुनिव्रत धारण करने की या मुनि बनने की शिक्षा मिलती है, वे शिक्षाश्रत हैं। यद्यपि उनकी संख्या चार है तथापि उनके नामों में आचार्यों के अनेक मतभेद हैं। वे मतभेद इस प्रकार है ---
प्राचार्य या ग्रन्थ प्रथम शिक्षावत द्वितीय शिक्षाप्रत का नाम
तृतीय शिक्षावत चतुर्थ शिक्षावत
प्रोषधोपवास
सल्लेखना
१ श्रावक प्रतिक्रमण सामायिक
सूत्र सं. १ २ प्रा. कुन्दकुन्द ३ प्रा. स्वामिकार्तिकेय , ४ आ. उमास्वामी
भोगोपभोगपरिमाण प्रोषधोपवास
देशव्रत अतिथिसंविभाग
५ प्रा. समन्तभद्र
देशव्रत
सामायिक
वैयावृत्य
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गाथा ४७६-४७३
संयममार्गणा/५५१
भोगोपभोगपरिमाण दान अतिथिसंविभाग सल्लेखना
६ प्रा. सोमदेव सामायिक प्रोषधोपवास ७ प्रा. देवसेन देवस्तवन ८ श्रावक प्रतिक्रमण মাহি অতিসীমা
सूत्र सं. २ ६ श्री वसुनन्दि भोगविरति परिभोग विरति
प्राचार्य १० श्री अमृतचन्द्राचार्य सामायिक प्रोषधोपवास
भोगोपभोगपरिमाण
वयावृत्य
मामायिक तृतीय प्रतिमा है और प्रोषधोपवास चतुर्थ प्रतिमा, अत: श्री वसुनन्दि आचार्य ने तथा बाबक प्रतिक्रमण सूत्र सं. २ में सामायिक व प्रोषधोपबास को शिक्षाव्रत में गभित नहीं किया। शिक्षाव्रतों को उनरोत्तर उन्नति आगामी की प्रतिमाएँ हैं. इस दृष्टि से किन्हीं प्राचार्यों द्वारा सामायिक व प्रोषधोपवास को शिक्षाव्रत में सम्मिलित कर लिया गया। तत्त्वार्थमूत्र में उल्लिखित चार शिक्षान्नतों का स्वरूप इस प्रकार है
सामायिक—इसके स्वरूप का विस्तृत कथन सामायिक संयम में किया जा चुका है। शिक्षाव्रत की दृष्टि से कथन इस प्रकार है-सामायिक के लिए की गई क्षेत्र व काल की अवधि, सामायिक स्थित श्रावक के उतने काल के लिए उस क्षेत्र से बाहर पूर्ववत् महावत होता है ।' चारित्रपाइंड गाथा २५ की टीका में इस प्रकार कहा गया है-"सामायिकं च प्रथम शिक्षावतं । चैत्यपञ्चगुरुभक्तिसमाधिलक्षणं विनं प्रति एकवारं द्विवारं त्रिवारं वा व्रत-प्रतिमायां सामायिकं भवति।" सामायिक नामक प्रथम शिक्षाबत है। इसमें चैत्यभक्ति, पञ्च परमेष्ठी भक्ति और समाधि भक्ति करनी चाहिए। व्रतप्रतिमा में जो सामायिक होती है वह दिन में एक बार, दोबार अथवा तीन यार होती है। परन्तु सामायिक प्रतिमा में जो सामायिक कहा गया है वह नियम से तीन बार करना चाहिए।
रागद्वेषत्यागानिखिलद्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य । तत्त्वोपलब्धिमूलं बहुशः सामायिक कार्यम् ॥१४८।। रजनीदिनयोरन्ते तदबश्यं भावनियमविश्वलितम् । इतरत्र पुनः समये न कृतं दोषाय तद्गुणाय कृतम् ॥१४६।। सामायिक श्रितानां समस्तसावधयोगपरिहारात् ।
भवति महाव्रतमेषामुपयेऽपि चरित्रमोहस्य ।।१५०॥ [पुरुषार्थसिद्धय पाय |
रागद्वेष के त्याग से समस्त इप्ट-अनिष्ट पदार्थों में साम्यभाव को अंगीकार कर आत्मतत्त्व की प्राप्ति का मूल कारण सामायिक रूप कार्य है । वह सामायिक गत्रि और दिन के अन्त में एकाग्रता पूर्वक अवश्य ही करना चाहिए। फिर यदि अन्य समय में किया जाय तो वह सामायिककार्य दोष के हेतु नहीं किन्तु गुण के लिए होता है। इन सामायिक दशा को प्राप्त हुए श्रावकों के चारित्रमोह के उदय होते भी, समस्त पाप के योगों के त्याग से महावत होता है।
१. सर्वार्थसिद्धि ७।२१।
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५५२/गो. सा. जीवका
गाथा ४५६-४७७
आसमयमुक्तिमुक्त पंचाऽधानामशेषभावेन । सद सामगि: सन्नयिक साद शंसन्ति ॥७॥ मूर्ध्वह-मुष्टि-वासो-बन्धं पर्यकुबन्धन चाऽपि । स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः ॥६॥ एकान्ते सामयिक निक्षिपे वनेषु वास्तुषु च । चैत्यालयेषु वाऽपि च परिचेतव्यं प्रसन्नधिया ॥६६ व्यापार-वमनस्याद्विनिवृत्यामन्तरात्मविनिवृत्या । सामयिक बनीयादुपवासे कभुक्तं वा ॥१०॥ सामयिकं प्रतिदिवसं यथावदप्यनलसेन चेतव्यम् । व्रतपंचक-परिपूरण-कारणमवधान-युक्त न ॥१०१॥ सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि ।
घेलोपसृष्टमुनिरिव गृही तवा याति यतिभावम् ॥१०२॥ - समय की (केशबन्धनादि रूप से गृहीत प्राचार की) मुक्तिपर्यन्त (उसे तोड़ने की अवधि तक) जो हिंसा प्रादि पांच पापों का पूर्ण रूप से सर्वत्र त्याग करना है, उसका नाम आगम के ज्ञाता 'सामायिक कहते हैं । केशबन्धन, मुष्टिबन्धन, वस्त्रवन्धन, पर्यकुबन्धन (पद्मासन) और खड़े होकर कायोत्सर्ग करना, तथा बंटकर कायोत्सर्ग करना, इनको प्रामम के ज्ञाता अथवा सामायिक सिद्धान्त के जानकार पुरुष सामायिक का अनुष्ठान कहते हैं। वनों में, मकान में तथा चैत्यालयों में अथवा अन्य गिरि-गुहादिकों में, निरुपद्रव-निराकुल एकान्त स्थान में प्रसन्नचित्त से स्थिर होकर सामायिक को बढ़ाना चाहिए। उपवास तथा एकामान के दिन व्यापार और वैमनस्य से बिनिवृत्ति धारण कर अन्तर्जल्पादि रूप संकल्प-विकल्प के त्याग द्वारा सामायिक को मृत करना चाहिए। प्रतिदिन भी निरालसी और एकाग्रचित्त गृहस्थ श्रावकों को चाहिए कि वे यथाविधि सामायिक को बढ़ावें, क्योंकि यह सामायिक अहिंसादि पांच व्रतों की पूर्णता का कारण है। सामायिक में कृष्यादि प्रारम्भ के साथ-साथ सम्पूर्ण बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहों का प्रभाव होता है। इसलिए सामायिक की अवस्था में गृहस्थ श्रावक की दशा चेलोपसृष्ट मुनि (वस्त्र के उपसर्ग से युक्त मुनि) जैसी होती है अतः यह शिक्षावत है ।
प्रोषधोपचास-प्रोषध का अर्थ पर्व है और पांचों इन्द्रियों के शब्दादि विषयों के त्यागपूर्वक उसमें निवास करना उपवास है। अर्थात् चार प्रकार के प्राहार का त्याग करना उपवास है। तथा प्रोषध के दिनों में जो उपवास किया जाता है, वह प्रोषधोपवास है। प्रोषधोपवासी श्रावक को अपने शरीर के संस्कार के कारण स्नान, गन्ध, माला और पाभरण प्रादि का त्याग करके किसी पवित्र स्थान में, साधुनों के रहने के स्थान में, चैत्यालय में या प्रोषध के लिए नियत किये गये अपने घर में धर्म-कथा सुनने, सुनाने और चिन्तन करने में मन को लगाकर उपवास करना चाहिए। और सब प्रकार का आरम्भ छोड देना चाहिए। प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को यह व्रत किया जाता है। प्रोषधोपचास शिक्षाप्रत उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार का है।
१. सर्वार्थसिद्धि ७।२१ ।
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गाथा ४७६-४.१७
संयममार्गणा/५५३
अन्न-पान-खाद्य और लेह्य इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उत्कृष्ट प्रोषधोपवास है। जिसमें पर्व के दिन जल लिया जाता है वह मध्यम प्रोषधोपवास है और जिसमें आचाम्लाहार किया जाता है, वह जघन्य प्रोषधोपवास है ।।
सामायिकसंस्कारं प्रतिदिनमारोपितं स्थिरीकर्तुम् । पक्षाद्ध योद्ध योरपि कर्तव्योऽवश्यमुपवासः ॥१५१।। मुक्तसमस्तारम्भः प्रोषधदिनपूर्ववासरस्या ।
उपवासं गृह्णीयान्ममत्वमपहाय वेहादौ ॥१५२॥ [पुरुषार्थसिद्धय पाय]
- प्रतिदिन अंगीकार किये हुए सामायिक संस्कार को स्थिर करने के लिए दोनों पक्षों के अर्द्धभाग में अर्थात् अष्टमी चतुर्दशी के दिन उपवास अवश्य ही करना चाहिए। समस्त प्रारम्भ से मुक्त होकर शरीरादिकों में आत्मबुद्धि को त्यागकर उपवास के पूर्वदिन के प्राधे भाग में उपवास को अंगीकार करना चाहिए।
चतुराहारविसर्जनमुपवासः प्रोषधःसकृद्भुक्तिः । स प्रोषधोपवासो यकुपोष्यारम्भमाचरति ॥१०॥ रत्नकरण्डश्रावकाचार]
--चार प्रकार के आहारत्याग का नाम उपवास है। एक बार भोजन करना प्रोषध या एकाशन है। प्रोषधसहित उपवास प्रोषधोपवास । जो उपवास धारण करके धारणा और पारणा के दिन एकाशन करना है वह प्रोषधोपवास शिक्षाबत कहा जाता है।
भोगोपभोगपरिमाण–भोगोपभोग का लक्षण
भुक्त्वा परिहातव्यो, भोगो भक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः ।
उपभोगोऽशनवसनप्रभृतिः पाञ्चेन्द्रियो विषयः ।।८३॥ —जो पाँच इन्द्रिय विषय एक बार भोगने पर त्याज्य हो जाता है वह 'भोग' है। जैसे भोजन पान विलेपनादिक । और जो पंचेन्द्रिय विषय एक बार भोगने पर पुनः भोगने के योग्य रहता है वह 'उपभोग' है। जैसे वस्त्र, आभरण आदिक ।
भोगोपभोगमूला विरताविरतस्य नान्यतो हिंसा।
अधिगम्य वस्तुतत्वं स्वशक्तिमपि तावपि त्याज्यौ ॥१६१॥[पुरुषार्थसिद्धय पाय] - संयतासंयत्त श्रावक के भोग और उपभोग के निमित्त से हिंसा होती है, अन्य प्रकार से नहीं, अतएव भोग और उपभोग भी, वस्तुस्वरूप जानकर और अपनी शक्ति अनुसार छोड़ने योग्य अथवा परिमाण करने योग्य है।
भोजन, पान, गन्ध और माला आदिक भोग कहलाते हैं तथा प्रोढ़ना-बिछाना, अलंकार
१. चारित्रपाहुड़ गा. २५ की टीका । २. रत्नकरण्डयावकाचार ।
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५५४ / गोसा. जीवकाण्ड
गाथा ४७६-४७७
(भूषण), शयन, आसन, घर, यान और वाहन आदि उपभोग कहलाते हैं । इनका परिमार करना भोगोपभोग परिमारण अथवा उपभोग परिभोग परिमाण व्रत है ।"
जं परिमाणं कीरड़ मंडल- तंबोल-गंध- पुप्फाणं ।
तं भोयविरह भरिणयं पढमं सिक्खावयं सुते ॥२१७॥
समससीए महिला वत्थाहरणारण जं तु परिमाणं ।
तं परिभोयणिवृत्ती विदियं सिक्वाययं जाण ॥२१८॥ [ वसुनन्दिश्रावकाचार ]
- मंडन अर्थात् उबटन यादि शारीरिक शृङ्गार, ताम्बूल, गंध और पुष्पादिक का जो परिमाण किया जाता है, उसे उपासकाध्ययन सूत्र में भोगविरति नामका प्रथम शिक्षाव्रत कहा गया है || २१७ ॥ अपनी शक्ति के अनुसार स्त्रीसेवन और वस्त्र आभूषणों का जो परिमाण किया जाता है, उसे परिभोगनिवृत्ति नामका द्वितीय शिक्षावत जानना चाहिए ।
त्रसघात, मादक, बहुघात, अनिष्ट और अनुपसेक्य ये पांच प्रकार के अभक्ष्य हैं, इनका त्याग यावज्जीवन करना चाहिए। इससे सम्बन्धित लोक इस प्रकार है---
प्रसहति परिहरणार्थं क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृतये । मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातैः ॥ ६४ ॥ अल्पफल बहुविधातान्मूलकमार्द्राणि शृङ्ग-वेराणि । नवनीत- निम्बकुसुमं तकमित्येवमवयम् ॥८५॥ यवनिष्टं तद्व्रतयेद्यच्चाऽनपुसेव्यमेतदपि जह्यात् । अभिसन्धिकृताविरतिविषयाद्योग्याद् व्रतं भवति || ६६ || [ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ]
जिन चरण की शरण में रहने वालों को सहिसा टालने के लिए 'मधु' और मांस का त्याग करना चाहिए और प्रमाद अर्थात् चित्त की प्रसाबधानता अविवेकता को दूर करने के लिए मद्य प्रादि मादक पदार्थों (भांग, तम्बाकू आदि) का त्याग करना चाहिए। अल्पफल और बहु विघात के कारणभूत मुली आादिक (गाजर - शलजमा दि ) तथा मासुक अदरक आदि (आलू, सराल, शकरकन्द, अरबी, हल्दी, जमीकन्द आदि, मक्खन, नीम के फूल, केलकी के फूल ये सब और इसी प्रकार की अनन्तकायात्मक दूसरी वस्तुएँ भी त्याज्य हैं । जो पदार्थ अनिष्ट हो अर्थात् प्रकृति के प्रतिकूल हो तथा शरीर को हानिकारक हो वह भी त्याज्य है और जो अनुपसेव्य हो ( जैसे गौमूत्र, जूठन आदि) उसे भी छोड़ देना चाहिए। योग्य विषयों से भी जो संकल्पपूर्वक विरक्ति होती है वह भोगोपभोग परिमाण व्रत है ।
शङ्का - शरीर तो पर द्रव्य है, इसकी दृष्टि से अनन्तकायात्मक पदार्थों (सौंठ, हल्दी आदि) को सुखाकर ग्रहण करना हिंसा का कारण है ?
समाधान - यद्यपि शरीर परद्रव्य है तथापि मोक्षमार्ग में सहायक है, क्योंकि जब तक वजर्षभनाराचसंहनन वाला शक्तिशाली शरीर नहीं होगा, उस समय तक मोक्षप्राप्ति नहीं हो सकती । यही
१. सर्वार्थसिद्धि ७।२१ ।
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गाचा ४७६-४७७
मंयममार्गणा ! ५५५ कारण है कि कर्म भूमिया महिलाओं के तोन होन संहनन होने से उनके मोक्ष का निषेध किया गया
शङ्का-अभक्ष्य बाईस हैं । फिर यहाँ पाँच ही अभक्ष्य क्यों कहे गये ?
समाधान--पाँच अभक्ष्य नहीं कहे गये । किन्त रत्नकरण्ड श्रावकाचार में पांच प्रकार के अभक्ष्य कहे गये हैं। अभक्ष्य पदार्थ बहुत है किन्तु वे सब इन पाँच प्रकार के अभक्ष्यों में गर्भित हो जाते हैं। जिनवाणीसंग्रह आदि पुस्तकों में जिन बाईस अभक्ष्यों का नामोल्लेख है, उनके अतिरिक्त भी अभक्ष्य हैं। इनमें अनिष्ट और अनुपसेव्य अभक्ष्यों का नाम ही नहीं है। किसी भी दिगम्बर जैन आर्ष ग्रन्थ में इन बाईस अभक्ष्यों का कथन नहीं मिलता। सम्भवतः प्रन्य सम्प्रदाय में इन बाईस अभटयों का कथन हो।
अतिथिसंविभाग शिक्षानत-संयम का विनाश न हो, इस विधि से जो पाता है वह अतिथि है । या जिसके आने की कोई तिथि निश्चित नहीं हो, वह अतिथि है। अनियतकाल में जिसका आगमन हो वह अतिथि है। इस अतिथि के लिए विभाग करना अतिथि-संविभाग है । वह चार प्रकार का है-भिक्षा, उपकरण, औषध और प्रतिश्रय (रहने का स्थान)। जो मोक्ष के लिए बद्धकक्ष है, संयम पालन करने में तत्पर है और शुद्ध है, उस अतिथि के लिए शुद्ध मन से निर्दोष भिक्षा देनी चाहिए। सम्यग्दर्शन आदि के बढ़ानेवाले धर्मोपकरण देने चाहिए। योग्य औषधि की योजना करनी चाहिए तथा परम धर्म में श्रद्धा रखते हुए अतिथि का निवासस्थान भी देना चाहिए।'
सल्लेखना-श्री कुन्दकुन्द आदि प्राचार्यों ने सल्लेखना को भी शिक्षावत कहा है और तत्त्वार्थसूत्र में भी सहलेखनां जोषिता' द्वारा सल्लेखना का उपदेश दिया है अतः सल्लेखना का कथन किया जाता है— भले प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना (कृशकरना) सल्लेखना है। अर्थात् बाह्य शरीर का और पाभ्यन्तर कषायों का लेखन करना अर्थात् कुश करना सल्लेखना है। बाह्य शरीर का और आभ्यन्तर कषाय का काय और कषाय को उत्तरोत्तर पुष्ट करने वाले कारणों को घटाते हुए, भले प्रकार से लेखन करना कृश करना सल्लेखना है। मरण के अन्त में होने वाली इस सल्लेखना को प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाला गृहस्थ होता है।
शङ्खा- सल्लेखना में अयमे अभिप्रायपूर्वक प्रायु आदि का त्याग किया जाता है, इसलिए सल्लेखना यात्मधात है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सल्लेखना में प्रमाद का अभाव है। रागद्वेष-मोह से युक्त प्रमाद के वश होकर जो कोई विष, शस्त्र आदि उपकरणों का प्रयोग करके अपना घात करता है, वह आत्मघाती है। परन्तु सल्लेखना को प्राप्त हुए जीव के रागादिक तो हैं नहीं इसलिए उसे अात्मघात का दोष नहीं प्राप्त होता । दूसरे, मरण किसी को भी इष्ट नहीं है । जैसे नाना प्रकार की विक्रेय वस्तुत्रों के देन, लेन और संचय में लगे हुए किसी व्यापारी को अपने घर का नाश होना इष्ट नहीं है। फिर भी परिस्थितिवश उसके विनाश के कारण उपस्थित होने पर यथाशक्ति उनको दूर करता है। इतने पर भी यदि वे दूर न हो सके तो विक्रेय वस्तुओं को नाश से रक्षा करता है।
१. गो. क. गा. ३२ । २. प्रवचनसार (शान्तिवीरनगर) पृ. ५३४.३५-३६ । ३. सर्वामिद्धि ७२१ ।
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५५६ / गो. मा. जीवकाण्ड
उसी प्रकार पण्य [ = वस्तुएँ] स्थानीय व्रत और शील के संचय में जुटा हुआ गृहस्थ भी उनके आधारभूत श्रायु श्रादि का पतन नहीं चाहता । यदा कदाचित् उनके विनाश के कारण उत्पन्न हो जायें तो जिससे अपने गुणों में बाधा नहीं पड़े इस प्रकार उनको दूर करने का प्रयत्न करता है । इतने पर भी यदि वे दूर न हो तो जिसमे अपने गुणों का नाश न हो, इस प्रकार प्रयत्न करता है। इसलिए इसके प्रात्मघात का दोष नहीं हो सकता ।"
घरिऊण वत्थमेत्तं परिगृहं छंडिकण प्रवसेसं ।
सगिहे जिरणालए वा तिविहाहारस्स वोसरणं ।। २७९ ।।
गाया ४३६-४७७
जं कुइ गुरुसयासम्म सम्ममालोइऊण तिविहेण ।
सल्लेखणं चत्थं सुतं सिक्खावयं भणियं ॥ २७२॥ [ सुनन्दिश्रावकाचार ]
- वस्त्र मात्र परिग्रह को रख कर और
शिष्य समस्त परिग्रह को छोड़कर अपने ही घर में अथवा जिनालय में रहकर जो श्रावक गुरु के समीप में मन-वचन-काय से अपनी भले प्रकार आलोचना करके पान के सिवाय शेष तीन प्रकार के प्रहार का त्याग करता है उसे उपासकाध्ययन सूत्र में सल्लेखना नामक चौथा शिक्षाव्रत कहा है। 'यह सल्लेखना ही मेरे धर्म को मेरे साथ ले जाने में समर्थ है, ऐसी भावना निरन्तर भानी चाहिए [ पु. सि. उ. श्लोक १७५]
देशविरत के ग्यारह भेदों का स्वरूप
दर्शनिक देशविरत का लक्षण संक्षेप में इस प्रकार है
सम्यग्दर्शन शुद्धः
संसारशरीरभोगनिर्विण्णः ।
पंचगुरु चरण-शरण दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः ॥ १३७॥ | रत्नकरण्ड श्रावकाचार ]
- जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध है तथा संसार, शरीर तथा भोगों से विरक्त है, पंच-गुरुयों के चरणों की शरण को प्राप्त है अर्थात् प्रर्हन्तादि पंच परमेष्ठियों की भक्ति में लीन है और जो सन्मार्ग में श्राकर्षित है, वह दर्शनिक श्रावक है। यह प्रथम प्रतिमा का स्वरूप द्रव्यानुयोग की अपेक्षा से कहा गया है । चरणानुयोग की दृष्टि से प्रथम प्रतिमा का स्वरूप इस प्रकार है- सामान्यरूप से दर्शनप्रतिमा वाला श्रावक ग्रष्टमूलगुणधारी, सप्तव्यसन त्यागी और सम्यग्दर्शन की रक्षा करने वाला होता है।
शङ्का – प्राठ मूलगुणा कौन से हैं ?
समाधान - एक मत के अनुसार बड़, पीपल, पाकर ( पिलखन ), ऊमर (गुलर) और अंजीर इन पाँच फलों का ( इनके सर अन्य फलों का ) तथा मद्य, मांस और मधु इन तीन मकारों का त्याग करना आठ मूलगुण है। दूसरे मत के अनुसार मद्यत्याग १, मांसत्याग २, मश्रुत्याग ३ रात्रिभोजन त्याग ४, पञ्चफली त्याग ५, पञ्चपरमेष्ठी की तुति ( देव - दर्शन ) ६ जीवदया ७)
१. सर्वार्थसिद्धि ७।२२ ।
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गाथा ४७६.४.४७
संयममार्गगगा५५७
पानी छानना ८; अन्य मतानुसार मद्यत्याग १, मांसत्याग २, मधुत्याग ३ और पांच अणवत इस प्रकार पाठ मूलगुण हैं।
शङ्का-सात व्यसन कौन से हैं ?
समाधान-जना, मद्य, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री-सेवन ये महापाप रूप सात व्यसन हैं। इनका त्याग करना चाहिए। इनका विस्तार पूर्वक कथन बसुनन्दिश्रावकाचार आदि अन्यों मे जान लेना चाहिए।
सम्यक्त्व की रक्षा करने के लिए अन्य मत-मतान्तरों के शास्त्रों का श्रवण न करके अपनी बुद्धि को विशुद्ध-निर्मल रखना चाहिए।
इस सामान्य प्राचरण के अतिरिक्त दर्शनप्रतिमाघारी को निम्नलिखित बातों का भी ध्यान रखना आवश्यक है....मूली, नानी, मरणाल, लहसून, तुम्बी फल, कुसुम्भ की शाक, तरबूज और सूरणकन्द का भी त्याग करना चाहिए । अरणी, वरण. सोहजना और करीर, काञ्चनार इन पाँच प्रकार के फूलों का त्याग होता है। दो मुहूर्त के बाद नमक, तेल या घत में रखे हुए फल, प्राचार. मुरब्बा का त्याग और मक्खन तथा मांसादि का सेवन करने वाले मनुष्यों के बर्तनों का इन सबका त्याग, चमड़े के भाण्ड में रखे हुए जल, तल और हींग का त्याग होता है । भोजन करते समय हड्डी (अस्थि), मदिरा, चमड़ा, मांस, खून, पीव, मल, मूत्र और मृत प्राणी के देखने से, त्यागी हुई वस्तु के सेवन से, चाण्डालादि के देखने और उनके शब्द सुनने से भोजन का त्याग करना चाहिए । घुने, भकूड़े (फूलन से युक्त) और चलित स्वाद वाले अन्न का त्याग करना चाहिए। सोलह प्रहर के बाद के तक्र और दही का त्याग करना चाहिए। पान, औषध और पानी का भी रात्रि में त्याग करना चाहिए। यह सभो दर्शनप्रतिमा का प्राचार है।
दूसरी प्रतिमा का नाम व्रत प्रतिमा है। इसमें बारह व्रतों का पालन होता है।'
निरतिक्रमणमणुवत-पंचकमपि शोलसप्तकं चापि । धारयते निःशल्यो योऽसौ प्रतिनां मतो बतिकः ॥१३८॥ [रत्नकरण्डश्रावकाचार]
--जो धावक निःशल्य (माया, मिथ्या और निदान इन तीन शल्यों से रहित) होवार निरतिचार पाँच अणुव्रतों को और साथ ही सातों शीलव्रतों को (नीन गुण और चार शिक्षाद्रतों को) भी धारण करता है बह गणधर देवों के द्वारा द्रतिक पद का धारक (द्वितीय श्रावक.) कहा जाता है। बारह ब्रतों का स्वरूप पूर्व में कहा जा चुका है । पुनरुक्त दोष के कारण उनका यहाँ पर कथन नहीं किया जाता।
शङ्का.. -तीन गुगावत और चार शिक्षावत को शीलबत क्या कहा गया है ?
१. चारित्रपाहुड़ गा. २१ टीका 1 २. रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक ६५ । ३, चारित्रपाहुए गाथा २१ की टीका । ४. चारित्रमाहुड़ गाथा २१ की टीका ।
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५५८ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४७६-४७७
समाधान-व्रतों के रक्षण को 'शील' कहते हैं । शील का लक्षण इस प्रकार है
—
संसाराशतिभीतस्य व्रतानां गुरुसाक्षिकम् ।
गृहीतानामशेषाणां रक्षणं शीलमुच्यते ॥ ४१ ॥ । [ श्रमि श्रावका परि. १२] यद् गृहीतं व्रतं पूर्वं साक्षीकृत्य जिनान् गुरून् ।
तद् व्रताखंडनं शीलमिति प्राहुर्मुनीश्वराः ।।७८ ।। [पूज्यपाद श्रावकाचार ]
-- गुरु को साक्षीपूर्वक पहले ग्रहण किये गये व्रतों का खण्डन नहीं करना प्रथवा रक्षण करना शील कहलाता है ।
शङ्का - शल्य किसे कहते हैं ?
समाधान- शृणाति हिनस्ति इति शल्यम्' यह शल्य शब्द की व्युत्पत्ति है । शल्य का अर्थ है पीड़ा देने वाली वस्तु । जब शरीर में काँटा आदि चुभ जाता है तो वह शल्य कहलाता है। यहाँ उसके समान जो पीड़ाकर भाव है, वह शत्य शब्द से लिया है। जिस प्रकार कॉटन आदि शल्य प्राणियों को बाधाकर होता है, उसी प्रकार शरीर और मन सम्बन्धी बाधा का कारण होने से कर्मोदयजनित विकार में भी शल्य का उपचार कर लेते हैं अर्थात् उसे भी शल्य कहते हैं । यह शल्य तीन प्रकार की है मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यादर्शनशल्य । माया, निकृति और वंचना अर्थात् ठगने की वृत्ति यह माया शल्य है। भोगों की लालसा निदान शल्य है और प्रतत्त्वों का श्रद्धान मियादर्शन शल्य है । इन तीनों शल्यों से जो रहित है वही निःशल्य व्रती कहा जाता है ।
--
शङ्का - शल्य न होने से निःशल्य होता है और व्रतों को धारण करने से व्रती होता है । शल्यरहित होने से व्रती नहीं हो सकता। जैसे देवदत्त के हाथ में लाठी होने से वह छत्री नहीं हो सकता ?
समाधान-व्रती होने के लिए दोनों विशेषणों से युक्त होना आवश्यक है। यदि किसी ने शल्यों का त्याग नहीं किया और केवल हिंसादि दोषों को छोड़ दिया तो वह व्रती नहीं हो सकता । यहाँ ऐसा व्रती इष्ट है जिसने शल्यों का त्याग करके बतों को स्वीकार किया हो। जैसे जिसके यहाँ बहुत घी-दूध होता है वह गायवाला कहा जाता है। यदि उसके घी-दूध नहीं होता और गायें हैं तो वह गायवाला नहीं कहलाता। उसी प्रकार जो सत्य है, व्रतों के होने पर भी वह व्रती नहीं हो सकता, किन्तु जो निःशल्य है, वह व्रती है।"
शरीरमानसीं बाधां कुकर्मोदयादि यत् । मायामिध्यानिदानादिभेदतस्तस्त्रिधा मतम् ॥५॥ [ सिद्धान्तसारसंग्रह प्र. ४ ]
- कर्मों के उदय आदि के कारण शारीरिक और मानसिक पीड़ा देने वाली माया, मिथ्या और निदान तीन प्रकार की शल्य है ।
१. सर्वार्थमिद्धि ७।१८।
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गाथा४७६-४७७
संयममार्गणा/५५६ न्यश्चित्ते करोत्यन्यच्चेष्टायामन्यदेव हि ।
मायावी तस्य कि शोचमुच्यते दुष्टदुर्मतेः ॥८॥[सिद्धान्तसारसंग्रह प्र.४] —मायावी कपटी मनुष्य मन में अन्य विचार करता है तथा शरीर से और वाणी से अन्य चेष्टा करता है। इसलिए वह दुष्ट दुर्बुद्धि क्या पवित्रता धारण कर सकता है ? मायावी महान अपवित्र है। मायावी पुरुष को माया शल्य नित्य पीड़ा देती रहती है। अतः वह अहिंसादि प्रतों का पालन नहीं कर सकता ।
धर्मजिप्रक्षुभिः हेयं मिथ्यात्वं सर्वथा तपोः । सहानस्थितिनित्यं विरोधो यावता महान् ॥४/११॥ मिथ्याशल्यमिवं युष्टं यस्य देहादनिःसृतम् ।
तस्यापदाभिभूतस्य निवृत्तिन कदाचन ॥४/१२॥ [सिद्धान्तसारसंग्रह] • धर्मग्रहण के इच्छुक पुरुषों को मिथ्यात्व का सर्वथा त्याग करना चाहिए। क्योंकि धर्म और मिथ्यात्व इन दोनों में सहानबस्थिति नामका महान् विरोध हमेशा से है । एक स्थान में एकाश्रय में दो विरोधी पदार्थ न रहना सहानवस्था दोष है। जैसे शीत और उष्ण, सर्य और नकुल । जहाँ धर्म रहता है वहाँ मिथ्यात्व नहीं रहता। जहाँ मिथ्यात्व रहता है वहाँ धर्म नहीं रहता । यह मिथ्यात्व शल्य जिसकी देह से नहीं निकल गया ऐसे मिथ्यात्व से प्राप्त हुए दुःखों से पीड़ित पुरुष को कभी मोक्ष प्राप्त नहीं होता।
भिदान शल्य भी प्राणियों को दःखद होने से त्याज्य है। प्रती पुरुपों को यह शल्य धारण करने योग्य नहीं है, क्योंकि यह सब ब्रतों का नाश करती है । प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से निदान • दो प्रकार का है। प्रशस्त निदान के भी दो भेद हैं उनमें से एक संसार निमित्तक प्रशस्त निदान और दूसरा मोक्ष निमित्तक प्रशस्त निदान । कर्मों का नाश, बोधि (रत्नत्रय प्राप्ति), समाधि (धर्मध्यान, शुक्लध्यान) संसार-दुरखों का नाश आदि को चाहने वालों के यह प्रशस्त निदान मुक्ति का कारण है। जिनधर्म की प्राप्ति के लिए योग्य देश (आर्य खण्ड), योग्यकाल (दुःखमासुखमा काल), भव (जैन का उच्चकुल) क्षेत्र योग्य (जैनधर्मी श्रावकों का नगर) और शुभ-भाव व वैभव चाहने वालों को यह संसार का कारण प्रशस्त निदान होता है, क्योंकि संसार बिना ये देश, काल, क्षेत्र, भव, भाव और ऐश्वर्य प्राप्त नहीं होते। प्रथम प्रशस्त निदान पवित्र-अद्वितीय-अनन्त सुखस्थान देने वाला अर्थात् मोक्षप्राप्ति कराने वाला है। द्वितीय प्रशस्त निदान किंचिद् दुःख देने वाला है, क्योंकि अन्य भव में जिनधर्म की प्राप्ति के लिए योग्य देश-काल-क्षेत्र-भव-भाव और ऐश्वर्य चाहने से वह प्रशस्त निदान किचित् हेय है। अप्रशस्त निदान भी भोगहेतुक और मानहेतुक होने से संसार का कारण है, निन्द्य है और सिद्धिमन्दिर में प्रवेश होने में बाधक है।' इस प्रकार माया शल्य, मिथ्याशल्य और अप्रशस्त निदान शल्य रहित पुरुष ही व्रती हो सकता है। प्रशस्तनिदान साक्षात् व परम्परया मोक्ष का कारण होने से त्याज्य नहीं है। सम्यग्दृष्टि देव के निरन्तर यह बांछा रहती है कि कब मरकर मनुष्य बनू और सपम धारण करके मोक्षसुख प्राप्त करूँ। संयम के योग्य देश-काल-क्षेत्र-भब और भाव-प्रापिट की बाछा भी संयमवांछा में निहित है अर्थात् अन्तर्लीन है।
१. सिवान्तसार संग्रह ४।२४५-२५२ ।
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५६० गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४७६-४७७ ___ तीसरी सामायिक प्रतिमा में प्रतिदिन प्रातः मध्याह्न और सायंकाल एक मुहूर्ततक सामायिक करना चाहिए।
चतुरावर्तत्रितयश्चतुः प्रणामः स्थितो यथाजातः। सामयिको द्विनिषधस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसंध्यमभिवन्दी ॥१३॥
—जो श्रावक तीन-तीन पात्रों के चार बार किये जाने की, चार प्रणामों की, अर्व कायोत्सर्ग की तथा दो निषद्यानों की व्यवस्था से व्यवस्थित और यथाजात रूप में स्थित हुअा, मन वचन काय रूप तीनों योगों की शुद्धिपूर्वक तीनों संध्यामों (पूर्वाह्न, मध्याह्न, अपराह्न) के समय वन्दनाक्रिया करता है, वह सामायिक नामका तृतीय प्रतिमाधारी श्रावक है।
चौथी प्रोषधप्रतिमा में प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को शक्ति अनुसार उपवास करना चाहिए।
पर्वदिनेषु चतुष्यपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगृह्य ।
प्रोषध-नियम-विधायी प्रणधिपरः प्रोषघाऽनशनः ।।१४०॥[ रत्नकरण्ड श्रावकाचार] -प्रत्येक मास के चारों ही पर्व दिनों में अर्थात् प्रत्येक अष्टमी चतुर्दशी को, अपनी शक्ति को न छिपाकर, शुभ भावों (ध्यान, स्वाध्याय. पूजन आदि) में रत हुआ एकाग्रता के साथ प्रोषध के नियम का विधान करता है अथवा नियम से प्रोषधोपवास धारण करता है, वह प्रोषधोपवास का धारक चतुर्थश्रावक होता है। पांचवों सचित्त-त्याग प्रतिमा में सचित्त-वस्तुओं के भक्षण का त्याग होता है।
मूल-फल-शाक-शाखा-करीर-कन्द-प्रसन-बीजानि ।
नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो क्यामूर्तिः।।१४१॥ | रत्नकरण्ड श्रावकाचार]
- जो दयालु (गृहस्थ) मूल, फल, शाक, शाखा (कोपल), करीर (गांठ), कन्द, फूल और बीज इनको कच्चे नहीं खाता वह 'सचित्तविरत' पद का अर्थात् पाँचवीं प्रतिमा का धारक श्रावक है। छठी रात्रिभुक्ति-विरति प्रतिमा में रात्रि के भोजन करने कराने का त्याग अथवा दिन में ब्रह्मचर्य की रक्षा करना होता है ।
प्रश्न पानं खाधं लेह्म नाऽश्नाति यो विभवम् ।
स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्त्वेष्वनुकम्पमानमनाः ।।१४२॥] रत्नकरण्डश्रावकाचार
—जो धात्रक रात्रि के समय अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इन चारों प्रकार के भोज्य पदार्थों को नहीं खाता है वह प्राणियों में दया भाव रस्त्रने वाला रात्रिभुक्ति विरत नाम के छठे पद का धारक होता है।
यदि उसका छोटा पुत्र भूख से रोता रहे तो भी छठी प्रतिमाधारी रात्रि में न तो स्वयं भोजन
१. चारित्रपाड़ गाथा २१ टीका। २. रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक १३६। टीका। ४. चारित्रपाहड़ गाथा २१ टीका। ५. चारित्रपाड़ गाथा २१ टोका।
३. चारित्रपाहुड़ गाथा २१
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गाथा ४७६-४१५
संयममार्गणा/५६१
कराएगा, न किसी अन्य को उसे भोजन कराने की प्रेरणा करेगा और न कहेगा।।
जो चउ-विहं पि भोज्ज रयणीए णेव भुजदे णाणी । णय भुजावदि अण्णं गिसिविरमो सो हवे भोओ ॥३२॥ जो रिणसि-भुत्ति वदि सो उपवास करेदि धम्मासे । संवच्छरस्स माझे प्रारंभं चयदि रयणीए ॥३८३॥ [स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा]
—जो रात्रि में चारों प्रकार के भोजन को नहीं करता है और न दूसरे को रात्रि में भोजन कराता है वह रात्रिभोजन का त्यागी होता है। जो पुरुष रात्रिभोजन को छोड़ देता है वह एक वर्ष में छह महीने उपवास करता है और रात्रि में प्रारम्भ का त्याग करता है।
मण-वयण-काय-कय-कारियाणुमोएहि मेहुणं णवधा।
विवसम्मि जो विवरजई गुणम्मि सो सावो घट्ठो ॥२६६॥' - जो मन, बचन, काय और कुत, कारित, अनुमोदना इन नौ प्रकारों से दिन में मैथुन का त्याग करता है वह छठी प्रतिमाधारी श्रावक है।
.-इस प्रकार छठी प्रतिमा में मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना ( ३ ४ ३) इन नव कोटि से रात्रिभोजनत्याग होता है । सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा में स्त्री मात्र का त्याग होता है ।
मलबीज मलयोनि गलन्मलं पूतिगन्धि बीभत्सम् ।
पश्यन्नङ्गमनङ्गाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः॥१४३॥[रत्नकरण्ड श्रावकाचार] --जो व्रती शरीर को रजोवीर्य से उत्पन्न, अपवित्रता का कारण, नव द्वारों से मल को बहाने वाला तथा दुर्गन्ध और ग्लानि युक्त जानकर कामसेवन का सर्वथा त्याग कर देता है वह ब्रह्मचर्य प्रतिमा का धारक है। "पाठवी प्रारम्भत्याग प्रतिमा में सेवा, कृषि तथा व्यापार आदि वा परित्याग होता है ।
सेवा-कृषि-वाणिज्यप्रमुखाबारम्भतो ब्युपरमति ।
प्राणातिपात-हेतोर्योऽसावारम्भ-विनिवृत्तः ॥१४४॥ [रत्नकरण्डश्रावकाचार]
—जो श्रावक कृषि, सेवा और वाणिज्यादि रूप प्रारम्भ प्रवृत्ति से बिरक्त होता है, क्योंकि प्रारम्भ प्राणपीड़ा का हेतु है, वह प्रारम्भत्यागी थावक है।
नौवीं परिग्रह-त्याग प्रतिमा में वस्त्र मात्र परिग्रह रखा जाता है तथा सुवर्णादिक धातु का त्याग होता है।
१. शास्त्रसार समुच्चय पृ. १८७६ २. म्यामिवातिकेयानुप्रेक्षा। ३. वसुनन्दि थावकाचार । ४-५. चारिश्रपाई गा. २१ टीका !
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५६२/गो, सा, जीवकाण्ड
गाथा ४७८-४७६ बाहोषु दशषु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः ।
स्वस्थः संतोषपरः परिचितपरिग्रहाद्विरतः ॥१४५॥ [रत्नकरण्डश्रावकाचार]
-नोद प्रकार की मह बरनी में क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य आदि में) ममत्व को छोड़कर निर्ममभाव में रत रहता है, स्वात्मस्थ है और परिग्रह की आकांक्षा से निवृत्त हुआ सन्तोषधारण में तत्पर है वह परिग्रह से विरक्त नौवीं प्रतिमाधारी श्रावक है। दसवीं अनुमतित्याग प्रतिमा में विवाह आदि कार्यो की अनुमति का त्याग होता है।
अनुमतिरराम्मे वा परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वा।
नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः ॥१४६॥ [रत्नकरण्ड श्रावकाचार]
-जिसकी निश्चय से प्रारम्भ में व परिग्रह में और बाह्य कार्यों में अनुमति नहीं होती वह रागादि रहित बुद्धि का धारक अनुमतिविरत नामक दसवीं प्रतिमाधारी श्रावक है। 'ग्यारहवीं उद्दिष्टत्याग प्रतिमा में अपने उद्देश्य से बनाये हुए पाहार का परित्याग होता है।
गृहतो मुनिवनमित्या गुरूपकण्ठे वतानि परिगृह्य ।
भक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥१४७॥[रत्नकरण्ड श्रावकाचार]
--जो श्रावक घर से मुनिवन को जाकर और गुरु के निकट व्रतों को ग्रहण करके तपस्या करता हुआ भैक्ष्य भोजन करता है और वस्त्रखण्ड का धारक होता है, वह उद्दिष्टत्याग नाम की ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक श्रावक होता है।
असंयत का स्वरूप जीवा चोद्दस भेया इंदियविसया तहट्ठवीसं तु । जे तेसु रणव विरया असंजदा ते मुणेदबा ॥४७८।।' पंचरसपंच-यण्णा दो-गंधा प्रदु-फास सत्त-सरा।
मरणसहिदट्ठावीसा इंदिय-विसया मुणेदव्या ॥४७६॥ गाथार्थ-~-जीब समास चौदह प्रकार के हैं और इन्द्रियों के विषय अट्ठाईस प्रकार के होते हैं। जो जीव इनसे विरत नहीं हैं, उनको असंयत जानना चाहिए ।।४७८।। पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्ग, सात स्वर, मन का एक; इस प्रकार इन्द्रियों के विषय अट्ठाईस जानने चाहिए ।।४७६||
विशेषार्थ—सूक्ष्मैकेन्द्रिय, बादरकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संजी पंचेन्द्रिय, असंजी पंचेन्द्रिय इन सातों के पर्याप्त व अपर्याप्त इस प्रकार चौदह जीवसमास होते हैं । इनका विशद कथन जीवसमास अधिकार में किया जा चुका है। वहाँ से देख लेना चाहिए। इन चौदह जीवसमासों की रक्षा करना संयम है। मीठा, खट्टा, कपायला, कडुआ, चरपरा यह पाँच प्रकार का रस; सफेद,
१. चारित्र पाहुइ गाथा २१ की टीका। २. धवल पु. १ गाथा १६४ पृ. ३७३ ; प्रा.पं.मं.अ. १ गाथा १३७ ।
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गाथा ४८०-४५१
संयममार्गरा/५६३
पीला, हरा, लाल, काला ये पाँच प्रकार के वर्ण, सुगन्ध और दुर्गन्ध के भेद से गन्ध दो प्रकार की; स्बर सात प्रकार के षड़ज, ऋषभ, गान्धार. मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद ; स्पर्श के पाठ भेदकोमल-कठोर, हलका-भारी, शीत-उष्ण, रूखा-चिकना, मन का विषय एका; इस प्रकार अढाईस इन्द्रिय विषय होते हैं (५+५+२+७-८+१- २५) ।
संयममार्गणा में जीवसंख्या पमदादिचउण्हजुदी सामयियदुगं कमेण सेसतियं । सत्तसहस्सारणवसय णवलक्खा तोहि परिहीरणा ॥४८०॥ पल्लासंखेज्जदिमं विरदाविरदाण दवपरिमाणं ।
पुधुत्तरासिहोरा संसारी अविरदारण पमा ॥४१॥ गाथार्थ-प्रमत्तादि चार गुणस्थानवर्ती जोवों का जितना प्रमाण है उतना ही प्रमाण सामायिक संपतों का है और ना गरेको स्याना संयत जीवों का है। और शेष तीन संयमी जीवों का प्रमाण क्रम से तीन कम सात हजार (६६६७) व तीन कम नौ सौ (८६७) और तीन कम नौ लाख है ।।४८०।। विरताविरत का प्रमाण पल्य के असंख्यातवें भाग है। संमारी जीवों में से पूर्वोक्त राशियों को कम कर देने से असंयतों का प्रमाण आता है ।।४८१।।
विशेषार्थ- सामायिक छेदोपस्थापना संयत कोटि पृथक्त्व प्रमाण है।' यहाँ पर पृथक्त्व का प्रमाण नहीं बतलाया गया क्योंकि दक्षिण मान्यता के अनुसार कुल संयतों की संख्या पाठ करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौ सौ सत्तानवे है। किन्तु उत्तर मान्यता के अनुसार कुल संयतों की संख्या छह करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौ सौ छयानवे है। ये दोनों संख्या कोटि पृथक्त्त्र के अन्तर्गत हैं। सर्व संयतों की संख्या में से सूक्ष्म साम्परायिक संयत और यथाख्यात संयतों की संख्या कम कर देने पर सामायिक-छेदोपस्थापना संयतों की संख्या शेष रह जाती है। परिहारशुद्धि संयतों के सामायिक छेदोषस्थापना संयम अवश्य होता है, अतः परिहारशुद्धि संयतों की संख्या कम नहीं की गई। परिहारशुद्धिसंयत तीन कम सात हजार (६६६७) होते हैं और सूक्ष्म-साम्पराय संयत तीन कम नौ सी (८६७) होते हैं । और यथाख्यात संयमी जीव आठ लाख निन्यानवे हजार नौ सौ सत्तानवे हैं । सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात संयतों की दोनों की संख्या (८६७ + ८६६६६७) नौ लाख आठ सौ चौरानवे (६००८९४) होती है। इसको सर्व संयतों की संख्या पाठ करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौ सौ सत्तानवे में से कम करने पर शेष (RECE९६७-६००५६४) आठ करोड नब्बे लाख निन्यानवे हजार एक सौ तीन (८९०६६१०३) सामायिक छेदोपस्थापना संयतों की संख्या है।
संयतासंयत द्रव्य प्रमाण से पल्योपम के असंख्यातवें भाग हैं ।।१३७।। यहाँ पर अन्तमूहर्त द्वारा पल्योपम अपहृत होता है ।।१३८॥ "अन्तर्मुहूर्त'' कहने से असंख्याता प्रावलियों का ग्रहरण
१. संजमाणूचादेण संजदा सामाइयच्छेदो चट्रावण सुद्धि संजदा दवपमार्णण केवटिया ? ||१२८]। कोटिपुधन ।।१२६।।" [ध.पु. ७ पृ. १८८] । २. प.पु. ३ पृ. ६८। ३. .पु. ३ पृ. १०१। ४. य.पु. ३ पृ. ४४६ । ५. ध.. ३ पृ. ६७ ।।
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५६४ / गो. सा. जीमकाण्ड
गामा ४८२-४८३
होता है । क्योंकि वैपुल्यवाची अन्तर्मुहूर्त का यहाँ ग्रहण है ।' प्रत संदृष्टि की अपेक्षा कथन इस प्रकार है-
बत्तीस सोलस चत्तारि जाण सदसहिदमदुवीलं च । एदे श्रवहारत्या हवंति संदिद्विणा विट्ठा ॥३७॥२ पट्टी च सहस्सा पंचसया खलु छउत्तरा तोसं । पलिदोवमं तु एवं विधारण संविट्टिणा दिट्ठ ॥३८॥ पंचसय वारसुतरमुद्दिलाई तु लद्धदव्बाई
ין
संयतासंयत सम्बन्धी श्रवहारकाल का प्रमारण १२८ जानना चाहिए। पैंसठ हजार पाँच सौ छत्तीस ( ६५५३६) को पत्योपम माना गया है। संयतासंयत जीवराशि का प्रमाण (६५५३६ ÷ १२८ ) = ५१२ जानना चाहिए ।
समस्त संयतों की संख्या ८१६६६६६७ है और संयतासंयतों की संख्या पस्योपम का प्रसंख्यातव भाग है । इन दोनों को मिलाने से म६६६६६६७ अधिक पत्योपभ का असंख्यातवाँ भाग होता है । इस संख्या को अनन्त संसारी जीवराशि में से घटाने पर असंयतों का प्रमाण प्राप्त होता है, जो अनन्त है ।
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में संयममार्गणा नाम का तेरहवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ।
१४. दर्शनमार्गणाधिकार
दर्शन सामान्य का लक्षण
जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कट्टुमायारं । प्रविसेसर असणमिदि भादे समये ॥४८२||४
भावारां सामाविसेसयाणं सरूवमेत्तं जं । वहीर गहरणं जोवेरा य दंसणं होदि ॥४८३ ॥
गाथार्थ - वस्तुओं का आकार न करके व पदार्थों में विशेषता न करके जो सामान्य का ग्रहण किया जाता है, उसे शास्त्रों में दर्शन कहा है ||४८२ ।। सामान्य विशेषात्मक निज स्वरूप पदार्थ का जीव के द्वारा जो वर्णन रहित ग्रहण है, वह दर्शन है ||४८३ ||
विशेषार्थ - 'जं मामगं गहरणं' इस सूत्र में 'सामान्य' शब्द का प्रयोग आत्म-पदार्थ के लिए
१. "संजदामंजदा दक्ष्यमाणे केवडिया ? १३६|| पलिदोवमस्म श्रसंखेज्जदि भागो ॥१३७॥ एहि पलिदोषमम वहिरदि श्रतो ।। १३८ ॥ एत्थ तो मुहुत्तमिदि बुत्ते "असोज्जावलिया त्ति घेत्तव्वं ।" [घ. ७ पृ. २५९ ] ४. धवल पु. १ पृ. १४६, जयधबल पु. १ पृ. ३६० प्रा. पं. वृहद द्रव्य संग्रह गा. ४३; धवल पु. ७ पृ. १००।
३. घ. पु. ३ पृ.
२. ध. पु. ३ पृ. ८७ । सं. ग्र. १गा. १३५
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गाथा ४८२-४०३
दर्शन मार्गा/ ५६५
ही किया गया है। यहां जीव सामान्य रूप है, इसलिए उसका ग्रहण दर्शन है। यहाँ पर सामान्य विशेषात्मक आत्मा का सामान्य शब्द के वाच्य रूप से ग्रहण किया है।"
शङ्का - जिसके द्वारा देखा जाय, जाना जाय वह दर्शन है। यदि दर्शन का इस प्रकार लक्षण किया जाय तो ज्ञान और दर्शन में कोई विशेषता नहीं रह जाती, दोनों एक हो जाते हैं ?
समाधान -- नहीं क्योंकि अन्तर्मुख चित्प्रकाश ( चैतन्य स्वरूपसंवेदन) को दर्शन और बहिर्मुख चित्प्रकाश को ज्ञान माना है। इसलिए दोनों के एक होने में विरोध श्राता है ।
शङ्का - अपने से भिन्न बाह्य पदार्थों के ज्ञान को प्रकाश कहते हैं इसलिए अन्तर्मुख चैतन्य प्रकाश और बहिर्मुख चैतन्य प्रकाश के होने पर जिसके द्वारा यह डी को सौर पर पदार्थों को जानता है, वह ज्ञान है । इस प्रकार की व्याख्या के सिद्ध हो जाने पर ज्ञान और दर्शन में एकता श्रा जाती है, इसलिए उनमें भेद सिद्ध नहीं हो सकता ?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि जिस तरह ज्ञान के विशेष रूप से प्रतिनियत कर्म की व्यवस्था होती है, उस तरह इन दोनों में भेद है।
द्वारा यह घट है, यह पट है, इत्यादि दर्शन के द्वारा नहीं होती है, इसलिए
श्रथवा अन्तरंगोपयोग को दर्शनोपयोग कहते हैं। कारण यह है कि आकार का अर्थ कर्म (object) कर्तृत्व है, उसके बिना जो अर्थोपलब्धि होती है, उसे अनाकार उपयोग कहा जाता है । "
शङ्का - तरंग उपयोग में भी कर्मकर्तृत्व होता है ?
समाधान - ऐसी प्राशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उसमें कर्ता से भिन्न द्रव्य व क्षेत्र स्पष्ट कर्म का प्रभाव है ।
शङ्का - आकार किसे कहते हैं ?
समाधान- प्रमाण से पृथग्भूत कर्म को प्रकार कहते हैं । अर्थात् प्रमाण में अपने से भिन्न
जो विषय प्रतिभासमान होता है, वह आकार है। वह श्राकार जिस उपयोग में नहीं पाया जाता है वह उपयोग अनाकार अर्थात् दर्शनोपयोग कहलाता है। * सकल पदार्थों के समुदाय से अलग होकर बुद्धि के विषयभाव को प्राप्त हुआ कर्मकारक आकार कहलाता है । "
शङ्का – बाह्य अर्थ के ग्रहण के उन्मुख होने रूप जो अवस्था होती है, वही दर्शन है ? समाधान- ऐसी बात नहीं है, किन्तु बाह्यार्थ ग्रहण के उपसंहार के प्रथम समय से लेकर,
१. "प्राथम्मि पत्तसामण्णा सग्गहङ्गादो ।" [धवल पु. ७ पृ. १००] "जीवो सामण्णं गाम, तस्स ग्रहणं दंसणं" [घवल पु. १३ पृ. २५४] "सामान्यविशेषात्मकस्यात्मनः सामान्यशब्दवाच्यत्वेनोपादानात्" [ धवल पु. १५. ३०० ] ज. घ. १ पृ. ३ । २. धवल पु. १ पृ. १४६ । २. घथल गु. ११ पृ. ३३३ घवल पु. १३ पृ. २०७ । ४. भवल पु. ११ पृ. ३३३ व १३ पृ. २०७ २०८५ जयधवल पु. १ पृ. ३३१ । ६. जयधवल पु. १ पृ. ३३८ ।
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५६६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४८२-४८३
याद्वार्थ के अग्रहण के अन्तिम समय तक दर्शनोपयोग होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इसके बिना दर्शन व ज्ञानोपयोग से भिन्न भी जीव के अस्तित्व का प्रसंग पाता है।'
आत्मविषयक उपयोग 'दर्शन' है। यह दर्शन ज्ञानरूप नहीं है, क्योंकि ज्ञान वाह्य अर्थ को विषय करता है। तथा बाह्य और अन्तरंग विषय वाले ज्ञान और दर्शन के एकता नहीं है, क्योंकि वैसा मानने में विरोध पाता है। और न ज्ञान को ही दो शक्तियों से युक्त माना जासकता है, क्योंकि पर्याय के अन्य पर्याय का प्रभाव माना गया है।
शङ्का–बाह्य पदार्थ को सामान्य रूप से ग्रहण करना दर्शन और विशेष ग्रहण का नाम ज्ञान है, ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते, क्योंकि कितने ही प्राचार्यों ने ऐसा कहा है ?
समाधान-यह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि सामान्य ग्रहण के बिना विशेष के ग्रहण का अभाव होने से संसार अवस्था में अर्थात् छयस्थों के भी, केबली के समान, ज्ञान और दर्शन की अक्रम अर्थात् युगपत् प्रवृत्ति का प्रसंग पाता है । तथा 'सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन' ऐसी परिभाषा मान लेने पर ज्ञान और दर्शन की छद्मस्थ अवस्था में क्रमशः प्रवत्ति भी नहीं बनती है, क्योंकि सामान्य से रहित विशेष कोई वस्तु नहीं है और अवस्तु में ज्ञान की प्रवृत्ति होने का विरोध है। यदि अवस्तु में ज्ञान को प्रवृत्ति मानी जाएगी तो ज्ञान के प्रमाणता नहीं मानी जा सकती, क्योंकि वह वस्तु का अपरिच्छेदक है। केवल विशेष कोई वस्तु भी नहीं है, क्योंकि उसके अर्थक्रिया की कर्तृता का अभाव है। इसलिए "सामान्य नाम प्रात्मा का है," क्योंकि वह सकल पदार्थों में (जान के द्वारा) साधारण रूप से व्याप्त है। इस प्रकार के सामान्य रूप प्रात्मा को विषय करने वाला उपयोग दर्शन है।
केवलज्ञान ही अपने पाप का और अन्य पदार्थों का जानने वाला है, इस प्रकार मानकर कितने ही लोग केवलदर्शन के प्रभाव को कहते हैं। किन्तु उनका यह कथन युक्ति-संगत नहीं है, क्योंकि केवलज्ञान स्वयं पर्याय है। पर्याय के दूसरी पर्याय होती नहीं है, इसलिए केवल ज्ञान के स्व और पर को जाननेवाली दो प्रकार की शक्तियों का अभाव है। यदि एक पर्याय के दूसरी पर्याय का सद्भाव माना जाएगा तो पानेवाला अनवस्था दोष किसी के द्वारा भी नहीं रोका जा सकता है, इसलिए आत्मा ही स्व और पर का जाननेवाला है। उनमें स्वप्रतिभास को केवल दर्शन और परप्रतिभास को केवलज्ञान कहते हैं।
केवल सामान्य तो है नहीं, क्योंकि अपने विशेष को छोड़ कर केवल तद्भाव सामान्य और सादृश्यलक्षगा सामान्य नहीं पाये जाते। यदि कहा जाय कि सामान्य के बिना सर्वत्र समान प्रत्यय और एक प्रत्यय की उत्पत्ति बन नहीं सकती है, इसलिए सामान्य नाम का स्वतन्त्र पदार्थ है, सो ऐसा कहना युक्त नहीं है, क्योंकि एक का ग्रहण अनेकानुविद्ध होता है और समान का ग्रहण असमानानुविद्ध होता है। अतः सामान्यविशेषात्मक वस्तु को विषय करने वाले जात्यन्तरभूत झानों की ही उत्पत्ति देखी जाती है। इससे प्रतीत होता है कि सामान्य नाम का कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है। तथा सामान्य से सर्वथा भिन्न विशेष नाम का भी कोई पदार्थ नहीं है, क्योंकि सामान्य से अनुविद्ध
१. प. पु. ११ पृ. ३३३ । २. घ.पु. ६ पृ. ६. पु. १३ पृ. २०७-२०८ । ३. ध.पु. ६ पृ. ३३ व पु. १३ पृ. २०८ । ४. घ. पु. ६ पृ. ३३-३४। ५ ध. पु ६ पृ. ३४ |
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गाथा ४८२-४८३
दर्शन मार्गगा / ५६७
होकर ही विशेष की उपलब्धि होती है । यदि सामान्य और विशेष का सर्वथा स्वतंत्र सद्भाव मान लिया जाये तो समस्त ज्ञान या तो संकर रूप हो जायेंगे या श्रालम्बन रहित हो जायेंगे । पर ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा होने पर उनका ग्रहण ही नहीं हो सकता ।
अतः जबकि सामान्यविशेषात्मक वस्तु है तो केवलदर्शन को केवल सामान्य का विषय करने वाला मानने पर और केवलज्ञान को केवल विशेष का विषय करनेवाला मानने पर दोनों उपयोग का प्रभाव प्राप्त होता है। केवल सामान्य और केवल विशेष रूप पदार्थ नहीं पाये जाते हैं । कहा भी है
fer on केवल एसो हु भासइ सया वि 1
एय समयम्मि हंदि हु वयणविसेसो रग संभव ॥ १४० ॥
अण्णादं पासंतो प्रविट्टमरहा सया बियाणंतो ।
fe जाइ कि पास कह सवष्तु सिधा होइ ।। १४१ । । १
यदि दर्शन का विषय केवल सामान्य श्रीर ज्ञान का विषय केवल विशेष माना जाय तो केवली जिन जो श्रदृष्ट हैं ऐसे ज्ञात पदार्थ को तथा जो प्रज्ञात है ऐसे इष्ट पदार्थ को ही सदा कहते हैं, यह आपत्ति प्राप्त होती है। इसलिए एक समय में ज्ञात और दृष्ट पदार्थ को केवली जिन कहते हैं यह वचन विशेष नहीं बन सकता है। अज्ञात पदार्थ को देखते हुए और ग्रहष्ट पदार्थ को जानते हुए ग्रहन्त देव क्या जानते हैं और क्या देखते हैं ? तथा उनके सर्वज्ञता भी कैसे बन सकती है ।
उपर्युक्त दोष प्राप्त न हो, इसलिए अन्तरंग उद्योत केवलदर्शन है और बहिरंग पदार्थों को विषय करने वाला प्रकाश केवलज्ञान है। ऐसा स्वीकार कर लेना चाहिए। दोनों उपयोगों की एक साथ प्रवृत्ति मानने में विरोध भी नहीं आता, क्योंकि उपयोगों की क्रमवृत्ति कर्म का कार्य है और कर्म का अभाव हो जाने से उपयोग की क्रमवृत्ति का प्रभाव हो जाता है। इसलिए निरावरण केवलज्ञान और केवलदर्शन की क्रमवृत्ति के मानने में विरोध आता है । "
शङ्का - श्रात्मा को विषय करने वाले उपयोग को दर्शन स्वीकार कर लेने पर आत्मा में कोई विशेषता नहीं होने से चारों (चक्षु प्रचक्षु अवधि और केवल ) दर्शनों में भी कोई भेद नहीं रह जाएगा ।
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो दर्शन जिस ज्ञान का उत्पन्न करने वाला स्वरूपसंवेदन है, उसे उसी नाम का दर्शन कहा जाता है। चक्षु इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए ज्ञान के विषय भाव को प्राप्त जितने पदार्थ हैं, उतने ही श्रात्मा में स्थित क्षयोपशम उन-उन संज्ञाओं को प्राप्त होते हैं । और उनके निमित्त से आत्मा भी उतने प्रकार का हो जाता है । अत: इस प्रकार की शक्तियों से युक्त आत्मा के संवेदन करने को दर्शन कहते हैं । ४ ज्ञान का उत्पादन करने वाले प्रयत्न से सम्बद्ध स्त्रसंवेदन, अर्थात् ग्रात्मविषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं। इस दर्शन में ज्ञान
१. जयघवल पु. १ पृ. ३५३ द्वितीयावृत्ति के पृष्ठ ३२१-२२ । २. जयधवल पु. १ पृ. ३५६ मा १४०-४१ । ३. जयधवल पु. १ पृ. २५६-२५७ । ४. धवल पु. १ पृ. ३६१-३८२ ।
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५६८ / गो, सा, जीव काण्ड
गाथा ४८२-४-३ के उत्पादक प्रयत्न की पराधीनता नहीं है । यदि ऐसा न माना जाय तो प्रयत्न रहित क्षीणावरण और अन्तरंग उपयोग वाले केवली के प्रदर्शनत्व का प्रसंग पाता है।'
प्रागे होने वाले ज्ञान की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न, उस रूप अथवा निज आत्मा का जो परिच्छेदन अर्थात् अवलोकन, वह दर्शन है। उसके अनन्त र बाह्य विपय में विकल्प रूप से जो पदार्थ का ग्रहण है, वह ज्ञान है। जैसे कोई पुरुष पहले घटविषयक विकल्प करता हुआ स्थित है, पश्चात् उसका चित्त पट को जानने के लिए होता है। तब वह पुरुष घट के विकल्प से हटकर स्वरूप में जो प्रयत्न अवलोकन-परिच्छेदन करता है, वह दर्शन है । उसके अनन्तर 'यह पट है ऐसा निश्चय अथवा बाह्य विषय रूप से पदार्थ के ग्रहण रूप जो विकल्प होता है, वह ज्ञान है ।
शिष्य प्रश्न करता है यदि अपने को ग्रहण करने वाला दर्शन और पर-पदार्थों को ग्रहण करने वाला ज्ञान है, तो नैयायिक के मत में जैसे ज्ञान अपने को नहीं जानता है, वैसे ही जैनमत में भी ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है, ऐसा दूषण प्राता है ?
समाधान - नैयायिक मत में ज्ञान और दर्शन पृथक-पृथक दो गुण नहीं हैं। इस कारण उन नैयायिकों के मत में 'आत्मा को जानने के प्रभाव रूप' दूषण माता है, किन्तु जैन सिद्धान्त में प्रात्मा ज्ञान गुण से पर-पदार्थ को जानता है तथा दर्शन गुण से प्रात्मा स्व को जानता है, इस कारण जैनमत में 'प्रात्मा को न जानने का दूषण नहीं पाता है ।
शङ्का—यह दूषण क्यों नहीं पाता?
समाधान-जैसे एक ही अग्नि जलाती है अतः वह दाहक है और पकाती है, इस कारण वह पाचक है, विषय के भेद से दाहक व पाचक रूप अग्नि दो प्रकार की है। उसी प्रकार अभेद नय से चैतन्य एक ही है, भेद नय की विवक्षा में, जब आत्मा को ग्रहण करने में प्रवृत्त होता है तब उसका नाम 'दर्शन' है ; और फिर जब वह पर-पदार्थ को ग्रहण करने में प्रवृत्त होता है, तब उस चैतन्य का नाम 'ज्ञान' है। इस प्रकार विषयभेद से चैतन्य दो प्रकार का होता है।
तर्क के अभिप्राय से (पर-मतों की अर्थात् पर-मत बालों को समझाने की दृष्टि से) सत्तावलोकन रूप दर्शन है, ऐसा व्याख्यान है। सिद्धान्त के अभिप्राय से आत्मावलोकन रूप दर्शन है।
यदि कोई भी तर्क और सिद्धान्त के अर्थ को जानकर, एकान्त दुराग्रह का त्याग करके, नयों के विभाग से मध्यस्थता को धारण करके व्याख्यान करता है, तो तर्क-अर्थ व सिद्धान्त-अर्थ दोनों ही सिद्ध होते हैं । तर्क में मुख्यता से अन्य मत्तों का व्याख्यान है। अन्य मत वाले 'पात्मा को ग्रहण करनेवाला दर्शन है' इस बात को नहीं समझते । तब प्राचार्यों ने प्रतीति कराने के लिए स्थूल व्याख्यान से 'बाह्य विषय में जो सामान्य का ग्रहण है उसका नाम दर्शन स्थापित किया । बाह्य विषय में जो विशेष का जानना है उसका नाम ज्ञान स्थापित किया । अत: दोष नहीं है, सिद्धान्त में मुख्यता से निजसमय का व्याख्यान है, इसलिए सिद्धान्त में सूक्ष्म व्याख्यान करने पर प्राचार्यों ने 'जो आत्मा का ग्राहक है उसे दर्शन कहा है। अतः इसमें भी दोष नहीं है ।
१. धवल पू. ६ . ३२-३३ । २. ननयसंग्रह गा. ४४ की टीका। ३. वृहद्रव्यसंग्रह गा. ४४ की टीका। ४. वृहद्रव्यसंग्रह मा. ४४ को टीका । ५. वृहद्रव्यमग्रह गा. ४४ की टोका ।
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गाध। ४८४-४८५
दर्शनमार्गणा/५६६
शङ्का-द्वादशाङ्ग के समवाय नामक चौथे मन में 'भाव की अपेक्षा केवलज्ञान केवलदर्शन के समान है ज्ञेय प्रमाण है" ऐसा कहा गया है। किन्तु श्रिकालगोचर अनन्त बाह्य पदार्थों में प्रवृत्ति करने वाला केवलज्ञान और त्रिकालगोचर अपनी प्रात्मा में प्रवृत्ति करने वाला केबलदर्शन, इन दोनों में समानता से हो सकती है ?
समाधान-प्रात्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान त्रिकालगोचर अनन्त द्रव्य-पर्याय प्रमाण है, इसलिए ज्ञान और दर्शन में समानता है । विशेष यह है कि जब दर्शन से आत्मा का ग्रहण होता है तब आत्मा में व्याप्त ज्ञान का भी दर्शन द्वारा ग्रहण हो जाता है 1 शान के ग्रहण हो जाने पर ज्ञान की विषयभूत बाह्य वस्तु का भी ग्रहण हो जाता है 13 इस प्रकार ज्ञान व दर्शन का विषय एक हो जाने से दोनों समान हैं।
शङ्का--तो फिर जीव में रहने वाली स्वकीय पर्यायों की अपेक्षा ज्ञान से दर्शन अधिक है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि यह बात इष्ट ही है । शङ्का---फिर ज्ञान के साथ दर्शन की समानता कैसे हो सकती है ?
समाधान --समानता नहीं हो सकती, यह बात नहीं है क्योंकि एक दूसरे की अपेक्षा करने वाले उन दोनों में समानता स्वीकार कर लेने में कोई विरोध नहीं पाता' । कहा भी है
पाया गाणपमारणं गाणं णेयप्पामारणमुद्दिद्व' ।
णेयं लोपालोनं तम्हा पाणं तु सव्य-गयं ।।१६८॥ आत्मा ज्ञानप्रमाण है, ज्ञान जेयप्रमाण है । जय लोकालोकप्रमाण है इसलिए ज्ञान सर्वगत है। ज्ञान के बराबर मात्मा है । दर्शन का विषय आत्मा होने से दर्शन प्रात्मप्रमाण है। इस प्रकार ज्ञान
और दर्शन समान सिद्ध हो जाते हैं। जितने अविभाग प्रनिच्छेद केवलज्ञान के हैं उतने ही अविभागप्रतिच्छेद केवलदर्शन के हैं, इस अपेक्षा भी केवलज्ञान केवलदर्शन समान हैं । ज्ञान सर्वगत है और आत्मा ज्ञानप्रमाण है अत: प्रात्मा भी सर्वगत है। जो सर्वगत है वह सामान्य है। इस प्रकार सामान्य शब्द से प्रात्मा का ग्रहण हो जाता है।
चक्ष-प्रचक्षु-अवधि दर्शन का स्वरूप चक्खूण जं पयासइ दिस्सइ तं चक्खुदंसणं वेति । सेसिवियप्पयासो रणायन्वो सो प्रचक्खूत्ति ।।४८४॥' परमाणुप्रावियाइं अंतिमखंधत्ति मुत्तिदव्वाई। तं प्रोहिदसणं पुरण जं पस्सइ ताई पच्चवखं ॥४८५॥"
१. प. पु. १ पृ. १०१। २. ब. पु. १ पृ. १८५। ३. वृहद्रव्यसंग्रह गा. ४४ को टीका । ४. घपल पु. १ पृ. ३८५। ५. धवल पू. १ पृ. ३८६, प्रवचनसार १/२३ । ६. धवल पु. १ पृ. ३८२, पु.७ पृ. १००, प्रा. पं. सं.अ. १ गा. १२६ । ७. धवल' पृ. १ पृ. १८२, पृ. ७ पृ १०० जयधवल पु. १ पृ. ३५७, प्रा. पं. सं. म.१ गा. १४ ।
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५७० / गो. सा. जी काण्ड
गाथार्थ - जो चक्षु इन्द्रिय के द्वारा प्रकाशित होता है अथवा दिखाई देता है वह चक्षुदर्शन है। शेष इन्द्रियों से जो प्रतिभास होता है वह प्रदर्शन है ।।४८४ ॥ परमाणु को श्रादि लेकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त भूर्त पदार्थों को जो प्रत्यक्ष देखता है वह अवधिदर्शन है ||४८५॥
गापा ४८४-४६५
विशेषार्थ - शङ्का - इन सूत्र वचनों में दर्शन की प्ररूपणा बाह्यार्थ रूप से की गई है ।' अतः दर्शन का विषय अन्तरंग पदार्थ (आत्मा) है, इसका इन सूत्रवचनों द्वारा खंडन हो जाता है ?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि तुमने इन गाथाओं का परमार्थ नहीं समझा ।
शङ्का - वह परमार्थ कौनसा है ?
समाधान- 'जो चक्षुत्रों को प्रकाशित होता है अर्थात् दिखता है प्रथवा श्रख द्वारा देखा जाता है, वह चक्षुदर्शन है । इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि चक्षुइन्द्रियजन्य ज्ञान के पूर्व ही जो सामान्य स्वशक्ति का अनुभव होता है और जो चक्षु ज्ञान की उत्पत्ति में निमित्त रूप है, वह चक्षुदर्शन है ।
शङ्का -- उस चक्षुइन्द्रिय के विषय से प्रतिबद्ध अन्तरंग शक्ति में चक्षुइन्द्रिय की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ?
समाधान-- - नहीं, बालजनों को ज्ञान कराने के लिए अन्तरंग में बहिरंग पदार्थों के उपचार से चक्षुत्रों को दिखता है, वही चक्षुदर्शन है। ऐसा प्ररूपण किया गया है ।
शङ्का--गाथा का गला न घोंटकर सीधा अर्थ क्यों नहीं करते ?
समाधान नहीं करते, क्योंकि वैसा करने में तो पूर्वोक्त समस्त दोषों का प्रसंग आता है ।
गाथा ४८४ के उत्तरार्ध का शब्दार्थ इस प्रकार है- जो देखा गया है, अर्थात् जो पदार्थ शेष इन्द्रियों के द्वारा जाना गया है उससे जो ज्ञान होता है उसे चक्षुदर्शन जानना चाहिए । इसका परमार्थ चक्षुइन्द्रिय के अतिरिक्त शेष इन्द्रियज्ञानों की उत्पत्ति से पूर्व ही अपने विषय में प्रतिबद्ध स्त्रशक्ति का अक्षुदर्शन की उत्पत्तिका निमित्तभूत जो सामान्य से संवेद या अनुभव होता है वह प्रचक्षुदर्शन है ऐसा कहा गया है । 3
द्वितीय गाथा (४८५) का अर्थ इस प्रकार है- परमाणु से लेकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त जितने मूर्तिक द्रव्य हैं उनको जिसके द्वारा साक्षात् देखता है या जानता है, वह अवधिदर्शन है, ऐसा जानना चाहिए।' इसका परमार्थ- परमाणु से लेकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त जो पुद्गल द्रव्य स्थित है, उनके प्रत्यक्ष ज्ञान से पूर्व ही जो अवधिज्ञान की उत्पत्ति का निमित्तभूत स्वशक्तिविषयक उपयोग होता है, वही धिदर्शन है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा ज्ञान और दर्शन में कोई भेद नहीं रहता | "
१. धवल पु. ७ पृ. १०० । २. घवल पु. पु. १००-१०१ । ३. घवल पु. ७ पृ. १०१ ४. धवल पु. ७ पू. १०२
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माथा ४०६
दर्गनमागंगा/५७१
"परमाणपादियाई" इत्यादि ४८५ गाथा में विषय के निर्देश द्वारा विषयी का निर्देश किया है, क्योंकि अन्तरंग विषय का निरूपण अन्य प्रकार से किया नहीं जा सकता है । अर्थात् अवधिज्ञान का विषय मूर्तिक पदार्थ है, अतः अवधिदर्शन के विषय भुत अन्तरंग पदार्थ को बतलाने का अन्य कोई प्रकार न होने के कारण मूर्तिक पदार्थ का अबलम्बन लेकर उसका निर्देश किया गया है।'
चाक्षष विज्ञान को उत्पन्न करने वाला जो स्वसंवेदन है वह चक्षुदर्शन है । श्रोत्र, प्राण, जिह्वा, स्पर्शन और मन के निमित्त से उत्पन्न होने वाले ज्ञान के कारणभूत स्वसंवेदन का नाम प्रचक्षुदर्शन है। परमाणु से लेकर महास्कन्ध पर्यन्त पुद्गल द्रव्य को विषय करने वाले अवधिज्ञान के काराभूत स्वसंवेदन का नाम अवधिदर्शन है।
केवलदर्शन का स्वरूप बहुविहबहुप्पयारा उज्जोवा परिमियम्मि खेतम्मि । लोगालोगवितिमिरो जो केवलदसणुज्जोप्रो ॥४८६॥'
मा ...माने अपने काम का लेदों से युक्त बहुत प्रकार के उद्योत इस परिमित क्षेत्र में ही पाये जाते हैं। परन्तु जो केवलदर्शन रूपी उद्योत है, वह लोक और अलोक को भी तिमिररहित कर देता है ।।४८६॥ .
विशेषार्थ-अन्तरंग उद्योत केवलदर्शन है और बहिरंग पदार्थों को विषय करनेवाला प्रकाश कोवलज्ञान है।
शङ्का-चूकि केवलज्ञान स्व और पर दोनों का प्रकाशक है, इसलिए केवलदर्शन नहीं है, ऐसा कुछ प्राचार्य कहते हैं । इस विषय की गाथा भी है
मणपम्जवणाणतो गाणस्स य दसणस्स य विसेसो।।
केवलियं णाणं पुण णाणं ति य दंरुणं ति य समाणं ॥१४३॥ -मनःपर्य य ज्ञान पर्यन्त ज्ञान और दर्शन दोनों में भेद है। परन्तु केवलज्ञान को अपेक्षा तो ज्ञान और दर्शन समान हैं।
समाधान-उन प्राचार्यों का ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि केवलज्ञान स्वयं पर्याय है, इसलिए उसकी दूसरी पर्याय हो नहीं सकती। अर्थात् यदि केवलज्ञान को स्व-पर-प्रकाशक माना जाएगा तो उसकी एक काल में स्वप्रकाश रूप और परप्रकाशरूप दो पर्यायें माननी पड़ेंगी। किन्तु केवलज्ञान स्वयं परप्रकाश रूप एक पर्याय है । अत: उसकी स्वप्रकाशक रूप दूसरी पर्याय नहीं हो सकती। पर्याय की पर्याय होती है... ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर एक तो पहली पर्याय की दूसरी पर्याय, उसकी तीसरी पर्याय इस प्रकार उत्तरोत्तर पर्याय संतति प्राप्त होती है, इसलिए
१. जयधवल पु. १ पृ. ३५७ । २. धवल पु. १३ पृ. ३५५ । ३. घ.पु. १ पृ. ३८२ ; प्रा. पं. सं. प्र. १ गा. १४१ । ४. जयषवल पृ. १ पृ. ३५७.३५८ |
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५७२/गो, सा. जीयकाण्ड
गाथा४८७-४८८
अनवस्थादोष आता है। दूसरे, पर्याय की पर्याय मानने से पर्याय द्रव्य हो जाती है। इस प्रकार पर्याय की पर्याय मान कर भी 'केवलदर्शन' केवलज्ञान रूप नहीं हो सकता।
यदि कहा जाय कि केबलदर्शन अव्यक्त है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो आवरण से रहित है और सामान्य विशेषात्मक अन्तरंग पदार्थ के अवलोकन में लगा हुआ है ऐसे केवलदर्शन को अव्यक्त रूप स्वीकार करने में विरोध पाता है। यदि कहा जाय कि केवल दर्शन को व्यक्त स्वीकार करने से केवल ज्ञान और केवलदर्शन इन दोनों की समानता (एकता) नष्ट हो जाएगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि परस्पर के भेद से इन दोनों में भेद है। दूसरे, यदि दर्शन का सद्भाव न मानाजाय तो दर्शनावरण के बिना सात ही कर्म होंगे, क्योंकि प्रावरण करने योग्य दर्शन का प्रभाव मानने पर उसके आवारक कर्म का सद्भाव मानने में विरोध आता है।'
चक्षुदर्शनी आदि जीवों की संख्या जोगे चउरक्खाणं पंचक्खाणं च खोरणचरिमाणं । चक्खूरामोहिकेवलपरिमाण तारण रगाणं च ॥४८७॥ एइंदियपहदीणं खीएकसायंतणंतरासीणं । जोगो प्रचक्खुदंसरणजीवाणं होदि परिमारणं ।।४।।
गाथार्थ-क्षीणकषाय गुणस्थान तक जितने चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय जीव हैं उनका जोड़ रूप चक्षुदर्शनी जीवों की संख्या है। जितनी अवधिज्ञानियों की संख्या है उतने ही अवधिदर्शनी जीव हैं और जितने केवलज्ञानी हैं उतने ही. केवलदर्शनी जीव हैं ।।४८७॥ एकेन्द्रिय से लेकर क्षीणकषाय तक जितने जीव हैं उनके जोड़ स्वरूप अचक्षुदर्शनियों को संख्या है ॥४८८।।
विशेषार्थ-चक्षुदर्शनी द्रव्यप्रमाण से असंख्यात हैं, कालप्रमाण को अपेक्षा असंख्यातासंख्यात प्रवसर्पिणी-उत्सपिरिणयों से अपहृत होते हैं, क्षेत्र की अपेक्षा सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग का वर्ग करके उसका जगत्प्रतर में भाग देने पर चक्षुदर्शनी जीवों की संख्या प्राप्त होती है ।
यदि चक्षदर्शनावरण क्षयोपशम से उपलक्षित चतुरिन्द्रियादि अपर्याप्त राशि का ग्रहण किया जाय तो प्रतरांगुल के असंख्यातवें भाग से जगत्प्रतर अपहत होता है, परन्तु उसे यहाँ नहीं ग्रहण किया। क्योंकि चक्षु-इन्द्रिय के प्रतिधात के नहीं रहने पर चक्षुदर्शनोपयोग के योग्य चक्षदर्शनावरण के क्षयोपशम वाले जीव चक्षदर्शनी कहे जाते हैं, इसलिए यहाँ पर लब्ध्यपर्याप्त जीवों का ग्रहण नहीं होता है । लब्ध्यपर्याप्त जीव चाइन्द्रिय की निष्पत्ति से रहित होते हैं, इसलिए उनमें चक्षुदर्शनोपयोग से युक्त चक्षुदर्शनरूप क्षयोपशम नहीं पाया जाता है । तथा चक्षुदर्शन वाले जीवों की स्थिति संख्यात सागरोपम मात्र होती है, यह कथन भी विरोध को प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि वहां पर क्षयोपशम की प्रधानता स्वीकार की है। इसलिए चक्षुदर्शनी जीवों का प्रबहारकाल (भागाहार) प्रतरांगुल का संख्यातवाँ भाग मात्र होता है, यह कथन सिद्ध होता है। क्योंकि यहाँ पर चक्षुदर्शनी जीवों के
१. जयधवल पु. १ पृ. ३५०-३५६ । २. ध.पु. ७ पृ. २६०-२६१ सूत्र १४०-१४३ ।
३. ध.पु. ७ पृ. २६१ ।
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गाथा ४८६ ४६०
प्रमाण के कथन में चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों की प्रधानता स्वीकार की है। "
प्रदर्शनी जीव मिध्यादृष्टि (एकेन्द्रिय) से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक पाये जाते हैं, क्योंकि अचक्षुदर्शन के क्षयोपशम से रहित छद्मस्थ जीव नहीं पाये जाते हैं । इन बारह गुणस्थानवर्ती जीवों की जितनी संख्या है, वहीं प्रचक्षुदर्शनियों का प्रमाण है, जो अनन्तानन्त है ।
दर्शनियों का प्रमाण अवधिज्ञानियों के समान है, क्योंकि अवधिदर्शन को छोड़कर अवधिज्ञानी जीव नहीं पाये जाते हैं, इसलिए दोनों का प्रमाण समान है ।
श्यामागं / ५७३
केवलदर्शनी जीव केवलज्ञानियों के समान है, क्योंकि केवलज्ञान से रहित केवलदर्शनी जीव नहीं पाये जाते हैं |*
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में दर्शनमार्गणा नामका चौदहवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ।
१५. लेश्यामार्गणाधिकार
लेण्या का लक्षण
च ।
पिपरहएव जीवोत्ति होदि लेस्सा लेस्सागुरगुजा रायक्वादा ॥१४८६६ ॥ * जोगपउत्ती लेस्सा कसायउदयानुरंजिया होई । तत्तो दोष्णं कजं बंधचउक्कं समुद्दिट्ठ ॥४०॥
गाथार्थ - जिसके द्वारा जीव पुण्य और पाप से अपने को लिप्त करता है, उनके अधीन करता है चह लेश्या है, ऐसा लेश्या के स्वरूप को जानने वाले गणधरदेवादि ने कहा है || ४८६ ॥ योगप्रवृत्ति श्या है । जब योगप्रवृत्ति कषायोदय से अनुरंजित होती है तब योग-प्रवृत्ति और कषायोदय इन दोनों का कार्य बंध चतुष्करूप परमागम में कहा गया है ।।४६०॥
१. ध. पु. ३ पृ. ४५४ ।
पृ. ४५६ सूत्र १६१ । ५.
विशेषार्थ - जो आत्मा को कर्मों से लिप्त करती है वह लेश्या है । जो आत्मा और प्रवृत्ति (कर्म) का संश्लेष सम्बन्ध कराने वाली है, वह लेश्या है । इस प्रकार लेश्या का लक्षण करने पर अतिप्रसंग दोष भी नहीं आता, क्योंकि यहाँ पर प्रवृत्ति शब्द कर्म का पर्यायवाची ग्रहण किया है । " यदि केवल कषायोदय से ही लेश्या की उत्पत्ति मानी जाती तो क्षीणकषाय जीवों में लेश्या के प्रभाव का प्रसंग श्राता, किन्तु शरीर नाम कर्मोदय से योग भी तो लेश्या है क्योंकि वह भी कर्मबन्ध में निमित्त होता है । कषाय के नष्ट हो जाने पर भी योग रहता है इसलिए क्षीणकषाय जीवों के लेण्या मानने में कोई विरोध नहीं प्राता । अथवा कपाय से अनुरंजित काययोग, वचनयोग और मनोयोग की
पु.७ . ७, पु. ८ पृ. ३५६
।
२. घ. पु. ३ पृ. ४५४ ।
३. घ. पु. ३.४५५-४५६ मूत्र १६० १ ४. घ पु. ३ धवल पु. १ पृ. १५० प्रा. पं. सं. अ. १ गा. १४२ । ६. धवल पु. १ पृ. १४९ :
७. धवल पु. ७ पृ. १०५ ।
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५.७४/गो. सा. जीवकाण्ड
'गाथा ४८१-४६०
प्रवृत्ति को लेण्या कहते है। इस प्रकार लेश्या का लक्षण करने पर केवल कषाय और केवल योग को लेश्या नहीं कह सकते हैं किन्तु कषायानुविद्ध योगप्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। इससे वीतरागियों के केवल योग को लेश्या नहीं कह सकते हैं, ऐसा निश्चय नहीं कर लेना चाहिए क्योंकि लेण्या में योग की प्रधानता है, कषायप्रधान नहीं है, क्योंकि वह योग-प्रवृत्ति का विशेषरण है ।'
शङ्का-सया अनुवाद प्रांत लेश्यामागेणा अनुवाद में 'लेश्या' शब्द से क्या कहा गया है ?
समाधान ---जो कर्मस्कन्ध से यात्मा को लिप्त करती है, वह लेश्या है । यहाँ पर 'कषाय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं' यह अर्थ नहीं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इस अर्थ को ग्रहण करने पर सयोगकेवली को लेश्यारहितपने की आपत्ति प्राप्त होती है ।
शङ्का–यदि सयोगकेवली को लेश्यारहित मान लिया जावे तो क्या हानि है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि ऐसा मान लेने पर सयोगकेवली के शुक्ल लेश्या होती है, इस वचन का व्याघात हो जाता है।
शङ्कर ... 'लेश्या' योग को कहते हैं, अथवा कषाय को, या योग और कषाय दोनों को कहते हैं ? इनमें से आदि के दो विकल्प अर्थात् योग या कषाय रूप तो लेपया मानी नहीं जा सकती, क्योंकि वैसा मानने पर योगमार्गणा और कषायमार्गणा में ही उसका अन्तर्भाव हो जाएगा। तीसरा विकल्प भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह भी प्रादि के दो विकल्पों के समान है।
समाधान:-शंकाकार ने जो तीन विकल्प उठाये हैं, उनमें से पहले और दूसरे विकल्प में दिये गये दोष तो प्राप्त नहीं होते, क्योंकि लेश्या को केवल योगरूप और केवल कषाय रूप माना ही नहीं। उसी प्रकार तृतीय विकल्प में दिया गया दोष भी प्राप्त नहीं होता, क्योंकि योग और कषाय इन दोनों का किसी एक में अन्तर्भाव मान लेने पर विरोध प्राता है (दो का किसी एक में अन्तर्भाव नहीं हो सकता)। यदि कहा जाय कि लेण्या को दो रूप मान लिया जाये जिससे उसका योग और कषाय इन दोनों मार्गणाओं में अन्तर्भाव हो जाए, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कर्मलेपरूप एक कार्य को करने वाले होने की अपेक्षा एकपने को प्राप्त हुए योग और कषाय को लेश्या माना है। यदि कहा जाए कि एकता को प्राप्त हुए योग और कषाय रूप लेश्या होने से उन दोनों में लेश्या का अन्तर्भाव हो जाएगा, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि दो धर्मों के संयोग से उत्पन्न हुए द्वयात्मक अतएव किसी एक तीसरी अवस्था को प्राप्त हुई लेश्या की, केवल किसी एक के साथ समानता मान लेने में विरोध पाता है।
शङ्का-योग और कषाय के कार्य से भिन्न लेश्या का कार्य नहीं पाया जाता, इसलिए उन दोनों से भिन्न लेण्या नहीं मानी जा सकती ?
समाधान नहीं, क्योंकि विपरीतता को प्राप्त हुए मिथ्यात्व, अविरति आदि के पालम्बनरूप प्राचार्यादि बाह्य पदार्थ के सम्पर्क से लेश्याभाव को प्राप्त हुए योग और कषायों से केवल -. . .-. . - १. भ्रबल पृ. १ पृ. १४६, पु. १६ पृ. ४८५, स. सि. २/६, रा.वा. २६८; पंचवास्तिकाय गा. ११६ टीका । २, घवल पू.१ पृ. १४६-१५० । ३. धवल पू. १ पृ. ३८६ ।
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गाथा ४६१-४६२
लेश्या मार्गरणा ५७५
योग और केवल कपाय के कार्य से भिन्न संसार की वृद्धि रूप कार्य की उपलब्धि होती है जो केवल योग और केवल कषाय का कार्य नहीं कहा जा सकता, इसलिए लेश्या उन दोनों से भिन्न है, यह बात सिद्ध हो जाती है ।
शङ्खा संसार की वृद्धि का हेतु लेश्या है, ऐसी प्रतिज्ञा करने पर जो लिप्त करती है वह लेश्या है' इस वचन के साथ विरोध आता है ।
समाधान- नहीं, क्योंकि कर्मलेप की अविनाभावी होने रूप से संसार की वृद्धि को भी लेण्या ऐसी संज्ञा देने से कोई विरोध नहीं आता है । अतः इन दोनों से पृथग्भूत लेश्या है, यह बात निश्चित हो जाती है ।"
शङ्का - यदि बन्ध के कारणों को ही लेश्या कहा जाता है तो प्रमाद को भी लेश्या भाव क्यों न मान लिया जाय ?
समाधान- नहीं, क्योंकि प्रमाद का कषाय में हो अन्तर्भाव हो जाता है ।
शङ्का - असंयम को भी लेश्या भाव क्यों नहीं मानते ? २
समाधान- नहीं, क्योंकि श्रसंयम का भी तो लेश्याकर्म में अन्तर्भाव हो जाता है ।
शङ्का - मिध्यात्व को लेश्या भाव क्यों नहीं मानते ?
समाधान- मिथ्यात्व को लेश्या कह सकते हैं, क्योंकि उसमें कोई विरोध नहीं श्राता । किन्तु यहाँ कषायों का ही प्राधान्य है । क्योंकि कषाय ही हिंसादि रूप लेश्या कर्म के कारण हैं और अन्य ara - कारणों में उनका प्रभाव है ।
अथवा मिध्यात्व संगम, कषाय और योग लेग्या हैं। प्रथवा मिध्यात्व, संयम, कषाय और योग से उत्पन्न हुए जीव के संस्कार भावलेश्या हैं ।" कर्मपुद्गल के ग्रहण में कारणभूत मिथ्यात्व श्रसंयम और कषाय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति नोश्रागमभाव लेश्या है। अभिप्राय यह है कि मिथ्यात्व, कपाय और असंयम से उत्पन्न संस्कार का नाम नोश्रागमभाव लेश्या है । "
लेश्या मार्गेश के अधिकार
सिव परिणामसंकमो कम्मलक्खरगगदी य ।
सामी साहरणसंखा खेत्तं फासं तदो कालो ॥४६१ ॥ अंतरभावtपबहु प्रहियारा सोलसा हवंति त्ति । लेस्सारण साहरण जहाकमं तेहि योच्छामि ॥ ४६२ ॥ |
१. घ. पु. १ पृ. ३७-३८८ । २. घ. पु. ७ पृ. १०५ । ५. प.पु. १६ पु. ४८८ ।
६. घ. पु. १६ पृ. ४८५ ।
३. घ. पु. ७ पृ. १०५ ।
४. ध. पु. पृ. ३५६ ।
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५७६ गो. सा. जौवकाण्ड
गाथा ४६३
गाथार्थ-निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, स्वामी, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, वाल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व, लेश्यासाधन के लिए ये सोलह अधिकार हैं । उनके द्वारा यथाक्रम, कथन किया जाएगा ।।४६१-४६२॥
विशेषार्थ--'लेश्या का निक्षेप करना चाहिए, क्योंकि उसके बिना प्रकृतलेश्या का प्रवगम नहीं हो सकता। उसका निक्षेप इस प्रकार है:-मामलेश्या, स्थापनाले पया, द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । इस तरह लेश्या चार प्रकार की है। उनमें 'लेश्या' यह शब्द नामलेश्या है। सद्भावस्थापना (जैसे वृक्ष के फल खाने बाले छह व्यक्तियों का चित्र) और असद्भावस्थापना रूप से जो लेश्या की स्थापना की जाती है वह स्थापना लेश्या है। द्रव्यलेश्या और भाबलेश्या का प्रागे वर्णन किया जाएगा। निर्दशादि का स्वयं ग्रंथकार ने गाथाओं द्वारा कथन किया है। अत: यहाँ पर उसका कथन नहीं किया गया है। कुछ यहाँ भी कहा जाता है।
किसी वस्तु के स्वरूप का कथन करना निर्देश है । २ जो देखा जाता है वह वर्ण है । कषायोदय से होने वाले जीव के भाव परिणाम कहलाते हैं। एक लेश्या से पलट कर दुसरी लेश्या का होना संश्रम है, इत्यादि।
नितेश यो द्वारा कोण का निरूपण किण्हा णीला काऊ तेऊ पम्मा य सुक्कलेस्सा य ।
लेस्साणं गिद्देसा छच्चेव हवंति णियमेण ।।४९३॥ गाथार्थ लेश्या के नियम से ये छह निर्देश हैं - कृष्ण लेश्या. नील लेश्या, कापोत लेण्या, तेजोलेश्या (पीत लेश्या), पद्य लेश्या, शुक्ल लेश्या ॥४६३।।
विशेषार्थ-उदय में पाये हए कषायानुभाग के स्पर्धकों के जघन्य स्पर्धक से लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक स्थापित करके उनको छह भागों में विभक्त करने पर प्रथम भाग मन्दतम कपायानुभाग का है और उस के उदय से जो कषाय उत्पन्न होती है, उसी का नाम शुक्ल लेश्या है। दूसरा भाग मन्दतर कषायानुभाग का है और उसके उदय से उत्पन्न हुई कषाय का नाम पा लेश्या है। ततीय भाग मन्द कषायानुभाग का है और उसके उदय से उत्पन्न कषाय तेजोलेश्या है। चतुर्थभाग तीव्र कषायानुभाग का है और उसके उदय से उत्पन्न कषाय कापोत लेश्या है। पांचवां भाग तीवतर कषायानुभाग का है और उसके उदय से उत्पन्न कषाय को नील लेश्या कहते हैं। छठा भाग तीव्रतम कपायानुभाग का है और उससे उत्पन्न कपाय का नाम कृष्ण लेश्या है।'
लेण्या छह ही होती हैं, ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है, क्योंकि पर्यायाथिक नय की विवक्षा से लेश्यायें असंख्यात लोकमात्र हैं, परन्तु द्रव्याथिक नय की विवक्षा से वे लेण्यायें छह ही होती हैं।
____ इन छहों लेश्याओं में से प्रत्येक अनन्तभागवृद्धि. असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणधुद्धि और अनन्तगुणवृद्धि के क्रम से छह स्थानों में पतित है। इस १. ध.पु. १६ पृ. ४८४ २. सर्वार्थसिद्धि १/७। ३. सर्वार्थसिद्धि २/२०। ४. व.पु. ७ पृ. १०४ । ५. "पज्जवणायप्पणा लेस्साम्रो असंखे. लोगमेत्तानो, दयट्टियणय गणाए पुगा लेस्साम्रो छ चेन होति ।" [ध.पु. १६ पृ. ४८५] । ६. एदारो छप्पि लेस्सानो परतभागवष्टि-मसंने भागवटि-संखे.भागवति-संग्वे. गुणा बलि-अमले. गुणव-िग्रणतगुणावष्टि कमेण पदिक्क छुट्टाणपदिदानो ।" [ध.पु. १६ पृ. ४८८] ।
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गाथा ४९४-४६५
लेश्यामार्गणा/५५०७
प्रकार षट्स्थानपतितहानिवृद्धि के कारण लेश्याओं के असंख्यात लोकप्रमाण भेद हो जाते हैं।
___ गाथा में द्रव्याथिक नय की विवक्षा से “नियम में छह लेश्या होती है" ऐसा कहा गया है । पर्यायार्थिक नय की विवक्षा से छह लेण्या का नियम नहीं है ।
वर्ण की अपेक्षा लेश्या का वर्णन बण्णोदयेरण जरिणदो सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा । सा सोढा किण्हादी अणेयभेया सभेयेण ॥४६४॥ छप्पयरगोलकबोद सुहेमंबुजसंखसणिहा वणे । संखेज्जासंखेज्जारांत-वियप्पा य पत्तेयं ॥४६॥
गाथार्थ--वर्ग नाम कर्मोदय-जनित शरीर का वर्ण द्रव्य लेश्या है। वह कृष्ण आदि के भेद से ६ प्रकार की है । तथा प्रत्येक के उत्तर भेद अनेक हैं । षट्पद अर्थात् भ्रमर, नीलमरिण, कबूतर, सुवर्ण, अम्बुज (कमल) और शंख के समान इन छह लेश्यानों के वर्ण होते हैं। इनमें से प्रत्येक के संख्यात, असंख्यात और अनन्त विकल्प होते हैं ।।४६४-४६५॥
विशेषार्थ --चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य पुद्गल स्कन्धों के वर्ग को तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यलेश्या कहते हैं । वह छह प्रकार की है-कृष्णलेश्या, नील लेण्या, कापोत लेश्या, तेजो लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या। उनमें कृष्ण लेश्या भ्रमर, अंगार (कोयला) और कज्जल आदि के होती है। नीम, कदली और दान के पत्तों आदि के नील लेश्या होती है। छार, खर और कबूतर आदि के कापोत लेश्या है। क कम, जपाकसम और कसम कूसमादि की तेजोलेश्या है। तडवडा और पद्मपुष्पादिकों के पालेश्या होती है । हंस और बलाका आदि की शुक्ल लेश्या होती है। कहा भी है
किण्णं भमरसवाणा णीला पुण णीलिगुणियसंकासा । काऊ कवोदयणरणा तेऊ तवणिज्जवण्णाभा ॥१॥ पम्मा पउमसवण्णा सुक्का पुण कासकुसुम संकासा।
किरणाविवग्यलेस्सावणयिसेसा मुणेयव्या ॥२॥ कृष्णलेश्या भ्रमर के सदृश, नीललेश्या नील गुण वाले के सदृश, कापोत लेण्या कबूतर जैसे वर्णवाली, तेजलेश्या सुवर्ण जैसी प्रभावाली, पद्मलेश्या पद्म के वर्ण समान और शुक्ल लेश्या कांस के फूल समान होती है। इन कृष्ण आदि द्रव्यलेषयात्रों को क्रम से उक्त वर्ण विशेषों रूप जानना चाहिए।
द्रष्यार्थिक नय की विवक्षा होने पर द्रव्यलेश्या छह प्रकार की है। पर्यायाथिक नय की विवक्षा होने पर तरतमना की अपेक्षा संख्यात व असंख्यात प्रकार की है। अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा अनन्त प्रकार की है। जैसे प्रत्येक लेण्या के उत्कृष्ट, जघन्य व मध्य ये तीन भेद होते हैं;
१.ध.पू.१६१.४८४ ।
२. ध.पु.१६.४०५, प्रा.पं.स.म.१गा . १८३-१८४.३८ ।
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५७८/मो. सा. जीवकाण्ड
गाया ४६६-४६८ इसी प्रकार संख्यात व असंख्यात भेद प्रत्येक लेश्या के सिद्ध कर लेना चाहिए। जघन्य में भी अविभागप्रतिच्छेद अनन्त होते हैं अतः अविभाग प्रतिच्छेद की अपेक्षा अनन्त विकल्प हो जाते हैं।
गति में शरीर की अपेक्षा लेश्या का कथन णिरया किण्हा कप्पा भावाणुगया हु तिसुरणरतिरिये । उत्तरदेहे छक्कं भोगे-रविचंदहरिदंगा ॥४६६॥ बादर-पाऊते सुक्कातेऊय वाउकायाणं । गोमुत्तमुग्गवण्णा कमसो अवत्तवण्णो य ।।४६७॥ सन्वेसि सुहमाण कावोदा सय विग्गहे सुक्का । सव्यो मिस्सो देहो कयोदवणो हवे रिणयमा ॥४६॥
माथार्थ-सम्पुर्ण नारकी कृष्णवर्ण हैं। कल्पवासी देवों में भावलेश्या के अनुसार द्रव्यलेश्या होती है। भवनत्रिक, मनुष्य व तिर्यंचों में छहों द्रव्यलेश्या होती हैं और उत्तरशरीर की अपेक्षा भी गहों द्रव्यनगम होती है। मनोगमका का, मध्यमभोगभूमिया का और जघन्य भोगभूमिया का शरीर क्रम से सूर्य, चन्द्रमा और हरित वर्णं वाला होता है ।।४६६।। बादर जलकायिक व बादर तैजसकायिक को द्रव्यलेश्या क्रम से शुक्ल व तेजस (पीत) लेश्या होती है। वायुकायिक में घनोदधिवात, धनवात व तनुवात का वर्ण क्रम से गोमूत्र, मूग सदृश वर्ण और तीसरे तनुवात का बर्ण अव्यक्त है ।।४६७॥ सर्व सुश्मों की द्रव्य लेश्या कापोत है, विग्रहगति में सबकी द्रव्यलेश्या शुक्ल है। अपर्याप्त अवस्था में विद्यमान सभी जीवों की मिश्रदेह का वर्ण कापोत है ।।४९८||
विशेषार्थ -शरीर के आश्रय से छहों लेश्याओं की प्ररूपणा इस प्रकार है-तिर्यंचयोनिवालों के शरीर छहों लेश्या वाले होते हैं। कितने ही शरीर कृष्णलेश्या बाले, कितने ही नीललेश्या वाले, कितने ही कापोतलेश्या वाले, कितने ही तेज (पीत) लेश्या वाले, कितने ही पालेश्या वाले और कितने ही शुक्ललेश्या वाले होते हैं। तियच योनिनियों, मनुष्यों और मनुष्यनियों के भी छहों लेण्यायें होती हैं। देवों (वैमानिक देवों) के शरीर मूल निर्वर्तना की अपेक्षा तेज, पद्म और शुक्ल इन तीन लश्याओं से युक्त होते हैं। परन्तु उत्तर निर्वर्तना को अपेक्षा उनके शरीर छहों लेश्याओं से संयुक्त होते हैं। देवियों के शरीर मूल निवर्तना की अपेक्षा तेजलेण्या से संयुक्त होते हैं, परन्तु उत्तर निवर्तना की अपेक्षा वे छहों लेश्यायों में से किसी भी लेश्या से संयुक्त होते हैं। नारकियों के शरीर कृष्णलण्या से संयुक्त होते हैं पृथिवीकायिकों के शरीर छहों वेश्याओं में किसी भी लेश्या से संयुक्त होते हैं। अपकायिक जीवों के शरीर शुवललेण्या वाले होते हैं। अग्निकायिक जीवों के शरीर तेजोलेश्या से युक्त होते हैं। वायुका यिकों के शरीर कापोत लेश्या बाले तथा वनस्पतिकायिकों के शरीर छहों लेश्या वाले होते हैं। सब सूक्ष्म जीवों के शरीर कापोतलेण्या से संयुक्त होते हैं। बादर अपर्याप्तकों का कथन बादर पर्याप्तकों के समान है । (किन्तु शुक्ल व कापोत दो द्रव्यलेश्या होती हैं धवल पु. २ पृ. ४२२) । औदारिक शरीर छह लेण्या से युक्त होते हैं। वक्रियिक शरीर मूल निवर्तना की अपेक्षा कृष्णलेण्या, तेजलेग्या, पद्मलंग्या व शुक्ल लेण्या से संयुक्त होता है (अथवा भवनत्रिक की अपेक्षा छहों
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पाथा ४६६-४९८
लेश्यामार्गणा/५७६ लेश्या होती है।) तंजस शरीर तेजलेश्यावाला तथा कार्मण शरीर शुक्ललेश्या वाला होता है ।
शङ्का-- शरीर तो सब बर्णवाले पुद्गलों से संयुक्त होते हैं, फिर इस शरीर की यही लेश्या होती है, ऐमा नियम कैसे हो सकता है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट वर्ण की अपेक्षा वैसा निर्देश किया गया है। यथा-जिस शरीर में श्याम वर्ण की उत्कृष्टता है, वह कृष्णा लेश्या युक्त कहा जाता है। जिसमें नील वर्ण की प्रधानता है वह नील लेण्यावाला, लोहित वर्ण की प्रधानता युक्त जो शरीर है वह तेजलेश्या वाला, हरिद्रा वर्ण की उत्कर्षता युक्त शरीर पद्म लेश्यावाला तथा शुक्ल वर्ण की प्रधानता युक्त शरीर शुक्लले ण्यावाला कहा जाता है । इन वर्गों को छोड़कर वर्णान्तर को प्राप्त हुए शरीर को कापोतलेश्या बाला समझना चाहिए। इसका विशेष इस प्रकार है
कृष्णलेश्या युक्त द्रव्य के शुक्ल गुण स्तोक, हारिद्र गुण अनन्त गुणे, लोहितगुण अनन्तगुरणे, नीलगुण अनन्तगुणे और श्यामगुण अनन्तगुणे होते हैं। नीललेश्या युक्त द्रव्य के शुक्लगुण स्तोक, हारिद्रगुण अनन्तगुणे, लोहितगुण अनन्तगुरणे, श्यामगुण अनन्तगुणे और नील गुण अनन्तगुणे होते हैं। कापोतले श्याबाले के विषय में तीन विकल्प हैं प्रथमविकल्प --- शुक्लगुण स्तोक है. हारिद्रगुण अनन्तगुणे, श्यामगुरण अनन्त गुणे, लोहितगुण अनन्तगुणे और नीलगुण अनन्त गुणे हैं । द्वितीयविकल्प-शुक्लगुण स्तोक, श्यामगुण अनन्तगुणा, हारिद्रगुरण अनन्तगुणा, नीलगुण अनन्तगृणा और लोहितगुण अनन्तगुणा है। तृतीय विकल्प-- श्यामगुण स्तोक, शुक्लगुरण अनन्तगुणे, नीलगुण अनन्तगुणे, हारिद्रगुण अनन्तगुणे और लोहितगुण अनन्तगुण हैं । तेजोलेश्या वालों में श्यामगुण स्तोक, नीलगुण अनन्तगुरणे, शुक्लगुरग अनन्तगुणे, हारिद्रगुण अनन्तगुणे और लोहितगुग अनन्तगुणे होते हैं । पपलेश्यावालों के विषय में सीन विकल्प हैं। प्रथमयिकल्प---श्यामगुण स्तोक, नीलगुण अनन्तगुरणे, शुक्लगुण अनन्तगुणे, लोहित गुण अनन्तगुणे और हारिद्रगुण अनन्तगुणे होते हैं। द्वितीय विकल्प--श्यामगुण स्तोक, नीलगुण अनन्तगुरगे, लोहितगुण अनन्तगुणे, शुक्ल गुण अनन्तगुणे और हारिद्रगुण अनन्तगुणे हैं । तृतीय विकल्प श्यामगुण स्तोक, नीलगुण अनन्तगुणे, लोहितगुण अनन्तगुणे, हारिद्रगुण अनन्तगुणे और शुक्लगुण अनन्तगुण होते हैं । शुक्ल लेश्यावाले के प्रयामगुण स्तोक, नीलगुरण अनन्तगुरणे, लोहितगुण अनन्तगुणे, हारिद्रगुरण अनन्तगुणं और शुक्न उत्कटगुण अनन्तगुणे हैं ।
कापोत लेश्या नियम से विस्थानिक तथा शेष लेश्यायें द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक व चतु:स्थानिक
शङ्का--भवनत्रिक देवों में पर्याप्त काल में छहों लेण्या होती है यह बचन घटित नहीं होता, क्योंकि उनके पर्याप्तकाल में छहो लेश्यानों का अभाव है। यदि कहा जाय कि देवों के भाव से छहों लेश्या न होवें, किन्तु द्रव्य से छहों लेश्या होती है, क्योंकि द्रव्य और भाव में एकता का प्रभाव है । सो ऐसा कथन भी नहीं बनता, क्योंकि जो भावलेल्या होती हैं, उसी तेश्या बाले औदारिक, वैऋियिक और आहारक शरीर सम्बन्धी नोकर्म परमाणु पाते हैं। यदि यह कहा जाय कि उक्त बात कैसे जानी
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१. "तदो वणणामकम्मोदयदो भवगावमिय-वारावेतरोइमिग्राणं छलेसा नो भवंनि ।" [ध.पू. २ पृ. ५३५] । २. घ.पु. १६ पृ. ४८५-४८६ । ३. धवल पु. १६ पृ. ४८६-४८५ । ४. धवल पु. १६ पृ. ४५७-४८८ ।
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५८०/मो. सा. जीवकाण्ड
माया ४६६-४९८
जाती है तो उसका उत्तर यह है कि सौधर्म आदि देवों के भावलेश्या के अनुरूप ही द्रव्य लेश्या का प्ररूपण किये जाने से उक्त बात जानी जाती है। तथा देवों के पर्याप्त काल में तेज, पद्म और शुक्ल इन तीन लेश्यामों के अतिरिक्त अन्य लेश्याएँ नहीं होती हैं इसलिए देवों के पर्याप्त काल में द्रव्य वी अपेक्षा तेज, पय और शुक्ल लेश्या होनी चाहिए?
समाधान - शंकाकार द्वारा कही गई युक्ति घटित नहीं होती । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-द्रव्य लेण्या अपर्याप्त काल में होने वाली भाव लेश्या का तो अनुकरण करती नहीं है, अन्यथा अपर्याप्त काल में अशुभ तीन लेश्यावाले उत्तम भोगभूमिया मनुष्यों के धवल वर्ण के अभाव का प्रसंग प्राप्त हो जाएगा तथा तीन अशुभ लेश्या वाले कर्मभूमिया मिथ्यादष्टि जीव के भी अपर्याप्त काल में गौरवर्ण का प्रभाव प्राप्त हो जाएगा। इसी प्रकार पर्याप्त काल में भी पर्याप्त जीव सम्बन्धी द्रव्य लेश्या भावलेश्या का नियम से अनुकररा नहीं करती है क्योंकि वैसा मानने पर छह प्रकार की भाव लेण्याओं में निरन्तर परिवर्तन करने वाले पर्याप्त तिर्यंच और मनुष्यों के द्रव्यलेश्या के अनियमपने का प्रसंग प्राप्त हो जाएगा। यदि द्रव्यलेश्या के अनुरूप ही भावलेश्या मानी जाय तो धवल वर्ण वाले बगुले के भी भाव से शुक्ल लेण्या का प्रसंग प्राप्त होगा। तथा धवल वर्ण वाले ग्राहारक शरीरों के और धवल वर्ण वाले विग्रह गति में विद्यमान सभी जीवों के भाव की अपेक्षा शुक्ल लेश्या की आपत्ति प्राप्त होगी। दूसरी बात यह भी है कि दृश्यलेश्या वर्ण-मामा नामकर्म के उदय से होती है, भावलेश्या से नहीं। इसलिए दोनों लेण्याओं को एक नहीं कह सकते, क्योंकि अघातिया और पुद्गलविपाकी वर्ण नामा नामकर्म, तथा घातिया और जीवविपाकी चारित्रमोहनीय कर्म, इन दानों की एकता में विरोध है । इसलिए यह बात सिद्ध होती है कि भावलेश्या द्रव्यलेश्या के होने में कारण नहीं है। इस प्रकार उक्त विवेचन से यह फलितार्थ निकला कि वर्ण नामा नाम कर्म के उदय से भवनवासी, वानभ्यन्तर और ज्योतिषी देवों के द्रव्य की अपेक्षा छहों लेश्याएँ होती हैं तथा भवनत्रिक से ऊपर के देवों के तेज, पन और शुक्ल लेश्याएँ होती हैं।'
जैसे पाँच वर्णवाल रसों से युक्त काक के कृष्ण व्यपदेश देखा जाता है, उसी प्रकार प्रत्येक शरीर में द्रव्य से छहों लेश्याओं के होने पर भी एक वर्णवाली लेश्या के व्यवहार करने में कोई विरोध नहीं आता है।
सम्पूर्ण कर्मों का विस्रसोपचय शुक्ल ही होता है, इसलिए विग्रहगति में विद्यमान सभी जीवों के शरीर की शुक्ललेश्या होती है अर्थात् द्रव्यलेश्या शुक्ल होती है। शरीर को ग्रहण करके जब तक पर्याप्तियों को पूर्ण करता है तब तक छह वर्ण बाले परमाणुओं के पुजों से शरीर की उत्पत्ति होती है, इसलिए उस शरीर की कापोत लेश्या है।'
अन्न वर्णाधिकार के अनन्तर आठ गाथानों में परिणामाधिकार व संक्रमण अधिकार कहा जाएगा
१. घवल पु. २ पृ. ५३२-५३५ । २. धवल पु. २ पृ. ५३५ ।
३. श्रवल पु. २ पृ. ४२२ ।
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गाया ४६६-५०६
श्यामार्या / ५८१
लोगारणमसंखेज्जा उदहाला कसावगा होंति ! तत्थ किलिट्ठा प्रसुहा सुहा विसुद्धा तदालाबा ।।४६६|| तिब्बतमा तिव्वतरा सिन्या प्रसुहा सुहा तहा मंदा । मंदतरा मंदतमा छुट्टाएगया हु पत्तेयं ॥। ५०० ।। प्रसुहारणं वरमज्झिमश्रवरंसे किण्हरगोल काउतिए । परिणमदि कमेणाप्पा परिहारणीदो किलेसस्स ॥ ५०१ ॥ काऊ पीले किन्हं परिणमवि किलेसबदिदो अप्पा | एवं किलेसहारणी बड्ढोदो होदि प्रसुहतियं ॥ ५०२ ॥ तेऊ पडमे सुक्के सुहारणमवराविश्रंस प्रप्पा | सुद्धिस्स य बढीवो हारिणीदो प्रादा होदि ||५०३ || संक्रमणं सद्वापरद्वारणं होदि किन्हसुक्कारणं । वढीसु हि साणं उभयं हारिणम्मि सेस उभयेषि ।। ५०४ ॥ लेस्साकस्साबोवरहाणी श्रवरगादवरवड्ढी । साणे श्रवरादो हारणी गियमा परद्वाणे ॥ ५०५।। संकमणे घट्टारा हातिसु बड्ढीसु होंति तष्णामा । परिमाणं च य पुव्वं उत्तकमं होदि सुदरगाणे ॥ ५०६ ॥
गाथार्थ - कषायों के उदयस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं । उनमें संक्लेश रूप परिणाम शुभलेश्या हैं, विशुद्धपरिणाम शुभ लेश्या है। ऐसा कहना चाहिए ॥४६६॥ तीव्रतम तीव्रतर और तीव्र कषाय रूप परिणाम अशुभ लेग्या है, मन्द, मन्दतर और मन्दतम कषायरूप परिणाम शुभ लेश्या है । प्रत्येक में षट्स्थान पतित हानि-वृद्धि होती है ||५००॥ कृष्ण-नील कापोत इन तीन अशुभ लेश्या के उत्कृष्ट अंश से मध्यम अंश रूप और मध्यम अंश से जघन्य अंश रूप संक्लेश की हानि होने पर जीव क्रम से परिगमन करता है ॥ ५३१ ॥ संक्लेश परिणामों की उत्तरोत्तर वृद्धि होने पर यह आत्मा कापोत, नील और कृष्ण लेश्याओं के जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट अंशों में क्रम से परिणमता है। इस प्रकार संक्लेश की हानि - वृद्धि से तीन अशुभ लेश्याओं में परिणमन होता है। ||५०२ || विद्युद्ध परिणामों में उत्तरोत्तर वृद्धि होने पर यह आत्मा पीत पद्म और शुक्ल इन तीन शुभ लेश्याओं के जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट यशों में परिणमन करता है। विशुद्ध परिणामों में उत्तरोत्तर हानि होने पर यह आत्मा क्रम से शुक्ल, पद्म, गीत के उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य ग्रंशों में श्रमसे परिणमन करता है || १०३ || स्वस्थान संक्रमण और परस्थान संक्रमण के भेद से संक्रमण दो प्रकार का है। कृष्ण लेश्या और शुक्ल लेश्या में वृद्धि होने पर स्वस्थान संक्रमण होता है किन्तु हानि होने पर स्वस्थान और परस्थान दोनों संक्रमण सम्भव हैं। शेप चार लेश्याओं में द्धि हानि होने पर स्वस्थान और परस्थान दोनों संक्रमण सम्भव है || ४०४|| उत्कृष्ट से
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५८२ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४६१-५०६
जघन्य हानि होने पर तथा जघन्य लेप्रथा स्थान के ऊपर जघन्य वृद्धि होने पर स्वस्थान संक्रमण होता है । लेश्याओं के जघन्य स्थान में हानि होने पर नियम से परस्थान संक्रमण ही होता है ।। ५०५ ।। संक्रमण षट्स्थानवृद्धिरूप होता है। उन छह स्थानों के नाम व परिमाण श्रुतज्ञान का कथन करते हुए पूर्व में कहे जाचुके हैं || ५०६ ॥
विशेषार्थ - कषायों के उदयस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं अर्थात् असंख्यात लोकों के जितने प्रदेश हैं उतने ही उदयस्थान हैं, जो हैं। इनमें से असम लेश्या रूप संक्लेश परिणाम हैं और असंख्यातवें भाग शुभ लेम्या रूप विशुद्ध परिणाम हैं। किन्तु सामान्य से संक्लेश व विशुद्ध दोनों ही परिणाम असंख्यात लोक प्रमारण हैं। इन ग्रहों लेश्याओं में उत्कृष्ट से जघन्य पर्यन्त और जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त षट्स्थानहानि व षट्स्थान वृद्धि होती है। अशुभ लेश्याओं में संक्लेश की हानि - वृद्धि होती है और तीन शुभ लेश्याओं में विशुद्धि की हानि - वृद्धि होती है । अर्थात् संक्लेश की उत्तरोत्तर वृद्धि होने पर कापोत लेश्या के जधन्य अंश से मध्यम भ्रंश में और मध्यम अंश से उत्कृष्ट अंश रूप, पुनः नील लेश्या के जघन्य मध्यम व उत्कृष्ट अंशरूप, पुनः कृष्णलेश्या के जघन्य मध्यम व उत्कृष्ट अंश रूप परिणमन होता है। इसी प्रकार विशुद्धि में उत्तरोत्तर वृद्धि होने पर पीत लेश्या के जघन्य अंश से मध्यम अंशरूप और फिर मध्यम अंश से उत्कृष्ट अंश रूप, पुनः पद्म लेश्या के जघन्य मध्यम व उत्कृष्ट अंश रूप, पुनः शुक्ल लेश्या के जधन्य, मध्यम व उत्कृष्ट अंशरूप परिणमन होता है। विशुद्धि की उत्तरोत्तर हानि होने पर शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट भ्रंश से पीत लेश्या के जघन्य अंश तक परिगमन होता है ।
परिणमन व संक्रमण का यह कथन मरण की अपेक्षा नहीं है, क्योंकि मध्यम शुक्ल लेश्या वाला मिध्यादृष्टि देव अपनी आयु के क्षीण होने पर जघन्य शुक्ल लेश्यादिक से परिणमन न करके अशुभ तीन लेश्याओं में गिरता है। (धवल पु. ८ पृ. ३२२ ) ।
कौन लेश्या किस स्वरूप से और वृद्धि अथवा हानि के द्वारा परिणमन करती है, इस बात के ज्ञापनार्थ 'लेश्या परिणाम' अधिकार प्राप्त हुआ है । परिणामों की पलटन संक्रमण है उनमें पहले कृष्णलेश्या के परिणमन विधान का कथन करते हैं । कृष्ण लेश्या वाला जीव संक्लेश को प्राप्त होता हुआ अन्य लेश्या में परिणत नहीं होता है, किन्तु षट्स्थानपतित स्थानसंक्रमण द्वारा स्वस्थान में ही वृद्धि को प्राप्त होता है।
शङ्का - षट्स्थानपतित वृद्धि का क्या स्वरूप है ?
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समाधान – जिस स्थान से संक्लेश को प्राप्त हुआ है, उस स्थान से अनन्तभाग अधिक, असंख्यात भाग अधिक संख्यात भाग अधिक संख्यातगुणी अधिक असंख्यातगुणी अधिक और अनन्तगुणी अधिक लेश्या का होना, इसका नाम षट्स्थानपतित वृद्धि है।
उक्त कृष्णलेश्यावाला जीव विशुद्धि को ( संक्लेश की हानि को ) प्राप्त होता हुमा अनन्तभागहीन, असंख्यात भागहीन, संख्यात भागहीन, संख्यातगुणीहीन, असंख्यातगुणीहीन, अनन्तगुणीहीन
१. ध. पु. १६ पृ. ४८३ ।
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गाथा ४६१-५०६
लेण्यामार्गणा/५८३
लेश्या वाला होता है। इस प्रकार षट्स्थान पतित स्वरूप से स्वस्थान में हानि को प्राप्त होता है। घही अनन्तगुणी हानि के द्वारा नील लेश्या रूप से परिणत होता है। इस प्रकार संक्लेश को प्राप्त होने का कारण लेश्या युन जी का लेश' की वृद्धि द्वारा एक विकल्प होता है। उसीके विशुद्धि (संक्लेश की हानि) को प्राप्त होने पर दो बिकल्प होते हैं। कृष्णलेश्या की हानि से एक और नीललेण्या में संत्रम से दूसरा विकल्प होता हैं। यह कृष्णलेश्या का परिणमन विधान है।'
नोललेश्या का परिणमन विधान--नीललेण्या से संक्लेश को प्राप्त होता हुआ षट्स्थानपतितवृद्धि संक्रम स्थान के द्वारा भोललेश्या में ही संक्रमण करता है अथवा वह अनन्तगुण वृद्धि के क्रम से कृष्णलेश्या में परिणत होता है। इस प्रकार संक्लेश को प्राप्त होने पर दो विकल्प होते हैं। नील लेश्या से विशुद्धि को प्राप्त होने वाला पदस्थान पतित हानि के द्वारा नीललेश्या की हानि को प्राप्त होता है। वहीं अनन्तगुणी हानि के द्वारा हानि को प्राप्त होता हुआ कापोतलेश्या रूप से भी परिणत होता है। इस प्रकार नीललेश्या से विशुद्धि को प्राप्त होने वाले के (संक्लेश की हानि को प्राप्त होने वाले के ) दो विकल्प हैं। यह नीललेश्या वाने का परिणमन विधान है।
कापोत लेश्या का परिणमन विधान-कापोत लेश्या में संक्लेश को प्राप्त होता हुया अनियम से षट्रस्थान पतित वृद्धि के द्वारा स्वस्थान में वृद्धिंगत होता है। वहीं अनन्तगुरगी वृद्धि के द्वारा नियम से नील लेश्या में परिणत होता है। इस प्रकार संक्लेश को वृद्धि के कारण कापोतलेश्या में दो विकल्प हैं। विशुद्धि (संकलश की हानि) के कारण षट्स्थान पतित हानि के द्वारा स्वस्थान में हानि को प्राप्त होता है । वही अनन्तगुणहानि द्वारा तेजलेश्या में परिणत होता है। इस प्रकार संक्लेश की हानि के कारण कापोतलेश्या में दो विकल्प होते हैं । यह कापोत लेश्या का परिणमन विधान है।
पोतलेश्या का परिणमन विधान--पीत लेश्या शुभ है। इसमें षट् स्थान पतित संक्लेश वृद्धि के द्वारा स्वस्थान में हीनता होती है। अनन्तगुणी हीनता के द्वारा पीतलेश्या' कापोत लेश्या में परिणत हो जाती है। इस प्रकार संक्लेशवृद्धि के कारण पीतलेश्या में दो विकल्प होते हैं । विशुद्धि में षट्स्थान पतित वृद्धि के द्वारा स्वस्थान में वृद्धि को प्राप्त होता है। अनन्तगुणी वृद्धि के द्वारा पालेश्या रूप भी परिणत हो जाता है। इस प्रकार विशुद्धि के कारण पीत (तेज) लेश्या में दो विकल्प है।
पनलेश्या का परिणमन विधान पद्म शुभलेश्या में षट्स्थानपतितद्धिगत विशुद्धि के द्वारा स्वस्थान में वृद्धि होती है विशुद्धि में अनन्तगुणी वृद्धि से शुक्ललेश्या रूप परिणत हो जाता है। विशुद्धि में षट्स्थान पतित हानि के द्वारा अथवा संक्लेश के कारण स्वस्थान में हीनता होती है वहीं अनन्तगुण हानि के द्वारा तेजोलेश्या में संक्रमण को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार पद्मलेश्या के परिणमन का विधान है ।
शुक्ललेश्या का परिणमन विधान-शुवल लेश्या में विशुद्धि की हानि (संक्लेश) को प्राप्त होता हुमा षट्स्थानपतित हानि के द्वारा स्वस्थान में हानि को प्राप्त होता है । वहीं अनन्तगुणहानि
४. धवल पु.
१, धवल पु. १६ पृ. ४६३-४६४ | २. पवल पु. १६ पृ. ४६४ । ३. धवल पु. १६ पृ. ४६४ । १६ पृ. ४६४-४६५। ५. धवल पु. १६ पृ. ४६५ ।
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५८४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४६६-५०६
के द्वारा पद्म लेश्या से परिणत होता है। इस प्रकार विशुद्धि की हानि (संक्लेश )के द्वारा शुक्ल लेश्या में दो विकल्प होते हैं। शुक्ललेश्या में षट् स्थान पतित वृद्धि के द्वारा स्वस्थान में विशुद्धि की वृद्धि होती है, अन्य लेश्या में संक्रमण नहीं होता। विशुद्धि की वृद्धि के द्वारा शुक्ल लेश्या में एक ही विकल्प है।'
___ कृष्णलेश्या में संक्लेशवृद्धि को प्राप्त हुअा जीव अन्य लेण्या में संक्रमण नहीं करता । संक्लेश की हानि (विशुद्धि) को प्राप्त हुअा जोव, स्वस्थान में छह स्थानों में पड़ता है, अथवा अनन्तगुणे हीन नील लेश्या में पड़ता है। अर्थात् संक्रमण करता है। नीललेण्या में संक्लेशवृद्धि को प्राप्त होकर स्वस्थान में परिगमन करता है अथवा अनन्तगृणे परस्थान स्वरूप कृष्णलेश्या में संक्रमण करता है। नीललेश्यावाला संक्लेश की हीनता (विशुद्धि) को प्राप्त होता हुआ स्वस्थान में छह स्थानों में परिणमन करता है, अथवा अनन्तगुणी हीन परस्थानभूत कायोतलेश्या में संत्रमरा करता है। कापोत लेश्या में संक्लेशवृद्धि को प्राप्त होकर स्वस्थान में द्रह स्थानों में परिणमन करता है, अथवा अनन्तगुणे परस्थान नीललेश्या में संक्रमण करता है। वहीं कापोत लेश्या वाला संक्लेश की हीनता (विशुद्धि) को प्राप्त होता हुआ स्वस्थान में छह स्थानों में परिणमन करता है, अथवा अनन्तगुणी हीन परस्थानभूत तेजालश्या में संक्रमण करता है।
तेज(पोत) लेश्या में विशुद्धि को हीनता (सक्लश) को प्राप्त होकर स्वस्थान में छह स्थान में परिणमन करता है. अनन्तगुरणे ऐसे परस्थान स्वरूप कापोतलेश्या में संक्रमण करता है । उसमें विशुद्धि की वृद्धि को प्राप्त होता हुआ स्वस्थान में परिणमन करता है, अथवा अनन्तगुणे परस्थान पद्मलेश्या में संक्रमण करता है। पद्मलेश्या में विशुद्धि की हानि को (संक्लेश को) प्राप्त होकर स्वस्थान में छह स्थानों में नीचे गिरता है अथवा अनन्तगुणी हीन परस्थानभूत तेजलेश्या में संक्रमण करता है। वही पद्म लेश्या वाला विशुद्धि की वृद्धि को प्राप्त होता हा स्वस्थान में छह स्थानों में ऊपर जाता है, अथवा अनन्तगुरणी विशुद्धि, परस्थानभूत शुक्ल लेश्या में संक्रमण करता है। शुक्ललेश्या में विद्धि की हीनता (संक्लेश) को प्राप्त होकर स्वस्थान में छह स्थानों में नीचे गिरता अथवा अमन्तगुरणी हीन परस्थान स्वरूप पालेश्या में संक्रमरण करता है। विशुद्धि की वृद्धि को प्राप्त होता हुआ स्वस्थान में परिणामन करता है, परस्थान में संक्रमण नहीं करता।
तीव-मन्दता की अपेक्षा जघन्य व उत्कृष्ट और प्रतिग्रह-स्थानों के अल्पबहुत्व इस प्रकार हैं- कृष्ण व नौल लेश्या के प्राश्रय से कथन इस प्रकार है-नील लेश्या का जघन्यस्थान स्तोक है । नीललेश्या के जिस स्थान में कृष्णलेण्या से प्रतिग्रहण होता है वह नीललेण्या का जघन्य प्रतिग्रह स्थान उसमे अनन्तगुणा है । कृष्ण का जघन्य संक्रम स्थान और जघन्य कृष्णस्थान दोनों ही तुल्य व अनन्न गुणे हैं । नील का जघन्य संक्रम स्थान अनन्तगुरणा है । कृष्ण का जघन्य प्रतिग्रहस्थान अनन्तगुणा है । नील का उत्कृष्ट प्रतिग्रह स्थान अनन्तगुणा है । कृष्ण का उत्कृष्ट संक्रम स्थान अनन्त गुणा है । नील का उत्कुष्ट संक्रम स्थान और उत्कृष्ट नील स्थान बोनों ही तुल्य व अनन्तगुणे है । कृष्रग का उत्कृष्ट प्रतिग्रह स्थान अनन्तगुगया है। उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या स्थान अनन्तगुणा है।'
नील व फापोत लेश्यानों के प्राश्रय से संक्रम व प्रतिग्रह स्थानों का प्रल्पबहुत्व-जंसा कृष्ण
१. धवल पु. १६ पृ. ४६५।
२. धवल पु. १६ पृ. ५७२-५७३ । ३. धवल पु. १६ पृ. ४६६ ।
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गाथा ४६६-५०६
लेश्यामार्गणा/५८५
और नील लेश्यानों के सम्बन्ध में कथन है वैसे ही कापोत और नील लेश्यानों के सम्बन्ध में जानना चाहिए। विशेषता इतनी है कि कापोतलेश्या को आदि करके यह कथन करना चाहिए ।'
कापोत और तेजोलेश्या के प्राश्रय से अल्पबहत्व का कयन--कापोतलेश्या का जघन्य संक्रम और जघन्य स्थान दोनों ही तुल्य वस्तीक हैं। तेजोलण्या का जघन्य स्थान और जघन्य संक्रम दोनों तुल्य व उनसे अनन्तगुणे हैं। कापोत का जघन्य प्रतिग्रहस्थान अनन्त गुणा है। तेज का जघन्य प्रतिग्रहस्थान अनन्तगुणा है। कापोत का उत्कृष्ट संक्रमस्थान अनन्तगुणा है। तेज का उत्कृष्ट संक्रमस्थान अनन्तगुणा है। कापोल का उत्कृष्ट प्रतिग्रहस्थान अनन्तगुणा है। तेज का उत्कृष्ट प्रतिग्रहस्थान अनन्त गुणा है। कापोत का उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है । तेज का उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है।
तेज प पन लेश्याओं के पाश्रय से संकम व प्रतिग्रह स्थानों के अल्पबहत्व का कयनतेज का जघन्य स्थान स्तोक है। तेज का जघन्य प्रतिग्रहस्थान अनन्त गुणा है । पद्य का जघन्यस्थान और संक्रमण दोनों ही तुल्य व अनन्तगुरणे हैं। तेज का जघन्य संक्रमस्थान अनन्तगुणा है। पद्म का जघन्य प्रतिग्रह अनन्तगुणा है। तेज का उत्कृष्ट प्रतिग्रह अनन्तगुणा है । पद्म का उत्कृष्ट संक्रम अनन्तगुरगा है। तेज का उत्कृष्ट संक्रम और उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है । पद्म का उत्कृष्ट प्रतिग्रह अनन्तगुणा है । पद्म का उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है।'
पनौर शुक्ल लेश्याओं के प्राश्रय से संक्रम व प्रतिग्रह स्थानों का अल्पबहूत्व-पन का जघन्यस्थान स्तोक है। पद्म का जघन्य प्रतिग्रह अनन्तगुणा है। शुक्ल का जघन्य संक्रम और जघन्यस्थान दोनों ही तुल्य व अनन्तगुरणे हैं । पद्म का जघन्य संक्रम अनन्तगुणा है। शुक्ल का जघन्य प्रतिग्रह अनन्तगुणा है । पभ का उत्कृष्ट प्रतिग्रह अनन्तगुणा है । शुक्ल का उत्कृष्ट संक्रम अनन्तमुणा है । पद्म का उत्कृष्ट स्थान और संक्रम अनन्तगुणा है। शुक्ल का उत्कृष्ट प्रतिग्रह अनन्तगुणा है । उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या स्थान अनन्तगुणा है। इस प्रकार तीन, चार, पाँच और छह संयोगों के भी अल्पबहुत्व का कथन करना चाहिए। इससे तथा गा. ५१८ की टीका से यह ज्ञात होता है कि कुछ मध्यम अंश ऐसे हैं जो छहों लेण्यायों में पाये जाते हैं।
षट्स्थानपतित लेश्यास्थानों का प्रमाण असंड्यात लोक है। उनमें कापोतलेश्या के स्थान स्तोक हैं 1 नीललेश्या के स्थान असंख्यातगुण हैं । कृष्ण लेश्या के स्थान असंख्यातगुणे हैं । तेजोलेश्या के स्थान असंख्यात गुणे हैं। पद्मलेश्या के स्थान असंख्यात गुणे हैं। शुक्ललेश्या के स्थान असंख्यातगुणे
- इन छह स्थानों के नाम व परिभा। यद्यपि श्रुतज्ञान के कथन में विस्तारपूर्वक कहे गए हैं तथापि संक्षेप में यहां पर भी कहे जाते हैं---अनन्त भागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनन्तगुणबृद्धि ये छह वृद्धि हैं; इसी प्रकार छह हानि होती हैं । अनन्त का परिमाण समस्त जीबराशि है। असंख्यात का परिमागा असंख्यात लोक है। संख्यात का
१. धवल पु. १६ पृ. ४६६ । २. धवल पु. १६ पृ ४६६-४६७ । ३. घबल पु. १६ पृ. ४६७ । ४. घनल पु. १६ पृ. ४६७ । ५. देखो इसी ग्रन्थ की गाथा २८८ तथा २९२-६५ की टीका । ६. धवल पु. १६ पृ. ५७३ ।
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५८६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५०७-५०६
परिमाण उत्कृष्ट संख्यात राशि है । अनन्तभाग वृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि में भागाहार और गुणाकार समस्त जीवराशि प्रमाण है । असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यात गुणवृद्धि में भागाहार व गुणाकार असंख्यात लोकप्रमाग है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि इनका भागाहार व गुणाकार उत्कृष्ट संख्यात अवस्थित है। संदृष्टि करने के लिए इन छह की ये छह संज्ञा हैं—अनन्त भागवृद्धि की उर्वङ्ग (३), असंख्यातभागवृद्धि की चतुरङ्क (४), प्रख्यात भाग वृद्धि की पञ्चाङ्क (५), संख्यातगुणवृद्धि की षडङ्क (६), असंख्यातमुशवृद्धि को सप्ताङ्क (७), अनन्त गुणवृद्धि की अष्टाङ्क (८) संज्ञा है। सूच्यङ्गुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण अनन्तभागवद्धियों के होने पर एक बार असंख्यात भागवृद्धि होती है । पुनः सूच्यङ्गुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण बार अनन्त भागवृद्धियों के होने पर एक बार असंख्यातवेंभागवृद्धि होती है। इस क्रम से असंख्यातभागवृद्धि भी सुच्यङ्गुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण हो जाय तब पूर्वोक्त प्रमाण अनन्तभागवृद्धि हो जाने पर संख्यात भाग वृद्धि होती है । इसी क्रम से अनन्तगुणवृद्धि तक ले जाना चाहिए।'
दृष्टान्त द्वारा छहों लेण्यानों के कर्म का कथन पहिया जे छप्पुरिसा परिभट्टाररणमझदेसम्हि । फलभरियरुवख मेगं पेविखत्ता ते विचितंति ॥१०॥ रिणम्मूलखंधसाहक्साहं छित्त चिरिणत्त पडिवाइं ।
खाउँ फलाई इदि जे मरणेग बयणं हवे कम्मं ॥५०॥ गाथार्थ -- छह पथिक वन के मध्य में मार्ग से भ्रष्ट होकर फलों से भरे हुए वृक्ष को देखकर विचार करते हैं और कहते हैं-जड़मूल से वृक्ष को काटो, स्कन्ध से काटो, शाखाओं से काटो, उपशाखाओं से काटो, फलों को तोड़ कर खाओ, गिरे हुए फलों को खामो, इस प्रकार के विचार ब वचन लेश्या कर्म को प्रकाट करते हैं ।।५०७-५०८।।
विशेषार्थ फलों से लदे हुए वृक्ष को देखकर कृष्णलेण्या वाला विचार करता है कि इस बक्ष को जड़मूल से उखाड़कर फल खाने चाहिए। नील लेश्या वाला विचार करता है कि इस वृक्ष के स्कन्ध (तने) को काटकर फल खाने चाहिए। कापोत लेश्या बाला विचार करता है कि इस वृक्ष की शाखामों को काटकर फल खाने चाहिए, तेजोलेश्या वाला विचार करता है कि इस वृक्ष की उपशास्त्रानों को काटकर फल खाने चाहिए। पद्म लेण्यावाला विचार करता है कि फल तोड़कर खाने चाहिए। शुक्ल लेश्यावाला विचार करता है कि पक कर नीचे गिरे हुए फल खाने चाहिए। इन भावों के अनुसार वे वचन भी कहते हैं। उनके मानसिक विचारों तथा वचनों से लेश्या के तारतम्य का ज्ञान हो जाता है।
कृष्णलेश्या के कर्म व लक्षण का कथन चंडो रग मुचइ वेरं भंडरगसीलो य धम्मवयरहियो । बुट्ठो ग य एदि वसं लवखरणमेयं तु किण्हस्स ॥५०॥'
१. गो. जी. गाथा ३२३ से १२६ तक । सं. अ. १गा. १९२.४० गर भी हैं।
२. यह माथा कुछ पाब्दभेद के साथ धवल पु.२ पृ.५३३, प्रा. पं. ३. धवल पु.१ पृ. ३८८, पु. १६ पृ. ४६०% प्रा. पं. सं. ३,१ गा.
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गाथा ५.१० ५९४
श्यामागंणा / ५८७
गाथार्थ - कृष्णश्या से संयुक्त जीव तीव्र क्रोधी, वैर को न छोड़नेवाला, गाली देने रूप स्वभाव से युक्त, दयाधर्म से रहित, दुष्ट और वश में नहीं आने वाला, यह कृष्णलेश्या का लक्षण है ||५०८ ||
विशेषार्थ - कृष्णलेश्या का कर्म कृष्णलेश्या से परिणत जीव निर्दय, झगड़ालू, रौद्र, चैर की परम्परा से संयुक्त, चोर, श्रसत्यभाषी, परदारा का अभिलाषी, मधुमांस व मद्य में आसक्त, जिन शासन के श्रवण में कान न देनेवाला और असंयम में मेरु के समान स्थिर स्वभाव वाला होता है ।" नील लेश्या: कर्म त्र लक्षण
।
।। ५० ।। २
मंद बुद्धिविहगो रिविणारी य विसयलोलो य माली मायी य तहा आलस्सो चैव भेज्जो य शिद्दाचरण बहुलो घणघणे होदि तिब्वसरणाय । लक्रमेयं भरियं समासदो गोललेस्सस्स ।। ५११ । । '
गायार्थ- कार्य करने में मन्द बुद्धिविहीन, विवेक से रहित, विषयलोलुपता, अभिमानी, भायात्रारी, श्रालसी, अभेद्य, निद्रा व धोखा देने में अधिक धन-धान्य में तीव्र लालसा, ये नीललेश्या के लक्षण हैं ।।५१० ५११।।
विशेषार्थ- 'नीललेश्या' जीव को विवेकरहित, बुद्धिविहीन, मान व माया की अधिकता से सहित, निद्रालु, लोभसंयुक्त और हिंसा आदि कार्यों में अथवा कर्मों में मध्यम अध्यवसाय से युक्त करती है । * जो काम करने में मन्द हो अथवा स्वच्छन्द हो, जिसे कार्य व कार्य की खबर न हो, जो कला व चातुर्य से रहित हो, इन्द्रियविषयों का लम्पटी हो, तीव्र क्रोध-मान- माया-लोभ वाला हो, आलसी हो, कार्य करने में उद्यम रहित हो, दूसरे व्यक्ति जिसके अभिप्राय को सहसा न जान सकें, प्रतिनिद्रालु हो, दूसरों को ठगने में अतिदक्ष हो, वह नीललेश्या वाला है, ऐसा जाना जाता है।
कापोत लेश्या : कर्म व लक्षण
रूसइ रिंगवर अण्णे दूतद्द बहुसो य सोयभयबहुलो ।
प्रसुपs परिभवइ परं पसंसये अप्पयं बहुसो ।।५१२ ।। णय पत्तियइ परं सो प्रयाणं विव परं पि मण्णंतो । थूसइ प्रभित्थुवंतो ग य जारणइ हारिगढ या १५१३ ।। मरखं पत्थे रणे देव सुबहुगं वि थुत्यमारणो दु । रंग गरइ कज्जाकज्जं लक्खरणमेयं तु काउस्स || ५१४ || *
१. धवल पु. १६ पृ. ४० २. धवल पु. १ पृ. ३८८, पु. ३. धवल पु १ पृ. ३०६ पु. १६ पृ. ४६१ ५. ये तीनों धवल पु. १ पृ. ३८६, धवल पु.
१६ पृ. ४९० प्रा. पं. सं. प्रा. पं. सं. अ. १ मा १४६ पृ. ३१ । १६ पृ. ४६१, प्रा. पं मं. अ. १ बा.
१ मा १४५ पू. ३१ । ४. धवन पु. १६ पृ. ४२७ ॥ १४७- १४२ हैं ।
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५८८ / गो. सा. जोषकाण्ड
गाथार्थ - रुष्ट होना, निन्दा करना, अन्य को बहुत प्रकार से दोष लगाना, प्रचुर शोक व भय से संयुक्त होना, ईर्षा करना, परका तिरस्कार करना, अपनी अनेक प्रकार प्रशंसा करना, दूसरों को भी अपने समान समझ कर उनका कभी विश्वास नहीं करना, अपनी प्रशंसा करने वालों से सन्तुष्ट होना, हानि-लाभ को नहीं जानना, युद्ध में मरण की प्रार्थना करना, स्तुति करने वालों को बहुतसा पारितोषिक देना, कर्तव्य - प्रकर्त्तव्य के विवेक से हीन होना ये सब कापोतलेश्या के लक्षण हैं ।।५१२-५१४ ।।
• विशेषार्थ – दूसरों पर क्रोध करना, उनको निन्दा करना, उनको अनेक प्रकार से दुःख देना अथवा वैर रखना, शोकातुर होना, भयभीत रहना, दूसरों के ऐश्वर्यादि को सहन न कर सकना, उनका तिरस्कार करना, नाना प्रकार से अपनी प्रशंसा करना, दूसरों पर विश्वास न करना, दूसरों को भी अपने जैसा धोखेबाज मानना, स्तुति करने वाले पर सन्तुष्ट हो जाना और बहुत घन दे देना, अपनी हानि वृद्धि को कुछ भी न समझना, रण में मररण की इच्छा रखना, कार्य व प्रकार्य में अविवेक इत्यादि ये सब कापोत लेश्या के कर्म हैं । अथवा 'कापोत लेश्या' जीव को कृष्णलेश्या से सम्बन्धित सर्व कार्यों में जघन्य उद्यमशील करती है । '
जागs कज्जाकज्जं दादो
गाथार्थ – 'तेजोलेश्या जीव को कर्तव्य-अकर्तव्य तथा सेव्य-सेव्य का जानकार, समस्त जीवों को समान समझने वाला, दया दान में लवलीन और सरल करती है ।
गाथा ५१५-५१६
विशेषार्थं तेजोलेश्या वाला जीव अहिंसक, मधु मांस व मद्य का असेवी, सत्यबुद्धि, तथा चोरी व परद्वारा का त्यागी होता है । अथवा अपने कार्य प्रकार्य सेव्य असेव्य को समझने वाला हो, सब के विषय में समदर्शी हो, दया और दान में तत्पर हो, कोमल परिणामी हो, ये सत्र पीतलेश्या के कर्म अथवा चिह्न है
-
पीतलेश्या कर्म
सेयमसेयं च सव्व समपासी । मिट्ट लक्खरण मेयं तु तेजस्स ।।५१५ ।। २
..
पद्मलेश्या वाले के लक्षण
चागी भद्दो चोक्लो उज्जवकम्मो य खमदि बहुगं पि । साहुगुरुपूजगर दो लक्खणमेय तु पम्मस्स ।। ५१६।। *
गाथा - पद्मलेश्या में परिणत जीव त्यागी, भद्र, चोवखा, ऋजुकर्मा, भारी अपराध को भी क्षमा करने वाला तथा साधुपूजा व गुरुपूजा में तत्पर रहता है ।
विशेषार्थ - दान देने वाला हो, भद्र-परिणामी हो, जिसका उत्तम कार्य करने का स्वभाव हो, इष्ट तथा अनिष्ट उपद्रवों को सहन करने वाला हो, मुनि-गुरु श्रादि की पूजा में प्रीतियुक्त हो । ये सब पद्मा वाले के चिह्न अथवा कर्म हैं ।
१. धवल पु. १६ पृ. ४९१ । ३. घवल पु. १६ प्र. ४६१ ।
२. धवल पु. १. ३८९ : ४. धवल पु. १ पृ. ३६० पु.
पु. १६ पृ. ४६१; प्रा. पं. सं. घ. १ बा. १५० । १६ पृ. ४३२ प्रा. पं. सं. अ. १. १५१ ।
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गाथा ५१७५१८
शुक्ललेश्या वाले के लक्षगा
रंग व कुरणइ पक्खवायं रात्रि य रिणवाणं समो य सम्बसि । रात्थि य रायद्दोसा
होत्रि य
गाथार्थ – शुक्ल लेश्या के होने पर जीव न पक्षपात करता है और न निदान करता है, वह
-
सब जीवों में समान रहकर रागद्वेष व स्नेह से रहित होता है ।। ५१७ ॥
विशेषार्थ पक्षपात न करना, निदान को न बाँधना, सब जीवों में राग तथा अनिष्ट से द्वेष न करना, स्त्री-पुत्र मिश्र श्रादि में स्नेहरहित होना, के कर्म थवा चिह्न हैं ।
श्यामागंरा/ ५८६
सुक्क लेस्सस्स ।। ५१७॥ '
यह सब कथन उत्कृष्ट भाव लेश्याओं की अपेक्षा से किया गया है । इसी प्रकार द्रव्यलेश्या के कार्यों को भी प्ररूपणा करनी चाहिए ।
समदर्शी होना, इप्ट से ये सब शुक्ललेश्या बाले
अब ग्यारह गाथाओं द्वारा गति अधिकार का कथन किया जाता है । सर्व प्रथम एक गाथा द्वारा लेश्याओं के २६ अंश और उनमें से मध्य के आठ अंश आयु बन्ध योग्य होते हैं, इसका कथन किया जाएगा । उसके पश्चात् किम लेश्या से मरकर जीव किस गति में उत्पन्न होता है, इसका कथन दस गाथाओं द्वारा किया जाएगा 1
विशेषार्थं यह अधिकार धवल आधार पर लिखा जाएगा ।
लेस्सारणं खलु श्रंसा छब्बीसा होंति तत्थ मज्झिमया । श्रट्ट गरिस- कालभवा ।। ५१८ ।।
उगबंधरण जोगा
शङ्का - अपकर्ष का क्या स्वरूप है
--
गाथार्थ - श्यायों के निश्चय से छब्बीस अंश हैं। उनमें से मध्य के आठ ग्रंग, जो प्राठ अपकर्षकाल में होते हैं, आयु बन्ध के योग्य हैं ।। ५१८ ।।
ग्रन्थ में नहीं है अतः इसका विशेषार्थं संस्कृत टीका के
समाधान - वर्तमान अर्थात् भुज्यमान आयु को अपकृष्य अपकृष्य अर्थात् घटाघटा कर परभव श्रायु के बन्ध योग्य होना सो अपकर्ष है । यदि किसी की आयु = १ वर्ष की है, उस श्रायु के दो तिहाई भाग अर्थात ५४ वर्ष बीत जाने पर ठीक तत्पश्चात् प्रथम समय से लगाकर एक अन्तर्मुहूर्त काल परभव सम्बन्धी आयु बंध योग्य प्रथम श्रपकर्ष होता है । २७ वर्ष जो शेष रह गये थे उसका भी दो तिहाई भाग अर्थात् १८ वर्ष बीत जाने पर यानी ( ५४ + १८) ७२ वर्ष की आयु बीत जाने पर और वर्ष आयु शेष रह जाने पर प्रथम अन्तर्मुहूर्त द्वितीय अपकर्ष होता है । ६ वर्ष का दो तिहाई भाग ( ६ वर्ष बीत जाने पर और तीन वर्ष प्रायु शेष रह जाने पर प्रथम अन्तर्मुहूर्तं तृतीय अपकर्ष होता है। इसी प्रकार चतुर्थ यदि अपकर्षो को सिद्ध कर लेना चाहिए। यदि इन आठ अपकर्षो में आयुबन्ध
१. धवल गु. १ पृ. ३६० पु. १६ पृ. ४६२ प्रा. पं. सं. म. १ मा १५२ ।
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५६०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५१८
न हो तो असंक्षेपाद्धा काल प्रमाण प्रायु शेष रह जाने पर परभविक आयु का अवश्य बन्ध होता है । क्योंकि परभव की प्रायु बन्ध हुए बिना मरण नहीं होता।
__जघन्य विश्रमणकाल युक्त जघन्य प्रायुबन्ध काल असंक्षेपाढा कहलाता है। वह यवमध्य के अन्तिम समय से लेकर जघन्य आयुबन्धकाल के अन्तिम समय तक होता है। यह प्रसंक्षेपाद्धा तृतीय विभाग में ही होता है, क्योंकि अभी भी ऊपर क्षुल्लक भवग्रहण सम्भव है। आयुबन्ध के होने पर ऊपर जो सबसे जघन्य विश्रमण काल है उसकी क्षुल्लक भवग्रहण संज्ञा है। वह अायुबन्ध काल के ऊपर होता है। (धवल पु. १४ पृ. ५०३-५०४ । धवल पु. ११ पृ. २६६, २७३ अादि ।)
छहों लेन्यानों के छब्बीस अंश हैं। प्रत्येक लेश्या के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंश के भेद से (६४३) १८ ग्रंश हो जाते हैं। इनके अतिरिक्त कापोतलेश्या के उत्कृष्ट से आगे और तेज (पीत) लेश्या के उत्कृष्ट अंश से पूर्व कषायोदय स्थान में आठ मध्यम अंश हैं जो प्रायु-बन्ध के वारण हैं । इस प्रकार हों लेश्याओं के २६ अंश होते हैं।
___ शिलारेखा पृथ्वीरेखा धूलिरेस्वा
जनरेखा उ. ० ००० ० ० ज. | 3. ००० ००० ज. 'उ... ००० ०ज. | उ. ०० ००.०ज.
लेश्या
कृ.
१
१४४४
पायु बन्ध
पाठ मध्यम अंश
गो, जो. गाथा ५१८ का नक्शा [अपने शुद्ध रूप में] पृथ्वीरेखा
धूलिरेखा
शिलारेमा
जलरेण्डा
उ० ० ० ०
० ०
ज ,उ ० ०
० ० ०
०
ज
०
०
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०
०
ज | उ ०
०
० ० ०
०
ज
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कृ. १
+-मध्यमांशाः
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उक्त नक्शे का विशेष स्पष्टीकरण
जल
त्रुलि
4
पृथ्वी
!
शिला
० ज तक उ. से ००
०
० ज तक
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०
5
दु
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~
मध्यम शुक्ल तथा उत्कृष्ट शुक्ल
******..
14-RARE
मध्यम शुक्ल लेश्या
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उत्कृष्ट पद्म जमन्य शुक्ल
कृष्ण १
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WAT
Weed... Well
» जघन्य कापोत तथा मध्यम तीन शुभ
********
ज. नील तथा कृष्णारहित शेष ४ मध्यम
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*********
w ज. कृष्ण तथा शेष ५ लेश्या मध्यम
*****....
...AREE
-----
कृष्णादि ५ मध्यम तथा जयम्य शुक्ल
********
*******
कु. नी. का. वी मध्यम जघन्य पच
..... •
मध्यमकृष्ण
10
* कृ.नी. का. मध्यम जघन्य पीत
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मध्यम कृष्ण
4*14 day
P.LINK
------
उत्कृष्ट कृष्ण
कृष्ण, नील, मध्यम उत्कृष्ट कापोत
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मध्यम कृष्ण उत्कृष्ट नील
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० - प्रबन्ध
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श्राठ मध्यमांत
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५९२/गो, सा, जीवकाण्ड
गाथा ५१८
(A) नोट-उक्त नशे के अनुमार मएम अंशों के नाम इस प्रकार हैं--१. उत्कृष्ट कापोत, कृष्ण नील मध्यम । २. कुष्षण नील कापोत मध्यम, जघन्य पीत। ३. कृष्गा नील कापोत पीत मध्यम जघन्य पन । ४. कृष्णादि पाँच मध्यम ; जघन्य शुक्न । ५, जघन्य कृष्ण तथा शेष ५ लेश्या मध्यम। ६. जघन्य नील तथा ४ लेश्या (कृष्ण बिना) मध्यम । ७. जघन्य कापोत तथा तीन शुभ लेश्या मध्यम । ६. मध्यम पम शुक्ल तथा उस्कृष्ट पीत । विशेष—इन उक्त घायुवन्ध योग्य ८ अपकर्षों में प्रादिनाम उत्कृष्ट कापोत से प्रारम्भ हुना तथा अन्तिम नाम का अन्त उत्कृष्ट पीत से है । अत: ऐसा कहा जाता है कि उत्कृष्ट कापोत से उत्कृष्ट पीत (तेजो) के बीच-२ ही अपकर्ष होते हैं। (देखें—गो. जी. गा. ५१८)
(B) लेश्यानों के क्रम को देवकर [यथा-कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पन, शुक्ल (गो. जो. ४६३)]
सा भ्रम प्रायः सभी विद्वानों को भी हया है कि कापोत के उत्कृष्ट से तेजो. के उत्कृष्ट अंश के पूर्व तक की अवधि में तो दो (कापोत व तेज) लेश्याएँ ही आएंगी। किन्तु परमार्थतः ऐसा नहीं है । क्योंकि गो. जी. गा. ५१८ का नक्शा बड़ी टीका; महाधवल २ | पृष्ठ २७८ से २८१, धवल ८ पृष्ठ ३२० से ३५८ तथा गो, जी. गाथा २६० से २६५ इन सत्र स्थलों में एक मत से सभी श्यामों में प्रायू बन्ध कहा है।
(C) यह गो. जी. से सम्बद्ध क्रथन कर्मकाण्ड (बड़ी टीका) ज्ञानपीठ प्रकाशन में पृ. ८६१ (गा. ५४६) पर भी पाया है। यहाँ ८ मध्यमोश का प्ररूपण भिन्न मत से किया हुअा मासित होता है। उसके अनुसार तो ८ मध्यमांशों द्वारा १४ लेश्यास्थानों में से ठीक मध्य के ४ लेश्यास्थान ही गृहीत होते है। ऊपर बिन्दु A में लिखित ८ मध्यमांशों में से तृतीय से छठे तक के ४ मध्यमोश ही गृहीत होते हैं। उन्हें ही भेदविवक्षा से यहाँ ८ रूप से गिनाया है। यया–पन शुक्ल कृष्ण व नील इन ४ लेश्यामों के जघन्य अंश रूप ४ स्थान तथा ४ गति सम्बन्धी प्रायुबंध के कारण, नरक बिना ३ प्रायुबंध के कारण, मनुष्य-देवायु-बंध के कारण, देवायु-बंध के कारण; ये ४ । स्थान । इस तरह कुल ८ मध्यमांश हुए 1 यह कथन चिन्त्य है।
(D) प्रकरण (A) में लिस्त्रित = अपकों के नामों से यह भी स्पष्ट हो ही जाता है कि पाठ अपकर्षों में मात्र दो ही नहीं, छहों लेश्याएँ आ जाती हैं।
(E) श्लोकवातिक भाग ५ पृष्ठ ६३४ में तो ८ अपकर्ष ऐसे बताए हैं -कृष्ण तथा कापोत के मध्यवर्ती तथा पीत और शुक्ल के मध्यवर्ती = ८ मध्यम अश हैं। मध्यवर्ती इमलिए कहा है कि कृष्णलेश्या के कतिपय तीन अंशों में और कापोतलेण्या के कतिपय जघन्य अंगों में प्रायु नहीं बंधती है। इसी प्रकार शुभ लेश्याओं पीत के कतिपय जघन्य अंशों और शुक्ल लेश्या के कुछ उत्कृष्ट अंशों में आयुष्य कर्म को बंधवाने की योग्यता नहीं है। इसलिए प्रशुभ लेश्याओं के मध्य पड़े हुए चार अंश और तीनों शुभ लेप्रयासों के बीच पड़े हुए चार अंश ; इस तरह ८ मध्यम ग्रंश कहे जाते हैं । [माषा टोका]
(F) तीन [ " ऐम चिह्न से अंकित, देखो नक्शा] अायुबन्ध स्थान फिर भी ८ मध्यम अंशों में छूट जाते हैं । सो "*" सम्बन्धी तीनों नरकायु के ही बन्धस्थान हैं जो कि मध्यमकृष्ण लेया से बँधते हैं तथा इस मध्यम कृष्णलेश्या रूप अंशत्रय का "८ मध्यम लेश्यांश में परिवरिणत मध्यम कृष्ण लेण्या शब्द" द्वारा उपलक्षण से ग्रहगा हो जाता है। ऐसा हमारी बुद्धि में प्राता है ।
-जवाहरलाल जैन
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गाथा ५१६-५२३
यामागगा/५६३
शेष अठारह अंशों का कार्य सेसद्वारस अंसा चउगइगमणस्स कारणा होति । सुक्कुक्कस्ससमुदा सम्बद्ध जांति खलु जीवा ।।५१६॥
गाथार्थ-पाठ मध्य अंशों के अतिरिक्त शेष अठारह अंश चारों गतियों में गमन के कारण होते हैं । शुक्ललेण्या के उत्कृष्ट अंश सहित मरने वाला मनुष्य नियम से सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न होता है।
विशेषार्थ-यदि मरण समय किसी दिगम्बर जैन साधु के यथायोग्य उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या रूप परिणाम है। तो वह साधु नियम से सर्वार्थ सिद्धि में जाकर ग्रहम-इन्द्र होता है । इतनी विशेषता है कि उस साधु ने ३३ सागर स्थिति वाली देवायु का बन्ध किया हो. क्योंकि सर्वार्थसिद्धि में ३३ सागर से हीन या अधिक आयु नहीं होती।
प्रवरंसमुदा होंति सदारदुगे मज्झिमंसगेण मुदा । पारणदकप्पादुरि सबढाइल्लगे होति ॥५२०।। पम्मुक्कस्संसमुदा जीवा उवजांति खलु सहस्सारं । अवरंसमुदा जीवा सरणपकुमारं च माहिदं ॥५२१।। मज्झिम अंशेण मुदा तम्मझ जांति तेउजेद्वमुदा । सारणक्कुमार - माहिदंतिमचक्किदसेदिम्मि ।।५२२।। अवरसमुदा सोहम्मोसाणादिमडम्मि सेढिम्मि । मज्झिमयंसेण मुदा विमलविमारणादिबलभद्दे ॥५२३॥
गाथार्थ--- शुक्ललेश्या के जघन्य अंश सहित मरकर शतारद्विक (प्रतार, सहस्रार, आनत, प्राणन) स्वर्गों में उत्पन्न होता है। शुक्ल लेण्या के मध्यम अंश सहित मरकर ग्रानत प्राणत से ऊपर और सर्वार्थसिद्धि से पूर्व के विमानों में उत्पन्न होता है ।। ५२०॥ पद्मवेण्या के उत्कृष्ट अंश सहित मरकर नियम से सहसार युगल में उत्पन्न होता है और जघन्य अंश से मरकर सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में उत्पन्न होता है ।।५२१।। पद्मले श्या के मध्यम अंग सहित मरकर सानत्कुमार माहेन्द्र के कार और सहस्रार स्वर्ग के नीचे के मध्य के विमानों में उत्पन्न होता है । पीत लेश्या के
१. नर्थगिद्धि की उत्कृष्ट प्राय ३३ सागर है। जघन्य पच्य के अमंग्यात माग कम ३३ सागर है. ऐसा भी कितने ही प्राचार्य स्वीकार करते हैं । लोकविभाग १०१२३४ सिझमूरषि विरचित एवं ति. प. (महासभा प्रकाशन) ८/५१४, भाग ३ पृ. ५.६६; परन्तु मर्वासिद्धिकार (४/१२/१९२), लत्त्वार्थमुत्रकार (४/३२), राजवातिककार (6/३४/१-२/ पृ. २४८) तथा लोकवातिककार. ( माग ६/६५२) आदि सवधिमिद्धि विमान में जघन्य य उत्कृष्ट मा ३३ गागर ही बताते है।
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५६४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५२४-५२६
उत्कृष्ट अंशों के साथ मरकर सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग के अन्तिम पटल में चक्रनामक इन्द्रक विमान सम्बन्धी नीबद्ध विमानों में सम्पन्न होता है ।।५२२।। पीतलेश्या के जघन्य अंशों के साथ मरकर सौधर्म ईशान के ऋतु नामक प्रथम इन्द्रक विमान में अथवा तत्सम्बन्धी थेणीबद्ध विमानों में उत्पन्न होता है। पीतलेश्या के मध्यम अंश सहित मरकर विमल नामक द्वितीय इन्द्रक विमान से लेकर सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग के द्विचरम पटल के वलभद्र नामक इन्द्रक विमान पर्यन्त उत्पन्न होते हैं ।। ५.३३।।
विशेषार्थ-लेश्या के २६ भेदों अर्थात २६ अंशों में से मध्य के अष्ट ग्रंश आयु बंध के कारण शङ्खा--यह कैसे जाना जाता है ?
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समाधान-"अष्टाभिः प्रपकः मध्यमेन परिणामेनाऽऽयुबंध्नाति' अर्थात् पाठ अपकर्षों के द्वारा मध्यम परिणामों से आय का वध करता है ऐसा पार्ष का उपदेश है। शेष १८ अंश गतिविशेष के अथवा पूण्य-पाप विशेष उपचय के हेतु हैं। इस अपेक्षासे भी जाना जाता है कि मध्यम परिणाम अपने-अपने योग्य प्रायुबन्ध के कारण होते हैं । प्रायु कर्मोदय से गतिविशेष प्राप्त होती है। इसलिए गति प्राप्ति में लेण्या कारण है।
उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या अंश परिणामों से मरण करके प्रात्मा सर्वार्थसिद्धि में जाती है जघन्य शुक्न लेश्या अंश रूप परिणामों से मरण करके शुक्र महाशुक्र शतार सहस्रार स्वर्ग में जाती है । मध्यम शुक्ल लेश्या रूप परिणामों से मरण करके सर्वार्थ सिद्धि से पूर्व मानतादि स्वर्गों में उत्पन्न होती है। उत्कृष्ट 'पद्मलेश्या ग्रंश रूप परिणाम से जीव सहस्रार स्वर्ग में उत्पन्न होता है । जघन्य पद्मलेण्या अंश रूप परिणाम से सानत्कुमार माहेन्द्र में उत्पन्न होता है । मध्यम पद्मलेश्या अंश रूप परिणाम से ब्रह्मलोक स्वर्ग को प्रादि करके तार स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं । उत्कृष्ट तेजो लेश्या अंश परिणाम से सानत्कुमार माहेन्द्र कल्प के अन्तिम चक्क-इन्द्रक विमान और तत्सम्बन्धी श्रेणीबद्ध विमानों में उत्पन्न होता है । जघन्य तेजोलेश्या अंश रूप परिणामों से सौधर्मशान कल्प के प्रथम विमान तथा तत्सम्बन्धी श्रेणी विमानों में उत्पन्न होता है। तेजोलेश्या के मध्यम-अंश रूप परिणामों से चन्द्रादि इन्द्रक विमान से तथा तत्सम्बन्धी श्रेणी विमानों से लेकर बलभद्र इन्द्रक विमान व तत्सम्बन्धी श्रेणी विमानों तक उत्पन्न होता है ।।
किण्हवरंसेरण मुदा अवधिछारण म्मि प्रवरअंसमुदा । पंचमचरिमतिमिस्से मज्झे मझेग जायते ।।५२४॥ नीलुक्कस्संसमुदा पंचम अंधियम्मि अवरमुदा । वालुकसंपज्जलिदे मज्झे मझेरण जायते ॥५२५॥ वरकामोसमुदा संजलिदं जांति तदियरिणरयस्स । सोमंत अवरमुदा मज्झे मज्झेरण जायते ।।५२६।।
१. रा. वा. ४/२२/१०
२४० ।
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गाथा ५२७-५२८
श्यामगंगा / ५१५
के) अधिस्थान
गाथार्थ - कृष्णलेश्या के उत्कृष्ट ग्रंथ के साथ भरकर (सातवें (प्रतिष्टित स्थान इन्द्रक बिल) में, जघन्य ग्रंश के साथ मरकर पाँचवें नरक के तिमिस्र नामक अन्तिम इन्द्रक बिल में और मध्यम भ्रंश के साथ मरकर इन दोनों के मध्य में उत्पन्न होते हैं ।। ५२४ ।। नील लेश्या के उत्कृष्ट अंश के साथ मरकर पाँचवें नरक के अंधेन्द्रा (द्विचरम इन्द्रक बिल) में, जघन्य अंश के साथ मरकर बालुका पृथ्वी के सम्प्रज्वलित ( तीसरे नरक के अन्तिम इन्द्रक बिल) में और मध्यम अंश के साथ मरकर इन दोनों के मध्य में उत्पन्न होते हैं ।। ५२५ || कापोत लेश्या के उत्कृष्ट ग्रंथ के साथ मरकर तीसरे नरक के ( द्विचरम इन्द्रक बिल) संज्वलित में उत्पन्न होता है । जघन्य अंश के साथ मरकर ( प्रथम नरक का प्रथम इन्द्रक बिल) सीमन्त में और मध्यम अंग के साथ मरकर इन दोनों के मध्य में उत्पन्न होते हैं ।। ५२६ ।।
विशेषार्थ - सातवी पृथ्वी के इन्द्रक बिल के दो नाम हैं - अवधिस्थान, अप्रतिष्टित स्थान । ' कृष्णलेश्या के उत्कृष्ट अंश रूप परिणामों से मरकर सातवें नरक के प्रतिष्ठित नामक इन्द्रक बिल में उत्पन्न होता है । अर्थात् सातवें नरक में उत्पन्न होता है। कृष्ण लेश्या के जघन्य ग्रंश रूप परिणामों से मरकर पांचवें नरक के तिमिस्र नामक अध: ( अन्तिम ) इन्द्रक बिन में उत्पन्न होता है । कृष्ण 'लेश्या के मध्यम भ्रंश रूप परिणाम से मरकर हिमेन्द्रक बिल से लेकर महारौरव नामक नरक तक उत्पन्न होता है। नील लेश्या के उत्कृष्ट अंश रूप परिणाम से पाँचवें नरक के अंध इन्द्रक बिल को प्राप्त होता है । नील लेश्या के जघन्य अंश रूप परिणाम से बालुका नामक पृथ्वी के तप्त इन्द्रक बिल में जाता है । नील लेश्या के मध्यम भ्रंश रूप परिणाम से बालुका पृथिवी में त्रस्त इन्द्रक विमान से लेकर भपक इन्द्रक विमान तक उत्पन्न होते हैं । कापोत लेश्या के उत्कृष्ट अंश रूप परिणाम से बालुका प्रभा पृथिवी में संप्रज्वलित ( इन्द्रक बिल) नरक में जाता है । कापोत लेश्या के जघन्य श्रंश रूप परिणाम से रत्नप्रभा पृथ्वी ( प्रथम नरक) के सीमन्तक इन्द्रक बिल में जाता है । कापोतलेश्या के मध्यम भ्रंश रूप परिणाम से रोक इन्द्रक बिल से लेकर संज्वलित इन्द्रक दिल तक उत्पन्न होते हैं । *
फिचउक्कारणं पुरण मज्झ समुदा हु पुढवी ब्राउफदिजीवेसु हवंति किण्हतियाणं मज्झिमसमुदा सुररिया सगले सहि परतिरियं
भवरलगादितिये | खलु जीवा ।। ५२७ ।।
।
तेजवाजवियलेसु । जाति सगजोगं ।। ५२८ ।।
गाथार्थ - कृष्ण आदि (कृष्ण, नील, कापोत व पीत) चार लेश्याओं के मध्यम अंश से भरा हुआ जीव भवनकि, पृथ्वी, जल और वनस्पति जीवों में उत्पन्न होता है ।। ५२७|| कृष्ण त्रय लेश्या के मध्यम अंश से मरे हुए अग्निकायिक, वायुकायिक, विकलेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं । देव और नारकी अपनी-अपनी लेश्या से मरकर अपने योग्य मनुष्य व तियंचों में उत्पन्न होते हैं ।। ५२८ ।।
विशेषार्थ - कृष्ण, नील, कापोत व तेज ( पीत) लेश्या के भव्यम अंश रूप परिणामों से
१. "अवधिस्थानं प्रतिष्ठितस्थानं वा " [ त्रिलोकसार गा. १५६ की टीका ] २. रा. दा. ४ / २२ / १० /
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५६६/गो.सा. जीवकाण्ड
गाथा ५२७-५२८
मरकर भवनवासी, व्यन्तर व ज्योतिषी देवों में, पृथ्वी, जल, बनस्पति जीवों में उत्पन्न होता है। कृष्ण, नील, कापोत लेश्या के मश्यम अंश रूप परिणाम से अग्निकायिक, बायुकायिकों में उत्पन्न होते हैं। देव और नारकी अपनी-अपनी लेश्याओं के साथ मरण करके अपने-अपने योग्य मनुष्य व तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं।'
शडा--भवनत्रिक (भवनवासी. वाणब्यन्तर, ज्योतिषी) देवों के अपर्याप्त काल में तीन अशुभ (कृष्ण, नील, कापोत) लेश्या ही होती हैं। और पृथिवीकायिक जलकायिक व वनस्पतिकायिक जीवों के पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थानों में तीन अशुभ लेश्या ही होती हैं । इनमें पीत लेश्या से मरकर जीव कैसे उत्पन्न होता है ?
समाधान-कर्मभूमिया मनुष्य या तिर्यच यदि भवनत्रिक या पृथ्वी-जल व वनस्पति में उत्पन्न होते हैं तो तीन अशुभ लेश्या के साथ मरण करते है। किन्तु जिन जीवों के पर्याप्त काल में लेश्यान्तर संक्रमण नहीं होता अर्थात् अन्य लेश्या रूप संक्रमण नहीं होता वे तो अपनी नियत लेश्या के साथ ही मरण करते हैं। मरण के अनन्तर समय में अन्य लेश्या रूप संकमण हो जाता है। मिथ्यादृष्टि भोगभूमिया के तीन शुभ लेश्या ही होती है और वह नियम से देवगति में जाता है। ऐसा जीव मरकर भवनत्रिका में उत्पन्न होता है तो उसके मरण समय अशुभ लेश्या तो हो नहीं सकती अतः वह पीत लेण्या में मरण कर (अर्थात् अन्तिम समय तक पीत लेप्प्या के साथ रह कर) भवनत्रिक में उत्पन्न होता है। और वहाँ प्रथमसमयवर्ती भवनत्रिक के नियम से अशुभत्रिक लेश्या हो जाती है।
भवनत्रिक देवों के और सौधर्म ईशान स्वर्ग के देवों के पर्याप्त अवस्था में नियम से पीत लेश्या होती है। ऐसे मिथ्याष्टि देव मरकर एकेन्द्रियों में अर्थात् बादर जलकायिक पर्याप्त व बादर पृथ्वीकायिक पति व प्रत्येक वनस्पति पर्याप्त जीवों में उत्पन्न हो सकते हैं। कहा भी है ....
भाज्या एकेन्द्रियत्वेन देवा ऐशानतश्च्युताः ।।पूर्वार्ध १६६॥ भूम्यापः स्थूलपर्याप्ताः प्रत्येकाङ्गवनस्पतिः ।
तिर्यग्मानुषदेवानां जन्मयां परिकोर्तितम् ॥१५६॥ तत्त्वार्थसार अधिकार २] मिथ्यादृष्टि और सासादन भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म और ईशान देव एकेन्द्रियों में प्राते हुए बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक और बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर इनके पर्याप्तक जीवों में प्राते हैं।
इस प्रकार पीत लेश्या में मरण करने वाले जीव भवनत्रिक व बादर पर्याप्त जलकायिक बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक व बादर पर्याप्त प्रत्येक वनस्पति जीवों में उत्पन्न हो सकते हैं।
शङ्का-वादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, प्रत्येक वनस्पति अपर्याप्त
१. रा बा. ४ २२११० । २. बबल पु. २ पृ. ५४४ । ३. ध. २१५४६ । ४. घ. पु. ६ पृ. ४८१ मूत्र ११० क पृ. ४७८ गूत्र १७६ ।
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गाथा ५२६-५.३५
श्यामार्गग्रा / ५१७
सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक जीवों में कौन लेश्यावाले जीव उत्पन्न होते हैं ? इसका कथन क्यों नहीं किया ?
समाधान – इनका कथन अव्यक्त रूप से गाथा ५२८ में किया गया है। जिन एकेन्द्रियों का कथन गाथा ५२७ में किया गया है उनके अतिरिक्त सत्र एकेन्द्रिय जीवों का ग्रहण गाथा ५२६ में होता है । अतः तीन अशुभ लेश्याओं के मध्यम अंश के साथ मरने वाले कर्मभूमिया मनुष्य व तिर्यन उक्त एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं ।
शङ्का - किस लेश्या के साथ मरण करनेवाले जीव पर्याप्त अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय व अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं। इनका कथन क्यों नहीं किया गया ?
समाधान- इनका कथन भी गाथा ५२८ में किया गया है। 'वियलेसु' से इनका ग्रहण हो जाता है। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के अतिरिक्त सत्र विकल हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मन न होने से विकल है। संजी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों के मन तथा चक्षुदर्शनोपयोग न होने से विकल हैं ।
इसका कथन
किम जीव के कौनसी वेश्या होती है, काऊ काऊ काऊ पीला खोला य गोलकिपहा य । किण्हा य परमकिण्हा लेस्सा पढमादिपुढवणं ।। ५२६ ॥ परतिरियाणं श्रोधो इगिविगले तिष्णि चज असणिस्स ।
सण- पुष्पगग -मिच्छे सासरय सम्मेवि प्रसुतियं ॥ ५३० ॥ भोगryone मे काउस्स जहगियं हवे रिलयमा । सम्मे वा मिच्छे वा पज्जत्ते तिणि सुहलेस्सा ।। ५३१ ।। अयवोत्ति छ लेस्साश्रो सुहतियलेस्सा हूँ देसविरदतिये | तत्तो सुक्का - लेस्सा जोगिठाणं अस्सं तु ।।५३२ ॥
कसाये लेस्सा उच्चदि सा भूदपुव्वगदिखाया । श्रहवा जोगपती मुक्खोत्ति तह हवे लेस्सा ।। ५३३ ॥ तिन्हं दोहं दोहं छण्हं दोहं च तेरसहं च । एतो य चोहसहं लेस्सा भवादिदेवाणं ।।५३४॥
तेऊ तेऊ तेऊ पम्मा पम्मा य सुक्का य परमसुक्का भवरगतिया
पम्मसुक्का घ । पुण्यागे श्रसुहा ।। ५३५||
गाथार्थ - प्रथम पृथ्वी में कापोल लेश्या, दुसरी पृथ्वी में कापोत लेश्या, तीसरी पृथ्वी में कापोत लेश्या व नील लेश्या: चौथी पृथ्वी में नील लेण्या, पांचवीं पृथ्वी में नील व कृष्ण लेण्या,
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५६८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५२६-५३५
छठी पृथ्वी में कृष्गालेश्या, सातवीं पृथ्वी में परम कृष्ण लेश्या है ।। ५.२६।। मनुष्य व तिथचों में प्रोध भंग है अर्थात् छहों लेश्याएं हैं। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय के तीन (अशुभ) लेश्या हैं । असंही (पंचेन्द्रिय) के चार लेश्या और संज्ञी अपग्लि मिथ्याष्टि ध सासादन सम्बदृष्टि के तीन अशुभ लेश्या होती हैं ॥५३०।। भोगभूमिया अपयप्तिक सम्यग्दृष्टि के नियम से जघन्य कापोत लेण्या होती है, किन्तु पर्याप्त अवस्था में सम्यष्टि व मिथ्याष्टि दोनों के तीन शुभ लेण्याएँ होती हैं ।।५३१।। असंयतों के छहों लेश्याएँ होती हैं। देशविरत आदि तीन (देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत) के तीन शुभ लेश्या होती हैं। उसके आगे शुक्ल लेश्या ही होती है। प्रयोगकेवली (चौदहवां) गुणस्थान अलेश्या अर्थात लेश्या रहित है ।।५३२।। नष्ट कषायवालों (क्षीणकषाय अथवा प्रकषायी) के भूतपूर्व प्रज्ञापननय की अपेक्षा लेश्या कही गई है। अथवा योगप्रवृत्ति की मुख्यता से वहाँ लेश्या होती है ॥५३३।। भवन प्रादि देवों में तीन (भवनत्रिक) के तेज (पीत) लेश्या, दो (सौधर्म व ऐशान) के पीत लेश्या, दो (सानत्कुमार-माहेन्द्र) के पीत व पद्म, छह (ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र) के पथ लेश्या, दो (शतार, सहस्त्रार) के पझ ब शुक्ललेश्या, तेरह (मानत, प्राणत, पारण. अच्युत तथा नव प्रैवेयक) के शुक्ल लेश्या तथा चौदह (नव अदिश और पाँच अनुत्तर) के परम शुक्ल अभ्या होती है ।।१३०-५३५।।
विशेषार्थ - नारकी जीवों के अशुभतर लेश्या होती है। तिर्यंचों के जो अशुभ कापोतलेश्या होती है उससे भी अशुभतर कापोत लेश्या प्रथम नरक में होती है। उससे भी अशुभतर कापोत लेण्या दूसरे नरक में होती है। तीसरे नरक के उपरिभाग में कापोत लेश्या और नीचे के भाग में नील लेश्या होती है। चौथे नरक में नील लेश्या होती है। पांचवें नरक के उपरिभाग में नील लेश्या और अधोभाग में कृष्णलेश्या होती है। छठे नरक में कृष्ण लेश्या और सातवें नरक में परम कृष्ण लेश्या होती है। ये लेश्याएं उत्तरोत्तर अशुभतर अशुभतर होती गई हैं। भवनबासी-व्यन्तरज्योतिषी देवों के अपर्याप्त अवस्था में तीन अशुभ लेण्या अर्थात् कृष्ण-नील व कापोत लेश्या, पर्याप्त अवस्था में तेजो (पीत) लेश्या इस प्रकार चार लेश्याएं होती हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के संबलेश परिणामों के कारण नीन (कृष्ण-नील-कापोत) अशुभ लेश्याएं होती हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियचों के कृष्ण, नील, कापोत और पीत लेश्या होती हैं, क्योंकि असजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यच के देवायु का बंध संभव है। संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच व भनुष्यों में मिथ्याष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि जीवों के ट्रहों ही लेश्याएं होती हैं। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन तीन के पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएँ होती हैं। व्रत ग्रहण करते ही अशुभं लेश्यायों का अभाव हो जाता है, क्योंकि पापों का क्रमशः एकदेश व सर्वदेशत्याग हो जाता है । अपूर्वकरण [पाठवें] गुणस्थान से लेकर सयोगकेवली तेरहवें गुणस्थान तक शुक्ल लेश्या ही होती है, किन्तु विशुद्धि की उत्तरोत्तर वृद्धि के कारण शुक्ल लेश्या में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होती है । अयोगकेवली के योग का भी प्रभाव हो जाने के कारण लेश्या का भी प्रभाव हो जाता है इसलिए प्रयोगको बली अलेश्य अर्थात् लेश्या रहित है।'
शङ्का-चौथे गुणस्थान तक ही प्रादि को तीन लेश्याएं (कृष्ण, नील, कापोत) क्यों होती
१. "नारका नित्याऽशुभतरलेश्या....' [त. सू. अमू ३]। ३/३/२]। ३. त. रा. ३/३/४। ४. रा. वा. ४/१२/१०।
२. "तियंग्यपेनोऽतिशय निर्देशः ।' | रा. वा.
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गाथा ५३६
लेण्यामागरणा/५६६
समाधान-तीव्रतम, तीव्रतर और तीन कषाय के उदय का सद्भाव चौथे गुणस्थान तक ही पाया जाता है, इसलिए चौथे गुरणस्थान तक ही तोन अशुभ लेश्याएँ होती हैं ।'
शङ्का-जिन जीवों की कगाय क्षीण (नष्ट) अथवा उपशान्त हो गई है उनके शुक्ल लेश्या का होना कसे गम्भत्र है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि जीवों की कपाय क्षीरा अथवा उपशान्त हो गई है उनमें कर्मलेप का कारण योग पाया जाता है, इसलिए इस अपेक्षा से उनके शुक्ल लेश्या मान लेने में कोई विरोध नहीं पाता है। अकषाय वीतरागियों के केबल योग को लेश्या नहीं कह सकते, ऐसा निश्चय नहीं कर लेना चाहिए, क्योंकि लेश्या में योग की प्रधानता है, कषाय प्रधान नहीं है ; क्योंकि वह योग प्रवृत्ति का विशेषण है। श्रतएव उसकी प्रधानता नहीं हो सकती। सचमुच क्षीणकषाय जीवों में लेश्या के अभाव का प्रसंग पाता, यदि केबल कषायोदय से ही लेश्या की उत्पत्ति मानी जाती। किन्त शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न योग भो तो लेश्या माना गया है, क्योंकि यह भी कर्मबन्ध में निमित्त होता है । इस कारण कषायों के नष्ट हो जाने पर भी योग रहता है, इसलिए क्षीणवाषाय जीवों के लेश्या मानने में कोई विरोध नहीं आता।
सौधर्मशान देवों के मध्यम पीत लेश्या होती है । सानत्कुमार माहेन्द्र देवों के प्रकृष्ट पीत लेश्या और जघन्य पद्म लेश्या होती है । ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लान्तव कापिष्ट स्वर्गों में मध्यम पद्म लेश्या होती है । शुक्र महाशुक्र-शतार-सहस्रार स्वर्ग के देवों में प्रकृष्ट पद्यलेश्या और जघन्य शुक्ल लेश्या होती है । आनत आदि (आनत प्राणत, आरण, अच्युत स्वर्ग तथा नव अवेयक) में मध्यम शुक्ल लेश्या जाननी चाहिए। नवानुदिश तथा पंचानुत्तर विमानों में परम शुक्ल लेश्या होती है ।
इस प्रकार किस जीव में कौनसी लेश्या होती है अथवा किस लेश्या का कौन-कौन स्वामी है, यह कथन कर के एक गाथा द्वारा साधन का कथन किया जाता है -
वण्णोदयसंपादितसरीरवणो दु वदो लेस्सा । मोहचय-खग्रोवसमोयसमखजजीवफदरणं भावो ॥५३६॥
गाथार्थ-वर्ण नाम कर्मोदय से जो शरीर का वर्ण (रंग) होता है बह द्रव्य लेण्या है । मोहनीय कर्म के उदय, क्षयोपशम, उपशम या क्षय सहित जो जीवप्रदेशों की चत्रलला अथवा परिस्पन्द अथवा संकोच-विकोच है (योग है) वह भावलेश्या है ।।५३६।।
विशेषार्थ-- नाम कर्म (वर्ग नाम कर्म) के उदय के निमित्त से द्रव्य लेश्या होती है । कषाय के उदय, क्षयोपशम, उपशम और क्षय होने पर प्रात्म-प्रदेश-परिस्पन्द रूप जो योग है वह भाव लेश्या है ।६ गाथा ४६६-४६८ के विशेषार्थ में द्रव्य लेश्या का कथन विस्तार पूर्वक किया जा चुका है और
४. धवल पु. ७ मृ. १०५
१. धवल पु. १ पृ. ३६१। २. धवल पु. १ पृ. १९१। ३. धवल पु. १ पृ. १५०। ५. रा. वा. ४।२२१२-६ टिप्पण सहित । ६. रा. वा. ४।२२।१० ।
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६०० / गो. सा. जीव काण्ड
लेश्या मार्गा की शेष गाथाओं के विशेषार्थ में भाव लेश्या का कथन हो चुका है अतः पुनरुक्त दोष के कारण यहाँ पर कथन नहीं किया गया है।
गाथा ५३७-५३१
तीन अशुभ श्याओं में जीवों का प्रमाण
किण्हादिरासिमावलि - श्रसंख भागेर भजिय पविभत्ते ।
होकमा कालं वा प्रस्सिय दत्वा दु भजिदम्बा ।। ५३७ ।। खेत्तादो सुहतिया प्रणतलोगा कमेण परिहोगा । कालादोतीदादो प्रणतगुणदा केवलरणारा तिमभागा भावादु
कमा
हीरा ||५३८ || किन्हतियजीवा ।।५३६ पूर्वाद्ध |
गाथार्थ कृष्ण आदि अर्थात् कृष्ण नील कापोल लेश्या वालों की जितनी राशि है उसको श्रावली के असंख्यातवें भाग से भाग देकर पुनः भाग देना चाहिए । अथवा काल के प्राश्रय से भाग देकर कृष्ण नील कापोत का पृथक्-पृथक् द्रव्य प्राप्त कर लेना चाहिए, जो हीन क्रम लिये हुए है ||३७|| क्षेत्र प्रमाण की अपेक्षा तीन अशुभ लेश्या वाले जीव अनन्त लोक प्रमाण हैं किन्तु उत्तरोत्तर क्रम से हीन-हीन हैं। काल की अपेक्षा तीन अशुभ लेश्या वाले जीव प्रतीत काल से अनन्तगुणे हैं जो उत्तरोत्तर हीन क्रम से हैं ।। ४३८|| कृष्ण ग्रादि तीन लेश्या वाले जीव भाव की अपेक्षा केवलज्ञान के अनन्तवें भाग हैं ||५३६ पूर्वार्द्ध ॥
विशेषार्थ- सर्व जीवराशि के अनन्तखण्ड करने पर बहुभाग प्रमाण तीन अशुभ लेश्या वाले जीव हैं अथवा संसारी जीवों के प्रमाण में से तीन शुभ लेश्या वालों की संख्या, जो असंख्यात है, घटा देने पर किंचित् ऊन संसारी जीवराशि प्रमाण अथवा कुछ अधिक एकेन्द्रिय जीवराशिप्रमाण तीन अशुभ लेश्या बालों की जीवराशि है। इस राशि को ग्रावली के असंख्यातवें भाग से भाग देकर एक भाग को पृथक् रखकर शेष बहुभाग के तीन समान खण्ड करके, शेष एक भाग, जो पृथक् रखा गया था, उसे आवली के असंख्यातवें भाग से भाजित करके, बहुभाग को उन तीन समान खण्डों में से एक-एक खण्ड में मिलाने पर कृष्णलेश्या वालों का प्रमाण प्राप्त होता है। पृथक्कू रखे हुए एक भाग के शेष भाग में पुनः प्रावली के प्रसंख्यातवें भाग देने से लब्ध बहुभाग को दूसरे समान खण्ड में मिलाने पर नीललेश्या वाले जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है । शेषभाग को तीसरे समान खण्ड में मिलाने पर कापोत लेश्या वाले जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है । कापोतलेश्या वाली जीवराशि, नीललेण्याजीवराशि से होन है। नीललेश्या जीवराणि कृष्णलेश्या जीवराशि से हीन है। इस प्रकार ये जीवराशियाँ हीन क्रम लिये हुए हैं ।
कृष्ण नील कापोत इन तीन प्रशुभ लेश्याओं का सामूहिक काल, कर्मभूमिया जीवों में, अन्तर्मुहूर्त मात्र है। उस अन्तर्मुहूर्त काल में प्रावली के प्रसंख्यातवें भाग का भाग देकर एक भाग को पृथक् रखकर बहुभाग के तीन समान खण्ड करने चाहिए | पृथक् रखे हुए एक भाग को आवली के असंख्यातवें भाग से भाजित कर बह भाग को तीन समान खण्डों में से एक खण्ड में मिलाने पर कृष्ण लेश्या के काल की शलाका प्राप्त होती है। उस पृथक् रखे हुए एक भाग के अवशिष्ट भाग को पुनः ग्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित करके बहुभाग को दूसरे समखण्ड में मिलाने पर नील
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गाथा ५३८-५३६
लेण्यामागरपा/६०१
लेश्या के काल की शलाका प्राप्त होती है । शेप को तीसरे भमस्तुण्ड में मिलाने पर कापोतलेश्या के काल की शलाका प्राप्त होती है । अशुभ लेश्या वाली जीवराशि को सामूहिक काल अन्तमुहर्त से भाजित करके और अपनी-अपनी काल शलाका से गुणा करने पर अपनी-अपनी लेश्या का जीव द्रव्यप्रमाण प्राप्त हो जाता है, जो उपयुक्त हीन क्रम वाला है। अर्थात् कृष्ण लेश्या के द्रव्य प्रमाण से हीन नील लेश्या का जीव द्रव्य प्रमाण है और उससे भी हीन कापोत लेश्या का द्रव्य प्रमाण है।'
शङ्का-अशुभ लेश्या वाले जीव एकोन्द्रिय जोबों से कुछ अधिक कैसे हैं ?
समाधान-संसारी जीवराशि में एकेन्द्रिय जीव अनन्त हैं। द्वीन्द्रियादि जीव असंख्यात हैं। मब ही एकेन्द्रिय जीवों के अशुभ लेश्या होती है। इसलिए अशुभ लेण्या वाले जीवों का प्रमाण एकेन्द्रियों से कुछ अधिक है, यह सिद्ध हो जाता है ।
एकेन्द्रिय जीव क्षेत्र की अपेक्षा अनन्तानन्त लोक प्रमाण हैं । अतः अशुभ लेश्या वाले जीव भी अनन्तामन्त लोक प्रमाण हैं। अनन्तानन्त लोकों के जितने प्रदेश हैं उतने अशुभ लेण्या वाले जीव हैं। अथवा एक लोक के प्रदेश असंख्यात हैं उनको अनन्तानन्त से गुणा करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उनने मामलोम्या वाले जीव हैं। वे वासोतर है न हीन हैं।
काल की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीव अनन्तानन्त अबसपिणी-उत्सपिरिणयों से अपहृत नहीं होते हैं । ' कहा भी है
एगणिगोदसरीरे दबापमाणदो विट्ठा ।
सिद्धहिं अणंतगुणा सम्वेण वितीवकालेण ॥१६६॥ [गो. जी.] --द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा सिद्धराशि से और सम्पूर्ण प्रतीतकाल के समयों से अनन्तगुणे जीव एक निगोद शरीर में रहते हैं।
अस्थि अणंता जीवा जेहि ण पत्तो ससारण परिणामो ।
भाषकलङ्कासुपउरा णिगोदवासं ण मुखति ।।१९७॥ [मो. जी.] --ऐसे भी अनन्त जीव हैं जिन्होंने दुलेश्या रूप परिणामों के कारण अभी तक अस पर्याय नहीं पाई।
____ इन आर्षप्रमाणों से सिद्ध है कि एकेन्द्रिय जीव अर्थात् अशुभ लेश्या वाले जीव अतीत काल से अथवा अनन्तानन्त अवसपिरणी-उत्सपिणियों से अनन्तगुरणे हैं।
सर्वोत्कृष्ट संख्या केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों की है जो उत्कृष्ट अनन्तानन्त हैं । संसार में जितने भी द्रव्य-गुण-पर्यायें व शक्ति ग्रंश हैं, वे सब मिलकर भी केवलज्ञान के अनन्तवें भाग ही होते
१. श्रवल पु. ३ पृ. ४६६ । २. "खेत्तेगा अणंतातलोगा ।।६।।" [धवल पु. ७ पृ. २३८]। ३. "प्रांतागांताहि प्रासप्पिणिा-उस्सप्पिणीहि रण प्रबहिरंति कालेण ॥१६॥"[धवल पु. ७ पृ. २६८] ।
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६०२/गो. सा. जीवकाण्ड
माथा ५३६.५.४२
हैं। सर्व जीवराशि भी केवलज्ञान के अनन्तवें भाग है तो अशुभ लेश्या वाले जीव भी केवलज्ञान के अनन्त- भाग ही हैं। इसीलिए भाव की अपेक्षा केवलज्ञान के अनन्नवें भाग प्रमाण अशुभ लेण्या वाले जीव हैं।
___ कृष्णा, नील, कापोत लेश्या वाले जीवों में से प्रत्येक का द्रव्य प्रमाण अनन्त है। वे अनन्तानन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों के द्वारा अपहत नहीं होते । अर्थात् एक ओर तो अनन्तानन्त कल्प के समयों की राशि हो और दूसरी ओर अशुभ लेश्या जीवराशि हो। दोनों राशियों में एक-एक निकालने पर कालसमयराशि तो समाप्त हो जाए, किन्तु अशुभ लेपया वाली जीव राशि समाप्त नहीं होगी; यह अभिप्राय है।
क्षेत्र की अपेक्षा अनन्तानन्त क्षेत्र प्रमारण हैं।"
तेजस्त्रिक अर्थात् तीन शृभ मेश्यानों के जीवों का प्रमागा तेउतिया सखेज्जा संखासखेज्जभागकमा ॥५३६ उत्तरार्ध । जोइसियादो पहिया तिरिक्खस पिणस्स संखभागो दु। सूइस्स अंगुलस्स य असंख भागं तु तेउतिर्थ ।।५४०।। बेस दछप्पणंगुलकदि-हिद-पदरं तु जोइसियमारणं । तम्स य संखेज्जदिमं तिरिक्खसगीरण परिमारणं ॥५४१॥ तेउदु असंखकप्पा पल्लासंखेज्सभागया सुक्का । श्रोहिअसंखेज्जदिमा तेउतिया भावदो होति ।।५४२३॥
गाथार्थ-तेज आदि तीन शुभ लेश्या बाले असंख्यात हैं। तेजो लेश्या के संख्यातवें भाग पद्यलेश्या वाले और पपलेपया के असंख्यातवें भाग प्रमाण शुक्ललेश्या वाले जीव हैं ।।५३६॥ ज्योतिषी देबों से कुछ अधिक तेज लेश्या बाले व संज्ञी तियंचों के संख्यातवें भाग पद्मलेण्या वाले हैं। सूच्यङ्ग.ल के असंख्यातवें भाग शुक्ल लेश्या वाले जीव हैं । यह तेजत्रिक लेण्या का प्रमाण है ।।५४०।। दो सौ छप्पन अङ्गल के (कदि) वर्ग से जगत्प्रतर को भाग देने से ज्योतिषी देवों का प्रमाण प्राप्त होता है । इसके संख्यातवें भाग प्रमाण संज्ञी तिर्यच हैं । ।५४१॥ असंख्यात कल्पकाल प्रमाण तेजोलेश्या वाले और पालेश्या वाले जीव हैं । पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण शुक्ललेण्या वाले जीव हैं । अवधिज्ञान के असंख्यातवें भाग प्रमाण तेजत्रिक लेश्या वाले जीव हैं ।। ५४२।।
विशेषार्थ-तेजो लेश्यावाले द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा ज्योतिषी देवों से कुछ अधिक हैं । पर्याप्त काल में सभी ज्योतिषी देव तेजो लेश्या से युक्त होते हैं। तथा अपर्याप्त काल में वे ही देव कृष्ण, नील चौर कापोत लेश्या से युक्त होते हैं। वे अपयति ज्योतिषी देव अपनी पर्याप्त गशि के
१. रा. वा. ४२२/१०। २. तेउलेस्सिया दवपमाणेण केवडिया ?।।१४८।। जांघिसियदे वेहि सादिरेयं ।। १४६।। [घवल पु. ७ पृ. २६१] ।
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गाथा ५३१-५४२
लेश्यामार्गरणा/६७३ असंख्यातवें भाग मात्र होते हैं । वाणव्यन्तर देव भी पर्याप्त काल में तेजोलेश्या से युक्त होते हैं । वे वाणव्यन्तर पर्याप्त जीव ज्योतिषियों के पासवें भावान होगे हैं । इन्ही पाणथ्यन्तरों में अपर्याप्त जीव कृष्ण नील और कापोत लेण्या से युक्त होते हैं। और वे अपर्याप्त वारणव्यन्तर देव अपनी पर्याप्त राशि के संख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। मनुष्य और तिर्यंचों में भी तेजोलश्या से युक्त जीव जगत्प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं, जो पद्म लेण्या से युक्त तिर्यंचराशि से संख्यात गुणी है। इन तीनों राशियों को भवनवासी और सौधर्म-ऐशान राशि के साथ एकत्र कर देने पर यह राशि ज्योतिषी देवों से कुछ अधिक हो जाती है ।'
शङ्का-भवनवासी देवों का कितना प्रमाण है ?
समाधान-भवनवासी देव असंख्यात जगश्रेणी प्रमार हैं ।।३७।। ये प्रसंख्यात जगश्रेणियाँ जगत्प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ॥३८॥ उन असंख्यात जगश्रेणियों की विष्कम्भ सूची सूच्यंगुल को सूच्यंगुल के वर्गमूल से गुरिणत करने पर जो लब्ध हो, उतनी है ।।३६।। अर्थात् सूच्यंगुल x मूच्र्यगुल का बर्गमूल x जगधेणी-घनागुल का वर्गमूल गुरिंगत जगश्रेणी । इतने भवनवासी देव हैं।
शा-वानव्यन्तर देवों का कितना प्रमाण है ?
समाधान -वामन्यन्तर देवों का प्रमाण जगत्प्रतर के संस्यात सौ योजन के वर्ग रूप प्रतिभाग से प्राप्त होता है ।।४३।। सूत्र में 'संख्यात सौ योजन' ऐसा कहने पर तीन सौ योजनों के अंगुल करके वगित करने पर पांच सौ तीस कोड़ाकोड़ी, चीरासी लाख सोलह हजार कोडी (५३०८४१६००००००००००) है। अर्थात् तीन सौ योजन के अंगुल का वर्ग करके जगत्प्रतर में भाग देने से जो लब्ध प्राप्त हो उतने वानव्यन्त र देव हैं।
शङ्का-मोधर्म-ऐशान देव कितने हैं ?
समाधान -सौधर्म-ऐशान देव असंख्यात जगधेगी प्रमाण हैं ।।४८।। ये असंख्यात जगणियाँ जगत्पतर के असह्यातवें भाग प्रमागा हैं ।।४६।। उन असंख्यात जगश्रेणी की विष्कम्भ सूची सूच्यंगुल के तृतीय वर्गमूल से गुरिणत सूच्यं पुल के द्वितीय वर्गमूल प्रमाण है ।।५०।। धनांगुल के तृतीय वर्गमूल मात्र जगश्रेणी प्रमाण सौधर्म-ऐशान कल्पों में देव है । ५
शङ्का - ज्योतिषी देवों की संख्या कितनी है ?
समाधान--ज्योतिषी देव असंख्यात हैं, जो जगत्प्रतर को २५६ अंगुल के वर्ग ७ से भाग देने पर प्राप्त होता है।
१. धवल पु. ३ पृ. ४६१। २. "वेसेण असखेज्जायो मेडी प्रो ॥३७।। पदरस्स असंवादिभागो ॥३८॥ तासि रोडीगं विलंभ सूची अंगृलं अंगुलबागमूलगुरिणदेरण ||३६॥"[धवल पु. ५ पृ. २६१-२६२] । ३. "क्षेत्तेण पदरस्स संखेज जोयण सदेवकापडिभाएण ।। ४३।।" [धवल पु. ७ पृ. २६३J॥ ४. ' मनेज्जजोयणेत्ति वुत्ते तिपिणजोयरासयमंगुन काऊण ग्गिदे जो उपजदि सो छमन्यो ।" [घवल पु ३ पृ. २७३। ५. धवल पु. ७ पृ. २६५ । ६. "वे सद छप्पणगुल कदि हिद पदरम्स' [विलोकसार मा. ३०२], धवल पु. ७ पृ. २६२।।
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१०४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५३१-५४२
तेजोलेश्यावाले तिर्यंच भी जगत्पतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं जो पचलेण्या से युक्त तिर्यच राशि से संख्यात गुग्गे हैं।' यहाँ पर जगत्प्रतर को भागाहार के सम्बन्ध में प्राचार्यों में मतभेद है इसलिए 'भापहार का सगा नहीं लिया गया। इस सम्बन्ध में धवल पु. ३ पृ. २३० से २३२ तक देखना चाहिए।
मनुष्यों में तेजोलेश्या पर्याप्तकों में ही सम्भव है, क्योंकि लक्ष्यपर्याप्त मनुष्यों में तो तीन अशुभ नेश्या होती है। मनुष्य पर्याप्त संख्यात हैं । अतः तेजोलेश्या वाले मनुष्य संख्यात हैं। इस प्रकार तेजो लेण्या वाले "देव, तिथंच व मनुष्यों को जोड़ने पर साधिक ज्योतिष देवराशि प्राप्त होती है ।
पद्मलेश्या वाले जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनियों के संख्यातवें भाग प्रमाण हैं ।।१५१॥ पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनियों के अवहारकाल को संख्यात से गुरिणत करने पर संजी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिनियों का अवहार काल होता है। इसे संख्यात से गुणित करने पर संजी पंचेन्द्रिय तियच तेजो लेण्या वालों का प्रवहार काल होता है । इसे संख्यात से गुणित करने पर पालेश्या वालों का प्रवहार काल होता है।' अथवा तत्प्रायोग्य संख्यात प्रतगंगुलों का जगत्तर में भाग देने पर पद्मलेश्या वालों का प्रमाण होता है ।
शुक्ललेण्यावाले जीव द्रव्यप्रमाण से पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमागा हैं ।।१५३।।' शुक्ल लेश्यावाले जीवों के द्वारा अन्तमुहर्त से पत्योपम अपहृत होता है ।।१५४॥ यहां अवहार काल असंख्यात प्रावली मात्र है। इसका पल्योपम में भाग देने पर शुक्ललेश्यावाले जीवों का प्रमाण होता है। इसका सारांश यह है--
तेजो लेश्यावाले, ज्योतिषी देवों मे कुछ अधिक है । पचलेश्यावाले संज्ञीपंचेन्द्रिय नियंचनी के संख्यातवें भाग प्रमाण हैं। शुक्ल लेश्यावाले पल्योपम के असंख्यातवें भाग हैं।
इस विषय को स्पष्ट करने के लिए अल्पबहुत्व इस प्रकार है
शुक्ललेश्यावाले जीव सबसे स्तोक हैं ।।१७।। क्योंकि अतिशय शुभ लेण्यानों का समुदाय कहीं पर किन्हीं के ही सम्भव है। शुक्ल लेश्या वालों से पद्मलेश्या दाले असंख्यातगुणे हैं ॥१८०॥ गुणाकार जगत्प्रतर के असंख्यातवें भाग यानी असंख्यात जगश्रेणी हैं, क्योंकि वह गुणकार पत्योपम के असंख्यातवें भाग से गुरिणत प्रतरांगुल से प्रपवर्तित जगत्प्रतर प्रमाण हैं। पमलेश्यावालों से तेजो लेश्यावाले संख्यातगुणे हैं ॥१८१।। क्योंकि पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिनियों के संख्यातवें भाग प्रमाण पद्मलेण्यावालों के द्रव्य का तेजो लेश्यावालों के द्रव्य में भाग देने पर संख्यात रूप उपलब्ध होते हैं।"
१. धवल पु. ३ पृ. ४६१ । २. धवल पुस्तक ७ पृ. २६२-२६३ । ३. पम्मलेस्सिया दम्बामाणेण केबडिमा? ।।१५०।। सपिया पंचिदिय तिरिक्ख जोरिणगीण संखेज्जाद भागो ।। १५१॥" [घवल पु. ७ पृ. २६३] व [पखल पृ. ३ सूत्र १६६ पृ. ४६२] ४. पवन पु. ३ पृ. ४६३ । ५. धबल पू पृ. २९३ मूत्र टीका। ६. सुक्कलेस्सिया दन्चपमाणेगा केवडिया ॥१५१।। पलिदोवमस्स प्रसखेज्जदि भागो।।१५३॥" [षवल पु. ७ पृ. २६३]। ७. "दादेहि पलिदोयममवहिरदि अंतोमुहुत्तेरण ।।१५४|| धवल पु. ७ पृ. २६४] ८. धक्स पु. ७ पृ. २६४। ६. रा. वा. ४/२२/१०। १०. घवल पु. ७ पृ. ५६६-५७० ।
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गण्या ५४३, ५४५
लेश्या मार्गा/६०५
काल की अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यत्र योनिनी असंख्यातासंख्यात श्रवसर्पिणी उत्सर्पिषियों से अपहृत होते हैं ||२०||' अर्थात् योनिनी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की संख्या असंख्यात कल्प काल है । इसके संख्यातवें भाग पपलेश्यावाले जीव हैं अतः वे भी असंख्यात कल्प काल प्रमाण है । पद्मलेश्या वालों से संख्यातगुणे तेजोलेश्यावाले जीव हैं अतः उनका प्रमाण भी असंख्यात कल्प काल है। शुक्ल लेपयावाले जीव पह के असंख्यातवें भाग हैं।
अवधिज्ञान के जितने विकल्प हैं उसके प्रसंख्यातवें असंख्यात के भी असंख्यात भेद हैं । अतः इनमें हीन अधिकता
भाग प्रत्येक शुभ लेश्या वाले जीव हैं । पबहुत्व के अनुसार जाननी चाहिए ।
श्याओं का क्षेत्र
उवादे सव्यलोयमसुहाणं ।
सहासमुग्धादे लोयस्सा संखेज्ज विभागं
खेसं तु तेजतिये ।। ५४३ ॥
सुक्कस समुग्धादे प्रसंखलोगा य सथ्यलोगो य ।। ५४५ का पूर्वार्ध ॥
गाथार्थ - अशुभ लेश्या में स्वस्थान, समुद्यात तथा उपपाद की अपेक्षा सर्वलोक प्रमाण क्षेत्र है । नेजत्रिक अर्थात् तीन शुभलेश्याओं का क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भाग है ।। ५४३ || शुक्ल aver का समुद्घात की अपेक्षा लोक का प्रसंख्यातवाँ भाग, संख्यात बहुभाग अथवा सर्वलोक है ।।५४५ पूर्वार्ध ॥
विशेषार्थ - कृष्ण, नील व कापोत लेश्या का क्षेत्र स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद की अपेक्षा सर्वलोक है। तेज और पद्मलेश्या का क्षेत्र स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद की अपेक्षा लोक का असंख्यातवाँ भाग है। शुक्ल लेश्या का क्षेत्र स्वस्थान और उपपाद की अपेक्षा लोक का असंख्यातवाँ भाग हैं, समुद्घात की अपेक्षा लोक का प्रसंख्यातवाँ भाग, असंख्यात बहुभाग व सर्वलोक है । अब धवल ग्रन्थ के आधार से क्षेत्र का कथन किया जाता है
शङ्का - क्षेत्र किसे कहते हैं ?
समाधान- जिसमें जीव 'क्षियन्ति' अर्थात् निवास करते हैं, वह क्षेत्र है । यह निरुक्ति अर्थ है । श्राकाश, गगन, देवपथ, गुहाक चरित (यक्षों के विचरा स्थान ) ये समानार्थक हैं । श्रवगान लक्षण, आत्रेय, व्यापक, आधार और भूमि के द्रव्य क्षेत्र के एकार्थक नाम हैं । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा क्षेत्र एक प्रकार का है। अथवा प्रयोजन के प्राश्रय से क्षेत्र दो प्रकार का है. लोकाकाश और अलोकाकाश । जिसमें जीवादि द्रव्य अवलोकन किये जाते हैं, पाये जाते हैं वह लोक है। इसके विपरीत जहाँ जीवादि द्रव्य नहीं देखे जाते वह अलोक है । * अथवा देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है । मन्दराचल ( सुमेरु पर्वत) की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊर्ध्वलोक, मन्दराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक, मन्दराचल से परिच्छिन क्षेत्र अर्थात् तत्प्रमाण क्षेत्र मध्य लोक है। "एत्थ लोगे ति बुत्ते सत्त रज्जूणं
१. घवल पु. ७ पृ. २५२ । २. रा. वा. ४ / २२/१० १ ३. "घम्मामा कालो पुग्गल जीवा य संति जावदिये । आयसेि सो लोगो तत्तो परदो लोगुति ||२०|| [ बृहद् द्रव्य संग्रह ] |
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६०६/गो. सा. जीवकाण्ड
गायों १४३,५४५ घरपो घेतन्यो ।" यहाँ सात राजुओं का धनात्मक लोक ग्रहण करना चाहिए ।' अन्य प्राचार्यों के द्वारा प्ररूपित मृदंगाकार लोक को ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसका घनफल १६४ १ राजू होता है, जो सात राजुओं के धनात्मक {७४७४७) ३४३ घन राजू के संख्यातवें भाग है। सात गज के घनात्मक लोक के सिवा अन्य कोई क्षेत्र नहीं है जिसे 'लोक संज
'लोक संज्ञा दी जा सके।
शङ्का- असंख्यातप्रदेशी लोक में पसंख्यात प्रदेशी अनन्त जीव, उनसे भी अनन्त मुरणे पुद्गल लोकाकाशप्रमाण असंख्यात कालाण, लोकाकाशप्रमाण धर्म द्रव्य तथा अधर्म द्रव्य कैसे रहते हैं ?
समाधान--एक दीपक के प्रकाश में अनेक दीपकों का प्रकाश समा जाता है, अथवा एक गूढ़ रस विशेष से भरे सीसे के बर्तन में बहुत सा सुवर्ण समा जाता है, अथवा भस्म से भरे हुए घट में सुई और ऊँटनी का दूध आदि समा जाते हैं, इत्यादि दृष्टान्तों के अनुसार विशिष्ट अवगाहना शक्ति के कारण असंख्यात प्रदेश वाले लोक में पूर्वोक्त जीव, पुद्गल प्रादि के भी समा जाने में विरोध नहीं पाता।
क्षेत्र व स्पर्शन का कथन स्वस्थान, समृद्घात और उपपाद की अपेक्षा तीन प्रकार का है। उनमें स्वस्थान दो प्रकार का है- स्वरथान स्वस्थान और बिहार वस्वस्थान । उनमें से अपने उत्पन्न होने के ग्राम में, नगर में अथवा अरण्य में सोना, बैठना, चलना प्रादि व्यापार से युक्त होकर रहने का नाम स्वस्थानस्वस्थान है। अपने उत्पन्न होने के ग्राम, नगर अथवा अरण्य प्रादि को छोड़कर अन्यत्र शयन, निषीदन (अर्थात् बैठना) और परिभ्रमण श्रादि व्यापार से युक्त होकर रहने का नाम विहारवत्स्वस्थान है । समुद्यात सात प्रकार का है—१. वेदना समुद्घारा, २. कषाय समुद्घात, ३. वैऋियिक समुद्घात, ४. मारणान्तिक समुद्घात, ५. तेजस्क शरीर समुद्घात ६. आहारकार समुद्घात और ७. केवली समुद्घात ।
उनमें से नेत्रवेदना, शिरोवेदना आदि के द्वारा अपने शरीर के बाहर एक प्रदेश को ग्रादि करके उत्कर्षतः जीवप्रदेशों के विष्कम्भ और उत्सेध की अपेक्षा तिगणे प्रमाण में फैलने का नाम वेदना समुद्घात है ।। उत्सेध की अपेक्षा और विषकम्भ की अपेक्षा तिगुरगा फैलने से अबगाहना (३४३) नौ गुणी हो जाती है। क्रोध, भय ग्रादि कषाय की तीव्रता से जीवप्रदेशों का ति गुणे प्रमाण फैलना कषाय समुद्घात है। इसमें भी अवगाहना ६ गुणी हो जाती है ।' विविध ऋद्धियों के माहात्म्य से अथवा बंक्रियिक शरीर के उदयबाले देव व नारकी जीवों का संख्यात व असंख्यात योजनों को शरीर से व्याप्त करके अथवा अपने स्वभाविक आकार को छोड़कर अन्य प्राकार से जीदप्रदेशों के अबस्थान का नाम वैक्रियिक समुद्घात है। अपने वर्तमान शरीर को नहीं छोड़कर पायाम की अपेक्षा अधिष्ठित प्रदेश से लेकर उत्पन्न होने के क्षेत्र तक, तथा बाहल्य से एक प्रदेश को प्रादि
१. अन्नल पु. ४ पृ. ७-८-६-१०। २. श्रवल . ४ पृ. ११-१८ । ३. "ण च एदवादिरित्तमण्णं सतरज्जुघण पमाणं लोगसगिदं खेत्तमस्थि ।" [धकर ३४ पृ. १८]। ४. वृहद द्रव्य संग्रह गाथा २० की टीका। ५. प. पु. ४ पृ. २६ ; गो. जी गा. ६६७ । ६. धवल पु. ४ पृ. २६, पु. ३ पृ. २६६; पु. ११ पृ. १८ । ७. घवल पु. ७ पृ. ३०१, पु. ४ पृ. ६३ ५ ८. घवल पु. ४ पृ. २६. पु. ७ पृ. २६६ । ६. धवल पु. ४ पृ. ६३, पु.७ पृ. ३०१ । १५. धवल पु. ४ पृ. २६, पु. ७ पृ. २६६ ।
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गाथा ५४३,५४५
लेण्यामार्गरणा/६७
करके उत्कर्षतः शरीर से तिगुणे प्रमाण जीवप्रदेशों के काण्ड, एक खम्भ स्थित तोरण, हल व गोमूत्र के प्रकार से अन्त मुहूर्त तक रहने को मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं ।' तैजस्क शरीर के विसर्पण का नाम तेजस्क शरीर समुद्घात है। बह दो प्रकार का होता है--निस्सरसारमन और अनिस्सरणास्मक । उनमें जो निस्सरणात्मक तेजस्कशरीर विसरण है वह प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है। उनमें अप्रशस्त निस्सरणात्मक तेजस्कशरीर समुद्घात बारह योजन लम्बा, नौ योजन विस्तार बाला सूच्यंगुल के संख्यालवें भाग मोटाई वाला, जपाकुसुम के सदृश लालवर्णवाला, भूमि
और पर्वतादि के जलाने में समर्थ, प्रतिपक्ष रहित, रोष रूप ईधनवाला, बायें कन्धे से उत्पन्न होने वाला और इच्छित क्षेत्र प्रमाण विसर्पगा करने वाला होता है। तथा जो प्रशस्त निस्सरणात्मक तेजस शरीर समुद्घात है, वह भी विस्तारादि में तो अप्रशस्त तेजग के समान है, किन्तु इतनी विशेषता है कि वह हंस के समान धवल वर्णवाला, दाहिने कन्धे से उत्पन्न होकर प्राणियों की अनुकम्पा के निमित्त से उत्पन्न होकर राष्ट्रविप्लव, मारी, रोग आदि के प्रशमन करने में समर्थ होता है। अनिस्सरणात्मक तेजस शरीर समूदधात का यहाँ अधिकार नहीं है।'
जिनको ऋद्धि प्राप्त हुई है, ऐसे महषि के आहारक समुद्घात होता है। इसका विस्तार पुर्वक कथन गाथा २३५-२३६ में किया जा चुका है।
दण्ड, कपाट. प्रतर और लोकपूरण के भेद से केवली समुद्घात चार प्रकार का है। उनमें जिसकी अपने विष्कम्भ से तिगुनी परिधि है ऐसे पूर्व शरीर के बाहृल्यरूप अथवा पूर्वशरीर से तिगुने बाहल्य रुप दण्डाकार से केवली के जीवप्रदेशों का ऋछ कम चौदह गज फैलने का नाम दण्डसमदरात है । दण्डसमुद्घात में कहे गये बाइल्य और आयाम के द्वारा वात वलय से रहित सम्पूर्ण क्षेत्र के व्याप्त करने का नाम कपाटसमुद्घात है । बातवलय अविरुद्ध क्षेत्र के अतिरिक्त सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होकर केवली भगवान के जीवप्रदेशों का फैलना प्रतर समुद्घात है। धनलोक प्रमाण केवली भगवान के जीव प्रदेशों का सर्वलोक को व्याप्त करने का नाम लोकपूरण समुद्घात है।
प्रागे गाथा ६६८ में समुद्घात का लक्षरण नाहा जाएगा, अतः यहाँ पर उसका कथन नहीं किया गया।
उपपाद दो प्रकार है-- ऋजुगतिपूर्वक और विग्रहगतिपूर्वक्र । इनमें प्रत्येक मारणान्तिकसमुद्रात पूर्वक और तद्विपरीत के भेद से दो प्रकार है ।५ उपपाद उत्पन्न होने के पहले समय में ही होता है। ऋजुगति से उत्पन्न हुए जीवों का क्षेत्र अहुरा नहीं पाया जाता है, क्योंकि इसमें जीवों के समस्त प्रदेशों का संकोच हो जाता है । विग्रह तीन प्रकार का है-पाणिमुक्ता, लांगलिका और गोमूत्रिक । इनमें से पारिगमुक्ता गति एक विग्रह बाली होती है। विग्रह, वक्र और कुटिल ये सब एकार्थवाची हैं। लांगलिका गति दो विग्रहवाली होती है और गोमूत्रिका गति तीन विग्रहवाली होती है। इनमें मारणान्तिक समुद्घात के बिना विग्रहगति से उत्पन्न हए जीवों के और ऋजगति से उत्पन्न जोवों के प्रथम समय में होने वाली अवगाहनाएँ समान ही होती हैं। विशेषता केवल इतनी
१. धवल पु. ४ पृ. २७ व पु. ७ पृ. ३००। ४. धवल पु. ४ पृ.२८-२६। ५. धवल पृ.
२. धवल पु. ४ पृ. २३-२। पृ.३०० ।
३. घनल पु. ४ पृ. २ ।
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६०८/गो. सा. जीवकाण्ड
गामा ५४३,५४५
है कि दोनों अवगाहनानों के आकार में समानता का नियम नहीं है, क्योंकि ग्रानुपूर्वी नाम कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले और संस्थान नाम कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले संस्थानों के एकत्व का विरोध है। मारणान्तिक समुद्घात करके विग्रह गति से उत्पन्न हुए जीवों के पहले समय में असंख्यात योजन-प्रमाण अवगाहना होती है, क्योंकि पहले फैलाये गये एक, दो और तीन दण्डों का प्रथम समय में संकोच नहीं होता।'
इस प्रकार स्वस्थान के दो भेद, समुद्घात के सात भेद और एक उपपाद, इन दस विशेषणों से यथासम्भव क्षेत्र की निरूपणा करते हैं।
कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवों का स्वस्थान-स्वस्थान, वेदना समुद्धाल, कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद इन पदों की अपेक्षा सर्बलोक में अवस्थान है। क्योंकि तीन अशुभ लेश्या वाले जीव अनन्त हैं । अथवा एकेन्द्रियों की प्रधानता है।
शङ्का--स्वस्थान-स्वस्थान के साथ-साथ विहारवत् स्वस्थान का कथन क्यों नहीं किया ?
समाधान-तीन अशुभ लेश्याओं में एकेन्द्रिय जीवों की प्रधानता है, क्योंकि उनकी संध्या अनन्त है । एकेन्द्रिय जीवों में बिहारबत्स्वस्थान है नहीं, इसलिए उसका कथन स्वस्थान-स्वस्थान के साथ नहीं किया गया ।
शङ्का--वक्रियिक समुद्घात का कथन क्यों नहीं किया ?
समाधान- एकेन्द्रियों में बैऋियिक समुद्धात मात्र बादर पर्याप्त अग्निकायिक व वायुकायिक जीवों में होता है, जिनकी संख्या असंख्यात है। अतः इनका क्षेत्र सर्वलोक सम्भव नहीं है।
बिहारवत्स्वस्थान और वक्रियिक समुदघात की अपेक्षा तीन अशुभ लेश्यावाले जीवों का तीनों लोकों के असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और अढ़ाई द्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में अवस्थान है। किन्तु वैक्रियिक समुद्घात की अपेक्षा उक्त जीव तिर्यग्लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । तीन अशुभ लेश्या में अन्य पद सम्भव नहीं हैं ।
शङ्का-प्रशुभ लेश्या में अन्य पद क्यों सम्भव नहीं हैं ?
समाधान- आहारक समुद्घात व तेजस समुद्घात संयमियों के होता है। संयम के साथ तीन अशुभ लेश्याओं का निषेध है । केवली-समुद्घात केवलियों के होता है जिनके मात्र शुक्ल लेश्या होती है । अत: ये तीन समुद्घात अशुभ लेश्या के साथ नहीं होते हैं ।
तेजो लेश्या वालों का और पालेश्या वालों का क्षेत्र-स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना समुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिक समुद्धात पदों से तेजोलण्यावालं जीव नीन लोकों
३. "एइंदिएमु विद्वारबदिसत्याग गास्थि"
१. पवल पु. ४ पृ. २६-३०। २. धवल पु. ७ पृ. ३५७ । [भवल पु. ४ पृ. ३२]। ४. धवल पु. ७ पृ. ३५७ ।
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गाथा ५४४
नेष्यामार्गणा/६०६
के (मामान्य लोक, ऊर्वलोक व अधोलोक) असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और पढ़ाई द्वीप में असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि यहाँ देवराशि की प्रधानता है। मारणान्तिक समुद्घात पद की अपेक्षा भी इसी प्रकार क्षेत्र है विशेष इतना है कि । तियंग्लोक से असंख्यात गुणाक्षेत्र है। इसी प्रकार उपपाद पद की अपेक्षा भी क्षेत्र का निरूपण जानना चाहिए। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना समपात और कषाय समक्ष्यात पदों से पद्मलेश्यावाले जीव तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में तिर्यग्नोक के संख्यातवें भाग में और अढ़ाई द्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। क्योंकि यहां पर नियंत्र राशि प्रधान है। क्रियिक-समुदघात, मारणान्तिक-समधात और उपपदों की अपेक्षा चार लोकों के असंख्यात व भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यात गुणे क्षेत्र में अवस्थान है। क्योंकि यहां सनत्कुमार माहेन्द्र कल्प के देवों को प्रधानता है।'
स्वस्थानस्वस्थान, विहारबत्स्वस्थान और उपपाद पदों से शुवल लेश्या वाले जीव चार लोक के असंख्यातवें भाग में और अढ़ाई द्वीप से अमन्यात गुरणे क्षेत्र में रहते हैं। यहाँ उपपादगत जीब संख्यात ही हैं, क्योंकि मनुष्यों में से यहाँ आगमन है । वेदना ममुद्घात, कषायसमुद्घात, वक्रियिक समुद्धात,दण्डसमुद्घात और मारणान्तिक समुद्घात पदों की अपेक्षा चारलोक के असंख्यातवें भाग में और अढ़ाई द्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । इसी प्रकार तैजस समुद्घात व आहारक समुदघात पदों का भी (तीनों शुभ लेण्याओं में) क्षेत्र निरूपण करना चाहिए, विशेष इतना है कि इन पदों की अपेक्षा उक्त जीव मानुष क्षेत्र के संख्यातवें भाग में रहते हैं। शुक्ल लेश्या में दण्ड समुद्घातगत केवलज्ञानी चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और अढ़ाई द्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। कपाट समुद्घात गत केवलज्ञानी तीन लोक के असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और अढाई द्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । प्रतर समुद्घातगत केवली लोक के असंख्यात बहुभाग में रहते हैं । लोकपूरण समुद्घात की अपेक्षा मर्वलोक में रहते हैं ।
उपपादक्षेत्र निकालने के लिए गाथा सूत्र मरवि असंखेज्जदिमं तस्सासंखा य विग्गहे होंति । तस्सासंखं दूरे उववादे तस्स ख असंखं ॥५४४।।
गाथार्थ - सौधर्म-ईशान स्वर्ग में प्रति समय असंख्यात जीव मरते हैं और उसका असंख्यात बहुभाग विग्रह गति करने वाले हैं। और उसके भी असंख्यात बहुभाग उत्पन्न होने वाले होते हैं । और उसका असंख्यातवाँ भाग दूसरे दण्ड से उत्पन्न होने वाले जीव हैं ॥१४४॥
विशेषार्थ---धवल में इस विषय का कथन इस प्रकार है--उपपाद क्षेत्र स्थापित करते समय सौधर्मऐशान देवों की विष्कम्भसूची घनांगुल के तृतीय वर्ग मुल) मे गुणित जगधेगी को स्थापित करके पल्योपम के असंख्यातवे भाग रूप सौधर्म-ऐशान सम्बन्धी उपत्र मग काल से अपवर्तित करने पर उत्पन्न होने वाले जीवों का प्रमाण होता है। पुनः असंख्यात योजन कप दूसरे दण्ड से उत्पन्न होने वाले जीवों का प्रमाण हष्ट है, ऐसा समझकर पल्योगम के असंख्यातब भाग प्रमाण एक दूसरा भागहार स्थापित करना चाहिए । तथा एक प्रतरांगृल प्रमाण विष्कम्भ से और जगथेणी के - -. .१. धवल पु. ७ पृ. ३५८-३५६ । २. धवल पु. ७ पृ. ३५६-६६० । ३. धवल पू. ७ पृ. ३५३ ।
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६१० / गो. सा. जीवकाण्ड
संख्यातवें भाग प्रमाण प्रायाम से क्षेत्र को स्पर्श करते हैं। सर्वत्र ऋजुगति से उत्पन्न होने वाले जीवों की अपेक्षा विग्रहगति से उत्पन्न होने वाले जीव असंख्यातगुरणे होते हैं क्योंकि श्रेणी की अपेक्षा उच्छेणियाँ बहुत पाई जाती हैं।"
उपपाद पदगत तेजोलेश्या वाले जीवों का क्षेत्र प्राप्त करने के लिए अपवर्तना के स्थापित करते समय सौधर्म कल्प की जीवराशि को स्थापित कर उसमें पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण अपने उपक्रमणकाल से भाग देने पर एक समय में उत्पन्न होने वाले जीव होते हैं। पुनः एक दूसरा पल्योपम का प्रसंख्यातवाँ भाग भागाहार स्वरूप से स्थापित कर एक राजू प्रमाण आयाम वाली उपपाद पद को प्राप्त जीवराशि का प्रमाण होता है । पुनः उसे संख्यात प्रतरांगुल प्रमाण राजुों मे गुणित करने पर उपपाद क्षेत्र का प्रमाण होता है ।
अथवा उपपाद पद की अपेक्षा निम्नलिखित प्रकार से भी क्षेत्र का निरूपण जानना चाहिए। यहाँ अपवर्तन के स्थापित करते समय सौधर्म राशि को स्थापित कर अपने उपक्रमण कालरूप पल्योपम असंख्यातवें भाग से भाग देने पर एक समय में वहाँ उत्पन्न होने वाले जीवों का प्रमाण होता है । पुन: प्रभापटल (सौधर्म स्वर्ग का चरम पटल ति. प. ८ / १६१ ) में उत्पन्न होने वाले जीवों के प्रमाण के आगमनार्थ एक अन्य पत्योपम के श्रसंख्यातवें भाग को भागाहार रूप से स्थापित करना चाहिए । इस प्रकार उक्त भागाहार के स्थापित करने पर डेढ़ राजू प्रमाण ( प्रभापटल तक ति. प. ८/११८१३१-१३५, श्र. ७/४४० ) श्रायाम से उपपाद को प्राप्त जीवों का प्रमाण होता है । पुनः उसे संख्यात प्रतरांगुन मात्र राजुओं से गुणित करने पर उपपाद क्षेत्र का प्रमाण होता है ।
तीन अशुभलेश्याओं के स्वर्ग का कथन
फासं सध्यं लोयं तिट्ठाणे सुहलेस्सारणं ।। ५४५ उत्तरार्ध ।।
गाथार्थ - तीन अशुभलेश्याओं का तीन स्थान में स्पर्श सर्वलोक है | १५४५ उत्तरार्ध ।।
विशेषार्थ - क्षेत्र के कथन में सर्व मार्गास्थानों का श्राश्रय लेकर सभी वर्तमानकाल विशिष्ट क्षेत्र का प्रतिपादन कर दिया गया है। अब पुनः इस स्पर्शनानुयोगद्वार से क्या प्ररूपण किया जाता है ? ऐसा प्रश्न ठीक नहीं है, क्योंकि स्पर्शनानुयोग द्वार में भूत काल विशिष्ट क्षेत्र का स्पर्शन कहा गया है । ४
गाथा ५४५
कृष्ण लेण्या वाले नील वेश्या वाले व कापोत लेण्या वाले जीवों ने स्वस्थान, वेदना-कपायमारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदों से प्रतीत व वर्तमानकाल की अपेक्षा सर्वलोक का स्पर्श किया है । बिहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिक समुयात पदों से अतीत काल में तीन लोकों के असंख्यातवें भाग तिर्यग्योक के संख्यातवें भाग और अढ़ाई द्वीप से प्रसंख्यात गुणे क्षेत्र का स्पर्शन किया है। विशेषता इतनी है कि वैविथिक पद से तीन लोकों के संख्या भाग तथा मनुष्यलोक
१२६-१३० ।
१. धवल पु. ४ पृ. २. धवल पु. काल विमेसिदत्तं फोसणं वृच्चदे ।" [ श्रबन पु. ४. १४५ ] । सिद्ध" [धवल पु. ४ पृ.
१४६ ]
।
३. धवल पु. ७ पृ. ३५६ । “फोम रामदीद काल विसेसिद
४. "प्रदीदपदुपायमसि
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गाथा ५४६-५४७
लेण्यामागंगा/६११
और तिर्यग्लोक से असंख्यात गुणे क्षेत्र का स्पर्श किया है, क्योंकि बिक्रिया करने वाले वायुकायिक जीवों के पाँच बटे चौदह भाग प्रमाण स्पर्णन पाया जाता है। तंजस व प्राहारक व केवली समुद्घात अशुभ लेण्या बालों के नहीं होते।'
अकलंकदेव ने भी कहा है कि वृष्ण, नील ब कापोत लेश्यावानों ने स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पद से सर्वलोक का स्पर्श किया है ।
पीत लेश्या के स्पर्शन का कथन तेउस्स य सहारणे लोगस्स असंखभागमेत्तं तु । अडचोदसभागा वा देसूरणा होति गियमेण ॥५४६॥ एवं तु समुग्धावे राव चोद्दसभागयं च किचूरणं । उववादे पढमपदं दिवड्ढचोद्दस य किंचूरणं ।।५४७॥
गाथार्थ-पीतलेश्या का स्वस्थानस्वस्थाको अपेक्षा लोक का संख्यातवा भाग स्पर्श है और विहारवत्स्वस्थान की अपेक्षा कुछ कम पाठ बटा- चौदह भाग (2) स्पर्श है ।।५४६।। उसी प्रकार समुद्घात में कुछ कम नव बटा चौदह (4) भाग स्पर्श किया है और उपपाद पद में कुछ कम डेढ़ बटा चौदह भाग स्पर्श किया है ।।५४६।।
विशेषार्थ--तेजोलेश्यावाले जीवों द्वारा स्वस्थान पदों से लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है ।।१६५।। यहाँ क्षेत्र प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि वर्तमान काल की विवक्षा है। अतीत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट किया है ।।१६६।। स्वस्थान की अपेक्षा तीन लोकों का असंख्यातवाँ भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवाँ भाग और अढ़ाई द्वीप से असंख्यात गुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । विहारबत्स्वस्थान अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट है। क्योंकि तीसरे नरक तक विहार करते हुए तेजो लेश्या वाले देवों का नीचे दो राजू और ऊपर सोलहवें स्वर्ग तक छह राज् इस प्रकार प्राट राजु क्षेत्र का पर्श पाया जाता है।
शङ्का--ऊपर सोलहवें स्वर्ग में तो गीत लेश्या नहीं है, मात्र शुक्ल लेण्या है । फिर ऊपर छह राज स्पर्श कैसे सम्भव है ?
समाधान- सोलहवें स्वर्ग के देवों की नियोगिनी देवियाँ सौधर्म युगल में उत्पन्न होती हैं । ५ और उनके पीत लेश्या ही होती है। सोलहवें स्वर्ग तक देव अपनी नियोगिनी देत्रियों को अपने विमानों में ले जाते हैं।
बेदना, कषाय और वैक्रियिक पदों से परिगत तेजो लेश्या वाले जीवों द्वारा पाठ टे चौदह भाग () स्पृष्ट है । क्योंकि विहार करते हुए देवों के ये तीनों पद सर्वत्र पाये जाते हैं।
- - - १. धवल पु. 3 सुत्र १६३ पृ. ४३८, भूत्र १७७ पृ. ४३४, सूत्र १३६ पृ. ४२३ । २. रा. वा. ४/२२/१० । ३. घयल पु. ७ पृ. ४३८ । ४. धवल पु. ५ पृ ३८६ । ५. "तत्स्त्रीणां सौधर्मकल्पोपपत्तेः ।" [ध. पु. १ पृ. ३३८] ।
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६१२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५४०-५४६
मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा नौ बटे चौदह (1) भाग स्पृष्ट है क्योंकि मेरतल से नीने दो राजुओं के साथ ऊपर सात राजू स्पर्शन पाया जाता है ।'
उपपाद की अपेक्षा तेजो लेश्यावाले जीवों द्वारा प्रतीत काल में कुछ कम डेढ़ बटे चौदह (१) भाग स्पृष्ट है ।।२०२।। क्योंकि मेरुमूल से डेढ़ राजू मात्र ऊपर चढ़कर प्रभा पटल का अवस्थान है।
शंका--सानत्कुमार माहेन्द्र कल्पों के प्रथम इन्द्रक विमान में स्थित तेजो लेश्यावाले देवों में उत्पन्न कराने पर डेढ़ राजू से अधिक क्षेत्र क्यों नहीं पाया जाता?
सदा --हो, क्योंकि सीधर्मकनप से थोड़ा ही स्थान ऊपर जाकर सानत्वमार कल्प का प्रथम पटल अवस्थित है।
शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-क्योंकि, ऐसा न मानने पर उपयुक्त डेढ़ राज क्षेत्र में जो कुछ न्यूनता बतलाई है वह नहीं हो सकती।
पपलेश्या और शुक्ल लेश्या का स्पर्शन पम्मस्स य सवारणसमुग्धाददुगेसु होदि पढमपदं । प्रड चोइस भागा वा देसूरणा होति रिणयमेण ।।५४८।। उववादे पढमपदं पणचोदसभागयं च देसूणं । सुक्कस्स य तिवाणे पढमो छच्चोदसा हीरगा ॥५४६।।
गाथार्थ-पद्मलेश्या वाले जीवों ने स्वस्थान की अपेक्षा प्रथम पद (लोक का असंध्यातवां भाग) स्पर्शन किया है। समुद्घात की अपेक्षा कुछ कम पाठ बटे चौदह (१) भाग स्पर्श किया है ।।५४८।। उपपाद पदगत जीवों ने प्रथमपद (लोक का असंख्यातवाँ भाग) अथवा कुछ कम पाँच बटा चौदह भाग (१४) स्पर्श किया है। शुक्ललेश्यावालों ने तीन स्थानों में प्रथम पद व कुछ कम छह बटा चौदह (1) भाग स्पर्ण किया है ।।५४६।।
विशेषार्थ- पालेण्यावाले जीवों ने स्वस्थान और समुद्घात पदों से लोक का असंख्यातदाँ भाग स्पर्श किया है अथवा अतीत काल की अपेक्षा बुछ कम प्राट बटे चौदह (६) भाग स्पर्श विया है ।३२०३-२०५।।
खुलासा इस प्रकार है- स्वस्थान स्वस्थान पद की अपेक्षा तीन लोकों के असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग और प्रहाई दीप से असंख्यात गुरणे क्षेत्र का स्पर्श किया है।
१. धवल पु. ७ पृ. ४२६-४४० ।
२. धवल पु. ५ पृ. ४४० ।
३. धवल पु. ७ पृ. ४.४७ ।
४. घबल इ."
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गाथा ५५०
लेण्या मार्गणा/६१३ बिहारवत्स्वस्थान, वेदनासमूदधात, कायममृदयात वक्रियिक समुदघात और मारणान्तिक पदों से परिणत उन्हीं पालेश्यावाले देवों के द्वारा कुछ कम आठ वटे चौदह (2) भाग स्पृष्ट है, क्योंकि पद्मलेश्या वाले देवों के एकेन्द्रिय जीवों में मारणान्तिक समुद्घात का अभाव है।' उपपाद की अपेक्षा लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है अथवा अतीत काल की अपेक्षा कुछ कम पांच बटे चौदह (१) भाग स्पृष्ट है ।।२०७-२०८।। क्योंकि मेरुमूल से पाँच राजमात्र मार्ग जाकर सहस्रार कल्प का अवस्थान है।
शुक्ललेण्या वाले जीवों ने स्वस्थान और उपपाद पदों से लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है अथवा अतीतकाल की अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भागों का स्पर्श किया है ।।२०६-२११।।३
खुलासा इस प्रकार है-स्वस्थान पद से तीन लोकों के असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोक के संख्यान भाग और अढाई द्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र का स्पर्श किया है। विहारवत् स्वस्थान और उपपाद पदों से छह बटे चौदह () भागों का स्पर्श किया है, क्योंकि तिर्यग्लोक से पारण-अच्युत कल्पों में उत्पन्न होने वाले और छह राजू के नीलर विहार करने वाले उक्त जीवों के इतना मान स्पर्शन पाया जाता है।
समुद्घात की अपेक्षा शुक्ल लेश्या बालों का स्पर्श एवरि समुग्यादम्मि य संखातीदा हवंति भागा वा । सन्चो वा खलु लोगो फासो होदित्ति रिगद्दिट्ठो ॥५५०।।
माथार्थ –किन्तु (शुक्ल लेश्या वाले जीवों ने) समुद्घात को अपेक्षा लोक का असंख्यातवां भाग अथवा सर्व लोक स्पर्श किया है ।। ५५७ ।।
विशेषार्थ-- इतनी विशेषता है कि शुक्ल लेण्या बाले जीवों के द्वारा समुद्घात पदों से लोक का असंध्यातवा भाग स्पष्ट है अथवा अतीत काल की अपेक्षा कर कम छह बटे चौदह : है ।।२१३-२१४।। क्योंकि पारग-अच्युत कल्पवासी देवों में मारणान्तिक समुद्घात को करने वाले तिर्यंच और मनुष्य पाये जाते हैं। वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घातों की अपेक्षा स्पर्शन का निरूपण विहारवत्स्वस्थान के समान है। अथवा केबलीसमद्घात की अपेक्षा असंख्यात बहभाग अथवा सर्व लोक स्पृष्ट है ।।२१५-२१६॥ दण्डसमुद्घातगत जीवों द्वारा चारों लोकों का असंख्यातवाँ भाग और अढ़ाई द्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। इसी प्रकार कपाट समुद्घातगत जीवों द्वारा भी स्पृष्ट है। विशेष इतना है कि तिर्यग्लोक का संख्यातवाँ भाग अथवा उससे संख्यात गुणा क्षेत्र स्पृष्ट है।
शङ्का-दण्ड समुद्घात को प्राप्त हुए केवलियों का उक्त क्षेत्र से सम्भव है ? समाधान---उत्कृष्ट अवगाहना से युक्त केवलियों का उत्सेध एक सौ पाठ प्रमाणांगल होता है
१. धवल पु. ७ पृ. ४४१। ५. धवल पु. ७ पृ. ४४३ ।
२. धवल पु. ७ पृ. ४४२ । ३. धवल पु.७ पृ. ४४२ ४. धवल पु, ७ पृ. ४४३ । ६. धवल पु. ७ पृ. ४४३-४४४ । ७. धवल पु. ७ पृ. ४४४ ।
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६१४ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५५०
और उसका नत्र भाग (125) अर्थात् बारह १२ प्रमाणांगुल विष्कम्भ होता है। इसकी परिधि १२x१६ + १६
(22%
सैंतीस अंगुल और एक अंगुल के एक सौ तेरह भागों में से पंचानवे
३६
+---
११३
१
भाग प्रमाण ३७६ होती है।' परिधि प्राप्त करने का करणसूत्र
÷
व्यासं षोडशगुरिणतं षोडश सहितं त्रिरूपरूपैर्भक्तम् । व्यासं त्रिखितसहितं सूक्ष्मादपि तद्भवेत्सूक्ष्मम् ॥ १४ ॥ ३
- व्यास को सोलह १६ से गुणा करके पुनः सोलह जोड़ें, पुनः तीन एक और एक अर्थात् ११३ का भाग देकर व्यास का तिगुणा जोड़ देवें तो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म परिधि का प्रमाण या जाता है।
इस परिधिको विष्कम्भ बारह १२ अंगुल के चौड़े भाग अर्थात् तीन अंगुल से गुणित करने पर मुखरूप बारह अंगुल लम्बे और बारह अंगुल चौड़े गोल क्षेत्र के प्रतरांगुल होते हैं। इन्हें कुछ कम | आता है।
६५ १२
(
३७--X--×१४ राजू ११३
:).
४
चौदह राजुओं से गुणित करने पर दण्ड क्षेत्र का प्रमाण यह एक केवली दण्ड समुद्घात का प्रमाण है। इसको संख्यात से गुणित करने पर एक साथ समुद्घात करने वाले संख्यात केवलियों के दण्डक्षेत्र का प्रमाण श्रा जाता है ।
इस प्रकार जो क्षेत्र उत्पन्न हो उसे सामान्य लोक यादि चार लोकों से भाजित करने पर उन चार लोकों में से प्रत्येक लोक के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण दण्डक्षेत्र प्राता है । तथा उक्त दण्डक्षेत्र को मानुषलोक से भाजित करने पर असंख्यात मानुषक्षेत्र लब्ध आते हैं। इतनी विशेषता है कि प्रत्येकासन से 'दण्डसमुद्घात को प्राप्त हुए केवली का विष्कम्भ पहले कहे हुए बारह १२ अंगुल प्रमाण विष्कम्भ से ३६ × १६ + १६ १०८
तिगुणा होता है। उसका प्रमाण ३६ अंगुल है। इसकी परिधि
(24x24 +
:)
११३
सौ तेरह अंगुल और एक अंगुल के एक सौ तेरह भागों में से सत्ताईस भाग ( ११३३ ) प्रमाण है । *
+
एक
कपाट समुद्घात को प्राप्त हुए केवली का क्षेत्र लाने का विधान इस प्रकार है केवलीजिन पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख होकर समुद्घात को करते हुए यदि कासन से समुद्घात को करते हैं तो कपाट क्षेत्र का बाहुल्य छत्तीस अंगुल होता है । यदि कायोत्सर्ग से कपाट समुद्घान करते हैं तो बारह १२ अंगुल प्रमारण बाहस्य वाला कपाट समुद्घात होता है । इनमें से पहले पूर्वाभिमुख केवली के कपाटक्षेत्र के लाने की विधि का कथन करने पर चौदह राजू लम्बे, सात राजू चौड़े और छत्तीस ३६ अंगुल मोटे क्षेत्र को स्थापित करके, उसे चौदह राजू लम्बाई में से बीच में सात राजू के ऊपर छिन्न करके एक क्षेत्र के ऊपर दूसरे क्षेत्र को स्थापित कर देने पर बहत्तर अंगुल मोटा जगत्प्रतर हो जाता है । कायोत्सर्ग से पूर्वाभिमुख स्थित हुए केवली कपाट क्षेत्र चौबीस अंगुल मोटा जगत्प्रतर होता है। उत्तराभिमुख होकर पल्यंकासन से समुद्घात को प्राप्त केवली का कपाटक्षेत्र ३६ अगुल
१. मल पु. ४ पृ. ४६ । २. धवल पू. ४. ४२ ३. वल पु. ४. ४८-४९ । ४. घवल पु. ४ पृ. ४९ ।
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गाणा ५५१-५५२
लेण्यामागेरगा।६१५
मोटा जगत्प्रत र प्रमाण होता है 1 तथा इतर का अर्थात उत्तराभिमुख होकर कायोत्सर्ग से समुद्घात को करने वाले केवली का कपाटक्षेत्र बारह १२ अंगुल मोटा जगत्प्रतर प्रमाण लम्बा चौडा होता है। ऋयोंकि वेदत्ता ममुद्घात को छोड़ कर जीव के प्रदेश तिगुण नहीं होते हैं । यह उपयुक्त कपाटसमुद्घात गत केवली का क्षेत्र सामान्य लोक प्रादि तीन लोकों के प्रमाणरूप से करने पर उन तीन लोकों में से प्रत्येक लोक के असंन्यात भाग प्रमाण है। तिर्यग्लोक के संख्यात भाग प्रमाण है और अढ़ाई द्रीप से असंख्यात गुरगा है।
प्रतर समुदघात को प्राप्त केवली जिन लोक के असन्यात बहुभाग प्रमाण क्षेत्र में रहते हैं। लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण बात बलय से रुके हुए क्षेत्र को छोड़कर लोक के शेष बहुभाग में रहते हैं । घनलोक का प्रमाण ३४३ घन राजू है । एक हजार चौबीस करोड़, उन्नीस लाख तेरासी हजार चार सी सत्तासी योजनों में एक लाख नौ हजार सात सौ साठ का भाग देने पर जो लब्ध पावे उतने योराणा ,२२६ । र यो के नाते और चातरुद्धक्षेत्र का घनफल होता है। इस वातरुद्ध क्षेत्र को घनलोक में से घटा देने पर प्रतर समुद्घात का क्षेत्र कुछ कम लोक प्रमारण होता है। प्रतर समुद्घात को प्राप्त केवली का यह क्षेत्र अधोलोक के प्रमाण रूप से करने पर कुछ अधिक अधोलोक के चौथे भाग से कम दो अधोलोक प्रमाण होता है। तथा इसे ही ऊर्ध्वलोक के प्रमाणरूप से करने पर अबलोक के कुछ कम तीसरे भाग से अधिक दो कर्वलोक प्रमाण होता है। लोकपुरणसमुद्घात को प्राप्त केवली भगवान् सर्वलोक में रहते हैं ।
लेश्यामों की जघन्य व उत्कृष्ट कालप्ररूपण। कालो छल्लेस्सारणं गाणाजीवं पडुच्च सध्यद्धा । अंतोमुत्तमवरं एवं जीवं पडुच्च हवे ॥५५१॥ प्रवहीरणं तेत्तीस सत्तर सत्तेव होंति दो चेव । अट्ठारस तेत्तीसा उक्कस्सा होति अदिरेया ॥५५२।।
गाथार्थ ... छहों लेश्याओं का नाना जीव अपेक्षा सर्वकाल है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल अन्तमुहर्त मात्र है ।। ५.५१।। और उत्कृष्ट काल क्रमशः साधिक तेतीम सागर, सत्सरह (१७) मागर, सात (७) सागर, दो (२) सागर, अठारह (१८) सागर व तैतीस (३३) सागर है ।। ५५२ ।।
विशेषार्थ---नाना जीवों की अपेक्षा कालानुगम से लेश्यामार्गणा के अनुसार कृष्णा लेण्या वाले, नील लेश्याबाले, कापोतलेश्यावाले, तेजोलेश्यावाले, पालेश्यावाले और शुक्ल लेश्यावाले जीव सर्व काल रहते हैं ।।४०-४१।।' एक जीव की अपेक्षा नीनों अशुभ लेश्यावाले जीवों का जघन्य काल
१. धवल पु. ४ पृ. ५.। २. धवल पु. ४ पृ. ५० । ३. पवल पृ. ४ पृ. ५५ सत्तासीदिनदुस्सदमहरसतेमीदिलमग्न उरात्रीस । व उनीसदिय कोडिसहरसगुणियं तु गपदर । सट्ठी सत्तसएहि गावयमहस्सेगलक्खभजियं त् । सवं अशरुद्ध गरियं भरिशयं समासा ||१३६-१४०।।"[वि.मा.] ४, धवल पु. ४५.५६ । ५. "शारणानीवेण कालाणगमेण लेसाणचादेगा किण्हलेस्सिय-शीललेस्सिय-काउलेरिसय-तेउलेस्सिय-पम्मलेन्सियसुक्कैन स्मिया केचिरंकालादो होति ।।४।। सन्चद्धा ।।४१।।" धवल पु. ७ पृ. ४६२ व ४७४]
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६१६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५५१-५५२
अन्तर्मुहूर्त है ॥२८॥
जैसे--नीललेश्या में वर्तमान किमी जीव के उस लेश्या का काल क्षय हो जाने से कृष्णलेण्या हो गई, और वह उसमें सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पुनः नील लेण्या वाला हो गया।
शङ्का-कृष्णलेषणा के पश्चात् कापोत लेश्या वाला क्यों नहीं होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि कृष्णलेश्या से परिणत जीव के तदनन्तर ही कापोतलेश्यारूप परिणमन शक्ति का होना असम्भव है ।
हीयमान वृष्ण लेश्या में अथवा बर्धमान कापोत लेश्या में विद्यमान किसी जीव के नीललेश्या आ गई। तब वह जीव नीललेण्या में सर्व जघन्य अन्तर्मुहुर्त काल रह करके जघन्य काल के अविरोध से यथासम्भव कापोत लेश्या को अथवा कृष्णलेश्या को प्राप्त हुआ; क्योंकि इन दोनों लेश्याओं के सिवाय उसके अन्य किसी लेण्या का यागमन असम्भव है। मिलाने ही नाचार्य डीयमान लेश्या में ही जघन्य काल होता है, ऐसा कहते हैं । इस प्रकार नील लेश्या का काल अन्तमुहुर्त प्राप्त होता है।
हीयमान नीललेश्या में अथवा तेजोलेश्या में विद्यमान जीव के कापोत लेण्या आगई। वह जीव कापोत लेश्या में सर्वजघन्य अन्तमुहर्त काल रह करके, यदि तेजोलेश्या से आया है तो नील ले श्या में और यदि नीललेण्या से पाया है तो तेजोलेश्या में जाना चाहिए । अन्यथा संक्लेश और विशुद्धि को श्रापूरण करने वाले जीव के जघन्य काल नहीं बन सकता है।
शङ्का-यहाँ पर योग परिवर्तन के समान एक समय जघन्य काल क्यों नहीं पाया जाता है ?
समाधान-महीं, क्योंकि योग और कपायों के समान लेण्या में लेश्या का परिवर्तन. अथवा थान का परिवर्तन, अथवा मरण और व्याघात से एक समय काल का पाया जाना असम्भव है। इसका कारण यह है कि न तो लेश्यापरिवर्तन के द्वारा एक समय पाया जाता है, क्योंकि विवक्षित लेश्या से परिणत हुए जीव के द्वितीय समय में उस लेश्या के विनाश का अभाव है। तथा इसी प्रकार विवक्षित लेश्या के साथ अन्य गुणस्थान को गये हुए जीव के द्वितीय समय में अन्य लेश्या में जाने का भी अभाव है। न गुणस्थान परिवर्तन की अपेक्षा एक समय सम्भव है, क्योंकि विवक्षित लेश्या से परिणत हुए जीव के द्वितीय समय में अन्यगुणस्थान के गमन का अभाव है। न व्याघात की अपेक्षा ही एक समय सम्भव है, क्योंकि एक समय में वर्तमान लेण्या के व्याघात का अभाव है । और न मरण की अपेक्षा एक समय सम्भव है, क्योंकि विवक्षित लेश्या से परिणत हुए जीव के द्वितीय समय में मरण का प्रभाव है।
कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागरोपम, नील लेश्या का साधिक सत्तरह सागरोपम और कापोत लेश्या का साधिक सात सागरोपम प्रमाण है ।।२८५।।४
१. "गजीवं पड़तन जहणणग प्रतो मुद्दत्त ।।२८४।।'' [धवल पु. ४ पृ. ४५५] । २. धवल पु. ४ पृ. ४५६ । ३. धवल पु. ४ पृ. ४५६-४५७, कारण देग्यो धवल पु. ४ पृ. ४६८ का प्रथम शंका-समाधान । ४. "उवकम्मेगा तेत्तीस सत्तारस सत्त सागरोबमाणि सादिरेयारिख ।।२८५॥[धवल १.४ पृ. ४५७] ।
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गापा ५५१-५५२
लेण्यामार्गणा/६१७
नीललेश्या में विद्यमान किसी जीव के कृष्ण लेश्या प्रागई। उस कृष्ण लेश्या में सर्वोत्कृष्ट अन्तमुहर्त काल तक रह करके भरण कर नीचे सातवीं पृथिवी (नरक) में उत्पन्न हुआ। वहां तैतीस सागरोपम काल बिताकर निकाला। पीछे भी अन्तर्मुहूर्त काल तक भावना के वश से वही लेश्या होती है। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्त से अधिक तैतीस सागरोपम कृष्ण लेण्या का उत्कृष्ट काल होता है।'
कापोत लेण्या में वर्तमान जीव के मीलले श्या प्रागई। उसमें उत्कृष्ट अन्तमुहर्त रहकर मरा और पाँचवीं पृथिवी में (नरक में) उत्पन्न हुआ । वहाँ पर सत्तरह १७ सागरोपम काल नील लेश्या के साथ बिताकर निकला । निकलने पर भी अन्तमुहर्त तक बही लेण्या रहती है। इस प्रकार दो अन्तमुहतों से अधिक सत्तरह सागरोपम नोल लेण्या का उत्कृष्ट काल होता है।
तेजो लेश्या में विद्यमान किसी जीव के लेश्या काल क्षीण हो जाने पर कापोतलेश्या प्रागई । कापोतलेण्या में अन्नमर्त काल रहकर मरण करके तृतीय प्रथिवी (नरक) में उत्पन हमा। वहाँ पर कापोत लेश्या के साथ सात सागरोपम बिताकर निकला । निकलने के पश्चात् भी वही लेश्या अन्तमुहूर्त तक रहती है। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्त से अधिक सात सागरोपम कापोत लेश्या का उत्कृष्ट काल होता है।
कम से कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव तेज (पीत) पद्म व शुक्ल लेश्या वाला रहता है ।। १८०-१८१।।
खलासा इस प्रकार है-हीयमान पालेश्या में विद्यमान किसी जीव के अपनी लेश्या का काल क्षय हो जाने से तेजो (पीत) लेश्या आगई । पीत लेण्या में सर्व जघन्य अन्तर्मुहुर्तकाल रह करके कापोत लेण्या को प्राप्त हो गया ।
हीयमान शुक्ललेश्या में विद्यमान किसी जीव के लेश्या-काल क्षय हो जाने से पद्मलेण्या होगई। सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक पालेश्या में रहकर के तेजो (गीत) लेण्या को प्राप्त हो गया।'
वर्षमान पद्मलेश्या वाला कोई जीव अपनी लेपया का काल समाप्त हो जाने से शुक्ललेश्या वाला हो गया। वहाँ सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पुनः पचलेश्या को प्राप्त हुआ, क्योंकि पद्मलेश्या के अतिरिक्त अन्य किसी लेण्या में जाना सम्भव नहीं है।'
इस प्रकार तीनों के जघन्य कहे गये।
उत्कृष्ट काल पीत लेश्या का साधिक दो सागर, पद्म लेश्या का साधिक प्रयारह सागर और शुक्ललेश्या का साधिक तेतीस सागर प्रमाण है ।।१८२।।
१. धवल पु. ४ पृ. ४५७ । २. धवल पु. ४ पृ. ४५८ । ३. धवल पु. ४ पृ. ४५८ | Y. "तेउलेस्सियापम्मलेस्सिया गुक्कले रिमया केचिरं कालादो हॉति? ॥१८०।। जहष्णरण मंतोमुहत्तं ।।१८१।।'' [धवल पु. ७ पृ. १७५] । ५. घबल पु. ४ पृ. ४६२। ६. धवल पृ. ४ पृ. ४६२ । ७. धवल पृ. ४ पृ. ४७२ । ८, श्रवल पु. ७पृ. १७५ ।
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६१८ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५५३ - ५५४
कालेश्या में विद्यमान जीव के विश्वाकाल धाप हो जाने से पतले हो गई । उसमें अन्तर्मुहूर्त रहकर मरा और सौधर्म कल्प में उत्पन्न हुआ अढ़ाई सागरोपम काल तक जीवित रहकर च्युत हुआ । अन्तर्मुहूर्त काल तक पीत लेश्या सहित रहकर अन्य प्रविरुद्ध लेश्या में चला गया। इसी प्रकार पद्मव शुक्ल लेश्याओं सहित सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः साढ़े अठारह व तैंतीस सागरोपम आयु स्थिति वाले देवों में उत्पन्न होकर अपनी-अपनी आयु स्थिति को पूरी करके वहीं से निकलकर अन्तर्मुहूर्त काल तक पद्म व शुक्ल लेश्या सहित रहकर अन्य अविरुद्ध लेश्या में गये हुए जीव के अपनाअपना उत्कृष्ट काल प्राप्त हो जाता है ।"
वेश्याओं में जघन्य व उत्कृष्ट अन्तर
अंतरravarti किहतियाणं मुहुसतं तु ।
उवहीणं तेत्तीसं प्रहियं होवित्ति गिट्ठि ।। ५५३ ।। उतियाणं एवं वरि य उक्कस्स विरहकालो दु ।
पोगल रिबट्टा हु असंखेज्जा होंति गियमेण ।। ५५४ ||
गाथार्थ - कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्याओं का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक तैंतीस सागर है । पीत यादि तीन शुभ लेमयाओं का अन्तर भी इसी प्रकार है किन्तु उत्कृष्ट अन्तर नियम से श्रसंख्यात पुद्गल परिवर्तन है ।।५५३-५५४।।
कृष्ण, नील और कापोत लेश्यात्राले जीवों का जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि कृष्ण लेश्यावाले जीव के नीललेश्या में, नीललेश्या वाले जीव के कापोत लेश्या में व कापोतलेश्या वाले जीव के तेजोलेश्या में जाकर अपनी पूर्व लेश्या में जघन्य काल के द्वारा पुनः वापिस आने से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अन्तर पाया जाता है ।
कृष्ण, नील और कापोत लेग्यावाले जीवों का उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक तंतीस सागरोपम प्रमाण होता है, क्योंकि एक पूर्व कोटि की आयु वाला मनुष्य गर्भ से आदि लेकर ग्राठ वर्ष के भीतर छह अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर कृष्ण लेश्या रूप परिणाम को प्राप्त हुआ । इस प्रकार कृष्ण लेश्या का प्रारम्भ कर पुनः नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याओं में परिपाटी क्रम से जाकर अन्तर करता हुआ, संयम ग्रहण कर तीन शुभ लेश्याओं में कुछ कम पूर्व कोटी काल प्रमाण रहा और फिर तैंतीस सागरोपम श्रायुस्थिति वाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ से आकर मनुष्यों में उत्पन्न होकर शुक्ल पद्म तेज काशेत और नील लेश्या रूप क्रम से परिणमित हुआ और अन्त में कृष्ण लेश्या आ गया । ऐसे जीव के दश अन्तर्मुहुर्त कम आठ वर्ष से हीन पूर्व कोटि अधिक तैंतीस सागरोपम प्रमाण कृष्ण लेण्या का उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होता है। इसी प्रकार नील लेश्या और कापोत लेश्या के उत्कृष्ट अन्तर काल का प्ररूपण करना चाहिए। विशेषता केवल इतनी है कि नील लेश्या का अन्तर कहते समय आठ और कापोत लेश्या का अन्तर कहते समय छह अन्तर्मुहूर्त क्रम प्राठ वर्ष से हीन पूर्व कोटि अधिक तैंतीस सागरोपम प्रमाण अन्तर काल बतलाना चाहिए |
१. धवल पु. ७ पृ. १७६ । २. धवल पु. ७ पृ. २२८-२२१ ।
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गाथा ५५५
नेश्यामार्गणा/६१६
तेज लेश्या, पर लेश्या और शुक्ल लेश्या वाले जीवों का जघन्य अन्तरकाल अन्तमहतं मात्र होता है, क्योंकि तेज, पन व शुक्ल लेश्या से अपनी अविरोधी अन्य लेश्या में जाकर व जघन्य काल से लौटकर पुन: अपनी-अपनी पूर्व सेस्या में श्रानेवाले जीव के अन्समुहले मात्र जधव्य अन्तर काल पाया जाता है।
तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या का उत्कृष्ट अन्तर काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण अनन्त काल होता है, क्योंकि विवक्षित शुभ लेश्या से अविरुद्ध अविवक्षित लेश्या को प्राप्त हो अन्तर को प्राप्त हुआ । पुन: ग्रावली के असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गल परिबर्तनों के कृष्ण, नील और कापोत लेण्याओं के साथ बीतने पर विवक्षित शुभ लेश्या को प्राप्त हुए जीव के उक्त शुभ लेश्याओं का उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है।'
लण्या मार्गणा में भाव व अल्पबहुत्व का कथन भावावो छल्लेस्सा प्रोदयिया होंति अप्पबहगं तु ।
वश्वपमाणे सिद्ध इदि लेस्सा वलिदा होति ॥५५॥ गाथार्थ - छहों लेश्या भाव की अपेक्षा प्रौदयिक हैं । द्रव्य प्रमाण से लेण्या का अल्पबहत्त्व सिद्ध कर लेना चाहिए । इस प्रकार लेश्या का वर्णन हुअा ॥५५५॥
विशेषायं-ग्रौदयिक भाव से जीव कृष्ण प्रादि छह लेण्या वाला होता है ।।६।।' उदय में पाये हए कषायानुभाग के स्पर्धकों के जघन्य स्पर्धक से लोकर उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त स्थापित करके उनको छह भागों में विभक्त करने पर प्रथम भाग मन्दतम कषायानुभाग का होता है और उसके उदय से जो कषाय उत्पन्न होती है, उसका नाम शुक्ल लेश्या है। दूसरा भाग मन्दतर कषायानुभाग का है और उसके उदय से उत्पन्न हुई कपाय का नाम पद्मलोगया है । तृतीय भाम मन्द कषायानुभाग का है और उसके उदय से उत्पन्न कषाय तेजो लेश्या है । चतुर्थभाग तीब्र कषायानुभाग का है और उसके उदय से उत्पन्न कषाय कापोत लेश्या है । पाँचवा भाग तीव्रतर कषायानुभाग का है और उसके उदय से उत्पन्न कपाय को नील लेश्या कहते हैं। छटा भाग तीव्रतम कषायानुभाग का है और उससे उत्पन्न कषाय का नाम कृष्ण लेश्या है। चुकि ये छहों ही लेश्याएँ कपागों के उदय से होती हैं, इसलिए ये प्रोदयिक हैं।
शङ्का--यदि कषायोदय से लेश्या की उत्पत्ति होती है तो बारहवे गुरणस्थानवर्ती क्षीणकषाय जीव के लेश्या के प्रभाव का प्रसंग पाता है ?
समाधान-सचमुच ही क्षीणकषाय जीवों में लेश्या के अभाव का प्रसंग पाता यदि केवल कपायोदय से लेश्या की उत्पत्ति मानी जाती । किन्तु शरीर नाम कर्म के उदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या है, क्योंकि यह भी कर्मबन्ध में निमित्त है अत: लेश्या औदयिक भाव है।'
१. धवल पु. ७ पृ. २३०। १०४-१०५।
२. "प्रोदहा भावेण ॥६॥" [धवल पु. ७ पृ. १०४] ।
३. धवल पु. ७ पृ.
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६२०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५५६
लोश्या मार्गरणा के अनुसार शुक्ललेश्यावाले सबसे स्तोक हैं । वे पल्यापम के असंख्यालवें भाग प्रमाण हैं, क्योंकि अतिशय शुभ लोश्याओं का समुदाय कहीं पर विन्हीं के ही सम्भव है। शुक्ल लेश्या बालों से पद्य लेश्यावाले प्रसंख्यात गूगो हैं । गुणाकार जगत्प्रतर के प्रसंख्यातवें भाग अर्थात असंख्यात जगश्रेणी हैं, क्योंकि वह पल्लोपम के असंख्यात भाग से गुणित प्रतरांगुल से अपवतित जगत्प्रतर प्रमाण है। पद्मलेश्यावालों से तेजो लेण्यावाले संख्यात गुणे हैं, क्योंकि पंचेन्द्रियतिथंच-योनिनियों के संध्यातवें भाग प्रमाण पत्रलेश्यावालों के द्रव्य का तेजो लेश्यावालों के द्रव्य में भाग देने पर संख्यात रूप उपलब्ध होते हैं। तेजो लेश्यावालों से लेश्यारहित अनन्तगुण हैं, गुणाकार अभव्य सिद्धों से अनन्तगुणा है । अलेश्यिकों से कापोत लेश्या वालो अनन्तगुणे हैं । गुणाकार अभव्य सिद्धकों से, सिद्धों से और सर्व जीवों के प्रथम वर्गमूल से भी अनन्त गुणा है।' कापोतलेण्या वालों से नीललेश्या वाले विशेष अधिक हैं। कापोतलेश्या के असंख्यातवें भाग विशेष अधिक हैं। अधिक का प्रमाण अनन्त है। नीललेश्या बालों से कृष्ण लेश्या बाले विशेष अधिक हैं। विशेष अनन्त हैं जो नील लेश्या के असंख्यात भाग प्रमाण हैं।'
लेश्यारहित जीवों का स्वरूप . किण्हादिलेस्सरहिया संसारविरिणग्गया अणंतसुहा ।
सिद्धिपुरं संपत्ता अलेस्सिया ते मुणेयब्धा ।।५५६॥' गाथार्थ -जो कृष्णादि लेश्याओं से रहित हैं, (पंचपरिवर्तन रूप) संसार से पार हो गये हैं, जो अनन्त सुख को प्राप्त हैं और सिद्धिपुरी को प्राप्त हो गये हैं, उन्हें लेश्या रहित जानना चाहिए ।।५५६॥
विशेषार्थ · कषाय के उदय-स्थान व योग-प्रवृत्ति का अभाव हो जाने के कारण कृष्ण प्रादि छह लेश्याओं से रहित जीव भी होते हैं। ऐसे परम पुरुष परमात्मा हैं। द्रव्य क्षेत्र काल भव भाव इन पत्र प्रकार के परिवर्तन रूप संसार-समुद्र से निकल कर पार हो गये हैं और जो अनन्त अर्थात् जिसका अन्त नहीं है सदा काल एक सा बना रहता है ऐसे स्वाधीन अमुर्तिक सुख को प्राप्त हो गये हैं। सांसारिक सुख इन्द्रियजनित होने से पराधीन है, विषम है, कभी घटता कभी वढ़ता है, बाधा सहित है, बीच में नष्ट हो जाने वाला है, बन्ध का कारग है, इसलिए सांसारिक सुख वास्तव में दुःख रूप ही है। श्री कुन्दकुन्द प्राचार्य ने कहा भी है
सपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विसर्य ।
जं इंदियेहि लद्ध तं सोक्खं दुक्खमेव तथा ॥७६॥[प्रवचनसार] इस मुख से विपरीत लेश्यारहित जीवों का मुख होता है । कहा भी है--
णवि दुक्खं णवि सुक्खं णवि पीडा व बिज्जवे बाहा । वि मरणं गवि जणणं तत्येव य होई णिवाणं ॥१७॥
१. ध. पु.७.५६६-५७०।
२. घ. पू. ७ पृ. ५७० ।
३. घ. पु.१ पृ. ३६०, प्रा. पं. सं.अ.१ गा. १५३।
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गाथा ५५७-५५८
भव्यमार्गणा/६२१
णवि इविय-उयसग्गा वि मोहो विहियो रण लिहाय । गय तिण्हा रोब छ हा तत्थेव य होइ रिणवाणं ॥१७६।।[नियमसार]
–जहाँ न दुःख है. न सोसारिक सुख है, न पीड़ा है, न बाधा है, न मरण है, न जन्म है, न इन्द्रियाँ हैं, न उपसर्ग हैं, न मोह है, न विस्मय है, न निद्रा है. न तृषा है और न क्षुधा है, वही निर्वाणमुख है अथवा लेण्या रहित जीवों का सुख है।
इस प्रकार गोमटमार जीवकाण्ड में लेश्या मार्गणा जाम का पन्द्रहवाँ अधिकार पूर्ण दया ।
१६. भव्यमार्गणाधिकार भविया सिद्धी जेसि जीवारणं ते हवंति भवसिद्धा । तविवरीयाऽभव्या संसाराशे रण सिझंति ।।५५७॥' भठवतरणस्स जोग्गा जे जीवा ते हवंति भवसिद्धा।
प हु मलविगमे रिणयमा ताणं करणगोवलारणमिव ॥५५८॥ गाथार्थ-जिन जीवों की सिद्धि होने वाली हो अथवा जो जीव सिद्धत्व अवस्था पाने के योग्य हों वे भव्य-सिद्ध हैं, किन्तु उनके कनकोएल (स्वर्णपाषाण) के समान मल-नाश होने का नियम नहीं है । भव्य-सिद्ध से विपरीत प्रभव्यसिद्ध हैं जो संसार से कभी नहीं निकलते ।। ५.५७-५५८ ।।
विशेषार्थ-जिसने निर्वाण को पुरस्कृत किया है वह भव्य है । जो आगे सिद्धि को प्राप्त होंगे वे भव्य सिद्ध जीव हैं।
शङ्का-इस प्रकार तो भव्य जीवों की सन्तनि का उच्छेद हो जाएगा?
समाधान-नहीं,क्योंकि भव्य जीव अनन्त हैं। परन्तु जो राशि सान्त होती है उसमें अनन्तपना नहीं बन सकता है, क्योंकि सान्त को अनन्त मानने में विरोध पाता है।
शङ्का जिस राशि का निरन्तर व्यय चालू है. परन्तु उसमें माय नहीं होती है तो उसके अनन्तपना कैसे बन सकता है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि यदि सव्यय और निराय-पायरहित राशि को भी अनन्त न माना जाय तो एक को भी ग्रनन्त मानने का प्रसंग या जाएगा । व्यय होते हुए भी अनन्त का क्षय नहीं होता है। दूसरे, व्यय सहित अनन्त के सर्वथा क्षय मान लेने पर काल का भी मर्वथा क्षय हो जाएगा क्योंकि व्यय सहित होने के प्रति दोनों समान हैं।
१. घबल पु. १ पृ. ३९४ प्रा. प. सं. प्र. १ मा. १५६। २. धवल पु. १ पृ. १५०, पृ. ४५. ४७८; . पं. सं. प्र. १ गा. १५४ । ३. "निरिणपुरस्कृतो भव्यः ।" [ध बल पु. १ पृ. १५०] । ४. "भव्या भविष्यतीति सिद्धिपा ते भब्य सिद्धयः ।" [धवल पु. १ पृ. ३९२] ।
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६२२/गो. सा. जीवकाण्ड
गापा ५५७-५५८ शङ्का-यदि ऐसा ही मान लिया जाय तो क्या हानि है ?
समाधान नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर काल की समस्त पर्यायों के क्षय हो जाने से दूसरे द्रव्यों की स्वलक्षरारूप पर्यायों का भी प्रभाव हो जाएगा और इसलिए समस्त वस्तुओं के अभाव को आपत्ति या जाएगी ।
स्वर्णपाषाण के समान भव्य जीवों के मल का नाश होने में अर्थात् निवारण प्राप्त होने का नियम नहीं है।
शङ्का-मुक्ति को नहीं जाने वाले जीवों के भव्यपना कैसे बन सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि मुक्ति जाने की योग्यता की अपेक्षा उनके भव्य संज्ञा बन जाती है । जितने भी जीव मुक्ति जाने के योग्य होते हैं, वे सब नियम से कलकरहित होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि सर्वथा ऐसा मान लेने पर स्वर्णपाषाण से व्यभिचार पा जाएगा। जिस प्रकार स्वर्णपाषाण में सोना रहते हुए भी उसका खदान से निकलना तथा स्वर्ण का अलग होना निश्चित नहीं है, उसी प्रकार सिद्ध अवस्था की योग्यता रखते हुए भी तदनुकूल सामग्री नहीं मिलने से सिद्धपद की प्राप्ति नहीं होती है। मात्र उपादान की योग्यता से कार्य नहीं होता। कार्य के लिए तदनुकूल बाह्य सामग्री अर्थात् निमित्तों की भी आवश्यकता होती है ।
भव्यों से विपरीत अर्थात् मुक्तिगमन की योग्यता न रखने वाले प्रभव्य जीव होते हैं ।
जीव अनादि सान्त भव्यसिद्धिक होते हैं ॥१८४॥ क्योंकि अनादि स्वरूप से पाये हुए भव्यभाव का अयोगिकेवली के अन्तिम समय में विनाश पाया जाता है।
शंका-प्रभज्यों के समान भी तो भव्य जीव होते हैं, तब भत्य भाव को अनादि-अनन्त क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं, क्योंकि भव्यत्व में अविनाश शक्ति का प्रभाव है। यद्यपि अनादि से अनन्तकाल तक रहनेवाले (नित्य निगोदिया) भव्य जीव हैं तो सही, किन्तु उनमें शक्ति रूप से तो संसार विनापा की सम्भावना है, अविनाशत्व की नहीं ।
जीव सादि सान्त भव्यसिद्धिक भी होते हैं ।।१८५||
शंका--अभव्य भव्यत्व को प्राप्त हो नहीं सकता, क्योंकि भव्य और अभव्य भाव एक दूसरे के अत्यन्ताभाव को धारण करने वाले होने से एक ही जीव में क्रम से भी उनका अस्तित्व मानने में विरोध पाता है। सिद्ध भी भव्य होता नहीं है, क्योंकि जिन जीवों के समस्त कर्मानव नष्ट हो गये हैं उनके पुनः उन कर्मास्रवों की उत्पत्ति मानने में विरोध पाता है। अतः भव्यत्व सादि नहीं हो सकता ?
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१. घबल पु. १ पृ. २६२-२६३ । २. धवल पु. १ पृ. १५ । ३. धवल पु. १ पृ. ३६३-३१४ । ४. "तविपरीत: अमन्यः ।" [धवत पू.१५, ३६४] । ५. “अम्पादिम्रो सपज्जवसिदो ।।१०।" [घवल पु. ७ पृ. १७६ । ६. धवल पु. ७ पृ. १७६। ७. "सादियो सपज्जवसिदो ।। १६५॥" [धवल पु. ७ पृ. १७७] ।
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भव्य मार्गणा / ६२३
समाधान - यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि पर्यायार्थिक नय के अवलम्बन से जब तक सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया तब तक जीव का भव्यत्व अनादि अनन्त रूप है, क्योंकि तब तक उसका संसार अन्तरहित है, किन्तु सम्यक्त्व के ग्रहण कर लेने पर अन्य ही भव्यभाव उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाने पर फिर केवल अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र काल तक ससार में स्थिति रहती है । इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि भव्य जीव सादि सान्त भी होते हैं । "
I
जीव अनादि अनन्त काल तक प्रभव्यसिद्धिक रहते हैं ।। १८७ ॥
गाथा ५५६-५६०
शंका - प्रभव्य भाव जीव की एक व्यंजन पर्याय का नाम है, इसलिए उसका विनाश अवश्य होना चाहिए, नहीं तो अभव्यत्व के द्रव्य होने का प्रसंग आ जाएगा ?
समाधान अभव्यत्व जीव की व्यंजन पर्याय भले ही हो, पर सभी व्यंजन पर्याय का श्रवश्य नाश होना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं (जैसे मेरु आदि), क्योंकि ऐसा मानने पर एकान्तवाद का प्रसंग आ जाएगा। ऐसा भी नहीं है कि जो वस्तु विनष्ट नहीं होती वह द्रव्य ही होनी चाहिए, क्योंकि जिसमें उत्पाद, श्रीव्य और व्यय पाये जाते हैं, उसे द्रव्य स्वीकार किया गया है।
भव्य प्रभव्य भाव से रहित जीवों का स्वरूप
ग य जे भय्याभव्वा मुत्तिसुहालीदणतसंसारा ।
ते जीवा गायव्वा णेव य भव्वा श्रभव्वा य ।। ५५।। *
गाथार्थ - जो भव्य प्रभव्य भाव से रहित हैं, किन्तु जिन्होंने मुक्ति-सुख को प्राप्त कर लिया है। और जो संसारातीत हैं उन जीवों को न भव्य और न अभव्य जानना चाहिए || ५५६॥
विशेषार्थ - सिद्ध जीव भव्य सिद्धिक तो हो नहीं सकते, क्योंकि भव्य भाव का प्रयोगिकेवली के अन्तिम समय में विनाश पाया जाता है ।" सिद्ध अभव्य भी नहीं हो सकते क्योंकि उनमें संसार अविनाश शक्ति का अभाव है। जो संसार का विनाश नहीं कर सकते वे अभव्य सिद्धिक हैं, किन्तु सिद्ध जीवों ने तो संसार का विनाश करके सिद्ध अवस्था प्राप्त कर ली है। इसलिए सिद्ध प्रभव्य भी नहीं हो सकते । सिद्ध जीव न तो भव्य हैं और न अभव्य हैं, क्योंकि उनका स्वरूप भव्य और अभव्य दोनों से विपरीत है
भव्य मागंगा में जीवों की संख्या
प्रवरो जुत्ताणंतो प्रभव्वरासिस्स होदि परिमाणं । तेरण विहीरणो सच्चो संसारी भव्यरासिस्स || ५६० ॥
१. धवल पु. ७ पृ. १७७ । २. प्रणादिनो अपज्जवसिदी ।। १८७ ।। " [ यबल पु. ७ पृ. पु. ७ . १७८ । ४. प्रा. पं. सं. १ मा १५७ पृ. ३३, पृ. ५८२ मा १४८ । अजोगि चरिमसमए विरासुरलंभादो। [ धवल पु. ७ पृ. १७६] । ६. "सिद्धा पुराण र तव्विवरीय सत्तादो ।" [ धवल पु. ७ पृ. २४२]
३. धवल
१७८ ] । ५. "भविय भावस्स भवित्रा ए च प्रभविया,
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६२४ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा- - श्रभव्य राशि का परिमाण जघन्य युक्तानन्त है। सर्व संसारी जीवों में से अभव्य राशि को कम कर देने पर शेष भव्य राशि का प्रमाण है ।। ५६० ॥
विशेषार्थ भव्य सिद्धिक जीव द्रव्य प्रमाण से श्रनन्त हैं। काल की अपेक्षा भव्यसिद्धिक जीव अनन्तानन्त अवसर्पिणी- उत्सर्पिरिणयों से अपहृत नहीं होते । अपहृत न होने का कारण यह है कि यहाँ श्रनन्तानन्त अवसर्पिणी - उत्सपिणियों से केवल प्रतीत काल का ग्रहण किया गया है।" जिस प्रकार लोक में प्रस्थ तीन प्रकार से विभक्त है अनागत, वर्तमान और प्रतीत । उनमें से जो निष्पन्न नहीं हुआ, बहू श्रनागत प्रस्थ है, जो बनाया जा रहा है वह वर्तमान प्रस्थ है और जो निष्पन्न हो चुका है तथा व्यवहार के योग्य है, वह प्रतीत प्रस्थ है। उनमें से प्रतीत प्रस्थ के द्वारा सम्पूर्ण बीज मापे जाते हैं । इससे सम्बन्धित गाथा इस प्रकार है-
पत्थ तिहा विहतो प्रणामवो वट्टमाण तीवो य । एवेसु वीरेण दु मिज्जिदे सम्म बीजं तु ॥
गाया ५५६-५६०
इसका अर्थ ऊपर कहा जा चुका है। उसी प्रकार काल भी तीन प्रकार का है अनागत, वर्तमान और प्रतीत | उनमें से अतीत काल के द्वारा सम्पूर्ण जीवराशि का प्रमाण जाना जाता है।" इस सम्बन्ध में उपसंहार रूप गाथा
कालो तिहा विहलो अपागदो वट्टमाणतीदो य । एवेसु प्रवीण दु मिज्जिदे जीवरासी तु ॥
काल तीन प्रकार का है, अनागत काल, वर्तमानकाल और अतीत काल । उनमें से प्रतीत काल के द्वारा सम्पूर्ण जीवराशि का प्रमाण जाना जाता है। इसलिए भव्य जीवराशि का प्रमाण समाप्त नहीं होता, परन्तु अतीत काल के सम्पूर्ण समय समाप्त हो जाते हैं।
शंका- प्रतीत काल की अपेक्षा भव्य जीवों का प्रमाण कैसे निकाला जाता है ?
समाधान - एक और अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों को स्थापित करना चाहिए और दूसरी ओर भव्य जीवराशि को स्थापित करना चाहिए। फिर काल के समयों में से एक-एक समय और उसी के साथ भव्य जीवराशि के प्रमाण में से एक-एक जीव कम करते जाना चाहिए। इस प्रकार उत्तरोत्तर काल के समय और जीवराशि के प्रमाण को कम करते हुए चले जाने पर अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के सब समय समाप्त हो जाते हैं, परन्तु भव्य जीवराशि का प्रमाण समाप्त नहीं होता । *
अभव्यसिद्धिक द्रव्यप्रमाण से अनन्त हैं । यहाँ अनन्त से जघन्ययुक्तानन्त का ग्रहण करना चाहिए क्योंकि इसी प्रकार ग्राचार्यपरम्परागत उपदेश है ।
१. बबल पु. ७ पृ. २६४-२६५ । २. धवल पु. ३ पृ. २६ । ३. घवल पु. ३ पृ. २९-३० । ४. धवल पु. ३ पृ. २५
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गाथा ५६१
सम्यक्त्वमागंगा/६२५ शंका - व्यय के न होने से व्युच्छित्ति को प्राप्त न होने वाली प्रभध्य राशि की 'अनन्त' यह संज्ञा कैसे सम्भव है ?
समाधान नहीं, क्योंकि अनन्तरूप केवलज्ञान के ही विषय में अवस्थित संख्यानों के उपचार से अनन्तपना मानने में कोई विरोध नहीं पाता ।'
जावदियं पच्चपखं जुगवं सुवमोहिकेवलारण हो । तावदियं संखेज्जमसंखमणतं कमा जारणे ॥५२॥
जितने विषयों को भूतान युगपत् प्रत्तानता है वा माना है। जितने विषयों को अवधिज्ञान युगपत् प्रत्यक्ष जानता है, वह असंख्यात है। तथा जितने विषयों को केवलज्ञान युगपत् प्रत्यक्ष जानता है वह अनन्त है। जो विषय श्रुतज्ञान से बाहर हो किन्तु अवधिज्ञान का विषय हो वह असंख्यात है। जो विषय अवधिज्ञान से बाह्य हो, किन्तु मात्र केवलज्ञान का विषय हो वह अनन्त है। इस परिभाषा के अनुसार 'अर्धपुद्गल परिवर्तन काल' भी अनन्त है, क्योंकि वह अवधिज्ञान के विषय से बाहर है, किन्तु वह परमार्थ अनन्त नहीं है, क्योंकि अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल व्यय होते-होते अन्त को प्राप्त हो जाता है अर्थात् समाप्त हो जाता है। आय के बिना व्यय होते रहने पर भी जिस राशि का अन्त न हो वह राशि अक्षय अनन्त या परमार्थ अनन्त है।'
इस प्रकार गोम्मटमार जीवकाण्ड में भव्य मार्गणा नामक मोलहवां अधिकार पूर्ण हुमा ।
१७. सम्यक्त्वमार्गणाधिकार
सम्यक्त्व का लक्षण छप्पंचगवविहाणं प्रत्याणं जिरणवरोवइट्ठाणं ।
प्रारणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥५६१॥' गाथार्थ जिनेन्द्र के उपदिष्ट छह द्रव्य, पंचास्तिकाय और नब प्रकार के पदार्थों का प्राज्ञा अथवा अधिगम से श्रद्धान करना सम्यक्त्व है ।।५६१।।
विशेषार्थ-वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशक ऐसे जिनेन्द्र के द्वारा छह द्रव्य आदि का उपदेश दिया गया है, उसका उसी रूप से श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। जो रागी-द्वेषी होता है वह यथार्थ वक्ता नहीं हो सकता, क्योंकि वह जिससे राग होगा उसके अनुकूल और जिससे द्वेष होगा उसके प्रतिकूल कथन करेगा। इसलिए यथार्थ वक्तव्य के लिए बीतराग होना अत्यन्त आवश्यक है । जिसे सर्व पदार्थों का ज्ञान नहीं है, वह भी यथार्थ वक्ता नहीं हो सकता क्योंकि अज्ञानता के कारण अयथार्थ कहा जाना सम्भव है। आत्मा अर्थात जीव का हित मुख है ।
३. त्रिलोकसार.४६४. धवल पू.१.१५२,
१. अवलप.७५.२६५-२६६. २. त्रिलोकसार । ३६५, . ४. ३१५, प्रा. पं. सं. अ.१ गा.१५६ ।
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६२६. गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५६१
दुःखाद्विभेषि नितरामभिवाञ्छसि सुखमतोऽहमप्यात्मन् ।
दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ॥२॥ [प्रात्मानुशासन] - हे पात्मन् ! तु दु:खों से अत्यन्त भयभीत होता है और सब प्रकार से सूख की कामना कारता है अतः मैं भी दुःखहारी और सुखकार ऐगे तेरे अभीप्सित अर्थ (प्रयोजन) का ही उपदेश करता हूँ।
"सर्वः प्रेप्सति सत्सुरवाप्तिमचिरात् सा सर्वकर्मक्षयात् ।"[मात्मानुशासन श्लोक ह] -सर्व जीव गुख की शीघ्र-प्राप्ति की इच्छा करते हैं । सुख की प्राप्ति सर्बकर्म के क्षय से होती है अर्थात् मोक्ष में होती है, क्योंकि मोक्षसुख स्वाधीन और निराकुल है। जिस उपदेश में कर्मक्षय (मोक्ष) और कर्मक्षय के कारणों (मोक्षमार्ग) का कथन हो वही उपदेश हितोपदेश है। जिनेन्द्र ने मोक्ष अवस्था व मोक्षमार्ग इन दोनों पर्यायों सम्बन्धी उपदेश दिया है अतः जिनेन्द्र हितोपदेशक हैं।
इस प्रकार जिनेन्द्र वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशक होने के कारण यथार्थ वक्ता हैं अत: उनके द्वारा उपदिष्ट जीव, पुदगल, धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य, प्राकाश और काल ये छह द्रव्य भी यथार्थ हैं । काल के अतिरिक्त जीव दगल, धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य और आकाश ये पांचों बहप्रदेशी हो और सत् रूप होने से ये पांचों अस्निकाय है। जीव, मजीन, प्रसन, मान, संवर, निगमोक्ष, पुण्य और पाप इन नव पदार्थों का भी जिनेन्द्र ने उपदेश दिया है। जिस प्रकार जिनेन्द्र ने इन छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय और नव पदार्थ का कथन किया है, जिस रूप से कथन किया है उसी रूप से श्रद्धान करना सम्यक्त्व है । तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। प्राप्त, यागम और पदार्थ ये तत्त्वार्थ हैं और इनके विषय में श्रद्धान अर्थात् अनुरक्ति सम्यग्दर्शन है।' तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन है अथवा तत्त्व में रुचि होना सम्यक्त्व है । अथवा प्रशम, संवेग अनुकम्पा और आस्तिक्य की अभिव्यक्ति ही जिसका लक्षण है वह सम्यक्त्व है। वह सम्यक्त्व दो प्रकार से होता है। आज्ञा के द्वारा श्रद्धान करना अथवा अधिगम के द्वारा थद्धान करना। सर्व प्रथम प्राज्ञा सम्यक्त्व का लक्षण इस प्रकार है
"प्राशासम्यक्त्वमुक्त यदुत विधितं वीतरागाशयय ।" पूर्वार्थश्लोक १२॥'
वीतराग की आज्ञा ही करि जो श्रद्धान होई सो प्राज्ञा सम्यक्त्य है ।
पंचस्थिया य छज्जीवरिणकायकालदम्बमष्णेया । मारणागेज्झे भावे पारगाविधएष विपिणादि ॥३६६ मूलाचार]
-..पाँच अस्तिकाय, छह जीब निकाय, काल द्रव्य व अन्य पदार्थ मात्र आज्ञा से ही ग्राह्य हैं, उनका जो आज्ञा के विचार से श्रद्धान करता है, वह अाज्ञा सम्बष्टि है।
१. "तत्वार्थश्रद्धाने सम्यग्दर्शनम् । अस्य ग मनिकोच्यने प्राप्तागमपदार्थस्तत्त्वार्थस्तेषु श्रद्धानमनुरक्तता सम्यग्दर्शन मितिलक्ष्यनिर्देशः ।' [ एवल पु. १ पृ. १५१] । २. "तत्वार्थश्रद्धानं सम्पग्दर्शनम् प्रयवा तत्त्वरुचिः सम्यवत्वम् प्रथाप्रशम संवेगानुकम्पारितक्याभिव्यक्ति लक्षणं सम्पफ्त्वम् ।" (धवल पु. ७ पृ.७] । ३. प्रात्मानुशासन ।
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गापा ५६१
सम्यक्त्वमागंगा/६९७
जो ण बिजाणदि तच्चं सो जिणवयणे करेदि सहहणं । जं जिणवरेहि भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि ॥३२४॥
[स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा] —जो तत्वों को नहीं जानता किन्तु जिनवचन में श्रद्धान करता है, जो जिनधर ने कहा है उस सव की मैं इच्छा (पसंद) करता है. ऐसा मानने वाला भी आज्ञा सम्यक्त्वी है ।
शङ्का-तत्त्वों को क्यों नहीं जानता ? ____समाधान -- ज्ञानाबरण आदि कर्म के प्रबल उदय के कारण जिनेन्द्र के द्वारा कहे गये जीवादि वस्तु को नहीं जानता है।'
"प्रधिगमोऽर्यावबोधः ।"२ पदार्थ का ज्ञान 'अधिगम' है ।
यद्यपि दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय या क्षयोपशम कप अंतरंग कारण दोनों सम्यक्त्व में समान है किन्तु बाह्य निमित्त में अन्तर है। बाह्य उपदेशपूर्वक जीयादि पदार्थों के ज्ञान के निमित्त से जो सम्यग्दर्शन होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है।'
अथवा, यह गाथा सूत्र 'ताल-प्रलम्ब' सूत्र के समान देणामर्शक होने से सम्यग्दर्शन के दस भेदों का सूचक है । ये दस भेद वाह्य निमितों की अपेक्षा से हैं
प्राज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात सूत्रयोजसंक्षेपात् । विस्तारार्थाभ्यां भवमपरमावादिगाढे च ॥११॥ [श्रात्मानुशासन]
- ग्राज्ञा से उत्पन्न, मार्ग से उत्पन्न, उपदेश से उत्पन्न, सूत्र से उत्पन्न, बीज से उत्पन्न, संक्षेप से उत्पन्न, विस्तार से उत्पन्न, अर्थ से उत्पन्न सम्यग्दर्शन, ये आठ भेद बाह्य निमित्तों से उत्पन्न होने की अपेक्षा हैं। प्रवगाढ़ और परमावगाढ़ ये दो भेद ज्ञान की सहचरता के कारण श्रद्धान की अपेक्षा से हैं।
शङ्का-क्षायिक सम्यग्दर्शन परमावगाढ़ है, व उपशम ब क्षयोपणम अवगाह सम्यवत्व हैं ?
समाधान - अंग और अंगबाह्य प्रवचन (शास्त्र) के अवगाहन से जो श्रद्धा उत्पन्न होती है वह अवगाढ़ दृष्टि है और केवलज्ञान में समस्त पदार्थों के प्रत्यक्ष झलकने से जो श्रद्धा होती है वह परमावगाढ़ दृष्टि है । छपरथों के परमात्रगाढ़ सम्यक्त्व नहीं हो सकता। कहा भी है
"दृष्टिः सानाङ्गबाह्यप्रवचनमवगाहोस्थिता यावगाहा । कंवल्या-लोकितार्थे रुधिरिह परमायादिगाढेति सदा ॥२४॥"
[प्रात्मानुशासन ]
१. " पुमान तर जिनोदितं जीवादिवस्तु ज्ञानाबरगणादिकर्मप्रबलोदयात् न विजानाति न च ग्रेति ।" [स्वामिकार्तिकेया प्रेक्षा गा. ३२४ पर श्री शुभचन्द्राचार्य बिरचित टीका] । २. स. सि. १/३। ३. स. सि. १/३ ।
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६२०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५६२
इस पार्ष वाक्य से सिद्ध है कि श्रुतकेवली या केवली के अतिरिक्त अन्य जीवों के क्षायिक सम्यक्त्व तो हो सकता है किन्तु अवगाढ़ या परमावगाढ़ सम्यक्त्व नहीं हो सकता।
तत्त्वार्थसूत्र मोक्षशास्त्र में "तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥१॥३॥” इस सूत्र के द्वारा 'सम्यग्दर्शन निसर्ग से और अधिगम से उत्पन्न होता है ।' ऐसा कहा गया है।
जो बाह्य उपदेश के बिना होता है वह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन है और जो बाह्य उपदेश पूर्वक होता है, वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है । इस प्रकार बाह्य निमित्तों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के नाना भंद हो जाते हैं। दस प्रकार के सम्यग्दर्शन में से प्राज्ञा, अवगाढ़ और परमावगाढ़ सम्यक्त्व का स्वरूप कहा जा चुका है। शेष सात का स्वरूप इस प्रकार है - दूसरा मार्ग सम्यग्दर्शन है-इस में रत्नत्रय मोक्षमार्ग को कल्याणकारी समझ कर उस पर श्रद्धान करता है । प्रथमानुयोग में वरिंगत तीर्थकर आदि महापुरुषों के चरित्र को सुन कर श्रद्धान करना तीसरा उपदेश सम्यग्दर्शन है। चरणानुयोग में वरिणत मुनियों के चारित्र को सुन कर तत्त्वरुचि का होना चौथा सूत्र सम्यग्दर्शन है। करणानुयोग से सम्बद्ध गणित प्रादि की प्रधानता से दुर्गम तत्त्वों का ज्ञान बीजपदों के निमित्त से प्रारत करके तत्त्वार्थ श्रद्धान करना पांचों बीज सम्यग्दर्शन है । द्रव्यानुयोग में तर्क की प्रधानता से गित जीवादि पदार्थों को संक्षेप में जानकर तत्त्वरुचि का होना छठा संक्षेप सम्यग्दर्शन है। द्वादशांग श्रुत को सुन कर तत्त्व श्रद्धान होना सातवां विस्तार सम्यग्दर्शन है। विशिष्ट क्षयोपशम से सम्पन्न जीव के श्रुत के सुने बिना हो उसमें प्ररूपित किसी अर्थविशेष से तत्त्वश्रद्धान होना पाठवाँ अर्थ सम्यग्दर्शन है।
छह द्रव्य सम्बन्धी अधिकारों के नाम
छद्दन्वेसु य रणाम उवलक्खणुवाय प्रत्थरणे कालो । प्रत्थरण खेत्तं संखाठारणसरूवं फलं च हवे ॥५६२॥
गाथार्थ - छह द्रव्यों के निरूपण में सात अधिकार हैं। वे ये हैं—१. नाम, २. उपलक्षरणानुवाद, ३. स्थिति, ४. क्षेत्र, ५. संख्या, ६. स्थान-स्वरूप, ७. फल ।।५६२।।
विशेषार्थ छहों द्रव्यों के नामनिर्देश व भेद का कथन, नाम अधिकार है। जिसमें छहों द्रव्यों के लक्षणों का कथन है, वह उपलक्षणानुवाद अधिकार है । जिसमें पर्याय व द्रव्य की अपेक्षा स्थिति का. कथन हो वह स्थिति अधिकार है। द्रव्य जितने क्षेत्र को व्याप्त कर रहता है वह क्षेत्र अधिकार है। जिसमें द्रव्यों की संख्या का वर्णन हो वह संख्या अधिकार है। जिसमें द्रव्यप्रदेशों के चल व अचल या चलाचल का कथन हो वह स्थान स्वरूप अधिकार है। जिसमें द्रव्यों के उपकार का कथन हो वह फल अधिकार है। इन सात अधिकारों द्वारा जीवादि द्रव्यों का विस्तारपूर्वक कथन किया जाएगा जिससे द्रव्य सम्बन्धी विशेष ज्ञान होकर सम्यग्दर्शन निर्मल हो जाये।
१. “य बायोपदेशाद्ने प्रादुर्भवति नन्न सगिकम् । यल्परोपदेशपूर्वक जीवाद्यधिगमनिमित्तं तदुत्तरम् । " [म. सि.
३] । २. प्रात्मानुशासन श्लोक १२, १३, १४ की संस्कृत टीका के आधार से ।
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गाथा ५६३-५६४
नाम अधिकार ( प्रथम अधिकार) का कथन
जीवाजीवं दध्यं रूवारूवित्ति होदि पत्तेयं ।
संसारत्था ख्वा
अज्जीवेसु य रूवी पुग्गलदन्वारिण धम्म आगासं कालोवि य चत्तारि प्ररूविणो
सम्यक्त्वमारा / ६२९
कम्मferent श्रवगया ॥ ५६३॥
इवरोषि । होंति ।। ५६४ ।।
गाथार्थ - द्रव्य दो प्रकार का है जीव द्रव्य और प्रजीव द्रव्य । इनमें से प्रत्येक रूपी और ग्ररूपी दो-दो प्रकार के हैं । संसारस्थित जीव (संसारी जीव ) रूपी है। कर्म से विमुक्त (सिद्ध) जीव अरूपी है ।। २६३ ।। अजीव द्रव्य में पुद्गल रूपी है, धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, श्राकाश द्रव्य और काल द्रव्य ये चार रूपी हैं ॥५६४।।
विशेषार्थ मूर्त और रूप एकार्थवाची हैं । ( रूपं मूर्तिरित्यर्थः स. सि. ५/५ ) इसी प्रकार अमूर्त व ग्ररूपी एकार्थवाची हैं। 'मूर्तस्य भावो मूर्तत्वं रूपादिमत्त्वम् ॥ १०३ ॥ " | श्रापपद्धति ] । मुर्त के भाव को अर्थात् रूप रस गन्ध स्पर्श युक्तता को भूर्तत्व कहते हैं । प्रमूर्त का भाव अर्थात् रूप रसगन्धस्पर्ण से रहा है। रस गन्ध व का सद्भाव जिराका स्वभाव है वह मूर्त है, स्पर्श रस गन्ध व का प्रभाव जिसका स्वभाव है वह अमूर्त है। जीव यद्यपि स्वभाव से अमूर्त है तथापि पररूप के प्रवेश से ( अनादि द्रव्य कर्म-बन्ध की अपेक्षा से) मुर्त भी है ।"
अवधिज्ञान का विषय रूपी पदार्थ है । * कर्मबन्ध के कारण संसारी जीत्र भी पुद्गल भाव अर्थात् रूपी भाव को प्राप्त हो जाने से अवधिज्ञान का प्रत्यक्ष विषय वन जाता है । "
जीव के प्रदेश अनादिकालीन बन्धन से बद्ध होने के कारण मूर्त हैं, अतः उनका मूर्त शरीर के साथ सम्बन्ध होने में कोई विरोध नहीं पाता है ।
कर्म और नोकर्म के अनादि सम्बन्ध से जीव मूर्तपने को प्राप्त होता है । अनादि कालीन कर्मबन्धन से बद्ध रहने के कारण जीव के संसार अवस्था में अमूर्तत्व का अभाव है।
१. "मूर्तस्य भावो मूर्तत्वं रूपादिमत्त्वम् ॥ १०३॥ श्रमूर्तस्य भावोऽमृतत्वं रूपादिरहितत्वम् ।। १०४॥ श्राप] २. परसगंधव सद्मावस्वभावं मूर्त | स्वरसग्रंथवमिावस्वभाषमभूर्त । स्परसवर्णवत्या मूर्त्या रहितत्वादमूर्ता भवन्ति ।" [ पंचास्तिकाय गा. ९७ टीका ] 1 ३. "अमूर्त स्वरूपेण जीवः पररूया वेणान्मृतपि [पंवास्तिकाय गा. ६७ टीका | बंधं पडि एवं लक्खदो वह तस्स गात्तं । तम्हा प्रमुत्ति भावोऽतो होइ जीवस्स ।" [स.नि. [२७] । ४. "रूपिष्ववचेः " ।।२३।। [त. सू. श्र. १ ] । ५. "कम्मसंबंध वसेर पोलभावमुबयजीवदव्वाणं न पच्चकर्षण परिच्छित्ति कुणइ प्रोहियाणं ।" [जवधत्रल पु. १ पृ. ४३ ] । ६. अनादिबन्धनत्वतो मूर्तानां जीवावयवानां मूर्ते शरीरेण सम्बन्धं प्रति विरोधासिद्धेः " [ घ. १ पृ. २६२ ] । " तस्स मंत्रा भुत्तमात्रमुवगयस्स जीवस्स सभरीरेण सह संबंधस्स विररोहाभावादो ।" [अक्ल पु. १६ पृ. ५१२] । ७. "कम्मलोकम्माणमादि संबंधेगा मुत्तत्तमुगयस्स जीवम्स" | घबल पु. १४ पृ. ४५ ] | "कर्मस्कन्धसम्बन्धतो मूर्तीभूतमात्मान ।" [घवल ५. १ पृ. २५४ ] | ८. श्रणादिबंधाबद्धस्स जीवस्य संभागवस्थाए प्रमुत्तसाभावादो | [म. १५ पृ. ३२ ] |
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६३०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५६३-५६४
अजीव द्रव्य भी रूपी और ग्ररूपी के भेद से दो प्रकार का है । शंकर-जीव और अजीव किसे कहते हैं ?
समाधाम-जीव का लक्षण चेतना है। वह चेतना ज्ञानादि के भेद से अनेक प्रकार की है और उससे विपरीत लक्षण वाला अर्थात अचेतना ललग जिम्का है मह राजीद है.'
अज्जीवो पुरण रपेभो पुग्गलधम्मो प्रधम्म प्रायासं ।
कालो पुग्गलमुत्तो रुवाविगुरणो अमुत्ति सेसा दु ॥१५॥ पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये पाँच अजीब द्रव्य जानने चाहिए । इनमें मप आदि गुरगों का धारक पुद्गल मूर्तिमान है और शेष (धर्म, अधर्म, अाकाश, काल) चार द्रव्य प्रमूर्तिक हैं। पूरण-गलन स्वभाव सहित होने से पुद्गल कहा जाता है। पुद्गल द्रव्य मूर्त है, क्योंकि रूप प्रादि गुणों से सहित है । पुद्गल के अतिरिक्त शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये दारों द्रव्य अमुर्त हैं, क्योंकि इनमें रूपादि गुण नहीं हैं।
प्रागासकालजीवा धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीगा। मुत्तं पुग्गलदध्वं जीवो खलु चेवणो तेसु ॥१७॥ [पंचास्तिकाय]
आकाश, काल, शुद्ध जीव, धर्म और अधर्म ये द्रव्य अमूर्त है । पुद्गल द्रव्य मुनं है। इन सव में जीव ही चेतन है । स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण का सद्भाव जिमका स्वभाव है वह मूर्त है । स्पर्श-रस-गन्धवर्ण का प्रभाव जिसका स्वभाव है वह अमूर्त है। प्रानाश अमूर्त है, काल अमूर्त है, धर्म अमूर्त है, और अधर्म भी अमूर्त है । जीव स्वरूप से अमूर्त है, किन्तु पर रूा आवेश से भून भी है। पुद्गल मूर्त ही है । प्राकाश अचेतन है. धर्म अचेतन है, अधर्म अचेतन है, पुद्गल अचेतन है । जीव ही एक चेतन
पुद्गल रूपी है ।।५।' रूपादि के आकार से परिणमन होने को मूर्ति कहते हैं। जिनके रूप पाया जाता है वे रूपी है अर्थात् मूर्तिमान हैं । अथवा रूप यह गुणविशेष का वाची है वह जिनके पाया जाता है वे रूपी हैं रसादिक रूप के अविनाभावी हैं, इसलिए उनका अन्तर्भाव रूप में हो जाता
पुग्गलदच्वं मुत्तं मुत्तिविरहिया हवंति सेसारिण पूर्वाध गा. ३७ ॥[नियमसार] पुद्गल द्रव्य मूर्त है और शेष द्रव्य अमूर्त हैं।
१."तत्र चेतनालक्षणो जीवः । सा च ज्ञानादिभेदादनेकधा मिद्यते । सद्विपर्यय लक्षणोऽजीवः ।" [स. सि. १।४] २. गद्रव्यसंग्रह । ३. "पूरणगलनस्वभावत्वात्पुद्गल इत्युच्यते । पुद्गलो मूर्त: रूपादिगुरगसहितो यतः रूपादिगुणाभावादमुर्ता भवन्ति गुद्गलाच्छेषाश्चत्वार इति ।" [बृहद् द्रव्यसंग्रह गा. १५ की टोका] ४. "स्पर्शरस गंध वर्ण सद्भाव स्वभाव मूर्त । स्पर्शरसगंधवराभिावस्वभावममूर्त । तत्रामुर्तमाकाशं, प्रमूर्तः कालः, प्रमूर्तः स्वरूप जीव: पररूपावेशान्मुर्तोऽपि, अमूर्ती धर्मः, अमृतोऽधर्म:, मूर्तः पुद्गल एवैक इति । अचेतनम् प्राकाशं, प्रचेतनः काल:, अचेतनो धर्मः, अचेतनोऽधर्मः, अचेतनः पुदगलः, चेतना जीव एवंक इति ।" पं. का. गा. ७ टीका] । ५. त. सू. अ.५। ६. म. शि. ५५ ।
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नामा ५६५-५६७
मम्यक्त्वमार्गा/६३१
उपलक्षणानुवाद उबजोगो वरण चक लक्खरणमिह जीवपोग्गलारणं तु । गदिठारगोग्गह-वसरएकिरियुवयारो दु धम्मचऊ ॥५६॥ गविधागोमहकिरिया जवाण महाराभव हये । धम्मतिये रणहि किरिया मुक्खा पुण साधका होंति ॥५६६॥ जत्तस्स पहं ठत्तस्स पासणं रिणवसगस्स बसवी था । गदिठारगोग्गहकरणे धम्मतियं साधगं होदि ॥५६७।।
गाथार्थ – जीव का लक्षण उपयोग है। पुद्गल का लक्षण वर्णचतुष्क है । धर्मादि चार द्रव्यों का लक्षण गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व और बर्तनाहेतृत्व है।।५६॥ गतित्रिया, स्थितिक्रिया, अवगाहन क्रिया ये तीन क्रिया जीव ब पुद्गलों में ही होती हैं। धर्मादि में ये क्रियाएं नहीं होती किन्तु वे साधक होते हैं ।।५६६॥ पथिक को मार्ग, तिष्ठने वाले (ठहरने वाले) को प्रासन और निवास करने वाले को मकान जिस प्रकार साधक होते हैं, उसी प्रकार गति, स्थिति और अवगाह में धर्मादि तीन द्रव्य साधक होते हैं ॥५६७॥
विशेषार्थ–उपयोग जीव का लक्षण है।" शंका-उपयोग किसे कहते हैं ?
समाधान-जो अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के निमित्तों से होता है और चतन्य का अन्वयी है, चैतन्य को छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता, वह परिणाम उपयोग है। जो चैनन्य गुरण के साथ-साथ अन्वय रूप से परिणमन करे, सो उपयोग है।
1
शंका- अन्तरंग और बहिरंग निमित्त कौन-कौन से हैं ?
समाधान-- ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपणम अन्तरंग निमित्त है। चक्षु आदि इन्द्रियों और प्रदीप आदि बाह्य निमित्त हैं ।
शंका- लक्षण किसे कहते हैं ?
समाधान-परस्पर सम्मिलित वस्तुओं में से जिसके द्वारा किसी वस्तु का पृथक्करण हो वह उसका लक्षण होता है। जैसे सोना और चांदी को मिली हुई डली में पीला रंग, भारीपन अादि उन सोने चांदी का भेदक होता है, उसी प्रकार शरीर और प्रात्मा में बन्ध की दृष्टि से परस्पर एकत्व होने पर भी ज्ञानादि उपयोग उसके भेदक लक्षण होते हैं।
१. " उपयोगो लक्षणम् ।।२।८।।" [त. सू.] २. "उभयनिमितवशादुत्पद्यपानचंतन्यानुविधायी परिगाम: उपयोगः ।" [सर्वार्थमिद्धि । ३. "चैतन्य मनुबिदधात्यन्वयरूपेण परिगामति ।" [पंचास्तिकाय गाथा ४० तात्पर्यवृत्ति टोका
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६३२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५६३-५९४
शंका–उपयोग अस्थिर है अतः वह आत्मा का लक्षण नहीं हो सकता। अस्थिर पदार्थ को लक्षण बनाने पर वही दशा होगी, जैसे किसी ने देवदत्त के घर की पहचान बतलाई कि "जिस पर कोपा बैठा है वह देवदत्त का घर है ।" जब कोपा उड़ जाता है तो देवदत्त के घर की पहचान समाप्त हो जाती है।
समाधान--- नहीं, क्योंकि एक उपयोग-क्षण के नष्ट हो जाने पर भी दूसरा उसका स्थान ले लेता है, कभी भी उपयोग की धारा टूटती नहीं है। पर्यायष्टि से अमुक पदार्थ विषयक उपयोग का नाश होने पर भी द्रव्यपीट से उपयोग सामान्य नाही रहता है। यदि उपयोग का सर्वथा विनाश माना जाय तो उत्तर काल में स्मरण प्रत्यभिज्ञान आदि नहीं हो सकेंगे, क्योंकि स्वयं अनुभूत पदार्थ का स्मरण स्वयं को ही होता है अन्य के द्वारा अनुभूत का अन्य को नहीं। स्मरण के प्रभाव में समस्न लोकव्यवहार का लोप ही हो जाएगा।'
वर्ण चतुष्क अर्थात् स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णा ये चारों पुद्गल के लक्षण हैं ।
शंका- स्पर्श, रस, गन्ध का नामोल्लेख गाथा में क्यों नहीं किया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि स्पर्श-रस-गन्ध, वर्ण के अविनाभावी हैं, इसलिए वर्ण में उनका अन्तर्भाव हो जाता है। अथवा 'चऊ' शब्द के द्वारा उनका ग्रहण हो जाता है।
जो स्पर्श किया जाता है, उसे या स्पर्शनमात्र को स्पर्श कहते हैं। कोमल, कठोर, भारी, हल्का, ठण्डा, गरम, स्निग्ध और रूक्ष के भेद से स्पर्श आठ प्रकार का है। जो स्वाद रूप होता है या स्वाद मात्र को रस कहते हैं। तोता, खट्टा, कडुआ, मीठा और कसैला के भेद से रस पांच प्रकार का है। जो सूघा जाता है या सूचनेमात्र को गन्ध कहते हैं। सुगन्ध और दुर्गन्ध के भेद से बह दो प्रकार ' का है। जिसका कोई वर्ण है या वर्णमात्र को वर्ण कहते हैं। काला, नीला, पीला, सफेद और लाल के भेद से वह पाँच प्रकार का है। ये स्पर्श आदि के मूल भेद हैं। वैसे प्रत्येक के संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं। इस प्रकार ये स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण जिनमें पाये जाते हैं, वे पुद्गल हैं। इनका पुद्गल द्रव्य के साथ सदा सम्बन्ध है ।।
जं इंदिएहि गिझ रूवं-रस-गन्ध-फास-परिणाम। तं त्रिय पुग्गल-दम्ब अणंत-गुण जीवरासीदो ॥२०७।।
[स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा]
--जो रूप रस गन्ध और स्पर्श परिणाम वाला होने के कारण इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करने योग्य होता है, वह सब पुद्गल द्रष्य है। उनकी संख्या जीबराशि से अनन्तगणी है क्योंकि प्रत्येक जीवप्रदेश पर अनन्त पुद्गल वर्गणा स्थित हैं।
१. राजवार्तिक २/८/२१-२२-२३ । २. "स्पर्शरसगन्ध बावन्तः पुद्गलाः ॥२३॥" [त. मू. प्र. ५] । ३. रमाद्यामिति चेतन, तदविनाभावात्तदन्तर्भावः "[स. सि ५/५]४. स सि.५/२३ । ५. "पूदगपदव्यम् इन्द्रियग्राह्य ध्यासगन्यम्पपरिणामत्वात् पृद्गलपर्यायत्वात् ।" [स्वामिवा तिकेयानुप्रेक्षा गा. २०७ की टीका] ।
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गाथा ५६५-५६७
वरसगंधफासा विज्जंते पुग्गलस्स सुहुमायो । पुढबीपरियंसस्स य सदो सो पोलो चित्तो ॥ ४०३
सम्यक्त्वमार्गणा । ६३३
[ प्रवचनसार ज्ञेयतस्याधिकार ]
- सूक्ष्म परमाणु से लेकर महास्वन्ध पृथिवी पर्यन्त पुद्गल के रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चार प्रकार के गुण विद्यमान रहते हैं । इनके सिवाय अक्षर अनक्षर आदि के भेद से विविध प्रकार का जो शब्द है, वह भी पुद्गल है अर्थात् पुद्गल की पर्यात् है ।
गमन करते हुए जीव और पुद्गल की गति में निष्क्रिय धर्म द्रव्य सहकारी कारण होता है, जैसे गमन करते हुए पथिक को मार्ग सहकारी कारण होता है अर्थात् जीव और पुद्गलों की गति में सहकारी होना यह धर्म द्रव्य का उपकार है ।
गड़ परियाण धम्मो पुग्गल जीवारण गमणसहयारी । तोयं जह मच्छाणं श्रच्छंताणेव सो पेई ॥ १७ ॥
[[बृहद् ब्रव्यसंग्रह ] ----क्रियारहित, श्रमूर्त, प्रेरणारहित धर्म द्रव्य गमन करते हुए जीव तथा पुद्गलों को गमन में सहकारी होता है । जैसे- मत्स्य आदि के गमन में जल सहायक कारण होता है ।"
गवि किरियात्ताणं कारणभूवं सयमकज्जं ॥उत्तरार्ध ८४ ॥ [ पंचास्तिकाय ]
यद्यपि धर्म गमन करते हुए जीव और पुद्गलों की तरफ उदासोन है तथापि उनकी गति के लिए सहकारी कारण है । *
"धम्मree गमरणहेतुत्त ।" [ प्रवचनसार गा. ४१ जेयतत्त्वाधिकार ]
-जीव और पुद्गलों के गमन में हेतु (सहायक कारण ) होना धर्म द्रव्य का गुण हैं। *
शंका- धर्मं द्रव्य को निष्क्रिय अर्थात् क्रियारहित कहा गया है। यहाँ क्रिया से क्या अभिप्राय
है ?
समाधान - अंतरंग और बहिरंग निमित्त से द्रव्य का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्राप्त होना किया है।" अथवा प्रदेशान्तर प्राप्ति का हेतु ऐसी जो परिस्पन्द रूप पर्याय वह क्रिया है । " जो इस प्रकार की क्रिया से रहित है वह निष्क्रिय है ।
शंका- यदि धर्मादिक द्रव्य निष्क्रिय है तो उनका उत्पाद नहीं बनता। अतः सब द्रव्य उत्पाद प्रादि तीन रूप होते हैं, इस सिद्धान्त का व्याघात हो जाता है।
१. बृहद्रव्यसंग्रह गा. १४ की टीका । २. "थर्मोपि स्वभावेनैव गतिपरिणत जीवपुद् गलानामुदासीनोपि गतिसहकारिकारणं मवति ।" [पचास्तिकाय गा. ८४ तात्पर्यवृत्ति ] । ३. "गमा शिमित्तं घम्मम् ।" [नियमसार गा. ३०] । ४. “ उभयनिमित्तवशादुद्यमानः पर्यायो द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया । [स.सि. ५ / ७ / ५. "प्रदेशान्तरप्राप्तिहेतुः परिस्पंदनरूपपर्याय: क्रिया ।" [ पंचास्तिकाय गा. ६ समयव्याख्या] ।
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६३४ गो. सा. जीवकाण्ड
गाचा ५६५-५६७
समाधान नहीं, क्योंकि इनमें उत्पाद आदि तीनों अन्य प्रकार से बन जाते हैं । यथा-ये धर्मादि द्रव्य कम से प्रश्न प्रादि की गति, स्थिति और अवगाहम में कारण हैं। चूकि इन गति मादिक में क्षणक्षरण में अन्तर पड़ता है इसलिए इनके कारण भी भिन्न-भिन्न होने चाहिए. इस प्रकार इन धर्मादि तीन (धर्म, अधर्म, प्राकाश) द्रव्यों में पर-प्रत्यय की अपेक्षा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य बन जाते हैं।
शंका--धर्मादिक द्रव्य निष्क्रिय हैं तो ये जीव और पुद्गल की गति आदिव के कारण नहीं हो सकते, क्योंकि जलादिक क्रियावान होकर ही मछली आदि की गति ग्रादि में निमित्त देखे जाते हैं, अन्यथा नहीं?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि चक्ष इन्द्रिय के समान ये बलाधान निमित्तमात्र हैं। जैसे चक्ष इन्द्रिय प के ग्रहण करने में निमित्त मात्र है, इसलिए जिसका मन व्याक्षिात है उसके चक्ष इन्द्रिय के रहते हुए भी एप का ग्रहण नहीं होता। उसी प्रकार प्रकृत में समझ लेना चाहिए । इस प्रकार धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य को निष्क्रिय मान लेने पर जीव व पुद्गल की क्रिया में ये सहकारी कारण होते हैं।'
जिस प्रकार धर्म द्रब्य जीव पुदगलों की गति में सहकारी कारण है उसी प्रकार जीव और पुद्गलों की स्थिति में अधर्म द्रव्य सहकारी कारण है। जैसे-पासन स्थिति में सहकारी कारण
ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजोधारण ठाणसहयारी। छाया जह पहियाणं गच्छंता व सो धरई ।।१८।। [वृहद्रव्यसंग्रह]
-लोक व्यवहार में जैसे छाया अथवा पृथिवी ठहरते हुए यात्रियों आदि को ठहरने में सहकारी होती है उसी तरह स्वयं ठहरते हुए जीव-पुद्गलों को ठहरने में अधर्म द्रव्य सहकारी कारण होता है किन्तु गमन करते हुए जीय-पुद्गलों को अधर्म द्रव्य नहीं ठहराता ।
जह हदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वमधमक्खं । ठिदिकिरिया जुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ॥५६॥ [पंचास्तिकाय]
-जैसा धर्म द्रव्य है, वैसा ही अधर्म द्रव्य है, जो पृथिवी के समान, स्थिति प्रिया करते हुए जीव-पुद्गलों को निमित्त कारण होता है। जैसे पृथिवी स्वयं पहले से ठहरी हुई दूसरों को न ठहराती हुई घोड़े प्रादिकों के ठहरने में वाहरी सहकारी कारण है, वैसे स्वयं पहले से ठहरा हुआ अधर्म द्रव्य जीव-पुद्गलों वो न ठहराता हुआ उनवे ठहरने में सहकारी कारण होता है।
गति और स्थिति में निमित्त होना यह क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है। 3
शङ्का-उपकार क्या है ?
--.
३. "गतिम्थित्युपग्रही थर्माधर्मयोप
१, मर्वार्थसिद्धि ५/७। २. पंचास्तिकाच गा. ८६ की टीका। कारः ।।५:१७।" [त. भू.] ।
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गाथा ५६५-५६७
सम्पत्वमागंगा, ६३५
समाधान -- गति उपग्रह और स्थिति उपग्रह (गति में निमित्त होना और स्थिति में निमित्त होना) यही उपकार है।
शंका--धर्म और अधर्म द्रव्य का जो उपकार उसे आकाश का मान लेना युक्त है, क्योंकि अाकाश सर्वगत है ?
समाधान—यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि ग्राकाश का अन्य उपकार है । सब द्रव्यों को अवगाहन देना आकाश का प्रयोजन है ।' जिस प्रकार प्राकाश अवगाह हेतु है उसी प्रकार यदि गतिस्थिति हेतु भी हो तो सर्वोत्कृष्ट स्वाभाविक उर्ध्व गति से परिणत सिद्ध भगवान, बहिरंग-अंतरंग साधन रूप सामग्री होने पर भी, क्यों लोकाकाश के अन्त में स्थिर हों। चूकि सिद्ध भगवान गमन करके लोक के ऊपर स्थिर होते हैं अतः गति-स्थिति-हेतुत्व आकाश में नहीं है, ऐसा निश्चय है । लोक और अलोक का विभाग करने बाले धर्म तथा अधर्म द्रव्य ही गति तथा स्थिति के हेतु हैं। प्राकाश गति-स्थिति का हेतु नहीं है, क्योंकि लोक और अलोक की सीमा की व्यवस्था इसी प्रकार बन सकती है। यदि आकाश को ही गति-स्थिति का निमित्त माना जावे, तो आकाश का सद्भाव सर्वत्र होने के कारण जीव-पुद्गलों की गति-स्थिति की कोई सीमा न रहने से प्रतिक्षण प्रलोक की हानि होगी तथा पूर्व-पूर्व व्यवस्थित लोक का अन्त उत्तरोत्तर वृद्धि होने से टुट जाएगा, इसलिए आकाश गति-स्थिति हेतु नहीं है। धर्म और अधर्म ही गति स्थिति के कारण हैं, प्राकाश नहीं।'
मागास प्रवगासं गमणदिदि कारणेहि देदि जदि । उड्द गविप्पधारणा सिद्धा चिट्ठति किष तरथ ॥२॥ ममा उयरिद्वारणं सिद्धारणं जिबरेहिं पण्णसं । तम्हा गमगढाणं प्रायासे जाण गस्थित्ति ।।६३॥ जदि हवदि गमणहेतू प्रागासं ठाणकारणं तेसि । पसजदि प्रालोगहारणी लोगस्त य अंत परिबुड्ढी ॥१४॥ तमा धम्माधम्मा गमणदिदि कारणारिण रणागासं ।
इदि जिएवरेहिं भरिणदं लोगसहावं सुणताणं ।।६५॥' इन गाथानों का भाव ऊपर कहा जा चुका है ।
प्रवगासवाणजोग जीवादीणं वियाए प्रायासं।
जेण्हं लोगागासं अल्लोगागासमिदि विहं ॥१६॥ -जो जीव प्रादि द्रव्यों को अवकाश देने वाला है वह अाकाश द्रव्य है । लोक्राकाश और अलोकाकाश डन भेदों से आकाश दो प्रकार का है।
सव्वेसि जीवाणं सेलारणं तह य पुग्गलाणं च । जं देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि प्रायासं ॥१०॥
१. सर्वार्थ सिद्धि ५/१७ । २. पंचास्तिकाय गा.६२-६५ तक को श्री अमृनचन्दाचार्य कृत टीका । ३. पंचास्तिकाय ! ४. वृहद् द्रत्र्यसंग्रह। ५. पंचास्तिकाय ।
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६३६/मो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५६५-५६७
-लोक में जीवों को और पुद्गलों को और शेष धर्म अधर्म और काल द्रव्यों को जो सम्पूर्ण अवकाश देता है वह आकाश है।
"प्राकाशस्यावगाहः ॥१८॥"' अवकाश देना प्रकाश का उपकार है।
शङ्का अवगाहन स्वभाव बाले जीव और पुद्गल क्रियावान् हैं, इसलिए इनको अवकाशा देना युक्त है, परन्तु धर्मादिक द्रव्य निष्क्रिय और सदा सम्बन्ध वाले हैं इसलिए उनका अवगाह कसे बन सकता है ?
समाधान----नहीं, क्योंकि उपचार से इसकी सिद्धि होती है। जैसे गमन नहीं करने पर भी प्राकाश सर्वगत कहा जाता है, क्योंकि वह सर्वत्र पाया जाता है। इसी प्रकार यद्यपि धर्म और अधर्म द्रव्य में अवगाह रूप क्रिया नहीं पायो जाती तो भी लोकाकाश में वे सर्वत्र व्याप्त हैं अत: वे अबगाही हैं ऐसा उपचार कर लिया जाता है ।
शङ्का--यदि अवकाण देना आकाग का स्वभाव है तो वज्रादिक से लोढ़ा ग्रादिक का पौर भीतादिक से गाय प्रादिक का व्याघात नहीं प्राप्त होता है, किन्तु व्याघात तो देखा जाता है इससे ज्ञात होता है कि अवकाश देना अाकाश का स्वभाव नहीं ठहरता?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बच और लोढ़ा आदिक स्थूल पदार्थ हैंइसलिए उनका मापस में व्याघात होता है, अतः अाकाश का अवकाश देने रूप सामर्थ्य नहीं नष्ट होता । वजादिक स्थूल पदार्थ हैं, इसलिए वे परस्पर अवकाश नहीं देते, यह आकाश का दोष नहीं है । जो पुद्गल सूक्ष्म होते हैं वे परस्पर अबकाश देते हैं।
शङ्कर--- यदि ऐसा है तो अवकाश देना आकाश का असाधारण लक्षण नहीं रहता, क्योंकि दूसरे पदार्थों में भी इसका सद्भाव पाया जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि आकाश द्रव्य सब पदार्थों को अवकाश देने में साधारण कारण है, यही इसका असाधारण लक्षण है, इसलिए कोई दोष नहीं है ।
शङ्का--अलोकाकाश में अवकाशदान रूप स्वभाव नहीं पाया जाता, इससे ज्ञात होता है कि यह आकाश का स्वभाव नहीं है ?
समाधान- नहीं, कोई भी द्रव्य अपने स्वभाव का त्याग नहीं करता है।
शा-यह लोक तो असंख्यातप्रदेशी है। परन्तु इस लोक में अनन्तानन्त जीव हैं उनसे भी अनन्तगुरणे पुद्गल हैं । लोकाकाश के प्रदेशों के प्रमाण भिन्न-भिन्न कालाणु हैं तथा एक धर्म और एक अधर्म द्रव्य है, ये लय किम तरह इस लोक में अवकाश पाते हैं ?
१. लत्त्वार्थमूत्र अध्याय ५। २. सर्वार्थ सिद्धि ५/१८ ।
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गाथा ५६८
सम्यक्त्वमार्गरणा/६३७
समाधान - जैसे एक कोठरी में अनेक दीपकों का प्रकाश व एक गूढ नागरस के गुटके में वह तसा सुवर्ण व ऊँटनी के दूध के भरे एक घट में मधु का भरा घट, व एक तहखाने में जयजयकार शब्द व घंटा आदि वा शब्द विशेष अवगाहना गुरण के कारण अवकाश पाते हैं, वैसे ही असंख्यातप्रदेशी लोक में अनन्तानन्त जीवादि भी अवकाश रा सकते हैं।'
अवगहणं पायासं जीवादीसव्वदव्याणं ॥३०॥[नियमसार] --जो जीवादि समस्त द्रव्यों के अवगाहन का निमित्त है वह पानाश द्रव्य है।
सयलाणं दव्याणं जं दाद सक्कदे हि प्रवगासं । तं आयासं दुविहं लोयालोयाण भएण ॥२१३॥
[स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा] -जो समस्त द्रव्यों को अवकाश देने में समर्थ है वह आकाश द्रव्य है, जो लोक व प्रलोक के भेद से दो प्रकार का है। कालद्रव्य के स्वरूप का विशेष कथन स्वयं ग्रन्थकार प्रागे गाथा ५६. में कर रहे हैं, अत: यहां पर नहीं किया गया ।
काल दूव्य यत्तणहेदू कालो वत्तण गुणमविय दबरिणचयेसु ।
कालाधारेणेव य वट्टति हु सव्यदध्याणि ॥५६८।। गाथार्थ - जिसका वर्तना हेतु है, यह काल है। द्रव्यों में परिवर्तनगुण होते हुए भी काल के आधार से सर्व द्रव्य वर्तते हैं अर्थात् अपनी-अपनी पर्यायों के द्वारा परिणमन करते हैं ।।५६८।।
विशेषार्थ-परिशमन करना प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव है। उस परिणमन में बाह्य निमित्त कारण काल द्रव्य है।
___ जोवादीदवाणं परिवट्टणकारण हव कालो ॥पूर्वार्ध गाथा ३३॥ -~-जीवादिक द्रव्यों में जो प्रनिसमय वर्तना रूप परिणमन होता है उसका निमित्त कारण काल द्रव्य है। छहों द्रव्यों के वर्तन में जो कारण है वह प्रवर्तन लक्षण वाला मुख्य काल है।
सवाणं दध्वारा परिणाम जो करेवि सो काली ॥पूर्वार्ध गाथा २१६॥
-जीव, पुद्गल आदि सब द्रव्यों में परिणमम अर्थात् पर्याय होती है। पर्याय उत्पाद व्यय धौव्य रूम होती है। इन पर्यायों को जो करता है अथवा उतान्न करता है वह निश्चय काल अर्थात् काल द्रव्य है।' इहाँ द्रव्यों के वर्तना का कारण प्रवर्तन लक्षण बाला मूख्य काल है। जो वर्तना लक्षण - . --- १. पचास्ति काय गा, ६० तात्पर्यवृत्तिः टीका । २. नियनमार । ३. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा । ४. "पर्यायं करेदि कारयति उम्पादयतीत्यर्थः स च निश्नयकाल:।" [स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. २१६ की श्री शुभचन्द्राचार्य कुल टीका)। ५. "षड्द्रयाणां वर्तनाकारणं वतयिता प्रवर्तनलक्षण-मूल्यकाल।" [स्वामिकातिकेयानृप्रेक्षा गा. २१६ टीका] ।
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६३८ / गो. सा. जीव काण्ड
वाला है वह परमार्थ ( मुख्य, निश्चय) काल है ।"
णिजन्त 'वर्त' धातु से कर्म या भात्र में 'युद्ध' प्रत्यय करने पर स्त्रीलिंग में वर्तना शब्द बनता है; जिसकी व्युत्पत्ति 'वर्त्यते' या 'वर्तनमात्रम्' होती है । यद्यपि धर्मादिक द्रव्य अपनी नवीन पर्याय उत्पन्न करने में स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी वह पर्याय बाह्य सहकारी कारण के बिना नहीं हो सकती है, इसलिए पर्याय को प्रवतनिवाला काल है, ऐसा मान कर वर्तना काल का उपकार है।
शङ्का - णिजर्थ क्या है ?
समाधान - - द्रव्य की पर्याय बदलती है और उसे बदलाने वाला काल है । प्रत्यय का अर्थ है |
शङ्का -- यदि ऐसा है तो काल क्रियावान् द्रव्य प्राप्त होता है, जैसे शिप्य पढ़ता है और उपाध्याय पढ़ाता है; यहाँ उपाध्याय क्रियावान् द्रव्य है ?
गाथा ५६६
यह यहाँ ि
समाधान- यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि निमित्तमात्र में भी हेतुकर्त्ता रूप व्यपदेश देखा जाता है। जैसे शीत ऋतु में कण्डे की अग्नि पढ़ाती है, यहाँ कण्डे की अग्नि निमित्त मात्र है, उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है।
शंका- वह काल है यह कैसे जाग जाता है ?
समाधान - समयादिक क्रियाविशेषों की और समयादिक के द्वारा होने वाले पाक आदिक के समय, पाक इत्यादिक रूप से अपनी-अपनी रौढ़िक संज्ञा के रहते हुए भी उसमें जो समय-काल श्रदपाककाल इत्यादि रूप से कालसंज्ञा का अध्यारोप होता है, वह उस संज्ञा के निमित्तभूत मुख्य काल के अस्तित्व का ज्ञान कराता है, क्योंकि गौण व्यवहार मुख्य की अपेक्षा रखता है।
धर्मादि मूर्तयों में काल द्रव्य का उपकार किस प्रकार है ? धमाधम्मादी प्रगुरुलहूगं तु छहिं वि वड्ढीहि । हासीहि वि वढतो हायंतो वट्टबे जला ।। ५६६ ।।
गाथार्थ धर्म-अधर्म आदि (शुद्ध) द्रव्यों में अगुरुलघु गुण में छह वृद्धि व छह हानि के द्वारा वृद्धि व हानि रूप वर्तन होता है ।। ५६६।।
१. परमट्टी" [वृहद् अन्य संग्रह गा. २१ टीका ] केयानुअक्षर गा. २१६ की टीका में उद्धृत ।
विशेषार्थ - धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, कालद्रव्य और सिद्धजीव इनमें स्वाभाविक गुरुलघु गुण होता है ।
शंका- धर्म, धर्म, श्राकाश और काल में अगुरुलघुत्व किस प्रकार है ?
२. सर्वार्थसिद्धि ५ / २२
३. स्वामिकालि
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गाथा ५७० ५७१
सभ्यक्त्वमागंरणा / ६३६
समाधान - अनादि पारिणामिक अगुरुलघु गुण के योग से ।
शंका - मुक्त (सिद्ध) जीवों के अनुरुलघुत्व किस प्रकार है ?
समाधान- अनादि कर्म- नोकर्म के सम्बन्ध के कारण जो कर्मोदय कृत गुरुलघु होता था, उससे मुक्त जीव प्रत्यन्त निवृत्त ( रहित ) हो जाने से उनके स्वाभाविक गुरुलघु गुरण का श्राविर्भाव हो जाता है।'
धर्म आदि द्रव्यों में अगुरुलघुगुण के अविभाग प्रतिच्छेदों में छह वृद्धियों द्वारा वृद्धि और यह हानियों द्वारा हानि रूप परिणमन होता है । उस परिणमन में भी मुख्यकाल अर्थात् काल द्रव्य कारण होता है ।" धर्म, अधर्म, आकाश में अगुरुलघुगुण की हानि व वृद्धि से परिणाम होता है । "
काल द्रव्य वर्तन का कारण किस प्रकार होता है
राय परिणमदि सयं सो गय परिणामेइ प्रणमहि । विविपरिगामियाणं हवदि हु कालो सघं हेदु
|| ५७० ॥ *
गाथार्थ - काल द्रव्य स्वयं अन्य रूप परिणमन नहीं करता और न अन्य द्रव्य को अन्य रूप परिमाता है | विविध परिणमन करने वाले द्रव्यों के परिणामन में हेतु (कारण) होता है ।। ५७० ।।
विशेषार्थ संक्रमविधान से काल द्रव्य अपने गुणों के द्वारा अन्य द्रव्य रूप परिणमन नहीं करता और न अन्य द्रव्यों को या उनके गुणों को अपने रूप परिणामाता है । काल द्रव्य हेतुकर्ता होते हुए भी अन्य द्रव्य या अन्य गुण रूप नहीं परिणमता । परिणमन करते हुए नाना प्रकार के द्रव्यों के परिणमन में स्वयं उदासीन निमित्त कारण होता है। जैसे काल द्रव्य उदासीन कारण है वैसे ही धर्मादि द्रव्य भी उदासीन निमित्त हैं । सर्व द्रव्य अपने-अपने परिणामन (परिणमन गुण) से युक्त होने पर भी कालादि ( द्रव्य क्षेत्र काल भाव ) सहकारी द्रव्यों के मिलने पर ही अपनी-अपनी पर्यायों को उत्पन्न करते हैं।
I
-
कालं ग्रस्सिय दध्वं सगसगपज्जायपरिज्ञवं होदि ।
पज्जायावद्वाणं सुद्धाये होदि खगमेत ॥ ५७१ ॥
गाथार्थ - काल के आश्रय से ही द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों से परिरात होता है । पर्याय की स्थिति शुद्धन की अपेक्षा क्षण मात्र होती है ।।५७१ ।।
विशेषार्थ पर्याय से प्रयोजन अर्थ पर्याय से है, क्योंकि पर्याय एक समय मात्र रहती
१. "नादिकर्म-नो कर्म-सत्रन्यानां कर्मोदयकृतमगुरुलघुत्वम्
तदस्यंत विनिवृत्तौ तु स्वाभाविकमाविर्भवति ।"
1 रा. वा. ६ / ११ / १२ / २. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. २१६ की टीका | ३. धर्माधिकाशानामगुरुलघु गुणवृद्धिहानिकृतः ।" [स.सि. ५ / २२ ] । ४. धवल पु. ४ पृ. ३१५, पु. ११७६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. २१७ की टीका । ५. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. २१७ की टीकर |
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६४० / गो. सा. जीवकाण्ड
३
। इस प्रकार
हैं।" और क्षण से प्रयोजन समय से है। शुद्ध नय से अभिप्राय सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय से ऋजुसूत्र तय की अपेक्षा अपनी स्थिति समय साथ होती है। इसकी उत्पत्ति कालद्रव्य के आश्रय से होती है ।
-
गाथा ५७० ५७१
सत्ता रूप स्वभाव वाले जीव के तथैव पुद्गलों के और च शब्द से धर्मं द्रव्य अधर्म द्रव्य और आकाश द्रव्य के परिवर्तन में जो निमित्त कारण हो, वह नियम से काल द्रव्य है ।
शंका- कालद्रव्य के परिणमन में कौन सहकारी कारण है ?
समाधान- काल द्रव्य अपने परिणमन में स्वयं सहकारी कारण है। जिस प्रकार ग्राकाश द्रव्य शेष सत्र द्रव्यों का आधार है और अपना आधार भी श्राप है, इसी प्रकार काल द्रव्य भी अन्य सब द्रव्यों के परिणमन में सहकारी कारण है और अपने परिणमन में भी सहकारी कारण है। * अथवा जैसे दीपक घट पट आदि अन्य पदार्थों का प्रकाशक होने पर भी स्वयं अपने आपका प्रकाशक होता है, उसे प्रकाशित करने के लिए अन्य दीपक यादि की आवश्यकता नहीं हुआ करती, इसी प्रकार से काल द्रव्य भी अन्य जीव पुद्गल आदि द्रव्यों के परिवर्तन का निमित्त कारण होते हुए भी अपने आपका परिवर्तन स्वयं ही करता है, उसके लिए किसी अन्य द्रव्य की प्रावश्कता नहीं पड़तो [घवल पु. ४ पृ. ३२० - ३२१ ] ।
सम्भावसभावाणं जीवाणं तह य पोगालाणं च । परियट्टसंभूयो कालो पियमेस पण्णत्तो ||२३|| [ पंचास्तिकाय ]
शंका- जैसे काल द्रव्य अपना उपादान कारण है और अपने परिणमन का सहकारी कारण है, वैसे ही जीव यादि सब द्रव्य भी अपने उपादान कारण और अपने-अपने परिणमन के सहकारी कारण क्यों नहीं हैं ? उनके परिगमन में काल क्या प्रयोजन ?
शंका सकता है ?
समाधान - ऐसा नहीं है, यदि अपने से भिन्न बहिरंग सहकारी कारण की आवश्यकता न हो तो सब द्रव्यों के साधारण गति, स्थिति, श्रवगाहन के लिए सहकारी कारणभूत धर्म अधर्म व आकाश द्रव्य की भी कोई आवश्यकता नहीं रहेगी । काल का कार्य घड़ी, दिन यादि प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, किन्तु धर्म द्रव्य श्रादि का कार्य तो केवल श्रागम से ही जाना जाता है। यदि काल द्रव्य का प्रभाव माना जाएगा तो धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य व आकाश द्रव्य के प्रभाव का प्रसंग भी उसी प्रकार बाजाएगा और तब जीव तथा पुद्गल ये दो ही द्रव्य रह जायेंगे, जो श्रागमविरुद्ध है ।
लोकाकाश में काल द्रव्य का प्रभाव होने से अलोकाकाण में परिणमन कैसे हो
१. कसमवति पर्यायाभयंते ।" [ पंचास्तिकाय गा. १६ तात्पर्यवृति टीका ] । २. वामेतं तं च समश्रोति।" | गो. जी. गा. ५७३] । ३. "तच वर्तमान समयमात्रं तद्विषयपयममा ग्राह्यमृजुमूत्र” [स.सि. १३३ । । ४. "कालद्रव्यं परेषां द्रव्याणां परिणतिषयत्वेन महकारीकार स्वस्थाषि । " | स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा या. २१० टीका ] । ५. ६. बृहद्रव्यसंग्रह गाथा २२ को टीका ।
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गाथा ५.५२-५७३
सम्यक्त्वमागंगा/६४१
समाधान – जैसे चाक के एक भाग में डंडे की प्रेरणा से सर्व चाक धूमने लगता है, वैसे ही प्राकाश अखण्ड द्रव्य होने से आकाश के एक भाग लोकाकाश में स्थित काल द्रव्य के कारण समस्त प्राकाश में परिणमन होने से कोई वाधा नहीं आती है।'
व्यवहार काल
यवहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जनोत्ति एयहो । ववहारप्रवद्वारगटिदी हु ववहारकालो दु ॥५७२॥ प्रवरा पज्जायठिदी खरणमेत्तं होदि तं च समप्रोत्ति । दोण्हमणूणमदिक्कमकालपमाणं हवे सो दु ।।५७३।।
गाथार्थ-व्यवहार, विकल्प, भेद, पर्याय, ये एकार्थवाची शब्द हैं । व्यवहार का अवस्थान या स्थिति वह व्यवहार काल है ।। ५.७२॥ जघन्य पर्याय स्थिति क्षमा मात्र होती है, वही समय है। दो परमाणुओं के अतिक्रमकाल प्रमाण समय है ।।५७३३॥
विशेषार्थ-जो व्यवहार के योग्य हो वह व्यवहार है। व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय इन शाब्दों का एक ही अर्थ है। भेद से कथन करना या पर्याय की अपेक्षा कथन करना यह सब व्यवहार नय का विषय है । व्यवहार अर्थात् पर्याय का जो अवस्थान अर्थात् स्थिति वह व्यवहार काल है, क्योंकि जो स्थिति है वह काल संज्ञक है। जैसे नाड़ी की जो स्थिति है वह उच्छ्वास नामक व्यवहार काल है । द्रव्यों की जघन्य पर्याय-स्थिति क्षण मात्र होती है और जघन्य स्थितिम क्षण मात्र को ही समय कहते हैं । गमनपरिगत दो परमारणों का परस्पर-अतिक्रम काल प्रमाण ही समय रूप वयवहार काल होता है। एक परमाण का दूसरे परमाणु को व्यतिक्रम करने में जितना काल लगता है, उस काल को समय कहते हैं ।६।।
तत्त्रायोग्य वेग से एक परमाणु के ऊपर की ओर और दूसरे परमाणु के नीचे की ओर जाने वाले इन दो परमाणुनों के शरीर द्वारा स्पर्शन होने में लगने वाला काल समय कहलाता है।"
गभएयपसत्थो परमाणु-मंदगइपवट्ट तो। वीयमरांतरखेतंजावदियं जादि तं समयकालो।।
[स्वा. का. प्र. मा. २२० टीका] - अाकाश के एक प्रदेश पर स्थित एक परमाणु योग्य मन्द गति के द्वारा गमन करके दूसरे अनन्तर प्रदेश पर जितने काल में प्राप्त हो, उतने काल को एक समय कहते हैं ।
१. वृहद्भ्यसंग्रह गा. २२ की टीका । २. म्वा. का. प्र. गा. २२० की टोका। ३. "व्यवहुनु योग्यो व्यवहार: विकल्प: भेद: पर्याय इत्येकार्थः ।।" [स्वा. का. न. गा. २२० टीका] । ४. "स्थितिः कास्नसंज्ञका" हिद द्रव्य संग्रह गा. २१ टीका]। ५. स्वा. का. प्र. गा. २२० टीका। ६. "मणोरण्वंतर व्यतिक्रमकाल: समयः ।" [धवल पु. ४ पृ. ३१८] । ७. "दोगं परमाणूणं सप्पासोग्गवेगेश उडमधो न गल्छताणं सरीरेहि मगोसाफोसणकालो समग्रो गाम ।" [धवल पु. १३ पृ. २६८] ।
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६४२ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५७४- ५७७
शङ्का - ग्राकाश तो अखण्ड द्रव्य है उसमें प्रदेश का कथन उचित नहीं है ?
समाधान- यद्यपि आकाश अखण्ड द्रव्य है तथापि धर्मद्रव्य तथा अधर्मद्रव्य के कारण लोकाकाश, अलोकाकाश ऐसे दो खण्ड श्रनादि काल से हैं । लोकाकाश के भी मनुष्य लोक, तिर्यग्लोक, नरक लोक, स्वर्गं लोक आदि खण्ड पाये जाते हैं। जितने श्राकाश एक पुद्गल परमाणु प्राजाय
वह प्रदेश है । '
शंका- जितने काल में आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में परमाणु गमन करता है उनने काल का नाम संयम है तो परमाणु के चौदह राजू गमन करने पर जितने चौदह राजू आकाश के प्रदेश हैं उतने समय लगने चाहिए, एक समय में चौदह राजू गमन कैसे सम्भव है ?
समाधान - परमाणु एक समय में एक आकाशप्रदेश से दूसरे साथवाले प्रदेश पर गमन करता है । उसको यथायोग्य मन्द गति से गमन करने में एक समय लगता है । यदि परमाणु शीघ्र (तीव्र) गति से गमन करे तो एक समय में चौदह राजू गमन कर सकता है। इसमें दृष्टान्त यह है कि जैसे देवदत्त नामक पुरुष धीमी चाल से सौ योजन सौ दिन में जाता है, वही देवदत्त विद्या के प्रभाव से शीघ्र गति के द्वारा सौ योजन एक दिन में भी जाता है । मन्द गति व शोध गति की अपेक्षा एक समय में एक प्रदेश व चौदह राज गमन में कोई बाधा नहीं आती।
श्रावलि संखसमया संखेज्जावलिसमूहमुस्सासो ।
सत्तुमासा थोबो सत्तत्थोया लवो भरियो ।। ५७४ | ३ अत्तीसद्धलवा नाली बेनालिया मुहुत्तं तु । एगसमयेण होणं भिण्णमुहतं तदो सेसं ।। ५७५ ॥ * farst पक्खो मासो उडु प्रयणं घस्समेवमादी हु 1 संखेज्जासंखेज्जारांताओ होदि यवहारो ।।५७६ ।। * यवहारो पुण काली माणुसखेत्तम्हि जाणिदधो दु । जोइसियाणं चारे यवहारो खलु समालोत्ति ।। ५७७ ॥ *
गाथार्थ - प्रसंख्यात समय की एक आवली होती है । संख्यात ग्रावली का एक उच्छ्वास
( नाड़ी), सात उच्छ्वास का एक स्तोक, सात स्तोक का एक लब होता है || १७४।। साढ़े अड़तीस लबों की एक नाली (घड़ी), दो घड़ी का एक मुहूर्त होता है। एक समय कम मुहूर्त भिन्न
सृ गयखदव्वं च तं च पदे भरण प्रवरावरकारणं जस्स ।। " जितने भाग आजाय उतने क्षेत्र को प्रदेश कहते है । इस प्रदेश के निर्मित ने दूर व का. प्र. ग. २२० की टीका ! | २. बृहद्रव्य संग्रह गा. २२ की टीका । स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. २२० को टीका । ६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
१. "जेसीविखेत्तमेतं अशा रुद्ध आकाश में पुद्गल का एक निकट का व्यवहार होता है | स्वा. २.४.५. धवल पु. ३. ६६ गा. २२१ की टीका ।
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गाथा ५७४-५७७
सम्यक्त्वमार्गमा/६४३
मुहूर्त होता है। इसी प्रकार शेष दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष प्रादि को जानना चाहिए । संपात असंख्यात व प्रनन्त प्रावलियों का व्यवहार काल होता है ॥५७५-५७६।। ज्योतिषी देवों का संचार मानुष क्षेत्र में ही होता है अत: उसी के समान व्यवहार काल जानना चाहिए ।।५७७।।
विशेषार्थ जघन्य-युक्तासंख्यात प्रमाग समयों की एक प्रावली होती है।' समय का कथन गाथा ५७३ में किया जा चुका है।
शंका- जघन्य-युक्तासंस्थात का क्या प्रमारग है ?
समाधान—एक अधिक उत्कृष्ट परीतासंख्यात जघन्य युक्तासंख्यात का प्रमाण है। अथवा जघन्य परीतासंख्यात का विरलन कर प्रत्येक एक अंक पर उसो जघन्यपरीतासंस्थात को देय देकर परस्पर गुमा दो से जमन्या पुस्ता संसपास होता है जो प्रावली सदृश है। इस प्रमाण में से एक कम कर देने पर उत्कृष्ट परीतासंख्यात प्राप्त होता है।
अदरपरितं विरलिय तमेव दाबूरण संगुणिदे ॥ ३६ ॥ प्रवरं जुत्तमसंखं प्रावलिसरिसं तमेव रुजणं ।
परिमिद बरमावलिकिवि दुगवावर विरूव जुत्तवरं ।। ३७ ॥ शंका -जघन्यपरीतासंख्यात का प्रमाण किस प्रकार प्राप्त किया जाय ?
समाधान-इस सम्बन्ध में त्रिलोकसार ग्रन्थ में गाथा १४-१५ और २६ से ३५ गाथा में इस प्रकार कहा गया है
-संख्यात का ज्ञान करने के लिए ग्रनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका ऐसे चार कुण्डों की कल्पना करनी चाहिए। प्रत्येक कुण्ड का व्यास एक लाख योजन और उत्सेध एक हजार योजन है। द्वि प्रादि संख्यात सरसों से अनवस्था कुण्ड को भरना चाहिए। एक बार अनवस्था कुण्ड भर जाय तब एक सरसों शलाकाकुण्ड में डालना चाहिए। तथा अनवस्था कुण्ड के जितने सरसों हैं, उन्हें बुद्धि द्वारा या देव द्वारा ग्रहण कर प्रत्येक एक-एक द्वीप-समुद्र में एक-एक दाना डालते हुए जिस द्वीप या समुद्र पर दाने समाप्त हो जायें, बहाँ से लेकर नीचे के अर्थात् जम्बुद्वीप पर्यन्त पहले के सभी द्वीप-समुद्रों के प्रमाण बराबर दूसरा अनवस्था कुण्ड बनाकर सरसों से भरना चाहिए । दुसरे अनवस्था कुण्ड के लिए प्रथम कुण्ड के सरसों गच्छ हैं। तीसरे अनवस्था कुण्ड के लिए प्रथम और द्वितीय अनवस्था कुण्ड के सरसों गच्छ हैं। इसी प्रकार जो पूर्व-पूर्व के गच्छ हैं, उन-उन के द्वारा उतरोत्तर अनवस्था कुण्डों की सरसों का प्रमाण साधा जाता है। दूसरे अनवस्था कुण्ड को पूर्ण भरकर पुनः एक दुसरी शलाका स्वरूप सरसों शलाका कुण्ड में डालना चाहिए। इसी क्रम से बढ़ते हुए जव शलाका कुण्ड भर जाय तब एक दाना प्रतिशलाका कुण्ड में डालना और शलाकाकुण्ड को खाली करके पूर्वोक्त प्रकार हो पुनः उसे भरकर प्रतिश नाका कुण्ड में दूसरा दाना डालना चाहिए ।
१. "जपन्ययुक्तासंख्यातसमयराशिः पावलिः स्यात् ।" (स्वा. का, अ. मा. २२० टोका); "प्रबरं जुत्तमम आवलिसरिस" (त्रि. सा. गा. ३७)। २. पिलोकसार ।
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६४४ /गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५७४-५७७
इस प्रकार जब प्रतिशलाका कुण्ड भी भर त्रुके तब एक दाना महाशलाका कण्ड में डाला जाएगा । क्रम से भरते हुए जब ये चारों कुण्ड भर जायेंगे तब अन्त में जो अनवस्थित कुण्ड बनेगा उसमें जितने प्रमाण सरसों होंगे, वही जघन्य परीतासंख्यात का प्रमाण होगा। इसमें से एक कम करने पर उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण प्राप्त होता है। इस प्रकार प्राप्त जघन्य युक्तासंख्यात समयों की एक पावली होती है।
वह व्यवहारकाल-समय, आवली, क्षण (स्तोक), लव, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, प्रयन संवत्सर,युग, पूर्व, पर्व, पल्योपम, सागरोपम आदि रूप है।'
जाका-तो फिर इसके 'काल' ऐसा व्यादेश कैसे हुआ?
समाधान - नहीं, क्योंकि जिसके द्वारा कर्म, भय, काय और प्रायु की स्थितियाँ कल्पित या संख्यात की जाती हैं अर्थात् यही जाती हैं, वह काल है। इस प्रकार काल शब्द को व्युत्पत्ति
काल, ममय और प्रडा ये सब एकार्थवाची नाम हैं।
एक परमाणु का दूसरे परमाणु के व्यतिक्रम करने में जितना काल लगता है, वह 'समय' है। असंख्यात समयों को ग्रहण करके एक प्रावली होती है। तत्प्रायोग्य संख्यात प्रावलियों से एक उच्छ्वास-निःश्वास निष्पन्न होता है। सात उच्छ्वासों से एक स्तोक संज्ञिक काल निष्पन्न होता है। सात स्तोकों से एक लव और सादे अड़तीस लवों से एक नाली और दो नालिक से एक मुहूतं होता है ।
उच्छ्यासानां सहस्राणि त्रीणि सप्त शतानि च । त्रिसप्ततिः पुनस्तेषां मुहूतों टेके इष्यते (३७७३) ॥१०॥'
–तीन हजार सात सौ तेहत्तर (३७७३) उच्छवासों का एक मुहुर्त होता है।
अड्ढस्स प्रणलसस्स य णिरुवहवस्स य जिणेहि जंतुस्स । उस्सासो हिस्सासो एगो पाणो त्ति प्राहिदो एसो॥३५॥
-जो सुखी है, बालस्य रहित है और रोगादिक की चिन्ता से मुक्त है, ऐसे प्राणी के श्वासोच्छ्वास को एक प्रारण कहते हैं । ऐसा श्रुतकेवली ने कहा है।
कितने ही प्राचार्य सात सौ बीस प्राणों का एक मुहर्त होता है, ऐसा कहते हैं, परन्तु प्राकृत अर्थात् रोगादि से रहित स्वस्थ मनुष्य के उच्छ्वासों को देखते हुए उन प्राचार्यों का इस प्रकार कथन करना घटित नहीं होता, क्योंकि जो केवलीभाषित अर्थ होने के कारण प्रमाण है, ऐसे इस सूत्र
१. "तसा समय-प्रावलिय-बाप-लय-मुहन-दिवस-पल-मास उडु-प्रयण-संबच्छर-नृग-पृथ्व-पब्ब-पलिदोवमसागरोवमादि-रूवतादो।" | धवल पु. ४ पृ. ३१७]। २. धवल पु. ४१.३१८, पृ.३ पृ. ६५ । ३. धवल पु. ४ पृ. ३१८ । ४. धवल पु. ३ पृ. ६६ ।
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गाथा ५७४-५:१७
सम्यक्त्वमार्गग्गा/६४५
के साथ उक्त कथन का विरोध प्राता है।'
शंका-सूत्र कहने से उक्त कथन में कैसे विरोध प्राता है ?
समाधान-क्योंकि ऊपर कहे गये सात सौ बीम प्राणों को चार से गुणा करके जो गुणनफल प्राप्त हो उसमें सात कम नो सौं (८६३) और मिलाने पर सूत्र में कथित मुहर्त के उच्छ्वासों का प्रमाण होता है, इससे प्रतीत होता है कि उपक महर्त के उच्छ्वासों का प्रमाण सूत्रविरुद्ध है। यदि सात सौ बीस प्राणों का एक मुहूर्त होता है, इस कल्पना को मान लिया जाय नो केवल इक्कीस हजार छह सौ (२१६००) प्राणों के द्वारा ही ज्योतिषियों के द्वारा माने हुए दिन अर्थात् अहोरात्र का प्रमाण होता है, किन्तु यहाँ अागमानुकुल कथन के अनुसार तो एक लाख तेरह हजार और एक सौ नब्बे (११३१६०) उच्छ्वासों के द्वारा एक दिन अर्थात् अहोरात्र होता है ।
मुहर्न में से एक समय निकाल लेने पर शेष काल के प्रमाण को भित्र मुहर्त कहते हैं। उस भिन्नमुहूर्त में से एक समय और निकाल लेने पर मेध काल का प्रमाण अन्तमुहर्त होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक समय कम करते हुए उच्छ्वास के उत्पन्न होने तक एक-एक ममय निकालते जाना चाहिए। वह सब एक-एक समय कम किया हुया कान भी अन्तर्मुहुर्त प्रमाण ही होता है। इसी प्रकार जब तक आवली उत्पन्न नहीं होती है तब तक शेष रहे हए एक उच्छवास में से भी एक-एक समय काल कम करते जाना चाहिए,ऐसा करने पर जो प्रावली उत्पन्न होती है, वह भी अन्तम'हर्त है। तदनन्तर दुसरी प्रावली के असंख्यातवें भाग का उस प्रावली में भाग देने पर जो लब्ध प्रावे वह (पावली का असंख्यातवा भाग) काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है । वह एक समय कम मुहूर्त भिन्न मुहूर्त अर्थात् उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है । उसके आगे दो समय प्रादि कम करते हुए पाबली के असंख्यातवें भाग तक ये सब अन्तर्मुहूर्त है ।
पंचास्तिकाय प्रामृत में व्यवहार काल के निम्नलिखित भेद कहे हैं
समग्रो णिमिसो कदा कला य णाली सदो दिवारत्ती। मास उडु अयणं संवच्छरो त्ति कालो परायत्तो ॥२५॥
-समय, निमिप, काष्ठा, कला, नाली, दिन और रात्रि, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर इत्यादि काल परायत्त है। (अन्य द्रव्यों के परिवर्तनाधीन हैं)।
निमेषाणां सहस्राणि पंच भूयः शतं तया ।
दश चंब निमेषाः स्युर्मुहूर्ते गणिताः बुधः ॥ (५११०) ॥११॥ -विद्वानों के द्वारा एक मुहूर्त में पाँच हजार एक सौ दस निमेष गिने गये हैं ! तीम मुहूर्त का
१. धवल पू.३ पृ. ६६ । २. घबल पु.३ पृ. ६७ । ३. धवल पु. ३ पृ. ६७ । ४. धवल पु ३ पृ. ६८ । ५. "सच एकसमयेन ही तो भिन्नमुहूर्तः उत्कृष्टान्नमुहूर्त इत्यर्थः । ततोऽने द्विसमयोनाद्या पावल्यसंख्यातकभागान्ताः सर्वेऽन्तम हुर्ताः ।" [स्वा. का. अ. गा. २२० टीका], ६. पंचास्तिकाय; धवल पु. ४ पृ. ३१७ । ७. धवल . ४ पृ. ३१८ ।।
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६४६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५७८-५७६
एक दिन अर्थात् अहोरात्र होता है । पन्द्रह दिन का एक पक्ष होता है । दो पक्षों का एका मास होता है। बारह मास का एक वर्ष होता है । पाँच वर्षों का एक युग होता है। इस प्रकार ऊपर-ऊपर भी कल्प उत्पन्न होने तक कहते जाना चाहिए।'
शा-निमिग, काष्ठा, कला इन कालों का क्या प्रमाया है ?
समाधान-आँख की पलक मारने से जो प्रगट हो व जिसमें असंख्यात समय बीत जाते हैं, वह निमिष है। पन्द्रह निमिषों की एक काष्ठा होती है, तीस काष्ठानों की एक कला होती है। कुछ अधिक बीस कला को एक नाली अर्थात् घटिका या घड़ी होती है ।
शङ्का-ऋतु व अयन का क्या प्रमाण है ?
समाधान-दो मास की एक ऋतु होती है। तीन ऋतु का एक अयन होता है। दो अयन का एक वर्ष होता है । इत्यादि पल्योपम, सागर आदि व्यवहार काल जानना चाहिए 13
शङ्का -देवलोक में तो दिन-रात्रिरूप काल का प्रभाव है, फिर वहाँ पर काल का व्यवहार कसे होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि यहां के काल से ही देवलोक में काल का व्यवहार होता है।
शङ्का-मनुष्यलोक में ही कालविभाग (व्यवहार काल) क्यों होता है ?
समाधान - "मेरुप्रदक्षिणानित्यगतयो नलोके ॥१३॥ तत्कृतः कालविभागः ॥१४॥"
सुर्य-चन्द्रमादि ज्योतिषी देव मनुष्य लोक में मेरु की प्रदक्षिणा करने वाले और निरन्तर गतिशील हैं। उनके द्वारा किया हुआ दिन, रात, पक्ष, मास, अयन आदि काल-विभाग होता है। चूकि ज्योतिषी देवों का गमन मनुष्यलोक में ही होता है, अतः मनुष्यलोक में ही व्यवहार झाल का विभाजन होता है ।
प्रकारान्तर से व्यवहारकाल का प्रमारण ववहारो पुरण तिविहो तोदो वट्टतगो भविस्सो दु । तीदो संखेज्जावलिहदसिद्धाणं पमाणं तु ॥५७८॥ समग्रो हु यट्टमारणो जीयादो सन्यपुग्गलादो वि ।
भावी अणंतगुरिणदो इदि ववहारो हवे कालो ॥५७६।। गाथार्थ-भूत-वर्तमान और भविष्यत् के भेद से व्यवहार काल तीन प्रकार का है ।
१. "विशमुहतो दिवसः । पंचदश दिवसाः 'पक्षः । द्वी पक्षी मासः । द्वादशमासं वर्षम् पंचभिवयुगः । एवमुवरि वि वत्तन्त्रं जाव कप्पोति ।"[धवल पु. ४ पृ. ३१८, ३१९-३२०]। २.३, पं. का, गा. २५ तात्पमं वृत्ति टीका । ४. धवल पु. ४ पृ. ३२१ । ५. त. मू. अध्याय ५ ।
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गाथा ५७५ ५७६
सम्यक्त्रमार्गगा ६४७
सिद्धराशि को संख्यात प्रावलियों से गुणा करने पर अतीत का प्रमाण होता है ।। ५७८ || वर्तमान काल समय मात्र है | सर्व जीवों से और समस्त पुद्गलों से अनन्तगुणा भविष्यत् काल है। ये तीनों व्यवहार काल हैं ॥ ५७६ ||
विशेषायं प्रतीत काल, भविष्यत्काल और वर्तमानकाल इस प्रकार व्यवहार काल तीन प्रकार का है। अतीतकाल की पर्यायें तो व्यय को प्राप्त (नाश) हो चुकी हैं। भविष्यत्काल की पर्यायें होंगी, अभी अनुत्पन्न हैं। वर्तमान काल की एक समय मात्र पर्याय विद्यमान है । यद्यपि अतीत, अनागत और वर्तमान की अपेक्षा काल तीन प्रकार का है तथापि गुणस्थिति काल, भवस्थिति काल, कर्मस्थिति काल, कार्यस्थिति काल, उपपादकाल और भावस्थिति काल की अपेक्षा व्यवहार काल छह प्रकार का है । अथवा काल अनेक प्रकार का है, क्योंकि परिणामों से पृथग्भूत काल का प्रभाव है तथा परिणाम अनन्त पाये जाते हैं ।
--
अतीत काल के प्रमाण का कथन करते हुए श्री कुन्दकुन्द प्राचार्य ने भी नियमसार में इसी प्रकार कहा है- " तीवो संखेज्जावलिहसिद्धा माणं तु ।" गा. ३१ उत्तरा ॥ अर्थात् सिद्ध जीवों का जितना प्रमाण है उसको संख्यात मावलियों से गुणित करने पर जो प्राप्त हो उतना अतीत काल है। मिद्धराशि मनन्त है, उससे असंख्यात गुग्गा अतीत काल है, जो प्रनन्त है ।
शंका- प्रतीत काल सिद्धराशि से असंख्यात गुणा क्यों कहा
?
इन
समाधान-गाथा में सिद्धराशि को संख्यात प्रावलियों से गुणा करने पर प्रतीतकाल का प्रमाण प्राप्त होता है, ऐसा कहा है एक आवली में जघन्य युक्तासंख्यात समय होते हैं । युक्तासंस्यात समयों से संख्यात श्रावलियों को गुणित करने पर लब्ध प्रसंख्यात समय प्राप्त होते हैं । अतः समयों की अपेक्षा सिद्धों से श्रसंख्यात गुणा प्रतीत काल है। प्रावली की अपेक्षा सिद्धराशि को संख्यात श्रावलियों से गुणा किया जाता है। कहा भी है
"तश्रातीतः संख्यातावलिगुणित सिद्धरा शिर्भवति ।" [ स्वा. का. अ. गा. २२१ टीका ]
संख्यात प्रावली गुणित सिद्धराशि अतीत काल का प्रमाण है ।
शंका- संख्यात ग्रावलियों से सिद्धराशि को क्यों गुरणा किया ?
समाधान- क्योंकि सिद्धराशि को संख्यात प्रावलियों से गुणा करने पर लब्ध अनन्त आता है जो कि अतीत काल के समयों प्रमाण है। स्पष्टीकरण इस प्रकार है ---
चूंकि ६०८ जीवों को मोक्ष जाने में ६ मास समय व्यतीत हुआ,
६ मास ५ समय
व्यतीत हुआ,
तो एक जीत्र को मोक्ष जाने में
६०८
१. प्रमाद या असावधानीवश लेखक से नियमसार में 'सिद्धाण' के स्थान पर 'सारा' लिखा गया जिसकी परम्परा अब तक चली आ रही है। क्योंकि संस्थान को संख्यात प्रावलियों से गुणा करने पर अतीत काल कर प्रमाण नहीं प्राप्त होता । र च. मुख्तार
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६४८/गो. सा. जीवनात
गापा ५७८-५.७६
६ मास ८ समय १ सिद्ध संख्यातनावलीx सिद्ध अतः बर्तमान सिद्धकोमोक्ष जाने में .-..-------------.-...-.-=अतीत काल
६०८१ (इतना काल व्यतीत हुग्रा)
इससे कम या अधिक अतीत काल हो नहीं सकता क्योंकि ६ मास = समय में ६०८ के मोक्ष जाने का क्रम अतीत काल में सदा नियत रहा है। अत: अतीतकाल का प्रमाण = ६ मास ८ समय सिद्धराशि --- ------ ही सुनिश्चित है और वह संख्यात प्राबलो - सिद्धराशि प्रमित है।
जो वर्तमान एक समय है वही वर्तमान काल है। क्योंकि वर्तमान एक समय से जो पूर्व के समय हैं, वे तो अतीत काल रूप काल है। वर्तमान समय से जो अनागत काल है वह भविष्यत् काल है । प्रतः वर्तमान काल एक समय मात्र है । कहा भी है--
तेस प्रतीदा जंता प्रपंत-गृरिणदाय भावि-पज्जाया। एक्को वि बट्टमाणो एत्तिय-मेत्तो वि सो कालो ॥२२१॥
[स्वा. का. अ.] अतीत काल अनन्त है जो सिद्धराशि गुणित छह पाबली प्रमाण अर्थात जीवराशि के अनन्त भाग प्रमाण है । अनागत (भविष्यत्) काल उससे अनन्त गुणा है, क्योंकि सर्व जीवराशि से अनन्तगुणी पुद्गल राशि, उससे भी अनन्तगुणा काल है । एक समय मात्र वर्तमान काल है इतना व्यवहार काल
शा-अतीत काल जीवराशि के अनन्तवें भाग है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान—सिद्धराशि से असंख्यात गुणा अतीत काल है, किन्तु जोवराशि सिद्धराणि से अनन्त गुणी है । इससे सिद्ध होता है कि अतीत काल जीबराशि के अनन्तवें भाग है ।
शङ्का-जीवराशि से अनन्तगुणी पुद्गल राशि है, उससे भी अनन्तगुणा काल है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान—यह पार्ष वाक्यों से जाना जाता है, जो इस प्रकार है-'सरबजीवरासी वग्गिजमारणा बग्गिज्जमाणा प्रतलोगमेत्तबम्गरणद्वारमाणि उरि गंतुरण सध्य पोग्गलदरवं पावदि । पुणो सयपोग्गलवग्वं यग्गिाजमाणं वग्गिज्जमाणं प्रणतलोगमेसवग्गणढाणाणि उवरि गंतूण सव्वकालं पाववि ।" [धवल पु. १३ पृ. २६२-२६३]
सब जीवराणि का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोकप्रमाण वर्गस्थान आगे जाकर सब पुद्गल द्रव्य प्राप्त होता है । पुनः सब पुद्गल द्रव्य का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोमात्र वर्गस्थान प्रागे जाकर सब काल प्राप्त होता है ।
इस सर्वकाल में से जीवराशि के अनन्तवें भाग प्रमाण अनीत कान्न यो घटा देने पर भविष्यत् काल शेष रह जाता है जो प्रतीत काल, गर्व जीवराशि ब पृद्गल राशि से अनन्त गुणा होता है।
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गाथा ५८०
मम्यक्त्वमार्गगगा/६४९
कालोविय यवएसो सम्भावपरूवो हयदि रिगच्चो ।
उप्पापसी प्रवरी दीहतरदाई ॥५८०।।' गाथार्थ--'काल' यह व्यपदेश निश्चयकाल के सद्भाव का प्ररूपक है और वह निश्चयकालद्रव्य अविनाशी होता है। अवर अर्थात् व्यवहारकाल उत्पन्नध्वंसी है तथा दीर्घान्तर-स्थायी है। अर्थात् दीर्घकाल तक स्थायी है ।।५८०॥
विशेषार्थ-परमार्थकाल अर्थात् निश्चय काल में 'काल' यह संज्ञा मुख्य है और भूत प्रादिक व्यपदेश गौण हैं। तथा व्यवहार काल में भूतादि संज्ञा मुख्य है और काल संज्ञा गौण है, क्योंकि इस प्रकार का व्यवहार क्रिया वाले द्रव्यों की अपेक्षा होता है तथा काल का कार्य है।
पर्याय का लक्षण उत्पन्न व नाश होना है। 'समय' नामक व्यवहारकाल भी उत्पन्न व नष्ट होता है, इसलिए पर्याय है। पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती। कहा भी है
'पज्जयविजुवं दवं दश्वविजुत्ता य पज्जया गस्थि ।
दोहं प्रणरणभूवं भावं समणा पर विति ।।१२॥" [पंचास्तिकाय] - पर्यायों से रहित द्रव्य और द्रव्य रहित पर्याय नहीं होती, दोनों का अनन्य भाव है। इसलिए समय आदि पर्याय रूप व्यवहार काल का द्रव्य निश्चयकाल है। वह व्यवहार काल पल्य, सागर आदि रूप से दीर्घकाल तक स्थायी है अर्थात् रहने वाला है और काल द्रव्य अर्थात् निश्चयकान्य अनादि अनन्त होने से नित्य है, अर्थात् अविनाशी है ।
कालो परिणामभवो परिणामो दख्वकालसंभूरो।
वोह एस सहायो कालो खणभंगुरो रिणयदो ॥२॥[धवल पु. ४ पृ. ३१५] - व्यवहार काल पुद्गलों के परिणमन से उत्पन्न होता है और पुद्गल आदि का परिणमन द्रव्यकाल के द्वारा होता है, दोनों का ऐसा स्वभाव है। वह व्यवहार काल क्षणभंगुर है परन्तु निश्चयकाल नियत अर्थात् अविनाशी है ।
वह निश्चयकाल अर्थात् द्रव्यकाल दो प्रकार के गंध, पाँच प्रकार के रस, पाठ प्रकार के स्पर्श और पाँच प्रकार के वर्ण से रहित है, कुम्भकार के चक्र की अधस्तन शिला या कील के समान है, वर्तना ही जिसका लक्षण है और जो लोकाकाश प्रमाण है अर्थात् जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं उतने ही काल द्रव्य अर्थात् कालाणु हैं । कहा भी है --
वववपणवारसो ववगददोगंध अफासा य । अगुरुलहुगो प्रमुत्तो वट्टलक्खो य कालो ति ॥२४॥ [पंचास्तिकाय]
१. धवल पु. ४ पृ. ३१५ गा, १ । २. स. सि. ५/२२ । ३. "पर्यायस्योत्पन्नप्रज्वसित्वात् । तथा चोक्त समयो उप्पण्या पद्धसी। स च पर्यायो द्रव्य विना न भवति" [वृहद द्रव्य संग्रह गाथा २१ को टीका]1 ४. "केवचिरं कालो ? प्रणादियो अपज्जवसिदो।" [घवल पु. ४ पृ. ३२१]। ५. धवल पु. ४ पृ. ३१४ व ३१५]
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६५०/गो.सा. जीवकाण्ड
गाथा ५८१-५८२
श्यों की स्थिति छदवावद्वारणं सरिसं तियकालअस्थपज्जाये । वेंजणपज्जाये वा मिलिदे ताणं ठिवित्तादो ॥५८१॥' एयदवियम्मि जे प्रस्थपज्जया वियपस्जया चावि । तीदाणागदभूदा तावदियं तं हदि दध्वं ॥५८२॥
गाथार्थ-छहों द्रव्यों का अवस्थान ( स्थिति)समान है, क्योंकि तीनों कालों की अर्थपर्याय और व्यंजनपर्यायों को मिला कर उनकी स्थिति होती है ।।५८१॥ एक द्रव्य में जितनी भूत व भविष्यत् और वर्तमान अर्थ व व्यंजन पर्याय हैं, तत्प्रमाण वह द्रव्य होता है ।। ५.८२।।
विशेषार्थ-छहों द्रव्यों का अवस्थान (स्थिति) समान होती है, क्योंकि छहों द्रव्य अनादि अनन्त हैं। अथवा भूत, भविष्यत् और वर्तमान इन तीनों कालों में जितनी अर्थपर्याय व व्यंजनपर्याय होती हैं उतनी द्रव्यों की स्थिति होती है। इसी के समर्थन में गाथा ५८२ कही गई है।
शा-अर्थपर्याय किसे कहते हैं ?
समाधान--जो पर्याय अत्यन्त सूक्ष्म क्षमा-क्षण में होकर नष्ट होने वाली होती हैं और वचन के अगोचर होती है, वह अर्थ पर्याय है।
शाङ्का-व्यंजनपर्याप्र का क्या लक्षण है ?
समाधान--व्यंजन पर्याय स्थूल होती है, देरतक रहनेवाली, वचनगोचर तथा अल्पज्ञ के रष्टिगोचर भी होती है ।
शङ्का-पर्याय के अर्थपर्याय व व्यंजनपर्याय ऐसे दो भेद क्यों किये गये ?
समाधान - अर्थपर्याय मात्र एक समय रहने वाली है तथा व्यंजन पर्याय चिरकाल रहने वाली है। इस कालकृत भेद को बतलाने के लिए व्यंजनपर्याय व अर्थपर्याय ये दो भेद किये गये हैं।
सुहमा अवायविसया खरखइणो प्रत्थपज्जया दिवा । वंजणपज्जाय पुरण थूला गिरगोयरा चिरविवस्था ॥२५॥
[वसुनन्वि श्रावकाचार]
१. स्वा. का. अ. गा. २२० टीका। २. धवल पु. १ पृ. ३८६, पु. ३ पृ. ६ । ३. "तत्रार्थपर्याया सूक्ष्माः अगाक्षयिणस्तथावाग्गोचरा विषया भवन्ति ।" पं. का मा. १६ तात्पर्य वृत्ति टीका1४. "न्यजनसमाः पुनः स्थुलात्तिरकालस्थायिनो वाग्गोचराएछस्थ रस्टिविषयाश्च भवन्ति ।". पं. का. गा. १६ तात्पर्यवसि टीका] । ५. "एकसमयतिनोऽर्थपर्याया भयंते चिरकालस्थापिनो व्यंजनपर्याया मण्यते इति काल कृतभेदकापनार्थ ।" [पं. का, गा. १६ टीका] 1
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गाथा ५८३-५६५
सम्यक्रमागंगा/६५१
-अर्थपर्याय सूक्ष्म है, ज्ञान का विषय है, शब्दों से नहीं कही जा सकती और क्षण-क्षण में नष्ट होने वाली है, किन्तु व्यंजन पर्याय स्थूल है, शब्द-गोचर है और चिरस्थायी है ।
मूर्ती व्यंजनपर्यायो वारगम्योऽनश्वरः स्थिरः ।
सूक्ष्मः प्रतिक्षणध्वंसी पर्यायश्चार्थसंजिकः ॥६:४५।। [ज्ञानार्णव] -- व्यंजन मूर्तिक है, वन्ननगोचर है, अनश्वर है, स्थिर है । अर्थपर्याय सूक्ष्म और प्रतिक्षणध्वंसी (नष्ट होने वाली) है। व्यंजनपर्याय पुद्गल के अतिरिक्त समारी जीव में होती है । संसारी जीव अनादि कर्मबन्धनबद्ध होने से मूतिक है। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य इनमें तो अर्थपर्याय ही होती है। जीव ब पुद्गल में अर्थ व व्यंजन दोनों पर्याय होती हैं ।' सिद्ध जीव भी शुद्ध वृदय है, अतः सिद्धजीवों में भी अर्थ पर्याय ही होती है ।
द्रवार दि ग्रनना है और वही संतति से अनादि अनन्त हैं अत: एक द्रव्य में जितनी पर्याय हैं उतना मात्र ही द्रव्या है, क्योंकि द्रव्य के बिना पर्याय नहीं होती और पर्याय के बिना द्रव्य नहीं होता । जितनी पर्याय होकर नष्ट हो चुकीं वे तो भूत पर्याय हैं और जो पर्यायें अविद्यमान हैं, पागामी निमित्त व उपादान कारणों के अनुसार होगी वे भविष्यत् पर्याय हैं और जो वर्तमान में हो रही हैं बह वर्तमान पर्याय है। इन तीनों पर्यायों का जितना काल है उतना ही द्रव्य का काल है अर्थात् उतनी ही द्रव्य की स्थिति है जो अनादि अनन्त रूप है।
अनादि को अनादिम्प से अनन्त को अनन्तरूप से, अविद्यमान को अविद्यमानरूप से, असत् को असतरूप से और प्रभाव को प्रभावरूप से जानना ही सम्यग्ज्ञान है, अन्यथा जानना मिथ्याज्ञान है। जितनी द्रव्य की स्थिति है उतनी पर्याय हैं । द्रव्य की स्थिति अनादि छनात है, प्रवाह, रूप या सन्तति रूप से पर्यायों की स्थिति भी अनादि अनन्त है।
____ द्रव्यों का प्राघार अथवा क्षेत्र प्रागास वज्जित्ता सब्चे लोगम्मि चेव पत्थि वहि । वावी धम्माधम्मा प्रयट्ठिवा अचलिदा पिच्चा- ।।५८३॥ लोगस्स असंखेज्जविभागप्पदि तु सम्वलोगोत्तिः । अप्पपवेसविसप्पणसंहारे वावडो जीवो ॥५८४।। पोग्गलबब्बाणं पुरण एयपदेसादि होंति भजणिज्जा । एक्केको दु पदेसे कालाणूणं धुवो होदि ।।५८५॥ • संखेज्जासंखेज्जाणता वा होति पोग्गलपदेसा । लोगागासेव ठिदी एगपदेसो अणुस्स हवे ॥५८६।।
१. "धर्माधर्मनभःकाला अर्थपर्यायगोचरा: 1 व्यंजनार्थस्य विज्ञेयो द्वावन्यौ जीवपूदगलो।" स्वा. का. अ. गा. २२० टीवा] । २. पचास्तिकाय गा. १२ ।
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६५२/ गो. सा. जीवकाण्ड
गाया ५५३-५८७
लोगागासपदेसा छद्दचेहि फुडा सदा होंति । सच्चमलोगागासं श्रण्णेहिं विवज्जियं होदि ॥१५८७ ।।
पालाका के अतिकष सर्व मध्य लोक (लोकाकाश) में ही हैं, लोकाकाश से बाहर नहीं हैं। धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। ये दोनों द्रव्य अवस्थित हैं, प्रचलित हैं और नित्य है ।। ५६३ ।। आत्मप्रदेशों के संकोच विकोच के कारण एक जीव लोक के असंख्यातवें भाग को यदि करके ( केवलीसमुद्घात की अपेक्षा ) सर्व लोक में व्याप्त है || ५८४॥ पुद्गल द्रव्य प्रकाश के एक प्रदेश से लेकर समस्त लोक में विद्यमान है। लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक काला स्थित है ।। ५६५ ॥ संख्यात, असंख्यात व अनन्त मुद्गलप्रदेश वाले स्कन्ध हैं, किन्तु पुद्गल परमाणु आकाश के एक प्रदेश को ही व्याप्त कर रहता है ।। ५८६ ।। लोकाकाश के समस्त प्रदेशों पर छहीं द्रव्य स्थित हैं। समस्त अन्नोकाकाश श्राकाशद्रव्य के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों से रहित है, शून्य है ॥५८॥
विशेषार्थ - धर्मादिक द्रव्यों का लोकका में अवगाह है, बाहर नहीं है ।
शंका- यदि धर्मादिक द्रव्यों का ग्राधार लोकाकाश है तो आकाश का क्या आधार है ?
समाधान - प्रकाश का अन्य आधार नहीं है, क्योंकि आकाश स्वप्रतिष्ठ है।
शंका- यदि श्राकाश स्वप्रतिष्ठ है तो धर्मादिक द्रव्य भी स्वप्रतिष्ठ ही होने चाहिए। यदि धर्मादि द्रव्य का अन्य आधार माना जाता है तो आकाश का भी अन्य आधार मानना चाहिए । ऐसा मानने पर मनवस्था दोष प्राप्त होता है ।
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, है, जहाँ प्रकाश स्थित है यह कहा जाय अधिकरण है, यह व्यवहारतय की अपेक्षा स्वप्रतिष्ठ ही हैं।
।
क्योंकि श्राकाश से अधिक परिमाण वाला ग्रन्य द्रव्य नहीं वह सबसे अनन्त है । परन्तु धर्मादिक द्रव्यों का प्रकाश कहा जाता है। एवंभूतनय की अपेक्षा तो सब द्रव्य
शंका लोक (संसार) में जो पूर्वोत्तर कालभावी होते हैं, उन्हीं का आधार-आधेयभाव होता है, जैसे कि बेरों का प्राधार कुण्ड है । ग्रकाश पूर्वकालभावी हो और धर्मादिक द्रव्य बाद में उत्पन्न हुए हों, ऐसा तो है नहीं अतः व्यवहारनय की अपेक्षा भी साधारन्याधेय कल्पना नहीं बनती ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि एक साथ होने वाले पदार्थों में आधार-आधेय भाव देखा जाता है । जैसे घट में रूपादिक का और शरीर में हाथ यादि का
लोक प्रलोक का विभाग धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय के सद्भाव और सद्भाव को अपेक्षा जानना चाहिए। प्रर्थात् धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जहाँ तक पाये जाते हैं वह लोकाकाश है और इससे बाहर अलोकाकाश है। यदि धर्मास्तिकाय का सद्भाव न माना जाय तो जीव और पुद्गलों की गति के नियम का हेतु न रहने से लोक अलोक का विभाग नहीं बनता ।"
१. सर्वार्थसिद्धि ५ / १२ /
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गाथा ५५३-५८७
सम्यक्त्यमागंणा/६५३
धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य का प्रवगाह समग्र लोकाकाश में है ।।१३।। -- घर में जिस प्रकार घट अवस्थित रहता है उस प्रकार लोकाकाश में धर्म और अधर्म द्रव्य का अमाह की है, मित, 'जग प्रकार लिस में तैन रहता है, उस प्रकार पूरे लोकाकाश में धर्म और अधर्म द्रव्य का अवगाह है । यद्यपि ये सब द्रव्य एक जगह रहते हैं तो भी अवगाहन शक्ति के निमित्त से इनके प्रदेश प्रविष्ट होकर व्याधात को नहीं प्राप्त होते ।
लोकाकाण के असंख्यात भाग करके जो एक भाग प्राप्त हो, वह असंख्यातवां भाग कहलाता है। एक असंख्यातवाँ भाग जिनके श्रादि में है वे सत्र असंख्यात भाग आदि हैं। एक असंख्यातवें भाग में एक जीव रहता है। इस प्रकार एक, दो, तीन और चार प्रादि संख्यात व असंख्यात भागों से लेकर सम्पूर्ण दोक पर्यन्म एक जीव का अवगाह जानना चाहिए। किन्तु नाना जीवों का अवगाह सब लोक
शंका-यदि लोक के एक असंख्यातवें भाग में एक जीब रहता है तो अनन्तानन्न सशरीर जीवराणि लोकाकाश में कैसे रह सकती है ?
समाधान-जीव दो प्रकार के हैं सूक्ष्म और बादर, अत: उनका लोकाकाश में अवस्थान बन जाता है । जो बादर जीव हैं उनका शरीर तो प्रतिधात सहित होता है। किन्तु जो सूक्ष्म हैं वे यद्यपि मशरीर हैं तो भी सूक्ष्म होने के कारण एक निगोद जीब ग्राकाश के जितने प्रदेशों का अवगाहन करता है उतने में साधारण शरीरवाले अनन्तानन्त जीव रह जाते हैं । ये परस्पर में और बादरों के साथ व्याधात को नहीं प्राप्त होते, इसलिए लोकाकाश में अनन्तानन्त जीवों के अवगाह में कोई विरोध नहीं आता।
शङ्का-एक जीव के प्रदेश लोकाकाश के बराबर असंख्यात हैं तो लोफ के अगम्यान भाग ग्रादि में एक जीव कैसे रह सकता है. उसको तो समस्त लोक व्याप्त कर रहना चाहिए?
समाधान-यद्यपि प्रान्मा अमूर्त स्वभावी है तथापि अनादिकालीन बन्ध के कारण एकपने को प्राप्त होने से वह मूर्त हो रहा है और कार्मरण शरीर के कारण वह बड़े शरीर में रहता है। इस लिए उसके प्रदेशों का संकोच व विस्तार होता है । दीपक के समान शरीर के अनुसार उसका लोक के असंख्यातवें भाग प्रादि में रहना बन जाता है। जिस प्रकार निराकरण आकाशप्रदेश में यद्यपि दीपक के प्रकाश के परिमाण का निश्चय नहीं होता तथापि वह सकोरा, ढकन तथा प्रावरण करने वाले दूसरे पदार्थों के पावरण के वश से नत्परिमाण होता है, उसी प्रकार प्रकृन (जीब के विषय) में जानना चाहिए।
शंका-धर्मादि द्रव्यों के प्रदेशों का परस्पर प्रवेश होने के कारण संकर होने से अभेद प्राप्त होता है।
___ समाधान नहीं, क्योंकि परस्पर अत्यन्त सम्बन्ध हो जाने पर भी वे अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते, इसलिए उनमें अभेद नहीं प्राप्त होता । श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी है -.
१. “धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ।।५/१३॥'' [सर्वार्थसिद्धि] । २. सर्वाश्रसिद्धि सूत्र ५/१३ की टीका। सिद्धि ५/१५। ४. सर्वार्थसिद्धि ५/१६ ।
३. नर्षि
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६५४/गो, सा, जीवकाएर
माथा ५८३-५८७
अरणोष्णं पविसंता दिता प्रोगासमण्णमण्णस्स ।
मेलंता विय णिचं समं सभाव रण विजहंति ॥७॥ [पंचास्तिकाय] छहों द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करते हैं, अन्योन्य को अवकाशा देते हैं, परस्पर मिल जाते हैं, तथापि सदा अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते । अर्थात् ये छह द्रव्य परस्पर अवकाश देते हुए अपने-अपने ठहरने के काल पर्यन्त ठहरते हैं, परन्तु उनमें संकर-व्यतिकर दोष नहीं पाता। 'प्रवेश' शब्द क्रियावान जीव व पुद्गलों की अपेक्षा है, क्योंकि आये हुओं को अवकाश दिया जाता है । धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, प्रकाश और काल नि:क्रिय द्रव्य नित्य सर्व काल मिल के रहते हैं, अतः अवकाश शब्द इन चार की अपेक्षा से है।
पुद्गलों का अवगाह लोकाकाश के एक प्रदेश आदि में विकल्प से होता है ।।५/१४।।२ अाकाश के एक प्रदेश में एक परमाणु का अवगाह है। बन्ध को प्राप्त हुए या खुले हुए दो परमाणुओं का आकाश के एक प्रदेश में या दो प्रदेशों में अबगाह है। बन्ध को प्राप्त हुए या न प्राप्त हुए तीन परमारग प्रों वा आकाश के एक या दो या तीन प्रदेशों में अबगाह है। इसी प्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश वाले स्कन्धों का लोकाकाश के एक, संख्यात और असंख्यात प्रदेशों में अवगाह जानना चाहिए।
शंका -यह ता युक्त है कि धर्म और अधर्म अमूतं हैं, इसलिए उनका एक जगह बिना विरोध के रहना बन जाता है, किन्तु पुद्गल मूर्त है, इसलिए उनका बिना विरोध के एक स्थान पर रहना कैसे बन सकता है ?
समाधान-इनका अवगाहन स्वभाब है और सुक्ष्म रूप से परिणमन हो जाने से मुर्तिमान पुद्गलों का एक जगह अबगाह विरोध को प्राप्त नहीं होता, जैसे एक ही स्थान में अनेक दीपकों का प्रकाण रह जाता है । श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी है
प्रोमाढगाढरिणथियो पोग्गलकायेहि सव्वदो लोगो। सुमेहि बावरेहि य पंताणतेहिं विविहिं ॥६४॥ [पंचास्तिकाय]
---यह लोक सर्व ओर से सूक्ष्म व बादर नाना प्रकार के अनन्तानन्त पुद्गलों के स्कन्धों से पूर्ण रूप से भरा हुआ है। जैसे कज्जल से पूर्ण भरी हुई कज्जलदानी अथवा पृथ्वीकाय आदि पात्र प्रकार के सूक्ष्म स्थावर जीवों से बिना अन्तर के भरा हुमा यह लोक है, उसी प्रकार यह लोक अपने सर्व असंख्यात प्रदेशों में दृष्टिगोचर व अदृष्टिगोचर नाना प्रकार के अनन्तानन्त पुद्गल स्कन्धों से भरा हुआ है।
प्रोगाङगाढरिणचिदो पोग्गलकाएहि सम्बदो लोगो। सुहुमेहिं वादरेहि य अप्पाउग्गेहि जोग्गेहिं ॥७६॥[प्रवचनसार]
१. पंचास्तिकाय गा. ७ तात्पर्य वृति टीका। २. "एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ।।५/१४॥" (तत्त्वार्थ सूत्र]। ३. सर्वार्थ सिद्धि ५/१५ । ४. पंचास्तिकाय मा. ६४ तात्पगंवृत्ति टीका ।
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गाथा ५८३-५८७
सम्वन्धमार्गगगा/१५५
__ -यह लोक सब ओर से अथवा सव जगह सूक्ष्म व बादर तथा अप्रायोग्य व योग्य (कर्मवर्गगा रूप होने अयोग्य व योग्य) पुद्गलों से ठसाठस भरा हुआ है।
सत्यो लोयायासो पुगल-दन्वेहि सववो भरिदो।
सुहमे हि बायरेहि य णाणा-विह-सत्ति-जुत्तेहि ॥२०६॥ [स्वा.का.अ.] .-नाना प्रकार की शक्तियुक्त सूक्ष्म व बादर पूदगल द्रव्य से यह सम्पूर्ण लोकाकाश पूर्णरूप से भरा हया है 1 जगश्रेणी के घन रूप इस सर्व लोकाकाश में सूक्ष्म व बादर रूप पूदगल द्रव्य व्याप्त है। सर्वोत्कृष्ट महास्कन्ध रूप पुद्गल तमाम अर्थात् समस्त लोक में व्याप्त हो रहा है।' पुद्गल द्रव्य का ऐसा एक महास्वाध है जो सर्व लोक में व्याप्त हो रहा है।
बन्ध के कारणभूत स्निग्धत्व और रूक्षत्व* इन दोनों गुणों का कालद्रव्य में प्रभाव है इसलिए कालाणुओं का परस्पर बन्ध नहीं होता प्रतः प्रत्येक कालाणु पृथक्-पृथक् है। निश्चय काल रूप वे कालाणु एक-एक प्राका शप्रदेश पर एक-एक पृथक्-पृथक् स्थित हैं। ग्राकाशद्रव्य दो भागों में विभक्त है लोकाकाश और अलोकाकाश ।' कहा भी है - "तं ग्रायासं दुविहं लोयालोयाण भेएण ॥" २१३ उत्तरार्ध ।।
[स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा] __जितने प्रकाश में धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, काल द्रव्य, पुद्गल और जीब द्रव्य पाये जाते हैं, वह लोकाकाश है। जहां पर जीवादि पदार्थ दिखाई देते हैं. वह लोकाकाश है और उससे वाहर अनन्त प्रदेशी अलोकाकाश है।४
"लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यन्न स लोकः, तस्मादबहि तमनन्तशुद्धाकाशमलोकः।"५
--जहाँ जीवादि पदार्थ दिखलाई पड़ें मो लोक है, इस लोक के बाहर अनन्त शुद्ध प्राकाश है सो अलोक है।
शंका-शुद्ध आकाश से क्या प्रयोजन है ?
समाधान--जहाँ पर आकाश द्रव्य के अतिरिक्त धर्मादि अन्य द्रव्य नहीं पाये जाते अर्थात् जिस आकाश में जीव, पुद्गल, धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और काल ये पांच द्रव्य नहीं पाये जाते या जो आकाश इन पाँच द्रव्यों से रहित है, शुन्य है वह शुद्ध अाकाश है ।
अाकाश द्रव्य अन्य द्रव्य के साथ बन्ध को प्राप्त न होने से अशुद्ध नहीं होता तथापि अन्य द्रव्यों के साथ एकक्षेत्रावगाह नहीं होने की अपेक्षा शृद्ध अाकाश कहा गया है। जिसमें आकाश द्रव्य के सिवाय अन्य द्रव्य न पाये जाये वह शुद्धमाकाश अर्थात अलोकाकाश है।
-
"
"
१. "जगद्यापिनि महास्कन्धे सर्वोत्कृष्टमिति ।" [स्वा. का, अ. भा. २०६ की टीका] । २. "स्निग्धरूक्षत्वात् बन्धः ।।" ५/३३।। [त. सू.] । ३. "प्राकाशं द्विधा विमत लोकाकाशमलोपाकाशं !" [सर्वार्थसिद्धि ५/१२] ४. स्वा. का, य. गा. २१३ की टीका, वृ. द्र. सं. गा. २० की टीका। ५.१वास्तिकाय मा. ३ तात्पर्यवसि टीका ।
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६५६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५
-१६
द्रमों की तथा व्यवहार काल की संख्या का कथन जीवा प्रणंतसंखाणंतगुरगा पुग्गला हु तत्तो दु । धम्मतियं एक्केक्कं लोगपदेसप्पमा कालो ॥५८८।। लोगागासपदेसे एक्केक्के जेट्ठिया हु एक्केक्का । रयणाणं रासी इव ते कालाणू भुणेयव्या ॥५८६।' ववहारो पुरण कालो पोग्गलदम्वादणंतगुणमेत्तो । तत्तो प्रणंतगुरिगदा प्रागासपदेसपरिसंखा ॥५६॥ लोगागासपदेसा धमाधम्मेगजीवगपदेसा । सरिसा ह पवेसो पुरण परमाणु प्रवटिवं खेत्तं ।।५६१॥
गाथार्थ-संख्या की अपेक्षाजीव अनन्त हैं, जीवों से अनन्तगुरणा पुद्गल हैं। धर्मादि तीन द्रव्य एक-एक हैं। लोकप्रकाश प्रदेशप्रमाण कालाणु हैं ।।५८८॥ लोकामाश के एक-एक प्रदेश पर जो एकएक स्थित है और रत्नराशि के समान भिन्न-भिन्न है वे कालाणु हैं ॥५८६ || पुद्गल द्रव्य से अनन्तगुणा व्यवहार काल है। व्यवहार काल से अनन्त गुरणे आकाशप्रदेश हैं ।।५१०|| लोकाकाश-प्रदेश के सश धर्म द्रव्य , अधर्म द्रव्य और एक जीव के प्रदेश हैं। जितने आकाशक्षेत्र में परमाणु ठहरता है, वह प्रदेश है ।।५६१।।
विशेषार्थ-जीव अनन्तानन्त हैं, जीवों से अनन्तगण पुद्गल हैं। लोकाकाश प्रदेशप्रमाण असंख्यात कालाणु हैं । धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रय अखण्ड होने से एक-एक हैं !'
शंका-काला लोक-प्रदेणप्रमाण क्यों हैं ?
समाधान- क्योंकि लोकाका के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कानाणु अवस्थित है और निष्क्रिय है । इसलिए कालाणु लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं ।कहा भी है -
लोयायासपदेसे इविकरके जे ठिया ह इक्किएका । रयणारणं रासी इव ते कालाणु प्रसंखवारिए ॥२२॥
[वृ. द्रव्यसंग्रह] -जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नों के ढेर समान परस्पर भिन्न होकर एक-एक स्थित हैं, वे लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या के बराबर कालाणु असंख्यात द्रव्य हैं। ये कालाणु
१. धवल पू. ४१.३१५, पृ.११ पृ. ७६: स्वा. का. अ. गा. २१६ टीका; स. मि. ५/३६ पं. बा. गा. १०२ तात्पर्यवृत्ति टीका। २. "तनानन्तानन्तजीवा: १६, तेभ्योऽप्यनन्तगुणा: पुद्गलाः १६ ख, लोवाकाशप्रमितासंख्येयकालाणुद्रव्यारिण, प्रत्येक लोकाकाशप्रमाणं धर्माधर्मद्वयम् ।" [स्वा. का.म. गा. २१३ टीका]; "धर्माधमाकाश एकक एव प्रखण्डद्रव्यत्वात् कालाणबो लोकप्रदेश मात्रा इति ।" [स्वा. का. अ. गा. २१६ टीका]) ३. "लोकाकाणप्रमितासस्येयद्न्यारवीति ।" [वह द्रव्य संग्रह गा. २२ टीका] ।
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गाथा ५८-५६१
सम्यक्त्वमार्गगा। : ६५७
निष्क्रिय हैं।' अर्थात प्रदेश से प्रदेशान्तर नहीं होते । ये कालाणु रूपादि गुणों से रहित होने के कारण अमूर्त हैं ।
परिकर्म में लिखा है कि सर्वजीवराशि का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोक प्रसारण वर्ग-स्थान आगे जाकर सब पुद्गल द्रव्य प्राप्त होता है अर्थात् पुद्गलपरमाणुओं की संख्या प्राप्त होती है। पुनः सब पुद्गल द्रव्य का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्तलोक वर्गस्थान आगे जाकर सब काल प्राप्त होता है अर्थात् व्यवहार काल के सर्व समयों की संख्या प्राप्त होती है । पुनः काल समयों का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्तलोक मात्र वर्ग स्थान जाकर सब आकाशश्रेणी प्राप्त होती है अर्थात् आकाशश्रेणी के प्रदेश प्राप्त होते हैं। इससे जाना जाता है कि जीव अनन्त हैं, उनसे अनन्तगुणा सब पूदगल द्रव्य हैं, उससे भी अनन्तगुणा व्यवहार काल है अर्थात व्यवहार काल के समयों का प्रमाण है। व्यवहार काल से भी अनन्तगुणी प्राकाश के प्रदेशों की संख्या है। गुणकार का प्रमाण अनन्तलोक मात्र वर्गस्थान है ।
धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और एमीद हो देश भारतुल्य होते हुए भी असंख्यात हैं। एक जीव के प्रदेश लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर हैं ।५ गिनती न हो सकने के काररग ये प्रदेश असंन्यात हैं अर्थात् गिनती की सीमा को पार कर गये हैं। एक अविभागी परमाणु जितने क्षेत्र में ठहरता है वह प्रदेश है। धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य असंख्यातप्रदेशी लोक को व्याप्त करके स्थित हैं इसलिए ये निष्क्रिय हैं। लोकपुरण केवली समुद्घात अवस्था के समय जीव के मध्यवर्ती ग्राउ प्रदेश समेरु पर्वत के नीचे चित्रा पृथ्वी के और बच पटल के मध्य के पाठ प्रदेशों पर स्थित हो जाते हैं, बाकी जीव-प्रदेश ऊपर नीचे चारों ओर सम्पुर्ण लोकाकाश में फैल जाते हैं। एक द्रव्य यद्यपि अविभागी है, वह घट की तरह संयुक्त द्रव्य नहीं है तथापि उसमें प्रदेश वास्तविक है, उपचार से नहीं । घट के द्वारा जो प्राकाश का क्षेत्र प्रवगाहित किया जाता है वही अन्य पटादिक के द्वारा नहीं। दोनों जुदे-जुदे हैं । पटना नगर आकाश के दूसरे प्रदेश में है और मथुरा अन्य प्रदेश में । यदि प्रकाश अप्रदेशी होता तो पटना और मथुरा एक ही जगह हो जाते ।
शंका--धर्मादि द्रव्यों में प्रदेशत्व का व्यवहार पुद्गल परमाणु के द्वारा रोके गये प्राकाशप्रदेश के नाप से होता है । अतः मानना चाहिए कि उनमें मुख्य प्रदेश नहीं हैं ?
समाधान-धर्मादि द्रध्य अतीन्द्रिय हैं, परोक्ष हैं, अत: उनमें मुग्य रूप से प्रदेश विद्यमान रहने पर भी स्वतः उनका ज्ञान नहीं हो पाता। इसलिए परमाणु के माप से उनका व्यवहार किया जाता है ।
शंका-असंख्यात के नौ भेद हैं उनमें से किस प्रसंख्यात वो ग्रहण करना चाहिए ?
१. "कालारणवो निष्क्रिया:" [सर्वार्थसिद्धि ५/३६] । २. "रूपादिगुणाविर हादमूर्ताः ।" [ सर्वार्थसिद्धि ५/३६] । ३. धवल पु. १३ पृ. २६२-२६३ "धर्माधर्मकजीवास्तुल्यासंख्येस प्रदेशाः"| स. सि. ५/८) । ४. "प्रसंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मक जीवानाम् । ।।५/८||"[न.सू.]। ५. "लोकाकाशतुल्यप्रदेणाः ।" [रा. वा. ५/१६/१]। ६. रा. वा.
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६५८/गो. सा.जीवकाण्ड
गाथा ५६२
समाधान–परोतासंख्यात, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यात के जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट भेदों में से यहाँ पर मध्यम प्रसंख्यातासंख्यात ग्रहण करना चाहिए।
जिस प्रकार अनन्त को अनन्त रूप से जानने में सर्वज्ञत्व की हानि नहीं होती, उसी प्रकार असंख्यात को असंन्यात रूप से जानने में सर्वज्ञत्व की हानि नहीं होती। सर्वज्ञ अर्थ को (ज्ञेय को) अन्यथा नहीं जानते क्योंकि वे यथार्थ ज्ञाता हैं।'
धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य और जीव व पुद्गल इन पांच द्रव्यों के बहुप्रदेशी हो जाने पर उनमें किस द्रव्य के प्रदेश चल और किसके अचल हैं, इस बात को दो गाथाओं द्वारा बतलाते हैं
सम्बमरूबी दवं अवट्टिदं प्रचलिया पवेसा वि । रूवी जीया चलिया तिषियप्पा होति हु पदेसा ॥५६२॥
गाथा-- अल्पी डेज्य अबस्थित हैं और उनके प्रदेश नी अचलायमान हैं। रूपी जीवद्रव्य चल है और इसके प्रदेश (चल की अपेक्षा) तीन प्रकार के होते हैं ।। ५६२।।
विशेषार्थ- संसारी जीव रूपी है और मुक्त (सिद्ध )जीब अस्पी है (गा. ५६३) । पुद्गल द्रव्य रूपी है। धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश और काल द्रध्य ये चार अरूपी हैं (गा. ५६४) । जो अपी द्रव्य हैं अर्थात् मुक्त जीव, धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य और काल द्रव्य ये अवस्थित हैं अर्थात जहाँ पर स्थित हैं वहाँ पर ही सदा स्थित रहते हैं, अन्यत्र नहीं जाते और न अपना स्थान बदलते हैं। इन अवस्थित द्रव्यों के प्रदेश भी चन्नायमान नहीं होते अर्थात् क्षेत्र से क्षेत्रान्तर नहीं होते, सदा अचल रहते हैं।
___ रूपी जीव अर्थात् संमारी जीव के प्रदेशों की नीन अवस्थाएँ होती हैं। पाठ मध्य प्रदेशों के अतिरिक्त अन्य सर्वप्रदेश चलित होते हैं या वे सर्वप्रदेश प्रचलित होते हैं या उनमें से कुछ चलित होते हैं और कुछ प्रचलित होते हैं । इस प्रकार संसारी जीवप्रदेशों की १. चल, २. अचल, ३. चलाचल ये तीन अवस्थाएँ होती हैं । चल या प्रस्थिति; अचल या स्थिति ये दो-दो शब्द एक अर्थवाची हैं। भवान्तर में गमन के समय, सुख-दुःख का तीव्र अनुभव करते समय या तीव्र क्रोधादि रूप परिणाम होते समय जीव-प्रदेशों में उथल-पुथल होती है, वह ही अस्थिति है । उथल-पुथल का न होना स्थिति है । जीवप्रदेशों में से पाठ मध्य के प्रदेश सदा निरपवाद रूप से सब जीवों में स्थित ही रहते हैं। प्रयोगकैबली और सिद्धों के सभी प्रदेश अचल (स्थित) हैं । व्यायाम, दुःस्त्र, परिताप आदि के काल में उक्त पाठ मध्य प्रदेशों को छोड़कर शेष प्रदेण अस्थित (चल) ही होते हैं। मेष प्राग्गियों के प्रदेश स्थित भी हैं और अस्थित भी अर्थात् चन्नाचल (चन-अचल) हैं।
राग, द्वप और कपाय से अथवा वेदनाओं से, भय से अथवा मार्ग से उत्पन्न परिश्रमसे मेघों में स्थित जल के समान जीव प्रदेशों का संत्रार होने पर उनमें समवाय को प्राप्त कर्मप्रदेशों का भी संचार पाया जाता है।
१. रा. वा. ५/८/२।
२. रा. वा. ५/८/१६ ।
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गाथा ५६२
सम्यक्त्वमार्गणा/६५६
शङ्गा-जीव के पाठ मध्य प्रदेशों का सङ्कोच व विस्तार नहीं होता, अत: उनमें स्थित कर्मप्रदेशों का भी अस्थितपना नहीं बनता । इसलिए सर्व जीवप्रदेश किसी भी समय अस्थित होते हैं, यह घटित नहीं होता ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीव के उन पाट मध्य प्रदेशों को छोड़कर शेष जीवप्रदेशों का पाश्रय करके यह घटित हो जाता है।'
___ वेदना एवं भय आदिक क्लेशों से रहित छनस्थ के किन्हीं जीवप्रदेशों का संचार नहीं होता अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित होते हैं । तथा उसी छमस्थ के किन्हीं जीवप्रदेशों का संचार पाया जाता है, उनमें स्थित कर्म प्रदेश भी संचार को प्राप्त होते हैं इसलिए वे अस्थित हैं । उन दोनों के समुदाय स्वरूप जीव एक है अतः वह स्थित-अस्थित इन दोनों स्वभाव वाला है।
प्रयोग केवली जिन में ममस्त योगों के नष्ट हो जाने से जीवप्रदेशों का संकोच ब विस्तार नहीं होता है, अतएव वे वहाँ अवस्थित पाये जाते हैं।'
शंका-मब जीवों के अाठ मध्य प्रदेश सर्वदा स्थिर ही क्यों रहते है ?
समाधान--जीव के पाठ मध्य प्रदेशों को परस्पर प्रदेश-बंध अनादि है। ऐसा नहीं है कि उन पा प्रदेशों में से कोई प्रदेश अध्यन बना जाय और उसके स्थान पर दुसरा प्रदेश आ जाय । अनादि काल से उन्हीं आठ मध्यप्रदेशों का परस्पर प्रदेशबन्ध चला रहा है और अनन्तकाल तक चला जाएगा अतः वे पाठ मध्य के प्रदेश सदा स्थिर रहते हैं।
शङ्का-मरण सभय दूसरे शरीर को धारण करने के काल में जीव पूर्व स्थान को छोड़कर अन्य स्थान में जन्म लेता है तब तो ये पाठ मध्य के प्रदेश अस्थित होते होंगे ?
समाधान नहीं, क्योंकि विग्रह गति में अर्थात् भवान्त रगमन-काल में प्राट मध्य प्रदेश स्थित ही रहते हैं। अन्य सर्वप्रदेश अस्थित रहते हैं।
शङ्का-द्रव्येन्द्रिय-प्रमाण जीबप्रदेशों का भ्रमण नहीं होता, ऐसा क्यों न मान लिया जाय ?
समाधान · नहीं. यदि द्रव्येन्द्रिय-प्रमाण जीवप्रदेशों का भ्रमण नहीं माना जाए, तो अत्यन्त द्रतगति से भ्रमण करते हुए जीवों को भ्रमण करती हुई पृथिवी आदि का ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए प्रात्मप्रदेशों के भ्रमण करते समय द्रव्येन्द्रिय प्रमाण आत्मप्रदेशों का भी भ्रमण स्वीकार कर लेना चाहिए । बच्चे जब तेजी से चक्कर खाते हैं और थक कर बैठ जाते हैं तो उनको पृथिवी
आदि सब वस्तुएं घूमती हुई (चक्कर रूप भ्रमण करती हुई) दिखाई पड़ती हैं। इस परिश्रम से उनकी चक्षु के अन्तरंग-निर्वृत्ति का प्रात्मप्रदेश इतनी तेजी से भ्रमण करते हैं। प्रथम समय में जो प्रात्मप्रदेश
१. धवल पु. १२ पृ. ३६५-३६६ । २. धवल पु. १२ पृ. २६६ । ३. धवल पृ. १२ पृ. २६७ । ४. "जो प्रणादिय सरीरबंधोगाम यथा अट्टरगं जीवमझपदेसाणं अग्णेण्णपदेसंबंधो भवदि" ।।६।। [धवल पु. १४ पृ. ४६] । ५. धवल पु. १.२३४ ।
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६६० गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५६३
अन्तरंग नित्ति रूप थे, दूसरे समय में उन प्रदेशों के स्थान पर अन्य प्रात्मनदेश अन्तरंग निवृत्ति रूप हो गये, तीसरे समय में अन्य आत्मप्रदेश अन्तरंग निवृत्ति रूप हो गये । इस प्रकार प्रतिसमय चक्षु इन्द्रिय प्रमाण मात्मप्रदेशों के बदलने के कारण उन बच्चों को पृथिवी प्रादि पदार्थ भ्रमण करते हुए दिखलाई देते हैं । जैसे तेज चलने वाली रेल में बैट हुए यात्री को वृक्ष आदि चलते हुए दिखलाई देते हैं।
शंका-रूपी जीव के सर्व प्रात्म-प्रदेश्य अचल काव होते हैं ?
समाधान-अयोगकेवली के सर्व प्रात्मप्रदेश अचल रहते हैं। प्रयोगकेवली के प्रात्मप्रदेशों का कर्म रूप पुद्गलों के साथ संश्लेष सम्बन्ध होने के कारण प्रयोगकेवनी मूर्तिक है। सिद्ध जीव अमुर्तिक है।
पुद्गल द्रव्य चल है पोग्गलदव्यम्हि अणू संखेज्जादी हबंति चलिदा हु ।
चरिममहवखंधम्मि य चलाचला होंति हु पवेसा ॥५६३॥ गाथार्थ - पुद्गल द्रव्य में अणु से लेकर संख्यात, असंख्यात व अनन्त अणुगों के सभी स्कन्ध चल हैं किन्तु अन्तिम महास्कन्ध के प्रदेश चलाचल (चन-अचल) हैं ।। ५६३ ।।
विशेषार्थ-क्रिया, बल, अस्थिति ये तीनों शब्द पर्यायवाची हैं। धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य और काल द्रव्य अरूपी होने के कारण अचल (निष्क्रिय) हैं किन्तु रूपी (संसारी) जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य चल अर्थात् क्रियावान हैं (गा. ५६१) । गा. ५६२ में रूपी जीव द्रव्य का कथन हो चुका है। इस गाथा में पुद्गल द्रव्य के सक्रियत्व का कथन है ।
शंका -- क्रिया किसे कहते हैं ?
समाधान---अन्तरंग और बहिरंग निमित्त से द्रव्य की क्षेत्र से क्षेत्रानगर रूप होने वाली पर्याय किया है ।' प्रदेशान्तर-प्राप्ति की हेतु परिस्पन्दरूप पर्याय क्रिया है ।
बहिरंग साधन के साथ रहने वाले पुद्गल क्रियावान हैं।
शङ्का-पुद्गल की क्रिया में बहिरंग साधन क्या हैं ?
समाधान—पुद्गल-अणु व स्कन्ध की क्रिया में बहिरंग साधन काल है। जिस प्रकार सब द्रव्यकर्म और नोकर्म पुद्गलों का अभाव करके जो जीव सिद्ध हो जाते हैं वे क्रियारहित हो जाते हैं, क्योंकि बहिरंग साधन का अभाव हो गया। किन्तु ऐसा पुद्गलों में नहीं होता क्योंकि काल सदा ही विद्यमान रहता है। उसके निमित्त से पुद्गलों में यथासम्भव क्रिया होती रहती है। महास्कन्ध
१. जयधवल पु. १ पृ. ४३ ; घघल' पृ. १ पृ. २६२; पू. १४ पृ. ४५; पु. १५ पृ. ३२, पु. १६ पृ. ५१२ । २. "उभयनिमिनवशादुत्पद्यमानः पर्यायो द्रव्यस्य क्षेत्रान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया ।" [ सर्वार्थसिद्धि ५/७]। ३. "प्रदेशांतरप्राप्तिहेतुः परिस्पंदनरूपपर्याय: क्रिया ।" | पंचारितका गा. टीका] ।
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माथ। ५६४-५६५
सम्पवमार्गरगा।६६१
लोकाका प प्रमाण है और लोकाकाश में सर्वत्र व्याप रहा है अतः बह चलायमान नहीं होता किन्तु उसमें पुद्गल परमाणु पाते-जाते रहते हैं, इस अपेक्षा से वह चल है। इसीलिए महास्कन्ध को चलाचन्न (चल-अचल ) कर कहा है। यही अवस्था पंचमेरु व अकृत्रिम चैत्यालय प्रादि की है अर्थात् वे भी चल-अचल रूप हैं, क्योंकि वे अनादि-निधन हैं।
___पृद्गल परमाणु यद्यपि एकप्रदेशी है, तथापि उममें क्षेत्र से क्षेत्रान्तर म्प गमनक्रिया होती रहती है तथा कभी बन्ध को प्राप्त होकर स्कन्ध रूप परिणम जाता है, भेद होकर पुनः परमाणु हो जाता है। इस प्रकार पुद्गल परमाणु सक्रिय है। खादिसान्त पुदगल स्कन्ध क्षेत्र से क्षेत्रान्तर होते रहते हैं और उनमें भी भेद से, संघात से तथा युगपत् भेद व संघात से क्रिया होती रहती है इसलिए वे भी चलायमान है। इस प्रकार पुद्गल सक्रिय अर्थात् चल हैं किन्तु अनादि, अनन्त अकृत्रिम मेरु चैत्यालय पर्वत आदि व महास्कन्ध चल-अचल रूप हैं, क्योंकि वे क्षेत्र से क्षेत्रान्तर नहीं होते।
पुद्गल की २३ वर्गों के नाम अणुसंखासंखेज्जारणंता य अगेज्जगेहि अंतरिया । पाहारतेजभासामरणकम्मइया ध्रुषक्खंधा ॥५६४॥ सांतररिणरंतरेरग य सुण्णा पत्लेयदेहधुव-सुण्णा ।
बादरणिगोदसुण्णा सुहमणिगोदा पभो महक्खंधा ।।५६५॥" गाथार्थ-अणु बर्गणा, संख्याताणु वर्गणा, असंख्याताणु वर्गणा, अनन्ताणु वर्गणा, आहार वर्गणा, अनाह्य वर्गरणा, तंजसवर्गगा, अग्राह्य बर्गरणा, भाषा वर्गणा, अग्राह्य वर्गणा, मनोवरणा, अग्राह्य वर्गगगा, कामगा वर्गणा, श्रव वर्गणा, सान्त रनिरन्तर वर्गणा, शून्य वर्गरणा, प्रत्येक शरीर वर्गणा, ध्र व शुन्य वर्गगणाबादर निगोद वर्गगा, शून्य बर्गणा, सूक्ष्मनिगोद वर्गगणा, शून्य वर्गा, महास्कन्ध वर्गणा ।। ५.६४-५.६५।।
विशेषार्थ - 'ग्रणु वर्गणा' यह संक्षेप में नाम है, इसका पूरा नाम 'एकप्रदेशी परमाणु पृद्गल द्रव्य वर्गणा' है।
शंका-परमाणु युद्गल म.प है, यह कैसे सिद्ध होता है ?
समाधान -- उसमें अन्य पुद्गलों के साथ मिलने की शक्ति है, इसलिए सिद्ध होता है कि परमाणु पुद्गल रूप है।
शंका परमाणु सदाकाल परमाणुरूप से अवस्थिन नहीं रहते, इसलिए उनमें द्रव्यपना नहीं बनता ?
१. "नामा: ।" [तस्वार्थसूत्र ५:११] । २. “भेदादणुः ॥२।।" तत्वार्थमुत्र 'प्र. ५]। ३. "भेवसंत्रातेभ्यः उत्पद्यन्ते ।।२६।" [तत्त्वार्थसूत्र अ. ५] ४. 'सुहमा सुशा ग्रह पाठ धवल पु. १४ पृ. ११७ गाथा ८ में है। ५. धवल पु. १४ पृ. ११७ गा. ७ व ८ किन्न गाथा : प्रथर्थात् ५६४ में पुधि इस प्रकार है--"अणुसंखा संखेज्जा तवता वग्गणा यगेजभाम्रो।"
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६६२/गो. सा. जीयकाण्ड
गाथा ५६४-५६५
समाधान नहीं, क्योंकि परमाणुओं का पुद्गल रूप से उत्पाद और विनाश नहीं होना, इसलिए उनमें भी द्रव्यपना सिद्ध होता है ।।
इसके ऊपर द्विप्रदेशी परमाणु पुद्गल द्रव्य वर्गणा है।।५.७॥२ अजघन्य स्निग्ध और रूक्ष गुण वाले दो परमाणुओं के समुदाय समागम से द्विप्रदेशी परमाणु पुद्गल द्रव्य वर्गणा होती है।
शंका-परमाणुनों का समागम क्या एकदेशेन होता है या सर्वात्मना होता है ?
समाधान-द्रध्याथिक नय का अबलम्बन करने पर दो परमाणुओं का कथंचित् सर्वात्मना समागम होता है, क्योंकि परमाणु निरवयव होता है। पर्यायाथिक नय का अवलम्बन करने पर कथंचित् एकदेशेन समागम होता है। परमाणु के अवयव नहीं होते, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि उपरिम. अधस्तन, मध्यम और उपरिमोपरिम भाग न हो तो परमाणु का ही प्रभाव होता है। ये भाग कल्पित भी नहीं हैं, क्योंकि परमाणु में ऊवभाग, अधोभाग और मध्यमभाग तथा उपरिमोपरिमभाग कल्पना के बिना भी उपलब्ध होते हैं। तथा परमाणु के अवयव हैं इसलिए उनका सर्वत्र विभाग ही होना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो सब बस्तनों के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है । अवयवों से परमाणु नहीं बना है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अवयवों के समूह रूप ही परमाणु दिखाई देता है । तथा अवयवों के संयोग का विनाश होना चाहिए ऐसा भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि अनादिसंयोग के होने पर उसका विनाश नहीं होता । इसीलिए द्विप्रदेशीपरमाणु पुद्गल द्रव्य वर्गणा सिद्ध होती है ।
__ इसी प्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पञ्चप्रदेशी, षट्प्रदेणी, सप्तप्रदेशी, अष्टप्रदेशी, नवप्रदेशी, दशप्रदेशी, संख्यात प्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, अनन्तप्रदेशी और अनन्तानन्तप्रदेशी परमाण पुद्गल द्रव्यवर्गणा होती है ।।७८|| हिप्रदेशी परमाणु गुद्गल व्यवर्गणा से लेकर उत्कृष्ट संख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणा तक यह सब संख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गरणा है। इसके एक कम उत्कृष्ट संख्यात भेद होते हैं । उत्कृष्ट संख्यातप्रदेशी परमाण पूगल द्रव्य वर्गणा में एक अंक मिलाने पर जघन्य असंख्यातप्रदेशी द्रव्य वर्गणा होती है । पुनः उत्तरोतर एक-एक मिलाने पर असंन्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गगगायें होती हैं और ये सब उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात प्रदेणी द्रव्य वर्गणा के प्राप्त होने तक होती हैं। उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात में से उत्कृष्ट संख्यात के न्यून करने पर जितना शेष रहे उतनी ही असंख्यातप्रदेशी या वर्गणायें होती हैं । ये संख्यातप्रदेशी वर्गणामों से असंन्यातनगी होती हैं। असंख्यातलोक गुणाकार है। ये सब हो तीसरी असंख्यातप्रदेणी वर्गणा हैं।
उत्कृष्ट प्रसंख्यातासंस्थान प्रदेशी परमाणु पुद्गल द्रव्यवगंगा में एक अंक मिलाने पर जघय अनन्तप्रदेशी परमाणु पुद्गल द्रव्य वर्गगणा होती है। पुनः ऋम से एक-एक की वृद्धि होते हुए प्रभश्यों से अनन्तगगो और सिद्धों के अनन्तवं भाग प्रमाण स्थान प्रागे जाते हैं। अपने जघन्य से अनन्तप्रदेशी उत्कृष्ट वर्गणा अनन्त गुणी होती है । गुणकार अभव्यों से अनन्त गुणा अर्थात् मिद्धों के अनन्त भाग प्रमाण है, इस प्रकार यह अनन्तप्रदेशी द्रव्य वर्गणा चौथी है ।।४।।
६. धवन
१. धवल पु. १४ पृ. ५५ । २-३-४. धवल पु. १४ पृ. ५५। ५. धवल पु. १४ पृ. ५६-५७ । पु. १४ पृ. ५७ । ७. एक अंक से सर्वत्र एक प्रदेशा' समझना चाहिए।
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गाथा ५६४-५६५
सम्यक्त्वमागंगा/६६३
शंका-ये सब वर्गणायें एक क्यों हैं ? समाधान -श्योंकि ये सब वर्गणायें अनन्तरूप से एक हैं । ये चारों ही बर्गगणायें अग्राह्य हैं।'
अनन्तानन्तप्रदेशी परमाण पुदगल द्रव्य वर्गणा जो उत्कृष्ट है, उसमें एक अंक मिलाने पर जाय आहार द्रश्य हो । फिर एक अधिक के क्रम से अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्त भाग प्रमाण भेदों के जाने पर अन्तिम आहार द्रव्यवर्गणा होती है । यह जघन्य से उत्कृष्ट विशेष अधिक है। विशेष का प्रमाण अभन्यों से अनन्तगुणा अर्थात सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण होता हुया भी, उत्कृष्ट ग्राहार द्रव्यवर्गणा के अनन्तवें भाग प्रमाण है । औदारिक, वैऋियिक और आहारक शरीर के योग्य गुद्गलस्कन्धों की आहार द्रव्यबर्गणा संज्ञा है । आहार वर्गणा के असंख्यात खण्ड करने पर बहुभाग प्रमाण याहारक शरीर प्रायोग्य वर्गणाग्र होता है। शेष के असंख्यात खंद करने पर बहुभाग प्रमाण वैऋियिक शरीर प्रायोग्य वर्गसंगाग्र होता है । तथा शेष एक भाग ग्रौदारिक शरीर प्रायोग्य वर्गणाग्र होता है । | धवल पु. १४ पृ. ५६० | यह पाँचबी वर्गगा है।५।।
उत्कृष्ट याहार द्रव्यवगा में एक अंक के मिलाने पर प्रथम अग्रहरा द्रप्रवर्गणा सम्बन्धी सर्व-जधन्य वर्गणा होती है। फिर एक-एक बढ़ाते हुए अभव्यों से अनन्त गुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण स्थान जाकर उत्कृष्ट अग्रहरण द्रव्यवर्गणा होती है। यह जघन्य से उत्कृष्ट अनन्तगुणी होती है । अभदयों से अनन्त गुणा अर्थात् सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण गुणकार है। इस प्रकार यह छटो वर्गणा है ।६।
पाँच शगेर नथा भाषा और मन के अयोग्य जो 'पद्गल स्कन्ध हैं, उनकी अग्रहण वर्गगणा संज्ञा है। उत्ष्ट अग्रहण द्रव्यवर्गणा में एक अंक मिलाने पर सबसे जघन्य तैजस शरीर द्रव्यवर्गरणा होती है । पुनः एक-एक अधिक के क्रम से अभव्यों से अनन्तगुगणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमारण स्थान जाकर उत्कृष्ट तंजस-शरीर-द्रव्य-वर्गणा होती है। यह अपने जघन्य से उत्कृष्ट विशेष अधिक है । अभव्यों से अनन्त गुणा और सिद्धों के अनन्सवें भाग प्रमाण विशेष का प्रमाण है इसके गुद्गल स्कन्ध नंजस शरीर के योग्य होते हैं, इसलिए यह ग्रहण वर्गणा है । यह सातवीं वर्गणा है ।७।३
उत्कृष्ट तैजस शरीर द्रव्यवर्गणा में एक अंक मिलाने पर दूसरी अग्रहण द्रव्यवर्गणा मम्बन्धी पहली सर्व जघन्य अग्रहण द्रध्यवर्गणा होती है। फिर आगे एक-एक अधिक के क्रम से अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्त भाग प्रमाण स्थान जाकर दूसरी प्रग्रहण-द्रव्य-बर्गणा सम्बन्धी उत्कृष्ट बर्गगार होती है । वह अपनी जघन्य बर्गणा से अपनी उत्कृष्ट वर्गणा अनन्तगुणी है। यह पाँच शरीर, भाषा और मन के ग्रहण योग्य नहीं है. इसलिए इसकी अग्रहरण द्रव्यबर्गरणा संज्ञा है । यह आठवीं वर्गणा है ।।
दूसरी उत्वष्ट अग्रहण द्रव्यन्वनरणा में एक ग्रंक के प्रक्षिप्त करने पर सबसे जघन्य भाषा द्रव्यवर्गणा होती है । इससे आगे एक-एका अधिवः के क्रमसे अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के
१. धवल पु. १४ पृ. ५०-५६ । २. घबल पृ. १४ पृ. ५६ । ३. धवल पु. १४ पृ. ६० ।
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६६४/गो. सा. जीयकाण्ड
गाथा ५६४-५६५
अनन्तवें भाग प्रमारग जाकर भाषा द्रव्यवर्गणा सम्बन्धी उत्कृष्ट द्रव्यवर्गणा होती है। यह अपने जघन्य से उत्कृष्ट विशेष अधिक है। अपनी जघन्य वर्गणा का अनन्तवाँ भाग विशेष का प्रमाण है । भाषा द्रव्यवर्गणा के परमाणु पुद्गलस्कन्ध चारों भाषाओं के योग्य होते हैं तथा ढोल, भेरी, नगारा और मेघ का गर्जन आदि शब्दों के योग्य भी ये ही वर्गणायें होती हैं।
शङ्का नगारा आदि के शब्दों की भाषा संज्ञा कैसे है ।'
समाधान-नहीं, क्योंकि भाषा के समान होने से भाषा है इस प्रकार के उपचार से नगारा आदि के शब्दों की भी भाषा संज्ञा है। यह नौवीं वर्गणा है ।।
उत्कृष्ट भाषा द्रव्यवर्गणा में एक अंक मिलाने पर तीसरी अग्रहण द्रव्य वर्गणा सम्बन्धी सबसे जघन्य वर्गणा होती है। इसके आगे एक-एक अधिक के क्रम से अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्त भाग प्रमाण स्थान जाकर तीसरी अग्रहरण द्रव्यवर्गणा सम्बन्धी उत्कृष्ट वर्गणा होती है। यह अपने जघन्य से उत्कृष्ट अनन्तगुरगी होती है। अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्त भाग प्रमारण गुणाकार है। इसके भी पुद्गल स्कन्ध ग्रहणयोग्य नहीं होते हैं, क्योंकि ऐसा नहीं मानने पर इसको अग्रहरण संज्ञा नहीं बन सकती। यह दसवीं वर्गणा है ।१०।
__ तीसरी उत्कृष्ट अग्रहण द्रव्यवगंणा में एक अंक मिलाने पर जघन्य मनोद्र व्यवर्गरणा होती है। फिर आगे एक-एक अधिक के क्रम से अभव्यों से अनन्तगुर्ग और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण स्थान जाकर उत्कृष्ट मनोद्रव्यवर्गणा होती है। यह अपने जघन्य से उत्कृष्ट वर्गणा विशेष अधिक है। विशेष का प्रमाण सबसे जघन्य मनीद्रव्य वर्गणा का अनन्तवा भाग है। इस वर्गणा से द्रव्य मन की रचना होती है। यह ग्यारहवीं वर्गणा है ।११।'
उत्कृष्ट मनोद्रव्यवर्गणा में एक अंक मिलाने पर चौथी प्रग्रहण द्रव्य वर्गणा की सबसे जघन्य वर्गणा होती है। इससे आगे एक-एक प्रदेश के अधिक क्रम से अभब्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तबें भाग प्रमाण स्थान जाकर चौथी अग्रहणा द्रव्यवर्गणा सम्बन्धी उत्कृष्ट वर्गणा होती है। यह अपनी जघन्य वर्गणा से उत्कृष्ट वर्गणा अनन्तगुणी है। अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण गुणाकार है। यह ग्रहण योग्य नहीं होती। यह बारहवीं वर्गणा है ।१२।
चौथी अम्रहण द्रव्यवर्गणा सम्बन्धी उत्कृष्ट द्रध्यवर्गणा में एक अंक प्रक्षिप्त करने पर सबसे जघन्य कार्मण शरीर द्रव्यवर्गणा होनी है। आगे एक-एक प्रदेश अधिक के क्रम से अभव्यों से अनन्तगुरणे
और सिजों के प्रमन्तवें भाग प्रमाण स्थान जाकर कार्मण द्रव्यवगरणा सम्बन्धी उत्कृष्ट वर्गणा होती है। अपनी जघन्य वर्गणा से अपनी उत्कृष्ट बगंगा विशेष अधिक है। जघन्य कार्मण वर्गरणा का अनन्तवांभाग विशेष का प्रमाण है। इस वर्गणा के पुद्गल स्कन्ध पाठों कर्मों के योग्य होते हैं । यह तेरहवीं वर्गणा है ।१३।
उत्कृष्ट कार्मण वर्गरणा में एक ग्रंथ मिलाने पर जघन्य ध्रुव स्कन्ध द्रव्यवर्गणा होती है।
१. धवल पु. १४ पृ. ६१ । २. धवल पु.१४ पृ. ६२ ।
३. धवल पु. १४ पृ.६२।
४. धवल पु.१४ पृ. ६३ ।
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गाथा ५६४-५६५
मम्यक्त्व मागंगा/६६५
अनन्तर एक-एक अधिक के क्रम से सब जीवों से अनन्तगुणे स्थान जाकर ध्र वस्कन्ध द्रव्यवर्गणा सम्बन्धी उत्कृष्ट वर्गणा होती है । अपने जघन्य से अपनी उत्कृष्ट वर्गणा अनन्तगुणी है। सब जीवों से अनन्तगुणा गुणाकार है। यह ध्र वस्कन्ध पद का निर्देश अन्त्यदीपक है। इससे पिछली सब वर्गणायें ध्र व ही हैं। यह सौर इससे आगे की सब वर्गणा ग्रहण योग्य नहीं हैं। यह चौदहवीं वर्गरणा है ।१४
भ्र वस्कन्ध द्रव्यवर्गणाओं के ऊपर सान्तर-निरातर द्रव्यवगणा है। जी वर्गणा अन्तर के साथ निरन्तर जाती है उसको सान्तर-निरन्तर द्रव्यवगरणा संज्ञा है। यह सार्थक संज्ञा है । उत्कृष्ट ध्र वस्कन्ध द्रव्य वर्गणा में एक अंक के मिलाने पर जघन्य सान्तर-निरन्तर द्रव्यवर्गणा होती है। आगे एक-एक अंक के अधिक क्रम से सब जीवों से अनन्तगुणे स्थान जाकर सात्तर-निरन्तर द्रव्यवर्गणा सम्बन्धी उत्कृष्ट वर्गणा होती है । वह अपनी जघन्य वर्गणा से अचनी उत्कृष्ट वर्गणा अनन्तगुणी है । सब जीवों से अनन्तगुरणा गुणाकार है । यह भी अग्रहण बर्गणा ही है. क्योंकि आहार, तेजस, भाषा, मन और कर्म के अयोग्य है । यह पन्द्रहवीं वर्गरणा है ।१५।।
सान्त रनिरन्तर द्रव्यवर्गणानों के ऊपर ध्र व शून्य वर्गशा है । अतीत, अनागत और वर्तमान काल में इस रूप से परमाणु पुद्गलों का संचय नहीं होता, इसलिए इसकी ध्र वशून्य द्रव्य वर्गणा यह सार्थक संज्ञा है । उत्कृष्ट सान्तर निरन्तर द्रव्य वर्गणा के ऊपर एक परमाणु अधिक परमाणु पुदगलस्कन्ध तीनों ही काल में नहीं होता । दो प्रदेश अधिक तीन प्रदेश अधिक प्रादि के क्रम से सब जीवों से अनन्तगुरणं स्थान जाकर प्रथम ध्र वशून्य वर्गणा सम्बन्धी उत्कृष्ट बर्गरणा होती है। यह अपनी जघन्य वर्गणा से अपनी उत्कृष्ट वर्गणा अनन्तगुणी है। सब जीवों से अनन्तगुरगा गुणाकार है । यह वर्गणा सर्वदा शून्य रूप से अवस्थित है । यह सोलहवीं वर्गणा है ।१६।
भ्र बशून्य द्रव्य वर्गणा के ऊपर प्रत्येक शरीर द्रव्य वर्गणा है ।।११।।
एक-एक जीव के एक-एक शरीर में उपचित हुए कर्म और नोकर्म स्कन्धों की प्रत्येक शरीर द्रव्यवर्गणा संज्ञा है। अब उत्कृष्ट ध्र वशून्य द्रव्य वर्गणा में एक अंक मिलाने पर जघन्य प्रत्येक शरीर द्रव्यत्रणा होती है।
शंका -- यह जघन्य प्रत्येक शरीर द्रव्यवर्गणा किसके होती है ?
समाधान जो जीव सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकों में पल्य का प्रसंख्यातवाँ भाग कम कर्मस्थितिकाल तक क्षपित कर्माशिक रूप से रहा, पुनः जिसने पल्य के असंख्यात भाग प्रमाण संयमासंयम काण्डक, इनसे कुछ अधिक सम्यक्त्व काण्डक तथा अनन्तानबन्धी विसंयोजना काण्डक तथा पाठ संयम काण्डक करते हुए चार बार कपाय की उपशमना की। पुनः अन्तिम भव को ग्रहण करते हुए पूर्व कोटि प्रमाण आयुबाले मनुष्यों में उत्पन्न हुा । अनन्तर गर्भ-निष्क्रमण काल से लेकर पाठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त का होने पर सम्यक्त्व और संयम को एक साथ प्राप्त करके सयोगी जिन हो गया । अनन्तर
१. धन पु. १४ ए. ६४। १४५.६५।
२. धवल पु. १४ पृ. ६४-६५।
३. धवल पु. १४ पृ. ६५।
४. धवल पु.
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६६६/गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा ५६४-५६५
कुछ कम पूर्व कोटि काल तक प्रौदारिक और तंजमशरीर की अध:स्थितिगलना के द्वारा पूरी निर्जरा करके तथा कार्मण शरीर की गुमाश्रेणी निर्जरा करके अन्तिम समयवर्ती भव्य हो गया। इस प्रकार प्राकर जो प्रयोगकेवली के अन्तिम समय में स्थित है, उसके सबसे जघन्य प्रत्येक शरोर द्रव्य वर्गग्गा होती है। क्योंकि इसके शरीर में निगोद जीवों का अभाव है।
गुरिणत कर्माशिक नारकी जीव के अन्तिम समय में सर्वोत्कृष्ट द्रव्य के प्राप्त होने तक कामण शरीर के दोनों पुजों को उत्कृष्ट करना चाहिए।
शंका-बक्रियिक शरीर के विस्नसोपचय से ग्राहारक शरीर का विस्रसोपचय असंख्यातगुरणा है, इसलिए प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारक, तेजस और कार्मण शरीर के छह पुञ्ज ग्रहण करके प्रत्येक शरीर वर्गणा एक जीव सम्बन्धी क्यों नहीं कही?
समाधान- नहीं, क्योंकि मतिम समयवर्ती नारनी दोघोड़कर तेजस और नामरण शरीर का अन्यत्र उत्कृष्ट द्रव्य उपलब्ध नहीं होता । जहाँ पर तेजस और कामगा शरीर जघन्य होते हैं वहाँ पर प्रत्येक शरीर द्रव्यवर्गणा सबसे जघन्य होती है और जहाँ पर इनका उत्कृष्ट द्रव्य उपलब्ध होता है वहाँ पर प्रत्येक शरीर वर्गणा उत्कृष्ट होती है। परन्तु प्रमत्तसंयत मनुष्य के प्रत्येकशरीर वर्गणा उत्कृष्ट नहीं होती, क्योंकि उनके गुणधेरणी निर्जरा के द्वारा और अध:स्थितिगलना के द्वारा तेजस ब कार्मण शरीर का द्रव्य गलित हो जाता है। यदि व-हा जाय कि गलित हुए तैजस और कामश शरीर के द्रव्य से प्राहारक शरीर की द्रव्य वर्ग रणाएं बहुत होती हैं, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यह उनके अनन्तवं भाग प्रमाण होता है। अतः प्रमत्तसंयत गुणस्थान में प्रत्येक शरीर वर्गणा उत्कृष्ट नहीं होती।
यहाँ पर कर्मस्थिति-काल के भीतर संचित हुए पाठ प्रकार के कर्मप्रदेणसमुदाय की कामगाशरीर संज्ञा है । छयासठ सागर काल के भीतर संचित हुए नोक.मंप्रदेश समुदाय की तैजस शरीर संज्ञा है। तैंतीस सागर काल के भीतर संचित हुए नोकर्मप्रदेश समुदाय की वैऋियिक गरीर संज्ञा है। क्षुल्लक भव ग्रहण काल से लेकर तीन पल्य काल के भीतर संचित हुए नोकर्मप्रदेश समुदाय की ग्रौदारिका शरीर संज्ञा है। और अन्तमुहुर्त काल के भीतर संचित हुए नोकर्मप्रदेश समुदाय की आहारक शरीर संजा है। इसलिए नारकी जीव के अन्तिम समय में ही उत्कृष्ट स्वामित्व देना नाहिए।' यह सत्रहवीं वर्गणा है ।१५।
उत्कृष्ट प्रत्येक शरीर धर्गणा में एक अंक मिलाने पर दुसरी ध्र वशुन्य वर्गणा सम्बन्धी सबसे जघन्य ध्र बशुन्य द्रव्य बगंगा होती है। अमन्तर एक-एक अधिक के क्रम से आनुपूर्वी से सब जीवों से अनन्तगुणी न वशुन्य वर्गणाओं के जाने पर उत्कृष्ट ध्र वशून्य वर्गणा उत्पन्न होती है। बह जघन्य वर्गणा से अनन्तगुणी है । सब जीवों का असंख्यातवाँ भाग गुणाकार है। एकान्तवादी दृष्टि के समान यह सदाकाल शुन्य रूप से अवस्थित है। यह अठारहवीं वर्गणा है ।१८।७
--- १. धवल पु. १४ पृ. .५-६६। २. व ३. पबल पु. १४ पृ. ७७ । ४. धवल पु १४ पृ. ७७-७८ 1 ५. धवल पु. १४ पृ. ७८ । ६. धवल पु. १४ पृ. ८३ । ७. धवल पु. १४ पृ. ८४ ।
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सम्यन्त्रमार्गगग / ६६७
उत्कृष्ट वशून्य द्रव्यवगंगा में एक अंक अर्थात् एकप्रदेश के मिलाने पर सबसे जघन्य बादर निगोद द्रव्यवगंगा होती है । वह क्षीणकषाय के अन्तिम समय में होती है। जो जीब क्षपित कर्माणिक विधि से आकर पूर्व कोटि की आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ, अनन्तर गर्भ से लेकर ग्राउ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त का होने पर सम्यक्त्व और संयम को युगपत् ग्रहण करके पुनः कुछ कम पूर्व कोटि काल तक कर्मों की उत्कृष्ट गृशारगी निर्जरा करके सिद्ध होने के अन्तर्मुहूर्त काल अवशेष रहने पर उसने क्षपकश्रेणी पर आरोहण किया । अनन्तर क्षपकश्रेणी में सबसे उत्कृष्ट विशुद्धि के द्वारा कर्मनिर्जरा करके क्षीराकषाय हुए इस जीव के प्रथम समय में अनन्त बादर निगोद जीव मरते हैं । दूसरे समय में विशेष अधिक जीव मरते हैं। इसी प्रकार तीसरे यदि समयों में विशेष अधिक विशेष अधिक जीव मरते हैं । यह क्रम क्षीणकषाय के प्रथम से लेकर पृथक्त्वमावली काल तक चालू रहता है । इसके ग्रागे संख्यात भाग अधिक संख्यातभाग अधिक जोब मरते हैं । और यह क्रम क्षीणकषाय काल में प्रावली का संख्यातवाँ भाग काल शेष रहने तक चालू रहता है। इसके पश्चात् निरन्तर प्रति समय संख्यातगुणे जीव मरते हैं। इस प्रकार क्षीणकषाय के अन्तिम समय तक असंख्यात गुणे जीव मरते हैं । गुणाकार सर्वत्र पल्योपम का प्रसंख्याता भाग है ।'
गाथा ५६४-५६५
यहाँ क्षीणकषाय के अन्तिम समय में जो प्रावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण पुलवियाँ हैं, जो कि पृथक-पृथक प्रसंख्यात लोकप्रमाण निगोद शरीरों से अपूर्ण हैं उनमें स्थित अनन्तानन्त निगोद जीवों के जो अनन्त विस्रमोपचय से युक्त कर्म और नोकर्म संघात है, वह सबसे जघन्य बादर निगोद वर्गणा है। स्वयंभूरमण द्वीप की मुली के शरीर में उत्कृष्ट बावर निगोद वगंरणा होती है क्योंकि मूली के शरीर में एकबन्धनबद्ध जगच्छ्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण पुलवियाँ होती हैं। इस प्रकार यह उसीसवीं वर्गणा कही गई है | १६ |
उत्कृष्ट बाद निगोद वर्गणा में एक अंक मिलाने पर तीसरी ध्रुवशुन्य वर्गणा की सबसे धन्य धन्य वर्गरणा होती हैं। पुनः इसके ऊपर प्रदेश अधिक के क्रम से सब जीवों से अनन्तगुणे स्थान जाकर तीसरी ध्रुवशून्य वर्गरणा की सबसे उत्कृष्ट वर्गणा होती है। अपनी जघन्य से उत्कृष्ट वर्गणा असंख्यातगुणी है। ग्रगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण गुणाकार है। यह बीसवीं वर्गणा है | २० |
उत्कृष्ट ध्रुवशुन्य वर्गणा में एक अंक के मिलाने पर सूक्ष्म निगोद द्रव्यवर्गणा होती है । वह जल में, स्थल में और ग्राकाश में सर्वत्र दिखलाई देती है, क्योंकि बादर निगोद वर्गणा के समान इसका देश नियम नहीं है । यह सबसे जघन्य सूक्ष्म निगोद वर्गणा क्षपित कर्माशिक विधि से और क्षपित घोलमान विधि से आये हुए सूक्ष्म निगोद जीव के ही होती है, अन्य के नहीं, क्योंकि वहाँ जघन्य द्रव्य के होने में विरोध है । महामत्स्य के शरीर में एकबन्धनबद्ध छ जीवनिकायों के संघात में उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोदवर्गणा दिखलाई देती है । जघन्य सूक्ष्म निगोदवर्गशा से लेकर उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोदaणा पर्यन्त सब जीवों से अनन्तगुणे निरन्तर स्थान प्राप्त होकर एक ही स्पर्धक होता है, क्योंकि मध्य में कोई अन्तर नहीं है । जघन्य वर्गणा से उत्कृष्ट वर्गणा असंख्यात गुणी है। पत्य का असंख्यात भाग गुणाकार है | यह इक्कीसवीं वर्गरणा है | २१|
२. धवल पु. १४ पृ. ६१
१. धवल पु. १४ पृ. ८५ 1 ३. धवल पु. १४ पृ. १११ । ४. घवलपु. १४ पृ. ११२-११३ । ५. धवल पु. १४ पृ. ११३-११४ । ६. धवल पु. १४ पृ. ११६ ।
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६६८ नो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५६६-६००
उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद द्रव्य वर्गणा में एक अंक मिलाने पर चौथी ध्र वशून्य वर्गरणा की सबसे जघन्य वर्गणा होती है । अनन्तर एक अधिक के क्रम से सब जीवों से अनन्त गुणे स्थान जाकर उत्कृष्ट ध्र वशुन्य द्रव्य वर्गणा होती है। यह जघन्य से उत्कृष्ट असंख्यातगुणो है । जगत्तर का असंख्यातवा भाग गुणाकार है, जो कि असंख्यात जगश्रेणी प्रमाण है । यह बाईसवी वर्गणा है ।२२।'
उत्कृष्ट ध्र वशून्य द्रव्यबर्गरणा में एक अंक मिलाने पर सबसे जघन्य महास्कन्ध द्रव्यवर्गणा होती है। अनन्तर एक अधिक के क्रम से सब जीवों से अनन्तगुणे स्थान जाकर उत्कृष्ट महास्कन्ध द्रव्य वर्गणा होती है। यह जघन्य से उत्कृष्ट विशेष अधिक है। सबसे जघन्य महास्कान्य वर्गणा में पल्य के असंख्यातवें भाग का भाग देने पर जो लब्ध प्रावे उतना विशेष का प्रमाण है । यह तेईसवी वर्गणा है ।२३।
जघन्य से उत्कृष्ट प्राप्त करने के लिए प्रतिगाग व गुणाकार प्रादि का कथन
परमाणुवग्गणम्मि रण अवरुक्कस्सं च सेसगे अस्थि । गेज्झ महक्खंधाणं वरमहियं सेसगं गुरिणयं ॥५६६॥ सिद्धाणतिमभागो पडिभागो गेमगारण जेठं । पल्लासंखेज्जदियं अंतिमखंघस्सजेटुढें ॥५६७॥ संखेज्जासंखेज्जे गुणगारो सो दृ होदि हु अणते । चत्तारि अगेज्जेसु वि सिद्धारणमणंतिमो भागो ॥५६॥ जीवादोणंतगुणो धुवादितिष्ठं असंखभागो दु । पल्लस्स तदो तत्तो असंखलोगवहिदो मिच्छो ॥५६६।। सेढी सूई पल्ला जगपदरा संखभागगुरणगारा ।
अप्पप्परगप्रवरादो उक्कस्से होंति रिणयमेण ॥६००। गाथार्थ -परमाणु वर्गरणा में जघन्य व उत्कृष्ट का भेद नहीं है । शेष वर्गणाओं में जघन्य व उत्कृष्ट का भेद है ।। ५६६।। ग्रहण वर्गणाओं में उत्कृष्ट प्राप्त करने के लिए सिद्धों का अनन्तवा भाग प्रतिभाग है । अन्तिम महास्कन्ध में उत्कृष्ट प्राप्त करने के लिए पल्य का असंख्याता भाग प्रतिभाग है।।५६७।। संख्यात परमाणु द्रव्यबगंगणा में संन्यात गुणाकार है और असंख्यातप्रदेशी परमाण द्रव्यबर्गणा में गुणाकार असंख्यात है। अनन्त परमाणु द्रव्यवर्गणा में और चार अग्रहण-वर्गणाओं में सिद्धों या अनन्तवाँ भाग (अथवा अभव्यों से अनन्तगुरणा) गुरणाकार है ।।५६८।। ध्र ब अादि तीन वर्गणाओं में गुगाकार जीवराशि से अनन्तगुणा है। उससे आगे की वर्गणा में गुगाकार पल्य का असंख्यातवाँ भाग है । उससे पागे को वर्गगणा में गुणाकार असंन्यात लोक से भाजित मिथ्याष्टि जीवराशि है ।। ५६६।। उसमे आगे गुणाकार क्रम से श्रेणी का असंख्यातवां भाग, सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग, पत्य का असंख्यातर्वा भाग और जगत्प्रतर का असंख्यातवाँ भाग है। जघन्य को गुणावार से गुणा करने पर अपना-अपना उत्कृष्ट प्राप्त हो जाता है ।।६००|| १. धवल पु. १४ पृ. ११६-११३ । २. धवल पु. १४ पृ. ११७ ।
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गाथा ६०१-६०३
सम्यक्त्वा / ६६६
विशेषार्थ - यह कथन गाथा ५६४- ५६५ के विशेषार्थ में किया जा चुका है।
नीचे की उत्कृष्ट वर्गला से ऊपर की जधन्य वर्गरणा का अन्तर कसं पुरण वहियं उवरिमं जहणं खु । इदि तेवीसवियप्पा पुग्गलदव्वा हु जिरणदिट्ठा || ६०१ ||
गाथार्थ - गुद्गल द्रव्य की तेईस वर्गणाओं में अपने से नीचे की उत्कृष्ट वर्गणा में एक अंक मिलाने से ऊपर की जघन्य वर्गणा का प्रमाण होता है। ऐसा जिन (श्रुतकेबली) ने कहा है ||६०१ ||
विशेषार्थ - देखो गाथा ४३४ ५०५ का विष
इन तेईस वर्गणाओं का विशेष कथन धवल पुस्तक १४ से देखना चाहिए । पुद्गल के छह भेद
पुढवी जलं च छाया चउरिदियविषयकम्मपरमाणू 1 छविवहभेयं भरियं पोग्गलदथ्यं जिरणवरेहिं ।। ६०२ ।। ' बादरबादर बादर बादरसुहमं च सुहमथूलं च । सुमं च सुमसुमं च घरावियं होदि छम्भेयं ॥। ६०३ ॥ २
गाथार्थ - १. पृथिवी, २. जल, ३ छाया, ४ चार इन्द्रियों का विषय, ५. कार्मरणवर्गणा और ६. परमाणु श्री जिनेन्द्र ने पुद्गलद्रव्य के ये छह भेद कहे हैं ||६०२ ।। १. बादरवादर २. बादर, ३. बादर सूक्ष्म, ४. सूक्ष्मबादर, ५. सूक्ष्म, ६. सूक्ष्म सूक्ष्म ये पृथिवी जल आदि की संज्ञा है ||६०३॥
विशेषार्थं जो छेदाभेदा जा सके तथा एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सके वह बादरबादर पुद्गल है जैसे काष्ठ, पाषाण, पृथिवी यादि । जो छेदन होने पर स्वयं नहीं जुड़ सकते वे बादरवादर हैं, जैसे भूमि, पर्वतादि । जो छेदाभेदा न जा सके किन्तु अन्यत्र से जाया जा सके वह बादर है जैसे जल | अथवा जो छेदे जाने पर तुरन्त स्वयमेव मिल जाये, वे बादर हैं, जैसे तेल, जल आदि । जो न छेदेभेदे जा सकें और न अन्यत्र ले जाये जा सकें वे वादर सूक्ष्म है जैसे छाया २७ अथवा जो हाथ से पकड़े नहीं जा सकते या हाथ द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते श्रीर न देशान्तर को लेजाये जा सकते हैं; वे बादर-सूक्ष्म हैं, जैसे छाया, धूप आदि ।" चक्षुइन्द्रिय के अतिरिक्त अन्य चार इन्द्रियों का विषयभूत बाह्य पदार्थ सूक्ष्म स्थूल है ।" अथवा जो पुद्गल चक्षु इन्द्रिय का विषय तो नहीं है किन्तु शेष चार इन्द्रियों का विषय होता है वह सूक्ष्म बाबर है ।" कर्म सूक्ष्म है, जो देशावधि
परमावधि ज्ञान का विषय है वह सूक्ष्म है 119 ग्रथवा ज्ञानावरण आदि कर्मों के योग्य कारण वर सूक्ष्म हैं क्योंकि ये इन्द्रियाँ ज्ञान का विषय नहीं हैं । १२ परमाणु सूक्ष्मसूक्ष्म है, जो सर्वावधि ज्ञान का विषय है वह सब सुक्ष्म सूक्ष्म है । 13 कारणाओं से परे अर्थात् कार्मणवरणाओं से भी अत्यन्त सूक्ष्म दि श्रणुक स्कन्ध पर्यन्त सूक्ष्मसुक्ष्म है ।
१. धवल पु. ३ पृ. ३ जयबवल पु. १ पृ. २१५ वसुनन्दि श्रावकाचार गा. १८ : लघु ब्रव्य संग्रह गा. ७, पंचास्तिकाय गा. ७६ क स्व. का. पु. १३६ १ २. स्वा. का. प्र. पू. १३६ । ३. स्वा.का प्र. पू. १३६ । ४६.८.१०. १२. १४. पं. का. ग. ७६ की टीका ५. ७. ६. ११. १३. स्वा. का. म. गाथा २०६ की टीका ।
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६७० / गो. सा. जीवकाण्ड
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. २०६ की टोका में बादरबादर आदि ग्रह भेद पुद्गल की अपेक्षा से किये गये हैं इसलिए सूक्ष्मसूक्ष्म में परमाणु को भी ग्रहण कर लिया है किन्तु पंचास्तिकाय की टोका में बादरबादर आदि यह भेद कक्ष से किये गये हैं, इसलिए इन्होंने परमाणु को ग्रहण न करके स्कन्ध पर्यन्त ही सूक्ष्मसूक्ष्म का कथन किया है। क्योंकि परमाणु स्कन्ध नहीं है किन्तु सर्वावधि ज्ञान का विषय है। वह देशावधि या परभावधि ज्ञान का भी विषय नहीं है ।
अन्य प्रकार से पुद्गल के भेदों का कथन
खंधं सयलसमत्थं तस्स य अद्ध भांति देसोति । श्रद्धद्ध च पदेसो प्रविभागो चेव
गाथा ६०४
परमाणू ।।६०४।।'
गाथार्थ - सकल व समस्त पुद्गलद्रव्य स्कन्ध है, उस स्कन्ध का श्राधा देश है। स्कन्ध के प्राये का आधा प्रदेश है । परमाणु प्रतिभागी है || ६०४ ।।
विशेषार्थ - "सयलसमत्यं" भिन्न-भिन्न टीकाकारों ने इसके भिन्न-भिन्न अर्थ किये हैं, जो इस प्रकार हैं। मूलाचार की टीका में श्री वसुनन्दि श्राचार्य ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है
"सयल सह कलाभिर्वर्तते इति सकलं सभेदं परमाण्वन्तं । समत्थं समस्तं सर्वं पुद्गलद्रयं । सभेदं स्कन्धः सामान्य विशेषात्मकं पुद्गलदव्यमित्यर्थः ।" 'सयल' का अर्थ सकल न करके 'भेद सहित परमाणु पर्यन्त' यह अर्थ किया है। 'समत्थं' का अर्थ समस्त अर्थात् सर्व पुद्गल द्रव्य ऐसा किया है। इस प्रकार 'स्कन्ध' का अर्थ भेद सहित सामान्य विशेषात्मक पुद्गल द्रव्य किया गया है। इसी बात को वसुनन्दि-श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है- "सयलं मुणेहि संधं ।" सकल पुद्गल द्रव्य को स्कन्ध कहते हैं। श्री वसुनन्दि आचार्य ने समस्त पुद्गल द्रव्य को स्कन्ध कहा है ।
श्री श्रमृतचन्द्राचार्य ने "अनन्तानन्तपरमाण्वारब्धोऽप्येकः स्कन्धो नाम पर्यायः ।" यह अर्थ किया है । अनन्तानन्त परमाणुओं से निर्मित होने पर भी जो एक हो वह स्कन्ध नाम को पर्याय है ।
कहा है
श्री जयसेन श्राचार्य ने इस प्रकार अर्थ किया है- " समस्तोपि विवक्षितघटपटाघखण्डरूप: सकल इत्युच्यते तस्यानन्तपरमाणुपिण्डस्य स्कन्धसंज्ञा भवति । समस्त अर्थात् विवक्षित घट पट आदि अखण्ड रूप एक को सकल कहते हैं। उस अनन्त परमाणुत्रों के पिण्ड की स्कन्ध संज्ञा है ।
श्री शुभचन्द्राचार्य ने स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २०६ व २७२ की टीका में इस प्रकार
"स्कन्धं सर्वांशसम्पूर्ण भान्ति ।" जो सर्वांशसम्पूर्ण हो वह स्कन्ध है ।
श्री वसुनन्दि प्राचार्य ने स्कन्ध में समस्त पुद्गलद्रव्य को ग्रहण किया है किन्तु अन्य प्राचार्यों ने घट पट यदि एक अखण्ड पुद्गल पर्याय को स्कन्ध कहा है, क्योंकि वह सर्वाशसम्पूर्ण है। स्कन्ध
१. पंचास्तिकाय गा. ७५ किन्तु 'य' के स्थान पर 'दु है। मूलाचार ५३३४ किन्तु 'परमाणू चेय श्रविभागी राट हैं, स्वा. का. प्र. गा. ९०६ टीका, वि. प. ११६५ ॥ २. पं. का. गा. ७५ समय व्याख्या टोका। ३. प. का. ग्रा. ७५ तात्पयं वृत्ति टीका |
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गाथा ६०५- ६०८
सम्यकत्रमागंगा/ ६०१
का प्राधा 'देश' है । स्कन्ध के आधे के साधे को प्रदेश कहते हैं। इस प्रकार यात्रा-यात्रा तब तक करते जाना चाहिए जब तक द्विग्रस्य प्राप्त हो, सब मे प्रदेश हैं । परमाणु निरंश है जिसका विभाग नहीं हो सकता, इसलिए परमाणु को द्रव्याथिक नय में प्रतिभागी कहा है ।"
स्वन्ध की आधी स्कन्धदेश नामक पर्याय है, आधी की आधी स्कन्धप्रदेश नाम की पर्याय है । इस प्रकार भेद के कारण द्वि-अणुक स्कन्ध पर्यन्त ग्रनन्त स्कन्ध्रप्रदेशरूप पर्याये होती है। निर्विभाग एक प्रदेशवाला, स्कन्ध का अन्तिम अंश एक परमाणु है ।
श्री जयसेन श्राचार्य ने इसको दृष्टान्त द्वारा समझाया है - जैसे १६ परमाणुओं को पिण्ड रूप करके एक स्कन्ध बना। इसमें एक-एक परमाणु घटाते हुए नब परमाणुओं के स्कन्ध तक स्कन्ध के ही भेद होंगे अर्थात् नो परमाणुओं का जघन्य स्कन्ध और सोलह परमाणुओं का उत्कृष्ट स्कन्ध, शेष मध्य के भेद जानने । श्राट परमाणुयों के पिण्ड को स्कन्धदेश कहेंगे क्योंकि वह सोलह से श्राधा रह गया। इसमें भी एक-एक परमाणु घटाते हुए पाँव परमाणु स्कन्ध तक स्कन्धदेश के भेद होंगे। उनमें जघन्यस्कन्धदेश पांच परमाणुओं का तथा उत्कृष्टस्कन्धदेश आठ परमाणुओं का व मध्य के अनेक भेद हैं। चार परमाणुयों के पिण्ड की स्कन्धप्रदेश संज्ञा है। इसमें भी एक-एक परमाणु घटाते हुए दो परमाणु स्वन्ध तक प्रदेश के क्षेत्र हैं । अर्थात् जघन्य स्कन्ध- प्रदेश दो परमाणु स्कन्ध- प्रदेश है, उत्कृष्ट चार परमाणु स्कन्ध प्रदेश है । मध्य तीन परमाणु का स्वध प्रदेश है । ये सब स्कन्ध के भेद हैं । सबसे छोटे विभाग रहित पुद्गल को परमाणु कहते हैं। "
asों द्रव्यों का फलाधिकार अर्थात् उपकार
गारोह किरियासाधरणभूदं खु होदि धम्मतियं । वत्तरण किरियासाहरणभूदो यि मेर कालो दु ।।६०५ ।। प्रोष्णुवयारेण य जीवा वट्टति पुग्गलारिण पुरणो । देहावीरिणव्वत्तकारणभूदा हु पियमे ।। ६०६ ।। *
श्राहारवग्गणादो तिथि सरीराति होंति गुस्सा सोवि य तेजोवग्गणबंधातु भासमरणवग्गगावो कमेण भासा मरणं च कम्मादो | प्रदुषिहम्मदम्वं होबित्ति जिहि गिहि ||६०८ ||
उत्सासो ।
गाथार्थ - धर्मादि तीन द्रव्य गति, स्थिति और अवगाह इन क्रियाओं के वर्तन क्रिया का साधनभूत नियम से काल द्रव्य है ||६०५ || जीव परस्पर एक करते हैं और पुद्गल द्रव्य नियम से शरीर यादि की रचना का वर्गणा से तीन शरीर और श्वासोच्छ्वास बनते हैं। तेजोवर्गणा रूप स्कन्ध से तेजस शरीर बनना
साधनभूत होते हैं 1 दूसरे का उपकार कारगाभूत हैं ||६०६ ।। प्राहार
१. मूलाचार ५।३४ की टीका । को तात्पर्य वृत्ति टीका ।
२. पंचास्तिकाय गाथा ७५ समयव्याख्या टीका । ४. व ४. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा मा २०६ की टीका ।
तेजंग ||६०७।। *
३. पंचास्तिकाय मा
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६७२ / गो. सा जीवकाण्ड
गाथा ६०५-६०८
है || ६०७ || भाषावर्गणा से वचन व मनोवगंगा से द्रव्य मन की रचना होती है और कार्मण वर्गरगाओं से आठ प्रकार के कर्म बँधते हैं, इस प्रकार जिन ( श्रुतकेबली) के द्वारा कहा गया है।
।।६०६ ।।
विशेषार्थ - गाथा ५६७ व ५६८ में व उनके विशेषार्थ में धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य व काल द्रव्य के गति आदि उपकार का कथन सविस्तार किया जा चुका है।
स्वामी और सेवक तथा आचार्य और शिष्य इत्यादि रूप से वर्तन करना परस्परोपग्रह है । स्वामी तो धन आदि देकर सेवक का उपकार करता है और सेवक हित का कथन करके तथा अहित का निषेध करके स्वामी का उपकार करता है। प्राचार्य दोनों लोकों में सुखदायी उपदेश द्वारा तथा उस उपदेश अनुसार क्रिया में लगाकर शिष्यों का कारक भी आचार्य के अनुकूल प्रवृत्ति करके आचार्य का उपकार करते हैं।' अथवा गुरु की सेवा शुश्रूषा पादमंदन आदि करके शिष्य भी गुरु का उपकार करते हैं। इसी प्रकार पिता-पुत्र, पति-पत्नी, मिश्र-मित्र परस्पर में उपकार करते हैं ।
पुद्गल भी जीव का उपकार करता है। कहा भी है- 'शरोर-वाड, मनः - प्राणापाना: पुद्गलानाम् ||५ / १६३
जीवस्स बहु-पयारं उबधारं कुराबि पुग्गलं दव्वं ।
देहं च इंवियाणि य वारणी उस्सास - णिस्सासं ॥ २०८ ॥
[स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा ]
- शरीर, वचन, मन और प्राणापान (उच्छवास ) यह पुद्गलों का उपकार है। पुद्गलद्रव्य जोव का बहुत तरह से उपकार करता है, शरीर बनाता है, इन्द्रिय बनाता है, वचन बनाता है और श्वासोच्छ्वास बनाता है ।
गा. ५६४- ५६५ के विशेषार्थ में पुद्गल की २३ वर्गणाओं के कथन में यह बतलाया जा चुका है कि प्रहार वर्गणात्रों से औदारिक, वैक्रियिक व आहारक इन तीन शरीरों की रचना होती है। तेजस वर्गणा से तेजस शरीर की भाषा वर्गणा से वचन की, मनोवगंणा से मन की और कर्मवणाओं से आठ प्रकार के कर्मों की प्रथवा कार्मण शरीर की निष्पत्ति होती है। ये पाँच वर्गगाएँ ही ग्राह्य वर्गणाएँ हैं और शेष या वर्गणा हैं, क्योंकि वे जीव के द्वारा ग्रहण के अयोग्य हैं ।
जिस वर्ग के पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण कर तीन शरीरों की निष्पत्ति होती है वह माहार चणा है । अर्थात् श्रदारिक शरीर वैक्रियिक शरीर और प्राहारक शरीर के जिन द्रव्यों को ग्रहण कर श्रदारिक, वैक्रियिक और श्राहारक शरीर रूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, उन द्रव्यों की आहार द्रव्यवर्गणा संज्ञा है। आहार शरीर वर्गरगा के भीतर कुछ वर्गणाएँ प्रदारिक शरीर के योग्य हैं, कुछ वर्गणाएँ वैक्रियिक शरीर के योग्य हैं और कुछ वर्गणाएँ आहारक शरीर के योग्य हैं । इस प्रकार आहार बर्गेणा तीन प्रकार की है ।
१. सर्वार्थसिद्धि ५/२० । २. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. २१० की टीका । ३. तत्त्वार्थमुत्र । ४. धवल पु. १४
पृ. ५४६-५४७ ।
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गाथा ६०५-६०८
सम्यक्त्वमार्गग्गा/६७३
शंका-ये तीन प्रकार की आहारवर्गणाएँ क्या परस्पर समान हैं या हीनाधिक प्रदेश वाली
समाधान--श्रीदारिक शरीर द्रव्यवर्गणाएँ प्रदेशार्थता की अपेक्षा सबसे स्तोक है। १७८५।। वैक्रियिक शरीर द्रव्य वर्गणाएँ प्रदेशार्थता की अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं ।।७६६।। आहारकशरीर द्रव्यवर्गणाएँ प्रदेशार्थता की अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं ।।७८७|| एक ही समय में एक ही योग से आगमन योग्य वर्गणाओं की अपेक्षा से यह कथन है, क्योंकि तीन जीवों के एक ही समय में एक योग सम्भव है।' इससे जाना जाता है कि इन तीनों शरीरों में प्रदेश समान नहीं है । कहा भी है
"प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसात् ॥२॥३८॥" [तत्त्वार्थसूत्र] ... तैजस शरीर से पूर्व प्रौदारिक, वैऋियिक, आहारक इन तीन शरीरों में आगे-मागे का शरीर प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यातगुणा है ।
अवगाहना की अपेक्षा कार्मणशरीर द्रव्यवर्गणाएँ सबसे स्तोक हैं ॥७६०।। मनोद्रव्य वर्गणाएँ अवगाहना की अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं ।।७६१।। भाषा द्रव्य वर्गणाएं अवगाहना की अपेक्षा असंख्यात गुगगी हैं ।।३६२।। तैजस शरीर द्रव्य वर्गणाएँ अबगाहना की अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं ।।७६३।। आहारक शरीर द्रव्य वर्गणाएँ अवगाहना की अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं ।।७६४।। वैऋियिक शरीर की द्रव्यावर्गमा अवगाहना की अपेक्षा अवगत गी है १७६५।। प्रौदारिक शरीर द्रव्य वर्गणाएँ अवगाहना की अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं ।।७६६।२
शङ्का--इन तीन शरोरों की वर्गणाएं अवगाहना के भेद से और संख्या के भेद से पृथक्-पृथक हैं नो आहार वर्गणा एक ही है, ऐसा क्यों ?
समाधान- नहीं, क्योंकि अग्रहण वर्गणानों के द्वारा अन्तर के प्रभाव की अपेक्षा इन वर्गणाओं के एकत्व का उपदेश दिया गया है।"
शङ्का-कार्मण शरीर का कोई प्राकार नहीं पाया जाता अतः उसे पौद्गलिक मानना युक्त नहीं है?
समाधान - नहीं, कार्मण शरीर भी पौद्गलिक है, क्योंकि उसका फल मूर्तिमान् पदार्थों के सम्बन्ध से होता है । जिस प्रकार जलादिक के सम्बन्ध से पकने वाले धान अादि पौद्गलिया हैं, उसी प्रकार कार्मणशरीर भी गुड़ व क्राटे प्रादि मूतिमान पदार्थों के मिलने पर फल देते हैं। अतः कार्मणशरीर पौद्गलिक है ।
वचन दो प्रकार का है द्रव्य वचन और भाव वचन । इनमें से भाववचन वीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरण तथा श्रुतज्ञानावरण कर्मों के क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्म के निमित्त से होता है इसलिए वह पौद्गलिक है; क्योंकि पुद्गलों के अभाव में भाववचन का मुद्भाव नहीं पाया जाता है ।
२. धवल पु. १४ पृ. ५६२-५६४ ।
३. धवल पृ. १४ पृ. ५४७ ।
१. धबल पु. १४ पृ. ५६०-५६१ । ४. सर्वार्थ सिद्धि ५/१६ ।
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६७४ / गो मा जीव काष्ट
क्योंकि इस प्रकार की सामर्थ्य से युक्त क्रियावाले आत्मा के द्वारा प्रेरित होकर पुद्गल वचन रूप से परिणमन करते हैं, इसलिए द्रव्य वचन भी पौद्गलिक हैं। दूसरे द्रव्य वचन श्रोत्र इन्द्रिय का विषय है इससे भी ज्ञात होता है कि बनन पौद्गलिक है ।
शंका- बचन इतर (अन्य ) इन्द्रियों का विषय क्यों नहीं है ?
समाधान- घ्राण इन्द्रिय गन्ध को ग्रहण करती है उससे रसादि की उपलब्धि नहीं होती, उसी प्रकार इतर इन्द्रियों में बचन के ग्रहण करने की योग्यता नहीं है ।
शङ्का - वचन अमूर्त हैं ?
गाथा ६०५- ६०८
समाधान- नहीं, क्योंकि वचनों का मूर्त इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण होता है, वे मूर्त भीत आदि के द्वारा रुक जाते हैं, प्रतिकूल वायु आदि के द्वारा उनका व्यापात देखा जाता है, तथा अन्य कारणों से उनका अभिभव देखा जाता है, इससे शब्द का मूर्तपना सिद्ध होता है ।
मन दो प्रकार का है द्रव्य मन और भाव मन । लब्धि और उपयोग लक्षण भाव मन पुद्गलों के आलम्बन से होता है इसलिए पौद्गलिक है। तथा ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से तथा गोशंग नामकर्म के निमित्त से जो पुद्गल गुणदोष का विचार और स्मरण आदि उपयोग के सम्मुख हुए आत्मा के उपकारक हैं, के हो मन रूप से परिणत होते हैं, अतः द्रव्य मन भी पौद्गलिक है ।
शंका - मन एक स्वतन्त्र द्रव्य है । वह रूपादि परिणमन से रहित है और अणुमात्र है, इसलिए उसे पौगलिक मानना प्रयुक्त है।
समाधान - इस प्रकार की शंका प्रयुक्त है। क्या वह मन आत्मा और इन्द्रियों से सम्बद्ध हैं या सम्बद्ध ? यदि श्रसम्बद्ध है तो वह आत्मा का उपकारक नहीं हो सकता और इन्द्रियों की सहायता भी नहीं कर सकता। यदि सम्बद्ध है तो जिस प्रदेश में वह प्रणुमन सम्बद्ध है, उस प्रदेश को छोड़कर इतर प्रदेशों का उपकार नहीं कर सकता । ग्रतः यह सिद्ध होता है कि मन अणुमात्र नहीं है, बल्कि सर्व ग्रात्मप्रदेशों में व्याप्त होकर स्थित है।
शङ्का--अदृष्ट नाम का एक गुण है, उसके वश से यह मन प्रलातचक्र के समान सब प्रदेशों में घूमता रहता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि अदृष्ट नाम के गुण में इस प्रकार का सामर्थ्य नहीं पाया जाता । यतः अमूर्त और निष्क्रिय श्रात्मा का अष्ट गुगा है। अतः यह गुण भी निष्क्रिय है इसलिए अन्यत्र क्रिया का आरम्भ करने में असमर्थ है। देखा जाता है कि वायु नामक द्रव्यविशेष स्वयं क्रियावाला और स्पर्णवाला होकर ही वनस्पति में परिस्पन्द का कारण होता है परन्तु यह लक्षणवाला है, इसलिए यह क्रिया का हेतु नहीं हो सकता ।
उससे विपरीत
वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नाम कर्म 'उदय की अपेक्षा रखनेवाला श्रात्मा कोष्टगत जिस वायु को बाहर निकालता है, उच्छ्वास लक्षरण उस वायु को प्राण
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गाथा ६५६-६१३
सम्यत्रत्वमागंणा/६०५
कहते हैं तथा वही आत्मा बाहरी जिस वायु को भीतर करता है, नि:श्वास लक्षण उस वायु को अपान कहते हैं। इस प्रकार ये उच्छ्वासनिःश्वास लक्षण वाले प्राणापान भी प्रात्मा का उपकार करते हैं, क्योंकि इनसे प्रात्मा जीवित रहती है। ये मन, प्राण और अपान मूर्त हैं, क्योंकि दुसरे मूर्त पदार्थों के द्वारा इनका प्रतिघात प्रादि देखा जाता है। जैसे प्रतिभय उत्पन्न कारने वाले बिजलीपास आदि के द्वारा मन का प्रतिघात होता है और सुरा यादि के द्वारा अभिभव । तथा हस्ततल और वस्त्र आदि के द्वारा मुख हक लेने से प्राण और अपान का प्रतिघात होता है । किन्तु अमूर्त का मूर्त पदार्थ के द्वारा अभिघात प्रादि नहीं हो सकता, इससे प्रतीत होता है कि ये सब मूर्त हैं। तथा इसीसे आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है।'
इनके अतिरिक्त सुख, दु:ख, जीवन और मरण में भी पुद्गल के उपकार हैं। जब आत्मा से बद्ध साता वेदनीय कर्म द्रव्यादि बाह्य कारणों से परिपाक को प्राप्त होता है तब प्रात्मा को जो प्रीति या प्रसन्नता होती है, वह सुख है । इसी प्रकार असाता बेदनीय कर्मोदय से जो संक्लेशरूप परिणाम होते हैं, वह दुख है । भवस्थिति में कार ग्रायु कर्म के उदय से जीव के श्वासोच्छवास का चालु रहना, उसका उच्छेद न होना जीवित है और उच्छेद हो जाना मरगा है । साधारणतया मरण किसी को प्रिय नहीं है तो भी व्याधि, पीड़ा, शोकादि से व्याकुल प्राणी को मरण भी प्रिय होता है। अतः उसे उपकार श्रेणी में ले लिया है । यहाँ उपकार शब्द से इष्ट पदार्थ नहीं लिया गया है, किन्तु पुद्गलों के द्वारा होने वाले समस्त कार्य लिये गये हैं । दुःख भी अनिष्ट है विन्तु पुद्गल का प्रयोजन होने से उसका निर्देश किया गया है।
पुद्गलों का स्वोपग्रह भी है । जैसे कांसे को भस्म से नथा जल को कतक फल से साफ किया जाता है।
अधिभागी पुद्गल परमाणु के बन्ध का कथन गिद्धत्तं लुक्खत्तं बंधस्स य कारणं तु एयादी । संखेज्जासंखेज्जाणंतविहारिणद्धणुक्खगुणा ।।६०६॥ एगगुरणं तु जहरणं रिणवत्तं विगुगतिगुणसंखेज्जाs- । संखेज्जागतगुण होदि तहा रुक्खभावं च ॥६१०।। एवं गुरणसंजुत्ता परमाणू आदिवग्गणम्मि ठिया । जोग्गदुगाणं बंधे दोण्हं बंधो हने रिणयमा ।।६११।। गिद्धरिणद्धा ए बझंति रुपखरुक्खा य पोग्गला । गिद्धलुक्खा य बज्झति रूवारूवी य पोग्गला ।।६१२॥ रिद्धिदरोलीमझे विसरिसजादिस्स समगणं एक्कं । रूवित्ति होदि सपणा सेसारणं ता प्रवित्ति ॥६१३॥
१. सर्वार्थसिद्धि ५/१६ । २. “सुख दुःख जीवितमरणोपमहाश्च ।।५।२०।।" [तत्त्वार्थसूत्र]। ३. ४. राजनातिक ५/२०। ५. धवल पु. १४ पृ. ३१ गा. ३४ ।
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६५६/गो. सा. जीवकाण्ड
गोश ६०१-६१६
दोगुणगिद्धाणुस्स य दोगुगलुक्खाणुगं हवे रूथी । इगितिगुणादि अरूवी रुक्खस्स वि तंव इदि जाणे ।।६१४॥ णिद्धस्स णिद्धण दुराहिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिएण। णिद्धस्स लुक्खेण हवेज्ज बंधोजहण्णवज्जे विसमे समे वा ।। ६१५॥' रिणद्धिवरे समविसमा दोतिगादी दुउत्तरा होति । उभयेवि य समविसमा सरिसिदरा होंति पत्तेयं ॥६१६।। वोतिगपभवदुउत्तरगदेसरणंतरदुगाण बंधो दु । गिद्ध लक्खे वि तहावि जहष्णुभयेवि सम्वत्थ ॥६१७।। रिणद्धिदरवरगुणाणू सपरढाणेवि ऐदि बंध?' । बहिरंतरंगहेहि गुणंतरं संगदे एदि ॥६१८॥ रिद्धिदरगुणा अहिया होणं परिणामयंति बंधम्मि । संखेज्जासंखेज्जाणंतपदेसारण
खंधारग ॥६१६।।
गाथार्थ-स्निग्धत्व और रूक्षत्व बन्ध के कारण होते हैं। स्निग्ध व रूक्ष गुगा के एक को आदि लेकर संख्यात, असंख्यात व अनन्त भेद होते हैं ।।६०६॥ स्निग्धत्र के एक गुण से अभिप्राय जघन्य गुण कहने का है। द्विगुगा, त्रिगुण, संख्यात गुण, असंख्यात गुरण व अनन्त गुण होते हैं। इसी प्रकार रूक्षत्य के होते हैं ।।६१०॥ इस प्रकार गुणसंयुक्त परमाणु प्रथम वर्गणा में स्थित होते हैं। दो आदि गुण वाले परमाणु बन्ध के योग्य होते हैं। दो परमाणुओं का बन्ध होता है कम का नहीं, ऐसा नियम है ।। ६११।। स्निग्ध पुद्गल स्निग्ध पुद्गलों के माथ नहीं बँधते, रूक्षपुद्गल रूक्षपुद्गलों के साथ नहीं बंधते। किन्तु सरश (समान गुरण बाले) और विसदश (असमान गुरगवाले) स्निग्ध व रूक्ष पुद्गल परस्पर बँधते हैं ।।६१२।। स्निग्ध और रूक्ष की पंक्तियों के मध्य जो विसदृश जाति का एक समगुण है उस परमाणु की रूपी संज्ञा है और शेष सब की अरूपी संज्ञा ||६१३।। द्विगुण वाले स्निग्ध परमाणु की अपेक्षा दो गुण वाला रूक्ष परमाणु रूपी है किन्तु एक गुणवाला व तीन यादि गुरगवाले अरूपी हैं । इसी प्रकार रूक्ष की अपेक्षा भी जानना चाहिए ॥६१४।। स्निग्ध पुद्गल का दो गुण अधिक स्निग्ध पुद्गल से और रूक्ष पुद्गल का दो गुण अधिक रूक्ष पुद्गल के साथ बन्ध होता है । स्निग्ध पद्गल का रूक्ष पुद्गल के साथ जघन्य गुगा के अतिरिक्त विषम (विसदृश) अथवा सम (सहश) गुरण के रहने पर बन्ध होता है ।।६१५।। स्निग्ध व सक्ष दोनों में ही दो गुण के ऊपर जहां दो-दो की वृद्धि हो वहाँ समधारा होती है और जहाँ तीन गुण के ऊपर दो-दो की वृद्धि हो वहां विषम धारा होती है । सदश और विसदृश ये दोनों सम व विषम इनमें से प्रत्येक में होते हैं ॥६१६।। स्निग्ध में दो गुग के आगे दो-दो की वृद्धि होती है और तीन गुण के प्रागे दो-दो की वृदि होती है । उनमें दो का अन्तर होने से स्निग्ध का स्निग्ध के साथ बन्ध हो जाता है । रक्षा में भी इसी प्रकार जानना चाहिए किन्तु दोनों में सर्वत्र ज धन्य का बन्ध नहीं होता ।।६१७॥ स्निग्ध व क्ष का
१. धवल पु. १४ पृ. ३३ गा. ३६ राजचातिक ५/३६ में उद्धृत्त ।
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गाथा ६०६-६१६
सभ्यवत्वमार्गणा / ६७७
जघन्य गुणवाला परमाणु स्व या पर-स्थान में कहीं पर भी बन्ध के योग्य नहीं होता । किन्तु वहिरंग अन्तरंग कारण मिलने पर गुणान्सर को प्राप्त होकर बँध जाता है ।। ६१८ । । बन्ध होने पर स्निग्ध या रूक्ष अधिक गुण वाला हीन गुण वाले को परिणमा लेता है। उस परमाणु का बन्ध संख्यात प्रदेशी के साथ भी हो सकता है, असंख्यातप्रदेशी व मनन्तप्रदेशी स्कन्धों के साथ भी हो सकता है अथवा परमाणु का परमाणु के साथ भी बन्ध हो सकता है ||६१६ ।
विशेषार्थ - स्निग्ध या दक्ष गुण के कारण मुद्गल परमाणु का बन्ध होता है।" बाह्य और श्रभ्यन्तर कारण से जो स्नेह पर्याय उत्पन्न होती है, उस पर्याय से युक्त पुद्गल स्निग्ध होता है । इसकी व्युत्पत्ति 'स्निह्यते स्मेति स्निग्ध:' होती है। रूखीपर्याय से युक्त पुद्गल रूक्ष होता है। स्निग्ध पुद्गल का धर्म स्निग्धत्व है और रूक्ष पुद्गल का धर्म रूक्षत्व है । द्वणुक आदि लक्षण वाला जो बंध होता है वह स्निग्ध और रूक्षत्व का कार्य है। स्निग्ध और रूक्ष गुणवाले दो परमाणुओं का परस्पर संश्लेष लक्षण बन्ध होने पर हि अणुक नामक स्कन्ध बनता है। इसी प्रकार संख्यात असंख्यात और अनन्त प्रदेश वाले स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। स्निग्ध गुण के एक, दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद हैं। इसी प्रकार रूक्ष गुण के भी एक, दो, तीन, चार, संख्यात, प्रसंख्यात और अनन्त भेद है। जिस प्रकार जल, बकरी के दूध, गाय, भैंस और ऊँट के दूध और घी में उत्तरोत्तर अधिक रूप से स्नेह गुण रहता है तथा पांशु, कणिका और शर्करा भादि में न्यून रूप से रूक्ष गुण रहता है, उसी प्रकार परमाणुओं में भी न्यूनाधिक रूप से स्निग्ध और रुक्ष गुग्ग का अनुमान होता है । २
शङ्का - संश्लेप बन्ध का क्या लक्षण है ?
समाधान जतु (लाख) और काष्ठ के परस्पर संश्लेष से जो बन्ध होता है वह संश्लेष बन्ध है । जलु पद से वज्रलेप श्रौर मैन आदि चिक्कण द्रव्यों का ग्रहण होता है । "
शंका- एक गुण को जघन्य गुण कहा है तो उस जघन्य गुरण का क्या एक प्रमाण है ?
--
समाधान नहीं, वह जघन्य गुण अनन्त यविभाग प्रतिच्छेदों से निष्पन्न होता है।" शङ्का - श्रविभागप्रतिच्छेद किसे कहते हैं ?
समाधान - एक परमाणु में जो जघन्य वृद्धि होती है, यह अविभाग प्रतिच्छेद है । इस प्रमाण से ( विभाग प्रतिच्छेद से ) परमाणु के जघन्य गुण अथवा उत्कृष्ट गुण छेद करने पर सब जीवों से अनन्तगुणे श्रनन्त श्रविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं । *
शङ्का - यदि अनन्त प्रविभाग प्रतिच्छेदों से युक्त जघन्य गुण में 'एक गुण' शब्द प्रवृत्त रहता है तो दो जघन्य गुणों में 'दो गुगा' शब्द की प्रवृत्ति होनी चाहिए, अन्यथा 'दो' शब्द की प्रवृत्ति नहीं उपलब्ध होती ?
'
१. स्निग्वरूक्षत्वाद् बन्धः ||५ / ३३ | | | त सू.] २. सर्वार्थमि५ि/३६ । ३. धवन पू. १४ पृ. ४१ । ४. धवन पु. १४ पृ. ४५० । ४. धवल पु. १४ पृ. ४६१ ।
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६७८ / गो. सा. जीव काण्ड
समाधान- यह कोई दोष नहीं है क्योंकि जघन्य गुण के ऊपर एक अविभाग प्रतिच्छेद की वृद्धि होने पर दो गुणभाव देखा जाता है |
शङ्का - एक ही प्रविभागप्रतिच्छेद की द्वितीय गुगा संज्ञा कैसे है ?
समाधान - क्योंकि मात्र उतने ही गुणान्तर की द्रव्यान्तर में वृद्धि देखी जाती है। गुगा के द्वितीय स्था विशेष की द्वितीय गुण संज्ञा है और तृतीय अवस्था विशेष की तृतीय गुण संज्ञा है । इसलिए जघन्थ गुरण के साथ ( एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद की वृद्धि होने पर ) द्विगुणपना और त्रिगुणना बन जाता है । '
गाथा ६०६-६१८.
इन गुण वाले परमाणुओं की आदि ( प्रथम ) वर्गणा होती है। क्योंकि प्रथम वर्गेण । की एक श्रृणुक संज्ञा है । इनमें से दो श्रादि गुण वाले परमाणु बन्ध के योग्य होते हैं । बन्ध नियम कम से कम दो परमाणु का होता है । इन दो परमाणुओं का परस्पर बन्ध हो जाने पर कि संज्ञा हो जाती है। स्निग्ध परमाणु दूसरे स्निग्ध परमाणु के साथ नहीं बँधते, क्योंकि स्निग्ध गुण की अपेक्षा वे समान हैं। रूक्ष परमाणु दूसरे रूक्ष परमाणु के साथ नहीं बँधता, क्योंकि रूक्ष गुण की अपेक्षा त्रे समान हैं। स्निग्ध पुद्गल और रूक्ष पुद्गल परस्पर बन्ध को प्राप्त होते हैं क्योंकि इनमें विशता (असमान जातिता) पाई जाती है ।
शङ्का1- क्या गुरणों के अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा समान स्निग्ध और रुक्ष पुद्गलों का बन्ध होता है या श्रविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा विसदृश स्निग्ध और रूक्ष पुद्गलों का बन्ध होता है ?
समाधान- जो स्निग्ध और रूक्ष गुणों से युक्त गुद्गल, गुरणों के अविभागीप्रतिच्छेदों की अपेक्षा समान होते हैं वे रूपी कहलाते हैं । वे भी बँधते हैं । अरूपी अर्थात् असमान प्रविभागप्रतिच्छेद वाले भी बँधते हैं। स्निग्ध और रूक्ष पुद्गल गुणों के अविभागप्रतिच्छेदों की संख्या की अपेक्षा चाहे समान हो चाहे समान हो उनका परस्पर बन्ध होता है ।
शङ्का - क्या स्निग्ध का स्निग्ध के साथ या रूक्ष का रूक्ष के साथ सर्वथा बन्ध नहीं होता ?
बन्ध होता है तो दो गुण पुद्गल के साथ यदि बन्ध अवस्थाओं में स्निग्ध का
समाधान- स्निग्ध पुद्गल का अन्य स्निग्ध पुद्गल के साथ यदि अधिक स्निग्ध पुद्गल के साथ ही होता है । रूक्ष पुद्गल का अन्य रूक्ष होता है तो दो गुण अधिक रूक्ष पुद्गल के साथ ही बन्ध होता है । अन्य ferve के साथ और रूक्ष का रूक्ष के साथ बन्ध नहीं होता । कहा भी है
"द्वधिका विगुणानां तु ॥ ५ / ३६ || " [ तत्त्वार्थसूत्र ]
- दो अधिक गुण वालों का बन्ध होता है । जैसे दो स्निग्ध गुणवाले परमाणु का एक स्निग्ध गुणवाले परमाणु के साथ, दो स्निग्ध गुणवाले के साथ, तीन स्निग्ध गुणवाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता, चार स्निग्ध गुणवाले परमाणु के साथ अवश्य बन्ध होता है तथा उसी दो स्निग्ध गुणवाले परमाणु का पाँच स्निग्ध गुण वाले परमाणु के साथ, इसी प्रकार छह, सात, आठ संख्यात, असंख्यात और
१. वल पु. १४ पृ. ४५१ । २. घवल पु. १४ पृ. ३१ व ३२ ॥ ३. चनल पु. १४ पृ. ३३ ।
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गाथा ६.६-६१६
मम्बन्धमारणा/६७६
अनन्त स्निग्ध गुणबाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार तीन स्निग्ध गुणवाले परमाणु का पात्र स्निग्ध गुणवाले परमाण के साथ बन्ध होता है। किन्तु आगे पीछे के शेष स्निग्ध गुणवाले परमाण के माथ बन्ध नहीं होता। चार स्निग्ध गुणवाले परमाणु का छह स्निग्ध गुणवाले परमाणु के साथ बन्ध होता है, किन्तु आगे पीछे के शेष स्निग्ध गुणवाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार यह अम आगे भी जानना चाहिए। तथा दो रूक्ष गुगावाले परमाणु का एक, दो और तीन रक्ष गुणवाले परमाणु के साथ वन्ध नहीं होता । चार रुक्ष गुरगदाले परमाणु के साथ अवश्य बन्ध होता है। उसी दो रूक्ष गुणवाले परमाणु का आगे के पांच प्रादि रूक्ष गुणवाले परमाणों के साथ बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार तीन आदि रूक्ष गुणवाले परमाणुओं का भी दो अधिक गुगावाले परमाणुओं के माथ बन्ध जानना चाहिए।'
शङ्का--स्निग्धगुण और रूक्षगुणवाले पुद्गलों का एक-दूसरे के साथ बन्ध होता है, इस नियम के अनुसार क्या सब पुद्गलों का बन्ध होता है ?
समाधान-जघन्य गुणवाले परमाणु का किसी भी पुदगल के साथ बन्ध नहीं होता। जघन्य गुणवाले स्निग्ध और जघन्य गुणवाले रूक्ष पुद्गलों का न तो स्वस्थान की अपेक्षा बन्ध होता है और न परस्थान की अपेक्षाही धध होता है। अन्य मुल के अतिरिक्त अन्य गुणवाले स्निग्ध पुद्गलों का रूक्ष गृणवाले पुद्गल के साथ और रुक्ष पुद्गल का स्निग्ध पुद्गल के साथ बन्ध होता है।
सर्वार्थसिद्धि व राजबातिक अ. ५ सू. ३६ की टीका में यह गाथा ६१५ उद्धृत है, किन्तु वहाँ पर यह अर्थ किया गया है कि स्निग्ध पुद्गल का रूक्ष पुद्गल के साथ और रूक्ष पुद्गल का स्निग्ध पुद्गल के साथ बन्ध होने में भी दो अधिक गुण का नियम लागू होता है ।
इस प्रकार एक ही गाथा के श्री पूज्यपाद आदि प्राचार्यों ने तथा श्री वीरसेन प्राचार्य ने भिन्न-भिन्न अर्थ किये हैं । इन दोनों में से कौन सा अर्थ ठीक है ? वर्तमान में इसका निर्णय न हो सकाने के कारण दोनों अर्थों को लिख दिया गया है ।
(१)
क्रपाक
गुणांश ।
सशबन्ध
विसदृश बन्ध
नहीं
जघन्य जघन्य
नहीं जघन्य + एकादि अधिक
नहीं जघन्येतर + समजघन्येतर नहीं जघन्येतर + एकाधिकज यन्येतर नहीं जघन्येतर --द्वयधिकजघन्येतर है जघन्येतर - व्यादि अधिकजघन्येतर नहीं
To Date the
१. मधिसिद्धि ५/३६ । २. धवल पु. १४ पृ. ३३ ।
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६८०/गो. सा. जीवकाण्ड
(२)
क्रमाङ्क
१
२
३
४
५
६
गुणां
जघन्य + जघन्य
जघन्य + एकादि अधिक जघन्येतर समजघन्येतर
जघन्येतर + एकाधिक जघन्येतर जघन्येतर यधिकजघन्येतर
जघन्येतर त्र्यादिश्रधिकजघन्येतर
I
सहशबन्ध
नहीं
नहीं
नहीं
नहीं
है
नहीं
दव्यं छक्कमकालं
काले
पंचास्तिकाय का कथन
पंचायसगिर्द होदि । पदेसपचयो जम्हा स्थित्ति सिद्दि
गाथा ६२०
विसजन्ध
नहीं
chhe theme face
नहीं
नहीं
नहीं
हैं
शङ्का – पारिणामिक का क्या अभिप्राय है ?
समाधान --- एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त कराना पारिणामिक है। जैसे अधिक मीठे रस वाला गीला गुड़, उस पर पड़ी हुई धूलि को अपने गुणरूप से परिरणमाने के कारण पारिणामिक होता है, उसी प्रकार अधिक गुणवाला अन्य भी यल्प गुग्गावाले का पारिणामिक होता है । इससे पूर्व अवस्थाओं का त्याग होकर उनसे भिन्न एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है | अतः उनमें एकरूपता आ जाती है ।" बन्ध होने पर एक तीसरी ही विलक्षण प्रवस्था होकर एक स्कन्ध बन जाता है। द्वित्व का त्यागकर एकत्व की प्राप्ति का नाम बंध है । एकीभाव का नाम बन्ध है । ४
नहीं
||६२० ॥
गाथार्थ - काल में प्रदेश प्रचय नहीं है, अतः काल के अतिरिक्त शेष पाँच द्रव्यों को पंचास्तिकाय संज्ञा दी गई है || ६२० ||
विशेषार्थ -"पुद्गलाणोरुपचारतो नानाप्रवेशत्वम्, न च कालागोः स्निग्धरूक्षत्वाभावात् ऋजुत्वाच्च ।।१७०१।” [ श्रालापपद्धति ] उपचार से पुद्गल परमाणु के नाना प्रदेश स्वभाव है क्योंकि वह बंध को प्राप्त हो जाता है किन्तु कालाणु के उपचार से भी नानाप्रवेशत्व भाव नहीं है क्योंकि कालाणु में बन्ध के कारण स्निग्ध-रूक्ष गुण का प्रभाव है तथा वह स्थिर है क्योंकि निष्क्रिय है ।
शङ्का - जैसे द्रव्य रूप से एक पुद्गल परमाणु के द्वि-अणुक आदि स्कन्ध पर्याय द्वारा बहुप्रदेश रूप कायत्व है, ऐसे ही द्रव्य रूप से एक होने पर भी कालाणु के पर्याय द्वारा कायत्व क्यों नहीं कहा गया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि स्निग्ध- रूक्ष गुरण के कारण होने वाले बन्ध का कालद्रव्य में प्रभाव है इसलिए वह काय नहीं हो सकता । "
१. भावान्तरापादनं पारिणामिकत्वं ।" [म. सि. ५/३७ ] | २. [ राजवार्तिक ५ / ३७/२] " पूर्णावस्थाप्रच्यवपूर्वक तातीयकमवस्थान्तरं प्रादुर्भवतीत्येकस्कस्त्वमुपपद्यते ।" ३. " बंधी गाम दुभावपरिहारेण एतावती" [ धवल पु. १३ पृ. ७ ] । ४. " एकीभावो बन्ध: ।" [ बबल पु. १३ पृ. ३४८ ] | ५ वृहद् उव्यसंग्रह मा. २६ की टीका ।
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गाथा ६२०
शंका – अस्तिकाय कौन-कौन से हैं? अस्तिकाय का क्या स्वरूप है ?
समाधान- जीव, पुद्गल, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और श्राकाश ये पाँच अस्तिकाय है, क्योंकि ये सत् रूप हैं और बहुप्रदेशी हैं। श्री कुन्दकुन्द प्राचार्य ने कहा भी है
जीवा पुग्गलकाया धम्माषम्मा तहेव आगासं । श्रत्थित्तम्हि य यिदा श्रणष्णमया श्रणुमहंता ॥४॥
[ पंचास्तिकाय ]
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-जीव, पुद्गल काय, धर्म, अधर्म तथा ग्राकाश अस्तित्व में नियत और अनन्यमय हैं तथा प्रदेश में बड़े हैं । ये पाँचों द्रव्य अपनी-अपनी महासत्ता व अवान्तर सत्ता में स्थित हैं और सत्ता से अनन्य हैं । इसलिए प्रस्तिरूप हैं। इन पांचों द्रव्यों में कायपना भी है, क्योंकि वे प्रणुमहान् हैं । यहाँ अणु शब्द से सबसे छोटा अंश प्रदेश ग्रहण किया गया है। जो प्रदेशप्रचयात्मक हो वह श्रणुमहान् है ।'
शङ्का - एकप्रदेशी पुद्गल परमाणु के कायपना कैसे सम्भव है ?
समाधान -- स्निग्धत्व और रूक्षत्व शक्ति के सद्भाव से परमाणु स्कन्ध का कारण है इसलिए उपचार से कायत्व है । २
जेसि प्रत्थि सहा गुणेहि सह पज्जएहि विविहि ते होंति अस्थिकाया लिप्पणं जेहि तलुक्कं ॥५॥
[ पंचास्तिकाय ]
- जिनका विविध गुण और पर्यायों के साथ अस्ति स्वभाव है, वे अस्तिकाय हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पदार्थ प्रवयवी हैं और प्रदेश उनके अवयव हैं । प्रदेशों के साथ उन पंचास्तिकाय का अनन्यपता है, अतः उनके कार्यत्व की सिद्धि होती है । "
एवं प्रमेयमिदं जीवाजीवप्पभेददो अत्तं कालविजुतं णादव्वा पंच प्रथिकाया संति जदो सेर दे अतिपत्ति भगति जिरगवरा जह्मा ।
काया इव बहुदेसा ह्या काया य अत्यिकाया य ||२४||
सम्यक्त्वमार्गणा: ६०१
दवं ।
॥२३॥
होंति प्रसंखा जीवे धम्माम्मे भ्रणंत श्रायासे ।
मुतिविपसा कालस्सेगी रा तेण सो काश्रो ।। २५।। [ वृहद्भभ्यसंग्रह ]
- जीव और प्रजीव के प्रभेद से ये द्रव्य छह प्रकार के हैं। कालद्रव्य के विना शेष पाँच द्रव्य ग्रस्तिकाय हैं। चूंकि विद्यमान हैं इसलिए ये अस्ति हैं और ये शरीर के समान बहुप्रदेशी हैं, इसलिए ये काय हैं । ग्रस्ति तथा काय दोनों को मिलाने से ग्रस्तिकाय होते हैं। जीव, धर्म, तथा अधर्म द्रव्य में असंख्यात प्रदेश हैं और आकाश में अनन्त प्रदेश हैं । पुद्गल संख्यात, प्रसंख्यात तथा अनन्तप्रदेशी है । इस प्रकार मुद्गल के तीन प्रकार के प्रदेश हैं । काल के एक ही प्रदेश है, इस कारण काल द्रव्य कायवान नहीं है ।
१. पंचातिकाय गाथा ४ समयव्याख्या टीवन । २. पं. कागा ४ यंवृत्ति टीका । समयव्याख्या टीका ।
३. पं.का. ५.
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६८२/गो, सा, जीवकापर
गाथा ६२१
नव पदार्थ रणव य पदत्था जीवाजीश ताणं च पुण्णपायदुर्ग । पासवसंवरणिज्जरबंधा मोक्खो य होतित्ति ।।६२१॥
गाथार्थ-जीव और अजीव (पुद्गल) और उनके पुण्य व पाप ये दो तथा ग्रास्रव, संबर निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नौ पदार्थ होते हैं ॥६२१।।
विशेषार्थ-मूल द्रव्य जीव और अजीव हैं। अजीव पाँच प्रकार का है पुदगल, धर्म, अधर्म, ग्राकाश और काल । इनमें से धर्म, अधर्म, प्रकाश और काल ये चार द्रव्य तो अमूर्तिक हैं अत: ये बन्ध को प्राप्त नहीं होते ! पुदगल मुर्तिक है. स्निग्ध व मक्ष गुण के कारण बन्ध को प्राप्त होता है जैसा कि गाया ६०६ में कहा गया है। जीव स्वभाव से अमुर्तिक है किन्तु अनादि-कर्मबन्ध के कारण संसारी जीव मूर्तिक हो रहा है। अतः पुद्गल और संसारी जीव के परस्पर बन्ध के कारण प्रास्त्रब, संवर, निर्जरा, वन्ध और मोक्ष ये पांच अवस्थाएं होती हैं। साम्रव बंध ये दोनों पुण्य व पाप दो-दो रूप हैं। इस प्रकार जीव, अजीव, पासब, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये सात तत्त्व तथा इनमें पुण्य और पाप इन दो के मिलने से नत्र पदार्थ हो जाते हैं ।
_इन नव पदार्थों में से पुण्य, पाप, ग्रास्त्रब, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये जीव स्वरूप भी हैं और अजीव स्वरूप भी हैं। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने इस गाथा की टीका में इसका कथन किया है---
जीवाजीवा भावा पुण्ण पावं च ग्रासवं तेसि ।
संवर-णिज्जर-बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा ।।१०८॥ [पंचास्तिकाय] --जीव और अजीव दो मुल पदार्थ तथा उन दोनों के पुण्य, पाप, पासव, संवर, निर्जग, बन्ध और मोक्ष ये नत्र पदार्थ हैं। चैतन्य जिसका लक्षण है वह जीव पदार्थ है। चतन्य के अभाव लक्षण बाला अजीव है । ये दो मुल पदार्थ हैं । जीव और पुद्गल रूप अजोव इन दो के परस्पर वन्ध से अन्य सात पदार्थ होते हैं। जीव के शुभ परिणाम वह जीव पुण्य है । शुभ परिणामों के निमित से प्रगति कर्म परिणाम होता है, वह पुद्गल (अजीब) पुण्य है। जीब के अशुभ परिणाम वह जीवपाप है तथा उनके निमित्त से पुदगल का अप्रशस्त कर्म रूप परिणमन होना वह अजीव पाम है । जीव के मोह रागद्वेष रूप परिणाम जीव-मास्रव हैं। उनके निमित्त से योग द्वारा पाने वाली पौदगलिक कार्मरण वर्गणा वह अजीब प्रास्रब है । जीव के मोह रागद्वेष रूप परिणाम का निरोध वह जीवसंबर है। उसके निमित्त से साँग द्वारा प्रविष्ट होने वाली कार्मण बर्गणाओं का निरोध बह अजीवसंबर है। कर्म की शक्ति नष्ट करने में समर्थ ऐसा जीव का परिणाम सो जीवनिर्जरा है। उसके प्रभाव से पूद्गल कर्मों का नीरस होकर एकदेण संक्षय वह अजीव निर्जरा है। जीव के मोह-राग-द्वेष परिणाम वह जीवबन्ध है। उन परिणामों के निमित्त से कर्मों का जीव के साथ अन्योअन्य अवगाहन हो जाना अजीव बन्ध है। जीव की अत्यन्त शुद्धात्मोपलब्धि जीवमोक्ष है। पौद्गलिक सर्व कर्मों का जीव से अत्यन्त विश्लेग हो जाना यह अजीवमोक्ष है।
१. गा. जी. गा. ५६३। २. पंचास्तिकार गा. १०८ समयब्याख्या दीका ।
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गाथा ६२२
सम्यक्त्वमार्ग/ ६८३
जीव के पुण्य और पाप ऐसे दो भेद
जीवदुगं उस जीवा पुष्णा हु सम्मगुणसहिदा । वदसहिदावि य पाया तब्बिवरीया हवंतित्ति ॥ ६२२ ॥
गाथार्थ - जीव दो प्रकार के हैं एक पुण्यजीव और दूसरा पापजीव । सम्यग्दर्शन सहित हो और व्रत सहित भी हो वह पुण्यजीव है और इससे विपरीत पापजीव होता है ।। ६२२ ।।
विशेषार्थ - यागे गाथा ६२३ में मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दष्टि जीवों की संख्या बतलाते हुए दोनों को पापी कहा गया है। क्योंकि मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि इन दोनों के विपरीताभिनिवेश है । वह किस प्रकार है, इसका विवेचन गाथा ६२३ की टीका में किया जायेगा । यहाँ पर तो यह बतलाया जा रहा है कि कौन जीत्र पुण्यात्मा है और कौन पापात्मा है ?
"सुह-प्रमुह-भावजुत्ता पुष्णं पावं हवंति खलु जीवा ।""
- शुभ तथा अशुभ परिणामों से युक्त जीव, पुण्य व पाप रूप होता है || १ ||
श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी मूलाचार में कहा है
सम्मत्ते सुदेण य विरदीए कलाय - णिग्गहगुणेहि । जो परिणदो स पुण्णे तब्बिवरीदेण पात्रं तु २२५१४७२।
- जो जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, पंचमहाव्रत, कषायों का निग्रह इन गुणों से अर्थात् रत्नत्रय से परिणत है वह पुण्यजीव है और जो रत्नत्रय से परिणत नहीं है, वह पापजीव है ।
रत्नत्रय में भी मुख्यता चारित्र की है क्योंकि "चारितं खलु धम्मो "" चारित्र ही वास्तव में धर्म है और मोक्षफल चारित्र रूप धर्मवृक्ष पर लगता है, न कि जड़ पर ।
शंका- 'द्रव्यसंग्रह' में शुभ से युक्त जीव को पुण्य कहा है, वहाँ शुभ से क्या अभिप्राय है ?
समाधान- द्रव्यसंग्रह टीका में श्री ब्रह्मदेव सूरि ने शुभ के विषय में निम्नलिखित दो श्लोक उदवृत किये हैं
भावनमस्काररतो
ममियात्वविषं भावय दृष्टि च कुरु परां भक्तिम् । ज्ञाने युक्तो भव सदापि ॥१॥ कोपचतुष्कस्य निग्रहं परमम् । तपः सिद्धिविध कुरूद्योगम् ॥२॥
पञ्च महाव्रतरक्षां दुर्दान्तेन्द्रियविजयं
- मिथ्यात्व रूपी विष का वमन करने वाला सम्यग्दर्शन की भावना करने वाला, उत्कृष्ट भक्ति करने और भाव- नमस्कार में तत्पर, सदा ज्ञान में लीन, पंच महाव्रतों का रक्षक, क्रोध यादि चार कषायों का निग्रह करने वाला, प्रबल इन्द्रियों का विजयी, तपसिद्धि तथा इससे विपरीत पापात्मा होता है ।
उद्योगी ऐसे शुभ से
परिणत जीव पुण्यजीव होता है
१. वृहद द्रव्यसग्रह गा. ३८
२. प्रचचनसार गाथा ।
३. बृहद् द्रव्यसंग्रह का ३० टीका ।
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६८४ गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १२२ "पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम् । पाति रक्षति प्रात्मानं शुभादिति पापम् ।" ___ -जो प्रात्मा को पवित्र करता है या जिमसे आत्मा पवित्र होता है, वह पुण्य है। जो प्रात्मा को शुभ से बचाता है, वह पाप है।
मिथ्यादृष्टि व मामादन सम्यग्दृष्टि का कथन मिच्छाइदी पाबा ताणता य सासरण गुरगावि ।
पल्लासंखेज्जदिमा अरणप्राणदरुदयमिच्छगुरगा ॥६२३॥ गाथार्थ-मिथ्यादष्टि पापजीव हैं जो अनन्तानन्त हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि भी पापजीव है, जो पल्य के असंख्यातवें भाग है। किसी एक अनन्तानुबन्धी का उदय होने से मिथ्यात्व गुणस्थान (सासादन) में गिरता है ।।६२३।।
विशेषार्थ-मिथ्या, वितथ, व्यनीक और असत्य ये एकार्थवाची नाम हैं। एष्टि शब्द का अर्थ दर्शन या श्रद्धान है। जिन जीवों के विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञान रूप मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुई मिथ्यारूप दृष्टि होती है, वे मिथ्यादृष्टि जीव हैं।'
सम्यक्त्व की विराधना को प्रासादन कहते हैं। जो इस ग्रासादन से युक्त है वह सासादन सम्यग्दृष्टि है। किसी एक अनलावधी पाय के उदय जिसका सम्यग्दर्शन नष्ट हो गया है, किन्तु जो मिथ्यात्व' रूप परिणाम को नहीं प्राप्त हुआ है किन्तु मिथ्यात्व गुणास्थान के अभिमुख है वह सासादन सभ्यग्दृष्टि है ।
शंका-सामादन सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व का उदय न होने से उसकी असत्य इष्टि नहीं है, अत: वह पापजीव नहीं हो सकता ?
समाधान नहीं, क्योंकि विपरीत-अभिनिवेश दो प्रकार का है। वह विपरीतअभिनिवेश मिथ्यात्व के निमित्त से भी होता है और अनन्तानुबन्धी कषायोदय से भी उत्पन्न होता है। सासादन गुणस्थान बाले के अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय पाया जाता है। अतः अनन्तानुबन्धी जनित विपरीताभिनिवेश के कारण सासादन गुणस्थान वाला भी पापजीव है।
यह मिथ्यात्व गुणस्थान को नियम से प्राप्त होगा इसलिए इसको मिथ्याष्टि पापजीव ही कहते हैं।
___ शंका-अनन्तानुबन्धी कषाय तो चारित्रमोहनीय कर्म है फिर वह सम्यग्दर्शन का कसे घात कर सकती है ?
समाधान–अनन्तानुबन्धी क.पाय द्विस्वभावी है। इसलिए बह सम्यग्दर्गन का भी घात करती है।
१. सर्वार्थ सिद्धि ६।३ । २. पवल पु. १ पृ. १६२। ५. धवल पु. ६ पृ. १२ ।
३. बनल पु. १ पृ. १६३ ।
४. घचल । १ पृ. ३६१ ।
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गाथा ६२४
सम्यक्त्वमागंगा//६०५
पढमादिकसाया सम्मत्तं देस-सयल-चारितं । जहाखाद घाति य गुणणामा होति सेसावि ॥४५॥
[गोम्मटसार कर्मकाण्ड] - प्रथम अनन्तानुवन्धी कपाय सम्यक्त्व का घात करती है, द्वितीय अप्रत्याख्यान कषाय देशचारित्र का, तृतीय प्रत्याख्यान कपाय सकलचारित्र का और चतुर्थ संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र का घात करती है।
शङ्का अनन्तानुबन्धी कषाय चारित्रमोहनीय कर्म है तो वह किस चारित्र का घात करती है ?
समाधान.... अनन्तानुबन्धी कपाय-चतुष्क का चारित्र में व्यापार निष्फल भी नहीं है, क्योंकि अप्रत्याख्यान आदि के अनन्त उदय रूप प्रवाह के कारणभूत अनन्तानुबन्धी कषाय के निष्फलत्व का विरोध है।'
प्रथम बारह गुणस्थानों में जीव संख्या मिच्छा सावयसासरण-मिस्साविरदा दुधारणता य । पल्लासंखेज्जदिममसंखगरणं संखसंस्खगणं ॥६२४॥
गाथार्थ-मिथ्यादृष्टि जीव दुवार अनन्त अर्थात् अनन्तानन्त है। श्रावक (संयतासंयत जीव) पल्य के असंख्यातवें भाग हैं । उनसे प्रसंन्यात गुणे सासादन गुरगस्थान वाले जीव हैं। उनसे संख्यात गुणे मिश्र (सम्यत्रत्व मिथ्यात्व) गुणस्थान वाले जीव हैं, उनसे भी असंख्यात गुगणे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं ।। ६२४॥ विशेषार्थ -मिथ्यादष्टि जीत्र अनन्तानन्त हैं । अनन्त अनेक प्रकार का है
शाम ट्रयणा दवियं सस्सब मणणापदेसियमणंतं ।
एगो उभयावेसो विस्थारो सव्व भाशे य ॥६॥ ---नामानन्त, स्थापनानन्त, द्रव्यानन्त, शाश्वतानन्त, गणनानन्त, अनदेशिक अनन्त, एकानन्त, उभयानन्त, विस्तारानन्त, सर्वानन्त और भावानन्त इस प्रकार अनन्त के ग्यारह भेद हैं।
(इन ग्यारह प्रकार के अनन्तों का स्वरूप धवल पुस्तक ३ पृ. ११ से १६ तक देखना चाहिए) शंका-इन ग्यारह प्रकार के अनन्तों में से प्रकृति में क्रिस अनन्त से प्रयोजन है ? समाधान -प्रकृत में गणनामन्त से प्रयोजन है । शंका-यह कैसे जाना जाता है कि प्रकृत में गणनानन्त से प्रयोजन है ?
१. धवल पु ६ पृ. ४३ ।
२. घवल पु. ३ पृ. ११ ।
३. धवन पु. ३ पृ. १६ ।
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६.६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६२४
समाधान-'मिथ्याष्टि जीव अनन्तानन्त हैं ।' इत्यादि रूप से प्रमाण का प्ररूपण करने से जाना जाता है कि प्रकृत में गणनानन्त से प्रयोजन है। इस गणनानन्त के अतिरिक्त शेष दस प्रकार के अनन्त प्रमाण का प्ररूपण करने वाले नहीं हैं, क्योंकि उनमें गणना रूप से कथन नहीं देखा जाता।
शंका-यदि प्रकृत में गणनानन्त से प्रयोजन है तो गणनानन्त के अतिरिक्त शेष दस प्रकार के अनन्तों का प्ररूपण यहाँ पर क्यों किया है ? समाधान - प्रवगणिवारणटुपयवस्स परूवरणा-रिणमित्तं च ।।
संसयविणासण? तच्चत्यवधारणा च ॥१२॥'
—अप्रकृत विषय का निवारण करने के लिए, प्रकृत विषय के प्ररूपगा करने के लिए, संशय का विनाश करने के लिए और तत्त्वार्थ का अवधारण करने के लिए यहाँ पर सभी अनन्तों का कथन किया गया है।
गरगनानन्त तीन प्रकार का है---परीतानन्त, युक्तानन्न और अनन्तानन्त । "मिश्या दृष्टि जीव अनन्तानन्त । अवसर्पिणियों और उत्सपिणियों के द्वारा अपहृत नहीं होते' इस मंत्र से जाना जाता है कि मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं ।
वह अनन्तानन्त भी तीन प्रकार का है- जघन्य अनन्तानन्त, उत्कृष्ट अनन्तानन्त. मध्यम अनन्तानन्त । 'जहाँ-जहाँ अनन्तानन्त देखा जाता है, वहाँ-वहाँ मध्यम अनन्तानन्त का ग्रहण होता है इस आर्ष वचन से जाना जाता है कि यहाँ पर मध्यम अनन्तानन्त का ग्रहण है।'
शंका वह मध्यम अनन्तानन्त भी अनन्त बिकल्प रूप है । यहाँ कौनसा विकरूप ग्रहण करने योग्य है ?
समाधान--जघन्य अनन्तानन्त से अनन्त बर्गस्थान ऊपर जाकर और उत्कृष्ट अनन्तानन्त से अनन्त वर्गस्थान नीचे आकर यथासम्भव राशि यहाँ पर अनन्तानन्त से ग्रहण करने योग्य है । अथवा जघन्य अनन्तानन्त के तीन बार वगित-संवगित करने पर जो राशि उत्पन्न हो उससे अनन्त गृणी और छह द्रव्यों के प्रक्षिप्त करने पर जो राशि उत्पन्न हो उससे अनन्त गुणी हीन मध्यम अनन्त प्रमाण मिथ्याष्टि जीवों की राशि है ।
सीनबार वगित-संगित राशि में सिद्ध, निगोद जीव, वनस्पति कायिक, पुद्गल, काल के रामय और अलोकाकाण ये छहों अनन्तानन्त मिला देने चाहिए ।५ प्रक्षिप्त करने योग्य इन छह राशियों के मिला देने पर 'छह द्रव्य प्रक्षिप्त राशि होती है। इस प्रकार तीन बार वर्गित सवर्गित राशि से अनन्तगुणे और छह द्रव्य प्रक्षिप्त राशि से अनन्तगुणे हीन इस मध्यम अनन्तानन्त की जितनी संख्या होती है, तन्मात्र मिथ्याष्टि जीवराशि है ।
१. धवल पु. ३ पृ.१७। २. धवल पु. ३ पृ. १८ । ३. धवल पु. ३ पृ. १६ । ४. धवल पु. ३ पृ. १६ । ५. "सिद्धा सिंणगोदजीवा वाफदी कालोय पोगाला चेय। मन्बमलोगागासं छप्पेदे णंतपक्मेवा ।।" ति. प. ४/३१२: "सिद्ध गियोद सहिय वाकदिपोग्गजपमा अणं नगुहा । काल अलोगागासं छच्चे देगांतपकदेवा ।।" त्रि. सा. गा, ४६ । ६. श्रवल पु. ३ पृ. २६ ।
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सम्यक मार्गणा / ६८७
संत सम्यष्टि के अवहार काल से सम्यग्मियादृष्टि का अवहारकाल प्रसंख्यातगुणा है । सम्यग्मध्यादृष्टियों के अवहारकरण से सात सय मा संख्यात गुणा है । सासादन सम्यग्दृष्टि के अवहारकाल से संयतासंयत का अवहारकाल असंख्यातगुरणा है । संयतासंयत के अवहारकाल से संयतासंयत द्रव्य प्रमाण असंख्यात गुणा है । संयतासंयत प्रमाण के ऊपर सासादन सम्यग्दृष्टि का द्रव्य प्रमाण संयतासंयत के द्रव्य से असंख्यातगुणा है ।
गाथा ६२४
शंका- संयतासंयत गुणस्थान का उत्कृष्ट काल संख्यात वर्ष है और मासादन सम्यग्दृष्टि गुगास्थान का उत्कृष्ट काल छह आवली है । अतः इनके उपक्रम काल आदिक ग्रूपने-अपने गुणस्थानकाल के अनुसार होते हैं, इसलिए सासादन सम्यग्दृष्टि के द्रव्यप्रमाण से संयतासंयत द्रव्यप्रमाण संख्यात गुणा होना चाहिए ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व और चारित्र के विरोधी सासादन गुणस्थान संबन्धी परिणामों से प्रत्येक समय में असंख्यात गुणी श्रेणी रूप से कर्मनिर्जरा के कारणभूत संयमासंयम परिणाम अतिदुर्लभ हैं । यतः प्रत्येक समय में संयमासंयम को प्राप्त होने वाली जोवराशि की अपेक्षा प्रत्येक समय में सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान को प्राप्त होने वाली जीवराशि प्रसंख्यातगुणी है । '
सासादन सम्यग्दृष्टि जीवराणि से सम्यग्मिथ्यादृष्टि द्रव्य का प्रमारण संख्यातगुणा है, क्योंकि सासादन सम्यग्दृष्टि के छह आवली के भीतर होने वाले उपक्रमण काल से सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उपक्रमगा काल संख्यातगुरगा है। गुणाकार संख्यात समय है । सम्यग्मिध्यादृष्टि द्रव्य के ऊपर असंयत सम्यग्दृष्टि का द्रव्य उससे असंख्यात गुणा है, क्योंकि सम्यरिमध्यादृष्टि के उपक्रमण काल से असंख्यात प्रावलियों के भीतर होने वाला असंयत सम्यग्दृष्टि का उपक्रमण काल प्रसंख्यातगुरगा है । अथवा प्रत्येक समय में सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होने वाली राशि से वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त होने वाली राशि प्रसंख्यातगुणी है। तथा जिस कारण से वेदक सम्यग्दष्टि का प्रसंख्यातवाँ भाग मिथ्यात्व को प्राप्त होता है और उसका भी असंख्यातवाँ भाग सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है तथा 'सर्वदा अवस्थित राशियों का व्यय के अनुसार हो प्राय होना चाहिए' इस न्याय के अनुसार मोहनीय के ग्रट्टाईस कर्मों की सत्ता रखने वाले जितने जीव असंयत सम्यग्वष्टि जीवराशि में से निकलकर मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं, उतने ही मिथ्यादृष्टि वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं, इसलिए सम्यग्मिथ्यादृष्टि के द्रव्य से असंयत सम्यग्वष्टि का द्रव्य असंख्यात गुणा है, यह सिद्ध हो जाता है । यह व्याख्यान यहाँ पर प्रधान है। आवली का असंख्यातवां भाग गुणाकार है ।
शङ्का - ये जीवराशियाँ अवस्थित नहीं हैं, क्योंकि इन राशियों की हानि - वृद्धि होती रहती है। यदि कहा जाय कि इन राशियों की हानि और वृद्धि नहीं होती, सो भी ठीक नहीं है । यदि इन राशियों का आय और व्यय नहीं माना जाय तो मोक्ष का भी प्रभाव हो जायेगा। सासादन आदि गुणस्थानों का काल अनादि पर्यवसित (अनन्त) भी नहीं है, इसलिए भी इन राशियों में हानि और वृद्धि होती है । यदि इन राशियों को अवस्थित माना जाए तो ये भागहार बन सकते हैं, अन्यथा नहीं, क्योंकि अनवस्थित राशियों के भागद्वारों का भी अनवस्थित रूप से ही सद्भाव माना जा सकता है ?
९. धवल पु. ३. ११६-११६ । २. सवल पु. ३ पृ ११६ १२० ।
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६८/गो, सा. जीवकाण्ड
गाथा ३२५-६२६
समाधान-सासादन सम्यादृष्टि राशियों के त्रिकालविषयक उत्कृष्ट संचय का प्राश्रय लेकर प्रमाण कहा गया है, इसलिए उस अपेक्षा से वृद्धि और हानि नहीं है। अतः पूर्वोक्त भागहारों का कथन बन जाता है ।' अंकसंदृष्टि द्वारा कथन इस प्रकार है.
पण्णट्ठी च सहस्सा पंचसया खलु छउत्तरा तोस । पलिदोवमं तु एदं विधारण संदिट्टिणा दिटु ॥३॥ विसहस्सं प्रड्याल छष्णउदी चेय चदु सहस्सासि । सोल सहस्सारिख पुरणो तिगिणसया बजरसीदी या ॥३६॥ पंचसय वारसुत्तरमुद्दिवाई तु लक्ष दवाई ।
सासरण-मिस्सासंजद · विरदाविरदारण गु कमेण ॥४॥ -सठ हजार पाँच सौ छत्तीस को पल्योपम मान कर कथन किया गया है। सामादन सम्यग्दृष्टि जीवराशि का प्रमाण २०४८, सम्यमिथ्यादृष्टि जीवराशि का प्रमाण ४०६६, असंयत्त सम्यग्दृष्टि जीवराशि का प्रमाण १६३६४ और संयतासंयत जीवराशि का प्रमाण ५१२ अाता है।
सासादन सम्यग्दृष्टि सम्बन्धी भागहार ३२, सम्यग्मिथ्यादृष्टि संबन्धी भागहार १६, असंयन सम्यग्दृष्टि सम्बन्धी भागहार ४ और संयतासंयत सम्बन्धी भागहार १२८ है।
प्रमत्त व अप्रमत्त संयत जीवों की संख्या तिरधिय-सय-रणवरणउवी छण्णउदी अप्पमत्त वे कोडी ।
पंचेव य तेरणउदी रणवटूविसयच्छउत्तरं पमदे ॥६२५॥" गाथार्थ -प्रमत्तसंयत्त जीवों का प्रमारण पांच करोड़ तेरानवे लाख प्रदानवे हजार दो सौ छह है और अप्रमत्तसंयत जीबों का प्रमाण दो करोड़ छयानबे लाख निन्यानवे हजार एक मौ तीन है ।।६२५।।
विशेषार्थ -प्रमत्तसंयत जीवों का प्रमाण ५६३६८२०६ है और अप्रमत्त मयत जीवों का प्रमाण २६६६६१०३ है ।
शंका-अप्रमत्तसंयत के द्रव्यप्रमाण से प्रमत्तसंयत का द्रव्यप्रमाण किस कारण से दूना है ? समाधान-क्योंकि अप्रमत्तसंयत के काल से प्रमत्तसंयत का काल दुगुणा है ।
चागें गुणस्थानों के उपशामक व क्षपक जीयों की संख्या तिसयं भरणंति केई चउरुत्तरमस्थपंचयं केई । उपसामगपरिमाणं खवगाणं जाण तदुगरणं ॥६२६।।
१. प्रवल पु. ३ पृ. ७०-७१ । २. धवल पु. ३ पृ. ८८। ३. धवल पु. ३ पृ. ८८ । ४. पवन पु. ३ पृ. ६० किन्तु "तिगहिप-सद"पाट है और 'मदे' के स्थान पर 'य' पाठ है। ५. धवल पू. ३.६० ६. धवल पु. ३ पृ. ६४ गा. ४५ ।
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माथा ६२६
सम्यस्त्वमार्गणा/६५६
गाथार्थ -- कितने ही प्राचार्य उपशमन जीवों का प्रमाण तीन सौ कहते हैं, कितने ही प्राचार्य तीन सौ चार(३०४) और कितने ही प्राचार्य तीन सौ चार में से पांच कम (३०४---५) २९६ कहते हैं। यह उपशमक जीवों का प्रमाण है। क्षपक जीवों का प्रमाण इससे दूना होता है ।। ६२६।।
विशेषार्थ--पाठ समयों में संचित हए सम्पूर्ण जीवों को एकत्र करने पर सम्पूर्ण जीव छह सौ पाठ होते हैं। संख्या के जोड़ करने की विधि इस प्रकार है-पाठ को गच्छ रूप से स्थापित करके चौंतीस को आदि अर्थात मुख करके और बारह को उत्तर अर्थात् चय करके 'पवमेगण विहीणं" इत्यादि संकलन सूत्र के नियमानुसार जोड़ देने पर शपक जीवों का प्रमाण ६०८ प्राप्त होता है । (८-१-७७-२-३३४ १२ =४२, ४२१-३४ - ७६; ७६४-६०८)
उत्तरदलहय गच्छे पचयदलूणे सगादिमेस्थ पुणो ।
पक्विविय गच्छगुरिगदे उवसम-खवगाण परिमाणं ।।४४॥ - उत्तर अर्थात् चय को आधा करके और उसको गच्छ से गुरिणत करके जो लन्ध प्राप्त हो, उसमें से प्रचय का आधा घटा देने पर और फिर स्वकीय प्रादि प्रमाग को इसमें जोड़ देने पर उत्पन्न राशि को पुन: गच्छ से गुरिणत करने पर उपशमक व क्षपक जीवों का प्रमाण प्राता है।
क्षपकों की अपेक्षा प्रादि ३४, प्रचय १२, गच्छ ८ | उपशमकों को अपेक्षा प्रादि १७, प्रचय ६, गच्छ ८; प्रचय १२२ = ६; ६४५ गच्छ -- ४८; ४५-२ प्रचय का प्राधा == ४२, ४२+ ३४ आदि ७६; ७६४८ गच्छ%D६०८ क्षपक जीव । ६:२=३; ३४८=२४; २४--? = २१:२१+१७ = ३८; १८४८ -- ३०४ उपणमक जीव ] यह उत्तर मान्यता है । ६०८ में से १० निकाल देने पर दक्षिण मान्यता होती है।
चउरुत्तरतिण्णिसयं पमाणमुवसामगारण केई तु ।
तं चेव य पंचूर्ण भणंति केई तु परिमाणं ।।४६।। -कितने ही प्राचार्य उपशमक जीवों का प्रमाण ३०४ कहते हैं और कितने ही प्राचार्य पाँच कम ३०४ अर्थात् २६६ कहते हैं। एक-एक गुणस्थान में उपशमक और क्षपक जीवों का प्रमाण १७ है।
एक्केक्कगुणट्ठाणे अट्ठसु समएसु संचिदाणं तु । अट्ठसय सत्तरगउदी उवसम-खवगाण परिमाणं ॥४६॥'
- एक-एक गुणस्थान में प्राट समय में संचित हुए उपशमक और क्षपक जीवों का परिमारण पाठ सौ सत्तानवे है।
१. "पदमेरे ग विहीणं दु भाजिदं उतरेण संगुणिदं । पभवजुई गदगुणिदं पदरिणदं तं विजाणाहि ।।१६४॥" [वि. सा. गा. १६४] २. घचल पु. ३ पृ. ६३ । ३. धवल पु. ३ पृ. ६४। ४. घधल पु. ३ पृ. ६४ । ५. धवल पु. ३ पृ. ६५ ।
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६९०/गो. सा. जीव काण्ड
गाथा १२-१२८
अपने इस उत्कृष्ट प्रमाणवाले जीवों से युक्न सम्पूर्ण समय एक माथ नहीं प्राप्त होते ग्यतः कितने ही आचार्य ३०४ में से पांच कम करते हैं । पांच कम का यह व्याख्यान प्रवाहरूप में प्रारहा है, दक्षिगा है और प्राचार्य परम्परागत है। ३०४ का व्याख्यान प्रवाह रूप से नहीं आरहा है, वाम है, प्राचार्य परम्परा से अनागत है।'
प्रवेश की अपेक्षा पार समयों में उपशमक जीत्रों की संख्या सोलसयं चउधीसं तीसं छत्तीस तह य बावालं ।
अडवालं चउवणं चउधण्णं होंति उवसमगे ॥६२७॥' गाथा - निरन्तर आठ समय पर्यन्त उपशमश्रेणी पर चढ़ने वाले जीवों में अधिक से अधिक प्रथम समय में सोलह, दूसरे समय में चौबीस, तीसरे समय में तीस, चौथे समय में छत्तीस, पांचवें समय में बयालीस, छठे ममय में अड़तालीस, सातब समय में चौवन और अन्तिम अर्थात पाठवें ममय में भी चौवन जीव उपप्रम थेरणी पर चढ़ते हैं ।। ६२७।।
विशेषार्थ.. -उपशम श्रेणी के प्रत्येक गुणस्थान में एक समय में चारित्रमोहनीय का उपशम करता हुआ जघन्य से एक जीव प्रवेश करता है और उत्कृष्ट से चौवन जीव प्रवेश करते हैं। यह कथन सामान्य से है। विशेष की अपेक्षा आठ समय अधिक वर्ष पृथक्त्व के भीतर उपशमश्रेणी के योग्ग निरन्तर पास समय होते हैं उनमें से
प्र नय में एक जीव को प्रादि लेकर उत्कृष्टरूप से सोलह जीव तक उपशम श्रेणो पर बढ़ते हैं। दूसरे समय में एक जीब को आदि लेकर उत्कृष्ट रूप से चौबीस जीव तक उपशमश्रेणी पर चढ़ते हैं। तीसरे समय में एक जीव को प्रादि लेकर उत्कृष्ट रूप से तीस जीव तक उपणमधेशी पर चढ़ते हैं। चौथे समय में एक जीव को आदि लेकर उत्कृष्ट रूप से छत्तीस जीव तक उपशमधेरणी पर चढ़ते हैं। पांचवें समय में एक जीव को प्रादि लेकर उत्कृष्ट रूप से बयालीस जीव तक उपशमधणी पर चढ़ते हैं । छठे समय में एक जीव को आदि लेकर उत्कृष्ट रूप से अड़तालीम जीव तक उपशमश्रेणी पर चढ़ते हैं। सातवें और पाठवें इन दोनों समयों में एक जीव को आदि लेकर उत्कृष्ट रूप से चौवन-नौवन जीव तक उपशमश्रेणी पर चढ़ते हैं।
प्रवेश की अपेक्षा प्राय समयों में लपक जीवों की संख्या बत्तीसं अउदालं सदी वावत्तरी य चुलसीदी ।
छण्णउदी अठ्ठत्तरसयमद्रुत्तरसयं च खबगेसु ।।६२८॥ गाथार्थ-निरन्तर पाठ समय पर्यन्त क्षपकश्रेणी पर चढ़ने वाले जीवों में प्रथम समय में बत्तीस, दूसरे समय में अड़तालीरा, तीसरे समय में साठ, चौथे समय में बहतर, पाँचवें समय में चौरासी, छठे समय में छयानवे, सातवें समयं में एकसी ग्राट, पाटबे समय में एक सौ आठ जीव क्षपक-श्रेणी पर चढ़ते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥६२८।।
विशेषार्थ-पाठ समय अधिक छह महीना के भीतर क्षपकश्रेणी के योग्य आट समय होते हैं। सामान्य रूप से प्ररूपणा करने पर जघन्य से एक जीव क्षपक गुणस्थान को प्राप्त होता है तथा
१. धवल पु. ३ पृ. ६२ । २. श्रवल पु. ३ पृ. ६१।
३. धयान पु. ३ पृ. ६०-६१ । ४. धवल पु. ३ पृ. ६३ ।
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गाथा ६२६
सम्यक्त्वमार्गणा/६६१
उत्कृष्ट रूप से एकसौ पाठ जीव क्षपक गुणस्थान को प्राप्त होते हैं। विशेष का प्राश्रय लेकर प्ररूपणा करने पर प्रथम समय में एक जीव को आदि लेकर उत्कृष्ट रूप से बत्तीस जीव तक क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं। दूसरे समय में एक जीव को प्रादि लेकर उत्कृष्ट रूप से अड़तालीस जीव तक क्षपक्रश्श्रेणी पर चढ़ते हैं। तीसरे समय में एक जीव को प्रादि लेकर उत्कृष्ट रूप से साठ जीव तक क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं। चौथे समय में एक जीव को आदि लेकर उत्कृष्ट रूप से बहत्तर जीव तक क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं। पाँचवें समय में एक जीव को आदि लेकर उत्कृष्ट रूप से चौरासी जीव तक क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं। छठे समय में एक जीव को श्रादि लेकर उत्कृष्ट रूप से छयानवे जीव तक क्षपकवेशी पर चढ़ते हैं। सातवें और आठवें समय में एक जीव को आदि लेकर उत्कृष्ट रूप से प्रत्येक समय में एक सौ आठ जीव तक क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं।'
सयोग केवली की संख्या अट्ठव सयसहस्सा प्रहारण उदी तहा सहस्साणं । संखा जोगिजिरगाणं पंचसयविउत्तरं चंदे ।।६२६॥
गाथार्थ-- योगिजिनों की संख्या आठ लाख अठानवे हजार पाँचसौ दो है। इनकी मैं वन्दना करता हूँ ।। ६२६।। (यह दक्षिण मान्यता है।)
विशेषार्थ--पाठ समय अधिक छह माह के भीतर यदि पाठ सिद्धसमय प्राप्त होते हैं तो चालीस हजार आठ सौ इकतालीस मात्र अर्थात् इतनी बार पाठ समय अधिक छह माह के भीतर कितने सिद्धसमय प्राप्त होंगे? इस प्रकार राशिक करने पर (४०६४१४८) तीन लाख छब्बीस हजार सातसी अट्ठाईस (३२६७२८) सिद्धसमय प्राप्त होते हैं ।
छह सिद्धसमयों में तीन-तीन जीव और दो समयों में दो-दो जीव यदि केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं, तो पाठ समयों में संचित हुए योगिजिन बावीस (२२) होते हैं। यदि पाठ सिद्धसमयों में बावीस सयोगी जिन प्राप्त होते हैं तो तीन लाख छब्बीस हजार सात सौ अट्ठाईस (३२६७२८) सिद्धसमयों में कितने सयोगी प्राप्त होंगे। इस प्रकार त्रैराशिक करने पर (३२६७२८.:-८४२२) आठ लाख अट्ठानवे हजार पाँच सौ दो (८९८५०२) सयोगी जिन प्राप्त हो जाते हैं।
जहां पर पहले के सिद्धकाल का अर्ध मात्र सिद्धकाल प्राप्त होता है वहाँ पर इस प्रकार राशिक होती है। पाठ सिद्धसमयों में यदि चवालीस सयोगी जिन प्राप्त होते हैं तो एक लाख त्रसठ हजार तीनसा चौसठ सिद्धसमयों में कितने सयोगी जिन प्राप्त होंगे, इस प्रकार राशिक करने पर पूर्वोक्त ८९८५०२ सयोगी जिनों की संख्या प्राप्त हो जाती है। अथवा जहाँ पूर्वसिद्धकाल का चौथा भाग ८१६८२ सिद्धसमय प्राप्त होते हैं वहाँ पर इस प्रकार राणिक होती है। पाठ समयों में अठासी (८) सयोगी जिन प्राप्त होते हैं तो इक्यासी हजार छहसी बयासी मात्र सिद्धसमयों में कितने सयोगी जिन प्राप्त होंगे। इस प्रकार त्रैराशिक करने पर वही पूर्वोक्त ८९८५०२ सयोगी जिनों
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१. धवल पु.
पृ. ६२-६३ ।
२. बथल पु.३ पृ. ६६ |
३. धवल पू.३ पृ. ६४ |
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६.६२/गो. सा. जीवकाण्ड
नगाथा ६३०
की संख्या प्राप्त हो जाती है। इसी प्रकार अन्यत्र भी जानकर कथन करना चाहिए।'
प्रमागाराणि
फलरापिट
इसहाराशि
वन्यप्रमारण
८ समय
२२ केवली
ममय ३२६७२८
८९८५०२
र समय
४४ केवली
समय १६३३६४ |
९८५०२
८ समय
८८ केवली ।
| समय ८१६८२ |
६५०२
८ सभय । १७६ केवनी
समय ४०८४१
८१-५०२
उत्तर-मान्यता अनुसार सयोगी जिनों की संख्या--पाठ ममय अधिक छह महीनों के भीतर यदि पाठ सिद्धसमय प्राप्त होते हैं तो चार हजार सात सौ उनतीस बार पाठ समय अधिक छह माह में किनने सिद्धसमय प्राप्त होंगे? इस प्रकार त्रैगशिक करने पर सैंतीस हजार पाठसा बत्तीस मात्र सिद्धसमय प्राप्त होंगे। अब इस काल में संचित हए सयोगी जिनों का प्रमाण कहते हैं. बह इस प्रकार है...-पाठ समयों में से प्रत्येक समय में चौदह-चौदह सयोगी जिन होने हैं। गार ममयों के ४१४ =११२) एकसों बारह सयोगी जिन प्राप्त होते हैं तो संतीस हजार आठसा बत्तीस सिद्धसमयों में कितने सयोगी जिन प्राप्त होंगे? इस प्रकार वैगशिक करने पर पांच लाख उनतीस हजार छहसी अड़तालीस सयोगीजिन प्राप्त होते हैं।'
पंचेव सयसहस्सा होंति सहस्सा तहेव उगतीसा । छरच सया अडयाला जोगिजिणाणं हदि संख्या॥५४॥
-सयोगी जिन जीवों की संख्या पाँच लाग्न उनतीस हजार छहमी अड़तालीस है। यह वाथन उत्तर मान्यता के अनुसार है।
प्रमाया राशि
फल गशि
इच्छा गणि
लब्ध
६ माह ८ समय
८ समय
४७२६
३७८३२ रामय
समय
११२ केवली
३७८३२ गमय | ५२९६४८ केवली
ज्ञान, वेद, अवगाहना प्रादि की अपेक्षा एक समय में अपको की संख्या होति खवा इगिसमये बोहियबुद्धा य पुरिसवेदा य । उक्कस्से ठुत्तरसयप्पमा सग्गदो य चुदा ॥६३०॥
१. धवल पु.३ पृ. ६६-६७ । २. व ३. धवल पु. ३ पृ. १००।
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गाथा ६३१-६३३
सम्यक्त्वमार्गगणा/६६३
पत्तेय-बुद्धतित्थयरत्थिरणउसयमरणोहिणारगजुदा । दसछक्कयोसदसवीसट्ठावीसं जहाकमसो ॥६३१।। जेटावरबहुमज्झिमोगाहणगा दु चारि अट्ठव । जुगवं हवंति खवगा उपसमगा अद्धमेदेसि ॥६३२।।
गाथार्थ -एक समय में क्षगक उत्कृष्ट रूप से एक साथ बोधिनबुद्ध १०८, पुरुषवेद १०८ स्वर्ग म च्युत होकर क्षपक श्रेणी चढ़नेवाले १०८॥६३०।। प्रत्येकबुद्ध १०, तीर्थकर ६, स्त्रीवेदी २०, नपुमक वेदी १०. मनः पर्ययज्ञानी २०, अबधिज्ञानी २८।।६३१॥ उत्कृष्ट अवगाहना वाले २. जघन्य अवगाहना के धारक ४, बहु मध्यम अवगाहना बाले ८, ये सब मिलकर क्षपक होते हैं। उपशमश्रेणी वाले इनमे प्राधे होते हैं ॥६३२।।
विशेषार्थ -एक समय में एक साथ छह तीर्थकर क्षएकश्रेणी पर चढ़ते हैं। दस प्रत्येक वृद्ध, एकसौ पाठ (१०८) बोधितबुद्ध और स्वर्ग से च्युत होकर आये हुए एकसौ आठ जीव क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं। उत्कृष्ट अवगाहना वाले दो जीव क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं । जघन्य अत्रमाहना बाले चार और ठीक मध्य प्रवगाहना बाले पाठ जीव एक साथ क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं। पुरुषवेद के उदय के साथ एकसौ जाम, सबवेदोक्यसेवा भावदोक्ष्य से बीस जीव क्षपकणी पर चढते हैं। इन उपयुक्त जीवों के प्राधे प्रमारण जीव उपशम श्रेणी पर चढ़ते हैं। चूंकि ज्ञान, वेद आदि सर्व विकल्पों में उपशमश्रेणी पर चढ़ने वाले जीवों से क्षेपकश्रेणी पर चढ़ने वाले जीव दुगुणे होते हैं।'
गर्व संयमी जीवों की संख्या का प्रमाण सत्तादी अटूता छण्णवमझा य संजदा सवे |
अंजलिमौलियहत्थो तियरण सुद्ध रामसामि ॥६३३॥* गाथार्थ-जिस संख्या के आदि में सात है और अन्त में पाठ और बीच में नौ-नौ के अंक छह हैं (FERREE७) वह सर्व संयतों की संख्या है। इनको मैं मन, वचन, काय की शुद्धता पूर्वक अंजलि रूप से हाथ जोड़कर नमस्कार करता है ।।६३३।। (यह दक्षिण मान्यता के अनुसार कथन है।)
१. धवल पु. ५ पृ ३२३। २ पवन पु. ३ पृ. ६८ गा. ५१ किन्तु उत्तरार्ध इस प्रकार है-"तिगभजिदा
दापमत्तगी एमत्ता दु ।। ३. यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि मयतों की यह संख्या कभी भी एक समय में न जानकर विवक्षा-भेद से यह संख्या कही जाननी चाहिए । कारण कि न तो उपशम श्रेणी के चागे गुगारथानों में से प्रत्येक में एक ही समय में अपने-अपने गुणस्थान की संख्या प्राप्त होना सम्भव है. और न क्षपक श्रेणी के चारों गुणास्थानों में से प्रत्येक में एक ही समय में अपने-२ गुग्गरधान की उन्कृष्ट संख्या प्राप्त हाना सम्भव है। हाँ, उपशम अंगी और क्षपक श्रेणी के प्रत्येक गुणस्थान में, क्रम मे अपने अपने गुग्गस्थान की मंध्या का कालभेद ने प्रश्रय प्राप्त होना सम्भव है। कारण कि जो जीव समयों में इन थेगिायों के ग्राठवें गुणस्थान में चढ़े वे ही तो अन्तमुहुर्त बाद नौवें गुगास्थान में पहुँचते हैं । इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए
और इस प्रकार समयभेद से अन्तम हृतं के भीतर सब संयतों की उक्त संख्या बन जाती है। वहाँ ऐमा अभिप्राय समझना चाहिए । [म. मि. ज्ञानपीठ तृतीय संस्करण का सम्पादकीय पृ. ५-६]
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६६४ / गो. सा. जीवकाण्ड
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विशेषार्थ - शङ्का - सम्पूर्ण तीर्थकरों की अपेक्षा श्री पद्मप्रभ भट्टारक का अधिक था, क्योंकि वे तीन लाख तीस हजार ( ३३००००) मुनिगणों से वेष्टित थे। एकसौ सत्तर से गुणा करने पर पाँच करोड़ इकसठ लाख संयत होते हैं । परन्तु यह कहे गये संयतों के प्रसारण को नहीं प्राप्त होती । इसलिए यह गाथा ठीक नहीं है ।
समाधान- सम्पूर्ण अवसपिगियों की अपेक्षा यह हुण्डावसर्पिणी है, इसलिए युग के माहात्म्य से घटकर ह्रस्व भाव को प्राप्त हुए हुण्डावसर्पिणी काल सम्बन्धी तीर्थंकरों के शिष्य परिवार को हरके गाय नहीं है, क्योंकि शेष अवसर्पिणियों में तीर्थंकरों के बड़ा शिष्य परिवार पाया जाता है। दूसरे, भरत और ऐरावत क्षेत्र में मनुष्यों को अधिक संख्या नहीं पाई जाती है, जिससे उन दोनों क्षेत्र सम्बन्धी एक तीर्थंकर के संघ के प्रमाण से विदेह सम्वन्धी तीर्थंकर का संघ समान हो । किन्तु भरत - ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यों से विदेहक्षेत्र के मनुष्य संख्यात गुण हैं । उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
चट्ठी छच्च सया छाल द्विसहस्स चे छाससिय सहस्सा कोडिच वर्क
अन्तरद्वीपों के मनुष्य सबसे कम हैं। उत्तरकुरु देवकुरु के मनुष्य उनसे संरूपातगुणे हैं । उनसे संख्यातगुणे हरि और रम्यक क्षेत्र के मनुष्य हैं। उनसे संख्यातगुणे हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र के मनुष्य हैं। उनसे संख्यातगुणे भरत और ऐरावत क्षेत्र के मनुष्य हैं। उनसे संख्यातगुणे विदेहक्षेत्र के मनुष्य हैं । वहुत मनुष्यों में संयत जीव बहुत ही होंगे इसलिए इस क्षेत्र सम्बन्धी संयतों के प्रमाण को प्रधान करके जो दूषण कहा गया है, वह ठीक नहीं है ।" उत्तर मान्यता का कथन इस प्रकार है-
परिमाणं । पमत्ताणं ।। ५२ ।।
गाथा ६३३
शिष्य परिवार इस संख्या को संख्या गाथा में
वे कोडि सत्तवीसा होंति सहस्सा तहेब णवरणउदी ।
चउसद श्रद्वाणउदी परिसंखा होदि विदियगुणे ॥ ५३ ॥ ३
- [ उत्तर मान्यता के अनुसार ] प्रमत्तसंयतों का प्रमाण चार करोड़ घास लाख छ्यासठ हजार छहसी चौसठ (४६६६६६६४) है |
पंचेच समसहस्सा होंति सहस्सा तहेब तेत्तीसा । अदुसया चोसीसा जवसम - खबगारण केवलिखो ।। ५५ ।।
- [ उत्तर मान्यता के अनुसार ] द्वित्तीय गुणस्थान प्रर्थात् ग्रप्रमत्त संयत जीवों की संख्या दो करोड़ सत्ताईस लाख निन्यानवे हजार चारसौ ग्रट्ठानवे | २२७६६४६८ ] है ।
- [ उत्तर मान्यता के अनुसार ] चारों उपशमक, पाँचों क्षपक और केवली ये तीनों राशियों मिलकर कुल पाँच लाख तेतीस हजार प्रासो चौतीस है ( ५३३८३४) ।
इन सब संगतों को एकत्र करने पर एक सौ सत्तर कर्म भूमिगत सम्पूर्ण ऋषि होते हैं ।
१. घ. पु. ३ पृ. ९०-९६ । २. वन्न पु. ३ पृ. ६६ । २. प्र. पु. ३ पु. १००/ ४. घवल पु. पृ. १०१ ।
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गाथा ६३४-६४०
सभ्यत्रन्त्रमागंसर / ६६५
( प्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले जीव ४६६६६६६४ + अप्रमत्त संयत सातवे गुणस्थान बाले २२७६६४६८ + चारों उपशमक-पांचों क्षपक केवली ५३३०३४ ६६६६६६६६ सत्र संगत होते हैं ।)
छक्कादी छक्ता छण्णवमज्झा य संजदा सन्वे । तिगभजिदा विगगुरिगदापमत्तरासी पत्ता दु ५६ ।।'
-- जिस संख्या के श्रादि में यह अन्त में छह और मध्य में छह बार नी है (६६६६६६६ ) उतने सम्पूर्ण संयत है । इसमें तीन का भाग देने पर अप्रमत्तसंयत ( सातवें गुणस्थान, १४वे गुणस्थान. 3 तक) जीव होते हैं। और इस तीसरे भाग को दो से गुणा करने पर प्रमत्तसंयत छटे गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं। ( ६६६६६६६६ ÷ ३ २३३३३३३२ सर्व अप्रमत्त संवत २३३३३३३२x२= ४६६६६६६४ प्रमन्नसंयत जीब होते हैं। यह उत्तर मान्यता के अनुसार कथन है । )
इस प्रकार उत्तर व दक्षिण मान्यताओंों में परस्पर भेद है।
चारों गतियों के प्रथम चार गुणस्थानों सम्बन्धी अवहार काल अर्थात् भागद्दार का तथा परस्पर अल्पबहुत्व का कथन घासंजय मिस्स सासर सम्मारण भागहारा जे । रूऊरणावलियासंखेज्जेरिगह भजिय तत्थ शिक्खिते ॥ ६३४ || देवाणं श्रवहारा होंति असंखेण तारिए प्रवहरिय | तत्थेव य पक्खित्ते सोहम्मीसाग श्रवहारा ॥। ६३५ ।। सोहम्मसारणहारमसंखेर य गुरवे । उवरि श्रसंजद मिस्तय- सासरा सम्मारण श्रवहारा ।। ६३६ ।। सोहम्मादासारं जोइसि वरण- भवरण- लिरिय पुढवीसु । अविरद - मिस्से संखं संखासंखगुण सासणे देसे ।। ६३७ ।। चरमधरासारगहरा ग्रारणव- सम्मारण प्रारणापहृदि । अंतिम गेवेच्चतं सम्मारमसंख संख - गुरणहारा ।।६३८ ॥
तत्तो ताणुत्ताणं वामागमणुद्दिसारण विजयादि । सम्माणं संखगुणो श्रारगद मिस्से असंखगुणो ।।६३६।। तत्तो संखेज्जगुण सासरसम्माण होदि संखगुणो । उताणे कमसो परस्त्तच दुरसंदिट्ठी ।।६४० ॥
१. धवल ए ३ पृ. १०१ ।
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६६६/गो. सा. जीवकाण्ड
माया ६३४-६४१
सगसगमवहारेहि पल्ले भजिदे हवंति सगरासी।
सगसगगुणपडिवण्णे सगसगरासीसु अथरिणदे वामा॥६४१॥ गाशाय:३४ --- गुरगयामा द्रव्यप्रमाण में असंयत सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यापिट, सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों के भागहारों का जो प्रमाण कहा गया है, उसमें एक कम प्रावली के असंख्यातवें भाग का अर्थात् प्रावली के असंख्यातवें भाग में से एक कम का भाग देकर, लब्ध को भागहार में मिला देने पर देवगति-सम्बन्धी भागहार होता है। उसे पुन: असंख्यात से भागदेकर और उसी में मिलाने पर सौधर्म-ऐशान स्वर्ग सम्बन्धी भागहार का प्रमाण प्राप्त होता है।। ६३४-६३५।। सौधर्म-ऐशान स्वर्ग के असंयत गुरास्थान सम्बन्धी भागहार को असंख्याता से मुणा करने पर मिश्र गुणस्थान का भागहार होता है। मित्र गुणस्थान सम्बन्धी भागहार को संख्यात से गुणा करने पर सासादनगुणस्थान का भागहार होता है। अथवा सौधर्म-ऐशान के सासादन सम्बन्धी अवहारकाल को असंख्यात से गुणा करने पर सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग के देवों के असंयत सम्यग्दृष्टि का अवहार काल प्राप्त होता है। उसको असंख्यात से गुणा करने पर मिश्र गुणस्थान का अवहारकाल होता है। इसको संख्यात से गुणा करने पर सासादन का अबहारकाल होता है ।। ६३६।। यह क्रम सौधर्म स्वर्ग से लंकर सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त. ज्योतिषी, व्यन्नर, भवनवासी, तिर्यच, सातों नरक पृथिवियों में अविरत के अवहार काल से मिश्रगुणस्थान का अवहार काल असंख्यात गुणा होता है। इसको संख्यात से गुणा करने पर सासादन गुणस्थान का अवहारकाल होता है। इसको असंख्यात से गुणा करने पर देशसंयत गुणस्थान का अवहार काल अर्थात गुणाकार होता है ।। ६३७।। चरम अर्थात् सप्तम पृथ्वी के सासादन भागहार से पामत-प्रारगत स्वर्ग के असंयत का भागहार असंख्यात गुणा है। इसके आगे पारण अच्युत का और मारण-अच्युत से लेकर अन्तिम-वेयक पर्यन्त असंयत सम्यग्दृष्टि का भागहार संख्यात गुगणा है ।।६३८।। अन्तिम-ग्रेवेयक के असंयत सम्यग्दृष्टियों के भागहार को संख्यात से गुणित करने पर पानतप्राणत स्वर्ग के मिथ्याष्टियों का भागहार होता है। पुनः इसे उत्तरोत्तर संख्यात गुणा करते जाने पर आगे के स्वर्गों के मिश्याष्टियों का भागहार प्राप्त होता है। यह क्रम अन्तिम अवेयक पर्यन्त ले जाना चाहिए। अन्तिम ग्रैवेयक के मिथ्याष्टि सम्बन्धी भागहार को संख्यात से गुणा करने पर नव अनुदिश के असंयत सभ्यग्दृष्टियों का भागहार होता है । नव अनुदिश के भागहार को संख्यात से गुणा करने पर विजय-वैजयन्त-जयन्त और अपराजित विमानों के असंयत सम्यग्दृष्टि का भागहार होता है। विजयादिक सम्बन्धी संयत के भागहार को असंख्यात से गुणा करने पर आनत-प्राणत स्वर्ग सम्बन्धी सम्यग्मिश्यादृष्टियों का भागहार होता है ।।६३६॥ इस मिथ भागहार से पारण-अच्युत प्रादि नवम ग्रंवेयक पर्यन्त दस स्थानों में मिथ सम्बन्धी भागहार का प्रमाण क्रम से संख्यातगुणा संख्यातगुणा है । यहाँ पर संख्यात की सहनानी आठ का अंक है । अन्तिम ग्रेवेयक के मिश्र सम्बन्धी भागहार से प्रानतप्राणत से लेकर नवम वेयक पर्यन्त ग्या
ग्यारह स्थानों में सासादम मम्यग्दृष्टि के भागहार का प्रमाण क्रम से संन्यात-संख्यात गुणा है। इन पूर्वोक्त पांच स्थानों में संख्यात की सहनानी क्रम से ५. ६, ७, ८ और ४ है ।। ६४०। अपने-अपने भागहार से पल्योपम को भाजित करने पर अपनी-अपनी राशि का प्रमारण प्राप्त होता है। अपनी-अपनी सामान्य राशि में गुगास्थान प्रतिपन्न जीवराशि घटाने पर मिथ्याष्टि जीवराशि प्राप्त होती है ।। ६४१॥
विशेषार्थ गा. ६३४-६४१- एक कम अधस्तन विरलन का (एक कम पावली के असंख्यातवें भाग का) ऊपर विरलित प्रोघ असंयत सम्यग्दृष्टि के यवहारकाल (भागहार) में भाग देने पर
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गाथा ६३४-६४९
सम्यक्त्व मागंगा / ६६७
श्रावली के असंख्यातवें भाग मात्र प्रक्षेप शलाकाएँ प्राप्त होती हैं। उन प्रक्षेपशलाकाओं की ग्रोध असंगत सम्यग्दष्टि के अबहार काल मिला देने पर देव असंयत सम्यग्दृष्टि अवहारकाल का प्रमाण प्राप्त होता है । "
देव प्रसंयत सम्यग्दष्टि सम्बन्धी यवहार काल को आवली के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर देव सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि सम्बन्धी अवहारकाल होता है। क्योंकि असंयत सम्यग्दष्टि के उपक्रमण काल से सम्यग्मिथ्यादृष्टि का उपक्रमण काल प्रसंख्यात गुणा हीन है। देव सम्यग्मिथ्यादृष्टि सम्बन्धी अवहारकाल को संख्यात से गुरिणत करने पर देव सासादन सम्यग्दृष्टि जोराशि सम्बन्धी अवहार काल प्राप्त होता है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादृष्टि के उपक्रमण काल से सासादनसम्यग्वष्टि का उपक्रमण काल संख्यातगुणा होन है । ग्रथवा सम्यग्मिथ्यात्व - गुणस्थान को प्राप्त होने बाली जोवराशि के संख्यातवें भाग मात्र उपशम- सम्यग्वष्टि जीव सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान को प्राप्त होते हैं। इसलिए भी देव सम्यग्मिथ्यादृष्टि के अवहार काल से देव सासादन सम्यग्दृष्टि का अवहार काल संख्यात गुणा है ।
देव असंयत सम्यग्वष्टि अवहार काल को श्रावली के श्रसंख्यातवें भाग से खण्डित करके उनमें से एक खण्ड को उसी देव असंयत सम्यग्दृष्टि प्रवहार काल में मिला देने पर सौधर्म और ऐशान स्वर्ग सम्बन्धी असंयत सम्यग्दृष्टियों का अवहार काल होता है। इसे आवली के प्रसंख्यातव भाग से गुणित करने पर सौधर्म और ऐशान सम्बन्धी सम्यग्मिथ्यादृष्टियों का अवहारकाल होता है । क्योंकि सम्यम्टष्टियों के उपक्रमकाल से सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के उपक्रमकाल में भेद है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के अवहारकाल को संख्यात में गुणित करने पर सौधर्म और ऐशान सम्बन्धी सामानसम्यग्दृष्टियों का यवहार काल होता है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के उपक्रमणकाल से मासादन सम्यग्दष्टियों के उपक्रमणकाल में भेद है । अथवा उक्त दोनों गुणस्थानों को प्राप्त होने बाली राशियों में विशेषता है। सौधर्म और ऐशान सासादनसम्यग्दृष्टियों के अवहारकाल को प्रावली के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर मानत्कुमार और माहेन्द्र असंयत सम्यग्वष्टियों का वहार काल होता है, क्योंकि ऊपर शुभ कर्मों की बहुलता होने से बहुत जीव नहीं पाये जाते हैं । इसी प्रकार तार- सहस्रार कल्प तक ले जाना चाहिए। उन शतार सहस्रार कल्प के सासादन सम्यग्वष्टि सम्बन्धी अवहार काल को धावली के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर ज्योतिषी असंयत सम्यग्टयों का अवहार काल होता है, क्योंकि वहाँ पर व्युद्ग्राहित आदि मिथ्यात्व के साथ उत्पन्न हुए और जिनशासन के प्रतिकूल देवों में सम्यक्त्व को प्राप्त होने वाले बहुत जीवों का प्रभाव है।" उन असंयत सम्यग्दृष्टि ज्योतिषीदेवों के अवहारकाल को मावली के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर सम्यग्मिथ्यादृष्टि ज्योतिषियों का अवहार काल होता है। इसे संख्यात से गुणित करने पर सासादनसम्यग्दष्टि ज्योतिषियों का ग्रवहारकाल होता है। इसी प्रकार वारणव्यन्तर और भवनवासी देवों में क्रम से अवहारकाल ले जाना चाहिए, क्योंकि जिनकी दृष्टि मिथ्यात्व से याच्छादित है उनमें बहुत सम्यग्दृष्टियों की उत्पत्ति सम्भव नहीं है । "
1
भवनवासी सासादन सम्यग्दष्टियों के यवहार काल से निर्यच यसंयत सम्यग्दष्टि का ग्रवहार
१. धवल पु. २ पृ. १५६ । २. धवल पु. ३ पृ. १५६-१६० । ३. घवल पु. ३ पृ. २६२-२८३ । गु. ३ पृ. २८३ ।
४. पत्रल
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६६८/गो. सा. जीवकाण्ड
माथा ६३४-६४१
काल असंख्यातगुणा है । इससे उन्हीं के सन्यग्मिथ्याप्टियों का प्रवहारकाल असंख्यात गुणा है । इससे उन्हीं के सासादन सम्यम्दष्टि का अवहार काल संख्यातगुरगा है । इससे उन्हीं के संयतासंयत का अवहारकाल असंख्यातगृणा है ।' तिथंच संयत्तासंयतों के अवहार काल से प्रथम नरक पृथिवी के असंयत सम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल असंख्यात गुगा है। इससे उन्हीं के सम्यग्मिथ्याष्टि का अबहारकाल असंख्यातगुणा है। इससे उन्हीं के सासादन सम्यग्दृष्टि का अवहार काल संख्यात गृणा है । इसी प्रकार दूसरी पृथिवी से लेकर सातवीं नरक पृथिवी तक ले जाना चाहिए ।
सातवीं पृथिवी के सासादन सम्यग्दृष्टि प्रवहार काल से प्रानत-प्राणत के असंयत सम्यम्दृष्टियों का अवहारकाल असंख्यात गुरणा है, क्योंकि शुभ कर्म वाले दीर्घायु जीव बहुत नहीं होते। इस अवहार काल को संख्यात से गुणित करने पर मारण-अच्युत कल्पवासी असंयत सम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल होता है, क्योंकि उपरिम-उपरिम कल्पों में उत्पन्न होने वाले शुभ कर्मों की अधिकता से दीर्घायूवाले जीवों से नीचे-नीचे के कल्पों में स्तोक पुण्य से स्तोक भवस्थिति में उत्पन्न होने वाले जीव अधिक पाये जाते हैं 1 नीचे-नीचे अधिक जीव होते हुए भी वे संख्यात गुणे ही होते हैं। क्योंकि ऊपर के कल्पों में उत्पन्न होने वाले जीवों के लिए मनुष्यराशि बीजभूत है और मनुष्यराशि संख्यात ही होती है अतः ऊपर-ऊपर के कल्पों से नीचे के कल्पों में जीव संख्यातगुणे हैं । यहाँ पर गुणकार संख्यात समय है । यही क्रम उपरिम-उपरिम वेयक के असंयत सम्याष्टि अबहार काल तक लेजाना चाहिए। उपरिम-उपरिम वेयक के असंयत सम्यग्दष्ट अवहारकाल से ग्रामत-प्रागत के मिथ्या दृष्टियों का अवहार-काल संख्यातगुणा है। इससे पारण अच्युत के मिथ्यारष्टियों का प्रवहारकाल संख्यातगुरगा है। इसी प्रकार उपरिम-उपरिम (अन्तिम) ग्रेवे तक लेजाना चाहिए । उपरिम-उपरिभ ग्रंवेयक के मिथ्यादष्टि अवहारकाल से अनुदिश के असंयत सम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल संख्यातगुणा है। इससे विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन अनुत्तरवासी देवों का असंयत सम्यग्दृष्टि-प्रबहारकाल संख्यातगुणा है यहाँ पर भी सर्वत्र गुणकार संख्यात समय है। इससे अानतप्राणत सम्यग्मिथ्यादृष्टियों का असंख्यात गुणा है, गुरगकार आपली का असंन्यातवाँ भाग है। इससे पारण-अच्युत के सम्यग्मिथ्याष्टियों का अबहार काल संख्यातगुणा है । इसी प्रकार उपरिम-उपरिम (अन्तिम) वेयक पर्यन्त लेजाना चाहिए । उपरिम-उपरिम ग्रंवेयक के सम्यग्मिथ्याष्टि अवहारकाल से पानत-प्रारणत के सासादन सम्यग्दृष्टि का अवहार काल संख्यातगुणा है। इससे प्राररण-अच्युत सासादन-सम्यग्दृष्टियों का प्रबहारकाल संख्यात गुणा है। इसी प्रकार उपरिम-उपरिम वेयक पर्यन्त लेजाना चाहिए। सर्वत्र गुणकार संन्यात समय है ।
उपरिम-उपरिम (अन्तिम) अदेयक मासादन अवहार काल से उन्हीं का द्रव्य प्रमाण असण्यात गमा है, क्योंकि अवहारकाल से पल्योपम को खण्डित करने पर द्रव्यप्रमाण प्राप्त होता है। इस द्रव्यप्रमाण से उपरिम मध्यम अवेयक के सासादन सम्यग्दृष्टियों का द्रव्य संख्यात गुणा है। इस प्रकार अवहारकाल के प्रतिलोम क्रम से जब तक सौधर्म और ऐशान कल्प के असंयतसम्यग्दृष्टियों का द्रव्य प्राप्त हो तब तक ले जाना चाहिए । सौधर्म हिक के असंयन सम्यग्दृष्टि द्रव्य से पल्योरम असंख्यातगृणा है। अपना अवहारकाल गुगणकार है।
१. धवल पु. ३ पृ. २६८-२६६ । २. धवल पु. ३ पृ. २६६ ॥ ३. धवल पृ. ३ पृ. २६६। ४. श्रवल पु. ३ पृ. २८३ । ५. धवल पु.३ पृ. २६६ । ६ धवल पु.३ पृ. ३००। ७. धवल पु. ३ पृ. २६९ व ३०० ।
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गाथा ६४२-६४३
मनुष्य गति में गुणास्थानों की अपेक्षा जीवों तेरसकोडी देसे बावण्णं सासर मुरगेदव्वा ।
मिस्से वि य तद्द गुरगा प्रसंजदा ससकोडिसयं ॥ ६४२॥ '
गायार्थ- देशसंयत गुणस्थान में तेरह करोड़ मनुष्य, सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में बावन करोड़ मनुष्य मम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सासादन से दुगुणे अर्थात् १०४ करोड़ मनुष्य श्रीर असंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्य सातसौ करोड़ हैं || ६४२ ||
विशेषार्थ - सासादन सम्यग्दष्टि आदि चार गुणस्थानों में से प्रत्येक गुणस्थानवर्ती मनुष्यराशि संख्यात है, ऐसा सामान्य रूप से कथन करने पर, सासादनसम्यग्दष्टि मनुष्य बावन करोड़ हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्य सासादनसम्यग्वष्टि मनुष्यों के प्रमाण से दूने हैं अर्थात् एकसौ चार करोड़ हैं । असंयत सम्यग्दृष्टि सातसौ करोड़ हैं। संयतासंयत मनुष्यों का प्रमाण तेरह करोड़ है । कहा भी
सम्यक्त्वमागंणा / ६९६
तेरह कोडी बेसे बावण्णं सासणे मुणेयब्वा । मिस्ले वि य तद्दुगुखा श्रसंजदे सत्तकोडिसया ॥६८॥
किन्तु कितने ही प्राचार्य निम्नलिखित गाथा के आधार पर सासादन सम्यष्टि मनुष्यों का प्रमाण पचास करोड़ कहते हैं ।
सेरह कोडी देसे पण्णासं सासणे मुणेयब्वा ।
मिस्से वि य तद्द, गुरणा प्रसंजदे सतोडिसया ॥ ६६ ॥ ।
4
- मनुष्यों में सासादन सम्यग्दृष्टि मनुष्यों की संख्या के सम्बन्ध में दो मत हैं । एक बावन करोड़ का दूसरा पचास करोड़ का । किन्तु इनमें से बावन करोड़ की मान्यता आचार्य परम्परागत होने से स्वीकार की गई है ।
पुण्य व पाप कर्मो का कथन जीविदरे कम्मचये पुष्णं पावोत्ति होदि सुपयडीरणं दध्वं पावं प्रसुहारण
पुष्णं तु । दध्यं तु ॥ ६४३ ॥
गाथार्थ -- जीवेतर अर्थात् अजोव पदार्थ में कार्मण वर्गेणा पुण्य व पाप दो प्रकार की होती है। शुभ प्रकृतियाँ द्रव्य पुण्य हैं। अशुभ प्रकृतियाँ द्रव्य पाप हैं ||६४३ ।।
विशेषार्थ जीव और प्रजीव दोनों पुण्य रूप भी हैं और पाप रूप भी हैं। पुण्य जीव व पाप जीव का कथन गा. ६२२ में हो चुका है। यहाँ पर अजीव पुण्य-पाप अर्थात् पुण्य द्रव्यकर्म व पाप द्रव्यकर्म का कथन है। पुण्य प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं
सातावेदनीय, तियंचायु, मनुष्यायु, देवायु ये तीन श्रायु, मनुष्य द्विक (मनुष्य गति, मनुष्यगन्यानुपूर्वी) देवद्विक ( देवगति देवगत्यानुपूर्वी), पांच शरीर, पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान,
१. धवल पु. ३ पृ. २५४ । २. व ३. घबल पु. ३ पृ. २५२ ।
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७००/गो. सा, जीव काण्ड
गाथा ६४३
औदारिक अंगोपांग, बैंक्रियिक शरीर अंगोपांग, पाहारक शरीर अंगोपांग ये तीन अंगोपांग, प्रशस्त विहायोगति, आदि संहनन अर्थात् वज्र वृषभ नाराच संहनन, प्रशस्त वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श, अगुरुल त्रु, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, पातप, सचतुष्क, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, निर्माण, पादेव, यश कीति, तीर्थकर और उच्चगोत्र ये ४२ प्रशस्त, शुभ या पुष्य-प्रकृतियाँ हैं।'
पाप प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं --
ज्ञानावरण की पात्र, अन्तराय की पांच, दर्शनावरण की नौ, मोहनीय की ट्रध्वीस, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, आदि के बिना शेष पाँचों संस्थान, आदि के बिना शेष पांचों संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, उपघात, एकेन्द्रियजाति. नरकायु, तीन विकलेन्द्रिय जातियाँ, असातावेदनीय अपर्याप्त, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, दुर्भग, दुःस्वर, अयश कीति, अनादेय, अस्थिर, अशुभ और नीचगोत्र ; ये बयासी अप्रशस्त या अशुभ या पाप प्रकृतियाँ हैं ।
शंका --च कि सब कार्मण वर्गणाएँ पौद्गलिक होने से एक प्रकार की हैं अत: उनमें से पूछ कर्मप्रकृतियों को पुण्य और कुछ को पाप नहीं कहा जा सकता?
समाधान-भिन्न-भिन्न कर्मों में भिन्न-भिन्न फल देने की शक्ति के कारण अर्थात् अनुभाग के कारण उन प्रकृतियों में भेद है। कहा भा है--
जिन प्रकृतियों की फलदान-शक्ति अर्थात अनुभाग गुद. खांड, शक्कर, अमृत के तुल्य उत्तरोत्तर मिष्ट होते हैं वे पुण्यकर्मप्रकृतियाँ हैं। जिनका अनुभाग इससे विपरीत नाम, कांजीर, विष, हलाहल के समान उत्तरोत्तर कटुक हो वे पाप कर्भप्रकृतियाँ हैं।'
शङ्खा ...पुण्यकर्म से मात्र रसना इन्द्रिय को मिटास का स्वाद प्राता है या अन्य भी कुछ लाभ
समाधान—गुड़, खाण्ड, शक्कर, अमृत मात्र उपमारूप है, जिसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार अमृत-पान करने से मनुष्य अजरअमर हो जाता है इसी प्रकार पुण्य कर्मोदय की सहकारिता से जीव अजर अमर हो जाता है अर्थात् अर्हन्त व सिद्धपद को प्राप्त कर लेता है । कहा भी है-"पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्, तत्सवद्यादि ।"
___-जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे प्रात्मा पवित्र होता है वह पुण्य है जैसे सातवेदनीय आदि पुण्य प्रकृतियाँ ।
शंका-पुण्यकर्म तो प्रास्रव बन्ध रूप है। मानव व बन्ध हेय तत्त्व हैं, क्योंकि संसार को बढ़ाने वाले हैं। ऐसा पुण्यकर्म प्रात्मा को कैसे पवित्र कर सकता है ?
समाधान--सभी कर्मप्रकृतियाँ संसारवृद्धि की कारण नहीं होती। कुछ ऐसी भी हैं जो मोक्ष की कारण हैं। सोलह कारण भावना जो नीर्थकर प्रकृति के प्राव व बन्ध की कारण हैं. उन सोलह
२. प्रा. पं. सं., २६६ गाथा ४५६- ४५६ ।
३. प्रा. पं. सं. पृ.
१. प्रा. पं. सं पृ. २६५ गाथा ४५३-४५५1 २७६ । ४. स. सि. ६/३३
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गाथा ६४३
सम्पत्वमागंणा/७०१
कारण भावनाओं की दिगम्बर जैन परम्परा में पूजन होती है, क्योंकि तीर्थकर प्रकृति का बन्ध होकर, उदय पाने पर मनुष्य को अरहन्त पद की प्राप्ति होती है और धर्म-तीर्थ की प्रवृत्ति होती है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी है -
"पुण्णफला अरहता।" ।।४५||' अर्थात् अरहन्त पद पुण्यकर्म का फल है।
"मनुष्यगतौ केवलज्ञानोपलक्षितजीवद्रव्यसहकारिकारणसंबंधप्रारंभस्यानंतानुपमप्रभावस्याचिन्त्यविशेषविभूतिकारणस्य बलोक्यविजयकरस्य तीर्थकरनामगोत्रकर्मणः कारणानि षोडशभावना भावयितव्या इति ॥
इस संसार में तीर्थंकर नामकर्म मनुष्यगति में जीय को केवलज्ञान उत्पन्न करने में कारण है तीर्थकर कर्म के उदय का प्रभाव अनन्त व अनुपम है। वह अचिन्त्य विभूति का कारण है और तीनों लोकों की विजय करने वाला है। इसलिए उस तीर्थंकर नाम कर्म की कारणभूत मोलह भावनाओं का चिन्तन करना चाहिए ।
पुण्यात सुरासुरनरोरगभोगसाराः श्रीरायुरप्रमित-रूपसमृद्धयो गौः । साम्राज्यमन्द्रमपुनर्भवभावनिष्ठ-प्रार्हन्त्यमन्त्य-रहिताखिलसौख्यमग्र्यम् ॥१६॥७२॥'
-सूर असुर, मनुष्य और नाग इनके इन्द्रिय यादि के उत्तम भोग, लक्ष्मी, दीर्घ-आयु, अनुपम रूप, समृद्धि, उत्तम वाणो, चक्रवर्ती का साम्राज्य. इन्द्रपद, जिसे पाकर पुनः संसार में जन्म न लेना पड़े ऐमा अरहन्त पद और अनन्न समस्त सुख देने वाला श्रेष्ठ निर्वाणपद इन राब की प्राप्ति पुण्यकर्म मे होती है।
पुण्याच्च क्रधरश्रियं विजयिनीमैन्द्री च दिव्यश्रियं पुण्यात्तीर्थकरश्रियं च परमां नःश्रेयसीञ्चाश्नुते । पुण्यादित्यसुभृच्छियां चतसृरणामाविर्भवेद् भाजनं
तस्मात्पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियः पुण्याजिनेन्द्रागमात् ।।३०।१२६॥ -पुण्यकर्म से सर्व विजयी चक्रवर्ती की लक्ष्मी, इन्द्र की दिव्य लक्ष्मी मिलती है. पुण्यकर्म से ही तीर्थ पर वी लक्ष्मी प्राप्त होती है और परम कल्याण रूप मोक्षलक्ष्मी भी पुण्य कर्म से मिलती है। इस प्रकार यह जीव पुण्य कर्म से ही चारों प्रकार की लक्ष्मी का पात्र होता है । इसलिए हे सुधी ! तुम भी जिनेन्द्र भगवान के पवित्र आगम के अनुसार पुण्य का उपार्जन करो।
"पुण्यप्रकृतयस्तीर्थपदादि-सुख-खानयः । ५. ये पुण्य कर्मप्रकृतियाँ तीर्थकर प्रादि पदों के सुख देने वाली हैं।
शङ्का-अरहंतपद व मोक्षसुख प्रात्म-परिणामों से प्राप्त होते हैं तथा कर्मी के क्षय से प्राप्त होते हैं, इनमें गुण्य कर्म कैसे सहकारी कारण हो सकता है, कर्म तो बाधक कारण है।
१. प्रवचनसार । २. चारित्र मार पू५० । ३ व ४ महापुराण । ५. मुलाचार प्रदीप पृ. २०० ।
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७०२ / गो. सा. जीबकाण्ड
समाधान - मनुष्य गति, बज्रवृषभनाराच संहनन, उच्चगोत्र श्रादि पुण्य प्रकृतियों के स्वमुख उदय बिना ग्राज तक किसी भी जीव को मोक्षसुख प्राप्त नहीं हुआ है और न होगा । जितने भी प्रवतक मोक्षगये हैं या में नाराचसंहनन और उच्चगोत्र आदि पुण्यप्रकृतियों का उदय था, व उदय श्रवश्य होगा ।
गाथा ६४४-६४५
तीर्थकर प्रकृति का वन्ध होजाने पर अधिक से अधिक तीसरे भव में अवश्य मोक्षसुख प्राप्त होगा । उपर्युक्त मनुष्य गति, उत्तम संहनन आदि की सम्प्राप्ति के बिना मोक्ष के हेतुभूत समग्र रत्नत्रय की प्राप्त त्रिकाल में भी नहीं हो सकती ।
"मोक्षस्यापि परमपुण्यातिशय चारित्रविशेषात्मक पौरुषाभ्यामेव संभवात् । " श्री विद्यानन्दी महान् तार्किक प्राचार्य थे, उन्होंने कहा है "परमपुष्य के अतिशय से तथा चारित्र रूप पुरुषार्थ से इन दोनों कारणों से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
"निश्चयधर्मो यद्यपि सिद्धगतेरुपादानकारणं भव्यानां भवति तथापि निदानरहितपरिणामोपाजित तीर्थंकर प्रकृत्युसम संहनना दि-विशिष्ट पुण्य रूप-कर्मापि सहकारीकारणं भवति, तथा यद्यपि जीव- पुद्गलानां गतिपरिणतेः स्वकीयोपादानकारणमति तथापि धर्मास्तिकायोपि सहकारीकारणं भवति । "
- जिस प्रकार निश्चयधर्म भव्यों को सिद्धगति के लिए यद्यपि उपादान कारण है तथापि निदानरहित परिणामों से उपाजित तीर्थंकर प्रक्रति, उत्तम संहनन आदि विशिष्ट पुण्यकर्म भी सिद्धगति के लिए सहकारी कारण हैं । उसी प्रकार गतिपरिणत जीव मुद्गल, अपनो ग्रपनी गति के लिये यद्यपि उपादान कारण हैं तथापि उस गति में धर्म द्रव्य सहकारी कारण होता है। इसप्रकार पुण्य कर्मोदय की सहकारिता मोक्षसुख के लिए सिद्ध हो जाती है ।
प्राव, संवर, निर्जरा, बंध व मोक्ष का द्रव्यप्रमारण प्रासव संवरद समयपबद्ध तु रिगज्जरादध्यं ।
तत्तो प्रसंखगुरिदं उक्कस्सं होदि यिमेर ॥। ६४४ ॥
बंध समaat किंचूरा दिवढमेत्तगुणहारगो ।
मोक्खो य होदि एवं सद्दहिदत्वा वु तच्चट्ठा ।। ६४५ ।।
गाथार्थ - प्रास्रव और संवर का द्रव्यप्रमाण समयबद्ध मात्र है। निर्जरा का उत्कृष्ट द्रव्य असंख्यात समयबद्ध प्रमाण है || ६४४ ॥ बंध भी समयप्रबद्ध प्रमाण होता है । ( किचित् ऊन समयबद्ध प्रमाण हे गुणहानि गुणित द्रव्यकर्म का क्षय होने पर मोक्ष होता है)। इसलिए मोक्ष का द्रव्य किंचित् कन डेढ़ गुणहानि समयप्रबद्ध प्रमारण कहा गया है। इस प्रकार तत्त्वों का श्रद्धान करना चाहिए | ६४५ ||
१. स्त्री पृ. २५७ । २. पंचास्तिकाय गा. ८५ तात्पर्यवृत्ति |
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गाथा ६४४-६४५
सम्यक्त्वमार्गणा / ७०३
विशेषार्थ "समये प्रबध्यत इति समयप्रबद्ध ः "" एक समय में जितना कर्म बाँधा जाता है, वह
समयबद्ध है ।
- समयप्रवद्ध का कितना प्रभाग है ?
शङ्का
समाधान एक समयप्रवद्ध में पुद्गल द्रव्य का प्रमाण अनन्त है । कहा भी है
.
पंच रस-पंचवणेहि परिणयदुगंध चदुहि फासे हि । दविमरतपसं जीवेहि प्रणतगुणहीणं ॥ २ सयलरसरूवगंधेहि परिणदं चरमचदुहिं फासेहिं । सिद्धादो ऽभव्वादोऽणंतिमभागं गुणं दव्वं १९६१ ॥ ३
"प्रणतपसं सव्वजीवह प्रणतगुणही अभवसिद्ध हि कम्मबंध जोग पुग्गलदव्वं होइ ।"
प्रणतगुण-सिद्धारणमणंतभागं
--- सर्व जीवराशि से अनन्तगुणा हीन, अभव्यों से अनन्तगुणा अर्थात् सिद्धों के अनन्त भाग कर्मे बंधयोग्य अनन्त मुद्गल प्रदेश (परमाणु) प्रतिसमय जीव बँधते हैं, वही समय प्रबद्ध है । जितना द्रव्य बँधता है उतने ही द्रव्य का प्रति समय कर्म रूप से श्रास्रव होता है अर्थात् एक समय-- प्रवद्ध प्रमाण द्रव्यकर्म का बन्ध होता है अतः एक समयबद्ध प्रमाण का ही मानव होता है। और एक समयबद्ध प्रमाण का ही संवर होता है, क्योंकि आस्रव का निरोध ही संबर है ।" वह संवर दो प्रकार का है ( १ ) भाव संवर ( २ ) द्रव्य संवर । संसार की निमित्तभूत क्रिया की निवृत्ति भावसंबर है। संसार की निमित्तभूत क्रिया का निरोध होने पर कर्मपुद्गलों के ग्रहण का विच्छेद द्रव्यसंवर है। कहा भी है
परिणामो जो कम्मरसासबखिरोहणे हेदू ।
सो भावसंवरो खलु दरवासवरोहणं प्रण्लो ।। ३४ ।। [ द्रव्यसंग्रह ]
--जो आत्म-परिणाम कर्म याश्रव को रोकने में कारण हैं वे भावसंवर हैं और द्रव्यकर्मों के प्रसव का रुकना द्रव्यसंचर है। उस द्रव्य-संवर का प्रमाण एकसमयबद्ध मात्र है ।
शङ्का - प्रसव का निरोध संवर है, इसलिए यात्रव का कथन करना चाहिए था। ग्राव किसे कहते हैं ?
समाधान --ग्रासव दो प्रकार का है ( १ ) भाव-प्रास्रव (२) द्रव्य-ग्रास्रव ।
प्रसवदि जेरण कम्मं परिणामेण परणो स विप्रो ।
भावासयो जिणुत्तो कम्मासवरणं परो होदि ||२६|| [ द्रव्यसंग्रह ]
१. धवल पु. १२. ४७८ । २. प्रा. पं. सं. पृ. २८० मा ४६५. पू. सं. पू. ६२४ । ५. "ग्राम्रवनिरोधः संदर: ।२६ / १ || " [त. मु]।
६२४ मा. १२० । २. गो. क. ६. स. सि. ९ /१ ।
४. प्रा. पं.
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७०४ / गो. सा. जीव काण्ड
गाथा ६४४-६४५
- जिन श्रात्म-परिणामों से कर्मों का आगमन होता है, वह भावास्रव है। कर्मों का आगमन वह द्रव्य यात्रव है ।
राणावरशादी जोगं जं पुग्गलं समासवदि । दवासको स स्रो प्रणेयश्रो जिरा ||३१|| [ द्रव्यसंग्रह ]
-- ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के वह एक दवा है। इस अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण वाला है । '
योग्य जो पुद्गल आता है उसे द्रव्यासव जानना चाहिए । का प्रमाण एकसमयप्रवद्ध मात्र है, जो प्रभव्यों से
कर्मों का एकदेश झड़ना, निर्जीर्ण होना निर्जरा है। वह निर्जरा दो प्रकार की है
सा पुरण दुबिहा णेया सकाल-पत्ता तवेण कयमारणा । अगदीणं पढमा वय -जुत्ताणं हवे विदिया ॥ १०४ ॥
-- वह निर्जरा दो प्रकार की है। एक स्वकाल प्राप्त अर्थात् सविपाक और दूसरी तप के द्वारा की जाने वाली अर्थात् अविपाक निर्जरा । पहली निर्जरा चारों गति के जीवों के होती है और दूसरी निर्जरा व्रती जीवों के होती है। अनेक जाति विशेष रूपी भँवर युक्त चारगतिरूपी संसार महासमुद्र में चिरकाल तक परिभ्रमण करनेवाले इस जीव के क्रम से परिपाक काल को प्राप्त हुए और अनुभवोदयावली रूपी झरने में प्रविष्ट हुए ऐसे शुभाशुभ कर्म का फल देकर जो निवृत्ति होती है, वह विपाकजा निर्जरा है। तथा जैसे आम और पनस को कमिक क्रियाविशेष के द्वारा अकाल में पका लेते हैं, उसी प्रकार जिसका विपाक काल अभी नहीं प्राप्त हुआ है फिर भी श्रमिक क्रियाविशेष की सामर्थ्य से उदयावली के बाहर स्थित जो कर्म बलपूर्वक उदयावली में प्रविष्ट करके अनुभवा जाता है. वह अविपाक निर्जरा है ।"
[ स्वा. का. प्र. ]
प्रतिसमय एकसमयप्रबद्ध प्रमाण द्रव्य बँधता है और सामान्यतः एकसमयप्रवद्ध प्रमाण द्रव्यकर्म उदय में आकर निर्जरा को प्राप्त होता है। यह विपाक निर्जरा है। कुछ कम डेढ़ गुगाहानि समयबद्ध प्रमाण सत्व द्रव्यकर्म है ।
पfsani बंधुप्रो एक्को समयप्पबद्धो दु ॥९४२॥ उत्तरार्ध [ गो.क. ] सत्तं समयबद्ध दिवढगुणहाणिताडियं ऊणं ॥ [ गो. क. ]
४३॥
अविपाक निर्जरा में प्रतिसमय सत्रिपात्र निर्जरा के
असंख्यातगुणे द्रव्यकर्म की निर्जरा होती है। कहा भी है-
द्रव्य से अर्थात् समयप्रबद्ध से
"मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दष्टि के प्रसंख्यातगुणी निर्जरा विशुद्धिविशेष के द्वारा होती है। प्रर्थात् एकान्तानुवृद्धि विशुद्ध परिणाम जब तक होते हैं तब तक असंख्यात गुणरनिर्जरा होती है। उससे
१. "ते खलु पुद्गलत्कन्या अभव्यानन्तगुणः सिद्धानन्त भाग प्रमित- प्रदेशा।" [म. लि. ९/२४ ] । निर्जगाम एकदेशेन शतं गलनं । " [ स्वा. का. अ. ग. १०३ टीका | | २. रावसिद्धि ८ / २३ ॥
२. "निर्जगं
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गाथा ६८६-६४८
सम्यक्त्वमार्गणा/७०५
असंख्यातगुण निर्जरा अणवतधारी के होती है। उससे असंख्यातगुण निर्जरा महाव्रतधारी ज्ञानी के होती है। उससे असंख्यातगुण निर्जरा प्रथम चार कषाय अर्थात् अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ की विसंयोजना करनेवाले के होनी है। उससे असंख्यातगुण निर्जरा दर्शन मोहत्रिक कर्म का क्षय करनेवाले के होती है । उससे असंख्यातगुण कर्मनिर्जरा उपशम श्रेणीवाले के, उससे असंख्यातगुण कर्मनिर्जरा उपशान्तमोह के, उससे असंख्यातगुण निर्जरा क्षपक श्रेणी के, उससे असंख्यातगुण निर्जरा क्षीणमोह के, उससे असंख्यातगुणनिर्जरा सयोगीकेवली के और उससे असंख्यातगुण कर्मनिर्जरा प्रयोगकेवली के होती है। इस प्रकार प्रयोगकेवली के उत्कृष्ट कर्मनिर्जरा होती है जो असंख्यात समयप्रबद्ध प्रमाण है। यहाँ पर अविपाक निर्जरा से प्रयोजन है, क्योंकि अविपाक कर्ममिर्जरा का द्रव्य असंन्यात-समयप्रवद्ध प्रमाण होता है । सविपाक कर्मनिर्जरा का द्रव्य तो एक समयबद्ध मात्र होता है।
त्रिकोण यंत्र-रचना से स्पष्ट हो जाता है कि सत्त्व द्रव्य कर्म कुछ कम डेढगुणहानिसमयप्रबद्ध प्रमाण है। चौदहवे गुणस्थान के अन्त में इस सत्त्व द्रव्य कर्म का क्षय करके मोक्ष होता है। अत: मोभ का द्रव्य सत्त्व कर्म है जो कुछ कम डेढ़गुणहानि समयबद्ध प्रमाण है।
सायिक नम्यकव खीणे दंसरणमोहे जं सहहरणं सुरिणम्मलं होई । तं खाइयसम्मत्तं णिच्चं कम्मक्खवरणहेतु ।।६४६॥' यहिं वि हेहि वि इंदियभयारणएहि रूबेहि । वोभन्छजुगुच्छाहि य तेलोकेरण यि रण चालेज्जो ।।६४७॥ दंसरणमोहक्खवरणापवगो कम्मभूमिजादो हु। मणुसो केलिमूले गिट्ठवगो होदि सम्वत्थ ॥६४८।।*
गाथार्थ---दर्णनमोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर जो निर्मल श्रद्धान होता है वह क्षायिक मम्यक्त्र है, वह नित्य है और कर्मों के क्षय का कारण है ।।१४६।। श्रद्धान को भ्रष्ट करनेवाले वचन या हेतुनों से अथवा इन्द्रियों को भय उत्पन्न करने वाले प्राकारों से या बीभत्स (भयंकर) पदार्थों के देखने से उत्पन्न हुई ग्लानि से, किंबहुना त्रैलोक्य से भी वह चलायमान नहीं होता ।।६४७।। कर्मभूमिज मनुष्य ही केवली के पादमूल में दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय का प्रारम्भक होता है, किन्तु निष्ठापक सर्वत्र होता है ।।६४६।।
विशेषार्थ-प्रध:करण, अपूर्वकरण, अनिवत्तिकरगा इन तीन करण लब्धि रूप परिणाम की सामर्थ्य से तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ इन चार प्रकृतियों के क्षय से तथा
१. स्वा. का. अनु. गाथा १०६-१०८ २. "बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षा मोक्षः ।।" १०/२॥ [तत्त्वार्थमूत्र। ३. धवल पु. १ पृ. ३६५ गा. २१३, प्रा. पं. सं. पृ. ३४ गा. १६०। ४. घवल पु.१ पृ. ३६५ गा. २१४; प्रा.पं. स. पू. ३४४ गा.१६१ । ५. जयधवल पु. १३ गा, ११० पृ. २, प्रा. पं. सं. पृ.४२ मा २०२ ।
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७०६/गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा ६४६-६४०
मिथ्यात्व-मम्यग्मिथ्यात्व-सम्यक्त्व प्रकृति दर्शनमोहनीय कर्म की इन तीन प्रकृतियों के क्षय मे, इस प्रकार सात प्रकृतियों के क्षय से जो सम्यक्त्व होता है वह क्षायिक सम्यक्त्व है। प्रतिपक्ष कर्मों के अत्यन्त क्षय से उत्पन्न होने के कारगा क्षायिक सम्यक्त्व अतिनिर्मल होता है। क्षायिक सम्यकव प्राप्त होकर फिर कभी छूटता नहीं है, अतः नित्य है। विशुद्धि की वृद्धि को प्राप्त होता हुमा असंयत सम्यम्हष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संघत इन चार गुणस्थानों में में किसी एक गुणस्थान में सात प्रकृतियों का क्षय करके क्षायिक सम्पष्टि होकर क्षपक श्रेणी पर प्रारोडगा करने के योग्य होता है। इसलिए क्षायिक सम्यग्दर्शन सर्व कर्मों के क्षय का हेतु कहा गया है।
!
दर्णनमोहनीय का क्षपण करता हा जीव सर्वप्रथम अधःप्रवृत्त करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन तीन करणों को करके अनन्तानुबन्धिचतुक का विसंयोजन करता है। अधःप्रवृत्तकरण में स्थितिघात, अनुभागघात, गुरणश्रेणी और गुणसंक्रमण नहीं होता है। केवल अनन्न गुणो विशुद्धि मे विशुद्ध होता हा अध:प्रवृनकरण काल के अन्तिम समय तक चला जाता है। केवल विशेषता यह है कि अन्य स्थिति को बांधता हुप्रा पहले के स्थितिबन्ध की अपेक्षा पल्योगम के संख्यानवें भाग से हीन स्थिति को बांधता है। इस अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में होने वाले स्थिति मे अन्तिम समय में होनेवाला स्थिनिबन्ध संख्यातगणा हीन होता है ।
अपूर्व करण के प्रथम समय में पूर्व स्थिति बन्ध मे फ्ल्योपम के संख्यानवें भाग से हीन अन्य स्थितिबन्ध होता है। उसी समय में आयु कर्म को छोड़कर शेष कर्मों के पल्योरम के संख्यात भाग मात्र पायामवाले अथवा मागरोपम पृथक्त्व पाया मवाले स्थिति कांडकों को प्रारम्भ करता है । तथा उसी समय अप्रशस्त कर्मों के अनुभाग के अनन्त बहुभाग मात्र अनुभाग कांडकों को ग्रारम्भ करता है। उसी समय में अनन्तानुबन्धी कषायों का गुगसंक्रमण भी प्रारम्भ करता है । प्रथम समय में पहले संक्रमण किये गये द्रव्य से असंभवातगुणित प्रदेश का संक्रमण करता है। दूसरे समय में उससे असंख्यातगुणित प्रदेशाग्र का संक्रमण करता है । इस प्रकार यह कम सर्वसंक्रममा से पूर्व समय तक ले जाना चाहिए। प्रायुकर्म को छोड़कर शेष कर्मा की गलितावशेष गूगथणी को करता है। इस प्रकार सम्पूरर्ग अपूर्वकरणकाल में गुणधेशी करने की विधि कहनी चाहिए । केवल विशेषता यह है कि प्रथम समय में अपकर्षित प्रदेशाग्र मे दुसरे समय में असंख्यात गणित प्रदेशों का अपकर्षण करता है। इस प्रकार यह क्रम अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। प्रथम समय में दिये जानेवाले प्रदेशाग्र में द्वितीय समय में गुणश्रेणी के द्वारा दिये जाना बाना प्रदेशाग्र असंख्यात गुणित होता है। इस प्रकार यह क्रम अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार उपयुक्त विधान से अपूर्वकरण का काल समाप्त हुया । अपूर्वकरण के प्रथम समय सम्बन्धी स्थिति सत्त्व से और स्थिति-बन्ध से अपूर्वकरण के अन्तिम समय में स्थितिमत्त्व और स्थितिबन्ध संख्यातगुणित हीन होता है ।
अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में अन्य स्थिति बन्ध, अन्य स्थिति काण्डक, अन्य अनुभाग काण्डक और अन्य गुणश्रेणी एक साथ प्रारम्भ होती है। इस प्रकार अनिवृतिकरण काल के संख्यात बहुभाग व्यतीत होने पर विशेष घात से पान किया जाता हुया अनन्तानुबन्धी चतुक का
२. म. मि. १०/१1३. प्रवल पु. ६ पृ. २४८-२४६ ।
४. चवल
१, म्बर का. अ. गा. ३०८ टीका। पु. ६ पृ. २४६-२५१ ।
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गाया ६४६-६४८
सम्यक्त्वमार्गणा / ७०७
स्थितिसत्व श्रसंज्ञी-पंचेन्द्रिय के स्थितिबन्ध के समान हो जाता है। इसके पश्चात् सहस्रों स्थितिrushi के तीत होने पर अनन्तानुबन्धी चतुष्क का स्थितिसत्त्व चतुरिन्द्रिय के स्थितिबन्ध के समान हो जाता है । इस प्रकार क्रमणः त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीवों के स्थितिबन्ध के समान होकर पत्योपप्रमाण स्थितिसत्त्व हो जाता है। तब प्रनन्तानुबन्धी चतुष्क के स्थितिकाण्डक का प्रमाण स्थितिसत्त्व के संख्यात बहुभाग होता है और शेष कर्मों का स्थितिकांडक पल्योपम के संख्यातवें भाग ही है। इस प्रकार सहस्रों स्थिति कांडकों के व्यतीत होने पर दुरापकृष्ट संज्ञात्राले स्थितिसत्त्व के अवशेष रहने पर वहाँ से शेष स्थितिसत्त्व के असंख्यात भागों का घात करता है।'
शंका- दुरापकृष्ट किसे कहते हैं ?
समाधान - पत्योपम को उत्कृष्ट संख्यात से भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो, उसमें से एक-एक तब तक कम करते जायें जब तक पल्योपम को जघन्य परीतासंख्यात से भाजित करने पर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण प्राप्त न हो। इस प्रकार स्थिति के जितने विकल्प हैं वे सब दूरापकृष्ट हैं | जिस अवशिष्ट सत्कर्म में से संख्यात बहुभाग को ग्रहण कर स्थितिकाण्डक का वात करने पर शेष बच्चा स्थिति सत्कर्म नियम से पत्योपन के असंख्यातवें भागप्रमाण होकर अवशिष्ट रहता है, उस सबसे अन्तिम योपम के संख्यातव भाग प्रमाण स्थिति सत्कर्म की दुरापकृष्ट संज्ञा है ।
तत्पश्चात् पयोम के श्रसंख्यातवें भाग आयाम वाले अन्तिम स्थितिकांड को अन्तर्मुहूर्त मात्र उत्कीरण काल के द्वारा छेदन होने के पश्चात् ग्रनिवृतिकरण के अन्तिम समय में उदपावली से बाह्य सर्व स्थितिसत्व को परस्वरूप से संक्रमित कर अन्तर्मुहूर्त काल के व्यतीत होने पर मोहनी की क्षपणा का प्रारम्भ करता है ।"
दर्शन मोहनीय कर्म के क्षपण करने वाले
परिणाम भी अधःप्रवृत्तकरण अपूर्वकरण और अनि वृत्तिकरण के भेद से तीन प्रकार के होते हैं । इनका कथन जिस प्रकार ऊपर अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना में किया गया है उसी प्रकार यहाँ पर भी करना चाहिए [विशेष के लिए धवल पु. ६ पू. २५४ से पृ. २६३ देखने चाहिए अथवा जयधवल पु. १३ में पृ. १४ से ६४ देखने चाहिए] अन्तिम स्थितिross के समाप्त होने पर कृतकृत्यवेदक हो जाता है । कृतकृत्य वेदक काल के भीतर उसका मरण भी हो, संक्लेश को प्राप्त हो अथवा विशुद्धि को प्राप्त हो तो भी प्रसंख्यातगुरिणत श्रेणी के द्वारा जब तक एक समय अधिक प्रबलो काल शेष रहता है तब तक श्रसंख्यात समयप्रत्रद्धों की उदीररणा होती रहती है ।"
जिसने दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय कर दिया है उसका संसार में प्रवस्थान मद्यपि बहुत है तथापि उसके प्रस्थापकभव को छोड़कर अन्य तीन भवों से अधिक नहीं होते। कहा भी हैबणाए पटुबगो जम्हि भये शियमसा तदो अण्णे ।
गाथिच्छदि तिथि भवे दंसरणमोहम्मि खोलम्मि ।। ११३ ।। *
१. धवल पु. ६ पृ. २५१ । २. "का दूरापकृष्टनमिति ? उत्कृष्टसख्यातेन भक्त यल्लब्धं तस्मादेककहान्या जनमताख्यान भक्त पत्ये यमब्धं तस्मादेकोत्तरवृत्रया यावन्ती विकल्पास्तावन्तो दूरापकृष्टभेदा: " १२० टीका ] | ३. जयनवल पु. १३ पृ. ४५ ४, धवला पू. ६ पृ. २५२ । ५. धवल पु. ६ पृ. २६३ । ६. जयधवल पु. १३ पृ. १ ।
[
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७०/गो. सा, जीबकाण्ड
गाघा ६४६-१४%
___---क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव प्रायुवन्ध के वश से देव और नारकियों में उत्पन्न होता है, वह देव पीर नारक भव से प्राकर अनन्तर भव में ही चरम देह के सम्बन्ध का अनुभव कर मुक्त होता है। इस प्रकार उसके दर्शनमोहनीय की क्षपणा सम्बन्धी भव के साथ तीन ही भवों का ग्रहगा होता है। परन्तु जो पूर्व में बन्ध को प्राप्त हुई वायु के सम्बन्धवश भोगभूमिज तियंचों या मनुष्यों में उत्पन्न होता है, उसके क्षपणा के प्रस्थापन के भव को छोड़कर अन्य तीन भव होते हैं, क्योंकि भोगभूमि से देवों में उत्पन्न होकर और वहाँ से च्युत होकर मनुष्यों में उत्पन्न हुए उसके निर्वागा प्राप्त करने का नियम है।'
प्रतिपक्ष कर्मों का अत्यन्त क्षय हो जाने पर क्षायिक सम्यनत्व होता है अनः क्षायिक सम्यग्दृष्टि किन्हीं भी बाह्य कारणों से सम्यक्त्व से च्युत नहीं होता । अन्तरंग और बाह्य दोनों कारणों के मिलने पर कार्य की सिद्धि होती है, मात्र किसी एक कारण से कार्य नहीं होता । सम्यक्त्व के प्रतिपक्ष दर्शनमोहनीय क्रम ब अनन्तानुहमी कषाग नष्ट के बारागार में पाविम. सम्यग्दष्टि कुयुक्ति आदि द्वारा सम्यक्त्व से न्युत महीं हो सकता । क्षायिक सम्यग्दृष्टि कभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, किसी प्रकार से सन्देह नहीं करता और मिथ्यान्वजन्य अतिशयों को देखकर विस्मय को भी प्राप्त नहीं होता।
वसणमोहे खविवे सिझदि एक्केव तदिये तुरियभवे । णादिक्कमदि तुरियभवं ण विणस्सदि सेससम्म व ॥१६४॥
-दर्णनमोहनीय कर्म का क्षय होने पर जीव या तो उसी भव में मुक्त हो जाता है, या तीसरे भव में या चौथे भव में मुक्त हो जाता है। चौथे भव का उल्लंघन नहीं करता।
दर्शनमोहनीय कर्म के क्षपण वा प्रारम्भ यह जीव जम्बुढीप, बासकोखंड और पुष्कराध इन अदाई द्वीपों में तथा लवण और कालोदक इन दो समृद्रों में करता है, शेष द्वीप और समुद्रों में नहीं करता, क्योंकि उनमें दर्शनमोह के क्षण करने के सहकारी कारणों का अभाव है। अढाई द्वीप में भी पन्द्रह कर्मभूमियों में प्रारम्भ करना है. भोगभूमियों में नहीं। कर्मभूमियों में भी मात्र पर्याप्त मनुष्य ही प्रारम्भ करते हैं, देव व निर्य व नहीं ।
शंका-मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीव ममुद्रों में दर्शन मोहनीय की क्षपणा का कैसे प्रस्थापन करते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि विद्या प्रादि के वश से समृद्र में साये हुए जीवों के दर्शनपोह का क्षपण होना सम्भव है।
गाथा में पाये हुए 'के वलिमुले पद से यह कहा गया है कि जिम काल में जिन सम्भव हैं उसी काल में दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक होता है, अन्य काल में नहीं । इससे दुःपमा, दुःषमदुःषमा, सुषमासुषमा और सुषमा काल में उत्पन्न हुए मनुष्य के दर्शनमोह की क्षापरणा का निषेध हो जाता है।
१. जयधवल पु.१३ पु.१०। २. धवल पु. १ पृ. १७१।
३. लम्पिसार, स्वा. का. प्र. गा. ३०८ टीका ।
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गाथा ६४६
सम्यक्त्वमामेणा/७०९
शङ्खा -- मुषमादुःषमा काल में उत्पन्न हुए मनुष्य दर्शनमोह को क्षपणा कैसे कर सकते हैं ?
समाधान---सुपमादुःषमा काल में श्री ऋषभदेव तीर्थकर हुए हैं। इस अवपिणी के सुपमादुःपमा तीसरे काल में एकेन्द्रिय पर्याय से आकर उत्पन्न हुए बर्द्धनकुमार प्रादि को दर्शनमोह की क्षपणा हुई है।
जो स्वयं तीर्थंकर होने वाले हैं, वे दर्शनमोहकर्म की क्षपणा स्वयं प्रारम्भ करते हैं, अन्यथा तीसरी पृथिवी से निकले हुए कृष्ण प्रादिकों के तीर्थकरत्व नहीं बन सकता है।'
केवली के पादमूल में ही मनुष्य के परिणामों में इतनी विशुद्धता पाती है जो वह दर्शनमोहनीय कर्म की क्षपणा का प्रारम्भ कर सकता है। अन्यत्र इतनी विशुद्धता सम्भव नहीं है, किन्तु जो उसी भव में तीर्थकर होने वाले हैं और जिन्होंने पूर्व तीसरे भव में तीर्थकर प्रकृति का वध कर लिया है ऐसे तीर्थंकर प्रकृति के सत्व सहित क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव के परिणामों में, तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता के कारगा स्वनः इतनी विशुद्धता या जाती है कि वह स्वयं दर्शनमोहनीयकर्म की क्षपणा कर सकता है।
कृतकृत्यवेदक होने के प्रथम ममय से लेकर कार के समय में दर्शनमोह की क्षपणा करने वाला जोव निष्ठापक कहलाता है। दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भ करने बाला जीव कृतकृत्यवेदय होने के पश्चात आयुबन्ध के बश से चारों गतियों में उत्पन्न होकर दर्शनमोह की क्षपणा को सम्पर्ण अर्थात सम्पन्न करता है, क्योंकि उन-उन गतियों में उत्पत्ति के कारण भूत लेश्या-परिणामों के वहाँ होने में कोई विरोध नहीं है।
वेदक राम्यन्व प्रथवा क्षथोषणम सम्यकद का स्वरूप दंसमोहदयादो उपज्जइ जे पयस्थसद्दहणं ।
चलमलिगमगाटं तं वेदयसम्मतमि दि जाणे ॥६४६॥' गायार्थ दर्शनमोह (सम्यक्त्व प्रकृति) के उदय से जो चल-मलिन-प्रगाढ़ रूप पदार्थों का श्रद्धान होता है, उसे वेदक रा यवत्व जानना चाहिए ।। ६४६ ।।
विशेषार्थ--दर्शनमोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियां हैं-सम्यक्त्व प्रकृति, मिथ्यात्व प्रकृति और तदुभय (मम्यग्मिथ्यात्व) प्रकृति । जिस दर्शनमोह के उदय में यह जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थों के श्रद्धान में निरुत्सुक, हिताहित का विचार करने में असमर्थ होता है वह मिथ्यात्व-दर्शन मोहनीय है। जब शुभ परिणामों के कारण दर्शनमोहनीय रूप स्वरस (स्वविपाक) रुक जाता है और उदासीन रूप से अवस्थित होकर प्रात्मा के श्रद्धान को नहीं रोकता तब वह सम्यक्त्व दर्शनमोहनीय है। इसका वेदन करने वाला पुरुष सम्यग्दृष्टि होना है। चार अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभाव क्षय और सदवस्थारूप उपशम से और देशघाती सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है, वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है।'
३. धवल पु. १ पृ. ३६६ गा. २१५
१. धवल पु. ६ पृ. २४४-२४७ । २. धवल पु. ६ पृ. २४०-२४८ । स्वा का. अ. गा. ३०६ टीका । ४. म. मि. 18। ५. स. सि. २/५ ।
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७१ / गो. सा. ओकाण्ड
प्रणवाद छण्हं सजाइ- स्वेण उदयमाणाणं । सम्मत्त - कम्म उदये खयउवसमियं हवे सम्मं ।।३०६ ॥
गाथा ६४२
[ स्वा. का. प्र. ]
- अनन्तानुबन्धी कोध-मान- माया-लोभ, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभाव से अर्थात् विष, हलाहल प्रादि रूप से दारू बहुभाग रूप से व शिला व प्रस्थि रूप से उदय का प्रभाव हो जाने से और अनन्तानुबन्धी क्रोध मान-माया-लोभ के संक्रमण के द्वारा श्रप्रत्याख्यानयादि रूप से मिध्यात्व व सम्यस्मिथ्यात्व का संक्रमण होकर सम्यक् प्रकृतिरूप उदय में आने से और सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होने पर चल, मलिन, अगाढ़ दोष सहित क्षयोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। चल-मल अगाढ़ का स्वरूप गा २५ की टीका (विशेषार्थ ) में कहा जा चुका है।
I
शंका- क्षयोपशम सम्यवत्व को वेदक सम्यग्दर्शन यह संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ?
समाधान- दर्शन मोहनीय कर्म के उदय का वेदन करने वाले जीव के जो सम्यक्त्व होता है। वेद सम्यक्त्व है ।
शङ्का - जिनके दर्शनमोहनीय कर्म का उदय विद्यमान है. उनके सम्यग्दर्शन कैसे पाया जा
सकता है ?
समाधान दर्शनमोहनीय की देशघाती प्रकृति के उदय रहने पर भी जीव के स्वभाव रूप श्रद्धान के एकदेश होने में कोई विरोध नहीं आता है ।"
१. धवल पु. १ पृ. ३६८ सूत्र १४६ कोटीका ।
सम्यक्त्व प्रकृति के देशघाती स्पर्धकों के उदय के साथ रहनेवाला सम्यक्त्व परिणाम क्षायोपशमिक कहलाता है। मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय अभाव रूप क्षय से, उन्हीं के सदवस्था रूप उपणम से और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय क्षय से तथा उन्हीं के सदवस्था रूप उपशम से अथवा श्रनुदयोपशमन से और सम्यक्त्व प्रकृति के देशघाती स्पर्धकों के उदय से क्षायोपशमिक भाव कितने ही याचार्य कहते हैं, किन्तु यह कथन घटित नहीं होता, क्योंकि वैसा मानने पर प्रतिव्याप्ति व अध्याप्ति दोष का प्रसंग याता है। अथवा कृतकृत्य वेदक के क्षयोपशम का यह लक्षरण घटित नहीं होता ।
शंकर - अतिव्याप्ति दोष किस प्रकार प्राता है ?
समाधान -- यदि वेदक सम्यक्त्व में सम्यक् प्रकृति के उदय की मुख्यता न मानकर, केवल मिथ्यात्वादि के क्षयोपशम से ही इसकी उत्पत्ति मानी जावे तो सादि मिध्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यक् प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदयाभाव क्षय और सदवस्था रूप उपशम से तथा मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से मिथ्यात्व गुणस्थान को भी क्षायोपशमिक मानना पड़ेगा, क्योंकि वहाँ पर भी क्षयोपशम का लक्षण घटित होता है ।
शङ्का - तो फिर क्षायोपशमिक भाव कैसे घटित होता है ?
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गाया ६५०-६५१
सम्बत्वभार्गग्गा/७११
समाधान-यथास्थित अर्थ के श्रद्धान को घात करने वाली शक्ति जब सम्यक्त्व प्रकृति के स्पर्धाकों में क्षीण हो जाती है, तब उनकी क्षायिक संज्ञा है । क्षीगा हुए स्पर्धकों के उपशम को अर्थात् प्रसन्नता को क्षयोपशम कहते हैं। उसमें उत्पन्न होने से वेदक सम्यक्त्व क्षायोपमिक है। यह कथन घटित हो जाता है।"
बात यह है कि कर्मों के उदय होते हए भी जो जीव गुण का अंश उपलब्ध रहता है बह क्षायोपशमिक भाव है । (३. ५।१८५) श्री ब्रह्मदेव ने भी कहा है कि देशघाती स्पर्धकों के उदित होते हुए जो एकदेश (प्रांणिक) ज्ञानादि गुणों का उघाड़ (प्राप्ति) है, वह क्षायोपशमिक भाव है।
जो वेदक मम्यग्दष्टि जीव है वह शिथिल श्रद्धानी होता है, इसलिए वृद्ध पुरुप जिस प्रबार अपने हाथ में लकड़ी को शिथिलतापूर्वक पकड़ता है, उसी प्रकार वह भी तत्त्वार्थ के विषय में शिथिल्लग्राही होता है, अत: कुहेतु और कुहाटान्त से उस सम्यक्त्व की विराधना करने में देर नहीं लगती है।
उपशम सम्पन्न का स्वरूप नःषा पांच लठिनयाँ दसणमोहवसमदो उप्पज्जइ जं पयत्थसहहणं । उवसमसम्मत्तमिरणं पसण्णमलपंकतोयसमं ।।६५०॥ खयउयसमियविसोही देसण-पाउग्ग-करणलद्धी य ।
चत्तारि वि सामपणा करणं पुण होदि सम्मत्ते ॥६५१॥' गाथार्थ – जिभ प्रकार कीचड़ के नीचे व जाने से जल निर्मल हो जाना है उमी प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म के आशम से पदार्थ का जो श्रद्धान होता है वह उपशम सम्यक्त्व है ।। ६५ ।। क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण ये पाँव लब्धियां होती हैं। इनमें से चार तो सामान्य हैं । परन्तु करण नब्धि के होने पर सभ्यक्त्व अवश्य होता है ।।६५१ ।।
विशेषार्थ – जैसे कतक प्रादि द्रव्य के सम्बन्ध से जल में कीचड़ का उपशम हो जाता है उसी प्रकार यात्मा में कर्म की निज णनि का करगावश प्रकट न होना उपशम है।५ प्रथमोपशममभ्यग्दर्शन से पूर्व अयोपशम लब्धि १, विशुद्धि लब्धि, देशना नब्धि ३, प्रायोग्य लब्धि ४, करगा लब्धि ५, ये पाँच रन ब्धियाँ होती हैं। इनका मविस्तार कथन लब्धिसार ग्रन्थ में है, यहाँ भी संक्षेप में कहा जाता है।
कम्ममलपउलसत्ती पडिसमयमणंतगुणविहीणकमा । होणुवीरदि जदा तदा स्वनोयसम लद्धी दु ॥४॥ [लब्धिसार]
-कर्म मल रूप पटल की फलदान शक्ति अर्थात् अनुभाग जिम काल में प्रति समय क्रम से अनन्तगुणा हीन होकर उदय को प्राप्त होता है, वह क्षयोपशम लब्धि है ।
१. श्रवल पु. ५ पृ. २०० | २. धवल पु. १ पृ. १७१। ३. धवल पृ. १ पृ. ३६६ । व २०५; लबिमार गा. ३। ५. सर्वार्थसिद्धि ।
४. धवल पु. ६ पृ. १३६
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७१२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६५१
धवलाकार ने भी कहा है कि पूर्वसंचित कर्मों के मलरूप पटल के अनुभाग स्पर्धक जिस समय विशुद्धि के द्वारा प्रति समय अनन्तगुणहीन होते हुए उदीरणा को प्राप्त किये जाते हैं, उस समय क्षयोपशम लब्धि होती है।
प्राविमलद्विभवो जो भावो जीवस्स सावपहदीणं ।
सत्थाणं पयडीणं बंधणजोगो विसुद्धिसद्धी सो ॥५॥ [लग्थिसार] --क्षयोपशम लब्धि से उत्पन्न जीव के जो परिणाम साता आदि प्रशस्त प्रकृतियों के बन्ध के कारणभूत हैं वे विशुद्ध परिणाम विशुद्धि लब्धि हैं ।
धवलाकार ने भी कहा है कि प्रति समय अनन्तगुणित हीनक्रम से उदीरित अनुभाग स्पर्धकों से उत्पन्न हुना, साता ग्रादि शुभ कर्मों के बन्ध का निमित्तभूत और असातादि अशुभ कर्मों के बन्ध का विरोधी जो जीव का परिणाम है, उसे विशुद्धि कहते हैं। उसकी प्राप्ति का नाम विशुद्धि लब्धि है।
छद्दवरणवपयत्थोपदेसयर-सूरिपहुवि लाहो जो।
देसिदपदस्थधारण लाहो वा तदियलद्धो दु॥६॥ [लब्धिसार] -छह द्रव्य और नव पदार्थ का उपदेश करने वाले प्राचार्यादि का लाभ अथवा उपदिष्ट पदार्थों के धारण करने की शक्ति की प्राप्ति तीसरी देशना लब्धि हैं।
धवलाकार ने भी कहा है कि छह द्रव्य और नौ पदार्थों के उपदेश का नाम देशना है । उस देशना से परिणत आचार्य आदि की उपलब्धि को और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण , धारण तथा विचारण की शक्ति के समागम को वेशना लब्धि कहते है।
प्रतो कोडाकोडी विद्वारो ठिदिरसाण जं करणं ।
पाउग्गलद्धिणामा भस्वाभब्वेमु सामण्णा ॥७॥ [लब्धिसार] —पूर्वोक्त तीन लब्धि युक्त जीव प्रतिसमय विशुद्धि में वृद्धि होने के कारण प्रायु के अतिरिक्त शेष सात कर्मों की स्थिति काट कर अन्तः कोडाकोडी मात्र कर देता है और अप्रणास्त कर्मों का अनूभाग द्विस्थानिक अर्थात लता दारु रूप कर देता है। इस योग्यता की प्राप्ति प्रायोग्य लब्धि है।
धवलाकार ने भी कहा है कि सर्व कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और अप्रशस्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग को घात करके क्रमशः अन्तः कोडाकोड़ी स्थिति में और द्विस्थानीय अनुभाग में प्रवस्थान करने को प्रायोग्य लब्धि कहते हैं। क्योंकि इन अवस्थाओं के होने पर जीव करण लब्धि के योग्य होते हैं ।
प्रारम्भ की ये चारों लब्धियाँ भव्य और प्रभव्य जीवों के साधारण हैं, क्योंकि दोनों ही प्रकार के जीवों में इन चारों लब्धियों का होना सम्भव है। किन्तु अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीनों करण भव्य मिथ्या दृष्टि जीव के ही होते हैं, क्योंकि अन्यत्र वे पाये नहीं जाते ।'
४. घ. पु. ६ पृ. २०४-२०५ ।
५. पवन पु. ६ पृ. २०५।
६. धवल
१.२.३. धवल पु. ६ पृ. २०४। पृ. ६ पृ. १३६ ।
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सम्यक्त्वमाला / ७१३
प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होने वाले जीव के प्रघःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और निवृत्तिकरण के भेद से तीन प्रकार की विशुद्धियां होती हैं ।" प्रधःप्रवृत्त लक्षण वाली विशुद्धियों की 'अधःप्रवृत्तकरण' यह संज्ञा है, क्योंकि उपरितन समयवर्ती परिणाम अधः अर्थात् अश्वस्तन समयवर्ती परिणामों में समानता को प्राप्त होते हैं, इसलिए अधःप्रवृत्त यह संज्ञा सार्थक है ।
गाथ। ६५०-६५१
जिस करण में विद्यमान जीव के करण परिणाम 'अध:' अर्थात् नीचे [ उपरितन ( आगे के ) समय के परिणाम नीचे ( पूर्व ) के समय के परिणामों के समान] प्रवृत्त होते हैं वह अधःप्रवृत्तकरण है। इस करण में उपरिम समय के परिणाम नीचे के समय में भी पाये जाते हैं, यह तात्पर्य है ।
जिस करण में प्रत्येक समय में अपूर्व अर्थात् असमान होते हुए, नियमतः अनन्तगुण रूप से वृद्धिगत करण अर्थात् परिणाम होते हैं, वह अपूर्वकरण है। इस करण में होने वाले परिणाम प्रत्येक समय में असंख्यात लोक प्रमासा होकर अन्य समय में स्थित परिणामों के सदृश नहीं होते हैं ।
जिस करण में विद्यमान जी के एक समय में परिणामभेद नहीं है, वह अनिवृत्तिकरण है । समए समए भिण्णा भावा तम्हा प्रपुबकरणो हु । प्रणिट्टीवि तहं वि य परिसमयं एक्कपरिणामो ||३६|| [ लब्धिसार ]
समय-समय में जीवों के परिणाम जुदे जुदे ही होते हैं, ऐसे परिणामों का नाम अपूर्वकर है और जहां प्रत्येक समय में एक ही परिणाम हो, वह अनिवृत्तिकरण है।
--
करा नाम परिणाम का है। अपूर्व जो करण होते हैं वे प्रपूर्वकरण हैं, जिसका अर्थ समान परिणाम होता है।"
निवृत्तिकरण में एक-एक समय के प्रति एक-एक ही परिणाम होता है, क्योंकि यहाँ एक समय में जघन्य और उत्कृष्ट परिणामों के भेद का प्रभाव है । "
इन तीनों करणों के काल से ऊपर (आगे) उपशमन काल होता है। जिस काल विशेष में दर्शन मोहनीय उपशान्त होकर अवस्थित होता है. वह उपमानादा है। अर्थात् उपशम सम्यग्दृष्टि का काल है 15
शङ्का - दर्शनमोहनीय का उपशम किसे कहते हैं ?
समाधान---करण परिणामों के द्वारा निःशक्त किये गये दर्शनमोहनीय के उदय रूप पर्याय के बिना अवस्थित रहने को उपशम कहते हैं ।
"तमुत्तमद्ध सवोवसमेरा होइ उवसंतो" ।। पूर्शर्ध गा. १०३ ।। *
१. धवल पु. ६ पृ. २१४ । २. धवल पु. ६ पृ. २१७ १
६. व ७. घदल पु. ६ पू. २२१ ।
पु. १२ पृ. २३४ । पु. १२ पृ. ३१४ ।
२. जयधवल पु. १२ पृ. २३३ ।
म. जयधवल पु. १२ पृ. २३४ ।
४. व ५. जयश्वल
६. जयघवल
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७१४/ गो. सा. जीवकाण्ड
सभी दर्शनमोहनीय कर्म का उदयाभावरूप उपशम होने से वे अन्तर्मुहूर्त काल तक उपशान्त रहते हैं । " सव्वोवसमे " ऐसा कहने पर सभी दर्शनमोहनीय कर्मों के उपशम से, ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप से विभक्त मिथ्यात्व सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीनों ही कर्मों का उपशान्त रूप में अवस्थान देखा जाता है ।"
उसी उपशान्त दर्शन मोहनीय के प्रथम समय में अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के प्रथम समय में सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्व संज्ञावाले तीन भेद उत्पन्न करता है ।
शङ्का इनकी इस प्रकार उत्पत्ति कैसे होती है ?
समाधान - जैसे यंत्र से कोदों के दलने पर उसके तीन भाग हो जाते हैं, वैसे ही श्रनिवृत्तिकरण परिणामों के द्वारा दलित किये गये दर्शनमोहनीय के तीन भेदों की उत्पत्ति होने में विरोध का प्रभाव है ।
काण्डकघात के बिना मिध्यात्व कर्म के अनुभाग को बात कर और उसे सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के अनुभाग रूप प्रकार से परिणमाकर प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होने के प्रथम समय में मिथ्यात्व रूप एक कर्म के तीन कर्मा अर्थात् भेद या खण्ड उत्पन्न करता है ।
मिच्छत्त मिस्स सम्म सरूवेरा य सत्तीवो य श्रसंखाणंतेण य
गाथा ६५०
ततिधा यदा ।
होंति भजियकमा १६००॥ [ लब्धिसार ]
- मिध्यात्वद्रव्य मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व मोहनीय रूप तीन तरह का हो जाता है । द्रव्य की अपेक्षा सम्यकत्व प्रकृति और मिश्र प्रकृति में मिथ्यात्व का असंख्यातवाँ भाग द्रव्य होता है और मिथ्यात्व का अनन्तवाँ भाग अनुभाग सम्यक्त्व और मिश्र प्रकृति में होता है ।
प्रथमोपशम सम्यक्त्व के प्रथम समय में ही अनन्त संसार को काट कर अर्धद्गल परिवर्तन मात्र संसारस्थिति कर देता है। कहा भी है-
"एक्केण श्रादियमिच्छ। दिट्टिणा तिथिग करवाणि काढूण उवसमसम्मत्तं पडियष्णपतमसमए प्रांतो संसारी द्विष्णो श्रद्धपोम्पलपरियट्टमेसी को" ।"
१. जयघवल पु. १२ पृ. ३१५ । ४. धवल पु. ५ पृ. ११ ।
- एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव तीन करण करके उपशम सभ्यवत्व को प्राप्त होने के प्रथम समय में अनन्त संसार को छिन्न कर अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र कर देता है । प्रथमोपशम सम्यक्त्व परिणाम से इतना महान कार्य हो जाता है । प्रथमोपशम सम्यक्त्व परिणाम में अथवा अतिवृत्तिकरण में ही इतनी शक्ति है जो अनन्तानन्त संसार काल को छेद कर अत्यल्प ऐसे अर्ध पुद्गल परिवर्तन मात्र कर देते हैं। अन्य प्रकार से संसारस्थिति अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र नहीं हो सकती ।
२. जयधवल पु. १२ पृ. २८१ ।
३. धवल पु. ६ पृ. २३५ ।
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गाथा ६५२
are के योग्य जीव
चदुगदिभथ्यो सो पज्जत्तो सुज्झगो य सागारो ।
जागारी
सम्यक्त्वमार्गणा / ७१५
सल्लेसो सलद्धिगो सम्ममुवगमई ।। ६५२।।
गाथार्थ - चारों गति का भव्य, संज्ञी पर्याप्त, विशुद्ध, साकार उपयोगी, जागृत, प्रशस्त लेण्या वाला और नन्धि संयुक्त जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है ।। ६५२ ।
विशेषार्थ - नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चारों गतियों के जीवों में से किसी भी गति का जीव दर्शनमोहनीय कर्म को उपशमाता है। कहा भी है
सरणमोहस्सुवसामश्रो वु चदुसु वि गवीसु बोद्धध्वो । पंचिदिश्रो य सण्णी नियमा सो होदि पज्जसो |१९५ ।। '
"उवसामेतो कहि उवसामेदि ? चसु वि, गयीसु उवसामेवि । चदुसु वि गदीसु उवसामेंतो विएस उवसामेदि, गो एइंडिय - विगलविषु पचिरिए व्यसाराती उपसा जो सणी | सणीसु उवसामेतो गम्भावेषकं लिए उवसामेवि, गो सम्मुच्छिमेसु । गम्भोवतिएसु जवसामेंतो पज्जत्तएसु उक्सामेदि, गो श्रपज्जत्तएसु । पज्जसएसु उवसामेंतो संवेज्जवरसाउगेसु वि उवसामेदि, प्रसंखेज्जवत्सासु वि || ||
-- दर्शनमोहनीय कर्म को उपणमाता हुआ यह चारों ही गतियों में उपशमाता है। चारों ही गतियों में उपशमाता हुआ पंचेन्द्रियों में उपशमाता है, एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में नहीं। पंचेन्द्रियों में उपमाता हुआ संज्ञियों में उपण माता है, असंजियों में नहीं । संज्ञियों में उपशमाता हुआ गर्भोपान्तिकों में, अर्थात् गर्भज जीवों में उपशमाता है, सम्मूच्मिों में नहीं। गर्भो क्रान्तिकों में उपशमाता हुआ पर्याप्तकों में उपशमाता है, अपर्याप्तकों में नहीं। पर्याप्तकों में उपशमाता हुआ संख्यात वर्ष की आयु वाले जीवों में भी उपशमाता है और असंख्यात वर्ष की आयु वाले जीवों में भी उपशमाता है । लब्ध्यपर्याप्त और निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था को छोड़कर नियम से निवृत्ति पर्याप्त जीव ही प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के योग्य होता है ।
सम्वरिय भरणेसु दोष-समुद्दे गह- जोदिसि विमारले । अभिजोगमभिजग्गे उवसामो होइ बोद्धव्व ॥६६॥३
--सूत्र नरकों में रहने वाले नारकियों में सब भवनों में रहने वाले भवनवासी देवों में, सब द्वीपों और समुद्रों में विद्यमान संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंचों में ढाई द्वीप- समुद्रों में रहने वाले मनुष्यों में, सब व्यन्तरावासों में रहनेवाले व्यन्तर देवों में, सब ज्योतिष्क देवों में विमानों में रहनेवाले नौ ग्रैवेयक तक के देवों में तथा ग्रभियोग्य और अनभियोग्य देवों में दर्शनमोहनीय का उपशम होता है ।
१. जयधवल पु. १२ पृ. २६६ । २. धवल पु. ६ पृ. २३८ । ३. जयचवल पु. १२ पृ. २६० +
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७१६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाचा ६५२
शंका-नस जीवों से रहित असंख्यात समुद्रों में तिर्यंचों का प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करना कैसे बन सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि वहाँ पर भी पूर्व के वैरी देवों के प्रयोग से ले जाये गये निर्यच सम्यक्त्व की उत्पत्ति में प्रवृत्त हुए पाये जाते हैं।'
शंका-- नव ग्रैबेयक से उपरिम अनुदिश और अनुत्तर विमानबासी देवों में सम्यवत्व की उत्पति क्यों नहीं होती? समाधान नहीं होती, क्योंकि उनमें सम्यग्दृष्टि जीवों के ही उत्पन्न होने का नियम है ।
सागारे पटुवगो णिढवगो मज्झिमो य भजियच्यो ।
जोगे अण्णवम्हि य जहण्णगो तेउलेस्साए ॥८॥' -दर्शनमोह की उपशमविधि का प्रारम्भ करने वाला जीव अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय से लेकर अन्तमहतं तक प्रस्थापक कहलाता है। वह जीव उस अवस्था में साकार अथात ज्ञानोपयोग में ही उपयक्त होता है, क्योंकि उस समय में पविचारस्वरूप दर्शनोपयोग की प्रवृत्ति का विरोध है । इसलिए मति, श्रुत और विभंग में से कोई एक साकार उपयोग ही उसके होता है, अनाकार उपयोग नहीं होता। क्योंकि अविमर्शक और सामान्यमात्रग्राही चेतनाकार उपयोग के द्वारा विमर्शक स्वरूप तत्त्वार्थधद्धान लक्षण सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के प्रति अभिमुखपना नहीं बन सकता। जागृत अवस्था से परिणत जीव ही सम्यक्त्व की उत्पत्ति के योग्य होता है, अन्य नहीं, क्योंकि निद्रारूप परिणाम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के योग्य विशुद्धिरूप परिणामों से विरुद्ध स्वभाव वाला है। इस प्रकार प्रस्थापक के साकारोपयोग का नियम करके निष्ठापक रूप अवस्था में और मध्यम (वीच की) अवस्था में साकार उपयोग और अनाकार उपयोग में से अन्यतर उपयोग भजनीय है। दर्शनमोह के उपशामनाकरणा को समाप्त करने वाला जीव निष्ठापक होता है। समस्त प्रथम स्थिति को क्रम से गलाकर अन्तर में प्रवेश की अभिमुख अवस्था के होने पर निष्ठापक होता है। साकारोपयोग या अनाकार-उपयोग इन दोनों में से किसी एक के साथ निष्ठापक होने में विरोध नहीं है। इसी प्रकार मध्यम अवस्था वान्ले के भी कहना चाहिए ।
पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओं में से नियम से कोई एक वर्धमान लेश्या होती है। इनमें से कोई भी लेश्या हीयमान नहीं होती। इस जीब के कृष्ण, नील और कापोत ये तीन अशुभ लेश्या नहीं होती।
शंका-वर्धमान शुभ तीन लेश्याओं का नियम यहाँ पर किया है, यह नहीं बनता; क्योंकि नारकियों के सम्यक्त्व की उत्पत्ति करने में व्यापृत (तत्पर) होने पर अशुभ तीन लेश्या भी सम्भव हैं।
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि तिर्यंचों और मनुष्यों की अपेक्षा यह कहा गया है।
१. जयघवल पु. १२ पृ. २६६ । ४. जयधवल पू. १२ पृ. ३०४ ।
२. जगबवल पु. १२ पृ. ३२० । ३. जयघवल पु. १२ पृ. ३०४ । ५. जयधवल पु. १२ पृ. २०४ । ६. जयधवल पु. १२५, ३०५ ।
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गाथा ६५३
सम्यवानमार्गणा/७१७
तिथंच और मनुष्यों के सम्यक्त्व को प्राप्त करते समय शुभ तीन लेश्याओं को छोड़कर अन्य लेश्यायें संभव नहीं हैं। क्योंकि अत्यन्त मन्द विशुद्धिधार सत्यक्ष की प्रायः करने वाले जीव के वहाँ पर जघन्य पीत लेश्या होती है।'
शंका-यहाँ पर देव और नारकियों की विवक्षा क्यों नहीं की ?
समाधान नहीं की, क्योंकि उनके अवस्थित लेण्या होती है। यहाँ पर परिवर्तमान सब लेण्यावाले तिर्यंच और मनुष्यों की ही प्रधान रूप से विवक्षा की गई है ।
यद्यपि गाथा में योग और वेद का कथन नहीं किया गया है किन्तु कपायपाहड़ व जयधवल में इनका कथन है । उसके आधार पर यहाँ भी कथन किया जाता है---
चार प्रकार के मनोयोगों में से अन्यतर (किसी भी) मनोयोग से, चार प्रकार के वचनयोगों में से अन्यतर वचनयोग से तथा प्रौदारिक काययोग और वैक्रियिक काययोग इन सब योगों में से किसी योग से परिणत हा जीव दर्शनमोह की उपशम विधि का प्रारम्भ करता है । इसी प्रकार निष्ठापक और मध्यम अवस्थाबाले जीव के भी कहना चाहिए, क्योंकि इन दोनों अवस्थाओं में प्रस्थापक से भिन्न नियम की उपलब्धि नहीं होती।
सम्यक्त्व की उत्पत्ति में व्याप्त हुए जीव के तीनों वेदों में से कोई एक वेदपरिणाम होता है, क्योंकि द्रव्य और भाव की अपेक्षा तीन वेदों में से अभ्यतर वेदपर्याय से युक्त जीव के सम्यक्त्व की उत्पत्ति में व्याप्त होने में विरोध का अभाव है।"
इस जीव के कारणलब्धि सश्यपेक्ष (अर्थात् करणलब्धि से सम्बन्ध युक्त) क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन लब्धियों में संयुक्तपना होना चाहिए । क्योंकि उनके बिना दर्शनमोह के उपशम करने का क्रिया में प्रवृत्ति नहीं हो सकती।'
चारों प्रायू में से किमी भी प्रायु का बन्ध होने पर सभ्यग्दर्शन तो हो सकता है किन्तु अणुव्रत व महाप्रत मात्र देवाबु के वन्ध होने पर ही हो सकते हैं; एक गाथा द्वारा इसका कथन किया जाता है.
चतारिवि खेत्ताई पाउगबंधेरण होदि सम्मत्तं ।
अणुवदमहत्वदाइं रण लहइ देवाउगं मोत्तुं ॥६५३॥ गाथार्थ- चारों गति सम्बन्धी प्रायु कर्म का बन्ध हो जाने पर भी सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो सकता है । किन्तु अगुवत और महाव्रत देवायु के अतिरिक्त अन्य प्रायु के बन्ध होने पर प्राप्त नहीं हो सकते ।।६५३।।
१. जयपवल' पु. १२ पृ. २०५। २. जयदल पू. १२ पृ. २०५। ३. जयधवल पु. १२ पृ. ३०५-३०६ । ४. व ५. जयधवल पु. १२ पृ. २०६। ६. धवल पु. १ पृ. ३२६ गाथा १६६ । प्रा. पं. सं. पृ. ४२ गाथा २०१; गो. क. गाथा ३३४।
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गाथा ६५४
७१८/गो. मा. जीवकाश
विशेषार्थ-देव और नारकियों के न अणुव्रत होते हैं और न महावत होते हैं । तियंत्रों के अणुव्रत होते हैं । यदि तियंचों के नरक, तिर्यंच या मनुष्यायु का बन्ध होगया है तो वे अणुव्रत भी धारण नहीं कर सकते ; किन्तु सम्यक्त्व हो सकता है । मनुष्य के अणुयत व महाव्रत दोनों हो सकते हैं। यदि उसके नरक प्रायु, तिर्यंचायु या मनुष्यायु का बन्ध हो गया हो तो अणुव्रत या महावत धारण नहीं कर सकता, किन्तु सम्यक्त्व की उत्पत्ति हो सकती है। देव व नारकी के तिर्यंचायु या मनुष्यायु का बन्ध हो जाने पर भी सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है ।
सासादन सम्ममइष्टि को क्षमा ण य मिच्छत्तं पसो सम्मत्तादो य जो य परिवडिदो।
सो सासणोत्ति गयो पंचमभावेण संजुत्तो ॥६५४।।' गाथार्थ जो जीव सम्यक्त्व से च्युत हो गया है और मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है, वह सासादन सम्यग्दृष्टि जीव है । वह पाँचवें भाव से संयुक्त होता है ।।६५४।।
विशेषार्थ-सासादन गुणस्थान प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन से परिपतित होने पर ही होता है अन्य सम्यक्त्व से च्युत होने पर नहीं होता, किन्तु कषायपाहुड़ के मतानुसार द्वितीयोपणम सम्यक्त्व से पतित होने पर भी सासादन गुणस्थान सम्भव है। सासादन सम्यग्दृष्टि के पंचमभाव अर्थात् पारिणामिक भाव कहा गया है, किन्तु यह पारिगामिक भाव भव्यत्व आदि के समान अनादि नहीं है परन्तु दर्शनमोहनीय कर्म की अपेक्षा यह पारिणामिक कहा गया है जो सादि है। इस गाथा सम्बन्धी विशेष कथन गाथा १६ के विशेषार्थ में है। वहाँ से देखना चाहिए । पुनरुक्ति के दोष के कारण यहाँ पर नहीं लिखा जा रहा।
जिस सम्यादृष्टि जीव ने विसंयोजना द्वारा अनन्तानुबन्धी चतुष्क को निःसत्त्व कर दिया है, वह जब मिथ्यात्व या सासादन को प्राप्त होता है तब मिथ्यात्व या सासादन के प्रथम समय में अनन्तानुबन्धी चतुष्क का स्थितिसत्त्व पाया जाता है।
शंका - असद्रूप अनन्तानुवन्धी चतुष्क की सामादन में सत्तारूप से उत्पत्ति कैसे हो जाती है ? समाधान-मासादन परिणामों से । शंका-वह सासादन रूप परिणाम किस कारण से उत्पन्न होते हैं ? समाधान-अनन्तानुबन्धी चतुक के उदय से । शंका-अनन्तानुबन्धी चतुष्क का उदय किस कारण से होता है ?
समाधान-परिणाम विशेष के कारण अनन्तानुबन्धी चतुष्क का उदय होता है। परिणामों के माहात्म्यवश शेष कषायों का द्रव्य सासादन गुणस्थान में उसी समय अनन्तानुबन्धी रूप से परिणम कर उसका उदय देखा जाता है।'
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१. प्रा. पं. सं पृ. ३५ गाथा १६८।
२. जयधवल पु. ४ पृ. २४।
३. जयधवन पु. १० पृ. १२४ ।
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गाथा ६५५-६५६
सम्यक्त्वमागंणा/७१६
सद्दहरणासद्दहरणं जस्स य जीवस्स होइ तच्चेसु ।
विरयाविरयेण समो सम्मामिच्छोत्ति गायध्वो ॥६५५।।' गाथार्थ-जिस जीव के तत्वों में श्रद्धान और प्रश्रद्धान युगपत् प्रगट होता है, उसे विरताविरत के समान सम्यग्मिथ्याष्टि जानना चाहिए ।। ६५५।।
विशेषार्थ -इस गाथा में सम्यग्मिथ्याइष्टि का कथन है। गाथा २१ में भी सम्मारिमथ्या दृष्टि का कथन हो चुका है। अत: विशेष जानने के लिए गाथा २१ का विशेषार्थ देखना चाहिए।
मिथ्याटि का लक्षण मिच्छाइद्री जीवो उपाइपययणं ण सहहदि ।
सद्दहदि असम्भावं उवट्ठ वा अणुवइट्ठ॥६५६॥ गाथार्थ -मिथ्यादृष्टि जीब जिन-उपदिष्ट प्रवचन का तो श्रद्धान करता नहीं, किन्तु उपदिष्ट व अनुपदिष्ट असद्भाव का श्रद्धान करता है ।। ६५६।।
विशेषार्थ -यह गाथा गाथा नं. १८ के समान है अत: गाथा १८ का विशेषार्थ देखना चाहिए।
महदि प्रसन्भाव का अर्थ यह है कि मिथ्यादृष्टि जीब अपरमार्थ स्वरूप असद्भूत अर्थ का ही मिथ्यात्व के उदय से श्रद्धान करता है।
सम्यक्त्व मार्गणा में जीवसंख्या वासपुधत्ते खइया संखेज्जा जइ हवंति सोहम्मे । तो संखपल्लठिदिये केवदिया एवमणुपादे ॥६५७।। संखावलि-हिद-पल्ला खइया तत्तो य वेदमुवसमगा। प्रावलिप्रसंखगुरिणदा, असंखगुणहीरपया कमसो ॥६५५ ।। पल्लासंखेजदिमा सासरणमिच्छा य संखगुरिणदा हु। मिस्सा तेहि विहीणो, संसारी वामपरिमारणं ॥६५६।।
गाथार्थ-सोधर्म-शान स्वर्ग में पृथक्त्व वर्ष में संख्यात क्षायिक सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं, तो संन्यात पल्य की स्थिति में कितने क्षायिक सम्यग्दष्टि उत्पन्न होंगे? इस प्रकार राशिक करने पर संख्यात पावली से भाजित पल्प प्रमाण क्षायिक सम्यग्दृष्टियों का प्रमाण प्राप्त होता है। इसको पावली के असंख्यातवें भाग से गुणा करने पर वेदक सम्यग्दृष्टियों का प्रमाण प्राप्त होता है। क्षायिक सम्यग्दृष्टियों से असंख्यात गुणे हीन उपणम सम्यग्दृष्टि जीव हैं ।। ६५७-६५८॥ नल्य के असंख्यातवें
१. प्रा. पं. सं. पृ.३६ गा. १६६ । प्रा.पं. सं. प ३६ गा.१००।
२. गो. जी. गाथा १८, धवल पृ. ६ पृ. ३४२, जयधवल पु. १२ पृ. ३२२,
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७२० गो. सा. जीवकाण्ड
भाग सासादन सम्यग्दृष्टियों की इच्छित राशि है । इससे संख्यातगुणे मिश्र ( सम्यग्मिथ्यादृष्टि ) जीव हैं। इन सबसे विहीन संसारी जीव मिध्यादृष्टियों का प्रभार है ।। ६५९ ॥
गाथा ६५७-६५६
विशेषार्थ-वेदक सम्यग्दष्टियों का अवहारकाल आवली के असंख्यातवें भाग है । क्षायिक सम्यग्दष्टियों का अवहारकाल संख्यात आावली है। उपशम सम्यग्दृष्टि, सासादन और सम्परिमध्यादृष्टि जीवों का अवहार काल श्रसंख्यात श्रावली है। इनमें भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सबमें स्तोक हैं। उनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणे हैं, संख्यात समय गुणाकार है । इनसे उपशम सम्यग्दृष्टि असंख्यात गुणे हैं, आवली का असंख्यातवाँ भाग गुणाकार है । उपशम सम्यग्दृष्टियों से क्षायिक सम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं, आवली का प्रसंख्यातवाँ भाग गुणाकार है । क्षायिक सम्यग्दृष्टियों से वेदक सम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। इनसे सिद्ध अनन्तगुणे हैं। सिद्धों से मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त गुणे हैं |२
शंका-यवहार काल कहा गया है, प्रमाण (संख्या) क्यों नहीं कहा गया ?
समाधान अपने-अपने अवहार काल को पल को भाग देने पर अपनी पनी राशि का प्रमाण प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार अबहार कहने से प्रमाण (संख्या) का जान हो जाता है ।
शङ्का - सासादन सम्यग्दष्टि जीव कितने हैं, यह न बतलाकर मात्र 'सासादन जीव सबसे स्तोक हैं' यह कह दिया गया । इतने मात्र से प्रमाण ज्ञान नहीं होता ।
समाधान सासादन सम्यग्दष्टि जीवों का अवहार काल असंख्यात प्रावली है, इस अवहार काल से पल्य को भाजित करने पर प्रसंख्यात प्राप्त होता है, इससे ज्ञात होता है कि सासादन जीव श्रसंख्यात हैं ।
शङ्का -- सासादन सम्यग्दष्टि सम्यरिमध्यादृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि जीवों का एक ही अवहारकाल असंख्यात मावली प्रमारण बतलाया है। जिससे जाना जाता है कि इन तीनों की संख्या समान है ।
समाधान- श्रसंख्यात के श्रसंख्यात भेद हैं। यद्यपि सामान्य से तीनों का प्रवहारकाल प्रसंख्यात प्रावली कह दिया गया तथापि उनके अवहार काल भिन्न-भिन्न हैं । सासादन के अवहार काल का संख्यात्तत्र भाग सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों का अवहार काल है और उसका भी असंख्यातवाँ भाग उपशम सम्यग्दृष्टियों का अबहार काल है ।
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में सम्यक्त्वमार्गणा नामक सत्रहवाँ अधिकार पूर्ण हुआ।
१. व. पु. ७ पू. २६६-२६७ ॥ २. व. पु. ७पू. ४७२-५७३ ।
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गाथा ६६०-६६३
१८. संज्ञिमागंणाधिकार
मार्गणा / ७२१
संजी व संत्री जीवों का स्वरूप
लोइंदिय प्रावरण- खप्रोवसमं तज्जवोहणं सगा 1 सा जस्स सो दु सरणी इदरो सेसिंदिग्रवबोहो ||६६० ॥ सिक्खा कि रियुवदेसालाबग्गाही
मरणोबलंबेरा ।
जो जीवो सो सण्णी तव्विवरीश्रो प्रसरणी दु ।।६६१।। '
मीमंसदि जो पुग्वं कज्जमकज्जं च तच्चमिदरं च । सिक्खदि खादि य समरगो मरणो य विवरीदो ||६६२ ॥ ३
गाथार्थ - नोइन्द्रिय ( मन ) प्रावरण कर्म का क्षयोपशम और उससे उत्पन्न हुआ ज्ञान संज्ञा है । यह संज्ञा जिसके होती है, वह संजी है और असंज्ञी के मात्र इन्द्रियजन्य ज्ञान होता है ।। ६६०॥ जो जीव मन के अबलम्बन से शिक्षा, क्रिया, उपदेश और मालाप को ग्रहण करता है, वह संज्ञी है । उससे विपरीत प्रसंज्ञी है ।। ६६१।। जो जीव कार्य करने से पूर्व कर्तव्य और अकर्त्तव्य का विचार करे, तत्त्व-तत्त्व को सीखे, नाम से पुकारने पर श्रावे, वह समनस्क है और इससे विपरीत अमनस्क है ४६६२ ।।
विशेषार्थ जो भली प्रकार जानता है, वह संज अर्थात् मन है । वह मन जिसके पाया जाता है वह समनस्क है ।' मन दो प्रकार का है द्रव्य मन और भाव मन । उनमें से द्रव्य-मन पुद्गलविपाकी अंगोपांग नाम कर्म के उदय से होता है तथा वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाली श्रात्म-विशुद्धि भाव मन है। जिनके मन नहीं पाया जाता, वे श्रमनस्क हैं । इस प्रकार मन के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा संसारी जीव दो प्रकार के हैं । * जो समनस्क हैं वे ही संज्ञी जीव हैं। संज्ञा शब्द के अनेक अर्थ है । संज्ञा का अर्थ नाम है । यदि नामवाले जीव संज्ञी माने जायें तो सब जीवों को संज्ञीपने का प्रसंग प्राप्त होता है। संज्ञा का प्रथ यदि ज्ञान लिया जाता है, तो भी सभी प्राणी ज्ञानस्वभाव होने से सब को संज्ञोपने का प्रसंग प्राप्त होता है । यदि प्राहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञा माना जाए तो भी पहले के समान दोष प्राप्त होता है। इस प्रकार सबको संज्ञीपने का दोष प्राप्त न हो इसलिए समनस्क जीवों को ही संजी कहा गया है।"
शङ्खा --- भली प्रकार जो जानता है वह संज्ञी है, यह लक्षण एकेन्द्रियादिक में चला जाएगा, इसलिए अतिप्रसंगदोष बाजाएगा ?
१. धवल पु. १ पृ. १५२ गा.
६७ प्रा. पं. स. पू. ३६ गा. १७३ । २. प्रा. पं. स. पू. ३६ गा. १७४ । ३. धवल पु. १ पृ. १५२ । ४. स. सि २०११ । ५. स. सि. २२४ ।
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७२२/गो, सा, जीवकाण्ड
गाथा ६६३
समाधान---यह बात नहीं है, क्योंकि एकेन्द्रियादिक के मन नहीं पाया जाता। अथवा जो शिक्षा, क्रिया, उपदेमा और पालाप को ग्रहण करता है, वह संज्ञी है।'
हित की विधि और अहित के निषेध रूप शिक्षा होती है । दूसरों की क्रिया को देखकर शिक्षा ग्रहण करना अथवा उस रूप कार्य करना क्रिया है। उपदेश के द्वारा शिक्षा ग्रहण करना और क्रिया करना सो उपदेश है । नाम लेकर पुकारने पर आजाना सो पालाप है, अथवा श्लोक आदि का पाठ उच्चारण करना पालाप है ।
शङ्का-मन सहित होने के कारण सयोगकेबली भी संज्ञी होते हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि प्रावरण कर्म से रहित उनके मन के अवलम्बन से बाह्य अर्थ का ग्रहण नहीं पाया जाता, इसलिए उन्हें संजी नहीं कह सकते ।
शंका-तो केवली असंज्ञी रहे प्रावे ?
समाधान नहीं, क्योंकि जिन्होंने समस्त पदार्थो को साक्षात कर लिया है, उन्हें असंजी मानने में विरोध आता है।
संजीन प्रमंज्ञी जीवों की संख्या देवेहि सादिरेगो रासी सण्णोण होदि परिमाणं ।
तेणगो संसारी सम्वेसिमसपिराजीवाणं ॥६६३।। ___गाथार्थ-देवों के प्रमाण से कुछ अधिक संजी जीवों का प्रमाण है । संसारी जीवाशि में से संशी जीवों के प्रमाण को घटा देने पर सर्व असंज्ञी जीवों की संख्या प्राप्त हो जाती है ।। ६६३।।
विशेषार्थ-संजी जीवों में प्रधान देव ही हैं, क्योंकि शेष तीन गति के संज्ञी जीव देवों के संख्यातवें भाग प्रभागा हैं। इसीलिए संजी जीव देवों से कुछ अधिक हैं, ऐसा कहा गया
शङ्का-देव कितने हैं ?
समाधान–प्रसंख्यात हैं। दो सौ छप्पन सुच्यंगल के वर्गरूप से जगत्प्रतर में भाग देने पर देवों का प्रमाण प्राप्त होता है ।
शङ्का-संजी जीव देवों से कितने अधिक हैं ?
समाधान-असंख्यात अधिक देवराशि प्रमाण संज्ञी जीव हैं । अथवा संजी जीव देवों के संख्यातवें भाग अधिक देवराशि प्रमाण हैं । देव अवहारकाल दोसौं छप्पन सूच्यंगुल का वर्ग अर्थात्
४. धवल पु. ३. पृ. ३८६ ।
१-२. घबल पु. १. १५२ व टिप्पण नं. २ । ३. अवन . १. पृ. ४०८। ५. धबल पु. ३ पृ. ४८२ । ६. धवल पु. ३ पृ २६८-२६६ ।।
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गाथा ६६४-६६४
आहारमार्गणा / ७२३
६५५३६ प्रतरांगुल में एक प्रतरांगुल को ग्रहण करके और संख्यात खंड करके उनमें से एक खंड को निकालकर शेष बहुखंड उसी में मिला देने पर संज्ञी जीवों का अवहार काल होता है । इसका जगत्तर में भाग देने पर संशी जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है ।"
सम्पूर्ण संसारी जीव शेष अनन्त प्रसंज्ञीजीवराशि का द्वारा अपहृत नहीं होते हैं ।
अनन्त हैं। उनमें से संज्ञी जीवों की संख्या असंख्यात कम कर देने पर प्रमाण रहता है जो अनन्तानन्त श्रवसर्पिणियों और उत्सर्पिरिगयों के
इस प्रकार गोम्मटमार जीवकाण्ड में संशी भागंरगा नामक मठारहवाँ अधिकार पूर्ण हुम्रा |
१६. श्राहारमार्गणाधिकार
आहारक का स्वरूप
तद्देहवयणचित्ताणं ।
उदयावणसरी रोवयेण खोकम्मरगरगाणं गहणं आहारयं गाम ।। ६६४ ।। आहदि सरोराणं तिष्हं एयदरवग्गणाश्रो य । भासमरणार रिणयदं तम्हा श्राहारयो भरियो ।। ६६५ ।। ३
गाथार्थ शरीर नामकर्मोदय को प्राप्त जीव शरीर वचन मन के योग्य वर्गरणाओं को ग्रहण करता है, वह श्राहारक है ।। ६६४ । । औदारिक, वैकिमिक और आहारक इन तीन शरीरों में से किसी एक शरीर के योग्य वर्गणा को तथा भाषा व मन वर्गणाओं को जो जीव नियम से ग्रहण करता है वह आहारक कहा गया है ।। ६६५ ।।
विशेषार्थ-तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को बाहार कहते हैं । * श्रदारिकादि शरीर के योग्य पुद्गल पिण्ड के बाहर अर्थात् ग्रहण करने को आहार कहते हैं ।" आहार वर्गणा से तीन शरीर (मोदारिक, वैऋियिक और ग्राहारक शरीर) बनते हैं ।
शङ्का - जिन वर्गणाओं से आहारक शरीर का निर्माण होता है, क्या उन्हीं वर्गणात्रों से श्रदारिक शरीर और वैऋिथिक शरीर का निर्माण होता है ? यदि नहीं तो यह कहना कि आहार वर्गणा से तीन शरीर बनते हैं, कैसे घटित होता है ?
समाधान- ऐसा कहना ठीक नहीं है। यद्यपि सामान्य रूप से ग्राहार वर्गणा के द्वारा
१. धवल पु. पू. ४५२ । २. धवल पु. ३ पृ. ४८३ । ३. बबल पु. १ पृ. १५२ गा. ६८ प्रा. पं. सं. पृ. २७ गा. १७६ । ४. " त्रयाणां शरीराणां वण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलग्रहगामाहारः 1 [स.सि. २/३०]
ri
५. शरीरप्रायोग्य पुद्गल पिण्डग्रहणमाहारः ।" [ब. पु. १ पृ. १५२, पु. ७ पृ. ७ ] ।
६. गो. जी. गा. ६०७ ।
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७२४/गो. सा. जीवकाण्ड
माथा ६६६
औदारिक आदि तीन शरीरों का निर्माण कहा गया है तथापि विशेष विवक्षा में तीनों शरीरों की वर्गणाएँ भिन्न-भिन्न हैं। जिन याहारवर्गणात्रों से औदारिक शरीर का निर्माण होता है, उनसे वैक्रियिक और आहारक शरीर का निर्माण नहीं होता। जिन आहारवर्गणाओं से वैक्रियिक शरीर का निर्माण होता है, उनसे औदारिक और प्राहारक पारीर का निर्माण नहीं होता। जिन आहार वर्गणाओं से आहारक शरीर का निर्माण होता है उनसे औदारिक व वैक्रियिक शरीर का निर्माग नहीं होता। क्योंकि औदारिक ग्रादि तीन शरीरों का निर्माण करने वाली प्राहार वर्गणा पथकपृथक हैं। किन्तु उन तीन प्रकार की वर्गणाओं के अग्राह्य वर्गणा के द्वारा व्यवधान नहीं होने से उनकी एक बर्गरणा मानी गई है।'
शंका -कवलाहार आदि में से किस आहार के ग्रहण से जीव आहारक होता है ?
समाधान–याहार मार्गणा में 'पाहार' शब्द से कवलाहार, लेपाहार, ऊमाहार, मानसिकाहार और कहिार को छोड़कर नोकर्माहार का ही ग्रहण करना चाहिए ।
शङ्खा–नोकर्माहार वर्गणा का क्यों ग्रहगा करना चाहिए ?
समाधान--यदि कवलाहार आदि को ग्रहण किया जाए तो ग्राहार काल (आहारक काल) और बिरह (अन्तर) के साथ विरोध पाता है। नोकर्मवर्गणा का निरन्तर ग्रहण होता है, किन्तु कबलाहार प्रादि का निरन्तर ग्रहण नहीं होता ।*
शंका-याहारमार्गणानुसार जीव याहारक कैसे होता है ?
समाधान–ग्रौदारिक, वैक्रियिक व आहारक शरीर नामकर्म प्रकृतियों के उदय से जीब आहारक होता है।
शङ्खा-तेजस व कामण शरीर के उदय से जीव ग्राहारक क्यों नहीं होता?
समाधान नहीं होता, क्योंकि वैसा माननेपर विग्रह गति में भी जीव के ग्राहारक होने का प्रसंग आजायेगा और बसा है नहीं, क्योंकि विग्रह गति में जीव अनाहारक होता है ।'
प्राहारक व अनाहार क जीवों का कथन विग्गहगदिमावण्णा केवलियो समुग्घदो अजोगी य ।
सिद्धा य प्रणाहारा सेसा आहारया जीवा ।।६६६।।* गाथार्थ--विग्रह गति को प्राप्त, केवली समृद्घात को प्राप्त, अयोगिकेवली तथा सिद्ध भगवान अनाहारक हैं, शेष जीव ग्राहारक हैं ।।६६६।।
३. धवल पु. ७
१. धवल. पु. १४ पृ. ५४६-४५३ । २. धवल. पु. १५४०६ मूत्र १७६ की टीका । पृ. ११३३४. धवल पु. १ पृ. १५३ गा. ६६; प्रा. पं. सं. पृ. ३७ गा. १७७ ।
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गाथा ६६६
ग्राहारमार्गगणा/७२५
विशेषार्थ-विग्रह देह को कहते हैं। उसके लिए जो गति होती है, वह विग्रह गति है। यह जीव औदारिक प्रादि शरीर नाम-कर्म के उदय से अपने-अपने शरीर की रचना करने में समर्थ नाना प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण करता है, अतएव संभारी जीव के द्वारा शरीर का ग्रहण किया जाता है । इसलिए देह को विग्रह कहते हैं। ऐसे विग्रह अर्थात् शरीर के लिए जो गति होती है. वह विग्रह गति है । अथवा 'वि' शब्द का अर्थ विरुद्ध है और ‘ग्रह' शब्द का अर्थ 'घात' होने से विग्रह' माब्द का अर्थ व्यापात भी होता है, जिसका अर्थ पुद्गलों के ग्रहण करने का निरोध होता है। इसलिए विग्रह अर्थात पुदगलों के ग्रहण करने के विरोध के साथ जो गति होती है उसे विग्रह गति कहते हैं । अथवा विग्रह. व्याघात और कौटिल्य ये पर्यायवाची नाम हैं । इसलिए विग्रह से अर्थात् कुटिलता (मोड़ों) के साथ जो गति होती है, उसे विग्रह गति कहते हैं । उसको प्राप्त जीव विगहगदिमावण्णा कहलाता है।'
एक गति से दुसरी गति को गमन करने वाले जीव के चार गलियों होती हैं, इषुगति, पाणिमुक्ता गति, लांगलिका गति और गोमूत्रिकागति । उनमें पहली गति विग्नह (मोड़ा) रहित होती है और शेष गतियां विग्रह (मोड़े) सहित होती है। सरल अर्थात ऋजुगति एक समयवाली इषगति होती है। जैसे हाथ से तिरछे फेंके गये द्रव्य को एक मोड़े वाली गति होती है, उसी प्रकार संसारी जीव की एक मोड़े वाली गति को प्राणिमुक्ता गति कहते हैं। यह गति दो समय बाली होती है। जैसे हल में दो मोड़े होते हैं. बीजारो मोड़े वाली गति को लांगलिका गति कहते हैं । यह गति तीन समय वाली होती है। जैसे गाय का चलते समय मुत्र का करना अनेक मोड़ों वाला होता है, उसी प्रकार तीन मोड़े वाली गति को गोमुत्रिका गति कहते हैं। यह गति चार समयवाली होती है ।
एक मोडेवाली पाणिमुक्ता गति में जीव एक समय तक अनाहारक होता है। दो मोडेवाली लांगलिका गति में जीव दो समय तक नाहारक होता है । तीन मोड़े वाली गोमुनिका गति में जीब तीन समय तक अनाहारक रहता है ।
प्रातने रूप कार्य को धात कहते हैं । जिसका प्रकृत में अर्थ कर्मों की स्थिति, अनुभाग का विनाश होता है । उत्तरोत्तर होने वाले घात को उद्घात कहते हैं और समीत्रीन उद्घात समुद्घात
शंका- इस घात में समीचीनता है, यह कैसे सम्भव है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि बहुत काल में सम्पन्न होने वाले घातों से एक समय में होने वाला घान अधिक है. अतः इस घात में समीचीनता पाई जाती है।
समुद्घात को प्राप्त केवली को समुद्घातगत केवली कहते हैं ।
केवलीसमुद्घात दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपुरण चार प्रकार का होता है। लौटते हुए प्रतर, कपाट, दण्ड और शरीरप्रवेश ये चार क्रियाएँ होती हैं । इनमें से प्रतर, लोकपूरण और पुन: प्रतर इन तीन अवस्थाओं में तीन समयों के लिए समुद्घातगत के वली तीन समय तक अनाहारक रहते हैं ।" अयोगकेवली के अनाहारक का अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है 15 सिद्ध भगवान भी
१. धवल पु. १ पृ. २६६ २ . धवल पू.१.२६९-३००। ३. धबल पू.१. पृ. ३००। ४. "तकं द्वौ त्रीवाऽनाहाकः ।" ॥२/३०।। [न. सू.] । ५. धघन पु. १ पृ. ३००। ६. धवल पृ. १ पृ. ३०१ । 3-5 धवल पृ. ५ पृ. १५५ ।
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७२६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६६७-६६८ अनाहारक हैं। अयोगकेवली और सिद्ध भगवान के योग का प्रभाव होने के कारण नोकर्मवर्गणाओं के ग्रहण का प्रभाव होने से वे अनाहारक हैं।
आहारक जीव मिथ्यादृष्टि से लेकर मयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं।'
विग्रहगति को प्राप्त जीवों के मिथ्यात्व, सासादन और अविरत सम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान, समुद्घातगत केवलियों के सयोगिकेवली इन चार गुणस्थानों में रहने वाले जीव और अयोगकेवली तथा सिद्ध प्रमाहारक होत है। कहा भी है
"प्रतरयोर्लोकपूरणे च कार्मणः । तत्र अनाहार इति ।" [स्वा. का. अ. पृ ३८८ गा. ४८७ टीका]
दोनों प्रतर समुद्घाल व लोकपूरण में कामरण काययोग होता है और अनाहारक अवस्था होती है।
समुद्घात का स्वरूप एवं भेद मलसरीरमछंडिय उत्तरदेहस्स जीवपिंडस्स । पिग्गमणं देहादो होदि समुग्धादणामं तु ॥६६७।।' वेयरणकसायवेगुब्धियो य मरणतियो समुग्घादो।
तेजाहारो छट्ठो सत्तमओ केवलोणं तु ॥६६८।। गाथार्थ · मूल शरीर को न छोड़ कर उत्तरदेह के व जीवपिण्ड के प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना सो समुद्घात है ।।६६७। वह समुद्घात, वेदना, कषाय, बैंऋियिक, मारणान्तिक, तेजस, पाहारक और केवली इस तरह सात प्रकार का होता है ।। ६६८।।
विशेषार्थ समुद्घात का विस्तृत कथन प्रसंगवश लेण्यामार्गणा के क्षेत्र व स्पर्शन का कथन करते हुए गाथा ५४३ की टीका में किया जा चुका है तथापि मूल गाथाओं के अनुसार पुनः यहाँ पर कथन किया जाता है। गा. ६६७ में "उत्तरदेहस्स' से अभिप्राय तेजस शरीर व कार्मण गरीर से है । मात्र आत्मप्रदेश बाहर नहीं निकलते, किन्तु उन पर स्थित कार्मण शरीर व तंजस शरीर के प्रदेश भी बाहर निकलते हैं।
"मूलसरीरमछंडिय" अर्थात् मूल शरीर को न छोड़कर, यह कथन केवली समुद्घात के अतिरिक्त अन्य छह की अपेक्षा कहा गया है। क्योंकि लोकपूरण समुद्घान अवस्था में केवली
१. धवल पु. ७ पृ. ४०६ । २.धवल पु. १ पृ. ४१० । ३. मुद्रित पुस्तक में यह गाथा ६६८ नम्बर की है किन्तु स्वरूप बताये बिना समुद्रात के भेदों का कथन उचित नही ग्रत: गाथा ६६८ को ६६७ और गाथा ६६७ को ६६५ लिखा गया है। ये दोनों गाथाएँ वहद द्रव्य संग्रह गा.१०की टीका में तथा स्वा. का.म.गा.१७६ की टीका में उद्घत हैं । गा. ६६८ प्रा. पं. सं.पृ. ४१ गा. १९६ है और धवल पु. ४ पृ. २६ पर मा. ११ है।
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गाथा ६६७-६६८
ग्राहारमागंणा/७२७ की आत्मा का प्रत्येक प्रदेश लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर फैल जाने पर सर्व प्रात्मप्रदेश मुल शरीर से बाहर हो जाते हैं।
शंका- जिन आकाश प्रदेशों पर केवली का शरीर है, उन आकाशप्रदेशों पर केवली के प्रात्मप्रदेश भी हैं। अतः सर्व ग्रात्मप्रदेश मूल शरीर से बाहर नहीं निकले?
समाधान ---जहाँ पर केवली का शरीर है, उन अाकाशप्रदेशों पर केवली के प्रात्मप्रदेश हैं, परन्तु उन आत्मप्रदेशों का शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है। जैसे जहाँ नारकियों के शरीर हैं वहाँ पर भी केवली के प्रात
प्रात्मप्रदेश हैं किन्तु नारक शारीर से उन प्रात्म प्रदेशो का कोईसम्बन्ध नहीं है, मात्र एकक्षेत्र अवगाह है, इसी प्रकार केवली के शरीर से उन आत्मप्रदेशों का कोई सम्बन्ध नहीं है, मात्र उतने प्रदेश एकक्षेत्र अवगाह रूप हैं। केवली के सर्व प्रात्मप्रदेश शरीर से बाहर निकल कर सर्व लोकाकाश में फैल गये अन्यथा सर्व लोकाकाश में सर्व प्रात्मप्रदेश नहीं फैल सकते ।
शंका समुद्घात का क्या लक्षण है ?
समाधान-- "संभूयात्मप्रदेशानां च अहिरवहननं समुधातः ।" [रा वा. १/२०/१२] प्रर्थात् मिलकर प्रात्मप्रदेशों का बाहर निकलना समुद्धात है। 'समुद्घात' शब्द की निष्पत्ति इस प्रकार से हुई–यहाँ 'सम्' और 'उत्' उपसर्ग पूर्वक 'हन्' धातु है और भाव अर्थ में घञ् प्रत्यय लगा है। इस तरह समृद्घात शब्द बना है। यहाँ पर 'हन्' धातु से गमन क्रिया विवक्षित है।
१. वेदना समुद्धात तीव्र वेदना के अनुभव से मुल शरीर को न छोड़ कर आत्मप्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना वेदना समुद्घात है। जैसे सीतादि के द्वारा पीडित रामचन्द्र आदि की चेष्टा हुई थी। वह चेष्टा वेदनासमुद्घात है।'
२. कषाय समुद्घात-मुल शरीर को न छोड़ते हुए तीवकषाय के उदय से दूसरे के घात के लिए पात्म प्रदेशों का बाहर निकलना कषायसमुद्यात है। जैसे—संग्राम में सुभटों के लाल नेत्र आदि के द्वारा कयाय समुद्घात प्रत्यक्ष दिखलाई देता है।
३. वक्रियिक समुद्घात- मूल शरीर को न छोड़ते हुए विक्रिया करने के लिए प्रात्मप्रदेशों का बाहर निकलना वैऋियिक समुद्घात है । वह विष्णुकुमार आदि के समान महषियों व देवों के होता है ।
४. मारणान्सिक समुद्घात-मरणान्त समय में, मूल शरीर को न छोड़कर जहाँ की प्रायु का बंध किया है, उस प्रदेश को स्पर्श करने के लिए प्रारमप्रदेशों का बाहर निकलना मारणान्तिक समुद्घात है।
शंका-वेदना समुद्घात और कषाय समुद्घात ये दोनों मारणान्तिक समुद्घात में अन्तर्भूत क्यों नहीं होते ?
१. स्वा. का अनु. गा. १७६ को टीका पृ. ११५ ।
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७२/पो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६६७-६६८
समाधान-वेदना समुद्घात और कषाय समुद्घात का मारणान्तिक समुवात में अन्तर्भाव नहीं होता है क्योंकि जिन्होंने परभव की आयु बाँध ली है, ऐसे जीवों के ही मारणान्तिक समुद्धात होता है । किन्तु वेदना और कषाय समुद्रात बद्धायुष्क जीवों के भी होना है और प्रबद्धायुष्क जीवों के भी होता है। मारणान्तिक समुद्घात निश्चय से जहाँ उत्पन्न होना है, ऐसे क्षेत्र की दिशा के अभिमुख होता है। किन्तु अन्य समुद्घातों इस प्रकार एक दिशा में गमन का नियम नहीं है क्योंकि उनका दसों दिशाओं में भी गमन पाया जाता है । मारणान्तिक समुद्घात की लम्बाई उत्कृष्टतः अपने उत्पद्यमान क्षेत्रों के अन्त तक है, किन्तु इतर समुद्घातों का यह नियम नहीं है।'
५. तेजस समुद्घात (अशुभ): अपने मन को अनिष्ट उत्पन्न करने वाले किसी कारण को देख कर क्रोधित, संयम के निधान महामुनि के बाएँ कन्धं से सिन्दूर के ढेर जैसी कान्ति बाला, चारह योजन लम्बा, सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण मूल विस्तार और नौ योजन के अग्रविस्तार वाला , काहल (बिलाव) के आकार का धारक पुरुष (पुतला) निकल करके बायीं प्रदक्षिणा देकर, मुनि जिस पर क्रोधी हो, उस विरुद्ध पदार्थ को भस्म करके और उसी मुनि के माथ आप भी भरम हो जाचे । जैसे द्वीपायन मुनि के शरीर से पुतला निकल कर द्वारिकानगरी को भस्म करने के बाद उसी ने द्वीपायन मुनि को भस्म किया और वह पुनला आप भी भस्म हो गया। यह अशुभ तंजस समुद्घात है।
तैजस समुद्धात (शुभ): जगत को रोग, दुर्भिक्षादि से दुःखित देखकर जिसको दया उत्पन्न हुई, ऐसे परम संयमनिधान महा-ऋषि के मूल शरीर को न त्याग कर पूर्वोक्त देह के प्रमाण, सौम्य प्राकृति का धारक पुरुष दाएँ कन्धे से निकल कर दक्षिण प्रदक्षिणा करके रोग, दुर्भिक्ष प्रादि को दूर कर फिर अपने स्थान में प्राकर प्रवेश कर जान्ने वह शुभ तेजस समुद्घात है।
६. प्राहारक समुद्घात -पद या पदार्थ में शंका उत्पन्न होने पर परम ऋद्धि से सम्पन्न महाऋषि के मूल शरीर को न छोड़ते हुए मस्तक के मध्य से एक हाथ प्रमाण शुद्ध स्फटिक जैसी प्राकृति वाले पुतले का निकल कर जहां पर केवलज्ञानी है वहाँ पर जाकर दर्शन करके मुनि की शंका का निवारण करके अपने स्थान पर लौट कर मूल शरीर में प्रवेश कर जाता है । यह आहारक समुद्घात
७. केवलो समुधात–दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण केवली ममुद्धात हैं।'
पढमे बंद्धं कुणइ य विदिए य कवाइयं तहा समए । तइए पयरं चेव य चउत्थाए लोय-पूरणयं ॥१८६॥' विवरे पंचमसमए ओई मंथारण्यं तदो छ?। सत्तमए य कवार्ड संवरइ तदोऽटुमे दंडं ॥१७॥ दंडबुगे अोराल कवाइजुगले य पयरसंवरणे ।
मिस्सोरालं भरिणयं कम्मइनो सेस तत्थ प्रणहारो ॥१८॥ –समुद्घातगत केवली भगवान् प्रथम समय में दडरूप समुद्घात करते हैं । द्वितीय समय - - - १. चबल पु. ४ पृ. २७ । २. स्वा. का. अ. गाथा १७६ की टीका । ३. प्रा. पं. सं. पृ. ४११ ४. व ५. प्रा.पं. सं. पृ. ४२ ।
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गाँव। ६६७-६६८
श्राहारमार्गमा ७२६
में कपाट रूप समुद्घात करते हैं। तृतीय समय में प्रतर रूप और चौथे समय में लोकपूरण समुद्घात करते हैं। पाँचवें समय में वे सयोगिजिन लोक के विवरगत आत्मप्रदेशों का संवरण (संकोच) करते हैं। पुनः छठे समय में मन्धान ( प्रतर ) गत श्रात्मप्रदेशों का संवरण करते हैं। सातवें समय में कपाटगत आत्मप्रदेशों का संवरण करते हैं और आठवें समय में दण्ड समुद्घातगत प्रात्मप्रदेशों का संवरण करते हैं । दण्ड-द्विक दोनों दण्ड समुद्घातों में श्रदारिक काययोग होता है । कपाटयुगल में अर्थात् विस्तार और संवररण गत दोनों कपाट समुद्घातों में प्रौदारिक मिश्र काययोग होता है । शेष समयों में अर्थात् तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में कार्मण काययोग होता है और उन तीन समयों में केवली भगवान अनाहारक रहते हैं ।
शंका- केवलियों के समुद्घात सहेतुक होता है या निर्हेतुक ? निर्हेतुक होता है यह दूसरा विकल्प तो बन नहीं सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर सभी केवलियों को समुद्घात करने के अनन्तर ही मोक्ष प्राप्ति का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा । यदि यह कहा जाय कि सभी केवली समुद्घात पूर्वक ही मोक्ष जाते हैं, ऐसा मान लिया जावे, इसमें क्या हानि है ? सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर लोकपूर्ण समुद्घात करने वाले केवलियों की वर्षपृथक्त्व के अनन्तर बीस संख्या होती है, यह नियम नहीं बन सकता है । केवलिसमुद्घात सहेतुक होता है, यह प्रथम पक्ष भी नहीं क्योंकि केवली समुद्धात का कोई हेतु नहीं पाया जाता। यदि कहा जावे कि तीन अघातिया कर्मों की स्थिति आयु कर्म की स्थिति से अधिक है, यह कारण है, सो भी ठीक नहीं, क्योंकि क्षीण कृपाय के तम समय में सर्व कर्मों की स्थिति समान न होने से सभी केवलियों के समुद्घात का प्रसंग ग्रा जायेगा ।"
बनता,
समाधान -- यतिवृषभाचार्य के उपदेशानुसार क्षीणकषाय गुणस्थान के चरम समय में सम्पूर्ण किम की स्थिति समान नहीं होने से सभी केवन्नी समुदात करके ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं। परन्तु जिन आचार्यों के मतानुसार लोकपूरण समुद्घात करने वाले केवलियों की बीस संख्या का नियम है, उनके मतानुसार कितने ही केवली समुद्घात करते हैं और कितने ही नहीं करते हैं ।
शंका कौनसे केवली समुद्घात नहीं करते हैं ?
समाधान - जिनकी संसार व्यक्ति अर्थात् संसार में रहने का काल वेदनीय आदि तीन कर्मों की स्थिति के समान है, वे समुद्घात नहीं करते हैं, शेष केवली करते हैं ।
शंका- निवृत्ति आदि परिणामों के समान रहने पर संसारव्यक्ति स्थिति और शेष तीन कर्मों की स्थितियों में विषमता क्यों रहती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि संसार की व्यक्ति और कर्मस्थिति के घात के कारणभूत अनिवृत्तिरूप परिणामों के समान रहने पर संसार को उसके अर्थात तीन कर्मों की स्थिति के समान मान लेने में विरोध आता है ।
शंका- संसार- विच्छेद का क्या कारण है ?
१. धवल पु. १ पृ. ३०१-३०२ ।
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७३०/गो, सा. जीवकाश
गाथा ६६.७-६६८
समाधान - द्वादशांग का ज्ञान, उनमें तीव्र भक्ति, केलिसमुद्घात और अनिवृत्तिरूप परिणाम ये सब संसार के विच्छेद के कारण हैं। परन्तु ये सब कारण समस्त जीवों में संभव नहीं है, क्योंकि दशपूर्व और नौपूर्व धारी जीवों का भी क्षपक श्रेणी पर चढ़ना देखा जाता है। अत: वहाँ पर संसार व्यक्ति के समान कर्मस्थिति नहीं पाई जाती है। इस प्रकार अन्तमुहर्त में नियम से नाश को प्राप्त होने वाले पल्योपम के असंख्यातवें भाग आयाम वाले या संख्यात पावली आयाम के स्थितिकाण्डकों का विनाश करते हुए कितने ही जीव समुद्घात के बिना ही प्रायु के समान शेष कर्मों को कर लेते हैं। तथा कितने ही जीव समुद्घात के द्वारा शोष कर्मों को प्रायु कम के समान करते हैं। परन्तु यह संसार का धात केवली में पहले सम्भव नहीं है। क्योंकि पहले स्थितिकारक के घात के समान सभी जीवों के समान परिणाम पाये जाते हैं।
शंका-जबकि परिणामों में कोई अतिशय नहीं पाया जाता है अर्थात् सभी केवलियों के परिणाम समान होते हैं तो पीछे भी संसार का घात मत होनो ?
समाधान -नहीं, क्योंकि वीतरागरूप परिणामों के समान रहने पर भी अन्तर्मुहर्त प्रमाण प्रायु कर्म की अपेक्षा से प्रात्मा के उत्पन्न हुए अन्य विशिष्ट परिणामों से संसार का घात बन जाता
शंका-अन्य प्राचार्यों के द्वारा नहीं व्याख्यान किये गये इम अर्थ का इस प्रकार व्याख्यान करने वाले प्राचार्य सुत्र के विरुद्ध जा रहे हैं, ऐसा क्यों न माना जाय?
समाधान-नहीं, क्योंकि वर्षपृथक्त्व के अन्तराल का प्रतिपादन करने वाले सूत्र के बशर्ती प्राचार्यों का ही पूर्वोक्त कथन से विरोध प्राता है ।
शंका-छह माह प्रमाण आयु कर्म के शेष रहने पर जिस जीव को केवलज्ञान उत्पन्न हुया है वह समुद्घात करके ही मुक्त होता है। शेष जीव समृद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते हैं।' इस सम्बन्धी प्रमाण गाथाएँ निम्न प्रकार हैं
छम्मासा उवसेसे उप्पण्णं जस्स केवलं जाणं । स-समुग्घानो सिज्झइ सेसा भज्जा समुग्याए ॥१६७॥ छम्मासाउगसेसे उप्पण्णं जेसि केवलं जाएं।
तं णियमा समुग्घायं सेसेसु हवंति भयणिज्जा ॥२०॥' इन गाथानों का उपदेश क्यों नहीं ग्रहण किया जाता है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि इस प्रकार विकल्प के मानने में कोई कारण नहीं पाया जाता है, इसलिए पूर्वोक्त गाथानों का उपदेश नहीं ग्रहण किया है।
शङ्का-निम्नलिखित गाथा में समुद्घात करने और न करने का कारण कहा गया है...
१. धवल पु. १ पृ. ३०२-३०३ ।
२. घबल पु. १ पृ. ३०३। ३. प्रा. पं. सं. पृ. ४२ ।
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गाथा ६६७-६६ ८.
जेसि श्राउ- समाई णामा गोवारिंग वेयणीयं च । ते प्रकय- समुग्धाया वच्चतियरे समुग्धाए ॥१६८॥ '
श्राहारमा गंगा/७३१
-जिन जीवों के नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म की स्थिति प्रायु कर्म के समान होती है, वे समुद्घात नहीं करके ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं । दूसरे समुद्घात करके हो मुक्त होते हैं ।। १६८ ।। इस गाथा के उपदेश को क्यों नहीं ग्रहण किया जाता ?
समाधान – इस पूर्वोक्त गाथा में कहे गये अभिप्राय को तो किन्हीं जीवों के समुद्घात के होने श्रीरकिन्हीं जीवों के समुद्घात नहीं होने में कारण स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि सम्पूर्ण जीवों में समान प्रनिवृत्तिरूप परिणामों के द्वारा कर्मस्थितियों का घात पाया जाता है, अतः उनका श्रायु के समान होने से विरोध श्राता है। दूसरे क्षीणकषाय गुणस्थान के चरम समय में तीन अघातिया कर्मो की जघन्य स्थिति भी पल्योपम के श्रसंख्यातवें भाग सभी जीवों के पाई जाती है ।
शङ्का - श्रागम तर्क का विषय नहीं है । इसलिए इस प्रकार तर्क के बल से पूर्वोक्त गाथाओं के अभिप्राय का खण्डन करना उचित नहीं है ।
समाधान- नहीं, क्योंकि इन गाथानों का श्रागम रूप से निर्णय नहीं हुआ है अथवा यदि इन दोनों गाथाओं का आगम रूप से निर्णय हो जाय तो इनका ही ग्रहण रहा आवे ।
जब प्रायुस्थिति अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाती है और वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति अन्तर्मुहूर्त से अधिक हो तो भगवान, आत्मोपयोग प्रतिशय व्यापार विशेष से व यथास्यात चारित्र को सहायता से महासंवर सहित होकर शीघ्र कर्म परिपाचन में समर्थ और सर्व कर्मरज को उड़ाने में समर्थ ऐसे दण्ड, कपाट, प्रतर लोकपूरण समुद्र्यात को चार समयों में करते हैं। केबली जिन समुद्घात करते हुए पूर्वाभिमुख होकर या उत्तराभिमुख होकर कायोत्सर्ग से करते हैं या पल्यंकासन से करते हैं। वहां कायोत्सर्ग से दण्डसमुद्घात को करने वाले केवली के मूलशरीर की परिधि प्रमाण कुछ कम चौदह राजू लम्बे दण्डाकाररूप से जीवप्रदेशों का फैलना दण्डसमुद्घात है । यहाँ कुछ कम का प्रमाण लोक के नीचे और ऊपर लोक-पर्यन्त बालवलय से रोका गया क्षेत्र होता है। ऐसा यहाँ जानना चाहिए, क्योंकि स्वभाव से ही उस अवस्था में वातवलय के भीतर केवली के जीवप्रदेशों का प्रवेश नहीं होता। इसी तरह पल्यंकासन से समुद्घात करने वाले केवली जिन के दण्डसमुद्घात कहना चाहिए। इतना विशेष है कि मूलशरीर की परिधि से उस अवस्था में दण्डसमुद्घात की परिधि तिगुणी हो जाती है ।
जैसे कपाट मोटाई की अपेक्षा प्रल्प ही होकर लम्बाई और चौड़ाई की अपेक्षा बढ़ता है । उभी प्रकार यहाँ (कपाट समुद्घात में भी मूल शरीर के बाहुल्य की अपेक्षा अथवा उसके तिगुणे बाहल्य की अपेक्षा जीवप्रदेशों के अवस्थाविशेषरूप होकर कुछ कम १४ राजू प्रमाण आयाम की अपेक्षा तथा '७ राजू प्रमाण विस्तार की अपेक्षा अथवा वृद्धि हानिगत विस्तार की अपेक्षा वृद्धि को प्राप्त होकर
१. धवल पु. १ पृ. २०४१ २. घवल पु. १ पृ. ३०४ । ३. जयघवल फलटण पृ. २२७८ ।
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७३२ / गो. सा. जीवकएण्ड
गाथा ६६६
स्थित रहता है, वह कपाट समुद्धात कहा जाता है, क्योंकि इस समुद्घात में स्पष्ट रूप से ही कपाट जैसा आकार पाया जाता है ।'
तीनों वातवलयों को छोड़ कर सम्पूर्ण लोक में ग्रात्मप्रदेश जब फैलते हैं तब तृतीय समयवाला प्रतर समुद्धरत होता है। चतुर्थ समय में तीनों वातवलयों में भी आत्मप्रदेश फैल जाते हैं। यही लोकपूरण समुद्घात है।
समुद्धातों को दिया
श्राहारमारणंति य दुर्ग पिरियमेरा एगविलिगं तु । दसदिसि गदा हु सेसा पंच समुग्धादया होंति ।।६६६ ।।
गाथार्थ - प्रहारक समुद्घात और मारणान्तिक समुद्घात इन दो समुद्घातों में तो एक ही दिशा में श्रात्मप्रदेशों का गमन होता है। शेष पाँच समुद्घातों में दसों दिशाओं में गमन होता
।। ६६६।।
विशेषार्थ - आहारक और मारणान्तिक समुद्धात एक दिशा में होते हैं। आहारक शरीर की रचना के समय श्रेणीगति होने के कारण एक ही दिशा में (जिस ओर केवली या श्रुतकेवली होते हैं ।) असंख्यात आत्मप्रदेश निकल कर एक अरत्नि प्रमाण आहारक शरीर की रचना करते हैं । जहाँ नरक आदि में जीव को ( पूर्ववद्ध आयु अनुसार) मरकर उत्पन्न होना है, उसी दिशा में प्रात्मप्रदेश निकलते हैं । शेष पाँच समुद्घात श्रेणी के अनुसार ऊपर-नीचे पूर्व-पश्चिम उत्तर-दक्षिण इन छहों दिशाओं में श्रात्मप्रदेश निकलते हैं । आहारक समुद्घात में एक हाथ प्रमाण प्रहारक पुतला उसी दिशा में गमन करता है जिस दिशा में केवली या धुनकेवली होते हैं। अन्य दिशा में गमन नहीं करता। यदि केवली या श्रुतकेबली विदिशा में होते हैं तो आहारक शरीर मोड़ा लेकर उस स्थान पर पहुँचता है, क्योंकि आहारक पुतले की अनुश्रेणि गति होती है। मारणान्तिक समुद्घात में भी जहाँ पर उत्पन्न होता है उसी क्षेत्र की ओर ग्रात्मप्रदेश फैलते हैं, अन्य क्षेत्र की ओर ग्रात्मप्रदेश नहीं जाते। इसमें भी अनुश्रेणी गति होती है। अतः इन दोनों समुद्घातों को एक दिक् कहा गया है। वेदना आदि पाँचों समुद्घातों में ग्रात्मप्रदेश चारों ओर और ऊपर नीचे फैलते हैं, इसलिए छह दिशाओं में फैलते हैं ऐसा कहा गया है। किन्तु जब श्रात्मप्रदेश शरीर के चारों ओर फैलते हैं तो विदिशाओं में भी जाते हैं अतः विदिशाओं को पृथक् गिन कर दनों दिशाओं में फैलते हैं, ऐसा कहा गया है। छह दिशा व दश दिशा कहने में मात्र शब्दभेद है, अर्थभेद नहीं है क्योंकि दोनों का अभिप्राय एक है ।
वेदना, कपाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक, तेजस और बाहारक इन छह समुद्घातों का काल असंख्यात समय है । केवलि समुद्घात का काल माठ समय है । दण्ड, कपाट, प्रतर, लोकपूर के चार समय पुनः प्रतर कपाट, दण्ड और स्वशरीर में प्रवेश के चार समय इस प्रकार केवलसमुद्घात का काल ग्राठ समय होता है । "
१. जयभवन फलटण पृ. २२७६ २. स्वा. का. अनु. ग. ४६७ टीका पृ. ३०८ ॥ ४. ग. वा. १/२० / १२ ।
३. राजवार्तिक १ /२०/१२ |
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गाथा ६६.६७१
माहारमार्गा /७३३
पाहारक और नगा काकाज अंगुलप्रसंखभागो कालो आहारयस्स उपकस्सो । कम्मम्मि प्रणाहारो उक्कस्सं तिणि समया हु १६७०।।
गाथार्थ - पाहारक का उत्कृष्ट काल अंगुल के असंख्यातर्वे भाग प्रमाण है। कार्मण शरीर में अनाहार का उत्कृष्ट काल तीन समय है ।।६७०।।
विशेषार्थ-प्राहारक जीवों का नाना जीब की अपेक्षा सर्व काल है किन्तु एक जीव की अपेक्षा आहारक का जघन्य काल अन्तमुहर्त अर्थात् तीन समय कम क्षुद्र भव प्रमाण है । कोई जीव तीन मोड़े (विग्रह करके) लेकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होकर चौथे समय में आहारक हुआ, फिर भुज्यमान प्रायु को कदलीघात से छिन्न करके अन्त में विग्रह करके निकलने वाले जीव के तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण मात्र जघन्य आहारक काल पाया जाता है । अधिक से अधिक अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यातासंख्यात अक्सपिरणी-उत्सपिणी काल तक जीव अाहारक रहता है।'
एक जीव की अपेक्षा अनाहारक का जघन्य काल एक समय है, क्योंकि एक विग्रह करके उत्पन्न होने वाले जीवों के यह काल पाया जाता है। अधिक से अधिक तीन समय तक जीव अनाहारक रहता है। क्योंकि समुद्घात करने वाले सयोगिकेबली ब तीन विग्रह करने वाले जीव के अनाहारत्व का तीन समयममाए काल पाया जाता है। अधिक से अधिक अन्तमुहूर्त काल तक भी जीव अनाहारक रहता है, क्योंकि अयोगिकेवली अनाहारक का अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है । अथवा पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण काल के समान है।
आहारक द अनाहारन, जीवों की संख्या कम्मइयकायजोगी होवि अरणाहारयाण परिमाणं । तविरहिदसंसारो सन्धो पाहार-परिमाणं ॥६७१।।
गाथार्थ---कार्मण काययोगी जीवों का जितना प्रमारा है, उतना ही अनाहारक जीवों का प्रमागा है। संसारी जीवराशि में से कार्माकाययोगी जीवों का प्रमाण घटाने पर जो शेष रहे, उतने पाहारक जीय हैं ।।।६७१।।
विशेषार्थ · संध्यात पावली मात्र अन्तमुहर्त काल के द्वारा यदि सर्व जीवराशि का संचय होता है तो तीन समयों में कितना संचर होगा। इस प्रकार इच्छाराशि से फलराशि को गुरिणत क.रके जो लब्ध पाये उसे प्रमाणराशि से भाजित करने पर अन्त मुहूर्त काल से भाजित सर्व जीव राशि अाती है। यह अनाहारक जीवों का प्रमाण है। यहाँ पर अयोगी जिन का प्रमाण गौरव है, क्योंकि
२. धवल पु.७ पृ.१८५।
३. धवल पु. ४ पृ. ४८८ |
४. धवल पु.३
१. धवल पु. ५. १८४ व १.५। पृ. ४०३।
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७३४ गो. सा. जीवकाण्ड
खाया ६७२-६७५
वे मात्र ६०८ हैं और कार्मणकाययोगी जीव अनन्त हैं। अत: संसारी जीवराशि अनन्त में असंख्यात समय प्रमाण अन्तमहतं का भाग देने पर लब्ध प्रमन्त प्राप्त होता है। इस अनन्त को संसारी जीवराशि में से घटाने पर प्राहारक जीवों की संख्या प्राप्त होती है। अथवा सर्व संसारी जीवों के असंख्यात खंड करने पर एक खण्ड प्रमाण अनाहारक है और बहु भाग पाहारक जीव हैं।' अनाहारक से ग्राहारक जीव असंख्यात गुणे हैं, गुणाकार अन्तर्मुहूर्त है ।।
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाराष्ट्र में प्राहार मार्गणा नामक उन्नीमा अधिकार पूर्ण हुग्रा ।
२०. उपयोगाधिकार
साकार व प्रनाकार उपयोग वत्थुरिणमित्तं भावो जावो जीवस्स जो दु उवजोगो । सो दुविहो पायध्यो सायारो चेव गायारो ॥६७२।। गाणं पंचविहंपि य अण्णारतियं च सागरवजोगो । चदुदंसरगमरणगारो सध्ने तल्लक्खरणा जीवा ।।६७३॥ मविसुदोहिमणेहिय सगसगविसये बिसेसविण्णाणं । अंतोमुत्तकालो उबजोगो सो दु सायारो ॥६७४।।' इंदियमरणोहिणा वा प्रत्थे अबिसेसिदण जं गहणं । अंतोमुत्तकालो उवजोगो सो प्रणायारो ॥६७५॥
गाथार्थ .. वस्तु (ज्ञेय) को ग्रहण करने के लिए जीव का जो भाव होता है, वह उपयोग है। वह उपयोग साकार और अनाकार के भेद से दो प्रकार का है ।।६७२।। पाँच प्रकार का ज्ञान और तीन प्रकार का अज्ञान ये साकार उपयोग हैं। चार प्रकार का दर्शन अनाकार उपयोग है। ये सब जीव के लक्षण हैं, अर्थात् पाठ प्रकार का साकार उपयोग और चार प्रकार का अनाकार उपयोग जीव का लक्षण है ।।६७३।। अन्तम हुर्त काल तक मति, श्रुत, अवधि, और मनःपर्यय ज्ञान अपनेअपने विषय को विशेष रूप से ग्रहण करता है, वह साकार उपयोग है ।।६७४।। इन्द्रिय, मन और अवधि के द्वारा अनि शेष रूप पदार्थ का जो ग्रहण है, वह अनाकार उपयोग है, उसका काल भी अन्तर्मुहर्न है ॥६७५।।
विशेषार्थ-जीव का लक्षण उपयोग है। जो अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के निमितों
३. प्रा. पं. सं. पृ. ३७ गा. १७६ ।
१. धवल पु. ३ पृ. ४६५। ४. प्रा. पं. सं. पृ. ३८ गा. १७१।
२. धवल पृ.७ पृ. ५५४ ५. प्रा. पं. सं.प्र. ३८ गा. १६० ।।
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उपयोग / ७३५
से होता है और चैतन्य का प्रत्वयी है अर्थात् चैतन्य को छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता, वह परिणाम उपयोग है । '
शंका बाह्य निमित्त कौन-कौन से हैं ?
गाथा ६७२-६७५
समाधान वाह्य निमित्त दो प्रकार का है- श्रात्मभूत बाह्य निमित्त और अनात्मभूत बाह्य निमित्त । श्रात्मा से सम्बद्ध शरीर में निर्मित्त चक्षु श्रादि इन्द्रियाँ आत्मभूत बाह्य हेतु हैं और प्रदीप यदि अनात्मभूत बाह्य निर्मित है ।
शङ्का -- अन्तरंग निमित्त कौन-कौन से हैं ?
समाधान - अन्तरंग निमित्त भी ग्रात्मभूत और अनात्मभूत के भेद से दो प्रकार का है। मनवचन - काय की वर्गों के निमित्त से होने वाला श्रात्मप्रदेश-परिस्पन्दन रूप द्रव्य योग अन्तः प्रविष्ट होने से प्राभ्यन्तर अनात्मभूत हेतु अन्तरंग निमित्त है । *
इन दोनों निमित्तों के होने पर कोषा परिणाम अर्थात् ग्रात्मा के चैतन्य गुण का परिणमन है, वह उपयोग है और यह उपयोग जीव का लक्षण है ।
सद्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥२॥ [ तत्त्वार्थसूत्र ]
- यह उपयोग दो प्रकार का है। साकार उपयोग और अनाकार उपयोग। माकार उपयोग आठ प्रकार का और अनाकार उपयोग चार प्रकार का है। साकार उपयोग ज्ञान है और अनाकार उपयोग दर्शन है ।
उasोगो दुविप्पो दंसणगाणं च दंसणं चदुषा ।
चक्खु चक्खु श्रोही दंसणमध केवलं णेयं ||४|| [ वृहद् द्रव्यसंग्रह ] गाणं प्रदुविययं मदि सुदि श्रोही प्रणाणणाराारिख । मरपज्जयकेवलमवि पचपवखभेयं च ।। ५ ।। [ वृहद् द्रव्यसंग्रह ]
:- ज्ञान और दर्शन के भेद से उपयोग दो प्रकार का है। उनमें से दर्शनोपयोग चार प्रकार का है । चक्षुदर्शन, प्रचक्षुदर्शन अवधिदर्शन और केवलदर्शन । ज्ञान आठ प्रकार का | मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, अवध्यज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान । इनके प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेद हैं ।
शंका- साकार उपयोग और अनाकार उपयोग किसे कहते हैं ?
समाधान – जो उपयोग आकार सहित है, वह ज्ञानोपयोग है, क्योंकि वह आकार सहित है ।
१. स. सि. २ / ६ | २. रा. बा. २ / ८ / १० ३. रा. बा. २ / ६ । ४. "साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनमिति" । [स.सि. २/६
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७३६ / गो. सा. जीवकाण्ड
जो उपयोग निराकार है, वह दर्शनोपयोग है, क्योंकि वह श्राकार से रहित है।
शंका- प्रकार किसे कहते हैं ?
समाधान-कर्म-कर्तृ भाव का नाम ग्राकार है। उस ग्राकार के साथ जो उपयोग रहता है, उसका नाम साकार हैं । ' प्रमाण से भूत कर्म को प्राकार कहते हैं अर्थात् प्रमाण में अपने से भिन्न बहिर्भूत जो विषय प्रतिभासमान होता है, उसे श्राकार कहते हैं। वह प्राकार जिस उपयोग में नहीं पाया जाता है, वह उपयोग अनाकार अर्थात् दर्शनोपयोग कहलाता है।
शंका- बिजली के प्रकाश से पूर्वदिशा, देश और आकार से युक्त जो सत्ता का ग्रहण होता है, वह ज्ञानोपयोग नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसमें विशेष पदार्थ का ग्रहण नहीं पाया जाता ।
गाथा ६७६
समाधान नहीं क्योंकि वहाँ पर ज्ञान से पृथग्भूत कर्म पाया जाता है, इसलिए वह भी ज्ञान ही है। वहाँ पर दिशा, देश, थाकार और वर्ण आदि विशेषों से युक्त सत्ता का ग्रहण पाया जाता
है ।
-
अन्तरंग को विषय करने वाले उपयोग को अनाकार उपयोग रूप से स्वीकार किया है। अन्तरंग उपयोग विषयाकार होता है, यह बात भी नहीं है, क्योंकि इसमें कर्ता रूप द्रव्य से पृथग्भूत कर्म नहीं पाया जाता |
अन्तरंग उपयोग को दर्शनोपयोग कहते हैं। कारण यह कि आकार का अर्थ 'कर्मकर्तृत्व' है, उसके बिना जो ग्रर्थोपलब्धि होती है, उसे अनाकार - उपयोग कहा जाता है। अन्तरंग उपयोग में कर्म-कर्तृत्व होता है, ऐसी श्राशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उसमें कर्ता की अपेक्षा द्रव्य व क्षेत्र से स्पष्ट कर्म का अभाव है । *
उपयोग अधिकार में जीवों की संख्या
गाणुवजोग जुदाणं परिमाणं गाणमग्गणं व हवे । दंसणुवजोगियाणं दंसणमग्गरण व उत्तकमो ॥ ६७६ ॥
गाथार्थ -- ज्ञानोपयोग वाले जीवों का प्रमाण ज्ञानमार्गरणा वाले जीवों की तरह समझना चाहिए और दर्शनोपयोग वालों का प्रमाण दर्शनमार्गणा वालों की तरह समझना चाहिए ।। ६७६ ॥
विशेषार्थ - ज्ञानमार्गणा के अनुसार मति अज्ञानी और श्रुत- अज्ञानियों का प्रमाण नपुंसकवेदियों के समान ग्रनन्त है जो अनन्तानन्त श्रवसर्पिणी उत्सर्पिणियों से अपहृत नहीं होते हैं अर्थात् मध्यम अनन्तानन्त हैं । विभंगज्ञानी देवों से कुछ अधिक हैं अर्थात् साधिक दो सौ छप्पन अंगुलों के वर्ग का जगत्तर में भाग देने पर देव विभंगज्ञानियों का प्रमाण होता है, इसमें तीन गतियों के विभंगज्ञानियों का प्रमारग जोड़ने पर समस्त विभंगज्ञानियों का प्रमाण होता है । मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी पत्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं अर्थात् प्रावली के असंख्यातवें
१. धवल पु. १३ पृ. २०७ । २. जयधवल पु. १ पृ. ३३१ । ३. जमघवल पू. १ पृ. ३३८ । ४. धवल पु. १३ पृ. २०७ २०८ । ५. धवल पु. ११ पृ. २३३ ।
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गाया ६७७-६७८
अन्तर्भाव / ७३७
भाग से पत्योपम में भाग देने पर इन तीनों ज्ञानियों की संख्या प्राप्त होती है । मन:पर्ययज्ञानी असंख्यात हैं । केवलज्ञानी अनन्त हैं, क्योंकि सिद्ध भगवान भी केवलज्ञानी हैं ।"
चक्षुर्दर्शनी प्रसंख्यात हैं, क्योंकि सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग के वर्ग से जगत्प्रतर को अपहृत करने पर चक्षुर्दर्शनी राशि प्राप्त होती है । प्रचक्षुर्दर्शनियों का प्रमाण मतिप्रज्ञानियों के समान है । अवधिदर्शनियों का प्रमाण अवधिज्ञानियों के समान है और केवलज्ञानियों के समान केवलदर्शनियों का प्रमाण है | 3
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में उपयोग प्ररूपणा नामक बीसवाँ अधिकार पूर्ण हुया ।
२१. अन्तर्माधिकार
बीस प्ररूपणाओं का कथन करके अब अन्तर्भावाधिकार का कथन किया जाता है
प्रतिज्ञा
गुणजीवा पज्जत्ती पारणा सण्णा य मग्गणुवजोगो । जोग्गा परुविदया प्रोघासेसु
पत्तेयं ॥६७७ ||
गाथार्थ -- ओघ ( गुणस्थानों) में और आदेश ( मार्गणाओं ) में गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, मागंणा और उपयोग का निरूपण किया जायेगा ||३७७ ||
मार्गणाओं में गुग्गुणस्थानों का कथन
चपण चोद्दस चउरो खिरयाविसु बोद्दसं तु पंचषखे । तसकाये सेसिदिकाये मिच्छं गुट्टा ॥२६७८ ।।
गाथार्थ - नरक गति में चार गुणस्थान, तिर्यत्र गति में पाँच मुगास्थान, मनुष्यगति में चौदह गुणस्थान और देवगति में चार गुणस्थान होते हैं। पंचेन्द्रिय और उस काय में चौदह गुरणस्थान, और शेष इन्द्रियों व काय में एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है ||६७८ ।।
विशेषार्थ - सानों नरकों में चारों गुणस्थान होते हैं । श्रपर्याप्त अवस्था में मात्र प्रथम नरक में चतुर्थं गुणस्थान होता है शेष छह नरकों में प्रथम मिथ्यात्व गुरणस्थान होता है। दूसरा और तीसरा गुणस्थान पर्याप्त अवस्था में किसी भी नरक में नहीं होता । तियंत्रों में प्रथम पांच गुणस्थान होते हैं, किन्तु तीसरा और पाँचवाँ गुणस्थान संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त निर्मंचों पर्याप्त अवस्था में ही होता है किन्तु दूसरा और चौथा गुणस्थान पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में हो सकता है । प्रथम गुणस्थान सभी तिर्यचों के सब अवस्थाओं में सम्भव है। मनुष्यों में चौदह गुणस्थान होते हैं । मनुष्य के निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में पहला, दूसरा, चौथा गुणस्थान होता है किन्तु मनुष्यिनी के चौधा
१. धवल पु. ७ पृ. २६६-२७ । २. धवल पु. ७ पृ. २६० २६२ ।
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७३८ / गो. सा. जीवकाण्ड
लब्ध्य पर्याप्त मनुष्य के प्रथम गुणस्थान ही गुणस्थान निर्ऋत्यपर्याप्त अवस्था में नहीं होता । होता है। देवों में चार गुणस्थान होते हैं। अपर्याप्त अवस्था में पहला, दूसरा, चौथा ये तीन गुणस्थान होते हैं। तीसरा गुणस्थान पर्याप्त अवस्था में ही होता है । भवनत्रिक देवों के पर्याप्त अवस्था में पहला और दूसरा ये दो ही गुणस्थान होते हैं, तीसरा और चौथा गुणस्थान मात्र त अवस्था में ही होता है । '
माथा ६७९-६८४
इन्द्रियमार्गणा के अनुसार संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के चौदह गुणस्थान होते हैं। किन्तु निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान होते हैं। तीसरा और पाँचवें से दहवें तक ये गुणस्थान पर्याप्त अवस्था में ही होते हैं । केवली समुद्घान की अपेक्षा तेरहवाँ गुणस्थान पर्याप्त अवस्था में भी सम्भव है । एकेन्द्रिय से प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय तक सब जीवों के पहला मिथ्यात्व गुणास्थान ही होता है।
कायमाणा के अनुसार स्थावरों के एक पहला मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है। बस में चौदह स्थान होते हैं के पहला, दूसरा व चौथा ये तीन गुणस्थान सम्भव हैं । शेष गुणस्थान पर्याप्त अवस्था में ही होते हैं। केवन्नी समुद्घात की अपेक्षा तेरहवाँ गुगास्थान अपर्याप्त अवस्था में भी सम्भव है ।
--
योमगंगा में गुणस्थानों का कथन
मज्झिमच उमरवणे सगियहुदि दु जाय खीगोत्ति । सेसारखं जोगित्ति य श्रणुभयवयर ं तु ओरालं पज्जते थावरकायादि जाव तम्मिस्समपज्जते दुगुठार
मिच्छे सासर सम्मे
पु
'वेदयदे कवाडजोगिम्मि |
तिरियेवि य दोणिवि होंतित्ति जिणेहि सिहि ।।६८१ ।। वेगुवं पज्जते इवरे खलु होदि तस्स मिस्सं तु । सुररियचउट्ठाणे मिस्से राहि मिस्सजोगो हु ।।६८२ ।। श्राहारो पज्जन्ते इवरे खलु होदि तस्स मिस्सो दु । तोमुत्तकाले छट्टगुणे होदि श्राहारो ||६६३|| श्रोलियमस्सं वा चउगुरगठाणेसु होदि कम्मइयं । दुर्गादिविग्गहकाले जोगिस्स य पदरलोगपूरणगे ।। ६८४ ।।
गाथार्थ मध्य के चार मनोवलन योग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक होते हैं । शेष मनोयोग व वचनयोग सयोगकेवली पर्यन्त होते हैं किन्तु यनुभय विकलेन्द्रियों के भी
१.२.३. धवल पु. २ गतिमा गंगार, इन्द्रियमार्गणा, कायमगंगा |
वियलादो ॥६७६ ॥
जोगोत्ति ।
रियमे ।।६८० ॥
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गाथा ६७६ ६८४
अन्तर्भाव / ७३६ होता है ||६७६ ।। मदारिक काययोग स्थावर पर्याप्त से लेकर सयोगकेवली पर्यन्त होता है । औदारिक मिश्र अपर्याप्त के चार गुणस्थानों में नियम से होता है ||६८० || वे चार गुणस्थान मिथ्यात्व सासादन, असंयत सम्यग्दृष्टि व सयोगकेवली हैं। श्रसंयत सम्यक्त्व पुरुषवेदी के ही और कपाटगत सयोगकेवली के ही श्रीदारिकमिकाययोग होता है ।।६८१|| देव व नारकी पर्याप्त के वैक्रियिक काययोग में चार गुणस्थान होते हैं । अपर्याप्त अवस्था में वैक्रियिक मिश्र काययोगी के भी मिश्र गुणस्थान बिना शेष तीन गुणस्थान होते हैं ||६६२|| छठे गुणस्थानवतीं श्राहारक समुद्घात वाले मुनि के पर्याप्त अवस्था में प्राहारक काययोग होता है और अपर्याप्त अवस्था में आहार मिश्र काययोग होता है जिसका काल अन्तर्मुहूर्त है ||६६३॥ श्रदारिकमिश्र काययोग के समान कार्मण काययोग में भी चार गुणस्थान होते हैं। चतुर्गति जीवों के विग्रह गति में और सयोग केवली के प्रतर व लोकपूरण यवस्था में कार्मण काययोग होता है ।। ६८४ ॥
ये
विशेषार्थ - गाथा में कहे गये "मभिमचउमणवणे" शब्द से चार मनोयोगों में से बीच के दो मनोयोग (असत्य व उभय ) तथा चार वचनयोगों में से बीच के वो वचनयोग (असत्य व उभय ) ; कुल चार योग ग्रहण करने चाहिए। इन चारों योगों में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुगास्थान तक बारह गुणस्थान होते हैं, किन्तु ये चारों योग संज्ञी जीवों के ही होते हैं। शेष प्रर्थात् सत्य मनोयोग व सत्य वचन योग में तथा ग्रनुभय मनोयोग व ग्रनुभय वचनयोग में भी पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर संयोग- केवली तक तेरह गुणस्थान होते हैं। इतनी विशेषता है कि अनुभवचनयोग विकलचतुष्क ( द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय) जीवों के भी होता है और इनके एक मिध्यात्व गुणस्थान होता है। असजी पंचेन्द्रिय जीवों के मन न होने से वे विकल कहे जाते हैं। इस प्रकार चारों मनोयोग व चारों वचनयोग के स्वामी व उनमें होने वाले गुणस्थानों का कथन किया गया ।
दारिक काययोग में पर्याप्त स्थावर काय अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सयोगकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान तक के तेरह गुरणस्थान होते हैं, किन्तु ये पर्याप्त अवस्था में होते हैं क्योंकि श्रदारिक काययोग पर्याप्त अवस्था में होता है। प्रौदारिकमिश्र काययोग अपर्याप्त अवस्था में होता है, उसमें मिथ्यात्व सासादन, असंयत सम्यक्त्व व सयोगकेवली अर्थात् पहला, दूसरा, चौथा और तेरहवाँ ये चार गुणस्थान होते हैं। चौथा गुणस्थान प्रदारिक मिश्र में पुरुषवेदी मनुष्य या तिर्यत्र के होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि मरकर अप्रशस्त वेद वाले मनुष्य या तियंत्रों में उत्पन्न ( जन्म ) नहीं होता । सयोगकेवली के कपाट समुद्घात में श्रदारिक मिश्र काययोग होता है। इसलिए श्रदारिक मिश्र काययोग में तेरहवाँ गुणस्थान कहा गया है ।
शंका- कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्यात को प्राप्त केवली पर्याप्त हैं या पर्याप्त ?
समाधान- उन्हें पर्याप्त तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि श्रदारिकमिश्र काययोग और कार्मण काययोग अपर्याप्तकों के होता है, इसलिए वे अपर्याप्त हैं ।
शङ्का - सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत और संयत नियम से पर्याप्तक होते हैं ऐसा वाक्य है । इससे सिद्ध होता है कि सयोगकेवली पर्याप्तक हैं। सयोगकेवली के अतिरिक्त अन्य औदारिक मिश्र काय योग वाले जीव अपर्याप्तक होते हैं। ऐसा क्यों न माना जाये ?
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७४० / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६७६-६८४
समाधान - ऐसा नहीं माना जा सकता, क्योंकि आहारकमिश्र काययोग पर्याप्तकों के होता है । इससे सिद्ध होता है कि छठे गुणस्थानवर्ती संयत अपर्याप्त भी होते हैं ।"
शङ्का - जनकि कपाट-समुद्घातगत केवली अवस्था में अभिप्रेत होने के कारण 'औदारिकमिश्र काययोग अपर्याप्तकों के होता है यह सूत्र पर हैं तो 'संयतस्थान में जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं, इस सूत्र में श्राये हुए नियम शब्द की क्या सार्थकता रह गई? और ऐसी अवस्था में यह प्रश्न होता है कि उक्त सूत्र में आया हुआ नियम शब्द सप्रयोजन है कि निष्प्रयोजन ?
समाधान- इन दोनों विकल्पों में से दूसरा विकल्प तो माना नहीं जा सकता है, क्योंकि श्री पुष्पदन्त के वचन मे निकले हुए तत्वों में निष्प्रयोजन ( निरर्थकता ) का होना विरुद्ध है । और सूत्र को नित्यता का प्रकाशन करना भी नियम शब्द का फल नहीं हो सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर जिन सूत्रों में नियम शब्द नहीं पाया जाता है, उन्हें अनित्यता का प्रसंग आजायेगा । परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर औदारिक काययोग पर्याप्तको के होता है इस सूत्र में नियम शब्द का प्रभाव होने से अपर्याप्तकों में भी औदारिक काययोग के प्रस्तित्व का प्रसंग प्राप्त होगा जो कि इष्ट नहीं है। अतः सूत्र में आपा हुआ नियम शब्द ज्ञापक है, नियामक नहीं है । यदि ऐसा न माना जाय तो उसको अनर्थकपने का प्रसंग आजायेगा ।
- इस नियम शब्द के द्वारा क्या जापित होता है १२
शंका
समाधान - इससे यह ज्ञापित होता है कि 'सम्यरिमध्यादृष्टि, संयतासंयत और संयतस्थान में जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं यह सूत्र अनित्य है । अपने विषय में सर्वत्र समान प्रवृत्ति का नाम नित्यता है और अपने विषय में ही कहीं प्रवृत्ति हो और कहीं न हो, इसका नाम प्रनित्यता है। इससे उत्तर शरीर को उत्पन्न करने वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत और संयतों के तथा कपाट, प्रतर और लोकपूररणसमुद्घात को प्राप्त केवलियों के अपर्याप्तपना सिद्ध हो जाता है।
3
शङ्का - प्रारम्भ किया हुआ शरीर जिसके अर्ध (अपूर्ण) है वह अपर्याप्त है । परन्तु सयोगीअवस्था में शरीर का प्रारम्भ तो होता नहीं अतः सयोगी के अपर्याप्तपना नहीं बन सकता है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि कपाट यादि समुद्घात अवस्था में योगी जिन छह पर्याप्त रूप शक्ति से रहित होते हैं, प्रतएव वे पर्याप्त हैं।
देव व नारकियों के पर्याप्त अवस्था में वैत्रिविक काययोग में मिथ्यात्त्र, सामादन सम्यग्मिथ्यात्व और असंयत सम्यत्रत्व अर्थात् पहला, दूसरा, तीसरा और चौथा ये चार गुणस्थान होते हैं। इन्हीं के अपर्याप्त अवस्था में वैक्रियिकमिश्र काययोग में सम्यरिमथ्यात्व तोमरा गुणस्थान नहीं होता| इतनो विशेषता है कि नारकियों के वैक्रियिक मिश्र काययोग में सासादन दूसरा गुणस्थान भी नहीं होता अर्थात् पहला और चौथा ये दो गुणस्थान होते हैं । देवों के क्रियिकमिश्रकाययोग में पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुगास्थान होते हैं। भवन देवों के और सब देवियों के वैक्रियिकमिश्र काययोग में पहला और दूसरा ये वो गुणस्थान होते हैं ।
१. धवल पु. २ पृ. ४४१ । २. घतल पु. २ पु. ४४३ । ३. धवल पु. २ पृ. ४४३४ ला पु.
२. पू.
४४४ ।
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गाथा ६८५
अन्तर्भाव/७४१
प्राहारक समद्घात छठे गुरणस्थान में ही होता है । छठे गुरगस्थानवालों के अपय पित-अवस्था में आहार मिश्र काययोग होता है। उस प्राहारकमिश्न काययोगी के एक प्रमत्त संयत हा गुणस्थान होता है। इस प्राद्वारक-मिश्र काययोग का काल अन्तम है. क्योंकि प्राडारक-मिश्र काययोगी का मरण नहीं होता है । पर्याप्ति पूर्ण होने में अन्तम हर्न काल लगता ही है, इससे कम काल में पर्याप्ति पूर्ण भी नहीं होती।
औदारिकमिथ काययोग के समान कामरण काययोग में मिथ्यात्व, सासादन, अविरतसम्यादष्टि और मांगनी अथात् पहला, दूसरा, वाधा और रहवा ये चार गुणस्थान होते हैं। इतनी विशेषता है कि प्रौदारिकमिश्न काययोग तो मात्र मनुष्य व तिर्यचों के होता है, किन्तु कार्मण काययोग चारों गतिवाले जीवों के विग्रहगति में होता है। तेरहवें गुरणस्थान में भी औदारिकमिश्र काययोग कपाट समुद्धात में होता है, किन्तु कार्मरण काययोग प्रतर व लोकपूरण समुद्घात में होता है।
कपाट ममद्घात के समय चौदह राजू पायाम से और सात राज विस्तार से अथवा चौदह राजु मायाम से और एक राजू को आदि लेकर बढ़े हुए विस्तार से व्याप्त जीब के प्रदेशों का संख्यात अंगुल की अवगाहना वाले पूर्व शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता। यदि सम्बन्ध माना जायेगा, तो जीव के प्रदेशों के परिमारण वाला ही औदारिक शरीर को होना पड़ेगा। किन्तु ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि विप्निाट बन्ध को धारण करने वाले शरीर के पूर्वोक्त प्रमाग रूप से पसरने की शक्ति का अभाव है। यदि मूल शरीर के प्रसरण शक्ति मानी जाये तो उनके औदारिकमिध व कार्मणकाययोग नहीं बन सकता प्रतः कपाट, प्रतर व लोकपूरण समुद्घातकेवली के पुराने मूल शरीर के साथ सम्बन्ध है ही नहीं ।
वेद मार्गणा में गुणम्थानों का कथन थावरकायप्पहदी संढो सेसा असण्णिमादी य । परिणयट्टिस्स य पढमो भागोत्ति जिणेहि गिट्टि ॥६५॥
गाथार्थ-नपुसक वेद में स्थावर काय से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रथम भाग नक होते हैं। शेष स्त्रीवेद व पुरुपवेद में प्रसन्नी पंचेन्द्रिय से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के सवेदभाग तक होते हैं । ऐसा जिन (श्रुत के वली) ने कहा है ।।६८५।।
विशेषार्थ--एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक जीव सम्मूर्च्छन होने के कारण नसक वेदी ही होते हैं । इसलिए स्थावर काय को अर्थात् एकेन्द्रियों के प्रथम गुणस्थान को प्रादि करके अनिवृत्तिकरण नवें गुणस्थान के प्रथम भाग तक नौ गुणस्थान नपुंसक बेद में होते हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेद गर्भजों व उपपाद जन्म वाले देवों के होता है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव गर्भज भी होते हैं और उनके त्रिीवेद व पुरुषवेद होता है। इसलिए स्त्री वेद व पुरुषवेद में असंजी पंचेन्द्रिय जीव के प्रथम गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गृगणस्थान के सवेद भाग तक नौ गुणस्थान होते हैं। इस प्रकार तीनों वेदों (स्त्रीवेद, पुरुषदेद, नपुसकवेद) में नौ-नौ गुणस्थान होते हैं अर्थात् मिथ्यात्व गुरगस्थान से लेकर
१. चवन पु. २ पृ. ६६० । २. 'नारकमम्मूच्छिनो नपुसकानि ।। २१५०।।" [त नु.] ।
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७४२ / गो. सा. जोबकाण्ड
गाथा ६८६
अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक नौ गुणस्थान होते हैं । स्त्रीवेदी के अपर्याप्त अवस्था में मिध्यात्व और सासादन ये दो ही गुणस्थान होते हैं। नपुंसकवेदी के प्रपर्याप्त भवस्था में मिथ्यात्व सासादन व संत सम्यष्टि ये तीन गुणस्थान होते हैं । पुरुषवेदी के अपर्याप्त काल में पहला, दूसरा, चौथा और छठा ये चार गुणस्थान होते हैं ।"
शंका-नपुंमवेदी के अपर्याप्त अवस्था में असंत सम्यग्दृष्टि वाला चौथा गुणस्थान कैसे सम्भव है ? स्त्रीवेदी के अपर्याप्त अवस्था में चतुर्थ गुणस्थान क्यों नहीं होता ?
समाधान - जिसने पूर्व में नरकायु का बन्ध कर लिया है और बाद में केवली या श्रुतकेबली के पादमूल में क्षायिक सम्यक्त्व का प्रारम्भ कर दिया है ऐसे कृतकृत्य वेदक सम्यन्दष्टि या क्षायिक सम्यग्दृष्टि मरकर प्रथम नरक में उत्पन्न होते हैं। नरक में नियम से नपुंसकवेद होता है, इस प्रकार नपुंसकवेदी नारकी के अपर्याप्त अवस्था में चौथा गुणस्थान सम्भव है। सम्यग्दष्टि जीव मरकर स्त्रीवेदियों में उत्पन्न नहीं होता। इसलिए स्त्रीवेदी के अपर्याप्त अवस्था में चतुर्थगुणस्थान नहीं होता, कहा भी है।
:
सुट्टिमासु पुढवी जोइस-वण- भवण सब इत्थीसु ।
देसु समुप्पज्जइ सम्माइट्ठी दु जो जीवो ॥। १३३ ।। '
- सम्यष्टि जीव नीचे की छह नारक पृथिवियों में ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासी देवों में और सर्वप्रकार की स्त्रियों में उत्पन नहीं होता है ।
जिन्होंने पहले आयु कर्म का बंध कर लिया है. ऐसे जीवों के सम्यग्दर्शन का उस गति सम्बन्धी श्रायु सामान्य के साथ विरोध न होते हुए भी उस उस गति सम्बन्धी विशेष में उत्पति के साथ विरोध पाया जाता है । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, प्रकीर्णक, श्रभियोग्य मोर किल्विधिक देवों में, नीचे के छह नरकों में, सब प्रकार की स्त्रियों में नपुंसकवेद में, विकलेन्द्रियों में एकेन्द्रियों में, लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में और कर्मभूमिज तिर्यंचों में सम्यग्दृष्टि का उत्पत्ति के साथ विरोध है । इसलिए इतने स्थानों में सम्यग्दष्टि जीव उत्पन्न नहीं होता । नरक में नपुंसकवेद ही है, जिसने पूर्व में नरकायु बाँध ली है, पश्चात् सम्यग्दर्शन ग्रहण किया है, ऐसे जीव की नरक में उत्पत्ति को रोकने का सामर्थ्य सम्यग्दर्शन में नहीं है। इस प्रकार मात्र प्रथम नरक के नपुंसकों में असंयत सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होता है ।
ऋषायमार्गग्गा में गुणस्थानों का कथन
थावर काय पडवी प्रष्यिट्टी - बि-ति चउत्थभागोत्ति ।
कोहतियं लोहो पुरण सुहमसुरागोति दिष्णेयो ||६८६ ॥
गाथार्थ - क्रोधका स्थावर से लेकर ग्रनिवृत्तिकरण के दूसरे भाग तक, मानकषाय स्थावर से लेकर अनिवृत्तिकरण के तीसरे भाग तक और मायाकषाय स्थावर से लेकर प्रनिवृत्तिकरण के चतुर्थ भाग तक तथा लोभकषाय स्थावर से लेकर सूक्ष्मराग तक जाननी चाहिए ॥ ६८६ ॥
१. धवल पु. २ बंदमार्गेणा । २. धवल पु. २ पृ. ४५० । ३. धवल पु. १ पृ. २०६ । ४. घल पु. १. ३३७ । ५. धवल पु. १ पृ. ३३६ ।
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गाथा ६८७-६८८
अन्तर्भाव ४३
विशेषार्थ- स्थावरकाय अथवा एकेन्द्रिय जीवों से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक चारों कापाय होती है । स्थावरकाय में नियम से मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। इसलिए स्थावर मे लेकर, ऐगा कहने का अभिप्राय मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण अर्थात् नौवें गुणस्थान के दूसरे, तीसरे ब चौथे भाग तक क्रमशः क्रोध, मान, माया कपाय होती है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि क्रोध, मान, माया इन तीन कपायों में प्रथम गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुरास्थान तक नौ गुणस्थान होते हैं और लोभकषाय में प्रथम मिथ्यात्व गृणास्थान से लेकर सूक्ष्म साम्पराय दसवें गुणस्थान तक दरा मुगास्थान होते हैं म्यारहवाँ, बारहवाँ, तेरहवा और चौदहवाँ ये चार गुणस्थान अकषायी जीवों के होते हैं, क्योंकि इन चार गुणस्थानों में किसी भी कषाय का उदय सम्भव नहीं है ।
शंका - अपूर्वकरण आदि गुणा श्रान वाले साधुत्रों के कषाय का अस्तित्व कम पाया जाता है?
समाधान-नहीं, क्योंकि अव्यक्त कषाय की अपेक्षा वहां पर कषायों के अस्तित्व का उपदेश दिया है।
शङ्का शेष तीन कषायों के उदय के नाश हो जाने पर उसी समय लोभ कमाया का विनाश क्यों नहीं हो जाता?
समाधान- अनिवृत्तिकरण मृणास्थान में लोभ कषाय का विनाश नहीं होता, क्योंकि लोभवपाय की अन्तिम मर्यादा सूश्मसाम्पराय गृगस्थान है। इसलिए क्रोधादि तीन कषायों के उदय का नाश हो जाने पर भी अनिवृत्ति करा गुणस्थान में लोभकषाय के उदय का विनाश नहीं होता।
शङ्का-अनन्त कषाय-द्रव्य का सद्भाव होने पर भी उपशान्त कषाय गुणस्थान को कपायरहित कसे कहा गया ?
समाधान-पाय के उदय के प्रभाव की अपेक्षा उसमें कषायों मे रहितपना बन जाता है।'
जानमा गंगा में गुग्गस्थानों का कथन थावरकायप्पहदी मदिसुदप्रणायं विभंगो दु । सपणीपुरणप्पहुदी सासरणसम्मोत्ति गायवो ॥६८७।। सण्णागतिग अविरदसम्मादी छट्टगावि मरणपज्जो। खीरणकसायं जाय दु केवलगाणं जिणे सिद्ध ॥६८८।।
गाथार्थ - मत्यज्ञान और ताज्ञान स्थावरकाय से लेकर सासादन गुणस्थान तक होने हैं। विभंगज्ञान संज्ञो पर्याप्त से लेकर सासादन सम्यक्त्व पर्यन्त होता है ॥६८७॥ नोन सम्यम्ज़ान अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षोणकषायपर्यन्त होने हैं। मनःपर्यय ज्ञान छरे गुणस्थान से क्षीगाकपाय तक होना
१. घयल पृ. १ पृ. ३५१ । २. धयन . १ पृ. ३५२ । ३. धवल पु. १ पृ. ३५२ । ४ "मदि-अग्णागती मुद-अणगाणी पइदिय-प्पहुष्टि जाव सामगसम्माइदित्ति ॥११६।।" [धवल पु. १ पृ. ३६१]। ५. 'विभगरणारा मणि-मिन्छाइट्टी वा सामगमम्मदीयं वा ।।१७।। पजनाणं अत्थि, अपनत्ताण गन्थि ।।११।।" [घवल पु. १ पृ. ३६२] ।
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७४४/गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा ६८७-६८५
है । केवलज्ञान जिनेन्द्र और सिद्ध भगवान के होता है ॥६८८।।
विशेषार्थ - स्थावर काय अर्थात् एकेन्द्रिय जीवों के एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है अत: स्थावरकाय या एकेन्द्रिय के द्वारा मिथ्यात्व गुण स्थान का ग्रहण होता है । इस प्रकार मत्यज्ञान व श्रुताज्ञान में मिथ्यात्व व सासादन दो ही गुणस्थान होते हैं । विभंग ज्ञान में भी दो ही गुरास्थान मिथ्यात्व और सासादन होते हैं । तथापि विभंग ज्ञान असंज्ञियों में नहीं होता, इस बात का ज्ञान कराने के लिए गाथा में संज्ञी पर्याप्त शब्द दिया गया है। इसके द्वारा प्रसज्ञी और अपर्याप्नकों का निषेध हो जाता है।
शङ्का-मिथ्याइष्टि जीव के भले ही मति-श्रुत दोनों प्रज्ञान होवें, क्योंकि वहाँ पर मिथ्यात्व कर्म का उदय पाया जाता है, परन्तु सासादन में मिथ्यात्व का उदय नहीं पाया जाता, इसलिए वहाँ पर वे दोनों ज्ञान अज्ञान रूप नहीं होने चाहिए?
___ समाधान नहीं, क्योंकि विपरीत अभिनिवेश को मिथ्यात्व कहते हैं और वह मिथ्यात्व व अनन्नानुबन्धी इन दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है। सासादन वाले के अनन्तानुबन्धी का उदय तो पाया ही जाता है, इसलिए वहाँ पर भी दोनों प्रज्ञान सम्भव हैं।
का -एकेन्द्रियों प्रति रमाबरों के शतज्ञान कैसे हो सकता है ? क्योंकि श्रोत्रइन्द्रिय का अभाव होने से शब्द के विषयभूत वाच्य का भी ज्ञान नहीं हो सकता है। इसलिए उनके श्रुतज्ञान नहीं होता है ।
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह कोई एकान्त नहीं है कि शब्द के निमित्त से होने वाले पदार्थ के ज्ञान को ही श्रुतज्ञान कहते हैं। किन्तु शब्द से भिन्न रूपादिक लिंग से भी जो लिंगी का ज्ञान होता है, उसे भी श्रुतज्ञान कहते हैं।
शङ्का-मनरहित जीवों के ऐसा श्रुतज्ञान भी कैसे सम्भन है ?
समाधान नहीं, क्योंकि मन के बिना वनस्पतिकायिक जीवों के हित में प्रवृत्ति और अहित से निवृत्ति देखी जाती है, इसलिए गनमाहित जीवों के ही श्रुतज्ञान मानने में उनसे अनेकान्त दोष प्राता है।'
शङ्खा–विकलेन्द्रिय जीवों के विभंगज्ञान क्यों नहीं होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि वहाँ पर विभंगज्ञान का कारणभूत क्षयोपशम नहीं होता। शंका वह क्षयोपशम भी विकलेन्द्रियों में क्यों सम्भव नहीं है ?
समाधान - नहीं, बयोंकि अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय होता है । परन्तु विकलेन्द्रियों में ये दोनों प्रकार के कारण नहीं पाये जाते हैं, इसलिए उनके विभंगज्ञान सम्भव नहीं है।
१. धवल पु. १.३६१ ।
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गाथा ६६७-६८८
अन्तर्भाव / ७४५
शङ्का - देव और नारकियों के विभागज्ञान भवप्रत्यय होता है। वह अपर्याप्त काल में भी हो सकता है, क्योंकि पर्याप्त काम में भी विज्ञान के भरतपुर की पाई जाती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि 'सामान्य विषय का बोध कराने वाला वाक्य विशेषों में रहा करता है।' इस वाक्य के अनुसार अपर्याप्त अवस्था से युक्त देव और नारक पर्याय त्रिभंग ज्ञान का कारण नहीं है । किन्तु पर्याप्त अवस्था से युक्त ही देव और नारक पर्याय विभंग ज्ञान का कारण है, इसलिए अपर्याप्त काल में विभंग ज्ञान नहीं होता है । '
ग्राभिनिवोधिक (मति ) ज्ञान श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीनों संयत सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक नौ गुगास्थानों में होते हैं ॥ १२० ॥ २
शंका- देव और नारकी सम्बन्धी असंयत सम्यग्दष्टि जीवों में अवधिज्ञान का सद्भाव भले हो रहा आवे, क्योंकि उनके अवधिज्ञान भवनिमित्तक होता है। उसी प्रकार देशविरति यादि ऊपर के गुणस्थानों में भी अवधिज्ञान रहा यावे, क्योंकि अवधिज्ञान की उत्पत्ति के कारणभूत गुणों का वहाँ पर सद्भाव पाया जाता है । परन्तु असंयत सम्यग्दृष्टि तिर्यत्र और मनुष्यों में उसका सद्भाव नहीं पाया जा सकता है, क्योंकि अवधिज्ञान की उत्पत्ति के काररणभृत भव और गुण असंयत सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्यों में नहीं पाये जाते हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि प्रवधिज्ञान की उत्पत्ति के कारणरूप सम्यग्दर्शन का असंयत सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्यों में सद्भाव पाया जाता है।
शंका- चूंकि सम्पूर्ण सम्यग्दृष्टियों में अवधिज्ञान की अनुत्पत्ति अन्यथा बन नहीं सकती, इससे ज्ञात होता है कि सम्यग्दर्शन अवधिज्ञान की उत्पत्ति का कारण नहीं है ?
प्रतिशंका - यदि ऐसा है तो सम्पूर्ण संयतों में अवधिज्ञान की अनुत्पत्ति अन्यथा बन नहीं सकती, इसलिए संयम भी अवधिज्ञान का कारण नहीं है ?
प्रतिशंका का उत्तर - विशिष्ट संयम ही अवधिज्ञान की उत्पत्तिका कारण है, इसलिए समस्त संयतों के अवधिज्ञान नहीं होता है, किन्तु कुछ के ही होता है ।
शंका का समाधान - यदि ऐसा है तो यहाँ पर भी ऐसा ही मान लेना चाहिए कि असंयत सम्यग्दृष्टि तिर्यक और मनुष्यों में भी विशिष्ट सम्यक्त्व ही अवधिज्ञान की उत्पत्ति का कारण है । इसलिए सभी सम्यग्दृष्टि तिच और मनुष्यों में अवधिज्ञान नहीं होता, किन्तु कुछ के ही होता है ।
शङ्का - औपमिक, क्षायिक र क्षायोपशमिक इन तीनों ही प्रकार के विशेष सम्यग्दर्शन में अवधिज्ञान की उत्पत्ति में व्यभिचार देखा जाता है। इसलिए सम्यग्दर्शन विशेष प्रवधिज्ञान की उत्पत्ति का कारण है, यह नहीं कहा जा सकता है । *
१. धवल पु १. पृ.३६२-३६३ । २. "प्राभिरियाण सुदखाणं ओहियागमसंजदसम्माइट्रियम्पदृष्टि जाय खी एका वीर गछदुमत्या ति ॥१२०॥ [ धवल पु. १ पृ. ३६४ ] । ३. धवल पु. १ पृ. ३६५ | ४. धवल पु. १ पृ. ३६५ ।
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७४६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६८७ ६८८
प्रतिशङ्का यदि ऐसा है तो संगम में भी
दोपस्थापना परिहारविशुद्धि सूक्ष्मसाम्पराय और यथास्यात इन पांच प्रकार के विशेषसंयमों के साथ और देशबिरति के साथ भी अवधिज्ञान की उत्पत्ति का व्यभिचार देखा जाता है, इसलिए अवधिज्ञान की उत्पत्ति संयमविशेष के निमित्त से होती है। यह भी तो नहीं कह सकते हैं, क्योंकि सम्यग्दर्शन और संयम इन दोनों को अवधिज्ञान की उत्पत्ति में निमित्त मानने पर आक्षेप और परिहार समान है ।
प्रतिशङ्का का समाधान - प्रसंख्यात लोकप्रमाण संयमरूप परिणामों में कितने ही विशेष जाति के परिणाम अवधिज्ञान की उत्पत्ति के कारण होते हैं, इसलिए पूर्वोक्त दोष नहीं प्राता है।
शङ्का का समाधान- यदि ऐसा है तो असंख्यात लोकप्रमाा सम्यग्दर्शन रूप परिणामों दूसरे सहकारी कारणों की अपेक्षा से युक्त होते हुए कितने ही विशेष जाति के सम्यक्त्वरूप परिणाम प्रवविज्ञान की उत्पत्ति में कारण हो जाते हैं। यह बात निश्चित हो जाती है ।"
मन:पर्ययजानी जीव प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय वीतराग-द्यस्थ गुरणस्थान नक होते हैं ।। १२१ ॥ ३
शङ्का - देशविरत प्रादि नीचे के गुणस्थानवर्ती जीवों के मन:पर्ययज्ञान क्यों नहीं होता ? समाधान- नहीं, क्योंकि संयमासंयम और संयम के साथ मन:पर्ययजान की उत्पत्ति का
विरोध है ।
शङ्क। -- यदि संगममात्र मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति का कारण है तो समरन संग्रामियों के क्यों नहीं होता ?
समाधान यदि केवल संयम हो मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति का कारण होता तो ऐसा भी होता. किन्तु मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति के अन्य भी कारण हैं, इसलिए उन दूसरे हेतु क न रहने से समस्त संयतों के मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता है ।
शङ्का - वे दूसरे कौन से कारण हैं ?
समाधान विशेष जाति के द्रव्य, क्षेत्र और कालादि ग्रन्य कारणा हैं, जिनके बिना भो संयमियों के मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता है ।
केवलज्ञानी जीव सयोगिकेवली, योगिकेवली और सिद्ध इन तीन स्थानों में होते हैं ।। १२२ ।
शङ्का - प्ररिहन्त परमेष्ठी के केवलज्ञान नहीं है, क्योंकि वहाँ पर नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए मन का सद्भाव पाया जाता है ?
१. धवल पु. १ पृ. ३६६ १ २. मज्जागी गमत्तमंजद पहुईि जाव ति ॥ १२१ ॥ । [ यल पु. १ ३६६ ] । ३. धवल पु. १ पृ. ३६६-३६७ । जोगिवली अजोगिदी सिद्धा चेदि ।। १२२॥ श्रवल पु. १ पृ. २६७ ] 1
स्वीकाय वीरामस्था ४. “नि लासु
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गाथा ६८६-६६०
अन्त वि/७४७
समाधान-नहीं, क्योंकि जिनके सम्पूर्ण प्रावरण कर्मनाश को प्राप्त हो गये है, ऐसे अरिहन्त परमेष्ठी के ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम नहीं पाया जाता है, इसलिए क्षयोपशम के कार्य रूप मन भी उनके नहीं है। उसी प्रकार बीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई शक्ति की अपेक्षा वहाँ पर मन का सदभाव नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि जिनके वीर्यान्त राय कर्म का क्षय पाया जाता है, ऐसे जीव के वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई शक्ति का सद्भाव मानने में विरोध प्राता है।'
शंका-फिर अरिहन्त परमेष्ठी को सयोगी कैसे माना जाय ?
समाधान नहीं, क्योंकि प्रथम (सत्य) और चतुर्थ (अनुभय) भाषा की उत्पत्ति के निमित्तभूत प्रात्मप्रदेशों का परिस्पन्द वहां पर पाया जाता है, इसलिए इस अपेक्षा से अरिहन्त परमेष्ठी के सयोगी होने में कोई विरोध नहीं पाता।
शङ्का-अरिहन्त परमेष्ठी के मन का अभाव होने पर मन के कार्यरूप वचन का सदभाव भी नहीं पाया जा सकता है ।
समाधान-नहीं, क्योंकि वचन ज्ञान के कार्य हैं, मन के नहीं।
शङ्कर-प्रक्रम ज्ञान से ऋमिक वचनों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ?
समाधान-नहीं, पयोंकि घटविषयक अक्रम ज्ञान से युक्त कुम्भकार द्वारा क्रम से घट की उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए अक्रमवर्ती ज्ञान से कमिक वचनों की उत्पत्ति मान लेने में कोई विरोध नहीं पाता है।
शङ्खा-सयोगिकेवली के मनोयोग का अभाव मानने पर, सत्य मनोयोग असत्यम्पा मनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली तक होता है गाथा के इस वाक्य से विरोध पाजायेगा?
समाधान नहीं, मन के कार्य रूप सत्य और अनुभय भाषा के सद्भाव की अपेक्षा उपचार से मन के सद्भात्र मान लेने में कोई विरोध नहीं पाता है । अथवा, जीवप्रदेशों के परिस्पन्द के कारणरूप मनोवर्गणारूप नोकर्म से उत्पन्न हुई शक्ति के अस्तित्व की अपेक्षा सयोगिकेवली में मन का सद्भाव पाया जाता है, ऐसा मान लेने में भी कोई विरोध नहीं पाता है।
संयममार्गरण। मे मुणस्थानों का कथन प्रयदोत्ति हु अविरमणं देसे देसो पमत्त इदरे य । परिहारो सामाइयछेदो छट्ठादि थूलोत्ति ॥६८६।। सुहमो सुहमकसाये संते खीणे जिणे जहक्खादं । संजममग्गरण मेवा सिद्ध रणस्थिति गिट्ठि ॥६६०।।
१. धवल पु.१ पृ. ३६.७ ।
२. धवल पु. १ पृ. ३६८ ।
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७४८/गो. सा, जीवकाण्ड
गाया ६८६-६६०
गायार्थ-अविरत में चार गुणस्थान होते हैं । देशसंयत में पांचयाँ गुणस्थान होता है। परिहारविशुद्धिसंयम में प्रमत्त व अप्रमत्त संयत ये दो गुरास्थान होते हैं । सामायिक व छेदोपस्थापना संयम में छठे मुरास्थान से लेकर बादर साम्पराय नौवें गुणस्थान तक होते हैं॥६८६।। सूक्ष्म साम्पराय संयम में सूक्ष्म कषाय नामक दसवाँ गुरणस्थान होता है। उपशान्त कषाय, क्षीणकषाय तथा सयोगकेवली व अयोगकेवल इन दो जिलों में प्रथा वाद चारित्र होता है अर्थात् यथारूयात चारित्र में उक्त चार गुणस्थान होते हैं । सिद्धों में संयममार्गणा का कोई भेद नहीं होता ।। ६६ ० ।।
विशेषार्थ .. सामायिक व छेदोपस्थापना शुद्धि संयम में प्रमत्त संयत से लेकर अनिवृनिकरण गुणस्थान तक होते हैं ।।१२।।' परिहार-शुद्धि-संयत प्रमत्त व अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों में होने हैं ।।१२६॥
शंका-ऊपर के प्राट्वें ग्रादि गुरणस्थानों में यह संयम क्यों नहीं होता है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि जिनकी आत्माएँ ध्यानरूपी अमृत के सागर में निमग्न हैं, जो वचन-यम (मौन) का पालन करते हैं और जिन्होंने आने-जाने रूप व्यापार को संकुचित कर लिया है ऐसे जीवों के शुभाशुभ क्रियाओं का परिहार बन ही नहीं सकता, क्योंकि गमनागमन प्रादि क्रियानों में प्रवृत्ति करने वाला ही परिहार कर सकता है, प्रवृत्ति नहीं करने वाला नहीं। इसलिए ऊपर के पाठवें आदि ध्यान अवस्था को प्राप्त अष्टम आदि गुणस्थानों में परिहार-शुद्धि-संयम नहीं बन सकता है।
शंका-परिहार-शुद्धि-संयम क्या एक यम रूप है या पाँच यम रूप है ? यदि एक ग्रम रूप है तो उसका सामायिक में अन्तर्भाव होना चाहिए और यदि पांच यम रूप है तो उसका इछेदोपस्थापना में अन्तर्भाव होना चाहिए । संयम को धारण करने वाले पुरुष के द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक नय की अपेक्षा इन दोनों संयमों से भिन्न तीसरे संयम की सम्भावना तो है नहीं, इसलिए परिहार-शुद्धि-संयम नहीं बन सकता?
समाधान-नहीं, क्योंकि परिहार ऋद्धिरूप अतिशय की अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापना से परिहार-शुद्धि संयम का कथंचित् भेद हैं ।
शंका --मामायिक और छेदोपस्थापना अवस्था का त्याग न करते हुए ही परिहार ऋद्धिरूप पर्याय से यह जीव परिगत होता है, इसलिए सामायिक-छेदोपस्थापना से भिन्न यह संयम नहीं हो सकता है।
समाधान- नहीं, क्योंकि पहले अविद्यमान परन्तु पीछे से उत्पन्न हुई परिहार ऋद्धि की अपेक्षा उन दोनों संयमों से इसका भेन्द्र है, अतः यह बात निश्चित हो जाती है कि सामायिक और छेदोपस्थापना से परिहार-शुद्धि-संयम भिन्न है ।
१. "मामाइय-च्छेदो बटुावण-मुद्धि-संजदा पमत्तसं जद-प्पहुडि जाव प्रणिय ष्टि सि ।।१२५।।" [ घ. पु.१ पृ. ३७४ ।। २. "परिहार-सृद्धि-संजदा दासु नागरा, पमत्तसंजाद टाणे अपमत्तमजद-ट्टाणे ।। १२६।।' धबन पृ. १ पृ. ३७५]। ३. पवल पु. १ पृ. ३७५ ।
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गामा ६८६-६६०
अन्तर्भाव / ७४६
शङ्का - परिहारऋद्धि की धागे के आठवें यादि गुणस्थानों में भी सत्ता पाई जाती है, अतएव हाँ पर इस संयम का सद्भाव मान लेना चाहिए ?
समाधान नहीं, यद्यपि आठवें आदि गुणस्थानों में परिहार ऋद्धि पाई जानी है, परन्तु वहाँ पर परिहार करने रूप उसका कार्य नहीं पाया जाता, इसलिए आठवें आदि गुणस्थानों में परिहारशुद्धि संयम का प्रभाव कहा पर है।
सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयम में एक सूक्ष्ममाम्पराय शुद्धिसंयत गुणस्थान ही होता है ।। १२७ ।। २
शङ्का – सूक्ष्मसाम्परायसंयम क्या एक यमरूप है अथवा पाँच यमरूप है ? इनमें से यदि एक यमरूप है तो पंत्रयम रूप छेदोपस्थापना संयम से मुक्ति अथवा उपशमश्रेणी का आरोहण नहीं बन सकता, क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान की प्राप्ति के बिना मुक्ति की प्राप्ति और उपशमश्रेणी का आरोहण नहीं बन सकेगा ? यदि सुक्ष्मसाम्पराय पाँच यमरूप है तो एक यमरूप सामायिक संयम को धारण करनेवाले जीवों के पूर्वोक्त दोनों दोष प्राप्त होते हैं ? यदि सूक्ष्मसाम्पराय को उभययमरूप मानते हैं तो एक यम और पाँच यम के भेद से सूक्ष्मसाम्पराय के दो भेद हो जाते हैं ?
समाधान आदि के दो विकल्प तो ठीक नहीं हैं, क्योंकि वैसा हमने माना नहीं है । इसी प्रकार तीसरे विकल्प में दिया गया दोष भी सम्भव नहीं है, क्योंकि पंच यम और एक यम के भेद से संगम में कोई भेद ही सम्भव नहीं है । यदि एक यम और पंच-यम संयम के न्यूनाधिक भाव के कारण होते तो संयम में भेद भी हो जाता । परन्तु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि संयम के प्रति दोनों में कोई विशेषता नहीं है। अतः सूक्ष्मसाम्पराय के उन दोनों की अपेक्षा दो भेद नहीं हो जाते हैं ।
शङ्का -- जबकि उन दोनों की अपेक्षा संग्रम के दो भेद नहीं हो सकते हैं तो पांच प्रकार के संयम का उपदेश कैसे बन सकता है ?
समाधान-यदि पाँच प्रकार का संयम घटित नहीं होता है तो मत होमो |
शङ्का - तो संयम कितने प्रकार का है ?
समाधान संयम चार प्रकार का है, क्योंकि पाँचवाँ संगम पाया ही नहीं जाता । ३ क्षीणकषाय- वीतराग छद्मस्थ,
यथाख्यात शुद्धि-संगत में उपशान्तकपाय वीतराग छद्यस्थ रायोगिकेवली और अयोगिकेवली ये चार गुणस्थान होते हैं ।। १२८
संवतासंयत नामक संयम में एकदेशविरत ग्रर्थात् संयमासंयम गुमास्थान होता है ।। १२६
१. धवल पु. १ पृ. ३७६ २. "हुम सांवराइय- सुद्धि-संजदा एक्कम्मि चैव सुम-सराय-सुद्धि-संजद-दाणे ।।१२।।" [घवल पु. १ प्र. ३७६ । । ३. घवल पु. १ पृ. ३७६-३७७ । ४. "जाबाद- विहार सुद्धि मंजदा चदुमुदाणे ज्वसंत कापीमा खीगुरुमाय- वीयराय-मत्था सजोगिकेवली अजांगिकेवली ति ।। १२६ ।। " [ धवल पु. १ पृ. २७३ ।। ५. "सजदा सजदा एककम्मिचेय संजदासंजद द्वारणे ।। १२६ ।। " [ धवल पु. १ पृ. ३७८ ] ।
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७५० गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६६१ असंयत में एकेन्द्रिय (मिथ्याष्टि) से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते है ।।१३।।
शंका-कितने ही मिथ्यादृष्टि जीब संयत देखे जाते हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती। शङ्का-सिद्ध जीवों के कौनसा संयम होता है ?
समाधान-(संयममार्गणा में से) एक भी संयम नहीं होता है। उनके बुद्धिपूर्वक निवत्ति का अभाव होने से वे संयत नहीं हैं, संयतासंयत नहीं हैं और असंयत भी नहीं हैं, क्योंकि उनके सम्पूर्ण पाप-क्रियाएँ नष्ट हो चुकी हैं । २ विषयों में दो प्रकार के असंयम अर्थात् इन्द्रियासंयम और प्राणिवध रूप से प्रवृत्ति न होने के कारण सिद्ध असंयत नहीं हैं। इसी तरह सिद्ध संयत भी नहीं हैं, क्योंकि प्रवृत्तिपूर्वक उनमें विषयनिरोध का अभाव है । तदनुसार संयम और असंयम इन दोनों के संयोग से उत्पन्न संयमासंयम का भी सिद्धों के प्रभाव है । [धवल पु. ७ पृ. २१]। इस प्रकार संयममार्गणा के सात भेदों का सिद्धों में प्रभाव होने पर भी सिद्धों में चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय हो जाने से क्षायिक चारित्र है, क्योंकि क्षायिक भाब का नाश या प्रभाव नहीं होता।
दर्शनमार्गगा में गुणस्थान चउरक्खथावरविरवसम्माइटी दुखीरगमोहोत्ति । चक्खुपचक्खू प्रोही जिणसिद्ध केवलं होदि ॥६६॥
गाथार्थ - चक्षुर्दर्शन चतुरिन्द्रिय से लेकर क्षीणमोह पर्यन्त होता है। अचक्षुर्दर्शन स्थावरकाय (मिथ्याष्टि) से लेकर क्षीरामोह पर्यन्त होता है । अवधिदर्शन अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षोए।मोह पर्यन्त होता है। केवलदर्शन जिन व सिद्धों में होता है ||६६१।।
विशेषार्थ--चक्षुर्दर्शन में मिथ्यात्व गणस्थान से लेकर क्षीणमोह तक बारह गणस्थान होते हैं। माथा में 'चरिन्द्रिय से लेकर' इन पदों के द्वारा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय इन जीवों का निषेध हो जाता है अर्थात् एकेन्द्रिय से त्रीन्द्रिय जीवों तक चक्षुदर्शन नहीं होता है। चतुरिन्द्रिय जीवों में मात्र एक मिथ्यात्व गणस्थान होता है अतः चतुरिन्द्रिय जीवों से लेकर अर्थात् मिथ्यात्व गणस्थान से लेकर, ऐमा ग्रहण करना चाहिए । चक्षुर्दशन स्थावरकाय से लेकर अर्थात् एकेन्द्रिय (मिथ्यात्व
१. "असं जदा (इदिय प्प डि जाव असंजद सम्माष्टुि त्ति ।। १३०:"[धवल पु. १ पृ. १५८]। २. धवल पु. १ पृ. ३७८ । ३. रा. दा. २१४/७। ४. "च-दसगी वरिदिय-प्पष्ठि जाव खीराकसाय-वीय रायछबुमत्था त्ति ॥१३२।। ५. "अचवदंसगी इंदिय पहरि जान स्वीकसाय-बीयराय दुमत्या नि।।१३३॥"
धवन पु. १ . ३३] । ६. प्रोधि दंसरणी अमंजव सम्माइट्टि-पहुडि जाव रवीगा-कमाय बीमा राय-मृदुमत्था त्ति ॥१३४॥ [धवल पु. १ पृ. ३०४]। ७. केवलदसणी तिमु टाणेसु मजोगिवली अजोगिकदली सिद्धा चेदि ।।१३५।।" [घवल पु. १ पृ. ३८५] ।
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अन्तर्भाव / ७५१
गाथा ६६२-६६३
गुणस्थान) से लेकर होता है, क्योंकि स्थावर काय एकेन्द्रिय व मिध्यादृष्टि होते हैं। प्रचक्षुर्दर्शन में भी मिथ्यात्व से लेकर क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान होते हैं। अवधिदर्शन में असंयत सम्यक्त्व से लेकर क्षीणमोह तक नो गुणस्थान होते हैं । केवलदर्शन में सयोगकेवली प्रयोगकेवली ये दो गुगास्थान और सिद्ध जीव होते हैं ।
श्यामागंगा में गुणस्थानों का कथन
प्रविरदसम्मोति प्रसुहृतियलेस्सा | सुहतिणिस्सा ॥ ६६२ ।।
वरिय सुक्का लेस्सा सजोगिचरिमोत्ति होदि रियमेण । गयजोगिम्मि वि सिद्ध लेस्सा गत्थित्ति सिद्दिट्ठ ।।६६३॥
थावर काय पहूदी सीदो श्रपमत्तो जाव दु
गाथार्थ - अशुभ तीन लेश्या स्थावर काय से लेकर अविरत सम्यष्टि तक होती हैं। तीन शुभ लेश्या संज्ञी से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती हैं, किन्तु शुक्ल लेश्या सयोगकेवली गुगास्थान के अन्त तक होती है। प्रयोगकेवली और सिद्धों में लेश्या नहीं होती ।।६६२ - ६६३ ॥
विशेषार्थ - कृष्णलेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या में स्थावर काय अर्थात् एकेन्द्रिय मे लेकर असंयतसम्यग् गुणस्थान तक होते हैं ।। १३७ ।। ' अर्थात् तीन अशुभ लेश्याओं में आदि के चार गुणस्थान होते हैं ।
शङ्का - चौथे गुणस्थान तक ही आदि की तीन लेण्या क्यों होती हैं ?
समाधान तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्रकषाय के उदय का सद्भाव चौथे गुणस्थान तक ही पाया जाता है, अतः यहाँ तक ही तीन अशुभ लेश्याएँ होती हैं । *
-
पोत और पद्म लेश्या वाले जीव संज्ञो मिध्यादृष्टि से लेकर श्रप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं ।। १३८ || अर्थात् इन दो लेश्याओं में यादि के सात गुणस्थान होते हैं ।
शङ्का - ये दोनों शुभ लेश्याएं सातवें गुणस्थान तक कैसे पाई जाती हैं ?
समाधान- क्योंकि इन लेग्यावाले जीवों के तीव्र प्रादि कषायों का उदय नहीं पाया जाता शुक्ल लेश्या वाले जीव संजी मिध्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली गुणास्थान तक होते हैं । " शंका- जिन जीवों की कषाय क्षीण अथवा उपशान्त हो गई हैं, उन जीवों के शुक्ल लेश्या
१. "किहलेसिया मलेन्सिया काउलेरिसया दिव्यडि जाव असंजदसम्माइदिनि ॥१३७।।" [घवल पु. १ पृ. ३६० ] । २ यवल . १ पृ. ३९१ । ३. "ते उलेसिया पम्मलेसिया सगिमिन्छाइड प्पहूडि जाव द्यप्पमत्तमंजदा त्ति ।।१३।। [चवल पु. १ पृ. ३६१] । मिच्छाइट्टि पहूडि जाव सजोगिकेवलित्ति ॥१३६॥
४. व. पु. १ पृ. ३६१ । ५. " शुक्कलेम्मिया मथिला[बल पु. १ पृ. ३६१] ।
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७५२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६६४-६२५ कसे सम्भव है ?
समाधान नहीं, क्योंकि जिन जीवों की कवाय क्षीण अथवा उपशान्त हो गई हैं, उनमें कमलेप का कारण योग पाया जाता है, इसलिए उनके शुक्ल लेश्या मानने में कोई विरोध नहीं आता !'
तेरहवें गुणस्थान से भागे सभी जीव लेश्यारहित है ।।१४०। शंका-यह कैसे?
समाधान-बयोंकि वहाँ पर बन्ध के कारण भूत योग और कषाय का अभाव है। इस तरह शुक्ल लेपमा में तेरह गगास्थानों का मन करके, पायोगवली और सिद्ध जीवों को लेश्यारहित वतलाया गया।
भव्य मार्गणा में गुणस्थानों का कथन थावरकायप्पहुदी प्रजोगि चरिमोत्ति होंति भवसिद्धा।
मिच्छाइडिट्ठाणे प्रभवसिद्धा हवंति ति ॥६६४।। गाथार्थ- भव्य सिद्ध में स्थावरकाय (मिथ्यात्व गगस्थान) से लेकर अयोगि नामक अन्तिम गुणस्थान तक होते हैं । अभव्य सिद्ध में एक मिथ्यात्व गुणास्थान ही होता है ॥६६४।।
विशेषार्थ - भव्य सिद्ध जीव एकेन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवली गणस्थान तक होते हैं ।।१४२।।। जितने भी जीव ग्राज तक सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए हैं या होंगे वे सब नित्य निगोद से निकले थे या निकलेंगे इसीलिए भव्य जीव स्थावरकाय अथवा एकेन्द्रिय में हमेशा पाये जाते हैं। दूसरे से चौदहवें गुणस्थान तक तो भव्य जीवों के ही होते हैं । स्थावर या एकेन्द्रिय कहने से मिथ्यात्व गुणस्थान का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि एकेन्द्रियों में व स्थाघरों में एक मिथ्यात्व गणस्थान ही होता है।
अभव्य सिद्ध जीव एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी मिथ्वादृष्टि तक होते हैं ।।१४३।।५ अभव्य जीव चौदह जीवसमासों में पाये जाते हैं, किन्तु उनके एक मिथ्यात्व गुगास्थान ही पाया जाता है, क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्व के बिना मिथ्यात्वकम के तीन खण्ड नहीं होते और अभव्य जीवों में सम्यक्त्व प्राप्त करने की शक्ति नहीं है।
मम्मबत्द मार्गणा में गणस्थानों का कथन मिच्छो सासरग-मिस्सो सगसगठाएम्मि होदि प्रयदादो । पढमुवसमवेदगसम्मत्तदुर्ग अप्पमत्तो ति ॥६६५।।
१. धवल पु. १ पृ. ३६१ । २. "तंग परमलेसिया ।।१४०।। | धन पु. १ पृ. ३६२] | ३. प. पु.१ पृ. ३१२ । ४. "भवसिद्धियाइदिय-स्पडि जाव प्रजोगि केलि ति !"।।१४२।। [घाल पु. १ पृ. ३६४] | ५. "प्रभवसिद्धिया एदिय-पहृष्टि जाव समि-मिच्छाइट्टि सि ।।१४३।।" [धवल पु. १ पृ. ३६४] ।
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गाथा ६६६
विधियुवसमसम्मत्तं श्रविरवसम्मादि संतमोहो-ति । खइगंसम्मं च तहा सिद्धोत्ति जिर्णोहि रिगद्दिट्ठ ॥ ६६६ ॥
प्रन्तर्भाव / ७५३
गाथार्थ - मिध्यात्व सासादन और मिश्र में अपना-अपना एक-एक गुणस्थान होता है । प्रथमोपशम सम्यक्त्व में और बेदक (क्षयोपशम ) सम्यक्त्व में असंयत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत सातवें गुणस्थान तक होते हैं ||६६५॥ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व अविरत समयदृष्टि चौथे गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह ग्यारहवें गुणस्थान तक होता है। क्षायिकसम्यक्त्व भी अविरत सम्यग्दष्टि चौथे गुणस्थान से लेकर सिद्धों तक होता है ।। ६६६।।
विशेषार्थ - क्षायिक सम्यष्टि श्रसंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं ||१४५ यद्यपि सिद्धों में भी क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है, किन्तु सिद्ध जीव गुणस्थानातीत हैं इसलिए इस सूत्र में उनको ग्रहण नहीं किया गया। क्षायिक सम्यग्दृष्टि के पर्याप्त काल में कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या होती है । २ क्षायिक सम्यग्दृष्टि मरकर प्रथम नरक में उत्पन्न हो सकता है। प्रथम नरक में कापोत लेश्या है इसलिए अपर्याप्त काल में कापोत लेश्या कही गई है। तीन शुभ लेश्या देवों में उत्पत्ति की अपेक्षा अपर्याप्त काल में क्षायिक सम्यग्दष्टि के होती है । शेष विशेषता भी विचार कर कहनी चाहिए। दूसरो पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकी जीव असंयत सम्यग्दष्टि गुरणस्थान में क्षायिक सम्यग्वष्टि नहीं होते हैं । तिर्यच संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दष्टि नहीं होते ।"
शङ्का - तिर्यंचों में क्षायिक सम्यग्दष्टि जीव संयतासंयत क्यों नहीं होते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि तिर्यंचों में यदि क्षायिक सम्यहष्टि जीव उत्पन्न होते हैं तो वे भोगभूमि में हो उत्पन्न होते हैं, दूसरी जगह नहीं। भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रत की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि वहाँ पर अणुव्रत के होने में आगम से विरोध आता है। योनिनी तियंचों के असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुरणास्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते । भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवों तथा उनकी देत्रियों और सौधर्म व ईशान कल्पवासी देवियों के असंयत सम्यष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता । "
शंका- क्षायिक सम्यग्दर्शन उक्त स्थानों में क्यों नहीं होता ?
दूसरे, जिन जीवों
समाधान- नहीं, क्योंकि वहाँ पर दर्शनमोहनीय का क्षपण नहीं होता है। ने पूर्व पर्याय में दर्शनमोहनीय का क्षय कर दिया है उनकी भवनवासी आदि प्रथम देवों में और सभी देवियों में उत्पत्ति नहीं होती ।" मनुष्पगति में पर्याप्त मनुष्य के पर्याप्त व
पर्याप्त अवस्था में
१.
सम्माडी २. धवल पु. २ पृ. ८११ । ५. धवल पु. १ पृ. ४०२ / पु. १ पृ. ४०६ ।
जम्मा-पडि जाव जोगिकेवलि नि ।। १४५ ।। "
३. धवल पु. १ पृ. ४०१ सूत्र १५५ । ४. धवल . १ पृ. ६. ध. पु. १ पृ. ४०३ सूत्र ९६१ ५. धवन पु. १ पृ. ४०६ मूत्र
पु. १ पृ. ३६६ ] ।
४०२ सूत्र ९५९ ।
१९३ ।
८. धवल
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७५४ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६६६
क्षायिक व क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है किन्तु प्रथमोपशम सम्यक्त्व पर्याप्त अवस्था में हो होता है । मनुष्यिती में क्षायिक, क्षायोपशमिक व औपशमिक ये तीनों सम्यक्त्व पर्याप्त अवस्था में होते हैं, अपर्याप्त अवस्था में नहीं होते। मनुष्यिनियों में क्षायिक सम्यक्त्व भाववेद की अपेक्षा से है । द्रव्यस्त्रियों के क्षाधिक सम्यक्प नहीं हमें सम्यग्वष्ट, संयतासंयत और संगत गुणस्थानों में क्षायिक सम्यग्दष्टि, वेदक सम्यग्दष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं ।
वेदक सम्यग्सष्ट जीव असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर प्रप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं ।। १४६ ।। ३ नरक में वेदक सम्यग्दर्शन पर्याप्त अवस्था में होता है किन्तु प्रथम नरक में कृतकृत्यवेदक पर्याप्त अवस्था में भी होता है। पंचेन्द्रिय संजी पर्याप्त तिर्यंचों में वेदक सम्यग्दर्शन में चौथा व गुगास्थान होता है। किन्तु अपर्याप्त अवस्था में भोगभूमिया पुरुषवेदी तिथंच के कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्व में एक असंपत सम्यग्दृष्टि चौथा गुगास्थान होता है।" मनुष्य गति में मनुष्यों की पर्याप्त व अपर्याप्त अवस्था में वेदक सम्यक्त्व में चौथा गुणस्थान होता है किन्तु पर्याप्त अवस्था में चौथ से सातवें गुणस्थान तक होता है। देवों में भी वेदक सम्यक्त्व में चोथा गुणस्थान होता है । चतुर्थ गुणस्थानवर्ती मनुष्यों के प्रपर्याप्त अवस्था में छहों लेश्यायें होती हैं, कारण यह है कि प्रथम नरक से लेकर छठी पृथिवी तक के असंयत सम्यग्ग्रष्टि नारकी मरण करके मनुष्यों में अपनी-अपनी पृथिवी के योग्य अशुभ लेग्याओं के साथ ही उत्पन्न होते हैं इसलिए तो कृष्ण, नील कापोत लेश्या पाई जाती है, उसी प्रकार असंयतसम्यग्वष्टि देव भी मरण करके मनुष्यों में उत्पन्न होते हुए अपनीअपनी पीत पद्म और शुक्ल लेश्याओं के साथ ही उत्पन्न होते हैं ।
प्रथमोपम सम्यक्त्व में चौथे से सातवें तक चार गुणस्थान होते हैं। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में चौथे से ग्यारहवें तक आठ गुणस्थान होते हैं । वेदक सम्यक्त्व से द्वितीयोपशम सम्यक्त्व होता है । मिथ्यात्व से प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है ।
अनन्तानुबन्धी को मान माया-लोभ,
सम्यक्प्रकृति, सम्यरिमध्यात्व, मिथ्यात्व इन मात प्रकृतियों का संयत सम्यग्दृष्टि से अप्रमत्तसंगत गुणस्थान तक इन चार गुणस्थानों में रहने बाला जीव उष्णम करने वाला होता है । अपने स्वरूप को छोड़कर अन्य प्रकृति रूप से रहना अनन्तानुवन्धी का उपशम है और उदय में नहीं माना ही दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों का उपशम है। इस प्रकार वेदक सम्यमष्टि चौथे गुणस्थान से सातवें गुग्गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में द्वितीयोपणम मम्यग्दृष्टि होकर उपणमश्रेणी चढ़ने के प्रभिमुख
१. "मनुवस्ति पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम् । क्षायिकं पुनर्भाववेदेनेव । इत्र्य वेदस्त्रीगणां तासां नायिकासम्भवात् । " [स.सि. १/७/ २. चंवल पु. १ पृ. ४०५ सूत्र १६४ । ३. धवल पु. १ पृ३६७ सुत्र १४६ । ४. भवल पु. २ पृ. ४५० व ४६४ ०११। ५. धवल पु. २ पु. ४७३ व ११ । ६. “प्रताधिकोष- मान-माया लोभ मम्मत-सम्मामिच्छत मित्तमित्रि एदाओ सत्त पयडीश्रां श्रसंजदसम्माइलि हूडि जाव अप्पमत्तमंदो तिलाब एसु जो वा मो वा उवसामंदि । सएवं खुड्डियां अथग-पर्याडसमताणुबन्धीनामुत्रसमो दंसगतियस्स उदयाभावो उचसमो " [ धवल पु. १ पृ. २१०] "चतुर्थ पचमठ सप्तमेषु गुगास्थानेषु मध्ये श्रन्यतमगुणस्थाने अनन्तानुबन्धि चतुष्कस्य मिध्यात्वप्रकृतित्रयस्य च करपविधान धर्मयात उपशमं कृत्वा उपशमसमष्टिभंवति ।" [स्त्रा.का.अ. गा. ४८४ टीका ] "अनन्तानुबन्धिक्रोध- मान-माया-नोम-सम्यक्त्व-मिध्यात्व-मभ्यमिध्यात्वानीत्येताः सप्तप्रकृती: संतसादिसंयतासंयत-प्रमत्तसंपातादिनां मध्ये कोयेक उपशम्यति [मूलाचार पर्याप्त्यधिकार १२ गा. २०५ टीका ] ।
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I
गोवा ६६७
अन्तर्भाव / ७५५
होता है । उपशमश्रेणी वाले जीव द्वितीयोपथम सम्यक्त्व के साथ मरते हैं और देवों में उत्पन्न होते हैं अतः उनको अपेक्षा अपर्याप्तकाल में द्वितीयोपशम सम्यक्त्व पाया जाता है । अनादि मिथ्यादृष्टि श्रथवा सादि मिथ्यादृष्टि जीव चारों ही गतियों में प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण करने वाले पाये जाते हैं, किन्तु मरण को प्राप्त नहीं होते, क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्व में मरा का अभाव है ।" मनः पर्ययज्ञान के साथ उपशमश्रेणी से उतर कर प्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त हुए जीव के द्वितीयोपशम के साथ मन:पर्यय ज्ञान पाया जाता है। किन्तु मिथ्यात्व से पीछे आये हुए उपथम- सम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत्त जीव मन:पर्ययज्ञान नहीं पाया जाता है, क्योंकि प्रथमोपशम सम्यग्वष्टि के मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति सम्भव नहीं है । उपशम सम्यग्दृष्टि के सौदारिकमिश्र काययोग, प्रहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग और परिहारविशुद्धि संयम भी नहीं होता । 3
२
मिध्यात्व में सादि मिध्यादृष्टि व अनादि मिध्यादृष्टि भी होते हैं। इसका कथन प्रथम गुणस्थान के समान जानना चाहिए, क्योंकि इसमें एक वायुमरपान ही होता है
1
सासादन सम्पष्टि का कथन दूसरे गुणस्थान के अनुसार जानना चाहिए. क्योंकि इसमें एक सासादन नामक दूसरा गुणस्थान ही होता है ।
सम्यग्मिध्यादृष्टि का कथन तीसरे गुणस्थान के अनुसार जानना चाहिए, क्योंकि इसमें एक तीसरा गुणस्थान ही होता है ।
संज्ञीमार्गणा में गुगास्थानों का कथन सारणी सप्हुिदी खोलकसाग्रति होदि यिमे । थावरापद असण्यति हवे असण्णी हु ।।६६७।।
गाथार्थ - संजी जीव नियम से संजी मिध्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त होते हैं। स्थावरकाय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक असंज्ञो जीव होते हैं ।। ६६७ ।।
पं. रतनचन्दजी मुख्तार (सहारनपुर) कृन गोम्मटसार जीव काण्ड की प्रस्तुत टीका यही तक उपलब्ध है । क्रूर काल का ग्रास हो जाने के कारण वे अन्तिम ३८ गाथाओं को भापाटीका न लिख सके। इन गायानों की भाषाटीका स्व. मुख्तार सा. के सुयोग्य शिष्य वर्तमान में करणानुयोग के अप्रतिम विद्वान् युवा पण्डित जवाहरलाल जी जैन सिद्धान्तशास्त्री (भीण्डर) ने लिखी है। सं.
।। ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभवे नमः ॥ प्रणमामि सुनार्वेशमनन्तश्च मुनीश्वरान् । जिनवाणी तथा वन्दे सर्वलोकोपकारिणीम् ॥१॥ इति प्ररणत्य सम्भवन्या सर्वजीवहिताय वै । टीकाsयथाशक्ति सम्पूर्णीक्रियते मया ||२||
अथ अवशिष्टटीका प्रारभ्यते
गाथा ६६७ का विशेषार्थ - यहाँ यह बताया जा रहा है कि संज्ञी मार्गणा में कितने गुणस्थान
शव हैं । सो संज्ञी मार्गणा में संज्ञी व असंज्ञी दोनों गर्भित हैं । खण्डागम
I
'कहा भी है कि संज्ञी पृ.४३० व गो. जी. मा ७३० । २. धवल पु. २ पृ. ८२२ । १. घचल पु. २ पृ. ६१८ ।
१. धवल पु. २
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७५६ / गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा ६६८
मार्गरा के अनुवाद से संजी व असंज्ञी जीव होते हैं।" यानी समनस्क और अमनस्क इन दो भेद रूप संज्ञी मार्गेणा है । श्रतः संज्ञी मार्गणा विषयक इस गाथा में दोनों का कथन किया गया है। (ऐसे सर्वत्र जानना ।) वहाँ संज्ञी जीव तो प्रथम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक होते हैं । तथा जो जीव नियम से प्रथम गुरणस्थान में ही होते हैं। पूज्यपादाचार्य ने कहा भी है कि संजी में मात्र एक मिध्यादृष्टि गुणस्थान होता है । अतः असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक, जहाँ तक कि असंज्ञी होते हैं, गुणस्थान भी मिथ्यात्व नामक हो होता है ।
आहारमार्गणा में शुद्ध का
थावर काय पहुदी सजोगिचरिमोत्ति होदि श्राहारी । कम्मइय प्रणाहारी अजोगिसिद्ध वि पायथ्यो ||६६८||
गायार्थ-स्थावर काय से लेकर सयोगी गुणस्थान पर्यन्त ग्राहारक होते हैं। कार्मणका योग वाले तथा प्रयोगी व सिद्ध श्रनाहारक होते हैं ॥ ६६८ ॥
विशेषार्थ -- यहाँ श्राहारमार्गणा में गुणस्थान बताये हैं । ग्राहारमार्गणा के दो भेद हैं (१) आहारक ( २ ) नाहारक । सो स्थावर काय (एकेन्द्रिय) मिथ्यात्वी से लेकर तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगीपर्यन्त जीव श्राहारक होते हैं। * तथा कार्मण काययोगी जीव, अयोगी केवली भगवान तथा सकल सिद्ध अनाहारक होते हैं ।
शंका- किस-किस गुणस्थान में अनाहारक होते हैं ?
समाधान - ( १ ) मिथ्यादृष्टि (२) सासादन ( ३ ) असंयत सम्यग्वटि ( ४ ) सयोगकेवली ( इन चार में कार्मणयोग सम्भव होने से ) तथा ( ५ ) प्रयोगकेवली; इन पाँच गुणस्थानों में जीव अनाहारक होते हैं, अन्य गुणस्थानों में आहारक ही होते हैं ।
शंका-काकाययोगस्थ जीवों के कार्मणकाययोगी अवस्था में भी कर्म के ग्रहण का अस्तित्व तो है, तो इस अपेक्षा से कार्मण काययोगी जीवों को ग्राहारक क्यों नहीं कह दिया जाता ताकि अनाहारक फिर प्रयोगी व सिद्ध ही होवें ?
समाधान - उन्हें ग्राहारक नहीं कहा जाता है, क्योंकि कार्मणकाययोग के समय नोकवर्गणात्रों के चाहार का अधिक से अधिक तीन समय तक विरह काल पाया जाता है। सारतः कार्मरणकाययोगी जीवों के अनाहारकत्व का कारण उनके नोकवर्गणाओं के ग्रहण का अभाव है।
२. सुगी मिच्छा इट्रिप्पनडि १. सवियात्रा प्रत्थि मणी अमपी || १७२|| जीवस्थान, षट्खण्डागम । जाव खोग्नकसाय वीयराम छदुमत्था ति ।।१७३१४ जीवस्थान षट्वं सर्वाशि १ | ३. असंजिपु एकमेव मिध्यादृष्टिस्थानम् । स. सि. १/८ . २/५८६ नवी संस्क। एवं पट्कं. १ / १७४ । ४. ग्राहाराणुवादेण श्राहारीं मण्णुमा अलि तेरहगुगादशाि श्रवला घु. २/८३६, स. सि. १/८ प्रकरगा ४४ / १.२४ । ५. प्रणाहाराचमुठाणेसु विग्गगह समावण्या, केवलों वा समुपाददाम जोगिकेवली सिद्धा चेदि ॥ १७७॥ श्रा जीवस्थान | प्रा. प. संग्रह १/१७७ ; म. सि. १/८/४४: संस्कृत पं.संग्रह १ / ३२४ ध. पु. १/४/२१ ष. पु. २ पृ. ८५०, ०५१ धवल पु. १ पृ. १५४ एवं गो. जी. ६६६ । पु. २॥ पत्र ६७० गाहारिणो, लोकम्मगहरणाभावादो |
६. धवल
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गाथा ६९६-७००
अन्तर्भाव/३५७
गुगणस्थानों में जीवम मामा का कथन मिच्छे चोद्दस जीवा सासरण-अयदे पमत्तविरदे य ।
सण्णिदुर्ग सेसगुणे सरणीपुण्णो दु खीणोति ॥६६६।' गाथार्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान में सभी चौदह जीवसमास हैं । मासादन, असंयत व प्रमत्तसंयत्त इन गुणस्थानों में संजीपर्याप्त और संत्री अपर्याप्त ये दो जीवसमास होते हैं। तथा वारहवें गुणस्थान पर्यन्त के अवशिष्ट गुणस्थानों में मात्र एक संनी पर्याप्त जीवसमाम होता है। गाथा के पूर्वार्धस्थ 'य' से यानी 'व' से जाना जाता है कि सयोगकेवली में भी दो जीवसमास होते हैं- संज्ञी पर्याप्त व संजीमाप्ति । तथा गाथा के उत्तरार्धस्थ 'दु' (संस्कृत 'तु') शब्द से जाना जाता है कि अयोगके बन्नी में एक संज्ञी पर्याप्त ही जीवसमास होता है ।। ६६६।।
मार्ग गानों में जीतरामासों का कथन तिरियगदीए चोद्दस हवंति सेसेसु जारण वोदो दु ।
मगरहयारणस्से सेवाणि समासठाणाणि ।।७००।। गाथार्थ-- तिर्यच गति में १८ जीबसमास होते हैं, परन्तु अवशिष्ट गति नरकगति, मनुष्यगति व देवगति, इन तीन गतियों में मात्र मंजीपर्याप्त व संज्ञी अपर्याप्त-ये दो ही जीवसमास होते हैं । इस प्रकार यथायोग्य पूर्वकथित कम से समस्त मार्गणामों में जीवसमास जानने त्राहिए ।।७००।।
विशेषार्थ ---जातिमार्गणा में एकेन्द्रिय जाति में एकेन्द्रिय सम्बन्धी ४ जीवसमास होते हैं (बादर, सूक्ष्म व इनके पर्याप्त व अपर्याप्त)।४ द्वीन्द्रिय जाति में द्वीन्द्रिय सम्बन्धी दो जीवसमास होते हैं।" त्रीन्द्रियजाति में त्रीन्द्रिय सम्बन्धी दो (त्रीन्द्रिय पर्याप्त व श्रीन्द्रिय अपर्याप्त, ऐसे सर्वत्र लगाना) जीवसमास होते हैं। चतुरिन्द्रिय जाति में स्वमम्बन्धी दो जीवममास होते हैं। पंचेन्द्रिय जाति ४ (संज्ञी व असंजी पंचेन्द्रिय । प्रत्येक के पर्याप्त व अपर्याप्त ऐसे ४) जीवसमास होते हैं।
कायमार्गणा में त्रसकाय में १० जीबममाम होते हैं।' (हीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय असंज्ञी व संज्ञी---ये कुल पाँच । इन सबके पर्याप्त व अपर्याप्त, ऐसे कुल दस हुए ।) स्थावरकाय में चार जीवसमास होते हैं। एकेन्द्रिय सूक्ष्म व बादर नथा दोनों के पर्याप्त व अपर्याप्त-ऐसे ४) पांचों स्थावरकायों में से प्रत्येक में यह लगाना चाहिए ।
__ योगमार्गणा में मनोयोग में एक मात्र संजोगति जीवसमास है । बचनयोग में हीन्द्रिय से लेकर सैनी नक के पर्याप्तावस्था में सम्भव जीवसमास यानी ५ जीबसमास होते हैं।" (असत्यमृषा को छोड़कर अन्य बननयोगों में मात्र संजी पर्याप्तक जीवसमास है, इतना विशेष है।
१. प्रा.प.सं. ४।२६ पृ. ८६। २. प.पू. २ पत्र ४४४ यथा-मजोगिके बलीरण भण्यामाग अधि दो जीवममासा....... | ३. प्रजोगिवे वलीण भागामागो गो जीवरामामा........ध.पू. २ पत्र ४९हन ४५० यादि। ४. घ. पु. २।५-१। ५. प. पु. २।५७७, प्रा. पं. सं. गा. ६ पृ. ८२। ६. घ. पु. ६।५८१: प्रा. पं. सं. ४।६।२। ७. श्र. पु. २।१८१प्रा. पं. म. ४ २ ८. घ. पु. २१५८३ प्रा. प. सं. ४TE२ । ६. प. पु. २ पृ. ६२२ व प्रा. पं. सं. ४।१०८२ । १५. घ. पृ. २ पृ. ६३० मे ६३५ । ११. ध. पु. २ पृ. ६३५ ।
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७५८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ७०० काययोग में सभी जीवसमास होते हैं ।। प्रौदारिक काययोग में ७ पर्याप्त जीवसमास व प्रो० मिथ में ७ अपर्याप्त जीवसमास होते हैं। वैक्रियिक काययोग में संजी पर्याप्त एक जीवसमास व उसके मिश्र में संज्ञी अपर्याप्त एक ही जीबसमास है। वैकियिक योगवत् साहारकयोग और वैत्रिपिकमिश्रवत आहारकमिश्र में जीबसमास जानना । कामरा योग में भी अपर्या. जीवसमास हैं।
_वेवमार्गरणा में स्त्रीवेद में जीवममास होते हैं- संज्ञी पर्याप्त, संज्ञी अपर्याप्त एवं असंजीपनेन्द्रिय पर्याप्त व असंजी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त । पुरुषवेद में भी उपयुक्तवत् ४ जीवसमास होते हैं। पर नमक वेद में १४ ही जीवसमास सम्भव हैं।
कषायमार्गणा में क्रोध कषाय में (या सामान्य से ) श्रोधकषायी जीवों के १४ ही जीवसमास होते हैं। अन्य कषाय में भी क्रोधकपाय बत् मभी जीवन मास होते हैं।''
ज्ञानमार्गणा में मस्तिथतप्रज्ञान में मामान्य से १४ जीवसमास, विभंग ज्ञान में संज्ञी पर्यापनएक जीवसमास, मतिश्रुतज्ञान में संज्ञी पर्याप्त व अपर्याप्त ये दो जीवसमास, मनःपर्यय ज्ञान में मात्र एक संजीपर्याप्त जीवसमास तथा केवलज्ञान में संज्ञीपर्याप्त जीवसमास व संज्ञीअपर्याप्त जीवसमास ये दो हैं अथवा एकपर्याप्त जीबसमास (अयोगी की अपेक्षा) तथा प्रतीत जीवसमास (सिद्धों की अपेक्षा) भी है।
संयममार्गणा में सामान्यत: संयम में संज्ञी पर्याप्त व संज्ञी अपर्याप्त ये दो ही जीवसमास सम्भव हैं (विशेषापेक्षया प्रमत्तसंयत के दोनों, परन्तु अप्रमत्त के संज्ञीपर्याप्त नामक एक जीवसमास सम्भव है) । सामायिक व छेदोपस्थापना संयम में दोनों, परिहारविशुद्धि संयम में एक (संज्ञीपर्याप्त ही) तथा सूक्ष्मसाम्परायसंयम में एक संज्ञीपर्याप्त जीवसमास तथा यथाख्यात शुद्धिसंयम (अथवा प्रथाख्यातशुद्धिसंयम) में दो जीवसमास हैं (संज्ञीपर्याप्त व संजीअपर्याप्त) । असंयत जीवों के १४ जीवसमास सम्भव हैं। संयतासंयतों के भी एक संजीपर्याप्त जीवसमास है।
वर्शनमार्गरणा में चक्षुर्दर्शनी के यानी चक्षुर्दर्शन में सामान्यतः ६ जीवसमास होते हैंचतुरिन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त २ तथा पंचेन्द्रिय संजीव असंज्ञी तथा इनके पर्याप्त व अपयप्ति ४ ऐसे कूल २+४-६हए। अपर्याप्तकाल में भी चक्षदर्शन के क्षयोपशम का सदभाव होने से, अथवा
या ६ जीवसमास हैं,गोसा समझना। अचक्षदर्शन मेंसा मान्यतः १४ ही जीवसमास होते हैं।" अवधिदर्शन में दो जीवसमास होते हैं (संज्ञी संबंधी) । तथा केबलदर्शन में केवलज्ञानवत् जानो। यानी संजीपति व अपर्याप्त ये दो।
लेश्यामार्गणा में अशुभत्रय लेण्या में सामान्यत: १४ ही जीवसमास होते हैं । १२ शुभलेश्याओं
१. ध. पृ. २ पृ. ६३८; प्रा. पं. म. ४।११५८३ । २. घ. पृ २ पृ. ६६६ परन्तु प्राकृतपम्चसंग्रहान्थे चौदारिकभिश्रयोगे कामकाययोगे च प्रष्ट जीवसमासा: दणिताः । प्रा.पं. सं. १।४ ग. १२ पृष्ठ ८३ । ३. प. पू. २ पृ. ६७४; प्रा. पं. सं. ४।१४। पृ. ८३ ४ . . पु. २ पृ. २६५ प्रा. पं. सं. ४।११।८३ । ५. घ. पू.२पू ६८६, प्रा. पं. सं. १११८८३ । ६. घ. पु. २ पृ. ७०१। ७. ध. पू. २१७१३ । ८. घ.२/७३२७४० एवं प्रा. पं. सं. ४/१६/८४1 . घ. २/४३६ एवं प्रा. पं. सं. ४/१६/८४ | ३. ध.२/७४०। १०.ध. 10४४ । ११. प्र. २/७५१ प्रा. ५. सं. ४/१७/४ । १२. ध २/७५०-७६६ एवं पं. स./१८/८४-५ । पर्याप्तकालेऽपि वक्ष रंजनस्य क्षयोपशममदभावात शक्त्यपेक्षया वा पइया जीपममामा भनन्ति । 1 सं. मानक गा.१७ टीका ।
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गाथा ७०१
ग्रन्तर्भाव / ७५६
में तेजोलेश्यावाले के संजीपर्याप्त व संजीपर्याप्त ये दो जीवसमास होते हैं।' क्योंकि पंचेन्द्रिय अवशिष्ट शुभलेश्य में भी मात्र संजोपर्याप्ति व संजी
संजी के लेश्या अशुभ ही होते हैं पर्याप्त ये दो जीवममाग होते हैं।
भव्यमाणा में भव्य व भव्य दोनों में १४ जीवसमास होते हैं। सम्यक्त्वमार्गरण में सभ्यष्ट के पर्याप्त अपर्याप्त ये दो जीवसनाम होते हैं | तथा अतीत जीवसमास हैं। तथा विशेष यह कि ऐसा सर्वत्र ( मार्गणा में ) लगा लेना चाहिए पर यथासम्भव | |
''
ये ही जोवसमास क्षामित्व में होते हैं। वेदक सम्यक्वी व उपशमसम्यक्त्री में भी ये ही दो जानने चाहिए। मिथ्याष्टि के १४ जीवसमास व सासादन के दो' जीवसभास होते हैं । यह भगवान वीरसेनाचार्य आदि का मत है, परन्तु पञ्चसंग्रहकार आदि के मतानुसार सातों अपर्याप्त व संज्ञी पर्याप्त इन जीवसमासों में सासादनसम्यक्त्व सम्भव है। सम्यग्मिथ्यात्व के मात्र संज्ञीपर्याप्त जीवसमास होता है।
संज्ञीमागंणा में संज्ञी में तत्सम्बन्धी वो जीवसमास (स (संजी पर्याप्त व अपर्याप्त ) तथा संज्ञी में भी प्रसंज़ी सम्बन्धी १२ जीवममास होते हैं। (संजी सम्बन्धी को को छोड़कर बाकी के १२) |
ग्राहारमार्गणा में आहारक के सभी १४ जीवसमास होते हैं तथा अनाहारक के अपर्याप्त ७ व योगी का संज्ञी पर्याप्त सम्बन्धी १. ऐसे व जीवसमास हैं।" व अतीत जीवसमास भी।
गुणस्थानों में पर्याप्ति और प्राण
पज्जत्ती पारणावि य सुगमा भाविदियं रंग जोगिहि |
तहिं वाचुस्सासाउगकायत्तिगबुगमजोगिरणो प्राऊ ॥७०१ ॥ *
गाथार्थ पर्याप्त और प्राण सुगम हैं। सयोगकेवली में भावेन्द्रिय नहीं है। सो वहाँ ४ प्रा होते हैं - वचन, श्वासोच्छ्वास आयु और कायवल अथवा यहाँ तीन व दो प्राण भी होते हैं । अयोगी के मात्र ग्रायुप्राग़ा होता है ॥७०१३ ॥
विशेषार्थ - वारहवें गुगास्थान तक सब पर्याप्ति व सब प्राण होते हैं । सयोगी के द्रव्य-इन्द्रियों की दृष्टि ( अपेक्षा) से छह पर्याप्तियाँ हैं और उपयुक्त ४ प्राण पाँच इन्द्रियप्राण व १ मनःप्राण, ये कुल ६ प्राण यहाँ नहीं हैं। इस प्रकार सयोगकेवली के इन ४ प्रारणों में मे वचनयोग के विश्रान्त हो जाने पर तीन प्राण ही रहते हैं तथा फिर उच्छवास निश्वास की विधारित होने पर दो प्राण रहते
३. घ. २ / ००१००३ प्रा. पं सं. शतक
१. च. २/७३६ व पं सं. ४ /१८/८५ | २. घ. २/५८६ ५६० । ५. वीरमेनाचार्य : नेमिचन्द्राचार्य गो. जी. ६९६
८५ / गा. १८ । ४. ध. २०४३० एवं गो. जी. ६६६ ।
म.पं.सं.
इत्यादीनाम् इति । ४/२०१८६ |
६. पं. संग्रह ४।१६।०५। ७. व. २१४३२ व पं. सं ४।१६।८४-७५ | ६. प्रा. पं सं. 1 शतक ४, सा. २० १.८६ ॥
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७६०/ गो. सा. जीवकाण्ड
हैं। योगी के एक आयुप्राण मात्र होता है |
शंका- केवली के द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा दस प्राण क्यों नहीं कह दिये जाते हैं ?
गाथा ७०१
समाधान- यदि प्राणों में द्रव्येन्द्रियों का ही ग्रहण किया जावे तो संज्ञी जीवों के अपर्याप्त काल में सात प्राणों का अभाव होकर कुल दो ही प्राण कहे जायेंगे; क्योंकि, उनके द्रव्येन्द्रिय का अभाव होता है | अतः यह सिद्ध हुआ कि सयोगी के दस प्राण नहीं हो सकते ।
शङ्का - कितने ही यात्रायें द्रव्येन्द्रियों के अस्तित्व की अपेक्षा १० प्राण कहते हैं, सो क्या उनका कहना नहीं बनता ?
—
समाधान हाँ, भगवान वीरसेनस्वामी के कथनानुसार उनका कहना नहीं ही बनता है, क्योंकि, सयोगी जिन के भावन्द्रियां नहीं पाई जाती हैं। पांचों इन्द्रियावरणकर्मों के क्षयोपशम को भावेन्द्रिय कहते हैं । परन्तु जिनका प्रावरण कर्म समूल नष्ट हो गया है, उनके वह क्षयोपशम नहीं होता है, अतः इन क्षयोपभवन्द्रियों व भयमन के नाव में केवली भगवान के छह के बिना ४ प्राण ही होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। 3
शङ्का - प्रयोगी के एक प्रायुप्रारण ( ही ) होने का क्या कारण है ।
समाधान - ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम रूप इन्द्रिय प्राण तो प्रयोगी केवली के हैं नहीं क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय हो जाने पर क्षयोपशम का अभाव पाया जाता है। ग्रानापान, भाषा व मनःप्राण भी उनके नहीं हैं, क्योंकि पर्याप्तिजनित प्राण संज्ञावाली शक्ति का उनके प्रभाव है । उनके कायबल प्राण भी नहीं है, क्योंकि, उनके शरीर नामकर्म के उदय जनित कर्म व नोकर्म के आगमन का प्रभाव है | अतः प्रयोगी भगवान के एक ग्रायुप्रारण ही होता हैं। उपचार का आश्रय करके उनके एक प्राण, छह प्रारण अथवा ७ प्राण भी होते हैं, परन्तु यह पाठ गौण है । [ ऐसे उपचार का आश्रय सयोगकेवली के भी लिया जाना सम्भव है। ]
शङ्का- क्या योगी भगवान के ग्रहों पर्याप्तियाँ होती हैं ।
तत्रापि १. वागुच्छ् वास निश्वासायुकाय प्रारणाचत्वारो भवन्ति मयोगिजिने, शेषेन्द्रिय मनः प्राणाःपट् नमन्ति । बाग्योगविश्रान्ते श्रयः ३ । पुनः उच्छवासनिःश्वासे विश्रान्ते द्वौ २ । अयोगे प्रायुः प्राणः एकः । प्रा. पं. सं. ४१२ | पृ. ६ एवं घ. २०४२३, ४४७, ४४८, ५३१, ६५६, ९७३, ७३०, ८५३ श्रादि । श्रयमत्र विशेष वर्तते यत् घबलायां उपर्युक्तस्थानेषु सर्वोोगिनः प्रायप्ररूपणा नास्ति । परन्तु पंचसंग्रहे (पृ. ८६ गा. २० टीका, शतक) प्रकृत जीवकाण्ड (गा. ७०१) प्राणत्रयप्ररूपणाऽप्यस्ति । प्राणत्रय – प्ररूपणा च योगनिरोधसमयापेक्षया घटिता भवति । लिनः समुद्घातापर्याप्तावस्थायामपि दो, त्रयोदशगुणस्थानान्त-समयेऽपि दौ ( श्रायुः कायमच ) इति विशेष ज्ञातव्यः ॥ २. ध. पु. २ पृ. ४४८ अव दव्दिदियस्य जदि ग्रहणं कीरदि तो मज्जाले सत्त पागा फिट्टिदू दो चैव पारणा भवति, पंचण्हं दबेदियागमभावादी । तुम्हा सजोगकेवलिस चलारि पारणा दो पा भवति ३. प. पु. २ पृ. ४४७-४८ | ४. ध. २ / ४४९-५० ५. उवत्रामस्मिकरण एक्को वा छ वा सन वा पाणा भवति । घ २/४५० ।
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गाया ७०२
अन्तर्भाव/७६१
समाधान-हां, छहों पर्याप्तियाँ होती हैं । छहों के होने का कारण यह है कि पूर्व से आयी हुई पर्याप्तियाँ तथैव स्थित रहती हैं । अतः छहों र्याप्तियाँ अयोगी के कहना अविरुद्ध है। हो यहां पर पर्याप्तिजनित कोई कार्य नहीं होता, यह ठीक है।'
शंका- सौदारिक मिश्र व कार्मण काययोग के काल में केवली के कितने प्रारण होते हैं ?
समाधान -दो, आयु व काय प्राण । विशेष यह है कि कामगा काययोग में तो केवली के दो (आयु व काय) प्राण ही हैं । औदारिकमिथ में भी अपर्याप्तावस्था के कारण उपयुक्त प्राणद्वय ही बनते हैं। अथवा केवली के विद्यमान शरीर की अपेक्षा पूर्वोक्त प्राणों की कारणभूत पर्याप्तियाँ रहती ही हैं, इसलिए छठे समय से वचनबल और श्वासोच्छवास ये दो प्राण माने जा सकते हैं । इस तरह केवली के औदारिकमिथ अवस्था में ४ प्राण भी कहे जासकते हैं।'
गुणास्थानों में संजा छट्टोत्ति पढमसण्णा सकज्ज सेसा य कारणावेक्खा । पुत्रो पढमरिणयट्टो सुहमोत्ति कमेण सेसानो ॥७०२॥'
पाथार्थ छठे गुणस्थान पर्यन्त चारों संज्ञाएँ सकार्य होती हैं 1* प्रागे प्रथम संज्ञा नहीं है। शेष तीन संज्ञाएँ कारण की अपेक्षा क्रमशः प्रपूर्वकरण तक, अनिवृत्तिकरण के प्रथम भाग तक व सूक्ष्मसाम्पराय तक होती हैं ।।७०२।।
विशेषार्थ- संज्ञा के वैसे चेतना, बुद्धि, ज्ञान, संकेत, नाम, वाञ्छा प्रादि अनेक अर्थ होते हैं, परन्तु यहाँ वाञ्छा अर्थ विवक्षित है। संज्ञा पानी वाञ्छा । [व्युत्पत्ति की अपेक्षा सम् उपसर्गपूर्वक 'जा' धातु से अङ्-टाप् प्रत्यय होकर संज्ञा शब्द बना है] संज्ञाएँ चार होती हैं--प्राहार, भय, मैथुन व परिग्रह 1५ इनका स्वरूप पूर्व में कहा जा चुका है। विशेष यह है कि प्रथम गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक चारों संज्ञाएँ कार्यरूप पायी जाती हैं। परन्तु छठे गुणस्थान के बाद में प्राहार संज्ञा नहीं होती; क्योंकि, आहारसंज्ञा का अन्नरंग कारण असातावेदनीय की उदीरणा है। और असातावेदनीय की उदीरणा छठे गुणस्थान तक ही होती है । अत: अप्रमत्तसंयत के असातावेदनीय को उदीरणा का अभाव हो जाने से याहार संज्ञा नहीं होती है । (मातवें में प्राहारसंज्ञा का कारण
१. ध. २।४४६ । २. ध. २/६५६ व ७३ व ७३३। ३. घ. २१६६०। ४. प्रा. पं. सं. । शतक । प्र. ८६ गा, २०, टीका । एवं सं. पं. संग्रह ११६१-६२ टीका पृ. ६६५। ५. सण्णा च बिहा प्रादार-भय-मेहुणपरिम्गहसध्यगा चेदि । ध.२/४१५, प्रा. पं. सं. ११५१ से १४ पृ.११-१२, गो. जी. १३४-१३८ । ६. गो. जी.
। *. प्रा. पं. सं. शतक गा. २५ संस्कृत दीका पृ.८६। ७. सादिदग्दीरमाए होदि ह पाहारसण्णा द। प्रा.पं.सं. ११५२ पृ. ११ एवं गो. जी. १३५ एवं घ, २७. ४१५ गा. २२४ । . गो. क. २०७: अवशिदतिष्पयडी पमतविरदे उदीरमा होदि । प्रा पं.सं । कमस्तव ४४-४५-४६ पृ. ६५: सरकृत पसं. ३ प. ६७६; धवल पु. १५ पृ. ५५ ५७६. अमादावेदरणीयस्त उदीरणामाबादो प्राहारसाराणा प्रप्पमतसंजदरस पत्थि । घ. २/४३७ ।
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७६२/गो. सा. जीबकाण्ड
गाथा ७०३
नहीं, अत: कार्य भी नहीं है । ) शेष तीन संज्ञाएँ भी कार्य रूप से तो पागे नहीं हैं, क्योंकि प्रागे सान आदि गुरणस्थान में भय से भागना, रतिक्रीड़ा व परिग्रह-स्वीकार रूप कार्य तो देखा जाता है नहीं। सातवें आदि में शेष तीन संज्ञाएँ उपचार से कही गई हैं और उपचार का कारण उन तीन संज्ञानों के कारणभून कर्मों की वहाँ उदयोदोरणा है । अतः कर्मोदय मात्र की दृष्टि से अप्रमत्तसंयत के आहार बिना तीन संज्ञाएँ हैं। अपुर्वकरण में भी ये तीन संज्ञाएँ हैं । अनिवृत्तिकर गुणस्थान में प्रथम भाग में मैथुन व परिग्रह ये दो संज्ञाएँ ही हैं ।
का क्यों ?
समाधान--इन दो संज्ञानों के होने का कारण यह है कि अपूर्वकरण गुणस्थान के अन्तिम समय में भय के उदय ब उदीरणा, दोनों नष्ट हो चुके हैं । इससे भय संज्ञा यहाँ नहीं है ।। अतः उक्त दो संज्ञाएँ ही रह जाती हैं। अनिवृत्ति करा के द्वितीय भाग में वेद नोकपाय कर्म का उदय नष्ट हो जाने से मथुन संज्ञा भी नहीं है। यानी अन्तरकरण करने के अनन्तर अन्तमहत जाकर वेद का उदय नष्ट होता है । अतः द्वितीय भागवर्ती जीवों के मथुनसंज्ञा नहीं रहती है। अतः मात्र एक परिग्रह संज्ञा उपचार से (उपचार का कारण कर्म का अस्तित्व) अनिवृत्तिकरण के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम भाग में रहती है । सूक्ष्मसाम्पराय में परिग्रह संज्ञा भी सूक्ष्म (अल्प) रूप से है क्योंकि यहाँ मात्र सूक्ष्म लोभ का उदय है, स्थूल का नहीं । ग्यारहवें गुणस्थान में संजाएँ उपशान्त अवस्था को प्राप्त होती हैं। कहा भी है कि संज्ञा के उपशान्त होने का कारण यह है कि यहाँ पर मोहनीय कर्म का पूर्ण उपशम रहता है, इसलिये उसके निमित्त से होने वाली संज्ञाएँ भी उपशान्त ही रहती हैं, अतएव यहाँ उपशान्त संज्ञा कही। लेकिन मागे बारहवें आदि सब गुणस्थानों में क्षीणसंज्ञा' यानी संज्ञा का पूर्ण प्रभाव जानना चाहिए, क्योंकि, कषायों का यहाँ सर्वथा क्षय हो गया है, अतः संज्ञाओं का क्षीण (नष्ट) हो जाना स्वाभाविक ही है। इस प्रकार उपशान्नादि गुणस्थानों में कार्यरहित भी संज्ञाएँ नहीं हैं, कारण के अभाव में कार्य का अभाव होता है ।
गुणस्थानानुसार संज्ञाओं की संख्या (व व्युच्छिनि ) का नक्शा इस प्रकार है---
गुणास्थान
| गुणास्थान || २ | ३ || ५ | - | | १० ११ १२ १३ | १४ | संज्ञा || ४ | ४ | « | ४ | ४ | ३ | ३ । २१ | • • • व्युच्छित्ति । • | | | | १ | १ | १ . १ । . ... ।
गुग्गर थानों में मार्गगगा मगण उवजोगावि य सुगमा पुर्व परविदत्तायो । गदिनादिसु मिच्छादी पविदे रूविदा होति ।।७०३॥
१. पदम-परिणयत्तिगण भण्या मागे ....... ....... पपुवकरण चरिमसमए भयस्स उदीरमोदया गटा नेरा भयसपमा माथि 1 घ. २४३८ । २. ध. २/४४१ । ३. घ, २१४४२ । ४. अशान्तादिपू कार्यरहितागि न, कारणाभाचे कावयाभावः । प्रा. पं सं. अधि ४/गा.२./टीका ।
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गाथा ७०३
अन्न व/७६३ गाथार्थ-- गुणस्थानों में मार्गणा व उपयोग सुगम हैं, क्योंकि, पूर्व में कह पाये हैं। क्योंकि गत्यादि मार्गणामों में मिथ्याष्टि' आदि के कहने से उनका कथन हो ही जाता है ।।७०३।। गुणस्थानों में मार्गणा का कथन इस प्रकार है--
मार्गरणा
किस गुणस्थान में गति मार्गणा-प्रथम चार मृगास्थानों में नरकगति होती है । वहाँ प्रथम गुणस्थान में पर्याप्त व अपनरकगति र्याप्त नरकगति होती है। द्वितीय गुणस्थान में नरकगति पर्याप्त ही होती है । तृतीय
गृणस्थान में नरकगति पर्याप्त ही होती है । चतुर्थ गुणस्थान में नरकगति के जीव अपर्याप्त, पर्याप्त प्रथम नरक में, पर शेष नरकों में नरकनि पर्याप्त हो (चतुर्थगुणस्थान
में) होती है। तिथंचगति -आदि के ५ गुरणस्थानों में नियंचगति सम्भव है। वहीं प्रथम व द्वितीय गुणस्थान में
तिर्यचगति पर्याप्त व अपर्याप्त होती है । तृतीय में नियम से पर्याप्त । चतुर्थ में पर्याप्त ही, पर भोगभूमि की अपेक्षा अपर्याप्त भी। पंचम गुणस्थान में तिर्यंचगति नियम से
पर्याप्त होती है। मनुष्यगति -सभी गुणस्थानों में मनुष्यगति मार्गणा के जीव सम्भव हैं । वहाँ प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ,
षष्ठ व त्रयोदश-इन पाँच गुणस्थानों में मनुष्यमति पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों तथा शेष
गुणस्थानों में पर्याप्त मनुष्य गति ही होती है। वेवगति -यह चार गुणस्थानों में सम्भव है । वहाँ प्रथम, द्वितीय व चतुर्थ गुणस्थान में देवगति
पर्याप्तापर्याप्त तथा तृतीय गुणस्थान में देवगति नियम से पर्याप्त होती है। (भवन
त्रिक की अपेक्षा चौथे में नियमतः पर्याप्त देवगति ही है।) एकेन्द्रियजाति-मात्र प्रथम गुरणस्थान में पर्याप्त व अपर्याप्त सभी प्रकार की एकेन्द्रिय जाति होती
है। (परन्तु किन्हीं प्राचार्यों, विद्वानों के मत से एकेन्द्रियों में भी सासादन सम्भव है, उनके हिसाब से एकेन्द्रिय अपर्याप्त जाति द्वितीय गुणस्थान में भी सम्भव है। यह
द्वीन्द्रियादि असंजी पंच. अप. तक समझना चाहिए।) द्वीन्द्रियादि –ये सभी पर्याप्त ब अपर्याप्त मात्र प्रथम गुणस्थान में होते हैं। [मतान्तरानुसार(पूर्ववत्) विकलत्रयजाति अपर्याप्तावस्था में यानी अपर्याप्त द्रीन्द्रिय, अपर्याप्त त्रीन्द्रिय, अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, व प्रसनी पंचेन्द्रिय जाति अपर्याप्त असंही पंचे. जाति द्वितीय गुणस्थान में भी सम्भव है ।] सौ पंचेन्द्रिय-ये पर्याप्त तो सभी गुणस्थानों में होते हैं पर अपर्याप्त १, २, ४, ६. व १३ इन पाँच जाति मुणस्थानों में होते हैं। असकाय -इस में पर्याप्त त्रस सभी गुणस्थानों में सम्भव हैं, अपर्याप्त बस –१,२,४,६,१३, इन
गुणस्थानों में सम्भव हैं। [वीन्द्रियादि प्रसंजी पंचेन्द्रिय तक के त्रस पर्याप्तापर्याप्त,
१. मिध्यादृष्टि माणस्थान।
मंग्रहकार अमिनयति: भूनबली, पूज्यपादाचार्य, जीवप्रबोधिनीकार, प्रादि ।
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७६४/गो, सा. जीव काण्ड
गाथा ७०४
प्रथम गणस्थान में होते हैं। पर मतांतर से ये ही मात्र अपर्याप्त, द्वितीय गुणस्थान में भी होते हैं, पर संज्ञी तो द्वितीय गुणस्थान में पर्याप्तापर्याप्त दोनों होते हैं।
स्थावरकाय- इनमें पर्यापतों व अपर्याप्तों का मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होना सम्भव है। [मतान्त
रानुसार बादर जल, पृथ्वी, बनस्पति के अपर्याप्त द्वितीय गुणस्थान में सम्भव हैं।]
गूरणस्थानों में योग
तिसु तेरं इस मिस्से सत्तसु एव छट्ठयम्मि एयारा ।
जोगिम्मि सत्त जोगा प्रजोगिठाणं हवे सुण्णं ।।७०४॥ गाथार्थ ---तीन में तेरह, मिश्च में दस, सात में नौ, छठे में ग्यारह, सयोगी में सात योग तथा अयोगीस्थान शून्य होता है ।।७०४।'
विशेषार्थ-तीन अर्थात् प्रथम, द्वितीय व चतुर्थ गुणस्थान में १३ योग होते हैं। यानी कुल १५ योगों में से प्राहारक व आहारकमिश्र को छोड़कर अन्य १३ योग, १,२ व ४ गुगास्थान में होते हैं। मिश्र यानी सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान-तीसरे गुणस्थान में उक्त तेरह में से वैकेयिकमिश्र, प्रौदारिकमिथ व कामगा, इन तीनों को घटाने पर अवशिष्ट रहे १० योग होते हैं। छठे गुणस्थान में इन दस में से वैकेयिक घटाकर अाहारकद्विक योग जोड़ने पर कुल ११ योग होते हैं । तथा सात में नौ यानी संयतासंयत पाँचवा गुणस्थान व सातवें से १२ वें गुरास्थान तक के छह गुणस्थान, इन कुल ७ गुणस्थानों में उक्त दस में से वैयिक योग घटाने पर शेष बचे योग होते हैं । सयोगीकेवली में सत्य व अनुभय वचन व मनोयोग तथा औदारिक, औदारिकमिश्र व कार्मरण ऐसे ७ योग होते हैं। अयोगी में कोई योग नहीं होता 1 अब वेद आदि मार्मणानों को भी संक्षिप्त तथा गुणस्थानों में बताते हैं - .. मार्गरणा
किन गुणस्थानों में ? वेदमार्गणा .तीनों ही वेद नौवें गुणस्थान में प्रथम सवेद भाग पर्यन्त होते हैं । कषायमार्गणा –इनमें से चारों अमन्तानुबन्धी कषायें प्रथम व द्वितीय गुणस्थानों में उदय को प्राप्त ४ क्रोध कषाय होती हैं, आगे नहीं। तीसरे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी बिना शेष तीन (प्रकार ४ मान कषाय की ४-४) कषायें (उदित) रहती हैं। पाँचवें गुगास्थान में अनन्तानुबन्धी व ४ माया कषाय अप्रत्याभ्यान इन दो बिना अवशिष्ट दो कषायं रहती हैं। छठे गुगास्थान से लेकर ४ लोभ कषाय अनिवृत्तिनामक नवम के दूसरे भाग तक एक मात्र कपाय (चारों सज्वलन कषायें)
रहती हैं। तृतीय भाग में संज्वलन क्रोध बिना तीन कमायें रहती हैं, चतुर्थभाग में संज्वलन माया व लोभ ये दो ही रहती हैं । तथा पंचम भाग में लोभ ही रहती है।
१. तिसु तेरेगे दस गाव सत्तम् इनकम्हि हुँति एक्काग।
इम्हि मसकोमा अजोबटाणं हवद सपण ||७४|| प्रा. पं. सं.पातका.१०३वं सं. पं. सं.। १२-१३ पृ.१२। २. पन दशयांगानां नामानि पूर्वम् (२१६-२४१ गाथा पर्यन्त) इत्येनासु गाथाम् प्रोक्तानीति नोच्यन्ते । ३. धवल २/४३५-४३९ ।
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गाथा १०४
अन्तर्भाव/७६५ सूक्ष्ममाम्पराय गुणस्थान में पूक्ष्म लोभ संज्वलन कपाय ही रहती है। ऊपर के
सभी मुगास्थानों में कषाय नहीं है ।' ज्ञानमार्गरणा -प्रथम व दुसरे गुणस्थान में तीन मियाज्ञान ही होते हैं। मिश्च में भी ग्रादि के
तीनों ज्ञान मिश्र रूप होते हैं। चौथे व पाँचवें गुणस्थान में मति, श्रत व अवधि ये तीन सम्यग्नान होते हैं। छठे से बारहवें गुणस्थान में उपर्युक्त तीन के साथ मनः
पर्यय भी होता है। प्रागे तेरहवे ग्रादि गुणस्थानों में केवलज्ञान मात्र होता है । संयममार्गणा -आदि के ४ गुणस्थानों में असंयम मार्गग्गा है। पांचवें गुणस्थान में देशसंयम मात्र
होता है । छठे सातवें में सामायिक, छेदोषस्थापना व परिहारविशुद्धि ये तीन संयम होते हैं । पाठवें व नौवें गुगास्थान में मात्र सामायिक, छेदोपस्थापना संयम ही होता है। दसवें में सूक्ष्मसाम्प गय संयम होता है । ऊपर सब गुरणस्थानों में यथाख्यात
संयम है। इसे ही पूज्यपादाचार्य आदि ने अथारख्यात संयम भी कहा है। दर्शनमार्गणा -आदि के तीन गुणस्थानों में चक्षु व अचक्षु ये दो दर्शन' ही हैं। चौथे से बारहवें
गुगास्थान तक में चक्षु, प्रचक्षु व अवधिदर्शन ये तीन होते हैं। आगे के गुणस्थानों में मात्र केवलदर्शन होता है। (पंचसंग्रह में तीसरे गुगास्थान में भी अबधिदर्शन
बताया है ! शङ्का-विभंग दर्शन (प्रथम द्वितीय गुणस्थान में ) क्यों नहीं कहा?
समाधान नहीं, क्योंकि, उसका अवधिदर्शन में अन्तर्भाव हो जाता है। ऐसा ही 'सिद्धिविनिश्चय' में भी वहा है-.."अवधिज्ञान और विभंगज्ञान के अवधिदर्शन ही होता है।" लेश्यामार्गणा -चौथे तक के गुणस्थानों में छहों लेश्याएं होती हैं। पांचवें से सातवें तक के
गुणस्थानों में तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं। इससे आगे सयोगी पर्यन्त शुक्ललेश्या ही होती है । अयोगिगुणस्थान लेश्यारहित है। विशेष यह है कि सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद के मतानुसार बयुश, प्रतिसेवना व कापायकुशील निर्ग्रन्थ संयतों के भी अशुभलेश्या मम्भव है। जबकि धवलाकार के मतानुसार चौथे के बाद अशुभत्रय
असम्भब हैं । भन्यमार्गणा -प्रथमगुणस्थान में भव्य वा अभय दोनों हैं। दूसरे से १२ वे तक के गुगास्थानों में
भव्य ही हैं। सयोगी व अयोगी- इन दोनों गुगास्थानों में भी भव्य हो होते हैं।
१. घ.२/४३६ मे ४४२ । २. सजोगि-केवलीण भण्या मागे अस्थि........ केवनगाणं . .... I एवं प्रयोगिकेवलीनतमपि जातव्यम्। ५.२/४४- | ३. ध. २/४३२) ४. पं. म. गाथा ६४.६६ पृ.१००। ५. विहंगदंसरणं कि पहबिदा , तस्स प्रोहिदसगो अंतभावादा। तथा सिद्धिविनिश्चयेऽप्यूतम...."अवधिवि. भंगयोग्बघिदर्शन मेव" इति । धवल पृ. १३ पत्र ३५६ । ६. म. मि. ९४६; ना. वृ. ६।४७।३१६; ग. वा. ६१४६ बकुशप्रतिसेवनानुशी लयोः पडपि । कारकुणीनस्य उत्तराश्चनप्तः । ७. घ. २४३५ दृश्यताम् (नक्शा १३ ग्रादितथा ध. २१८०१। ८. घ.२/४४८ मे १५० घ. १/३६५ स. सि. १८ पु.२३ पृ. २६ । पृ.३८ पृ. ५६; सं. पं. सं. ११२१५ पृ. ६:।
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७५६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ०५
हाँ, गुणस्थानातिक्रान्तसिद्ध भव्याभव्य विकल्प से रहित हैं। यानी न ही भव्य हैं, न ही अभव्य ।' पर पंचसंग्रह में भव्यमार्गणा की अपेक्षा १२ ही (क्षीणकापाय पर्यन्त) गुणस्थान कहे हैं । तथा सयोगी के भव्य व्यपदेश नहीं है, ऐसा कहा है। (धवला, सर्वार्थसिद्धि आदि में तो भव्यों में १४ ही गुरास्थान बताये हैं पर पंचसंग्रह में भव्यों
में १२ ही स्थान पाने हैं .) सम्यक्त्यमार्गणा-मिथ्यात्व तो प्रथम गुग्गस्थान में ही होता है। सासादन सम्यक्त्व दूसरे गुणस्थान
में ही होता है। सभ्य रिमथ्यात्व तीसरे गणस्थान में ही होता है। चौथे से सातवें में वेदक, उपशम व क्षायिक तीनों होते हैं। ऊपर श्रेणी में उपशम श्रेणी के स्थानों में उपशम या क्षायिक सम्यग्दर्शन सम्भव है। क्षपधेरणी के गुरगस्थानों में मात्र क्षायिक सम्यक्त्व होता है। तथा बारहवें से आगे के गुणस्थान द्वय व सिद्धों में
भो क्षायिक सम्यक्त्व ही होता है। संजीमार्गणा -असंज्ञी मात्र प्रथम मुणस्थान में अथवा प्रथम व द्वितीय गुणस्थान में सम्भव हैं।
तथा संज्ञी सभी गुग्गस्थानों में (बारहवें तक) होते हैं। तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थान में जीव न संज्ञी, न ही प्रसंज्ञी यानी संज्ञी-असंज्ञो विकल्प से रहित
होते हैं । माहारमार्गणा -प्रथम, द्वितीय व चतुर्थ तथा त्रयोदश---इन ४ गुणस्थानों में तो अनाहारक भी होते
हैं पर अयोगी अनाहारक ही होते हैं । शोष नौ गुणस्थानों में नियम से प्राहारक ही होते हैं । (गुणस्थानातीत, सिद्धिप्राप्त सिद्ध अनाहारक हैं ही)
गरणस्थानों में उपयोगों का कथन दोहं पंच य छच्चेब दोसु मिस्सम्मि होति वामिस्सा ।
सत्तुवजोगा सत्तसु दो चेव जिणे य सिद्ध य ।।७०५।। गायार्थ - दो में पांच और दो में छह, मिश्र में मिश्र रूप छह होते हैं। सात में सात उपयोग, जिनों में दो ही व सिद्धों में भी दो ही उपयोग होते हैं ।।७०५।।
विशेषार्थ-जीव का जो भाव वस्तु के ग्रहण के लिए प्रवृत्त होता है उसे उपयोग कहते हैं।' उपयोग के भलतः दो भेद हैं - ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग । प्रथम उपयोग, ज्ञानोपयोग के भेद होते हैं। कुमति, कुश्रुत, कुप्रवधि, मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवल । दर्शनोपयोग के ४ भेद - -- -- १. घ. २/४५१ सिद्धारणंति भण्णमाणे गोव भवसिद्धिया, णेव अभयसिद्धिमा होति । गो. जी. ५५६ । २. मध्ये मिथ्यादृष्ट्यादीने क्षीगा कषायान्तानि द्वादश १२ सयोगायोगयोमव्य-पदेशो नास्तीनि । प्रा. पं. सं. ४/१७/१००। ३. घ. २/५३३ यथा असशीण भण्रणमाणे अस्थि एवं गाठाणं........। 6. इदं कथनं प्राकृतपञ्चसंग्रहमतानुसार वर्तते-यथा प्रस गिरणयम्मि जीवे दोण् िय मिच्छाइ बोहत्या । प्रा. पं. सं. ४/६९/१०१। ५. ध. १४४-४५ ६. प्रा. पं. सं. ४/७० पृ. १०१-१०२ एवं घ. पृ. ४५७ पर्यन्त । एष ध. २/८३६ से २५५। ७. गो. जी. ६७२, गो. जी. ७, प्रा.म.सं. प्र. १ गा. १७८. ३.७ ग्रादि । घ. २/४१६ ।
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गाथा ७०६-७०७
होते हैं - चक्षु, प्रचक्षु, अवधि व केवल ' इस प्रकार कुल १२ उपयोगों में से कितने कहाँ होते हैं। यह बताया जाता है। आदि के दो गुणस्थानों में, आदि के तीन ज्ञान ( मिथ्या) व दो दर्शन ये पाँच उपयोग होते हैं । चौथे व पांचवें गुणस्थान में मति श्रुत, अवधिज्ञान, चक्षु, प्रचक्षु व अवधि दर्शन ये छह उपयोग होते हैं। मिश्र नामक तीसरे गुणस्थान में ये छहों मिश्र रूप होते हैं। छठे से १२वें तक के सात गुणस्थानों में मन:पर्यय ज्ञानोपयोग सहित सात उपयोग होते हैं । सयोगी, प्रयोगी तथा सिद्धों के केवलज्ञान व केवलदर्शन, ये दो ही उपयोग होते हैं ।
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में अन्तर्भाव प्ररूपणा नामक इक्कीसवाँ अधिकार पूर्ण श्रा ।
२२. श्रालापाधिकार
प्रतिज्ञा
गोयमथेरं परमिय, श्रोधादेसेसु बीसभेदाणं । जोजरिणकारणालावं, वोच्छामि जहाकमं सुरगह् ॥१७०६ ।।
गाथार्थ - गौतम स्थविर को प्रणाम करके गुणस्थान और मार्गणास्थानों में, पूर्व में योजित २० प्रकारों के आलाप को ययाक्रम कहूंगा,
उसे सुनो।
प्रोघे चोसठाणे, सिद्ध बोसदिविहारण मालावा । वेदकसायविभिण्णे श्रयिट्ठी पंचभागे य
॥७०७॥
गाथार्थ -- प्रसिद्ध गुणस्थानों में और १४ मार्गणास्थानों में बीस प्ररूपणा के श्रालाप सामान्य, पर्याप्त व अपर्याप्त होते है । एवं वेदों व कषायों से भेद को सम्प्राप्त अनिवृत्तिकरण नामा नौ गुणस्थान के पांच भागों में भी आलाप भिन्न-भिन्न होते हैं ।
विशेषार्थ - बीस प्ररूपणाएँ निम्नलिखित हैं--- १ गुगास्थान,
१ जीवसमास १ पर्याप्ति १ प्राण, १ संज्ञी, १४ मार्गणा व उपयोग ऐसे (१+१+१+१+१+१४+ १ = २० ) प्ररूपण हैं |
शङ्का - प्ररूपणा किसे कहते हैं ?
१. गो. जी. ६७३ पंचास्तिकाय मूल ४१-४२. ध. २/४१६ ० १/४ /७३ पृ. १०२-१०३ । ३. व. २/१, पी. जी. गाथा २ ।
२. प्रा. पं. सं.
दर्शन (३+२)
± + 2) (t + 2) | (t - 2) ( - ) (e - t ) ; ( + 1) (1+ )
| (x+3)(x+3)(x+3)(x+3);({ 1-?), (?-?)
क्रमश
ज्ञान
| ६
6
و
13
13
७
6.
२
उपयोग
२
आलप/७६७
12
५
i
५
मिश्र
पत्रि
देश
गत ०
मामा.
ग्रप्र.
गुणस्थानों में उपयोग का नक्शा
अपू.
मि.
प्रम.
सु.
उप
ग्रनि
श्री
सी.
अयो.
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७६८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ७०८-७१०
समाधान—सामान्य और विशेष की अपेक्षा गुणस्थानों में, जीवसमासों में, पर्याप्तियों में, प्राणों में, संज्ञाओं में, इन्द्रियों में, कायों में, योगों में, वेदों में, कषायों में, ज्ञानों में, संयमों में, दर्शनों में, लेश्यानों में, भव्यों में, अभक्ष्यों में, सम्यक्त्वों में, संज्ञी-असंशियों में, आहारी-मनाहारियों में, और उपयोग में, पर्याप्त और अपर्याप्त विशेषणों से विशेषित करके जो जीवों की परीक्षा की जाती है, उसे प्ररूपणा कहते हैं।'
मुगास्थानों में पालाप
प्रोघे मिच्छबुगेवि य, प्रयदपमत्ते सजोगिठाणाम्म ।
तिण्णव य पालावा, सेसेसिक्को हवे रियमा ॥७०८।। गाथार्थ-गूगास्थानों में मिथ्यात्वद्विक तथा असंयत ब प्रमत्त एवं सयोगिस्थान में तीनों ही पालाप होते हैं । शेष में नियम से एक ही होता है ।।७०८।।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व, सासादन, असंयत, प्रमत्तसंयत व सयोगीकेवली इन पांच गुणस्थानों में पर्याप्त, अपर्याप्त व सामान्य ये तीनों ही पालाप होते हैं । पर अवशिष्ट गुणस्थानों में पानी मिश्र, देश संयत, अप्रमत्तसंयत व अपूर्वकरणादि क्षीण कषायपर्यन्त ५ एवं अयोगीकेवली गुणस्थान इन नौ गुणस्थानों में एक पर्याप्त ही आलाप होता है। आगे आचार्य इसी के स्पष्टीकरणार्थ गाथा कहते हैं
सामरणं पज्जत्तमपज्जतं चेदि तिणि पालावा ।
दुधियप्पमपज्जत्तं लद्धीरिणवत्तगं चेदि ॥७०६।। गाथार्थ-सामान्य, पर्याप्त व अपर्याप्त इस प्रकार तीन पालाप हैं। पुनः अपर्याप्त पालाप के दो भेद होते हैं (१) लब्ध्यपर्याप्त (२) नित्यपर्याप्त १७०६।।
दुविहं पि अपज्जत्तं, प्रोघे मिच्छेव होदि रिणयमेण ।
सासरणप्रयदपमते णिव्यत्तिअपुरणगो होदि ॥७१०॥ गाथार्थ-दोनों ही प्रकार के अपर्याप्त पानाप (लब्ध्यपर्याप्त व नित्यपर्याप्त) सर्व गुणस्थानों में से मिथ्यात्व गुणास्थान में ही होते हैं । सासादन, असंयन व प्रमत्तसंयत इन तीन गुणस्थानों म नित्यपप्ति पालाप होता है ।।७१०।।
विशेषार्थ---यहाँ यह बताया गया है कि प्रथम गृणस्थान में ही दोनों प्रकार के अपर्याप्त आलाप होते हैं। क्योंकि, लब्ध्यपप्तिक मिथ्यात्वगुणस्थान में ही होते हैं। किञ्च, अपर्याप्ति नाम कर्म का उदय भी प्रथम गुणस्थान तक ही रहता है । इससे ग्रागे के गुरणस्थानों में नहीं।
शंका-अपर्याप्ति नाम कर्म क्या है ? समाधान-जिसके उदय से कोई भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं हो अर्थात् लब्ध्यपयप्तिक अवरथा हो
१ घ. २/१ २. लद्धि अनुष्यं मिच्दथे । गो. नी. १२७। ३. गो. क. २६५ ।
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गाथा ७११-१२
मालाप/७६६
वह अपर्याप्ति नामकर्म हैनौर इसका सामानादि में उदय नहीं हो सकने से मासादनादि जीव लब्धिअपर्याप्तक अवस्था प्राप्त नहीं कर सकते ।'
शंका-तो फिर नित्यपर्याप्तक के वया पर्याप्ति नाम कर्म का उदय रहता है, क्योंकि, यहाँ निर्वृत्यपर्याप्तकों के तो सासादन आदि गुपस्थान बताये हैं ?
समाधान-हाँ, नित्यपर्याप्तक के भी पर्याप्ति नाम कर्म का उदय ही रहता है ।'
यहाँ यह शंका हो सकती है कि सयोगकेवली के भी नित्यपर्याप्त पालाप कहना चाहिए. मो क्यों नहीं कहा? सो ही कहा जाता है
जोगं पडि जोगिजिणे होदि हुणियमा अपुण्य गत्तं तु ।
प्रवसेसरावट्ठाणे पज्जत्तालावगो एषको ।।७११॥ गाथार्थ-योग की अपेक्षा ही सयोगीजिन में नियम से अपूर्णता यानी अपर्याप्तपना होता है (अर्थात् अपर्याप्त पालाम होता है)। शेष नव स्थानों में (नौ गुग्गस्थानों में एकमात्र पर्याप्तालाप ही होता है ।।७११।।
विशेषार्थ सयोगकेवली में भी अपर्याप्तालाप बन जाता है; पर वह योग की अपेक्षा ही सम्भव है। क्योंकि, सयोगकेवली का शरीर पूर्ण है और उनके पर्याप्ति नाम कर्मोदय भी विद्यमान है तथा काययोग भी है । अत: उनके अपर्याप्तता 'योग पूर्ण नहीं होने से ही गौणरूप से कही गई है अत: 'अपूर्णयोग की अपेक्षा केवली (सयोगी) को भी निर्वृत्यपर्याप्त कहा जा सकता है ।
चौदह मार्गगारों में पालाप नरक गति में पालाप सत्तण्ह पुढवीणं, प्रोधे मिच्छे य तिणि पालावा ।
पढमाविरदेवि तहा सेसाणं पुण्णगालावो ॥७१२॥ गाथार्थ-मातों ही पृथिवियों में, गुणस्थानों में से मिथ्यात्व गुणस्थान में तीनों पालाप होते हैं। प्रथम पृथिवी में अविरत गुणस्थान में भी बैसे हो अर्थात् तीनों पालाप हैं। शेष पृथिवी में (यानी द्वितीय से सप्तम नरक तक) अविरत गणस्थान में एक पर्याप्त पालाप ही होता है ।।७१२।।
विशेषार्थ–सर्व नरकों में नारकी मिथ्यात्व गुरणस्थान में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में पाये जाते हैं, अतः सर्व पृथ्वी में मिथ्यात्व गुणस्थान में तीनों यालाए बन जाते हैं । प्रथम पृथ्वी में सम्यग्दृष्टि पूर्वकाल में नरकायु के बंध वश जन्म लेता है। अतः प्रथम पृथ्वी में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थानों में सम्यक्त्व बन जाने में तीनों पालाप बन जाते हैं। शेष छह पृथ्वियों
१. घ. १/२७० या २६७; गो. जी. १२२; ध. ८/९; । २. स्वा. का. प्र. पृ. ७४ (भावार्थ) घ. १/२५६ एवं गो. जी. १२१ आदि। *ग्रौदारिकमिथकाययोगस्थ, काम काययोगस्य च सद्भाव एवापूर्णमांग इति । ३. प्रा. पं. सं. ११/गा. १६३/ पृ. ४१ तथा संस्कृत पं. सं. १:२६७, ५, १/२१० गा. १३३ । एवं घ. १/३३६ । ४. प्रपमायां पृथिव्यां पर्याप्तापर्याप्तकानां क्षाधिक क्षायोपशामिक चास्ति । म. मि.१/७|
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गाथा ७१३
७७० / गो. सा. जीवकाण्ड
,
में विरत गुणस्थान में भी एक पर्याप्तालाप ही ( सम्यष्टि वहाँ जन्म नहीं लेते अतः ) बनता है । सर्व पृथ्वियों में सासादन गुणस्थान में पर्याप्तालाप ही बनता है, क्योंकि सासादन गुणस्थानवर्ती तिर्यंच मनुष्यों के नरकगति को गमनयोग्य परिणाम भी नहीं पाये जाते हैं। 2 एवं देवनारकी सासादनगुणी तो नरक को जाने से रहे (यानी देव व नारकी मात्र नरक को नहीं जाते) अतः सासादन गुणस्थान सहित नरक में गमन का जन्म लेने का अभाव होने से सातों नरकों में पर्याप्तावस्था में सासादन गुणस्थान का प्रभाव बनता है।"
अतः सातों पृथिवियों में सासादन गुणस्थान में एक पर्याप्त आलाप ही बनता है । तथा मिश्र (तीसरे) गुणस्थान में भी सातों पृथिवियों में एक पर्याप्त बालाप ही होता है; क्योंकि, मिश्रगुणस्थान वाला. अपर्याप्त अवस्थायुक्त नरक में नहीं मिलता। कारण कि मिश्र गुरणस्थान में, चारों गतियों में से कहीं भी आयुबन्ध नहीं होता।" और "जिस गति में, जिस गुणस्थान में ग्रायुकर्म का वन्य नहीं है, उस गति से, उस गुणस्थान सहित निर्गमन का भी अभाव है; ऐसा कषाय उपशामकों को छोड़कर श्रन्य जीवों के लिये नियम है इस नियम के अनुसार मिश्रगुणसहित जीव मरण नहीं कर सकने से 45 पर्याप्त नारकी के रूप में कैसे उपस्थित होगा ? फलतः मिश्र में पर्याप्त' आलाप ही सातों नरकों में सम्भव है; क्योंकि अपर्याप्तकाल में मिश्रगुगास्थान के अस्तित्व को बताने वाले आगम का प्रभाव है।
तिर्यञ्चगति में आलाप
तिरियउक्कारोधे मिद्धदुगे अदिरदे य तिष्णे व ।
वरिय जोरिपरि अथवे पुण्गो सेसेवि पुण्णो दु ।। ७१३||
गाथार्थ-चार तिर्यंचों के गुणस्थानों में से – मिथ्यात्वद्विक और अविरत गुणस्थान में तीनों आलाप होते हैं । इतनी विशेषता है कि योनिनी तिर्यंच में प्रसंयत गुणस्थान में एक पर्याप्त ही आलाप होता है । शेष गुणस्थानों में भी एक पर्याप्त ही आलाप होता है ॥७१३||
विशेषार्थ - तिर्यञ्च पांच प्रकार के होते हैं । १. तिर्यञ्च २. पंचेन्द्रिय तियंत्र ३. पंचेन्द्रिय नियंत्र पर्याप्त ४. पंचेन्द्रियतिर्यञ्च योमिनी और ५ पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त। इनमें से पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त के तो एक मिथ्यात्व गुणास्थान होता है 1१° पूर्व के चार तियंत्रों के आदि के ५ गुणस्थान सम्भव हैं । ११ वहां उनमें प्रथम द्वितीय व असंयत इन तीन गुणस्थानों में तीनों आलाप होते हैं। लेकिन योनिनी पंचेन्द्रिय तिर्यंच के असंयत गुणस्थान में एक पर्याप्ताला ही होता है ।११
"
יין
१. खासगी खारयापुषो गो.जी. १२८ २. तिरिक्खमस ससाणं रिट्यगइगमरणपरिगाभावा । ४. श्र. ६/४३० ध. ६/४५६ | ३. ध. ६/४७८ एवं ६/४४७ औ गत्यागतिसूत्र ७६-२०२ षट् यं । ५. ध. १/ २०७ । एवं घ. १/२००७ एवं घ. ६/४३८ सासादन राम्यष्टीनां नरकगत प्रदेशो नास्ति । ६-७ ध. ६/४६३-४६४; गो. जी. २३ . ४/३४६-३४३ . ५ / ३१ । ४ गो. जी. २३-२४.४/३४६ ध. ५/३१ । ८. राभ्यमिध्यात्व गुणस्थानस्य पुनः सर्वदा सत्रापर्याप्ताद्धाभिर्विरोधस्तव तस्य मत्वप्रतिपाद का - विरोधात् । . १/ २०७६ . २/४७३। १०. व. २/५०२, ध. १/३३१ । ११. व. २ / ४७५-४९५ | १२. पट् वं. १/४ से २/४७५. मे ४६४ । १३. स. नि. १/७ पद् स्वं १ / ८८. १/३३० ॥
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पापा ७१४-७१५
पालाप/७७१ क्योंकि सम्यक्त्वी कभी घोनिनी में जन्म नहीं लेता,' जिससे कि नित्यपर्याप्तक योनिनी के भी सम्यक्त्व बन जाय । तथा शेष यानी तीसरे व पंचम गुरगस्थान में मुल मोघवत (रणस्थानों में कथन के समान ही) एक पर्याप्तालाप ही जानना चाहिए।
तेरिच्छियलद्धियपज्जते एक्को अपुण्ण पालावो ।
मूलोघं मणुसतिये मणुसिरिणप्रयदम्हि पज्जत्तो ॥७१४।। गाथार्थ-नियंच लब्ध्यपर्याप्तकों में एक अपूर्ण (अपर्याप्त) पालाप ही होता है। मनुष्यों म तीन में मूलोघ के समान बालार है। इन नो विशेषता है कि मनुपियनी के अविरत गुणस्थान में एक पर्याप्त ही पालाप होता है ||७१४॥
विशेषार्थ -मनुष्य चार प्रकार के होते हैं:- मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनयिनी और मनुष्य अपर्याप्त ।' वहाँ मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त व मनुष्यिनी इन तीन के तो १४ गुणस्थान होते हैं। यदि यहाँ यह कहा जाय कि इस तरह तो मनुष्यनी के १४ गृगस्थान सिद्ध हो जाने से स्त्री को मुक्ति हो जाएगी, सो बात नहीं है: क्योंकि सचेल, मायाचारमयी व अपवित्र स्त्रियों को मुक्ति तो क्या, संयम भी सम्भव नहीं । यहाँ तो भाववेद का प्राधान्य है, द्रव्यवेद का नहीं । अत: उक्त तीन भेदों में १४ गुणस्थान बन जाने से गुणस्थान में सम्भव पालापों के समान ही पालाप हैं। शेष कथन सरल है ।
मणसिगि पमतविरदे पाडारदुगं तु गत्थि रिणयमेण ।
अवगदवेदे मणुसिरिण सणा भूदगविमासेज्ज ॥७१५।।
गाथार्थ -- मनुयिनी के प्रमत्तविरत गणस्थान में नियम से प्राहारद्विक नहीं है। अपगनवेद अवस्था में 'मनुपियनी' के जो मैथुनसंज्ञा कही है वह भूतगति न्याय की अपेक्षा कही है ।1७१५।।
विशेषार्थ- 'भावस्त्री व द्रव्यमाप' ऐसी मनुष्यनी में प्रमत्तविरत नामक छठे गणस्थान म आहारक शरीर व आहारक अंगोपांग का उदय नियम से नहीं हो सकता है ।
शङ्का-मरिपनियों के प्राहारक काययोग और ग्राहारक मिश्र काययोग नहीं होने का क्या कारण है ?
समाधान –यद्यपि जिनके भाव की अपेक्षा स्त्रीवेद और द्रव्य की अपेक्षा पुरुषवेद होता है, वे (भावस्त्रो) जीव भी संयम को प्राप्त होते हैं। किन्तु द्रव्य की अपेक्षा स्त्रीवेद वाले मनुष्य संयम को प्राप्त नहीं होते हैं। क्योंकि वे सत्रेल अर्थात् वस्त्र सहित होते हैं। फिर भी भाव की अपेक्षा स्त्रीवेदी और द्रक्ष्य की अपेक्षा पुरुषवेदी संयमधारी मनुष्यों के ग्राहारक ऋति उत्पन्न नहीं होनी है।
१. ध. १/३३६ एवं ध. १/२१०; प्रा. पं. सं. १/११६३ पृ. ४० नथा सं. पंचसंग्रह १/२६७ २. पट् ग्लं. १/८८ ब १/८५; घ. १/३२८, ३३० । ३. स. सि. १/७/१७ षट् पं. १/६३ ४.७.२/५०३ ५.५.२/५०४ मे ५३२ ६.घ. १/३३५ .२/५१५: योगसार प्रामत गाथा ४३ से ४६७, पत्थ भावेदेगा पयदंग दववेदेरण। घ. २/५१५ ८. देखें गो, जी. ७०८ में ७११ ।
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७७२/ गो. स. जीवकाण्ड
गाथा ७१६-७१७
इसलिये स्त्रीवेद वाले मनुष्यों के प्रहारकद्विक के बिना ग्यारह योग कहे गये हैं।' 'तु' शब्द से यह लेना है कि इसके ( मनुष्यनी के ) मन:पर्यय व परिहारविशुद्धि नहीं होते । श्रर्थात् मनुष्यनी के मन:पर्यय के बिना ७ ज्ञान व परिहारविशुद्धि के बिना ६ संयम सम्भव है ।"
शंकर क्या मनुष्यनी के ग्राहारक शरीर नामकर्म का उदय व आहारक अंगोपांग नामकर्म का उदय भी नहीं हो सकता ?
समाधान — कैसे होगा ? नहीं हो सकता। ऊपर कहा जा चुका है। शेष कथन सुगम है ।
गरलद्धिपज्जत्ते एक्को दु अपुण्गगो दु श्रालावो । लेस्साभेदविभिष्णा, सत्त वियप्पा सुरट्ठाखा ।।७१६।।
गाथार्थ - मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक में मात्र एक अपूर्णक (अपर्याप्तक) आलाप होता है। देवगति में लेश्याओं के भेद की अपेक्षा से सात विकल्प होते हैं ।। ७१६ ।।
विशेषार्थ मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक भी नियम से संजी, पंचेन्द्रिय व मिध्यादृष्टि होते हैं। तथा लब्ध्यपर्याप्त होने के नाते छहों पर्याप्तियों से अपर्याप्त होते हैं। तथा इनके लब्ध्यपर्यातक होने से एक लब्ध्यपर्याप्त आलाप ही सम्भव है । देव में वेश्या की गपेक्षा जोमात भेट होते हैं, वे निम्नलिखित हैं। *
१. तीन ( भवनत्रिक) के तेजोलेश्या का जघन्य श्रंण ।
२. दो ( सौधर्म, ऐशान स्वर्गवासी) में तेजोलेश्या का मध्यम अंश |
३. दी ( सानत्कुमार व माहेन्द्र स्वर्गवासी) में तेजोलेश्या का उत्कृष्ट व पद्म का जघन्य अंश ।
४. छह (ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र व महाशुक्र स्वर्गवासी) के मध्यम पद्म लेश्या
५. दो ( शतार व सहस्रार स्वर्गवासी) के उत्कृष्ट पद्म लेश्या व जघन्य शुक्ल लेश्या । ६. १३ (आनत, प्रारणत प्रारण व अच्युत स्वर्गवासी व नौ ग्रैवेयकवासी) के मध्यम शुक्ल लेश्या | ७. चौदह ( नौ अनुदिश तथा ५ अनुत्तरवासी) के उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या ।
इस प्रकार देवों के लेश्या के भेद से भिन्नता प्राप्त ये सात स्थान हैं, ऐसा ज्ञातव्य है ।
सव्वसुराणं श्रोधे मिच्छदुगे अविरवे य तिष्णेव ।
वरिय भवरपतिकरिपत्थी च य श्रविरदे पुष्पो ||७१७॥
१. एत्थ श्राहारमाहारमिस्सकाय जीवा सात्थि । कि कारणं ? जेंस भावो इत्थवेदोदव्यं पुग्गरिवेशे ते जि जीवा जति दवित्थिदेवा पुग्गा सेजमा पविञ्छति गचेलत्तादो मावित्थिदाणं दव्वेण दारणं पि संजाणं साहारमिद्धी ममुपज्जदि दव्व-भावेहि पुरिसनेा चेव ममुष्पादि तेत्थियेदे सिरुद्ध माहारदुर्ग स्थिते एमार होगा भणिवा, ध.२ / ५१५ २. उनुसिगगां भागमा पत्थि मणपञ्जवगारोगा विशा सत्त शाखाखि परिहारसंजमेरा विणा छ संजमा ६. २ / ५१६ ३. गो. क्र. ३०१ । ४. ध. २/५३२ ५. प. २/५३६: पं. स. १ / १०० - १६९ पृ. ४०; गो. जी. ५३३-५३४ ।
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गाथा ७१७
पालाप/७५३
गाथार्य-समस्त देवों के मव (चार) गुणस्थानों में से मिथ्यात्वहिक व अविरत में तीनों ही पालाप होते हैं। इतनी विशेषता है कि भवनत्रिक व कल्पवासिनी देवियों के अविरत गुणस्थान में एक पर्याप्त पालाप ही होता है ।।१७।।
विशेषार्थ --समस्त देवों में कुल ४ ही गुणस्थान सम्भव हैं। उसमें से प्रथम, द्वितीय व चतुर्थ गुणस्थान में तीनों पालाप होते हैं क्योंकि इन गुणस्थानों के साथ देवों में जन्म तथा अपर्याप्त अवस्था में भी मिथ्यात्व, सासादन व असंयत सम्यक्त्व गुणस्थान देखा जाता है। यानी देव मिथ्याष्टि, मामादन सम्यग्दृष्टि व असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी । सकल देव मिश्र गुणस्थान में नियम से पर्याप्त ही होते हैं। अतः इस तृतीय गुणास्थान में एक पर्याप्त पालाप ही होता है।
शंका - 'देव तृतीय गुणस्थान मे नियम से पर्याप्त हैं।' यह कैसे ?
समाधान-क्योंकि तृतीय गुणस्थान के साथ उनका मरण नहीं होता है तथा अपर्याप्त काल में भी मभ्यरिमथ्यास्त्र गुणस्थान की उत्पत्ति नहीं होती है।'
शंका---'तृतीय गुणस्थान में पर्याप्त ही होते हैं। इस प्रकार के नियम के स्वीकार कर लेने पर तो एकान्तवाद प्राप्त होता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि अनेकान्तगभित एकान्त के सद्भाव होने में कोई विरोध नहीं पाता है।
भवनवासी, बानव्यन्तर और ज्योतिषी देव और उनकी देवियों तथा सौधर्म और ऐशानकरपबासिनी देवियों, वे सब मिथ्याष्टि और मासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी और अपर्याप्त भी होते हैं, क्योंकि इन दोनों गुणों से युक्त जीवों की उपयुक्त देव व देवियों में उत्पत्ति देखी जाती है, पर विशेष इतना है कि सम्यग्मिथ्यात्व ब अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान में उपयुक्त देवदेवी नियम से पर्याप्त होते हैं क्योंकि, गम्यक्त्वी मरकर उनमें जन्म नहीं लेता । अतः भवनत्रिक में और कल्पवासी देवांगनायों में असंयत गुणस्थान में पर्याप्त पालाप ही होता है ।'
शंका-मिश्रगुणस्थान बाले जीव की उपयुक्त देवदेवियों में उत्पत्ति मत होयो, यह ठीक है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादष्टि गुगास्थान के साथ जीव का मरण नहीं होता है । परन्तु यह बात नहीं बनती है कि असंयत मम्यग्दृष्टि जीव उक्त देव और देवियों में उत्पन्न नहीं होता है ।
समाधान --नहीं, क्योंकि. मम्यष्टि की जघन्य देवों में उत्पत्ति नहीं होती है।
मजा...- जघन्य अवस्था को प्राप्त नारकियों में और नियंचों में उत्पन्न होने वाला मम्यग्दृष्टि जीव उनमे उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त भवनवासी देव और देवियों में तथा कलावासिनी देवियों में
१.पद खं. १/२८, ध.१/२२६ २. षट् बं. १/6; प. १/३३६ । ३. पट खं.१/९५४. धवल १/३३७, पवन ६/४५१, ४६३.४६४ ५, धवल १/३३७। ६. ष. नं. १/६७ | ७. श्र.१/३३६, ५.१/२१० प्रा. पं. म १/१६३/४१ ८. ध. २/५६३ ६. धवल पू. १/३३८ *मो. जी. २४ घ. ५/३१; ४३४६ ।
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७७४/गो. सा, जीवकाण्ड
माया ७१८-७१६ क्यों नहीं उत्पन्न होता है ?
समाधान – नहीं, क्योंकि जो प्रायु कर्म का वध करते समय मिथ्यादृष्टि थे और जिन्होंने तदनन्तर सम्यग्दर्शन ग्रहमा किया है, ऐसे जीवों की नरकादिगति में उत्पनि को रोकने का सामर्थ्य सम्यग्दर्शन में नहीं है।
शङ्का-सम्यग्दृष्टि जीवों को जिम प्रकार नरकगति में उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार देवों में क्यों नहीं होती है ?
समाधान-यह ठीक है, क्योंकि यह तो हमें इप्ट ही है । शंका-तो फिर भवनवासी प्रादि में भी असंयत सम्यक्त्वी की उत्पत्ति प्राप्त हो जायेगी?
समाधान-नहीं, क्योंकि जिन्होंने पहले आयुकर्म का बन्ध किया है ऐसे जीवों के सम्यग्दर्शने का उस-उस गनि सम्बन्धी आयु सामान्य के साथ विरोध न होते हुए भी उस-उस गति सम्बन्धी विशेष में उत्पत्ति के साथ विरोध पाया जाता है । ऐसी अवस्था में भवनवासी, व्यन्त रवासी, ज्योतिषी, प्रकीर्णक, आभियोग्य और मिल्लिषिक देवों में, नीचे की ६ पृथिवियों में, सब स्त्री म, प्रथम नारक विमा सब नपुसकों में, विकलत्रय में, स्थावरों में. लब्ध्वपर्याप्तकों में व कर्मभूमिजतिर्यचों में असंयत मम्यक्त्वी के साथ उत्पत्ति में विरोध सिद्ध हो जाता है।'
सारतः सम्यक्त्वी नरतियंच मरकर भवनत्रिक देवों व सब देवियों में उत्पन्न नहीं होते, अतः वहाँ असंयत में एक पर्याप्नानाप ही सम्भव है।
मिस्से पुण्गालायो अणहिसाणुत्तरा हु ते सम्मा।
प्रविरद तिण्णालावा अणुद्दिसाणुत्तरे होति ॥७१८॥ गाथार्थ-देवों में मिश्रगुणस्थान में पर्याप्त ही ग्रालाप होता है। अनुदिश व अनुत्तर विमानवासी अहमिन्द्र सब नियम से सम्यक्त्वी ही होते हैं । अत: उनके असंयत में ३ आलाप होते हैं ।।७१८।।
विशेषार्थ - मिश्रगुणस्थान अन्तिमवेयकपर्यन्न सम्भव है। अत: वहाँ तक के अहमिन्द्रों के मिश्रगुरणस्थानों में नियम से पर्याप्त ग्रालाप ही होता है। पर ऊपर सव सम्यक्त्वी ही होते है क्योंकि यहां पर सभी के एकमात्र अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान है।" ऐमा प्रागम-वचन है । अत: उनके असंयत गुणस्थान में तीन बालाप बन जाते हैं।'
इन्द्रिय मार्गग्गा में ग्रालाप बादरसुहमेइ दियबितिचरिदियग्रसणिण जीवाणं । प्रोघे पुणे तिणि य अपुण्णगे पुरण अपुष्णो दु ॥७१६॥
१.ध. १/३३६ । २. प. ग्वं, १/६६ । ३. ब. २/५६७ एवं स. सि. १/७/प्रकरण २८/ एवं म. सि. ४/२६ एवं.१/३४१ सुत्र १० । ४. धवल पु. २ पत्र ४६६-४७० ।
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गाथा ७२० ७२३
आलाप / ७७५
गाथार्थ - चादर व सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रिय व प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय इन जीवों में से जिनके पूर्ण यानी पर्याप्त कर्म का उदय है, उनके तीन बालाप और जिनके पर्याप्त नाम का उदय है उनके एक पूर्ण यानी अपर्याप्त ही चालाम होता है । ७१६॥
विशेषार्थ यहाँ जिनके अपर्याप्त नाम का उदय है उनके अपर्याप्त में से भी लब्ध्यपर्याप्त आलाप ही होगा, निर्वृत्यपयप्ति आलाप नहीं। बाकी निवृत्यपर्याप्तिजीव के तो तीनों आलाप हो जाते हैं। शेष कथन सुगम है।
सीधे मिच्छे गुणपडवण् य मूलप्रालाना । लद्धियपुष्णे एक्कोऽपज्जत्तो होदि मालाश्रो ।।७२०॥
गाथार्थ- संत्री के ( संज्ञी पंचेन्द्रिय) गुणस्थानों में से मिथ्यादृष्टि के और गुगास्थान प्रतिपन्न के. के समान ही यालाप होते हैं। लब्ध्यपर्याप्त संज्ञी के एक है |||७२०
मूल
पर्याप्त ही श्रालाप होता
विशेषार्थ - संज्ञी पंचेन्द्रिय में आदि के १४ गुणस्थान होते हैं। संज्ञी के प्रथम गुणस्थान में सभी प्रालाप होते हैं तथा गुणस्थान प्रतिपन्न ( ऊपर के गुणस्थानों में चढ़े संज्ञी) के मूल के समान ही आलाय जानने चाहिए [ यानी सासादन, असंगत सम्यग्वष्टि, प्रमत्त व सयोगी के तीन-तीन आलाप तथा अन्य गुणस्थान मिश्र, देशबिरत व अप्रमत्तादि अयोग्यन्त के संजी पंचेन्द्रियों में मात्र पर्याप्त ही बालाप होता है । ।
काय मार्गणा में आलाप
भूमाउतेउवाकरिणच्चचदुग्र्गादिरिगोदगे तिष्णि
ताणं
थूलेदरसु वि पत्तेगे तद्दुभेदे वि ॥ ७२१ ।। तसजीवाणं श्रघे, मिच्छादिगुणे वि प्रोघ श्रालाप्रो । पुणे एक्कोsपज्जती होदि प्राला ।। ७२२ ।।
गाथार्थ - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, नित्य व चतुर्गति निगोव इनके बादर व सूक्ष्म, प्रत्येक वनस्पति, संप्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक इन सभी में तीनों आलाप होते हैं। त्रसों में, चौदह गुणस्थानों में गुणस्थानवत् ही श्रालाप जानने चाहिए। उपर्युक्त सभी जीवों में (पृथ्वी से सकाय तक ) लब्ध्यपर्याप्तकों के एक पर्याप्त श्रालाप ही होता है ।। ७२१-७२२ ।।
योगमाया में आलाप
एक्कारसजोगार, पुण्गगदाणं सपुण्यश्रालायो । मिस्सचउवकस्स पुरो सगएकक पुण्यालाश्रो ||७२३||
१. प्र. २/५६१ । २.२ / ५०६ ।
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७७६ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाचा ७२४
गाथा
पर्यागत ( पर्याप्तावस्था में ही जो हों) ग्यारह योगों में अपना-अपना एक पर्याप्त ही आलाप होता है। शेष चार मिश्रयोगों में अपना एक अपर्याप्त आलाप होता है ।। ७२३ ।।
विशेषार्थ - ग्यारह पर्याप्तिगत योग ये हैं-४ मनोयोग, ४ बचनयोग, एक प्रौदारिककाययोग, एक आहारक काययोग, एक वैक्रेयिक काययोग । ४ मिश्रकाययोग ये हैं- प्रदारिक मिश्र काययोग, आहारकमिश्र काययोग, वैक्रेमिकमिश्र काययोग, कार्मण काययोग । शेष कथन सुगम है ।
गाथार्थ - वेदमागंणा से आहारमार्गणा पर्यन्त अपने-अपने गुणस्थानवत् (यानी जिस वेद यदि मार्गणा में जो-जो गुणस्थान सम्भव हों, व उनमें मूल गुणस्थानों में प्रालाप जो-जो होते हैं, वे ही उन-उन मार्गणाओं के समझने चाहिए ) इतनी विशेषता है कि नपुंसक व स्त्री के प्राहारकद्विक नहीं है || ७२४ ||
विशेषार्थ - शंका - आहारक काययोगी व तन्मियोगी को नपुंसक व स्त्रीवेद क्यों नहीं
होता ?
शेष मार्गाओं के श्रालापों का कथन
दादाहारोति य सगुणट्टारणारणमोघ श्रालाप्रो ।
वरिय संहित्थी, गत्थि हु आहारगारग दुगं ।। ७२४ ||
समाधान - क्योंकि अशुभवेदों के साथ आहारकऋद्धि नहीं उत्पन्न होती है ।"
वेद मार्गणा से श्राहार मार्गणा तक बालाप
सम्भवगुणस्थान
मार्गरणा
वेद मार्गरणा
स्त्री नपुंसक वेद
पुरुपवेद
कषाय मार्गणा
क्रोध, मान, माया व लोभ
१६ सवेद भाग पर्यन्त | स्त्री- नपुंसक के १, २, ४ में आलाप त्रय । शेष गुणस्थानों में पर्याप्त आलाप | इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी के ये गुणस्थान में पर्याप्तालाप |
पु. वेदी के १, २, ४, ६ में श्रालापत्रय । शेष में पर्याप्तानाप
こ
१ से १० के अन्त तक
सम्भव श्रालाप
१. गो. क. गाथा ३१६ . २/६६८ ।
१, २, ४, ६ में ग्रालापत्रय । शेष में पर्याप्तयाला चारों कायों में पृथक-पृथक भी इसी तरह समझना इतना
विशेष है कि क्रोध, मान, माया में तक गुणस्थान व लोग में १० तक हैं ।
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गाथा ७२४
पालाप/550
मार्गरणा
सम्भय गुरगस्थान |
- --|-
सम्भव प्रालाप -- -- --
-
-
-
उभयत्र पालाप त्रय
ज्ञानमार्गणा मति श्रुत अज्ञान विभंग मतिश्रुतावधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान
४से
पर्याप्तालाप | ४, ६ में पालाप त्रय शेष में पर्याप्त पालाप
एक पर्याप्तालाप (सर्वत्र) । १३ व में पालापत्रय । १४ वें में एक पर्याप्त पालाप ।
केवलज्ञान
संयममार्गरणा असंयम
१से ४
संयमासंयम
| १, २, ४ में पालापत्रय । ३ में पर्याप्त पालाप | पर्याप्त पालाप | ६ में पालापत्रय, शेष में (७, ८, ६) में पर्याप्त पानाप एक मात्र पर्याप्त पालाप एक मात्र पर्याप्त पालाप | एक मात्र पर्याप्त पालाप (पर १३ व में पालापत्रय)
सामायिक छेदो. परिहारविशुद्धि सूश्मसाम्पराय
HAM
१० वा
यथास्यात
११ मे १४
दर्शनमार्गमा चक्षु, अचक्षु अवधि
म १२
से १२
। १, २, ४, ६ में पालापत्रय । शंष में पर्याप्त पालाप । ४. ६ में पालापत्रय । शेष में पर्याप्त पालाप । १३ व में पालाप त्रय । १४ वें में पर्याप्त पालाप ।
केवल
१३ से १४
लेश्यामार्गणा अशुभत्रय शुभद्विक
१, २, ४ में आलाप त्रय । शेष में पर्याप्त पालाप ।
१ से १७
शुक्ल
| १, २, ४, ६. १३
॥
भव्यमार्गणा अभव्य
१ पहला
पालापत्रम
भव्य
| १, २, ४, ६, १३ में ग्रालाप त्रय । शेष में पर्याप्त पालाप
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७७८/गो. सा. जीवकाण्ड
मार्गरणा
सम्यक्त्व मार्गा
मिथ्यात्व
सासादन
मिश्र
उपशम सम्यक्त्व
क्षयोपशम सम्यक्त्व
क्षायिक सम्यक्त्व
संज्ञी मार्गणा
अमंजी
संज्ञी
आहार मार्गणा
अनाहारक
श्राहारक
सम्भव गुरणस्थान
( परन्तु प्रा. पं. सं. पू. १०० १०१ के अनुसार १ से १२ गुणस्थान भव्य के )
पहला गुणैस्थान
दूसरा
तीसरा
४ से ११
४ से ७
४ से १४
१ प्रथम
१ से १२
१. २, ४, १३ व १४
१ से १३
सम्भव श्रालाप
आलाप त्रय ।
आलाप अथ ।
पर्याप्त आलाप |
I
आलापत्रय चौथे में द्वितीयोपशम की अपेक्षा प्रथमो में पर्याप्त श्रालाप | शेष में पर्याप्त भालाप
21
चौथे व छठे में प्रालाग त्रय । शेष में पर्याप्त
आलाप
४, ६, १३ में श्रालाप त्रय। शेष में पर्याप्त श्रा
आलाप त्रय ।
४, ६ में आलाप त्रय। शेष में पर्याप्त बालाए ।
१. २,
४. १३ में एक अपर्याप्त बालाप | १४ वे में पर्याप्त श्रालाप'
गाथा ७२५
१, २, ४, ६, १३ में श्रालाप श्रय । शेष में पर्याप्त बालाप |
इस प्रकार वेद से आहार मार्गणा तक आलाप कह कर आगे २० प्ररूपणा को श्रांधादेश में निरूपणार्थं कहते हैं ।
गुजीवापज्जत्ती, पारणा सन्ता गइंदिया काया ।
जोगा वेदकसाया, खारगजमा दंसणा लेस्सा ।।७२५ ॥
१ कि हमे यिमा || इति वचनादयोगिनि एकः पर्याप्त एवालाप: ।
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गाथा ७२६-७२७
पालाप/७५९
भव्वा सम्मत्तापि य, सोपी पाहारगा य उवजोगा।
जोग्गा पलविदव्या अोघादेसेसु समुदायं ।।७२६।। गाथार्थ -१४ गुणस्थान, १४ जीवसमास, ६ पर्याप्तियाँ, १० प्राण, ४ संज्ञाएँ, ४ गति, ५ इन्द्रियाँ, ६ काय, १५ योग, ३ वेद, ४ कषाय, ८ ज्ञान, ७ संयम, ४ दर्शन, ६ लेश्या, भव्याभव्यत्व, ६ सम्यक्त्व, संज्ञित्वासंज्ञित्व, प्राहारकानाहारक व १२ उपयोग' ये समस्त प्रोध व आदेश में (गुणस्थान व मार्गणास्थानों में) यथायोग्य-प्ररूपणीय है ।।७२५-२६।।
विशेषार्थ-ऊपर गुणस्थान आदि उपयोगपर्यन्त २० बताये हैं । उन त्रीसों का प्रोघ अर्थात् गुणस्थानों में तथा आदेश अर्थात् मार्गणास्थान में इस प्रकार से प्ररूपण करना चाहिए, जो कि आगम के विरुद्ध न पड़े। जैसे प्रथम गणस्थान में गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण आदि २०, कितने-कितने, कैसे, कव सम्भव हैं ? इसी तरह द्वितीयादि गुणस्थानों में व सकल मार्गणास्थानों में २० प्ररूपणा करनी चाहिए ।
जीवसमासों में विशेष श्रोघे प्रादेसे वा, सण्णीपज्जतगा हवे जत्थ ।
तत्थ य उरणवीसंता इगिवितिगुरिणदा हवे ठारणा १७२७।। गाथार्थ-प्रोघ (गुणस्थान) या आदेश (मार्गरणा) में संजीपर्यन्त मूल जीवसमासों का जहाँ कथन हो वहां उन्नीस पर्यन्त उत्तर जीवसमास स्थान के भेदों को एक सामान्य अपर्याप्त) तथा तीन (सामान्य, पर्याप्त व अपर्याप्त) से गुणा करने पर समस्त स्थान (जीवसमास के भेद) होते हैं।
विशेषार्थ-गुणस्थानों में ब मागंगास्थानों में संजी पंचेन्द्रिय तक १ मे १६ तक जो जोब. समासों के भेद गिनाये हैं, उन्हें सामान्य प्रालाप से गुणा करने पर १६, नन्हें ही पर्याप्त व अपर्याप्त इन दो आलापों से गुणा करने पर १६४२ = ३८ भेद एवं पर्याप्त, नित्यपर्याप्त व लध्यपर्याप्त इन तीन से गुणा करने पर ५७ भेद हो जाते हैं।
संक्षिप्तत:-'सामान्य जीव' इस प्रकार एक जीवममाम तथा अस व स्थावर इस प्रकार दो जीवसमास के स्थान तथा एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय ब गकलेन्द्रिय-- इस तरह जीवसमास के ३ स्थान हैं। इसी तरह क्रमश: प्रागे-आगे जीवसमास स्थानों को यथागम उत्पन्न करते हुए जीवसमास के १६ स्थान इस प्रकार होते हैं
पृथ्वी, जन्न, अग्नि, वायु, नित्यनिगोद, चतूर्गतिनिगोद ये ग्रह हैं। ये बादर और मुक्ष्म सप्रतिष्ठित प्रत्येक व अप्रतिष्टित प्रत्येक भेद, द्विइन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चनुरिन्द्रिय, असजी पंच., संजी पंचे. । इस तरह सामान्य जीव रूप एक स्थान से उन्नीस भेद पर्यन्त स्थानों को १, २ व ३ से गुणा करने पर . - .१. विशेष जानकारी के लिए घवला का सम्पूर्ण दूसरा भाग देखना चाहिए। १. गो. जी. ७५-७६-७६, ५. २ पृ. ५९३ से ६.१।
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७५०/गो. सा. जीवकाण
गावा ७२८.७२६
यथाक्रम १६ भेदस्थान, ३८ भेदस्थान और ५० भेदस्थान होते हैं। यही विशिष्ट स्पष्टीकरण नहीं किया जा रहा है क्योंकि इसी ग्रन्थ में पहले विस्तृत कथन किया जा चुका है।' अब 'गुणजीया पज्जत्तीपाणा...'इस गाथा द्वारा कथित विशति भेदों की योजना करते हैं
वीरमुहकमलरिणग्गयसयलसुयग्गहणपयउरणसमत्थं ।
गमिऊरण गोयममहं, सिद्धतालावमणुबोच्छं ॥७२८।। गाथार्थ –महावीर स्वामी के मुख-कमल से निकले सकल श्रुत को ग्रहण करने एवं उसे प्रकट करने में सक्षम गौतम गणधर को नमस्कार करके अब मैं सिद्धान्तालाप काहूँगा ।।७२८।।
तो का
विशेष-ग्रन्थ का नाम गोम्मटसार है । अतः इसमें २० प्ररूपणा का कथन सार रूप में किया गया है। यही स्थिति सिद्धान्तालाप की भी है। सिद्धान्तसम्बन्धी मुख्य मुद्दे प्राचार्यश्री द्वारा प्रागे ६-७ गाथाओं में कह दिये गये हैं। सिद्धान्तालाप का मतलब सिद्धान्तविषयक कुछ मुस कथन । इतना ही यहाँ प्राचार्य श्री को सिद्धान्तालाप' से इष्ट रहा है। विस्तार से निरूपण पट खण्डागम की धवला टीका की दूसरी पुस्तक (पृ. ४१८ से लेकर अन्तिम पृष्ठ पर्यन्त) से समझना चाहिए । ग्रन्थ के अत्यधिक विस्तार के भय से यहाँ वह प्ररूपणा नहीं की जा रही है ।
सिद्धान्तालाग कथन में ध्यातव्य नियम मणपज्जवपरिहारो पतमुवसम्मत्त दोपिरण पाहारा।
एदेसु एक्कपगवे गस्थित्ति असेसयं जाणे ।।७२६।।" गाथार्थ-मनःपर्य यज्ञान, परिहार विशुद्धिसयम, प्रथमोपशम सम्यवत्व और ग्राहारकद्वय (आहारक व आहारकमिथ) इन चारों में से एक के होने पर अन्य तीन भेद नहीं होते, सा जानना चाहिए ।।७२६।।
विशेषार्थ- उपयुक्त ४ मार्गणामों में से किसी एक के होने पर (किसी जीव के) शेप ३ मार्गणाएँ नहीं होती हैं। यथा, किसी जीव के मनःपर्यय ज्ञान है तो उसके परिहारविशुद्धिसंयम, प्रथमोपशमसम्यक्त्व व 'ग्राहारकशरीर व आहारक अंगोपांग ये तीनों नहीं होंगे, ऐमा जानना चाहिए ।।७२६।।
शंका- तब इस तरह से तो याहारककाययोगी व प्राहारकमिथ काययोगी मुनिराज के उपशम सम्यक्त्व हो, यह सम्भव नहीं है ?
समाधान- नहीं, ऐसे मुनिराजधी के भायिक व क्षायोपामिक-ये दो मग्यवत्व ही बन सकने
१.गो. जी. ७७-७८५ ३-मे७६२. गो. जी. ३॥वं गो. जी. ७२६ तथा ध. २/१२॥ प्रा. पं. गं.१/२। ३. सिद्धानाचार्य पण्डितकलागवतमहोदयानां प्रकथनानुसारेण लिखितम् । ४. प्रा. पं. सं. १/१/१६४१.४१ एवं सं. पं. सं. १/३४० एवं घ.१/८२४ गा. २४०। पर तत्र पूर्वार्ध मरणपज्जव परिहागे 'उवसमसम्मस दोषिया याहारा इसि पाठः तदपि 'पदम्बमम्मत्त' इत्यस्य पाटस्योचितवं प्रतिभानि टीकाकारः]
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गाथा ७२६
पालाप/७६१
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है, क्योंकि उपशम सम्यक्त्व के माथ आहारक शरीर या आहारक सम्बन्धी योग नहीं बन सकता।'
शंका- गाथा में 'पढमुवसम्मत्त' शब्द आया है मो इससे तो यह साबित होता है कि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के लिए यह बात नहीं है । क्या यह ठीक है ?
समाधान--ठीक है, इसमें क्या शंका ?
शंका-तो फिर 'द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के साथ आहारकद्विक व परिहारविशुद्धि व मन:पर्यय होने सम्भव हैं." ऐसा कहना ठीक है ना ?
समाधान--ऐसा नहीं है, वही कहा जाता है-प्रथमोप णम सम्यक्त्व के साथ जैसे मनःपर्ययज्ञान, परिहार विशुद्धिसंयम और पाहारकाद्विक ये सब (यानी तीनों) नहीं हो सकते, वैसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के साथ सभी के सभी (सीनो ही) में से कोई भी नहीं हो सकते हों, ऐसी बात नहीं है। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के साथ मनःपर्ययज्ञान तो हो सकता है। हाँ, द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के साथ परिहारविशुद्धि व आहारकद्रिक नहीं होते, इतना ठीक है। सारतः द्वितीय उपशम के साथ तीनों मार्गणाएँ निषिद्ध न होकर मार्गणाद्धय ही निषिद्ध हैं।
शंका-द्वितीयोपशमसम्यवत्व मनःपर्य यज्ञानी के कै सम्भव है ?
समाधान-जो वेदक सम्यवत्व से पीछे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है उस उपशम सम्यक्त्वी के प्रथम समय में भी मनःपर्ययज्ञान पाया जाता है। किन्तु सीधे मिथ्यात्व से आये हुए उपशम सम्यम्दृष्टि जीव में मनःपर्ययज्ञान नहीं पाया जाता है।
वयोंकि, मिथ्यात्व से पीछे पाये हुए उपशम सम्यक्त्वी के उपशम मम्यक्त्व के उत्कृष्टकाल से भी ग्रहण किये गये सबम के प्रथम समय से लगाकर मवं जवन्य मन.पर्यवज्ञान को उत्पन्न करने वाला काल बहन बड़ा है। प्रतः द्वितीयोपणमसम्यकत्वों के मनःपयंयज्ञान सम्भव है। यानी प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि के प्रथमोपशम सम्यक्त्व के रहने का काल अन्तर्मुहूर्त ही है। तथा यह अन्नमुहूर्त काल, संयम को ग्रहण करने के पश्चात् मनःपर्य यज्ञान को उत्पन्न करने के लिए योग्य संग्रम में विशेषता लाने के लिए जितना काल लगता है, उससे छोटा है । अतः प्रथमोपशम सम्यक्त्व के काल में मनःपर्यय की उत्पत्ति हो सकती नहीं, परन्तु द्वितीय उपशमसम्यक्त्व तो उपशम श्रेणी के अभिमुख विशेषसंयमी के ही होता है । इसलिए यहाँ पर अलग से मनःपर्ययज्ञान के योग्य विशेष संयम को उत्पन्न करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। फलन: द्वितीयोपशम मम्यक्त्व के ग्रहण के प्रथम समय में भी मनःपर्ययज्ञान सम्भव है।
१. धवल २/६६८-६६६ । २. गो. जी. ७२६, ध.२/०२४ (भाषा टोका), प्रा. पं. म. १गा. १६४ पृ.४१
; सं. पं. स. १/४० प्रादि । ३. घ.२/७२८-७२६ एवं प्र. ०२२ द पृ. ८२४ प्रादि । ४. ध.२/७३५ एवं २/८२३; २/८२४ (नक्शा ५००)। ५. बबन पु. २/६६८। ६. मणपज्जवणामीण भणमाग अस्थि....तिणि सम्मत्तागि ; बंदगसम्मवान्छायदवसमसम्मत्त सम्मादुिन्स पढमममए वि मगपजनवगाणुवलं भादो । (मित्तपच्छायद-उबममम माइट्रिटम्म भगापज्जवणाएं ग वलभदे, मिच्छत्तपच्छादुक्कस्बमममम्मनकालादा वि गहिदसलम पहमसमयादो सब जहणमणपज्जवणाणप्पागासजम कालम्स बहुतुबलभादो । ध. २/७२-७२६ एवं १२२ ।
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७८२ / गो. सा. जीवकाण्ड
शंका- परिहारविशुद्धिसंयम, उपशम सम्यग्वष्टि मुनिराज के क्यों नहीं हो सकता है ?
समाधान- इसका कारण यह है कि मिध्यात्व से पीछे प्राये हुए प्रथमोपशम मम्यग्दृष्टि जीव तो परिहारविशुद्धिसंयम को प्राप्त होते नहीं हैं, क्योंकि, प्रथम उपशमसम्यक्त्व का काल तो बहुत थोड़ा है, इसलिए उसके भीतर परिहारवि द्धिसंयम की उत्पत्ति के निमित्तभूत विशिष्ट संयम, तीर्थकर चरणमूल वसति प्रत्याख्यान महासमुद्र का पढ़ना आदि गुणों के होने की सम्भावना का प्रभाव है श्रीर न उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले द्वितीयोपशम सम्यग्दष्टि जीवों के भी परिहारविशद्धि संयम की सम्भावना है, क्योंकि, उपशमश्रेणी पर चढ़ने से पूर्व ही जब अन्तर्मुहूर्तकाल शेष रहता है तभी परिहारविशुद्धि संयमी अपने गमनागमनादि बिहार को बन्द कर लेता है और न उपशम श्रेणी से उतरे हुए द्वितीयोपशमसम्यक्त्व संयत जीवों के भी परिहारविशुद्धि की सम्भावना है, क्योंकि उपशमसम्यक्त्व के नष्ट हो जाने पर परिहारविशुद्धिसंयमी का पुनः विहार सम्भव
गाथा ७३०
1
शंका – देवगति को जाने वाले मुनि के (श्रेणी से उतरकर) गमन के समय (विग्रहगति में गमन के समय ) अपर्याप्तावस्था में द्वितीयोपशम सभ्यतत्व पाया जाता है, अतः वहाँ परिहारविवृद्धि बन जाओ ?
--
गमन के समय म समाधान नहीं, क्योंकि उस समय उस द्वितीयउपशममम्यक्त्वी के चतुर्थगुणस्थान पाया जाता है । तथा चौथे गुणस्थान में परिहारविशुद्धिसंयम का उपदेश ग्रागम में नहीं है।
शंका- परिहारविशुद्धिसंयत के ५ संयमों में से कितने संयम होते हैं ?
समाधान-एक परिहारविशुद्धिसंयम ही होता है ।
अथवा ऐसा परिहारविशुद्धिसंयत अन्य संयम को भी धारण करता है, यथा जो ५ समिति और ३ गुप्ति से युक्त होता है, सदा ही सर्वमाद्य योग का परिहार करता है तथा ५ यम रूप छेदोपस्थापना संयम को और एक यमरूप सामायिक संगम को धारण करता है, वह परिहारविशुद्धि संयत कहा जाता है ।'
かな
इस प्रकार चारों में से एक मार्गसा हो एक जीव में होती है. ऐसा कहकर अब आगे द्वितीयोसम्यक्त्व के मरण के बारे में आचार्यश्री कहते हैं
बिदिवसमसम्मत्त सेदोदोदिपिण अविरदादीसु । सग-सगले सामरिदे देवप्रपज्जत्तगेव हवे ||७३० ॥
गाथार्थ --उपशम श्रेणी से नीचे उतरने पर प्रसंयत श्रादि गुणस्थानों को पाने वाले जीव म
१. ध. २/६२२-२३ । २. ६. १/४०६, गो. जी. ७३० किञ्च तस्मिन् विग्रह-काले देवगतित्वाच्चतुर्थ- गुगाथाना दुपरितनगुणस्थानं न सम्भवति । षट् नं. १ / १६६ । ३. परिहारमुद्विसजदाणं भगमा प्रत्थि दो गुणा (मत मत्तगुणारि ) ध. २ / ७२४ घ १/३७६, ३०४ । ४. पमत प्रप्पमत परिहार सुद्धिसंजदागं, परिहारसंजमो को चेत्र । ५. पंत्र समिदो ति-गुत्तो परिहरइ मदा बिजी हुसावज्ज । पंचममेय नमो वा परिहारो मंजदो सी है । १८६ / १/३०४: प्रा. पं. सं. ११३१. २८ संस्कृत पं. सं. १ । २४१ ।
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गापा ७३०
पालाप/७८३
जो स्त्र-स्व लेश्या के अनुसार मरण करके देवगति में जाता है, उसी के देवगति में अपर्याप्तकाल में द्वितीय उपशमसम्यक्त्व होता है ।।७३०॥
विशेषार्थ—एक मात्र देवों में गमन का कारण यह है कि ऐसे जीव का अबद्धप्रायुष्क का तो मरण उपशम श्रेणो में होता नहीं और प्रायुबंध भी हुआ हो तो नियम से ऐसे जीव के देवायु ही सम्भव है, क्योंकि, अन्य नरक, तिर्यंच, मनुष्य प्रायु के बन्ध होने पर तो वह श्रेणी चढ़े या संयम पामाशिक संयम देश संगम) पावे, यह भी असंभव है ।' अतः उस सम्यक्त्वी के पास सत्त्व मनुष्यायु के सिवाय (मरण से पूर्व) किसी भी स्थिति में देवायू का भी बन पाता है, अन्य का नहीं। अत: गमन भी ऐसे जीव का देवों में ही होना बताया है।
माङ्का--द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति किस गुणस्थान वाले जीव के होती है ?
समाधान-मात्र असंयत सम्यक्त्वी से अप्रमत्तसंयत तक के किसी भी गुणी के इसकी उत्पत्ति सम्भव है।
शंका-द्वितीय उपशम सम्यक्त्व किसे कहते हैं ?
समाधान-उपशम श्रेणी चढ़ते समय क्षयोपशम सम्यवत्व से जो उपशम सम्यक्त्व होता है उसे द्वितीयउपशम सम्यक्त्व कहते हैं।
शङ्का-सारतः द्वितीय उपशम सम्यक्त्व कहाँ-कहाँ सम्मन्न है ? समाधान—पर्याप्त मनुष्यगति में व निर्वृ त्यपर्याप्त देवगति, इन दो में ।'
शंका-द्वितीयोपशम सम्यक्त्वी इम द्वितीयोपशम सम्यक्त्व काल के भीतर छह प्रावली के शेष रहने पर सामादन को भी प्राप्त हो सकता है क्या?
समाधान-हाँ, पर यह उपदेश कषायप्राभूत चूणिसूत्र' (यतिवृषभ प्राचार्य कृत) के अनुसार है। किन्तु भगवान् भूतबली के उपदेशानुसार उपशम श्रेणी से उतरा हुमा मामादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता है । प्रज्ञाभाव में उभयमन यावत् केवलीसन्निधि सङ्ग्रहणीय है।
१. हंदि तिसु प्राधासु एकेग वि बद्धेगा गा सको वासाए जसमामेनु, तेरण कारणेग गिग्य-तिरिक्ख-मरणासदियो ग गच्छदि । ध. ६१३३१॥ दगी. क. ३३४-३३५ व लब्धिसार भ. ३५१ । २. गो. क. ३३४-३५, गो.जी. ६५३ । ३. ब, १।२११-१२ व कर्मप्रकृति [प्रवे.] ग्रन्थ पृ.२६७ तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा या. ४८४ टीका, मूलाचार ।१२।२७५ टीका ४. (i) ध. २/४३४, (ii) पर्याप्तमनुष्यसंयमिन एव द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं भवति इति धवलायां द्वितीय पुस्तके ७२६ पृष्ठे लिखितम् । पर्याप्तावस्थायाञ्च द्वितीयोपणमसम्पक्विनो देवगतिः एव [घ, २ पृ. ८२१] इति आगमवचनाच्च । ध. २१५३८ । ५. एदिरसे उवममसम्मत्तद्धाप मम तरदो असंजमं दि पच्छेज्ज, संजमासं जम पि गच्छद्रेज, दो वि गच्छेज्ज । इस प्रावलियासु मेमासु प्रामाण पि गच्छेज्ज ।। ५४२-५४३ सूत्र, १४ चारिक उप. प्रधि.पतमान उपणामकक्रियाविशेष पृ. ७२६ कापायपाइसुत्त चगि मुत्रमय | ६. उवमममेडिदा प्रादिधगाण मासण-मरणा भावादो तिपि कदो गावदे? एदम्हादो वेव भूदबली-षयणादी [यत् 'सासादनानां जघन्यन पल्योपमासंख्येय-मागप्रमितमन्तरम। ध. ५ पृ. ११। *घ. ६।३३१ व ल. सा. ३४८, ३५० [प्रत्र मतद्वयं निरूपितं वर्तते ।
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७८४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ७३१
शङ्का-गाथा में "मग-सग लेस्सा भरिदे" को पढ़कर एक घर्चा उठती है, कि किस-किस लेश्या से द्वितीयोपशमसम्यवत्वी कहाँ जन्मेगा? तथा इन सम्यग्दृष्टियों का उत्पाद देवों में कहाँ से कहाँ तक होता है ?
समा ...इसे ही कहा जाता है देवक मायाव को उपशमा करके और उपशम श्रेणी पर चढ़कर फिर वहाँ से उतरकर प्रमन्नमयत, अप्रमत्तसंयत, असंयत और संयतासंयत उपशमसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों से मध्यम तेजोलेश्या को परिमाकर और मरण करके सौधर्म-ऐशान कल्पवासी देवों में उत्पन्न होने वाले जीवों के अपर्याप्तकाल में प्रीपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता है। तथा, उपयुक्त गुणस्थानवी ही उत्कृष्ट तेजोलश्या अथवा जघन्य पद्मलेश्या को परिणमाकर यदि मरण करते हैं तो प्रौपशमिक सम्यक्त्व के साथ सानतकुमार और माहेन्द्र कल्प में उत्पन्न होते हैं। तथा, वे ही उपशम सम्यग्दृष्टि जीव मध्यम पद्मलेश्या को परिणमाकर यदि मरण करते हैं, तो ब्रह्म आदि ६ कल्पों में उत्पन्न होते हैं । तथा, वे ही उपशममम्यग्दृष्टि जीव उत्कृष्ट पद्मलेश्या को अथवा जघन्य शुक्लले श्या को परिणमाकर यदि मरण करते हैं तो औपशमिक सम्यक्त्व के साथ ग्यारहवें बारहवें स्वर्ग के देवों में उत्पन्न होते हैं। तथा उपशम श्रेणी पर चढ़ करके और पूनः उतरे बिना ही मध्यम शूबल लेश्या से परिणत होकर यदि मरण करते हैं तो उपशम सम्यक्त्व के साथ तेरहवें ग्रादि नवमें ग्रे
ग्रेवेयक तक इन १३ में उत्पन्न होते हैं। तथा पूर्वोक्त उपशम सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या को परिणमाकर यदि मररग करते हैं तो उपशम सम्यक्त्व के साथ नौ अनुदिश और ५ अनुत्तर बिमानवामी दे में उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार लेश्यानुसार मरण कहा । तथा इस (उपर्युक्त) कारण से मौधर्म स्वर्ग से लेकर ऊपर के सभी (यानी सर्वार्थसिद्धि तक के) असंयत सम्यग्दृष्टि देवों के अपर्याप्त काल में प्रौपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता है।'
गुणस्थानातीत सिद्धों का स्वरूप सिद्धारणं सिद्धगई केवलरणारणं च दंसणं खयियं ।
सम्मत्तमरणाहारं उवजोगारणक्कमपउत्तो ॥७३१॥ गाथार्थ-सिद्धों के सिद्धगति, केवलज्ञान और केवल दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, अनाहार और ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग की युगपत् प्रवृत्ति होती है ।।७३१।।
विशेषार्थ-सिद्धों के नाम कर्मोदयकृत ४ गति, अशुद्ध ४ ज्ञान, ३ दर्शन तथा वेदक या उपशम (दोनों) सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्व सासादन या मिथ भाव व ग्राहार (कर्म-नोवार्म का) एवं ज्ञान-दर्शन की क्रमवृत्ति नहीं होती है, यह इस गाथा से फलित होता है ।
अन्य बात यह है कि सिद्धों के ही क्या-क्या भाव हैं, इस सन्दर्भ में इसी ग्रन्थ के कर्मकाण्ड में इस प्रकार कहा गया है
मौपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदायिक व पारिणामिक इन पाँच भावों में से सिद्धों के क्षायिक व पारिणामिक ये दो भाव होते हैं। तथा इन्हीं दो के उत्तरभेदों की अपेक्षा सिद्धों के सम्यक्त्व, ज्ञान,
१.ध.२/५६२ ।
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गाथा ७३२
पालाप/७८५
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दर्शन व वीर्य (ये चार क्षायिक) एवं जीवत्व (१ पारिगा।मिक भाव) ये चुन्न ५ भाव होते हैं।' साथ ही सिद्धों के क्षायिकदान गुराग भी है, क्षायिकवीर्य' की तरह, यह विशेषतया ज्ञातव्य है । इम प्रकार सिद्धों के उपयुक्त सिद्धगति, केवलजासादि के साथ माणिव दीर्ग, करिषदा, अयिक चारित्र आदि गुणों का अस्तित्व भी ज्ञातव्य है । यद्यपि यहाँ पर कथन तो इस बात का है कि विशतिप्ररूपणाओं में से सिद्धों के कौन-कौनसी प्ररूपणा हैं ? इसी सन्दर्भ में कहा गया है कि सिद्धों में २० प्ररूपणाओं में से गाथोक्त सिद्धगति, केवलज्ञान, केवलदर्शन, मम्यवत्व आदि षट् प्ररूपणा तो है और अागामी गाथा में बतायेगे कि शेष (२०-६=१४) चतुर्दश प्ररूपणा रहित (यथा गुणस्थानातीत ग्रादि हैं, परन्तु केवलज्ञान, केवल दर्शन व सम्यक्त्व ये सिद्धों के क्षायिक गण भी हैं। अतः अन्य भी सिद्धों के क्षायिक गुणों के अस्तित्व के संकेतार्थ उपयुक्त भावों विषयक कथन कर दिया गया है।
शंका--कषायमार्गगा व वेदमार्गणा के प्रभाव होने पर उन्हें अकषाय गुणमय प्रादि कहा जा सकता है या नहीं?
समाधान-क्यों नहीं ? कषाय, वेद प्रादि के अभाव होने से सिद्धों में प्रकपायत्व, अवेदत्व ग्रादि गुण भी होते हैं, ऐसा कहना शास्त्र से अविराद्ध है।'
शखा -तो फिर मार्गगणा के प्रभावों की अपेक्षा तो सिद्धों के निर्योगत्व, निरिन्द्रियत्व आदि गुगा भी कहे जा सकते हैं?
समाधान-क्यों नहीं, सिद्धों के निर्गतित्व, निरिन्द्रियत्व, निकषायत्व, निर्योगत्व, निर्वेदत्व आदि गुण भी कहे जा सकते हैं ।
शंका--सिद्रों में आपने चारित्र कहा, सो मिद्धों के चारित्रगुगा कैसे गम्भव है ? कर्मकाण्ड (गा. ८१६-८२१) में तो चारित्रगुण सिद्धों में गिनाया नहीं ?
समाधान-सिद्धों में भी अकरायरूप चारित्रगुण है, उनके चारित्रगुण की निर्मलपर्याय है। पूर्व में भी ऐसा कहा जा चुका है । वहाँ कर्मकाण्ड में सामान्य से कथन है, कहीं बारित्रगुण या क्षायिक चारित्र का सिद्धों के, वहाँ पर निषेध थोड़े ही किया गया है।
मिद्ध किन-किन से रहित हैं - गुरगजीवठाणरहिया, सणापज्जत्तिपारणपरिहीरणा ।
सेसरणवमग्गणणा सिद्धा सुद्धा सदा होति ।।७३२॥ गाथार्थ -सिद्ध गुणस्थान, जीवसमास, संज्ञा, पर्याप्ति व प्रारण इनमे रहित होते हैं । नथा इनके
१. गो. क. ८२१, ८२२, ८१६ । २. स. सि. २१४ परमानंदाव्यायाधरूपेण तेषां, [क्षायिकदानादीनां] तप [सिद्ध] तिः अस्तित्वमिति] प. प्र. १२७, २ टीका भाषा।*रा. बा.२/४/७। ३. अकषायमवेदत्तं प्रकारयत्त विदेहदा मेव । प्रचलतमलेपत्तं च होति अचंति याई से ।।३१।। घ, १३11०। ४. विशिष्टभेदनयन निर्गतित्वं, निरिन्द्रियत्व, निष्कायत्व, निर्योगत्व, निबॅदावं, निष्कापायत्यम् ....... इत्यादिविशेषगुणा:... ... . . सं. गा. १४ ठीका [सं.]
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७८६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ७३३
०
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| मु. | जी. ! प.
! . . . | .
प्रा. | सं.
(पूर्व की गाथा में कथित सिद्धगति, केवलज्ञान, केवलदर्शन, भायिक सम्यक्त्व व अनाहार इन ५ को छोड़कर) शेष नौ मार्गरगाएँ नहीं। प्रनीत पायी जाती हैं। ये सदा मिद्ध तथा शुद्ध ही रहते हैं। (क्योंकि,
प्रतीत उनका पुनः अशुद्धावस्था से लेप असम्भव है ।) ।।७३२।।
प्रतीत विशेषार्थ - स्पष्टीकरणार्थ मिद्धों में बीस धरूपणा में से गुणस्थान प्रादि प्ररूपणा इस प्रकार की जा सकती है. यथा-सिद्धों
प्रतीत के अतीत गुणस्थान, प्रतीत जीवसमास, अतीतपर्याप्ति, प्रतीत प्राण, क्षीरसंज्ञा, सिद्ध गति, [अथवा प्रगतित्व (चार गति के क्षीण सं. अभाव की अपेक्षा)] अतीत जाति, अकाय, अयोग, अपगतवेद, अकषाय, केबलझान, संयम, असंयम और संयमासंयम इन विकल्पों
सिद्धगति से मुक्त, केवल दर्शन, द्रव्यभावतः अलेश्य, भव्याभव्यविकल्प
अतीन्द्रिय रहित, क्षायिक सम्यक्त्व, संज्ञिकासंज्ञिक विकल्पातीत, अनाहारक, साकार-अनाकार दोनों उपयोगों से युगपत् उपयुक्त – इस प्रकार | प्रतीतकाय प्ररूपणा है।'
प्रयोगी २० भेदों के ज्ञान का उपाय व फल
अपगनवेद णिक्खेदे एयत्थे,णयप्पमाणे णित्ति प्रणियोगे। मग्गइ वीसं भैयं, सो जारगइ प्रप्पसम्भावं ॥७३३।। । क्षीणकपाय
गाथार्य-जो निक्षेप में, एकार्थ में, नय में, प्रमाण में तथा मा केवलज्ञान निगक्ति व अनुयोग में २० भेदों को जानता है, वह प्रात्म सद्भाव को जानता है।
अनुभय विशेषार्थ -जो किसी एक निश्चय या निर्णय में क्षेपण करता
केवलदर्शन है अर्थात् जो अनिर्णीत वस्तु का उसके नामादिक द्वारा निर्णय
ग्रलेय कराता है, उसे निक्षेप कहते हैं । ' अथवा यों भी कह सकते हैं कि अप्रकृत अर्थ का निराकरण करके प्रकृत अर्थ का निरूपण करने
अनुभय बाला निक्षेप है। अथवा संशय, विपर्यय व अनध्यवसायरूप विकल्प से हटाकर जो निश्चय में स्थापित करता है उमे निक्षप कहते है।
क्षायिक
, अथवा वाह्य अर्थ के सम्बन्ध में जितने विकल्प होते हैं, उनका जो कथन करता है उसे निक्षेप कहते हैं।' तथा वह नाम, स्थापना,
भनुभय द्रव्य ब भाव के भेद से ४ प्रकार का होता है।'
अनाहारक प्राणभूत असाधारण लक्षण एकार्थ कहा जाता है । यथा जीव
गाकार-अनाकार का लक्षण चेतना । अथवा एक ही है अर्थ जिनका, वे शब्द एकार्थ
युगपत् १. ध. २/४५१/५७०८५५/५६२ .. ........१८५५ प्रादि । २. घ. १११ ३. घ. १३।३ जयघवला । ४, घ, १३१६ | ५. ध. १३/४९८ ।
सिद्धो के २० प्ररूपमा
"-----
ज्ञा. । संय. द. | ने. . म. | न. | मनि .
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गाया ७३३
पालाप ६७
कहे जाते हैं, यथा "प्रारणो व जीव” दोनों शब्द यात्मा (आत्मा नामक अर्थ ) के ही वाचक हैं।
ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं ।' अथवा श्रुतज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं । अथवा प्रमाण (सम्यग्ज्ञान) के द्वारा सम्यक प्रकार से गृहीत वस्तु के एकधर्म अर्थात् अंश को ग्रहण करने वाले ज्ञान को नय कहते हैं । अथवा जो नाना स्वभावों से हटाकर किसी एक स्त्रभाव में वस्तु को प्राप्त कराता है, बह नय है । अथवा यों कहा जा सकता है कि वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाला नय होता है । अथवा यों भी कहा जा सकता है कि वस्तु की एकदेश परीक्षा नय का लक्षण है । ५
यह नय प्रमागा के अवयव रूप होता है। इसके मूलतः दो भेद होते हैं १. द्रव्याथिका २. पर्यायाधिक अथवा यों भी कहा जा सकता है कि नयों के ये मूल दो भेद हैं १. निश्चय २. व्यवहार ।। इन्हीं मूलन यय के उत्तरभेद संख्यान या असण्यात अथवा अनन्त तक भी होते हैं।
सकल बस्तु का ग्राहक प्रमाण होता है। जिस जान के द्वारा वस्तु-वरूप जाना जाता है, निश्चय किया जाता है, वह ज्ञान प्रमाण है।
सारतः अनियन अनेक धर्मविशिष्ट वस्तु (सम्पूर्ण वस्तु) को विषय करने वाला प्रमाण होता है और नियन एकधर्मविशिष्ट वस्तु को विषय करने वाला नय होता है ।
जिस त्रिया, प्रत्यय आदि के द्वारा, जिस अर्थ में शब्द की निष्पत्ति होती है, उमको उमी प्रकार से कहना निरुक्ति है। जैसे "जो जीता है, जियेगा और पूर्व में जी व का है, उसे जीव कहते
जीव ग्रादि पदार्थों के जानने के उपाय विशेष को अनुयोग कहते हैं । वे ये हैं (६ भेद) निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान |
इस प्रकार इन उपयुक्त निक्षेप, एकार्थ, नय, प्रमाग, निरुक्ति व अनुयोग के द्वारा जो पूर्व कथित २० प्ररूपणानों को जानता है, वह आत्मा के स्वरूप को जान लेता है ।
इस प्रकार मोम्मटमार जीवाड़ में पालाप प्ररूपणा नामक बाईसवा अधिकार पूर्ण हमा ।
१. प्रा. पति १५१, धवला । २. पा. प. १८१ एवं समयसार सा.पू. १५०। ३. प्रा. प. १८१, स्याद्वाद मजरी ३१०। ४. स्वा. काति, अनु गा, २६३ । ५. प्रवचनसार १८१ ता. वृ. ६. प्रा. प नयाधिकार ३६७, प. १०१२ एवं म. सि. १।३३ ८. मा. प. ७७ । सकलवस्तुग्राहक प्रमाण, प्रमीयते, परिछिइते वस्तुतत्त्वं येन ज्ञानेन तन्त्रमारणम् । अथवा सम्यग्ज्ञान प्रमारणम् प्रा. पं. ३४ है. रा. बा. १/४/७ जीवति, अजीवत् जीविष्यति इति वा जीवः । स्वा. कानि. प्र. ११- लोकानुप्रेक्षा । गा. १३६ टीका १०.त-सू. ११७ ।
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७८८/गो. सा. जीवका
गाथा ७३४
अन्त में नेमिचन्द्राचार्य अशीर्वचनात्मक माथा कहते हैं प्रज्जज्जसेणगुणगरगसमूह संधारि अजियसेरणगुरू ।
भुवरण गुरू जस्सगुरू सो राम्रो गोम्मटो जयउ ॥७३४॥ गाथार्थ-आर्य आर्यसेन के बहुत गुणों के समूह का संधारमा करने वाले अजिनमेन गुरु-जो त्रिभुवन के गुरु हैं- वे जिराके गुरु हैं, वह गोम्मट राजा जयवन्त वर्तो ।
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गाथासूची है
* गाथासूची
गाथा
पृष्ठ
mim
१५५
२८१
३६४
४८१ १४८
१४६
६४१
पृष्ठ মাথা १८६ : अंनोमुहमेत २४२ अंनोमुहृत्तमेत्ता ४०५ | अद्धत्तेरस वारम ४८३ : अपदिदिदपत्तेयं ४८३ । अपदिदिदपत्तया ४८८ | अप्पपरोभय ४८६ | अयदोति छ ४६७ | अयदोत्ति हु अवि ७३३ । अवरइब्वादरिम ४६३ । अवरद्ध अवस्व १० घरपरित्ता ८८ | अवरमपृणा
प्रवरा पज्जाय अवम्बरि इगि
| अवरुवारम्मि १११ / अवरे बरसंस्त्र ५२२ | अवरोग्गाहण ४४१ | अवरोमगाहण ६९१ | अवगे जूत्तागानो ४२६ अवगहिवत
अवगेहिवन ६७१ ! अबर तु नाहि
अवर दव्वमुदा
अवरंसमुदा हाति ६१ अरसमुदा मा ४२५ | प्रवरं होदि ग्रन २१८ । अवहीर तेत्तीस
अवहीयदि ति प्रोही प्रध्वाधादी ग्रंतो अमहायणाण अमुराणमसंम्वे
असुराणमसं ६८ | असुहारणं वर
अइभीमदंसरगण अंगूलनसंख अंगलग्रसंस्त्र अंगुलमख अंगुल असंख अंगुलप्रसंख अंगुल असंख अंगुलप्रसंख अंगुलअसंख अंगुलमावलिया अंगोवंमृदयादो अज्जज्जमेणगुण प्रज्जवमलेच्छ अज्जीवेमु य रूबी अट्टत्तीसलवा अटुबिहक्रम्म अट्टाह कम्मारगं अट्ठारसछत्तीस अट्ट व सयसहम्सा अडकोडिएय प्रणाणतियं होदि अण्णांगणावयारेण मणुलोहं वेदनो अणुलोहं वेदना अणुसंखामने अत्यावरं च अत्यादो अत्यंतर अस्थि अांना जीवा अंतरभावापब अंतरमहरुक्म्म अंतोमुहृत्तकाल अंगोमुत्तमेते अंतोभूहनमेनो
४०५ १४६
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mar orr -*
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४६५ ३०६
५८
५८१
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७१०/गो. सा. जीवकाण्ड
पृष्ठ
१४८
:
गाया ग्रहमिदा जह देवा अहिमुहणियमिय अहियारो पाहुडयं
१२४
:
:
पृष्ठ | गाथा
इगिपूरिसे वत्तीम
इगिवणां इगि ४२१ इगिवितिनपण
इगि विनि चव च इगियीसमोह इच्छिन्दरासिन्छ इंदियकाये | इंदियकायाकगि इंदिय गोइंदिय इंदियमगोदिणा इह जाहि बाहिया
२७६
पाउढरासि मागासं बज्जित्ता স্বাগবগি पादिमछद्राण आदिमसम्मत
५०३
GFG
१८२ ५.१७
प्रादेसे
१८५
४४० |
| ईहगाकरगण
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भाभीयमासुर प्रामणि पारण मायारे मुद्दयडे प्रावलिनसंखसं प्रावलिअसंखभा प्रावलिअसंख ग्रावलिअसंख प्रावलिअसंख श्रावलिनसंख प्रावलिअसंख प्रावलिअसंख पावलियपुधत्त आवासया हु प्रासवसंवर प्राहरदि अगरण आहदि सरोगग आहारसरीरि माहारदंसारण पाहारस्सुदयेण आहारयमुनस्थं अाहारकायजो आहारवगणादो ग्राहार मारणं भाहारो पजसे
उक्कम्मदिदि उक्कस्ससंखमेत्तं उत्तमप्रगम्हि उदया वणसरी उदये दु अपुण्ण उदये दुवणफ उपायपुग्वगाणिय उबजागो बाण उबधरणदंसरणरण उन्नवादगब्भजेसु उववादमारगनिय उनबादा सुरशिया उनबादे अच्चित्तं उबबादे शीदुसरा उन्त्रसमसुहमाहारे उबसंते खोग उबसतवीरा उववादे पदम नजनक बउरक
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४०५
| एइंदियपहदी ४४१ | गइंदियरस.स
इगिद्गपंच
Page #825
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________________
गाथा
एकट्ठे च य एकहि काल
एक्कं खलु अट्ठ के एक्कच उक्कं चउ एक्कदर गदि
एक्कं समयप एक्कारस जोगा
एगगुणं तु जं एग गोदसरीरे एहि गुणद्वा एदम्हि विभज्जते
एवे भावा गियमा
एयक्खरादु
एदवियम्मि
एयपदादो उ एयाय कोडिकोडी
एयंत बुद्ध एवं प्रसंखलोग एवं उपरि विशे
एवं गुरणसंजुत्त एवं तु समुग्धादे
गाह ओघासंजद
ओघे आदेसे वा
घे चाहसठाणे
श्रीघे मित्र ओरालिय उत्त श्रोरलं पज्जते श्रोरालियर
ओरालिय वे योरालियमस्सं मोहिरहदा
कदकफल जुद कंदस्स व मूलस्म
111011 le
पृष्ठ
गाथा
४२७ | कष्पववहार
५६ कप्पसुराणं
४०५ ! कम्मइयकाय ३८६ कम्मइयवगरणं ४२० कम्मेव य कम्मभवं ३३५ | कम्मोरालिय
७७५ | कमवण्णुत्तर ६७५ काऊगील किन्ह
२७१
५७ कालविसेसेण
४५६ | काले चण्ण
१० कालो उल्लेस्सा
४१७ कालोवि य ववएसो
कालं ग्रस्सिय
कण्हत उक्कारणं
किण्हतियार
किव्हरसेरण मुदा
६५०
४१०
१५५
१८
काऊ काऊ काऊ
२४१५ किण्हें सिलासमारो
किण्हा रसीला काऊ
१४६ ६७५ किण्हादिरासि
६११ किण्ड्रादिलेम्स
क्रिमिरायन्त्रक
३१७
६६५
७७६
૫૬૭
७६८
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कुम्मण्य जो केवलरणारादि
केवलणारणारणं
कोहादिकसायाणं कोडियमहरसाई
३८ बंधं सयल
३३७
३१६ | खयब समिय
७२८
बगे यखी मोहे ५.२७वीं सरगमोहे तादो मुह
खंधा असंखलोगा
७४२
२६४ | गइदियेमु
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गाथासूची / ७२
पृष्ठ
४५२
५०७
७३३
૪૬
३१२
३४१
४२५
५.८१
५६७
૪૨૭
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६१५
६४६
६३६.
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३६५
५७६
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६२०
३५६
१२६
१७६
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३६५
११४
६७०
२७१
७११
१०:५ 30%
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१६०
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________________
७१२ गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा
६५०
पृष्ठ । गाथा १९७ दृट्ठाणाणं आदी ४१८ होत्ति पढ़म '४४६ छन्त्रावट्टाणं
दत्वेसय णाम
छापयणील १३२ पंचाधिय ३५.० छापंचणववि ५२२ ट्रम्सय जोयण
दस्सयपणासाई ५३७ | छाददि सयं ७७८ लेतपय परि
गइ.उदयज गच्छसमा तक्का गतनममनग गदिठारगोग्गह मदिठाणोगह गब्भजजीवाणं गभग पूइस्थि गाउयचत्त गुरगजीवा गुणजीवा पज्जती गुणजीबा पज्जती गुगजीवठा गुरुपच्चइगो गूढसिरसंधि गोयमथेरं
५७७ १५५ ६२५
४४६
७८५
२९५
२६६
१२६ २७१
घणभंगुलपढम
२७८
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जणबदसम्मदि
जत्तस्स पहं ७६७
जत्थेवकुमरह जम्मं खलु सम्म जम्बूदीवं भरहो जम्हा उबरिम जं सामाण
जह कंचणमगि ७३७ | जहखादसंजमो ७५० | जह पुष्णापुण्णाई ४२७ | जह भारवहो ५६६ जाइजरामरण २४. जाई अविरणाभावी ५८६ | जाणइ कज्जाकज्ज
जाणइ तिकाल जाहिब जासु व
जीवदुग उत्तट्ट ४४६ जीवा प्रगतसंखा ६६५ जीवा चोदसभेया
जीवाजीवं दव्यं ५८८ जोबाणं च य रासी ५१६ जीवादोरगत ५११ । जीवादोतंग ४२१ | जीविदरे कम्म
6
1
4
चउगइसरूव चउ पण चोइस चउरवखथावर चउसद्विपदं चक्खूण जं पया चरखूसोदं चंडी णमुच वत्तारिवि खे चदगदि भत्रो चदिमदि चंदरविजंबु बरमधरासाण चरिमृब्बकण चागी भद्दो चोखो नितियमचिंतियं चितियमचितियं चोद्दसमग्गा
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५२७
६८३
६५६ ५६२
४१६
६५६
४०५
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________________
गाथा मुची/७६३
पृष्ठ
पृष्ठ | गाथा ६६३ | पारणं पंचविह ३१४ गाणुबजोग जुदा ११७ | गारयतिरिक्त
। गिक्खित्त बिदिय
गाथा जेट्ठावरबद्द जैसि ण संति जहि अरण्या जेहिं दुलखि जोइमियवारण जोइसियंतागो जोइसियादो अहिया जोगपउत्ती लेस्सा जोग पडि जोगि जोगे चउरक्खाणं जो व सच्चमोसो जो तसबहादु
७८६ १३४
५६
Cam
६७५
६७५ ६७६
ठाणेहिदि जोणीहि
५११ | पिच्चिदरधादु
णिद्दापयले ५७३ गिदावचरण
| रिगद्देसवाणपरिणाम गिद्धत्तं लुगखत्तं गिद्धरिणद्धा ण गिद्धस्स गिद्धेण रिद्धिदरोली रिद्धिदरवरगु गिद्धिदर गुणा
रिद्धिदरे सम ५६७ | णि मूलखंध
णियखेत्ते केवलि
रिपरया किण्हा ५८६
शिस्मसम्वीगा गारइया खलु गोबित्थी रणेव गोइंदियावरण गोइंदियत्ति गो इंदियेसु वि
रंगो कम्मुरालसं २८१
५७८
१३५
३४६
पट्टकसाये गद्वपमाए पढमा णट्टासेसपमादो णय कुणइ पखवायं णय जे भवाभग्वा गाय परिणदि रण्य पत्तिय गय मित्त णय सच्चमोम गतिरियाग पारतिरिय रग रमति जदो रणरलद्धिमपज्जत णरलोएत्ति य णवमी असारख र मात्र य पदत्था
वरि य दुस गगरि बिसेस रावरि समुग्या गावरि य मुक्का णवि इंदिय
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COM
२२५
४८५
नज्जोगो सामण | तत्तो उवरि
| तत्तो एगार ६८२ | लत्तो कम्मइय ३३५ | तत्तो नाणुत्तारणं
] नत्तो लांतव | तत्तो संखेज्ज नवृहमंगुलस्स तदियवस्त्रो अंत
५०८
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--------------------------------------------------------------------------
________________
७६४ / गो. सा. जी काण्ड
गाथा
तदियकसाय नललीन मधुग तबढीए चरिमो
नविवदियं कप्पारण
नसचदुजुगारण नसजीवाण तसरा सिपुढवि
तस्समयबद्ध
तस्सुवरि इगि
नसहीण संमारी
ताहि समुद्ध तह से सदेव
तं सुद्धसलागा
तापं समयबद्धा
तारिसपरिणाम
तिगुरणा सतगुणा तिणकारिखिड
निसिया
तिलिसयजोय
निसियसट्टि तिन्ह दोपहं दोपह
तिमिच पुण् तियकाल विसय
तिरधियसय
तिरियगदीए तिरियत्रउनका
तिरिये प्रवरं
तिरियति कुडिल तिब्बतमा तिब्व
तिसयं भांति
तिसु तेरं दस तीसं बासी जम्मे
तेउतिया एवं तेज प्रसंख
उस्सय सट्टा तेऊ तेऊ तेऊ
तक पढमे सुक्
गाथा
पृष्ठ ५३५ तेजा सरीरजेट
२२१ तेत्तीसवेंजरसाई तेरसकोडी देसे
१४७
५२२ तेरिच्छ्रियलद्धि ११५ वि त्रिसेसे ए
७७५ तेसि समासे २८२ तो वासय अज्भय
३१७
१४७
२४७
३४२
३४०
यावर काय पहूदी
यावर काय प
धावर कायप्प
श्रावर कायप्प
थावरका यप्प
यावर काय प
थावरसंख
थोत्रा तिमु
૪૨
३१७
५८
२२५
३४७
१६३
२२५ दन्त्र खेत्तं कालं
२४० दव्वं खेत्तं कालं
दक्कमकालिय
५६७
२४८
दस चॉदसडु ५१५ दसविहसनचे
६८ दस सगीरां सामोह
७५७ ७७० सामोद
५०५ दसमाव २०२ दंसणवयसामाइय
५८१ दहिदुभि वा ६८८ दिण्गच्छेदेषवहिद ७६४दिच्छेदे व हिद
५३६ दिवसां पखो मासो दीव्वति जदो
६१८
६०२
दुगतिगभवा ह ६११ | दुगवारपाहुडा दो ५६७ दुविषि श्रम
५८ १ देवारणं अवहारा
थ
व
।।।।
पृष्ठ
३३.७
४२७
६६६
७७१
२५३
४०२
४४१
७४ १
७४३
७४२
७५.१
७५२
७५६
२४४
३५.०
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४.५५
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१८२
७०५.
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७११
५४१
२४
२८.७
५०३
६४२
२१०
५२.५
४२२ ७६८ ६६५.
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गाथासूची/७६५
FUr
पृष्ठ
४.७४ ५१७
गाथा देवेहि सादिरेया देवेहि मादिरेया देवहि सादिरेगो देसविरदे देसाबहिवर देसोहिमबर देसाहिमज्भ देसोहिरम य दोगुणांगणद्धाणु दोपहं पंचय दोलिगपभब
४८५
'४२५
१८६ ५०६
धणुवीसडदस धम्मगुरगमगणा धम्माधम्मादी धुवाद्धवरूवे धुवकोसु भय धुवहारकम्म ध्रुवहारस्स पमाणं धूलिग छक्कट्ठागा
pour TUTUS > SU"
६१२
माथा पज्जायकावर
पडिबादी दे. ७२२ | पडिवादी पुगा
| पढमऋग्वा अल४६६ पदम पमदपमा
| पढ मुवसमसहि ४८५ पागने तस
पश्याट्टदाल पण परशरगतिमा पणगाव गिगज्जा | पगिादरसभोय पण बीम जोय पत्नयबुद्धनित्थ पमदादिचज पम्मस्स य सट्टागा पम्मुक्कस्संसमुदा परमणसिट्टियमट्ठ
परमाणुपादियाई ४८२
परमाणुवगणादा परमाणहि अण परमावहिबर परमावहिरस परमावहिप्स परमाहिदव्य
पल्लतियं उव ४२० | पलसमऊगा १३५ | पल्लासंखघणं
| पल्लामुखज्जय
पल्लासंबेज्ज ५६२ | पल्लामबज्ज ५६६ पल्लामखेज्जा ३.७५ ' पस्सदि प्रोही ५६२ । पहिया जे छापु १६५ | पुश्वरगहरणे २२१ | पुग्गलचित्राइ १६१ | पुदिदगागरिप ७५६ : पृढवी पाऊ तेऊ
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नोनुक्कस्संस
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पच्चक्खाणदयादो पच्चवखाणेव पंचखतिरि पंचमिहिचहु पबि इंदिय पंचरस पत्र पंचसंमिदो निगुत्तो पवेव होंनि मगा पज्जत्तस्मय पज्जत्तसरीरस्स पज्जत्तमणुस्मागां पज्जत्तीपट्ठवण पज्जत्ती पाणावि
४८५
.......NK
३६२ २८६ १६४
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________________
७६६/गो. सा. जीवकाश
पृष्ठ
पृष्ठ | गाथा २७७ / बी जे जोरणीभूदे ६६६ | बेसदायगर
३४४ ३४५
४६५
गाथा पुढवी आदि चाह पुदबी जलंच पुण्याजहरगं परिसिच्छिसंद पुरुगुणभोगे पुरुमहदारु पूवं जलथल पुवापुवाफदढय पुहपुहकसाय पोग्गल दवम्हि पोग्गलदबायां पोतजरायुज
.NK
دیا
४६७
भत्तं देवी चंदापह भरङ्गम्मि अद्ध भवतियारण भवपनइगो ओही भवपच्चइगो सुर भन्वत्तरणस्स जोग्गा भवासम्मत्तावि भविया सिद्धी भावाणं सामण्ण भावादो छल्लेम्सा भासमवम्ग भिण्णसमयसिद्ध भुमाउतेउ भूपाउतेउवाऊ भोगा पुण्याग
६१६
फासरसगंध
७०२ ३८६ २४८
७७५
Byar Nm muv
५७८
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बंधो समयप वहुबहुविहं च बहुभागे समभागो बहुवत्तिजादि बहुविहबहप्प बादरमाऊ चादरतेऊबाऊ बादरपुण्सातेऊ बादरबादर बादरमुहमे बादरसुहमा बादरसहम बादरसंजल बादरसंजालग बाबीस सत्त बारुतरसय बाहिरपायोहिं बितिनप पूण्ण बितिचपमाग बिदियुवसम विहि तिहि चदुहि
मग्गणउवजोगा
मभिमसेरा ३०५ । मज्झिमचउ ३३८ मज्झिमदव्वं खेतं ६६६ मज्झिमपदकावर ११६ मति जदो २४.७ । मगादववग्गरगा
मगदव्ववागरा मरणपज्जब च
मरणपज्जन च १५५ मगणपज्जबपरिहारो ४२६ मणबयणारा
| मग बयरमारणं १४१ मरणसहियाएं २४८ मणुसिणिपमत्त
मदिनावरण २७५ । मदिसुदप्रोही
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७७१
Page #831
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा
मंदबुद्धि मरणं पत्थेइ
मरदिसंखज्ज
ममुरंबुबिंदु माया लोहे मिच्छतं वेदतो
मिच्छाही जीवों मिच्छाडी मिच्छाइट्ठी पावा
जीवो
मिच्छा सात्रय
मिच्छे खलु मिच्छे चोट्स
मिच्छे सासरण
मिच्छोदये.. मिच्छो सासरण मिच्छो सासण मिस्सुद सम्मिस्सं मिस्से पुण्णालाओ मीमांसदि जो पुब्वं मूलग्गपरवीजा मूलसरीरम मुले कंदे छल्ली
याजकनामेनानन
रूऊणवरे अवरु रुत्तरेण ततो रूसइ दिइ
लद्धिपुर लिंगs पीकीरइ
लेस्सा ं खलु लेस्साकस्सा लोगस्स संव लोगागासपदेसा लोगागास पदे से
...
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पृष्ठ
गाया
४.८७
लोगागासय
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२.७६
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७५७
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७५२
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७२६
वग्गणरासि
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४४६
Sorr वनरहेकाल वनावत्तपमात्रे
वरकास
ववहारो पुण का बहारो पु
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ववहारो पुर
बहारो विय
बादरहमे
परनोनातं
बासपुते खइया
त्रिलदीव
विकहा तहा
विग्गहसदिमा विदावलिलोगाणं
१४८ १४६ विदियुत्रसभ
५८७ : बिवरीयमोहि
विविहगुरण
विसजंतकूड
विसयारणं विस
१७०
५७३
५६६
वीरमुहकमल ५८१ वीरियजुदमदि ६५१ बीस बीसं पाहुड
६५२ वेगुवं पज्जतं ६५६ वेगुब्बिय आहारो
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गाथा सूची / ७६७
पृष्ठ
६५६
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५८१
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३४
६६०
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३६२
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३७६
३८२
७८०
१८२
४२२
७३८
३१३
Page #832
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________________
७९८/गो. सा. जीवकाण्ड
माथा वेगुब्विय उत्तत्थं वे गुध्वियवरसं बेंजणपत्थ वेणवमूलोर वेदस्सुदीरगाए वेदादाहारोत्ति वेयणकसाय
.at .w.w.
पृष्ठ ७६६ १६५ ५०५ ६६३ ११४
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७१६
३५२
SV
१०७ ३.४१
AP
..
पृष्ठ - गाथा ३०४ सत्ताह पुढवीणं ३३७ । सतदिणा छम्मासा ! मनमखिदिम्मि
सत्तादी अमृता ३४४
सदामिवसंखो संपुग्णां तु समग सहासदहरणं
सम्भाबमरणो मच्चो ५८१ समो हु वट्टमा
सम्मत्तदेसघादि ५०७
मम्मत्तदेस ससम्मतमिच्छपनि
सम्मतरयण ४८६ | सम्मत्तुप्पनीए १२८ । समयत्तयसंखा
सम्माइट्टी जीवो सम्मामिच्छुदये मन्वंगअंग संभव सव्वं च लोयणालि मन्दमरूत्री सध्वसमासेणवहिद
| सब्वसमासो २८२
मध्वमुराणं प्रोच | सन्चावहिस्स एक | सब्वेपि पुटवभंगा | सब्वेसि सुहमारणं सम्वोहित्ति य के
संसारी पंचक्खा ६०५ सागारी उवजोगो
सांतररिणरंतरेण ७४३ | सामगाजीव
सामण्णा गरइया मामण्णा पंचिदी सामोण य एवं सामगण तिपंती | मामरण पज्जत्तं
.
५.०७
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संकमा छटाणा संकमगां सट्टाग सक्कीसाणा पढौ सक्को जम्बुदीब संस्खा नह पत्थागे संवानीदा सम संखावलय जोगी संखात्र लिहिद संखेग्रो प्रोघो संवेज्जपमे काले मंबेज्जासंस्नेज्जा संग्जेज्जासंग्वेसमजूगलम्हि सगमारणेहि विभत्ते सगसगअसंख समसगखेत सगसगग्रवहा संगहिय सयल संजलराणोकसा संजलगणोकसा सट्टाणसमुरघा संठाविदूरण एवं सपणालिग सणारासि सण्णिास्स वार सपणी प्रोत्रे मिच्छे सणी मणिप्प सत्ताह उबसमदो
३६६
Hurry:
xx.
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mors 15
0" day॥
Page #833
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________________ गाथासूची/७६१ पृष्ठ 747 9. पृष्ठ ! गाथा 451 मुहमंदरगृग 28.5. मुहमगिवाते 265 | मनमो मुहम गडी मूई अंगुल 136 | सेठी सुई पल्ला सेलगकिण्हे सृष्ण मेलट्टिकट्टवेत्ते संसट्ठारसग्रंसा 784 सोलसयं चउ मोबक्क्रमाणुबक्कम सो संजर्भ गा गि | मोहम्मसारण मोहम्मादामा | सोहम्मीसागा सालससय A' or box 2 mom गाथा मामाइयचउ माहारणवादरे माहारगादयेण साहारणमायाग साहियमहस्प्लमेक सिक्खाकिरियु सिद्धमुद्ध सिद्धाांतिम सिद्धारा सिद्धगई सिल गृहवि सिलसल वेणु सीदी सठ्ठी ताल सीलेसि संपत्तो सुक्कस्स समुग्घा सुण्ह दुगइगि सुत्तादो नं सम्म नुदकेवल च गाणं सुहमरिणगोद मुहमणिगोद सहमगिगोद मुहमणिगोद सुहमशिगोद मुहमणिगोद मुहदृक्व सुबह मुहमेसु संख p ur ).me.au 508 Nur. 515 13.7 | हिदि होदि है 242 | हदिम उक्कम्स 403 / हेट्टा जेमि 403 / हेदिमछापुढवीग 103 | हेटिमलप्पुटवीगां 456 / होनि अणियढिगा 351 होनि नवा इगि 282 | होदि अतिम -. . - imना . ." -