Book Title: Anekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर दिल्ली क्रम संख्या काल नं. खण्ड KARKKAKKAKKAKKKKAKKKXXXXX Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्षिक मूल्य तीन रुपये हेम अनेकान्त सत्य, शान्ति और लोकहित के संदेशका पत्र नीति-विज्ञान-दर्शन- इतिहास - साहित्य- कला और समाजशास्त्र के प्रौढ़ विचारोंसे परिपूर्ण सचित्र मासिक 1.3.4. सम्पादक जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर' ( समन्तभद्राश्रम ) सरसावा जि० सहारनपुर तृतीय वर्ष [कार्तिक आश्विन वीर नि०सं०२४६६ ] " सचालक तनसुखराय जैन व्यवस्थापक अयोध्याप्रसाद गोयलीय कनाट सर्कस, पो० बोक्स नं० ४८, न्य देहली अक्टूबर सन १९४० ई० (एक किरका मूल्य पाँच धाने Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ 'अनेकान्त के तृतीय वर्षकीषिय-सूची विषय और लेखक किया और लेखक अकलंक-स्मरण--[ सम्पादक ४१ , क्या स्त्रियाँ संसारक क्षुद्र रचनाओंमें से हैं? । अज-सम्बोधन (कविता)-श्री .'युगवीर E"-:.. --नताकुमारी जैन 'प्रभाकर' ५६६ अतिप्राचीन प्राकृन पंचसंग्रह ...गोत्रविचार--[ जैनहितीसे उद्धृत १८६ ' - पं० परमानन्द जैन शास्त्री .२५६ गोम्मटसार एक संग्रह ग्रंथ-पं०परमानन्दशास्त्री२६७ अनुकरणीय - व्यवस्थापक, कि०२ टा० ४, गो.कर्मकाण्डकी त्रुटिपति-परमानन्द शास्त्री५३७ कि०५ टा० ४ , गो० कर्मकाण्डकी त्रुष्टिपति विचार पर प्रकाश अनुपम क्षमा- श्रीमद् राजचन्द्र -[पं० रमानन्द शास्त्री ७७५ अनुरोध (काना)-- श्री भगवत् जैन २८० गो० कर्मकाण्डकी त्रुठिपति पर चार अन्धोंकी बम्। ( ता)--[ माहिर, कि० ३ टा. ४ __--[प्रो० हीगनाल एम.ए. ६३५ अमर मानव – श्री सन्तगम बी.ए. १३३ गो० कर्मकाण्डकी त्रुटि पूर्ति लेखपर विद्वानों के अर्थप्रकाशिका श्री. पं. सदासुस्वनी - विचार और विशेषसूचना-[सम्पादक ६२० -[पं. परमानन्द शास्त्री ५१४ छोटे राष्ट्रोकी युद्धनीति-[ श्री काकालेलकर ४६५ अहिंसा-श्री. वमन्तकुमार, एम. एस.मी. ३६० जातियाँ किम प्रकार जीवित रहती है अहिंसाका श्रा : [श्रीदरबारीलाल सत्यभक्त' ४३. [श्री० ला. हरदयाल एम. ए. ३६० ' अहिंसाकी कुछ हिानयाँ-श्रीकिशोरीलालमशरू. १६२ जिनसन-स्मरण-[सम्पादक ... ...६७७ अहिंसाके कुछ पहल-[श्री काका कालेलकर ४६१ जीवन-माध ( कविता ) --[पं०भवानीदत्त शर्मा २८५ अहिंसातत्त्व- प. परमानन्द शास्त्री ३१६ | जैन और बौद्ध निर्वाण में अन्तर अहिंमामम्बनी ।। क महत्त्वपर्ण प्रश्नावनी --[प्रो० जगदीशचन्द्र एम. ए. २६१ -- [विजयामह नाहर प्रादि ६०५ जैनदर्शन में मुक्ति माधना---[श्रीअगरचन्द नाहटा ६४० प्राग्रह ( कविता ) -5. प्रेमसागर 'पंचरत्न' ६४४ । जैनदृष्टिका स्थान तथा उमका अाधार--- आत्मिक कानि-ग. ज्योतिप्रसाद जैन एम.ए.२८१ श्री महेन्द्रकुमार शास्त्री ३३ प्रारमोहार-चार---[ श्री. अमृतलाल चंचल' ५७३ / जैनधर्मकी विशेषता-[श्री सूरजभान वकील २२१ आलोचन- प्रा. 'युगवीर' ... ... ११६ - जैनधर्म परिचन्न गीता-जैसा हो-[श्रीदौलतराम मित्र'६५७' माशा ( कविता ।--[श्री रघुवीरशरण, एम.ए. ६५६ जैनलक्षणावली.--[सम्पादक ... ... १२६ उबकुल नीर उति (महात्मा बुद्ध के उदगार) जैन ममाज के लिये अनुकरणीय आदर्श श्री. बी. एल. जैन कि०१० टा०३ -[श्रीअगर चन्द नाहटा २६३ उपासनाका अभिन्न [पं०चैनसुग्वदाम न्यायतीर्थ ४२६ जैनागमोमें समयगणना--[श्रीअगरचन्द नाहटा ४६४ उमास्वाति -[सम्पादक ... ३७७ जैनियों की दृष्टिमें बिहार --[५० के.भुजबली शास्त्री ५२१ उस दिन : कहानी )--[श्री भगवत् जैन ... २१७ । ज्ञातवश का रूपान्तर नाटवंश उमविश्वबंध मतका धुंधला चित्रण ---[ मुनि श्री कवीन्द्रमागर जी २३७ --[भी देवेन्द्र जैन ७७ तत्वार्थधिगम भाष्य और अकलंक ऊँचनीच-गी चर्चा--[श्री बालमुकन्द --[प्रो. जगदीशचन्द्र जैन एम. ए.३० ४, ६२३, ___पाटोदी १६५, ७०७ तत्वार्याधिगमभाष्य और अकलंक पर 'सम्पादकीय । एक महान मारित्यावीका वियोग--[सम्पादक २६५ विचारणा'--[ सम्पादक ... ...३०७ Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कानिक वीरनिःसं.५६६ - - कार्निक वीरनिः०५४६ - अनेकान्त वर्ष ३. किरण १ अपं.किग्गा १ - नवम्बर १९:५ वार्षिकमूल्य कः Sadan परम : MARATH HER Hasiy :: A AST m ommanimom ASTRA श्री दिनपरिपदक मोजन्यम प्रान - मनमनगगन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ विषय-सूची १. श्री वीर-म्मरण, चीर शामनाऽभिनन्दन २. धवलादि अन-परिचय ... ३. मत्य अनकान्नात्मक है |श्री जयभगवान वकील ४. म्मृतिम ग्ग्बन योग्य वाक्य [श्रीमद् गजचन्द्र | ५. भ. महावीर के शामन गोत्रकम श्री कामनाप्रमाद ६. विविध प्रश्न [श्रामद गजच द ७. जनाएका स्थान नथा उसका आधार [ श्री महन्द्रकुमार शास्त्री ८. मीन संवाद । कविता )--श्री यगवार ९. वीर-शामनकी विशपना [ श्री अगरचन्द नाहटा ५. मफल-जन्म कविता) श्री भगवन जैन ५१. वीर शामनग स्त्रियांका स्थान [ श्री इन्दकुमा। १२. नर-ककाल : कविता) श्री भगवत जैन ४३. वार शामन का पुण्य-वला [श्री सुमंरचन्द दिवाकर १४. मनुष्याम उचना-नीचना क्यों ? [श्री वंशीधर व्याकरणाचाय १५. माहित्य सम्मेलन की परीक्षामि जैन दर्शन श्री रतनलाल संघवी ५६. यापनीय माहित्यकी खोज श्री नागम प्रेमी १७. मातत्व (कहानी। श्री भगवन जैन १८. मुभापिन श्री अज्ञान ५९. उम विश्ववंदविभानका धु धना चित्रण [श्री देवेन्द्र जैन ... मज दृगंम गजनीतिज्ञ श्री माईदयाल वी २१. दशनीकी स्थल परवा [श्री नागचन्द शाम्त्री २२. अज सम्बोधन कांवना) [श्री यगवीर २३. वीर-शासन-दिवम और हमाग उत्तर दायित्व श्री दशरथलाल जैन २५. वीरके दिव्य उपदेश की भनक [श्री जयभगवान वकील २५, माहित्य-परिचय और ममालोचन मपादकीय २६. वीनगग प्रतिमाओंगी अजाय प्रतिष्ठा विधि [श्री सूरजभान वकील २७. विनय रे नब का पिद्ध। विवेकका अथ [श्रामद गजचन्द्र २८. आलोचन यगवीर २५ नावार्थाधिगम मृत्रकी एक मटिपणन [ मम्पादकीय ३. जैन लक्षणावलि मम्पादकीय ३१. श्री वीर प्रभुकी वागो, परम उपाम्य ( कविता ) [श्रा यगवीर ३२. सुभापित ( उद कविता। [इकबाल, चकचम्न, दारा, ग्रहमान टाइटिल Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान्त.. MENS Karan RECETIZALMAN BER Wi 4864 RE । AUR श्री दि जैनपरि पदकं मौजन्यमे प्राप्त वार प्रेम प्रॉफ इणि या कनोट मर्कम म्य दहली । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय और लेखक, . पृष्ठ विषय और लेखक पृष्ठ ' तस्वार्थाधिगमसत्रकी एक सटियण प्रति प्रो. जगदीशचन्द्र और उनकी समीचा [ सम्पादक : --[सम्पादक ..१ १२१ । ६६६, ७२९ तामिल भाषाका जैनसाहित्य --[प्रा. ए. चक्रवर्ती कलसे ( कविता ) [ीघासीराम जैन किन्द टार . एम. ए. 1 . ४८७,५६७,७२१ : रटे चलो--[बा० माईदयाल जैन बी.ए. ३१५ दर्शनोंकी आस्तिकता और नास्तिकताका अाधार . बंगीय विद्वानोंकी जैन माहित्य में प्रगति-[श्रीअगरचंद .--[पं: ताराचन्द. जैन दर्शनशास्त्र। ३५२ . . . नाहटा १४६ दर्शनोंकी स्थलरूपरेखा--[ पं. ताराचंद जैन ८२ सावलीघास--[ श्री हरिशंकर शर्मा दीपक के प्रति (कविता)--श्री.रामकुमार स्नातक'५७२ बुरि हत्याका कारखाना--[ 'गृहस्थ' से उद्धृत १६४ देवनन्दि-पज्याद-स्मरण - [सम्पादक ५५७ बौदतथा जैनग्रंथों में दीक्षा[प्रो० जगदीशचंद्रएम.ए.१४३ द्रव्यमन -५० इन्द्र चंद्र शास्त्री ... २५० । भगवान महावीर और उनका उपदेश-- धर्मका मूल दुःग्न में छुग है-[ श्री. जयभगवान . .. [श्री बा० सरजभान जी वकील ३६६ वकील ... ... ८२, भगवान महावीर के शासन में गोत्रकर्म--- धर्म बहुत दुर्लभ है --[ श्री. जयभगवान वकील ५.५ . [श्री कामताप्रसाद २८ धर्माचरणमें सुधार - [ श्री बा. सूरजभान यकील ३८५ / भारतीय दर्शनोंमें जैन दर्शनका स्थान- श्री हरिमत्य धवलादिश्रत परिचय-[सम्पादक ... ३,२०७ । । भट्टाचार्य ४६७ नर-कंकाल ( कविता ) [ श्री भगवत् जैन ४७ भल स्वीकार- [श्रो सन्तराम बी. ए..... ५३५ नवयुवकोंको स्वामी विवेकानन्द के उपदेश . . मजदूरसि राजनीतिज्ञ---[ श्री माईदयाल बी. ए. ८० . . [डा. बी. एल. जैन पी. एच. डी. ५६६ मनुष्य जातिके महान् उद्धारक नपतुंगका मतविचार [श्री एम. गोविन्द पै ५७८,६४५ - --[श्री. बी. पल, सर्गफ ३२५ परम उपास्य (कविता ) [ श्री 'युगवीर' कि०१ टा०३ । मनुष्योंमें ऊँचना-नीचता क्यों ?--[श्री वंशीधर परमाणु ( कविता ) [पं० चैनसुखदाम, ४४० व्याकरणाचार्य ५१ परवार जाति के इतिहाम पर कुछ.प्रकाश, . महावीर-गीत ( कविता) -[श्री शान्तिस्वरूप ; . [पं० नाथराम प्रेमी ४४१ । जैन 'कुसुम' ३८६ परिग्रहरिमागा बनके दामी दाम, गुलाम थे मातृत्व ( कहानी)-[ श्री भगवत्' जैन... २ । [६० नाथ राम प्रेमी ५२६ - मानवधम ( कविता ) [ श्री 'युगवार'... १०१ पंडितप्रवर श्राशावर[पं०नाथगमती प्रेमी ६६६,६६७ मीन संवाद ( कविता )--[श्री 'युगवार'...' पात्रकेमरी स्मरण मम्पादक . ... : . ८१ मंडक के विषय में एक शंका -[श्रीदौलतराममित्र ७१८ पुरुषार्थ ( कविता ) [ भी मैथिलीशरण गुप्त २०६ मनसुख -[श्रीमद् राजचन्द्र १०७ प्रथम स्वहित और बाद में परहिल क्यों ? - बांत-ममाज-[ श्री अमरचन्द नाहटा ४६८ श्री दौलतराम 'मित्र' ६६० यापनीय माहित्यको खोन [श्री नाथगम प्रेमी ५६ प्रभाचन्द्र का तस्वार्थसत्र [मम्पादक ३६३,४३३ गग---[ श्रीमद् गनचन्द्रं...... प्रभाचन्द्र-स्मरण [ मम्पादक ... ३१७ वास्तविक-महत्ता [ श्रीमद् गजचन्द्र ... २३६ प्रश्न ( कविता ) [श्री 'रत्नेश' विशारद १० । विद्यानन्दकृत मत्यशामनपरीक्षा माकन पंचसंग्रहका रचनाकाल पं. मद्रकुमार जी शास्त्री ६६० [प्रो० हीरालाल जैन एम. ए. VRE विद्या स्मरण | मम्पादक Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय और लेखक पष्ठ विषय और लेखक पष्ठ विधवा सम्बोधन-[श्री.. 'युग्रवीर' ... १४७ श्रीपालचरित्र साहित्यक सम्बन्धम शेष ज्ञानव्यविनयस तत्त्वकी सिद्धि है-[श्रीमद् राजचन्द्र:११८ । [श्री अगरचन्द नाहटा ४२७ विविध प्रश्न-[ श्रीमद् राजचन्द्र ३२,७६,८१,८६ श्रीभद्रबाहु स्वामी-[ मुनि श्री चतुरवि जय ६७८ विवेकका अर्थ-[ श्रीमद् गनचन्द्र... १२० श्रीवीर स्मरण-[ मम्पादक .. . १ वीतराग-प्रतिमाओंकी अजीव प्रतिष्ठा विधि-- (श्रीशुभचन्द्राचार्यका समय और ज्ञानार्णवकी एक प्राचीन [श्री सूरजभान वकील १०१ प्रति-[पं० श्री नाथराम 'प्रेमी' ,२७० वीरका जीवन-मार्ग-[श्री जयभगवान जैन वकील ४१४ श्वेताम्बर कर्म साहित्य और दिगम्बर पंचसंग्रहवीरके दिव्य उपदेशकी एक झलक- [प० परमानन्द जैन शास्त्री... . ३७८ .. [श्री जयभगवान वकील १५ श्वेताम्बर न्यायमाहित्यपर एक दृष्टि[पंरतनलाल १७७ वीर नतुश्रा (कहानी)-[पं० मूलचन्द जी वत्सल' ३३६ मत्य अनेकान्नात्मक है-[ श्री जयभगवान वकील १७ वीर प्रभुकी वाणी (कविना)-[ श्री 'युगवीर कि०१टा०३ मफल जन्म ( कविता )-[श्रा भगवत् जैन ४४ वीरशासनको पुण्य बेला---[ श्रासुमेरचन्द दिवाकर ४८ मफेद पत्थर अथवा लालहृदय - ['दीपक'स उद्धृत ५७७ वीरशासनकी विशेषता-[श्रीश्रगरचन्द नाहटा ४१ मम्पादकीय ( टिप्पागा यां) ६६५ वीरशासन-जयन्ती-उत्सव-[ पं० परमानन्द शास्त्री मम्बोधन (कविता)-[व्र० प्रेममागर ‘पचरल' २८३ ___कि०८-६ टा०३ सग्ल योगाभ्याम-[श्री हेम चन्द मोदी ३१ वीरशासन दिवम और हमारा उत्तरदायित्व- संमा में सुम्बकी वृद्धि कसे हो ?-[.श्री दौलतराम ३६२ [श्री दशरथ नाल जैन ६१ मामायिक विचार - [ श्रीमद् गजचन्द्र कि० ४ टा० ३ वीरशासन में स्त्रियोंका स्थान-[ श्री इन्दु कुमारी साहित्य परिचय और ममालोचना -[ मम्पादक ८, हिन्दीरत्न' ४५ २००, ३१२, ३७ ४ कि० ६ टा. . धीरशासनाभिनन्दन-[सम्पादक ... २ माहित्य-पम्मेलनकी परीक्षाओम जैन दर्शन'वीरशासनांक' पर मम्मांतयाँ-[ २३५,२६.२,२६६ [पं० रतनलाल मंघवी ५६, ४११, वीर-श्रद्धा नाल-[श्री रघुवीरशरगा न. ए. ४०८ मिद्धसंग के मामने मामिद और गजवानिकवीरसन-स्मरण-[सम्पादक..." ६२१ [पं० परमानन्द जैन शास्त्री ६२६ वीरसंबामन्दिरको सहायता-अधिष्ठाता कि०६टा० ४, मिद्धमन स्मरण - सम्पादक.... २०५ ___कि०८-६ टा० ४ कि. १२ टा०२ सुधार मंसू नन-[सम्पादक...... २१६ वीरसवामन्दिर-अन्यमालाको महायता- अधिष्ठाता मुभापित- ......७६, कि १ टा० १, कि० ४ टा. ४ कि०१टा० ३ स्मति में रग्बने योग्य महावाक्य - [श्रीमद् राजबन्द्र २७ वीरसेवामन्दिर-विज्ञप्ति- [अधिष्ठाता 'बीर सेवागन्दिर' ७५५ हम और हमारा यह सारा संसार--- वीर-स्तवन-[श्री बमन्नीलाल न्यायतीर्थ कि०६टा० १ । बा० सूरजभान यकील ५५६ वीरोंकी अहिंसाका प्रयोग---[ श्री महात्मा गांधी ६.७ हरिभद्रमरि--- [पं. रतनलाल संघवी २८६,३२६ शिकारी ( कहानी)-[ श्री भगवत्' जैन २७७ हिन्दी माहित्य मम्मेलन और जैन दर्शन-- शिक्षा ( कविता )-[ब्र. प्रेम मागर 'पंचरत्न' ६५६ [पं० सुमेरचन्द जैन, न्यायतीर्थ २८४ शिक्षित महिलाश्रोका अपव्यय-[ श्री ललिता कुमारी होलीका त्यौहार--[सम्पादक... ... ३१० जैन 'प्रभाकर' ६८५ होली है ! ( कविता )-[ श्री 'युगवीर'... ३५६ श्री कुन्दकुन्द-स्मरण-[सम्पादक...... ४२५ होली होली है ! (कविता)-[ श्री 'युगवीर'... ३५१ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in . - - - ITUR वर्ष ३ नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य वीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ ) सम्पादन-स्थान-वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० ब० नं० ४८, न्यू देहली किरण। कार्तिक पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं० १९६६ श्रीकीर-स्मरण शुद्धि शक्तयोः परी काष्ठा योऽवाप्य शान्तिमन्दिरः। देशयामास सद्धर्म श्रीवीरं प्रणमामि तम् ॥ -युगवीरः जिन्होंने ज्ञानावरण-दर्शनावरणकं विनाशनं निर्मलज्ञान-दर्शनकी आविर्भतिरूप शुद्धिको तथा अन्तरायकर्मके विलोपमे वीयलब्धिम्प शक्तिकी पराकाष्ठाको--चरममीमाका-प्राप्त करके और मोहनीय कर्मके समूल विध्वंमसे आत्मामें पूर्णशान्तिकी स्थापना करके अथवा बाधारहित चिरशान्तिके निवासस्थान बनकर समीचीन धर्मकी देशना की है उन श्रीवीर भगवानको मैं सादर प्रणाम करता हूँ। स्थेयाज्जातजयध्वजाऽप्रतिनिधिः प्रोद्भतभरिप्रभुः, प्रध्वस्ताऽखिल-दुर्नय-द्विषदिमः सन्नीतिसामर्थ्यता । सन्मार्गस्त्रिविधः कुमार्ग-मथनोऽहन्वीरनाथः श्रिये, शश्वत संस्तुति-गोचरोऽनघधियां श्रीसत्यवाक्याधिपः ।। --युक्तयनुशासन-टोकाया, श्रीविद्यानन्दः जो जयध्वज प्राप्त करने वालोंमें अद्वितीय हैं, जिनके महान सामर्थ्य अथवा महती प्रभुताका प्रादुर्भाव हुआहै,जिन्होंने सन्नीतिको–अनेकान्तमय स्याद्वादनीतिकी-सामर्थम संपूर्ण दुनयरूप शत्रुगोंको ध्वस्त कर दिया है-तबाह व बर्बाद कर दिया है--जो त्रिविध सन्मार्गस्वरूप हैं-मम्यग्दर्शन-सम्बरहान-सम्यक्चारित्रकी साक्षात् मूर्ति हैं-जिन्होंने कुमार्गोको मथन कर डाला है, जो मदा कपित भाशयसे रहित सुधीजनोंकी संस्तुतिका विषय बने हुए हैं और श्रीसम्पन सत्यवाक्योंके अधिपति अथवा आगमके स्वामी हैं, वे श्रीवीर प्रभुईन्त भगवान कल्याण के लिये स्थिर रहें-चिरकाल तक लोक-हदयों में निवास करें। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरशासनाsभिनन्दन तव जिन शासनविभवो जयति कलावपि गुणाऽनुशासन विभवः । दोप- कशासनविभवः स्तुवन्ति चैनं प्रभा - कृशाऽऽसनविभवः ॥ -- स्वयंभू स्तोत्रे, समन्तभद्रः । हैं वीर जिन ! आपका शासन-माहात्म्य - आप के प्रवचनका यथावस्थित पदार्थों के प्रतिपादनस्वरूप गौरव - कलिकाल में भी जयको प्राप्त है - सर्वोकृष्टरूप से वर्त रहा है, उसके प्रभावसे गुणों में अनुशासनकोलिये हुए शिष्यजनोंका भव - संसार परिभ्रमण - विनष्ट हुआ है। इतना ही नहीं, किन्तु जो दोषोंरूपी चाबुकोंका निराकरण करने में समर्थ हैं - उन्हें अपने पास फटकने नहीं देते -- और अपने ज्ञान-तेजसे जिन्होंने लोकप्रसिद्ध विभुको हरिहरादिको - निस्तेज कर दिया है, ऐसे गणधरदेवादि महात्मा भी आपके इस शासनकी स्तुति करते हैं । दया- दम-त्याग समाधिनिष्ठं, नय प्रमाण-प्रकृताञ्ज सार्थम् । घुष्यमन्यैरखिलैः प्रवादैर्जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥ - युक्तयनुशासने, समन्तभद्रः । हे वीर जिन ! आपका मत-- शामन --नय-प्रमाण के द्वारा वस्तु तत्त्व को बिल्कुल स्पष्ट करने वाला और संपूर्ण प्रवादियोंसे अबाध्य होनेके साथ साथ दया (अहिंसा), दम (संयम), त्याग और समाधि (प्रशस्त ध्यान)इन चारोंकी तत्परता को लिये हुए है । यहीसब उसकी विशेषता है, और इसलिये वह अद्वितीय है। सर्वान्तवत्तद्गुण - मुख्य- कल्पं, सर्वान्तशन्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ - युक्तयनुशासने, समन्तभद्रः । हे वीर प्रभु ! आपका प्रवचनतीर्थ - शासन- सर्वान्तवान् है--सामान्य, विशेष, द्रव्य, पर्याय, विधि, निषेध, एक, अनेक, आदि श्रशेष धर्मोको लिये हुए हं - और वह गुरण-मुख्य की कल्पनाको साथमें लिये होनेसे सुव्यस्थित है -- उसमें असंगतता अथवा विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है--जो धर्मों में परम्पर अपेक्षा को नहीं मानते - उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाते हैं—-उनके शासन में किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं बन सकता और न पदार्थ व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अतः आपका ही यह शासन तीर्थ सर्वदुःखों का अन्त करने बाला है, यही निरन्त है - किसी भी मिध्यादर्शनके द्वारा खण्डनीय नहीं है - और यही सब प्राणियों के अभ्युदयका कारण तथा आत्माके पूर्ण अभ्युदय (विकास) का साधक ऐसा 'सर्वोदयतीर्थ' है । भावार्थ- आपका शासन अनेकान्त के प्रभावसे सकल दुर्नयों (परस्पर निरपेक्षनयों) अथवा मिध्यादर्शनोंका अन्त ( निरमन) करने वाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवादरूप.. मिध्यादर्शन ही संसार में अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखरूप आपदाओंके कारण होते हैं, इसलिये इन दुर्नयरूप मिथ्यादर्शनोंका अन्त करने वाला होनेसे आपका शासन समस्त आपदाओंका अन्त करने वाला हैं, अर्थात् जो लोग आपके शासनतीर्थका आश्रय लेते हैं, उसे पूर्ण तया अपनाते हैं, उनके मिथ्यादर्शनादि दूर होकर समस्त दुःख मिट जाते हैं । और वे अपना पूर्ण अभ्युद्य (उत्कर्ष एवं विकास) सिद्ध करने में समर्थ हो जाते हैं । कामं द्विषन्नप्पुपपत्तिः समीक्षता ने ममदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खंडितमानशृंगो भवत्यभद्रां समन्तभद्रः ॥ युक्तयनु०, श्रीसमन्तभद्राचार्यः | हे वीर भगवन् ! आपके इष्ट शासन से भरपेट अथवा यथेष्ट द्वेष रखने वाला मनुष्य भी यदि समदृष्टि ( मध्यस्थवृत्ति) हुआ उपपत्तिचक्षु से - मात्मय के त्यागपूर्वक युक्तिसंगत समाधानकी दृष्टिसेआपके इष्टका - शासनका - अवलोकन और परान करता है तो अवश्य ही उसका मानश्रृंग खण्डित हो जाता है - सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामत का आयह छूट जाता है-और वह अभद्र अथवा मिध्यादृष्टि होता हुआ भी सब चोरसे भद्ररूप एवं सम्बष्ट बन जाता है-अथवा यूँ कहिये कि आपके शासनतीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलादि-श्रुत-परिचय [सम्पादकीय ] धवल' और 'जयधवल' नामसे जो सिद्धान्तग्रन्थ इम तरह ये नाम बहुत कुछ पुराने तथा रूढ हैं प्रमिद्धिको प्राप्त हैं वे वास्तव में कोई मूल ग्रन्थ और इनकी सृष्टि टीकाको भाष्यरूपमें प्रदर्शित करनेकी नहीं है, बल्कि टीका-ग्रन्थ हैं। खुद उनके रचयिता दृष्टिसे हुई जान पड़ती है। परन्तु श्राम जैन-जनता वीरमनाचार्यन तथा जिनमनाचार्यन उन्द टीका ग्रन्थ मुन-मुनाये आधारपर इन्हें मूल एवं स्वतंत्र ग्रंथोके रूपमें लिया है और इन टीकात्रोंके नाम 'धवला', 'जय- ही मानती या रही है । अपने स्वरूपस मूल-ग्रंथ धवला' यालाए हैं, जमा कि उनके निम्न वाक्यांस न होकर टीका ग्रंथ होते हुए भी, ये अपने माथमें उन प्रकट है-- मूल सूत्रग्रन्थीको लिये हुए हैं जिनके आधार पर "भट्टारगण टीका लिहिएमा वीरमेणेण" |॥५॥ इनकी यह इतनी बड़ी तथा भव्य इमारत खड़ी हुई है। “कत्तियमासं एमा टीका हु ममाणिवा धवला"||८॥ मिद्धिविनिश्चय टीका तथा कुछ चणियों श्रादिकी तरह ___ -- धवल-प्रशम्नि ये प्रायः मूत्रांक संकेत-मात्रको लिये हुए नहीं है, बल्कि "इति श्रीवोरमेनीया टीका सूत्रार्थदशिनी ।" मूल मूत्राको पूर्णरूपने अपने में ममाविष्ट तथा उद्धृत "एकानपष्टिममधिकमतशताब्देष शकनरेन्द्रम्य । किये हुए हैं, और इमलिये इनकी प्रतिष्ठा मूल ममनीनेप समाता जयधवला प्राभनव्याख्या ॥" सिद्धान्तग्रन्थी-जमी ही है और ये प्रायः स्वतन्त्रम्पमें --जयधवल-प्रशस्ति सिद्धान्तग्रन्थ' ममझे नथा उल्लेखित किये जाते हैं। धवन और जयधवल नामोंकी यह प्रसिद्धि श्राजकी धवल-जयधवलकी आधारशिलाएँ अथवा बहुत ही अाधुनिक नहीं है । ब्रहा हेमचन्द्र अपने प्राकृत श्रुतस्कन्धमें और विक्रमकी १०वीं-११वीं शता जयधवलकी ६० हजार लोकपरिमाण निर्माण को ब्दीके विद्वान महाकवि पुष्पदन्त अपन महापगण में भी लिये भव्य इमारत जिम अाधार्गशलापर ग्बड़ी है इन्हीं नामोंके माथ इन ग्रन्थोंका उल्लग्ब करते हैं। उसका नाम 'कमायपाहद' ( कपायप्राभूत ) है । और यथा धवलकी ७० हजार या ७२ हज़ार लोक परिमाण "सदरीमहस्सधवलो जयधवलो मट्रिमहसबांधवां। निर्माणको लिये प. भव्य इमाग्न जिम मूलाधार पर महबंधो चालीम सिद्धंततयं अहं वंदे ॥" खड़ी हुई है वह पटग्यगदागम' है । पटग्वण्डागम के -श्रुतस्कन्ध. ८८ ब्रह्म हेमचन्द्रने 'श्रुतम्कन्ध' में धवनका परि "ण उ बुझिउ आयमु महधामु । माण जब ७० हजार श्लोक जिनना दिया है, तब इन्द्रसिद्धंतु धवल जयधवल णाम ॥" नन्दि प्राचार्यने अपने 'श्रुतावतार में उसे 'ग्रन्थमहम्र- महापुराण, १,६,८ सिप्रत्या' पदके द्वारा ७२ हजार मूचित किया है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण प्रथम चार खंडो-१ जीवस्थान, २ दुल्लकबन्ध, बन्ध- खण्ड' के साथही समाप्त होता है-वर्गणाखण्ड उसके स्वामित्वविचय, और ४ वेदनाकी, जिसे 'वेयणकसीण- साथमें लगा हुश्रा नहीं है । पाहुड' तथा 'कम्मपयडिपाहुड' (कर्मप्रकृतिप्राभूत) भी परन्तु पं० पन्नालालजी सोनी श्रादि कुछ विद्वानोंकहते हैं, यह पूरी टीका है-इन चार खण्डोंका इसमें का खयाल है कि 'धवला' चार खण्डोंकी टीका न पूर्णरूपसे समावेश है और इसलिये इन्हें ही प्रधानतः होकर पाँच खण्डोंकी टीका है-पाँचवाँ 'वर्गणा' खण्ड इस ग्रन्थकी आधार-शिला कहना चाहिये । शेप'वर्गणा' भी उसमें शामिल है। उनकी रायमें 'वेदनाखण्ड में और महाबन्ध' नामके दो खण्डोंकी इसमें कोई टीका नहीं २४ अनुयोगद्वार नहीं हैं, 'वेदना' नामका दूसरा है और न मूल सूत्ररूपमें ही उन खण्डोंका संग्रह किया अनुयोगद्वार ही 'वेदनाखण्ड' है और 'वर्गणाखण्ड' गया है-उनके किसी-किसी अंशका ही कहीं-कहीं पर फास, कम्म, पयडि नामके तीन अनुयोगद्वारों और ममावेश जान पड़ता है। 'बन्धन' अनुयोगद्वारके 'बंध' और 'बंधणिज्ज' अधि. वर्गणाखण्ड-विचार कारोंसे मिलकर बनता है। ये फासादि अनुयोगद्वार वेदनाग्वण्डके नहीं किन्तु 'कम्मपयडिपाहुड' के हैं, जो धवल ग्रन्थमें 'बन्धस्वामित्वविचय' नामके तीसरे कि अग्रायणीय नामके दूसरे पर्वको पाँचवीं च्यवनखण्डकी समाप्ति के अनन्तर मंगलाचरणपूर्वक 'वेदना' लब्धि वस्तुका चौथा पाहड है और जिसके कदि, खण्डका प्रारम्भ करते हुए, 'कम्मपयडिपाहुड' इस वेयणा (वेदना) फासादि २४ अनुयोगद्वार हैं । 'वेदनाद्वितीय नामके साथ उसके २४ अनुयोगद्वारोंकी सूचना खण्ड' इस कम्मपयडिपाहुडका दूसरा 'वेदना' नामका करके उन अनुयोगद्वारोंके कदि, वेयणा, फाम, कम्म, अनुयोगद्वार है । इस वेदनानुयोगद्वारके कहिये या पयडि, बंधण, इत्यादि २४ नाम दिये हैं और फिर उन वेदनाखण्डके कहिये १६ ही अनुयोगद्वार हैं, जिनके अनुयोगद्वारों (अधिकारों) का क्रमशः उनके अवान्तर नाम वेदणणिक्खेव, वेदणणयविभासणदा, वेदणणामअनुयोगद्वारोंके भेद-प्रभेद-सहित वर्णन करत हुए विहाण, वेदणदव्वविहाण, वेदणखेत्तविहाण, वेदणअन्तके 'अप्पाबहुग' नामक २४वें अनुयोगद्वारकी । रिका कालविहाण, वेदणभावविहाण आदि हैं ।' समाप्ति पर लिखा है-"एवं चउवीसदिमणिश्रोगहार ऐसी राय रखने और कथन करने वाले विद्वान् समत्तं ।" और फिर “एवं सिद्धांतार्णवं पूर्तिमगमत् इस बातको भुला देते हैं कि 'कम्मपयडिपाहुड' और चतुर्विशति अधिकार २४ अणिोगद्दाराणि । नमः 'वेयणकसीणपाहड' दोनों एक ही चीज़के नाम हैं। श्रीशांतिनाथाय श्रेयस्करो बभूव" ऐसा लिखकर क्रोका प्रकृत स्वरूप वर्णन करनेसे जिस प्रकार "जस्ससेसारणमए' इत्यादि ग्रन्थप्रशस्ति दी हैं,जिसमें * देखो, 'जैनसिद्धान्तभास्कर' के पांचवें भागकी ग्रन्थकार श्रीवीरसेनाचार्यने अपनी गुरुपरम्परा आदिके तृतीय किरणमें प्रकाशित सोनीजीका 'षड्खण्डागम उल्लेखपूर्वक इस धवलाटीकाकी समाप्तिका समय कार्तिक य कातिक और प्रमनिवारण' शीर्षक लेख । भागे भी सोगीबीके शका प्रयोदशी शकसंवत् ७३८ सूचित किया है। इससे मन्तव्योंका इसी खेखके आधार पर उल्लेख किया साफ जाना जाता है कि यह 'धवल' ग्रन्थ 'वेदना- गया है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] धवलादि-श्रुत-परिचय - 'कम्मपयडिपाहुड' गुणनाम है उसी प्रकार 'वेयण- उत्तरसूत्र कहते हैं । यथाकसीणपाहुड' भी गुणनाम है; क्योंकि 'वेदना' कर्मोंके "जहा उद्देमो तहा णिरेसो तिकट्ट कदिउदयको कहते हैं, उसका निरवशेषरूपसे जो वर्णन अणिोगहारं परूवणटुमुत्तरसुत्तं भणदि।"* करता है उसका नाम 'वेयणकसीणपाहुड' है; जैसा कि इससे स्पष्ट है कि 'वेदनाखण्ड' का विषय ही 'धवला' के निम्न वाक्यसे प्रकट है, जो कि श्राराके 'कम्मपयडिपाहुड' है; इसीसे इसमें उसके २४ अधिजैनसिद्धान्तभवनकी प्रतिमें पत्र नं० १७ पर दिया कारोंको अपनाया गया है, मंगलाचरण तकके ४४ सूत्र हुआ है भी उसीसे उठाकर रक्खे गये हैं। यह दूसरी बात है ___ "कम्माणं पयडिमरूवं वएणेदि तेण कम्मपय- कि इसमें उसकी अपेक्षा कथन संक्षेपसे किया गया है, डिपाहुडे त्ति गुणणामं, वयणकसीणपाहुडं त्ति वि कितने हो अनुयोगद्वारोंका पूरा कथन न देकर उसे तस्स विदियं णाममथि, वेयणा कम्माणमुदयो त छोड़ दिया है और बहुतसा कथन अपनी ग्रंथपद्धतिके कसीणं णिखसंसं वाद अदो वेयणकसीण- अनुसार सुविधा श्रादिकी दृष्टिसे दूसरे खण्डोंमें भी ले पाहुमिदि, एदवि गुणणाममेव ।" लिया गया है । इसीसे 'पटखण्डागम' महाकम्मपडि. वेदनाखण्डका विषय 'कम्मपयडिपाहुड' न होनेकी पाहुड ( महाकर्मप्रकृतिप्राभृत ) से उद्धृत कहा हालतमें यह नहीं हो सकता कि भूतबलि प्राचार्य कथन जाता है।। करने तो बैठे वेदनाखण्डका और करने लगें कथन यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि कम्मपयडिपाहुडका, उसक २४ अधिकारोंका क्रमशः वेदनाखण्ड के मूल २४ अनुयोगद्वारोंके साथ ही धवला नाम देकर ! उन हालतमें कम्मपयडि पाहुड के अन्तर्गत टीका समाप्त हो जाती है, जैसाकि ऊपर बतलाया गया २४ अधिकारों (अनुयोगद्वारों) मंग वेदना' नामके है, और फिर उसमें वर्गणाखण्ड तथा उसकी टीकाके द्वितीय अधिकारके साथ अपने वेदनाग्वण्डका मम्बन्ध लिये कोई स्थान नहीं रहता । उक्त २४ अनुयोगद्वारों में व्यक्त करने के लिये यदि उन्हें उक्त २४ अधिकागेके 'वर्गणा' नामका कोई अनुयोगद्वार भी नहीं है । 'अंधण' नामका सूत्र देनकी जरूरत भी होती तो वे उसे देकर अनुयोगद्वार के चार भेदोंमें 'बंधणिज्ज' भेदका वर्णन उसके बाद ही 'वेदना' नामके अधिकारका वर्णन करते; करते हुए, उसके अथान्तर भेदोंमें विषयको स्पष्ट करने के परन्तु ऐसा नहीं किया गया-वेदना' अधिकार के पूर्व लिये संक्षेप में 'वर्गणा प्ररूपणा' दी गई है-वर्गणाके 'कदि' अधिकारका और बादको ‘फाम' आदि अपि देखो, भारा जैनसिद्धान्तभवनकी 'धवज' प्रति, कारोंका भी उद्देशानुमार (नामक्रमसे) वर्णन प्रारम्भ पत्र ५१२। किया गया है । धवलकार श्रीवीरसेनाचार्यने भो, २४ । जैसा कि उसके निम्न वाक्यसे प्रकार हैअधिकारोंके नामयाले सूत्रकी व्याख्या करनेके बाद, जो "तेण बंधरिणजपरूपवणे कीरमाणे वग्गणपतउत्तरसूत्रकी उत्थानिका दी है उममें यह स्पष्ट कर दिया वणा णिच्छएणकायव्वा । अण्णहा तेवीस वग्गणाहै कि उद्देशके अनुसार निर्देश होता है इसलिये सुइया चेव वग्गणा बंधपामोगा भरणा जो बंधपाप्राचार्य 'कदि' अनुयोगद्वारका प्ररूपण करने के लिये प्रोगा ण होतिबत्तिगमाणु वपत्तीदो।" Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ अनेकान्त १६ अधिकारोंका उल्लेख करके भी दो ही अधिकारोंका वर्णन किया है । और भी बहुत कुछ संक्षिप्ततासे काम लिया है, जिससे उसे वर्गणाखण्ड नहीं कहा जा सकता और न कहीं वर्गणाखण्ड लिखा ही है । इसी संक्षेप-प्ररूपण-हेतुको लेकर अन्यत्र कदि, फास, और कम्म आदि अनुयोगद्वारोंके खण्डग्रन्थ होनेका निषेध किया गया है। तब अवान्तर अनुयोगद्वारोंके भी श्रवान्तर भेदान्तर्गत इस संक्षिप्त वर्गणाप्ररूपणाको 'वर्गras' कैसे कहा जा सकता है ? ऐसी हालत में सोनीजी जैसे विद्वानोंका उक्त कथन कहाँ तक ठीक है, इसे बिज़ पाठक इतने परसे ही स्वयं समझ सकते हैं, फिर भी साधारण पाठकोंके ध्यान में यह विषय और अच्छी तरह से श्रजाय, इसलिये, मैं इसे यह और भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ और यह ते रूपमें बतला देना चाहता हूँ कि 'धवला' वेदनान्त चार खराडोंकी टीका है --- पाँचवें वर्गगाखण्डकी टीका नहीं है। वेदनाखण्डकी श्रादि में दिये हुए ४४ मंगलसूत्रोंकी व्याख्या करने के बाद श्रीवीरसेनाचार्यने मंगलके 'निबद्ध' और 'अनिबद्ध' ऐसे दो भेद करके उन मंगलसूत्रोंको एक दृष्टि से निबद्ध और दूसरी दृष्टिसे निबद्ध बतलाया है और फिर उसके अनन्तर ही एक शंका-समाधान दिया है, जिसमें उक्त मंगलसूत्रों को ऊपर कहे हुए तीन खण्डों-वेदणा,बंधसामित्तविचश्रो और खुदाबंधो— का मंगलाचरण बतलाते हुए यह स्पष्ट सूचना की गई है कि 'वर्गणाखण्ड' की श्रादिमें तथा 'महाबन्धखंड' की श्रादिमें प्रथक मंगलाचरण किया गया है, मंगलाचरण के बिना भूतबलि श्राचार्य ग्रन्थका प्रारम्भ ही नहीं करते हैं। साथ ही, यह भी बतलाया है कि जिन कदि, फास, कम्म, पडि, [बंधण] अनुयोगद्वारोंका भी यहाँ [ वर्ष ३, किरण ( एत्थ ) – इस वेदनाखण्ड में - - प्ररूपण किया गया है, उन्हें खण्डग्रन्थ-संज्ञा न देनेका कारण उनके प्रधानताका प्रभाव है, जो कि उनके संक्षेप कथनसे जाना जाता है । इस कथनसे सम्बन्ध रखने वाले शंका-समाधान के दो अंश इस प्रकार हैं: “उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं ? तिरणं खंडाणं । कुदो ? वग्गणामहाबंधाणं आदीए मंगलकरणादो । रण च मंगलेण विणा भूदबलिभडार गंथस्स पारंभदि तस्स श्ररणाइरियत्तप्पसगादो ।" "कदि- फास कम्म-पर्याड - ( बंधण ) -योगदाराणि वि एत्थ परूविदारिण तेर्सि खंडगंथसरणमकाऊरण तिरिण चेव खंडाणि त्ति किमट्ठ उच्चदे? तेसिं पहाणत्ताभावादो । तं पि कुदो गव्वदे ? संखेवेण परूवणादो ।" * उक्त, 'फास' आदि अनुयोगद्वारोंमें से किसीके भी शुरू में मंगलाचरण नहीं है - 'फासे त्ति', 'कम्मे त्ति' 'पयडि त्ति', 'बंधणे' त्ति' सूत्रोंके साथ ही क्रमशः मूल अनुयोगद्वारोंका प्रारम्भ किया गया है, और इन अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा वेदनाखण्ड में की गई है तथा इनमें से किसीको खण्डग्रन्थकी संज्ञा नहीं दी गई, यह बात ऊपरके शंकासमाधान से स्पष्ट है । ऐसी हालत में सोनीजीका 'वेदना' श्रनुयोगद्वारको ही 'वेदनाखण्ड' बतलाना और फास, कम्म, पयडि श्रनुयोगद्वारोंको तथा बंधा श्रनुयोगद्वारके बन्ध और बंधनीय अधिकारोंको मिलाकर 'वर्ग खण्ड' की कल्पना करना और यहाँ तक लिखना कि ये अनुयोगद्वार “वर्गणाखंडके नामसे प्रसिद्ध हैं" कितना असंगत और भ्रमपूर्ण है उसे बतलानेकी ज़रूरत नहीं रहती । 'वर्गणाखंड' के नामसे देखो, धारा-बैन सिद्धान्तभवन की 'धवल' प्रति पत्र ५३२ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] धवलादि श्रुत-परिचय उक्त अनुयोगदारों के प्रसिद्ध होनेकी बात तो बड़ी ही है, 'वेयणा' नामका दूसरा अनुयोगदार है, जिसकी विचित्र है ! अभी तो यह ग्रन्थ लोकपरिचयमें भी अधिक टीका प्रारंभ करते हुए वीरसेनाचार्य ने भी, “वेयणम नहीं पाया । फिर उसके कुछ अनुयोगद्वारोंकी 'वर्गणा- हाहियारं विविहियारं परूवेमो" इस प्रतिशावास्यके ग्वंड' नामसे प्रसिद्धिकी तो बात ही दूर है। सोनीजीको द्वारा उसे विविध अधिकारोंसे युक्त 'वेयणा' नामका यह सब लिखते हुए इतनी भी खबर नहीं पड़ी कि यदि महाअधिकार सूचित किया है-'वेयणाखंड' नहीं अकेला वेदना-अनुयोगद्वार ही वेदनाखंड है तो फिर लिखा है--; वही अधिकार अथवा अनुयोगद्वार अपने 'कदि' अनुयोगद्वारको कौनसे खंडमें शामिल किया अवान्तर १६ अनुयोगदारों और उनके भी फिर अवान्तर जायगा ? 'बंधसामित्तविचत्रो' नामके पूर्वखंडमें तो अधिकारों के साथ वहाँ पूरा हुआ है। 'वेयणा' के १६ उसका समावेश हो नहीं सकता--वह अपने विषय अनुयोगद्वारों में अन्तका अनुयोगद्वार 'वेयण अप्पाबहुग' और मंगलमत्रों आदिके द्वारा उससे पृथक् हो चुका है, उसीकी समाप्ति के साथ 'वेयणा' की समाप्तिकी है । इसी तरह यह भी खबर नहीं पड़ी कि यदि बंधण- वात उक्त समाप्ति सचक वाक्यमें कही गई है। 'वेयणा' अनुयोगद्वारके बंध और बन्धनीय अधिकारोंको वर्गणा- पद स्त्रीलिंग होनेसे उसके साथमें 'समत्ता' (समाप्त हुई) खंडमें शामिल किया जायगा तो शेष अधिकारके क्रिया ठीक बैठ जाती है। दोनोंके बीचमें पड़ा हुआ क्रमशः प्राप्त कथनके लिये कौनसे नये खंडकी कल्पना 'खंड' शब्द असंगत और प्रक्षिप्त जान पड़ता है । करनी होगी ? क्या उसे किसी भी खंडमें शामिल न श्रीवीरसेनाचार्यने अपनी धवला टीकामें कहीं भी अकेले करके अलग ही रखना होगा? श्राशा है इन सब बातों- 'वेयणा' अनुयोगद्वारको 'वेयणाखंड' नहीं लिखा हैके विचार परसे सोनीजीको अपनी भूल मालूम पड़ेगी। वे 'वेयणाखण्ड' अनुयोगद्वारोंके उस समूहको बतलाते अब मैं उन बातोंको भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ है जिसका प्रारम्भ 'कदि' अनुयोगदारसे होता है और जिनसे सोनीजीको भ्रम हुश्रा जान पड़ता है और जिन्हें इसीसे 'कदि' अनुयोगद्वारके शुरूमें दिये हुए उक्त ४४ वे अपने पक्षको पुष्टि हेतरूपसे प्रस्तुत करते हैं। मंगलसूत्रोंको उन्होंने 'वेदनाखण्ड' का मंगलाचरण (क) सबसे पहली बात है वेदना-अनुयोगद्वारके बतलाया है; जैसा कि उनके निम्नवाक्यमें प्रयुक्त हुए अन्तमें वेदनाखंडकी समाप्तिका लिखा जाना, जिसकी "वेयणाखण्डस्स मादीए मंगलटुं" शब्दोंसे स्पष्ट हैशब्दरचना इस प्रकार है-- “ण ताव पिबदमलमिदं महाफम्मपपडिपाहु. "एवं वेयणमप्पाबहुगाणियोगदारे समरो उस्म कवियादिचडग्रीसमणियोगावयवस्स मादीए वेयणाखंड समत्ता।" गोदमसामिण परूविदस्स भूदवलिभडारपण इस वाक्यमें "वेयणखंड समत्ता"यह पद अशुद्ध वेयणखंडस्स भादीए मंगलटुं तत्तो पाणेदूण ठवि. है-"वेयणा समता" ऐसा होना चाहिये, क्योंकि दस्स णिबद्धत्तविरोहादो।" वेयणकसीणपाहुड अथवा कम्मपयडिपाहुरके २४ अनु- ऐसी हालतमें और इससे पूर्व में गले हुए प्रकाशयोगदारोंमेंसे, जिनका अन्य उद्देश क्रमसे कथन किया की रोशनीमें उक्त 'खंड' शब्दके प्रवित होनेमें कोई Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ सन्देह मालूम नहीं होता । 'खण्ड' शब्द लेखककी "तव्वदिरित्तठाणाणि असंखेज्जगुणाणि पडि. किसी असावधानीका परिणाम है । हो सकता है कि यह वादुप्पादठाणाणि मोतूण संससम्वट्ठाणाणं उस लेखक के द्वारा ही बादमें बढ़ाया गयाहो जिसने उक्त गहणादो।" बायके बाद अधिकारकी समाप्तिका चिन्ह होते हुए भी इस वाक्य के अनन्तर ही बिना किसी सम्बन्धके नीचे लिखे वाक्योंको प्रक्षिप्त किया है- ये वाक्य दिये हुए हैं। "णमो णाणाराहणाए णमो दमणाराहणाए "श्रीश्रुतिकीर्तित्रविद्यदेवस्थिरंजीयानो ॥१०॥ णमो चरित्ताराहणाए णमो तवाराहणाए । णमो नमो वीतरागाय शान्तये" भरहताणं णमो सिद्धाणं णमो पाइरियाणं णमो ऐमी हालत में उक्त 'खंड' शन्द निश्चितरूपसे प्रक्षिप्त वज्ञायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं'। णमो भय- अथवा लेखककी किसी भूलका परिणाम है। यदि बदो महदिमहावीरवड्ढमाणबुद्धिरिसिस्म णमो वीरसेनाचार्यको 'वेदना' अधिकारके साथ ही 'वेदनाभयवदो गोयमसामिस्स० नमः सकलविमलकेवल- खंड' का समाप्त करना अभाट होता तो वे उसके बाद ज्ञानावमासिने नमो वीतरागाय महात्मने नमो ही क्रमप्राप्त वर्गणाखंडका स्पष्ट रूप से प्रारंभ करतेबर्द्धमानभट्टारकाय । वेदनाखण्डसमाप्तम् ।" फासाणियोगद्वारका प्रारंभ कर के उसकी टाका के मंगला ये वाक्य मूलगन्ध अथवा उसकी टीका के साथ चरण में 'फासणिो परूवेमो' ऐसा न लिखते । कोई खास सम्बन्ध रखते हुए मालूम नहीं होते-वैसे मून 'फास' अनुयोगद्वार के साथ कोई मंगलाचरण न ही किसी पहले लेखक-द्वारा अधिकार-समामि के अन्तमें होनेसे उसके साथ वर्गणाखंडका प्रारम्भ नहीं किया दिए हुए जान पड़ते हैं । और भी अनेक स्थानोंपर इस जा सकता; क्योंकि वर्गणाखंडके प्रारंभमें भूतबलि प्रकार के वाम्य पाये जाते हैं, जो या तो मूलप्रतिके प्राचार्यने मंगलाचरण किया है, यह बात श्रीवीरसेनाहाशिये पर नोट किये हुए थे अथवा अधिकार-समाप्ति चार्यके शब्दोंसे ही ऊपर स्पष्ट की जा चुकी है । अतः के नीचे छटे हए खाली स्थान पर बादको किसी के द्वारा उक्त समाप्तिसक वास्यमें 'खंड' शन्दके प्रयोग मात्रसे नोट किये हुए थे; और इस तरह कापी करते समय सोनीजीके तथा उन्हींके सदृश दूसरे विद्वानोंके कथनको अन्धमें प्रक्षिम हो गये हैं। वीरसेनाचार्यकी अपने अधि. कोई पोषण नहीं मिलता। उनकी इस पहली बातमें कारों के अन्तमें ऐसे वाक्य देनेकी कोई पद्धति भी नहीं कुछ भी जान नहीं है-वह एक निर्दोष हेतुका काम पाई जाती-अधिकांश अधिकार ही नहीं किन्तु खंड तक नहीं दे सकती। ऐसे वास्पोंसे शूत्य पाये जाते हैं। और कितनेही अधि. (ख) दूसरी बात बहुत साधारण है। फासाणियोगकॉमें ऐसे वास्प प्रदिप्त हो रहे हैं जिनका पूर्वापर द्वारकी टीकाके अन्तमें एक वाक्य निम्नप्रकारसे पाया कोई भी सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता। उदाहरण के लिए जाता है'जीवट्ठाण' की एक चूलिका (संभवतः ७वीं य” ८ वी) में "जदि कम्मफासे पयदं तो कम्मफासो सेसप जो चारा-ग सिदान्तभवन की 'पवन' पति, देखो, पारा चैवसिदान्तभवन की 'ब' प्रति पर पत्र । . Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलादिभुत-परिचय कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६६ ] एणारस अरिणयगद्दारेहिं भूदबलिभयवदा सो एत्थ किरण परुविदो ? ण एस दोसो, कम्मक्खंधस्स फाससरिणदस्स से साणियोगद्दारेहिं परूवरणाए कोरमारणाए वेयणाए परुविदत्थादो विसेसो पत्थिन्ति ।" इस वाक्यके द्वारा यह सूचित किया गया है कि फासाणियोगद्दारके १६ श्रनुयोगद्वारोंमेंसे एकका कथन करके शेष १५ अनुयोगद्वारोंका कथन भूतबलि श्राचार्यने यहाँ इसलिये नहीं किया है कि उनकी प्ररूपणामें ‘वेदना’ अधिकारमें प्ररूपित अर्थसे कोई विशेष नहीं है। इसी तरह पर्याड (प्रकृति) अनुयोगद्वार के अन्तमें भूतबलि श्राचार्यका एक वाक्य निम्नप्रकारसे उपलब्ध होता है- सेस वेयरणाए भंगो ।” इस वाक्यकी टीका में वीरसेनाचार्य लिखते हैं"संसारिणगद्दाराणं जहा वेयरणाए परूवणा कदा तहा कायव्या ।” अर्थात् शेष अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा जिस प्रकार वेदना श्रनुयोगद्वार में की गई है उसी प्रकार यहाँ भी कर लेनी चाहिये । उक्त दोनों वाक्योंको देकर सोनीजी लिखते हैं-"इन दो उद्धरणोंसे भी स्पष्ट होता है कि 'फासाणियोगद्दार' के पहले तक ही 'वेदनाखंड' है ।" परन्तु कैसे स्पष्ट होता है १, इसे सोनी जी ही समझ सकते हैं !! यह सब उसीभ्रम तथा भूलका परिणाम है जिसके श्रनुसार ‘फासाणियोगद्दार' के पूर्ववर्ती 'वेयणाश्रणियोगद्दार' को 'वेदनाखण्ड' समझ लिया गया है और जिसका ऊपर काफी स्पष्टीकरण किया जा चुका है। उक्त वाक्यों में प्रयुक्त हुना 'वेयणा' शब्द 'वेदनाश्रनुयोगद्वार' का वाचक है - 'वेदनाखयड' का वाचक नहीं है । (ग) तीसरी बात वर्गणाखण्ड के उल्लेखसे सम्बन्ध रखती है। सोनीजी 'जयधवला' से "सिप्पोग्गहादीणं अत्थो जहा वग्गणाखंडे परूविदो तहा एत्थ प वेदवो" यह वाक्य उद्धृत करके लिखते हैं " जयधवलमें न तो अवग्रह श्रादिका अर्थ लिखा है और न मतिज्ञानके ३३६ भेद ही स्पष्ट गिनाये गये हैं। 'प्रकृति' अनुयोगद्वारमें इन सबका स्पष्ट और सविस्तर वर्णन टीकामें ही नहीं बल्कि मूलमें है। इससे मालूम होता है कि बेदनाखण्ड के श्रागेके उक्त अनुयोगद्वार वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत हैं या उनका सामान्य नाम वर्गणाखण्ड है । यदि ऐसा न होता तो श्राचार्य 'प्रकृति' अनुयोगद्वारको वर्गणाखयडके नामसे न लिखते ।” कितना बढ़िया अथवा विलक्षण यह तर्क है, पर विज्ञ पाठक ज़रा गौर करें ! सोनीजी प्रकृति (पयडि) अनुयोगद्वारको 'वर्गणाखण्ड' का अंग सिद्ध करनेकी धुन में वर्गणाखण्ड के स्पष्ट उल्लेखको भी 'प्रकृति' अनुयोगद्वारका उल्लेख बतलाते हैं और यहाँ तक कहने का साहस करते हैं कि खुद जयधवलाकार - 'चार्यने 'प्रकृति' अनुयोगद्वारको वर्गणाखण्ड के नामसे उल्लेखित किया है !! इसीका नाम अतिसाहस है ! क्या एक विषयका वर्णन अनेक ग्रंथों में नहीं पाया जाता ! यदि पाया जाता है तो फिर एक ग्रन्थका नाम लेकर यदि कोई उल्लेख करता है तो उसे दूसरे ग्रन्थका उल्लेख क्यों समझा जाय ? इसके सिवाय, यह बात ऊपर सष्ट की जा चुकी है कि वर्गणाखयडकी श्रादिमें भूतबलि श्राचार्यने मंगलाचरण किया है और जिन 'कास' श्रादि चार श्रनुयोगद्वारोंको 'वर्गणाखयड' बतलाया जाता है उनमें से किसीकी भी श्रादिमें कोई मंगलाचर नहीं है, इससे वे 'वर्गणाखण्ड' नहीं है किन्तु 'चेदना इस Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अनेकान्त [ वर्ष ३, किरण १ समाप्त करते हुए भी इतना ही लिखा है कि "एवमोगाहगप्पा हुए सुबुत्ते बंधरिणज्जं समत्तं होदि । " दूसरे, 'वर्गणासूत्र' का अभिप्राय वर्गणाखंडकासूत्र नहीं किन्तु वर्गणाविषयक सूत्र है । वर्गणाका विषय अनेक खंडों तथा अनुयोगद्वारोंमें आया है, 'वेदना' नामके अनुयोगद्वार में भी वह पाया जाता है - " वग्गण परूवणा" ars' के ही अधिकार हैं, जिनके क्रमशः कथनकी ग्रंथसूचना की गई है । .: (घ) चौथी बात है कुछ वर्गणासूत्रों के उल्लेख की। सोनीजीने वेदनाखण्ड के शुरू में दिये हुए मंगलसूत्रोंकी व्याख्यामेंसे निम्न लिखित तीन वाक्योंको उद्धृत किया है, जो वर्गशास्त्रोंके उल्लेखको लिये हुए हैं "ओहिणारणावरणस्स असंखेज्जमेत्ताश्रो चेव नामका उसमें एक श्रवान्तरान्तर अधिकार है । उस अधिकारका कोई सूत्र यदि वर्गणासूत्रके नामसे कहीं उल्लेखित हो तो क्या सोनीजी उस अधिकार अथवा वेदना अनुयोगद्वार को ही 'वर्गणाखंड' कहना उचित समझेंगे ? यदि नहीं तो फिर उक्त वर्गणा सूत्रोंके प्रकृतिआदि अनुयोगद्वारोंमें पाये जाने मात्र से उन अनुयोग द्वारोंको 'वर्गणाखंड' कहना कैसे उचित हो सकता है ? कदापि नहीं । अतः मोनीजीका उक्त वर्गणसूत्रों के उल्लेख परसे यह नतीजा निकालना कि "यही वर्गणाखंड है— इससे जुदा और कोई वर्गणाखड नहीं है " ज़रा भी तर्कसंगत मालम नहीं होना । पडीओ ति वग्गणसुत्तादो ।" “कालो चउरण उड्ढी कालो भजिदव्वो खेत्तवुड्ढीए बुड्ढीए दब्वपज्जय भजिदव्वो खेत्तकाला दु || एवम्हादो वग्गणसुत्तादो व्वदे ।” "आहारबम्गरणाए दुव्वा थोवा, तेयावग्गरणाए दव्वा श्रणंतगुणा, भासावग्गणाए दव्वा श्रणंतगुरणा, मा० दव्वा अांतगुणा, कम्मइय अांतगुणा त्ति वग्गणसुन्तादो गव्वद ।” ये वाक्य यद्यपि धवलादि-सम्बन्धी मेरी उस नोट्स में नोट किये हुए नहीं हैं जिसके आधारपर यह सब परिचय लिखा जा रहा है, और इससे मुझे इनकी जाँचका और इनके पूर्वापर सम्बन्धको मालूम करके यथेष्ट विचार करनेका अवसर नहीं मिल सका; फिर भी सोनी जी इन वाक्यों में उल्लेखित प्रथम दो वर्गणसूत्रोंका 'प्रकृत' अनुयोगद्वार में और तीसरेका ' बन्धनीय' अधिकार में जो पाया जाना लिखते हैं उस पर मुझे सन्देह करनेकी ज़रूरत नहीं है । परन्तु इस पाये जाने मात्रसे ही 'प्रकृत' अनुयोगद्वार और 'बन्धनीय' अधिकार afras नहीं हो जाते। क्योंकि प्रथम तो ये अधिकार और इनके साथ फामादि अधिकार वर्गणाखण्ड कोई श्रंग नहीं हैं, यह बात ऊपर स्पष्ट की जा चुकी है इनमेंसे किसीके भी शुरू, मध्य या अन्तमें इन्हें वर्णाखंड नहीं लिखा, अन्तके 'बन्धनीय' श्रधिकारको यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि पट्खडागम के उपलब्ध चारखंडों में सैकड़ों सूत्र ऐसे हैं जो अनेक खंडों तथा एक खंडके अनेक अनुयोगद्वारोंमें ज्योंके त्यों अथवा कुछ पाठभेदके साथ पाये जाते है-जैसे कि 'गइ इंदिए च काए '० नामका मार्गणासूत्र जीवद्वाण, खुदाबंध और वेयणा नामके तीन खंडोंमें पाया जाता है। किसी सूत्रकी एकता अथवा समानता के कारण जिस प्रकार इन खंडों मेंसे एक खंडको दूसरा खंड तथा एक अनुयोगद्वारको दूसरा अनुयोगद्वार नहीं कह सकते उसी प्रकार वर्गणाखंडके कुछ सूत्र यदि इन खंडों अथवा श्रनुयोगद्वारोंमें पाये जाते हों तो इतने परसे ही इन्हें वर्गणाखंड नहीं कहा जा सकता । वर्गणाखंड कहनेके लिये तद्विषयक दूसरी Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] धवलादि श्रुत-परिचय श्रावश्यक बातोंको भी उसी तरह देख लेना होगा जिस उसमें शीघ्रतादिके वश वर्गणाखण्डकी कापी न हो तरह कि उक्त सूत्रकी एकताके कारण खुद्दाबंधको जी- सकी हो और अधरी ग्रन्थप्रति पर यथेष्ठ पुरस्कार न वट्ठाण कहनेपर जीवठाण-विषयक दूसरी ज़रूरी बातोंको न मिल सकनेकी श्राशासे लेखकने ग्रन्थकी अन्तिम वहाँ देख लेना होगा। अतः मोनी जीने वर्गणासूत्रोंके उक्त प्रशस्तिको 'वेदनाखण्ड' के बाद जोड़कर ग्रंथप्रतिको उल्लेख परसे जो अनुमान लगाया है वह किसी तरह भी पूरा प्रकट किया हो, जिसकी श्राशा बहुत ही कम है। ठीक नहीं है। कुछ भी हो, उपलब्ध प्रतिके साथमें वर्गणाखण्ड नहीं (ङ) एक पाँचवीं बात और है, और वह इस है और वह चार खण्डोंकी ही टीका है, इतना तो प्रकार है-- स्पष्ट ही है । शेषका निर्णय मूडबिद्रीकी मूल प्रतिको “श्राचार्य वीरसेन लिखते हैं--अवमेसं सुत्तटुं देखनेसे ही हो सकता है। श्राशा है पं० लोकनाथजी वग्गणाए पम्वइस्मामा' अर्थात् सूत्रका अवशिष्ट शास्त्री उस देख कर इम विषय पर यथेष्ट प्रकाश डालने अर्थ 'वर्गणा' में प्ररूपण करेंगे। इससे स्पष्ट हो जाता की कृपा करेंगे --यह स्पष्ट लिखनेका ज़रूर कष्ट उठाहै कि 'वर्गणा' का प्ररूपण भी वीरसेनस्वामीने किया एँगे कि वेदनाखण्ड अथवा कम्मपयडिपाहुडके २४वें है । वगंगाका वह प्ररूपण धवलसे बहिर्मत नहीं है किन्तु अधिकारकी समाप्ति के बाद ही-"एवं चउवीसदिधवल ही के अन्तर्भत है।" मणिश्रोगद्दारं ममत्तं" इत्यादि समाप्तिसूचक वाक्यों ____ यद्यपि प्राचार्य वीरसेनका उक्त वाक्य मेरे पाम के अनन्तर ही--- उसमें 'जस्स सेसारणमए' नामकी नोट किया हुआ नहीं है, जिससे उस पर यथेष्ट विचार प्रशस्ति लगी हुई है या कि उसके बाद 'वर्गणारखण्ड' किया जा मकता; फिर भी यदि वह वीरमनाचार्यका ही की टीका देकर फिर वह प्रशस्ति दी गई है। वाक्य है और 'वेदना' अनुयोगद्वार में दिया हुआ है हाँ,मोनी जीने यह नहीं बतलाया कि वह सत्र कौन तो उमसे प्रकृत विषय पर कोई अमर नहीं पड़ता- सा है जिसके अवशिष्ट अर्थको 'वर्गणा' में कथन करने यह लाज़िमी नहीं पाता कि उसमें वर्गणारखण्डका उल्लेख की प्रतिज्ञा की गई है और वह किस स्थान पर कौनसी है और वह वर्गणाखण्ड फासादि अनुयोगद्वारोंसे बना वर्गणाप्ररूपणमं स्पष्ट किया गया है ? उसे ज़रूर पत. हुअा है-उसका मीधा संबंध स्वयं 'वेदना' अनुयोग लाना चाहिये था । उससे प्रकृत विषयके विचारको द्वारमें दी हुई है 'वग्गणपळवणा' तथा 'बंधगिज्ज' काफ़ी मदद मिलती और वह बहुत कुछ स्पष्ट होजाता । अधिकार में दी हुई वर्गणाकी विशेष प्ररूपणाके माथ अस्तु । हो सकता है, जोकि धवलके बहित नहीं है । और यहाँ तक के इम मंपूर्ण विवेचन परमे और ग्रंथकी यदि जुदे वर्गणाखण्डका ही उल्लेख हो तो उस पर वीर- अंतरंग मानी पग्मे मैं समझता हूँ, यह बात बिल्कुल मनाचार्यकी अलग टीका होनी चाहिये, जिस वर्तमानमें स्पष्ट हो जाती है कि उपलब्ध धवला टीका पटवण्डाउपलब्ध होने वाले प्रवलभाध्य अथवा धवला टीकामें गमके प्रथम चार खण्डोंकी टीका है, पाँच वर्गणा समाविष्ट नहीं किया गया है । हो सकता है कि जिस खण्डको टीका उसमें शामिल नहीं है और अकेला विकट परिस्थितिम यह ग्रंथप्रति मूडविद्रीसे आई है 'वेदना' अनुयोगद्वार ही वेदनाखण्ड नहीं है बल्कि उसमें Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण दूसरे अनुयोगद्वार भी शामिल हैं। प्राप्त हुआ। यह सब वर्णन अथवा ग्रंथावतार कथन इन्द्रनन्दी और विबुध श्रीधरके श्रुतावतारोंकीबहिरंग यहाँ धवल और जयधवलके आधार पर उनके वर्णसाक्षीपरसे भी कुछ विद्वानोंको भ्रम हुअा जान पड़ता नानुसार ही दिया जाता है। है; क्योंकि इन्द्रनन्दीने "इतिषएणां खण्डाना...टीका धवल के शुरूम, कर्ताके 'अर्थकर्ता' और 'ग्रन्थकर्ता' विलिख्य धवलाख्याम्" इस वाक्यके द्वारा धवलाको ऐसे दो भेद करके, केवलशानी भगवान महावीरको छह खण्डोंकी टीका बतला दिया है ! और विबुध श्रीधर- द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-रूपसे अर्थकर्ता प्रतिपादित किया ने 'पंचखंडे षट्खंड संकल्प्य' जैसे वाक्य के द्वारा है और उसकी प्रमाणता में कुछ प्राचीन पद्योंको भी धवलामें पाँच खण्डों का होना सूचित किया है। उद्धृत किया है । महावीर-द्वारा कथित अर्थको गोतम इस विषयमें मैं सिर्फ इतना ही बतला देना चाहता हूँ गोत्री ब्राह्मणोत्तम गौतमने अवधारित किया, जिसका कि इन ग्रंथकारोंके सामने मूल सिद्धान्तग्रंथ और उनकी नाम इन्द्रभृति था । यह गौतम सम्पर्ण दुःश्रुतिका पार प्राचीन टीकाएँ तो क्या धवल और जयधवल ग्रंथ तक गामी था, जीवाजीव-विषयक सन्देहके निवारणार्थ मौजद नहीं थे और इसलिये इन्होंने इस विषयमें जो श्रीवर्धमान महावीरके पास गया था और उनका शिष्य कुछ लिखा है वह सब प्रायः किंवदन्तियों अथवा सुने- बन गया था। उसे वहीं पर उसी समय क्षयोपशम-जनित सुनाये श्राधार पर लिखा जान पड़ता है । यही वजह है निर्मल ज्ञान-चतुष्टयकी प्राप्ति हो गई थी । इस प्रकार कि धवल-जयधवल के उल्लेखसि इनके उल्लेखोमं कित- भाव-श्रुतपर्याय-रूप परिणत हुए इन्द्रभूति गौतमने महावीरनी ही बातोंका अन्तर पाया जाता है, जिसका कुछ परि- कथित अर्थकी बारह अंगों-चौदह पर्वो में ग्रन्थ-रचना की चय पाठकोंको अनेकान्तके द्वितीय वर्ष की प्रथम किरण और वे द्रव्यश्रुतके कर्ता हुए। उन्होंने अपना वह द्रव्यके पृष्ठ ७, ८ को देखनेसे मालूम हो सकता है और कुछ भाव-रूपी श्रुतज्ञान लोहाचार्य के प्रति संचारित किया परिचय इस लेखमें आगे दिये हुए फुटनोटों आदिसेभी और लोहाचार्यने जम्बस्वामीके प्रति । ये तीनों-गौतम, जाना जा सकेगा । ऐसी हालतमें इन ग्रंथोंकी बहिरंग लोहाचार्य और जम्बस्वामी-सप्तप्रकारकी लब्धियोंसाक्षीको खुद धवलादिककी अंतरंग माक्षी पर कोई से सम्पन्न थे और उन्होंने सम्पूर्ण श्रुतके पारगामी होकर महत्व नहीं दिया जामकता । अन्तरंग परीक्षणसे जो केवलज्ञानको उत्पन्न करके क्रमशः निर्वृतिको प्राप्त बात उपलब्ध होती है वही ठीक जान पड़ती है। किया था। जम्बूस्वामीके पश्चात् क्रमशः विष्णु, नन्दिनित्र, षट् खण्डागम और कषायमाभृतकी उत्पत्ति अपराजित, गोवद्धन और भद्रबाह ये पांच प्राचार्य अब यह बतलाया जाता है कि धवला के मूलाधार- चतुर्दश-पर्वके धारी अर्थात् सम्पर्ण श्रुतज्ञानके पारगामी भूत 'घटखंडागम' की और जयधवल के मूलाधाररूप हुए। 'कषायप्राभृत' की उत्पत्तिकैसे हुई-कब किम श्राचार्य- धवलाके 'वेदना' सरसमें भी लोहाचार्यका नाम महोदयने इनमस किस ग्रंथका निर्माण किया और उन्हें दिया है । इन्धनन्दिके श्रुतावतारमें इस स्थान पर तद्विषयक शान कहाँसे अथवा किस क्रमस गुपरम्परासे) सुधर्म मुनिका नाम पाया जाता है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] धवलादि-श्रुत-परचय __ भद्रबाहु के अनन्तर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, लोहाचार्य के बाद सर्व अंगों तथा पूर्वोका वह एकजयाचार्य', नागाचार्य,सिद्धार्थदेव, धृतिषेण, विजया- देशश्रुत जो प्राचार्य-परम्परा से चला पाया था धरचार्य, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन ये क्रमशः ११ सेनाचार्यको प्राप्त हुआ। धनसेनाचार्य अष्टाँग महाश्राचार्य ग्यारह अंगों और उत्पादपूर्णादि दश पूर्वोके निमित्तके पारगामी थे । वे जिस समय सोरठ देशके पारगामी तथा शेष चार पूर्वो के एक देश धारी हुए। गिरिनगर (गिरनार ) पहाड़की चन्द्र-गुहामें स्थित थे धर्मसेनके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुस्वामी, उन्हें अपने पासके ग्रन्थ (श्रुत) के व्युच्छेद हो जानेका ध्रुवसेनछौर कंसाचार्य ये क्रमशः पांच श्राचार्य ग्यारह भय हुश्रा, और इसलिये प्रवचन-वात्सल्य से प्रेरित अंगों के पारगामी और चौदह पूर्वोके एक देश-धारी हुए। होकर उन्होंने दक्षिणा-पथके श्राचार्यों के पास, जो उस ___ कंसाचार्य के अनन्तर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु । समय महिमा नगरी में सम्मिलित हुए थे ('दक्खिणा और लोहाचार्य ये क्रमशः चार आचार्य आचारांगके वहाइरियाणं महीमाए मिलियाणं')एक लेख पूर्णपाठी और शेष अंगों तथा पर्वोके एक देशधारी (पत्र) भेजा। लेखस्थित धरसेन के वचनानुसार उन हुए। श्राचार्योंने दो साधुअोंको, जो कि ग्रहण-धारण में समर्थ १, २, ३, इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें जयसेन, नाग- चौदह पूर्वोके एकदेश-धारी लिखा और न विरालासेन, विजयसेन, ऐसे पूरे नाम दिये हैं । जयधवलामें भी चार्यादिको शेष चार पूर्वोके एक देश-धारी ही बताया जयसेन, नागसेन-रूपसे उल्लेख है परन्तु साथमे विजय- है। इसलिये धवलाके ये उल्लेख खास विशेषताको को विजयमेन रूपस उल्लेखित नहीं किया । इससे मूल लिए हुए हैं और बुद्धि प्राह्य तथा समुचित मालूम नामों में कोई अन्तर नहीं पड़ता। होते हैं। ___* यहाँ पर यद्यपि द्रुमसेन (दुमसेणो) नाम दिया महिमानगड' नामक एक गांव सतारा जिले है परन्तु इसी ग्रंथके 'वेदना' खंडमें और जयधवलामें में है (देखो, 'स्थलनामकोश'), संभवतः यह वही जान भी उन ध्र वसेन नामसे उल्लेखित किया है--पूर्ववर्ती पढ़ता है। ग्रंथ 'निलोयपणयत्ती' में भी ध्र बसेन नामका उल्लेख इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारके निम्न वायसे पाचन मिलता है। इससे यही नाम ठीक जान पड़ता है। स्पष्ट नहीं होता--वह कुछ गड़बड़को लिये हुये जान अथवा द्रुमपेन को इसका नामान्तर समझना चाहिये। पढ़ना है :-- इन्द्र नन्दि-श्रुतावतारमें उमसेन नामसे ही उल्लेख “देशेन्ज (sी) देशनामनि वेणाकतटीपुरे महाकिया है। महिमा । समुदित मुनीन् प्रति..." अनेक पहावलियोंमें यशोवाहुको भद्रबाहु इसमें महामहिमासमुदितमुनीन्' लिखा है तो भामे, (द्वितीय) सूचित किया है और इन्दनन्दि-शुतावतार लेखपत्रके प्रयंका उल्लेख करते हुए, उसमें 'देवाक में 'जयबाहु' नाम दिया है तथा यशोभनकी जगह तरसमुदितयतीन्' विशेष दिया है जो कि 'महिमा' अभयभद्र नामका उल्लेख किया है। इन्द्रनन्दि श्रुतावतारमें इस प्राचार्योको शेष अंगों और 'बेल्वातट'केवायोंको मेक रूपमें न समकका तथा पूर्वोके एक देश धारी नही लिखा, न धर्मसेनादिको परिणाम हो सकता है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वर्ष ३, किरण १ मट्टिय-मसयस माणं वक्खाणइ जो सुदं मोहा ||१|| दध (?) गारवपडवद्धो विसयामिस बिसबसे घुम्मंतो । सो थे, बहुविध निर्मल विनयसे विभूषित तथा शील-मालाके धारक थे, गुरु-सेवा में सन्तुष्ट रहने वाले थे, देश कुल- जाति से शुद्ध थे और सकल-कला- पारगामी एवं तीक्ष्ण-बुद्धिके धारक प्राचार्य थे— श्रान्ध्र देशके वेण्या - तट नगरसे धरसेनाचार्यके पास भेजा । ( अंधविसबवेरणायादो पेसिदा ) । वे दोनों साधु जब आ रहे थे तब रात्रिके पिछले भाग में धरसेन भट्टारकने स्वप्न में सर्व-लक्षण सम्पन्न दो धवल वृषभोंको अपने चरणोंमें पड़ते हुए देखा । इस प्रकार सन्तुष्ट हुए धग्सेनाचार्यने ‘जयतु श्रुतदेवता' | ऐसा कहा । उसी दिन वे दोनों साधुजन धरसेनाचार्य के पास पहुँच गये और तब भगवान् धरसेनका कृतिकर्म ( वन्दनादि) करके उन्होंने दो दिन विश्राम किया, फिर तीसरे दिन विनय के साथ धरसेन भट्टारकको यह बतलाया कि 'हम दोनों जन श्रमुक कार्य के लिये आपकी चरण-शरण में आए हैं।' इसपर धरसेन भट्टारकने 'सुष्ठु भद्रं' ऐसा कहकर उन दोनोंको आश्वासन दिया और फिर वे इस प्रकार चिन्तन करने लगे*''मेलघण-भग्गघड-अहि- चालण महिसाऽवि-जा- तो तुरन्त ही वे दोनों विद्या- देवियाँ अपने अपने स्वभावयहि ।” रूप में स्थित होकर नज़र आने लगीं । तदनन्तर उन मुनियोंने विद्या-सिद्धिका सच हाल पूर्ण विनय के साथ wist श्रुतका व्याख्यान करना है जो शैलघन, भग्नघट, सर्प, छलनी, महिष, मेष, जोंक, शुक, मिट्टी और मशकके समान हैं--इन जैसी प्रकृतिको लिये हुए हैंवह मूड बोधिलाभसे भ्रष्ट होकर चिरकाल तक संसारनमें परिभ्रमण करता है।' टुबोहि जाहो भमइ चिरं भववणे मूढो ||२|| इस वचनसे स्वच्छन्दचारियोंको विद्या देना संसारभयका बढ़ाने वाला है । ऐसा चिन्तन कर, शुभ स्वप्न के दर्शनसे ही पुरुषभेदको जाननेवाले धरसेनाचार्य ने फिर भी उनकी परीक्षा करना अंगीकार किया । सुपरीक्षा ही निःसन्देह हृदयको मुक्ति दिलाती है । । तब धरसेनने उन्हें दो विद्याएँ दीं - जिनमे एक अधिकाक्षरी, दूसरी हीनाक्षरी थी — और कहा कि इन्हें षष्ठोपवासके साथ साधन करो। इसके बाद विद्या सिद्ध करके जब व विद्यादेवताओं को देखने लगे तो उन्हें मालूम हुआ कि एकका दाँत बाहरको बढ़ा हुआ है और दूसरी कानी (एकाक्षिणी ) है । देवताओंका ऐसा स्वभाव नहीं होता' यह विचार कर जब उन मंत्र- व्याकरण में निपुण मुनियोंने हीनाधिक अक्षरोंका क्षेपण- श्रपनयन विधान करके - कमीवेशीको दूरकरके- 5- उन मंत्रोंको फिरसे पढ़ा १४ अनेकान्त * 'वेण्या' नामकी एक नदी सतारा जिले में है (देखो 'स्थलनाम कोश') । संभवतः यह उसीके तट पर बसा हुआ नगर जान पड़ता है। + इन्द्र-तावतारमें 'जयतु-श्रीदेवता' लिखा है, जो कुछ ठीक मालूम नहीं होता; क्योंकि प्रसंग तदेवताका है। + इन्दनन्दिश्रुतावतार में तीन दिनके विश्रामका उल्लेख है । * इन गाथाओंका संक्षिप्त प्राशय यह है कि 'जो आचार्य गौरवादिकके वशवर्ती हुआ मोहसे ऐसे श्रोता + इन्द्रनन्दिश्रुतावतार में 'सुपरीक्षा हविर्वर्तिकरीति, इत्यादि वाक्य के द्वारा परीक्षाको यही बात सूचित की है; परन्तु इससे पूर्ववर्ती चिन्तनादि विषयक कथन, जो इसपर 'धरसेन' से प्रारम्भ होता है, उसमें नहीं है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातिक वीर निर्वाण सं०२४६६] धवलादि-श्रुत-परिचय भगवद् धरसेनसे निवेदन किया । इस पर धरसेन जीने वर्षायोगको समाप्त करके तथा 'जिनपालित' को सन्तुष्ट होकर उन्हें सौम्य तिथि और प्रशस्त नक्षत्रके देखकर पुष्पदन्ताचार्य तो वनवास देशको चले गये दिन उस ग्रन्थका पढ़ाना प्रारम्भ किया, जिसका नाम और भूतबलि भी द्रमिल (द्राविड) देशको प्रस्थान कर 'महाकम्मपयडिपाहुड' ( महाकर्मप्रकृतिप्राभृत ) गये । इसके बाद पुष्पदन्ताचार्यने जिनपालितको दीक्षा था। फिर क्रमसे उसकी व्याख्या करते हुए (कुछ दिन देकर, बीस सूत्रों (विंशति प्ररूपणात्मकसूत्रों) की रचना व्यतीत होने पर) आषाढ़ शुक्ला एकादशीको पूर्वाह के कर और वे सूत्र जिनपालिनको पढ़ाकर उसे भगवान् समय ग्रन्थ समाप्त किया गया । विनयपूर्वक ग्रन्थका भूतबलिके पास भेजा । भगवान् भूतबलिने जिनपालिअध्ययन समाप्त हुश्रा, इससे सन्तुष्ट होकर भूतोंने तके पास उन विंशतिप्ररूपणात्मक सूत्रोंको देखा और वहाँपर एक मुनिकी शंख-तुरहीके शन्द सहित पुष्यबलिसे · साथ ही यह मालूम किया कि जिनपालित अल्पायु है। महती पूजा की। उसे देखकर धरसेन भट्टारकने उस इससे उन्हें 'महाकर्मप्रकृतिाप्रभृत'के व्युच्छेदका विचार मुनिका 'भूतबलि' नाम रक्खा, और दूसरे मुनिका नाम उत्पन्न हुश्रा और तब उन्होंने ( उक्त सूत्रोंके याद) 'पुष्पदन्त' रक्खा, जिसको पूजाके अवसर पर भूतांने 'द्रव्यप्रमाणानुगम' नामके प्रकरणको आदिमें रखउसकी अस्तव्यस्त रूपसे स्थित विषमदन्त-पंक्तिको कर ग्रन्थकी रचनाकी । इस ग्रन्थका नामही 'घटखण्डासम अर्थात् ठीक कर दिया था । फिर उसी नाम- गम' है; क्योंकि इस आगम ग्रन्थमें १ जीवस्थान, २ करणके दिनां धरसेनाचार्य ने उन्हें रुखसत ( विदा) क्षुल्लकबंध, ३ बन्धस्वामित्वविचय, ४ वेदना, कर दिया । गुरुवचन अलंघनीय है, ऐसा विचार कर ५ वर्गणा, और ६ महाबन्ध नामके छह खण्ड अर्थात् वे वहाँमे चल दिये और उन्होंने अंकलेश्वर में आकर विभाग हैं, जो सब महाकर्म-प्रकृतिप्राभूत-नामक मूलावर्षाकाल व्यतीत किया। गमग्रन्थको संक्षिम करके अथवा उस परसे समुद्धृत * इन्द्रनदिन्द-श्रुतावतारमें उक्त मुनियोंका यह करके लिखे गये हैं। और वह मूलागम द्वादशांगभुतनामकरण धरसेनाचार्य के द्वारा न होकर भूतों द्वारा के अग्रायणीय-पूर्वस्थित पंचम वस्तुका चौथा प्राभूत किया गया, ऐसा उल्लेख है। है। इस तरह इस घट खंडागम श्रुतके मूलतंत्रकार इन्द्र नन्दि-श्रुतावतारमें ग्रन्थसमाति और नामकरण श्री वर्द्धमान महावीर, अनुतंत्रकार गौतमस्वामी और का एक ही दिन विधान करके, उससे दूसरे दिन सबसत उपतंत्रकार भूतबलिपुष्पदन्तादि श्राचार्योको समझना करना लिखा है। चाहिये । भूतबलि-पुष्पदन्तमें पुष्पदन्ताचार्य सिर्फ ___ यह गुजरातके भरोंच ( Broach ) जिलेका 'सत्यरूपण' नामक प्रथम अधिकार के कर्ता है, शेष प्रसिद्ध नगर है। सम्पूर्ण ग्रन्थ के रचियता भृतयलि श्राचार्य है । ग्रन्थका * इन्द्रनन्दि श्रुतावतारमें ऐसा उल्लेख न करके सम्बन्दि-श्रुतावारमें जिनपालिनको पुष्पान्तका लिखा है कि खुद धरसेनाचार्य ने उन दोनों मुनियोंको करीश्वर' (१) पत्तन भेज दिया था जहाँ वे दिनमें भानजा लिखा है और दक्षिणकी घोर बिहार करते पहुंचे थे और उन्होंने वहीं भाषाद कृष्ण पंचमीको हुए दोनों मुनियोंके करहाट पहुँचने पर उसके देखनेका वर्णयोग ग्रहण किया था। उल्लेख किया है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ श्लोक-परिमाण इन्द्रनन्दि श्रुतावतारके कथनानुसार परंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पाविय...... ३६ हजार है, जिनमें से ६ हजार संख्या पाँच खण्डोंकी (श्राराकी प्रति पत्र ३१३) और शेष महाबन्ध खण्डकी है; और ब्रह्महेमचन्द्र के जब धवला और जयधवला दोनों ग्रंथोंके रचयिता श्रुतस्कन्धानुसार ३० हज़ार है। वीरसेनाचार्य ने एक ही व्यक्तिके लिये इन दो नामोंका यह तो हुई धवला के आधारभूत षटखण्डागम स्वतंत्रतापूर्वक उल्लेख किया है, तब ये दोनों एक ही श्रुतके अवतारकी कथा; अब जयधवलाके श्राधारभूत व्यक्ति के नामान्तर हैं ऐसा समझना चाहिये; परन्तु, जहाँ 'कसायपाहुड' श्रुतको लीजिये, जिसे 'पेज्जदोस पाहुड' तक मुझे मालूम है, इसका समर्थन अन्यत्रसे अथवा किसी भी कहते हैं । जय धवलामें इसके अवतारकी प्रारम्भिक दूसरे पुष्ट प्रमाणसे अभी तक नहीं होता-पूर्ववर्ती ग्रंथ कथा तो प्रायः वही दी है जो महावीरसे श्राचारांग-धारी 'तिलोयपरणात्ती' में भी 'सुधर्मस्वामी' नामका उल्लेख लोहाचार्य तक ऊपर वर्णन की गई है-मुग्न्य भेद है। अस्तु; जयधवला परसे शेष कथाकी उपलब्धि इतना ही है कि यहां पर एक-एक बिषयके प्राचार्योंका निम्न प्रकार होती है:काल भी साथमें निर्दिष्ट कर दिया गया है, जब कि आचारांग-धारी लोहाचार्यका स्वर्गवास होने पर 'धवला' में उसे अन्यत्र 'वेदना' खण्डका निर्देश करते सर्व अंगों तथा पूर्वोका जो एकदेशश्रुत प्राचार्यपरहुए दिया है । दूसरा भेद प्राचार्योंके कुछ नामोंका है। म्परासे चला आया था वह गुणधराचार्यको प्राप्त हुआ । जयधवलामें गौतमस्वामीके बाद लोहाचार्यका नाम गुणधराचार्य उम समय पाँचवें ज्ञानप्रवाद-पूर्वस्थित न देकर सुधर्माचार्यका नाम दिया है, जो कि वीर दशम वस्तु के तीसरे 'कमायपाहुइ' नामक ग्रन्थ-महाभगवान् के बाद होने वाले तीन केवलियोंमेंसे द्वितीय विके पारगामी थे । उन्होंने ग्रंथ-व्युच्छेदके भयसे और केवलीका प्रसिद्ध नाम है। इसी प्रकार जयपाल की प्रवचन-वात्सल्यसे प्रेरित होकर, सोलहहजार पद परिजगह जसपाल और जसबाहू की जगह जयबाहू नामका माण उस 'पेज्जदोसपाहुड' ('कमायपाहुइ')का १८० उल्लेख किया है । प्राचीन लिपियोंको देखते हुए 'जस' सूत्र गाथाश्रोंमें उपसंहार किया-सार खींचा । माथ ही, और 'जय' के लिखनेमें बहुतही कम अन्तर प्रतीत होता इन गाथाओंके सम्बन्ध तथा कुछ वृत्ति-श्रादिकी सूचक है इससे साधारण लेखकों द्वारा 'जस' का 'जय' और ५३ विवरण-गाथाएँ भी और रची, जिससे गाथाओंकी 'जय' का 'जस' समझलिया जाना कोई बड़ी बात नहीं कुल संख्या २३३ हो गई । इसके बाद ये सूत्र-गाथाएँ है। हाँ, लोहाचार्य और सुधर्माचार्यका अन्तर अवश्य (शेषांशके लिये देखो, पृ० १३६ ) ही चिन्तनीय है । जयधवलामें कहीं कहीं गौतम और जम्बस्वामीके मध्य लोहाचार्यका ही नाम दिया इन्दनन्दि-श्रुतावतारमें 'भ्यधिकाशीत्या युक्तं है; जैसा कि उसके 'अणुभागविहत्ति' प्रकरणके निम्न शतं पाठके द्वारा मूबसूत्रगाथाओंकी संख्या ११ अंशसे प्रकट है: सूचित की है, जो ठीक नहीं है और समझनेकी किसी ___“विउलगिरिमत्थयत्थवढढमाणदिवायरादो राबतीपर निर्भर है। अयधवलामें १० गाथाओंका विणिग्गमिय गोदम लोहज्ज -जंबुमामियादि पाइरिय खूब खुलासा किया गया है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य अनेकान्तात्मक है [ोजक-श्री बाबू जयभगवानजी बैन, बी. ए. एस. एल.बी.पीव] गायक अनेकान्तात्मक है या अनन्तधर्मात्मक प्राधिदैविकदृष्टि (Animistic Outlook) है, इस वादके समर्थनमें इतना कहना ही रखनेवाले भोगभौमिक लोग समस्त अनुभव्य पास पर्याप्त होगा कि सत्यका अनुभव बहुरूपात्मक है। जगत और प्राकृतिक अभिव्यक्तियोंको अनुभावक जीवनमें व्यवहारवश वा जिज्ञासावश सब ही अर्थात अपने ही समान स्वतन्त्र, सजीव, सत्यका निरन्तर अनुभव किया करते हैं; परन्तु सचेष्ट सत्ता मानते हैं। वे उन्हें अपने ही सक्या वह अनुभव सब- J arunaruwauraru मान हावभाव, भायो. का एक-समान है। इस लेखाके लेखक बाबू जयभगवानजी वकील दि.१ जन प्रयोजन, विषयनहीं, वह बहुरूप है। एजैन समाजके एक बड़े ही अध्ययनशील और विचार वासना,इच्छा-कामनाशीख विद्वान् है-प्रकृतिसे भी बड़े ही सजन है। भाप अनुभवकी इस विभिपहुचा चुप-चाप कार्य किया करते हैं, इसीसे जनता 10 र से मोतप्रोत पाते हैं। मताको जाननेके लिये आपकी सेवामय प्रवृत्तियोंसे प्रायः मनमिश रहती है। जरूरी है कि तत्त्ववे- मेरे अनुरोधको पाकर मापने जो यह लेख भेजनेकी र वज्रपात, भग्निज्वाला, ताओंके सत्यसम्बन्धी कृपा की है उसके लिये मैं भापका बहुत ही भाभारी?अतिवृष्टि, भूकम्प,रोग, उन गढ मन्तव्योंका । यह लेख कितना महत्वपूर्ण है और कितनी अधिक २ मरी, मृत्यु मादि नि . अध्ययन किया जाय, मध्ययनशीलना, गवेषण तथा विचारशीलताको बिये, हुए है उसे सहृदय पाठक पदकर ही जान सकेंगे। इस 7 यम-विहीन उपद्रवोंको जो उन्होंने सत्यके सू.पसे सत्यको समझने और यह मालूम करने में कि पूर्ण, 7 परसे सत्यको समझने और यामास देखकर निधित करते क्ष्म निरीक्षण, गवेषणा सत्य केवलज्ञानका विषय है पाठकोंको बात है कि यह जगतनियम और मननके बाद नि-मासानी होगी। भाशा है लेखक महोदय अपने इस विहीन, अस्सल श्चित किये हैं। इस प्रकारके लेखों-बारा बराबर 'भनेकान्त' के पाठकों की देखतामोंका कीडास्थल अध्ययनसे पता चलेगा सेवा करते रहेंगे,और इस तरह उन्हें भी यह रस बांटते [ है। मनुष्यकी यह मा . रहेंगे जिसका बाप एकान्तमें स्वयं ही भास्वादन करते र अन्वेषणका विषय एक Nimrunainmही संसारके प्रचलित सत्यमात्र था, तो भी उसके फलस्वरूप जो अनु- देवतावाद (Theism) और पितृवाद (Ancestor भव उनको प्राप्त हुए हैं, वे बहुत ही विभिन्न हैं (भ) Haockle-Riddle of the universe विभिन्न ही नहीं किन्तु एक दूसरेके विरोधी भी P.32. प्रतीत होते हैं। (प्रा) Lord Aveburg-The origin of civilization 1912 P.242-245 कन्य, वस्तु, अर्थ,सामान्य, सता, तत्व मादि सत्यके (३)A. A. Macdonel-Vedic Mythology ही एकावाची नाम है।-पन्बायावी1-10१, P.1, कि यद्यपि उन सबकेगी । -सम्पादक रम्भिक अधिदैविकदृष्टि Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्रनेकान्त worship) की कारण हुई है। यही वैदिक ऋषियों- अद्वैतवादका आधार है। । की दृष्टि थी । अनुभव्यदृष्टि (Objective outlo-k) वाले जडवादी वैज्ञानिक अनुभव्यजगत (object) को ही सत्य मानते हैं और अनुभावक आत्मा (Subject) को स्थूल जडकी ही एक अभिव्यक्ति समझते हैं। यह दृष्टि ही जडवादकी आधार है. । वे लोग जगतमें नियमानुशासित व्यवस्थाका अनुभव करते हैं, प्रत्येक प्राकृतिक अभिव्यक्तिको विशेष कारणोंका कार्य बतलाते हैं, उन कारणों में एक क्रम और नियम देखते हैं और उन कारणों पर विजय पानेसे अभिव्यक्तियों पर विजय पानेका दावा करते हैं। उनके लिये अभिव्यक्ति और कारणोंका कार्यकारण-सम्बन्ध इतना निश्चित और नियमित है कि ज्योतिषज्ञ, शकुनविज्ञ, सामुद्रिकश आदि नियत बिद्याओंके जानने वाले वैज्ञानिक, विशेष हेतुयोंको देखकर, भविष्य में होनेवाली घटनाओं तकको बतला देने में अपनेको समर्थ मानते हैं। सच पूछिये तो यह कार्यकारण-सम्बन्ध (Law of causation) ही इन तमाम विज्ञानों का आधार है। अनुभावकदृष्टि (Subjective outlook) को ही महत्ता देनेवाले तत्त्वज्ञ आत्माको ही सर्वस्व सत्य मानते हैं । ज्ञान-द्वारा अनुभव में आनेवाले जगतको स्वप्नतुल्य मोहमम्त ज्ञानकी ही सृष्टि मानते हैं। उनके विचार में ज्ञानसे बाहर अनुभव्य'जगत ( Objective reality ) की अपनी कोई स्वतः सिद्ध सत्ता नहीं है। यह दृष्टि ही अनुभवमात्रबाद (Idealism) की जननी हैं और शंकर के [ वर्ष ३, किरण १ व्यवहारदृeि (Practical View ) से देखने वाले चार्वाक लोग उन ही तत्त्वोंको सत्य मानते हैं जो वर्तमान लौकिक जीवनके लिये व्यवहार्य और उपयोगी हैं । इस दृष्टिसे देखने वालोंके लिये परलोक कोई चीज नहीं । उन अपराधों और परोपकारी कार्यों के अतिरिक्त, जो समाज और राष्ट्र द्वारा दण्डनीय और स्तुत्य हैं, पुण्य-पाप और कोई वस्तु नहीं। कञ्चन और कामिनी ही श्रानन्दकी वस्तुएँ हैं। बायु, अग्नि, जल, पृथ्वी ही परमतत्व हैं। वे ही प्रत्येक वस्तुके जनक और आधार हैं। मृत्युजीवनका अन्त है । इन्द्रिय बोध ही ज्ञान है - इसके अतिरिक्त और प्रकारका ज्ञान केवल भ्रममात्र है । इन्द्रियबोध से अनुभव ने वाली प्रकृति ही सत्य है । यह दृष्टि ही सामाजिक और राजनैतिक अनुशासनकी दृष्टि हैं । नैगमदृष्टि वा संकल्पदृष्टि (Imaginary View) से देखनेवाले वस्तुकी भूत और भावी अवस्था अनुपस्थित होते हुए भी, संकल्प शक्तिद्वारा उपादान और प्रयोजनकी सदृश्यता और विभन्न कालिक अवस्थाओंकी विशेषताओंको संयोजन करते हुए बस्तुको वर्तमान में त्रिकालवर्ती सामान्य- विशेषरूप देखते हैं । यह दृष्टि ही कवि लोगों की दृष्टि है। !. Das Gupta-A History of Indian Philosophy 1922, P. 439. 1. S. Radha Krishnon - Indian Philosophy Vol. 1, 2nd edition, P. 279. (अ) राजवार्तिक पृ० ४२४ (चा) इम्यानुयोगतर्कया ६-३ ܪ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाह सं०२४६६] - सत्य अनेकान्तात्मक है मन नैय्यायिकदृष्टि (Logical View) से देखने की भूत वथा भावी अवस्थाको लक्ष्यमें न जाकर वाले वस्तुको सम्बन्ध-द्वारा संकलित विभिन्न स- केवल उसकी वर्तमान अवस्थाकोही लक्ष्य बनाते चात्रोंकी एक संगृहीत म्यवस्था मानते हैं। उनका हैं। उनका कहना है कि चूंकि इन्द्रियों द्वारा जो मूलसिद्धान्त यह है कि प्रत्येक अनुभूतिके अनुरूप कुछ भी बायजगतका बोध होता है, यहोय कोई मत्ता जरूर है, जिसके कारण अनुभूति होती पदार्थके शृखलाबद्ध परिणामोंके प्रभावसे पैदा है। चूंकि ये अनुभूतियाँ सप्त मूलगों में विभक्त हो होनेवाले द्रव्येन्द्रियके शृङ्खलाबद्ध विकारोंका मकती हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, फल है, इसलिये वस्तु परिणामोंकी शृखलामात्र मम्बन्ध (समवाय ?) और प्रभाव । अतः सत्यका है। यह दृष्टि ही क्षणिकवादी बौद्ध दार्शनिकों की इन सात पदार्थोसे निर्माण हुआ है। यह दृष्टि ही है। यही दृष्टि आधुनिक भूतविद्याविठोंकी है । बैशेषिक और न्यायदर्शनको अभिप्रेत है । मानष्टि ( Epistimological View) से अनुभूतिके शब्दात्मक निर्वाचन पर भी न्याय- देखनेवाले तत्त्ववेत्ता, जो ज्ञानके स्वरूपके माधार विधिसे विचार करने पर हम उपर्युक्त प्रकारके ही पर ही शेयके स्वरूपका निर्णय करते हैं, कहते हैं निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। संसारमें वाक्य-रचना कि वस्तु, बस्तुबोधके अनुरूप भनेक लक्षणोंसे इसीलिये अर्थद्योतक है कि वह अर्थ वा सत्यानु- विशिष्ट होते हुए भी, एक अखण्ड, अभेद्य सचा भतिके अनुरूप है । वह सत्यरचनाका प्रतिबिम्ब है। अर्थात जैसे ज्ञान विविध,विचित्र भनेकान्ताहै। जैसे वाक्य, कर्ता, क्रिया, विशेषण-सूचक त्मक होते हुए भी खण्ड-खण्डरूप भनेक मानोंका शब्दों वा प्रत्ययोंसे संगृहीत एक शब्द-समूह है संग्रह नहीं है, प्रत्युत प्रात्माका एक प्रखएक-अभेद्य वैसे ही वस्तु भी द्रव्य, गुण, कर्म पदार्थोंका सम- भाव है, वैसे ही शान-द्वारा ज्ञात वस्तु भी अनेक वाय-सम्बन्धसे संकलित विभिन्न सत्तामोंका समूह गुणों और शक्तियोंका सामूहिक संग्रह नहीं है बल्कि एक अभेद्य सत्ता है। वर्तमान इन्द्रियबोधको महत्ता देनेवाले सामान्य-यज्ञानकी दृष्टि वा संग्रह ऋजुसूत्रदृष्टि ( Physical View) वाले वस्तुको (5) (Synthetic-view)वाले तत्वोंको बस्तु एकता निरन्तर उदयमें आनेवाली, अनित्य पर्यायों, मावों त्मक-अद्वैतरूप प्रतीत होती है । ऐसा मालूम होता है कि समस्त चराचर जगत एकताके सूत्र में बंधा और क्रियाओं की एक शृङ्खलामात्र अनुभव करते है, एकताके भावसे मोत-प्रोत है, एकताका भाव हैं। वे उस उद्भवके उपादान कारणम्प किसी मर्वव्यापक, शाश्वत और स्थायी है। अन्य समनित्य आधारको नहीं देख पाते। क्योंकि वे वस्तु। 3 म्त भाव औपाधिक और नैमित्तिक हैं, भनिस्य हैं $ Das Gupta- A History of Indian Phi. Das Gupta- A History of Indian Philosophy losophy, P. 312. 1922, P. 158. B. Russil-Analysis of Matter, 1927, * B. Russil---F.R.S.The Analysis of Matter P. 39. 1927.P.244-247. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अनेकान्त और मिया हैं। यही दृष्टि थी जिसके आवेशमें ऋग्वेद १-१६४-४६ के निर्माता ऋषिको वैदिककालीन विभिन्न देवताओंमें एकताका मान जग उठा और उसकी हृदयतन्त्रीसे 'एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति' का राग वह निकला। यह दृष्टि ही वेदान्त दर्शनकी दृष्टि है । विशेष-शेयज्ञानकी दृष्टि वा भेददृष्टि (Analytic-view) से देखने पर, वस्तु अनेक विशेष भावोंकी बनी हुई प्रतीत होती है। प्रत्येक भाव भिन्न स्वरूप वाला, भिन्न संज्ञावाला दिखाई पड़ता है । जितना जितना विश्लेषण किया जाय, उतना ही उतना विशेष भावमें से अवान्तर विशेष और अवान्तर विशेष से अवान्तर विशेष निकलते निकलते चले जाते हैं, जिसका कोई अन्त नहीं है । यही दृष्टि वैज्ञानिकोंकी दृष्टि है। यह दृष्टि ही बिभिन्न विज्ञानोंकी सृष्टिका कारण है । समन्वयकारि-ज्ञानकी दृष्टि (Philosophical View ) से देखने पर वस्तु सामान्य विशेष, अनुभावक अनुभव्य, (subjective and objective), भेद्य-अभेद्य, नियमित अनियमित, नित्य अनित्य, एक-अनेक, सत-सत्, तत्-अतत् आदि अनेक सहवर्ती प्रतिद्वन्दोंकी बनी हुई एक सुव्यवस्थित, संकलनात्मक, परन्तु अभेद्य सत्ता दिखाई पड़ती है, जो सर्वदा सर्व भोर प्रसारित, विस्तृत और उदूभव हो रही है। यह दृष्टि ही 'बीरशासन' [वर्ष ३, किरण १ की दृष्टि है। इसी दृष्टि द्वारा निष्पक्ष हो, साहसपूर्वक बिबिध अनुभवोंका यथाविधि और यथास्थान समन्वय करते हुए सत्यकी ऐसी बिश्वब्यापी सर्वग्राहक धारणा बनानी चाहिये जो देश, काल और स्थिति से अविच्छिन्न हो, प्रत्यक्ष-परोक्ष, तथा तर्क अनुमान किसी भी प्रमाणसे कभी बाधित न हो, युक्तिसंगत हो और समस्त अनुभवोंकी सत्याशरूप संतोषजनक व्याख्या कर सके । क्या सत्यनिरीक्षणकी इतनी ही दृष्टियाँ हैं जिनका कि ऊपर बिवेचन किया गया है ? नहीं, यहाँ तो केवल तत्ववेत्ताओंकी कुछ दृष्टियोंकी रूपरेखा दी गई है। वरना व्यक्तित्व, काल, परिस्थिति और प्रयोजनकी अपेक्षा सत्यग्रहणकी दृष्टियाँ असंख्यात प्रकार की हैं। और दृष्टि अनुरूप ही भिन्न भिन्न प्रकारसे सत्यग्रहण होने के कारण सत्य सम्बन्धी धारणायें भी असंख्यात हो जाती हैं । * Das Gupta—A History of Indian Phi losophy, P. 177. + उपर्युक्त दृष्टिके लिये देखें (च) B. Russil - The Analysis of Matter. London 1927. Chap-XXIII (घ) तवार्थसूत्र १-३३ पर की हुई राजकार्तिक टीका (इ) म्याबाबतार, २१ की सिद्धर्विगदि कृत टीका । तत्त्वोंकी मान्यताओं में विकार । संसारके तस्वशोंकी धारणाओंमें सबसे बड़ा दोष यही है कि किसीने एक दृष्टिको, किसीने दूसरी दृष्टिको, किसीने दो वा अधिक दृष्टियोंको सम्पूर्ण सत्य मानकर अन्य समस्तदृष्टियोंका बहिष्कार कर दिया है। यह बहिष्कार ही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी और नि:स्साहस है । इस बहिकारने ही अनेक विरोधाभास - दर्शनोंको जन्म दिया है +1 धर्मद्रव्य अर्थात् Ether के बहिष्कारने * (अ) गोम्मटसार-कर्मकावट, ८१४ (भा) इरिवंशपुराण, २८-६२ + गोम्मटसार-कर्मकार ८२२ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] सत्य अनेकान्तात्मक है मात्मा और प्रकृतिके पारस्परिक सम्बन्धके सम- मत है । परन्तु पारमार्षिकरष्टि (Transcendeझाने में कठिनाई उपस्थित की है । आत्मा और ntal view) वालों के लिये, जो वर्तमान जीवनको मनका बहिष्कार दूसरी कमजोरी है । यह बहिष्कार अनन्तप्रवाहका एक रश्यमात्र मानते हैं, जिनके लिये ही जडवादका माधार हुआ है। प्रकृतिका बहिष्कार जन्म मात्माका जन्म नहीं है और मृत्यु मास्माकी भी कुछ कम भूल नहीं है-इसने संकीर्ण अनुभव- मृत्य नहीं है और जिनके लिये 'मई' प्रत्ययरूप मात्रवाद ( Idealism ) को जन्म दिया है । आत्मा शरीरसे भिन्न एक विलक्षण, अजर, अमर, जीवनके व्यवहार्य पहलू पर अधिक जोर देनेसे सचिदानन्द सत्ता है, संसार दुखमय प्रतीत होता लोकायत-मार्गको महत्व मिला है। लौकिक जीवन- है और इन्द्रिय-सुख निस्सार तथा दुःखका कारण चर्या-जीवनके व्यवहार्य पहलूको बहुत गौण दिखाई पड़ता है ।। करनेसे छायावादका उदय हुआ है ।। अनुभवकी तरहसत्यके प्रति प्राणियोंका सत्यानुभूतिके साथ जीवनलक्ष्यका प्राचार भीबहुरूपात्मक है घनिष्ट सम्बन्ध सत्यका-जीवनलक्ष्यका-अनुभव ही बहुलजगत और जीवन-सम्बन्धी विविध अनुभूति- पात्मक नहीं है प्रत्युत इन अनुभवोंके प्रति क्रिया. यों और धारणाओंके साथ साथ जीवनके आदर्श रूप प्राणधारियोंने अपने जीवन निर्वाहके लिये और लक्ष्य भी विविध निर्धारित हुए हैं । वह अपने जीवनको निष्कण्टक, सुखमय और समुन्नत लक्ष्व तात्कालिक इन्द्रिय-सुखसे लेकर दुष्प्राप्य बनाने के लिये जिन मार्गोको ग्रहण कर रखा है, आध्यात्मिक सुख तक अनेक भेदवाला प्रतीत । होता है। (अ) हरिभवसूरि:-पड्दर्शनसमुचपा.- - (मा) श्रीमाधवाचार्य-सर्वदर्शनसंग्रह-बाधक ___ लौकिक दृष्टिवालोंके लिये, अर्थात् उन लोगों के लिये जो व्यवहार में प्रवृत्त वर्तमान लौकिक (१) सूत्रकृतांग-२-11-२१, जीवनको ही सर्वस्व समझते हैं,जो इसीको जीवन- (६) भाविपुराव ५, १५-१, का आदि और अन्त मानते हैं, जो जीवनको (२) दीघनिकाव-सामन्जसफासुस भौतिक इन्द्रियकी एक अभिव्यक्ति देखते हैं, यह (4) उत्तराभ्यवनसून-111011-10-11 संसार सुखमय प्रतीत होता है। उनके लिये इन्द्रिय (भा) बन्द-दादसामुषा। सुख ही जीवनका रस और सार है। इस रससे (३) बौर साहित्य में “संसार दुःखमय" या मनुष्यको वञ्चित नहीं करना चाहिये । जडवादी चार भार्यसत्यों में एक भासपहा गया चार्वाक दार्शनिकों ( Iledonsists ) का ऐसा ही है। धम्मपद , दीघनिकाय-महासतिपढामसुत। Sir Oliver Lodge F. R. S.--Ether and (३) महाभारत-शान्तिपर्व, other. Reality, London, 1930. P.20. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त (वर्ष ३, किरण १. DURAL के भी विभन्न प्रकारके हैं। कोई भोगमार्गको, कोई जानना जरूरी होता है । यह सब इसलिये न कि त्याममार्गको,कोई श्रद्धा मार्गको, कोई भक्तिमार्गको, जो बात हमें जाननी अभीष्ट है, उसकी लोकमें कोई शानमार्गको,कोई कर्मयोगको, कोई हठयोगको कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । वह तो विराट सत्यउपयोगी मार्ग बतलाते हैं। ___ का एक सत्यांश मात्र है ।। ये समस्त सत्यांश, .ये समस्त मार्ग दो मूल श्रेणियोंमें विभक्त ममस्त तत्त्व, जिनको जाननेकी हमें इच्छा है, गुणकिये जा सकते हैं-एक प्रवृत्तिमार्ग दूसरा निवृ गुणी, कारण-कार्य, माधन-साध्य, वाचक-वाच्य, त्तिमार्ग छ । पहला मार्ग वायमुखी और व्यवहार ज्ञान-शेय, श्राधर- आधेय आदि अनेक सम्बन्धोंदृष्टिवाला है, दूसरा मार्ग अन्तर्मुखी और प्राध्या- द्वारा एक दूसरेके इतने आश्रित और अनुगृहीत त्मिकदृष्टिवाला है और पारमार्थिक कल्पनाओंको हैं कि यदि हमें एक तत्वका सम्पूर्ण बोध हो जाय लिये हुए है। पहला अहंकार, मूढ़ता और मोहकी तो वह सम्पूर्ण तत्त्वोंका, सम्पूर्ण सत्यका बोध उपज है, दूसरा अात्मविश्वास, सज्ज्ञान और होगा। इसीलिये ऋषियोंने कहा है कि जो ब्रह्मको पूर्णताकी उत्पत्ति है । पहला प्रेयस है दूसरा श्रेयस जानता है वह ब्रह्माण्ड को जानता है । । इसलिये है। पहला इन्द्रियतृप्ति, इच्छापूर्ति और आडम्बर- आत्मा ही ज्ञातव्य है, मनन करने योग्य है, श्रद्धा संचयका अनुयायी है । दूसरा इन्द्रियसंयम, इच्छा- करने योग्य है । इमको जाननेसे सर्वका जाननेनिरोध और त्यागका हामी है। पहला अनात्म, वाला, सर्वज्ञ हो जाता है * । इस प्रकारका बोध बाह्य, स्थूल पदार्थोंका पाहक है । दूसरा स्वाधीन, ही. जो समस्त मत्यांशोंका, ममस्ततत्त्वोंका, उनके अक्षय, सर्वप्राप्य सूक्ष्म-दशाका अन्वेषक है । पहला पारस्परिक सम्बन्धों और अनुग्रहका युगपत् जानने जन्ममरणाच्छादित नाम-रूप-कर्मवाले संसारकी वाला है, जैन परिभाषामें 'केवलज्ञान' कहलाता जननी और धात्री है। दूसरा इस संमारका उच्छे- है। यह बोध, लोक-अनुभावित सामान्य-विशेप, दक और अन्तकर है । जीवनके मब मार्ग इन ही एक-अनेक, नित्य-अनित्य, भेद्य-अभेद्य, तन-अतत दो मूल मार्गोंके अवान्तरभेद हैं। : Sir Oliver Lodge. Ether and Reality P. 19. सत्य-सम्बन्धी प्राचार और विचारमें जो तदात्मानमेव वेदहं ब्रह्मास्मीति तस्मात् तत्सर्व सर्व और विभिन्नता दिखाई देती है, वह बहुरूपा- अभवत्। -शत० प्रा० १ ४ ३-२-२१, त्मक सत्यका ही परिणाम है। * (अ) पास्मा वा अरे दष्टम्यःश्रोतम्यो मन्तव्यो निदिसत्य अनेक सत्यांशोंकी व्यवस्थात्मक सत्ता है। ___ भ्यासितव्यः । मैत्रेय्यात्मनो वा भरे दर्शनेन, श्रव खेन, मस्या, विज्ञानेनेदं सर्व विदितम् । यह प्रत्यक्ष सिद्ध है कि एक बातको निश्चित -वृहदा उपनिषद् २-४.५, रूपसे जानने के लिये हमें कितनी ही और बातोंको (मा) एवं हि जीवरायो णादम्वो सहय सहहेन्यो। * (अ) कोपनिषद् २-1 (भा) मनुस्मृतिः १२ अणुचरिदन्यो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण । ३५, (१) चंगुत्तरनिकाय ८-२-१३ -समयसार, 1-1८ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] सत्य अनेकान्सात्मक है आदि समस्त प्रतिद्वन्दोंकी बनी हुई सुव्यवस्थित जितना जितना बोध बढ़ता जाता है, उतना उतना सत्ताकायुगपन् बोध होने के कारण उपर्युक समस्त ही ज्ञातव्यविषयका अज्ञात अन्तर्हित क्षेत्र और विरोधाभासों परिमाणों (?), विकल्पों, त्रुटियों अधिक गहरा और विस्तीर्ण होता चला जाता है। और अपूर्णतामोंसे रहित है। यह अद्वितीय और ऐसी स्थिति में विचारकको,महान तत्त्ववेता सुकृतीश विलक्षण बोध है । वास्तवमें जो सम्पूर्ण सत्यको के शब्दों में, वस्तुकी असीम-अथाह अनन्तता और जानता है वही सम्पूर्णतया सत्यांशको जानता है। अपनी बुद्धिकी अल्पज्ञताका अनुभव होने लगता और जो सम्पूर्णतया सत्यांशको जानता है वही है । उसे प्रतीत होता है कि वस्तुतत्व न वचनोंसे मम्पूर्ण मत्यको जानता है। जो सम्पूर्णसत्यको मिल सकता है, न बद्धिसे प्राप्त हो सकता है और नहीं जानता वह पूर्णतया मत्यांशको भी नहीं न शास्त्रका पाठ करनेमे पाया जा सकता है। जानता *। इसलिये औपनिषदिक शब्दोंमें कहा जा सकता है मन्य अल्पज्ञोंद्वारा पग नहीं जाना जा सकता कि जो यह कहता है कि मैं बहुत जानता हूँ वह जीवन और जगतकी रचना और व्यवस्था, कुछ नहीं जानता और जो यह कहता है कि मैं जीवनके लक्ष्य और मार्ग, लोकके उपादान कारण- कुछ नहीं जानता वह बहुत कुछ जानता है ।। भूत द्रव्योंके स्वरूप और शक्तियोंके सम्बन्धमें जैन परिभाषामें विचारकके इस दुःखमय यद्यपि तत्त्वज्ञाने बहुत कुछ अनुभव किया है- अनुभवको कि इतना वस्तु सम्बन्धी कथन सुनने, बहुत कुछ भाषाद्वारा उसका निर्वाचन भी किया शास्त्र पढ़ने, मनन करने और विचारने पर भी है-यह मब कुछ होने पर भी यह नहीं कहा जा उसको वस्तुका सम्पूर्ण ज्ञान न हो पाया और वस्तु मकता कि किसी भी प्रस्तुत विषय-सम्बन्धी जो ज्ञान अभी बहुत दूर है, 'अज्ञानपरिषह' से प्रकट कुछ अनुभव होना था सो हो चुका और जो कुछ कहने योग्य था वह कहा जा चका। अज्ञानवाद और संशयवादकी उत्पत्ति के कारण ___ वस्तु इन समम्न अनुभवों और निर्वाचनोंमे भी उपयुक्त भाव हैं। प्रदर्शित होने के बावजूद भी इनसे बहुत ज्यादा है। इस अनुभवके माथ ही विचारकके हृदयमें वह तो अनन्त है-वह काल क्षेत्र परिमित इन्द्रियः ऐसी आशंका पैदा होने लगती है कि क्या मत्यका बोध, अभिप्राय-परिमित बुद्धि और अवयवमयी जड शब्दोंमे नहीं ढका जा सकता। + नापमारमा प्रवचनेन सम्योग मेधवा माना जिज्ञासुत्रोंका अनुभव इम बातका साक्षी है श्रुतेन । कठोयानिपत २-२२ कि जितना जितना गहरा अध्ययन किया जाता है, यस्यामतं तम्यमतं, मतं यम्य न वेदसः। अविज्ञातं बिजानता, विज्ञानमविजानताम् । + (म) नत्वार्यसूत्र १२१ (मा)गोम्मटसार जीवकार, १६ (१) मावापपद्धति । -गोपनिषद् २-३, * प्रवचनसार १-४८, * तत्वार्थसूत्र .., । उत्तराध्ययमसूत्र २-२-४५, किया Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ वास्तविक स्वरूप ज्ञानगम्य है भी। उसकी बुद्धि समान एकान्तवाद हैं, एक विशेष प्रकारकके अनु. सन्दिग्धबाद और अज्ञानवादसे अनुरक्षित होजाती भवकी उपज हैं। है। वह ऋग्वेद १०-१२६ सूक्तके निर्माता ऋषि इस अनुभवका आभास विचारकको उस समय परमेष्ठीकी तरह सोचने लगता है कि "कौन पुरुष होता है जब वह व्यवहार्य सत्यांश बोधके समान ऐसा है जो जानता है कि सृष्टि क्यों बनी और ही विराट सत्यका वा सूक्ष्म सत्यका बोध भी इ. कहाँसे बनी और इसका क्या आधार है। मुमकिन न्द्रियज्ञान, बुद्धि और शास्त्राध्ययनके द्वारा हासिल है कि विद्वान लोग इस रहस्यको जानते हों। परन्तु करनेकी कोशिश करता है । इस प्रयत्नमें असफल यह तत्त्व विद्वान लोग कैसे बतला सकते हैं । यह रहने के कारण वह धारणा करता है कि सत्यरहस्य यदि कोई जानता होगा तो वही जानता होगा सर्वथा अज्ञेय है। जो परमव्योममें रहनेवाला अध्यक्ष है । पर्णसत्य केवलज्ञानका विषय है ___ वह पारस देशके सुप्रसिद्ध कवि, ज्योतिषज्ञ परन्तु वास्तवमें सत्य सर्वथा अज्ञेय नहीं है। और तत्त्वज्ञ उमरखय्यामकी तरह निराशासे सत्य अनेक धर्माकी अनेक सत्यांशोंकी, अनेक भरकर कहने लगता है। तत्त्वोंकी व्यवस्थात्मक मत्ता है। उनमेंसे कुछ भूमण्डलके मध्यभागसे उठकर मैं ऊपर आया। सत्यांश जो लौकिक जीवनके लिये व्यवहाय हैं सातों द्वार पार कर ऊँचा शनिका सिंहासन पाया ॥ और जिन्हें जानने के लिये प्राणधारियोंने अपनेको कितनी ही उलझने मार्ग में सुलझा डाली मैंने किन्तु। समर्थ बनाया है, इन्द्रियज्ञान के विषय हैं, निरीक्षण मनुज-मृत्युकी और नियतिकी खुलीन प्रन्थिमयीमाया३१ और प्रयोगों (Experiments) द्वारा साध्य हैं । यहाँ 'कहाँसे क्यों न जानकर परवश आना पड़ता है। कुछ बद्धि और तर्कसे अनुभव्य है, कुछ श्रुतिके वाहित विवश वारि-सा निजको नित्य बहाना पड़ता है। आश्रित हैं, कुछ शब्द-द्वारा कथनीय हैं और लिपिकहाँ चले?फिर कुछन जानकर इच्छाहो,कि अनिच्छा हो बद्ध होने योग्य है। परन्तु पूर्णसत्य इन इन्द्रियपरपटपर सरपट समीर-सा हमको जाना पड़ता है । ग्राह्य, बद्धिगम्य और शब्दगोचर मत्यांशोंसे बहुत तत्त्वज्ञोंके इस प्रकारके अनुभव ही दर्शन- ज्यादा है। वह इतना गहन और गम्भीर है-बहुशास्त्रोंके सन्दिग्धवाद और अज्ञानवाद सिद्धान्तोंके लता. बहरूपता और प्रतिद्वन्दोंसे ऐसा भरपूर है कारण हुए हैं। तो क्या सन्दिग्धवाद और अज्ञान है कि उसे हम अल्पज्ञजन अपने व्यवहत साधनोंबाद सर्वथा ठीक है? नहीं: सन्दिग्धवाद और अज्ञान- द्वाग-इन्द्रिय निरीक्षण, प्रयोग, तक, शब्द आदि बाद भी सत्यसम्बन्धी उपर्युक्त अनेक धारणाओंके द्वारा जान ही नहीं सकते ! इसीलिये वैज्ञानिकों के बीनरदेव शास्त्री-ग्वेदालोचन,संवत् ११५, समस्त परिश्रम जो इन्होंने सत्य रहस्यका उद्घाटन पृ० १०१ २०५ करनेके लिये आज तक किये हैं, निष्फल रहे हैं। स्वाइपात उमरवण्याम-अनुवादक श्री मैथिली- सत्य आज भी अभेद्य व्यूहके समान अपराजित शरव गुप्त, ११ खड़ा हुआ है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण मं०२४६६] मत्य अनेकान्नात्मक है वास्तवमें बात यह है कि इन्द्रिय,बुद्धि और वचन प्रत्येक मनुष्य अपनी बर्तमान अविकसित आदि व्यवहत साधनोंकी सृष्टि पूर्ण सत्यको जान- दशामें इस केवलज्ञानका पात्र नहीं है। केवलनेके लिये नहीं हुई। उनकी सृष्टि तो कंवल लौकिक ज्ञान तो दूर रहा, माधारणतया अधिकांश मनुष्य जीवनके व्यवहारकं लिये हुई है । इम व्यवहारके तो सत्यको देखते हुए भी इस नहीं देख पाते मत्य-मम्बन्धी जिन जिन तत्त्वांका जितनी जितनी और सुनते हुए भी उसे नहीं सुन पाते है, अतः मात्रामें जानना और प्रकट करना आवश्यक और जो मत्यका लब्धा, ज्ञाता और वक्ता है वह उपयोगी है उसके लिये हमारे व्यवहत माधन ठीक नि:मन्देह बहुत ही कुशल और आश्चर्यकारी पर्वान हैं । परन्तु पूर्णमत्य इन मत्यांशांसे बहुत व्यक्ति है। बड़ा है, उसके लिये उपयुक्त माधन पर्याप्त नहीं श्रदामार्गका कारण भी उपर्युक्त हैं । “वह इन्द्रिय बोध, तर्क और बुद्धिम परे है प्राप्तत्व ही है वह शब्दक अगोचर है-वह हम अल्पज्ञा-द्वारा यही कारण है कि मब ही धर्मपन्थनेतानि नहीं जाना जा सकता । इस अपेक्षा हम मब ही साधारण जनताके लिये, जो अल्पज्ञताके कारण अज्ञानी और सन्दिग्ध हैं।। पूर्णमत्य उम श्रा- बच्चोंके ममान है अन्तःअनुभवी ऋषि और महापुवरणहित, निर्विकल्प, साक्षात अन्तरंग ज्ञानका रूपोंके अनुभवों, मन्तव्यों और वाक्योंको ईश्वरीय विषय है, जो दीघतपश्चरण और ममाधि-द्वाग ज्ञान ठहराकर-आप्तवचन कहकर-उनपर श्रद्धा, कर्मक्लेशोंमे मुक्त होने पर योगीश्वरोंको प्राप्त विश्वास और ईमान लाने के लिये बहुत जोर दिया होता है, जो ज्ञानकी पराकाष्ठा है. जो केवलज्ञानकं रम अदापर्वक ही जीवन निर्वाह करनेको नाममें प्रसिद्ध है । जिमकं प्राप्त होनेपर आत्मा श्रेयस्कर बतलाया है। प्रत्येक धार्मिक मम्प्रदायका मवज्ञ. मर्वानुभू* मर्वविन कहलाता है।" बनलाया हुआ मार्ग, उमक बतलाये हुए मिद्धान्नों T I.E. Taylor Elemeteo1-11 पर श्रद्धा कर physics, London |"'!. I'. li'. 111 Sir Olive Liner T:m m वाच्य और उमकं अनेक वाच्य यह मत्यकं बहुविध अनुभव की ही महिमा है. (III) गोम्मटमार जीवकार-गा. नं. ३३३, (IV) पंचाध्याय--२,६१६, * "उनवः पश्यन्नददर्श वाचमुनवश्ववन शृगो11) न्यायावतार-२७। ज्यनाम् -ऋग्वेद १०-७१-४ (1) योगदर्शन-"नदासर्वावरणमलापंतम्य मान :11) llear iced u nderlied not स्यानन्स्याग्नेयमल्पम्" ४.३१ and meer lout not. (III) प्रश्नोपनिषन ४-११ । वृहदा० उपनिषत Bible Isarah II - 4. 1-1-10। श्रवणायापि बहभिर्योनजभ्यः एवम्तोऽपिवायो 'मसर्वज्ञः सर्वविन" मु. उ० १.१-६ । 'अयमारमा - नविणः शाश्चयों बक्ता शलोऽश्य बन्धारचर्या ब्रह्मसर्वानुम' वृ० उ० २५१६, शाना बानुशिष्टा कठोपनिषन् २०, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अनेकान्त 1 कि सत्यका बहुविध साधनों, बहुविध संज्ञाओं और बहुविध शैली से मदा प्रदर्शन किया जाता रहा है इमीकं प्रदर्शनके लिये शब्द, स्थापना, द्रव्य, भाव आदि साधनों से काम लिया जाता है। सही बायके अनेक वाचक शब्द प्रसिद्ध हैं । उस हीके सुगम बोधके लिये अलंकारिक और तार्किक शैली प्रचलित हैं । किसी वस्तुकं वाचक जितने शब्द आज उपयोगमें आरहे हैं, उन सबके वाक्य अनुभव एक दूसरे से भिन्न हैं, परन्तु एक दुसरेके विरोधी नहीं हैं । वे एक ही वस्तुकी भिन्न भिन्न पर्यायोंके बाचक हैं और इसीलिये उनका नाम पर्य्यायवाची शब्द ( Synonym) हैं। यह बात दूसरी है कि अज्ञानताकं कारण आज उन सब शब्दोंकी हम बिना उनकी विशेषता समझे एक ही अर्थ में उपयुक्त करें, परन्तु, भाषाविज्ञानीजन उन समस्त पर्यायवाची शब्दोंकी भिन्न विशेषता जानते हैं । ये विभिन्न पर्य्यायवाची शब्द एक ही देश एक ही काल, एक ही जाति, एक ही व्यक्ति की सृष्टि नहीं हैं, प्रत्युत विभिन्न युगों, विभिन्न देशों, विभन्न ना तियों और विभिन्न व्यक्तियोंकी सृष्टि हैं। यह बात शब्दों के इतिहास ज्ञात हो सकती है। हमारा ज्ञानगम्य और व्यवहारगम्य सत्य एकाधिक और सापेक्ष सत्य है । वर्ष ३, किरण १ द्वारा सम्पूर्ण मत्स्यांशोंको नहीं जान पाते । श्रयुकर्म उनकी पूर्णता की प्रतीक्षा नहीं करता । अतः उन्हें अपने अधुरे अनुभवों के आधार पर ही अपने दर्शनका संकलन करना होता है। ये अनुभव सबके एक सामान नहीं होते। जैसा कि ऊपर बन लाया है, वे प्रत्येकके दृष्टिभेदके कारण विभिन्न प्रकारकं होते हैं। दृष्टिकी विभिन्नता ही विज्ञानों और दर्शनों विभिन्नताका कारण है । परन्तु इस विभिन्नताका यह आशय नहीं है कि समस्त विज्ञान और दर्शन मिथ्या हैं या एक सत्य है और अन्य मिध्या हैं। नहीं, सब ही विज्ञान और दर्शन वस्तुकी उस विशेषदृष्टिकी जिससे विचारक ने उसे अध्ययन किया है— उस विशेष प्रयोजनकी जिसको पूर्ति के लिये मनन किया है, उपज हैं। अतः अपनी अपनी विवक्षित दृष्टि और प्रयोजनकी अपेक्षा सत्र ही विज्ञान और दर्शन सत्य हैं I उपर्युक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि हम केवल सत्यांशोंका ग्रहण करते हैं पूर्णमत्यका नहीं। और सत्यांशमें भी केवल उनका दर्शन करते हैं जो वर्तमान दशामें व्यवहार्य और जीवनोपयोगी हैं। साधारणजनका तो कथन ही क्या है, बड़े-बड़े तत्ववेत्ता भी अपनी अलौकिक प्रतिभा और तर्क कोई भी सिद्धान्त केवल इस कारण मिध्या नहीं कहा जा सकता कि वह पूर्णसत्य न होकर सत्यांश-मात्र हूँ। चूंकि प्रत्येक सत्यांश और उसके आधार पर अवलम्बित विज्ञान और दर्शन अपने अपने क्षेत्र में जीवनोपयोगी और व्यवहारमें कायकारी हैं। अतः प्रत्येक सत्यांश अपनी अपनी दृष्टि और प्रयोजनकी अपेक्षा मत्य है । सिद्धान्त उमी समय मिध्या कहा जा सकता है कि जब वह पूर्णसत्य न होते हुए भी उसे परसत्य माना जाये । A. E Tavlor Elements of Metaphysics, London. 19/4-P. 214. "For a proposition is never untrue simply becau e it is not the whole truth, but only when, not being the whole truth, it is mistaken to be so." Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] मत्य अनेकान्तात्मक है उदाहरणकं लिये 'मनुष्य' को ही ले लीजिये, की अपेक्षा जिमकी पर्तिके लिये विज्ञानका निर्माण यह कितनी विशाल और बहुरूपात्मक सत्ता है. हुआ है, मत्य है और इसलिये उपयोगी है; परन्तु इमका अन्दाजा उन विभिन्न विज्ञानोंको ध्यानमें अन्यदृष्टियों, अन्यप्रयोजनोंकी अपेक्षा और लानेसे हो सकता है जो 'मनुष्य' के अध्ययनकं मम्पूर्णमत्यकी अपेक्षा वही विज्ञान निरर्थक है । आधार पर बन हैं । जैसे:-शारीरिक-रचनाविज्ञान अतः यदि उपयुक्त विज्ञानोंमेम किमी एक विज्ञा(Anatoms), शारीरिक व्यापारविज्ञान (Ph. नको मम्पूर्ण मनुष्यविज्ञान मान लिया जाय तो siologs), गविज्ञान (Emilbryoioys),भाषा- वह हमारी धारणा मिथ्या होगी । अत: हमारा विज्ञान (Philology), मनोविज्ञान (iPsycho ज्ञानगम्य, व्यवहारगम्य मत्य एशि मत्य , logs), मामाजिक जीवन-विज्ञान (Sociology'), मापेक्ष सत्य है । वह अपनी · . . श्रः जातिविज्ञान (Ethnology), मानवविर्वतविज्ञान प्रयोजनकी अपेक्षा सत्य है । याद . ' अ f. Anthropology), श्रादि । इनमें प्रत्येक विज्ञान और अन्यप्रयोजनकी कमौटीम दवा आय या अपने अपने क्षेत्रमें बहुत उपयोगी और मत्य है। यदि उसे पूर्ण सत्य मानलिया जाय तो वह निर. परन्तु कोई भी विज्ञान पूर्णमत्य नहीं है, क्योंकि थंक, अनुपयोगी और मिथ्या होगा । 'मनुष्य' न केवल गर्भस्थ वस्तु है-न केवल मप्तधातु-उपधातु-निर्मिन अङ्गोपाङ्ग वाला एक विशेष 4 (म) द्रव्यानयोगतर्कणा-१-६ आकनिका स्थल पदार्थ है-न कंवल श्वासोच्छवाम (मा) पडाध्यायी-१५६० लता हुआ चलना-फिरना यन्त्र है-न कंवल (इ) निरपेक्षा नया मिश्या मापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत । भाषाभापी है ... यह उपयक्त मब कुछ होता हुआ -प्राप्तमीमांसा, १० । भी इनसे बहुत ज्यादा है । इमलियं प्रत्येक मनुष्य (0.1.E. Taylor Elements of Vetaphysis. P. 214, Postnot . "The degree of uuth: मम्बन्धी विज्ञान उस दृष्टिकी अपेक्षा जिमम कि । apart from consideration of the purpose 'मनुष्य' का अध्ययन किया गया है.-उम प्रयोजन mein to timilfil.." स्मृतिमें रखने योग्य महावाक्य १. नियम एक तरहसे इम जगतका प्रवर्तक है। ६. इन्द्रियाँ तुम्हें जीतें और तुम मुख मानो, २. जो मनुष्य मत्पुरुषोंके चरित्र रहम्यको इसको अपना तुम इन्द्रियोंक जीतनेमे ही मुख, पाता है वह परमेश्वर होजाता है। श्रानन्द और परमपद प्राप्त करोगे। ३. चंचल चित्त मब विषम दुःम्वोंका मूल है। ७. राग बिना मंमार नहीं और संसार बिना ४. बहुतोंका मिलाप और थोड़ोंक माथ अनि गग नहीं । समागम ये दोनों ममान दुःखदायक हैं। ८. युवावस्थामें मवमंगका परित्याग परम५. समस्वभावीके मिलनेको ज्ञानी लोग एकान पदको देता है। a doctrine contains cannot for determined Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीरके शासनमें गोत्रकर्म [ले०-बा० कामताप्रमाद जैन, एमआर०ए०एम०] अगवान् महावीर जैनधर्मके अन्तिम तीर्थकर थे। निज्जरेथः यं पनेत्य एतरहि कायेन संवुता, वाचाय संबु - उन्होंने स्वयं नवीन मतकी स्थापना नहीं की ता, मनसा संवुता तं मायनिं पापस्स प्रकरणं,इति पुराथी; बल्कि क्षीण हुए जैनधर्मका पुनरुद्धार किया शानं कम्मानं नपसा व्यन्तिभावा नवानं कामानं प्रकरथा-अपने ही दंगसे अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, समायति मनवम्सयो, भायति अनक्स्सवा कम्मक्खयो, भवके अनुकूल उसका प्रतिपादन किया था। जब नक. कम्मक्षया दुक्रवक्खयो, दुक्खक्खया वेदानाक्खयो, वेद भगवान् महावीर पूर्णसर्वज्ञ नहीं हो लिये थे तब तक नाक्खया सम्बं दुक्खं निजिरणं भविस्सति ।" उन्होंने तीर्थ-प्रर्वतनरूपमें एक शब्द भी मुग्वम नहीं -(मज्झिमनिकाय) निकाला था। जीवनमुक्त. परमात्मा होकर ही उन्होंने भावार्थ-“हे महानाम, जब मैंने उनमे ऐसा कहा लोककल्याण भावना-मूलक धर्मका निरूपण किया। नब वे निम्रन्थ इस प्रकार बोले, 'अहो, निम्रन्थ ज्ञानजो कुछ उन्होंने कहा, उमका साक्षात् अनुभव कर लिया पत्र (महावीर) मर्वज्ञ और मर्वदर्शी हैं.---वे अशेष जान था-ज्ञान उनमें मूर्तिमान् हो चमका था । इसालाए और दर्शनोंके ज्ञाता हैं। हमारे चलते, ठहरने, मोते, उन्होंने जो कहा वह वस्तुस्थितिका फोटोमात्र था। उन- जागते,-- ममस्त अवस्थात्रोंमें मदेव उनका ज्ञान का सिद्धांत कारण-कार्य सूत्रपर अवलम्बित था । उमम और दर्शन उपस्थित रहता है । उन्होंने कहाः-.. जिज्ञासुश्रीको पूर्ण मन्तोष मिला था और व उनकी निम्रन्थों ! नमने पूर्व (जन्म) में पापकर्म किये हैं, शरण में आये थे । बौद्ध शास्त्रीके कथनसे यह ग्राभाम उनकी दम घोर दुश्कर नपस्यामे निर्जग कर डालो। होता है कि तीर्थकर महावीरके प्रथम पुण्यमयी प्रवचनका मन, वचन. और कायकी मंतिमे (नये) पाप नहीं प्रतिरूप कैमा था ? उनमें लिग्वा है कि जब म. गौतम बंगत और तपस्याम पगने पापोंका व्यय हो जाता बुद्धने निम्रन्थ ( जैन ) श्रमणाम घोर तपस्या करनेका है। इस प्रकारकं नये पापक रूक जानेम और पुगने कारण पूछा तो उन्होंने उत्तर दियाः- पापक व्ययम श्रानि कक जाती है: अायनि "एवं वुत्ते, महानाम, ते निगण्ठा में एतदवोचु, ५ जानेने कम्मा का नय होता है, कमनयम निगण्ठो, भावुसो नाथपुत्तो सम्वशु, सम्बदस्सावी अप दुःग्वतय होता है, दुःवक्षयम वदनाक्षय और वेदना रिसेसं शाणदस्सनं परिजानातिः चरतो च मे निटना- नायस मर्वदुःखांकी निर्जग हो जाती है।" च सुत्तस्स च नागरस्स च सततं समितं ज्ञाणदम्पनं इस उद्धरणमें भ० महावीरका महान व्यक्तित्व पाचुपट्टितंतिः, सो एवं पाहः अस्थि खो वो निगराठा और उसके दाग प्रतिपादित धर्मका वैज्ञानिक स्वरूप पम्वे पापं कम्म कतं, तइमाय कटुकाय दुकरिकारिकाय म्पष्ट है । निम्मन्देह भ० महावीरका धर्म केवल धर्म Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भातिक निर्वाण सं०२१६६] भ० महावीरके शासनमें गोत्रकर्भ २६ विज्ञान है । उपयुक्त उद्धरण इस कथनका साक्षी है। साथ सम्बन्धको प्राप्त हुए ऊँच-नीच-कुलमें उत्पन्न उसमें धर्मविज्ञानका जो रूप अंकित है, उससे जैन-कर्म- करानेवाले पुद्गलस्कन्धको 'गोत्र' कहते हैं। सिद्धांतकी भी सिद्धि होती है । कर्म वह सूक्ष्म पुद्गल गोत्रकर्मका सूक्ष्म पुद्गलरूप होना लाजिमी है। है जो कपायानुरक्त जीवकी योगक्रियासे आकृष्ट हो प्राचार्य उसीको स्वीकार करते हुए बताते हैं कि उससे एकमेक बंधको प्राप्त होता है । ऐसी दशामें वे गोत्रकर्मरूप पुद्गलस्कंध जीवको ऊँच-नीच-कुलमें तपस्या-द्वारा नूतन कर्मों की श्रायति ( श्रास्रव ) रुक उत्पन्न कराते हैं । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं हो जाती है और शेष कम्मोंकी निर्जरा हो जानेसे जीवको सकता कि ऊँच-नीच-कुलमें जन्म करा देनेके बंधन में रखनेके लिए कारण शेष नहीं रहता-वह पश्चात् गोत्रकर्म निष्क्रिय हो जाता हो; क्योंकि कर्मकी मुक्त होकर ज्ञानादि अनन्त चतुष्टयका उपभोग करता मूल प्रकृतितियोंमें कोई भी ऐसा नहीं है जो जीवके साथ है। कर्मरूप होने योग्य यह सूक्ष्म पुद्गल जो लोकमें भरा परम्परा-रूपसे हमेशासे नहो और अपना प्रभाव न रखता हुआ है, संसारी जीवसे सम्बद्ध होकर अाठ प्रकारोंमें हो। आयुकर्म प्रकृतिका बन्ध यद्यपि जीवनमें एक परिणत हो जाता है। इन्हींको भ० महावीरने आठ बार ही होता है, परन्तु उसका कार्य बराबर जीवनकर्मप्रकृति कहा है अर्थात् (१) ज्ञानावरणी, (२) पर्यन्त होता है । इसी तरह भ० महावीरने गोत्रकर्मका दर्शनावरणी, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) श्रायु, प्रभाव जन्म लेनेके बाद भी जीवन-पर्यन्त होना प्रति. (६) नाम (७) गोत्र और (८) अन्तराय । चीनदेशके पादित किया है और यही मानना आवश्यक है । यही बौद्ध शास्त्रोंमें इनमेंसे केवल छह मूल्य प्रकृतियोंका कारण है कि श्री नेमिचन्द्राचार्य सिद्धांत-चक्रवर्ती गोत्र उल्लेख मिलता है--न मालूम उममें ज्ञानावरण और कर्मके विषयमें लिखते हैं:-- अन्तरायका उल्लेख होनेसे कैसे छूट गया ? जो हो, 'संताणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सरणा।' यह स्पष्ट है कि भ० महावीरने अपने धर्मका प्रतिपा- अर्थात्–'सन्तानक्रमसे-कुलपरिपाटीसे-चले आये पादन मूलतः कर्मसिद्धांतके आधारसे किया था, अत- जीवके श्राचारणकी 'गोत्र' संज्ञा है।' एव कर्मसिद्धांतका विवेचन सामान्य न होकर वैज्ञानिक गोत्रकर्मका यह लक्षण उसके कार्यको बतलाता होना चाहिए । जैनागम इसी बातका द्योतक है। है। जीव एक द्रव्य है । अतएव संसारी जीवका कुलपर पाठकगण, अब आइये प्रकृत-विषयका विचार म्परागत श्राचरण काल्पनिक न होकर नियमित और करें । इस लेखके शीर्षकसे स्पष्ट है कि हमें गोत्रकर्मपर जन्म-सुलभ होना चाहिये । जीवके कुल भी एकेन्द्रियादि विचार करना अभीष्ट है । गोत्रकर्म आठ मूल प्रकृति- की अपेक्षा मानने चाहिये-वे काल्पनिक न होने योमसे एक है और उसका लक्षण 'धवलसिद्धांत' में चाहिये । इस विषयको स्पष्ट समझनेके लिये हमें य बतलाया गया है: संसारी जीवोंके वर्णन पर जरा विचार करना चाहिये । "उच्चनीचकुलेसु उप्पादो पोग्गलखंधो मिच्छत्ता- यह और इस लेखमें अन्य सिद्धांत-उद्धरण दिपचएहि जीवसंबंधो गोदमिदि उच्चदे।" भनेकांत की पूर्व प्रकाशित किरणोंमेंसे खिये गये। अर्थात्-मिथ्यात्वादि कारणोंके द्वारा जीवके जिसके लिए हम लेखकों के मामारी है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त (वर्ष ३, किरण १ tutnamitidinlodinduis प्रत्येक जैनी जानता है कि संसारी जीव अस और स्था- सुलभ प्रवृत्ति अथका व्यापार मी पृथक्-पृथक होना वरके रूपमें दो तरहके हैं । त्रसमें दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, आवश्यक है । नारकियोंमें जन्म लेते ही जीव ताड़नचतुरेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय सम्मिलित हैं। पंचेन्द्रियोंमें मारन-छेदन-भेदन-रूप संक्लेशमय क्रियाको करने लगता पशुओं और मनुष्यों के अतिरिक्त देव और नारकी भी है और वह उसको श्रायुपर्यन्त कभी न तो मूलता है सम्मिलित हैं। एकेन्द्रियसे पंचेंद्रिय पशु तक तिर्यच कह- और न छोड़ता ही है । इसलिये नारकियोंका यह लाते हैं । तिर्योंके अतिरिक्त नारकियों, देवों और मनु- व्यापार उनका गोत्रजन्य आचरण है । उनकी यह प्योंका भी पृथक् अस्तित्व मिलता है । अब देखना यह प्रवृत्ति नियमित, जन्म-सुलभ और शाश्वत है-प्रत्येक है कि किन कारणोंसे जीव नारक पशु-देव और मनुष्य नारकीमें प्रत्येक समयमें वही प्रवृत्ति मिलेगी। इसी तरह भवोंमें उच्च नीच-गोत्री होता है । तत्वार्थाधिगम सूत्रमें तिर्यञ्चोंमें गोत्रजन्य व्यापार देखना चाहिये । उनका लिखा कि: गोत्रजन्य व्यापार मी जन्म सुलभ,नियमित और जीवन'परास्मनिवापसे सदसद्गुणोछादनोभावने - पर्यन्त रहने वाला होना चाहिये । तिर्यञ्चोंमें क्षुधानीचेगोत्रस्य । तविपर्ययो नीचस्पनुस्सेको चोत्तरस्य।' निवृत्तिके लिये नाना प्रकारसे उद्योग करनेका भाव अर्थात्-- 'परकी निंदा, अपनी प्रशंसा, परके और प्रवृत्ति सर्वोपरि होती है। अपनी खाद्य वस्तुको विद्यमान गुणोंका आच्छादन और अपने अविद्यमान खोजने, उसको संभालकर रखने और काममें लानेका गणोंका प्रकाशन, ये नीचगोत्रकर्मके श्रास्रवके कारण चातुर्य प्रत्येक पशुमें जन्मगत देखनेको मिलता हैहैं । इनसे विपरीत अर्थात् अपनी निंदा, परकी प्रशंसा, कोई उनको मिखाता नहीं । शेर, बिल्ली आदि खं ख्वार अपने गुण ढकना और दूसरोंके गुण प्रकाशित करना, जानवगेको शिकारकी घातमें रहनेकी चालाकी किसीने नम्रवृत्ति और निर मिखाई नहीं है-..-बया चिडियाको खास तरहका घौमला कारण हैं।' बनाना, शहदकी मक्खियोंको अपना छत्ता बनाना और इसमें शंका ही नहीं की जा सकती कि जैसा और चींटियोंको अपनी बिलें बनानेकी शिक्षा किसने दी कारण होता है उसीके अनुरूप कार्य होता है-कारण- है ? तिर्यञ्चोंकी यह सब प्रवृत्ति जन्मगत होनेसे उनका के विरुद्ध कार्य नहीं होता । अतएव उच्च-नीच गोत्रके कुल-परम्परीण अाचरण (व्यापार ) है । अतः यही कारणोका सम्बन्ध जिस प्रकार धर्माचरणसे नहीं है उनका गोत्रजन्य व्यापार-कार्य है । किन्तु प्रश्न यह है उसी तरह उसका कार्यरूप भी धर्माचरणसे संबंधित कि उनका यह व्यापार शुभ और प्रशंसनीय है अथवा नहीं किया जा सकता अर्थात् संतान-क्रमागत आचरण. नहीं ? नारकियोंकी प्रवृत्ति संक्लेशमयी रौद्रताको लिये का भाव सिद्धान्तग्रंथमें धर्माचरण अथवा अधर्माचरण हुये है, जो जीवके स्वभावसे प्रतिकुल और उसके नहीं है। बल्कि आचरणका भाव सामान्य प्रवृत्ति संसारको बढ़ने वाली है । इसी तरह तिर्यञ्चोंकी है और वह प्रवृत्ति नारकतिर्यज्ञादिमें कुल परम्परासे प्रवृत्ति मायावी और मूर्खाभावको लिये हुए है। एक-मी मिलना चाहिये । चूँकि भव-अपेक्षा तिर्यच- प्रात्माका धर्म प्रार्जव है-माया और मूर्खा उससे परेकी नारक-देव-मनुष्य पृथक-पृथक् है, इसलिये उनकी कुल- चीजें हैं । इसलिये नारक और तिर्यञ्चोंकी प्रवृत्तियाँ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] भ०महावीर के शासन में गोत्रकर्मा " उपादेय न होनेके कारण हितकर और प्रशंसनीय नहीं मानना उचित है; क्योंकि यह जन्मसुलभ, नियमित है-वे हैं भी अशुभ, क्योंकि नरक और तिर्यञ्च-गतियाँ और मनुष्य जीवन में कभी न बदलने वाली शाश्वती स्वयं अशुभ है । अतएव नारक और तिर्यञ्चोंका गोत्र प्रवृत्ति उसी तरह है जिस तरह देवादिमें उनकी गोत्रभी अशुभ अर्थात् नीच होना चाहिये । सिद्धान्तग्रन्थोंमें जन्य प्रवृत्ति है । साथ ही, चंकि यह प्रवृत्ति शानसे उसे नीच ही बताया गया है। तालक रखती है, इसलिये श्रेष्ठ है-शुभ है। क्योंकि शान अब रहे केवल मनुष्य और देव । देवोंके प्रात्माका गुण है। अतएव मनुष्य जातिमें बज़ाहिर गोत्रजन्य व्यापारके विषयमें मतभेद नहीं है- काल्पनिक भेद-प्रभेद रूप वर्गीकरण होते हुए भी, जैसे उनका श्रानन्दी जीवन है-क्रीड़ा करनेमें हो देव कि देवोंमें भी है, उनको उचगोत्री मानना ही ठीक है मग्न रहते हैं । श्रानन्दी जीवनमें श्राकुलताके लिये श्रीमान् वयोवृद्ध सूरजभानुजी साहबने इस विषयका बहुन-कम स्थान है-आनन्द प्रात्माका स्वाभाविक ठीक ही प्रतिपादन किया है । 'ठाणायंत्र' में मनुष्यों के गुण है । इमलिये देवोंकी प्रवृत्ति शुभ है । यही कारण चौदह लाख कोटि कुलोको मोक्षयोग्य ठहराया है। -यह है कि देवोंमें ऊँचे नीचे दर्जे के देवोंका वर्गीकरण होते सिद्धान्त मान्यता तभी ठीक हो सकती है जय कि मब हुए भी मब ही देव उच्च गोत्री कहे गये हैं। अब ही मनुष्योंको उच्चगोत्री माना जायगा। रह जाते हैं केवल मनुष्य ! उनके जन्म-सुलभ व्यापार हमके विपरीत मनुष्योंमें उच्च नीच-गोत्र-जन्य अथवा गोत्रजन्य प्रवृत्ति के विषय में विद्वानोंमें मतभेद ब्यापार यदि मनुष्योंकी लोक-सम्मानित और लोकहै; परन्तु यहाँ पर भी यदि उपर्युक्त देव-नारकादिके निंद्य प्रवृत्तिको माना जाय तो मिद्धान्त में कही गई गोत्र जन्य व्यापारकी विशेषताओंका ध्यान ग्वा जाय बातोंसे विरोध होगा; क्योंकि मिद्धतिमें म्लेच्छ शूद्र नो मतभेदकी संभावना शायद ही रहे । गोत्रजन्य चोर-डाक-श्रादि लोकनिंघ मनुष्योंको भी मुनि होते व्यापार जन्म सुलभ, नियमित और शाश्वत होना बताया गया है। हम प्रकरणमें बौद्ध ग्रंथ 'मज्झिनिचाहिये । अतएव देखना यह चाहिये कि मनुष्योंमें काय' का निम्नलिखित उद्धरण विशेष दृष्टव्य हैं:कौनसी प्रवृत्ति जन्म-सुलभ है, जो जीवन-पर्यन्त ___म• गौतम बुद्ध कहने हैं:-"निगंठो, जो लोकमें प्रत्येक देश और प्रत्येक काल के मनुष्यों में मिलनी 'मिथ्यात्व सौ लेह प्रयोगि पर्यंत गुणस्थाननि है ? ग़ौरसे देखिये तो ज्ञात होता है कि एक बालक विष मनुष्यके चौदह लाम्ब कोरिकुल कहे हैं, पार्ने सब होश मँभालने के पहलेसे ही हर बातको जानने की-वस्तु मनष्यनिके कलकी संज्ञा मोषयोग्य जानी गई । यह के स्वरूपको ग्रहण करनेकी स्वतः ही कोशिम करता है गदोंके यंत्र वि देख लेना।'-पर्चासमाधान मानव जाति के किमी कुलका बालक क्यों न हो, उममें धवल सिद्धांतमें म्लेच्छोंको मुनिपर धारणेका यह प्रवृत्ति स्वतः ही मिलती है और वह बराबर बनी विधान श्री सूरजभानुजीके लेखसे स्पष्ट है। 'पपणा. रहती है, बल्कि मनुष्य सन्तानमें उम प्रवृत्तिका संस्कार सार' में भी यह एवं सताबोंका मुनि होना स्पष्ट जन्मतः दीखता है । इस प्रवृत्तिको श्रुतपर्यवेक्षण-प्रवृत्ति है। रकर्मा अहिमारक चोर भादिका मुनि होना भी कहना उचित है, और यही मनुष्यका गोत्र जन्य व्यापार भगवती भाराधना पृ. ३१ मे पर है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकास वर्ष ३, किरण । रुद्र (भयंकर ) खून रंगे हाथ वाले, क्रूरकर्मा, मनुष्यों में अपने जीवन में साधु होनेके पहले बहुत ही क्रूरकर्मी नीच जाति वाले (पद्याजाता ) हैं, वे निगंठोंने साधु था* | क्रूरकर्मी चोरकी लोक में कोई भी प्रशंसा नहीं बनते हैं।" (चलदुक्ख-रखन्ध-सुत्तन्त) करंगा-फिर भी वह मुनि हुश्रा । इसका स्पष्ट अर्थ यह उद्धरण भ. महावीरके समयमें जैनसंघकी यही है कि वह नीचगोत्री नहीं था और गोत्रके व्यापारप्रवृत्तिका दिग्दर्शन कराता है। इसमें बौद्धोंके आक्षेप- का सम्बन्ध लोकनिंद्य और लोकवद्य आचरणोंसे नहीं वृत्तिगत संदिग्धताकी भी शंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि बैठता। फरकर्मी श्रादि रूप होना चारित्र मोहनीय जैनागमसे एक हद तक इसका समर्थन होता है । सि- कर्मप्रकृतिसे ताल्लुक रखता है-गोत्रकर्मसे उसका द्धांत ग्रंथोंस स्पष्ट है कि रुद्र भृष्ट-मुनि आर्यिकाकी संतान सम्बन्ध बिठाना ठीक नहीं । अतएव उपर्युक्त विवेचनहोता है और ग्यारह अंग और नौ पूर्वोका पाठी मुनि के श्राधारसे यह मानना ठीक ऊँचता है कि भ० महाहोता है । भ० महावीरके ममयमें सात्यकिपुत्र नामक वीरने मनुष्य जातिको उच्च गोत्री ही बताया था । मनुष्यों अंतिम रुद्र ज्येष्ठा आर्यिका और सात्यकि मुनिका का जन्मगत व्यापार-श्रुतपर्यवेक्षणभाव उन्हें उच्चगोत्री व्यभिचारजात पुत्र था । वैदिक धर्मकीप्रधानता उस का. ही ठहराता है गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा नं० १८ लमें बिल्कुल नष्ट नहीं हुई थी और कुलमदका व्यवहार से हमारे उक्त वक्तव्यका समर्थन होता है, क्योंकि लोगोमस एकदम दूर नहीं हो गया था--व्यभिचार- उसमें नीच-उच्च-गोत्र भवाश्रित बताये हैं । मनुष्यभव जातको जनता लोकनिंद्य नीच ही मानती थी; किन्तु उच्च ही माना गया है । मनन करनेकी क्षमता रखने तीर्थकर महावीरने अन्तिम रुद्रको लोकनिन्द्यताका वाला जीव ही मानव है और वह अवश्य ही सर्वश्रेष्ट ज़रा भी खयाल नहीं किया और उसे मुनि दीक्षा देदी। प्राणी है । भ० महावीरने ऐसा ही कहा था, यह उपइसी तरह हिमारक चोरने मुनि होकर एक राजाको यक्त विवेचनसे स्पष्ट है । श्राशा है, विद्वज्जन इस जानम मार डाला, जिससे यह स्पष्ट है कि अहिमारक विषयको और भी स्पष्ट करेंगे। 8 देखो भाराधना कथाकोशमें सात्यकि और रुद्र कथा नं.२७ । के देखो अनन्तकीर्ति ग्रन्थमालामें प्रकाशित भगवती पाराधनाकी 'महिमारपणादि गाथा नं.२०७१ विविध प्रश्न प्र.-कहिये धर्मका क्यों श्रावश्यकता है ? चाहिये । यदि कर्मको पहले कहो तो जीवके उ०-अनादि कालसे आत्माकं कर्म-जाल दूर करने बिना कर्मको किया किसने ? इस न्यायसे के लिये। दोनों अनादि हैं। प्र०-जीव पहला अथवा कम ? प्रक-जीव रूपी है अथवा अरूपी ? ०-दोनों अनादि हैं। यदि जीव पहले हो तो -देहके निमित्तसे रूपी है और अपने स्वरूपसे इम विमल वस्तुको मल लगनंका कोई निमित्त अरूपी । -राजचन्द्र Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदृष्टिका स्थान तथा उसका आधार [ लेखक-न्यायदिवाकर न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार शात्री ] [इस लेखके लेखक पं. महेन्द्रकुमारजी शाजी काशी-स्याद्वाद महाविद्यालयके एक प्रसिद्ध विद्वान है, और वहाँ न्यायाध्यापकके आसन पर आसीन हैं । हालमें पाप षट्खण्ड-न्यायाचार्य के पदसे भी विभूषित हुए हैं जैनियों में सर्वप्रथम आपकोही काशीकी इस पट्खएड न्यायाचार्यकी पदवीसे विभूषित होनेका सौभाग्य प्राप्त हुमा है। आप बड़ेही विचारशील एवं सजन हैं और खूब तुलनात्मक अध्ययन किया करते हैं, जिसका विशेष परिचापक आपके द्वारा सम्पादित हुआ'न्यायकुमुदचन्द' नामका ग्रन्थ है। तुलनात्मक दृष्टिसे लिखा हुमा पापका यह लेख बढ़ा ही महत्वपूर्ण है । इसमें भगवान् महावीरकी अनेकान्त दृष्टिका और उसे दूसरे दर्शनों पर जो गौरव प्राप्त है उसका बड़े अच्छे ढंगसे प्रतिपादन एवं स्पष्टीकरण किया गया है । साथ ही, जो यह बतलाया है कि, अनेकान्तरष्टिको अपनाए बिना वास्तविक अहिंसा नहीं बन सकती-राग-द्वेष और विरोधकी परम्परा बन्द नहीं हो सकती, अनेकान्तरष्टि जैनधर्मकी जान है,उसे छोड़कर अथवा भुलाकर हम वीरशासनके अनुयायी नहीं रह सकते,अनुयायी बनने और अपना भविष्य उज्ज्वल तथा जीवन सफल करनेके लिये हमें प्रत्येक प्रश्न पर-चाहे वह लौकिक हो या पारलौकिक-अनेकान्त दृष्टिसे विचार करना होगा, वह सब खासतौरसे ध्यान देनेके योग्य है । प्राशा है पाठकजन लेखको गौरसे पढ़कर यथेष्ट लाभ उठाएंगे। -सम्पादक] भारतीय दर्शनशास्त्रांक सामान्यतः दो विभाग किये निकलता है व यद्यपि स्वयं श्राचारप्रधान थ तथापि, गा सकते हैं-एक वैदिक दर्शन और दूसरे उत्तरकालीन प्राचार्यवर्गने अपने अपने दर्शनांक अवैदिक दर्शन । वैदिक दर्शनमें वंदको प्रमाण मानने विकाममें तक की पराकाष्ठा दिखाई है और उम उम वाले वैशेपिक, न्याय, उपनिषद्, मान्य, योग, पूर्व तर्क जन्य विकामशील माहित्यम दर्शनशास्त्र के कोपागारमीमांमा अादि दर्शन हैं। अवैदिक दर्शनों में वैदिक यज्ञ में अपनी ओरमे भी पर्याप्त पंजी जमा की है। हिमाके खिलाफ विद्रोह करने वाले, वेदकी प्रमाणता बौद्धतिकी उदति पर अविश्वास रखने वाले बौद्ध और जैनदर्शन हैं। बद्ध जब तपस्या करने जाते हैं तब उनकी विचारचाँदिक दर्शन के आधार एवं उद्भव स्थानमें विचारोंका धागको देखिाए । उममें दर्शनशास्त्र-जैमी कल्पनाश्रीको प्रामुख्य है तथा अवैदिक दर्शनोंकी उद्भनि प्राचार- कोई स्थान ही नहीं है । उम ममय तो उनका करुग्णाशोधनको प्रमुखतासे हुई है । प्रायः मभी दर्शनोंका मय हृदय संमारके विषयं कपायोंसे विरक्त होकर मारअन्तिम लक्ष्य 'मोक्ष' है। गौण या मुख्यरूपस तत्त्य- . विजयको उद्यत होता है। वनो विषय-कपाय ज्वालास ज्ञानको साधन भी सभीनं माना है । वैदिकदर्शनकी बुरी तरह झलसे हुए प्राणियांक उद्धार के लिए अपना परम्परा के स्थिर रखने के लिये तथा उसके अतुल विका- जीवन होम देनेकी भावनाको पुष्ट करते हैं । उनका मके लिये प्रारम्भसे ही बुद्धिजीवी ब्राह्मणवर्गने सुदृढ चित्तप्रवाह संसारको जलबुबुदकी तरह क्षणभंगुर, प्रयत्न किया है । यही कारण है कि श्राज वैदिकदर्शनों- अशुचि, निरात्मक-श्रात्मस्वरूपसे भिन्न अात्माके लिए की मूक्ष्मना एवं परिमाणकी तुलनामें यद्यपि अवैदिक निरुपयोगी, तथा दुःखरूप देंग्यता है । वे इमं दुःग्वदर्शन मात्रामें नहींवत् है, पर उनकी गहगई और सन्नति के मूल काग्गोंका उच्छेद करनेके लिए. किमी मृक्षमता किसी भी तरह कम नहीं है। बौद्ध और जैन- दर्शनशास्त्रको रचना नहीं करके उमके मार्गकी खोजके दर्शनका मूलस्रोत जिन बुद्ध और महावीरके वाक्याँस लिए तपस्या करते हैं। वह वर्ष तक उग्र तपस्या चलती Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ है, पर जब सिद्धि नहीं होती तो तपस्याके उत्कट मार्गसे आत्माको कूटस्थ-अविकारी नित्य, कोई व्यापक, कोई उनका भावुक मातृहृदय चित्त ऊबने लगता है। इस उसे अणुरूप तो कोई उसे भूत-विकाररूप ही मानते समय उनकी चित्तसन्तति, जो एकनिष्ठ होकर दुःखनिवृ- थे। बुद्धने इन विभिन्न वादोंके समन्वय करनेकी कोई त्तिकी उपसाधना कर रही थी, अपनी असफलता देख- कोशिश नहीं की बल्कि उन्होंने इन दिमाग़ी गुत्थियोंका कर विचारकी ओर झुकती है और उसके द्वारा मध्यम सुलझाना निरुपयोगी समझा और शिष्योंको इस दिमागो मार्गको ढूंढ निकालती है। वे स्थिर करते हैं कि- कसरतमें न पड़नेकी सूचना दी । उनका लक्ष्य मात्र एक ओर यदि विषयासक्त हो शरीरपोषण करना अति आचरणकी ओर ही था। है तो दूसरी ओर उग्रतपस्या-द्वारा शरीरशोषण भी हाँ, दयालुमानम बुद्धने उग्रतपस्यासे ऊबकर अति है, अतः दोनोंके बीचका मार्ग ही श्रेयस्कर हो अपने मृदुमार्गके समाधान के लिए मध्यमदृष्टिका श्रासकता है । वे इस मध्यममार्गके अनुसार अपनी तपस्या- लम्बन लिया था, उस आचरणकी सुविधा के लिए की उग्रता ढीली करते हैं । इससे हम एक नतीजा तो अवश्य ही उन्होंने मध्यमप्रतिपदाका बादमें भी उपयोग सहज ही निकाल सकते हैं कि बुद्धका जीवनप्रवाह किया । बुद्धका हृदय माताकी तरह स्नेह तथा कोमल अहिंसात्मक प्राचारकी ओर ही अधिक था, इस समय भावनाओंसे लबालब भरा हुआ था। उनके हृदयको बुद्धिका काम हुआ है तो साधनकी खोजमें । जब बोधि- अपने प्यारे लालौकी तरह शिष्योंकी थोड़ी भी तकलीफ लाभ करनेके बाद संघ रचनाका प्रश्न अाया, शिष्य- या असुविधास बड़ी ठेस लगती थी, अतः जब भी परिवार दीक्षित होने लगा, उपदेश-परम्परा शुरू हुई शिष्यों के प्राचारकी सुविधा के लिए. दो संघाटक (वस्त्र) तब विचारका मुख्य कार्य प्रारम्भ हुश्रा । इस विचार- रखनेकी, जन्ताघर ( स्नानागार ) बनानेकी, भिक्षामें क्षेत्रमें भी हम बुद्ध के उपदेशमें दर्शनशास्त्रीय प्रात्मा सायंकाल के लिए भी अन्न लाने श्रादिकी मांग पेश की आदि पदार्थोके विवेचनमें अधिक कुछ नहीं पाते । वे तो तो माताकी तरह बुद्धका हृदय पिघल गया और उन्होंने मात्र दुःख, समुदय-दुःखके कारण, निरोध-दुःख- पुत्रवत् शिष्योंको उन बातोंकी सुविधा दे दी। तात्पर्य निवृत्ति और मार्ग-दुःख निवृत्ति का उपाय, इन चार यह कि-बुद्धकी मध्यम प्रतिपदा व्यक्तिगत प्राचारकी आर्य सत्योंका स्वरूप बताते थे और अपने अनुभूत कठिनाइयोंको हल करनेके सहारके रूपमें उद्भुत हुई दुःख-मोक्ष के मार्ग पर चलनेकी अन्तःप्रेरणा करते थे। थी और वह वहीं तक ही सीमित रही। उस पुनीत दृष्टिने उन्होंने अपने आचरणकी उग्रताको ढीला करने के लिए अपना श्रेयस्कर प्रकाशका विस्तार विचार-क्षेत्र में नहीं जिस मध्यमप्रतिपदाको ओर ध्यान दिया था उस किया, नहीं तो कोई ऐसा माकूल कारण नहीं है कि मध्यमप्रतिपदा (अनेकान्तदृष्टि) को उस समय के प्रच- जिससे बौद्धदार्शनिक ग्रंथोंमें परपक्ष खडनके साथ भी लित विभिन्न वादोंके समन्वयमें नहीं लगाया । हम उन इतर मतोंका समीकरण न देखा जाता । जब बुद्धने स्वयं के उपदेशोंमें इस मध्यमप्रतिपदासे होने वाले समीक- ही इसे मध्यमप्रतिपदाका विचार क्षेत्रमें उपयोग नहीं रणका दर्शन प्रायः नहीं पाते । प्रात्मा श्रादिके विषयमें किया तब उनके उत्तरकालीन प्राचार्योंसे तो उसके उस समय अनेकों विरोधी मत प्रचलित थे । कोई उपयोगकी आशा ही नहीं की जा सकती। यही कारण Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] जैनदृष्टिका स्थान तथा उसका आधार ३५ है कि-उत्तरकालीन प्राचार्योंने बुद्धके उपदेशोंमें पाए मध्यमप्रतिपदाका शाब्दिक प्रादर तो सभी बौद्धचाहुए. क्षणिक, विभ्रम, शून्य, विज्ञान प्रादि एक एक योंने अपने अपने ढंगसे किया पर उसके अन्तर्निहितशब्दके आधार पर प्रचुर ग्रन्थराशि रच डाली और तत्त्वको सचमुच भुला दिया । शून्यवादी मध्यमप्रतिपदाक्षणभंगवाद, विभ्रमवाद, शून्यवाद, शानाद्वैतवाद को शून्यरूप कहते हैं तो विज्ञानवादी उसे विशानरूप । श्रादि वादोंको जन्म देकर इतरमतोंका निरास भी बड़े शून्यवादियोंने तो सचमुच उसे शून्यताका पर्यायवाची फटाटोपसे किया। इन्होंने बुद्धकी उस मध्यमदृष्टिकी ही लिख दिया है ओर समुचित ध्यान न देकर वैदिकदर्शनों पर ऐकान्तिर _ "मध्यमा प्रतिपत्सव सर्वधर्मनिराधमता । प्रहार किया । मध्यमप्रतिपदा के प्रति इनकी उपेक्षा ___भूतकोटिश्च सैवेयं तथता सर्वशम्पता ॥" यहाँ तक बढ़ी कि-मध्यमप्रतिपदा (अनेकान्तदृष्टि) अर्थात्-मध्यमाप्रतिपत्, सर्वधर्मनैरात्म्य और के द्वारा ही समन्वय करनेवाले जैनदार्शनिक भी इनके सर्वशन्यता, ये पर्यायवाची शब्द हैं। यही वास्तविक और र श्राक्षेपोंसे नहीं बच सके । बौद्धाचार्योंने 'नराम्य' शब्द तध्यरूप है। के आधार पर आत्माका ऐकान्तिक खंडन किया; भले ___ सारांश यह कि बुद्धकी मध्यमा प्रतिपत् अपने ही बुद्धने नैरात्म्य शब्दका प्रयोग 'जगतको अात्मस्वरूप शैशवकालमें ही मुरझा गई, उसकी सौरभ सर्वत्र न फैल से भिन्नत्व, जगत्का आत्माके लिए निरुपयोगी होना, सकी और न उत्तराधिकारियोंने ही इस ओर अनुकूल कटस्थ आत्मतत्त्वका श्रभाव' आदि अर्थों में किया था। प्रयत्न किया। 'क्षणिक' शब्द का प्रयोग तो इसलिए था कि हम स्त्री आदि पदार्थोंको शाश्वत और एकरूप मानकर उनमें जैन ष्टिका आधार और विस्तार श्रासक्त होते हैं, अतः जब हम उन्हें क्षणिक-विनश्वर, भगवान् महावीर अत्यन्त कठिन तपस्या करनेवाले बदलनेवाले समझने लगेंगे तो उस बोरसे चित्तको वि. तपःशर थे। इन्होंने अपनी उग्रतपस्यासे कैवल्य प्राप्त रन करने पर्याप्त सहायता मिलेगी । स्त्री श्रादिको हम किया । भगवान् महावीरने बुद्धकी तरह अपने प्राचारएक अवयवी-अमुक श्राकारवाली स्थूल वस्तुके रूपमें को ढीला करनेमें अनेकान्तदृष्टिका सहारा नहीं लिया देखते हैं, उसके मुख श्रादि स्थूल अवयवोंको देखकर और न अनेकान्तदृष्टिका क्षेत्र केवल प्राचार ही रक्खा । उसमें राग करते हैं, यदि हम उसे परमाणुत्रोंका एक महावीरने विचारक्षेत्रमें अनेकान्तदृष्टिका पूरा पूरा पुंज ही समझेंगे तो जैसे मिट्टीके देरमें हमें राग नहीं उपयोग किया; क्योंकि उनकी दृष्टि में विचारोंका समन्वय होता उसी तरह स्त्रीप्रादिके अवयवों में भी रागकी उद्भनि किए बिना प्राचारशुद्धि असंभव थी। श्रात्मादि वस्तुओं नहीं होगी । बौद्धदर्शन-प्रन्योंमें इन मुमुक्षु भावनाओंका के कथनमें बुद्धकी तरह महावीरने मौनावलम्बन नहीं लक्ष्य यद्यपि दुःख-निवृत्ति रहा पर समर्थनका दंग किया; किन्तु उनके यथार्थ स्वरूपका निरूपण किया। बदल गया। उसमें परपक्षका खंडन अपनी पराकाष्ठा उन्होंने कहा कि-आत्मा है भी, नहीं भी, निस्य भी को पहुँच गया तथा बुद्धि-कल्पित विकल्पजालोंसे बहु- है और अनित्य भी । यह अनेकान्तात्मक वस्तुका कथन विध पन्थ और ग्रंथ गंथे गए। उनकी मानसी अहिंसाका अवश्यम्भावी फल है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ कायिक अहिंसाके लिए व्यक्तिगत प्राचार-शुद्धि किसी . अनेकान्तदृष्टिका स्वरूप .. तरह कारगर हो सकती है पर मानसी अहिंसा के लिए तो अनेकान्तदृष्टिके मूलमें यह तत्त्व है कि-वस्तुमें जब तक मानसिक-द्वन्दोंका वस्तुस्थिति के आधारसे समी अनेक धर्म हैं, उनको जाननेवाली दृष्टियाँ भी अनेक करण नहीं किया जायगा तब तक मानमिक अहिंसा हो होती हैं,अतः दृष्टियोंमे विरोध हो सकता है,वस्तुमें नहीं। ही नहीं सकती और इस मानसिक अहिंसाके बिना दृष्टियोंमें भी विरोध तभी तक भासित होता है जब तक बाह्यअहिंसा निष्प्राण रहेगी। वह एक शोभाकी वस्तु हम अंश-ग्राहिणी दृष्टि में पूर्णताको समझते रहें; उस हो सकती है हृदयकी नहीं। यह तो अत्यन्त कठिन है समय सहज ही द्वितीय अंशको ग्रहण करनेवाली तथा कि-किसी वस्तु के विषयमें दो मनुष्य दो विरुद्ध धार- प्रथम दृष्टिकी तरह अपने में पूर्णताका दावा रखनेवाली गाएँ रखते हो और उनका अपने अपने ढंगसे समर्थन दृष्टि उससे टकराएगी। यदि उन दृष्टियोंकी यथार्थता भी करते हो, उनको लेकर वाद विवाद भी करते हों; का भाव हो जाय कि ये दृष्टियां वस्तुके एक एक फिर भी वे श्रापममें ममन भाव-एक दृमरके प्रति अंशको ग्रहण करनेवाली हैं, वस्तु नो इनसे परे अनन्तमानम अहिंमा रग्ब सकें। चित्त शुद्धि के बिना अन्य धर्मरूप है, इनमें पूर्णताका अभिमान मिथ्या है तब अहिंसाके प्रकार तो याचितकमंडन-स्वरूप ही हैं। स्वरसतः विरोधी रूपसं भासमान द्वितीय दृष्टिको भगवान महावीरने इमी मानम अहिंमाके पालन के लिए उचित स्थान मिल जायगा । यही नत्त्व उत्तरकालीन अर्निवचनीय अग्वंड अनन्तधर्मवाली वस्तु के विषयमें प्राचार्योंने बड़े सुन्दर शब्दोंमें ममझाया है किप्रचलित विरुद्ध अनेक दृष्टियोंका समन्वय करनेवाली, एकान्तपना वस्तुमें नहीं है, वह नो बुद्धिगतधर्म है । जब विचारोंका ममझौता करानेवाली पुण्यरूपा अनेकान्तदृष्टि' बुद्धि द्वितीय दृष्टिका प्रतिक्षेप न करके तत्सापेक्ष हो को मामने रखा । इससे हरएक वादी वस्तु के यथार्थम्व- जाती है तब उसमें एकान्त नहीं रहता, वह अनेकान्त रूपका परिज्ञान कर अपने प्रतिवादियोंकी दृष्टिका उचित मयी हो जाती है। इमी समन्वयात्मकदृष्टि से होने वाला रूपसे आदर करे, उसके विचारोंके प्रति महिष्णुताका वचनव्यवहार 'स्याद्वाद' कहलाता है । यही अनेकान्तपरिचय दे, रागद्वेष विहीन हो, शान्त चित्तसे वस्तु के ग्राहिंगी दृति 'प्रमाण' है । जो दृष्टि वस्तु के एक धर्मको अनिर्वाय स्वरूप तक पहुँचनेकी कोशिश करे। मुख्यरूपसे ग्रहण कर इनरदृष्टियोंका प्रतिक्षेप ___ समाजरचना और संघनिर्माणके लिए तो इस न करके उचित स्थान दे वह . 'नय' कहलाती है । तात्विकी दृष्टिकी बड़ी आवश्यकता थी। क्योंकि संघमें इम मानस अहिंसाकी. कारण-कार्यभत अनेकान्तविभिन्न सम्प्रदाय एवं विभिन्न विचारों के व्यक्ति दीक्षित दृष्टि के निर्वाहार्थ स्याद्वाद, नयवाद, सप्तभंगी आदिके होते थे, इस यथार्थ दृष्टि के बिना उनका समीकरण होना ऊपर उत्तरकालीन प्राचार्योंने स्खूब लिखा। उन्होंने असंभव था और बिना समन्वय हुए उनकी अहिंसाकी उदारतापूर्वक यहाँ तक लिखा कि 'समस्त मिध्यैकान्तोंतथा संघमें पारस्परिक सद्भावकी कल्पना ही नहीं की के समूहरूप अनेकान्तकी जय हो।' यद्यपि पातञ्जल जासकती थी। ऊपरी एकीकरणसे तो कभी भी विस्फोट योगदर्शन, सांख्यदर्शन, भास्कर वेदान्ती श्रादि इतरहो सकता था, और हुआ भी। दर्शनकारोंने भी यत्र-तत्र इस समन्वय दृष्टिका यथासंभव . Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] जैनदृष्टिका स्थान तथा उसका आधार उपयोग किया है पर स्याद्वादके ही ऊपर संख्याबद्ध अपने पिता रामचन्द्रको यज्ञदत्त के द्वारा मामा कहे शास्त्र जैनाचार्योंने ही रचे हैं। जाने पर उससे झगड़ता है, इसी तरह यज्ञदत्त रामचन्द्र उत्तरकालीन प्राचार्योंने यद्यपि महावीरकी उस को देवदत्त द्वारा पिता कहे जाने पर लड़ बैठता है । पुनीत दृष्टि के अनुसार शास्त्र रचना की पर उस मध्यस्थ दोनों लड़के थे बड़े बुद्धिमान । वे एक दिन शास्त्रार्थ भाव को अंशतः परपक्षखंडनमें बदल दिया । यद्यपि करने बैठ जात हैं-यज्ञदत्त कहता है कि -रामचन्द्र यह आवश्यक था कि प्रत्येक एकान्तमें दोष दिखाकर मामा ही है; क्योंकि उसकी बहिन हमारी माँ है अनेकान्तकी सिद्धि की जाय, पर उत्तरकालमें महावीर हमारे पिता उस साला कहते हैं, उनकी स्त्रीको हम की वह मानमी अहिंसा उस रूपमें तो नहीं रही। मांई (मामी) कहते हैं, जब वह श्राता है तो मेरी मांके अनेकान्तदृष्टि विकासकी चरमरेखा है पैर पड़ता है, हमें भान जा कहता है इत्यादि । इतना इम तरह दर्शनशास्त्रके विकासके लिहाज़से विचार ही नहीं यज्ञदत्त रामचन्द्र के पिता होनेका खंडन भी करता करने पर हम अनेकान्तदृष्टिसे समन्वय करने वाले जैन. है कि यदि वह पिता होता तो हमारी माँका भाई कैसे दर्शनको विकामकी चरमरेग्वा कह मकते हैं । चरमरेखा हो सकता था ? फिर हमारे पिता उसे साला क्यों कहते ? में मेरा तात्पर्य यह है कि दो विरुद्धवादोंमें तब तक ___ वह हमारी मांके पैर भो कैसे पड़ता ? हम उसे मामा दिमागी शुष्क कल्पनात्रोंका विस्तार होता जायगा जब ___ क्यों कहत ? श्रादि । देवदत्त भी कब चुप बैठने तक उमका कोई वस्तुस्पर्शी हल-ममाधान-न मिल वाला था, उमने भी रामचन्द्र के पिता होनेका बड़े फटा. जाय। जव अनेकान्तदृष्टिस उनमें मामजस्य स्थापित हो टोपस समर्थन करत हुए कहा कि-नहीं, रामचन्द्र जायगा तब झगड़ा किम बातका और शुष्कतर्क जाल पिता ही है क्योंकि हम उमे पिता कहते हैं, उसका किम लिए ? प्रत्येक वादके विस्तारमें कल्पनाएं तभी भाई हमाग चाचा है, हमारी मां उस भाई न कहकर तक बराबर चलेंगी जब तक अनेकान्तदृष्टि ममन्वय स्वामी कहती है । वह उसके मामा होनेका खंडन भी करता है कि यदि वह मामा होना तो हमारी माँ क्यों करके उनकी चरमरेखा पूर्ण-विगम-न लगा देगी। .. उस नाथ कहती ? हम भी क्यों न उस मामा ही कहते स्वतः सिद्ध न्यायाधीश श्रादि । दोनों केवल शास्त्रार्थ ही करके नहीं रह जाते अनेकान्तदृष्टिको हम एक न्यायाधीशके पद पर किन्तु अापसमें मारपीट भी कर बैठते हैं । अनेकान्तअनायास ही बैठा मकने हैं । अनेकान्तदृष्टि के लिए दृष्टि वाला रामचन्द्र पाममें बंटे बेटे यह सब शास्त्रार्थ न्यायाधीशपद प्राति के लिये वोट मांगनेकी या अर्जी तथा मल्लयुद्ध देख रहा था। वह दोनों बच्चोंकी बातें देनेकी ज़रूरत नहीं है,वह तो जन्मसिद्ध न्यायाधीश है। सुनकर उनकी कल्पनाशक्ति तथा युक्तिवाद पर खुश यह मौजूदा यावत् विरोधिदृष्टि-म्प मुद्दई मुद्दायलोका होकर भी उम बौद्धिकवाद के फलस्वरूप होने वाली मारउचित फैमला करने वाली है। उदाहरणार्थ-देवदत्त पीट-हिंमास बहुत दुग्वी हुआ। उसने दोनों लड़कोंको और यज्ञदत्त मामा-फयाके भाई भाई हैं । देवदत्त बुलाकर धीरेसे वस्तुस्वरूप दिखा कर समझाया किरामचन्द्रका लड़का है-और यज्ञदत्त भानजे । देवदत्त बेटा यज्ञदत्त ! तुम तो बहुत ठीक कहते हो, मैं तुम्हारा Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण ? तो मामा हूँ, पर केवल मामा ही तो नहीं हूँ देवदत्तका को स्थान ही नहीं है । इस मध्यस्थताका निर्वाह उत्तरपिता भी हूँ । इसी तरह देवदत्तसे कहा-बेटा कालीन प्राचार्योंने अंशतः परपक्ष-खण्डनमें पड़कर भले देवदत्त ! तुमने भी तो टीक कहा, मैं तुम्हारा दरअसल ही पूर्णरूपसे न किया हो और किसी अमुक श्राचार्य के पिता हूँ, पर केवल पिता ही तो नहीं हूँ, यज्ञदत्तका फैसलेमें अपीलकी भी गुंजाइश हो, पर वह पुनीत मामा भी हूँ । तात्पर्य यह कि उस समन्वयदृष्टि से दोनों दृष्टि हमेशा उनको प्रकाश देती रही और इमी प्रकाशके बच्चोंके मनका मैल निकल गया और फिर वे कभी भी कारण उन्होंने परपक्षको भी नयदृष्टिसे उचित स्थान पिता और मामाके नारण नहीं झगड़े। . दिया है। जिस प्रकार न्यायाधीशके फैसलेके उपक्रममें ___ इस उदाहरणसे समझमें आ सकता है कि हर उभयपक्षीय दलीलोंके बलाबलकी जाँचमें एक दूसरेकी एक एकान्तके समर्थनसे वस्तुके एक एक अंशका श्रा- दलीलोंका यथासंभव उपयोग होता है, ठीक उसी तरह शय लेकर गढ़ी गई दलीलें तब तक बराबर चाल रहेगी जैनदर्शनमें भी इतरदर्शनोंके बलाबलकी जाँचमें और एक दूसरेका खंडन ही नहीं किन्तु इसके फलस्वरूप एक दूमरेकी युक्तियोंका उपयोग किया गया है । अन्नमें रागद्वेष हिंसाकी परम्परा बराबर चलेगी जब तक कि अनेकान्तदृष्टिस उनका ममन्वय कर व्यवहार्य फैमला भी अनेकान्तदृष्टिसे उनका वास्तविक वस्तु स्पर्शी समाधान दिया है । इस फैसलेको मिमलें ही जैनदर्शनशास्त्र हैं। न हो जाय । अनेकान्तदृष्टि ही उन एकान्त पक्षीय अनेकान्त दृष्टिकी व्यवहाराधारता कल्पनाओंकी चरमरेखा बनकर उनका समन्वय कगती बात यह है कि-महावीर पूर्ण दृढ अहिंसक व्यक्ति है । इसके बाद नो बौद्धिक दलीलोंकी कल्पनाका स्रोत थे । उनको बातकी अपेक्षा कार्य अधिक पसन्द था । अपने श्राप सूग्व जायगा । उस ममय एक ही मार्ग जब तक हवाई बातोंस कार्योपयोगी व्यवहार्य वस्तु न रह जायगा कि-निर्णीत वस्तुतत्त्वका जीवन-शोधनमें निकाली जाय तब तक वाद तो हो सकता है, कार्य नहीं। उपयोग किया जाय। मानस अहिंसाका निर्वाह तो अनेकान्तदृष्टिके बिना न्यायाधीशका फैमला एक एक पक्षके वकीलो. खरविषाण की तरह असंभव था । अतः उन्होंने मानम द्वारा संकलित स्वपन समर्थन की दलीलोंकी फाइलोंकी अहिमाका मूल ध्रुवमन्त्र अनेकान्तदृष्टिका आविर्भाव तरह श्राकारमें भले ही बड़ा न हो, पर उसमें वस्तुस्पर्श, किया । वे मात्र बुद्धिजीवी या कल्पनालोकमें विचरण व्यावहारिकता एवं सूक्ष्मता अवश्य रहती है । और यदि करनेवाले नहीं थे, उन्हें तो सर्वाङ्गीण अहिंसा प्रचारका उममें मध्यस्थदृष्टि–अनेकान्तदृष्टि-का विचारपूर्वक सुलभ रास्ता निकालकर जगतको शक्तिका सन्देश देना उपयोग किया गया हो तो अपीलकी कोई गुंजाइश ही था। उन्हें शुष्क मस्तिष्क के कल्पनात्मक बहुव्यायामकी नहीं रहती। इसी तरह एकान्तके समर्थनमें प्रयुक्त. अपेक्षा सत्हृदयसे निकली हुई छोटीसी आवाज़की दलीलोंके भंडारभूत इतरदर्शनोंको तरह जैनदर्शनमें कीमत थी तथा वही कारगर भी होती है । यह ठीक भी कल्पनाओंका कोटिक्रम भले ही अधिक न हो और है कि-बुद्धिजीवी वर्ग, जिसका प्राचारसे कोई उसका परिमाण भी उतना न हो, पर उसकी वस्तु सम्पर्क ही न हो, बैठे बैठे अनन्त कल्पनाजालकी रचना स्पर्शिता, न्यावहारिकता एवं अहिंसाधारतामें तो सन्देह कर सकता है और यही कारण है कि बुद्धिजीवी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] जैनदृष्टिका स्थान तथा उसका आधार वर्गके द्वारा वैदिकदर्शनोंका खूब विस्तार हुआ । पर कान्तदृष्टि ही व्यावहारिक मार्ग निकाल सकती है। कार्यक्षेत्रमें तो कल्पनाओंका स्थान नहीं है, वहाँ तो इस तरह महावीरकी अहिंसात्मक अनेकान्तदृष्टि व्यवहार्यमार्ग निकाले बिना चारा ही नहीं है। अने- ही जैनदर्शनका मध्यस्तम्भ है । यही जैनदर्शनकी जान कान्तदृष्टि जिसे हम जैनदर्शनकी जान कहते हैं, एक वह है। भारतीय दर्शनशास्त्र सचमुच इस ध्रुवसत्यको पाए व्यावहारिक मार्ग है जिससे मानसिक वाचनिक तथा बिना अपूर्ण रहता। पूर्वकालीन युगप्रतीक स्वामी कायिक अहिंसा पूर्णरूपसे पाली जा सकती है। समन्तभद्र तथा सिद्धसेन श्रादि दार्शनिकोंने इसी पुण्य उदाहरण के लिए राजनैतिक क्षेत्रम महात्मा गान्धी- रूपा अनेकान्तदृष्टि के समर्थनद्वारा सत् अमत्, नित्याको ही ले लीजिए-आज काँग्रेसमें रचनात्मक कार्य करने नित्य, भेदाभेद, पुण्य-पाप, अद्वैत-द्वैत, भाग्य-पुरुपार्थ, वाले गांधी-भक्तोंके सिवाय समाजवादी, साम्यवादी, अादि विविध वादोंमें सामञ्जस्य स्थापित किया । मध्यवर्गवादी, विरोधवादी एवं अनिर्णयवादी लोगोंका जमाव कालीन अकलंक, हरिभद्रादि प्राचार्योंने अंशतः परपक्षहो रहा है । सब वादी अपने अपने पक्षके समर्थनमें खंडन करके भी उक्त दृष्टिका विस्तार एवं संरक्षण पर पर उत्साह तथा बुद्धिबलस लोकतन्त्रकी दुहाई किया । इसी दृष्टिके उपयोगके लिए, समभंगी, नय, देकर तोंका उपयोग करते हैं । देशके इस बौद्धिक निक्षेप श्रादिका निरूपण हुआ है। विकाम एवं उत्साहसे महात्मा जी कुछ सन्तोषकी सांस भगवान् वीरने जिस उद्देश्यसे इस श्रेयःस्वरूप भले ही लेते हों, पर मात्र इतनेस तो देशकी गाड़ी आगे अनेकान्तदृष्टिका प्रतिपादन किया था, खेद है कि आज नहीं जाती। मभी वादियाँस जब गान्धीजी कहते हैं हम उसे भुला बैठे हैं ! वह तो शास्त्रसभामें सुननेकी कि-भाई, चरखा अादि हम एक तरफ रख देते हैं, ही वस्तु रह गई है ! उसका जीवनसे कोई सम्बन्ध ही तुम अपने वादोंस कुछ कार्यक्रम तो निकालो, जिमपर नहीं रहा !! यही कारण है कि आज समाजमें विविध अमल करनेसे देश आगे बढ़े । बम, यहीं सब वादियोंके संस्थाएँ एक दूसरे पर अनुचित प्रहार करती हैं। विनर्क लंगड़ा जाते हैं और वे विरोध करने पर भी महा- चारोंके ममन्वयकी प्रवृत्ति ही कुण्ठित हो रही है ! हम त्मा गीकी कार्यार्थिताकी दाद देते हैं । अनेकान्तदृष्टि यदि मचमुच वीरके अनुगामी होना चाहते है तो हमें महात्माको सब वादियोंमें कार्याधारसे सामञ्जस्यका मौजदा हरएक प्रश्न पर अनेकान्तदृष्टि से विचार करना गस्ता निकालना ही पड़ता है। उनके शन्द परिमित होगा । अन्यथा, हमारा जीवन दिन-ब दिन निस्तेज पर वस्तुस्पर्शी एवं व्यवहार्य होते हैं, उनमें विरोधियोंक होता जायगा और हम विविध पन्धों में बंटकर विनाशकी नर्कोका उचित आदर तथा उपयोग किया जाता है। और नले जायेंगे। इसीलिए गान्धीजी कहते हैं कि-'मैं वादी नहीं हूँ कारी या लेख गत वीर-शासन-जयन्तीके अवसर पर हूँ, मुझे वादीगर न कहकर कारीगर कहिए, गान्धीवाद वीरसेवामन्दिर, सरसावामें पढ़ा गया था। कोई चीज़ नहीं है ।' तात्पर्य यह कि कार्यक्षेत्रमें अने. -सम्पादक -~ EHReim Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीनसंवाद (जालमें मीन ) 'क्यों मीन ! क्या सोच रहा पड़ा तु! या तो विडाल-व्रत ज्यों कथा है, ___देखे नहीं मृत्यु समीप आई ! ___या यों कहो धर्म नहीं रहा है। बोला तभी दुःख प्रकाशता वो पृथ्वी हुई वीर-विहीन सारी, ___"सोचूँ यही, क्या अपराध मेरा !! स्वार्थान्धता फैल रही यहाँ वा ॥ [ ] न मानवोंको कुछ कष्ट देता, बेगारको निन्द्य प्रथा कहें जो, नहीं चुराता धन्य-धान्य कोई । व भी करें कार्य जघन्य ऐसे ! असत्य बोला नहिं मैं कभी भी, आश्चर्य होता यह देख भारी, ___ कभी तकी ना वनिता पराई ।। 'अन्याय शोकी अनिायकारी !!' संतुष्ट था स्वल्य विभतिमें ही, कैसे भला वे स्व-अधीन होंगे ? ईघृणा थी नहिं पास मेरे । स्वराज्य लेंगे जगमें कभी भी ? नहीं दिखाता भय था किसीको, करें पराधीन, सता रहे जो, नहीं जमाता अधिकार कोई ॥ हिसाव्रती होकर दूसरोंको !! विरोधकारी नहीं था किसीका, भला न होगा जग में उन्होंकानिःशस्त्र था, दीन-अनाथ था मैं ! बुरा विचारा जिनने किसी का ! स्वच्छन्द था केलि करू नदीमें, न दुष्कृतोंसे कुछ भीत हैं जो, रोका मुझे जाल लगा वृथा ही !! सदा करें निर्दय कर्म ऐसे !! [१२] खींचा, घसीटा, पटका यहाँ यों मैं क्या कहूँ और, कहा न जाता ! ___ 'मानो न मैं चेतन प्राणि कोई ! __ हैं कराठमें प्राण, न बोल पाता !! होता नहीं दुःख मुझे ज़रा भी ! छुरी चलेगी कुछ देर में ही ! हूँ काष्ठ पाषाण-समान ऐसा !!' स्वार्थी जनोंको कत्र तर्स आता !!" [१३] सुना करूं था नर धर्म ऐसा यों दिव्य-भाषा सुन मीनकी मैं, हीनापराधी नहि दंड पाते । धिकारने खूब लगा स्वसत्ता । न युद्ध होता अविरोधियोंसे. हुआ सशोकाकुल और चाहा, न योग्य हैं वे वधके कहाते॥ दंऊ छुड़ा बन्ध किसी प्रकार ।। [१४] [७] ( रक्षा करें वीर सुदुर्बलोंकी, पै मीनने अन्तिम श्वास खींचा ! निःशस्त्र शस्त्र नहीं उठाते। मैं देखता हाय ! रहा खड़ा ही !! ३ बातें सभी झठ लगे मुझे वो, गंजी ध्वनी अम्बर-लोकमें यों___विरुद्ध दे दृश्य यहाँ दिखाई ॥ 'हा ! वीरका धर्म नहीं रहा है !! -युगबीर' Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-शासनकी विशेषता [ले०-श्री अगरचन्दजी नाहटा ] गवान् महावीरका पवित्र शासन अन्य सभी दर्शनों- वीरशासन-द्वारा विश्व-फल्माणका कितना घनिष्ट से महती विशेषता रखता है। महावीर प्रभुने सम्बन्ध है ? तत्कालीन परिस्थितिमें इस शासनने क्या अपनी अखंड एवं अनुपम साधना द्वारा केवलज्ञान काम कर दिखाया ? यह भली भाँति तभी विदित होगा लाभकर विश्वके सामने जो नवीन श्रादर्श रक्ग्वे उनकी जब हम उस समयके वातावरणसे, सम्यक् प्रकारसे उपयोगिता विश्वशान्तिके लिये त्रिकालाबाधित है। परिचित हो जायँ । अतः सर्व प्रथम तत्कालीन परिउन्होंने विश्व कल्याणके लिये जो मार्ग निर्धारित किये स्थितिका कुछ दिग्दर्शन करना आवश्यक है। वे इनने निर्धान्त एवं अटल सत्य हैं कि उनके बिना प्राचीन जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों के अनुशीलनमे ज्ञान सम्पूर्ण श्रामविकास असंभव है। होता है कि उस समय धर्मके एकमात्र ठेकेदार ब्राह्मण वीर प्रभुने तत्कालीन परिस्थितिका जिस निर्भीकना- लोग थे, गुरुपद पर वे ही 'सर्वेसर्वा' थे। उनकी प्राज्ञा से सामना कर कायापलट कर दिया वह उनके जीवन- राजाज्ञासे भी अधिक मूल्यवान समझी जाती थी, की असाधारण विशेषता है । सर्वजनमान्य एवं सर्वत्र राजगुरु भी तो वे ही थे। अनः उनका प्रभाव बहुत प्रचलित भ्रामक सिद्धान्तों एवं क्रियाकाण्डोंका विरोध व्यापक था । सभी सामाजिक रीति-रस्में एवं धार्मिक करना माधारण मनुष्य का कार्य नहीं; इसके लिये बहुत क्रियाकाण्ड उन्हींके तत्वावधानमें होते थे, और इसलिये बड़े साहस एवं प्रात्मबलकी आवश्यकता है। वह प्रात्म- उनका जातीय अहंकार बहुत बढ़ गया था, वे अपनेको बल भी महाकठिन साधनाद्वारा ही प्राप्त होता है। सबसे उच्च मानने थे । शुदादि जातियोंके धार्मिक एवं भगवान् महावीरका साधक जीवन * उसी का विशिष्ट सामाजिक अधिकार प्रायः सभी छीन लिये गये थे, प्रतीक है । जिस प्रकार उनका जीवन एक विशिष्ट इतना ही नहीं वे उनपर मनमाना अत्याचार भी करने साधक जीवन था उसी प्रकार उनका शासन भी लगे थे । यही दशा मुक पशुओंकी थी, उन्हें यज्ञयागादिमहती विशेषता रखता है । इसी विषय पर इस में ऐसे मारा जाता था मानो उनमें प्राण ही नहीं है, लघु लेख में संक्षिप्तरूपसे विचार किया जाता है। और इसे महान् धर्म समझा जाता था । वेद-विहिन मा हिसा हिंसा नहीं मानी जाती। माधक जीवनका मुन्दर वर्णन 'याचारांग' नामक प्रथम अंगमूत्र में बहन ही इधर बीजातिके अधिकार भी छीन लिये गये विश्वसनीय एवं विशदरूपमे मिलता है । पाटकांम थे । पुरुष लोग उनपर जो मनमाने अत्याचार करते थे उक्त सूत्र के अंतिम भागको पढ़नेका विशेष अनुरोध है। वे उन्हें निर्जीवकी भान्ति सहन कर लेने पड़ते थे। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ उनकी कोई सुनाई नहीं थी। धार्मिक कार्योंमें भी जाताथा । कल्याणपथमें विशेष मनोयोग न देकर लोग उनको उचित स्थान न था अर्थात् स्त्री जाति बहुत कुछ ईश्वरकी लम्बी लम्बी प्रार्थनाएँ करनेमें ही निमग्न थे। पददलित सी थी। और प्रायः इसी में अपने कर्तव्यको इतिश्री' समझते थे। __ यह तो हुई उस नीच नातीयवादकी बात, इसी इस विकट परिस्थिति के कारण लोग बहुत प्रशान्तिप्रकार वर्णाश्रमवाद भी प्रधान माना जाता था। सा- भोग कर रहे थे । शूद्रादि तो अत्याचारोंसे ऊब गये थे। धनाका मार्ग वर्णाश्रमके अनुसार ही होना आवश्यक उनकी प्रान्मा शान्ति-प्राप्तिके लिये म्याकुल हो उठी समझा जाता था। इसके कारण सरचे वैराग्यवान थी। वे शान्तिकी शोध थातुरमे होगये थे। भगवान व्यक्तियोंका भी तृनीयाश्रमके पूर्व सन्यास ग्रहण उचित महावीरने अशान्तिके कारणों पर बहुत मननकर,शान्तिनहीं समझा जाता था। के वास्तविक पथका गंभीर अनुशीलन किया । उन्होंने इसी प्रकार शुष्क क्रिया काण्डोंका उस समय बहुत पूर्व परिस्थितिका कायापलट किये बिना शान्ति-लाभको प्राबल्य था। यज्ञयागादि म्वर्गके मुख्य साधन माने असम्भव समझ, अपने अनुभूत सिद्धान्तों-द्वारा क्रान्तिजाते थे, बाह्य शुद्धिकी ओर अधिक ध्यान दिया जाता मचादी । उन्होंने जगतके बातावरणकी कोई पर्वाह न था । अन्तरशुद्धिकी भोरमे लोगोंका लक्ष्य दिनोंदिन कर साहसके साथ अपने सिद्धान्तका प्रचार किया। हटता जा रहा था। स्थान स्थान पर तापस लोग उनके द्वारा विश्वको एक नया प्रकाश मिला । महावीरतापसिक बाह्य कष्टमय क्रियाका किया करते थे और के प्रति जनताका पाकर्षण क्रमशः बढ़ता चला गया । जन साधारणको उनपर काफी विश्वास था। फलनः लाखों व्यक्ति वीरशासनकी पवित्र छत्र-छाया में वेद ईश्वर कथित शाम है, इस विश्वासके कारण शान्ति लाभ करने लगे। वेदाज्ञा सबसे प्रधान मानी जाती थी, अन्य महर्षियोंके वीर शासनकी सबसे बड़ी विशेषता विश्वप्रेम' है। मत गौण थे । और वैदिक क्रियाकाण्डों पर लोगोंका इस भावना-द्वारा महिंसाको धर्ममें प्रधान स्थान मिला। बहुत अधिक विश्वास था । शास्त्र संस्कृत भाषा में होनेसे सब प्राणियोंको धार्मिक अधिकार एक समान दिये साधारण जनता उनसे विशेष लाभ नहीं उठा सकती गये । पापी से पापी और शुद्ध एवं स्त्रीजातिको मुक्तिथी । वेदादि पढ़नेके एममात्र अधिकारी ब्राह्मण ही माने तकका अधिकारी घोषित किया गया और कहा गया जाते थे। कि मोक्षका दर्वाज़ा सबके लिये स्वुला है, धर्म पवित्र ईश्वर एक विशिष्ट शक्ति है, संसारके सारे कार्य वस्तु है, उसका जो पालन करेगा वह जाति अथवा उसीके द्वारा परिचालित हैं, सुख-दुख व कर्म फलका कर्ममे चाहे कितना ही नोचा क्यों न हो, अवश्य पवित्र वाता ईश्वर ही है, विश्वकी रचना भी ईश्वरने ही की हो जायगा । साथ ही जातिवादका जोरोंसे खंडन किया है, इत्यादि पाने विशेषरूपसे सर्वजनमान्य थीं । इनके गया, उप और नीचका सच्चा रहस्य प्रकट किया गया कारण लोग स्वावलम्बी न होकर केवल ईश्वरके और उपता-नीचताके सम्बन्धमें बातिके बदले गुणोंको भरोसे बैठे राफर मास्मोतिके सच्चे मार्गमें प्रयवशील प्रधान स्थान दिया गया । सबा ब्राह्मण कौन है, इसनहीं थे। मुक्ति खाभ ईश्वरकी कृपा पर ही निर्भर माना पर विशद व्याख्या की गई, जिसकी कुछ रूपरेखा जैनों. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] वीरशासनकी विशेषता - के 'उत्तराध्ययन सूत्र' एवं बौद्धोंके 'धम्मपद' में पाई अहिंसाकी व्याख्या वीर शासन में जिस विशद रूपजाती है। लोगोंको यह सिद्धान्त बहुत संगत और में पाई जाती है, किसी भी दर्शनमें वैसी उपलब्ध नहीं सम्य प्रतीत हुआ, फलतः लोकसमूह-झुण्डके झुण्ड है। विश्वशान्तिके लिये इसकी कितनी अावश्यकता है महावीरके उपदेशोंको श्रवण करनेके लिये उमड पड़े। यह भगवान् महावीरने भली भान्ति सिद्ध कर दिखाया। उन्होंने अपना वास्तविक व्यक्तित्व-लाभ किया। वीर- कठोरम कठोर हृदय भी कोमल होगये और विश्वप्रेमकी शासनके दिव्य पालोकमे चिरकालीन अज्ञानमय भ्रान्त अखण्डधारा चारों ओर प्रवाहित हो चली। धारणा विलीन हो गई । विश्वने एक नई शिक्षा प्राप्त वीरशासनमें वर्णाश्रमवादको अनुपयुक्त घोषित की, जिसके कारण हजारों शूद्रों एवं लाखों स्त्रियोंने किया गया । मनुष्यके जीवनका कोई भरोसा नहीं। श्रामोद्वार किया। एक सदाचारी शूद्र निर्गुण ब्राह्मणसे हज़ारों प्राणी बाल्यकाल एवं यौवनावस्थामें मरणको लाखगुणा उच्च है अर्थात् उच्च नीचका माप जातिमे न प्राप्त हो जाते हैं, अतः आश्रमानुसार धर्म पालन उचित होकर गुण-सापेक्ष है । कहा भी है-.. नहीं कहा जा सकता। सब व्यक्तियोंका विकास भी 'गुणाः पजास्थानं गुणिषु न च लिगं न च वयः' एक समान नहीं होता। किसी प्रास्माको अपने पूर्व धार्मिक अधिकारों में जिस प्रकार सब प्राणी संस्कारों एवं साधनाके द्वारा बाल्यकालमें ही सहज समान हकदार हैं । उसी प्रकार प्राणीमात्र सुखाकांक्षी हैं, वैराग्य हो जाता है-धर्मकी ओर उसका विशेष झुकाव मय जानेके इच्छुक हैं; मरणमे सबको भय एवं कष्ट है, होता है; नव किसी जीवको वृद्ध होनेपर भी वैराग्य श्रतएव प्राणिमात्र पर दया रखना वीर शासनका मुख्य नहीं होता। इस परिस्थिनिमें वैराग्यवान बालकको सिद्धान्त है। इसके द्वारा, यज्ञयागादिमें असंख्यमूक गृहस्थाश्रम पालनके लिये मजबूर करना अहितकर है पशुश्रीका जो आये दिन संहार हुआ करता था, वह और वैराग्यहीन वृद्धका संन्यासग्रहण भी प्रसार है। सर्वथा रुक गया। लोगोंने इस सिद्धान्तकी सचाईका अतः पाश्रमव्यवस्थाके बदले धर्मपालन योग्यता पर अनुभव किया कि जिस प्रकार हमें कोई मारनेको कहता निर्भर करना चाहिये । हाँ, योग्यताकी परीक्षामें अमाहै तो हमें उस कथन मात्रसे कष्ट होता है उसी प्रकार वधानी करना उचित नहीं है। हम किसीको सताएंगे तो उसे अवश्य कष्ट होगा एवं इसी प्रकार ईश्वरवादके बदले वीरशासनमें कर्मपरपीडनमें कभी धर्म हो ही नहीं सकता । मूकपशु चाहे वाद पर जोर दिया गया है । जीव स्वयं कर्मका कर्ता मुग्वमे अपना दुख व्यक्त न कर सकें पर उनकी चेष्टाओं- है और वस्तुस्वभावानुमार स्वयं ही उसका फल भोगता द्वारा यह भली भांति ज्ञान होता है कि मारने पर उन्हें है। ईश्वर शुद्ध बुद्ध है, उसे मांसारिक झंझटोंसे कोई भी हमारी भान्ति कष्ट अवश्य होता है । इस निर्मल मतलब नहीं । वह किसीको तारनेमें भी समर्थ नहीं । उपदेशका जनसाधारणपर बहुन गहरा प्रभाव पड़ा और यदि लम्बी लम्बी प्रार्थनामे ही मुक्ति मिल जाती तो ब्राह्मणों के लाख विरोध करनेपर भी यज्ञयागादिकी हिंसा मंमारमें पाज अनन्त जीव शायद ही मिलने । जीव बन्द हो ही गई । इस सिद्ध न्नमे अनन्त जीवोंका रक्षण अपने भले बुरे कर्म करने में स्वयं स्वतन्त्र है। पौरुषके हुमा और असंख्य व्यकियोंका पापसे बचाव हुमा। बिना मुक्ति लाभ सम्भव नहीं। अतः प्रत्येक प्राणीको Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ अपना निजस्वरूप पहिचान कर अपने पैरोंपर खड़े होने- समयमें भी वर्तमानकी भान्ति अनेकों मत-मतान्ततर का अर्थात स्वावलम्बी बनकर आत्मोद्धार करनेका सतत प्रचलित थे । इस कारण जनता बड़े भ्रम में पड़ी थी प्रयत्न करना चाहिये । ईश्वर न तो सृष्टि रचयिता है कि किसका कहना सत्य एवं मानने योग्य है और किसऔर न कर्मफल-दाता। का असत्य ? मत प्रवर्तकोंमें सर्वदा मुठभेड़ हुआ करती शुष्क क्रियाकारों और बाह्य शुद्धिके स्थान पर थी। एक दूसरेके प्रतिद्वन्दी रहकर शास्त्रार्थ चला करते वीर शासनमें अन्तरशुद्धिपर विशेष लक्ष्य दिया गया थे। आपसी मात्सर्यसे अपने अपने सिद्धान्तों पर प्रायः है। अन्तरशुद्धि साध्य है बाह्यशुद्धि साधनमात्र । सब अड़े हुए थे। सत्यकी जिज्ञासा मन्द पड़ गई थी। तब अतः साध्यके लचय-विहीन क्रिया फलवती नहीं होती। भगवान महावीरने उन सबका समन्वय कर वास्तविक केवल जटा बढ़ा लेने, राख लगा लेने, नित्य स्नान सत्यप्राप्तिके लिये 'अनेकान्त' को अपने शासनमें विकर लेने व पंचाग्नि तपने प्रादिसे सिद्धि नहीं मिल शिष्ट स्थान दिया, जिसके बारा सब मतोंके विचारोंको सकती । अनः क्रियाके साथ भावोंका होना नितान्त समभावसे तोला जा सके, पचाया जा सके एवं सत्यको आवश्यक है। प्राप्त किया जा सके । इस सिद्धान्त द्वारा लोगोंका बड़ा वीर प्रभुने अपना उपदेश जनसाधारणकी भाषामें कल्याण हुआ । विचार उदार एवं विशाल हो गये, ही दिया; क्योंकि धर्म केवल पण्डितोंकी संपत्ति नहीं, सत्यकी जिज्ञासा पुनः प्रतिष्ठित हुई, सब वितण्डावाद उसपर प्राणिमात्रका समान अधिकार है। यह भी वीर- एवं कलह उपशान्त हो गये । और इस तरह वीरशाशासनकी एक विशेषता है । उनका लक्ष्य एकमात्र सनका सर्वत्र जय-जयकार होने लगा। विश्वकल्याणका था। यह लेख वीरसेवामन्दिर, मरमावा में वीरशासनसूत्रकृतांग सूपसे रपष्ट है कि भगवान महावीरके जयन्तीक अवमर पर पढ़ा गया था। सफल जन्म मत झिझको, मत दहलाओ, यदि बनना महामना है ! जो नहीं किया वह 'पर' है, कर लिया वही 'अपना' है !! दो-दिन का जीवन मला, फिर खंडहर-सी नीरवतायश-अपयश बस, दो ही हैं, वाक़ी सारा सपना है !! दो पुण्य-पाप रेखाएँ, दोनों ही जगकी दासी ! है एक मृत्यु-सी घातक, दूसरी सुहृद् माता-सी !! जो ग्रहण पुण्य को करता, मणिमाला उसके पड़तीअपनाता जो पापोंको, उसकी गर्दनमें फाँसी !! इस शब्द कोपमें कंवल, है 'आज' न मिलता 'कल है ! 'कल' पर जो रहता है वह, निरुपाय और निर्बल है !! वह पराक्रमी-मानव है, जो 'कल' को 'आज' बनाकर'भगवत् जैन क्षणभंगुर विश्व सदनमें, करता निज जन्म सफल है !! Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-शासनमें स्त्रियोंका स्थान [ले०-श्रीमती सौ० इन्दुकुमारी जैन 'हिन्दीरब' ] चाजसे करीब ढाई हजार वर्ष पहले जब कि इस दूर किया । फलतः आपके धर्मसंघमें पुरुषों की अपेक्षा का देशका वातावरण दृषित हो गया था, कोरे नियोंकी संख्या बहुत अधिक रही। क्रियाकाण्डोंमें ही धर्म माना जाता था, वैदिक मिशनके एक बात यहां पर और भी नोट कर लेनेकी है, पोपोंने स्त्रियों और शूद्रोंके धार्मिक अधिकार हड़प लिये और वह यह कि भारतमें तात्कालिक विषम परिस्थिथे. वेदमन्त्र पढ़ने या सुनने पर उन्हें कठोर प्राणदण्ड तियोंको सुधारनेके लिये उस समय एक दूसरा सम्प्रदाय नक दिया जाता था-वेदमन्त्रका उच्चारण भी स्त्रियाँ भी उठ खड़ा हुआ था, जिसके प्रवर्तक महात्मा बुद्ध थे नहीं कर सकती थीं; तब स्त्रीसमाजकी मानसिक दुर्ब- और जो अपने स्वतंत्र विचारोंके द्वारा उन प्रचलित लनाको देखकर धर्मके ठेकेदारोंने जो जो जुल्म किये उन व्यर्थ के अधर्मरूप क्रियाकाण्डोंका विरोध करते थे, वर्णमयको लेखनीमे लिग्वना कठिन ही नहीं किन्तु असंभत्र व्यवस्था एवं जानिभेद नथा याशिक हिंसाके विल्ड है । उन्हें केवल बच्चे जननेकी मशीन अथवा भोगकी अहिंमाका उपदेश देने थे । इतना सब कुछ होने हुए एक चीज़ ही समझ लिया गया था. जिससे स्पष्ट मालुम भी उन्हें सियोंको अपने संघमें लेने में संकोच एवं भय होता है कि उस समय स्त्रीसमाजका भारी अधःपतन अवश्य था, वे मद्रि पयक विरोधमे घबराते थे, इसीलिये होचुका था । बीसमाज उस समय अपने जीवनकी देशको उक्त परिस्थिनिका मुकाबला करने के लिये वे मिमकियाँ ले रहा था, उसमें न बल था न साहम और तय्यार नहीं हुए । किन्तु कुछ समय बाद वीरशासनमें न अध्यवसाय, मानो खीसमाज पननकी पराकाष्टाको त्रियोंका प्राबल्य देवकर उसके परिणामस्वरूप तथा पहुँच गया था। अपने प्रधान शिष्य भानन्द कौन्स्पायनके विशेष भाग्रह ऐसी परिस्थितिमें भगवान महावीरने जन्म लेकर करने पर महारमा बुद्धने अपने संघमें खियोंको लेना संसारमें धर्मके नाम पर होनेवाले अधर्मको, जाति तथा स्वीकार किया था । वर्णभेदकी अंधपरम्पराको और मिथ्या रूढ़ियों के साम्रा- इन्हीं सब विशेषताओं के कारण भगवान वीरका शा. ज्यको छिन्न भिन्न किया, उनके प्रवर्तकोंको समझाया मन चमक उठा था, उसमें जातिभेद और वर्णभेदकीगन्ध और जनसमूहके अंधविश्वासको हटाकर उनमें बल तक भी नहीं थी और न ऊँच-नीच भाविकी विषमता। नथा माहसका संचार किया। साथ ही, शूद्रों, वियों उनकी समवसरण सभामें सभीको समान एटिस देखा और पशुओं पर होनेवाले विवेकहीन अत्याचारों- जाता था और इसीमे ममी बो-पुरुष तथा पशु पनी जुल्मोंको दूर किया और सियों को अपने चतुर्विध संघर्मे तक अपनी अपनी योग्यताके अनुसार वीरके शासनमें खास स्थान लेकर उनके धर्ममेवनकी सब रुकावटोंको रहकर अपना अपना प्रात्म-विकास कर सकते थे। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष ३, किरण १ भगवान महावीरने अपनी इस उदारना, निर्भीकना एवं अन्याय प्रतीत होता है। जैनधर्ममें तो पहलेमे ही हृदयकी विशालताके कारण ही उस समयकी विकट स्त्रियोंने प्रायिका प्रादिको दोषा लेकर प्राचारांगकी परिस्थितियों पर विजय प्राप्त की थी। पद्धतिके अनुसार यथाशक्ति नपश्चरणादि कर देवेन्द्रादि इसके सिवाय, भगवान् महावीरने अहिंसा और पद प्राप्त किये हैं। अनेकान्तको अपने जीवन में उतारा था, उनकी प्रान्मा मच पूछिये तो धर्म किमी एक जाति या सम्प्रदायशुद्धि तथा शक्तिको पराकाष्ठाको---चरम सीमाको -- की मीगम नहीं है, वह तो वस्तुका स्वभाव है उसे पहुँच चुकी थी और उनका शासन दया दम, त्याग तथा धारण करने और उसके द्वारा प्रान्माका विकास करनेका समाधिकी तत्परताको लिये हुए था। इसी लिये विरोधी मभी जीवोंको अधिकार है भले ही कोई जीव अपनी प्रास्मानों तथा तत्कालीन जनसमूह पर उनका इतना अल्पयोग्यताके कारण परा अात्मविकास न कर सके। अधिक एवं गहरा प्रभाव पड़ा था कि वे लोग अधिक परन्तु इससे उसके अधिकारोंको नहीं छीना जा सकता। संख्या में अपने उन अधर्ममय शुष्क क्रियाकाण्डोंको जो धर्म पतितोंका उद्धार नहीं कर सकता---उन्हें ऊँचा छोड़कर तथा कदाग्रह और विचारसंकीर्णताकी जंजीरों- नहीं उठा सकता-वह धर्म कहलानेके योग्य ही नहीं। को नोड़कर बिना किसी हिचकिचाकटके वीर भगवानकी जैनधर्म में धर्मकी जो परिभाषा श्राचार्य समन्तभद्रने शारणमें पाये, और उनके द्वारा प्ररूपिन जैन धर्मके बतलाई है वह बड़ी ही सुन्दर है। उसके अनुसार जो नत्वोंका अभ्यास मनन एवं नदनुकूल वर्नन करके अपना संमारक प्राणियोंको दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुग्व में भारमाके विकास करने में तत्पर हुए। धारण करे उये 'धर्म' कहते हैं, अथवा जीवकी सम्यग्दवीरशासनमें स्त्री और पुरुषोंको धार्मिक अधिकार र्शन. सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप परिणतिविशेष समानरूप प्राप्त है । जिस तरह पुरुष अपना योम्यना- को 'धर्म' कहने हैं । इस परिणतिकं द्वारा ही जीवाल्मा नुसार श्रावक और मुनिधर्मको धारण कर प्रात्मकल्याण आत्म उद्धार करनेमें सफल हो सकता है। कर सकते हैं उसी तरहमे स्त्रियाँ भी अपना योग्यतानुसार परन्तु ग्वेद है कि आज हम भगवान् महावीरके श्राविका और आर्यिकाके व्रतोंका पालनकर श्रात्मपवित्र शासनको भूल गये । इसी कारण उनके महत्वकल्याण कर सकती हैं। भगवान महावीरके मंघमें एक पूर्ण सन्देशसे प्राज अधिकांश जनता अपरिचित ही लाग्य श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ तथा चौदह दिखाई देती है। हमारे हृदय अन्धश्रद्धा और स्वार्थमय हजार मुनि और छत्तीस हजार प्रायिकाएँ थीं । आर्यि- प्रवृत्तियोंसे भरे हुए हैं, ईर्ण द्वेष-अहंकार प्रादि दुगुणों कामों में मुख्य पदकी अधिष्ठात्री चन्दना मनी थी। से दषित हैं। स्त्रियों के साथ आज भी प्रायः वैसा ही वीरशासनमें गृहस्थोचित कर्तव्योंका यथेष्ट रूपमे पालन व्यवहार किया जाता है जैसा कि अबसे ढाई हजार वर्ष करते हुए स्त्रियोंको धर्मसंवनमें कोई रुकावट नहीं है, पहले किया जाता था। हाँ, उसमें कुछ सुधार ज़रूर जबकि संसारके अधिकांश धर्मोमें स्त्रियोंको स्वतंत्ररूपसे हुआ है; परन्तु अभी भारतीय सी समाजको यथेष्ट स्वतधर्मसेवन करनेका थोडासा भी अधिकार प्राप्त नहीं है, न्त्रता प्राप्त नहीं हुई है। फिर भी धर्म-सेवनकी जो कुछ और जिससे उनके प्रति उन धर्मसंस्थापकोंका महान् स्वतन्त्रता मिली है उसमें यदि स्त्रीसमाज चाहे तो वह Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] नर-कंकाल अपनी बहुत-कुछ प्रगति करने में सफल हो सकता है. बनानेका भरसक प्रयत्न करो, अपने खीसमाजमें फैली किन्तु वर्तमानकी अधिकांश स्त्रियाँ अपने कर्तव्यमे हुई कुरीतियोंको दूर करने में अग्रसर बनो और अपनी अपरिचित ही है-उसे भूली हुई हैं भारत और सभी बहनोंको शिक्षिता, सभ्या तथा अपने धर्म देशको विदेशों में होने वाली विविध परिस्थितियोंसे अनभिज्ञ रक्षार्थ प्राणोंकी बलि देने वाली वीर नारियाँ बनानेका है, उन्हें नो घरकं कार्योंमे ही फुरसत नहीं मिलती, परा पूरा उद्योग करो । ऐमा करके ही हम वीर भगवान् फिर अपने उत्थान और पतनको कौन सोचे? वे और उनके शासनकी सच्ची उपासिका कहला सकेंगी ममाजमें फैली हुई मिथ्यारूढ़ियों, अन्धश्रद्धा, दम्भ, और वीरशासनके प्रचार द्वारा अपना नया जगतका द्वेष और कलह प्रादि दोषोंको दूर करना अपना कर्तव्य उद्धार करनेमें समर्थ हो सकेंगी। कम समझ सकती है ? और पसनक गर्नसे अपनेको अन्तमें एक पयको पढ़कर मैं अपना वक्तव्य समाप्त कम बचा सकती हैं ? करती हैं। श्राशा है अपने हितमें सावधान कृतज्ञ ___अतः सुज्ञ बहिनों ! उठो, और अपने कर्तव्यकी बहने वीरशासनके अपनाने और प्रचार देनेको अपना योर दृष्टिपात करो। भगवान महावीरक उपकारोंका मुग्ण्य कर्तव्य समझेगी। म्मरणकर उनके पवित्र सन्देशको दुनियाक कोने कोने में हम जाग उठीं, सब समझ गई, पहुँनानेका प्रयत्न करो और जगतको दिग्वाला दो कि अब करके कुछ दिग्वला देगी । हममें जीवन है, उन्माह है, कर्तव्यपालनकी भावना है हाँ, विश्वगगनमें एक बार फिर, जिन शासन चमका देगी ॥ और अपनी कीमके पतनका दर्द है । हम अबला नहीं यह जय लम्बिकान स्वयं वीरमवामन्दिर ता. हैं, सबला हैं और सब कुछ कर सकती हैं। माथ ही, २ जनाई को होनेवाले बारशासन-जयन्तीके जल्से पर अपनी सन्तानको शिक्षित, सुशाल और कर्तव्यपरायण पढ़कर मुनाया था । -मम्पादक नर-ककाल माँके फटे हुए अंचलसे मुंह ढक कर जो सोया है ! आँस-हीन, दरिद-नयनोंसे, जो जीवन भर रोया है !! साधन-शून्य, दुलार-दृष्टिको,अभिभावक अपना माना ! सूखी-छाती चस-चस सुख माँका जिसने पहिचाना !! घने-अभावों और व्यथाओं में पलकर जो बड़ा हुआ ! प्रकृति जननिकी कृपा-कोरसे अपने पैरों खड़ा हुआ !! सित-भविष्यकं मधु-सपनोंमें मला जो दुखकी गुरुता रुचिर कल्पनाओंकी मनमें जोड़ा करता जो कविता !!! इन्द्र-धनुष जिसकी अभिलाषा, वर्तमान जिसका रौरव ! युग-सी घड़ियाँ बिता बिना जोखोजरहा अपना वैभव ! तिरस्कार भोजन, प्रहार उपहार, भूमि जिमकी शैय्या ! धनाधियोंके दया-सलिलमें खेता जो जीवन नैय्या !! नहीं विश्वमें जिसका अपना, पद तलभ ऊपर आकाश! दुखकी घटनाओंसे परित है जिमका जीवन-इतिहास!! कौन?-कौन?-'मजदूर'कहाने वाला वह भारतका लाल! 'भगवत्' जेन छाया चित्र कहो उसको,या पुरुष, कहो या नर कंकाल !! ( ३ ) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-शासनकी पुण्य-वेला [ ले:-पं० सुमेरचन्द जैन, दिवाकर, बी. ए., एलएल. बी., न्यायतीर्थ शास्त्री ] जूदा जमाना भगवान् महावीरका तीर्थकहलाता जो भी विचारशील व्यक्ति अपने अंत:करणमें है, क्योंकि अभी वीरप्रभका ही शासन विचार करेगा, उमके चित्तमें स्वामी समन्तभद्रका वर्तमान है। उन भगवान् महावीर के प्रति अनुनि युक्तिवाद स्थान बना लेगा, और वह भी कह उठेगा, के कारण भव्य तथा भक्तजन उनके जन्म-दिवस, भगवन् ! 'नातस्त्वमसि नो महान्'-इस कारण वैराग्य-काल आदिके अवसर पर हर्ष प्रकाशन एवं ही आप हमारे लिए महान (Great) नहीं हैं। भक्ति-प्रदर्शन किया करते हैं । तात्विक रूपसे देवा और भी अनेक बाते हैं, जो भगवान महावीर जाय तो जब कैवल्य-प्राप्ति के पूर्व वे वास्तवमें के अतिरिक्त व्यक्तियों में हीनाधिक मात्रामें पाई महावीर पदको प्राप्त नहीं हो सके थे तब उनके जाती हैं। किन्तु एक विशेषता है जो भगवान् गर्भ, जन्म, वैराग्य-कल्याणकोंकी पूजा करना कहाँ महावीरमें ही पाई जाती है, और जिसके कारण तक अधिक युक्तिमंगत है, यह स्वयं मोचा जा- उनके अन्य गुण पुज अधिक दीतिमान हो उठने सकता है * । यह सच है कि भगवान महावीर के हैं। उनके विवेकचा भक्त श्रीसमंतभद्र कहते हैंबाल्यकाल आदिमें इतरजनोंकी अपेक्षा लोकोत्तरतास स्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । थी, फिर भी वह उनके विश्ववंदनीय बननका ममर्थ अविरोधो यदिष्टं ने प्रमिन्टेन न बाध्यते ॥ कारण नहीं कही जा सकती। उन चमत्कारजनक बिल्कुल ठीक बात है । भगवान् महावीर के अनिशयोंकी ओर स्वामी ममन्तभद्र-जैसे तार्किक तत्त्व-प्रतिपादनमें तर्कशास्त्रसे असंगति नहीं पाई चूड़ामणिका चित्त प्राकर्षित नहीं हुआ। इसी कारण जानी, क्योंकि उनके द्वाग प्रमपित तत्त्व प्रत्यक्षादि वे अपने देवागमस्तोत्रमें अपने हार्दिक उद्गारोंको प्रमाणोंसे अखंडित है। इस प्रकार प्रकट कर चुके हैं कि: ___ अब हमें देखना है कि प्रभुमें 'युक्तिशास्त्रा+ देवागमनभोयान-चामरादि-विभूतयः । विरोधिवाकपना' कष प्रकट हुआ, जिससे वे मायाविष्वपि दृश्यन्ते नागस्त्वमसिनो महान् ॥ लोकोत्तर एवं भुवनत्रय-प्रपूजित हो गए। *हमाग भाव यह नहीं है कि अन्य कल्याणकोंकी पूजा न की जाय । यहाँ हमारे विवेचनका लक्ष्य इतना अंतराय आदि कोका नाश कर बैशाख शुक्ला ही है कि वास्तविक पज्यताका जैसा कारण कैवल्य के ममय उत्पन्न होता है, वैसा तथा उतना महत्वपूर्ण और * यहां भगवान महावीरका नामोल्लेख प्रकरणयुक्ति संगत निमित्त अन्य ममयों में नहीं होता । नैगम वश किया गया है । यही बात अन्य जैन तीर्थंकरोंमें नयकी दृष्टिसे अन्य कल्याणकोंमें पज्यता पाती है। भी पाई जाती है। भगवन ! देयोंका आना, श्राकाशमें गमन हे भगवन् ! वह निर्दोष तो आप ही हैं, क्योंकि होना, चमर छत्रादिकी विभूतियोंका पाया जाना तो आपकी वाणी युक्ति तथा शास्त्रके अविरुद्ध है। इन्द्र नालियों में भी पाया जाता है, इसलिए इन कारणों इस अविरुद्धताका कारण यह है कि जो बात श्रापको से श्राप हमारे लिए महान् नहीं हैं। अभिमत है वह प्रत्यक्षादिसे बाधित नहीं होती। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६६ ] दशमीको कैवल्य की प्रतिष्ठा प्राप्त की थी, जिससे ज्ञेयमात्र उनके विमल ज्ञानमें विशदरूपसे श्रवभासमान होने लगे थे । क्या उस समय भगवान महावीरमें स्वामीसमंतभद्रका हेतु 'युक्ति और शास्त्र के विरुद्ध वाणी संपन्न होनेसे' प्रकटरूपसे प्रकाश में आया था ? इस विषयमें मौन ही उत्तर होगा, क्योंकि शक्ति होते हुए भी उस समय तक भगवान् की उक्त विशेषता निखिल विश्वके अनुभवगोचर नहीं हो पाई थी; कारण सर्वज्ञ होते हुए भी समुचित माधनके अभाववश उनकी दिव्यध्वनि प्रकट नहीं हुई, जिससे लोग लाभ उठाते और कृतज्ञतासूचक गुणकीर्तन करते । स्वयं मोक्षमार्ग के नेता, कर्माचल के भेत्ता तथा विश्वतत्त्व के ज्ञाताके मुखारविन्द से मुक्तिका मार्ग सुनने के भव्यात्माएँ तथा योगीजन उत्कंठित हो रहे थे, किन्तु raaraat frozariको सुननेका सौभाग्य ही नहीं मिल रहा था । ऐसी चिंतापूर्ण तथा चकित करने वाली सामग्री होने पर देवोंके अधिनायक सुरेन्द्रने अपने दिव्यज्ञानसे जाना कि भगवान मदृश महान धर्मोपदेष्टा के लिये महान् श्रोता एवं उनके कथनका अनुवाद करनेवाले गणधरदेवका अभाव है। साथ ही यह भी जाना कि इस विषयकी पात्रता इंद्रभूति गौतम नामक जैन विद्वानमें है । अतएव अपनी कार्यकुशलतासे देवेन्द्रने इंद्रभूतिको भगवान महावीरकी धर्मसभा - ममवमग्ण - की मनुष्यों में उच्चता-नीचता क्यों ? र लाकर उपस्थित किया । इतने में मानस्तंभका दर्शन होते ही इंद्रभूतिके विचारों में मार्दवभाव उत्पन्न हो गए, सारी अकड़ जाती रही और वह क्षणभरमें महावीर प्रभुकी महत्ता से प्रभावित बन गया। प्रभु वैराग्य, आत्मतेज और योगबलने ४६ गौतमके जीवन में युगान्तरकारी परिवर्तन उत्पन्न कर दिया । वे संपूर्ण परिहों का परित्याग करके प्राकृतिक परिधानके धारक जैन श्रमण बन गए और उन्होंने महावीर प्रभुकी ही मुद्रा धारण की। अपनी आत्मशक्तिके सहसा विकसित हो जाने से श्रीगौतमने अनेक प्रकार के महान् ज्ञानोंको प्राप्त किया तथा वे 'गणधर' जैसे महान् पद पर प्रतिष्ठित हो गए। इधर इतना हुआ ही था कि, उधर भगवान् महावीरको सर्वभाषात्मिका दिव्यवाणी सब प्राणियोंके कर्णगोचर होने लगी । अनेकान्त के सूर्यका प्रकाश फैलने से एकान्तका निविंड अन्धकार दूर होगया, जगतको अपने सच्चे सुधारका मार्ग दीखने लगा और यह मालूम होने लगा कि वास्तव में कर्मबंधन से छूटनेका उपाय श्रात्मशक्तिका निश्चय, उसका परिज्ञान तथा आत्मामें अखंड लीनता है । उस धर्मदेशना अर्थात शासन-तीर्थ के प्रकट होनेका प्रथम पुण्य दिन श्रावण कृष्णा प्रतिपदाका सुप्रभात था, जब संसारका भगवान् महावीरकी वास्तविक एवं लोकोत्तर महत्ता का परिज्ञान हुआ । मिध्यात्वके अंधकार के कारण अनन्त योनियों में दुःख भोगने वाले प्राणियों को सच्चे कल्याणमार्ग में लगानेकी बलवती भावना भगवान् महावीरने एक बार शुद्ध अंतःकरण से की थी, उस भावनाके कारण उन्होंने 'तीर्थंकर प्रकृति' नामक पुण्य कर्मका संचय किया था; उक्त तिथिको उस पुण्य प्रकृति के विपाकका सत्रको अनुभव हुआ । लोगोंको ज्ञात हुआ कि वास्तव में सर्वज्ञ महावीरकी वाणी अखण्डनीय एवं अतुलनीय है, जो भी वादी उनके समीप श्राता था वह 'ममंतभद्र' बन जाता था; देखिए स्वामी समंतभद्र कितनी सुन्दर बात कहते हैं Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त (वर्ष ३, किरण १ * त्वयि ध्रुवं खंडितमानभंगो भवत्यभदोपि समंतभद्रः । दया-दम-स्याग-समाधि-निष्ठ वास्तवमें इंद्रभूति गौतमका परिवतेन इस नय प्रमाग-प्रकताजसाथ। बातका सजीव उदाहरण है। अधृष्यमन्येरखिलैः प्रवादी। यह तिथि महावीर प्रभुके तीयवासियोंके लिए एक अपूर्व समय है, जो इस बातका स्मरण कराती जिन त्वदीयं मतमद्वितीयं । है कि लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान महा. हे जिनेन्द्र ! दया, इंद्रिय-दमन, त्याग तथा वीरने हमको मुक्तिका मार्ग बताया था। इससे समाधि-ममन्वित, नय तथा प्रमाणसे पदार्थोंका अन्य तिथियोंकी अपेक्षा वह हमारे लिए विशेष समीचीन रूपसे प्रकाशन करने वाला और संपूर्ण आदर तथा पूजाके योग्य है। गणोत्कर्षकी दृष्टिसे प्रवादियोंके द्वारा अखंडनीय आपका मत अप्रतिम अन्य काल भी अपनी अपनी अपेक्षासे महत्वपर्ण -लामानो ( unparalleled ) है। है, किन्तु हमारे लिए प्रभुके प्रति आंतरिक कृतज्ञता। भगवानकी वाणीमें 'सत्यं शिवं सुन्दर' का प्रकाशके लिए अधिक उपयक्त उपर्यत वेला है। लोकोत्तर समन्वय पाया जाता है । जिस प्रकार संपूर्ण कोका ध्वंस करने के यह दिन हमें अपने स्वरूपके चिंतन करनेका कारण सिद्ध परमात्मामें अधिक पज्यता है, किन्तु अवसर प्रदान करता है और यह स्मरण कराता अरहंत देवके कारण हमारी हित-साधना विशेषता है कि यदि हमने बाह्य महावीरके गुणोंका विचार पूर्वक हुई है, इससे णमोकार मंत्रमें णमो सिद्धाणं, कर अपने भीतर निहित महावीरका चिंतन किया के पूर्वमें 'समो परहंताणं' का पाठ पढ़ा जाता है: और उसे प्रकाशमें लानेका सच्चा प्रयत्न किया, तो इसी प्रकार हमारे कल्याणको लक्ष्यमें रखकर प्रभके निकट भविष्यमें हम भी महावीरकी महत्ताक प्रति कृतज्ञता प्रकाशनका सबसे बढ़िया अवमर अधीश्वर बन सकते हैं। महावीरके गणोंकी मच्चा उक्त वेला है । क्योंकि उसी दिन तीर्थकर प्रकृति आराधना आराधकको महावीर बनाए बिना न रूप मनोज बक्षके समधर फल चलनेको पा रहेगी। इसके लिए रत्नत्रय की प्राप्तिका प्रशस्त हुए थे तथा तीर्थकरत्वका पूर्णरूपसे विकास हुआ प्रयत्न करना होगा, क्योंकि बिना मम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्रके यह आत्मा अपने आत्मत्वकी __इस प्रसंगमें यह शंका होना माहजिक है कि प्राप्ति नहीं कर मकता है। वह ऐमी कृति या विशेषता कौन थी. जिसके . प्रभुकी धर्मदेशनाके दिवसमें यह भी उचित कारण उस दिनको महत्व प्रदानकिया जाय ? इम। है कि हम इस प्रकारका उद्योग तथा उदारताका विषयमें यक्त्यानुशासनका यह पद्य बड़ा मार्मिक प्रदर्शन करें, जिससे महावीरका महत्वपूर्ण शिक्षण एवं मनोहर है, जिसमें वीरशासनकी विशेषता इन संसारके कोने कोनेमें पहुंचे, और मांग जगत शब्दोंमें बताई गई है वीतरागको जीवन भरी शिक्षाओं आलोकित हो उठे-महावीर-वादसेभूमंडल गूंज उठे। ___ * प्रभो ! आपके ममीप आनेवले व्यक्तिके मानके वीरभक्तो ! उठो, महावीर प्रभुके प्रदर्शित सांग खंडित हो जाते हैं और अभद्र-दुष्ट व्यक्ति भी पथ पर चलो और संमारमें उनको महत्ताका समंतभ-माग ममीचीन-बन जाता है। प्रकाश फैलायो। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यों में उच्चता-नीचता क्यों ? [ ले -- पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य | ( गत १२ वीं किरण से भागे । किम गतिमें कौन गोत्रका उदय रहता है ऊपरके कथनमें यह बात निश्चित कर दी गई है कि पहिले गुणस्थानमे लेकर पाँचवें गुणस्थान तक नीच और उच्च दोनों गोत्रोंका और छट्टे से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक केवल उच्चगोत्रका उदय रहना है तथा सिद्ध जीव गोत्रकर्म के सम्बन्ध से रहित हैं । अब यहाँ पर यह बतलाने की कोशिश की जायगी कि the afrमें कौनसे गोत्रकर्मका उदय रहता है । शास्त्रों में नारकी जीवोंके जीवनका चित्रण बहुत ही दीन और क्रूरतापूर्ण किया गया है। वे अपनी भूख मिटानेके लिये इधर उधर बड़ी आशा भरी दृष्टिसे दौड़ते हैं, यहां तक कि एक दूसरे को खानेके लिये भी तैयार हो जाते हैं। यद्यपि तीव्रप्रसाना कर्मके उदयसे उनके लिये भूख-प्यास मिटाने के साधन नहीं मिलते हैं फिर भी उनका यह प्रयास बराबर चालू रहना है। शास्त्रों में लिखा है कि नारकी जीवोंके सामने तीन लोककी खाद्य और पेय सामग्री रख दी जावे तो भी उससे उनकी भग्व और प्यास नहीं मिट सकती है, इनने पर भी उन्हें एक का भी खाद्य सामग्री का और एक बंद भी पानी की नहीं मिलती है । ऐसी अधमवृत्ति मातों नरकोंके नारकियोंकी बतलायी गयी है, इसलिये इस वृत्तिका कारणभूत नीच गोत्रकर्मका उदय उनके माना गया है । 1 तिर्यच्चों की वृत्ति भी दीनता और क्रूरतापूर्ण देखी जाती है। जंगली जानवरोंकी वृत्ति विशेषतया क्रूर होती है और ग्राम्य पशुओंकी वृत्ति विशेषतया दीन होती है, इसलिये इन दोनों प्रकारकी वृत्तिमें कारणभूत नीच गोत्रकर्मका उदय तियंचों के भी माना गया है । भोग- भूमिके तिर्यच यद्यपि क्रूरवृत्ति वाले नहीं होते हैं, कारण कि वे किसी भी जीवको अपना पेट भरनेके लिये सताते नहीं हैं, सबको बिना प्रयास ही भरपेट खानेको मिलता है, इसलिये वे अपना जीवन स्वतंत्र और मानन्दपूर्वक व्यतीत करते हैं, परन्तु उनके लिये भी खानेको कर्मभूमि- जैसी घास आदि दीनता-सूचक पतित सामग्री ही मिला करती है। जिम प्रकार कल्पवृक्षोंमे भोगभूमिके मनुष्योंको इच्छानुसार उत्तम उत्तम भोजन मिला करता है उस प्रकार वहांके पशुओंको नहीं मिलता, पशु बुद्धिकी मंदता व विलक्षण शरीररचनाके कारण इस प्रकारके प्रयास करने तक में असमर्थ रहने हैं, इसलिये उनकी वृत्ति दान वृत्ति हो कही जा सकती है और यही कारण है कि भोगभूमिके तिर्यचों के भी areगोत्रकर्मका उदय बनलाया गया है। देवर्गातमें देवोंके उच्चगोत्रकर्मका उदय बतलाया है और यह ठीक भी है, कारण कि एक तो देवों को कई वर्षों के अन्तर से भूख लगा करती है और इतने पर भी मानसिक विकल्पमात्रमे ही उनकी भूख शान्त हो जाया करती है, इसलिये देवोंकी वृत्ति लोकमें सर्वोतम मानी जाती है, और यही कारण है कि सम्पूर्ण देवों को उच्चगोत्री बतलाया गया है। यद्यपि भवनवासी देवों में असुरकुमार व व्यन्तरोंमें भूत, पिशाच, राजस आदि जैसे क्रूरकर्मवाले देव भी पाये हैं. कल्पनाम Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण ? देवों तकमें किल्विष जातिके देव ऐसे पाये जाते हैं जिनका कारण कायम हुई । धीरे धीरे इन्हींके और भी अवावर्णन मनुष्यजातिके अस्पृश्य शूद्रों के समान किया गया न्तर भेद वृत्तिभेदके कारण होते गये: जैसे सुनार, है; फिर भी इन सबको उबगोत्री इसलिये माना गया जुहार, बढ़ई, धोबी, चमार, भंगी आदि । वृत्तिभेदके है कि इन सभी देवोंके इन कार्योका उनकी वृत्तिसे कोई कारण म्लेच्छ नामकी जाति भी इसी आर्यखंडके मनुष्यों सम्बन्ध नहीं है-वृत्तिकी उपत्ता सब देवों में समानरूपमे की बन गयी है। यह बात नहीं है कि म्लेच्छरखंडोंसे "पायी जाती है, इसलिये सभी देव उवगोत्री माने पाये हुये म्लेच्छ ही यहां पर म्लेच्छ नाम से पुकारे गये हैं। जाते हैं, यहांके (आर्यखडके ) बाशिन्दे आर्य ही, __ मनुष्यजातिमें सम्मूर्छन मनुष्य तो पतित हैं ही, जो कि भोगभूमिके समयमें बहुत ही सरल वृत्तिके थे, इसलिये उनके नीचगोत्रका अविवाद रूप है। अन्तदी. कालांतर में क्रूर वृत्तिके धारक बन गये। वे ही 'म्लेछ' पज मनुष्योंमें भोगभूमि-समप्रणधि मनुष्योंकी वृत्ति दीन कहलाने लगे हैं। यह परिवर्तन आज भी देखने में है, कारण कि उनके खाने के लिये मिट्टी श्रादि अधम प्राता है। पदार्थ ही मिला करते हैं। कर्मभूमि समप्रणधि मनुष्य जैनियों में भी जिन लोगों का यह ख़याल है कि ग्लेछखंडोंकी तरह विशेषतया क्रूर वृत्ति वाले ही माने "जातियां अनादि है" ( जानयोऽनादयः ) इम मा सकते हैं, इसलिये ये दोनों प्रकारके अन्तर्दीपज वाक्यके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र तथा मनुष्य नीचगोत्री माने गये हैं । म्लेच्छरखंडोंके मनुष्यों इनके अवान्तर भेद सुनार, लुहार श्रादि सभी जातियां की वृत्ति विशेषतया क्रूर वृत्ति है, कारण कि उनकी अनादि हैं, उन्हें यह बात नहीं भूलना चाहिये कि मजीविकाके साधन कर हैं, इसलिये ये भी नीचगोत्री भोगभूमिके जमाने में इस भरतक्षेत्रके आर्यखंडमें सभी ही कहे जाते हैं। ____ मनुष्य समान थे, उनमें किसी भी प्रकारका जातिभेद भोगभूमिके मनुष्यों की वृत्ति स्वाभिमानपूर्ण है। न था और यह बात तो स्पष्ट है, कि ब्राह्मण, सत्रिय, उन्हें बिना किसी परिश्रमके उनकी इच्छानुकूल अच्छे२ वैश्य और शूद्र इन चार जातियों ( वर्णो ) में मनुष्य मोजन कल्पवृक्षोंसे मिला करते हैं, उनको अपने पेट का विभाजन ऋषभदेव व उनके पुत्र भरन चक्रवर्तीने भरने के लिये दोनता अथवा करतापूर्ण कार्य नहीं करने किया था । इसके बाद धीरे धीरे और भी भेद पड़ते हैं, इसलिये वे उच्चगोत्री माने गये हैं। प्रार्य इनमें वृत्ति भेदके कारण कायम होते गये और भाज वंडके साधु भी उल्लिखित स्वाभिमानपूर्ण वृत्तिके कारण तक कायम होते जा रहे हैं। उस गोत्री माने गये हैं। यद्यपि धर्म, सम्प्रदाय, देश, प्रान्त व्यक्तिविशेष भार्यस्खंडके बाकी मनु योंकी वृत्ति भिन्न २ प्रकार प्रादिके आधार पर भी मनुष्यों में बहुत सी जातियोंकी की देखी जाती है। वृत्तिभेदके कारण ही आर्यवंडके कल्पना की गयी है और की जा रही है परन्तु गोत्रकर्मके मनुष्योंकी नाना जातियां कायम हो गई हैं । इस भारत- प्रकरणमें इन जातियोंको विवक्षा नहीं है, इसलिये क्षेत्रके भार्यस्खंड में कर्मभूमिकी रचनाके बाद ही मनुष्योंमें ऐसी जातियों का समावेश यहां पर नहीं किया गया है। मामय, पत्रिय, वैश्य और शूद ये जानियां वृत्ति-भेदके इस कथनका तात्पर्य यह है कि मनुष्यों में जिनने Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] मनुष्योंमें उच्चता-नीचता क्यों ? ५३ भेद वृत्ति अर्थात् आजीविकाके निमित्त पाये जाते हैं वह शरीर वृत्तिका प्रयोजक कारण पाता है। क्योंकि उतनी ही जातियां मनुष्यों की प्राज कल्पित की जा जीव को किसी-न-किसी शरीरका संयोगरूप जीवन सकनी है: इतना अवश्य है कि ये सब वृत्तिभेद लोक- प्राप्त होने पर ही खाने पीने मादि अावश्यकताओं की मान्य और किनिन्ध इस तरहसे दो भागोंमें बांटे जा पूर्तिके लिये वृत्तिकी भावश्यकता महसूस होती है, सकते हैं, इसलिये यह भी निश्चित है कि जिन जाति- शरीर वृत्तिका सहायक निमित्त भी है अर्थात् शरीरके योंकी या जिन मनुष्योंकी वृत्ति लोकमान्य है वे उप- द्वारा ही जीव किसी न किसी प्रकारकी वृत्तिको अपगोत्री भोर जिनकी वृत्ति लोकनिय है वे नीचगोत्री नाने में समर्थ होता है। ही कहे जायेंगे या उनको ऐसा समझना चाहिये। यही कारण है कि शरीरको गोत्रकर्मका नोकर्म तात्पर्य यह है कि जब आर्यखंडके मनुष्योंकी वृत्तियां बतलाया गया है । जिस कुलमें जीव पैदा होता है वह उच्च और नीच दो प्रकारको पायी जाती है तो वे मनुष्य कुल जीवको वृत्ति अपनाने में अवलम्बनरूप निमित्त भी उच्च और नीच गोत्र वाले सिद्ध होते हैं। पड़ता है. क्योंकि उस कुलमें लोकमान्य या लोकनिय गोत्रपरिवर्तन और उसका निमित्त जिस वृत्ति के योग्य बाह्य साधनसामग्री मिल जाती ऊपर गोत्रकर्मके स्वरूप, कार्य व भेदोंके विषयमें है उसी वृत्तिको जीव अपने जीवनकी आवश्यकताओंकी अच्छी तरहसे प्रकाश डाला गया है और यह बात पर्तिके लिये अपनालेता है। यही कारण है कि राजअच्छी तरहमे प्रमाणित करदी गयी है कि मनुष्यों में वार्तिक मादि ग्रन्थोंमें रखकुल और नीचकुलमें जीवका उच्च और नीच दोनों गोत्रोंका उदय पाया जाता है पैदा हो जाना मात्र ही क्रममे उपगोत्र और नीचगोत्र नथा वह लोक-व्यवहारके साथ माथ युक्ति अनुभव व कर्मका कार्य बनला दिया गया है। आगमके भी अनुकूल है। अब सवाल यह रह जाता है यहां पर कुलमे तात्पर्य उस स्थानविशेषसे है कि गोत्रपरिवर्तन हो सकता है या नहीं ? अर्थात् उच- जहां पर पैदा होकर जीव अपनी वृत्ति निश्चित करनेके गोत्र वाला जीव कभी उच्चगोत्री व नीचगोत्र वाला लिये बास साधनसामग्री प्राप्त करता है। नोकर्मकभी उच्चगोत्री हो सकता है या नहीं? वर्गणाके भेदरूप कुल तो केवल शरीर-रचनामें भेद ___ पहिले कह पाये है कि जीवकी लोकमान्य वृत्ति करने वाले हैं, जीवकी वृत्ति पर इन कुलोंका कुछ भी उच्चगोत्रकर्मके उदयसे होती हैं और लोकनियवृत्ति असर नहीं होता है । मनुष्य शरीरके निर्माण योग्य नीचगोत्रकर्मके उदयसे होती है अर्थात् इन दोनों जिस नोकर्मवर्गणासे एक ब्राह्मणका शरीर बन सकता गोत्रकर्मोंका उदय अपने अपने कर्मस्वरूप वृत्तिका उसी नोकर्म वर्गणासे एक भंगीका भी शरीर बन अंतरंग कारण है। ज्ञानी होनेके कारण वृत्तिका कर्ता सकता है, और इसका प्रयोजन सिर्फ इतना है कि उम्म व फलानुभवन करने वाला जीव है, यही कारण है कि प्रामण और उस भंगीकी प्राकृतिमें समानता रहेगी। गोत्रकर्मको जीवविपाकी प्रकृनियों में गिनार गया है। जिन लोगोंका यह खयाल है कि ब्रामणका शरीर शुद्ध जीवका जिस शरीरमे जब संयोग हो जाता है और जब नोकर्मवगणाांका पिंड है और भंगीका शरीर तक वह संयोग विद्यमान रहना है नब और तब तक अशुद्ध नोकर्म वर्गणाओंका पिंड है और ये शरीर Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ [ वर्ष ३, किरण १ अम्वावरीष जातिके असुरकुमारोंका शरीर भी नीच नोकर्मवर्गणाओं से बना हुआ मानना पड़ेगा, जिसमें देवोंमें भी उच्च व नीच दोनों गोत्रोंका सद्भाव मानना निवार्य होगा । इसी प्रकार नियंचोंमें भी कोई कोई तिर्यंच देखने में इतने प्रिय मालूम पड़ते हैं कि मनुष्य rest थपने पास रखने में अपना सौभाग्य समझता है। ऐसी हालत में उनका शरीर भी उच्च नोकर्म वर्गणाथों मे बना हुआ मानना पड़ेगा, जिससे तियेचोंमें भी दोनों गोत्रोंका सद्भाव मानना अनिवार्य होगा, जो कि श्रागम विरुद्ध है । इसलिये यह बात निश्चित है कि गोत्रकर्मका व्यवस्था में नोकर्म वर्गणा के भेदरूप कुलोंका बिल्कुल सम्बन्ध नहीं है। यही कारण है कि जीवकी उच्च-नीच वृत्तिके अनुकूल बाह्य साधन सामग्रीको जुटा देने वाले स्थानविशेष है। यहां पर 'कुल' शब्दमे ग्रहण किये गये हैं । श्रनेकान्त जीवनमें जीवनभर क्रमसे शुद्ध और अशुद्ध ही बने रहेंगे, उनका यह खयाल जैन सिद्धान्तों के विपरीत है, क्योंकि जैन सिद्धान्त अनुसार ब्राह्मण और भंगी ये संज्ञायें उनके योग्य वृत्तियों के आधार पर कल्पित की गयी हैं । इसलिये जो व्यक्ति जिस वृत्ति का धारण करने वाला होगा और जब तक उस वृत्तिको धारण करे रहेगा तब तक वह व्यक्ति उसी संज्ञामे व्यवहार योग्य बना रहेगा | इसका अर्थ यह है कि ब्राह्मण भी अपने भंगो बन सकता है और भंगी भी अपने जीवन में ब्राह्मण बन सकता है । इसलिये यह बात निश्चित है कि नोकर्मवर्गणा के भेदरूप कुलोंमें पवित्रता (जाता ) अपवित्रता ( नीचता) रूपसे विषमता नहीं है। और यही कारण है कि नोकर्मणा के भेदरूप कुलोंसे जीवके आचरण (वृत्ति) में भी उच्चता और नीचता रूपसे विषमता नहीं आसकती है। जिस प्रकार अत्यधिक प्रकृतिमंद देव, मनुय, निर्यच और नारकियों के नोकर्मवर्गणा के भेदरूप कुलों का पृथक पृथक् विभाजन कर दिया है उसीप्रकार एक एक गतिके कुलोंके जो लाखों करोड़ भेद कर दिये हैं उनका अभिप्राय भी देव आदि पर्यागोंकी समानता में भा प्राकृतिभेदका पाया जाना ही है। यदि मनुयोंके नोकवर्गणा के भेदरूप कुलों में किन्हीं को उच्च और किन्हीं को नांच माना जायगा तथा उनके आधार पर यह व्यवस्था बनायी जायगी कि उच्चगोत्र वालोंका शरीर उच्च नोकर्म वर्गणासे और नीचगोत्र वालोंका शरीर नीच नोकर्म वर्गणाधों बना हुआ है, तो देवों में भी कल्पवासियों में किल्विष जातिके देवोंका व म्यन्तरों में क्रूरकर्म वाले राक्षस, पिशाच व भूतजाति के देवोंका शरीर तथा भवनवासियों में भी शरोर ये कुल मोटे रूपसे चार भागों में बांटे जा सकते हैं नरकगति ( नरककुल) तिर्यग्गति तिर्यक्कुल) मनुष्यगति ( मनु त्यकुल ) देवगति (देवकुल) । कारण कि ये चारों गतियां जीवोंको वृत्तिमें अवलम्बनरूप निमित्त पड़ती हैं। नरकगति और नियंचगतिमें जीवनपर्यंत नीचवृत्तिके अनुकूल ऊपर लिखे अनुसार बाह्य साधनसामग्री मिला करती है । इसी प्रकार सम्मूर्च्छन, अन्नपज क स्लेच्छम्बंडों में रहने वाले मनुयोंको भी अपने स्थानों में जीवनपर्यंत नीच वृत्तिके अनुकूल ही बाह्य साधनसामग्री मिला करती है, इसलिये इन सबमें जीवन पर्यंत एक नीच गोत्र कर्म का ही उदय रहता है। देवगति में देवोंको व भोग भूमिमें मनुष्योंको जीवनपर्यन्त उच्चवृत्ति के अनुकूल ही बाह्य साधनसामग्री मिला करती है, इसलिये इनमें जीवनपर्यन्त उच्च गोत्र कर्मका ही उदय माना गया है। अब केवल धर्यखंडों के Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६ ] ' मनुष्य ही ऐसे रह जाते हैं जिनमें बाह्य साधन सामग्री के परिवर्तन से वृत्ति-परिवर्तनकी सम्भावना पायी जाती हैं। जैसे इस भरतक्षेत्र के चार्यखंडमें जब तक भोग भूमिका काल रहा तब तक बाह्य साधनसामग्री भोगभूमिकी तरह उच्च वृत्तिके ही अनुकूल रही, कर्मभूमिके प्रारम्भ हो जाने पर उन्हींकी संतानके वृत्तिभेदका प्रारम्भ हुआ और पहिले कहे अनुसार वृत्तिभेदसे सबसे पहिले इनका विभाग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार जातियों (वर्णों में हुआ, बादमें इनके भी श्रवान्तरभेद वृत्तिभेद के कारण होते चले गये तथा एक ही प्रकारकी वृत्तिके धारण करने वाले नाना मनुष्य होनेके कारण ये सब भेद जाति अथवा कुल शब्दमे व्यवहृत किये जाने लगे और वृत्ति के आधार पर कायम हुए ये ही कुल अथवा जातियां भविष्य में पैदा होने वाले मनुयोंकी वृसिके नियामक बन गये। फिर भी बाह्यमाधनमामी के बदलने की सम्भावना होनेसे इनमें वृत्तिभेद हो सकता है और वृत्ति-भेदकं कारण गोत्र-परिवर्तन भी अवश्यंभावी हैं । ऐसे कई दृष्टान्त मौजूद हैं जो किसी समय क्षत्रिय थे वे श्राज वैश्य माने जाने लगे हैं। पद्मावतीपुरवालों में जो श्राजकल पंडे हैं वे किसी जमाने में ब्राह्मण होंगे परन्तु आज वे भी वैश्यों में हो शुमार किये जाते हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंमें परस्पर यथायोग्य विवाह करनेकी जो आज्ञा शास्त्रों में बतलायी है वहां पर विवाही हुई कन्याका गोत्र परिवर्तन मानना ही पड़ता है और इसका कारण वृत्तिका परिवर्तन ही होसकता है और यही कारण है कि म्लेच्छकन्यायका चक्रवर्ती भादिके साथ विवाह हो जानेपर वृति परिवर्तन हो जाने के कारण ही दीक्षाका अधिकार, उनको श्रागम में दिया गया है। इसी परिवर्तनकी वजहसे ही धवल कर्ताने कुलको अवास्तविक बनलाया है और मनुष्यों उच्चता-नीचता क्यों ? *इस वाक्य तथा अगली कुछ पंक्तियों परसे लेखकमहोदयका ऐसा आशय ध्वनित होता है कि प्रायः वृत्तिके श्राश्रित गोत्र का उदय है गोत्रकर्मके उदद्याश्रित वृत्ति नहीं है। क्या यह ठीक है ? इसका स्पष्टीकरण होना चाहिये । -सम्पादक ५५ इसीलिये जो मनुष्य साधु हो जाता है उसके उस अवस्थामें कुलसंज्ञा नहीं रहती है। इसलिये यह निश्चित है कि एक भंगा भी अपनी वृत्तिमं उदासीन होकर यदि दूसरी उच्च वृत्तिको अपना लेता है तो उसके अपनायी हुई उच्च वृत्तिकं अनुसार गोत्र का परिवर्तन मानना ही पड़ेगा । इसी परिवर्तनके कारण ही दार्शनिक ग्रन्थों में ब्राह्मण, क्षत्रियत्व आदिमें जातिवकी कल्पनाका बड़ी खूबी के साथ खंडन किया गया 1 इस प्रकार इस लेख में यह धच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है कि श्रार्यखंडके मनुष्य उच्च और नीच दोनों प्रकारके होते हैं। शूद्र हीनवृत्तिके कारण व म्लेच्छ क्रूर वृत्तिके कारण नीचगोत्री, बाकी वैश्य, क्षत्रिय ब्राह्मण और साधु स्वाभिमान पूर्ण वृत्तिके कारण उच्च गोत्री माने जाते हैं और पहली वृत्तिको छोड़कर यदि कोई मनुष्य या जाति दूसरी वृत्तिको स्वीकार कर लेता है तो उसके गोत्रका परिवर्तन भी हो जाता है, जैसे भोग भूमिकी स्वाभिमानपूर्ण वृत्तिको छोड़कर यदि श्रार्यखंडके मनुष्योंने दानवृत्ति और क्रूरवृत्तिको अपनाया तो वे क्रमशः शुद्र व म्लेच्छ बनकर नीचगोत्री कहलाने लगे । इसी प्रकार यदि ये लोग अपनी दीन वृत्ति अथवा क्रूर वृत्तिको छोड़कर स्वाभिमानपूर्ण वृत्तिको स्वीकार कर ले तो फिर ये उच्चगोत्री हो सकते हैं। यह परिनर्तन कुछ कुछ श्राज हो भी रहा है तथा श्रागममें भी बतलाया है कि छठे काल में सभा मनुष्यों के नीचगोत्री हो जाने पर भी उस्मर्पिण के तृतीय कालकी धादि उन्हींकी संतान उच्चगोत्री तीर्थंकर आदि महापुरुष उत्पन्न होंगे। अत्यधिक लम्बाई हो जानेके कारण इस लेखको यहीं पर समाप्त करता हूँ चार पहिले लेख में कही हुई जिन बातोंके ऊपर इस लेख में प्रकाश नहीं डाल सका हैं उनके ऊपर अगले लेख द्वारा प्रकाश डालने का प्रयत्न करूंगा । साथ ही, जिन आवश्यक बातोंकी ओर टिप्पणी द्वारा संपादक अनेकान्तने मेरा ध्यान खींचा है उनपर भी अगले लेख द्वारा प्रकाश डालूंगा । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-सम्मेलनकी परीक्षाओंमें जैनदर्शन [ले०–५० रतनलाल संघवी, न्यायतीर्थ-विशारद ] हिन्दी-साहित्य सम्मेलन प्रयागका हिन्दी संसारमें प्रदान करदी है। प्रायः वही स्थान और महत्त्व है, जो कि भार- जैन-छात्र प्रतिवर्ष सैकड़ोंकी संख्यामें इन परीतीय-राजनैतिक जगतमें कांग्रेसका । गत तीम वर्षों क्षाओंमें सम्मिलित होते हैं और अच्छी श्रेणीमें से यह संस्था हिन्दी-माहित्य और हिन्दी-भाषाकी सम्मेलनसे मेडल तक प्राप्त करके सम्मानपूर्वक इन अच्छी सेवा करती रही है। हिन्दीका व्यापक परीक्षाओं में उत्तीर्ण होते रहते हैं। किन्तु अनेक और स्थायी प्रचार करनेकी दृष्टिसे इमने "हिन्दी- छात्रों और जैन संस्थाओंको विषय-चनावमें कठिविश्व-विद्यालय" नामक एक अलग परीक्षा-विभाग नाई भाती है, अतः मैंने सोचा कि यदि प्रथमा कायम कर रक्खा है, जो कि नियमानुसार एवं मध्यमामें जैनदर्शनको भी वैकल्पिक विषयों में व्यवस्थित ढंगले प्रतिवर्ष अनेक परीक्षाएँ लेता है। स्थान दे दिया जाय तो जैनछात्रों और जैन संभारतके लगभग सभी प्रान्तोंके और प्रायः सभी स्थाओंको बहुत सुविधा हो जायगी। जैन-संस्थाओंजातियों एवं धर्मोके हजारों छात्र इन परिक्षाओं में के पाठ्यक्रममें भी सादृश्यता पाजावेगी और प्रति सम्मिलित होते रहते हैं। परीक्षाओंका क्रम, विषयों- वर्ष जैन परीक्षार्थियोंकी संख्या भी बढ़ जावेगी। का वर्गीकरण, पाठ्यक्रमकी शैली, ऐच्छिक विषयों- मेरा प्रस्ताव तो यहाँ तक है कि प्रथमा, विशाका चुनाव, उपाधि प्रदान-पद्धनि, आदि व्यवस्था रद और साहित्यरत्नमें प्राकृत-अपभ्रंश भाषा और सरकारी विश्वविद्यालयों के समान ही इसकी भी जैनदर्शन दोनोंको वैकल्पिक विषयों में स्थान दिया हैं। इसकी प्रथमा परीक्षाकी पद्धति और विषयोंका जाय । कारण यह है कि भारतीय दर्शन-धागका वर्गीकरण मैट्रिकके ममान है. विशारदकी शैली अध्ययन तबतक अपूर्ण, एकांगी और अव्यवस्थित बी०ए० के सदृश है और साहित्यरत्नके विषयोंका रहता है, जब तक कि जैन दर्शनका भी तुलनात्मक वर्गीकरण एम० ए० के ममान है । परीक्षार्थियोंकी श्रीर विश्लेषणात्मक पद्धतिसे बौद्धदर्शन और योग्यता भी इन परीक्षाओंसे अच्छी हो जाती है। वैदिकदर्शनके माथ अध्ययन नहीं करलिया जाय । इन परीक्षाओंका स्टेन्डर्ड ऊँचा होनेसे इनका मान भारतीय विचारपद्धति, भारतीय संस्कृति, भारतीयभी देशमें ठीक ठीक किया जाता है। बिहार सर. कला और भारतीय-साहित्यके निर्माणमें जैनदर्शनकारने (और शायद यू पी० सरकारने भी) इनको ने हर प्रकार से सर्वतोमुखी और महत्त्वपूर्ण भाग सरकारी तौर पर मान दे दिया है । यू०पी० बोर्ड. लिया है । भारतीय विकासकी सभी दिशाओं में ने तो विशारद उत्तीर्णको मैट्रिक और एफ० ए० के जैनदर्शनने अमिट प्रभाव डाला है और पूरा पूरा एक ही विषयमें "अंग्रेजी" में भी बैठने की आज्ञा सहयोग दिया है। दूसरा कारण यह है कि जैन Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] साहित्य सम्मेलनकी परीक्षाओं में जैनदर्शन ५७ साहित्यमें "भाषा, साहित्य, लिपि, संस्कृति, धर्म, दी जावेगी; अंतमें परीक्षा समितिका निर्णय मांगा राजनीति" आदि विभिन्न विषयोंके इतिहासकी सा- तो यही उत्तर मिला कि परीक्षा-समितिने वैकल्पिक मप्रो विपुल मात्रामें सन्निहित है । अतः प्राकृत-अप- विषयोंमें जैनदर्शनको स्थान देनेसे इन्कार करदिया भ्रंश भाषा और जैनदर्शनको इन परीक्षाओं में स्थान है। मुझे यह पढ़कर अत्यन्त आश्चर्य और खेद देना आवश्यक ही नहीं किन्तु अनिवार्य है, ऐसा हुआ ! परीक्षा-मन्त्रीजी श्री दयाशंकरजी दुबे इस मेरा विश्वास है । यही कारण है कि भारतके अ. प्रस्तावके पक्षमें थे, जैसा कि उन्होंने अपने पत्रमें नेक सरकारी विश्व-विद्यालयोंने भी प्राकृत-अपभ्रंश- स्वीकार किया है। मालूम नहीं इस प्रस्तावके वि. भाषा और जैनसाहित्यको एफ० ए०, बी० ए०, की रोधी सदस्योंकी क्या मनोभावना थी ? क्या उन्होंपरीक्षाओं तक में स्थान दे दिया है। संस्कृतके ने जैन-दर्शनसे विद्वेषकी भावनासे ऐसा किया मरकारी परीक्षालयोंमें भी प्रथमा, मध्यमा, तीर्थ, अथवा इसे निरुपयोगी ही समझा, यह कह सकना शास्त्री और प्राचार्य आदि परीक्षाओंमें जैन- कठिन है। किन्तु इतना तो अवश्य कहा जा सकता माहित्यको स्थान मिल चुका है। किन्तु खेद है कि है कि यह उनकी अनुदारता और अविचारकता मम्मेलनकी परीक्षा-समितिने इस ओर अभी कोई अवश्य है । क्या वे अब भी कृपा करके इस प्रस्ताव ध्यान नहीं दिया। इस संबंधमें मैं परीक्षा-मन्त्रीजी पर पनः समुचित विचार कर उसे स्वीकार करेंगे ? मम्मेलन प्रयागसे गत दो वर्षसे पत्र-व्यवहार कर मैं आशा करता हूँ कि वे ऐसी कृपा अवश्य करेंगे । रहा हूँ । उन्होंने सं० ६४ पत्र नं० ६५६३ में लिखा जैन-संस्था-संचालकों, जैन-पत्र-संपादकों और कि आपका प्रस्ताव परीक्षा-समिति के सामने विचा- जैनविद्वानोंसे निवेदन है कि वे ऐसा प्रयत्न करें रार्थ रक्खेंगे और निर्णयकी सूचना यथासमय कि जिमसे प्राकृत-अपभ्रंश-भाषा और जैनसा आपको दी जावेगी। फिर मेरे दूसरे पत्रके उत्तरमें हित्यको सम्मेलनकी परीक्षाओंके वैकल्पिक विषयों सं०६४ पत्र नं० ६७८४ में लिखा कि-मैं स्वयं में स्थान मिल सके । इससे अनेक जैन संस्थानोंजैनदर्शनको प्रथमा, मध्यमा परीक्षाओंके वैकल्पिक को पाठ्यक्रम-संबंधी अस्थिरता और अन्य कठिविषयों में रखने के पक्ष में हूँ। पर परीक्षा-समितिकी नाइयोंसे मुक्ति मिल मकेगी। राय लेकर ही इस संबंध निश्चित रूपसे आपको आदरणीय पं० नाथूरामजी प्रेमी, बाबू जैनेन्द्रलिख सकंगा। तीसरे पत्र नं० ८२८६ सं० ६४ में कुमारजी, पं० सुखलालजी, पं० जुगलकिशोरजी रजिस्ट्रार हिन्दी विश्वविद्यालयने मुझसे पाठ्यक्रम, मुख्तार और बाबू कामताप्रमादजी आदि विद्वान और पूरी योजना मांगी; तदनुसार मैंने पाठ्यक्रम, महानुभाव और शास्त्रार्थ संघ अम्बाला आदि जैसी और योजना भेजदी। तत्पश्चात पत्र नं० ६६६५ संस्थाएँ यदि सम्मेलनसे पत्र-व्यवहार करने मात्रका और ११४१० सं०६४ में इसी बातकी पुनरावृत्ति की थोड़ा-सा कष्ट करें तो इसमें अतिशीघ्र सफलता कि अभी परीक्षा-समितिका अधिवेशन नहीं हुआ मिल सकती है। क्या ये ऐसा करनेकी कृपा करेंगे ? है, निर्णयकी सूनना आपको यथासमय तुरन्त ही मैं इस आशाके साथ यह निवेदन समाप्त Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...अनेकान्त .. [वर्ष .३, किरण करता हूँ कि जैनपत्र-संपातक और विद्वान महान प्रतिक्रमणको लक्षपूर्वक नहीं कर सकते, तो भी वे भाव इस ओर अवश्य प्रयत्न करनेकी कृपा करेंगे। केवल खाली बैठनेकी अपेक्षा, इसमें कुछ न कुछ अन्तर सम्पादकीय नोट अवश्य पड़ता है । जिन्हें सामायिक भी पूरा नहीं पाता __प्रस्तुत विषयमें लेखकमहोदय का प्रस्ताव और वे बिचारे मामायिकमें बहुन घबड़ाते हैं । बहुतसे भारीउन्होंने दो वर्ष तक पत्र-व्यवहारादिका जो परिश्रम कर्मी लोग इस अवसर पर व्यवहारके प्रपंच भी पड़ किया है वह सब निःसनेह बहुत ही समयोपगी, डालते हैं। इससे मामायिक बहुत दूषित होता है। स्तुत्व और प्रशंसनीय है । परीक्षासमितिका उसपर सामायिकका विधिपूर्वक न होना इसे बहुत खेदउपेवाभाव धारण करना अवश्य ही खेदजनक है! कारक और कर्मको बाहुल्यता ममझना चाहिए । माट मालूम नहीं उसकी हम अस्वीकृति के मूल में क्या रहस्य घड़ीके दिन गत व्यर्थ चले जाने हैं। श्रमंख्यात दिनों संनिहित है। परन्तु जहाँ तक मैं समझता है जैनसा- में परिपूर्ण अनंतों कालचक व्यतीत करने पर भी जो हित्य और उसके महत्व अनभिज्ञता ही इसका प्रधान मिद्ध नहीं होता, यह दो घड़ीके विशुद्ध सामायिकसे मिद्ध कारण जान पड़ता है। जैन विद्वानोंको स्वयं तथा हो जाना है । लक्षपूर्वक मामायिक करने के लिये सामाउम मजैन विद्वानों के द्वारा जिन्होंने जैनसाहित्यके विकमें प्रवेश करने के पश्चात् चार लोग:पमे अधिक महत्वका अनुभव किया है, परीक्षासमितिके सदस्यों लोगस्मका कायोत्सर्ग करके चित्त की कुछ स्वस्थता पर जैनदर्शन एवं जैनसाहित्यको उपयोगिता और प्राम करनी चाहिये और बाद में सूत्रपाठ अथवा किसी महत्ताको प्रकट करना चाहिये-उन ध्यान में यह जमा उत्तम ग्रंथका मनन करना चाहिये । वैराग्यके उत्तम देना चाहिये कि इस ओर उपेक्षा धारण करके वे अपने श्लोकोंको पढ़ना चाहिए, पहिलेके अध्ययन किये हुएको कर्तग्यका ठीक पालन नहीं कर रहे हैं। प्रत्युत, अपनी स्मरगा कर जाना चाहिये और ननन अभ्याम होम के को भूबसे बहुतोंको यथोचित लाभसे वंचित रख रहे हैं, करना चाहिये, तथा कितीको शास्त्रके श्राधारमं उपदेश को उनकी ऐसो सार्वजनिक संस्थाकी उदारता और दूर- देना चाहिये । हम प्रकार सामायिकका काल व्यनीन टिताके विरुद्ध है। इस प्रकारके प्रयन और यथेष्ट करना चाहिये । यदि मुनिरा का समागम हो, नी भागम भान्दोलनके द्वारा प्राशा है समिनिका ध्यान इस ओर की वासी मुनना और उसका मनन करना चाहिये। जरूर पाकृष्ट होगा और वह शीघ्रती अपनी भलको यदि एमा न हो, और शास्त्रोंका परिचय भी नहो तो 'सचाने में समर्थ हो सकेगी। बिना पान्दोलन और विचक्षण अभ्यागियों के पास वैराग्य-बोधक उपदेश प्रपत्रके कोई भी अच्छे से अच्छा कार्य सफल नहीं प्रवण करना चाहिये अथवा कुछ अभ्याम करना चाहिये हो सकता। -सम्पादक यदि ये मय अनुकूलतायें न हों, तो कुछ भाग ध्यानसामायिक-विचार पू र्वक कायोत्सर्गम लगाना चाहिये, और कुछ भाग एकाग्रता और मारपानीके बिना इन बत्ती- दोपों महापुरुषांशी चरित्र-कथा सुनने में उपयोगपर्वक लगाना मेंमें कोई न कोई दोष लग जाते हैं। विज्ञानवत्ताोंने चाहिये, परन्तु जैम बने तैस विवेक और उत्माहम मामायिकका जघन्य प्रमाण दो घड़ी बांधा है । यह व्रत . भामायिक के काल को व्यनीन करना चाहिए। यदि कुछ साबधानीपूर्वक करनेस परम शान्ति देता है। बहुतम माहित्य न हो, ना पंचपरमटी मंत्रका जाप हो उत्माहलोगोंका जब यह दो घड़ीका काल नहीं बीतता, तब वे पूर्वक करना चाहिये । परन्तु काल को व्यर्थ नहीं गंवाना बहुत व्याकुल होते हैं । मामायिकमें खाली बैठनमें चाहिये । गीर जम, शान्तिसे और यतनाम सामायिक काल बीन भी कैसे सकता है प्राधनिक कालमें माव- करना चाहिये । जैसे बने नैमें भामायिक शास्त्रका धानीमे सामायिक करने वाले बहुत ही थोड़े लग है। परिचय बढ़ाना चाहिये । जन सामायिक के माथ प्रतिक्रमण करना होता है. तब साठ घड़ीक अहोरात्रमंस दोघड़ी अवश्य बचाकर नां समय बीनना मुगम होना। यदापि ऐम पामर लोग मामायिक ती मदभाव करी! -श्रीमद्राजचन्द्र Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यापनीय साहित्यकी खोज [ले०-श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी, बम्बई ] यापनीय संघ आसपाम बहुत प्रभावशाली रहा है । कदम्ब', राष्ट्रकूट न धर्मके मुख्य दो सम्प्रदाय हैं, दिगम्बर और और दूसरे वंशोंके राजाभोंने इस संघको और इसके किये थे। प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य 'श्वेताम्बर । इन दोनोंके अनुयायी लाखों हैं और साहित्य भी विपुल है, इमलिए इनके मतों और हरिभद्रमग्नेि अपनी ललितविस्तरामें यापनीयतंत्रका मत भेदोंमे साधारणतः मभी परिचित हैं,परन्तु, इस बात मम्मान-पूर्वक उल्लेख किया है । का बहुत ही कम लोगोंको पता है कि इन दोके अति ___ श्रुन केवलि देशीयाचार्य शाकटायन ( पाल्यकीति ) रिक्त एक तीसरा सम्प्रदाय भी था जिसे 'यापनीय' या जैसे मुप्रसिद्ध वैयाकरण इस सम्प्रदायमें उत्पन्न हुए हैं। 'गोप्य' संघ कहते थे और जिसका इस ममय एक भी चालुक्य-चक्रवर्ती पुल केशीकी प्रशस्ति के लेखक कालि अनुयायी नहीं है। दाम और भारविकी समताकरनेवाले महाकवि रवि यह मम्प्रदाय भी बहुत प्राचीन है। 'दर्शनमारके कीर्ति भी इसी सम्प्रदायके मालूम होते हैं । कर्त्ता देवमनमरि के कथनानुसार कमसे कम वि० सं० इम संघका लोप कब हुश्रा और किन किन कारणोस २०५ में तो इसका पता चलता ही है और यह समय हुश्रा, इमका विचार तो श्रागे कभी किया जायगा; परन्तु दिगम्बर श्वताम्बर २ उत्पनिमे र्फि ६०-७० वर्ष बाद अभी तककी खोजसे यह निश्चपर्वक कहा जा सकता है कि विक्रमकी पन्द्रहवीं शताब्दि तक यह सम्प्रदाय पड़ता है । इसलिए यदि मोटे तौर पर यह कहा जाय कि ये तीनों ही सम्प्रदाय लगभग एक ही ममयके हैं जीवित था। कागवाडे के शिलालेखमें, जो जैनमन्दिरना कुछ बड़ा दोप न होगा, विशेष कर इसलिए कि ३ कदम्बवंशी राजाभोंके दानपत्र, देखो जैनगम्प्रदायोंकी उत्पत्तिकी जो तिथियाँ बताई जाती है वे हितैषी, भाग १५ अंक ७-८ बहुन मही नहीं हुअा करनीं। __ देखो, ई० ए० १२पृ०१३-१६ में राष्ट्रकूट प्रभूत किसी ममय यह सम्प्रदाय कर्नाटक और उसके वर्षका वानपत्र । ५ देखो ई० ए० पृ०१६-१७ में पृथ्वीकोंगणि १ फल्लाणे वरणयरे दुषिणसए पंचउत्तरे जादे। महाराजका दानपत्र जावणियसंघभावो सिरिकलसादो हु मेवडदो ॥२६॥ श्रीहरिभवसरिका समय पाठवीं शताब्दि है। २ छत्तीसे बरिससए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । ७ देखो प्राचीन लेखमाला भाग 1 पृ. १८७२ । सोरटे वनहीए उप्पण्णो सेवडो संघो ॥१॥ ८ देखो बाम्बे यू० जर्नलके मई ११॥ के अंको श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुसार दिगम्बरोंकी प्रो. ए. एन. उपाध्याय एम. ए. का 'वापनीय संघ' उत्पत्ति वीरनिर्वाणके ६०१ वर्ष बाद (वि० सं० १३६ नामक लेख और जैनदर्शन वर्ष ५ अंक में उसका में) हुई है। अनुवाद। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ % 3D के भौहिरेमें है, यापनीय संघके धर्मकीर्ति और नाग- और अन्य प्रकाशमें आया है जिसका नाम 'स्त्रो-मुक्तिचन्द्रके समाधि-लेखोंका उल्लेख है । इनके गुरु नेमिः केवलि-भक्ति प्रकरण" है । इस ग्रंथमें इसके नामके चन्द्रको तुलुवराज्यस्थापनाचार्यकी उपाधि दी हुई है अनुसार स्त्रीको उसी भवमें मोक्ष होसकता है और केवली जो इस बातकी द्योतक है कि वे एक बड़े राज्यमान्य भोजन करते हैं, इन दो बातों को सिद्ध किया गया व्यक्ति थे और इसलिए संभव है कि आगे भी सौ है। चंकि ये दोनों सिद्धांत दिगम्बर संप्रदायसे विरुद्ध पचास वर्ष तक इस सम्प्रदायका अस्तित्व रहा हो। है, इसलिए इसका संग्रह दिगम्बर भण्डारों मेंनहीं किया यापनीय साहित्यका क्या हुआ ? गया परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय इन बातोंको मानता है बेलगावके दोहुवस्ति' नामक जैनमन्दिरकी इसलिए उसके भण्डारोंमें यह संग्रहीत रहा। भीनेमिनाथकी मूर्ति के नीचे एक खंडित लेख' है, जैसा कि पाठकोंको आगे चलकर मालम होगा जिससे मालूम होता है कि उक्त मन्दिर यापनीय संघके यापनीय संघ सूत्र या आगम ग्रन्थोंको भी मानता किसी पारिसय्या नामक व्यक्तिने शक ६३५ ( वि० था और उनके आगमोंकी वाचना उपलब्ध वल्लभी सं० १०७० ) में बनवाया था और आजकल उक्त वाचनासे, जो श्वेताम्बर सम्प्रदायमें मानी जाती है, मन्दिरकी यापनीयप्रतिष्ठितप्रतिमा दिगम्बरियोदारा पनी शायद कुछ भिन्न थी। उसपर उनकी स्वतंत्र टीकायें भी जाती है। होंगी जैसी कि अपराजित सूरिकी दशवैकालिक सूत्रपर जिस तरह यापनीय संघको उक्त प्रतिमा इस समय टीका थी। इस सब साहित्य मेंसे कुछ न कुछ साहित्य दिगम्बर संप्रदायद्वारा मानी-पूजी जाती है, क्या ज़रूर मिलना चाहिए । आश्चर्य है जो उनके साहित्यका भी समावेश उसके जिस सम्प्रदायके अस्तित्वका पन्द्रहवीं शताब्दि साहित्य में हो गया हो ! यापनीय संघकी प्रतिमायें तक पता लगता है और जिसमें शाकटायन, रविकीर्ति निर्वस्त्र होती है, इसलिए सरसरी तौरसे नहीं पहिचानी जैसे प्रतिभाशाली विद्वान हुए हैं, उसका साहित्य सर्वथा जा सकतीं कि वे दिगम्बर संप्रदायकी हैं या यापनीयकी। ही नष्ट हो गया होगा, इम बातपर सहसा विश्वाम इसी तरह यापनीय संघका बहुत-सा साहित्य भी नहीं किया जा सकता । वह अवश्य होगा और दिगम्बरतो ऐसा हो सकता है जो स्थल दृष्टिसे दिगम्बर श्वेताम्बर भंडारोंमें ज्ञात-अज्ञात रूपमें पड़ा होगा। सम्प्रदाय जैसा ही मालूम हो । उदाहरण के लिए विक्रमकी बारहवीं-तेरहवीं शताब्दि तक कनड़ी हमारे सामने शाकटायन व्याकरण है ही। वह दिगम्बर साहित्यमें जैन विद्वानोंने सैकड़ो एकसे एक बढ़कर संप्रदायमें सैकड़ों वर्षोंसे केवल मान्य ही नहीं है उस ग्रन्थ लिखे हैं। कोई कारण नहीं है कि जब उस समय पर बहुत-से दिगम्बर विद्वानोंने टीकायें तक लिखी तक यापनीय संघके विद्वानोंकी परम्परा चली श्रा रही थी तब उन्होंने भी कनही माहित्यको दस-बीम ग्रन्थ शाकटायनाचार्यका व्याकरणके अतिरिक्त एक बैन साहित्य संशोधक भाग २ अंक ३, ४ में यह देखो जैनदर्शन बर: अंक. प्रकरण प्रकाशित हो चुका है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] यापनीय साहित्यकी खोज भेट न किये होंगे। सग्रन्थावस्थामें तथा परशासनसे भी मुक्त होना सम्भव ___ यापनीय संघके साहित्यकी एक बड़ी भारी उप- है। इसके सिवाय शाकटायनकी अमोघवृत्तिके कुछ योगिता यह है कि जैनधर्मका तुलनात्मक अध्ययन उदाहरणोंसे मालम होता है कि यापनीय संघमें श्रावकरनेवालोंको उससे बड़ी सहायता मिलेगी । दिगम्बर- श्यक, छेद-सत्र, नियुक्ति और दशवैकालिक आदि श्वेताम्बर मत भेदों के मूलका पता लगाने के लिए यह अन्योंका पठन-पाठन भी होता था अर्थात् इन बातों में दोनोंके बोचका और दोनोंको परस्पर जोड़नेवाला वे श्वेताम्बरियोंके समान थे । साहित्य है और इसके प्रकाशमें आये बिना जैनधर्मका अपराजितसरि यापनीय थे प्रारम्भिक इतिहास एक तरहसे अपूर्ण ही रहेगा। यापनीय संघकी मानताअोंका थोड़ा-सा परिचय यापनीय सम्पदायका स्वरूप देकर अब हम यह बतलाना चाहते हैं कि क्या सचमुच ही मैंने अपने 'दर्शनसार-विवेचना और उसके परि- कुछ यापनीय साहित्य ऐसा है जिसे इस समय दिगम्बर शिष्ट मं यापनीयोंका विस्तृत परिचय दिया है और सम्प्रदाय अपना मान रहा है, जिस तरह कि कुछ मप्रमाण दिया है । यहाँ मैं उसकी पुनरावत्ति न करके स्थानों में उनके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाश्रोको ? इसके मार मात्र लिख देता हूँ, जिससे इस लेखका अग्रिम — प्रमाण में हम मबसे पहिले मलाराधनाकी टीका श्रीभाग ममझने में कोई असुविधा न हो। विजयोदयाको उपस्थित करते हैं, जो अपराजितरि या ललितविस्तरा के कर्ता हरिभद्रसूरि, पटदर्शनसमुच्चय- श्रीविजयाचार्यकी बनाई हुई है। के टीकाकार गुणरत्नसूरि और पटप्राभूत के व्याख्याता यह टीका भगवती अाराधनाके वनिकाकार श्रुतमागरमूरि के अनुसार यापनीय संबके मुनि नग्न रहते पं. मदासुग्वनीके सम्मुग्य थी। मबसे पहले उन्होंने थ, मोरकी पिच्छि रखते थे, पाणितल भीनी थे, नग्न ही इम पर सन्देह किया था और लिखा था कि हम मूर्तियाँ पजते थे और वन्दना करनेवाले श्रावकों को ग्रन्थको टीकाका कर्ता श्वेताम्बर है। वस्त्र,पात्र, धर्मलाभ देते थे । ये सब बातें तो दिसम्बगियों जैमी कम्बलादिका पोपण करता है, इसलिए अप्रमाण है । थीं, परन्तु साथ ही वे मानते थे कि स्त्रियोंको उनी मदामुग्वनी चंकि यापनीय संघस परिचित नहीं थे, भवमें मोक्ष हो सकता है, केवली भीनन करत है और इमलिए व अपराजितसरिको श्वेताम्बरके सिवाय और १-२ देखो जैनहितैषी भाग १३ अंक कुछ लिख भी नहीं सकते थे । इसी तरह स्व. डाक्टर के. बी. पाटकको भी अमोघवृत्ति में श्रावश्यक छेद३ “या पंचजैनाभासैरंचलिकारहिनापि नग्नमूर्तिरपि एनकमावश्यकमध्यापय। इयमावश्यकमध्यापय । प्रतिष्ठिता भवति सा न वन्दनीया न चार्चनीया च ।" अमोघवृत्ति-२-२०३-४ षट्प्रामृनटीका पृष्ठ ७६ । श्रुतसागरके इस वचनसे भवता खनु छेदसूत्रं वोडन्यं । नियुक्तिरधीरव । मालूम होता है कि यापनीयों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें नियुक्ति धीते । ५-४-१३-४० नग्न होती थी क्योंकि यापनीय उनके पाँच जैनाभामोंके कानिकसूत्रस्यानभ्यायवेशकाखाः पठिताः । ३-२-४७ मतगत है। भयो चमाश्रमणैस्ते ज्ञानं दीयते १-२-२०, और १-१० Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष ३, किरण १ सूत्र, नियुक्ति प्रादिके उदाहरण देखकर शाकटायनको आचेलक्कुरेसियसेजाहररायपिंडकरियम्मे । श्वेताम्बर मान लेना पड़ा था, जो कि निश्चित रूपसे बद जपडिवक्कमणे मासं पज्जो सवणकप्पो।। पापनीय थे। इस गाथामें दश प्रकारके श्रमणकल्प अर्थात् अपराजितसरिके यापनीय होनेका मबसे स्पष्ट श्रमणों या जैन साधुश्रांके श्राचार गिनाये हैं। उनमें प्रमाण यह है कि उन्होंने दशवकालिक सूत्रपर एक सबसे पहला श्रमणकल्प श्राचेलक्य या अचेलकता या टीका लिखी थी और उसका भी नाम इस टीकाके निर्वस्त्रता है । साधुओंको क्यों नग्न रहना चाहिए, समान श्रीविजयोदया' रखा था। इसका जिक्र उन्होंने और निर्वस्त्रतामें कसा क्या गुण हैं, वह कितनी श्रावस्वयं ११६७ नम्बरकी गाथाकी टीकामें किया है- श्यक है, इस बातको टीकाकारने खूब विस्तारके माथ "दशवकालिकटीकाया श्रीविजयोदयायां प्रपं. लगभग दो पेजमें स्पष्ट किया है और इसका बड़े जोरोंसे चिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते ।" अर्थात् ममर्थन किया है। उसके बाद शंका की है कि यदि मैंने उद्गमादि दोषोंका वर्णन दशवकालिक टीका में किया ऐसा मानते हो, अचेलकताको ही ठीक समझते हो, तो है, इसलिये अब उसे यहाँ नहीं करता .। दिगम्बर फिर पूर्वागमोंमें जो वस्त्र-पात्रादिका ग्रहण उपदिष्ट है, सम्प्रदायका कोई प्राचार्य किसी अन्य सम्प्रदायके प्रा. मो कैसे ?. चार-ग्रन्थकी टीका लिखेगा, यह एक तरहसे अद्भुत-सी पूर्वागमोंमें वस्त्रपात्रादि कहाँ उपदिष्ट हैं, इसके बात है जब कि दिगम्बर सम्प्रदायकी दृष्टिमें दशका- उत्तरमें आगे उन पूर्वागमोंसे नाम और स्थानसहित लिकादि सूत्र नष्ट हो चुके हैं। वे इम नामके किसी उद्धरण दिये हैं। जिन श्रागमोंके वे उद्धरण हैं, अन्यके अस्तित्वमें मानते ही नहीं हैं। उनके नामोंसे और उन उद्धरणोंका जो अभिप्राय यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि श्वेतांबर है, उससे साफ समझमें श्रा जाता है कि वे कोई दिगसंप्रदाय-मान्य जो आगम ग्रन्थ है याफ्नीयसंघ शायद म्बर सम्प्रदायके आगम या शास्त्र नहीं हैं बल्कि वही उन सभीको मानता था; परन्तु ऐसा जान पड़ता है है जो श्वेताम्बर सम्प्रदायमें उपलब्ध हैं और कुछ पाठकि दोनोंके आगमोंमें कुछ पाठ-भेद था और इसका भेदके माथ यापनीय संघमें माने जाते थे। कारण शायद यह हो कि वर्तमान वल्लभोवाचना अम्मर ग्रन्थकार किमी मतका खंडन करने के लिए से पहलेकी कोई वाचना ( संभवतः माथुरी वाचना) उमी मतके ग्रन्थोंका भी हवाला दिया करते हैं और यापनीय संघके पाम रही हो। क्योंकि विजयोदया अपने मिद्धांतको पुष्ट करते हैं । परन्तु इम टीका टीकामें अागमोंके जो उद्धरण दिये गये हैं वे श्वेतांबर ऐमा नहीं है । यहाँ तो अपने ही आगामोंका हवाला भागमोंमें विल्कुल ज्योंके त्यों नहीं मिलते है। देकर अचेलकता सिद्ध की गई है और बतलाया है कि अचेलकताकी चर्चामें यापनीयत्व अपवादरूपसे अवस्था-विशेषमें ही वस्त्रका उपयोग जिस ४२७ नं० को गाथाकी टीकापरसे पं. सदा. किया जा सकता है। सुखजीने टीकाकारको श्वेतांबरी करार दिया है, वह अवमन्यसे पूर्वागमेषु वस्त्रपात्राविग्रहबमुपदिरं स्था (तत्क ) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४१६] यापनीय साहित्यकी खोज पहला उदरण 'प्राचार-प्रणिधि' का है और यह और पाल्पाकारवाला पात्र मिलेगा, तो उसे प्राण प्राचार-प्रणिधि दशवैकालिक सूत्रके आठवें अध्ययनका करूंगा ।। नाम है । उसमें लिखा है कि पात्र और कम्बलकी इन उद्धरणोंको देकर पूछा है कि यदि वस्त्रप्रतिलेखना करना चाहिए, अर्थात् देख लेना पात्रादि ग्राह्य न हो तो फिर ये सूत्र कैसे लिये जाते चाहिए कि वे निर्जन्तुक हैं या नहीं। और फिर कहा है है कि प्रतिलेखना तो तभीकी जायगी जब पात्र कम्बलादि हमके श्रागे भावना (प्राचारांगसूत्रका २४ पाँ होंगे, उनके बिना वह कैसे होगी ? दूसरा उद्धरण अध्ययन ) का उद्धरण दिया है कि भगवान् महावीरने अाचारांगसूत्र का है उसके लोकविचय नामके दूसरे एक वर्ष तक वस्त्र धारण किया और उसके बाद वे अध्ययनके पाँचवें उद्देश्यमें भी कहा है कि मिद अचेलक (निर्वस्त्र ) हो गये ।। पिच्छिका, र जोहरण, उग्गह और कटासन इनमेंसे कोई सूत्रकृतांगके पुण्डरीक अध्ययनमें कहा है कि साधु. उपाधि रक्खे । को किमो वस्त्रपात्रादिकी प्राप्ति के मतलबसे धर्मकथा नहीं कहनी चाहिए और निशीथसूत्रके दूसरे उद्देश्यमें इसके श्रागे वत्थेसणा (वस्त्रेपणा) और पाएषणा भी कहा है कि जो भिक्षु वस्त्र-यात्रोंको एक साथ ग्रहण ( पात्रषणा ) के तीन उद्धरण दिये हैं जिनका सारांश करता है उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त लेना पड़ता है।' यह है कि जो साधु ह्रीमान या लज्जालु हो, वह एक शंकाकार कहता है कि इस तरह सूत्रोंमें जब वस्त्रवस्त्र धारण करे और दूसरा प्रतिलेखनाके लिए रखे, ग्रहणका निर्देश है, तब अचेलता कैसे बन सकती जिसका लिंग बेडौल जुगुप्माकर हो वह दो वस्त्र धारण है ? इसके समाधानमें टीकाकार कहते हैं कि अगममें करे और तीमरा प्रतिलेखनाके लिए रक्खे और जिसे अर्थात् प्राचारांगादि में आर्यिकाओंको वस्त्रकी अनुशा शीनादि परिषह सहन न हो वह तीन वस्त्र धारण करे है परन्तु भिक्षुश्रीको वह अनुशा कारणकी अपेदा है। और चौथा प्रतिलेखनाके लिए रखे५ । यदि मुझे तंबी जिम भिक्षु के शरीरावयव लज्जाकर हैं और जो परीषह लकड़ी या मिट्टीका अल्पप्राण, अल्पबीज, अल्पप्रसार, - पुनश्चौक्तं तत्रैव-माबाबुपतं वा दारुगपत्त-माचारमणिधौ भणितं । २-३-प्रतिलिखे. वा महिगपत्तं वा अप्पपाणं अपनी अप्प सरिदं तथा स्पात्रकम्बलं ध्रुवमिति । असत्सु पात्रादिष कथं प्रति. अप्पकारं पात्रनामे सति परिगहिस्समीति । लेखना ध्रुवं क्रियते । ४-माचारस्यापि द्वितीयाध्ययनो वस्त्रपात्रे पदि नया कपमेतागि सूत्रावि लोकविचयो नाम, तस्य पथमे उद्देश एवमुक्तं । परिजे- नीयंते ? हणं पादपुषणं उम्गहं कडासणं अणदरं उपधि पावेज -परिसं चीवरपारि तेन परमोबके तुजिये। इति । ५-तथा वस्येसवाए कुत्तं तस्य एसेहिरिमणे सेगं बत्यं वा धारेज पडितहणं विदिगं, तस्य एसे बुग्गिये २- कहेज्जो धम्मक बत्तपत्ताविहेदुमिति । दुबे बरयावि-धारेजपडिलावंतिवियं । तत्थ एसे परिस्स ३-कसियाई बस्यकंचनाई जो मिक्यु परिग्गदिदिप्रापिहासस्स तगोवत्यावि-धारेज परिनेहल. पन्नादि मासिगं बहुगं इति। उत्थं। एवं एत्रनिदिने अवता इति । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ सहन करने में असमर्थ है वही वस्त्र ग्रहण करता है। पात्रग्रहण सिद्ध है तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि अचे और फिर इस बातकी पुष्टिमें आचारांग तथा कल्प२ लताका अर्थ है परिग्रहका त्याग और पांत्र परिग्रह (बृहत्कल्प ) के दो उद्धरण देकर आचारांगका एक है, इसलिए उसका त्यात्र सिद्ध है । अर्थात् वस्त्रऐसा उद्धरण दिया है जिसमें कारणकी अपेक्षा वस्त्र पात्र ग्रहण कारणसापेक्ष है । जो उपकरण कारणग्रहण करनेका विधान है और उसकी टीका करते हुए की अपेक्षा ग्रहण किये जाते हैं उनकी जिस तरह ग्रहणलिखा है कि यह जो कहा है कि हेमन्त ऋतुके समाप्त हो विधि है उसी तरह उनका परिहरण भी अवश्य करना जाने पर परिजीर्ण उपाधिको रख दे, सो इसका अर्थ यह चाहिए । इमलिए बहुतसे सूत्रोंमें अर्थाधिकारकी अपेक्षा है कि यदि शीतका कष्ट सहन न हो तो वस्त्र ग्रहण जो वस्त्र-पात्र कहे हैं सो उन्हें ऐमा मानना चाहिए कि कर ले और फिर ग्रीष्मकाल अा जाने पर उसे उतार कारणसापेक्ष ही कहे गये हैं। और जो भावना (श्रादे । इसमें कारणकी अपेक्षा ग्रहण कहा है । परन्तु चारांगका २४ वाँ अध्ययन ) में कहा है कि भगवान जीर्णको छोड़ दे, इसका मतलब यह नहीं है कि दृढ़ महावीरने एक वर्ष तक चीवर धारण किया और उसके (मजबूत ) को न छोड़े । अन्यथा अचेलतावचनसे बाद वे अचेलक हो गये, सो इममें बहुत-सी विप्रत्तिविरोध श्रा जायगा । वस्त्रकी परि जीर्णता कही गई है, पत्तियाँ हैं, बहुतसे विरोध और मतभेद हैं । क्योंकि कुछ प्रक्षालनादि संस्कारके अभाव मे, दृढ़का त्याग करने के लोग कहते हैं कि वीर जिनके उमवस्त्रको उसीदिन उस लिए नहीं हैं और यदि ऐना मानोगे कि संयमके लिए लटका देनेवालेने ही ले लिया था दूसरे कहते हैं कि १-आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया - वह काँटों और डालियों श्रादिसे छह महीने में छिन्न भिक्षणाम् । हीमानयोग्यशरीरावयवो दश्चर्माभिलख भिन्न हो गया था। कुछ लोग कहते हैं कि एक वर्षस मानबीजो वा परीषहसहने वा प्रमः स गड्ढाति। कुछ अधिक बीत जाने पर खंडलक नामक ब्राह्मणने २-हिरिहेतुकं व होइ देहदुर्गुळंतिदेहे जुग्गिदगे धारेज उस ले लिया था और दूसरे कहते हैं कि जब वह हवास सियं वत्थं परिस्सहाणं च ण विहासीति। उड़ गया और भगवान्ने उमकी उपेक्षा की, तो लट ३-द्वितीयमपि सूत्रं कारणमपेषय वस्त्रग्रहणमि- काने वालेने फिर उनके कन्धेपर रख दिया। इस तरह स्यस्य प्रसाधकं पाचारांगे विद्यते-पह पुण एवं जाणेज्ज । पातिकते हेमंतेहिं सुपडि वरणे से पथ पडिज़ अनेक विपत्तिपत्तियाँ होने के कारण इस बातमें कोई एणमुवधि पविद्वावेज्ज । तत्त्व नहीं दिखलाई देता । यदि सचेललिंग प्रकट करने -हिमसमये शीतबाधासहः परिमा चेलं तस्मि- के लिए भगवान्ने वस्त्र ग्रहण किया था तो फिर उमका निष्कान्ते प्रीष्मेसमायाते प्रतिष्ठापयेदिति कारणमपेक्ष्य विनाश क्यों इष्ट हुअा ? उसे मदा ही धारण किये ग्रहणमाख्यातं ।। परिजीर्णविशेषोरादानादानाम -.--.. परित्याग इति चेत् पचेलतावचनेन विरोधः । प्रक्षाल. स्यापि त्यागः सिद्ध एवेति । तस्मात्कारणापेतं वस्त्र गात्रनादि संस्कार विरहास्परिजीर्णता बस्न्य कथिता न ग्रहणं । यदुपकरणं गाते कारणमपेचप तस्य ग्रहणतु दस्यत्यागकथनार्थ पात्रप्रति ठापनासूत्रेणोक्तेति ।. विधिः ग्रहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यमेव । तस्मासंयमार्थ पात्रग्रहणं सिद्धयति इति मन्यसे, नैव। वस्त्रं पात्रं चार्थाधिकारमपेषय सूत्रेषु बहुषु पदुक्त अचेलता नाम परिग्रहत्यागः पात्रं च परिग्रह इति त- तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्रामम् ।' Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] यापनीय साहित्यकी खोज - रहना था और यदि उन्हें पता था कि वह नष्ट हो इसके बाद कहा है कि परीषहस्त्रोंमें (उत्तराध्ययनजायगा तो फिर उसका ग्रहण करना निरर्थक हुआ में) जो शीत-दंश-मसक तृणस्पर्श-परीषहोंके सहनके वचन और यदि पता नहीं था तो वे अज्ञानी सिद्ध होते हैं। हैं वे सब अचेलताके साधक हैं। क्योंकि जो सचेल या और फिर यदि उन्हें चेलप्रज्ञापना वांछनीय थी तो फिर सवस्त्र में उन्हें शीतादिकी बाधा होती ही नहीं है। यह वचन मिथ्या हो जायगा कि पहले और अन्तिम फिर उत्तराध्ययनकी ऐसी नौ गाथायें उद्धृत की है तीर्थकरका धर्म बाचेलक्य (निर्वस्त्रता ) था'। जो अचेलताको प्रकट करती हैं। इस तरह इस और जो नवस्थान (?) में कहा है कि जिस श्राचेलक्य श्रमणकल्पकी समाप्त की गई है। तरह मैं अचेलक हूँ उसी तरह पिछले जिन (तीर्थकर) इससे अच्छी तरह स्पष्ट होजाता है कि व्याख्याकार भी अचेलक होंगे, सो इससे भी विरोध अायगा । इसके यापनीय संघके हैं, वे उन सब आगमों आदिको मिवाय वीर भगवान के समान यदि अन्य तीर्थकरों के भी मानते हैं जिनके उद्धरण उन्होंने अचेलकताके प्रकरणमें वन थे तो उनका वस्त्र त्याग-काल क्यों नहीं बतलाया दिये हैं । उनका अभिप्राय यह है कि साधुओंको जाता है ? इसलिए यही कहना उचित मालम होता है नग्न रहना चाहिए; नग्न रहनेकी ही आगमोंकी आशा कि मब कुछ त्यागकर जब जिन (वीर भगवान ) स्थित है और कही कहीं जो वस्त्रादिका उल्लेख मिलता है मो धं तब किसीने उनके ऊपर वस्त्र डाल दिया था और उसका अर्थ इतना ही है कि यदि कभी अनिवार्य जरूरत वह एक तरहका उपसर्ग था । श्रा पड़े, शीतादिकी तकलीफ बरदाश्त न हो, या शरीर - बेडौल घिनौना हो तो कपड़ा ग्रहण किया जा सकता है १- यवभावानायामुक्त-परिसं चीवरधारि तेण परमचेलगो जिनोति तदुक्तं विप्रतिपतिबहुलत्वात् । कथं १ तेषामपि भवेत् । एवं तु युक्तं वक्तुं सर्वस्यागं कृत्वा कंचिदन्ति तस्मिनैव दिने तद्वस्त्रवीरजिनस्य विलम्बन- स्थिते जिने केनचिद्वस्त्रं वस्तुं निषि उपसर्ग इति । कारिणा गृहीतमिति । अन्येषण मासाच्छिन्नं तत्कण्टक ' शाखादिभिरिति । साधिकेन वर्षेण तद्वस्त्रं खण्डलक- २-इदं चाचेलताप्रसाधनपरं शीतदंगामसकतणग्रामणेन गृहीतमिति केचित्कथयन्ति । केचिद्वातेन स्पर्शपरीबहसहनवचनं परीषहसूत्रेषु । नहि स शीतापतितमुयेषितं जिनेनेत्पपरे वदन्ति विलम्बनकारिण दयो पावन्ते।' जिनस्य स्कन्धे तदारोपितमिति । एवं विप्रतिपत्ति बाहुल्या- -स्थानाभावसे यहाँ उत्तराध्ययनको चारही न्न रयते तत्वं । सचेललिंगप्रकटनार्थ यदि चेलग्रहणं जिनस्य नवादालायितम्यमा कि गाथाय दी जाता है- ' '.. च, यदि नश्यतीति ज्ञानं निरर्थकं तस्य ग्रहणं, यदि न परिचत्तेसु वत्येषु ण पुणो जमादिए, पचेनपवरोज्ञानमज्ञानस्य प्राप्नोति । अपि च चेलप्रज्ञापना बांछि- मिक्खू जिणरूबधरे सदा । अचेलगस्स बहस्स संजयस्स ना चेत् 'भाचेनको धम्मो पुरिमचरिमाणं' इति वचो तस्सियो, तबस सयमाणस्मयं ते मोवि विरारिणा मिथ्या मवेत्। ण में शिवारचं पाल पवित्तायं ण विजई, महंतु २-पदुक्तं 'यथाहमचेली तथा होउ पथिमो इति अम्गि सेवामि इदि मिल या चितए ॥ पारेजको प होक्खदिति ' तेनापि विरोधः। कि जिनानामितरेषां जो धम्मो जो वायं पुणहत्तरी,देसियो बढमाणेष पासेव वस्त्रत्यागकाल वीरविनस्येव किंम निर्दिश्यते यदि वस्त्रं वे महापा। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वर्ष ३, किरण परन्तु वह ग्रहण करना कारणसापेक्ष है और एक तरह प्राप्त हुआ था और श्रीनन्दिगणिके कहनेसे उन्होंने यह से अपवादरूप है । भगवान् महावीरकी वे उन सब टीका लिखी थी। वे श्रारातीय सरियोंमें श्रेष्ट थे। श्री भिन्न भिन्न कथाओंका उल्लेख करते हैं जो उनके कुछ विजय उनका दूसरा नाम था और शायद इसीसे इस काल तक वस्त्रधारी रहने के सम्बन्धमें श्वेताम्बर-सम्प्र- टीकाका तथा दशवकालिक टीकाका नाम श्रीविजयोदया दायमें प्रचलित है और दिगम्बर सम्प्रदायमें जिनका रखा गया है । कहीं जिक्र तक नहीं है। दिगम्बरे-सम्प्रदायके किसी भी संघको गुर्वावली या विजयोदया टीकाका यह एक ही प्रसंग उसे याप. पट्टावलीमें यह गुरुपरम्परा नहीं मिलती, और यह आरानीय सिद्ध करनेके लिए काफी है और इसी लिए यह तीय पद भी विनयदत्त.श्रीदत्त,शिवदत्त और अर्हद्दत्त,इन खास तौरसे पाठकोंके सामने पेश किया गया है । और चार प्राचार्योंके सिवाय और किसी भी श्राचार्य के लिए भी कई प्रसंग और उद्धरण दिये जा सकते हैं परन्तु व्यवहृत नहीं किया गया है । सर्वार्थसिद्धि टोकाके अनु उनमें जो दिगम्बर-यापनीय भेद हैं वे इतने सूक्ष्म हैं कि सारभगवान्के साक्षात शिष्य गणधर औरश्रुतकेलियोंके उन्हें जल्दी नहीं समझाया जा सकता। और उन पर बाद जो प्राचार्य हुए हैं और जिन्होंन दशवैकालिकादि विवाद भी किया जा सकता है। ___ सत्र उपनिबद्ध किये हैं वे श्रारातीय कहलाते हैं । · अपराजितसूरिकी गुरुपरम्परा श्रीविजयोदया टीकाके अनुसार अपराजिनसरि 1-"चन्द्रनन्दिमहाप्रकृत्याचार्यः प्रशिष्येण मारातीयसरिचलामणिना नागनन्दिगणिपादपभोपबलदेवसरिके शिष्य और चन्द्रनन्दि महाप्रकृत्याचार्यके सेवाजातमतिलवेन बलदेवसरिशिष्येण जिनशासनोखप्रशिष्य थे । नागनन्दिगणिकी चरण-सेवासे उन्हें ज्ञान रणधीरेण लब्धयशः प्रसरेणापराजितसृरिणा श्रीनन्दि इस विषयमें पापनीय संघकी तखना शुरूके गणिनावचोदितेन रचिता-" महारकोंसे की जासकती है। वे थे तो दिगम्बर सम्प्रदा- २ -पाशाधरने अपराजितको अपने ग्रन्थों में यकेही भनुयायी, श्रीकुन्दकुन्दकी नाम्नायके माननेवाले श्रोविजयाचार्यके नामसे भी लिखा है-" एतब श्रीऔर नग्नताके पोषक, परन्तु अनिवार्य पावश्यकता होने विजयाचार्यविरचितसंस्कृत मूलाराधनटीकायां सुस्थित पर वस्त्रका भी उपयोग कर लेते थे, यों वे अपने महोंमें सूत्रे विस्तरतः समर्पितं एव्यं ।" बस्त्र बोरकर नग्न ही रहते थे और भोजन के समय भी -अनगारधर्मामृत टीका पृ० ०७३ मग्न होनाते थे। श्रीश्रुतसागरसरिने षट्पाहर टीकामें ३-विनयधर श्रीदत्तः शिवदत्तोऽन्योहहत्तनामैते। इसे अपवादवेष कहा है पथा भारातीयाः यतयस्ततो ऽभवन्नापूर्वधराः ॥ २४ । ____ "कली किन म्लेच्छादयो नग्न एटा उपद्रवं पतीनां --श्रुतावतार कुर्वन्ति, तेन मण्डपदुर्गे भी वसन्तकीर्तिना स्वामिना -त्रयो वक्तारः सर्वज्ञतीर्थकरः इतरो वा श्रुतचांदिवेलायां सहीसादरादिकेन शरीरमाच्छाच पुन रेवतीभारातीय रचेति । स्तम्मुम्बति इत्युपदेशःकृतः संयमिना, इस्पपवादवेषः ।" __-अनागार धर्मामृतटीका पृ०६७३ तत्वार्थटीकामें उन्होंने इसे वन्यजिंग कहा है यथा- भारातीय पुनराचार्यः कालदोषासंगितायुमति "दम्पखिजिना असमर्था महर्षयाशीतकाबादौ कम्बला- बशिष्यानुप्रहार्थवावकालिकायुपनिवदं. तत्प्रमाणमर्थदिवंगृहीत्वा न प्रमालयन्ते न सीम्यन्ति न प्रयत्नादिकं तस्तदेवेदमिति बीरार्थवजलं घटगृहीतमिव। . कुर्वन्ति अपरकाले परिहरंनाति ।" '-मासूत्र २० Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातिकवीर निर्वाण सं०२४६६] यापनीय साहित्यकी खोज ६७ चंकि अपराजितसरिने दशवैकालिककी टीका लिखी थी, अर्ककीर्ति मुनिको मान्यपुर ( मैसूर राज्यके नेल मंगल शायद इसीलिए वे 'प्रारातीय-चूडामणि' कहलाते हो । ताल्लुकेका मौने नामक ग्राम ) के शिलाग्राम जिनेन्द्रदिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार दशवैकालिकादि अंगबाह्य भवनको एक गाँव भेंट किया गया है। उसमें स्पष्टतासे अन तो हैं; परन्तु उसकी दृष्टि में वे छिन्न होगये हैं और "श्रीपापनीय-नन्दिसंप पुंगागवावमूनगर" लिखा हुआ जो उपलब्ध है वे अप्रमाण हैं। अतएव दिगम्बर है। इस नन्दिसंघके अन्तर्गत उसकी शाखारूप पुंनागसम्प्रदायका कोई भी प्राचार्य इस पदवीका धारक वृक्षमूल नामका गण था । जिस तरह मूलसंघके नहीं है। अन्तर्गत, देशीय काणूर श्रादि गण हैं, उसी तरह यापयापनीयों का नन्दिसंघ नीयनन्दिसंघमें यह भी था। रायबाग'के शिलालेखमें गंगवंशी पृथ्वीकोङ्गणि महाराजका शक १६८ (वि. जो ई०स० १०२० का लिखा हुआ है, यापनीयसंघमं० ८३३) का एक दानपत्र' मिला है जो श्रीपुर पुनागवृक्षमूलगणके कुमारकीर्तिदेवको कुछ दान (शिरूर) के लोकतिलक नामक जैनमन्दिरको दिया गया है । इसी तरह कोल्हापुरके 'मंगलवारबस्ति' 'पौन्नल्लि' नामक ग्रामके रूपमें दिया गया था । उसमें नामक जैनमन्दिरकी एक प्रतिमाके नीचे एक शिलालेखर जो गुरुपरम्परा दी है वह इस प्रकार है-श्रीचन्द्रनन्दि है जिससे मालूम होता है कि पुन्नागवृक्षमूलगण गुरु, उनके शिष्य कुमारनन्दि, उनके फीतिनन्दि और यापनीयसंघके विजयकीर्ति पण्डितके शिष्य और उनके विमलचन्द्राचार्य । इन्हें श्रीमूल मूलगणाभि- रवियषण के भाई वोमियएणने उसकी प्रतिष्ठा कराई थी। नन्दित नंदिसंघ, एरे गित्तर नामक गण और मूलिकल इन दो लेग्वोंमें यापनीयमंत्र पुन्नागवतमूलगणका गच्छका बतलाया है । हमारा खयाल है कि जिस तरह उल्लेख तो है परन्तु नन्दिसंघका नहीं है, फिर भी यह मूलमंघके अन्तर्गत एक नन्दिसंघ है, उमी तरह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि नन्दिसंघ यापनीयों यापनीय संघके अन्तर्गत भी एक नन्दि संघ था । इसके में भी था और उसके अन्तर्गतपुन्नागवत मूलगण था । प्रमाणमें हम राष्ट्रकुटनरेश द्वि० प्रभूतवर्षके एक दानपत्रको पेश कर सकते हैं, जिसमें शक ७३५ (वि० सं० द्रावड़ सघम मा नान्दसष ८७०) को यापनीय-नन्दिसंघके विजयकीर्तिके शिष्य यापनीय संघ ही नहीं द्रविड़ या प्रमिल संघमें भी नन्दिसंघ नामका संघ था जिसका उल्लेख कई १- इण्डियन एक्टिक्वेरी २-१५६-१६ श्रीमूलमूलशरणामिनन्दित-नन्दिसंघान्वयएरेगित्तर नाम्नि १-जनज माफ वाम्मे हिस्टारिका सुसाइटी जिल्ल गणेमूविकल्पच्छे स्वच्छतरगुणकिरणप्रततिप्रहादित पृ. १७२-२०० सकललोकरचन्द्र इवापरश्चन्द्रनन्दिनाम गलासीत. २- श्रीमूलमूखशरणामिनन्दित' पाठ शायद ठीक . २-प्रो.केजी. कुंनगरने की मासिक पत्र नहीं है । सम्भव है पढ़नेवालेने 'गण' को 'शरण' 'जिनविजय' (सन् १९५३) में पह और पापनीबों पद लिया है। अन्य लेख प्रकाशित किये थे। इनका उखेल प्रोडपा. ३-०ए० जिल्ल १२ पृ०१५-१६...श्रीयापनीय- ज्यापने अपने पापनीय संघ' शीर्षक लेख किया है। नदिसंबधुवागमूबगो श्रीकीत्यांचार्यान्वये । देलो जैनदर्शन व अंक. .... . Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ शिलालेखों में मिलता है? और यह एक मार्केकी बात है कि. देवसेन सूरिने ग्रापनीयके समान द्रविड़ संघको भी जैनाभासों में गिना है? | प्रायः प्रत्येक संतमें मस; गच्छ, श्रन्वय, वाल आदि शाखायें रहती थीं। कभी कभी गण गच्छादिको संघ और संघको गण गच्छ भी लिम्ब दिया जाता था । मतलब सबका मुनियोंके एक समूहसे था । अनेकान्त 1 संघों और गोंके नामकी उपपत्ति इन संघों या गणों के नाम कुछ देशोंके नाममे जैसे द्रविड़, माथुर, लाङ -बागड़ श्रादि, कुछ ग्रामों नामसे जैसे कित्तूर ३, नमिलूर, तगरिल", श्रीपुर, हन मोगे श्रदि, और कुछ दूसरे चिन्होंसे रक्ते गये हैं । ·· इन्द्रनन्दिने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनिं शाल्मलिवृक्षमूलसे श्राये उनका अमुक नाम पड़ा, जोखड केसरमल से श्राये उनका श्रमुक और जां अशोक वाटिका से श्राये उनका अमुक | इस विषय में जो मतभेद हैं उनका भी उन्होंने उल्लेख कर १- श्रीमदमिक संघेस्मिन्नन्दिसंधेऽस्त्यरंगलः । अन्यवो माति वोऽशेषशास्त्रवारीश पारगः ॥ ... श्री द्रमिणगणदनन्दिसंघदा लान्वयदाचार्यावलि येले दोड़े !.... #T जैनशिलालेखसंग्रह पृ० ३१७ २- महुए जादो दाविडसंघो महामोहो । ३-७ - इन नामोंके स्थान कर्नाटक में अब भी हैं । afa, rog और meri नाम इन्हीं परमे रक्स्खे गये हैं । गिलूर और किसूर एक ही हैं। कित्तूरका पुराना नाम कीर्तिपुर है जो पुन्नाट देशकी राजधानी थी ।" परे' कनदीमें को कहते हैं । 'फितूर' और 'परे मिन्सूर' दोनों ही नाम नया गच्छ है । [वर्ष ३, किरण १ दिया है। यद्यपि वृक्षोंसे नामोंकी कोई ठीक उपपत्ति नहीं बैठती है फिर भी यह माननेमें कोई हर्ज नहीं कि शुरू शुरू में कुछ संघों या गणोंके नाम वृक्षोंपर से भी पड़े थे । शाक्मचिमा मताद्यतयोऽभ्युपगताः । सरमान्मुनयः समागताः, प्रथितादशोक पाटात्समागता ये मुनीश्वराः इत्यादि । ये पुन्नागवृक्षमूलगण और श्रीमूलमूलगण भी इसी तरह के मालूम होते हैं। पुंनाग नागकेसरको कहते हैं और श्रीमूल शाल्मलि या मेमरको । बंगला भाषा में मेमरको 'शिमूल' कहते हैं जो श्रीमूलका ही अपभ्रंश मालूम होता है । कनड़ीमें भी संभव है कि शिमूल या श्रीमूलमे ही मिलता जुलता कोई शब्द सेमर के लिए होगा | संस्कृत कोपोंमें नन्दि भी एक वृक्षका नाम है, इससे कल्पना होती है कि शायद नन्दिसंघ नाम भी उक्त वृक्षके कारण पड़ा होगा । ऐसी दशा में मूल संघके समान अन्य संघों में भी नन्दि मंत्र होना स्वाभाविक है । हमारा अनुमान है कि पृथ्वीकोङ्गणि महाराज - के दानपत्र चन्द्रनन्दि आचार्यके ही प्रशिष्य अपरा जिनसूरि होंगे। उक्त दानपत्र में उनके एक शिष्य कुमारनन्दिकी ही शिष्यपरम्परा दी है, दूसरे शिष्य बलदेव सरिकी परम्परा में अपराजिप सूरि हुए। होंगे। दानपत्र मूलमंत्र (दि० स० ) के नन्दिसंघ से पृथक्त्व प्रकट करनेके लिए 'श्रीमूलमू नगगाभिनन्दित विशेदिया गया है। क्या शिवार्य भी यापनीय थे ? अपराजितमूरि के विषय में विचार करते हुए मूल ग्रन्थ में भी कुछ बातें ऐसी मिली है जिनमे मुझे उसके कर्ता शिवार्य भी यापनीय संघ मालूम होते हैं। देखिए १ इम ग्रंथकी प्रशस्तिमें लिखा है कि श्रार्य जिननन्दि गणि, श्रार्य मर्ज़गुप्त गण और आर्य मित्र Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक धीर निर्वाण सं०२४१५] यापनीय साहित्यकी खोज नन्दि गणिके चरणोंसे अच्छी तरह सूत्र और उनका होती है कि पूर्वाचार्योंकी रची हुई गाथायें उनकी उपअर्थ समझकर और पूर्वाचार्योंकी रचनाको उपजीव्य जीव्य है। बनाकर 'पाणितलभोजी' शिवार्यने यह आराधना रची' जिन तीन गुरुओंके चरणोंमें बैठकर उन्होंने भाराहम लोगोंके लिये प्रायः ये सभी नाम अपरिचित धना रची है उनमें से 'सर्वगुप्त गणि' शायद वही । हैं । अपराजितसूरिकी परम्पराके समान यह जिनके विषयमें शाकटायनकी अमोघवृत्तिमें लिखा है कि परम्परा भी दिगम्बर सम्प्रदायकी पहावली या "उपसर्वगुसं व्याख्यातारः" १-३-१०४ । अर्थात् गुर्वावली श्रादिमें नहीं मिलती। शिवकोटि और शिवा- सारे व्याख्याता या टीकाकार सर्वगुप्त से नीचे है । र्य एक ही हैं जो स्वामि समन्तभद्रके शिष्य थे, इस चूंकि शाकटायन यापनीय संघके थे इसलिए विशेष धारणाके सही होनेका भी कोई पुष्ट और निर्धान्त सम्भव यही है कि सर्वगुप्त यापनीय संघके ही सूत्रों प्रमाण अभी तक नहीं मिला है । जो कुछ प्रमाण इस या आगमोंके व्याख्याता होंगे। मम्बन्धमें दिये जाते हैं, वह बहुत पीछेके गढ़े हुए शिवार्यने अपनेको "पाणितलभोजी" अर्थात् मालूम होते हैं । स्वयं शिवार्य ही यह स्वीकार नहीं हाथोंमें ग्रास लेकर भोजन करनेवाला कहा है। यह करने कि मैं समन्तभद्रका शिष्य हूँ। विशेषण उन्होंने अपनेको श्वेताम्बर सम्प्रदायसे अलग अपराजितसूरि यदि यापनीय संघके थे तो अधिक प्रकट करनेके लिए दिया है । यापनीय साधु हाथ पर सम्भावना यही है कि उन्होंने अपने ही सम्प्रदायके हो भोजन करते थे। ग्रन्थकी टीका की होगी। श्राराधनाकी ११३२ वीं गाथामें भेदस्स मुणिस्स अाराधनाकी गाथायें काफी तादादमें श्वेताम्बर अक्खणं' ( मेतार्यमुनेराख्यानम्) अर्थात् मेतार्य मुनिसूत्रोंमें मिलती हैं, इससे शिवार्यकेइस कथनकी पुष्टि की कथाका उल्लेख किया है जहाँ तक हम जानते हैं 1-प्रज्जजिणांदिगविमग्नमित्तणंदी। दिगम्बर साहित्यमें कहीं यह कथा नहीं मिलती है । भवगमियपायमूले सम्म सुतंच पत्थं च ॥१ यही कारण है कि पं० सदासुखजीने अपनी वचनिकापुवायरियविवदा उपजीवित्ता इमा ससत्तीए। में इस पदका अर्थ ही नहीं किया है। यही हाल भाराहणा सिवओण पाणिवबमोइणा रहदा ॥ पं०जिनदास शास्त्रीका भी है । संस्कृतटीकाकार पं० अाशाधरजीने तो इस गाथाकी टीका इमलिए विशेष नहीं २-पापनीय संघ मुनियोंमें कीर्तिनामान्त अधिः की है कि यह सुगम है परन्तु प्राचार्य अमितगतिने पतासे है पाल्पकीर्ति, रविकीर्ति, विजयकीर्ति, . इसका संस्कृतानुवाद करना क्यों छोड़ दिया ! धर्मकीर्ति, भादि नन्दि, चन्द्र, गुप्त नामान्त भी है । जैसे-जिननन्दि, मित्रनन्दि, सर्वगुप्त, मागचन्द, नेमिचन्न -भगवती माराधना पनिकाके पन्समें उन धादि नामोंसे किसी संघका निश्चयपूर्वक नियंय नहीं गायामोंकी एक सूची दीजो भूवाचार और भाराष. हो सकता है। मामें एक्सी है और पं.सुखवाबजी हारा सम्पादित पंच ३-ऐजो भगवती चाराधना पनिकाकी भूमिका प्रतिकमय सूत्र में मूलाचारकी ग्न गाथाओंकी सीबी पृ.३-। गो भागात 'पावरपकनिषु'कि' में भी है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ मेतार्य मुनिकी कथा श्वेताम्बर सम्प्रदायमें बहुत आराधनाको ६६५ और ६६६ नम्बरकी गाथायें प्रसिद्ध है। वे एक चाण्डालिनीके लड़के थे परन्तु भी दिगम्बर सम्प्रदायके साथ मेल नहीं खाती हैं । किसी सेठके घर पले थे । अत्यन्त दयाशील थे । एक दिन उनका अभिप्राय यह है कि लन्धियुक्त और मायावे एक सुनारके यहाँ भिक्षाके लिए गये । उसने उसी चाररहित चार मुनि ग्लानिरहित होकर दपकके योग्य समय सोनेके जौ बनाकर रखे थे। वह भिक्षा लानेके निर्दोष भोजन और पानक (पेय) लावें । इसपर पं०सदालिए भीतर गया और मुनि वहीं खड़े रहे जहाँ जो सुख जीने आपत्ति की है और लिखा है कि “यह भोजन रक्खे थे। इतनेमें एक क्रौंच पक्षीने श्राकर वे जौ चुग लानेकी बात प्रमाणरूप नहीं है।" इसी तरह 'सेजोगालिये । सुनारको सन्देह हुआ कि मुनिने ही जौ चुरा लिये सणिसेजार' आदि गाथापर (जो मूलाचारमें भी हैं । मुनिने पक्षीको चुगते तो देख लिया था परन्तु कहा है ) कविवर वृन्दावनदासजीको शंका हुई थी और नहीं । यदि कह देते तो सुनार उसे मार डालता और उसका समाधान करने के लिए दीवान अमरचन्दजीको जो निकाल लेता । सुनारने सन्देह हो जानेसे मुनिको पत्र लिखा था । दीवानजीने उत्तर दिया था कि "इसमें बहुत कष्ट दिया और अन्तमें भीगे चमड़े कस दिया वैयावृत्ति करने वाला मुनि आहार आदिसे मुनिका उपजिससे उनकाशरीरान्त होगया और उन्होंने केवल शान कार करे; परन्तु यह स्पष्ट नहीं किया है कि आहार प्राप्त किया । मेरी समझमें यह कथा दिगम्बर सम्प्रदायमें स्वयं हाथसे बनाकर दे । मुनिकी ऐसी चर्या आचाहो भी नहीं सकती। रांगमें नहीं बतलाई है। दश स्थितिकल्पोंके नामवाली गाथा जिसकी आराधनाका चालीसवाँ 'विजहना' नामका टीकामे अपराजितसूरिको यापनीय संघ मिद्ध किया अधिकार भी विलक्षण और दिगम्बर सम्प्रदायके लिए गया है, जीतकल्प-भाष्यको १९७२ नं० की गाथा अभूतपूर्व है, जिसमें मुनिके मृत शरीरको रात्रि भर . है । श्वेताम्बर सम्प्रदायकी अन्य टीकात्रों और निर्य- जागरण करके रखनेकी और दूसरे दिन किसी अच्छे क्तियोंमें भी यह मिलती है और प्राचार्य प्रभाचन्द्रने स्थानमें वैसे ही (बिना जलाये) छोड़ पाने की विधि अपने प्रमेयकमलमार्तण्डके स्त्री-मुक्ति-विचार (नया -तारिजणा मत्तं (पाणं) उपकप्पंति भगिनाएडीशन पृ० ३३१ ) प्रकरणमें इसका उल्लेख श्वे. गए पाउग्गं। ताम्बर सिद्धान्तके रूपमें ही किया है इंडियमवगददोस प्रमाइणो नदिसंपणा ॥ -"नाचालेक्यं नेष्यते (अपि तु ईध्यते व) 'मा. २-सेजोगासणिज्जा तहो उवहिपरिखिहणचेलककुरेसिय सेज्जाहर रायपिंडकियिकम्मे' इत्या हि उबगाहो। देः पुरुष प्रति दशविधस्य स्थितिकल्पस्य मध्ये -मूलाचार " तदुपदेशात् ।" माहारोसयभोषयविकिस वंदवादीवं । -रेखो भावरपक-नियुक्ति गाथा ८६०-७० । -भगवती भाराधना ३.. चारणालिनीके सबकेका मुनि होना भी शायद ।-देखो म. पा. परविकाकी भूमिका पृड विगम्बर-सम्मायके मामला नहीं है। और ३। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण-सं०२४६६] यापनीय साहित्यकी खोज वर्णित है' । अन्य किसी दिगम्बर ग्रन्थमें अभी तक यह पं० श्राशाधरकी टीकामें लिखा है-'माचारस्प जीवस्य देखने में नहीं आई। कल्पस्य च गुणप्रकाशना । एतानि हि शास्त्राणि १५४ नम्बरकी गाथामें कहा है कि घोर अवमोदर्य रत्नत्रयतामेव दर्शयन्ति ।' पं० जिनदास शास्त्रीने हिन्दी या अल्प भोजनके कष्टसे बिना संक्लेश बुद्धि के किये अर्थमें लिखा है कि प्राचार शास्त्र, जीत शास्त्र,और कल्य हुए भद्रबाहु मुनि उत्तम स्थानको प्राप्त हुए । शास्त्र इनके गुणोंका प्रकाशन होता है। अर्थात् तीनांक दिगम्बर सम्प्रदायकी किसी भी कथामें भद्रबाहुके मतसे इन नामोंके शास्त्र हैं और यह कहनेकी जरूरत इस ऊनोदर-कष्टके सहनका कोई उल्लेख नहीं है। नहीं कि श्राचारांग और जीतकल्प श्वेताम्बर सम्प्रदाय ४२८ वें नम्बरकी गाथा में आधारवत्व गुणके में प्रसिद्ध हैं धारक श्राचार्यको 'कप्पववहारधारी' विशेषण दिया है इन सब बातोंसे मेरा अनुमान है कि शिवार्य भी और कल्प-व्यवहार निशीथ सूत्र श्वेताम्बर मम्प्रदायके यापनीय संघके प्राचार्य होंगे । पण्डित जन सावधानीसे प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं । इसी तरह ४०७ नम्बरकी गाथा में अध्ययन करेंगे तो इस तरहकी और भी अनेक बात मूल नियापक गुरुको खोजके लिए परसंघम जानेवाले मुनि ग्रन्थमें उन्हें मिलेंगी जो दिगम्बर सम्प्रदायके साथ मेल की 'भामार-जीव-कप्पगुणदीवणा' होती है। विजयोदया नहीं खातीं । मैने तो यहाँ दिग्दर्शन मात्र किया है । टीकामें इस पदका अर्थ किया है—'माचारस्य जीव- साम्प्रदायिक श्राग्रहसे और पाण्डित्यके जोरसे खींच-तान संशितस्प कल्पस्य च गुण प्रकाशना ।' और करके मेल बिठाया जा सकता है, परन्तु इतिहासके १-देखो भ. प. वचनिकाकी भमिका पट १२ विद्यार्थी ऐसे पाण्डित्यसे दूर रहते हैं, उनके निकट और १३ । सत्यकी खोज ही बड़ी चीज़ है। २-मोमोदारिए घोराए भावाहप्रसंकिलिटमदी। अन्तमें मैं फिर इस बातपर जोर देता हूँ कि याप घोराए विगिछाये पडिवएणो उत्तमं ठाणं नीय संघके साहित्यकी खोज होनी चाहिए, जो न केवल ३-चोइस दसणवपुग्वीमतामदीसायरोम्व गंभीरो।। हमारे प्राचीन मन्दिरोंमें ही बन्द पडा है बल्कि विजयोकप्पवबहारधारी होदिहु भाधारवं णाम ॥ दयाटीका और मूलाराधनाके समान उसे हम अबतक ४ मापारजीदकप्पगुणदीवण्णा भत्तसोधिनिमंझा । कुछका कुछ समझते रहे हैं। प्रज्जवम्माव-शाधवतुही पल्हादणं च गुणाः ॥ विद्वानोंसे प्रार्थना है कि वे श्रीवट्टकेरि श्राचार्यके यही गाथा जरासे पाठान्तरके साथ १३० ३ नम्बर मूलाचारकी भी जाँच करें कि कहीं वह भी तो यापनीय पर भी है उसमें 'उही पल्हादणं च गुणाः' की जगह संघका नहीं है। कुछ कथाग्रन्थ भी यापनीय संघक 'भत्ती पल्हादकरवंच' पाठ है। मिल सकते हैं। . YA Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- -- - - - मातृत्व ८ भगवत जैन! - - -- -- PuwaunuAmruarMumruary । 'फूलों की कोमलतामें, ज्योत्स्ना की स्निग्धताके भीतर और प्रकृतिके सु-विस्तृत-अंचलमें र 5 मिलती है मातृत्वकी हृदय-इष्टभावना' ! 'अ-कपट-प्रेम और आत्मीयताके पवित्र-बन्धनोंसे अलंकृत रहता है-मातृत्व !' . ' जिसे समग्र-संसारकी निधियों भी नहीं खरीद सकती ! जो अमूल्यतासे ध्रुव सम्बन्ध रखता है ........... NLINLIN.NLINLM.NLINLITLINI समृद्धिकी गोदमें बैठे हुये इस छोटेसे परिवारको उर्लभ दृष्टान्तोंमें उसे कहना चाहिए-नमूना! इसीकी आवश्यकता थी कि, तमसान्वित-भवन श्रालो जैसी कि प्रायः देखने-सुनने में नहीं आती, कित हो ! सुघड़, दृष्टि-प्रिय वल्लरी सफल, स-पुष्प हो! यह वैसी ही बात थी !...... और वह हो सकता था एक पुत्र-रखकी प्राप्तिके द्वारा वसुदत्ता थी बड़ी, और वसुमित्रा थी छोटी । दोनों ही!... बालकका जन्मोत्सव एक महान् त्रुटि की पूर्ति के में अपार-स्नेह,अगाध-प्रेम ! और दोनों ही अनिंद्य सुन्दरी, रूपमें मनाया गया ! न बड़ी कम, न छोटी ज्यादह ! उज्वल-भविष्यका क्रान्तिमय-पिण्ड-सा, घह सुको. पणिक-वर समुद्रदत्त अपनी दोनों स्त्रियोंकी हार्दि- मल-शिशु ! ऐसा लगता, जैसे परिवार के अपरिमितकता पर अतीव प्रसन्न ! घरमें स्वर्ग-सुख ! मनोमालि- हर्षका साकार केन्द्र-स्थल हो ! या-हो तीनों अधिकारी न्य, ईर्षा, देष और स्वभावतः होने वाला गृह-कलह संरक्षोंके मोदमय जीवनका प्रथम-अध्याय ! दिन-कानाममात्रको भी नहीं ! इससे अधिक चाहिए भी क्या ? दिन बीत जाता, रातके दो-दो पहर निकल जाते; तब फिर पति-प्रेम भी न्याय--संगत-दोनोंको बराबर बरा- भी वह बच्चेको खिलाते, चुमकाग्ने और आनन्द लेते पर मास था! दिग्वलाई देते ! परीक्षा के लिए बैठे विद्यार्थीकी भांति दिन आनन्दमें बीतते गए। जैसे वह अध्ययनमें संलग्न हो ! और बार-बार फेल . इसी समय वसुमित्राको प्रसूति हुई । मरुभूमिमें होनेके बाद, मिला हो परीक्षार्थियोंकी पंक्ति में बैठनेका से हरियाली पनपी ! चिर-पिपासित नेत्रों की तषा अवसर !... रामन होने को आई ! देखा-नवनीत-सा, बालक ! इसके बाद भी-ममुद्रदत्तको एक बात और देखने चांद-सा सुन्दर,चांदनी-सा पाहादकर! सारा घर प्रसन्न- को मिली, जो उनके लिए असीम अानन्द-दायक थी! तामें बने उतराने लगा ! और दूसरे लोगोंके लिए विस्मय-जनक ! वह यह कि Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] मातृत्य - वसुमित्राको माँ बनते देखकर भी, प्रथम-पत्नी-वसुदत्ता- व्यापारके सुनहरे-प्रलोभनों और निवास-नगरकी ईर्षालु न हुई ! न उसके हृदयमें विषादका अंकुर ही असुविधात्रोंने समुद्रदत्तको नगर छोड़ देनेके लिये विवश उगा ! बल्कि वह और भी सरस-हृदय, विनोदप्रिय और किया । कुछ दिन बात टालमटल पर रही ! श्राखिर श्रानन्दी बनती गई ! वह दिन श्राकर ही रहा, जब समुद्रदत्त अपने छोटे से बालक जितना वसुदत्ता पर खेलता, प्रसन्न रहता, परिवारको लिए, राजगही या उपस्थित हुए !... उतना दूसरों पर नहीं ! वह अपनी माँ से भी अधिक उन दिनों 'राजगृही' महाराज श्रेणिककी राजधानी वसुदत्ता पर हिल गया ! इसका कारगा ?-मौलिक थी। जो अपनी न्याय-निष्टा और कर्तव्य-परायणताके नहीं ! यही कि पालन-पोषणकी सावधानी और स्नेह- सबब काफ़ी ख्याति उपार्जन कर रहे थे !...उनके पूर्ण-दुलार ! इन्हीं चीज़ोंकी तो बालकको ज़रूरत थी। अाधीनस्थ एक ऐसी शक्ति थी, जो उनसे अधिक विज, उस छोटेसे सुन्दराकार मॉम-पिण्डको अभी सांसारिक- चतुर और राज-नीतिमें पारंगत थी। उसकी विलक्षणता गम्भीर और विशद-अभिलाषायाने दबाया ही कहाँ था, के द्वारा होने वाले रहस्य-मय, उलझन पूर्ण मामलोंके जो दिन प्रति बढ़ने वाली आवश्यकताएँ-उत्पीडन न्याय, संसार के लिए चर्चा के विषय बन जातं थे ! सहदती ? थोड़ा सा क्षेत्र और सीमित-इच्छा !... योगी-शासक-वर्ग उन न्याय-पूर्ण रहस्योद्घाटनको देख___ स्वर्ग और नरककी परिभाषा करते समय यदि सांसा- सुन अवाक रह जाता, दांतो तले उंगली दाब जाता ! रिक दृष्टिकोणको अधिक तरजीह दी जाए तो यही फल उस साकार-शक्ति का नाम था-अभयकुमार ! सामने आयेगा कि जहाँ मैत्री है, प्रेम है, हार्दिकता है, जो महाराजका प्यारा पुत्र था। प्र गाकी गंभीर वहीं स्वर्ग है । और नरक उसकी संज्ञा है-जहाँ कलह, और आशा-पूर्ण मुखरित वाणी थी ।''दूमरे शब्द हत्या, पशुत्व और श्रात्म-हननकी साधनाएँ सद्भाव में जनताका सहायक-नेता और अधिनायक सेनापति रखती हैं !... था। इसलिए कि शासनकी बागडोर अभी उसके हाथमें तो ऐसे ही स्वर्गीय-मुखाम बढ़ने लगा वह नवजात- नहीं थी-युवराज था--यह ! शिशु ! जिसके पास–अन्य, शैशव-विभूतिवानोंसेद्विगणित-मातृत्व था ! क्या चर्चा उसके भाग्योदय __ थोड़ा समय और निकल गया। की? अचानक समुद्रदत्त पर रुग्णना का प्रहार हुआ ! हम अरुचिकर-यवनिका-पातने सारे घरकी प्रसन्नताको श्रदर्शनीय बना दिया !''दोनों नारी हृदय भयाकुल कई वर्ष आए और चले गए ! हो, तमसाच्छन्न-भविष्यकी डरावनी-कल्पनामें लीन होने इस बीचमें कितना युगान्तर हुआ, इसका टीक लगे ! यथा-साध्य उपचार करनेमें कुछ त्रुटि न रह बतला सकना कठिन है ! दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, जाए, इसका सतर्कता-पूर्वक ध्यान रखा जाने लगा ।... अयण और वर्षने समय समयमें जो परिवर्तन किया, जब तक संज्ञा-शून्य न हुए, किंचित भी होश और वह सोचनेकी बात है !... 'वाणी-प्रकाशनकी सामर्थ्य रही, बराबर समुद्रदच न. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ रियोंके हृदयोंको सान्त्वनात्मक शब्द और अमर श्राशा, बालकके मुकुलित-मुखको निरख निरख, सन्तोष प्रकट करते रहे !···लेकिन जब जीवन- नाटकके अन्त होनेका समय श्रा पहुँचा, तब किसीकी एक न चली ! और ·· ? — और ड्राप-सीन होकर ही रहा ! अपने विश्व के ज्ञाता भित्रग्वरोंकी चेष्टाएँ, बहुमूल्य, दुर्लभ प्राप्य श्रौषधियोंकी रामबाणकी तरह दुर्निवार-शक्तियां, चिताकी राखकी भांति बेकार —– निष्फल — साबित हुई ! फिर...? - विवशताका अवलम्ब ! श्रनेकान्त दो नारी- कण्ठोंके हृदयवेधक क्रन्दनसे मदनकी चहार दीवारें निनादित होने लगीं ! प्रकम्पित होने लगा. - वायु-मण्डल !! रौद्रताका ताण्डव !!! लुट गया, सौभाग्य- सिन्दूर ! · १ ** [ ३ ] [वर्ष ३, किरण १ ति-परिवार यहां श्री बसा है ! कुछ दिन हुए तभी ! ये दोनों स्त्रियां स्वर्गीय-सेठकी सहधर्मणी हैं । बालक पर अब तक दोनोंकी समान ममता दिखलाई देती रही है। पता नहीं, यथार्थ में माँ कौन है - इस सुन्दर बालक की...?..." इस पर 'मेरा पुत्र है !' 'नहीं, मेरा है !" पंचगण दंग !... विस्मित !! श्राश्चर्यान्वित !!!... क्या निर्णय दें ? इन सबके इतिहास से अनभिज्ञ ! वह इतना ही जानते हैं - 'जाने कहांसे श्राकर यह छोटा-सा स-विभू प्रजाके माननीय - प्रतिनिधियोंने राज- सत्ताका भय दिखलानेका रूपक बांधते हुए कहा - 'एक पुत्रकी दो माताएँ नहीं हो सकतीं ! अवश्य ही,तुम दोनोंमें से एक का कहना गलत है ! शायद तुम नहीं जानतीं कि, इस प्रकार जिम्मेदारी कार्यमें झूठ बोलना तुम्हारे लिये कितना हानिकारक हो सकता है ! बात अभी पंचायत के अधिकार में है, जो प्रत्येक तरह की सहानुभूति तुम लोगों को दे सकती है ! और अगर पंचायत इस उल नको नहीं निपटा सकती तो उसका अर्थ-झगड़ेका दर्बार में पहुँचना और मिथ्याभाषिणीको कष्ट मिलना होता है ! ... सोचलो एकबार ! खुला सत्य है— यह ।' 'पुत्र मेरा है । इसे मिथ्या नहीं ठहराया जा सकता' मुदत्ताने दृढ स्वर में कहा । तीसरे दिन पंचायत के सामने एक नई समस्या थी, नया मज़मून !....... 'गलत ! झूठ कह रही है-बहिन ! पुत्रकी माँ, मैं हूँ ! पुत्र मेरा है !' वसुमित्राने कम्पितकहा गया- 'जिसका यह पुत्र है, वही सेठजीकी स्वरमें व्यक्त किया !..मुंह पर थी अमर - उदासी ! अपार- विभुतिकी स्वामिनी है !" 'प्रमाण – सुबूत ? - पूछा गया । 'सुबूत ?' - वसुमित्रा सोचमें पड़ गई ! बोली'सत्यके लिये भी सुबूतकी जरूरत होती है— भाई ? ... माँ, अपने पुत्रको कह सकने भरका अधिकार नहीं रखती ? - उसके लिए भी सुबूत चाहिए ? यही सुबूत १ है कि यह मेरा पुत्र है, मेरा ही लाल है !' ... पलंग पर पड़ा बालक शिशु जात कल्पनाओं के साथ खेल रहा था ! विकार वर्जित मुखपर खेल रही Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं० २४६६] - मृदु - मुस्कान !... वसुमित्रा ने एकबार ममता-मयी दृष्टिसे बालककी ओर देखा और सिसकने लगी, जैसे उसके मातृत्वको ठेस लगी हो, किया गया हो निर्दयता पूर्वक उसपर श्राघात ! थी प्रमुख निर्णायकने अबकी बार वसुदत्ताकी श्रीर ताका !... वह बोली- 'ये सम्बन्ध सुबूत के मुहताज नहीं, क्रिया तलाती है ! माँका नाता हार्दिक नाता होता है, वह जबर्दस्ती किसी पर लादा नहीं जा सकता ! न उसके भीतर भ्रमके लिए स्थान ही है ! निश्चय ही वसुमित्रा को धन-लिप्साने इतना विवेकशून्य बना दिया है कि वह मातृत्व-तकको चुरा सकनेकी सामर्थ्य खोज रही है !' न सुलझी, आखिर जटिल - उलझन ! लौट श्राए पंच ! कौन निर्णय दे कि कौन यथार्थ में माँ है, और कौन धनप्राप्ति के लिए दम्भ रचने वाली ? दोनों की पुत्र पर समान -ममता, समान-स्नेह है ! श्राजसे, श्रभीसे, नहीं, जबसे समुद्रदत्तने यहाँ डेरा डाला, तभीसे लोगोंने इमी प्रकार देखा है ! प्रारम्भसे ही यह भ्रम जड़ पकड़ता रहा है !. * [ ४ ] न्यायालय में ! - महाराज-श्रेणिकने गंभीरतापूर्वक वस्तु-स्थिति पर विचार किया। लेकिन समस्याका हल न खोज मके ! कहना पड़ा - 'इसका न्याय-भार अभयकुमारको दिया जाय !' और तभी उभय पक्ष के व्यक्ति युवराज राज-नीतिपण्डित - अभयकुमार के दरबार में उपस्थित हुए. ! मातृत्व ७५ अनेक विद्वान - सभासद श्रौर कौतूहलकी अजय प्रेरणा द्वारा प्रेरित जन-समूह विद्यमान था ! सब, इस विचित्र न्यायको देखने के लिए लालायित थे !... तीक्ष्ण बुद्धि द्वारा दम्भके माया जाल से मातृत्वको खोज निकालना था !... 'पुत्र किसका है ?" 'मेरा...!' 'नहीं, मेरा है !" 'तो फिर झगड़ा क्या है' दोनोंका ही सही ! दोनों प्रेम करती हो ?' 'हाँ !' – दोनोंका एक ही उत्तर ! 'लेकिन प्रेम और मातत्य दो अलग-अलग चीजें हैं। प्रेम सार्वजनिक है और मातृत्व व्यक्तिगत ! प्रेम दोनों कर सकती हो, लेकिन माँ दो नहीं बन सकतीं !' श्मशान शान्ति ! कोई चिन्ता नहीं ! न्यायकी कसौटीको झूठ भुलावा नहीं दे सकता ! अगर अब भी चाहो, सच बतला दो ! अभयकुमारने दोनांकी श्रोर समानतासे देखते हुए कहा । मेरा... पुत्र है !' वसुमित्रा वाष्पाकुलित कण्ठसे निकला ! 'झूठ कह रही है, पुत्र मेग है !'- • वसुदत्ताने जमी हुई श्रावाज़ में निवेदन किया । 'ठीक !' अभयकुमारने प्रहरीस कहा- 'एक बुरा लाश्रो !' बुरा लाया गया ! दर्शक - नेत्र विस्फारित हो, देखने लगे ! वसुमित्राका मुँह सूखने लगा ! श्राँखें निर्निमंत्र !... वसुदत्ता अटल खड़ी रही ! दूमरे ही दल बालकको लिटाया गया ! हाथमें चमचमाता हुश्रा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ अनेकान्त वर्ष ३, किरण १ छुरा लेकर अभयकुमारने कहा- 'जब दोनों ही भरे स्वरमें—'बालककी माँ वसुमित्रा है ! उसीके पास इसकी माँ हैं तो न्याय कहता है-दोनोंको बराबर- मातृत्व है ! ममता, मोह, और हार्दिकता सभी कुछ बराबर अधिकार है ! उसी न्यायकी दुहाई देकर इसके प्रमाण हैं।! ....वमुदत्ता प्रेमकी श्राड़में धनकी अभिमैं बच्चे के दो-टुकड़े कर, दोनोंको दे देना चाहता हूँ ! लाघिणीहै-कोरा दम्भ है उमका! वह मातृत्वकी पवित्रकहो, ठीक है न ?'-एक भेद-भरी निगाहस चारों ओर महानतासे कोमों दूर है !...विपुल-विभूतिको ठुकरा कर देखा ! ___ भी जो बालकका जीवन सुरक्षित चाहता है, वही ___ ...और उत्तरकी प्रतीक्षा किए बिना ही छुरा बालक आदर्श मातृत्व है !' के शरीर पर रखने लगे कि...! उपस्थित जनता न्याय शैलीकी भूरि-भूरि प्रशंसा ___ 'न मारो, बच्चेको !... उभीका पुत्र है, मैं तो करने लगी! अभयकुमार पर सभासदोंकी श्रद्धा-सी व्यर्थ ही झगड़ रही थी !...मैं कुछ नहीं कहती-कुछ उमड़ पड़ी ! नहीं चाहती, पर बच्चेको न मारो ! फूल-मा बच्चा...!' मुँहसे अनायास निकला-'वाह !'.... अविरल-श्राँसुत्रोंकी धारा बहाती हुई वसुमित्रा * * पगलीकी तरह दौड़ी ! वह इस समय अपने 'श्रापे' में न थी ! नहीं जानती थी-कहाँ है ? कौन है ? क्या कर इम के बादरही है ?... बस, अब इतनी ही बात कहना और शेष है कि ___और वसुदत्ता ?-अपने स्थान पर शलीके लहेकी मातृत्वको मिश्री-मा मधुर कल-कण्ठ-मा-'माँ' कहने भांति अचल खड़ी थी ! जैसे प्रतीक्षा कर रही हो- वाला बालक मिला और मातृत्वको कलंकित या दम्भ अर्ध-खण्ड बालककी ! विपुल-सम्पत्तिका प्राधा-भाग ! माबित करने वाली वसुदत्ताको मिला-अपमान, घृणा अभयकुमार के मुंह पर उपाकी सुनहरी मुस्कान की दृष्टि और राज्य-दण्ड !!! खेल उठी ! छुरेको दूर फेंक कर बोले-दृढ और उमंग सुभाषित __ "तुम गोराईमें चन्द्रमाको भी मात करने वाले हो तो क्या, यदि वाणीमें कट-वाक्य भरे पड़े हैं। एक जापानी नीतिकारका कहना है-"रत्नमें पड़ा हुआ दाग खराद पर चढ़ाकर निकाला जा सकता है, परन्तु हृदयमें लगा हुआ कुवाक्यका दारा मिटाया नहीं जा सकता ।" __"वाणी व्यक्तित्वका परिचय देनेमें प्रथम है, क्योंकि अन्य गुण तो साथ रहने पर धीरे-धीरे प्रकट होते हैं, पर बाणीकी गरिमा तत्काल प्रकट होती है । इसके द्वारा सर्वथा अपरिचितको भी थोड़े वार्तालाप ही स्नेह और सहानुभतिक सूत्रमं बान्धा जा सकता है। दिव्य वाणी बोलने वालोंके लिये संमारमें चारों तरफ-अमीर-गरीब, परिचित-अपरिचित सबके द्वार स्वागतके लिये खेल रहते हैं। उनके मगमें लोग पलक-पाँवड़े बिछा देते हैं । ऐसा सम्मान छत्रधारी सम्राट होने पर भी शायद ही कोई पा सके।" Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस विश्ववंद्यविभूतिका धुंधला चित्रण [ले-श्री देवेन्द्रजी जैन] सगवान् महावीरका जीवन संसारके उन इनेगिने हुमा देखकर उनके साथी राजकुमार तथा सामन्त-पुत्र " जीवन रस्लोंमेंसे है जिनकी दमकती हुई प्रकाश- भाग खड़े हुए, पर वीरने निर्भयतापूर्वक सर्पके कनको रेखाने भूले-भटके विश्वको सुपथ पर लगाया था। रोध गमा, अन्तमें वीरके चरणोंकी चोटसे पाहत हुए महावीर-जन्मके पूर्वमें संसारकी हालत विखकुल उस महानागरूपधारक मापाची देवने पीरके चरणोंको गिर चुकी थी । मानवोंके दिमाग प्रायः गुलाम थे। चूमकर मा मांगी तथा उनका नाम 'महावीर' रखा। पंडितों और पुरोहितोंकी भाशा पालन करना ही उनका न जाने ऐसी कितनी घटनाएँ वीरके दिव्य जीवनमें घटी धर्म बन गया था। उस समय धर्मकी वेदीपर जितने होंगी, जिनं वे बीला ही समझते रहे । अस्तु । प्राणियोंका बलिदान किया गया था उतना शायद समय दिन-रातके पंख लगाकर उड़ता गया। बीर विश्वके इतिहासमें कभी भी न हुआ होगा । बखिवेदियों के सुन्दर शरीरसे यौवनकी मदमाती रेखाएँ फूट पड़ीं। पर चढे प्राणियोंके छिन्न-भिन्न रुएड मुण्डोंके संग्रहसे हि- पिताने विवाह के लिए प्रस्ताव किया । परन्तु वीरने मालय जैसी गगनचुम्बी चोटियाँ चिनी जासकती थीं और ढ़तापूर्वक किन्तु नन्नता भरे शब्दोंमें कहा-पिताजी ! रक-प्रपातसे गंगा-यमुना-सी नदियाँ बहाई जा सकती मेरे जीवनका ध्येय गुमराह विश्वको सम्मार्ग दिखलाना थीं । विश्वकी उस बेबसी और बेकसीके दिनों में वीरका और ऊँचे उठाना है। अतः मैं शादीका सेहरा बंधानेके जन्म इन्द्रपुरीसे इठखाते और नन्दनवन-से विकसित, लिये अपनेको असमर्थ पाता हूँ। यह मेरी तपस्याका कुण्डलपुर नगरमें हुआ था । उनके पिताका नाम था सबल बाधक है।' सिद्धार्थ और माताका नाम था त्रिशला देवी। पथेष्ट माताने ममता भरी-धाणामें कहा-बेटा ! तेरे वैभव-सम्पन्न माता-पिताका अपने इकलौते माल पर बिना मैं जीवित न रह सकुंगी । मो मेरी माँखोंके तारे! अधिक प्यार था; अतः इनका खाखन-पालन भी निराली मेरे जाने वाल ! तेरी यह किशोरावस्था, उठता हुमा शानसे दुमा था। यौवन, गुवाबी बदन, खम्बी लम्बी भुजाएँ, विशाल . बालकपनसे ही वीर एक चतुर एवं निर सिवादी स्थन और यह सुहावना सुकुमार शरीर या तपस्वामें थे। श्री एवं कोमल किशोरावस्था में ही वे ऐसे भगार मुखसा देने के लिये है? प्रसकों का सामना सहन ही में कर चुके थे जिनकी प्रत्युत्तरमें बीरने कहा-मां ! यह भापका केवल कल्पना भी मौजूदा नवयुवकों का दिख रहवा सकती व्यामोह है । या कोई भी दयानु दिन पह बात है। एक दिनकी घटना इस प्रकार है-पव-कीलाके गवारा कर सकता है कि जब दर्दभरे नारोंसे नमके भी समय सीमासे एक विशालकाय कृय सर्पको लिपटा मौन-प्रदेश गंबरठे हों, त्राहिमाम् नाविमाएकी Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ अनेकान्त आवाजें उसके कानों से टकराकर अनन्तमें व्याप्त हो रहीं हों तब वह रंगरेलियों में मस्त रहे ? यदि विषय-भोग मानवको संतुष्ट और मुक्तकर सकते तो भरत जैसे भारतेश्वर क्योंकर भव्य भाडारोंको ठुकराकर वनकी राह लेते ? वीरके इस प्रकारके एक एक करके सभी शब्द आग धधकते शोले थे, जिन्होंने मांकी ममताका जनाज़ा जला डाला । और तब राजमाताने दीक्षाकी आशा देवी । वीर भी दुनियाँकी ऐशो-इशरत को ठुकराकर वनके उस शाम्त प्रदेशको चले गये जहाँ प्रकृति अपनी अनुपम छटा दिखला रही थी । वनके उस हरियाले वैभव वे भी अपनी सदियों से बिछुड़ी निधिको खोजने में व्यस्त हो गये ! अब उनका जीवन एक तपस्वी जीवन था । वह बाल सुलभ- चंचलता विलीन हो चुकी थी । वहाँ न राग था, न रंग और न द्वेष तथा दम्भ । कर्मों पर विजय हासिल करके धारम विकास करना उनकी एकमात्र साधना थी, जिसके लिये वे कठोर से कठोर यातना भी सहनेको कटिबद्ध थे । अतः उन्होंने अपनी सारी शक्तियाँ इसी मोर्चे पर लगादीं । [ वर्ष ३. किरण १ करने में अपना अहोभाग्य मानती थी। बर्फीली, नुकीली एवं तवा-ली तपो दरदरी चट्टानें उनको शासन थीं । पर यह सब आयोजन अपनी मुक्ति तथा संसारके उद्धार के लिये था, न कि महादेवकी तरह पार्वतीको रिझाने के लिये अथवा अर्जुनकी तरह शत्रु संहार के वास्ते । धन्त में बारह वर्षकी कड़ी तपस्या के बाद उन्हें सफलता - देवीने अपनाया और वे केवलज्ञानको प्राप्त कर विश्वोद्धारको निकल पड़े। उन्होंने संसारको सत्य और अहिंसाका पूर्ण सारगर्भित मार्मिक उपदेश दिया विश्वको भाईचारेका सफल पाठ पढ़ाया और मानवोंकी दिमाग़ी गुलामीको दूर कर उन्हें पूर्णस्वाधीनता (मुकम्मिल धाज़ादी) प्राप्त करने का मार्ग सुझाया, जिसे आज भी पराधीन भारतकी कोटि कोटि जनता एककण्ठसे पुकार रही है। इस प्रकार अपना धौर लोकका हितसाधन करके वीर भगवान् ७२ वर्षकी उम्र में मुक्तिको प्राप्त हुए और लोकके अग्रभागमें जा विराजे । कंकरीजी, नुकीली, ऊबड़-खाबड़ जमीन उनका बिस्तर थी और खुला आसमान था चादर ! इस सेज के सहारे सर्दी की बर्फीलो रातें और गर्मी के बाग-से दिन यों ही बिता देते थे । समाधि उनकी साधना का साधन थी कोमल सेख तथा मुलायम गतीचों पर धाराम करने वाला उनका सुकुमार शरीर काफी कठिन एवं कृश हो चुका था । वर्षाकी बज्रभेदी बौछारें उन्हें महला जातीं, गर्मीकी सनसनाती पढें तपा जातीं और सर्दीकी ठंडी हवा उनसे किल्लोले यह है उनके विशाल जीवनकी नन्हीं सी कहानी, जो कि उनके जीवन पटपर धुंधलासा प्रकाश फेंक सकती है । वास्तवमें बीरका जीवन एक ऐसा महान् ग्रन्थ है जिसके प्रत्येक पत्रके प्रत्येक पृष्ठकी प्रत्येक पंक्ति में 'अहिंसा महान् धर्म है' 'ब्रह्मचर्य ही जीवन है' 'सत्य कहीं नहीं हारता' 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चरित्र ही मोक्षमार्ग है' - जैसे मुक्तिपथ-प्रदर्शक सूत्र भरे पड़े हैं। सोचो - यदि भगवान् महावीरका जीवन-प्रन्थ न होता तो फिर हम जैसे अपश इन विस्मृत महान् सूत्ररत्नोंकी झांकी, कहाँ, कैसे और किससे पाते ? ७२ वर्षके लम्बे चित्रण में वीरका जीवन क्रमसे Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] उस विश्ववंद्य विभूतिका धुंधला चित्रण ७६ भनेक रूपोंमें भाता है । कभी यह मामलीलाके नामक किताब खिताबमें ऐनेका साहस हो सका। भावेगमें सर्पराजको रोंधते हैं. कभी नग्न साधुके वेशमें यह ध्रुव सत्य है कि यदि भगवान महावीर म होते कर्मोके खिलाफ जिहाद बोल देते हैं और कभी एक तो विश्व अपने कोने-कोनेमें कलकत्ताका कालीघाट उपदेशक्के रूपमें निखिल विश्वको मंगलमय मार्गकी होता और पगपग पर पतित पावन कही जानेवाली मोर इंगित करते हैं। किन्तु उन सब रूपोंमें एक ही गंगा और यमुनाकी जगह नरककी रक्तमयी वैतरणी झलक झलकती है, और वह यह कि तुम निडरता एवं इठलानी इतराती-सी नज़र माती। तब शायद हमारा मञ्ची लगनसे सत्य और अहिंसापर कायम रहो. आत्म और आपका भी जीवन किसी हवनका शाकल्य बमा बलमें विश्वास रखो, फिर प्रागके धधकते शोले झक दिया जाता। मोर आँधीका अंधड़ और तूफानी बादल भी तुम्हारा पर यह उस विश्ववन्ध विभूतिके महान् जीवनकी कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे। बस, यही सफलताकी सबी अमर देन है, जो कि हम आज इस बर्बरता और कुंजी है । उस समय उनकी उच्चत्तम शिक्षाओं को प्रशान्तिके युगमें भी सत्य और अहिंसाके सहारे बाधा विश्वने हृदयसे माना और उनके अनुकूल पाचरण भी भोंकी दुर्जय चट्टानोंको चीरकर अपने ध्येयकी भोर बन किया । फलनः एकबार फिर विश्व-प्रेमकी लुप्त लहर रहे हैं। लहरा उठी। वीरका जीवन आज भी हमें गाँधीके रूप में अपनी परन्तु खेद है कि कुछ असे बाद फिर वहो धार्मिक संस्कृति एवं सभ्यता पर स्थिर रहनेको 'गित कर कटुता और हत्याके नज़ारे भारतभू पर पनप उठे ! रहा है । अतः माओ, उनकी शासन जयन्तीके जिनके प्रत्यक्ष सबूत कलकत्तेके कालीघाटके रूपमें पुनीत अवसर पर-श्रावणकृष्णप्रतिपदाके दिनअाज भी मौजूद हैं, जिसे यदि धार्मिक हत्या सदन उनके दिम्यसंदेशको विश्वके कोने कोने में पहुँचानेकी मज़हबी ज़िबहखाना-स्लाटर हाउस) भी कहा जाय योजनाकर अपने कर्मभ्यका पालन करें, उनके शणमे नो अत्युक्ति न होगी। नया इन्हींकी बदौलत ही उऋण होनेका यन करें और जीविन जौहरके जरिये मिस मेयो-सी गैरजिम्मेदार बीको भीभारतसे विज्ञान- जगतीमें जिन्दादिली भरदं, जिसमें कि सारा विश्व निलक, धर्मप्रधान देशको 'मदर मान इंडिया' आजादी एवं अमनचैन से रह सके । विविध-प्रश्न प्र०-इन कर्मों के क्षय होनेसे आत्मा कहाँ जाती है? लिये इसका पुनर्जन्म नहीं होता। 3:-अनंत और शाश्वत मोक्षमें । प्र-केवलीक क्या लक्षण हैं ? प्र.-क्या इस आत्माकी कभी मोक्ष हुई है ? 30-चार घनघाती कर्मों का क्षय करकं और शंष 30-- नहीं। चार कर्मों को कृश करके जो पुरुष त्रयोदश गुणप्र०--क्यों ? स्थानकवी होकर बिहार करते हैं, वे कंवली हैं। 30-मोक्ष प्राप्त प्रात्मा कर्म मलसे रहित है, इस -रामचन्द्र Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मजदूरोंसे राजनीतिज्ञ [ -बाद माईवषाल जैन, बी. ए. बी. टी.] गक ज़माना था जब कि राष्ट्रोंके भाग्य-विधाता-कुछ कान्तके पाठकोंके लिए यहाँ दिया जाता है:-- Srने गिने प्रसिद्ध तथा उच्च घरानोंसे सम्बन्ध जर्मनीका डिक्टेटर हर हिटलर ईट-मिट्टी ढोनेवाला रखते थे और साधारण जनताके लिए उन पदोंकी मज़दूर था और बादमें वह वीभानामें मकानोंको रंगने आकाँक्षा करना 'झोपड़ीमें रहना और महलोंके स्वप्न का काम करता था। देखना' समझा जाता था। किन्तु इतिहास ऐसे उदा- इटलीका डिक्टेटर मुसोलिनी एक कसाईका नौकर हरणोंसे भरा पड़ा है जिनमें व्यक्तित्वशाली, पराक्रमी था और अपने काममें असफल था। तथा वीरपुरुषोंने अत्यन्त साधारण स्थितिसे उठकर एस्थोनिया-जो कि बालटिक समुद्रके किनारे एक महानता प्राप्त की और राज्यों तकको हासिल किया है। छोटी सी रियासत है-का प्रेजीडेण्ट कौनस्टैटिन पैट्स उनके संचालन में महत्वपूर्ण कार्य किया है । भारतवर्ष में एक मकान बनानेवालेका लड़का है और वह पहले चाणक्य, हैदरअली, शिवाजी, क्लाइव, वारनहेस्टिंगस, समाचारपत्रों में काम करके अपनी आजीविका कमाता इंग्लैण्हमें रैम्जेमैकडानल्ड, फारिसमें नादिरशाह, फ्रांसमें था। उसकी अपनी बहुत ही थोड़ी सी भूमि है। नेपोलियन, इटलीमें मैजेनी, अमेरिकामें अब्राहमलिंकन कौनस्टैण्टिनका दायाँ हाथकार्ल ऐनशपलू प्रान्तश्रादि ऐसे बहुतसे प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, मंत्री तथा राजा रिक मंत्री भी समाचार पत्रोंके दफ्तरमें काम करनेवाला हुए हैं जिनके नाम आज भी सबको विदित हैं। था। प्रजातंत्रवादके इस युगमें आज साधारणसे सा- डेन्मार्कका प्रधान मन्त्री थोरवाल्ड स्टानिग लुहारधारण मनुष्यको भी बड़ा बननेके उतने ही मौके मिल का लड़का है । और उसे बारह वर्षकी छोटी उम्र में ही सकते हैं जितने कि बड़े आदमियोंको । इस बातसे तम्बाकूके कारखाने में काम करने जाना पड़ा था। ग़रीबोंको प्रोत्साहन मिलना चाहिए कि उनके लिए भी किन्तु उसमें महत्वाकांक्षा थी। शीघ्र ही वह समाचारबड़स बड़े पदोंके लिए द्वार खुला हुआ है। प्रश्न पत्रोंमें लिखने का काम करने लगा। अब भी वह केवल योग्यता प्राप्त करने का है। डेन्मार्कके प्रसिद्ध समाचारपत्रके सम्पादकमंडलमें है । अभी इस सितम्बरके (Illustrated Weekly स्वीडनका प्रधान मंत्री पी०ए० हैनसन ईट बनाने. of India) 'हल्लस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इण्डिया' में वालेका लड़का है और उसे बचपनमें हो वह काम एक लेख सपा है, जिसमें वर्तमान यूरूपके कई देशोंके करना पड़ा था। इसके पश्चात् उसने भी समाचार डिक्टेटरों, प्रधानमंत्रियों तथा राजनीतिज्ञोंका हाल पत्रोंके लिए लिखना प्रारम्भ किया। निकला है, जो कि अपनी बाल्यावस्था में अत्यन्त सा- नारवेका प्रधानमन्त्री जौहन नटयार्डसवोल्ड मज़धारण मजदूर या कृषक थे। उस लेखका सारांश अने- दूर तो नहीं पर एक कृषकका लड़का है। उसने लकड़ी Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :............ ........ o n कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] विविध प्रश्न annanciati चीरने के कारखानेमें काम प्रारम्भ किया और फिर ही छोटे घरका था और उसका बाप एक छोटी-सी रंलकी लाइनों पर प्लेट रखनेका भी काम किया है। सरायका मालिक था। ___ रूमानियाका श्रेष्ठ प्रधानमन्त्री जनरल ऐवरश्यु बलगेरियाका एक और डिक्टेटर ऐलैग्जैण्डर एक कृषकका लड़का था। स्टाम् बोलिएकी एक किसानका लड़का था, जिसका रुमानियाका कृषि मंत्री बाई श्रोन मिहिलेच एक छोटा-सा खेत था। कृषकसे अध्यापक बना था। वह उच्च प्रादर्शीका एक लैटवियाका प्रेजीडेण्ट फार्लिस उलमानिस छोटे अग्छा व्याख्याता था। कुलका है। यह सन् १९३६ से इस पदका कार्य कर रूमानियाका एक और उच्चकोटिका राजनीतिश रहा है। बेटियान एक रेलवे इंजीनियर था । ___रूसका वर्तमान डिक्टेटर जोसेफ़ स्टेलिन पहले रूमानियामें ही एक पादरी पैट्रीमा क्रिस्टी राज्य- एक समाचारपत्रका काम करनेवाला था। युद्धमन्त्री का कर्ता-धर्ता था और उसकी मृत्यु मार्च सन् १६३६ मार्शल वोरोशिलोफ़ने सात वर्षको अल्पायुमें कोयलेकी खानमें मजदूरी कमानी प्रारम्भ की थी। उसका बाप जेकोस्लोवेकियाका भूतपर्व प्रधानमन्त्री डाक्टर एक खान खोदनेवाला था । और उसकी माता किसी बेनेस एक किसानका लड़का था और उसने अपने घरमें नौकरनी थी। प्रयत्नसे ही इस उच्चपदको प्राप्त किया था। समस्त रूसकी पुलिसका अफसर निकोलाई यजोफ़ बलगेरियाका माहीद विधाता स्टाम-बुलौफ बहुत एक कारखाने में पहले मजदूर था । विविध प्रश्न प्र०-केवली तथा तीर्थकर इन दोनोंमें क्या अन्तर है ? प्र०--उसे किसने उत्पन्न किया था ! उ.-केवली तथा तीर्थकर शक्तिमें समान हैं, परंतु उ०—उनके पहलेके तीर्थकरोंने । तीर्थकरने पहले तीर्थकर नाम कर्मका बन्ध किया प्र०-उनके और महावीरके उपदेशमें क्या कोई है, इसलिये वे विशेषरूपसे बारहगुण और भिन्नता है ? अनेक अतिशयोंको प्राप्त करते हैं। उ०-तत्त्व दृष्टि से एक ही है । भिन्न २ पात्रको म.-तीर्थकर घम घूम कर उपदेश क्यों देते हैं ? वे लेकर उनकाउपदेश होनेसे और कुछ काल तो वीतरागी हैं। भेद होनेके कारण सामान्य मनुष्यको भिन्नता उ०-पर्वमें बाँधे हुए तीर्थकर नामकर्मके वेदन- भवश्व मालम होती है, परन्तु न्यायसे देखने ___ करनेके लिये उन्हें अवश्य ऐसा करना पड़ता है। पर उसमें कोई भिन्नता नहीं है। म.-माज कल प्रचलित शासन किसका है? ० इनका मुख्य उपदेश क्या है ? । उ.-श्रमण भगवान् महावीरका । उ०-उनका उपदेश यह है कि आत्माका उद्धार करो, प्र-क्या महावीरसे पहले जैन-दर्शन था। मात्मामें अनन्त शक्तियोंका प्रकाश करो, और उ०-हो, था। इस कर्मरूप अनन्त दुःखसे मुक कहो।-राजन्य Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनोंकी स्थूल रूपरेखा [ले०-श्री पं० ताराचन्द जैन, दर्शनशास्त्र विश्वके रहस्यको स्पष्ट प्रकट करने वाले उपाय, उलझी हुई घटनाएँ नज़र आने लगती हैं और उस हेतु अथवा मार्गको 'दर्शन' कहते हैं; या यं कहिये घटना के विवेचनमें यह कहावत अक्षरशः चरितार्थ होने कि जिसके द्वारा संसारकी कठिनसे कठिन उलझी हुई लगती है-'ज्यों केराके पातके पात-पातमें पात' । इतने गुत्थियाँ सुलझाई जाती हैं उसका नाम 'दर्शन' है । दुरूह, अत्यन्त गढ़ और दुरवबोध विश्वतत्वके रहस्य के जिस प्रकार संसारकी प्राकृतिक रचना-पर्वत, समुद्र, खोज निकालनेका भार दर्शन (IPhilosophy) ने स्थल, देश, नद-नदी, पशु, पक्षी, झरना, जल-प्रपात अपने ऊपर लिया है । दार्शनिकका भावुकतापूर्ण हृदय आदिके मौन्दर्य और भयंकरताको देखकर कविका हृदय अपनी सामर्थ्य भर इस रहस्य के ग्बोजनेमें तन्मय हो प्लावित हो जाता है । म हृदय कवि जीवन के उत्थान जाता है। पतनकी घटनाओंस अपनेको पृथक् नहीं रख सकता, जानी हुई दुनियाँ में सुदीर्घ कालमे अनेक दार्शउनमें तन्मय हो जाता है और भावनापूर्ण कविका हृदय निक होते चले आय हैं, उनमें जिनकी जहाँ तक मूझ संमारके परिवर्तनोंस सिहर उठता है । उसी प्रकार दार्श- और प्रतिभा पहुँच सकी वहाँ तक उन्होंने विश्व के रहस्य निकका प्रतिभापर्ण मन भी मंमारकी उथल-पुथल और की विशद एवं भद्र विवेचनाएँ की हैं । अनेकोंने अपना जीवनकी विषम-अवस्थाओंसे निजकोदूर नहीं रग्ब सकता माग जीवन विश्व प्रपंच के ममझने तथा ममझकर उन्हींमें घुल मिल-सा जाता है । दार्शनिक उन सब उसको मानव-ममा न के मामने रग्वनेमें लगाया है। अवस्थाश्रोंकी गुत्थियोंको मुलझानेका पर्ण प्रयास करता बहुतसं दर्शन उत्पन्न होने के बाद अपने जन्मदाताओं के है । मैं क्या हूँ ? यह संसार क्या है ? मैं कहाँस प्राया माथ ही विलीन होगये और कतिपय दर्शन अपने अनु और मुझे कहां जाना है ? इत्यादि प्रश्नोंकी उधेड़ बुनसे यायियोंकी पिरलता अादि उपयुक्त माधनाभावके कारण दार्शनिकका मस्तिष्क सराबोर रहता है । इसी तरहके अपनी नन्हों सी झाँकी दिखाकर नाम शेष होगये । प्रश्नोंकी उपज ही दर्शन शास्त्रका श्राद्य स्थान है और जिन दर्शनोंके आविष्कारोंने अपने दर्शनोंका संसारमें इस तरहके प्रश्न प्रायः प्रत्येक दार्शनिकके उर्वर प्रचार किया और लोगों के एक बड़े समूहको अपने मत मस्तिष्कमें उत्पन्न हुआ करते हैं। का अनुयायी बनाया, वे आज भी मारमें जीते-जागते विश्व के रहस्यका उदघाटन करना कितना कठिन नजर आ रहे हैं। जो दर्शन आज भी मानव-समाजके है, यह एक दार्शनिक ही समझ सकता है। कोई एक मामने मौजूद है, व मभी उच्च, पूर्ण-सत्य एवं निदोष मामूली सी घटनाको ही ले लीजिये; जब उस घटनाका नहीं कहे जा सकते । इनमें कोई विरला दर्शन ही विश्लेषण करने लगते हैं तो उसमें उसी तरह की अनेक उच्चतम, सर्वसत्वहितैषी, पर्णसत्य और निर्दोष होना Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनोंकी कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६६ ] 1 चाहिये । यद्यपि यह कह सकना बहुत कठिन है कि श्रमुक दर्शन पूर्वोक्त उच्चतम श्रादि विशेषणांके सर्वथा उपयुक्त है, तथापि दर्शनों की उपलब्ध विवेचनानों पर ध्यान आकृष्ट करने के बाद जिस दर्शनकी विवेचना मस्तिष्क की उलझी हुई गुत्थियों को सुलझावे और संसार का कल्याण करने में अमोघ साबित हो वही सर्वोत्तम समझा जाना चाहिये । दृश्यमान जड़ और चेतन जगत के रहस्यका अन्वे पाकिस दर्शनने कितना किया है, यह जानने के लिये उन दर्शनोंकी विवेचनाओं पर एक सरसरी नज़र डाल लेना आवश्यक है । यद्यपि दुनियाँ के तमाम दर्शनोंके मन्तव्योंके विषय में यहाँ ऊहापोह नहीं किया जा सकता और न उन सब दर्शनोंकी मुझे जानकारी ही है, तो भी यहाँ पर कतिपय मुख्य दर्शनों (जिन दर्शनों में ही प्रायः अन्य दर्शनोंका अन्तर्भाव हो जाता है ) की तरफ़ ध्यान श्राकुष्ट करना बहुत ज़रूरी है । संसार में जितने भी दर्शनोंका जन्म हुआ है उनका चार भागों में बटवारा किया जा सकता है— (१) व दर्शन जो केवल ईश्वरको ही मानते हैं, (२) एकमात्र प्रकृति अर्थात् जड़ पदार्थ को मानने वाले दर्शन, (२) वे दर्शन जो ईश्वर, जीव और प्रकृतिको मानते हैं, (४) श्रौर वं दर्शन जो जीव तथा अजीव प्रकृतिको स्वीकार करते हैं । इन चार मान्यताओं से किसी न किसी एक मान्यता में इस अखिल विश्व मण्डलका रहस्य छिपा हुआ है, जिसके लिये ही उक्त मान्यताएँ और उनकी शाखा प्रशाखारूप दर्शन उपन्न हुए । यद्यपि इन मान्यताओं और इनसे सम्बन्ध रखने वाले दर्शनों की रूपरेखा खींचनेके लिये महती विद्वत्ता तथा समयकी प्रचुरताकी बहुत श्रावश्यकता है, ये बातें जिन विद्वानोंके पास संभव हों वे 'दर्शन' पर एक अच्छा स्थल रूपरेखा 디 ग्रन्थ निर्माण कर सकते हैं। इस समय मेरा न तो दर्शन ग्रन्थ निर्माण करनेका विचार है और न मुझे उतनी बड़ी जानकारी ही है । परन्तु यहाँ पर ( इस लेख में ) इन मान्यताओं पर कुछ प्रकाश डालना ज़रूरी है, जिससे यह मालूम हो सके कि अमुक मान्यता वा दर्शन सत्य तथा मंगलप्रद है और अमुक मान्यता वा दर्शन मिथ्या और मंगलप्रद है । उपर्युक्त ईश्वर श्रादिकी मान्यताओं का ठीक ज्ञान होते ही दार्शनिक के मस्तिष्क में उठने वाले 'मैं क्या हूँ ?' यह विश्व क्या है ? इत्यादि प्रश्नोंका सरलतासे हल निकल आता है । और इन प्रश्नोंका निर्णय होते ही दर्शनका कार्य समाप्त हो जाता है, इसलिये कहना होगा कि प्रकृति, जीव और ईश्वर इन तत्वोंमें ही विश्वका रहस्य श्रभिभूत हो रहा है तथा इनका विवेचन करना अत्यन्त श्रावश्यक है। जिन दर्शनोंमें केवल ईश्वर ही माना गया है, उनका कहना है कि-से सुदीर्घ काल पहले इस चराचर विश्वका कोई पता न था, एकमात्र ईश्वर है। का सद्भाव था। इस मान्यताको स्वीकार करने वाले दर्शनोंमें मुस्लिमदर्शन, ईसुदर्शन श्रादि प्रमुख हैं । मुसलमान और ईमाई दार्शनिकों का कहना है कि से बहुत समय पहले एक समय ऐसा था अब इस जड़ श्रौर चेतन जगत् का नामोनिशान भी न था, केवल एक अनादि, अनन्त, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, पूर्ण ईश्वर अर्थात खुदा गौडका ही अस्तित्व था । यद्यपि ईश्वर परिपूर्ण था, उसे किसी प्रकारको आवश्यकता न थी, तथापि एक विशेष अवसर पर उसे सृष्टि रचना करनेकी लालसा हुई । ईश्वरने स्वेच्छानुसार स्व-सामर्थ्य द्वारा शून्य अर्थात् नास्तिसे यह दृश्य जगत उत्पन्न किया। छह दिन तक खुदा अपनी इच्छासे तमाम रचना करता रहा । उसने पहाड़, समुद्र, नदी, भूखण्ड, Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण १ हाथी, घोड़ा, बैल, सिंह, बकरा, बकरी श्रादि अचेतन जगह न देख प्रजापति रोने लगा, प्रजापतिकी अखिोसे और चेतन जगत्की रचना की । इस रचनाके बाद अश्रु-विन्दु टपककर समुद्रके जल-पटल पर गिर कर खुदाने सोचा कि मेरी एक प्रतिमूर्ति भी होना चाहिये, पृथ्वीमें तब्दील हो गये । बादमें प्रजापतिने भूभागको इच्छा होने की देरी थी कि खुदाकी एक दूसरी प्रतिमूर्ति साफ़ किया, जिससे वायुमण्डल और आकाशकी तैयार होगई, खुदाने उसे अचेतन देव उसमें चेतन उत्पत्ति हुई। शक्तिका मंचार किया । इतना विपुल कार्य करनेके बाद दूसरी जगह लिखा है कि प्रजापतिने एकसे अनेक खुदा श्रान्त होगया, उसने अपनी प्रतिमर्ति हज़रत होने के लिये तपस्या की, तपस्यासे वेद और जलकी श्रादमके सामने अपनी सम्पर्ण रचना रग्वदी और उसे उत्पत्ति हुई । प्रनापतिने त्रयीविद्याको लेकर जल में उन समस्त पदार्थोंका नामकरण करनेका श्रादेश दे प्रवेश किया, इससे अण्डा उत्पन्न हुश्रा, प्रजापतिने वें दिन रविवारको विश्राम करने चला गया । हज़रत अण्डेको स्पर्श किया, जिससे अग्नि, वाष्प, मिट्टी आदि आदमने सबका यथोचित नाम-निर्देश किया । पैदा हुई । उपनिषदोंमें भी सृष्टि -रचना और ईश्वरके कतिपय समालोचक एकमात्र ईश्वरमे ही ममस्त विषयमें अनेक प्रकारकी मान्यताएँ पायई जाती हैं । जगत्का निर्माण बताने वाले दर्शनको प्रमाण मानते हुए वृहदारण्यक उपनिषदमें एक स्थल पर असत्भी मुसलमान व ईसाई दार्शनिकों की इम जगत-रचना मृत्यु और क्षुधाको अभिन्न बताकर मृत्युसे जीवन, शैलीकी खिल्ली उड़ाते हैं। खुदाके इस रचनाक्रमको जल, अग्नि, लोक श्रादिकी उत्पत्ति बतलाई है। दूसरे बाज़ीगरका ग्वेल बताकर खूब उपहाम करते हैं परन्तु स्थान पर श्रात्मामे सृष्टि का उत्पत्तिक्रम मानकर कहा ऐसा करते हुए वे अपने मन्तव्यकी ओर ज़रा भी विचार गया है कि जिस समय प्रात्मामें संवेदनशक्तिका श्राविनहीं करते । वेदान्त, न्याय और वैशेषिक दर्शन ईश्वर- र्भाव हुश्रा, उस वक्त आत्मा निजको अकेला देखकर को अखिल विश्वका सर्जक मानते हैं । इन दर्शनोंके भयभीत हुश्रा । श्रात्मा पुरुष और स्त्रीमें विभक्त होगया। अाविष्कर्ताोंने भी ईश्वर और जगतके विषयमें अनेक स्त्रीने सोचा कि पुरुष मेरा उत्पादक तथा प्रणयी है, मनोरञ्जक कल्पनाएँ स्थापित की हैं; उदाहरणार्थ कुछ- इसलिये उसने गायका रूप धारण कर लिया, पुरुष भी का निर्देश करना यहाँ उपयुक्त होगा बैल बन गया । गायने बकरीके रूपमें तब्दीली करली, तैत्तरीय ब्राह्मणका अभिमत है कि सृष्टि रचनाके बैल भी बकरा बन गया । इसी तरह सिंह-सिंहनी आदि पहले पृथ्वी, आकाश आदि किसी भी पदार्थका युगलोंका प्रादुर्भाव हुआ। एक जगह ब्रह्मसे लोकका अस्तित्व नहीं था । प्रजापतिको एकसे अनेक होने की सृजन मानकर लिखा है कि ब्रह्मने अपने में पर्ण-शक्तिइच्छा हुई,एतदर्थ उसने घोर तपश्चरण किया,तपश्चरण- का अभाव देख ब्राह्मणादि चारों वर्णोका निर्माण के प्रभावसे धूप, अग्नि, प्रकाश, ज्वाला, किरणें और किया । छान्दोपनिषद्में असत्को अण्डा बताकर वाष्प उत्पन्न हुए । उत्पन्न होने के बाद ये पदार्थ जम अण्डे के फटनेसे पृथिवी, आकाश श्रादि समस्त संसारकी "कर अत्यन्त कठिन होगये, इससे प्रजापतिका लिंग फट उत्पत्ति बतलाई है। "गया और उससे समुद्र बह निकला । अपने ठहरनेको इस उपयुक्त निर्देशमें जहाँ ईश्वर ब्रह्मा या Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] दर्शनीकी स्थूल रूपरेखा प्रजापतिको लोक-निर्माता बताया गया है वहाँ उसे अपने पूर्व पिंडाकारका परित्याग कर ही कड़ा, कुण्डल, मुमलमान और ईसाई दार्शनिकोंकी तरह ही प्रायः बाली, श्रादि पर्यायों--हालतोंको धारण करता है, स्वीकार किया गया है, फिर न जाने ऊपर लिखी परन्तु उन सभी पर्यायोंमें--जो स्वर्ण के पिण्डसे शुरू मान्यतासे सहमत होते हुए भी कतिपय विद्वान खुदा होती है, स्वर्ण व स्वर्ण के पीतादि समस्त गुण पाये और गॉडका उपहास क्यों करते हैं ? यदि वे खुदाका जाते हैं । इसी तरह मृत्तिका आदि जितने भी उपादान मज़ाक उड़ाते हैं तो उन्हें प्रजापतिके तपश्चरण और कारण देखने में श्राते हैं, वे सभी निजस उत्पन्न होनेवाले उमके लिंग फटने, उससे समुद्र निकलने श्रादिको न कार्योंमें पर्याय परिवर्तन के सिवाय ममानरूपस पाये जात भूलना चाहिये और इस गुलगपाडेका भी अवश्य भंडा- हैं । यदि ईश्वर जगतका उपादान कारगा है तो संसारम फोड़ करना चाहिये । वेदान्त, न्याय,वैशेषिक, मुमलमान, पर्वत, समुद्र, पशु, पक्षी, मनुष्य श्रादि जितने भी कार्य ईमाई श्रादि जिन दर्शनोंमें सृष्टि उत्पत्ति के पहले एक. हैं उन सभामं ईश्वरका अस्तित्व व ईश्वर के सर्वशत्य, मात्र ईश्वरके अस्तित्वकी कल्पना की है प्रायः उन व्यापकत्व, सर्वशक्तिमत्व आदि गुणोंका सद्भाव अवश्य गभी दर्शनोंमें इसी तरहकी बेमिर पैरकी कल्पनाएँ पाया जाना चाहिये । परन्तु सूक्ष्मरूपमें देग्यनेपर भी पाई जाती हैं। उन कल्पनाओंकी बुनियाद जगत्के मंमार के किसी भी कार्य में ईश्वरका एक भी गुण नगर स्वरूप व उसके आदि-अन्तका ठीक पता न लगाने वाले नहीं पाता । अतः युनि और प्रत्यक्ष प्रमागासे ईश्वरको दार्शनिकोंके मस्तिष्ककी उपज ही है। जब वे दार्शनिक जगत्का उपादान कारगा मानना ठीक नहीं मालूम बहुत कुछ कोशिश करने पर भी लोकका स्वरूप ठीक होता और न ईश्वरका एगी झंझटीगं फसना ही हृदय न ममझ मके, तब उन्होंने एक छिपी हुई महती शक्ति- व बुद्धि को लगता है । इगलिये कहना होगा कि ईश्वर का अनुमान किया और किमीने उस ब्रहा, किमाने विषयक उक्न मान्यता मिथ्या और वैज्ञानिक है । ईश्वर, किमीने प्रजापति, किसीने खुदा और किमी एकमात्र प्रकृति -- म पदार्थ ----की मान्यताको गॉड (Gotl) आदि कहा । जब उम शक्ति की कल्पना स्वीकार करने वाले दर्शनोम चार्वाक दर्शन प्रमुख है। की गई तब उसके बाद उनके विषयमें दुमरी भी अनेक चार्वाक दर्शनके माननेवाले दार्शनिकोका अभिमन है कल्पनाएँ गदी गई और उसमे ही समस्त सजीव तथा कि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन भून चतुथ्यके निर्जीव जगत्का निर्माण माना गया । मिवाय अन्य कोई भी पदार्थ नहीं है । इन जड भूत___ इस मान्यताको माननेवाले दार्शनिक चराचर चतुष्टयस ही संमार बना है। समारमें जितने कार्य जगत्को उत्पत्तिमें ईश्वरको ही उपादान तथा निमित्त- नज़र आते हैं वे सब इन्हीं मृतचतुष्टय के मम्मेलनसे कारण घोषित करते हैं, परन्तु बुद्धिकी कसौटी पर पैदा हुए हैं। चेतन, जीव या श्रात्मा नामका पदार्ष कसनेस यह बिलकुल ही मिथ्या साबित होता है। भी पृथ्वी आदिस भिन्न नहीं हैं। जिम तरह कोद्रध दार्शनिक जगत्को यह भलीभाँति विदित है कि उपादान (अन्नविशेष ) गुड, महुअा श्रादि विशिष्ट पदार्थों के कारण अपना पूर्व रूप अर्थात् अपनी पूर्व पर्याय व मम्मिश्रणय शराब पैदा हो जाती है, ठीक उसी तरह हालत मिटाकर ही कार्यरूपमें परिणत होता है । स्वर्ण पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुके स्वाभाविक विशिष्ट Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ संयोगसे चैतन्यकी अभिव्यक्ति (उत्पत्ति ) होती है, तीसरी मान्यतामें ईश्वर, जीव और प्रकृतिसे उसीको चेतन, जीव, अात्मा श्रादि नामसे पुकारते हैं, जगत्का निर्माण माना गया है। इस मान्यतामें न्यायशरीरसे भिन्न कोई 'जीव' नामका पदार्थ नहीं है । धर्म, वैशेषिक अादि जितने भी दर्शनोंका अन्तर्भाव होता है अधर्म, स्वर्ग मोक्ष, पुण्य-पाप आदि पदार्थोंका भी सर्वथा उन मबका यह अभिमत है कि ईश्वरने जीव और अभाव है । कहा भी है अजीव प्रकृतिसे इस जगतकी रचना की है अर्थात् लोकायता वदन्त्येवं नास्ति जीवो न निवृतिः। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़ा-मकोड़ा आदि जितने जीवधर्माधौं न विद्यते न फलं पुण्यपापयोः ॥ धारी प्राणी हैं उनका उपादान कारण जीव है और कतिपय वैज्ञानिक लोग भी जीव विषयमें ऐसी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, अाकाश, पर्वत, समुद्र, नदहो कल्पनाएँ पड़ते हैं, परन्तु युक्ति की कसौटी पर कसने- नदी श्रादि जितने अचेतन पदार्थ देखनमें आते हैं से उक्त वैज्ञानिक व दार्शनिक अपनी कल्पनामें अम- उनका उपादान कारण अजीव–अर्थात् प्रकृति है, फल मालम होत हैं । शरीगदिम भिन्न अहंकारात्मक परन्तु इस चेतन और अचेतन जगत्की रचनामें ईश्वर प्रवृत्ति होती है, पृथ्वी श्रादि के मंयोगरूप शरीरका पूर्ण अनिवार्य निमित्त कारण व व्यवस्थापक है। इन तौरमे अस्तित्व रहने पर भी चेतन या जीवके अभाव में दार्शनिकोंकी इस रचनाक्रमके समर्थनमें जो प्रबल वैमी प्रवृत्ति नहीं होती। जीव जब एक शरीर छोड़ दलील है वह इस प्रकार है--.. देता---मर जाता है, तब उस शरीरमें चेतनस सम्बन्ध संसार में जितने भी कार्य देखनेमें आते हैं वे किसी र ग्यनेवाली सभी क्रियानोंका अभाव होजाता है, इस. न किसी उस-उस कार्य के ज्ञाताके द्वारा ही बनाए जाते लिये पृथिवी श्रादि अचेतन पदार्थोंका चैतन्यरूपमें हैं । उदाहरणरूपमें जब हम प्रगूठीकी अोर दृष्टिपात परिणमन होना वा उनसे चेतन-जीवकी अभिव्यक्ति करते हैं तो हमें साफ़ मालूम हो जाता है कि अंगूठी और उत्पत्ति मानना सारहीन ही नहीं असंभव भी है। अपने श्राप से ही तय्यार नहीं हुई, किन्तु उसमें स्वर्ण जीवका जड-पदार्थोंसे पृथक्त्व होना तब और भी दृढ़- उपादान कारण होनेपर भी अंगूठी बनानेकी कलाका होजाता है जब एक मनुष्य मरकर पुनः मनुष्य-पर्याय जानकार सुनार ही अंगूठी बनाता है। इसी तरह कुम्हाधारणकर अपने पूर्व-मनुष्य-पर्यायकी घटनाओंको बिल. र घड़ा, जुलाहा वस्त्र और अन्य कार्योंको जाननेवाला कुल सत्य बतला देता है---यहाँ तक कि अपने कुटु- अन्यकार्योंकी रचना करता है। चूंकि जगत्-रचना भी म्बियों और पड़ोसियोंका परिचय और अपने धन श्रादि- एक विशेष और बहुत बड़ा कार्य है, इसलिये इस का ठीक ब्योरा लोगोंके सामने पेश कर देता है । यह कार्यका भी कोई अत्यन्त बुद्धिमान् कर्ता होना चाहिये, केवल एक किंवदन्ती ही नहीं है, किन्तु ऐसे सत्य इस विपुल कार्यका जो कर्ता है वह महान् ईश्वर है, उदाहरण आये दिन अनेक सुनने वा देखनेमें आते ईश्वरसे भिन्न कोई भी इतने विपुल कार्यका निर्माण रहते हैं । अतः जडपदार्थसे ही तमाम जगत्का निर्माण नहीं कर सकता। ईश्वर सर्वश, सर्वशक्तिमान और स्वीकार करनेवाले दर्शन विश्वका रहस्य खोजनेमें व्यापक है, इसलिये वह तमाम सूक्ष्मसे सूक्ष्म और सर्वथा असमर्थ है। बड़े से बड़े कार्योंको सरलतासे करता रहता है, उसे इस Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] दर्शनोंकी स्थूल रूपरेखा ८७ कार्यके करनेमें कोई असुविधा वा अधिक श्रम नहीं बिलकुल अभाव, कहीं पानी ही पानी, कहीं अतिवृष्टि, करना पड़ता । दूसरे अचेतन जगतकी उत्पत्ति अवेतन कहीं अनावृष्टि, कहीं अकाल-कहतका पड़ना, जहाँ परमाणुओं और कर्म-शक्ति से नहीं हो सकती; क्योंकि ज़मीन नीची होना चाहिये वहाँ उसका एकदम ऊँचा ऐनी व्यवस्थित और सुन्दर रचना जडपरमाणु व कर्म- होना और जहाँ ऊँचा होना आवश्यक था वहाँ नीचा शक्ति विचार-शून्यताके कारण कैसे कर सकते हैं ? होना, निर्जन भयंकर तों और जंगलोंमें सुन्दरजलचेतन जीवं भी चेतन जगतकी ऐसी विशेष रचना प्रपात और झरनोंका बहना, उल्कापात, महामारी, अल्पज व स्वल्पशक्तिसम्पन्न होनेकी वजह से नहीं कर डाँस-मच्छर, कीड़ा-मकोड़ा, साँप बिच्छ्र सिंह-व्याघ्र मकता, इसलिये चेतनाचेतनात्मक उभय जगत्का कर्ता अादिकी सृष्टि होना, मनुष्यमें एक धनवान दूसरा एकमात्र ईश्वर ही हो सकता है।' निर्धन, एक मालिक दुसरा नौकर, एक स्त्री-पुत्रादिके संसारके समस्त कार्य उपादान और निमित्तकारणके न होनेसे दुखी, दूसरा इन सबके रहने पर भी दरिद्रताके विना उत्पन्न नहीं होते, इसमें किसीको भी ऐतराज़ नहीं कारण महान दुखी, एक पंडित दूसरा अलका दुश्मन है और होना भी न चाहिये। परन्तु घट, वस्त्र आदिके –महामूर्ख और सोनेमें रूप होनेपर भी उमका मुगन्ध ममान सभी कार्योका कर्ता-निमित्त कारण-चेतन रहित होना, स्वादिष्ट रसभरे गन्नेमें फलका न लगना, ही हो ऐमा कोई नियम नहीं है। घास विना किसीके चन्दनके वृक्षों फलोका न होना तथा पंडितोंका निर्धन उद्यमके बारिश आदिके होनेपर स्वयं पैदा हो जाती है; और प्रायः अल्पायुष्क होना श्रादि संसार में ऐसे कार्य मूंगा, मणि, माणिक्य, गजमुक्ता आदि भी केवल वैसे देखे जाते हैं जिससे मालूम होता है कि जगतकी रचना कारण मिलनेपर प्रकृतिसे ही पैदा होते हैं, इन्हें कोई त्रुटियोंसे खाली नहीं है । और इसलिये यह जगत नहीं बनाता । यदि कही कि इन समस्त कार्योका कर्ता किमी एक सर्वज्ञ, मर्वशक्तिमान तथा व्यापक ईश्वर चही परमेश्वर है, वह ही छिपा छिपा ऐसे कार्योंको द्वारा नहीं रचा गया और न वह इसका व्यवस्थापक करता रहता है, तो घड़ा, वस्त्र धादिको भी वही क्यों ही है। एक कविने सोनेमें मुगन्ध न होने श्रादिकी नीं बना देता है जिससे कुम्हार श्रादिकी ज़रूरत ही उन वानोंको लेकर ईश्वरकी बुद्धिमत्ता पर जो कटाक्ष न रहे, जीवनकी सभी आवश्यक चीज़ोंका निर्माण वही किया है और इस तरह सृष्टिके निर्मातामें जो किमी ईश्वर कर दिया करें! जिन वस्तुश्रीका कर्ता नज़र बुद्धिमान कारणकी कल्पना की जाती है उमका उपहाम अाता है यदि उनका कर्ता ईश्वर नहीं माना जाता, तो किया है-यह कविके निम्न वाक्यमें देखने योग्य हैजिनका कर्ता सिर्फ स्वभाव है उनको क्यों ईश्वरका गन्धःसुवर्णे फसमिघुरो नाकारि पुष्पं किला सन्दनेषु । घनाया हुआ माना जाय ! विहान धनाम्गे तु दीर्घजीवी धातुः पुरा कोऽपिनदूसरे, यदि ईश्वर कार्योंका बनानेवाला होता, तो बुद्धिदोऽभूत् ॥ वे सत्र सुंदर और व्यवस्थित होना चाहिये थे। परन्तु इसलिये कहना पड़ता है कि उपर्युन, तीमरी माश्राबाद मकानोंकी छतों, श्रागन और दीवारों पर घाम- म्यतासे भी हमारे विषयका स्पष्टीकरण नहीं होता, उलटे का पैदा होना, कहीं मरुस्थल जैसे स्थानों में गनीका हम व्यर्थ के पचड़ेमें फंसे नज़र आते हैं। ईश्वर का Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३ किरण १ जैसा स्वरूप बांधा गया है वह बिलकुल अवैज्ञानिक है। बात ज़रूर है कि जगत-रचनामें अनादिसे जीव और उसको किसी तरह भी युक्ति व बुद्धिकी कसौटी पर अजीवका ही दखल है । जीव अजीवके पृथक् करनेसे कसनेसे खरा नहीं देख सकते हैं । अनेक प्रबल बाधाएँ जगत नामके पदार्थका स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं उसे जर्जरित कर देती हैं। ठहरता, इसलिये जगतको जीवाजीवात्मक कहना उपपाठक महानुभाव इस तमाम विवेचनसे समझ युक्त होगां । उत्पत्ति, विनाश और प्रौव्य--मूलरूप में गये होंगे कि ये तीनों दार्शनिक मान्यताएँ जगत-रचना- मदा स्थिर रहना--जिसमें प्रत्येक समय पाया जाय उसे की उलझनको सुलझानेमें कहाँ तक सफल हुई हैं। द्रव्य, वस्तु या पदार्थ कहते हैं । संमार में ऐसा कोई भी इनसे तो यही मालूम होता है कि या तो जगत पंच- पदार्थ नहीं है जिसमें उत्पत्ति आदि तीनों बातें एक ही भूतात्मक ही है अथवा ईश्वरात्मक या ईश्वराधीन ही कालम न पायी जाती हो-भले ही कुछ पदार्थों में है । जगत क्या है ? मैं क्या हूँ ? मुझे कहाँ जाना है ? सूक्ष्मतर होने के कारण ये स्पष्ट नज़र न अाती हों। इत्यादि समस्त प्रश्न ईश्वर वा प्रकृतिमें ही लीन हो उत्पाद न्यय ध्रौव्य पना द्रव्यका सामान्य लक्षण है, जो जाते हैं, विशेष तर्क वितर्क करनेकी कोई गुंजाइश नहीं भी द्रव्य है उममें यह अनिवार्यरूस पाया जाता है । रम्बी गई। इन तीन बातोंके बिना वस्तुका वस्तुत्व कायम ही नहीं चौथी मान्यता नीव और अजीव अथवा चेतन- रह मकता, यह मर्वथा विनुम हो जाता है । द्रव्यकी ये अचेतन विषयक है । इस मान्यताको जन्म देनेका श्रेय हालते स्वभावसे ही होती रहती हैं उपादानरूपस इनका प्रायः एकमात्र जैनदर्शनको ही है, वैसे बौद्धदर्शनादिने करनेवाला कोई विशेष व्यक्ति नहीं है । जिस तरह भी इम श्रोर झुकाव दर्शाया है, पर वह युक्ति के बलपर अमिकी ज्वाला खुद ही ऊपरकी ओर जाती है, पानी टिकता नहीं, इसलिये उसे निर्दोष नहीं कहा जासकता। ढाल भूभागकी ओर बहता है और हवा तिरछी चला अब देखना यह है कि जैनदर्शनकी मान्यतासे दार्श करती है, ठीक उसी तरह द्रव्य स्वभावसे ही प्रतिक्षण निकोंके मस्तिष्कमें उठानेवाले प्रश्नोंका उत्तर मिलता उत्पाद, व्यय ओर ध्रौव्यरूपम परिणत होता रहता है। है या नहीं? द्रव्यका यह स्वभाव ही मंगारमें अनेक परिवर्तनों तथा जैनदर्शन या उक्त मान्यताके अनुसार जगत, लोक, अलटन पलटनका मूल कारण है। विश्व या दुनियां अनादि-निधन अथवा अनादि-अनन्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, अाकाश और काल ये है। जगत रचनाके प्रारम्भकी कहनी उमी तरह बुद्धि- छह द्रव्य है, ये छहों द्रव्य अनादि-निधन है। परन्तु गम्य और रहस्यभरी है जैसे बीज और वृक्षकी। जिस इनमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य हमेशा होता रहता है, इसलिये तरह यह निश्चित नहीं कहा जा सकता कि अमुक इनके द्रव्यत्वमें कोई फर्क नहीं पाने पाता- पर्यायें ममयमें बीजसे वृक्ष अथवा वृक्षसे बीज पैदा हुआ है पलटती रहती हैं । इन छहों द्रव्योंमें श्राकाश सबसे उसी तरह जीव-अजीवसे भी जगत-रचनाके प्रारम्भका महान् है, इमके क्षेत्रका कहीं अन्त नहीं है, अनन्तानिर्णय नहीं किया जा सकता--जगत अनादि है और नन्त है। आकाशके जितने क्षेत्रमें जीव, पुद्गल, उसका कभी भी अन्त होनेवाला नहीं है। हाँ इतनी धर्म, अधर्म और कालका अस्तित्व पाया जाता है, Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक. वीर निर्वाण सं०२४६६] विविध-प्रश्न ८६ उसे लोक. लोकाकाश जगत या दुनियाँ कहते हैं। स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ॥ लोकाकाशमें ये पाँचों द्रव्य मदाम टमाटम भरे हुए हैं भगवद्गीताकार भी परमात्मा या ईश्वर के और भविष्यमें भी मदैव ही तरह भरे रहेंगे । हाँ, जगत्कर्तृत्व आदिके विषय में कितने ही स्पष्ट और समुदव्योमें पर्यायाश्रित संभवित परिवर्तन जरूर होगा, पर क्तिक हृदयोद्गार प्रकट करते हैं। उनका कहना है न तो ये मूल द्रव्य विनष्ट-नेस्तनाबद हो सकेंगे और न कि-'प्रभु अर्थात् ईश्वर या परमात्मालोगोंके कर्तृत्वको, इनके मिवाय अन्य द्रव्योंकी उत्पत्ति ही हो सकेगी। उनके कर्मको ( या उनको प्राप्त होनेवाले ) कमफलके 'गम्यंते जीवादयो यत्र तज्जगत अथवा लोक्यन्ते मंयोगको भी निर्माण नहीं करता। स्वभाव अर्थात् जीवादयो यत्र स लोकः' अर्थान जहाँ पर जीवादि छह प्रकृति ही मब कुछ किया करती है । विभु अर्थात् सर्व द्रव्य रहे-मालम पड़ें उम जगत् या लोक कहते हैं। व्यापी परमेश्वर किमीका पाप और किसीका पुण्य भी इगम मालम हुआ कि जीवादि छह द्रव्योंकी नहीं लता । ज्ञान पर अज्ञानका पर्दा पड़ा रहने के कारण मर्माष्टका नाम ही जगत् है, वह न किमी व्यक्ति के द्वारा प्राणी मोहित हो जाते हैं, और अपनी नाममझीके चा गया है, न उसका कोई व्यवस्थापक व पालक है कारण परमेश्वरको उस तरह मानने लगते हैं । यथाऔर न महेश्वर उसका संहार ही करता है। स्वभावसे न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । की जगन्में नाना प्रकारके परिवर्तन होते रहते हैं । न कर्मफल संयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते । शरीगदिम भिन्न चेतन रूपमें अहंबुद्धि रूपम नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । प्रवृत्ति होती है वहीं 'मैं' शब्दका वाच्य है । उमीको अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुन्ति जम्नवः ॥ अात्मा श्रादि कहत हैं । जीव जैम कर्म करता है उसे भग० गी०५-१४,१५ उन कर्मों-कर्तव्यों के अनुमार ही सुग्व-दुःख देने वाले ऐसी हालतमें ईश्वर के जगत्कर्तृत्व श्रादिकी म्थानोंमें जन्म लेना पड़ता है । कोई दुमरा व्यनि उम कल्पना बहुत ही निःसार है और उसका मूल कारगा किमी योनिमें न तो भेजता और न दुःख ही देता है। अज्ञानभाव है । जैन-दर्शन अर्थात् वीर-शामनकी म्वकर्मानुसार ही जीव उसका फल भोगता है और खुद मान्यता बहुत ही युक्तियुक, स्वाभाविक तथा वस्तु ही अपने प्रयत्नसे कर्मोके बन्धन तथा मंसारम मुक्त, स्थिति के अनुकूल है और हृदयको मोधी अपील करनी होता है। कहा भी है है अतः वह सब तरहस ग्रहण किये जाने के योग्य है। स्वयं कर्म करोल्यात्मा स्वयं तत्फलमरनुते । वीर संवा-मन्दिर, सरसावा, ता०१६-१०-३१ Ho--देह निमत्त किस कारणसे है ? 30-अपने कर्मों के विपाकसे । विविध प्रश्न प्र०-कों की मुख्य प्रतियां कितनी है ? उ.--आठ। 800 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज-सम्बोधन (वध्य-भूमिको जाता हुआ बकरा ) हे अज ! क्यों विषएण-मुख हो तुम, शायद तुमने समझ लिया है पर किस चिन्ताने घेरा है ? अब हम मारे जावेंगे, र पैर न उठता देख तुम्हारा, इस दुर्बल औ' दीन दशामें र खिम चित्त यह मेरा है ! भी नहिं रहने पावेंगे !! देखो, पिछली टाँग पकड़कर, छाया जिससे शोक हृदयमें तुमको वधिक उठाता है ! इस जगसे उठ जानेका, र और ज़ोरसे चलनेको फिर, इसीलिए है यत्न तुम्हारा, धका देता जाता है !! यह सब प्राण बचानेका !! . [२] कर देता है उलटा तुमको पर ऐसे क्या बच सकते हो, र दो पैरोंसे खड़ा कभी ! सोचो तो, है ध्यान कहाँ ? . र दाँत पीस कर ऐंठ रहा है तुम हो निबल, सबल यह घातक, र कान तुम्हारे कभी कभी !! निष्ठर, करुणा-हीन महा। कभी तुम्हारी क्षीण कुक्षिमें स्वार्थ-साधुता फैल रही है, मुके खूब जमाता है ! न्याय तुम्हारे लिये नहीं ! . अण्ड-कोषको खींच नीच यह रक्षक भक्षक हुए, कहो फिर, र फिर फिर तुम्हें चलाता है !! कौन सुने फ़रियाद कहीं !! सह कर भी यह घोर यातना, इससे बेहतर खुशी खुशी तुम तुम नहिं कदम बढ़ाते हो, वध्य-भूमिको जा करके, कभी दुबकते, पीछे हटते, वधिक-छुरीके नीचे रख दो . और ठहरते जाते हो !! निज सिर, स्वयं झुका करके। मानों सम्मुख खड़ा हुआ है 'आह' भरो उस दम यह कह कर, सिंह तुम्हारे बलधारी, " हो कोई अवतार नया, आर्तनादसे पूर्ण तुम्हारी महावीरके सदृश जगतमें 'मेमे है इस दम सारी !! फैलावे सर्वत्र दया" ॥ -'युगवीर' ६ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-शासन-दिवस और हमारा उत्तरदायित्व [ लेखक-श्री दशरथलाल जैन] "अपने बड़ोंकी तुममें कुछ हो तो हम भी जानें। उनकी इस अनभिज्ञता-उदामीनतासे लाभ उठाकर गर वो नहीं तो बाबा फिर सब कहानियाँ हैं ।" दूसरे धर्मवाले उनपर अपना प्रभाव जमानमें इस संसारमें अनेक जैन तीर्थकर धर्मतीर्थके समर्थ हो जाते हैं। उनका कुछ अाकर्षण बढ़न पर प्रवतन करनेवाले हुए हैं। उनकी धर्म-आज्ञाओं जब वे लोग उनके ग्रन्थोंको पढ़ने, उनकी मभा. और व्यवस्थाओंका प्रसार भी परिमित काल तक सोसाइटियोंमें भाग लेने और उनकी किसी किमी ही रहा है । उसके बाद उसमें बराबर शिथिलता प्रवृत्तिको अपनानं या उसका अनुमोदन-मात्र आती रही है यहाँ तक कि कभी कभी तो धर्मका करने लगते हैं, तो इधर अपने ही लोगोंकी औरसं माग ही अर्सेकं लिये लप्तप्राय होगया है। कारण, उन्हें अनेक प्रकारको हृदयबेधक कटूक्तियाँ तथा यह संसार आत्मवाद और अनात्मवादकी सदैवसं फब्तियाँ सुननको मिलती हैं, जिनसे उनका हृदय समरभूमि रहा है। जब कभी किसी अलौकिक विकल हो जाता है, उसमें कषाय जाग उठती है पुण्यशाली अध्यात्मवादकी प्रचण्ड तेजोमय मूर्ति- और वे अपने उस नये मार्गको ही हर तरहम का प्रादुर्भाव होता है तब अज्ञानान्धकारमें चिर- पुष्ट करनेमें लग जाते हैं । उनका तमाम बुद्धि-बल कालस भटकते हुए अज्ञानी और मिध्यामार्गी तथा धन-बल उस ओर काम करने लगता है जीवोंको अपनी आत्माको पहचान सकनेका प्रकाश जिसके फलस्वरूप विपुलसाहित्यकी रचना तथा मिलता है। जिनका भविष्य उज्ज्वल होता है वे उसका प्रचार होकर प्रवाह बह जाता है और आत्मकल्याणकी ओर लग जाते हैं और शेष भद्र जन-बल भी बढ़ जाता है। आत्माओंमें अपनी आत्माको पहचानने के लिये मनप्योंमें विचारवान सन्मार्गी आत्माांकी एक प्रकारका आन्दोलनसा मच जाता है। इस संख्या हमेशा कम रहा करती है. जन-साधारणका तरह कुछ काल तक संसारमें धर्ममार्गका प्रवर्तन बहुभाग तो सिर्फ गतानुगतिक ही होता है और रहता है, बादको फिर अज्ञानान्धकार छाजाता है। वे प्रायः “महाजनो येन गतः स पन्थाः" के ही प. लोगोंमें बहुत कालातक एक ही धर्मका सेवन-वह थिक बन जाते हैं । यह ठीक है कि प्रात्माको पहभी अव्यवस्थित रूपसे-करते करते कुछ तो पूर्व चाननेवाले प्रलौकिक महान आत्माओंकी कृपास पापके उदयसे स्वयं ही धर्ममें अरुचि हो जाती है जीवोंका मुकाव स्वात्माकी ओर होता है, लेकिन तथा प्रमाद बढ़ जाता है-वे अपने धर्मसे अन- इसके लिये उन्हें जड़वाद-अर्थात् प्रकृति और भिज्ञ तथा विमुखसे रहने लगते हैं, और कुछ उसकी साधक परिस्थितियोंसे सदैव यद्ध करना Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अनेकान्त वर्ष ३, किरण १ %253D पड़ता है । जहाँ युद्ध रुका और आत्मा चुप बैठी हुई है । मान्य विद्वान् विद्यावारिधि वैरिष्टर चंपकि जड़वादका साम्राज्य उस दबाने लगता है। तरायजीन अपनी तुलनात्मक पद्धतिसे संसारकं इसलियं अज्ञान व प्रमादकी वृद्धिको रोकनेकं सब धर्मोकी शोध-खोजकर सिद्ध कर दिया है कि लिय निरन्तर सग्रन्थोंका अध्ययन, सत्संगतिका जैनधर्म एक अद्वितीय वैज्ञानिक धर्म है । ऐसे जैन सेवन विद्वानोंका समागम और सुसंस्कारोंकी धर्मका इस वैज्ञानिक युगमें भी प्रचार और प्रसार समय समयपर श्रावृत्तियाँ आवश्यक हो जाती हैं। न हो यह सचमुचमें हमारे धनशाली और धर्मधार्मिकपर्व हमारी त्रुटियों एवं कमजोरियोंको दूर परायण समाजकं लिये बड़े ही आश्चर्य तथा शर्मकरने हेतु ही बन हैं । इनको भले प्रकार मनाते की बात है, और इसके जिम्मेदार वीर भगवानके रहनेम हम संस्कारित होते हैं, अपने कर्तव्य- भक्त जैनधर्मकं अवलम्बी हमी जैनी श्रीमान् धीमान पालन में मावधान बनते हैं, हममें उत्साह तथा और उनके पीछे चलनेवाला सारा जन समाज है। पुरुषार्थ जागृत होता है, हमारे समाजस कदाचार- हमने अपने उत्तरदायित्वको जरा भी पूरा नहीं रूपी मैल छंटता रहता है और हम शुद्ध होते किया। रहते हैं। कोई ममय था जब जैनधर्मका प्रचार उसके ___ इस तरह सभी धार्मिकपों को सोल्लास मनाना कट्टर विरोधियोंके कारण रुका था और हम चि और उनके लिये सार्वजनिक उत्सवोंकी योजना ल्लाते फिरते थे कि अनुक जैनधर्मकं विद्वेषी दुष्टकरना परमावश्यक मालूम होता है तथा महापुण्य- राजाओंन हमारे धर्मग्रन्थ जला दिये, मूर्तियाँ नष्ट का कारण है । संसारी प्राणियोंक परम कल्याणार्थ करदी, लोगोंको घानी पर डाला इत्यादि, लेकिन प्रकट होनवाली वीर-भगवानकी धर्म-देशनाके अब उस धर्मकं प्रकाश एवं प्रचारमें आने के मार्गमें दिन तो उत्मव मनानकी और भी अधिक प्राव- बाधक कौन है ? हम जैनधमक परमभक्त कहलाने श्यकता है। इस महान धार्मिक पर्वकी महत्ता और वालोंके सिवा और कोई भी नहीं। मनानेकी आवश्यकता, उपयोगिता तथा विधि पर जैनधर्म हिन्दूधर्मकी एक शाखा है, बौद्धधर्म भनेक विद्वानोंने प्रकाश डाला ही है और वह सब जैनधर्मस प्राचीन है या बौद्धधर्मका रूपान्तर है, ठीक हा i; लेकिन मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जैनियोंकी अहिंसाने भारतीयोंको कायरवनादिया है जिस तरह योग्य गणधरके अभावमें जीवोंकी और वह भारतवर्षकं पतनका कारण हुई, जैनिकल्याणकारिणी वीर भगवानकी पुण्य वाणी बहुत यांमें आत्मघातको धम बनाया है, ये ईश्वरको नहीं काल तक खिरनेस रुकी रही उसी तरह वर्तमानमें मानते, जैनियोंने भारतवर्ष बुतपरस्तीका श्रीगणेश हमारे जैसे अयोग्य विद्वानों और वणिक-समाजकी किया है, जैनियोंका गजनैतिक क्षेत्रमें कोई स्वतंत्र स्वार्थपरायणता तथा अदूरदृष्टिमय स्थूल धर्म बद्धि- अस्तित्व नहीं हो सकता, जैनियोंका स्याद्वाद एक के कारण विज्ञानकं इस वर्तमान बौद्धिकयुगमें भी गोरखधंधा , त्यादि अनेक मिथ्या धारणाएँ भगवानकी वाणी प्रकाश तथा प्रचारमें मानसे रुकी आज भी न सिर्फ हमारे पड़ोसियोंके हृदयमें Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-शासन दिवस और हमारा उत्तरदायित्व कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६६ ] 1 विद्यमान हैं बल्कि देशके बड़े बड़े नेताओं-लालालाजपतराय सरीखे राजनीतिज्ञों और कई इति हासिशोंके मनमें भी बैठी हुई पाई गयी हैं । कई रियासतों में जैनियोंके विमान निकालने पर लोग नग्न मूर्तियों पर ऐतराज करते हैं और इतना जोर बाँधते हैं कि दंगातक करने लगते हैं-कोलारम, कुडची, महगांव, बयाना आदि पचासों स्थानों पर धर्मपालनमें बाधाएँ पड़ीं। यह सब उस जमाने में हो रहा है जब कि धर्मपालन में राज्योंकी तरफ़से पूर्ण स्वतंत्रताकी आम घोषणा है। पता है इन सब अन्यायों के मूल कारण कौन है ? हम भगवान् महावीर की नालायक सन्तान । हम गाली देते हैं उन हिन्दुओं को जो हमपर अपनी अज्ञानता के कारण धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक हमले करते हैं, हम गाली देते हैं उन्हें जो हमारी उच्चताका मजाक उड़ाते हैं, हम बुरा कहते हैं उन्हें जो हमारे अलग राजनैतिक हक़ों को देने से इनकार करते हैं; इसी तरह कलियुगको भी गाली देकर हम अपनी कायरताका प्रमाण देते हैं। आखिर इस श्रात्मवचनासे लाभ क्या ? हम देखते हैं आये दिन हम अपनी एक नहीं अनेक होनेवाली घरू और बाहरी आपत्तियों के लिये ते रहते हैं, लेकिन हम उसके कारण कलापको देखते हुए भी उसके वास्तविक कारण तक नहीं पहुँच पाये हैं। सच पूछिये तो हमें दूसरों का ऐबजोई करना जितना आसान रहा है, अपनी अदूरदर्शिता पूर्ण कृतियों और उनके नतीजोंपर नजर पहुँचाना उतनी ही टेढ़ी खीर रहा है । आज भी हम धर्मके नामपर लाखों रुपया मन्दिर बनाने, रथ चलाने, सोना और रंग कराने, १.३ संगमरमर के फर्श और टाइल्स जड़बानेमें खर्च करनेसे नहीं रुकते । परन्तु हम देव-शास्त्र गुरुका एक ही दर्जा मानते हुए भी शास्त्रोंके पुनरुद्धारार्थ विद्वानोंकी कोई भी समिति कायम नहीं कर पाये । हमारी पाठशालाएँ और विद्यालय अपने अपने ढर्रे पर चल रहे हैं. वे प्राय: अध्यापकों की पुश्तैनी जायदाद बनादिये गये हैं; ऊँचे विद्यार्थी कितने हैं, स्त्रर्च कितना है, इसका कोई ठीक ठिकाना नहीं; समाजका पैसा कितनी बेदर्दीसे धर्मके नामपर प्रचारक रखकर फेंका जाता है, उसका भी कोई ठिकाना नहीं; माणिकचन्द्र परीक्षालय, महासभा परीक्षालय, परिषदपरीक्षालय, मालवा परीक्षालय सबके छकड़े दौड़ लगा रहे हैं, और अब तो विद्यार्थियों से फीस भी लेने लगे । गरज यह कि, अव्यवस्थाका खासा माम्राज्य कायम है, धर्मके नामपर चाहे जैसी अवांछित पुस्तकोंका प्रचार है । जहाँ ज्ञान प्रसारके क्षेत्र में जैन समाजमें यह अंधेरे हो वहां जैनेतर समाजमें धर्मप्रचारकी बात दिमारामें आना ही मुश्किल है। यूनिवर्सिटियों, कालेजों और हाईस्कूलों तथा सार्वजनिक लाइब्रेरियोंमें तो हमारी पुस्तकोंका प्रायः पता भी नहीं मिलता- हमारे सार्वजनिक क्षेत्र हमारे प्रभावसे शून्य रहते हैं । ऐसी हालत है हमारी, जिसे आँख खोलकर देखते हुए भी हम देख नहीं रहे हैं। भला सोचो तो, इसमें किसका क्रसूर हैं। जो आँख देखने के लिये हो उससे हम विवेक पूर्वक देखें नहीं और आपत्ति होनेपर रोवें तो हमें उस शायरके शब्दों में यही कहना पड़ेगा कि " रोना हमारी चश्मका दस्तूर होगया । दी थी खुदाने आँख सो नासूर होगया ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ *. अतः भाइयो! अब इस प्रकार काम नहीं पड़े तो जहाँ मन्दिरों में अच्छी आमदनी हो वहाँचलेगा । अब भी सोचो, जैनधर्मके प्रचार और के धनसे कोष पूरा करो। साथ ही, वीरशासनके प्रसारका मार्ग अभी भी खला हुआ है, सिर्फ पाव- दिन ऐसे सुन्दर, सुसम्पादित-प्रकाशित प्रन्थों श्यकता है एक बार अपनी हालतका सिंहावलोकन करो। ये सब ऐसी आवश्यक क्रियाएँ हैं, जो वीर पुस्तकों तथा ट्रेक्टोंका अधिकाधिक संख्यामें प्रचार करने और अपने कर्तव्य तथा उत्तरदायित्वको शासनके सम्बन्धमें हमारे उत्तरदायित्वको पूरा समझनेकी । ईमाई अपने मिशनरियों और अपनी करा सकती हैं और जिनका धीरशासन-दिवस लिटरेचर सोसाइटियों द्वारा, आर्यसमाज अपने मनाते समय हर जगह रिवाज पड़ जाना चाहिये। स्नातकों, सन्यासियों, तथा ब्रह्मचारियोंके द्वारा, जिस तरह अब भारतवर्ष में एक छोरसे दूसरे छोर तक महावीर-जयन्ती सार्वजनिकरूपसं और मुसलमान अपने बिरादराना मलूक व . मनाई जाने लगी है और उसके निमित्तसे अजैन बाहमी हमदर्दी के द्वारा आज जो अपने अपने लोग जानने लगे हैं कि जैनधर्म क्या चीज़ है,उसी धर्मप्रचारका कार्य कर रहे हैं, वह दूमरा नहीं कर तरह वीर-शासन दिवमके दिन जैनग्रन्थों, रहा है। भगवान महावीरके शासनमें रहते और पुस्तकों तथा ट्रेक्टोंके सुसम्पादन, लेखन तथा उसके अनुयायी कहते और उसके अनुयायी कह प्रकाशनके लिये खासतौर पर योजनाएँ की जानी चाहियें, धन एकत्र किया जाना चाहिये और उस लाते तुम्हारा यह कर्तव्य हो जाता है कि तुम वीर एकत्रित धनसे प्रकाशित माहित्यको जैन-जैनेतर शासन-दिवसको सार्थक बनानेके लिये वीरभग- संसारमें सम्यकज्ञानको जाग्रत करने के लिये खब बानकी शिक्षाओं पर यथाशक्ति अमल करनेके प्रचारित करना चाहिये । उस दिन प्रातःकाल संकल्पके साथ साथ जैनधर्मके अलौकिक ज्ञानके पूजन विधानादि हो तो दूसरे ममयोंमें कमसे कम प्रसारार्थ पैसा दान करो और कराओ, एक बड़ी वीर भगवान के महान् ज्ञानको प्रकाशमें लानेका क्रियात्मक उद्योग अवश्य होना चाहिये, तभी हम समिति प्रन्थ-प्रकाशनके लिये योग्य विद्वानोंकी अपने उत्तर दायित्वको कुछ निभा सकेंगे। अन्यथा कायम करो, ताकि वह तुलनात्मक पद्धति, इति- हमें एक विद्वानके शब्दोंमें किंचित् परिवर्तनके हाम और पुरातत्व प्राधारपर जैनधर्मकं महत्व. साथ कहना पड़ेगा किपूर्णप्रन्थोंका नये ढंगसे उत्तम संपादन एवं प्रकाशन "न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ जिनधर्मके भक्तो । कराए और धर्मके एक एक तत्त्व-उसके एक- तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में ॥" एक पहलू पर छोटे छोटे किन्तु सुन्दर और अल्प आशा है वीर भगवान और उनके शासनके मूल्य पर बेचेजानेवाले सरल और सीधे शब्दोंमें भक्त मेरे इस निवेदन और सामयिक सूचन पर ट्रेक्ट तथा पुस्तकें पुरस्कार दे देकर लिखाए और अवश्य ध्यान देनेकी कृपा करेंगे और आने वाले उन्हें लाखोंकी तादादमें छपानेमें स्वतंत्र रहे । उसे वीर जयन्तीके पुण्य-दिवस (श्रावणकृष्णाप्रतिपदा) धनकी कमी न रहना चाहिये। चन्देसे पोंमें, पर शासन-सम्बन्धमें अपने उपयुक्त कर्तव्य तथा उत्तरदायित्वको पूरा करने के लिये अभीसे उसकी जन्म, मरण, शादी और अन्य संस्कारोंमें योग्य तय्यारी करेंगे। दान देकर उसका कोष बढ़ानो और आवश्यकता Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरके दिव्य उपदेशकी एक झलक [ले.-श्री जयभगवानजी बी० ए० वकील ) तुझपे न्यारा है। पान्तिम जैनतीर्थकर श्रीवीर भगवान् ने विपुलाचल पर्वत तबसे तू क्या जाने, क्षितिजमें कितने सांझ सवेरे 1 पर संसारी प्रास्माको लक्ष्य करके उसके उद्धारार्थ हुए, और विलय हो गये । नभमें कितनी अंधयारी जो सारभूत दिव्य उपदेश दिया था उसकी एक झलक चांदनी रातें भाई और चली गई । भूपर कितने ऋतुइस प्रकार है: चक्र नाचे और उड़ गये । लोकमें कितने युग उठे - ऐ जीव ! तू अजर अमर है, महाशक्तिशाली और और बैठ गये । संसारमें कितने संग्रह बने और बिखर सारपूर्ण है । और यह दीखनेवाला जगत पणिक है, गये । जगमें कितने नाटक-पट खुले और बन्द हो गये। असमर्थ और निःसार है । तु इससे न्यारा है और यह जीवन में कितने साथी मिले और बिछुड़ गये । ये सब अतीतकालकी स्मृतियां हैं। गई-गुजरी क परन्तु अनादि मिथ्यात्ववश तू शरीरको स्वास्मा, विषय- हानियाँ हैं । परन्तु ये गई कहाँ ? इनके संस्कार भाज भोगको सुख, परिग्रहको सम्पदा, नामको वैभव, रूपको भी तेरी चाल ढाल, तेरे हावभाव, तेरी इच्छा कामना मुन्दरता और पशुबलको वीरता मानता रहा है। और नेरी प्रकृति में अंकित हैं। इन सबको अपनी सत्ता मोहवश इनके लाभको अपना लाभ, इनकी वृद्धि में उठाये तू अभी तक अनथक चला जा रहा है। वही को अपनी वृद्धि, इनके ह्रासको अपना हास और इनके वेदना, वही उत्साह और वही उद्यम ! कालजीर्ण हो नाशको अपना नाश समझता रहा है। इसीलिए तू गया, लोकजीर्ण हो गये, युगयुगान्तर जीर्ण होगये; उन्मत्तसमान कभी खुश हो हँसना है और कभी दुःखी परन्तु तू अभी तक अजीर्ण है, नवीन है, सनातन है। हो रोता है। क्या यह सब कुछ तेरी अमरना और जगकी क्षणिइसी मायाकी प्राशासे छला तू निरन्तर भवभ्रमण कताका सबूत नहीं ? क्या यह तेरी भलौकिक शक्ति कर रहा है मृत्यु-द्वारमे हो निरन्तर एक घाटसे दूसरे गैर जगकी अममर्थनाका प्रमाण नहीं ? क्या या घाटपर जा रहा है। तेरी सारपूर्णता और जगकी निस्मारताका उदाहरण __ प्रमादवश तु इस माण प्रपंचमें ऐसा तल्लीन है नहीं? कि तुझे हरएक लोक पहला ही जोक और हरएक जीवन परन्तु हा तू अभी तक अपनेको मरणशील, पहला ही जीवन दिखाई देता है। तुझे पता नहीं कि असमर्थ निस्सार मानता हुमा मरीचिका समान जगकी तू बहुत पुराना पथिक है । तुझे चलने, ठहरते, देखने, झूठी भाशाओं में उलझा हुआ है। तू अभी तक इसकी विदा होते और पुनः पुनः उदय होते अनन्तकाल बीत ही बासकीगमों, गुण-बाबसाओं और प्रौड़ चिन्ताओं में गया है। संबन है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३ किरण १ भरे मूठ ! पुत्र-पनत्र, गृह-वाटिका, धन-दौलत. कठिन है। जिन्हें अपने समझना है, वे तेरे कहाँ है? ममत्व- तुझे पता नहीं,जीवको अपनी पहरणमरने जीने भावसे हो त उनके साथ बँधा है । ममस्व तोब और बाली निगोद दशासे उपर उठ, मनुष्यभव तक पहुँचनेदेख, वे स्वभाव, क्षेत्र, कास प्रादि सब ही अपेक्षानोंसे में कितनी कितनी बाधाओं और भापदामोंसे लड़ना तुझसे भिन्न हैं । वे म तेरे साथ भाये हैं, न तेरे साथ पड़ा है। कितनी असफलताओं और निराशाओंका जायेंगे । न वे तेरे रोग, शोक, जरा मृत्युको हरण करने मुँह देखना पड़ा है कितनी भूलों और सुधारों में से वाले हैं। वे सब नागवान हैं। इनके मोहमें पड़कर निकलना पड़ा है। जीवनका उत्कर्षमार्ग अगणित मौत. तू क्यों व्यर्थ ही अपनेको खोता है ? के दरों से होकर गुजरता है और शोक-संतापकी वे तो क्या, यह शरीर भी, जिसपरत् इतना छायामे सदा ढका है । मनुष्यभव इसी उत्कर्षमार्ग मोहिन है, जिसकी तू महर्निश सेवा करता है, त नहीं की अंतिम मंजिल है है। यह तेरो एक कृत्ति है, जो कि प्रकृतिका सहारा यहां ही जीवको पहली बार उस वेदनाका अनुभव ले जीवन उत्थानके लिये रची गई है। इसका पोषण होता है जो उसे दुःखसे सुखकी ओर, मृत्युमे अमृत जीवन उत्कर्ष के लिये है,जीवन इसके पोषणके लिये नहीं की ओर, नीचेमे उपरकी भोर, विकल्पोंसे एकताकी है। जरा स्वचारहिन इसके स्वरूपको तो विचार । यह मोर, बाहिरसे अन्दरकी ओर लखानेको मजबूर कतना घिनावना और दुर्गन्धमय है । यह अस्थिपंजर करती है। मे बना हुआ है, माँसमे विलेपित है, मलमूत्र और यहाँ ही पहली बार उस सुबुद्धिका विकास होता कृमिकुल पे भरा है। इसके द्वारों से निरन्तर मन भर है जो इसे हेय उपादेय हित महित, निज परमें विवेक रहा है। कौन बुद्धिवर इस अपनाएगा! करना सिखाती है। तेरा शरीर पानी के बुलबुले के समान रुणिक है। यहाँ ही पहली बार उस भलौकिक दृष्टिका उदय तेरा भायु कालगतिके माथ पण क्षण क्षीण हो रही होता है जो इसे लौकिक क्षेत्रोंसे ऊपर अलौकिक क्षेत्रोंहै और तेरा यौवन स्वप्नखोलाके समान नितान्त का भान कराती है। जो इसे शिल्पिक, नैतिक, वैज्ञा जरामें बदल रहा है। तुझे अपने भविष्यका तनिक निक और पारमार्थिक क्षेत्रोंका दर्शन कराती है। भी ध्यान नहीं । परन्तु मृत्यु निरन्तर सेरी भोर ताक यहाँ ही पहली बार अर्थशक्ति की वह प्रेरणा अनुलगाये बैठी है। भव होती है जो इसके पुरुषार्थको भौतिक उद्योगोंमे हे मानव ! न व्यर्थही इस मनुष्य भवको म्यमनोंमें उठा अलौकिक उद्योगोंकी भोर लगानी है। सना हुमा, पाहार, निदा, मैथुन, परिमल में लगा हुमा यहाँ ही पहली बार उस भवन्याकी पावरयकता बरबाद न कर यह मनुष्यभव चिंतामणि रत्नके समान मालूम होती है जो इसे स्वच्छन्दता, सुखशीखताको महामूल्यवान, महादुर्लभ और महाकष्टसाध्य पदार्थ छोड़ यम नियम, व्यवहार रोति, संस्था प्रथा धारण है। जीवनमें रूप-प्राकार, भोग विलास, कंचन-कामिनी रनेकी प्रेरणा करती है। सबही मिल सकते हैं। परंतु मनुष्यभव मिलना बहुत वहाँ ही पहली बार वह धर्मवृक्ष अंकुरित होता है Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातिक, वीर निर्माण सं०२४६६] वीरके दिव्य उपदेशकी एक झलक भात्मभदा जिसका सूख है, साम्पता जिसकी स्निग्ध दिये हैं। पाया है। दया जिसका मद है। पात्मज्ञान जिसका ऐ भव्यात्मा ! यदि तू वास्तवमें बुद्धिमान है। प्रफुल पुष्प है । त्याग जिसका सौरभ है और अमर स्वहितेषी है और उद्यमी है तो अब ऐसी योजन कर निसका फल है। कि तुझे फिर अधोगति जाना न पड़े। बारबार मृत्युके इन्हीं अलौकिक शक्तियों के कारण मनुष्यभव सबसे चक्करमें गिरना न पड़े। बहुत काल बीत चुका है। महान् है, प्रधान है और अमूल्य है। उसका एक समय भी अब किसी प्रकार वापिस नहीं परन्तु हा ! जीवन मानवी शरीरसे उभर भौतिक हो सकता है। जो काल बाकी है बड़ी तेजीके साथ क्षेत्रसे जितना ऊँचा उठा, जितना इसकी बुद्धि, माच- गुजर रहा है। देरका भवसर नहीं ! प्रमाव कोर, जाग रण और पुरुषार्थका विकास बढ़ा, जितना इसकी दुःख और खड़ा हो । जो कल करना है वह भाज कर, जो अनुभूति और दुःख निवृतिको कामनाने जोर पकड़ा, भाज करना है वह अब कर । जितना दुःखसमस्याको हल करनेके लिये इसने जीवन इससे पहिले कि मृत्यु अपनी टंकारसे तेरे प्राणोंको जगतको देखने, जानने और सुखमार्ग खोजनेका परिश्रम घायल करे, और तेरा शरीर पके हुए पातके समान किरण । उतना ही उतना इसकी भूल प्रान्तियोंने, मायुगलसे टूटकर धराशायी हो, तू इसे प्रात्मसाधनाइसकी मिथ्या कल्पनाओं और मान्यतामोंने भी जोर में लगादे । पकड़ा । इसकी भाशायें और लालसाय भी विचित्र दिलकी प्रन्थियोंको तोड़, संशय छोर, मिशंक हुई । इसका विकल्पप्रपञ्च और विमोह भी विस्तीर्ण बन, अपने में विश्वास पर कितू तू ही है। तू सबमें हुआ। है, सब तुझमें हैं पर तुझ सिवा तुझमें नहीं। इन ही नवीन भ्रान्तियों, मान्यताओं और प्रा- मोहजालके तार नार कर, अन्दर बैठ, निर्वान हो शामोंके कारण इसकी बाधायें और विपदायें भी सबसे दीपक जगा और देख, तू कितना ऊँचा और महान है। गहन है। इसकी समस्यायें और जिम्मेवारियाँ भी इसमें ईर्ण और द्वेष कहाँ है । तू कितना सोहना सु सबसे जटिल है। दर है, इसमें प्रात्मभरुचि और परासक्ति कहाँ है। प्राशाके इन पाशों में फंसकर तनिक गिरना शुरू मेरा तेरा छोर, जगये मुँह मोर, निर्भय बन, हुआ कि पतनका ठिकाना नहीं। फिर वह रोके नहीं अपने ही में लीन हो, और अनुभव कर, तू कितना रुकना । सीधा रसातलकी ही राह लेता है। मथुर और मानन्दमय है । इसमें दुःख कहाँ और शोक मोह ! मोहजालके इन मृदु तारोंने, झूठी प्रा. कहाँ है । तू कितना परिपूर्ण है इसमें राग और इच्छा शाओंकी मधुर मुस्कानने तुझ समान समुन्नत, समु- की गुम्बाइश कहाँ है। न तो निरा अमृत सरोवर है ज्ज्वल अनेक जीवन बान्ध बाधकर रसातमको पहुँचा इसमें जरा और मृत्यु कहाँ है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-परिचय और समालोचन [अनेकान्त में 'साहित्य परिचय और समालोचन' नामका एक स्तम्भ रखनेका बहुत दिनोंसे विचार चल रहा है। मनवकारादि छ कारणों के वरा अबतक उसका प्रारम्भ नहीं हो सका था, अब इस वर्षके इसी प्रकसे उसका प्रारम्भ किया जाता है। इस स्तम्भके नीचे समालोचमार्थ तथा भेट स्वरूप प्राप्त साहित्यका परिचय रहेगा। सामान्यपरिचय प्रायः प्रालिके समय ही दे दिया आया करेगा-सामान्य मालोचन भी उसी समय हो सकेगा। विशेष परिचय और विशेष समालोचनका कार्य बादको यथावकाश हुआ करेगा और वह उन्हीं प्रन्थों-पुस्तकों भाविका हो सकेगा जिनके विषयमें वैसा करना उचित और आवश्यक समझा जायगा । हाँ, दूसरे विद्वान् यदि किसी ग्रन्थादिकी समालोचना खास अनेकान्तके लिये लिखकर भेजनेकी कृपा करेंगे तो उसे भी, उनके नामके साथ, इस स्तम्भके नीचे स्थान दिया जासकेगा। -सम्पादक] (१) अकलंकग्रंथत्रयम्--मूल लेखक, भट्टाक- सका, इमीमे वह माथमें नहीं दिया जासका । इन लकदेव । सम्पादक, न्यायाचाय पं०महेन्द्रकुमारजी स्वोपज्ञभाष्यों तथा प्रमाण मंप्रहके अकलंक द्वारा जैन शास्त्री, न्यायाध्यापक स्याद्वाद महाविद्यालय रचे जानेकी मबमे पहले सूचना अनेकान्त द्वारा बनारस । प्रकाशक, मुनि जनविजय, संचालक सन् १९३० में की गई थी और इनको तथा 'सिंघी जैनग्रंथमाला, अहमदाबाद-कलकत्ता। न्यायविनिश्चय मूलको खोज निकालनेकी प्रेरणा बड़ा माइज पृष्ठ सं०, सब मिलाकर ५२० । मूल्य, भी की गई थी। माथ ही, समन्तभद्राश्रम-विज्ञप्ति सजिल्द ५)रु०। नं०४ के द्वारा दूसरे ग्रन्थोंके माथ इन ग्रन्थों को यह कलकत्ताकं प्रसिद्ध श्व० संठ श्री बहादुर भी खोजने के लिये पारितोषिककी सूचना निकाली. सिंहजी सिंघीकी ओरम उनके पूज्य पिता श्री गई थी । लुप्तप्राय जैन ग्रन्थांकी खोज-सम्बन्धी डालचन्दजी सिंघीकी पुण्यस्मृतिमें निकलने वाली मेरे इम आन्दोलनकं फलस्वरूप इन ग्रंथोंका उद्धार 'सिंघी जैन ग्रंथमालाका १२ वाँ प्रन्थ है । इममें होनस मेरी महनी प्रसन्नताका होना स्वाभाविक है, श्रीभट्टाकलंकदेव-विरचित उच्चकोटिक न्यायविषयक और इसलिये मैंने इन प्रन्थोंके उद्धार संबन्धी शुभ सोन संस्कृत प्रन्थोंका संग्रह है, जिनमेंमें एकका .. से देखो, भनेकान्त प्रथम वर्षकी प्रथम किरणमें प्रकाशित नाम 'लघीयत्रय' है, जो कि प्रमाण-नय-प्रवचन लुप्तप्रायजैन ग्रंथोंकी खोज-विषयक विज्ञप्ति नं०३ और विषयक तीन लघु प्रकरणोंको लिये हुए है; दूसरेका तीसरी किरणमें प्रकाशित 'पुरानी बातोंकी खोज' नाम 'न्यायविनिश्चय' और नीमरेका 'प्रमाण मंग्रह' शीर्षकके नीचे, प्रकलंक ग्रन्थ और उनके स्वोपभाष्य' है । पहले तथा तीसरे ग्रंथकेसाथ खुद भट्टाकलंकदेव विरचित स्वोपसभाष्य भी लगा हुआ है, नामका उपशीर्षक लेख। दूमरे प्रन्थका स्वोपसभाष्य उपलब्ध नहीं हो देखो, अनेकान्त वर्ष । किरण . Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातिकवीर निर्माण सं०२४१६] साहित्य-परिचय और समालोचन समाचारको गतवर्षके अनेकान्तकी प्रथम किरणमें वे बधाईके पात्र हैं। उनकी प्रस्तावनाको पूर्णरूपसे ही प्रकट कर दिया था (पृ० १०३) और यह भी देखनेका यद्यपि मुझे अभी तक यथेष्ट अवसर नहीं सूचित कर दिया था कि ये ग्रंथ सिंघी जैन-ग्रंथ. मिल सका, फिर भी उसके कुछ अंशों पर मरसरी मालामें छप गये हैं और जल्दी ही भूमिकादिसे तौरसे नजर डालने पर उसमें विद्वानों के लिये सुसजित होकर प्रकाशित होने वाले हैं, परन्तु विचारकी काफी सामग्री मालम होती है । कितनी इनके प्रकारानमें पूरा एक साल और लग गया। ही बातें विशेष विचारके योग्य भी हैं; जैसे और इसलिये अब अक्टूबर में प्रकाशित होकर अकलंकका समय, जिसे उन्होंने विक्रमकी ७वी पाने पर मुझे सबसे पहले इस स्तम्भके नीचे इन्हीं शताब्दीके स्थानपर ८वीं-९वीं शताब्दी सिद्ध करनेका संचित परिचय देनेमें मानन्द मालूम होता है ! का यत्न किया है। इस संग्रहमें 'न्यायविनिश्चय' के साथ उसके दिगम्बर सम्प्रदायके इन लप्तप्राय महत्वपूर्ण वादिराजसूरिकृत विवरणपरसे कारिकाओंके ग्रन्थरनोंका एक श्वेताम्बर-संस्था (सिंघी-जैनउत्थान-वाक्योंको ज्योंका त्यों तथा संक्षेपमें उद्धृत ज्ञानपीठ ) द्वारा उद्धार देखकर, जहाँ दिगम्बरकिया गया है, जिससे कारिकाओंका अर्थ समझने समाजकी अपने साहित्यके प्रति उपेक्षा-उदासीनता, और उनके सम्बन्धको मालूम करनेमें आसानी हो; और कर्तव्यविमुखता पर खेद होता है वहाँ श्वेतीनों प्रन्थों पर जुदी-जुदी टिप्पणियाँ अलग दी ताम्बर भाइयोंको इस उदारता, दूरदृष्टिता और गई हैं; तीनोंका विषयानुक्रम भी साथमें लगाया गुणप्राहकताकी प्रशंसा किये बिना भी नहीं रहा गया है; ९ उपयोगी परिशिष्ट दिये हैं, जिनमें इन जाता। इसके लिये सिंपी जैनग्रंथमालाके सुसंचा. ग्रन्थोंके कारिकाओंकी अनुक्रर्माणकाएँ, अवतरण लक मुनि श्रीजिनविजय, उसके संस्थापक एवं वाक्योंकी सूचियाँ और सभी दार्शनिक तथा लाक्ष- पोषक उदारचेता बाबू बहादुरसिंहजी सिंघी और णिक शब्दोंकी सूची खास तौरस उल्लेखनीय हैं। इन ग्रंथोंके इस तरह प्रकाशनकी योजना तथा इनके अतिरिक्त ग्रंथके शुरूमें क्रमशः प्रथमालाके प्रेरणा करनेवाले समर्थ विद्वान प्रज्ञाचक्षु पं० सुखमुख्य सम्पादक श्री जिनविजयजीका 'प्रास्ताविक', लालजी विशेष धन्यवादकं पात्र हैं। इस प्रकारके पं० सुखलालजी संघवी दर्शनाध्यापक हिन्दू प्रयन निःसन्देह साम्प्रदायिक कट्टरताको मिटानेके विश्वविद्यालय, काशीका 'प्राकथन', न्यायाचार्य प्रधान साधन है, और इसलिये मैं इनका हृदयसे पं० महेन्द्रकुमारजीका 'सम्पादकीय वक्तव्य' और अभिनन्दन करता हूँ। महत्वपूर्ण प्रस्तावना' जो सब राष्ट्रभाषा हिन्दीमें अन्धकी छपाई-सफाई सब उत्तम हुई है, काराक लिखे गये हैं, सब मिलकर प्रन्धकी उपयोगिताको भी अच्छा पुष्ट लगाया है और जिल्द सुन्दर तथा बहुत ज्यादा बढ़ा रहे हैं। इस प्रथके सम्पादनमें मनोमोहक है। परिश्रमादिको देखते हुए मूल्य भी न्यानजीने काफी परिश्रम किया है और उस. अधिक नहीं है। संक्षेपमें अन्य विद्यानोंके अपने के कारण उन्हें जो सफलता मिली है उसके लिये पास रखने, मनन करने और नायजेरियों, मान Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अनेकान्त [वर्ष, किरण १ मन्दिरों, विद्यालयों तथा शिक्षा संस्थानोंमें संग्रह रामजी प्रेमी, बम्बईने प्रो० साहबको इस प्रन्थके करनेके योग्य है। . . . सम्पादनके लिये प्रेरित किया, उसीका फल मन्थका (२) वरामचरित-मूल लेखक, भी जटासिंह यह प्रथम संस्करण है और यह उक्त प्रन्थमालाका नन्दिाचार्य। सम्पादक, प्रोफेसर ए० एन० ४० वां ग्रन्थ है। उपाध्याय, राजाराम कालिज कोल्हापुर । प्रकाशक, प्रन्थका विषय उसके नामसे ही स्पष्ट है। पं० नाथूराम प्रेमी, मंत्री 'माणिकचन्द्र दिगम्बर यह 'वराज' नामके एक राजकुमारकी कथा है, जो जैनग्रंथमाला, हीराबाग, बम्बई ४ । साइज, अपनी विमाता मृगसेनाके डाह एवं षडयन्त्रके २०४३०, १६ पेजी। पृष्ठ संख्या, सब मिलाकर कारण अनेक संकटोंमें गुजरता हुआ और ४९७ । मूल्य, सजिल्द ३) रु०। अपनी योग्यतासे उन्हें पार करता हुआ अन्तको यह प्राचीन संस्कृत ग्रंथ भी उन लुप्तप्राय जैन- अपना नया स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में समर्थ प्रन्थोंमेंस है जिनके उद्धारार्थ-आजसे दस वर्ष हुआ और जिसने बादको जैन मुनि होकर भगवान. पहले भनेकान्तमें समन्तभद्राश्रम-विज्ञप्तियोंके नेमिनाथके तीर्थमें मुक्ति लाभ किया और इस द्वारा आन्दोलन उठाया गया था और पारितोषिक तरह अपना उत्कर्ष सिद्ध करके पूर्ण स्वाधीनताभी निकाला गया था। इसके उद्धारका सारा श्रेय मय सिद्धपदको प्राप्ति की। कथा रोचक है, ३१ इसके सुयोग्य सम्पादक प्रोफेसर ए० एन० (आदि. सोंमें वर्णित है और प्राचीन साहित्यका एक नाथ नेमिनाथ ) उपाध्यायजीको है, जिन्होंने सब अच्छा नमूना प्रस्तुत करती है। से पहले कोल्हापुरके लक्ष्मीसेन भट्टारकके मठसे प्रोत्साहबने इस प्रन्थका सम्पादन बड़ी योग्यइसकी एक पुरानी ताडपत्रीय प्रतिको खोज निकाला ता तथा परिश्रमके साथ किया है । पाप सम्पादन और उसका परिचय पूनाक 'एनल्स माफ दि कलामें खूब सिद्धहस्त हैं,इससे पहले प्रवचनसार भाण्डारकर प्रारियटल रिसर्च इन्स्टिटयूट' नामक और परमात्मप्रकाश । नामक अन्धका उत्तम अंग्रेजी पत्रकी १४ वीं जिल्द के अंक नं० १०२ में सम्पादन करके अच्छी ख्याति लाभ कर चुके हैं। प्रकट किया। साथही यह भी सप्रमाण प्रकट किया बम्बई यूनिवर्सिटीने मापके उत्तम सम्पादनके कि इस वरांगचरितके रचयिता प्राचार्य जटासिंह कारण ही इस अन्य के प्रकाशन में २५० १० की नन्दी हैं, जिन्हें जटिलमुनि भी कहते हैं और जो सहायता प्रदान की है, प्रवचनसारकी प्रस्तावना ई० सन् ७७८ से पहले हुए है-श्रीजिनसेनाचार्य पर भी वह पहले २५० रु० पुरस्कारमें दे पकी है कृत हरिवंशपुराणके एक उल्लेख परसे इसे जापन- और हालमें उसने प्रो० साहबको डाक्टर माफ चरितके कर्ता रविषेणाचार्यकी कृति समझ लिया लिटरेचर (डी० लिट०) की उपाधि से विभूषित गया था वह उस उल्लेखको ठीक न समझनेको समयकी विस्तृत समाजोपया के लिये देखो, गनतीका परिणाम था । उक्त परिचयको पाकर बैन सिदान्य भास्कर में प्रकाशित 'प्रवचनसार माणिकचन्द मधमालाके सुयोग्य मंत्री पं० नाथः संस्कार रामकस। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य- परिचय और समालोचन काविक, चीरनिर्वाण सं० २४६६] कर विशेषरूपसे सम्मानित भी किया है। ऐसी हालतमें आपकी सम्पादन योग्यता के विषय में अधिक लिखने की जरूरत नहीं है। इस ग्रन्थके साथ में प्रो० साइबकी ५६ पृष्ठों की अंग्रेजी प्रस्तावना देखने योग्य है, जिसका हिन्दी सार भी पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीसे लिखाकर साथमें लगा दिया गया है और इससे हिन्दी जानने वाल भी उससे कितना ही लाभ उठा सकते हैं । प्रस्तावना में (१) सम्पादनोपयुक्त सामग्री (२) मूलका संगठन (३) मूलके रचयिता (४) जटासिंहनन्दि आचार्य, (५) जटामिंहनन्दीका समय और उनकी दूसरी रचनाएँ, इन विषयों पर प्रकाश डालनेके बाद (६) बरांग चरितका आलोचनात्मक – गुणदोषनात्मक और तुलनात्मक परिचय कराया गया है, जिसमें ग्रन्थ-विषयका सार काव्यके रूपमें धर्मकथा, ग्रंथमेंसे दान्तिक नवादानुवादात्मक स्थलोंका निर्देश, तत्का लीन सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितिका दिग्दर्शन, अश्वघोष और जटिल, बराङ्ग चरित और उत्तरकालीन प्रन्थकार, प्रन्थकी व्याकरण सम्बन्धी विशेषताएँ, प्रन्थके छन्द और ग्रन्थकी रचनाशैली जैसी विषयोंका समावेश किया गया है और अन्त में (७) दूसरे चार वरांग-बरितोंका परिचय देकर प्रस्तावनाको समाप्त किया है। प्रस्तावना के बाद सर्ग क्रमसे प्रन्थका विषयानुक्रम दिया है । प्रन्थके पदोंकी वर्णानुक्रम सूची भी ग्रन्थ में लगाई गई है । इनके अतिरिक्त सर्गक्रमसे पयोंकी सूचनाको साथमें लिए हुए कुछ महत्वकी टिप्पणियां (Notes) भी अंग्रेजीमें अलग दी गई हैं। और ग्रन्थमें पायेजानेवाले नामोंकी भी एक पंचक अनुक्रमणिका लगाई गई है। इस तरह प्रन्थके इस संस्करणको बहुत कुछ उपयोगी बनाया गया है। छपाई सफाई अच्छी और गेट अप भी ठीक हैं। ग्रन्थ सब तरह से संग्रह करने योग्य है। प्रन्थके इस उद्धार कार्यके लिये सम्पादक और प्रकाशक दोनों ही धन्यवादक पात्र हैं । हाँ, प्रन्थका मूल्य अधिक नहीं तो कम भी नहीं है । खेद है कि माणिकचंद ग्रंथमालाको दिगम्बर जैनसमाजका बहुत ही कम सहयोग प्राप्त है। उसकी आर्थिक स्थिति बड़ी ही शोचनीय है, ग्रंथ बिकते नहीं, उनका भारी स्टाक पड़ा हुआ है। इसीसे वह अब अपने ग्रंथोंका मूल्य कम रखने में असमर्थ जान पड़ती है। दिगम्बर जैनोंका अपने साहित्यके प्रति यह प्रेम और उपेक्षाभाव निःसन्देह खोदजनक ही नहीं, बल्कि उनकी भावी उन्नतिमें बहुत बड़ा बाधक है। भारत है समाजका ध्यान इस ओर जायगा, और वह अधिक नहीं तो मन्दिरोंके द्रव्यसे ही प्रकाशित ग्रंथोंसे शीघ्र खरीद कर उन्हें मन्दिरोंमें रखनेकी योजना करेगा, जिससे अन्य ग्रंथोंके प्रकाशनको अवसर मिल सके। (३) तस्वार्थसूत्र - (हिन्दी अनुवादादि सहित ) मूललेखक, आचार्य उमास्वाति । धनुवादक और विवेचक, पं० सुखलालजी संघवी, प्रधान जैमदर्शनाध्यापक हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस । सम्पादक पं० कृष्णचन्द्र जैनागम दर्शन - शास्त्री, अधिष्ठाता श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम, बनारस । तथा पं० दलसुख मानबणिया, न्यायतीर्थ, जैनगमाध्यापक हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस । प्रकाशक श्री मोहनलाल दीपचन्द्र चोकसी, मंत्री Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२. अनेकान्त जैनाचार्य श्री भात्मानन्द-जन्म-शताब्दी स्मारक ट्रस्ट बोर्ड, त्रांबा कांटा, बहोरानो - जूनोमालो चौथा माला, बम्बई नं० ३ | मूल्य १11) रु० । यह प्रन्थ प्रायः पूर्वमें प्रकाशित अपने गुजराती संस्करणका, कुछ संशोधन और परिवर्धन के साथ, हिन्दीरूपान्तर है । इस संस्करणकी मुख्य दो विशेष ताएँ हैं । एक तो इसमें पारिभाषिक शब्दकोष और सटिप्पण मूलसूत्रपाठ जोड़ा गया है, जिनमें से शब्दकोषको पं० श्रीकृष्णचन्द्रजी सम्पादकने और सूत्र - पाठको पं० दलसुखभाई सम्पादकने तय्यार किया है। ये दोनों उपयोगी चीजें गुजराती संस्करणमें नहीं थीं । इनके तय्यार करने में जो दृष्टि रक्खी गई है वह पं० सुखलालजी के वक्तव्य के शब्दों में इस प्रकार है “पारिभाषिक शब्दकोश इस दृष्टिसे तय्यार किया है कि सूत्र और विवेचनात सभी जैनजैनेतर पारिभाषिक व दार्शनिक शब्द संग्रहीत हो जायँ, जो कोशकी दृष्टिसे तथा विषय चुननेकी दृष्टिसे उपयुक्त हो सके। इस कोष में जैनतत्वज्ञान और जैन आचारसे सम्बन्ध रखने वाले प्रायः सभी शब्द आजाते हैं। और साथही उनके प्रयोगके स्थान भी मालूम हो जाते हैं । सूत्रपाठ में श्वेता म्बरीय और दिगम्बरीय दोनों सूत्रपाठ तो हैं ही फिर भी अभी तक छपे हुए सूत्रपाठों में नहीं ए ऐसे सूत्र दोनों परम्पराओंके व्याख्या प्रन्थोंको देखकर इसमें प्रथमवार ही टिप्पणी में दिये गये हैं ।" - दूसरी विशेषता परिचयन्प्रस्तावनाकी है, और जो पं० सुखलालजी के शब्दों में इस प्रकार है"प्रस्तुत भावृति में छपा परिचय सामान्यरूपसे - [वर्ष ३ किरण १ गुजरातीका अनुवाद होने पर भी इसमें अनेक महत्वके सुधार तथा परिवर्धन भी किये गये हैं । पहले कुछ विचार जो बादमें विशेष आधार वाले नहीं जान पड़े उन्हें निकाल कर उनके स्थान में नये प्रमाणों और नये अध्ययन के आधार पर खास महत्वकी बातें लिख दी हैं । उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परा के थे और उनका सभाष्य तत्वार्थ सचेलपक्ष के श्रुतके आधार पर ही बना है यह वस्तु बतलाने के वास्ते दिगम्बरीय और श्वेताम्बरीय भूत व आचार भेदका इतिहास दिया गया है और अचेल तथा सचेल पक्षके पारस्परिक सम्बन्ध और भेदके ऊपर थोड़ा सा प्रकाश डाला गया है, जो गुजराती परिचयमें न था । भाष्य के टीकाकार सिद्धसेन गणि ही गंधहस्ती हैं ऐसी जो मान्यता मैंने गुजराती परिचयमें स्थिर की थी उसका नये अकाट्य प्रमाण के द्वारा हिन्दी परिचयमें समर्थन किया है और गन्धहस्ती तथा हरिभद्रके पारस्परिक सम्बन्ध एवं पौर्वापर्य के विषय में भी पुनर्विचार किया गया है। साथ ही दिगम्बर परम्परामें प्रचलित समन्तभद्रकी गंधहस्तित्वविषयक मान्यताको निराधार बतलानेका नया प्रयत्न किया है। गुजराती परिचय में भाष्यगत् प्रशस्तिका अर्थ लिखने में जो भ्रांति रह गई थी उसे इस जगह सुधार लिया है। और उमास्वातिकी तटस्थ परम्परा के बारेमें जो मैंने कल्पना विचारार्थ रखी थी उसको भी निराधार समझकर इस संस्करण में स्थान नहीं दिया है । भाष्यवृत्तिकार हरिभद्र कौनसे हरिभद्र थे - यह वस्तु गुजराती परिचयमें संदिग्ध रूपमें थी जब कि इस हिन्दी परिचयमें याकिनीसू रूपसे उन हरिभद्रका निर्णय स्थिर किया है ।" Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] साहित्य-परिचय और समालोचना अर्थात् प्रथम वर्षके अनेकान्तकी ६ से १२ पंबेचरदास । अंग्रेजीमें प्रस्तावनाऽनुवादक, प्रो. नम्बर तककी किरणोंमें पं० सुखलालजीके जो ए०बी० प्रायवले, एम०ए०; मूख तथा टोकानुवादक तीन लेख-१ तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता उमास्वाति; २ प्रो० ए० एस० गोपनी, एम० ए०। सम्पादक, उमास्वातिका तत्वार्थसूत्र, ३ तत्वार्थसूत्रके व्याख्या. पं०दलसुख मालवनिया प्रकाशक, सेक्रेटरी भी जैन, कार और व्याख्याएँ, इन शीर्षकों के साथ-गुजरा- श्वेताम्बर एजुकेशन बोर्ड, २० पायधुनी, बम्बई ती संस्करणके परिचय-प्रस्तावनापरसे अनुवादित ३ । पृष्ट संख्या, ४१६ । मूल्य, १० । कर कुछ क्रमभेदके साथ दिये गये थे, वे सब सन्मतितर्क पर पं० सुखलाल और पं० बेचर. इस संस्करणमें उक्त विशेषताके अनुरूप संशोधित दासजीने जो पहले सन् १९३३ में गजराती टीका और परिवर्तित होकर दिये गये हैं। और इसलिये तथा प्रस्तावना लिखी थी उसीका यह ग्रंथ मूल- . यह दूसरी विशेषता विद्वानोंके सामने कितनी ही कारिकाओं के साथ अंग्रेजी अनुवाद है, जो उक्त नई बातें विचारके लिये प्रस्तुत करती है। पं० दो विद्वानोंसे कराया गया है। साथमें नामादिमुखलालजीकी दृष्टिमें अब तयार्थाधिगमसूत्र विषयक दो उपयोगी Index भी लगाये गये पूर्णरूपसे श्वेताम्बरीय पन्थ है-उमास्वातिक और इस तरह उसके द्वारा अँग्रेजी जाननेवालों के दिगम्बर-श्वेताम्बर-सम्प्रदाय भेदसे भिन्न एक लिये सन्मतितर्कको पढ़ने-पढ़ाने और उसकी तटस्थ विद्वान हानेको और इसीसे दोनों सम्प्रदायों महत्वपूर्ण प्रस्तावना (Introduction) से यथेष्ट द्वारा उनकी इस वृत्तिके अपनाये जानेकी जो लाभ उठानका मार्ग सुगम किया गया है। पं०कल्पना पहले उन्होंने की थी वह अब नहीं रही। सुखलालजी आदिका यह प्रयत्न प्रशंसनीय है। इस इस विशेषताकी कितनी ही बातों पर विशेष विचार ग्रंथके निर्माण तथा प्रकाशन कार्यमें श्रीमती लीलाप्रस्तुत करनकी अपनी इच्छा है, जिसे यथावकाश वती धर्मपत्नी स्व० सेठ देवीदासकानजी बम्बईने वादको कायमें परिणत किया जायगा। ११००) १० की और मास्टर रतनचन्द तलाकचन्द प्रन्थका यह संस्करण अनेक दृष्टियोंसे महत्व- जीने ३००) रु० की सहायता प्रदान की है। पूर्ण है, हिन्दी-पाठकों के सामने विचारकी प्रचुर (५) श्री प्रात्मानन्दं-जन्मशताब्दि-स्मारकपन्थसामग्री प्रस्तुत करता है, छपाई-सफाई भी इसकी सम्पादक, श्री मोहनलाल दलीचन्द देशाई, एडवो. सुन्दर हुई है और मूल्य १॥) रु० तो प्रचारकी कंट, बम्बई । प्रकाशक, श्री मगनलाल मूलचन्ददृष्टिस कम रक्खा ही गया है, जबकि गुजराती शाह, मन्त्री श्री आत्मानन्द-जन्म-शताब्दि-स्मारक संस्करणका मूल्य २२) २० था। अतः ग्रंथ विद्वानों- समिति, बम्बई । मूल्य, २) १०।। के पढ़ने, विचारने तथा संग्रह करने के योग्य है। यह 'अनेकान्त'-माइजके प्राकारमें अनेका (४) सन्मतितकं (अंग्रेजी अनुवाद सहित)- नेक लेखोंतयाचित्रोंसे अलंकृत और कपड़ेकी सुन्दर मूलग्रन्थ लेखक, सिद्धसेनाचार्य, मूलगुजराती पुष्टजिल्लसे सुसज्जित कल्याण के विरोपाहों जैसाएक टीकाकार तथा प्रस्तावना लेखक, पं-सुखलालब बहुत बड़ा दलदार प्रन्थ है, जो श्वेताम्बर जैनाचार्य Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ श्रीमद्विजयानन्दसूरि, प्रसिद्ध नाम आत्मारामजी सम्बन्ध रखते हैं और वे तिरंगे, फोटोके तथा महाराजकी जन्मशताब्दिकी स्मृतिमें एक समिती रेखा चित्रादि रूपसे अनेक प्रकारके हैं। स्थापित करके विशाल प्रायोजनके साथ निकाला गया है। इसमें लेखोंके मुख्य तीन विभाग हैं-- इस ग्रन्थमें लेखांका संग्रह तथा संकलन (१) अंग्रेजी, (२) हिन्दी और (३) गुजराती। अच्छा हुआ है। कितने ही लेख तो बड़े महत्वके अंग्रेजी लेखोंकी संख्या ३५, हिन्दी लेखोंकी ४० हैं। 'जैनधर्म और अनेकान्त' नामका एक लेख और गुजराती लेखोंकी ५८ है। गुजरातीके लेख उनमेंसे 'अनेकान्त' के गत् वर्षकी छठी किरणमें दो विभागोंमें बंटे हुए हैं- एक खास मुनि प्रा. उद्धृत भी किया गया था । चिंत्र भी कितने ही त्मारामजी-विषयक, जिनकी संख्या २६ है और मनमोहक तथा कामके । संक्षेपमें अपने दूमरे अन्य विषयोंसे सम्बन्ध रखने वाले पाठकोंके लिये यह ग्रन्थ अनुभव, विचार तथा जिनकी संख्या ३२ है । अंग्रेजीके लेखोंकी मननकी अच्छी सामग्री प्रस्तुत करता है । छपाई पृष्ठ संख्या १९०, हिन्दी लेखोंकी-(जिनमें कुछ सफाई और गेट-अप सब चित्ताकर्षक है, कागज संस्कृत के पद्य लेख भी शामिल हैं) २१८, भी अच्छा चिकना तथा पुष्ट लगा है और मूल्यऔर गुजराती लेखोंकी १४४+२६० है । इनके का तो कहना ही क्या ! वह तो बहुत ही कम है अतिरिक्त सम्पादकीय वक्तव्य, प्रकाशकीय और स्मारक समितिको प्रचार दृष्टिको सूचित निवेदन और लेखमूचियों आदिके पृष्ठोंका भी करता है। यदि इमसे दुगना-पांच रुपये-मूल्य यदि लेखा लगाया जाय तो ग्रंथकी कुल पृष्ठ संख्या भी रक्खा जाता तो भी कम ही होता । ऐसी हालत ८५० के करीब होजाती है। चित्रोंकी कुल संख्या में कौन माहित्यप्रेमी है जो ऐसे प्रन्थका संग्रह न १५५० है, जिनमेंमे २९ अँग्रेजी विभागके साथ, करे ! श्वेताम्बर ममाजका अपने वर्तमान युगीन ५० हिन्दी विभागके और ६० गुजराती लेखोंके एक मेवापरायण पज्याचार्यके प्रति यह भक्ति माथ दिये हैं। शेष ११ चित्रोंमेंस ९ तो लेखारम्भ- भाव और कृतज्ञता प्रकाशनका आयोजन से पहले दिये हैं,एक शताब्दि नायकका सुन्दरचित्र निःसन्देह बड़ा ही स्तुत्य एवं प्रशंसनीय है और बाहर कपड़ेकी जिल्दपर चिपकाया गया है और उसमें जीवनशक्तिके अस्तित्वको सूचित करता दूमरा जिल्दके भीतर प्रन्थारम्भसे पहले छापा है। माथ ही दिगम्बर समाजके लिये ईके गया है। चित्र अनेक व्यक्तियों, संस्थाओं, जल्सों, योग्य है और उसके सामने इस दिशामें एक मंदिरों, मूर्तियों, शिलालेखों तथा हस्तलेखोंसे अच्छा कर्तव्यपाठ प्रस्तुत करता है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग प्रतिमाओंकी अजीब प्रतिष्ठा विधि [लेखकः-- श्री बाबू सूरजभानजी वकील ] न शास्त्रोंके पढ़ने और पं० गोपालदास श्रादि अधिक न उलझने पावे । सारचौबीसी नामक ग्रन्थ में "विख्यात विद्वानोंके उपदेशोंस अब तक यही मालूम लिखा हैहुश्रा है कि जैनधर्म मूर्तिपूजक नहीं है किन्तु मूर्तिसे यत्रागारे बिना_हो नास्ति पुरुषकानृणाम् । मूर्तिका तो काम लेने वास्त ही वीतराग भगवानकी सद्गृहं धार्मिकैः प्रोक्तं पापवं पपि म मम ॥१५॥ मूर्तियोंको मन्दिरों में स्थापित करने की आज्ञा देता है, अर्थात्--जिस घर में मनुष्योंको पुण्य प्राप्त कराने जिमस अर्हत भगवानकी वीतराग छविको देवकर, वाली जिनप्रतिमा नहीं है उम घरको धार्मिक पुरुष देखने वालोंके हृदयमें भी वीतराग भाव पैदा हो । जैन- पाप उप जानेवाला पक्षियोंका पर बताते हैं । इस ही धर्मका मार एकमात्र वीतरागता और विज्ञानता ही प्रकार पद्म पुराण के पर्व ६२ में लिग्या है-- . है, यह ही मोनका कारण है । इन दोनोंमें भी एकमात्र अग्रप्रभृति पद्गेहे विवं नैनं न विद्यते । वीतरागता ही विज्ञानताका कारण है । वीतरागतास मारी मति मळ्यात्री यमाऽनाथं कुरंगकम् ॥ ही कंवलज्ञान प्राप्त होता है और सर्व सुख मिलता है अर्थात्--जिम घरम जिन प्रतिमा नहीं है उम इस ही वास्ते जैनधर्म एकमात्र वीतरागता पर ही ज़ोर घरको (घर वालोंकी) मारी (प्लंग जैसी बीमारी) उसी देता है, जो वास्तवमं जीवात्माका वास्तविक स्वभाव तरह खाती है जिम तरह अभय हिरणको शेरनी । वा धर्म है । उस ही वीतरागताकी प्राप्तिको मुख्यहेतु जैनधर्म वीतराग धर्म है, इस ही कारण वह परम वातगग कथित जिनवाणीका श्रवण, मनन और पठन- वीतरागीदेव, वीतरागीगुरु और बीतगगताकी शिक्षा पाठन है, जिसमें वीतरागताकी मुख्यता श्रेष्ठताको भनी देनेवाले शास्त्रांकी ही पूजा वंदना करनेकी आज्ञा देता भोनि दिखाया गया है और वस्तुस्वभाव तथा नय-प्रमा- है तथा रागीदेव, रागीमाधु और रागको पुष्ट करने रग के द्वारा हदयमे बिठानकी प्रचुर कोशिश की गई है। वाले शास्त्रोंको अनायतन ठहगकर उनसे बिलकुल ही इस ही के साथ जिन्होंने वीतरागता प्राप्त कर अपना दूर रहने पर जोर देता है । वीतरागदेव, गुरु, शास्त्रकी परमानन्दपद प्राप्त करलिया है उनको वीतराग-मूर्ति के पूजा प्रतिष्ठा वंदना-स्तुति भी वह किमी मामारिक कार्य दर्शन होते रहना भी वीतरागभाव उत्पन्न करनेके की सिद्धि के वास्ते कग्ना कतई मना करता है । इम वास्ते कुछ कम कारण नहीं है । इसीसे जैनशास्त्रोंमें प्रकारकी कांक्षा रग्बन वालेको तो जैनधर्म सभा भवानी घर घर जिनप्रतिमा विराजती रहनेको अत्यन्त जरूरी ही नहीं मानता है किन्तु मिथ्यात्वी ठहराता है। भक्ति बनाया है, जिससे उठते-बैठते हरवक्त ही सबका ध्यान स्तुति-पूजा-पाठ अादि धर्मकी मब किया तो बा एकवीतगग-मूर्ति पर पड़ता रहे और यह पापी मन संसारमै मात्र वैराग भाव हल करने के वास्त ही जरूरी बताता है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अनेकान्त [वर्ष ३ किरण १ इसही कारण तीर्थकर भगवानकी भक्ति भी एक मात्र तीर्थकरकी प्रतिमा है। किसी भी तीर्थकरकी हो परम उनकी वीतराग अवस्थाकी ही करनी जरूरी बताई जाती वीतराग रूप प्रतिमा ज़रूर होनी चाहिये, जिसके दर्शनसे है, जिससे वीतरागताका भाव पैदा हो, न कि उनकी वीतरागताका भाव हमारे हृदयमें भी पैदा होने लग गृहस्थावस्थाकी, जिससे राग-भाव पैदा होनेकी ही जाय । रही पूजने या भक्ति स्तुति करनेकी बात, वह सम्भावना हो सकती है। ऐसी दशामें सवाल यह पैदा बेशक अलग अलग तीर्थकरकी अलग अलग की जाती होता है कि वीतराग-प्रतिमा, जिसके घर-घर रखनेकी है, परन्तु जिस तीर्थकरकी प्रतिमा मन्दिरमें नहीं होती है, जरूरत है; वह क्या इस प्रकार प्रतिष्ठित होनी ज़रूरी है, उनकी भी पूजा बंदना और भक्ति-स्तुति की जाती है। जिस प्रकार पंचकल्याणकोंकी लीला करके आजकल यह भक्ति स्तुति प्रतिमाकी तो की ही नहीं जाती है और प्रतिष्ठित समझी जाती है, और प्रतिष्ठा होनेके बाद न मन्दिरमें विराजमान प्रतिमाको वास्तविकरूपमें तीर्थंकर शिल्पी द्वारा उनपर प्रतिष्ठित किया जाना अंकित भगवान ही माना जाता है । मूर्तिसे तो मूर्तिका ही काम कराया जाता है, अथवा बिना इस प्रकारकी लीलाके लेनेकी आज्ञा है अर्थात् यह ही समझने और माननेकी बैंस ही उनको विराजमान कर उनके दर्शनसे वीतरागता- ज़रूरत है कि यह तीर्थकरभगवान्की परम वीतरागरूप फी शिक्षा लेते रहनेकी ही जरूरत है, जैसा कि प्राचीन अवस्थाकी मूर्ति है तब प्रत्येक तीर्य करकी अलग २ कालके जैनी करते थे । क्योंकि प्राचीनकालकी जो प्रतिमा रखने और उनपर अलगर चिन्ह बनानेकी तो जैनप्रतिमाएँ धरती से निकलती हैं वे चौथे कालकी कुछ भी ज़रूरत नहीं है यहाँ यदि इन मूर्तियाँको ही हो या पंचम कालकी; उनपर प्रतिष्ठा होना अंकित नहीं माक्षात् भगवान मानकर पूजनेकी आशा होती तब तो होता है जैसा कि श्रा नकलकी मूर्तियों पर होता है । मूर्ती बेशक अलग २ तीर्थंकरकी अलगर मूर्ति बनानेको भी निर्माण कराने वाले शिल्पशास्त्रोंमें प्रत्येक तीर्थकरकी जरूरत होती; परन्तु अब तो परम वीतरागताकी मूर्तिके अलग अलग शक्ल नहीं बताई गई है, जिससे शिल्प- दर्शन करने के वास्ते एक ही मूर्ति काफी है, जो सबही कार पहलेसे ही प्रत्येक तीर्थकरकी अलग अलग मूर्ति तीर्थकरोकी मूर्ति समझी जासकती है। इसही कारण बनावें । वह तो सबही मूर्तियाँ एक समान बनाता है कोई भी चिन्द बनाने की जरूरत मालूम नहीं होती है। में महीना भाव मानेका व्याल अब भी जिन मंदिरोंमें सबही तीर्थंकरोंके चिन्होंवाली रग्वता है। फिर चाहे जिस पर चाहे जिस तीर्थकरका मूर्तियाँ नहीं होती हैं। एक, दो या तीन ही मूर्तियाँ चिन्ह बना देता है । तब यदि यह चिन्हन बनाया जावे होती हैं, उन मंदिरोंमें भी तो चौबीसों तीर्थकरोंकी पूजातो वह मूर्ति सबही तीर्थंकरोंकी, उनका परम वीतराग- भक्ति होती है अर्थात् वीतरागताकी शिक्षा तो उन बिरूप अवस्थाकी समझी जा सकती है,ऐसी ही वे प्राचीन राजमान प्रतिमाओंसे लेली जाती है और पजाभक्ति मूर्तियाँ समझी जाती थीं जो धरतीके नीचेसे निकलती सबकी अपने मनमें उनका स्मरण करके करनी जाती है और जिन पर प्रायः कोई चिन्ह बना हुमा नहीं होता है। यहाँ पर यह कहा जासकता है कि जिन तीर्थंकरोंहै। वीतरागताका भाव पैदा करनेके वास्ते तो हमको की प्रतिमा नहीं होती है उनकी स्थापना पक्षकों द्वारा इस बातकी कुछ भी ज़रूरत नहीं होती है कि वह किसी करली जाती है। परन्तु स्थापना करके पूजन तो एकदो Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] वीतराग प्रतिमाओंकी अजीब प्रतिष्ठा विधि १०७ mama t hi ही करते हैं, बाकी जो सैकड़ों जैनी मंदिरमें आते हैं और अपने हृदयमें बिठाते रहनेसे हृदयमें उनकी भकि वीतराग प्रतिमाके दर्शन करके सबही तीर्थंकरोंको स्मरण स्तुति करते रहनेसे-रवक्त ही हमारे भावोंकी शुद्धि होती कर, उनकी भक्ति स्तुति करते हैं और चावल, लौंग, रहती है और यह भक्ति स्तुति हम बार बार हर जगह बादाम आदि हाथमें जो हो वह भक्तिसहित सबही कर सकते हैं। यहाँ प्रतिमा हो या न हो, इस बातकी तीर्थकरोंको चढ़ाते हैं, तो क्या स्थापनाके बिना वह कोई जरूरत नहीं है। परम वीतरागरूप प्रतिमाके दर्शन उनकी भक्तिस्तुति बिल्कुल ही निरर्थक होती है । इसके तो हमको वीतरागताकी उत्तेजना दे देते हैं, उससे बीतअलावा मंदिरके समयसे अलग जो लोग अपने घरपर रागरूप भावोंकी उत्तेजना होने पर हमारा यह काम है या मंदिर के एक कोने में बैठकर २४ तीर्थंकरोंका या पंच- कि परम वीतरागी पुरुषों, आईतो, सिद्धों, और साधुनोंको परमेष्ठीका जाप करते है-हृदयसे उनकी भक्तिस्तुति याद करकर उस वीतरागरूप भावको हृदयमें जमाते और बंदना करते हैं तो क्या स्थापना न करनेसे या रहें और जब जब भी मौका मिले उनके गुणोंकी भक्तिउनकी मूर्ति सामने न होनेसे जिनकी वे भक्तिस्तुति स्तुति और पूजा बंदना अपने हृदयमें करते रहें । और करते हैं उनकी वह भक्तिस्तुति या जाप श्रादि व्यर्य यदि हो सके तो दिनमें कोई २ समय ऐसा स्थिर करले ही जाता है । नहीं नहीं ! व्यर्थ नहीं जाता है । यदि वे जब एकान्तमें बैठकर स्थिर चित्तसे उनकी भक्तिस्तुति उनके वीतरागरूप गुणोंको याद करके, उन गुणोंकी पूजा बंदना कर सकें, जिसके वास्ते हर वक्त प्रतिमा भक्ति स्तुति करते है तो बेशक उनका यह कार्य महा- सामने रखने व स्थापना करनेकी ज़रूरत नहीं है। यह कार्यकारी और फलदायक होता है । यह ही जैनशानों- सब तो हृदय मन्दिर में ही हो जाती है। का स्पष्ट श्राशय है । जिससे यह साफ़ सिद्ध है कि इस प्रकार जब वीतरागरूप मूर्तिसे मूर्तिका ही काम भक्ति स्तुति और पूजा बंदनाके वास्ते न तो प्रतिमा ही लिया जाता है; उसको साक्षात तीर्थकर माननेसे साफ़ र ज़रूरी है और न स्थापना या जलचन्दनादि द्रव्य इनकार किया जाता है। किसी प्रकार भी अपनेको मतिही, किन्तु एकमात्र वीतरागरूप परमेष्ठियोंके वैराग्य पूजक नहीं बताया जाता है। और मूर्ति भी बीतरागलप और त्यागरूप गुणांकी बड़ाई अपने हृदय में बैठानेकी ही रखनेकी ताकीद है। कोई वस्त्र अलंकार यहाँ तक ही ज़रूरत है। जिससे हमारे पापी हृदयमेंसे भी रागद्वेष कि अगर एक तागा भी उस पर पड़ जाय तो वह कामरूप मैल कम हो होकर हमारा हृदय भी कुछ पवित्र की नहीं रहती है; तो गर्भ-जन्म, खेल-कूद और राजहोने लग जाय, हमारे हृदयमें भी वीतरागरूप भावोंको भोग प्रादिका संस्कार उसमें पैदा करनेकी क्या जरूरत स्थान मिलने लग जाय । और हम भी कल्याणके मार्ग है, जो प्रतिष्ठा विषिके द्वारा कुछ दिनोंसे किया जाना पर लगने के योग्य हो जायें। शुरू हो रहा है। हम दिगम्बर-श्राम्नायके माननेवाले बेशक तीर्थकरोंकी वीतरागरूप प्रतिमाके दर्शनसे जैनी, तीर्थकर भगवान्की राजअवस्थाकी मूर्तिको भी हमको वैराग्यकी उत्तेजना मिलती है, परन्तु भी माननेसे साफ इनकार करते है। अनेक तीर्थंकरों ने तीर्थंकरों, सिदों और सब ही बीतरागी साधुओंके वीत- विवाह कगया है। यदि उनकी उस अवस्थाकी मूर्ति रागरूप गुणोंको पार करके, उन गुणोंकी प्रतिष्ठा उनकी स्त्रियों सहित बनाई जाय, जो तीर्थंकर पावती Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम है, उनकी मूर्ति उमकी ६६ हजार रानियों सहित सालाबमें नहाती हुई नंगी नियों के सहारणके महाभनाई माय और जब वे फौज पलटन सेकर छह खंड निंदनीय किलोसको कणके बाम राधाके प्रेमको, मा मता करनेको निकले थे, तबकी उनकी मूर्ति को रोषनागके पकड़ने और कसको मार डालनेकी कृष्णाकी पलटन और लड़ाई के सब इथियारोसहित बनाई जाय बहादुरीको पजने बदनेयोग्य समझ, इस ही रूममें तो क्या हमारे दिगम्बर भाई उसको अपने जैन मन्दिरोंमें उसकी मक्ति स्तुति करते है। उसके इन ही सब कृल्मोंकी रखना मंजूर कर लेंगे ? क्या उनकोभी इसी तरह मानेंगे लीला करके अपनेको धन्य समझते हैं। यह हो सका जिस तरह इन वीतरागी प्रतिमाओको मानते हैं और कीर्तन,मक्ति-स्तुति और पूजन है। ऐसी ही अवस्थाओं क्या ऐसा करना जैनधर्म, जैनशास्त्रों और जैनसिद्धान्तोंके की वे मूर्तियाँ अपने मन्दिरोंमें बनाते हैं और प्रतिमायें विरुद्ध न होगा। स्थापन करते हैं। इन ही. सब लोलाप्रोंके करनेसे वे ___ यदि गृहस्थावस्था और राजपाटके समयकी तीर्थ- कृष्ण भगवान्की प्रतिमाको प्रतिष्ठित और मन्दिर में कर भगवान्की मूर्तियाँ मन्दिर में रखने और दर्शन और स्थापने पूजने और बंदने योग्य बनाते हैं। ऐसी ही मनन करने के योग्य नहीं हैं तब इन परम वीतरागी प्रतिमा वे श्रीरामचन्द्रकी बनाते हैं, जिनको बगल में प्रतिमानोंको मन्दिर में रखने और दर्शन मनन करने सीता बैठी हो, हनुमान गदा लिये पास खड़ा हो । इस योग्य बनाने के वास्ते इनके ऊपर गर्भ, जन्म और राज प्रतिमाकी प्रतिष्ठा यदि वे सीताके हरण होजाने पर भोगकी लीलाओंका हो जाना क्यों जरूरी समझा जाने रोते फिरने, फिर हनुमानकी सहायतासे लंका पर चढ़ाई लगा है । यह तो बिल्कुल हो उलटी बात हुई । जब करने, महाघमासान युद्ध कर लाखों करोड़ों पुरुषोंका हम भगवान्के बालपन या गृहस्थ-जीवनकी मूर्तियां बध होने के बाद रावणको मार सीताको घर ले श्रानेकी अपने लिये कार्यकारी नहीं समझते हैं, किन्तु उनकी लीला करने के द्वारा करें तो ठीक ही है। उनके मतके परमवीतराग अवस्थाकी मूर्ति ही अपने लिये कार्यकारी अनुसार उनके परमपूज्य विष्णुभगवान्ने रावणको समझते हैं, जिसके दर्शनसे हमको भी वीतरागताकी मारने के वास्ते ही तो रामचन्द्ररूपमें जन्म लिया था, प्रेरणा हो, हम भी इस पापी गृहस्थके जंजालके महा- और फिर इस ही प्रकार कंसको मारने और गोपियोंका मोहको तोड़ अपने प्रात्म कल्याण में लगें और महादुख- उद्धार करने के वास्ते ही कुष्माके रूपमें जन्म लिया था। काई संसारसागरसे निकल अविनाशी सच्चे सुखका इस ही प्रकारके रूपोंमें वे अपने विम्णु भगवानको अनुभव करें, तब इन परमवीतराग रूप मूर्तियोंके उपर पूजते हैं। इस कारण उनका राम और कृष्णको यह गर्भ-जन्म और गृहस्थभोग आदिका संस्कार करनेसे तो सब लीलायें करना, इन ही सब लीनाओंकी भक्ति इनको साफ तौर पर बिगाड़ना और अपने कामके योग्य स्तुति करना, इन सब लीलाओंके करनेसे ही इनकी नहीं रहने देना ही है। प्रतिमाओंको पूज्य और प्रतिष्ठित बनाना तो बेशक ठीक . वैष्णव हिन्दू श्रीकृष्णकी बाल्यावस्थाको "दुमक बैठता है, लेकिन इन गाने पड़ोमियोंकी यसकर, हमारा ठुमक चलत बाल बाजत पैजनियां" प्रामकी गोपियोंके भी अपनी परमवीतरागरूम प्रतिमाको अपने साथ उसकी नाना प्रकारकी क्रीड़ाओं और किलोगोंको, तीर्थकर भगवान्के बालपन, गृहस्थजीवन बोग Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६५] वीतराग प्रतिमानोंकी अजीब प्रतिष्ठा विधि १०६ प्रादिकी लीला करके ही उनको प्रतिष्ठित मानना कैसे बनानेके वास्ते उसके पास तोर तरकश, ढाल-तलवार ठीक बैठ सकता है ? यह तो उलटा उनको बिगाड़ना, और गदा आदि सब हथियार रखते हो तो क्या उस और अपने कारजके विरुद्ध बनाना है। वीतराग प्रतिमाकी जो पद्मासन लगाये. पाच-साथ कन्या हंसकी चाल चले या हंस कन्वेकी चाल चले रक्खे, प्रात्मध्यानमें मग्न दिखाई देरही है, जिसके दोनों ही सूरतोंमें नकल ठीक नहीं बैठा करती है। किन्तु सिरके केश नोचे हुए मालम पड़ रहे हैं, पूर्ण परम बात हंसी मखौलके ही योग्य हो जाती है । यही हाल दिगम्बर अवस्था है, जिसकी परम वीतरागरूप छवि इस विषयमें हमारा हो रहा है । हम दूसरोंकी रीस करके बनाने के वास्ते कारीगरने अपनी सारी कारीगरी खर्च लीला तो करना चाहते हैं गर्भसे लेकर निर्वाण तककी करदी है और प्रतिष्ठा कराने वाले ने भी सबसे अधिक अवस्था की, परन्तु हमारे पास है केवल एक परम वीत- वीतराग छबि दिखानेवाली यह प्रतिमा कारीगरकी राग अवस्थाकी ही प्रतिमा। उसहीको प्रतिष्ठित करने के अनेक प्रतिमाओं से बाँटकर ली है। ऐसी प्रतिमाके बहानेसे हम यह सब लीला रचते हैं; परन्तु बहाना तो पास मनुष्योंकी हिंसाके करनेवाले युद्ध के हथियार रख बहाना ही होता है । इसही कारण उस अपनी परम देनेसे क्या वह राजाकी मूर्ति बन जाती है । नहीं नहीं; वीतरागरूप प्रतिमाको ही गर्भ में रखकर गर्भका बहाना ऐसा करनेसे न तो वह राजाकी ही लीला बनती है करते हैं, उस ही परमवैरागरूप प्रतिमाको पालने में आंधी और न वीतरागकी ही; किन्तु बिल्कुल हीएक पिलरखकर इस तरह झुलाते हैं जिस तरह छोटे छोटे बच्चों. पण लीला बनजाती है जो आजकलके जैनियोंकी को मुलाया करते हैं । यह मूला मुलानेकी लीला प्रतिष्ठा- बुद्धिकी माप कराने वाली सर्वसाधारणके वास्ते प्रत्यक्ष की विधि करने वाले ही नहीं करते हैं; किन्तु सबही कसौटी होती है। यात्री स्त्री-पुरुष पाकर एक-एक दो-दो झोटे देते हैं इन सब बेसिर पैरकी अद्भुत लीलाओंके अलावा और रुपये चढ़ाते हैं । परन्तु इन सबही झोटा देनेवाले यह भी तो सोचने की बात है कि यदि वास्तवमें इन यात्रियोंसे ज़रा पूछो तो सही कि पालने में श्रोधी पड़ी अद्भुत लीलाओंके करनेसे तीर्थकर भगवान्के बालहुई जिस मूर्तिकोतुमने मुलाया है वह बालक अवस्थाकी पन, गृहस्थभोग, विवाह शादी, स्त्रीभोग, राजभोग और मूर्ति नज़र आती थी या परम वीतराग अवस्थाकी ? युद्धादि करनेका सब संस्कार उस वीतराग प्रतिमा जवाब यह ही मिलेगा कि मूर्ति तो पालने में परम वीत- पर पड़ता है, जिसके साथ यह लीलाएँ की जाती है राग अवस्थाकी ही श्रोधी डाल रखी थी। तब तुमने जिसकी प्रतिष्ठाकी जाती है, तो उस प्रतिमा में यह सब बालकको मुलाया या भगवानकी परम वीतराग अवस्थाः संस्कार पड़ जानेसे वह परम वीतरागरूप कैसे रह की मूर्तिको; और वह भी पौधी डालकर । सोचो और सकती है ! परम वीतरागरूप तो वह तबतकही थी खूब सोचो कि यह लीला तुम किस तरह कर रहे हो ? जबतककी उसमें यह महारागरूप राजपाटके संस्कार यह जैनधर्मकी लीला कर रहे हो या उसका मखोल ? नहीं डाले गये थे। उस परम वीतराग रूप भगवानकी इसही प्रकार जब इसही परम वीतरागरूप प्रतिमाको महावीतरागरूप प्रतिमाको यह सब लीलाएँ कराकर कंकण और अन्य प्राभूषण पहनाते हो और राज अवस्था तो मानो परम वीतरागरूप भगवानको मापने फिरसे Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अनेकान्त [वर्ष ३ किरण । गृहस्थमें डाला है और उनकी इस परम वीतरागलप गग देवताओं में भी रागका प्रवेश कराने के लिये परम प्रतिमामें भी गृहस्थ और राजपाटके सब संस्कार घुसेड़े वीतरागरूप प्रतिमाओंमें भी गृहस्थ भोगका संस्कार हैं। अर्थ जिसका यह होता है कि प्रतिष्ठा करनेसे पहले डाल, इन अपनी वीतरागरूप मूर्तियोंको मूर्ति न मान जो यह परम वीतरागरूप प्रतिमा कारीगरने बनाई कर अपने वैमाव भाइयोंकी तरह इन मूर्तियोंको ही थी उसमें तो एक मात्र वीतरागताही वीतरागता साक्षात् रागी परमात्मा ठहराकर उनके पूजनेसे उस ही थी, जो प्रापको उपयोगी नहीं थी, अब आपने उसमें तरह अपने गृह कार्योंकी सिद्धि चाहने लग गये हैं जिस गृहस्प और राज भोग के सब संस्कार डालकर ही तरह उनके पड़ोसी भाई अपने रागी देवताओंको पज उसको अपने कामकी बनाया है, परन्तु ज़रा सोचो तो कर करते हैं। सही कि यह काम आपका जैनधर्मके अनुकूल है, या परन्तु इसमें एक बात विलक्षण है और वह यह बिल्कुल ही उसके विपरीत । नाहे कव्वेने हंसकी चाल है कि प्रतिष्ठांविधिमें किसी एक ही प्रतिमाका गर्भ, बली हो या हंसने कम्वेकी चाल चली हो, परन्तु यह जन्म और राजपाट आदि संस्कार होता है। मिर्फ एक बाल न तो हंसकी ही रही है, और न कळवेकी ही, ही प्रतिमा, जो किसी एक ही तीर्थकर भगवान्की होती किन्तु विलक्षण रूप एक तीसरी ही चाल होगई। वेत्राव है, वह ही एक पालने में मुलाई जाती है, उम ही को लोग अपने भगवानकी रागरूप अवस्थाको पूजते है कंकण आदि आभूषण पहनाये जाते हैं और उम ही के. और वैसीही उनकी प्रतिमा बनाते हैं और जैनी वीतगग पास तीर कमान और ढाल तलवार श्रादि मनुष्य हिंसा के रूप भगवानको पूजते हैं और प्रमही अवस्थाकी उमकी उपकरण रक्खे जाते हैं। तब जो भी रांग संस्कार पैदा प्रतिमा बनाते हैं। इन वीतगगरूप प्रतिमामि जरा हो सकते हों वे तो उस एक ही भगवान्की एक प्रतिमा भी गगरूप भाव बाजाय. उनको ' वस्त्र प्राषिगण पड़ेंगे, जिसके साथ यह सब लीलाएँ की जावेगी; बाकी पहना दिये जाय या युद्ध के हथियार उनके साथ लगा सैकड़ों प्रतिमाएँ जो वहाँ रक्खी होंगी, उनके साथ ऐसी दिये जायें तो वह प्रतिमाएं उनके कामकी नहीं रहती लीला न होने से उनमें ती रागके संस्कार किसी तरह भी है। परन्तु जब कारीगर उनको ऐसीही वीतरागरूप नहीं पढ़ सकेंगे, वे तो वैसी ही परमवीतरागरूप' रहेंगी प्रतिमा बनाकर देने हैं, जैमी वे चाहते हैं तब श्रामकलके भी कि शिल्पीने बना कर दी थी। तब वे आजकलके हम जैनीलोग उन वीतगगम्प प्रतिमानोंको उस जैनियोंके वास्ते पूज्य और उनके गृह-कार्योको सिद्ध वक्त तक स्पो नाकाफी या बिना कामकी समझाते हैं करनेवाली कैसे हो जाती है ? . जब तककी उनके साथ गृहस्थ जीवन और राजभोगकी वास्तवम बात यही है कि हमने दूसरोंकी रीस करके लीलाएँ करके उनमें रागका संस्कार नहीं कर लेते हैं। और मटारकोंके बहकायेमें आकर अपनी असली चालस्था इसका यह अर्थ नहीं है कि जैनधर्म अब परम को खोदिया है, जिससे हम इधरके रहे हैं न उच्चरके। बीतगग धर्म नहीं रहा है किन्तु अपने हरवक्त के पड़ोसी हमारी पहली चाल उन' प्राचीन प्रतिमानोंसे साफ वैष्णव भाइयोंको अपने परमरागी देवताओंकी ही मालूम होती है जो धरती से निकलती है, जिनपर भकि-स्तुवि पूजा-पंदना करता देख अपने परम वीत- प्रतिक्षित होनेका कोई चिन्ह नहीं होता है और जिनको Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] वीतराग प्रतिमानोंकी अजीव प्रतिष्ठा विधि १५१ आजकलके हमारे भाई चौथेकालकी अर्थात् सतजुगको खाना खिलानेकी कोशिश किया करते हैं और उसके न कहने लगते हैं । चौथे काल या सतजुगकी होनेसे तो खाने पर दुखी होकर उसे फोड़ डालते हैं। परन्तु वे हमको उनसे सबक लेना चाहिये और बिना इस प्रकार- बच्चे भी ऐसी ग़लती हर्गिज नहीं करते हैं कि घोड़े पर की प्रतिष्ठा कराये ही जैसी आजकल होती है, शिल्पीके चढ़ी हुई किसी मिट्टीकी मूर्तिको फलेमें चढ़ाकर मुलाने हाथसे लेते ही अपने काममें लाने लगना चाहिये । लगें या विस्तर पर पड़ाकर सुलाने लगें । उसको तो जरा विचारनेसे हमारे भाइयोंकी समझमें भाजायगा कि वे उस ही प्रकार चलानेकी कोशिश करेंगे जिस प्रकार किम प्रकार आपसे आप ही वस्तुओं की प्रतिष्ठा होने लग घोड़ा चलता है । यह तो हम ही ऐसे विचित्र पुरुष हैं जाती है । बाजार में बजाजकी दुकान पर अनेक टोपियों जो पद्मामन बैठी हुई हाथ पर हाथ धर ध्यानमें मग्म और बड़ी पगड़ियाँ विक्री के वास्ते रवी रहती हैं। उनकी परमवीतराग प्रतिमाको ही श्रौन्धा लिटाकर झला कोई खास प्रतिष्ठा किमीक हृदय में नहीं रहती है। झुलात हैं, कंकण श्रादि श्राभूषण पहनाते हैं और 'परन्तु व्याही हम उनमेंमे किमी टोपी या पगड़ीको म्वर्गद उसके पाम युद्ध के श्रायुध रखकर भी अपनेको वीतराग कर अपने सिरपर रखने लगते हैं, तब ही में उम धर्मके मानने वाले जैनी बताते हैं। नापी या पगड़ीकी इज्जत व प्रतिष्ठा होना शुरू हो जाती अब रही प्रतिष्ठा विधिकी बात, उसमें और भी क्या है। इम ही प्रकार मूर्ति भी जबतक कारीगरके पाम क्या अदभुत कार्य होता है, उसकी भी जरा झलक रहती है, तबतक वह मामूली चीज़ होती है. परन्त ज्योंही दिखा देनी जरूरी है । यह प्रतिष्ठाएँ बहुत करके प्रतिष्ठा. हम उमको कारीगरसे लेकर अपने इष्टदेवताकी मति मारोवार ग्रन्थके द्वारा. होती चली रही है, जिसको मानने लगते हैं तब ही से उनकी प्रतिष्ठा व इज्ज़त होना पं० आशाधरने निक्रमकी तेरहवीं शताब्दीमें प्रतिष्ठासारके शुरू हो जाती है। उसकी प्रतिष्ठाके लिये इस प्रकारको आधार पर बनाया है जिमको वसुनन्दीने कुछ ही समय बेजोड़ लीलाओंके करने की कोई जरूरत नहीं है जैसी पहले बनाया था। विक्रमकी १६ वीं शताब्दीमें नेमिचन्द्र श्रा नकल की जाती है । परन्तु अाजकल तो हम लोग नाम के एक विद्वानने भी एक बृहत् प्रतिष्ठा पाठ बनाया वीतरागप्रतिमासे वीतरागभावांकी प्रामिका काम नहीं है और इसके बाद १७ वीं शतान्दीमें अकलंक प्रतिष्ठा लिया चाहते हैं। मूर्तिको मूर्ति ही नहीं मानना पाठ नामका भी एक ग्रन्थ बना है जिसमें ग्रन्थ कर्ताका चाहते हैं । किन्तु उसको हमारे गृहकार्योंके सिद्ध करने नाम भट्टाकलंकदेव लिम्ला रहनेसे बहुतसे भाई इसको वाला रागी देषी देवता बनाना चाहते हैं । ऐसी हालतमें रानवार्तिक आदि महानग्रन्थोंके कर्ता श्री अकलंक कारीगरसे हमको वीतरागरूप प्रतिमा नहीं बनवानी स्वामीका बनाया हुश्रा ममझते रहे हैं जो कि विक्रमकी चाहिये । किन्तु साफ-साफ रागरूप ही प्रतिमा बनवानी ७वीं शताब्दीमें हुए हैं, परन्तु ग्रंथ परीक्षा तृतीय भागचाहिये । बीतगगरूप प्रतिमा बनवाकर फिर उसमें राग- में पं० जुगलकिशोर मुख्तारने साफ सिद्ध कर दिया है रूप संस्कार डालनेकी कोशिश करनेसे तो न वह बीत- कि यह ग्रंथ राजवार्तिक का अकलंक स्यामीसे अाठमी गगरूप ही रहती है न रागरूप ही, किन्तु एकमात्र नौमो परम पीछे लिखा गया है । इम ही प्रकार नेमिबचोका सा खेल हो जाता है, जो मिट्टोके खिलौनेको चन्द्र प्रतिष्ठापाठको भी बईन लोग गोम्मटमारके की Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :. ११२ अनेकाच्या श्री नेमिचन्द्र आचार्यका बनाया हुआ समझते रहे हैं, आगे चलकर लिखा है कि प्रतिष्ठाके सात-आठ नेमिचन्द्र श्राचार्य विक्रमकी ११ वीं शताब्दीमें हुए हैं दिन बाकी रहनेपर प्रतिष्ठा करानेवाला सेठ प्रतिष्ठा करने और यह ग्रंथ उनसे पाँचती छैसौ बरस पीछे एक वाले विद्वानके घर पर जावे । स्त्रियां तो अक्षत भरे हुए गृहस्थ ब्राह्मणके द्वारा लिखा गया है जैसा कि बा० जुम- थाल हाथमें लिये हुए गाती हुई आगे जारही हो और लकिशोर मुख्तारने जैन-हितैषीके १२ वे भागमें सिद्ध साथमें साधर्मी भाई हों । इस प्रकार उसके घरसे उसको किया है। प्राशावर १३वीं शताब्दी में संस्कृत के बहुत अपने घर लावे । वहाँ चौकी बिछाकर उसपर सिंहासन बड़े विद्वान होगये है, उन्होंने ग्रन्थ भी अनेक रचे हैं रखे और चौमुखा दीपक जलावे । सिंहासन पर उस इस ही कारण विद्वान् लोग उनके ग्रंथोंको बड़ी भारी विद्वानको बिठा गीत नृत्य बाजों के साथ, वस्त्राभूषणमें प्रतिष्ठा के साथ पढ़ते हैं, बहुतसे संस्कृतज्ञ पंडित तो उनके शोभायमान चार सधवा जवान स्त्रियाँ उसके शरीर पर पाक्योंको प्राचार्य, वाक्यके समान मानते हैं । परन्तु चन्दन लगावें, फिर उसके अंगमें तेल उबटना लगाया पं० प्राशाधर पूर्णतया भट्टारकीय मतके प्रचारक रहे हैं जावे । फिर पीली खलीसे तेल दूर कर स्नान कराया जैसा कि प्रतिष्ठा विषयक नीचे लिखे हमारे कथनोंसे जावे । फिर स्वादिष्ट भोजन करा वस्त्राभूषणसे सजाया सिद्ध होगा। नीचे लिखा कथन यद्यपि ऊपर वर्णित जावे ( जवान स्त्रियों ही क्यों उसके अंगको चन्दन सबही प्रतिष्ठापाठोंके अनुसार होगा परन्तु उस कथनका लगावें बढ़ी स्त्रियां क्यों न लगावें, इसका कोई कारण विशेष प्राधार पं. प्राशावर विरचित प्रतिष्ठासारोद्धार नहीं बताया गया है)। ही होगा, क्योंकि उस ही पर पंडितोंकी अधिक श्रद्धा है। इसके बाद मंडप और वेदीयनवाकर नदी किनारेकी प०अाशाधरजी लिखते हैं कि-"जिनमन्दिर तैयार वामी श्रादिकी पवित्र मिट्टी, पृथ्वी पर नहीं गिरा हुआ होने में कुछड़ी बाकी रह जाने पर शिल्पग्रादिके कल्याण के पवित्र गोबर ऊमरश्रादि वृक्षोंकी छालका बना हुआ लिए यह विधिको जावे कि प्रतिमा विराजमान होनेवाली काढ़ा इन सबको मिलाकर इससे आभूषणादिसे सुसवेदीके बीचमें ताँबेका घड़ा दो वस्त्रोंसे ढकाहुआ रखे। ज्जित कन्याएं उस वेदीको लीपें । ऐसा ही नेमिचन्द्र घड़ेमें दूध, घी, शकर भरदे और चन्दन,पुष्प, अक्षत्से प्रतिष्ठा पाठ के नवम परिच्छेदके श्लोक में भी खंडादि उसकी पूजन कर फिर उस घड़ेगे पाँच प्रकारके रत्न, कलाशाभिषेकके वर्णनमें लिखा है कि इन कलशोंमें और सब औषधि, सब अनाज, पारा, लोहा मादि पाँच गायका गोबरआदि अनेक वस्तुएँ होती है। फिर श्लोक धातुएँ भरदे, फिर चाँदी वा सोने का मनुष्याकार पुतला में पंचगव्य कलशाभिषेकका वर्णन करते हुए लिखा बनाकर उसको घो प्रादि उत्तम द्रव्योंसे स्नान कराकर है कि इसमें गायका गोबर, मूत्र, दूध, दही, घी आदि प्रवत प्रादिसे पूज निवारसे बुनी हुई गद्दी तकिये भरे होते हैं । इसही अध्यायमें गाय के गोबर के पिंड अनेक सहित सेजपर अनादि सिद्ध मन्त्र पढ़कर लिटावे । फिर दिशामें क्षेपण करना, अपने पाप नाश कराने के वास्ते जिन भगवानका पूजनकर उत्सवसहित उस पुतलेको लिखा है। ऐसा ही १३वे परिच्छेदमें गायके गोबर घड़े में रखे । ऐसा करनेसे कारीगरोंको कोई विप्न नहीं प्रादिसे मण्डपको शुद्ध कराकर सोलहकार भावनाके होता है, शुभ फलही होता है। पुंज रखे । फिर इसही ११वे परिचोदमें लिखा है कि Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, पीर निर्माण सं०२४४६] वीतराग प्रतिमानोकी अजीव प्रतिष्ठा विधि गावके गोवरके पिंडमादिसे अपने पाप नाश करनेके देवे, चन्द्रमा कुशल देवे, मंगल मंगल करे, युद्ध बुदि वास्ते आहेतोकी अपतरण क्रिया करै। देवे, बृहस्पति शुभजीवन देवे, शुक कीर्ति देवे, शनि ___ वेदियाँ तय्यार करानेके बाद प्रतिष्ठाके पहले दिन बहुत सम्पत्ति देवे, राहु वाहुबल देवे, केतु पृथ्वी पर सब लोग सरोवर पर जावें । खूब सजी हुई प्रसन्नचित्त प्रतिष्ठा देवे, ऐसी प्रार्थना प्रत्येककी पूजा की जाये। स्त्रियाँ दूध, दही, अक्षतसे पूजित, 'फल से भरे हुए घड़ों- अलग २ ग्रह अलग २ तरहकी लकड़ी होम करनेसे को उठाये हुए साथ हों, प्रतिष्ठाचार्य जी और सरसोंको प्रसन्न होता है । सूर्य पाखकी लकड़ीसे, चन्द्रमा पलाससे मंत्रसे मंत्रित कर चारोतरफ बखेरता जावे, सरोवर पर मंगल खैरसे, बुद्ध अपाभार्गसे बृहस्पति पीपलसे, शुक्र पहुँचकर सरोवरको और वास्तुदेवको (जिसका कथन फल्गुसे शनि शमीसे, राहु दूबसे और केतु दाभसे । आगे किया जायगा) अर्घ देकर, वायुकुमार देवोंके प्रत्येकका अष्ट द्रव्यसे पूजन कर, इनही लकड़ियोंसे होम श्राहाननसे भूमिको साफ़कर, मेघकुमार देवोंके आहा- करना चाहिये । इन सबका पूजन करनेके बाद सातहनसे छिड़ककर, अमिकुमार देवोंके आहाहनसे अग्नि सात मुट्ठी तिल, शाली, धान और जो यह तीन अनाज, जलाकर, ६० हजार नागोंको पूजकर, शान्तिविधानकर पानी में डाले । पाहाहन सब ग्रहोंका उनके परिवार अर्हतका अभिषेक करे । फिर सरोवर (तालाब) को और अनुचरों मादि सहित इस प्रकार करेअर्घ देवे, फिर अहंत श्रादिकी पूजा करें। फिर जया पावित्य भागकर संबीपर् । श्रादि देवताओंका पूजन करके, सूर्य प्रादि नवग्रहोंका तिर । 30 मम सनिहितो भार । पूजन करें । सूर्यका रंग लाल है और वस्त्र, चमर, छत्र, मादित्याय स्वाहा । मादित्यपरिवनाथ साहा । पारिविमान भी लाल है । चन्द्रमा सफ़ेद है। मंगल त्यानुचराय स्वाहा । मादित्व महत्ताप स्वाहा । चन्मये लाल है, बुध और बृहस्पतिका रंग सोने जैसा है, शुक्र स्वाहा । अनिवाव स्वाहा । पवाय स्वाहा । मवापतये सफ़ेद है । शनि, राहु और केतु काले हैं। इनको इनही- स्वाहा । साहा । भूः स्वाहा । भुका स्वाहा । स्वा के समान रंगके द्रव्यसे पूजनेसे पानन्दमंगल प्राप्त स्वाहा । गमक सास्वाहापाराविधायक होता है। उनके समान रंगवाले प्रदतको रख, उनपर गवपरिखताब इदम, पावं, गंध, अपसाब, पुणे, वीर्य, उनहीके रंगके समान रंगे हुए दर्भके प्रामन रखे। पं चर्षि, कर्क, स्वस्तिक, पानामामहे नागकुमार शरीर पीड़ा करते है, यज्ञ धन हरते हैं, भूत प्रविणता र स्वाहा । पत्वा लियते पूना समोर स्थान भ्रष्ट करते हैं, राक्षसधातुवैषम्य करते हैं, इन ग्रहोंको का सवा पूजनेसे सब विघ्न दूर होजाते हैं और कापालिक, भिक्षु, अब जो अलग २ वस्तु जिस २ ग्रह को चढ़ाई वाणी, संन्यासी ( मिथ्याती साधुओं) के किये हुए उप- जाती है वह लिखते हैं (१) सूर्यको जास्वंती श्रादिके द्रव भी शांत होते हैं । तापस, कापालिक प्रादि भित्र २ फूल नारंगी श्रादि फल चढ़ावे और प्राकके इंधनसे प्रकारके मिथ्यात्वी साधु अलग २ इन ग्रहोंको पूजते हैं। पकाई हुई खीरकी आहुति दे, घी, गुरु, लङ्क से पूगे । कोई किसी प्रहको और कोई किसी ग्रहको, उन ही की (२) चन्द्रमा कोसफेद रंगके पुष्प, अक्षत और दूध पूजासे यांचलग २ मह प्रसव होते है। सूर्य शोषगुरु आदिसे पूजे, देवदारुकी लकड़ीका पूरा, बी, धूप Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ककी लकड़ीसे पकाया अन, दूध मिलाकर अग्निमें वायुकुमार, मेघकुमार, अग्निकुमार देवोंका बाहुति देखें । (१) मंगलको सैरकी लकड़ीसे आहाहन कर भूमि शुद्ध कर, नागकुमारको तृप्त भुने हुए गुड पी मिले हुए जौके सत्तसे और गुगल, करे । फिर द्वारपालदेवोंको पूजकर नागराजको सफेद धी, लाल इलायची, अगरकी धूपसे बाहुति देवे। चूर्णसे, कुवेरको पीलेसे; हरितदेवको हरेसे, रक्त(४) बुद्धको अपामार्गकी लकड़ीसे भात बना कर प्रभदेवको लालसे, कृष्णप्रभदेवको काले चूर्णसे, दूध गल राज पी से पाहुति देवे। (५) बृहस्पतिको शत्रुओं के नाश के वास्ते स्थापन करे । फिर अर्हतपीपलकी लकड़ीसे बनी हुई खीर, घी, धूपसे आहुति की पूजाकर १६ विद्या देवियोंकी पूजा पाहाहनादि देवे। (६) शुक्रको उंबरकी लकड़ी फागुकी लकड़ीसे करके अलग २ अष्टद्रव्यसे करे । फिर २४ जिनभुने हुए जो, गुड़, घी, की माहुति देवे (७) शनिको माताओंकी पूजा अद्रन्यसे ३२ इन्द्रोंकी समीकी लकड़ी, उड़द, तेल, चावल, राल, घी, . पूजा करे। फिर २४ यक्षदेवोंकी, फिर २४ यक्षीअगरकी पाहुति देवे । (८) राहुको दूबके ईधनसे देवियोंकी श्राहाहनादिके साथ अष्टद्रन्यसे करे । फिर पकाया हुआ गेहूँ आदिका चूर्ण, काजल, दूध, घी, द्वारपालोंकी, फिर चारदिशाओंके यक्षोंकी, फिर लाखकी आहुति देवे। (E) केतुको उड़द और कुलथीके अनावृत यक्षकी, फिर छत्रादि पाठ मंगल द्रव्योंकी चनको दर्भके ईधनसे पका कर पी कच्ची खेल पूजा अष्टद्रव्य से करे, और फिर अ आयुध ( हथिमिला कर पाहुति देखे। . यार ) स्थापन करे। फिर आठ ध्वजा स्थापन करे । .... फिर परम बम बईतदेवकी पूजा कर भी आदि अब यहाँ, इस मौके पर, इन देवी देवताओंका देक्सिको बार बन्य चढ़ाये, फिर गंगा प्रादि देवियोंकों . कुछ स्वरूप भी लिख देना मुनासिब मालूम होता है चढ़ाये, किर : सीवा नदीके महाकुरके देवोंको जो कि इनकी पूजा समय प्रतिष्ठाग्रन्थोंके अनुचढ़ाने, फिर लवणादधि, कालोदधिके समुद्रोंके सार वर्णन किया जाता है । वन, चक्र, तलवार, मुद्गर मागाचादि तीर्थ देवोको, फिर सीता सीतोदानदियोंके और गदाादि हथियारों को खाणी, वैष्णवी, बाराही, मागासादि तीर्थ देवताओंको असंख्स ब्रामाणी, लक्ष्मी, चामुंडा, कौमारी और इन्द्राणी धारण (अनगचित) :समुद्रोंके देवोंको, फिर जिनको लोक किये होती है। ये देवियाँ कोई ऐरावतपर, कोई गम मानते है से तीर्थ देवोंको, जल प्रादि अभद्रम्प चढ़ाये। पर, कोई मोर पर, कोई जंगलीसूबर मादि पर सवार सब ही जल देवताओंको प्रष्ट द्रव्य पूजासे प्रसब कर . होती है । ध्वजा भी जया, विजया, सुषमा, माला, सरोवरमें घुसे और कलशोंको पानीसे भरकर उन मनोहरा, मेपमाला, पया और प्रभावती नासकी देवियोंकलयोंको चन्दन, पुषमाला, दूब, दर्भ, मदत और के हाथमें होती है। १६ मियदेगियों नाम रोहिणी सरसोंसे पूजकर सौभाग्यवती स्त्रियों के हाथ मंडपमें प्रशसि, वासला, वाशा, जम्बुनदा, पुश्बदना, लेजाकर जिनेन्द्रदेवकी पूजा करे। काली, महाकाली, गौरी, गांधारी, ज्वालामालिनी, आहेत आदिका पूजनकर क्षेत्रपालकी मानवी, रोटी, अच्युता, मानसी, मामाची साकी पूजा बखप्पसे करे । फिर वास्तुदेवकी पूजाकर, है। इनमें से कोई घोड़े पर सवार होती है, जहाथी Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्तिक, बीनिवास सं०२४४५] वीतराग प्रतिमानोरी बाजीव प्रसिडा विवि पर, कोई मोर पर, कोई मृग पर, कोई अष्टापद पर, नम्रा, दुरिता, पुरुषदत्ता, मोहनी, काली, ज्वालामालिनी, कोई गोह पर, कोई कछुए पर, कोई भैसे पर, कोई महाकाली, चामुंडा, गौरी, विद्युतमालिनी, बेरोटी, वित्रसूअर पर, कोई सिंह पर, कोई साँप पर और कोई भणी, मानसी, कंदर्पा, गधारिणी, काली, ममनात, हंस पर, इनमेंसे अनेकोंके चार चार हाथ है और बहुरूपिणी, कुसुमालिनी, कुमाडिनी, पावती, और किसी किसीके पाठ पाठ भी। हाथोंमें तलवार, चक्र, भद्रासना है । इनमेंसे भी कोई हँस पर, कोई हाथी पर, खड्ग, वप्रकी सांकल, अंकुरा, भाला, वा, मूसल, कोई घोड़े पर, कोई बैल पर, कोई भैसेपर, कोकाए' धनुष, बाण, त्रिशूल, और फल कमल श्रादि होते हैं। पर, कोई सूबर पर, कोई हिरण पर, कोई मगरम पर, इसी रूपमें इनका पाहाहन कर अलग २ अष्टद्रव्य कोई अजगर पर, कोई बाप पर, कोई मोर पर, कोई से इनकी पूजा की जाती है। अष्टापद पर, कोई काले साँप पर, कोई कुछुट सर्प पर धर्मात्माओंके बैरियोंका नाश करनेवाले २४ यक्ष चढ़कर पूजा करनेको आती हैं। इनके भी किसीके जिनकी आहाहनकर पूजा की जाती है। वे जिस रूपमें चार हाथ किसीके पाठ और किसीके उससे भी ज्यादा पूजे जाते हैं, उसका वर्णन इस प्रकार है । नाम इनका हाथ होते हैं। हाथोंमें वज्र, चक्र परशु, तलवार, नोगगोमुख, महायत, त्रिमुख, यक्षेश्वर, तुंबर, पुष्प, मातंग, पाश, त्रिशूल, धनुष, वाण, दाल, मुन्दर, मूसल, अंकुश, श्याम, अजित, ब्रह्म, ईश्वर, कुमार, चतुर्मुख, पाताल, मछली, साँप, हिरण, वृक्षकी टहनी और वृक्ष और . किन्नर, गरूड़, गंधर्व, खेन्द्र, कुवेर, वरुण, भृकुटी, फल आदि होते हैं। गोमेध, धरण और मातंग है । इनमेंसे किसीके तीन दिक्पालोंकों उनके प्रायुध, बाहन स्त्री और परिवार मुम्ब हैं, किसीके चार । किसीका गायकासा मुख है। सहित अाहाहन श्रादि द्वारा बुलाकर पूजाकी जाती है किसीके तीन आँख, किसीका काल कुटिल मुख, किसीके और बलि दीजाती है । नाम उनके इन्द्र, अग्नि, यम. नागफणके तीन सिर तीन मुख, किसीका तिर्थामुख, नैऋत्यु वरुण, वायु, कुवेर, ईशान, परणेन्द्र और चंद्र किमीकी देहमें सांपोंका जनेऊ । कोई बैल पर सवार, हैं। इनमें कोई ऐरावत पर, कोई मेंडेपर, कोई मैसेपर, कोई हाथी पर, कोई सूअर पर, कोई गरूड़ पर, कोई · कोई हाथी पर, कोई घोड़े पर,कोई बल पर, कोई गाए हिरण पर, कोई सिंह पर, कोई कबूतर पर, कोई कछुए. पर, कोई सिंह पर सवार होकर प्राता है, इनको भी . पर, कोई सिंह पर, और कोई मोर पर, कोई मगरमच्छ हाथोंमें बा, अग्नि ज्वाला, शक्ति, दंड, मुग्दर, नागपर और कोई मच्छलीपर | हाथोंमें फरसा, चक्र, त्रिशूल, पाश, रतत्रिशूल, माला और अन्य वस्तुएं होती है। अंकुश, तलबार, दंड, धनुष, बाल, साप, भाला, शक्ति, किसीके साकति भूषण, किसीके प्राखसे अग्निकी गदा, चाबुक, इल, • मुन्दर, नागपाश और फल आदि ज्वाला निकले, कोई नाग देवोंसे युक्त, फय पर मणि लिये हुए, किसीके चार हाथ, किसीके पाठ और किसी- - सूर्यके समान चमके, प्रा दिव्यते इनकी पूजा करने .. के इससे भी ज्यादा। बाद जौ, गेहूँ, मूंग, शाली, उड़द धादि सात प्रकारक २४ बचीदेवियोंकी पूजा, जिस रूपमें की जाती है, अनाजकी सात सात मुखीकी आहुति इन दिकमाल वह इस प्रकार है। नाम इनका चश्वरी प्रणिता, वास्ते जल कुल्में दी जावे । माहाहन इनका परिवार Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..::मनेनन्त' सहित इस प्रकार किया जावे:- .. कोई गम पर, कोई घोड़े पर, कोई हाथी पर, कोई को स्थापुण्याहवमन्युनिसपरितार सिंह पर, कोई सूअर पर, कोई अपद पर, कोई हंस व बावण संबौद् विजवि मम समाहिती पर चढ़ कर आता है। किसीकी भैंसेबादि सात भामाबाद न्याय स्वाहा, परिवबाप स्वाहा, पशु- प्रकारकी सेना, किसीकी मगर श्रादि सेना, किसीकी भराव साहा, महजाब स्वाहा, भग्नवे स्वाहा, अनि- ऊंट प्रादि सात प्रकारकी सेना, किसीकी सिंहादि बाप साहा, बसवाय स्वाहा, प्रजापतये स्वाहा।" सात प्रकारकी सेना, किसीकी घोड़ा श्रादि सात प्रकार अनावृत यद, जिसकी पूजा कीजाती है, वह गरुड़ की सेना; किसीके हाथमें दंड, किसीके हाथ में तलवार पर सवार होते हैं। चार हाथोंमें चक्र, शंख प्रादि लिए किसीका आयुध वृक्ष किसीके हाथमें नागपाशादि होते जम्बूद्वीपके जम्बवृक्ष पर रहते हैं जयन्त,अपर- होता है । ज्योतिषेन्द्र जिनकी पूजा होती है दो है एक जित, विजय, वैजयंत उनके नाम है। पूर्वकी तरफ चन्द्रमा, जिसकी सिंहकी सवारी और दूसरा सूर्य उनको बलि दी जाती है। सोम, यम, वरुण, कुवेर ये जिसकी सवारी घोड़ा होता है। चार बारपाल है, जो दुष्टोंके वास्ते यमके समान है। इनके तिथि देवता १५ हैं जिनकी पूजा होती है, यह हाथमें भी कमशः धनुष, दण्ड, पाय और गदा होती है। भी यक्ष होते हैं। यह अग्नि, पवन, जल प्रादि पाठ अमवनि इस प्रकार दी जाती है-ओही को रक्तवर्ण- प्रकारके रूपके होते हैं। यद, वैश्वानर, राक्षस, नघृत, यन प्रायुध युवति जन सहित ब्रह्मन् भभुवः स्वः स्वाहा पनग, असुर, सुकुमार, पितृ, विश्वमाली, चमरवैरोचन, इमं सार्थे र अमृतमिव स्वस्तिकं गहाण । इसही प्रकार महाविद्य, मार, विश्वेश्वर, पिंडाशिन इनके नाम हैं। और मी दिकपालको बलि दीजाती है । जयादि देषियो. कुमुद, अंजन, बामन और पुषदंत इन चार द्वारपालोकी पूजा पदन्यसे कीजाती है। नाम इनके जया, की पूजा होती है। सर्वायह यकी पूजा होती है जो विजया, अजिता, अपराजिता; जमा, मोहा; स्तंभा, सफेद हाथी पर चदकर आता है। महावज यक्षकी स्तंमिनी है, इनके भी चार हाय होते हैं। पर्वतोंके . पूजा होती है, अष्टदिकन्याओंकी पूजा होती है, और सरोवरोंके कमलोंमें रहनेवाली देवियों की भी पूजा वास्तुदेवको बलि दी जाती है जो इस प्रकार है-पद कीजाती है नाम जेभी, ही. भूति, कीर्ति बुद्धि, लक्ष्मी देवको मांगी बड़े और भातकी बलि ब्रमाको भो शांति और पुष्टि है। ३२ प्रकारके इन्द्रोकी भी पूजा गांव खेस और घरों में रहता है, की दूध मिला हुआ होती है जिनमें भवनवासी और व्यन्तरके नाम असु- भात, इन्द्रको फूल; अग्निको दूध श्री, यमको जो रेन्द्र, नागेन्द्र, सुपरेन्द्र, दीपकुमारेन्द्र, उदधिकुमारेन्द्र, मेमेपर सवार हे तिल और शमी । नैऋत्यको तेल मिली स्तनितकुमारेन्द्र विद्युतकुमारेन्द्र, दिकुमारेन्द्र, अग्निः हुई खली। वरुणको दूध भात वाबुको हल्दीका वर्ण कुमारल्य, मातकुमारेन्द्र, किनरेन्द्र, किंपुरुषेन्द्र, महो कुवेरको सार अन । ईशानको घी दूध मिला हुना रगेन्द्र, गंधर्वेन्द्र, यक्षेन्द्र, राक्षसेन्द्र, भूतेन्द्र, और भात, पार्यको पूरी ला, और फल, विस्वस्तको उड़द पियांचन्द्र, इनमेंसे हर एक इन्द्रकी दो दो हजार और तिल, मित्रदेवको दही और दूब, महीपरको दूष देवियां है। इनमेंसे भी बो भैसे पर, कोई नवे पर, सबीन्द्रको पानकी लील, गपिन्द्रको काफूर केलर और Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६६] वीतराग प्रतिमाओंकी अजीब प्रतिष्ठा विधि ११७ इन्द्रको जो व्यंतरोंका राजा है मूंगका आटा, और बड़े विधिमें भी लिखा है कि मंदिर के शिग्यरपरके कलशोंसे इन्द्रगजको बड़े और मूंगका श्राटा, रुद्रको जो व्यंतरों एक हाथ ऊँची ध्वजा श्रारोग्यता करती है, दो हाथ का राजा है गुड़ के गुलगुले, व्यंतरोंके राजा रुद्र जय ऊंची पुत्रादि सम्पत्ति देती है, तीन हाथ ऊँची धान्य को भी गुड़के गुलगुले, श्राप देवताको गुड़के गुलगुले, आदि मम्पत्ति, चार हाथ ऊंची राजाकी वृद्धि, पांच कमल और संख, पर्जन्यदेवको घी,जयंतदेवको लोणी, हाथ ऊँची सुभिक्ष और राज वृद्धि करती है, इत्यादि । यो अतरिक्षदेवको हलद और उड़दका चून, पुपनदेवको अन्य भी अद्भुत बातें इन प्रतिष्ठा पाटीमें लिग्बी हैं, मेवयाँका भात, विरुथदेवको कुट्ट अनाज, राक्षसदेवको जिनके द्वारा वीतराग भगवानकी प्रतिमा प्रतिष्ठित की ऊंगठमध, गंधर्वदेवको कपर श्रादि सुगंध, भगराजदेवको गई हमारे मंदिरों में विराजमान हैं। द्ध भात, मृपदेवको उड़द, दौवारिकदेवको चावलोंका प्राचीन श्राचार्योंके ग्रन्थों में तो यह निग्या मिलता श्राटा मुग्रीव देवको लड्डु. पुष्पदन्तदेवको फूल, अमुर- है कि जिनेन्द्रदेवके गुण गान करनेसे मब विघ्न दूर देवको लाल रंगका अन्न, शोपदेवको धुले हुए तिल हो जाते हैं,कोई भी भय नहीं रहता है,सब ही पाप दूर हो चावन्न, रोगदेवको कारिका, नागदेवको शक्कर मिली जाते हैं । दुष्ट देव किमी तरहकी कोई खराबी नहीं कर दुई ग्वील, मुख्यदेवको उत्तम वस्तु, भल्लाटदेवको गुड़ सकते हैं । सबही काम यथेष्ट रूपसे होते रहते हैं, परन्तु मिला हुअा भात, मृगदेवको गुड़के गुलगुले, अदिति इन प्रतिष्ठा पाठोंके द्वारा तो श्री अर्हत भगवानका पंच को लड्डु उदितिको उत्तम वस्तु, विचारदेवको नमकीन कल्याणक निर्विप्न ममाम होनेके वास्ते भी बुरे भले मब ग्वाना, पूतनादेवीको पिसे हुए तिल, पापराक्षमीको ही प्रकार के देवी देवताश्रो यहाँतक कि भूतों प्रेतों राक्षमों कुलथी अनाज, चारकी देवीको घी शक्कर । अादि मबही व्यंतगे और मोम,शनिश्चर,गहु, केतु श्रादि ___इतने ही मे पाटक समझ सकते हैं कि क्या इम मबही ग्रहोंको श्रष्ट द्रव्यसे पूजा जाता है, उनकी रुचिकी प्रकार दुनिया भरके सभी देवी देवताओंको पजनमे अलग२ बलि दी जाती हैं और यज्ञ भाग देकर विदा ही वह वीतरागरूप प्रतिमा मन्दिर में विराजमान किया जाता है। उनके मब परिवार और अनुचरों सहित करने योग्य हो सकती है, अन्यथा नहीं । या इम इमही तरह अाह्वान किया जानाहै जिम प्रकार श्रीश्रहंतों प्रकार इन रागीद्वेषी देवताओंको पजनेमे हमाग श्रद्धान का किया जाता है, मानों जैनधर्म ही बदल कर कुछका भ्रष्ट होता है और प्रतिमा पर भी ग्योटे ही संस्कार पड़ते कुछ होगया है। उदाहरण के तौर पर तिलोयपरणत्तिकी है । पं० श्राशाधरके प्रतिष्ठापाठ में और प्रायः अन्य मन्त्र एक गाथा १, ३० नीचे उद्धृतकी जाती है जो धवलमें ही प्रतिष्ठापाटोंमें यक्ष यक्षिणियों, क्षेत्रपाल अादिकी भी उद्धतकी गई है । जिनेन्द्र भगवान के स्मरण करनेके मृतियोंकी प्रतिष्ठाविधि भी लिखी है, जिनकी प्रतिष्ठा दिव्य प्रभाव के ऐमे २ कथन मबही प्राचीन शास्त्रोम भरे होनेके बाद मंदिर में विराजमान कर, नित्य पूजन करत पड़े हैं जिनको पढ़कर हमको अपने श्रद्धानको टीक गहनेकी हिदायत है। यक्षांकी प्रतिष्ठा पाँच स्थानोंके करना चाहिये और मिथ्यातमे भरे हुए. इन प्रतिष्ठा पाटोंके जलसे प्रतिबिम्बका अभिषेककर रात्रिमें करनी चाहिए। जाल में फंसकर अपने श्रद्धानको नहीं बिगाड़ना चाहिये । पं० श्राशाधरजीने मंदिर के शिखर पर ध्वजा चढ़ानेकी सासदि विन्ध भेददियं हो दुहासुराणबंधति । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अनेकान्त ssो अत्थो जन्भर जियाणा मंगहणमेतेण ॥१-३०॥ विग्नाः प्राणश्यन्ति भयं न जातु न दुष्टदेवाः परिलंघयन्ति अर्थाम्ययेष्टांश्च सदालभन्ते जिनोसमानां परिकीर्तनेन ॥ २१ अर्थात् — जिनेन्द्र भगवानके नाम लेने मात्रसे विघ्न नाश होजाते हैं, पाप दूर हो जाते हैं, दुध देव कुछ बाधा नहीं कर सकते हैं, इट पदार्थोंकी प्राप्ति होती है । इसके अलावा जिनेन्द्र भगवान की मूर्ति बिना प्रतिष्ठा के ही पूज्य है, इसके लिये हमको ग्रादिपुराण पर्व ४१ के श्लोक ८५ से ६५ तकका वह कथन पढ़ना चाहिये, जिसमें लिखा है कि, भरत महाराजने घंटांके ऊपर जिन [ वर्ष ३, किरण १ बिम्ब अंकित कराकर उनको अयोध्याके बाहरी दर्वाजा और राजमहलके बाहरी दर्वाज़ोंपर लटकाया । जब व आते जाते थे तो उन्हें इन घंटोंपर अंकित हुई मूर्तियांक देखकर भगवानका स्मरण हो श्राता था और तत्र व इन घंटोंपर अंकित जिनबिम्बोंकी चंदना तथा पूजी किया करते थे । कुछ दिन पीछे नगर के लोगोंने भी ऐसे घंटे अपने मकानोंके बाहरी द्वारों पर बांध दिये, और भी उन पर अंकित जिन-बिम्बोंकी पूजा बन्दना करने लगे । इसमें स्पष्ट सिद्ध है कि भगवान की मूर्तियोंको प्रतिष्ठा कराने की कोई आवश्यकता नहीं है वे वैसे ही पूज्य हैं । विनयसे तत्वकी सिद्धि है राजगृही नगरी राज्यासन पर जिस समय श्रेणिक राजा विराजमान था उस समय उस नगरी में एक चाण्डाल रहता था। एक समय इस चांडाल की स्त्रीको गर्भ रहा । चांडालिनीको श्रम स्वानेकी इच्छा उत्पन्न हुई । उसने आमाको लानेके लिये चांडाल कहा | चांडाल ने कहा, यह का मौसम नहीं, इसलिये मैं निरुपाय हैं। नहीं तो मैं आम चाहे कितने ही ऊँचे हों वहीं से अपनी विद्या के बलसे तोड़कर तेरी इच्छा पूर्ण करता । चांडालिनीने कहा. राजाकी महारानीके बाग में एक असमय फल देने वाला श्रम है; उसमें श्राज-कल आम लगे होंगे। इसलिये आप वहाँ जाकर श्रामों को लावें । अपनी स्त्री की इच्छा पूर्ण करने को चा डाल उस बाग में गया। चांडालने गुप्तरीतिमं श्रमके समीप जाकर मंत्र पढ़कर वृक्षको नवाया और उस पर आम तोड़ लिये। बाद में दूसरे मन्त्र के द्वारा उसे जैमाका तैसा का दिया । बादमें चीडाल अपने घर आया । इस तरह अपनी स्त्रीकी इच्छा पूरी करनेके लिये निरन्तर यह चांडाल विद्यार्थ बलसे वहाँसे आम लान लगा । एक दिन फिरतं २ मालीकी दृष्टि उन आमों पर गई। आमोंकी चोरी हुई जानकर उसने श्रेणिक राजा के आगे जाकर नम्रतापूर्वक सब हाल कहा । श्रेणिककी आज्ञा अभयकुमार नामके बुद्धशाली प्रधाननं युक्तिकं द्वारा उस चांडालको ढूंढ निकाला | चडलको अपने आगे बुलाकर अभयकुमारने पुछा, इतने मनुष्य बागमें रहते हैं, फिर भी तू किस रीतिसं ऊपर चढ़कर श्रम तोड़कर ले जाता है, कि यह बात किसीके जाननम नहीं आती ? चांडालने कहा, आप मेरा अपराध क्षमा करें, मैं सच २ कह देता Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] विनयसे तत्त्वकी मिद्धि है। ११६ heet माम हैं कि मेरे पास एक विद्या है । उसके प्रभावसे होगई है। मैं इन आमोंको तोड़ सका हैं । अभयकुमाग्ने कहा यह बात केवल शिक्षा ग्रहण करनेके वास्ते मैं स्वयं तो क्षमा नहीं कर सकता, परन्तु महागज है। एक चांडालकी भी विनय किये बिना श्रेणिकश्रेणिकको यदि तू इस विद्याको देना स्वीकार करे, जैसे राजाको विद्या सिद्ध नहीं हुई. इसमेंसे यही नो उन्हें इम विद्याके लेनेकी अभिलाषा होनेके मार ग्रहण करना चाहिये कि सद्विचाको सिद्ध कारण तेरे उपकारके बदले में तेरा अपराध क्षमा करनेके लिये विनय करना आवश्यक है। प्रात्मकरा सकता हूँ। चांडालने इस बातको स्वीकार कर विद्या पानेके लिये यदि हम निग्रंथ गुरुका विनय लिया । तत्पश्चात् अभयकुमारने चांडालको जहाँ करें, तो कितना मंगलदायक हो। श्रेणिक राजा सिंहासन पर बैठे थे वहाँ लाकर विनय, यह उत्तम वशीकरण है। उत्तराध्ययनश्रेणिकके मामने खड़ा किया और राजाको मब में भगवानने विनयको धर्मका मूल कहकर वर्णन बात कह सुनाई । इम बातको गजाने स्वीकार किया है । गुम्का, मुनिका, विद्वानका, माता-पिताकिया । बादमें चांडाल मामने खड़ा रहकर थरथगते का और अपनेसे बड़ोंका विनय करना, ये अपनी पगम श्रेणिकको नम विद्याका बोध देन लगा, परन्तु उत्तमताके कारण है। वह बोध नहीं लगा । झटम ग्बड़े होकर अभय -श्रीमद राजचन्द्र कुमार बोले, महाराज ! आपको यदि यह विद्या अवश्य मीग्वनी है. तो श्राप मामने आकर खड़े * किसी कविने क्या ख़ब कहा हैगटे और इमे मिहामन दें। राजाने विद्या लेनेके उत्तम गुगणको लीजिा यदपि नीच पै होय । वाम ऐसा ही किया, तो तत्काल ही विद्या मिद्ध परी अपावन टौर में कंचन न न कोय ॥ आलोचन जैनधर्ममें पालोचन अथवा अालोचनाको बड़ा महत्व प्राप्त है, उमकी गणना अंतरंग तपमें है और वह प्रायश्चित्त नामके अंतरंग नपका पहला भेद है, जिसके द्वारा आत्मशुद्धिका उपक्रम किया जाता है । अपने किये हुए दोपों, अपगधों तथा प्रमादोंको खुले दिल गुरुसे निवेदन करना अथवा अन्यप्रकारमं उन्हें प्रकट कर देना आलोचना कहलाता है और वह आत्मविकामके लिये बहुत ही श्रावश्यक वस्तु है। जब तक मनुष्य अपने दोपोंको दोप, अपराधोंको अपराध और प्रमादाको प्रमाद नहीं ममझता अथवा ममझना हुआ भी अहंकारवश उन्हें छिगनेकी और उनका मंशोधन न होने देनेकी कोशिम करता है तबतक उसका उत्थान नहीं हो मकता-उसे पतनोन्मुख ममझना चाहिये--बह आत्मशुद्धि एवं विकामके मार्गपर अग्रसर नहीं हो सकता। अतः आत्मशुद्धिके अभिलाषियोका यह पहला कर्तव्य है कि वे बालोचनाको अपनाएँ, अपने दोपों अपनी टियोंको मममें और उन्हें सदगुरु आदिमे निवेदनकर अपनेको शुद्ध एवं हलका बनाएँ । मात्र आलोचना-पाठ पढ़लेनेमे आलोचना नहीं बननी । उममे तो यांत्रिक चारित्रकी-जड़मशीनों-जैसे आचरणकी-वृद्धि होती है। -युगवीर Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० श्रनेकान्त fasser a / ज्ञानदर्शनरूप आत्मा के सत्यभाव पदार्थको अज्ञान और अदर्शनरूपी असन् वस्तुओंने घेर लिया है इसमें इतनी अधिक मिश्रता आगई है कि परीक्षा करना अत्यन्त ही दुर्लभ है । संसारके सुखों को आत्माकं अनंतबार भोगने पर भी उनमें से अभी भीमाका मोह नहीं छूटा, और आत्मान उन्हें उसके अमृतके तुल्य गिना, यह अविवेक है। कारण कि संसार वा है तथा यह कड़ वे विपाकको देता है । इसी तरह आत्माने कड़वे विपाककी औषधरूप वैराग्यको कड़वा गिना यह भी श्रविवेक है । ज्ञान दर्शन आदि गुणोंको अज्ञान दर्शन ने घेर कर जो मिश्रता कर डाली है, उसे पहचान कर भावगुरु-तुम लोग जो बात कहते हो उसका अमृत आने का नाम विवेक है। अब कहो कि कोई दृष्टान्त दो । विवेक यह कैसी वस्तु सिद्ध हुई । कड़व लघु शिष्य - हम स्वयं कड़वेको कड़वा कहते हैं, मधरको मधुर कहते हैं, जहरको जहर और अमृतको अमृत कहते हैं। लघुशिष्य - - अहो ! विवेक ही धर्मका मूल और धर्मका रक्षक कहलाता है, यह सत्य है । आत्मा स्वरूपको विवेक बिना नहीं पहचान सकते, यह भी सत्य है । ज्ञान, शील, धर्म, तत्व, और तप यह सब बिवेक बिना उदित नहीं होते, यह आपका कहना यथार्थ है। जो विवेकी नहीं, गुरु - आयुष्मानों ! ये समस्त द्रव्य पदार्थ हैं। परन्तु आत्मामें क्या कडुवाम, क्या मिठास, क्या जहर और क्या अमृत है ? इन भाव पदार्थोंकी क्या इससे परीक्षा हो सकती हैं ? लघुशिष्य - लक्ष्य भी नहीं । गुरु -- इसलिये यही समझना चाहिये कि वह अज्ञानी और मंद है । वही पुरुष मतभेद और प--भगवन् ! इस ओर तो हमारा मिथ्यादर्शन में लिपटा रहता है। आपकी विवेक संबन्धी शिक्षाका हम निरन्तर मनन करेंगे । - श्रीमद् राजचन्द्र लघु शिष्य - भगवन आप हमें जगह जगह कहते आये हैं कि विवेक महान् श्रेयस्कर है। वित्रे अन्धकार में पड़ी हुई आत्माको पहिचानने के लिये दीपक है। विवेकसे धर्म टिकता है । जहाँ विवेक नहीं वहीं धर्म नहीं, तो विवेक किसे कहते हैं, यह हमें कहिये । गुरु — श्रायुष्मानों ! सत्यासत्यको स्वरूप से समझने का नाम विवेक है। [वर्ष ३, किरण १ लघु शिष्य – सत्यको सत्य और असत्यको असत्य कहना तो सभी समझते हैं। तो महाराज ! क्या इन लोगोंने धर्मकं मूलको पालिया, यह कहा जा सकता है ? Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति [सम्पादकीय) -:: घार्सा कई सालका हुआ सुहृदर पं० नाथूराम जी प्रेमीने ३२ पद्य तथा प्रशस्तिरूपसे ६ पद्य और दिये है वे बम्बईसे तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी एक पुरानी हस्त- सब कारिकाएँ एवं पद्य इस सटिपप्ण प्रतिमें ज्यों-के-त्यों लिखित सटिप्पण प्रति, सेठ राजमलजी बड़जात्याके पाये जाते हैं,और इससे ऐसा मालूम होताहै कि टिप्पणयहाँसे लेकर, मेरे पास देखने के लिए भेजी थी। देखकर कारने उन्हें मूल तत्त्वार्यसूचके ही अंग समझा है। मैंने उसी समय उसपरसे आवश्यक नोट्स (Notes) (३) इस प्रतिमें संपूर्ण सूत्रोंकी संख्या ३४६ और लेलिये थे, जो अभी तक मेरे संग्रहमें सुरक्षित हैं । यह प्रत्येक अध्यायके सूत्रोंकी संख्या क्रमशः ३५, ५३, १६ सटिप्पण प्रति श्वेताम्बरीय तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी है और ५४, ४५, २७, ३३, २६, ४६, ८ दी है । अर्थात् दूसरे जहाँतक मैं समझता हूँ अभी तक प्रकाशित नहीं हुई। तीसरे, चौथे, पाँचवे, छठे और दसवें अध्यायमें सभाष्य श्वे. जैन कॉन्फ्रेंस-द्वारा अनेक भण्डारों और उनकी तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी उक्त सोसाइटी वाले संस्करणकी सूचियों आदि परसे खोजकर तय्यार की गई 'जैन ग्रन्था- छपी हुई प्रतिसे एक-एक सूत्र बढ़ा हुआ है; और वे सब वली में इसका नाम तक भी नहीं है और नहालमें प्रकाशित बढ़े हुए सूत्र अपने अपने नम्बरसहित क्रमशः इस प्रकार तत्त्वार्थ सूत्रकी पं० सुखलालजी-कृत विवेचनकी विस्तृत हैं:प्रस्तावना (परिचयादि) में ही, जिसमें उपलब्ध टीका- तैजसमपि ५०, धर्मा वंशा शेक्सजिनारिटा मापन्या टिप्पणोंका परिचय भी कराया गया है, इसका कोई माघबीति च २, उच्छू वसाहारवेदनोपपातानुभावतरण उल्लेख है । और इसलिये इस टिप्पणकी प्रतियाँ बहुत कुछ साध्याः २३, स द्विविधः १२, सम्पर्क धर्मास्तिविरलसी ही जान पड़ती हैं । अस्तु; इस सटिप्पण प्रतिका कापाभावात ।। परिचय प्रकट होनेसे अनेक बातें प्रकाशमें पाएंगी, और सातवें अध्यायमें एक सूत्र कम है अर्थात् सरित अतः अाज उसे अनेकान्तके पाठकोंके सामने रखा निपापिधानपरम्पपदेशमात्सर्यकाबातिकमाः ॥' जाता है। यह सूत्र नहीं है। (१) यह प्रति मध्यमाकारके ८ पत्रों पर है, जिनपर सूत्रोंकी इस वृद्धि हानिके कारण अपनेर अध्यायमें पत्राङ्क ११ से १८ तक पड़े हैं। मूल मध्यमें और टिप्पणी अगले अगले सूत्रोंके नम्बर बदल गये है। उदाहरणके हाशियों (Margins) पर लिखी हुई है। तौर पर दूसरे अध्याय में ५०३ नम्बरपर 'तेबसमपि' सूत्र (२) बंगाल-एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ताद्वारा प्राजानेके कारण ५०वें 'शुभंगियर 'सूत्रका नम्बर ५१ मं० १६५६ में प्रकाशित सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्रके हो गया है,और वें अध्यायमें ३१याँ निक्षेपापिधान.' शुरूमें जो ३१ सम्बन्ध-कारिकाएँ दी है और अन्तमें सूत्र न रहनेके कारण उस नम्बर पर 'बीवितमाला Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ नामका ३२ वाँ सूत्र श्रागया है। पुरवीमो छत्ताइछत्तसंगणा' इत्यागमात् ।" । दूसरी प्रतियोंमें बढ़े हुए सूत्रोंकी बाबत जो यह ग-"केचिज्जडाः 'स विविध' इत्यादिस्वाति कहा जाता है कि वे भाष्यके वाक्याँको ही गलती सूत्र न मन्यते ।" समझ लेने के कारण सूत्रोंमें दाखिल होगये हैं, वह यहाँ ये तीनों वाक्य प्रायः दिगम्बर प्राचार्योको लक्ष्य 'सम्यक्वंच सूत्रकी बाबत संगत मालम नहीं होता क्योंकि करके कहे गये हैं। पहले वाक्यमें कहा है कि 'कुछ लोग पूर्वोत्तरवर्ती सूत्रोंके माध्यमें इसका कहीं भी उल्लेख नहीं प्राहारकके निर्देशात्मक सूत्रस पूर्व ही "तेजसमपि" है और यह सूत्र दिगम्बरसूत्रपाठमें २१ वे नम्बर पर ही यह सूत्र पाठ मानते हैं, परन्तु यह ठीक नहीं; क्योंकि पाया जाता है। पं० सुखलालजी भी अपने तत्त्वार्थसूत्र- ऐसा होने पर श्राहारक शरार लब्धि जन्य नहीं ऐमा भ्रम विवेचनमें इस सूत्रका उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि उत्पन्न होता है, आहारककी तो लब्धि ही योनि है ।' श्वेताम्बरीय परम्पराके अनुसार भाज्यमें यह बात सम्य. दूसरे वाक्यमं बतलाया है कि कुछ लोग 'धर्मा वंशा' स्त्वको देवायुके श्रास्रवका कारण बतलाना) नहीं है। इत्यादि सूत्रको जो नहीं मानते हैं वह ठीक नहीं है।' इससे स्पष्ट है कि भाष्यमान्य सूत्रपाठ श्वेताम्बरमम्प्रदाय- साथ ही, ठीक न होने के हेतुरूपमें नरकभूमियोंके दूमरे में बहुत कुछ विवादापन्न है,और उसकी यह विवादापन्नता नामावाली एक गाथा देकर लिखा है कि 'चकि टिप्पणमें सातवें अध्यायके उक्त ३१ वे सूत्रके न होनेसे आगममं नरकभूमियों के नाम तथा संस्थानके उल्लेख और भी अधिक बढ़ जाती है। क्योंकि इस सूत्रपर भाष्य वाला यह वाक्य पाया जाता है, इसलिये इन नामों भी दिया हुआ है, जिसका टिप्पणकारके सामनेवाली वाले सूत्रको न मानना अयुक्त है ।' परन्तु यह नहीं उम भाग्यप्रतिम होना नहीं पाया जाता जिसपर वे विश्वास बतलाया कि जब सूत्रकारने 'रत्नप्रभा' आदि नामांके करते थे, और यदि किसी प्रतिमें होगा भी तो उसे उन्होंने द्वारा सप्त नरकभूमियोंका उल्लेख पहले ही सूत्रमें कर प्रक्षित समझा होगा । अन्यथा,यह नहीं होसकता कि जो दिया है तब उनके लिये यह कहां लाज़िमी आता है टिप्पणकार भाष्यको मूल-चूल-सहित तत्त्वार्थसूत्रका कि वे उन नरकभूमियोंके दूसरे नामांका भी उल्लेग्व त्राता (रक्षक) मानता हो वह भाष्यतकके साथमें विद्य- एक दूसरे सूत्र-द्वारा करें । इससे टिप्पणकारका यह हेतु मान होते हुए उसके किसी सूत्रको छोड़ देवे। कुछ विचित्रसा ही जान पड़ता है। दूसरे प्रसिद्ध (४) बढ़े हुए बाज़ सूत्रोंके सम्बन्धमें टिप्पणीके श्वेताम्बराचार्योंने भी उक्त 'धर्मा वंशा' आदि सूत्रको कुछ वाक्य इस प्रकार हैं: नहीं माना है, और इसलिये यह वाक्य कुछ उन्हें भी +-"केविश्वाहारकनिर्देशान्पूर्व "तैनसमपि" लक्ष्य करके कहा गया है। तीसरे वाक्यमें उन प्राचार्यों इति पाउं मन्यते, नैवं युक्तं तथासल्पाहारकं न लब्धि को 'जडबुद्धि' ठहराया है जो "स द्विविधः" इत्यादि पमिति भ्रमः समुत्पत्ते, भाहारकस्य तु जन्धि- सूत्रोंको नहीं मानते हैं !! यहां 'श्रादि' शन्दका अभिप्राय देवपोनिः।" 'अनादिरादिमांच,' 'रूपिचादिमान,' 'योगोपयोगी -"केपितु धर्मावंशेत्यादिसूत्रं न मन्यते तदसत्। बीवेषु,' इन तीन सूत्रोंसे है जिन्हें 'स दिविषः' सूत्र'धम्मा सा सेवा प्रबनरि । मषा प माधवई, मामेहिं सहित दिगम्बराचार्य सूत्रकारकी कृति नहीं मानते हैं। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं० २४६६]] तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति . १२३ परन्तु इन चार सूत्रों से 'म द्विविधः' सूत्रको तो दूसरे इसलिये उक्त सूत्रम्ससे पाठान्तर निरर्थक है। श्वेताम्बराचार्योने भी नहीं माना है। और इसलिये यहां 'कुलाबचो' इत्यादिरूपसे जिन श्लोकोका अकस्मात्में 'जडाः' पदका वे भी निशाना बन गये हैं ! सूचन किया है वे उक्त सभाध्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्रके उन पर भी जडबुद्धि होनेका श्रारोप लगा दिया अन्तमें लगे हुए ३२ श्लोकोंमेंसे १०, ११, १२, १४ गया है!! नम्बरके श्लोक हैं,जिनका विषय वही है जो उक्त सूत्रकाइससे श्वेताम्बरोंमें भाष्य-मान्य-सूत्रपाठका विषय उक्त सूत्रमें वर्णित चार उदाहरणोंको अलग-अलग चार और भी अधिक विवादापन्न हो जाता है और यह श्लोकोंमें व्यक्त किया गया है । ऐसी हालतमें उक्त सूत्रके निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि उसका पूर्ण सूत्रकार की कति होनेमें क्या बाधा श्रातीहै उसे यहाँ एवं यथार्थ रूप क्या है। जब कि सर्वार्थसिद्धि-मान्य पर कुछ भी स्पष्ट नहीं किया गया है। यदि किसी बातको मृत्रपाठके विषय में दिगम्बराचार्यो परम्पर कोई मतभेद श्लोकमें कह देने मात्रसे ही उस श्राशयका सूत्र निरर्थक नहीं है । यदि दिगम्बर सम्प्रदायमें सर्वार्थसिद्धिसे पहले होजाता है और वह सूत्रकारकी कृति नहीं रहता, तो भाष्यमान्य अथवा कोई दूसरा सूत्रपाठ रूढ़ हुश्रा होता फिर २२वें श्लोक में 'धर्मास्तिकायस्याभावात् सहिहेतपोर मर्वार्थमितिकार ( श्री पूज्यपादाचार्य) ने उममें गतेः परः' इस पाठके मौजूद होते हुए टिप्पणकारने कुछ उलटफेर किया होता तो यह संभव नहीं था कि “धर्मास्तिक/याभावात्" यह मूत्र क्यों माना ?-उसे दिगम्बर प्राचार्यो में मूत्र गठ के सम्बन्धमें परस्पर कोई मूत्रकारकी कृति होनेमे इनकार करते हुए निरर्थक क्यों मनभेद न होता । श्वेताम्बगेमें भाष्यमान्य सूत्रपाठके नहीं कहा ? यह प्रश्न पैदा होता है, जिसका कोई भी विषयमें मतभेदका होना बहुधा भाध्यमं पहले किसी समुचित उत्तर नहीं बन सकता । इस तरह तो दसवें हमा मत्रपाठके अस्तित्व अथवा प्रचलित होनेको सूचित अध्यायके प्रथम छह सूत्र भी निरर्थकही ठहरते हैं क्योंकि करता है। उनका सब विषय उक्त ३२ श्लोकांक प्रारम्भके श्लोकों (५) दमवे अन्याय के एक दिगम्बर मत्रके मम्बन्ध- में आगया है- उन्हें भी सूत्रकारकी कृति न कहना चाहिये म टिपणकारने लिग्वा है था । अतः टिप्पणकारका उक्त तक निःसार है-उसमे ____ “केचित 'माविलालचक्रवदयपगतले उसका अभीष्ट सिद्ध नहीं हो सकता,अर्थात् उक दिगम्बर पालांबुवदेरण्डवीजवदग्निशिखाव' इति नभ्यं सूत्रं मूत्रपर कोई आपत्ति नहीं श्रामकती ।प्रत्युत इसके,उमका प्रक्षिपंति तन्त्र सूत्रकारकृतिः, 'कुलालचक्रे दोलाया सूत्रपाट उमीके हाथों बहुत कुछ अापत्तिका विषय बन मिषौ चापि यथेष्यते' इत्यादिरलोकः सिद्धस्य जाता है । गनिस्वरूपं प्रोक्तमेव, ततः पाठान्तरमपार्थ ।" (६) इम मटिग्या प्रतिक कुछ मूत्रोंमे थोडामा " __ अर्थात्-कुछ लोग अाविद्धकुलाल चक्र' नामका पाठ भेद भी उपलब्ध होता है-जैसे कि तृतीय अध्यायके नया मृत्र प्रक्षिप्त करते हैं, वह सत्रकारको कृति नहीं १०य मूत्रके शुरू में तत्र' शब्द नहहिं वह दिगम्बर सूत्र है। क्योंकि सालचकदोलायामिपी चापि पयेष्यते' पाठकी तरह 'भरतहमवनहरिविदेह महीप्रारम्भ होता है। इत्यादि श्लोकोंक द्वारा सिद्धगतिका स्वरूप कहा ही है, और छठे अध्यायके ६ठे (दि. ५वे सूत्रका प्रारम्भ ) Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वर्ष ३, किरण 'इन्धिपकापात्रतक्रियाः' पदसे किया गया है,जैसे कि ज्यायो दामः । २२५ पर्वतमादितः । समान दिगम्बर सूत्रपाठमें पाया जाता है और सिद्धसेन तथा मास्वाविवाचकस्म प्रकरणपंचयती नुकृविस्वकाहरिभद्रकी कृतियोंमें भी जिसे भाष्यमान्य सूत्रपाठके धिगमप्रकरवं॥" रूपमें माना गया है। परन्तु बंगाल एशियाटिक सोसाइटी इसमें मूल तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी श्राद्यन्तकारिकाके उक्त संस्करणमें उसके स्थान पर 'भवतकषायेन्द्रि- सहित ग्रंथसंख्या २२५ श्लोकपरिमाण दी है और पकिया' पाट दिया हुआ है और पं० सुखलालजीने उसके रचयिता उमास्वातिको श्वेताम्बरीय मान्यतानुसार भी अपने अनुवादमें उसीको स्वीकार किया है, जिसका पाँचसौ प्रकरणोंका अथवा 'प्रकरणपंचशती' का कर्ता कारण इस सूत्रके भाष्यमें 'मन्नत' पाठका प्रथम होना सूचित किया है, जिनमें से अथवा जिसका एक प्रकरण जान पड़ताहै और इसलिये जो बादमें भाष्यके व्याख्या- यह 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' है। क्रमानुसार सूत्रके सुधारको सूचित करता है। (६) उक्त पुष्पिकाके अनन्तर ६ पद्य दिये हैं, जो (७) दिगम्बर-सम्प्रदायमें जो सूत्र श्वेताम्बरीय टिप्पणकारकी खुदको कृति है। उनमसे प्रथम सात पद्य मान्यता की अपेक्षा कमती-बढ़ती रूपमें माने जाते हैं दुर्वादापहारके रूपमें हैं और शेष दो पद्य अन्तिम मंगल अथवा माने ही नहीं जाते उनका उल्लेख करते हुए तथा टिप्पणकारके नामसूचनको लिये हुए हैं। इन टिप्पणमें कहीं-कहीं अपशब्दों प्रयोग भी किया गया पिछले पद्योंके प्रत्येक चरणके दूसरे अदरको क्रमशः है। अर्थात् प्राचीन दिगम्बराचार्योंको 'पाखंडो' तथा मिलाकर रखनेसे 'रणसिंहो जिनं बंदे" ऐसा वाक्य 'जड़बुद्धि' तक कहा गया है। यथा उपलब्ध होता है, और इसीको टिप्पणमें "इत्पन्तिममनु-सहोत्तर-अपि-महाशक सहबारेषु नेद्रोत्पत्ति- गाथाइपरहस्य" पदके द्वारा पिछले दोनों गाथा पद्योंका रिति परवादिमतमेतावतेय सत्यापितमिति परिचमा रहस्य सूचित किया है। ये दोनों पद्य इस प्रकार हैबालित पासंगिनः स्वकपोलकल्पितबुदरोग्य "सुरनरनिकमनिषेच्यो । पयोदप्रभाचिरदेहः । पापामाहुः, बोगशाहपंचपोग्यविकल्या इत्येव स्पष्ट सूत्रकारोऽस्त्रविषयासंडनीयो निन्दवः।" पीसिंधुजिनराजो । महोदयं दिशति न किययः ॥८॥ "चिजडाः 'महाशामेकं' इत्यादि मूबसूवाम्यपि बबिनोपतापहारी । सदिमणियकोरचंद्रात्मा । न मन्यते पन्नाकाबीनां मियः स्थितिमेदोस्तीत्वपि न भविना सम्बन्मुन संबायते केपी utua पश्यति।" इससे भी अधिक अपशब्दोका जो प्रयोग किया . इससे स्पष्ट है कि यह टिप्पण 'रत्नसिंह' नामके गया है उसका परिचय पाठकोंको आगे चलकर मालम। किमी श्वेताम्बराचार्य का बनाया हुआ है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें 'रत्नसिंह' नामके अनेक सरि-प्राचार्य हो (८) दसवें अध्यायके अन्तमें जो पुष्पिका (अन्तिम गये हैं। परन्तु उनमेंसे इस टिप्पणके रचयिता कौन है, सन्धि) दी है वह इस प्रकार है इन दोनों पचोंके सबमें "पोन्ड" ऐसा “इति सत्यापापिगमेजपचवसंग्रहे मोरपना- भाशीर्वाद दिला पाहै। होगा। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२६६] तत्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति १२० - इसका ठीक पता मालूम नहीं हो सका; क्योंकि 'जैन- चिरंदीजीपाण गमाविल्याशीयोल्माया ग्रन्थावली' और 'जैनसाहित्य नो संक्षिप्त इतिहास' जैसे निर्मवयसका प्रावधनचौरिकापामयावेति ।" ग्रंथोंमें किसी भी रत्नसिंहके नामके साथ इस टिप्पण भावार्थ-जिसने इस तत्त्वाथशास्त्रको अपने ही ग्रन्थका कोई उल्लेख नहीं है। और इसलिये इनके वचनके पक्षपातसे मलिन अनुदार कुत्तोंके समूहों द्वारा ममय-सम्बन्धमें यद्यपि अभी निश्चित रूपसे कुछ भी ग्रहीष्यमान-जैसा जानकर-यह देखकर कि ऐसी कुत्तानहीं कहा जासकता, फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि ये प्रकृति के विद्वान् लोग इसे अपना अथवा अपने सम्प्रविक्रमकी १२वीं-१३वीं शताब्दीके विद्वान् प्राचार्य हेम- दायका बनाने वाले हैं पहले ही इस शास्त्रकी मूलचन्द्र के बाद हुए हैं क्योंकि इन्होंने अपने एक टिप्पणमें चूल-सहित रक्षाकी है-इसे ज्योंका त्यो श्वेताम्बरहेमचन्द्र के कोषका प्रमाण 'इति हैमः' वास्यके साथ सम्प्रदायके उमास्वातिकी कृतिरूप में ही कायम रखा दिया है। साथ ही, यह भी स्पष्ट ही है कि इनमें है-वह भाष्यकार (जिसका नाम मालूम नही.) चिरंसाम्प्रदायिक-कट्टरता बहुत बढ़ी चढ़ी थी और वह जीव होवे-चिरकाल तक जयको प्राप्त होवे-ऐसा हम सभ्यता तथा शिष्टताको भी उल्लंघ गई थी, जिसका कुछ टिप्पणकार-जैसे लेखकोंका उस निर्मल पन्थके रक्षक अनुभव पाठकोंको अगले परिचयसे प्राप्त हो सकेगा। तथा प्राचीन-वचनोंकी चोरीमें असमर्थके प्रति प्राशी (१०) उक्त दोनों पद्योंके पूर्व में जो ७ पद्य दिये वर्वाद है। हैं और जिनके अन्तमें "इति दुर्गादापहारः" लिखा है पूर्वाचार्यहरपि विचौरः किंचिदात्मसातवा । उनपर टिप्पणकारकी स्वोपज्ञ टिप्पणी भी है। यहाँ व्याख्यानपति नवीनं न तत्समः कचिदपि पिथनः ॥२॥ उनका क्रमशः टिप्पणी सहित कुछ परिचय कराया टिप्पा-"भय बेचन दुरात्मानः सूत्रवाचौराः जाता है: स्वमनीषया पथास्थानं पवेप्सितपाय प्रदत्य स्वापरमागेवैतददक्षिणभषणगणादास्पमानमिव मत्वा । योंकि टिप्पचकारने भावकारका नाम गरेका पातं समूब स भाष्यकारविरं जीवात् ॥१॥ उसके लिये स कमित्' (यह कोई) शब्दों का प्रयोग टिप्प.-"परिवेसम्बोदारावितिदमः समदरिया किया हैजबकि मूबसूत्रकारका बाम उमास्वाति कई असरवाः स्ववचनस्यैव पापातमबिना इति यावत एष स्थानों पर स्पररूपसे दिया है इससे साफ पावित होता भषणाःकुरास्ते गवेवास्थमानं पहिल्यमानं स्वापती- हैकि टिप्पबकारको भाग्यकारका नाम मालूम नहीं था से मबसत्रकारसे मिट समझता था । करिष्यमावमिति बावतयाभूतमिवैततत्वार्थवावं प्रागे भाबकारका निर्मवमन्थरकाय' विशेषरके साथ पूर्वमेव मस्या ज्ञात्वा बेनेति शेषः महमूवचनाम्यामिति प्रापरवौरिकावामगल्याव' विशेषण भी हसो वातसमूलचूर्व प्रा रचितं समिद भाग्यकारो भाग्यकर्ता को चित करता है। इसके 'पावर' बाय तपार्थसूत्र जान पड़ता है, भाष्यकारने उसे पुरान "दरिये सरखोदारो" यह पाठ अमरकोशका अपना नहीं बनाया-बह अपनी मनःपरिवतिके है, उसे 'इति म'विसकर हेमचन्द्राचार्य कोपत्र कारव ऐसा करने के लिये असमर्थ वा-पही बाब प्रकार करना टिप्पचकारकी विचित्र नीतिको सपित यहाँ पतयिा गया है। अन्यथा, ग्मात्याविक विजे मता है। इस विषयकी कोई जरूरत नहीं थी। ------ ---- ----- ------------ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अनेकान्त [वर्ष ३ किरण १ . बमः।" हितापगम कचित् कुर्वन्ति द्वाय रामापरिवारावेद- ऐसा होनेसे ही क्या होगया ? हम तो एकमात्र इसीमें मुख्यते-पूर्वाचार्यकृतेरपीत्यादि । ततः परं वादविह- श्रादररूप नहीं वर्तरहे हैं, छोटे तालाबकी तरह । क्योंकि बानां सद्वक्तृपचोप्यमन्यमानानां वाक्यासंशयेभ्यः अाज भी जिनेन्द्रोक्त अंगोपांगादि श्रागमसभुद्र गर्ज रहे सुशेभ्यो निरीहतया सिद्धांतेतरशाखस्मयापनोदकमेवं हैं, इस कारण उस समुद्रक एकदेशरूप इस प्रकरणसे उसके जाने रहनेसे-क्या नतीजा है ? कुछ भी नहीं । भावार्थ-सूत्रवचनोको चुरानेवाले जो कोई · इस प्रकारके बहुतसं प्रकरण विद्यमान हैं, हम दुरात्मा अपनी बुद्धिसे यथास्थान यथेच्छ पाठप्रक्षेपको किन किनमें रमनेकी इच्छा करेंगे ? दिग्वलाकर कथंचित् अपने तथा दूसरों के हितका लोप परमेतावचतुरैः कर्तव्यं शृणुत कच्मि सविवेकः । । करते हैं उनके वाक्योंके सुननेका निषेध करने के लिये शुद्धो योस्य विधाता स दृषणीयो न केनापि ॥४॥ 'पूर्वाचार्यकृतेरपीत्यादि' पद्य कहा जाता है, जिसका टिप्प०-"एवं चाकण्र्य वाचको घुमास्वातिर्दिगश्राशय यह है कि 'जो कविचोर पूर्वाचार्यकी कृतिगंस म्बरो मिलव इति केचिन्मावदादः शिक्षार्थ 'परमेताकुछ भी अपनाकर (चुराकर) उसे नवीनरूपमें व्याख्यान वचतुरैरिति' पचं महे-शुद्धःसत्यः प्रथम इति यावद्यः करता है-नवीन प्रगट करता है-उसके समान कोप्यस्य ग्रंथस्य निर्माता स तु केनापि प्रकारेण न दूसरा कोई भी नीच अथवा धूर्त नहीं है।' निंदनीय एतावचतुरैविधेयमिति ।" इसके बाद जो सुधीजन वाद-विहलो तथा सद्वक्ता- भावार्थ-ऊपर की बातको सुनकर 'वाचक उमा. के वचनको भी न मानने वालोंके कथनम संशयम पड़े स्वाति निश्चयसे दिगम्बर निव है ऐसा कोई न कहें, हुए हैं उन्हें लक्ष्य करके सिद्धान्तस भिन्न शास्त्र-स्मयको इस बात की शिक्षा के लिये हम 'परमेतावचतुरैः' इत्यादि दूर करने के लिये कहते हैं --- पद्य कहते हैं, जिसका यह अाशय है कि 'चतुर जनों को सुज्ञाः शृणुत निरीहाश्चेदाहो परगृहीतमेवेदं। इतना कर्तव्य पालन जरूर करना चाहिये कि जिमम सति जिनसमयसमुद्र तदेकदेशेन किमनेन ॥३॥ इम तत्त्वार्थशास्त्रका जो कोई शुद्ध विधाता-श्राद्य टिप्प.-"शृणुत भोः कतिचिद्विशाश्वेदाहो यद्युतेदं निर्माता-है वह किसी प्रकारसे दूषणीय-निन्दनीयतरवार्थप्रकरणं परगृहीतं परोपातं परनिर्मितमेवेति न ठहरे। . यावदिति भवंतः संशेरते किं जासमेतावता वयं स्वस्मि. यः कुंकुंदनामा नामांतरितो नियते कैश्चित् । म्नेव कृतादरा न वामहे सघीयः सरसीव, यस्मादयापि शेयोऽम्प एव सोऽस्मारस्पष्ट गुमास्वातिरिति विदितात् ॥५॥ जिनेंद्रोक्तांगोपांगाधामगसमुद्रा गर्जनीति हेनोः सवेक टिप्प.-"तहि कुंदकुंद एवैतत्प्रथमकर्तेति संशयादेशेनानेन कि ? न किंचिदित्यर्थः । ईशानि भूयास्येव पोहाप स्पष्टं ज्ञापयामः यः कुंदकुंदनामेत्यादि । भयं प्रकरणानि संति केषु केषु रिरिसां करिष्याम इति ।" च परतीथिकैः कुंदकुंद इडाचार्यः पद्मनंदी उमास्वा भावार्थ-भोः कतिपय विद्वानी ! सुनो, यद्यपि यह तिरिस्यादिनामांताराणि कल्पयित्वा पठ्यते सोऽस्मातस्थार्थप्रकरण परगृहीत है-दूसरोंक द्वारा अपनाया गया. स्प्ररवकतु मास्वातिरित्येव प्रसिदनाम्नः सका. है-पर निर्मित ही है, यहाँ तक श्राप संशय करते हैं परन्तु शादम्य एव शेयः किं पुनः पुनर्वेदयामः ।" Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति १२७ भावार्थ-'तब कुन्दकुन्द ही इस तत्त्वार्थशास्त्रके कहते हैं कि हमारे बद्धों-द्वारारचित इस तत्वार्थसूत्रको प्रथम कर्ता हैं, इस संशयको दूर करनेके लिये हम 'यः पाकर और उसे समीचीन जानकर श्वेताम्बरोंने स्वे. कुंदनामेत्यादि' पद्यके द्वारा स्पष्ट बतलाते हैं कि-पर च्छाचारपूर्वक कुछ सूत्रोंको तो तिरस्कृत कर दिया और तार्थिकों (!) के द्वारा जो कुन्दकुन्दको कुन्दकुन्द, इडा- कुछ नये सत्रोको प्रक्षिप्त कर दिया-अपनी प्रोरस चार्य (?), पद्मनन्दी उमास्वाति - इत्यादि नामान्तरों मिला दिया है । इस भ्रमको दूर करने के लिये हम की कल्पना करके उमास्वाति कहा जाता है वह हमारे श्वेताम्बरसिंहानां' इत्यादि पद्य कहते हैं, जिसका इस प्रकरणकर्तासे, जिसका स्पष्ट 'उमास्वाति' ही प्रसिद्ध अभिप्राय यह है कि-श्वेताम्बरसिहोंके, जो कि स्व. नाम है, भिन्न ही है, इस बातको हम बार-बार क्या भावसे ही विद्याओंके राजाधिराज हैं और स्वयं अत्यन्त बतलावें। उदंड-ग्रन्थोंक रचने में समर्थ हैं, निहव-निर्मित-शास्त्रीका श्वेतांबरसिंहानां सहनं राजाधिराजविद्यानां । ग्रहण किसी प्रकार भी नहीं होता है-वे परनिर्मित निवनिर्मितयाखाग्रहः कथंकारमपि न स्यात् ॥६॥ शास्त्रको तिरस्करण और प्रक्षेपादिके द्वारा कदाचित् भी टिप्प-नन्वत्र कुतोलभ्यते यत्पाठांतरसूत्राणि अपने नहीं बनाते हैं; क्योंकि जोदूसरेकी वस्तुको अपदिगंबरैरेव प्रशितानि ? परे तु वश्यंति यदस्मदुदैरचितमे नाते हैं—अपनी बनाते हैं---वे चोर होत हैं, महान तत्प्राप्य सम्यगिति हास्या श्वेतांबराः स्वैरं कतिचित्सू- आशय के धारक तो अपने धनको भी निविशेषरूपस प्राणि तिरोकुर्वन् कतिचित्र प्राषिपन्निति भ्रमभेदार्थ अवलोकन करत है-उसमें अपनायतका (निजत्वका)'श्वेतांबरसिंहानामित्यादि' घूमः । कोऽर्थः श्वेतावर भाव नहीं रखते।' सिंहाः स्वयमत्यंतोइंग्रंथग्रंथनप्रभूष्णवः परनिर्मितशा तिरस्करण-प्रक्षेपादिभिर्न कदाचिदप्यारमसाद्विवधीरन् । पाठातरमुपजाय भ्रमात काचवृथव सताशप । यतः 'तस्करा एव जायंते परवस्वास्मसास्कराः, निर्वि- सर्वेषामपि तेषामतः परं भांतिविगमोऽस्तु ॥७॥ शेषेण पश्यंति स्वमपि स्वं महाशयाः।' टिप्प०-अतः सर्वरहस्यकोविदा अमृतरसे कल्पना___ भावार्थ-यहाँ पर यदि कोई कहे कि 'यह बात विषपूरं न्यस्यमानं दूरतस्त्यक्त्वा जिनसमयावानुसार कैसे उपलब्ध होती है कि जो पाठांतरित सूत्र हैं वे रसिका उमास्वातिमपि स्वतीथिक इति स्मरंतोऽनंतसंदिगम्बरोंने ही प्रक्षिप्त किये हैं ? क्योंकि दिगम्बर तो सारपाशं पतिष्यनिर्विशदमपि कनुषीकामैः सह • जहाँ तक मुझे दिगम्बर जैनसाहित्यका पनि निडवैः संगं माकुर्वचिति । है उसमें कुन्दकुन्दाचार्यका दूसरा नाम उमास्वाति है भावार्थ-कुछ संत पुरुष भी. पाठान्तरका उपयोग ऐसा कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। अन्दकन्द जो करके उसे व्यवहारमें लाकर-वृथा ही भ्रमत हैं, उन पाँच नाम कहे जाते हैं उनमें मूल नाम पमनन्दी तथा सबकी भ्रान्तिका इसके बादसे विनाश होवे । प्रसिद्ध नाम कुन्दकुन्दको छोड़कर शेष तीन नाम एला - अतः जो सर्वरहस्यको जानने वाले हैं और जिनाचार्य, वक्रयीव और गृहपिन्छाचार्य है। तथा कुन्दकुन्द और उमास्वातिकी मित्रताके बहुत स्पर रख पाये गमसमुद्र के अनुसरण-रसिक है वे अमृतरसमें न्यस्यजाते है। अतः इस नामका दिया जाना प्राधि- मान कल्पना-विषपुरको दूरसे ही स्यागकर, उमास्वातिको मूखकरे। भी स्वीथिक स्मरण करते हुए, अनन्त संसारके माल Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण' में पड़ने वाले उन निहवोंके साथ संगति न करें-कोई है जो जैनशासनकी जान तथा प्राण है और जिसके सम्पर्क नरखें-जो विशदकोभी कलुषित करना चाहतेहैं। अवलोकन करनेपर विरोध ठहर नहीं सकता-मनमुटाव (११) उक्त ७ पद्यों और उनकी टिप्पणीमें टिप्पण. कायम नहीं रह सकता । यदि ऐसे लेखकोंको अनेकान्तकारने अपने साम्प्रदायिक कट्टरतासे परिपूर्ण हृदयका दृष्टि प्राप्त होती और वे जैनी नीतिका अनुसरण करते जो प्रदर्शन किया है-स्वसम्प्रदायके प्राचार्योंको होते तो कदापि इस प्रकारके विषबीज न बोते । खेद है 'सिंह' तथा 'विद्यानोंके राजाधिराज' और दूसरे सम्प्र- कि दोनों ही सम्प्रदायोंमें ऐसे विषबीज बोनेवाले तथा दाय वालोंको 'कुत्ते' तथा 'दुरात्मा' बतलाया है, द्वेष कषायकी अग्निको भड़कानेवाले होते रहे हैं, जिसका अपने दिगम्बर भाइयोंको 'परतीर्थिक' अर्थात् भ० महा कटुक परिणाम आजकी संतानको भुगतना पड़ रहा है !! वीरके तीर्थको न माननेवाले अन्यमती लिखा है और अतः वर्तमान वीरसंतानको चाहिये कि वह इस प्रकारसाथ ही अपने श्वेताम्बर भाइयोंको यह आदेश दिया की द्वेषमूलक तहरीरों-पुरानी अथवा अाधुनिक लिहै कि वे दिगम्बरोंकी संगति न करें अर्थात् उनसे कोई खावटों-पर कोई ध्यान न देवे और न ऐसे जैनप्रकारका सम्पर्क न रखें-उस सबकी अालोचनाका नीतिविरुद्ध आदेशोंपर कई अमल ही करे। उसे अनेयहाँ कोई अवसर नहीं है, और न यह बतलानेकी ही कान्तदृष्टिको अपनाकर अपने हृदयको उदार नथा जरूरत है कि श्वेताम्बरसिंहोंने कौन कौन दिगम्बर विशाल बनाना चाहिये, उसमें विवेकको जागृत ग्रंथोंका अपहरण किया है और किन किन ग्रंथोंको करके साम्प्रदायिक मोहको दूर भगाना चाहिये और एक आदरके साथ ग्रहण करके अपने अपने ग्रंथों में उनका सम्प्रदायवालोंको दूसरे सम्प्रदायके साहित्यका प्रेमउपयोग किया है, उल्लेख किया है और उन्हें प्रमाणमें पूर्वक तुलनात्मक दृष्टिसे अध्ययन करना चाहिये, जिससे उपस्थित किया है। जो लोग परीक्षात्मक, आलोचना- परस्परके गुण-दोष मालूम होकर सत्यके प्रहणकी ओर स्मक एवं तुलनात्मक साहित्यको बराबर पढ़ते रहते हैं प्रवृत्ति होसके, दृष्टिविवेककी उपलब्धि होसके और उनसे ये बातें छिपी नहीं है। हाँ, इतना जरूर कहना साम्प्रदायिक संस्कारोंके वश कोई भी एकांगी अथवा होगा कि यह सब ऐसे कलुषितहृदय लेखकोंकी लेखनी ऐकान्तिक निर्णय न किया जासके; फलतः हम एक अथवा साम्प्रदायिक कट्टरताके गहरे रंगमें रंगे हुए दूसरेकी भूलों अथवा त्रुटियोंको प्रेमपूर्वक प्रकट कर सके, कषायाभिभूत साधुओको कर्ततका ही परिणाम है- और इस तरह परस्परके वैर-विरोधको समूल नाश नतीजा है--जो असेंसे एक ही पिताकी संतानरूप करनेमें समर्थ होसकें। ऐसा करनेपर ही हम अपनेको भाइयों-भाइयोंमें-दिगम्बरों-श्वेताम्बरों में परस्पर मन- वीरसंतान कहने और जैनशासनके अनुयायी बतलाने. मुटाव चला जाता है और पारस्परिक कलह तथा विसं- के अधिकारी हो सकेंगे । साथ ही, उस उपहासको याद शान्त होनेमें नहीं आता ! दोनों एक दूसरपर मिटा सकेंगे जो अनेकान्तको अपना सिद्धान्त बनाकर कीचड़ उछालते हैं और विवेकको प्राप्त नहीं होते !!! उसके विरुद्ध आचरण करने के कारण लोकमें हमारा वास्तवमें दोनों ही अनेकान्तकी ओर पीठ दिये हुए हैं हो रहा है। और उस समीचीनदृष्टि-अनेकान्तदृष्टि-को भुलाये हुए वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता० ११-११-१६३६ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - लक्षणावली अर्थात् लक्षणात्मक जैन- पारिभाषिक शब्दकोष वी रसेवामन्दिर सरसावा में दो ढाई वर्ष से 'जैनलक्षणा 'बली' की तय्यारीका काम विरामरूपसे होरहा है । कई विद्वान् इस काम में लगे हुए हैं। कोई २०० मुख्य दिगम्बर ग्रंथों और २०० के ही क़रीब प्रमुख श्वेताम्बर ग्रंथोंपर लक्ष्य शब्दों तथा उनके लक्षणोंके संग्रहका कार्य हुआ है । संग्रहका कार्य समाप्तिके करीब है और उसमें २५ हज़ार के करीब लक्षणोंका ममावेश समझिये | संग्रह में यह दृष्टि रखी गई है कि जो लक्षण शुद्ध लक्षण न होकर निरुक्तिपरक अथवा स्वरूपपरक लक्षण हैं उन्हें भी उपयोगिताकी दृष्टिसे कहीं कहीं पर ले लिया गया है । अब सगृहीत लक्षणोंका क्रमशः संकलन और सम्पादन होकर प्रेम कापी तय्यार की जानेकी है। जैस प्रेम प्रेम कापी तय्यार होती जायगी उसे प्रेममें छपने के लिये देते रहने का विचार है । प्रायः चार खण्डों में यह महान ग्रंथ प्रकाशित होगा । मेरा विचार ग्रंथमं लक्षणोंको कालक्रमस देनेका था और इसलिये मैं चाहता था कि दिगम्बरीय तथा श्वेताम्बराय लक्षणांका इम दृष्टिसे एक ही क्रम तय्यार किया जाय, जिससे पाठकों को लक्षणोंके क्रमविकासका (यदि कुछ हो ), लक्षगाकारों की मनोवृत्ति का और देश कालकी उम परिस्थिति अथवा मयादिककी का भी कितना ही अनुभव हो सके जिसने उस विकासको जन्म दिया हो अथवा जिससे प्रेरित होकर पूर्ववर्ती किसी लक्षण में कुछ परिवर्तन अथवा फेरफार करने की ज़रूरत पड़ी हो। परन्तु ऐसा नहीं हो सका उसमें अनेक अड़चनें तथा बाधाएँ उपस्थित हुई । अनेक विद्वानोंके समय तथा ग्रन्थोंके निर्माणकाल एवं ग्रन्थनिर्माताओं के सम्बन्ध में परस्पर दोनों सम्प्रदायों में मतभेद है और कितने ही विद्वानों तथा ग्रन्थोंका समय सुनिश्चित नहीं है। ऐसी हालत में दोनों सम्प्रदाय के लक्षणों को अलग अलग दो विभागों में रक्खा गया है। और उनमें अपनी अपनी स्थूल मान्यता के अनुसार लक्षणोंका क्रम दिया गया है। इससे भी उक्त उद्देश्यकी कुछ परिश्रम के साथ पूरी अथवा बहुत से अंशों में सिद्धि हो सकेगी। क्योंकि ग्रन्थों तथा ग्रन्थकारोंके समय सम्बन्ध में प्रस्तावना लिखते समय यथेष्ट प्रकाश डाला जायगा । यह ग्रन्थ देशी-विदेशी सभी विद्वानोंके लिये एक प्रामाशिक रिफेरेंस बुक (Reference book ) का काम देता हुआ उनकी ज्ञानवृद्धि तथा किसी विषय के निर्णय करनेमें कितना उपयोगी एवं सहायक सिद्ध होगा उसे बतलाने की ज़रूरत नहीं । ग्रंथकी प्रकृति एवं पद्धति परसे वह सहज ही में जाना जा सकता है। प्रथम तो प्रत्येक विद्वान के पास इतने अधिक ग्रंथोंका संग्रह नहीं होता श्रीर यदि किसीके पास हो भी तो यह मालूम करना बहुत ही कठिन तथा अतिशय परिश्रम-साध्य होता है कि कौन वि किस ग्रंथ कहाँ कहाँ पर वर्णित है। इस एक ग्रन्थके सामने रहते सैकड़ों ग्रन्थोंका हाल एक साथ मालूम हो जाता है - यह पता सहज ही में चल जाता है कि Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अनेकान्त [वर्ष ३, किरण किस विषयका क्या कुछ लक्षण किम किम ग्रंथमें पाया - लब्ध हुए हैं, और इमलिए, उनके साथ दूसरे सम्प्रदायके जाता है और किम किसमें बह नहीं पाया जाना; क्योंकि लक्षणों को नहीं दिया जा सका है । यदि दूमरे मम्प्रदाय इम ग्रंथम प्रत्येक लक्ष्यक लक्षणोंका मंग्रहमें उपयुक्त हुए. के किमी अन्य ग्रंथम, जिमका उपयोग इम मंग्रहमें नहीं मभी ग्रंथांपरस एकत्र मंग्रह किया गया है, ग्रंथकार हो सका, उम लक्ष्यका लक्षण पाया जाता हो अथवा और ग्रंथके नाम के * माथ उनके स्थल का पता भी उपयुक्त ग्रन्थोमस ही किमीमें उपलब्ध होता हो और दे दिया गया है और लक्ष्य शब्दोंकी अकारादि-क्रमस दृष्टिदोष के कारण इस संग्रहमें छूट गया हो, उसकी रक्खा है, जिससे किसी भी लक्ष्य के लक्षणोंको मालूम सूचना मिलने पर उसे बादको परिशिष्टमें दे दिया करनेमें आसानी रहे । कुछ लक्ष्य ऐम भी है जो दूसरं नायगा। ग्रंथाम अपने पर्याय नाम उल्लेखित हुए हैं और उसी श्राज इम लक्षणावलीके 'अ' भागके कुछ अंशोको नामस उनका वहाँ लक्षा दिया है । उनके लक्षणोंको 'अनकान्त'के पाठकोंक मामने नमूने के तौर पर रक्वा यहां प्रायः उनके नामक्रम के माथ ही मंग्रह किया गया जाता है, जिसमें उन्हें इस ग्रंथकी रूप-ग्वाका कुछ है । हो, पर्याय नामवाले लक्ष्य शब्दको भी दम्बनका साक्षात अनुभव हो सके और वह इसकी उपयोगिता साथमें संकेत कर दिया गया है जैम 'अकथा' के साथ तथा अावश्यकताको भले प्रकार अनुभव कर मकें । में 'विकथा' को देखने की प्रेरणा की गई है। माथ ही, विद्वानोंम यह नम्र निवेदन है कि वे लक्षगा कछ लक्षण ऐस है गी दिगम्बर ग्रन्थों में ही मिले बलाक इम पमं. जिममं वह प्रस्तुत की जानका है, हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो श्वनाम्बर ग्रंथामे ही उप यदि कोई ग्वाम त्रुटि देग्य अथवा उपयोगिताकी दृष्टिम * ग्रन्थका नाम पूरा न देकर संक्षेपमें दिया गया कोई विशेष बात मुझाने की हो तो वे कृपया शांघ दा है। ग्रन्थोंके पूरे नामों भादिके लिये एक संकेत सूची सूचित कर अनगडीत करें, जिसमें उमपर ममांचन प्रत्येक खण्डमें रहेगी, जिससे यह भी मालूम होसकेगा विचार होकर प्रेमकापीके ममय यथोचित सुधार किया कि अन्य के कौनसे संस्करणा अथवा कहाँकी हस्तलिखित जामकं । विद्वानों कम दर परामर्शका हृदयम अभिप्रतिका इम संग्रहमें उपयोग हुआ है। नन्दन किया जायगा और में उनकी इम कृया के निय __ पतेमें जहाँ एक ही संख्या दिया है वह ग्रन्थके बहन है। अाभारी हूंगा । पच अथवा सूत्र नम्बरको सूचित करता है,जहाँ दो संल्पाक दिये है वहाँ पहला अंक ग्रंथके अध्याय, परिच्छेदादिक- इम नमूनमें नहीं कहीं किसी लक्ष्य के लनगारन्तर का और दूसरा अंक पत्र तथा सूत्रके नम्बरका वाचक xxx ऐसे चिन्ह दिये गये हैं वहीं उनके बाद अनेक है. जहाँ तीन संपादिये है वहाँ दूसरा अंक मध्या. लक्ष्य शब्द तथा उनके लक्षण हे हुए हैं, जिन्इम पाविके भवान्तर भेद अथवा सूत्रका सूचक है और नमूनेमें उद्धृत नहीं किया गया । व अन्य प्रकाशिन होने तीसरा अंक पचवा सूत्रके नम्बरका घोतक है। और वाले प्रथम ग्वण्डम यथाम्यान रहेंगे । जहाँ 'पृ०' पूर्वक संख्या दिया है वह ग्रन्थके पृष्ठ नम्बरको बतलाता है। -मम्पादक Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] जैन-लक्षणावली अकथा (अकहा) चर्यभूशय्यामलधारणपरितापादिः अकामेन निर्जरा श्वेताम्बरीय लक्षणम्] भकामनिर्जरा। -पूज्यपादः, सर्वा० मि०, ६,२० । मिच्छत्तं वेयंतो जं अण्णाणी कहं परिकहेइ ।। विषयानर्थनिवृत्तिं चास्माभिप्रायेणाकुर्वतः पारतमायालिगन्थो व गिही वा सा अकहा देसिया समए ॥ भोगनिरोधोऽकामनिर्जरा। -भद्रबाहुः, दशका. नि., गा० २०६ -अकलंकः, नत्वा० ग०६, १२ पश्य 'विकथा' अकामा कालपक्वनिर्जरणलक्षणा । अाशाघर:, अन ध० टी०, २,४३ अकल्प:-ल्प्यम् (अकप्पो) अकामे निर्जरा अकामनिर्जराः यः पुमान् चारक निरो[श्वे० ल०] धबंधनबद्धः पराधीनपराक्रमः सन् बुभुक्षानिरोधं तृषाअकप्पा जश्र विहीए मंबइ। दुःग्वं ब्रह्मचर्यकृच्छू भूशयनकष्टं मलधारणं परितापादिकं -मिद्धमनः, जीतक० चूर्णिः, गा० १ च सहमानः सहनेच्छारहितः सन् यत ईषतकर्म निर्जरपिगड-उपाश्रय-वस्त्र-पात्रम्पं चतुष्टयं यदनेपणीयं यति सा अकामनिर्जरा । नदकल्प्यम ।---चन्द्रमरिः, जीतक च० व्या०. गा०१ श्रुतमागरः, गत्या टी० ६,२० अकप्पो नाम पुढवाइकायाणं अपरिणयाणं गहणं करेह, श्वेताम्बरीय लक्षणानि] अहवा उदउल्ल-ससणिद्ध-समरकरवाइएहिं हन्थमसेहि गिराहा, जंवा अगीयन्थेणं श्राहारोवहि उप्पाहयं तं " थकामनिर्जरा पराधीननयानुरोधारचाकुशलनिवृत्ति राहारादिनिरोधश्च । परिभुजंतस्स अकप्पो। पंचकादिप्रायश्चित्तशुद्धियोग्य -रमाम्बानिः, नत्वा० भा०, ६, २० मपवादमेवन विधि न्यक्चा गरुतरदोषसेवनं वा अकप्पो। , -श्रीचन्द्रमूरिः, जीतक. च० व्या• गा०, १ अकामान ", अकामनिर्जरा कनश्चिन पारतन्ध्यादुपभोगनिरोधरूपा श्रकल्पोऽपरिणतपथ्वीकायादिग्रहणमगीतार्थानीतोपधि नथापालनाया अयोगः। शम्याऽऽहाराघुपभोगश्च । -हरिभद्रः. नवा० भा० टी०, ६,१३ -मल गिरिः. व्य मू० मा० . १०,३४ विषयानर्थनिवत्तिमात्माभिप्रायेणाकुर्वनः पारनन्यादुप भोगादिमिरोधः प्रकामनिर्जरा, अकामस्य-अनिच्छनो अकस्मादभयम् निर्जरणं पापपरिशाटः पुण्यपुद्गलोपचयरच, परवशम्य श्व० ल. चामरणमकामनिर्जरायुषः परिक्षयः । अम्मादेव बानिमित्तानपं गृहादिष्षेत्र -मिसनगणी, नन्या.टी.,६,१३ स्थिनम्य गच्यादी भयमकम्माद्भयम।। अनभिजपनोऽचिन्नयन एवं कर्मपुद्गजपरिशाट: -मनिचन्द्रः ललिनवि० ५०, पृ. ३८ (अकामनिर्जरा)। बानिमित्तनिरपेक्षं भयमकम्माद्यम । --मिदमनगणी, नन्वा० टी०, ६, २० -विनयविजयः, कल्यमू० व..१, १५ अकामनिर्जरा यथाप्रवृत्ति करणेन गिरिपरिनुपनघोजनाअकामनिर्जरा कल्पनाकामस्य निरमिलापम्य या निर्जरा कर्मप्रदेश[दिगम्बरीय लक्षणानि] विचटनरूपा । भकामरचारकनिरोधबन्धनवज्येषु कुत्तष्णानिरोधब्रह्म -हेमचन्द्रः, योगशा० १०, ४, १०७ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ अकालण्यम् शेपेन्द्रियमनसो दर्शनमचक्षुर्दर्शनम् ।। -वीरमनः, धवला, जीव० चूलिका, १ श्रा०प०,३०६ [दिग० ल] मेसेंदियाणाणुप्पत्तीदो जो पुब्वमेव सुवसत्तीए अप्पणो तेषामेव ( क्रोधमानमायालोभानामेव ) मन्दोदये तस्य विसयम्मि पडिबहाए सामरणेण संवेदो अचक्खुणाणु(चित्तस्य) प्रसादोऽकालुष्यम्। प्यत्तीणिमित्तो नमचक्खुदंसणमिदि । :, पंचा०टी०, १३८ -वीरसेनः, धवला, ग्रा०पृ०, ३८६ अकिञ्चनता-त्वम् सोदघाणजिहाफासमणेहिंतो समुपज्जमाणकारणसगसं[दिग८ ल] वेयणमचकावुदंसणं णाम। अकिंचनता सकल ग्रन्थत्यागः । -वीरसेनः, धवला, खं० ४,अनुयो०५, प्रा०प०, ८६२ -अपगजितसूरिः, मग • ग्रा० टी०, १,४६ यत्तदावरणक्षयोपशमाच्चतुर्वर्जितेतरचतुरिन्द्रियानिन्द्रिअकिंचनता उपात्तेष्वपि शरोरादिप संस्कारापोहाय याबलम्बाच्च मूर्तामूर्नद्रव्यं विकलं सामान्येनावममेदमित्याभिसम्बन्धनिवृत्तिः। बुध्यते तदचक्षुर्दर्शनम् । -यमुनन्दी. मूला. व., ४५.५ -अमनचन्द्रः, पञ्चा०, टी०, ४२ वि० ल०] मंसिदियप्पयासो णायब्वा सो अचक्खू त्ति । अकिंचणिया नाम सदेहे निस्संगता निम्ममत्तणं । -मिचन्द्रः, गो० जी०, गा०४८४ -जिनदामगणी दशवं० म० ४२,५. १८ शेषाणां पुनरक्षाणां (अर्थप्रकाशः) प्रचतुदर्शनम् । नास्य किन्चनद्रव्यमस्तीत्यकिचनस्तस्यभावोऽकिन्चनना -अमिततिः , पचम०, १, २५० शरीरधर्मापकरणादिष्वपि निर्ममत्वमकिम्च नन्वम् । शेषेन्द्रियज्ञानोत्पादक प्रयत्नानुविद्ध गुणीभून विशेष -हेमचन्द्रः,योगशालम्बी० ०, ४, ६३ मामान्यालोचनमचतुर्दर्शनम् ।। अकिञ्चित्करः (हेत्वाभासः) -यमुनन्दी, मूला०, टी०, १२, १८८ शेषेन्द्रिय नाइन्द्रियावरणक्षयोपशमे सनि बहिरंगद्रव्य[दिग० ल०] न्द्रिय द्रव्यमनोवलम्बनेन यन्मूर्नामूतं च वस्तु निर्विकल्प सिद्धेऽकिञ्चत्करो हेतुः स्वयं माध्यध्यपेक्षया । सत्तावलोकेन यथासम्भवं पश्यति तदचक्षुर्दर्शनम् । ---अकलंकः, प्रमाणमं०, ११ -जयमेनः, पंचाटी, ४२ सिद्धे प्रत्यवादिबाधिते च साध्ये हेतुरकिंचिस्करः ।। स्पर्शनरमनघ्राणश्रोग्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमरवात्स्वकीय - माणिक्यनन्दी, परीक्षा, ६, ३५ स्वकीयबहिरगद पेन्द्रियालम्बनाच्च मूर्त सत्तासामान्य अप्रयोजको हेतर्राकिनिस्करः । -मभपणः, न्या. दी०, ३. १.७ विकल्परहितंपरोक्षरूपेणैकदेशेन यत्पश्यति तदर्शनम -मदेवः, द्रव्यमं० टा०, ४ अकुशलम् [श्व • ल०] [दिग० ल०] शं पेन्द्रियदर्शनं अनयनदर्शनं (गचक्षुर्दर्शनम् ।। भकुशलं दुःम्वहेतुकम्। -भुगन्दी, ग्राममी. व. ८ " चन्द्रमहर्षिः, पंचमं० ३०, गा० १२२ अचक्षुर्दर्शनम् (अचक्खुदंसणं):-- प्रचक्षुर्दर्शनं शेषेन्द्रियोपलब्धिलक्षणम् । [दिग० ल०] - हरिभद्रः, तत्त्या० टी०, २,५ संसिदियप्पयासो णायम्वो सो अच्चक्रव् ति । अचक्षुर्दर्शनं शेपेन्द्रियसामान्योपलब्धिलक्षणम् । - वीरसेनोद्ध तः, धवला, ग्व० १, ग्रा. पृ०, ५४ ---हरिभद्रः, अनुयो• वृ०,१०३ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] जैन लक्षणावली १३३ -जिनसनः, आदि० पु० ३६,४ प. ३६,४ शेषेन्द्रियमनोविषयमविशिष्टमचक्षुर्दर्शनं । (हिंसादिभ्यो) देशतो वितिःणुव्रतम् । --सिद्धसेनगणी, तत्त्वा० वृ० ८,८ -पूज्यपादः, सर्वा०सि० ७,२ प्रचक्षुषा चतुर्वय॑शेषेन्द्रियचतुष्टयेनमनसा च दर्शनं हिमादेर्देशतो विरतिरणुवतम् । सामान्यार्थग्रहणमेवाचक्षुर्दर्शनम् ।। -अकलंकः, तत्त्वा० रा० ७,२ _ --मलधारी हेमचन्द्रः, बन्धश० टी०,गा० २, ३ देशतो हिंसादिभ्योविरतिरणुप्रतम् । प्रचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोदर्शनमचक्षुर्दर्शनम् । -विद्यानन्दः, तत्त्वा० श्लो० ७,२ - -मलयगिरिः, प्रज्ञा० वृ०, पद २३ विरतिः स्थूलहिंसादिदोषेभ्योऽणुव्रतं मतम् । प्रचक्षुषा चतुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनं स्वस्वविषये सामान्यग्रहणमचक्षुर्दर्शनम् । विरतिः स्थूलवधादेमनोवचोकृतकारितानुमतैः। -मलयगिरिः, प्रजा. वृ०, पद २६ क्वचिदपरेऽप्यननुमतैः पञ्चाहिंसाधणुव्रतानि स्युः ॥ मामान्यविशेषात्मके वस्तुनि अचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेपेन्द्रिय -श्राशाधरः, मा० ध० ४,५ मनोभिर्दर्शनं स्वस्वविषयमामान्यग्रहणमचक्षुर्दर्शनम् । तत्र हिसानतस्तेयाब्रह्मकृत्स्नपरिग्रहात् । -मलयगिरिः, पडशी० टी०, गा० १६ देशनोविरतिः प्रोक्तं गृहस्थानामणुव्रतम् ॥ श्रचक्षुषा चक्षुर्वर्जेन्द्रियचतुष्टयेन मनसा वा दर्शनं तद -राजमलः, लाटीम० ४,२४२ तुर्दर्शनम् । " " --पंचाध्यायी, २.७२४ --गोविन्दगणी, कर्मम्नव-टी०, गा०, ६, १० देशतो विरतिरणुव्रतम् । -श्रुतमागरः, तन्वा टी०७,२ श्रचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियचतुष्टयेन मनमा च यदर्शनं श्वल०] म्वस्वविषय-सामान्यपरिच्छेदोऽचक्षुर्दर्शनम् । हिमादिभ्य एकदेशविरतिरणुवतम् । -देवन्द्रः, कर्मवि० टी०, गा० १० -उमाम्बानिः, नत्त्वा भा० ७,२ अचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेपेन्द्रियचतुष्टयेन मनमा च यद् पंच उ अणुव्वयाइं थूलगपाणिवहविरमणाईणि ।। दर्शनं मामान्यांशात्मकं ग्रहणं तद् अचक्षुर्दर्शनम् ।। -उमाम्बातिः, श्राव०प्र० १०६ --देवेन्द्रः, पदा० टी०, गा० १२ अणुव्रतानि स्थूलप्राणानिपानादिविनिवृत्तिरूपाणि । यः मामान्यावबोधः स्याच्चक्षुर्वर्जापरेन्द्रियः । -हरिभद्रः, श्रा०प्र०टी०६ अचक्षुर्दर्शनं तत्स्यान् सर्वेषामपि देहिनाम् ॥ स्थूलप्राणातिपातादिभ्यो विरनिरगुव्रतानि । -विनयविजयः, लोकप्र०, ग्वं० १, पृ० ६२ -हरिभद्रः, धर्मबिन्दुः ३,१६ शंपन्द्रियमनोभिर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनम् । दशतो [हिंसादिभ्यः] विरतिरगुयनम् । ___--यशोविजयः, कर्मप्र० टी०, पृ० १०२ -मद्धमनगगी, तत्त्वा० टी० ७,२ विनि स्थूलहिंसाद्विविधत्रिविधादिना । अणुव्रतम् (अणुव्वयं) अहियादीनि पञ्चायुवनानि जगदुर्जिनाः ॥ [दिगल०] -हेमचन्द्रः, यो० शा० २,१८ प्राणापतिपातवितथव्याहारस्तेयकाममूर्छभ्यः । देशतो विरतिः पञ्चागुवनानि । स्थूलेभ्यः पापेभ्यो न्युपरमणमणुवनं भवति । -हेमचन्द्रः, त्रि० श• पु० च० १,१,१८८ -ममन्तभद्रः, रत्नक० श्रा० ३, ६ अतिचारः (अइयारो)पाणवधमुमावादादत्तादाणपरदारगमहि। दिग-ल०] अपरिमिदिच्छादो वि अ अणुध्वयाई विरमणाई॥ अतिचारो विषयेषु वर्तननम् । -शिवकोटिः, भगव० श्रा०, ८,२०८० -अमितगतिः, भावनाद्वाह Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ अतिचारो वृतशैथिल्यं ईषदसंयमसेवनं च । - वसुनन्दी, मूला० टी० ११,११ मापेक्षस्य वृते हि स्यादतिचारों ऽशभब्जनम् । अतीत्य चरणं विनाशो वा । - चामुण्डरायः, चारि० मा०, १२ स्वयमेव गृहं साधुर्योऽत्रातति संयतः । धन्वर्थवेदिभिः प्रोक्तः सोऽतिथिर्मुनिपुंगवैः ॥ - श्रमितगतिः, सुभा० २० मं० ८१७ — आशाधरः, भग० ग्रा० टी० १.४४ अतति स्वयमेव गृहं संयममविराधयन नाहूतः । न हम्मीति वृतं कुप्यनिःकृपत्वान्न पाति न । यः सोऽतिथिरुद्दिष्टः शब्दार्थविचक्षणैः साधुः ॥ भनक्स्यध्नसंशघातत्राणादतिचरत्यधीः ॥ - मितगतिः, श्रमित० श्रा०, ६,६५ - मेभावी, धर्ममं० श्रा० ६, १५ ज्ञानादिसिद्धयर्थतनुस्थित्यर्थान्नाय यः स्वयम् । [ श्वे० ल० ] यत्नेनातति गेहं वा न तिथिर्यस्य सोऽतिथिः ॥ ४२ ॥ after व्यतिक्रमः स्वलितम् [ चारित्रस्य ] - उमास्वातिः, तत्त्वार्थ भा० ७, १८ तिचारा असदनुष्टानविशेषाः । - श्राशाधरः, सा० ० ४, १८ प्रतिचारो माहात्म्यापकर्षोऽशतो अनेकान्त - हरिभद्रः, श्राव० प्र०टी० ८६ श्रतिचरणान्यतिचाराश्चारित्रस्वलनाविशेषाः । - हरिभद्रः, श्राव० वृ०, गा० ११२ तिचा विराधना देशभङ्गः [ चारित्रस्य ] | मुनिचन्द्रः, धर्म० वृ० ३,२० प्रतिचरणमतिचारो मूलोत्तरगुणमर्यादातिक्रमः । - शान्ति:, धर्मरत्नप्रो० ० ० ६६ प्रतिचारो मालिन्यम् । हेमचन्द्रः, योगशा०० ३,८६ अतिथि (हि) - [दिग०-ल०] यमविनाशयतीत्यतिथिः अथवा नास्य तिथिरम्तीत्यतिथिः अनिश्चितकालगमनः । सर्वार्थमि०, ७. -पज्यपादः, - कलंकः, तत्त्वा० रा० ७.२१ संयममविराधयततीत्यतिथिः । पञ्चेन्द्रियप्रवृत्ताख्यास्तिथयः पञ्च कीर्तिताः । संसारे श्रेयहेतुत्वात्ताभिर्मुक्तोऽतिथिर्भवेत् ॥ و — विद्यानन्दः, तत्त्वा श्र० ७,२१ म संयमस्य वृद्धयर्थमततीत्यतिथिः स्मृतः । - जिनसेनः, हरिवंश प०,५६,१५८ [ वर्ष ३, किरण १ संयममविनाशयनततीत्यतिथि', अथवा नाऽस्य तिथिरस्तीत्यतिथिरनियतकालगमनः । - सोमदेवः, यशस्ति० ८,४१२ - श्राशाधरः, मा० ६० ५,४२ न विद्यते तिथिः प्रतिपदादिका यस्य सोऽतिथिः, अथवा संयमलाभार्थमति गच्छत्युदंडचर्या करोतीत्यतिथिः । - श्रुतसागरः, चारि० प्रा० २५. संग्रममविराधयन् तति भोजनार्थं गच्छति यः सोऽतिथिः श्रथवा न विद्यते तिथिः प्रतिपदद्वितीयावृतीदिका यस्य स श्रतिथिः श्रनियतकालभिक्षागमनः । - श्रुतसागरः, तत्त्वा० टी०, ७,२१ [ श्वे० ल० ] भोजनार्थ भोजनका लोपस्थाय्यतिथिरुच्यते । श्रात्माथनिष्पादिताहारस्य गृहिणो वृती साधुरेवातिथिः । हरिभद्रः श्रा० प्र०टी०, ३२६ श्रतिथिर्भोजनार्थ भोजनकालोपस्थायी | स्वार्थं निर्वर्तमानम्य गृहिवृतिनः साधुरेवातिथिः । "" " - मिसिन गणी तत्त्व टी०, ७, १६ - शोभद्रः हारिन्तत्त्वा०टी०, ७, १६ न विद्यते सततप्रवृत्तातिविशदैका कारानुष्ठानतया तिथ्यादिदिनविभागो येषां ते अतिथयः । -- मुनिचन्द्रः, धर्मविन्दु-वृ० ३६ श्रतिथयो वीतरागधर्मस्थाः साधवः साध्व्यः श्रावकाः श्राविकाश्च । --मुनिचन्द्रः, धर्मविन्दु ३,१८ तथा न विद्यते सततप्रवृत्तातिविशदे काकारानुष्टानतया तिथ्यादिदिनविभागो यस्य सोऽतिथिः । - हेमचन्द्रः, योगशा० ० १,५३ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं० २४६६ ] अवग्रहः (अवग्गहो, उग्गहो)[दिग० ल०] विषय-विषयि सन्निपातसमयानन्तरमाद्यग्रहणमवग्रहः । विषयविषविनिपाते सति दर्शनं भवति तदनन्तरमर्थम्य ग्रहणमवग्रहः । - पूज्यपादः सर्वा०मि० १, १५ - अकलंक: तत्वा० ० १ १३ 99 श्रार्थयोगे ससालोकोऽर्थाकारविकल्पधीः प्रवग्रहः । कलंकः. लघीच ० १, ५ " farयविषयसन्निपातानन्तरमाद्यं ग्रहणमवग्रहः । ܙܕ जैन- लक्षणावली 97 - कलंक: लघीय० वि० १, ५ विद्यानन्दः प्रमा०प०पु०६८ श्रार्थयोगजातवस्तुमात्रग्रहणलक्षणान् । जातं यद्वस्तुभेदम्य ग्रहणं तदवग्रहः ॥ — विद्यानन्दः, तत्त्वा० श्लो०४, १५, २ free विमई संजोगारांतरं हवे शियमा । अवगहणाणं. - नेमिचन्द्रा, गो० ० ३० विपपविषयसन्निपातानंतरभाविम तालोचनपुरःसरो मनु'यत्वाद्यवान्तरसामान्याध्यवसायिप्रत्ययोऽवग्रहः । - वादिराजः, प्रमा० नि०,२०२८ far as जदो मरगीवादस्य जो दु श्रवबोधो । समणेतरादिगहिदे वग्गहो सो हवे शियमा ॥ - पद्मनन्दी, चम्प्र विषय विषयसन्निपातानन्तरमव ग्रहणमवग्रहः । - यमुनन्दी, मूला बु०, १२, १८० श्रवग्रहः, विषयाचसन्निपातानन्तरायग्रहः स्मृतः । चीनी, ग्राचा० भा० ११० इन्द्रियार्थसमवधानसमनन्तरस मुख्यमना लोचनानन्तर भावी सत्तावान्तरजातिविशिष्टवस्तुग्राही ज्ञानविशेषोऽवग्रहः - धर्मभूषणः, न्यायी, २०१६ सन्निपातलचणदर्शनानन्तरमाद्यग्रहणमनग्रहः । । - श्रुनभागः, तच्या टी०, १,१५ त्रियाणं विमईणं मंजोगे दमणं विष्पवदं । गहणाणं - शुभचन्द्रः, श्रम, २,६१ १३.५७ [ श्वे० ल० ] wari श्रोग्गहणम्मि उग्गहो । - भद्रबाहुः श्राव०नि०, गा० ३ यथास्वमिन्द्रियैर्विषयाणामालोचनावधारण-- उमास्वातिः, तत्त्वा० भा०, १, १५ सामण्णत्थावग्गहणमुग्गहो । - निभद्रगणी, विशेषा० सू० १८० उग्गहण मोग्गहो त्तिय अत्थावगमो हवइ सव्वं । -जिनभद्रराणी, विशेषा० भा०, गा० ४०० मामण्णम्स रूवादिविसरहियभ्य निम्स श्रवग्गणमवग्गहो । - जिनवासः, नन्दी० नर्गि: २० (२६) श्रवग्रहणमवग्रहः सामान्यमात्रानिर्दिश्यार्थग्रहणम् । हरिभद्रः नन्दी० ० ६३ रूपादेवग्रहणहरिभद्र:, ग्रा०, २०६ मर्यादया सामान्यस्यानिर्देश्यम्य स्वरूपनामादिकल्पनारहितम्य दर्शनमालोचनं तदेवावधारणमालोचनावधारणं एतदवग्रहो ऽभिधीयते । मवग्रहः । अव्यक्तं मवग्रहः । १३५ सामान्यार्थग्याशेषनिरपेक्षानिर्देश्यम्य हरिभद्रा, नवा० टी०, ४, १७ श्रवणमवग्रहः सामान्यार्थपरिच्छेदः । यद् विज्ञानं स्पर्शनादीन्द्रियजं व्यज्जनावग्रहादनन्तरन्त सामान्यम्यानिर्देश्यस्य स्वरूपकल्पनारहितस्य नामादिकल्पनारहि गम्य च वस्तुनः परिच्छेदकं सोऽवग्रहः । -सिद्ध नराणी, बच्चा० टी० १,१५ श्रवग्रहः सामान्यार्थग्रहणम् अर्थानां रूपादीनां प्रथमं दर्शनानन्तरं ग्रहणं यत्तदवग्रहः । - कोट्याचार्य:, विशेषा० ० ० १७६ दर्शन परिणामं स्वविषयवस्थापनविकल्परूप प्रतिपद्यमानमवग्रहः । श्रभवदेवः सम्मति टी० २,४, ५०५५३ सामान्यार्थम्या शेष विशेषनिरपेक्षस्या निर्देश्यम्य रूपादेः व इति प्रथमती प्रणं परिच्छेदनमनग्रहः । श्रवयवः, स्थान यू. वृ ८, १०२३ प्रार्थयोग दर्शनानन्तरमर्थग्रहणमवग्रहः । हेमचन्द्रः प्रमा० मी०, १,१,२६ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ विषयविषयिसन्निपातानन्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरद- परापेक्षा विना ज्ञानं रूपिणं भणितोऽवधिः । र्शनाज्जातमाघमवान्तरसामान्याकारविशिष्टवस्तुग्रहणम --अमृतचन्द्रः, तत्वा० मा० १,२५ वग्रहः। -वादिदेवमरिः, प्रमा० तत्त्वा०, २, ७ अवहायदित्ति श्रोही सीमाणाणेति । प्रवग्रहणमवग्रहः अनिर्देश्यमामान्यमायग्रहणम् । -- नमिचन्द्रः, गो० जी० ३७.. --मलयगिरिः, व्य०, मू० भा०, ५० २७६ व्यक्षेत्रकालभावैः प्रत्येकं विज्ञायमानदेशपरमसर्वभेद, मात्रावगमः। ----धर्मम हगाटी, 66 भिन्नमवधिज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्तं रूपिद्रव्यविषयम, अनिर्देश्यसामान्यमानरूपार्थग्रहणमित्यर्थः। वधिज्ञानम्। -चामुण्डण्यः,चा० मा०, पृ० ६.. --मल गिरिः, नन्दाम० ७, २६ पृ.० १६८ माशेषपदर्थानां वेदको गद्यतेऽवधिः। तम्मान् (दर्शनात् ) जानमाथं मन्वसामान्यादवा -अमितगतिः, पंचसंग्रहः, १, २२० न्तरैःमामान्याकारैर्मनुष्यन्वादिभिर्जानिविशप विशिष्टस्य अवधीयते व्यक्षेत्रकालभावः परिमीयते इत्यवधिः । वस्तुनो यद्ग्रहणं ज्ञानं नवग्रहः । -अभयचन्द्रः, गो० जी०टी०, ३७० -रलपमः, रत्नकरा० २,७ अवधिर्नामावधिज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमापेक्ष, ,, -गुग्गरत्नः, पडदर्श • टी०, पृ०२०८ या प्रादुर्भावो रूपाधिकरणभावगोचरो विशदावभामा अव ग्रहोऽव्यक्तग्रहणम् । प्रत्ययविशेषः । --वादिगनः, प्रमानि०प० २६ -रत्नशेग्य':, गुरुगु० पट ० प ०४६ पुग्गलमीमहि विदो पच्चकवा मप्पभेद अवही दु। शब्दादीनां पदार्थानां प्रथमग्रहणं हि यन् , ..-पद्मनन्दी, नम्बद्री० प्र०, १३,५३४ (तद् ) अवग्रहः म्यात्... अवधिज्ञानावरणक्षयोपशम सति मूर्त वस्तु यत्प्रत्यक्षण -विनयविनयागी, लोकप्र०, पृ०४६ जानाति तदधिज्ञानम् । अवधिज्ञानम् (ओहिणाणं)-- ___ -- जयमनः, पंचास्ति० टी०, १३, ३ अवधानादवधिः पुद्गलमर्यादावबोधः । (दिगम्बरीय नक्षगान ) -यमुनधी, मूला० टी० १२, १८७ अंतिमवंदनाई परमाणुष्पहुदिमुत्तिदवाई। मृर्तमर्थ मितं क्षेत्रकालभावरवस्फुटम् । मितैर्दधान्यपच्चरखं जाणइ तमोहिणाणत्ति गणायव्वं ॥ वधिबांधः । वाग्नन्दी, याचा मा० १, ३८ यतिबगः, त्रिलोकना अ. ४ अवधिज्ञानावरणीयनवापशमान्मून वस्तु यदेकदेशभवाग्धानादवच्छिन्नविपयाद्वा अवधिः । प्रत्यक्षेण पविकल्पं जानानि तदवधिज्ञानम् । -पज्यपादः, मर्या. नि. १, ६ -ब्रहादेवः, द्रव्यम०टी०.५ अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमाधुभयहेतुमन्निधाने सत्य मर्नद्रव्यालम्बनमवधिज्ञानम् । वधीयतेऽवाग्दधात्यवाग्धानमात्रं वाऽवधिः।। --अकलंकः, तत्ता गा, १,६, -अभयचन्द्रः, लघी०टी०६, ११ अवघ्यावतिविध्वंसविशेषादवधीयते ।। स्वावरणक्षयोपशमे सत्यधोगनं बहनरं द्रव्यमवच्चित्रं येन स्वार्थावधानं वा सोऽवधिनियतः स्थितिः ॥ वा नियतं रूपिदव्यं धीयते व्यवस्थाप्यतेऽनेनेत्यवधिM. __-विद्यानन्दः, तत्या, ती, ५, ६, ५, ख्यदेशप्रत्यत्वज्ञानविशेषः । अवहीयदित्ति पोहो सीमाणाणेनि। --अाशाधरः, अनगार० टी०, ३०४ -वीरमेनः, धवला. नीव • श्रा०प०५१ अवधीयते द्रव्यक्षेत्रकालभावैः परिमीयते इत्यवधिः, यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणाव- यत्ततीयं सीमाविषयं ज्ञानं तदिदमवधिज्ञानम् । बुध्यते तदनधिज्ञानम् । -अमृतचन्द्रः, पनाल्टी० ४१ -केशववर्णा, गो जीवन्टी., ३० Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातिक, वीर निर्वाण सं० २४६६] जैन-लक्षणावली १३७ अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमाद्वीर्यान्तरायक्षयोपशमसहकृ. अवधिज्ञान-इन्द्रियमनोनिरपेक्षमात्मनो रूपिद्रव्यताज्जातं रूपिद्रव्यमात्रविषयमवधिज्ञानम् । राक्षास्करणम्। -धर्मभूषणः, न्या. दी० २, पृ० ३६ - अभयदेवसरिः, स्थानाङ्गमत्र वृ०२,१६४, पृ०४६ अवधानं अवधिः अधस्ताद्बहुतरविषयग्रहणादवधि- अवधिज्ञानं अवधिना मर्यादया रूपिद्रव्यलक्षणया रुच्यते, अवच्छिन्नविषयत्वाद्वाऽवधिः, रूपित्वलक्षणविव- ज्ञानमवधानं वा अवधिरुपयोगपूर्वकम् । वितविषयत्वाद्वाऽवधिः। श्रुतमागरः,श्रुतमा०टी०,१, ६ -जिनेश्वरमरिः, प्रमाल० टी०३ अवधीयते द्रव्यक्षेत्रकालभावेन मर्यादीक्रियते अवा- अवधिज्ञानावरणविलयविशेषसमुद्भवं भवगुणप्रत्यय ग्धानं अवधिः, अधस्ताबहुतरविषयग्रहणादवधिः। रू.पद्रव्यगोचरमवधिज्ञानम। -शुभचन्द्रः, कार्तिकेया प्रे० टी०,२५७ -वादिदेवमगिः, प्रमा०तत्वा०२,२१ भवगुणपच्चयविहियं ग्रोहीणाणं तु अवहिगं समये। अवधिना रूपिद्रव्यमर्यादात्मकेन ज्ञानमवधिज्ञानम । सीमाणाणं रूवीपदत्थसंघादपच्चक्वं ॥ -मलधारी हेमचन्दः, अनु० टी० पृ० २ ...शुभचन्द्रः अंगा, २, ६६ अवधिज्ञानस्यावरणविलयस्य तारतम्ये भावरणक्षयो[ श्वेताम्बरीय लक्षणानि ] पशमविशेपे तन्निमित्तकोऽवधिरवधिज्ञानम् । अवधीयते अवधीयते अधोऽधो विस्तनं ज्ञायते इति अवधिः इति अवधिः मर्यादा मा च रूपववग्यविषया अवध्य अवधिरेव ज्ञानमवधिज्ञानम् । पलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः। ___--चन्द्रर्पिः, पंचम स्वो टी०, ५, ५ --हेमचन्द्रः, प्रमा०मी०टी०,१,१,५८ अमूर्तपरिहारेण माक्षान्मन विषयमिन्द्रियानपेक्ष मनः- अव अधोऽधोविस्तृतं रूपिवस्तुजातं धायने-परिच्छिन्ने प्रणिधानवार्यकमवधिज्ञानम् । ऽनेमाम्मिनस्मा द्वेस्यवधिः-- नवावरणक्षयोपशमस्तबेतुकं .. हरिभद्रः तत्वा० टी० १.१ ज्ञानमभ्युपचारादवधिः यदा श्रवधानमवधिः-रूपिद्रव्य अधोविस्तृतविषयमनुत्तरोपपादिकादीनां ज्ञानमवधि- मर्यादया परिच्छेदनम्,अवधिश्चामी ज्ञानं चेनि अवधिज्ञानम् । अथवा अवधिः मर्यादा अमूर्तद्रव्यपरिहारेण ज्ञानम् । मलयांगांरः, धर्ममयटणा टा०, गा०८१६ मूर्तिनिबन्धनन्वादेव तस्यावधिज्ञानत्वम् । तच्च चन- अव अधोधो विस्तृतं वस्तु धायने परिच्छचनेऽनेनेत्यमप्वपि गनिष जन्तनां वर्तमानानामिन्द्रियनिरपेक्षं वधिः,अथवा अवधिः मर्यादा रूपि वेव द्रव्य परिच्छेदकमनः प्रणिधानवीर्यकं प्रति विशिष्ट क्षयोपशमनिमित्तं तया प्रवृत्तिरूपा नदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः, यद्वा पुद्गलपरिच्छेदि देवमनुष्यनिर्यकनारकस्वामिकमव- अवधानं प्रारमनोऽर्थमाक्षात्करणब्यापाराऽवधिः, भवधिविज्ञानमिति । अवधिश्च स तज्ज्ञानं च तदित्यवधि- श्चासी ज्ञानं च अवधिज्ञानम् । ज्ञानम् । ...मिदमनगगी, नत्या० टी०, १, ६ --मन यांमार, ग्रा० म० टी० गा० ५ अन्तर्गतबहुनरपुद्गलद्रव्यावधानादधिः पुद्गलद्रव्य प्रजापना गु०, पद २६ मर्यादयव वाऽऽरमनः क्षयोपशमजःप्रकाशाविर्भावोऽवधिः मनानका टी०,६ इन्द्रियनिरपेक्ष माक्षात जयग्राही लोकाकाशप्रदेशमान पटगीनि-टीका, गा० १५ प्रकृतिभेदः । --भिमनगगी, तत्वा० टी०८, ७ अव-अधोऽधी वस्तु धायने-परिच्छिय नेऽनेनेत्यवाषिः, रूपिद्रव्यग्रहणपरिणनिविशेषन्तु जीवस्य भवगुण- यद्वाऽवधिः मर्यादा रूपिय द्रव्येषु परिच्छपकतया प्रन्ययावधिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमप्रादुर्भूतो लोचना- प्रवृत्तिरूपा नदु पक्षिनं ज्ञानमप्यधिः अवधिरचासी दिबाह्यनिमित्त निरपेतः अवधिज्ञानमिति । ज्ञानं च अवधिज्ञानम्। ---यभामरा, मम्मति० टी० २, ३० -श्रीसिद्धमनमांग, प्रथा नाग टी० ए० ३६१ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ अनेकान्त वर्ष ३, किरण १ प्रवधानमवधिरिन्द्रियाचनपेचमात्मनः साचादर्थग्रह- रूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमपि अवधिः अवधिश्च तज्ज्ञानं णम् । अवधिरेवज्ञानमवधिज्ञानम् । अथवाऽवधिर्म- चावधिज्ञानम् । –देवेन्द्रः, कर्मवि० टी० ४ र्यादा नेन अवधिनारूपि द्रव्यमर्यादात्मकेन ज्ञानम ,, पडशी० टी० ११ वधिज्ञानम् । -गोविन्दगणी, कर्मस्तव टी० गा० ६,१० अवधानं स्यादधिः, साक्षादर्थविनिश्चयः । अव अधोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते परिच्छिद्य तेऽनेने अवशब्दोऽव्ययं यद्वा, सोऽधः शब्दार्थवाचकः ॥३५॥ स्यवधिः । यद्वाऽवधिर्मर्यादा रूपिद्रव्येषु परिच्छेिदक- अधोधो विम्तनं वस्तु, धीयते परिबुध्यते । तथा प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः। अनेनेत्यवधिर्यद्वा, मर्यादावाचकोऽवधिः ॥३६॥ --परमानन्दः, कर्मविपाक व्याख्या, गा०१५ मर्यादा रूपिद्रव्येषु, प्रवृत्ति त्वरूपिषु । अवधीयतेऽनेनेत्यवधिः स च ज्ञानं चेति अवधिज्ञानम् तयोपलक्षितं ज्ञानमवधिज्ञानमुच्यते ॥३७॥ उत्पत्रानुत्पन्न विनष्ठार्थग्रहकं त्रिकालविषयं अनुगाम्या --विनयविजयः,लोकप्र०, ग्वं० १, प०५३ दिपडभेदभिन्नं अवधिज्ञानम् । सकलरूपिद्रव्यविषयकजातीयमात्ममात्रापेक्षं ज्ञानमव-रत्नशेग्वरः, गुरुगु० पट०, ३३ धिज्ञानम् । ..-यशोविजयः, जैनतर्कपरि०, परि०५ अवधानमव धः इन्द्रियायनपेक्षमात्मनः साक्षादर्थ- अवधिज्ञानत्वं रूपिममव्याप्यविषयताशालिज्ञानवृत्ति ग्रहणम् । अथवा अवशब्दोऽधः शब्दार्थ अव अधोधो ज्ञानत्वव्याप्य जानिमत्वम् ।। विस्तनं वस्तु धीयते -परिच्छिद्यतेऽनेनेति अवधिः, यद्वा -यशाविनयः, ज्ञानविन्दुः प० १८३ भवधिर्मर्यादा रूपिण्येव द्रव्येषु परिच्छेदकनया प्रवृत्ति - जतिमा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'धवलादि-श्रुत-पारचय' का शेषांश (पृष्ठ १६ से आगे) प्राचार्य परम्पगस चलकर श्रार्यमंतु और नागहस्ती यहाँ पर मैं इतना और भी बनलादेना चाहता हूँ नामके श्राचार्योको प्राम हुई। इन दोनों श्राचार्योंके कि धवला और जयभवलामें गौतमस्वाभीस अानारांगपाममे गुणधगचार्यको उक्त गाथाश्रोंके अर्थको भन्ने धारी लोहाचार्य तक श्रुतधर प्राचार्योंकी एकत्र गपकार सुनकर यतिवृपभाचार्यने उन पर चर्णि-मूत्रीकी गना कर के और उनकी मढ़ काल-गणना ६८३ वर्षकी पना की, जिनकी मंग्या छह हज़ार श्लोक परिमाण देकर उसके बाद धग्भन और गुणधर प्राचार्योंका है। इन चूर्णि-सूत्रोंको माथमे लेकर ही जयभवन्ना-टीका नामोल्लेग्य किया गया है, माथमं इनकी गुरुपरम्पराका की रचना हैई है, जिसके प्रारम्भका एक तिहाई भाग कोई ग्वाम उल्लेग्य नहीं किया गया और इस तरह । २० हजार श्लोक-परिमाण ) वीरसेनाचार्यका और इन दोनों प्राचार्योका ममय वीरनिर्वाणम ६८३ वर्ष शंप ( ४० हज़ार श्लोक-परिमाण ) उनके शिष्य जिन बाटका मूचित किया है । यह सूचना ऐतिहासिक दृष्टिम मनाचार्यका निम्बा हुआ है। कहां नक ठीक है अथवा क्या कुछ अापत्तिके योग्य है ___ जयधवलामं चर्णिमूत्रों पर लिग्वे हा उच्चारणा उसके विचारका यहाँ अवसर नहीं है । फिर भी इतना चार्यकै निमत्रोंका भी कितना ही उल्लेग्य पाया ज़रूर कह देना होगा कि मृल मत्रग्रंथाको देग्यत हुए गना है परन्तु उन्हें टीकाका मुग्न्याधार नहीं बनाया टीकाकारका यह गृचन कुछ टिपणं अवश्य जान गया है और न मम्पर्ग वत्ति मूत्रोंको उद्धन ही किया पड़ता है. जिमका स्पष्टीकरण फिर किमो समय किया जान पड़ता है, जिनकी मंच्या इन्द्रनन्दि श्रुनावताग्में जायगा। १२ हजार श्लोक परिमाण बतलाई है। ___ इस प्रकार मंक्षेपमें यह दो सिद्धान्तागमंकि अब भाषा और माहिन्य-विन्याम नाको कथा है, जिनके अाधारपर फिर किननं ही ग्रंथों की रचना हुई है। इसमें इन्द्रनन्दिकं श्रुनावनाग्म अनेक दोनो मूल मूत्रग्रंथों - पटग्वण्टागम और कपायअंशोंमें कितनी ही विशेपना और विभिन्नना पाई जानी पाभनकी भाषा मामान्यतः माकृत और विशेषरूपम है, निमकी कुछ मुग्व्य मुग्व्य बानोका दिग्दर्शन, तुलना. जैन शोर मनी है नथा श्रीकुन्दकुन्दाचार्य के प्रथाको स्मक दृष्टिम, इम लेग्बक फुटनोटोंमें कगया गया है। भापास मिली-जुलती है । पढग्यण्डागमकी रचना प्रायः इन्द्रनन्दि चुनावतार में लिम्वा है कि 'गुणधरा- ४ इन्द्रनन्दिने ना अपने भुनावतारमें यह स्पष्ट चार्यने इन गाथासूत्रोंको रचकर म्वयं ही इनकी ज्या ही लिम्ब दिया है कि इन गुणधर और धरपनाचार्यको ख्या नागहम्नी और प्रार्थमंचुको बनलाई।' इसमें गुरुपरम्पराका हाल हमें मालूम नहीं है क्योंकि उसको ऐतिहासिक कथनमें बहुत बड़ा अन्तर पड़ जाता है। बननाने वाले शाबों नया मुनि जनों का प्रभाव है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'धवलादि-श्रुत-पारचय' का शेषांश __ (पृष्ठ १६ से आगे) प्राचार्य-परम्परासे चलकर श्रार्यमंतु और नागहस्ती यहाँ पर मैं इतना और भी बतलादेना चाहता हूँ नामके श्राचार्योको प्राप्त हुई।। इन दोनों श्राचार्योंके कि धवला और जयधवलामें गौतमस्वामीसे आचारांगपामसे गुणधराचार्यकी उक्त गाथाश्रोंके अर्थको भले धारी लोहाचार्य तकके श्रुतधर श्राचार्योंकी एकत्र गप्रकार सुनकर यतिवृषभाचार्यने उन पर चूर्णि-सूत्रोंकी गना करके और उनकी रूढ़ काल-गणना ६८३ वर्षकी रचना की, जिनकी संख्या छह हज़ार श्लोक-परिमाण देकर उसके बाद धरसेन और गुणधर श्राचार्योका है। इन चर्णि-सूत्रोंको साथमे लेकर ही जयधवला-टीका नामोल्लेख किया गया है, साथमें इनकी गुरुपरम्पराका की रचना हुई है, जिमके प्रारम्भका एक तिहाई भाग कोई ग्वाम उल्लेग्य नहीं किया गया ® और इस तरह ( २० हज़ार श्लोक-परिमाण ) वीरसेनाचार्यका और इन दोनों श्राचार्योंका ममय वीर-निर्वाणसे ६८३ वर्ष शेष (४० हज़ार श्लोक-परिमाण ) उनके शिष्य जिन- बादका सूचित किया है । यह सूचना ऐतिहासिक दृष्टिसे मनाचार्यका निग्या हुआ है। कहां तक ठीक है अथवा क्या कुछ आपत्तिके योग्य है जयधवलामें चणि सूत्रों पर लिखे हुए उच्चारणा- उमके विचारका यहाँ अवमर नहीं है । फिर भी इतना चार्य के वृनि सूत्रोंका भी कितना ही उल्लेग्य पाया ज़रूर कह देना होगा कि मूल सूत्रग्रंथीको देवते हुए जाता है परन्तु उन्हें टीकाका मुख्याधार नहीं बनाया टीकाकारका यह सूचन कुछ त्रुटिपूर्ण अवश्य जान गया है और न सम्पर्ण वृत्ति-सूत्रोंको उद्धृत ही किया पड़ता है, जिमका स्पष्टीकरण फिर किमो समय किया जान पड़ता है, जिनकी संख्या इन्द्रनन्दि श्रुतावतारमं । जायगा। १२ हज़ार श्लोक परिमाण बतलाई है। इम प्रकार संक्षेप में यह दो सिद्धान्तागमोके अव- भाषा और साहित्य-विन्यास तारको कथा है, जिनके आधारपर फिर कितने ही ग्रंथों की रचना हुई है । इसमें इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे अनेक दोनो मूल मूत्रग्रंथो .. 'पटवण्डागम और कषायअंशोंमें कितनी ही विशेषता और विभिन्नता पाई जाती प्राभतकी भाषा मामान्यतः माकृत और विशेषम्पमे है, जिमकी कुछ मुग्न्य मुग्व्य बातोंका दिग्दर्शन, तुलना- जैन शौरसेनी है तथा श्रीकृन्दकुन्दाचार्यके ग्रंथोंकी त्मक दृष्टिस, इम लेखके फुटनोटोंमें कराया गया है। भाषा मिलनी-मुल्लनी है । पटवण्डागमकी रचना प्रायः इन्द्रनन्दि भुतावतार में लिखा है कि 'गुणधरा- इन्द्रनन्दिने तो अपने श्रुनावतारमें यह स्पर चार्यने इन गाथासूत्रोंको रचकर म्वयं ही इनकी न्याः ही लिख दिया है कि इन गुणधर और धरमेनाचार्षकी ख्या नागहस्ती और भार्यमंधुको बतलाई।' इसमें गुरुपरम्पराका हाल हमें मालूम नहीं है क्योंकि उसको ऐतिहासिक कथनमें बहुत बड़ा अन्तर पर जाता है। बतखाने वाले शाखों गथा मुनि-जनों का प्रभाव है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ गद्य सूत्रोंमें ही हुई है। परन्तु कहीं कहीं गाथा सूत्रोंका बिना नामके ही । ऐसी गाथाएँ बहुतसी 'उकं च' रूपसे भी प्रयोग किया गया है। जब कि कषायप्राभूतकी उद्धृत हैं जो गोम्मटसार' में प्रायः ज्योंकी त्यों तथा कहीं संपूर्ण रचना गाथा-सूत्रोंमें ही हुई है । ये गाथा- कहीं कुछ थोड़ेसे पाठ-भेदके साथ उपलब्ध होती हैं । सूत्र बहुत संक्षिप्त है और अधिक अर्थ के संसूचनको और चूंकि गोम्मटसार धवलादिकसे बहुत बादकी कृति लिये हुए हैं । इसीसे उनकी कुल संख्या २३३ है इसलिये वे गाथाएँ इस बातको सूचित करती हैं कि होते हुए भी इनपर ६० हज़ार श्लोक-परिमाण टीका धवलादिकी रचनासे पहले कोई दूसरा महत्वका सिद्धान्त लिखी गई है। ग्रंथ भी मौजूद था जो इस समय अनुपलब्ध अथवा धवल और जयधवलकी भाषा उक्त प्राकृत भाषाके अप्रसिद्ध जान पड़ता है । ऐसा एक प्राचीन ग्रन्थ अभी अतिरिक्त संस्कृत भाषा भी है-दोनों मिश्रित हैं—दोनों उपलब्ध हुश्रा है, जिसकी वीरसेवामन्दिर में जाँच हो में संस्कृतका परिमाण अधिक है। और दोनोंमें ही रही है, वह ग्रंथकर्ताके नामसे रहित है। इस प्रकार उभय भाषामें 'उक्त च' रूपसे पय, गाथाएँ तथा गद्य- यह धवल और जयधवलका संक्षेप में सामान्यप रिचय है। वाक्य उदधृत हैं-कहीं नामके साथ और अधिकांश वीरसेवामन्दिर, सरमावा, ता० २०-११ १६३६ आवश्यक निवेदन निश्चित समय पर प्रकाशित करनेके लोभको सँवरण न कर मकने के कारण १५० पृष्ठ के बजाए इस विशेषांक में १४० पृष्ठ ही दिए जासके हैं । इम विवशताको लिए सहृदय पाठकोंके प्रति हम कुछ अपराधी ज़रूर हैं फिर भी इन दस पृष्ठोंकी पर्ति दूसरी किरणमें कर देनेकी आशा रखते हैं । विलम्बके ही भयसे इस किरणमें ऐतिहासिक जैन-व्यक्ति कोष, मम्पादकीय तथा अन्य आवश्यकीय उपयोगी लेख भी नहीं दिये जासके है । यदि कोई बाधा उपस्थित न हुई तो ऐतिहासिक जैन-व्यक्ति कोषको-जो पाठकों के लिए बहुत ही मननीय और अाकर्षक लेखमाला होगी--द्वितीय किरणसे क्रमशः प्रारम्भ करनेकी भावना है। धवलादि श्रुत परिचयके ८ पृष्ठके बजाए १६ पृष्ठ के करीब इस किरणमें जारहे हैं और इस लेखमालाको भी स्थायी रूपमें क्रमशः देनेका विचार है । हमें हर्ष है कि हमारी इन योजनाओंका सहर्ष स्वागत हुआ है। जैन लक्षणावलीके ८ पृष्ठ नमूने के तौर पर अन्तमें दिए गए हैं उससे पाठकोंको विदित होगा कि वीर सेवा मन्दिर में कितना महत्वपूर्ण और स्थायी ठोस कार्य हो रहा है। अब यह अनेकान्तमें प्रकाशित न होकर पुस्तक रूपमें कई खण्डोंमें प्रकाशित होगी। अनेकान्तको इस द्वितीय वर्ष में जो भी सफलता प्राप्त हुई है उसका सब श्रेय उन आदरणीय लेखकों, जैनेतर संस्थानोको अनेकान्त भेट स्वरूप भिजवाने वाले दातारों, ग्राहकों और पाठकोंको है। उन्हीं के सहयोग और श्रमका यह फल है। हम भी उनकी इस महती कृपाके कारण अनेकान्तकी कुछ सेवा कर सकने में अनेक त्रुटियां होने पर भी अपनेको समर्थ पाते हैं ।। --व्यवस्थापक Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर प्रभुकी वाणी परम उपास्य अखिल-जग-नारनको जल-यान । व हैं परम उपाम्य. मोह जिन जीत लिया ॥ध्र व॥ " ! " प्रकटी. वीर. तुम्हारी वाणी, जगमें सुधा ममान ॥१॥ ... काम-क्रोध-मद-लोभ पछाड़ मुभट महा बलवान । अनकान्तमय, म्यात्पद लांछित, नीति न्यायकी खान । माया-कटिल नीति नागनि हन किया आत्म-संत्राण ।।। सब कवादका मूल नाशकर. फैलाती मत ज्ञान ॥२॥ जान-ज्योनिम मिथ्यातमका जिनकं हुआ विलोप। नित्य-अनित्य अनेक-एक इत्यादिक वादि महान । गग ढपका भिटा उपद्रव,रहा न भय ा शोक ॥२॥ नत-मस्तक हो जातं सम्मुख. छोड़ सकल अभिमान। डान्द्रय-विषय-लालसा जितकी रही न कुछ अपशंन । जीव-अजीव-तत्त्व निर्णय कर, करनी मंशय-हान । नष्णा नदी मुखादी मारी, धर अमंग व्रत वेप ।।३॥ माम्यभाव रम चखते हैं जो, करतं इसका पान ॥१॥ दुग्य उद्विग कर नहिं जिनको मुख न लुभावें ।चन । ऊंच, नाच ऑ, लघुमुदीर्घका. मंद न कर भगवान । आत्मम्प मनुष्ट, गिनें मम निधन और मवित्त ॥४॥ सबक हितको चिन्ता करती. सब पर दृष्टिममान ||५ निन्दा पनि सम लवें बने जो निष्प्रभाद निप्पाप । अन्धी श्रद्दाका विरोध कर. हरती सब अज्ञान । माम्यमावरम-आस्वादनमे मिटा हृदय-मन्ताप ॥५।। यनि-वादका पाठ पढ़ाकर. कर दंती मज्ञान ॥३॥ अहकार-ममकार-चक्रम निकनं जो धर धीर । ईश न जगकर्ता फलदाता, मयं सृष्टि-निर्माण । निधिकार- निर हुए. पी विश्व प्रेमका नार ॥६॥ निज-उत्थान-पतन निज-करमें. करनी यो मुविधान ।।७ माध श्रात्महित जिन वीगेने किया विश्व-कल्या-ग। हृदय बनानी उच्च. मिनाकरः धर्म मुदया-प्रधान । 'यगमुमुन' उनको निन ध्यावं. छोड़ मकल अभिमान जो नित ममझ आदरें इमको. व 'युग-चार' महान : - युगवार यगीर 'वीरसेवामन्दिर-ग्रंथमाला' को सहायता हालमें वीरमवामन्दिर मरमावाको जो महायना प्राप्त हुई है उममें श्रीमान बाब छोटेलाल जी जैन रईम कलकत्ताका नाम म्याम तीरम उल्लंम्बनीय है। आपने ५००) ० की एक मुश्न महायता 'बीर मेवान्दिर-ग्रंथमाला को प्रदान की है, और इम नरह आप ग्रंथमालाकं 'स्थायी महायक' बने हैं। माथ ही कुछ दिन बाद आपने अपने मित्र बाब ग्ननलालजी झाँझरी कलकनाम भी ५००)म० की महायता प्राप्त करके भंजी है । इमलिय श्राप और आपके उक्त मित्र दोनों ही हार्दिक धन्यवादकं पात्र हैं । आशा है दृमा मजन भी आपका अनुकरण करंग, और इस तरह ग्रन्थमालाकं हम पुण्यकार्यमें श्रावश्यक प्रोत्माहन नथा प्रानं जन प्रदान कर यशकं भागी होग। -अधिष्ठाना 'वीरसंचामन्दिर' मरमाथा जि. महारनपुर Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. L. 4328 ला ! गैरियतकं परदे इकबार फिर उठादें । बशरने खाक पाया लाल पाया या गुहर पाया । बिछुड़ों को फिर मिलादें नक्शे दुई मिटादें । मिज़ाज अच्छा अगर पाया तो सबकुछ उसने भरपाया। ॐ दुनियाँके तीर्थों से ऊँचा हो अपना तीरथ । रगोंमें दौड़ने फिरनेके हम नहीं कायल । दामाने आस्माँसे उसका कलस मिलादे ॥ जो आँख ही से न टपका वह लहू का है ॥ हर सुबह उठके गाएँ मनतर वो मीठे मीठे । सारे पुजारियोंको मय पीतकी पिलादें ॥ चन्द दिन है शानोशौकतका खुमार । र शक्ति भी शान्ति भी भगतोंके गीतमें है। मौनकी तुशी नशा देगी उतार ॥ M धरतीके वासियों की मुक्ति प्रीत में है ॥ जब उठाएँगे जनाज़ा मिलके चार । -इकबाल हाथ मल मलकर कहेंगे बार बार ॥ कमाले बुज़दिली है पस्त होना अपनी आँखोंम। किस लिए आए थे हम क्या कर च । अगर थोड़ी सी हिम्मत हो तो फिर क्या हो नहीं सकता। जो यहाँ पाया यहीं पर धर चले ॥ * उभरने ही नहीं देती हमें बे माइगी दिलकी । -अज्ञात् B नहीं तो कौन क़तरा है जो दरिया हो नहीं सकता। जो मौत आती है आए. मर्दको मरनेका ग़म कैसा ? 3 हविस जीनकी है, दिन उम्रक बेकार कटते हैं। इमारतमें खुशीकी दफ्तरे रंजो अलम केमा ? जो हमसे जिन्दगीका हक़ अदा होता तोक्या होता ? -अहमान 3 अहले हिम्मत मंजिले मकसूद तक आ भी गये। कह रहा यह आस्माँ यह सब समाँ कुछ भी नहीं। 8 बन्दए तकदीर किस्मतसे गिला करते रहे । पीस दूंगा एक गर्दिशमें जहाँ कुछ भी नहीं। जिन्दगी यूं तो फ़क़त बाज़िए तिफ़लाना है । कह रहा यह आस्मां कि कुछ समयका फेर है। मर्द वो है जो किसी रंगमें दीवाना है। पापका घट भर चुका अब फटनेकी दर है ॥ ---चकवस्त जिनके महलोंमें हज़ारों रंगके फ़ानस थे । जो नस्ल पुर समर हैं उठाते वो सर नहीं। झाड़ उनकी कनपर बाकी निशा कुछ भी नहीं। सरकश हैं वो दरख्त कि जिनपै समर नहीं ॥ जिनकी नौवतकी सदासे गँजते थे श्रास्मौ । उस बोरिया नशीका दिली मैं मुरीद हूँ । दम बखुद हैं मत्राबरों में हूँ न हो कुछ भी नहीं । जिसके रियाजे जुहदमें पए वफ़ा नहीं ॥ --अज्ञात --अज्ञात जिनके हंगामोंसे थे आबाद वीराने की। जान जाए हाथसे जाए न सत्त । शहर उनके मिट गए आवादियाँ बन होगई ॥ है यही इक बात हर मज़हबका तत्त ।। -- 'इकबाल' -क्रयाल 'वीर प्रेस श्रॉफ इण्डिया' कनॉर सर्कस न्य देहली में छपा । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । मार्गशीर्ष वर्शन- २४६३ अनेकान्त मार्गशीर्ष, वीरनिःमः२४७६ । वर्ष ३, किरण २ वार्षिक मूल्य ३० दिमम्बर १९३९ TTANT H RANS Sonam ESTHA HTT 16 A . S ma NAV time Forsen Tee INSIDY.ONDONTONOTOA11iSL.Cre ODOGGAGADIOHINOOTOGAND सम्पाटक--- मंचालक-- गुगलकिशोर मुग्नार ननमुखमय जैन अधिष्ठाता वार-मेवामन्दिर मरमावा (महारनपुर) कनाट मकम पी० ब० नं०४८ न्य देहली। - MONCHONOW.NUOHONONOLIGONON SONONOPOLDOMO TOYONOROEIC MOVE महक और प्रकाशक-अयोध्याप्रमाद गोयन्तीय । Fore7OFG PresceNFOSH Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विषय सूची * 10m . १. अकलंक-स्मरण २. बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में दीक्षा [प्रो० जगदीशचन्द्र एम. ए. ३. राग [श्रीमद् राजचन्द्र ४. विधवा सम्बोधन ( कविता )-[श्री० 'युगधीर' ५. बंगीय विद्वानोंकी जैन माहित्यमें प्रगति [ श्री० अगरचन्द नाहटा ६. अहिंसाकी कुछ पहेलियाँ [श्री० किशोरलाल मशरूवाला ७. ऊँच-नीच-गोत्र विषयक चर्चा [श्री० बालमुकन्द पाटोदी ८. अनुपम क्षमा [श्रीमद् राजचन्द्र ६. श्वेताम्बर न्याय माहित्य पर एक दृष्टि [पं. रत्नलाल मंघवी १०. गोत्रविचार [ सम्पादकीय ११. बुद्धि हत्याका कारग्वाना [ग्रहस्थसे उद्धृत १२. साहित्य परिचय और समालोचन [मम्पादक १६५ MI .. अनेकान्तकी फाइल अनेकान्तके द्वितीय वर्षकी किरणोंकी कछ फाइलोकी माधारण जिल्द बंधवाली गई हैं। १२वीं किग्गा कम हो जाने के कारण फाइलें थोड़ी ही बन्ध सकी हैं। अतः जो बन्ध पस्तकालय या मन्दिरीम भेंट करना चाहं या अपने पाम रखना चाह वे २॥) 5. मनिबार्डरस भिजवा दंगे तो उन्हें मजिल्द अनकान्तकी फाइल भिनवाई जा सकेगी। जो सजन अनेकान्तके ग्राहक हैं और कोई किरण गुम हो जाने के कारण जिल्द बन्धवाने में असमर्थ हैं उन्हें १२वीं किरण छोड़कर प्रत्येक किरण के लिये चार आना और विशेषांक के लिए प्राट याना भिजवाना चाहिए तभी श्रादेशका पालन हो सकेगा। -व्यवस्थापक क्षमा-याचना सम्पादक जीके अस्वस्थ रहने के कारण 'धवलादि श्रुन परिचय' और 'ऐतिहासिक जैन व्यक्ति कोप' लेग्व ममय पर न मिलने के कारण हम किरगण में नहीं दिये जा सकते है । अाशा है इम विवशताके लिये क्षमा दी जायगी। -व्यवस्थापक Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम् III.IN. E 17 24CE A ". तार नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ । सम्पादन-स्थान-चीरसंवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), मरमावा, जि. सहारनपुर प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० ब० नं० ४८, न्यू देहली मार्गशीर्ष-पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम मं० १६६६ । किरण २ - प्रकलंक-स्मरणा श्रीमद्भट्टाऽकलंकस्य पातु पुण्या सरस्वती । अनकान्त-मरुन्मार्गे चन्द्रलेखायितं यया ॥ -ज्ञानार्थवे, श्रीरामचन्द्राचार्यः __ श्रीसम्पन्न भट्ट-अकलंकदेवकी वह पुण्या सरस्वती-पवित्र भारती-हमारी रक्षा करो-हमें मिथ्यात्वरूपी गर्त में पड़नेस बचानी-जो अनेकान्तरूपी श्राकाशमं चन्द्रमाके ममान देदीप्यमान है-मर्वोत्कृष्टरूपसे वर्तमान है। भावार्थ-श्री अकलंकदेवकी मंगलमय वचनश्री पद पद पर अनेकान्तरूपी मन्मार्गको व्यक्त करती है और इस तरह अपने उपासकों एवं शरणागतोंको मिथ्या-एकान्तरूप कुमार्ग पर लगने नहीं देती। अतः हम उस अकलंक सरस्वतीकी शरण में प्राप्त होते हैं, वह अपने दिव्य-तेज-द्वारा कुमार्गसे हमारी रक्षा करो। जीयात्समन्तभद्रस्य दवागमनसंझिनः । स्तोत्रस्य भाष्यं कृतवानकलको महर्दिकः ।। -नगर-ताम्बुक, शिमोगा-शिलेवन.१६ स्वामी समन्तभद्रके 'देवागम' नामक स्तोत्रका जिन्होंने भाष्य रचा है-उसपर 'अष्टशती' नामका विवरण लिखा है-वे महाऋद्धिके धारक अकलंकदेव जयवन्त हों-अपने प्रभावसे सदा लोकहृदयोंमें व्याप्त होवें । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ भनेकान्त शीर्ष, वीर-निर्वाय सं०२४६६ अकलकगुरु यादकलंकपदेश्वरः । बौद्धानां बुद्धि-वैधव्य-दीक्षागुरुरुदाहृतः ॥ -हनुमचरिते, ब्रह्मभजितः जो बौद्धोंकी बुद्धिको वैधव्य-दीक्षा देनेवाले गुरु कहे जाते है जिनके सामने बौद्धविद्वानोंकी बुद्धि विधवाजैसी दशाको प्राप्त होगई थी, उसका कोई ऐसा स्वामी नहीं रहा था जो बौद्ध-सिद्धान्तांकी प्रतिष्ठाको कायम रख सके-वे अकलंकपदके अधिपति श्री अकलंकगुरु जयवन्त हो-चिरकाल तक हमारे हृदयन्दिर में विराजमान रहें। तभूवल्लभो देवः स जयत्यकलंकधीः । जगद्व्यमुषो येन दण्डिताः शाक्यदस्यवः ।। -पार्श्वनाथचरिते, वादिराजसरिः जिन्होंने जगत्के द्रव्योंको चुरानेवाले-शून्यवाद-नैरात्म्यवादादि सिद्धांतोंके द्वारा जगतके द्रव्योंका अपहरणकरनेवाले, उनका प्रभाव प्रतिपादन करनेवाले–चौद्ध दस्युनोंको दण्डित किया, वे अकलंकबुद्धिके धारक तर्काधिराज श्रीअकलंकदेव जयवन्त हैं-सदा ही अपनी कृतियोंसे पाठकोंके हृदयोपर अपना सिक्का जमानेवाले हैं । भट्टाकलंकोऽकृत सौगतादि-दुर्वाक्यपंकैस्स कलंकभूतम् । जगत्स्वनामेव विधातुमुचैः सार्थ समन्तादकलंकमेव ॥ -श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं. १०१ बौद्धादि-दार्शनिकोंके मिथ्र्यकान्तवादरूप दुर्वचन-पंकस सकलंक हुए जगत को भट्टाकलंकदेवनं, अपने नामको मानों पूरी तौरसे सार्थक करने के लिये ही, अकलंक बना डाला है--अर्थात् उसकी बुद्धिमें प्रविष्ट हुए. एकान्त-मलको, अपने अनेकान्तमय वचनप्रभावसे धो डाला है। इत्थं समस्तमतवादि-करीन्द्र-दर्पमुन्मूलयनमनमानदृढप्रहारैः। स्याद्वाद-कंसरसटाशततीव्रमूर्तिः, पंचाननो भुवि जयत्यकलंकदेवः ॥ -न्यायकुमुदचन्द्र, प्रभाचन्द्राचार्यः इस प्रकार जिन्होंने निर्दोष प्रमाणके दृढ प्रहारोंसे समस्त अन्यमतवादिरूपी राजेन्द्रोंके गर्वको निमूल कर दिया है वे स्याद्वादमय सैंकड़ों केसरिक जटाओंसे प्रचण्ड एवं प्रभावशालिनी मूर्तिके धारक श्रीअकलंकदेव भूमं इल पर केहरिसिंह केसमान जयशील हैं-अपनी प्रवचन-गर्जनासे सदा ही लोक-हृदयोंको विजित करनेवाले हैं। जीयाचिरमकलंकब्रह्मा लघुहव्वनृपति-वरतनयः । अनवरत-निखिलजन-नुविद्यः प्रशस्तजन-हयः॥ -तत्वारा०, प्रथमाध्याय-प्रशस्तिः जिनकी विद्या-ज्ञानमाहात्म्य के सामने सदा ही सब जन नतमस्तक रहते थे और जो सजनोंके हृदयोंको हरनेवाले थे-उनके प्रेमपात्र एवं प्राराध्य बने हुए थे-वे लघुहव्वराजाके श्रेष्ठपुत्र भीअकलंकब्रह्मा-अकलंक नामके उच्चात्मा महर्षि-चिरकाल तक जयवन्त हों-अपने प्रवचनतीर्थ-द्वारा लोकहृदयोंमें सदा सादर विराजमान रहें। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध तथा जैन-ग्रन्थोंमें दीक्षा [ ले० - श्री० प्रोफेसर जगदीशचन्द्र जैन एम. ए. ] त्यन्त प्राचीन समयसे भारतीय इतिहास में दो धारायें चयन्त देखने में श्राती हैं । कुछ लोग ऐसे थे जो वेदपाठी थे, अग्नि-पूजक थे और देवी-देवताओं को प्रसन्न करनेके लिये यज्ञ-याग आदि करनेमें ही कल्याण मानते थे। दूसरे लोग उक्त बातों में विश्वास न करते थे; उनका लक्ष्य था त्याग, तप, श्रहिंमा, ध्यान श्रौर काय -क्लेश । प्रथम वर्ग के लोगोंका लक्ष्य प्रवृत्ति प्रधान और दूसरे वर्गका निवृत्ति प्रधान था । एक वर्गके लोग ब्राह्मण थे, दूसरे वर्ग के क्षत्रिय अथवा श्रमण थे । ऋग्वे दमें भी ऐसे लोगोंका उल्लेख श्राता है जो वेदोंको न मानते थे और इन्द्रके अस्तित्वमें विश्वास न करते थे । यजुर्वेद संहिता में इन लोगोंका 'यति' के नामसे उल्लेख किया गया है। आपस्तंभ, बोधायन आदि ब्राह्मणों के धर्मसूत्रों में इन श्रमणोंके विधि-विधानका विस्तारसे कथन श्राता है । इसी तरह उपनिषदोंमें 'भिक्षाचर्या' श्रादिके उल्लेखों के साथ स्पष्ट कहा गया हे - " नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यः, न मध्या न वा बहुना श्रुतेन" - प्रर्थात् श्रात्मा शास्त्र, बुद्धि श्रादिके गोचर है । श्रमण (समय) शब्दकी व्युत्पत्ति बताते हुए शास्त्रकारोने लिखा है-भ्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः, श्रथवा सह शोभनेन मनसा वर्त्तत इति सममा:अर्थात् जो श्रम करते हैं-तप करते हैं वे भ्रमण हैं, श्रथवा जिनका मन सुन्दर हो उन्हें भ्रमण कहते हैं । यहाँ यह बात खास ध्यान रखने योग्य है कि भ्रमणका अर्थ केवल जैनसम्प्रदाय ही नहीं, किंतु श्रभयदेवसूरिने 'निर्मथ, शाक्य, तापस, गेरुक श्रौर श्राजीवक' इस तरह श्रमणोंके पांच भेद बताये हैं । जैसा ऊपर बताया गया है भ्रमणका धर्म निवृत्ति प्रधान है। उनका कहना है कि यह ससार क्षण भंगुर है, संसारमें मोह करना योग्य नहीं संसार में रहकर मनुष्य मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता, इसलिये इसका त्याग कर बनमें जाकर अपने ध्येयकी सिद्धि तपश्चर्या और ध्यानयोगसे करनी चाहिये । गृहत्याग के साथ साथ भ्रमण लोगोंमें श्रात्मोत्सर्गकी भी चरम सीमा बताई गई है। उदाहरणके लिये महाभारत में शिवि राजाका वर्णन आता है जिसने एक अंधे श्रादमीको अपनी आँखें निकालकर दे दी थीं । मनुस्मृति और ब्राह्मणों के पुराण-साहित्य में श्रात्म-त्याग के विविध प्रकार बताकर उनका गुणगान किया गया है। श्रमप्रवेश, जलप्रवेश, पर्वतसे गिरना, वृक्षसे गिरना आदि श्रात्मोत्सर्ग के अनेक प्रकारोंका वर्णन पुराणों में आता है। साथ ही वहाँ यह भी बताया गया है कि इन उपायोंसे श्रात्मोत्सर्ग करने वाला मनुष्य श्रात्मघाती नहीं कहलाता, बल्कि वह हजारों वर्ष तक स्वर्ग सुखका अनुभव करता है । बुद्ध भगवान्‌ ने भी अपने किसी पूर्वभवमें एक पक्षीको बचाने के लिये अपने Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ अनेकान्त मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं०२४६६ शरीरका मांस दान करनेको तैयार हो गये थे । जैन- जो लोग प्रव्रज्या (दीक्षा) लेने के लिये उत्सुक रहते शास्त्रोंमें भी आत्मोत्सर्ग के अनेक उदाहरण पाये जाते थे, उनके माता-पिता और बन्धुजन उनको श्राग्रहपूर्वक हैं, अवश्य ही वे कुछ भिन्न प्रकारके हैं। उदाहरणके बनमें जाने से बहुत रोकते थे । वे लोग करुण श्रानंदन लिये सुकुमाल मुनि तप कर रहे हैं और उनका शरीर करते थे, नाना प्रकारके श्रालाप विलाप करते थे, और एक जंगलकी गीदड़ी खा गई । इसी तरह श्वेताम्बर उनको नाना प्रकारकी युक्तियाँ देकर समझाते थे । पर शास्त्रोंक अनुसार, गजसुकुमाल स्मशानमें कायोत्सर्गसे इसका उन लोगों पर कोई प्रभाव नहीं होता था । विप्र ध्यानावस्थित हैं । सोमिल ब्राह्मण आकर उनके सिर और नमिराजके संवादमें विप्रने नमिरा जसे कहा कि पर मिट्टीकी बाड़ बनाता है, उसे धधकते हुए अंगारोसे महाराज श्राप दीक्षा न लें, आपकी मिथिला नगरी भरकर उसपर ईधन चिन देता है। गजसुकमाल मुनि अग्निसे जल रही है: पहले वहाँ जाकर अग्निको शांत अत्यन्त उग्र वेदना सहन करते हैं और अन्तमें उनका करें। किंतु नमिराज उत्तरमें कहते हैं-'मिथिलायां शरीर भस्म हो जाता है। प्रदीप्तायां न मैं दहति किंवन' अर्थात् मिथिला जिस समय हिन्दुस्तानमें जैन और बौद्धोका बोल- नगरीके जल जाने से मेरा कुछ भी नहीं जलता । बौद्धोंके बाला था, उस समय अनेक ब्राह्मण और श्रमण महा- बंधनागार जातकमें इम संबन्धमें जो कथा आती है, वह वीर अथवा बुद्ध के पास जाकर दीक्षित होते थे। दीक्षा- इस तरह हैउत्सब बहुत धमधामसे मनाया जाता था। जो गृहपति एक बार बोधिसत्त्व एक धनहीन गृहपतिके घर दीक्षा लेता था, वह अपने सम्बन्धी जनोको निमन्त्रण पैदा हुए । जब बोधिमत्त्व बड़े हुए, उनके पिता मर देता था, उनका अ सन्मान करता था। तथा स्नान गये और वे नौकरी करके अपना तथा अपनी माताका इत्यादि करके अपने ज्येष्ठ पुत्रको घरका भार सौंपकर, उदर-पोषण करने लगे । कुछ समय बाद उनकी माँने उसकी आज्ञा लेकर, पालकीमें सवार होकर अपने इष्ट उनकी इच्छा के विरुद्ध बोधिमत्वकी शादी करदी, और मित्रों के साथ दीक्षागुरुके पास पहुँचता था, इन लोगोंके श्राप परलोक सिधार गई । बोधिसत्त्वकी स्त्री गर्भवती संसारसे वैराग्य होनेका कारण क ' नाशवान वस्तु हुई । बोधिसत्त्वको यह बात मालम न थी । उन्होंने होती थी। जैसे जातक ग्रंथों में आता है कि एक बार अपनी स्त्रीसे कहा-प्रिये, मैं गृह त्याग करना चाहता किसी राजाको घाम पर पड़ी हुई श्रोसकी विन्दु देखकर हूँ, तुम मेहनत करके अपना पोषण कर लेना । उनकी वैराग्य हो पाया । गन्धार जातक में कहा गया है कि पत्नीने कहा-स्वामिन् , मैं गर्भवती हूँ. मेरे प्रसव कर. एक बार किसी रांगाने देखा कि चन्द्रमाको रोहुने प्रस नेके बाद, शिशुका मुख देखकर, श्राप प्रव्रज्या लेना । लिया है, बस इसी बात पर उसने संसारका त्याग कर प्रसव हो गया। बौधिसत्त्वने फिर अनुमति चाही। दिया । कभी कभी अपने सिर पर कोई सफ़ेद बाल स्त्रीने कहा-शिशु ज़रा बड़ा हो जाय तो श्राप जाइये । देखकर भी लोगों को वैराग्य र प्राता था। इसी तरह इस बीचमें बोधिसत्वकी पत्नीने दूसरी बार गर्म-धारण संध्या कालीन मेघपंक्तिको शीर्णपशोर्य देखकर लोग किया । बोधिसत्वने सोचा कि यदि इस तरह मैं अपनी बनकी तैयारी करने लगते थे। पानीकी बात पर रहूँगा तो मैं कभी भी अपना कल्यावं Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौड तथा बैन ग्रन्थों में बीमा न कर सकूँगा। इमलिये वे एक दिन रातको उठकर कारण फिर अपने आँसुओंको नहीं रोक मकती, और बिना कहे ही घरसे चल दिये और हिमालय पहुँन कर 'घोडयन्वं जाया,जइयब्वं जाया,परिकमयर्थ जापा" तप करने लगे। अर्थात् संयममें यत्नशील रहना आदि शब्द कहकर भगवती मंत्र आदि श्वेताम्बर सूत्रोंमें इस प्रकार के यापिम चली जाती है. । हृदयस्पर्शी वर्णन अनेक स्थानों पर पान हैं। जामालि मालूम होता है इन्हीं सब बातोम महावीर और महावीरके दर्शन करने जाते हैं । दीक्षा लेने का उनका बुद्धको यह घोषणा करनी पड़ी कि बिना माना पिताकी दृढ़ निश्चय हो जाता है। हम निश्चयकी व घर अनुशाक कोई दीक्षा लेनका अधिकारी न हो सकेगा। श्राकर अपने माता पिनास कहते हैं। उनकी मां यह श्वनाम्बर ग्रंथों के अनुसार तो स्वयं महावीर भगवानको मुनने ही पछाड़ ग्वाकर ज़मीन पर गिर पड़नी है और भी अपने बंधु ननांकी श्राज्ञा न मिलनम, दीक्षा लेनेका बेहोश हो जाती है । जब वह अनेक उपचार करने पर मन होते हुए भी, कुछ ममय तक गृहवासमें रहना होशमें श्रानी है । उनको अपने पुत्रके निश्चय पर पड़ा । श्वेताम्बर ममा जमें नो दीक्षाके नाम पर पान अत्यंत दुःख होना है ।, जामालिके माना-पिना बहुत भी अनेक उपद्रव होने हैं। बड़ौदा प्रादि रियामतोंमें ममझाते हैं, परंतु जामालि अटल रहते हैं । दोनोंस बाल दीक्षा के विरुद्ध बहुतम कानुन बना दिये गये हैं। अनेक प्रश्नोत्तर होते हैं और आखिर जामालि अपने यहाँ हम एक ईमाई पादरीका पत्र उद्धृत करने है । निश्चयको मान्य रखते हैं। दीक्षाकी तैयारी बड़ी धम- जो ईमाइयोंकी साधुदीक्षा पर कितना ही प्रकाश डालता धामसे होती है । जामालिके लिये रजोहरग और पात्र है। यह पत्र इन पादरीने एक सजनको लिम्बा था जो लाये जाते हैं और एक नाईको बुलाया जाना है । नाई अपने स्वजनोंकी इच्छाके विरुद्ध साधु (Priest) होना मुगन्धित जलसे हाथ पैर धाता है और माफ कपडकी चाहते थे । वे जिन्वते हैंअाठ तह बना कर अपने मुँह पर रखकर जामालिक Even if your little nephew throws पाम पाता है । जामालि उसको चार अंगुल कंश छोड़ his arms round your neck. if your mo. कर दीक्षाके योग्य केश काटने को कहते हैं। नाई ther tears her hairand cloth and beats श्राशाका पालन करता है। उस समय क्षत्रियकुमार her breast which you, sucked even if जामालिकी माता भी वहाँ रहती है और वे श्रम कंशोको your father throws himself on the साफ वस्त्रमें ले लेती है, उनको गंधोदकसं धानी है ground before you-move, even the और पुत्र के वियोगके कारण बोबड़े मोतियोंकी लडी body of your father. hee with tearless जैसे सफेद बासू टपकाती हुई कहती है कि अनेक, eyes to the sign of cross. In this शुभ तिथियों और उत्सवोंके अवसर पर हम इन्हीं केशो case, crgelty is the only virtue. For को देखकर सन्तोष कर लिया करेंगे । जामालिकुमार, how. many monks have lost their:: पालकीमें बैठकर महावीर भगवान्के पास पहुँचन ।। suls because they md pity for their साप में माता बबुजम मी जाते हैं। मां पुत्र-वियगके ftahers and mothers." Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीर निर्वावसं.२४१६ - अर्थात्-यदि आपका नन्हासा भतीजा आपके में एक निर्दयता ही बड़ा गुण है। न जाने कितने गलेमें बहिं डालकर लिपट जाय, यदि आपकी माता साधुअोंने अपने माता-पिनाकी दयाके कारण ही अपनी अपने केश और वस्त्रोंको फाड़ डाले और जिस छातीका आत्माको भुला दिया है। . तुमने दुग्धपान किया उमको वे पीट डाले, तथा यदि जैन शास्त्रोंमें जगह जगह पर महावीरके जमानेकी आपका पिता आपके समक्ष श्राकर ज़मीन पर गिर सामाजिक परिस्थितिका वर्णन करनेवाले दीक्षासम्बन्धी पड़े तो भी अपने पिताके शरीरको हटा दो और अश्रु अनेक उल्लेख आते हैं । इन सबका एक बहुत रोचक रहित नेत्रोंसे क्रॉसकी ओर दौड़े चले जाश्री । ऐसी दशा- इतिहास तैयार हो सकता है। भगवान महावीरके मुख्य गणधर का नाम तुमने बहुत बार सुना है । गौतमस्वामीके उपदेश किये हुए बहुतसे शिष्योंके केवलज्ञान पाने पर भी स्वयं गौतमको केवल ज्ञान नहीं हुआ, क्योंकि भगवान् महावीरके अंगोपांग, वर्ण, रूप इत्यादिके ऊपर अब भी गौतमको मोह था । निग्रन्थ प्रवचनका निष्पक्षपाती न्याय ऐमा है कि किसी भी वस्तुका राग दुःखदायक होता है । राग ही मोह है और मोह ही संसार है । गौतमके हृदयमे यह राग जबतक दूर नहीं हुआ तबतक उन्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति नहीं हुई। श्रमण भगवान शातपुत्रने जब अनुपमेय सिद्धि पाई उस समय गौतम नगरमेंसे पा रहे थे । भगवान्के निर्वाण समाचार सुनकर उन्हें खेद हुआ। विरहसे गौतमने ये अनुरागपूर्ण वचन कहे "हे भगवान् महाबीर ! आपने मुझे साथ तो न रक्खा, परन्तु मुझे याद तक भी नहीं किया । मेरी प्रीतिके सामने आपने दृष्टि भी नहीं की, ऐसा आपको उचित न था।" ऐसे विकल्प होते होते गौतमका लक्ष फिर। और वे निराग-श्रेणी चढ़े । “मैं बहुत मूर्खता कर रहा हूँ। ये वीतराग निर्विकारी और रागहीन हैं वे मुझपर मोह कैसे रख सकते हैं ? उनकी शत्र और मित्रपर एक समान दृष्टि था । मैं इन रागहीनका मिथ्या मोह रखता हूँ। मोह संसारका प्रबल कारण है ।" ऐसे विचारते विचारते गौतम शोकको छोड़कर रागरहित हुए । तत्क्षण ही गौतमको अनन्त ज्ञान प्रकाशित हुआ और वे अन्तमें निर्वाण पधारे। गौतम मुनिका राग हमें बहुत सूक्ष्म उपदेश देता है। भगवानके ऊपरका मोह गौतम जैसे गणधरको भी दुःखदायक हुमा तो फिर संसारका और फिर उसमें भी पामर आत्माओंका मोह कैसा भनन्त दुःख देता होगा ! संसाररूपी गाडीके राग और द्वेष रूपी दो वैज़ हैं। यदि ये न हों, तो संसार भटक जाय । जहाँ राग नहीं, वहाँ द्वेष भी नहीं, यह माना हुमा सिद्धान्त है। राग तीन कर्मबंधका कारण है और इसके बरसे मात्मसिद्धि है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधवा-सम्बोधन [ विधवा कर्तव्य-सूत्र ] विधवा बहिन, समझ नहीं पड़ताक्यों उदास हो बैठी हो ! क्यों कर्तव्यविहीन हुई तुम, निजानन्द खो बैठी हो ! कहाँ गई वह कान्ति, लालिमा, खोई चंचलताई है ! सब प्रकार से निरुत्साहकी, छाया तुम पर छाई है !!१ गोपांग न विकल हुए कुछ, नमें रोग न व्यापा है; और शिथिलता लानेवाला आया नहीं बुढ़ापा हे ! मुरझाया पर वदन, न दिखती जीनेकी अभिलाषा है ! गहरी हें निकल रही हैं, मुँह से, घोर निराशा है !!२ हुआ हाल ऐसा क्यों ? भगिनी कौन विचार समाया है, जिसने करके विकल हृदयको, 'आप' आप भुलाया है ९ निज - परका नहिं ज्ञान, सदा अपध्यान हृदयमें छाया है, भय न भटकनेका भव-वनमें, क्या अन्धेर मचाया है !!३ शोकी होना स्वात्मक्षेत्र में, पाप - बीजका बोना है, जिसका फल अनेक दुःखोंका, संगम आगे होना है । शोक किये क्या लाभ १ व्यर्थ ही अकर्मण्य बन जाना है, आत्मलाभ से वंचित होकर, फिर पीछे पछताना है !! ४ योग अनिष्ट, वियोग इष्टका, घर दो फल लाता है; फल नहीं खाना वृक्ष जलाना, इह-परभव सुखदाता है। इससे पतिवियोगमें दुख कर, भला न पाप कमाना है, किन्तु - स्व-पर-हितसाधनमें ही, उत्तम योग लगाना है ॥ ५ आत्मोन्नति यत्न श्रेष्ठ है, जिस विधि हो उसको करना, उसके लिए लोकलज्जा अप मानादिकसे नहिं डरना । जो स्वतंत्रता- लाभ हुआ है, दैवयोग से सुखकारी, दुरुपयोग कर उसे न खोश्रो, खोने पर होगी ख्वारी !! ६ माना हमने, हुआ, हो रहा तुम पर अत्याचार बढ़ा, साथ तुम्हारे पंचजनोंका होता है व्यवहार कड़ा । पर तुमने इसके विरोधमें किया न जब प्रतिरोध खड़ा, तब क्या स्वत्व भुलाकर तुमने किया नहीं अपराध बड़ा ॥ ७ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स स्वार्थ-साधु नहिं दया करेंगे, दुर्लभ मनुज-जन्मको. पाकर, उनसे इस अभिलाषाको । .. निज कर्तव्य समझ लेना । छोड़, स्वावलम्बिनी बनो तुम, उम ही के पालनमें तत्पर रह, पूर्ण करो निज आशा को ॥ प्रमादको तज देना ॥११ सावधान हो स्वबल बढ़ाओ, दीन-दरवी जीवोंकी सेवा, निज समान उत्थान कगे। . करनी सीखो हितकारी। 'देव दुर्बलोंका घातक', दीनावस्था दूर तुम्हारी, इस नीति वाक्य पर ध्यान धरो।।८ हो जाए जिससे सारी ॥ बिना भावके बाह्यक्रियासे, दे करके अवलम्ब उठाओ, धर्म नहीं बन आता है। निर्बल जीवोंको प्यारी। रक्खो सदा ध्यानमें इसको, इससे वद्धि तुम्हारे बलकी, यह आगम बतलाता है ॥ निःसंशय होगी भारी ॥१२ । भाव बिना जो व्रत-नियमादिक, हो विवेक जागृत भारतमें, .: करके ढोंग बनाता है । 'इसका पत्र महान करो। आत्म पतित होकर वह मानव, अज्ञ जगतको उसके दुख । ठग-दम्भी कहलाता है ॥ दारिद्रय आदिका ज्ञान करो॥ इससे लोकदिखावा करके, फैलाओ सत्कर्म जगतमें, धर्मस्वाँग तुम मत घरमा । सबको दिलसे प्यार करो। सरल चित्तसे जो बन पाए, बने जहाँतक इस जीवनमें, भाष सहित सो ही करना ॥ औरोंका उपकार करो ॥ १३ प्रबल न होने पाएँ कषायें, 'यग-चीरा' बनकर स्वदेशका, लक्ष्य सदा इस पर रखना। फिरसे तुम उत्थान करो। स्वार्थ-त्यागके पुण्य-पन्थ पर मैत्रीभाव सभीसे रखकर, प्रेम सहित निशदिन चलना ॥१० गुणियोंका सम्मान करो । क्षण-भंगुर सब ठाठ जगतके, उन्नत होगा भात्म तुम्हारा, इन पर मत मोहित होना । इन ही सकल उपायोंसे. । हर काया-मायाके धोखेमें पड, शान्ति मिलेगी, दुःख टलेगा, अचेत हो नहिं सोना ॥ यूटोगी' विपदाभोंसे ॥१४ -युगवीर' Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंगीय - विद्वानोंकी जैन - साहित्य में प्रगति [ ० - श्री अगरचन्द नाहटा ] और भारतके अन्य प्रान्तोंकी अपेक्षा बंगालप्रान्तमें शिक्षाप्रचार अत्यधिक है । साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र में बंगीय विद्वानोंने जैसा उत्तम और अधिक कार्य किया है वह सचमुच ही बंगालके लिए गौरवकी वस्तु है । विश्वकवि - रवीन्द्रनाथ, महान् उपन्यासकार - स्वर्गीय किमचन्द्र चटर्जी और शरत बाबू, पुरातत्त्वविद् सर श्री जदुनाथ सरकार; महान् वैज्ञानिक सर जगदीशचन्द्र वसु, श्राचार्य प्रफुल्लचंद्रराय और मेघनाद शाह, महायोगी स्वर्गीय रामकृष्ण, विवेकानन्द और अरविन्द घोष, त्यागवीर स्वर्गीय देशबन्धु चितरञ्जनदास, देशसेवक भूत पूर्व राष्ट्रपति सुभाषचन्द्र बोम, महान् कानूनवेत्ता रासविहारी घोष, परमसंगीतज्ञ तिमिरवर्ण, गिरिजाशंकर चक्रवर्त्ती, भीष्मदेव चटर्जी, ज्ञानेन्द्र गोस्वामी; ललित नृत्यकार विश्वमुग्धकर उदयशंकर भट्ट; समाज संस्कारक राजा राममोहन राय, केशवचन्द्रसेन और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर इत्यादि नररत्नोंने अपनी असाधारण प्रतिभाद्वारा विश्व में बंगभूमिको गौरवान्वित कर दिया है। केवल बंगाल ही क्यों समस्त भारतभूमि इन महापुरुषोंको जन्म देकर सौभाग्यवती हुई है । विश्व इन महापुरुषोंके कार्यकलापों द्वारा चकित एवं मुग्ध है । दार्शनिक चिन्तामें भी बंगीय विद्वानोंने अपनी बौद्धिक शक्तिका अच्छा परिचय दिया है। जैनदर्शन भारतीय दर्शनोंमें प्रधान और मननीय उत्कृष्ट दर्शन है । अतः बंगीय विद्वानोंका इस ओर ध्यान देना सर्वथा उपयुक्त है । किन्तु साधनाभाव के कारण उनकी ज्ञान पिपासाने प्रबलरूप धारण नहीं किया। इसबार कलकचेमें मुझे अनेक विद्वानोंसे साक्षात्कार होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । उन लोगोंसे वार्त्तालाप होनेपर सभीने एक स्वरसे यही कहा कि "जैनदर्शनके सूक्ष्म तत्त्वोंको जानने की हमें बड़ी उत्कण्ठा है पर क्या करें ? साधन नहीं मिलते !" इन शब्दों को श्रवण कर मेरे हृदय में गहरी चोट लगी पर करता क्या ? बंगीय जैनसमाजने श्रभी तक एक भी ऐसा श्रायोजन नहीं किया कि जिसके द्वारा साहित्यिक सामग्री जुटाता और उसे लेजाकर बंगीय विद्वानोंको देता, जिससे वे अपनी जिज्ञासाकी प्यासको बुझाने, श्रस्तु | अब 新 उन बंगीय विद्वानोंके वियमें लिखता हूँ जिन्होंने समुचित साधन नहीं मिलने पर भी अपनी श्रपूर्व कर्मठवृत्ति द्वारा जैन साहित्य में अच्छे अच्छे कार्य किये हैं । ये विद्वान जैनधर्मके पूर्ण अनुरागी हैं। इनके विषय में मैंने जो कुछ खोज की है, जिन जिनसे व्यक्तिगत वार्त्तालाप हुआ और उनके कार्यका परिचय मिला है उसीके श्राधार पर संक्षेपमें इस विषय में लिख रहा हूँ । १ श्रीयुत हरिसत्य भट्टाचार्य M. A. B. L. वकील हवड़ाकोर्ट ( पता - नं ० १ कैलाशबोस लेन; हबड़ा ) जैन साहित्यसेवी बंगाली विद्वानोंमें आपका स्थान सर्वोच्च है । श्रापकी दार्शनिक श्रालोचनाकी शैली बड़ी ही हृदयग्राही और गंभीर | भारतीय दर्शनोंके प्रति Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० भनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीर निवाब सं०२४१६ रिक्त पाचात्य दर्शनों के सम्बन्धमें आपका शान बहुत निदर्शनमें जो उद्गार प्रगट किये हैं उनमेंसे प्रावश्यक विशाल है अतएव आपका लेखन तुलनात्मक और अंश नीचे उद्धृत किया जाता हैतलस्पर्शी होता है। आपके लिखे हुए भारतीय दर्शनसमूहे जैनदर्शनेर स्थान, ईश्वर, जीव, कर्म, षड्व्य - "श्रीयुक्त हरिसत्य भट्टाचार्य घणां वर्ष अगाऊ अोरीधर्म अधर्म, पुद्गल, काल, आकाश इत्यादि निबंध एटल कॉन्फरेन्सना प्रथम अधिवेशन प्रसंगे पनामा मलेलाइसके प्रत्यक्ष प्रमाण है। आपके इन निबन्धोंमेंसे प्रथम तेवखतेज तेमना परिचयथी मारा उपर एटली छाप पडेली निबंधका गुजराती अनुवाद जब मेरे अवलोकनमें आया के एक बंगाली अने ते पण जैनेतर होवाछता जैनतभीसे आपसे मिलकर आपके लिखे अन्य सब निबंधों- साहित्य विषे जे अनन्य रस धरावे छे ते नवयुगनी को प्राप्त करनेको उत्कंठा हुई; पर पता ज्ञात न होनेसे जिज्ञासानुं जीवतुं प्रमाण छ । तेमणे "रनाकरावतारिका" वैसा शीघ्र ही न बन सका । बहुत प्रयत्न करने पर नो अँग्रेज़ी करेलो तेने तपासी अने छपावी देवो एवी बाब छोटेलालजी जैनसे आपका पता ज्ञात हुआ और एमनी इच्छा हती, ए अनुवाद अमे छपावी तो न मैं बाब हरषचन्द्रजी बोथराके साथ आपसे मिला । वार्ता- शक्या पण अमारी एटली खात्री यइ के भट्टाचार्यजीलाप होनेपर ज्ञात हुआ कि करीब २५ वर्ष पूर्वसे श्राप ए श्रा अनुवाद माँ खूब महेनत करी छे । अने ते द्वारा जैनग्रंथोंका अध्ययन व लेखन-कार्य कर रहे हैं, पर उन- तेमने जैनशास्त्रना हृदयनो स्पर्श करवानी एक सरस के लिखित ग्रंथों के प्रकाशनकी कोई सुव्यवस्था न होनेसे तक मली छ । त्यारबाद एटलो वर्षे ज्यारे तेमना बंगाली इधर कई वर्षोंसे उन्हें लिखना बंद कर देना पड़ा । जैन लेखोना अनुवादों में वांच्या त्यारे ते वखते भट्टाचार्यजी समाजके लिये यह कितने दुखका विषय है कि ऐसे विषे मैं जे धारणा बांधेली ते वधारे पाकी थई भने साची तुलनात्मक गंभीर लेखकको प्रकाशन-प्रबन्ध न होनेसे पण सिद्ध थइ । श्रीयुक्त भट्टाचार्य जी ए जैनशास्त्र नु लिखना बंद करना पड़ा, निरुत्साह होना पड़ा ! वांचन अने परिशीलन लांबा बखत लगी चलावेलु ऐना भट्टाचार्यजीसे वार्तालाप होनेपर ज्ञात हुआ कि उनको परिपाक रुपेज तेमना पा लेखो छे एम कहवु जोइए, जैनधर्म के प्रति हार्दिक श्रादर व भक्ति भाव है, उन्होंने जन्म अने वातावरण थी जैनेतर होवाछता तेमना लेखो यहाँ तक कहा कि यदि प्रबन्ध किया जा सके तो मेरा माँ जे अनेकविध जैन विगतो नी यथार्थ माहितीछे अने विचार तो पाश्चात्य देशोंमें घूम घूमकर जैनधर्मके प्रचार जैन विचारसरणीनो जे वास्तदिक स्पर्श छे, ते तेमना करने का है । एक बंगाली विद्वान के इतने उच्च हार्दिक अभ्यासी अने चोकसाइ प्रधान मानसनी साबीती पुरी पाडे विचार सुनकर किसे प्रानन्द न होगा ? मेरे हृदयमें तो छ । पूर्वीय तेमज पश्चिमीय तत्त्वाचिंतनन् विशालवाचन हमारे समाजकी उपेक्षाको स्मरण कर बड़ी ही गहरी एमनी M. A. डीग्रीने शोभावे तेवुछ अने एमनु चोट पहुँची । क्या जैनसमाज अब भी आँखें नहीं दलिलपूर्वक निरुपण एमनी वकीली वुद्धिनी सादी मा. खोलेगा! पे छ । भट्टाचार्य जीनी श्रा सेवामात्र जैन जनता माज श्रीयुत भट्टाचार्यजीके तलस्पर्शी गहन अध्ययन व नहीं परन्तु जैनदर्शनना जिज्ञासु जैन-जैनेतर सामान्य लेखनके विषयमें पं० सुखलालजीने "जिनवाणी" ग्रंथके जगत मा चिरस्मरणीय बनी रहये। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंगीय-विहानों की बैन-साहित्यमें प्रगति १५॥ science of thoughts from the Jain नीचे दी जाती है: stand point; (प्रका• The Indian Phi losphy and religion, page 129-136) अनुवादित ७. The Jain Theory of space (प्रका० उप१ प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारटीका "रत्नाकरावतारिका" युक्त पृ० ११५ से १२० जैनगज़ट फरवरी १९२७) का अंग्रेजी अनुवाद 5. The theory of Time in Jain Philo. _sophy पृ० १० (जैनगजट १६२७ फरवरी) मूल ग्रन्थ श्वेताम्बर न्यायग्रन्थों में प्रमुख ग्रंथों में E.Ancient concepts of matter:- Review से एक है । इसकी टीका बड़ी ही विचित्र एवं कठिन है, of philosophy and religion V. III अंग्रेजीमें उसका अनुवाद करना कोई साधारण काम N. I. P. 13 (जैनगजट मार्चसे दिसम्बर १९३०) नहीं है। इस अनुवादमें भट्टाचार्यजीका दर्शनशास्त्र, १०. First principles of Indian Ethical संस्कृत एवं अंग्रेजी भाषा पर असाधारण अधिकार systems:-The Philosophical Quarस्पष्ट है । बहुत वर्ष पहले प्रस्तुत अनुवाद "जैनगज़ट" terly P. 308-314 में धारावाहिक रूपसे बहुत ममय तक निकला था । अब ११. The message of Mahavirn and श्रापका उसे पुनः शुद्धि और वृद्धि कर स्वतंत्र ग्रंथरूपसे Krishna Vir 1929:-१० ७१-७६ प्रकाशन करनेका विचार है, पाश्चात्य दर्शनकि माथ १२. A comparative study of the Indiसमन्वय-सूचक व तुलनात्मक टिप्पणियें आप शीघ्र ही an Doctrine of non-soul from the लिखेंगे । सिंघी-ग्रन्थमालासे उमके प्रकाशनका Jain standpoint. (प्र. The Indian प्रबन्ध कर भट्टाचार्य जीके उत्माहको बढ़ानेका श्रीमान् philosophical congress page 129बहादुरसिंह जी सिंघी व मुनि जिनविजय जीसे अनुरोध है । 136) मौलिक रचनाएँ बंगला भाषा में २. Lord Mahavira T० ३८ १. पुरुषार्थसिद्धिउपाय अनुवाद-प्र० बंग-विहार ३. Lord Parsva पृ० ४० अहिंसाधर्मपरिषद्, अपूर्ण मुद्रित एवं जिनवाणी ४. Lord Arishta nemi पृ.६० वर्ष २, पृ०६५-१०६ प्रकाशक “जैन मित्रमंडल, देहली।" प्रकाशन सन् २. भारतीय दर्शनमाहे जैनदर्शनेर स्थान, प्र० मिन१९२६-१६२८-१९२६ वाणी वर्ष १, पृ०८ . Divinity in Jainism (जैनगज़ट मद्राससे ३. (जैनदृष्टिए) ईश्वर-प्र. जिनवाणी वर्ष १,५०२५४ प्रकाशित) ____४. जीव-प्र• जिनवाणी वर्ष १, पृ० १२६ &. A comparative Study in Indian वर्ष २,५०१.६ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशीर्ष, बीर मिल ५. जैनदर्शने कर्मवाद-प्र०जिनवानी वर्ष १, पृ०२०५ का हिन्दी अनुवाद अापने तैयार भी कर दिया है जो वर्ष २, पृ० २२ शीघ्र ही प्रकाशित किया जायगा। 4- जैनकथा, ७ संवत ८ अन्द, चन्द्रगुप्त-प्र.जिनः भट्टाचार्य अभी एक अत्यन्त उपयोगी ग्रंथ पानी वर्ष १ पृ०७१-२६८ अंग्रेज़ीमें लिख रहे हैं, जिसमें जैनधर्म सम्बन्धी सभी १० भगवान् पार्श्वनाथ-प्र.जिनवानी वर्ष २,अंक ४, अावश्यक तव्यों का समावेश रहेगा। इसके कई पृ० १४१ प्रकरण लिखे भी जा चुके हैं । जैनममा जका कर्तव्य ११. महामेघवाहन खारखेल-प्र. जिनवानी वर्ष २ है कि इस ग्रन्थको शीघ्र ही पूर्ण तैयार करवाकर पृ०६६ प्रकाशित करे, जिससे एक बड़े अभावकी पति हो १२. जैनदर्शने धर्मश्रो अधर्म-प्र० साहित्यपरिषद्- जाय । पत्रिका भाग ३४ संख्या २ मन १३३४ २ प्रो०चिन्ताहरण चक्रवर्ती काव्यतीर्थ M.A. १३. प्रमाण-प्र० साहित्य परिषद पत्रिका भाग ३३ Prof. Bethune collegeपृ०१८ से (पता-नं० २८।३ झानगर रोड, कालीघाट, कलकत्ता) १४. जैनदर्शने आत्मवृत्ति निचय-प्र० साहित्यसंवाद श्राप भी बहुत उत्साही लेखक हैं । जैनधर्मके इन लेखोंमेंसे कतिपय लेख पहले अंग्रेज़ीमें प्रचारके लिये श्रापकी महती इच्छा है । संस्कृत-साहिलिखे गये थे फिर उनका बंगानुवाद कर “जिनवाणी" त्यमें दूतकाव्य श्रादि अनेकों गंभीर अन्वेषणात्मक लेख पत्रिकामें प्रकाशित किये गये थे । “जिनवाणी' आपने लिखे हैं । जैनसाहित्यके प्रचारमें श्राप बहुत पत्रिकामें प्रकाशित नं० २-३-४-५-६-१०.११.१२ का अच्छा सहयोग देनेकी भावना रखते हैं । आपके लेखोंगुजराती अनुवाद श्रीयुक्त सुशील ने बहुत सरस किया कीसंक्षिप्त सूची इस प्रकार है:है और उसके संग्रहस्वरूप "जिनवाणी" नामक ग्रंथ १. जैनपद्मपुराण-जिनवाणी पत्रिकामें धारावाहिक 'ऊंझा आयुर्वेदिक फार्मेसी अहमदाबाद'से प्रकाशित भी रूपसे प्रकाशित, एवं बंगबिहारधर्मपरिषदसे स्वतन्त्र हो चुका है, इसको जनताने अच्छा अपनाया। इससे ग्रन्थरूपस प्रकाशित, मूल्य ।-)। इस ग्रंथकी द्वितीयावृत्ति भी हो चुकी है।। प्रकाशक अापके इस लेखकी जैन पत्रोंमें बड़ी प्रशंसा हुई महारायने भी प्रचारार्थ २६० पृष्ठ के सजिन्द ग्रन्थ थी व शोलापुर के दि० पं. जिनदास पार्श्वनाथ का मूल्य केवल ।।) ही रखा है। शास्त्री जीने इसका मराठी अनुवाद भी प्रगट हिन्दी-भाषा-भाषी भी भट्टाचार्य के गंभीर लेखोंके किया था। अध्ययनसे वंचित न रहे, अतः मैंने इन लेखोंका २. जैनपुराणे श्रीकृष्ण-जिनवानी वर्ष २, अंक १ में हिन्दी अनुवाद भी करवाना प्रारम्भ कर दिया है। प्रकाशित व उक्त परिषदद्वारा स्वतन्त्र रूपसे दो सिलहट-निवासी जैनधर्मानुरागी रामेश्वरजी बाज- फरमा अपूर्ण मुद्रित । पेई ने मेरे इस कार्य में सहयोग देनेका वचन दिया ३. जैन त्रिरत्न-"भारतवर्ष" नामक प्रसिद्ध बंगीय है और "भारतीय दर्शनोंमें जैन दर्शनका स्थान" लेख मासिकपत्रमें प्रकाशित अग्राहयन सं० १३३१ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किर ] .. बंगीय विद्वानोंकी जैन-साहित्यमें प्रगति पृ०८०१-७। एवं उपरोक्त परिषद-द्वारा स्वतन्त्र अंग्रेजी में रूपसे जैनबालाविश्रामके छात्रगणोंके द्रव्यसहायसे प्रकाशित। १३. Need of the study of Jainisinइस निबन्धका हिन्दी अनुवाद भी ट्रैक्टरूपसे प्रा. Vir VIII N. I. अक्टबर १९३५ १०३७-१८ स्मानंद जैन ट्रैक्ट-सोसायटीसे प्रकाशित हुआ था। १४. Jainism in Bengal-Vir V. III N. जैनधर्मेरवैशिष्टय-भा०व०दि जैनपरिषद बिजनौर 5-12-3 पृ० ३७०.७१ से जैन ट्रैक्ट नं०१ रूपसे प्रकाशित,श्रीयुत कामता- १५. Tradition about Vanaras and प्रसादजी जैनके प्रयत्न एवं सूरतनिवासी मूलचंद Raksasns-Indian Historical quarकिशनदास कापड़ियाके आर्थिक सहायसे प्रकाशित terly V. I. पृ०७७६-८१ पृ० १५ । इसका हिन्दी अनुवाद भी उपर्युक्त १६. Pareshnath-Sanskrit Collegiate सोसायटी द्वारा प्रकाशितहो चुका है। School Magazine. जनवरी १९२५ भा०२ ५. जैन दिगेर दैनिक घटकर्म–माहित्य परिपद् पत्रिका संख्या १ भा० ३१ पृ.० ७२६-७३६ में प्रकाशित । इसका १७. समालोचनाएँ-कई जैन ग्रन्थोंकी इण्डियन भी हिन्दी अनुव सायटी द्वारा छप हिस्टोरीकल क्वार्टरली, इण्डियन कलचर व मोडर्न चुका है। रिव्यूमें प्रकाशित। ६. जैनदिगेर षोडश संस्कार-प्रका०विश्ववानी १३३४ उपर्युक्त सूची भेजने व कई बंगाली विद्वानोंके आपाढ़ प० १६०-६४ । पने सूचित करने व पत्रव्यवहारद्वारा चक्रवती ८. रक्षाबन्धन ( उपाख्यान)-प्र० एजुकेशन गजट महोदयसे मुझे अच्छी महायता मिली है, एतदर्थ ५३३१ ता• २०.२७ श्रापाद पृ० १२१४४ व श्रापको धन्यवाद देता हूँ। १०६।११० ३ श्रीमरनचन्द्रघोपाल M.A. 18. L. District ६. दीपालिका ... प्र. एजुकेशन गज़ट १३३१ ताः१३ Magistrate Coochbiharपृ० २६६-७१ भट्टाचार्य नीकी मांति श्रापका भी जनदर्शनसम्बन्धी १०. हिन्दृश्री जैन कालविभाग-प्र० 'कायस्थसमाज' अध्ययन बहुत विशाल एवं गंभीर है ! श्री भट्टाचार्य१३३२ भाद्र पृ० २६६, २७२ जीको प्रकाशन श्रव्यवस्था के कारण लिखने की ११. पार्श्वनाथ चरित्र-प्र०'तत्त्वबोधिनी' पौष १८४६ इतनी अनुकूलता नहीं रही और श्रापको बहुत अधिक पृ. २६६-६८, चैत्र पृ० ३३६-३८, जेष्ठ १८४७ अनुकुलता मिली अब भी है, अतएव अापने बहुत पृ०५०-५३,कानिक पृ०२१७-२१६ । इस स्वतन्त्र अधिक कार्य किया है। आपके विशाल कार्यकी श्रोर ट्रैक्ट रूप से प्रकाशित करना चाहिये। देखा जाय तो सब बंगीय विद्वानोंसे अधिक जैनीजमके १२. परसनाथ-प्र. "शिशुसाथी' पौष १३३३ पृ० विषयमें आपने लिखा है । अजिताश्रम लखनऊसे प्रका३५६-६१ fee The sacred books of the Jain series Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीर निवाब सं० के आप जनरल-एडीटर है, इस ग्रन्थमालासे १० दिग- १०. प्राचार्य जिनसेन (बंगला)- भारतवर्ष । म्बर अंथ अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशित हो चुके हैं। ११. द्वादशानुप्रेक्षा (बंगला)-प्र० जिनवाणी । जिनमें व्यसंग्रह आपके द्वारा अनुवादित भी है। प्रो० अमूल्यवरण विद्याभूषण, प्रो० विद्याअापके मुख्य कार्य-कलापकी, जोकि जैनदर्शनके सम्बन्ध- सागर कॉलेज कलकत्तामें किया है, सूची नीचे दी जाती है । दि० साधुओंके (पताः-० ५ जदुमित्रलेन, कलकत्ता) नगरों में विहार-प्रतिबन्धक आन्दोलनके समयतो आपने आप बहुत वर्षोंसे "बंगीय महाकोष" के सम्पादन एक महत्वपूर्ण लेख लिखकर दिगम्वरत्वके औचित्यकी में लगे हुए हैं। इस कोषमें जैनदर्शनके अनेक शब्दों ओर ध्यान आकर्षित किया है, जिसके फलस्वरूप वह पर विस्तृत विवेचन किया गया है । कोषके अतिरिक्त प्रतिबन्ध उठा दिया गया है। स्वतंत्र प्रकाशित जैनदर्शन सम्बन्धी लेखोंमें कतिपय अनुवादित प्रन्थ १. Jain Jatakas-प्र. मोतीलाल बनारसीदास १. द्रव्यसंग्रह-सटीक, अंग्रेजीमें अनुवादित-प्र० लाहौर, उपयुक्त ग्रन्थमालाका प्रथम पुष्प प्रकाशन- २. Culture, Origin of Jainism. सन् १९१७, मूल्य ५॥) 1. Queen, The History of the Jain २. परीक्षामुख-दि० न्याय ग्रन्थ, प्र. जैनगजट Sects, Parsvanath & Mahavir. ३. प्रमाण मीमांसा-अंग्रेजी अनुवाद, प्र० जैनगज़ट ४. National Council of Education. १६१५ Lecture on Syadwad. ४. प्रश्नम्याकरण-, , . ,, १९१५ ५. जैनधर्म-प्र.नभ्यभारत । ५. वृहद्रतिदत्तकथा-अंग्रेजी अनुवाद, प्र. जैन गज़ट ६. विजयधर्मसूरि-प्र. वानी १३१७ बंगला। १९१५ आपकी इच्छा है कि अपने कोषमें जैनदर्शनके 1. The Digambar Saints of India. सभी मुख्य एवं रूद शब्दों पर विस्तारसे विवेचन हो ७. Abuse of Jainism in non-Jain पर यह कार्य बिना जैनविद्वानोंके सहयोगके नहीं हो __Literature. सकता । आपने हमसे यहाँ तक कहा था कि यदिबंगला Published in Jain Gazette 1917 या अँग्रेज़ी भाषाविद् जैनविद्वान् शब्द-विवेचन लिख ___Vol. XIII P. 144. भेजें या हम उन्हें लिख भेजें वे उसको पड़कर शुद्धि८. Gommata Sara. Published in वृद्धि कर भेजें ताकि हमारे कोषमें अपूर्णता एवं भूल Digambar Jain. अन्ति न रहने पावे। प्राया है योग्य विद्वान उन्हें ६. The Rules of ascetics in Jainism. सहयोग देंगे। (Jain Sidhant Bhaskar. वर्ष २, ५ प्रो० सातकोडी मुखर्जी, प्रो. कलकत्ता किरण) युनीवरसिटी Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंगीय विद्वानोंकी न साहित्य में प्रगति - (पता-०२२ वृन्दावनचरणमलिकलेन कलकत्ता) Mimansa theories of the self rela प्रापका अध्ययन भी बहुत गंभीर है, जैनधर्मसे tion to knowledge. प्र. जैन सि मारकर प्रापका बहुत अनुराग है । आपके लिखित निबंध भाग ६, कि.१ ७० बिमलचरणलाह M.A. B.L. PH.D.१.अनेकान्तवाद-प्र० विश्वकोष द्वि. श्रावत्ति • अनकान्तवाद-प्र० विश्वकाष बि० श्रावात्त (पता-नं.४३ कैलास बोस स्ट्रीट, कलकत्ता) २. जैनधर्मेनारीर स्थान-प्र. रुपनंदा (अग्रहायन- पाप कलकत्तेके सुप्रसिद्ध जमींदार, पत्रसम्पादक पौष १३४४) एवं साहित्यिक विद्वान है। भारतीय प्राचीन संस्कृति के ३. The Status of women in Jain अन्वेषण में आपकी बड़ी दिलचस्पी है । बौद्ध एवं ____Religion. जैनसाहित्यसे आपका बहुत प्रेम है। आपसे में दो r. The doctrine of Relativity in Jain बार मिला था और आपके लिखित जैनसाहित्य सम्बंधी Metaphysics. लेखोंकी सूची मांगी थी और आपने कुछ समय बाद ५. सभापति भाषण-इंडियन कलचर कान्फरेन्स; जैन देनेकी स्वीकृति भी दी थी पर दो तीन बार फिरसे सूचना और बौद्ध विभाग देने पर भी साहित्य-कार्योंमें विशेष व्यस्त होनेसे प्रापसे ६. प्रो० हरिमोहन भट्टाचार्य प्रो० आसुतोष कालेज सूची नहीं मिल सकी अतः मुझे शात निबन्धोंकी सूची (पता:--नं० ३ तारारोड़ कालीघाट कलकत्ता) देकर ही संतोष मानना पड़ता है। आपके लिखे हुए निबन्ध ये है:-- १. Mahavira (His Life and Teachings f. The Jain conception of Truth and Page 113, प्रकाशक Lunac & Co; 46, reality (Proceedings of Indian G.Russel Street London W.C. I. Philosophical Congress. 1925) 1939. स्व. बाब पूर्णचंद नाहरको सपित । २. The Jain Theory of knowledge & प्रस्तुत ग्रन्थ दो विभागोंमें विभक्त है-१ महावीरकी errors. (प्र० जैनसिद्धान्तभास्कर १६३८ जन) जीवनी २ उनके उपदेश । जैन संस्कृतिका तथाविध ३. The Jain Theory of Existence & शान न होनेसे इस प्रथमें कई मूल प्रान्तिये रह गई Evolution है, तो भी आपका परिश्रम सराहनीय है। (प्र० इण्डियन कलचर १९३८ एप्रिल) २. Distinguished Menarar (?) women ४. Studies in Philosophy (प्र. मोतीलाल in Jainism.-प्र. इंडियन कलचर v. II बनारसीदास लाहौर) . 669 V. III 89. 343. इस ग्रंथमें जैनदर्शनके सम्बन्धमें कई बातें लिखी है। ३. The Kalpa Sutra प्र. जैनसिद्धान्त भास्कर ५. स्थावाद-प्र. साहित्यपरिषदपत्रिका मा० ३०, भा० ३, किरण ३-४ पृ. १४३ मा० ३१ पृ०१ ४. Studies in the Vividha-Tirtha Kalpa 8. Jain critique of the Sankhya & the (प० जैनसिद्धान्त भास्कर मा०४ कि०४१०१.६) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a [मार्गशीर्ष, बीर- दिल ८ मो० प्रबोधचंद कामची, कलकत्ता विश्वविद्यालय १० सुरेन्द्रनायदास गुप्त-'. (पवा-400 रुस्तमजी स्ट्रीट,कालीगंज, कलकत्ता) (पता-महानिर्वाण रोड बालीगंज कलकत्ता) अापकी निबन्ध-सूची निम्न प्रकार है History of Indian Philosophy नामक 4. The Historic beginnings of Jainism ग्रंथमें अापने जैनदर्शनके सम्बंधमें कई बातें लिखी Part III, 1929. (प्र० सराशूतोष मुखर्जी सिलवर ज्युबली वोलयम III ११ प्रो. सुरमा मित्र M. A.Part III 1927) (पता--नं०६ हिन्दुस्तान पार्क बालीगंज) २. One the Purvas Ho Journal of Depa- जैनदर्शनका आपने बहुत गंभीर अध्ययन किया rtment of letters V.XIV1929. है, बंगीय महिलाओंमें जैनदर्शन-प्रेमी एक मात्र आप चीनी भाषाके विशेषज्ञ है और जैन बौद्ध श्राप ही हैं। आप जैनधर्मके सम्बंध एक ग्रंथ धर्मसे भी प्रेम रखते हैं। भी लिख रही है। ९प्रो० वेणीमाधव बुड़वाM. A. D. litt. (Lon) १२ डा० सूतोष शास्त्री M. A. PH. D. श्रापकी निबन्ध-सूची इस प्रकार है (पता-नं० २ C नवीन कुंडुलेन, कालेजऐ) 1. The Ajvikas (Journal of the Depart Studies in Post Sankara Diabec ment of Letters, Calcutta Univer- ticsमें श्रापने जैन दर्शनके सम्बंधमें भी कुछ sity, Vol. II 1120) बातें लिखी बतलाते हैं। 2. A History of Pre-Budhist India १३ सतीशचन्द्र चटर्जी M.A., PH. D. l'hilosophy of Mahavira published (पता-५६ B हिंदुस्तान पार्क) by Calcutta University 1921 The Nyaya Theory of knowledge (London Doctorate) नामक आपके ग्रंथमें जैनन्याय-सम्बन्धी चर्चा है। 13. Historical Background of Jinology. १४ विनयकुमार सरकार प्रो०कलकत्ता युनिवर्सिटीand Buddhology(Calcutta Review (पता-पुलिस होसपिटल रोड) 1924.) Somedeva (The Political Philo4. Old Brahmi Inscriptions in Udaya- sopher of the tenth century) नामक giri and Khandagırı Caves. (Cal- निबन्ध अापका लिखा हुआ है,जो इण्डियन कल_cutta University Published 1929) चर (V. II Page 801) में मुद्रित हुआ है। 5. Minor Old Brahmi inscriptions in १५ स्व० सतीशचन्द्र विद्याभूषण-भारतीय न्याय the Udaigiri and Khanda giri शास्त्रके श्राप लन्धप्रतिष्टि विद्वान् थे, जैन न्यायCaves. Revised Edition (Indian साहित्यका भी आपने गंभीर अध्ययन किया था Historical Quarterly 1938.) और अपने अंथमें जैनलोजिकके सम्बंधमें विस्तारसे Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीय पिहावांकी न साहित्य में प्रगति मालोचन किया था। उसका हिन्दी अनुवाद कई १८ शिवचंद्र शीलवर्ष पूर्व “जैनहितेषी" पत्रमें लगातार कई अंकोंमें आपके निवन्धका नामादिक इस प्रकार हैप्रकाशित हुआ था। इण्डियन रिसर्च सोसायटी १ दीपावली भो भातृद्वितीया पर्व-प्र. साहित्य धारा सन् १९०६ में आपके द्वारा सम्पादित एवं परिषद पत्रिका भा० १४ पृ. ५१ अंग्रेजी में अनुवादित 'न्यायावतार' मूल वत्ति सह १८ रामदास सेन M. R.A.S.प्रकाशित हुआ था। इसके अतिरिक्त महो• यशो- आपके दो निबंध हैविजयजी गणीके सम्बंधमें आपका एक लेख भी १ जैनधर्म-प्र. "ऐतिहासिक रहस्य" पत्रिका प्रकाशित हुआ था। जैन-सम्बंधी श्रापके लिखित २ जैनमत-समालोचना-, मा० ३५० २१७ लेखोके नाम व प्रकाशनका पता इस प्रकार है:- २० सम्पादक "उद्बोधन"-आपके द्वारा लिखित 1. Maharaja Manika Lekha निबंधका नाम 'जैनसम्प्रदाय है-जो "उद्योधन" 2. Yasovijaya gani (About 1608 1688 भा० १४ पृ. ७६२ मा० १५ पृ० १०५ पर A. D.) प्र० एसोटिक सोसायटी बंगाल जनरल मुद्रित हुआ है। N.3 VI २१ उपेन्द्रनाथ दस-आपके द्वारा लिखित तथा अनु 3. The Sarak Caste of India identi वादित निबंधोकी सूची इस प्रकार हैfied with the Serike of Central १ जैनधर्म Asia-proceedings, A. S. B. 1903. २ जैनधर्म (मू. लोकमान्य तिलक) अनुवाद 4. Pariksa mukha Sutra--Bib Ind. ३ जैनतत्वशनो चारित्र -अनुवाद 5. Tattvarthadhigama Sutra-- Bib.Ind. ४ जैनसिद्धांत दिग्दर्शन -अनुवाद 6. History of Indian Logic ग्रंथमें Jain ५ जेनसामयिक पाठ स्तोत्र-भावानुवादित Logic Page 157-224 ६ जिनेन्द्र मत-दर्पण -अनुवादित 7. न्यायवतार, मूल-वृत्ति इंगलिश अनुवा० सहित- सार्वधर्म -अनुवादित प्र.इण्डियन रिसर्च सोसायटी सन् १९०६ ये सभी ट्रैक्ट बंगीय सर्वधर्म परिषद काशीसे प्रका१७ स्व० कष्णचन्द्र घोष "वेदान्तचिन्तामणि" शित हुए हैं। विशेष जानने के लिये देखें मेरा "बंगला १ या पूर्णचंद्रजी नाहर लिखित An Epitom माषामें जैन साहित्य" शीर्षक लेख, जोकि मोतवाल of jainism के सहयोगी प्रणेता। नवयुवक वर्ष ८अंक १. में प्रकाशित हो चुका है। १७ स्व० हरिहर शास्त्री- २२ बसिवमोहन मसोपान्याव-आपने 'जैन पतिआपके लिखित दो लेसोका पता चला है हास समिति का अनुवाद किया है। १जैनपुराणे वर्शित काचरित्र- २३ हरिपरनमित्र-पापद्वारा अनुवादित "मायक १ --गीय साहित्य परिषदके १४ बिगेर भाचार नामक ट्रैक्ट प्राचीन भावोवारिणी प्राषिपेतनमें पठित समाने प्रकाशित भाषा। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [मार्गशीर्ष, बीर Nि २४ स्व. नगेन्द्रनाथ वसु (पवा–विश्वकोषलेन, कलकत्ता ।) आपके सम्पादित विश्वकोषमें जैनधर्मके सम्बंधमें बहुतसे लेख प्रकाशित हुए है। एवं एक स्वतंत्र लेख मी आपके द्वारा लिखित अवलोकनमें पाया है। १ जैन पुरष काहिनी- साहित्य परिषद् पविका भा ७ पृ०७० २५ विभूति भूषणदत्तः-बाप गणित शास्त्रके विशेषज्ञ आपके लेख ये है१जैन साहित्योनाम संख्या-प्र. बंगीय साहित्य परिषद् पत्रिका मा० ३७ पृ. २८ से ३६ Mathematics of Nemichandra प्र-जैन सि० भा० भा० २ कि. २ A lost Jaina Treatise on Arith matic-प्र. जैन सि. भा०२, कि०३ २६सयार रंजनदास M.A., PH. D. The Jaina calendar मापने लिरवा है ००सि० मा० भा०४ कि.२ २७ प्रमोदलाल पाल-पापका लेख है Jainism in Bengal-अहमिडयन कलचर (Vol III) पृ. ५२४ २८ वरवन साथी (पता:--. १ मार्कस महापर कलकत्ता) १ नीतिवाक्यामृत-दि. सोमदेव सूरि रचित बखत नीति पम्प मापने संत एवं अंगमामें बीका मिली है, जो कि प्रमाणित है। २ जैनतत्ववारसा-माससे प्रकाशित २९ मतिसम-का-पवर्तक संर, बननगर) १ महावीर--मापक युगक प्रथम... से १५ में सदिय भागार मालीका परिचय छपा है पर इसमें १ पावनायके सिम श्वेताम्बर और महावीरके शिष्य दिगम्बर हुए तथा २ सिद्धार्थ यक्षके अनुग्रहसे बीरकी बुद्धि उत्कर्ष को प्राप्त हुई आदि कई प्रान्त बातें लिखी हैं। ३० रमेश्चन्द्र मजुमदार, वाइस चान्सलर दाका यूनिवर्सिटीश्रापका लेख है 'बौद्ध श्री जैनसाहित्ये कम्मश्चरित्र' प्र० "पंच पुष्प" पत्रिका भाद्र १३८ ३१ कानीपद मित्र,प्रिन्सिपल डी०जी०कालेज मुंगेर श्राप जैन साहिल्यसे बहुत प्रेम रखते हैं, अपने अध्ययनके सुफलसे समय समय पर जैन-सम्बन्धी लेख भी लिखा करते हैं। आपके प्रकाशित लेखोंकी नामावली इस प्रकार है:१ Teachers and disciples --प्र० मोडर्न रिव्यू १६३७ नवम्बर RMagic and Miracle in Jaina literature प्र० इण्डियन हिस्टोरिकल स्वारटरली The Previous Births of Se प्र. भास्कर भा०४ पृ. ४५ * Knowledge and Conduct in jain Scripture-०जैन सिदान्तभास्कर भा. ४, कि. ३ Note on Devanuppiya-प्र. जैन सिद्धान्तभाकर भा०५कि.३ ३२ यदुनाथसिंह, प्र. मीरपट कालेज, पंजाब आपके निबन्ध ये1. Indian Psychology Perception (By Jadwaath-Singb) Published by Kegan Panlo Trenich, Trub Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंगीय विद्वानों की बैच-साहित्य में प्रगति ur & co. London 1934 at 15%. तत्र जैनधर्म दिनोदिन अवनतिकी ओर अग्रसर सिका 2. Indian Realism-Published एक मात्र कारण व्यवस्थित प्रचार कार्यका प्रभाव है। ___1938 at 10s 6d. बंगाल जैसे शिक्षित प्रान्तमें इसका प्रचार बहुत कम ३३ अमृतलाल शील-- (पता-ज्युलेन हैदराबाद ) समयमें अच्छे रूपमें हो मकता है। जैनोंको अब कुम्भ आपका लेख है 'जैनदिगेर तीर्थकर' -प्र०"मानसी की निद्रा त्याग कर कर्तव्य पालनमें कटिबद्ध होजाना बो मर्मवानी" पृ० १० चाहिये। ३४ चमूल्यचन्द्र मेन, (पता--विद्याभवन विश्वभारती प्रिय पाठक गण ! इस लेखको पढ़कर आपको शांतिनिकेतन )-आपके लेग्वका नाम है बिदितही हा होगा कि समचित साधन. प्रोत्साहन Schools and Sects in jain Lite- नहीं मिलने पर भी इन विद्वानोंने कहाँ तक कार्य किये rature-4. विश्वभारती। है और साधनादि मिलने पर वे कितने प्रेम और उत्साह इनके अतिरिक्त अन्य कई विद्वानोंने भी जैनधर्म के साथ जैन साहित्यकी प्रशस्त सेवा कर सकते हैं। सम्बन्धी लेखादि लिखे है ऐसा कई ब्यक्तियोंमे अब किन किन उपायों द्वारा बंगीय विद्वानोंको मौखिक पता चला था पर उन्हें कई पत्र देने पर समुचित माधन व प्रोस्माइन मिल कर उनके द्वारा भी प्रत्युत्तर नहीं मिलनेसे इस लेखमें वह उल्लेख बङ्ग-प्रदेश में जैनधर्मका प्रचार हो सकता है, इस विषयन कर सका। में कुछ शब्द लिखे जाते हैं। प्रो० बिधुशेखर भद्राचार्य, डा० कानीलोहन नाग १ जैनग्रन्थोंका एक विशाल संग्रहालय हो और हारेन्द्रनाथदस अरनी श्रादि बंगीय विद्वानोंस मैं मिला था उममें यह सुव्यवस्था रहे कि प्रत्येक पाठकको यद्यपि इन महानुभावोंने अभी तक जैनदर्शनके सम्बंध सुगमना-पूर्वक पुस्तकें मिल सके। यदि भ्रमणशील में स्वतन्त्र कोई निबन्धादि नही लिखा है फिर भी इनकी पुस्तकालय हो नी फिर कहना ही क्या ? कलकत्तेजैनधर्मके प्रति असीम श्रद्धा है। कई कई विद्वान् तो के नैन पुस्तकालयों में सुप्रसिद्ध नाहरजीकासंग्रहालय जैनधर्मके प्रचारके सम्ममा विचार विनिमय करने पर सोत्कृष्ट है। यदि ऐसा पुस्तकालय सर्वोपयोगी और हार्दिक दुःखमभट करते हुए कहते है कि "बौद्ध धर्मके मार्वजनिक हो मके नो निस्मन्नेह एक को भारी सम्बन्धमें तो नित नये २ विचार पत्र पत्रिकाओं में अभावकी पूर्ति हो सकती है। प्रत्येक सुप्रसिद्ध उपआये दिन पढ़नेको मिलते है पर जैनी लोग योगीग्रन्थकी दो दो तीन तीन प्रतियाँ पुस्तकालयमें कर्तव्य विमुख हो बैठे है, अन्यथा कभी संभव रबन्स अावश्यक योंकि जो विद्वान उसकी एक नहीं किऐसे कर सके. अनुयायी १४ लावही प्रति मान कर कुछ लिखने के लिये ले मन्ये अतः सीमित हैं। उनके बहाने उसका देवले पापिस प्रास होना __पादरियों तथा आर्य समात्रियों ने प्रचार कार्यके बल स्वभाविक हैइसी बीच अन्य विद्वानोंको उसकी भाजयकर दिखाया है। वर्ष में जान्दियों विशेष प्रावश्यकता हुई तो अन्य प्रति हो तो उन्हें से भारतसे दूर से अयथा मनः समावि रोजगार भी मिल सके । छ, बच्चे अन्योको समय पर Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 अनेकान्त संग्रहीत करते रहने का भी प्रबन्ध होना चाहिये एवं इस पुस्तकालयकी सूचना प्रसिद्ध सभी संवादपत्रों में दे देना आवश्यक है। कलकत्ते में बंगीय विद्वानोंका खासा जमाव है। अतः पुस्तकालय कलकत्ते में ही होना विशेष लाभप्रद है । पुस्तकालयका लाइब्रेरीयन (अध्यक्ष)अनुभवी विद्वान होना चाहिये, जिससे विद्वानोंकी माँगका समुचित प्रबंध कर सके। अच्छे २ ग्रन्थ जो वे लोग मांगे और अपने पुस्तकालय में नहीं हों उन्हें तुरन्त मगाने एव हो सके तो अन्य पुस्तकालयोंसे उन्हें प्राप्त करनेका प्रबन्ध हो सके तो उसका प्रबन्ध कर सके और जो ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुए हैं उनको भी विशेष श्रावश्यकता होने पर भडारोंसे मंगा कर पाठकोंको ज्ञान - जिज्ञासाको पूर्ण कर सके । [ मार्गशीर्ष, वीर निर्वाध सं० २०१६ संगृहीत हो सकते । इसी प्रकार पत्रसम्पादक एवं प्रकाशक महाशय भी पत्र फ्री भेज सकते हैं, ऐसे उपयोगी पुस्तकालयके लिये कोई अधिक कठिनता नहीं होगी कार्यकर्त्ता संवाभावी और प्रभावशाली अनुभवी बहुत थोड़ श्रर्थव्ययसे बहुत अच्छा संग्रह एवं व्यवस्था हो सकती है । मेरे ध्यानमें ऐसा व्यवस्थित पुस्तकालय श्रागरेका विजयधर्मसूरि-ज्ञान-मंदिर है । इधर कई वर्षोंसे प्रकाशित पुस्तकोंकी उसमें कमी है उसकी पूर्ति की जामके और विद्वानोंको बाहर भेजने श्रादिका सुप्रबन्ध हो तो इस ज्ञानमन्दिरसे बहुत लाभ हो सकता है । ऐसे ही जैन सिद्धान्त-भवन श्रारा, ऐल्लक पन्नालाल सरस्वती भवन बम्बई, ब्यावर, कालरपाटन आदि दिगम्बर- पुस्तकालयों से भी सहयोग प्राप्त कर लेना परमावश्यक है । उनके सूचीपत्रोंकी नकल मुद्रित हो तो मुद्रित प्रति कलकत्ते के पुस्तकालय में रखी जाय और समय २ पर आवश्यक ग्रंथ वहाँस मंगाकर भी विद्वानों की मांग पूर्णको जाय तो बड़ा भारी ज्ञानप्रचार हो सकता है। विद्वानोंको पाठ्य एवं लेखन सामग्रीको सुविधा प्राप्त होने पर उनकी लेखनी बहुत अधिक काय कर सकेगी। आशा है जैनधर्म-प्रचार के प्रेमी धनी सज्जन इस परमावश्यक योजनाकी ओर अवश्य ही ध्यान देंगे । और इसे अति शीघ्र कार्य रूप में परिणत करके प्रचारकार्यमें हाथ बटावेंगे । हाँ, इतने विशाल पुस्तकालयके लिये बड़े भारी अर्थसग्रहकी आवश्यकता है। पर जैनसमाजके अन्य पुस्तकालयों एवं ग्रंथसंग्रहों में जिन जिन ग्रंथोंकी अधिक अतिरिक्त प्रतियाँ पड़ी हैं उनको वे इस संग्रहमें प्रदान करदें एवं जैनग्रन्थ प्रकाशक अपने प्रकाशनकी १-१ प्रति इसको भेट देदें तो हजारों रुपयेके ग्रंथ सहज (२) केवल एक पुस्तकालय स्थापनसे ही कार्य नही चलगा, साथ साथ जनेतर अन्य प्रसिद्ध पुस्तकालयोंकी भी जैनधर्मक उत्कृष्ट ग्रन्थोंकी प्रतियाँ देना परमावश्यक है, ताकि उस पुस्तकालय के ग्रन्थोंके पाठक विद्वानोंका भी जैनधर्मके आदर्श ग्रंथोंकी ओर ध्यान आकर्षित हो । कलकत्ते में विद्वानोंके केन्द्रस्थानीय पुस्तकालयोंमें इम्पीरियल लायब्रेरी, विश्वविद्यालय एवं एशियाटिक सोसायटीका पुस्तकालय, संस्कृत कॉलेज प्रथालय, बंगीय साहित्यपरिषद पुस्तकालय मुख्य हैं। इनमें उत्तमोत्तम उपयोगी जैनग्रंथोंकी ११ प्रति श्रवश्य देदेनी चाहिये । या उनके पुस्तकाध्यक्षोंको उन ग्रंथोके संग्रहकी प्रेरणा करना चाहिये । (३) पुस्तकालयके अन्दर एक अभ्यासक मंडल भी स्थापित किया जाय । बगीय विद्वानोंको जैनधर्म सम्बधी लेख - निबंध लिखनेकी प्रेरणाकी जाती रहे, प्रत्येक रविवारको भाषणका श्रायोजन हो जिनमें जैनधर्मके विद्वानों एवं अभ्यासी जैनेतर विद्वानोंका भाषण हो, अभ्यासियोंके भाषण लिखितरूपसे हों तो विशेष अच्छा हो। यानी वे प्रकाशित भी किये जासकें और समय भी कम लगे। मौखिक भाषण देनेवाले विशेष विद्वानोंके भाषणोंका सार भी शोर्टहेंडसे लिखा जाकर प्रकाशित किये जानेका प्रबन्ध होनेसे वह कार्य स्थायी एवं विशेष व्यापक होगा । सुन्दर विशिष्टनिबंध लेखकोंको पारितोषिक दिये जानेका प्रबन्ध होना भी उचित है। जिससे वे समुचित उत्साहित हो। उन निबंधोंको जैन एवं देखें, मेरा 'कलेके जैन पुस्तकालय' शीर्षक बेचा, प्र० जोसवाद मवयुवक वर्ष मक Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, निव] बंगीव-विशाबॉबीन-साहित्य प्रगति जैनेतर विशिष्ट पत्रोंमें प्रकाशित किये जानेका जैनधर्म ऊँचे शिखर पर चढ़ा हुआ था वह फिरसे प्रबन्ध रहनेसे प्रचारकार्य बहुत शीमागे बढ़ेगा। नजर अाजाय, कमसे कम हज़ारों मनुष्य मांसनिबंधोंके प्रकाशनके पूर्व अच्छी तरह परीक्षा मत्स्य मक्षणका त्याग कर सकते हैं। जिससे लाखों करलेनी चाहिये ताकि किमी लेखकने कोई मन- करोड़ों जीवोंको अभयदान मिले। प्राशावे भ्रान्ति की हो तो वह पहले ही सुधारी जा सके, अब अपना कर्तव्य संभालेगे। इमसे लेखकको अपनी भलें विदित हो जायेंगी (७) कई स्थानों में मुनिमहाराजोंके जाने में नाना असु. और प्रकाशन भी भ्रान्तिरहित होगा। विधायें हैं, उन स्थानों में कतिपय प्रचारक विद्वानों इसी प्रकार बगीय विद्वानोंके लिखित ग्रंथोंको भी द्वारा कार्य होसकता है। अनः २-४ प्रचारकोकी मिन्धी जैनप्रथमाला श्रादि द्वारा प्रकाशित करनेका भी नियक्ति परमावश्यक है, जिसमे प्रचारकार्य प्रबन्ध होना चाहिये, ताकि लेविकको प्रकाशकांके तने व्यापक एवं विशिष्ट हो। की चिन्ता न हो। इसी प्रकार अल्प मूल्यम या श्रमूल्यरूपस जैन (४) एक मामयिक मासिक पत्र भी पूर्व प्रकाशित दर्शनके मारभूत कई ग्रंथाका प्रचार इंगलिश एवं बगला "जिनवाणी" की भाति प्रकाशित किया जाय, भाषामें करने द्वारा तथा अन्य विविध योजनाओं द्वारा जिसमें हिन्दी,बंगला और अंग्रेजी लेखांको प्रकाशित पुनः पूर्ण प्रयत्न कर जैनधर्मका सदेश सर्वत्र प्रसारित किया जामके। मामयिकपत्रमे प्रगति बहुत फलवती करना परमावश्यक है। मैंने इम लपलेखमें दिशा सूचक होती है और प्रचारका प्रशस्तमार्ग सरल हो रूपसे महत्वकी कतिपय योजनाओंको ही जैन समाजके जाता है। समक्ष रखा है, अन्य विद्वान एव जैनधर्मके प्रचार प्रेमी (५) कलकत्ता विश्वविद्यालय में एक जैन चैयरकी बड़ी माजन अपने अपने विचार शीघ्र ही अभिव्यक्त करे, श्रावश्यकता है, जिसमें जैनदर्शन, साहित्य, कला एव समाज उने कार्य रूपमें परिणत करनेमें तन मन श्रादिको ममुचित शिक्षा जैनविद्वान द्वारा बंगीय धनमे महयोग दे, यही पनः पन: मादर विज्ञप्ति है। जैन, जैनेतर छात्रांको दी जाय । योग्य छात्रोको स्थानीय बगीय जैन ममाजकास दिशामें प्रयल छात्रवृत्ति भी अवश्य दी गय । कानेका मर्यप्रथम कर्तव्य है। मुर्शिदाबाद एवं कल(६) धर्मप्रचारका कार्य जैमा त्यागी विद्वान मुनियोंमे कत्तेके जैन भाइयोंको मैं पुनः उनके आवश्यक कर्तव्य हो मकता है वैमा अन्य से नहीं, उनके शान एव की याद दिलाता हूँ, आशा है वे इसपर अवश्य विचार चारित्रका प्रभाव भी बहुत अच्छा पड़ता है। जैन- करंगे एवं अन्य प्रान्तोंके भाइयांक मन्मुख भी श्रादर्श दर्शन सम्बन्धी शकाग्रीका बगीय विद्वान उनमे उपस्थित करेंगे। निराकरण कर मकते हैं और भी उनके उपदेशसे लेव ममाप्त करने के पश्चात् न. ५ योजनाके कई विद्वान प्रचार एवं माहित्य-मेवामें जुट सकते हैं मंबंधम कलकत्तेकी गत महावीर जयन्ती पर भीयक माथ ही,अादर्श सिद्धान्तोका शिक्षितसमाजमें महज बहादुरमिह जी मिंघीने जो विचार व्यक्त किये उनको प्रचार हो सकता है, पर वेद है कि हजारों जैनी कार्यरूपमें परिगत देखने को मैं उत्कंठित है। एक श्रामाम-बंगाल में रहते हैं पर उनकी प्रगति इतनी नाहरजीके कलाभवनकी ० हजारकी बहुमूल्य वस्तुएँ सीमित है कि उसका दुसरीको पता नहीं चलना। कलकत्तेके विश्वविद्याययके प्राशुतोष म्यजियमको दानश्वे. जैन मुनि एव दिगम्बर विद्वान बंगला और के मवाद मिले हैं। क्या ही अच्छा हो उनका पुस्तकालय अंग्रेजी भाषाका आवश्यक ज्ञान प्रास करके ग्राम भी न०१ योजनानुसार कर दिया जाय । प्राममे धूम तो पुनः जिन बगाल-बिहार में एक समय ... Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाकी कुछ पहेलियाँ [ी. किशोरखाच मशरू बाबा] बाहिंसाके बारे में कभी-कभी गहरे और जटिल सवाल सालके इतिहासमें उसमेंसे एक भी गामा या राममूर्ति किये जाते हैं। इनमेंसे कुछका मैं यहाँ थोड़ा भले ही न निकला हो । इन अखाड़ोंमें गामा और विचार करना चाहता हूँ। राममूर्तियोंका सम्मान, तथा मार्गदर्शनकी हैसियतसे (१) प्रश्न-पूर्णतया प्राप्त किये बगैर संपूर्ण उपयोग हो सकता है। लेकिन उन जैसा बननेकी अहिंसा शस्य नहीं है। तो फिर, सारे समाजको या सबकी महत्वाकांक्षा नहीं हो सकती। उसके उस्तादके हमारे जैसे अपूर्ण व्यक्तियोंको अहिंसाकी सिद्धि किस लिए भी वह कसौटी नहीं हो सकती। तरह मिल सकती है? दूमरा भी एक उदाहरण ले लीजिए । मेनापनिमें उत्तर-कभी कभी बहुत गहरे विचार में उतर मानेबुद्ध-शास्त्रकी जितनी काबिलियत चाहिए उतनी हरेक से हम गगन-विहारी बन जाते हैं। कसरत करनेवाला छोटे अमलेमें, तथा छोटे अमलेकी जितनी काबिलियत हरेक व्यक्ति दौड़ती हुई मोटर रोकने, या चार-पाँच सामान्य सिपाहियोंमें हो, ऐमी अपेक्षा कोई नहीं करेगा। मनका पत्थर छाती पर रखने या गामाकी बराबरी करने उसी तरह गांधीजीकी अहिंसावृत्ति हरेक कार्यकर्ता की शक्ति प्रास नहीं कर सकता । फिर भी, यह मुमकिन अपनेमें पा न सके, अथवा कार्यकर्ताकी लियाकत है कि इन लोगोंमें भी बढ़कर कोई पहलवान दुनियाँमे साधारण जनतामें श्राना संभव न हो, तो इसमे घबपैदा हो। अगर इन्हींको शारीरिक शक्तिका श्रादर्श रानेकी कोई बात नहीं। उससे उल्टी स्थितिकी अपेक्षा माना जाये तो साधारण प्रादमी--चाहे वह कितनी भी करना ही ग़लत होगा । जरूरत तो यह खोजनेकी है कि मेहनतसे शरीरको मजबूत बनानंकी कोशिश करे, तो अहिंसाकी कम से-कम तालीम कितनी और किस भी-अपर्ण ही रहेगा । तब क्या श्राम जनताके लिए तरहकी होनी चाहिए ! उससे अधिक लियाकत रखनेजो अखाड़ेवे बन्द कर दिये जाये ? उत्तर साफ है वाला मनुष्य एक छोटा नेता. या गांधी, या सवाई कि 'नहीं' । क्योंकि अखाड़ोका मुख्य उद्देश्य गामा जैस गांधी, मी बन सकता है। वैसी सदभिलाषा व्यक्तियों के पहलवानोंको ही निर्माण करना नहीं है, बल्कि साधारण दिलमें भले ही हो, लेकिन जो उस तक नहीं पहुँच दुनियादारीमें सैकड़ों श्रादमियोंको जितनं और जिस सकता उसे निराश होनेकी जरूरत नहीं। उसके लिए प्रकारके शारीरिक विकासकी जरूरत हो उतना और परीक्षाकी कम-से-कम लियाकत हासिल करनेका ही उस प्रकारका विकास जो व्यायामशाला करा सकती ध्येय रखना काफी है। है उसे हम सफल संस्था कहेंगे; फिर चाहे उसके सौ (२) प्रश्न-जिसे क्रोध प्राता हो, जो गुम्से में Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिलाको पोलिग कभी वचोंको पीट भी देता हो, जिसकी किसीके साथ विचार जिसके मनमें पाते हते हैं और जो उस बात बोलचाल भी हो जाती हो, ऐसा शख्स क्या यह कह को मूल ही नहीं सकता; बलिक बदला लेनेके मौके मकता है कि उसकी अहिंसाधर्ममें श्रद्धा है! हीदता है, और उस भादमीका कुछ अनिष्ट हो उत्तर-हम इस वक्त जिस प्रकारकी और जिस तब खुश होता है, उसके दिलमें हिंसा, देष या बैरकी क्षेत्रकी अहिंसाका विचार कर रहे हैं उसमें "गुस्से के वृत्ति है । कोष भी पाये शोक भी हो, फिर भी, अगर मानीमें क्रोध" और "वेष, बेर, जहरके मानीमें क्रोध' मनमें ऐसे भाव न उठ सकें तो वह अहिंसा है। नुकका भेद समझना जरूरी है। मां-बाप, शिक्षक आदि सान करने वालेका बुरा न चाहनको शुभपत्ति जिसके कभी-कभी बचों पर गुस्मा करते हैं और सज़ा भी दिलम है वह प्रसंगवशात् क्रोधवश होता हो, तो भी वह देते हैं । रास्ते पर, पानीके नल या कुएँ पर कमी-कभी अहिसाधर्मका उम्मीदवार हो सकता है। यह एक स्त्रियों में बोलचाल हो जाती है। पड़ोसियोंमें एकका दूसरी बात है कि जितनी हदतक यह अपने गुस्सेको कचरा दूसरेके घरमें उड़ने जैमी छोटी-सी बात पर भी रोकना सीखेगा उतना ही वह अहिंसा में ज्यादा शक्ति झगडा हो जाता है । बुढ़ापे या बीमार्गमें अनेक लोग हासिल करेगा। तात्विक दृष्टिसे कह सकते हैं कि इस बदमिजान हो जाते हैं और छोटी छोटी बातोंमे चिढ़ने 'चिदके क्रोध' और 'वैर के कोच में सिर्फ मात्राका ही है । यह मब क्रोध ही है और दुर्गुण भी, इतने परसे भेद है। फिर भी यह भेद उतना ही बड़ा और महत्व हम इन लोगोंको द्वेषी, जहरीले, या वैरवृतिवाले नहीं का है जितना कि नहानेका गरम पानी और उबलते कहेंगे । उलटे, कई बार यह भी पाया जायगा हुए गरम पानीका है। कि खुले दिलके और मरल स्वभावके लोगोंमें ही इस (३) प्रश्न-हम या भाषणों में प्रविपक्षीका मजाक प्रकारका क्रोष ज्यादा होता है और कपटी आदमी सादा उड़ाने, बाग्वाण चलाने या तिरस्कारकी भाषा इस्तेमाल मंयम बताते हैं। इसप्रकारका गुस्मा जिसके प्रति प्रेम करनेमें जो अहिसा का भग होता है वह किस हद तक और मित्रभाव हो, उसपर भी होता है। बल्कि उमी पर निर्दोष माना जाये ? ज्यादा जल्दी होता है; पराये श्रादमी पर कम होता है। प्रत्तर-मान लीजिए कि हिमाका सादा अर्थ है यह स्वभाव, शिक्षा, संस्कार वीरहकी कमीका परिणाम घाव करना । जो प्रहार दूसरेको पायके जैसा मालम है। लेकिन देषवृत्तिका नहीं । अहिंसा-धर्म में प्रगति करने होता है, यह हिंसा; फिर यह हाथ-पैर या शस्त्रसे उसके एक पादरपात्र सेवक और अगुवा बननके लिए किया हो, शन्दस किया हो, याकि दिलसे छिपी हुई यह त्रुटि जरूर दूर होनी चाहिये। ऐसा नहीं कि ऐमी बददुना ही हो । स्थल घाव जब सीधी कुरीका होता है त्रुटि होनेके कारण कोई वादमी अहिंसाधर्मका सिपाही तो कम ईजा देता है। टेडी बरछीका हो तो बदनका भी नहीं हो सकता । अहिंसा के लिए जो वस्तु महत्वको ज्यादा ज्यादा हिस्सा चीर डालता है। नकलीकी तरह है वह अष या प्रवर-वृत्ति । जब किसीने कुछ नुकीला शस्त्र हो तो उसका घाव और भी ज्यादा खतरनुकमान या अपमान किया हो तब उसका बदला किस नाक होता है। उमी तरह सन्दोका पाव सीधा हो तो तर लें, उसे नुकसान किस तरह पहुँचायें, वरीय मितनी ईना देता है, उससे बाम रष्टिसे विनोदात्मक Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [मार्गशीर्ष, वीर निर्वाच सं०१४ लेकिन तिरस्कार और वक्रतायुक्त शब्द ज्यादा चोट कलता हो, वहाँ जो शख्न अहिंसाकी उच्च मर्यादाका पहुँचाता है। जो प्रतिपक्षीके नाजुक भागको जल्म पालन नहीं कर सकता, वह उनका श्राश्रय ले तो पहुँचाता है, वह घाव ही है। और यह तो हम जान ममाज के लिए आवश्यक अहिंमाकी मर्यादाका पालन सकते हैं कि हमारा शब्द किमी अादमीको महज़ विनोद हुआ माना जायगा । जहाँ वैसा आश्रय लेने की गुजा. मालूम होगा या प्रहार । इमान्ना अहिमाम ऐमे प्रहार इश न हो (जैसे कि, जब चोर या हमला करनेवाला करना अयोग्य है। प्रत्यक्ष सामने पाया हो) वहाँ वह अपनी श्रात्मनाके (४) प्रश्न-अहिंसा में अपनी व्यक्तिगत अथवा निए और गुनहगारको पुलिस के हवाले करनेकी गर्नम संस्थाकी रक्षा, अथवा न्याय के लिए पुलिस या कच- उसे अपने वशमं लाने के लिए,जितना आवश्यक हो उनने हरीकी मदद ली जा सकती है या नहीं? चोर, डाक ही बलका उपायग करे ना उममें होने वाली हिंमा क्षम्य या गुंडोंके हमलेका सामना बलमे कर सकते हैं या नहीं मानी जायगी। मगर, बान यह है कि ग्राम तोर पर अहिंसावादी स्त्री अपनी इज्जत पर आक्रमण करने लोग उतने ही बलका प्रयोग करके रुकते नहीं । कम्जेवाने पर प्रहार कर मकती है या नहीं? में आये हुए गुनहगारको बुरी बुरी गालियाँ देते श्रीर उत्तर-यहां पर सामान्य जनता और प्रयत्नपूर्वक इतनी बुरी तरह पीटते हैं कि बाज दफा वह अधमरा अहिंसा की उपासना करने वाले में कुछ भेद करना हो जाता है । यह हिंसा अक्षम्य है; यह हैवानियत है । चाहिए । जो अपेक्षा एक विचारक अस्मिक कार्यकर्ता ममान को ऐमे पायम परहेज रखनेको तालीम देना से रखी जाती है वह सामान्य जनतासे नहीं रखी जाती ज़रूरी है। अहिमा पसन्द समाजके लिए यह ममम मतलब, सामान्य जनताके लिए अहिसाकी मर्यादा लेना ज़रूरी है कि हरेक गुनहगारको एक प्रकारका कुछ मोटी होनी अनिवार्य है। इसलिए अगर हम रोगी ही मानना चाहिए । जिस तरह तलवार लेकर इतना ही विचार करें कि सामान्य जनताके लिए अहिंसा दौड़ते हुए. किमी पागलको या साभपातमे उद्दडता धर्मका कब और कितना पालन ज़मग मममना करने वाले किसी रोगीको जबरदस्ती करके भी वशम चाहिए तो काफी होगा । ममझदार व्यक्ति अपनी २ लाना पड़ता है, उमी तरह चार, लुटेरे या अत्याचारीशनि के मुताबिक इससे आगे बढ़ सकते है। को पकड़ तो लेना होगा, लेकिन पागन या मनिपात इस दृष्टिगे, अहिंसाके विकास के मानी है जंगलके वाले मरीजको बशर्म करने के बाद हम उसे पीटते नहीं काननमें से मभ्यता अथवा कानुनी व्यवस्थाकी ओर रहते । उलटे, उसको रहम की दृष्सि देखते हैं । यही प्रयाण | अगर हरेक आदमी अपने भपहाता या अन्याय दृष्टि दूसरे गुनहगारोंके प्रति भी होनी चाहिए। उसे कर्ताके सामने हमेशा बनूक उठाकर या अपने बादहम पुलिसको सौपते हैं इमकी मानी ये है कि वैसे मियोंको कहा करके ही बड़ा होता रहे तो वह जंगल- रोगियोंका इलाज करनेवानी मंस्थाके हाथ हम उमे का कायदा कहा जायगा । इमलिए जहां पुलिस या दे देते हैं। कचहरीका प्राश्रय लेने के लिए. भरपूर समय या अनु (हरिजन-सेवासे) MEREmmm Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊँच-नीच-गोत्र विषयक चर्चा । लेखक-श्री. बालमुकुन्द पाटोदी जैन जिज्ञासु' ] इस लेखके लेखक पं. बालमुकुन्दजी किशनगंज रियासत कोटाके निवासी है। पचपि माप कोई प्रसिद्ध लेखक नहीं है परन्तु मापके इस लेख तथा इसके साथ भेजे हुए पत्र परमे यह साफ मायम होता भाप नदी ही विनम्र प्रकृतिके लेखक तथा विचारक है, और अच्छे अध्ययनशील तथा लिखने में चतुर बाम पाते है। अपने उपनामके अनुसार आप सचमुच ही जिज्ञासु हैं. इसीलिये मापने अपने पत्रमें लिखा है-"भापका अनेकान्तपत्र बहुत ऊँची श्रेणीका है और बड़े-बड़े उचकोटिके विद्वानोंसे सेवित है। यदि मुझ बालक (शामहीन) का यह श्वारूप प्ररनारमक लेख भनेकान्तपत्र छापना उचित हो तो कृपया छाप दीजियेगा और मही तो पति श्रापको अपने परोपकारस्वरूप शुभ कार्यों में अवकाश मिले तो कृपया किसी प्रकार उत्तर लिखकर मेरा समाधान करके मेरी ज्ञानवृद्धि में सहायक तो होना चाहिये ।' साथ ही, यह भी प्रकट किया है कि "मैंने पावसक किसी भी जैनपत्र में इच्छा रहने पर भी कई कारणों के वशवती होकर कुछ भी लेख नहीं लिखा है।" और इसके बाद अपनी कुछ त्रुटियोंका--जो बहुत कुछ साधारण जान पड़ती हैं - उल्लेख करते हुए लिखा है-"इतमा सब कुख होने पर भी, केवल अपनी ज्ञानवृद्धि के लिये, मेरे हृदयमें लिखने की इच्छा अब कुछ विशेष हुई है। इसलिये प्रश्नात्मक रूप यह लेख जिज्ञासु भावनासे प्रेरित होकर जिस्खा जाता है।" और इससे प्रापका लेख लिखनेका यह पहला ही प्रयास जान पड़ता है, जिसमें भाप बहुत कुछ सफल हुए हैं। इस तरहके न मालम कितने भच्छ लेखक अपना शक्तिको छिपाए और अपनी इच्छाको दबाए परे हुए हैं-उनें अपनी इच्छाको कार्य में परिसात करने और अपनी शक्तिको विकसित करनेका अवसर ही नहीं मिल रहा है, यह निःसम्देह खेदका विषय है। मैं चाहता है ऐसे लेखक संकोच छोड़कर भागे भाएँ और लेखनकखामें प्रगति करके विचार पेत्रको उम्नत बनाएँ। भनेकान्त ऐसे लेखकोंका हृदयसे अभिनन्दन करने और उन्हें अपनी शक्तिभर यथेष्ट सहयोग प्रदान करनेके लिये उपत है। लेखक महोदयकी जिज्ञासा वृप्ति के लिये मैंने लेख में कहीं-कहीं कुछ समाधानात्मक फुट नोट्स बगा दिये हैं, उनमे पाठकों को भी विषयको ठीक रूपसे समझने में भासानी होगी । विशेष समाधान श्रद्धेय गाय सूरजमानजी करेंगे, ऐसी भाशा है, जिनके लेखको सय करके ही यह प्रश्नात्मक लेख लिखा गया है और जिनसे समाधान मांगा गया है। -सम्पादक] घानेबान्तकी द्वितीय पकी प्रथम किरसमें एक लेख भावि गुण देखते ही बनते हैं। मुझ जैसे अपने मन - 'गोत्रम्मानित-र-नीचता' शीर्षक प्रकाशित की शक्ति नहीं कि उसकी विशेषनामोंका बर्वन हुआ है, बोकियोमुख एम्म बापू सूरबमानजी साहब कर सके। वकीका बिसा हुआ है। वास्तवमें पपा के अंत लेखमें गोम्मटसार-कर्मकावसकी वीं गाया देकर स्तबमें प्रविष्ट होकर विखा गया है, उसकी गंभीरता, उच और नीच गोरके स्वरूपका वर्णन किया है पर्यात् गहरी वावीन. सका शाजाविषय, अनुभव पूर्वता बसखापा किसकी परिपाटीके कमसे से पाये Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ [मार्गशीर्ष, वीर निर्वावसं२४ लेकिन तिरस्कार और वक्रतायुक्त शब्द ज्यादा चोट कलता हो, वहाँ जो शल अहिंसाकी उच्च मर्यादाका पहुँचाता है। जो प्रतिपक्षीके नाजुक भागको जल्म पालन नहीं कर सकता, यह उनका प्राश्रय ले तो पहुँचाता है, वह घाव ही है। और यह तो हम जान समाजके लिए आवश्यक अहिंमाकी मर्यादाका पालन सकते हैं कि हमारा शब्द किमी श्रादमीको महज विनोद हुआ माना जायगा । जहाँ वैमा श्राश्रय लेनेकी गुजा. मालूम होगा या प्रहार । इमन्निा हिमाम ऐमे प्रहार इश न हो (जैसे कि, जब चोर या हमला करनेवाला करना अयोग्य है। प्रत्यक्ष सामने पाया हो) वहाँ यह अपनी श्रात्म-रत्नाके (४) प्रश्न-अहिंसामं अपनी व्यक्तिगत अथवा लिए और गुनहगारको पुलिमके हवाले करनेकी गईम संस्थाकी रदा, अथवा न्याय के लिए पुलिस या कच- उसे अपने वशमं लाने के लिए,जितना आवश्यक हो उनने हरीकी मदद ली जा सकती है या नहीं ! चोर, डाक ही बलका उपायग करे ना उममें होने वाली हिंमा क्षम्य या गुंडोके हमलेका सामना बलमे कर सकते हैं या नहीं मानी जायगी। मगर, बान यह है कि आम तोर पर अहिंसावादी स्त्री अपनी इज्जत पर आक्रमण करने लोग उतने ही बलका प्रयोग करके रुकते नही । कनेवाने पर प्रहार कर सकती है या नहीं ? में आये हुए गुनहगारको बुरी बुरी गालियाँ देते और उत्तर-यहां पर सामान्य जनता और प्रयत्नपूर्वक इतनी बुरी तरह पीटते हैं कि बाज दफा वह अधमरा अहिंसा की उपासना करने वाले में कुछ भेद करना हो जाता है । यह हिंसा अक्षम्य है; यह हैवानियत है। चाहिए । जो अपेक्षा एक विचारक अहिंमक कार्यकर्ता ममाजको ऐसे बर्नाम परहेज रम्बनेकी तालीम देना से रखी जाती है वह सामान्य जनतासे नहीं रखी जाती ज़रूरी है। अहिंमा पसन्द समाजके लिए यह ममझ मतलब, सामान्य जनताके लिए अहिमाकी मर्यादा लेना ज़रूरी है कि हरेक गुनहगारको एक प्रकारका कुछ मोटी होनी अनिवार्य है। इमलिए अगर हम रोगी ही मानना चाहिए । जिस तरह तलवार लेकर इतना ही विचार करें कि सामान्य जनताके लिए. अहिंसा दौड़ते हुए किमी पागलको या सानपातम उद्दडता धर्मका कब और कितना पालन ज़रूरी मममना करने वाले किसी रोगीको जबरदस्ती करके भी वशम चाहिए. तो काफी होगा। ममझदार व्यक्ति अपनी २ लाना पड़ता है, उमी तरह चोर, लुटेरे या अत्याचारीशक्ति के मुताबिक इमसे आगे बढ़ सकते है। को पकड़ नो लेना होगा, लेकिन पागल या मनिपान इस दृष्टिसे, अहिंसाके विकास के मानी है जंगलके वाले मरीजको बशमं करने के बाद हम उसे पीटते नहीं कानुनमें से मभ्यता अथवा कानुनी व्यवस्था की ओर रहते । उलटे, उसको रहम की दृष्टिस देखते हैं । यही प्रयाण | अगर हरेक आदमी अपने भयदाता या अन्याय दृष्टि दूसरे गुनहगारोंके प्रति भी होनी चाहिए। उसे कर्ताके सामने हमेशा बनूक उठाकर या अपने श्राद- हम पुलिसको सौंपते है इसकी मानी ये है कि वैसे मियोंको कहा करके ही बड़ा होता रहे तो वह जंगल. रोगियोंका इलाज करनेवानी मंस्थाके हाथ हम उसे का कायदा कहा जायगा । इमलिए जहां पुलिस या दे देते हैं। कचहरीका प्राश्रय लेने के लिए भरपूर समय या अनु (हरिजन- सेमे) mupos de interen Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊँच-नीच-गोत्र विषयक चर्चा । लेखक-श्री. बाबमुकुन्द पाटोदी जैन जिज्ञासु'] [इस बेखके बेखक पं. बालमुकुन्दजी किशनगंज रियासत कोटा निवासी है । पचपि चाप कोर प्रसिद्ध लेखक नहीं हैं परन्तु मापके इस लेख तथा इसके साथ भेजे हुए पत्र परसे यह साफ मावन होता भाप बढ़ी ही विनम्न प्रकृतिके लेखक तथा विचारक हैं, और अच्छे अध्ययनशील तथा लिखने में बार बार पड़ते। अपने उपनामके अनुसार भाप सचमुच ही जिज्ञासु हैं. इसीजिये पापने अपने पत्र लिखा है-"मापन भनेकाम्नपत्र बहुत ऊँची श्रेणीका है और बड़े-बड़े उसकोटिके विद्वानोंसे सेवित है। यदि मुझ बालक (ज्ञानहीन) का यह चर्चास्प प्रश्नात्मक लेख अनेकान्नपत्रमें छापना उचित हो तो कृपया छाप दीजियेगा और नहीं तो पति आपको अपने परोपकारस्वरूप शुभ कार्योंमे अवकाश मिले तो कृपया किसी प्रकार सर लिखकर मेरा समाधान करके मेरी ज्ञानवृद्धि में सहायक तो होना चाहिये। साथ ही, यह भी प्रकट किया है कि मैंने बाबतक किलो भी जैनपत्र में इच्छा रहने पर भी कई कारणों के वशवर्ती होकर का भी लेख नहीं लिखा है।" और इसके बार अपनी कुछ त्रुटियोंका-जो बहुत कुछ साधारण जान पड़नी हैं - उल्लेख करते हुए लिखा है-"इतना सब कर होने पर भी, केवल अपनी ज्ञानवृद्धि के लिये, मेरे हृदयमें लिखनेकी इच्छा अब कुछ विशेष हुई है। इसलिये प्रश्नात्मक चर्चास्प यह लेख जिज्ञासु भावनासे प्रेरित होकर लिखा जाता है।" और इसमे भापका बिजनेका यह पहला ही प्रयास जान पड़ता है, जिसमें पाप बहुत कुछ सफल हुए इस तकनमाम किसने मच्छे लेखक अपनी शक्तिको छिपाए और अपनी इच्छाको दबाए पड़े हुए है-उनें अपनी इच्छाको कार्य में परि. गत करने और अपनी शक्तिको विकसित करनेका अवसर ही नहीं मिल रहा है, यह निःसन्देह खेदका विषय है। मैं चाहता हूँ ऐसे लेखक संकोच छोड़कर भागे पाएँ और लेखनकला में प्रगति करके विचार क्षेत्रको उम्मत बनाएँ। अनेकान्त ऐसे लेखकोंका हृदयसे अभिनन्दन करने और उनें अपनी शक्तिमर यथेष्ट सहयोग प्रदान करनेके लिये उपतो। लेखक महोदपकी जिज्ञासा तृप्तिके लिये मैंने लेख में कहीं भी कुछ समाधानात्मक फुट नोड्स लगा दिये हैं, उनप पाठकोंको भी विषयको ठीक रूपसे समझनेमें भासानी होगी । विशेष समाधान प्रदेष बाबू सूरजभानजी करेंगे, ऐसी माशा है, जिनके लेखको सय करके ही यह प्रश्नात्मक लेख लिखा गया है और जिनसे समाधान मांगा गया है। -मम्पादक] घानेकान्तकी वितीय यांची प्रथम रिखमें एक मेख भादि गुव देखते ही बनते हैं। मुझ से परे मनुष - 'गोत्रमाश्रित-च-नीचता' शीर्षक प्रकाशित की शकि नहीं कि उसकी विशेषताओंका वर्णन हुचा है, जो किबोरब पल्ममा सरबमानजी साहब कर सके। बीचका विसा पास वास्तवमें पदार्थ के अंत मेसमें गोम्मसार-कर्मकाण्डकी एवीं गापा देकर स्वसमें पविलिया है, उसकी गंभीरता, और वीर गोत्रके स्वरूपका वर्णन किया जात गहरी पावचीय. मापा जावाविप, अदुमय पूर्वता बजावाकिसकी परिपाटीके कमसे मारे Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त मार्गशीर्ष, वीर निवांश सं०२३६६ जीव पाचरखको 'ऊँच गोत्र' और नीचे पाचरण- अपनी बीसे संतुष्ट रहना. वेश्यागमन-परखी गमन न को 'नीच गोत्र' कहते है। ऊँचगोत्र-सूचक ऊँचे करना, पति खोम न करना, दूसरेका हक (स्वत्व ) भाचरणको सम्यक् चारित्र, धर्माचरण वादिन माग- सपना बैठना, पलीकी शक्तिपे अधिक व्याज न लेना, कर व्यवहार पोग्य कुलाचरण, नागरिकका प्राचरण या पति तृष्णा न करना, अपनेमे न सँभन सके ऐसे सभ्य मनुष्यका भाचरण पावि माना है। और व्यापाराविको न बढ़ाना प्रावि सहस्रों प्रकारके उंच बीचगोत्र-सूचक नीचे पाचरणको मिथ्याचारित्र, गोत्र सूचक व्यवहारयोग्य सभ्य कुलके ऊँचे पाचरण अपांचरण मादिन मानकर खोटा लौकिक पाचरण, हैं। और गर्वोन्मत्त होकर निरपराधोंको मार डालनाखोकव्यवहारके अयोग्य अगरकेतोंका निब माचरण काट डरावना उन्हें सताना, अनेक प्रकारके कष्ट देना पा असभ्य मनुष्योंका भाचरण प्रादि माना है। और उनका चित्त दुखाना, गुरुजनोंका अपमान तिरस्कार ऐसा मानकर सम्यक् चारित्र, धर्माचरण और व्यवहार- करना, दूसरेकी धरोहर हबप जाना, प्रण लेकर नहीं योग्य कुखाचारण या सभ्य मनुष्यके भाचरणमें तथा देना, अधिक तौलकर लेना तथा कम तौल कर देना, मिष्याचारित्र, अधर्माचरण और ठग-रकेतोंके निया चोरी करना. डाका डालना, किसीका धन ठग लेना, चरण पा असभ्य मनुष्य के प्राचरणमें भेद व्यक्त किया झूठ बोलना, झूठी साती देना, दूसरेमे विश्वासघात है। और इस तरह पर ऊँचे पाचरणका अर्थ व्यवहार करना, बचन देकर नट जाना, ऐसी बान कहना जिससे योग्य कुलाचरण और नीचे भाचरणका अर्थ :ग. दुसरा संकट में पड़ जाय, पुत्र-माई-मातेदार पड़ोसी मित्र केतोंका निच मुलाचरण गाया है। अर्थात उपयुक्त माविकी खियोंसे बलात्कार व्यभिचार करना, परखी. अभिप्राय निकाला है। विधवा दासी वेश्यादिको घरमें डाल खेना या उनमे परन्तु यदि देखा जावे तो संसारमें दो ही प्रकारके छिपकर अथवा प्रकट रूपमें व्यभिचार करना, प्रति भाचरण रष्टिगोचर होते हैं-एक संयमाचरण और तृष्णा व प्रति लोभ करना, दूसरेके धनको-हने के दूसरा असंयमाचरण । बोकम्यवहार-योग्य मभ्य कुनके स्थानको हाइप जाना, अधिक ब्याज लेना, अपनेसे न मनुष्यके भाचरणको संघमाचरण अर्थात् ऊंचा भाचरण संभल सके इतने व्यापार मन्त्रालयादिको बढ़ाते जाना कहते हैं और लोकव्यवहारके अयोग्य असम्यकुलके ठग- प्रादि सहबों प्रकारके नीच गोत्र सूचक व्यवहारके रकेतोंके निध भाचरणको पसंयमाचरण अर्थात् नीचा अयोग्य असम्म ठग रकेतोंके निच कुलके नीचे भाचरण भाचरण करते हैं। जैसे माता पितादि गुरूजनोंकी सेवा है। व्यवहारयोग्य सभ्य कुलके मनुन्यों में कम स्याग व मना, रोगियों को मौषधि भादि देना, असमर्थदीनोंकी का संगम होता है और प्रती भावक - मुनियों में * प्रकारसे सहायता करना, किसीकी धरोहर उसे अधिक त्याग बधिक संवम पा पूर्व संपम होता है, बैसीकी वैसी वापस देना, बसेर पूरा चुकाना, और इसी तरह पर गोलोंके असम्म बाबोंमें बीक परे तौबसे देना तथा जैसे ही पूरा ना, कह नहीं अति संवम पूर्वमसंगम होता है। और इस पोलमा, मूडी सानी नहीं देवा, किसीको बचन देकर तह पर महार योग्य सम्बारबर माचरण विभावा, सरेकी सीको माता-बहिन पा वेढी समझना, एकही बात सवा सम्य असावा असंचमा. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊँचबी-गोत्र विषयक पर्चा पर भी एक ही बात है। नीच-गोत्र सरूपमें कोई विशेष प्रतिभासित नहीं में यहां प्रश्न करता कि ऊँचगोत्र सूचक होगा ।लामेरा यह कहना टीका त ॐ भाचरणका अर्थ व्यवहारयोग्य सम्म मुखाचरण प्रकारसे मानने पर मलिदाससे क ई विशेष - संचम भाचरण दोनों ही प्रकारका पाचरण किया नहीं पाएगा। जावे तथा नीच गोत्र सूचक नीचे भागरणका अर्थ ठग- भागे दिला है कि सपही देव (कल्पवामी मावि रकेतोंके असभ्य कुखका पाचरण व असंयमाचरण धर्मात्मा के भवनवासी शादि पापाचारी देव) और दोनों ही प्रकारका भाचरण किया जावे और म्यवहार- भोग भूमियाँ जीब-साहेबे सम्पटिहों या मिथ्यायोग्य मभ्य कुलाचरण तथा धर्माचरणमें और ठग- रष्टि-जो अणु मात्र भी चारित्र प्रहल नहीं कर सकते रोनी के असभ्य कुलाचरणमें और असंयमाचरणमें भेद वे तो उस गोत्री है और देशचारित्र धारण कर सकने व्यक्त न किया जावे तो क्या हानि है? वाचे पंचम गुणस्थानी संज्ञी पंचेन्द्रिय तिथंच नीच भागे चलकर श्रीज्मणवस्वामीकृत सर्वार्थमिद्धिमें गोत्री ही है।' वर्णित ऊँचगोत्र और नीचगोत्रका स्वरूप यह श्री वीर भगवान्ने अपने शासनमें विरोध रूप बतलाया है कि 'लोक पृजित कुलों में जन्म होनेको शत्रुको नष्ट करने के लिये अनेकान्त अपना अपेशावाद ऊँच गोत्र व गर्हित कुखोंमें जन्म होनेको नीचगोत्र का स्याद्वाद जैसे गंभीर सिद्धान्त-अमोपासका निर्माण कहते हैं।' किया है, फिर जहाँ हमें कुछ विरोध प्रतिभासित हो ___ यहाँ पर लोकपूजिन कुल व गर्हित कुलका स्वरूप वहाँ हम अनेकाम्नमे विरोधका क्यों न ममन्वय कर में विचारना चाहिये। जो कुल अपने हिंसा मठ-चोरी क्यों न अपेशावादका उपयोग करें। और यह समन्वय प्रादि पापोंके त्यागरूप अहिमा सत्य-शीत-संयम दान इस प्रकारमे कर लिया जाये तो क्या कोई बैनभदि धर्माचरणोंके धारणरूप भाचरणों के कारण पज्य मिवाम्नमें विरोध भावेगा?हैं-सम्मानित है-प्रतिष्ठा प्राप्त है वे ही कुल लोक- कल्पवासी देवों और भवनत्रिक देवों में जो उस. पूजित न माने जाने चाहिये-राज्य-धम सैन्य बल गोत्रका उदय बतलाया है वह उनके शक्तिशालीपनेकी पादिके कारण पूजित कुल खोक पजिन नहीं माने जाने अपेक्षा व विशिष्ट पुल्योगको अपेक्षा है और यह भी चाहिये । जो कुता हिंसा मर-चोरी भादि पापाचरणोंके केवल मनुष्यों के मानने के लिये अर्थात मनुष्य ऐमा कारण गहिन है वे गर्हित कुल माने जाने चाहियें। मानें कि देव हममे है, ऐसा मानना चाहिये। और इस तरह पर धर्माचरणोंके कारख जोकोहारा और इसी प्रकार निर्यों में जो नीच गोत्रका उदय पृवित कुनमें सन्म देनेवालेको 'चगोत्री' व पापा- बतबाबा यह उनके पशुपने व विशिष्ट पापोदयकी परयोंसे गहित कुबमें जन्म लेनेवालेको नीच-गोत्री धपेरा है, और वह भी केवल मनुष्यों के माननेकी मानना चाहिये, और ऐसा मानसे गोजरसारकी पपेस पर्थात् मनुष्य ऐमा मागे कि तिर्वच हमसे की गाथामे बर्षित च-बी-गोत्र स्वल्पमें और नीचे है, ऐसा मानना चाहिये । इसी तरा पारकियों में बीएमपारस्वामीरचित सर्वार्थसिदिमें बर्षित - मीमो नीच गोषका पदप बसवावासीले Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त मार्गशीर्ष, बीर निर्वाय सं०२६॥ जीव पाचरणको 'ऊँच गोत्र' और नीचे भाचरण- अपनी बीसे संतुष्ट रहना. वेश्यागमन-परखी गमन न को 'नीच गोत्र' कहते है। ऊँचगोत्र-सूचक ऊँचे करना, पति बोम ब करना, दूसरेका हक (स्वत्व ) पाचरणको सम्यक् चारित्र, धर्माचरण बादि न मान- न दवा बैठना, बीकी शक्तिपे अधिक ब्याज न लेना, कर व्यवहार योग्य कुलाचरण, नागरिकका भाचरण या अति तृष्णा न करना, अपनेमे म सँभल सके ऐसे सभ्य मनुष्यका माचरण मादि माना है। और व्यापारादिको न बदाना भावि सहस्रों प्रकारके ऊँच नीचगोत्र-सूचक नीचे पाचरणको मिथ्याचारित्र, गोत्र सूचक म्यवहारयोग्य सभ्य कुलके ऊँचे पाचरण अधर्माचरण चादि न मानकर खोटा लौकिक प्राचरण, है। और गर्वोन्मत्त होकर निरपराधोंको मार डालनालोकम्यवहारके अयोग्य आरकेतोंका निच आचरण काट डालना उन्हें मताना, अनेक प्रकारके कष्ट देना या असभ्य मनुष्योंका भाचरण मादि माना है। और उनका चित्त दुखाना, गुरुजनोंका अपमान तिरस्कार ऐसा मानकर सम्यक् चारित्र, धर्माचरण और व्यवहार करना, दूसरेकी धरोहर हरूप जाना, पण लेकर नहीं योग्य कुलाचारण पा सभ्य मनुष्यके भाचरणमें तथा देना, अधिक तौलकर खेना तथा कम तौल कर देना, मिण्याचारित्र, अधर्माचरण और ठग-रकेतोंके निया चोरी करना. डाका डालना, किसीका धन ठग लेना, परयया असभ्य मनुष्यके आचरणमें भेद व्यक्त किया मठ बोलना. मठी साची देना. दसरेसे विश्वासघान है। और इस तरह पर ऊंचे पाचरणका अर्थ व्यवहार- करना, बचन देकर नट जाना, ऐसी बात कहना जिससे योग्य कुलाचरण और नीचे माचरणका अर्थ ग- दसरा संकट में पड़ जाय, पुत्र-भाई-नानेदार पहोमी मित्र रकेतोंका निध कुलाचरण लगाया है। अर्थात् उपर्युक्त माविकी खियोंमे बलात्कार व्यभिचार करना, परखी. अभिप्राय निकाला है। विधवा दासी वेश्यादिको घरमें डाल लेना या उनमे परन्तु यदि देखा जाये तो संसारमें दो ही प्रकारके छिपकर अथवा प्रकट रूपमें व्यभिचार करना, अनि भाचरण एष्टिगोचर होते हैं--एक संयमाचरण और तृष्णा व भति लोभ करना, दूसरेके धनको-रहने के दूसरा मसंयमाचरण । बोकम्यवहार-योग्य मभ्य कुलके स्थानको शाप जाना, अधिक व्याज लेना, अपनेमे न मनुष्यके भाचरणको संयमाचरण अर्थात् उंचा भाचरण संभल सके इतने व्यापार यन्त्रालयादिको बढ़ाते जाना कहते हैं और खोकम्पवहारके अयोग्य असभ्यकुलके ठग- आदि सहस्रों प्रकारके नीच गोत्र सूचक व्यवहार के रकेतोंके निध भाचरणको असंयमाचरण अर्थात् नीचा भयोग्य असभ्य ठग डकेतोंके निच कुलके नीचे पाचरण पाचरण करते हैं। जैसे माता पितादि गुरूजनोंकी सेवा हैं। व्यवहारयोग्य मम्म कुलाके मनुन्यों में कम त्याग व नगा, रोगियों को पौषधि चादि देना, असमर्थदीनोंकी कम संघम होता है और प्रती भावक मुनियों में कई प्रकारसे सहायता करना, किसीकी धरोहर उसे अधिक त्याग अधिक संवम वा पूर्व संधम होता है, वैसीकी वैसी वापस देना, पण खेबर पूरा चुकाना, और इसी तरा पर बग-केतोंके असभ्य मुखवाखोंमें मक परे तौबसे देना तथा वैसे ही पूरा खेना, कह नहीं अधिक भसंघम व पूर्व संगम होता है। और इस पोवना, मुली सानी नहीं देवा, किसीको पक्षण देकर तर पर व्यवहार पोन्य सम्म जमावरवर पांव विभागा, सरेकी बीको माता-बहिन या बेटी समम्मा, एकही पात वा सम्म कुलाचरण प्रसंचमा Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिव २] ऊँच नीच-गोत्र विषयक चर्चा पर भी एक ही बात है। मीच-गोत्रके स्वरूपमें कोई विरोष प्रतिमासित नहीं मब मैं यहाँ प्रश्न करना है कि ऊँच गोत्र सूचक होगा । क्या मेरा यह कहना ठीक है। अपना गत अंचे भाचरणका अर्थ व्यवहारयोग्य सम्म कुलाचरण प्रकारमे मानने पर जैनसिदान्तसे या कोई विरोध - संघम धर्माचरण दोनों ही प्रकारका प्राचरण किया नहीं पाएगा। जावे तथा नीच गोत्र सूचक नीचे भाचरणका अर्थ उग- भागे लिखा है कि सब ही देव (कल्पवामी पादि रकेतोंके असभ्य कुलका माचरण असंयमाचरण धर्मात्मा भवनवासी प्रादि पापामारी देव) और दोनों ही प्रकारका भाचरण किया जावे और व्यवहार- भोग भूमियाँ जीव-चाहे वे सम्यकाधि हों या मिथ्यायोग्य सभ्य कुलाचरण तथा धर्माचरणमें और ठग- एष्टि-जो अणु मात्र भी चारित्र ग्रहण नहीं कर सकते सकेनी के प्रमभ्य कुखाचरणमें और असंयमाचरणमें भेद वे तो उस गोत्री हैं और देशचारित्र धारण कर सकने व्यक्त न किया जाये तो क्या हानि है? वाने पंचम गुणस्थानी संशी पंचेन्द्रिय नियंच नीच आगे चलकर श्रीपज्यगदस्वामीकृत मर्वार्थमिद्धिमें गोत्री ही हैं।' वर्णित ऊँचगोत्र और नीचगोत्रका स्वरूप यह श्री वीर भगवान्ने अपने शामनमें विरोध रूप बनलाया है कि 'लोक पूजिन कुलों में जन्म होनेको शत्रुको नष्ट करनेके लिये अनेकान्त अपना अपेक्षावाद उच्च गोत्र व गर्हित कुलों में जन्म होनेको नीचगोत्र वा स्याद्वाद जैसे गंभीर सिद्धान्न-अमोपासका निर्माण कहते हैं।' किया है, फिर जहाँ हमें कुछ विरोध प्रतिभासित हो ___ यहाँ पर लोकजिन कुल व गहिन कुजका स्वरूप वहाँ हम भनेकाम्नमे विरोधका क्यों न समन्वय कर में विचारना चाहिये। जो कुल अपने हिमा मठ-छोरी क्यों न अपेक्षावादका उपयोग करें ? और वा ममन्वय धादि पापोंके त्यागल पहिमा मन्य-शील-संयम दान इस प्रकार कर लिया जाये तो क्या कोई बैनअदि धर्माचरणोंके धारणरूप भाचरणों के कारण पज्य सिद्धान्तमे विरोध भावेगा ?है-सन्मानित है-प्रतिष्ठा प्राप्त है वे ही कुन लोक- कल्पवामी देवों और भवनत्रिक देवों में जो उ. पूजित न माने जाने चाहिये-राज्य-धन मैन्य बल गोत्रका उदय बनलाया है वह उनके शक्तिशालीपनेकी मादिके कारण पूजिन कुल खोक पूजित नहीं माने जाने अपेक्षा व विशिष्ट पुण्योगको अपेक्षा है और वह भी चाहिये । जो कुखा हिंमा झर-चोरी भादि पापाचरणोंके केवल मनुष्यों के मानने के लिये अर्थात मनुष्य ऐसा कारण गहिन है गहित कुना माने जाने चाहियें। माने कि देव हमसे ऊँचे है, ऐसा मानना चाहिये। और इस तरह पर धर्माचरणोंके कारण बोगद्वारा और इसी प्रकार नियंचोंमें जो नीच गोत्रका उदय पूचित कुल में जन्म लेनेवालेको 'चगोत्री' पापा- बनाया है पदमके पशुपने विशिष्ट पापोदयकी चरखोंसे गहित कुल जम्म बेनेवालेको नीच-गोत्री अपेमे है और यह भी क्षेत्र मनुष्यों के माननेकी मानना चाहिये, और ऐसा मानवेसे गोटसारको अपेक्षासमर्थात् मनुष्य ऐमा मा किनिर्यच नसे ॥ गापामे पति रवीच-गोत्रके स्वल्पमें और नीचे है, ऐसा मानना चाहिये। इसी ना नारकिलों में बीपज्यपादस्वामीरवि सांसिदिमें बर्षित कमीबो नीच गोषच उदयपतवावा हमी यो Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं.२०६६ जीवके ऊँचे भाचरणको 'उंच गोत्र' और नीचे भाचरण- अपनी खीसे संतुष्ट रहना. वेश्यागमन-परस्त्री गमन न को 'नीच गोत्र' कहते है । ऊँचगोत्र-सूचक ऊँचे करना, प्रति लोभ न करना, दूसरेका हक ( स्वस्व ) पाचरणको सम्यक् चारित्र, धर्माचरण प्रादि न मान- न दबा बैठना, श्रणीकी शक्तिपे अधिक ब्याज न लेना, कर व्यवहार योग्य कुलाचरण, नागरिकका पाचरण या अति तृष्णा न करना, अपनेमे न सँभल सके ऐसे सभ्य मनुष्यका आचरण प्रादि माना है। और व्यापारादिको न बढ़ाना आदि सहस्रों प्रकारके ऊँच नीचगोत्र-सूचक नीचे पाचरणको मिथ्याचारित्र, गोत्र सूचक व्यवहारयोग्य सभ्य कुलके ऊँचे पाचरण भधर्माचरण भादि न मानकर वोटा लौकिक पाचरण, हैं। और गर्वोन्मत्त होकर निरपराधोंको मार डालनालोकम्यवहारके अयोग्य आडकेतोंका निच पाचरण काट डालना उन्हें मताना, अनेक प्रकारके कष्ट देना या असभ्य मनुष्योंका आचरण आदि माना है। और उनका चित्त दुग्वाना, गुरुजनोंका अपमान तिरस्कार ऐसा मानकर सम्यक् चारित्र, धर्माचरण और व्यवहार- करना, दूसरेकी धरोहर हड़प जाना, ऋण लेकर नहीं योग्य कुलाचारण या सभ्य मनुष्यके भाचरणमें तथा देना, अधिक तौलकर लेना तथा कम तौल कर देना, मिण्याचारित्र, अधर्माचरण और ठग-डकेतोंके निया चोरी करना. डाका डालना, किमीका धन ठग लेना, चरण या प्रमभ्य मनुष्य के आचरणमें भेद व्यक्त किया झूठ बोलना, झूठी सादी देना, दूसरे विश्वासघात है। और इस तरह पर ऊँचे पाचरणका अर्थ व्यवहार- करना, बचन देकर नट जाना, ऐसी बान कहना जिससे योग्य कुलाचरण और नीचे आचरणका अर्थ :ग- दुसरा संकटमें पड़ जाय, पुत्र-भाई-नानेदार पड़ोसी मित्र तकनोंका निध कुलाचरण लगाया है। अर्थात् उपर्युक्त आदिकी स्त्रियों से बलात्कार व्यभिचार करना, परस्त्रीअभिप्राय निकाला है। विधवा दासी वेश्यादिको घरमें डाल लेना या उनसे परन्तु यदि देखा जाये तो संसारमें दो ही प्रकारके छिपकर अथवा प्रकट रूपमें व्यभिचार करना, अनि माधरण रष्टिगोचर होते हैं --एक संयमाचरण और तष्णा व अति लोभ करना, दुसरेके धनको-रहने के दूसरा असंयमाचरण । लोकम्यवहार-योग्य सभ्य कुलके स्थानको हडप जाना, अधिक ब्याज लेना, अपनेमे न मनुष्यके पाचरणको संयमाचरण अर्थात् ऊँचा आचरण सँभल सके इतने व्यापार यन्त्रालयादिको बढ़ाते जाना कहते हैं और लोकन्यवहारके अयोग्य असभ्यकुलके ठग- आदि सहस्रों प्रकारके नीच गोत्र सूचक व्यवहार के रकेतोंके नियमाचरणको प्रसंयमाचरण अर्थात् नीचा अयोग्य असभ्य ठग डकेतोंके निच कुलके नीचे पाचरण आचरण कहते हैं। जैसे माता पितादि गुरुजनोंकी सेवा हैं। व्यवहारयोग्य सभ्य कुलके मनु न्योंमें कम त्याग व करना, रोगियोंको औषधि प्रादि देना, असमर्थदीनोंकी कम संयम होता है और व्रती भावक व मुनियों में कई प्रकारसे सहायता करना, किसीकी धरोहर उसे अधिक त्याग व अधिक संयम वा पूर्व संयम होता है, वैसीकी बैसी वापस देना, ऋण लेकर पूरा चुकाना, और इसी तरह पर उग-डकेतोंके असभ्य कुलवालोंमें ठीक पूरे तौखसे देना तथा वैसे ही पूरा लेना, झूठ नहीं अधिक भसंयम व पूर्ण प्रसंयम होता है। और इस बोजना, मी साती नहीं देना, किसीको वचन देकर तरह पर व्यवहार योग्य सम्म कुलाचरण व धर्माचरण निभाना, दूसरेकी बीको माता बहिन या बेटी सममना, एक ही बात है तथा असभ्य कुखाचर असंबमा Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊँच नीच-गोत्र विषयक चर्चा चरण भी एकही बात है। नीच-गोत्रके स्वरूपमें कोई विरोध प्रतिभासित नहीं मब मैं यहाँ प्रश्न करता हूँ कि ऊँच गोत्र सूचक होगा । क्या मेरा यह कहना ठीक है। अथवा उत ऊँचे आचरणका अर्थ व्यवहारयोग्य मभ्य कुलाचरण प्रकारसे मानने पर जैनसिद्धान्तसे क्या कोई विरोध व संयम धर्माचरण दोनों ही प्रकारका प्राचरण किया नहीं पाएगा। जावे तथा नीच गोत्र सूचक नीचे भानरणका अर्थ ठग- भागे लिखा है कि सब ही देव (कल्पवासी भादि केनों के असभ्य कुलका आचरण व असंयमाचरण धर्मान्मा व भवनवासी भादि पापामारी देव) और दोनों ही प्रकारका आचरण किया जावे और व्यवहार- भोग भूमियाँ जीव-चाहे वे सम्यकदृष्टि हों या मिथ्यायोग्य सभ्य कुलाचरण तथा धर्माचरणमें और ठग- दृष्टि-जो प्रणु मात्र भी चारित्र ग्रहण नहीं कर सकते केनी के प्रमभ्य कुलाचरण में और असंयमाचरणमें भेद वे तो उच्च गोत्री हैं और देशचारित्र धारण कर सकने ज्यक न किया जावे तो क्या हानि है? वाले पंचम गुणस्थानी संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच नीच आगे चलकर श्रीपज्यगदस्वामीकृत सर्वार्थमिद्धिमें गोत्री ही हैं।' वर्णित ऊँचगोत्र और नीचगोत्रका स्वरूप यह श्री वीर भगवान्ने अपने शासनमें विरोध रूप अनलाया है कि 'लोक पृजित कुलों में जन्म होनेको शत्रुको नष्ट करनेके लिये अनेकाम्न अपना अपेक्षावाद उंच गोत्र व गर्हित कुलोंमें जन्म होनेको नीचगोत्र वा स्याद्वाद जैप गंभीर सिद्धान्त-अमोघास्त्रका निर्माण किया है, फिर जहाँ हमें कुछ विरोध प्रतिभामित हो ___ यहाँ पर लोकजिन कुल व गर्हिन कुलका स्वरूप वहाँ हम अनेकान्नमें विरोधका क्यों न ममन्वय कर लें विचारना चाहिये। जो कुल अपने हिंमा मठ-चोरी क्यों न अपेक्षावादका उपयोग करें ? और वह समन्वय श्रादि पापोंके त्यागरूप अहिंसा पत्य-शील-संयम दान इस प्रकार कर लिया जावे तो क्या कोई जैनअदि धर्माचरणों के धारणरूप प्राचरणों के कारण पज्य सिद्धान्त विरोध भावेगा ?हैं-सन्मानित हैं-प्रतिष्ठा प्राप्त है वे ही कुल लोक- कल्पवासी देवों और भवनत्रिक देवोंमें जो उच. पूजिन कल माने जाने चाहिये- राज्य-धन सन्य बत्व गोत्रका उदय बतलाया है वह उनके शक्तिशालीपनेकी प्रादिके कारण पूजित कुल नोक पजिन नहीं माने जाने अपेक्षा व विशिष्ट पुण्योदपको अपेक्षा है और वह भी चाहिये । जो कुल हिंमा झठ-चोरी आदि पापाचरणोंके केवल मनुष्यों के मानने के लिये है अर्थात मनुष्य ऐसा कारण गर्हित है वे गर्हित कुल माने जाने चाहिये। माने कि देव हमसे ऊँचे हैं, ऐसा मानना चाहिये । और इस तरह पर धर्माचरणों के कारण लोकों द्वारा और इसी प्रकार नियंचों में जो नीच गोत्रका उदय पूजिन कुलमें जन्म लेनेवावेको 'ऊँचगोत्री' व पापा- बतलाया है वह उनके पशुपने व विशिष्ट पापोदयकी चरणोंमें गर्हित कुखमें जन्म लेनेवालेको नीच-गोत्री अपेक्षाम है, और वह भी केवल मनुष्यों के माननेकी मानना चाहिये, और ऐसा माननेसे गोगटसारको अपेक्षास है अर्थात मनुष्य ऐमा माने कि निर्यच हमसे ५वीं गाया में वर्णित ऊँच नीच-गोत्रके स्वरूपमें और नीचे हैं, ऐमा मानना चाहिये । हमी नर नारकियों में श्रीपूज्यपादस्वामीरचित सर्वार्थसिदिमें वर्णित अंच भी जो नीच गोत्रका उदय बतखाया है वह भी उसके Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त मार्गशीर्ष, वीर निर्वाय सं०२४६६ अत्यन्त पापोदयकी अपेक्षामे है और केवल मनुष्योंके त्रिक देव भी यथाशक्ति धर्म-पाधन करते हैं तथा सम्यक्त माननेकी वस्तु है, मनुष्य यह अनुभव करें कि भी ग्रहण कर लेते हैं। यह सब उनके धर्माचरण ही नारकी हमसे नीचे हैं ऐसा मानना चाहिये। है और इसलिये उनमें उच्च गोत्र भो होना हो चाहिये । देवोंको ऊँच गोत्र वाले मानना और नियंचों व जैनशास्त्रों में पद पद पर यह कथन मिलता है कि नारकियोंको नीच गोत्र पाने मानना मनुव्यों के मानने शास्त्रों में जो भी बात कहीं है जो भा विवेचन किया की वस्तु इसलिये है कि देवोंको अपने पे उंचे व अपनेको गया है, वह निरपेक्ष न कहा जाकर किसी न किसी देवोंमे नीचे नया तिथंचों, नारकियोंको अपनेये नीचे व अपेक्षाय ही कहा हुआ होता है, भले ही वहाँ उस अपनेको तियच नारकियोंमे उँचे माननेमे जो तजन्य अपेक्षाका स्पष्टीकरण या प्रकटीकरण न किया गग हो। रसानुभव होता है वह मनुस्यों को ही होता है; क्योंकि जहाँ जो बान कही गई हो उसे निरपेक्ष न समझ कर मनुष्य ही ऐसा मानते हैं। और इमलिये भी उपर्युक्त जिस अपेक्षा कही गई हो उमी अपेक्षा समझने पर प्रकारका मानना मनुष्योंके माननेकी वस्तु है। मनुष्यों ठीक समझी गई ऐसा कहा जा सकता है, बल्कि निरद्वारा जो देव ऊँचे व तियच नारकी नीचे माने जाने हैं पेक्ष कही हुई व समझी हुई बात मिथ्या नक कह दी उसका रसानुभव देव तिर्यच नारकियोंको कुछ भी नहीं जाती है। जब यह बात है तब मेरी कही हुई यह होता । बात कि विशिष्ट पुण्योदयकी अपेक्षा मारे देवोंमें उच्च ___ सर्व प्रकारके देव व भोग भूमियाँ जाव अणुमात्र गोत्रका उदय व विशिष्ट पापोदयको अपेक्षा तिर्यच व भी चारित्र धारण नहीं कर सकते, इसका भाव यह नारकियों में नीच गोत्रका उदय माना है, क्यों नहीं मानना चाहिये कि वे संप्राप्त भोगांका त्याग करके और ठीक मानी जानी चाहिये ? और यदि मेरी उपर्युक्त बात जो कुछ भी चारित्र धर्माचरण पालने के अभ्यासी हैं ठीक है तो गोम्मटसार कर्मकाण्डकी १३वी गाथामें ऊँचे उसमे बढ़ नहीं सकते अणुमात्र चारित्र धारण नहीं कर व नोचे आचरणके आधार पर वर्णित ऊँच नीचगोत्रके सकने से यह प्रयोजन न समझना चाहिये कि उनमें स्वरूपकी संगनि सारे संसारके प्राणियों पर ठीक बै. चारित्रका, धर्माचरणोंका अभाव हा है। भोगभूमियां जाती है, और यहाँ ११वीं गाथासे 'प्रकरण भी, मारे जीव अत्यन्त मंद कषाय होते हैं और इसलिये देव ही संमारके प्राणियोंका भारहा है, इमलिये भी १३वीं उत्पन्न होते हैं तथा वे सम्यक्त भी ग्रहण करते हैं, धर्म गाथामें वणित ऊँच-नीच गोत्रका स्वरूप देव मनुष्य चर्चादि भी करते हैं और इसी तरह सर्वार्थसिद्धि प्रादि तिर्यच व नारकी रूप सारे संसारके जीवोंके लिये ही अनुत्तर विमानोंके देव एक भवावतारो व दो भवावतारी वर्णित है। और वह इस तरह पर घटित होता है-- होते हैं तथा सदैव धर्म चर्चा व पूजा प्रभावनादि धर्मा- कल्पवामी, भवनवासी, म्यंतर व ज्योतिषी देवोंके चरण किया करते हैं तथा पंचम स्वर्गके देव ब्रह्मचारी धर्माचरणों के विषयमें तो पहले लिखा ही जा चुका है देव अषि होते हैं। सौधर्मादि स्वर्गाके देव भी भगवान्के कि धर्माचरण उनमें पाये जाते हैं और पापाचरणों कल्याणकादिमें व समवसरणादिमे भाते हैं तथा पूजा तथा उनमें ऊँचे नीचे और छोटे-बड़े भेद-प्रभेदोंके विषयप्रभावनाधर्म चर्चावि किया करते हैं। इसी तरह भवन में पूज्य वकाल बाब सूरजमानजी साहयने अपने बेलामें Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३. किरण २] ऊँच-नीच-गोत्र-विषयक चर्चा भले प्रकार वर्णन कर ही दिया है कि पापाचरण भी उनम चरण भी इन पशु पक्षियों के सबको विदित ही हैं। पाये जाते है। इसके अतिरिक्त यह आचरण मेरा उनके उदाहरण लिग्वनेको यहाँ आवश्यकता नहीं । ऊँचा है और यह आचरण मेरा जघन्य है ( जैसे स्वर्गके अपनी ऊचना नीचताका व धर्माचरण पापाचरण के किन्हीं देवोंने पाठव नारायण लक्ष्मणजीमं कहा कि रम्पका इन पशु पक्षियोंको भी अनुभव होता है इसलिये तुम्हारे भ्राता रामचन्द्रजी मर गये हैं, यह मुनकर उच्चाचरण नाचाचरणके आधार पर इन सम्पूर्ण लक्ष्मणजी तत्काल मरणको प्राप्त हो गये) नथा अमुक- नियंचमि भी ऊँच गोत्रका उदय व नीच गोत्रका उदय देव मुझमे नीचा है तथा इन्द्रादिक देवास मैं नीचा हूँ क्यों न मानना चाहिये । और अमुक देषों में में ऊँचा है तथा अमुकदेव मुझसे इसी प्रकार नागकियोंकी नीचना व उनके दुष्टाउंच हैं इस प्रकारके विचार उनके होते हैं और नजन्य चरण तो सब पर विदिन ही है। परन्तु उनमें ऊंचना व उंचना-नाचनाका रमानुभव भी होता है. इसलियं सदाचरणा भी पाये जाने हैं । मानवे नरककं नारकियों धर्माचरणों व पापाचरणांकी अपेक्षा दवोंमें भी उंच उपरकं नारकी पहले नरक तक उसगेतर ऊंगे तथा गोत्र व नीच गोत्रका उदय क्यों न मानना चाहिये ? कम पाप भोगी और कम प्राय वाले हैं जैसा कि पज्य नियंचाम भी वनस्पतियों और पशुश्रांकी ऊंवना बाड़ माहबने भी लिम्वा है नथा उनमें सम्यग्दृष्टि भी नथा बनाचरणका कथन तो पूज्य बाब माहबने अपने होते है और मुनि कंवली यहाँ तक कि नार्थकर नक ग्वमे स्पष्ट कर ही दिया है, नीची जानिक बंबल होने वाले शुभ प्रान्मा भी उनमें पाये जाने हैं। उन्हें थहर श्रादि काँटं दार व निव शाक आदि कदए पंड़ अपनी ऊंच नीचना व दुराचरण धर्माचरणका रमानुभव भार मृअर म्याल, मांप, बिच्छू श्रादि पशु महस्रों भी बहुत ही अधिक होता है. इसलिये उचाचरण प्रकारकं पाये जाते हैं और पती भी हम, मारम, नोना, नाचाचरणकं श्राधार पर नाकियों में उचगाव नथा मैना यादि ऊंची जानिक व काक गद्ध श्रादि नीची नाचगोत्र क्यों न मानमा चाहिये ? जानिक महम्रों प्रकारकं हैं। वनग्पनियोंके धर्माचरण- अब रहे मनुष्य, जिनकी ऊंच नीचताका वर्णन पापाचरण तो भगवान् कंवली गम्य है परन्तु ये भी बावृ माहवन नेग्वम अच्छा किया है, यल्कि नीनाका व है, अतः इनमें भी दोनों प्रकारभान हर वर्ग न नो बहुनही विशेष रूप लिखा गया है, फिर अवश्य । अब इनमें नि अादि २३ कपाय बतलाई है भी उनको. नाचगोत्री भी मनग्य होने हैं ऐसा बनला नब इनमें दोनों पाचरण हैं, नि कपायका कार्य प्रेम कर कंवल उग्चगोत्री ही बनलाया है। मनुष्य अपने करना है और यही इनका पदाचरण हैं शंष कपायों का उच्चाचरणाम मोक्ष तक प्राप्त कर लेना है अनः उच्च कार्य अमदाचरण है इनको अपने सदाचरण धमक्ष गोगी तो है ही, परन्तु अपने दुराचागेम मानवां नरक चरण जन्य ऊंच नीचताका रमानभव भी होमा । भी प्राप्त कर लेता है हलिय उप नीच गोत्री भी पशु पक्षियों के धर्माचरण विषयमें जिनागममें स्पष्ट होना चाहिये । गोम्मटमार-कर्मकागडकी गाथा २६८ में वर्णन है ही कि ये लोग पंचम गुणस्थानी होकर देश ३० नक मनुष्यों में नीचगोत्रका उदय बनलाया भी चारित्र धारण करके श्रावक नक हो सकते हैं। पापा है। वे गाथाएं निम्न निम्बित है: Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ मार्गशीर्ष, वीर-निवास सं०२४६६ मगुवे ओपो थावरतिरियादावदुगएयवियलिंदी। अपने लेखमें उसे किस प्रकार अस्वीकार किया,यह बान साहणिदराउतियं बेगुञ्चियकपरिहीणो ।।२६८|| समझानी चाहिये अथवा मनुष्योंमें नीचगोत्रका उदय अर्थात् सब मनुष्यों में उदयोग्य १२२ प्रकृतियों में स्वीकार करना चाहिये । अनुभवमें तो नीच व उच स्थावर, तिर्यच गति, भानप आदि २० प्रकृतियाँ कम दोनों गोत्रों के भाव एकेन्द्रियमे लेकर पंचेन्द्री देव मनुष्य करनेमे १०२ का उदय है। इनमें नीचगोत्र कम नहीं नारकी व नियंच तक सब जीवोंके अपने प्रत्येक सदा किया, अतः मनुष्योंमें नीचगोत्रका उदय है। चरण व दुराचरण के साथ साथ प्रति समय माते रहते मिच्छमपएण छेदो अमिम्म मिच्छगादितिसु अयदे हैं और गोम्मटमारकी १३ वी गाथाके अनुसार मारे विदियकमायणराण दुब्भगऽणादेजप्रजमय ।।२९९ संसारके जीवोंपर नीच व ऊँच दोनों गोत्र जीवोंके मदा अर्थान-उन मनुष्यों में मिध्यान्वादि तीन गुणस्था- चरण व दुराचरण के आधार पर घटिन भी होने हैं। नियोंके मिथ्यात्व, अपर्यास, अनंतानुबंधीकी ४ चौकी तथा नीचगोत्री उंचगोत्रका और ऊँचगोत्रमे नीचगोत्रका भादि प्रकृनियोंकी उदय म्युरिछत्ति होती है। तीसरे अपने सदाचरणोंस व दुराचरणोंस संक्रमण भी होजाता गुग्गस्थान तक नीचगोत्रका उदय म्युछित्ति नही हुई, है, ऐमा मैंने कभी जैनमित्रमें पढ़ा है। इसलिये मान, धनः उसका उदय है। प्रनिष्ठा, गज्य. बी आदिके कारण किमी दुराचारीको दम नदियकमाया णीचं एमेव मरणुममामएणं। जन्म भरके लिये उचगोत्री और दरिद्रता, नीची भाजीपजत्तं वि य इत्थी वंदाजतिपरिहीगी ॥३०॥ विका श्रादिकं कारण किस सदाचारी धर्मान्माको जन्म अर्थान-पाँचवें गुणस्थानमें प्रत्याख्याना चौकड़ीव भरके लिये नीचगोत्री मान बैठना परासर अन्याय व नाचगोत्रको उदय व्युच्छित्ति होती है और पर्याप्त मनु- पाप बंधका कारण आन पड़ता है। व्यों में पहली १०२ में ना वेद व अपर्याप्ति कम करनेमे भागे पूज्य बाबू माहबने मभी मनुष्योंको उप २०० का उदय है । इस प्रकार पंचम गुणस्थानमें नीच गोत्री बनलाने हुए लिखा है कि:-गोम्मटमार कर्मकाण्ड गोत्रकी म्युछित्ति हुई है, अतः यहां तक पर्याप्त मनुप्यके की गाथा १८ में साफतौरसे बतलाया है कि नीच ऊंच नीचगोत्रका उदय पाया जाता है। गोत्र भवोंके अर्थात् गतियोंके माश्रित है और जिमम मणुमणिएल्थीमहिदा तित्थयराहारपरिमसंढणा यह ध्वनिन किया है कि नरक-भव तिथंच भबके सब पुरिणदग्व अपुरण मगाणुगदिश्रागंणेयं ॥३८१ जीव नीचगोत्री और देवभव व मनुष्यभव वाले सब अर्थात् १०० प्रकृनियों में स्त्री वेद मिलाकर उदय- उचगोत्री हैं। उम गाथाका वह अंश इस प्रकार है:-- योग्य प्रकृतियोमेमे तीर्थकर, आहारक युगल, पुरुष वेद, भव मस्सिय णीचुवं इदि गोदं। नपुसक वेद ये पांच प्रकृतियां कम करने में १६ का उदय इस गाथा वाक्यका तो नीच-उंचगोत्र गतियोंके आश्रित मनुष्यणीके हैं। यहां भी नीचगोत्र कम नहीं हुमा, अतः है' यह अर्थ नहीं लिखा है बल्कि यह अर्थ लिखा है पर्याप्त बीके नीचगोत्रका उदय वर्तमान है। कि 'नीचता व ऊंचता भवके माश्रित है।"इदि गोद इस तरह पर जब मनुष्यों में नीचगोत्रका उदय ये शब्द गाथाके तीसरे चरणके न होकर चौथे चरणके सिद्धान्त में यमनाया गया है, तब पूज्य बाबू साहबने है, अतः “भवस्सिय णीचञ्च' इस पदके भावमे Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १. किरण २] ऊँच-नीच-गोत्र-विषयक चर्चा इदि गोदं" का भाव पृथक् है । "भवमस्सिय णी- नहीं है कि बिना मार्योंका प्राचार पालन किये या च" पदमे नरफ तिपंचमवके सब जीव मीच व देव बिना सकस संघमी हुए भी वे भार्य और उप गोत्री हैं, मनप्य सब उंचगोत्री हैं यह भाव ध्वनित नहीं होता, बल्कि उसमें स्पष्ट लिखा हुमा है कि वे मातृपकी बल्कि यह ध्वनित होता है कि नीचता व उचता प्रत्येक अपेक्षा म्लेच्छ अर्थात् नीच गोत्रो ही हैं। हां, वे भव प्राश्रित है अर्थात् सारे संसारके जो चार प्रकारके भार्योका भाचार पालन करनेसे या पालन करते रहनेसे देव, मनाम नारकी, निपंच जीव हैं उनके प्रत्येक भवमें नीच गोत्री (म्लेच्छ) में उच गोत्रा हो सकते हैं। नीचता व ऊँचता होती है. अतः उन मभीके नीचव भागे लिखा है कि 'कुभोगभूमियां (मनुष्य) पशु उंच दोनों गोत्रोंका उदय है। प्रत्येक भवमें नीता वही है इन्हें किसी कारणमे मनुष्य गिन लिया है, परन्तु उंचना होने से यह प्रयोजन है कि प्रत्येक जीव माने इनका प्राकृनि प्रवृत्ति, और लोकपूजिन कुलों में जन्म न दुराचरण व सदाचरणमे नीच व ऊँच कालाता है। होनेमे इन्हें नीच गोत्री ही समझना चाहिये। परन्तु भागे लिखा है कि गोम्मटमार-कर्मकाण्डकी गाथा मारा शरीर मनुष्यका भौर मुख केवन पशुका होने २८५ में मनुष्यगनि और देवगनिमें उच्च गोत्रका उदय ही वे सर्वथा पशु नही कहला सकने, उन शासमें बनलाया है. वह नो ठीक है परन्तु "उच्चदी गा. मुखाकृति भिन्न होनेसे ही कुमानुष और म्लेच्छ कहा दंत्र" हम पर मनुष्यों में नीच गोत्रका उदय सर्वथा है. वे मंदकषाय होते हैं मर कर देव ही होते हैं, मंदहै ही नहीं ऐसा प्रमाणित नहीं होना। कपाय होनेसे सदाचरणीही कह जायंगे और सदाचरणी आगे लिखा है कि म्लेच्छ खण्डके सभी छ होने उस गोत्रीही कह लावेंगे और है । उमकी प्रवृत्ति पकल मंयम ग्रहण कर सकते हैं इसलिये वे उचगोत्री है, मंदकषाय रूप होनेसे उच्च ही है। लोक पजिन कुल परन्तु म्लेच्छ लोग जब भार्यम्बरहमें भाकर पार्योंका और अपजिन कुल कर्म भूमिमें ही होता है, वहाँ प्राचार पालन करेंगे व मकलमंयम ग्रहण का लगे कुभोग भूमि है, वहां मम ममान हैं, लोक पूजिन व तब वे उप गोत्री हो जायेंगे, ७ इममें पहले वे च्छ- अपजिनका भाव वहां नहीं है । लोकपूजित कुल में खण्ड में रहें व आर्यखण्डमें भाकर रहें, बिना मार्योंका जन्म होमेमे उच गोत्री व अजित कुलमें अम्म होने में प्राचार पालन किये उच्च गोत्री न होकर नाच गोत्री नीच गोत्री कर्मभूमिमें ही माना जाना है। कुभोग हो हैं । श्री जयधवन और श्री बधिमारका जो मि या मोगभूमिमें नहीं माना जाता । बल्कि भोग प्रमाण दिया है उसपे इतना ही सिद्ध है कि म्लेच्छ भूमियां उपचगोत्री ही होते है जिनको पूज्य बापू माहब लोग सकल संयमको योग्यता रखते हैं, वे सकल संयमके ने भी अपने लेख में स्वीकार किया है। वे नीच गोत्री पात्र हैं, उनके संयम प्राप्तिका विरोध नहीं है, उनमें नहीं होते । और गोम्मरमार कर्मकायाकी गाथा संयमोपलब्धिकी संभावना है। उम प्रमाण यह मिन् नं० ३.२ "मणुमोयं वा भोगे दुव्भगचरणी च यदि मकल मयम ग्रहण करने के बाद उधोगी मढाणानय" माविमें भी भोगमियाँ ममयों में हा तो यह कहना पड़ेगा कि नीच गोत्री मनुष्य भी उपक्ष गोत्रका उदय बसनाया है। उन कुमानुष लोगों मनि हो मकते हैं। -मम्पादक में व्यभिचार नहीं, एक सरेकी स्त्रीवकामकी बस्त Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ अनेकाम्न [ मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं०२४६६ व भोग सामग्रीके पदार्थ वे हरण नहीं करते । म्लेच्छ केवल उनकी पशु-मुम्बाकृतिकी अपेक्षा कह दिया उनमें कोई दुराचार नहीं, मंदकपाय रूप सदाचार है गया है, पाचरणकी अपेक्षा वे उच्च गोत्री व सदाचारी फिर उन्हें नीच गोत्री कैसे समझा जावे ? है। अन्तरहीपजोंको नीच गोत्री व सर्वथा पशु मानना __ आगे लिखा है कि अन्तरद्वीपजोंको म्लेच्छ केवल पूज्य बाबू सूरजभानजी माहबही की मान्यता मनुष्योंमें शामिल करने में ही मनुष्यों में ऊँच नीच हो सकती है, बहुमन तो जहाँ तक मैं समझता हूँ गोत्रकी कल्पना हुई है । अन्तरद्वीपजोंको म्लेच्छ ऐसी मान्यता वाला नहीं होगा। मनुष्यों में शामिल करनेसे ही मनुष्यों में ऊँच नीचगोत्रकी आगे लिखा है कि अफरीकाके पतित मनुष्य अपने सृष्टि नहीं हुई, बल्कि ऊँच नीचनाके भाव अनादिकालीन असभ्य व कुन्मिन व्यवहारोंको छोड़कर सभ्य बनने हैं और वे मनुष्यों में ही नहीं प्राणीमात्रमें पाये जाने हैं लग गये हैं। जब पूज्य बाब माहबने अपने लेम्बम और उन्हीके कारण अर्थान जीवोंके सहव्यवहार (धर्मा- अफरीकाकं मनुष्योंको पनिन अर्थात् नीचगोत्री मान चरण) व कुस्मिन म्यवहार (पापाचरण) के कारणही लिया और यह भी मान लिया कि वे अपने कुस्मिन मनुष्यों में क्या सारे जीवाम ऊँच नीच गोग्रता आई है, व्यवहारों एवं पापाचरणोंको छोड़कर सभ्य बन गये है वह बलात्कार किमीकी लाई हुई नहीं है। और न अ. अर्थात अपने नीचगोत्र जन्य कुन्मित व्यवहारों-दुरान्नरद्वीपजां म्जेरछ मनप्य नीचगोत्री ही हैं बल्कि वे तो चरणों को छोड़कर नीचगोत्रीय सभ्य एवं उच्चगाग्री कर्म भूमिजभी नहीं है । (क) भोग भूमिज है। शास्त्री- बन गय है, नब कोई गनुप्य नाचगोत्री नहीं है ऐसा में उनके ऊँच गोत्रका उदय बनलाया है *। उनको मानने व लिम्बनेका क्या अर्थ है वह मरा कुछ समझम ममस्त अन्तरद्वीप जोंके उच्चगोत्रका उदय कौनस नहीं पाया । बड़ी ही कृपा हो यदि वे उसे यमुनिन दि० जनशास्त्रीमें बतलाया है उनके नामादिकको रूपये समझानेका यब करें। यहाँ प्रकट करना चाहिय था । मुझे तो नहानक मालम इसके बाद श्रीविद्यानन्दम्बा मोके मनका उल्लेख है किसी भी दिगम्बर शास्त्रमे इस विषय का कोई स्पष्ट करते हुए पूज्य बाब माहबने लिखा है कि 'पार्यक उल्लेग्य नहीं है । प्रत्युन इसके श्रीविद्यानन्दाचार्य अन्न- उच्चगोत्रका उदय ज़रूर है और म्लेच्छ के नाचगोयका रद्धीपजीके दो भेद किये है-एक भोगाम समप्रगाध उदय अवश्य है । परन्तु अार्य होने के लिये और दुमग कर्मभूमि समप्राधि । भीगभूमि ममप्रगधि उच्चगोत्रके माथ 'पादि' शब्दपे दुसरे कारण भी श्रीअन्तरद्वीप न भागममियों के समान होने की तरह पर विद्यानन्दने ज़रूरी बनलाये हैं और वे दूसरे कारण है उच्चगोत्री हो मकन है; परन्तु कर्मभूमि सभप्रणाभि अन्न अहिंसा सत्य-शील-संयमादि व्रताचरण अर्थान् उनके रद्वीज भोगमिया नहीं हो मकतं 37को अायु, शरीर- इमका विवंचन मन 'अन्तर द्वीपज मनुष्य' नामके उम की ऊँचाई और वृत्ति ( प्रवृत्ति अथवा पानीविका) भोग लम्बम किया है, जो गत वर्षके 'अनेकान्त' की ६ ठी भूमियोंके ममान न होकर कर्मभूमियोंके समान होती है; किरण में प्रकाशित हुआ है । मालूम होता है लेग्वक और इमलिये उनके लिये उच्न गोत्रका निपम किमी महोदयका ध्यान उम पर नहीं गया है, उसे देग्वना तरह भीनही बन मकता । वे प्रायः जीन गोत्री होन: नाहिये। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊँच-नीच-गोत्र-विषयक चर्चा पूर्णरूप वाले धर्माचरण व उनके अनुरूपधारी सदाचरण शब्द क्या उसकी सदोषताको दूर नहीं कर सकेगा। व सद्व्यवहार । अहिंसा सत्य-शील संथमादि सद्व्यवहारों यदि उसमें सदोषता है तो 'उच्च र्गोत्रोदयादेरार्याः' के बिना भार्य मनुष्यके उपगोत्रका उदय नहीं है बल्कि इसका अर्थ, उच्च गोत्रोदयको भादि देकर अहिंसा नीचगोत्रका उदय है। इसी तरहसे म्लेच्छ मनुष्य होनेके सत्य शील संयमादि माचरणवाले मार्य है ऐसा करने लिये नीचगोत्रके उदयके साथ 'आदि' शब्दसे दूसरे पर तथा "नीचैर्गोत्रोदयादेश्च म्लेच्छाः ", इसका कारण भी प्रावश्यक बतलाये हैं और वे दूसरे कारण अर्थ नीचगोत्रोदयको श्रादि लेकर हिंमा झूठ चोरीहैं, हिमा-चोरी झूठ व्यभिचार प्रादि पापाचरण । हिंसा कुशीलादि पाचरणधारी ग्लेच्छ हैं ऐसा करने पर क्या झूठ चोरी कुशील आदि पापाचरणोंके बिना म्लेच्छ फिर भी उक्त स्वरूप कथनमें सदोषता प्रतीत होगी? मनुष्यों के नीचगोत्रका उदय नहीं है, बल्कि अहिंसा मेरी अल्प बुद्धिमें उपयुक्त विद्यानन्दस्वामीके स्वरूप मत्य शील संयमादिके पालनेके कारण उसके उच्चगोत्र कथनकी सदोषता समझमें नहीं भाई ।। का उदय है । भागे श्री अमृतचन्द्राचार्यका तस्वार्थमारका श्लोक आगे श्री विद्यानन्द स्वामीके इस प्रार्य म्लेच्छ लिखकर उसका अर्थ लिखा है कि "जो मनुष्य भार्यविषयक स्वरूप कथनको श्रीयुन पूज्य संपादकजी माहब खंडमें पैदा हो सब भार्य हैं जो म्लेच्छ वंडों में उत्पन ने सदोष बनलाया है जिसे बादको ५० कैलाशचन्द्रजी 'आदि' शब्दका रक्त वाच्य मान लेने पर भी शास्त्रीने भी अपने लेखमें (किरण ३ पृ० २०७ ) मदोष लक्षणोंकी मदोषना दूर नहीं हो सकेगी; क्योंकि नत्र म्वीकार किया है । परन्तु उसमें आया हुमा 'पादि' जिन्हें क्षेत्रार्य, जात्यार्य तथा कार्य कहा जायगा रन ॐ आर्य और म्लेच्छ के लक्षणों में पड़े हुए 'श्रादि' मबमें उच्चगोत्रका उदय और अहिंमादिकका व्यवहार शब्दका जो वाच्य अहिंडा-मस्य-शील-मयमादि तथा बतलाना पड़ेगा और वह बतलाया नहीं जामकेगाहिमा-झट व्यभिचारादिक लेग्वक महाशयनं प्रकट किया आर्यग्बण्ड के मब मनुष्याको क्षेत्रार्य होने के कारण उच्च है उमका उल्लेख विद्यानन्दस्वामीने कहाँ किया ? गोत्री कहना होगा, मावद्य कर्म श्रााँको इधर कार्यकी लोकवार्तिकमें तो वह कहीं उपलब्ध होता नहीं । और दृष्टिम याद आर्य कहना होगा तो उधर हिमादिक न यही कहीं उपलब्ध होता है कि अहिमादिक व्यवहागेके व्यवहारों के कारण 'म्लच्छ' भी कहना होगा, यह विरोध विना उच्चगोत्रका और हिसादिक व्यवहारोंके बिना नीच आएगा । माथ ही, प्रत्येक आर्य के लिये जब अहिमागोत्रका उदय नहीं बन सकता । लक्षणोंमें 'श्रादि' शब्दकं दिक ब्रांका अनुष्ठान अनिवार्य होगा नब अार्यग्यण्डका द्वारा जिन दूसरे प्रायः अप्रधान कारणांका समावेश कोई भी अविरत मम्यग्दृष्टि श्रार्य नहीं कहला मकेगा किया गया है वे तो 'गोत्रोदय' से भिन्न हैं तब गोत्रका और चारित्रार्य तथा दर्शनार्य के भेद भी निरर्थक हो उदय उनपर अवलम्बित-उनके बिना न हो सकने जायगे, जिन्हें विद्यानन्दने पार्योके भेदोंमें परिगणित वाला-कैसे कहा जा सकता है ? इमलिये यह विचार किया है । इस तरह बहुत कुछ विरोध उपम्यिन होगा श्रीकवानिककी दृष्टिस कुछ ठीक मालम नहीं होता। तथा आर्य-म्लेच्छकी ममम्पा श्रीर भी अधिक जटिल -सम्पादक हो जायगी। --मम्पादक Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ अनेकान्त [ मार्गशीर्ष, वीर-निर्वाण सं०२४६६ होनेवाले शकादिक हैं वे सब म्लेच्छ हैं और जो अन्तर- तथा जानी हुई सारी दुनियाको पूज्य बाबू साहबने द्वीपोंमें उत्पन्न होते हैं वे भी सब म्लेच्छ ही हैं।" अपने लेखमें आर्यखंड ही स्वीकार किया है। फिर वह श्लोक यह है : शकादि या यवनादिकोंको म्लेच्छखंडोदभव म्लेच्छ मानआर्यखंडोद्भवा आर्या म्लेच्छाः कचिन शकादयः। नेका क्या प्रयोजन है सो समझमें नहीं आया कृपया म्लेच्छखंडोद्भवा म्लेच्छा अन्तरद्वीपजा अपि ॥ समझाना चाहिये। इस श्लोकका उपर्युक्त अर्थ मुझे रुचिकर नहीं व म्लेच्छ नहीं रहंगे; क्योंकि विद्यानन्दाचार्यने कर्मलगा, यदि इसका यह अर्थ किया जाय कि 'आर्यखंड में भमिन और अन्तरद्वीप जके अतिरिक्त म्लेच्छोंका कोई उत्पन्न होनेवाले आर्य हैं तथा आर्यखंड में ही उत्पन्न तीमरा भेद नहीं किया है। आर्यखण्ड और म्लेच्छहोनेवाले कितने एक शकादिक म्लेच्छ भी हैं, और बण्ड दोनों ही कर्मभमि होनस 'कर्मभूमि ज' म्लेच्छोमें म्जेच्छ खंडोंमें उत्पन्न होनेवाले म्लेच्छ है तथा अन्तर- दोनो खण्डीक मलेच्छोका ममावेश हो जाता है। द्वीपज भी म्लेच्छ हैं, तो क्या हानि है ?- यवनादयः' पदमें प्रयुक्त हुया 'श्रादि' शब्द यवनों के __ आगे लिखा है कि श्री विद्यानन्द प्राचार्यने यवना. अतिरिन दोनों खण्डोंक शेप मब म्लेच्छोका भग्राहक दिकको म्लेच्छग्वंडोद्भव म्लेच्छ माना है । परन्तु है। अन. माम' का यहाँ मात्र 'आर्यग्बण्ड' अर्थ श्लोकोंसे तो ऐसा प्रतीत नहीं होता; श्री अमृतचंद्रा- करना ठीक नहीं है। -सम्पादक चार्यने भी शकादिकोंको आर्यवंडोद्भव म्लेच्छ ही वर्तमान शास्त्रीय पैमाइश के अनुसार जानी हुई माना है और श्री विद्यानन्दाचार्यने भी "कमभूमिभवा- दुनिया 'पार्यग्वण्ड' के अन्तर्गत हो जाती है, इसमें ना म्लेच्छाः प्रसिद्धा यवनादयः" श्लोकम यवनादिकोंको विवाद के लिये स्थान नहीं है । अब र शक-यवना:कर्मभूमि (आर्यवंड )में होने वाले म्लेच्छ माना है। की विद्यानन्दकं मनानुमार म्लेच्छग्वण्टागव तच्छ ___ इभम कोई न नहा. बालक ना ! अर्थ बनलाने अथवा माननकी बात, वह 'यवनादयः' पाक समुचित प्रकाश होता । ननांचे द्वितीय वर्ष के 'अने- याच्यको पर्ण रूपमे अनुभव न करने आदिको किमी कान्त' की ५ वी किरणम पृ. २७६ पर मैन मा ग़लनीका परिगाम जान पड़ता है । विद्यानन्दाचार्यन अर्थ करके उमका यथ: स्पष्टीकरण किया है और माय म्लेच्छन्दण्डाद्य तच्छाका कोई अनग उल्लेख नही ही प०कैलाशचन्द्र वा शास्त्रीकी इस मान्यताका ग्वण्टन किया है, इमलिय यवनादयः' पदम उन्हाका ग्राशय भी किया है कि 'यायग्वणोदय कोई गछ होत ही ममझ लिया गया है। इसी ग़लनीक आधार पर नहीं:शकादिकको किमीभी प्राचायने प्रायवएटम चार्थमारके उक्त योकका अर्थ कुछ ग़लत हुन। उत्पन्न होने वाले नहीं लिग्वा, विद्यानन्दाचार्यन भी जान पड़ता है । वैपा अर्थ करके ही श्रीमान बाब मरन यवनादिकको म्लेच्छग्वण्डोद्भव' म्लेच्छ बतलाया है।' भाननीने अपने लेख में विद्यानन्दाचार्य और अमतचन्द्रा -सम्पादक चायके कथन का एक-वाक्यता घोषित की है, जो दुमग कर्मभूमि' का अर्थ यदि आर्यग्वण्ट ही किया अर्थ करने पर और भी अच्छी तरह से घोषित होती है। जायगा नो म्लच्छखण्टोंके अधिवामी छूट जायंगे -सम्पादक Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व ३, किरण २] ऊँच-नीच-गोत्र-विषयक चर्चा आगे लिखा है कि "सारी पृथिवी पर रहनेवाले अपेक्षा 'आर्य' कहा है और म्लेच्छोंको म्लेच्छ बंडमें सभी मनुष्य प्रार्य होनेसे उच्चगोत्री भी जरूर है।" उत्पन्न होनेको अपेक्षा तथा वहां धार्मिक प्रवृत्तियां आर्य होने मात्रसे कोई उच्चगोत्री नहीं हो सकता असंभव होनेकी अपेक्षा 'म्लेच्छ' कहा है।। जब सारी श्रार्य होनेके साथ साथ शाल संयमावि धर्माचरण भी जानी हुई दुनियां आर्य बंदु है तब कार्योको म्लेच्छ हों तभी उच्चगोत्री हो सकता है जैसा कि प्राचार्य श्री खंडके म्लेच्छ क्योंकर बनलाया ? महायोजनके हिसाबविद्यानन्द स्वामीने लिखा है ® । उपर्युक्त प्रार्थना केवल से प्रार्य खंड ही बहुत बड़ा है. फिर म्लेच्छ ग्वंड कितनी आर्यभूमिमें उत्पन्न होनेकी अपेक्षा है। दूर और कहां होंग। यदि जानी हुई सारी दुनियां आगे लिखा है कि "ये कार्य म्लेच्छखंडोंमें आर्य ग्वंड है नो जर्मन जापान रूस फाम इंगलैंड यादि रहने वाले म्लेच्छही हो सकते हैं।" कर्म आर्य म्लेच्छ देशों में वर्ण व्यवस्था क्यों नहीं ? अथवा जर्मन जापान वंडके रहने वाले म्लेच्छ कैसे हो जायेंगे ? फिर उन इटली आदि ही म्लेच्छ खंड हैं, और केवल भारतवर्ष बंडाको म्लेच्छ खड ही क्यों कहा ? कर्मायाँक रहनेमे पार्य खंड ? कृपाकर बतलाइयेगा। वह भी आर्य खंड ही कहा जाना चाहिये था । अमः अन्तमें यशस्तिलक, चम्प, पाचरित, रत्नकरण्ड, जिनने भी ये भेद अभेद पार्योंक हैं वे सब आर्य खंडके धर्म-परीक्षा, धर्मरसिक श्रादि ग्रन्थोंके जो भी श्लोक रहने वाले श्रार्योंके ही हैं। म्लेच्छ खंडके रहने वाले इस लेखमे उदधृत किये हैं उनमे नो भले प्रकार यह म्लच्छ ही हैं वे आर्य नहीं हो सकते । आर्योको आर्य बात प्रमाणित हो जानी कि अपने धर्माचरणोंमें मनुष्य ग्वंडमें उत्पन्न होनेकी अपेक्षा और यहां धार्मिक प्रवृत्तियां ऊँच गोत्री है और पापाचरणोंसे नीच गाग्री है अर्थात् सम्भव होने को अपेक्षा नथा धर्माचरण पालन करनेकी अपने धर्माचरणोंय चांडाल भी ऊँच गाग्री (बाह्मण) है विद्यानन्द म्यामा एमा कहाँ निग्या है उम और अपने पापाचरणाम ब्राह्मण भी नीच गोत्री है, 12 ग वनलाना चाहिये था। उनके "उचगांवो इस बानमें अब कोई भी मन्दह शेष नहीं रहना है। या देगा: इम पार्यलक्षणसे नो जिम 'श्रार्य' कहा इस नरह पर इस लेख में अपने अच्छे बुरे आचरणवायगा उसके उच्चगोत्रका उदय नारा मानना पड़ेगा- के आधार पर ही जावों में अथवा मनुष्यों में उंचना गन्न ही वह किसी भी प्रकारका ग्रार्य क्या न । अथवा ऊँच गोत्र तथा नाचमा व नीच गोत्र है इस बाद नेत्रार्य श्रादि भाभदाम उन लगा मटिन प्रकारकी प्रश्नात्मक चर्चा करके लम्बको समाप्त किया ना होता है तो उसे अव्याप्ति दोपमं दूपित सदोष लनायिाद इन अपेक्षा ग्राम ही आयं और म्लन्छया। ५२ना चाहिय । म ही कारणांके वशवनी उक्त कथन हो अथवा माना जाय नो फिर अार्य उच्चगोत्रका 'नेक्षा के मदोष होनकी कल्पनाकी गई है। और इग उदय और म्लेच्छ के लिये नीच गोत्रका उदय अप्रयोनगय "उपयुक्त अार्यना केवल आर्यभूभियोग उत्पन्न नीय हो जाना है अथवा लाजिमी नहीं रहना, निमका को अपेक्षा है" एमा श्रागे निग्यना कुछ अर्थ नही विद्यानन्द प्राचार्य ने श्रायं-मलेच्छके लक्षणोंम प्रति "येन' ---यह निरर्थक जान पड़ता है। पादन किया है; और न अायंग्या दादय म्लच्छाको -सम्पादक मनच्छ ही कहा जा मकता है। -मम्पादक Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ मार्गशीर्व, वीर-निर्वाण सं०२५६१ जाता है। धर्माचरण, व्रताचरण, संयमाचरण, व्यवहार पाचरखमें तो पाप महा रूपसे है कोई पाचरणमें योग्य कुलाचरण, सद्व्यवहार सभ्य कुलाचरण भादि अणुरूपसे । सब एक ही बात है। इन पाचरणोंमें अन्तर केवल अब मैं लेखको समाप्त करके पूज्य बाबू सूरजभानइतना ही है कि कोई पावरणमें तो धार्मिकता महारूप जीसे प्रार्थना करता हूँ कि यदि लेखमें मुझसे कुछ से हैवकोई माचरणमें अणुरूपसे। इसी तरह पाप- अनुचित लिखा गया हो तो उसके लिये वे कृपाकर चरण असंयमाचरणा निच कुलारण असभ्याचरण मुझ अल्पज्ञको पमा करें तथा मेरे उपर वात्सल्य भाव कुन्सित म्यवहार भावि भी सब एक ही बात है। इन धारण करके किये गये प्रश्नोंका सम्यक् समाधान करके पाचरणों में भी अन्तर केवल इतना ही है कि कोई मुझे अनुगृहीत करें। अनुपम क्षमा क्षमा अंतःशत्रुको जीतनेमे खड्ग है पवित्र आचारकी रक्षा करनेमे बस्तर है। शुद्ध भावसे असह्य दुःखमें सम परिणामसे क्षमा रखने वाला मनुष्य भवसागरसे पार हो जाता है। कृष्ण वासदेवका गजसकमार नामका छोटा भाई महास्वरूपवान और सकमार था । वह केवल बारह वर्षकी वयमें भगवान् नेमिनाथके पास संसार त्यागी होकर म्मशानमें उग्र ध्यानमें अवस्थित था । उस समय उसने एक अद्भुत क्षमामय चारित्रसे महासिद्धि प्राप्त की उसे मैं यहां कहता हूँ। सोमल नामके ब्राह्मणकी सुन्दर वर्ण संपन्न पुत्रीके साथ गजसुकुमारकी सगाई हुई थी। परन्तु विवाह होनेके पहले ही गजसुकुमार संसार त्याग कर चले गये । इस कारण अपनी पुत्रीकं सुख नाश होने के द्वेषसे सोमल ब्राह्मणको भयङ्कर क्रोध उत्पन हा। वह गजसकमारकी खोज करते-करते उस स्मशान में आ पहुँचा, जहाँ महामुनि गजसुकुमार एकाग्र विशुद्ध भावसे कायोत्सर्गमें लीन थे। सोमलने कोमल गजसुकुमारके सिरपर चिकनी मिट्टी की बाड़ बनाकर इसके भीतर धधकते हुए अंगारं भरे और उसे ईधनसे पर दिया । इस कारण गजसुकुमारको महाताप उत्पन्न हुआ। जब गजसुकुमारकी कोमलदेह जलने लगी, तब सोमल वहाँसे चल दिया। उस समयके गजसकमारके असह्य दुःखका वर्णन कैसे हो सकता है। फिर भी गजसकमार सम्भाव परिणामसे रहे । उनकं हृदयमें कुछ भी क्रोध अथवा द्वंष उत्पन्न नहीं हुआ। उन्होंने अपनी आत्माको स्थिति स्थापक दशामें लाकर यह उपदेश दिया, कि देख यदि त ने इस ब्राह्मणकी पुत्रीके साथ विवाह किया होता तो यह कन्या दानमें तुझं पगड़ी देता । यह पगड़ी थोड़े दिनोंमें फट जाती और अन्तम दुःखदायक होती। किन्तु यह इसका बहुत बड़ा उपकार हुआ, कि इस पगड़ीके बदले इसने मोक्षकी पगड़ी बाँध दी। एसे विशुद्ध परिणामोंस अडिग रहकर सम्भावसे असह्य वेदना सहकर गजसुकुमारने सर्वज्ञसर्वदशी होकर अनन्त जीवन सुखको पाया । कैसी अनुपम क्षमा और कैसा उसका सुन्दर परिणाम । तत्त्व ज्ञानियोंका कथन है कि आत्माओंको कंवल अपने सद्भावमे आना चाहिये । और आत्मा अपने सद्भावमें आई कि मोक्ष हथेली में ही है । गजसुकुमारकी प्रसिद्ध क्षमा कैसी शिक्षा देती है। -श्रीमदराजचन्द्र Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर न्यायसाहित्यपर एक दृष्टि [ले०-६० रतनलाल संघदी, न्यायतीर्थ-विशारव] प्रागम-कालक्ष विक्रमकी तीसरी-चौथी शताब्दिके पूर्वका श्वे. क्षिकी विद्या" नामसे तर्क-शास्त्रका पता चलता है किंतु ' जैन-न्याय-साहित्यका एक भी ग्रन्थ उपलब्ध भारतीय न्याय-शास्त्रकी मज़बून नींव डालने वाले गौतमनहीं होता है; इसके पूर्वका काल अर्थात् विक्रमसे पांच- मुनि ही हैं । इन्होंने ही सर्वप्रथम "न्याय-सत्र" नामक मो वर्ष पहलेसे लगा कर उमके तीनभौ-चारमौ वर्ष प्रथकी रचना की। इनका काल ईमाकी प्रथम शताब्दि बाद नकका काल “अागम-काल" है। मूल अागम माना जाता है । इमी कालम भारतीय-प्रांगणमें तर्क और आगमिक-विषयको स्पष्ट करने वाली नियुक्तियों युद्ध प्रारंभ होता है और श्रागे चल कर शनैः शनैः एवं चर्णियाँ ही उस समय श्वे. जैन-साहित्यकी मीमा मभी मतानुयायी क्रमशः इसी मार्गका अवलम्बन लेते थी। श्रागमों पर ही जनताका जान निर्भर था। भग- हैं। यहीम भारतीय दर्शनोंकी विचार-प्रणाली तर्कवान महावीर स्वामीके निर्वाण कालमे लगा कर निर्धा- प्रधान बन जाती है और उत्तरोत्तर इसीका विकाम ग्नि अागम-काल तकका निर्मित माहित्य वर्तमानमें होता चला जाता है। इतना पाया जाता है:-११ अंग, १२ उपाग, ५ छेद, भर्वप्रथम यह सोचना श्रावश्यक है कि महर्षि ५ मूल, ३० पयन्ना, १२ नियुक्तियाँ, तत्वार्थमूत्र जैम गौनमन हम प्रणालीकी नींव क्यों डाली ? बात यह थी ग्रंथ एवं कुछेक ग्रथ और भी मिलते हैं । इनके कि ब्राहाणाने म्वार्थवश मनाके बल पर बैदिक-धर्म पर अतिरिक्त इस कालमें निर्मित अन्य श्व० ग्रथांका पना एकाधिपत्य जमा लिया था, एवं धार्मिक-क्रिया-कर्मो में नही चलता है। इस प्रकारकी विकृति पैदा कर दी थी कि जिसमें जनविक्रमकी पांच शताब्दिसं जग माहित्य पल्लवित माधारणका शोषण होता था और उनके दुःबोगं वृद्धि हाने लगा और ज्योज्यो ममय बीतता गया त्या त्यों होती जाती थी । इमलिये जनताका झुकाव तेज़ीम जैनविकान और प्रौद्र होता रहा है। धर्म और बौद्धधर्मकी ओर होने लग गया था। क्योंकि भारतीय-तर्कशास्त्रकी प्रतिष्ठा इन दोनोंकी कार्य प्रणाली ममान-बाद और मध्यममार्ग भारनीय तर्क-शास्त्रके आदि प्रणेता महर्षि गौतम है पर अवलम्बित थी। ये जातिवादका (वर्ण व्यवस्थाका) इन्हीन ही इस शास्त्रको व्यवस्थितम्प दिया । यद्यप और यज्ञ श्रादि निरुपयोगी क्रिया काण्डोका निषेध उनके पूर्व भी उपनिषदो आदि प्राचीन प्रथोंमें "अान्धी- करते थे, एवं यह प्रतिपादन करते थे कि मभी मनुष्य 8 इसका दृष्टिकोण श्वेताम्बर साहित्य धाराकी समान हैं, सबके हित एक है, प्रत्येक व्यक्ति ( चाहे वह अपेशामे है।लेखक म्त्री हो या पुरुष ) धर्मका श्रागधन कर मुक्ति प्राप्त कर तिका Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीरनिर्वाण सं० २४९९ सकता है। शास्त्र-श्रवणका भी प्रत्येकको समान-अधि- तोंका प्रबल खण्डन किया । दिङ नागादि पश्चात्वर्ती कार है; आदि आदि । इन कारणोंसे जनता वैदिक- बौद्ध तार्किकोंने इस विषयको और भी आगे बढ़ाया धर्मकी छत्र-छायाका त्याग करके जैनधर्म और बौद्ध- और इस प्रकार इस तर्कशास्त्रीय युद्धकी गंभीर नींव धर्मकी छत्र छायाके नीचे तेजीसे पाने लग गई थी। डाल कर अपने प्रतिपक्षियोंको चिरकाल तक विवश श्रमण संस्कृति (जैन और बौद्ध संस्कृतिका सम्मिलित किया साथ ही भारतीय तर्क- शास्त्रकी भव्य इमारतका नाम) ने थोड़े ही समयमें जनताके बल पर राजा महा- कला-पूर्ण निर्माण किया। राजाओंके शासन चक्र तकको भी अपना अनुयायी इस तर्क-युद्ध में जैनेतर तार्किक विद्वान् जैन-दर्शन बना लेनेकी शक्ति प्राप्त कर ली थी। पर भी छींटे उछालने लगे और भगवान् महावीर स्वामी इस प्रकार श्रमण-संस्कृतिके क्रियात्मक प्रभावको द्वारा प्रतिपादित धर्मका उपहास करने लगे; तब जैनदेखकर गौतम श्रादि वैदिक विद्वानोंने इस प्रभावका विद्वानोंको भी जैनधर्मकी रक्षा करनेकी चिन्ता सताने निराकरण करनेका विचार किया और इस प्रकार यह लगी। इन्होंने सोचा कि अब केवल "श्रागमों" पर विचार ही तर्क शास्त्रकी उत्पत्तिका मूल कारण हुश्रा। निर्भर रहनेसे ही कार्य नहीं चलेगा और न केवल __ भारतीय तर्क-शास्त्रका अपर नाम न्याय-शास्त्र भी 'बागम-रक्षा' से 'जिन-शासन' की रक्षा हो सकेगी। है । इसका कारण यह है कि इस शास्त्रके श्रादि इसलिये जिस प्रकार बौद्ध-विद्वानोंने सम्पूर्ण बौद्धप्राचार्य महर्षि गौतम द्वारा रचित तर्क-शास्त्रके श्रादि साहित्यकी विवेचना और रक्षाका अाधार 'शून्यवाद' प्रथका नाम न्याय-सूत्र है और इसीलिये प्रत्येक दर्शनका निर्धारित किया; उमी प्रकार इन विद्वान् साधुनोंने भी तर्क-शास्त्र "न्याय-शास्त्र" के नामसे भी विख्यात हो जैन-साहित्यकी विवेचना और रक्षका अाधार 'स्थाद्वादगया है। जैसे कि सांख्य न्याय, बौद्ध न्याय, जैन-न्याय सिद्धान्त' रक्खा । बौद्ध और जैन-न्याय साहित्य-रूप इत्यादि। भवनकी आधार शिलाका संस्थापन जिन कारणोंसे हुआ है, उनका यह संक्षिप्त दिग्दर्शन समझना चाहिये। चौद्ध और जैन न्याय-शास्त्र तर्कशास्त्रकी उत्पत्ति और विकासके कारणोंको जब बौद्ध विद्वानोंको महर्षि गौतमकी इस रहस्यमय जान लेनेके बाद यह जानना आवश्यक है कि धर्म, नीतिका पता चला तो उन्होंने भी तार्किक प्रणालीका दर्शन और तर्ककी परिभाषा क्या है ? मुख्यतया क्रियाआश्रय लिया । बौद्ध-तार्किकोंमें सर्वप्रथम और प्रधान त्मक चारित्रका नाम धर्म है, द्रव्यानुयोग सम्बन्धी ज्ञानप्राचार्य नागार्जुन हुश्रा । इनका काल ईसाकी दूसरी को 'दर्शन' कहते हैं और दर्शनरूप ज्ञान के सम्बन्धमें शताब्दी है। ये महान् प्रतिभाशाली और प्रचण्ड ऊहापोह करना, भिन्न भिन्न रीतिसे विश्लेषण करना तार्किक थे । इन्होंने 'माध्यमिक-कारिका" नामक तर्कका 'तर्क' अथवा 'न्याय' है ।। प्रौद और गंभीर ग्रंथ बनाया, एवं बौद्ध-साहित्यका मूल यद्यपि श्वे. जैन-न्याय-साहित्यका प्रारम्भ सिद्धसेन आधार "शून्यवाद" निर्धारित किया। इसके आधार दिवाकरके कालसे ही हुआ है। फिर भी जैन न्यायका पर वैदिक मान्यताओका और वैदिक-मान्यतानुक्ल मूल बीज विक्रमकी प्रथम शताब्दिमें होने वाले, संस्कृत Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर म्याबसाहित्यपर एक दृष्टि वर्ष ३, रिब २] जैन वाङ्मयके आदि-लेखक श्राचार्य उमास्वाति वाचक द्वारा ग्रंथराज " तत्वार्थ सूत्र” के प्रथम अध्यायके छठे सूत्र "प्रमाखनचैरधिगमः” में सन्निहित है । सम्पूर्ण जैनन्याय साहित्यका श्रलोचन किया जाय तो पता चलेगा कि उपर्युक्त सूत्रका ही सम्पूर्ण जैन न्याय - साहिभाष्य रूप है। अर्थात् प्रमाण और नयके श्राधार पर ही जैनेतर सभी दर्शनों की मान्यताओंकी परीक्षा की गई है और जैनदर्शन-सम्मत सिद्धान्तोंकी नैयायिक नीव डाली गई है। स्याद्वाद प्रमाण और नया समन्वय ही 'स्याद्वाद' है । अपेक्षावाद, अनेकान्तवाद, आदि शब्द इसके पर्याय वाची हैं। मूल आगमों में 'सिय अस्थि' 'सिय यत्थि' और 'सिय अवसम्वं' अर्थात् स्यादस्ति, स्याद् नास्ति और स्यादवक्तव्यं ( उर्फ़ उत्पाद, व्यय और प्रौव्य ) ये तीन ही भाग मिलते है, अतः स्याद्वादका यही श्रागमां रूप है। इन तीनोंकी सहायतासे ही व्यष्टि रूप से और समष्टि रूपसे सात भाग बनते हैं । न अधिक बन सकते हैं और न कम ही । कहा जाता है कि सर्व प्रथम मात भांगे प्रथम शताब्दिमें होने वाले प्रसिद्ध दिगस्वराचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा विरचित 'पंचास्ति 'काय' 'प्रवचन-सार' में मिलते हैं, परन्तु चौथी शताब्दि के बाद ही इस as साहित्यका विशेष विस्तार और विकास होता है, और अन्तमें शनैः शनैः बारहवी शताब्दि तक यह विषय विकासकी चरम कोटिको पहुँच जाता है। वौद्ध दर्शन एवं वैदिक दर्शनोंको पदार्थ विवेचन-पद्धति में और जैनदर्शनकी पदार्थ विवेचनपद्धतिमें इस स्याद्वादके कारणसे ही महदन्तर है। सम्पूर्ण जैन- न्यायका भवन इमी स्याद्वाद ( अनेकान्त १७३ वाद) के ऊपर ही टिका हुआ है। कहना न होगा कि जैनदर्शन के पास दूसरे दर्शनोंकी मान्यताओंका प्रामाणिक रूपसे खंडन करनेके लिये यही — स्याद्वाद हीएक अमोघ अस्त्र सिद्ध हुआ है साराँश यही है कि जैन- न्यायका एक ही दृष्टिकोण है और वह है स्याद्वादपद्धतिसे—- श्रनेकान्त-पद्धतिसे वस्तु स्थितिका विवेचन किया जाना | । मूल, चर्णि, निर्युक्ति, टीका श्रादि पंचांगी श्रगाम माहित्य में स्याद्वादका सूक्ष्म और श्रावश्यक विवेचन मिलता है श्रौर ज्यों ज्यों दार्शनिक संघर्षण चलता है, त्यों त्यों स्याद्वादका स्वरूप और विवेचन गंगाके प्रवाहके समान शीतल, विशाल, विस्तृत और आल्हादक होता चला जाता है। विश्व, श्रात्मा, ईश्वर, प्रकृति श्रादि मूलभूत तत्वोंके श्रादि अंतका वर्णन दार्शनिकोंने जिस प्रकार किया है, और जैसा उनका एकान्त एकांगी रूप माना है; एकान्तवादके कारण वह पूर्ण सत्य नहीं कहा जा सकता । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अर्थात् लोकालोक रूप संसार का एकांगी स्वरूप मान लेने पर ही दार्शनिक मतभेद और धार्मिक कment उत्पत्ति हुई है और होती है । इन क्लेशांको दूर करने के लिये ही 'स्याद्वाद' की उत्पत्ति और इस विषयक साहित्यका विकास हुआ है। प्रत्येक पदार्थ विभिन्न कारणोंस और विभिन्न अपेक्षानोंसे अनेक स्वरूप है । वहन एकान्त नित्य है और न एकान्त रूप से अनित्य हो । द्रव्य अपेक्षासे नित्य है और पर्याय अपेक्षासे अनित्य । इसी तरहसे स्वद्रव्य क्षेत्र श्रादिके हिसाब से वह अस्तिरूप है और पर द्रव्य-क्षेत्र श्रादिके लिहाजसे नास्तिरूप है। यह बात जड़ और चेतन दोनों ही प्रकारके तत्वोंके लिये समझना चाहिये । यही स्याद्वादका रहस्य है । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्स [मार्गशीर्ष, बीरनिर्वाण सं० २०६६ जिन जैनेतर दार्शनिकोंने इसे सशयवाद या अनि- इनका संक्षिस भावार्थ इस प्रकार है:श्चयवाद कहा है, निश्चय ही, उन्होंने इसका गंभीर जिसके अभाव में लोकव्यवहारका चलना भी अध्ययन किये बिना ही ऐसा लिखा है। आश्चर्य तो असंभव है, उम त्रिभुवनके अद्वितीय गुरु 'अनेकान्त इस बातका है कि प्रसिद्ध प्रसिद्ध सभी विभिन्न दार्शनिकों वाद' को असख्यात बार नमस्कार है ||१|| ने इस सिद्धान्तका शब्द रूपसे खडन करते हुए भी मिथ्यादर्शनोंके समूहका समन्वय करनेवाला, प्रकारांतरसे अपने अपने दानिक-सिद्धान्तोंमें विरोधोंके अमृतको देनेवाला, मुमुक्षुओं द्वारा सरल रीतिसे समउत्पन्न होने पर उनकी विविधताओंका समन्वय करने के झने योग्य ऐमा जिनेन्द्र भगवान्का प्रवचन-स्यावाद लिए इसी सिद्धान्तका श्राश्रय लिया है। महामति मिद्धान्त-कल्याणकारी हो ॥२१॥ मीमांसकाचार्य कुमारिलभट्टने अपने गंभीर ग्रन्में दीपकसं लगाकर आकाश तक अर्थात् सूक्ष्मस और सांख्य, न्याय, बौद्ध श्रादि दर्शनोंके अनेक सूक्ष्म वस्तुसे लेकर बड़ीसे बड़ी वस्तु भी 'स्याद्वाद' की श्राचार्योंने अपने अपने ग्रन्थों में प्रकारान्तरसे इमी अाज्ञानुवर्तिनी है । यदि कोई भी पदार्थ चाहे वह छोटा सिद्धान्तका आश्रय लिया है । इस सम्बन्धमें पंहसराज- हो या बड़ा, स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार अपना स्वरूप जी लिग्वित "दर्शन और अनेकन्तवाद" नामकी पुस्तक प्रदर्शित नहीं करेगा तो उमकी वस्तु-स्थितिका वास्तविक पटनीय है। शान नहीं हो सकेगा। हे भगवान ! यह 'स्याद्वाद' से स्याद्वादके महत्व के विषयमें अनेक प्राचीन प्राचार्यो- अनभिज्ञ लोगोंका प्रलाप ही है, जो यह कहते हैं कि ने संख्यातीत श्लोकों द्वारा अत्यन्त तर्क पूर्ण श्रद्धा और "कुछ वस्तु नो एकान्त नित्य हैं और कुछ एकान्त स्तुत्य भावनामय भनि प्रकाशनकी है। उनमें से कुछ अनित्य ।" अतः विद्वान पुरुषाको सभी वस्तुएँ द्रव्या उदाहरण निम्न प्रकारमे है:--. पेक्षया नित्य और पर्यायापेक्षया अनित्य समझना नेश विणा लोगस्स वि ववहारो सन्बहा ग निम्बइ। चाहिये ॥३॥ तस्स भुवणेकगुरूणो णमो अणेगंतवादस्स ॥ जिस प्रकार माखनके लिये दहीको मथनेवाली भई मिच्छादंगणममूहमायस्स भमयमारस्प। म्बी दोनों हाथाम रस्मी ( मन्थान रजु) को पकड़े रहनी जिहावयणस्म भगवश्रो संविमासुहागिम्मस्म। है। एक हाथम ढील देतो है और दूसरे हाथसे उसे -सिद्धसेन दिवाकर खींचती है, तभी मक्खन प्राप्त हो मकता है । यदि वह प्रादीपमाग्योम सम स्वभाव, स्यादादमुद्रातिभेदिवस्तु । एक ही हाथमे कार्य करे अथवा दूसरे हाथकी रस्सीको तमित्यमेवैकमनिस्यमन्य,-दितित्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः॥ -हेमचन्द्राचार्य बिल्कुल छोड देव तो सफलता नहीं मिल सकती है। एकेनाकर्षन्तो श्लथयती वस्तुनयमितरंण। यही स्यावादको नीतिका भी रहस्य है । इस मिद्धान्तम अन्तेन जयति जैनी नातिमन्थाननेमिः गोपी॥ भी "ढोल देना और खोंचना" रूप कियाका वस्तु परमागमस्य बीजं, निषिद्धजात्यन्धसिन्धुर-विधानम्। विवेचन के समय क्रमस गौणता और मुख्यता समझना सकलनपविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकाम्नम् ॥ चाहिये । प्रत्येक वस्तु अनेक धर्ममय है। उनमंस एक -ग्रमान मार धर्मको मुख्यता और शेष धर्मोको उनका निषेध नहीं Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर न्यावसाहित्यपर एक दृष्टि 141 करते हुए गौणता प्रदान करने पर ही वस्तु-तत्त्वका है। स्वपर-निश्चायक शान ही प्रमाण है । जैन वाङमयनिर्णय हो सकता है ॥४॥ में ज्ञान-दर्शनकी दो पद्धतियाँ उपलब्ध हैं। एक भाग. ___ स्याद्वाद सिद्धान्त परमागमका बीज है, इसने मिक और दूसरी तार्किक । श्रागमिक पद्धतिके भी दो जन्मान्ध-गजन्यायके समान एकान्तवाद रूप मिथ्या- रूप मिलते हैं। एक तो विशुद्ध-श्रागमिक और दूसरी धारणाका सर्वथा नाश कर दिया है । यह वस्तुमें तर्का श मिश्रित-आगमिक । विशुद्ध प्रागमिक-शान निरुसनिहित अनन्त धर्मोको अपेक्षा करता हुआ, विरोधोंको पण पद्धतिमें ज्ञान के पाँच भेद किये गये हैं । मति, विविधताके रूपमें समन्वय करनेवाला है। ऐस सिद्धान्त श्रुति, अवधि, मनः पर्यय और केवल । इनको श्रागशिरोमणि "अनेकान्तवाद" को मैं अनत बार नमस्कार मिक कहनेका कारण यह है कि श्रात्माकी मूलभूत करता हूँ ||५|| शुद्धि और अशुद्धि के विवेचन में जो 'कर्ममिद्धान्त' का इसलिये स्याद्वादको मशयवाद या अनिश्चयवाद वर्णन किया जाता है, उसमें ज्ञानावरण कर्मके पाँच कहना निरी मूर्खता है । स्याद्वाद सर्वानुभवसिद्ध, सुव्य- ज्ञान-भेद के अनुसार किये गये हैं । तर्क संर्घषणसे उत्पन्न वस्थित, सुनिश्चित, और सर्वथा निर्दोष सिद्धान्त है। प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्षरूप भेदोंके श्राधारसे प्रत्य. सपूर्ण धार्मिक क्लेशोंको दूर करनेके लिये, मभी मन- क्षावरण और परोक्षावरणरूपभेद ज्ञानावर्ण कर्मके नहीं मतान्तरोका समन्वय करके उनको एक ही प्लेट फार्म किये गये हैं । यदि ज्ञानावर्ण के भेद प्रत्यक्षावर्ण और पर लानेके लिये, एवं विश्व के विखरे हुए और विरोधी परोक्षावर्ण के रूपमें किये जात तो यह तर्कप्रधान ज्ञानरू.पस प्रतीत होनेवाले लेखों विचारों तथा हजारों संप्रदायों विवेचन-प्रणाली कहलाती । किन्तु ऐमा न होने से यह को एक ही सूत्रमें अनुस्यत करनेके लिये स्यादाद जैमा अनिविशुद्ध और प्राचीन श्रागमिक-जान प्रणाली है। कोई दूसरा श्रेष्ठ सिद्धान्त है ही नहीं। विश्वकी सभ्यत, नर्कमिश्रित श्रागमिक शान पद्धतिमें ज्ञान रूप मस्कृति और शांति के विकास के लिये जैनदर्शन और प्रमाण के ४ विभाग किये गये हैं। १ प्रत्यक्ष. २ अनुजैनतर्क शास्त्रकी यह एक महान् देन है। किन्तु खेद मान, ३ उपमान, और ४ अागम । तदनुमार विशुद्ध है कि अाजका जैनममा ज अनेक मप्रदायाम विभाजित आगमिक ज्ञान पद्धतिके भेदोका ममावेश प्रत्यक्षमें ममहोकर क रन जैसे सुन्दर सिद्धान्तको शीशेक टकड़ोंक झना चाहिये और शेष भेद तर्क-मघर्ष से उत्पन्न हुए हैं, रूपम परिणत करता हुआ भगवान् महावीर स्वामीक ऐमा ममझना चाहिये । श्री ठाणांग सूत्रमें "प्रत्यक्ष नामपर विश्वामघात कर रहा है! अथोत् अनेकान्तवादी और परोक्ष" तथा "प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और म्बय माप्रदायकव्यामोहम एकान्तवादी हो गया है!! अागम" इस प्रकार दोनों भेद वाली प्रणालीका उल्लेख पाया जाता है। इसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद वाली प्रमाण और नय पर ऐतिहासिक दृष्टि प्रणाली तो स्पष्ट रूपसे विशुद्ध तार्किक ही है। श्री यह पहले लिखा जा चुका है कि प्रमाण और नय भगयती मूत्रमें केवल चार भेद वाली प्रणालीका का समन्वय ही स्यादाद-सिद्धान्त है; अतः इस विषय उल्लेख पाया जाता है । श्री अनुयोग द्वारा सूत्रमें चार पर भी एक सरम ऐतिहासिक दृष्टि डालना आवश्यक भेद वाली प्रणालीका उल्लेख किया जाकर प्रत्यक्ष दो Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ बनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीरनिर्वाण सं० २४६६ भागोंमें बांट दिया गया है। एक मागमें मतिशनका के ५ भेद किये हैं, १ स्मृति, २ प्रत्यभिज्ञान, ३ तर्क, और दूसरेमें अवधि श्रादि तीनका समावेश किया गया है ४ अनुमान, और ५ आगम । इस प्रकार सारांश रूप भी नन्दी सूत्रमें भी अनुयोगद्वारके समान ही प्रत्यक्षके से यह कहा जा सकता है कि संपूर्ण प्रमाण बादको दो भेद किये जाकर एकमें मतिज्ञानको और दूसरेमें जैन न्यायाचार्योंने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूपमें सुव्यवअवधि आदि तीनको रक्खा है। किन्तु परोक्ष वर्णनमें स्थित रूपसे संघटित कर दिया है, जो कि सम्पूर्ण जैन पुनः मति श्रुति दोनोंका समावेश कर दिया है। यह वाङ्मयमें निर्विवाद रूपसे सर्वमान्य हो चुका है। अनुयोगद्वारकी अपेक्षा नंदी सूत्रकी विशेषता है। इस नयवादको विकास-प्रणाली प्रमाणवादकी विकाम प्रकार आगमोंमें भी मिलनेवाली सोशमिश्रित ज्ञान प्रणालिके समान विस्तृत नहीं है । मूल श्रागम ग्रंथों में प्रणालीका यह अति स्थल रेखा दर्शन समझना चाहिये। सात नयोंका उल्लेख पाया जाता है। प्राचार्य मिद्धमेन __विशुद्ध तार्किक ज्ञान-प्रणालीका एक ही रूप पाया दिवाकर छह नय ही मानते हैं। वे नैगमको स्वतन्त्र जाता है और वह है प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद वाली नयकी कोटि में नहीं गिनते है । द्रव्याथिक दृष्टिकी मर्यादा प्रणाली । सम्पूर्ण जैन सस्कृत वाङमय, सर्व प्रथम यह संग्रह नय और व्यवहार नय तक ही स्वीकार करते प्रणाली श्राचार्य उमास्वानि कृत "तत्वार्थसूत्र" में पाई हैं । शेष चार नयों को पर्यायार्थिक दृष्टिकी मर्यादाके जाती है। गिनभद्रगणी क्षमाश्रमण और दिगम्बरा- अन्तर्गत समझते हैं । इन प्राचार्य के पर्व कोई षट्नयचार्य भट्टाकलंकदेवने इतना विश्लेषण कर पर्णरीत्या वादी थे या नहीं, यह अभी तक ज्ञात नहीं हो सका ममर्थन किया; और ततश्चान् जिनेश्वर सूरि, वादिदेव है। इसलिये यह कहा जाता है कि प्राचार्य सिद्धसेन सूरि हेमचन्द्राचार्य तथा उपाध्याय यशोविजय जी श्रादि दिवाकर ही आदि षट्-नयवादी हैं । श्वेताम्बर श्राचार्योने और माणिक्यनन्दी तथा विद्या प्राचीन परंपरा द्रव्यार्थिक दृष्टिकी मर्यादा जुमूत्र नन्द श्रादि दिगम्बर श्राचार्योने भी अपने अपने न्याय नय तक स्वीकार करती है; किन्तु सिद्धमन काल के ग्रन्थों में इस प्रणालीको पूरी तरहमे मंगुफिन कर दिया पश्चात् । यह मर्यादा व्यवहारनय तक हो अनेक जो कि अद्यापि मर्वमान्य है। श्राचार्यों द्वारा स्वीकार करली गई है। समर्थ श्रागतिक इम प्रणालीमें प्रत्यक्षके दो भाग किये गये हैं:- विद्वान् जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण एवं प्रचंड नैयायिक १ मांव्यवहारिक और पारमार्थिक । प्रथम भागमें श्री विद्यानन्द श्रादि प्राचार्यों द्वारा चर्चित नयवादमति, श्रुतिको स्थान दिया गया है और दूमरेमें अवधि, चर्चा उपयुक्त कथनका समर्थन करती है। मनःपर्यय और केवलको इस प्रकार प्रत्यक्ष भेदमें आगम-अभिद्ध सप्त नयवाद और मिद्धसेनीय पट विशुद्ध श्रागमिक पद्धतिकी समस्याको केवल हल कर नयवादके अनिरिक्त जैन संस्कृत साहित्यके आदि खान, दिया है और परोक्षमें तार्किक-संघर्ष मे उत्पन्न प्रमाणके प्राचार्य प्रवर वाचक उमास्वातिकी तीसरी नय-वाद-भेदभेदोंका समावेश कर दिया गया है। जैनेतर दार्शनिकों प्रणालि भी देखी जाती है । ये 'नेगम' से 'शब्द' तक ने जितने भो प्रमाण माने हैं, उन सबका समावेश ५ नय स्वीकार करते हैं; और अंतमें 'शब्द' के तीन परोक्षके अन्तर्गत कर लिया गया है। जैनदृष्टिसे परोक्ष भेद करके प्रागम प्रसिद्ध शेष दो नयोंका भी समावेश Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, जिस २] श्वेताम्बर व्यावसाहित्वपर एक एटि १८५ कर देते हैं । देखा जाय तो इन तीनों परम्परात्रों में साहित्यके ये ही श्राद्य प्राचार्य है। इनका काल केवल विवेचन-प्रणालिको भिन्नता है, तात्विक-दृष्टिसे विक्रमकी तीसरी-चौथी-पाँचवीं शताब्दिमेंसे कोई कोई खास उल्लेखनीय भिन्नता नहीं है। शताब्दी है । ये जैनधर्म और जैन साहित्यके विक्रमकी बारहवीं शताब्दिमें होनेवाले, दार्शनिक महान्प्रतिष्ठापक और प्रतिभा संपन्न समर्थ श्राचार्य जगतके महान् विद्वान् और प्रबल वाग्मी श्री वादिदेव- थे। इनके द्वारा रचित ग्रन्थोंमेंसे सम्मति तर्क, सूरि आगम-प्रसिद्ध नयवाद प्रणालिका समर्थन करते न्यायावतार, तथा २२ द्वात्रिंशिकाएं उपलब्ध है। हुए नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्रको 'अर्थनय' २ मल्लवादी क्षमाश्रमण-इनका काल विक्रमकी की कोटिमें रखते हैं और शब्द, समभिरूढ़ और एवं- पाँचवीं शताब्दि है । इनका बनाया हुआ न्यायभूतको 'शब्दनय' की कोटिमें गिनाते हैं। किन्तु पूर्व ग्रन्थ "नय चक्रवाल" सुना जाता है, जो कि तीनी नयोंको द्रव्यार्थिककी श्रेणी में रखकर और शेष दुर्भाग्यसे अनुपलब्ध है। कहा जाताहै कि इन्होंने चारको पर्यायार्थिककी श्रेणीमें रखकर सिद्धसेनीय शीलादित्य राजाकी सभामें बौद्धोंको हराया था मर्यादाका समर्थन करते हैं। और उन्हे सौराष्ट्र देशमेसे निकाल दिया था। यहाँ तक अागम-काल, भारतीय-न्याय-शास्त्रकी ३ सिंहक्षमाश्रमण-इनका काल सातवीं शताब्दि आपत्ति और उसके विकामके कारण, बौद्ध और जैन माना जाता है। इन्होंने "नय-चक्रवाल" पर १८ पाय शास्त्रकी आधार शिला, स्याद्वाद सिद्धान्त और हज़ार श्लोक प्रमाण एक सुन्दर संस्कृत टीका उसके शाखारूप प्रमाण एव नबका ऐतिहामिक वर्गी लिखी है । इसकी प्रति अस्त व्यस्त दशामें और करा श्रादि विषयोंका संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया जा अशुद्ध रूपस पाई जाती है । उच्चकोटिके दार्शनिक चुका है । न्याय ग्रंथों वणित हेतुवाद एवं अन्यवादों। ग्रथोंमें इमकी गणनाकी जाती है। पर दृष्टि डालनेकी इच्छा रखते हुए भी विस्तार-भयसे ४ हरिभद्रसूरि-इनका अस्तित्व-काल विक्रम ७५७स प्रमा नहीं करके प्रसिद्ध प्रसिद्ध जैन न्यायानार्योंका ८२७ तकका सुनिश्चित हो चुका है । ये 'याकिनीपनिहासिक काल श्रम बतलाते हए, तथा मंपर्ण न्याय महत्तरास्नु' के नामसे प्रसिद्ध है और १४४४ ग्रंथोमाहित्य पर एक उपमहारात्मक सरसरी दृष्टि डालने हुए के प्रणेता कहे जाते हैं। इन्हें भारतीय माहित्ययह लेख समाप्त कर दिया जायगा । कागेकी मर्वोच्च पंक्तिके साहित्यकारोंमेंसे समझना कुछ प्रसिद्ध जैन न्यायाचार्य चाहिये । ये अलौकिक प्रतिभासंपन्न और महान् १ सिद्धमन दिवाकर *-श्वेताम्बर जैन न्याय मंधावी, गंभीर न्यायाचार्य थे । अनेकान्त जयपता का, पड्दर्शन समुच्चय, शाम्बवार्ताममुच्चय, अने* सिद्धसेन दिवाकर और प्राचार्य हेमचन्द्र पर कान्तवाद प्रवेश धर्ममंग्रहणी, न्यायविनिश्चय (2); विस्तृत विचार जाननेकी इच्छा रखनेवाले पाठक मेरे द्वारा लिखित और "अनेकान्त" वर्ष से की किरण, आदि इन द्वारा रचित न्यायके उच्चकोटिके ग्रंथ हैं। १, ६ और । एवं १०में प्रकाशित इन पाचार्य विषयक ५ अभयदेव सरि-ये विक्रम की १०वीं शतान्दिके निबन्ध देखनेकी कृपा करें। -लेखक उत्तरार्ध और ११वींके पूर्वार्धमें हुए । ये तर्क Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ अनेकान्त [ मार्गशीर्ष, वीर-निक्सिं०२४१६ पंचानन और न्यायवनसिंहकी उपाधिसे सुशोभित और अलौकिक प्रतिभाका अनुमान करना हमारे थे। नवाँगीवृत्तिकार अभयदेवसे इन्हें भिन्न सम- लिये कठिन है। कहा जाता है कि इन्होंने अपने झना चाहिये । इन्होंने सिद्धसेन दिवाकर रचिन साधुनरित जीवनमें साढ़े तीन करोड़ श्लोक प्रमाण सम्मति तर्क पर पच्चीस हजार श्लोक प्रमाण न्याय साहित्यकी रचना की थी। न्याय प्रन्थोंमें प्रमाणशैली पर एक विस्तृत टीका लिखी है । यह अनेक मीमांसा, अन्ययोग-व्यवछेद और अयोग-व्यवछेद दार्शनिक-ग्रन्थोंका मंथन किया जाकर प्राप्त हुए नामक द्वात्रिंशिकाओंकी रचना आपके द्वारा हुई नवनीतक समान अति श्रेष्ठ दार्शनिक ग्रंथ हैं। नक ग्रंथ है। पाई जाती है। दशवीं शताब्दि तकके विकसित भारतीय दर्शनोंके ९ रत्नप्रभसूरि-ये वादिदेवसूरिके शिष्य है, अतः ग्रन्थोकी खाता बहीके रूपमें यह एक सुन्दर संग्रह वादिदेवसूरिका जो समय है वही इनका भी समझना ग्रंथ है। चाहिये। प्रमाणनय-तत्त्वालोकपर इन्होंने पाँचहजार ६ चन्द्रप्रभ सूरि-इनका काल विक्रमकी १२वीं श्लोक प्रमाण 'रनाकराव-तारिका' नामक टीका शताब्दि (११४६) है। इन्होंने दर्शन-शुद्धि और ग्रन्थ लिखा है, जिमकी भाषा और शैलीको देख प्रमेयरल कोश नामक न्यायग्रन्धकी रचना की है। कर हम इसे 'न्यायकी कादम्बरी' भी कह सकते हैं । कहा जाता है कि इन्होंने सं० ११५८ में पूर्णिमा १० शात्याचार्य-इनका काल विक्रमकी ११वीं (?) गच्छकी स्थापना की थी। शताब्दि है। इन्होंने सिद्धसेन दिवाकर-रचित ७ वादिदेवसूरि-इनका काल विक्रम स. ११३४ से न्यायावतारके प्रथम श्लोक के आधार पर ही एक १२२६ तकका है। इन्होंने प्रमाण नयतत्त्वालोक' वार्तिक लिखा है, जो कि प्रमाण-वार्निक भी कहा नामक सत्रबद्ध न्याय-ग्रन्थकी रचना करके उसपर जाता है। इसी वार्तिक पर इन्होंने २८७३ श्लोक चौरासी हजार श्लोक प्रमाण विस्तृत और गंभीर प्रमाण प्रमाण-प्रमेय-कलिका' नामक टीकाभी लिम्बी 'स्याद्वाद रत्नाकर' नामक टीकाका निर्माण किया है जो प्रकाशित हो चुकी है, किन्तु अनेक अशुद्धियाँ है। यह टीका-ग्रंथ भी जैन न्यायके चोटीके ग्रंथोम रह गई है। से है । "प्रमेयरबकोटीभिः पूर्णो रत्नाकरो महान्" ११ मल्लिषेणसूरि-ये चौदहवीं शताब्दिमें हुए हैं। पक्तिसे इसकी महत्ता और गुरुता आँकी जा सकती आपने श्राचार्य हेमचन्द्र रचित 'अन्य योगव्यवहै। कहा जाता है कि सिद्धराज जयभिहकी राज छेद' नामक द्वात्रिंशिका पर सं० १३४६ में तीन सभामें दिगम्बर मुनि कुमुदचन्द्राचार्यको वाद- हजार श्लोक प्रमाण "स्याद्वादमंजरी" नामक विवादम इन्होन पगजित किया था। ये बाद- व्याख्या ग्रंथ लिखा है। इसकी भाषा प्रसाद-गुणविवाद करनेमें परम कुशल थे; इसीलिये "देव- सम्पन्न है और विषय-प्रवाह शरद ऋतुकी नदीको सरि" से 'वादिदेव-सूरि' कहलाये। प्रवाहके समान सुन्दर और अान्हादक है । पट ८ हेमचंद्राचार्य-इनका सत्ता समय विक्रम ११४५ स । दर्शनोंका संक्षिप्त और सुन्दर ज्ञान कराने वाली १२२६ तक है। इनकी अगाध बुद्धि, गभीर ज्ञान इसके जोड़की दूसरी पुस्तक मिलना कठिन है। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर न्यायसाहित्यपर एक दृष्टि वर्ष ३, किरण २ ] १२ गुणरत्नसूरि-ये पन्द्रहवीं शताब्दिमें हुए हैं । इन्होंने हरिभद्रसूरि रचित "ट-दर्शन समुच्चय" पर १२५२ श्लोक प्रमाण " तर्क - रहस्य - दीपिका " नामक एक भावपूर्ण टीका लिखी है। इसमें भी प्रट्-दर्शनोंके सिद्धान्तों पर अच्छा विवेचन किया गया है । दार्शनिक ग्रंथोंकी कोटि में इसका भी अपना विशेष स्थान है । १३ उपाध्याय यशोविजय जी - जैन-न्याय साहित्य रूप भव्य भवनके पूर्ण हो जाने पर उसके स्वर्ण कलशसमान ये अन्तिम जैन न्यायाचार्य हैं। ये महान् धाव और साहित्य-सृजनमं श्रद्वितीय याहत गतिशील थे। इनकी लोकांतर प्रतिभा और श्रगाध पांडित्यको देखकर काशीकी विद्वत् सभा ने इन्हें 'न्याय-विशारद' नामक उपाधिमे विभूषित किया था । तत्पश्चात् सौ ग्रन्थोंका निर्माण करने पर इन्हें 'न्यायाचार्य' का विशिष्ट पद प्राप्त हुआ था और तभी ये "शत ग्रन्थोके निर्माता" रूपसे प्रसिद्ध भी हैं। तर्क भाषा, न्यायलोक, न्यायखंडस्वाद्य, स्याद्वाद, कल्पलता आदि अनेक न्यायग्रंथ आप द्वारा रचित पाये जाते हैं। इनका काल १८वीं शताब्दि है । इन उल्लिखित ग्राचार्योंके अतिरिक्त अन्य अनेक जैन नैयायिक ग्रंथकार हो गये हैं; किन्तु भयसे इस लेख मं कुछ प्रमुख प्रमुख श्राचार्यों का ही कथन किया जा सका है । उपाध्याय यशोविजय जीके पश्चात् जैनन्याय साहित्य के विकामकी धारा रुक जाती है और इस प्रकार चौथी शताब्दि के अन्तसे और पांचवीं के प्रारम्भ मे जो जैन न्याय-साहित्य प्रारम्भ होता है, वह शताब्दि तक जाकर समाप्त दो जाता है । उपसंहार संपूर्ण जैन न्याय-ग्रंथों में पढ़-दर्शनोंकी लगभग सभी मान्यताओंका स्याद्वादकी दृष्टिसे विश्लेषण किया गया है । और अन्तमें इसी बात पर बल दिया गया है कि अपेक्षा विशेषसेनयन्दृष्टिमे सभी सिद्धान्त सत्य हो सकते हैं । किन्तु वे ही सिद्धान्त उम दशामें असत्य रूप हो जायगे; जबकि उनका निरुपण एकान्त रूपसे १८१ एक ही दृष्टिसे किया जायगा । न्याय-ग्रंथों में वर्णित कुछ मुख्य मुख्यवादोंके नाम इस प्रकार है: - सामान्यविशेषवाद, ईश्वरकर्तृत्ववाद श्रागमवाद, नित्यानित्यवाद, श्रात्मबाद, मुक्तिवाद, शून्यवाद, श्रद्वैतवाद, अपोहवाद, सर्वश्वाद, श्रवयवश्रवयविवाद, स्त्रीमुक्तिवाद, कवलाहारवाद, शब्दवाद, वेदादि अपौरुषेयवाद, क्षणिकवाद, प्रकृतिपुरुषवाद, जडवाद अर्थात् श्रनात्मवाद, नयवाद, प्रमाणवाद, अनुमानवाद और स्याद्वाद इत्यादि इत्यादि । ज्यों ज्यों दार्शनिक-संघर्ष बढ़ता गया त्यों त्यो विषय में गंभीरता श्राती गई । तर्कोंका जाल विस्तृत होता गया। शब्दाडम्बर भी बढ़ता गया । भाषा सौ और पदलालित्य की भी वृद्धि होती गई। अर्थ गांभीर्य भी विषय-स्फुटता एवं विषय-प्रौढ़ताके साथ साथ विकासको प्राप्त होता गया । अनेक स्थलों पर लम्बे लम्बे समामयुक्त वाक्योंकी रचनासे भाषाकी दुरुहता भी बढ़ती गई । कहीं कहीं प्रसाद-गुण-युक्त भाषाका निर्मल स्तोत्र भी कलकल नाद प्रवाहमय हो चला । यत्रतत्र सुन्दर और प्रांजल भाषाबद्ध गद्य प्रवाह में स्थान स्थान पर भावपूर्ण पद्योंका समावेश किया जाकर विषयकी - कता दुगुनी हो चली। इस प्रकार न्याय - साहित्यको सर्वाङ्गीण सुन्दर और परिपूर्ण करनेके लिये प्रत्येक जैन न्यायाचार्यने हार्दिक महान् परिश्रमसाध्य प्रयास किया है और इसलिये वे अपने पुनीत कृत संकलप में पूरी तरहसे और पूरे यशके माथ सफल मनोरथ हुए हैं। यही कारण है कि जैन न्यायाचायोंकी दिगन्त व्यापिनी, मौम्य और उज्जवल कीर्तिका सुमधुर प्रकाश सम्पूर्ण विश्व के दार्शनिक क्षेत्रोंस मूर्तिमान् होकर पूर्ण प्रतिभाके साथ पूरी तरहसे प्रकाशित हो रहा है। से हम इन आदरणीय श्राचार्योंकी सार्वदेशिक प्रतिभा समुत्पन्न, गुणगारिमासे श्रोत प्रोत उज्जवल कृतियोंको देख कर यह निस्संकोचरूपसे कह सकते हैं कि इन की असाधारण अमर और श्रमूल्य कृतियोंने जैनसाहित्यकी ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारतीय साहित्यकी सौभाग्य श्रीको श्रलंकृत किया है और वे श्रम भी कर रही हैं । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोत्र-विचार [असा दुपा, अब मैं 'जैन हितैषी' पत्रका सम्पादन करता था, तब मैंने 'गोत्र विचार' नामका एक लेख विसकर उसे १५ वर्षके 'जैन हितैषी' के अंक नं० २-३ में प्रकाशित किया था । आज कल जब कि गोत्र कर्मावित ऊँच-नीचताकी चर्चा जोरों पर है और गोम्मटसारादिके गोत्र लक्षणोंको सदोष बतलाया जा रहा है , तब उक्त लेख बहुत कुछ उपयोगी होगा और पाठकोंको अपना ठीक विचार बनाने में मदद करेगा, ऐसा समझकर, आज उसे कुछ संशोधनादिके साथ पाठकोंके सामने रक्खा जाता है ] 'मम्पादक' __गोत्र-विचार उनका उपदेश माननेके कारण, अनेक गोत्र केवल सन्तान क्रमसे चले आये जीवोंके आचरण नगर-प्रामादिकोंके नाम पर उनमें निवास करनेके विशेषका नाम 'गोत्र' है । वह आचरण ऊँचा कारण और बहुतमे गोत्र केवल व्यापार पेशा और नीचा ऐसा दो प्रकारका होनेसे गोत्रक भी अथवा शिल्पकर्मके नामों पर उनको कुछ समय मिर्फ दो भेद हैं-एक 'उच्च-गोत्र' और दूसरा 'नीच तक करते रहने के कारण पड़े हैं। और भी अनक गोत्र' ऐमा गोम्मटसारमें श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त. कारणोंमे कुछ गोत्रोंका नामकरण हुआ जान चक्रवर्ति द्वारा जैन मिद्धान्त बतलाया गया है। पड़ता है, और इन मय गोत्रों की वह मन स्थिति जैन सिद्धान्तमें अष्टकर्मों के अन्तर्गत 'गोत्र' नामका बदल जाने पर भी अभी तक उनकं वही नाम चले एक पृथक् कर्म माना गया है, उसीका यह उक्त जाते हैं-ममान आचरण होते हुए भी जैनियोंक आचार्य प्रतिपादित लक्षण अथवा स्वरूप है। गोत्रोंमें परस्पर विभिन्नता पाई जाती है । अनः परन्तु जैनियोंमें अाजकल गोत्र विषयक जिम जैनियोंके लिये गोत्र मम्बन्धी प्रश्न एक बड़ा ही प्रकारका व्यवहार पाया जाता है वह इम मिद्धांत जटिल प्रश्न है और इमलिये उसपर विचार चलने प्रतिपादित गोत्र-कथनसे बहुत कुछ विलक्षण की जरूरत है। अर्मा हुआ 'मत्योदय' में 'शूद्रमालूम होता है। जैनियोंके गोत्रोंकी संख्या भी मुक्ति' शीर्षक एक लेख निकला था, जो बादमे मैंकड़ों पर पहुँची हुई है। उनकी ८४ ज्ञानियोंमें पुस्तकाकारमे भी छपकर प्रकाशित हो चुका है । प्रायः मभी जातियाँ कुछ न कुछ मंख्या प्रमाण उसमें गोम्मटमार प्रतिपादित गोत्र कमके स्वरूप गोत्रोंको लिये हुये हैं। परन्तु उन मब गोत्रोंमें पर कुछ विशेष विचार प्रकट किये गये हैं। उन 'उच' और 'नीच' नामके कोई गोत्र नहीं हैं; और विचारोंको-लेखक केवल उतने ही अंशकोन किसी गोत्रके भाई ऊँच अथवा नीच समझे पाठकोंक विचारार्थ यहाँ उद्धृत किया जाता है । जाते हैं। अनेक गोत्र केवल ऋषियोंके नाम पर आशा है विज्ञ पाठक एक विद्वान्के इन विचारोंपर देखो, 'अनेकान्त' की द्वितीय वर्षकी फाइल सविशेष रूपसे विचार करनेकी कृपा करेंगे और और उसमें भी 'गोत्र लक्षणोंकी सदोषता' नामक लेख, यदि हो सके तो अपने विशेष विचारोंसे सूचित जो पृष्ठ ६८० पर मुद्रित हुआ है। करनेको भी उदारता दिखलायेंगेः Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३.२ ] गोमहमार में 'गोत्रकर्म' के कार्य दर्शनके लिये योजना भी मानवापेक्षित हो है । पाठकोंको विदित निम्न लिखिन गाथा है:होगा कि अमीर, गरीब, दुखिया, सुखिया, नीच, ऊंच, सभ्य, असभ्य, पंडित, मूर्ख इत्यादि द्वन्द हैं और ये द्वन्द ऐसे दो परस्पर विरोधी गणोंके द्योतक हैं जिनका अस्तित्व निरपेक्ष नहीं किन्तु अन्योन्याश्रित है । अतएव मनुष्य गतिको छोड़कर शेष तीन गतियों जो गोत्रका एक एक प्रकार माना गया है वह अपने प्रतिपक्षीके सत्वका सूचक और अभिलाषी है । यदि देवोंमें नीच गोत्रका, और नारकी तथा तिर्यों में उच्चगोत्रका सम्भव नहीं है तो इन गतियों में गोत्रका सर्वथा ही अभाव मानना पड़ेगा; क्योंकि द्वन्द गर्भित एक प्रतिपक्षी गुणका स्वतन्त्र सद्भाव किसी तरह से भी मिद्ध नहीं होता । उक्त गतियों में गोत्रकं दो प्रकारोंमें से एक विशेषकी नियामकता कहने का यह अर्थ होता गोत्र विचार संताणकमेणागय-जीवायरणस्स गोदमिदि सरखा। उच्चं णीचं चरण उच्च णीचं हवे गोदं ॥ -- कर्मकाण्ड १३ । सन्तानक्रमेणागत जीवाचरणस्य गोत्रमिति संज्ञा । उच्च नीचं चरणं उच्चैनीचैर्भवेत् गोत्रम् ॥१३॥ अर्थ-सन्तान क्रम अर्थात कुलकी परिपाटीके क्रमसं चला आया जो जोत्रका आचरण उसकी 'गोत्र' संज्ञा है । उस कुल परम्परा में ऊँचा आच रण हो तो उसे 'उच्च गोत्र' कहते हैं, जो नीचा आचरण हो तो वह 'नीच गोत्र' कहा जाता है । गोत्र इस लक्षण पर गौर करते हैं तो यह लक्षण सदोप मालूम होता है, और ऐसा प्रकट ढोता है कि कमभूमि मनुष्यों की विशेष व्यवस्था पर लक्ष्य रखकर सामाजिक व्यवहार दृष्टिसे इमकी रचना हुई है । गोत्र कर्म अमृत प्रकृतियों में से है और इसका उदय चतुर्गतिक जीवोंमें कहा हैं । नारकी और नियंञ्चोके नीच गोत्रकी, देवांक over गोत्रकी और मनुष्योंके उच्च और नीच दोनों गोत्रोंकी सम्भावना सिद्धान्तमे कही है। देव व नारीका उपपद जन्म होता है; वे किसीकी मन्नान नहीं होते और न कोई उनका नियत चरण है | गाथोक्त गोत्रका लक्षण इन दोनों गतियों किमी तरह भी लाग नहीं होता। इसी नर एकेन्द्रियादि सम्मूर्छन जीवों में भी यह लक्षण व्यापक नहीं । इसके अलावा 'आचरण' शब्द भी मनुष्यों ही के व्यवहारका अर्थवाची है और मनुष्यों ही की अपेक्षासे उक्त लक्षण में उपयुक्त हुआ है। आचरणके साथ उच्चत्व और नीचत्वकी 150 कि इन गतियोंके जीव अपने लोक ममुदाय में ममानाचरणी हैं, उनमें भेद भाव नहीं है और जब भेद भाव नहीं तो उनको उच्च या नीच किमकी अपेक्षा में कहा जाय, वे खुद तो आपस में न किमीको बीच समझते हैं न उच्च; उनमें नीच और उच्चका रूपाल होना ही असम्भव है । इसी ख्याल भोग-भूमियोंके भी उस गोत्र ही कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि गोत्रका लक्षण मनुष्योंकी व्यवहार व्यवस्था के अनुसार बनाया गया है, और जिम जिम गतिके जीवोंको मनुष्यों ने जैमा समझ' अथवा उनके व्यवहारकी जैसी कल्पना की, उसीके अनुसार उन गतियोंमें उच्च व नीच गोत्रकी सम्भावना मानी गई है। चतुर्गति के जीवोंमें बन्धोदयमत्वको प्राप्त होने वाले गोत्र कर्म तथा उसके कार्य स्वरूप गोत्रका लक्षण और Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अनेकान्त [ मार्गशीर्ष, वीर निर्वाय सं०२४१६ उदय जिस प्रकारसे प्रत्यक्ष ज्ञाता हष्टा मर्वज्ञने उक्त प्रकारके व्यवहारोंमे तो मान प्रकट है कि कहा हो वह सब गाथासे प्रकट नहीं होता। इस उनमें नीच और उच्च दोनों ही प्रकारके आचरणलक्षणके मुताबिक गोत्रकर्मका उदय माष्यों ही वाले जीव होते हैं, फिर जैन-पिद्धान्तियोंने देवमें मिलेगा और अन्य गतियोंके जीवोंके आठ गतिमें नीचगोत्रका उदय क्यों नहीं कहा ? पाठक कर्मों की जगह मात ही का उदय मानना पड़ेगा। विचारें। __ जैन सिद्धान्तियोंमें गत्र और गोत्र कर्मकं २-इसमें कुछ विशेष कहनेकी ज़रूरत नहीं विषयोंमें जो प्रचलिन मत है वह मनप्यों ही के कि अमुर, राक्षम. भून, पिशाचादि देवोंके आचव्यवहारों तथा कल्पनाओंसे बना है । इसके रण महान घृणित और नीच माने गये हैं और वे विशेष प्रमाणमें निम्न लिग्विन ऊहापोह की बातें वैमानिक देवोंकी समानता नहीं कर मकने । यदि पाठकोंके स्वयं विचारार्थ उपस्थित करते हैं- गोत्रके उच्चत्व नीचत्वमें जीवका आचरण मूल का १-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और रण है तो वैमानिकोंकी अपेक्षा व्यन्तरादिका गोत्र वैमानिक, इम प्रकारमं देवोंके चार निकाय जैन- अवश्य नीच होना चाहिये । देवमात्रको उच्चगोत्री धर्ममें कहे हैं । इन चारों प्रकारकं देवोंमें इन्द्र कहना जैनमिद्धान्तियोंके लक्षणमे विरुद्ध पड़ता है। सामानिक, वायविंश, पारिपद,आत्मरक्ष, लोकपाल ३–पशुओं में सिंह, गज, जम्बुक, भेड़. कुक्कर अनीक, प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्विषिक, आदिक आचरणों में प्रत्यक्ष भेद है। वीरता, माहम ऐसे दश भेद होते हैं। इनमेंमें जो देव घोड़ा, आदि गुणोंमे मिहको मनुष्योंने आदर्श माना है । रथ, हाथी, गंधर्व और नर्तकीक रूपोंको धारण किमी दूमरेकी मारी हुई शिकार और उच्छिष्टको करते हैं वे अनीक हैं जो हाथी, घोड़ा बाहन सिंह कभी नहीं खाता और न अपने वारमे पीछे बनकर इन्द्रकी सेवा करते हैं वे आभियोग्य कह रहे हुए पशु पर दुबारा आक्रमण करता है । जैनालाते हैं; और जो इन्द्रादिक देवोंके मन्मानादिक चार्योन १०० इन्द्र की संख्यामें सिंहको इन्द्र कहा अनधिकारी, इन्द्रपुरीसं बाहर रहने वाले तथा है, यथाअन्यदेवोंसे दूर खड़े रहनेवाले (जैम अस्पृश्यशद्र) "भवणालय चालीसा वितरदेवाण होंति बत्तीसा । हैं वे किल्विषक देव हैं। यहाँ अपने आप यह कप्पामर चउबीसा चन्दो सूरो णरो तिरमो।" प्रश्न होता है कि किल्लिपक जातिके देवोंको अन्य इसका क्या कारण है कि आचरणों में भेद होते प्रकारकं देव अपनी अपेक्षा नीच समझते हैं कि. हुए भी तिर्यश्चमात्रको समानरूपसे नीचगोत्री कहा नहीं ? यदि नीच नहीं समझते तो किल्विषिकोंको गया है ? अमरावतीसे बाहर दूर क्यों रहना पड़ता है और ४-नारकियोंमें ऐसे जीव भी होते हैं जिनके वे अस्पृश्य क्यों हैं ? एवं अनीक तथा आभियोग्यक तीर्थकर नाम कर्मका बन्ध होता है। क्या वे जीव पाचरण शेष सात प्रकारके देवों कीदृष्टि में उच्च हैं भी अन्य नारकियोंकी तरह नीचाचरणी ही होते वा नीच ? देवोंके दश प्रकारके भेद और उनकं ? सर्व नारका जीवोंका समान नीचाचरणी Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३. किरण २ ] और नीचगोत्री होना समझ में नहीं आता । ५ – कुभोग- भूमिके मनुष्य नाना प्रकारकी कुस्मित आकृतियोंके होते हैं और सुभोग-भूमि की अपेक्षा यह भी कहा जायगा कि वे कुभोगके भोगी हैं। क्या कुभोग भूमि और सुभोग भूमिके जीवोंके चरणों में फर्क नहीं होता ? यदि होता है तो फिर अखिल भोग-भूमि-भव उच्चगोत्री ही क्यों कहे गये ? गोत्र- विचार इन सब बातों पर विचार करनेसे यही मालूम होता है कि गोत्रकर्मके विषय में जैनोंका जो सिद्धा है वह केवल मनुका, और मनुष्यों में भी Sarafaast व्यवहार मन है । भारतीय लोग सब प्रकारके देवी देवताओंकी उपासना करते हैं, भूत, पिशाच, यक्ष, राक्षम, कोई भी हो सबके देवालय भारत में मौजूद हैं, सबके स्तोत्र पाठ संस्कृत भाषा में हैं और उनके भक्त अपने अपने उपास्योंका कीर्तन करते हैं। इसलिये जैननि देवमात्रको गोत्र कहा है; क्योंकि वे मनुष्यों में उच्च और शक्तिशाली एवं अनेक इष्टानिष्टके करनेमें समथ मान गये हैं । पशु और नारकियों को कोई मनुष्य अपने अच्छा नहीं समझना, न उनके गुणाव - गुगापर विचार करता है, इसलिये मनुष्यों के साधा - ख्याल के मुताबिक नियछ और नरकगतिमें एकान्त नीचगोत्रका उदय बताया गया । यदि चतुर्गतिकं जीवांकं आचरण और व्यवहारोंको दृष्टि रखकर गोत्रकं लक्षण तथा उदय व्यवस्थाका वर्णन होता तो उसमें 'सन्तानकमेणागय' पदकी योजना कभी नहीं होती, और न देव, नारकी तथा निर्यचगति में एकान्तरूपसे एक ही प्रकारके गोत्रका नय कहा जाता । 158 गोत्रके लक्षणकी उपयुक्त आलोचना करके हमने यह दिखला दिया है कि यह लक्षण मनुष्योंकी व्यवहार स्थिति के अनुसार बनाया गया है। इम लक्षणमे निम्नलिखित बातें और निकलती हैं: (१) जीवका बही आचरणगोत्र कहा जायगा जो कुल परिपाटी मे चला श्राता हो, अर्थात्-जो आचरण कुलकी परिपाटीके मुश्राफिक न होगा उसकी गोत्रसंज्ञा नहीं है और वह गोत्रकर्मके उदयसे नहीं किन्तु किसी दूसरे ही कर्मके उदयसे माना जायगा । (२) हरएक आचरण के लिये कुलविशेषका नियत होना जरूरी है और हरएक कुलके लिये किसी विशेष आचरणका । परन्तु, जैनधर्म में मानव समाज के विकासका 'वर्णन है वह कुछ और ही बात कहता है: उसको यदि सही मानते हैं तो यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि भरतक्षेत्र में एक समय ऐसा था जब मनुष्यों में न तो कोई कुल थे और न उनकी परिपाटी के कोई आचरण थे, इसलिये उस समय के जीवोंके गोत्रकर्म्मका उदय भी नहीं था । वर्तमान अवसर्पिणीके प्राथमिक तीन आरोंमें भोगभूमिकी रचना थी; भोग-भूमियों में कुल नहीं होते, कुलकरोंका जन्म तीसरे कालके आखीर में होता है । इस प्रकार कुलोंके अभाव में भोग-भूमियोंके आचरणों की गोत्रसंज्ञा नहीं कही जायगी। यदि ऐसा कहा जाय कि समस्त भोग- भूमियों का एक ही कुल था और उनके आचरण समान थे इसलिये भोगभूमियोंके गोत्रका सद्भाव था, तो आगे कुलकरों, तीसरे कालके अन्तके भोग-भूमियों तथा कर्म Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीर- निवसं०२४॥ ममिके मादिके मनुष्योंमें गोत्रका प्रभाव स्वयमेव बनेः--१ कुम्भकार, २ लोहार, ३ चित्रकार, ४ सिद्ध होता है; क्योंकि इनके पाचरण इनके पूर्व- वन बुननेवाले, ५ नापित अर्थात् नाई। ऋषभदेवजोंसे सर्वथा मिन और विरुद्ध थे । इसको हम ने ही विवाहविधि चलाई और सगे बहिन भाईमें नीचे स्पष्ट करते हैं स्त्री-भर्तारका सम्बन्ध होना बन्द किया । ___ भोग भूमिया मनुष्य न खेती करते थे, न इस कथनकं मुभाफिक जिम जिस भोगमकान बनाते थे, और न भोजन-वस्तु पकाते थे; भूमियाने अपनी सहोदराको छोड़कर दूमरी स्त्रीसे वे अपनी सब आवश्यकतायें कल्पवृक्षोंसे पूरी विवाह किया, अथवा ऋषभदेवजीकी शिक्षा पाकर करते थे। इसलिये उनमें असि, मसि,कृषि, बाणि- कुम्हार, लोहार आदिके कामको किया, उसका ज्य, सेवा और शिल्पके कर्म व्यापार भी नहीं थे। आचरण उसके माता पिताके आचरणोंसे बिलकुल उनको मापसमें किसीसे कुछ सरोकार नहीं था, ही विपरीत और निराला था; अर्थात उसका आअपने अपने युगलके साथ अपनी कल्पतरू-बाटिका- चरण अपने कुल की परिपाटीके अनुसार नहीं था, में सुखभोग करते थे । अतएव न कोई उनका इसलिये वह गोत्रकर्मके उदयसे नहीं किन्तु किमी समाज था और न कोई सामाजिक बन्धन । उनमें अन्य ही कर्मोदयका फल था। अतएव कर्मविवाह-संस्कार नहीं होता था; एक ही माताके भूमिकी आदिमें जो मनुष्योंके आचरण थे उनकी उदरसे नर-मादाका युगल उत्पन्न होता था, जब 'गोत्र' संज्ञा नहीं कही जा सकती और उस ममयके यौवनवन्त होते थे तब दोनों बहिन और भाई सब लोग गोत्रकर्मोदय रहित थे । पाठ कम्मोंकी स्त्री-पुरुषका सम्बन्ध कर लेते थे । युगल पैदा होते जगह उनके सात ही का उदय था । गोत्रकर्मका ही उनके माता-पिताका देहान्त हो जाता था। इस उदय उनकी सन्तानके माना जायगा जिन्होंने प्रकार युगल मनुष्योंकी समान जीवन-स्थिति उस अपने आचरण माता पितासे प्राप्त किये और समव तक जारी रही जब तक कि कल्पवृक्षोंकी उन्हींका पालन किया । यदि उस समय किसी नाई कमी न हुई । तीसरे आरेके अस्त्रीरमे कल्पवृक्षोंकी के लड़कने खेतीका काम किया और नापितके न्यूनतासे लोगोंने अपने अपने वृक्षोंका ममत्व कार्यको न सीखा तो उसका भी आचरण 'सन्तानक्रकलिया और कई युगल वृक्षोंके लिये आपसमें मागत' न होनेसे गोत्रसंज्ञक न होगा, उसके भी क्लेश करने लगे। तत्पश्चात् परस्परके झगड़े गोत्रकाभाव ही कहा जायगा। ऐसे सन्ताननिपटानके लिये उन युगलियोंने अपनेमसे एक कर्मरहित आचरणोंके लिये कर्मतत्त्व-ज्ञानमें युगलको न्यायाधीश बनाया जो पहिला कुलकर कौनसा विशेष कर्म है सो ज्ञानी पाठक खुद हुआ और उसीके वंशज आगेको न्यायाधीश तथा विचारें; अष्टकमके उपरान्त तो कोई कर्मनहीं दण्डनीतिविधायक होते रहे। इन्हीं कुलकरोंको कहा गया और इन मूलोत्तर प्रकृतियोंको इनके मन्तान श्रीऋषभदेव तीर्थकर हुए जिन्होंने पट्कर्म- लक्षणानुसार उक्त सन्तान-क्रम रहित आचरणोंके की शिक्षा दी; उनके उपदेशसे प्रथम पाँच कारीगर कारण कह सकते नहीं। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष , रिव] गोत्र विचार 'सन्तानक्रमागत' पद पर एक शंका यह और नरणी हैं और अमुक अमुक नीचाचरणी। तदुहोती है कि जिस भोग-भूमियोंकी सन्तानने ऋषभ- परान्त युगान्तरों तक उन कुलोंमें निरन्तर एक ही देवजी की शिक्षानुमार अपने पूर्वजोंके आचरणको प्रकारका आचरण रहे इसकी गांरटी क्या ? किसी छोड़कर नवीन आचरण ग्रहण कर लिये, उसके भी कुलमें एक ही तरहका आचरण निरन्तर बना पुत्रका आचरण पिताके अनुकूल होने पर 'सन्तान रहेगा ऐसा मानना प्रकृति और कर्म सिद्धान्तके कमागत' कहा जायगा कि नहीं; अर्थात् एक ही प्रतिकूल है, प्रत्यक्षसे बाध्य है। किसी जीवके पीढ़ीके आचरणको 'सन्तानक्रमागत' कहेंगे या आचरण उसके पिता या पूर्वजोंके अनुसार श्रवनहीं; मूलतः प्रश्न यह है कि कितनी पीठीका पाच- श्यमेव ही हों, ऐमा मानना एकान्त हठ है। रण सन्तान क्रमागत कहा जा सकता है ? इसका यदि आचार्योंका यह अभिप्राय हो कि उक्त ब्योरा किसी ग्रन्थों में देखने में नहीं आया। हिंसादि पाचरणों में प्रवृत्ति और निवृत्ति जीविका अब जरा आचरणकी उच्चता नीचता पर के षट्कर्म त था पेशोंसे नियोजित है; कई पेशे विचार कीजिये । 'आचरण' शब्दसे असलियतमें और कर्म तो ऐसे हैं जिनके करनेवाले नीचाचरणी प्राचार्योका क्या क्या अभिप्राय है सो साफ साफ नहीं होते और कोई ऐम हैं जिनको करनेसे जीव कहीं नहीं खोला गया। यदि 'पाचरण' शब्दसे नीचाचरणी हो ही जाता है अथवा नीचाचरणी हिमा, झूठ, चोरी, सप्त व्यसनादिमें प्रवृत्ति ही उस पेशेको करता है उचाचरणी नहीं । प्रयोजन अथवा निवृत्तिसे मतलब है तब तो गोत्रके उक्त यह हुआ कि कई पैशांके साथ उच्चाचरणका लक्षणानुसार ऐसा मानना पड़ेगा कि दो तरहकं अविनाभावी सम्बन्ध है और कतिपयके साथ कुल यानी वंशक्रम होते हैं, एक वे जिनमें हिंसादि नीचाचरणका । इममें कई अनिवार्य शंकाएँ पैदा पाचरण वंश परम्परास नियनरूपसे कभी हुए होतीहैं । चतुगतिक जीवोंकी अपेक्षा तो यह सर्वथा ही नहीं, अतएव उनमें उत्पन्न हुए जीव उच्च गात्री अमम्भव है। मनुष्योंकी अपेक्षा लीजियेकहलाते हैं; दूसरे वे कुल जिनमें हिमादि आचरण (क) भाग-भूमियोंके कोई पेशे वा जीविका कर्म नियत रूपसे परम्परासे होते आये हैं, इमलिये नहीं थे अतः वे सब नीचाचरणी तथा गोत्रकर्म उनमे जन्म लेने वाले जीव नीच गोत्री होते हैं। रहित कहे जायेंगे । यह प्रचलित गोत्रोदय-मतसे ___ चतुर्गतिके जीवोंका विचार न करें तो ऐसे उच्चा- विरुद्ध पड़ता है । चरणी नीचाचरणी नियत कुलका कर्मभूमिके श्रा- (ब) पट्कर्म और पेशांका उपदेश आदि दिम सर्वथा अभाव था । भोग-मिया मेंस तो ऐसे तीर्थकरने दिया था और उन्होंने ही कारीगरी नथा नियत कुल थे ही नहीं; अतः नियतकुलोंक प्रभाव शिल्पके कार्य सिग्वाय थे, अन्नादिका अग्निमें में युगादिमें सब मनुष्य गोत्र तथा गोत्र कर्म रहित पकाना भी उन्होंने ही मिखाया । वे अवधिज्ञानी थ । जैन ग्रन्थों में इस बातका ब्योग कहीं भी नहीं और मोक्षमार्गके श्रादिविधाता थे; यदि उचाचरणी है कि अमुक अमुक कुल तो हमेशाके लिये उच्चा- और नीचाचरणी दोप्रकारके पेशे वास्तबमें होते तो Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अनेकान्स वे नीचाचरणके पेशोंको कभी नहीं मिखाते और न किसीको उनके व्यापार का आदेश करते, जान बूझकर वे जीवोंको पापमें न डालते, प्रत्युत मत्रकी ही उच्चाचरणी पेशोंकी शिक्षा देते । जीविका कर्म और पेशों के साथ उच्चाचरण और नीचाचरण के सम्बन्धी योजनासे भगवान् ऋषभदेव पर बड़ा भारी दूषण आता है । इससे यही कहना पड़ेगा कि या तो उच्चाचरण और नीचाचरणका सम्बन्ध पेशों में है नहीं, और यदि है तो षट्कर्म और भिन्न भिन्न शिल्पके कार्योंकी शिक्षा ऋषभ देव जी ने नहीं दी किन्तु प्रकृतिका विकामके नियमानुसार शनैः शनैः जनताकी जरूरतोंस कभी कुछ और कभी कुछ ऐसे नये नये त्याविष्कार होते रहे जैस आजकल होते हैं । ऋपमदेवजीका चलाया हुआ कोई भी पेगा नीचावरणका नहीं हो सकता, तदनुसार कुम्हार जुलाहा, लोहार, नाई सब उच्च गोत्री हैं, पेशे की अपेक्षा ये लोग नीचाचरणी नहीं अथवा ये कहिये कि कुम्हार आदिक पेशे ऋषभदेवजी ने नोचाचरण या नीचाचरीके कारण नहीं समझे और न ऐसा किसीको प्रकट किया । तदनुसार जीविका कर्मकी अपेक्षामे ऋषभ देवीकी दृष्टि न कोई उच्च गोत्र था, न नीच पाठक विचार करें कि ऐसी अवस्थामं च और नीच श्रचरांक नियत कुलोंका सर्वथा अभाव है कि नही: फिर गोत्र और गोत्रकमकी क्या बात रही ? (ग) जैनधर्ममं प्रथमानुयोग के अनुसार जिन कुलोंगे क्षात्रकर्म होता है वे उच्चगोत्र कहे जायगे । इसका यह अभिप्राय होता है कि जिन कुलोंमे परिपाटी क्षात्र कर्म होता है उनमें उत्पन्न [मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं० २०६६ होने वाले जीवोंके आचरण नियमतः उच्च ही होन चाहियें, तभी आचरण और जीविका - कर्म में वि नाभावी सम्बन्ध माना जा सकता है । परन्तु कथा पुराणोंमें इसके विपरीत हजारों उदाहरण मिलते हैं । रावण क्षत्रियकुलोत्पन्न तीन खण्डका राजा था, उसने सीता परस्त्रीका हरण किया जिसके कारण लाखों जीवोंका रणमें खून हुआ । युधिष्ठि रादि पाण्डव और कौरव क्षत्रियोद्भव थे, उन्होंने जुआ खेला और व्यसनको यहां तक निभाया कि द्रौपदी स्त्रीको भी दावमें लगाकर हार बैठे। पाठक, जरा विचारिये कि क्या ये श्राचरण उच्च थे । हमने ये उदाहरण दिग्दर्शनमात्रको लिख दिये है, वरना (अन्यथा ) पुराणों में अगरणत. मिसालें (उदाहरण) मौजूद हैं जिनसे विदित होगा कि क्षत्रियोंमें ही अधिकतर नीचाचरणी हुये हैं। ऐसी अवस्था में पेशोकं साथ आचरणोंका स्थिर सम्बन्ध कैम माना जा सकता है ? उपर्युक्त बातों से यह माफ होजाता है कि लोक में न तो ऐसे कुल ही है जिनके लिये यह कहा जा सके कि उनमें उच्च या नीचाचरण हमेशाक लिये परिपाटी में चला आता है और न जीविका कर्म या पेशोंके कुलोसे आचरणों का अविनाभावी सम्बन्ध सिद्ध होता है । अतः गोम्मटसारमें जो गोत्रका लक्षण है और जैन सिद्धान्तियोंने गोत्रकम्र्मोदय-व्यवस्था जैसी मानी है, ये सब प्रकृतिविकासके विरुद्ध हैं; यं सार्वकालिक और चतुर्गतिके जीवोंपर दृष्टि रखकर नहीं बनाये गये, किन्तु भारतवासियोंकं व्यवहार और खयालोंके अनुसार इनको कल्पना हुई है । अमुक प्रकार के कुल जैसे ब्राह्मणादि, नियमसे Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३. किरण २] वीरशासनांक पर कुछ सम्मतियां उच्चारणी ही होते आये हैं और होते रहेंगे, इनमें कर्म और गोत्रका सद्भाव नहीं और है तो वह उत्पन्न हुए जीवोंको उच्च ही मानना एवं इनसे क्या है, उसका लक्षण इन प्रचलित शास्त्र मतोंकी इतर कुल जैसे कुंभकार आदि शिल्पकार नापित व्यवहार-रूढ़िसे नहीं मिल सकता। टीकाकार प्रभति सेवा-कर्मी नीचाचरणी हैं, इनको सदा आचार्य सब यह लिखते हैं कि "जिसके उदयसे सर्वदाके लिये नीचही मानना, नीचता उच्चता लोक पूज्य इक्ष्वाकु आदि उच्च कुलोंमें जन्म हो, जन्मसे है, गुण, स्वभावसे नहीं; एक कुल जाति उसे 'उच्च गोत्र कर्म' कहते हैं, और जिसके उदय का कर्म दूसरे कुल-जातिवाला न करे, इत्यादि से निन्द्य दरिद्री अप्रसिद्ध दुःखोंसे आकुनित धारणायें भारतमें ही हजारों वर्षोंसे अचलरूपसे चाण्डाल आदिके कुलमें जन्म हो, उसे नीच गोत्र चली आरही हैं। इन्हीं वंश-परम्परागत धारणाओं कर्म' कहते हैं। पाठक देखलें कि ये लक्षण चतऔर व्यवहारोंके मुताबिक जैनाचार्योंने गोत्र- गतिके जीवों में कैसे व्यापक हो सकते हैं ? कर्मका लक्षण रचा है। परन्तु, पाठकजन, गोत्र कर्म अमलियतमें है गोम्मटसारके अलावा सर्वार्थमिद्धि, राज- कुछ जरूर, उमके अस्तित्वसे हम इन्कार नहीं वार्तिक आदि तत्त्वार्थसूत्रकी टीकाओं में जो उच्च कर सकते, चाहे लोक व्यवहारी जैनाचार्यों के और नीच गोत्रका लक्षण लिखा है उससे भी यही निर्दिष्ट लक्षणमें हम उसका यथावत् स्वरूप नहीं निस्सन्देह प्रतीत होता है कि गोत्र-कर्मको योजना पाते और अनेक अनिवार्य शंकाएं होती हैं तथापि जैन विज्ञोंने कर्म-सिद्धांतमें भारतीय मनुष्यों ही के प्रकृति-विकाममें उसकी खोज करनेसे हम गोत्र विचारसे की है, चतुर्गतिके जीवोंमें या तो गोत्र- और गोत्र कर्मके शुद्ध लक्षण तक पहुँच सकते हैं। वीरशासनांक पर कुछ सम्मतियां (१) प्रोफेसर ए० एन० उपाध्याय, एम. ए. डी. मुझे इममें जगभी सन्देह नहीं कि श्रापका 'अनेकान्त' लिट कोल्हापुर हिंदी पत्रों में प्रधान स्थान रखता है। यह सुनिश्चित् है "I am in due receipt of the (वीर- कि जैन साहित्यका विद्यार्थी इसके पुष्टोंमें बहुतमी बहुशासन)Number of the 'Anekant'. I feel मूल्य मामग्रीको मालूम करे और इसे हमेशा अपने पास no doubt that your 'Anekant'occupies are a greater for the a prominent position among Hindi (२) न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजी शास्त्री, Journals. A student of Jaina Lite- न्यायाध्यापक स्याद्वाद महाविद्यालय काशीrature is sure to find a good deal of “विशेषाङ्क देखा, हृदय प्रसन्न होगया । लेखोका valuable material in its pages; and चयन श्रादि बहुत सुन्दर हुआ है। बा• सूरजभानजी he has to keep it always at his elbow तो सचमुच प्रचंड रूदि विघातक युवक है। वे सदियों for repeated reference." के मर्मस्थानोंको खोज २ उन पर ही प्रहार करते हैं। अर्थात्-अनेकान्त' का 'वीर शासनाक' मिला। मैं पत्रकी समुन्नतिकी बराबर शुभ भावनाएँ भाता हूँ।" Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिहत्याका कारखाना अवतारवाद, भाग्यवाद और कलिकल्पना [ 'गृहस्थ' नामका एक सचित्र मासिकपत्र हालमें रामघाट बनारससे निकलना प्रारम्भ हुआ है, जिसके सम्पादक हैं श्री गोविन्द शास्त्री दुगवेकर और संचालक हैं श्रीकृष्ण बलवन्त पावगी। पत्र अच्छा होनहार, पाठ्य सामग्रीसे परिपूर्ण, उदार विचारका और निर्भीक जान पड़ता है। मूल्य भी अधिक नहींकेवल १॥) रु० वार्षिक है । इसमें एक लेखमाला “झब्बशाही” शीर्षकके साथ निकल रही है, जिसका पाँचवाँ प्रकरण है 'झब्बशाहीका बुद्धिहत्याका कारखाना' । इस लेखमें विद्वान लेखकने हिन्दुओंके अबतारवाद, भाग्यवाद और कलिकालवाद पर अच्छा प्रकाश डाला है। लेख बड़ा उपयोगी तथा पढ़ने और विचारनेके योग्य है । अतः उसे अनेकान्तके पाठकोंके लिये नीचे उद्धृत किया जाता है। -सम्पादक] मनुष्य-जीवनमें बुद्धिका स्थान बहुत ऊँचा है। बुद्धिकी शत्रुओंकी बुद्धिका नाश करते हैं, परन्तु अधर्म और सहायतासे मनुष्य क्या नहीं कर सकता। बुद्धिके अनाचारोंके प्रवर्तक झब्बलोग अपने स्वार्थके लिये प्रभावसे वह असम्भवको भी सम्भव बना देता है। अनन्त स्त्री-पुरुषोंकी बुद्धिहत्या कर डालते हैं। मार्य चाणक्यने कहा है: ____ यह हम कह भाये हैं कि, मनुष्य-जातिका ज्ञान एका कंवलमेव साधनविधौ सेनाशतेभ्योऽधिका। अभी अपूर्ण है और अपूर्ण ज्ञान कदापि भ्रान्ति-रहिन नन्दोन्मूलन-दृष्टवीयमहिमा बुद्धिस्तु मागान्मम ॥ नहीं होता। मानवी बुद्धिकी इसी दुर्बलतासे लाभ ___ मेरी बुद्धिकी शक्ति मौर महिमा नन्दवंशको जड़से उठाकर संसारमें अनेक लफंगे कब्बू निर्माण हो गये हैं। रखाब देने में प्रकट हो चुकी है । मैं अपने उद्देश्यकी मनुष्यों की भावश्यकताएं बहुत होती हैं और उनका सिद्धिमें बुद्धिको सैकड़ों सेनाओंसे बढ़कर समझता हूँ। पूर्तिके लिये वे ऐसे साधन खोजा करते हैं कि परिश्रम मेरा सर्वस्व भले ही चला जाय, किन्तु केवल मेरी बुद्धि कुछ भी न करना पड़े या बहुत कम करना पड़े और मेरा साथ न छोड़े। महाभारतमें लिखा है:- फल पूरा या आवश्यकतासे अधिक मिल जाय । जब शस्त्रैर्हतास्तु रिपवो न हता भवन्ति। उनकी बुद्धि चकरा जाती है और उन्हें कोई स्पष्ट मार्ग प्रज्ञाहतास्तु नितरा सुहता भवन्ति ॥ नहीं सूम पड़ता, तब वे उन मम्बुभोंके चारमें फंस शाबों के द्वारा काट गलनेसे ही शत्रुओं का संहार जाते हैं, जो सर्वज्ञ या लोकोत्तर ज्ञानी होनेका दावा नहीं होता, किन्तु जब उनकी बुद्धि मार डाली जाती करते हों। ऐसे भ्रान्त, भले और मोजे मनुष्योंकी बुद्धि है,तभी उनका पमा नाश होता है। गीतानेभी बुद्धि को वे अपने पसाये बुदि-हत्या कारखाने में इस प्रकार माशको ही मनुष्य के नाराका कारण माना है। राजनी- पीस डालते हैं कि संसारमें उनका कहीं ठिकाना ही विज्ञ चतुर पुरुष अपने देश या राष्ट्रकी भलाई के लिये रहवासा । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३, किरण २] बुद्धि हत्याका कारखाना सांसारिक दुःखोंसे व्याकुल भावुकोंको झब्बू लोग जोदी काल के प्रारम्भ होते ही हिमालयकी गुहामें जाकर समझा देते हैं कि ईश्वर किमी प्रज्ञात जगतमे इस धरा तपस्या कर रही है। कलिके अन्ततक हमें दुःख ही-दुःख धाममें अवतीर्ण होकर मानवी शक्तिसे बाहरकी अन भोगना है । इसलिये केवल रामनाम जपते हुए लाखों होनी बातें कर डालता है। उन्हें वे यह भी विश्वास वर्ष दुःख सहते रहो । कलिका अन्त होते ही उक्त ऋषि दिलाते हैं, कि हमें ईश्वरका दर्शन हो गया है और अवतीर्ण होंगे और हमारे सब दुःख दूर कर देंगे । निम्में उसका दर्शन करना हो, वे हमारे पास चले भावें बौद्धिक दायताका इससे बढ़कर यह प्रमाण मिल हम भी ईश्वरके ही एक अवतार हैं और यदि चाहें, तो सकता है ? इसा भावनासे हम राम, कृष्ण, व्यास, मनुष्योंका भला-बुरा सब कुछ कर सकते हैं। पाल्मीकि, शंकराचार्य, रामदास, तुलसीदास भाविकी वास्तव में यदि किसीको ईश्वरका माक्षात्कार हो कौन कहे, तिलक गांधी तकको अवतार मानने लगे हैं गवा होता और दूसरेको भी ईश्वरका दर्शन करानेकी और अपनी बुद्धिका दिवाला खोज बैठे हैं । हम यह किर्मामे शक्ति होती, तो रेडियो यन्त्रकी तरह एक ही नहीं समझते कि, प्रत्येक जीव ईश्वरका अंश है और ईश्वर घर-घर देख्न पड़ना । परन्तु ईश्वरके सत्यरूपके 'नर करनी करे, तो मारायण भी हो सकता है।" सम्बन्धमें ही अभी एकमत नहीं है, उसका दर्शन कौन आश्चर्यकी बात तो यह है कि, जिनें हम अवतार किमको करावे ? किसीका ईश्वर सान पासमानके ऊपर मानते हैं, वे क्या कहने और क्या करते हैं, उस ओर बडा है, तो किमीका मात समुद्रोंके पार तीरमागरमें ध्यान भी नहीं देने; किन्तु उनके निमित्तमे जो उस्मय गंपनागपर सोया है। किसीका ईश्वर सृष्टिके अन्तकी करते हैं, उनमें तालियां पीटकर व्याख्यान माइते या प्रनीला करता हुआ न्यायदानके लिये उत्सुक हो रहा मवा मिश्रीका भोग लगाकर उदरदेवको सन्तुष्ट करते हैं है तो किसीका सप्ताह में एक दिन विश्राम करता है। जहां नक देवनामोंको मानकर और उन्हींपर जीवन कियाका ईश्वर मगुण है. तो किसीका निर्गुण । किमी- कलहका सब भार मौपकर परावलम्बी बन जाना, कैमी का ईश्वर क्रोधी है, तो किसीका शान्न । किसीका उपामना है? शुन्य है तो किसीका क्रियाशील । मच्ची बात तो यह मचमुच देखा जाय, तो हमारी इस कोरी उपाहै कि, अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार मनुष्योंने ईश्वरकी मनाकी अपेक्षा पाश्चास्य साधनोंकी उपासना कहां कल्पना करली है। तर्क और बुद्धिको जहांतक स्थान बड़ी चढ़ी है। हम पृथ्वी, सूर्य, वायु अग्नि आदिको मिला, मनुष्य बराबर भागे बढ़ते गये; परन्तु जब दोनों देवता मानते और चन्दन फूलोंस उनकी उपासना को गनि कुण्ठित हो गई. तब उन्होंने किमी एक ईश्वर करते हैं, जिसका कुछ भी फल नहीं होता। पाश्चात्य का मान लिया और उमापर निर्भर रहकर कर्म करनेये माधकांन इन्ही पंचदेवोंकी ऐसी उपासनाकी, जिसमे हाथ पर बटोर लिये। वे उनके वशमें हो गये और नाना प्रकार मनुष्यजाति हिन्दुओंकी भोली भावना है कि, संसारमें जितने का उपकार करने लगे। पाणिनीने भागशास्त्र निर्माण १२ बड़े बड़े काम होते हैं, अवतारी पुरुष ही करते हैं। किया, भार्य भट्टने गणित शारत्रके सिद्धान्त प्रस्थापित भगवनमें तो यहां तक लिखा है कि नर-नारायणको किये, मनु याज्ञवल्क्य आदिने प्राचारोंका वर्गीकरण Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं०२४६६ किया। कौटिल्यने प्रार्थशास्त्रकी रचना की, गैलीलियोने मबुओंके बुद्धिहत्याके कारखानेमेंजब कोई "मांख विद्युत् शक्तिका पता लगाया, न्यूटनने गुरुत्वाकर्षणका का अन्धा गाँउका पूरा" पहुँच जाता है, तब पहले ही नियम खोज निकाला, ये सब प्रकृतिक देवताओंके प्रकोष्ठ (कमरे) में उसे अवतारवादकी दीक्षा देकर सच्चे उपासक थे। फिर भी मनुष्य ही थे। यदि ईश्वर दीक्षित उर्फ पास्मीय बना लिया जाया है। दीक्षा लेते को मान लिया जाय, तो वह भी स्थूल देह धारण ही वह अन्धश्रद्धाकी अन्धकारमयी एकान्त गुहामें प्रवेश करके ही प्राकृतिका उपभोग करता है और इस विचार- करनेका अधिकारी बनता है । वह गुहा उस कारखानेसे हमें भी ईश्वर होनेका पूर्ण अधिकार है। तब हम का दूसरा प्रकोष्ठ है। उसमें ले जाकर उस साधकको नाखों वर्षोंतक ईश्वरके अवतार प्रतीक्षा करते हुए दुःख भाग्यदेवका साक्षात् दर्शन कराया जाता है और सदा में क्यों पड़े रहें? जपने के लिये यह मन्त्र रटा दिया जाता है:पुराणों में दस अवतारोंका वर्णन है। नौ अवतार "व्हेहे की जो राम रचि राखा । होगये हैं, बसवां बाकी है। उस दमवेको भी हम बाकी को कर तर्क बढ़ावहि साखा ॥" क्यों बचने दें ? कलंकी अवतार घोड़े पर सवार है, इस मन्त्रके जपने ही उसे 'नैष्कर्म्यसिद्धि' प्राप्त हो हाथ में तलवार लिये है और म्लेच्छोंका संहार कर रहा जाती है अर्थात् अपने अधःपातके लिये वह अकर्मण्य है। इसी स्वरूप में हम शिवाजी का भी चित्र देखते हैं निकम्मा 'काठका उल्लू' बन जाता है। उसमें फिर यह नब क्यों न मान लें कि, शिवाजीके साथ ही सब सोचनेकी शक्तिही नहीं रहती कि, भाग्य भी प्रयत्न अवतार समास हो गये हैं और अब हमें अपने उत्कर्षके (कर्म) का ही एक फल है। मार्ग पर भाप ही अग्रसर होना है ? अवतारवाद कर्मके तीन विभाग हैं,-मञ्चित, प्रारब्ध. क्रियमन्बुओंने निर्माण किया है और सभी झब्ब अपने माण । इस जन्म या पूर्व जन्मोंमें जो कर्म हम कर चुके मापको ईश्वरके अवतार होने की घोषणा करते हैं । इस हों, वे मञ्चित हैं । उनमे में जिनका भोग प्रारम्भ हो से उनकी तो बन पाती है, किन्तु भोली-भाली जनता गया हो, व प्रारब्ध हैं और जो भोग रहे हैं, वे क्रियअकारण ठगी जाती है। अतः जब कि, हमें संसार में माण हैं। परन्तु क्रियमाण प्रारब्धका ही परिणाम हैं, सम्मानके साथ जीना है, तब मनमें दौर्बल्य उत्पन्न इसलिये लोकमान्य तिलक और वेदान्तसूत्रोंने संचिनकरनेवाले अवतारवादको भी पूर्वोक्त दो ऋषियोंके साथ के हो प्रारब्ध और अनारच ये दो भेद माने हैं। संचित हिमालयकी गहरी गुहा में बन्द कर देना नितान्न पाव- में से जिनका भोग प्रारम्भ हो गया है, वे प्रारब्ध और श्यक है। ईश्वर न कहीं जाता है, और न पाता है। जिनका भोग शेष है वे अनारब्ध हैं । निष्कामकर्म योगस और वह सर्वन्यापक है, प्राणिमात्रके अन्तःकरण में स्थित अथवा ज्ञानसे प्रारब्धका प्रभाव हटाया जासकता है और है और चैतन्यरूपसे सर्वत्र व्याप्त है। उनके आनेकी अनारब्ध दग्ध किये जा सकते हैं। क्योंकि मनुष्य प्रवाह भवतरित होनेकी-बाट जोहना मूर्खता है। मनुष्यको में पड़े हुए लकड़ी के लट्टे के समान नहीं है, किन्तु कर्म अपना उद्धार भाप ही कर लेना होगा। "उद्धरंदत्म- करनेमें स्वतन्त्र है। उसमें इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति और नात्मानम्" यही गीताका उपदेश है। ज्ञानशक्ति है । वह पशुकी तरह पराधीन नहीं, किन्तु Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण २] बुद्धि हत्याका कारखाना - - अपने भाग्यका माप विधाता है । उसे काल्पनिक भाग्य लुक जाना जान बूझकर विष पी लेना, बचोंको पढ़ने न पर भरोसा नहीं रखना चाहिये । ऐतरेय ब्राह्मणमें भेजकर खण्ठ रखना क्या उचित होगा! पुरुषार्थीके लिये लिखा है: संसार में असम्भव कुछ भी नहीं है । प्रयत्नवादी पुरुषके आस्ते भग आ चीनस्योद्धवस्तिष्ठति तिष्ठतः।। आगे भाग्य हाथ बाँधे खड़ा रहता है। प्रयबसे ही शेने निपद्यमानस्य वराति चरतो भाः ॥चरैवेति।। देवोंको अमृनकी प्राप्ति हुई । अतः हे राम ! नपुंसकता उत्पन्न करनेवाले भाग्यवादको छोड़कर नवजीवन उत्पा अर्थात् जो मनुष्य घरमें बैठा रहता है, उसका भाग्य करनेवाले प्रयत्नवादको अपनानो; इसीमें तुम्हारा भी बैठ जाता है; जो खड़ा रहता है, उसका भाग्य खड़ा कल्याण है।" हो जाना है; जो सोया रहता है, उसका भाग्य मो समर्थ रामदासने भी कहा है:-"प्रयत्न देवता है जाता है भोर जो चलता फिरता है, उसका भाग्य भी और भाग्य दैत्य है। इसलिये प्रयत्नदेवकी उपासना चलने फिरने लगता है। इसलिये उद्योग करो, पुरुषार्थी करना ही श्रेयस्कर है।" मम्भव है कि, प्रयत्नरूपी देवबनो। ताकी आराधना करते हुए भाग्यरूपी दैत्य वहाँ पहुँच ___ यदि ग़ज़नी, गोरी, हुमायू या अकबर भाग्य पर कर विष्न करे; इसलिये उस भाग्यरूपी देव्यपशुको भरोमा रखकर बैठ रहते, तो मुसलमान ग्यारह सौ पकडकर प्रपरन देवके आगे उसकी बलि चढ़ा देनी वोनक भारतका शासन न कर सकने और यदि अंग्रेज़ चाहिये । भेड़ बकरे मारने से शक्ति-चामुण्डा प्रपा नहीं भाग्यदेवकी शरण में चले जाते, तो दिल्लीपर अपना होती, किन्तु अवतारवाद, देव -भाग्य-बाद जैसे झण्डा फहरा न सकते । उद्योगियों के घर ऋद्धि सिद्धियं प्रबल पशुओंको काट गिराने में ही वह सन्तुष्ट होकर पानी भरा करती हैं। योगवामिष्ट में वसिष्ठ श्रीराचन्द्रमं मनुष्यजानिका कल्याण माधन करनी है । जो बुद्धिमान् कहने हैं:-"भाग्य तो मूों और पालसियोंकी गही मनु य प्रयन्नदेवको मिद्धकर लेना है, वह मन्युमोंके हुई एक काल्पनिक वस्तु है । उद्योगमें ही भाग्य निहिन बुद्धिहन्याक कारखानेको अन्धश्रद्धाकी अन्धी गुहातक । है। उद्योग न हो, तो भाग्यका अस्तित्व ही नहीं रहेगा। पहुँच ही नहीं पाता और यदि किसी कारणमे पहुँच पूर्व कर्म हा प्रारब्ध है और वह प्रबल पुरुषार्थय नष्ट भी जाना है, तो वे रोकटोक उससे छुटकारा भी पा किया जा सकता है। उद्योग प्रत्यक्ष है और भाग्य जाता है। अनुमान है । अनुमानकी अपेक्षा प्रत्यक्षका महत्व अ- झबु लोग भावुकों को अपने कारखाने में ले जाकर, धिक है । उद्योगमे स्वराज्य, साम्राज्य ही क्या, इन्द्रपद उनपे भाग्यवादी तपस्या कराकर, जब परिक्रम करनेने भी प्राप्त हो सकता है । राह-चलना भिखारी यदि राजा हैं, नब उन्हें तीसरे प्रकोष्ठकी कलिकल्पनाकी चरग्वी हो जाय, या किसी गरीबकी लड़की महारानी बन जाय, (मशीन ) पर चढ़ा देते हैं । पहले प्रकोष्ठ में मनुष्य नो वह उसके पूर्वकृत मरकर्मोका फल है। यदि यह अन्धश्रद्ध बनना है, दूसरेमें निकम्मा-- पुरुषार्थहीन--- कहा जाय कि, जो कुछ होता है, भाग्यम ही होना है; हो जाता है और नीमरेमें बने या बनखोरेका रूप नो भाग्यपर निर्भर रहकर भागमें कूद पड़ना, पहाइमे धारण कर लेता है। यों अच्छी तरह उसकी बुद्धिहत्या Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं०२४६५ हो जाने पर, अथवा यों कहें कि कच्चा माल पका मातृहत्याकारी प्रामण परशुराम, नारीहरणकारी ब्राह्मण बन जाने पर, यह माबुनों के कुचक्र के पटारेमें भर लिया रावण, कूकुरका मांस भक्षण करनेकी इच्छा करनेवाले जाता है और फिर व्यावहारिक संसारमें उसका कोई महषिविश्वामित्र, शुक्राचार्यको ठगनेवाले जैनमत-प्रचारक अस्तित्व ही नहीं रह जाता। देवगुरु बृहस्पति * प्रजापीडक महुष और वेन, पत्नीकी बुद्धिहत्याके कारखानेकी कलिकल्पनाकी मशीन सदा फटकार सुननेवाले द्रोण, खीलम्पट दशरथ, बड़ा ही भयानक है और उसका प्रभाव भी असाधारण सपत्नियोंसे वैर करनेवाली केकयी, चन्द्रमासे पुत्र उत्पन्न है। उसके महात्म्यका मन्बुभोंने पहलेसे ही ऐसा वर्णन करनेवाली गुरुपत्नी तारा, अर्थलोलुप ब्रह्मण धन्वन्तरी, कर रक्खा है कि, जिसका कोई ठिकाना नहीं । जब कन्यापर भासक्त होनेवाले ब्रह्मा, पतोहूपर रीझनेवाले कलिकालका यन्त्र अपने पूरे वेगमे चलने लगेगा, तब वसिष्ठ और अग्निसे गर्भ धारण करनेवाली ऋषिपस्नियों सब वर्ण शूद्र हो जायेंगे, ब्राह्मण धर्म कर्म छोड़ देंगे, तथा एकसे अधिक पति करनेवाली और कौमार्यावस्था गायें दूध और भूमि मन महीं देगी, मेघ यथासमय तथा वैधव्यावस्थामें सन्तानोत्पत्ति करनेवाली कितमीही नहीं बरसेंगे, पतिव्रताएँ भ्रष्ट हो जायंगी, पुरुष खियों के जीवनचरित्र लिख मारे हैं जो उन्हींके मतानुसार स्त्री जित,लम्पट भौर पर खो गामी होंगे, ब्राह्मणत्वका कलियुगके नहीं है। उल्कापात, बज्रपात और साठ २ चिन्ह जनेऊभर रह जायगा, धर्मवक्ता और साधु ढोंगी हजार वर्षों के अवर्षणोंकी बातें तो जहाँ तहाँ लिखी पाबण्डी- होंगे, राजा प्रजाको पीस डालेगा, पुत्र पिता मिलती है । उस समय पृथ्वी तो बात बातमें रोल की बात नहीं मानेगा, पति पत्नीमें प्रेम नहीं रहेगा, ज.ती और गौ बनकर ब्रह्माके पास भागती थी। यज्ञपुत्र अपनी मातासे नीकी संवा करावेगा, विषयसुख हो प्रसगमें मथ मांसके लिये देवता लड़ जाते थे और सभी प्रधान सुख माना जायगा. कामीलोग बहन बेटीका भी लोग भेड़, बकरे, सूअर, बछड़े, सांड, गाय, घोड़े, गेंडे, विचार नहीं करेंगे, अर्थप्राप्ति ही पुरुषार्थ हो रहेगा, खच्चरतक मार मारकर खा पचा डालते थे । कलिवर्णनके भाई भाई एक दूसरेकी छाती पर चदंगे। भाई-बहनों, लेखककी ही बात सही मान ली जाय, तो यही कहना देवरानी-जेठानियों और ननद-भौजाइयोंमें अनबन पड़ेगा कि अन्य युगोंकी अपेक्षा कलियुग में ही सभ्यता रहेगा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, वज्रपात, अग्निदाह. रोग, का अधिक विकास हुआ है। भूकम्प आदि उत्पात बारबार होंगे, देवों ब्रह्मणों और वेदाङ्ग ज्योतिषने पांच वर्षका एक युग माना है; माधुनोंको कोई नहीं मानेगा, सब लोग पापी और परन्तु झब्बुभोंने लाखों वर्षोंके युग बना डाले हैं । उनके अल्पायु होंगे, सभी मनुष्य अंगूठे के बराबर हो जायेंगे, हिसाबसे चार लाख बत्तीस हजार वर्षोंका कलियुग है। धर्मका नामतक नहीं रहेगा मोक्षका विचार उठ जायगा जब तक वह रहेगा तबतक उनकी पर्णित परिस्थिति ही और अधर्म बढ़कर संसार उच्छिन्न हो जायगा इत्यादि। इस कथन में जैनमत प्रचारक, यह विशेषण मानों ये सब बातें अन्य युगों में हुई ही नहीं। समझकी किमी ग़लती अथवा भूलका परिणाम जान आश्चर्य तो यह है कि, कलि कालका भविष्य कथन पड़ता है; क्याकि देवगुरु बृहस्पति जैनमत के कोई करनेवाले खाकने ही मामय पत्रका पधारनेवाले इन्द्र प्रचारक नहीं हुए हैं। -सम्पादक Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. निव] पुदि हत्याका कारनामा बनी रहेगी और दिन दिन अधर्म, अनीति, अन्याय, काठका प्रचार किया जायगा, पतलूनके बदले लोग असत्य, हिसा, अत्याचार अनाचार प्रादिका बाजार लुङ्गी पहनना प्रारम्भ कर देंगे, सादीके बदल्ने पाँच पाँच गरम रहेगा। बेचारोंने यह भी सोचनेके कष्ट नहीं सौ कखियोंके पुरानी चालके लहंगे सियां पहनने उठाये कि जब हमारे देखते हुए १०-१२ वर्षोंमें ही लगेंगी, पण्डित लांग कलाईमें घी बांधने के बदले पूर्व-परिस्थिति बदल जाती है, तब वाखों वर्षोंतक गले में जलघवी, धूपधड़ी या बाबकी घदी पा घण्टा वह एकसी कैसे बनी रह सकती है? उनकी दृष्टिमें लटकावेंगे, चीनीके प्याले चम्मचके बदले लोग अर्घाकलिका प्रताप अनिवार्य है, वह होकर ही रहेगा। भाचमनी पञ्चपात्रका उपयोग करने लगेंगे, फ्रेन्चकटनया राज्य, नयी संस्थाएँ, नये विचार, नये कर्जनकट-मानवर्टकटके बदले जटा-दाढ़ी बढ़ा लेंगे और सुधार, जो कुछ वे नया देखते हैं, सब कलिका प्रताप रेलों मोटरोंको बन्द कर बैलगाड़ियाँ भैंसागादियां है। कोई नारी हरण करे, बलात् गोमांस खिला दे, बनायो जाने लगेंगी, तो क्या काम तुरन्त भाग जायगा अपमान करे, मूर्तियोंको तोड़ फोड़ दे, राज पाट छीन झब्बुनोंने कलिके गालसे बचनेके कुछ उपाय भी ले, गलेमें डोरी बाँधकर बन्दरकी तरह नाच नचावे, बताये हैं । जो कुछ मिल जाय, उससे सन्तुष्ट रहो, सब कलिकी महिमा है। सत्यनारायण, जलनछुट आदि व्रतोत्सव कृपणता छोड़___प्रश्न यह उठता है कि, कलि भारतवर्षके ही पीछे कर मनाया करो, दान-दक्षिणामें मम्बुभोंको हाथी घोड़े, क्यों पड़ा है ? विदेशों में वह अपना प्रभाव क्यों नहीं धन रत्न, धान्य-वसा, मिष्टान-पकवान, बहू-बेटी भादि दिखाता? क्या खैबरघाटीके पार करने अथवा समुद्रके अर्पण कर सन्तुष्ट किया करो, किसी प्रकारका प्रतीकार लाँघनेकी उसमें सामर्थ्य नहीं है या उन देशोंमें उसे न कर जो कुछ होता जाय, उसे देखा करो-सहा कोई पूछता ही नहीं ? हमारे पडौसी जापान, रूस तथा करो और हाथ पर हाथ रखकर बैठे बैठे राम नाम तुर्किस्तानने अपने यहाँ सुवर्णयुग प्रस्थापित कर दिया है अपा करो । यदि कोई हाथ पैर हिलनेका उपदेश करे । और युद्ध में पराजित जमणी समराङ्गणमें ताल ठोककर तो उसे धर्महीन, पतित, वेदनिन्दक जानकर कलिवयंफिर खड़ा हो गया है । इलैण्ड, अमेरिका, फ्रान्म, प्रकरण और प्रायश्चित्तके कुछ संस्कृत श्लोक सुना दो। इटली आदि देशोंमेंकलिकी दाल नहीं गलती । कदा- कलिवय-प्रकरणमें पुरुषार्थनाशकी कोई बात नहीं छूटी चित वहाँके स्वाभिमानी कर्मवीरों और उनकी जल- है। बस, चार लाख बत्तीस हजार वर्षों तक इसी स्थल-नभोमबखनमें मरिडत सुसज्जित युद्ध-सामग्रीको तरह चुप्पी साधे बैठ रहनेमे बेड़ा पार है। फिर ब्रह्म. देखकर वह डर जाता हो । इसमे तो यही अर्थ निक- साक्षात्कार या मोच बहुत दूर नहीं रह जायगा । बता है कि, दुर्बल राष्ट्रोंको ही कलि सताता है, कलि-सन्तरणका यह कैसा अच्छा उपाय है; सबलोंके पास भी नहीं फटकता। बुदिहत्याका कितना उसम यंत्र! इस पत्रक भाग विचार करने की बात है कि आज मानक बालि- सिर मुका देनेसे ही भारतकी सब भोजस्विता मारी कानोंको जो शिक्षा दी जाती है वह बन्द कर यदि गयी है । बौदों, ईसाइयों अथवा मुसलमानोंने अपने उन निरपर रखा जायगा, चायके बदले सुखसीके धर्म पा समाजमें कालिको नहीं घुसने दिया। इसीसे TA Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० अनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं०२४६६ बौदोंके चीन, जापान आदि पौर्वात्य राष्ट्र, ईसाइयोंके प्रारम्भ हुआ, वह उठ बैठा और उसे त्रेता युगके चिन्ह पुरूप, अमेरिका भादि पाश्चात्य राष्ट्र और मुसलमानोंके दिखाई देने लगे और जहां उसने उद्योग प्रारम्भ किया तुर्कस्तान, काबुल आदि मध्य राष्ट उत्कर्षशाली हैं और मोर उसका सत्ययग या पहुंचा । इसलिये प्रयत्न हम कलिके मारे बेज़ार हैं ! यदि हमें फिर वद्धिष्णु और करो।" इस वेदाज्ञाने भा यहा सिद्ध होता है कि, जब जयिष्णु बनना है तो मनोदौर्बल्य उत्पन्न करने वाली हम सजग होकर अपना कर्तव्य पालन करन क गेंगे. कलिकल्पनाको हिमालयमें भेज देना चाहिये । वास्तवमें सभी सत्ययुगका प्रवर्तन कर सकेंगे। यह हमें अपने किसी युगका प्रवर्तन करना राजशासको अथवा सामा- मनमें अच्छी तरह जमा लेना चाहिये मोर कलिका जिक नेताओं के हाथ है । ऐतरेय ब्राह्मणमें लिखा है:- काला मुँह कर देना चाहिये। यदि हम असावधान कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः। रहेंगे, तो निश्चयसे जान रखें कि, झब्बू लोग हमें उत्तिष्टस्त्रेता भवति कृतं सम्पद्यतेचरन।।चरैवेति। अपने बुद्धिहत्याके कारखानेमें पकड़कर ले जायगे और __ "जहां मनुष्यको नींद भायी और उसका कलि अवतारवाद, भाम्यवाद, कलिकरुपनाकी टिकटीपर चढ़ा माया जहाँ उसने पालसको हटाया और उसका द्वापर कर फाँसी लटका देंगे। साहित्य-परिचय और समालोचन (१) षट् खंडागम ('धवला' टीका और उसके बातोंका विस्तारके साथ वर्णन पृष्ठ ७२ तक किया गया हिन्दी अनुवाद सहित ) प्रथम खडका सत्यरूपणा नामक है । इभीमें मूल सूत्रके अवतारको वह सब कथा दी है प्रथम अंश-मूल लेखक, भगवान पुष्पदन्त भूतबलि ! जिसे पाठक 'अनेकान्त' के गत विशेषांकमें 'धवलाांद सम्पादक, प्रोफेसर हीरालाल जी जैन एम.ए.,एल.एल. श्रुत परिचय' शीर्षकके नीचे पढ़ चुके हैं। उसके बाद बी, सस्कृताध्यापक किग-एडवर्ड-कालेज अमरावती। जीवस्थानके कुछ प्रारंभिक सूत्रोंकी व्याख्या पृष्ठ १५४ प्रकाशक, श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द शिताबराय, जैन- तक दी है, जिनमें १४ जीव समासों (गति आदि साहित्योद्धारक फड-कार्यालय अमरावती (बगर)। मार्गणास्थानों) का उल्लेख किया गया है और फिर बड़ा साइज पृष्ठ संख्या सब मिलाकर ५५६ । मूल्य, उनकी विशेष प्ररूपणाके लिये 'जीव स्थान' के सत्सजिल्द तथा शास्त्राकार प्रत्येकका १०) रु.। प्ररूपणादि पाठ अनुयोग द्वारोंके नाम सूत्र नं. ७ में 'धवल' नामसे प्रसिद्ध जिस प्रथके दर्शनोंके लिये दिये हैं। उसके बाद वे सूत्रसे सत् प्ररूपणाका प्रोद्य जनता असेंसे लालायित है उसके 'जीवस्थान' नामक और श्रादेशरूपसे विस्तार के साथ वर्णन ४१० पृष्ठ तक प्रथम खंडका यह अन्य प्रथम अंश है। इस अंशमें मूलके किया गया है। यह सब वर्णन अनेक अंशोंमें गोम्मटमंगलाचरण सहित कुल १७७ सूत्र है । मंगलाचरणका सारके गुणस्थान, मार्गणा और सत्यरूपणाके वर्णनके सूत्र प्रसिद्ध णमोकारमंत्र है और उसकी व्याख्या तथा साथ मिलता-जुलता है। टीकामें बहुतसी जगह 'उक्तमंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्तारूपसे छह च' रूपसे जो २१४ पद्य दिये है उनमें ११० के करीब Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य- परिचय और समालोचन वर्ष २ २] गाथाएँ ऐसी है जो गोम्मटसार में भी प्रायः ज्यों की त्यों और कहीं कहीं कुछ पाठ-भेदके साथ पाई जाती हैं और जो किसी प्राचीन ग्रंथ संभवतः पंचसंग्रह प्राकृतपरसे उद्धृत की गई हैं। बाकी १०४ के करीब संस्कृत प्राकृत के पद्य भी दूसरे ग्रंथों पर से उद्धृत किये गये हैं। और इस तरह ग्रंथ में प्रस्तुत विषयका अच्छा सप्रमाण विवेचन किया गया है। मूल ग्रन्थ और उसकी 'धवला' टीकाका हिन्दी अनुवाद भी प्रत्येक पृष्ट पर साथ साथ दिया गया है। परन्तु अनुवादक कौन हैं यह ग्रंथ भर में कहीं भी स्पष्ट सूचित नहीं किया गया। जान पड़ता है जिन पं० हीरालालजी शास्त्री और पं० फूलचन्द जी शास्त्रीके सहयोगसे ग्रंथका सम्पादन हुआ है और जिन्हें ग्रंथके मुख पृष्ठ पर ‘सहसम्पादकौ' लिखा है उन्हींके विशेष सहयोगसे ग्रंथका अनुवाद कार्य हुआ है । अनुवादके अतिरिक्त फुटनोट्सके रूपमें टिप्पणियाँ लगानेका जो महत्वपूर्ण कार्य हुआ है उसमें भी उक्त दोनों विद्वानों का प्रधान हाथ जान पड़ता है । टिप्पणियोंमें अधिकाश तुलना श्वेताम्बर ग्रंथों परसे की गई है। अच्छा होता यदि इस कार्य में दिगम्बर ग्रंथोंका और भी अधिकता के साथ उपयोग किया जाता। इससे तुलनाकार्य और भी अधिक प्रशस्तरूपसे सम्पन्न होता । श्रस्तु अनुवादको पढ़कर जाँचनेका अभी तक मुझे कोई असर नहीं मिल सका, इसलिये उसके विषयमें मैं अभी विशेषरूपसे कुछ भी कहनेके लिये श्रसमर्थं हूँ परन्तु सामान्यावलोकनसे वह प्रायः अच्छा ही जान पड़ता है । ग्रंथके शुरूमें श्रमरावती, आरा और कारंजाकी प्रतियोंके फोटो चित्र और ग्रन्थोद्धार में सहायक सेठ हीराचन्द, सेठ माणिकचन्द जी आदि ७ महानुभावोंके २०१ चित्र, चित्र-परिचय सहित देकर ७ पेजका प्राकथन, ४ पेजमें अंग्रेजी प्रस्तावना और फिर ८८ पृष्ठकी हिन्दी प्रस्तावना दी है। साथ, प्राक्कथनके बाद एक पेजकी विषय-सूची भी दी है, जो कि फोटो चित्रोंसे भी पहले दी जानी चाहिये थी; क्योंकि सूचीमें फोटो चित्र तथा प्राक थनको भी विषयरूपसे दिया गया है। प्राकथनादि तीनों निबन्ध प्रो० हीरालाल जीके लिखे हुए हैं । उनके बाद दो पेज की संकेत सूची, तीन पेजकी सत्प्ररूपणाकी विषय-सूची, एक पेजका शुद्धि पत्र, एक पेजका सत्प्ररूपणा का मुखपृष्ठ, और फिर एक पेजका मंगलाचरण दिया है । सत्प्ररूपणाकी जो विषय सूची दी है वह केवल सत्प्ररूपणाकी न होकर उसके पूर्व के १५८ पृष्ठोंकी भी विषय सूची है । श्रच्छा होता यदि उसे जीवस्थान के प्रथम अंशकी विषय सूची लिखा जाता । और सत्प्ररूपणाका जो मुख पृष्ठ दिया है उस पर सत्प्ररूपणाकी जगह 'जीवस्थान प्रथम अंश' ऐसा लिखा जाता। क्योंकि पट् खण्डागमका पहला खण्ड जीवस्थान है, उसीका णमोकारमंत्र मंगलाचरण है, न कि सत्प्ररूपणा का | ग्रन्थके अन्त में परिशिष्ट दिये हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं: १ संत-प्ररूपणा सुत्ताणि, २ श्रवतरण-गाथा-सूची, ३ ऐतिहासिक नाम सूची, ४ भौगोलिक नाम सूची, ५ ग्रन्थनामोल्लेख, ६ वंशनामोल्लेख, ७ प्रतियोंके पाठभेद, ८ प्रतियों में छूटे हुए पाठ, ६ विशेष टिप्पण | प्रस्तावना - १ श्री धवलादि सिद्धान्तों के प्रकाशमें श्रानेका इतिहास, २ हमारी श्रादर्श प्रतियां, ३ पाठसंशोधनके नियम, ४ षड् खण्डागमके रचयिता, ५ श्राचार्य-परम्परा, ६ वीर निर्वाणकाल, ७ षट् स्वगडागमकी टीका धबलाके रचयिता, ८ धवलासे पूर्वके Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीर-निर्वावसं. टीकाकार, ६ धवलाकारके सन्मुख उपस्थित साहित्य, छपाई-सफाई भी उत्तम है। मूल्य भी परिश्रमादिको १०षट् खण्डागमका परिचय, ११ सत्प्ररूपणाका विषय, देखते हुए अधिक नहीं है। और इसलिये यह ग्रंथ १२ ग्रन्थकी भाषा, इतने विषयों पर प्रकाश डाला गया विद्वानों के पढ़ने, मनन करने तथा हर तरहसे संग्रह है। प्रस्तावना बहुत अच्छी है और परिश्रमके साथ करनेके योग्य है । इसकी तय्यारीमें जो परिश्रम हुआ है लिखी गई है। हाँ, कहीं-कहीं पर कुछ बातें विचारणीय उसके लिये प्रोफेसर साहब और उनके दोनों सहायक तथा आपत्तिके योग्य भी जान पड़ती हैं, जिन पर फिर शास्त्रीजी धन्यवादके पात्र हैं और विशेष धन्यवादके कमी अवकाशके समय प्रकाश डाला जा सकेगा। यहां पात्र भेलसाके श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द जी हैं, जिनके पर एक बात जरूर प्रकट कर देनेकी है और वह यह आर्थिक सहयोगके बिना यह मब कुछ भी न हो पाता, कि प्रस्तावनामें 'धवला' को वर्गणा खण्डकी टीका भी और जिन्होंने 'जैन माहित्योद्धारक फंड' स्थापित करके बतलाया गया है । परन्तु मेरे उस लेखकी युक्तियों पर समाज पर बहुत बड़ा उपकार किया है। कोई विचार नहीं किया गया जो 'जैन मिद्धान्त भास्कर' अन्तम श्री गजपति उपाध्यायको, जो मोडबद्रीके के ६ ठे भागकी पहली किरणमें 'क्या यह सचमुच- सुदृढ़ कैदग्वानेसे चिरकालके बन्दी धवल-जयधवल ग्रंथभ्रम निवारण है ? इस शीर्षकके साथ प्रकाशित हो राजोंको अपने बुद्धिकौशलसे छुड़ाकर बाहर लाये तथा चुका है और जिन पर विचार करना उचित एवं श्राव- सहारनपुरके रईस ला• जम्बप्रमादजीको सुपुर्द किया, श्यक था । यदि उन युक्तियों पर विचार करके प्रकृत और श्री सीताराम जी शास्त्रीको, जिन्होंने अपनी निष्कर्ष निकाला गया होता तो वह विशेष गौरवकी दूरदृष्टिता एवं हस्तकौशलसे उक्त ग्रंथराजोंकी शीघ्रातिवस्तु होता । इस समय वह पं० पन्नालालजी मोनीके शीघ्र प्रतिलिपियाँ करके उन्हें दूसरे स्थानों पर पहुंचाया कथनका अनुमरण सा जान पड़ता है, जिनके लेखके और इस तरह हमेशा के लिये बन्दी (कैदी) होनेके भयसे उत्तरमें ही मेरा उक्त लेख लिखा गया था । इस विषय- निर्मुक्त किया *, धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता । का पुनः विशेष विचार अनेकान्तके गत विशेषांकमें ये दोनों महानुभाव मबसे अधिक धन्यवादके पात्र हैं। दिए हुए 'धवलादि श्रुत-परिचय' नामक लेखमें वर्गणा- इन लोगोंके मूल परिश्रम पर ही प्रकाशनादिकी यह सब ग्खण्ड विचार' नामक उपशीर्षकके नीने किया गया है। भव्य इमारत बड़ी हो सकी है और अनेक सजनोंको उम परसे पाठक यह जान सकते हैं कि उन युक्तियोंका ग्रन्थके उद्धारकार्य ग सहयोग देनेका अवमर मिल मका ममाधान किये बगैर यह समुचित रूपसे नहीं कहा जा है। यदि वह न हुआ होता तो आज हमें इस रूपमें मकता कि धवला टीका पट ग्यण्डागमके प्रथम चार ग्रन्थराजका दर्शन भी न हो पाता । खेद है इन परोपग्वण्डोकी टीका न होकर वर्गणाग्वण्ड महित पांच खंडों- कारी महानुभावोंके कोई भी चित्र ग्रन्थमें नहीं दिये गये की टीका है। हैं। मेरी रायमें ग्रामोद्धारमें सहायकोंके जहाँ चित्र दिये इस प्रकारको कुछ त्रुटियोंके होते हुए भी ग्रंथका यदि श्री सीतारामजी शाखी ऐसा न करते तो यह संस्करण हिन्दी अनुवाद, टिप्पणियों, प्रस्तावना और इन ग्रन्थराजोंकी सहारनपुरमें भी प्रायः वही हालत परिशिष्टों के कारण बहुत उपयोगी हो गया है। होती जो मूरबद्रीके कैदखाने में हो रही थी। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य परिचय और समाजोचन २०॥ है वहाँ इनके चित्र सबसे पहले तथा सर्वोपरि दिये जाने और संग्रह करनेके योग्य है। मूल्य ६) रुपया इतने चाहिये थे। आशा है ग्रन्थका दूसरा अंश प्रकाशित बड़े आकार और पुष्ट जिल्द सहित ग्रंथका अधिक नहीं करते समय इस बातका जरूर खयाल रक्खा जायगा। है । प्रथकी छराई-सफाई सब सुन्दर और मनोमोहक (२) श्रीमद्राजचन्द्र-(संग्रहग्रन्थ) मूल गुजराती है। गुजराती इस ग्रंथके कई संस्करण हो चुके हैं । लेखक, श्रीमद् राजचन्द्र जी शतावधानी सम्पादक और हिन्दीमें यह पहला ही संस्करण महात्मा गांधीजीके हिन्दी अनुवादक, पं० जगदीशचन्द्र, शास्त्री एम०ए०। अनुरोध पर अनुवादित श्रादि होकर प्रकाशित हुआ है। प्रकाशक, सेठ मणीलाल, रेवाशंकर जग जीवन जौहरी, और इसलिये हिन्दी पाठकोंको इममे अवश्य लाभ व्यवस्थापक श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, बम्बई नं०२ उठाना चाहिये। ग्रन्थ परसे श्रीमद्राजचन्द्र जीको भले बड़ा साइज पृष्ठ संख्या, सब मिलाकर ६४४ मूल्य प्रकार मममा और जाना जा मकता है। महात्मा मजिल्द ६) रु.। गाँधीजीके जीवन पर मबसे अधिक छाप आपकी ही ___ यह वही महान् ग्रन्थ है जिस परसे महात्मा गाँधीके लगी है, जिसे महात्मा जी स्वयं स्वीकार करते हैं। श्राप निग्वे हुए 'रायचन्द भाई के कुछ मस्मरण' अनेकान्तकी ३४ वर्षकी अवस्थामें ही स्वर्ग सिधार गये और इतनी गत ८ वी किरणमेश्री मद्राजचन्द्र नीके दो चित्रों महित थोड़ी अवस्था में ही इम मब साहित्यका निर्माण कर गये उद्धन किये गये थे और 'महात्मा गांधीके २७ प्रश्नोंका है, मिस श्रापकी बुद्धि के प्रकर्षका अनुभव किया जा ममाधान' श्रादि दूमरे भी कुछ लेग्न अनेकान्तमें ममय- मकता है। ममय पर दिये जा रहे हैं । इममें श्रीमद्राजचन्द्र जीके (३) त्रिभंगीसार-(हिन्दी टीका सहित ) मूल लिग्वे हुए श्रात्ममिद्धि, मोक्षमाला. भावनाबोध, अादि लेग्बक, श्रीतारातरा म्वामी, टीकाकार ब्रह्मचारी प्रन्थोंका और भम्पर्ण लेखा तथा पत्रांका तथा उनकी शीनलप्रमाद । प्रकाशक मेठ मन्नलाल जैन, मु. प्रागा. प्राइवेट डायरी अादिका मंग्रह किया गया है। माथमें मोद (गागर) मी० पी०। बड़ा माइज पृष्ठ संख्या, मब ५. जगदीशचन्द्र जी शास्त्री एम. ए. का लिखा हुआ मिलाकर १४४ मूल्य १) रु० । 'गजनन्द्र और उनका सक्षिप्त परिचय' नामका एक मूल प्रथकी भाषा न मंस्कृत है न प्राकृत और न निबन्ध भी लगा हुया है ही बड़ा ही महत्वपर्ण है और हिन्दी व्याकरणादिके नियमोम शून्य एक विचित्र जिमम कविश्रेष्ठ श्रीमद्राजचन्द्रकं जीवनका बड़ा प्रकारको विचड़ी भाषा है। मालूम होता है इसके अच्छा परिचय मिलना है । ग्रंथकं शुम्म एक विस्तृत लेग्वक किमी भी भाषा के पडित नहीं थे। उन्हें अपने विषय-मची महात्मा गांधी जीके द्वारा प्रस्तावना रूपमं मम्प्रदाय वालकि लिये कुछ-न-कुछ लिम्बनेकी निम्बे हुए, उक्त मंस्मरणों के पूर्व लगी हुई है और अंतमें जरूरत थी, इमलिये उन्होंने अपने मनके ममझौनके ६ उपयोगी परिशिप लगाए गये हैं. जिन मबम ग्रंथकी अनमार उम उक्त ग्विचडी भाषा में ही लिग्वा है । पद्योउपयोगिता बहुत बढ़ गई है । यह अथ बड़ा ही महत्व- के छन्द भी जगह जगह पर लिम्बित हैं । ७० शीतलरण है और इसमें अध्यात्मादि विषयों के ज्ञानकी विपुल प्रमादजीने मूलनयको ७१ गाथाओंमें बनलाया है । पामग्री भरी हुई है। ग्रंथ बार-बार पढ़ने, मनन करने परन्तु मलके मब पद्य गाथा छन्दमे नहीं है। ब्रह्मचारी Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [मार्गशीर्ष, वीरनिर्वाय सं०२४१५ जी ने बहुधा रखड़की तरह खींच खांचकर पद्योंका कुछ वलप्रसाद । प्रकाशक, मूलचन्द किसनदास कापड़िया, अर्थ विठलाया है। उसका अन्वयार्थ, भावार्थ और मालिक दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत । पृष्ठ संख्या. विशेषार्थ तक लिखा है और इस तरह पुस्तक कुछ सब मिलाकर १७६ । मूल्य, १) रु० । पढ़ने योग्य हो गई है, जिसका श्रेय ब्रह्मचारीजीको है। इस पुस्तका विषय उसके नामसे ही प्रकट है। अन्यथा पुस्तक कोई खास महत्वकी मालूम नहीं होती इममें अनेक जैन ग्रन्थोंपरसे कुछ वाक्योंको लेकर उन्हें और न विद्वानोंकी उसके पढ़ने में रुचि ही हो सकती भावार्थ महित दिया है । और यह बतलानेकी चेष्टा की है। अस्तु; यह पुस्तक जैन मित्रके ग्राहकोंको उपहारमें गई है कि "जैन धर्मको पालनेवाले सर्वगृहस्थी भले दी गई है और अलग मूल्यसे भी मिलती है । ब्रह्मचारी प्रकार राज्यशासन, व्यवहार, परदेशयात्रा, कारीगरीके जी तारणतरण स्वामीके साहित्यका उद्धार करनेमें लगे काम व खेती श्रादि कर सकते हैं व श्रावकके व्रतोंको हुए हैं। इससे पहले तारणतरण श्रावकाचार अादि भी पाल सकते हैं। साथ ही, इममें अजैन ग्रन्थोंके और भी पांच ग्रंथ अनुवादित होकर प्रकाशित हो चके कुछ प्रमाण भी अहिंसाकी पष्टि में दिये गये हैं। पुस्तक है। खेद है ब्रह्मचारी जी इस साहित्यकी भाषा पर कोई ११ अध्यायोंमें बटी हुई होनेपर भी किसी अच्छे व्यवप्रकाश नहीं डाल रहे हैं, जिसका डालना अनुवादके स्थित विषयक्रमको लिये हुए नहीं हैं । विषय-विवेचन समय साहित्यकी ऐसी विचित्र स्थिति होते हुए श्राव- और कथनका ढंग भी बहुत कुछ साधारण है । छपाई. श्यक था । सफ़ाई तो और भी मामूली है । इतनेपर भी यह पुस्तक ग्रन्थका नाम 'त्रिभंगीदल प्रोक्त' इस प्रतिज्ञा-वाक्य महात्मागाँधीजीको समर्पित की गई है। मूल्य १) रु. परसे 'त्रिभंगीदल' तो उपलब्ध होता है परन्तु 'त्रिभगी- अधिक है । ऐसी पुस्तकका मूल्य चार-छह श्राने होना नामकी उपलब्धि नहीं होती। सम्भव है ब्रह्मचारी जी चाहिये था । जैन मित्रके ग्राहकोंको यह पुस्तक ला. के द्वारा ही नामका यह संस्कार अथवा सुधार किया रोशनलालजी जैन बी. ए. फीरोजपुरकी अोरसे अपने गया है। पूज्य पिता ला• लालमनजीकी स्मृतिमें जिनका सचित्र (४) जैनधर्ममें अहिंसा-लेखक, ब्रह्मचारी शी- जीवन चरित भी साथमें लगा है, भेटमें दी गई है। Page #227 --------------------------------------------------------------------------  Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रातः स्मरणीय जगत्पूज्य परम योगिराज जैनाचार्य श्री मद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी विचित-अग्विल जैन ग्रन्थोंका मार सर्वस्व, अद्वितीय, अनपर्मय, विद्वजन प्रशमित मागधी (प्राकृत ) भाषाका एकमात्र विश्वमनीय विराट बहद्विश्वकोश . . रचना काल... अभिधान राजेन्द्र . मग काल... । मुद्रण काल रचना काल मं० १९४६-१६६०) म. १६६४-१९८० पृष्ठ मंग्ख्या १०,०००] (भाग १ मे ७ ) [शब्द माल्या ६०,००० कुछ विद्वानोके अभिप्राय पहिये : सर जॉर्ज ए० प्रियमन, के० मी० आई० ई० (इंग्लैण्ड):-.......... मुझे गरे जैन प्राकृत न अध्ययनमें इम ग्रन्थका बहुत माह्य हुवा है............यह विश्वकोश मदर्भ नथा आधार दिग्दर्शन के लिये अनि मूल्यवान तथा उपयोगी है।" प्रो० सिल्वन लेवी ( यूनिवर्सिटी ऑफ परिम, फ्रांम ):-.............यह ग्रन्थ पीटर्मवर्ग डिक्शनरीस भी बढ़कर उपयोगी है, इसमें आधार और अवनग्गीम मज पूर्ण शब्द मंग्रह ही कयल नही मिलना है, किन्तु उन शब्दोंके माथ मंबद्ध मनमतान्तर, इनिहाम नथा विचागंका पग-पग विवंचन भी प्राम होता है.. " प्रो. सिद्धेश्वर वर्मा, एम० ए० ( जम्मू-काश्मीर ):-...... ...इमम अाज तक ममारको मर्यथैव अज्ञात ऐमा अमूल्य अवतरण ग्रन्थाधारका बहुत बड़ा भण्डार भग पड़ा है।" हरेक यनिवमिटी, कॉलेज, विद्यालय. लायब्रर्ग, न भण्डार, विद्वान धनी लांग, गजा. महाराना के मग्रहमें अवश्य रग्बने योग्य है । मूल्य मम्पा मातों भागके ग्रन्थका केवल रु. १७५), अधिक ग्रन्यांके लिये तथा व्यापारियांके लिये हैकमीशनके लिये पत्रव्यवहार कीजिये। पता:-अभिधान राजेन्द्र प्रचारक संस्था, रतलाम (मध्य भारत) Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. L. 4328 अनुकरणीय गत वर्ष कई धर्म-प्रेमी दातारोकी श्रोग्से १२१ जैनंतर संस्थाको अनेकान्त एक वर्ष तक भेट स्वरूप भिन्ावया गया था। हमें हर्ष है कि इस वर्ष भी भेंट स्वरूप भिजवाते रहनेका शुभ प्रयास हो गया है। निम्न मनकी ओर जैनंतर संस्थाओं को भेंट स्वरूप अनेकान्त भिजवाया गया है। अनेकान्त पर हुए लोकमतमं ज्ञात हो सकेगा कि अनेकान्त के प्रचारकी कितनी श्रावश्यकता है। जितना अधिक अनेकान्तका प्रचार होगा उतना ही अधिक मत्य शान्ति और लोक हितैषी भावनाओं का प्रचार होगा । अनेकान्तको हम बहुत अधिक सुन्दर र उन्नतिशील देखना चाहते हैं। किन्तु हमारी शक्ति वृद्धि हिम्मत सब कुछ परिमित हैं | हमें समाज हितैषी धर्म बन्धुयों के सहयोग की अत्यन्त आवश्यकता है। हम चाहते है समाज के उदार हृदय बन्धु जैनंतर संस्थायां और विद्वानोको प्रचारकी दृष्टि अनेकान्त अपनी ओर से भेंट स्वरूप भिजamar जैन को अनेकान्तका ग्राहक बनने के लिए उत्पादित करें। ताकि अनेकान्त कितनी ही उपयोगी पाठ्य सामग्री और पुष्ट संख्या बढ़ाने में समर्थ हो सके। लड़ाईकी ने जीके कारण जबकि पत्रीका जीवन क हो गया है, पत्रीका मूल्य बढाया जा रहा है। तब इस मंहगी जमाने में भी प्रचारकी हटिकेल ३) ८० वार्षिक मूल्य लिया जा रहा है। इस पर भी जैनंतर विद्वान शिक्षण सस्थाओं और पुस्तकालयों में मेट स्वरूप भिजवाने वाले दानी महानुभावांस ढाई रुपया वार्षिक ही मूल्य लिया जायगा । किन्तु यह रियायत केवल जनर संस्था के लिये अमूल्य भिजवाने पर ही दी जायेगी। समाज में ऐसे १०० दानी महानुभाव भी अपनी ग्राम सौ-सौ पचास वाम अथवा यथाशक्ति भेंट स्वरूप भिजवानेको प्रस्तुत हो जाएँ तो 'अनेकान्त' ग्राशातीत मफलता प्राप्त कर सकता है। जैनतम अनेकान्त जैसे साहित्यका प्रचार करना जैनधर्म प्रचारका महत्वपूर्ण और सुलभ साधन है । मेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या, इन्दौर की ओर से— १. मंत्री शान्ति निकेतन पुस्तकालय बोलपुर (बंगाल) २.,, हिन्दू यनिवर्सिटी ३.,, दीदिन्दुस्तान एकेडेमी बनारस इलाहबाद " , श्री नागरी प्रचारिणी मगा, बनारस ग्वालियर ५. विक्टोरिया कालेज " ६. गुजरात कालज 19, मद्राम यनिवर्सिटी 99 मोरिस कालेज ६.,, कलकत्ता यूनिवमिंटी 39 17 99 ་་ " " " ܕ वीर प्रेम ऑफ इण्डिया, कनाट मर्कस, न्य देहली ओरिएंटल काले लाहौर रोडमल मेघराज जैन सुमारीकी ओरसे - 24 अहमदाबाद १५. मद्राम नागपर कलकत्ता " ११. मत्री पनि लायब्रेरी जड़ (बड़वानी) १२. श्रीकृष्ण पब्लिक वाचनालय बड़वानी १३. पब्लिक लायब्रेरी धार " श्री महावीर वाचनालय सुमार्ग (इन्दौर) वाचनालय मनावर (ग्वालियर स्टेट) ला ज्योति प्रसादजी जैन, मेरठ की ओरसे - १६. मंत्री श्रीवीर पस्तकालय, मंस्ट DADAUROROADKURDUROK₹ -व्यवस्थापक Page #230 --------------------------------------------------------------------------  Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..-.-. पांग, वीर नि: मं:४६६ वप ३, किरण अनेकान्त जनवरी १९४२ वापिक मूल्य ३ श्रीवाहबली स्वामी । इस कामदेवोपम स|बांङ्ग सुन्दर बलिष्ठ पुरुषने निदारुग कायक्लेशमें वर्ष के वर्ष बिता डाले। | लोग देखकर हा हा खाते | थे और निस्तब्ध रह जाते ।य। उसकी स्पहरणीय काया मिट्टी बनी जा रही थी । त्रियां उम निनिमीलित नेत्र, मन-मौन, शिलाकी भांति वड़े हुए पुन्प-पुंगव के चरगोको | धो धोकर वह पानी अखिों लगाती थीं । उसके चरणाक पासकी मिटी प्रोपधि समझो नाती थी। पर वह सब श्रीस्ने विलग, अनपेन, मन्द-याख बन्द-मुख, । मलिन देह, कृश-गात, तपन्यामं लीन था । जैनन्द्र N SANTORIEODANळापळालाAAIDNIECORROROTROPTOK.SECTIVOIREO सम्पादक मचालकजुगलकिशोर मुख्तार तनमुखराय जन र अधिष्ठाता वीर-सेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर) कनॉट मकस पो० बो० नं. ४६ न्यू देहली। भDEEPROMOTORSELORIORTORTONTROOMINORESIDEOHDHORROTEORATORTOTRAMODIVORDC मद्रक बार प्रकाशक-अयोध्याप्रसाद गोयलीय । SEEINCLEGE Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची पृष्ठ २०५ 1. मिद्धमेन स्मरण .. २. पुरुषार्थ कविता) - [ले. श्री. मैथिलीशरण गुप्त ... ३. धवलादिश्रुन परिचय [ सम्पादकीय .. ... १. सुधार संसूचन .. १. उस दिन (कहानी)-श्री "भगवत्" ६. जैनधर्म की विशेषता ! श्री सूरजभान वकील ... ७. वीर शामनांक पर मम्मतियाँ .. म. वास्तविक महत्ता श्रीमद् राजचन्द्र .. है. ज्ञातवंशका रूपान्तर जाटवंश[ मुनि श्री का द्रसागरजी १०. द्रव्य-मन [पं. इन्दचन्द्र शास्त्री १. प्रति प्राचीन प्राकृत "पंच मग्रह" [पं० परमानन्द १२. जैन और बौद्ध निर्वाण में अन्तर [ श्री जगदाशचन्द्र एम ए. १३. एक महान साहित्य मेवीका वियोग [ सम्पादकीय ... २३५ २३६ २३. २५० २५६ अनेकान्तको फाइल अनेकान्तके द्वितीय वर्षकी किरणों को कुछ फाइलोंकी साधारण जिल्द बंधवाली गई हैं । १२ वी किरण कम हो जानेके कारण फाइलें थोड़ी ही बन्ध सकी हैं | अतः जो बन्धु पुस्तकालय या मन्दिरों में भेंट करना चाहें या अपने पास रखना चाहें वे २॥) रु० मनिगार्डरसे भिजवा देंगे तो उन्हें सजिल्द अनेकान्तकी फाइल भिजवाई जा सकेगी। __ जो सजन अनेकान्तके ग्राहक हैं और कोई किरण गुम हो जाने के कारण जिल्द बन्धवाने में असमर्थ हैं उन्हें १२वीं किरण छोड़कर प्रत्येक किरणके लिये चार आना और विशेषांक के लिए पाठ आना भिजवाना चाहिए सभी मादेशका पालन हो सकेगा। -व्यवस्थापक मशीन पर छपते हुए कितने ही फार्मों में प० २६१ पर लेखक प्रोफेसर जगदीशचन्दजीके 'प्रोफेसर' में से "प्रोफे" पर निकल गये हैं कृपया सुधार लीजियेगा। -व्यवस्थापक Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . MANDAR - ) नीति-विरोध-ध्वंसी लोक व्यवहार-वर्तकः सम्यक । परमागमस्य बीजं भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ।। सम्पादन स्थान–वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० बो० नं० ४८, न्यू देहली पौष-पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं०१६६६ । वर्ष३ - - जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः। बोधयन्ति सतां बुद्धि सिद्धसेनस्य सूक्तयः॥ . -हरिवंशपुराणे, जिनसेनरिः श्रीसिद्धसेनाचार्यकी निर्दोष सूक्तियाँ जगत्प्रसिद्ध बोधस्वरूप भ० वृषभदेवकी सूक्तियोंकी तरह सत्पुरुषोंकी बुद्धिको बोध देती है-उसे विकसित करती हैं। प्रवादि-करि-यथानां केशरी नय-केशरः। सिद्धसेनकविर्जीयाद्विकल्प-निखराकरः ।। '--प्रादिपुराणे, भीजिनसेनाचार्यः जो प्रवादिरूपी हाथिक समूह के लिये विकल्परूप नुकीले नखोसे युक्त और नयरूप केशरोंको धारण किये हुए केशरीसिंह है, वे भीसिद्धसेन कवि जयवन्त हों-अपने प्रवचनद्वारा मिथ्यावादियोंके मतीका निरसन करते हुए, सदा ही लोकनदयों में अपना सिका जमाए रखें। मर्दुविकल्पमतिकां सिंगन्त:करणामृतेः। कायः सिंदसेनाद्या वर्धयदिस्थिताः॥ -यशोधरनारते, मुनि कल्पांकीति: हृदयमें स्थित हुए - भीसिद्धसेन जैसे कवि मेरी उक्तिरूपी छोटीसी कल्पलताको कथामवसे सींचते पर उसे वृद्धिंगत करें अर्थात् में सिद्धसेन-बसे महा प्रभावशाली कवियोंको अधिकाधिक-रूपसे हृदयमें धारण करके अपनी वाणीको उत्तरोतर पुष्ट और शक्ति सम्पत्र बनाने में समर्थ होऊं । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषार्थ कि कलिवर भी मैथिलीशरण गा पुरुष स्या, पुरुषाव हुमान , मनुज-बीवनमें जवके लिये, दयकी सब दुर्बलता हो। प्रथम ही बह पौन चाहिये। अक्ल जो तुममें पुरुषार्थ हो, विजय तो पुरुषार्थ बिना कहाँ, सुलभ कौन तुम्न पदार्थ हो? कठिन है चिर-जीवन भी यहाँ। अगतिके पयमें विचरो उठो, भय नहीं, भवसिन्धु वरो, उठो, पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो ॥ . पुरुष हो, पुरुषार्थ करो उठो॥ न पुरुषार्थ बिना कुछ स्वार्थ है, यदि अनिष्ठ अड़े भड़ते रहे, "पुरुषार्थ बिना परमार्थ है। विपुल विघ्न पड़ें पड़ते रहे। समझ लो यह बात यथार्थ है, हृदयमें पुरुषार्थ रहे भरा, ... कि-पुरुषाचे वही पुरुषार्थ है। जलधि क्या, नम क्या, फिर क्या धरा । भुवनमें सुख-शान्ति भरो उठो, दृढ़ रहो, ध्रुवधैर्य धरो, उठो पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो पुरुष हो, पुरुषार्थ करो उठो।। न पुरुषार्थ विना वह स्वर्ग है, यदि अभीष्ट तुम्हें निज सत्व है, न पुरुषार्थ बिना अपवर्ग है। प्रिय तुम्हें यदि मान-महत्व है। न पुरुषार्थ बिना क्रियता कहीं, यदि तुम्हें रखना निज नाम है, ___न पुरुषार्थ विना प्रियता कहीं। जगतमें करना कुछ काम है। सफलता पर तुल्य बरो उठो, मनुज ! तो श्रमसे न डरो, उठो, पुरुष हो, पुरुषार्थ करो उठो॥ "पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो ।। (४) न जिसमें कुछ पौरुष हो यहाँ, प्रकट नित्य करो पुरुषार्थ को, सफलता बह पा सकता कहाँ ? हृदयसे तज दो सब स्वार्थको । अपुरुषार्थ भयंकर पाप है, यदि कहीं तुमसे परमार्थ हो, न उसमें यश है न प्रताप है। . यह विनश्वर देह कृतार्थ हो । न कमि-कीट-समान मरो, उठो, सदय हो, पर दुख हरो, उठो, पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो ॥ पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलादि-श्रुत-परिचय [सम्पादकीय पवल-अपपपलके रचयिता इस प्रशस्तिकी रली, ज्यौ और ५वीं, ऐसी तीन गाथा श्रोसे धीरसेनाचार्यका कुछ परिचय मिलता है। पहली गाथासे मालूम होता है कि एखाचार्य सिद्धान्त-विषयमें गत विशेषाङ्कमें यह बतलाया जा चुका है कि वीरसेन के शिक्षा गुरु ये-इस सिद्धान्तशास्त्र (षट्खण्डा- धवल-जयधवल मूल प्रन्थ न होकर संस्कृत गम) का विशेष बोध उन्हें उन्होंके प्रसादसे प्राप्त हुना प्राकृत-भाषा-मिश्रित टीकाग्रन्थ है, परन्तु अपने अपने था, और इमलिये इस विषयका उल्लेख करते हुए मूल ग्रन्थोंको साथमें लिये हुए है। साथ ही, यह भी बत वीरसेनाचार्यने उन एलाचार्य के अपने पर प्रसन्न लाया जा चुका है कि वे मूल ग्रन्थ कौन है, किस भाषा होनेकी भावना की है-प्रकारान्तरसे यह सूचित किया के हैं, कितने कितने परिमाणको लिए हुए हैं और किस है कि जिन श्रीएलाचार्यसे सिद्धान्त-विषयक शन किस प्राचार्यके द्वारा निर्मित हुए हैं अथवा उनके अव को प्राप्त करके मैं उनका ऋणी हुआ था, उनके उस तारकी क्या कुछ कथा इन टीका-ग्रन्थों में वर्णित है, ऋणको श्राज मैं न्याज (मद्र) सहित चुका रहा हूँ, यह इत्यादि । आज यह बताया जाता है कि धवलके रच देखकर वे मुझ पर प्रमन्न होंगे। चौथी और पांचवी यिता वीरसेनाचार्य और जयधवल के रचयिता बीरसेन दो गाथाओंम यह बतलाया है कि जिन वीरसेन मुनि सथा जिनसेनाचार्य कौन थे, किस मुनि-परम्परा में भट्टारकने यह टीका (धवला) लिखी है वे प्राचार्य उत्पन्न हुए थे, टीकोपयुक्त सिद्धान्त विषयक ज्ञान उन्हें आर्यनन्दीके शिष्य तथा चन्द्रसेनके प्रशिष्य थे और कहासे प्राप्त हुआ था और उनका दूसरा भी क्या कुछ 'पंचस्तप' नामके मुनिबंश • में उत्पन्न हुए थे-उस परिचय इन टीकाग्रन्थों परसे उपलब्ध होता है। भवनाम अन्यत्र-'कर्म' नामके भनुयोगद्वारमेंभीवीरसेनाचार्य वैश्यावृत्यके मेवोंका वर्णन मते हुए, मुनिसके । पंच धवलके अन्तमें एक प्रशस्ति लगी हुई है, जो स्तूप, २ गुहापासी, पशाबमूज, " अशोकवार, ५ खंडनवगाथामिका है और जिसके रचयिता स्वयं श्री वीर- केसर, ऐसे पंच भेव किये हैं। पथासेनाचार्य जान पड़ते हैं, क्योंकि उसमें अन्तमंगलके "तत्थ कुल पंचविह पंचथहकुलं, गुहावासीफुलं तौर पर मंगलाचरण करते हुए 'मए' (मया) और 'महु' साबमूलकुलं ममोगवादकुलं खंडकंसरकुलचेदि।" (मम) जैसे पदोंका प्रयोग किया गया है और ग्रन्थ- 'पंचस्तूप'नामक मुनिवंशके मुनियों का मूलनिवाससमासिके ठीक समयका बहुत सूक्ष्मरूपसे- उस वक्तकी स्थान पंचस्तूपों के पास था, ऐमा इन्वानम्बि शुतावतारके महस्थिति तकको स्पष्ट बतलाते हुए-उल्लेख किया है। 'पंचस्तूनिवासादुपागता येऽनगारिणः" जैसे Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पौर, पौर-विच बरालपी प्राकाथमें सूर्य के समान थे। साथ ही, सिद्धांत, गहु के साथ मंगल, कम्पषिों या चन्द्रमा मीनराशि बंद, ज्योतिष, माणऔर मायाको विक्षया और एकमासिन र जगतुंगदेव (गोविन्द शास्त्रोंमें वे निपुर्ण थे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि, तृतीय) प्रासन छोड़ चुके थे और उनके उत्तराधिकारी बीरसेनके दीक्षागुरु चन्द्रसेनाचार्य के शिष्य पावली. राका बोवणाराय (अमोघवर्ष प्रथम) जो कि नरेन्द्रचूड़ाथे और इसलिये उनकी गुरुपरम्परा चन्द्रसेनाचार्य मणि थे, राज्यासनपर प्रारुढ हुए उसका उपभोग से प्रारम्भ होती है एलाचार्यसे नहीं। एलाचार्य के कर रहे थे। प्रशस्तिही कामापात्रो खेसकोंकी कृपाविषयमें यह मी, नहीं कहा जा सकता कि वे से कोई कोई पद अशुद्ध पाये जाते हैं। प्रो० हीरालाल पंचस्तपान्वयमें उत्पन्न हुए थे-वे मात्र सिद्धान्त- जीने भी, 'धवला' का सम्पादन करते हुए उनका विषयमें वीरसेनके विद्यागुरु थे, इतना ही यहां स्पष्ट अनुभव किया है और अपने यहांके प्रवीण ज्योतिर्विद जाना जाता है। इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें उन्हें चित्रकूट- श्रीयुत पं० प्रेमशंकरजी दबेको सहायतासे प्रशस्तिके पुरका निवासी लिखा है, इससे भी वे पंचस्तूपाम्बयी ग्रहस्थिति-विषयक उल्लेखोंका जांच पड़ताल के साथ मुनियोंसे भिन्न जान पड़ते हैं। संशोधनकार्य किया है, जो ठीक जान पड़ता है। साथ प्रशस्तिकी शेष गाथाओं में से दूसरीमें 'वृषभसेन' ही, यह भी मालूम किया है कि चूंकि केतु हमेशा राहुसे का, तीसरीमें अईसिद्धादि परमेष्ठियोंका अन्त्यमंगल- सप्तम स्थान पर रहता है इसलिये केतु उस समय के तौर पर स्मरण किया गया है और अन्तकी चार सिंहराशि पर था। और इस तरह प्रशस्तिपरसे ग्रन्थकी गाथानोंमें टीकाकी समाप्तिका समय, उस समयकी जन्मकुण्डलीकी सारी ग्रहस्थिति स्पष्ट हो जाती है । अस्तु, राज्यस्थितिका कुछ निर्देश करते हुए, दिया है-अर्थात् यह पूर्ण प्रशस्ति अपने संशोधित रूप-सहित, जिसे यह बतलाया है कि यह धवला टीका शक संवत् ७३८ रैकट (कोष्ठक)में दिखलाया गया है, श्राराकी प्रतिके में कार्तिक शुक्ल त्रयोदशीके दिन उस समय समाप्त अनुसार इस प्रकार हैकी गई है जब कि तुलालग्नमें सूर्य यहस्पतिके साथ था बस्स से(प)साएण मए सिद्धतमिदं हि पहिबहुंदी तथा बुधका वहाँ अस्त था, शनिश्चर धनुराशिमें था, (विहिद)। वापसे पाया जाता है। इसीसे उन मुनियों के वंशकी महु सो एलाइरियो पसियउ परवीरसेणस्स ॥१॥ 'पंचस्तूपामय' संज्ञा पदी; परन्तु ये पंचस्तूप कहां थे, वंदामि उसहसेणं तिहुवाविव-बंधवं सिवं संतं । इसका कोई ठीक पता नहीं चलता । साथ ही, उक्त बास-किरणावहासिय-सयत-पर-तम पंवासियं विलु।२ तावतारमें उद्धृत पुरातन वाक्योंके "पंचस्तृप्यास्ततः पसंतपदो (परहंतो) भगवंतो सिदा सिदापसिसेनाः""पंचस्तूप्यास्तु सेनाना" जैसे अंशोंसे यह भी बवाइरिया । साहू साहू प महं पसी(सि )यंतु बाना बाता है कि पंचस्तूपान्वष सेगसंघका ही विशेष भरवा सम्वे ॥३॥ अजयविसिस्सेयुज्जवकम्मस्स अथवा नामान्तर है। वीरसेनकी गणना भी सेनसंघके चंदसेखस्स । ता बत्वेय पंचत्यूदवसपमाबुवा प्राचार्यो में ही की जाती है-सेवसंपकी पहापनीय मुखिया ॥१॥ सिद्धत-पंद-बोरस-पाथरव-पमान उपनामका निर्देश है। सत्य विवेव । महारएव का लिहिएसा बीरसेवेचा - Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनि सामminteracy प्रथमकी पांच गाए rate संस्कृत भाषाको PREPARF १ पा(प)से सुसेरसीए माव (A जिनसेन है और इसमें टीका नाम, मल-मंगला मगरमिक तथा प्रन्यकी समासिक समयादिकी सूचना रेसमा पनि ति वीरसेन और मिनसेन दौना प्राधानका कारसानिया स्थिति सुमि मिमीब) चय मी दिया हुआ है। श्रीवोरसेनाचाक परिचय विषयक मुख्य पचमाराके सिदान्त-भवनको प्रतिके बत्तिगासे एका टीका ममाषिता (पा) खा अनुसार इस प्रकार है:गोरापरिद परिबरामविहि मुंबते। बीवीरसेन इत्यास-महार-मुगुमा । सिलंगगंभमस्तिष गुरुपसाएर विगता सा'nu पारवाधिविधाना सापादिवस at anu इस प्रशस्तिके बाद एक संस्कृतका प्रशस्ति-पद्य प्रीवित-प्राविसंपनियतापगोधरा । और दिया है, जो संभवतः वीरसेनाचार्य के किसी शिष्य भारती भारतीवाशा पट्सले पस्य नामावत् ॥२०॥ की-प्रायः जिनसेनकी–कृति जान पड़ता है, और वह पस्य नैसर्गिकी प्रज्ञा पहा सर्वागामिनीं । इस प्रकार है: जाता सर्वसमावे निरारेका मनीषिणः ॥२॥ प्राहुः अस्योध-दीधिति-प्रसरोदयं । शब्दब्रह्मेति शादैर्गयधरमुनिरित्येव राधान्तविमिः श्रुतकेवखिनं प्राशाः प्रशाश्रमवसत्तमं ॥२२॥ सामात्सर्वज्ञ एवेत्यवहितमतिमिः सूक्ष्म वस्तुप्रणीतो (वीणैः) यो प्यो विश्वविधानिधिरिति जगति प्राप्त भट्टारकास्यः प्रसिद्ध सिद] सिद्धांत-वाधिवाधीत एरधीः । साई प्रत्येक स्पर्धने धीबनुदिभिः ॥२१॥ स श्रीमान्बीरसेनो अयति परमतम्यांनभित्रकारः॥ ___ पहनी गाथा टीका नामादि-विषयक है और इसमें बतलाया है कि-'जिन्हें शान्दिकोंने 'शब्द वह निम्न प्रकार है। शेष गाथाएँ श्रुतदेवताके परणाब्रह्मा' के रूप में, सिद्धान्तशास्त्रियोने 'गणधरमुनि' के रूपमें, सावधानमतियोंने 'साक्षात् सर्वज्ञ' के रूपमें दिसे सम्बन्ध रखती हैऔर सूक्ष्मवस्तु विज्ञोंने 'विश्वविद्यानिधि के रूपमें एत्य समापद धवलियतिपयमवया पसिरमाहप्पा । देखा-अनुभव किया-और जो जगत में 'भधारक पासुत्तासमिमा जमवला सवियपा टीका ॥१॥ नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुए, वे परमताधिकारको भेदने इस पचसे पहले वीरसेन-विषयक दो पच और वाले शास्त्रकार-इस ग्रन्थ के रचयिता-श्रीमान् वीर. १. जो निम्न प्रकार हैसेनाचार्य जयवन्त है-विदहदयोंने सब प्रकारस भूपावावीरसेनस्य वीरसेनस्य शासनं । अपना सिका जमाए हुए है। भयावावीरमेक्स्य बीरसेवस सास (1) mn ___ जयधवलके अन्समें भी एक प्रशस्ति लगी हुई है। भासीदासं वामनभव्यसत्वकमाती। जो संस्कृत तथा प्राकृत भाषाके ४४ पद्योंमें -अर्थात मुली मीसो पा शकस पुका Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- पुस्तकानां शिक्षा शामिला। पविच क्या प्रार्थनादी के लिय और 'उनौने अपने गावितापिता ते सर्व पुस्तकविया ॥२॥ परतपोदसिमिधामोवानि दोषयन् । कुल, गण तथा सन्तान (विष्यसमूह) को अपने विमुनीमेन पंचस्तूपान्वयाम्बरे ॥२॥ गुणोखे उज्वल किया था। अशिमानसेनस्य बासिबोयाबंदिनी। ___ यह परिचय कुछ अतिशयालंकारते युक्त होनेपर संग संतान सरवनिया ॥२॥ भी बहुत कुछ तथ्यपूर्ण जान पड़ता है और इसका इन पद्योंमें बतलाया है कि-'श्री वीरसेनाचार्य कितना ही अनुभव वीरसेनाचार्यको धवला और जयमहारक पदकी महास्यातिको प्राप्त थे और साक्षात् धवला ऐसी दोनों टीकाओंको देखनेसे हो सकता है। केवलीकी तरह अधिकांश विद्याओंके पारदृष्टा थे। उनकी इस परिचयमें भी वीरसेनको पंचस्तूपान्वयी चन्द्रसेनके अशेष विषयोंसे परिपूर्ण तथा प्राणिसम्पत्तिको-प्राणियों मशिष्य तथा आर्यनन्दीके शिष्य सूचित किया है। साथ में उत्कर्षको प्राप्त मानवसंततिको अथवा प्राणिसमूहको- ही, एलाचार्यका गुरुरूपसे कोई उल्लेख ही नहीं किया, संतुष्ट करनेवाली भारती(वाणी)सिद्धान्तागमके षट्खण्डों जिसका यह स्पष्ट अर्थ जान पड़ता है कि वीरसेनाचार्यमें उसी प्रकारसे निर्वाध प्रवर्तती थी जिस प्रकार कि भरत की गुरुपरम्परा उक्त चन्द्रसेनाचार्यसे ही प्रारंभ होती है, चक्रवर्तीकी आशामरतक्षेत्रके छोखण्डोंमें अखण्डितरूप एलाचार्यसे नहीं-एलाचार्यसे उन्हें प्रायः षट्खण्डासं वर्तती थी-अर्थात् जिस तरह भरत चक्रीकी श्राण गमविषयक ज्ञानकी ही प्राप्ति हुई थी, जयधवलके श्राछहों खण्डोंमें प्रमाण मानी जाती थी उसी तरह वीरसेना- धारभूत कषायप्राभृतके जानकी प्राप्ति नहीं। चार्यकी वाणीभी षटसण्डागमके विषयमें प्रमाण मानी वीरसेनाचार्य जयधवलाको पूरी नहीं कर सके, वे जाती थी। उनकी सर्वपदामि प्रवेश करनेवाली स्वाभाविक उसका पूवार्ध ही-जो कि प्रायः २० हजार श्लोक बुद्धिको देखकरबुद्धिमान लोग सर्वशके विषयमें शंकारहति परिमाण है-लिख पाये थे कि उनका स्वर्गवास होगया, होगये थे। वे प्रकर्षरूपसे स्कुरायमान शानकी किरणोंके और इसलिये उत्तरार्धको-जो कि ४० हजार श्लोकप्रसारको लिये हुए थे और इसलिये विद्वान् जन उन्हें परिमाण है--उनके शिष्य वीरसेनने लिखकर समाप्त भुतकेवली तथा प्रशाश्रमणोंमें उत्तम कहते थे। उनकी किया है। समाप्तिका समय शक संवत् ७५६ फाल्गुन बुद्धि प्रसिद्ध और सिद्ध ऐसे सिद्धान्त-समुद्रके जलसे शुक्ला दशमीके पूर्वान्हका है,जबकि नन्दीश्वर महोत्सवके धुलकर शुद्ध हुई थी, और इसलिये वे तीन बुद्धिके अवसर पर अर्थात् अष्टान्हिका पर्वमें-महान् पूजाधारक प्रत्येक बुद्धोंके साथ स्पर्धा करते थे। उन्होंने विधान प्रवर्त रहा था, और गुर्जरराजा अमोघवर्षका प्राचीन पुस्तकोंके गौरवको बढ़ाया था और वे अपने राज्य था । उन्हींके राज्यके वाटग्राम नगरमें यह सूत्रार्थपूर्वके सभी पुस्तकशिष्यों-पुस्तकपाठियों अथवा पुस्तकों- दर्शिनी 'जयधवला' टाका, जिसे 'वीरसेनीया' नाम भी पारा ज्ञान प्राप्त करनेवालोंमें बढ़े चढ़े थे। वे मुनिराज- दिया गया है, उक्त समय पर समाप्त की गई है, जैसा रूपी सूर्य अपने तपकी देदीप्यमान किरसोंसे मंन्यज़मरूपी कि प्रथस्तिके निम्न पद्योंसे प्रकट हैकमलोंको विकसित करते हुए पंचस्तूपान्ववरूपी प्रकाश- इति भीवीरसेनीया टीका सूत्रायशिनी। में सविशेष रूपसे उद्योतको माप्त हुए थे। वे चन्द्रसेनके पाखामपुरे भीमगुणसवानुपाखिते ॥१॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भने शामिपूर्ण स् । और साथ ही आपको पंवला भारतीको संष्टापसे प्रासादादीपमहोत्सवे । नमस्कार भी किया है वीरसेनके विच होनेसे वे मी अमोषरावे-आपरामप-मुखोला। पंचस्तूपान्वयी प्राचार्य है और इसलिये इनकी भी विदिता मच (१) मायापालिका गुरुपरम्परा चन्द्रसेनाचार्यसे प्रारम्भ होती है-एलाचापहिरेवसामावि न्यानो परिमावसः। यसे नहीं। विद्वलमाला' में उसका एलाचार्यसे खोपानुष्टमेवात्र निविद्यान्यनुपूर्वशः u प्रारम्भ होना जो लिखा है वह ठीक नहीं है। विभक्तिः प्रथमस्कंधो द्वितीया संक्रमोदयौ । जयधवलाकी उक्त प्रशस्तिमें, वीरसेनका परिचय उपयोगरव शेवास्तु तृतीयः स्कन्ध हन्यते ॥१०॥ देनेके बाद, जिनसेनको वीरसेनका शिष्य बतलाते हुए, एकाबपहिसमधिकसमशताब्वेषु शकनरेन्दस्य। जो परिचयका प्रथम पत्र दिया है वह इस प्रकार हैसमतीतीषु समासा अवयवक्षा प्रामृतम्याक्या ॥ तस्य शिष्यो भवेत्रीमान् विनसेनः समिधी। यह बात ऊपर बतलाई जाचुकी है कि धवला पाविद्यावपि पलायो विदा शामरावाक्या ॥२॥ टीका शकसंवत ७३८में बनकर समाप्त हुई थी, उसके इससे मालम होता है कि श्रीजिनसेन वीरसेनाचा बाद हो यदि जयधवला टीका प्रारम्भ करदी गई थी, यके तीन बदि शिष्य थे। साथ ही, यह भी मालूम जिसका उसके अनन्तर प्रारम्भ होना बहुत कुछ स्वा- होता है कि आप भाविद्धकर्ण थे अर्थात् प्रापके दोनो भाविक जान पड़ता है, तो यह कहना होगा कि जय- कान बिंधे हुए थे, फिर भी आपके कान पुनः शानधवलाके निर्माण में प्रायः २१ वर्षका समय लगा है। शलाका से विद्ध किये गये थे, जिसका भाव यही चूँकि इसका एक तिहाई भाग ही वीरसेनाचार्य लिख जान पड़ता है कि मुनि-दीक्षाके बाद अथवा पहले पाये थे, इसलिये वे धवलाके निर्माण के बाद प्रायः श्रापको गुरुका खास उपदेश मिला था और उससे ७ वर्ष तक जीवित रहे हैं, और इससे उनका अस्तित्व आपको बहुत कुछ प्रबोधकी प्राति हुई थी। काल प्रायः शक संवत ७४५ तक जान पड़ता है। आप बाल-ब्रह्मचारी थे-बाल्यावस्थासे ही आपने इस तरह यह वीरसेनाचार्यका धवल-जयधवलके आधार पर संक्षिप्त परिचय है। अब जिनसेनाचार्यके * पाविपुरावके थे पर इस प्रकार हैपरिचयको भी लीजिये। श्रीबीरसेन इत्यात-भट्टारकपृथुप्रथः । श्री जिनसेनाचार्य स नः पुनातु पुतात्मा वादिवृन्दारको मुनिः ॥१५॥ जयधवलके उत्तरार्धके निर्माता ये जिनसेनाचार्य लोकवित्वं कवित्वं च स्थित भद्वारके इयं । वे ही मिनसेनाचार्य है जो प्रसिद्ध श्रादिपुराण ग्रंथके वाग्मिता वाग्मिनो यस्थ वाचा वाचस्पवेरपि ॥१६॥ रचयिता हैं और प्रायः भगवजिनसेनके नामसे उल्ले- सिद्धान्तोपनिबन्धानां विधातुर्मद्गुरोश्चिरम् । खित किये जाते है । श्रादिपुराणमें भी इन्होंने "मी- मन्मनःसरसि स्थेयान्मृदुपादकोशयम् ॥ ५० ॥ वीरसेन इत्याच महारकपुषुमणा" इत्यादि वाक्योंके द्वारा धवला भारती तस्य कीर्ति च शुचि-निर्मलाम् । भीवीरसेनाचार्यका अपने गुरुरूपसे स्मरण किया है पवनीकृवनिःशेषभुवना तां नमाम्यहम् ॥5॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पौर, बीर-विषe . . प्रखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया था। अनिसुन्द- यः कृणोऽपि शीशमलभूत अपोगुषः । राकार और प्रतिचतुर न होने पर भी सरस्वती बाप नकृशत्वं हि मर गुरेज : pe R. पर मुग्ध थी और उसने अनन्य-शरण होकर उस समय यो नाग्रहीत्कापलिकामावचितपदंबसा। आपका ही प्राभय लिया था। साथ ही, आसन्न भव्य तयाध्यध्यात्म विधायक पारमशिमियत् ॥१३॥ होने की वजहसे, मुक्तिलक्ष्मीने स्वयंवाकी तरह उत्सुक शामाराधनका रस गतः कालो निरन्तरं । होकर आपके काठमें श्रुतमाला डाली थी । इस अलं- ___ ततो ज्ञानमयं पिर बमाहुस्सायदर्शिनः ॥३॥ कृत भावको प्रशस्तिके नीचे लिखे पत्रों में प्रकट किया जिनसेनने जयधवला टीकाके उत्तर-भागको अपने गया है गुरु (वीरसेन ) की आज्ञासे लिखा था। गुरुने उत्तरपस्मिन्नासम्नमव्यत्वान्मुकिनामी समुत्युका।। भागका बहुत कुछ वक्तव्य प्रकाशित किया था। उसे स्वयंवरितकामेव भौति भावामपपुवत् ॥ २८ ॥ देखकर ही अल्प वक्तव्यरूप यह उत्तरार्ध श्रापने पूर्ण पेनाधरित बास्या मानवमासंदितम् । किया है, जो प्रायः प्राकृत भाषामें है और कहीं कहीं स्वपंडरविधानेन चित्रमा सरस्वती ॥२॥ संस्कृत मिश्र भाषाको लिये हुए हैं; ऐसा आप स्वयं पो गाविसुन्धराकारो न चाविचतो मुनिः। प्रशस्तिके निम्न 'पद्यों द्वारा सूचित करते हैं-- वाप्यनन्यारवाज्यं सरस्वत्युपा चरव ॥३०॥ तेनेदमनतिप्रौढमतिना गुरुशासनात् । जिनसेन स्वभावसे ही बुद्धिमान, शान्त और विनयी लिखितं विशदैरेभिरपरैः पुरुष शासनम् ॥३५॥ थे, और इन (बुद्धि, शांति, विनय ) गुणोंके द्वारा गुरुणाऽग्रिमे भूरिवक्तव्ये संप्रकाशिते । आपने अनेक प्राचार्योंका पाराधन किया था-अर्थात् तन्निरीच्याल्पवातम्यः परचार्धस्तेन परितः ॥१५॥ इन गुणोंके कारण कितने ही प्राचार्य उस समय श्राप प्रायः प्राकृतभारत्या कचिसंस्कृतमिया । पर प्रसन्न थे। आप शरीरसे यद्यपि पतले-दुबले थे, तो मणिभवानन्यायेन प्रोकोऽयं ग्रंथविस्तरः ॥३०॥ भी तपोगुणके.अनुष्ठानमें कमी नहीं करते थे। शरीरसे कुछ आगे चलकर आपने यह प्रकट करते हुए कश होने पर भी आप गुणोंमें कृश नहीं थे। आपने कि 'सर्वशोदित इस सत्य प्रवचनमें, जोकि प्रस्पष्ट तथा कपिल सिद्धान्तोंको-साख्यतत्त्वोंको-ग्रहण नहीं किया मृष्ट (पवित्र ) अक्षरोंको लिये हुए हैं, अत्युक्त अनुक्तऔर न उनका भले प्रकार चिंतन ही किया,तो भी श्राप दुरुक्तादिक-जैसी कोई बात नहीं है, अपनी टीकाके अध्यात्म-विद्या-समुद्रके उत्कृष्ट पारको पहुंच गये थे। सम्बन्धमें यह भी बतलाया है कि थोड़े ही अक्षरों द्वारा आपका समय निरन्तर ज्ञानाराधनमें ही व्यतीत हुआ सूत्रार्थका विवेचन करनेमें हम जैसोंकी टीका उक्त, करता था, इसीसे तत्त्वदर्शीजन आपको ज्ञानमय पिण्ड अनुक्त और दुरुक्तका चिन्तन करने वाली (वार्तिकरूप) कहते थे। इन सब बातोंके द्योतक पद्य, प्रशस्ति में, इस टीका नहीं हो सकती। इसलिये पूर्वापर-शोधनके साथ प्रकार है हम जैसोंका जो शनैः शनैः (शनकैस् ) टीकन है, जीसमो विवपरति पख नैसनिमः गुणः। उसीको बुधजन टीकारूपसे ग्रहण करें, यही हमारी वारापति स्म गुराराध्यते पद्धति है। साथ ही, यह भी प्रकट किया है कि बम Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थताके दोषके कारण जो कुछ इस टीका में रक्त रूपसे के साथ भोपाल सम्पादिता. मी बायोरचा गया हो वह सुब आगम पनी विद्यानोक्ने, दास श्रीबीमारितार्थवावा दिग्विारपरिशोधन किये जानेके योग्य है और जो निर्दोष है बाबा जीवियोगमाविवरेगपविता लिखित वही ग्रहण किया जाना चाहिये । यथा- . दीका श्रीमचिम्तिोपखालासंगतियों, , अत्यविमिराहरूसवा किंवा एकातिक, स्वादारवियप नीवाणसंपादित inti सर्वोदित स्त-प्रमाने प्रत्पत्यष्टापरे । : इस परसे श्रीयुत ० नादराम जी प्रेमीने अपनी वपुत्रार्थविवेचने कतिपयरेवारेमाच्या, . 'विद्वद्रस्नमाला' में या निष्कर्ष निकाला है किमहापचिन्तवपरा, टीकेतिक संभवः ॥४॥ ____ "वास्तवमें कषायमाभूतकी जो वीरसेत और जिनकल्पूर्वापरणोधनेन शनचन्माच्या टीकतं, सेनस्वामीकृत ६० हजार श्लोक-प्रमाण टीका है, उस मा टीकेवडगुणतां बुधजनरेषा दिनः पतिः । का नाम तो 'वीरसेनीया' है और इस बीरसेनीया टोकांबलिनिय तलमत्र रचितं, पामस्मदोषोडयाव.. सहित जो कषायप्राभृतके मूल सूत्र और चर्गिसूत्र, तत्सर्व परियोज्यमागमधनोबल पविस्तषं ॥४२॥ वार्तिक वगैरह अन्य प्राचार्योकी टीकाएँ ।, उन सबके इन पयोमें पाए हुए 'माया' (हम जैसोंकी) और मंग्रहको 'जयधवला'. टीका करते है । यो संग्रह 'क' 'हमारी) शब्दोंसे यह बात साफतौरसे उद्घोषित 'श्रीपाल' नामके किसी प्राचार्यने किया है, इसीलिये होती है कि यह प्रशस्ति जयधवला टीकाके उत्तर- जयधवलाको 'श्रीपालसम्पादिता' विशेषण दिया है।" भागकै रचयिता स्वयं श्रीजिनसेनाचार्यको बनाई हुई है प्रेमीजीका यह निष्कर्ष ठीक नहीं है, और उसके और इसके द्वारा उन्होंने श्रात्म-परिचय दिया है, जिससे निकाले जानेकी बजह यही मालूम होती है कि उस विज्ञ पाठक प्राचार्य महोदयकी शारीरिक, मानसिक समय आपके सामने पूरी प्रशस्ति नहीं थी । आपको और बुद्धयादि-विषयक स्थितिका बहुत कुछ अनुभव भागे पीछे के कुछ ही पद्य उपलब्ध हुए थे, जिनें आपने कर सकते हैं। अपनी पुस्तकमें उद्धृत किया है। जान पड़ता है आप प्रशस्तिमें टीकाका नाम कहीं 'वीरसेनीया' और उन्हीं पद्योंको उस समय पूरी प्रशस्ति समझ गये हैं और कहीं 'जयधवला' दिया है । साथ ही, अन्तिम पद्यसे उन्हींके आधारपर शायद आपको यह मी खयाल होगया पहले निम्न आशीर्वादात्मक पद्यमें उसे अन्य विशेषणों- है कि यह प्रशस्ति 'श्रीपाल'प्राचार्यकी बनाई है। परन्तु इस पंचसे पूर्वके तीन पथ इस प्रकार है- बात ऐसी नहीं है। यह प्रशस्ति श्रीपाल प्राचार्यकी बनाई प्रन्थच्छायेति यत्किचिदत्यत्तमिह पद्धती हुई नहीं है, जैसा कि ऊपरके अवतरणोंमें 'मान क्षन्तुमर्हय तत्पूज्या दोष अर्थी न पश्यति ॥३८॥ आदि शब्दोंसे प्रकट है । और न श्रीपालके उक्त संग्रह गाथासूत्राणि सूत्राणि पूर्णिसूत्रं तु वार्तिक । का नाम ही 'जयधवला' टीका है। बल्कि वीरसेन और टीका श्रीवीरसेनीयाशेषाः पद्धतिपंजिकाः ॥३९॥ जिनसेनकी इस ६ हजार श्लोक संख्यावाली ट्रीशाका वे सूत्रसूत्र तद्वतिषिवृती वृत्तिपढ़ती।... असली नाम ही 'जयधवला', ऐसा खुद जिनसेन कृत्स्नाकुत्स्नभूतव्यास्ये ते टीकापंजिके स्मृत॥४० ने प्रशस्तिके उक्त पधन.११११ में स्पष्ट रूपसे . . . . . . Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पौष, बीर-विवाद सं. e अषित किया। वीरसेनस्वामीने कि इस टीकाको धवला' जाधवलासे मिलता-जुलता ही नाम जयधवला प्रारम्भ किया था और इसका एकतिहाई भाग (२० है, जो उनकी दूसरी टीकाके लिये बहुत कुछ समुचित हजार श्लोक) लिला भी था। साथ ही, टीकाका शेष प्रतीत होता है। और इस दूसरी टीकाके 'अपइ धवलंगभाग, आपके देहावसान के पश्चात्, आपके ही बकाशित तेथे इत्यादि मंगलाचरणसे भी इस नामकी कुछ ध्वनि वक्तव्यके अनुसार पूरा किया गया है, इसलिये गुरु- निकलती हैं। अतः इन सब बातोंसे टीकाका असली भक्ति से प्रेरित होकर भीजिनसेनस्वामीने इस समूची नाम 'वीरसेनीया' न होकर 'जयधवला' ठीक जान टीकाको आपके ही नामसे नामांकित किया है और पड़ता है। 'वीरसेनीया' एक विशेषण है जो पीछे से 'वीरसेनीया' भी इसका एक विशेषण दिया है। इन्द्र- जिनसेनके द्वारा इस टीकाको दिया गया है। नन्दिकृत 'श्रुतावतार' और विबुध श्रीधरकृत 'गद्य- अब रही 'श्रीपाल-संपादिता' विशेषणकी बात, भुतावतार के उल्लेखोंसे भी इसी बातका समर्थन होता है उससे प्रेमीजीके उक्त निष्कर्षको कोई सहायता नहीं कि बीरसेन और जिनसेनकी बनाई हुई ६० हजार श्लोक मिलती । श्रीपाल नामके एक बहुत बड़े यशस्वी विद्वान संख्यावाली टीकाका नाम ही 'जयधवला' टीका है। जिनसेनके समकालीन हो गये हैं। प्रशस्तिके अन्तिम यथा पद्यमें आपके यशकी ( सत्कीर्तिकी) उपमा भी दी गई "अपवयं पठिसामग्रन्थोऽभवटीका। है। वह पद्य इस प्रकार है -इन्द्रनन्दिश्रुतावतार सर्वज्ञप्रतिपादितार्थगणभृत्सूत्रानुटीकामिमां, "अमुना प्रकारेण पष्ठिसहसमिता जयधवला- येऽभ्यस्यन्ति बहुश्रुताः श्रुतगुरुं संपूज्य वीरं प्रभु । नामाक्षिता टीका भविष्यति । ते नित्योऽवलपनसेनपरमाः श्रीदेवसेनार्चिताः, -श्रीधर-गद्यश्रुतावतार० भासन्ते रविचन्द्रमासिसुतपाः श्रीपालसत्कीर्तयः ॥४॥ यदि प्रेमीजी द्वारा सूचित उक्त संग्रहका नाम ही श्रादिपुराणमें भी आपके निर्मल गुणों का कीर्तन 'जयधवला' होता तो उसकी श्लोकसंख्या ६० हजार किया गया है और आपको भट्टाकलंक तथा पात्रकेसरीन होकर कई लाख होनी चाहिये थी। परन्तु ऐसा नहीं जैसे विद्वानोंकी कोटि में रखकर यह बतलाया गया है है। ऊपर के अवतरणों एवं प्रशस्तिके पद्य नं०६ में कि आपके निर्मल गुण हारको तरहसे विद्वानों के हृदयमें साफ तौरसे ३० हजार श्लोक-संख्याका ही जयधवलाके प्रारूढ़ रहते हैं । यथासाथ उल्लेख है-साक्षात् देखनेपर भी यह इतने ही भहाकलंक-भोपाल-पात्रकेसरिणां गुणाः । प्रमाणकी जान पड़ती है । और भी अनेक ग्रन्थोंमें इम विदुषां हृदयाला हारायन्तेऽतिनिर्मवाः ॥ टीकाका नाम जयधवला ही सूचित किया है । इसके इससे स्पष्ट है कि श्रीपाल एक ऐसे प्रभावशाली सिवाय, वीरसेन स्वामीकी दूसरी सिद्धान्त-टीकाका नाम श्राचार्य थे जिनका सिक्का अच्छे-अच्छे विद्वान् लोग .."ये कृत्वा धवला जयादिधवला सिद्धान्तटीकं सती मानते थे। जिनसेनाचार्य भी आपके प्रभावसे प्रभावित "वन्दध्वं वरवीरसेन-जिनसेनाचार्य पर्यान्बुधान् थे। उन्होंने अपनी इस टीकाको लिखकर आप ही से -पवासारटीकार्या, माधवचनः उसका सम्पादन (संशोधनादिकार्य) कराना उचित Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बबादि भूत-परिचय समझा है और इस तरह पर एक गहन विषयके सैद्धा. के बड़े भक्त थे, यह पाया जाता है। परन्तु जिनसेनन्तिक ग्रन्थकी टीका पर एक प्रसिद्ध और बहुमाननीय स्वामी महाराज अमोघवर्षको किस गौरवमरी शिसे विद्वानके नामकी ( सम्पादनकी ) मुहर प्राप्त करके उसे देखते थे, उनपर कितना प्रेम रखते थे और उनके विशेष गौरवशालिनी और तत्कालीन विद्वत्समा जके गुणोपर कितने अधिक मोहित अथवा मुग्ध थे, इस बात लिए और भी अधिक उपयोगिनी तथा आदरणीया का पता अभी तक बहुत ही कम विद्वानोंको मालम बनाया है। यही 'श्रीपान-सम्पादिता' विशेषणका होगा, और इसलिये इसका परिचय पाठकोंको प्रशस्तिरहस्य जान पड़ता है। और इसलिये इसमें यह स्पष्ट है के निम्न लिखित पद्यों परसे कराया जाता है, जिसमें कि एक सम्पादकको किसी दूसरे विद्वान लेखककी कृति- गुर्जरनरेन्द्र ( महाराज अमोघवर्ष ) का यशोगान करके का उसके इच्छानुसार सम्पादन करते समय, जरूरत उन्हें अाशिर्वाद दिया गया हैहोनेपर, उसमें संशोधन, परिवर्तन, परिवर्धन, स्पष्टीकरण, गर्जरनरेन्द्रकीर्तेरन्तःपतिता शशायाः । भाषा-परिमार्जन और क्रम-स्थापन आदिका जो कार्य गुसैव गुप्तनृपतेः शकस्य मशकायते कीतिः ॥१॥ करना होता है, यथासम्भव और यथावश्यकता, वह गुर्जरयशःपयोधौ निमज्जतीन्यो विवरण साम । सब कार्य इम टीकामें विद्वद्रत्न श्रीपाल द्वारा किया गया कनमखिमलिनं मन्ये धाबा हरिलापदेशेन ॥३॥ है। उनकी भी इम टीकामें कहीं कहीं पर ज़रूर कलम भरत-सगरादि-भरपति पशासितारानिभेव संहत्य । लगी हुई है । यही वजह है कि उनका नाम मम्पादकके गुर्जरयशसो मदनानावकाशो जगत्सृजा नूनम् ॥१४ रूपमें खास तौरसे उल्लेखिन हुआ है । अन्यथा, श्रीगल इत्यादिमकक्षनृपनीनतिपशष्य पयः पयोधिकेनेत्या आचार्यने पूर्वाचार्योकी सम्पूर्ण टीकाका एकत्र संग्रह गुर्जरनरेन्द्र कीनिःस्थेयावाचम्बनारमिह भुयने ॥ १५ करके उस मंग्रहका नाम 'जयधवला' रक्खा, हम कथन इन पत्रों में यह बतलाया और कहा है कि 'गुर्जर. की कहींसे भी उपलब्धि और पुष्टि नहीं होती। नगेन्द्र (महागन अमाचलर्स) की शशांक-शुभ्रीतिजिनसेनके ममकालीन विद्वानोग पापेन, देवपेन, के भीतर पड़ी दुई गमनपति ( चन्द्रगुम ) की कीति और रविचन्द्र नामके भी कई विद्वान हो गये हैं । यह गुप्त ही होगई है-छिप गई है-और शक गजाकी बात ऊपर उद्धृत किये हुए प्रशस्तिके अन्तिम पद्यसे • कीति मच्छरकी गुन गुनाहटकी उपमाको लिए हुए है। ध्वनित होती है। मैं ऐमा मानता हूँ कि गुर्जर-नरेन्द्र के यशरूपी क्षीरसमुद्र में गुर्जर नरेन्द्र महाराज अमोघवर्ष (प्रथम) जिनसेन इबे हुर. चन्द्रमामें विधानाने हरिण (मृगछाला ) के स्वामीके शिष्योंमें थे, इस बातको स्वयः जिनसेनने अपने - पाश्चर्याभ्युदयके संधि-वाक्योंमें प्रकट किया है और वह पच इस प्रकार हैगुणभद्राचार्यने उत्तरपुराण-प्रशस्तिके एक पद्ममें यह यस्य प्राशुनखांशुजालविमरद्वारान्तराविभवत, सूचित किया है कि महाराज अमोधवर्ष श्रीजिनसेन- पताम्माजरजःपिशंगमुकुटप्रत्यपरबद्युतिः । स्वामीके चरणकमलोंमें मस्तकको रखकर अपने रे संस्मता स्वममोघवर्षनृपतिः पृतोऽहमधेत्यलं, पवित्र मानते थे। इससे अमोघवर्ष जिनसेन- स श्रीमान जिनसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मंगलम् ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... हानसे मानी एक बेढंगा अलि मलिन चिन्ह बनीं होगये हैं आपके द्वारा तत्कालीन जैन समाज और दिया है और मेरत, संगर आदि चक्रवर्ती राजाओंके स्वयं जिनसेनाचार्य बहुत कुछ उपकृत हुए हैं और यशीका तारीक प्रकाशर्फ सदृश संहार करके जग- आपके उदार गुणो तथा यकी धाकने आचीयमहोसाने गुर्जर नरेन्द्र के महान् यशको फैलने और प्रका दयके हृदयमें अच्छा घर बना लिया था। इससे पण त होने की अवसर दिया है। इनको आदि लेकर स्तिमें गुरु वीरसेनसे भी पहले आपके गुणोका कीर्तन और मौ सम्पूर्ण राजानीसे बढ़कर क्षीरसमुद्रक फैन किया गया है। जान पड़ता है, आपके विशेष सहयोग (भाग की तरह गुर्जर-नरेन्द्रकी शुभ्रकीति, इस और आपके राज्यको महती सुविधाओं के कारण ही जोको, चन्द्र-तारानीकी स्थिति-पर्यन्त स्थिर रहे 'जयधवला' का निर्माण हो सका है, और इसीसे यद्यपि इस वर्णनमें कवित्व भी शामिल है, तो भी प्रेशस्तिके ८ वें पद्यमें, जो ऊपर उद्धृत किया जा चुका इससे इतना जर पाया जाता है कि महाराज अमोघ- है, इस टीकाका 'अमोघवर्ष राजेन्द्र भाज्यराज्य-गयी. वर्ष,निनका दूसरा नाम नृप.तुझ था, एक बहुत बड़े व्या', यह भी एक विशेषणे दिया गया है। प्रतापी, प्रशस्ती, उदार, गुणी, गुणद, धर्मात्मा, परो- इस प्रकार यह धवलं-जयधवल के रचयितां श्रीवीरपारी और जैनधर्म के एक प्रधान.प्राश्रयदाता सबाट सेन जिनसेन प्राचार्योका, उनकी कृतियों तथा समका बबालीबालके बाद निम्न पच-द्वारा जैन- लीन राजादिको-सहित, धवल जयधवलके आधार पर नामका लागि मला है। मौद्र से प्रारम- संक्षिप्त परिचय है। मामालियासित शासन और मुक्तिमोकशासन वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०७-१-१९४० जैसे विशेडगों के साथ स्मरण किया है। इस पथके बाबही प्रशस्ति पोरसन और जिनसेनादि सम्बन्धी के सब पच दिये । बिमका ऊपर उल्लेख किया जा सका गणितसारसंग्रहके को महावीर भाचार्यने भी भापकी प्रशंसामें कुछ पचबिखे है और कितने ही जयत्यजन्यमहात्मं विशासित कुशासनम् । शिबालों भादिमें भापके गुचोंका परिचय पाषा शासनं जैनमुभासि मुक्तिनादम्यक शासनम् ॥ १६ जाता है। ... सुधार-संसंचन . (1) नेवान्त' की गत दूसरी किरयके प क्ष की तीसरी पंक्तिके, प्रायम्भमें वो "लिखकर उसे" मो .इसके कान पर पाक बन "अपने प्रास्ताविक शब्दोंके साथ" ये शम्द बना ले। और १६ 10 की प्रथम पंतिके तुर तथा पृ०॥के दूसरे काखमकी 10वीं पंक्तिक अन्तमें इनकेटरकामाज ("..." बगा देखें, जिससे गोत्र विचार सम्पनी इस मूव खेसो दूसरे विद्वानका समझने में कोई प्रम नरहे। ( R aच' की नस ममी मियो पृ० १०८ पर जो कुटपोट पा सके सम्बन्ध में अपने श्री मांगीलाबार सावो मर सहित पर.कि-"नमसार: पति "औनमा प्रचारक में बेकिन हिलामको प्रभाबके सृष्टि का प्रयाप । मुद्रित वावकियोर प्रेम राबवल्में साविको वैवान प्रचारक माना है। स हिन्न नसकी पुस्तकों के आधार पर है इसलिये समममी पावती मा मुम्न परिवाम गोटमै "समर्मक स्थान पर हिन्दु पुराणकारी"वना । सम्पादक Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस दिन - । 'माज 'घन' ही सब-कुछ है ! भाई, भाई का कत्ल कर देता है ! सुरेज़ीमें बुराई नहीं दिखाई देती। इन्साफको बालाए-ताक रखकर मासूमोंके हकको हलाक कर दिया जाता है । जिबह कर दिया जाता है गरीबोंकी दुनिया को ! किस लिए......? पैसेके लिए ! धनके लिए !! मगर 'उस दिन यह बात नहीं थी, कतई नहीं ! स्व न-आकाश! शरीर को सुखद धूप ! नगर मावश्यक-प्रयोग! हलवाहक अपनी धुनमें मस्त! ''से दूर रम्य-प्राकृतिक, पथिकोंके पद-चिन्ह उसे पता नहीं, कोई देख रहा है, या क्या है? से बनने वाला-और-कानूनी मार्ग; पगडण्डी! जरूरत भी क्या ? । इधर-उधर धान्य उत्पादक,हरे-भरे तथा अंकुरित- कुछ देर खड़ा रहा ! लालायित-राष्टिको स्वतंत्र खेत ! जहां तहां अनवरत परिश्रम के प्रादी; विश्व किए हुए ! प्रचल, मंत्र-मुग्ध, या रेखांकित-चित्र के अन्न-दाता-कृषक ! ..... 'कार्यमें संलग्न और की भांति !.. सरस तथा मुक्त छन्द की तानें पालापने में व्यस्त ! अचानक हलवाहककी दृष्टि पड़ी-नर पुंगव, स-घन वृक्षों की छाया में विश्राम लेने वाले-सुन्दर, धन्यकुमार पर ! कैसा प्यारा सुहावना-मुँह ।...... मधु-भाषी पशु-पक्षियों के जोड़े ! श्रवन प्रिय, मधु. सुदर्शन ! मनमें एक स्फूर्ति सी पैदा हुई, उमंग-सी स्वर से निनादित वायु-मण्डल ! "और समीरकी पनपी ! इच्छा हुई- कुछ बातें की जाऐं, सत्कार प्राकृतिक प्रानन्द-दायक झंकृति !!!... किया जाए !'....."अपरिचित है तो क्या, है तो __ महा-मानव धन्यकुमार चला जा रहा था, उसी प्रभावशाली ?....... पगडएसी पर ! प्रकृतिकी रूप-भंगिमाको निरखता, विचारों का संघर्ष! प्रसन्म और मुद्रित होता हुआ! क्षण-प्रति-क्षण धन्यकुमारने देखा, हलवाहक प्रेम-पूर्ण नेत्रोंसे जिज्ञासाएँ बढ़ती चलती! 'हृदय चाहतो-'विश्व उसकी ओर देख रहा है ! उसकी मजबूत-भुजाएँ की समस्त ज्ञातव्यताएँ उसमें समा जाएँ! सभी शिथिलसी होती जा रही हैं ! परिश्रमसं विरक-सा, कला कौशल्य उससे प्रेम करने लगें.."नया खून ठगा-सा वह ज्यों-का-स्यों खड़ा रह गया है !...... जो ठहरा ! सुख और दुलारकी गोपमें पोषण पाने दो-कदम आगे बढ़कर वह कहने लगा-मन बाला! की अमिनापा-क्या यह कला मुझे सिला सामनेके खेवमें हल चलाया जा रहा था !... सकते हो? ठिठककर रुक गया, देखने लगा-कषक-कलाका "फल-से मड़े ! उसने अनुभव किया स्वीक Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौच, बीर-विधि सं०४६ सुख! बात कर सकनेका अवसर उसे स्वतः ही कुछ देर ! इच्छा पर काबू किए हुए ! किन्तु मिला अविलम्ब, यथा-साध्य स्वरको मृदु बनाते विचार आया-व्यर्थ पैठनसे क्या लामाबहुए बोला-'हाँ, हाँ! अवश्य...! लेकिन एक तक हल चलानेका अभ्यास किया जाए तो कैसा? "लाली पड़ा है-यह !' . दरिद्रताने बात पूरी करनेका साहस छौन . हृदयकी उत्कएठाने प्रस्तावका समर्थन किया ! लिया! दय विवश ! धन्यकुमार क्षण-मर चुप, वह आगे बढ़ा ! हल चलाने लगा !... देखता-भर रहा उसकी ओर ! शर्त' सुनाना उसके टिख ! टिख !टिख !!! लिए अब अनिवार्य था-कलाकार जो बनना-भा! हलवाहकका सर्वांग अनुसरण था ! निरापबोला--'क्या ? राध पृथ्वीका वक्षस्थल विदीर्ण होने लगा ! हलमें हलवाहकको प्रोत्साहन मिला ! बचेखुचे लगा हुआ नुकीला-लोह करने लगा अपनी निर्द को बटोर कर कहने लगा- यही कि आप यताका सफल-प्रदर्शन ! मेरा मातिथ्य स्वीकार करें? मैं भी उप-वर्ण-श्रा- बैल, नवीन-हलवाहकके संरक्षकत्वमें 'चार छह कदम ही आगे बढ़े थे, कि.....! और देखने लगा-संशयात्मक दृष्टि से धन्य- ठक्"! कुमारके भव्य-मुखकी तरफ ! जैसे अपनी आन्त- रुक गया हल!"क्या हुमा ?.."धन्यकुमार रिक्साकी पूर्ति खोज रहा हो !... 'देखने लगा-हलके रुकनेका आकस्मिक-सबब! एक छोटी-सी नीरवता! देखा-'पृथ्वीके गर्भ में एक कढाह-दानवकी पाहा कि पातिथ्यको अस्वीकार करदें ! ले- सरह--हल के मार्गमें बाधक बना पड़ा हुआ है ! 'किन कला-शिक्षणका लोभ ?-कहना पड़ा-- खोद कर निकाल बाहर करनेके विचारसे यह *स्वीकार है मित्र!' मिट्टी हटाने लगा-नवनीत जैसे कोमल हाथोंसे ! श्री 'भाप विराजिए-जरा! मैं पात्र बनानेके आश्चर्य-सीमा लाँघने लगा! कढ़ाहमें अपार लिए पाझव एकत्रित कर लाऊँ--तबतक !! हलवा- धन-राशि मरी हुई थी !:"सोचने लगा 'भोला-सा 'इंकने बैठने योग्य स्थानकी ओर संकेत करते हुए, धन्यकुमार-..'अनधिकार चेष्टा थी मेरी ! विना म-भक्ति निवेदन किया! उसकी आज्ञाके हल छूना ही नहीं चाहिए था___ 'अच्छा !' -धन्यकुमार बैठ गया ! भोजन मुझे ! छिपाकर रखा हुआ-धन मैंने व्यक्त कर भार मालुम हो रहा था--और विलम्ब असह- दिया ! अवश्य, असन्तुष्ट होगा वह !... नीय ! पर विवशता सामने पड़ी थी ! लेकिन पश्चातापसे मुलसे हुए मनने तिलमिला दिवा दृष्टि बी हल-बैल पर !... उसे ! जल्दी-जल्दी मिट्टी डालकर छिपाने लगा ! • हलवाहक चला गया ! धन्यकुमार बैठा रहा, और जैसेका तैसा करा -बैठा अपने स्थान पर ! Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे ही नहींमुनेःस्थानचे हटा ही नहीं !! दोनों बैठे ! दरिद्रता द्वारा सुलभ रुखे-सूखे किन्तु प्रेम-पूर्ण भोजन के लिये ! दोनों खा रहे थे-मौन ! विचार धाराएँ शतलजकी भाँति वेगबती हो बह रहीं थीं । विपरीत, एक-दूसरीसे ! इलवाहक सोच रहा था— आजका दिन धन्य है ! एक महा-पुरुष के साथ भोजन करनेका सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है !' और उधर—‘मैं अपराधी हूँ ! उसके घनको मैंने देख लिया, भूल की न ?... अभी उसे पता नहीं है! पता होने पर! बस, खा-पीकर चल देना हो ठीक है- अब ! फिर देखा जाएगाकलाका शिक्षण...! इलवाहक चाहता - जिन्दगी-भर इसी तरह खाते रहें' ! बियोग न आए .' और धन्यकुमार सोचता – 'कब खाना खत्म हो, कब छुट्टी मिले !' भोजन हो चुकने पर प्रसन्नता भरे स्वर में reates बोला- 'आपने मेरी प्रार्थनाका श्रादर किया ! अब मैं भी कला सिखानेके लिए उद्यत हूँ ! ... आइए !" दिन था ! नहीं घूमकर बोला- 'जा रहा हूँ !' -मीर हाथ जोड़ लिए ! हलवाहकका जैसे आशा स्वप्न भागा जा रहा हो ! हाथ-जोड़े, जब तक धन्यकुमार दृष्टिसे कोमल न होगया, खड़ा रहा। फिर... १ निराशा, धन्यमनस्क लिए भागया अपने काम पर ! ********* टिख ! टिख !!..... बैल बदे कि - 'ठक् !' अटक गया—कुछ ! मजबूत हाथोंने मिट्टी हटाकर देखा – धनसे भरा हुआ--कढ़ाह ! दरिद्र-श्रमीकी आँखें चौंधियाने लगी- इतना धन ?... सोचने लगा--'यह उसी महा-भाग्यके चमत्कारका द्रव्य है ! मेरा क्या है- इसमें ?... अगर मेरा होता तो....पूर्वज जोतते आए, मैंने जब से होश-मम्हाला जोता--कभी एक पैसा नहीं निकला ! आज इतना- धन !...न, मेरा इस पर कोई अधिकार नहीं, उसी का है ! उसे ही दे देना मेरा कर्तव्य !, लिए ! २१३ ...और वह भागा, बेतहासा उसे लौटानेके धन्यकुमार पर घोर संकट ! क्या करे अब ? बराकर बोला- ' यह है, मुझे अब जल्दी है । पहुँचना भी तो है ! फिर कभी सीख लूंगा !" और चलने लगा अपने पथ पर ! हलबाहक गृहस्यसे अनभिज्ञ ! निर्निमेष देखता हुआ, बोला'ऐसा क्यों ?' धन्यकुमार दश-बारह क़दम आगे जा चुका 'कहीं 1 तो नहीं रहा !' 服 883 मन, आशंका सलमा हुआ था, न १ भय भी था अपराधका ! यदि पंख होते तो वह कहाँ-काकहाँ पहुँचा होता ! तो भी उसने गतमें सामर्थ्यानुसार वृद्धि की थी ! मुड़-मुड़ कर देखता जाता- Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० बहुत दूर निकल गया !--मया-कुल-चित धन्यकुमार ! विश्वास जम गया कि 'अब आएगा नहीं !" . लेकिन 'विश्वास' का धरातल बालुकी दीवार की तरह अस्थायी निकला। कानोंने सुना, आँखों ने देखा-- वह पुकारता हुआ, भागता हुआ आ रहा है! सच, चला रहा है इसी ओर ! धन्यकुमारका होश ! सारा शरीर बेतकी भाँति काँप उठा ! रुक गया जहाँ-का-तहाँ ! यह आया ! [पौष, बीर-निर्वाच सं० २०११ तो भाज ही न निकलकर पूर्वजोंके सामने नि. लता, या मैं इतने दिनोंसे इसे जोत रहा हूँ ! ...पहिले भी निकल सकता ! मगर आप विश्वास कीजिए कभी एक कौड़ी नहीं निकली ! धन आपका है, आप उसके मालिक ! मेरे लिए मिट्टी ! चलिये !" . 'मैंने कहा न, धन मेरा नहीं है! मैं उसके विषयमें कुछ नहीं जानता !" विकास 'न जानिए ! पर उसे हटा लीजिए ! मेरे ऊपर से व्यर्थका भार उठे ।' 'लेकिन वह मेरा हो तब न ?” 'धन आपका, और फिर आपका ! आप कैसी धन्यकुमारने समझा जैसे उसका अन्त-समय है, काल सामने खड़ा है ! पर इसके मुँह पर रौद्रता क्यों नहीं ? वही बातें कर रहे हैं !" दीन-भाव, वही श्रद्धा-दृष्टि !! 'आप लौट चलिए ! आपका धन यहाँ रह गया है, उसे ले आइए।' 'मेरा घन...?' 'हाँ ! आपका ही...!' 'मेरे पास तो शरीर पर इन बस्त्रोंके अतिरिक्त और कुछ भी न था !' 'ठीक है! लेकिन वह कढ़ाह - जो खेतकी मिट्टीके नीचे दबा निकला है-- आपके भाग्य चमकारका ही प्रसाद है !" 'भाई ! धन तुम्हारा है, मेरा नहीं !' मेरा ? जिसने दरिद्रताको गोदमें बैठकर जिन्दगी बिताई ! इतनी उम्र हुई - इतना धन स्वप्नमें भी नहीं देखा ! दरिद्रताका उपहास कर रहे हैं-. आप ! बात, धन्यकुमारके मनमें शूल-सी चुभी ! बोला -- 'अच्छा, मेरा ही सही ! लेकिन मैं अब उसे तुम्हें देता हूँ ! प्रेम मानते हो, तो स्वीकार करो -- उसे !' हलबाहकके अधरोंमें स्पन्दन हुआ, कुछ शब्द 'वह मेरा नहीं है--भाई ! तुम्हारे खेतमें जो कण्ठसे बाहिर आनेके लिए उद्यत हुए ! पर कुछ हैं, सब तुम्हारा हूँ !' वह बोल न सका ! 'वह नहीं मान सकता- मैं ! अगर मेरा होता, स्वप रह गया !!! Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मकी विशेषता लेखक-श्री. बा. सुरजभान वकील नधर्म और अन्य धर्मों में श्राकाश पातालका सा निर्जीव कठ पुतलियोंक तरह वही नाच नाचना स्वी"अंतर है। जैनधर्म वैज्ञानिक धर्म है । उसका कार किया जावे, शानधारी जीवके स्थानमें अचेतन जड आधार वस्तु-स्वभाव है । जीव और अजीव संसार में दो बनकर ही रहा जाये । संसारमें तो जो कुछ हो रहा है ही प्रकार के पदार्थ हैं। जीव सुख दुखका अनुभव वह संसारकी वस्तुओंके अपनेर स्वभावानुसार ही हो रहा करता है, सुख चाहता है और दुख दूर करनेका उपाय है वस्तु अनन्त है जिन सबका एक ही संसारमें स्थित करता है। दुख इसका निज स्वभाव नहीं है, तब ही होने, गतिशील होने, और स्वभावानुसार क्रिया करते यह दुख के कारणोंको दूर कर परमानन्द प्राप्त कर रहनेसे उनको श्रापसमें अनेक प्रकारका संयोग, वियोग, सकता है । दुख इसका विभाव भाव है जो अजीवके और संघर्ष होता रहता है, जिनसे उनके स्वभावानुसार संयोगसे ही इसको पास हो रहा है । वह संयोग किस नाना प्रकार के परिवर्तन, पर्यायों और परिस्थितियोंका प्रकार पैदा होता है, किस प्रकार इस संयोगका पैदा अलटन-पलटन होता रहता है। बस्तु स्वभावकी खोज होना रोका जासकता है और जो संयोग हो चुका है करने वाले वैज्ञानिक लोग वस्तुओंके इन्हीं अटल परिवह कैसे दूर किया जा सकता है दूर होने अथवा निर्बध वर्तनों के कुछ एक नियमों की जानकारी करके ही उनके हो जाने पर जीवकी क्या दशा हो जाती है, क्या परमा- नियमानुभार उनसे काम लेने लगते हैं, जिनके इन नन्द प्राप्त होने लग जाता है, इन्हीं सबकार्यकारी बातों थोड़मे प्राविष्कारोंसे ही लोग अचम्भेमें पड़ जाते हैं को जैनशास्त्रोंमें वैज्ञानिक रीतिसे सात तत्वोंके नामसे और इनके इन आविष्कारोंको भी किमी अलौकिक बताकर जीवको उसके कल्याण का रास्ता सुझाया है। शक्ति अर्थात् यंत्रों मंत्रोंका ही कृत्य मान लेते है । और जोर देकर समझाया है कि वही शास्त्र, वही कथन, मनुष्य जब जगतमें जाते हैं तो वहाँ तरह २ के वही उपदेश, और वही प्राश मानने योग्य है जो वस्तु वृक्ष, पौदे, और बेलें फैली हुई देखकर उनके तरहर के स्वभावके अनुकूल हो, तर्क और हेतु द्वारा खंडित न सुन्दर २ पत्ते, फूल और फल अवलोकन कर बहुत ही होता हो, कल्याणका मार्ग बताने वाला हो, सब हो हैरान होते हैं कि यहाँ यह अद्भुत वस्तु किसने बना जीवोंका हित करने वाला हो और पक्षपातसे रहित हो। दी। इनमें जो बुद्धिमान होते हैं वे तो खोज करने पर जगतमें किसी एक परमेश्वर या अनेक देवी देवताओं- यह मालूम कर लेते हैं कि अपनी २ क्रिम्मके बी मोंके. का राज्य नहीं है, जिनकी आशा आँख मींचकर शिरो- बीजोसे ही यह सब पेड़ उगे हैं। इमलीके पेड़ पर जो धार्य की जावे, उनको राजी रखने और उनके कोपसे बीज लगे है उन बीजोसे जो भी पेड़ उगे हैं उनके पत्ते बचनेके वास्ते उलटा सीधा जैसा वह नाच नचावे फल और फल सब समान है, इसी प्रकार नीमके बीजों Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पौष, बीर-विवि से भी जो वद उगे हैं उनके पत्ते, फल और फस भी कमें तरह २ के पौदे और फल फूल देखकर एकदम आपसमें समान है यही हाल अस्प साक्षी, पौदों और परमानने लगता है कि ऐसी कोई अलौकिक शक्ति बेलोंका है। इससे वह समझ लेता है कि भिन्न प्रकार- जरूर है जो इस जंगल में ऐसे २ वृक्ष, पौदे और बेलें के वृक्ष, और पौदे, और बेले किमी अलौकिक शक्तिके बनाकर, उनपर ऐसे २ सुंदर पत्ते, फूल, और फल द्वारा पैदा नहीं किये जाते हैं। किन्तु अपने २ बीजके लगाती है, जिनको देखकर अक्क दंग रह जाती है । स्वभावसे ही वे मिन्न प्रकारके पैदा होते हैं जिनपर उनकी ऐसा विचार आते ही वह उस अलौकिक शक्ति के प्रभा अपनी ही अपनी तरहके पत्ते फल और फल लगते हैं। वसे काँप उठता है और उसको प्रसन्न कर उसके द्वारा इस अपनी बातको निश्चय करनेके वास्ते जब वह जंगलों अपने कार्य सिद्ध करनेकी फ़िकरमें लग जाता है, कल्पसे तरह २ के बीज बटोर कर घर ले जाता है और अपने नाके घोड़े दौड़ाता है और सिवाय इसके और कुछ आँगनमें डालकर उनको पानी देता है तो वहां भी भी सूझ नहीं पाता है कि जिस प्रकार अपनेसे प्रबल जंगलके समान प्रत्येक बीजसे उस ही प्रकारके पौदे, पत्ते मनुष्यकी खुशामद कर बड़ाई गाकर और उसको उसके फूल और फल पैदा होते हैं, जिस प्रकारका वह बीज इच्छित पदार्यकी भेंट चढ़ा उसको खुशकर उससे अपना होता है, तब वह अपनी इस बातका पूर्ण श्रद्धान कार्य सिद्ध कर लिया जाता है, इस ही प्रकार इन कर लेता है कि इन तरह २ के वृक्षों, पौदों, बेलों और अलौकिक शक्तियोंको भी प्रसन्न करलिया जाता है। उनके सुन्दर २ पत्तों, फूलों, और फलोंको बनाने वाली यही संसारके अनेक धर्मोकी बुनियाद है, जो जैनकोई अलौकिक शक्ति नहीं है किन्तु यह सब अपनीर धर्मसे बिल्कुल ही विपरीत है । जैनधर्म ऐसी अलौकिक किस्म के बीजोंके स्वभावसे ही बन जाते हैं जिनको उनके शक्तियोंको नहीं मानता है, इस ही कारण वह तो किसी अनुकुल हवा,मिट्टी, पानी आदि मिलनेसे उसी बीजकी भी अलौकिक शक्तिकी खुशामद करने और उसको मेंट किस्मका पौदा उग आता है, दूसरी किस्मका नहीं इस चढ़ाने के स्थानमें बबूल के बीजसे बबूल और नीमके कारण अब वह जब भी निस किस्मका फल पैदा करना बीनसे नीम पैदा होनेके समान निश्चयरूप अपने ही चाहता है, तभी उस किस्मका बीज बोकर इञ्छित किये हुए प्रत्येक बुरे, भले कर्मका फल फल फल पैदा कर लेता है और दूसरोंको भी इस प्रकार भोगना बताकर अपने ही कोंकी सम्हाल रखने, फल फूल पैदा करना सिखा देता है। इसी ही से यह अपनी ही नियतों, (भावों और परिणामों) को शुभ सिद्धान्त स्थिर हो जाता है कि जो कोई कांटेदार बबल और उत्तम बनाये रखनेकी शिक्षा देता है जिस प्रकार का बीज बोता है उसकी जमीनमें कोटेदार बबलका प्रागमें ऊँगली देनेसे हाथ जलेगा ही, कड़वी वस्तु ही पेड़ उगता है, जो नीमका बीज बोता है उसके यहां खानेसे मुंह कड़वा होगा ही, अाँखमें लाल मिर्च पड़ कड़वे नीमका वृक्ष और जो मीठे प्रामकी गुठली बोता जानेसे जलन पैदा होगी ही, इस ही प्रकार हमारे प्रत्येक है उसके यहां मीठे प्रामका ही वृक्ष उगता है, इसमें कृत्यका फल हमको भोगना पड़ेगा ही, इसमें कोई फल किसी भी अलौकिक शक्तिका कोई दखल नहीं है। देनेवाला नहीं पापगा, किन्तु जिस कृत्यका जो फल परन्तु जो बुद्धिसे काम लेना नहीं चाहता वह अंग- है वह वस्तु स्वभावके अनुसार आपसे आप अवश्य Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैवधर्मकी विशेषता निकलेगा ही । 'जो लोग बुद्धिसे काम न लेकर एकदम अलौकिक शक्तियोंकी कल्पना कर लेते हैं वे यदि मनुष्य भक्षी होते हैं तो वे इन अलौकिक शक्तियों अर्थात् अपने कल्पित देवी देवताओं को भी मनुष्यकी ही बलि देकर प्रसन्न करनेकी कोशिश करते हैं । श्रवसे कुछ समय पहले अमरीका महाद्वीपमें ऐसे भी प्रान्त थे जहाँके निवासी अपने प्रान्तके बड़े देवताको हज़ारों मनुष्योंकी बलि देकर खुश करना चाहते थे, परन्तु बलिके वास्ते एकदम हज़ारों मनुष्योंका मिलना मुश्किल था, इस कारण अनेक प्रान्तवालोने मिलकर यह सलाह निकाली, कि बलि देने के समय से कुछ पहले हम लोग श्रापसमें युद्ध किया करें, इस युद्धमें एक प्रान्तके जो भी मनुष्य दूसरे प्रान्त वालोंकी पकड़में श्राजावें वे सब बलि चढ़ा दिये जावें । बस यह युद्ध इस ही कार्यके वास्ते होता था, हार जीत या अन्य कुछ लेने देनेके वास्ते नहीं । इस प्रकारकी बलि देना जब कुछ समय तक जारी रहता है तो मनुष्यों में मनुष्यका मांस भक्षण करना छूट जानेपर भी देवताको बलि देना बहुत दिन तक बराबर जारी रहता है, मनुष्य अपनी लौकिक प्रवृत्तियोंमें तो समयानुकूल जल्द ही बहुत कुछ हेर फेर करते रहते हैं परन्तु देवी देवताओंकी पूजा भक्ति और अन्य भी धार्मिक कार्यों में परिवर्तन करनेसे डरते रहते हैं । इन कायको तो बहुत दिनों तक ज्योंका त्यों ही करते रहते हैं, यही कारण है कि भारतवर्ष में भी मनुष्यका मसि खानेवाले न रहने पर भी बहुत दिनों तक जहाज श्रादि चलाते समय मनुष्यकी बलि देना बराबर जारी रहा। सुनते हैं कि कहीं किसी देशमें कोई समय ऐसा भी रहा है जब श्रापने ही पुत्र श्रादिककी बलि देकर भी देवताको प्रसन्न करने की चेष्टा की जाती थी। जब वि ११३ चार बुद्धिसे कुछ काम ही न लेना हो, तब तो जो कुछ भी किया जाय उसमें आश्चर्य ही क्या हो सकता है। जो न हो वह ही थोड़ा है। मनुष्यकी बलि के बाद गाय, घोड़ा, बकरा, आदि पशुओंकी बलिका जमाना आया जो अबतक जारी है। हाँ इतने जोरोके साथ नहीं है जितना पहले था। मुसलमानी धर्म तो विदेशी धर्म है, उसको छोड़कर जब हम अपने हिन्दू भाइयोंके ही धर्मपर विचार करते हैं तो वेदोंमें तो यज्ञके सिवाय और कोई विधान ही नहीं मिलता है जिसमें भाग जलाकर पशु पक्षियोंका होम करना होता है । श्रस्तु वेदोंको तो लोग बहुत कठिन बताते हैं इसी कारण बहुत ही कम पढ़े जाते हैं परन्तु मनुस्मृति तो घर घर पढ़ी जाती है और मानी भी जाती है, उसमें तो यहांतक लिखा हुआ है कि पशु पक्षी स यज्ञके वास्ते ही पैदा किये जाते हैं। यशके वास्ते विद्वान ब्राह्मणोंको स्वयम् अपने हाथसे पशु पक्षियांका अध करना चाहिये, यह उनका मुख्य कर्म है । इस हीम ईश्वरकी प्रसन्नता और सबका कल्याण है। जैनधर्म इसके विपरीत इस प्रकारके सब ही अनुष्ठानों को महा अधर्म और पाप ठहराता है। किसी जीव की हिंसा करने या दुख देनेमें कैसे कोई धर्म या पुण्य हो सकता है, इस बातको विचार बुद्धि किसी प्रकार भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हो सकती है। न ऐसा कोई जगतकर्त्ता ईश्वर या देवी देवता ही हो सकता है। जो जीवोंकी हिंसासे प्रसन्न होता हो। इसके सिवाय जैनधर्म तो पुकार २ कर यही शिक्षा देता है कि तुम्हारी भलाई बुराई जो कुछ भी हो रही है या होने वाली है, वह सब तुम्हारे अपने ही कर्मों का फल है। तुम्हारे कर्मों का वह फल किसी भी टाले नहीं टल सकता, न कोई सुख दे सकता है और न दुख ही इस कारण अपने Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अनेकान्त [पौष, बीर मित्रांक सं० २०५९ | की पूजा बंदनासे बिल्कुल ही विलक्षण है। लोकमें भिन्न २ परिस्थितियोंके कारण समय २ पर तरह २ की विलक्षण रीतियाँ जारी होती हैं, जैसे कि श्राजकल हिन्दुस्थानमें स्वदेशी वस्तुनोंके ग्रहण और विदेशी वस्तुओं के त्याग और विशेष कर हाथके कते सूतसे हाथसे बने हुए ही वस्त्र पहनने का भारी श्रान्दोलन हो रहा है । होते २ ऐसी ऐसी रीतियाँ हो बहुत समय तक जारी रहने पर विचार शून्य लोगोंके वास्ते धर्मका अंग बनजाती हैं और उनकी ज़रूरत न रहने पर भी, यहाँ तक की हानिकर हो जाने पर भी वह नहीं छोड़ी जाती हैं। धर्म समझकर तब भी उनकी पालना हो होती रहती है अन्य सब ही धर्म जो बिना विचार आँख मींचकर ही माने जाते हैं उनमें ऐसी २ अनेकों रूढ़ियाँ धर्मका रूप धारण कर लेती हैं, यहाँतककी इन रूढ़ियों का संग्रह ही एक मात्र धर्म हो जाता है । जो बिल्कुल ही बेज़रूरत यहाँ तक कि हानिकर होजाने पर भी सेवन की जाती हैं और धर्म समझी जाती है। जैनधर्म ऐसी रूढ़ियोंके माननेको लोक मूढ़ता बताकर सबसे प्रथम ही उनके त्यागका उपदेश देता है । यहाँ तक कि जैनधर्मका सच्चा श्रद्धान होना ही उस समय ठहराया है जब कि मूढ़ता या अविचारिता छोड़कर प्रत्येक बात को बुद्धिसे विचार कर ही ग्रहण किया जावे और सब ही अलौकिक रूढ़ियोंको जिन्होंने धर्म का स्वरूप ग्रहण कर लिया हो, परन्तु धर्मका तथ्य उनमें कुछ भी न हो बिल्कुल भी ग्रहण न किया जावे। मूढ़ दृष्टि होना अर्थात् बिना विचारे किसी रूढिको धर्म मान लेनेको तो जैनधर्ममें महादोष बताया है जिससे भदान तकका भ्रष्ट होना ठहराया है। C अशरण समझकर और किसी भी अलौकिक शक्ति कां भय न कर एक मात्र अपने ही कर्मोके ठीक रखने की कोशिश में लगे रहो, यही एकमात्र तुम्हारा कर्तव्य है। रागद्वेष ही एक मात्र जीवके शत्रु है, ये ही उसके विभाव भाव हैं जिनसे इसको दुख होता है और संसार में भ्रमण करना पड़ रहा है। जितना २ भी कोई जीव रागद्वेषको कम करता है उतना २ ही उसको सुख मिलता है और बिल्कुल ही राग द्वेष दूर होने पर उसका सारा विभाव भाव दूर होकर उसका असली स्वभाव प्रकट होजाता है और परमानन्द प्राप्त होजाता हैं। इस ही कारण प्रत्येक जैनीको अपने अन्दर वैराग्य मात्र लाने के वास्ते परमवीतराग परमात्मानोंकी, और जो इस परम वीतरागताकी साधनामें लगे हुए हैं ऐसे साधुयोंकी उपासना करते रहना जरूरी है, यही जैनियोंकी पूजा भक्ति है जो उनके वीतरागरूप गुणों को याद कर कर अपने भावों में भी वीतरागता लानेके वास्ते की जाती है। इस प्रकार जैनियोंकी और अन्य धर्मियोंकी पूजा भक्ति में भी धरती आकाशका अंतर है। अन्यमती रागी देवी देवताओंकी पूजा करते हैं और जैनी वीतरागियोंकी । श्रन्यमती अपने लौकिक कार्योंकी सिद्धि के वास्ते और अपने राग द्वेषको पूरा करानेके वास्ते उनको पूजते हैं और जैनी लौकिक कार्योंका रागद्वेष छोड़ उनके समान अपने अंदर भी वीतरागता लाने के वास्ते ही उनका गुणानुवाद गाता है, यही उनकी पूजा है । वह अपने इष्ट देवोंको प्रसन्न करना नहीं चाहता है, न वे किसीके किये प्रसन्नया अप्रसन्न हो ही सकते है, क्योंकि वे तो परम बीतरागी हैं। इस कारण जैनी तो उनके बीतरागरूप गुणोंको याद कर अपने में भी वीतरागताका उत्साह पैदा करनेकी कोशिश करता है, यही उसकी पूजा बंदना है जो अन्यमतियों किसी समय राष्ट्रोंमें महायुद्ध छिड़जाने पर लोगोंको युद्धके लिये उत्साहित करनेके लिये यह अान्दोलन Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकी विशेषता ANS उजाया गया कि युद्ध में मरने वालोको स्वर्ग प्राप्त होता यह एक जरूरी धर्म सिद्धान्त होगया, पति के साथ जल है, होते २ यही रूदि प्रचलित होकर धर्म सिद्धान्त बन• मरनेवाली ऐसी स्त्रियोकी कवर (समाधि) भी पूजी गई है और मनस्मृति जैसे हिन्दूधर्म ग्रन्थमें यहाँतक जाने लगी परन्तु जैनधर्म किसी तरह भी इस कृत्यको लिख दिया गया है कि युद्ध में मरनेवालोंके लिये मरण धर्म नहीं मान सकता है, किन्तु बिल्कुल ही अमानुषिक संस्कारों की भी ज़रूरत नहीं, उनकी तो वैसे ही शुभगति और राक्षसी कृत्य ठहराकर महा पाप ही बताता है। हो जाती है । परन्तु जैनधर्म ऐसी उल्टी बातको हरगिज़ चाहे सारा भारत इस कृत्यकी बड़ाई गाता हो परन्तु नहीं मान सकता है, युद्ध महा-कषायसे ही होनेके जैनधर्म तो इसकी बड़ी भारी निंदा ही करता है। कारण और दूसरोंको मारते हुए ही मरनेके कारण इस ही प्रकार किसी ममय विशेषरूपसे युद्ध मादिमें युद्ध करते हुए मरनेवाला तो अपने इस कृत्यसे किसी लगजाने के कारण लोगोंको पूजन भजन प्रादिका समय प्रकार भी ऐसा पुण्य प्राप्त नहीं कर सकता है जिससे न मिलनेमे उस समय के लिये पूजन भजन श्रादिका उसको अवश्य ही स्वर्गकी प्राप्ति हो, किन्तु महा हिंसाके यह कार्य कुछ ऐसे ही लोगोंको सौंप दिया गया था जो भाव होने के कारण उसको तो पापका ही बंध होगा और शास्त्रोंके ही पठन पाठनमें और पूजापाठमें ही अधिक दुर्गतिको ही प्राप्त होगा। हाँ, यह ठीक है कि संसारमें लगे रहते थे और ब्राह्मण कहलाते थे या कहलाने वह वीर समझा जायगा और यशको ज़रूर प्राप्त होगा। लगे थे। होते होते लोग इस विषयमें शिथिलाचारी ईस ही प्रकार किसी समय एक एक पुरुषकी होगये और श्रागेको भी पूजा पाठ आदिका कार्य उन अनेक स्त्रियाँ होने के कारण इस भारत भूमिमें स्त्रियाँ ही लोगोंके जिम्मे होगया। पंजन-पाठ, जप-तप और अपने चारित्रमें अत्यन्त शंकित मानी जाने लगी थीं। ध्यान आदि धार्मिक सब ही अनुष्ठान लोगोंकी तरफ़मे 'स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्यभाग्यं देवो न जानाति कुतो इन ही ब्राह्मणोंके द्वारा होकर पुण्यफल इनका उन मनुष्यः' स्त्री-चरित्रकी बुराईमें ऐसे २ कथनोंसे सब ही लोगोंको मिलना माना जाने लगा जिनसे अपनी फीस शास्त्र भरे पड़े है । उस ही समय स्त्रियाँ पैरकी जूतीसे लेकर ये ब्राह्मण लोग यह अनुष्ठान करें। यही रूढ़ी भी हीन मानी जाने लगी थीं । तब पुरुषके मरने पर अबतक जारी है और धर्मका सिद्धान्त बनगई है, परन्तु उसकी स्त्री खुली दुराचारिणी होकर अपने पति के नामको जैनधर्म किसी सरह भी ऐसा सिद्धान्त माननेको तय्यार बट्टा लगावे इस इरसे पुरुषोंने अपनी जबरदस्तीसे नहीं हो सकता है। वह तो पाप पुण्य सब अपने ही स्त्रियोंको अपने मृतक पतिके साथ जल मरनेका महा भावों और परिणामों द्वारा मानता है। मैं खाऊँगा तो भयानक रिवाज जारी किया था और यह आन्दोलन मेरा पेट भरेगा दूसरा खायगा तो दूसरेका, यह हर्गिज उठाया गया था कि जो स्त्री अपने पति के साथ जल नहीं हो सकता है कि खाय कोई ओर पेट भरे दूसरका, मरेगी वह अवश्य स्वर्ग जावेगी और इस पुण्यसे पूजा पाठ कर कोई और उसका पुण्य मिले दूसरेको । अपने पतिको मी चाहे वह नरक ही जानेवाला हो अपने ऐसी मिथ्या बातें जैनधर्म किसी तरह भी नहीं मान साथ स्वर्ग ले जायगी। फल इस आन्दोलनका यह सकता है। हुआ कि धड़ाधड़ खियां जीती जन मरने लगी और हिन्दुओंमें ग्रामणों द्वारा सब ही धार्मिक अनुष्ठान Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पौर, वीर वि . कराये जानेकी रूढ़ी जोरोंके साथ प्रचलित होजानेपर है जैसे इनके गुणवान माता पिताओंका था। इस यह भी सदी होगई कि ईश्वर या किसी भी देवी देवता- अंधेरको भी जैनधर्म किसी तरह नहीं मान सकता है, को यहाँ तक कि नवग्रह श्रादिको भी जो कुछ भेंट इस कारण जैन शास्त्रोंमें श्रीश्राचार्योंको इस बातका करना हो तो वह बामणको दे देनेसे ही ईश्वरको या भारी खंडन करना पड़ा है और सिद्ध करना पड़ा है देवी देवताको पहुँच जाती है, फिर इस बातने यहाँतक कि मनुष्य जाति सब एक है, उसमें भेद सिर्फ दत्तिकी जोर पकड़ा कि मरे हुए मनुष्यको अर्थात् पित्रोंको भी वजहसे ही हो जाता है । जो जैसी वृत्ति करने लगता जो कुछ खाना कपड़ा, खाट पीदा, दूध पीनेको गाय, है वह वैसा ही माना जाता है। जन्मसे यह भेद किसी सवारीको घोड़ा आदि पहुँचाना हो वह ब्राह्मणोंको देनेसे तरह भी नहीं माने जा सकते हैं । श्रादिपुराण, पनही पित्रोंके पास पहुँच जायगा, चाहे वे पितर कहीं हों, पुराण, उत्तरपुराण, धर्मपरीक्षा, वरांगचरित, और किसी लोकमें हो और चाहे जिस पर्यायमें हो। यहाँ तक प्रमेयकमलमार्तडमें ये सब बातें बड़े जोरके साथ कि वे सब चीजें ब्रामणके पर रहते हुए भी और ब्राह्मण सिद्ध की गई है। जैसा कि अनेकान्त वर्ष २, किरण बाय उनको भोगा जाता देखा हुआ भी यह ही में विस्तार के साथ इन ग्रन्थोंके श्लोकों सहित दिखाया माना जाने लगा कि वे पित्रोंको पहुँच गई हैं। जैनधर्म गया है। ऐसी अंध श्रद्धाको किसी तरह भी नहीं मान सकता है। गुणहीन ब्रामणोंने अपनी जन्मसिद्ध प्रतिष्ठा कायम किन्तु माननेवालोंकी बुद्धि पर प्राथर्य करता है। रखनेके वास्ते अपने अपने बाप दादा आदि महान् __ ऐसे महा अंधविश्वासके जमानेमें बिना किसी पुरुषाओंकी बड़ाई और जगतमें उनकी मानमर्यादाका प्रकारके गुणों के एकमात्र ब्राह्मण के घर पैदा होनेसे बड़ा भारी गीत गाना शुरू करदिया, हरएकने अपने ही ऐसा पज्य ब्राह्मण माना जाना जैसे उसके पढ़े लिखे पुरुषात्रोको दूसरोंसे अधिक प्रतिष्ठित और माननीयसिद्ध और पूजा पाठ श्रादि करनेवाले पिता और पितामह करनेके सिवाय अपनी प्रतिष्ठा और पूजाका अन्य कोई ये कोई भी प्राथर्यकी बात नहीं हो सकती है। फल मार्ग ही न देखा । जिससे उनके आपसमें भी देषाग्नि इसका यह हुआ कि बायका घर पैदा होनेवालोंको भड़क उठी और एक दूसरेसे घृणा होने लग गई। हमारे किसी भी प्रकारके गुण प्राप्त करनेकी जरूरत न रही। पुरुषा तो ऐसे पूज्य, पवित्र और धर्मनिष्ट ये कि अमुक बिल्कुल ही गुणहीन दुराचारी और महामूर्ख भी ग्रामण के पुरुषाओंके साथका मोजन भी नहीं देते थे, इससे के घर पैदा होनेसे पूज्य माना जाने लगा और अबतक आपसमें एक दूसरेके हाथका भोजन खाना और बेटी माना जाता है। उनके गुणवान पिता और पितामह व्यवहार भी बन्द होगया और बामणोंकी अनेक जाकी तरह इन गुणाहीनोंको देनेसे भी उसही तय एवर तियां बन गई, जिनका एक दूसरेसे कुछ भी वास्ता और सब ही देवताओंको भेंट पूजा पहुँच जाना माना न रहा। अपने अपने पुरुष्पोंकी बड़ाई गा-गाकर जाता है, किसी बातमें मी को फरक नहीं माने पाया अपनी जातिको उँग और दूसरोकी जातिको नीचा है।इन गुणहीनोका भी वही गौरव, वही पूजा प्रतिष्ठा सिद्ध करना ही एकमात्र इनमें गुण या गा। . . और रबर और देवी देवताओंका एजेंटपना बना हुआ किसी प्रकार के गुरु मात किये बिना कसलेही Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैवधर्मी विशेषता - अप परुषांत्रीकी मानमर्यादाके अधिकार प्राप्त करनेकी गया, जगह जगह के भंगा इस हो कार्यके लिये मंदिरों यह बीमारी महामारीकी तरह क्षत्रियोंमें भी फैली, उनमें में जमा होने लग गये। देखो अविचारिताके कारण भी अपने अपने पुरुषाओंकी बड़ाई गानेसे भेदभाव कहाँसे कहाँ मामला पहुँच गया और धर्मस्वरूप म्यासे पैदा होगया और अनेक जातियाँ होकर वैमनस्य बढ़ सा बनगया । ब्राह्मणोंने अपनी विलक्षणता, बहाई गया । यही बीमारी फिर वैश्योंको भी लगी और होते और प्रतिष्ठा कायम रखनेके वास्ते अपने हाड मासके होते शूद्रों में भी पहुंच गई जिसका फल यह हुआ कि शरीरको महान् शुद्ध और पवित्र स्थापित कर, दूसरोंकी अब हिन्दुओंकी चार हज़ार जातियाँ ऐसी हैं जिनमें छूतसे अलग रहना शुरू करदिया, यदि किसी भलसे आपसमें रोटी बेटी व्यवहार नहीं होता है और सब ही कोई उनके शरीर या वस्त्रको दे तो महान पातक होगुण नष्ट होकर एकमात्र यह भेदभाव कायम रखना ही जावे, तुरन्त ही दोबारा स्नान करें, कपड़े धोयें और धर्म कर्म रह गया है। यही वर्णाश्रमधर्म कहलाता है आचमन कर और तुलसी पत्र प्रादि चबाने के द्वारा जिसका हिन्दुओंको भारी मान है बिना किसी प्रकारकी अपनेको पवित्र बनावें, किसीके भी हाथका न सावे, शास्त्र विद्या या धर्म कर्मके जब एक मात्र ब्राह्मणके घर अपने ही हाथसे पकाकर खावें । इस प्रकार प्रात्मशुद्धि जन्म लेनेसे ही पूज्यपना और पुरुषाओंके सब अधिकार का स्थान शरीरशुद्धिने लेलिया और यही एकमात्र धर्म मिलने लग गये, यजमानोंसे ही जीवनकी सब ज़रूरतें बन गया। परी होने लग गई, किसी प्रकारकी भी श्राजीवकाकी परन्तु गृहस्थीके वास्ते स्वपाकी इना बहुत कोई जरूरत न रही तो ब्राह्मणोंको बिल्कुल ही बेफ़िकरी कठिन है, इस कारण लाचार होकर फिर कुटुम्म वालों होगई और बेकार पड़े रहने के सिवाय कुछ काम न रहा। के हाथका और फिर अपनी जाति वालोंके हाथका भी परन्तु प्रापसमें स्पर्दाका होना तो ज़रूरी ही था। हम खाना शुरू होगया । दूर प्रदेशमें जाना पड़ा तो उसके दूमरोंसे अधिक पूज्य माने जावें, यह खयाल पाना तो लिये दूधमें श्रोमने हुए आटेसे जो खाना बने उसको लाजमी ही था, इसके सिवाय अपने ब्राह्मणपनेको बाहर लेजानेको भी खुल्लम करनी पड़ी। फिर कहीं २ चत्रिय और वैश्योंसे पृथक् जाहिर करते रहना भी बिना दूधमे उसने एक मात्र धीमें पकाया पकवान भी जरूरी था,ठाली और वेकार तो थे ही इस कारण किसी बाहर ले जाना जायज़ होगया। प्रात्म शुद्धिका सब नदी या तालाबके किनारे जाकर खूब अच्छी तरह मामला इटकर जब एक शरीर शुद्धि और खानपानकी मल मलकर अपने शरीरको धोते रहने, नित्य अच्छी छत अकृत ही एक मात्र धर्म रह गया तो इसकी बड़ी तरा पो धोकर धीत वस्त्र पहनने, शरीर पर चन्दन देखभाल रहने लग गई । जो कोई त बातके इन और मस्तकपर तिलक लगानेमें ही बिताने लगे। खाली नियमोंको तोड़े वही धर्म प्रा माना गया और एक दम वो पेही दिन कैसे विवावे, इस कारण भंग घोट घोटकर अलग कर दिया गया । बामणोंकी भनेक मातियाँ है. पीना, परस और मुल्फ्रेका दम लगाना और बेसुध जिनमें गौड़ आदि कुछ जातियोंके सिवाय बाकी सब होकर पड़े रहना, यह ही उनके धर्मा अंग बन गया, जायियाँ मांस खानेको धर्म विरुद्ध नहीं समकती है। यहाँ कति धर्म मंदिरोंमें नित्य यही काम होने लग- इन मांसाहारियोंमें भी जो अधिक धर्मनिष Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ : अनेकान्त [पौष, बीर निर्वाचः सं०२११३ शिक्षा देता है, जिसने धर्म-साधन में अभी: कदम भी नहीं रक्खा है उसको भी जैनधर्म तो सर्व प्रकार नशोंसे दूर रहना जरूरी बताता है। नदी या तालाब परसे स्नान करके आते हैं तो मार्गमें बड़ा विचार इस बातका रखते है कि कोई उनके शरीर या से न छू जाय और यदि कोई छू जाता है तो तुरन्त वापिस जाकर नहाते हैं। यदि भोजन बनाने के वास्ते कोई मछली या अन्य कोई माँस उनके पास हो तो उससे वे अपवित्र नहीं होंगे, किन्तु किसीके छू जानेसे जरूर अपवित्र हो जायेंगे। इस ही प्रकार माँस मछलीके पकाने से उनकी रसोई अपवित्र न होगी, न मांस मच्छी खानेसे उनको कोई अपवित्रता श्रावेगी, परन्तु उनकी रसोई बनाई और खाते समय अगर कोई मनुष्य चाहे वह ब्राह्मण ही हो परन्तु उनकी जातिका न हो अभी स्नान करके श्राया हो, कपड़े भी पवित्र हों, तो भी यदि वह मनुष्य उनकी रसोईके चौकेकी हद के अन्दर की धरतीको भी छू दें, तो वह रसोई भ्रष्ट होकर खाने योग्य न रहेगी। “जैनधर्म ऐसी बातोंसे कोसों दूर है। भंग, धतूरा, चरस और गाँका आदि मादक पदार्थ जो बुद्धिको भ्रष्ट करने वाले हैं उनको तो कुव्यसन बताकर जैन-धर्म सब से पहले ही उनके त्यागने की शिक्षा देता है, जो वस्तु मनुष्यको मनुष्य नहीं रहने देती उसकी विचार शक्ति को Tag करती है, उसका सेवन करना तो किसी प्रकार भी धर्म नहीं हो सकता है। ऐसी वस्तु सब ही मनुष्यों को त्यागने योग्य हैं, परन्तु कैसे श्राश्चर्य की बात है कि हिंदुओं के बहुतसे त्यागी और साधु वैरागी तो जरूर ही इन मादक पदार्थों का सेवन करते हैं। और गृहस्थी लोग भी उनकी संगतिसे यह कुब्यसन ग्रहण करने लग जाते हैं । सब हिंदू मंदिरोंमें यह व्यसन जोर शोर से चलता रहता है, ऐसे व्यसनियोका जमघट उनके मंदिरोमें लगा रहता है । इसके विपरीत जैनधर्स ऐसी बातों को पाप बताता है और ऐसी संगतिमे भी दूर रहनेकी अब रही स्नान और शरीर शुद्धिकी बात, यह भी हिंदूधर्ममें ही धर्म माना जा सकता है। जैनधर्म में नहीं; जैनधर्म तो श्रात्म शुद्धिको ही धर्म ठहराता है और उस ही के सब साधन सिखाता है। शरीर को तो महा अशुद्ध और अपवित्र बताकर उसके प्रति अशुचि भावना रखना ज़रूरी ठहराता है । मनुष्यका यह शरीर जो हाड माँस रुधिर श्रादिसे बना है, बिष्टा सूत्र बलराम और पीप श्रादिकी जो थैली है वह तो सात समुद्रोंके पानीखे धोने पर भी पवित्र नहीं हो सकता है। किन्तु इसके छूनेसे तो पवित्र जल भी अपवित्र हो जाता है, इस कारण स्नान करना किसी प्रकार भी धर्म नहीं हो सकता है । पद्मनन्दि पचीसी में तो श्राचार्य महाराजने श्रनेक हेतुनोंसे स्नान करनेको महापाप और अधर्म ही ठहराया है । परन्तु गृहस्थी लोगोंको जिस प्रकार अपनी नाजीविका वास्ते खेती, व्यापार, फ़ौजी नौकरी और कारीगर श्रादि अनेक ऐसे धंधे करने जरूरी होते हैं जिनमें जीव हिंसा अवश्य होती है, इस ही से वे सावध कर्म कहलाते हैं। जिस प्रकार गृहस्थी को अपने रहनेके मकानको फाड़ना बुहारना और लीपना पोतना जरूरी होता है यद्यपि मकानकी इस सफाईमें भी जीव हिंसा ज़रूर होती है परन्तु गृहस्थीके लिये यह सफाई रखना भी जरूरी है। ऐसा ही अपने कपड़ों और शरीरको धोना और साफ़ रखना भी उसके लिये जरूरी है। शरीर उसका वास्तवमें महा निंदनीय और अपवित्र पदार्थोंका बना हुआ है परन्तु उससे उसका मोह नहीं छूटा है, ऐसा ही अपने कपड़ों और मकानसे भी मोह नहीं छूटा है. और न इन्द्रियोंके विषय ही छूटे हैं। इस कारण मकान Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैवधर्मकी विशेषता के बाबको, बस्त्रोंको और शरीरको सब ही को सुंदर सकते हैं वे जितना २ उनका मोह घटता । उसनार बनाये रखनेके वास्ते झाड़ना, पोंछना, लीपना, पोतना स्नानको और शरीरकी सफाईको स्यागते जाते है। यहाँ और धोना यह सब काम करना उसके लिये ज़रूरी तक कि मुनि होने पर तो स्नान करना और शरीर पोना है। जिनमें जीव हिंमा ज़रूर होती है परन्तु गृहस्थीके पोछना बिल्कुल ही त्याग देते हैं। यही नहीं वे तो यही ये सब कार्य उसके लिये जरूरी होने पर भी किसी जाकर कमण्डलुके जिस पानीसे गुदा साफ़ करते है। तरह मी धर्म कार्य नहीं होसकते हैं, तो यह सब त्यागने उस ही से हाथ धोकर फिर मिट्टी श्रादि मलकर किसी योग्य हो, जो संसारी और गृहस्थी होने के नातेसे ही दूसरे शुद्ध पानीसे हाथोंको पवित्र करना भी जरूरी नहीं जलगे हो रहे हैं। इस ही कारण ज्यों ही वह गृहस्थी समझते हैं। उन ही अपवित्र हाथोंसे शास्त्र तकको कृते किंचित्मात्र भी पापोंका त्याग शुरू करता है, अणुव्रती रहते हैं। कारण कि शरीरकी शुद्धि धर्म नहीं है और न बनकर दूसरी प्रतिमा ग्रहण करता है, तब ही से उमको हाड मांससे बने शरीरकी शुद्धि हो ही सकती है। धर्म स्नानक त्यागका भी उपदेश मिलने लग जाता है। तो एकमात्र प्रात्मशुद्धि करता ही है जो राग देष अब्बल तो भोगोपभोग परिमाण व्रतमें उसको शरीरके श्रादि कषायों और इन्द्रियों के विषयोंको दूर करनेसे ही श्रमार प्रादिके त्यागमें स्नानको भी एक प्रकारका इंद्रि- होती है । तब ही तो जैनधर्ममें दस लक्षण कथनमें योगा व्यमन और भोग बताकर कुछ र समयके लिये शौच धर्म मात्रको शरीर शुद्धि न बताकर प्रात्माको त्यागनेको कहा गया है । फिर प्रोषधोपवामके दिन तो कषायोंम शुद्ध करना और विशेषकर लोभ कषायका अवश्य ही स्नान और शरीर श्रृङ्गारका त्यागना ज़रूरी निर्मूल करना ही शौचधर्म बताया है । संसारकी वस्तु. ठहराया है। इस ही प्रकार ज्यो २ वह इंद्रियोंके विषय ओम ग्लानि करना भी जुगुप्सा नामकी कषाय ठहराऔर हिंसाके त्यागकी तरफ बढ़ता जाता है। इन्द्रिय या है और जैनधर्मका श्रद्धान करनेके वास्तं शुरूमें ही संयम और प्राण सयम करने लगता है त्यो २ वह श्रद्धानके अंगस्वरूप चिकित्सा अर्थात् ग्लानि न करना लान करना भी छोड़ता जाता है । यहाँ तक कि मुनि ज़रूरी बताया है। विशेषकर जैनधर्मके मुनि और साधु होने पर तो वह स्लान या अन्य किसी प्रकार शरीरको जिनका तन अत्यन्त ही मालन रहता है, जो आँखों धोना पंछना या साफ़ करना या बिल्कुल ही छोड़ देता और दाँतों तकका मैलनहीं छुड़ाते हैं और न ही जा. है। स्नान करना या अन्य किसी प्रकार शरीरको शुद्ध कर अपने हाथ ही मटियाते हैं उनसे किसी भी प्रकारकी रखना किसी प्रकार भी पारमार्थिक धर्मका कोई अंग घृणा न करना, उनको किसी भी प्रकार अपवित्र या नहीं हो सकता है वह एक मात्र इन्द्रियोंका विषय और अशुद्ध न समझना किन्तु राग देष और विषय कषायोंके शरीरका मोह ही है जो गृहस्थियोंको इसी कारण करना मैलसे रहित होकर अपनी आत्माको शुद्ध करनेके लिये जहरी होता है कि वे अपनी इन्द्रियों के विषयोंको और शरीरका ममत्व छोड़ प्रात्म ध्यानमें लगे राने वाले शरीरके मोहको त्यागने में असमर्थ होते हैं। लाचार शरीरसे मैले कुचले इम साधु मुनियोंको ही परम पवित्र और मोहके कारण बेबस हो रहे है। परन्तु जो इन्द्रियोंके और युद्ध समझना सिखाता है। विषयको और मोहको पाप साकार त्यामलों में समर्थ हो मनुष्यों का जीवन का साधन दो प्रकारका होतrt, Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पौर, बीर- विच एक लौकिक या सागरिक और दूसरा धार्मिक या मा. पोछते ही हैं। जो प्रांखों और दांतों तकका भी मैल नहीं ध्यात्मिक । लौकिक जीवन जो कोई जितना भी अधिक छुड़ाते हैं। जो सजे सजाये महल मकान, अत्यंत जगपरिग्रही, अधिक सम्पत्तिवान् वैभवशाली, ठाठ बार और मगाती और चहल पहल करती हुई मनुष्योंसे भरी खान शौकतसे रहने वाला, साफ सुथरे, चमक दमक आबादी, साफ सुथरी रहने वाली सुंदर २ स्त्रियां और और तड़क भाकके सामानसे सुसज्जित, अनेक महल सब ही वैभव छोड़कर जंगलमें जा विराजते हैं, धरती मकान, बाग बगीचे, हाथी घोड़े, नाल की पालकी, नौकर पर सोते हैं, खाकपर लेटते हैं, सर्दी, गर्मी, डांस मच्छर चाकर बांदी गुलाम रखने वाला । अनेक प्रकारकी के दुख सहते है और कुछ भी परवाह नहीं करते हैं । मुंदर २ स्त्रीरबोसे जिसके महल भरे हुये, अनेक देशों लौकिक साधना वालेको तो अपनी इन्द्रियों और और अनेक राजाओपर जिसकी हकूमत चलती हो । देश कषायोंको पुष्ट करना होता है,इस कारण वो अपने शरीविदेश विजय करता फिरता हो, बड़ा भारी जिसका दब- रको भी साफ और सुंदर बनाये रखनेकी कोशिश करता दब हो वही बड़ा है, पूज्य है और प्रशंसनीय है, स्तुति है और अपने महल मकान और अन्य सब वस्तुओंको और विरद गानेके योग्य है । वह अपने शरीरसे जितनी भी झाड़ता पौंछता रहता है वह तो अपनी प्यारी त्रियों मी ममता करे थोड़ी है । शरीरकी पुष्टि के वास्ते सत्तर नौकरों चाकरों और हाथी घोड़ों आदि पशुओंको भी प्रकारके भोजन खाता हो। अनेक वैद्य जिसके लिये साफ़ सुंदर देखना चाहता है, इस कारण आप भी अत्यंत पौष्टिक और सुस्वादु औषधियां बनानेमें लगे बार २ नहा-धोकर सुंदर २ वस्त्रों और अलंकारोंसे रहते हों, अनेक चाकर और चाकरनियां जिसके शरीर सुसज्जित होता है और अपनी स्त्रियों, नौकरो, पशुओं, को चिकना मुलायम और सुंदर बनानेमें नाना प्रकारके महल मकानों, और सभी सामानको धो-पूछकर साफ तेलों और उबटनोंसे उसके शरीर का मर्दन करें, दिनमें कराता रहता है और तरह २ के सामानसे सजाता को २ बार नहलाते रहते हो और कई बार नवीन रहता है। इसके विपरीत अध्यात्म-साधना वालेको पन्न बदलते रहते हो, उस हो का संसारी जीवन सबसे अपने शरीर और तत्सम्बन्धी अन्य सब ही भोगों तथा उका और बदिया है। सब ही सामानसे मुँहमोड़ एक मात्र अपनी आत्माको परन्तु प्राध्यात्मिक या धार्मिक जीवन इससे बिल- रागद्वेष और विषय कषायोंके मैलसे दूर कर शुद्ध और कुल ही विपरीत है। यह जीवन सबसे उत्कृष्ट तो साधु- पवित्र बनानेकी ही धुन होती है। बोका होता है, जिनके पास परिमाके नामसे तो एक इस प्रकार जैन-धर्मके अनुसार तो जितना भी कोई लंगोटी मात्र भी नहीं होती है । शान तो धर्मका ज्ञान परीरका मोह छोड़, उसके प्रति सदा प्रशुचि भावना पास करने के लिये, पीकी जीव जन्तुओंके पार संयम रख, उसके धोने, माजने और साफ व शुद्ध करने के के लिये और कमसमें पानी ही जाकर गुदा साफ बखेड़ेमें न पाकर अपनी बात्माके ही शुद्ध करने में करने के लिये है, इसके सिवाय उनको सब ही प्रकारके लगता है, उतना ही धर्मात्मा और प्राध्यामिक है, सामानका त्याग होता तर निर्ममत्व होकर जो और जितमा २ कोई व शरीरको पो-मांजकर मुंदर नलान करते है, न किसी पूज्य प्रकार उतको कापते बनानेमें मन लगाता उन्ना पर सारी है। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मी विशेषता - मुनिका जीवन सर्वच प्राध्यात्मिक जीवन है, लौकिक दीजिये और जाँच कीजिये कि इस विषय में भी हिन्दु जीवनका उसमें लेश भी नहीं है, इस कारण वह शरीर धर्म और जैनधर्म में क्या अन्तर है। हिन्दुओंके महा को किंचित मात्र भी धोता मोजता नहीं है। अणुप्रती मान्य अन्य मनुस्मृतिमें हर महीने पितरोका भार करना का जीवन धार्मिक और लौकिक दोनों ही प्रकार मिभित और उसमें मांसका भोजन बनाने की बहुतही ज्यादा ता. रूप होता है, जितना २ वह धार्मिक होता है, उतना २ कीदकी गई है और यहांतक लिखा है कि भादसे नियुक्त तो वह शरीरको घोता मांजता नहीं, किंतु विषय कषायों- हुत्रा जो ब्राह्मण मांस खानेसे इन्कार करदे पा इस महा केहीदूर करनेकी फिक्र करता है और जितना २ वह अपराधके कारण रबार पश जन्मधारणकरेगा उनके लौकिक हो जाता है, उतना २ वह शरीरको भी सुंदर इस ही महामान्य ग्रन्थमें यह भी लिखा है कि यदि को. बनाता है और अन्य प्रकार भी अपनी विषय कषायोंको द्विज अर्थात् ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य लहसुन और अन्य मी पुष्ट करता है । इस अणुव्रती भावकको शास्त्रकारोंने अनेक वनस्पति जिनका ब्यौरा उसमें दिया खाले,खाना दूसरी प्रतिमासे ग्यारहवीं प्रतिमातक दस श्रेणियों में विभा- तो दूर रहा खानेका मनमें विचार भी कर ले तो यह जित किया है। इन श्रेणियोंमें उत्तरोत्तर जितनी २ पतित हो जाता है। अर्थात् विना प्रायश्चितके खुब किसीकी लौकिक प्रवृत्ति कम होती जाती है और नहीं हो सकता है। अब विचार कीजिये कि यह दोनों अध्यात्म बढ़ता जाता है उतना ही उतना शरीरका कथन कैसे संगत होसकते है बामण व अन्य पे जातिया धोना मांजना सिंगार करना और पुष्ट करना भी उसका जो माँस खाना उचित मानती है बहुधा शिकारी कुत्तोंकम होता जाता है। अब रहा पहली प्रतिमा वाला जो से या अन्य शिकारी जानवरोंसे मारा हुआ पशु पक्षी, भवानी तो होगया है किन्तु चरित्र अभी कुछ भी ग्रहण इसी प्रकार चांडाल आदि म्याचोसे मारा हुमा मांस नहीं किया है। किंचित् मात्र भी जिसने अभी त्याग शुद्ध समझती हैं और प्राण कर लेती है, मुसलमान नहीं किया है, किंतु त्याग करना चाहता जरूर है, वह साईकी दुकानसे बकरका मास मी ले जाती है परन्तु नित्य प्रति शरीरको धोता, मोजता, श्रृंगार करता और वह मांस कपड़े उतारकर ही पकाया और लाया जायेगा, पुष्ट करता जरूर है। अन्य भी सब प्रकारकी विषय- यहांतक कि जिस चौकेमें वह मांस पकता हो,उस चौके कषायोंमें पूर्ण रूपसे लगा मी जरूर होता है परन्तु इन की धरतीको भी यदि कोई उन्हींकी जातिका पुरुष शुद्ध को धर्म विरुद्ध और लोक साधना मात्र समझ कर कपड़े पहने हुए भी दे तो सारी रसोई घर हो जावेगी, त्यागना ज़रूर चाहता है इससे भी घटिया जिसको धर्म सभी हिन्दु, जिनमें अब बहुतसे जैनी भी शामिल का भदान ही नहीं हुआ है, निरा मिथ्यात्वी ही है वह है, चौकेसे बाहर कपड़े पहने हुए यहाँ तक कि कोईर तो अपनी विषय कषायोंकी पुष्टिको और अपने शरीर तो जूते बने हुए भी पानी दूध, चाय और ग्राम को भो-मांजकर सुंदर रखने और पुष्ट बनानेको ही अमरूद अंगर अनार आदि फल सपा और मीचनेक अपन्न मुख्य पान और अपने जीवनका मुख्य ध्येय पदार्थ खा पी लेते है। इस ही प्रकार बाषा हिन्दू और समकता है। . . . जैनी जो मुसलमानके परका पूष और पीलाते। ..अब जरा खाने पीनेकी हुनिलियापर भी ध्याम भी रोये चौकसे बाहर खानेसे पतित समाते। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पौष, वीर-विlam सबकी भावना नहीं कह सकते परन्तु बहुधा ऐसे हैं . . मोटे रूपसे विचार करनेसे तो यह ही मालूम होता मो. मुसलमान और अछूतोंके हाथो साग सब्जी लेकर है कि हमारे जैनी भाई हिंदुओंकी ऐसी जातियोंका जब खाते है उनसे ली हुई साग सब्जी कली तो वे चौकेसे बिलकुल ही मांस त्यागी है, अनुकरण कर इस विषय में बाहर कपड़े पहने भी खा लेते हैं परन्तु पकायेंगे उसको सभी नियम आँख मींचकर उन्हीं के अनुसार पालने चौके में कपड़े विझल कर ही और खायेंमे भी कपड़े लग गये। हिंदुओंमें उनके नियम सारे हिन्दुस्तान में निकाल कर ही। यदि कपड़े पहने खालें तो महा अष्ट प्रायः एक समान नहीं है। प्रान्त २ में मित्र २ रूपसे पापी और पवित्र माने जायें । मुसलमान साग सब्जी बरते जाते हैं । हमारे जैनी भाई भी जिस जिस बेचने वाले हमारी प्रांखोंके सामने अपने मिट्टीके लोटे प्रान्तमें रहते हैं उस २ प्रान्तके हिंदुओंके अनुसार ही से साग सब्जी पर पानी छिड़कते हैं, चाकूसे काटते प्रवर्तते हैं और इस ही को महाधर्म समझते हैं । अजब तराशते हैं, हायसे तोड़ते हैं, और हममें से बहुतसे उन गुल गपाड़ा मचा हुआ है । कोई भी सिद्धांत स्थिर से मोल लेकर खाते हैं। यह सच है कि घर जाकर उन नहीं हो पाता है। को धो लेते हैं परन्तु जो पानी दिन भर उनपर छिड़का जैनधर्ममें हिंसा, चोरी, मठ, परस्त्रीसेवन और जाता रहा है वह तो उन साग सब्जियोंके अन्दर ही परिग्रह ये ही महापाप बताये हैं। इनही पापोंके त्यागके प्रवेश कर जाता है और इसी गरजसे उन पर छिड़का वास्ते अनेक विधिविधान ठहराये हैं। जो जितना जाता है कि जिससे वे हरी भरी रहे । तब धोनेसे तो वह इन पापोंको करता है वह उतना ही पापी है और जो पानी निकल नहीं सकता है, तो भी धोकर वह साग जितना भी इन पापोंसे बचता है वह उतना ही धर्मात्मा सब्ज़ी खाने योग्य हो जाती है, इनमें से मूली गाजर है। परन्तु जबसे जैनियोंने अपने हिन्दु भाइयोंके केला अनार अमरूद श्रादि जो फल कच्चे ही प्रभावमें प्राकर-(हिन्दू २५ करोड़ और जैनी ११ खाने होते हैं वे तो चौकेसे बाहर भी सब जगह कपड़े लाख ही रहजानेसे-उनका प्रभाव पड़ना लो जमरी पाने हुए ही खा लिये जाते हैं, यहां तक कि जूता था ही) धर्मात्मा और अधर्मी, शुद्ध और पातकीका पहने हुए भी खा लिये जाते है । परन्तु पकाये जायेंगे निर्णय करनेके वास्ते अपने इन २५ करोड़ हिन्दु चौके में कपड़े निकाल कर.ही और पकाकर भी खाये भाइयोंका ही सिद्धान्त ग्रहण कर लिया है, तबसे जायेंको निकाल कर ही । इस प्रकार यह मामला जैनियोंमें भी यदि कोई फैसा ही चोर, दगाबाज, कठा, ऐसा विचित्र है कि जिसका कोई भी सिद्धान्त स्थिर नहीं फरेबी, परकीलम्पट, वेश्यागामी, महापरिग्रही, धनहोता है। यदि यह कहा जाय कि अनिका सम्बन्ध लोलुपी, यहाँ तक कि अपनी दस बरसकी छोटीसी होनेसे ही ऐसी शुचि क्रियाका करना जरूरी हो जाता है बेटीको धनके लालचसे ६० बरसके बढ़े ससटको बेच तो भने मटरके बूट और मूंगफलीके होले, तो जंगलमें कर उसका जीवन ही नष्ट भ्रष्ट कर देने वाला हो; कहाँ भी भूव कर खा लिये जाते हैं। अनेक प्रकारके चने तक करें, चाहे जो कुछ भी करता है। जिसको काते और चिड़वे भी इस ही प्रकार खा लिये जाते हैं। इस गर्म पाती है परन्तु चौकेके नियमोको अपने प्रान्तकी प्रकार कोई भी सिद्धान्त स्थिर नहीं हो पाता है। प्रचलित रीतिके अनुसार, पालता हो तो पातकी Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मकी विशेषता नहीं है। किंतु यदि वह उपरोक्त पाँचों पापोंको करने देना चाहिये, यदि वह तपस्या करने लगे तो उसको वाला दूसरोंकी अपेक्षा और भी सख्तीके साथ इन जानसे मार डालना चाहिये । परन्तु जैनधर्ममें यह नियमोंको पालता है तो वह धर्मात्मा है और प्रशंसनीय बात नहीं है । श्री समन्तभद्र स्वामी लिखते हैं कि चाहै। और जो जो इन पांचों पापोंसे बहुत कुछ बचता डालका पुत्र भी जैनधर्मका श्रद्धान करले तो देव समाहै, यहाँ तक कि शास्त्रानुसार पांचों अणुव्रत पालता है न हो जाता है । इस ही से आप विचारले कि जैनधर्म परन्तु चौके के नियम अपने प्रान्त और अपनी जातिके में और हिन्दूधर्मम कितना आकाश पातालका अंतर अनुसार नहीं पालता है, दृष्टान्तरूप जिस प्रान्तमें रोटी है । बाह्य शुद्धि और सफ़ाई रखना वेशक गृहस्थों के कपड़े उतारकर और चौकेमें बैठकर ही खाई जाती है, वास्ते ज़रूरी है । परन्तु उनका कोई सिद्धान्त ज़रूर उस प्रान्तका रहनेवाला पक्का अणुव्रती अगर चौकेसे होना चाहिये, जिसके आधार पर उसके नियम स्थिर बाहर दूसरे पवित्र और शुद्ध मकानमें रोटी लेजाकर किये जावें । उन्मत्तकी तरहसे कहीं कुछ और कहीं शुद्ध और पवित्र कपड़े पहने हुए खा लेता है तो वह कुछ करनेसे तो मखौल ही होता है; कारज कोई भी महा पतित और अधर्मी गिना जाता है। सिद्ध नहीं होसकता है। इस कारण विचारवान पुरुषोंको ____ इस ही प्रकार के अन्य भी अनेक दृष्टान्त दिए जा उचित है कि श्रापममें विचार-विनिमय करके जैन धर्मासकते हैं जिनमें जैनियोंमें उन पापोंसे बचनेकी बहुत नुसार हमका कोई मिद्धान्त और नियम थिर करें जो शिथिलाचारिता आगई है जिनको जैनधर्ममें पाप सब ही प्रान्तों और जातियोंके वास्ते एक ही हो । कहाँ ठहराया है । एक मात्र इन प्रान्तीय बाह्य क्रियाओंका कुछ और कहीं कुछ जैमा अब हो रहाहै,यह न रहे और करना ही धर्म रह गया है, जिमसे दौंग और दिखावा यदि यही बात स्थिर करनी हो कि जिस-जिम प्रान्तम बहुत बढ़ गया है । वास्तविकधर्मका तो मानों बिल्कुल अन्य हिंदुका जो वर्ताव है वही जैनियोंकी भी रग्वना लोप ही होता जारहा है । अन्य मतियों के सिद्धान्तों पर चाहिये, जिमसे उन लोगोंको जैनियाँस घृणा न हो, तो या बिना विचारे रूढ़ियों पर चलनेसे तो जैनधर्म किसी चौके की इम शुद्धि-मफाई और छुतछातके इन सब तरह भी नहीं टिक सकता है । इसी कारण प्राचार्योन नियमोको धार्मिक न ठहराकर बिल्कुल ही लौकिक घो. जैनियोंको अमूढदृष्टि रहने अर्थात् बिना बिचार अाँख पित कर दिया जाय, जिमम जैनियोंको इस चौका-शुद्धि मांचकर ही किसी रीति पर चलनस मना किया है। के अतिरिक्त आत्म-कल्याण रूप धर्ममाधनकी भी दुनियाके लोगोंकी रीस न कर निर्भय होकर अपनी फिकर होने लगजाये । धर्मात्मा और अधर्मात्माकी कश्रात्माके कल्याणके रास्ते पर ही चलनेका उपदेश सौटी यह चौकेकी अद्भुत शुद्धि नरह कर पंच पापोका दिया है। त्याग ही उसकी जाँचकी कसौटी बन जाय । हिन्दूधर्म कहता है कि जिसने ब्राह्मणके घर जन्म इस विषयमें बहुत कुछ लिखनेकी जरूरत है, परन्तु लिया है वह गुणवान न होता हुश्रा भी, हीन कार्य अभी इस विषयको छोड़कर हम यह जानना चाहते हैं करता हुश्रा भी पूज्य, परन्तु शूद्रके वर जन्म लेने वाला कि हमारे विचारवान विद्वान भी कुछ इस तरफ ध्यान यदि वेदका कोई शब्द भी सुनले तो उसका कान फोड़ देते हैं या नहीं। या बुरा भला जो कुछ होरहा है बना Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [पौष, वीर-निवांवर होता रहेगा, उसीके धको मुक्केसे: जैनियोंमें भी जो कुछ है कि हमारे हिन्दू भाइयोंमें मिन जिन धुरी मली बातो. परिवर्तन होगा उसको ही होमे देना उचित समझते हैं। का प्रचार होगा वे सब बातें समयके प्रभावसे आगे भी निर्जीवकी तरहसे दूसरी शक्तियोंके ही प्रयाहमें बहते आहिस्ता आहिस्ता जैनियोंमें भी भाती रहेंगी; कारण रहना पसन्द करते हैं, खुद कुछ नहीं करना चाहते हैं। कि जैनियोंने इस विषयमें जैनसिद्धान्तानुसार कोई अन्तमें हम इतना कह देना जरूरी समझते हैं कि नियम स्थिर नहीं कर रखा है, किन्तु जिस लिस आज-कल सब ही जातियों में परिवर्तन बड़े वेगसे होरहा प्रान्तमें हिन्दुओंका जो व्यवहार है उस ही का अनुसरण है । परिवर्तनसे खाली कोई नहीं रह सकता है। वह परि- करना अपना धर्म मान लिया है यहाँ तक कि जो बातें वर्तन बिगाड़ रूप हो या संवार रूप, यह कोई नहीं कह जैन धर्मके प्रतिकुल भी हैं उनका भी अनुकरण दृढ़ता मकता है । हाँ, इतनी बात ज़रूर है कि जो अपना के साथ किया जाता है, जैसा कि राजपतानेमें ब्याह परिवर्तन श्राप नहीं करेंगे किन्तु दूसरोंके ही प्रवाहमें शादीमें जलेबियोका बनाना और जीमना जिमाना, बहना चाहेंगे उनका अस्तित्व कुछ नहीं रहेगा। उचित बड़ी हृदय विदारक मौतमें भी सबका नुकता जीमना तो यही है कि जो भी रूढ़ियाँ जैनधर्म के विरुद्ध हममें और जिमाना आदि । यदि जैनियोंकी यही प्रगति और आगई हैं उनको दूर कर हम अपना सुधार जैन अनुकरणशीलता रही और अपना कोई अलग अस्तित्व सिझन्तानुसार करलें । यदि ऐसा नहीं करेगे और दूसरों स्थिर न किया गया तो नहीं मालूम हिन्दू भाईयोंके के ही परिवर्तनमें परिवर्तन होना पसन्द करते रहेगे तो प्रवाहमें बहते बहते हम अपने धर्मकी सारी विशेषताको जैनधर्मका रहा सहा अस्तित्व भी नहीं रहेगा। खोकर कहाँसे कहाँ पहुँच जायें और किस गढ़े जा. श्राप यह बात देख रहे हैं कि जबसे गांधी महाराज- पड़ें। ने अछूतोंसे अछूतपन न रखनेका आन्दोलन चलाया आजकल तो ऐसा होरहा है कि प्रचलित रूढ़ियोंके है और कांग्रेसने इमका बीड़ा उठाया है, तबसे अनेक विरुद्ध अपने हिन्दू भाइयोंका अनुकरण जब कुछ थोड़े हिन्दुओंने तदनुसार ही वर्तना शुरू करदिया है और ही जैनी भाई शुरू करते हैं तब तो सेठ' साहूकार और अनेक जैनी भी उनके प्रभावमें प्रा तदनुसार ही प्रवर्तने बिरादरीके पँच रूढ़ियोंकी दुहाई देकर उनको बहुत लग गये हैं। इस ही प्रकार अनेक हिन्दू बैरिस्टरों,वकीलों कुछ बुरा भला कहने लग जाते हैं, विद्वान लोग भी डाक्टरों, और जजों आदिने मेज़ पर रोटी खाना शुरू उनकी हाँ में ही मिलाकर धर्मचला धर्मचलाकी रट करदिया है तो अनेक अंग्रेजी पढ़े जैनी भी उनकी देखा लगाने लग जाते हैं। फिर जब कुछ अधिक लोग इस देखी ऐसा ही करने लग गये। इस ही प्रकार बहुधा नवीन मार्गपर चलने लग जाते हैं तो लाचार होकर हिन्दुश्रीमें बरफ और सोगवाटर पीने का प्रचार देख सब ही पंच और पंडित भी चुप हो जाते हैं । पंचम जिसके बनानेमें हिन्दू मुसलमान, छुस-प्रत सबहीका कालमें तो ऐसा होना ही है ऐसा कहकर संतोष कर लेते हाथ लगता है, हमारे कुछ जैनी माई भी इनको ग्रहण है। इस प्रकारकी गड़बड़ जैनजातिमें बहुत दिनोंसे करनेमें आनाकानी नहीं करते है। इसी प्रकारके अन्य होती चली मासी है, यदि कोई सुधारवादी इस विषयमें भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनसे यह स्पष्ट कुछ भावान उठाता भी है और विद्वानोको इसमें योग Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३, किरण ३] છે. जैनधर्मकी विशेषता व देनेके लिये ललकारता है तो ये विद्वान लोग एकदम घबरा उठते हैं, सोचते हैं कि तक तो कर्तव्यहीन कर्मण्य, साहसहीन, और शिथिलाचारी होकर प्रमाद की नींद ले रहे थे, अनपढ़ पंचों और सेठ साहूकारोकी हमें हां मिलाकर, प्रचलित रूढ़ियां को ही जैनधर्म बताकर, बिना कुछ करे कराये ही वाहवाही ले रहे थे, इन सभी रीति रिवाजोंकी जांच कर किम प्रकार उन से किमीको जैनधर्म अनुकूल और किमीको प्रतिकुल मिद्ध करनेका भारी बोका उठावें, किस प्रकार जैनसिद्धान्तों के अनुसार उनके सब व्यवहार स्थिर करके कोई उचित नियम बनावें । इस कारण वह घबराकर इम हीमें अपनी बचत समझते हैं कि सुधारकी श्रावाज उठानेवालों को श्रद्धानी और शिथिलाचार फैलानेवाला Tare विचारहीन जनताको उनके विरुद्ध करदे और लोगोंकी मानी हुई प्रचलित रूढ़ियांको ही धर्म ठहराकर (३) पं० अजितकुमारजी शात्री, मुलतान मिटी - वीरशासनाङ्क' पर कुछ सम्मतियाँ "अनेकान्ता वीर शासनाङ्क मिला । देखकर प्रमत्रता हुई । इसका सम्पादन अच्छे परिश्रमके साथ हुआ है, उसमें आपको अच्छी सफलता भी मिली है। इस श्रंक बा० जयभगवानजी वकीलका 'मत्य अनेकान्तात्मक है' शीर्षक लेख अच्छा पठनीय है। 'यापनीय' संघका साहित्य' लेख भी पके लिये उपयोगी है। 'जेननक्षणावलि' का प्रकाशन जैन साहित्यकी एक संग्रहणीय वस्तु है । और भी कई लेख पठनीय हैं। वृद्ध अवस्थामें भी आप युवकोंसे बढ़कर परिश्रम कर रहे हैं. यह नवयुवक साहित्य सेवियोंके लिये आदर्श है।" - वाहवाही प्राप्त करलें । यह कोई नवीन बात नहीं है, सदासे ऐसा ही होता चला चाया है अकर्मण्य लोग सदा ऐना ही किया करते हैं जिससे सुधारकी प्रगति में बड़ी बाधा श्राती है । परन्तु जो सच्चे सुधारक हैं, वे इन सब चोटोंको सहकर मरते मरते अपने कर्तव्य को नहीं छोड़ते हैं और एक न एक दिन कामयाब ही होते हैं और उन ही से यश पाते हैं जो उनको श्रधर्मी और महापापी कह कर बद नाम किया करते थे। प्रवाह में बहने वालोंका अपना कोई अस्तित्व तो होता ही नहीं है, प्रवाह पूर्वको चला तो वे भी पूर्वको बह गये और प्रवाह पश्चिमको चला तो भी पश्चिम बहने लग गये, उधरके ही गीत गाने लग गये । इम प्रकार महा अकर्मण्य बने रहने से हो, प्रत्येक समय में और प्रत्येक दशामें वाहवाही लेते रहे । -*--- २३१ ← ( ५ ) श्री० भगवनस्वरूपजी जैन 'भगवान' - "वीर शासन को देखकर मुग्ध होगया ! इतना अच्छा, महत्वपूर्ण विशेपाङ्क निकट भविष्य में शायद ही आँखोंके आगे आए। 'अनेकान्त' जैन समाजकी जहाँ त्रुटि पतिके रूपमें है, वहाँ हम atta foए गौरवकी चीज़ भी ! उसका सम्पादन, लेखचयन, प्रकाशन क़रीब क़रीब सब कलात्मक है ! वह जितना विद्वानोंको मननीय, और रिसर्चका मैटर देता है, उतना ही बाह्याकृति मुझ जैसोको लुभा भी लेता होगा, इसमें शायद भूल नहीं। इस के लिए समाजकी तीनों सफल शक्तियाँ- सम्पादक, संचालक और प्रकाशक - आदरकी पानी है।" Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तविक महत्ता बहुत से लोग लक्ष्मीसे महत्ता मानते हैं, बहुतसे महान् कुटम्बसे महत्ता मानते हैं, बहुतसे पुत्रसे महत्ता मानते हैं, तथा बहुतसे अधिकारसे महत्ता मानते | परन्तु यह उनका मानना विवेकसे विचार करनेपर मिथ्या सिद्ध होता है । ये लोग जिसमें महत्ता ठहराते हैं उसमें महत्ता नहीं, परन्तु लघुता है । लक्ष्मीसे संसारमें खान, पान, मान, अनुचरोंपर आज्ञा और वैभव ये सब मिलते हैं, और यह महत्ता है, ऐसा तुम मानते होगे । परन्तु इतने से इसकी महत्ता नहीं माननी चाहिये । लक्ष्मी अनेक पापोंसे पैदा होती है । यह आनेपर पीछे अभिमान बेहोशी और मूढ़ता पैदा करती है। कुटम्ब समुदायकी महत्ता पाने के लिये उसका पालन पोपण करना पड़ता है। सहन करना पड़ता है । हमें उपाधिसे पाप करके इसका उदर भरना पड़ता है। पुत्रसे कोई शाश्वत नाम नहीं रहता । इसके लिये भी अनेक प्रकारके पाप और उपाधि सहनी पड़ती है । तो भी इससे अपना क्या मंगल है ? अधिकारसे परतंत्रता और अमलमद आता है, और इससे जुल्म, न रिश्वत और अन्याय करने पड़ते हैं, अथवा होते हैं । फिर कहो इसमें क्या महत्ता है ? केवल पाप जन्य कर्मकी । पापी कर्म से आत्माकी नीच गति होती है। जहाँ नीच गति है वहाँ महत्ता नहीं परन्तु लघुता है । उससे पाप और दुःख आत्माकी महत्ता तो सत्य वचन, दया, क्षमा, परोपकार और समतामें है । लक्ष्मी इत्यादि तो कर्म - महत्ता है । ऐसा होनेपर भी चतुर पुरुष लक्ष्मीका दान देते हैं । उत्तम विद्याशालायें स्थापित करके पर-दुःख-भंजन करते हैं। एक विवाहित स्त्री ही सम्पूर्ण वृत्तिको रोककर परस्त्रीकी तरफ पुत्री भावसे देखते हैं । कुटम्बके द्वारा किसी समुदायका हित करते हैं । पुत्र होनेसे उसको संसारका भार देकर स्वयं धर्ममार्ग में प्रवेश करते हैं। अधिकारके द्वारा विचक्षणतासे आचरणकर राजा और प्रजा . दोनोंका हित करके धर्म नीतिका प्रकाश करते हैं। ऐसा करने से बहुतसी महत्तायें प्राप्त होती हैं सही, तो भी ये महत्तायें निश्चित नहीं हैं । मरणका भय सिरपर खड़ा है, और धारणायें धरी रह जाती हैं। संसारका कुछ मोह ही ऐसा है कि जिससे किये हुये संकल्प अथवा विवेक हृदयोंमेंसे निकल जाते हैं। इससे यह हमें निःसंशय समझना चाहिये, कि सत्य वचन, दया, क्षमा, ब्रह्मचर्य और समता जैसी म महत्ता और कहीं पर भी नहीं है। शुद्ध पाँच महाव्रतधारी भिक्षुकने जो ऋद्धि और महत्ता प्राप्त की है, वह ब्रह्मदत्त जैसे चक्रवर्ती ने भी लक्ष्मी, कुटम्बी, पुत्र अथवा अधिकारसे नहीं प्राप्त की, ऐसी मेरी मान्यता है । - श्रीमद राजचन्द्र Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात - वंशका रूपान्तर जाट-वंश ( लेखक - मुनिश्री कवीन्द्रसागरजी, बीकानेर ) [ प्रस्तुत लेखका सम्बन्ध इतिहाससे है । 'शातवंश' का रूपान्तर 'जाटवंश' कैसे हुआ ? क्यों हुआ ? इसके पक्ष में क्या क्या प्रमाण है ? आदि बातोंकी चर्चा इस लेखमें कीगई है। साथ ही, इस बात की भी मीमांसा की गई है कि भगवान महावीरदेवके शातवंश का मूल क्या है ? यह लेख इतिहास- मर्मयोंके लिये एक नई विचार - सामग्री उपस्थित करता है । आशा है विद्वान पाठक इस सम्बन्धमें ऊहापोह करेंगे एवं भगवान महावीर के ज्ञातवंश के सम्बन्ध में अधिकाधिक प्रकाश डालेंगे । ] ज्ञात वंश की धर्मपत्नी वाशिष्ठ गोत्रवाली श्रीमती त्रिशला शुरूषोत्तम भगवान महावीरकी जीवन- घटना से क्षत्रियाणीकी कुक्षिमें संक्रमित कराऊं । यह विचार लेखकोंकी दृष्टिमें ज्ञातवंश प्रसिद्ध ही नहीं अति प्रसिद्ध है । कल्पसूत्र नामके जैनागम में बताया गया है कि 'जम्बूद्वीप के दक्षिणार्ध भारतवर्ष में माहणकुण्डग्राम नामक नगर में कोडालस गोत्रके ऋषभदत्त ब्राह्मणकी जालन्धर गोत्रवाली धर्मपत्नी श्री देवानंदाकी कुक्षिमें भगवान महावीरदेवके गर्भरूपसे अवतरित होने पर, देवपति इन्द्र नमस्कार करके सोचने लगा कि तीनों कालों में श्रतादि-पदधारी पुरुषोत्तम, भिक्षुक ब्राह्मण आदि कुलोंमें नहीं आते हैं। यह भी सम्भव है कि अनन्तकाल बीतने पर नाम गोत्र के उदयमें श्रानेसे अर्हतादि पद-धारी भिक्षुक - ब्राह्मणादि कुलोंमें आयें, किन्तु वे योनि - निष्क्रमण-द्वार। जन्म नहीं ले । श्रतः मेरा कर्तव्य है कि भगवान महावीरको देवनन्दाकी कुक्षिमेंसे निकालकर क्षत्रिय-कुंड-ग्राम नगरमें ज्ञातवंशीय क्षत्रियोंमें काश्यपगोत्रवाले सिद्धार्थ नैगमेषी देवको इसके लिये आशा की । वह इन्द्रकी आज्ञा पाकर अपनी दिव्य गतिसे भारतमें आकर देवानन्दाकी कुक्षिमेंसे भगवान महावीरका अपहरण करके त्रिशला के गर्भ में संक्रमित कर देता है, और त्रिशला के गर्भ में की लड़कीको देवानन्दाकी कुक्षिमें संक्रमित कर देता है ।" यहां सूत्रकारने साफ २ शब्दोंमें घोषणा की है, कि ज्ञातवंश उच्च-गोत्र-सम्पन्न है । उसमें काश्यपगोत्र आदि कई गोत्र भी हैं। साथ ही, वह वंश महापुरुषों के जन्म लेने योग्य है। भिक्षुक-ब्राह्मण वंश नीच गोत्र सम्पन्न है और अहंतादि महापुरुषों क जम्म लेने योग्य नहीं है। यहां ये प्रश्न स्वाभाविक ही उत्पन्न होते हैं कि, ज्ञातवंशको उचगोत्र सम्पन्न और ब्राह्मणवंशको नीचगोत्रसम्पन्न क्यों माना ? क्या इसमें श्रमण-ब्राह्मण-संघर्ष की झलक नहीं मालूम होती ? और ज्ञातवंश का भविष्य क्या Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ] अनेकान्त इसी संघर्ष के कारण अन्धकारमय नहीं हुआ ? इन प्रश्नोंका उत्तर नीचेकी पंक्तियोंमें यथाशक्य और यथास्थान दिया जायगा । ज्ञातवंश का मूल अम्वेषण करने पर 'ज्ञाताधर्मकथा' आदि जैन आगमोंमें 'ज्ञातकुमारों' के दीक्षित होने के संबंधमें संक्षिप्त नाममात्र. देखनेको मिलता है। जैनेतर साहित्य में - महाभारत ग्रंथ में - इस वंशकी उत्पत्तिकी रूपरेखा कुछ स्पष्ट रूपसे दिखाई देती है, जब कि यदुकुलतिलक महाराजा कृष्ण वासुदेव नारद महामुनिसे राज्यशासन-पद्धतिका परामर्श करते हुए कहते हैं: दास्यमैश्वर्य बादन ज्ञातीनां वै करोम्यहम् । वाग्दुरुकानि च क्षमे ॥५॥ अथ मोक्तास्मि मोगानां X X X X बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे । रूपेण मत्तः प्रद्युम्नः सोऽसहायोऽस्मि नारद । अन्ये हि सुमहाभागा, बलवन्तो दुरासदाः । नित्योत्थानेन संपन्ना, नारदान्धकवृष्णयः ॥ यस्य न स्युर्नहि स स्वाद्, यस्य स्युः कृत्स्नमैव तत्। द्वयोरेनं प्रचरतो, वृणोम्बेकतरं न च स्यातां यस्याहुकाल रो, किं नु दुःखतरं ततः । यस्य चापि न तो स्यातां किं नु दुःखतरं ततः ॥ सोऽहं कितवमातेव द्वयोरपि महामुने । नैकस्य जयमाशंसे, द्वितीयस्य पराजयं ॥ ममेवं क्लिश्यमानस्य, नारदोभयदर्शनात् । वक्तुमर्हसि यच्छ्रेयो, ज्ञातीनामात्मनस्तथा अर्थात- हे नारद, मैं ऐश्वर्य पाकर भी ज्ञातियोंका दासत्व ही करता हूं, यद्यपि मैं अच्छे वैभव या शासनाधिकारको भोग करता हूँ वो भी मुझे उनके कठोर शब्द सुनने ही पड़ते हैं। यद्यपि संकर्षणमें बल और गढ़में सुकुमारता - राजसी ठाठ - प्रसिद्ध ही है और "I [ पौष, वीर निर्वाण सं० २४६६ प्रद्युम्नकुमार अपने रूपसे मस्त है, फिर भी हे नारद, मैं असहाय हूँ। दूसरे अंधक वृष्णि लोग वास्तव में महाभाग, बलवान और पराक्रमी हैं । हे नारद, वे लोग राजनैतिक बलसे संपन्न रहते हैं। वे जिसके पक्षमें होजाते हैं उसका काम सिद्ध हो जाता है, और जिसके पक्षमें वे नहीं रहते उसका अस्तित्व नहीं रहता । यदि आहुक और पक्षमें हों तो उसका कौन काम दुष्कर है? और यदि किसीके अक्रूर वे विपक्षमें हों तो उससे अधिक विपत्ति ही क्या हो सकती है। इसलिये दोनों दलोंमेंसे मैं निर्वाचन नहीं करसकता । हे महामुने, इन दोनों दलोंमें मेरी हालत उन दो जुआरियों की माताके समान हैं, जो अपने दोनों लड़कोमेंसे किसी एक लड़के के जीतने की या हारने की भी आकांक्षा नहीं कर सकती । तो हे नारद, तुम मेरी अवस्था और ज्ञातियोंकी अवस्था पर विचार करो । कृपया मुझे कोई ऐसा उपाय बताओ कि जो दोनोंके लिये श्रेयस्कर हो । मैं बहुत दुःखी हो रहा हूँ । नारद उवाच "I आपत्योः द्विविधाः कृष्ण, बाह्याश्चाभ्यंतराश्च ह । प्रादुर्भवन्ति वार्ष्णेय, स्वकृता यदिवान्यतः || सेयमाभ्यन्तरा तुभ्यं कृच्छा स्वकर्मजा । मकर - भोज-प्रभवाः सर्वे होते तदन्वथाः ॥ अर्थहेतोहिं कामादुवा, बीभत्सयापि वा 1 आत्मना प्राप्तमैश्वर्यमन्यत्र प्रतिपादितम् ॥ कृतमूलमिदानं तद् शातिशब्दसहायवत् । न शक्यं पुरा दातुं वान्तमनमिव स्वयम् ॥ ग्रसेनतो राज्य, नाप्तुं शक्यं कथंचन । ज्ञाति-भेद भयात्कृष्ण, स्वया चापि विशेषतः ॥ नारदजीने कहा कि 'हे कृष्ण, गणतंत्र में दो प्रकारकी आपत्तियां रहती हैं। एक बाह्य दूसरी आभ्यंतर । जिनकी उत्पत्ति बाहरी दुश्मनोंसे होती ६ वे बाह्य कहलाती हैं और जो अन्दरसे अपने ही Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण३] ज्ञातवंशका रूपान्तर जोटवंश [२३४ साथियोंके सदस्योंके-आपसी विरोधसे होती हैं अर्थात्-कड़वी और ओछी बातें कहने को वे अभ्यंतर मानी जाती हैं। यहां जो आपत्ति है. इच्छावाले ज्ञातियोंकी वाणीसे अपने हृदय और वह आभ्यंतर है। वह सदस्यों के अपने कर्मों से उत्पन्न वाणीको शांत रखो। साथ ही अपने उत्तरसं उनके हुई हैं। प्रकर-भोजादि और उनके सब संबंधियों मनको प्रसन्न रक्यो । केवल भेदनीतिमे संघका ने धनके लोभसे, किसी कामनासे अथवा बीरता नाश होता है। हे केशव. तुम संघके मुखिया हो। की ईर्ष्यासे, स्वयं प्राप्त ऐश्वर्यको दूसरोंके हाथों अथवा संघने तुमको प्रधानरूप से चुना है। इस सौंप दिया है। जिस अधिकारने जड़ पकड़ ली है लिये तुम ऐसा काम कगे, कि जिसमे शातियोंका और जो ज्ञाति शब्द की सहायता से और भी दृढ़ धन, यश, आयुष्य, स्वपक्षपुष्टि एवं अभिवृद्धि होती हो गया है, उसे वमन किये हुए अन्नकी भाँति रहे । हे राजेन्द्र, भविष्य-संबन्धी नीतिमें, वर्तमानवापिस नहीं ले सकते । बभू उग्रसेनसे राज्याधि- कालीन नीतिमें एवं शत्रुत्राको नीतिसे आक्रमण कार पाना किसी भी तरहसे शक्य नहीं है। ज्ञाति करनेकी कलासे और दूसरे राज्योंके साथ यथोभेदके भयसे हे कृष्ण, तुम भी विशेष सहायता नहीं चित वाव करनेकी विधिमें एक भी बात ऐसी कर सकते । यदि उग्रसेनको अधिकारच्युत करनेके नहीं है, जो तुम्हे मालूम न हो । हे महाबाहो, समान दुष्कर कार्यकी भी सिद्धि करलीजाय तो समस्त यादव, कुकुर, भोज, अंधकवृष्णि, उनके महाक्षय, व्यय और विनाश तक हो जानेकी सब लोग और लोकेश्वर अपनी उन्नति एवं संपसंभावना है। इस जटिल समस्याको तुम लोहेके नता के लिए तुम्हीं पर निर्भर है।* शस्त्रांसे नहीं बल्कि कोमल शस्त्रोंसे निविरोध महामारतके कथनका सारांश सुलझा सकोगे। कृष्णजीने पूछा, कि इन मृदु महाभारतमें उपलब्ध हुए उक्त प्रमाणका अलोह शस्त्रों को मैं कैसे जान सकू? तब नारद सारांश यह है, कि, यदुवंशकं दो कुलों-अंधक जी ने जवाबमें कहा: और वृष्णि--ने एक राजनैतिक संघ स्थापित किया शातीनां वक्तुकामानां, कटुकानि लघूनि च । था। उसमें दो दल थे, जिनमेसे एककी तरफ गिरावं हृदयं वाचं, शमयस्व मनांसि च ॥ श्रीकृष्ण और दूसरे की तरफ उग्रसेनजी थे। श्री + + + भेदार विनाशः संघस्थ, संघमुख्योऽसि केशव । कृष्ण के दलवाले लोग बलवान, बुद्धिमान होते यथा त्वां प्राप्य नोत्सी, देव संघ तथा कुरु ॥ हुए भी प्रमादी और ईर्ष्यालुप्रकृतिके थे। अतः दूसरे दलके मुकाविलेमें वाद-विवादके समय धनं यशश्च घायुष्यं, स्वपक्षोदावन तथा । श्रीकृष्मको अधिक परेशानी होती थी। इसी परेशाशातीनामविनाश: स्यायथा कृष्ण तथा कुरु ॥ नीको मिटाने के उपायकं लिए श्रीकृष्ण जी ने नारद आयत्यां च तदात्वे च, न तेऽस्त्यविदिन प्रभो। जीम परामर्श किया था। पाडगुण्यस्य विधानेन, यात्रायां न विधी तथा ।। यावा कुकुरा मोजाः सर्वे चान्धकवृष्णयः । *महामारतके संदर्मक उपारलिम्वित खरण श्रीयुत काशीप्रसाद वायचा महाबाहो, लोकालोकेश्वराश्च ये॥ आयसवाल कृत 'हिंदू राज्यतंत्र' लिये गये है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०1 अनेकान्त [पौष, वीर निर्वाण सं० २४६६ श्रीकृष्ण प्रजातंत्रवादी थे। साम्राज्यवादी संध यह बात महाभारतसे ही सिद्ध है कि, श्री- जब श्रीकृष्णजीका संघ अपने एक राजनैतिक कृष्ण प्रजातंत्रवादी थे । और उनके विरोधी सिद्धांतके आधार पर अपना प्रभाव बढ़ाने लगा, दुर्योधन, जरासंध, कंस, शिशुपाल आदि शासक तो दूसरा साम्राज्यवादी संघ अपना आतंक राजालोग साम्राज्यवादी सिद्धांतके पक्षपाती थे। जमानेके लिये प्रजाको पीड़ित करने लगा। प्रजाइसीलिए उनका श्रीकृष्णके साथ हमेशा विरोध तंत्री सिद्धांतोंसे शातिसंघने पीड़ित प्रजाकी रक्षा रहता था। विरोधियोंसे संघर्ष सफलतापूर्वक कर की, पीड़ितोंकी रक्षा करनेसे उसका चत्रियत्व सकनेके लिए एवं समाजकी सुख-शांतिक स्थायि- स्वयं सिद्ध होगया । इसीलिये कल्पसूत्रमें " नायात्वके लिये श्रीकृष्णने एक संघ स्थापित किया गं खचियाणं" पद पड़ा हुआ उचित ही प्रतीत था। संघके सदस्य आपसमें संबंधी होते हैं। उन होता है। श्रीकृष्णके जमानेसे ही क्षत्रियों के शातिमें परस्पर ज्ञातिका-सा संबन्ध होता है। इसलिए संघकी नीव पड़ी, जो आगे चलकर शातिसंघके रूप उस संघका नाम "शाति संघ" प्रसिद्ध हुआ। में परिणत होगई। कोई भी राजकुल या जाति शातिसंघमें शामिल ज्ञातवंश के गोत्र होसकती थी। वह संघ व्यक्तिप्रधान नहीं होता ज्ञातवंशमें काश्यप वाहिक आदि कई गोत्र था। अत: उसमें शामिल होते ही सदस्योंकी जाति मौजूद थे। यह बात हमें भगवान महावीर के या वंशके पूर्व नामोंकी कोई विशेषता नहीं रहती पिता सिद्धार्थ क्षत्रियके परिचयसे जाननेको मिलथी। सब सदस्य जातिके नामसे पहचाने जाते थे। ती है। जैसे कि-'नायाणं खत्तियाणं सिद्धत्यस्स समयकं प्रभाव से उनमें भी कई एक राजवंशक खत्तियस्स कासवगुत्तस्य ।” यहाँ यदि कोई ऐसी शंको लोग साम्राज्यवादी विचारोंके होगये, और करे कि "नायाणं" इत्यादिका 'प्रसिद्ध क्षत्रियों में 'सम्राट' या 'राजा' उपाधिको धारण करने लगे। काश्यप गोत्रवाला सिद्धार्थ क्षत्रिय' ऐसा अर्थ किया सब दूसरे प्रजातंत्रवादी शाति के लोग 'राजन्य' कह- जाय तो नाय-ज्ञात का अर्थ विशेष्य नहीं रहता, लाने लगे। शतिके विधान, नियम और शासन- विशेषण होता है। तो फिर ज्ञातवंश कैसे सिद्ध प्रणालीमें विश्वास रखने वाले लोग आगे चलकर होगा? इसका उत्तर यह है, कि नाय:ज्ञात विशे'शाति' उपाधि वाले हुए। पण नाम नहीं बल्कि विशेष्य नाम है। इसीलिये 'शांश अवबोधने इस घातु से यदि 'ज्ञात' तो भगवान महावीरके लिए जैनसूत्रोंमें 'नायपुत्त' शब्दकी उत्पत्ति मानी जाय वो इसका सीधा अर्थ प्रयोग मिलता है। यदि 'नाय' शब्द प्रसिद्ध अर्थका प्रसिद्धताका सूचक है। कहीं कहीं 'मातृ' शब्द ही घोतक माना जाय तो 'नायपुत्त' का अर्थ देखनेमें पाता है, वह 'जानकार' अर्थका सूचक प्रसिद्धपुत्र' ही होगा, जो प्रसंगमें असंगत है। है। सभी अर्थ यथासंभव समुचित प्रयुक्त किये मगवान महावीरका ज्ञातवंश जासकते हैं। भ० महावीरका ज्ञातवंस महाभारत के प्रजा. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ३) झातवंशका रूपान्तर जाटवंश [२४१ तंत्रवादी भावसंघ से भिन्न नहीं है, क्योंकि झाति थी-प्रयोगों में संस्कृत के '' का 'ज' एवं 'त' का संघके जो सिद्धांत महाभारतके उपर्युक श्लोकों में 'ट' उच्चारण हुआ मिलता है। न्याय-व्यादेखने को मिलते हैं, वे ही सिद्धांत ज्ञातवंशी करण-तीर्थ पंडित वेचरदासजी ने कई प्राचीन भगवान महावीरके सांसारिक एवं त्यागीजीवनमें प्राकृत व्याकरणोंके आधार पर जो नया 'प्राकृत देखनेको मिलते हैं। जैसे कि एकेश्वरवाद, व्याकरण' बनाया है, उसमें नियम लिखा है किईश्वरकर्तृत्ववाद, स्त्री-शूद्रके मोक्ष के लिये अनधि- "संस्कृत 'ज्ञ' का 'ज' प्राकृत में विकल्प से कारित्ववाद आदि वादों का भगवान ने प्रतिवाद होता है, और यदि वह 'इ' पदके मध्यमें हो तो किया है। साथ ही, विरोधियों के विचारोंको भी उसका 'ज' होता है, जैसे कि संजा-संज्ञा-सण्णा।" विवेक-पूर्वक अपनाने की सहिष्णुताको रखने पृष्ठ ४१ वाले स्याद्वाद का, कर्मप्रधानवादका, किसी को ऊपर लिखे नियम से 'ज्ञात' के 'झा' का 'जा' कष्ट न देनेके रूप में अहिंसावाद का और इसी हाना होना स्वाभाविक ही नहीं नियमानुकूल भी है। प्रकार के और भी अनेक सुन्दर वादों का सुचारु सम्राट अशोककी धर्मलिपि रूप से प्रतिपादन तथा व्यवहार उनके जीवन में धर्मलिपियां अंकित हैं, उनमें तकार का और प्राचीन शिलालेखोंमें सम्राट अशोककी जो श्रोतप्रोत मिलता है। ये बातें ऐसी हैं, जो सारे संयक्त तकारका टकार हुया मिलता है, और जेनासंसार की प्रजामें अशान्तिको मिटानेवाली गमोंकी भाषा में उस स्थानपर प्राकृत प्रक्रिया और शान्तिको देनेवाली हैं।। के अनुमार तकार का डकार हुमा और संयुक्त हमारे जीवन-संस्कार भी हमें अपने पूर्वजोंकी सकारकां 'त' ही हुआ मिलता है:एक प्रकारकी बहुमूल्य देनगियां है। भगवानका अशोकलिपि भागमभाषा संस्कृत पुण्य जीवन-कल्पतरु ज्ञातवंशकी दिव्य भमिको पाटिवेदना पडिवेपणा प्रतिवेदना बहुत कुछ श्रेय-भागी बनाता है। भगवानके अव. पटिपाति पडिवत्ति प्रतिपाति तीर्ण होने पर हिरण्यसे, सुवर्णसे, धन, धान्यस, कट कड, कय राज्यसे, साम्राज्य-संपत्ति से, और भी अनेक प्रकार मड, मय कायद कर्तव्य सबढ़नेवाला वह ज्ञातवंश आज कहां हैकिस कटव, कटविय कित्ति रूपमें है ? यह पुरातत्वके अभ्यासियों के लिए पास किति, किटि -प्रा.का.१०३८ अन्वेषणीय विषय है। अशोकलिपि के इन उदाहरणों से 'ज्ञात' ज्ञात का जाट शब्दमें पड़े हुए सकार का टकार होना भी प्रमाणित रूपान्तर परिस्थितिको देखते हुए करीब दो होता है । इस हालत में यह बात भली प्रकार हजार वर्ष हुए, 'ज्ञात' का 'जाट' हो गया प्रतीत मानी व जानी जा सकती है कि अशोक के जमाने होता है। क्योंकि दो हजार वर्ष पूर्वकी प्राकृत में 'शात' शब्द का रूपान्तर 'जाट' बन गया हो भाषाके जो कि सर्वसाधारणकी बोलचालकी भाषा तो कोई वान्जुब नहीं। मट Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] अनेकान्त [पौष, वीर निर्वाण सं० २४६६ रूपान्तर होना परिस्थितिके अनुकूल संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनीय बौद्ध प्राचार्यों की सत्संगति से किसी खास के धातुपाठमें 'जट' धातुको देखकर भी अनुमान कारणवश सम्राट अशोक बौद्ध धर्मावलम्बी का होता है कि उस समय 'ज्ञात' का अपभ्रंश 'जाट' हो गया था। उसने बौद्ध धर्म का भारत में काफी रूपसं लोकमें पूर्णतया प्रचलित होगया होगा। प्रचार किया था। धर्मकी आज्ञाओंको शिला और अपने पूर्व भावों की प्रजातन्त्रीय संगठन पर अंकित करवाकर उन्हें अपने देशमें सर्वत्र के भावोंकी भी रक्षा कर रहा होगा। इस हालत में 'जाट' शब्दको संस्कृत साहित्य वाले कैसे प्रचारित किया था। “यथाराजा तथा प्रजा" के न्यायसे अन्यान्य लोगोंके साथ ज्ञातवंशके कई छोड़ देते ? 'जाट' शब्दकी प्रकृति भावानुकूल उन्हें निर्माण करनी ही पड़ी, जो 'जट' धातुके लोगोंका बौद्ध धर्मावलम्बी होजाना भी सम्भा रूपमें आज भी हमारे सामने मौजूद है। वित है। उस समय संस्कृत शब्द 'ज्ञात' का 'जाट' प्राकृत हो जाना भी परिस्थिति के अनुकूल ही विशेष इतिहास प्रतीत होता है। 'शात' और 'जाट'की एकरूपता जाननेके बाद उसके विशेष इतिहासको देखते हैं, तो काश्यप रूपान्तर हो जाने पर भी अर्थमेद नहीं आदि गोत्र ज्ञात-जाट वंशमें समान रूपसे मिलते ज्ञात शब्द का जो भावार्थ था, वह 'जाट' हैं। भगवान महावीरके पिता ज्ञात वंशके काश्यपशब्दमें वैसे ही ज्यों का त्यों सन्निहित है जैसे 'ज्ञात' गोत्रीय थे, तो जाट वंशमें भी काश्यप-गोत्र शब्द का भावार्थ उसके रूपान्तर 'जाति' शब्द में। आज भी मौजूद है। "ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स आफ ऊपर की पंक्तियों में यद्यपि संस्कृत 'ज्ञात' का 'दि नार्थ वेस्टर्न प्रॉविंसज ऑफ आगरा एण्ड अपभ्रंश 'जाट' साबित किया गया है, पर वह अवध" नामक ऐतिहासिक ग्रंथमें मिस्टर डब्ल्यू संस्कृत के दायरे में भी अपनी हस्ती पूर्ववत कुर्क साहिब लिखते हैं, कि 'दक्षिणी-पूर्वी प्रान्तों बनाये रखता है, जैसे कि के जाट अपनेको दो भागोंमें विभक्त करते हैंसंघातवाच्ये जटधातुतोऽसौ, शिवि-गोत्रीय और काश्यप-गोत्रीय । षज्प्रत्ययेनाधिकृतार्थकेन । सिद्धोऽनुरूपार्थकजाटशब्दो 'वाहिक कुल' भी, जोकि पूर्वकालमें भगवान उपभ्रंशितो निर्दिशति स्ववृत्तम् ॥ महावीरके परमभक्त महाराजा श्रोणिकका था, अर्थात-संघातवाची 'जट' धातु से धन आज जाट-वंशमें एक जातिके रूपमें मौजूद है। प्रत्यय पाने पर 'ज्ञात' शब्द के अधिकृत अर्थ में इसके प्रमाणके लिए शब्दचिंतामणि नामक 'जाट' शब्द समर्थक सिद्ध हुआ। अपभ्रंश हो प्रसिद्ध कोश का ११६३ वा पृष्ठ देखने काबिल है। जाने पर भी वह अपने पूर्व चरित को-सात शब्द महाराजा श्रेणिकने वैशालीक महाराजा चेटक के मूलस्वरूप को-बनाता ही है। से उनकी कन्या सुम्येष्ठाकी मँगनीकी थी, उसका * समयस्स व भगवभो महाबोरस पिना कासवगुणं .... सिखये---- Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ३] सावक्राका रूपान्तर जाटवंश __ [२४३ वर्णन हारिमद्रीय आवश्यक-वृत्ति पृष्ठ ६७७ में एक कपोल-कल्पना भावा है। उसका उदाहरण इस प्रकार है: महाराजा श्रेणिक भगवान महावीरदेवके परम दमो विसजिमो बरगो, त भणइ चेडगो-किइ ह वाहियकुले भक्तोमें से एक थे। आपका जैन होना प्रामणों को देमित्ति पडिसिहो। बड़ा अखरता था। इसलिये प्रामणों ने उनके अर्थात-महाराजा चेटकने अपनी कन्या , |बाहीक कुलके संबन्धमें एक कपोल कल्पना सुज्येष्ठाकी मंगनी करनेवाले महाराजा श्रेणिकके * महाभारत कर्णपर्व ८ में निम्न प्रकार जोड़ दी हैंदूतको कहा कि, क्या मैं वाहिककुलमें अपनी बाहिश्च नाम होकश्च विपाशायां पिशाको । कन्याको दूंगा ? ना! ना!! ऐसा प्रतिषेध करके तयोरपत्यं बाहीका, नैषा सष्टिः प्रजापतेः॥ दूतको विसर्जित कर दिया। अर्थात्-विपाशा पंजाबकी व्यास नदी के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रके रचयिता किनारे पर 'वाहि' और 'होक' नामके दो पिशाच कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रजी महाराज रहते थे। उनकी संतान वाहीक कहलाई। उनकी भी ऊपर लिखी बातको इस प्रकार लिखते हैं. सृष्टि प्रजापति ब्रह्मा से नहीं हुई। चेटकोऽप्पग्रीदेवमनात्मशस्तव प्रभुः। श्रमण-ब्रामण संघर्ष वाहोक-कुलजो वांछन् , कन्या हैहयवंशजाम् ॥ साम्प्रदायिक असहिष्णुता मनुष्यकी बुद्धि पर -त्रि० श० च० पर्व १०, सर्ग ६, पृ० ७८ । परदा डाल देती है । भगवान महावीर और अर्थात-चेटक इस प्रकार बोले कि तेरा राजा महात्मा गौतमबुद्धकी धार्मिक क्रांतिने प्रचलित अपना स्वरूप भी नहीं जानता है, जो वाहीक कुल ब्राह्मणसमाजके गुरूडमवादकी हंबग बातोंको में पैदा होकर हैहयवंश की कन्याको चाहता है। निस्सार साबित कर दिया था। लोगोंकी चेतना प्रस्तु। उषःकालके सुनहरे प्रभावमें जागृत हो उठी थी। "क्या मैं अपनी कन्याको वाहीक कुलमें हूँ ? ना" चेटक महाराजाके ये शब्द क्या वादीक कुलकी निम्नता नहीं जाहिर करते। यह प्रश्न होना स्वाभाविक है । इसके उत्तरमें इतना ही लिखना काफी होगा कि रुक्मिणी-हरणकै समय भीकृष्णके लिए रुक्मी-कुमार का यह कहना कि "मेरी बहन ग्वालेको नहीं म्याही जा सकती," इस वाक्यके भाव पर पाठक विचार रुक्मो शिशुपालका साथी था। उसकी इच्छा थी कि रुक्मिणीका विवाह शिशुपालसे हो । श्रीकृष्ण शिशुपालके विरोधी थे। राजामोंका नियम है कि, मित्रका मित्र उनका भी मित्र होता है और मित्रका शत्रु उनका मी शत्रु होता है। इसी शत्रुतास प्रेरित होकर रूपमीने ऐसा कहा था। इसमे श्रीकृष्णका उच्चत्व-नीचत्व सिद्ध नहीं होता। ठीक ऐसी ही बात श्रेगिकके कुलके लिए महाराजा चेटककी है। चेटक प्रधान जेन था, और अंणिक कट्टर तब बौद्ध धर्मावलम्बी था। यह नियम-सा है कि, एक संप्रदाय वाला दूसरे संप्रदाय वालेको नीची दृष्टिम देखता है और अपने भाव जाति, कुल, वंश, देश, स्वभाव आदिको भोट में किसी न किसी तरहसे व्यक्त कर ही देता है। चेटकके वचनों में भी यही भाव निहित है, जो कि जबरन ध्याहके बाद श्रेणिकके जैन हो जाने पर मिटे दिखाई देते है। भधिक क्या एक कुलका पाह्मण दूसरे कुलके ब्राह्मणों को आज भी तो हीन समझता है। इसलिए चेटकका कथन वाहीक कुलको निम्नता नहीं सावित करता। मामारत जिसे, कि हम माज देखते है, यह तीन बार में और कम में कम तीन भादमियों-दारा बना है। प्रारम्भ में पांडवों के समकालीन श्रीव्यासजी द्वारा जो ग्रन्थ बना वह 'जय' नाम से प्रसिद्ध था, जिसमें केवल पांडवोंका हिमालयकी भोर जाने तक का किया। दूसरी बार भी वैशंपायन ने उसमें रामा अनमेमय तक की घटनाओं का संग्रह कर दिया और उसका माम 'भारत' कर दिया। भागे जैन-पौर-काल में सूतपुत्र सौनिक ने काफी दिकी और उसमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से पोर-जन-पादि धर्मों की और उनके अनुयायियों की काफी बुराई की और गिराने की चेत की। याबास महाभारत-मीमांस में पाठक देख सकते है। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] यह बात ब्राह्मणोंके लिये असा थी। उन्होंने उनकी तर्क-संगत-युक्तियोंसे निर्वाक् होकर जैन व बौद्ध धर्मके प्रवर्तकोंको नास्तिक, उनके धनुयाथियोंको पिशाचोंकी संतान, और उनकी तीर्थभूमियोंको अनार्यभूमि आदि आदि उपाधियों से विभूषित (१) कर दिया था। उस समय श्रमणब्राह्मण संघर्ष अपनी पराकाष्ठाको पहुँच चुका था । श्रमण-ब्राह्मण संघर्ष की तत्कालीन परिस्थितिको देखते हुए कई लोग अनुमान कर बैठते हैं, कि, जहां ब्राह्मणोंने जैन-बौद्धोंको अनार्य, पिशाच, नास्तिक आदि बताया, वहां श्रमण-सम्प्रदाय वालने उन्हें "ब्राह्मणाः धिग्जातयः " कहना-लिखना शुरू कर दिया। जिसकी छाया भगवान महावीरके गर्भ-परिवर्तनकी घटनामें स्पष्टरूपसे झलक रही है । जिस ब्राह्मण जातिके इन्द्रभूति आदि गणधरोंको जाति सम्पन्न और कुल सम्पन्न जैन आगमों में बताया गया है, उन्होंमें भगवान महावीरके प्रसंग ब्राह्मणों को धिग्जाति-नीची जाति वाले बताना एक समस्या है। जैनधर्म और बौद्धधर्मके साथ ब्राह्मणोंका विरोध पहिले तो सिद्धांत-भेदसे हुआ था, पर वह अनेकान्त [ पौष, वीर निर्वाण सं० २२६६ 1 फिर जातिगत हो गया। इसलिये धन धर्मोके अनुयायी क्षत्रिय वर्णको क्षत्रिय माननेसे ही ब्राह्मणोंने इनकार कर दिया । स्मृतियोंमें लिख दिया, कि “कलो सन्ति न क्षत्रियाः” – कलियुगमें क्षत्रिय होते ही नहीं । ब्राह्मणौने, अपने इस प्रचार से यथावांच्छित परिणाम न निकलते देख, एक चाल और चली । साम्राज्यवादी विचारोंवाले चहुण, पडिहार, सोलंकी आदि उत्तरी भारत के कई क्षत्रियोंको आबू पर्वत पर यज्ञ समारोहमें निमन्त्रित किया । उनमें कई ज्ञातवंशी भी शामिल हुये थे उन सबको ब्रह्मणोंने, उन पर अपनी भेद नीति चलाते हुए, अग्निकुली विशेषण देकर एक नये कुलकी स्थापना करदी । और इस समारोहमें जिन क्षत्रियोंने उनका साथ न दिया उनसे उनका विरोध करा दिया। इसका फल यह हुआ जैसे चमत्कारिक नामको धारण कर अपने ही कि, अग्निकुली, ब्रह्मकुली आदि क्षत्रिय 'राजपूत' वंशके भाइयोंसे घृणा करने लगे। उस घृणाका शिकार कई ज्ञात वा जाटवंश वालोंको भी होना पड़ा । * मथुराके प्रसिद्ध ऐतिहासिक कङ्काली टीलेसे प्राप्त योगपट्टोंमें भगवान महावोरकी गर्भ-परिवर्तनकी घटनासे अंकित एक यागपट्ट मिला है। यह भाजकल लखनऊ म्यूज़ियम में मौजूद है। उसकी रचना ऐतिहासिक लोग दोहज़ार वर्ष पूर्वको बताते हैं । + पं० विश्वेश्वरनाथ रेऊने अपने 'भारतके प्राचीन राजवंश' नामक ऐतिहासिक ग्रन्थमें इस घटना पर अच्छा प्रकाश डाला है और वह 'परमारवंशकी उत्पत्ति' के रूप में इस प्रकार है: "परमार वंश की उत्पत्ति" राजा शिवप्रसाद (सितारेहिन्द) अपने 'इतिहास- तिमिर - नाशक' के प्रथम भागमें लिखते है कि 'जन विधर्मियोंका अत्याचार बहुत बदगथा तब ब्राह्मणोंने अर्बुदगिरि (भानू) पर यह किया और मन्त्रबल से अग्निकुण्ड में से इत्रियोंके चार नये वंश उत्पन्न कियेपरमार, सोलंकी, चौहान और पडिहार ।' अबुल फजलने अपनी आईने अकबरी में लिखा है कि 'जब मास्तिकोंका उपद्रव बहुत बढ़ गया तब भाबू पहाड़ पर ब्राह्मखोने अपने अग्निकुण्डले परमार, सोलंकी, चौहान, भोर पडिहार नामके वार वंश उत्पन्न किये ।' पद्मगुप्त ने अपने नवसाहसांक चरित्र के ग्यारह में सगमें परमारोकी उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार किया है: Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञातवंशका रूपान्तर जाटवंश धर्मविपकी प्रधानतासे चैन बौद्धकालके बाद ब्यापी होगया, श्रेणिक, कोणिक, संप्रति, समुद्र प्रामणोने और उनके अनुयायियोंने 'जाट क्षत्रिय गुप्त आदि जाटवन्शीराजाओंको इतिहास-लेखकोंनहीं हैं, यह कहना प्रारम्भ करदिया । वरना क्या ने 'राजपूत' बना दिया। प्रामणोंकी मेदनीतिसे कारण है कि राजपूत परमारोंको तो क्षत्रिय रूपसे आपसी विद्वेष पैदा होगया। समयप्रवाहने भी और जाट परमारोंको क्षत्रियेतर रूपसं माना जाय ? कुछ साथ न दिया। इन मम कारणोंसे जाट स्वयं इस धार्मिक विद्वेषने न केवल जाटोंको ही अप- भी प्रात्म-सम्मान भूलने लगे। मानित किया बल्कि उनके जैसे कई विशुद्ध क्षत्रिय- कर्नल टॉड जैसे अनुभवी लेखकको इसीलिये वन्शोंको भी नहीं छोड़ा। इसीसे तो विदेशी अपने टॉडराजस्थानमें लिखना पड़ा किपाकामकोंने पुण्यभूमि भारतको पराधीन बनाकर "जिन जाट वीरोंके पराक्रमसे एक समय उसे पासवाकी जंजीरोंसे जकड़ दिया। समस्त संसार कांप गया था, भाज उनके वंशधरजाटोंका व्यवहारादि __गण राजपूताना और पंजाबमें खेती करके अपना प्रायः स्वतन्त्र विचारके होनेसे जाट लोगोंने जैसे गुजर करते हैं x x x x अब इनको देखकर ब्राह्मणोंको गुरु माननेका विरोध किया ठीक वैसे ही अनायास ही यह विश्वास नहीं होता कि, ये खेतिअपने बाप दादोंकी कोविं गानेवाले भाट-चारणोंको हर जाट उन्ही प्रचण्ड वीरोंके पशधर हैं भी प्रोत्साहन नहीं दिया। अपनी वीरताके प्रचण्ड जिन्होंने एकदिन माघे एशिया और योरोपको कारनामोंको भी उन्होंने लेखबद्ध नहीं किया। उनमें- हिला दिया था। से जो साम्राज्यवादी होगये, जिनका प्रमुत्व संसार• पर्शियन-हिस्ट्रीके लेखक जनरल कनिंघमने हतातस्यै कवाधेनुः कामसूर्गाधिसूनुना । कार्तवीर्याजनेनेव जमदग्नेरमीयत ॥१५॥ x अथापर्व विदामाथ, समंत्रामाहुतिं ददौ। विकसद् विकट ज्वाला, मटिले जातवेदसि ॥१७॥ ततः षणावसकोदण्डः, किरीटी कांचनादः । उज्ज गामाग्नितः कोऽपि, सहेम कवच:पुमान् ॥१८॥ अर्थात्-पावाकु वंशियोंके पुरोहित वशिष्ठ ऋषिकी कामधेनु गावको गाविसुत विश्वामित्रने चुरावा। तब भपर्ववेदके बातामोंमें प्रथम मुनि वशिष्ठने फैलती हुई विकट वालाभोंसे उत्पन्न मर्यकर अग्निमें मंत्र सहित बाहुतियां दी। इससे झटपट धनुषारी, मुकुटबाला, स्वजनवाला, एवं सोनेके कवचवाला कोई एक पुरुष भग्नि से पैदा हुआ। परमार इति प्रापस्स मुने मचायंवत् । मोलितान्य नपच्छत्र, मातपत्र च भूतले ॥७॥ अर्थात्-उसने वशिष्ठके दुश्मनोंका नाश करडाला, अत: ऋषिने प्रसवो 'परमार' ऐसा सार्थक नाम दिया । यही बात पाटनारायण के मंदिरके १३४४ के शिला लेखमें भाई है। सोही मान् परके अचलेश्वर मंदिरमें लगे लेखपर भी अंकित है। वशिष्ठ-विश्वामित्रकी लड़ाईका वर्णन वाल्मीकि रामायण भी है। परन्तु उसमें भग्निकुंडसे उत्पन होने के स्थान पर नंदिनी गोदारा मनुष्योंका उत्पन्न होना और सापही उन मनुष्योंका शक, यवन, पलवमादि जातियोंके म्लेच्छ होना भी लिखा। धनपालने १०७. के करीब तिलकमंजरी बनाई थी उसमें भी इनकी उत्पत्ति भग्निकुंटही लिखी। अनेक विहानोका मत है कि ये लोग मााण और त्रिय वर्णकी मिमित संतान थे। अथवा ये विषमी थे और मामलों शराब किये जाकर ये पत्रिव बनाये गये। तथा इसी कारण इनको 'प्रसपत्रकुलीन: लिख कर हमकी पत्तिके लिए अग्निकुंडकीया बनाई गई।" भारत के प्रा.प्र. प्र. भाग १.१00-05 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने - २४६] अपनी पुस्तकमें यहांतक लिख दिया है, कि "जाट लोग एक चोर राजपूतोंके साथ और दूसरी ओर अफगानोंके साथ मिलगये हैं। किन्तु यह छोटी छोटी जाट-जातिकी शाखा सम्प्रदाय पूर्वीय अंचलके राजपूत और पश्चिमीय अंचल के अफगान १और बलूची के नाम से अभिहित हैं " जाटों की वर्तमान सचा कर्नल टॉडके शब्दों में जहां ज्ञातों-जाटोंकी राजनैतिक हानि हुई वहां कनिंघमके शब्दोंमें उनको सामाजिक जनसंख्याको भी काफी हानि हुई है। फिर भी ज्ञात- जाट वंशकी सत्ता आज भी भारतमें आदरकी दृष्टिसे देखी जाती है। भरतपुर, पटियाला, नामा, धौलपुर, मुरसान, झींद, फरीद कोट आदि कई राजस्थानों में जाटवंशीय राजा, महाराजा ही राज्य करते हैं । वे लोग अपने आपको जाट कहलाने में ही अपना गौरव समझते हैं। पंजाब और यू०पी० में जाटोंकी इज्जत राजपूर्तोंसे भी बढ़ी चढ़ी है। पंजाब केसरी महाराजा रणजीतसिंह इसी वंशका कोहेनूर था । जाट हूय भादिकी संतान नहीं कई भ्रांत लेखकोंने जाटोंको हूणोंकी संतान और शक सिथियनों की संतान बना दिया है। पर बात पुरातत्वसे सर्वथा अप्रमाणित है । इस संब [ पौष, वीर नियाणः सं० २२०६ धर्मे महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध इतिहासकार श्री पी० सी० वैधने हिस्ट्री आव मीडीयावल हिन्दू इण्डियामें काफी मीमांसा की है, और साबित किया है, कि जाट लोग हूणों की संतान नहीं, प्रत्युत हूणोंको जीवनेवाले थे । ... ******* "जाट गूजर और मराठा इन तीनों में ( · ) जाटोंका वर्णन सबसे पुराना है। महाभारतके कर्णपर्वमें इनका वर्णन 'जटिका' नामसे मिलता है। उनका दूसरा वर्णन हमको "अजय जर्टो हूणान् ” वाक्यमें मिलता है, जोकि पांचवीं सदीके चन्द्रके व्याकरणमें है, और यह प्रकट करता है कि, जाट हूणोंके संबन्धी ही नहीं किन्तु शत्रु थे। जाटोंने हूणोंका सामना किया और उनको परास्त किया, अतः वे पंजाबक निवासी ही होंगे और धावा करनेवाले तथा घुस पड़ने वाले नहीं। क्या उपर्युक्त वाक्य यह साबित करता है, कि मन्दसौर के शिलालेखवाला यशोधर्मन जिसने, कि हूणोंको लगातार परास्त किया था, जाट था वह जाट होगा । क्योंकि यह मालूम हो चुका है कि जाट मालवा - मध्यभारत में सिन्धकी भांति पहुँच चुके थे ।" ( हिस्ट्री ऑफ मीडीयावल हिन्दूइण्डिया, पृ० ८७-८८) इसी विषय में 'जाट इतिहास' में पृष्ठ ५९ पर लिखा है: १ - जैनसूत्रों में भानेवाली भाद्र कुमारकी कथायें भाद्र के देशके राजा का श्रेणिकके सभाके संबंध पर जनरल कनिंघम के ऊपर लिखे विचार क्या कुछ प्रकाश नहीं डालते ? जरूर डालते हैं। भाद्र कर्देश वर्तमान‌का 'एडन बंदर' अथवा इटलीके मुसोलिनी की फासिस्ट नीति का शिकार बने हुए अक्वानियाके पासके 'एन्द्रियाटिक' से हो सकता है। भादक राजा के पूर्वज भारत से उधर गये हों और वहां राज्य कायम करके रहने लग गये हों। श्रेणिक के पूर्वजोंसे उनका कोई संबंध हो और वह आपस में बराबर आदान प्रदानके जरिये बना हुआ हो, इसका कोई ताज्जुब नहीं है। धनार्थ देशमै रहनेसे भाद्र के राजा आदि धनार्थ माने गये हों यह भी होसकता है। कुछभी हो भाद्र के राजा और श्रेणिक महाराजका प्रेम सकारण ही होगा। संभावित कारणोंमें पूर्वसंबंध भी एक कारण हो सकता है। बांग सुनके दूसरे भुतस्कंध कुठे भारकाध्ययनको नियुक्ति इस संबंध में कुछ प्रकाश डालती है। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व ३, विरंग...] ज्ञातवंशका रूपान्तर जाटवंश बाट न हूणों की संतान हैं, और न शक युद्धग्रन्थों में लम्बे कद, सुन्दर हरा, पतली सन्दी सिथियनोंकी, किन्तु वे विशुद्ध आर्य हैं। ऊपरके नाक, चौड़े कन्धे, लम्बी मुजाएं, शेरकी सी कमर उखरण से यह पूर्णतया सिद्ध होजाता है, किन्तु और हिरनकीसी पतली टांगोंवाली जाति पकइससे भी अधिक गहरा उतरा जाय वो पता लाया है, (जैसी कि यह प्राचीन समयमें बी) चलता है, कि बेचारे हूणों और शकोंके आक्रमणों आधुनिक समयमें पंजाब, राजपूताना और का जबतक नाम-निशान तक न था, जाट उस काश्मीरमें खत्री, जाट और राजपूत जातियों के समय भी भारतमें आबाद थे। पाणिनी जो ईसा नामसे पुकारो जाती है। (पृष्ठ ३२) से, प्रायः ८०० वर्ष पहिले हुआ है उसके व्याकरण मिस्टर नेसफोल्ड साहबने यहांतक पोर (धातु पाठ) में 'जट' शब्द पाता है, जिसके कि देकर लिखा है :माने संघके होते हैं। पंजाबमें 'जाट' की अपेक्षा “If appearance goes for anything 'जट' अथवा 'जट्ट' शब्दका प्रयोग अबतक होता the Jnts could not but be Aryans." है। अरबी यात्री अलवरूनी तो यहाँ तक लिखता "यदि सूरत शकल कुछ समझी जानेवाली है कि 'श्रीकृष्ण' जाट थे। मि०ई० बी० हेवल चीज है. तो जाट सिवा मार्योंके कुछ और हो लिखते हैं: नहीं सकते।" "Ethonographin investigations भाषाविज्ञानके अनुसार जातियोंके पहचाननेshow that the Indo-Arjun type desc- की जो तरकीब है, उसके अनुसार भी जाट भार्य ribed in the Hindu epic-in tull. fair हैं। इसके प्रमाणमें मिस्टर सरहेनरी एम० इलि. complexioned, long heuded rice, यट के० सी० बी० "सिन्ट्रीब्यूशन मॉफ दी रेसेषा with narrow prominent noses, brond ऑफ दी नार्थ वेस्टर्न प्राविसंघ मॉफ इंडिया" shoulders, long arms, thin waista like में लिखते हैं:lion and thin legs like deer is now (uw a ra समयमा मैंने करांचीसे पेशावर तक it was in the earliest tiines) most यात्रा करके स्वयम अनुमद कर लिया है, कि जाट coufiued to Kashmere, the लोग कुछ खास परिस्थितियोंके सिवा अन्य शेष Punjab and Rajputaan und represen- जातियोंसे अधिक पृथक नहीं है। भाषासे जो ted by the Kattris, Jats. und Rajp- कारण निकाला गया है वह जाटोंके शुद्ध आर्यवंश uts. (Page 32) The History of Ary- में होनेके जोरदार पक्षमें हैं। यदि वे सिथियनtu Rule in India by F. B. Havell. विजेता थे, वो उनकी सिथियन भाषा कहाँके लिए अर्थात-मानवतत्त्वविज्ञानकी खोज पतलाती चली गई और ऐसा कैसे हो सकता है, कि है, कि भारतीय भार्यजाति जिसको कि हिन्द- अप आर्य भाषाको, जोकि हिन्दीकी एक शाखा Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बार [पौष, वीर निर्वाण.. २४० है। पाते हैं. सवा शताब्दियोंसे पोलते चले भावे been affiliated to their society, I हैं। पेशावरमें डेराजाट और सुलेमान पर्वतमालाके think that the two now form common पार कच्छ गोवा में यह भाषा हिन्दकी या जाटकी stock the distinction between Jat भाषाके नामसे प्रसिद्ध है। जादोंके आर्यवंशमें and Rajput being social rather than ethpic. I believe that the families of जाने को इसके विरुद्ध बहुत ही जोरदार प्रमाण that common stook whom the tide of दिये जायेंगे, जैसे कि अबतक कहीं नहीं दियेगये fortune bas raised to practical imporहैं। शारीरिक-गठन और भाषा ऐसी चीजें हैं, tance bave become Rajputs almost जोकि केवल क्रियात्मक समानताके आधार पर by more virtue of their rise, and that एकतरफ नहीं रखी जा सकती। खासकर जब their descendents bave retained the कि वे शब्द जिनपर कि समानता अवलम्बित है title and its previleges on the condli. हमारे सामने आते हैं तो वे यूनानी या चीनियोंसे tion strictly enforced of observing मिल पाये जाते है।" the rules by which the higher are मिस्टर च्या लेथमके एथोनोलोजी आफ distinguished from the lower in the इंखिया पृष्ठ २५४ के एक नोटसे जाट-राजपूतके Hindu scale of precedence of preser. संबंध पर इसतरह प्रकाश पड़ता है-"The ving their purity of blood by refusing Jat in blood is neither more nor less its marriage with the families of lower tbau i converted Rajput, and vice social rank of regidly abstaining from versa ; * Rajput inay be i Jat of the ___degrading occupation. Those who aucient taith." transgressed these rules have fallen अर्थात-जाट रक्तमें परिवर्तन किये हुए from their higher position and ceased राजपूतसे न तो अधिक ही है, और न कम ही to be Rajputs; while such families as है। किन्तु अदल बदल हैं। एक राजपूत प्राचीन attaining n dominent position in धर्मका पालन करनेवाला एक जाट होसकता है।" their history began to affect social मिस्टर इबटसन जाट और राजपूतोंके संबंध exclusiveness and to observe the rules में एक और दिलचस्प बात लिखते हैं:- have become not only Rajas, bu "But whether jats and Rajputs Rajputs or sons of Rajas". were or were not originally and what अर्थात-किन्तु पाहे जाट और राजपूत eversiboriginal elements may have पहिले मिलथे या नहीं, और चाहेब भी प्राचीन Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प, किरण] शावर्षशका रूपान्तर जाटवंश [२४९ रस्मरिवाज उनकी सोसाइटीमें पर्वी जाने लगी, "Though to my mind the term मेरे विचार से अब ये दोनों जातियां एक य. Rajput is an ocoupational rather than निष्ठ स्टॉक बनाती हैं। जाट और राजपतोंकी ethological repression." मित्रता केवल रस्म रिवाजों को है नकि जातीयता अर्थात्-मेरे मस्तिष्कमें बह पाव भाती है, की । मैं विश्वास करता हूँ कि इस मिश्रित स्टाकके कि राजपूत शब्द एक जातीयवाका गोषक होने वे खानदान जिनको भाग्यने राजनैतिक उन्नतिमें की बनिस्बत पेशेका पोधक है।" अग्रसर कर दिया, वे अपनो उमतावस्थाको प्राप्त उपसंहार होनेसे ही राजपूत' कहलाने लगे, और उनके वर्तमानका जाटवंश जैन भागम-संमत मातवंशजोंने इस उपाधिको बड़ाईके साथ सीमित कर वंशको रूपान्तर है या कुछ और । इस विषय दिया और छोटी जातियोंने मित्रताका सूचक बना में आशा है कि विद्वान लोग अपने मन्तव्य दिया। साथ ही अपने रक्तको शुद्ध कहकर निम्न जाहिर करेंगे। झाववंशमें जैसे जैनधर्मका प्रचार श्रेणीके लोगोंसे विवाह-संबन्ध करना बन्द कर. था ठीक वैसे ही कुछ वर्ष पहले तक जाटोंमें जैन दिया। पुनर्विवाहकी मनाही करदी। जिन लोगोंने न धर्मकी उपासना रही है। अंचलगच्छकी पढावली इन नियमोंको नहीं माना वे अपनी स्थितिसे गिर. में सूचित जाखडिया गच्छ क्या जाटोंकी बीकागये और राजपूत कहे जानेसे वंचित रहे । ऐसे नेरके प्रदेशमें बसी हुई जाखडिया जाविस संबन्ध कुटुम्ब जिन्हें कि अपने राज्यमें ऊंचे दर्जे मिल नहीं रखता होगा १ स्था गच्छके वर्तमान साधु गये उन्होंने उन सारे नियमोंका पालन शुरू कर समुदायके मुख्य नेता-गुरु श्रीमान् वृद्धिचन्द्र दिया। वे राजा ही नहीं राजपुत्र यानी राजा जी महाराज भी इस जाटवंशके कोहेनूर थे, यह बेटे बनगये। नहीं भूलना चाहिये। इस सम्बन्ध में विद्वान लोग मिस्टर इबटसन राजपूत' शन का अर्थ इस और अधिक प्रकाश सलनेकी सफल चेष्टा करेंगे, वरह से करते हैं: ऐसी भाशा की जाती है। विशम् । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य-मन ( लेम्वक पं०इन्दचन्द्र जैन शास्त्री) अनेकान्तकी ७वी तथा ध्वी किरणमें 'श्रुतज्ञान- बीचमें २-वायें प्राहक और शेपककोष्ठोंके बीच "का आधार' शीर्षक लेखमें भावमनके ऊपर में, ३-फुफ्फुसीया धमनीमें, ४-वृहत धमनीमें। कुछ प्रकाश डाला गया है। किन्तु अभीतक द्रव्य. फुप्फुस रक्तको शुद्ध करनेवाले अंग हैं। इन मनके ऊपर प्रकाश नहीं डालागया है। द्रव्यमनका अंगोंमें रक्त शुद्ध होकर नालियों द्वारा (दो विषय प्रायः अन्धकारमें ही है। जैन सिद्धान्तमें शिरायें दाहिने फुप्फुससे प्रातो हैं, और दो इस विषय पर अलग कोई कथन नहीं मिलता है। वायेंसे) वायें ग्राहक कोष्ठमें लौट आता है। भर अभीतक लोगोंकी यह धारणा है कि मनका काम जानेपर कोष्ठ सिकुड़ने लगता है और रक्त उसमें हेयोपादेय का विचार करना है । परन्तु आजकल- से निकलकर वायें कोष्ट में प्रवेश करता है। रकके के विज्ञानवादी इस सिद्धान्तको नहीं मानते हैं। इस कोष्टमें पहुँचने पर कपाटके किवाड़ ऊपरको सभी डाक्टर और वैद्य भी आज इस बातको उठकर बन्द होने लगते हैं। और जब कोष्ठ सिद्ध करते हैं कि हृदयका काम हेयोपादेयका सिकुड़ता है, तो वे पूरे दौरसे बन्द हो जाते हैं, विचार करना नहीं है। जिससे रक्त लौटकर ग्राहक कोष्ठमें नहीं जासकता क्षेपककोष्ठकं सिकुड़ने से रक्त बृहत् धमनोग जावा माजकल के विज्ञानके अनुसार रक-परिचालक यंत्रको ही 'हृदय' कहते हैं। यह हृदय मांससे है। बृहत् धमनीसे बहुतसी शाखोए' फूटती हैं, बनता है तथा दो फुफ्फुसों (फेफड़ों ) के बीचमें जिनके द्वारा रक्त समस्त शरीरमें पहुँचता है। बक्षके भीतर रहता है। यह हृदय पूर्ण शरीरमें इस तरहसे रक्त हृदयसे चलकर शरीरभरमें रक्कका संचालन करते हुए दो महाशिराओं द्वारा घूमकर फिर वापिस हृदयेमें ही लौट आता है। दाहिने कोष्टमें वापिस प्राजाता है। ज्योंही इस इस परिभ्रमणमें १५ सेकण्डके लगभग लगते हैं। कोठरी में भर जाता है, वह सिकुड़ने लगती है, हृदय नियमानुसार सिकुड़ता और फैलता इसलिये रक उसमेंसे निकलकर क्षेपककोष्टमें रहता है । फेलने पर रक्त उसमें प्रवेशकरता है और सिकुड़ने पर रक्त उसमें से बाहर निकलता है। जब पलाजावा है। हृदय संकोच करता है, तो वह बढ़े वेगसे रुधिरको हरयमें चार कपाट होते हैं धमनियोंमें धकेलवा है । हृदयके संकोच और १-दाहिने प्राहक और क्षेपक कोष्ठोंके प्रसारसे एक शब्द उत्पन्न होवा है, जो छातीके Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपयमन [२१ %3 पास सुनाई दिया करता है। इसी धड़कनके बन्द कभी भी नहीं लिया जा सकता कि ठीक भटक्स होनेसे या रक्ताति बन्द होनेसे मृत्यु हो जाती है। कमलके सदृश ही होना चाहिए। यह वो केवल इसीको आज कल हार्ट फेल कहते हैं। पोध करानेके लिए दृष्टान्तमात्र है। यदि हम हृदयका इस प्रकार जितना भी वर्णन मिलता मांसके बने हुए हृदयमें वैसी ही पांखुदो तवा रज है, वह सब रक संचालनसे ही मतलब रखता है, मादि खोजने लगजावें तो हमको निराराही होना हृदय रत्तका ही केन्द्रस्थान है। पड़ेगा। पुस्तकोंमें दिए हुए हृदयके चित्र देखनेसे इसके विपरीत जैन सिद्धान्तमें मनका लक्षण शात होता है कि जो जैनाचार्योने कमतका दृष्टान्त निम्नप्रकार किया है-आचार्य पूज्यपादने द्रव्य दिया है, वह बन्द मुट्ठीके दृष्टान्त से अच्छा है। मनका सामान्य लक्षण "पुगल विपाकिकर्मोदया- इसलिए आकारके विषयमें विशेष विवाद नहीं पेक्षा द्रव्यमनः " ( सर्वा-२-११) अर्थात हो सकता। पुद्गल विपाकी कर्मोदयकी अपेक्षा अथवा अंगो- सैद्धान्तिक प्रन्थों में किसी भी जैनाचार्यने मन पांग नामानामकर्मके उदयसे द्रव्यमनकी रचना काकार्य रक्तसंचालन नहीं बताया। प्राचार्य पूज्यहोती है। इसी विषयको प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांत पादने चक्रवर्दीने, हृदयका स्थान बताते हुए जीवकांडमें गुणदोष विचारस्मरणादि व्यापारेषु इद्रियांनपेखानकहा है कि दुरादिवद् बहिरनुपलब्धेश्च अन्तर्गत परममिति : हिदि होबिहु दधमणं वियसिय-भट्ठच्छदारविंद वा। (सर्वा०९-१४) अंगोगुदयादो मणबग्गाणबंध दो णियमा ॥४४२॥ इस वाक्यके द्वारा मनको गुण दोष विचार स्म अर्थात-अंगोपांग नाम कर्मके उदयसे मनो- रणादिमें कारण बताया है। वृहद्रव्य संग्रहमें भी वर्गणाके स्कन्धों द्वारा हृदयस्थानमें आठ पांखड़ीके "द्रव्यमनस्तदाधारणशिक्षालापोपदेणादि प्राहक कमलके प्राकारमें द्रव्यमन उत्पन्न होता है। इत्यादि पद मिलते हैं। इन प्रमाणोंसे शिक्षा, इस माथाके द्वारा मनका स्थान तथा उसकी उपदेश आदि मनका व्यापार सिद्ध होता उत्पत्तिका कारण बताया गया है । आजकलके है। परन्तु वैज्ञानिक इस बातको स्वीकार वैज्ञानिक भी मनका स्थान वक्षस्थल या हृदय नहीं करते । वैज्ञानिकोंके कथनानुसार यह पढाते हैं। क्या हृदयके आकारको भी बम्द मुट्ठी सब कार्य मस्तिष्कका ही है। विचारना, स्मरण के सदृश बताया करते हैं। जैनाचार्योंने मनका करना आदि विवेकसम्बन्धी सभी कार्य मस्तिष्क आकार कमलाकार बताया है। इस प्रकार प्रकट से ही होते हैं । मस्तिष्कको संवेदनका केन्द्र माना रूपसे दोनों कथनोंमें विरोध मालूम होता है। मया है। यह मस्तिष्क पाठ अस्थियोंसे निर्मित परन्तु विचारकर देखा जाय तो इसमें कोई विरोध कपालके भीतर होता है। इस मस्तिष्क में पहुक्से की बात नहीं हैं। जैनाचार्योंने भाठ पांखड़ीके अंग होते हैं। उनमें से कुछ अंगोंके द्वारा हम कि कमलका सान्त दिया है, इसका यह वात्पर्य चार करते हैं। उन्हीके द्वारा हमको मुख, दुस, Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] गरमी, सर्दीका ज्ञान होता है। उन्हीं की सहायता से हमको शब्द, रस, सुगन्ध दुर्गन्ध आदिका बोध होता है। इन सबका संवेदन अलग अलग नाड़ियों द्वारा होता है। अनेकान्त मस्तिष्क से १२ जोड़े नाड़ियोंके लगे रहते हैं। पहिला जोड़ा गंधसे सम्बन्ध रखता है। हरएक तरफ बालों सरीखी पतली २० नाड़ियाँ रहती है । ये प्राणनाड़ियाँ कहलाती हैं । नासिका के प्राण प्रदेश से प्रारम्भ होती हैं और कपालके घ्राण खण्ड से जुड़ती हैं। दूसरा जोड़ा—ष्टि नांदियां कहलाती हैं । तीसरा जोड़ा भी नेत्रचालिनी नाड़ियाँ कहलाती हैं। चौथे जोड़ेका भी नेत्र की गति से संबन्ध है। पांचवा जोड़ा तथा छठा जोड़ा आँखकी गतिसे सम्बन्ध रखता है । सातव जोड़ा चेहरेकी पेशियों की मति से सम्बन्ध रखता है। आठवीं जोड़ेका सुननेसे सम्बन्ध है इन्हें श्रावणी नाड़ियाँ कहते हैं। नवमें जोड़े का जिह्वा और कंठसे सम्बन्ध है । दसवें जोड़ेका स्वर, अन्त्र, फुप्फुस, हृदय, आमाशय, यकृतादि अंगोंसे सम्बन्ध है । और ग्यारहवां arr arreti जोड़ा जिलाके अंगोंसे सम्बन्ध रखता है। [ पौष, वीर निर्वाण सं० २४६६ छोड़ा गया। इस ठंडे पानीसे स्वचाके संवेदनिक कणों पर एक विशेष प्रकारका प्रभाव पड़ा बा परिवर्तन हुआ। इस परिवर्तनकी सूचना स्वगीया वारों द्वारा सुषुम्नाके पास तुरन्त पहुंचती है। ऊर्ध्वशाखा की नाड़ियां सुषुम्नाके ऊपरी भागसे निकलती है। ये तार पाश्चात्य मुलों द्वारा सुषुम्नामें घुसते हैं। सुषुम्ना में इन तारोंकी छोटी २ शाखायें तो सैलोंके पास रह जाती हैं, परन्तु वे स्वयं शीघ्र ही सुषुम्नाके बायें भागमें पहुंचकर सुषुम्नाशीर्षक और सेतुमें होते हुए स्तम्भ में पहुँचती हैं। स्तम्भ-द्वारा वायें थैलेमसमें पहुँचते हैं और यहीं रहजाते हैं, यहांसे फिर नये तार निकलते हैं, जो ऊपर चढ़कर बायें सम्वेदनाक्षेत्र में पहुँचते हैं, वहाँ सम्वेदन हुआ करता है। सम्वेदनक्षेत्रका सम्बन्ध गति क्षेत्रकी सेलोंस तथा मानसक्षेत्रकी सेलोंसे रहा करता है। यदि हम ठंडे जलको पसन्द नहीं करते तोगति क्षेत्र मानसक्षेत्रको आज्ञा देता है कि हाथ उस क्षेत्रसे हट जावे, तो हाथ वहाँसे हट जाता है। यह सब मस्तिष्कका कार्य है। मस्तिष्कके और भी बहुत से कार्य होते हैं, उनका उल्लेख इस लेख में उपयोगी नहीं है। हमारी मुख्य पाँच ज्ञान इन्द्रियां हैं, स्पर्शन ( स्वचा) रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण इन पांचों इन्द्रियोंसे केन्द्रगामी वार प्रारम्भ होकर सुषुम्ना नाड़ी द्वारा मस्तिष्क में पहुंचते हैं। मस्तिष्कके भी बहुतसे हिम्से माने गये हैं। चक्षु, कर्ण, प्राण आदिके केन्द्रगामी तार नादियों द्वारा मस्तिष्कके ज्ञानके केन्द्रोंमें जाते हैं। मस्तिष्क के इस विवेचनसे यह स्पष्ट होजाता है कि सभी प्रकारका सम्वेदन मस्तिष्क के द्वारा हुआ करता है। हृदयका काम सम्वेदन करना किसी भी तरह सिद्ध नहीं हो सकता । ser विचारना यह है कि जैन सिद्धाम्यसे हृदयके वर्णनमें किसी तरह विरोध दूर हो सकता है या नहीं ? इसके पूर्व यदि हम यह विचारल कल्पना कीजिए आपके हाथ पर ठंठा पानी कि हृदय और मस्तिष्कका कोई घनिष्ठ सम्बन्ध Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ३] [२५३ है या नहीं ? अथवा मस्तिष्क स्वतन्त्र संवेदन जैनाचार्योने पांचों इन्द्रयोंके साथ मनको भी कर सकता है या कि नहीं ? तो ज्यादा अच्छा इन्द्रिय रूपमें स्वीकार किया है, किन्तु यह मनअन्य होगा। इन्द्रियोंकी तरह भीतर रहनेके कारण दृष्टिगोचर मास्तष्कका सम्बन्ध हृदय और कुकुस दाना नहीं होता, इसलिये इसे अनिन्द्रिय अथवा अन्त:नाड़ियोंसे होता है । भयमें मस्तिष्कके हृदयकेन्द्रका करण कहा है । 'करण' का अर्थ इन्द्रिय, और दबाव हृदय परसे कम होता है, हृदय बड़ी तेजी- 'अन्त'का अर्थ भीवर होता है। इसलिए भीतरकी से धड़कने लगता है, भयमें विचारनेकी शक्ति नहीं इन्द्रिय यह साफ अर्थ है। प्राचार्य पूज्यपादने रहती है। जिनके हृदयमें रोग होता है उनकी “अनिन्द्रियं मनः अंतःकरण मित्यनान्तरम्" धारणाशक्ति तथा विचारनेकी शक्ति बहुत कम हो ऐसा लिखा है । सथा कोई प्रनिन्द्रियका अर्थ जाती है। इसी प्रकार जब हृदयसे कमजोरीके । , "इन्द्रिय का प्रभाव" न ले लें, इसीलिए प्राचार्य कारण ठीक समय पर रक्तकी उचित मात्रा मस्तिष्क महोदयने अनुदरा कन्याका उदाहरण देकर यह में नहीं पहुंचतीतो मस्तिष्कका वर्द्धन भी ठीक नहीं [क नहा स्पष्ट कर दिया है कि यहां सद्भाव रूप ही अर्थ होता, और वह ठीक २ काम भी नहीं करसकता। लेना चाहिये। ___पांचों इन्द्रियोंका कार्य पृथक् २ है, इनके द्वारा मनका विषय अभ्य इन्द्रियोंकी तरह निश्चित इन्द्रियसम्बन्धी ज्ञान मस्तिष्कमें होता है। स्पर्शन .. करदिया गया है। प्राचार्य पूज्यपादने स्पष्ट इन्द्रियसे ठंडा गरम भादिका बोध होता है, तथा , कहा है किचतुसे रूपका, इसीप्रकार अन्य इन्द्रियोंसे संवेदन ___"गुणदोष होता है। इन इन्द्रियोंके अलावा और भी तो बहुत- विचार स्मरणादिव्यापारेषु - से संवेदन होते हैं। वह किसका कार्य होगा? इन्द्रियानपेक्षत्वाच्चतुरादिवद्" अर्थात् गुणदोष पांचों इन्द्रियोंका विषयतो निश्चित तथा परिमित के विचारने में, स्मृति आदि व्यवसायमें इन्द्रियों है, उनके द्वारा अपने विषयको छोड़कर अन्य की अपेक्षा नहीं होती यह वो मनका ही विषय है। प्रकारके संवेदनकी संभावना ही नहीं है । भय, जिसप्रकार स्पर्शन इन्द्रियद्वार। ऊष्णताका हर्ष, सुख, दुख इत्यादिका संवेदन इन इन्द्रियोंके संवेदन नहीं होता, वह तो संवेदन करनेमें कारण द्वारा सभव नहीं है, परन्तु इनका संवेदन होता है ( यह मैं पहिले बता चुका हूं कि किसप्रकार अवश्य है । साथमें यह भी निश्चित है कि मस्तिष्क संवेदन होता है ) इन्द्रियोंका कार्य खुद संवेदन स्वयं किसीका संवेदन नहीं करता, वह तो प्रेरणाके करनेका नहीं है। इसीप्रकार मन भी एक इन्द्रिय द्वारा ही संवेदन करता है। बिना स्पर्शन इन्द्रिय- है, वह स्वयं संवेदन न करके अपना सीधा काम की सहायताके गरमी-सर्दीका संवेदन स्वयं मस्तिष्कसे कराता है। मस्तिष्कसे सीधा काम मस्तिष्क कभी भी नहीं करसकता । इसी प्रकार कराते हुए भी वह कार्य मनका ही कहलाता है। मय-हर्ष मादिके विषयमें भी समझना चाहिये। जिस प्रकार रूपका अनुभव मस्तिष्क द्वारा ही Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४] अनेकान्त पौष, वीर निवाण सं० २२६६ % 3D - होता है, परन्तु "आँखने देखा" ऐसा व्यवहार की उत्पतिका कारण बताया है। इन्द्रियोंको मतिकिया जाता है। ज्ञानकी उत्पत्तिका स्थान नहीं बताया। पंचाध्यापदार्थोकी किरणे पहिले आँखकी कनीनका- यीकारने मनःपर्ययज्ञानकी उत्पत्तिका स्थान मन पर पड़ती हैं। वहाँसे चक्षुके भीतर प्रवेश करती बताया है। हैं, जल, रस, वारा, ताल, तथा स्वच्छ गाढ़े द्रवमें- दूरस्थाननिह समक्षमिव वेत्ति हेलया यस्मात् । से होकर अन्तरीय दृष्टि पटल अथवा बानी परदे केवल मैवमनसादवषिमन:पर्ययद्वयं शान ॥ ७०५ ॥ पर पड़ती हैं। ज्ञानी परदेमें चतुकी नाड़ीको उनके अर्थात्-अवधि और मनः पर्ययज्ञान केवल द्वारा प्रोत्साहन मिलता है, वह प्रोत्साहन मस्तिष्क मनसे दूरवर्ती पदार्थोंको लीलामात्रसे प्रत्यक्ष में पहुँचकर दृष्टिकेन्द्र के पुष्पको जागृत करता है। जानलेते हैं। यहां मनको सहायताका और कुछ पश्चात हमें देखनेका ज्ञान होता है। यह नेत्रानु- अर्थ नहीं है, केवल यही अर्थ है कि द्रव्यमनके भवका तरीका है। इसीप्रकार मनके लिए भी आत्मप्रदेशोंमें मनःपर्ययज्ञान होता है। मनसमझना चाहिए। अत: व्यवहारमें यदि मनका इन्द्रियसे मनःपर्यय ज्ञानका और कुछ भी प्रयो. काम हेयोपादेयरूप कहाजाय तो अनुचित नहीं जन नहीं है, क्योंकि वह इन्द्रिय निरपेक्ष होता है। समझना चाहिए। नीचेकी गाथा से इस अर्थकी और भी पुष्टि हो जैनाचार्योंने भी मनको कारण ही बताया है। जाती है। ऐसा नहीं कहा है कि मनके द्वारा हृदयके आत्म- अपिकिं वाभिनिवोधक बोधद्वैतं तदादिम यावत् । प्रदेशोंमें संवेदन होता है। आचार्य पूज्यपादने स्वात्मानुभूति समये प्रत्यक्षां तत्समक्षमिव नान्यत् ॥ ७०६ ॥ "यतो मनो व्यापारोहिताहित प्राप्तिपरिहारपरीक्षा' अर्थात्-केवल स्वात्मानुभूतिके समय जो ऐसा ही कहा है। मनका व्यापार हिवाहिव-प्राप्ति- ज्ञान होता है, वह यद्यपि मतिज्ञान है तो भी वह परिहारमें होता है, इसका अर्थ यह नहीं लिया वैसाही प्रत्यक्ष है जैसा कि प्रात्मभाव सापेक्ष जासकता कि यह व्यापार मनके भीतर ही हुआ प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। करता है। इसी बावको उमास्वामीने बहुत ही स्पष्ट यहां मतिज्ञानको भी जब इन्द्रियोंकी अपेक्षा कर दिया है-वत्त्वार्थसूत्रके प्रथम अध्यायमें मति- नहीं होती, उस ममय प्रत्यक्ष कहा है, फिर यदि स्मृति-संज्ञा-चिन्ता अभिनिवोध-रूप मतिज्ञान कैसे मनःपर्ययज्ञानको मनइन्द्रियकी सहायतासे माने उत्पन्न होता है ? इसका कारण बतानेके लिये तो उसे प्रत्यक्ष कैसे कह सकेंगे। "तदिन्द्रियानिन्द्रिय-निमित्तम्" इस सूत्रकी रचना गोमटसार-जीवकाण्डकी ३७० वो गाथामें की है। इस सूत्रमें बताया गया है कि मतिज्ञानके अवधिज्ञानके स्वामीका वर्णन करते हुए यह भी उत्पन्न करनेके लिये स्पर्शन, रसन, प्राण, चतु, बताया है कि गुणप्रत्यय अवधिज्ञान शंखादिक श्रोत्र और मन ये छह बहिरंग कारण हैं"। यहां चिन्होंके द्वारा हुआ करता है, तथा भवप्रत्यय पाचायने अन्य इन्द्रियोंकी तरह मनको भी ज्ञान- अवधिज्ञान संपूर्ण अंगमें होता है। इसका स्पष्ट Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ३] द्रव्य-मन [२५५ अर्थ तत्रस्थ आत्मासे ही है । इसीप्रकार मनः. उम् इन्द्रियपर भी असर पड़ता है। तेष सुगन्धिसे पर्यय ज्ञानभी द्रव्यमनके आत्मप्रदेशोंमें होता है। दिमाराके साथ नाक भी झनझना जाती है। किसी ऐसाही समझना चाहिये । अतः यह शंका नहीं पदार्थको बहुत देर तक देखते रहनेसे आखें दर्द हो सकती कि मन:पर्ययज्ञानका संवेदन मनमें करने लगती हैं। उसी प्रकार किसी तरहके भयानक होता है या मन इन्द्रिय उसमें काम करती है। विचारोंस अथवा भयस हृदयकी गतिपर असर अतः मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय ज्ञान मनमें पड़ता है, हृदय धकधकाने लगता है, इससे मालम नहीं होते किन्तु मन केवल निमित्त कारण ही है। पड़ता है ये सब गुण हृदयके हैं । अन्यथा हृदय ___ वृहद् द्रव्यसंग्रहमें "द्रव्यमनस्तदाधारण पर असर नहीं पड़ना चाहिए था। जिस प्रकार शिक्षालापोपदेशादि प्राहक" इस तृतीयान्तपदसे सुगन्धि घाणका कार्य मानाजाता है, क्योंकि उस भी यही अर्थ निकलता है। यदि टीकाकारको का असर घाण पर पड़ता है। उसी प्रकार भय "मनमें" यह अर्थ अभीष्ट होता तो सप्तमीका आदिका असर हृदयपर पड़ता है, इसलिए ये पद दिया जासकता था। सब हृदयके कार्य माने जाने चाहिएँ । ___ यहां यहभी शंका नहीं करना चाहिये कि डा० त्रिलोकीनाथवर्मा शरीरविज्ञानके प्रामाजैनाचार्योंने हृदयका मुख्यकार्य रक्तसंचालनका णिक लेखक माने जाते हैं। आपने "स्वास्थ्य और वर्णन नहीं किया । क्योंकि सिद्धान्त प्रन्थोंमें रोग" नामक एक सुन्दर पुस्तक लिखी है, इसी सिद्धान्तका ही वर्णन किया जायगा, शरीरशास्त्र पुस्तकके ७८१ वें पृष्ठ पर आपने लिखा है कि की यहां अपेक्षा नहीं है। नाकका काम सुगन्ध- "मन-सम्बन्धी जितनी बातें हैं वे सब मस्तिष्कके ज्ञानके अलावा श्वास आदि कार्य भी है । जिह्वा- द्वाग होती हैं। विचार अनुभव, निरीक्षण, ध्यान, का रसज्ञानके साथ शब्दोचारण आदि कार्य हैं, स्मृति, बुद्धि, ज्ञान, तर्क या विवेक ये सब मनके परन्तु सभीके वर्णनकी सब जगह अपेक्षा नहीं गुण हैं।" होती। हां, वैद्यक शास्त्रोंमें इसका वर्णन किया डा. त्रिलोकीनाथके इस कथनसे हमारी और गया है। भी पुष्टि होजाती है । इसलिये जैन सिद्धान्तमें जिस इन्द्रियका जो कार्य होता है, उस कार्य माने हुए मनके लक्षणमें किसी तरह विरोध नहीं की अधिकतासे या तेजीसे मस्तिष्कके साथ साथ आता। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अति प्राचीन प्राकृत 'पंचसंग्रह' (लेखक. परमानन्द जैन शास्त्री) लप्तप्राय दिगम्बर जैन प्रन्थोंमेंसे 'पंचसंग्रह' इनमेंसे पहली गाथामें बताया है कि 'जीवस्थान नामका एक अति प्राचीन प्राकृतग्रन्थ अभी और गुणस्थान-विषयक सारयुक्त कुछ गाथाओंको हाल में उपलब्ध हुआ है। इस ग्रन्थकी यह उपलब्ध दृष्टिवादसे १२ वें अंगसे लेकर कथन करता प्रति सं० १५२७ की लिखी हुईहै, जो टवक नगरमें हैं।' और दूसरी गाथा में यह बताया गया है कि माधवदी ३ गुरुवारको लिखी गई थी। इसकी पत्र 'दृष्टिवादसे निकले हुए बंध, उदय और सत्वरूप संख्या ३२ है, आदि और अन्तके दोपत्र एक और प्रकृविस्थोनोंके महान् अर्थको पुनः प्रसिद्ध पदोंके ही लिखे हुए हैं और हासिये में कहीं कहींपर द्वारा संक्षोपसे कहता हूँ। इसमें स्पष्ट है कि संस्कृतमें कुछ टिप्पणी भी वारीक अक्षरों में दी इस ग्रन्थको अधिकांश रचना दृष्टिवादनामक हुई है। इस टिप्पणीके कर्ता कौन हैं ? यह ग्रन्थ १२ वें अंगसे सार लेकर और उसकी कुछ गाथाप्रति पर से कुछभी मालूम नहीं होता । ग्रन्थमें ओंको भी उद्धृत करके कीगई है। प्रथकी प्राकृत गाथाओंके सिवाय, कहीं कहीं पर कुछ श्लोकसंख्या दोहजारके लगभग है। इसमें जुदे. प्राकृत गद्य भीदिया हया है। प्रन्थके अन्तमें जुदे पांच प्रकरणोंका संग्रह कियागया है, इसीकोई प्रशस्ति लगीहई नहीं है और न ग्रन्थकाने लिये इसका नाम 'पंचसंग्रह' सार्थक जान पड़ता किसी स्थलपर अपना नाम ही व्यक्त किया है। है। वे प्रकरण इस प्रकार हैंऐसी स्थितिमें यह प्रन्थ कब और किसने बनाया ? १ जीवस्वरूप, २ प्रकृतिसमुत्कीर्तन, ३ कर्म आदि बातें विचारणीय और अन्वेषण किये जानेके स्तव, ४ शतक और ५ सप्ततिका । ग्रन्थको आद्योयोग्य हैं। पान्त देखने और तुलनात्मक दृष्टिसे अध्ययन इस ग्रन्थकी रचना दृष्टिवाद नामके रखें अल- करनेसे यह बहुत ही महत्वपूर्ण और प्राचीन से कुछ गाथाएं लेकर कीगई हैं, जैसाकि उसके जान पड़ता है। दिगम्बर जैनसमाजमें उपलब्ध चतुर्थ और पंचम अधिकारमें क्रमशः दीगई गोम्मटसार और संस्कृतपंचसंग्रह से यह बहुत निम्न दो गाथाओंसे प्रकट है: अधिक प्राचीन मालम होता है । इस ग्रंथकी बहुत सुणह इह जीव गुणसन्निहि मुठाणे सुसार जुत्ताओ। सी गाथाओंका संग्रह गोम्मटसारादि ग्रन्थोंमें बोच्छ कदि वश्यामो गाहामो दिट्टिवादाभो ।। कियागया है, जिसे विस्तारकं साथ फिर किसी सिडपदेहि महत्थं बंधोदय सत्त पयडि ठाणाणि । स्वतन्त्र लेख द्वारा प्रकट करनेका विचार है। वोच्छ पुण संवेषणिस्सद विट्टि वादा दो ॥ पुष्पदन्त और भूतबलि द्वारा प्रणीत 'षट् ४-३, ५-२ खण्डागम्' पर 'धवला' और 'जयधवला' टीकाकं Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ३ ] रचियता आचार्य वीरसेनने अपनी धवलाटीकामें इस की कितीही गाथाए' 'उक्तं च रूप से या बिना किसी संकेत के उद्धृत की हैं:- अथवा यों कहिये कि जिन गाथाओं को अपने कथन की पुष्टिमें प्रमाणरूपसे पेश किया है उनमें से बहुतसी गाथायें प्राकृत पंचसंग्रहकी हैं। धवलाका जो सत्प्ररूपणा विषयक अंश अभी हाल में मुद्रित हुआ है उसमें उधृत २१४ पद्योंमें से अधिकांश गाथाएं ऐसी हैं जो ज्योंकी त्यों अथवा थोडेसे पाठभेदादिके साथ इस ग्रन्थ में पाई जाती हैं। ये प्राय: इसी परसे उधृत जान पड़ती हैं। अभीतक किसीको पता भी था कि ये किस प्राचीन ग्रन्थपर से उद्धृत की गई हैं । उनमें से कुछ गाथाएं नमूने के तौर पर नीचे दी जाती हैं : - कम्म - विम्वित्ता जाजेट्ठा सागई मुणेयब्वा । जीवा हु चाउरंगं गच्छति हु सागई होइ ॥ - प्राकृत पंच सं०, १, ४९ गर-कम्म - विणिग्वत्ता जाचेट्ठा सागई मुणेयश्वा । जीवा हु चाउरंगं गच्छति तिय गई होइ ॥ अति प्राचीन प्राकृत 'पंचसंग्रह ' - धवला० ८४, पृ० १३५ तं मिच्छतं जमसह तच्चारण होइ भरथाणं । संसदमभिगहियं अराभिगाहियंतुं ततिविषं ॥ - प्राकृत पंच सं०, १, ७ तं मिच्छतं जहम सदहणं तच्चाय होइ भत्थायें । संसदभिग्गयिं भणभिग्गहिदं तिततिविहं ॥ [२५७ जिन गाथाओं में कुछ अधिक पाठ-भेद पाया जाता है उन्हें नीचे दिया जाता है: - धवला १०७, १० १६२ वेदस्सुदोरयाए बालतं पुणियच्छदे बहुसो । इस्थी पुरुस उस य वेयंति तो हवदि वेदों ॥ - प्राकृत पंच सं०, १, १०१ वेदस्सुदीरणाए बालन्तं पुणणियच्छदे बहुसो । भो-पु-सरविय तितो हवर बेभो ॥ - पवला ८९, १० १४१ छम्मा साउगसेसे सम्पच' जेलि केवलं नाणं । तेखियमासमुग्वायं सेसेसु इति मयपिज्जा ॥ - प्राकृत पंच सं०, १, २०० जस्स केवलं याये । सेसा भज्जा समुग्वार ॥ छम्मा साउवसेसे उप्प स- समुग्धाभो सिज्म - धव०, १६७, पृ० ३०३ सुट्ठिमासु पुढविसु जोरसवण - भवण सम्बइत्थीसु । वारसमिच्छोवादे सम्माद्विस्यस्मि उववादो || - प्रकृत पं०, १, १९३ छढिमासु पुढबीसु जोइस-वण- भवण सत्य इत्थीसु । वेसु समुप्पज्जइ सम्मारट्टी दुजो जीवो ॥ -- धव०, १३३, पृ० २०९ इसी तरह प्राकृत पंचसंग्रहके प्रथम 'जीवस्वरूप' प्रकरणकी २३, ६६, ६९, ७१, ७५, ७७, ७८, ७९, ८०, ८८, १५६, नं० की गाथाएं धवलाटीकाके उक्त मुद्रित अंश में १२१, १३४, १३५, १३७, ८६, १४६, १५०, १५२, १५२, १४०, १९६, २१२ नम्बर पर ज्यों की त्यों अथवा कुछ मामूली से शब्द परिवर्तन के साथ पाई जाती हैं। इन गाथाओं के सिवाय, १०० गाथाएं और भी धवलाकं उक्त मुद्रित अंशमें उपलब्ध होती हैं। इस तरह कुल ११६ गाथाएं उक्त अंशमें पंचसंग्रहकी पाई जाती हैं, जिनमें उक्त १०० गाथाएं ऐसी हैं जिनका प्रोफेसर हीरालालजीने अपनी प्रस्तावना में धवलाटीकापर से गोम्मटसार में संग्रह किया जाना लिखा है। ये गाथाए गोम्मटसारमें तो कुछ कुछ पाठ-भेदके साथ भी उपलब्ध होती हैं, परन्तु पंचसंग्रहमें प्रायः ज्योंकी त्यों पाई जाती है- पाठ-भेद नहींके बराबर है और जो Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] अनेकान्त [पौष, वीर निर्वाण सं० २४६६ %3D है वहभी प्रायःलेखकोंकी कृपाका फल जान पड़ता प्रन्थ बनाया है। परन्तु प्रस्तुत 'प्राकृत पंचसंग्रह' है। इनके अलावा 'धवला' टीकाके अप्रकाशित की जो प्रति मेरे पास है, उसमें कर्ताका कोई नाम भागमें भी कुछ गाथाएं पंचसंग्रहकी उपलब्ध नहीं है। इधर 'दि. जैन ग्रन्थका और उनके होती हैं। जिनका पता मुख्तार श्री जुगलकिशोर- प्रन्थ नामकी पुस्तकमें वीरसेनाचार्यके ग्रन्थोंमें जीकी घवला-विषयक नोटबुकसे चला, और 'पंचसंग्रह' का कोई नाम नहीं है, और न अभी जिनमेंमे दो गाथाएं यहां नमूनेके तौरपर तक कहीं किसी ग्रन्थमें इस प्रकारका उल्लेखही उद्धृत की जाती है : उपलब्ध होता है, जिससे इस ग्रन्थको वीरसेनाबेयश कसाय उब्धिय मारणतिमो समुग्धाओ । चार्यकी कृति माना जा सके । मालूम होता है तेजाहारो बट्ठो सत्तममो केवलीणं च ॥ बाबा दुलीचन्दजीने, जिनकी सूचीकं आधार पर -प्राकृत पंच सं०१, १९६ वेयणकसाय वेउब्वियत्रो मरणंतिओ समुग्धादो, उक्त बृहत् सूची तैयार हुई अपनी सूची में जनश्रुति तेजाहारो छट्ठो सत्तममो केवलीणं तु॥ आदिके आधारपर ऐसा लिखदिया है । उस सूचीमें -धव० पारा प्र० १० १९५ और भी बहुत से ग्रन्थ तथा ग्रन्थकर्ताओंके विषय णाणावरण चउकं दसणतिग मंतरायगे पंच । ता होति देसाई सम्म संजलण गोकसायाय ॥ में गल्ती हुई है, जिस फिर किसीसमय प्रकट करने -प्राकृत पंच सं०, ४-९६, पृ० ३५ का प्रयत्न किया जायगा। इसके सिवाय भाचार्य पाणावरणचउकं दसणतिग मंतरायगा पंच । ताहोति देशघादी सम्म संजलण णोकसायाय ॥ अमिवगतिने वि० सं० १०७३ में जो अपना -धवला० भारा प्र००३८० सस्कृत पंचसंग्रह बनाया है और जो प्रायः इसीइस सब तुलनापरसे स्पष्ट है कि प्राचार्य के आधारपर बनाया गया है, उसमें भी पंचवीरमनके सामने 'पंच संग्रह' जरूर था, इसीसे संपर्क नामक सिवाय आचार्य वीरसेनका कोई उन्होंने उसकी उक्त गाथाओंको अपने ग्रन्थों में जिकर नहीं है । अतः इस प्राकृत पंचसंग्रहके उद्धृत किया है । आचार्य वीरसेनने अपनी कर्ता आचार्यघीरमन मालूम नहीं होते। यदि 'धवला' टीका शक सं० ७३८ (विक्रम सं०८७३) वीरसेन इमके कर्ता होते तो धवला टीकामें पंचमें पूर्ण की है । अतः यह निश्चित है कि पंचसंग्रह संग्रहकी जो गाथायें 'उक्तंच' रूपसे दीगई हैं इससे पहलेका बना हुआ है। उनमें से किसी भी कोई विशेष पाठ-भेद न होता ___पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने 'जैनसिद्धान्त पंच-संग्रहकी १८४वी गाथाका धवलामें पूर्वार्ध भास्कर, के ५ वें भागकी चतुर्थ किरणमें 'दि० जैन तो मिलता है परन्तु उत्तरार्ध नहीं मिलता, जिससे प्रन्थोंकी वृहत्सूची' नामका एक लेख प्रकट किया स्पष्ट प्रतीत होता है कि यदि धवलाकी तरह पंचथा, उसमें 'सिद्धान्त ग्रंथ' उपशीर्षकके नीचे संग्रह प्रन्थ के कर्वा भी आचार्य वीरसेन ही होते प्राचार्य वीरसेनके ग्रंथोंमें 'पंच संग्रह' का भी तो यह संभव नहीं था कि वे अपने एक ग्रंथमें नाम दिया गया है, जिससे मालूम होता है कि जिस पद्यको जिस रूपमें लिखते उसे अपने दूसरे प्राचार्य वीरसनने पंचसंग्रह नामका भी कोई प्रथमें 'उकंच' रूपसे देकर भी इतना अधिक बदन Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ३] अति प्राचीन प्राकृत 'पंचसंग्रह' [२५६ देते जसाकि निम्नलिखित पद्यमें पाया जाता है:- दसणमोह उवसामगोदु चदुसुविगई सुबोहम्मो। पमा पउम सवण्णा सुक्का पुणकास कुसमसंकासा । पंचिदिमोय सण्णी णियमा सो होइ पज्जत्तों ॥ वणंतरं च देहवंति परिपरिमिता अर्णतावा ।। -प्राकृत पंच सं०, १, २०४ -प्राकृत पंच सं०.१,१८४ दसण मोहक्खवणा पट्ठवगो कम्म भूमि जादोहूँ। पम्मा पउम सवण्णा सुक्का पुणकास कुसम संकासा । णियमा मणुस गदीए निट्ठव गो चावि सम्वस्थ ।। किण्हादि दब लेस्सा वण्ण विसेसो मुणेयन्यो। -कसाय पाहुड० १०६ धवला भारा प्र०५०६५ देसण मोहक्ववणा पट्ठवगो कम्मभूमि जादोदु । अतः प्राचार्य वीरसेन इस पंच-संग्रहके कर्ता णियमा मणुसगदीए निवगोचावि सम्वत्य ॥ नहीं हो सकते और अब इस प्रन्थके रचनाकाल -प्राकृत पंच सं०, १, २०२ के विषयमें जो कुछ भी तुलनात्मक अध्ययन से खवणाए पट्ट बगो जहिमवे णियमदोतदो अण्णे। णादिकदितिण्णिमवे सण मोइम्मि खीणम्मि । मालूम होसका है उसे नीचे प्रकट किया जाता है:-- -कसाय पाहुड, १०९ ___ कसायप्राभृतके रचयिता आचार्य गुधर हैं, खवणाए पट्ठवगो जम्मि मवेणियम दो तदोपत्र। जिन्हें आचार्यपरम्परासे लोहाचार्य के बाद, णादिकादि तिन्नि भवं दसणमोहम्मि खीणम्मि । प्राकृत पंच सं., १, २०३ अंगों और पूर्वोका अवशिष्ट एकदेशरूप श्रुतका कषाय प्राभृतका रचनाकाल यद्यपि निर्णीत , परिज्ञान प्राप्त हुआ था और जो ज्ञानप्रवाद ना नहीं है तो भी इतना तो निश्चित ही है कि इसकी मक पाँचवें पूर्वस्थित दशम वस्तुके तीसरे पाहुडके रचना कुन्दकुन्दाचार्यसे पहले हुई है। साथ ही पारगामी विद्वान थे उन्होंने श्रुतकं विनष्ट होनेके भयमं तथा प्रवचन वात्सल्यसे प्रेरित होकर यह भी निश्चत है कि गुणधराचार्य पूर्ववित थे और उनके इस ग्रंथ की रचना सीधीज्ञानप्रवाद १८० गाथाओंमें 'कषाय प्राभूत' की रचना का, पर उक्त अंशपरस स्वतन्त्र हुई है-किसी और इन्हीं गाथाओंकी सम्बन्धसूचक एवं वृत्ति दूसरे आधार को लेकर नहीं हुई । अतः यह रुपक ५३ विवरणगाथाओंकी और भी रचना कहना होगा कि उक्त तीनों गाथाएँ कषायप्राभूत की। इसतरह से कषाय प्राभृतको कुल गाथाएँ की ही हैं और उसी परसे पंचसंग्रहमें उठाकर सख्या में २३३ हैं, जिन्हें उक्त मुख्तारसाहबकी रक्खी गई हैं। इससे इतना तो स्पष्ट होजाता है जयधवला विषयक नोट-बुकपर से देखने और कि पंचसंग्रह की रचना कषायमाभृतके बाद पंचसंग्रह की गाथाओंके साथ तुलना करने से किसी समय हुई है। मालूम हुआ कि दर्शनमोह का उपशम और पंचसंग्रहम पंचमगुणम्थानवी श्रावकके क्षपणाके स्वरूपका निर्देश करनेवाली कषाय दार्शनिक आदि ११ भेदोंके नामोंका निर्देश प्राभृतकी तीन गाथाएँ 'पंचसंग्रह' में प्राय: ज्यों की त्यों पाई जाती है और वे इस प्रकार हैं: करनेवाली एक गाथा १६३ नम्बरपर पाई . जाती है और उक्त गाथा प्राचार्य सुरकुदके दंसण मोह स्वसामगो दु चदु मुवि गदीमु बोइम्बो। पंचिंदिनोय सण्णी णियमोसो होइपजस्तो । 'चारित्र प्राभूत में भी नं०२२ पर उपलब्ध होती -कसाय पाहुड० ९१ है। यह गाथा दोनों अन्धकारोंमसे किसी एकने Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० अनेकान्त जरूर उद्धृत की है, बहुत सम्भव है कि आचार्य कुन्दकुन्दने पंचसंग्रहसे उदधृत की हो, और यह भी सम्भव है कि चारित्र प्राभृतसे पचसंग्रहकार ने उठाकर रक्खी हो; परन्तु बिना किसी विशेष प्रमाणके अभी इस विषय में कुछ भी नहीं कहा जासकता है तो भी इससे इससे इतना तो ध्वनित है कि पंचसंग्रहकी रचना कुन्दकुन्दसे पहले या कुछ थोड़े समय बाद ही हुई होगी। हाँ इतना जरूर कहा जासकता है कि ५वीं शताब्दी से पहले इसकी रचना हुई है, क्योंकि विक्रमकी छठी शताब्दी के पूर्वार्धके विद्वान आचार्य देवनन्दी (पूज्यपाद) ने अपनी सर्वार्थसिद्धिकी वृत्तिमं आगमसे चक्षु इन्द्रियको अप्राप्यकारी सिद्ध करते हुए पंचसंग्रहकी १६८ नम्बरकी गाथा उधृत की है, जिससे स्पष्ट है कि पंचसंग्रह पूज्यपादसे पहले बना हुआ है । वह गाथा इस प्रकार है: पुट्ठे सुग्गे सर्द भपुट्ठे पुरा पस्सदे रूपम् । फार्स रसंच गंध बद्धं पुट्ठे वियायादि ॥ इसके सिवाय, श्वेताम्बरीय सम्प्रदाय में 'कर्म प्रकृति' के कर्ता शिवशर्मका समय विक्रमकी ५ वीं शताब्दी माना जाता है, उनका संग्रह किया हुआ एक 'शतक' नामका प्रकरण है उसमें बंधके कथन की प्रधानता होनेसे उसका बंधशतक नाम रूढ़ होगया है । इस प्रन्थ में पंचसंग्रहकी बहुत गाथायें पाई जाती हैं, जिनका विशेष परिचय एक दूसरे ही लेख में देनेका विचार है अस्तु, यदि शिवशर्मा उक्त समय ठीक है तो कहना होगाकि रचना विक्रम की ५ वीं शताब्दी से पहले हुई है। [ पौष, वीर निर्वाण सं० २४६६ संदृष्टि भी दी है, जिससे गाथाओं में दीगई बातों का अच्छी तरहसे स्पष्टीकरण होजाता है, परन्तु इस प्रभ्थके कर्ता कौन हैं - उनका क्या नाम है और उनकी गुरुपरम्परा क्या है ? तथा इस ग्रन्थकी रचना कहाँ और कब हुई है ? आदि बातें अन्धकारमें होने से उनके विषयमें अभी विशेष कुछभी नहीं कहा जोसकता है, इसके लिये ग्रंथकी प्राचीन प्रतियोंकी तलाश होनी चाहिये । दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंके प्रन्थभण्डारोंमें इसके लिये अन्वेषण होने की बड़ी जरूरत है। बहुत संभव है कि उक्त ग्रंथकी पं० श्रशाधरजी से पहले की प्रतियाँ उपलब्ध हो जांय, जिनपर कर्तादि की प्रशस्तिभी साथमें अंकित हो । क्योंकि पं० आशाधरजीने भगवती आराधनापर 'मूलाराधना दर्पण' नामकी जो टीका लिखी है उसके ८वें आश्वासमें "तथाचोक्तं" वाक्यके साथ इस पंचसंग्रह प्रथकी ६ गाथाएँ उद्धृत की हैं। जो पंचसंग्रह के तीसरे अधिकारमें नं० ६० से ६५ तक क्यों की त्यों दर्ज हैं अतः अन्वेषण करने पर इस ग्रन्थकी प्रस्तुत प्रतिसे भी अधिक प्राचीन ऐसी प्रतियोंके मिलनेकी बहुत बड़ी संभावना है। जिनपरसे कर्तादिका परिचय प्राप्त हो सके, और प्रकृत विषयके निर्णय करनेमें विशेष सहायता मिल सके। आशा है विद्वान्गण मेरे इस निवेदनपर अवश्य ध्यानदेंगे । और खोज द्वारा प्रन्थकी और भी प्राचीन प्रतियां उपलब्ध होनेपर उनका विशेष परिचय प्रकट करनेकी कृपा करेंगे, अथवा मुझे उनकी सूचना देकर अनुगृहीत करेंगे । इस सब तुलनात्मक विवेचनपर से स्पष्ट है कि यह 'पंच संग्रह' उपलब्ध दिगम्बर श्वेताम्बर कर्म साहित्यमें बहुत प्राचीन है। इसमें डेढ़ हजारके करीब गाथाओंका अच्छा संकलन है। साथमें, अंक वीर सेवा मन्दिर, सरसावा, ता० १३-१-१९४० Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और बौद्ध निर्वाणमें अन्तर [o-श्री. प्रोफेसर जगदीशचन्द्र जैन, एम. ए..] तम्बर १९३६ के अनेकान्त (२-१३)में मैंने जैन बौद्ध साहित्य बहुत विस्तृत है। कभी कभी तो और बौद्धधर्म एक नहीं' नामक एक लेख लिखा उसमें एकही विषयका मित्र २ रूपसे प्रतिपादन देखने था, जिसमें ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीकी “जैन और में पाता है। ऐसी हालतमें बौदवाङ्मयका गहरा बौद्ध तत्वज्ञान" नामकी पुस्तककी समालोचना करते अध्ययन किये बिना, ऊपर ऊपरसे दो चार ग्रन्थोंको हुए यह बताया था कि प्रमचारीजीका जैन और बौद्ध पड़कर अपना कोई निर्णय देना यह बड़ी भारी भूल है। धर्मको एक बताना निरा भ्रम है। मेरे लेखके उत्तरमें निर्वाणके सम्बन्धमें भी बौद्धग्रन्थों में विविधनायें देखने में ब्रह्मचारीजीने ३० नवम्बर १९३६ के जैन मित्रमें कुछ भाती हैं। यही कारण है कि युरोपियन विद्वानोंमें भी शब्द भी लिखे हैं, जिनमें कहा गया है कि मैं उनकी इस विषयमें मतभेद पाया जाता है । कुछ विद्वान पुस्तक भूमिका-सहित पायोपांत पढ़ लेता तो उनसे निर्वाणको शून्यरूप-अभावरूप-मानते हैं। जिसमें असहमत न होता । मैं ब्रह्मचारीजीये कह देना ards, Chulcers, Jiunes D' Alcis चाहता हूँ कि मैंने उक्त पुस्तक अच्छी तरह भायोपांत प्रादि है। दूसरे इसका विरोध करते हैं और कहते हैं पढ़ ली है, लेकिन फिर भी मैं उनसे सहमत न हो कि बौद्धोंका निर्वाण भी ब्राह्मणों की तरह शाश्वत और सका। मैं समझता हूँ शायद कोई भी विद्वान् इस मचल है । इस विभागमें Maxmulla, Stcherबातको माननेके लिये तैयार न होगा कि "जैन और thatsks आदि हैं। हम यहां इस वाद-विवादमें गहरे बौद्ध धर्म एक हैं और उनमें कुछ भी श्रन्तर नहीं है।" नहीं उतरना चाहते, केवल इतना ही कहना चाहते हैं अपने पिछले लेखमें मैंने विस्तार पूर्वक बौद्धोंकी पारमा कि यदि बौद्धोंका निर्वाण अच्युन और स्थायी है तो सम्बन्धी मान्यताका दिग्दर्शन कराते हुए बताया है उन्हें निर्वाणके लिये बहुत सी उपमायें मिल सकती कि उसकी जैनसिद्धान्तसे जरा भी तुलना नहीं की थीं, उन्होंने दीपककी उपमा ही क्यों पसंद की ? जा सकती । बौद्ध ग्रन्थों में मांसोल्लेख भादिके सम्बन्धमें निब्बति धीरा यथायं पदीपो' (संयुत्त २३५)भी मैंने उक्त लेखमें चर्चा की है। दुःख है कि ब्रह्मचारी प्रदीपके समान धीर निर्वाण पाते हैं (बुझ जाने हैं; जी उन भारेपोंका कुछ भी उत्तर न दे सके। "सीतीभूतोऽस्मि निश्वतो" (विनय :-८) नित भव प्राचारीबीकी मान्यता है कि "निर्वाणका हो जानेसे मैं शीतल हो गया हूँ (सहो गया है) स्वरूप जो कुछ बौर मन्थों में मजकता है वही बैन "पदीपस्स एव निधानं विमोक्यो भाहु चेतसो" शास्त्रों में है।" इस लेख में इसी विषय पर चर्चा की भावि बौद्ध पानी ग्रन्थोंके व खोंसे माघूम होता है कि बायगी। बौरखोग प्रदीपनिर्वावकी तरह माम विशेषकोही Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૧ર भनेकान्त [पौष, वीर-निर्वाण सं०२४॥ निर्वाण मानते थे । फिर यदि भकलंक आदि जैन advisedly, for though the Pall texts प्राचार्योने बौद्धोंकी इस मान्यताका खंडन किया है तो have entirely for many years in public उन्होंने कौनसा अन्याय किया है ? ब्रह्मचारीजीका बो libraries, they are only now beginning यह कथन है कि "अकलंक आदि जैन भाचार्योंने जैसा to be understood. Buddhims of Pali बौधर्मका खंडन किया है वैसा बौद्धधर्म मज्झिम- Pitakas is not only a different thing निकाय भादि प्राचीन पाली पुस्तकोंमें नहीं है" वह from Buddhism as hitherto commonly भूलसे खाली नहीं है। अपने कथनकी पुष्टिमें ब्रह्मचारी received, but is antagonistic to it." बी ने W. Rys Davids के कथन का उल्लेख अर्थात् जबसे बौद्धोंके प्राचीन साहित्यकी खोज हुई है, किया है। लेकिन W. Rys. Davids का अभि- तबसे बहुत सी बातोंपर नया प्रकाश पड़ा है। यद्यपि प्राय यह बिलकुल नहीं है कि जैन और ब्राह्मण ग्रन्थ- पाली साहित्य वर्षोंसे पब्लिक लाइबेरियोंमें मौजूद था, कारोंने बौदधर्मका अनुचित खंडन किया है या उन्होंने लेकिन लोगोंने उसे अभी समझना शुरु किया है बौद्ध धर्मके विषयमें जो कहा है वह भ्रमपूर्ण है । उन्हों- इत्यादि। ने 'सेकेड बुक्स मान दिईस्ट'में बौद्धोंके कुछ ग्रंथोंका इससे Rys. Davids का कहना यही है कि अंग्रेज़ीमें अनुवाद किया है। ये अनुवाद उन्होंने भाज लोगोंकी बौद्धधर्मके विषय में जो मिथ्या धारणायें थीं, से साठ बरस पहले यानी सन् १८८० में किये थे। इन वे अब पाली साहित्य के प्रकाशमें मानेके कारण दर की भूमिकामे W. Rys. Davids ने Gegerly होती जा रही हैं। इससे उनका माक्षेप युरोपियन तथा Burnouf भादि युरोपियन विद्वानोंकी समा- विद्वानोंपर है। जो बौद्धधर्मको ठीक ठीक न समझकर बोचना करते हुये उनकी भूलें बताई हैं। इसी सिल- उसपर टीका टिप्पणी करते हैं। इसका यह मतलब सिनेमें W. Rys. Davids ने बताया है कि जबसे कदापि नहीं कि कलंक आदि विद्वानोंने बौद्ध धर्मका बौद्धोंका पाली साहित्य प्रकाशमें पाया है तबसे बौद्ध ग़लत खबडन किया है। दुःख है कि ब्रह्मचारीने पूर्वाधर्मके सम्बन्धमें लोगोंको नई बातें मालूम हुई है और पर संबंधका ध्यान रखकर, केवल उनके एक वाक्यको खोग बौद्ध धर्मको ठीक २ समझने लगे हैं। वह उझेख पढ़कर अपना मत बना लिया है। निम्न प्रकारसे है: __ यही बात पणिकवादके लिये भी कही जा सकती _It is not too much to say that the है। जैन और ब्राह्मण ग्रंथकारोंने बौदोंके गणिक वादमें discovery of early Buddhism has नो कृत-प्रणाश, प्रकृत-कर्म-भोग, भवमंग, स्मृतिभंग placed all previous knowledge of the भादि दोष दिखाये हैं, वे कुछ निर्मूल नहीं है। धिक subject in an entirely new light, and बाद बौर मानते हैं। एक तरह यो कहिये कि 'पणिक has turned the flank, so to speak of बाद' के बिना पौर धर्म टिका नहीं रह सकता। इस most of the existing literature on लिए ब्रह्मचारीजीच यह सिखना कि 'पानी प्राचीन Buddhism.I use the term "discovery" पुस्तकों में सर्व वस्तुषोंको नाशवान नहीं कहा" अमसे Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैन और बौद्ध निर्वाणमें अन्तर २६३ साक्षी नहीं है। बौद्ध ग्रन्थों में एक कथा भाती है। ful sanctification and महंत् ship and 'एक बार किसी चोरने एक भादमीके भाम चुरा लिये। the annihilation of existence in which भामोंका मालिक चोरको पकाकर राजाके पास लेगया, अर्हत् ship ends.) भागे चलकर वे लिखते हैं चोरने राजासे कहा 'महाराज, जो फल इस भादमीने “अब देखना है कि बौद्धधर्मका उद्देश्य क्या है?" जगाये थे वे दूसरे थे और वो मैंने धुराये हैं वे दूसरे हैं। “महत् अवस्थाकी प्राप्ति बौद्धधर्मका अंतिम उद्देश्य अतएव मैं दण्डका भागी नहीं हूँ । इसपर राजाने कहा नहीं है। क्योंकि अर्हत् अवस्था नित्य अवस्था नहीं है "यदि नामोंका मालिक भाम नहीं लगाता तो तू चोरी महंत अमुक समय बाद काल धर्मको प्राप्त होते हैं। कैसे कर सकता"हसलिए तू दण्डका भागी अवश्य है।' इस बातकी पुष्टिमें बौद्धग्रन्थोंमें सैंकड़ों उल्लेख मिलते कहने का अभिप्राय यह है कि उस समय भी पणभग- है कि अर्हत् मरण के पश्चात् जीवित नहीं रहते, बल्कि वाद मौजूद था । इसी लिये तो जैन विद्वानोंने उसमें उनका अस्तित्व ही नष्ट हो जाता है"-- 'प्रकृत-कर्म-भोग' नामका दोष दिया है । और वास्तवमें But since अर्हत्, die,महत् ship is not देखा जाय तो यह ठीक ही है। कारण कि क्षणिकवाद an eternal state, & therefore it is not ही बौद्धोंकी मजबूत भित्ति है। जिसपर अनात्मवाद the goal of Buddhims. It is almost और शून्यवाद नामक सिद्धांत रक्खे गये हैं। इस लिए superiluous to add that not only is ह मानना पड़ेगा कि क्षणिकवादका सिद्धांत पहला there no trance in the Buddhist scripहै। हाँ उसे तार्किकरूप भले ही बादमें दिया गया tuns of th: अर्हत् cont.uning to exist हो, जैसा कि रन-कार्ति, शान्तरक्षित श्रादि बौद्ध .ittet thouth. but it is deliberately stated विद्वानोंने अपने क्षणभंग सिद्धि' 'तस्वमंग्रह' श्रादि in inmumabit: p.1.५५ that the अर्हत् ग्रंथाम किया है। thoseos non live gunden death, but अब ब्रह्मचारीजीकी एक बान रह जानी है। वह censes to cust. उक्त विद्वान्का कथन है कि यह कि बौद्ध ग्रंथों में निर्वाणको 'अजान' और 'श्रमतं बहन अवस्था 'मो पानिममनिस्वाण' अथवा 'किलेस (अमृतं ) क्यों कहा ! ब्रह्मचारीजाको शायद विदे- परिनिग्वाण' की अवस्था है, जिसमें मय क्लेशोंका सय शीय विद्वानों पर बहुत श्रद्धा है। इसलिए हम इसका हो जाता है, और जहाँ केवल पंच स्कंध शेष रहते हैं। उत्तर Childers के शब्दों में ही दंगे। Childlers इसी अर्हन अवस्थाको बौद्ध ग्रन्धों में 'मजात' 'ममत' बौद्ध धर्मके एक बड़े विद्व न हो गये हैं। उन्होंने बौद्ध 'अनुत्तर' 'भकुनोभय आदि विशेषण दिये हैं। लेकिन धर्मका एक कोश भी लिम्बा है । Childers का बौद्धोका निर्वाण अभी इस और भागे है। उस कहना है कि बौद्ध ग्रंथों में निर्वाणकी दो अवस्थायें निर्वाणको बौद्ध ग्रंथों में अनुपादिसंसनिम्बाश' अथवा बताई गई है-एक ईत् अवस्था जो मानन्द स्वरूप खंधपरिनिव्वाण' के नामसे कहा गया है। यह वह है, दूसरी शन्यरूप--प्रभावरूप अवस्था, जो महंन् अवस्था है, जो अहत् अवस्थाकी चरम सीमा है । यहाँ अवस्थाकी चरम सीमा है ( The state of bliss- समस्त स्कंधांका--रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पौष, वीर निर्वाय सं०२० संस्कारका--पय हो जाता है। जैसे दीपका निर्वाह और जैनियोंका निर्वाण प्रादि सबको एक नहीं बता हो जाता है और वह शान्त हो जाता है, वैसे ही महत् सकते । महायान सम्प्रदायने शन्यवादको 'अन्तद्वयभी शामिल हो जाता है। उसका नाम रूप' कुछ भी रहित' 'चतुस्कोटिविनिर्मुक्त' 'मध्यम प्रतिपदा' मादि बाकी नहीं रहता. उसका 'भाष निरोध' हो जाता है। विशेषण देकर उसे ब्रह्मवादके अत्यन्त समीप खानेका याऐसी अवस्था है जिसकी उपमा 'शब्द रहिन भन्न प्रयत्न किया, जिसका फल यह हुआ कि कालांतरमें (noiseless broken gong) से दी गई है महायान अपना स्वतन्त्र अस्तित्व ही खो बैठा । कारण are जाने नि:शब्द हो जाता है, वेसी ही स्पष्ट है कि जब तक कोई वस्तु भद्धत अथवा नई होती मा निर्वाण प्राप्त करने पर महंतकी भी हो जाती है, तभी तक लोगोंका ध्यान उसकी भोर भाकर्षित है।मागे चलकर Childers ने स्पष्ट लिखा है। होता है। खैर! ___"A great number of expressions इसके अलावा यह भी ध्यान रखनेकी बात है कि are used with reference to निवाण which इस तरह तो वेदान्त, सांख्य प्रादि दर्शनोंके मोष सिImavena room to doubt that it is the द्धान्तको और जैन दर्शनके मोतसिद्धान्तको भी एक absolute extinction of being the मानना चाहिये, क्योंकि ये सब दर्शनकार भी मोषको annihilation of the individual being. अचल, स्थिर श्रादि मानते ही हैं। ... The Simile of fire is the strongest असलम बात तो यह है कि प्राचारी जी अपना possible way of expressing anushila- मत बनाने में जल्दी बहुत करते हैं । जहाँ उनको कोई tion intelligably toall" बात दिखाई दी, वे झट, उस पर अपना निर्णय दे अर्थान् बौद्ध-ग्रन्थों में जो निर्वाण के सम्बन्धमें डालते हैं, उसपर अधिक विचार नहीं करते । जब उल्लेख पाते हैं, उनमे यह निस्सन्देह सिद्ध हो जाता ब्रह्मचारी जी 'जैन-बौद्ध-तत्वज्ञान' जैसी महस्व पर्ण है कि अस्तित्व के पूर्ण विनाशकी अवस्था ही निर्वाण पुस्तक लिखने बैठे, तब उन्हें बौद्ध शास्त्रोंका काफी है।...तथा अग्निके बुझनेकी जो निर्वाणसे उपमा दी समय तक अभ्यास अवश्य करना चाहिये था। उनको. गई है, वह शन्यत्व प्रभावको व्यक्त करनेका सबसे बौद्ध शास्त्रों में पारमा, मोच पादिके सम्बन्ध जो जोरदार तरीका है। अनेक प्रकारके भिन्न भिन्न उल्लेख पाते हैं, उन सबको म यहां यह बता देना चाहते हैं कि हरेक धर्म एकत्रित कर उनपर विचार जरूर करना चाहिये था। और दर्शनमें अलगर विशेषताय हुआ करती हैं। जैसे बादमें जैनधर्मसे मिलान करनेकी जिम्मेवरीका काम वेदान्तकी विशेषता ब्रह्मवाद है, जैनदर्शनकी स्याद्वाद अपने सिर पर उठाना उचित था । अन्तमें हम यह भी है, वैसे ही बौद्ध धर्मकी विशेषता वणिकवाद और बतादेना चाहते हैं कि इस विषयकी चर्चा करनेमें हमारा शम्यवादमें ही है। जैसे ब्रह्मवाद और स्याद्वादके निकाल जरा भी अन्यथा भाव नहीं है। बल्कि ब्रह्मचारीजीके देने पर वेदाम्ल और जैनदर्शन में कुछ नहीं रह जाता, प्रति हमारा बहुत प्रादरका भाव है । हम यही चाहते वैये ही क्षणभंगवाद और शन्यवादके निकाल देने पर हैं कि ब्रह्मचारी जी अपने भाग्रहको छोड़ दे। जैन इधर्ममें कुछ नहीं रहता। इतना ही नहीं, बल्कि और बौद्ध धर्म एक नहीं हैं-कमम्मे कम प्रारमा और नषाद और शम्यवादके सिद्धांत बौदर्शनमें बहुत निर्वाण सम्बन्धी मान्यताएं तो उनकी बहुत ही मिन्न अच्छी तरह 'फिट' होते हैं। हम इन वादोंकी परस्पर हैं।' यदि ब्रह्मचारीजी इस बानको मान जाएँ तो तुलना अवश कर सकते हैं, लेकिन ब्राह्मवाद, शन्यवाद हम अपना परिश्रम सफल समझेगे। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ যজুঃ গ দ্বি-ইজ্জীল্লা শ্বিল [सम्पादकीय] मोतो संसारमें बराबर संयोग-वियोग चला और उनका शुभ नाम है मुनिश्री 'चतुरविजय' जी ' करता है। हजारों मनुष्य प्रतिदिन जन्म लेते आपका जन्म प्राग्वाट (बीमा पोरवाड) जातिमें हैं और हजारों ही मरणको प्राप्त हो जाते हैं । जो बड़ोदाके पासके छाणी गाँवमें चैत्र शुक्ला प्रतिजन्मा है उसको एक दिन मरना जरूर है, ऐमा पदा विक्रम संवत १९२६ के दिन हुआ था । अटल नियम होते हुए किमीका भी वियोग कोई आपका गृहस्थ जीवनका नाम चुनीलाल था, माता आश्चर्यकी वस्तु नहीं और न वह प्राज्ञोंके दृष्टि- का नाम जमनाबाई ओर पिताका नाम मलुकचन्द कोणानुमार दुःख-शोकका विषय ही होना चाहिय, था। और भी आपके तीन भाई तथा तीन बहिने फिर भी जिनका सारा जीवन मेवामय व्यतीत थीं। करीव २० वर्षको अवस्थामें ज्येष्ठशुक्ला होता हो और जो खासकर साहित्य-संवाकं द्वारा दशमी वि० सं० १९४६ को आपने श्री विजयानन्द निरन्तर ही स्थिर लोकसेवा किया करते हों उनका मार ( आत्माराम ) जा के साक्षात शिष्यप्रवर्तक अचानकवियोग साहित्य प्रेमियों, साहित्य सेवियों, मुनि श्रीकान्तिविजयजीक पाम बड़ौदा रियामत माहित्यमे उपकन होनवालों एवं माहित्य संमार- के भाई नगरमें दीक्षा ग्रहणकी थी, और उमी को बहुत ही अखरता है, और इमलिय मभी उनके ममय आपका नाम 'चतुर्गवजय' रक्खा गया था। प्रति श्रद्धांजलि अर्पण करके अपनी कृतज्ञता व्यक्त दीतासे व आपकी शिक्षा गुजरातीकी प्रायः किया करते हैं । ऐसा ही एक कनव्य श्राज मरे ७ वीं कना तक ही हुई थी और उस समय आप मामन भी उपस्थित है जिसका पालन करता पुगनी गनि र हिमाकता में भी निपुण थे। हुआ मैं 'अनकान्त' क पाठकों को एक "म महान शेप मब शिक्षा आपकी दीनाके बाद हुई है, जिममाहित्य-मेवीका कुछ परिचय कराना चाहता हूँ का प्रयान श्रेय उक्त प्रवत्तकजी का है,जा आज भी जिनका हालम ही - १ली दिसम्बर मन् १९२६ को अपनी वृद्धावस्था में मौजूद है। आपने संस्कृत, ७७ वर्षकी अवस्थाम मंवा करने करने पाटन शह- प्राकृत, अपभ्रंश आदि अनेक भापायका तथा रमें देहावमान हुआ है। काव्य, छंद, अलकादि-विषयक कितने ही शास्त्रों___ माहित्यमवी दो प्रकारकं होने है, --एक वंजा का अभ्याम किया था। न्यायका भी थोडामा लोकोपयोगी नूतन पुष्ट माहित्यका मृजन (मांग) अन्याम किया था. ग्रामिक एवं शास्त्रीय विषयोंक करते है और दूसरे व जीएम पुगतन साहित्यका माथ सम्पन्ध रखनेवाले अनक प्रकरण ग्रन्थाका मंशोधन, मरक्षण, सम्पादन और प्रकाशन किया अध्ययन करके, आपने 3 कण्ठस्थ कर लिया करने है । जिन महानुभावका यहाँ परिचय कगना था और प्राय: सभी मुख्य मुग्व्य भागम ग्रंथांको है वे प्रायः दुमरी कोटिक माहिल्य-म वयोगम थे दग्य दाना था. ३ श्रामवादि विषयों में Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [पौष, वीर-निर्वाय सं० आपका प्रवेश प्रति गम्भीररूप धारण कर गया थे। एकबार पं० सुखलालजीने उसकी अनुपयो. था। गिता व्यक्त करते हुए कड़ी आलोचना की, जिसे न्यायशास्त्रादि-विषयक अभ्याम कम होनेपर आप, कोई खास विरोध न करते हुए, पी गये भी, गत दिन सतत स्वाध्याय-परायण होनेसे, प्रायः और उसके बादसे ही आपने संस्कृतमें प्रस्तावना प्रत्येक विषयमें आपका अच्छा अनुभव होगा लिखनेकी पृथाको प्रायः बदल डाला, जिसके फलथा। सामान्यतया किमीको ऐसा प्रतीत नहीं होता स्वरूप उनके तथा उनके शिष्यके प्रकाशनोंमें श्राज था कि आपका इन विषयों में कम अभ्याम है। अनेक महत्वकी ऐतिहासिक वस्तुएँ गुजराती भाषा___ जहाँ कहीं भी श्राप रहते थे श्रापका दिन-रात द्वारा जाननी मुगम होगई हैं, ऐमा पं० सुखलालजी विद्या-व्यासंग चलता था। आपके स्वभावमें नम्रना, अपने उक्त संस्मरणात्मक लेखमें सूचित करते हैं। कार्यमें मतर्कता, परिणतिमें सत्यमाहिता और व्य- और यह स्व० मुनिजीकी सत्याग्राही. परिणतिका वहारमें शुद्धता थी। माथ ही, आपके हृदयमें एक नमूना है, जिसने पं० सुखलालजीको विशेष सदैव जिज्ञामावृत्ति और शास्त्रीद्धारकी उत्कट प्रभावित किया था। अस्तु । भावना बनी रहती थी। सबके साथ आपका प्रेमका सद्गत मुनि श्रीचतुरविजयजोके जीवनका बर्ताव था और श्राप दूमरे माहित्यसेवियों को यथा- प्रधान लक्ष प्राचीन माहित्यकी संवा था, जिसके शक्य अपना वाँछित सहयोग प्रदान करने में कभी लिये आप दीक्षासे लेकर अन्त ममय तक कोई श्राना-कानी नहीं करते थे । इन्हीं मब गुणांक ५१ वर्ष पर्यंत-बड़ी ही तत्परता और सफलताकं कारण मुनि जनविजय और पं० सुखलालजी जैसे साथ बराबर कार्य करते रहे हैं। आप जहां कहीं प्रकाण्ड विद्वान आपके प्रभावस प्रभावित थे। पं० भी जाते थे पहले वहांक शास्त्र भंडारोंकी जांच सुखलाल जीन हालमें जो आपके कुछ मस्मरण पड़ताल करते थे, जो भंडार अव्यवस्थित हालनमें 'प्रबुद्ध जैन' नामके गुजराता पत्रमें प्रकट किये हैं होते थे उनकी सुव्यवस्था कराते थे,प्रन्थोंकी लिस्ट उनमें इस बातको स्वीकार किया है और स्पष्ट सूची तैयार करते थे, ग्रन्थोंको टिकाऊ कागजके लिया है कि-"आपकी नम्रता, जिज्ञामा और कवरमें लिपटवाते, गत्तोंके भीतर रखाते और 'निम्बालसतान मुझे बाँध लिया 'इम सत्य- अच्छे वेष्ठनोंमें बंधवाते थे, उन पर लिस्टकं अनुप्राही प्रकृतिने मुझे विशेष वश किया। 'पुस्तकों मार नम्बर डालते थे और उन्हे मुरक्षिन अलमाका संशोधन और सम्पादन कार्य करने में मुझे जो रियों, पेटियों अथवा बोक्सोंमे क्रमशः विराजमान अनेक प्रेरक बल प्राप्त हुए हैं उनमें म्बर्गवामी मुनि करते थे । जो प्रन्थ जीर्ण-शीर्ण अवस्था में होते थे श्रीचतुरविजयजीका स्थान खास महत्व रखता है, अथवा अलभ्य और दुष्प्राप्य जान पड़ते थे उनकी इस दृष्टिस मैं उनका हमेशा कृतज्ञ रहा हूँ।' सुन्दर नई कापियाँ स्वयं करते और कराते थे ! आजसे कोई २०-२५ वर्ष पहले आप मुद्रित दूसरेकी की हुई कापियोंका संशोधन करते थे, इस प्रयोंकी प्रस्तावना संस्कृत भाषाम ही लिखा करते तरह आपके द्वारा तथा प्रापकी प्रेरणाको पाकर Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण एक महान साहित्यसेवीका वियोग छोटे-बड़े सैंकड़ों शास्त्र भण्डारोंका उद्धार हुआ 'भारतीय जैनश्रमण संस्कृति भने लेखनकला' नाम है और वे जनताके लिये उपयोगी तथा विद्वानों की जो महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है वह सब भापके के लिये सरलतासे काम आने योग्य बने हैं। ही लेखनकला-विषयक अनुभवोंका फल है, ऐसा पाटन, बड़ौदा और लिम्बड़ी आदिके जो बड़े बड़े मुनि पुण्यविजयजी अपने पत्रमें सूचित करते हैं। ज्ञान भण्डार माज सुव्यवस्थित अवस्था में पाये इस परसे उक्त पुस्तकका परिचय करने वाले जाते हैं, उनको सुव्यवस्थित सूचियाँ बनकर प्रका- विद्वान इस बातका सहजमें ही अनुभव कर सकते शित हुई हैं. और जगत उनसे जो आज भारी हैं कि श्री चतुरविजयजीको लेखनकला और लाभ उठा रहा है वह सब आपके और आपके लिपियोंके विकासादि विषयक कितना विशाल गुरुदेव प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी महाराजके तथा गम्भीर परिज्ञान था । और यह सब उन्हें परिश्रमका ही फल है --इस कार्यमें सबसे अधिक उनके हजारों हस्तलिखित ग्रन्थोंके अवलोकन हाथ आपका ही रहा है। और मनन परसे ही प्राप्त हुआ था। आपने सैंकड़ों ग्रन्थोंकी प्रतियाँ अपने हाथसे समाजमें मुद्रण कलाके प्रचारका प्रारम्भ होने लिखी हैं और दूसरोंकी लिखी हुई प्रतियोंका संशो- पर आपने ग्रंथोंके प्रकाशनकी ओर खास ध्यान धन किया है । संशोधन कार्यमें आप खूब दक्ष थे, दिया था और यह काम आपका साहित्य सेवा आपको प्राचीन लिपियोंकी ठीक वाचनकला की ओर दूसरा महान कदम था । इसके फल स्व. आती थी। और इसी तरह प्रति लेखन-कलामें भी रूप ही आत्मानन्द जैन सभा भावनगरकी ओरसे आप निपुण थे। आपकी हस्तलिपि बड़ी ही सुन्दर 'आत्मानन्द जैनग्रन्थरत्नमाला' का निकलना एवं दिव्य रूपा थी, आपने बहुतसे लेखकोंको प्रारम्भ हुआ। इस ग्रन्थमालाके आप मुख्य प्राण अपने हाथतले रखकर उन्हें लेखन-कला सिखलाई ही नहीं किन्तु सर्वस्व थे। प्रन्थमालामें अब तक है, कई अच्छे मर्मज्ञ लेखक तैयार किये हैं और ८८ प्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, जिनमेंसे बृहत्कल्प उनसे हजारों ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियाँ कराई हैं। अपने सूत्रादि कितने ही ग्रन्थ बड़े महत्वके हैं। इन मंथों लिखे हुए और अपने हाथके नीचे दूमरोंसे लिखाये में से अधिकांशका सम्पादन आपके द्वारा तथा हुए तथा अपने द्वारा संशोधित हुए ग्रन्थोंका एक आपके प्रभावसे हुआ है । आप करीब २९ वर्ष बहुत बड़ा समूह आपने पं० श्रीकान्तिविजयजीके तक ग्रन्थमालाका सतत कार्य करते रहे हैं ! इस नाम पर स्थापित बड़ौदा और छाणीकं ज्ञान समय कई प्रन्थोंकी प्रेम कापियां छपाने के लिये भण्डारोंमें स्थापित किया है । बड़ौदाका भंडार तैयार मौजूद हैं, बृहत्कल्पक (जिसके पाच खंड इतना अधिक पूर्ण और उपयोगी संग्रह लिये हुए निकल चुके हैं ) पूरा छप जाने के बाद भापका है कि पं० सुखलालजीने उसे 'चाहे जिस विद्वानका विचार निशीथसूत्र' तैयार करनेका था और फिर मस्तक नमानेके लिये काफी' लिखा है। कथारलकोश तथा मनयगिरि-व्याकरण भादि आपके शिष्योत्तम मुनि श्री पुण्यविजयजीने दूसरे भी भनेक प्रन्थोंको हाथमें लेनेका विचार Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [पौष, वीर-निर्वाण सं०२१६५ था, ऐसा मुनिपुण्यविजयजी सूचित करते हैं। ही समान बना जाना। मुनि पुण्यविजयजी १३ ____ 'प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी ऐतिहासिक ग्रन्थ वर्षकी अवस्थामें आपकं श्रीचरणोंमें आकर माला' भी आपके ही प्रभावमं चलती थी जिसमे दीक्षित हुए थे। और आज उन्हें करीब ३१ वर्ष मुनि श्री जिनविजयजीके द्वारा सम्पादित होकर आपकं मत्संग एवं अनुभवोंसे लाभ उठाते और विज्ञप्तित्रिवेणी, कृपारमकोश, प्राचीन जैनलेख- आपके साथ काम करते होगये हैं । आपने पुत्रकी संग्रह आदि कितने ही महत्वके ऐनिहामिक ग्रंथ तरह उनके पालन तथा शिक्षणादिका बड़ा ही प्रकाशित हुए हैं। ___ सत्प्रयत्न किया है, और यह सब उसीका सत्फल गायकवाड ओरियंटल मिरीजमें प्रकाशित है जो आज उनमें आपके प्रायः मभी गुण मूर्ति'मोह पराजय' का सम्पादन भी आपका ही किया मान तथा विकामत नजर आते हैं और वे आपके हुआ है। और भी कई ग्रन्थमालाओम आपन मच्चे उत्तराधिकारी हैं। अभिमान उन्हें छूकर प्रन्थ सम्पादनका कार्य किया है । श्राद्धगुण विव. नहीं गया, वही सेवाभावकी स्पिरिट उनके रोम रणका गुजराती अनुवाद भी आप कर गये हैं। रोममें बमी हुई है और वे दूमरे साहित्यमवियों अनेक विद्वानोंको साहित्य सेवा कार्योंमें आप को उनके कायम महयोग प्रदान करना अपना अच्छी सहायता दिया करते थे। आपके ही द्वारा बड़ा कर्तव्य समझत है। मुझे समय समय पर देश-विदेशक अनेक विद्वानोंको पाटनके भंडारोंके आपस अनक ग्रन्थोंकी सहायता प्राप्त होती रही अनक अलभ्य ग्रंथांका मिलना सुलभ है। अभी 'जेन लक्षणावली' के लिय कुछ ग्रन्थ हुआ है। आपके गुरु श्रीकान्तिविजयजीकं उपदेश कीमतसे भी कहीं नहीं मिल रहे थे, आपने से निर्मित हुए 'हेमचन्द्राचार्य-जैनज्ञानमन्दिर' का उन्हें भावनगर तथा बड़ौदाम भिजवाया और जो उद्घाटनोत्सव पाटनमे गत अप्रैल माममें लिया कि जब तक आपका कार्य पृग न हो जाय हुआ था और जिमका परिचय अनकान्तकी तब तक आप उन्हें खुशीमे रख सकते हैं। इम पिछली ७वी किरणमे दिया जा चुका है उसमे भी उदार व्यवहारकं लिय मैं उनका बहुत आभारी आपका प्रधान हाथ रहा है। हूँ। ऐसे मत्पात्रको अपने उत्तराधिकारमें दकर ___ इम तरह मुनि श्रीचतुविजयजीन अपनी स्व. मुनि श्रीचतुरविजयजीने बड़ी ही चतुराईका ५१ वर्षकी लम्बी प्रव्रज्या-पर्यायमे प्रन्यांक संशो- काम किया है और अपने मेवा कार्योंके धन, संरक्षण, सम्पादन और प्रकाशनादिकं द्वारा भव्य भवन पर सुवर्णकलश चढ़ा दिया है । और प्राचीन साहित्यक उद्धाररूपमें बहुत बड़ी माहित्य इलिये आपके अवमानमे साहित्य-ससारको सेवा की है । शरीरक निर्बल हो जानेपर भी जहां बहुत बड़ी क्षति पहुची है वहाँ आपकी इस आपने अपना यह मवाकार्य नहीं छोड़ा, आप प्रतिमूतिपूजाको देखकर सन्तोष होता है और युवकों जैसा उत्साह रखते थे और इमलिये जीवन भविष्यकं लिये बहुत कुछ आशा बधनी है। के प्रायः अन्त समय तक–अन्तिम एक सप्ताहको इस सत्प्रवृत्तिमय जीवनसे दिगम्बर जैनछोड़कर आप अपने उक्त कर्तव्यका पालन करते समाजके मुनिजन एवं दूसरे त्यागीजन यदि कुछ हुए और साथ ही संयमी जीवन का निर्वाह करते शिक्षा ग्रहण करें और दि० जैन साहित्यके उद्धार हुए परलोकवासी हुए हैं। का बीड़ा उठावें और उसे अपने जीवनका प्रधान इस सब संवाकार्यकं अतिरिक्त और भी लक्ष बनावें, तो कितना अच्छा हो ? जो बड़ा कार्य मापने अपने जीवनमें किया है वीर-सेवा-मन्दिर, सरसावा, ता०२०-१-१९४० वह अपने शिष्य मुनिपुण्यविजयजी को अपने Page #297 --------------------------------------------------------------------------  Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिरको सहायता हालम वीरमंबामन्दिर मरमावाको २०) २८ की महायता निम्न मन्जनोंकी ओरसे प्राप्त हुई है, जिमकं लिय दातार-महानुभाव धन्यवादकं पात्र हैं: ५) पं० वन्शीधर जी जैन व्याकरणाचार्य बीना जि० मागर ५) ला० वन्शीधर मुमंग्चन्द जी जैन, बैलनगंज, आगरा ( चि० प्रतापचन्दकं विवाहकी खशीम) ५) दिगम्बर जैन समाज, पानीपत (दशलक्षण पर्व पर दानमें निकाली हुई रकममेंसे) ५) या- मुख्नारसिंहजी जैन बी. ए. मी. टी. अमिन्टेंट माम्टर गवर्नमेंट हाई स्कूल, मुजफ्फर नगर (माताजीक स्वर्गवासके उपलक्षम निकाले हुए दानमें मे)। २० अधिष्ठाता वीर-संवा-मन्दिर मग्मावा जि० महारनपुर महावीर सरल-जैन-ग्रन्थमाला, जबलपुर बालकां का मचित्र हिन्दी मामिक पत्र है। की ही पुस्तके आज प्रायः मभी जैन स्कूलों और इममें हिन्दी मंमारके सुप्रसिद्ध लग्यकों और सिद्ध लम्बका आर पाठशालाओं में पढ़ाई जाती हैं। पुस्तके मँगात कवियोंकी मुन्दर रचनायें रहना हैं । बालकोपयोगी ममय ध्यान रखियं कि वे 'मरल जैनग्रन्थमाला' रोचक और अनठी गापा पुम्नकांक लग्यकों को ममुचित पुरस्कार दिया जाना है। द्वारा प्रकाशित हैं। १०) की पुस्तके मँगाने पर "महावीर"बालमामिक पत्र माल भर विना मूल्य आज हो ग्राहक धनिये । वार्षिक मृल्प मवा मिलेगा। रुपया और एक प्रनिका दः श्राना । पना-महावीर, जबलपुर आज ही आर्डर भेजिये। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. L. 4328 अन्धोंकी बस्ती- - -"माहिर" अकबराबादी] यह दुनिया भी इलाही किस कदर नादान दुनिया है । यहाँ हर चीज पर बातिल का इक नापाक परदा है ।। यहाँ हर वक्त जल्मोजोरका इक शग्ल जारी है । यहाँ खुश रहके भी इन्मान वक्फ आहोजारी है ।। यहाँ नादार को नादार कहना इक कयामत है । यहाँ कल्लाशको जरदार कह देना मुरव्वत है ।। - यहाँ जुहदो तकुद सको समझते हैं रियाकारी । यहाँ दींदारियोंका नाम है ऐने गुनहगारी ॥ यहाँ हर झटको सच और सचको मठ कहते हैं। यहाँ इन्सानियतकं भेसमें शैतान रहते हैं । यहाँ मुल्लाए मस्जिद ही है. टेकेदार जन्नतका । यहाँ इसके सिवा हासिल किसे है हक इबादत का ॥ यहाँ दिलदारियांका रूप भरती है जफाकारी । वही है यार सादिक जिसको आए कारे एय्यारी ॥ वही है दोश्त जो साथी हो शरले ऐशो इशरत में । जो नेकीकी तरफ ले जाए दुशमन है हकीकत में || यहाँ हसनको सब हंसते है बेकारोंकी किस्मत पर । मगर रोना नहीं आता है वचारांकी किस्मत पर ।। यहाँ की रीतको देखा यहाँको प्रीतको समझा। खुदाको भल जाए जो वही है आकिले दाना ।। चल इस बस्ती से ऐ'माहिर' यह एक अन्धोंकी बरती है। यहाँ हर गलको बढ़ चढ़ कर जवान खार उमती है ।। RAA वीर प्रेम याफ इडिया कनॉट मर्कर, न्यू देहलं. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ phornstanelionellaneol Mahen माघ, वीर नि० सं०२४६६ । फरवरी १९४० HERA फरवरी १९४० वर्ष ३, किरण ४ वार्षिक मूल्य ३) अनकान्त । to deo सय ५ ५ १ hd ३ र ज्य HORI PosetteNCTIOFISORTERTIESDATIOGSTOTROPHOTOETIRGOTTAGEORGATORISPACPIROMORRITI सम्पादक सचालक जुगलकिशोर मुस्तार तनमुखराय जैन अधिष्ठाता वीर-सेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर) कनाट सकम पो. बो० नं०४८ न्य दहली। NOTECTOETRE Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ®विषय-सूची पृष्ठ २६६ २७७ २८० २८१ २८३ १. विद्यानन्द-स्मरण १. श्री.शुभचन्द्राचार्यका समय और ज्ञानार्णवकी एक प्राचीन प्रति [श्री०५० नाथराम प्रेमी ३. शिकारी ( कहानी)-[ श्री. भगवत् जैन ४. अनुरोध ( कविता )-[श्री. भगवत् जैन १. आत्मिक क्रान्ति ---[श्री या० ज्योतिप्रसाद विशाग्द ६. मम्बोधन ( कविता )-[श्री० ७० प्रेमचन्द ७. हिन्दी साहित्य-मम्मेलन और जैन दर्शन-[श्री पं० सुमेरचन्दजी। ८. जीवन-माध ( कविता )-[५० भवानीदत्त शर्मा 'प्रशान्त' ६.हरिभद्रमरि-[श्री०५० रतनलाल संघवी १० वीर शासनाक पर सम्मतियाँ ११ जैनममाज के लिये अनुकरणीय श्रादर्श-[ श्री. अगरचन्द नाहटा १२ गोम्मटसार एक मंग्रह ग्रन्थ है-[प० परमानन्द जैन शास्त्री १३ मानवधर्म (कविता)- श्री. 'युगवीर' १४ तल्वार्थाधिगम भाष्य और अकलंक-[प्रो० जगदीशचन्द एम.ए.. १५ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य और अक्लंक पर मम्पादकीय विचारणा १६ साहित्य परिचय और ममालांचन-मम्पादकीय १७ मामायिक विचार--श्रीभद्राजचन्द्र १८ सुभाषित-[कविवर बनारमीनामनी २८४ २८५ २८६ २६२-२६६ २६३ २६७ ३०३ ३०४ ३०७ ३१२ टाइटिल अनेकान्तकी फाइल अनेकान्त के द्वितीय वर्ष की किरणोंकी कुछ फाइलोको माधारण जिल्द बंधवाली गई हैं । १२वी किरण कम हो जाने के कारण फाइलें थोड़ी ही बन्ध मकी है। अतः जो बन्धु पुस्तकालय या मन्दिरोंमें भेंट करना चाहें .या अपने पास रखना चाहें घ २॥) रु. मनीआर्डरंग भिजवा देंगे तो उन्हें मजिल्द अनेकान्तकी फाइल भिजवाई जा सकेगी। जो सज्जन अनेकान्त के ग्राहक हैं और कोई किरण गुम हो जाने के कारण जिल्द बन्धवाने में असमर्थ है उन्हें १२वी किरण छोड़कर प्रत्येक किरण के लिये नार पाना और विशेषांक के लिये पाठ श्राना मिज. बाना चाहिए तभी प्रादेशका पालन हो सकेगा। -व्यवस्थापक Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नीति-विरोध-ध्वंसी लोक व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्पनेकान्तः ॥ सम्पादन-स्थान-वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो.बो.नं. ४८.न्य देहली माघ-पर्णिमा, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं०१६६६ वर किरण ४ अलंचकार यस्सार्वमाप्तमीमासितं मतम् । स्वामिविद्यादिनन्दाय नमस्तस्मै महात्मने। यः प्रमाणाप्तपत्राणां परीक्षाः कृतवानुमः । विद्यानन्दमिनं तं च विद्यानन्दमहोदयम् ॥ वद्यानन्दस्वामी विरचितवान् श्लोकवार्तिकालकारम् । जयति कवि-विबुध-तार्किकचूडामणिरमलगुणनिलयः।।-शिमोगा-नगरताशिलालेख 400 जिन्होंने सर्वहितकारी प्राप्तमीमांसित-मतको अलंकृत किया है-स्वामी समन्तभद्रके परमकल्याणरूप प्राप्तमीमांसा ग्रन्थको अपनी अष्टसहसी टीकाके द्वारा सुशोभित किया है-उन महान् प्रात्मा स्वामी विद्यानन्द-' को नमस्कार है। जो प्रमाणों, प्राप्तों तथा पत्रोंकी परीक्षाएँ करनेवाले हुए हैं जिन्होंने प्रमाणपरीक्षा, पासपरीक्षा और पत्रपरीक्षा जैसे महत्वके ग्रन्थ लिखे हैं-उन विद्या तथा प्रानन्दके महान् उदयको लिये हुए अथवा (प्रकारान्तरसे) 'विद्यानन्द-महोदय ग्रंथके रचयिता स्वामी विद्यानन्दकी हम स्तुति करते है--उनकी विद्याका यशोगान करते है। जिन्होंने 'श्लोकवार्तिकालंकार' नामका ग्रंथ रचा है वे कवियोंके चडामणि, विबुधजनोंके मुकुटमणि और तार्किकोंमें प्रधान तथा निर्मल गुणोंके आश्रयस्थान श्रीविद्यानन्दस्वामी जयवन्त है-सदा ही अपने पाठको बन्जनोंके हृदय में अपने अगाध पाण्डित्यका सिका जमानेवाले हैं। ऋजुसूत्रं स्फरद्रत्नं विद्यानन्दस्य विस्मयः । शरबतामप्यलंकारं दीप्तिरंगेषु रंगति ।। -पार्वनाथचरित वादिरावससि श्रीविद्यानन्दाचार्य के अनुसूत्ररूप तथा देदीप्यमानरलरूप अलंकारको जो सुनते भी है उनके भी अंगोंमें दीप्ति दौड़ जाती है, यह प्राचार्य की बात है! अर्थात् अलंकारों बाभूषणोंको जो मनुष्य धारण करता है उसीके अंगों में दीप्ति दौड़ा करती है--सुननेवालोंके अंगों में नहीं, परन्तु श्रीविद्यानन्दस्वामीके सत्यवतमय और स्कुर. दलरूप प्राप्तमीमांसाऽलंकार (अहसासी) और श्लोकवार्तिकालंकार (क्वार्थटीका) ऐसे मला अलंकार है कि उनके सुननेसे मी अंगोंमें दीसि दौर जाती है गुमनेवालोंके अंगोमें नियुचेजका-सा कुछ ऐसा संचार होने सगता है कि एकदम प्रसनता जाग उठती है। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ স্মান্ধাত্ব হ্রস্থ আলাজজী হুজুর ফ্লাল লি [ले-पं० श्रीनाथूरामजी प्रेमी, बम्बई ] पाटण (गुजरात)के खेतरवसी नामक श्वेताम्बर न मंदारमें (*. ११) श्रीशुभचन्द्राचार्यकृत शानार्णवको वैशाख सुदी १० शुक्रवार संवत् १२८४ की लिखी हुई एक प्राचीन प्रति है, जिसमें १५४२ साइजके २०७ पत्र है। उसके अन्तमें जो लेखकोंकी प्रशस्तियाँ । वे अनेक दृष्टियोंसे बड़े महत्वकी है, इस लिए उनै यहाँ प्रकाशित किया जाता है "इति हानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे पंडिताचार्यश्रीशुभचन्द्रविरचिते मोक्षप्रकरणम् । अस्यां श्रीमन्नपुर्या श्रीमवह देवचरणकमलपंचरीकः सुजनजनाइदयपरमानन्दकन्दलीकन्दः भीमाथुरान्वयसमुद्रचन्द्रायमानो भव्यात्मा परमभावकः भीनेमिचन्द्रो नामाभूत् । तस्याखिल-विज्ञानकलाकौशल-शालिनी सती पतिव्रतादिगुणगुणासंकार भूषित शरीरा निजमनोवृत्तिरियाव्यभिचारिणी स्वर्णानाम धर्मपत्नी संजाता । अथ तयोः समासादितधर्मार्थकामफलयोः स्वकुलकुमुदवनचन्द्रलेखा निजवंश-वैजयन्ती सर्वलक्षणालंकृतशरीरा जाहिणि-नाम-पुत्रिका समुत्पन्ना छ। ततो गोकर्ण-श्रीचंद्रौ सुतो जातो मनोरमौ । गुणरत्नाकरीभव्यौ रामलक्ष्मणसबिभौ ॥ सा पुत्री नेमिचन्द्रस्य जिनशासनवत्सला। विवेकविनयोपेता सम्यग्दर्शनलांछिता ॥ सात्वा संसारवैचित्र्यं फल्गुता च नृजन्मनः तपसे निरगाद्गेहात् शान्तचित्ता सुसंयता ॥ बान्धवैर्वार्यमाणापि प्रण(य)तैः शाखलोचनैः। मनागपि मनो यस्या न प्रेम्णा कश्मलीकृतं । गृहीतं मुनिपादांते तया संयतिकावतं । स्वीकृतं च मन: शुद्ध था रत्नत्रयमखंडितं ॥ तया विरक्तयात्यंत नवे वयसि यौवने । प्रारब्धं तत्तपः कत्तुं यत्सतां साध्विति स्तुतं । यमव्रततपोद्योगैः स्वाध्यायध्यानसंयमैः । कायक्लेशाधनुष्ठानगृहीतं जन्मनः फलम् ॥ तपोभिर्नुष्करैनित्य बागान्त दलक्षणैः। कषायरिपुभिः सार्ध निःशेष शोषितं वपुः ॥ विनयाचार सम्पत्त्या संघः सर्वोप्युपासितः । वैयावृत्योद्यमान्शश्वत्कीर्तिनीता दिगंतरे । किमियं भारती देवी किमियं शासनदेवता । दृष्टपूर्वैरपि प्राय: पौररिति वितळते ॥ तया कर्मक्षयस्यार्थ ध्यानाध्ययनशालिने । तपः श्रुतनिधानाय तत्वज्ञाय महात्मने ॥ रागादिरिपुमल्लाय शुभचन्द्राय योगिने । लिखाप्य पुस्तकं दत्तमिदं मानार्णवाभिधम् ॥ संवत् १२८४ वर्षे बैशाष सुदि १० शुक्र गोमंडले दिगम्बरगजकुल-सहस्रकीर्ति (तस्याः पं केशरिसुतवीसलेन लिखितमिति ।" Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाबासकी एक प्राचीन प्रति भावार्थ-इस नपुरी में अरहंत भगवान्के चरस- उसने निरन्तर बाम और अन्तरंग दुकर तप तपकमलोंका भ्रमर, सज्जनोंके हृदयको परमानन्द देनेवाला कर कषायरिपुत्रोंके साथ साथ अपने सारे शरीरको मी माथुरसंघरूप समुद्रको उल्लसित करनेवाला भन्यामा सुला डाला। भीनेमिचन्द्र नामका परम भावक हुआ, जिसकी उसने विनयाचार सम्पत्तिसे सारे संघकी उपासना धर्मपल्लीका नाम स्वर्णा (सोना था जो कि अखिल की और वैयावृत्ति करके अपनी कीर्तिको दिगन्तर्गतक विज्ञानकलाओंमें कुशल, सती, पातिव्रत्यादि-गुणोंसे पहुंचा दिया। भूषित और अपनी मनोवृत्तिके ही समान अव्यभिचा- जिन पौरजनोंने उसे पहले देखा था वे भी इस रिणी थी । धर्म-अर्थ और कामको सेवन करनेवाले इन तरहका वितर्क करने लगे कि न जाने या साक्षात् दोनोंके जाहिणी नामकी पुत्री हुई, जो अपने कुलरूप भारती ( सरस्वती ) देवी है या शासनदेवता है। कुमुदवनकी चन्द्रलेखा, निजवंशकी बैजयन्ती (ध्वजा) उस जाहिणी पार्यिकाने कर्मोके क्षयके लिए यह और सर्वलक्षणोंसे शोभित थी। शानार्णव नामकी पुस्तक ध्यान और अध्ययनशाली, इसके बाद उनके राम और लक्ष्मणके समान तप और शास्त्र के निधान, तस्योंके शाता और रागादिगोकर्ण और श्रीचन्द्र नामके दो सुन्दर, गुणी और रिपुत्रोको पराजित करनेवाले मल्ल जैसे शुभचन्द्र योगीभव्य पुत्र उत्पन्न हुए। को लिखाकर दी। __ और फिर नेमिचन्द्रको वह जिनशासन वत्सला, वैशाख सुदी १० शुक्रबार वि० सं० १२८४ को विवेक-विनयशीला और सम्यग्दर्शनवती पुत्री (जा- गोमंडल (गोंडल-काठियावाड़) में दिगम्बर राजकुल हिणी) संसारकी विचित्रता तथा नरजन्मकी निष्फलता (मट्टारक !) सहस्रकीर्तिके लिए ५० केशरीके पुत्र को जानकर तपके लिए घरसे चल दी। वह शान्तचित्त वीसलने लिखी। और अतिशय संयत थी। शास्त्रज्ञ बन्धुजनोंके प्रयल विवेचन-ऐसा मालूम होता है कि इस पुस्तकमें पूर्वक रोकनेपर भी उसके मनको प्रेम या मोहने जरा लिपि-कर्ताओंकी दो प्रशस्तियाँ है। पहली प्रशस्तिमें भी मैला न होने दिया। तो लिपिकर्ताका नाम और लिपि करनेका समय नहीं आखिर उसने मुनियोंके चरणों के निकट आर्यि- दिया है, सिर्फ लिपि करानेवाली जाहिणीका परिचय काके व्रत ले लिये और मनकी शुद्धिसे अखंडित रत्न- दिया है। प्रयको स्वीकार किया। हमारी समझमें प्रायिंका जाहिणीने जिस लेखकसे ___ उस विरक्ताने नवयौवनकी उम्र में ऐसा कठिन तप उक्त प्रति लिखाई होगी, उसका नाम और समय भी करना प्रारम्भ किया कि सम्जनोंने उसकी 'साधु साधु' अन्तमें अवश्य दिया होगा; परन्तु दूसरे लेखकने उक्त कहकर स्तुति की। पहली प्रतिका वह अंश अनावश्यक समझकर छोड़ उसने यम, मन और तपके उद्योगसे, स्वाध्याय दिया होगा और अपना नाम और ममय अन्तमें लिख ध्यान और संयमसे तया कायक्रेशादि अनुष्ठानोंसे दिया होगा । इस दूसरी प्रतिके लेखक पं०केशरीके पुत्र अपने जन्मको सफल किया। वीसल है और उन्नोंने गोडलमें श्रीसहसकीर्ति के लिए Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [माध, वीर विनाय सं०१० इसे लिखा था जब कि पहली प्रति नृ पुरीमें श्रीशुभचन्द्र बहुत प्राचीन कालकी हों; परन्तु यह नहीं कहा जा. योगीके लिए लिखाकर दी गई थी। सकता कि इस समय गोंदलराज्यमें दिगम्बर-सम्प्रदायके दूसरी प्रति वि० सं० १२८४ की लिखी हुई है, तब अनुयायी नहीं हैं, इसलिए पहले भी न रहे होंगे। पहली प्रति अवश्य ही उससे पचीस-तीस वर्ष पहले सानार्णवकी बीसलकी लिखी हुई उक्त प्रतिसे मालम लिखी गई होगी। नपुरी स्थान कहाँ है, ठीक ठीक नहीं होता है कि विक्रमकी तेरहवीं शताब्दिमें गोंडलमें दिकहा जा सकता । संभव है यह ग्वालियर राज्यका गम्बर-सम्प्रदाय था और उसके सहस्रकीर्ति नामक नरवर हो । नरपुर और नृपुर (स्त्रीलिंग नृपुरी) एक साधुके लिए वह लिखी गई थी। सहस्रकीर्ति दिगम्बर हो सकते हैं। नरपुरसे नरउर और फिर नरवर रूप सम्प्रदायके भट्टारक जान पड़ते हैं, और इसलिए वहाँ सहज ही बन जाते हैं। उनके अनुयायी भी काफी रहे होंगे। गोमंडल और गोंडल एक ही हैं। गोमडलका ही उनका दिगम्बर राजकुल विशेषण कुछ अद्भुत अपभ्रंशरूप गोंडल है। अभी कुछ समय पहले डा० सा है। हमारी समझमें राजकुल राउल' का संस्कृत हँसमुखलाल सांकलियाने गोंडल राज्यके ढांक नामक रूप है । राजकुलके गृहस्थों और पदवीधारियोंके स्थानकी प्राचीन जैन गुफाओंके विषयमें एक लेख समान यह विशेषण उम समय यहाँपर भट्टारकोंके लिए प्रकाशित किया था, जहाँसे कि बहुतसी दिगम्बर भी रूढ होगया होगा, ऐसा जान पड़ता है। प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। यह स्थान जूनागढ़से ३० मील पहली प्रशस्तिमें एक विलक्षण बात यह है कि उत्तर-पश्चिमकी तरफ गोंडल राज्यके अन्तर्गत है । आर्यिका जाहिणीने वह प्रति ध्यानाध्ययनशाली, तपःचकि इस समय गोडल और उसके आसपास दिगम्बर- श्रुतनिधान, तत्त्वज्ञ, रागादिरिपुमल्ल और योगी शुभसम्प्रदायके अनुयायियोंका प्रायः अभाव है, इसलिए चन्द्रको भेंट की है और ज्ञानार्णव या योगप्रदीपके कर्ता ग. साहबने अनुमान किया था कि उक्त प्रतिमायें शुभचन्द्राचार्य ही माने जाते हैं । उक्त विशेषण भी उस समयकी होगी जब दिगम्बर-श्वेताम्बर भेद हुए उनके लिए सर्वथा उपयुक्त मालम होते हैं। ऐसी अधिक समय न बीता था और दोनोंमें श्राज-कलके हालतमे प्रश्न होता है कि क्या स्वयं ग्रन्थकर्ताको ही समान वैमनस्य न था । उक्त लेख जैनप्रकाश (भाग ४ उनका ग्रंथ लिखकर भेंट किया गया है ? असंभव न अक १-२) में प्रकाशित हुआ था और उसपर सम्पादक होनेपर भी यह बात कुछ विचित्रसी मालम होती है। महाशयने अपना यह नोट दिया था कि पहले श्वेताम्बर यदि ऐमा होता तो प्रशस्तिमें श्रार्यिकाकी श्रोरसे इस भी निर्वस्त्र या दिगम्बर मूर्तियोंकी पूजा करते थे। बातका भी सकेत किया जा सकता था कि शुभचन्द्र यह बात सही है कि पहले श्वेताम्बर भाई भी योगीको उन्हींकी रचना लिखकर भेंट की जाती है । निर्वस्त्र मूर्तियोकी पूजा करते थे, लगोट आदि चिहों- इसलिए यही अनुमान करना पड़ता है कि अन्यकर्ताके वाली प्रतिमाये प्रतिष्ठित करनेकी पद्धति बहुत पीछे अतिरिक्त उन्हींके नामके कोई दूसरे शुभचन्द्र योगो ये शुरू हुई है और यह भी संभव है कि ढांककी गुफाओं जिन्हें इस प्रतिका दान किया गया है। और अक्सर की मूर्तियाँ मथुराके कंकाली टीलेकी मूर्तियों के समान प्राचार्य-परम्परामें देखा गया है कि जो नाम एक प्रा. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शामक प्राचीन प्रति चार्यका होता था वही उसके प्रशिष्यकाभी रख दिया इससे यह श्लोक किसी प्राचीन ग्रन्थका जान पड़ता है। जाता था, जिस तरह धर्मपरीक्षाके कर्ता अमितगतिके नार्णवके काके लिए ये शीनों ही अन्यात ये. परदादा गुरुका भी नाम अमितमति था। बहुत संभव इसलिए उनोंने तीनोंको 'जच प्रत्यारे काकर है कि जिन शुभचन्द्र योगीको उक्त प्रति दान की गई उद्धृत कर दिया । यशस्तिलककी रचना विक्रम संवत् है, अन्धकर्ता उनके ही प्रगुरु (दादा सुरु) या प्रगुरुके १०१६ में हुई है, इसलिये शानायका समय इसके भी गुरु हो। बादका मानना चाहिए। अभी तक ज्ञानार्णवका रचनाकाल निर्णीत नहीं शानार्णवके पृ० १७७ में एक श्लोक पुरुषासिहुआ है । उसमें प्राचार्य जिनसेनका स्मरण किया द्वयु पायका भी ('मिथ्यात्ववेदरागा'पादि)उद्धृत किया गया है, और जिनसेनने जयधवलटीकाका शेष भाग गया है, परन्तु उसके कर्ता अमृतचन्द्राचार्यका समय शकसंवत् ७५६ (वि० सं० ८८४) में समाप्त किया निश्चित् न होनेके कारण वह एक तरहसे निरुपयोगी है। था । इससे यह निश्चित होता है कि विक्रमकी नवीं पाटणकी उक्त प्रति वि० सं० १२८४ की लिखी शताब्दिके बाद किसी समय शनार्णवकी रचना हुई हुई है और मार्यिका आहिणीवाली प्रति यदि उससे होगी। कितने बाद हुई होगी यह जाननेके लिए हमने अधिक नहीं पचीस-तीस वर्ष पहलेकी भी समझ ली सानार्णवके उन श्लोकोंकी जाँच की,जिन्हें अन्धाकर्त्ताने जाय और ग्रन्थ उस प्रतिसे केवल तीस चालीस वर्ष अन्य ग्रंथोसे 'उक्त च ग्रंथान्तरे' कहकर उद्धृत किया पहले ही रचा गया हो, तो विक्रमकी बारहवीं शतान्दिके है। मुद्रित ज्ञानार्णवके पृष्ठ ७५ (गुणदोषविचार)में अन्तिमपाद तक शानार्णवकी रचनाका समय जा पहुँ. नीचे लिखे तीन श्लोक है चता है । यद्यपि हमारा खयाल है कि शुभचन्द्र इससे ज्ञानहीने क्रिया पुसि परं नारमते फलम। भी पहले हुए होंगे। तरोश्छायेव किं लभ्या फलश्रीनष्टदृष्टिभिः ॥।॥ श्राचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र और शानार्गवमें शानं पङ्गी क्रिया चान्धे निःश्रद्ध नार्थकद्वयम् । बहुत अधिक समानता है ।योगशास्त्रके पांचवें प्रकाशसे सतो ज्ञान क्रिया श्रद्धा त्रयं तत्पदकारणम् ॥२॥ लेकर ग्यारहवें प्रकाश तकका प्राणायाम और ध्यानहतं ज्ञानं क्रियाशून्यं हताचासानिनः किया। वाला भाग शानायके उन्तीसवेसे लेकर न्यालीसवें धावनप्यन्धको नष्टः पश्यमपि च पंगुकः ॥३॥ तकके मोंकी एक तरह नकल ही मालूम होती है। यही तीनों श्लोक यशस्तिलकचम्पके छठे अाश्वास छन्द-परिवर्तनके कारण जो थोड़े बहुत शब्द बदलने (१०२७१) में ज्योंके त्यों इसी क्रमसे दिये हुए हैं। इन- पड़े हैं उनके सिवाय सम्पूर्ण विषय दोनों ग्रंथोंमें एकमेंसे पहले दो तो स्वयं यशस्तिलककर्ता सोमदेवसूरिके सा है। इसी तरह चौथे प्रकाशमें कपायजयका उपाय है और तीसरा यशस्तिलको 'उक्तं च' कहकर किसी 'इन्द्रियजय', इन्द्रिजयका उपाय 'मनः शुद्धि', उसका अन्य अंथसे उद्धृत किया गया है। अकसकदेवके राज- - पहली प्रति मरवर (माखवा) में खिली गई थी। वार्तिकमें भी यह श्लोक थोड़ेसे साधारण पाठमेदके और दूसरी गोंय (काठियावार) में मानवे से गोंग्स साथ 'उक्तं च रूपसे उद्धृत ही पाया जाता है, और उस समयकी रस्सेि काफी दूर है। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ [माध, बीर निर्वावसं. उपाव रागडेषका जय, उसका उपाय समत्व और समत्व यह तो निश्चित है कि शुभचन्द्र और हेमचन्द्र की प्राप्ति ही ध्यानकी मुख्य योग्यता है, ऐसा जो कोटि- दो में से किसी एकके सामने दूसरेका अन्य मौजूद था। कम दिया है वह भीशानावके २१से २७तकके सोंमें परन्तु जबतक शुभचन्द्रका ठीक समय निश्चित् नहीं हो शब्दया और अर्थशः एक-जैसा है। अनित्यादि भाव- जाता, तब तक जोर देकर यह नहीं कहा जा सकता नामोंका और अहिंसादि महावतोंका वर्णन भी कमसे कि किसने किसका अनुकरण और अनुवाद किया है। कम शैलीकी दृष्टिसे समान है। शब्द-साम्य भी जगह 'उक्तं च' श्लोकोंकी खोज करते हुए हमें मुद्रित जगह दिखाई देता है। नमूने देखिए- ज्ञानार्णवके २८६ पृ. (सर्ग २६) में नीचे लिखे दो किम्पाकफलसंभोगसग्निभ तद्धि मैथुनम्। श्लोक इस प्रकार मिलेमापातमात्ररम्यं स्याद्विपाकेऽत्यन्तभीतिदम् । उक्तं च श्लोकदयं -शानार्णव पृ० १३४ समाकृष्य यदा प्राणधारणं स तु पुरकः । रम्यमापातमात्रे यत्परिणामेऽतिदारुणम् । नाभिमध्ये स्थिरीकृत्य रोधनं स तु कुंभकः ।। किम्पाकफल-संकाशं तत्कः सेवेत मैथुनम् ॥७॥ यत्कोष्टादतियत्नेन नासा ब्रह्मपुरातनैः । -योगशास्त्र दि० प्र० बहिः प्रक्षेपणं वायोः स रेचक इति स्मृतः॥ विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम्। और यही श्लोक हेमचन्द्रके योगशास्त्रके पांचवें यस्य चित्र स्थिरीभूतं स हि ध्याता प्रशस्यते ॥३ प्रकाशमें नं० ६ और ७ पर मौजूद है। सिर्फ इतना स्वर्णाचल इवाकम्पा ज्योतिः पथ इवाभलाः। अन्तर है कि योगशास्त्रमें 'नाभिमध्ये' की जगह 'नाभिसमीर इव निःसङ्गाः निर्ममत्वं समाश्रिताः ॥१५ प ' और 'पुरातनैः' की 'पुराननैः' पाठ है । -शनार्णव पृ०८४-८६ इससे यह अनुमान होता है कि ज्ञानार्णव योगविरतः कामभोगेभ्यःस्वशरीरेऽपि नि:स्पृहः। शास्त्रके बादकी रचना है और उसके कर्ता ने इन संवेगहनिमग्नः सर्वत्र समता श्रयन् ॥५ श्लोकोको योगशास्त्र परसे ही उठाया है । परन्तु हमें सुमेरिव निष्कम्पः शशीवानन्दायकः। इस पर सहसा विश्वास न हुआ और हमने शानार्णवसमीर इब निस्संगः सुधीर्ध्याता प्रशस्यते ॥१६ की हस्तलिखित प्रतियोंकी खोज की। -योगशास्त्र सप्तम् प्र. बम्बईके तेरहपन्थी जैन मन्दिरके भंडारमें शाना. प्राचार्य हेमचन्द्रका स्वर्गवास वि० सं० १२२६ में र्णवकी एक १७४७ साईजकी हस्तलिखित प्राचीन हना। विविध विषयों पर उन्होंने सैंकड़ों ग्रन्थोंकी प्रति है, जिसके प्रारम्भके ३४ पत्र (स्त्रीस्वरूपप्रतिरचना की थी। योगशास्त्र महाराजा कुमारपालके पादक प्रकरण के ४६ पद्य तक) तो संस्कृत टीकाकरनेसे रचा गया था और उनका कुमारपालसे अधिक सहित हैं और आगे के पत्र बिना टीकाके है। परन्तु उनके निकटका परिचय वि० सं० १२०७ के बाद हुआ था। नीचे टीकाके लिए जगह छोड़ी हुई है । टीकाकर्ता अतएच योगशास्त्र विक्रम संवत् १२०७ से लेकर कौन है, सो मालूम नहीं होता। वे मंगलाचरण श्रादि १२२६ तकके बीच के किसी समयमें रखा गया है। कुछ न करके इस तरह टीका शुरु कर देते हैं Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, नि: शानायकी एक प्राचीन प्रति भों नमः सिद्धेभ्यः। महं श्री शुभचन्द्राचार्यः जयचन्द्रजीने ही योगयाख परसे. उक्तं च रूपमें उठा परमात्मानमव्ययं नौमि नमामि कि भूतं परमा- लिया होगा या फिर उनके पास जो मूल प्रति ही त्मानं मज जन्मरहिवं पुन: कि भूतं परमात्मानं होगी उसमें ही किसीने उद्धृत कर लिया होगा । परन्तु भव्ययं विनाशरहितं । पुनः किं भूतं परमात्मानं मूलकी सभी प्रतियोंमें ये श्लोक न होंगे। निदान दो सौ निष्टितार्थ निष्पन्नाथ पुनः किं भूतं परमात्मानौं वर्षसे पुरानी प्रतियोंमें तो नहीं ही होंगे । पाठकोंको मानलक्ष्मीषनाश्लेषप्रभवानन्दनन्दितं । शानमेव चाहिए कि वे प्राचीन प्रतियोंको इसके लिए देखें। लक्ष्मीस्तस्या योऽसौ धनाश्लेषं निविड़ाश्लेषस्तम्मात् लिपिकर्ताओंकी कृपासे 'उक्तंच' पयोंके विषयमें प्रभवः उत्पनो योऽसौ भानन्दस्तेन नन्दितम्।" इस तरहको गड़बड़ अक्सर हुमा करती है और यह इस प्रतिके शुरूके पत्रोंके ऊपरका हिस्सा कुछ गड़बड़ समय-निर्णय करते समय बड़ी झमटें खड़ी कर जल-सा गया है और कहीं कहींके कुछ अंश झड़ गये दिया करती है। है। प्रारंभके पत्रकी पीठपर कागज चिपकाकर बड़ी ज्ञानार्णवकी छपी हुई प्रतिको ही देखिए । इसके सावधानीसे मरम्मत की गई है। पूरी प्रति एक ही लेख- पृष्ठ ४३१ (प्रकरण ४२) के 'शुचिगुरुयोगाई' आदि ककी लिखी हुई मालूम होती है । अन्तमें लिपिकर्ताका पद्यको 'उक्तं च' नहीं लिखा है परन्तु तेरहपन्थी मंदिर नाम तिथि-संवत् प्रादि कुछ भी नहीं है, फिर भी हमारे की उक्त संस्कृत टीका वाली प्रतिमें यह 'उक्तं च है। अनुमानसे वह डेढ़-दो सौ वर्षसे इधरकी लिखी हुई पं० जयचद्र जीकी नचनिकामें भी इसे 'उक्तं च श्रायो' नहीं होगी। करके लिखा है, परन्तु छपाने वालोंने 'उक्तं च' छोड़ इस प्रतिमें हमने देखा कि प्राणायाम-मम्बन्धी वे दिया है! इसी तरह अड़तीसवें प्रकरणमें संस्कृत टीका दो 'उक्तंच' पद्य है ही नहीं जो छपी हुई प्रतिमें दिये हैं वाली प्रतिमें और वचनिकामें भी 'शंखेन्युमन्दधवला और जो प्राचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्रके हैं। तब ये ध्यानारेबासपो विधानेन श्रादि पद्य 'उक्तं च करके छपी प्रतिमें कहाँसे आये। __ दिया है परन्तु छपी हुई प्रतिमें यह मूल में ही शामिल ___ स्व. पं. पन्नालालजी वाकलीवालने पं0 जयचन्द्र कर लिया गया है। जीकी भाषा वचनिकाको ही खड़ी बोलीमें परिवर्तित ध्येयं स्याहीतरागस्य' आदि पद्य छपी प्रतिके करके ज्ञानार्णव छपाया था। हमने प० जयचन्द्र जीकी ४०७ पृष्ठमें 'उक्तं च' है परन्तु पूर्वोक्त सटीक प्रतिमें वचनिका वाली प्रति तेरहपन्थी मन्दिरके भंडारसे निक- इसे 'उक्तं च न लिखकर इसके प्रागेके 'वीतरागो लवाकर देखी तो मालूम हुआ कि उन्होंने इन श्लोकोंको भवेयोगी' पाको 'उक्त च' लिखा है । और छपीमें उद्धत करते हुए लिखा है कि-"इहाँ उक्तं च दोय तथा वचनिकामें भी, दोनों ही 'उक्त च' हैं। श्लोक -" 'उक्तं च' पद्योंके सम्बन्धमें अपी और सटीक तथा पं. जयचन्द्र जीने अपनी उक्त वचनिका माष सुदी वचनिकावाली प्रतियोमें इमी तरह और भी कई जगह पंचमी भगुवार सवत् १८०८ को समाप्त की थी । या फर्क है, जो स्थानाभावसे नहीं बनलाया जा सका। तो इन श्लोकोंको प्रकरणोपयोगी समझ कर स्वयं ५० अभिप्राय यह है कि शानार्णवकी छपी प्रतिमं हेमचन्द्र Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [माष, वीरनिर्वाण सं०२५ के योगशास्त्रके उक्त से पद्योंके रहने से यह सिद्ध नहीं श्रीशुभचन्द्राचार्यका मक समय निसय करनेका प्रयत्न होगा कि शुभचन्द्राचार्वने स्वयं ही उने उद्धृत किया है करें । और इस कारण वे हेमचन्द्र के पीछेके हैं। इसके लिए बम्बई ता० १४-१-१६४० कुछ और पुट प्रमाण चाहिए। सम्पादकीय नोटपाटणके भारकी उक्त प्राचीन प्रति तो बहुत कमदोरके शक बोट परखे मुके राबत. कुछ इसी ओर संकेत करती है कि शामार्णव योग- शाखमाताके संचालकोंकी इस मनोवृत्तिको मात शास्त्रसे पीछेका नहीं है। करके या खेद हुषा कि महोंने भूमिका-पोसाको नोट--अबसे कोई बत्तीस वर्ष पहले (जुलाई स्वयं अपनी पूर्वलिखित भूमिका को सदोष तथा बुद्धिसन् १९०७) मैंने शानावकी भूमिकामें 'शुभचन्द्रा- पूर्ण बतलाने और उसे निकाल देने अथवा संशोधित चार्यका समयनिर्णय लिखा था और उस समयकी कर देनेकी प्रेषया करने पर भी वह भक्तक निकाली या पदाके अनुसार विश्वभूषण भट्टारकके 'भक्तामरचरित' संशोधित नहींकी गई है ! यह बड़े ही विचित्र प्रकारका को प्रमाणभूत मानकर भाराधीशभोज, कालीदास, वर- मोह तथा सत्यके सामने पाँखें बन्द करने जैसा प्रयत है! सचि, धनंजय, मानतुंग,भर्तृहरि श्रादि भिन्न भिन्न समय- और कदापि प्रशासनीय नहीं कहा जा सकता । माशा है वती विद्वानोको समकालीन बतलाया था । परन्तु समय कि ग्रंथमालाके संचालकनी भविष्य में ऐसी बातोंकी बीतने पर वह श्रद्धा नहीं रही और पिछले भट्टारकों द्वारा भोर पूरा ध्यान रखेंगे और अंधके चतुर्थ संस्करणमें निर्मित अधिकांश कथासाहित्यकी ऐतिहामिकता पर लेखक महोदयकी इच्छानुसार उक्त भूमिकाको निकाला सन्देह होने लगा। तब उक्त भूमिका लिखने के कोई देने पववा संशोधित कर देनेका ८ संकल्प करेंगे। पाठ नौ वर्ष बाद दिगम्बरजैनके विशेषाङ्कमें (श्रावण साथ ही,तीसरे संस्करणकी जो प्रतियाँ भवशिष्ट हैं उनमें संवत् १९७३) 'शुभचन्द्राचार्य' शीर्षक लेख लिखकर लेखकजीके परामशानुसार संशोधनकी कोई सूचना मैंने पूर्वोक्त बातोंका प्रतिवाद कर दिया, परन्तु शाना• जरूर लगा देंगे। वकी उक्त भूमिका अब भी ज्योंकी त्यों पाठकोंके ज्ञानार्थव ग्रंथकी प्राचीन प्रतियोंके खोजनेकी बढ़ी हाथोंमें जाती है। मुझे दुःख है कि प्रकाशकोंसे निवे- जमत है । जहाँ जहाँ भबडारोंमें ऐसी प्राचीन दन कर देने पर भी वह निकाली नहीं गई और इस प्रतियां मौजूद हों, विद्वानोंको चाहिये कि वे उन्हें तीसरी आवृत्ति में भी बदस्तूर कायम है। इतिहासशोंके मालूम करके उसके विषयकी शीत्र सूचना देनेकी कृपा भागे मुझे लज्जित होना पडता है, इसका उन्हें खयाल में, जिससे उन परसे बाँचका समुचित कार्य किया नहीं । बंगला मासिक पत्रके एक लेखक श्रीहरिहर जा सके। सूचनाके साथमें, ग्रंथप्रतिके खनका समय भट्टाचार्यने तो शनार्णवकी उक्त मूमिकाको 'उन्मत्त- पदि कुछ दिया हुआ हो तो वह भी लिखना चाहिये प्रलाप' मतलाया था। विद्वान् पाठकोंसे निवेदन है कि और ग्रंथकी स्थितिको भी प्रकार करना चाहिये कि यह 'भकामरचरित' की कथाका खयाल न करके ही वे किस हालत है। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [.-श्री भगवत्' बैन] कविकी कल्पनामें जब बाँध लग जाता है । मि. होता है । खाली हाथ लौटनेसे जो मिले वही 'नटों सोचने पर भी कलम जब भागे नहीं ठीक।' बढ़ती, तब मनमें एक खीज पैदा हो उठती है। शिकारीका अनुमान-शिकारके सम्बन्धमेंठीक वैसी ही खीजकी कटता उस शिकारीको भी प्रायः सही बैठता है । रोजका अभ्यास, पुराना विकल करती है, जो थकावटसे चूर, प्याससे अनुभव ! गलत कैसे बैठे ?... मजबूर और अपने निवाससे दूर-जंगलों-झाड़ि- शिकारी आगे बढ़ा। जैसे ही झाड़ियों के बीच योंमें शिकारके पीछे या शिकारकी तलाशमें में पहुँचा कि दीखा वही दृश्य-जिसे अनुमानने दौड़ता-हाँपता घूमता है, पर शिकार हाथ नहीं पहले ही देख रखा था ! ."लम्बे-चौड़े मैदानके लगती!... एक कोनेमें हिरण-दम्पत्ति मौजमें ललक रहे हैं, राजपूत-नरंशका मन खीज रहा है ! रह-रह प्रणय-स्वर्गीय-सरिताकी भांति सवेग प्रवाहित कर मनमें आ रही है-'घर लौट चलें।' हो रहा है !... कन.....? __ 'सन्ध्याको सुनहरी-धूपमें कितने अच्छे लग 'क्या खाली हाथ ? अभी सन्ध्या होने में काफी रहे हैं-वह ? कैसा मुक्त-जीवन है-उनका ? देर है ! सम्भव है, कुछ हाथ लगे ।... साफ-सुथरी जमीन पर, मुक्ताकाशकं नीचे, सभ्य राज-पुत्रने घोड़ा बढ़ाया। हृदयमें पाशाने भी ता बन्धनोस रहित, एकान्त आँगनम-कैसा दौड़ लगाना शुरू किया ।'हवाका एक झोंका प्रेम-प्रमोद रच रहे हैं ? गुप्त-मंत्रणा कर रहे हैं आया, घोड़ा घने पेड़की छाँहसे गुजर रहा था, जानें ? कैसी लभावक, कैसी उत्तेजक प्रेम-लीला है कितनी ठंडी हवा लगी कि राज-पुत्रका प्याससे यह?.." मलिन मुख उहीप्त हो उठा ! किन्तु वह रुक नहीं, शिकारी कुछ देर खड़ा, सोचता-विचारता 'ठहरना' उनकी खीजका साथी था,और उद्देश्यका रहा-यही सब ! पाठ भूले, विद्यार्थीकी तरह ! या चौकड़ी भूले, हिरणकी भांति ! फिर-सहसा ___ 'इन झाड़ियोंके उस पार मैदान होगा, साफ- चेतना लौटी, परिस्थितिका ज्ञान हुआ-रात हुई सुथरा चटकीला-स्थान ! वहाँ और कुछ नहीं, तो जा रही है ! सबेरसे अपतक एक भी शिकार हाय हिरन तो होंगे ही! जरूर होंगे-अक्सर ऐसा नहीं चढ़ी ! जाने किसका मुँह देखकर भाया गया Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [माध, बीर-निर्वाव सं० % 3D है भाज! नहीं था, उसे देखनेकी कतई इच्छा उसके मनमें इसके बाद ही,षोडषी-नारीकी भू बंकके भांति, नहीं थी, भावना विरुद्ध दृश्यकी कठोरताने उसे कमानको बनाया गया, फिर सधे हुए हाथोंने बाण प्रांखें बन्द करनेको विवश किया हो !'एक का निशाना साधा ! और दूसरे ही पल-लक्ष्य- गहरी साँसके साथ सब समाप्त, जीवन-लीलाका वेध ! पण हिरणी पेटमें होकर आर-पार ! अन्त ! शिकारीने जाकर देखा-जमीन खूनसे रंग शिकारीका मन-तितलीके पंखोंकी तरह रही है ! विवश-नेत्रोंसे हिरणी अपने प्रेमी, अपन सुन्दर, चारेको चोंचमें दबाए, नीड़को लौटते पंछी सब-कुछ, अपने स्वामीकी ओर देख रही है ! उस की भांति तौन-गतिंसे उड़ रहा है ! खूनमें तेजी 'देखने में जैसे सारे संसारकी दीनता भरदी है, शरीरमें नव-जीवन-सा प्रवेश हुआ लगता है। शायद हिरणीका जीवन भी इसीमें आ मिला है। भाँतें बाहर निकली आ रही हैं, जीभ-हाँ, यों ही, अलक्षित भावसे -जो मुँह पर आया वही सूखी-सी जीभ-मुँहके बाहर, दांतोंकी कैदके -गुन गुनाते हुए शिकारी हिरणीके 'शव' को बाहर हो रही है ! बार-बार भागनेकी बेकार को- घोड़े पर लादनेके लिए उठाने लगा, कि सामने शिश करती है, और गिर-गिर जाती है ! कितनी हिरण !! द्वानक, कितनी दयनीय ? 'अरे, यह सबसे यहीं खड़ा है ?-विस्मयक मगर शिकारीके लिए हिरणीका बध-खुशी साथ शिकारीके मुँहसे निकल गया ! और वह थी, दिन-भरके परिश्रमका पुरस्कार था-बहुत एकटक हिरणके मुँहकी ओर देखने लगा! मामूली, बहुत छोटा-सा ! उसकी आँखोंमें एक प्रकृतिके लगाये हुए काजलसे अलंकृत आँखें, चमक-सी प्रागई ! सफल मनोरथ होने पर आती वेदनाके पानीसे भीग रही हैं । जिन आँखोंकी है-वैसी ! कूद कर घोड़ेसे उतरा, बरौर ग्लानिके उपमा प्रकृति के पुजारी, भावुक कवि बड़े गौरवके उसके खूनसे, लाल-लाल, कालेरुख गाढ़े खूनसे, माथ, सौन्दर्य-विभूतियोंको दिया करते हैं, वही सने शरीरको उठाया ! और क्षत्रियत्वकी ताकत आँखें शोकके अथाह गर्त में डूबी जा रही हैं ! जैसे लगाकर पेटमें धमे हुए बाणको खींच निकाला ! उन आँखोंकी रोशनी मर चुकी हो, बुझ चुकी हो, प्रोफ!!! राख बन चकी हो !! हिरणीके विह्वल-नेत्रोंने एक बार चारों ओर शिकारीका शरीर ढीला पड़ने लगा ! मनमें को देखा ! क्या देखा? क्या देखना चाहती थी ? एक आंधी-सी उठने लगी ! आँखोंमें जलन-सी -इसे कौन जाने ? पर दीखा उसे अपना यम, महसूस होने लगी ! हाथ निर्जीव-से, शरीर सुन्नसाकार-काल-क्षत्रिय-पुत्र ! ""कुछ घबराई, एक सा और मुँह सूखा-सूखा-सा मालुम देने लगा !! बार तड़पी, पैर भी पीटे ! फिर एकदम शान्त ! वह टूटे-पेड़की तरह खड़ा रह गया, खण्डपाखें मुंद गई--जैसे, उसे जो दीखा, वह इष्ट हरकी तरह स्तब्ध ! श्मशानकी तरह वीभत्स !... Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिकार २०० विचारोंका यातायात ! प्रेमकी साधनामें कितना अनुराग रखता है-वह 'मूर्ख, हिरण ! नहीं जानता कि जिसने हिर- अपनी पत्नीके प्रति कितना महान्दय रखता है, रणीका प्राणान्त किया है, वह इसे कब छोड़ेगा? कितना भादर्श है वह !' । फिर भी भागता वहीं,बरता नहीं ! प्रतिहिंसा जैसी शिकारीकी भांखोंमें करुणा-जम सबला घातकता. उनके मनमें टकरा रही.. है ! प्रेमक़ी पाया ! हिरणीकी मृतक-देह अब उसे अपनी भूल रचताल-तरंगें, प्राणों के मोहको भुलाए दे रही हैं ! की तरह दिखाई देनेलगी,डरने लगा बह-अव! मोहोहः-प्रेम ! तूने इस जंगली जीवको भी अपने काश ! वह अब किसी तरह उसे जीवित कर काबू में कर रखा है ! वह प्रेमकी समाधिमें लीन सकता!... होकर अपने प्राणोंकी पाहुति देते भी नहीं भय- तृणोंमें अमृतका स्वाद लेने वाले वह दोनों भीत होता ! मूक-प्रणयी, अपनी निर्धन, साधन-शून्य, उजड़ी ___ शिकारी देख रहा है-वियोगी-हिरण अपनी सी दुनिया में प्रेमकं बल पर स्वर्गका स्थापन कर प्रणयकी दुनियाको, अपनी दुलारी हिरणीको, रहे थे ! आह ! उमे भी मैं न देख सका ! मुझ-सा एकटक देख रहा है ! समझ नहीं पा रहा कि उस अधम और कौन होगा ? कितना भयंकर अपराध की हिरणी भर चुकी है,उसकी दुनिया उजड़ चुकी किया है. मैंने !.."जिनके पाम प्राणोंके सिवा है ! वह इतना ही जानता है कि इसे कुछ हो गया और कुछ नहीं था! जो दरिद्रताकी सीमा थे। है ! वैसा हो गया है,जैसा अबतक कभी नहीं हुआ उनका वह छोटा-सा धन, थोड़ी मी इच्छा, और सर्प-विष-संहारक वायगीकी तरह वह हिरणीके मीमिन-मा मौख्य भी मैंने छीन लिया ! उफ् ! क्षत-विक्षत-शरीर के समीप-कुछ अटल-मा, कुछ यह घोर-पाप !!!' विह्वल-सा कुछ ध्यानस्थ सा बैठा आंसू बहा रहा कौन मी लेखनी ऐसी है, जो हिग्णकी मर्माहै ! जैसे प्रेम-मंदिरमें, रूठी हुई प्रेमकी देवीको, न्तक पीडाको ठीक ठीक चित्रण कर मकं ?... प्रेम-पुजारी मना रहा हो!" उसके भीतर शिकारीकी महानुभूति जैमें घुमती __ शिकारीका मन भर आया । उसे ऐमा लगा जा रही हो ! उमकी विकलता प्रतिक्षण बढ़ती जा जैसे उसके हृदय-कंजको किसीने भीतर हाथ डाल रही है ! वह रो रहा है, उसकी आँखें रोरही हैं, कर मरोड़ दिया हो, उमके मुँह पर जैसे अमा- उमका हृदय रो रहा है। वस्याकी कालिमा बिखरादी। 'यह क्या किया मैंन ? एक निरपराध सुखमानव-मन !!! मय, दाम्पत्तिक-जीवनमे आग लगा दी ! मैंने नहीं वह मोचने लगा-'कितना अगाध-स्नह है समझा कि दुमरकं प्राण भी अपन में ही प्राण हैं, इसे ? कपट-हीन, बनावट-हित जैसे राकाकी उस भी दुख-सुखका अनुभव होता है ! वह भी चांदनी । वह ज्ञानवान नहीं है ! अपनको मभ्य अपना-सा ही हृदय रखता है !"भोफ:समझनेका दावा भी वह नहीं करता। लेकिन- स्वार्थी-विश्व : अपने अपने स्वार्थमें मनुष्य Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अनेकान्त [माघ, बीर-निर्वाण सं० करती है। अन्धा हो रहा है ! कोई किसीकी पर्वाह नहीं पवित्र, पुनीत, आदर्श भावना हिलोरें लिया करता!' और.......? इसके बाद क्या हुआ ? हाँ, वह शिकारी अब भी है । वैसी ही इसका मुझे पता नहीं ! न 'कहानी' का उससे साधना, वैसा ही परिश्रम, वैसी ही तन्मयताको गहरा सम्बन्ध ही है ! हां, यह मैं जानता हैं, और अब भी काममें लाता रहता है ! लेकिन फर्क बतलाना भी वही शेष है, कि राजपूत नरेश, अब इतना है--अब वह पशु पंछियोंका शिकार नहीं दुनियाँकी नजर में 'राजा' नहीं है ! लोग उसे करता, उन पशु-प्रवृत्तियोंका शिकार किया करता संसार-विरक-साधु कहते हैं ! वह अब बनों है जिन्होंने उसे शिकारी बनाया ! बीहड़ोंमें रहता है ! और वासना-शून्य-हृदयमें एक 4 ग्रनरोध [श्री 'भगवत्' जैन ] (( दिखादे पथ-भृष्टोंको पंथ, जी रहे आज मृतककी भाँति, बनादे मूकोंको वाचाल ! सिखादे मरना जीने-सा ! होश उनको भी आजाए, न बाकी रहे देशको भीरुहो रहे जो दिन-दिन बेहाल !! कहलवानका अन्देशा !! बने जीवन जागतिकी ज्योति, मौत को समझ उठे खिलवाड़ ! हिमालय बने हमारा भाल, ओर मुख ज्वालामुखी पहाड़ !! हृदयमें बहे वेगके माथ, दानवी प्रकृति दूर भागे, प्रेम-गंगाकी मृदु-धारा ! प्राकृतिकताको अपनाएँ ! विश्व-भरमें फैले भ्रातृत्व, अरे ! भरदे ऐसी सामर्थ्य, शत्रु भी लगे प्राण-प्यारा ! रसातल-पथसे हट जाएँ ॥ न समझो हँसनेमें कुछ तथ्य, वेदना रहती रोने में ! बड़े गौरवकी समझो बात, दुखीके साथी होने में !! दूसरेका दुख अपना दुःख,- बनादे आँखों-सा कोमल, माननेमें 'सुखका विस्तार ! हमारा सामाजिक जीवन ! सुख-दिनोका कहना ही क्या ?- पा सकें भली-सी निधियाँ, • गोलि हा ी गंगार ॥ और मलझा पाएँ उलझन !! Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ কিছুর জুয়ালি [ ---पा० ज्यातिप्रसाद बैन, विशारद, एम.ए., एलएल.बी. वकील बाज संसारके प्रायः प्रत्येक देशमें एक न एक ऐसा मुख-एषणाएँ चार-ज्ञानैपया, बोकेरणा, वितैपचा "जनसमुदाय अवश्य अवस्थित है जिमका हार्दिक नया पुत्रैषणा । यदि किसी समाजके नियमों और उसकी विश्वास है कि जनसाधारणके दासत्व, पतन तथा संस्थानों में उक्त मूलैपणामोंकी तप्लिके पर्याप्त साधन मौजूद दारिदकी एक मात्र महौषधि क्रान्ति ही है। यदि म. हैं तो वह समान एक सन्तुष्ट एवं स्थायी समाज है, और माज-विशेषकी आर्थिक अवस्था असह्य रूपमे हीन हो यदि नहीं, तो वह क्रान्ति के लिये एक उपयुक्त क्षेत्र हो जाय तो उक्त समाजके लिये क्रान्ति अनिवार्य है। जाता है। जितने जितने अंशोंमें ममान विशेषमें इन क्रान्तिके बड़े २ समर्थक कार्लमार्क्स इत्यादि का कथन मूल एषणाओंका दमन होता है उतने उतने ही अंशोंहै कि समस्त लौकिक बुराइयों तथा कष्टोंका कारण में भानेवाली क्रान्ति हीनाधिक रूपसे तीन होती है। पुजीवाद है जिसका विनाश अवश्यम्भावी है । अत्या- इसके अतिरिक्त क्रान्तिका मूलतत्व भाशा है। चारियोंका दमन क्रान्तिचक्र-द्वारा ही संभव है। प्रारम्भसे ही भाशाका संचार एवं निराशाका परिहार इतिहास साक्षी है कि कभी भी कोई शक्तिशाली समु- इसका प्रभाव है । पीड़ितों के हृदय में जबतक क्रान्तिकी दाय बिना बल-प्रयोगके पदच्युत न होसका। सफलताका विश्वास तथा तजन्य प्राशाका प्रादुर्भाव क्रान्तिकारियोंके कथनानुसार मनुष्य-समाज नहीं होता वह क्रान्ति उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो परिवर्तनशील है। यद्यपि यह परिणमन निरन्तर होता सकते । और यह तभी हो सकता है कि जब भत्याचार रहता है,किन्तु शायद ही कभी व्यवस्थित एवं नियमित व्या दमन वास्तवमै तो कुछ कम हो जाते है किन्तु रूपमें लक्षित होता है। क्रान्ति भी एक परिवर्तन है। पीड़ित व्यक्ति अपनी वस्तु-स्थिति तथा कष्टों का पूर्ण किन्तु अन्य साधारण परिवर्तनोंसे भिन्न एक विशेष अनुभव करने लगते हैं। प्रतः क्रान्तिकी मुख्य प्रेरक प्रकारका परिवर्तन है । खाली परिवर्तन ही नहीं, एक शक्ति भाशा ही है। प्रकारकी सामूहिक एवं संगठित किया है। मनुष्यके क्रान्तिके उपयुक संवित विवेचनसे हमारा भाशय भाषिक एवं प्रौद्योगिक पतनकी राजनैतिक प्रतिक्रिया लौकिक क्षेत्रमें क्रान्तिका खंडन अथवा मंडन करना है। यह एक ऐसा भान्दोजन है जिसमें समाज विशेषकी नहीं है, वरन् यह दिखलाना है कि समाजशास-विज्ञोंने समस्त मानसिक एवं शारीरिक शक्तियां एक पादर्श जो वैज्ञानिक विवेचन राजनैतिक अथवा सामानिक प्राप्तिके पीछे पड़ जाती हैं। क्रान्तिका दिया है, वही पाश्चर्यजनक रूपमें भास्मिक क्रान्ति-विज्ञानको पटिसे प्रत्येक क्रान्तिका मूल क्रान्ति में भी अचरशः घटित होना है। कारण मनुष्यकी मूल एषणाओं में निहित है। और ये एक भन्यारमा जिस समय चारित्र-धमके प्रभावमें Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ अनेकान्त [माघ, वीर निर्वाच सं० २०१० हन्त्रिप-विषयक परतन्त्रतामें जकड़ा हुमा पतनके गर्समें पानेकी इच्छा ही नहीं होती। दूर जाता है तो उसके उद्धारका एकमात्र उपाय मा. परन्तु यह भात्मिक क्रान्ति एक ऐसा भान्दोलन स्मिक क्रान्ति ही है। समस्त सांसारिक दुखोंके कारण है, भास्मिक पतनकी ऐसी माध्यात्मिक प्रतिक्रिया है खोम-मोह है। जिस प्रकार राजनैतिक एवं सामाजिक कि उसकी ममस्त प्रवृत्तियाँ और समस्त शक्तियाँ अपने कटोंका कारण पूंजीवाद अर्थात् जीपतियोंका निर- आदर्श, अपनी स्वाभाविक अवस्था-पूर्ण स्वतन्त्रतास्तर बिल शक्तिवर्धन तथा उपभोग है उसा प्रकार प्राप्तिके कार्य में संलग्न हो जाती हैं । समस्त भास्मिक वीके समस्त सांसारिक कष्टोंका मूल कारण लोभ- शक्तियाँ सामूहिक एवं सुसंगठित रूपसे क्रियावान हो . मोह-अनित परिगृह-वृद्धि तथा विषयाकांक्षा ही है, जाती हैं । राजनैनिकमथवा सामाजिक क्षेत्र-सम्बन्धी बिससे त्राण पानेका साधन इन्द्रिय-दमन रूप प्रति क्रान्तियोंकी कारणभून चार मूलैषणाओंकी भाँति इस है।रिमा तप संयमादिक बल-प्रयोगोंके कभी कोई प्राध्यात्मिक क्रान्तिका कारण भी ज्ञान, दर्शन, सुख, बाल्मा चारित्र्य-सत्ता-प्राप्तिम मफल नहीं हुआ। वीर्य--अनन्त चतुष्टय-रूप परमानन्दमय पूर्ण स्वतन्त्र अन्य पदार्थोंकी भांति प्रारम द्रव्यमी परिणमन- अवस्थाकी प्राप्त्यर्थ प्रास्मिक मूलैषणाएं ही हैं जो वा. शील है। किन्तु यह प्रारम-परिणमन सदा स्वाभाविक स्तवमं प्रत्येक प्राणीकी आरमामें लक्ष्य अथवा अलषय ही नहीं हुआ करता,वरन प्रायः वैभाविक ही होता है। रूपमे विद्यमान हैं। पाल्मा अपने निजी स्वभावको भूलकर विकारग्रस्त हो जिन प्रास्माओंमें उक्त मूलैषणाओंकी नसिके साजाता है और सब प्रकारके कष्टकर दुःखोंका निरन्तर धन अवस्थित हैं अर्थात् जिन्हें अपने स्वाभाविक गणोंशिकार बना रहता है । उसको दशा बहुधा उस बन्दीके का अपने स्वरूपका भान है और जो उसकी प्राप्ति समान होती है जो बन्दीखाने में ही जन्म लेता है, में संलग्न हैं उन्हें इस प्रान्तिको आवश्यकता नहीं है। किन्तु जिसे कभी ऐमा सौभाग्य प्राप्त नहीं होता कि ये मम्यक्त्व युक्त श्रात्माये उन्ननिशील हैं और अपने वह अपने जन्मस्थानके वास्तविक स्वरूपको जान सके । उद्योग सफल ही होकर रहेंगी। अपने ध्येयको, अपने वह यह भी नहीं जान पाता कि उसके ग्राम पाय जो श्रादर्शको जबतक प्राप्त नहीं करलेंगी प्रयत्न नही बहुमूल्य फर्नीचर एवं भोगोपभोगकी प्रथर मामग्री छोड़ेगी। वयमान है वह कवीन्द्र रवीन्द्र के शब्दों में उसके मान- किन्तु जो प्रारमाएँ इतनी भाग्यशाली नहीं है स्पी दुर्गको ऐसी अलषय किन्तु मुहर दीवारें हैं जो न और अभी तक पननकी ओर ही अग्रसर हो रही हैं, केवल उसकी स्वतन्त्रताका भी अपहरण कियेहुएहैं ,वरन जिन्होंने सब सुध बुध खो रवावी है, जो इस पञ्ज उक्त स्वतन्त्रता-प्राप्तिको इच्छाका भी प्रभाव किए हुए परिवर्तन रूप संमारमें अनादिस गोता म्वा रही हैं हैं। सामारिक मोहजाल में फंसे हुए उस प्रारमाके लिये और यदि ऐमी ही अवस्था रही नो न मालूम कबतक भास्मिक स्वातना प्राप्त करना दुर्लभ ही नहीं किन्तु इसी प्रकार जन्म मरणरूप संसारके दुःम्ब भोगती रहें। वह उसकी प्राप्लिके लिये प्रयत्नवान भी नहीं होता। उन्हें ही इस क्रान्तिकी आवश्यकता है, जिसके लिये उस मोहान्ध पारमाको प्रान्म जागतिके दिग्य लोकमें पतनकी तीबनाके अनमार ही नप संयमादिक रूप Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व, वि .] पास्मिक क्रान्ति २०॥ बल प्रयोगकी तीयता अपेक्षित है। यह परिवर्तन ही भामिकान्ति है और यही इस क्रान्तिका मूल सत्व भी भाशा है। बबोदित सबी क्रान्ति है। प्राचीकी सची भूजसे प्रेरित दुई सवा माशाके स्फुरणसे प्रेरित हो यह भग्यास्मा अपने बच्य अश्य सुख प्राप्त करानेवासी समर क्रान्ति पही है। की मोर अग्रसर होता है। उस समय भात्मिक पतनके अन्य समस्त, राजनैतिक, सामाजिक प्रादि क्रान्तियों होते हुए भी कुछ इस प्रकार मन्दकषायका उदय होता का फल स्थायी नहीं होता, थोरे या अधिक समय कि अपनी वस्तु स्थिति से उक्त पारमा असन्तुष्ट हो उपरान्त फिर दशा पतित हो ही जाती है, चाहे कितनी जाता है, अपनी अवस्था उसे असह्य हो जाती है। भी सफल क्रान्ति क्यों न हो । किन्तु चास्मिक शान्ति उसके अन्तरमे एक प्रकारका घोर आन्दोलन होने ल- यदि मफल हो जाय तो इसका फल चिरस्थानी ही नहीं, गता है। वह अपनी समस्त शक्तियोंको एकत्रित करके अविनाशी और अनन्त होता है। अतः पदि किसी भारम-प्रवृत्तिका रुख बदल देता है तथा भान्मो तिकी क्रान्तिक अमरत्वकी भावना खानेकी पावश्यकता है तो चोर अग्रसर होने लगता है। वह माग्मिक क्रान्तिकी ही है। सम्बोधन [नं० प्र० प्रेम पंचरय] चपन मन ! क्यों न लन विश्राम ? क्यों पीछे पड़ गया किमीके, तजकर अपना धाम ? आशा छोड़ निगशा भनलं, श्वामाको ले थाम ॥चपल०॥ आज कहन कल करत नहीं है, भूलान निज काम । * कब पावे वह समय भजे जब, अपना आतमगम ॥ चपल०॥ N यह काया नहि रहे एक दिन, जिमका बना गुलाम। 4 माया-मोह महा ठग जगमें, मतलं इनका नाम ।। चपल०॥ अब मत यहाँ-वहाँ पर भपकं, आजा अपने ठाम । 'प्रेम' पियूष पान कर अपना, पावं सुख अभिराम ॥चपल०॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन और जैनदर्शन [.--40 सुमेरचन्द जैन न्यापतीर्थ, 'उसिनी देववन्द यू. पी.] हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन प्रयाग ही हिन्दी वीजी निराश होकर यह कार्य किसी अन्यके सुपुर्द भाषाकी सर्वतोमुखी उन्नति करने वाली एक मात्र करना चाहते थे। यही बात उन्होंने 'अनेकान्त' में संस्था है। इसलिए उसने अपना एक स्वतन्त्र प्रकट की थी। इस बातको पढ़कर मेरे मनमें यह हिन्दी-विश्वविद्यालय कायम कर लिया है, जिस- जाननेका कौतुक उत्पन्न हुआ कि परीक्षा-ममिति में भारतकं प्रत्येक प्रान्त और धर्मके अनुयायी क्यों जैनदर्शन-प्रन्थ रखना नहीं चाहती ? इस बिना किसी भेद-भावके परीक्षा देते हैं । इन विषयमें मैंने उन्हें एक पत्र लिखा उममें जैनदर्शन परीक्षाओंकी मान्यता सरकार और जनता दानों और अपभ्रंश माहित्यकी आवश्यकता सम्बन्धी में ही है । अतः यह संस्था अधिक सर्वप्रिय बनती एक लेख लिखा । अन्तमेंयह भी लिखा, कि बिना जाती है। इधर हमारे समाजके विद्यार्थी सम्मेलन- जैनदर्शनके समझे दर्शनोंका विकाश और अपभ्रंकी परीक्षामें अधिक सम्मिलित होने लगे हैं, श भापाकं बिना हिन्दी-साहित्यक निकासका पता परन्तु सम्मेलनकी परीक्षाओंमें जैनधर्म सम्बन्धी नहीं लगाया जा सकता है। उत्तरमें श्रीमान पंडित कोई विषय नहीं रक्खा है, इमलिय जैनविद्वानोंका रामचन्द्रजो दीक्षित रजिस्ट्रार हिन्दी-विश्वविद्या. ध्यान इस तरफ आकर्पित हुआ। इस विषयमें लय प्रयागका जो पत्र मिला वह इस प्रकार है:पंडित रतनलालजी मंघवीने संस्थाकं प्रधानमंत्री प्रियमहोदय! श्रीमान् पं० दयाशंकरजी दुवेक माथ दो वर्ष तक लगातार पत्रव्यवहार किया। इम पत्रव्यवहारमें आपका पत्र मिला। संघवीजीने प्रथम दुवेजीको यह लिखा था कि जैनदर्शनको सम्मेलन परीक्षाओंमे स्थान देने 'सम्मेलनको प्रथमा और विशारद परीक्षामें जैन- के सम्बन्धम परीक्षा समितिने निश्चय कर लिया दर्शन वैकल्पिक विषयमें सम्मिलित कर लिया है। इस सम्बंधमें लिखा पढ़ी भी हो रही है। जाय ।' उसपर दुवेजीने अपने अन्तिम पत्रमें यह भवदीय-- पात प्रकट की कि 'मैं सम्मेलनको परीक्षामें जैन रामचन्द्र दीक्षित दर्शन रखनेके पक्षमें हैं; परन्तु हमारी परीक्षा रजिस्ट्रार हिन्दी विश्वविद्यालय प्रयाग । समिति इसके लिये तैयार नहीं है । इसके बाद क्या हुआ ? इस विषममें मुझे कुछ भी पता नहीं। इस पत्रसे विदित होता है कि रजिस्ट्रार पर हां, उनकं पत्रसे निश्चित है कि उन्होंने प्रेम- महोदय सम्मेलनकी परीक्षाओं में जैन-दर्शन रखने पूर्ण जवाब देकर टालमटूल कर दो; इसलिये संघ. के लिए तैयार हैं। परीक्षा-समितिनं निश्चय कर Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीवन-साथ लिया है और नविषयक पत्र व्यवहार भी वे कर पर अधिक प्रकाश पड़नेकी पाशा है । जैनदर्शन रहे हैं। लेकिन उन्होंने अपभ्रश भाषाके विषयमें सम्बन्धी कोर्सके लिए श्रीमान् न्यायाचार्य पं०महेनाकुछ भी प्रकाश नहीं डाला है । इसलिए अपभ्रंश मार जी शास्त्री और पूज्य पं० कैलाशचन्द्रजी भाषाके विद्वान् बाबू हीरालालजी एम.ए. प्रोफेसर शास्त्रीको प्रकाश राखना चाहिए, जिससे रजिकिङ्ग एडवर्ड कालेज अमरावती और जो इस स्ट्रार महोदयको कोर्सके रखने में महलियत हो विषयके पूर्ण विद्वान् हैं, उन्हें एक कोर्स बनाना सके । और जो विद्वान् मेरे पास भेजना चाहेंगे चाहिए, ताकि जैनदर्शनके साथ २ प्रथमा, मध्यमा, मेरे पास भेजदें। मैं कोर्स नियत करवाकरके उनके साहित्यरलके कोर्समें अपभ्रशभाषाका भी साहित्य पास भेज दूंगा। भाशा है विद्वान् मेरे इस निवे. रखवाया जा सके। इस विषयमें जो विद्वान् सलाह दन पर ध्यान देंगे। जैनदर्शनका कोर्स सम्मेलन देना चाहें वे कृपया पत्रोंमें उसे प्रकाशित करवा की परीक्षामें रक्खे जाने का अधिकांश भय भाई देवें या मेरे पास भिजवा दें। क्योंकि अपभ्रंश रतनलाल जी संघवी न्यायतीर्थको ही है, जिन्होंने साहित्यक उद्धार होने से मध्यकालीन भाषा विकास इस विषयमें लगातार दो वर्षसे प्रयत्न किया है। जीवन-साध [ले०-५० भवानीदत्त शर्मा 'प्रशांत'] मेरी जीवन-साध ! पर-हितमें रत रहूँ निरन्तर, देश-प्रेमका पाठ पढ़े हम, मनुज मनुजमें करूँन अन्तर । साक्षरता-विस्तार करें हम । नस-नसमें बह चले देशकी प्रेमधार निर्बाध ॥ लिपी-भेद करनेका हमसे हो न कभी अपराध ॥ मेरी जीवन-साध ॥ १॥ मेरी जीवन साध ॥३॥ बौद्ध, जैन, सिख, आर्य, सनातन, अपने अपने मनमें प्रण कर, यवन, पारसी और क्रिश्चियन । एक दूसरे को साक्षरकर । हिन्द-देशके सब पुत्रोंमें हो अब मेल अगाध ॥ निज-स्वतन्त्रताके प्रिय पथसे दूर करें हम बाध ॥ मेरी जीवन-साध ॥२॥ मेरी जीवन-साध ॥४॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ স্থাঅল্পটি [d०-५० रतनलाल संघवी, न्यायतीर्थ-विशारद ] विषय-प्रवेश प्रदर्शित दिशा निर्देशसे कोई भी जैन-साहित्यका मुमुक्षु पथिक पय-भ्रष्ट नहीं हो सकता है। भारतीय साहित्यकारों और भारतीय वाङ्मयके जैन पुरातत्व साहित्यके पाचर्य श्री जिनविजयजी उपासकोंमें साहित्य-महारथि, भाचार्यप्रवर, ने लिखा है कि--"हरिभद्रसरिका प्रादुर्भाव जैन इतिविद्वान-चक्र-चूड़ामणि, वादीमगजकेसरी, याकिनीसूनु, हासमें बड़े महत्वका स्थान रखता है। जैनधर्मकेमहामान्य श्री हरिभत्रिका स्थान बहुत ही ऊंचा है। जिसमें मुख्यकर श्वेताम्बर संप्रदायके--उत्तर कालीन इनकी प्रखर-प्रतिमा, बहुश्रुतता, विचारपूर्ण मध्यस्थता, स्वरूपके संगठन कार्यमें उनके जीवनने बहुन बड़ा भाग भगाध गंभीरता, विषण वाग्मीता, और मौलिक लिया है। उत्तरकालीन जैन साहित्यके इतिहासमें वे एवं असाधारण साहित्य सृजन-शक्ति प्रादि अनेक प्रथम लेखक माने जानेके योग्य हैं। पर जैनसमाज सुवासित सद्गुण मापकी महानता और दिव्यताको के इतिहासमें नवीन संगठनके एक प्रधान व्यवस्थापक मान भी निर्विवाद रूपसे प्रकट कर रहे हैं। आपके द्वारा कहलाने योग्य हैं। इस प्रकार वे जैनधर्मके पूर्वकालीन विरचित अनुपम साहित्य-राशिसे उपलब्ध अंशका और उत्तरकालीन इतिहासके मध्यवर्ती सीमास्तम्भ अवलोकन करने से यह स्पष्टरूपेण और सम्यक प्रका समान है।" रेण प्रतीत होगा कि भाप भारतीय साहित्य संस्कृतिके इस प्रकार प्राचार्य हरिभद्र विद्वत्ताकी रष्टिसे तो एक धुरीणतम विद्वान् और उज्ज्वल रस्न थे। धुरीणतम है ही; भाचार,विचार और सुधारकी दृष्टि से भी आपकी पीयूपवर्षिणी लेखनीसे निसृत सुमधुर इनका स्थान बहुत ही ऊंचा है । ये अपने प्रकांड पांडिऔर साहित्य-धाराका भास्वादन करने से इस निष्कर्ष त्यसे गर्मित,प्रौढ़ और उच्चकोटिके दार्शनिक एवं ताविक पर पहुंचा जा सकता है कि जैन-आगम-साहित्य (मूल, ग्रंथोंमें जैनेतर ग्रंथकारोंकी एवं उनकी कृतियोंकी मालोनियुक्तियां आदि) से इतर उपलब्ध जैन-साहित्यमें चना प्रत्यालोचना करते समय भी उन भारतीय साहिभर्यात् (Classical Jain literature) में यदि त्यकारोंका गौरव पूर्वक और प्रतिष्ठा के साथ उदार एवं सेन दिवाकर सूर्य तो भाचार्य हरिभद्र शार- मधुर शब्दों द्वारा समुल्लेख करते हैं। दार्शनिक संघदोष पूर्णिमाके सौम्पचन्द्र है। यदि इसी अलंकारिक पणसे जनित तत्कालीन भाषेपमय वातावरणमें भी माणमें जैन साहित्याकाशका वर्णन करते चलें तो कलि- इस प्रकारको उदारता रखना प्राचार्य हरिभद्र सूरिकी काल सर्व प्राचार्य हेमचन्द्र ध्रुव तारा है। इस प्रकार श्रेष्ठताका सुंदर और प्रांजल प्रमाण है। इस रष्टिसे व साहित्याकाशके इन सूर्य चन्द्र और ध्रुवतारा-द्वारा इस कोटिके भारतीय साहित्यक विद्वानोंको श्रेणीमें Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभारि २८० - - हरिभद्रसूरिका नाम प्रथम श्रेणी में जिसनेके योग्य है। सहरण स्थान है। वैसा ही महत्त्वपूर्ण और भावस्थान जैन-समाजमें हरिभद्रसूरि नाम वाले अनेक जैना- साहित्य क्षेत्रमें एवं मुख्यतः न्याय-साहित्य में भर चार्य और ग्रंथकार है। किन्तु प्रस्तुत हरिभद्र के हैं, जो अकलंकदेव और भाचार्य हरिभद्रका समझना चाहिये। कि माकिनी महतरासनुके नामसे प्रसिद्ध हैं। ये ही भावार्य तो यह है कि इनके जीवन चरित्र तकमें कुछ भाचार्य शेष अन्य सभी हरिभद्रोंकी अपेक्षासे गुणोंमें, हेरफेरके साथ काफी साम्यता है। इन दोनोंने ही ग्रंथ-रचनाओं में और जिन-शासनको प्रभावना करनेमें साहित्य-क्षेत्र में ऐसी मौलिकता प्रदान की कि जिससे अद्वितीय है। इनका काल श्री जिनविजयनीने ई० उममें सजीवना, स्फूर्ति, नवीनता और विशेषता पाई। सन् ७०० से ७७० नक अर्थात् विक्रम संवत् ७५७ से इस मौलिकताने ही भागे चलकर भारतीय धार्मिक २२७ तक का निश्चित किया है, जिसे जैनसाहिन्यके क्षेत्रमे जैन धर्मको पुनः एक जीवित एवं समर्थ धर्म प्रगाढ़ अध्येता स्वर्गीय प्रोफेसर हरमन याकोबीने भी बनाकर उसे "जन-साधारणके हितकारी धर्म" के रूपमें स्वीकार किया है, और जो कि अन्ततोगत्वा सर्वमान्य परिणत कर दिया । कुछ समय पश्चात् ही जैनधर्म पुनः भी हो चुका है। हरिभद्र नामक जितने भी जैन साहि- राजधर्म हो उठा और इस प्रभावका ही यह फल था स्यकार हुए हैं, उनमेंमे चरित्र-नायक प्रस्तुत हरिभद्र ही सर्वप्रथम हरिभद्र है। पाल सरीखी व्यक्तियाँ जैन समाजमें अवतीर्ण हुई। ___ दार्शनिक, प्राध्यात्मिक, माहित्यिक और सामाजिक इन्हीं प्राचार्यों द्वारा विरचित साहित्य के प्रभावमं दक्षिण पादिरूप तत्कालीन भारतीय संस्कृतिको तथा चारि- भारत, गुजरात तथा उपके आसपासके प्रदेशोंमें जैन त्रिक एवं नैतिक स्थितिक धरातलको और भी अधिक धर्म, जैन साहित्य और जैनसमाज ममर्थ एवं भनेक ऊंचा उठानेके ध्येयमे प्राचार्य हरिभन्न सूरिने मामा- सद्गुणों से युक्त एक उच कोटिकी धार्मिक और नैतिक जिक प्रवाह और साहित्य-धाराको मोरकर नवीनही संस्कृतिक रूपमै पुनः प्रख्यातःहो उठा। इन्हीं कारणों दिशाकी ओर अभिमुख कर दिया । मामाजिक-विकृति- पर दृष्टिपात करने एवं सत्कालीन परिस्थितियोंका के प्रति कठोर रुख धारण किया और उसकी कड़ी समा- विश्लंपण करने में यह भन्ने प्रकार सिद्ध हो जाता है लोचना की। विरोध-जन्य कठिनाइयोंका वीरना पर्वक कि हरिभद्रमूरि एक युग-प्रधान और युग-निर्माता सामना किया, किन्तु सत्य मार्गसे ज़रा भी विचलित प्राचार्य थे । नहीं हुए। यही कारण था कि जिसमे समाजमें पुन: प्राचार-क्षेत्र, विचार-क्षेत्र और साडिग्य-क्षेत्र में इनके स्वस्थता प्रदायक नवीनता भाई और भगवान महावीर द्वारा नियोजित मौलिकता, नवीनता, और अनेकविध स्वामीके प्राचार-क्षेत्रके प्रति पुनः जननाकी श्रद्धा और विशेषनाको देग्वका झटिति मुंहमे यह निकल पड़ता है भक्ति बढ़ी। कि प्राचार्य हरिभद्र कसिकान मुधर्मा म्वामी हैं । जिस प्रकार प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकरका और निबंधके पागेकं भागमे पाठकोंको यह शान होजायगा स्वामी समन्तभद्रका जिनशासनको प्रभावना करनेमें कि यह कथन अनिरंजिन केवल काम्यान्मक वाक्य ही एवं जैन-साहित्यकी धारामें विशेषता प्रदान करनेमें नहीं है, बक्कि तथ्यांशको लिये हुए है। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [माष, वीर मिना सं० २० पर्वकालीन और तत्कालीन स्थिति धर्मसेव, एवं जिगमा गणिक्षमाश्रयण चाद्रि कलेक भगवान् महावीर स्वामी, सुधर्मा स्वामी और भाचार्यों द्वारा रचित कुछ ग्रंथ पाये जाते हैं। किन्तु म स्वामी के निवास परवात ही जैन भाचार खिमद पादिजो भनेक गंभीर विज्ञान भाचार्य वीरऔर जैन साहित्य-धारामें परिवर्तन होना प्रारंभ हो संवत् की इन प्रयोदय सताब्दियों में हुए हैं, उनकी गया था । जैन-पारिभाषिक माषामें कहें तो केवल ज्ञान कृतियों का कोई पता नहीं चलता है। इन महापुरुषोंने का सर्वथा अभाव हो गया था, और साधुओंमें भी साहित्यकी रचना वो भवरय की होगी ही; क्योंकि पाचार-विषयको लेकर संघर्ष प्रारंभ हो गया था; बैन-साधुनोंका जीवन निवृत्तिमय होनेसे-सांसारिक जो कि कुछ ही समय बाद भागे चलकर श्वेताम्बर- ममटोंका प्रभाव होनेसे-साग जीवन साहित्य सेवा दिगम्बर रूपमें फूट पड़ा । बीरसंवत्की दूसरी शताब्दि. और ज्ञानाराधनमें ही खगा रहता था। अतः जैन साके मध्य में अर्थात पीरात् १५६ वर्ष बाद ही भद्रबाहु हित्य वीर-निर्वाणके पश्चात् सैकडों विद्वान जैनसाधुओं स्वामी-जिनका कि स्वर्गवास संवत् वीरात् १७० माना द्वारा विपुलमात्रामें रचा तो अवश्य गया है, किन्तु वह माता-अंतिम पूर्ण श्रुतकेपली हुए । भुत केवल बैनेतर विद्वेषियों द्वारा और मुस्लिम युगको राज्य शान भी अर्थात् । पूर्वोका शान भी एवं अन्य मा क्रान्तियों द्वारा नष्ट कर दिया गया है-ऐसा निश्चगम शाम भी भववाहुस्वामीके पश्चात् क्रमशः धीरे धीरे यात्मकरूपसे प्रतीत होता है। घटता गया, और इस प्रकार वीरकी नववीं शताब्दि बौदधर्म और जैनधर्मने वैदिक एकान्त मान्यताओं सकके काल में याने देवदि समाश्रमबके काम तक पति पर गहरा प्रहार किया है और बौद-दर्शनकी विचार-प्रस्वल्पमात्रामें ही ज्ञानका अंश अवशिष्ट रह गया था। मानिसे तो ज्ञात होता है कि बौद-दार्शनिकोंने जैनधर्म हरिभद्र सूरिका काल वीरकी १३वीं शताब्दि है। इन भिऔर वैदिकधर्मको भारतसे समूल नष्ट करनेका मानो १३.. वर्षोंका साहित्य वर्तमानमें उपलब्ध संपूर्ण जैन बरचय सा कर लिया था, और विभिन्न प्रणालियों बादमयको तुलनामें पहमांशके बराबर ही होगा। यह द्वारा ऐसा गंभीर धक्का देनेका प्रयत्न किया था कि कचन परिमाणकी अपेक्षासे समझना चाहिये, न कि जिससे ये दोनों धर्म केवल नामशेषमात्र अवस्था में रह महत्वको एष्टिसे । पूर्व शताब्दियोंका साहित्य पश्चात् की जाय। इस गोश्यकी पूर्तिके लिये बौद साधु और शताब्दियों की अपेक्षासे बहुमहत्वशाली है, इसमें वो बौद्ध-अनुयायी जनसाधारणकी मंत्र, तंत्र औरमौषधि कावा ही क्या है। मादि एवं धनादिकी सहायता देकर हर प्रकारसे सेवाइन प्रथम तेरह शताब्दियों के साहित्यमें से वर्तमान शुश्रुषा करने लगे, और इस सब जवसाधारणको में उपलब्ध छ मूब पागम, भद्रगहु स्वामीहत का उपदेश एवं सोम मादि भनेक क्रियाओं द्वारा बौदधर्म निक्तियाँ,मास्वामी त तपार्थसूत्र भावि ग्रंथ, पाद- की भोर भाकर्षित करने लगे। अशोक शादि जैसे शिवमूरिकी कुष सारांवरूप कृतियाँ, सिद्धसन दिवाकर समर्थ सम्राटोंको बौद बना लिया और इस तरह भूमि की रचनाएँ, सिंह पमाणमय सूरिका नपञ्चकवाल, वार कर बैदिक धर्म एवं जैनधर्म को हानि पहुंचाने और शिवमर्मसूरि, चंति, कालिकाचार्य, संघदास, बगे। वैदिक-साहित्य और जैन साहित्यको भी बाट Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण हरिभद्रसरि करने लगे और सैकड़ों ग्रंथ-भंडार नेस्तनाबूद कर दिये शेष थे। भारतपर मुसलमानोंके मामय प्रारम्भ हुए। गये। धमापहरणके साथ २ धांध मुसलमानोंने भारतीय ___ कुछ कान पश्चात् बौद्ध साधुभोंमें भी विकृति और साहित्य भी नष्ट करना प्रारम्भ किया और इस तरह शिथिलता मागई, इन्द्रिय पोषणकी घोर प्रवृत्ति अधिक बचा हुआ जैन साहित्यका भी बहुत कुछ अंश इस बढ़ गई; केवल शुष्क तर्क-जालके बलसे ही अपनी म. राज्य-क्रांति के समय काज-कवलित हो गया । उस काल वाकी रक्षा करने लगे; और इतर धर्मोके प्रति विद्वेष में जैनसाहित्यकी रक्षा करनेके पटकोणसे बचा हुधा की भावनामें और भी अधिक वृद्धि कर दी । यही कार- साहित्य गुप्त भंडारों में रखा जाने लगा; किन्तु कुछ रेसे ण था कि बौद्धोंको निकालनेके लिये समय भाते ही रक्षक भी मिले, जिनके उत्तराधिकारियोंने भंडारों उत्तर भारतमें शंकराचार्यने प्रयत्न किया, दक्षिणमें कु मुख सैंकड़ों वर्षों तक नहीं खोला; परिणाम स्वरूप मारिल भट्टने प्रयास किया और गुजरात प्रादि प्रदेशोंमें बहुत कुछ साहित्य कीट-कवलित हो गया; पते सद जैनाचार्योंने इस दिशामें योग दिया। बौद्धोंका बल गये- गल गये और अस्त-व्यस्त हो गये । इस प्रकार क्रमशः घटने लगा और वैदिक सत्ता पुनः धीरे २ जैन साहित्य पर दुःखोका ढेर लग गया, वह कहां तक अपने पूर्व प्रासनपर पाकर जमने लगी। अनेक राजा जीवित रहना ? यही कारण है कि हरिभवसरिक पूर्वमहाराजा पुनः वैदिक धर्ममें दीक्षित होगये और इस का माहिल्य : भागके बराबर है और बारका : भागके तरह वैदिक धर्म अपनी पूर्वावस्था में थाने ही बौदधर्म बराबर है। यह तो हुआ हरिभद्र सूरिके पूर्व कालीन के साथ २ जैनधर्मका भी नाश करनेके लिये उद्यत हो और तत्कालीन माहित्यिक स्थितिका सिंहावलोकन । गया। इस तरह पहले बौद्ध दार्शनिक और बादमें भव इसी प्रकार भाचार-विषयक स्थितिकी पोर टिवैविक दार्शनिक. दोनों ही जैन माहिन्यपर टूट पड़े और पान करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा। अनेक जैन साहित्यक प्राचीन भंडारोंको अग्निक यह पहले लिया जा चुका है कि प्राचार-विषयक समर्पण कर उसे नष्ट कर दिया । इन कारणों के साधर फटका इतना गहरा प्रभाव हो चुका था कि जिसमे भयंकर दुष्काल और राज्य-क्रॉनियाँ भी जैन-साहित्यको श्वेताम्बर और दिगम्बर रूपसे दो भेद होगगे थे। नष्ट करनेमें कारणरूप हुई है। यही कारण है कि हरि- स्थिनि यहीं तक नहीं रुक गई थी। भाचार शिथिलता भद्रसूरिक पूर्व जैन-माहित्य इतनी अल्प मात्रामें ही दिनों-दिन बढ़ती गई । इन्द्रिय विजयना भीर इन्द्रिय पाया जाता है। जो कुछ भी वर्तमानमें उपलब्ध है, दमनके स्थान पर इन्द्रिय लोलुपता, स्वार्थ-परता एवं उसका है भाग हरिभद्रसूरिके कालपे लगाकर तत्पश्चात् यशो-लिप्मा श्रादि अनेक दुगुणोंका साम्राज्य-भाचार कालका है। अतः जैन साहित्य-पेत्रमें हरिभद्रसूरिका क्षेत्रमें अपना पर धीरे २ किनु मजबनीके माध जमाने असाधारण स्थान है, यह निस्संकोचरूपसं कहा जा खग गया था । माधुभांका पतन शोचनीय दशाको सकता है। प्रास हो गया था। प्राचार्य हरिभवमूरिन इस परिभारतीय साहित्यका दैवदुषिपाक यहीं तक समाह स्थिति की भन्यंत कठोर समालोचना की है। भापती नहीं हो गया था, उसकेमाम्यमें और भी दुःख देखने की शक्तिका यह प्रभाव था कि जिससे जनता और Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अनेकान्त [माघ, वीरनिर्वाण सं०२४६० साधु-संस्था पुनः वास्तविक और मादर्श मार्गके प्रति मेरा और अमुक कुन मेरा-ऐसा ममत्वभाव रखते भवामय और भक्तिशील हुई। प्राचार्य हरिभद्रसूरिने है। खियोंका प्रसंग रखते हैं । श्रावकोंको कहते हैं कि अपने संबोध-प्रकरण' में तत्कालीन परिस्थितिका मनकार्य ( मतभोज) के समय जिन-पूजा करो और बर्वन इन सब्दोंमें किया है।--"ये साधु चैत्य और मृतकोंका धन बिनदान में देदो। पैसोंके लिये (दधिममें रहते हैं। पूजा मावि क्रियाओंका भारम्भ समारम्भ णारूपस प्राप्त करने के लिये) अंग उपांग प्रादि सूत्रोंको करते हैं। स्वतः के लिये देव-मध्यका उपयोग करते हैं। श्रादकोंके आगे पढ़ते हैं । शालामें या गृहस्थोंके घर पर जिनमन्दिर और शालाओंका निर्माण कराते हैं। ये खाजा आदि पाक पदार्थ तैयार करवाते हैं। पतितमुहर्त निकालते हैं। निमित्त बतलाते हैं। इनका चारित्रवाले अपने गुरुओंके नामपर उनके दाह-स्थलों (साधुओंका ) कहना है कि श्रावकोंके पास सूक्ष्म पर स्मारक बनवाते हैं । बलि करते हैं। उनके व्याख्याबातें नहीं कहनी चाहियें। ये भस्म (राख) भी तंत्र नमें खियाँ उनकी तारीफ करती है। केवल चियोंके रूपसे देते हैं। ये विविध रंगके सुगंधित और धूपित वस्त्र प्रागे व्याख्यान देते हैं। साध्वियों भी केवल पुरुषोंके पहिनते हैं। स्त्रियों के सामने गाते हैं । साध्वियों द्वारा भागे व्याख्यान देती हैं। भिक्षार्थ घर घर नहीं घूमते बागाहमा काममें जाते हैं। तीर्थ-स्थानके पंडोंके समान है। मंडली में बैठ करके भी भोजन नहीं करते हैं । अधर्ममे धन इकट्ठा करते हैं। दिनमें दो तीन बार संपूर्ण रात्रिभर सोते रहते हैं। गुणवानों के प्रति द्वेष खाते हैं। पान प्रादि वस्तुएँ भी खाते हैं। धी-दूध रखते है । क्रय विक्रय करते हैं । प्रवचनकी बोटमें भाविकाभी खूब प्रयोग करते हैं । फल-फूल और सचित्त विकथाएँ करते हैं। धन देकर छोटे छोटे बालकोंको पानीका भी उपयोग करते हैं। जाति भोजनके समय शिष्यरूपसे खरीदते हैं । मुग्ध पुरुषोंको ठगते हैं । जिनमिष्टानको भी ग्रहण कर लेते हैं। माहारके लिये स्खुशाल प्रतिमाओंका क्रय-विक्रय करते हैं। उच्चाटन धादि मकरते । पछने पर भी सस्य धर्मका मार्ग नहीं भी करते है। डोरा धागा करते हैं। शासनबतलाते हैं। प्रातःकाल सूर्योदय होते ही खाते हैं। प्रभावनाकी श्रोटम कलह करते हैं। योग्य साधुओंके विकृति उत्पन करनेवाले पदार्थोंका भी बार बार पास जाने के लिये श्रावकोंको निषेध करते हैं । श्राप उपयोग करते है । केश-लुंचन भी नहीं करते हैं। श- प्रादि देनेका भय बतलाते हैं। द्रव्य देकर अयोग्य रीरका मैल उतारते हैं। माधु योम्य करणीय शुद्ध चा- शिष्यों को खरीदते हैं। व्याजका धंधा करते हैं। प्ररित्रके अनुरूप क्रियाओंको करते हुए भी लज्जित होते योग्य कार्यों में भी शासन-प्रभावना बतलाते हैं। प्रवहै। कारण ही कपड़ों का देर रखते हैं। स्वयं पतित चनमें कथन नहीं किये जानेपर मी पेमे तपकी प्ररूपणा होते हुए भी दूसरोंको प्रायश्चित देते हैं । पडिलेहणा कर उसका महोत्सव करवाते हैं। स्वतः के उपयोगके ( प्रतिबेखना) भी नहीं करते हैं । वम, शैय्या, जूते, लिये वस्त्र, पात्र प्रादि उपकरण और द्रष्य अपने श्रावाहन, मायुध, और ताये मादिके पात्र रखते हैं। कोंके घर इकटे करवाते हैं। शास्त्र सुनाकर शावकों से स्नान करते हैं। सुगंधित तेलका उपयोग करते हैं। धनकी प्राशा रखते हैं । ज्ञानकोशकी वृद्धि के लिये धन भंगार करते है । अत्तर फूलेल जगाते हैं। अमुक ग्राम इकहा करते हैं और करवाते हैं। भापसमें सदैव संघ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्रसरि करते रहते है। अपनी-अपनी तारीफ करके अन्य सदा. परिवर्तन लानेका सफल प्रयास किया और पुनः सुधार चारीका विरोध करते हैं। सब ये नाम धारी साधु लि- मार्गको नीव गली । इस एटिसे हरिभवसरिक्षा सापोंको ही उपदेश देते है। स्वच्छन्द रूपमे विचरण हित्यक्षेत्र में जो स्थान है वैसा ही गौरवपूर्ण स्थान करते हैं। अपने भक्त राई समान गुणको भी मेरु पाचार क्षेत्रमें भी समझना चाहिये। समान बतलाते हैं । विभिन्न कारण बतबाकर भनेक भाचार्य हरिभद्रमूरि दीर्घ तपस्वी भगवान महा. उपकरण रखते हैं। घर-घर कथाओंको कहते रहते हैं। वीर स्वामीके श्रद्धालु और स्थिर सिसका अनुयायी सभी अपने पापको प्रहमिह समझते हैं। स्वार्थ माने थे। यही कारण है कि अपने समयमें बेन प्राचारों की पर मन हो जाते हैं और स्वार्थ पूरा होते ही ईर्षा रखने ऐमी दशा देखकर उन्हें हार्दिक मनोवेदना हुई । और जग जाते हैं । गृहस्थोंका बहुमान करते हैं। गृहस्थोंको उन्होंने अपने ज्ञानबल एवं बारित्रवजा-हारा इस क्षेत्र में संयमके मित्र बनवाते हैं। परस्परमजरते राते और पुनः एता स्थापित की। शिष्यों के लिये भी कलह करते हैं।" इस प्रकार प्राचा. भगवान् महावीर स्वामीके उद्देश्यको पूर्ण करने, रविषयक शोचनीय पतनका वर्णन करते हुए अन्तमें उचत करने और विकसित करनेमें साधु संस्थाका गुस प्राचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं, कि-"ये साधु नहीं हैं, उँचा स्थान है। इसके महत्व और गौरवको भुनाया किन्तु पेट भरनेवाले पेटु हैं। इनका (माधुओंका) यह नहीं जा सकता है। जैन-धर्म, जैन समाज और जैन कहना कि-"तीर्थकरका देश पहिनने वाला वन्दनीय साहित्य भाज भी जीवित है, इसका मूल कारण बहै"-धिक्कार योग्य है, निन्दास्पद है।" प्राचार्यश्रीने धिकाँशमें यह साधु-संस्था ही है। इसकी पवित्रता ऐसे साधुनोंकी "निर्लज्ज, अमर्याद, कर" आदि विशे- और प्रारोग्यनाम हो जैन मस्कृतिका विकास संनिहित पणोंसे गम्भार निन्दा की है। ऐसा ही साधु चरित्र- है। किन्तु भाजकी साधु-संस्थामें भी पुनः अनेक रोग चित्रण महानिशीथ, शनपदी भादि ग्रन्थों में भी पाया प्रविष्ट हो गये हैं । अतः पुनः ऐसे ही हरिभद्र समान जाता है। ___एक महापुरुषकी भावश्यकता है, जोकि महावीर स्वामी भगवान् महावीर स्वामी द्वारा प्रदर्शित आचार- के याचार क्षेत्रको फिरसे सुदृढ़, स्वस्थ, और मार्श पद्धति एक मादर्श स्याग वृत्ति और भसिधारा सम बना सके । अत्यन्त कठोर एक असाधारण निवृत्तिमय मार्ग है । 'संबोध-प्रकरण' में लिखित और अत्र उद्धन या इस मार्ग में सब प्रकारके दुःख, कठिनाइयाँ उपसर्ग चारित्र-पतन तत्कालीन चैत्यवासी संप्रदायके माधुनों एवं परिषह सहन करने पड़ते हैं। स्वयं भगवान् महा- में पाया जाता था । यह संप्रदाय विक्रम संवत् ११२ वीर स्वामीने भरपम्स उग्ररूपसे इसका परिपालन के भासपासमें उत्पन हुआ था; ऐमा धर्मसागर-कृत किया था। उसी भादर्श त्याग-वृतिको जैन साधुओं पट्टावलीमे ज्ञात होता है। चरित्र-नापकका काम द्वारा ही इस प्रकारकी दशा की जाती हुई देखकर मा- विक्रम संवत १७ से २२७ सकका है, मनः मालम चार्य हरिभद्रसूरिको मार्मिक एवं हार्दिक वेदना हुई। होता है कि संवत् ११२ से १७ तक कालमें इस प्राचार्यश्रीने विरोध होनेकी दशामेभी इस स्थितिमें संप्रदायने अपने पैर बहुत मजबूत जमा लिये होंगे। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ अनेकान्त [माध, बीर-निर्वाथ सं. २ हरिभवसरि चैत्यवासी संप्रदायके थे वा अन्य संप्रदाय MENIMANAMEANAME के, यह कह सकना कठिन है। किन्तु कोई २ इन्हें ' रेवासी संप्रदाय के ही मानते हैं । उस समयमें चैत्य 'वीरशासनांक' पर कुछ सम्मतियाँ पासी और पस्तिवासी ऐसे दो प्रबल दल उत्पन्न होगये थे। इन दोनोंके परस्परमें समाचारी विषयको लेकर ___ (६) श्री बालमुकन्दजी पाटौदी 'जिज्ञासु,' काफी वाद-विवाद, वाकसह एवं संघर्ष चलता था,और किशनगंज कोटाइस प्रकार ये वो विरोधी दल होगये थे-ऐसा ज्ञान होता है। अंतमें चैत्यवासी संप्रदाय विक्रम सं०१००० "अनेकान्तका विशेषांक मुझे मिल गया है। के भासपास समाप्त होगया और खरतर गडके संस्था- उसके गढ़ साहित्य, गहरे अन्वेषण व पूर्णविचारसे पक श्रीजिनेश्वरसूरिने अपने अनुयायियों के लिये वि० लिखे गये लेखोंकी प्रशंसामें कुछ लिखनेके लिये मैं सं० १.८० में वस्तिवास स्थिर किया। स्वयं अयोग्य हूँ-लिखनेकी शक्ति नहीं रखता । मैं इस परिस्थितिके सिंहावलोकनसे हरिभवसरिका इसे भले ही पूर्ण रूपेण न समझ पाऊँ परन्तु पढ़ता काल जैन साहित्य, जैन संस्कृति और जैन प्राचार मैं उसे बड़े ध्यानस और बड़ी शान्तिसे हूँ। मैं उसे क्षेत्र में एक संक्रान्ति काल कहा जा सकता है। अतः एकाग्र मनसे एकान्तमें पढ़कर बड़ा ही आनन्द लाभ हरिमहसूरिका आविर्भाव जैन इतिहासमें अत्यन्त करता हूँ। और हृदयसे मैं उसकी उन्नति चाहता हूँ महत्वका स्थान रखता है । इसलिये यदि इन्हें "कलि- और चाहता हूँ उसके सदैव निरन्तराय दर्शन । काज-सुधर्मा" कहा जाय तो यह युक्ति संगत प्रतीत जैन लक्षणावली लिखनेका आपका अनुष्ठान होगा । यही संक्षेपमें प्राचार्यश्रीके पूर्वकालीन और तत्कालीन साहित्यिक एवं प्राचार विषयक स्थितिकी ___ बहुत ही प्रशसनीय है और ऐसे ग्रन्थकारोंकी जैन ' संसार व जैनेतर संसारको बहुत बड़ी आवश्यकता स्थूल रूप रेखा है। अब भागे इनकी जीवनी और र है। यह ग्रन्थ जैन संसारकं रत्नकी उपमा धारणकरतस्मीमांसा, साहित्य-रचना म तत्प्रभाव एवं निबन्ध ने वाला होगा । इससे लोगोंकी बहुत बड़ी ज्ञानसे संबंधित अन्य अंगोंके संबंध लिखनेका प्रयास होगी। "श्रीमानकी 'मीनसंवाद' नामक कविता बडी ही ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर संप्रदायमें विक्रमकी हृदयस्पर्शी है उसका यह वाक्य "गुंजी ध्वनी अंबर१५ वीं शतान्दिके आसपास या इसके कुछ पूर्व पुनः लोकमें यों, हा ! वीरका धर्म नहीं रहा है !!" तो माधु संस्थामें चैत्यवासी जैसी स्थिति पैदा होगई होगी; बड़ा ही हृदयमें चुभ जानेवाला और घुलजानइमीलिये प्राचारकी दृढताके लिये धर्मप्राण लोकाशाहने वाला है।" चुनः वस्लिवासी अपर नाम स्थानकवासी संप्रदायकी नींव डाली है।-लेखक। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ জিলহ্বাজ ভিস্থ জুহু ত্যা [10-सी अगरचन्द गाहटा, सम्पादक राजस्थानी'] सारके सारे समाज द्रुतगतिसे आगे बढ़ परिस्थितिका भलीभांति मनमवार यथोचित मात्र रहे हैं, नवीन नवीन भादर्शीका अवलम्बन ग्रहण करें। जिन पुराने विचारोंसे भव काम नहीं कर उन्नति लाभ कर रहे हैं और एक-दूसरेसे चलता है उन्हें परित्याग कर नवीन मार्गप्रहय करें प्रतिस्पर्धा करते हुए घुड़दौड़-सी लगा रहे हैं, पर क्योंकि सभी काम परिस्थितिक भाधीन होते हैं। हमारे जैनसमाजको ही न मालूम किस कालराहुने परिस्थितिका मुकाबला करने वाले व्यकि प्रसित किया है कि उसकी आभा इस प्रगतिशील कितने १ भाज नहीं कल उन्हें अन्ततः उसी मार्ग यगमें भी तिमिराच्छन्न है। उसकी कुम्भकर्णी पर आना पड़ेगा जिसे परिस्थिति प्रतिसमय बलनिद्रा अब भी ज्योंकी त्यों बनी हुई है। विश्वमें बान बना रही है। जो संसारकी गतिविधिको कहाँ कैसी उन्नति हो रही है, इसके जानने विचारने मोरसे सर्वथा उदासीन रहकर उसकी उपेक्षा का की हमें तनिक भी पर्वाह नहीं है। विश्व चाहे तिरस्कार करेंगे वे पीछे रह जायंगे, और फिर कहीं भी जाय हम तो अपने वर्तमान स्थानको पछतानेसे होना भी कुछ नहीं। क्योंकि घड़सवार नहीं छोड़ेंगे, ऐसा दुराग्रह प्रतीत हो रहा है। कई व्यक्तिको पैदल कभी नहीं पहुंच सकता। इसीलिये युवक धीरे धीरे पुकार कर रहे हैं, कुछ होहल्ला जैनधर्ममें 'अनेकान्त' को मुख्य स्थान दिया गया मचा रहे हैं, पर समाजके कानों पर जूं तक नहीं है कहा गया है कि अपना दृष्टिकोण विशाल रेंगती । युवकोंको पद-पद पर विघ्न बाधाएँ उप- रखो, विरोधी के विचारोंको पचानेकी शक्ति संचय स्थित हैं, पाए दिन तिरस्कारकी बोछारें उनके करो, देश-कालकं अनुमार अपना मार्ग निधित धधकते हृदयकी ज्वालाको शान्त कर रही हैं । वे करो। पर हमें धर्म के बाहरी माधन ही ऐमी भूल अपनी हार मान कर मन मसोस कर बैठ जाते भुलैयामें डाल रहे हैं कि तत्वके प्रातरिक रहस्य हैं ! कोई नवीन आदर्श उपस्थित किया जाता है तक पहुँचने ही नहीं देते । स्वयं नया मार्ग निर्धातो स्थान-स्थान पर उसका विरोध होता है, उस रण या उपयोगी आदर्श उपस्थित करनेकी शक्ति पर गम्भीर विचार नहीं किया जाता; तब आप ही सामर्थ्य हममें कहाँ ? दूसरंक उपस्थिन किये हुए कहिये उन्नतिकी आशा क्या निराशा नहीं है ? आदर्शोका भी अनुसरण नहीं करते । न मालूम जो व्यक्ति या समाज विश्वमें जीवित रहना वह सुदिन हमारे लिये कब भावंगा जब हम चाहता है उसके लिये भावश्यक है कि तत्कालीन अग्रगामी बनकर विश्व के सामने नवीन भादर्श Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [माध, बीरनिर्वाण सं०२४१६ स्थापन करेंगे । इस लेखमें अन्य व्यक्तियों द्वारा केवल दो ही घंटेमें अवलोकन किया था अतः उपस्थित किये हुए दो नवीन आदर्शोकी ओर जैन- उसके पूरे विवरणसे मैं अज्ञात हूँ, फिर भी थोड़े समाजका ध्यान आकर्षित करता हूँ। आशा है समयमें जो कुछ देखा उससे वह संस्था एक आदर्श समाजके नेता एवं विद्वान्गण उनपर गंभीर संस्था प्रतीत हुई । जैन समाजकी स्तुतिके इच्छुक विचार करेंगे। व्यक्तियोंको यहांस कुछ बोध ग्रहण करना चाहिये । गत वर्ष इधर कलकत्ता पाते समय रास्तेमें इसी प्रकार एक बार आते समय दिल्लीमें पागरे ठहरा था तो वहाँकी 'दयालबाग' नामक एक आदर्श मन्दिरको देखनेका सुअवसर मिला, संस्थाके आदर्शको देखकर दंग रह गया ! इतने उसका नाम है 'बिडला मंदिर।' परवार बन्धुके थोड़े वर्षोंमें इतनी महती उन्नति सचमुच आश्चर्य- सुयोग्य सम्पादक श्रीयुत् धन्यकुमारजी जैन भी जनक है ! मनुष्य जीवनको सुखप्रद बनाने एवं साथ थे। निःसन्देह यह एक दर्शनीय देवस्थान बितानेकी जो सुव्यवस्था वहां नजर आई वह है। भारतवर्षमें यह अपन, ढंगका एक ही है । इम भारतकं सभी समाजोंके लिये अनुकरणीय बोध मंदिरस सर्व-धर्मसमभावका सुन्दर आदर्श-पाठ पाठ है । जीवनोपयोगी प्रायः सभी वस्तुएँ वहाँ मिलना है । यद्यपि मुख्य रूपमे यह मंदिर बिड़ला प्रस्तुत की जाती हैं, और उस संस्थामें रहने वाले जी के उपास्य श्री लक्ष्मीनारायणजीका है, पर सभी लोगोंको उन्हींका व्यवहार करना आवश्यक वैसे मभी प्रसिद्ध धर्मोके उपास्यदेवों-महापुरुषोंकीमाना गया है। बड़े-बड़े बुद्धिशाली इन्जिनियर मूर्तियाँ एवं चित्र इसमें अंकित हैं, स्थान स्थान मादि कम वेतनमें संस्थाको अपनी ममझ कर पर प्रसिद्ध महापुरुषोंक उपदेश वाक्य चुन चुन कर्तव्यके नाते संवा कर रहे हैं। उनकी पवित्र कर उत्कीर्ण किये गये हैं, जिससे प्रत्येक दर्शन सेवा एवं लगनका ही यह सुफल है कि थोड़े ही वाले निसंकोचसे वहां दर्शनार्थ जा सकते वर्षोंमें करोड़ों रुपयोंकी सम्पति वहाँ हो गई है है और सब एक साथ एक ही मंदिरमें बैठकर और दिनोदिन संस्थाका भविष्य उज्ज्वल प्रतीत अपने अपने उपास्य देवोंकी उपासना कर सकते हो रहा है। संस्थामें काम करने वाले सभी हैं। कहां सर्व-धर्मसम-भावका इतना ऊँचा आदर्श सुशिक्षित हैं, शिक्षाका प्रबन्ध भी बहुत अच्छा है। और कहां हमारा जैन ममाज, जो दिगम्बर श्वेएक-दमरेमें बहुत प्रेम है और सभी व्यक्ति स्वस्थ ताम्बर मूर्तियों एवं तीर्थों के लिये लाखों रुपये व्यर्थ एवं सुखी दिखाई देते हैं। बरबाद, कर रहा है। इस आदर्शका अनुसरणकर धार्मिक संस्कारोंके सुदृढ़ बनाने के लिये संस्था यदि हमारा जैन समाज थोड़ा सा उदार होकर में रहने वाले सभी व्यक्ति सुबह शाम नियत अपनी साम्प्रदायिक कट्टरताको कम करदे तो समय एकत्र होकर प्रार्थना, व्याख्यान श्रवण ज्ञान- आज ही ममाज उन्नतिकी ओर अग्रसर होने गोष्ठी करते हैं। लाखों रुपयोंकी लागतका एक लगे । लाखों रुपयोंका व्यर्थ खर्च बच जाय और नया मन्दिर बन रहा है । यद्यपि मैंने इस संस्थाका वे रुपये दयालबारा-जैसी संस्थाके स्थापनमें, जैन Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ) जैन समाजके लिए अनुकरणीय मादर्श ..२५ धर्मके प्रचारमें, नवीन जैन बनाने में लगाये जाएँ महत्व देकर दिनोंदिन हम अधिकाधिक कट्टरता तो कोई कारण नहीं कि हम विश्वमें गौरव प्राप्त धारण कर रहे हैं। साधारणतया यही धारणा हो नहीं कर सकें। रही है कि उनसे हमारा मिलान-मेल हो ही नहीं देहलीसे बनारस आने पर वहाक भेलुपुरके सकता, उनको धारणा सदाभ्रान्त है, पर वास्तवमें जैन मन्दिरको देखकर प्रथम मुझे आनन्द एवं वैसी कुछ बात है नहीं, यह मैंने अपने "दिगम्बर आश्चर्य हुआ कि वहां श्वेताम्बर जैन मंदिर में श्वेताम्बर मान्यता-भेद शीर्षक लेखमें जो कि भनेश्वेताम्बर मूर्तियोंके साथ साथ कई दिगम्बर कान्तक' वर्ष २ अंक १० में प्रकाशित हुआ है, मूर्तियां भी स्थापित हैं। पर पीछेसे मालूम हुआ कि बतलाया है। हमारी वर्तमान विचारधाराको देखते उसीके पासमें दिगम्बर भाइयोंका एक और मंदिर हुए उपयुक योजना केवल कल्पना-स्वप्नसी एवं है जिसमें बहु संख्यक मूर्तियां हैं। यदि हमारे असम्भवमी प्रतीत होती है, संभव है मेरे इन मंदिरोंमें दोनों मम्प्रदायोंकी मूर्तियाँ पासमें रखी विचारांका लोग विरोध भी कर बैठे, पर वे यह रहें और हम अपनी अपनी मान्यतानुमार बिना निश्चयसे स्मरण रखें कि बिना परस्पर संगठन एक दृमरेका विरोध किये ममभाव पूर्वक पूजा एवं सहयोग कभी उन्नति नहीं होनेकी । करते रहें तो जो अनुपम आनन्द प्राप्त हो मकना श्वेताम्बर एक अच्छा काम करेंगे तो दिगम्बर है यह तो अनुभवको ही वस्तु है। ऐमा होने पर उसमें अमहिपा होकर उसकी असफलताका हम एक दुमरेमे बहुत कुछ मिल-जुल मकत है। प्रयत्न करेंगे । दिगम्बर जहां प्रचार कार्य करना आपमी विरोध कम हो सकता है, एक दूमकं प्रारम्भ करेंगे श्वेताम्बर वहां पहुंच कर मतभेद विधि-विधानसे अभिज्ञ होकर जिम मम्प्रदायकी डाल देंगे। तब कोई नया जैन कैसे बन सकता विधिविधानमें जो अनुकरणीय तत्व नजर आवे है ? अन्य ममाजम कैमे विजय मिल मकती है ? अपने में ग्रहण कर मकते हैं। एक दूमांक विद्वान अर्शन हमारा कोई भी इच्छिन कार्य पूर्ण रूपसे आदि विशिष्ट व्यक्तियोंसे महज पर्रािचन हो सफल नहीं हो मकना । उदाहरणार्थ दिगम्बर मकने हैं। दोनों मंदिरोंके लिये अलग अलग महावीर जयंतीकी छुट्टीकं लियं या अन्य किमी जगहका मूल्य मकान बनानेक खर्च, नौकर, पूजा- उत्तम कायकं लिये आगे बढ़ेंगे तो श्वेताम्बर ममरी, मुनीम रखने आदिका मारा खर्च आधा हो अंग कि हम यदि महयोग देंगे और कार्य मफल जाय। अनः आर्थिक दृष्टिसं यह योजना बहुत हो जायगा नो यश उन्हें मिल जायगा अतः हम उपयोगी एवं लाभप्रद है । पर हमारा समाज अभी अपनी नृती अलग ही बजावें, नब कहिये मफलता तक इसके योग्य नहीं बना, एक दूमरकं विचागं- मिलगी कम ? मवप्रथम यह परमावश्यक है कि जो को हीन क्रियाकाण्डोंको अयुक्त और मिद्धान्तको आदर्श काय हम दोनों समाजों के लिये लाभप्रद है सर्वथा भिन्न मान रहे हैं, इधर उधरम जो कुछ कमसे कम उमम ना एक दूमरेको पूर्ण सहयोग साधारण मान्यता-भेद सुन रखे हैं उन्हींको बहुत दें। महावीर जयनी आदिके उत्मव एक साथ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [माघ, पीर-निर्वाद सं०॥ मनाये तो उनकी शोभा द्विगुणित हो जाती है और की दशा अभी "निनायकं हतं सैन्य" की हो रही . पापसमें श्रेय एवं जानकारी बढ़ती है। है! कौन किसकी सुनता है ? सब अपनी अपनी मंदिरोंकी उपयुक्त योजनाको अभी अलग भी डफलीमें अलग अलग राग आलापते हैं। श्वेतारखदे तो अन्य कई ऐसे कार्य है जो दोनों समाजे म्बर दिगम्बर संस्थाएँ अभी एक न हो सके तो यदि थोडीसी उदारतासे काम लें तो लाखों रुपये कमसे कम श्वेताम्बर समाजके तीन मुख्य सम्प्रबच सकते हैं। जैसे दि० श्वे० शिक्षा संस्थाओंको दाय तथा अन्य पार्टी बंदियाँ एक होनेको कटिबद्ध एक कर दिया जाय तो बहुतसा व्यर्थ खर्च बचता होजाँय और इसी प्रकार दि. समाजकी संस्थाएँ है। एक कलकत्ते में ही देखिये, केवल श्वेताम्बर भी, तो कितना ठोस कार्य हो सकता है। अनेकात समाजके तीनों सम्प्रदायोंकी तीन भिन्न २ शिक्षा के उपासक क्या आपसी साधारण मत भेदोंको संस्थाएँ हैं जिनको एक कर लेनेपर आधसे भी नहीं पचा सकते ? भनेकान्त तो वह उदार सिद्धाकम खर्च में ठोस कार्य हो सकता है। जो जो सं- न्त है जहाँ वैर-विरोधको तनिक भी स्थान नहीं। स्थाएँ द्रव्याभावसे आगे नहीं बढ़ सकती वे उस विशालदृष्टि-द्वारा वस्तुके भिन्न भिन्न दृष्टिकोणोंको बचे हुए खर्चसे सहज ही उन्नति कर सकती हैं। उनकी अपेक्षासे समभावपूर्वक देख सकना, सभी इसी प्रकार कॉन्फ्रेंस, परिषद् आदि अलग अलग की संगति बैठा लेना ही तो 'भनेकान्त' है। पर होते हैं उनमें हजारों रुपयोंका व्यय प्रतिवर्ष होता हमने उमके समझनेमें पूर्णतया विचार नहीं किया, है उन संगठन सभाओंका परस्परमें सहयोग नहीं इसीसे हमारी यह उपहास्य दशा हो रही है। होने के कारण प्रस्ताव भी कोरे 'पोथीके बेंगण' की आशा है समाज-हितैषी सज्जनगण मेरे इन विभाँति काराजी घोड़े रह जाते हैं। अन्यथा एक ही चारोंपर गम्भीरतासे विचार करेंगे । शासनदेव जैनकॉन्फ्रेंस हो तो हजारों रुपयोंका खर्च भी बच दोनों सम्प्रदायोंको सद्बुद्धि दें, यही कामना है। जाय और काम भी अच्छा हो, पर हमारे समाज 'वीरशासनाई पर सम्मति (७) प्रो० जगदीशचन्द्रजी एम० ए० रुइया कालिज बम्बई'वीर शासनाक मिला । कुछ लेख पढ़े, लेख संग्रह ठीक है । जैन समाजके लिए ऐसे पत्रकी बड़ी आवश्यकता थी। हर्ष है कि आप इस आवश्यकताको पूर्ण करनेके प्रयत्नमें लगे हुए हैं । .... 'जैन लपवावलिमें जो पाप परिश्रम कर रहे हैं वह सराहनीय है।" Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोम्मटसार एक संग्रह ग्रन्थ है [शक-पं० परमानन्द बैन शाची] विगम्बर जैन-सम्प्रदायके अन्यकर्ता प्राचार्योमें रूप दोनों भागोका संकलन करनेमें जिन प्रन्थोका उप प्राचार्य नेमिचन्द्र अपना एक महत्वपूर्ण योग किया गया है यद्यपि वे सभी मेरे सामने नहीं , स्थान रखते हैं । आप अपने समयके विक्रमकी ११वीं परन्तु उनमें से जो ग्रन्थ इस समय उपलब्ध है, उनके शतान्दीके एक प्रसिद्ध ग्रन्थकार हो गये हैं, और तुलनात्मक अध्ययनसे मालम होता है कि उक्त कारों धवल, महाधवल तथा जयधवल नामके महान् की रचनामें उन धवलादि सिद्धान्त अन्धोंके सिवाय, मिद्धान्त ग्रन्थों में निष्णात थे। इसीसे 'सिद्धान्त चक- 'प्राकृत पचसग्रह' से भी विशेष सहायता ली गई है। वर्ती' कहलाते थे । गंगवंशीय राजा राचमल्ल के इसके अतिरिक्त कर्मविषयक वा साहित्य भी संभवतः प्रधान सेनापति ममरकेशरी वीर मार्तण्ड आदि अनेक आचार्य नेमिचन्द के सामने रहा होगा जिस परसे उपाधियोंसे विभूषित राजा चामुण्डगयके श्राप विद्या- प्राचार्य पज्यपादवे अपनी 'सर्वार्थसिद्धि में कर्मसाहित्यसे गुरु थे। आपने उक्त तीनों सिद्धान ग्रन्थोंका और सम्बन्ध रखनेवाली ऐसी कुछ गाथाएँ 'उक्तच' रूपसे अपने ममयमे उपलब्ध अन्य कर्म साहित्यका दोहन या बिना किसी मकेन के उद्धृतकी हैं। क्योंकि माकरके जो गोम्मटसार म्प नवनीत निकाला है वह बड़े चार्य पूज्यपाद दाग उधृत गाथामिंगे कुछ गाथाएँ ही महत्वका है और श्वनाम्बर सम्प्रदायके उपलब्ध आचार्य नेमिचन्द्रने भी अपने ग्रन्थोमें संकलित की , कर्म ग्रन्थोंसे बहुत कुछ विशेषता रखता है । इम और अवशिष्ट गाथाएं उपलब्ध दि० कर्ममाहित्य में गोम्मटमारके पठन-पाठनकी दि. जैनममा जमे विशेष कही पर भी नहीं पाई जाती है । इसमें किमी ऐमे प्रथप्रवृत्ति है । आपने गोम्मटमार (जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड) का अनुमान होना स्वाभाविक है जिमपरस ये गाथाएँ के भिवाय, त्रिलोकमार, लब्धिमारकी भी रचना की है पूज्यपाद और नेमिचन्द्रने उद्धृत की है। और यह भी और 'कर्म प्रकृति' नामका एक ग्रन्थ भी इन्हींका संभव है कि प्राचार्य नेमिचन्द्रने पूज्यपादके ग्रंथपरसे बनाया हुश्रा कहा जाता है, परन्तु वह अभी तक मेरे हो उन्हें लेलिया हो। देखनेमे नही आया। . . गोम्मटमारका गम्भीर अध्ययन करने और दूसरे श्राचार्य नेमिचन्द्र नेगोम्मटमार के जीवनकाण्ड और प्राचीन ग्रयोंके माथ तुलना करनेमे स्पष्ट प्रतीत होता कर्मकाण्ड नामक दोनो खण्डोमें पटग्बण्डागम-सम्बन्धी है कि गोम्मटसारको रचना करने में उन प्राचीन ग्रंको जीवस्थान, क्षुद्रबंध, बंध स्वामित्व, वेदना और वर्गणा परसे विशेष अनुकरण किया गया है। यहाँ तक कि इन पांच विषयोंका संग्रह किया है । इमी कारण उनके पयोंको ज्योका त्यो अथवा कुछ पाठ-भेदके साथ गोम्मटसारका दूमरा नाम ‘पंचमंग्रह' प्रयुक्त हुश्रा जान अपने ग्रन्थमें शामिल किया गया है। इसीलिये गोम्मट. पड़ता है । गोम्मटसारके जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड सार अन्य श्राचार्य नेमिचन्द्रकी बिल्कुल ही स्वतन्त्रकृति Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [माष, वीरनिर्वाण सं०२५५५ मालूम नहीं होता किन्तु यह एक सग्रह ग्रन्थ है,जिसका रचना सुमम्बद्ध जान पड़ती है और अपने विषयको उक्त प्राचार्यने चामुण्डरायके निमित्त संकलन किया पूर्णतया स्पष्ट करती है। अन्यमें प्रतिपादित विषयोंके था। गोम्मटसारके सकलित होने के बाद इसके पठन- लक्षण बहुत अच्छी तरह संकलित किये गये हैं जिनके पाठनका जैनसमाजमें विशेष प्रचार होगया और वह कारण यह ग्रन्थ सभी जिज्ञासुत्रोंके लिये बहुत उपयहाँ तक बढ़ा कि गोम्मटसारको ही सबसे पुराना कर्म योगी होगया है। यद्यपि श्वेताम्बरीय प्राचीन चतुर्थ अन्य समझा जाने लगा। किन्तु जिन . महा बन्धादि कर्मग्रंथमें भी इसी विषयका मंक्षिप्त वर्णन दिया हुआ प्राचीन सिद्धान्त प्रन्योंके आधारपर इसकी रचना हुई है परन्तु उसमें जीवकाण्ड जैमा स्पष्ट एवं विस्तृत कथी उनके पठन पाठनादिका बिल्कुल प्रचार बन्द हो यन नहीं और न उममें इस तरहके सुमम्बद्ध लक्षणोंगया और नतीजा यह हुआ कि वे धवलादि महान् का ही समावेश पाया जाता है । इसी लिये प्रज्ञाचक्षु सिद्धान्त अन्य केवल नमस्कार करने की चीज़ रह गये। पं०मुखलाल जीने अपनी चतुर्थकर्म ग्रंथकी प्रस्तावनामें इसी कारण इसे ही विशेष आदर प्राप्त हुआ और उन जीवकाण्डको देखने की विशेष प्रेरणा की है । अस्तु । सिद्धान्तग्रन्थोंकी प्राप्ति के अभावमें इन्हें ही मूल सिद्धान्त पंचसंग्रह और जीवकाण्ड अन्य सममा जाने लगा। इसी ग्रन्थके कारगा प्राचार्य नेमिचन्द्रकी अधिक ख्याति हुई और उनका यह मक- प्राकृन पंच मंग्रह के 'जीवप्ररूपणा' नामके प्रथम लन जैन ममाजके लिये विशेष उपयोगी सिद्ध हुमा। अधिकारकी २०६ गाथामिमे गोम्मटमार जीवकाण्डमें अस्तु, गोम्मटमारकी रचना के आधार के विषयमें कुछ १२७ गाथाएँ पाई जानी है। ये गाथाएँ प्रायः वे हैं विचार करना ही इम लेखका मुख्य विषय है। अतः जिनमें प्राण, पर्यामि श्रादिकं विषयों के लक्षण दिये सबसे पहले उसके जीव काँडके विषयमें कुछ विचार गये हैं। इन १२७ गाथाश्रोम १०० गाथाएँ तो वे किया जाता है। ही जिन्हें धवलामें प्राचार्य वीरमेनने उक्तं च रूपसे गोम्मटमारके जीवकाएडमें जीवोंकी अशुद्ध दिया है और निनका अनेकान्तकी गन तृतीय किरणमें अवस्थाका वर्णन किया गया है । गायाप्रोकी कुल 'निप्राचीन प्राकृत पचनग्रह' शीर्षकके नीचे परिचय संख्या ७३३ दी है । ग्रंथके शुरुमं मगलाचरण के बाद दिया जा चका है । शेष २७ गाथाएँ, और उपलब्ध चीस अधिकारोंके कथनकी प्रतिज्ञा की गई है. और उन होती है। अतः ये मच गाथाएँ श्राचार्य नेमिचन्द्रकी बीस अधिकारोंका-जिनमें १४ मार्गणाएं भी शामिल बनाई हुई नहीं कहा जा मकी। क्योंकि पचसंग्रह है-ग्रन्थमे विस्तार पूर्वक कथन किया गया है । साथ गोम्मटमारने बहुत पहले की रचना है। मालम होता है हो अंतर्भावाधिकार और श्रालाराधिकार नामके दो कि श्राचार्य नेमिचन्द्र के सामने 'प्राकृत पंचमग्रह' अधिकार और भी दिये गये हैं निमसे कुल अधिकागे- जरूर था और उमी परसे उन्होंने जीवकाण्डमें ये १२० की संख्या २१ हो गई है जिनमे गाथा ग्रीका और उन- गाथाएं उद्धृत की है। पनसंग्रहकी जो गाथाएँ जीवके प्रतिपाद्य विषयका सष्टीकरण, विचन पर्व संग्रह काण्डमें बिना किमी पाठभेद के या थोडसं साधारण बात ही अच्छे ढंगसे किया गया है। दमानिये हमकी बन्द परिवर्तनके साथ पाई जाती है उनमसे नमूने के Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. किरण ] गोम्मटसार एक संग्रह ग्रंथ है २६ - - - तौर पर दो गाथाएँ नीचे दी जाती है:- १३५, १३६, १३७, १४०, १४१, १४६, १५०, १५१, शो इंदिपसु विरदो णो जीवे थावरे तसे चाथि। १६३, १७३, २०१, १८५, १६१, १६२, १६५, १६९, जो सरहदि जिणुनं सम्माइही भविरदो सो॥ १९७, २०२, २१७, २१८, २१६, २२०, २२६, २३१, -प्रा. पच सं० १,११ २३८, २४२, २७३, २७२, २०४, २८१, २८, २९८, यो इंदियेसु विरदो यो जीवे थावरे तसे वापि। ३०२, ३०३, ३०४, ३१५, ३६६, ४ME, ४६४, ४६६, जो साहदि जिणुतं सम्माइट्ठी भविरदो सो॥ ४७०, ४७१, ४७३, ४७४, ४७५, ४७६, ४७७, ४८१, -गो० जी०, २६ ४८३, ४८४, ४८५, ४८८,५०८,५०६,५१०,५१९, सहा सेसपमामो वयगुणसीमोजिमंग्मिो वाणी। ५१२,५१३, ५१४, ५१५, ५१६, ५५५, ५५७, ५५६, मणव सममो य खवमो मावशिवीणो हुअप्पमत्तो॥ ५५८, ५६०, ६०२५, ६४६, ६५४, ६५५, ६६०, -प्रा. पंच स०, १,१६ ६६१,६६४,६६५, ६७१, ६७३, ६७४, ६२८,६६६, बहामेसपमादो वयगुणसीलोनिमंरिमो गाणी। ६५२ पर पाई जाती है। अश्व समभो म खवमो भाणणिजीयो हु अपमत्तो । प्राकृत पंचमंग्रहकी उपर्युक्त नम्बर वाली गाथाओंके -गो० जी०, ४६ अतिरिक्त जिन गाथाश्रोंका जीवकाण्ड में थोड़ा-मा पाठइन दो गाथाओंके मिवाय, प्राकृत पचमग्रहकी भेद पाया जाना है उनमेमे नमूने के तौर पर दो गायाएँ गाथाएँ न० २, ३, ४, ६, ८,६, १०, १२, १४, १५, नीचे दी जाती है:१७, १८, १६, २०, २१, २३, २५, २७, २६, ३०, जो तस बहाउ विरदो गोविरभो पक्मयावर बहायो। ३१, ३२, ३५, ४४, ४६, १८, ५१, ५२, ५३, ५४, परिसमयं सो जीवो विरयाविरमो जिणेशमई ॥ ५५, ५६, ५६,६०, ६३, ६४, ७४ ७६, ८५, ८२, -प्रा०पच मं०, १,१३ ८३, ८४,८५,८६,८७, ८,६०, ५.२ ६३, जो तस बहाउ विरदो अविरदमो तहय पावर बहादो। ६५, ६७, १००, १०५, १०६, ५०८, १०६, ११६, एक समयम्हि जीवो विरदाविरदो गिणेशबई ॥ ११७, २१८, ११६, १२०, १२२. १२३, १२६, १२७, -गो० जी०११ १२६, १३०, १३१, १३३, १३५, १३६, १३७, १३८, मति जयो णिचं मरोण निग्या बदो हुने जीवा । १३६, १४०, १४१, १४२, १४४, १४५, १४६, १४७, मनमाडाय जम्हा तम्हा ते माणसा भणिया ॥ १४८, १४६, १५०, १५१ १५२, १५३, १५४, --प्रा०पंचम०, १,६२ १५६, १५७, १५६, १६०, १६१. १६६, १७०. ५७३, मयंति अदो णिस्वं मणेण मिरमा मणुका जम्हा । १७४, १७६, १७, १७८, १७६. १८०, १८५. १६६, मराभवा व सम्वे नहा ते माणुमा भणिवा ॥ २०१, गोम्मटमार जीवकाण्डमें क्रमशः गामा न०, -गो० जी० १४८ ८,६, १७, १८, २०, २२, २७, २७, ३३, ३४. ५१. इन दो गायाक अलावा पन मंग्रहकी गथाएं ५२, ५४, ५६, ५७, ५८, ६२, ६३, ६५, ६५, ६८, न. ५, १, १३, ४, ६१,६४, ६६, ६८,६६, १०७, ७०, ७०,७२, ११८, १२६, ५३२, १३३, ५३४, १२५, १६६, १८८ १८६ भी ऐमीही जो जीवकांत Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [माघ, वीर-निर्वाण सं०५ में क्रमशः नं० १०, ६१, ११७, १२८, १४७, २३०, पंचसंग्रह और कर्मकाण्ड २१३, २३६, २४०, २७४, ४३७, १४६. ५३३, ५३४ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, कर्म विषयक साहित्यका एक पर थोड़ेसे पाठ भेदके साथ उपलब्ध होती है। अपर्व ग्रन्थ है। इसमें बंध, उदय, उदीरणा और इनके सिवाय, एक गाथा जीवकाण्डमें पंचसंग्रह कर्मोकी सत्ताका बहुत ही अच्छे तरीके पर वर्णन दिया की ऐसी भी पाई जाती है जो अधिक पाठ भेदको लिये गया है । साथ ही, कर्म क्या है, उनके कितने भेद हैं हुए है-उसका पर्वा तो मिलता है परन्तु उत्तरार्ध और उनका जीवके साथ कैसा संबंध होता है। किस नहीं मिलता । वह बदला हुआ है। किन्तु धवलाके जीवके कितनी प्रकृतियोंका बंध और उदयादि होते हैं। मुद्रित अंशमें वह पंचसंग्रहके अनुसार ही उपलब्ध इन सबका विवेचन इसमें किया गया है। ग्रंथम ६ होती है। वह इस प्रकार है:-- अधिकार दिये हैं और मय प्रशस्तिके गाथात्रोंकी कुल महिमुहनियमियबोहणमाभिणियोहियमणिदइंदियनं । संख्या ६७२ दी है । जब तक मेरे देखने में 'प्राकृत पंच संग्रह' नहीं पाया था उस समय तक मेरा यह खयाल बहु उग्गहाइणखलु क्यछत्तीसा-ति-सय-भेयं ॥ --प्रा. पंचसं०, १,१२१ था कि कर्म प्रकृतियोंका इस प्रकारका बटवारा कर देने. वाला कोई अन्य प्राचीन कर्म ग्रन्थ भी श्राचार्य नेमिमहिमुहणिपणियबोहण माभिणियोहियमणिदईदियजम् चन्द्र के सामने रहा होगा, जिमपरसे उन्होंने संक्षिप्तरूपसे भवगहईहावायाधारणगा होति पत्तेयं ॥ गोम्मटसार कर्मकाँडका संकलन किया है। यद्यपि पंच-गो० जी०, ३०५ संग्रहका तुलनात्मक अध्ययन करनेमे मालूम होता है मूलाचार और जीवकाण्ड कि कर्मकांडकी रचनामे कुछ क्लिष्टता अागई है। परंतु प्राकृत पचमंग्रहमें वह मरलता बनी हुई है, इमलिये मूलाचार दि. जैन ममाजका एक मान्य ग्रन्थ है। उसके द्वाग अर्थ-बोध करने मे कोई कठिनाई मालूम इमके विषयमें, मैं एक लेग्य 'अनेकान्त' की द्वितीय नहीं होती। दूसरी विशेषना उममें यह भी है कि जिस वर्षकी किरण न. ५ में निग्य चका हूँ । इमी से यहाँ बातको पनमग्रटकार गाथाबद्ध करनेमें कठिनाई ममझते उसके विषयमं अधिक कुछ नहीं लिग्वा नाता। उसकी थे या उससे अर्थ बोध होने में कुछ क्लिष्टताका अनुभव कुछ गाथा भी गोम्मटमार जीवकाण्डमें प्रायः ज्योंकी करते थे उमे उन्होंने प्राकृत गद्यम दे दिया है और त्यो रूपम उपलब्ध होती हैं। अर्थात् मूलाचारकी साथमें अव मंष्ठि भी दे दी है, जिममे जिज्ञासुओंको गाथाएँ नं० २२१, २२३, २२६, ३२८, ३१५, ३१६, उसके ममझने में बहुन कुछ आसानी होगई है। फिर १०३४, १०३५, १०३६, १.३७, १०३८, १०३६, भी गोम्मटमार कर्मकाण्ड में कितना ही वर्णन पंचमंग्रह १०४०, ११०२, ११०३, ११५८,११५१ गोम्मटमार मे भिन्न पाया जाता है। उदाहरण के लिये इगिनी और जीवकाण्डमें क्रमशः न० ११३, ११४, ८६, २२१, प्रायोपगमन मन्याम श्रादिका वर्णन नथा कर्मों का नो२२५, २२५. २५, ३६, ३७, ३८, ४०, ४१ १२,८१, कर्मवाला कथन पंचभंग्रहमे नहीं है । इसी तरह कद पी८२, ४२६, ४२६, पर पाई जाती है। घात या अकाल मरण के कारणोंको सूचित करनेवाली Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण गोम्मटसार एक संग्रह ग्रंथ है गाथा भी उसमें नहीं है । इसके सिवाय,८७६ नं. की दिये हैं और फिर एक गाथामें उनके स्वभावको उदा. गाथामें ३६३मतोंका-क्रियावादी और प्रक्रियावादी अादि हरण द्वारा स्पष्ट किया है । इसके पश्चात् एक गाथाम केभेदोंका-और उसके बाद उनका संक्षिप्त स्वरूप १३ उत्तर प्रकृतियोंकी संख्या दी है और फिर प्राकृत गद्य गाथाओंमें दिया है, उसके अनन्तर दैववाद, संयोग- उनके नाम, भेद और स्वरूपको दिया है । अतः गोम्म वाद और लोकवादका संक्षिम स्वरूप देकर उनका टमार कर्मकाण्डकी अपेक्षा 'प्राकृत पंचसंग्रह' करेंमिथ्यापना बताया है । माथ ही, उक्त मतोंके विवाद साहित्य के जिज्ञासुओंके लिये विशेष उपयोगी मालम मेटनेका तरीका बताकर उक्त प्रकरण को समाप्त किया होता है। है । यह मय कथन प्राकृत पचभग्रहमें नहीं है। इममे गोम्मटसार कर्मकाण्डकी रचनापरमे एक बातेको मालूम होता है कि ये सब कथन श्राचार्य नेमिचन्द्रने और भी पता चलता है और वह यह कि इसमें अध:दूसरे ग्रन्थों पग्मे लेकर या मार स्वींचकर रखे हैं। करण, अपर्वकरण के लक्षणवाली गाथाएँ जो जीव परन्तु गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी एक बात बहुत काण्डमे दी गई हैं, उन्हें कर्मकाण्डमें भी दुबारा मूल ग्वटकती है और वह यह है कि गाथा नं० २२ में गाथाओं के माथ दिया गया है। इसके मिवाय, जो कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियों की संख्या तो बताई है परन्तु गागाएँ कर्मकाण्डमें १५५ नं० से लगाकर १६२ तक उन उत्तर प्रकृतियों के स्वरूप और नाम श्रादि का क्रमशः दी हैं फिर उन्हीं गाथानोको ६१४ नं0 से लेकर हर कोई वर्णन नहीं किया गया है, निमके किये जानेकी नक दिया है, जिनमें ग्रंथमें पुनरुक्ति मालम होती है। ग्वाम जरूरत थी। हां, २३, २४ और २५ नं. की शायद लेम्वों की कृपास ऐमा हुश्रा हो। कुछ भी हो, गाथामि दर्शनावग्गण कर्म की नौ प्रनिगाभंग म्त्यान- परन्तु हम कर्मकाण्ड के मकानन करने में प्राकृतं पंचगृद्धि, निद्रा, निद्रा निद्रा, प्रचना बार प्रचना प्रचन्ना मग्रह' में विशेष मायना ली गई मालम होती है। इन पाँच प्रकृनियाँका म्यम्प जरूर किया है-शेपका क्योंकि पचमग्रहकी कुछ गाथाएँ कर्मकाण्डमे भी ज्यानहीं दिया । इम कमाको मत टीकाकारने पग की त्यो अथवा कुछ बड़े शब्द पग्निर्नन के माथ किया है । परन्तु प्राकृन प नभग्रहक 'प्रनि समय नन' उपनभनी हैं। उनमंग की गाथा यहा नमने के नामक द्वितीय अधिकाग्मे मंगलाचरण के बाद, कर्म गौर पर दी जानी है:प्रकनियोके दो भेद बनाकर पहले मलप्रकगियों के नाम परपडिहारमिमजाहलिचिकुलालभन्याराणं । ॐ कदलीघान मरणके कारणांका दिग्दर्शन कराने जह पदमि भावा नहवि य कम्मा मुणे यम्वा ।। -ग्रा. पच म०२,३ वाली दो गाथाएँ प्राचार्य कुन्दकुन्दके 'भावपाहुई' में पडपडिहामिमजाहलिचित्त कुलालभंडयागणं । २५, २६ नम्बर पर पाई जाती हैं। जनममे गोम्मटपार जह एमि भावा तह विय कम्मा मुरंगवा ॥ कर्मकाण्डमें २५ नं. की गाथा संग्रहकी गई है। इस -पा० २०, २१ गाथाको प्राचार्य वीरसेनने अपना धवला टीकाम भी पपीण मंतराप :वघाए नप्पदोम गिरहवणे । 'उक्तं च रूपये दिया है और वह धवलाके मुद्रित भावग्णदुःयं भुमी बंधमधामणा पय ॥ अंशमै पृष्ठ २३ पर छपी है। --प्रा. पच।०, ४, २०० Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [माध, वीरनिवाब सं० २५६ परिवीग मंतराए उवषादो तप्पदोस विणवथे। पठवीस दु बावीसा सोबास एरण बावणवसा ॥ भावाबदुभूषो संभदि भवासणाएनि । -प्रा. पंचसं० ३,७८ -~-गोक०८०० पगवरणा परणासा तिदाबबादास सत्ततीसा । इसी प्रकार पंचसंग्रहकी २, ४, ५, २६, ४७, ५०, चवीसा बावीसा बावीसमपुरुषकरणोति॥ १०१, २०२, २०३, २०४, २०५, २०६, २०७, २०८, थूले सोजसपहुदी एगणं जावहोदि दसाणं । १०६, २१०, २१५, २४०, २५१, ४१२, ४२३, ४२७, सुहुमादिसु दस गवयं गवयं जोगिम्मि सत्तेव ॥ ४२८, ४२६, ४३०, ५, ४५४. ४५५, ४६३, ४८८, --गो०० ७८६,७६० ve, ४६, ४६७, ५०१, ५०२, ५०३, ५०५, ५०६, अहत्तीससहस्सा बेचेव सयाहवंति सगतीसा । AL ५३५, ५४७, ५५५, ७३६, नम्बरकी गाथाएँ पदसंखा णायम्वा लेस्सं पति मोहणीयस्स ॥ गोम्मटमार कर्मकाण्डमें क्रमशः नं० २०, २२, ३५, --प्रा. पंचसं पत्र, ५५ ११४, २७६, २८२,८०१,८०२, ८०३, ८०४,८०५, अत्तीससहस्सा बेरिणसया होंति सत्ततीसा य । ८०८०७, ८०८, ८०६, ८१०, ४५५, १२२, ४६३, पपरीणं परिमाणं बेस्सं परि मोरणीयस्स ॥ ११६, १५२, १५४, १३४, १३५, १३६, १७८, १६३, -गो क०, ५०५ १६४, १६५, १८३, १८२, ४८, १५, १६२, २०७, इनके अलावा पंचसंग्रह के पत्र ५७ और ६१ की २०८, १०६, २११, २१५, २१०, ६३०, ४६३, ५०८, दो गाथाएँ और भी गोम्मटसारमें ७१०, और २७१ ७ नम्बर पर पाई जाती है। नं. पर उपलब्ध होती है। और कुछ गाथाएँ ऐसी भी इनके अतिरिक्त जिनगाथाओंमें कुछ पाठ-भेद पाई जाती हैं जिनका पूर्वार्ध तो मिलता है पर उत्तरार्ध पाया जाता है उन्हें नीचे दिया जाता है:-- नहीं मिलता-वह बदला हुआ है। उन्हें लेग्व वृद्धिके बामस्स पबंधोदयसंताणिगुणं पडुन य विभज। भयसे छोड़ा जाता है । विगयोगे आप एत्य दु भणियन्वं भरथजुत्तीए ॥ इम मब तुलना परसे मालूम होता है कि गोम्मट -प्रा. पंच सं० पत्र ५६ सार एक मंग्रह ग्रंथ है। और इसके संग्रह करने में बामस्म पबंधोदय सत्ताणि गुणं पहुच उत्ताणि। श्राचार्य नेमिचन्द्रने प्राकृत पंचमंग्रहमे विशेष सहायता पसेवा यो सम्म भणिदग्वं भत्थजुत्तीए ॥ ली है। ___ --गोल क०, ६६५ । वीर सेवामन्दिर, मरमावा; संबवण्या पपणासा तेबाब बपाजसस सीसाय । ता० १६-२-१९४० Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SKSASASTRISASRHAVASASSTREASXSRHAIRSSXESXSEEXVARDASTIVAHASABAISARSAIEEE AIRSRISTIALA मानव-धर्म मानव-धर्म मानवोंसे, नहि करना घणा सिखाता है। मनुज-मनुजको एक बताता भाई-भाईका नाता है। अमली जाति-भेद नहिं इनमें गो-अश्वादि-जाति-जैसा; शूद्र-बामणीके संगमसे उपजे मनुज भेद, कैसा १ ॥१॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र ये भेद कहे व्यवहारिक हैं; निज-निज कर्माश्रित, अस्थिर, नहिं ऊँच-नीचता-मूलक हैं। सब हैं अंग समाज-देहकं क्या अन्त्यज, क्या आर्य महा; क्या चांडाल-म्लेच्छ, सब ही का अन्योन्याश्रित कार्य कहा ॥२॥ सब हैं धर्मपात्र, सब ही है पौरिकताके अधिकारी, धर्मादिक अधिकार न दे जो शद्रोंको वह अविचारी। शद्र तिरस्कृत पीडित हो निज कार्य छोड़ दें यदि सारा, तो फिर जगमें कमी बीते ? पंग ममाज बने सारा ॥३॥ गर्भवाम ओं' मन्म समयमें कौन नहीं अस्पृश्य हुआ ? कौन मलोंसे भग नहीं ? किमने मल-मत्र न माफ़ किया ? किसे अछून जन्मसे तब फिर कहना उचित बताने हो ? तिरस्कार भंगी-चमारका करते क्यों न लगाने हो ? ||४|| जाति-मदर्स गर्विन हो जो धार्मिकको ठुकगता है; वह मचमुच अान्मीय-धमको ठकरावा न लनाना है। क्योंकि धर्म धार्मिक पुरुषोंके बिना कहीं नहीं पाता है; धार्मिकका अपमान इससि वृप-अपमान कहाना ॥५॥ मानव-धर्मापेक्षिक सत्र हैं धर्मबन्धु अपने प्यार; अपनोंस नहि घणा श्रेष्ठ है, हैं उद्धार-योग्य सारे । अतः सुअवसर-मुविधाएँ सब उन्हें मुनासिब देना है। इम ही से कल्याण उन्होंका आँ' अपना भी होना है ॥६॥ बन करके 'युग-धीर' उठादी सहि-जनित संस्कारोंकापर्दा हृदय-पटनसे अपने दादा गढ़ हूंकागंका । तब होगा दर्शन मुमन्यका, मानवधम-पुण्यमयका; जीवन सफल बनगा ता ही, अनुगामी हो मन्वयका १७॥ "युगवीर" FORCESRAESEALTEERUIRESHMIRRORESTERSTERRIERRRRRENSE AMAYANAM Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ব্যাঙ্গাত্মা স্ত্রী খুজুর ले-मी० प्रोफेसर जगदीशचन्द्र, एम.ए.] प्रया जसे सात-आठ वर्ष पहलेकी बात है जब मैं मुद्दे पेश करना चाहते हैं, जिनसे जान पड़ता है कि "बनारस हिन्दु-युनिवर्सिटीमें एम. ए. में पढ़ता अकलंकके राजवार्तिक लिखते समय उनके सामने या। उस समय श्रीमान् पं० सुखलाल जीका उमास्वाति उमास्वातिका तत्त्वार्थाधिगम भाष्य मौजद था। और और तत्त्वार्थाधिगम भाष्यके सम्बन्धमें अनेकान्त (प्रथ- उन्होंने अपनी वार्तिकमें उसका उपयोग किया है:मवर्ष कि०६ से १२)में एक लेख निकला, जिसे पढ़कर (१) (क) बन्धेऽधिको पारिणामिको 'दिगम्बमनमें नाना विचार-धाराओंका उद्भव हुआ और इस रीय पाठ है। इसके स्थान में तत्त्वार्थभाष्य-सम्मत पाठ है विषयमें विशेष अध्ययन करनेको इच्छा बलवती हो गन्धे समाधिको पारिणामिको। उक्त पाठ राजवार्तिकउठी । मयोगवश अगले साल ही मुझे बहैसियत एक कारके सामने मौजद था । अकलंक देव लिखते हैं:रिसर्च-स्कालरके शांतिनिकेतन जाना पड़ा, और वहाँ "समाधिकाविस्यपरेषा पाठः-बंधे समाधिको पारिणा. 'मुनि जिनविजयजीके प्रोत्साहनसे मैंने तस्वार्थराजवार्ति- मिकावित्यपरे सूत्रं पठति ।" के सम्पादनका काम हाथमें ले लिया। इस ग्रंथके (ख) दिगम्बर-परम्परामें 'द्रव्याणि' 'जीवास' काशनकी आयोजना सिंघी सीरिज में की गई । मैं पह दोनों सूत्र अलग अलग हैं, लेकिन श्वेताम्बर-परम्परामें से ही राजवार्तिकपर अत्यन्त मुग्ध था। भाँडारकर दोनों सूत्रों के स्थानपर एक सूत्र है-'वन्याणि जीवाच । इन्स्टिट्यूट पनासें राजवार्तिककी कुछ हस्तलिखित इसपर राजवार्तिककार लिखते हैं-"एकयोग इति प्रतियाँ मँगाई गई और मैंने अपना काम शुरू कर चेत्र जीवानामेव प्रसंगात्-स्यान्मतं एक एष योगः दिया । दुर्भाग्यवश राजवार्तिक के नूतन और शुद्ध सं- कर्तव्यः द्रव्याणि जीवा इत्येवं च शब्दाकरणात सविकरणके निकालनेका कार्य तो पूर्ण न हो सका, लेकिन रिति, नत्र, किं कारणं जीवानामेव प्रसंगात्।" इसके बहाने मुझे कुछ लिखने के लिये मनोरंजक (ग) 'भवग्रहहावायधारणाः' दिगम्बर-परम्पराका सामग्री अवश्य मिल गई। सूत्र है । तत्त्वार्थाधिंगमभाष्यके सूत्रोंमें 'अवाय' के - वर्तमानका मुद्रित राजवार्तिक कितना अशुद्ध है, स्थानमें 'अपाय' है । इस पर अकलंकदेव लिखते हैं और इतना अशुद्ध होने पर भी कितने मजेसे दिगम्बर "माइकिमयमपाय उतावाय इत्युभयथा न दोषोऽन्य पाठशालाओंमें उसका अध्ययन अध्यापन हो रहा है, तरवचनेऽन्यतरस्यार्थगृहीतत्वात् ।" यहां अवाय और इसकी कल्पना मुझे तब पहली बार हुई । बहुतसे स्थल अपाय दोनोंही पाठोंको अकलंकने निदोष बताया है। तो ऐसे हैं जहाँ वार्तिकको टीका बन गई है और टीका (घ) 'भपारंभपरिग्रहत्वं मानुषस्य' 'स्वभावपातिक बन गई है । खैर, इसके लिये तो स्वतंत्र लेख मार्दवं' ये दो सूत्र दिगम्बर-परम्पराके है । इनके की ही आवश्यकता है। हम इस लेख में सिर्फ कुछ ऐसे स्थना में श्वेताम्बर-परम्परामें एक सूत्र है-'पपारंभ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोम्मटसार एक संग्रह ग्रंथ परिवहन स्वभावमार्दवाळवं च मानुषस्थ'। इस पर था, जिसे दिगम्बर लोग न मानते थे, लेकिन इससे शंका करते हुए राजवार्तिककार कहते हैं-"एक यह नहीं कहा जा सकता कि वह सूबपाठ क्वार्थायोगीकरवमिति पेडोत्तरापेषत्वावर-पान्मतं एको धिगम-भाष्यका ही था । संभव है वह अन्य कोई दूसरा चौगों या-पपारंमपरिग्रहत्वं स्वभावमावं ही पाठ रहा हो। मानुपस्यति । तर, विकार उत्तरापेतत्वात् ।" यह निर्विवाद है कि अकलकके सामने पज्यपादकी इत्यादि रूपमें राजवार्तिकमें तत्त्वार्थ सूत्रोंके पाठ- सर्वार्थसिद्धि मौजूद थी । तथा उन्होंने सर्वार्थसिद्धिको भेदका अनेक स्थलों पर उल्लेख किया गया है। इससे सामने रखकर ही राजवार्तिकको लिखा है । निम्न यह बात स्पष्ट है कि उनके सामने कोई दूसरा पाठ लिखित तुलनात्मक उदाहरणोंसे हम यह बताना चाहते अवश्य था, जिसे अकलंकने स्वीकार नहीं किया। हैं कि राजवार्तिककारके समक्ष सर्वार्थसिद्धि तो थी ही, (२, यह शंका हो सकती है कि सूत्रपाठमें भेद लेकिन उमास्वाति के तत्त्वार्थाधिगमभाष्यका भी उन्होंने होनेका जो अकलंकने उल्लेख किया है, उससे यही काफी उपयोग किया है:सिद्ध होता है कि उनके सामने कोई दूसरा सूत्रपाठ (क) अपि च तंत्रांतरीया असंख्येयेषु । सर्वार्थसिद्धि में इस । “संवि हि केचितंत्रांतरीवा अनंतेषु खोकधातुवसंप्वख्येया पृथिवीमस्तारा इत्या : स्थान पर असंख्य खोकधातुम्वनंताः पृथिवीप्रस्तारा हत्यज्यवसिताः । तत्प्रतिषेधार्थ च सप्तग्रहा- लोकधातु आदिकी भसिताः।"-गजवातिक (११) मिति।" 'कोई चर्चा नहीं की -तत्त्वार्थ० भाष्य (३-१) 'गई । यहाँ मिर्फ इतना ही कहा गया है "सप्ताहणं सं. ख्यान्तरनिवृत्यर्थ ।" . -मार्ग० (३ :) ! (ख) "तत्रासवैर्यथोक्तनारकसंवर्तनी- । सवामिद्धि में इम प्रयोत्पादः क कषामित्यत्रोच्यतेयैः कर्मभिरसंशिनः प्रथमायामुत्पयन्ते । सम्बन्धर्म कुछ नहीं : प्रथमायामसंशिन जुम्पयंते । प्रथमासरीसपा दयोरादितः प्रथमद्वितीययोः एवं कहा गया है। द्विनीययोः सरीसृपाः । निसृषु परिणः । दिनीययोः सर्गमण पक्षिणस्तिसृषु । सिंहाश्चतसृषु । उरगाः चतमपरगाः । पंचसु सिंहाः । षट्सु पंचसु । नियः षट्सु । मस्स्थमनुष्याः । बियः । सासु मत्स्यमनुष्याः। म सप्तस्विति । न तु देवा नारका वा नरके ! देवनारका वा नरकेषु उत्पते ।" पपत्ति प्राप्नुवंति ।" -ज० (३-1) -त.भाध्य (३-८. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [माध, बीरनिर्वाब सं० (ग) (i) "पशुभनामप्रत्ययावयमा- | सर्वार्थसिदिमें यह "मरामनामप्रत्ययावामागोपांगरूप म्योपागनिमावसंस्थानस्पर्शरसगंधवर्ण- | नहीं है। सरसगंधवस्वराणि संस्थानानि स्वराणि । हुडानि निनारसजसरीरा बनायडजशरीरातीनि करवीभत्सहतीनि मरासनीभासप्रतिमपदर्शनानि।" प्रतिमयदर्शनानि,पयेह रखेममूत्रपुरीषमता (त भाष्य ३-३, पृ०६६ पंक्ति १०.१२)... रुधिरवसामेव पूषवमनपूतिमायकेशास्ति(ii) रोममूत्रपुरीपत्रोतोमन चर्माणशुममौदारिकगतं.............. कविरवसामेल्यानुलेपनतबाः स्मशान तथथा निदाये मधाम्मने नभसि...... मिव पूतिमासकेशास्विचर्मदन्तनसास्ती दीसाग्निशिखापरीतस्य ...... पाहणुप्याज बममयः।" दुःखं ततोप्यमंतगुणमुष्यनरकेषु दुःखं (त० भाष्य ३३, पृष्ठ ६६, पंक्ति ३-४), भवति ।" (राज०, ३-३ पृ० ११५) (iii) "दीसाग्निराशिपरिवृतस्य ज्यने ममसि...माडगुणमं दुःखं भवति | ततोऽनन्तगुरू प्रकृष्ट कामुष्पवेदनेषु नरकेभवति ।" -(त० भाष्य ३३, पृष्ठ६७ पंक्ति ३-४)/ (१) "तपथा। तमायो रसपायन- राजवार्तिकमें 'भन' शब्द तक 'सुतप्तायोरसनिष्टलायः स्तम्भालिंगनकूटशास्मल्यप्रारो- | पायननिसायस्तंभा करीब-करीब सर्वार्थसिद्धिका ही अक्षरशः पणावतारणायोधनाभिघातवासी पुरतर- लिंगनकूटशाल्मल्या पाठ है, इसलिये यहाँ फिरसे नहीं दिया यतारतमतेलाभिषेचनायःकुम्मपाकाम्बरी राणावताया गया उसके श्रागेका पाठ भी भाष्यसे पतर्जनयंत्रपीडनायः शूलशलाकाभेदनक घातवासी सुरतत्तणा करीब-करीब अदरशः मिलता है। कचपाटनागारदहनवाहनासूचीशावलापक- रतसतलावसे चनायःकु यैः तथा सिंहव्याजदीपिरवगाजवृकको- म्भीपाकांबरीषमननवैमानारनकुलसर्पवायसगृध्रकाकोजकरयेना तरणीमज्जनयंत्रनिष्पीविसावनैः तया तसवानुकावतरणासिपत्र नादिभिः....." बनमवेतनवैतरपवतारणपरस्परयोषनादिमि- -सर्वार्थ० (३-५) : रिति ।" (त० भाष्य ३-५) (इससे अागेका पाठ भी भाष्य और राजवार्तिक दोनों में करीब-करीब समान Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३, किरण सम्पादकीय विचारव (३) इतना ही नहीं, राजवार्तिककारने तत्त्वार्थ- सिद्ध सेनगणिविरचिताया अनगारागारिधर्मप्ररूपकः सप्तभाष्यकी पंक्तियाँ उठाकर उनकी वार्तिक बनाकर उन मोऽधायः।" पर विवेचन किया है । उदाहरण के लिये 'श्रद्धासमय- (ख) "काजोपसंख्यानमिति म पपमाव प्रतिषेधार्थ च' यह भाष्यकी पक्ति है (५.१); इसे सखत्वात्"-स्यादेतत् कालोऽपि कश्चिदजीवपदार्थो"भवाप्रदेशप्रतिपाय च" वार्तिक बनाकर इस पर ऽस्ति प्रतश्चास्ति यद् भाष्ये बटुकृत्वः षद्रव्याणि अकलकका विवेचन है ( ५-१) । इत्यादि । इसी तरह इत्यक्तं अतोस्योपसंख्यानं कर्त्तव्यं इति ? तन्न, किं कारणं अकलकदेवने भाष्यमें उल्लिखित काल, परमाणु श्रादि वक्ष्यमाणलक्षणत्वात् ।" अर्थात् काल भी अजीव की मान्यताओं पर भी यथोचित विचार किया है। पदार्थ है, जिसका उल्लेख भाष्य में कई बार किया और उनम अपने कथनकी संगति बैठानेका प्रयत्न गया है, फिर आपने यहां उसका कथन स्यो नहीं किया है। अवश्य ही कहीं विरोध भी किया है। इससे किया ? यह बात नहीं, क्योंकि उसकी चर्चा मागे ऊपरकी शकाका निरसन हो जाता है, और इससे चलकर होगी। मालूम होता है कि अकलंकके सामने कोई दूसरा सूत्र (ग) मुद्रित गजवात्तिकके अन्त में जो कारिकायें पाठ नहीं था, बल्कि उनके सामने स्वयं तत्त्वार्थ-भाष्य दी हैं, वे कारिकाये भी तत्त्वार्थभाष्यमें पाई जाती है । मौजूद था, जिमका उपयोग उन्होंने वार्तिक अथवा इसके अतिरिक्त पनाकी हस्नलिम्वित प्रतिमें जोहन वार्तिक के विवेचनरूपमें यथास्थान किया है। कारिकाओंके अन्नमें कारिका दी है, वह हम तरह है:(४) नीचे कुछ उद्धरण ऐसे दिये जाते हैं, इति तत्वार्थसूत्राणां भाष्यं भाषितमुत्तमः। जिनमें अकलकदेवने भाष्यके अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख किया है, इतना ही नहीं उसके प्रति बहमान भी यन्त्र संनिहितस्तर्कः न्यायागमविनिर्णयः।। प्रदर्शन किया है: अर्थात्-'उत्तम पुरुषाने तत्त्वार्थसूत्रका भाष्य (क) उनं हि महत्प्रवचने "द्रव्याश्रय। निगुणा लिखा है, उसमें तर्क सनिहित है और न्याय श्रागमका गुणा" इति । यहाँ अर्हत् प्रवचनस तत्त्वार्थभाष्यका ही निर्णय है।' यह कारिका बनारमकी मुद्रित गजवार्तिक अभिमाय मालम होता है। श्वेताम्बर विद्वान् सिद्धसेन प्रतिम नहीं है । इममे जान पड़ता है कि अकलकदेव तो गणि भी इसका 'अहत्प्रवचन' नाम उल्लेग्व करत तत्त्वार्थाधिगमभाष्यस अच्छी तरह परिचित थे, और वे हैं-- "इति श्रीमदह प्रवचने तत्त्वार्थाधिगमे उमास्वाति- तत्त्वार्थसूत्र और उसके मायके कर्ताको एक मानते थे। वाचकोपज्ञ सूत्रभाष्ये भाष्यानुमारिण्यां च टीकायाँ र विद्वान विशेष विचार करेंगे। सम्पादकीय विचारणा इस लेखमें लेखक महोदयने जो विषय विद्वानोंके विचार करने के लिये श्रामत्रित किया है-वह निःसन्देह विचारार्थ प्रस्तुत किया है जिस पर विद्वानोको विशेष बहुत विचारणीय है । लेखक के विचारानुसार उमा Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० [भाष, वीर-विवि सं.it स्वातिके तत्वार्थाधिगमसूत्रका जो भाष्य आजकल इस वाक्यमें जिस माष्यका उल्लेख है वह श्वेताम्बरश्वेताम्बर-सम्प्रदायमें प्रचलित है वही भटाकलंकदेवके सम्मत वर्तमानका भाष्य नहीं हो सकता; क्योंकि इस सामने उपस्थित था, उन्होंने अपने राजवार्तिकमें उसका माध्यमें बहुत बार तो क्या एक बार भी पाग्यामि' यथेष्ट उपयोग किया है और वे उक्त भाष्य तथा मूल ऐसा कहीं उल्लेख अथवा विधान नहीं मिलता । इसमें तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताको एक व्यक्ति मानते थे। यह सब तो स्पष्ट रूपसे पांच ही द्रव्य माने गये है,जैसा कि पांचवे बात जिस आधार पर कही गई है अथवा जिन मुद्दों अध्यायके 'बन्यामि जीवाश्च' इस द्वितीय सूत्रके (उल्लेखों आदि) के बल पर सुझानेकी चेष्टा की गई भाष्यमें लिखा है--"एत धर्मादयश्चत्वारो जीवाब है उन 'परसे ठीक -बिना किसी विशेष बाधाके- पंच म्याणि च भवन्तीति" और फिर तृतीय सूत्र में फलित होती है या कि नहीं, यही मेरी इस विचारणाका आए हुए 'भवस्थितानि' पदकी व्याख्या करते हुए मुख्य विषय है। इसी बातको इस तरह पर पुष्ट किया है कि-"न हि ___ इसमें सन्देह नहीं कि अकलंकदेवके मामने तत्त्वा- कदाचित्पंचत्वं भूतार्थत्वं च म्पभिचरन्ति"अर्थात् ये द्रव्य थसूत्रका कोई दूसरा सूत्रपाठ ज़रूर था, जिसके कुछ कभी भी पाँचकी संख्यासे अधिक अथवा कम नहीं पाठोंको उन्होंने स्वीकृत नहीं किया । इससे अधिक होते । सिद्धसेन गगीने भी उक्त तीसरे सूत्रकी अपनी और कुछ उन अवतरणों परमे उपलब्ध नहीं होता जो व्याख्यामें इस बातको स्पष्ट किया है और लिखा है लेखके नं० १ में उद्धृत किये गये हैं। अर्थात् यह कि 'काल किमीके मतसे द्रव्य है परन्तु उमास्वाति निर्विवाद एवं निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि वाचकके मतसे नहीं, वे तो द्रव्योंकी पाँच ही संख्या अकलंकदेवके सामने यही तत्वार्थभाष्य मौजूद था। मानते हैं ।' यथायदि यही तत्त्वार्थभाष्य मौजूद होता तो उक्त नं० १ के "कानश्चैकीयमतेन द्रव्यमिति वच्यते,वाचकमुल्य'घ' भागमें जिन दो सूत्रोंका एक योगीकरण करके रूप स्य पंचैवेति ।" दिया है उनमें से दूसरा सूत्र 'स्वभावमार्दवं च के स्थान ऐसी हालतमें यह स्पष्ट है कि अकलंक देवके पर 'स्वभावमार्दवार्जवं च' होता और दोनों सूत्रोके एक- सामने कोई दूसरा ही भाष्य मौजुद था । जब दूमरा ही योगीकरणका वह रूप भी तब 'अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्व. 'माष्य मौजूद था तब लेम्बके नं०२में कुछ अवतरणोंकी भावमार्दवावं च मानुषस्येति' दिया जाता; परन्तु ऐसा तुलना परसे जो नतीजा निकाला गया अथवा सूचन नहीं है। किया गया है वह सम्यक प्रतिभामित नहीं होता--उस वास्तव में न. १ के कथन परमे जो शंका उत्पन्न दूसरे भाष्य में भी उस प्रकार के पशंका विन्यास अथवा होती है और निसे नं. २ मे व्यक्त किया गया है वह वैसा कथन होमकता है । अवतरणाम परस्पर कहीं कहीं ठीक है, और उसका समाधान बादके किसी भी कथन प्रतिपाद्य-विषय-सम्बन्धी कुछ मतभेद भी पाया जाता परसे भले प्रकार नहीं होता । चौथे नम्बर के 'ख' भाग है, जैसा नं० २ के 'क'-'ख' भागोंको देखने से स्पष्ट में गजवार्तिकका जो अवतरण दिया गया है उसमें जाना जाता है । ख-भागमें जब तत्त्वार्थभाष्यका प्रयुक्त हुए “यभाष्ये बहुकृत्वः पाप्यादि इत्युक्त' सिहोंके लिये चार नरकों तक और उरगों (सॉ) के Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३, किरव] गोम्मटमार एक संग्रह ग्रंथ लिये पाँच नरकों तक उत्पत्तिका विधान है, तब राज- "अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभाषमा मासुपस्व" ऐसा वार्तिकका उरगोंके लिये चार नरकों तक और सिंहोंके सूत्रपाठ होगा-'स्वभावमा' की जगह 'स्वभावमाईलिये पाँच नरकों तककी उत्पत्तिका विधान है। यह वार्ज नहीं । इसी तरह "बन्धे समाधिको पारिवामतभेद एक दूसरेके अनुकरणको सूचित नहीं करता, न मिकौ" सूत्रपाठ भी होगा, जिसके "समाधिको" पदकी पाठ-भेदकी किसी अशुद्धि पर अवलम्बित है; बल्कि आलोचना करते हुए और उमे 'आर्षविरोधि वचन' अपने अपने सम्प्रदायके सिद्धान्त-भेदको लिये हुए हैं। होनेसे विद्वानोंके द्वारा अग्राह्य बतलाते हुए 'अपरेषा राजवार्तिकका नरकोंमें जीवोंके उत्पादादि सम्बन्धी कयन पाठः' लिखा है--यह प्रकट किया है कि दूसरे ऐसा 'तिलोयपण्णत्ती' आदि प्राचीन दिगम्बर ग्रन्थों के अाधार सूत्रपाट मानते हैं। यहाँ 'अपरेषां' पदका वैमा ही प्रयोग पर अवलम्बित है। है जैमा कि पूज्यपाद श्राचार्यने ऊपर उद्धृत किये हुए यहाँ पर एक बात और भी जान लेनेकी है और पाठभेदके मायमें किया है। परन्तु इस 'समाधिको' वह यह है कि श्री पूज्यपाद श्राचार्य सर्वार्थसिद्धि में, पाठभेदका सर्वार्थीमद्धि में कोई उल्लेग्व नहीं, और इससे प्रथम अध्यायके १६ वे सूत्रकी व्याख्यामें, 'क्षिप्रानिः- ऐसा ध्वनित होता है कि सर्वार्थासद्धिकार प्राचार्य सृत' के स्थानपर 'क्षिप्रनिःमृत' पाठ भेदका उल्लेख करते पूज्यपादके सामने प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य अथवा तत्त्वार्थहुए लिखते हैं भाष्यका वर्तमानरूप उपस्थित नहीं था, जिसका 'स्वोप"अपरेषां चिनिःसृत इति पाठः । त एवं वर्ण- ज्ञ भाष्य' होनेकी हालतम उपस्थित होना बहुत कुछ यन्ति-श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दमवगृह्यमाणं मयूरस्य वा कुर- स्वाभाविक था, और न वह सूत्रपाट ही उपस्थित था रस्य वेति कश्चित्प्रतिपद्यते।" जो अकलक के मामने मौजद था और जिमके उक्त सूत्रजिस पाठभेदका यहाँ 'अपरेषां' पदके प्रयोगके पाठको वे 'पार्षविरोधी' तक लिग्यते हैं, अन्यथा यह माथ उल्लेख किया गया है वह 'स्वोपज्ञ' कहे जानेवाले संभव मालम नहीं होता कि जो श्राचार्य एकमात्रा तक उक्त तत्त्वार्थभाध्यम नहीं है, और इममे यह स्पष्ट जाना के माधारण पाठभेदका तो उल्लेख कर वे ऐसे विवादा. जाता है कि पज्यपादके मामने दूसरोका कोई ऐमा सूत्र- पन्न पाटभेटको बिल्कुल ही छोड़ जाये । पाठ भी मौजूद था जो वर्तमान एवं प्रस्तुत तत्त्वार्थभाध्य मिद्धसन गगीकी टीका में अनेक ऐमे सूत्रपाठोंका के सूत्रपाठसे भिन्न था । ऐसा ही कोई दूमरा सूत्रपाट उल्लेग्व मिलता है जो न तो प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्यमें पाये अकलकदेवके मामने उपस्थिन जान पड़ता है, जिसमें जाते हैं और न वर्तमान दिगम्बरीय अथवा मर्वार्थसिद्धि ® देखो जैनसिद्धान्तमास्करके ५ भागकी मान्य सूत्रपाठ में ही उपलब्ध होते हैं। उदाहरण के लिये तीसरी किरणमें प्रकाशित 'निलोयपरणती' का नरक "कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि" सूत्रको विषयक प्रकरण, (गाथा २८५, २८६ भावि) जिसमें लीजिये, मिद्धमन लिखते हैं कि हम सूत्र में प्रयुक्त हुए वह विषय बहुत कुछ वर्णित है जो लेखीय नं. के 'मनुष्यादीमाम्' पदको दूमरे ( अपरे ) लोग 'भना' भनेक भागों में उल्लेखित राजवातिकके वाक्यों में पाया बतलाते हैं और माथ ही यह भी लिग्बत है कि कुछ जाता है। अन्य जन जो 'मनुष्यादीनाम्' पदको नो स्वीकार करते Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [माध, वीर निर्वाय सं० २० हैं वे इस सूत्रके अनन्तर "अतीन्द्रियाः केवलिनः" यह है और फिर इसकी व्याख्यामें लिखा है-"पदा शब्दो एक नया ही सूत्रपाठ रखते हैं । यह सब कथन निपातः कासवाची स वषयमाणवरणः तस्य प्रदेशवर्तमानके दिगम्बर श्वेताम्बर सूत्र पाठोंके साथ प्रतिषेधार्थमिह कारग्रहणं क्रियते ।" इससे स्पष्ट है कि सम्बद्ध नहीं है। इससे स्पष्ट है कि पहले तत्त्वार्थसूत्रके उक्त वार्तिक सर्वार्थसिद्धि के शब्दोंपर ही अपना आधार अनेक सूत्रपाठ प्रचलित थे और वे अनेक प्राचार्य रखता है,और इसलिये यह कहना कि भाष्यकी 'पद्धा. परम्परात्रोंसे सम्बन्ध रखते थे । छोटी-बड़ी टीकाएँ समयप्रतिषेधार्थ च' इस पंक्तिको उक्त वार्तिक बनाया भी तत्त्वार्थसूत्रपर कितनी ही लिखी गई थीं। जिनमेंसे गया है कुछ संगत मालूम नहीं होता । ऊपरके सपूर्ण बहुतसी लुप्त हो चुकी हैं और वे अनेक सूत्रोंके विवेचनकी रोशनीमें वह और भी असंगत जान पड़ता है । पाठभेदोंको लिये हुए थीं। अब रही नं० ४ में दिये हुए प्रोफेसर साहबके दो ऐमी हालतमें लेखके नं० ३ में प्रोफेसर साहबने मुद्दों ( 'क-ग' भागों) की बात । 'उक्तं हि महत्प्रवचने उक्त शंकाका निरसन होना बतलाते हुए, जो यह "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा" इति' यह मुद्रित राजवार्तिनतीजा निकाला है कि "अकलंकके सामने कोई दूमरा कका पाठ जरूर है परन्तु इसमे उल्लेखित 'अर्हत्प्रवचन' सूत्रपाठ नहीं था, बल्कि उनके सामने स्वयं तत्त्वार्थभाष्य से तत्त्वार्थ भाष्यका ही अभिप्राय है ऐसा लेखक्रमहोमौजद था" बद्द समुचित प्रतीत नहीं होता । इसी तरह दयने जो घोषित किया है वह कहाँस और कैसे फलित भाष्यकी पक्तिको उठाकर वार्तिक बनाने श्रादिकी जो होता है, यह कुछ समझमें नहीं आता । इस वाक्यमें बात कही गई है वह भी कुछ ठीक मालूम नहीं होती। गुणों के लक्षणको लिये हुए जिस सूत्रका उल्लेख है वह अकलंकने अपने राजवातिकमें पूज्यपादकी सर्वार्थमिद्धि तत्त्वार्थाधिगमसूत्रके पाँचवें अध्यायका ४०वॉ सत्र है, का प्रायः अनुमरण किया है। सर्वार्थसिद्धि में पाँचवें और इमलिये प्रकट रूपमें 'अर्हत्प्रवचन' का अभिप्राय अध्यायके प्रथम सूत्रकी व्याख्या करते हुए लिग्वा है- यहाँ उमास्वातिक मूल तत्त्वार्थाधिगमसत्रका ही जान "काली वयते, तस्य प्रदेशप्रतिषेधार्थमिह कागग्रहणम्।" पड़ता है-तत्त्वार्थभाष्यका नहीं। सिद्धसेनगणीका इमी बातको व्यक्त करते हुए तथा काल के लिये उसके जो वाक्य प्रमाणमें उद्धृत किया गया है उसमें भी पर्याय नाम 'श्रद्धा' शब्दका प्रयोग करते हुए, रानवा- 'महत्प्रवचन' यह विशेषण प्रायः तत्वार्थाधिगमसूत्रके र्तिकमें एक वार्तिक "श्रद्धाप्रदेशप्रतिषेधार्थ च" दिया लिये प्रयुक्त हुश्रा है-मात्र उसके भाष्य के लिये नहीं। • "अपरेऽतिविसंस्थलमिदमाखोक्य भाष्यं विष- इसके सिवाय, रानवार्तिक में उक्त वाक्यसे पहले यह पणाः सन्तः सूत्रे मनुष्यादिग्रहणमनार्षमिति संगिरन्ते"। वाक्य दिया हुआ है-"महत्प्रवचनहृदयादिषु गुणोइदमन्तराजमुपजीव्यापरे वातकिनः स्वयमुपरभ्य सूत्र- पदेशात् ।" और तत्सम्बन्धी वार्तिकभी इस रूपमें दिया मधीयते-'प्रतीन्द्रियाः केवखिनः' येषां मनुष्यादीनां है-"गुणाभावा दयुक्तिरिति चेन्नाईस्प्रवचनहृदयादिष प्राणमस्ति सूत्रेऽनन्तरे व एवमाहुः-मनुष्यग्रहणात् गुणोपदेशात ।" इससे उल्लग्वित ग्रन्थका नाम 'महनवकेवलिनोऽपि पंचेम्बियप्रसक्तः अतस्तदपवादार्थमतीत्ये- चनदय' जान पड़ता है, जो उमास्वति-कत कसे भिन्न प्रियाणि केवलिनो वर्तन्त हत्यारपेयम् ।" कोई दूसरा ही महत्वका ग्रन्थ होगा । बहुत संभव है कि Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय विचारव ३११ 'पास्प्रिवचनहृदये' के स्थान पर 'महस्प्रवचने' छप गया पनादिकर्मसम्बन्धपरतंत्रो विमूरचीः । हो । इस मुद्रित प्रतिके अशुद्ध होनेको प्रोफेसर साहबने संसारचकमालो बंभ्रमीस्यात्मसारथिः॥१॥ स्वयं अपने लेखके शुरूमें स्वीकार भी किया है। अतः सत्वन्तर्वामहेतुभ्यो भव्यारमा सम्बचेतनः । उक्त वाक्यमें 'महत्प्रवचने' पदके प्रयोगमात्रसे यह न- सम्यग्दर्शनसहनमाय मुक्तिकारणम् ॥२॥ तीजा नहीं निकाला जासकता कि अकलक देव के मामने मिथ्यात्वकर्दमापायाप्रसनतरमानसः । वर्तमानमें उपलब्ध होनवाला श्वेताम्बर मम्मत तत्वार्थ- ततो जीवादितवाना याचाम्यमधिगवति ॥३॥ भाष्य मौजूद था, उन्होंने उसके अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख महंममानवो बन्धः संबरो निर्जरातयः । किया है और उसके प्रति बहुमान भी प्रदर्शित किया कर्मणामिति तावार्थलदा समवबुध्यते ॥४॥ है। अकलंक देवने तो इस भाष्यमे पाये जानेवाले हेयोपादेयतत्वको मुमुक्षुः शुभभावनः । कुछ सूत्रपाठीको प्रार्पविरोधी-अनार्ष तथा विद्वानोंके सांसारिकेषु भोगेषु विरज्यति मुहुर्मुहुः ॥५॥ लिये अग्राह्य तक लिखा है । तब इस भाष्यके प्रति, इनके अनन्तर हा 'एवंतवपरिज्ञानाहिरकस्यात्मनो जिसमें बैंस सूत्रपाट पाये जाने हो, उन बहुमान-प्रद- भृशं' इत्यादि कारिकाएँ प्रारम्भ होती हैं। इन पांचशनकी कथा कहाँ तक ठीक हो सकती है, इसे पाठक कारिकाओं के साथ उत्तरवती उन ‘एवं तत्वपरिक्षा' स्वय .मझ मन है । आदि कारिकाका कितना गाढसम्बन्ध है और इनके सवानिक की मुद्रिननिक अन्त में जो३२कारिकाएं बिना उक्त ३२ कार काश्राम की पहली कारका कैसी 'उक्त च' रूम पाई जाती है व उस दूसर भाष्यपर असष्टमी, अमम्बरमा तथा कारिकाबद्ध. पर्वककथनकी से ली हुई होसकती हैं, जिनके सम्बन्धम ग जवानिको अपेक्षाको रखती हुई मालम होती है उस बतलानेकी ही बER पडतम्यागि इत्य" ऐमा उल्लेख किया जरूरत नहीं, महृदय विद्वान पाठक स्वयं समझ सकते गया है ---अर्थात् यह बतलाया है कि उसमें बहुत बार हैं। अतः उन ३२ कारिकाओक उद्धरणापरमे यह नहीं छह द्रव्योंका विधान किया गया है और निमकी चर्चा कहा जामकना कि अकलकने उन्हें प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य लेखीयन. । केब-भागका विचार करने हर ऊपर की परम हा लिया है। इन मब कारिकाप्राक सम्म जा चुकी है । वे प्रक्षिप्त भी हो मकती हैं अथवा दूसरे मी ममय विशेष विचार प्रग्नुन करनेकी भी मेरी किमी प्राचीन प्रबन्धपरम उद भी कहा जामकती है। इच्छा है । अस्तु ।। ऐमा एक प्राचान प्रबन्ध जयधवलामें उद्धत भी . अब रही गजानककी ममामिसचक-कारिकाकी किया गया है, जिसके प्रारम्भकी पांच कारिकाएँ बान । इस कारिका की मैंने आजम कार्ड २० वर्ष पहले निम्न प्रकार हैं: श्राग जैन मिद्धान्तभवनकी एक प्रतिपरम मालम करके अपने नोट के माथ मवम पहले 'जैन इतषी' इस प्रबन्धको उद्धृन करने के बाद जयधवनामें (भाग १५, अक १-२, पृष्ठ ६) में प्रकट किया था । लिखा है-"एवमेतिएण पवंधेय पिम्वाण फलपजव- बादको यह अनेकान के प्रथम वर्ष की पांचवी किरणमें सा" इत्यादि। भी 'पुरानी बातोंकी खोज' शीर्षकके नीचे प्रकट की Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ बनेकान्त [माध, वीरनिवर्वाद सं०२४१६ जाचुकी है। इसमें जिस 'भाष्य' पदका प्रयोग हुआ है साथ जान पड़ता है। प्रसबादि-गुणविशिष्ट उत्तम पदोउसका अभिप्राय राजवाति नामक तत्वार्यभाष्यके सिवा के द्वारा इस भाप्यका निर्माण हुआ है, इसमें जरा भी किसी दूसरे भाष्यका नहीं है। वह 'सचार्य-सूत्राणा' सन्देह नहीं है। यदि उत्तम पुरुषोंका ही अभिप्राय पदके साथ तत्त्वार्थ-विषयसूत्रों अथवा तत्वार्थशास्त्रपर लिया जाय तो उसके वाच्य स्वयं अकलंक देव है। बने हुए वार्तिकोंके माष्यकी सूचनाको लिये हुए है। ऐमी हालतमें इस कारिका परसे जो नतीजा निकाला राजवातिक तत्त्वार्थमाष्य' के नामसे प्रसिद्ध भी है। गया है वह नहीं निकाला जा सकता-अर्थात् यह धवलादि ग्रन्थोंमें 'उक्त तत्वार्थमा' जैसे शब्दोंके नहीं कहा जा सकता कि 'अकलंकदेव वर्तमानमें साथ भाष्यके वाक्योंको उद्धृत किया गया है । पं० उपलब्ध होनेवाले इस श्वेताम्बरीय तत्वार्थाधिगम सुखलालजी तो इसे ही दिगम्बर सम्प्रदायका 'गंधहस्ति भाष्यसे अच्छी तरह परिचित थे और वे तत्त्वार्थसत्र महाभाष्य' बतलाते हैं। इसीमें वह तर्क, न्याय और और उसके इस भाष्यके कर्ताको एक मानते थे तथा बागमका विनिर्णय अथवा तर्क, न्याय और आगमके उसके प्रति बहुमान प्रदर्शित करते थे।' धारा (वस्तुस्वका विनिर्णय) संनिहित है जिसका उक्त आशा है इस सब विवेचन परसे प्रोफेसर साहब कारिकामें उल्लेख है-'स्वोपज्ञ' कहे जानेवाले तत्वार्थ तथा दूसरे भी कितने ही विद्वानोंका समाधान होगा भाष्यमें यह सब बात नहीं है। और कारिकामें प्रयुक्त और वे इस विषयपर और भी अधिक प्रकाश डालनेकी हुए 'उत्तमैः' पदका अभिप्राय 'उत्तमपुरुषों से इतना कृपा करेंगे । इत्यलम् । संगत मालम नहीं होता जितना कि 'उत्तम पदों के वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता. १५-२-१६४. साहित्य-परिचय और समालोचन (१) उर्दू-हिन्दी कोश-संयोजक एवं सम्पादक या कोश प्रकाशक महोदय पं. नायरामजीकी पं० रामचन्द्र वर्मा (सहायक सम्पादक 'हिन्दी-शब्द- प्रेरणापर तम्यार हुमा है। बड़ा ही सुन्दर तथा उपयोगी सागर' और सम्पादक 'संचिस शब्द सागर')। प्रका- है। इसमें उर्दू के शब्दोंको, जिनमें अक्सर अरबी फ्रासीशक, पं. नाथराम प्रेमी मालिक हिन्दी-अंथ-रत्नाकर तुर्की भादि भाषाओंके शब्द भी शामिल होते हैं, देवकार्यालय हीराबाग, बम्बई मं०४। बड़ा साइज़, नागरी अपरोंमें दिया है। साथमें यथावश्यकता भाषाके पृष्ठ संख्या, सब मिलाकर ४४० । मूल्य, सजिल्दका निर्देशपूर्वक शब्दोंके जिंग तथा वचनादि-विषयक म्या२१) । बायकी कुछ विशेषताओं का भी गोख किया है और Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प, किरण] साहित्य परिचय और समालोचन ३१३ फिर हिन्दीमें अच्छा स्पष्ट अर्थ दिया है। इससे यह लेकर २० वीं शताब्दी तक कापों, गीतों, रास कोश हिन्दी पढ़ने लिखनेवालों के लिये एक बड़ी ही भादिका संग्रह किया गया है। काम्ब पापा हिन्दी कामकी चीज़ होगया है। इसके लिये लेखक और प्रेरक राजस्थानी, गुजराती और अपभ्रंश भाषामें है। दोनों धन्यवादके पात्र है। नमूने संस्कृत और प्राकृतके भी दिये है। काम्पकार भाज-कस हिन्दी भाषामें बहुत करके उर्दू के शब्दों- प्रायः खरतर का और उर्दूकी कवितामोंका प्रयोग होने लगा है- भी हैं । कायों में कितना ही ऐतिहासिक वर्णन है और. हिन्दुस्तानी भाषा दोनों के मिश्रणसे बन रही है और इसलिये ग्रंथका ऐतिहासिक जैन-काम्य-संग्रह' नाम बहुत पसन्द की जा रही है। जो लोग उद नहीं जानते सार्थक जान पड़ता है। उन्हें माधुनिक पत्रों तथा पुस्तकोंके ठीक प्राशयको भाषा-विज्ञानका अध्ययन करने वालों के लिये पर समझनेमें कभी-कभी बढ़ी दिक्त होती है और यदि ग्रंथ बना ही उपयोगी है। इससे ८०० वर्ष तक सुन-सुनाकर वे कभी कोई उर्दूका शब्द बोलते या काम्योंकी रचना-शैली शताब्दीवार सामने भाजाती है लिखते हैं और वह शुद्ध बोला या लिखा नहीं जातातो और उसपर से हिन्दी-भाषाके क्रमविकासका कितना पढ़ने-सुनने वालोंको बुरा मालूम होता है, और कभी- ही पता चल जाता है और अनेक प्रान्तीय भाषाओंका कभी उसके कारण शरमिन्दगी भी उठानी पड़ती है। थोड़ा-बहुत बोध भी हो जाता है । ग्रंथमें काव्योंका ऐसी हालतमें ऐसे कोशका पासमें होना बड़ा जरूरी है सार देते हुप काग्यकारों मादिका अच्छा परिचय दिवा इसमें १०१६० शब्दोंका अच्छा उपयोगी संग्रह है, है, कठिन शब्दांका कोप भी लगाया है, कायों में पाए लेखक अथवा संयोजककी प्रस्तावना भी बड़ी महत्वपर्ण हुए विशेष नामों की सूची भी मजग दी है। और भी कर है. और वह कोशके अनेक विषयों पर अच्छा प्रकाश मूचियाँ दी हैं, माथमें प्रो. हीरालाल जी जैन, एम. ए. डालती है । काग़ज़ तथा बम्बईकी छपाई सनाई पोर अमरावतीका ८ पेजकी प्रस्तावना भी है, इन सबसे गेट-अप सब उत्तम है। जिल्द खूब पुष्ट तथा मनोमोहक इस ग्रंथकी उपयोगिता खूब बढ़ गई है । सम्पादकोंने है। मूल्य भी अधिक नहीं है । पुस्तक सब प्रकारमे इस ग्रन्थकी सामग्री भौर संकलनमें जो परिश्रम किया संग्रह किये जाने और पाममें रखने के योग्य है । है, वह निःसन्देह प्रशंसनीय है और उसके लिये ऐतिहामिक जगत एवं साहित्यिक संमार दोनों हीके द्वारा धन्यवादकं पात्र हैं । ग्रंथकी छपाई-सफाई और जिल्ला (२) ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह-सम्पादक बंधाई उत्तम है। 16 चित्र भी साथमे लगे हैं, यह सब अगरचन्द नाहटा भीर भंवरलाल नाहटा । प्रकाशक- देखते हुए मुख्य बहन कम जान पड़ता है। और यह शंकरदान शुभैराज नाहटा, नं० ५-६ पारमेनियन स्ट्रीट सम्पादक महोदयों तथा प्रकाशक महानुभावोंक विशिष्ट कलकत्ता । साइज, २०४३०, १६ पेजी, पृष्ठ संख्या साहित्य-प्रेम एवं मेवा-भावका घोतक है । चापका यह सब मिलाकर ६६२ मूल्य सजिन्द ।।) ०। सत्प्रयत्न दिगम्बर समाजके उन धनिकों तथा विद्वानों इस सचित्र अन्धमें विक्रमकी १२वीं शताब्दीसे के लिये अनुकरणीय है, जो अपने इधर-उधर बिखरे Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बवेकान्त [माघ, वीर विर्वाद सं० २॥ साहित्यको बोर बिल्कुल ही पीठ दिये हुए हैं और करके नैन-विधिसे बृहत् शान्तिविधान कराया था, मार प्रति अपना कुछ भी कर्तव्य नहीं समझते हैं। बिममें सोने, चान्दीके कमाशोंमे सुपार्यवाय भगवानका महोत्तरी स्नान (अभिषेक) हुआ था और इस महो. (३) युग प्रधान श्री जिनचन्द्रसरि लेखक सबमें एक लाख रुपयेके करीब सर्च हुआ था । पूजन मगर सन्द नाहटा और भंवरलाल नाहटा । प्रकाशक समासिके अनन्तर मंगल दीपक भौर भारतीके समय संकरदान शुभराज नाहटा, २०५६ प्रारमेनियन स्ट्रीट स्वयं सम्राट अकबर अपने पुत्र शाहजादे सलीम तथा सकता । साइज २०४३० १६ पेजी । पृष्ठ संख्या अनेक मुसाहिबोंके साथ शान्ति विधानके स्थानपर उपसब मिलाकर ४५२ । मूख्य सजिल्द १) रु० । स्थित हुआ था और उसने १० हजार रुपये जिनेन्द्र भगवानके सम्मुख भेरकर प्रभुभक्ति तथा जिनशामनका इस ग्रन्यका विषय इसके नाममे ही प्रकट है। गौरव बढ़ाया था। साथ ही, शान्तिके निमित्त अभिअन्य १० वीं शताब्दीके विद्वान प्राचार्य युग प्रधान क जलको अपने नेत्रोंपर लगाया और अन्तःपुर में श्री जिनचन्द्र जी का परिचय बड़ी खोजके साथ दिया भी भक्तिपूर्वक लगाने के लिये भेजा था। कहते हैं हम गया है। भाप अपने समयके बड़े ही प्रभावशाली अष्ठोत्तरी अभिषेकके अनुष्ठान सर्वदोष उपशान्न हुए, भाचार्य थे, सम्राट अकबर भापके प्रभावसे बहुत प्रभा- जिसमे सम्राटको परम हर्ष हुआ और वह जिनधर्मका वित हुआ था और उसने अपने राज्य में कितने ही दिन और अधिक भक्त बना। मालूम नहीं यह घटना कहाँ डिसा न किये जानेके लिये घोषित किये थे और फिर तक सत्य है; परन्तु इममें सन्देह नहीं कि अकबर के बापका अनुकरण करके दूसरे राजाओंने भी कुछ-कुछ समयमें जैनधर्मका प्रभाव बहुत कुछ व्यापक हुआ था दिनोंके लिये अपने राज्यों में प्रमारिकी (किमी जीवको और उसके अनुयायियोंकी संख्या तब करोड़ोंकी कही न मारनेकी) घोषणा की थी और इससे जैन-धर्मकी जाती है । यह सब मधरित्र एवं विद्वान माधु मन्तोंके बदी प्रभावना हुई थी। और भी कितनी ही अनुकूलनाएँ प्रभावका हा फल है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ महामहोपाजैनियोंको अकबरकं राज्यमें भापके प्रतापमे प्राप्त हुई ध्याय पं० गौरीशंकर हाराचन्दजी श्रोझा महोदय ने, थी । यह सब वर्शन इम ग्रंथमें शाही फर्मानोंकी नकल पुस्तकपर दी हुई अपनी सम्मनिम, स्पष्ट स्वीकार किया के साथ दिया हुआ है । एक स्वास घटनाका भी इसमे है कि इन मूरिजाका उपदेश उस समयके तत्कालीन उल्लेख है और वह यह है, कि- अकबरके पुत्र सलीम मुग़ल बादशाह अकबरने मुनकर अपने साम्राज्यमें से के घर लड़की मूल नक्षत्रके प्रथम पादमे पैदा हुई थी, हिंसावृत्ति बहुन कुछ रोक दी थी । इनकी तपस्या ज्योतिषियोंने उमका फल शहजादा सलीमके लिये और त्यागवृत्ति ने बादशाहका चित्त जैनधर्मकी ओर अनिष्टकारक बतलाया था और लाकीका मुंह न देखने स्वींच लिया था, जिससे जनधर्मका विकास होकर तथा उमका जल्ल-प्रवाह कर देने आदिके द्वारा परित्याग उस तरफ उत्तरोतर प्रास्था बढ़ती जानी थी । फलतः की व्यवस्था दी थी। नब इस दोषको उपशान्तिके लिये बादशाह अपने यहाँ प्रायः जैनमाधुनोंको बुलाकर उनसे अकबरने अपने मन्त्रीश्वर कर्मचन्द बच्छावतसे परामर्श उपदेश ग्रहण किया करता था। वह जैनसमाजके लिये Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग, निक) साहित्य परिचय और समालोचन स्वर्णयुग था और कर्मचन्द बच्छावत जैसे भावक उसमें तक कहा गया है और प्रमाणमें 'भरवास पतिं दृष्ट्वा' मौजूद थे।" नामका एक श्लोक उड़न किया गया है, जिसमें केश यह अन्य बहुतमे अन्धोंकी सहायतासे तैग्यार सहित विधवा मीको भी देखनेपर सब स्नान करनेकी हुधा है, जिनकी एक विस्तृत सूची साथ में दी गई है। बाढ कही गई है। यह लोक नाँका और किसका है, साथ ही श्री मोहनलाल देवीचन्द देशाई एवोर यह कुछ बनवाया नही-ऐसी हो हावत विवेचनमें बम्बईकी महत्वपूर्ण प्रस्तावनास भी अवहन जिमको उद्धत दूसरे पोंकी भी है। इसमें सकेशा विधवाको पृष्ठ संख्या और अन्त में पपोंपर अम्बरें देखने पर जिस प्राय अत्तकी बात की गई है वह जैन भाए हुए विशेष नामोंकी सचीको भी लिये हुए . नीति के साथ कुछ संगत मालूम नही होती। अस्तु, जिन सबसे प्रन्यकी उपयोगिता पर गई है। कागज, उक्त कुलकके विवेचनादिके अनन्तर पुस्तकमें विधवाछपाई. मफ्राई तथा जिल्द उत्तम है । मूल्य एक रुपया पर्सन्य' नामका एक स्वतंत्र निबन्ध दिया दुमा है, बहुत कम है और वह लेखक महोदयों तथा प्रकाशक जिसमें लेखकने अपने विचारानुसार विधवानों, घरवाजी की गुरुभक्ति एवं साहित्य प्रीतिको स्पष्ट घोषित बों तथा समाजको भी बातसी अच्छी शिक्षाएँ दी करना है, और साथ ही दमरोंके लिये मेवाभावमे कमी है। पुस्तकमे कभी कभी पर पपाईकी कुछ प्राधियाँ मुल्यका प्रादर्श भी उपस्थित करना है। खटकती हुईसी है। (४) विधवा कर्तव्य- लेखक अगरचंद ना- (५ ) दादा जी जिनकुशलार बक, पगहटा । प्रकाशक, शङ्करदान भदान नाहटा, नाहटोंकी रचंद नाइटा और भेवरयान्न बाहटा । प्रकाशक, सरगवाह, बीकानेर। साइज २०४३०,१६ पंजी। पर दान शु दान शुभराज नाहटा २०१६ मारमेनियन सीर, संख्या, ६२ । मूल्य, दो पाना । कताकना । पाइज, २० - ३०,६जी । पृष्ट संख्या सब मिनाकर १३.। मूल्य. चार भावा । इममें सबसे पहले 'विधवा-कुलक' नामका एक इसमें चिकमकी १४ वी शताब्दीक विद्वान आचार्य दशगाथात्मक प्राकृत प्रकरण भावार्थ नया विवेचनमहित दिया गया है। यह प्रकरण पाटनके भतार श्रीजिनकुशवमूरिका जीवन चरित्र निहामिक टिम नाडपत्रपर जिग्वा हुमा उपलब्ध हुआ है और इसमें वि.. ग्बोज माथ दिया गया है और उसमे मूरिजीको भनेक धवाओं को शान रक्षाकं लिये क्या क्या काम नहीं करने जीवन-घटनाग्री तथा अन्य रचनाअापर अच्छा प्रकाश चाहिये, इस विषयका अच्छा उपदेश दिया है। विवे पहना और कितना ही इनिहाम मामने भाजाना है चन कहीं कहीं पर मूलकी म्पिष्टिमं बाहर भी निकला इस पुम्नक की प्रस्तावना प्रमिद्ध ऐनिहामिक विद्वान् हुआ जान पड़ना है। जैसे केशोंका संस्कार अथवा पु- श्री जिनविजय जीका निधी हुई है, जिसमें प्रापने इस प्पादिय शृङ्गार न करनेकी बात कही गई थी, तब विवं. जीवन चरित्रको चमकारिक घटना मोम शन्य शुद्ध इ. चनमें "विधवाओंको केश रखने भी न चाहिय" यहाँ तिहासमिन जावनवर्णन || Din Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [माघ, वीरनिर्वाण सं०२४६६ graphy) बतलाया है और रिजीकी सच्चरित्रता और धन्यवादके पात्र है। विद्वत्ताकी प्रशंसा करते हुए उनकी 'चैत्यवन्दना कुलकबत्ति' नामकी उपलब्ध रचनाका बड़ा ही गुणगान (६) सती मृगावती-लेखक; भँवरनाल नाकिया है। साथ ही, इस वृत्ति के कुछ वाक्योंका उल्लेख हटा । प्रकाशक, शकरदान भेरुंदान नाहटा । नाहटोंकी एवं उद्धरण करते हुए यह भी बतलाया है कि गवाह बीकानेर पृष्ठ संख्या, ४० । मूल्य, दो पाना। "जैन समाजमें परस्पर एकता और ममानताका यह एक पौराणिक प्राधारपर अवलम्बिन श्वेता. व्यवहार रहना चाहिये, इस बानका भी इन्होंने (सूरि- म्बर कहानी है और भगवान महावीरके समयादिके जीने) स्पष्ट विधान किया है जो वर्तमानमे जेनसमा- साथ सम्बन्ध रखती है। जको सबसे अधिक मनन और अनुसरण करने योग्य है। इस विषय में मार्मिक वान्मल्यवाले प्रकरणमें इन्होंने कहा है कि- जैनधर्मका अनुवर्तन करनेवाले (७) श्रीदेव-रचना- लेखक, कवि ला० हर जमराय जैन श्रीमवाल । मंशोधक, मुनि छोटे लाल सब मनुष्योंको परम्पर सम्पूर्ण बन्धुभाव और समान व्यवहारमे वर्नना चाहिये-चाई फिर कोई किसी भी ( पञ्चनदीय )। प्रकाशक, प्यारालाल जैन (मन्हाणी) __साइकम्पगंज, स्यालकोट शहर। पृष्ठ संख्या, १६८ । देश और किसी भी जानिमें क्यों न उत्पन्न हों। जो मूल्य, सजिल्दका 11) जिल्दका ११ रु.। कोई मनुष्य सिर्फ नमस्कार मंत्रमाग्रका म्मरण करता है वह भी जैन है और अन्य जनोंका परम बन्धु है और ___ इसमें मुग्यताये भवनवासी श्रादि चार प्रकार के देवोंका और गौणना तीर्थकर चक्रवर्ती श्रादि ६३ इमलिय उसके साथ किसी भी प्रकारका भेदभाव न रम्बना चहिये और किसी प्रकारका वर-विरोध न करना शलाका पुरुषांका वर्णन अनेक प्रकार छन्दाम दिया चाहिये ।' धार्मिक एकनाकी दृष्टि से विचार किनने है, जिनमें चित्र छन्द भी हैं । पद्योंकी कुल संख्या ४३ उदार और अनुकरणीय हैं। जिनकृशलमृरिकी चरण है। नाना छन्दोंकी दृष्टिय पुम्नक मामान्यनया अच्छा पजा करनेवाले भक्तजन यदि उनके इस कथनका बुद्धि है, विषय-वर्णन भा कुछ बुरा नहीं । भाषाका नमना पूर्वक अनुपालन करना. गरपजाका सबम उत्तम. फल जानने के लिये अन्नका छप्पयछंद निम्न प्रकार है. प्राप्त कर सकते है और कम कम अपने गच्छका तो जिसमें पुस्तक रचनका समयादिक भी दिया हुआ है। गौरव बढ़ा सकते हैं।" अठारह मय सत्तरेव पंचम थिनि मांहे। पुस्तकम चार उपयोगी परिशिष्शक माथ विशेष बुध जन उत्तर मान चन्द मुवमन उदाहे ॥ नामांकी सूची लगी हुई है, जिनमें पुम्नककी उपयो- कुशपुर वामी श्रीमवाल हरजम रचलानी । गिता बढ़ गई है। इनिहास प्रेमी विद्वानोंक लिये सुर रचना जिनधर्म पुष्ट समकिन रम भीनी ॥ पुम्नक पढ़ने नथा संग्रह करने के योग्य है । अपने पज्य- जिह मुन पठ चित अर्थ धर वढे शान मत बुद्ध । पुरुषों के इतिहासको इस तरह खोज स्यांजकर प्रकट कर- नमी देव अरिहन्तजा कर जोममकिन शुद्ध ॥८४३ ॥ नेके सरप्रयत्न के लिये बन्धुद्वय लेखक महोदय निःसन्देह Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक-विचार [ले०-स्व. श्रीमद्रामचन्द्र ] नात्म-शक्तिका प्रकाश करनेवाला, मभ्य- क्या फल होना था ? इससे तो किसने पार पाया 'ग्दर्शनका उदय करनेवाला, शुद्ध,ममा- होगा, ऐसे विकल्पोंका अविवेक दोष है। धि भावमें प्रवेश कराने वाला, निर्जराका अमूल्य २. यशोवांछादोप-हम स्वयं मामायिक करते लाभ देनेवाला, राग द्वेषसे मध्यस्थ बुद्धि करने है. ऐमा दुसरं मनु'य जाने नो प्रशंमा करें, ऐमी वाला सामयिक नामका शिक्षाप्रत है। मामायिक इच्छाम सामायिक करना वह यशोवाछादोप है । शब्दकी व्युत्पत्ति सम+आय+ इक इन शब्दोंसे ३. धनवाछादोष-धनकी इच्छामं मामायिक होती है। 'सम' का अर्थ राग द्वेष रहिन मध्यस्थ करना धनवांछादोप है। परिणाम, 'आय' का अर्थ म मम्भावनाम उत्पन्न ४. गर्वदोष-मुझे लोग धर्मात्मा कहते हैं हुना ज्ञान, दर्शन, चारित्रम्प मोक्ष मागका लाभ, और मैं मामायिक भी वैसे ही करता हूँ ऐमा और 'इक' का अर्थ भाव होता है। अर्थात जिमके अध्यवसाय होना गर्व दोष है। द्वारा मोक्षक मार्गका लाभदायक भाव उत्पन्न हो, ५. भयदोप मैं श्रावक कुलमें जन्मा हैं। वह मामायिक है। आन और रौद्र इन दो प्रकार मुझं लोग बड़ा मानकर मान देते है यदि मैं कं ध्यानका त्याग करकं. मन, वचन और कायकं मामायिक न कर तो लोग कहंग कि इतनी क्रिया पाप-भावोंको गंक कर विवेकी मनुष्य मामायिक भी नहीं करता, ऐमी निन्दाकं भयमं मामायिक करते है। करना भय दोप है। __ मनके पुद्गल नरंगी है। मामायिकम जब ६. निदानदीप-मामायिक करकं उमकं फल विशुद्ध परिणाममं रहना बनाया गया है. उम में धन, स्त्री पुत्र आदि मिलने की इच्छा करना ममय भी यह मन आकाश पातालके घाट धडा निदान दोप है। करता है। इसी तरह भल, विम्मृति, उन्माद ७. मंशयदीप मामायिकका फल होगा अथ इत्यादिमे वचन और कायमें भी दृपग्ण पानेमे वा नहीं होगा, ऐमा विकल्प करना संशयदोप है। मामायिकमें दोष लगता है। मन, वचन और कपायदोप-- क्रोध आदिम मामायिक कायकं मिलकर यत्तीम दोष उत्पन्न होने हैं। दम करने बैठ जाना, अथवा पीछमें क्रोध. मान, माया मनकं, दम वचनके, और बारह कायकं इस प्रकार और लोभम वर्वा लगाना वह कपाय दाप है। बर्नम दोपं को जानना आवश्यक है, इनकं जानने ५. अविनयदोप-विनय गहिन होकर मामामे मन मावधान रहना है। यिक करना अविनय दोष है।। __ मनके दोपकहना हैं। १. प्रबहमानदोप-भक्तिभाव और उमंग५. अविवेक दोप--मामायिक-म्वरूप नहीं पूर्वक मामायिक न करना वह अब मान दोप है। जाननेसे मनम ऐसा विचार करना कि हमम Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. L.4328 सुभाषित ज्यों काहू विषधर डस, रुचि सों नीम चबाय । त्यों तुम ममतामें मढ़े, मगन विषय सुख पाय ।। ज्यों सछिद्र नौका चढ़े, बढ़ई अंध अदेख । मल्यों तुम भव जलमे परे, विन विवेक घर भेखः ।। तैसे ज्वरके जोर सो, भोजनकी रुचि जाय । । तैम कुकरमके उदै, धर्म वचन न सुहाई ॥ SAHARSHITARI जैसे पवन झकोर ने. जल में उठे तरंग। 'त्यों मनसा चंचल भई, परिगह के पर संग ॥ REACH ज्यो सुवास फल फलमें, दही दूध, घीय, · पावक काठ पषाणमें, त्यों शरीर में जीय । चंतन पुद्गल यो मिले, ज्यों तिल में खलि तेल, प्रकट एकसे दीखिए, यह अनादिको खेल ।। वह चाके रसमें रमें. वह चासों लपटाय, चम्बक कर लोहको, लोह लगे तिह धाय । कर्मचक्रकी नींद सो, मुषा स्वप्नकी दौर. ज्ञान नककी ढनिमें, सजग भांति सब टौर ।। -स्व० कविवर बनारमीदास - FDITENT वीर रेस ऑफ इण्डिया, कनॉट, सर्कस स्य देहला । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 फाल्गुन, वीर नि० सं०२४६६ । अनेकान्त वर्ष ३, किरण ५ वार्षिक मूल्य ३ रु० मार्च १९५० FOTO CrOMHOTGFG SANDHONDAR DHONOFGADHEPANDHONEGOREOFORODRIORNOMADINOLODNA सम्पादक संचालक____ जुगलकिशोर मुख्तार तनसुखराय जैन ज अधिष्ठाता वीर-सेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर) कनॉट सर्कस पो० को- न्य देहली। GAONIDEOROHIDE E O DOTCOINO LOOTEOFO@STOREALHOOREXEMODEarate DeroNDION POOL Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ३१८ ३२५ ३२८ ३३९ १. प्रमाचन्द्र-स्मरण... २. बढ़े चलो [ले० श्री० माईदयाल बी. ए. (ऑनर्स) बी. टी. ३. अहिंसा-तत्व [पं० परमानन्दजी शास्त्री... ४. मनुष्य जातिके महान् उद्धारक [श्री बी. एल. सराफ वकील ५. हरिभद्र सूरि [भी० रतनलाल संघवी ... ६. वीर-नसुवा (कहानी)-पं० मूलचन्द वत्सल ७. सरल योगाभ्यास [भी० हेमचन्द्र मोदी ... ८. होलीका त्योहार [सम्पादकीय ... ९. होली होली है (कविता) [ युगवीर ... १०. दर्शनोंकी आस्तिकता और नास्तिकताका आधार [पं० ताराचन्द ११. होली है (कविता) [गवीर १२. जातियाँ किस प्रकार जीवित रहती हैं [श्री० ला हरदयाल एम. ए.... १३. भगवान महावीर और उनका उपदेश [बा० सूरजभान जी वकील ... १४. माहित्य परिचय और समालोचन ३५० ३५१ ३५२ ३५९ ३६० ३६९ अनेकान्तकी फाइल अनेकान्सके द्वितीय वर्षकी किरणोंकी कुछ फाइलोंकी साधारण जिल्लचाली गई हैं।१२वी किरण कम हो जाने के कारण फाइवें थोड़ी ही वन्ध सकी है। अतः जो बन्धु पुस्तकालय वा मन्दिरों में 2 करना चाहें या अपने पास रखना चाहें वे ॥३० मनियार भिजवा देंगे तो उन्हें सजिन्द भनेकान्तकी फाल भिजवाई जा सकेगी। जो सज्जन भनेकान्तके ग्राहक हैं और कोई किरण गुम हो जानेके कारण जिल्द बंधवानेमें असमर्थ हैं उन्हें १२वी किरण बोड़कर प्रत्येक किरणके लिये चार माना और विशेषांकके लिए पाठ माना मिजवाना चाहिए सभी मादेशका पालन हो सकेगा। -व्यवस्थापक दो शब्द उसतो बदि भनेकाम्तके पाठको दो भी अनेकान्सके ग्राहक बनानेकी हपारें तोबनेकान्स बस सकता है। पाशा है उत्साही पाठक इस बार अपरय प्रयत्न करेंगे। -व्यवस्थापक Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीति-विरोध-ध्वंसी लोक व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ सम्पादन स्थान-वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राभम), सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो.बो. नं. ४८, न्यू देहली फाल्गुन-पर्णिमा, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं०१६ - अभिमय निजविपक्षं निखिलमतोद्योतनो गुणाम्भोधिः । सविता जयतु जिनंन्द्रः शुभप्रबन्धः प्रमाचन्द्रः ॥-पावसाचारिता अपने विपक्षस-मूहको पराजित करके जो समस्त मतोंके यथार्थ स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले गुणसमुद्र, जितेन्द्रियोंमें अग्रगण्य और शुभप्रबन्ध-न्यायकुमुदचन्द्र जैसे पुण्य-प्रबन्धोंके विधाता-प्रमाचन्द्राचार्य नामके सर्य जयवन्त हो-अपने वचन-तेजसे लौकिकजनोंके हृदयान्धकारको दूर करने में समर्थ होवें। चन्द्राशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकवि स्तुवे । कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदारहादितं जगत् ।।-बाविपराये बिनसेनापी जिन्होंने चन्द्रका उदय करके-'न्यायकुमुदचन्द्र ग्रंथकी रचना करके-जगतको सदाके लिये मानन्दित किया है उन चन्द्र-किरण-समान उज्जवल यशके धारक विचारक मुनि प्रभाचन्द्रकी में स्तुति करता है। माणिक्यनन्दी जिनराज-वाणी-प्राणाधिनाथः परवादि-मरीं। चित्रं प्रभाचन्द्र इह माया मातण्ड-वृदो नितरा व्यदीपीत् ।। मुखिने न्यायकुमुदचन्द्रोदयकृते नमः। शाकटायन कृत्सूत्रन्यासकर्ने व्रती(प्रमेन्दवे ।।-शिमोगा-मगरताव-शिक्षा जो माणिस्य (प्राचार्य)को श्रानन्दित करनेवाले-- उनके परीक्षासुख ग्रंथपर प्रमेयकमलमार्तण्ड नामका महाभाष्य लिखकर उनकी प्रसनता सम्पादन करनेवाले थे, जिनराजकी वाणीके प्राणाधार ये--जिन पाकर एक बार जिनवाणी सनाय हुई थी-और जो परवादिका मानमर्दन करनेवाले थे, प्रभाचन्द्र प्रापर्वक इस पृथ्वीपर निरन्तर ही मार्तण्डकी बुदिमें प्रदीत रहे हैं। अर्थात् प्रभापूर्ण चंद्रमा यद्यपि मार्तण्ड (ब) की तेजोवदि में कोई सहायक नहीं होता-उलय उसके तेजके सामने हतप्रभ हो जाता है, परन्तु ये प्रमाचा मातबर (प्रमेयकमलमातंबर) की तेजोवृद्धिमें निरन्तर हो अन्याहत्यक्ति से एक विचिता है। जोन्यावकुमुदचन्द्र के उदयकारक-जन्मदाताहुए और जिलोंने शाकटायनके सब-याकरणमा पर न्यास रचा, उन प्रमाचन्द्र मुनिको नमस्कार है। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अनेकान्त [फाल्गुन, बीर-निवाब. २०५५ अपनी कुत्सित चित्तवृत्तिके अनुकूल उस प्राणिको चूँकि ये सब कार्य क्रोध, मान, माया, अथवा लोभके दुली करनेके अनेक साधन जुटाये जाते हैं; मायाचारी वश होते हैं। इसलिये हिंसाके सब मिला कर स्थूलरूप से दूसरोंको उसके विरुद्ध भड़काया जाता है, विश्वास- से १०८ भेद हो जाते हैं। इन्हीं के द्वारा अपनेको तथा पात किया जाता है-कपटसे उसके हितैषी मित्रोंमें दूसरे जीवोंको दुःखी या प्राणरहित करनेका उपक्रम किया फट गली जाती है-उन्हें उसका शत्रु बनानेकी चेष्टा जाता है। इसीलिये इन क्रियाओंको हिंसाकी जननी की जाती है, इस तरहसे दूसरोंको पीड़ा पहुँचाने रूप कहते हैं । हिंसा और अहिंसाका जो स्वरूप जैन ग्रन्थों में म्यापारके साधनोंको संचित करने तथा उनका अभ्यास बतलाया गया है, उसे नीचे प्रकट किया जाता हैबढ़ानेको समारम्भ कहा जाता है | फिर उस साधन सा हिंसा व्यपरोप्यन्ते सस्थावरातिनाम् । सामग्री के सम्पन्न हो जाने पर उसके मारने या दुखी प्रमत्तयोगतः प्राणा न्य-भावस्वभावकाः ॥ करनेका जो कार्य प्रारम्भ कर दिया जाता है उस क्रिया -अनगारधर्मामृते, अाशाधरः ४, २२ को प्रारम्भ कहते हैं। ऊपरको उक्त दोनों क्रियाएँ तो अर्थात्-क्रोध-मान-माया और लोभके आधीन हो भावहिंसाकी पहली और दूसरी श्रेणी हैं ही, किन्तु कर अथवा अयत्नाचारपूर्वक मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिसे तीसरी प्रारम्भक्रियामें द्रव्य-भाव रूप दाना प्रकारको प्रमजीवोंके-पशु पक्षी मनुष्यादि प्राणियोंके--नथा हिंसा गर्भित है, अतः ये तीनों ही क्रियाएँ हिंसाकी स्थावर जीवोंके--पृथ्वी, जल, हवा और बनस्पति श्रादिमें जननी है। इन क्रियाओंके साथमें मन वचन तथा काय रहने वाले सूक्ष्म जीवोंके ---द्रव्य और भाव प्राणोंका घान की प्रवत्तिके संमिश्रणसे हिंसाके नव प्रकार हो जाते हैं करना हिंसा कहलाता है । हिंसा नहीं करना सो अहिंसा और कृत-स्वयं करना, कारित-दूसरोंसे कराना, अनु. है अर्थात् प्रमाद व कषायके निमित्तते किसी भी सचेतन मोदन-किसी को करता हुआ देखकर प्रसन्नता व्यक्त पाणीको न सताना, मन वचन-कायसे उसके प्राणों के करना, इनस गुणा करने पर हिंसाके २७ भेद होत है। घात करने में प्रवचि नहीं करना न कराना और न करते --- ----- -- xपरिदाबादोहये समारम्भो। हुएको अच्छा समझना 'अहिंसा' है । अथवा-भग. पाराधनाया, शिवार्यः ८१२ रागावणमणुप्पा अहिंसगत्तेति भासि समये। साधनसमभ्यासीकरणं समारम्भः। तेसिं चेदुप्पत्ती हिंमेति जिहि विदिशा ॥ - --सवार्थसिद्धौ, पूज्यपादः, ६,८। --सर्वार्थमिद्धो, पूज्यपादेन उद्धृतः । साभावारिसादिक्रियावासापनानासमाहारःसमारंभः। अर्थात्-आला राग-द्वेषादि विकारोंकी उत्पत्ति -विजयोदयायो, अपराजितः,गा० ८११। नहीं होने देना 'अहिंसा है और उन विकारोंकी पाल्मामें मारंभो गमो, उत्पत्ति होना 'हिमा' है। दूसरे शब्दोंमें इसे इस रूपमें -म० माराधनाया शिवार्य, ८१२। कहा जा सकता है कि श्रात्मामें जब राग-द्वेष-काममा बारम्भ। -सर्वार्थसिद्धौ, पूज्यपादः ६, ८। क्रोध-मान-माया और लोभादि विकारोंकी उत्पत्ति होती संचितासाचुपकरवस्य पाचः प्रम पारंभः। तब ज्ञानादि रूप प्रारमस्वभावका घात हो जाता है विजयोदयाया; अपराजितः, गा०८११ इसीका नाम भाव हिंसा है और इसी भाव हिंसासे Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ५] बहिसा-तच आत्म परिणामोकी विकृतिमे-जो अपने अथवा मरोंके है तो जरूर वह हिंसक कहलाता है और इसका मागी द्रव्यप्राणों का धान हो जाता है उसे द्रव्यहिमा कहते हैं। भी होता है। इसी बातको जैनागम सा रूपसे दो . हिंसा दो प्रकार की जाती है-कषायसे और घोषणा करता है:प्रमादसे । जब किमी जीवको क्रोध, मान, माया और पचासम्मिपादे इरिषासमिएस विग्गमहा। . लोभादिके कारण या किमी स्वार्थवश जान बूझकर नाबादेज विजो मरेज्जतं बोगमासेन्ज सनाया जाता है या सनाने अथवा प्राणरहित करने के बहि तस्स तरिमितो पंचो सुतुमोवि देसिदो समये। लिये कुछ व्यापार किया जाता है उमे कपाघमे रिमा -सर्वार्थसिद्धौ पूज्यपादेन उद्धृतः कहते हैं । और जब मनुष्यकी श्रालस्यमय अमावधान अर्थात्- जो मनुष्य देख भालकर मावधानीसे मार्ग एवं अयस्नाचारपूर्वक प्रवृत्तिमे किमी प्राणीका पधादिक पर चल रहा है उसके पैर उठाकर रखने पर यदि कोई हो जाता है तब वह प्रमादमे रिमा कही जाती है। इससे जन्तु अकस्मात् पैरके नीचे पा जाय और दप कर मर इतनी बात और स्पष्ट हो जाती है कि यदि कोई मनुष्य जाय तो उस मनुष्यको उम जीवके मारनेका थोड़ा सा बिना किमी कषायके अपनी प्रवनि यत्नाचारपर्वक भी पाप नहीं लगता है। मावधानीमे करना है उस ममय यदि दैवयोगमे अचा- जो मनुष्य प्रमादी है-अयलाचार पूर्वक प्रवृत्ति नक कोई नीव श्राकर मर जाय तो भी वह मनष्य करता है-उसके दाग किमी प्राणीको हिमा भी नहीं हुई हिंसक नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उम मनुष्यकी है तो भी यह 'ममावयुक्तस्तु सदैव हिंसक' के वचनानुप्रवृत्ति कषाययुक्त नहीं है और न हिमा करने की उम. सार हिमक अवश्य है - - उसे हिंसाका पाप जरूर लगता की भावना ही है । यद्यपि द्रव्यहिमा जम्र होती है परन्तु है। यथा-- तो भी वह हिंसक नहीं कहा जा सकता, और न जैन- मरदु यो जायदु जीयो भयदाचारस विडिया हिंसा । धर्म इम प्राणिगतको हिमा कहता है। हिमात्मक परि- फ्यवस्स थरिथ बंधो हिसामितेश समिदस्म ॥ णति ही हिमा है, केवल द्रव्यहिमा हिमा नहीं कहलाती, -प्रवचनसारे कुन्दकुन्दः ३,१७ द्रव्यहिमाको तो भावहिमाके सम्बन्धम ही हिंमा कहा अर्थात्-तीय चाहे मरे,अथवा जीवित रहे,असावजाता है। वास्तवमें हिंमा तब होती है जब हमारी परि- धानीम काम करने वालेका हिंसाका पाप अवश्य लगता णनि प्रम दमय होती है अथवा हमारे भाव किनी जीवा है, किंतु जो मनुष्य यत्नाचारपूर्वक सावधानीसे अपनी को दुःन्त्र देने या मताने के होते हैं। जैसे कोई ममर्थ प्रवृत्ति करना है उससे प्राणि-राध हो जाने पर भी हिंसा डाक्टर किमी रोगीको नीरोग करनेकी इच्छाम ऑपरे. का पाप नहीं लगना-यह हिंमक नहीं कहला सकता, शन करता है और उममें दैवयोगसे रोगीकी मृत्यु हो क्योंकि भावहिं नाकं बिना कोग द्रव्यहिमा हिंमा नहीं जाती है तो वह डाक्टर हिंमक नहीं कहला सकना, और कहला सकी। न हिमाके अपराधका भागीही हो मकता है। किन्तु सकपायी व तो पहले अपना ही घात करता है, यदि डाक्टर लोभादिके वश जान बूझकर मारनेके इरादे उसके दूमरीकी रक्षा करने की भावना ही नहीं होती। से ऐसी क्रिया करता है जिससे रोगीकी मृत्यु हो जाती यह तो दूसरोका पात होने से पहले अपनी कलापित . Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [फाल्गुन, बीर- विसं. २ चित्रवृत्ति के द्वारा अपना हो पात करता है, दूसरे जीवों जीवोंका वध होता ही है, जैसा कि आगमकी निम्न का पात होना न होना उनके भवितव्य के प्राधीन है। प्राचीन गाथासे स्पष्ट है: हिंसा दो प्रकारकी होती है एक अन्तरंग हिंसा और बदि सुखस्स पो होदि बाहिरक्त्युबोगेख। दूसरी बहिरंग हिंसा । अब प्रात्मामें शानादि रूप भाव बपि दुपहिंसगो वाम होदि वावाविवषहेतु ॥ प्राणोंका पात करने वाली अशुद्धोपयोगरूप प्रवृत्ति विजयोइयायां-अपराजितः-६ । ८०६ होती है तब वह अंतरंग हिंसा कहलाती है। और जब हिंसा और अहिंसाके इस सूक्ष्म विवेचनसे जैनी जीवके वाम द्रव्यमाशोंका घात होता है तब बहिरग अहिंसाके महत्वपूर्ण रहस्यसे अपरिचित बहुतसे व्यक्तिहिंसा कहलाती है। इन्हींको दूसरे शब्दोंमें द्रव्यहिंसा और योंके हृदय में यह कल्पना होजाती है कि जैनी अहिंसा भाव हिंसाके नामसे भी कहते हैं । यदि तत्त्वदृष्टि से का यह सूक्ष्मरूप अव्यवहार्यहै--उसे जीवन में उतारना विचार किया जाय तो सचमुचमें हिंसा करता और नितान्त कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव है। अतएव स्वार्थकी पोषक है। मनुष्यका निजी स्वार्थ ही हिंमाका इसका कथन करना व्यर्थ ही है। यह उनकी समझ कारण है। जब मनुष्य अपने धर्मसे ब्युत हो जाता है ठीक नहीं है, क्योंकि जैनशासनमें हिंसा और अहिंमाका तभी वह स्वार्थवश दूसरे प्राणियोंको सतानेकी चेष्टा जो विवेचन किया गया है वह अद्वितीय है, उसमें किया करता है। प्रात्मविकृतिका नाम हिंसा है और अल्पयोग्यतावाले पुरुष भी बड़ी यामानीके साथ उसका उसका फल दुःख एवं अशान्ति है । और आत्मस्वभाव अपनी शक्ति के अनुसार पालन कर मकते हैं और अपने का नाम अहिंसा है तथा मुख और शान्ति उसका फल को अहिंसक बना सकते हैं । साथ ही, जैनधर्ममें अहिं. हैअर्थात् जब आत्मामें किसी तरहकी विकृति नहीं होती माका जितना सूक्ष्मरूप है वह उतना ही अधिक व्यवचित्त प्रशान्त एवं प्रसादादि गुणयुक्त रहता है उसमें हार्य भी है। इस तरह का हिंसा और अहिंसाका स्पष्ट क्षोभकी मात्रा नज़र नहीं आती, उसी समय श्रात्मा विवेचन दूसरे धर्मों में नहीं पाया जाता, इसलिये उसका अहिंसक कहा जाता है । द्रव्यहिंसा के होने पर भावहिमा जैनधर्मकी हिमाके आगे बहुत ही कम महत्व जान अनिवार्य नहीं है उसे तो भाव हिसाके सम्बन्धसे ही पड़ता है। हिंसा कहते हैं, वास्तवमै द्रव्याहिमा तो मावहिंसासे जैनशामन में किमीके द्वारा किमी प्राणीके मर जाने खुदी ही है। यदि द्रव्यहिंसाको भावहिंसासे अलग न या दुःखी किये जानेस ही हिंसा नहीं होती। संसारमें किया जाय तो कोई भी जीव अहिंसक नहीं हो सकना, सब जगह जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्तसे और इस तरहसे तो शुद्ध वीतराग-परिणति वाले साधु मरते भी रहते हैं, परन्तु फिर भी, जैनधर्म इस प्राणिमहात्मा भी हिंसक कहे जायगे; क्योंकि पूर्ण अहिंसाके घातको हिंसा नहीं कहता; क्योंकि जैनधर्म तो भावपालक योगियों के शरीरसे भी सूक्ष्म वायुकायिक आदि प्रधान धर्म है इसीलिये जो दूसरों की हिंसा करनेके भाव सपमेवात्मवासमा हिलल्लामा प्रभावात् । . नहीं रखता प्रत्युत उनके बचानेके भाव रखता है उससे मारवंतरावान्यु सालाहाबाद। : दैववशाल सावधानी करते हुए भी यदि किसी जीवके -सर्वार्थसिदिमें उद्धृत, पृ०२१ द्रव्य प्राणोका वध होगाता है तो उसे हिंसाका पाप नहीं Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३, निव] पहिसा - - लगता । यदि हिंसा और अहिंसाको भाव प्रधान न मान अथवा कुछ भी विरोध किये बिना सहलेना कावरता:जाय तो फिर बंध और मोक्षकी व्यवस्था ही नहीं बन पाप है-हिंसा है। कायर मनुष्यका बाल्मा पतित होना सकती। जैसे कि कहा भी है है, उसका अन्तःकरण भय और संकोचसे अथवा का विवडीवचिते बोकेरन कोयमोच्चता से दबा रहता है। उसे भागत भयको चिन्ता सदा भावैकसाधनो बन्धमोबामविष्यताम् ॥ व्याकुल बनाये रहती है-मरने जीने और धनादि सम्म -सागारधर्मामृत; ४, २३ सिके विनाश होने की चिन्तासे वह सदा पीड़ित एवं अर्थात्-जब कि लोक जीवोसे खचाखच भरा सचिन्त रहता है। इसीलिये वह प्रात्मबल और मनो हुआ है तब यदि बन्ध और मोक्ष भावोंके ऊपर ही बलकी दुर्बलताके कारण-विपत्ति मानेपर अपनी रक्षा निर्भर न होते तो कौन पुरुष मोक्ष प्राप्त कर सकता भी नहीं कर सकता है। परंतु एक सम्पष्टि अहिंसक अतः जय जैनी अहिमा भावोंके ऊपर ही निर्भर है तब पुरुष विपत्तियों के आनेपर कायर पुरुषकी तरह पबराता कोई भी बुद्धिमान पुरुष जैनी अहिंसाको अव्यवहार्य नहीं और न रोता चिलाता दी किन्तु उनका स्वागत नहीं कह सकता। करता है और सहर्ष उनको सहनेके लिये तेम्बार राना अब मैं पाठकोंका ध्यान इस विषयकी ओर प्राक- है तथा अपनी सामर्थ्य के अनुमारउनका धीरनासे मुजपित करना चाहता हूँ कि जिन्होंने अहिंमा तत्वको नहीं बिला करता है--प्रतीकार करता है-उसे अपने मरने समझकर जैनी अहिंसापर कायरताका लांछन लगाया जीने और धनादि सम्पत्तिके समूल विनाश होने का कोई है उनका कहना नितान्त भ्रममूलक है। हर ही नहीं रहता, उसका पात्मबल और मनोबल अहिंसा और कायरतामे बड़ा अन्तर है। अहिंसाका कायर मनुष्यकी भाँति कमजोर नहीं होता, क्योंकि सबसे पहला गुण आत्मनिर्भयता है। अहिंसा कायरता उसका श्रात्मा निर्भय है-सप्तमयोंसे रहित है । नको स्थान नहीं। कायरता पाप है, भय और संकोचका सिद्धान्तमें सम्यग्दृष्टिको सप्तभय-रहित बतलाया गया परिणाम है । केवल शस्त्र संचालनका ही नाम वीरता है। साथ ही, प्राचार्य अमृतचन्द्रने तो उसके विषय नहीं है किन्तु वीरता तो आत्माका गुण हैं। दुर्बल में यहाँतक लिखा है कि यदि त्रैलोस्यको चलायमान शरीरस भी शस्त्रसंचालन हो सकता है । हिंसक वृत्तिसे कर देनेवाला वनपात प्रादिका पोर मय भी उपस्थित या मांसभक्षणसे तो करता आती है, वीरता नहीं; परंतु होजाब तो मी सम्पम्हष्टि पुरुष नि:शंक एवं निर्भय यता अहिंसास प्रेम, नम्रता, शान्ति, सहिष्णुता और शौर्यादि वह डरता नहीं है। और न अपने गानस्वमाले गुण प्रकट होते हैं। च्युत होता है, यह सम्यग्दष्टिका ही साहस है। हबले दुर्बल प्रात्माओंसे अहिंसाका पालन नहीं हो सकता सट है कि प्रात्म निर्भयी-धीर-धीर पुरुष ही सबे काहि उनमें सहिष्णुता नहीं होती। अहिंसाकी परीक्षा प्रत्या- सक हो सकते हैं. कायर नहीं । वे तो ऐसे घोर मयादिवे चारीके अत्याचारोंका प्रतीकार करनेकी सामर्थ्य रखते सम्पतिबीचा विसंवा हति विम्याचा हुए भी उन हँसते सते सहोमेमें है किन्तु प्रतीकारकी संपविलमा समावि खामक प्रभाव में अत्याचारीके अत्याचारोंको चुपचाप समा Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं० २०६६ -- भानेपर भयसे पहले ही अपने प्रागोंका परित्याग कर और मकेत अवश्य किया है जो कि अावश्यक है। क्यों देते हैं। फिर भला ऐसे दुर्बल मनुष्योंसे अहिंमा जैसे कि गृहस्थ अवस्था ऐमी कोई क्रिया नहीं होती जिममें गम्भीर तत्त्वका पालन कैसे हो सकता है अतः जैनी हिसा न होती हो। अतः गृहस्थ सर्वथा हिसाका ल्य.गी अहिंसापर कायरताका इल्जाम लगाकर उसे अन्यत्र नहीं हो मकना । इम के मिवाय, धर्म-देश-जाति और हार्य कहना निरी अज्ञानता है। अपनी तथा अपने प्रात्मीय टम्बी जनोंकी रक्षा करने जैन शासनमें न्यूनाधिक योग्यतावाले मनुष्य में जो विरोधी हिंमा होती है उमका भी वह त्यागी नहीं अहिंसाका अच्छी तरहसे पालन कर सकते हैं, इमीलिये हो सकता। जैनधर्ममें अहिंसाके देशबाहिमा और मर्वअहिमा जिम मनष्यका माँसारिक पदार्थोस मोह घट गया अथवा अहिसा-अणुव्रत और अहिंसा-महाव्रत श्रादि है और जिसकी श्रात्मशक्ति भी बहुत कुछ विकाम प्राप्त भेद किये गये हैं। जो मनुष्य पूर्ण अहिमाके पालन कर चुकी है वह मनुष्य उभय प्रकार के परिग्रहका त्याग करने में असमर्थ है, वह देश अहिंसाका पालन करता है, कर जैनी दीक्षा धारण करता है और तब वह पूर्ण इसीसे उसे गृहस्थ, अणुवती, देशवती या देशयतीके अहिंसाके पालन करनेमें ममर्थ होता है । और हम तरह नामसे पुकारते हैं क्योंकि अभी उसका साँमारिक देह- से ज्यों ज्यों श्रात्म-शक्तिका प्राबल्य एवं उमका विकास भोगोंसे ममत्व नहीं छटा है-उमकी आत्म शक्तिका पूर्ण होता जाता है त्यो त्यो अहिंमाकी पर्णता भी होती जाती विकास नहीं हुआ है-वह तो असि, मषि, कृषि, शिल्प, है। और जब अात्माको पर्णशक्तियोंका विकास हो जाता वाणिज्य, विद्यारूप षट् कर्मोंमें शस्त्यानुसार प्रवृत्ति करता है, तब आत्मा पूर्ण अहिंसक कहलाने लगता है। अस्तु, हुआ एकदेश अहिंसाका पालन करता है । गृहस्थ- भारनीय धर्मोमें अहिंसाधर्म ही सर्वश्रेष्ठ है । इसकी अवस्थामें चार प्रकारकी हिंमा संभव है । संकल्ली, पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाला पुरुप परमब्रह्म परमात्म प्रारम्मी, उद्योगी और विरोधी । इनमेंसे गहस्थ सिर्फ कहलाना है। इसीलिये पाचर्य समन्तभद्रने अहिंसाको एक संकल्पी हिंसा-मात्रका त्यागी होता है और वह भी परब्रह्म कहा है *। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम अस जीवों की । जैन श्राचार्योंने हिंसाके इन चार भेदों जैन शामनके अहिंसातत्त्वको अच्छी तरहसे ममझे को दो मेदोंमें समाविष्ट किया है और बताया है, कि और उसपर अमल करें । साथ ही, उसके प्रचारमें गहस्थ-अवस्थामें दो प्रकारकी हिमा हो सकती है, श्रा- अपनी मर्वशक्तियोंको लगादें, जिससे जनता अहिंसाके रम्भजा और अनारम्भजा। प्रारम्भना हिंसा कुटने, रहस्यको समझे और धार्मिक अन्धविश्वामसे होनेवाली पीसने प्रादि गृहकार्योंके अनुष्ठान और आजीविकाके घेर हिंसाका-गक्षमी कृत्यका-परित्यागकर अहिंसाकी उपार्जनादिसे सम्बन्ध रखती है; परन्तु दुमरी हिंसागही शरणम अाकर निर्भयतामे अपनी प्रात्मशक्तियोंका कर्तव्यका यथेष्ट पालन करते हुए मन-वचन-कायसे होने विकास करने में समर्थ हो सके। पाले जीवोंके पातकी ओर संकेत करती है। अर्थात् दो वीर सेवामन्दिर, सरसावा, जि० महारनपुर इंद्रियादि असजीवोको सँकल्पपूर्वक जान बूझकर गहवास सेवन रतो मन्द कराया प्रवर्तितारम्भः । सताना या जानसे मारना ही इसका विषय है, इसीलिये भारम्भजां स हिसां शक्नोति न रचित नियमात् ॥ इसे संकल्पी हिंसा कहते है। गृहस्थ अवस्था में रहकर श्रावकाचारे, अमितगतिः,६,६,७ भारम्भजा हिंसाका त्याग करना अशक्य है। इसीलिये क पहिसा भूतानां बगति विदितं ग्रह परमं, जैन ग्रन्थों में इस हिंसाके त्यागका आमतौरपर विधान असा तत्रारम्भोस्ल्पपुरपि र पत्राश्रमविधौ । नहीं किया है परन्तु यत्लाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेकी ततस्तत्सित्यर्थ परमकल्यो अग्यममयं, हिसाषा प्रोतामामारंभवत्ववोर। भवानेवात्याची विकृतवेयोपपिरतः ॥" पावासतो निचोषाऽपि त्रायते ॥ बृहत्स्वयमस्तोत्रे, समन्तभद्रः । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य जातिके महान् उद्धारक [ले-श्री बी. एल. मराफ, बी. ए एलएल. बी, वकील, सागर ] समाजके तत्कालीन हवन-कुण्डकी प्रचण्ड हुताशन की पुकार पर त्रिशला मन्दन भौर शबोधन-मारके पल "तो नरमेधके वास्ते भी तैयार थी । यज्ञके अनर्थ- नोंने कुण्डग्राम और कपिन वस्तुकी वासोन्मुखी प्रमा कारों टीकाकारोंने गीताकी ओर भाँख उठाकर देखनेकी को पुनीत किया तो क्या पावर्ष ? भावश्यकता तक नहीं समझी। मूक जीवोंके कलेवरमे भास्मान्वेषण तथा सत्यान्वेषयाके दुर्गम पथके रमव ही सन्तुष्ट होनेकी भावना तब अपनी चरम सीमा पर पथिक विघ्न वाधानों के बीच में भी अपनेको भूखे नहीं। थी । वैशाली, मल्ल, शाक्य, कौशल, मगध और मिथिला यद्यपि थोड़ा अन्तर भले ही रहा, एकने तात्वारिक जैसे गण राज्यों तथा प्रजातन्त्र शासनोंके होते हुए भी मात्रा-द्वारा चिकिरमाकी तो दूसरने शास्वतिक प्रपोगों समाजका वैषम्य सामने था । मनुष्यको हृदय लगानेमें का उपयोग किया। एक यदि पतिकार्य पयानुगामी बाधाभूत अपनेको श्रेयस्कर समझनेवाले प्राणियोंकी हुए तो दूसरे 'चुरस्य चाग निशिता दरत्यया' पर भस्त भावना उहण्डतामे सिर उठाये हुए थी। सस्यता चलकर वहाँ जनसमूहको ले जानेमें प्रयत्नशील हुए। के ऊपर आवश्यकतामे अधिक प्रावरण था, जो उसे विश्वको दुःखोंमे छुदानेका दोनोंने निष्कपट प्रयास प्रकाशित ही नहीं होने देता था। सब इस ढकी हुई किया । एकने यदि अचेल ब्रह्मचर्य व्रतधारण द्वारा मा आडम्बरित वस्तुको ही नमन करने लग गये थे। सस्यना नवजीवनको अन्तिम दुईजनाको तिलांजली देवी और और मोक्षकी ओर दौड़ लगानेवाले अपनी धुनमें मस्त उसपर विजयी हुए तो दूसरने उनके शरीरपर होते थे। केवल तपस्याही मोच सम्पादन भने तीन करा हुए भी उसमें सम्मोहको स्थान नहीं दिया । एकोपसके, निरा शान भी मजे ही उस अनन्त के साथ संबंध बहारको भी अप्रधान बताते हुए मनमाकृत कर्ममें ही जोड़नेको पर्याप्त न हो, केवल श्यमान, खोखली भक्ति हिंमा देवी तो दूसरेने मन्शाके पैमानेको तिरस्कृत करते और चन्दन-चर्चन भी भय सत्यके साथमें साक्षात् हुए कार्यफल-मात्रम हिंसा देखी। करानेमें समर्थ न हो, जीवोंके प्राणपर पैर रख उनके निविद पाकुलित निमिरके युग अवसान गाद अस्थि-माँसमे पुष्ट तथा समृरियाली होने की वासना प्रभात-पत्नी उषाने जगद्वन्ध सिद्धार्थ सुत के अवतरित भले ही अमोप-कर हो, पर अपनी दौर कम करके खड़े होनेपर अपने मुखारविन्दपर प्रसाना मास जातिमा तो पीछे देखनेका इन धावकोंको अवकाश नहीं था प्रदर्शित की तो क्या भाश्चर्य ? यदि इन विमृतियों के यदि ऐसे समयमें प्रकृतिने स्वतः त्रस्त हो अबतारके सिद्धान्तों और कृतियोंने विश्वविजय की बोता लिये भावान उठाई तो स्वाभाविक ही था। यदि प्रकृति माय? Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [फाल्गुन, बीर-निर्वाण सं० २४६६ मगवान सिद्धार्थ कुखभानु न केवल अहिंसाके का प्रश्न उठाने की आवश्यकता नहीं, वह तो स्वभावसे महासको लेकर प्रवतीर्ण हुए थे किन्तु जीवमात्रकी ही उसमें गर्मित है किन्तु वहाँ राजनीतिकी ग्रंथियाँ समानताको प्रत्यसीमून कराने पाये थे। विचार-वैषम्य खोलनेवाला कर्मयोगी गाँधीव नहीं । हारा होनेवाले विरोधके शमनको स्थावाद जैसी विभूति प्रसिधारी हाथ कृपाणरिक्त होते हुए भी विश्व के साथ भगवानने दर्शन दिया था। नायकत्व सफलतापूर्वक कर सकते हैं, इसके तुमसे बढ़भगवान वर्धमानका अहिंसा और विश्वशाँतिका कर और कौन जीवित उदाहरण हो सकता है ? निर• पाठपज्ञान और कैन्यके छिपानेका विधान नहीं था। धान नहा था । तिशय-क्रांति का हृदय इतनी प्रवाधशांतिसे उसका जन्म नाथवंशी युद्धवीर पत्रियकुल-पुंगवके परी शामित हो यह भारतवर्षके ही भाग्य भौर जलवायुकी पित और विकान्त हृदयमें हुमा था। विचित्रता है। वीर जिनेन्द्रकी तपोरत मारमाने वास्तवमें इन्द्रभूत, वायुभूत, भामभूत जैसे गणधरों भेणिक-बिम्बसार सत्रियकं नृशंस, दयाविहीन और कर्कश हृदयमे विश्वशांतिकी कल्लोन प्राणीदयाका अविरल श्रोत, और अंगेश कुणिक-मजात-शत्रु, कौशल-रक्षक प्रसेनजित जैसे नरेशोंके ही नहीं किन्तु जेष्ठा, चन्दना, चेतना जैसी राज्यलिप्साये ओतप्रोत वक्षस्थलसे मानवसमताकी धांगनामोंके हृदयोंको भी भालोदित किया था और भावाज अपम्चेन्द्रिय जीवों को भी उद्वारका संदेश, विश्वशांति तथा भ्रातृत्व फैजानेको दीक्षित किया था। कैमा विचित्र विरोध है। ___ "न गच्छेज्जैनन्दिरम्"के शमन करनेकी शक्ति तुम्हारे सुन्दर शरीर सम्पत्ति-युत नव-हृदयमें रूमा सौम्पमूर्ति जिमराज तुम्हारे हाथमें ही है, अर्थवादको तया भयंकर तपनिगृहीत किन्तु स्वभाव-सरल भारममोर चिप्रगतिसे दौड़नेवाले संसारको रुकाये बौर विश्व संयम है। देवांगनाओंके मधुर हास्य तथा प्रलोभनों में पास हो ही नहीं सकता, पर इसका मेहरा तुम्हारे भी मदनपर रुट हो उसे दहन करनेको शिवशक्तिकी से सिरोंपर ही बाँधा जा सकता है। मिद्धान्तोंके भावश्यकता नहीं। बिना भोग तथा तलवारके मदनदिग्विजयकी वाचा जिनके हदयों में दलित रहती है विजय ही नहीं. विश्वविजय करनेवाले प्रतिवीरको क्यों उनका शौर्य पाजकसकी जैन समाजमें प्राप्त कराना न बोधिसत्व भादरकी ष्टिमे देखते ? कुसीनाराके निर्माण तुम्हारी ही कृपापर अवलम्बित है। पथगामी समवयस्क तथा गतमपिने पदि तुमें सर्वश भगवन् ! तुम्हारे द्वारा प्रचारित धर्ममें भगवान् और सर्वदर्शी कहकर विभूषित किया तो इससे अधिक बुद्धकी मान-अबहेलना वा अपलामको स्थान नहीं। बुद्धभगवान् जैसे भापके प्रति और क्या कर सकते थे ? प्रभु ईसाकी दवा तुम्हारी बैसी तपस्याओंमें निष्णात हृदयोंको द्रवित करनेवाले और बरवस पॉस् बहा देनेनहीं। वस्तुनिस्पषमें बात बातमें बुद्ध होनेकी भाव- वाले उपसगोंके बीचमें भी शांति और धमाके भविचन स्वासको तुमारे सापेक-वादने सदाके लिये दूर कर अवतार यदि तुम्हारी तपस्या पूर्ववत् बनी रही तो क्या दिया। प्राचीमानसे बडाँ मातृत्व हो सकता है वहाँ भाबर्ष ? यदि विश्व के सबसे बड़े शांति के अवतार कर गली स्वातनपबिप्सा और एक उोरयाधिकृत भुत्व र तुम्हारा भावाहन किया जाब तो क्या प्रत्युक्ति ? Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ५] मनुष्य जातिके महान् उदारक तुम्हारे प्रखर ब्रह्मचर्यने यदि देवांगनामोंको जाने खगे-तुम्हारे द्वारा खोले गये मोद्वार भव फिर लाजित् किया तो तुम्हारे चरित्रकी पवित्रताकी और मुंदने लगे। मनुष्योंके हृदयोंमें फिर वही सकुचित कौनसी साहीकी आवश्यकता ? समकालीन दो महर्षि- चित्तता वास करने लगी प्रचार और विकाशका फिर योंमें केवल दुर्धर्ष तथा निष्कलंक तपस्या ही तुमको रन-वचिन मन्दिरों के बाहिर मानेमें शंकित होने लगा समवमरणमें आकाश भासन दिलानेको पर्याप्त थी। नारिजातिके प्रति तुम्हारी पवित्र और सम्मान भावना तुम्हारं पंच कल्याणकोंमें यदि देवी हर्ष न हो तो और का दुरुपयोग-काम-लिप्सा तृप्तिके रूपमें पुरुष और सी किन प्रान्माओं के आगमनमें आनन्द दुंदुभि निनादित समाजको न जाने किस बीहड पथकी भोर ले जा रहा की जावेगी। है। मनुष्यको मनुष्य माननेकी रसायन तुम्हींतक परि. ___तुम्हारे अहिमा और न्यागवतने यदि शेर बकरीको मित थी, प्रात्मवादको फिर अनावश्कता प्रतीत होने एक घाट पानी पिला दिया और समवशरणमें ग्विरने- लगी और द्रग्थवादका सिंहासन फिर दृढ़ होने लगा ! वाली वाणांका लाभ देकर उन्हें मोक्षोन्मुग्व बनाया तो जब कि अद्रव्यवान मनप्णा नेत्रोंये केवल जीवन-धारइसमें क्या प्राश्चर्य ? बाल-सुलभ लीलामे ही मदमत्त गार्थ भोजनों के लिये हाथ फैलाये सामने खड़े हुए हैं। कुंजको वशंवद किया और तत्वज्ञान सिंहनाद द्वारा अहिंसाका अमलीरूप फिर अनुकरणीय कहा जाने यदि अभयनाका संदेश प्राणिमात्रको तुमने भेजा नब लगा बुद्ध भगवान्की मनमांस-भक्षण मामामामें फिर वनराजके चिन्ह-द्वारा तुम्हारे मंकेकिन होने में क्या अनी मोहकना भाने लगी। चिन्य । तुम्हारे मिह गर्जनमे माँम-भोजी जीवका भक्षण महानिर्वाणके समय पावापुरामें छोड़ी गई तुम्हारी प्राप्त आनन्द लिप्पाका दम्भ नहीं, वहाँ प्राणियोंको प्रतिनिधि ज्योनि इस युगको आलोकिन न कर सकी । भयभीत करनेका घोर निनाद नहीं। तुमने वास्तव में तुम्हारे उपमर्गों पर आंसू बहा देनेवाले यदि माधारण सिंहके नाम पवित्रता लादी, जिसके बिना मिहक परिपदीय भागने का प्रयत्न करनेलगे ना तुम्हं आमन्त्रित रूप में मोहकता ही नहीं, उसके सामने हंमते२ अपनेको करनेका और कौन अच्छा अवसर प्राप्त हो सकता है? मिटा देने की इच्छा ही नहीं हो सकता । तुम भले ही अतएव हे वानराग ! हे विश्वशानि, अहिंसा, धर्मके आदि संस्थापक न हो पर जिस अमर स्फूनिक भ्रातृत्व, और सत्यशोधमें अग्रणी नथा मामाजिक शांति तुम पिता हो. वह अमर स्फूर्ति तो तुम्हें श्रादि तीर्थकर के जनक मुक्तदेव दृत ! हे गरीबों और पनितोंकी भगवान ऋषभदेवकं पाम तक बरवस पहुँचा देना है। सम्पत्ति ? हे त्रिशला त्रामग्राना ! इस पुण्यभूमिको तुम्हारी तपस्या द्वारा दिलायेगये अधिकार दिनाये अपने पुनीत पदरज चूमनेका फिर अवसर दो। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्र-सूरि [.. रतनबाब संघवी, न्यायतीर्थ-विशारद] (गत किरण से आगे) - जीवन-सामग्री और तत्मीमांसा और कवि कल्पनोंके सहारे ही तथा कथित इतिहासोंकी भारतीय साहित्यकारोंके पवित्र इतिहासमें यह एक रचना करनी पड़ी। वर्तमान कालीन इतिहासकारोंको दु:खद घटना है कि उनका विश्वनीय और भी उन्हीं तथा कथित इतिहासों, उपलब्ध कृतियों, और वास्तविक जीवन-चरित्र नहींके बराबर ही मिलता है। अस्तव्यस्तरूपमे पाये जानेवाले उद्धरणोंके आधारसे ही इसका कारण यही है कि प्राचीन कालमें अात्मकथा चरित्र चित्रण करना पड़ रहा है। लिखनेकी प्रणाली नहीं थी, और श्रात्मश्लाघासे दूर रहने चरित्रनायक हरिभद्र सूरिकी जीवन-सामग्री भी की इच्छाके कारण अपने सम्बन्धमें अपने ग्रन्थों में भी उपयुक्त निष्कर्ष के प्रति अपवादस्वरूप नहीं है । हरिभद्र लिखना नहीं चाहते थे। कुछेक साहित्यकारों ने अपनी सूरिकी जीवन-मामग्री वर्तमान में इतनी पाई जाती है:कृतियोंमें प्रशस्तिरूपसे थोड़ा सा लिखा है; किन्तु उसमे (१) श्री मुनिचन्द्र सूरिने संवत् ११७४ में श्री हरिजन्म-स्थान, गुरुनाम, माता पिता नाम, एवं स्व-गच्छ भद्र सूरि कृत उपदेशपदकी टीका के अन्तमें इनके जीवप्रादिके नामका सामान्य ज्ञान-मात्र ही हो सकता है, नके मम्बन्धमें अति मंक्षेपात्मक उल्लेग्व किया है। विस्तृत नहीं। पीछेके साहित्यकागेने प्राचीन-साहित्यका- (२) संवत् १२६५ में श्री सुमतिगणिने गणधररोके सम्बन्धमें इतिहासरूपसे लिखनेका प्रयास किया है; सार्धशतककी बृहद् टीकामें भी इनके मम्बन्धमें कुछ किन्तु उसमें इतिहास-अंश तो अति स्वल्प है और किं- थोड़ा मा लिखा है। वदन्तियाँ एवं कवि-कल्पना ही अधिक परिमाण में है। (३) भद्रेश्वर सूरि कृत २३८०० श्लोक परिमाण यह सिद्धान्त केवल जैन साहित्यकारोंके सम्बन्धमें ही प्राकृत कथावली में भी हरिभद्र सूरिके सम्बन्धमें कुछ नहीं है, बल्कि मम्पूर्ण भारतीय साहित्यकारोंके सम्बन्धमें परिचय मिलता है । श्री जिनविजय जीका कहना है कि पाया जाता है। इसका प्रणयन बारहवीं शताब्दीमें हुअा होगा। "जिन शामनकी अधिकाधिक प्रभावना हो;" इसी (२) मवत् १३३४ में श्री प्रभाचन्द्र सरि द्वारा विएक उद्देश्यने संग्रहकागेको किंवदन्तियों और कवि-कल्प- रचित प्रभावक चरित्रमें चरित्र नायक के सम्बन्धमें. नाओकी ओर वेगमे प्रवाहित किया है। इसके साथ २ विस्तृत काव्यात्मक पद्धतिमे जीवन कथा पाई जाती है। काल व्यवधानने भी इतिहास सामग्रीको नष्ट-प्रायः कर (५) संवत् १४०५ में श्री राजशेखर सूरि द्वारा दिया; और इसीलिये उन्हें प्रभावनाके ध्येयकी पतिके निर्मित प्रबन्ध कोषमें भी प्रभावक चरित्रके समान ही लिये अवशिव चरित्र सामग्री के बलपर तथा किंवदन्तियों अति विस्तृत जीवन चरित्र पाया जाता है। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष, किरण हरिभद-सति RRE इसी प्रकार इमी प्राचीन मामग्री के आधारपर कुछ सिद्धसेन दिवाकरके समान ही ये भी अपने इस मिण्यानवानगीन मामग्रीका भी निर्माण हश्रा है; उसमसे विश्वासके प्रदर्शन के लिये एक सोपान-संक्तिका (नीसपं. हरगोविन्ददामजी कृत 'श्री हरिभद्र यूरि चरित्र', रनी ), एक कुदाला, एक जाल और जम्बू वृक्षकी एक ५० बेचरदाम जी द्वारा लिखित 'जैन दर्शनकी विस्तृत लता अपने पास रखते थे। इसका तात्पर्य यही था कि भूमिका', श्री जिनविजयजी लिखित "हरिभद्र मूरिका यदि प्रतिवादी आकाशमें उड़ जायगा तो उसे इस समय निर्णय" और प्रोफेसर हरमन जेकोबी द्वाग सोपान-पंक्ति के द्वारा पकड़ लाऊँगा; जल में प्रविष्ट हो लिग्वित “ममराहचकहा कि भूमिका" श्रादि रचनाएँ जायगा तो जाल द्वारा खींच लंगा, और इसी प्रकार भी मुख्य हैं । इमो सामग्रीके श्राधारपर में अब श्री हरि यदि पातालमें प्रवेश कर जायगा तो कुदाले द्वारा खोद भद्र मूरिका चरित्र-निर्णय करनेका प्रयास करता हूँ निकाल लंगा। जम्बलताका रहस्य यह था कि मेरे और उमपर कुछ निष्कर्षात्मक मीमामा भी करनेका सदृश विद्यावान् मम्पर्ण जम्बूद्वीपमें कोई नहीं है । इसी प्रणाम करूंगा। प्रकार कहा जाता है कि विद्या के भारमे पेट कहीं फट नहीं जाय, इमीलिये पेटपर एक स्वर्ण निर्मित पट भी प्रारम्भिक-परिचय बांधकर रखते थे। साथ में यह भी प्रतिज्ञा थी कि जिमका भाग्नीय गजनैतिक इनिहाम में मनाईका महत्त्वपर्ण कथित वाक्य नहीं ममझ मकगा, उमका तत्काल शिष्य और गौग्यपूर्ण स्थान है । इमी पवित्र भूमिपर महागणा हो जाऊँगा। इमीगमिह, महागणा लक्ष्मणसिंह, म गिगणा मग्रामसिंह एक दिनकी बात है कि हरिभद्र एक सुन्दर शिवि और महाराणा प्रतापसिंह महश शूरवीर एवं नग्न कामें बैठकर बाजार में जा रहे थे, शिविकाके आगे आगे भामाशाह मरीग्वे पुरुष पुंगव उरान हुए हैं। हमारे उनके शिष्य उनकी विझदावलीके रूपमें "सरस्वती चरित्रनायक हरिभद्र की जन्मभूमि भी मंवादही है। कण्ठाभग्गा, वैयाकरणप्रवण, न्यायविद्याविचक्षण, वाकहा जाता है कि चित्तौड़ ही अापका जन्म स्थान है। दिमतगजकमग, विप्रजननरकेमरी" इत्यादिरूपसे बोलते तत्कालीन चित्तौड़ नरेश निनारिके हरिभद्र पंगेटिन थे। हर चल रहे थे। इतने में थोड़ी दूरपर "जनतामें घबराइस प्रकार प्राप्र जातिमे ब्राह्मण और कर्मम पुरोहित हट और इधर उधर भागा दौड़ी हो रही" का थे। ये चौदह विद्यानोंमनिएण और अनानप्रतिवादी दृश्य दिग्पलाई पड़ा। हरिभद्र के शिष्य और शिविकाथे । इमीलिये गन-प्रनिष्टा और लोक प्रतिष्ठा दोनों ही वाहक मजदूर भी इधर उधर बिग्घर गये। हम परिस्थिइन्हे प्राम थीं । विद्याबल, गजबल और लोकप्रतिष्ठामे तिको देगकर विप्रवर हरिभद्र ने भी बाहर दृष्टि दौड़ाई, हरिभद्रकी वत्ति अभिमानमय हो चली थी, एवं नदनु- तो क्या देखते हैं कि एक मदोन्मत्त प्रचण्डकाय मार इन्हें यह मिथ्या श्रास्म-विश्वाम मा हो गया था पागल हाथी जनताम भय उत्पन्न करता हुश्रा ने जींस कि मेरे बगबर प्रगाढ़ वैयाकरगा, उत्कट नैयायिक, दौड़ा चला थाहा है। मार्गमही शिविका-स्थित हरि. र बादी और गम्भीर विद्वान् इम ममय मणी मद्र शिविकाको छोडकर प्राण रक्षार्थ समीप एक जैन पर कोई नहीं है। किंवदन्नियों में देखा जाना है कि मन्दिर नद गय । नब उन्हें जात हसा कि "हस्तिना Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं० २५६ वावमानोऽपि न गच्छेत् जैन मन्दिरम्" एक कल्पित जिमका कथित नहीं समझ सकूँगा, उसका तत्काल उति हैं। सामने ही जिन प्रतिमा दिखलाई पड़ी और शिष्य हो जाऊंगा। उमी ममय नम्रता पूर्वक बोल कि जैन दर्शनके प्रति विद्वेषकी सहसा झटिति मुँहसे "माताजी! मुझे अपना शिष्य बना लीजियेगा और निकल पड़ा कि: कृपया इस गाथाका अर्थ ममझाइयेगा।" ज्ञान चारित्र कपुरेव तवाच स्पाई मिटान भोजनम् । सम्पन्न आर्याजीने ममझाया कि “दीर्घ नपस्वी भगवान महिकोटरसंस्थेनौ तहर्मवति शाहलः॥ महावीर स्वामी के चारित्र क्षेत्रमं स्त्रियांका पुरुषोंको दीक्षा अर्थात्-तुझारा शरीर स्पष्ट ही मिष्टान्न भोजन के देनेका श्राचार नहीं है। यदि आपको यह परम पवित्र प्रति ममत्वभाषको बतला रहा है। क्योंकि यदि श्रादर्श संयम धर्म ग्रहण करना है तो इमी नगरमें स्थित प्राचार्य प्रवर श्री जिनभट जी मुनिके पाम पधारिये वे कोटरमें अमि है, तो फिर यह हरा भरा कम रह मकता आपको अनगार धर्मकी दीक्षा देंगे"। हरिभद्रने उनकी अाज्ञाको शिरोधार्य किया और आर्याजीके साथ साथ हाथीके निकल जानेपर तत्पश्चात् हरिभद्र अपने दीक्षा ग्रहणार्थ प्रस्थान किया। मार्गम वही जैन मन्दिर पर पहुंचे। मिला जिमके शरण ग्रहणमं हरिभद्रका जीवन मदोविनीत हरिभद्र न्मत्त हाथीम मुर्गक्षत रह सका था । पुनः वही जिन एक दिनकी बात है कि विप्रवर हरिभद्र राजमहल प्रतिमा यि गांचर हुई। हरिभेदम इमममय इन्हें उममें से निकलकर अपने घरकी ओर जारहे थे; मार्ग में एक वीतगगत्वमय शांतरसकी प्रतीत हुई। नत्काल मुवमें | उपाश्रय पड़ता था। वहापर कुछ जन साचिए ध्वनि प्रस्फुटित हुई कि "वपुरेव तवाऽचष्टे भगवन् । अपना स्वाध्याय कर रही थीं। स्वाध्यायकी बनी हरि वीतरागताम् ॥" वहाँपर कुछ समय ठहरकर हरिभद्रने भद्रके कर्णगोचर हुई और उन्हें सुनाई दिया कि एक भक्तिरस परिपूर्ण स्तुति की और तत्पश्चात् श्रार्या जीके साध्वी: भाथ श्री जिनभट बोके समीप पहुँचे और मुनि धर्मकी "चकी दुगं हरि षणगं, पणगं चकीण केसवो चकी। जैन दीक्षा विधिवत् विशुद्ध हृदयस ग्रहण की। कैसब बाकी केसब दुचकी, केसव चक्की प॥ स्वय हरिभद्र सरिने अपनी आवश्यक सूत्रकी टीका इस प्रकार च-पाचुर्यमय छन्दका उच्चारण कर के अन्तम अपने गच्छ और गुरुके सम्बन्धम इस प्रकार रही है। इन्हें यह बन्द कौतुकमय प्रतीत हश्रा और उल्लेख किया है:-- अर्थका विचार करनेपर भी कुछ समझ नहीं पाया, "समाता चेयं शिप्यहिता नामावश्यकटीका, कृतिः इसपर वे स्वयं उपाभयमें चले गये और श्रार्याजीसे मिनाम्बराचार्यजिनभटमिगदानुसारियो विद्याधरकुखबोले कि इस छन्दमें तो खूब चकचकार है। आर्याजीने तिलक-प्राचार्य जिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो बाकिनीमह. उत्तर दिया कि भाई ! अबोध अवस्था में तो इस प्रकार सरासूनोरल्पमतेराचार्य हरिमद्रस्य ।" इस उल्लेख परसे पहले पहल आश्चर्यमय नवीनता प्रतीत होती ही है। निश्चित रूपसे ज्ञात होता है कि हरिभद्र सरिके जिनभटजी इसपर उनें अपनी वह भीष्म प्रतिक्षा याद हो आई कि गच्छपति गुरु थे, जिनदत्तजी दीक्षाकारीगुरु ये, याकिनी Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिमन-सरि महत्तग धर्मजननी माता थीं, विद्याधर गच्छ और श्वे- नामके दो भगिनी-पुत्र (भाणेज) थे। ये दोनों किसी ताम्बर मम्प्रदाय था। कारण वशात् वैराग्यशील होकर अनगार-धर्मकी दीक्षा प्राचार्य हरिभद्र सूरिने याकिनी महत्तराजीके प्रति ग्रहणकर इनके शिष्य हो गये थे। प्राचार्य हरिभद्र अत्यन्त भक्ति कृतज्ञता, लघता, श्रद्धा और पुत्रभाव सूरिने व्याकरण, साहित्य, दर्शन एवं तत्त्वज्ञान प्रादि प्रदर्शित करने के लिये अपनी अनेक कृतियोंमें अपनेको विषयोंमें इन्हें पूर्ण निष्णात बना दिया था। किन्तु 'याकिनी महत्तरा सूनु' के नामसे अंकित किया है, फिर भी इनकी इच्छा बौद्ध विद्या पीठमें ही जाकर बौद्ध जैमा कि उनके द्वारा रचित श्री दशवकालिकनियुक्ति दर्शनके गम्भीर अध्ययन करनेकी हुई। उस समयमें टीका, उपदेशपद, पचसूत्रटीका, अनेकान्त जयपताका, मगध प्रांतकी ओर बौद्धोका प्रबल प्रभाव था। मगध ललिताविस्तरा और आवश्यक निर्यक्ति टीका श्रादि आदि प्राँतकी ओर अनेक विद्याकेन्द्र थे। एक विद्या. पवित्र कृतियों द्वारा एवं अन्य ग्रन्थकारों द्वारा रचित पीठ तो इतना बड़ा था कि जिसमें १५०० अध्यापक ग्रन्थोंसे मप्रमाण सिद्ध है। और १५००० छात्र थे। उस समयमें बौद्धोंने शुष्क तर्क-क्षेत्रमें अपना अत्यधिक प्राधिपत्य जमा रखा था। आचार्य हरिभद्र हम और परमहंस सदृश विद्वानोंका ऐमी स्थितिमें उस अब विप्रप्रवर हरिभद्रसे अनगार-प्रवर हरिभद्र हो श्रोर श्राकर्षित हो जाना स्वाभाविक हो था। यद्यपि गये । पहले गन पुरोहित थे, अब धर्म-पुरोहित हो गये । १. प्राचार्य हरिभद्र स्वय बौद्ध दर्शनके महान् पपिडत और ये वैदिक माहित्य और भारतीय जैनेतर साहित्य-धाराके अमाधारण अध्येता थे, जैसा कि उनके उपलब्ध ग्रंथोंमें तो पूर्ण पण्डित और अद्वितीय विद्वान थे ही। अतः उन द्वारा बौद्ध दर्शनपर लिखित अंशसे सप्रमाण सिद्ध • जैन साहित्य और जैन दर्शनके श्राधार भूत, ज्ञान, माना है। फिर भी हँस और परमहंसकी बौद्ध विद्यापीठमें ही दर्शन और चारित्ररूप त्रिपदीके भी अल्प समयमें ही जाकर बौद्ध दर्शन के अध्ययन करनेकी प्रबल और और अल्प परिभमसे ही पूर्ण अध्येता एवं पूर्ण ज्ञाता उत्कृष्ट उत्कण्ठा जागृत हो उठी। हरिभद्र सूरिने बौद्धोंकी हो गये । शनैः शनैः जैन दर्शनके गम्भीर मननसे ये विद्वेषमय प्रवृत्तिके कारण ऐसा करनेके लिये निषेध प्राचार क्षेत्रमें भी एक उज्ज्वलनक्षत्रवत् चमक उठे किया; किन्तु पूर्वकर्मोदय वशात् भावी अनिष्ठ ही हँस और जैसे एक चक्रवर्ती अपने पुत्रको भार सौंपकर और परमहंसको उस ओर आकर्षित करने लगा । सब ही चिन्ता मुक्त हो उठता है, वैसे ही श्री जितभटजी भी है भवितव्यताकी शक्ति सर्वोपरि है। अपने गच्छके सम्पर्स मारको हरिभद्र पर छोड़कर ___ यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा कि ये चिन्ता मुक्त हो गये । इस प्रकार मुनि हरिभद्र श्राचार्य दोनों शिष्य गुरुके अनन्य प्रेमी और असाधारण मक हरिभद्र हो गये और शान, दर्शन, चारित्रमें, प्रम्याइत थे। गुरुके बचनोपर सर्वस्त्र होम कर देनेकी पवित्र गविसे विकास करने लगे। भावनाबाले थे। किन्तु भवितव्यतावश गुरुकी पुनीत हरिभद्रहरिके शिष्य आशाम इस समय विमुख हो गये। मावी अनिधन कहा जाता है कि हरिभद्र रिके हम और परमहंस बौद्ध विद्यापीठकी घोर खींचता चला गया। अन्ततो Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [फाल्गुन, वीर-निर्वाश सं० २०६६ गत्वा चलते चलते ये विद्यापीठमें पहुँच ही गये। पूर्ण व्यवस्था कर दी। अब ये शांति पूर्वक पूर्ण निर्भ जैसे आजकल सर्व धर्म सहिष्णुनाका अथवा पर. यताके साथ क्लिष्ठसे क्लिष्ठ दर्शन शास्त्रोंका भो अति धर्म प्रति उदारताका प्रभाव-सा है, वैसा ही उस समयमें शीघ्रतासे अध्ययन करने लगे । उपयोगी भागको कंठस्थ भी स्वपक्षको येनकेन प्रकारेण सिद्धि करना और पर- भी करने लगे। साथमें जैन दर्शनके प्रतिवाद अंशका पक्षका इसी प्रकार खण्डन करना ही धर्म प्रभावना भी प्रतिवाद अत्यंत सूक्ष्म रीतिसे किन्तु मार्मिकरूप में अथवा धर्मरक्षा समझी जाती थी। बौद्ध साधुओका दो एक पृष्ठोंपर इन्होंने लिख लिया। श्राचार विचार लोक-कल्पनाकी भावनासे रहित हो चला या । महाकारुणिक भगवान बुद्धकी श्रादर्शता और परीक्षा और कुलाति-कोप लोक-कल्याणकी भावना विलुप्त सी हो गई थी। केवल हम और परमहंस उन पृष्ठोंको गुमही रखते थे, किन्तु तर्क-गल पर अन्य दर्शनोंको वाद विवाद के क्षेत्रमें परा- देवयोगमे एक दिन ये पृष्ठ हवासे उड़ गये और एक जितकर अपनी प्रतिष्ठा जनसाधारणमें स्थापित करते बौद्ध भिक्षु के हाथ लग गये । पृष्ठीको उठाकर वह कुलहुए, अपनी इहलौकिक तृष्णामय आवश्यकताओंकी पतिके ममीप ले गया। कुलपतिने ध्यानपूर्वक उन पर्ति करते हुए अपने धर्मका आधिपत्य प्रतिष्ठित करना पृष्ठोको पढ़ा। बौद्ध दर्शन के प्रति जैन दर्शनकी युक्तियों ही बौद्ध भिक्षुत्रोंका एक मात्र उद्देश्य रह गया था। की गंभीरता, मौलिकता और अकाट्यतापर कुलपति मुग्ध महावीर कालीन वैदिक स्वछंदताकी तरह इस समय भी हो उठा और इस बात पर श्राश्चर्यजनक प्रमन्नता हुई बौद्ध-स्वछंदताका साम्राज्य-सा था । विद्यापीठोंकी स्था- कि मेरे विद्यारीठमें ऐसे प्रग्बर बुद्धिशील विद्वान विद्यार्थी पनाका ध्येय भी यही था और तदनुसार अनेक विक- भी है। किन्तु थोड़ी ही देर में संप्रदायान्धताको मादकता ल्पात्मक शुष्क न्याय विषयोंका ही उनमें विशेष अध्य. ने मस्तिष्क में विकृतिकी लहर दौड़ा दी। कुलपतिको यन कराया जाता था। यह जाननेकी उत्कण्ठा हुई कि इन पन्द्रहहजार छात्रों इस असहिष्णुतामय वातावरणमें हस और परमहम में से वे कौनमें छात्र हैं, जिन्होंने कि इतनी प्रखर बुद्धि जैन साधुके वेशमें कैसे रह सकते थे ? बौद्ध भिक्षुके का इतना सुन्दर परिचय दिया है। निश्चय ही वे जैन समान वेश-परिवर्तन करना पड़ा। मुनिहंस और मुनि- है किन्तु जात होता है कि वे यहाँपर बौद्ध भिन्तुके परमहंससे भिक्षु हंस और भिक्षु परमहसकी उपाधि रूपमें रहने हैं। धारण करनी पड़ी। यह है विद्या-व्यसन और विघ्न- निष्करुण परीक्षाका दारुण समय उपस्थित हुश्रा मोहकी प्रबल उत्कण्ठाका विकृत परिणाम । इस न्यसन और यह मुक्ति निर्धारित की गई कि एक जिन-प्रनिमा और मोहकी कृपासे ही पवित्र प्राचार विचार छोड़ने मार्गमें रखी जाय और उसपर विद्यापीठका प्रत्येक पर गुरुकी पुनीत पाशकी अवहेलना की और इस ब्रह्मचारी पाँव रखते हुए आगे बढ़े। इस रीति अनुसार प्रकार प्रात्म-विचारोंकी हत्या करनी पड़ी। बौद्ध छात्र तो निर्भयता पूर्वक प्रतिमापर पैर रखते हुए इन बौद्ध भिक्षु समझकर विद्यापीठके कुलपतिने आगे बढ़ गये। किन्तु जब हंस और परमहंसका क्रम इनके लिये भोजन और अध्ययनकी सर्व सुलभता और पाया तो इन्होंने मी एक प्रतियुक्ति सोची। वह यह थी Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व, किरण हरिय-रि कि प्रतिमाके कपठ-स्थानपर इन्होंने तीन रेखाएँ खींच की ओर प्रस्थान कर दिया। माक्रमणकारियोंके समीप दी; जिससे कि यह प्रतिमा जिन की नहीं रहकर बौद्धकी आते ही हंस उनसे अभिमन्युकी तरह युद्ध करता गुमा बन गई और तदनुसार उसपर पैर रखकर ये दोनों भी वहीं वीर-गतिको प्राप्त होगया । आगे बढ़ गये। रेखा-प्रक्रियासे कुलपतिको विश्वास हो परमहंसका वाद विवाद भोर अवसान गया कि ये दोनों नवीन ब्रह्मचारी ही जैन है । “जैन है" परमहंस वहाँसे शीघ्रगतिसे भागता हुआ राजा ऐसा शात होते ही प्रतिशोधकी और प्रतिहिंसाकी भयंकर सूरपालकी राज-सभामें पहुंचा और सारा वृत्तान्त क ज्वाला प्रज्वलित हो उठी और मृत्यु दण्ड देना ही सुनाया। राजाने शरणागतको अभयदान दिया। तत्पकुलपतिको उचित दण्ड ज्ञात हुआ । हंस और परमहंस भात हंसको मारकर वे आक्रमणकारी भी सूरपालकी को जब ऐसे भयंकर दण्ड-विधानके समाचार सुनाई पड़े तो वे यहाँसे गुप्त रीतिसे भाग निकले। कुलपतिको सभामें पहुंचे और परमहंसकी माँगणी की। सूरपालने देनेसे इकार कर दिया। सेनाकी टुकड़ीके अध्यक्षने उनके भागनेके समाचारसे प्रचंड क्रोध पाया और उसने तत्काल विद्यापीठमें उपस्थित किसी बौद्ध-राजाकी अनेक प्रकारके भय बतलाये, किन्तु सरपाल अचल रहा। अंतमें यह निभय हुआ कि परमहंसके साथ सेनाके कुछ सैनिकोंको उन्हें पकड़कर लानेका कठोर बौद्धोका वाद विषाद हो और यदि परमहंस पराजित हो आदेश दिया। जाय तो उसे बौदोंको सौंप दिया जाय। तदनुसार इस आदेश- पालक सेनाके कुछ पदाति और अश्वा प्राणघातक परीक्षामें भी परमहंस स्वर्णवत् प्रामाणिक रोही उनका पीछा करनेके लिये चल पड़े और जब यह । बात हंस और परमहंसको पीछेकी ओर मुड़कर देखनेपर ठहरा और विजयी हुआ। आक्रमणकारी अपना सा सात हुई तो हंसने परमहंसको कहा कि देखो! अब मुँह लिये हुए लौट गये। परमहंस सूरपालके प्रति अपनी रानी करिन हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता दुमा वहाँसे चल दिया । तुम तो सामने दिखलाई पड़नेवाले इस नगरमें चले तेज़ गतिसे चलता हुआ और अनेक कठिनाइयों पर जाम्रो और यहाँके राजा सूरपालको संपूर्ण वृत्तान्तसे । विजय प्राप्त करता हुमा अन्तमें परमहंस अपने गुरु हरिभद्रसूरिके समीप पहुँचा। सारा इतिहास करणाअवगत करके इसकी सहायतासे गुरुजी (हरिभद्र सुरि जनक भाषामें बतलाया और गुरु-प्राशाकी अवहेलना जी) के पास चले जाना । सारा वृत्तान्त उनकी सेवामें करनेके लिये अपनी बोरसे एवं बड़े भाई इसकी बोरसे सविनय निवेदन करना और प्राशाकी अवहेलना करने क्षमा मांगते हुए देव दुर्विपाकसे वार्तालाप करते हुए से प्राप्त पापके लिये प्रायबित करना; एवं मेरी ओरसे भी भाग-अक्शा के लिये चमा मांगते हुए निवेदन ही तत्काल स्वर्गवासी होगया। करना किस तो धर्मकी रक्षा करते हुए बीर-गतिको बौदोंके पति हरिभद्रसारिका अपएर प्रकोप प्राप्त होगया है। परमास पो माई की इस कमा-रस- हरिमन सरिको इस प्रकार बीब-कात्यों और पुरापूर्व वातसे विहल हो उठा, किन्तु मयानक स्थिति और चारोका शान होते ही भयंकर कोषका समुद्र उमड़ समय देखकर बडे भाईको भद्धा पूर्वक प्रामकर नगर भाया । यति हरिमा परि एक योगी और प्राध्यामिक Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [फाल्गुन वीर-निर्वाण सं० २४ D महापुरुष थे; किन्तु फिर भी जिस प्रकार शानल नन्दन करते हुए दीन वचनोंमें प्रार्थना करो कि हम शृगाल है के पाल्हादक बनमें भी दावानल सुलग जाता है, में गिर नहीं । बाचालदूतकी दर्पपूर्ण कटुक्तियों पर कुलही चरित्र नायकके भी उदार एवं शीतल हृदयभ क्रोध- पातको उत्तेजनात्मक रोष हो पाया और क्रोधसे दांतों म्वाला प्रज्वलित हो उठी। मोहकी माया या प्रबल दाग श्रोष्ठको दबाता हुआ बोल उठा कि "अरे मूर्ख हुआ करती है; शिष्य मोह और बौद्ध-मदान्धनाने गम- दून! ओ, हमें उस उद्धत प्रतिवादीका निमन्त्रण उजवल सुधाकरकी सुमधुर सुधाको विकराल : साकार है । हे अभिमानी सन्देश वाहक ! उस धृष्ट विषम विषके रूपमें परिणत कर दिया। हरिभद्र सूरि प्रतिवादीको माथमें यह शर्त भी कह देना कि जो पराउठे और वेग पूर्वक वायुको चालसं चलते हुए चौमो नित होगा; उमे प्राण दण्ड दिया जावेगा। यह शर्त से बदला लेने के लिये राजा सूरपालकी सभा में पहुंचे। स्वीकार हो तो हम वाद-विवादमें सम्मिलिन हो सकते राजाको तदनुरूप आशीर्वाद दिया और परम हमकी है; अन्यथा नहीं"। दूतने तत्काल उत्तर दिया कि रक्षाके लिये भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए धन्यवाद दिया; "पराजितको जलते हुए तेलके कड़ाहेमें कूदना होगा; एवं बौद्धोंसे वाद विवाद कर प्रतिशोधकी प्रज्वन्निन यही प्राण-दंडकी रूप रेखा होगी। यदि आपको पूरा २ विकराल ज्वालाको शांत करनेकी अपनी अभिलाषा आत्म विश्वास हो कि मैं ही विजयी होऊँगा; तो ही प्रकट की। राजाने नम्रता पूर्वक निवेदन किया कि श्रापको वाद-विवाद के क्षेत्रमें उतरना चाहिये, अन्यथा बौद्ध प्रतिवादी तो अनेक है और आप केवल एक ही पराजयके भीषण कलक के साथ प्राणोस हाथ धोना है, अतः यह सामञ्जस्य कैसे हो सकेगा ? हरिभद्रसरिने पड़ेगा और साथ साथ बौद्ध शासनके सौभाग्य भोको सिंहवत् निर्भयता पूर्वक उत्तर दिया कि अाप भी भीषण धक्का लगेगा; एवं बौद्ध-शासन-प्रभावना पर निधित् रहें। मैं अकेला ही उन प्रतिवादी रूप हाथियों कलक-मुद्राकी अमिट छाप लग जायगी"। इन वचनों के समूहमें सिंहवत् पराक्रमी सिंह होऊँगा । हम पर राना से कुलपतिको मार्मिक आघात पहुँचा और चोट खाये ने एक बाचाल किन्तु बुद्धिमान दूतको बौद्ध कुलपति हुए मर्पकी भांति दूनको भर्त्सना देता हुआ बोला कि के समीप शास्त्रार्थका निमन्त्रण स्वीकार करने के लिये "हे मूर्खाधिराज ! हमारी चिन्ता न कर और अधिक भेग । सन्देश वाहकने जाकर कठोर भाषामें गर्जना प्रलाप मत कर | जा; हम शास्त्रार्थ के लिये आते हैं; की कि "हे यौद्ध-शिरोमणि तर्क-पंचानन" आप अपनेको राजास कह देना कि मब व्यवस्था करे, किसी बातकी न्याय वन-सिंह समझ बैठे हो; किन्तु अभी तक प्रति.. त्रुटि नहीं होने पावे।" वादी मतंगज स्वछंदता पूर्वक विचरण कर रहे हैं; उन- विवाद-सभाकी सर्व प्रकारेणपूरी व्यवस्था की गई। का दमन क्यों नहीं करते हो? ऐसा ही कोई दुर्दमनीय सभापति, सभ्य, मध्यस्थ, दर्शक और भोताओंसे सारी असंगज राजा सूरपालकी राज-सभामें पाया हुआ है; सभा सुशोभित होने लगी। समय होते ही राजाभी उसने प्रतिमालपत् ललकारा है कि यदि अपनी मान. उपस्थित हुआ। प्राण-घातक शर्त के कारण प्रत्येक मर्यादाकी रक्षा करना चाहते हो तो विवादात्मक युद्ध- भक्तिके हृदय में उत्सुकता और म्याकुलताका माधर्य नमें ग्रामो; अन्यथा बौद्ध धर्मकी पराजय स्वीकार जनक संमिभय था। संपूर्ण समामें सूची मेव नीर Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किन ] हरिमद-सरि वता थी । दोनों वादी प्रतिवादी भी नियम तुमार नाश करना चाहते थे। किन्तु कहा जाता है कि जब शास्त्रार्थ के लिये तैयार हो गये और वाद विवाद प्रारंभ यह घटना प्राचार्य जिनमट सूरिजीको शत हुई तो हुना। उन्होने क्रोधको शांत करने के लिये अपने दो शिष्यों के प्रथम बौद्ध कुलपतिने पूर्व पक्ष के रूप "क्षणवाद" तीन प्राकृत गाथाएँ मे नी । कहा जाता है कि वे का प्रबल युक्तियों, हेतुओं और अनुमानों द्वारा पर्व "याएँ इस प्रकार हैं:ममर्थन किया और अजेयरूप देनेका भरपूर प्रया' गुण-पेण-प्रगिसमा, सीहाऽयन्दा पता पिषा सत्ता । किया। तदन्तर हरिभद्रसूरि उठे और मंगला चग्गा मिहि जातिणि माइसुया पापणसिरिमोष पइ मज्जा। करने एवं राना तथा मभाको आशीर्वाद देने के बाद जय विजया य सहोयर धरणो बच्छी पवा पई भन्ना। शांनि पूर्वक किन्तु प्रग्वर तर्को द्वाग क्रमशः क्षणवाद मणविपणायित्तियउता अम्मम्मि सत्तमए ॥१॥ का खडन करते हुए कुलपनिकी मारी शब्दाडम्बग्मय गुणचंद वाणमंतर समराइक-गिरिलेखपायो उ । नों को इस प्रकार अस्त व्यस्त कर दिया, जिम प्रकार एकस्स तमो मोक्खो बीयस्स प्रयन्त संसारो॥१॥ कि वायु मेकि प्रवाहको कर देता है । अन्नमें "वस्तु इन गाथाओंका यही तात्पर्य है कि क्रोधके प्रतापसे स्थिनि नित्यानित्यात्मक है" हमी मिद्धान्तको मर्वोपरि दो जीव नौ जन्म तक मा में रहने पर भी अंतमें एक ठहगया । अपने पक्षको प्रबल रीप्तिमे मिद्ध कर दिया। को तो मुक्ति प्राम होती है और दूमरेका अनन्त संसार अन्ततोगत्वा प्रतिपक्षी इम सम्बन्धमें अपने आपको बदनाना है । अतः क्रोध के बराबर दूसरा कोई शत्रु नहीं अनाथ और श्रमदाय मा अनुभव करने लगा; एवं है। इमनिये कपायगणनाके प्रारम्भमें ही इसका नाम "मौनं स्वीकृति-जपणं" के अनुमार पराजय स्वीकार निर्देष है । कर ली। माथायीका मनन करते ही हरिभद्रसूरिका क्रोध मम्पर्ण ममा स्नब्ध और शात थी। "कुलपतिः नत्काल शाँत होगया; उन्हें अपने इम हिसाकाँडसे भयपरामतः" सभासदोंके इन शब्दों द्वाग बह नीरव शांति कर पश्चात्ताप हुआ और वहाँसे वे तत्काल चित्रकूटकी भंग हुई । कुलपति उठा और पूर्व प्रतिज्ञानुमार उसने ओर मुड़ । तीब्रगतिसे चलते हुए गुरुजीके समीप पहुंचे गरम २ तेल के कड़ाहेमें गिरकर मत्युका आलिंगन कर और चरणाम गिरकर प्रायश्चित्त लेते हुए पापोंकी श्रालिया। इस प्रकार जब पांच छः के लमभग बौदोका लोचना की। उन तीन गाथाओंके आधारसे ही बादमें तेलके कड़ाहेमें गिर कर होम हो गया, तब सम्पूर्ण बौद्ध हरिभद्र सूग्नेि प्रशमरसपूर्ण “समराइच कहा" नामक संसारमें हाहाकार मच गया। बौद्ध शासन-रक्षिका कथा-ग्रंथकी रचना की; जोकि कथा-साहित्यमें विशिष्ट तारादेवी बुलाई गई; उसने वही कहा कि हम और गौरव पर्ण प्रथ-रल है। परमहसकी हत्याका ही यह परिणाम है; अतः इमामे राजशेम्वर सूरिने अपने प्रबंधकोशमें शामार्य होने कल्याण है कि सब बौद्ध यहांसे चले जाय । की बात न लिखकर केवल मंत्र-मलद्वारा ही बौदोका हरिभद्र परिका क्रोध अभी तक शांत नहीं हुआ नाश करने के संकल्पकी बात लिखी है। था; वे कोषसे प्रचलित हो र थे और और मी बौदोका इसी प्रकार सम्वत् १८३४ में हुये अमृतधर्म गणि Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त शगुन, वीरनिवार सं० के शिष्य भी धमाकल्याण मुनिने भी राजशेखर दूरि- जन्म-स्थान "पिर्वगुई" नामक कोई ब्रह्मपुरी बतलाई बत ही उन्होख किया है। और यह भी विशेषता बत- गई है। माताका नाम गंगा और पिताका नाम शकर. लाई कि हरिभद्र सूरिके क्रोधको शांत करनेवाले मह बतलाया गया है। इसी प्रकार याकिनी महत्चराजी भी जिनमट सूरिजी नहीं थे; किन्तु "याकिनी महत्तराजी" के साथ चरित्र-नायक श्री जिनभटजीकी सेवामें नहीं गये थे, किन्तु श्री जिनदत्त सूरिजीके समीप गये थे; सुना जाता है कि इन्होंने १४ अथवा १४. ऐसा उल्लेख है। श्री जिनदत्त सूरिजीसे हरिभद्रसरिने बौदोको नाश करनेका संकल्प किया था; अतः उस प्रश्न किया था कि "धर्म कैसा होता है" ? इसपर संकल्पणा हिंसाकी निवृत्तिके लिये १४४४ अथवा गुरुजीने उत्तर दिया कि धर्म दो प्रकारका होता है:१w.पयोंके रचनेकी आदर्श प्रतिज्ञा ली थी। अपने १ सकामवृत्तिस्वरूप धर्म और २ निष्कामवृत्तिस्वरूप उज्वल जीवनमें ये इतने ग्रंथ रच सके थे या नहीं, इस धर्म । प्रथमसे स्वर्गादिकी प्राप्ति होती है और द्वितीयसे सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं पाया जाता है। "भव-विरह" होता है। इसपर भद्र-प्रकृति हरिभद्र सरिने केवल इतने अन्यों के रचनेवाले को जाते हैं एवं माने सविनय निवेदन किया कि ? करुणासिंघो! मुझे तो जाते है। "भव-विरह" ही प्रिय है। इसपर श्री जिनदत्त सूरिजीने हरिभद्र सरिने अपने कुछेक ग्रन्थों के अन्तमें 'विरह' प्रसन्न होकर उन्हें साधु-धर्मकी पवित्र दीक्षा दी। शब्दको अपने विशेषण रूपसे संयोजित किया है। यह शिष्योंके सम्बन्धमें कथावलिमें इस प्रकार उल्लेख है कि इनके दो शिष्य थे, जिनके नाम कमसे जिनभद्र सन्द हंस और परमहंसकी अकाल मृत्युका द्योतक है. ऐसी मान्यता है। उनके दुःखसे उत्पन्न वेदना स्वरूप और वीरभद्र थे। इन दोनोंको बौद्धोंने किसी कारणही एवं उनकी स्मृति के लिये ही "विरह" शब्द लिखा वशात् एकान्तमें मार डाला था, इससे हरिभद्र रिको भार्मिक आघात पहुँचा एवं प्रात्मपात करनेके लिये वे तैयार होगवे । किन्तु ऐसा नहीं करने दिया गया। . श्री प्रमाचन्द्र सूरिने अपने प्रभावक चरित्रमें अन्तमें हरिभद्र सूरिने प्रथ-रचना ही शिष्प अस्तित्व लिला कि प्राचार्य हरिभद्र रिने अपने ग्रंथोंका समझा और तदनुसार इन्होंने अनेक अन्योंकी रचना म्यापक और विशाल प्रचारार्थ तथा अन्योकी अनेक की। प्रतियां तैयार करने के लिये "काासिक" नामक किसी इसी प्रकार कथावलिमें यह भी देखा जाता है कि भव्य प्रात्माको व्यापारमें लाभकी भविष्यवाणी की थी, हरिभद्र सुरिको लखिग"नामक एक सद्गृहस्थने अन्यऔर तदनुसार उसने व्यापारकर पुष्पल द्रम्ब-लाम किया था, जिससे उसने अनेक प्रतियां तैयार कराई रचनामें बाल सामग्रीकी बहुत सहायता प्रदान की थी। और स्थान १ पर पुस्तक मंडारोंमें उन भिजवाई थी। यह जिनभद्र वीरभद्रका चाचा (पितम्य) था । इसे चरित्र नायकजीकी द्रव्य-विषयक मषिण वाणीसे पुकार कथा-मिलता लाम हुआ था। इसने उपायमें एक ऐसा रत्न रस भी मश्वर सूरि कत कथावालिमें हरिभद्र सरिका दिया था कि जिसका प्रकाश रानिमें दीपम्वत् सिता Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिना-सरि था और उस प्रकाशकी सहायतासे प्राचार्यश्री रात्रिमें यह भी पूर्ण सत्य है कि विद्याधरगच्छ और श्वे. भी ग्रंथ रचनाका कार्य भलीभाँति कर सकते थे और ताम्बर संप्रदायमें श्री याकिनी महतराजीकी किती करते थे। अशात प्रेरणासे श्री जिनदत्त सूरिजीके पास दीक्षा ग्रहण हरिभद्र सूरि जब भोजन करने बैठते थे, उस समय की थी। और श्री जिनभट जीके साथ इनका सम्बन्ध ललिग शख बजाना था, जिसे सुनकर याचकगण वहाँ गच्छपति गुरुरूपसे था। एकत्रित हो जाते थे। याचकोंको उस समय भोजन जन्म-स्थान और माता पिताके नाम के सम्बन्धमें कराया जाता था और नदनन्तर याचकों के हरिभद्रमरि ऐतिहासिक मत्यरूपसे कुछ कह सकना कठिन है। को नमस्कार करने पर प्राचार्यश्री यही आशीर्वाद देते किन्तु ये ब्राह्मण थे, अतः कथावलिका उल्लेख सत्य थे कि "भवविरह करनेमें उद्यमवन्त हो।" हमपर याचक हो मकता है। प्रभावक-चरित्रके अनुसार चित्तौड़ नरेश गण पुनः “भवविरह मरि चिरंजीवी हो" ऐमा जयघोष जितारिका पुरोहित बतलाना मत्य नहीं प्रतीत होता है, करत थे । इसीलिये जिन-शामन शृगार प्राचार्य हरि कोकि नित्तौड़के इतिहासमें हरिभद्र-कालमें "जितारि" भद्र सरिका अपर नाम "भवविरह सरि'. भी प्रमिद्ध हो नामक किमी राजाका पता नहीं चलता है। इसी प्रकार गया था। हाथीवाली घटना भी कितना तथ्याँश रखती है, यह भी ___ सम्पूर्ण कथा-मीमांसा एक विचारणीय प्रश्न है; क्योंकि इस घटना की श्रीयह तो मत्य है कि कथाका कुछ अरा कल्पित है, मुनिचन्द्र सूरि कृत उपदेशपदकी टीकाके उल्लेखमें कोई चर्चा नहीं है। यह कथाभाग पीछेसे जोड़ा गया है, कुछ अंश विकृत है और कुछ अश रूपक अलकारसे ऐसा ज्ञात होता है। पांडित्य-प्रदर्शन और तत्सम्बन्धी संमिश्रित है। साधु-शिरोमणि प्राचार्य हरिभद्र सूरिके उज्ज्वल और श्रादर्श जीवन चरित्रका अधिकॉश भाग अंशका इतना ही तात्पर्य प्रतीत होता है कि इनकी विस्मृतिके गर्भम विलुप्त होगया है; जिम अब हमार्ग वृत्ति प्रारंभमें अभिमानमय होगी और ये अपनेको मबस अधिक विद्वान् समझते होंगे तथा शेषके संबंधमें कल्पनाएँ ठीक ठीकरूपम दढ निकालनमें शायद ही हीन-कोटिकी धारणा होगी । इसी धारणाका यह रूप समर्थ हो सकेंगी। प्रतीत होता है जो कि कवि-कल्पना द्वारा इस प्रकार ये प्रकृतिम भद्र, उदार, सहिष्णु, गम्भीर और कथाके रूपमें परिणत हो गया है। विचारशील थे; यह तो पूर्ण सत्य है और इनकी सुन्दर कृतियोंसे यह बात पूर्णतया प्रामाणिक है। दार्शनिक भी याकिनी महत्तरा जीके माथ इनका सम्पर्क और क्षेत्रमें इनके जोड़का शाँत विद्वान् और लोकहितकर इतना भक्ति-पूर्ण सम्बन्ध कैसे हुआ ? यह एक अशात उपदेष्टा शायद ही कोई दूसरा होगा । ६० बेचरदास- किन्तु गम्भीर रहस्यपूर्ण बात है । एक श्लोक अथवा जीके शन्दोंमें ये वादियोंके वादन्बरको, हठियोंके हट- गाथा के आधार से ही इनना प्रचण्ड गम्भीर दार्शनिक ज्वरको और जिज्ञासुओंके मोहज्वरको शांत करनेमें एक वैदिक दर्शनको छोड़कर एकदम जैन साधु बनकर जैनप्रादर्श रामबाण रसायन-समान थे। दर्शन भक्त बन जाय; यह एक प्राश्चर्य-जनक बात Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिवास सं०२४५५ प्रतीत होती है । यह सम्भावना हो सकती है कि कोई यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। बौद्धोसे इन्होंने अति जटिल दार्शनिक समस्या इनके मस्तिष्कमें चक्कर अवश्य शास्त्रार्थ किया होगा और उन्हें अपमान पूर्वक लगाती रही होगी और उसका समाधान इन्हें बराबर पराजयकी कलक-कालिमासे चोट पहुंचाई होगी। किन्तु नहीं हुआ हो; ऐमी स्थितिमें सम्भव है कि अनेकान्त बौद्धोंका इस प्रकार नाश किया हो; यह कुछ विश्वसिद्धान्त द्वारा पूज्य याकिनी महत्तरा जीमे इनका समा- सनीय प्रतीत नहीं होता है। यह हो सकता है कि धान हो गया होगा और इम दशामें स्याद्वादकी महत्ता मानवप्रकृति अपूर्व है और इसलिए बौद्धोंका नाश करने और दार्शनिक समस्याके ममाधानसे इन्हें परम प्रसन्नता का सकल्प कर लिया हो और उस सकल्पजा हिंसाकी हुई होगी और इस प्रकार यह प्रसन्नता ही इन्हें जैन द. निवृत्ति के लिये ही एव शिष्यमोहकी निवृत्ति के लिये ही र्शनके प्रति अनुरक्त बनाने में एवं साधु बनानेमे कारण १४४४ या १४४० ग्रन्थोंको रचनेका विचार किया हो। भूत हुई होगी, ऐसा शात होता है। यही श्री याकिनी- और यथा शक्ति इस संख्याको पूर्ण करनेका प्रयान महत्तराजीके प्रति इनकी भक्ति और श्रद्धाका रहस्य किया हो, इस सत्य पर अवश्य पहुंचा जा सकता है कि प्रतीत होता है। बौद्धों और इनके बीच में कोई न कोई तुमुल युद्ध अवस्यावाद या अनेकान्तवाद जैनदर्शनका हृदय है। श्य मचा है और वह कटुताकी चरम-कोटि तक अवश्य इसकी मौलिक विशेषता यही है कि इसके बलमे जटिल पहुँचा होगा । बौद्धोंकी तत्कालीन नृशंमतापूर्ण निरंसे जटिल दार्शनिक समस्याका भी सरल रीत्या पूर्ण कुशता और उत्तरदायित्वहीन स्वछंदता पर हरिभद्रसमाधान हो जाता है । अतः हो सकता है कि असाधा सूरिको अवश्य क्रोध श्राया होगा और संभव है कि वह रण दार्शनिक हरिभद्रकी दार्शनिक समस्याएँ इस सिद्धांत क्रोध हिंसाकी अक्रियात्मक अवस्थाओं से अवश्य के बल पर हल होगई हो और इस प्रकार ये जैन धर्मा- गुजरा होगा । इस प्रकार त जनित पापकी निवृत्तिके नुरागी बन गये हों। लिये ग्रंथ रचनाकी प्रतिज्ञाकी हो । अतः इस विस्तृत शिष्य-संबंधी कथा-भागका आधार यही हो श्राद्योपाँत घटनाका यही मूल आधार प्रतीत होता है। सकता है कि इनके शिष्य तो दो अवश्य ही हुए होंगे यह निस्सकोच कहा जा सकता है कि बौद्धोंकी स्वच्छइनका गृहस्थ नाम शायद हँस और परमहंस होगा दतापर ये अकुंश लगानेवाले और उनकी उन्मत्तताका और दीक्षा नाम संभव है कि भिनभद्र और वीरभद्रके दमन करने वाले थे। अतः भारतीय संस्कृतिके और रूपमें हो । प्रभावक चरित्र और कथावलिमें पाये जाने खास तौर पर जैन संस्कृतिके ये प्रभावक संरक्षक और वाले नाम-भेदसे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है। विकासक महापुरुष ये; इसमें कोई संदेह नहीं है। कथा-अंशसे यह भी सत्य हो सकता है कि बौद्धोंने इनकी प्रतिभा संपन्न कृतियों और महित्य सेवाके इन दोनोंको कोई महान् कष्ट पहुँचाया हो और इन्हें संबंधमें अगली किरणमें लिखनेका प्रयत्न करूंगा। भयंकर प्रताड़ना दी हो; जिससे संभव है कि ये दोनों शिष्य काल कर गये हो । इस पर प्राचार्य हरिभद्र सरिको यदि प्रचंड कोष ना जाय तो मानव-प्रकृतिमें (अपूर्ण) Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-नतवा [लेखक पं० मृलचन्दजी जैन मला । (१) भे त रही है,लोकसमूह इस नवीन उत्पन्न का स्वधर्म अनुरक्त, सत्यभक्त और मातम . . . निगे अपने अपने योग्य कार्यको हस्त 'प्रेमासक्त था । उज्वल अहिंसाम उमका हदय मन क लए शीघ्रतामे एकत्रित हो रहे हैं। परिप्लत था। ज मभाव सदैव जागृत है ऐसे नतुषाके मातृभूमि-संरक्षण के लिए, वीर माताकी आज्ञा- in rain स्थितिको अनुभव करने में कुछ भी नुमार प्रतिस्पर्धीका निमंत्रण स्वीकार कर भीपण : mail रण स्थलमें अपने अटल कर्तव्यको पुण करनेवा! ... श्राया और बातकी पातमें मनस्वधर्मनिरूपित अंतिम उत्कृष्ट क्रियाओंक' ल्ल ' ।।। होगया । शरीर पर लोहेका कवच पूर्ण अवस्थामें परिपूर्ण कर स्वर्ग प्राप्त करनार : ८, कमर में नलवार, उसके ऊपर कटार वह था एक 'वारहब्रत धारी जैन श्रावक ।' था। दाल, तीगेम भरा तरकस और हाथमें उमका नाम था 'वैराग नाग ननुवा ।' धनुष। योद्ध' का माज मजकर,इष्ट देवका स्मरण कर, कल उपवासका दिन था और आज था उ । । ..अाशीर्वाद और वीर पत्नीके वीरोपारणे का दिन । मतुवा आमन पर पारण. कर गदा उत्तेजित नतुवा शत्र दलका सामना को बैठा ही था कि उमी ममय भेरा की ४ रन लिए बाहर निकल पड़ा। उसके कानों में पड़ी । नगरके शान्तिपूर्ण वातावरण में कुछ असाधारण उपद्रव जगने की उमं प्राशंका वीरताकं कारण सेनामें उसका पद ऊँचा था, उत्पन्न हुई। भोजन त्याग कर वह उसी समय वह रथी था। बाहर रथ तैयार था, अधीर हुए उठा और बाहर आया। नगर पर किसी शत्रु उन्मत्त पोड़े चारों पैरोंसे हवामें बहनेको तैयार हो सैन्यने भाक्रमण किया है, भाक्रमणका प्रतिकार रहे थे। मारथी कठिनाईमे उन्हें स्वाधीन रख रहा करनेके लिए स्वदेश और स्वजनोंके रक्षणाथ था। शामन देवका स्मरणकर वीर नतुवा रथपर राजाने समस्त वीर क्षत्रिय सैनिकों को अस्त्र-शस्त्र मवार हुमा । पृथ्वीको कंपाते हुए घोड़े प्रबल से सुसज्जित होनेका निमंत्रण दिया है। यह उसने वेगसे उड़ने लगे। बात किया। बह जिलेके बाहर अपनी सेनामें सम्मिलित Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त फाल्गुन वीर-निर्वाड सं० २१॥ हमा। सामने शत्रु दल कटिबद्ध था, रणभेरी निकलने लगी, वीरत्व उमड़ पाया, नसोंको तोड़ फिरसे भारी उत्साहके साथ बजी और युद्धका कर बाहिर पड़ने के लिए रक उभरने लगा । ढोर भीषण वेग प्रारम्भ हुमा। को कान पर्यंत खेंचकर उसने सामने एक भीषण युद्ध नवीन नहीं था, पैदलसे पैदल, हाथीसे बाणका प्रहार किया, बाणके वेगके साथ साथ हायी और रथीसे रथी लड़ने लगे। मीलों तक उसका भीषण परिणाम हुआ। प्रतिस्पर्धीका रथ गोला फेंकनेवाली तोपों, जहरीली गैसों और टूटा, घोड़ा मरा, रथवाह कभिदा और सवारको घातक यंत्रोंका वर्तमानमें जितना मान है इससे छातीको तोड़ता हुआ तीर उस पार निकल गया। कहीं अधिक मान प्राचीन युद्ध पद्धतिमें मनुष्यको नतुवाका कर्तव्य पूर्ण हो चुका । उसने मातृप्राप्त था। भूमिका ऋण चुका दिया, छातीमें से तीर निका लते ही प्राण निकल जायेंगे । अब युद्धको आगे हमारा रथी नायक युद्ध विद्या में निपुण निर्भय चलानेके लिए वह अममर्थ हो चुका था। प्रकृति शूरवीर और अपना कर्तव्य पालन करनेमें सदा सावधान रहनेवाला धार्मिक योद्धा था। युद्ध भूमिके समीप एक वृक्ष था, वह रथसे सामने दसरा रथी था, मोरचा मांडकर नतुवा उतरा और शस्त्रास्त्र उतार डाले । पद्मासन उसके सन्मुख डट गया। लगाया, मन्याम ग्रहण किया और जागत आत्मा "इस यद्धके कारण हम नहीं, तुम्हारे राजाका के ज्वलंत भावोंमें तन्मय होगया । उसने तीर राज्य-जोम है, तुम हमारे ऊपर आक्रमण करने निकाला, रक्त की धार बह उठी । मानव-जीवन भाए हो, तुम्हारी युद्ध तृष्णाका प्रतिकार और कृतार्थ करने वाले दृढ़ प्रणी-कर्मठ, वीर नतुवाने अपना संरक्षण करनेके लिए हमें इस युद्धमें कर्तव्य परायणताकी जागृत ज्योतिक सामने, उपप्रवृत्त होना पड़ा है। राजाज्ञासे निर्दोष सैनिकोंका वासका पारणा पूर्ण किए बिना ही, खुशी खुशी बध करनेवाले यो वीर! सावधान हो, पायध ले इस नश्वर शरीर का त्याग किया। और मेरे ऊपर वार कर" दाएँ हाथपर लटकते हुए सुख सम्पत्तिको लात मारने वाले, शरीरसे तरकसमें से एक बाण निकालकर धनुषपर चढ़ाते ममत्व हटा अपने कर्तव्य पालनमें अटल रहने हुए प्रतिदीको लक्षितकर नतुवाने कहा। वाले, उज्वल अहिंसाकं जब आदर्श पर निश्चल शब्दका चारण समाप्त होनेके प्रथम ही रह स्वदेश संरक्षणको आशा शिरोधार्य करने सनसनाट करता हुमा एक बाण कवचको खेदकर और युद्ध भूमिमें कर्मभूमिमें प्राण त्यागने वाले नतुवाको छातीमें भिद गया,'प्रचंड ज्वालसे वीरका मो विजेता जैन वीर ! तुझे सहस्रों धन्यवाद हैं। रक खौलने लगा, नेत्रोंसे ज्वलंत भमिकी लपटें Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरल योगाभ्यास [ लेखक-श्री हेमचन्द्रजी मोदी त्रानेकान्न' के प्रथम वर्ष की संयुक्त किरण न० ८-९. करण हो या नैयायिक और चाहे वैद्य हो अथवा अन्य '१० में मैंने 'योगमार्ग' शीर्षक एक लम्प निम्बा और कोई-गुजरना पड़ता है। योगका ही मोक्षसे सीधा था और उसमें योगविद्या के महत्व और उसके इतिहास मम्बन्ध है । श्री हरिभद्रसूरि कहते हैं:पर कुछ प्रकाश डाला था। अब मैं 'अनेकान्त' के विद्वत्तायाः फलं नान्यत्सयोगाभ्यासतः परम् । पाठकोको योगाभ्यामके कुछ ऐसे सरल उपाय बतलाना तथा च शाखसंसार उक्तो विमबदिभिः ॥१०. चाहता हूँ जिनमे इस विषयमे रुचि रखनेवान्ने मजन -योगबिन्दु ठीक मार्गका अनुसरण करते हुए. योगाभ्याममें अच्छी अर्थात्-योगाभ्याससे बढ़कर विद्वत्ताका और कोई प्रगति कर मके और फन्ननः शारीरिक तथा मानमिक फल नहीं है। इसके बिना संमारकी अन्य वस्तुओंके शक्तियों का विकासकर अपने दएकी मिद्धि करने में समान शास्त्रमी माइके कारण है, ऐसा विमलबुद्धियोंने ममर्थ हो सके । लेखमें इस बानका विशेष ध्यान रग्बा कहा है। गया है कि हरेक श्रेणी के लोग गहन्थ, ब्रह्मचारी, मुनि सम्यग्ज्ञानकी विरोधिनी तीन वासनायें है और ये श्रादि मय ही हमसे लाभ उठा मर्के। गृहस्थोंके लिये वामनायें बिना योगाभ्यामके नष्ट नहीं होती। जैसा कि ऐसे अभ्यास दिये जायेंगे जिन्हें वे बिना अड़चनके कहा है और बिना कोई खाम समय दिये कर मकै तथा जिनके जोकवासनया जन्तोः शासवासमयापि। पास समय है उनके लिये ऐसे अभ्याम दिये गये हैं । देहवासनया ज्ञावं था पर वायते ।।।। जिनसे कममे कम समयमें अधिकसे अधिक लाभ जन्मान्तरशताभ्यस्ता मिथ्या संसारवासमा । उठाया जा सके । साथ ही, मौके मौकेपर मैंने अपने साचिराम्यासयोगेन विना नीयते चित् mu अल्प समय के अनुभवोंका हाल भी लिख दिया है, शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतमुक्तिकोपनषिद् जिनसे कि मुमुक्षुओंको सहायता मिल सके। वास्तवमें अर्थात्-लोकपासनासे, शास्त्रवासनासे और देह. योग ही एक ऐसी विद्या है जिसकी सबको समानरूपसे वासनासे जीवको ज्ञान नहीं होता। जन्म-जन्मान्तरोंसे आवश्यकता है। भारतवर्ष के सभी विद्वानों-सभी शास्त्रों अभ्यास की हुई संसारवासना बिना योगके चिरकालीन का अन्तिम लक्ष्य और यहाँ तक कि जीवनका भी अभ्यासके क्षीण नहीं होती। अंतिम लक्ष्य मोब है, और योग वह सीढ़ी है जिससे इस प्राकथनके बाद अब योगके प्रथम और सर्व होकर ही हरेकको चाहे वह मुनि हो या गृहस्थी, वैया- प्रधान अभ्यासकी चर्चा की जाती है। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [फाल्गुन, बीरनिर्वावसं. २०५९ प्रथम अभ्यास अवस्थामें ही मताती हैं, क्योंकि यदि उसे अपने स्वरूप का पग बोध हो और यह मालूम रहे कि मैं क्या कर सदा जाग्रत रहना रहा हूँ.तो वह कषायोंके फेर में कभी न मम । अक्सर यह सदा जाग्रत एवं सावधान रहना, यह योगकी पहली देखा जाता है कि मनुष्य कोई काम करके उमी प्रकार सोदी और प्रथम शर्त है। इस विषयमें कुछ योग- पछताता है जिस प्रकार कि स्वप्न में बुरी बने देख कर निपुण श्राचार्योंके वाक्य जानने योग्य हैं:-- जागृन होने पर दुःखी होता है । वह मोचता है कि उम भवभुवयविश्रान्ते नमोहास्तचेतने । ममय किमीने मुझे जगा क्यों न दिया? सावधान कपों एक एव जगत्यस्मिन् योगी नागपहनिशम् ॥ न कर दिया ? हाय ! मुझे ऐम विचार क्यों उत्पन्न हुए। -श्रीशुभचंद्राचार्य-ज्ञानर्णव यही बात वह तब मोचता है जब कि काम-क्रोधादिके अर्थात्-जन्म जन्मके भ्रमणसे माँत हुए तथा आवेशमें कुछ कर बैठता है। मोहसे नष्ट और अस्त होगई है चेतना जिसकी, ऐसे यदि सूक्ष्मतासे देखा जाय तो संसारके बीजरूप जगत्में केवल योगी ही रातदिन जागता है। कर्मोंकी जड़ यह श्रमावधानता ही है । यदि यह निकल काखानसामहाज्वालाकलापि परिवारिताः। जाय तो नवीन कर्मोका श्रास्रव बिल्कुल रुक जाय मोहापाः शेरते विश्व मरा जाग्रति योगिनः॥१० तथा पुराने कर्म बिना किमी प्रतिक्रियाके नष्ट होते चले -श्रीनंदिगुरुविरचित योगमारसंग्रह जायँ । यह मावधानी या जाग्रति मबसे प्रधान योग है, अर्थात्-कालरूपी महा अमिकी ज्वालाकी कला- इसके बिना और मब योग वृथा है; क्योंकि अक्मर प्रोंसे घिरे हुए इस विश्वमें मोहाँध लोग सोने हैं और देखा जाता है कि बहुतमे योगियोंमें संवर-निर्जराकी योगी लोग जाग्रत रहते हैं। अपेक्षा श्रास्त्रव-बन्ध ही बढ़ जाता है। मा विसि सयवाह देहियह जोग्गिहु नहिं जग्गेइ। अनेक बार यह ही देखने में आया है कि बहुतसे बाहिं पुड जग्गा सपजु जगुसा शिसि मशिवि सुवेह॥१॥ लेग काम-क्रोधादिका कारण न मिलने देनेके लिये -श्री योगीन्दुदेव-परमात्मप्रकाश जंगल-पहाड़ श्रादिका श्राश्रय लेते हैं। परन्तु स्वप्नोंके अर्थात्-जो सब देहधारिजीवोंकी रात्रि है उसमें समय वे भी असंख्य कर्मोका बन्ध कर लेते हैं। इस योगी बनता है और जहाँ सारा जगत् जागता है वहाँ लिये योगीको चाहिए कि वह रात्रिको मी सावधान रहे। बोलीभरात्रि समझकर (योगनिद्रामें) सोता है। दिनकी अपेक्षा काम-क्रोधादि रिपु रातको ही अधिक योगका सर्वप्रथम उद्देश्य कर्मके परमाणुरोंका सताते हैं। वैज्ञानिकोका कथन है कि इसका सूर्यसे संबर-अर्थात् उन्हें लगनेसे रोकना है। ये कर्मके पर- सम्बन्ध है । माणु मनुष्यको अपने स्वरूपकी असावधानी-सुषुप्तिकी योगके अन्योंमें जो यह जाग्रत रहनेकी क्रियाका भवत्या में ही लगते हैं। जबसे यह जीव संसारमें जन्मता उपदेश दिया है इसकी खोज में मैंने बहुत दिन सोचहै तबसे मृत्युपर्यन्त वह जागनेकी अपेक्षा सोता ही विचार और प्रयोगोंमें बितायें और तब वह क्रिया बड़ी अधिक है। काम-क्रोधादि कषायें मनुष्यको इस सुषुप्त मुश्किलसे मेरे हाथ लगी। यह क्रिया मैंने आज तक Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरख योगाम्यास किमी ग्रन्थम नहीं देखी; क्योकि योगग्रन्थों में अधिकांश सुखरूप अनुभव करता है। बातें गुरुगम्य और अनुभवगम्य ही रक्खी गई हैं; पढ़ राजमिक निद्रामें स्वप्न देखता है परन्तु इन स्वप्नों कर कोई अभ्यास नहीं कर मकता तथा राजयोग के मच्चे में वह दृष्टा स्वप्न लोकके सृष्टाके रूपमें होता है और गुरु मिलना एक तरहसे असंभवसा है। देख देखकर सुख-दुखका अनुभव करता है। ___ इस क्रिया के बतलाने के पहले निद्राका सूक्ष्म विश्ले- स्वप्ने स जीवः सुखदुःखभोक्ता स्वमाययाकरिता पण करना आवश्यक है। यह विश्लेपण माख्य परति- विश्वलोके। सं होगा। --कैवल्योपनिषद् निद्रा तीन प्रकारकी होती है-मात्विक, गमिक अर्थात्-यह जीव स्वप्न में अपनी मायासे बनाये तामसिक । इन मब प्रकारको निद्राओंमें तमोगुणको हुए विश्लोक में सुख-दुःखका भोग करता है। प्रबलता रहती है । निममें मत्वगुणकी ही पूर्ण प्रबलता तामसिक सुषुप्तिमें मनुष्यको यह खयाल ही नहीं हो उमे योगनिद्रा कहते हैं, वह इन तीन प्रकारासे रहता कि मैं कौन हूँ और क्या कर रहा हूँ। उस समय जुदी है। विषयों के अाक्रमण होने पर वह विमूद-जड़के समान मत्वगुण अात्माका चैतन्यगुण है, इसमें निर्मलता श्राचरण करता है। राजसिक सुषुप्ति में अच्छे बुरेका और व्यवस्थिति रहती है। रजोगुण क्रियाशीलताका कुछ ज्ञान रहता है परन्तु तामसिक निद्रामें वह नहीं गुण है और तमोगुण निष्क्रियता, जड़ता और अंधकार रहता । का गुण है। सात्विक निद्राके बाद मनुष्यमें फुर्ती रहती है और जिम निद्रामे तमोगुणाका नम्बर पहला और सत्य- वह खुश होता है । राजसिक निद्राके वाद मनुष्य कुछ गुणका दुमरा होता है उसे मात्विक निद्रा कहते हैं। अन्यमनस्क रहना है तथा उसे विभाति के लिये अधिक जिस निद्रामें तमोगुणका नम्बर वही प्रथम, परन्तु रजो- सोने की आवश्यकता होती है। परन्तु तामसिक निद्राके गुणका नंबर दूमरा होता है उमं राजभिक निद्रा कहते बाद मनुष्यको ऐमा अनुभव होता है मानो वह किसी हैं, और जिसमें तमोगुण का नम्बर प्रथम नया दिनीय बजनदार शिलाके नीचे रात्रि भर दवा पड़ा रहा हो। दोनों ही रूप है उसे तामसिक निद्रा कहते हैं। योगग्रंथों में मनुष्य शरीरके तीन विभाग किये हैं, ____ मात्विक निद्राको सुषुप्ति कहते हैं, इसमें स्वप्न नहीं जिन्हें तीन लोकका नाम दिया गया है तथा कहा गया आने तथा 'मैं हूँ' इसका मान रहता है तथा जीव है कि मन या लिंगात्माके सहित प्राण जिस लोकमें विभांति और सुखका अनुभव करना है:- जाते हैं श्रात्मा वहाँके सुख-दुःखोका अनुभव करता है। सुपसि काले साले वितीने समोमिभूतः सुखरूप- इस विषयमें योगमार्ग'-शीर्षक लेख देखें । स्वप्न के समय प्राण इन भिन्न भिन्न लोकोंमें विहार करता है, जिससे -कृष्णयजुर्वेदीय कैवल्योपनिषद् । विचित्र विचित्र दृश्य देखता है:अर्थात्-सुषुप्तिके समयमें तमोगुणसे अभिभूत प्रथयो कीरति पर जीवस्ततस्तु पातं स विसिव । होकर सब कुछ विलीन हो जाता है और जीव अपनेको -कैवल्योपनिषद Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भान, वीरनिवास सं० २१ सोनेके पहले उत्तम विचारोंसे तथा शीर्षासनके तुम्हें श्रात्म दर्शन भी हो सकेगा, जो कि सली सम्यअभ्याससे अथवा कमरके नीचे तकिया रखकर सोनेसे ग्दर्शन है। इस अभ्यासपूर्वक तुम जो मी सांसारिक भी स्वप्न नहीं आते, क्योंकि इनसे प्राणोंकी गति ऊर्ध्व व्यावहारिक काम करोगे उन सबमें तुम्हारी अत्यल्प होती है, यह मेरा खुदका अनुभव है। प्राणोंकी गति आसक्ति होंगी, जिसका परिणाम यह होगा कि कर्मोका निम्न होनेसे कामुक स्वप्न आते हैं और उत्तेजना पासव अत्यल्प हो जायगा। यह कहना भी अत्युक्त होती है। न होगा कि किसी समय श्रास्रव बिल्कुल बन्द भी हो हमेशा जाग्रत होने के अभ्यासके लिये सबसे पहले जायगा; क्यों किजावत अवस्थामें भी जो असावधानी रहती है उसे दूर विषयविषयस्थोऽपि निरासंगो न लिप्यते । करना चाहिए । क्योंकि कर्दमस्यो विशुद्धामा स्फटिकः कर्दमैरिव ॥ ६॥ पुनस्लमांतरकर्मयोगात्स एवजीवः स्वपिति प्रबुद। नीरागोमासुकं द्रव्यं मुंबानोऽपि न बध्यते । कैवल्योपनिषद् संखः किं जायते कृष्णः कर्ममादौ चरणापि mum बन्यतो यो निवृत्तोऽस्ति स पूज्यो व्यवहारिमः । अर्थात्-जन्मांतरोंके कर्मयोगके कारण वही जीव भावतो पो निवृत्तोऽसौ पूज्यो मोर थियासु मिर जगा हुआ मी सोता है। सदा सतत् जाग्रत रहनेका -अमितमति-योगसार अभ्यास करनेके लिये मनुष्यको चाहिये कि वह सुबह उठनेके बादसे रात्रिको सोने तक हर एक काम अर्थात्-विषयों में रचापचा होने पर भी निरासंग करते समय मनन-पूर्वक इस बातका खयाल करता (अनासक्त) जीव उनसे उसी प्रकार लिप्स नहीं होता रहे कि यह क्या कर रहा है। उठते समय मन ही मन जिस प्रकार कि विशुद्धामा स्फटिक कीचड़में रह कर जाप करे कि मैं उठ रहा हूँ। बैठते समय आप किया भी उससे लिप्त नहीं होता। नीराग मनुष्य अप्रासुक करे कि मैं बैठ रहा हूँ। इतने पर भी यदि खयाल भूल द्रव्य खाकर भी उससे बद्ध नहीं होता । कीचड़में रहकर जाय, तो यह जाप जोर जोरसे बोला जाना चाहिए, क्या शंख काला हो जाता है ! बाह्य वेशादिसे जो नि. जिसमें सबको सुन सके; परन्तु मन ही मन जाप करने वृत्त मालूम होता है उसकी पूजा संसारी लोग करते हैं, का फल अधिक है। इस जपका शुभ परिणाम तुम्हें परन्तु मोद जानेकी इच्छा रखने वाले ऐसे मनुष्यकी एकही दिनमें मालूम होगा । यहाँ तक कि रात्रिमें सोते पूजा करते हैं जो भावसे निवृत्त है। वक ही तुम्हारे अन्दर यह जाप चाल रहेगा तथा स्वप्न हम ऐसे कई गृहस्थाश्रमी साधुओंका चरित्र सुन बदि कमी भावेंगे तो उसमें भी तुम अपनेको जाप चुके हैं, जो संसारमें रहकर भी उससे निर्मोही रह सके, करते हुए पाओगे। उस समय तुम्हारी प्रातरिक सद- परंतु ऐसे मनुष्य करोड़ोंमें एक दो ही होते हैं। महात्मा सदविवेकबुद्धि जाग्रत रहेगी और हरेक खोटे कामोंसे गांधी ऐसे पुरुषों में से एक हैं। करोड़ों रुपये माने जाने बचाती रहेगी। जब तुमारी उठनेकी इच्छा होगी तब में इन हर्ष योक नहीं होता और न अपने कार्यके हो तुम्हारी नींद खुलेगी और इस क्रियाके फल-स्वरूप पलट जानेसे ही इन्हें हर्ष-शोक होता है। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरह बोगाम्बास इस योगकी साधक एक हठयोगकी क्रिया भी दूसरा अभ्यास वर्णित कर देना हम यहाँ उचित समझते हैं। हठयोग हमेशा राजयोगका सहायक होताहै । वह अकेला कोई प्रेमयोग कार्य सिद्ध नहीं कर सकता तथा राजयोग भी हठयोगके बापट प्रेम संच सो पर बाप मसान। बिना अपर्ण और समयसाध्य तथा अनेकबार असंभव से साबहारकी सांस बेत बिदुभान । हो जाता है। -कबीर किसी समतल स्थानमें चित्त लेट जात्रो तथा नख- प्रेमयोगके विषयमें सबसे पहले प्रेरगडसंहिताका पर्यंत समस्त नाड़ियोंमेंसे प्राणशक्ति-मन-खींच कर निम्न वाक्य जानने योग्य है:नाभिमें,हृदयमें अथवा भूमध्य में धारण करनेकी कोशिश स्वकीयहदये ज्यावेविदेवस्वरूपाम् । करो, तथा ऐसा करने ममय पावके अगठेको स्थिरदृष्टि - चितयेत् प्रेमयोगेन परमालापपूर्वकम् ॥ से देखते रहो। ऐमा करनेसे श्वामोच्छवामकी गति पानवायुपुलकेन पयामावः प्रजायते। धीमी पड़ जायगी तथा हाथपैर हिलाने डुलानेम मुके समाधि संभवतेव संभवेव मनोमनी । समान दिखेंगे-डोलेंगे तथा धीरे धीरे एक मीठी निद्रासी इसमें बतलाया है कि अपने हृदयमें इरादेवके श्रा जावेगी। इस निद्राका नाम 'योगनिद्रा' या 'मनो- स्वरूपका ध्यान करके परम आहादपूर्वक प्रेमयोगसे न्मनी' है और करीब १ माहके अभ्याससे सिद्ध हो उसका चितवन करे । ऐसा करनेसे इस सारे शरीरमें जाती है । यह बच्चोंको सबसे जल्दी, जवानोंको देरसे रोमांच हो पाता है, आँखोंसे पानंदके प्रभु गिरने और बढ़ोंको बहुत देरसे मिद्ध होती है । हम अभ्या- लगते हैं और कभी कभी समाधि लग जाती है तथा सके करने के पहले शवासनका अभ्यास करना चाहिए। मनोन्मनी (योगनिद्रा) भी संभव होती है। इस श्रासनमें हाथ-पैर आदि श्रग इ 'ने ढीले छोड़ने वास्तवमें आत्माका अात्माके प्रति जो आकर्षण पड़ते हैं कि वे मुर्दे के अंगोंके समान हो जाते हैं। किसी है उसका नाम प्रेम है । प्रेम वह आगो जो न जाने मित्रसे हाथ-पैर हिलवा-डुलवाकर इस श्रामनकी परीक्षा कितने कालम और न जाने किसके लिये मनुष्यमात्रको करवा लेनी चाहिये। विकल कर रही है। कभी कभी यह प्राग किसीके संगसे, किसीके स्पर्शम कुछ समय के लिये ठंडी दुईसी इस अभ्यासके सिद्ध होने पर तुम देखोगे कि मालम होती है परन्तु फिर वह उससे कहीं तीन गतिसे जितनी विभाँति और लोग दस घंटेकी नींदसे भी नहीं प्रज्वलित हो उठती है। कवियों में वह काव्यरूपमें, तपपाते उतनी विश्रान्ति तुम दो घंटेकी नींदसे ही प्राप्त कर स्वियोंमें तपरूपमें, योगियोंमें ध्यानरूपमें, पक्षियोंमें सकोगे । नेपोलियनको यह निद्रा सिद्ध थी, वह २४-२४ गानरूपमें तथा मिदोंमें मैत्री, करुणा, दमा और छघंटेकी थकावट घोड़े पर चढ़े चढ़े २०-२५ मिनिटकी हिंसारूपमें फट पड़ती है। नींदसे निकाल लेता था । सुनते हैं कि महात्मा गाँधीको विश्वमें प्रेमके सिवाय एक और भी बाकर्षण भी यह निद्रा सिद्ध है; योगियोंमें यह साधारण वस्तु है। जो लोकमें कमी कभी मूलसे मेमके नामसे पुकारा Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवेकान्त [फाल्गुन बी-रनिर्वावसं० २४१६ बाता है। यह आकर्षण प्रत्येक अहवस्तुमें है । काँचके जिन लोगोंमें उम सनातन वियोगकी चिरंतन किन्हीं भी दो समतल टुकड़ोंको एक दूसरेपर रखनेते वे अग्नि जल रही है वे हो सर्वश्रेष्ठ कवि है, दार्शनिक हैं चिपकसे जाते है और जोर देनेपर छूटते हैं । इसी और योगी हैं। जिनमें वह अग्नि विभ्रांतिसे दब गई प्रकार लोहे के टुकड़ों में, लोहे और लोहकांत (चुंबक) में, है-जिनकी विषयलालसोंने उसे दबा दिया हैलोहकातके विभिन्न ध्रुवों ( Poles ) में तथा एक ही जिनके कर्म उसे जानने नहीं देते उनका कर्तव्य है कि प्रकारकी दूसरेसे विभिन्न गुण वाली सृष्टिों -नर और वे भ्रांति दूर करें-विषयोंसे बचें। यह वह अग्नि है मादामोंमें यह आकर्षण बहुत ही प्रबल है। जिसके तीव्र होनेपर सब कर्ममल काफूरके समान उड़ मनुष्य आदि उच्च प्राणियोंमें उक्त दोनों प्रकारके जाते हैं। कहा भी है-"प्रेमाग्निना दबते सर्वपापं ।" आकर्षणोंका, एक विचित्र संमिश्रण है। अनेक बार प्रेमके विकास के लिये योगद्वारा प्रदर्शित जुदी-जुदी देखा जाता है कि आध्यात्मिक प्रेम अनेक बार इस प्रकृति के लोगोंके लिये साधककी योग्यतानुसार जुदे-जदे शारीरिक जर मोहमें परिणत होना है और शारीरिक मार्ग है। प्रेम अनेक बार माध्यामिक रूप ले लेता है । स्त्री- सात्विक प्रकृति के साधकोंके लिये ईश्वर-भक्ति पुरुषका आकर्षण इसी प्रकारका है। या ईश्वर-प्रेम उत्तम उपाय है, ईश्वरप्रेम क्या है और __ जडपदार्थों में जो आकर्षण है वह प्रेमका असली किस तरह किया जाना चाहिए, यह बताने के पहले यह कप नहीं है वह उसका बहुन ही विकत और तामसी जानना श्रावश्यक है कि दरअसलमें ईश्वर है क्या रूप है। प्राध्यात्मिक प्रेम ही सत्य है और सब प्रेम वस्तु ? कुछ है, माया है और मोह हैं । आध्यात्मिक प्रेमग्राह्य ईश्वर शब्द प्राचीनसे प्राचीन वेदादि ग्रंथोंमें तीन हैऔर जड प्रेम त्याज्य है। प्राध्यात्मिक प्रेम आत्मिक अर्थोंमें आया है, इनको समझ लेनके बाद इनका उमतिका कारण है और जडप्रेम अवनतिका । समन्वय अनेकान्त दृष्टिस किया जा सकता है। प्रात्माके विकास के लिये प्रेमकी बहुत बड़ी प्राव- ईश्वर या ब्रह्मका प्रथम अर्थ आध्यात्मिक है । इस सकता है। यह विश्वके प्रत्येक प्राणीके प्रति प्रेम ही अर्थमें प्रात्मा ही शाश्वत और अविनाशी ब्रह्म है। मजिसने भगवान महावीर और बुद्धको महान् बनाया। यथायह सीताके प्रति प्रेम ही था जिसने रामचन्द्रजीको पुरातनो पुरुषोभमीणे हिरवमयो शिवरूपमस्मि । बहान बनाया और जिसे कबि लोग गात गाते नहीं थ. बेदरकामेव वेद्यो विश्वविद्वेदविदेव चाहं । कते। शारीरिक प्रेम भी वियोग होने के बाद प्राध्यासिक पुरवपापे मम नास्ति माशो न जन्मवेदविवादिरस्तिा प्रेमों परिणत हो जाता है। प्रेमका स्पेन्दर्य वियोगमें समस्तसालि सक्सविहीनं प्रमाति वं परमात्मरूपम् । है, संयोगमें तो उसका समय भी नहीं है । मेषदूत प्रवेशवमानोति संसाराबवनाशनं । इज लिवे सर्वोचम काम्य है-उसमें हम उस चिरंतन तस्मादेन विवि वाले पदमरखते। विगत एक मामास मिलता है और प्रात्मा उसे -अथर्ववेदीया कैवल्योपनिषद् अह पिपासासे पीती जाती है। श्वरका दूसरा अर्थ प्राधिभौतिक या सामाजिक Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरसयोगाभ्यास है। इस अर्थ में ईश्वर राष्ट्र की, समाजकी, देशकी अमूर्त आगे उनकी कल्पना इतनी और आगे बढ़ी है किस आत्मा है जिमके द्वारा राष्ट्र, समा न या देशका प्रत्येक विराट पुरुषाकृतिमे किसी नियंताशक्ति प्रात्माकी भावव्यक्ति स्पंदित, प्रेरित या प्रभावित होता है। इस राष्ट्र- श्यकता है, जिसकी कल्पना विश्वप्रकृतिके रूपमें ही पुरुष, समाज-पुरुष, देश-पुरुष या विश्व-पुरुषके जाग्रत की गई है । यथाया सुप्त होनेपर जुदे जुने सत्, कलि आदि युगोंका भमिर्धा चपी जसूयौं विशः भोत्रे चामत्ताबदेवा। आविर्भाव होता है, ऐमा ऐतरय-ब्राह्मणमें लिखा है। वायुः प्राणो हदयं विश्वमस्य पदम्या पृथिवीडोष सर्व इस समाज-पुरुष या राष्ट्र-पुरुषकी जाग्रतिके चिह्न हम लोकान्तरात्मा । वर्तमान भारतीय आन्दोलनमें देख रहे हैं । यह पुरुष -मुण्डकोपनिषद् । समष्टिरूप है,इसीलिये कहा है कि सो दिशः अर्ध्वमधवतिर्वप्रकाशयन् मानते पाना सहस्रशीर्षापुरुषः सहबासः सानपात् । एवं सदेवो भगवान्बरेश्यो विश्वस्वमावादधितिष्ठत्येक। --ऋग्वेद-पुरुषसूक्त -श्वेताश्वतरोपनिषद् । अर्थात्--यह हज़ार सिरवाला, हज़ार अखिोवाला अर्थात्-जिसकी मूर्धा श्रमि है, सूर्य-चन्द्र आँखें और हजार पैरों वाला पुरुष है । जिसप्रकार हम यह कहे हैं, दिशाये कान है, वचनादि देव है, वायु प्राण है, कि इस सभा या परिषद्के हज़ार मिर है अथवा भारत विश्व हृदय है, पैरों में पृथ्वी है ऐसा सर्वलोकातरात्मा माता के ३० कोटि बच्चे, उसी प्रकारका यह कथन है। है। ऊपर नीचे बाजकी सारी दिशात्रोको प्रकाश करने इस पुरुषके वाला जो भगवान् वरेययदेव है वह विश्वके रूपमें कलिः शयानो भवति संबिहानस्तु द्वापरः। अवस्थित है। उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं संपाते चरन् ॥ इ. विश्वको परिचालित करनेवाली वह शक्ति -ऐतरेय ब्राझणः। कौनसी है, इस विषयमें मतभेद हैं। जडवादी वैज्ञानिक सोनेपर कलि, जंभाई लेनेपर द्वापर, खड़े होनेपर . उसे 'विद्युत' मानते हैं तथा कोई उसे 'सूर्य' मानते हैं, त्रेता और चलने लगनेपर सत्युग होता है । वोंके तथा अध्यात्मवादी उसे 'सत्य' अथवा 'अहिंसा' मानते वर्गीकरण के बाद जिस समाज-पुरुष-- है क्योंकि इन्हीं नैतिक नियमोंसे सब बंधे मालूम होते ममवत्रं भुजो पत्रं कृत्स्नमूरदरं विशः। हैं। महात्मा गाँधी 'सत्य' को ही परमेश्वर मानते हैं। पादौ यस्याश्रिताः एमाः तस्मै वर्णात्मने नमः॥ कुछ भी हो, जैनधर्मसे इनका कोई विरोध नहीं पाता; के ब्राह्मण मुखरूप है, क्षत्रिय भुजारूप हैं, वैश्य क्योंकि इनसे कोई भी हम ईश्वरको मनुष्य के समान पेटरूप हैं तथा शूद्र पैरोंके आश्रित है, उस वर्णात्माको चेतन तथा रागद्वेषपूर्ण नहीं मानता । जैनधर्म तो बाइमेरा नमस्कार है। बल, कुरान और भारतीय पाशुपत और वैष्णवमतके ईश्वरका तीसरा अर्थ आधिदैथिक है । जिस प्रकार रागद्वेषी व्यक्तिगत ईश्वरका विरोधी है। जैन लोग त्रिलोकको पुरुषाकार मानते है उसी प्रकार जैनधर्मानुसार मुक्त आत्माएँ सब एकसी ही। वेदोपनिषद् और योगके ग्रन्थोंमें भी माना है। इसके उनमें जो भेद था वह काल और कर्मकृत् था, और Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [फाल्गुन वीर-निर्वाण सं० २०६६ काल और कर्मनष्ट हो जानेपर वे एक ही हैं क्योंकि है। श्रीयोगीन्दुदेवने परमात्मप्रकाशमें अच्छा कहा हैकालकर्म कुछ जीव थोड़े ही हैं। जैसा कि निम्न वाक्यो परमसमाहि धरेवि मुखि, के परवंमुख जति । ते भवदुक्खा बहुविहई, काबु भयंतु सहति ॥३२ बीच भेट विसम्मकित, कम्मुवि जीव सोह। अर्थात्-परमसमाधिको धारण करके भी जो व विमिराबर होताई, काल बहेवियु को मुनि परब्रह्मको नहीं प्राप्त होते वे अनेक तहके संसारएकको मब विरिख परि, में करि परणविसेसु । दुःख अनंतकाल तक सहते हैं । वास्तवमें उनकी विषयइदं देवई जिवस, तिहुपण एहु असेसु ॥ २५४ वासना नष्ट नहीं होती, चाहे वह मोक्षकी ही क्यों न हो; -योगीन्दुदेव-परमात्मप्रकाश क्योंकि वासना अशक्तिसे ही उत्पन्न होती है । अर्थात्--जीवोंमें जो भेद है वह कर्मोंका किया बुद्धदेवने योगाभ्यासको गौण और सेवाधर्मको हुना है, कर्म जीव नहीं होता किसी कालको पाकर मुख्य रक्खा है, परंतु जैनादि धर्मों में दोनोंको समान उनके द्वारा ( कों द्वारा ) वह विभिन्न होता है । इस- कोटिमें रक्खा मालूम होता है और मोक्ष के लिये दोनोंका लिये, हे योगी ! श्रात्माको एक ही समझ उन्हें दो मत साथ साथ अभ्याम श्रावश्यक माना है। कर और न उममें कोई वर्ण भेद कर । यह अशेष जैनधर्म तथा वैदिक धर्ममें सेवामार्ग के लिये तथा त्रिभुवन एक ही देव-द्वारा वसा है ऐसा समझ। निम्न प्रकृति के लोगोंमें प्रेमके विकासके लिये गृहस्थाअर्थात् सब जीवोंमें श्रात्माका दर्शन कर। श्रम उपयुक्त माना गया है । राजमिक और सामसिक ईश्वर के उपर्युक्त अर्थों पर विचार करनेसे ईश्वर- प्रकृतिवालोंके कठोर, स्वार्थी निप्रेम हृदय प्रायः विवाह प्रेमका मार्ग शीन हाथ लग जायगा । सब जीवोंमें के द्वारा ही मृदु, निःस्वार्थ और प्रेमसे भीने बनाये जा प्रास्माका दर्शन करो-समाजकी, देशकी तथा विश्व सकते हैं । साविक ईतर-प्रेमके लिये इन्हीं वस्तुत्रोंकी की प्रत्येक व्यष्टि पर प्रेम करो और उसकी सेवा करो। आवश्यकता है । शरीर और स्वास्थ्य पर भी इम प्रेमईश्वरको पहिचाननेका सेवासे बढ़कर स्पष्ट कोई उपाय का बड़ा अच्छा असर होता है । पहले जो दुर्बल,शोकनहीं है। बुद्धदेवने तो अपने मित्रोको यहाँ तक उप- ग्रस्त और दुखी होते हैं उनमें अधिकांश विवाह के बाद देश दिया है कि यदि तुम्हें समाधि-द्वारा मोक्षकी भी हृष्ट-पुष्ट, खुश और संतुष्ट मालूम होने लगते हैं। प्राप्ति होने वाली ही हो और उस समय किसीको मस्तिष्क-विद्या ( Phrenology) तथा शरीर-विद्याके तुम्हारी सेवाकी आवश्यकता हो तो समाधि छोड़कर प्राचार्योंका कथन हैं कि प्रेमका असर शरीरके प्रत्येक पहले उस प्राणीकी सुभुषा करो। मोह चाहे वह मोक्षका अवयव पर अपूर्व दिखाई देता है। हृदय और फुप्फुही क्यों न हो, मोक्षका विघातक ही है। इसी प्रकार सपर अजब प्रभाव पड़ता है। मस्तक और हृदय इन यदि देश तुमारा बलिदान चाहता है तो कायर बनकर दोनोंको एक कर र लनेकी मंथन क्रिया शुरू हो जाती यदि तुम मुनि हो जानो और समाधि साध कर बैठो तो है। इदयमें रूधिरका प्रवाह तीन वेगसे बहने लगता है, मी तुम्हें कुछ मिलने वाला नहीं है क्योंकि कायरतासे फुप्फुसोंमें गतिका संचार होता है और मुख-गाल-श्रोष्ठ परराम प्राप्त नहीं होता। कायरता प्रयतकी वासना तथा नयन इनमें प्रेमकीलाली दौड़ पाती है। मस्तिष्क Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरल योगाभ्यास के अन्दरकी प्राण-प्रथिका प्रदेश एक अजब प्रकारका गई है । जो ईश्वर-प्रेममें लीन रह सकते हैं वे प्रेमके कार्य करने लग जाता है, जिसस जिजीविषाकी वृद्धि सम्पूर्ण लाभ ईश्वरप्रेमसे ही प्राप्त कर लेते हैं। प्रेमका होती है। प्रेमीके सहवास में सूखी रोटी भी मीठी लगती असर चाहे वह किसी प्रकारका क्यों न हो स्वास्थ्य और है, प्रेमके भावसे परोसा अन शुभ परिपाकको प्राप्त मनपर एक ही प्रकारका होता है। होकर शुभ भावोंको प्रदीप्त करने में बड़ा उपयोगी होता ईश्वरीय प्रेम निरंकुश और स्वतंत्र है. परन्तु अन्य है। इन भावोंके कारण मन अनेक सुखानुभव करताहै, प्रेम अन्य व्यक्तिपर श्राश्रित है। ईश्वरीय प्रेम प्रत्यचर जिससे शरीरका प्रत्येक अवयव संतुष्ट होता है और की प्राशा नहीं रखता, परन्तु अन्य प्रकारका प्रेम प्रत्यअपना काम अच्छी तरह करता है। तरके बिना नष्ट हो जाता है। इस प्रकारके असंवा इससे पचनेन्द्रियों तथा अनेक सचालक मस्तिष्क प्रेमका असर शरीरपर सतुष्ट प्रेमसे ठीक उल्टा पड़ता के अवयवों पर गहरा लाभदायक असर होता है। इस है। अधिकाँश विधवायें बिना किसी कारण प्रकार शरीरकी प्रत्येक शक्ति वद्धिंगत होती है। रक्त. यकृत, हृदय, और फुप्फुसकी बीमारियोंसे पीडित रहती मांस, मेद, अस्थि, मजा शुक्र और ज्ञानततु पुष्ट होते हैं, इसका कारण असंतुष्ट प्रेम है--वे बेचारी पतिप्रेम हैं और शरीर देखने में सुदर और मधुर हो जाता है। को ईश्वरप्रेममें लीन नहीं कर सकतीं । इसी प्रकार यकृत, पित्ताशय, और स्थलांत्र पर भी प्रेमका बड़ा पुरुष भी असंतुष्ट प्रेमके कारण अनेक बीमारियोंके लाभकारी असर पड़ता है। अनेक यकृत और स्थलांत्र शिकार होते हैं और इंग्लैंड वगैरह देशोंमें तथा भारत के रोगी विवाहसे अच्छे हो गये हैं । उत्कृष्ट और पवित्र में विवाहितोंकी अपेक्षा कुआरों की अधिक मृत्यु संख्या प्रेमका असर हृदयकी बीमारियोंको दूर करने में दिव्योपधि होनेका कारण भी यही है। असतुष्ट प्रेम अात्महत्याकी के रूपमें होता है । मंदाग्नि और पाचन क्रिया के अनेक प्रवृत्तिको उत्तेजित करता है। रोग शीघ्र ही दूर हो जाते हैं। प्रेमके विकामका राजमार्ग तो विवाह ही है ।अन्य ऊपरके वर्णनको पढ़कर कोई यह न समझले कि मार्ग माधारण लोगकि लिए मुलभ नहीं है, परन्तु इस ये सब फायदे प्रेमके न होकर वीर्यपातके हैं। ऐमा म- में एक बड़ी भाग अड़चन है। अनेक बार मनध्य इस मझना नितान्त भल तथा भ्रम होगा क्योंकि वीर्यपातसं से तीन मोहमे पड़ जाना है और विषयोंका गुलाम हो इन फायदोंमें उलटी कमी होने लग जाती है और प्रेम- जाता है । विवाह विषय-वामनाओं को जीतने का निर्विके अच्छे असरको वीर्यपातका बुग अमर नष्ट कर देना कार बनने का--मागं होना चाहिए, न कि नारकी होनेका है। यही कारण है कि जो दम्पति शुरूमें फायदा उठाते इम अवस्था में इन्द्रियां किम प्रकार सम्पूर्ण रीतिसे जीती हुए मालम पड़ते थे वे ही धीरे धारे रोगी और दुर्बल जा सकती हैं तथा नाडि-नन्तुमि प्रेमकी विद्यत् उत्सन हो जाते हैं। जिन दम्पतियोंमें असली प्रेम न होकर कर किम प्रकार आध्यात्मिक लाभ उठाया जा मकता विषयोंका प्रेम होता है उनकी भी यही दशा होती है । है, इस पर आगे के लेखमें विचार किया जायगा तथा परन्तु अनेकबार प्रेमका फायदा अन्य प्रकारके नुक- गजयोग, लययोग और हठयोगकी कुछ क्रियाएं भी सानोंकी अपेक्षा अधिक भारी होने के कारण वीर्यपातका बनाई जाएगी। यहाँ पर एक सूचना कर देना चाहता नुकसान नहीं मालूम होता। प्रेमसे अधिकतम लाभ हूँ और वह यह है कि पाठक यदि विवाहित हो तो उठानेके लिये ब्रह्मचर्यसे रहना ज़रूरी है। प्रेमके बंधन- देखें कि बीच बीचमें कुछ दिनके लिये अपनी स्त्रीको में बंधे हुए स्त्री-पुरुष पूर्ण नैष्ठिक ब्रह्मचर्य रखने हुए' उमके मायके भेज देनेमे किम प्रकार उनमें प्रेम तीन उपयुक्त फायदे अधिकतम मात्रामें प्राप्त करते हैं। होता है और निर्विकारता थाती है । मालमें ऐसा २-३ जिन मनुष्यों की प्रकृति उन्हें ईश्वरप्रेममें लीन नहीं होने दफे एक एक दो दो महीने के लिये करना अच्छा है। देती उनके लिये ही इस प्रकारके प्रेमकी व्यवस्था की इससे प्राध्यात्मिक प्रेम भी बढ़ेगा। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होलीका त्यौहार [सम्पादकीय ] मारतके त्यौहारों में होली भी एक देशव्यापी मुख्य भी एक कदम अथवा दंग होता है। 'होलीकी कोई स्यौहार है। अनेक धर्म-समाजोंमें इसकी जो दाद फर्याद नहीं यह लोकोक्ति भी इसी भावको पुष्ट कथाएँ प्रचलित है वे अपनी अपनी साम्प्रदायिक दृष्टिको करती है, और इसलिये इस त्यौहारको अपने असली लेकर मिन मिल पाई जाती है। यहाँ पर उन सबके रूप में समता और स्वतन्त्रताका रूपक ही नहीं किन्तु विचारका अवसर नहीं है। होलीकी कथाका मूलरूप एक प्रतीक कहना ज्यादा अच्छा मालूम होता है। क्यों न रहा हो, परन्तु यह त्यौहार अपने ममय भी इसके लिये अच्छा चना गया है. जो स्वरूपपरसे ममता और स्वतन्त्रताका एक प्रतीक जान कि वसंत ऋतुका मध्यकाल होनेसे प्रकृतिके विकासका पड़ता है अयवा इसे सार्वजनिक (सी-खुशी एवं प्रसन्न यौवन-काल है। प्रकृति के इस विकाससे पदार्थ पाठ बनेके अभ्यासका देशव्यापी सक्रिय अनुष्ठान कहना लेकर हमें उसके साथ साथ अपने देश-राष्ट्र एवं चाहियो आत्माका विकाम अथवा उत्थान मिद्ध करना ही इस अवसरपर हरएकको बोलने, मनका भाव व्यक्त चाहिये । उसीके प्रयत्नस्वरूप-उसी लक्ष्यको सामने रख करने, स्वांग-तमा नृत्य गानादिके रूपमें यथेष्ट चेष्टाएँ कर-यह त्योहार मनाया जाता था, और तब इसका करने, भानन्द मनाने और मानापमानका खयाल छोड़- मनाना बड़ा ही सुन्दर जान पड़ता था। परन्तु खेदो करपाड़ाई-बोटाई अथवा ऊँचता नीचताकी कल्पना- कि आज वह बात नहीं रही! उसका वह लक्ष्य अथवा अन्य व्यर्थका संकोच त्यागकर-एक दूसरेके सम्पर्क में उद्देश्य ही नहीं रहा जो उसके मूल में काम करता था! भानेको स्वतन्त्रता होती है। साथ ही, किसीके भी उसके पीछे जो शुभ भावनाएँ दृष्टिगोचर होती थीं और रंग गनने, पुन उड़ाने, हँसी मजाक करने तथा अप्रिय गिनें लेकर ही वह लोकमें प्रतिष्ठित हुआ था उन सब खाएँ करने चादिको स्वेच्छापूर्वक खुशीसे सहन किया का माज अभाव है!! आज तो यह त्यौहार इंद्रियमातारापनी तौहीन(मानहानि प्रादि समझकर उस विषयोंको पार करने का प्राधार अथवा चिसकी जपन्यपर कोषका भाव नहीं लाया जाता,न अपनी पोजीशनके योको प्रोजन देनेका साधन बना हुआ है, जो विजनेका फोोपाल ही सताता है, और यो एक किम्पति और राष्ट्र दोनोंके ही पतनका कारण हैप्रकारले समता-गनशीलताका अभ्यास किया जाता स्यौहार के रूपमें उसका कोई भी महान् व सामने है।बायो कहिये कि इसके द्वारा राष्ट्र के लिये नहीं है। इसीसे होलीका वर्तमान रूप विकृत कहा जाता विगत ऐसे राग देपादि मूलके अनुचित भेद-भावोंको है, उसमें पास न होनेसे वह देखके लिये मारली बसमयके लिये भुलाया जाता है- उन भुलाने और इसलिये उसे उसके वर्तमान रूपमें मानना उचित सन जलाने तकका उपक्रम एवं प्रदर्शन किया जाता नहीं है। उसमें शरीक होना उसके विकत सपको पुर है-और इस तरा राष्ट्रीय एकताको बनाये रखने करना है। अपवा राष्ट्रीय समुत्थानके मार्गको साफ करनेका यह पनि समता और स्वतन्त्रताके विद्यन्त पर Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होलीका त्यौहार लम्बित राष्ट्रीय एकता श्रादिकी दृष्टि से चित्तकी शुदि ही हितसाधन कर सकेगी और स्वराज्यको पात निकर को कायम रखते हुए यह त्यौहार अपने शुद्ध स्वरूपमें ला सकेगी। यदि कांग्रेस ऐसा करनेके लिये तैयार न मनाया जाय और उससे जनताको उदारता एवं सहन- हो तो फिर हिन्दू समाजको ही इस त्योहारके सुधारका शीलतादिका सक्रिय सजीव पाठ पढ़ाया जाय तो इसके भारी यत्न करना चाहिये। द्वारा देशका बहुत कुछ हित साधन हो सकता है और क्या ही अच्छा हो, यदि देशसेवक जन इस स्यौवह अपने उत्थान एवं कल्याणके मार्ग पर लग सकता हारके सुधार-विषयमें अपने अपने विचार प्रकट करने है। इसके लिये ज़रूरत है काँग्रेस-जैसी राष्ट्रीय संस्था की कृपा करें और सुधार-विषयक अपनी अपनी योजके आगे पानेकी और इसके शरीरमें घुसे हुए विकारों नाएँ राष्ट्र के सामने रखकर उसे सुधारके लिये प्रेरित को दूर करके उसमें फिरसे नई प्राण-प्रतिष्ठा करने की। करे। यदि कुछ राष्ट्र-हितैषियोंने इसमें दिलचस्पीसे यदि कांग्रेस इस त्यौहारको हिन्दू धर्मकी दलदलसे भाग लिया तो मैं भी अपनी योजना प्रस्तुत कसँगा निकाल कर विशुद्ध राष्ट्रीयताका रूप दे सके, एक और उसमें उन मर्यादाओंका भी थोड़ा बहत उस्लेख राष्ट्रीय सप्ताह श्रादिके रूप में इसके मनानेका विशाल करूंगा जिनकी सुधारके लिये नितान्त प्रावश्यकता है। आयोजन कर सके और मनानेके लिये ऐसी मर्यादाएँ मर्यादाएँ पहले भी जरूर थीं, जिनके भंग होनेसे लज्यनिशा करके दृढताके साथ उनका पालन कराने में समर्थ भ्रष्ट होकर ही यह त्यौहार विकृत हा। और इसी होमके जिनसे अभ्यासादिके वश कोई भी किसीका लिये बहुत सेसे मैने भी होलीका मनाना-उसमें शरीक अनिष्ट न कर सके और जो व्यक्ति तथा राष्ट्र दोनोंके होना-छोड़ रखा। उत्थानमें सहायक हों, तो वह इस बहाने समता और बीरसेवामन्दिर, सरसावा स्वतन्त्रताका अच्छा वातावरण पैदा करके देशका बहत होली होली है! शान-गुलाल पास नहि, श्रद्धा समता रंग न रोली है। नही प्रेम-पिचकारी करमें, केशर-शान्ति न पोली है। स्थादादी सुमृदा बजे नहि, नहीं मपुर-रस बोली है। कैसे पागल बने हो चेतन.. बते 'होली होली है। ध्यान-भमि प्रज्वलित हुई नहि कर्मेन्धन न जलाया है। असद्भावका धुओं उड़ा नहि, सिब-स्वरूप न पाया है। भीगी नहीं जरा भी देखो, सानुभूतिकी चोली है। पाप-भूति नहि उड़ी, कहो फिर से होली होली है। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनोंकी आस्तिकता और नास्तिकताका आधार [ पं. ताराचन्द जैन न्यायतीर्थ, वर्शन शादी] क समय था जब लोग आस्मिक-उन्नतिकी का स्वांग रचनेवालों पर है। धर्म व दर्शन तो Sोर बड़े जोरोंसे बढ़ रहे थे । आत्मिक- अपने उदेशसे कभी विचलित नहीं होते। हाँ, उन्नतिक विषयमें दार्शनिकोंका परस्परमें मतैक्य न अपूर्ण पुरुषों द्वारा जो दर्शन चलाये जाते हैं वे था, प्रत्येक दार्शनिक अपने मन्तव्य व दर्शन पूर्ण आत्मिक-उन्नति करनेमें प्रायः असफल रहते (Philosophy) को सर्वोत्तम बतलाकर उसको हैं। खैर, यहाँ पर दर्शनोंकी वास्तविकता अवाम्तही आत्मोन्नतिका प्रमुख साधन घोषित करता विकता वा पूर्णता-अपूर्णतासे कोई सरोकार नहीं, था। ये दानिक कभी कभी आपसमें वादविवाद यहां तो सिर्फ इतना ही बतलाना है कि दर्शनों भी किया करते थे, वादविवादका परिणाम कमी की आस्तिकता वा नास्तिकताका अमुक आधार सुखद और कभी कलहवर्द्धक हुआ करता था। है। भात्मिक उन्नतिके लिये अनेक नये दर्शन, मत मैं पहले ही संकेत कर चुका हूँ कि दार्शनिक और मजहब पैदा हुए। आध्यात्मिक उन्नति व अपने अपने मन्तव्यको लेकर श्रापममें वादसुखके नामपर जहाँ इन दर्शनाने जितनी अधिक विवाद किया करते थे और उसका नतीजा कभी सुख और पावन-कृत्योंकी सृष्टिकी है; उन्हींन उसी कभी कलह वर्धन भी हुआ करता था । अति उन्नतिके बहाने दुःखों और अत्याचारोंका कम प्राचीन-कालमें ईश्वगदि विषय पर अनेक सर्जन नहीं किया। मायावियों, स्वार्थियों और शास्त्रार्थ हुए, इन शाम्बाओंमें प्रमुग्व दो विरुद्ध-मनो. अपनेको ईश्वरका प्रतिनिधि घोषित करनेवाले वृत्तिवाले दार्शनिकोंने भाग लिया। इन शास्त्रार्थों लोगोंने देवी-देवता तथा यज्ञादिकी कल्पना कर अथवा वादोंमे मत-भेद मिटने वा तत्वनिर्णयके धर्मकी बोटमें मनुष्य-ममाज और मूक-पशुओंके बजाय, और अधिक द्वेषाग्नि भड़को । जिन बातों अपर जो जुल्म ढाये हैं, उनकी दास्तांक पढ़ने, (ईश्वरादि)क निर्णयकं लिये दर्शनोंका जन्म हुआ, सुनने और स्मरण करने मात्रसे मस्तक घूमने वे विषय आज भी जहाँके तहाँ अन्धकाराच्छन्न लगवा है । यही कारण है कि बहुत लोग धर्मसे हो रहे हैं और दर्शनोंके वाद-विवादोंके विषयमें घृणा करने लगे हैं, परन्तु धर्म जीवनमें उतना ही कविका यह कथन अक्षरशः सत्य मालूम होता भावश्यक है, जितनी हवा । धर्म व दर्शनोंके नाम हैपर जो जुल्म हुए हैं, उनमें उन धर्मों और दर्शनों सदियोंसे फिलासफी की चुनाचुनी रही। का कोई दोष नहीं है। इसका सारा दोष तो धर्म पर खुदाकी बात जहाँ थी वह वहाँ ही रही । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, विव] दर्शनोंको मास्तिकता और नास्तिकताका माधार इन दोनों विरुद्ध मनोवृत्तियोंने भापसमें बहुत कुछ विचार करने वा भास्तिक-नास्तिक अत्यन्त उग्ररूप धारण कर दार्शनिक-जगत् , और कहे जानेवाले दर्शनोंकी विवेचनामोंकी जानकारी माथ ही साधारण जनताको भी दो भागोंमें करनेके बाद, मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ, कि विभक्त कर दिया । एक भागको आस्तिक और किसी पदार्थके अस्तित्व के स्वीकार करनेसे पादूसरे भागको नास्तिक कहते हैं, दोनों एक दूसरे स्तिक, तथा उसी पदार्थके न माननेसे दर्शन नाके दुश्मन हैं । हमें उस बुनियाद-आधारको स्तिक कहलाये। किसीने ईश्वर, प्रमा, खुदाको ढूंढ़ निकालना है, जिसके बल पर इन विरोधि- जगतका बनानेवाला स्वीकार करने, किसीने वेदमनोवृत्तियोंका बीज बोया गया, और जिसका प्रमाण. किसीने मदृष्ट-पुण्य-पाप, और किसीने परिणाम हमेशा दुखद तथा कटु ही रहा । अपने परलोकका अस्तित्व माननेवाले दर्शनको मास्तिक अगुओंके फुसलावमें आकर साधारण जनता घोषित किया। और जिनने इनके माननेसे इंकार भी इन मनोवृत्तिोंके प्रवाहमे बहनेसे अपने किया उन्हें नास्तिक घोषित किया गया। ऊपर आपको न रोक मकी । इस विरोधन इतना जोर लिखी आस्तिक नास्तिक मान्यतामोंके विषय में पकड़ा कि आये दिन धर्मके नामपर मानवताका यहाँ पर कुछ विवेचन करना मावश्यक है; जिस. खले आम गला घोंटा गया, इस भावनाने मानव- से विषयका स्पष्टीकरण हो जाये और मास्तिकता समाजको टुकड़े टुकड़े विभक्त कर दिया, जिससे तथा नास्तिकताकी भी जानकारी सरलतासे हो उनकी वा उनके देशकी अपार क्षति हुई। इस जाय। युगमे भी कभी कभी ये हत्यारी भावनाएं जाग ईश्वरवादी दाशनिक-जिन दर्शनों में ईश्वरको उठती हैं, जिमसे राजनैतिक आन्दोलनको भी जगतका कर्ता-हर्ता माना गया है-जैन-दर्शन, इसका कट परिणाम भुगतना ही पड़ता है। इस बौद्धदर्शन और चार्वाक दर्शनको ईश्वर न माननेके समय तो हमें ऐसी दशा उत्पन्न कर देना चाहिये, कारण नास्तिक घोषित करते आये हैं। यह ठीक जिससे सभी दार्शनिक वा जनसाधारण एक है, कि जैनदर्शन ईश्वर नहीं मानता, पर ईश्वरादूसरेको अपना भाई समझकर देशोद्धार आदि स्तित्व मिद्ध होनेसे पहले उसे नास्तिक कहना कार्यों में कन्धामे कन्धा जुटाकर आगे बढ़ते जावें। उचित न होगा, युक्तिके बलपर यदि ईश्वर सिद्ध इसके लिये पक्षपात वा अपनं कुलधर्मका मोह होजाय तो जैनदर्शनको नास्तिक ही नहीं, और जो छोड़कर युक्ति-अविरुद्ध दर्शनकी मास्तिकता और कुछ चाहें कहें । हाँ, तो यहाँ पर ईश्वरके विषयमें नास्तिकता पर हमें विचार कर लेना चाहिये, विवेचना की जाती है। कतिपय ईश्वरवादी व्यर्थ दूसरोंको नास्तिक कह कर, उन्हें दुःखित दार्शनिकोंका अभिमतहे कि इस युगसे बहुत पहले करने और भड़कानेसे क्या लाभ १ इन्हीं दुर्भाव- इस दुनियाँका कोई पता न था, केवल ईश्वर ही नामोंने तो भारतको गारत कर दिया; अब तो मौजूद था। एक समय ईश्वरको यद्यपि यह परिसम्हलें। पूर्ण था-एकसे अनेक होने वा सृष्टि रचना करने Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [फाल्गुन बीर-निर्वाण सं० २४॥ की लालसा हुई । चुकि वह सर्वशक्तिमान् सर्वक्ष, से भी जिन कार्योंका निर्माण किया जाता है, उनमें और व्यापक था; इमलिये उसने स्वेच्छानुसार तांबा श्रादि-जिस मूल वस्तुसे कार्य पैदा हुआ तमाम जड़ी और चेतन-जगत्-पर्वत, समुद्र, नद- है-बराबर अन्वयरूपसे पाया जाता है । उपादान नदी, भूखण्ड, बनखण्ड, देश, द्वीप और पशु-पक्षी, कारण अपनी पर्यायों-हालतोंको तो छोड़ देता है, कीड़ा-मकोड़ा, देव, मनुष्य आदिका निर्माण पर वह खुद कभी विनष्ट नहीं होता, उमसे जिन किया। इस कार्य के निर्माणमें उसे किमी भी अन्य कार्योंकी सृष्टि की जाती है, उन कार्योंमें उपादानके साधन-उपादानादि कारणोंकी-जरूरत नहीं समस्त गुण अविवाद रूपसे पाये जाते हैं। हुई; अर्थात् स्वयं ईश्वर ही उपादान और निमित्त ईश्वरवादी लोग जगत-कार्यकी रचनामें ईश्वरकारण था। ___ को ही उपादान वा निमित्त कारण बतलाते हैं, पर पाठको! आप लोग जानते ही होंगे कि प्रत्येक युक्ति और बुद्धिकी कसौटी पर कमनेसे यह बात कार्यकै करनेमें उपादान-कारण और निमित्त विल्कुल झूठ माबित होती है। क्योंकि मैं पहले ही कारणकी आवश्यकता हुआ करती है। जो अपनी लिग्व चका हूँ कि कार्य में उसके उपादानके समस्त हस्ती वर्तमान पर्याय-मिटाकर खुद कार्य रूपमें गुण पाये जाते हैं । अब सोचिये, यदि जगत-कार्य तब्दील हो जाय उसे उपादान कारण कहते हैं; का उपादान कारण ईश्वर है, तो लाजमी तौरपर और जो कार्य करने में सहायक हो उसे निमित्त ईश्वर के मर्वज्ञत्व, व्यापकत्व, सर्वशक्तिमत्वादि या सहायक कारण कहते हैं। जैसे, रोटी बनानेके गण जगतमें पाये जाना चाहिये। परन्तु संसारमें लिये भाटा, रसोइया, पानी आग श्रादिकी श्राव- जितने कार्य नजर आते हैं, उनमें ईश्वरके गुणोंश्यकता हुआ करती है; गेटी कार्यमें आटा उपा- का खोजने पर भी सद्भाव नहीं मिलता, फिर न दान कारण है; पाटा अपनी वर्तमान चूर्ण पर्याय- जाने किम आधारके बल पर ईश्वरवादी ईश्वरको को छोड़कर पानी आदिके महयोग-मम्मिश्रणसे जगतका उपादान कारण बतलाकर उसे कलंकित पिंडादि प्राकृतियोंको धारण करता हुआ, रसोइया करते हैं । भले ही अन्धश्रद्धालु ईश्वरको वैसा माके हाथोंकी चपेट वा चकला-बेलनकी सहायतासे नंते रहे, परन्तु जिनके पास समझने-तर्क करनेकी चपटा तथा गोलाकारमें परिवर्तित होकर अग्निपर बुद्धि है, ने तो इसे निरी युक्तिशून्य कपोल-कल्पना सेकनेसे रोटी-कार्यमें बदल जाता है, पर वह अपने कहेंगे। रूप-रसादि गुणोंको नहीं छोड़ता। स्वर्णसे कड़ा, अन्य ईश्वरवादी लोग ईश्वरको जगतका बाली, कुण्डल आदि अनेक भूषण बनाये जाते उपादान कारण न मान, निमित्त कारण बतलाते है परन्तु सोना अपने स्वर्णत्व, पीतत्वादि स्वरूपको है। उनका कहना है कि सृष्टि रचनाके पहले कभी नहीं छोड़ता, केवल अपनी पिंड, कुण्डल ब्रह्मांडमें ईश्वर, जीव और प्रकृति तीन ही पदार्थ भादि पर्यायों और प्राकृतियोंका ही परित्याग थे। ईश्वरने स्वेच्छानुसार जीव और प्रकृतिसे करता है। तांबा, पीतल, लोहा, मट्टी, काष्ठ भादि चेतन तथा अचेतन जगत्की उत्पति की। जिस Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष, किरण २] दर्शनोंकी पास्तिकता और नास्तिकताका प्राधार तरह कुम्हार मिट्टीसे घट, दीपक, मकोरा आदि आते हैं जिनका कर्ता बुद्धिमान नहीं होता, अपने मिट्टीके बर्तन, बढ़ई लकड़ीसे कुरमी, मेज, आप बनते बिगड़ते रहते हैं। पास, कीड़ा-मकौड़ा, पलंग किवाड़ आदि और जुलाहा ( बनकर) जड़ निमित्त मिल जानेमे उत्पन्न होते हैं और सृतसे धोती, दुपट्टा, चादर, तौलिया, रूमाल श्रादि विनाश हेतुओंके साहचर्यसे विनिष्ट होते रहते हैं। कपड़ा तैयार करता है। यदि मिट्टी उपादान कारण हीरा, मणि, पन्ना, पुखराज आदि नियत स्थानमें तथा अन्य चक्रादि ( घड़े बनानेका चाक) निमित्त ही पैदा होते हैं । स्वाति की बद यदि सीपमें पड़ कारण मौजूद भी रहे और कुम्हार न हो तो घड़े जाय तो मोती बन जाता है, किसी हाथीके गण्ड आदिका बनना मर्वथा असम्भव रहता है । उमी म्थलमें भी गजमुक्ता ( एक किस्मका मोती ) का प्रकार यद्यपि जीव और प्रकृति-उपादान-कारणों सद्भाव माना गया है, सर्पराज-मणियार मर्पके के द्वारा हो चेतन अवेतन विश्वकी रचना हुई है; मस्तक पर मणिकी उत्पत्ति होती है; इमी तरह तो भी इस तमाम अत्यन्त कठिन दुरूह और और भी असंख्य उदाहरण दिये जा सकते हैं, व्यवस्थित जगत-रचनाका करनेवाला कोई बहुन जिनके बनाने में प्रकृति के सिवाय अन्य किसी भी बुद्विमान् व्यक्ति जहर है । जो इम रचनाका ईश्वरादि व्यक्तिका जरा भी दखल नहीं है । शा. कर्ता है, वह ईश्वर है, ईश्वरसे भिन्न कोई अन्य यद ईश्वरवादी दार्शनिक उपर्यक्त उदाहरणोंमें भी साधारण व्यक्ति इनने महान् कार्यको नहीं कर ईश्वरका दखल बतलाते हुए कहें, कि ये कार्य भी मकता । चकि ईश्वर मर्वशक्तिमान् , मर्वज्ञ और मातिशय परमात्मा द्वारा ही निर्मित होते हैं। सर्वत्र व्यापक है, इमलिये वह एक ही समयमें परन्तु घामादिकी उत्पत्तिको देखते हुए, उमकी अनेक देशवर्ती, एक देशवर्ती अनेक कार्य और बुद्धिमत्ताकी कलई खल जाती है। पाबाद मकानों भिन्न समयमें भिन्न भिन्न देशमें होनेवाले अनेक की छन, भंगन भित्ति आदि उपयोगी स्थानों पर कार्योको सरलतामे करता रहता है। भी बारिशके दिनोंमें व्यर्थ ही घाम पैदा होजाया ईश्वरवादी दार्शनिकोंकी तरह निरीश्वरवादी करता है, यह कार्य भी क्या बद्धिमत्ताका सूचक दार्शनिक भी कार्यकी उत्पत्ति उभय कारणोंसे है ? (उपादान और निमित्तमे) मानते हैं । जैन- ईश्वरवादी दार्शनिक ईश्वरको जगत् निर्माता दर्शनने ईश्वरकी जगन-कतनाका युक्तिपूर्वक खंडन माननेमें यह दलील भी देने हैं कि, अगर जगतका किया है, वह मा यहाँ नहीं लिया जा सकता बनाने वा व्यवस्था करनेवाला महान् बुद्धिमान न यहाँ मोटी दलीलें पेश करूँगा, जिससे जगन्की होता, तो यह विश्व-रचना इतनी व्यवस्थित और प्राकृतिकताका भान हो सके। सुन्दर न होती । यह उसी मर्वशक्तिमान परमात्मा हमारे ईश्वरवादी भाई कहा करते हैं, कि हर. की लीला है जिमने जगनको एक सुन्दर ढांचे में एक कार्यकी उत्पत्ति बुद्धिमान सहायकके बिना ढाला है । भाइयो, जरा विश्व रचनाकी ओर भी नहीं होती; परन्तु संसारमें ऐसे बहुतसे कार्य नजर गौर कीजिये, माया यह व्यवस्थित है या अन्यव Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ अनेकान्त (काल्गुन, वीरनिवाब सं०२४१६ स्थित ? कहीं भयंकर दुर्गम पर्वत ही पर्वत, कहीं करनेवाला और न नाश करनेवाला ही है। भले ही बन ही बन, कहीं पानी ही पानी, कहीं पानीका अन्धविश्वासी उसको वैसा मानते रहें। जोशाना बिलकुल अभाव-महस्थ जैसे स्थानोंमें, निर्जन वरणादि अष्ट कर्मों के बन्धन में हमेशाके लिये छूट स्थानों में जलप्रपात और सुन्दर झरनोंका बहना, गया है अर्थात कर्मों की गुलामीकी जंजीरोंको जिजहाँ ऊँची जमीन चाहिये वहां जमीनका नीचा सने काट फेंका है, जिसने समस्त कार्य कर लिये होना, जहाँ भूभागका नीचा शोभास्पद होता वहाँ हैं-कृतकृत्य होगया है और जिसने पूर्णता प्राप्त उसका ऊँचा होना, अकाल, महामारी, अनावृष्टि करली है, ज्ञान, सुख, वीर्य-श्रादिका धनी है जो अतिवृष्टि उल्कापात आदिका होना, डोम, मच्छर, मोक्ष पाने के बाद संसार में कभी न लौटता है और कीड़ा-मकोड़ा साप विच्छू सिंह व्याघ्रकी सृष्टि न संसारको झंझटोंमें फंसता है वही ईश्वर है। होना, मनुष्यमें एक धनवान् दूसरा निर्धन एक उसको महेश्वर, ब्रह्मा, विष्णु परमात्मा, खुदा गौड मालिक दूसरा नौकर, एक पुत्र-स्त्री-बाल बचे आदि (God) आदि भी कहते हैं। जैन दर्शनमें इसी के प्रभावसे दुखी, दूसरा इस सबके होते हुए भी प्रकारका ईश्वर-परमात्मा माना गया है और ऐमा दरिद्रताके कारण महान दुखी, एक पंडित दूसरा ईश्वर कोई एक विशेष व्यक्ति ही नहीं है। अब अक्कलका दुश्मन मूर्ख, चन्दनका पुष्प विहीन तक अनंत जीव परमात्मपद पा चुके हैं और होना, स्वर्णमें सुगन्धका न होना और गन्नामें भविष्यमें भी अगणित :जीव तरकी करते करते फलका न लगना इत्यादि ऐसे अनेक उदाहरण इस पदको पार करेंगे । अब तक जितने जीवोंने हैं जिनके कारण विश्वरचनाको कोई भी बुद्धिमान परमात्मपद प्राप्त किया है और भविष्यमें आत्मिक व्यस्थित और सुन्दर नहीं कह सकता । इस लिये उन्नति करते करते जितने जीव इस पदकी प्राप्ति बुद्धिमान ईश्वरको जगतका निर्माता वा व्यवस्था- करेंगे, वे सब परस्पर एक समान ज्ञान-सुख वीर्य पक कहना बिलकुल ही मारहीन मालूम होता है। आदि गुणोंक धारक होंगे। उनके गुणोंमें रंचइसीसे किसी कविने ऐसे ईश्वरकी बुद्धिका उप- मात्र भी तारतम्य न तो पाया जाता और न कभी हास करते हुए स्पष्ट ही लिखा है पाया जायगा। जिनसे पूज्य-पूजक भाव सदाके गन्धः सुवर्णे फलमिक्षुदंडे नाकारि पुष्पं किलचन्दनेषु लिये दूर होगया है और वे सभी मुमुक्षु जीवों विद्वान् नान्चो न तु दीर्घजीवी धातुः पुरा कोऽपिन- द्वारा समानरूपसे उपास्य हैं। इन मुक्त जीवोंसे बुद्धिदोऽभूत् ॥ भिन्न जगत् सृष्टा, जगत्पालक और जगत-विध्वंपाठक महानुभाव उपर्युक कथनसे संक्षेपमें सक त्रि-शक्ति सम्पन सदेश्वर नामका कोई भी यह तो समझ ही गये होंगे, कि ईश्वरको जगत व्यक्ति नहीं है। अतः ईश्वर (जगत का भादि फर्ता मानना युक्तिकी कसौटी पर किसी प्रकार रूपसे ) न माननेवाले दर्शनोंको नास्तिक दर्शन भी कसकर सिद्ध नहीं किया जा सकता और नहीं कहा जा सकता; इसलिये उपवुन दलीलसे वास्तव में बहन जगतका मनानेवाला, वा पालन जैनदर्शन भादिको नास्विकदर्शन कहना महान Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण] पर्शनोंकी भास्तिकता और नास्तिकताका माधार अपराध होगा। जुल्म नहीं हुए। जैनदर्शन वेदोंके हिंसात्मक भ० महावीर और महात्मा गौतमबुद्धसे विधानों का खंडन करता है, परन्तु इससे उसे करीब सौ वर्ष पहले जन्म लेनेवाले प्रसिद्ध दार्श- नास्तिकदर्शन नहीं कहा जा सकता। यदि वेद निक महर्षि कपिलने (कहते हैं सबसे प्रथम निन्दक नास्तिक माने गये होते तो कपिलव कपिलने ही दर्शन पद्धतिको जन्म दिया था, उनसे उनका सांख्यदर्शन भी नास्तिकके नामसे मशहूर पहले प्रात्मा आदिके विषयमें न तर्कणा की जाती होना चाहिये था । परन्तु उन्हें किसीने नास्तिक थी और न इन गूढ प्रश्नोंके सुलझानेका प्रयन ही नहीं लिखा । जैन धर्मने वैदिक विधानोंका खले किया जाता था।) जगतकी उत्पत्तिको स्वाभाविक आम विरोध किया, इमलिये कुछ मनचलों बतलाया है और ईश्वर नामके पदार्थका खंडन (वैदकों ) ने जैनदर्शनको भी नास्तिक दर्शन किया है। परन्तु किसी दार्शनिकने कंपिल द्वारा कहकर बदनाम करना शुरू कर दिया। चूंकि चलाये सांख्यदर्शनको नास्तिकदर्श नहीं लिखा। वैदिक विधान पूर्ण तौरसे जगत्-हित करनेमें इससे समझ लेना चाहिये कि नास्तिकताकी कोई असमर्थ सावित हुए और इनसे संसारमें सुख अन्य ही बुनियाद है। कुछ लोग-जो वेदको ही और समृद्धिको सृष्टिको जगह दुःख और प्रशान्त हरएक बातमें प्रमाण मानते हैं-ऋग्वेद आदि तथा चुन्ध वातावरण पैदा होगया। एक समानी वेदोंको प्रमाण न माननेवाले और वेदोंके अप्रा- जानेवाली कौमके सिवाय समस्त मनुष्यों को कृतिक, असंगत तथा युक्ति-विरुद्ध अंशोंका खंडन भनेक तरहसे पतित और अधम घोषित किया करनेवाले दार्शनिकोंको 'नास्तिकोवेद निन्दक:- गया उनके अधिकार हड़पे जाने लगे, पशुभोंक वेद निन्दक नास्तिक है-कहकर व्यर्थ बदनाम बड़े बड़े गिरोह अग्नि कुण्डोंमें धर्मके नाम पर करते हैं । वेदोंमें ऐसी ऐसी बीभत्स और घृणाके वेरहमीके साथ झोंके गये । मभीका जीवन दूभर योग्य बातें लिखी हैं, जिनको कोई भी निष्पक्ष होगया। इन्हीं वैदिक विधानोंका जैन, बौद्ध बुद्धिमान माननेको तैयार न होगा। गोमेध, नर- आदि सुधारक लोगोंने खण्डन किया, जिसमें मेध आदि यझोंका वैदिक कालमें और उसके इन कृत्योंकी कमी दिनों दिन होनी चली गई। पश्चात् कई शताब्दी तक खुले आम धर्मके नाम और इन्हींके बलपर जिनकी आजीविका और पर प्रचार किया गया और जो जुल्म ढाये गये वे शान-शौकत अवलम्बित थी वे लोग घबराये कम निन्दाके योग्य नहीं हैं। उनकी निन्दा तो और वे ऐसे सभी सुधारकों और उनके मत की ही जावेगी। महर्षि कपिलने भी वेदोंके ऐसे या दर्शनको बदनाम करनेके लिये कोई अन्य निन्दाई अंशों पर आपत्ति की थी,खंडन भी किया उपाय न सूझने के कारण 'नास्तिकोवेदनिन्दकः' था। भगवान महावीर व म० गौतम बुद्धने वो इस तरह घोषित करने लगे। इस तरहसे तो धर्मके नामपर किये जानेवाले अत्याचारोंको जड़से प्रत्येक मजहब और दर्शन नास्तिकताकं शिकार उमाद फेंका । तबसे फिर आज तक वैसे कठोर होनेसे न बचेंगे। जिम तरह वैदिक लोग बेद Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेवात [काल्गुन पीर-निवाब सं० २०० प्रमाण न माननेवालोंको नास्तिक कहते हैं, वैसे अपने अदृष्ट-स्वोपर्जित पुण्य पाप कर्मस मरण ही दूसरे लोग भी वैदिक लोगोंको उनके अन्य व कर किसी एक मनुष्यादि गतिसे दूसरी देवादि शाख प्रमाण न माननेके कारण नास्तिक कह गतिमें जन्म लेता है. उसीको परलोक कहते हैं । सकते हैं, और प्रायः ऐसा देखा भी जाता यदि जीवास्तित्व भौतिक-जगतसे मिन और है । मुसनमान लाग कुरानकी बातों और शाश्वतिक न माना जायगा तो परलोक भादि मुस्लिम संस्कृतिसे बहिष्कृत सभी लोगोंको भी न बन सकेंगे; क्योंकि परलोक-गामीके अस्तिकाफ़िर-नास्तिक कहते हैं। दूसरे लोग भी कोई स्व होनेपर ही परलोक अस्तित्व बनता है। मिथ्यात्वी और कोई अन्य हीन शम्भके द्वारा हम देखते हैं कि जीवास्तित्वको मास्तिकता अपने मतके न माननेवाले लोगोंको कुत्सित की कसौटी मानने पर संसारकी जन-संख्याका बचनोंके द्वारा सम्बोधित करते हैं। इससे वेद- बहुभाग भास्तिक कोटिमें सम्मिलित हो जाता निन्दक अथवा वेद वचनोंको प्रमाण न स्वीकार है। बौद्ध दार्शनिकोंको नैराम्यवादी होनेपर भी करनेवाले दार्शनिकोंको 'नास्तिक' कहना बिलकुल एकान्ततः नास्तिक कहना उपयुक्त न होगाः क्योंकि युनिशून्य और स्वार्थसे अोतप्रोत जंचता है। बौद्धदर्शनमें भी सन्तानादि रूपसे जीवका मस्तित्व अतः वेद-वाक्य-प्रमाण न माननेसे भिन्न ही स्वीकार किया गया है, भले ही उनका वैसा नास्तिकताका कोई प्राधार होना चाहिये। मानना युक्तिसंगत न हो,पर जीव या पात्माका तो इस तरह ईश्वर-विश्वास और वेदवचन- अस्तित्व किसी न किसी रूपमें माना ही गया है। प्रमाण आस्तिकता की सची कसौटी नहीं है, इन चार्वाक दर्शन और इसीको शाखा प्रशाखारूप दोनोसे भिन्न ही आस्तिकता की युक्तिसंगत मन• अन्य दर्शन जो जीव-आत्मको पृथिवी, जल, अग्नि, को लगनेवाली कोई कसौटी होना चाहिये । मेरे वायु और आकाशसे भिन्न पदार्थ नहीं स्वीकार विचारसे तो भौतिक जगतसे भिन्न चैतन्ययुक्त करते, किन्तु इन्हीके विशिष्ट संयोगसं जीवकी मात्मा या जीवका मानना ही पास्तिकताकी सर्व- उत्पत्ति मानते हैं, उन्हें जरूर नास्तिक कोटिम श्रेष्ठ कसौटी, माधार या बुनियाद है । इससे सम्मिलित किया जा सकता है। प्रत्यक्षसे ही हमें भिन्न मास्तिकताकी जितनी परिभाषायें देखनेमें देहादिसे भिन्न सुख-दुःखका अनुभव कर्ता मालूम भाती हैं ये सभी अधूरी, असंगत और सदोष होता है। जो अनुभव करता है उसीको जीव मालूम होती हैं । जीवका अस्तित्व स्वीकार करने कहते हैं । मरनेके बाद पंचभूतमय शरीर मौजूद पर ही ईश्वर विश्वास, वेद-वाक्य प्रमाण आदिकी रहनेपर भी उसमें चेतनशक्तिका प्रभाव देखा चर्चा बन सकती है। बिना जोवर्क उक्त समस्त जाता है। जब तक देहमें आत्मा विद्यमान रहता कथन निराधर और निष्फल प्रोन होता है। है तभी तक उसकी क्रियायें देखनमें आती हैं। मदृष्ट-पुण्य-पाप और परलोककी कथनी नी जीव चेतन शक्ति बाहिर निकल जानेपर मिट्टीकी हेतुक होनेसे जीवास्तित्व पर ही निर्भर है। जीव तरह केवल पुद्गलका पिरत ही पड़ा रहता है। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस समय चेतन पात्माके स्वरूपका उसमें एक गांठत हो क्षण भरमें नेस्त व नाबूद कर सकते दम अभाव नजर आता है। इसलिये जीवको हैं। जीव या भात्मा शाश्वतिक और अमर है भूतजन्य या भूतमय कहना भ्रमसे खाली नहीं है। इसमें किसी भी भास्तिक दार्शनिकको लेशमात्र जीवास्तित्वको आस्तिकताकी कसौटी मान संशय नहीं है और होना भी न चाहिये। सभी लेनपर भास्तिकता और नास्तिकताके नाम पर दार्शनिकोंने जीव सिद्धि प्रबल प्रमाणोंसे की है। होनेवाले संसारके अनेक संघर्ष सरलतासे दूर अतः इस संसारको सुखमय स्वर्गीय बनानेके किये जा सकते हैं। आपसके वैमनस्य तथा घृण लिये हमें इसी श्रेयस्करी मान्यताको मास्तिकता भादि दोषोंका शमन इससे बहुत जल्द हो सकता की सची कसोटी सहर्ष स्वीकार कर लेना है । और भारतवर्ष पारस्परिक प्रेम-सूत्रमें सुसंवद्ध चाहिये। हो उन्नतिकी चरम सीमा तक पहुँच सकता है, वीरसेवामन्दिर, सरसावा, तथा गुलामी जैसे असम अभिशापको हम सुसं. होली है ! बच्चे न्याहें, बूढ़े व्याहें कन्याओंकी होली है। बेचें मुता, धर्म-धन खावें, ऐसी नीयत डोली है । संख्या बढ़ती विधवाओंकी, जिनका राम रखोली है !! भाव-शून्य किरिया कर समझे,पाप कालिमा धो लीहै ! नीति उठी, सत्कर्म उठे,ौ' चलती बचन-बसोली है ! उच-नीचके भेद-भावसे लुटिया साम्य हुबो ली है !! दुख-दावानल फैल रहा है, तुमको हँसी-ठठोली है !! रूढ़ि-भक्ति औ' हठधर्मीसे हुआ धर्म बस डोली है !! (४) नहीं वीरता, नहीं धीरता, नहीं प्रेमकी बोली है। सत्य नहीं,समुदारहृदय नहि,पौरुष-परिणति खो ली है! नहीं संगठन, नहीं एकता, नहीं गुणीजन-टोली है !! प्रण-दृढ़ताकी बात नहीं, समताकी गति न टटोली है !! हृदयोंमें अज्ञान-द्वेषकी बेल विषैली बोली है ! आर्तनाद कुछ मुन नहिं पड़ना, स्वारथ चक्की झोली है। भाई-भाई लड़ें परस्पर, पत अपनी सब खोली है! बल-विक्रम सब भगे,बनी हा ' देह सबोंकी पोली है !! उठती नहीं उठाए जाती, यद्यपि बहुती मां ली है। खबर नहीं कुछ देश-दुनीकी, सचमुच मी भोली है!! बाइस जैनी प्रतिदिन घटते, तो भी और नम्बोली है। इन हालों तो उननि अपनी गे जैनो । बस हो ली है!! बगवीर' Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातियाँ किस प्रकार जीवित रहती हैं ? [o-श्री. खा. हरदयाल, एम० ए०] जातिका जीवन किस वस्तुमें है? किस चीज़ नियमकी प्रेमिणी है; नियमबद्ध भान्दोलनकी मनवानी " में जातिकी प्रास्मा विपी हुई है ? क्या है। प्रकृतिको पूर्वी रजवादोंकी सी बदइन्तज़ामी तापीज़ है, जिसे जाति अपनी रक्षाके लिये पहने रहती पसन्द नहीं । प्रकृति फूहड़ नहीं है। पार्थिव संसारमें है।स्या कस्तूरी है, जिसे एक अधमरी जातिको सुंघाना हर वस्तु घटस नियमके अनुसार अपना असर दिखाती चाहिए किया कुछ तो होशमें भावे? वह क्या रहस्य है है। फिर नैतिक और देशोंकी दुनिया भी अवश्य जिसमें शेष सब भेद छिपे हुए है ? वह क्या कुंजी किसी न किसी तरकीबके अनुसार काम होता होगा। है, जिससे जातीय प्रश्नोंके सब ताले खलते हैं ? भली. या कार्यवाही न होती होगी। यदि तमाम जातियोंकी बाबाको एक मंत्र याद था, जिससे तरह तरहके बहु- उमति और उनकी अवनतिसे हम कोई सिद्धान्त मूल्य मोती-जवाहर उसके हाथ पाये थे। उसका भाई नहीं निकाल सकते, जिससे हम अपने मार्गमे काँटे यह शब्द भूल गया; और वह अपने भाग्यको पीटता हटा सकें, तो इतिहासको धिक्कार है। उसके लड़ाई के रहा; दौलतका द्वार न खुला, पर न खुला । इसी तरह मैदान केवल क्रमाईनाने और उसकी क्रान्तियां केवल हम पूछते हैं कि नातिके लिए वह क्या मंत्र है, जिससे होलीका स्वांग रही है । अफसोस है कि लाखों मनमानी मनोकामना मिलती है-धन, मान, बल निरपराध जानें गई, जमाने में उथल-पथन हुई एक स्वराज्य, चक्रवर्ती राज्य सब प्राप्त होते हैं? क्षण भी मनुष्यको चैन न मिला। अगर इस पर भी यह स्पष्ट प्रकट है कि जातिके जीवनका संसार इतिहाससे कोई सिद्धान्त जानीय जीवनको बनाए म्यापी सिद्धान्त अवश्य है, अन्यथा जातिके कर्णधार रखने के लिए नहीं मिल सकता, तो उसे व्यर्थ समझना किस प्रकार अपने देश-वासियोंकी भलाईका प्रयत्न कर उचित है । क्या यह संसारकी जातियोंको यों ही सकते हैं। किस नियमसे वह काम करनेमें सहायता लें, यह नाच नचा रहा है ? अवश्य ही जातीय जीवनका किस नेताके अनुयायी बने, किम गहमे शिक्षा ग्रहण कोई विश्वव्यापी सिद्धान्त है जो हमको मालूम हो सकना करें ? यदि कोई सिद्धान्न नहीं है तो वही निराशाकी है। जिस प्रकार कोपनिषदमें लिखा है कि नेचिकेनाने बात है। सब मामला भटकला-पच्चू और भनिश्चित् भयसे पूछा--मुझे मनुष्य की मृत्युका रहस्य बनायो ? रहा । किसी मान्दोलनको बुराई-भलाईको पहचानना मुझे हाथी घोड़े सोना-चाँदीकी पावश्यकता नहीं । उसी असम्भव हो गया। प्रकृतिकी अंधेरी रात्रिमें मनुष्य सरह हमारे मनमें निरन्तर प्रश्न उठता रहता है कि मेले कमजोर यात्रीके लिये कोई कुतुब (ध्रुव) मार्ग क्या जातीय जीवनका कोई सिद्धान्त है ? यदि है, तो दिखानेवाला नहीं रहा । सिद्धान्त अवश्य होगा । प्रकृति हम जानने के लिये उपत है। बंगलों में धूमनेसे हम Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण १] जातियाँ किस प्रकार जीवित रहती है ? नहीं बरते, पहारोंकी गुफाओंसे परहेज नहीं करते। जानि बड़े यत्नसे रखती है। इनकी इस प्रकार रहा जो तप पावश्यक होगा करेंगे। अगर पेरिस पहुँचना करती है जैसे साँप खजाने पर बैठता है। वैज्ञानिक हो, तो एक पल भरमें जा धमकेंगे। अगर समुद्रकी विद्वान् सोच-विचारके पश्चात् जो ज्ञान इतिहाससे तहमें प्रयोग करना हो, तो पानीके कीड़े बनकर रहेंगे, प्राप्त करते हैं उनसे जातिकी मुक्ति होती है । उस क्योंकि हम उस अमृतकी तलाशमें हैं । आज भारतवर्ष ज्ञानकी कद्र न करने वाले नष्ट होते हैं। उसको सरजातीय जीवनका गुर हूँढता है । जान निकल रही है। आँखों पर रखने वाले इस लोकमें भी भौर परलोकमें धर्म और जाति पर प्रत्येक भोरसे आक्रमण हो रहे हैं। भी अपने मनोरथोंको पाते है। पास पासकी जातियाँ कहती है कि इसमें अब क्या रहा हिन्दुस्तान के लिए संसारका इतिहास क्या सन्देश है । राम-नाम लो और तैयारी करो । इतिहासकारोंकी लाता है ? जो जातियाँ चल बसी हैं उन्होंने भीष्म सम्मति है कि अब आगे इममे कुछ नहीं बनेगा-ऐमी पितामहकी नरह मृत्य-शैख्यामे हमारे लिए क्या दशामें हम उस पात्म-जीवन बूटीके लेनेको हिम्मतकी संदेश छोड़ा है ? जिन जातियोंकी भाज सब तरहसे कमर बाँधकर चले हैं, जिससे हमारी जाति पुनः जीविन चलती है उनकी मिसालमे हमको क्या शिक्षा मिलती हो । हनुमानजी ने एक लक्ष्मणजी के लिए पहाड़ उलट है ? जातीय उन्नतिके एक मोटे सिद्धांत पर विचार डाले । हम क्या अपने हिन्दू बच्चों के लिए, जिनमें मे करना उचित मालूम देता है। सारे अंगों पर विचार एक-एक राम-लचमणकी तस्वीर है, मारी ज़मीनको करना असम्भव है। गागरमें सागरको क्योंकर बंद उलट पलट न कर देंगे कि उनकी बर्वादीके जो समान किया जा सकता है। दिखाई देते हैं उनको दूर किया जाय। "जातीय जीवनका एक बड़ा सिद्धान्त जातीय संसारके इतिहासके अध्ययनसे क्या सिद्धान्त इतिहासको जीवित रखना है।" मालम हुए हैं, जिन्हें पूर्व और पश्चिमके विद्वानोंने कुछ दक्रियान्मी पण्डित यों कहेंगे कि क्या बात अपनी किताबोंमें बयान किया है। जातीय उन्नतिके वताई है। जप नहीं बताया, तप नहीं मिखाया; श्राद्ध, नियम भूतकालके वर्णनों में छिपे हुए हैं। मरने नाले कर्म, पाठ भादि कुछ अच्छी तरकीब भी नहीं समझाई मर गये । परन्तु हमको जीवित रहनेकी तरकीव बना जिसमे जातिका बाम होता। यह क्या वाहियात गये हैं । जो कुछ मनुष्य जातिने किया है, उस दास्तान व्यर्थका सिद्धांत निकाला है। यह भी कोई का प्रवर अक्षर हमारे लिए पवित्र है, क्योंकि हम उसमे सिद्धांत है ! इसमें क्या खूबी है ! यह कौन सी जातीय और देशके भान्दोलनको सफलताके साथ बारीक बात है । दर्शन नहीं, वेदान्त-सूत्र नहीं, बनानेकी तदवीर सीखते हैं। योगाभ्यास नहीं, सर्व-दर्शन संग्रह नहीं। यह देख संसारका इतिहास क्या ही समुद्र है, जिसमें हेतुमद्भुतकी गणना किस रोगकी दवा है ! या भगणित जवाहर मौजूद हैं। जिन्हें बुद्धिमान गोताखोर मरघटकी सैर किस बीमारी के लिए बाभकारी निकालते हैं और अपनी प्रियतमा जातिके सम्मुख है। इतिहास क्या है, यही कि अमुक मरा, अमुक उपस्थित करते हैं। इन विचारों और सिद्धान्तोंको पैदा हुभा। प्रस्तु, भव मुदौंका या रोगा। स्यापे Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं०२४६६ की मियाद निश्चित है । यह जातीय स्यापेको लोरीके बदले इतिहासकी एक कहानी सुनाई कि सदा कायम रखनेकी सखाह क्या अर्थ रखती है। बच्चा अच्छी तरह सो जाये। अखिोला न पदी हिंदुवाह, यह क्या भादका काम है जिसमें ईश्वरीय ज्ञान स्तानका इतिहास पर लिया। किन्तु जातिके मार्ग नहीं, पाल्माका नाम नहीं, सत-असतका विचार प्रदर्शकोंको, बुद्धिमानोंको, पण्डित ज्ञानियोंको अपनी नहीं । यह था, वह था; हम थे, तुम थे-इस व्यर्थके लियाकत इस व्यर्थकी विद्या नष्ट नहीं करनी वर्णनमे जातीय उन्नति क्या हो सकती है ! इस चाहिए । मीमांसा पढ़ें, षट् शास्त्र पढ़ें, व्याकरण घोटें अनुमतिसे तो मृतक शरीरकी सी गंध पाती है। नो एक पान है। किन्तु इतिहासमे न पारमाकी शुद्धि उच्च मस्तिष्क वाले और न्यायप्रिय मनुष्य इसको कदापि होती है, न परमात्मा मिलता है यह किसी अर्थका सहन न करेंगे कि मुर्दोकी को उलटा करें । यह तो नहीं है। जातीय मृत्युका कारण हो सकता है । जातीय जीवनकी हमारे पण्डितगण आज नक इतिहासकी ओर से शकत नो दिखाई नहीं देती। भादमी पंछी है । श्राज ग़ामिल हैं। कोई कवि है. कोई व्याकरण जानता है, माया, कल चला गया। दम दिन ज्यों-त्योंकर बिता कोई तर्क शास्त्र पढकर बालकी ग्वाल निकालता है, गया । अंतमें एक मुट्ठी राख बनकर गंगाजीकी शरण में कोई ज्योतिषसे ग्रहणका समय बता सकता है। किन्तु भागया । इतिहास ऐसे-ऐसे ही नौचंदीक मेलेके इतिहासके ज्ञाता कहाँ है ? पण्डितोंको तो यह भी दर्शकोंके कारोबारका वर्णन है। इनिहास केवल एक मालूम नहीं होता है कि मुसलमानोंको इस देश में बड़ा भारी पुनिसका रोजनामचा नथा व्यापारिक पाये हुए किनना समय हुआ, अथवा सिकन्दर महान बहीखाते और म्युनिसिपेलिटीके मौत और पैदाइशका का सनलजपे अपना मा मुँह लेकर लौट गया था। रजिस्टर अथवा तार्थ के पराठोंकी पोथीका संग्रह है। जातीय इतिहासके पिलमिनेसे वे अनभिज्ञ होते हैं । इससे अधिक उसकी और क्या प्रतिष्ठा है ? इतिहास उन्हें इससे क्या प्रयोजन कि कौन सी घटना कब हुई, कुव सत्व प्रास नहीं होता कोई मतलब नहीं पूरा होता या हुई भी कि नहीं हुई। उनको अन्य जातियोंका कोई सिन्धान प्रमाणित नहीं होता। फिर व्यर्थ की इतिहास नो अलग रहा. उनके अस्तित्वका भी ज्ञान माथापच्ची क्यों की जावे ? हजारों राजा हुए हैं और नहीं होता। इसी कारणमे प्राचीन काल में किन-किन बाखों और होंगे । प्रत्येक राज्य कालका हाल पढ़ने- जातियोंसे हमाग सम्बन्ध था, इस प्रश्नपर वे कुछ पढ़ते प्रकल चाकरमें भाजावे और कुछ हाथ न लगे। सम्मति नहीं दे सकते । दुःखका विषय है कि एक कोई भी मीमांसाका सिद्धान्त मालम न हो । ब्रह्म-जीव प्राचीन जानिके विद्वानोंका उसके इतिहासमे परिचय न की महत्ता, पास्माका उद्गम और उसके भविष्यका हो। काशीजी में, नदिया सब प्रकारकी विद्याका हास, मनुष्यकी मानसिक शक्तियोंका वर्णन आदि। प्रचार है, शाम, वेद,म्याकरण, सबकी प्रतिष्ठा है,किन्तु इनमें से कौनसे प्रश्नका इनिहाम हल कर सकता है। एक बेचारे इतिहासकी शक्लसे परिडत बेजार है। इस इतिहास तो भाटों भादिकीजीविका का माधन है । विषयपर न कोई प्रमाणित ग्रन्थ है, न सूत्र रचे गये हैं, पल्लो दिख बहलानेका खिलौना है । रातको न वाद-विवाद होता है, न टीका लिखी जाती है। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, रिण १] जातियाँ किस प्रकार जीवित रहती हैं ! जब हम इतिहासके अध्ययनको जातीय जीवनका पार जगावेगी ! क्या विजयी लोगोंकी पोखिसी (कार्य सिद्धान्त मानते हैं, तो पण्डितोंकी हम दशाको देख- प्रणालं) पर पुस्तकें लिखने और उनको दुनियाँ भरका कर हमको यह कहानी याद आती है कि एक चीयेजी दगाबाज और चालबाज़ प्रमाणित कर देनेसे ही उस भोजन करने यजमानके घर गये । लड़का भी साथ गिरी हुई जातिकी मोर हो जायेगी ! नहीं, कदापि था। उन्होंने उसपं पूछा कि न्योता जीमनेका क्या नहीं। जब कोई जानि अपने देशमें दुःख पाती है, जब नियम है ? लड़केने कहा कि आधा पेट खाना चाहिए, उसकी कन्याएँ विजयी लोगोंकी लौंडियाँ और उसके चौथाई पेट पानी के लिए और बाकी जगह हवाके लिए नौजवान उनके गुलाम बनाये जाने हैं, जब उसका रखना ज़रूरी है। नब गैबेजीने कहा- तुम अभी बच्चे मन उसके बों के पेट में नहीं पड़ना और वे भूखसे हो, मलके करच हो । देखो, भोजनका सिद्धान्त यह है त्राहि त्राहि करते हैं, जब उसके धर्मका नाश होता है कि पूरा पेट खाने से भर लो । पानीका गुण है कि इधर- और उसके राजा और पुरोहित विजयी लोगोंकी भर्दली उधर भोजन के बीचम अपना रास्ता निकाल ही लता में नौकर रखे जाते हैं, जब उसकी औरतोंकी इज्जत है । और हवाका क्या है, पाई गई, न भाई न सही। विजयी लोगों की कुदृष्टिमे नहीं बच सकनी और वे ऐसे इसा प्रकार पण्डितगण तर्क और व्याकरणपर लट्ट होत देश में रहने से मौनको बेहतर समझकर ज़हरका चूंट हैं। परन्तु जानाय इतिहासका चिन्ना नहीं करने, पीकर चल बसता है, जब किमी जातिकी ऐसी अप्रजिमकं बगैर न तक चलेगा न विन लिख जायंगे। निष्ठा और बदनामी होती है, तो उसके लिए भाव___ "कौड़ी को तो खुब मेमाला, लाल रनन क्यों श्यक है कि अपने हृदयको टटोले, अपने गुणोंकी परीक्षा छोड़ दिया जातीय इतिहासको जीवित रखना जानाय करे, अपने पाचरणकी जाँच पड़ताल करें और मालम जीवनका उत्तम सिद्धान्त है । करे कि वे कौनसे अवगण हैं, जिनके कारण उसकी प्रत्येक जानिका भाग्य उसके गुणोंपर निर्भर है। ऐसा गनि हुई है। क्योंकि जब तक कोई जाति, जो प्रत्येक जानि अपनी निम्मन को खुद मालिक होता है। मंग्याकी दृष्टि पर्याप्त प्रनिष्ठा रखनी हो, लालच, यदि किम! जारि बुरे दिन आ जायें; यदि उसका काहिला, बुदा नीं, इन्द्रिय जोलुपना और बुज़दि में धन दौलन, प्रतिमा, मान-मर्यादा, गज-पाट, धर्म कर्म गिरनार न हो, उसपर नमाम दुनियाँको जानियाँ सब मिट्टीम मिल जाय तो उस समय उप जानिका मिनकर चढ़ पायें, तो भी विजय नहीं प्राप्तकर सकतीं। क्या कनव्य है ? क्या विजयाको गालियाँ देने उगका ऐमी जातिको चाहिए कि उन भीतरी शत्रुओंका मुकाकाम शन जारगा? क्या विजयी लोगोंकी बदी, वादा- बिला कर जो उसके जीवनको धुनकी तरह खा रहे हैं। खिलाफा, बालच या मकारीको प्रमाणिन कर देनेम तब वह बाग दुश्मनांके मामने खड़ी रह सकेगी। उस जातिका मला हो जायगा? क्या विजयाको निन्दा जिमन मन जीना उमनं जग जीना। और ऐसी जानि करनेमें उसके अवगुणोंका पूरा इलाज हो जायेगा' के उद्धारक मिए व्याख्यानानामों और लेखकों, क्या शब्दाडम्बर, वाक्य कौशन और डोंग-इप्पान काम वकीलों. बैरिस्टरों और जोगटाकी इतनी जमत नहीं देगा ? क्या वाक्य-चातुरी और मृदुभाषिता उसका बेड़ा है जितनी साधु मन्तोंकी, जिन्होंने अपनी इन्दियोंपर Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त काल्गुन वीर-निर्वाह सं० २४१६ विनय पास करली हो। क्योंकि बाति लेखनकबाकी किसी सभ्य जातिके इतिहासमै अपना सम्बंध स्थापित अनमिलता या कानूनको अवहेलना करनेसे नहीं गिरी, न करें, और उसकी मोतिमे अपनी ज्योति प्रज्वलित बल्कि उन सद्गुणों के न होनेमे जो स्वतंत्र जातियोंमें न करें, तो वे प्रलयतक प्रज्ञान और दुर्बलताके शिकार पाये जाते हैं। अतः कोई विजित नाति पूछे कि मेरे बने रहें । अतः इतिहास ही सब गुणोंका दाता है। अपमानका कारण कौन जाति है, तो जवाब दो कि इतिहास सब धोका संग्रह है। इतिहास के द्वारा हम तुम बुद हो, तुम खुद हो । विजयी जाति किमी विजित महात्मा बुद्ध, श्रीशङ्कराचार्य, गुरु नानक प्रादि समस्त नातिकी हारका कारण कमी भुले-भटके ही होती है। धार्मिक और नैतिक मार्ग प्रदर्शकोंके जीवन चरित्रसे क्या गिद्ध जो नाशसे बोटियां नोच-नोचकर अपनी शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। इतिहासकी मुट्ठीमें सब ज्याफ्रत करता है, उस शल्पकी मौतका कारण होता धर्मोका अनुकरण है। इतिहासमे बचकर कोई कहाँ है? मरता तो भादमी बीमारी या दुर्घटनाम्मे है। गिद्ध जायेगा ? यह तो हाथी है, जिसके पाँवमें सबका पाँव तो केवल इस बातको सब पर प्रकट करता है कि यहाँ है। माश पड़ी है। वह चिन्ह है, सबब नहीं। परिणाम है, इतिहास हमको स्मरण कराता है कि हमारा कारण नहीं। कर्तव्य क्या है। दुनियाँके झगड़ोंमें फंसकर जब हम जातीय इतिहास उन सद्गुणोंको जीवित रखता उच्च विचारों को भूलने लगते हैं, तो बुजुर्गोंकी आवाज़ है जिनपर जातीय अस्तित्वका दारमदार है। चिराग़ सुनाई देती है कि ख़बरदार हमारी भान रखना, हमारा ही से चिराग़ जलता है। महापुरुषोंकी मिसाल ही काम जारी रखना, सपूत रहना, जिस तरह हमने जाति हमको उनका अनुकरण करनेपर तैयार करती है। इस और धर्मके लिए कोशिश की, उसी तरह करते रहना, वास्ते जिस जातिका कोई इतिहास न हो, उसकी ऐसा न हो कि हमारा प्रयत्न योंही नष्ट हो जाय । यह उनतिके लिए जली है कि वह किसी और जातिके शङ्ख जातिको हर समय जगाता रहता है। इतिहास साथ ऐसा सम्बन्ध पैदा करे कि उसके बुजुर्गोंको अपना जातीय मम्ज़िलकी अँधेरी रातमें चौकीदारकी तरह समझने लगे, या ऐसा धर्म ग्रहण करे जिसमे किसी कहता है कि सोना मत; अपने मालकी रक्षा करो। जातिका इतिहास उसके लिए जोश दिलाने वाला पन यह सिद्धान्त कभी नहीं भूलना चाहिए कि नैतिक जावे। उदाहरणार्थ अफरीकाके हब्शी स्वयम उमति उमतिका प्रारम्भिक सोता मनुष्य होता है। जीता. भनेके अयोग्य है, क्योंकि उनके पास कोई प्रादर्श जागता पाँच फुटका कोई भादमी ही जातिको सुधारता नहीं, कोई नाम नहीं है, जो उनको परोपकार, बहा. है। किताबें, मसले, रस्में, बाहरी टीम-राम, कहावते, दुरी, सचाई सिखाये। उन हशियोंकी उमति प्राजकन मीमांसाकी राष्क बातें-ये सब उस भादमीके नौकर मुसलमानी धर्म के द्वारा हो रही है। जब वे मुसलमान है, उसके मालिक नहीं। किताबें केवल रहीका डेरी, बोगोंके नबियों और भौखियाओंके जीवन-चरित्र पढ़ते यदि एक मादमी उनके अनुसार जीवन बसर करके है और उनके कामोंकी तारीफ करते हैं, तो वे सभ्यता नहीं दिखलाता । भजन, प्रार्थना, संस्कारके तरीके, के सिदान्तोंका ज्ञान प्राप्त करते हैं। मगर इस तरह शिक्षाका प्रबन्ध, नियम और उप-नियम, सभा, समान, Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, विरण ५] जातियाँ किस प्रकार जीवित रहती है? मठ और टोल, प्रनबार-ये सब जरिये व्यर्थ हैं, अगर का सहारा है, जिन्होंने धर्म और सत्यका पालन किया कोई प्रादमी हमारे सामने उदाहरणके रूप में न हो। है। इतिहास इन महात्माओंके जीवनचरित्रका नाम ये सब मसाला तो तेल-बत्तीकी तरह है। एक आदमी है। इसलिए इनिहायपर जातीय अस्तित्व अवलम्बित का जीवन ही भाग है, जिससे रोशनी फैलती है। यह है। दो बड़े सिद्धान्त जिनसे बहसबाई प्रमाणकी हद सारा सामान बारातकी टीम-टाम है। दूल्हा नो वह तक पहुँचती है, हमें याद रखने भावश्यक है। महापुरुष है जिसके प्रत्येक कामसे हजार शिक्षाएँ पहला हैमिलती हैं जिसकी प्रत्येक बात जादृका अमर रखती है जिसका नाम समय यदि घिस-घिसकर भी मिटावे "जातीय आचरण की महत्ता" तो इतिहासकी पट्टीमे नहीं मिटेगा; जिसकी तस्वीर हर छोटी जानियां जिनके पास धन न हो.न हथियार, दिलमें रहेगी चाहे लोग और मब कुछ भूल जायें। केवल आचरणभं च होने के कारण यही जातियोंकी नैतिक उन्नतिपर मुल्की, दुनियावी और हर तरहकी दौलन और शक्ति छीन सकती हैं। आचरण ही मनुष्यों उननिका दारमदार है। अगर जातिके आदमी बालची, के जीवनको सफल करता है और हमारी मानुषिक डरपोक और स्वार्थी हैं, तो वह जाति अवश्य नष्ट शक्तियोंको मनि करनेका अवसर देता है। जिस जाति होगी, चाहे प्रत्येक गाँवमें पार्लियामेंट ( राजसभा) पास आज सद्गुण मौजूद नहीं है, किन्तु दुर्ग हैं, बन जाय और दुनियाँ भरके अधिकार उन्हें दान कर मन्दिर हैं, खज़ाने हैं, तोपे हैं, तो समझ लो कि वह दिये जायं । यदि जातिका आचरण, ठीक है तो प्रत्येक जाति उस मकानकी तरह है. जो खोखली नींव पर दशामें वह प्रसन्न रहेगी, चाहे कोई भी सभा या खडा है। उसके मन्दिर गिराए जायेंगे और उनकी इंटों समाज या जलम न होने हो । अनः इनिहाममे हम में उसके बच्चे चुने जायंग, उसके खजाने लुटे जायेंगे उन महात्माओंके वचन सुनने हैं. जिनके जीवनकी और उसके मालामाल करेंगे. उसकी तो यादके बिना, मोटी मोटी किताबें चाहे वे कितनी ही उमाका नाश करने के लिए काममें लाई जायेगी और प्राचीन क्यों न हो, गम्भीर प्रश्न जो नारदजीकी सम- उसके घरोंकी अंर उनके मह किये जायेंगे। इसके विप. झमें भी न पावेंः मोठं भजन जिनको सुनने मनते गैन यदि जानिमें अच्छ गुण हैं, तो वह न केवल लोग अानन्द मग्न हो जायें; बड़ी कॉन्फरन्म (मभाएं। अपनी रक्षा कर सकेगी, बल्कि इमरोंको सहायता भी जिनमें भारतवर्षका प्रत्येक परिवार तक प्रतिनिधि भंज दंगी। उसकी चोर कोई प्रॉम्ब उठाकर भी न देख दे; कॉलेज जिनकी छत पासमानसे बात करनी हो सकेगा। उसके मरका बाल नक बांका न होगा। व्याख्यान जिनको सुनने सरस्वती भी उनर श्रावे; मम उसकी मर्यादा बढ़ेगा। उ बन हरे-भरे रहेंगे और चार पत्र जिनका प्रचार हर गाँवमें हो, बिल्कुल येकार उममे ईया करनेवालोंका मुंह काला होगा। दूसरा हैं। ये सब चीज़ किसी जानिको नहीं उठा मकनी। सिद्धान्त हैइतिहास मनुष्योंमे हमारा परिचय कराता है और इस "नानक उन्नतिके लिए जीवनकी उपमा की कारण हमारा सबसे बड़ा शिक्षक है, इनिहाम सन्नोंकी समाधि है । केवल समाधि चुप होता है। इनिहाय आवश्यकता उनकी हर बातका राग गाता है। समाधि शक्ल आचरण तो करनेकी विधा है, कहनेकी तो बान दिखाती है, किन्तु इतिहास प्रत्येक वचन और कार्य, ही नहीं है। जर्मनी के प्रसिद्ध कवि गटने कहा है कि प्रत्येककी भावत और प्रकृतिपर प्रकाश डालता है। तुम्हारा प्रति दिवसका जीवन अत्यन्त शिक्षा जनक अतः जातीय भाचरणपर जातीय अस्तित्व अव- पुस्तकसे अधिक उपदेश दे सकता है। प्रत्येक मनुष्यका लम्बित है। जातीय पाचरण उन भादमियोंके जीवन बर्ताव ऐसा होना चाहिए कि वह स्वयं मूर्तिमान शाख Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [फाल्गुन वीर-निर्वाण सं० २४६६ हो । परोपकारपर न्याख्यान देनेकी उसे भविश्यकता अलग हैं। वे उसके भत-काबीन अनुभवके परिणाम नरहे क्योंकि उसकी शाही हजार व्याख्यानोंका है। ये विशेषताएं उसके देश और उसकी पावश्यक भसर रखती हो। लालचके विरुद्ध उसे उपदेश देना न तामोंके अनुसार होती है और उसकी कौमी हैसियत पड़े। प्रसिद्ध है कि एक कविका एक शिष्य नित्य उसे को प्रकट करता है। इस तरह हर कौम, हिन्दु मुसलदिक करता कि मापने यह शुद्धि किस किताबके प्राधार मान, अंग्रेज़ फ्रांसीसी अलग पहचानी जाती है। उस पर की है, वह शुदि किस नियमके अनुसार है। एक के जीवनका प्रत्येक अंग यह प्रकट करता है कि उसके दिन गुरुजी मल्ला गये और कहा, अरे हम कविता विशेष गुण और विशेष कर्तव्य और विशेष शक्तियाँ कहते कहते स्वयं पुस्तक बन गये हैं, तू यह क्या पछता हैं । अतः जातीय विशेषताओंका बनाये रखना आवश्रहता है। इसी तरह वे ही मनुष्य जातिको पुनः यक है। उदाहरणार्थ पोशाक ही को लीजिए । यों तो उतिके मार्गपर ले जा सकते हैं, जिनसं अगर पूछा कपड़े पहननेका बड़ा अभिप्राय गरमी-सरदीसे बचना बाय कि यह बात भाप किस भादर्शकी दृष्टिमं करते हैं, और लाज-शरम को बनाये रखना है । किन्तु जब कोई परोपकार किम सिद्धान्त पे करना आवश्यक है, तो वे जाति एक विशेष पोशाक ग्रहण कर लेती है, तो एक कह सकें कि भाई हम स्वयं प्रादर्श और सिद्धान्त हैं। अभिप्राय भी हो जाता है । वह पोशाक उस जातिकी हमारा जीवन ही हमारे अनुकरणका प्रमाण है। अधिक एकताका चिन्ह हो जाती है, और उस दूमरांसे अलग क्या कहें। केवल पुम्नक अवसरपर काम न आवेगी। करनी है। हर जातिके लिये उसकी प्रथाएँ और उसके मंत्र समयपर धोखा देगा । प्रार्थना क्या खबर है सुनी समाजका ढाँचा मीपीकी तरह है, जिसमें उसके मद्जाय या न सुनी जाप, तावीज़ कठिनाईमें टूटकर गिर गुणों और विचारोंका मोती छिपा रहता है। जब पड़ेगा । श्लोक और ऋचाएँ हृदयको ढाढस न देंगी। माना मापीकी शरण में निकला तो गगंक हाथ बिक ये सब उसी समय काम भावेंगी जब किसी महापुरुष गया । या यों कहो कि जातिके रिवाजोंका चौखटा का चित्र आँखों में फिरता हो, जिसने उन परीक्षाओंका उसक हृदय और दिमागके दर्पणको रौनक देना है तामुकाबिला किया हो जिनका हमें मामना करना है। कि वह संसारके इतिहासकी प्रदर्शनीम दीवार पर उनकी सहायता ही हमारी मुक्तिका कारण होगी। अच्छी जगह रखे जाने के योग्य हो । जाति यदि सिपाही अतएव मम्मिलिन महापुरुष-पूजाको ही अँगरेज़ी है, तो उसकी संस्थाएँ ( अर्थान् स्थायी जातीय विशेष लेखक कार्लाइल सारी उमतिका मूल मानता है। ताएँ, जैसे भाषा त्योहार आदि) और इसके संस्कार उसकी सम्मतिमें संसारका इतिहास केवल महान लोहके कवच हैं, जो उसे दुश्मनों के तीरोंम बचाते हैं। पुरुषोंकी करामातका प्रत्यक्ष रूप है। यदि जानि हीरा है तो संस्थाएं अँगुठी हैं, जिसमें वह जातीय इतिहासमे अपने रिवाजों, प्रथानों और अपनी चमक-दमक दुनियाँके बाज़ारके जौहरियोंको जातीय संस्कारोंकी प्रतिष्ठा होती है। दिखलाता है। प्रत्येक जातिका भस्तित्व माचरणके अतिरिक्त उन जातीय इतिहाससे हमको पता लगता है कि रिवाजोंपर निर्भर है जिन्हें वह मानती है। ये रिवाज हमारे रिवाजों और संस्थानोंकी क्या वास्तविकता है, भी भाचरणको बनाये रखनेके अभिप्रायले चलाये जाते किस अभिप्रायसे उन्हें स्थापित किया गया था; उनमें हैं और बहुधा प्राचीन पुरुषों की स्मृतिको बनाये रखने क्या खूबियाँ है, उनमे जातिकी एकता और भाचरण का कारण होते हैं। प्रत्येक जातिकी अलग चान-माल को किस प्रकार सहायता मिलती है। जिन रिवाजोंके होती है । भादमी पादमीमें अन्तर है। कोई हीरा बाभोंसे हम मनमिश है उनके लिए हमारे दिल में कोई पत्थर है। हर जातिकी भाषा, हनेका तर्स, हात नहीं हो सकती । उनको भवरप ही हम बेहया लोहार, मेले समारो, शादी और समीके दस्तूर मजग- और म्प समझने लगेंगे। उनसे घृणा करने बगेये। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण जातियाँ किस प्रकार जीवित रहती हैं। इस प्रकार हमारा दैनिक जीवन कटकाकीर्यो जातिका मम प्रथाएँ और विशेषताएँ तोताचश्म है। जायगा । क्योंकि हमको अपने जातीय चाल-डाल जो आज समतिका कारण है, कस वही हानिकारक प्रेम न रहेगा। फिर इसको अपने दस्तुर और नियम प्रमाणित हुई हैं। एक समय जातिको विजय दिखाती पीजड़ेकी तीलियाँ दिखाई देने लगगी, जिनसे हम हैं, दूसरे अवसर पर उसको नीचा दिखलाती है। पड मारते-मारने घायल हो जाएंगे। किन्तु जातीय इतिहास वह वस्तु है, जो हमेशा मूल्य जातीय इलिहान ऐक्यका द्वारहै रखता है। यह कमा जातिको किसी प्रकारकी हानि धाज कल एकना की बी धम है । कौवों की सी नही पहुँचा सकता। हमेशा सदाचरण और एकना कार्य-काय सब पर हो रहा है। शायद यह पाशाहै सिखाता रहता है। अतः हम देखते हैं कि जातिको कि कौवों का सा एका उनकी तरह शोर मचाने में हो समस्त बातं बदलती रहती हैं, बल्कि समय मजबूर जायेगा । कोई कुछ प्रस्ताव पेश करता है, काई कुछ करता है कि जाति उनको बदलती रहे। किन्तु जातीय उपाय बतलाता है। वास्तव म जानीय इतिहास ही इतिहास उन सब रिवाजोंके मोतियोंको जो किसी एकना की बड़ा कुजी है क्योंकि जाति के कारनामों समय जानिक प्रिय पात्र रहे हों, एक नदी में गंथकर एक और संस्थाओं में सबका भाग है। सबको वे जान से ऐसी माला बनाना है, जिसका पहिनना बच्चेका प्र. प्यारे हैं। आज कुछ भी झगड़ा टण्टा हो, थोकबन्दियाँ धिकार और कर्तव्य है और जिसमे जातिकी मानसिक हों, परन्तु स्योहारके दिन सब भेद भाव भल जाते हैं। और नैतिक उमतिका पता चलता है। बुजुर्गों का नाम लेकर सब गाने मिलते हैं और जातीय अतः जातीय इतिहास ही जातिके व्यक्तियोंको उत्थानकी मन-मोहक कहानियाँ सुनकर, सुनाकर खुशी मिला सकना है। क्योंकि बुजुर्गों में किसको दुश्मनी है? में फूले नहीं समाते हैं। जातीय महापुरुषोंका नाम अापसमे कितना ही लई, श्राबूके दिन नो मब सम्ब मदेव जानिक समस्त दलोंको प्रिय होता है और वाम्त न्धी जमा हो ही जाने हैं। जातीय इतिहास यह स्मवमं देखो तो जातीय इतिहास ही जानीय प्रतिष्ठाका रण करता रहता है कि तुम वास्तवमे वही हो, जो पहले चिन्ह है । जानिम प्रत्येक वस्तु परिवतिन होती रहती ऐसा ऐसा करते रहे । तुम्हारे विकासका मूल वही है। है। समय मारी प्रथायोंको कुछका कुछ कर दिखाना तुम पर यह बीती है । तुमने अमुक-अमुक काम किये है। वस्त्र, भोजन, भाषा, सब बातों में थोडा थोडा हेर- हैं। ये सब बानं जानिक प्रत्येक मनुष्य पर मही उतरती फेर होता रहता है। धर्म कान्नि उपस्थित हो जानी । वह अपने वंश, अपने धर्म, अपने रिवाजों और है। इंगलिस्तान जो अाज रोमके नामय चिढ़ना है, प्रथाश्रमे इन्कार नहीं कर सकता। अतः जिम जाति कद-सौ वर्ष पहले रोम धर्मका अनुकरण .रने वाला का इनिहाम जीवित है, वह कभी भीतरी भगदोंमे था । अब अंग्रेज गापार. शिल्प और कला-कौशलम नष्ट नहीं हो सकती। जीविका कमाने हैं। सारा देश एक भट्ठी बना हुआ है इमलए सभी जातियाँ अपने इतिहासको जीवित भनकाल में खेतीय पेट भरते थे। सारा देश ग्वाम लह- रखना अपना धर्म समझती। बजगोंकी यादगार लहाता था। साराँश यह कि यदि अंग्रेजोंके पित्र अब कायम करने को मुख्य कर्तव्य खयाल करता है। निम्न वापिस आयें तो. अपनी सन्तानको पहचान भी नहीं लिखित उपायोसे इतिहासका ज्ञान फैलाया जाता है:सकते । अतः वह क्या वन्तु है, जिसमे यह विचार (१) त्योहारकं दिन जानिक इतिहासमें मुबा. बना रहता है कि हम एक जाति हैं और सदास रहे हैं? रक हैं-उनके माने पर खुशी मनाना जातीय इतिहास बासीय शक्तिकी वृद्धि करना हमारा कर्तव्य है। केवल सिखानेका संगम मार्ग। जेसे अमेरिका और फांसमें जातीय इतिहाससे यह भावना बनी रहती है। जाति स्वाधीनताके पाम्दोलनकी सफलताको यादगारमें रखा. की पविक संस्थानोंमें इतिहास मटन संस्था है। ईमें स्योहार मनाया जाना है। इंगलिस्तान में अब एक Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं०२४६६ गया त्योहार एम्पायर डे (साम्राज्य दिवस) स्थापित जीवित रखना उसका कर्तव्य है। मानों हमारे बच्चे बनेकी सम्मति जो विक्टोरियाके जन्मके दिन मना- उत्पन होते ही जातीय इतिहासमें भाग लेने वाले बन पा जाता इसका अभिप्राय कि बसोंको ब्रिटिश जाते हैं। और यद्यपि अभी तुतलाना भी नहीं सीखा, साम्राज्यकी भोर भपने कर्तव्यका स्मरण रहे। तो भी चुपचाप जातीय, प्रतिष्ठाको प्रकट करते हैं । क्यों (२) शहरों, बाजारों और अन्य स्थानोंकानाम न हो; इतिहास उन्हींकी तो बपौती हैं । जो कुछ बुजुर्गों हुजुर्गों के नाम पर रखना । यह रिवाज सारे संसारमें ने कमाया था और जो कुछ हमने प्राप्त किया है, सब पाई जाती है। पेरिसमें सारे शहरमें नेपोलियनका नाम उन्हींके लिए है, और किसके लिए है? गंजता है। उसकी बिजय जयन्तियोंकी तारीख हर (५) पाठशालाओंमें शिक्षा-पहले सभ्य गली-करकी दीवारों पर लिखी हुई है। यहाँ नककि जाति बच्चोंको पाठशालाओं में अपना इतिहास सिखाती जिन तारीखोंपर कोई प्रसिद्ध जातीय घटना हुई है, है और उमको रोचक बनानी है महापुरुषों के चित्र उनको भी किसी जगहका नाम बना दिया है. मसलन उसमें लगाती है। देशभक्तिपर्ण कविताएँ पढ़ाई जाती एक गली और स्टेशनका नाम " मितम्बर" है। पहले हैं। पहल मैं चकित रह गया कि यह क्या मामला है। (६) कवियोंकी वाणी-जब कोई कवि कलम पह " सितम्बर क्या वन्तु है ? किन्तु मालूम हुआ कि लेकर बैठना है, तो वह बहुधा महापुरुषोंकी गाथा इसी प्रकार १४ जुलाई भादि नाम भी हैं। लन्दनमें सुनाना है। जानीय इतिहासके अगणित आकर्षक दाफलगर चौक, वाटरलू स्टेशन इंगलिस्तानकी जन दृश्य, जानीय सूरमाओंके कारनामे, जातीय अस्तित्व और थन शक्तिकी यादगारें हैं। फाँसके कोई कोई जहाज़ और उन्हीं के लिए प्रयत्नोंका कथाएँ, ये सब उसकी फाँसके विद्वानों के नाम पर हैं। आँखों में फिरती हैं और उसकी जिव्हाको पाचन शक्ति (३) खास तौर पर मुनि या मकान बनाना- प्रदान करनी है:मूर्ति सदासे बुजुर्गोंकी यादगार स्थापित करनेका अच्छा बैठे तनरे तवाको जब गर्म करके मीर, तरीका चला पाया है। अतः लन्दन और पैरिममें मूतियोंसे बड़े मन्दिर बन रहे हैं । पेरिममें लथर अजायब कुछ शीरमाल सामने कुछ नान कुछ पनीर । घरकी छतपर सैंकड़ों मूर्तियाँ बराबर बराबर लगाई गई जातीय इतिहासकी सैकड़ों कथानों में से कोई हैं।मानों वे पत्थरकी शक्लें अपने बच्चोंके कारोबार फड़कती हुई कहानी कह डालता है और जातिको मदा प्रेम भरी रष्टिमे देख रही हैं । जन्दनमें प्रत्येक पग पर के लिए अपना प्रेमी बना जाता है। किसी न किसी महापुरुषको मुनि दिखलाई पड़ती हैं। (७) इनिहाम विद्या विद्वानोंकी महायतामानों हर गली में जानीय इज्जतका चौकीदार खड़ा है। प्रत्येक नीवर्सिटी (farai ततका चौकीदार खड़ा है। प्रत्येक युनीवर्सिटी (विश्वविद्यालय ) में कई प्रोफेसर एस्वर्ट की स्मृतिमें एक बड़ा ही शानदार मकान बनाया (शिक्षक) होते हैं, जो इतिहासके अध्ययनमें लगे गया है और नेपोलियनका मकबरा प्रेरिसमें एक देखने रहते हैं; और जातिको अपनी जानकारीसे लाभ पहुँयोग्य वस्तुहै। चाते हैं। वे दिन-रात परिश्रम करते हैं और जातीय (४) वकचोंके नाम रखना-जाति अपने मकानों इतिहासके सम्बन्ध छाम बीन और अन्वेषण करने में और बाजारोंको महापुरुषों के नामसे पवित्र करती संबग्न रहते हैं । * (चाँदमे उद्धत ) है, तो क्या अपने प्यारे बच्चोंको, जो उसकी सबसे बड़ी सम्पत्ति है, इस भाशीर्वादसे वन्चित रख सकती है? * अनुवादक-श्री नागयणप्रमाद अरोड़ा, बी० प्रत्येक जाति अपने बचोंको के नाम देती है, जिनका ए. भूतपर्व एम० एल० सी० Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ফ্রান্স মুক্ষ্মী সুতি শুরা সুস্থ [.-श्रीमान् बा० प्रजमानजी वकील] में तुम्हारी जीवात्माके शान्ति स्वरूप और शान गुणमें र भगवानका जन्म विदेह देशकी प्रमिद्ध राज. फरक पारहा है, विषय कषायोंके उबाल उठते हैं और धानी वैशालीके निकट कुण्डग्राम में हुआ था, यह जीव इन्द्रियोंका गुलाम होकर संसारमें चार जिसको कुडलग्राम या कुंडलपुर भी कहते हैं। आपके लगाता फिर रहा है। अगर वह हिम्मत करे तो इस पिता राजा सिद्धार्थ कुण्डग्रामके राजा थे और आपकी गुलामीसे निकल कर आज़ाद हो सकता है और अपना माता वैशालीके महाराजा चेटककी बेटी प्रियकारिणी ज्ञानानन्द स्वभाव पास कर सकता है । परन्तु विषय थी, जो त्रिशलाके नामसे भी प्रसिद्ध थी। राजा चेटक कपायोंकी यह गुलामी उनकी ताबेदारी करने और उन की दूसरी लड़की चेलना मगध देशके प्रसिद्ध महाराजा के अनुसार चलनेसे दूर नहीं हो सकती, किन्तु अधिक श्रेणिकसे ब्याही गई थी। वीर भगवान ३० बरसकी अधिक ही बढ़ती है। विषय-कषायोंसे कर्मबंधन और श्रायु तक अपने पिताके घर ब्रह्मचर्य अवस्थामें रहे, कर्मोदयसे विषय-कपाय उत्पन्न होते रहते हैं। वह ही फिर संमारके मारे मोहजालमे नाता तोड़, सन्यास ले, चक्कर चल रहा है और जीव इससे छुटने नहीं पाता, नम अवस्था धारण कर परम वैरागी होगये और अात्म विषय कपायोंके नशेमे उत्पन्न हुआ भटकता फिर रहा ध्यानम लीन होकर अपनी श्रात्माकी शद्धिमें लग गये। है। जिस तरह रामचन्द्र जी सीताके गुम होने पर वक्षों बारह वर्ष तक वे पूरी तरह इसी माधनामें लगे रहकर । से भी सीनाका पता पछने लग गये थे अथवा जिस घातिया कोका नाशकर केवल ज्ञानी हो गये। तब तरह थालीके खोये जानपर उसकी तलाशमें कभी कभी उन्होंने दूमरों को भी इस ममाररूपी दुःखमागरम निका- कोई घड़ेमे भी हाथ डाल देते हैं, उसी ही तरह विषयलने के लिये नगर नगर और ग्राम ग्राम घमना शुरु कषार्योकी पूतिके लिये यह जीव समार भरकी खशाकिया। नीच-ऊँच, अमीर ग़रीब मबही को अपनी सभा मद करने लगता है। श्राग, पानी, हवा, धरती, पहाड, में जगह देकर कल्याणका मार्ग बताया। प्रायः ३० सूरज, चांद, मार, झड़ और नदी-नाले श्रादि पदार्थों वर्ष इस ही काम में बिगाये और फिर ७२ वर्षकी श्राय को भी पूजने लग जाता है। नहीं मालूम कौन हमारा में श्रायुकर्म पूरा होने पर इस शरीरका भी मदाके लिये कारज मिद्ध कर दे, ऐमा बेसुध होने के कारण यदि संग छोड़, पूर्ण शुद्ध बुद्ध और सत्-चित्-अानन्द स्व. कोई किसी ईट पत्थरको भी देवता बता देता है तो रूप होकर तीन लोककं शिविर पर जा विराजे, जहाँ उमसे ही अपनी इच्छाओंकी पूर्तिकी प्रार्थना करने लग वह अनन्तकाल तक इमही अवस्था में रहेगे। कभी भी जाता है। अपने ज्ञान गुणसे कुछ भी काम नहीं लेता संसारके चक्करम नहीं पड़ेगे । __ है, महा नीच-कमीना बन रहा है और कण-कणसे डर वीर भगवानने स्वयं स्वतन्त्र होकर दमरोको स्व. कर उसको पूजता फिरता है। तन्त्र होनेका रास्ता बताया और इसके लिये अपने परन्तु इस जीवमें केवल एक भय कषाय ही नहीं पैरों पर खड़ा होना मिखाया । कर्मोकी जजीरॉम जकड़े है जो हर वक्त खुशामद ही करता फिरता रहे। इसको हुए विषय-कषायोंके गुलाम बने हुए, बेबम संसारी तो क्रोध, मान, माया, लोभ, रति, अरति, भय, ग्लानि, जीवोंको समझाया कि जिस प्रकार श्रागकी गर्मी हास्य, शोक और कामदेव यह सब ही कपाय सताती है पाकर ठंडा शांत और स्वच्छ पानी गर्म होकर खल- और सब ही तरह के उबाल उठते हैं। कभी धमयरमें बलाने लगता है, तरह तरह के जोश पाकर देगचीमें आकर अपनेसे कमजोरोको पैरों तले ठकराता चक्कर लगाने लग जाता है इसी प्रकार कर्मके सम्बन्ध ऊंचे दर्जेके काम करने और उन्नतिके मार्य Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं०२४५६ पर घदनेकी उनको इजाजत नहीं देता है और और न किसीकी खुशामद करने या भक्ति स्तुति करनेसे यहां तक बढ़ जाता है कि धर्मके कामोंके करने ही यह काम बन सकता है । बीमारी तो शरीरमें से मल से भी उनको रोक देता है, धर्मका जाननेका भी मौका दूर होनेसे ही शांत होती है, इस ही प्रकार यह जीवात्मा नहीं देता है। मायाचारके चक्करमे श्राकर चालाक भी विषय-कपायोंके फन्देसे तब ही छुट सकता है जब लोगोंने तरह तरह के देवता और तरह तरह की मिथ्या कि कर्मोंका मैल उससे अलग हो जाय और वह शुद्ध धर्म क्रियाओंमें पड़कर भटकते हुये भोले लोगोंको ठगना और पवित्र होकर ज्ञानानन्द चैतन्यस्वरूप ही रह जाय । शुरु कर दिया है। परन्तु यह काम तो जीवात्माके ही करनेका है, किसी यह सब कुछ इस ही कारण होता है कि लोग दसरके करनेसे तो कुछ भी नहीं हो सकता है। संसारके मोहमें अन्धे होकर बिना जांचे तोले आँख संसारमें हज़ारों देवी-देवता बताये जा रहे हैं मीचकर ही एक एक बातको मान लेते हैं और झूठे जिनकी नग्फ़से चारों खट यह विज्ञापन दिया जाता है बहकावे श्रा जाते हैं। वीर भगवानने लोगोको हम कि वह मर्व शक्तिमान है, जो चाहें कर सकते हैं, उनको मारी जंजालसे निकालने के वास्ते माफ शब्दोंमें मम- राज़ी करो और अपना काम निकालो । हजारों लोग काया कि वह शाँख मीचकर किमीवातको मान लेनेकी इन देवी देवताओं के ठेकेदार बनते हैं, और दावा मूर्खता (मूढ़ता) को त्याग कर, वस्तु स्वभावकी खोज बाँधते हैं कि हमको राज़ी कर ली तो सब कुछ मिद्ध करके नय प्रमाणके दाग हर एक बातको मानकर हो जाय, परन्तु इसके विरुद्ध वीर भगवानने यह नाद सवामख्वाह ही न डाने लग जावे; इस तरह लोगों के बजाया कि जीव तो अपनी ही करनीस श्राप बॅधता है मिथ्या अन्धकारको दूर करके और उनके मठे भ्रम और अपनी ही कोशिशर्स इस बँधनम निकल सकता है, को तोडकरके उनको बेखौफ बनाया और अपने आप किमी दूमरेके करनेम नो कुछ भी नही हो मकता है। को कर्मों के फन्देमे छडाकर आजाद होने के लिये कमर और इसी कारण इन्द्रादिक देवनाओंसे पूजित श्री वीर कसना सिग्वाया । वस्तु स्वभाव ही धर्म है, जबयह भगवानने अपनी बाबत भी यही सुनाया कि मैं भी नाद वीर भगवानने बजाकर लोगोंको गफलतकी नींद किमीका कुछ विगाइस गर नहीं कर सकता हूँ। इस से जगाया, पदार्थ के गुण बताकर लोगोंका भय हटाया कारण किसी दूभरेका भरोसा छोड़ कर जीवको तो आप और मब ही जीवों में अपने समान जीव बनाकर श्रापम अपने ही पैरों पर खड़ा होना चाहिये । कोका बन्धन में मैत्री तथा दयाभाव रखनेका पाठ पढ़ाया. और इस तोड़नेके वास्ते आप ही विषय-कपायोमं मुंह मोड़ना प्रकार जगत भरमें सुख शांति रहनेका डंका बचाया, चाहिये । विषय कषायोस ही कर्मबन्धन होता है और तब ही लोगोंको होश आया । कर्मोके उदयमे ही विषय-कपाय पैदा होते हैं, यह ही वस्तुस्वभाव ही धर्म है, इस गुरु-मंत्रके द्वारा वीर चक्कर चल रहा है, जो अपनी ही हिम्मतमे बन्द किया भगवान ने लोगोंको समझाया कि विषय कषायोंकी जा सकता है | किन्तु निम प्रकार पुराना बीमार एकगुलामीसे आजाद होना और अपना ज्ञानानन्द अमली दम तन्दुरुस्त और शक्तिशाली नहीं हो सकता है, दीर्घ स्वरूप प्राप्त करना ही जीवका परमधर्म है, जिसके लिये काल तक इलाज करते करते आहिस्ता आहिस्ता ही किसीकी खुशामद करते फिरने या प्रार्थनायें करनेसे काम उमति करता है, उस ही प्रकार कर्मोंका यह पुराना नहीं चल सकता है, किन्तु स्वयम् अपने पैरों पर खड़े बन्धन भी साधना करते करते आहिस्ता आहिस्ता ही होने और हिम्मत बाँधनेसे ही काम निकलता है । जिस दूर हो पाता है। प्रकार बीमारको अपनी बीमारी दूर करने के लिये स्वयं इस ही साधना के लिये वीर भगवानमे गहस्थी और ही दवा खानी पड़ती है, स्वयं ही कुपथ्यसे परहेज रखना मुनि यह दो दर्जे बताये है । जो एकदम रागद्वेष और होता है, किसी दूसरेके करनेसे कुछ नहीं हो सकता है विषय कषायोको नहीं त्याग सकते है उनके लिये गृहस्थ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३, किरण १] भगवान महावीर और उधका उपदेश मार्गका उपदेश दिया. निमम वह कुछ कुछ रागद्वेषको खगब होती है-उन्नति करनेके बदले और ज्यादा कम करते हुए अपने विषय कषायोंको भी पूरा करते नीचेको गिरती है । इस कारण जितना भी धर्मसाधन रहें और उन्हें रोकते भी रहें। इस तरह कुछ कुछ हो वह अपनी इन्द्रियोंको काबमें करनेके यास्ते ही हो। पाबन्दी लगातं लगाते अपने विषय कषायोंको कम अधिक धर्म-माधन नही हो सकता है तो थोड़ा करों, करते जावे और रागद्वेषको घटाते जावें । जिन लोगोंने रागदेष बिल्कुल नहीं दबाये जा सकते हैं तो शुभ भाव हिम्मत बांधकर अपनेको विषय कषायोंके फदेसे छुड़ा ही रखो, मबको अपने ममान ममम कर सब ही का लिया है, रागद्वेषको नष्ट करके कर्मोंकी जंजीरोंको भला चाहो । दया भाव हृदय में लाकर मबही के काम तोड़ डाला है और अपना असली ज्ञानानन्द स्वरूप में प्रायो । किमीम भी देष और ग्लानि न करके सब हामिल कर लिया है ! उनकी कथा कहानियाँ मुनकर, ही को धर्म मार्ग पर लगायो। सामारिक जायदादकी उनकी प्रतिष्ठा अपन हृदयम बिठाकर खद भी हौसला तरह धर्म बाप-दादाकी मीगसमें नहीं मिलता है और पकड़े और विषय कपायों पर फतह पाकर भागे ही नमाल-असबाबकी तरह किमीकी मिलकियत ही हो श्रागे बढ़ते जावे । यह ही पूजा भक्ति है जो धर्मात्माओं सकता है । तब कौन किमीको धर्मके जानने या उसका को करनी वाजिब है। और जो पूरी तरहसे विषय साधन करनेसे रोक सकता है ? जो रोकता है वह अपने कषायों को त्याग सकते हैं, राग-द्वपको दबा मकते हैं को ही पापोम फैमाता है। घमण्डका मिर नीचे होता उन्हें गृहस्थदशा त्याग कर मुनि हो जाना चाहिये। है। जो अपनेको ही धर्मका हकदार ममझता है और दुनियाका मब धन्धा छोड़कर अपनी सारी शक्ति अपनी दुमरोंको दुर-दुर-पर-पर करता है वह श्राप ही धर्मसे अात्माको राग-द्वेपके मैलम पवित्र और शुद्ध बनाने अनजान है और इम घमण्ड के द्वारा महापाप कमा और अपना ज्ञानानन्दम्यरूप हामिल करने में ही लगा रहा है। धर्मका प्रेमी तो किमीम भी घगा नहीं करता देनी चाहिये । है। घगा करना तो अपने धर्म श्रद्धानमै लचिकिमा वस्तु-बभावके जानने वाले मच्चे धर्मात्मा अपना नामका दूपण लगाना है। मच्चा धर्मात्मा तो सब ही काम दुमराम नहीं लिया चाहने । वह दीन हीनाकी जीवों के धर्मात्मा हो जाने की भावना माता है। नीचस तरह गिड़गिड़ा कर किसीम कुछ नहीं मांगते हैं । हॉ, नीच श्रीर पापीम पापीको भी धर्मका स्वरूप बताकर जिन्होंने धर्म-माधन करके अपन अमली म्वरूपको धर्मम लगाना चाहता है । धर्म तो वह वस्तु जिमका हामिल कर लिया है, उनकी श्रद्धा और शनि अपने श्रद्धान करनेम महा इत्याग चाण्डाल भी देयाम पजिन हृदयंम बिठा कर खद भी वैसा ही माधन करनेकी चाह हो जाता है और अधर्मी स्वर्गीका देवभी गदगीका अपने मनम TT जमाते है। धर्मका माधन नी गग- कीड़ा बन कर दुःख मठाना है। इम ही कारण बोर द्वेष को दूर करने और विषय-कपायांस छुटकाग पानके भगवानने नो महानाच गंदे और महा हत्या माम भक्षी वास्तं ही होता है, न कि उल्टा उन्हींको पोषनके पशुओंको भी अपनी मभामें जगह देकर धर्म उपदेश वास्ते । इमही कारगा वीर भगवानका यह उपदेश था सुनाया। धर्मका यह ही तो एक काम है कि वह पापी कि कोई गृहस्थी हा या मुनि धर्मात्माको तो हरगिज़ भी को धर्मात्मा बनावे, नो उमे ग्रहण करे वह ही उन्नति किमी भी धम-माधनके बदले किसी मामारिक कार्यकी करने लग जावे, नीचेस ऊंचे चढ़ जावे और पज्य मिद्धिकी इच्छा नहीं करनी चाहिये । अगर कोई ऐमा बन जावे | धर्म तो पापियोंको ही बताना चाहिये, नीचों करता है तो मब ही करे करायेको मेटकर उल्टा पापोंमें से उनकी नीचता कुड़ाकर उनको ऊपर उमाग्ना फंसता है। धर्मसेवन तो अपनी प्रात्मिक शुद्धिके वास्ते चाहिये । जो कोई महानीच-पापियोंको धर्मका स्वरूप ही होता है न कि सांसारिक इच्छाओंकी पूर्ति के वास्ते, बना कर उनसे पाप छुड़ाने की कोशिश करनेको अच्छा जिससे श्रात्मा शुद्ध होने के स्थान में और भी ज्यादा नही समझता है, पापसे घृणा नहीं करता है, कठोर Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त (काल्गुन पौर निर्वाणसं० २५५ चित्त होकर उनको पापमें ही पड़ा रहने देना चाहता वह इसके बाद मिध्यादृष्टि हो जाता है और फिर दोहै, वह तो आप ही धर्म अनजान और दीर्घ संमारी बारा संभलने से ही सम्यक श्रद्धानी होता है। है। धर्मका द्वार तो सब ही के लिये खुला रहना चाहिये धर्मका स्वरूप समझाते हुवे वीर भगवान्ने यह और जितना कोई ज्यादा पापी है उतना ही ज्यादा भी बताया था कि, धर्म कोई नौकरी नहीं है जो किसी उसको धर्मका स्वरूप ममझाने की कोशिश करना की आज्ञाओंको पालन करनेसे ही निभ सकती हो या चाहिये । यही वीर भगवानकी कल्याणकारी शिक्षा थी, फौज़की कवायद नहीं है जो शरीरके विशेषरूप साधन जो सर्व प्रिय हो जाती थी। से आ सकती हो । या कोई कशता नहीं है जो शरीरको वीर भगवान्ने यह भी बताया था कि जिस तरह आग तपाने, तरह तरहका कष्ट पहुँचाने, दुबला पुराना बीमार इलाज कराता हुश्रा कभी २ बद परहेजी पतला और कमजोर बनाने या धूपमें सुखाने और भी कर जाता है और दवा नहीं खाता है, जिमसे उम भूखा मारनेसे बन जाता हो। धर्म तो वस्तुके असली की बीमारी फिर उमर पाती हैं और कभी २ तो पहले स्वभावका नाम है । जीवका असली स्वरूप ज्ञानानन्द से भी बढ़ जाती है तो भी घरवाले उसका इलाज नहीं है, जिसमें बिगाड़ पाकर और राग द्वेष और विषयछोड़ देते हैं किन्तु फिरसे इलाज शुरू करके बराबर कषायके उफान उठते हैं। इस कारण जिस जिस उस बीमारीको दूर करनेकी ही कोशिश में लगे रहते हैं। तर्कीबसे विषय-कषायोंका जोश ठण्डा होकर जीवका उस ही प्रकार अगर कोई धर्मात्मा अधर्मी हो जावे, राग-द्वेष दूर हो मके वह ही धर्म-साधन है। वह ही ऊँचे चढ़कर नीचे गिर जावे तो फिर उसको समझा- साधन अपनी अपनी अवस्थाके अनुसार जैसा जिसके बुझाकर तसल्ली-तशफफी देकर और ज़रूरी सहायता लिए ठीक बैठता हो वैसा ही उसको करने लग जाना वाकर धर्ममें लगा देना चाहिये। यह स्थितिकरण चाहिये। वीर भगवान्ने भी भिन्न भिन्न माधन बताये भी धर्म श्रद्धानका एक अङ्ग है, जो सच्चे श्रद्धानीमें हैं । गृहस्थियों के ११ दर्जे करके उनके अलग अलग होना जरूरी है। गृहस्थियोंको नो अपने धर्मस गिर साधन सुनाये हैं और १४ गुणस्थानोंका कथन करके जाने के बहुत ही अवमर आने है। इस वास्तै उनको मुनियोंके वास्ते भी ध्यान आदिके कई दर्जे बताये हैं। तो स्थिनिकरणके द्वारा फिर धर्ममें लगा देना फिर भी यह कथन दृष्टांतरूप बताकर हर एकका साधन जरूरी है। किन्तु मुनि भी यदि धर्मसे भ्रष्ट हो जावे तो उसकी ही अवस्था पर छोड़ा है । इस प्रकार उसको भी फिर ऊपर उठाकर धर्ममं लगा देना चाहिये। माधन तो मबका भिन्न भिन्न हो गया परन्तु साँचा उसका छेदोपस्थापन हो जाना चाहिये। अगर ज्यादा मबका एक यह ही होना चाहिये कि राग-द्वेष दूर होकर ही भ्रष्ट हो गया हो तो दोबारा दीक्षा मिल जानी हमारा जीवात्मा अपने असली स्वभावमें आ जाय । चाहिये। जिस तरह बच्चा गिर गिर कर और उठ उठ प्रत्येक मतके चलाने वालोंने और समय-ममयके कर ही खड़ा होना सीखता है उस ही प्रकार संसारी लीडरोंने अपने समयके मांसारिक रीति रिवाजोंमें जीव भी धर्म ग्रहण करके बार बार गिरकर और फिर भी अपने समय के अनुसार कुछ कुछ सुधार करना संभलकर ही पक्का धर्मात्मा बनता है। मातवें गुण जरूरी समझा है और उनको पक्का बनाने के लिये स्थान से छटे में और छटेसे सातवेमें तो मुनि बार-बार धर्म पुस्तकोंमें भी उनको लिख देना ज़रूरी समझा है। ही गिरता और चढ़ता है और ग्यारहवें गुणस्थान पर जो होते होते धर्मके ही नियम बन जाते हैं, और लकीर चढ़कर तो अवश्य ही नीचे गिर जाता है। तब गिरे के फकीर दुनियोके लोग भी अपने प्रचलित रीति हुयेको फिर ऊपर न उठने दिया जाय तो काम किस रिवाजोंको धर्म के अटल नियम मानने लग जाते हैं। तरह चले ? सबसे पहले जीवको उपशम सम्यक्त्व ही इस प्रकार सांसारिक रीति-रिवाज धर्मका रूप धारण होता है, जो दो घड़ोसे ज्यादा नहीं ठहर सकता है। करके धर्ममें मिल जाते हैं और यह भेद करना मुश्किल Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर और उनका उपदेश हो जाता है कि इनमें कौन नियम सामारिक है और परन्तु इस बातका ध्यान जरूर रखें कि उनसे उनके कौन धार्मिक १ इससे धर्मकी असलियत गुप्त होकर धार्मिक श्रद्धान और धामिक आचरण में किसी भी भारी गड़-बड़ी पड़ जाती है, और सांसारिक प्रगति भी प्रकारकी खराबी न पाने पाये। रुक जाती है, द्रव्य क्षेत्र काल; भाव और अवस्थादि सब कुछ बदल जाने पर भी उन सांसारिक नियमोंको वीर भगवान के समयमें महात्मा बुद्ध भी अपने बौद्ध धर्मके अटल नियम मानकर ज्योका त्यों उनका पालन धर्मका प्रचार कर रहे थे, और मगध देशमें ही अधिकहोता रहता है। हजार दुःख उठाने पर भी उनमें हेर- तर दोनों का विहार हुआ है। इस ही कारण वह देश फेर नहीं किया जाता है। उनके विरुद्ध करना महा अब बिहार ही कहलाने लग गया है,परन्तु वीर भगवान अधर्म और अशुम ममझा जाता है। और महात्मा बबके उपदेशोंमें प्रायः धरती-आकाशका अन्तर रहा है । वीर भगवानने तो वस्तु-स्वभावको ही मकान कैसा बनाया जावे, उसका दरवाजा किधर धर्म बताकर प्रत्येक बातको उसकी असलियत अच्छी रक्ता जावे, दरवाजे कितने हों और कितने ऊँचे हो, तरह दंद पहचान कर ही मानने का उपदेश दिया है, खटी कहाँ लगाई जाय और शरण कहाँ मिलाई जीवात्माको अपना सच्चा स्वरूप समझ कर ही उसकी जाय, दाढ़ी मूंछ और सिरके बाल किस तरह मुंडाये प्राप्तिके साधन में लगाया है। परन्तु महात्मा बुद्ध अपने जावें, उनका क्या दंग रखा जावे, वस्त्राभषण कैमे धर्मको वस्तु स्वभावकी बुनियाद पर खड़ा करनेसे यहां हों, सिर किस तरह ढका जाय, कपड़ा किस रंगका तक घबराये हैं कि जीवात्माका स्वरूप बतानेसे ही साफ पहना जाय, और किस दंगका पहना जाय, इसी तरह इनकार कर दिया है। जगत अनादि है वा किसीका जाति और बिरादरी, आपसका बर्ताव, छतछात, किस बनाया हुआ है, उसका अन्त हो जायगा वा नहीं, जीव के हाथका पानी पीना, किमके हाथकी कच्ची और श्रात्मा शरीरसे अलग कोई वस्तु है वा शरीरके ही किसी और किसके हाथकी पक्की रसोई खाना, रसोईकी सफाई स्वभाव का नाम है, मरने के बाद जीव कायम रहता है के नियम, किम खानेको कहां बैठकर खाना, किस या नहीं इन बातोंकी बाबत तो महात्मा बद्धने माफ बर्तन में खाना, कौन कौन कपड़े पहन कर खाना, शब्दोंमें ही कह दिया है कि मैं कुछ नहीं बता सकता हू किससे ब्याह-शादी करना, मरने पर किसको वारिस इमलिए यह पता नहीं लगता है कि उनका धर्म किस बनाना, मरने जीने और ब्याह शादीमें क्या क्या रीति आधार पर टिका हुआ है । वेशक वह अहिंसाका सभी होना, यह सब सांसारिक रीतिये धर्मके तौर पर मानी उपदेश देता था, और दया धर्मको मुख्य ठहराता था, जाती हैं। और अन्य मतोंकी धर्म पुस्तकों में भी लिखी परन्तु उस समयमें हिंसाका प्रचार अधिक होनेके कारण पाती हैं। जिनके कारण धर्मकी असली बातें लोप होकर उमको यह पाबन्दी लगानेका भी साइस नहीं हुआ कि यह ही धर्मकी बातें बन जाती हैं। इन ही कारणोंमे उसके धर्मको अङ्गीकार करने वालेको मांस का त्याग वीर भगवान्ने अपने उपदेशमे केवल धर्मके स्वरूप ज़रूरी है । इसके अतिरिक्त उमने मरे हुए जीवोंका मांस और उसके साधनोंका ही कथन किया है। और मांसा- खानेकी तो इजाजत दे दी थी। किन्तु वीर भगवानने रिक सारी बातोंको संसारी पुरुषों पर छोड़कर साफ़ जैनी के लिए माँस, मदिरा और शहद त्याग अावश्यक साफ कह दिया है कि इनका धर्मसे कोई मम्बन्ध नहीं ठहराया और मरे हुए. पशुका मांस खाना भी महापाप है। यह ही कारण है कि जैन ग्रन्थोंमें सांसारिक कार्यों बताया, क्योंकि उसमें तुरन्त ही त्रम जीव पैदा होने के नियम बिल्कुल भी नहीं मिलते हैं। हां, यह सूचना लगते हैं और मांस खानेसे घणा न रहकर जीवोंको भी ज़रूर मिलती है कि गहस्थी लोग अपने लौकिक कार्य मार कर खाजानेको मन चलने लगता है । इम ही कारण समय और अवस्थाके अनुकूल जिस तरह चाहें करें बौद्धोंमें जीते जानवरों को भी मारकर खाजानेका बहुत Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [चाल्गुन वीर निर्वावसं• २५॥ पचार हो गया है और अहिंसा का एक नाम ही बाकी हुई हिंसाको बन्द कराकर सुख और शान्ति का मार्ग रागया है। चलाया वार भगवान के उस कल्याण कारी तत्व उपदेश अन्तमें हम सब ही पाठकोंसे प्रार्थना करते है कि को और सुख और शान्तिके देनेवाले उस दया धर्मको वह वीर भगवानके उपदेशको पढ़ें और वस्तु स्वभावको श्राप भी सब तक पहुंचावें । अाजकलमें जो हिंसा हो समझें । जैनियोंसे भी हमारी यह प्रार्थना है कि आप ही रही है उसका बन्द न होना क्या श्राप होकी ग़फ़लतका बीर भगवानके उपदेशोंके अमानतदार है इस ही कारण नतीजा नहीं है ? पूरी तरह प्रयत्न करलेने पर भी कार्य इस बातके जिम्मेदार हैं कि वीर भगवानने जीव मात्रके की सिद्धि न होने में मनुष्य अपनी जिम्मेदारीसे बच जाता कल्याणके अर्थ ३० वर्ष तक ग्राम २ फिर कर जिम है, परन्तु कुछ भी प्रयत्न न करने की अवस्था में तो सारा धर्म तत्वको सब लोगों को सुनाया, उम समयम होती दोष अपने ऊपर ही आता है। ফ্লৱি-জন নিহ গ্রাজুল (१) जीतकल्पसूत्र (स्वोपज्ञ भाष्य भूषित )- अर्थ 'पूर्व' होता है, यह निर्णय किया है कि यह भाष्य लेखक, श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण । संशोधक (संपादक) उन्हीं जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणका बनाया हुआ है जो मुनि श्री पुण्यवि जय । प्रकाशक, भाई श्री बबलचन्द्र श्रावश्यक-भाष्यके कर्ता है, और इसीसे उन्होंने इस केशवलाल मोदी, हाजापटेलाकी पोल, अहमदाबाद। गाथामें यह सूचित किया कि 'तिसमयहार' अर्थात् पृष्ठ संख्या, २२४ । मूल्य, लिग्वा नहीं। "जावड्या तिसमया" (श्राव० नियुक्ति गाथा ३०) इस ग्रन्थका विषय निर्ग्रन्थ जैन माधु-साध्वियोंके इत्यादि श्राठ गाथाओं का स्वरूप जिस प्रकार पहले अपराधस्थान विषयक प्रायश्रित्तोंका वर्णन है। इसमें (पूर्व ) आवश्यक (भाष्य ) में विस्तारसे कहा गया मूल सूत्र गाथाएँ २०३ और भाष्यकी गाथाएँ २६०६ है उसी प्रकार यहाँ भी वह वर्णनीय है। क्योंकि श्रावहै। मूलकी तरह भाष्यकी गाथाएँ भी प्राकृत श्यक नियुक्ति के अन्तर्गत "जावया तिसमया" आदि भाषामें है। माध्यमें मूल के शब्दों और विषयका प्रायः गाथाओंका भाष्यग्रन्थ द्वारा, विस्तृत व्याख्यान करने अच्छा स्पष्टीकरण किया गया है, और इमसे वह बड़ा वाल श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणके सिवाय दुसरे और ही सुन्दर नथा उपयोगी जान पड़ता है। इस भाष्यकी कोई भी नहीं हैं। इससे यह भाष्य मूल अथकारका ही बाबत अभी तक किमीको निश्चितरूपसे यह मालम नहीं निर्माण किया होनेस स्वोपज है। इतने पर भी यह भाष्य था कि यह किमकी रचना है, क्योंकि न तो इम भाध्यमे प्रथ प्रायः कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, पंचकल्पभाष्य, भाष्यकारने स्वयं अपने नामका उल्लेग्ब किया, न चूगि पिण्ड नियुक्तिश्रादि प्रोंकी गाथाओं का संग्रहरूप ग्रंथ है; कारने अपने ग्रंथमें इम भाष्य विषयक कोई सूचना की क्योंकि इस ग्रथम ऐसी बहुत गाथाएँ हैं जो उक्त ग्रंथो और न अन्यत्रसे ही ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख मिलता की गाथायोंके साथ अक्षरशः मिलती जुलती है, ऐसा था जिसके आधारपर भाष्यकारके नामका ठीक निर्णय प्रस्तावनाम सूचित किया गया है। साथ ही, यह भी किया जाता । अन्य सम्पादक मुनि श्री पुरा पवि जय जीने सूचित किया गया है कि श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकी अपनी प्रस्तावनामें, इस भाष्यकी गाथा नं०६०७ और महाभाष्यकारके रूपमें ख्याति होते हुए भी प्रस्तुत भाष्य उसमें खाम तौरसे प्रयुक्त हुए, 'हेटा' शब्द परसे जिमका में श्री संघदासगणि कृत भाष्यादि ग्रन्थोंकी गाथाओंके तिसमय पारादीयं गाहामाया बी सरूवंता होने में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि वे उनसे पहले हो वित्थरयो परयोज्जा जह हेडाऽऽवस्सए मियेण चुके हैं। अस्तु, ग्रंथका सम्पादन बहुत अच्छा हुआ है, Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-परिचय और समालोचन मूल और भाष्यकी गाथाओंको भिन्न भिन यइपोंमें साथ संवाभाव प्रकट है, और इसके लिये वे विशेष दिया गया है. विषय सूची अलग देनेके अतिरिक्त धन्यवादके पात्र हैं। ग्रंथकी दूसरी एक हजार प्रतियाँ ग्रंथमं जहाँपर जो विषय प्रारम्भ होता है वहॉपर उस प्रकाशिका नानी व्हेनकी ओरसे बिना मूल्य वितरित विषयकी सूचना सुन्दर बारीक यइपमें हाशियेकी तरफ हुई है। जिनका चित्र सहित परिचय भी साथमें दिया दे दी है, इससे अन्य बहुत उपयोगी होगया है। छपाई- हुश्रा है।। मफाई सुन्दर है और कागज भी अच्छा लगा है। ग्रंथ लेखकने यह ग्रंथ अपने गुरु आचार्य शान्तिसागरश्रात्मशुदिमें दत्तचित्त साध-साध्वियोंके अतिरिक्त को समर्पित किया है। दोनोंके अलग अलग फोटो पुरानी बातोंका अनुसधान करनेवाले विद्वानों के संग्रह चित्र भी ग्रंथमें लगे हुए हैं और पं० वर्धमान पाव. पाग्य है। नाथ शास्त्रीने अपने 'श्राद्यवक्तव्य' में दोनोंका कुछ (२) निजात्मशुद्धिभावना और मोक्षमार्गप्रदीप परिचय भी दिया है । परन्तु ग्रंथके साथमें कोई विषय. (हिन्दी अनुवाद सहित )-मूल लेखक, मुनि कुंथु- सूची नहीं है, जिसका होना ज़रूरी था । मागर जी । -अनुवादक, प० नानूलाल शास्त्री, जयपुर (३) धर्मवीर सुदर्शन-लेखक, मुनि श्री अमर-~-प्रकाशिका, श्री संघवी नानीन्हेन मितवाडा निवासी। चन्द । प्रकाशक, वीर पुस्तकालय, लोहा मंडी, आगरा पृष्ठ मंख्या, सब मिलाकर १४४ । मूल्य, स्वाध्याय | पृष्ठसंख्या, सब मिला कर ११२ । मूल्य, पांच पाना । मिलनेका पता, प. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, सेठ सदर्शनकी कथा जैन समाजमें खब प्रसिद्ध 'कल्याण' प्रेस, शालापुर । है। यह उसीका नई तर्ज के नये हिन्दी पद्योंमें प्रस्फुटित ये दोनों ग्रन्थ एक साथ निबद्ध है-पहलेमें ६४ और विशद रूप है। इसमें धर्मवीर सेठ सदर्शनके और दुमरेम १६४ संस्कृत पद्य हैं तथा पिछले ग्रन्थके कथानकका श्रोजस्वी भापामें बड़ा ही सुन्दर जीतामाथन ३८ पद्योकी एक प्रशस्ति भी लगी हुई है, जागता चित्र खीचा गया है। पुस्तक इतनी रोचक है जिमम लेखकने अपने गुरु श्राचार्य शान्तिभागरके कि उसे पढ़ना प्रारम्भ करके छोड़नेको मन नहीं होता वशादिकका कार्तन किया है अपनी दुमरी रचनाओंका वह पशु बल पर मैनिक बलको विजयका अच्छा पाठ उल्लेख किया है और इस ग्रंथ का रचना-समय ज्येष्ठ- पढाती है। पद-पद पर नैतिक शिक्षाओं, अनीतिकी कृष्ण १३ वीर निर्वाण मंवत् २४६२ दिया है। माथ अवहेलनात्रों और कर्तव्य-बोधकी बातोंसे उमका माग ही, अनुवादक और अनुवादके ममयका भी उल्लेख कलवर भरा हुआ है। साथ ही, कविता मरल, सुबोध कर दिया है। पहले ग्रंयका रचना-मनय उमके अन्तिम और वर्णन-शैली चित्ताकर्षक है। लेखक महोदय पद्यों में फाल्गुन शुक्ला ३ वीर नि० मं० २.६२ दिया इस जीवनीक लिखनेम अच्छे सफल हुए जान पड़ते हैं। हुअा है। प्राचीन पद्धतिके कथानकोंको नवीन पद्धतिम लिम्बनेका दोनों प्रश अपने नामानुकुल विषयका प्रतिपादन उनका यह प्रथम प्रयाम अभिनन्दनीय है। उन्हें इसके करनेवाले, रचना-मौन्दर्यको लिये हुए, पढ़ने तथा लिम्बनेकी प्रेरणा अपने मित्र श्री मदनमुनि जीमे प्राम मग्रह करने के योग है। अनुवाद भी प्रायः अच्छा ही हुई थी। प्रेग्णाका प्रमंग भी एक स्थान पर होलीके हश्रा है, और उसके विषय मे अधिक लिखनेकी कुछ भारी हल्लाइमें भदाचारका हत्याकाण्ड और भारतीय ज़रूरत भी मालूम नहीं होनी, जबकि मूलकारने स्वय सभ्यताका वन देखकर उपस्थित हुश्रा था, जिसका उसे स्वीकार किया है और अपनी प्रशस्ति तकमें स्थान 'आत्म निवेदन' में उल्लेख है, और उमसे यह भी दिया है। अनुवादक महाशयने इस ग्रन्थकी एक हजार मालम होता है कि इस चरित्र ग्रंथका निर्माण राधेप्रतियाँ अग्नी पोरम बिना मूल्य वितरण भी की है, श्याम-रामायण के ढग पर भारतीय गायोंमें सदाचारका जिससे उनका ग्रंथके प्रति विशेष अनुराग होने के साथ महत्व समझाने-बुझाने के उद्देश्यमे हुश्रा है । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [फाल्गुन, वीरनिर्वाह सं०२५५ श्रीमान दानवीर जैन समाज भूषण स्वर्गीय सेठ । पृथ्वी सुरम्य जिसने गज मोतियोंसे । स्वानाप्रसादजी, कलकत्ताकी धर्मपत्नी सेठानी साहिबा ऐसा मगेन्द्र तक चोट करे न उस्पै, के अार्थिक सहयोगसे यह ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। तेरे पदाद्रि जिसका शुभ आसरा है। आपने इसका परा व्यय 'श्री वीर पुस्तक माला' लोहा मंडी ागराको, जिसका यह ग्रन्थ द्वितीय पुष्प है, . इन दोनों अनुवादोंकी मूलके साथ तुलना करनेसे प्रदान किया है। और इस तरह एक ग्रंथमालाको अपना यह स्पष्ट जाना जाता है कि गिरिधर शर्माका अनवाद कार्य चलाने में मदद की है, जिनके लिये श्राप धन्यवाद मूलके बहुत अनुकूल तथा भावपूर्ण है। दूसरे पद्योंके, के पात्र हैं।आपके दो छोटे छोटे पुत्रोका चित्र पस्तक में अनुवादकी तुलना परसे भी ऐसा ही नतीजा निकलता देखकर समाजके हितार्थ लाखों रुपये खर्च करनेवाले है और खूबी यह है कि यह अनुवाद भी उसी छंदमें सेठ साहबके असमय वियोगकी स्मति नाज्ञा होकर किया गया है जिसमें कि मूलस्तोत्र निबद्ध है और श्रा से बहुत वर्ष पहले वीरनिर्वाण संवत् २४५१ मे दुःख होता है और इन बच्चोंके चिरायु होने आदिके लिये अनायास ही हृदयसे श्राशीर्वाद निकल पड़ता है। __ मेरी भावनाके साथ छपकर बम्बईसे प्रकाशित भी हो पुस्तक छपाई, सफाई तथा गेट-अपकी दृष्टिमे मी चुका है । ऐसी हालतमें प्रस्तुत पुस्तककी 'दो शब्द' नामकी प्रस्तावनामें साहित्य रत्न पं. भंवरलाल भहने अच्छी है और सर्व साधारणके पढ़ने तथा संग्रह करनेके योग्य है। अपने पितामहकी इम कृतिका कीर्तन करते हुए और इस प्रकाण्ड विद्वत्ता तथा कुशल काव्यज्ञानका फल (४) श्री आदिनाथ स्तोत्र ( समश्लोकी पद्या बतलाते हुए जो यह कल्पना की है कि समश्लोकी नुवादसे युक्त)--अनुवादक, स्व. पं. लक्ष्मणजी अनुवादकी कठिनाई के कारण ऐम अनुवादको असंभव अमरजी भह गरोठ । प्रकाशक, सेठ हज़ारीलाल जी समझकर ही अब तक इस काव्य के समश्लोकी अनुवाद हरसुखजी जैन, सुसारी ( इन्दौर)। पृष्ठ संख्या, ३४ । न किये गये होंगे, वह निःसार जान पड़ती है । अस्तु, मूल्य, नित्य पाठ । यह पुस्तक जैन महिलादर्शके १८वें वर्ष के ग्राहकोंको यह प्रसिद्ध भक्तामर स्तोत्रका उमी छंदमें रचित श्री. सौ. नाथीबाई जी धर्मपत्नी सेठ हरसुखजी रोडमल हिन्दी पद्यानुवाद है । मूलकी तरह अनुवादका भी एक जी सुमारीकी ओरस भेटस्वरूप वितरित हुई है। एक ही पद्य है---मूलका संस्कृत पद्य ऊपर और उसके नीचे अनुयादका पद्य दिया है। अनुवाद साधारण है (५) गोम्मटसार कर्मकांड-(मराठी सस्करण) मूल लेखक, प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती । और कहीं कहीं बहुत कुछ अस्पष्ट जान पड़ता हैमूलके प्राशयका पूर्ण रूपसे व्य जक एवं प्रभावक नहीं अनुवादक और प्रकाशक श्री नेमचन्द बालचन्द गांधी वकील, धाराशिव । बड़ा साइज पृष्ठ संख्या ५२४ मूल्य है। नमूने के तौर पर 'मिन्नेभकुम्भ' नामक ३६पद्यका अनुवाद इस प्रकार है-- सजिल्द का ५) रु.। यह ग्रन्थ हिन्दी अनुवादादिके साथ अनेक बार शार्दूल जो द्विरद मस्तकम गिराके, प्रकाशित हो चुका है और जैन समाजका कर्म साहित्य भूभाग भूषित करे गज मौक्तिकोंको। विषयक एक प्रधान प्रथ है। अभी तक मराठी भाषामें सो भी प्रहार करदे यदि पाश्रितों पे, इसका कोई अनुवाद नहीं हुअा था। इसका यह मराठी होता समर्थ न कदापि त्रिलोकमें भी॥ संस्करण अपनी खास विशेषता रखता है। इसम मूल उक्त पद्यका जो अनुवाद कविवर पं० गिरधर शर्मा ग्रन्थकी गाथाओंके साथमें क्रमशः अनवाद देनेकी जी ने किया है वह निम्न प्रकार है-- पद्धतिको नहीं अपनाया गया है, बल्कि गाथा अथवा नाना करीन्द्रदलकुम्भ विदारके की, गाथाम्रोंके नम्बर देकर उनके विषयका यथावश्यकता Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष, नियम साहित्य-परिचय और समालोचन अनवाद, व्याख्यान तथा कोष्टको श्रादिकी रचना-द्वारा जी गाँधी जीको जो भारी परिश्रम करना पड़ा है उसके स्पष्टीकरण किया गया है। एक विषयको एक ही स्थान लिये श्राप विशेष धन्यवादके पात्र हैं। आपने इसके पर जाने के लिये अनेक गाथाओंका सार एक लिये व शीतल प्रसादजीका बहुत आभार माना है दम दिया गया है। और इसी प्रकार अनेक और यहाँ तक लिखा है कि इसमें जो कुछ भी अच्छी गाथाश्रांक विषयको मिला कर एक ही कोष्टक भी बात है उस सबका श्रेय उक्त ब्रह्मचारीनीको है। करना पड़ा है। गाथाश्रीको क्रमशः अनुवाद पूर्वक अनः ब्रह्माचारी शीतलप्रसाद जी भी ऐसे सत्कार्य में महसाथ साथ देने पर ऐसा करने में दिक्कत होती थी, इम योग देने के कारण खासतौरसे धन्यवादके पात्र है। कठिनाईको दूर करने के लिये सब गाथाश्रीको क्रम ग्रन्थमें एक छोटामा (५ पष्ठका ) शब्दकोश भी पूर्वक अधिकार-विभाग-सहित एक साथ (१० ४६६ से लगा हुआ है, जिसम दो भाग है. पहलेमें कुछ शब्दों ५१२ तक) अलग दे दिया है। कोष्टकोके निर्माणसे का अर्थ मराठी भाषामें दिया है और दूसरेमें कुछ शब्दों विषयको समझने ग्रहण करने में पाठकों तथा विद्या- के अर्थ के लिये उन गाथाओंके नम्बर सामने लिखे हैं थियोको आसानी हो गई है। इस मंस्करणमें संदृष्टि जिनमें उनका अर्थ दिया है। साथ ही २१ पेजकी' आदिको लिये हुए २४५ कोष्टक दिये गये हैं, कोष्टकोंका विस्तृत विषय सूची भी लगी हुई है जिसमें ग्रंथके ४०० निर्माण बड़े अच्छे ढंगमे किया गया है और उनमें विषयोंका उल्लेख है, दोनों ही उपयोगी है। इनके श्रविषय दर्पणकी तरह प्रायः साफ़ झलकता है। जहां तिरिक्त ६ पेजका शुद्धिपत्र और ३ पेजका “मी काय कोटककी किमी विषयको विशेष स्पष्ट करनेको जरूरत केले" नामका अनुवादकीय वक्तव्य भी है। इस वक्तव्य पड़ी है वहाँ उसका वह स्पष्टीकरण भी नीचे दे दिया में मूल ग्रंथका निर्माणकाल ईसाकी आठवीं शताब्दी गया है। इस तरह इम अथको परिश्रमके माथ बहुत बतला दिया गया है, जो किमी मूलका परिणाम जान उपयोगी बनाया गया है। जो लोग मराठी नहीं जानते पड़ता है, क्योंकि जिन चामुण्डराय के समय में हम वे भी इम ग्रथके कोष्टकों परसे बहुत कुछ लाभ उठा अथकी रचना हुई है उनका समय ईमाकी दमवीं शतामकते हैं। ब्दी है-उन्होंने शक सम्वत् ६०० (ई. १७८ ) में इम ग्रंथको लिखकर तैयार करने में ७|| वर्षका 'चामुण्णराय पुराणकी रचना ममात की है। ममय लगा है, जिममें पं. टोडरमल जी की भाषा टीका ग्रंथम गाथाश्रीको जो एक मामिलाकर Runnऔर श्री केशववर्णी तथा अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ___ing matter के तौरपर-छापा गया है वह कुछ को संस्कृत टीकाका ७० शीतलप्रमाद जी से अध्ययन ठीक मालम नहीं हुआ। प्रत्येक गाथाको दो पक्तियों में काल भी शामिल है। अध्ययन कालके साथ माथ ही छापना अच्छा रहता-थोड़े ही कागजका फर्क पड़ता। भाषान्तर (अनवाद) का कार्य भी होता रहा है। गाथाश्रोंकी एक अनुक्रमणिका भी यदि ग्रंथमें लगादी ता. २० जुलाई सन् १९२६ मे कार्य प्रारम्भ होकर जाती तो और अच्छा होता । अस्तु । २२ फरवरी सन् १९३७ को समाप्त हुआ है । इम ग्रन्थकी छपाई मफाई और काग़ज़ मब ठीक है संस्करण के तैयार करने में वकील श्री नेमिचंद बालचद्र और वह मत्र प्रकारसे मग्रह करने के योग्य है। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pgister No L4328 - अनुकरणीय ORATEKATAKARMINORITERATURE गत वर्ष कई धर्म-प्रेमी दाताप्रोकी ओरसे १२१ जेनेतर संस्थाओंको अनेकान्त एक वर्ष तक भेंट म स्वरूप भिजवाया गया था। हमें हर्ष है कि इस वर्ष भी भेंट स्वरूप भिजवाते रहनेका शुभ प्रयास होगया NS है। निम्न सज्जनोंकी श्रोरसे जैनेतर संस्थाओंको भेंट स्वरूप अनेकान्त भिजवाया गया है। अनेकान्त पर आए हुए लोकमतसे बात हो सकेगा कि अनेकान्तके प्रचारकी कितनी श्रावश्यकता है। जितना अधिक अनेकान्तका प्रचार होगा उतना ही अधिक सत्य शान्ति और लोक हितैषी भावनाHोका प्रचार होगा। अनेकान्तको हम बहुत अधिक सुन्दर और उन्नतिशील देखना चाहते हैं । किन्तु हमारी शक्ति बुद्धि हिम्मत सब कुछ परिमित हैं ! हमें समाज हितैषी धर्म बन्धुत्रोंके सहयोगको अत्यन्त मा आवश्यकता है। हम चाहते हैं समाजके उदार हृदय बन्धु जैनेतर संस्थानों और विद्वानोंको प्रचारक * दृष्टिसे अनेकान्त अपनी ओरसे भेंट स्वरूप भिजवाएँ और जैन बन्धुश्रीको अनेकान्तका ग्राहक बननेके लिए * उत्साहित करें । ताकि अनेकान्त कितनी ही उपयोगी पाठ्य मामग्री और पृष्ठ संख्या बढ़ानेमें समर्थ हो Pा सके । लड़ाईकी तंजीके कारण जबकि पत्रोंका जीवन संकटमय हो गया है , पत्रोंका मूल्य बताया जा रहा ND साथ है । तप इम मंहगीके जमाने में भी प्रचारको दृष्टिम केवल ३) रु. वार्षिक मूल्य लिया जा ., । इम पर PM भी जैनेतर विद्वानों शिक्षण संस्थाओं और पुस्तकालयोंमे भेंट स्वरूप भिजवाने वाले दानी महानुभावोसे ढाई रुपया वार्षिक ही मूल्य लिया जायगा । किन्तु यह रियायत केवल जैनेतर संस्थाओंके लिये अमूल्य भिजवान पर ही दी जायेगी । ममा जमें ऐस १०० दानी महानुभाव भी अपनी श्रोरसे सौ-सौ, पचाम-पचाम * अथवा यथाशक्ति भेट स्वरूप भिजवानेको प्रस्तुत हो जाएँ तो 'अनकान्त' आशातीत सफलता प्राप्त कर सकता है। जैनेतरोंमें अनेकान्त जैसे साहित्यका प्रचार करना जैनधर्मके प्रचारका महत्वपर्ण साधन है। __बा० मोहनलालजी जैन दहली की ओर से:१. लायब्रेरियन, महावीर जैन पुस्तकालय, चादनी चौक देहली। ला. चिरन्जीलालजो बड़जात्या, वर्धा की ओरसे:१. सैक्रेटरी, मारवाड़ी लायब्रेरी चॉदनी चौक देहली। " साहू अजिवप्रमाद इन्द्रसैन जैन नजीबाबाद की ओरसे:१. मत्री, गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज पुस्तकालय बनारस । २. मंत्री, महाराणा कालेज पुस्तकालय उदयपुर । HTTAREATREATRIKETERNATAKAKATARAKATREATRE बीर प्रेस पॉफ इनिख्या, कनॉट सर्कस, न्यू देहली। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र,वीर नि० सं० २४६६ अप्रैल १९४० वार्षिक मूल्य ३० DOORDAROOOKTRIGORTOINTROORROROFEROERGROOMFGEFOTESeFGFGEGOIRECTIFOOOZORIGHCOMSOTORAGAIRECTOTRA वीर-स्तवन [१] जयति जिनेश-पद-पदम पराग रेणु, कौन पोत-सम भव-जलसे उतारे पार ! परसि परम-पापी पावन पलाये हैं। कौन मेघ-सम जग-ज्वालन बुझात है? वानसे प्रचण्ड-चएड-चण्डकोश नागपति, कौन महा-मोह व्याधि शमन करन-हित पल माँहि घोर क्रूर भाव विसराये हैं। चतुर भिषग-सम भेषज पहात है ? विनय-विनत-नर अमर चमर-इन्दु- संसार गहन निरजन बन-बीच भूले। मायके मुकुट चम नाहि शोभा पाये हैं। जनको दे शान्ति कौन मारग सुझात है ? भवके गहन जल-निधिमें शरण-हीन कहत 'बसन्त'-सम कौन उपवन-हित पोतसम तिन्हें भवनलसे तिराये हैं ॥ तजि वीर-पादपब और न लखात है। [४] रजनि भयावनीमें गाजे घनघोर धन, कौन चिन्तामणि-सम पूरे जन-मन-काज ? घन अन्धकार सब तारागण मन्दनी । कौन दिनमणि-सम मोहको नसात है? कड़-कड़ कड़क सौदामिनि-दमक घोर, कौन हिमकण-सम तप्त-जन-मुदकारी ? जग-जीव काँप, यह कैसो दुःख-कन्दजी॥ कौन इन्दु-सम भवि-चकोर सुहात है ? दुख दलिवेको तब प्रकटे हैं वीर मानो-कौन सिंह-सम कर्म-करिको विदारे कुम्भ ? १ चीर घन-चीवरको पनमके चन्द जी। कौन अरविन्द संत भ्रमर लुभात है ? । जयति जिनन्द जगजीवके आनन्द-कन्द, चातकको मेघ-जिम कहत 'वसन्त' ताहिं टारे भव-फन्द-द्वन्द, त्रिशलाके नन्दनी । तनि वीर-पाद-पब और न लखात है ।। [ do-श्री. बसन्तीलाल न्यायतीर्थ ] BIBADORABADOPearSABSERONB0RROROINODVEGEGEGISEONIO ITQUOFDO1OLONORTONTOLOXOO1Q11, akarta TOONIPLOMOTOORTORILOZADADELO सम्पाटक संचालकजुगलकिशोर मुख्तार तनसुखराय जैन अधिष्ठाता वीर-सेवामन्दिर सरसावा (महारनपुर): कनॉट सर्कस पो० बो० नं०४८ म्यू देहली।। HONOTONOAKTORIREMOTONDONnome: ADNOTLAGIBNITO CORTINDADIMINDANONTOKINDANDARD मुद्रक और प्रकाशक-अयोध्याप्रसाद गोयलीय । S ROOPLEGarg Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची पृष्ठ ३७८ ३८५ ३८९ ३९० ३९२ ३९३ १. उमास्वाति-स्मरण २. श्वेताम्बर कर्म-साहित्य और दिगम्बर पंचसंग्रह [पं० परमानन्दजी ३. धर्माचरणमें सुधार [पा० सूरजभान वकील ४. महावीर-गीत (कविता)-[शान्तिस्वरूप जैनी"कुसुम" ५. अहिंसा [श्री० बसन्तकुमार एम. एस. सी. ६. संसार में सुख की वृद्धि कैसे हो ? [श्री दौलतराम मित्र ७. प्रभाचन्दका तत्त्वार्थ सूत्र [ सम्पादकीय ८. मोक्ष-सुख श्रीमद् रायचन्द ९. वीर-श्रद्धाञ्जलि [श्री रघुवीरशरण एम. ए. 'घनश्याम' १०. प्राकृत पंचसंग्रहका रचना-काल [प्रो० हीरालाल जैन एम.ए. ११. प्रश्न ( कविता )-[श्री रलेश विशारद १२. साहित्य सम्मेलनकी परीक्षाओंमें जैन दर्शन [पं० रतनलाल संघवी ... १३. बोरका जीवन मार्ग [षा० जयभगवान बी. ए एल. एल. बी. वकील ... १४. धीर स्तवन ( कवित्ता)- [श्री बसन्तीलाल न्यायतीर्थ .. १५. साहित्य परिचय और समालोचन ... ४०७ ४०८ ४०९ ४१० ४११ ४१४ टाइटिल पृष्ठ १ सूचनाविलम्ब होनेके कारण इस किरणमें १६ पृष्ठ कम जा रहे हैं, उनकी पूर्ति भागामी किरणों में करदी जायेगी। -व्यवस्थापक Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम । VITalk नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगर्जयत्यनेकान्तः ॥ सम्पादन-स्थान-बीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० बो० न० ४८, न्यदेहली चैत्र-पूर्णिमा, वीरनिर्वाण मं० २४६६, विक्रम सं० १९६७ वर्ष ३ । उमारस्वाति-स्मरणा तत्त्वार्थमूत्र-कर्तारमुमास्वाति-मुनीश्वरम । श्रुतकालदेशीयं वन्देऽहं गुण मन्दिरम ॥ -नगरनाल्लुक शिलालेख नं०४६ तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता उन उमास्वानि मुनीश्वर की मैं वन्दना करता हूँ-उनके श्रीचरणोंमें नतमस्तक होता है-जो गुणोंक मन्दिर थ और करीब करीब श्रुतकेवली थे । श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तत्वार्थसूत्रं प्रकटीचकार । यन्मुक्तिमागोचरणोधताना पाथेयमध्ये भवति प्रजानाम॥ -श्रवणबेलगोन शिलालेख नं०1०५ श्रीमान् उमास्वाति वे मुनीन्द्र हैं जिन्होंने उस तत्त्वार्थमूत्रको प्रकट किया है जो कि मुक्तिमार्ग पर चलने को उद्यमी प्रजाजनों के लिये मूल्यवान पाथेय (कलेवा) के ममान है-मोक्षमार्ग पर चलने के लिये कमर कसे हुओं की आवश्यकताको पूरा करता हुआ उन्हें चलने में ममर्थ बनाने वाला है। अभू दुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी । सूत्रीकृतं येनजिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन ॥ स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गृध्रपक्षाम् । तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृपिन्छ । . -अबबबेलगोब शिक्षालेखनं. १०८ उन (श्री कुन्दकुन्दाचार्य) के पवित्र बंशमें वे उमास्वाति मुनि हुए है जो संपूर्ण पदार्थोंके जानने वाले घे, मनिपुंगव थे और जिन्होंने जिनदेव-प्रणीत आगमके संपर्ण अर्थममूहकी सूत्ररूपमे रचना की है। वे प्राणियों की रक्षामें बड़े सावधान थे और इसके लिये उन्होंने एक बार पिंछी के रूप में गृध्र के परोको धारण किया था, उस पक्त से बुध-जन श्रापको 'गृध्रपिञ्चबाचार्य' कहने लगे थे। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर कर्मसाहित्य दिगम्बर ‘पंचसंग्रह [०-५० परमानन्द शास्त्री ] चसंग्रह इस समय मेरे सामने उपस्थित है। इस ग्रंथमें बंध नेताम्बर सम्प्रदायमें 'कर्मप्रकृति' ग्रंथके कर्ता कथनकी प्रधानता होनेसे इसका नाम 'बध शतक' भी प्राचार्य शिवशर्म माने जाते है और आपको रूढ हो गया है। परन्तु इस शतक प्रकरणकी रचनाका पूर्वधर भी बताया जाता है । श्राप कर्म साहित्यके विशेषज्ञ सामञ्जस्य 'कर्मप्रकृति' के साहित्य आदिके साथ ठीक होते हुए अन्य सिद्धान्त श्रादि विषयों में भी अच्छी नहीं बैठता । जो गम्भीरता और सूत्र-कथन-शैली कर्मयोग्यता रखते थे। श्रापका समय यद्यपि पूरी तौरसे प्रकृति में है वह इस शतक प्रकरण में उपलब्ध नहीं होती, निीत नहीं है, फिर भी संभवतः विक्रमकी श्वीं शता और इससे इसके शिव-शमकर्तृक होने में संदेह होता ब्दी अनुमानित किया जाता है । कर्मप्रकृति' ग्रन्थके है। ऐसा मालूम होता है कि यह शतक' प्रकरण किसी अवलोकन करनेसे अापकी विद्वत्ताका यथेष्ट परिचय अन्य के द्वारा ही संग्रह किया गया है । इसके शुरुमें मगलाचरण और ग्रंथप्रतिज्ञाकी जो गाथा पाई जाती है मिल जाता है। इस ग्रंथकी रचना सुमम्बद्ध है और वह इम प्रकार हैप्रतिपाद्य विषयके अच्छे प्रतिपादनको लिये हुए है । इसमें जिस रूपसे बध-उदय, उदीरणा, सक्रमण और भरहन्ते भगवन्ते अणुत्तरपरकमे पथमिजयं। उपशम श्रादिका वर्णन दिया है वैमा सूत्रबद्ध, बंधसयगे निबद्ध संग्रह मिणमो पबक्खामि ॥ संक्षिप्त कथन अन्य श्वताम्बरीय कर्म ग्रन्थों में बहुत ही इस गाथामें अणुत्तर पराक्रम वाले अरहंत भगवान् कम देखनेमें आता है। इन्हीं प्राचार्य-द्वारा संकलित को नमस्कार करके बधशतकमे निबद्ध इम संग्रहको एक 'शतक' नामका प्रकरण भी कहा जाता है जो कहनेकी प्रतिज्ञा की गई है, इससे इस ग्रंथके एक संग्रह __--- -...- ग्रंथ होने में तो कोई संदेह मालूम नहीं होता। परन्तु प्राचार्य मनधारी हेमचन्द्र जो इस शतक प्रक- ... .. रखके टीकाकार है उन्होंने इस ग्रंथ की गाथासंख्या संख्या मंगलाचरखकी गाथा सहित 1.होती हैं। १..बतलाई है जैसा कि उनके निम्न वाक्योंसे स्पा यदि मंगलाचरणकी गाथाको मुखग्रंयकीन मानी जावे है “श्री शिवराम सूरिभिः संचिसतरं सुखावो तो भी गायाभोंकी संख्या १.. रोती है जिसका गापाशतपरिमाणनिष्प पथार्थनामकं शतकाव्यं 'गाथाशत परिमाणनिष्प वाले बाल्यके साथ विरोध प्रकरणमभ्यधाबीति"। जबकि इस प्रकरणकी गाथा होता है। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर कर्मसाहित्य और दिगंबर 'पंचसंबई' २७६ प्रश्न यह है कि वह संग्रह किसका किया हुआ है और · का कोई मेल भी नहीं बैठता और इसलिये इसका कहांसे किया गया है। सटीक प्रतिमें उक्त गाया पर संग्रह किसी दूसरे ही विद्वान्ने किया है। कहसि किया कोई नम्बर नहीं दिया और न चूर्णीकारने इसकी व्या- है, इसका कुछ दिग्दर्शन आगे कराया जाता है। ख्या ही की है। इसीलिये मलधारी हेमचन्द्रने इसकी दि. जैन सम्प्रदायमें प्राकृत पंचसंग्रह नामका टीका नहीं की और लिखा है कि 'यह गाथा इस प्रथके जो एक प्राचीन कर्मग्रंथ उपलब्ध है और जिसका शुरुमें देखी जाती है परन्तु उसकी व्याख्या पूर्व चूर्णी- संक्षिप्त परिचय अनेकान्तके इसी वर्षकी तीसरी किरण कारने नहीं की, इसलिये उक्त गाथा प्रक्षिप्त मालूम में 'अति प्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह' शीर्षकके नीचे होती है और सुगम भी है', ऐसा लिखकर उसके दो- कराया जा चुका है, उसके 'शतक' नामक चतुर्थ प्रकतीन पदोंकी साधारण व्याख्या दी है । इससे स्पष्ट रण की, जिममें १०० बातें ३०० गाथाओं में वर्णित है, है कि मलधारी हेमचंद्र भी इस गाथाको मूल ग्रंथकी ६४गाथाएँ इस 'शतक' नामक प्रकरणमें प्रायः ज्योंकी मानने में संदिग्ध थे। अस्तु, यदि इस गाथाको मूल त्यो अथवा कुछ थोड़ेसे पाठ-भेद या सामान्य शब्दग्रंथकी मानना इष्ट नहीं है तो इस ग्रंथके शिवशर्म परिवर्तनके माथ पाई जाती हैं। उनमें एक गाथा ऐसे कर्तृक होने की हालतमें मंगलाचरणकी कोई दूमरी गाथा परिवर्तनको भी लिये हुए है जिनमें थोड़ासा साधारण होनी चाहिये । क्योंकि प्राचार्य शिवशर्मने अपनी 'कर्म- मान्यता भेद उपलब्ध होता है और जो सम्प्रदाय-विशेष प्रकति' में मगलाचरण किया है । यह नहीं हो सकता की मान्यताका सूचक है। कि एक हीग्रंथकार अपने एक ग्रंथमें तो मंगलगानपूर्वक प्राकृत पंचसंग्रहकी जो गाथाएँ उक्त 'शतक' ग्रंथ रचने की प्रतिज्ञा करे और दूमरेमें न मंगलगान करे श्रथवा 'बन्धशतक' में पाई जाती हैं उनमेंसे तीन और न ग्रंथ रचनेकी कोई प्रतिज्ञा ही करे | जब मंगला- गाथाएँ यहाँ नमने के तौर पर नीचे दी जाती हैं:दिककी दूसरी कोई गाथा नहीं है तब या तो इस ग्रन्थ चोइससरायचरिमे पंचणियट्टीणियहि एथारं । को शिवशर्मकृत न कहना चाहिये । और या यह मानना सोजसमं दुणुभायं संजमगुणपच्छिमो जयह ॥ चाहिये कि उक्त गाथा इमी ग्रंथकी गाथा है और उसके -प्रा० पचम० ४, ४७० कथनानुमार यह ग्रन्थ एक संग्रह पथ है। दोनों हालतो. चोइससरागचरिमे पंचमनियट्टिनियहि पकाएं। में यह ग्रंथ शिवशर्मकृत नहीं ठहरता; क्योंकि यह ग्रंथ सोजसमं दुणुभागा संजमगुणपस्थिमो जय ॥ जैमा कि आगे प्रकट किया जायगा, अर्थशः नहीं किन्तु -बन्धशतक, ७४ शब्दशः इतना अधिक संग्रहप्रथ है कि इसे शिवशर्म भाहारमप्पमत्तो पमत्तसुदो दु अरह सोयाणं । जैसे श्राचार्यकी कृति नहीं कहा जा सकता । उनके कम सोलस माणुस तिरिया सुर थिरया तमनमा निपिण। प्रकृति अंधकी पद्धति-कथनशैली और साहित्य के साथ इम __-प्रा० पचम०, ७, ४७६ •सिद्ध सिदत्वसुयं वंदियविदो य सम्बकम्ममलं । पाहारमप्पमत्तो पमससुद्धो उभरइ सोगाणं । कम्मट्ठगस्स करणहगुदय संताणि वोच्छामि ॥ सोखस माणुसतिरिया सुरनारग तमतमा तिमि ॥ -कर्मप्रकृति १ -बन्धशतक, ७५ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. अनेकान्त [चैत्र, धीर-निर्वाण सं०२१५५ सम्माइट्ठी मिग्छो व भट्ट परियत्तमनिझमो अपह। • प्रावरणदेसपायंतरायसंजलणपुरिससत्तरसं । परिपत्तमाण मज्झिम मिलाइडी. दु तेवीसे ॥ पाविहभावपरिणया तिविह परिणया मेव सेसा ॥ -प्रा०पंचस०, ४, ४८३ __-बन्धशतक, सम्माइट्टी मिच्छो व अट्ठ परियत्त मजिममो जयह। तिरिणरमिवेयारहसर मिच्छो तिरिण जयह पयडीमो परियत्तमाण मज्झिम मिच्छट्टिी उ तेवीसं ॥ उज्जोवं तमतमगा सुरवरड्या हवे तिरिण ॥ -बन्धशतक, ७६ -प्रा. पंचसंग्रह ४६६ इनके सिवाय, पंचसंग्रहकी गाथाएँ, नं० ३, ४, पंचसुर सम्महिटी सुरमिच्छोतिमि जयइ पपडीयो। ५,६, २०, ५५, ५६, ६६, ३६, ७७, २००, २०१, उज्जोयं तमतमगा सुरणेरड्या भवे तिरह ॥ २०२, २०३, २०४, २०५, २०६, २०७, २०८, २०६, -बंधशतक, ७३ २१०, २१३, २१६, २२०, २२१, २२३, २२४, २, इसी प्रकार पंचसग्रहकी गाथाएँ, नं० ४०, ५४, ४, २३०, २३१, २३६, २३७, ३०२, ३०३, ३०६, २१८, २२२, २२५, ३०४, ३१३, ४२३, ४६३, ४८६, ३१८, ३२१, ३२२, ४२४, ४२६, ४२७, ४२८, ४२६, ४८७, ४६८, ५०२, ५०७,५१३, भी थोड़से पाठ ४३०, ४३१, ४३५, ४३६, ४३७, ४४५, ४४६, ४४७, भेदके माथ बधशतकमें क्रमशः नं. ७, ८, २६, ३३, ४५१, ४५४, ४५५, ४६६, ४७०, ४७६, ४७६, ४८०, ३६. ४६, ४८, ५४, ७१, ८०, ८१, ८६, ६३, ६६, ४८३, ४८८, ४६.५, ४६७, ४६.६; ५००, ५०५, ५०६, ८, पर उपलब्ध होती हैं। ५११, ५१४, ५१६, ५१६, ५२०, ५२१, ५२२, ५२३, नीचे वह गाथा भी दी जाती है जिसमें मान्यता५२४, ५२५, बंध शतकमें क्रमशः नं० १, २, ३, ५, भेदको लेकर कुछ साधारणमा परिवर्तन किया गया ६, ६, १०, ११, १४, १५, १६, १७, १८, १६, २०, जान पड़ता है:२१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, ३०, ३१, ३२, भाउकस्स पदेसं छचं मोहस्स सब दु ठाणाणि । ३४, ३५, ३८, ३६, ४०, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५; सेसाणि तणु कसाो बधइ उकस्स जोगेण ॥ ४७, ४६, ५०, ५१, ५५, ५६, ५७, ५८, ६०, ६१. -प्रा० पंचसंग्रह, ५०५ ६२, ६३, ६४, ६५, ६६ ६८, ६६, ७०. ७४, ७५, भाउकस्स पएसस्स पंच मोहस्स सत्त । ठाणाणि । ७६, ७७, ७८, ७६, ८२,८७, ८८, ६०,६१, ६५, सेसाणि तणुकसानो बंधड़ उक्कोसए जोगे । ६७, ६६, १००, १०१, १०२, १०३, १०४, १०५, -वंधशतक, ६४ १०६, १०७, पर पाई जाती हैं। इनके अतिरिक्त निन गाथाओंमें कुछ उल्लेखनीय बध शतककी इस ६४ नं. की गाथाकी टीका करते हुए श्राचार्य मलधारी हेमचंद्रने लिखा है-'अन्ये पाठभेद उपलब्ध है उनमेंसे नमूने के तौरपर दो गाथाएं तु सास्वादन मिभावपि संगृह्य"मोहस्स शवदु ठाणाणि" नीचे दी जाती हैं: ति पठन्ति । इमसे स्पष्ट है कि उक्त सस्कृत टीकाकारके मावरणदेसघायंतरायसंजलणपुरिससत्तरसं । सामने मोहके नवस्थानोंका निर्देश करनेवाला प्राकृत चडविहभावपरिणया तिमावसेसा सयं तु सत्ताहियं ॥ पंचसग्रहका अथवा अन्य कोई दिगम्बरीय पाठ अवश्य --प्रा०पचसग्रह मह रहा है इमी कारग टोकाकारने उक्त सूचना दा है। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ६] श्वेताम्बर कर्मसाहित्य और दिगंबर 'पंचसंग्रह' कमस्तव और पंचसंग्रह और वह यह किबन्ध न्युच्छिन्न, उदय-व्युच्छिन्न और उदीरणारूप प्रकृतियोंकी संख्या गिनाने के बाद ही श्वेताम्बरीय सम्प्रदायमं 'कर्मस्तव' नामका एक मका एक गाथामें मूल कर्मप्रकृतियोंके पाठ नाम दिये हैं और छोटा सा कर्मविषयक प्रकरण और भी है, जिसके कर्ता १० वीं गाथामें उत्तर प्रकृतियोंकी संख्या बताई है, तथा रचनाकालका कोई पता नहीं और निमे द्वितीय जिन सबका वहाँ उस प्रकरण के साथ कोई सम्बन्ध प्राचीन कर्मग्रन्थ के नामसे कहा जाता है । परन्तु इम मालम नहीं होता, ऐमी स्थिति में उक्त प्रकरण किसी प्रकरणका यथार्थ नाम 'बन्धोदय-पत्य-युक्त-स्तव' जान दूसरे ही ग्रन्थ परस सकलित किया गया है और उसका पड़ता है। जैसा कि उनके 'बन्धुदयसंतजुत्तंवोच्छामि संकलनकर्ता मोटी मोटी त्रुटियों के कारण कोई विशेष धयं निसामेह' पदमे मालम होता है । इस प्रकरण बुद्धिमान मालूम नहीं होता । वह दूमरा मन्य जहाँ तक में बन्ध, उदय, उदीरगा और सत्तारूप प्रकृतियों का मैंने अनुमधान किया है, दिगम्बर जैन समाजका मामान्य कथन किया गया है। इसकी कुल गाथासंख्या 'प्राकृत पचसग्रह' जान पड़ता है। उसमें 'बन्धोदय५५ है। परन्तु उक्त प्रकरणमें बंध और उदयादिके सत्व युक्त-स्तव' नामका ही एक तृतीय प्रकरण है, कोई लक्षण या स्वमा निर्देश नहीं किये गये जिनके जिमकी कुल गाथा संख्या ७८ है। इस प्रकरणमें निर्देशकी वहाँ पर निहायत जरूरत थी। और इम मंगलाचरणके बाद बध, उदय, उदीरणा और सत्ताका लिये उसम बध उदयादिके स्वरूपादिक का न होना मामान्य स्वरूप दिखाकर तीन चार गाथाश्री-द्वारा बहुत ग्वट कता है । इतना ही नही, किन्तु ग्रंथकी अप. उनके विषयका कुछ विशेष स्पष्टीकरण किया है। पश्चात् गना और अव्यवस्थाको भी सूचित करना है; क्योंकि उममें यथाक्रम बन्धादिम व्यच्छिन्न होने वाली प्रकृउममें मगलाचरण के बाद एकदम बिना किसी पूर्व नियों का ग्वुलामा कथन किया है और माथमें अंकसम्बन्धके दूसर्ग गाथा में ही बंधमे ब्युच्छिन्न होने वाला महष्टि भी होनम वह विशेष सुगम तथा उपयोगी हो प्रकृतियों की माव्या गुणस्थानक्रमम बनला दी है। गया है। और इस तरहम पचमग्रह का वह प्रकरण इसके भिवाय, उसकी एक बात और मो नरक है मुसम्बद्ध और नामकरण के अनुमार अपने विषयका प्रज्ञाचक्ष पं. सखजालजीने भी द्वितीय कर्म- स्पष्ट विवंचक है। जो बाते श्वनाम्बरीय 'कर्मस्तव' को प्रन्धको प्रस्तावनामें 'ग्रन्थ रचनाका आधार' शीर्षकके देखने म ग्बटकती हैं श्रीर अमंगत जान पड़ती है नीचे 'कर्मस्नव' नामके द्वितीय प्राचीन कर्म ग्रन्थका वे सब यहाँ यथास्थान होने से मुमगन और मुमअसली नाम 'बन्धोदय-सत्व-युक्त स्तव' ही लिखा है। म्बद्ध जान पड़ती हैं । पचसग्रहके इस प्रकरणाकी ५३ देखो, कर्मस्तव नामक द्वितीय ग्रन्थकी प्रस्तावना पृ०४ गाथाएं साधारणम कुछ शब्दपरिवर्तन के साथ प्रायः + इमकी मुद्रित मूल प्रतिमें गुणस्थानों के नाम ज्याकी त्या रक्त व. 'कमस्लव' में पाई जाती हैं । वाली दो गाथाओंको शामिल करके गाथा संख्या १७ और पंचमग्रह के प्रकृति समुत्कोनन' नामक अधिकारको दी है। परन्तु टीकाकारने उनपर कोई टीका नहीं दी गाथाएं न०२ और 6 है, जो मूल प्रकृतियोंके नाम लिखी, इस कारण उन्हें प्रचित पतलाया जाता है। तथा उत्तर प्रकृतियों की मग्न्याकी निर्देशक है, वे Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२१ कर्मस्तवमें ६, १० नं० पर पाई जाती हैं। इस तरह से प्रकरण ग्रन्थ है। जिसे प्राचीन षष्ठ कर्मग्रन्थ भी उक्त कर्मस्तव ग्रन्थ में ५५ गाथाओंका जो संकलन कहते हैं । इसकी कुल माथा सख्या ७५ है । इस प्रक. हुआ है वह सब इसी पचसंग्रह परसे हुआ जान पड़ता रणके संकलन-कर्ता आचार्य चन्द्रर्षि माने जाते हैं। है। पाठकोंकी जानकारीके लिये तुलनाके तौर पर कहा जाता है कि आपने स्वयं इस पर २३०० श्लोक यहां दो गाथाएं दी जाती है: प्रमाण एक टीका भी लिखी है। परन्तु वह अभी तक मिपाउंसमवेयं रिया तहय चेव गिरयदु।। मेरे देखनेमें नहीं आई । श्राचार्य चन्द्रर्षि कर्मसाहित्यइगि विविदिपजाई हुँदमसपन मायावं ॥ के अच्छे विद्वान थे । 'पंचसंग्रह' नामकी श्रापकी बार सुहुमंच तहा साहारणयं तहेव अपज्जतं । कृतिका श्वेताम्बर सम्प्रदायमें विशेष श्रादर है । यह पचपए सोबह पपडी मिम्मि प बंध-गुच्छयो। संग्रह उक्त दिगम्बर पंचसंग्रहसे भिन्न है । इस पंच -प्रा० पंचस० ३, १५, १६ संग्रहमे शतक, सप्ततिका, कषायप्राभृत, सत्कर्म, और मिच्छनपुंसगवेयं नरपाउँ तहपञ्चेव नरयदुर्ग। कर्मप्रकृतिलक्षण नामक ग्रंथोंका; अथवा योग, उपयोगहग विविविध जाई हुँडमसंपत्तमायावं ॥ मार्गणा, बन्धक, बधव्य, बन्धहेतु और बन्धविधिरूप पावरसुहुमं च तहा साहारणथं सहेव अपज्जतं । प्रकरणोंका संग्रह कियागया है ।निससे इमका पचसंग्रह एया सोलह पपी मिच्छमि प बंधवोच्छेभो ॥ नाम अधिक सार्थक जान पड़ता है । इस ग्रन्थको कुल -कर्मस्तव, ११, १२ गाथा संख्या ६६१ है । इमपर ग्रंथकर्ताने खुद इसी तरहसे प्राकृत पंचसंग्रहकी गाथाएं न० १, ६००० श्लोक प्रमाण एक टीका लिखी है जो मूलप्रथ. ११, १२, २६, ५०, ५१, ५२, ५३, २, ४, १७, १८, के माय मुद्रित हो चुकी है। यद्यपि इस प्रथमें शिव१६, २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २८, शर्मकी प्रकृतिका विशेष अनुकरण है परन्तु वह मब ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३६, ४०, ४१, अपने ही शब्दौमें लिखा गया है। कहीं कहीं पर कुछ ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८, ४६, ५५, ५६, कथन दिगम्बर ग्रंथोंमे भी लिया गया मालुम होता है, ५७, ५८, ५६, ६०, ६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६, परन्तु वह बहुत ही अल्प जान पड़ता है। प्राचार्य कर्मस्तव में क्रमशः न० १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ६, चन्द्रर्पिने पचमंग्रहमें अादि मगल करके ग्रंथके कथन १०, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १६, करने की प्रतिज्ञाकी है । और अन्त की निम्न गाथा में २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २८, २६, पंचानां शतक सप्ततिका-कषायमाभत३०, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७. ३८, ३६, सत्कर्म-कर्मप्रकृतिलक्षणांनोग्रन्यानो, अथवा पंचाना ४०, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८, ४६, मनामा धिकाराणां योगोपविषय मार्गणा-बंधक५०,५१,५२, ५३, ५४, ५५, पर ज्योंकी त्यों रूपसे बंधम्य-बन्धहेतु-बन्धविधिलक्षणानां संग्रहः पंचसंग्रहः । -पंचस. २० मलयगिरी गा.१ उपलब्ध होती हैं। + नमिडण जिणं वीरं सम्म दुहकम्मनिट्ठवगं । सप्ततिका और पंचसंग्रह बोच्छामि पंचसंग्गहमेय महत्थं माइत्थंच॥१॥ श्वेताम्बरीय कर्म ग्रंथों में 'सप्ततिका' नामका भी एक -पंचसग्रहे, चन्द्रर्षिः। - - --- - - Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व, विनय श्वेतामा कर्म साहित्य और दिगम्बर 'पंचसंग्रह' ३८३ अपने उक्त प्रकरणकी समाप्ति के साथ अपना नाम भी लन किया हुआ मालम नहीं होता, किन्तु किसी दूसरे व्यक्त किया है। ही के द्वारा इधर उधरसे संग्रह किया हुआ जान सुबदेविपसायामो पगरयमेयं समासमो मणियं। पड़ता है । समयामो चंदरिसिवा समईविभवानुसारेण ।। दिगम्बरीय प्राकृत पंचसंग्रहके सत्तर भंगवाले इस गाथाम बताया है कि आगम और श्रुतदेवीकी अंतिम अधिकारकी ५१ गाथाएं उक्त प्रकरणमें प्रायः प्रमन्नताम यह प्रकरण मुम चंद्रर्षिने अपनी बुद्धिविभव ज्योंकी त्यों अथवा कुछ थोड़ेसे पाठ-भेदके साथ उपके अनुसार मंक्षेपसे कहा है। लब्ध होती हैं । उसमेंसे दो गाथाएं यहां नमूनेके तौर इसके मिवाय, पचसग्रहकी अपनी स्वोपजवृत्तिमें पर दो जाती है:-- भी चदर्पिने मगलाचरण किया है और टीका के अंतमें कदिबंधतो वेददि कइया कदि परिठाण कम्मंसा it प्रशस्लि भी दी है जिसमें अपने को पार्श्वभूपिका मूलुत्तरपयीसु य भंगवियप्पा दुबोहम्बा ॥ शिष्य बतलाया है। परंतु 'मप्तितिका' नामके इम -प्रा. पंचसं०,५२८ प्रकरणमे कोई मगलाचरण नहीं किया है और न प्रथ- का बंधतो यह कह कह वा पयडिसंतठाणाशि : के अन्तमें संकलन कर्ताने अपना नाम ही व्यक्त किया मूलुत्तरपगईणं भंगवियप्पा उ बोहम्वा ॥ है । अनः चन्द्रर्पिही इस प्रकरण के मकलनकर्ता हैं या -सप्ततिका ७२ कोई अन्य, यह बात जरूर विचारणीय है। ऐमा नही अढविहसत्तछब्बंधगेसुमठेव उदयकम्मंसा । हो मकना कि एक ही प्रथकार अपने एक ग्रथम और एयविहे तिवियप्पो एयवियप्पो भयंचम्मि । उसकी टीका तकमें तो मगनाचरण दे और ग्रंथके प्रा० पंचमंग्रह, ५२६ अन्नमें अपना नाम भी प्रकट करे, परतु दूसरे प्रथम भट्टविहसत्तछब्बंधगेसु भटेव उदयसंताई । श्रादि अतकी उक्त दोनो बातोमं मे एक भी न करें । एगविहे तिविगप्पो एगविगप्पो प्रबंधम्मि । इसके अतिरिक्त चंद्रपिने अपने पचमग्रहम 'मननिका' -सप्ततिका ३ नामका एक प्रकरणा भी लिया है, जिनमें विस्तारसे इनके अतिरिक्त पंचमंग्रहकी गाथाए न० ५२७, इन्हीं मय बानोंका कथन किया गया है, जो इम ५३०, ५३१, ५३३, ५४७, ५५५, ५५६, सप्ततिका प्रकरण में तथा दिगम्बरीय कर्मप्रथोंमें पाई ५५१, ५६२, ५७३, ५७४, ७४२, ७७४, ७७५, ७७६, जाती हैं । परंतु वह सब कथन अपने अनुभवादिके ७८५, ७८८, ८२६, ८३०.६.१,६४६, ६८२,६८३, साथ अपने शब्दोंमें निरूपित है, जिसमे उक्त प्रकरण ९८४, १८६, ६८७, ६६०, ६६१, ६६५, १००३, बहुत अच्छा है। उस प्रकरणसे इस प्रकरणमें कोई १०१४, १०१५, १०१६, १०१७, थोडेसे साधारण विशेषता मालम नहीं होती, जिससे उनके द्वारा उमीके शब्द परिवर्तनके माथ मप्ततिका(पष्ठ कर्मप्रथ) में क्रमशः फिरसे रचे जानेकी कल्पना की जा सके । इस प्रकरणमें नं. १, ४, ५, .. 1, 16. ५, १६, २४, पचसंग्रह जैमा स्पष्ट तथा उससे अपूर्व कुछ भी कथन २५, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३६, ४६, ४७, नहीं है। इसीसे यह प्रकरण प्राचार्य चद्रषिका संक- अत्र अंश इतिशहेन सत्ता गृह्यते । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 भनेकान्त चैत्र, वीर निर्वाण सं०२ ५०, ५४, ५५, ५६, ५७, ५६, ६०, ६१, ६२, ६७, है । और उपयोगिता की दृष्टिसे यह ग्रंथ कितने अधिक ७३, ७४ ७५ पर पाई जाती हैं। महत्वका है । उक्त प्रकरणके संकलित करने में ___ इनके सिवाय, जिन गाथाओंमें थोड़ा या बहुत पंचसंग्रहकी जिन गाथाओंका उपयोग हुश्रा है उनमेंसे पाठ-भेद अथवा मान्यताभेद पाया जाता है उनमंसे अधिकांश गाथाओंका उपयोग प्राचीन दिगम्बर कर्म उदाहरण के तौरपर यहाँ तीन गाथाएँ दी जाती हैं। माहित्यमें बराबर होता रहा है और प्राचार्य वीरसेनकी एवंदोष चत्तारि दो एयाधिया सुक्कस्स। धवला टाकामें भी हुअा है । इससे उन गाथाश्रोंका पोषण मोहविज्ने उदयहाणाणिव होंति ॥ अधिकतर दिगम्बर साहित्यसे ही सम्बंध रहा जान -प्रा. पंचसं०.५५२ पड़ना है श्वेताम्बरीय कर्म प्रकृति ग्रंथमें इस तरहकी एक्कंदोब चउरो एत्तो एकाहिया इसकोसा। प्रायः दो-तीन गाथाएँ ही उपलब्ध होती हैं। और मोहेब मोहणिजे उदयद्वाणा नव हबति । चदपिके पंचसंग्रहम ऐमी गाथाएं ८-१० के करीब ही -सप्तति, १२ पाई जाती है। मालम होता है कि चन्द्रपिके सामने मखुपगई पंचिदिय तस बायरणामसुत्यमादिजं। दिगम्बरीय प्रा० पवसंग्रह अथवा और इसी तरहका पजसं जसकिती तिथयरं याम याव होति ॥ अन्य दि० माहित्य अवश्य रहा है। -प्रा.पंचसं०,१८५ वीर संवामंदिर. सरमावा ता० १५.४ १६४० मणुषगइ जाइतस वापरं च पजत्त सुभगमाइज । उदाहरण के लिये उसकी एकगाथा नीचे दी जाती जसकिसी तिथपरं नामस्स हवंति एया (उच्च)॥ है -सप्तनिका, ५८ घाईगं छउमत्था उदीरगा रागिणो य मोहस्स। बारस पणढाई उद्य वियपेहि मोहिया जीवा। तयाजण पमत्ता जोमंता उत्ति दोपहं च ॥ चुनसोदि सत्तत्तरि पयबंधसदेहि विषणेया । -कर्म प्र०, ४,४ -प्रा. पंचस०,८३१ यह गाथा दिगम्बरीय पंचसंग्रहके चौथे प्रकरणमें बारसपणसहसया उदर विगप्पेहि मोहिया जीवा। २१४ नं०पर और गोम्मट्टमार-कर्मकाण्डमे ४५५ नं. चुलसीई सत्त्तरि पथविद सहि विन्नेया॥ पर पाई जाती है। -सप्ततिका ४८ * उदाहरण केलिए दो गाथाएं नीचे दीजाती हैंइसी तरह की प्राकृत पंचसंग्रह की गाथाए नं. भट्ठग सत्तग छका परतिग दुग एगाहिया वीसा। ५६८, ७७०,७७१, ८२८,६१७,६१८, ६३७, ६६२, तेरस बारेकारस संते पंचाइजा एकं। ६६३, ६६६, १०११, १०१४ है,जो सप्ततिकाम क्रमशः -पंचसं०१५,१० २४४ नं० २०, ३३, ४३, ४५, ५१, ५२, ५३, ६३, ६६, यह गाथा दि.पंचसंग्रहमें ५५५ नं० पर और गो. ७२, पर उक्त प्रकारके पाठ भेदादिके साथ उपलब्ध काबहमें १० नं. पर उपलब्धोती। होती है। तेवीसा पणुसा वीसा महावीस दुगुणतीसा । उपसंहार तीसेग तीस एगो बंधहाणाइ नामेह । इस सब तुलना परसे पाठक सहजमें ही जान -पंचसं०, ५५, पृ. २१. सकेंगे कि प्राकृत पंचसंग्रह की गाथाओं का उक्त तीनों पहगाथा दिपंचसंग्रहमें १४ नं. पर पाई श्वेताम्बरीय कर्म ग्रन्थों में कितना अधिक उपयोग हा जाती है। ,६६२, है,जोस ३, ४३, Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माचरणमें सुधार [ले०-वा० सूरजमानुजी वकील ] नया, गर्द गुबार भादिके कारण हर वक्त ही मकानों उनके सिद्धान्तोंके पढ़ने सुनने और उनकी धर्म क्रिया ९ में कूड़ा कचरा इकट्ठा होता रहता है, जिससे तथा साधनोंके देखने सुननेसे-और हमारी भी अनेक दिनमें दो बार नहीं तो एक बार तो ज़रूर ही मकानों प्रकारको कषायों तथा ज्ञानकी मंदतासे अनेक प्रकारके को साफ़ करना पड़ता है। मकानमें रक्खे हुए सामान विकार पैदा होते रहना स्वाभाविक ही है। इस कारण पर भी गर्दा जम जाता है, इस कारण उनको भी मा- धार्मिक मान्यतामों और क्रियाओंकी शुदि होती रहना बना पोंछना पड़ता है। हम जो शुद्ध वायु सांसके द्वारा भी इतना ही जरूरी है जितना कि झार पोंछकर नित्य प्रहण करते हैं वह भी अन्दर जाकर दूषित हो जाती है, मकानकी शुदि करते रहना, स्नान करने के द्वारा शरीर इस ही कारण वह गंदी वायु सांसके ही द्वारा सदा की शुद्धि करते रहना और धोने मांजनेके द्वारा कपड़ों बाहर निकालनी पड़ती है, पसीना भी हमारे शरीरकी बर्तनोंकी शुद्धि करते रहना जरूरी है। इस शुद्धिका शुद्धि करता रहता है। मल मूत्र त्याग करनेके द्वारा मार्ग हमको धर्म शास्त्रोंके वचनोंसे बहुत ही आसानी तो रोज ही हमको अपने शरीरकी शुद्धि करनी होती सं मिल सकता है। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम है। किसी कारणसे यदि किसी दिन मल मूत्रका स्याग अपनी मान्यताओं, धर्म क्रियाओं और साधनोंको नहोतो चिता हो जाती है और औषधि लेनी पड़नी शास्त्रोंके वचनोंसे मिलाते रहें और जहां भी जरा विकार है। अनेक निमित्त कारणोंसे अन्य भी अनेक प्रकारके देखें, तुरन्त उसका सुधार करते रहें । नित्य शास्त्र स्वाविकार शरीरमे हो जाते हैं, जिनके सुधारके वास्ते वैद्य ध्याय करना तो इसी वास्ते प्रत्येक श्रावकके लिये जली हकीममे सलाह लेनी पड़ती है. गेहूँ चावल आदि अनाज ठहराया गया है कि वह निम्य ही धर्मके सच्चे स्वरूप में जीव पड़ जाते हैं, इस कारण नित्य उनको भी काम को याद कर करके अपने धर्म साधनमें किसी भी में लानेसे पहले बीनना पड़ता है। पानीको भी कुछ प्रकारका कोई विकार न पाने दे और यदि कोई विकार समयके बाद फिर छाननेकी जरूरत पड़ती है। ग़रज पाजाय नो उसका सुधार करता रहे। वाह्य निमित्त कारणोंसे सब ही वस्तुओं में विकार घाना विकारोंका होना और उनका सुधार करते रहना रहता है, इस ही कारण सब ही का सुधार भी नित्य जैनधर्ममें इतना जरूरी ठहराया है कि मुनि महाराजोंही करना पड़ता है। सुधार किये बिना किसी तरह के लिये भी नित्य शास्त्र स्वाध्याय करते रहना जरूरी भी गुजारा नहीं चल सकता है। बताया है, जिससे धर्मका मस्य स्वरूप नित्य ही उनके हमारी धार्मिक मान्यताओं क्रियाओं और साधनों सामने आता है और वे विचलित न होने पावें। फिर में भी वारा निमित्त कारणोंये अन्य मतियोंकी संगति उनको नित्य ही अपने भावों परिणामों और कृत्योंकी Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४५६ पासोचना प्रतिक्रमणादि करते रहना भी जरूरी ठहराया हो जाते हैं और सब संकट दूर कर इच्छित मनोकामना है जिससे हर रोज़की अपनी गलती उनको मालम होती पूरी करनेको तय्यार हो जाते हैं, ऐसी अन्य मत वालों रहे और उसका सुधार भी प्रतिदिन होता रहे । मगर को मान्यता है। इस कारण उनकी सब धर्म क्रियायें कोई दोष विशेष प्रकारका होगया है तो उस दोषको प्रायः वाह्य माधन रूप ही होती हैं। भाचार्य महाराजके सामने साफ २ प्रकट कर दिया परन्तु जैनधर्मका सिद्धान्त इससे बिल्कुल ही विनबाय और जो कुछ वे दंड में उसको अपने सुधारके क्षण है । जैनधर्ममें तो किसी भी ईश्वर परमात्मा वा भर्थ निस्संकोच भावमे स्वीकार किया जाय । यदि मुनि देवी देवताको प्रसन्न करना नहीं है, किन्तु अपनी ही के अन्दर कोई बहुत ही ज़्यादा विकार आगया तो मारमाको विषय कषायों और राग द्वेषके मैखसे शुद्ध प्राचार्य महाराजको उचित है कि उसके सुधारके वास्ते करना है। जिस प्रकार बीमारको स्वास्थ्य प्राप्त करनेके उसको मुनि पदसे ही अलग कर देखें और फिर श्राहि- वास्ते औषध मादिके द्वारा अपने शरीरमें से दोषोंका स्ता २ उसका सुधार कर दोबारा मुनि दीक्षा देखें। निकाल देना जरूरी है, शरीरके जितने जितने दोष इस प्रकार जब मुनियों तकमें विकार माजानेकी सम्भा- शांत होते रहते हैं उतना ही उतना उसको स्वास्थ्य बना और उनका सुधार होना जरूरी है तब श्रावकों में लाभ और सुख शांतिकी प्राप्ति होती रहती है। तो विकार उत्पन्न होते रहनेकी बहुत ही ज़्यादा:सम्भा- उसी प्रकार धर्म-सेवन के द्वारा राग द्वेष और विषयबना है, उनमें भी पहली प्रतिमा धारी भवती श्रावकों कपायोंमें जितनी कमी होती है उतनी ही उतनी में तो विषय कषायोंकी अधिकताके कारण विकारोंके उसकी प्रारमाकी शुद्धि होती जाती है और सुख पैदा होते रहनेकी और भी ज्यादा सम्भावना और उन शांति मिलती जाती है ।अतः जैनधर्ममें वे ही साधन का सुधार होते रहनेकी और भी ज्यादा जरूरत है। धर्म साधन माने जाते हैं और वही क्रियायें धर्म क्रियायें जैनधर्मके सिवाय अन्य मतोंमें तो जिनमें एक समझी जाती हैं, जिनसे राग द्वेष और विषय कषायों ईश्वर वा अनेक देवी देवनाओंके द्वारा ही जीवोंको में मंदना पाती हो और होते होते उनका सर्वथा ही सुख-दुख मिलना माना जाता है, उस एक ईश्वर वा नाश हो जाता हो । दूसरे शब्दोंमें यूं कहिये कि जैनदेवी देवताओंको प्रसन्न करते रहना ही एक मात्र धर्म धर्ममें भन्य मतोंकी तरह बाह्य क्रियायें करना ही धर्म साधन ठहराया गया है-उन्हींके प्रसव होनेसे पूर्वकृत नहीं है किन्तु इसके विपरीत जैनधर्मका असली धर्म पापसमा हो जाते हैं और बिना पुण्य कर्म किये ही साधन एकमात्र राग द्वेष और विषय कषायोंसे अपनी सब सुख मिल जाते हैं। उनको प्रसन्न करनेके वास्ते भारमाको शुद्ध करना ही है। बास किया तो इस भी उन मतोंमें भेंट चढ़ाने, स्तुति गाने, मुखसे माम असली धर्म-साधनकी सहायक ही हो सकती हैं । रागजपते रहने या दूसरोंमे जाप करा देने,गंगा प्रादि नदियों द्वेष और विषय कषायोंकी मंदताके बिना कोई भी में नहाने भाविकी ऐसी बार क्रियायें निश्चित हैं, क्रिया धर्म क्रिया नहीं मानी जाती है। परन्तु मनुष्य जिनमें अन्तरंगकी यदिको प्रायः कुछ भी जरूरत नहीं के लिये बाध क्रियाकामना मासान होता है और परती है, मास विधियों के पूरा होनेसे ही देवता प्रसा अंतरंगको राख करना बहुत ही कठिन । मनु धर्मक Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माचरणमें सुधार ३८७ नामसे सर्व प्रकारके शारीरिक कष्ट उठा सकता है और बतलाते हुए जैनधर्मको भी बदनाम करते हैं और बड़ी धन भी सर्च कर सकता है, क्योंकि ऐसा उसको अपने भारी पति पहुँचाते हैं। सांसारिक कार्योंकी सिद्धिके वास्ते सदा ही करना पड़ता पास किया जब उस उद्देश्यकी सिदिके वास्तेकी है। सांसारिक मनुष्य कष्ट उठाने और धन खर्च करने जाती हैं जिनकी वे साधन है। तब तो वे क्रिया का तो पूर्ण रूपसे अभ्यासी ही होता है। संसारी बहुत ही कार्यकारी और जरूरी होती है ! लेकिन अगर मनुष्य तो अपनी भाजीविका मादिके वास्ते भी कौनमें असली गरजको छोड़कर सिर्फ वामक्रियायें ही की जावें भरती हो कर और युद्ध में जाकर अपनी जान तककी तो वे एक प्रकारकी मूर्खता और नावानी ही होती भी पावाह नहीं करता है। माता अपने बकी है। जैसा कि भागके बिना भोजन नहीं पक सकता पालनाके वास्ते सब कुछ तपस्या करनेको तय्यार होती है। भोजन पकानेके वास्ते भागकी सहायताकी अस्य है । ब्याह शादी भादि अनेक गृहस्थ कार्योंमें संसारी न्त जरूरत है। परन्तु यदि कोई भाडा दाल भादि मनुष्य करज लेकर भी इतना खर्च कर देते हैं कि उमर भोजनकी सामग्रीके बिना ही निस्य चल्हेमें भाग भर भी उसे नहीं चुका सकते हैं। पारज कष्ट उठाना और जलाया करें और तवा गर्म किया करै तो क्या वह पैसा खर्च करना तो मनुष्य के लिये आसान है परन्तु मुर्ख नहीं समझा जायगा ? इसी प्रकार यदि कोई अन्तरंगसे राग द्वेषको घटाना और विषय कषायोंको पढ़ना तो न चाहे एक अक्षर भी, किन्तु पुस्तकें लेकर कम करना बहुत ही मुश्किल है । इस कारण जैनियोंके अध्यापक के पास अवश्य जाया करे और उसकी मेवा लिये अमली धर्म-साधनसे फिसलना-अन्तरंग भी सब तरहये किया फिर नो क्या उसकी यह सब शुद्धिको छोड़कर वाह्य क्रियाको ही सब कुछ समझ- कोशिश व्यर्थ नहीं है? इस ही प्रकार यदि कोई लेना-बहुत ज्यादा सम्भव है। विशेषकर जब वे बीमार वैध हकीम तो बदिया २ बुलाया करे और अपने पड़ौसी अन्यमतियोंको सिर्फ वाम क्रियाओं उनकी बताई औषधि भी तय्यार कराया करे, परन्तु द्वारा ही धर्म साधन करता देखते हैं-यहां तक कि दवाका खाना नो दूर रहा, उसको चाखकर देखनेका दूसरे २ पुरुपोंके द्वारा पूजन और जाप प्रादि करानेसे भी साहम न किया करे, उल्टा कुपथ्य मेवन ही करना भी उनका धर्म साधन हो जाता है, तो इस सहन रहा करे तो क्या उमको कुछ स्वास्थ्य लाभ हो रीतिका असर जैनियों पर भी पड़ता है और वे भी मकेगा ? इमी ही प्रकार यदि कोई ग्वेनमें बीज तो अपनी अन्तरंग शुद्धिको छोड़कर कंवल बामक्रियायें डालना न चाहे किन्तु वाहना, जोनना क्यारियां ही करने लगजाते हैं। इस प्रकार अनेक भारी विकार बनाना. पानी सींचना और पहरा देना आदि सय नैनियोंमें भाते रहते हैं जिनका सुधार होने रहना मावश्यक क्रियायें बड़ी सावधानीक माथ करना रहा अत्यन्त भावरक है। नहीं तो ऐसे विकारों के द्वारा करे, तो क्या उसके खेनमें कुछ पैदा होगा या उसकी जैनी अन्यमतके सिद्धान्तोंको मानते हुए भी और सब मेहनत निष्फन ही जायगी ? ऐसा ही धर्म माधन अन्यमतके अनुसार ही धर्म साधन करते हुए भी इन की महायक सब ही वाद्य क्रियायोंकी वावन ममम अपनी सब मान्यतामों और साधनोंको ही बैनधर्म लेना चाहिए । यदि वे क्रियायें इस विधि की जानी Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ अनेकान्त [चैत्र, वीर निर्वाण सं०२४६६ हैं जिससे राग द्वेष और विषय कपागकी मंदता होती के द्वारा भी अपने भावोंकी शुद्धि नहीं की जाती है, हो और अपनी प्रास्मा एड होती हो, तब तो वे किन्तु भाव हमारे चाहे कुछ ही हों, तीर्थ पर जाने, क्रियायें लाभदायक और जरूरी है और यदि इस ही महापुण्यकी प्राप्ति होती है, इस ही श्रद्धासे नाते विधिमे की जाती हों जिससे रागद्वेष और विषय है। दान देने के लिए भी करुणा मादिकी जरूरत नहीं, कषायोंकी कुछ भी मंदता न होती हो, तो वे सब किंतु देना ही दान है । देनेसे पुण्यकी प्राप्ति होती है, धर्म क्रियायें भी एक मात्र डौंग और संसारमें ही इस ही वास्ते दिया जाता है-यहां तक कि कोई २ प्रमानेवाली है-संसारसे तिराने वाली नहीं हो तो अपने किसी कष्टके निवारणार्थ ही दान देने सकती है। ___ लगते हैं । इसी तरह दूसरेके द्वारा पूजन कराना, यहां भाजकल बहुधा हमारी दशा ऐसी ही हो रही तक कि नित्य पूजन करते रहने के वास्ते कोई नौकर है, जिससे धर्म-क्रियाओं द्वारा हमने प्रात्म-शुद्धि रख देना भी धर्म साधन समझते हैं । गरज़ कहाँ तक करना, रागद्वेष और विषय कषायों को मंद करना तो गिनाया जाय. हमारी तो सब ही क्रियायें थोथी रह बिल्कुल भुला दिया है, किन्तु बिना भाटे दालके एक गई हैं। मानो जैनधर्म ही पृथ्विी परसे लोप हो मात्र भाग जलाया करने के समान, मात्र वाझ क्रिया- गया है। ओंका करना ही धर्म समझ लिया है और यह ही हम यह नहीं कहते कि यह सब क्रियायें धर्मकरना शुरू कर दिया है। यदि हम पंचपरमेष्ठीका क्रियाय नहीं है, जरूर हैं और अवश्य हैं । इन वाह्य जाप करते हैं तो उनके वीतराग रूप गुणों को जाननेकी क्रियाओं के बिना तो धर्म-साधन हो ही नहीं सकता जरूरत नहीं समझते, जिनका हम जाप करते हैं है। परन्तु आरा दालके बिना अग्नि जलानेके समान, कोई २ तो पंचनमस्कारका जाप करते हुए उसके अर्थके यदि असली गरजको छोड़कर केवल ये वाह्य क्रियायें जाननेकी भी जरूरत नहीं समझते, किन्तु मन्त्रके ही की जावें तो यह धर्म क्रियायें नहीं है । केवल शब्दों वा मंत्रोंका मुंहसे निकलते रहना ही कानी इन वाह्य क्रियाओंको ही धर्म मानना कोरा मिथ्याव समझते हैं। और कोई कोई तो उलटा अपने राग- है और इनको फिर जैनधर्मकी क्रियायें बताना तो द्वेष और विषय कषायकी सिद्धिके वास्ते ही इन मन्त्रों जैनधर्मको लजाना है। परन्तु अफसोस है कि जब भी को जपते हैं। अनेक भाई विना अर्थ समझे भक्तामर इनमें सुधार करनेकी भावाज़ उठाई जाती है, तब ही स्तोत्रके संस्कृत काम्योंको पढ़कर ही अपने सांसारिक हमारे भोले भाई ही नहीं किन्तु भनेक विद्वान पंडित कार्यों की सिद्धि हो जानेकी भासा किया करते हैं। भी चिल्ला उठते हैं कि यह तो साक्षात् धर्मपर ही उपवास के दिन निराहार रहना ही काफी समझते हैं। कुठाराघात है, जो हो रहा है वह ही होने दो, असली इस दिन सर्वथा भारम्भ त्याग कर धर्म सेवनमें ही दिन पानकली जो भी क्रिया हो रही है उस ही से बैनधर्म व्यतीत करना जरूरी नहीं समझते। इस ही कारण का नाम कायम है, नहीं तो यह भी नहीं रहेगा। संसारके सब कार्य करते हुए भी एक मात्र निराहार परन्तु हम इसके विरुद्ध यह देखते है कि प्राजकता रहनेसे ही उपवासका होना समझ लेते हैं। तीर्थयात्रा- धनदा वाले बोग कम होते जाते हैं और परीक्षा Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३. किरण का धर्माचरणमें सुधार ३८६ कर असजियन को ढूंढने वाले बढ़ते जाते हैं । जब वे होना चाहिए किन्तु धर्मके जाननेके वास्ते धर्मशास्त्रों को देखते हैं कि विद्वान लोग भी निर्जीव थोथी क्रियानोंको ही प्राधार मानना चाहिये । ही धर्म बताते हैं और सुधारकोंको अधर्मी ठहराते हैं। जो विद्वान भाई जैनधर्मके असली स्वरूपको तब जैनधर्म वास्तवमें यह थोथा ही धर्म होगा, जिस- समझ कर वैसा ही सर्व साधारणमें प्रगट करनेका का समर्थन विद्वानों द्वारा हो रहा है। ऐसा देखकर साहस रखते हैं, उनसे हमारा नम्र निवेदन है कि उनकी श्रद्धा जैनकी सरफसे शिथिल होनी जाती है। वे साहस कर सुधारके लिये कमर बांधे। दुनियांके अतः हमको लाचार होकर अब यह कहने की जरूरत लोग नो भाजकल दुनियांकी बातों में सुधार होने के पड़ती है कि हमारे परीक्षा प्रधानी भाई स्वयं जैन वास्ते भी अपना तन, मन, धन अर्पण करनेको शास्त्रोंकी स्वाध्याय कर जैनधर्मके स्वरूपको पहचानें। तैयार हैं, तो क्या जैनधर्ममें ऐसे सच्चे श्रद्धानी नहीं जैनधर्मम नो इस ही कारण सबसे पहले नावोंके मिलेंगे जो धर्ममें सुधार करने के लिये उसके मानने स्वरूपको भलोभांति समझकर उन पर श्रद्धान लाना वालोंकी मान्यतामों में जो विकार भारहा है उसको जरूरी बताया है। चारित्र तो उसके पीछे ही बताया जैनशास्त्रोंके माधारमे दूर कर शाबानुकूल सत्यधर्मका है। और वह ही चारित्र सच्चा चारित्र ठहराया है जो प्रचार करने के लिये खड़े हो जावें और अपने भाइयों के सम्यक श्रद्धान और सम्यक् ज्ञानके अनुकूल हो, विरोधका कुछ भी बुरा न मान उसको हंसते २ सहन जिसपे पारमाकी शुद्धि होकर सका विभाष भाव दूर कर जावें । ऐसे सच्चे धर्मात्मा अवश्य हैं, उन ही से होता हो और असली स्वभाव प्रगट होता हो। इस हमारी यह अपील है। कारण किमीके भी बहकायेमें भाकर विचलित नहीं महावीर-गीत [ले०-शान्तिस्वरूप जैन 'कुसुम'] __ तुम थे जगके मीत, स्वामी ! तुम थे जगके मीत । जीवन नौका लिये गुणागर ! विषय-तप्त इस दीन जगत् पर, आये जब तरने भव मागर, वर्षाया वचनामृत झर-झर, मुदित हुए सब जीव जगत्के, स्पिद हुई भय भीत। कण-कणने पाया नवजीवन, उलट गयी सब रीत । तुम थे जगकं मीत, स्वामी ! तुम थे जगके मीत ॥ तुम थे जगकं मीत, स्वामी ! तुम थे जगकं मीत ॥ कितनी नावे ऊब चुकी थीं, जगसे जड़ता दूर भगाकर, कितनी इनमें डब चुकी थीं, मत्य अमर संगीत सुनाकर, कितनी झंझाके झोकोंसे, बहती थी विपरीत। उसी रागसे जाग उठी फिर सोई जगकी प्रीत । तुम थे जगके मीत. स्वामी! तुम थे जगके मीत ॥ तुम थे जगके मीत, स्वामी । तुम थे जगके मीत ।। पर तुम थे उन सबसे न्यारे, आज मनाते जन्म तुम्हारा, ___ बाधक, साधक हुए तुम्हारे, गदगद् होता हृदय हमारा, पहुँच गये मजिल पर अपनी, लेकर लक्ष्य पुनीत । गाता है, गायेगा प्रभुवर ! जगत तुम्हारे गीत ! तुम थे जगके मीत, स्वामी ! तुम थे जगके मीत ॥ तुम थे जगकं मीत, स्वामी ! तुम थे जगत के मीत । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा [10-बी बसन्तमार, एम.एस.सी.] वनका ध्येय निरन्तर विकसित होना है। वि- नारकीयता और अशान्तिके दर्शन होते हैं। जीवकी कासकी पूर्णावस्था जीवनकी यह स्थिति है प्रवृत्तियों में ज्यों ज्यों इस स्वकेन्द्रीकरणकी मात्रा कम हो पाँचकर विश्वके जीवन के साथ उसका कोई विरोध होती जाती है त्यो त्यों वह अधिक विकसित होता चला न रह सके। विकासको यह अन्तिम अवस्था है और जाता है। जीवनका श्रादर्थ है । ज्यों ज्यों इस श्रादर्शकी ओर हम संसारकी अशान्ति और अराजकताका मूल कारण बढ़ते है त्यो स्यों हम सस्यके निकट पहुँचते हैं । इस प्रवृत्तियोंका स्व-केन्द्रीकरण है । एक व्यक्ति दूमरे व्यक्ति प्रकार विकासकी ओर बढ़नेका मार्ग सत्यकी शोध और की सम्पदाको हड़प कर सुखी बनना चाहता है, एक विश्व-कल्याणका मार्ग है। समाज दूसरे समाजको बर्बाद कर अधिक शक्तिशाली जीवकी सारी प्रेरणायें और प्रक्रियायें सुखी बनने बननेकी कल्पना करता है। अधिक व्यापक रूपमें एक के लिये होती है, और ज्यों ज्यों उसकी प्रसुप्त शक्तियाँ राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर अधिकार कर अपना प्रभुत्व बढ़ाने विकसित होती जाती है वह सुखकी ओर बढ़ता जाता में लगा हुआ है । पंजीवाद, साम्राज्यवाद, नाजीवाद, है। विकास और सुख एक ही वस्तु के दो भिन्न भिन्न तथा फैसिजम ये सब प्रवृत्तियोंके स्व-केन्द्रीकरणके पहल है, अथवा यो कहिये सिक्केकी दो तरफ (Sides) आधार पर ही स्थिर है। इसीलिये उनका परिणाम है हैं। एकके बिना दूसरेका अस्तित्व नहीं। जितना हमारा दुःख और अशान्ति । प्रवृत्तियोंके इस स्त्र केन्द्रीकरणको जीवन अविरोधी और विकसित होगा उतनी ही मात्रामें देखकर शायद नैोने इस सिद्धान्तका प्रतिपादन हम अधिक सुखी होंगे। जीवन-सम्बन्धी सारी समस्याओं किया था कि जीवकी मूलभावना लोकमें शक्ति (प्रभुत्व) पर इसी स्वयंसिद्धिको लेकर विवेचन किया जा सकता प्राप्त करना है । वर्तमान जर्मनी नैशेके विचारोंका मूर्तिमंत रूप है। नशेके इस सिद्धान्तको लेकर हम संसारके प्राणियोंके जीवनकी प्रवृत्तियाँ अधिकांशमें किसी भी प्रकारको स्थायी सामाजिकव्यवस्थाको कल्पना स्व-केन्द्रित (Self centred) होती हैं। अर्द्धविकसित नहीं कर सकते; उसके सारे फलितार्थ हम अराजकता और अविकसित प्राणियों में यह बात और भी अधिक (Chaos) की ओर ले जाते हैं। मात्रामें पाई जाती है । उनका प्रत्येक कार्य अपने तय संसारके दुःखोंको किस प्रकार दूर किया जा अस्तित्वको कायम रखने के लिये होता है । जीवनको सकता है ? जब तक व्यक्ति के स्वार्थका समाजके स्वार्थ इस होड़ में एक प्राणी दूसरे प्राणीका पाहार बना हुआ के साथ अविरोधीपन नहीं होता तब तक न तो व्यक्ति इसीलिये जीवनके इस स्तरमें आपको बीभत्सता, ही सुखी हो सकता है और न समाजही सुखका अनुः Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९१ भव कर सकता है। जीवकी प्रतियां जब पतिको परिणाम स्वीकार करके एक महत्वपूर्ण तथ्यको भुला घोड़कर समरिकी भोर बदने बगती है तबही उस देते हैं। वे यह नहीं सोचते किन बुराइयोका मूलबस्तुका जन्म होता है जिसे हम 'अहिंसा' पाते हैं। कारण संगठित-हिंसा-बारा व्यवस्थित हमारे कानून और 'सर्वभूतहित' और 'निष्कामकर्म' के सिद्धान्त 'अहिंसा' विधान में और इसी कारण विज्ञान के प्राविकार शोषण के ही दूसरे रूप हैं । अहिंसाकी व्यापक भावना 'सर्व- के साधन बन जाते हैं। भन-हित' में समाई हुई है। साम्यवाद समाजके दुखोंको नष्ट करनेके लिए जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Force of आगे बढ़ता हुआ प्रतीत होता है, लेकिन समाजके gravitation) अनन्त श्राकाशमें तारों, प्रह-नक्षत्र लिए व्यक्तिके जीवनको यांत्रिक बना कर वह ऐसा इत्यादिको एक व्यवस्थामें बाँधे हुए हैं, उसी प्रकार करना चाहता है, और जब बीवन मशीनकी तर अहिंसा में भी संसारको व्यवस्थित करनेकी शक्ति संनिः काम करने लगता है तो विकास और सुख स्वप्नकी हित है । हिंसा हमारी राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक- वस्तु बन जाते हैं। इस प्रकार साम्यवाद जिन बुराकठिनाइयों का मूल कारण है और अहिंसा उनको दूर इयोंको दूर करनेकी प्रतिशा करता है उन्हींमें उलझता करनेका साधन है। हुआ प्रतीत होता है। अहिंसा जीवनको यंत्रवत् नहीं अव्यवस्थित वर्गीकरण और शोषण समाजके बनाती, वह जीवनमें 'मास्मोपम्प-मुरि' जागृत कर दुखका मूल कारण है । मौजूदा राजनैतिक तथा समाजहितमें प्रवृत्त होने के लिये प्रेरणा करती है। आर्थिक कानून और विधान 'सगठिन-हिंसा' को जन्म साम्यवाद सार्वजनिक हितके लिये हमारी प्रवृत्तियों पर देते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि अल्पसंख्यक बन्धन लगाता है, अहिंमामें हमारी प्रवृत्तियाँ स्वतः ही वर्गके हाथमें शक्ति श्राजाती है और वह उमका उप- लोक-हितके लिये होती हैं । साम्यवाद मनोविज्ञानकी योग समाजके बहुसंख्यक वर्गके शोषण में करता है। अबहेलना करता है, अहिंसा मनोविज्ञानको साथ लेकर संसारकी अधिकतम शासन-व्यवस्थायें संगठित हिंसाका मनुष्यकी वृत्तियोंको शुद्ध करती हुई विकासकी ओर मूर्तिमंत रूप हैं। हिटलर यदि पोलैंड पर अाक्रमण ले जाती है । इसलिये कोई भी राजनैतिक, भाषिक करता है तो इससे यह न समझ लेना चाहिए कि वा सामाजिक व्यवस्था जिसका भाधार सर्वभूतहित जर्मनी की साधारण जनता हिटलरकी इन प्रवृत्तियोंसे या पहिसा नहीं है, पपई और अधूरी है। सहानुभूति रखती है। नाज़ी सरकार संगठित हिमाके युगोंसे हिंमात्मक-व्यवस्था-बारा अनुशासित रहनेके बलपर जर्मन-जनताको युद्ध के लिये विवश करती है। कारण अहिंसात्मक व्यवस्थाकी कल्पना कुछ अजीब यही बात अन्य साम्राज्यवादी शासन-प्रणालियों पर सी मालम पड़ती है और हम सोचते हैं कि इस प्रकार लाग होती है। 'विज्ञान' को प्रौद्योगिक केन्द्रीकरण की व्यवस्थासे शायद अराजकताकी मात्रा और अधिक तथा उसके दुष्परिणाम पूंजीवाद, समाजकी बेकारी, न बढ़ जाय, लेकिन हिंसासे भी अव्यवस्था पटती नहीं, इत्यादिका दोषी ठहराया जाता है। हमारे अर्थशास्त्री और वह जान लेने पर कि समाजकी बीमारीका भी इन बुराइयोको विज्ञानके आविष्कारोका स्वाभाविक कारण हिंसा है उसके पचमें कोई दलील देने को नहीं Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिसा २६२ रजाती अहिंसामें सन्देह करने का दुमरा कारण यह इयों का एकमात्र रामबाण उपाय है, बल्कि हमारे किसनैतिक नियमों को उपयोगी और अच्छा जमाने के प्रत्येक मनष्यके नैतिक सिद्धान्तके वह पूरी समझते हुए भी उनकी व्यावहारिकतामें अविश्वास तरह अनकुल भी हैं। जन साधारणके दुम्वाको दूर रखते हैं। राजनीति और अर्थनीतिको वितमा नैति- करने के लिये जिम तत्वकी आवश्यकता है वही प्रत्यबतासे दूर रखा जाता है उतनी ही उनमें कृत्रिमता क मनुष्यकी आत्मिक शान्तिके लिये भी परमावश्यक की मात्रा अधिक बढ़ती है और वे खोकहिनके लिये है।" उतनी ही अनुपयोगी सिद्ध होतो हैं। सपाग्म यांत्रिक इस प्रकार अहिंमा व्यक्ति और समाजके कल्याण उपायोंमे सुन्यवस्था स्थापित नहीं की जा सकती। इस के लिये एक आवश्यक तत्व है और उसम जीवनकी नग्न सत्य को हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा । अहिंसा सारी समस्याको हल करनेकी शक्ति संनिहित है। का तत्व इतना मनोवैज्ञानिक और श्रावश्यक है कि २५०० वर्ष पहिले भगवान महावीर और भगवान बद्धने उसकी अवहेलना नही की जासकती । टाल्स्टायके मिदान्तके रूप में विश्वके लिये अहिसाका सन्देश निम्न शब्दों के माथ हमें सहमत होना पड़ता है- दिया था; गांधीजी आएक प्रयोगवेत्ता के रूपमें "हिमाके अवलम्बन करने का केवल यही व्यवहारमें उसके फलितार्थोंको दुनियाके मामने रख कारण नहीं है कि यह हमारी तमाम मामाजिक बुरा- रहे हैं। संसार में सुखकी वृद्धि कैसे हो?-- श्री. दौलतराम मित्र ] एक कमरेमें मैं और मेरे पास ही दूसरे में एक अतएव यदि हम संसारमें सुखकी वृद्धि देखना टेंथ क्लासका छात्र, दोनों पढ़ रहे थे। छात्रने पढ़ा:- चाहते हैं तो हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम "The man whose silent diss संसार भरमें अति परिग्रह-विरोधी जैनाचारकी in harmless you're pent" उपयोगिताके प्रचार प्रसिद्ध करनेका उद्योग करें, अर्थात् सज्जन वह है जो अपनी सुख-घड़ीको ताकि दुराचारियोंकी संख्या बढ़ने न पात्र,सदादूसरोंकी दुःख घड़ी न बनने दें। चारियोकी सख्या बढ़ और संसारमें मुखकी वृद्धि मालूम हुआ, यह केंपियन कविकी कविता है। होवे ।। सज्जनताके इस लक्षणका मेरे दिल पर खासा असर परन्तु अफ़सोस आज दुनियाकी सूझ ( दृष्टि ) हो आया, और तुरन्त ही इससे मिलता जुलता श्रोधी ( मिथ्या ) हो रही है । जैसा कि एल.पी. और एक लक्षण मुझे याद आगया: जैक्स" का कथन है कि___ "सदाचारी वह है जो सुख-साधनोंकी लट 'आजकी दुनिया सम्पत्तिको सामाजिक (सर्व नहीं चाहता, किन्तु उनका विभाजन करनेकी चेष्टा साधारणकी चीज) बनाना चहती है। लेकिन करता है । सुख-साधनोंकी लट चाहने वाला दुरा- मनुष्यको-उसके स्वभावको-सामाजिक बनानेकी चारी है ।" (दरबारीलाल सत्यभक्त)। वाकई में बात उसे सूझती नहीं । जब तक यह नहीं होगा, सजनता इसीका नाम है। - तब तक कोई भी "इजूम" (वाद) स्थापिन नहीं चाहे वह कोई हो, जो मनुष्य श्रमसाध्य (कृषि- हो सकेगा। अगर मनुष्यका चरित्र मुधर जाय तो इत्यादि) कर्मों को छोड़कर बुद्धि और सम्पत्तिका चाहे जिस "इजम" से निभ जायगा। दुरुपयोग करके उसके बलपर दूसरोंके कधों पर बैठ आओ हम सब मंगल कामना करें और कर जन साधारणके सुग्व-साधनोंकी लूट खसोटमें साथ ही तदनुकूल प्रयत्न भी करें कि दुनियाँको लगा हुआ है, जिससे दूसरोंके सत्वरक्षाकी पर्वाह सीधी (सम्यक्) सूझ (दृष्टि) प्राप्त हो । इसीसे नहीं है वह तो सजन नहीं हो सकता। ससारमें सुखकी वृद्धि हो सकेगी। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाचन्द्रका तत्वार्थसूत्र [सम्पादकीय ] त्रामी तक हम उमास्वाति या उमास्वामी श्रा- पूज्यपादका समय विक्रमकी छठी शताब्दी मुनिमित है। 'चार्यके तत्वार्यसूत्रको ही जानते है-, और तीरे वे प्रभाचन्द्र है जिनका उल्लेख श्रवणबेल्गोल 'तत्त्वार्थसूत्र' नामसे प्रायः उसीकी 'प्रसिद्धि है । परन्तु के प्रथम शिलालेखमें पाया जाता है, और जिनकी बाबत हाल में एक दूसरा पुरातन तत्त्वार्यसूत्र भी उपलब्ध यह कहा जाता है कि वे भद्रबाहुश्रुतकेवलीके दीक्षित हुआ है, जिसके कर्ता आचार्य प्रभाचन्द्र है । ग्रंथकी शिष्य सम्राट् 'चन्द्रगुप्त' थे। इनका समय विक्रम सं० सन्धियोंमें प्रभाचन्द्राचार्यके साथ 'बृहत्' विशेषण से भी कोई तीनसौ वर्ष पहले का है। तब यह ग्रंथ लगा हुआ है, जिससे यह ध्वनित' होता है कि प्रकृत कौनसे बड़े प्रभाचंद्राचार्यकी कृति है, यह बात निधिग्रंथ बड़े प्रभाचन्द्र का बनाया हुआ है। प्रभाचन्द्र तरूपसे नहीं कही जासकती । इसके लिये विशेष खोज नामके अनेक प्राचार्य हो गये हैं।। बड़े प्रभाचन्द्र होनेकी ज़रूरत है । फिर भी इतना तो कह सकते हैं कि श्राम तौर पर 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' और 'न्यायकुमुद- यह भद्रबाहु श्रुतकेवलीके शिष्य प्रभाचन्द्रकी कृति चंद्र' के कर्ता ममझे जाने हैं; परंतु इनसे भी पहले नहीं है. क्योंकि उनके द्वारा किसी भी ग्रंथरचनाके प्रभाचंद्र नामके कुछ प्राचार्य हुए हैं, जिनमेंमे एक होने का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। तो पग्लरु-निवामी 'विनयनन्दी' प्राचार्य के शिष्य थे और जिन्हे चालुक्य राजा 'कीर्तिवर्मा' प्रथमने एक दान प्रन्थति और उसकी प्राप्ति दिया था। ये श्राचार्य विक्रम की छठी और सातवीं उक तत्त्वार्थमूत्रकी यह उपलब्ध प्रति पौने दस शताब्दीके विद्वान थे; क्योंकि उक्त कीर्तिवर्माका अस्ति- इन लम्बे और पांच व चौड़े अाकारके आठ पत्रों त्व समय शक सं० ४८६ (वि० स०६२४) पाया जाता पर है। प्रथम पत्रका पहला और अन्तिम पत्रका है । दूसरे वे प्रभाचंद्र हैं जिनका श्री पूज्यपादाचार्य- दूमरा पृष्ठ खाली है, और इस तरह ग्रंथ की पृष्ठ-मरव्या कृत 'जैनेन्द्र' व्याकरण के 'रात्रेः कृति प्रभाचन्द्रस्य' १४ है । प्रत्येक पृष्ठपर ५ पंक्तिया है, परन्तु अन्तके इम मूत्रमें उल्लेख मिलता है, और इम लिये जो पृष्ठ पर ४ पंक्तियां होनेसे कुल पंक्ति-संख्या ६६ होती विक्रमकी छठी शताब्दीसे पहले हुए हैं। क्योंकि आचार्य है। प्रति पृष्ठ अक्षर संख्या २० के करीब है, और +देखो, माणिकचनग्रन्थमालामें प्रकाशित एन- इसलिये ग्रंथकी श्लोकसंख्या (३२ अक्षरों के परिमाकरावकाचारकी प्रस्तावना, पृ.१० से ६६ तक। णसे) ४४ के करीब बैठती है। * देखो, 'साउथहरियन निम', भाग दूसरा, काग़ज देशी साधारण कुछ पनला और खुदरासा पृ.८८। लगा है । लिखाई मोटे अक्षर्गेमें है और उसमें कहीं Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [त्र, बीर-विचार कहीं स्वरादि-संधि-सूचक संकेतचिन्ह, पदोंकी विभि- नहीं है, फिर भी यह प्रति अपने काराजकी स्थिति और बता-सूचक चिन्ह तथा सख्या-सूचक अंक भी बारीक लिखावट आदिपरसे २५०-३०० वर्षसे कमकी लिखी याइपमें (लघुत्राकारमें) अक्षरोंके ऊपर की ओर लगाये हुई मालम नहीं होती। इसे पण्डित रतनलालने कोटग?। पावदामें लिखा है, जैसा कि इसको निम्न अन्तिम टिप्पणी एक स्थान को छोड़कर और कहीं भी पंक्तिसे प्रकट है:नहीं है, और वह है "त्रिविधा भोगभूमयः" सूत्र "पंडित रतनलालेन लिषितं कोटषावदामध्ये पर “जघन्य १ मध्य २ उत्कृष्ठ ३" के रूपमें, जो प्रायः संपूर्णजातः" प्रतिलिपि करने वालेके ही हाथ की लिखी हुई जान मालम नहीं यह 'कोटषावदा' स्थान कहाँपर स्थित पड़ती है और इस बात को सूचित करती है कि जिस है। परन्तु इस ग्रन्थतिकी प्राप्ति वर्तमानमें कोटा रियाप्रति परसे यह प्रति उतारी गई है संभवतः उसमें भी सतसे हुई है। कोटामें भाई केसरीमलजी एक प्रमुख वह इसी रूप में होगी। ___ खण्डेलवाल जैन तथा सार्वजनिक कार्यकर्ता है, उनके इस प्रतिमें अनुस्वारको कहीं भी पंचमाक्षर नहीं पाम रामपुर जि. सहारनपुर निवासी बाबू कौशलप्रमादकिया गया है। प्रोकार की प्राकृति 'और औकार जीने, जो आजकल महारनपुर में तिलक बीमा कम्पनीके की '' दी है । अंकोंमें ६-६ की प्राकृति क्रमशः '६' चीफ़ एजेंट हैं, यह ग्रन्थ देखा और इसे एक अपूर्व और 'र्ण' दी है। चीज समझकर उनके पामसे ले आए तथा विशेष जाँच ग्रंथप्रति यद्यपि अधिकांशमें शुद्ध है, फिर भी पड़ताल एवं परिचयादिके लिये मेरे सुपुर्द किया, जिसके उसमें कुछ साधारण तथा महत्त्वकी अशुद्धियां भी पाई लिये मैं उनका बहुत ही प्राभारी हूँ। जाती है । वच का भेद तो बहुत ही कम रक्खा हुआ भाई केसरीमलजीने इस ग्रंथकी प्राप्तिका जो इतिजान पड़ता है-कहीं कहीं तो इन अक्षरोका प्रयोग हाम बा० कौशलप्रसाद जीको बतलाया उमसे मालम ठीक हुआ है, और कहीं वकार की जगह बकार और हुआ कि 'कोटामें भट्टारककी एक गद्दी थी, उस गद्दीपर बकार की जगह वकारका प्रयोग कर दिया गया है दुर्भाग्यस एक ऐमा हो अादमी आगया जिमने वहाँका जैसे विधो, बिधः, द्रव्य, विग्रहा, देन्यः, बर्षाणि, बिधा, सारा शास्त्रभण्डार रद्दोमे बेच दिया ! कुछ दिन पहले चतुर्विशति, वैमानिका, विघ्न, विति, विघ, पंचर्षि- केसरीमलजीने इस प्रकारकी रद्दीकी एक बोरी एक मुस शति, अष्टाविशति, ज्ञानावरण, विंशति, संवरः और लमान बोहरेके यहाँ देखी और उसे पाठ पानेमें विरचिते (सर्वत्र) इनमें 'व' के स्थान पर 'ब' का प्रयोग खरीद लिया। उसी बोरीमेंसे इस ग्रन्थरत्नकी प्राप्ति हुई हुधा है; और जंव ब्रह्मालया तथा वहु, इन शब्दोंमें है।' ग्रंथ प्राप्तिकी यह छोटीसी घटना बड़ी हो हृदय'ब' के स्थान पर 'व' का प्रयोग हुआ है, जो अशुद्ध द्रावक है और इससे जैनियोंके शास्त्रभण्डागेकी अव्यहै, और यह सब प्रायः लिपिकारकी नित्यकी बोल- वस्था, अपात्रों के हाथमें उनकी सत्ता और साथ ही चालके अभ्याससे सम्बन्ध रखता हुआ जान पड़ता है। अनोखी श्रुतभक्तिपर दो आँसू बहाये बिना नहीं रहा ___ अन्यप्रतिके अन्तमें यद्यपि लिपि-सम्बत् दिया हुआ जाता ! जैनियोंकी इस लापर्वाही और अन्योंकी वेदर Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाधनका तत्वार्यसूत्र २६५ कारीके कारण न मालम कितने ग्रंथरत्न पसारियोंकी क्रमशः १५, १२, १८, ६, ११, १४, ११,८७,५ दुकानोरर पुड़ियाओंमें बंध बँधकर नष्ट हो चुके हैं !! है, और इस तरह कुल सूत्र १०७ हैं। इस सूत्रमें दश कितने ही ग्रंथोंका उल्लेख तो मिलता है परन्तु वे ग्रंथ अध्याय होने के कारण इसे 'पासूत्र' नाम भी दिया पान उपलब्ध नहीं हो रहे हैं । इस विषयमें दिगम्बर गया है-उमास्वातिके तत्त्वार्थ सूत्रको मी 'दशसूत्र' समाज सबसे अधिक अपराधी है, उसकी ग़क नत अब कहा जाता है, और यह नाम ग्रंथकी प्रथम पंक्ति में ही, तक भी दूर नहीं हुई और वह श्राज भी अपने ग्रंथोकी उमका लिखना प्रारम्भ करते हुए, पथ' और 'विपते खोज और उनके उद्धारके लिये कोई व्यवस्थित प्रयत्न पदोके मध्यमें दिया है। प्रथके अन्तमें-१०वीं संधि नहीं कर रहा है। और तो क्या, दिगम्बर अन्योकी कोई (पुषिका) के अनन्तर-'इति' और 'समासं पदोंके अच्छी व्यरस्थित सूची तक भी वह अबतक तैय्यार मध्य में इसे 'जिनकल्पी सूच' भी लिखा है। इस प्रकार समर्थ नहीं हो सका; जबकि श्वेताम्बर समाज ग्रंथप्रतिक आदि, मध्यम और अन्तमें इस सूत्रग्रंथके अपने ग्रंथोंकी ऐसी अनेक विशालकाय-सूचियाँ प्रकट क्रमशः दशसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र और जिनकल्पी सूत्र, ऐसे कर चुका है । जिनवाणो माताकी भक्तिका गीत गाने. तीन नाम दिये हैं। पिछला नाम अपनी खास विशेषता वालो और इसे नित्य ही अर्घ चढ़ानेवालों के लिये ये रखता है और उसने बा• कौशलप्रसादजीको इस मच बाते निःसन्देह बड़ी ही लजाका विषय हैं। उन्हें ग्रन्थको कोटामे लाने के लिये और भी अधिक प्रेरित इनपर ध्यान देकर शीघ्र ही अपने कर्तव्यका पालन करना किया है। हाँ, मात्र १०वीं संधिमें 'तस्वार्यसूत्र' के चाहिये-ऐमा कोई व्यवस्थित प्रयत्न करना चाहिये स्थानपर 'तत्त्वार्थमारसूत्र' ऐसा नामोल्लेख भी है,जिसका जिससे शीघ्र ही लुप्तप्राय जैन प्रथाकी खोजका काम यह श्राशय होता है कि यह ग्रंथ तत्वार्थ विषयका. सारज़ोर के साथ चलाया जासके, खोजे हुए अन्योका उद्धार भूत प्रय हैं अथवा इस सूत्रमें तत्त्वार्थशास्त्रका. सार हो मके और सपूर्ण जैन ग्रंथोकी एक मुकम्मल तथा खांचा गया है । पिछले श्राशयसे यह भी ध्वनित हो सुव्यवस्थित सूची तैयार हो सके । अस्तु । सकता है कि हम प्रथम सम्भवतः उमा वानिके तत्त्वार्थ___ अब मैं मूल ग्रन्थको अनुवाद के साथ अनेकान्तके मूत्रका ही सार खींचा गया हो। ग्रन्थ-प्रकृति और पाठकों के मामने ग्ग्वकर उन्हें उमका पूरा परिचय करा उमके अर्थ सादृश्यको देखते हुए, यद्यपि, यह बात देना चाहता हूँ । परन्तु ऐमा करनेमे पहले इतना और कुछ असंगत मालम नहीं होती बल्कि अधिकतर मुकाव भी बतला देना चाहता हूँ कि यह प्रथ श्राकारमें छोटा उसके माननेकी ओर होता है। फिर भी संधियों में होनेपर भी उमास्वातिके तत्त्वार्थ सूत्रकी तरह दश 'सार' शब्दका प्रयोग न होनेसे १०वीं संधिमें उसके अध्यायोंमें विभक्त है, मूल विषय भी इसका उसीके प्रयोगको प्रक्षिम भी कहा जा सकता है। कुछ भी हो, समान मोक्षमार्गका प्रतिपादन है और उसका क्रम भी अभी ये सब बाते विशेष अनुसंधानसे सम्बन्ध रखती है, प्रायः एक ही जैसा है-कहीं कहीं पर थोड़ामा कुछ और इसके लिये ग्रंथकी दुमरी प्रतियों को भी खोजनेकी विशेष ज़रूर पाया जाता है, जिसे भागे यथावसर जरूरत है । माथ ही, यह भी मालूम होना जरूरी है कि सूचित कर दिया जायगा।इन अन्यायोंमें सूत्रोंकी संख्या इस सूत्रग्रन्थपर कोई टीका-टिप्पणी भी लिखी गई। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त .. नि सं०१५ 'याकि मही-जिसके लिखे जाने की बहुत बड़ी सम्भावना है उसमें छूट गया है । उसके मामने आने पर और भी है। यदि कोई टीका-टीप्पणी। उपलब्ध है तो उसे भी. , कुछ बातों पर प्रकाश पड़नेकी संभावना है, और इस विशेष परिचयादि के द्वारा प्रकाशमें लाना चाहिये . लिये इस ग्रंथकी दूसरी प्रतियोंको खोजनेकी और भी - 'फिर भी इस प्रयके विषय में इतना कह देनेमें तो ज्यादा जरूरत है। आशा है इसके लिये साहित्य प्रेमी कोई आपत्ति मालम नहीं होती कि इसके सूत्र अर्थ- : विद्वान् अपने अपने यहाँके शास्त्रभंडारोको ज़रूर हो गौरवको लिये होने पर भी प्राकारमें छोटे, सुगम, कण्ठ खोजनेका प्रयत्न करेंगे और अपनी खोजके परिणामसे करने तथा याद रखने में सामान है, और उनसे तत्त्वार्थ- मुझे शीघ्र ही सूचित कर अनुगृहीत करेंगे। शास्त्र अथवा मोक्षशास्त्रका मूल विषय सूचनारूपमं । ' संक्षेपतः सामने श्राजाता है। मूनग्रंय और उसका अनुवादादिक .. • एक बात और भी प्रकट कर देनेकी है और वह नीचे मूल ग्रंथके सूत्रादिको उदधृत करते हुए जहाँ 'यह कि इस सूत्रग्रन्थके शुरूमें प्रतिपाद्य विषयक सम्बध- मूलका पाठ सष्टतया अशुद्ध जान पड़ा है वहाँ उसके को व्यक्त करता हुआ एक पद्य मंगलाचरणका है,परन्तु स्थान पर वह पाठ दे दिया गया है जो अपने को शुद्ध अन्तमें ग्रंथकी समाप्ति श्रादिका सूचक कोई पद्य नहीं है। प्रनीत हुआ है और ग्रन्थप्रतिमें पाये जाने वाले अशुद्ध ऐसे गद्यात्मक सूत्रग्रंथों में जिनका प्रारम्भ मंगलाचर- पाठको फुटनोट में दिखला दिया है, जिससे वस्तुस्थितिके सादिके रूपमें किसी पद्म-दाग होता है उनके अन्तमें टीक समझने में कोई प्रकारका भ्रम न रहे और न मूल भी कोई पद्य समाप्ति आदिका जरूर होता है, ऐसा सूत्रोंके पढ़ने तथा ममझने में कोई दिक्कत ही उपस्थित अकसर देखने में आया है। उदाहरण के लिये परीक्षा- होवे । परन्तु वकारके स्थान पर बकार और बकारके मुखसूत्र, न्यायदीपिका और राजवार्तिकको ले सकते हैं, स्थान पर वकार बनानेकी जिन अशुद्धियोंको ऊपर इन ग्रंथोंमें आदिके ममान अन्तम भी एक एक पद्य सूचित किया जा चुका है उन्हें फुटनोटोमें दिखलाने की पाया जाता है। जिन ग्रंथ पनियोंमें वह उपलब्ध नहीं ज़रूरत नही समझी गई। इमी तरह सधि तथा पद-विभिहोता उनमें वह लिखनेसे छूट गया है, जैम कि न्याय- ननादिके मंतचिन्हों को भी देनेकी जरूरत नहीं समझा दीपिका और रात्रवार्तिककी मुद्रित प्रतियोंमे अन्तका गई। इसके अतिरिक्त सो अक्षर सूत्रोभ छुट हुए. जान पद्य छुट गया है, उसे दूसरी हस्तलिम्बित प्रनियों पर पड़े हैं उन्हें सूत्रोके माथ ही [ ] इस प्रकारके से खोजकर प्रकट किया जा चुका है* । ऐसी स्थिनि कोष्ठकके भीतर रख दिया है और जो पाठ अधिक होते हुए इस सूत्रग्रंथके अन्तमें भी कमसे कम एक संभाव्य प्रतीत हुए हैं उन्हें प्रश्नांकके माथ (...?) ऐसे पद्यके होनेकी बहुत बड़ी सम्भावना है। मेरे ख्यालस कोष्ठकमें देदिया है। पाई(0) दो पाई (11)के विरामचिन्ह वह पद्य हम ग्रंथप्रतिमें अथवा जिसपरसे यह प्रतिकी गई ग्रंथमें लगे हुए नहीं हैं, परंतु उनके लिये स्थान छुटा -देखो, प्रथम वर्ष भनेकान्त' को रिण हुआ है, उन्हें भी यहां दे दिया है। और इस तरह में 'पुरानी बातोंकी बोन' शीर्षक लेखकानं.२, मूल ग्रंथको उमके असली रूपमें पाठकोंके सामने .१०२। रखनेका भरसक यत्न किया गया है। फिर भी यदि Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाचन्द्रका तत्वार्यसूत्र कोई अशुद्धियों रह गई हो तो उन्हें विज्ञ पाठक सूचित 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्ररूप करनेकी कृपा करें, जिससे उनका सुधार हो सके। सनातन मोक्ष-मार्ग जिससे-जिसके उपदेशसे-प्रकट अनुवादको मूल सूत्रादिके अनन्तर अनुवादके हुआ है उस अच्युत वीरकी मैं चन्दना करता हूँ।' रूपमें ही रक्खा गया है व्याख्यादिके रूपमें नहीं। इस ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय मोक्षमार्ग है, उस और उसे एक ही पैरेग्राफमें सिंगल इनवर्टेडकामाज़ सनातन मोक्षमार्गका जिनके उपदेश द्वारा लोकमें प्रावि. के भीतर देदिया गया है, जिससे मूलको मूलके रूपमें र्भाव हुआ है-पुनः प्रकटीकरण हुआ है-उन अमरही समझा जा सके । जहाँ कहीं विशेष व्याख्या, स्पष्टी- अविनाशी वीर प्रभुका उनके उस गुणविशेषके साथ करण अथवा तुलनाकी ज़रूरत पड़ी है वहां उस सब वन्दन-स्मरण करके यहां यह व्यक्त किया गया है कि को अनुवादके अनन्तर भिन्न पैरेग्राफोंमें अलग दे इस ग्रंथके प्रतिपाद्य विषयका सम्बंध वीरप्रभुके उपदेशसे दिय.. है- उसीके अनुमार सब कुछ कथन किया गया है। इस प्रकार यह मूल ग्रन्थ और उसके अनुवादादिक सत्रारम्भ को देनेकी पद्धति है, जिसे यहां अपनाया गया है।. सम्यग्दर्शनाऽवगमवृत्तानि मोक्षहेतुः॥१॥ ग्रन्थारंभसे पूर्व का अंश 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्जाम और सम्यक्चारित ॥ ॥ॐ नमःमिद्धं । अथ दशसूत्री लिख्यते। की तीनों मिले हुए-मोका साधन है।' 'एँ, ॐ, सिद्ध को नमस्कार । यहाँ (अथवा अब) __ यह मूत्र और उमास्वातिके तत्वार्थसूत्रका पहला सूत्र दीनी एकही टाइप और एक ही प्राशयके हैं । अक्षरदशसूत्र लिखा जाता है।' यह प्रायः लिपिकर्ता लेग्बकका मगलाचरण के सख्या भी दोनोकी १५.१५ ही है । वहाँ शान, चारित्र और मार्ग शब्दोका प्रयोग हुआ है तब यहाँ उनके माथ ग्रंथका नामोल्लेख पूर्वक उसके लिखनेकी प्रतिजा एवं सूचनाका वाक्य है। हो सकता है कि यह स्थान पर क्रमशः अवगम, वृत्त और हेतु शन्दोका प्रयोग वाक्य प्रकृत ग्रंथप्रतिके लेम्बक पंरतनलालकी खटकी हुआ है, जो ममान अर्थ के ही द्योतक है। जीवादिसप्ततत्त्वं ॥२॥ कृति न हो बल्कि उम ग्रंथ प्रतिमें ही इम रूपस लिया 'जीव भादि सात तत्व है।' ही जिम पर में उन्होंने यह प्रति उतारी है। मूल प्रथ यहाँ 'पादि' शब्दस अजीय, पासव, बन्ध, संवर, के मंगलाचरणादि के माथ हमका मम्बन्ध नहीं है । निर्जरा और मोक्ष ऐसे छह तत्त्वोंके ग्रहणका निर्देप है, पहला अध्याय क्योंकि जैनागमम जीव सहित इन तत्त्वोंकी ही 'सप्ततत्त्व' मूलका मंगलाचरण मजा है । यह सूत्र और उमास्वातिका ४था सूत्र दोनों एकार्थ-वाचक हैं। उममें सानों तत्त्वीके नाम दिये गये सदृष्टिज्ञामवृत्तारमा मोक्षमार्गः मनासनः । हैं तब इममें 'श्रादि' शब्दमे शेष छह मद तत्त्वोंका भाविरासीचतो वंदे तमहं वीरमच्चतं ॥१॥ संग्रह किया गया है, और इलिये इसमें अक्षरोंको ग्रन्थप्रतिमे 'दशसूत्र' एसा अगुख पाठ है। सख्या अल्प हो गई है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [त्र, बीर-निर्वाण सं०२४॥ तदर्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन ॥३॥ नाम-स्थापना-अन्य-भावतस्तन्या:" का होता है। उनके-समतों -अर्यभदायको-निरचषरूप प्रमाणे द्वे ॥६॥ कपिविशेषको-सम्यग्दर्शन करते हैं।' 'प्रमाण दो है। यह उमास्वातिके द्वितीय सूत्रके साथ मिलता जुलता यहाँ दोको संख्याका निर्देश करनेसे प्रमाणके भागमहै। दोनोंकी अक्षर संख्या भी समान है-वहाँ तत्त्वार्थ- कथित प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों भेदोंका संग्रह किया श्रद्धानं' पद दिया है तब यहाँ तदर्थश्रद्धान' पदके द्वारा गया है। यह उमास्वातिके १०वें सूत्र "तलामाणे" के बडी श्राशय व्यक्त किया गया है। भेद दोनोंमें कथन- साथ मिलता-जलता है, परन्तु दोनोंकी कयनशैली और शैलीका है। उमास्वातिने सम्यग्दर्शनके लक्षणमें प्रयुक्त कथनक्रम भिन्न है। इसमें प्रमाणके सर्वार्थसिद्धि-कथित हए 'तत्त्व' शब्दको श्रागे जाकर स्पष्ट किया है और 'स्वार्थ' और परार्थ नामके दो भेदोंका भी समावेश हो प्रभाचन्द्रने पहले 'तत्त्व' को बतला कर फिर उसके जाता है। अर्थश्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया है और इस तरह नयाः सप्त ॥७॥ कथनका सरल मार्ग अंगीकार किया है । कथनका यह . . 'नय सात है।' शैली-भेद आगे भी बराबर चलता रहा है। यहाँ मातकी संख्याका निर्देश करनेसे नयोंके प्रातदुत्पत्तिर्विधा ॥४ 'उस-सम्यग्दर्शन-की उत्पत्ति दो प्रकारसे है।' ' और गम कथित नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुमूत्र, शब्द, यहां उन दो प्रकारोंका-आगमकथित निसर्ग और समभिरूढ और एवंभूत ऐसे मात भेदोंका संग्रह किया गया है । उमास्वातिने नयोंका उल्लेख यद्यपि 'प्रमाणअधिगम भेदोंका-उल्लेख न करके उनकी मात्र सचना नयैरधिगमः' इस छठे सूत्रमें किया है परन्तु उनकी की गई है। जबकि उमास्वातिने 'तनिसर्गादपिगमावा' *मात संख्या और नामोंका सूचक सत्र प्रथम अध्याय इस तृतीय सूत्रके द्वारा उनका स्पष्ट उल्लेख कर दिया के अन्तमें दिया है । यहाँ दूसरा ही क्रम रखा गया है और उक्त छठे सूत्रके आशयका जो स्त्र यहाँ दिया है नामादिना तन्न्यासः ।।५।। वह इससे अगला पाठवा सूत्र है। 'नाम मादिके द्वारा उनका-सम्यग्दर्शनादिका तथा जीवादि सचोंका-न्यास (निशेष) होता है- म्यवस्था खेताम्बरीय सूत्रपाठ और उसके माध्यमें नयों पर और विभाजन किया जाता है।' की मूल संख्या नैगम, संग्रह व्यवहार, सूत्र और ___ यहाँ 'आदि' शब्दसे स्थापना, द्रव्य और भावके शब्द, ऐसे पांच दो है, फिर नैगमके दो और शब्द नवग्रहणका निर्देश है। क्योंकि आगममें न्यास अथवा नि साम्पत, सममिल, एवंमत ऐसे तीन भेद किये गये क्षेपके चार ही भेद किये गये हैं और वे षट्खण्डाग- है, और इस तरह नयके पाठ भेद किये है। परन्तु मादि मूल ग्रंथोंमें बहुत ही रूढ़ तथा प्रसिद्ध है और पं० सुखखासजी अपनी तस्वार्थसूत्रकी टीकामे यह स्पष्ट उनका बार बार उल्लेख पाया है। और इसलिये इस स्वीकार करते है कि जैनागमों और दिगम्बरीष ग्रंथों सूत्रका भी वही प्राशय है जो उमास्वातिके पाँचवें सूत्र की परम्परा क सात नयों की ही है। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व, किरण प्रमाचन्द्रका सन्चार्यसूत्र तैरधिगमस्तत्स्वाना होता है, इसलिये क्षायिक' कहा जाता है। 'उन-प्रमाणों तथा नयों के द्वारा तत्वोंका पविधोऽवधिः ॥१२॥ विशेष ज्ञान होता है। 'अवविज्ञान का भेदरूप है। इस सूत्रमें 'प्रमाणनवैः' को जगत 'ते' पदके प्रयोग यहां छहकी सख्याका निर्देश करनेसे अवधिशन से जहाँ सूत्रका लाघव हुआ है वहां तवानां पद कुछ के अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अव. अधिक जान पड़ता है । यह पद उमास्वातिके उक्त छठे स्थित और अनवस्थित ऐसे छह भेदोंका ग्रहण किया सूत्रमें नहीं है फिर भी इस पदसे अर्थ में स्पष्टता जरूर गया है,जो सब क्षयोपशमके निमित्तसे ही होते हैं । भवश्रा जाती है। प्रत्यय अवधिज्ञान जो देव-नारकियोंके बतलाया गया है सदादिभिश्च ॥९॥ वह भी क्षयोपशमके बिना नहीं होता और छह भेदोंमें 'सत् मादिके द्वारा भी तत्वोंका विशेष ज्ञान होता उसका भी अन्तर्भाव हो जाता है, इसीसे यहाँ उसका पृथक रूपसे ग्रहण करना नहीं पाया जाता। यह सूत्र यहां 'श्रादि' शब्दसे संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, उमास्वातिके 'पयोपशमनिमित्तः पवियापः शेषाखा अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व नामके सात अनुयोग इस २२ । सूत्रके साथ मिलता-जुलता है। द्वारोंके ग्रहणका निर्देश है; क्योंकि मत्-पूर्वक इन अनु द्विविधो मनःपयेयः ॥१३॥ योगदारोंकी पाठ संख्या श्रागममें रूढ़ है-पटवण्डा 'मनः पर्वयज्ञान दो भेदरूप है।' गमादिकमें इनका बहुत विस्तारके साथ वर्णन है । इम यहां दोकी सख्याके निर्देश द्वारा मनः पर्ययके सत्रका और उमास्वाति के 'सत्संख्यादि' सूत्र नं० ८ का ऋजमति और विपुलमति दोनों प्रसिद्ध भेदोका संग्रह एक ही श्राशय है। किया गया है और इसलिये इमका वही श्राशय है जो मित्यादीनि [पंच] ज्ञानानि ॥१०॥ उमास्वानिके पविपुलमती मनःपर्ययः' इस सूत्र नं. 'मति भादिक पांच शान हैं।' २३ का होता है। यहाँ 'श्रादि' शब्दके द्वारा श्रुत, अवधि, मनःपयंय अखंडं केवलं ॥ १४॥ और केवल, इन चार ज्ञानोका संग्रह किया गया है, केवलज्ञान अखंड स्योंकि मति-पर्वक ये ही पाँच ज्ञान आगममें वर्णित है। -उसके कोई भेद-प्रभेद क्षयोपशम [क्षय हेनवः ॥११॥ नहीं है।' 'मत्यादिक ज्ञान पयोपशम-पय हेतुक है।' इम सूत्रके प्राशयका कोई सूत्र उमास्वाति के मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, ये चार ज्ञान तो तत्वार्थसूत्रमें नहीं है। मतिज्ञानाबरणादि कर्म प्रकृतियोंके क्षयोपशमसे होते है, समय समयमेका पत्वारि ॥१५॥ इसलिये 'क्षायोपशामिक' कहलाते हैं और केवलज्ञान 'कभी कभी एक जीवमें बुगपत् चार शाम होते है। ज्ञानावरणादि-घातियाकर्म-प्रकृतियोंके क्षयस उत्पन्न केवलज्ञानको बोड़ कर शेष चार शान एक स्थान स। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेकान्त [चत्र, बीर-निर्वाण सं०१६ पर किसी समय युगपत् हो सकते हैं। इससे दो तीन नामका सूत्र एक ही अर्थक वाचक है। सानोंका भी एक साथ होना ध्वनित होता है। दो एक सद्विविधः ॥३॥ साथ होंगे तो मति, भुत होंगे, और तोन होंगे तो मति, वा (उपयोग) दो प्रकारका होता है।' भुत, अवधि अथवा मति, श्रुत और मनः पर्यय होंगे। यहां दोकी संख्याका निर्देश करनेसे उपयोगके एक शान केबलशान ही होता है---उसके साथमें श्रागमकथित दो मूल भेदोका संग्रह किया गया हैदूसरे ज्ञान नहीं रहते। यह सत्र उमास्वातिके एकादी- उत्तर भेदोंका वैमा कोई निर्देश नहीं किया जैसा कि नि माज्यानि बुगपदेस्मिनाचतुर्थः' इस सत्रके उमास्वाति के “सद्विविधोऽचतुर्भेदः" इस सूत्र न०६ समकक्ष है और इसी-जैसे आशयको लिये हुए है। में पाया जाता है । परन्तु इसकी शब्द-रचना कुछ सन्दिग्धसी जान पड़ती द्वींद्रियादयस्त्रसाः ॥४॥ है। संभव है 'एकवचत्वारि' के स्थान पर 'एकत्रैक द्वीन्द्रियादिक जीव वस हैं।' द्वित्रिचत्वारिं' ऐसा पाठ हो। यहा 'श्रादि' शब्दसे त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय तथा इति श्री बृहत्प्रभाचन्द्रविरचिते तत्वार्थसूत्रे संजी-असज्ञीके भेदरूप पंचेन्द्रिय जीवोंके ग्रहणका प्रथमोध्यायः ॥१॥ निर्देश है । यह सूत्र और उमास्वातिका १४ वा सत्र _ 'इस प्रकार श्री बृहत् प्रभाचा-विरचित तत्वार्थ- अक्षरशः एक ही हैं। सूत्रमें पहला अध्याप समाप्त हुभा ।' शेषाः स्थावराः ॥५॥ दूसरा अध्याय 'शेष (एकेन्द्रिय) जीव स्थावर है।' जीवस्य पंचभावाः ॥१॥ उमास्वातिके दिगम्बरीय मूत्रपाठके 'पृथिव्यपते. 'जीवके पंचभाव होते हैं।' जोवायुवनस्पतयः स्थावराः' सत्र नं०१३ का जो प्राशय यहाँ पाँचकी सख्याका निर्देश करनेमे जीवके है वही इम मत्रका है । और इमलिए स्थावर जीव पृथिवी आगम-कथित औपशमिक, दायिक, क्षायोपशमिक, आदिके भेदसे पांच प्रकारके हैं। द्रव्यभावभेदादिद्रियं द्विप्रकारं ॥ ६॥ श्रौदयिक और पारिणामिक, ऐसे पांच भावोंका संग्रह 'दन्य और भावके भेदसे इन्द्रिय दो प्रकार है।' किया गया है । उमास्वातिके दूमरे अध्यायका "श्रौप इम सूत्रमं यद्यपि उमास्वातिके "द्विविधानि' १६, शमिकक्षायिको" आदि प्रथम.सूत्र भी जीवके भावोका द्योतक है। उसमें पांचोंके नाम दिये हैं, जिससे वह द्धि । बड़ा सूत्र हो गया है । आशय दोनोंका प्रायः एक ही श्वेताम्बरीय सत्रपाठमें १४वें सत्रका रूप 'तेनोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः' ऐमा दिया है; क्योकि श्वेताउपयोगस्तल्लक्षणं ।। १॥ म्बरीय भाई अग्नि और वायुकायके जीवोंको भी त्रस 'जीवका लक्षण उपयोग है।' जीव मानते हैं। यह सूत्र और उमास्वातिका 'उपयोगो नणं' पा Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाचा तत्वार्थसूत्र 'नित्युपकरणे प्रन्येन्दिय , बन्ध्युपयोगौ मावेन्द्रियं यहाँ 'प्रादि' शब्दसे वैफियक, अहारक, तेजस १८, इन तीन सूत्रोंके श्राशयका समावेश है, परन्तु और कार्मण नामके चार शरीरोंके ग्रहणका संकेत है; द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियके भेदोंको खोला नहीं। क्योंकि औदारिक-सहित शरीरोंके पांच ही भेद भागममें विप्रहाद्या गतयः ॥७॥ पाये जाते हैं। और इसलिये इस सत्रका वही प्राशय 'विग्रहा मावि गतियों है। है जो उमास्वातिके मौवारिकवैक्रिषिकाहारक यहाँ गतियोंकी कोई संख्या नहीं दी। विग्रहागति तैजसकामणानि शरीराषि" इस सत्र नं. ३६ का है। समारी जीवोंकी और अविग्रहा मुक्त जीवोंकी होती है। एकस्मिनात्मन्याचतुर्म्यः ॥१०॥ अविग्रहाको 'इषुगति' भी कहते हैं, और 'विग्रहा' के तीन ___एक जीवमें चार तक शरीर (एक साथ) होते है। भेद किये जाते हैं-१ पाणिमुक्ता २ लाङ्गलिका ३ यह सत्र उमास्वातिके "तदादीनिमाज्यानि युगपरे गोमूत्रिका | पार्षग्रंथोंमें इषुगति-सहित इन्हें गतिके चार कस्मिनाचतुर्थः" इस सत्रके साथ मिलता जुलता है, भेद गिनाये हैं। यदि इन चारोंका ही अभिप्राय यहाँ परन्तु इम सत्रमें 'तवादीनि' पदके द्वारा 'तेजस और होता तो हम सुत्रका कुछ दूमरा ही रूप होता । अतः कार्मण नामके दो शरीरोंको श्रादि लेकर' ऐमा जो विग्रहा, अविग्रहाके अतिरिन गतिके नरकगति, तियेच- कथन किया गया है और उसके द्वारा एक शरीर अलग गति देवगति,मनुष्यगति ऐसे जो चारभेद और भी किये नहीं होता ऐसा जो नियम किया गया है वह स्पष्ट जाते हैं उनका भी ममावेश इम सत्रमें हो सकता है । विधान इम सत्रमे उपलब्ध नहीं होता | उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमें इस प्रकारका कोई अलग आहारकं प्रमत्त संयत स्यैव ॥११॥ सूत्र नहीं है-यो 'भविप्रहाजीवस्य, विग्रहवती च संसा 'माहारक प्रमत्तसंयतके ही होता है।' रिणः प्राक्चतुर्व्यः, एकसमयाऽविग्रहा' आदि सूत्रों में श्रादारक शरीरके लिये यह नियम है कि वह गतियोंका उल्लेख पाया ही जाता है। प्रमत्तमयत नामके छठे गुणस्थानवर्ती मुनिके ही होता ___ सचित्तादयो योनयः ॥ ८॥ है --अन्यके नहीं । उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमें इसी 'सचित्त मादि योनियाँ हैं।' श्राशयका सूत्र नं ०४६ पर है। उसमें आहारक शरीरके यहाँ मत्रमें यद्यपि योनियोंकी संख्या नहीं दी; परंतु शुभ, विशुद्ध, अव्याधानि ऐसे नीन विशेषण दिये हैं। सचित्त योनिमे जिनका प्रारम्भ होता है उनकी मख्या मूल बान श्राहारक शरीरके स्वामिनत्वनिर्देशकी दोनोंमें आगममें नव है-ग्रंथप्रतिमें 'योनयः' पद पर E का एक ही है। श्वेताम्बरीय सूत्रपाठम 'प्रमत्तसंयनस्यैव' अंक भी दिया हुआ है । ऐसी हालतमें उमास्वातिके के स्थान पर 'चतुर्दशपूर्वधरस्यैव' पाठ है, और इसलिये "सचित-शीत संवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तथोनयः" वे लोग चौदह पूर्वधारी (श्रुतकेवली) मुनिके ही अाहाइस सूत्र नं ० ३२ का जो आशय है वही इस सूत्रका रक शरीरका होना बतलान हैं। श्राशय समझना चाहिये। मौदारिकादीनि शरीराणि ॥९॥ तीर्थेश देव-नारक भोगभुवोऽखंडायुषः ॥१२॥ 'पौदारिक मादि शरीर होते हैं।' अखंडायुषः । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चैत्र, बीर-निर्वाण ०२४१५ 'सार्थकर, देव, नारकी भोर भोगमिया प्रचंड प्रमाको श्रादि लेकर ये ही सब सात नरक भूमियां वणित बाबुबाले होते है। हैं। यह सूत्र उमास्वाति-तत्त्वार्थसूत्रके तृतीय अध्यायके अकालमरणके द्वारा बड श्रायुका बीचमें खण्डित प्रथम सूत्रके मूल आशयके साथ मिलता-जुलता है। न होना 'अखण्डायु' कहलाता है। तीर्थंकरों आदिका उसमें 'धनाम्बुवाताकासप्रतिक्षाः' और 'अयोग्य' पदों अकालमरण नहीं होता-बाा निमित्तोंको पाकर उनका के द्वारा इन नरकभूमियोंके सम्बन्धमें कुछ विशिष्ट आयु छिदता-भिदता अथवा परिवर्तनीय नहीं होता- एवं स्पष्ट कथन और भी किया है। वे कालक्रमसे अपनी पूरी ही बद्धायुका भोग करते तासु नारकाः सपंचदुःखाः ॥२॥ है । दूसरे मनुष्य-तिर्यंचोंके अखण्डायु होनेका नियम उन सातों भूमियोंमें मारकी जीव रहते है और नहीं वे अखण्डायु हो भी सकते हैं और नहीं भी। वे पंच प्रकारके दुःखोंसे युक्त होते हैं। यह सूत्र उमास्वातिके भोपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येय नारकी जीव स्वसंक्लेशपरिणामज, क्षेत्रस्वभावज, वर्णयुगोऽमपपत्यायुषः' इस ५३वें सूत्रकी अपेक्षा बहुत परस्परोदीरित और असुरोदीरित श्रादि अनेक प्रकारके कुछ सरल स्पष्ट तथा अल्पाक्षरी है, इसमें उक्त सूत्र- दुःखोंसे निरन्तर पीडित रहते हैं। यहाँ उन सब दुःखों जैसी जटिलता नहीं है। को पांच भेदोंमें सीमित किया गया है, जिनके स्पष्ट इति श्रीप्रभाचंद्रविरचिते तत्वार्थसूत्रे द्विती- नाम नहीं मालूम हो सके । उमास्वातिके प्रायः २ से ५ योध्यायः ॥०॥ तकके सूत्रोंका श्राशय इममें संनिहित जान पड़ता है। 'इस प्रकामी प्रभाग-विरचित तत्वार्यसूत्रमें जम्बूद्वीपलवणोदादयोऽसंख्येयद्वीपोदधयः ॥३॥ दूसरा अध्याप समास हुमा । 'जम्बूद्वीप और बबबोदधिको मादि लेकर मसं मात हीप समुद्र है।' तीसरा अध्याय ___ यह सूत्र और उमास्वातिका "जम्बूद्वीपखवणोदा दयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः' यह सूत्र नं०७ दोनों रत्नप्रभायाः सप्तभूमयः ॥१॥ एक ही श्राशयको लिये हुए हैं। एकमें द्वीप-समुद्रोंक। 'लप्रमा चादि सात भूमिया है।' 'गुमनामानः' विशेषण है तो दूसरेमें 'असंख्येव' विशेयहाँ 'आदि' शब्दसे शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पण है। पप्रभा, धूमप्रभा, तम प्रभा, महातमःप्रभा इन छह तन्मध्ये लक्षयोजनप्रमः सचूतिको मेरुः ॥ ४॥ ममियोंका संग्रह किया गया है; क्योंकि भागममें रल- उन दीप-समुद्रोंके मध्यमें बास योजन प्रमाण श्वेताम्बरीच सूत्रपाठमें 'औपपातिकचरमवेहो- वादा पूलिका सहित मेक (पर्वत) है ।' समपुरुषा" ऐसा पाठ है जिसके बारा सभी चरम शरीरी उमास्वातिने 'तन्मध्ये मेनामिवृ'तो' इत्यादि सबा उत्तम पुल्लोंको प्रखरखा पसबाया है। उसमें सूत्रके द्वारा मेरुपर्वतको नाभिकी तरह मध्यस्थित बतमीबह दितीय अध्यापका अन्तिम सूत्र है परन्तु इसका लाते हुये उसका कोई परिमाण न देकर जम्बूद्वीपको लक्ष योजन प्रमाण विस्तार वाला बतलाया है, जब कि Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व, किरण ] प्रभाचयका तत्वार्यसूत्र - - यहाँ जम्बू द्वीपका कोई परिमाण न देकर मेरुका ही शन्दसे आगमवर्णित सिंधु, रोहित, रोहितास्या, हरित, परिमाण दिया है। जम्बद्वीप और मेरुपर्वत दोनों ही हरिकान्ता, सीता, सीतोदा, नारी, नरकान्ता, सुवर्णकूला, एक एक लाख योजनके हैं। रूप्यकूला,रक्ता, रक्तोदा, इन ११ नदियोंका संग्रह किया हिमवत्प्रमुखाः षट्कुलनगाः ॥ ५॥ गया है। उमास्वातिने अपने 'गंगासिंधु' प्रादि सूत्र 'हिमवान्को मदिखेकर पट मुलाया है। नं० २०1 में इन सबका नामोल्लेख-पूर्वक संग्रह किया यहां छहकी संख्याका निर्देश करनेसे 'प्रमुख' है। इसीसे वह सूत्र बड़ा हो गया है। शब्दके द्वारा महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी भरतादीनि वर्षाणि ॥९॥ शिखरी इन पांच कुलाचलोंका संग्रह किया गया है, भरत भावि क्षेत्र है।' क्योंकि श्रागममें हिमवान्-सहित छह पर्वतोंका वर्णन यहां 'पादि' शब्दसे हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, है जो जम्बुद्धीपादिकमें स्थित हैं । उमास्वातिने ११वें हैरण्यवत और ऐरावत नामके छह क्षेत्रोंका संग्रह किया सूत्रमें उन सबका नाम-सहित मंग्रह किया है। गया है। षट् कुलाचलोंसे विभाजित होनेके कारण जम्बू तेषु पद्मादयो हदाः॥६॥ द्वीपके क्षेत्रोंकी संख्या सात होती है। यह सूत्र और __ 'उन मुलाचखों पर 'पद्म' भादि वह है। उमास्वातिका १० वा ('भरतहमवत हरिषिदेवरम्पकार यहां 'श्रादि' शब्दसे महापद्म, तिगिंछ, केसरी यवतेरावतवाः त्राणि') सूत्र एक ही प्राशयके हैं। महापण्डरीक और पुण्डरीक नामके पांच द्रोंका सग्रह त्रिविधा भोगभूमयः ॥१०॥ किया गया है, जो शेष महाहिमवान् श्रादि कुलाचलो 'भोग भूमिया तीन प्रकारकी होती है।' पर स्थित है । और जिनका उमास्वातिने अपने १४ वे यहाँ जघन्य, मध्यम और उत्चम ऐसे तीन प्रकार 'पचमहापा' श्रादि सूत्रमें उल्लेख किया है। की भोगमियोंका निर्देश है। हैमवत-हरण्यवत क्षेत्रों ___ तन्मध्ये भ्यादयो देव्यः ॥ ७॥ में जघन्य भोगभूमि, हरि-रम्यकक्षेत्रोंमें मध्यमभोगभूमि 'उन ग्रहों के मध्यमें भी मावि देवियां रहती है।' और विदेहक्षेत्र स्थित देवकुरु-उत्तरकुरुमें उत्तमकर्म यहां 'आदि' शब्दसे आगम-वर्णित ही, पति, भूमिकी व्यवस्था है। उमास्वातिके तत्त्वार्यसूत्रमें यद्यपि कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी नामकी पांच देवियोंका संग्रह इस प्रकारका कोई स्वतन्त्र सूत्र नहीं है परन्तु उसके किया गया है, जिन्हें उमास्वातिने अपने १६ वें सत्रमें एकदित्रिपश्योपम' श्रादि सूत्र नं० १६ और 'योचराः' द्रह स्थित कमलोंमें निवास करने वाली बतलाया है। नामके सूत्र नं० २०० में यह सब प्राशय संनिहित है। तेभ्योक गंगादयश्चतुर्दशमहानद्यः ।। ८ । भरतैरावतेषु षट्कालाः ॥१२॥ 'उन (मदों) से गंगाविक महा नदियां निक- 'भरत और ऐरावत नामके पत्रों में यह काल पर्वते लती है। यहां १४ की संख्याके निर्देशके साथ 'आदि' - श्वेताम्बरीय सूत्रपाठमें यह सूत्र ही नहीं है। तस्माद् । • श्वेताम्बरीय सूत्रपामें ये दोनों ही सूत्र नहीं है। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चैत्र, बीर-निर्माण सं०१६ इस स्त्रका प्रायः वही श्राशय है जो उमास्वातिके स्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमें नहीं है। 'मातेरावतयोवृदिहासौपट्समगाभ्यामुत्सपियवसर्पि- मनुष्यतिरश्वामुष्ट-जघन्यायुषी त्रिपल्योपमातखीम्याम्' इस सूत्र नं. २ का है। मुहूतौ ॥१८॥ विदेहेषु सन्ततश्चतुर्थः ॥१२॥ ___ मनुष्य और तिचोंकी उत्कट भायु तीन पल्मकी "विवोत्रों में सदा चौषा काय वर्तता है। और जन्म मा अन्तर्मुहुर्तकी होती है। इस आशयका कोई सूत्र उमास्वातिके तत्वार्थसूत्र उमास्वातिके "नस्थितिपरापरे निपल्योपमान्तमें नहीं है। सर्वार्थसिद्धिकारने 'विदेहेषु संख्येयकालाः' मुहूर्ते" और "तिग्योनिजाना च" इन दो सूत्रों (१८, सूत्र की व्याख्या करते हुए 'तत्र कालः सुषमदुःपमा- ३६) में जो बात कही गई है वही यहां इस एक सूत्रों म्तोपमः सदाऽवस्थितः इस वाक्यके द्वारा वहाँ सदा वर्णित है-अक्षर भी अधिक नहीं हैं। चतुर्थ कालके होनेको सूचित किया है । इति श्रीवृहत्प्रभाचन्द्रविरचिते तत्त्वार्थसूत्रे आर्या म्लेच्छाश्च नरः ॥१३॥ तृतीयोध्यायः ॥३॥ 'मनुष्य मार्य और म्लेच्छ होते हैं। 'इस प्रकार श्रीवृहत्यमाचंद्र-विरचित तत्वार्थसूत्रमें यह सूत्र और उमास्वातिका 'मायाँ म्लेच्छारच' च' तीसरा अध्याय समाप्त हुभा।' सूत्र (नं० ३६) एक ही श्राशयके हैं। इममें 'नर' पद 'नृ' शब्दका प्रथमाका बहुवचनान्तपद है, जो यहाँ चौथा अध्याय अधिक नहीं, किन्तु कथन-क्रमको देखते हुए आवश्यक जान पड़ता है। दशाष्टपंचमभेदभावन-व्यन्तर-ज्योतिष्काः ॥१॥ त्रिषष्ठि 'शलाकापुरुषाः ॥१४॥ 'भवनवासियों, न्यन्तरों और ज्योतिषियों के क्रमशः एकादशरुद्राः ॥१५॥ नवनारदाः ॥१६॥ दश, पाठ और पाँच भेद होते हैं। भवनवामी आदि देवोंकी यह भेद-गणना उमाचतुर्विशति कामदेवाः ॥१७॥ 'सठ शखाका पुरुष होते हैं। स्वातिके “दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपत्रपर्यंताः" 'न्यारह रुख होते हैं। सूत्र (नं० ३) में पाई जाती है। 'नव नारव होते हैं। वैमानिका द्विविधाः कल्पजकल्पातीत भेदात् ॥२॥ 'चौबीस कामदेव होते हैं।' 'वैमानिक ( देव ) कल्पन और कल्पातीतके भेदसे इन चारों सूत्रोंके आशयका का कोई भी सूत्र उमा- दो प्रकारके होते हैं। इस सूत्र विषयके लिये उमास्वातिके तत्त्वार्थसत्र में श्वेिताम्बरीय सूत्रपाठमें यह सूत्र भी नहीं है। ® यह सूत्र भी श्वेताम्बरीय सूत्र पाठमें नहीं है। मुहूतौ । सलाका। था। ३ता Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष, निव प्रभाचन्द्रका तत्वार्यसूत्र 'वैमानिकाः' और 'कल्पोपपञ्चाः करपातीतास' ऐसे दो उमास्वातिने 'परावर्षसहजावि प्रथमावास्' इत्यादि सूत्र पाये जाते हैं। अनेक सूत्रोंमें इसी आशयको वर्णित किया है। इस सौधर्मादयः षोडशकल्पाः ॥२॥ सूत्रका 'सामान्यतया' पद खास तौरसे ध्यान देने योग्य. 'सौधर्म भादि सोबह करप ।' है, और उससे विशेषावस्थामें किसी अपवादके होनेकी इस सूत्रमें कल्पोंकी संख्या १६ निर्दिष्ट करनेसे भी सूचना मिलती है। 'आदि' शब्दके द्वारा ईशान आदि उन १५ स्वर्गोंका इति श्रीवृहत्प्रभाचंद्रविरचिते तत्त्वार्थसूत्रे संग्रह किया गया है जिनके नाम उमास्वातिके दिगम्बर चतुर्थोध्यायः ॥४॥ पाठानुसार १६ वे सूत्रमें दिये हैं। 'इस प्रकार श्री पृहप्रमाचंद्रविरचित तत्वार्यसको ब्रह्मालयाः लौकांतिका ॥४॥ चौथा अध्याष पूर्व हुमा।' 'लौकान्तिक (देव) बमकल्पके निवासी होते है। पांचवाँ अध्याय यह सूत्र और उमास्वातिका 'ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः' सूत्र प्रायः एक ही है। पंचास्तिकायाः||१॥ प्रेवेयकाचा अकल्पाः ॥शा 'पाँच मस्तिकाय है।' 'प्रेषयक मादि प्रकल्प है।' यहाँ अस्तिकायके लिये पाँचकी संख्याका निर्देश यहाँ 'पादि' शब्दसे विजय, वैजयत्त, जयन्त, अ- करनेसे आगमकथित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और पराजित और सर्वार्थसिद्धि नामके उन अागमोदित वि- श्राकाश ऐसे पांच द्रव्योंका संग्रह किया गया है। इनमानोंका संग्रह किया गया है जिनका उमास्वातिके भी का अस्तित्व और बहुप्रदेशत्व गुणों के कारण 'अस्तिउक्त १६ वें सूत्रमें उल्लेख है। उमास्वातिने भी 'प्राग्न- काय' संशा है उमास्वातिने इनका संग्रह 'मजीवकावाबेयकेन्या कल्पाः' इस सूत्रके द्वारा इन्हें 'श्रकल्प' सूचित धर्माधर्माकाशपुद्गलाः' और 'जीवाश्च' इन सूत्रों किया है। (न० १, ३) में किया है। सामान्यतो देवनारकाणामुत्कृष्टेतरस्थितिस्त्रय- नित्यावस्थिताः ॥२॥ स्त्रिंशत्सागराऽयुतान्दाः ॥६॥ "पांचों अस्तिकाय) नित्य है और अवस्थित है। ___ 'सामान्यतया देवनारकोंकी उस्कृष्ट स्थिति ३३ ये पाँचों द्रव्य अपने सामान्य विशेषरूपको कमी सागर और जघन्य स्थिति • हजार वर्षकी है।' छोड़ते नहीं, इसलिये नित्य है और अस्तिकायरूपसे बो। अपनी पाँचकी संख्याका भी कमी त्याग नहीं करते1 सागरप्रयुताम्दाः, यह पाठ इसलिये ठीक नहीं चार या छह आदि रूप नहीं होते-इसलिये अवस्थित है कि 'प्रयुत शम्य .. बासका वाचक होता है। उमास्वातिका 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' सूत्र इस उतनी अन्य स्थितिका होना सिद्धान्तके विस सूत्रके साथ मिलता जुलता है। 'अयुत' का अर्थ जार होता है, इसलिये उसीका रूपिणः पुद्गलाः ॥३॥ प्रयोग ठीक मान पड़ता है। 'पुद्गल रूपी होते हैं। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. " बनेका [त्र, बीर-निर्वाच सं०२४५ पंचास्तिकायरूप द्रव्यों से पुद्गलोको रूपी बत- मध्य सहभावि गुणों तथा कमभावि-पायों बाला लानेका फलितार्थ यह होता है कि जीव, धर्म, अधर्म, होता है। और प्राकाश, ये चार द्रव्य अरूपी है-स्पर्श, रस,गंध, यह सत्र उमास्वातिके 'गुणपर्ववण्यन्य सूत्रसे कुछ श्रो वर्णसे रहित प्रमूर्तिक है। यह सूत्र और उमा- विशेषताको लिये हुए है। इसमें गुणका स्वरूप सहभावी स्वातिका चौथा सूत्र अक्षरसे एक ही हैं। और पर्यायका क्रममावीभी बतला दिया है । धर्मादेरक्रियत्वी ॥४॥ कालश्च ॥६॥ 'धर्म माविक प्रक्रियत्व है।' 'काव भी इन्य है। यहाँ 'पादि' शब्दसे अधर्म और प्राकाशका संग्रह यह सूत्र और उमास्वातिका ३६ वाँ सूत्र अक्षरसे किया गया है, क्योंकि पंचास्तिकायमें धर्म द्रव्यके बाद एक है। ये ही पाते हैं। ये तीनों द्रव्य क्रियाहीन हैं। जब ये अनंतसमयश्च ॥१०॥ क्रियाहीन है तब शेष जीव और पुद्गल द्रव्यक्रिया- (कानन्य ) अनन्त समय (पर्याय ) वाला वान है, यह स्त्र-सामर्थ्यसे स्वयं अभिव्यक्त हो जाता है।' है। उमास्वातिके 'निष्क्रियाशि' सूत्रका और इसका यह सत्र उमास्वातिके 'सोऽनन्तसमयः'सूत्रके साथ एक ही श्राशय है। बहुत मिलता जुलता है और एक ही प्राशयको लिये जीर्वादेर्लोकाकाशेऽक्गाहः ॥५॥ हुए है। 'नीवादिकका जोकाकाशमें अवगाह है।' गुणानामगुणत्वं ॥११॥ यहाँ. 'मादि' शब्दसे पुद्गल, धर्म, और अधर्म गुणों के गुणत्व नहीं होता।' का संग्रह किया गया है-चारों द्रव्योंका अाधार लोका- गुण स्वयं निगुण होते हैं । गुणोंमें भी यदि . अन्य काश है । श्राकाश स्वप्रतिष्ठित-अपने ही आधार पर गुणोंकी कल्पना की जाय तो वे गुणी, गुणवान् एवं स्थित है इसलिये उसका अन्य आधार नहीं है । यह द्रव्य हो जाते हैं, फिर द्रव्य और गुणमें कोई विशेषता सत्र और उमास्वतिका १२ वाँ 'बोकाकाशेऽवामहः' नहीं रहती और अनवस्था भी आती है । यह सत्र उमासूत्र प्रायः एक ही है। स्वाति के 'न्याश्रयाः निर्गुणा गुगा:' इम सूत्र (नं. सत्त्वं द्रव्यलक्षणं ॥६॥ ४१, श्वे० ४० ) के समकक्ष है। 'इन्याश्रयाः' पदका श्राशय इससे पूर्व ८ सूत्रमें 'सहभावी' विशेषणके . उत्पादादियुक्त सत् ॥ द्वारा व्यक्त कर किया गया है। 'इन्यका लक्षण सत्व (सतकाभाव) है।' इति श्रीवृहत्प्रभाचंद्रविरचिते तत्त्वार्थसूत्रे 'उत्पाद भावि ( वय, धौम्य ) से जो युक्त है वह पंचमोध्यायः ॥॥ 'इस प्रकार श्री हल्लभाचन्द्र-विरचित तत्वार्थसूत्र में के सत्र समास्वातिके 'सायबाप और 'उत्पाद- पांचवां मन्याय समास दुपा।' या प्रोपयुकं सदः इन सूत्रों के साथ पूर्ण सामंजस्य (मागामी किरबमें समास) रखते हैं और एक ही बाशयको लिये हुए हैं। सहकमभाविगुणपर्ययवद्रव्यं ॥८॥ #श्वेताम्बरीष सूत्रपाटमसकनन्तर हत्या जापा है और इसे ३५ नम्बर पर दिया है। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-सुख-[भीम रावणबी स पृथ्वी मंडल पर कुछ ऐसी वस्तुयें और मन पवन और सुगन्धी विलेपनसे उसे आनन्द आनन्द कर की इच्छायें हैं जिन्हें कुछ अंशमें जानने पर दिया । वह विविध प्रकारके हीरा, मणिक, मौक्तिक, भी कहा नहीं जा सकता। फिर भी ये वस्तुयें कुछ मणिरत्न और रंग विरंगी अमूल्य चीजें निरन्तर उस संपूर्ण शाश्वत अथवा नंत रहस्यपूर्ण नहीं है । मीलको देखने के लिये भेना करता था, उसे बाग-बगीचों जब ऐसी वस्तुका वर्णन नहीं हो सकता तो में घूमने फिरनेके लिये भेजा करता था । इस तरह फिर अनंत सुग्वमय मोक्षकी तो उपमा कहाँसे मिल राजा उसे सुख दिया करता था । एक रातको जब सब सकती है । भगवान्से गौतमस्वामीने मोक्षके अनंत- सोये हुए थे, उस समय भौलको अपने बाल-बच्चोंकी सुखके विषयमें प्रश्न किया तो भगवान्ने उत्तरमें कहा- याद आई, इसलिये वह वहाँसे कुछ लिये करे बिना गौतम ! इस अनंत सुखको जानता हूँ परन्तु जिससे एकाएक निकल पड़ा, और जाकर अपने कुटुम्बियोंसे उमकी ममता दी जा सके, ऐमी यहाँ कोई उपमा नहीं। मिला । उन सबोंने मिलकर पूछा कि तू कहाँ था! जगत्में इस सुखके तुल्य कोई भी वस्तु अथवा सुख नहीं भीलने कहा, बहुत सुखमें। वहाँ मैंने बहुत प्रशंसा ऐमा कहकर उन्होंने निम्नरूपस एक भीलका दृष्टान्त करने लायक वस्तुएँ देखीं। दिया था। कुटुम्बी-परन्तु वे कैसी थीं, यह तो हमें का। किमी जंगल में एक भोलाभाला भील अपने बाल भील-क्या कहूँ, यहाँ वैसी एक भी वस्तु नहीं। बच्चों सहित रहता था । शहर वगैरहकी ममृद्धिकी कुटुम्बी-यह कैसे हो सकता है ! ये शंख, सीप, उपाधिका उसे लेश भर भी भान न था । एक दिन कौड़ कैसे सुन्दर पड़े हैं ! क्या वहाँ कोई ऐसी देखने कोई राजा अश्वक्रीड़ाके लिये फिरता फिरना वहाँ श्रा लायक वस्तु थी ? निकला । उसे बहुत प्यास लगी थी । राजाने इशारेसे भील-नहीं भाई, ऐसी चीज तो यहाँ एक भी भीलर्स पानी माँगा । भीलने पानी दिया । शीतल जल नहीं। उनके सौवें अथवा हजारवें भाग तककी भी मनोपोकर राजा संतुष्ट हुआ। अपनेको भीलकी तरफसे हर चीज़ यहाँ कोई नहीं । मिले हुए अमूल्य जल-दानका बदला चुकानेके लिये कुटुम्बी-तो तू चुपचाप बैठा रह । तुमे भ्रमणा भीलको समझाकर राजाने उसे साथ लिया । नगरमें हुई है। भला इससे अच्छा क्या होगा ? पानेके पश्चात् राजाने भीलको उसकी ज़िन्दगीमें न हे गौतम ! जैसे यह भील राज-वैभवके सुख भोगदेखी हुई वस्तुओंमें रक्खा । सुन्दर महल, पासमें अनेक कर पाया था, और उन्हें जानता भी था, फिर भी अनुचर, मनोहर छत्र पलंग, स्वादिष्ट भोजन, मंद मंद उपमाके योग्य वस्तु न मिलनेसे वह कुछ नहीं कह Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२०६६ सकता था, इसी तरह अनुपमेय मोक्षको, सच्चिदानन्द कुछ जान अथवा देख नहीं सकते; और यदि कुछ स्वरूपमय निर्विकारी मोक्षके सुखके असंख्यातवें भागको जाननेमें श्राता भी है, तो वह केवल मिथ्या स्वपनोभी योग्य उपमाके न मिलनेसे मैं तुझे कह नहीं पाधि आती है। जिसका कुछ असर हो ऐसी स्वप्न सकता। रहित निद्रा जिसमें सूक्ष्म स्थल सब कुछ जान और ____ मोक्षके स्वरूपमें शंका करनेवाले तो कुतर्कवादी देख सकते हों, और निरुपाधिसे शान्ति नींद ली जा है। इनको क्षणिक सुखके विचारके कारण सत्सुखका सकती हो, तो भी कोई उसका वर्णन कैसे कर सकता विचार कहाँसे श्रा सकता है ? कोई आत्मिक ज्ञान हीन है, और कोई इसकी उपमा भी क्या दे ? यह तो स्थल ऐसा भी कहते है कि संसारसे कोई विशेष सुखका दृष्टान्त है, परन्तु बालविवेकी इसके ऊपरसे कुछ विचार साधन मोक्षमें नहीं रहता इसलिये इसमें अनन्त अव्या- कर सके इसलिये यह कहा है। बाध सुख कह दिया है, इनका यह कथन विवेकयुक्त भीलका दृष्टान्त समझानेके लिये भाषा-भेदके फेर नहीं। निद्रा प्रत्येक मानवीको प्रिय है, परन्तु उसमें वे फारसे तुम्हें कहा है। वीर-श्रद्धाञ्जलि लेo-श्रीरघुवीरशरण अग्रवाल, एम.ए. 'घनश्याम'] लिच्छिवी वंशके रन ! अमर है कीति तुम्हारी। मारत-नभमें चमक रही है ज्योति तुम्हारी ॥ धर्म-कर्म-उद्धार-हेतु अवतरित हुए थे। धर्म भहिसा प्रसर-हेतु सब चरित किये थे। जित-इन्द्रिय थे, महावीर ! सच्चे व्रतधारी । जीवोंके कल्याण हेतु थी देश तुम्हारी ॥ राज सुखोंको छोड़, धर्मकी ध्वजा उठाई। धर्ममयी भारत सुभूमि निज हाथ बनाई ॥ (२) वह ही सच्चा वीर, इन्द्रियाँ जीत सके जो। परम इष्टसे इष्ट वस्तुको त्याग सके जो ॥ धन, दारा औ पुत्र सभी का मोह तजे जो। सत्य-प्रेमसे युक्त हुआ निज-आत्म भजे जो ॥ यदपि जन्म को वर्ष भनेकों बीत गये हैं। फिर भी अद्भुत कार्य तुम्हारे दीख रहे हैं। धन्य त्याग है राज-सुखों का यश-वैभव का। महा पुरुष ! था तुम्हें ध्यान नित निज गौरव का। (३) भात्म-सहरा हो, सभी जीव तुमने बतलाये। बलि-अपयुत सब यज्ञ पापकी खान जताये ॥ हिसाका कर नाश, दयाके भाव बढ़ाये । पाउपातिके काम धर्मके रूप गिनाये ॥ करो नित्य कल्याण सभी विधि भक्तजनों का। भूतल पर हो चहूँ भोर विस्तार गुणों का ॥ श्रद्धाञ्जलि यह प्रेमपूर्ण अर्पित करता हूँ। प्रभुवरसे बहुबार विनय मनसे करता हूँ। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत पंचसंग्रहका रचना-काल [-प्रो. हीरालाल जैन एम. ए.] प्राचीन जैन साहित्यका बहु भाग अभी भी प्रमाणके अभी इस विषयमें कुछ भी नहीं कहा जा अंधकारमें है। हर्षकी बात है कि अब सकता है, तो भी इससे इतना तो ध्वनित है कि धीरे धीरे अनेक प्राचीन संथ प्रकाशमें आ रहे हैं। पंचसंग्रहकी रचना कुन्दकुन्दसे पहिले यां अभी अनेकान्त वर्ष ३ कि०३ के पृ० २५६ पर पं० थोड़े समय बाद ही हुई होगी"। पंचसंग्रहकीक परमानन्दजी शास्त्रीने अब तक भज्ञात एक 'अति गाथा सर्वार्थसिद्धि वृत्तिमें भी पाई जाती है जिस प्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह' का परिचय प्रकाशित परसे लेखकके मतसे "स्पष्ट है कि पंचसंह पुककिया है। इसकी जो प्रति लेखकको उपलब्ध हुई पादसे पहिलेका बना हुमा है"। वह सं० १५२७ में टंबक नगरमें माघ बदी ३ पंचसंग्रहमें तीन गाथाएँ ऐसी भी हैं जो - गुरुवारको लिखी गई थी और उसकी पत्र संख्या धवलाके मूलाधार गुणधर पाराव कत कपाव ६२ है । प्रन्थमें प्रशस्ति श्रादि कुछ नहीं है अतः प्रामृतमें भी पाई जाती हैं किन्तु यहाँ लेखकने यह उसपरसे उसके कर्ता व समयका कोई ज्ञान नहीं अनुमान किया है कि " उक्त तीनों गाथाएँ कषाव होता। किन्तु इस प्रथम बहुत सी ऐसी गाथाएँ प्राभृतकी ही हैं और उसी परसे पंचसंग्रहमें उठापाई गई हैं जो धवलामें भी उधृत पाई जाती हैं। कर रक्खी गई हैं।" इसपरसे उक्त परिचयके लेखकने यह निर्णय हमारे मामने उपर्युक पं० परमानन्दजीके किया है कि "आचार्य वीरसेनके सामने 'पंच लेखके अतिरिक्त पंचसंग्रहकी प्रति भादि कोई संग्रह' जरूर था। इसीसे उन्होंने उसकी उक्त गा- सामग्री ऐसी नहीं है जिस परसे हम उक्त प्रबके थाओंको अपने ग्रन्थोंमें उद्धृत किया है। प्राचार्य निर्माण-कालका काई अनुमान लगा सकें। किन्तु वीरसेनने अपनी धवला टीका शक सं० ७३८ उपर्युक्त प्रमाणों परसे लेखकने जो उस प्रथको ( विक्रम सं० ८७३) में पूर्ण की है। अतः यह वीरसेन व पूज्यपाद देवनन्दीसे पूर्व कालीन रचना निश्चित है कि पंचसंग्रह इससे पहिलेका बना सिद्ध की है वह युक्ति संगत नहीं जान परता, हुआ है।" यही नहीं, पंचसंग्रहमें एक गाथा ऐसी क्योंकि यह अनिवार्य नहीं कि वीरसेन व पूज भी है जो प्राचार्य कुन्दकुन्दके 'चरित्र प्रामृत' में पादने इसी संग्रह परसे वे गाथाएँ उद्धृत की हों। भी उपलब्ध होती है। इससे लेखकने यह निष्कर्ष जैसा कुन्दकुन्दकी रचनाओं में उसकी एक निकाला है कि 'बहुत सम्भव है प्राचार्य कुन्द- गाथा पाये जानेसे लेखकने केवल यह अनुमान कुन्दने पंच संग्रहसे उद्धृत की हो और यह भी किया है कि दोनोंमेंसे कोई भी आगे पीछे की हो . सम्भव है कि चरित्र प्राभृतसे पंचसंग्रह कारने सकती है, वैसा वीरसेन व पूज्यपाद के सम्बन्धमें उठाकर रक्खी हो। परन्तु बिना किसी विशेष भी कहा जा सकता है । पंचसंग्रहको कुन्दकुन्दसे Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [चैत्र, बीर-निर्वाण सं०२४९९ पीछेको मानने पर उसे कुछ बादका ही क्यों माना है कि पचसंग्रह कारने ही उन्हें गुणधर.भाचार्य, जाय सो भी समझमें नहीं पाता। चारित्र-पाहुड़- कुन्दकुन्द, पूज्यपाद वीरसेन आदि आचार्योंकी से उद्धरण तो तबसे लगाकर अबतक कभी भी रचना परमे ही संग्रह किया हो। यह भी होसकता किया जा मकता हैं। है कि पूज्यपाद व वीरसेन तथा पंचसंग्रहकारने ___ यदि कहा जाय कि वीरसेन व पूज्यपादने उन्हें किसी अन्य ही ग्रंथमे उद्धत किया हो । ऐसी अपनी टीकामों में वे गाथाएँ स्पष्टतः नद्धृत की हैं, अवस्थामें अभी केवल समान गाथाओंके पाये किन्तु पंचसंग्रहमें वे बिना ऐसे किसी संकेतके जानेसे पंचसंग्रहको वीरसेन व पूज्यपादसे निश्चभाई हैं इस कारण वे पंचसंग्रहकारकी मूल यतः पूर्ववर्ती कदापि नहीं कह सकते । संग्रहकारके पचनाही समझी जानी चाहियें तो यह भी यक्ति समय-निर्णय लिये कोई अन्य ही प्रबलव संगत नहीं होगा। गोम्मटसारमें भी वे सैकड़ों स्वतंत्र प्रमाणों की आवश्यकता है। विशेषकर जब गाथाएँ बिना किसी उद्धरणकी सूचनाके आई हैं कि ग्रंथकार स्वयं ही अपनी रचनाको 'संग्रह' कह जो धवलामें 'उक्तं च रूपसे पाई जाती हैं और रहे हैं तब सम्भव तो यही जान पड़ता है कि वह मदि हमें गोम्मटसारके कर्ताके समयका ज्ञान नहीं बहुतायत अन्य ग्रंथों परसे संग्रह की गई है। होता तो संभवतः उक्त तर्क सरणिसे उसके विषय- ये 'सार' या 'संग्रह' ग्रंथ प्रायः इसी प्रकार तैयार में भी यही कहा जा सकता था कि उसी परसे होते हैं। उनमें कर्ताकी निजी पंजी बहुत कम हा धवलाकारने उन्हें उद्धृत किया है। अतः गोम्मट- करती है । आश्चर्य नहीं जो उक्त पंचसंग्रह धवला सार पहिलेकी रचना है । किन्तु हम प्रामाणिकता- से पीछेकी रचना हो । उसका सिद्धान्त-ग्रंथसे से जानते हैं कि गोम्मटसारमें ही वे धवलासे कुछ सम्बन्ध होनेके कारण गोम्मटसारके समसंग्रह की गई हैं। इसी प्रकार यह असम्भव नहीं कालीन होनेको सम्भावना की जा सकतीहै। SINGERABADRDPORINTON प्रश्न [श्री रत्नेश' विशारद ] शून्य विश्व के अन्तस्तल को, ज्योति-युक्त करता है कौन ? जग-जीवन-जर्जर-सा होवे, प्राणदान देता है कौन ? अन्धकारमय हृदय-पटल में, वह अनन्त बल लाता कौन ? इस अस्थिर-मय क्रूर देह की, चंचलता को हरता कौन ? BADAUNUNDREHRSHEREKASH RESURREARINESSMEAISAIERIERIES Harior AImMOHHumnuarANATAKA Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-सम्मेलनकी परिक्षाओंमें जैन-दर्शन जल संघवी, वयातीर्थ-विशारद] विसाप्रेमी पाठकोंको मालूम है कि हिन्दी- पत्रमें जैनदर्शनका समावेश किया जाय । साहित्य सम्मेलन प्रयागकी परीक्षाओं के ___ इसके लिये पुस्तकोंकी सूची मेरे पास भेनिये। वैकल्पिक विषयों में जैन-दर्शनको भी स्थान दिखानेके लिये गत दो वर्षोंसे मैं बराबर प्रयत्न करता आ रहा भवदीयहूँ। हर्षका विषय है कि परीक्षा-समितिने अब जैन बयाशंकर दुबे, परीक्षा मंत्री। दर्शनको भी स्थान देना स्वीकार कर लिया है। इस ___ समितिके उपयुक प्रस्तावोंसे यहीभात होतो सम्बन्धमें पाये हुए पत्रकी प्रतिलिपि इस प्रकार है: कि प्रथमा परीक्षा में तो जैन-दर्शन नहीं रक्खा बापगा। प्रिय महोदय ! मध्यमाके वैकल्पिक विषयों में जैन-दर्शन रह सकेगा। जैन-दर्शनको प्रथम तथा मध्यमा परीक्षाओंके इसी प्रकार उत्तमा भी दर्शन विषयके चौथे प्रश्नपत्र में वैकल्पिक विषयों में स्थान देने के लिये हमने आपका पत्र जैन दर्शनको स्थान मिल सकेगा। परीक्षा समितिके सामने विचारार्थ उपस्थित किया था। समितिने इस संबंध निम्नलिखित निश्चय किया प्रस्तावानुसार मैंने जो पाठ्यक्रम निर्धारित किया है। उसकी प्रतिलिपि इसी निवेदन के अन्तमें दे रहा। मैंने इस कोर्सकी प्रतिलिपि पं० सुखबानी की (6) प्रथम परीक्षा के लिये एक ऐसी पुस्तक तैयार की जैनेन्द्रकुमारजी (दिल्ली), पं. नाथरामजी प्रेमी, पं. जाय जिसमें सार्वभौमिक धर्म भच्चे रूपसे छोटे बच्चों योमाचन्द्रजी भारिस्त भादि अनेक विद्वानों की सेवामें के सामने रखा जाय और जिसमें भारतमें प्रचलित भी भेजी है। अब सभी शिक्षा-प्रेमी सजनों एवं अन्य भिन्न भिन्न धर्मों के विशेष प्राचार्योंके वाक्यांश उधृत पाठक महानुभावोंकी सेवामें इसे समाचार पत्रों द्वारा हो । पुस्तक प्रकाशनके संबंध यह प्रस्ताव साहित्य पेश कर रहा हूँ। आशा बिजन इस पर अपनी समिति के पास भेजा बाप । बहुमूल्य सम्मति एवं संशोधन भेजने की कसा करेंगे। (२) मध्यमा परीक्षामें इस विपकी पुस्तकोंको जिससे कि मैं इसे अंतिम रूप देकर मामाविक रूपसे स्थान देने संबंध में भी संपनीजीसे पहा बाय कि सम्मेलन के अधिकारियों को भेज सई । कौनसी पुस्तक निर्धारित करना चाहते हैं। पुस्तक रजिस्ट्रार परी विमागके पत्र नं. १०२२ द्वारा ऐसी होनी चाहिये जिसमें विवादास्पद विषय न हों। ज्ञात हुआ है कि जैन-दर्शनका समावेश संवत् १८ (१) उसमा परीक्षाके वर्णन-विषयक चौये प्रश्न- हो सकेगा । इसी प्रकार पत्र नं. १५३०. द्वारा Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्माण सं०२४१६ मुझे मषित किया गया है कि पाठ्यक्रममें निर्धारित बानने योग्य खास खास प्राचार्योंके जीवन चरित्रोंका पुस्तकोंकी तीन तीन प्रतियां भी सम्मेलन कार्यालय में भी इसमें समावेश है। एवं तीनों संप्रदायोंके समाचार मिक्वाइयेगा । क्योंकि इन पुस्तकोंकी जोर परतावा पत्रोंका पठन की भावश्यक माना गया है, इससे परीक्षा समिति करेगी। विना पुस्तकोंके देखे परीक्षा- परस्परकी स्थिति एवं भावनामों का शान भी पात्रोंको समिति पाठयक्रममें स्थान नहीं दे सकेगी । अतः जिन हो सकेगा । आशा है कि विद्वान् महानुभाव इस प्रकाशकोंकी पुस्तकें पाव्यकममें निर्धारित हों उन्हें रष्टिकोण का विचार करते हुए अपना संशोधन और सूचना पर उनकी तीन तीन प्रतियां शीघ्र भेजने अपनी बहु मूल्य सम्मति निम्न पते पर ।। मई तक श्रीक्षण करनी चाहिये । पुस्तकें मध्यमा और दर्शन- भेजनेकी कृपा करेंगे, जिससे कि मईके अंतिम सप्ताह रल पातु मरन-पत्रकी भेजना होंगी। तक सम्मेलन-कार्यालयमें पाब्यामकी अन्तिम रूपरेखा _ 'पाठ्यक्रम सरल और महत्वपूर्ण हो,' यही एक भेजी जा सके। टिकोण एक्खा गया है। क्योंकि मध्यमामें जैनएनके साथ अन्य दो विषय और भी रहेंगे। अतः पता-रतनलाल संघवी, पो० छोटी सादड़ी (मेवाद) सरल होने पर ही जैन छात्र एवं अन्य जैनेतर छात्र इस वाया नीमच। और पाकर्षित हो सकेंगे। अन्यथा जटिल होनेकी दशामें यह प्रयास और ध्येय व्यर्थ ही सिद्ध होगा। पाठ्य-क्रम मध्यमा परीक्षा यह स्पष्ट ही है कि यदि जैन दर्शनका पाठ्यक्रम बटित प्रथम प्रश्नपत्र होगा तो पात्र इसे न चुन कर किसी अन्य वैकल्पिक पाठ्य ग्रंथ-1 कर्म-ग्रंथ पला भाग भूमिका सविषय का चुनाव कर मेंगे । इस लिये सरलता किन्तु हित (गाथाएं कंठस्थ नहीं) पं० सुखलालजी कृत मा. महत्याका याब रख करके ही यह पाठ्यक्रम बनाया गरा वाला। गया है। इसी प्रकार इसमें श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों २ जैन-सिद्धान्त प्रवेशिका ( प्रथम अध्याय और सके ग्रंथोंको स्थान दिया गया है, जिससे कि यह प्रश्न ३०८ मे ३३६ तक छोड़कर) पं० गोपालदासजी एक पदीय न होकर सार्वदेशिक जैन-दर्शनका प्रति- बरैया कृत। निधित्व करता है। इससे परस्परमें सांप्रदायिक भाव- सहायक ग्रन्थ- श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र मानों के स्थान पर एक ही बैनत्वकी भावनाओंका (बैरिस्टर चम्पतरायजी कृत) हिन्दी अनुवाद । पाचोंमें प्रसार होगा तथा कटुताके स्थान पर मातृत्व २ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय (श्री अमृतचंद्र स्वामी) भावना और विशालताका फैलाव होगा। हिन्दी अनुवाद-श्री नाथरामजी प्रेमीवाला । इस पाठ्यक्रममें जैन दर्शन-सम्मत तत्ववाद, अन्य- ३ स्थाबाद भौर सप्तभंगीका साधारण भावश्यक बाद, गुरुस्थानवाव, कर्मवाद, भहिंसावाद, रत्नत्रयवाद, ज्ञान । प्रमाण-नववाद, स्याद्वाद आदि मावि मूलभूत सिद्धान्तों अंकोंका क्रम-पाव्य ग्रंथ .. अंक और सहा पावश्यक और महत्वपूर्ण विवेचन भागया है। पक ग्रंथ ३० अंक । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ] साहित्य सम्मेलनकी परिकामों में बैन-दर्शन 00000 द्वितीय प्रश्न पत्र २ प्रमाय मीमांसाकी हिन्दी टिप्पणियां (4. पाठ्य ग्रंथ- तत्वार्यसूत्र हिन्दी (पं० सुख- सुखचालजी) खासजी) मासमीमांसा मूब (मी समंतभद्राचार्य) २-अन्य संग्रह-हिन्दी (नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती) अलंक-पत्रयकी प्रस्तावना । अनु० ५० पसालाबजी। (पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य) . सहायक ग्रंथ-निर्ग्रन्थ प्रवचन (गाथाएँ कंठ ५सूत्र कृतांग, हिन्दी (स्थानकवासी फेन्स स्थ नहीं) मुनि श्री चौथमनजी संग्रहीत । वाला) '२-कुन्दकुन्दाचार्य, समन्तभद्र, अकलंकदेव, प्रभा चन्द्र, नेमिचन्द्र आदिका जीवन चरित्र (संचित) वीर पाठावलि (कामताप्रसादजी कृत) के आधारसे अथवा अन्य पाधारसे। ___ मोट-इस लेख में जो पाठ्यक्रम दिया है यह सभी ३-सिद्धसेन दिवाकर, उमास्वाति, हरिभद्र, हेम बहुत कुछ विचारणीय है उसमें कितनी ही त्रुटियाँ मान चंद्र, यशोविजय भादिका जीवन चरित्र- (भनेकांत वर्ष पड़ती है। दिगम्बर और श्वेताम्बर सभी शिक्षा शात्रियों २ और ३ की फाइलोंके माधारसे) को उस पर गंभीरताके साथ विचार करना चाहिये, परीक्षार्थियोंको जैन समाजकी सामयिक स्थितिका और अपना अपना संशोधन यदि कुछ हो तो उसे ज्ञान प्राप्त करनेके लिये निम्न लिखित पत्र पत्रिकाओं शीघ्र ही उपस्थित करना चाहिये । साथ ही पाठ्यक्रम का अध्ययन करते रहना चाहिये:-, अनेकांत (न्यू को निर्धारित करते समय परीक्षा समितिके इस प्रस्ताव देहली) २ जैन मित्र (सूरत) ३ जैन संदेश (आगरा) ४ वाक्य पर खास तौरसे ध्यान रखना चाहिये किजैन (भावनगर) ५ जैन प्रकाश (बम्बई) ६ जैन "पुस्तक ऐसी होनी चाहिये जिसमें विवादास्पदयुग (बम्बई) विषय न हो।" बाकी यह अपील संयोजक महोदयकी ___ अकोंका क्रमः - पाव्यय ग्रंथ ७० अंक और सहा बहुत समुचित है कि जिन प्रकाशकोंकी पुस्तकें पठनयक ग्रंथ तथा पत्र पत्रिकाओंका अध्ययन ३० अंक क्रममें रखनेके लिये परीक्षा समितिको भेजनेकी जरूरत उत्तमा परीक्षा हो उनकी तीन तीन कापियाँ वे सूचना पाते ही मेव दर्शन-विषयक चतुर्थ प्रश्नपत्र देनेकी कृपा करें और इस तरह इस शुभ कार्यमें अपना , "स्याद्वादमंजरी-हिन्दी-(श्री जगदीशचन्दजी सक्रिय सहयोग प्रदान करें। संपादित) -सम्पादक Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरका जीवन-मार्ग .-भी अबभगवान बैन, बी. ए. एस एल. बी. पकीय] जीवनकी विकटता: है, कितना वेदनासे भरा है। उसके लिये कैसे कैसे आघात-प्रघात सहन करता है ! कैसी २ बाधाओं विपजीवन सुनहरी प्रभातके साथ उठता है, अरुण दाओं से गुजरता है ! परन्तु यह सब हुछ होने पर भी सूर्यके साथ उभरता है, उसके तेजके साथ सिद्धिका कहीं पता नहीं। यदि भाग्यवश कहीं सिद्धि खिलखिलाता है, उसकी गतिके साथ दौड़ता-भागता है, हाथ भी आई तो वह कितनी दुःखदायी है। वह प्राप्तिउसकी संध्याकी छायाके साथ लम्बा हो जाता है और कालमें श्राकुलतासे अनुरजित है, रक्षाकालमें चिन्तासे उसके अस्त होने पर निश्चेष्ट हो सो जाता है। संयुक्त है और भोगकालमें क्षीणता और शोकसे प्रस्त सुबह होती है शाम होती है, है। इसका प्रादि, मध्य और अन्त तीनों दुःख पूर्ण उम्र यों ही तमाम होती है। हैं ! यह वास्तवमें सिद्धि नहीं, यह सिद्धिका आभासतो क्या श्रम और विश्राम ही जीवन है ! काम मात्र है । इस सिद्धिमें सदा अपर्णता बसती है। यह और अर्थ ही उद्देश है ? साँझ-सवेर-वाला ही लोक सब कुछ प्राप्त करने पर भी रङ्क है, रिक्त है, वाँछा बदि यों ही श्रम और विश्रामका सिलसिला बना यह ज़िन्दगी दो रंगी है । इसकी सुन्दरतामें कुरूरहता, यदि यों ही काम और अर्थका रंग जमा रहता पता बसती है । इसके सुखमें दुःख रहता है। इसकी तो क्या ही अच्छा था । जीवन और जगत कमी प्रश्नके हँसीमें रोना है। इसके लालित्यमें भयानकता है। विषय न बनते । परन्तु जीवन इतनी सीधी-साधी चीज इसकी प्रासक्तिमें अरूचि है। इसके भोगमें रोग है, नहीं है। माना कि इसमें सुस्वप्न है, कामनायें है, योगमें वियोग है, विकास में हास है, बहारमें खिजाँ है, प्राशायें हैं, पर अत्यन्त रोचक, अत्यन्त प्रेरक हैं। जी यौवनमें जरा है । यहाँ हर फूल में शूल है, इतना ही चाहता है कि इनके पालोकमें सदा जीवित रहे, परन्तु नहीं यह समस्त ललाम लीला, यह समस्त उमंगभरा इन ही के साथ कैसे कैसे दुःस्वप्न है, असफलतायें है, जीवन, यह समस्त साँझ सवेर वाला लोक मृत्युसे निराशाय है, विषाद है। यह कितने कटु और पिना व्यास है। बने। जी चाहता है कि इनके बालोकसे छुपकर जीवन के मूल प्रश्न:कोयला जाये। यह देख दिल भयसे भर आता है, अनायास कितना खेद है कि जीवनको कामना मिली पर संकायें उठनी शुरू होती है। क्या यह ही लोक है जहाँ सिद्धि न मिली ! उस सिद्धि के लिये यह कितना पातुर कामना का तिरस्कार है, आशाका अनादर है, पुरुषार्थ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरका बीवन-मार्ग की विफलता है ? क्या यह ही जीवन है जहां हजार बना है । जिन्हें सिद्ध करते करते यह इतना अभ्यस्त हो प्रयत्न करने पर भी सन्तुष्टिका लाभ नहीं, और हजार गया है कि वे जीवनके मार्ग, जीवनके उद्देश्य ही बन रोक थाम करने पर भी अनिष्ट अनिवार्य है? क्या यह ही गये हैं। इसीलिये यह आशायुक्त होते हुए भी पाशाउद्देश है कि सुखकी लालमा रखते हुये दुःखी बना रहे, हत है। पुरुषार्थ होते हुए भी विफल है। सिद्धि की चाह करते हुये वाञ्छासे जकड़ा रहे, जीवन इन भूल, अज्ञान और मोहके कारण यद्यपि की भावना भाते हुये मृत्युमें मिल जाये ? क्या इसीके जीवने अपने वास्तविक जीवनको भुला दिया,उसे बन्दी लिये चाह और तृष्णा है ? क्या इसीके लिये उद्यम और बना अन्धकूपमें डाल दिया, परन्तु उसने इसे कभी नहीं पुरुषार्थ है ? क्या इसीके लिये संघर्ष और प्राणाहुति भुलाया, वह सदा इसके साथ है। वह घनाच्छादित सूर्यके समान फूट २ कर अपना श्रालोक देता रहता इसपर एक छोटीसी आवाज़ बोल उठती है, नहीं! है। वह इसके सुस्वप्नोंमें बस कर, इसकी अाशात्रोंमें यह मन-चाहा जीवन नहीं, यह तो उस जीवनकी पुकार बैठकर, इसकी भावनाओंमें भरकर इसके जीवनको है, ढूंढ है, तलाश है, उस तक पहुंचनेका उद्यम है, सुन्दर और सरस बनाता रहता है। वह अन्तगुफामें उसे पाने का प्रयोग है। इसीलिये यह जीवन असन्तुष्ट बैठकर मृदुगिरासे आश्वासन देता रहता है । 'तू यह और अशान्त बना हैं; उद्यमी और कर्मशील बना है, नहीं, त और है, भिन्न है, तेरा उद्देश इतना मात्र नहीं, अस्थिर और गतिमान बना है। वह बहुत ऊँचा है,तेरा यह लोक नहीं,तेरा लोक दूर है, पुनः शंका आ डटती है। यदि ऐमा ही है तो परे है ।' जीवन अपने पुरुषार्य में मफल क्यों नहीं होता ? यह इस अन्तःप्रतीतिसे प्रेरित हुआ जीव बार बार पुरुषार्थ करते हुये भी विफल क्यों है ? अाशाहत क्यों प्राणोंकी श्राहूति देता है, बार २ मरता और जीता है, है ? खेद खिन्न क्यों है ? बार बार पुतलेको घड़ता है, बार बार इसे रक्तक्रान्ति इसका कारण पुरुषार्थकी कमी नहीं, बल्कि सद् वाले मादकरससे मरता है, बार बार इसके द्वारोंसे लक्ष्य, सद्शान, सदाचारकी कमी है । जीवनका समस्त बाहिर लखाता है। परन्तु बार २ इसी नाम रूप कर्मा. पुरुषार्थ भलभ्रान्तिसे ढका है, अज्ञानसे श्राच्छादित है, त्मक जगतको अपने सामने पाता है, जिससे यह चिरमोहसे ग्रस्त है । इसे पता नहीं कि जिस चीज़की इसमें परिचित है। बारर यह देखकर इसे विश्वास हो जाता भावना बसी है वह क्या है, कैसी है, कहाँ है । इसे है-निश्चय हो जाता है कि यही तो है जिसकी हमें पता नहीं कि उसे पानेका स्या साधन है । उसे सिख चाह है, यही है जो इसका उद्देश है। इसके अतिरिक्त करनेका क्या मार्ग है । यह पुरुषार्थ जीवनको उस और कोई जीवन नहीं, और कोई उद्देश नहीं, और मोर नहीं ले जारहा है जिस ओर या जाना चाहता कोई लोक नहीं । परन्तु ज्यों ही यह धारणा पारकर यह है । उस चीज़की प्राप्तिमें नहीं लगा है जिसे यह नाम-रूप कर्मात्मक जीवन में प्रवेश करता है फिर वहीं प्राप्त करना चाहता है। यह केवल परम्परागत मार्ग. विफलता, वही निराशा, वही अपूर्णता या उपस्थित का अनुयायी बना है, उन्हीं सदीक पदार्थोका साधन होती है। फिर वही भय फिर वही शंका,फिर वही प्रश्न, Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४१॥ उठने शुरू होते हैं । क्या दुःखी जीवन ही जीवन है ? तन्द्रा और म को अपनाया, माम-मैथुन-मदिराको क्या मरणशील जीवन जीवन है ? यदि यह नहीं ग्रहण किया । अनेक आमोद-प्रमोद, हँसी-मज़ाकके तो जीवन क्या है ? उद्देश क्या है ! फिर वही तर्क उपाय निकाले । अनेक खेल कूद और व्यसन ईजाद वितर्क, फिर वही मीमांसा दुहरानी शुरू होती हैं। किये, परन्तु दुःखने साथ न छोड़ा। प्रश्न हल करनेका विफल साधन: यह देख उद्योग मार्ग पर अधिक जोर दिया। जीवने इन प्रश्नोंको हल करनेके लिये बुद्धि-ज्ञान १ अनेक उद्योग धन्धे, अनेक काम काज अनेक व्यवसाय से बहुत काम लिया, उसके पर्याप्त साधनों पर-इन्द्रिय बनाये । इनमें उपयुक्त रहना ज़रूरी माना गया, बेकार और मन पर बहुत विश्वास किया, इन्हें अनेक प्रकार रहनेसे बेगारमें लगे रहना भला समझा गया; परन्तु उपयोगमें लाकर जीवन तथ्य जानने की कोशिश की. दुःखका अन्त न हुश्रा। परन्तु इन्होंने हमेशा एक ही उत्तर दिया कि 'लौकिक इसपर मनुष्यने विचारा कि सुख दुःख काल्पनिक जीवन ही जीवन है, शरीर ही श्रात्मा है, भोग रस ही नहीं हैं। दुःख भुलाने से नहीं भुलाया जा सकता सुख है, धन धान्य ही सम्पदा है, नाम ही वैभव है, और सुग्व कल्पना करने से सिद्ध नही हो सकता। यह रूप ही सुन्दरता है; भौतिक बल ही बल है, सन्तति ही वास्तविक है, परन्तु यह अपने श्राधीन नहीं, बाह्य लोक के आधीन है, जगतकी प्राकृतिक शक्तियों के आधीन अमरता है। इन्हें ही बनाये रखने, इन्हें ही सुदृढ़ है, शक्तियोंके अधिष्टाता देवी-देवताओंके आधीन है। बलवती करने, इन्हें ही सौम्यसुन्दर बनानेका प्रयत्न करना चाहिये । जीवनका मार्ग प्रवृत्ति मार्ग है;प्रकृति के देवी देवता महा बलवान हैं, अजयी हैं, अपनी मर्जीके नियमानुसार कर्म करते हुये, भोगरस लेते हुये विचरना मालिक हैं । इनका अनुग्रह हासिल करनेके लिये इन्हें ही जीवन-पथ है । और सुखदुःख ? सुखदुःख स्वयं कोई पूजा-प्रार्थना, स्तुति-वंदना, यज्ञ-होम से सन्तुष्ट करना चीज़ नहीं है, यह सब वाह्य जगतके श्राधीन हैं। इसीकी चाहिये । यह सोच मनुष्यने याज्ञिक मार्गको ग्रहण कल्पनामें रहते हैं, इसे दुःखदायी कल्पित करनेसे किया, परन्तु इष्ट फलकी सिद्धि न हुई । जगत ज्योंका दुःख और सुखदायी कल्पित करनेसे सुख पैदा होता । त्यो अन्ध, स्वच्छन्द, विवेक हीन बना रहा । वह है। अतः दुःखदायी पहलको भुलाने और सखदायी उपामक और निन्दकमें, अच्छे और बुरेमें कोई भेद पहलमें मग्न रहने का अभ्यास करना चाहिये ।' न कर सका, उसका उपकार है तो सबके लिये, उसका इस बुद्धि अनुसार दुःखको भुलाने और सुखको अनुभव करने के लिये जीवने क्या कुछ नहीं किया। ____ तब मनुष्य ने इन मार्गोको निरर्थक मान स्वावलअनेक पहलू बदले, अनेक मार्ग ग्रहण किये; परन्तु कुछ ___म्बनका श्राश्रय लिया। पूजा-प्रार्थनाको छोड़ जगतभी न हुश्रा, प्रश्न ज्योंके त्यो खड़े रहे ! शक्तियोंको बलपूर्वक अपने वश करनेका इरादा किया। शुरू शुरू में तान्त्रिक मार्गको श्राजमाया। देवी जीपनके विफल मार्गः देवताओंको विजय करने के लिये अनेक मन्त्र, तन्त्र, जीवने अज्ञान मार्गका आश्रय लिया। निद्रा, यन्त्र ईजाद किये । शरीरको दृढ़ बलिष्ठ करने के लिये, Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीका जीवन-मार्ग .. ऋद्धि सिद्धि प्राप्त करनेके लिये अनेक योगिक कर्म सहयोग सहमन्त्रणाको धर्म बनाया । संयम सहिष्णुता, मालूम किये । परन्तु मूल प्रश्नका हल न हुआ। दान-सेवा, प्रेम-वात्सल्यका पाठ पढ़ा, परन्तु सुख शांति इन्हें विफल जान विज्ञान मार्गको अपनाया, अनेक का राज्य स्थापित न हुआ, पाप अत्याचारका अन्तन विद्याओं और आविष्कारोंको उत्थान मिला । प्रकृतिकी हुश्रा, मारपीट, लूट खसोट, दलन मलनका प्रभाष न शक्तियोंको निर्यातक बनाने और काममें लाने के लिये हुआ। दीन-हीन, दुःखी-दरिद्री, दलित-पतित बने ही अनेक दंग मालूम किये। नगर और ग्राम बसाये, रहे । ऊँच नीच, छोटे बड़ेके भाव जमे ही रहे। दुर्ग और प्रासाद खड़े किये, खाई और परकोट रचे, तब विचार उत्पन्न हुआ कि यह नीतिका मार्ग अनेक औषधि, रसायन और उपचार प्रयोगमें लाये नहीं, यह नीतिका अभाव है। इसमें सत्याग्रह, साम्यता परन्तु रोग-शोक, जन्म-मरणका बहिष्कार न हुआ, और अहिंसाका अभाव है। इसका उद्देश परमार्यअानन्दका लाभ न हुआ, सुन्दरताका श्रालोक न सिद्धि नहीं, स्वार्थ सिद्धि है। इसका रचयिता सद्शान हुआ। नहीं, बुद्धि चातुर्य है। इसका आधार अन्तः उद्धार इस कमीको पूरा करने के लिये शिल्पकलाकी ओर नहीं, बाझ उपयोगिता है (Utahtarianism) ध्यान दिया, बस्तियोंको उद्यान-बाटिका, ताल-बावड़ी की उत्पत्ति पूर्णतामें से नहीं हुई, यह वांछाकी सृष्टि है। चौक-राजपथसे सजाया, भवनोंको खम्भ, तोरण, शिखर, इसलिये यह अपने ही संघ, जाति, सम्प्रदाय और देश उत्तालिकाओंसे ऊँचा किया । इन्हें फल फुलवाड़ी, मूर्ति में सीमित होकर रह जाती है । इससे बाहिर समस्त लोक चित्रकारीसे सुशोभित किया । शरीरको वस्त्राभूषण, तेल अनीतिका क्षेत्र है । यह नीति मानव-गौरवको वस्तु नहीं, फुलेल, रूपगारसे अलंकृत किया । इस मार मार, यह तो चोर डाकुत्रों के संघमें मी मौजूद है, कर पशु घसाघसीमें नृत्य संगीत, नाटक-वादित्र भरकर जीवनको पक्षियों के समूहमें भी मिलती है। सरस बनाया, परन्तु जीवनकी कुरूपता, भयानकता, इस प्रकार जीवने बुद्धि-द्वारा जीवन-तथ्यको समजड़ताका अन्त न हुआ । भनेकी अनेक विध कोशिश की; इसके साधनोंको अनेक तब मनुष्यने व्यक्तिगत परिश्रमको निर्बल जान, विध प्रयोगमें लाया, इसके बतलाये हुये तथ्योंको अनेक पुरुषार्थको संगठित करनेका विचार किया, अनेक विध स्वीकार किया, इसके बताये हुये जगको अनेक संस्थायें व्यवस्थायें स्थापित हुई,अनेक संघ और समाज विध टटोला, इसके सुझाये हुये मार्गोको अनेक विष बने, अनेक सभ्यता और साम्राज्य उदयमें आये । कभी ग्रहण किया; परन्तु वाँछाकी तृप्ति न हुई । वेदना बनी जाति को, कभी संस्कृतिको, कभी देशको इनका आधार ही रही, पुकारती ही रही। बनाया । परन्तु यह संगठित शक्ति भी प्रकृतिके अनिवार्य तब कहीं निश्चित हुश्रा कि बुद्धि निरर्थक है। उत्पातोंका, शरीरके स्वाभाविक रोगोंका, मनकी व्यथा इसकी धारणा मिथ्या है। इसका मार्ग निष्फल है। व्याधियोंका जन्म-मरण रूप संसारका अन्त न कर इसका जग वांच्छित जग नहीं। यह और है और वह सकी। कोई और है। इसजगकी सिद्धिमें सुख नहीं, इसकी आखिर मनुष्यकी दृष्टि नीति मार्गकी ओर गई। असिद्धिमें दुःख नहीं, सुख और दुःख इस जगसे निपेंच Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [क्षेत्र, पीर-निबार सं० है। इसकी कल्पना पर निर्भर नहीं, इसके विधाता इष्ट जीवनका स्वरूपःके अधीन नहीं। वे जगको, जगकी शक्तियोंको, शक्तियों के अधिधातृ देवी देवताओंको विजय करके, व्यवस्थित जीव जीवन चाहता है, ऐसा जीवन-जो निरा करके, खुश करके वश नहीं किये जा सकते । मुख-दाल अमृतमय है, जिसमें जन्म-मरणका नाम नहीं, जो किसी और ही सिद्धि प्रसिद्धि में बसे हैं। सर्वथा स्वाधीन है, जिसे अन्य अवलम्बकी ज़रूरत नहीं जो अत्यन्त घनिष्ठ है, श्रोत प्रोत और एक है, जीवन के प्रश्न हल करनेका वास्तविक साधन:- जो तनिक मी जुदा नहीं, जो अत्यन्त निकट है, लय ...फिर वह कौनसी चीज़ है जिसकी प्रसिद्धि में जीवन - रूप और समाया हुआ है, जिसे ढूंढनेकी जरूरत नहीं जो अत्यन्त साक्षात, ज्योतिमान जाज्वल्यमान है, जिसे दुकी है और जिसकी सिद्धिसे यह सुखी हो सकता है। देखने जाननेको जरा भी वेदना नहीं, जो अत्यन्त इसके लिये वाञ्छाको ही पूछना होगा, कि ऊंचा और महान है जिससे परे और कुछ भी नहीं, चाखिर वह क्या चाहती है। उसीके लोकको टटोलना . " जो अत्यन्त तेजस् और स्फुर्तिमान है; जिसकी उड़ानमें होबा, हाँ वह रहती है। उसीकी वेदनामयी अनक्षरी __ काल क्षेत्र दिशा कोई भी बाधक नहीं, जो अत्यन्त भाषाको सुनना होगा, जिसमें वह पुकारती है । उसीके सुन्दर और मधुर है, ललाम और अभिराम है, जो भावनामयी अर्थको समझना होगा जिसमें वह अपनी खुद अपनी लीलामें लय है, मस्तीमें चर है, शोभामें रूप रेखा प्रगट करती है। इसके लिये बुद्धि शान सर्वथा निमग्न है । जोसब तरह सम्पूर्ण-परिपूर्ण है जिसमें किसी अपर्यास है। असमर्थ है । यह काम उस प्रकाश द्वारा चीन की वाञ्छा नहीं, रंकता और रिक्तताका भाव नहीं; हो सकता है जो अन्तः लोकका द्योतक है, अन्तर्गुफा जो सर्वभू है, सर्वव्यापक है, अनन्त है, सबमें है, में बैठी हुई सत्ताको देखने वाला है, उस ज्ञान द्वारा सब उप्तमें हैं, पर जिसमें अपने सिवा कुछ भी नहीं । जो जोसहज सिद्ध है, स्वाभित है, प्रत्यक्ष है, उस ज्ञान द्वारा । निर्मल, निर्दोष, परिशुद्ध है, परके मेलसे सर्वथा दूर है; जिसे अन्तर्शन होने के कारण मनोवैज्ञानिक Intuition जो केवल वह ही वह है। काले हैं। जिसे अन्तः पुकार सुननेके कारण समात्मवादी श्रुतशान कहते हैं, जिसकी अनुभूति यह है जीवका इट जीवन, यह है जीवका वास्त'पुति नामसे प्रसिद्ध है। विक उद्देश । इसके प्रति कभी भय पैदा नहीं होता, कभी शंका पैदा नहीं होती, कभी प्रश्न पैदा नहीं होता। इस शानको उपयोगमें लगानेके लिये साधकको प्रश्न उसी भावके प्रति होता है जो अनिष्ट है, जैसे बान्त चित्त होना होगा। समस्त विकल्पों और दिवधाओं पाप, दुःख और मृत्यु । इसीलिये ये सदा प्रश्नके से, अपनेको पृथक करना होगा, निष्पक्ष एक रस हो विषय बने रहे हैं। परन्तु इष्टके प्रति कभी आशंका पछुना होगा-- "जीवन स्या होना चाहता है और नहीं उठती कि “जीवन सुखी क्यों है ? जीवन अमर सा होने से डरता है। इस प्रश्नके उत्तरमें उठी हुई क्यों है ?" क्योंकि इष्ट जीवन श्रात्माका निज धर्म है, अनानिको सुनना होगा। निज स्वभाव है। आत्मा इसे निज स्वरूप मानकर Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीरका जीवनमार्ग स्वीकार करता है, उसकी प्राप्ति की सदा भावना रखता शून्य पद है, युक्तिपद है, निर्वाण पद है, इसे पा फिर है । इसलिसे यह विवादका विषय नहीं, समस्याका विषय छोड़ना नहीं होता, यह अच्युत पद है। नहीं । यह आसक्ति का विषय है, भक्ति का विषय है, यद्यपि यह जीवन सर्वथा अलौकिक है, अद्भुत और सिद्धि का विषय है। अनुपम है । यह शरीर, इन्द्रिय और मन से दूर है । ___ यह इसीका आलोक है जिसे देखनेको जीवन तरस इस लोककी वस्तु नहीं। परन्तु भूल, अशान, मोहके रहा है, जिसे पानेको वाञ्छानों से घिरा है, जिसे सिद्ध कारण कस्तुरी मृगके समान, यह जीव इसकी धारणा करनेको उद्यम और पुरुषार्थ से भरा है। यह इसीका जगत में करता है, इसे व्यर्थ ही वहाँ हूँढता है, पालोक है जो जीवनको दुःखदर्द सहनेको दृढ बनाता वहाँ न पाकर व्यर्थ ही खेद खिन्न होता है। है, आपद-विपदात्रों में से गुज़रनेको साहसी बनाता है, असफलता निराशाओंके लाँघने को बलवान बनाता इष्ट जीवन साध्य जीवन है :है, मर मर कर जिन्दा रहने को समर्थ बनाता है। इस भोले जीव को पता नहीं कि, वह चीज़ जिस यही वास्तव में निर्बलका बल है। निराशामयकी श्राशा का श्रालोक इसे उद्विग्न बना रहा है, बाहिर नहीं है। निस्सहायका सहारा है। दीन-दलितका दिलासा है, अन्दर है । दूर नहीं, निकट है। दौरंगी नहीं,एक रस है। जीवनका जीवन है । इस श्रालोकके बिना जीवन एक यह जीवन स्वयं प्रात्मलोक में बसा है। प्रात्माकी निरी दुःख-दर्द भरी कहानी है। इसका श्राखोक ही अपनी अन्तर्वस्तु है यह इसमें ऐसी ही छिपी है जैसे अनजीवनके लिये हित अहित, सत्य-अमत्य, हेय-उपादेयका गढ पाषाणमें मूर्ति, बिखरी रेखाओं में चित्र, वीणाके चुपनिश्चय करता रहता है; युक्त अयुक्त, उचित अनुचित, चाप तारों में राग, अचेत भावना में काव्य ये भाव जब कर्तव्य-अकर्तव्यका निर्णय करता रहता है; हित-प्राप्ति तक इन पदार्थों में अभिव्यक्त नहीं होते, दिखाई नहीं अहित-परिहारके लिये प्रेरणा करता रहता है। यही देते, ये वहाँ सोये पड़े रहते हैं। बाहिरसे देखनेवालों जीवनका निश्चयकार है, निर्णयकार है, प्राजाकार है, को ऐमा मालूम होता है कि यह भाव मिन है, और स्वामी है, ईश्वर है, विधाता है। यह पदार्थ भिन्न है, यह भाव और हैं. वह पदार्थ और यदि यह जीवन एकबार मिल जाये तो और कुछ है। ये भाव महान है, विलक्षण हैं, दूर है, और वह पदार्थ पाना बाकी नहीं रहता, यह परमार्थ पद है, परमेष्टि तुच्छ है, हीन है साधारण है । भला इनका उनसे क्या पद है । इसे सिद्ध कर और कुछ सिद्ध करना शेष नहीं सम्बन्ध, क्या तुलना ? ऐसे ऐसे इन पर हजार न्योरहता, यह सिद्ध पद है, कृत्कृत्य पद है। इससे परे छावर हो सकते हैं। ये भाव दुर्लभ है, अमूल्य है। इससे ऊपर और कुछ नहीं रहता । यह परमपद है, अमाध्य हैं, अपाप्य हैं। परमात्म-पद है । इसे पा समस्त विकल्प, द्विधा, परन्तु ये भाव इन पदार्थोसे ऐसे भिन्न नहीं, ऐसे वाञ्छा, तृष्णाका अन्त होजाता है यह कैवल्य दूर नहीं कि वह इनमें प्रगट ही न हो सकें। उनकी पद है। इसकी प्राप्ति में समस्त वेदना, संजा, विभिन्नता जरूर है परन्तु वह विमित्रता वास्तविक संस्कार, विज्ञान, और रूपका अभाव होनाता है. यह विभिनता नहीं, यह केवल अवस्थाकी विभिनता है। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकान्त [क्षेत्र, बीर-विचाय संस उनकी दूरी क्षेत्रकी दूरी नहीं वह केवल दुर्व्यवस्थाकी पूर्ण मानन्दमय है, शुद्ध-बुद्ध निरंजन है। इनके स दूरी है। यदि विधिवत् पुरुषार्थ किया जाय तो वे भाव म्मिलनकी भावना केवल एक सुन्दर स्वप्न है, एक इनमें उदय हो सकते हैं। इनमें सिद्ध हो सकते हैं। सुविचार है, जो भक्तिका विषय हो सकता है, प्राप्तिका जब पाषाण, उत्कीर्ण होजाता है, वह पाषाण नहीं। इसकी प्राप्ति नितान्त असम्भव है। इसकी वाचा नहीं रहता, वह मूर्ति बन जाती है। वह कितनी मान- ऐसी ही मूढ और उपहास-जनक है जैसी कि चन्द्रनीय और श्रादरणीय है ? जब रेखायें सुन्यवस्थित हो प्राप्ति की। जाती है, वे रेखायें नहीं रहतीं वे चित्र बन जाती हैं। एक ओर अन्तर्वेदना इसके आलिंगनको उत्सुक वे कितनी रोचक और मनोरञ्जक हैं। जब मूकतार है,दूसरी ओर बाह्य प्रतीति इसे छुड़ानेको उद्यत है कैसी मंकार उठता है, वह तार नहीं रहता, वह राग बन उलझन है। न अप्राप्य है न प्राप्य है ! क्या किया जाता है, वह कितना मधुर और सुन्दर है। जब भा- जाये ? कर्तव्य-विमूढ-हृदय इस विस्मयमें डबकर रह बना मुखरित हो उठती है, वह भावना नहीं रहती । वह जाता है । शिर भक्तिसे झुककर झम जाता है और काव्य बन जाता है, साक्षात् भाव बन जाता है। वह कण्ठ अनायास गुञ्जार उठता है 'तु तु ही है' तु तु ही कितना महान और स्फुर्तिदायक है। • इस पाषाण और मूर्तिमें, इम रेखा और चित्रमें क्या वास्तवमें इष्ट जीवन इस जीवनसे नितान्त इस तार और रागमें, इस भावना और भावमें कितना भिन्न है ? क्या इस जीवन के लिये परमार्य जीवन असाअन्तर है। दोनोंके बीच अलक्ष्यता, मूर्छा, अव्यवस्था ध्य है ! नहीं । इष्ट जीवन इस जीवनसे भिन्न ज़रूर है, को अगाध मरुस्थल है । जो धीर अपनी अटल लक्ष्यता दूर ज़रूर है परन्तु ऐमा भिन्न नहीं, ऐमा दूर नहीं कि शान और पुरुषार्थसे इस दूरीको लाँघकर, इस सिरेको इनका सम्मेलन न हो सके । इनका भेद वस्तु-भेद नहीं इस सिरेसे मिला देता है वह कितना कुशल कलाकार है, केवल अवस्था भेद है । यह जीवन मूछित है-अचेत है। वह भूरि भरि प्रशंसा और पादरका पात्र है । चंचल है, वह जागृत है सचेत है, यह सिद्ध है वह सिद्ध है, लक्ष्मी उसके चरणोंको चूमती है, और घातक काल यह भावनामयी है वह भावमय है। यह वेदना है वह उसकी कीर्तिका रक्षक बनता है। वेदना की शान्ति है,यह वाँछा है वह वाँछाकी वस्तु है, जीवन भी एक कला है । जब तक यह आत्मामें यह उद्यम है वह उद्यमका फल है । इनकी दूरी क्षेत्रकी अभिव्यक्त नहीं होती, बाहिरसे देखने वालोंको ऐसा दूरी नहीं है , केवल दुर्व्यवस्थाकी दूरी है, वरना यह प्रतीत होता है कि वह जीवन और है और यह जीवन दोनों हर समय साथ हैं। जहाँ भावना रहती है वहीं और । वह जीवन इस जीवनसे अत्यन्त भिन्न है, अत्यंत भाव रहता है, जहाँ दर्द रहता है वहीं राहत रहती है, दूर है, अत्यन्त परे है । यह जीवन एक दीन हीन तुच्छ- भाव अभिव्यक्ति है और भावना भावरूप होनेकी शक्ति साधारण सी चीज़ है। वह जीवन अत्यन्त विलक्षण, है। क्या अभिव्यक्ति शक्तिसे पृथक हो सकती है ? कदापि महान, अचिन्तनीय ईश्वर है । यह जीवन दुःख दर्दसे नहीं । शक्ति अँकुर है और अभिव्यक्ति उसका प्रफुल्लित भरा है, अनेक त्रुटियों और दोषोंसे परिपूर्ण है। वह फल है। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीरका जीवन-मार्ग ____ जब जीवमें अलौकिक जीवनकी भावना अंकित मोही प्रात्मा इनके लाभसे अपना लाभ, इनकी बहिन्में हो जाती है, चित्रित हो जाती है, साक्षात् भाव बन अपनी वृद्धि इनके हाथमें अपना हाथ, इनके बाथमें जाती है तब अात्मा श्रात्मा नहीं रहता, यह परमात्मा अपना नाश धारण करने लग गया है। हो जाता है, यह ब्रह्म नहीं रहता, परब्रह्म बन जाता इस मिथ्या धारणाके कारण जगत जीवन बन है । यह पुरुष नहीं रहता पुरुषोत्तम होजाता है। जाता है। उसमें तन्मयता पैदा हो जाती है, मोह और इस अात्मा और परमात्म.में कितना अन्तर है। ममता जग जाती है । यह ममता जगतकी तरङ्गोंसे तरदोनोंके बीच भूल-भ्रान्ति, मिथ्यात्व-अविद्या, मोह तृष्णा गित हो अपनी तृष्णामयी तरङ्गोंसे मुला मुलाकर जीव का अथाह सागर ठाठे मार रहा है। जो धीर वीर अपने को अधिक अधिक जगत्की ओर उछालती है। इस ध्रुवलक्ष्य, सद्शान और पुरुषार्थ बलसे इस दूरीको लाँप- तरह यह संसार-चक्र आगे ही आगे चलता रहता है। कर इस पारको उस पारसे मिला देता है। मर्त्यको इस तरह यह जीव प्रकृतिसे सर्वथा मिन्न होने पर भी अमृतसे मिला देता है वह निस्संदेह सबसे बड़ा कला- प्रकृति समान देहधारी बना है। तुच्छ और सपरिमारा कार है। वह साक्षात् संसार-सेतु है, तीर्थकर है । वह बना है । नाम-रूप-कर्मवाला बना है। विविध सम्बंध लोकतिलक है, जगतबन्ध है । काल उसका द्वारपाल वाला बना है । जन्मने और मरने वाला बना है। .. है, इंद्र, चंद्र उसके चारण हैं, लक्ष्मी, सरस्वती, शक्ति इस तरह ये मिथ्यात्व, अज्ञान और मोह जन्म जय उसके उपासक हैं। मृत्यु के संसाारक लौकिक दुःखी जीवनके मूल कारण हैं । ये ही जीवनके महान शत्रु है। इनका विजय ही जीवन अभ्युदयकी रुकावट:-- विजय है । जिसने इन्हें जीत लिया उसने दुःख शोकको इस जीवन अभ्युदयमें भूल,अज्ञान,मोह ही सबसे बड़ी जीत लिया, जन्म मरणको जीत लिया, लोक परलोकको रुकावट है, इनके श्रावेशमें कुछका कुछ सुझाई देता जीत लिया। इनका विजेता हो वास्तवमें विजेता है, है । कहींका कहीं चला जाना होता है। जो पर है, अ. जिन है, जिनेन्द्र है अर्हन्त है। सत् है, अनात्म है वह स्व, सत् और श्रात्म बन जाता है । जो सत् और आत्म है वह भ्रम मात्र हेय बन जाता जीवन-सिद्धि का मार्ग:है । कैसी विडम्बना है । यह मिथ्यात्व कितना प्रभावशाली ___भूल भुलैय्याका अंत उसके पीछे पीछे चलनेसे नहीं है। जो बाह्य है, जड़ है, सदा बनता और बिगड़ता होता, न उसकी असलियतसे मुँह छुपाकर बैठनेसे होता है, मिलता और बिखरता है वह पुद्गलमयी लोक ब्रह्म है। न प्रमादमें पड़े रहनेसे होता है, वह मरीचिका है, लोक बन गया है, वह पुद्गलमयी शरीर ब्रह्म बन गया - वह आगे ही श्रागे भागती रहती है । वह सत्र श्रोरसे है । वह पुद्गलमयी धन धान्य सम्पदा बन गया है। । धेरै हुये है। उससे दौड़कर छुपना नहीं हो सकता ! Teमूढ श्रात्मा इनके नामको वैभव, इनके रूपको सुन्दरता इनके कर्मको बल समझने लग गया है। इनके भोगको उत्तराध्ययन ६, ३४-१५, २५, ३८, धम्मपन सुख, इनकी सन्ततिको अमरता मानने लग गया है। धर्मरसायन ॥३॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेकान्त [ वीर-विचार सं. *त अपने ही स्थानमें डटकर खड़ा हो जानेसे इनका निरोध करनेसे होता है-नका संवर करनेसे है, उसका सामना करनेसे होता है, उसका तार होता है। इन्हें बाह्य उद्योगोंसे हटा पारमार्थिक उद्योनार करनेसे होता है, उसका तिरस्कार करनेसे होता है। गोंमें लगानेसे होता है। इस तरह संसारका अन्त अचानका अन्त उसकी सुझाई हुई बातोंको प्रवृत्ति मार्ग से नहीं होता निवृत्ति मार्गसे होता है। मानने से नहीं होता, न संशयमें पड़े रहनेसे होता है, न परन्त जीवन-सिद्धिका मार्ग केवल इतना ही नहीं मरिचत गति रखनेसे होता है। उसका अन्त उसके प ति मंडर. और सन्यास पी मन्तव्योंको सादात् करनेसे होता है, उनका अनुसन्धान नहीं है। यह विधिमुख्य भी है। निषेध, संवर, सन्यास और परीक्षा करनेसे होता है, उनमें निज परका, सत्य प्रात्म-साधनाकी पहली सीढ़ी है। साधककी पाद. नसत्वका हित-अहितका विवेक करनेसे होता है। पीठिका है । इसमें अभ्यस्त होनेसे आत्मा साक्षाद सिद्ध मोहका अन्त मुग्ध भावोंमें तल्लीन रहनेसे नहीं मार्ग पर आरूढ़ होनेके लिये समर्थ हो जाता है। होता ने उन्हें चुपचुपाते हृदयमें छुपाये रहनेसे होता है। अबाध और निर्विघ्न हो जाता है। वह स्थिर, उज्वल उसको अन्त मुग्ध भावोंकी मदता निरखनेसे होता है, और शांत हो जाता है। परन्तु इतना मात्र होकर उनकी मूढ़ताकी निन्दा, आलोचना प्रायश्चित करनेसे रह जानेसे काम नहीं चलता । इससे मिथ्यात्व, अज्ञान ममकार ग्रंथियोंका अन्त उन्हें पुष्ट करनेसे और मोहका समूल नाश नहीं हो जाता। वे अनादिनही होता; उन्हें शिथिल करनेसे होता है । वासनाओंका कालसे अभ्यासमें आते आते संस्कार, संशा, और अन्त भौगसे नहीं होता; संयमसे होता है। इच्छाओंका भाव बन गये है। अतः चेतनाकी गहराईमें उतर कर अन्त परिग्रहसे नहीं होता, संयमसे होता है। बैठ गये है । वे दूसरा जीवन बन गये हैं। वे किसी देणमोका अन्त तृतिसे नहीं होता, त्यागसे होता है। भी समय फूट निकलते हैं। वे निष्कारण मी आत्माव अन्त वैरशोधनसे नहीं होता, क्षमासे होता है। को उद्विग्न, भ्रान्त और प्रशान्त बना देते हैं । जब भव-भ्रमणका अन्त बाबरमणसे नहीं होता, तक इनका उच्छेद नहीं होता, संसार चक्रका अन्त अन्तः रमण से होता है। इस नाम-रूप-कर्मात्मक नहीं होता। बयत का अन्त उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे नहीं इन संस्कारोंको निर्मल करने के लिये निषेधके साथ का उन तन्तुओंके विच्छेदसे होता है जिन के द्वारा विधिको जोड़ना होगा। प्रमाद छोड़ना होगा। सावजीवन जगतके साथ बँधा है। यह विच्छेद-मन वचन धान और जागरुक रहना होगा । समस्त परम्परागत आपके कर्म-धर्म विधान करनेसे नहीं होता, दण्ड दण्ड भावों, संज्ञाओं और वृत्तियोंसे अपनेको पृथक् करना विधान करनेसे होता है, इन गुप्त करनेसे होता है। होगा । इन्द्रिय और मनको बाहिरसे हटा अन्दर लेजाना मनोगुप्ति, पचनगुप्ति, काय गुप्ति पालनेसे होता है। होगा । अपने ही में प्रापको लाना होगा। ध्यानस्य पिता, १२, १। होना होगा। मसिमनिकाय। चार्याधिगम सूत्र..... • समाधिशतक॥१५॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प, कि परका जीवन-मान अन्दर बैठ निर्वात हो ज्ञान-दीपक जगाना होगा। दर्शन सम्यक शान, सम्यक चारित्रका मार्ग है। शान प्रकाशको उसीके देखनेमें लगाना होगा। जिसके यह है वह विधिनिषेधात्मक सिद्धि मार्ग, जो गहरेसे लिये यह सब देखना जानना है-ट्रंदना मालना है। गहरे बैठे हुये संस्कारोंको निर्माण कर विध्वंस कर उसीकी भावनाओंको सुनना और समझना होगा। देता है। जो सोई हुई श्रात्म-शक्तियोंको जगा देवा जिसके लिये यह सब उद्यम है-पुरुषार्थ है । जो निर- है, उन्हें भावनासे निकाल साक्षात् भाव बना देता है। न्तर पुकारता रहता है "मैं अजर हूँ-अमर हूँ, तैजस- यह मार्ग बहुत कठिन है। इसके लिये अनेक प्राकज्योतिमान् हूँ, सुन्दर-मधुर हूँ, महान् और सम्पूर्ण तिक और मानुषिक विपदाओं और करतानोको सहन करना पड़ता है, अनेक शारीरिक और मानसिक त्रुटिसमस्त लक्ष्योंको त्याग इसी भावनामयी जीवनको यो एवं बाधाओंसे लड़ना पड़ता है। यह मार्ग परिअपना लक्ष्य बनाना होगा। इसे ध्रुव-समान दृष्टिमें पहोंसे पूर्ण है। इसके लिये अदमनीय उत्साह, सत्या. समाना होगा । अपनेको निश्चय-पूर्वक विश्वास कराना ग्रह और साहसकी जरूरत है । यह मार्ग कठिन ही नहीं होगा । "सोऽहं, सोऽहं", मैं वही हूँ, मैं वही हूँ। लम्बा भी बहुत है। इसके लिये दोर्ष पुरुषार्थ और भेणी समस्त विद्वानोंको छोड़ शानको इसी अमृतमयी बद्ध अभ्यासकी जरूरत है। इसे अभ्यस्त करनेके लिये जीवनकी ओर ध्यान देना होगा । इसे स्पष्ट और पुष्ट इस मार्ग पर निरन्तर चलते रहना होगा। सोते-जागते, करना होगा। अन्दर ही अन्दर देखना और जानना चलते-फिरते, खाते-पीते, उठते-बैठते, हर समय इस होगा । 'सोऽहं मोऽहं ।' पर चलते रहना होगा । विचार है तो 'सोऽहे', पालाप समस्त रूढ़ीक भावों और बंधनोंसे हटा ममत्वको इसी है तो 'सोऽहं', प्राचार है तो 'सोऽहं । इस मार्गको लक्ष्यमें श्रामक्त करना होगा। इसीके पीछे २ चलना जीवन तन्तुषोंमें रमा देना होगा। यहां तक रमाना होगा, इमीके समरसमें डूबना होगा। हर समय अनुभव होगा कि यह मार्ग जीवनमें उतर पाये, जीवनमें समा करना होगा। 'मोऽहं सोऽहं ।' जाये । साक्षात् जीवन बन जाये। यहां तक कि 'मैं' यह मार्ग श्रात्म-श्रद्धा, श्रात्म-विद्या, श्रात्मचर्याका और 'वह' का भेद भी विलय हो जाये । केवल वह ही मार्ग है। यह मार्ग सत्यपारमिता, प्रज्ञापारमिता,शील- वह रह जाता है। पारमिताका मार्ग है। यह मार्ग आत्म निश्चित, यह मार्ग किसी बाह्य विधि विधान, क्रिया काण्ड, अात्मबोध, आत्मस्थितिका मार्ग है।। यह मार्ग सम्यक- परिग्रह आडम्बरमें नहीं रहता; यह किसी भाषा, पालाप ग्रन्थमें नहीं रहता, यह किमी सामायिक प्रथा, संस्था. प्रश्न उप०१-१०.५-३, मुण्ड उप०३-1-५,' व्यवस्थामें नहीं रहता, यह किसी पूजा-प्रार्थना, स्तुति1-1-11,' कैवस्य उप.-१. वन्दनामें नहीं रहता। यह मार्ग साध्य के समान ही नदीध निकाय-दूसरा सुत्त, कटा सुत्त, १०वाँ सुत्त, अलौकिक और गढ़ है, साध्यके साथ ही प्रास्माकी श्वौ सुत्त । बाठी संहिता-पच्याप । • स्वार्थाधिगमसूत्र १-१, रत्वकररावकाचार, Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण स०१६ = अन्तः शक्तियोंमें रहता है। उसके उद्देश्य बल, ज्ञान समान है जो प्रकृतिके सहारे छोड़ दी गई है। जिधर बल, पुरुषार्य बलमें रहता है। केवल इनकी गतिको मौज ले चली, चल पड़ी, जहां टकरा दिया टकरा गई, बदलनेकी जरूरत है। इनका उपयोग बाहिरसे हटा जहां डाल दिया, गिर गई। अन्दरकी ओर लगाना है । इन्हें बजाय अनात्म-उद्देश, यह तीनों ही मृत्युके ग्रास है, बार बार काल चक्र अनात्म दान, अनात्म पुरुषार्थ के शान, आत्म पुरुषार्थ से पीसे जाते हैं । इसलिये जीवनका सिद्धि-मार्ग त्रिमें तबदील करना है । फिर ये जीवनके बजाये इस गुणात्मक है, मलक्ष्य, सद्ज्ञान और सद्-पुरुषार्थ पारके उस पार ले जाने वाले हो जाते हैं । यह बजाय जो आत्म-लक्ष्यको लक्ष्य बनाकर मिथ्यात्वका अंत संसारके मोक्षका साधन बन जाते हैं, बजाय मृत्युलोकके करता है, जो अन्य ज्ञानसे उसे देखता जानता हुआ अमृतलोकका मार्ग बन जाते हैं। अविद्याका अत करता है, जो अात्माचार्यासे लक्ष्यको बाह्यमुखी रूपसे इन तीनोंकी एकता संसारकी रच- जीवन में उतारता हुआ मोहका अन्त करता है वह ही यिता है। अन्तःमुखी रूपसे इन तीनोंकी एकता मोक्ष निश्चय पर्वक धर्म है, धर्म-मार्ग है, धर्म-तीर्थ है । वह की रचयिता है। जैसे संसारमें किसी भी पदार्थकी सिद्धि ही साक्षात् धर्म-मूर्ति है, धर्म-अवतार है । केवल उसकी कामना करने से, केवल उसे जान लेने आत्मा में ही परमात्मा छुपा हुआ है । श्रात्मामें से नहीं होती, बल्कि उसकी सिद्धि कामना तथा ज्ञान ही उसे मिद्ध करनेकी वेदना और वांछा बनी है। श्राके साथ पुरुषार्थ जोड़नेसे होती है ऐसे ही परमात्म त्मामें ही उसे सिद्ध करनेकी शक्तियाँ मौजूद हैं। अतः स्वरूपकी सिद्धि केवल उसमें श्रद्धा रखनेसे, केवल उसे आत्मा ही साध्य है, साधक है, साधन है । श्रात्मा ही जान लेनेसे नहीं होती; बल्कि उसकी सिद्धि प्रात्म-श्रद्धा, इष्ट पद है पथिक है, पय है। श्रात्मा ही 'उम पार है, आत्म शानके साथ श्रात्म-पुरुषार्थ जोड़नेसे होती है । नाविक है और नाय है छ। जो केवल परमात्म पदकी श्रद्धा और भक्ति में अटक जो आत्मलक्षी है, आत्मज्ञानी है, आत्मनिष्ट है, निरकर रह जाता है, वह अग्नि विदग्ध नगरीमें पड़े हुये हकार-निर्ममत्व है, जिसके समस्त संशय, समस्त भ्रम उस आलसीके समान हैं जो सुखकी कामना करता हुआ दर हो गये हैं, समस्त ग्रन्थियाँ, समस्त सम्बन्ध शिथिल भी अपनी सहायता करने में असमर्थ है। हो गये हैं। समस्त प्राशायें-तृष्णायें शाँत हो गई हैं, ___ जो परमात्म-तत्त्व के रहस्यको जानकर केवल उमके समस्त उद्योग बन्द हो गये हैं, जिमने अपनी आशा शानमें मग्न हो अपनेको अहो भाग्य मानता है वह उस अपने ही में लगाली है, अपनी दुनिया अपने ही में सुस्वप्नि कुम्भकारके समान है जो अपने सुविचारसे सन्मतितर्क ३, ६८ अपनी दीनताको और अधिक दीन बना लेता है ।। भाव प्रामत ८३, योगसार ८३; तत्त्वानुशासन जो बिना आत्म श्रद्धा, बिना श्रात्म-ज्ञानके केवल पुरुषार्थी बना है, वह नाविक-हीन उम स्वच्छंद नावके ३२ द्रव्य संग्रह ४०, ४१; "I am the way, the truth and the व्याख्या प्रशति-1.बोध प्राभत २१ life.” Bible St. John 14.6. - - -- Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . साहित्य परिष और समायोजन womentin dianewsonam बसाली, या कुकृत्य है, अचल है, है, उसके महोत्सव है । • लिये काज और कंचन क्या ! परि और मित्र क्या! यह सिद्धिमार्ग वेशधारीका मार्ग नहीं. तथागतका स्तुति और चिन्दा स्या! योग और वियोग क्या ! मार्ग है। यह मुदका मार्ग नहीं । सन्मतिका, मार्ग जन्म और मरण स्या! दुख और शोक क्या ! वह है। यह निर्यलका मार्ग नहीं, बीरका मार्ग है। सूर्वके समान तेजस्वी है, वायुके समान स्वतंत्र है, .... . . . बाकायके समान निलेप है। मृत्यु उसके लिये मृत्यु - सूत्रमाग' :-१२,' उत्तरायण १४, नहीं, वह मृत्युकी मृत्यु है, वह मोक्षका द्वार है, वह सुबतक उप० २.२.४. ত্মত্ম জ্বাহি আল জালাল (१) तस्वन्यायविभाकर-लेखक, प्राचार्य वि- नादि-द्वारा अच्छी तरहसे व्यक्त किया जाता । पुस्तकके जयलन्धि सूरि । प्रकाशक, शा० चन्दूलाल जमनादास, साथमें विषयसूची तकका न होना बहुत ही खटकता बाणी (बडोदा)। पृष्ठ संख्या, १२४ । मूल्य, आठ है। फिर भी पुस्तक संस्कृत जाननेवालोंके लिये पढ़ने श्राना। तथा संग्रह करनेके योग्य है। मूल्य कुछ अधिक है। यह 'लब्धिसूरीश्वर-जैन ग्रंथमालाका ४था प्रथ । है । इसमें १ सम्यक श्रद्धा, २ सम्यशान और ३ सम्यक (२) चैत्यवन्दन चतुर्विशतिः-लेखक, श्रीचरण ऐसे तीन विभाग करके, पहलेमें जीवादि नव. विजयलब्धिपूरि । प्रकाशक, चंदुलाल जमनादास तत्त्वोंका (जीव, अजीव, पुण्य, पाप, श्राश्रव, संवर, शाह, छाणी (बड़ौदा स्टेट)। पृष्ठ संख्या, ३४ । निर्जरा, बन्ध, मोक्षके क्रमसे ) गुणस्थान मार्गणादि मूल्य दो थाना । निरुपण-सहित, दूमरे में मत्यादि पंचशानों-प्रत्यक्षादि- यह लब्धिसूरीश्यर-जैनग्रंथमालाका ८ वा अन्य प्रमाणों-अाभामों-सप्तभंगों-नयों तथा वादोंका, और है। इसमें मुख्यगया चौबीम तीर्थंकरोंकी चैत्यवन्दनावीमरेमें चरण-करणभेदसं यतिधर्मका वर्णन संस्कृत रूपमें स्तुति भिन्न भिन्न छंदोंमें की गई है-२३ तीर्थगद्यम दिया है। वर्णनकी भाषा सरल और शैली करीकी स्तुति तीन तीन पद्योंमें और महावीरकी पाँच सुगम तथा सुबोध है। यतिधर्मका वर्णन बहुत ही पद्योंग है । तदनन्तर सीमंधर जिन, सिगिरि, सिद्धसंक्षिप्त है और यह बारह भावनाओं, लोक तथा पुला- चक्र, पर्युषणपर्व, ज्ञानपंचमी मौनैकादशी, ऋषभानन कादि निर्गन्थों के स्वरूप-कथनको भी लिये हुए है। गिन, चन्द्राननजिन, वारिणजिन और फिर वर्धमान श्रावकाचारका कोई वर्णन साथ में नहीं है, जिसकी जिन की भी चैत्यवन्दन रूपमें स्तुतियाँ भिन्न भिन्न छंदों सम्यक्चरण विभाग में होनेकी जरूरत थी। प्रस्तावना तथा एकसे अधिक पयोमं दी हैं । स्तुतियाँ सब संस्कृत साधारण दो पृष्ठकी है और वह भी संस्कृतमें। अच्छा में हैं और जिन छंदों में है उनके लक्षण भी संस्कृतमें होता यदि प्रस्तावना हिन्दी में विस्तारके साथ लिखी जाती ही फुटनोटमि दिये गये हैं। पुस्तक अच्छी है और और उसमें ग्रंथकी उपयोगिता एवं विशेषताको तुल सुंदर छपी है। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .Register No. L4328. YEHEESHRISMETIREMEMBASAIRIDDAMENTARVADHURSADMAVARIABADHUDURAT वीर-सेवामन्दिरको सहायता E गत फरवरी और मार्चके महीनों में वीर-सेवामन्दिर सरसावाको निम्न सज्जनोंकी मेमोरसे २८५) रु० की सहायता प्राप्त हुई है, जिसके लिये दातार महानुभाव धन्यवाद के पात्र हैं: २००) बाबू नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता । ५०) बाबू दीनानाथजी सरावगी, कलकत्ता । २५) बाबू छोटेलालजी सरावगी, कलकत्ता । ७) ला० मेहरचन्दजी जैन, अम्बाला छावनी (पुत्र विवाहकी खुशीमें) २) ला• जम्बूप्रसाद प्रेमचन्द जैन, गढी पुख्ता, जि० मुजफ्फरनगर (पुत्र विवाहकी खुशीमें) १) श्रीमती मखमलीदेवी धर्मपत्नी वा जिनेश्वरमसाद जैन, देहरादून । २८५) अधिष्ठाता-'वीर सेवामन्दिर' सरसावा, जि. सहारनपुर। WAVAKRERURTABAKAKASABASABASABAKAKAKABAYABAYA RESERVAKAKAERBAKABADABADABANATA सूचना जो सज्जन 'अनेकान्त' की पिछली किरण न लेकर नवीन किरणसे ही ग्राहक बनना चाहते हैं, उन्हें सहर्ष सूचित किया जाता है कि वे १॥) रु० मनीयार्डर से भि नवा देने पर ७ वी किरणसे १२ वी किरण तक के ग्राहक बनाये जा सकेंगे । से उन्हें नवीन प्रकाशित किरणें ही भेजी जाएंगी और जो १) रु. के बजाए १॥) रु. भेज देंगे उन्हें समाधितन्त्र और जैन समाज दर्पण दोनों उपहारी पुस्तकें भी भिजवाई जा सकेंगी। -व्यवस्थापक वीर प्रेस प्रॉ सर्कस न्य देहनी। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NOTE AawaRNERBATIJRANSLODEGORIRAMMARRIORSHAMIRPONGE वैमाग्य वीर नि. म. २४६६ वर्ष ३, किरण . Hay que वार्षिक मूल्य ३० WOOLLLOOOTOKZO0100OTOFAKTOONPOONOVOFONO OVOLOLOLO अनेकान्त Grena - . . . मिथ्यात..अनेकन " : DE .. AAP र अन्माचा M . स A acial... . S AN काशक patani कर्म . । हँसा प्रससत्य MAP सुत्यो सप्रमाण । प्रमाण विभाव वाभाव * " र " अपेक्षा अनांग F Prat Ho. .... ...... - Youry'r.POTOSPINIOGGEICHINOS मचालकजगन्नांकगार मुम्नार ननमुग्वगय जैन प्राधमाना वीर-वामान: मायामहारनपर)। कनॉट मकम पी. बो० न० ४८ न्यू दहली। HOMEONIORIT T ENDEMNAYAALONE CANNONDGAANTEGORANGENED मुक और काशक - अयोगाप्रमार गोयनीय Page #467 --------------------------------------------------------------------------  Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WWE MHATRI । नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ सम्पादन-स्थान-वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० बो० नं० ४८, न्यदेहली वैशाग्व-पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं० १९६७ किरण श्रीकुन्दकुन्द-स्मरण वन्द्योविभभवि न कौरह कौण्डकुन्दः कुन्द-प्रभा-प्रणयि-कीर्ति विभूषिताशः । यश्चारुचारण कराम्बुज-चञ्चरीकश्चके श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम । -श्रवणबेल्गोलशिलालेख नं०५४ जिनकी कुन्द-कुसुमकी प्रभाके समान शुभ एवं प्रिय कातिम दिशाएँ विभूषित है-सब दिशाओं में जिनका उज्ज्वल और मनोमोहक यश फैला हुआ है, जो प्रशस्त चारपोक -चारग द्धिधारक महामुनियोकि -करकमलोंके भ्रमर थे और जिन्होंन भरतक्षेत्रम श्रुतकी-अागम-शास्त्रकी---प्रतिष्ठा की है, वे पवित्रामा म्वामी कुन्दकुन्द इस पृथ्वीपर किनसे वन्दनीय नहीं हैं ?--समीके द्वाग वन्दना किये जानके योग्य हैं। तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः । श्रीकोण्डकुन्दादि मुनीश्वराख्यस्सत्संयमादुद्गत-चारद्धिः। -श्रवणबेगोल शिलालेख नं० . उन (श्रीचन्द्रगुप्त मुनिराज ) के प्रमिद्ध वंशमं वे श्री कुन्दकुन्दमुनीश्वर हुए हैं जिनका पहला-दीक्षा समयका--नाम 'पद्मनन्दी' था और जिन्हें मत्सयमके प्रमादसे चारण ऋद्विकी--पृथ्वी पर पैर न रखते हुए स्वेच्छामे श्राकाशमं चलने की शक्तिकी-प्राप्ति हई थी। रजोभिरम्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्येपि संव्यञ्जयितु यतीशः ।। रजःपदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरङ्गलं सः॥ -श्रवणबेलगोल शिलालेख नं. १ यतिराज (श्रीकुन्दकुन्द ) रजःस्थान पृथ्वी तलको छोड़कर जो चतुरगुल ऊपर आकाशमै गमन करते थ उसके द्वारा, मैं समझता हूँ, वे इस बातको व्यक्त करते थे कि वे अतरंगके साथ साथ बाह्यमें भी रजसे अत्यंत अस्पष्ट है-अंतरंगमें रागादिकमल जिस प्रकार उनके पास नहीं फटकते उमी प्रकार बाझमें पथ्वीकी धलि भी उन्हें छू नहीं पाती। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासनाका अभिनय [.-श्री पं० चैनसुखवास, न्यायतीर्थ ] अगवन् ! तेरी सेवाका व्रत बहुत कठिन है। भाने वाली निःसार करतल ध्वनिमें क्या था? 'जगत्के प्रलोभनोंसे प्रेरित होकर उपासकके इस अभिनयमें अनेक गुग बीत गये, पर रूपमें उपासनाके रंग-मन पर मैं अनेक बार तुम्हारे बिठाने योग्य एक मनोहर उस और पवित्र आया। आपको देखते ही मेरे अङ्गोपाङ्ग मानों पासनका निर्माण मैं न कर सका। मद, मत्सर, ताण्डव नृत्यमें घूमने लगते थे, जैसे मेरे शरीरका काम और स्वार्थ के राक्षस इस देवासनके निर्माण प्रत्येक अणु सेवाव्रतका अनुभव कर रहा हो। में बाधक थे । मैं तुम्हें निमन्त्रण देता, पर स्वागदर्शक लोग मेरे इस अभिनयको देखकर बड़े तको योग्यता न थी। तुम्हारे गीत गाता था, किन्तु प्रसन्न होते और उपासकके महान् पद-द्वारा मेरा तुमसे बहुत दूर रह कर। शायद तुममें तन्मय अभिवादन करते । मैं उनकी मधुर वाणीको सुन होनेका वह ढोंग था । तुम्हारे पास रह कर भी मैं कर बड़ा प्रसन्न होता । मैं अनुभव करता कि सच- तुम्हें न पा सकता था। क्योंकि मेरा विवेक अंध. मुच मैं उपासक हो गया हूँ। "जगतकी प्रमन्नता- कारसे आवृत था। पर आश्चर्य है कि दुनिया से तेरा कोई तादात्म्य नहीं है" इस प्राध्यास्मिक मुझे त्यागी, तपस्वी और उपासक कहती थी ! रहस्यका ज्ञान मुझे न था। मैं नहीं जानता था इस बिडम्बनामें धीरे धीरे जीवन ममाप्त कि तेरी सेवाका ब्रत बहुत कठिन है। हुआ । मैंने बिचारा कि उपासकके लिये देवदून ___ मैं भक्तोंकी वन्स मोर (once more)की ध्वनि पावेंगे, पर राक्षसोंने आकर कहा चलो ! मैं उन्हें को सुनकर उन्मत्त हो जाता,इस ध्वनिके उन्मादने देखकर भयभीत हो गया ! मैंने कहा- मैं उपासक मेरे और तेरे अन्तरको और भी अधिक बढ़ा हूँ, तुम मुझे गलतीसे लेने आये हो। मैं तुम्हारे दिया, पर मैं विमूढ इस सूक्ष्म रहस्यको न समझ माथ न चलूंगा।' यम-किंकर भयंकर मुँह बना कर सका। मैं तो मोहोन्मत्त हो अज्ञातकी ओर खिंचा बोले-'चुप दंभी ! जीवन भर उपासनाका अभिजा रहा था। समझता था कि जीवन सफल हो नय खेल कर भी देवदूतोंकी भाशा करता है। मैंने रहा है; पर यह तो आत्म-वंचना थी। संसार कहा-'सारा जीवन उपासनामें व्यतीत किया है।' प्रसन्न हो रहा था, किन्तु तुम्हारी उदासीनताका मुझे घसीटते हुये उन्होंने कहा-'अरे मूर्ख ! भा. मुझे पता न था । जहाँसे पारितोषिककी आशा बोपासकके लिये देवदूत भाते हैं, द्रव्य-पूजकके थी, वहाँ तो कपाका लेश भी न था। बाहरसे लिये नहीं।' Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल-चरिघ-साहित्यके सम्बन्धमें शेष ज्ञातव्य ले-श्री अगरचन्द नाहटा, सम्पादक राजस्थानी'] घानेकान्त वर्ष २ की द्वितीय किरणमें "श्रीपाल विशेष ज्ञातव्य चरित्र माहित्य" शीर्षक हमारा लेख प्रकाशित हुअा है । हममें श्रीपाल चरित्र सम्बन्धी ४६ श्वे और पूर्व लेखमें श्रीपालचरित्र सम्बन्धी सबसे प्राचीन १५ दि० कुल ६१ ग्रन्थों की सूची दी गई है छ । उसके - ग्रंथ सं० १४२८ का बतलाया गया है पर मैनासुंदरी पश्चात् उन ग्रन्थों सम्बन्धी विशेष ज्ञातव्य एवं कुछ का नाम निर्देश बारहवीं शताब्दीके खरतर गच्छीय विद्वान् श्राचार्य जिनवल्लभसूरि (स्वर्ग सं०११६७) के नवीन साहित्यका पता चला है, उसीका सक्षिप्त परिचय वृद्ध नवकार में भी मिलता है,अतः श्वेताम्बर समाजमें इस लेखमें दिया जा रहा है । भी १२वीं शताब्दीके पर्वका रचित कोई ग्रंथ अवश्य __ जैनममा जमे श्रीपालचरित्रका लोकादर दिनोंदिन था यह सिद्ध है । पंडित कैलाशचन्द्र जी शास्त्रीके पास बढ़ रहा है। अभी कई माम पूर्व कलकत्तम मैना सुन्दरी दि० भडारोंकी जो प्राचीन सूचियाँ हैं उनमें भी पंडित नाटक भी खेला गया था व ग्रामोफोनमें 'मैनासुन्दरी'के नरसेन कृत प्राकृत श्रीपाल चरित्रका उल्लेख है, अतः नामसे कई रेकार्ड भी निकल चुके है । कन्नड भाषाके दि० विद्वानोंको खोजकर प्रकट करना चाहिये कि वह भी श्रीपाल चरित्रोका पता चला है। कबका रचित है ? संभवतः वह प्राचीन होगा। * पूर्व लेखमें संख्या ४२।१६ सूचित की है पर दि० चरित्रोम से जिन ग्रन्थोंका केवल उल्लेख ही रत्नशेखर रचित चरित्रकी ४ टीकाओं के नम्बर बढ़ानेसे मिला था पर प्रतियोंका पता पहले मुझे नहीं मिला था १२ होते हैं, उनमें रै कविके चरित्रका उल्लेख दोबार उनमें से जिन जिनका पता चला है वे इस प्रकार हैं:हो गया है उसे देने पर संख्या होती हैं । १७. नेमिदत्त (सं.) भ. सकलकीत एवं पूर्व लेसमें मुद्रण दोषवश नीचे लिखी महत्वपूर्ण दौलतरामजी की भाषावचनिका की प्रतियाँ जयपुरके अशुद्धियाँ रह गई हैं पा०क उन्हें सुधार में । ताकि उस दि० भडारों में उपलब्ध हैं। के द्वारा और कोई फिर भूल न कर बैठे ___ कलकत्ते के बड़ दि० जैन मंदिर में सकलकीर्ति और अशुद्ध परिमल्ल कवि रचित चरित्रोंकी प्रतियाँ भी मैंने स्वयं पृ० १५५ पंक्ति १३-२ वदी भंडार लींबदी भंडार र देखी हैं उनके मम्बधम जो विशेष बाते ज्ञात हुई वे ये पृ.१६ पंक्ति -रत्नखान रस्नलाभ पृ० १६२ पंक्ति १६-मगदानन्द सागरानंद * 'मयणासुदरी' सणीपरे नवपय माण करंत । प. पंक्ति -सं. सं० २५५१ (हमारे प्र० अभपरस्मसार पृ० १५७) Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त बीर निर्वावसं.२०१६ है:-सकलकीर्ति रचित संस्कृत पद्यमय चरित्रकी २२ श्रीपाल चौपईकी प्रशस्तिसे भी उसका चरित्र नायक पत्रोंकी प्रति सं०१५६१ मार्गशीर्ष शुका शनिवारको हमारे श्रीपालसे भिन्न ही कोई श्रीपाल प्रतीत होता है। लिखित है। इसमें ७ परिच्छेद और कुल श्लोक संख्या यह रास "दान" के महात्म्यपर कथाकोष ग्रन्थके ८०४ है। आधारसे रचा गया है, ऐसा अन्यकी अन्त प्रशस्तिसे परमल्ल कविके हिन्दी पद्यमय चरित्रको ६ प्रतियाँ स्पष्ट है । फिर भी मूलग्रन्थको पूरा पढ़े बिना या उमके उक्त मन्दिरमें है । ग्रन्थ प्रशस्तिसे पता चलता है कि आधार भूत कथाकोषको देखे बिना निश्चित रूपस कविके पूर्वज गोपगिरिके राजा मानके मान्य दिन कुछ कहा नहीं जा सकता। चौधरी थे उनके पुत्र रामदासके पुत्र प्रामकरण बरहिया पर्व लेखमें सकलकीर्ति और ब्रह्मजिनदासके के श्राप पुत्र थे और आगरेमें निवाम करते थे । प्रस्तुत गुरु शिष्य-सम्बन्धके कारण चरित्रोंके एक होनेका चरित्र सं० १६५१ श्राषाढ शुक्ला - शु० अकबरके अनुमान किया गया था पर वह ठीक नहीं था, क्योंकि राज्यमें प्रारम्भ किया था। दोनोंके भिन्न भिन्न ग्रंथ उपलब्ध हैं । इसी प्रकार नेमिकलकत्तेके नित्यमणि विनय श्वे. जैन लायब्रेरीमें दत्त और मल्लिमषण के रचित चरित्र भी भिन्न भिन्न दि० विद्यानंदि रचित चरित्रकी प्रति अवलोकनमें श्राई। ही होंगे । पं० कैलाशचन्द्र जीको प्राप्त सूचियोंमें भिन्न यह प्रति ३२ पत्रात्मक प्राचीन हैं । चरित्र श्लोकबद्ध है भिन्न लिखा मिलता है। नेमिदत्तका तो जयपुर और ११ पटलोंमें क्रमशः १६८, १३५, १४२, ८२, भंडार में उपलब्ध है ही। पंडितजीकी प्राप्त सूचियोंमें २३३, २१६, २४२, २३१, १४६, १६५, ११५, कुल शुभचन्द्र के नामके माथ साथ भवारक छोटा विशेषण १९०५ श्लोक है । ग्रन्थकर्ताने अपनी परम्पग इस प्रकार लगा है। अब अनुपलब्धदि चरित्रोंम १ नरसेन २ बतलाई है:-कुदकुदान्वय गुणकीर्ति-ग्लकीर्ति प्रभाचंद्र मल्लिभषण ३ छोटा शुभचन्द्र ४५० जगन्नाथ कृत ही पद्मनंदि शि. देवेन्द्रकीर्ति शि० विद्यानदि । ग्रन्थके रहे हैं, विद्वानोंको उन्हें खोजकर प्रकाश डालना प्रारम्भमै कुंदाकुंदाचार्यादिकी कई श्लोकोंमें प्रशंसा की चाहिये। है। पुष्पिका लेम्व इस प्रकार है:"ग्रंथ सख्या २००० । संवत् १५३० वर्षे बैशाख नवीन ज्ञातसाहित्य चदि शुभ नक्षत्रे। श्री सिद्ध चक्र श्रीपाल चरित्र अब पर्व सूचीमें निर्देशित चरित्रोंके अतिरिक्त ममात ।" कर्त्ताने पूर्व ग्रन्थानुसार रचनेका उल्लेख जितने साहित्यका पोछेसे पता चला है उमका परिचय किया है । पूर्व सूचीमें उल्लिखित दि० वादिचंद्र कृत दिया जाता है । श्रीपाल व्याख्यानकी प्रशस्ति देखने पर ज्ञात हुआ कि उस ग्रंथके चरित्रनायक हमारे श्रीपालसे भिन्न है । कथा श्वेताम्बर के अन्तमें "इति श्री विदेह क्षेत्र श्रीपाल सोभागी चक्र- १. श्रीपालचरित्र (सं० गद्य):-लोंकागच्छीय ऋषिकेशव वर्ती हवो तेहनी कथा" ऐसा स्पष्ट निर्देश है। रचित (रचनाकाल:-१८७७ आश्विन शुक्ला ४ इसी प्रकार श्वे. विवंदनीक गच्छीय पद्मसुन्दरके बालचर) इसकी प्रति विजयधर्मसूरि ज्ञानमन्दिर Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, वि .] श्रीपाब-चरित्र-साहित्य सम्बन्ध में शेष ज्ञातव्य आगराके न० १५३८में ५६ पत्रों की हमारे अव- पति मैंने कलकत्तेके दि० बड़े मंदिरमें देखी है । लोकनमें आई है। कर्त्ताने अपना नाम स्पष्ट नहीं सूचित कर कहीं २. श्रीपालरासः-गुणसुन्दर (उपरोन शानमदिर में ३ "सुखकर्न' अन्तके छन्दमें "अतिसुख" इस प्रकार प्रतिये नं० ३५८५.८६.८७ पत्र १४, १५, १०) दिया है अतः नाम सुखकरन या सदासुख होनेकी ३. श्रीपालः-गुजराती (गद्य ) में जैन श्राफिमस संभावना है। अपने परिचयमें कविने इतना ही प्रकाशित कहा है कि "वे पहले पाढिम नगरके निवासी थे ४. श्रीगल:-(संक्षिस) धीर जलाल टी० लि. ज्योति फिर सकूराबादमे रहने लगे थे।" कार्यालयले प्र. कनड भाषा दिगम्बर ६. श्रीपालचरित्र-मंगरमइय रचित सं० १५०८ १. श्रीपालचरित्र-(सं०), पं० जगन्नाथ कृत० उ० ७. , देवरस , (सं०१७०० लगभग) पं० कैलाशचन्द्र जीको प्राप्त प्राचीन सूचियोंमें ८. , वर्द्धमान ,, (सं०१६५० ,) २. श्रीपालचरित्र-भापावचनिका, अमीचद कृत. जय ६. , तृतीयगंगरम पुर दि० भंडार इन्द्रदेवकृत भी माना जाता हैं। ३ श्रीपालचरित्र-भाषावनिका, विनोदीलाल जयपुर तामिल माहित्यमें भी मम्भव है श्रीपालचरित्र हो दि० भंडार पर प्रो० चक्रवर्तीको रिप्लाइ कार्ड देने पर कोई सूचना ४. श्रीपालचरित्र-भाषावचनिका, मू० सकलकीर्ति नहीं मिली। इनमसे नं. १ कैलाशचन्द्रजी नं० २,३, रचित पर जयपुर दि० भडार कर्ता अज्ञात. ४ की मास्टर मोतीलाल जी रघवी, जयपुर, नं०६ से ५. श्रीगलचरित्र-(हिन्दी पद्यमय) मदासुख (?) कृन० १० की प० भुजबलिनी शास्त्रीसे सूचना मिली है एतदर्थ (रचनाकाल स० १८५७ आषाढकृष्णा : रवि. मैं उनको धन्यावाद देता हूँ । अन्य विद्वान भी इसी संधि ६ छंद २२६४) इसकी १०४ पत्रेकी एक प्रकार विशेष ज्ञातव्य प्रकट करें यही नम्र विज्ञप्ति है । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाका अतिवाद [ो श्री दरवारीजाजी सत्यभक्त ] वातिवाद एक ऐसा विष है जो स्वादमें अमृत खात्रो, तब मैं महात्मा महावीरकी अहिंसाका पाठ पढा. ' सरीखा भले ही लगे पर परिपाकमें सर्वनाश ही नेवाली शैलीसे आश्चर्यचकित हो गया। यह एक मनोकरता है । इसलिए हिसाका भी अतिवाद घोर वैज्ञानिक सत्य है कि किसी चीजको अगर तुम माँमकी हिसा बढ़ाने वाला हो जाता है | इसका एक नमूना कल्पना करते हुए खा सकते हो तो एक दिन माँसके मुझे अभी अभी एक जैन पत्रमें पढ़ने को मिला। लेख प्रति तुम्हारी सहज घृणा नष्ट हो जायगी। के लेखक हैं प्रसिद्ध विद्वान श्री कालेलकर, शीर्षक है मुझे याद है कि जब मैं छोटा था तब सक्रान्तिक 'हृदय नो ममभाव । अवसर पर गड़ियाघुम्ला ( शकरके हाथी घोड़े ऊँट लेखकने पशुपक्षियोंकी दयाका चित्रण किया है आदि ) खाते समय कह बैठना था-में इसकी पंछ खाता आनन्दसे उछलने वाले धेटेकी हिंसाका करुण चित्रण हूँ, सिर खाता हूँ आदि । तब पिताजी नाराज होते थे किया है, इस बात पर आश्चर्य प्रगट किया है कि बकर और अन्त में उन्होंने शक्करके जानवर खरीदना बन्द कर के अंग खाते समय लोग यह क्यों नहीं विचारते हैं दिया था तबसे वे शक्करके मन्दिर मकान आदि खरीद कि इसी सिरमें कैसा उल्लास श्रानन्द था । इसके बाद देत ५ । उनने मुझे यह सिखा दिया था कि शक्करमे अहिंसाकी यह धारा बहते बहते वनस्पतियोंम पहुँची भी अगर पशुकी कल्पना आ जाय तो उसके स्वानेमें है। यहाँ तक कि लकड़ियाँ वृक्षोंकी हड्डियाँ कहलाकर पाप लगता है। दयापात्र बनी हैं इमारतके लिये लकड़ी चोरी जाती है जब हम वक्षकी छाल आदिको पशुके चमड़े, हड्डी, तो लेखकको हड्डी चीरनेका कष्ट होता है इस प्रकार मांस, नम, खून आदि की तुलनामें खड़ा करके अतिवृक्षके फल खाना और जानवर खाना, दोनोंकी करता वादी भावुकताम अहिंमाकी माधना करते हैं तब मंत्र एक ही श्रेणी में खड़ी कर दी गई है। भ्रष्ट साधककी तरह हमारे जीवन में प्रतिक्रिया होती है। इममें सन्देह नहीं कि विश्वप्रेमी या परम अहिसक जब हम टमाटरके रससे बकरेके रक्तमाँमकी तुलना वृक्षोंकी भी दया करेगा। जैनाचारमे जैन मुनियोंके करेंगे सूखी बनस्पतिको सूखा मांस और हड्डी समझेंगे, लिए सूक्ष्म अहिमाके पालन के लिये काफी विधान है फिर और इनके बिना जीवन-निर्वाह न होनेसे उन्हें ग्वाते भी जैनधर्मकी अहिंसामें ऐसा अतिवाद या एकान्त भी जायगे, तो इसका परिणाम यह होगा कि एक दिन दृष्टि नहीं है अनेकान्त दृष्टिने जैनधर्मकी अहिसाको टमाटरकी घृणाकी तरह बकरेके माँमकी घुणा भी शिथिल निरतिवाद या व्यवहार्य बना दिया है। हो जायगी। इस प्रकार यह अहिंसाका अतिवाद हिंसाके वर्षों पहिले जब मैंने जैनशास्त्रोंमें यह पहा कि प्रचारमें साधक बन जायगा। विवेकहीन अहिसाका जिस चीजमें तुम्हें माँसकी कल्पना आजाय वह मत प्रवाह अशक्यताको पर्वत श्रेणीसे टकराकर ठेठ हिंमाकी Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिंसाका परिवार चरम सीमा तक पहुंचता है। इसीलिये चारित्रके मूलमें अतिषादी सममाव रही सही अहिंसाको चौपट न भ. महावीरने सम्यग्यशनके होने पर जोर दिया है । वि- कर जाय इसलिए बमस्पत्याहार और माँसामरके वेकहीन चारित्रको प्रचारित्र ही नहीं मिथ्याचारित्र तक बीचमें जो खाई है उसको अधिकसे अधिक बड़ी कहा है। श्री कालेलकर साहिबके लेखमें अहिंसाका बनानेकी जरूरत है। ऐमा ही अतिवादीरूप है जिसकी ऐसी प्रतिक्रिया होगी मौसमक्षीमें दया मानना उससे प्रेम करना आदि कि उससे रही सही अहिंसा भी बह जायगी। एक बात है पर मांसभक्षण और शाकाहारका भेद. मुला भगवती अहिंसाका साधक वृक्षोंकी दया भी देना दूसरी बात है। हम दैशिक परिस्थितिका विचार रक्खेगा और जहाँ जीवन निर्वाहका माँसाहार सिवाय करके, उनकी संस्कृतिका विचार करके या सर्वसाधारण दूसरा साधन न होगा वहाँ माँसाहारको भी क्षन्तव्य का व्यापक दोष समझ कर माँसाहारियोंको दम्य मान लेगा, इतना होने पर भी वह बनस्पति श्राहार माने, परन्तु शाकाहार माँसाहारके विषयमें अपनी और माँसाहारकी विभाजक रेखाको नष्ट न करेगा, न भावनाओंको अमिन न बनायें। इसका खयाल रखें उसकी चौड़ाई कम करेगा । हृदयके समभावको निर्वि- कि बनस्पत्याहारमें माँसाहारका संकल्प न आने पावे । वेक न बनायगा। इसके लिए इन बातोंका विचार जरूरी है। जैनधर्मने हिंसा अहिंसाका बहुत ही गम्भीर विवे- १-जीवन-निर्वाह के लिए हिंसा तो अनिवार्य चन किया है। जहाँ उसने जड़ोपम प्राणियोंके सुख है परन्तु विश्वसुखवर्धनका विचार करते हुए अधिक दुःखका खयाल रक्खा है वहाँ अहिंसाको व्यवहार्य चैतन्यवालेका विचार हमें पहिले करना चाहिए । बनबनाने के लिये हिसाको तरतमताका भी खयाल रक्खा स्पति, कीटपतग, पशुपक्षी, मनुष्य इन चारोकी हिंसा है इसलिये प्राणियोंकी गिनती पर ध्यान न देकर उनकी को बराबर न मानना चाहिये । चैतन्यमात्रा पर ध्यान दिया है। इसलिये बनस्पति, --बनस्पति आदि स्थावर तथा पशुपक्षी आदि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पचेन्द्रिय, पशु आदिकी उसके वधका प्रकार एकसा नहीं है। अनेक प्रकारका हिसामें संख्यगुणा असख्यगुणा अनन्तगुणा अन्तर बत- अंगच्छेद पशुत्रोंको नुकसान पहुंचाता है, पर बनलाया है। अगर इस प्रकारका विवेक न रक्खा जाय स्पतियोंको नुकसान नहीं पहुँचाता। तो अहिसा अव्यवहार्य होजाय। वृक्षोंके फल अगर हम न तोड़े तो वृष उन्हें ___ जैनधर्मकी इस अनेकान्त दृष्टिको भुला कर स्वयं फेंक देंगे । और उनके स्थान पर दूसरे फलफूल जब हम भावुकताके अतिवादसे बकरेकी हिंसा पत्र पैदा होंगे । पर बकरेमें यह बात नहीं है कि अगर और माड़ोंकी हिंसाको एक हो कोटिमें लानेकी हम उसका सिर न काटेंगे तो वह स्वयं पुराना सिर कोशिश करेंगे, बकरेकी हिंसाकी घृणा वृक्ष- फेंक कर वसन्तमें नया सिर लगा लेगा। हिसामें लागू करना चाहेंगे तो इसका परिणाम पक्षकी शाखा काटने पर उसी जगह दूसरी शाखा यह होगा कि वृक्ष हिंसाकी अघृणा या उपेक्षा उगती है, बहुतसी जगह तो शाखा प्रथाखा न काटने बकरेकी बिसामें प्रा उतरेगी । इस प्रकारका पर उनका विकास ही रुक जाता है। एकबार सेक Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अनेकान्त [वैसाख, पीरनिगाव सं०१६ गुलाबका झाड़ लाया उसे पानी तो अच्छा दिया उसमें तैयार करलेंगे पर बेचारे गाँव वालोंकी तो वृक्षोंकी नये नये पत्ते भी पाये पर कटिंग न किया, धीरे धीरे हड्डियाँ जलाये बिना गुजर ही नहीं। इस प्रकार प्रतिउसके पत्ते काले पड़ गये और झाड़ उखड़ गया । एक वादी अहिसा भाव अगर बेचारे गरीब लोगोंके मनमें जानकारसे पूछने पर मालम हुआ कि उसका कटिंग घुस जाय और उसके अनुसार आत्महत्या करनेको करना जरूरी था। तबसे मैं बराबर कटिंग करता हूँ। अगर वे अपनेको तैयार न पायें, अहिंसाको अव्यवहाय कठिगके बाद ही उसमें बाढ़ होती है फूल आते हैं। समझ बैठे, तो शताब्दियोंमें जो थोड़ा बहुत विकास हो बकरको टांग काटना ऐसा जरूरी नहीं है, न टांग पाया है यह ध्वस्त हो जाय । घर घरमें शाक और काटनेसे उसमें बाढ़ पाती है । इसलिये अब मैं वृक्षोंके मांम सब एकाकार हो जाय । फलों पत्रों आदिको गायके दूधकी तरह ही मानता हूँ। हृदयके ममभावको खूब बढ़ाइये, पर समभावके शाखामोंके कटिंगको एक तरहका अपरेशन मानता हूँ। नाम पर हमारे भाव ऐसे अतिवादी न हो जॉय कि और खास कर गुलाबके कटिंगको तो इमी तरह करना कौड़ियाँ गिननेमें हम मुहरें लुटा दें और दोई दीनमे हूँ जैसे छोटे बच्चेके बाल बनवा रहा होऊँ। बकरेकी जाय । अगर कभी भावुकताके उफानमे ऐसे भाव हो भी टांग तोड़ने सरीखी कल्पना मुझे नहीं होती। जाँय तो उन्हे अात्मनेपद ही रक्खे। दुनियाके सामने ___ जंगलवालोंसे मालूम हुआ कि सागौन श्रादिके रखकर उन्हे परस्मैपद बनाना और फिर भी आत्मनेपद माड़ काटने पर तीन चार साल में फिर वैसी ही शाखाएँ की दुहाई देना चिल्ला चिल्लाकर अपने वर्तमान मौनकी तैयार हो जाती है अन्यथा पुराने अंग ही जरठ होते घोषणा करना है। रहते हैं । पशु पक्षियोंके अंग कट जाने पर वे इस प्रकार अन्तमे यही कहना है कि जैनधर्मका अहिमावाद दूने उत्साहस नहीं बढ़ते। बहुत सूक्ष्म होकर भी वह निरतिवाद है, व्यवहार्य है, मेरा मतलब यह नहीं है कि बनस्पतियों तक हमारा उममें योग्यायोग्य विवेक है वह प्राणियोंके चैतन्यकी दयाभाव न पहुँचे, मतलब इतना ही है कि हम पशु- तरतमताके अनुमार हिंमा अहिंमाका विचार करता है वधसे उसकी समानता बताने न लग जाय । अगर हम और मांसाहार शाकाहारकी विभाजक रेखाको काफी यह सोचनं लगें कि घरके झाड़ोंका काटना तो ठीक, स्पष्ट रखता है। शाकाहारमें मामाहारकी कल्पना भी पर जो बेचारे जंगलमें उगे हैं उनका क्या अपराध ? नहीं होने देता। यह अहिंमाका विवेकपर्ण सच्चा रूप है। उनके लिये हमने क्या किया है ? इस प्रकार हम जंगल जिन पत्रोंने श्री कालेलकर साहिबके भावुकता पर्ण से लकड़ी लेना बन्द करदें तो शहरोंके महलोंकी बात विचार प्रगट किये हैं उनका कर्तव्य है कि वे उनका तो दर, वे तो शायद लोहा और कांक्रोटके बल पर बन दुसरा पहल, जो कि विवेक तथा व्यावहारिकता पर भी जाय जिनमें वृक्षोंकी हड्डियाँ दिखाई न दें, पर गांवों अवलम्बित है अवश्य प्रगट करें। अन्यथा इस प्रकार की झोपड़ियाँ मुश्किल हो जायगी। बेचारे ग्रामीण अहिंसाका अधरा और प्रतिवादी विवेचन घोर हिंसाका लोहा चूना सिमिट कहाँसे लायेंगे। शहर वाले तो उत्तेजक होगा। विजलीका बटन दबाकर प्रासुक और शुद्ध भोजन -सत्य सन्देशसे Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाचन्द्रका तत्वार्थसूत्र [सम्पादकीय (गत किरणसे मागे) छठा अध्याय यहाँ 'श्रादि' शब्दसे असातावेदनीयके श्रासवहेतु श्रोंमें शोक,ताप, श्राक्रन्दन,वध, परिदेवनका और साता त्रिकरणः कर्म योगः ॥१॥ वेदनीयके हेतुश्रों में दान, सरागसंयम, क्षमा, शौचादि'तीन करोंसे (मन वचन-कापसे) की जाने वाली का संग्रह किया गया है । उमास्वातिके दो सूत्र नं०११, क्रियाको योग कहते हैं।' १२ का जो श्राशय है वही इसका समझना चाहिये। प्रशस्ताप्रशस्ती ॥२॥ यहाँ सूचनारूपसे बहुत ही संक्षिप्त कथन किया गया है। पुण्यपापयोः [हेतु] ॥३॥ केवल्यादिविवादो (धवर्णवादो!) दर्शनमोहस्य. 'पोग प्रशस्त अप्रशस्त दो हैं।' केवखी भादिका विद्याप (अपवाद!)-उन्हें झूठे 'प्रशस्त योग पुरयका भप्रशस्त योग पापका दोष लगाना-दर्शनमोहका हेतु है। (मानव.) हेतु है। ___यहाँ 'आदि' शब्दके द्वारा श्रुत, संघ, धर्म और उमास्वातिके 'शुभः पुण्यस्याऽशुभः पापस्य' सूत्रका देवके अवर्णवादका भी संग्रह किया गया है। यह सूत्र अथवा श्वे. मान्यताके अनुसार 'शुभः पुण्यस्य', 'प्र. उसी श्राशयको लिये हुए जान पड़ता है जो उमास्वातिके शुभः पापस्य' सूत्रोंका जो श्राशय है वही इन सूत्रोंका 'केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो वर्शनमोहस्य सूत्रका है। कषायजनिततीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥७॥ गुरुनिन्दवादयो ज्ञानदर्शनावरणया:* ॥४|| ___ 'कषायसे उत्पन्न हुमा तीन परिणाम चारित्रमोह 'गुरुनिन्हव (गुरुका छिपाना) मादि ज्ञानावरणदर्शनावरणके हेतु हैं।' यह सूत्र और उमास्वातिका 'कषायोदयात्तीब' यहाँ 'श्रादि' शब्दसे मात्सर्य, अन्तराय, आसादन नामका सूत्र प्रायः एक ही है-मात्र उत्पात्' और उपघात श्रादि उन हेतुओंका ग्रहण करना चाहिये जो कै। - यहाँ मूल पुस्तकमें नं०७ श्रागममें वर्णित हैं, और जिनका उमास्वातिने 'तत्प्रदोष- दिया है जो गलत है। क्योंकि इससे पहिजे 'चतुर्विनिन्हव' नामके सूत्रमें उल्लेख किया है। शतिकामदेवाः' नामका एक सूत्र पुनः गलतीसे नं. दुःखात्यनुकंपाचा असातासातयोः ॥५॥ ६ पर लिखा गया था, जिसे निकाल देनेका संकेत किया हुमा है; परन्तु उसे निकालने पर आगेके नम्बरोंको 'दुख प्रावि असाताके, प्रत्यनुकम्पा पादि साताके बदलना चाहिये था जिन्हें नहीं बदला । इसलिये इस अध्यायके अगले सब नम्बर प्रन्यप्रतिमें एक एककी •परणादयः ।। It पाः साता। वृद्धिको लिए हुए है। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. अनेकान्त [वैसाख, वोर निर्वाण सं० २५६६ 'बनित' शब्दोंका अन्तर है। दर्शनविशुद्धयादिषोडशभावनास्तीर्थकरत्वस्य ।।११।। बह्रारंभपरिप्रहाद्या नारकाद्यायुष्कदेतवः ॥ ८॥ दर्शन विशुद्ध आदि सोलह भावनाएँ तीर्थकर 'बहु प्रारंभ-परिग्रह आदि नारक आदि भाय के नामक प्रास्त्रवकी हेतु हैं।' यहाँ 'यादि' शब्दसे आगमप्रमिद्धविनयसम्पइस सूत्र में दो जगह 'पाय' शब्दका प्रयोग करके बना आदि उन १५ भावनायीका सग्रह किया गया नारक श्रादि चारों ही गनियों के श्रास्रव हेतुअोंका एकत्र है जिनका उमास्वानिन अपने २४ वें सत्र में नामोसंग्रह किया गया है, परन्तु दूमरी गतियोंका एक एक ल्लेखपूर्वक सग्रह किया है। भी कारण सूचना एवं दूसरे कारणोको ग्रहण करनकी अत्मविकत्यानाद्या नीचेर्गोत्रस्य ॥ १२ ।। प्रेरणारूपम साथमें नहीं दिया है, इमसे यह सूत्र श्राव. प्रास्मश्लाघा (अपनी प्रशंसा) आदि नीचगोत्रके श्यकतासे कहीं अधिक संक्षिप्त और अजीबमा ही जान हतु है। पड़ता है । यह विषय मास्वातिने १५ मे २१ तक यहाँ 'पादि' शब्दमे परनिन्दा, मदगुणोंका उच्छा. सात सूत्रोंम वर्णित किया है। दन और श्रमद्गुणांका उद्भावन, ऐसे तीन हेतुश्रीका योगवक्रताधा अशुभानाम्नः ॥६॥ सग्रह किया गया जान पड़ता है,जो उमास्वातिके 'परात्म योगकी-मन वचनकायको - वक्रता आदि अशु- निन्दाप्रशंस' श्रादि सत्रम पर या उल्लेखित मिलते हैं। मनामके प्रास्त्रवतु हैं।' __ तद्वयत्ययो महनः ॥ १३॥ यहां 'श्राद्याः' पद बहुबननान्न होनेसे उसके द्वारा 'नीचगोत्रके हेतुओंम विपरीत-आत्मनिन्दादिक उंच गोत्रके हेतु है। उमास्वातिके २२वें सूत्रमें निर्दिष्ट एकमात्र 'विमवादन यह मूत्र उमास्यानिके 'तद्विपर्ययो नीचैप॒त्यनुस्मे(अन्यथा प्रवर्तन)' का ही ग्रहण नही किया जा सकता को चोत्तरस्य' सूत्रके आशयके माथ मिलना जुलता है। बल्कि दुसरे कारणोंका भी ग्रहण होना चाहिये । उन कारणोंमें सर्वार्थसिद्धिकारने भिध्यादशन, पैशून्य, दानादिविघ्नकरणमतरायस्य ॥ १४ ॥ 'दानादिमे विध्न करना अन्तराय कर्मके मानवका अस्थिरचित्तता. कूटमानतुलाकरणको भी बतलाया है। और लिखा है कि सूत्रमें प्रयुक्त हुए 'च' शब्दस यहां 'आदि' शब्दम लाभ, भोग, उपभोग, और उनका ग्रहण करना चाहिए। वोर्यका ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि अन्तराय तद्वैपरीत्यं शुभस्य ॥१०॥ कर्मके दानान्तराय अदि पाँच ही भेद हैं | इस सूत्रम 'भाशुभ नामके पानवहेतुनोंमे विपरीत-योगकी उमास्वाति के सूत्रम मिर्फ 'दानादि' शब्द अधिक हैं । मरसता और अनुकूल प्रवर्तनादि-शुभ नामके मानव इति श्रीबृहत्प्रभाचन्द्रविरचिते तत्वार्थ सूत्रे षष्टोध्यायः ॥ ६॥ उमास्वातिका 'तद्विपरीतं शुभस्य' सूत्र और यह 'इस प्रकार श्रीवृहलाभाचन्द्र विरचित तत्वार्थसत्र दोनों एक ही हैं। - .. . सूत्रमें छठा अध्याय समास हुमा।' चाशुभ विकथ । । पष्टिमो। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण प्रभाचन्द्रका तत्वार्थ सूत्र वाले अगले पाँच सूत्र नहीं दिये। सातवाँ अध्याय मैञ्यादयश्चतस्रः ॥४॥ हिमादिपंचविरतिबन॥१॥ 'मैत्री प्रादि चार भावनाएँ और है।' 'हिसादिपंचकसे विरक्त (निवृत्त) होना व्रत है।' यहाँ 'आदि' शब्दसे अागमनिर्दिष्ट प्रमोद, कारुण्य हिमा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह ये पच और माध्यस्थ्य नामकी तीन भावनात्रोंका संग्रह किया पाप कहलाते हैं । इनसे निवृत्त होना ही 'बा' है, और गया है। मैत्री महित ये ही चार प्रसिद्ध भावनाएँ हैं। इमीलिये व्रतके अहिमा, मत्य, अचार्य, ब्रह्मचर्य उमास्वातिने 'मैत्रीप्रमोद नामक सूत्र में इन चारोंका और अपरिग्रह ऐसे पाँच भेद हैं । यह सूत्र और उमा नाम सहित संग्रह किया है। स्वातिका 'हिमानृतस्तेयाब्रह्म परिग्रहेभ्यो विरतिर्बनं' श्रमणानामष्टाविंशतिर्मूलगुणाः॥५॥ सूत्र दोनो एक ही टाइप और प्राशयक है । उभास्वाति 'श्रमणों के अट्ठाइस मूलगुण है।' ने प्रसिद्ध पाँचो पापांक नाम दिये हैं. यहाँ हिमाके माथ इम श्राशयका कोई सुत्र उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्र शेषका 'श्रादि' शब्दके द्वारा मंग्रह किया गया है। मनही है। हमम जैन माधुओंके मूल गुणोंकी जो २८ महाऽणु* भदेन तद्विविधं ॥२॥ मंख्या दी है उममें मूलाचारादि प्राचीन दिगम्बर ग्रंथों 'वह व्रत (व्रतसमूह) महाव्रत और अणुवतके के कथनानुमार अहिमादि पंच महाव्रत, ईर्यादि पंच भेदमे दो प्रकारका है।' मिनिया, पाँचो इन्द्रियोंका निरोध, सामायिकादि छह यह मूत्र उमाम्बानिक दूसरे मृत्र 'देशसर्वनोऽणु- अावश्यक क्रियाएँ, अस्नान, भशयन, केशलोंच, अचेमहनी' के समकक्ष है और उसी अाशयको निपे हुए लत्व ( नमत्व ), एकभुक्ति, ऊर्ध्वभुक्ति ( खड़े होकर है । इसके और पर्व मूत्र के अनुसार महानी नया ठा. भोजन करना) और अदन्नघर्पण नामके गुणोंका समागुवतीकी मख्या पाँच पाँच होती है। नहाया॑य भावनाः पंचविंशतिः ॥ ३॥ ___ श्रावकाणामणौ ॥६॥ 'उन (व्रतों) की दृढ़ताके लिये पश्चीम भावनाएं हैं। 'श्रावकोंके मूलगुण पाठ हैं।' यह सूत्र उमाम्बानिक 'नस्थैर्यार्थ भावनाः पंच अाठ मूल गुणांके नामोंमें यद्यपि श्राचार्यों में कुछ पंच' सूत्र (न० ३) के समकक्ष है और उमीके अाशय मत भेद पाया जाता है, जिमके लिये लेखकका लिग्वा का किये हुए है। वहाँ प्रत्येक व्रतको पाँच पोच भाव- या 'जैनाचार्योंका शामन-भेद' नामका ग्रंथ देग्वना नाएँ बनलाई है, नब यहा उन सबकी एकत्र सरव्या चाहिये । परन्न यहाँ चूंकि व्रती श्रावकोंका अधिकार है पच्चीम दे दी है । दिगम्बर पाठानुमार उमास्वातिक इमलिये अाठ मूलगुणों में स्वामी ममन्तभद्र-प्रतिपादित अगले पांच सूत्रोंमें उनके नाम भी दिये हैं, परन्तु यहाँ आँच गुणवतों और मद्य-माँस-मधुके त्यागको लेना संख्याके निर्देशसे उनका संकेतमात्र किया गया है। चाहिये । इम श्राशयका भी कोई सूत्र उमास्वातिके श्वेताम्बर सूत्रपाठमें भी ऐसा ही किया गया है--नामों- तत्त्वार्थसूत्र में नहीं है। भवणा | मूलगुणा। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त (बैसाख, वीर विसं.२० शीलसप्तकं च ॥७॥ व्रत-शीलादिकके भी पाँच पाँच ही प्रतीचारोंका अपना 'सात शीब भी भावोंके पुर।' कम रक्खा है, इसलिये सम्यग्दर्शनके शेष अतीचारोंका सप्त शीलके नामोंमें भी प्राचार्योंमें परस्पर कुछ प्रशंसा-संस्तवमें अन्तर्भाव कर लेना चाहिये। यहाँ मत भेद है.। उमास्वातिने अपने 'दिग्देशानदण्ड' 'शंकामाः' पद पर पाठका अंक दिया है, इससे भी नामक सूत्रमें उनके नाम दिग्विरति, देशविरति, अन- आठ अतीचारोंका ही ग्रहण जान पड़ता है। यंदण्डविरति, सामायिक, पोषधोपवास, उपभोगपरिभोग. बंधाक्ष्योव्रतानां ॥९॥ परिमाण, अतिथिसंविभाग दिये हैं जब कि कुन्दकुन्दा- बंध सादिक मतोंके प्रतीचार है।' चार्यने चारित्र माभूतमें देशवतका प्रहण न करके सप्तम यहाँ 'बूतानां पदके द्वारा अहिंसादिक सब व्रतो. स्थान पर 'सल्लेखना' का विधान किया है । इसी तरह का और 'पादि' शब्दके द्वारा उनके पृथक पृथक और भी थोड़ा थोड़ा मतभेद है । यहाँ संभवतः कुन्द- अतीचारोंका संग्रह किया गया है। परन्तु उनकी कुन्द प्रतिपादित गुणवत-शिक्षावतात्मक सप्त शीलोंका संख्याका किसी रूपमें भी उल्लेख नहीं किया है। यह ही उल्लेख जान पड़ता है, क्योंकि आगे संन्यास सूत्र बहुत ही संक्षिप्त-सूचनामात्र है। इसमें उमास्वा. ( सल्लेखना ) का कोई अलग विधान न करके १० वें तिके २५ से ३२ अथवा ३६ नम्बर तक सूत्रोंके विषय. सूत्र में उसके प्रतीचारोंका उल्लेख किया गया है। का समावेश किया जा सकता है। शंकायाः सम्यग्दृष्टरतीचाराः॥८॥ मित्रस्मृत्याद्याः संन्यासस्य ॥१०॥ 'संका मादि सम्यग्दर्शनके प्रतीचार है।' "मित्रस्पति मादि संन्यास ( सोखना) के मतो यहाँ प्रतीचारोंकी संख्याका निर्देशन होनेसे श्रादि' चार हैं।' शब्दद्वारा जहाँ उमास्वाति-सूत्र-निर्दिष्ट काँक्षा, विचि- यहाँ भी अतीचारोंकी संख्याका कोई निर्देश नहीं कित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा, अन्यदृष्टि संस्तव इन चार किया। 'आदि' शब्दसे सुखानुबन्ध, निदान नामके अतीचारोंका ग्रहण किया जा सकता है वहाँ सम्यग्द- अतीचारोंका और क्रम-व्यतिक्रम करके यदि ग्रहण शनके निःशंकित अंगको छोड़कर शेष सात अंगोंके किया जाय तो जीविताकाँक्षा तथा मरणाकांक्षाका भी प्रतिपक्षभूत कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगृहन, ग्रहण किया जा सकता है, जिन सबका उमास्वातिके अस्थितीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना नामके 'जीवितमरणाशंसा' इत्यादि सूत्रमें उल्लेख है। दोषों-प्रतीचारों का भी ग्रहण किया जा सकता है। स्वपरहिताय स्वस्यातिसर्जनं दानं ॥११॥ सर्वार्थसिद्धि में अष्ट अंगोंके प्रतिपदभूत आठ प्रतीचार 'अपने और परके हित के लिये अपनी वस्तुका होने चाहिये, ऐसी शंका भी उठाई गई है और फिर त्याग मना दान है। उसका समाधान यह कहकर कर दिया है कि ग्रन्थकारने यह सूत्र उमास्वातिके 'मनहाय खल्याविसों लो, वाचायीका शासनमेद, गुचवत और खेताम्बरीव सूत्रपाके अनुसार ये सूत्र नं०१० सिलामत प्राप. से।। ... से प्रारंभ होते है और करें। THEN Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाचा सल्लाये सूत्र वाच' इस सूत्रके समकक्ष है। दोनोंका नाशय एक ही उत्तरा मष्ट चत्वारिशच्छता ॥ ४॥ है । इस सूत्रका 'स्वपरहिताय' पद उमास्वातिके 'धनु- 'उत्तर प्रहतियाँ एक्सी अपवावीस है। ग्रहार्थ' पदसे अधिक स्पष्ट ज्ञान पड़ता है। __ज्ञानावरणकी ५, दर्शनावरणकी, वेदनीयकी २, इति प्रभाचन्द्रविरचिने तत्वार्थसूत्रे सप्तमो- मोहीयको २८, श्रायुकी ४, नामकी ६१, गोत्रकी २ ध्यायः ॥७॥ और अन्तरायकी ५ प्रकृतियाँ मिलकर उत्तर प्रकृति'इस प्रकार प्रभाचप्रविरचित तत्वार्थसूत्रमें योंकी संख्या १४८ होती है। उमास्वातिने मूल प्रकृतिसातवा मध्याय समाजमा।' योंके नामाऽनन्तर उत्तर प्रकृतियोंकी संख्याका निर्देशक जो स्त्र 'पंचनवापटाविंशति' इत्यादि दिया है उसमें आठवाँ अध्याय नाम कर्मकी उचर प्रकृतियोंकी संख्या १२ बतलाते हुए उत्तर प्रकृतियोंकी कुल संख्या १७ दी है। नामकर्मकी मिथ्यादर्शनादयो बंधहेतवः ॥१॥ उत्तरोत्तर प्रकृतियोंको भी शामिल करके उत्तर 'मिथ्यावर्शन भादि बन्धके कारण है।' प्रकृतियोंकी कुल संख्या १४८ हो जाती है । उन्हीं यहाँ 'श्रादि' शब्दसे आगम-कथित उन अविरत, सब उचर प्रकृतियोंका यहाँ निर्देश है। प्रमाद, कषाय और योग नामके बन्धहेतुअोंका संग्रह ज्ञानावरणादित्रयस्यांतरायस्य च त्रिंशत्सागकिया गया है, जिनका उमास्वातिने भी अपने हमी रोपमकोटीकोट्यः पराध्या (परा!) स्थितिः ॥५॥ अध्यायके पहले सूत्रमें नामनिर्देशपूर्वक मंग्रह किया है। शानावरवादि तीन कर्मों की पौर अन्तराषकी चतुर्धा बन्धाः ॥२॥ उस्कृष्ट स्थिति तीम कोडा कोडी सागरकी है। 'बन्ध चार प्रकारका होता है।' यह सूत्र उमास्वातिके 'प्राविस्तिसृजामन्तरायस्प' यहाँ चारकी संख्याका निर्देश करनेमे पागम- इत्यादि सूत्रके समकक्ष है और उसी आशयको लिये निर्दिष्ट प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेशबन्ध नामके चारों हुए है। बन्धोंका संग्रह किया गया है। और इसलिये यह सूत्र मोहनीयस्य सप्ततिः ॥६॥ और उमास्वातिका 'प्रातिस्थित्यमागप्रवेशास्तविधयः' 'मोहनीय कमेको उहाट स्विति सतरफोडाकोटी सत्र दोनों एक ही प्राशयको लिये हुए हैं। सागर की है। मूलप्रकृतयोऽष्टौ ॥३॥ __ उमास्वातिके सूत्रमें 'सततिः' पद पहले और 'मूल प्रकृतियाँ पाठहै। 'मोहनीयस्प' पद बादमें है। भागम-कथित कर्मोकी मूल पाठ प्रकृतियाँ ज्ञाना त्रयविशदेवायुषः ।। वरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, प्रायु, नाम 'माधुर्मकी नकट स्थिति तेतीस ही सागर की है। और गोत्र है, और इसलिये इस सूत्रका वही प्राशय है यह सूत्र उमास्वातिके 'अपवित्सागरोपमालाजो उमास्वातिके 'पायो शानदार' इत्यादि पुष' सूत्रके समान है। इसमें प्रयुक्त हुभा ‘एवं गन्द सत्रका है। "' उमरा है। m . Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (बैसाख, पीर निवाब सं. २०१८ कोटी कोटिकी निवृत्यर्थ जान पड़ता है। 'तपसे निर्जरा भी होती है। नामगोत्रयोविंशतिः ॥८॥ यह सूत्र और उमास्वातिका दूसरा सूत्र दोनों प्रायः 'नाम और गोत्र कर्मको उत्कृष्ट स्थिति बीस कोग एक ही है-वहाँ 'च' शब्दका प्रयोग है तब यहाँ उस कोरी सागरकी है। के स्थान पर 'अपि' शब्दका प्रयोग है। अर्थमें कोई __यह सूत्र उमास्वातिके 'विशतिनामागोत्रयोः' सूत्र भेद नहीं । तपसे संवर और निर्जरा दोनों ही होते हैं, यह के बिल्कुल समकक्ष है। परन्तु यह सूत्र नम्बर ७ पर 'च' और 'भपि' शब्दोंके प्रयोगका अभिप्राय है। होना चाहिये क्योंकि ८ नम्बर पर होने के कारण इस उत्तमसंहननस्यांतर्मुहूर्तावस्थापि ध्यान ॥३॥ में वर्णित स्थिति पूर्व सूत्रके सम्बन्धानुसार २० सागरकी 'उत्तम संहननवालेके ध्यान अन्तर्मुहूर्त पर्यत हो जाती है-२० कोडाकोडी सागरकी नहीं रहती- अवस्थित रहने वाला होता है।' और यह सिद्धान्त शास्त्रके विरुद्ध है। ध्यान अन्तरंग तपका एक भेद है, वह ज्यादासे इति श्रीवृहत्प्रभाचंद्रविरचिते तत्वार्थसूत्रे अष्ट- ज्यादा अन्तर्मुहूर्त-एक मुहूर्त-पर्यन्त ही स्थिर रहने मोभ्याय ॥८॥ वाला होता है,और वह भी उत्तम संहनन वालेके । हीन 'इस प्रकार भी बृहत्प्रभाचंद्र विरचित तरवार्थ सूत्र सहननवालेका ध्यान किसी भी विषय पर एक साथ इतनी में पाठवां अध्याय समाक्ष हुमा।' देर तक नहीं ठहर सकता। उमास्वातिका 'उत्तमसंहनन स्यैकाप्रचिन्तानिरोधोध्यानमान्तर्मुहात' यह २७वास नववाँ अध्याय सूत्र भी इसी श्राशयका है । विशेषता इतनी ही है कि उमास्वातिने 'एकाग्रचिन्तानिरोधः' पदके द्वारा ध्यानका गुप्त्यादिना संवरः ॥१॥ 'गुप्ति बादिके द्वारा संवर (कर्मास्सवका निरोधी स्वरूप भी माथमें बतला दिया है। होता है।' तचतुर्विधं ॥४॥ यहाँ 'आदि' शब्दसे समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परि वह ध्यान चार प्रकारका है।' यहाँ चारकी संख्याका निर्देश करनेसे श्रागमप्रमिद्ध पहजय और चारित्र नाम के आगम कथित सवर-भेदोंका उनके उपभेदों-सहित सग्रह किया गया है, और इस बात, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल ऐसे चारों भेदोंका मग्रह लिये इस सूत्रका विषय बहुत बड़ा है। उमास्वातिका किया गया है । उमास्वातिका इसके स्थान पर 'भात. 'सगुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचरित्रः' नामका सत्र रोधय॑सुक्तामि' सूत्र है, जो ध्याननामोंके स्पष्ट इसी आशयका स्पष्टतया व्यंजक है। उनके तत्त्वार्थ- उल्लेखको लिये हुए है। सत्रमें राति आदिके उपभेदोंका भी अलग अलग सूत्रों आद्य संसारकारणे ॥५॥ में निर्देश किया गया है, जब कि यहाँ वैसा कुछ भी परे मोक्षस्य ॥६॥ नहीं है। * श्वेताम्बरीय समपाम् :ध्यानम्' सबके अंशको तपसा निर्जराऽपि ॥२॥ ____ २० वा सूत्र और 'आमुहूर्तात' को २८ वा पत्र बत. ति। बाया है। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाचन्द्रका तपार्थसूत्र 'पहले दो (भात, रोह) ध्यान संसार कारण कुल समकक्ष है। दोनों एक ही नाशयको लिये हुए 'दूसरे दो (पम्प, एक) मोपके कारण है।' अशेषकर्मक्षये मोक्षः ॥३॥ उमास्वातिने इन दोनों सूत्रोंके स्थान पर परे मोप- 'सब कर्माका भय होने पर मोच होता है।' हेतु' नामका एक ही सूत्र रक्खा है और उसके द्वारा इस सूत्रके स्थान पर उमास्वातिका दूसरा सूत्र दुसरे दो ध्यानोंको मोक्षका हेतु बतलाया है, जिसकी 'बन्धहत्वभावनिर्जराभ्यां चरस्मकर्मविप्रमोसमोर सामर्थ्यसे पहले दो ध्यान स्वतः ही संसारके हेतु हो है, जिसमें 'बन्धहेत्वमावनिर्जराम्या' यह कारण जाते हैं । यहाँ स्पष्टतया ससार और मोक्षके हेतुअोंका निर्देशात्मक पद अधिक है । और उसके द्वारा यह अलग अलग निर्देश कर दिया है। सूचित किया गया है कि अशेष कोका विनास बन्धक पुलाकाद्या: पचनिन्थाः ॥ ७॥ हेतुओंके अभाव और संचित कोंकी निर्जरासे होता है। 'पुखाक मादि पाँच निर्ग्रन्थ हैं।' तत अव गच्छत्या लोकांतात ॥३॥ यहाँ पाँचकी संख्याके निर्देशपूर्वक 'पादि' शब्द ___'तत्पश्चात ( मोरके अन्तर) मुक्त जीव बोकके से पागमप्रसिद्ध बकुश, कुशील निम्रन्थ और स्नातक अन्त तक गमन करता है।' नामके चार निम्रन्योंका संग्रह किया गया है । उमा ____ यह सूत्र उमास्वातिके पांचवें सूत्र सदनन्तर मुख्य स्वातिने 'पुजाक-बय-कुशीन-निम्रन्थ-स्मासका निर्म गच्छत्याखोकान्तात्'के बिल्कुल समकक्ष है तथा एकान्याः' इस सूत्रमें पाँचोंका स्पष्ट नामोल्लेख किया है। र्थक है और उससे तीन अक्षर कम है। इति वृहत्समाचन्द्रविरचिते तत्वार्थसूत्र नव- ततो न गमनं धर्मास्तिकायाभावात् ॥ ४॥ मोध्याय ॥ ९॥ 'लोकके अन्तिम भागके परे मनोको गमन नहीं इस प्रकार ग्रहामा चन्द्रविरचित कार्यमूवमें है. क्योंकि वहां धर्मास्तिकायका प्रभाव है।' नवाँ अन्याय समास हुआ। यह सूत्र उमास्वातिके धर्मास्तिकायाभावाच' सत्रके समकद है -मात्र 'ततो न गमनम्' पदोंकी विशेषताको दसवां अध्याय लिये हुए है, जो अर्थको स्पष्ट करते हैं। मोहक्षये पातित्रयापनोदाकवलं ॥ १ ॥ क्षेत्रादिसिद्धभेदाः माध्याः ॥५॥ 'मोहबीय कर्मका पप होने पर तीन पातिया श्वे. सूत्र पाठमें यह सूत्र दो सूत्रों में विभक्त है। को ज्ञानावरण दर्शनावरब, अन्तराप-के विनाशसे इसका पहला पद दूसरा सूत्र और शेष दो पद 'विप्रकेवल ज्ञान होता है। मोहो' के स्थान पर 'क्षयो' पदकी तबदीलीके साथ यह सूत्र उमास्वातिके 'मोहमपात शानदर्शना- तीसरा सूत्र है। वरणासरावाच केवलम्' इस प्रथम सूत्रके बिल चा Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [बैसाख, पीरनिर्वावसं.१५ पादिक हारा सिदमेद साब-कि- इति मी हत्यमाचंद्राचार्यविरचिते तत्व , सारे सूत्रे दशमोध्यायः ॥१०॥ यहाँ 'पादि' शब्दसे उन प्रगमोदित काल, गति, इति बिनकरिपसूत्रो समान लिंग, तीर्थ, प्रत्येकचोधित, पुदबोधित, शान, अवगाह- इस प्रकार हमाचप्राचार्य विरचित तवार्य ना, अन्तर, संख्या और अपबहुत्व भेदोका सपा सार सूत्र में दसवां अध्याय पूर्व हुमा।' किया गया है जिनके द्वारा सिद्धोंमें नयविषक्षासे विक- इस प्रकार निगरपी सूत्र समा हुमा ।' स किया जाता है-कुनै भेदरूप माना जाता है- पीरसेवा-मन्दिर, सरसापा, ता. 20-1-100. और जिनका उल्लेख उमास्वातिने अपने क्षेत्रकालगति... मुपासाबासूबमें किया है । और स्वार्थ सिद्धिकारादिने मिनका विशेष विवेचन किया है। विविरचिते। विवकरपी सूत्र परमाणु ! (रच-श्री चैनसुखदास न्यायती] अजब हैं तेरे सब व्यापार ! तू भनित्य नौ नित्य कशित्। स्पर्श इय-रस-गन्ध-रूप-मय कभी न मिलता तुझसे सञ्चित् विश्वोदय भी लयका प्रालय बन जाता जब स्कन्ध बन्ध-मय का अनन्त परिवर्तन, फिर भी हो जाता सविकार। रहता है अविकार । प्रादि-मध्य-अवसान न होता शाङ्कर-छिद्र सहित बतलाते फिर भी तू षट्कोण कहाता छिद्र रहित सब दर्शन गाते हैं साँख्य पतन्जलिकी तन्मात्रा तुझे बताते विधि-विधानमें ४ तु त्वन्मय संसार । श्रादि-अन्तका द्वार । V यह अनन्त रचना सब तेरी सर्व तन्त्र-सिद्धान्त बनाते x विश्व-प्रकृति है तेरी घेरी तुझे तत्वषेचां बतलाते Y जल-चल-घरज-चन्द्र आदिमें विविध क्रिया-गतिका प्राश्रय तू तेरा ही विस्तार। अपपवि का है सार । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवार जातिके इतिहास पर कुछ प्रकाश [न-मो. नाथूरामजी 'मी'] उपोहपात ही मालूम होती है। जैनधर्मके दिगम्बर सम्प्रदायको समय इस बातकी चर्चा बड़े बोरों पर कि यह अनुयायिनी है। अन्य जातियों के समान न बमें परवार जातिका एक इतिहास तैयार कियां कोई श्वेताम्बर सम्प्रदायका अनुयायी है और न जैनेपाय । अपनी प्राचीनता और गत-गौरवकी कहानी तर सम्प्रदायोंका । हाँ, इसमें कुछ लोग सारन पंथ जाननेकी किसे इच्छा नहीं होती है परन्तु वास्तवमें अनुयायी अवश्य है जो 'समैया कालाते हैं । दिसम्बर जिसे इतिहास कहते हैं उसका लिखना इतना · सहज सम्प्रदायकी और सब बातोंको मानते हुए भी मूर्ति पूजा नहीं है जितना कि लोग समझते हैं। जातियोंका इति नहीं करते, केवल शाम्रोको पूजते हैं और वे शान हास लिखना वो और भी कठिन है। क्योकिसके गिनतीमें चौदह है, जिन्हें विक्रमकी सोलहवीं शताब्योमें लिए जो उपयोगी सामग्री है अभी तक नोकर तारनस्वामी नामक एक संतने रचा था। . लानेकी ओर ध्यान ही नहीं दिया गया है। परवारोंके अठसखे, बहसख, चौसले और दोसले जो कुछ सामग्री मिल सकी है उसके प्राधर पर मैं इस ये चार भेद किसी समय हुए थे, जिनमें से इस सम लेखमें कुछ प्रकाश गलनेका प्रयल करूँगा। केवल अठसखे और चौसखे रह गये ।। सुना जाता है कि दोसखे परवारों भी कुछ घरोका अस्तित्व है, परवार जातिका परिचय और उसके भेद परन्तु हमें उनका ठीक पता नहीं है। लेख शुरू करनेके पहले यह जरूरी है कि परवार जातियोंकी उत्पत्ति कैसे होती है ? जातिका थोड़ा सा परिचय दे दिया जाय । इस बारेमें । __ परवार जातिकी उत्पत्ति पर गहराईसे विचार करहमें इतना ही बना है कि वैश्योंकी जो सैकड़ों जातियाँ है, परवार जाति मी उन्हींमें से एक है। बुंदे नेके लिए यह जरूरी है कि पहले यह जान लिया जाय लखण्ड, मध्यप्रदेशके उत्तरीय जिले, मालवेकी ग्वालि कि भारतवर्षकी उसके समान अन्य जातियोंकी उत्पत्ति पर और भोपाल प्रादि रियायतों के कुछ हिस्से, प्रघा कैसे होती रही है। इसके लिए पहले हम भगवजिनः नवासे इन्हीं यह अति भावाद है। दि. जैन गवर सेनाचार्यका मत उद्धृत करते हैं। भगवजिनसेनके क्टरी (सन् १९१४) के अनुसार परायेदी जनसंखया कथनानुसार पहले मनुष्य जाति एक ही थी, पीचे जीलगभग ४२ हजार है। सहकारी जसीवादी, कान विकाओंके भेदके कारण यह ब्रामय, चत्रिय, वैश्य दारारि बजाजी इस जातिकी मुख्य पी िभार शाइन चार भेदाम बंट गई। रंग रूम और गरीर-संगठनसे वायकर्ष प्रा. पाति मादिराव पर्व २८ कोक । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बनेकान्त (साब, वीर विकसं० २५॥ महामास शानिमम का यह सूत का रस और अपने स्माको भोक 01 जाति है। परन्तु इस सनये भारतवर्ष में सब मिला कर याँ सामाजिक कारणोंसे बन गई । जैसे प्रत्येक जाति २७३८ जातियाँ हैं। अब प्रश्न यह होता है कि मूलक के दस्सा, चीता, पाँचा प्रादिभेद और परवारों के उक्त चार वर्षों में से ये हजारों जातियाँ कैसे बन गई?- चौसखे, दोसखे आदि शाखायें । कुछ जातियाँ विचार इस विषयमें इतिहासकारोंने बहुत कुछ छानबीन की है। भेदसे या धर्मसे बन गई है जैसे वैष्णन और जैन; खंडेहम यहाँ जाति बनने के कारण बहुत ही संक्षेपमें बत- लवाल, श्रीमाल, पोरवाई, गीलापरव आदि । लाएंगे। पेशोंके कारण बनी हुई भी बीसों जातियाँ हैं, जैसे सुनार, लुहार, धीवर, बढ़ई, कुम्हार, चमार आदि । . कुछ जातियाँ तो भौगोलिक कारणोंसे-देश प्रान- इन पेशेवाली जातियों में भी फिर प्रांत, स्थान, भाषा नमरोंके कारण बनी है। जैसे ब्राह्मणोंकी श्रौदीच्य, श्रादिके कारण सैकड़ों उपभेद हो गये हैं। कान्यकुब्ज, सारस्वत, गौड़ आदि जातियाँ और वैश्यों सुप्रसिद्ध इतिहासकार स्वर्गीय काशीप्रसाद की. श्रीमाली, खण्डेलवाल, पालीवाल या पल्लीवाल, जायसवालने अपने 'हिन्दु-राजतन्त्र' नामक ग्रन्थमें अोसवाल, मेवाड़ा, लाड आदि जातियाँ। उदीची बतलाया है कि कई जातियाँ प्राचीन कालके गणतंत्रों अर्थात उत्तर दिशाके प्रौदीच्य, कान्यकुब्ज देशके या पंचायती राज्योंकी अवशेष है, जैसे पजाबके अरोड़े कान्यकुब्ज या कनबजिया, सरस्वती तटके सारस्वत (अरह) और खत्री (क्सपोई) और गोरखपुर आजमगढ़ और गौड़ देश या बंगालके गौड़ । इसी तरह श्रीमाल जिलेके मल्ल आदि । अभी अभी डाक्टर सत्यकेतु विद्यानगर जिनका मूल स्थान था वे श्रीमाली कहलाये, जो लंकारने अग्रवाल जाति के इतिहासमें यह सिद्ध किया है ब्राह्मण भी है, वैश्य भी हैं और सुनार भी हैं। इसी कि अग्रवाल लोग 'आग्रेय' गणके उत्तराधिकारी हैं । तरह खडेलाके रहनेवाले खंडेलवाल, पालीके रहनेवाले ये गणतंत्र एक तरह के पंचायती राज्य थे और अपना पालीवाल या पल्लीवाल, ओसियाके श्रोसवाल, मेवाड़के शासन बार ही करते थे। कौटिल्यने अपने अर्थशास्त्र मेवाड़ा, लाट (गुजरात) के लाड श्रादि । यहाँ यह में इन्हें 'वाशिस्त्रोप नीवी' बतलाया है। 'वार्ता' का बात ध्यान में रखने योग्य है कि जब किमी गजनीतिक अर्थ कृषि, पशुपालन और वाणिज्य है । ये तीनों कर्म या धार्मिक कारणमे कोई समूह अपने प्रांत या स्थानका वैश्योंकि हैं । इसके साथ शस्त्र धारणं मी वे करते थे । परिवर्तन करके दूसरे स्थानमें जाकर बसता था, तबसे ये महिलवादा सोंकी राजा मूलराज (ई. नाम प्राप्त होते थे और नवीन स्थानमें स्थिर-स्थावर हो जाने के लिये विन ब्राह्मण परिवारों को जाने पर धीरे धीरे उनको एक स्वतंत्र जाति बन जाती - बन जाती उत्तर भारतसे पुजारभपने यहाँ बसाया था, उन ही यी। उदीची या उत्तरके ब्राह्मणोंका दल जब गुजरात मोदीयते।। में प्राकर बसा तंब यह स्वाभाविक था कि वह अपने ४ इनका जोर प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलता है, जैस अपने ही दल के लोगोंके साथ सामाणिक सम्बन्ध सम्बन्ध परन्तु यह । पेटेकी पाचानक रूपमें, वर्तमान जतिस्पर्म नही पैसे प्रोपगारवाई भादि । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवार जातिके इतिहास पर प्रकाश जब इनकी स्वाधीनला छिन गई और एकतंत्र राज्योंमें शन्द पल्लीवाल, श्रोसवाल, जैस्वाल जैसा ही है और इनको समाप्त कर दिया, तब ये शम्न छोड़कर केवल उसमें नगर या स्थानका संकेत सम्मिलित है। महतसे वैश्य कर्म ही करने लगे और अब उनमें से कितने ही या महाब्राह्मणोंसे जो परवारोंकी उत्पत्तिका अनुमान पुराने नामोंको लिए हुए जातिके रूपमें अपना अस्ति- किया है वह तो निराधार और हास्यास्पद है ही, इस त्व बनाये हुए हैं। संभव है कि अन्य वैश्य जातियोंके लिये उस पर कुछ लिखमेकी जकरत ही नहीं माखन विषयमें भी खोज करनेपर उनका मन भी अरोड़ा, . खत्री, मल्ल श्रादि जातियों के समान प्राचीन गणतत्रों में अगर हम 'परवार' शब्दके अन्तका 'वार' 'वाट' निजा मीन के अर्थमें लें तो यह सिद्ध करना ज़रूरी है कि इस समय बार स्थान परिवर्तनके कारण नये स्थानों परसे नये परवार जातिका जहाँ श्रावास है वहाँ वह किसी समय नाम प्रचलित हो गये हों और पुराने गणतत्र वाले नाम कहीं अन्यत्रसे पाकर बसी है। उसे वर्तमान आवास भल गये हों। स्थानमें आये हुए कई शताब्दियाँ बीत गई हैं इसलिए उनके रहन-सहन, रीति-रिवाजोंमें पहले कुछ खोज निकापरवारोंके विषयमें प्रचलित मान्यताओंका लना, अशक्य मा है, फिर भी कुछ बातें ऐसी हैं जिनसे खंडन और अपने मतका स्थापन बाहरसे पानेका अनुमान ज़रूर हो सकता है। सबसे परवार जातिके विषयमं अधिक खोज करनेसे पहले पहली बात पंचायती संगठन है । बुंदेलखंड और मध्ययह जरूरी है कि इसके सम्बन्धमें प्रचलित मान्यताश्री प्रदेशमें शायद ही कोई ऐसी मूल जाति हो जिसमें इस का विचार किया जाय। तरहका पंचायती अनुशासन हो यह अनुशासन उन्हीं _ 'परवार' शब्दको बहुतमे लोग 'परिवार' का अप. जातियोंमें होना स्वाभाविक है जो कहीं अन्यत्रसे श्राकर भ्रष्ट रूप बतलाते हैं जिसका अर्थ कुटुम्ब होता है । कोई बसती हैं और जिन्हें दूसरोंके बीच अपना स्थान बनाकर यह भी कल्पना करते हैं कि शायद परवार 'परमार' रहना पड़ता है या जो गणतंत्रोंकी अवशेषहैं। इनके व्याह राजपत्तोंमेंसे हैं, जिन्हें आजकल पवार भी कहते हैं। शादी श्रादिके रीति-रिवाज भी अन्य पड़ोसी जातियोंसे परन्तु ये सब कल्पनायें हैं। मूल शब्दसे अपभ्रष्ट होने के निराले है । ब्राह्मणोंको इस जातिने अपने सामाजिक और भी कुछ नियम है और उनके अनुसार 'परमार' से धार्मिक कार्योस बिल्कुल बहिष्कृत कर दिया है । यहाँ 'परवार' नहीं बन सकता। अपभ्रंशमें 'म' का कुछ तक कि उनके हाथका भोजन भी ये नहीं करते। यदि अंश शेष रहना चाहिए जैसा कि 'पंवार' में वह अनु ये जहाँ वहींके रहने झाले होते, तो ब्राह्मणोंका प्रभाव स्वार बनकर रह गया है। हमारी समझमें परवारी परमी होता जो प्रत्येक प्रतिकी प्रत्येक आतिमें परम्परा भस विपकी बिष बालीजिए देखोस गत रहा है। इनकी स्त्री-पुरुषोंकी पोशाकमें भी विशेषता गीय .. . बायसवाल न्यू राय- थी, जो अब लुप्त हो रही है। हमारी समझमें पांघ, चावन्द संस्कृत भामा प्रत्यक्षा। परवार, पडीवास वगैरह शब्दों का "मर' मा देखो बागे इसी विषयकी पनि । . . Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेपाल .. . [साब, बीरवि बनरी और तनीदार चोली परवार स्त्रियोजी ही विथे. तीसरा लेख मानपुरा (चंदेरी) की एक प्रतिमाका पसा थी, जो पड़ोसी जातियोंमें नहीं थी और यदि थी तो है-- इन्हीके अनुकरण पर। __ "संवत् १३४५ आषाढ़ मुदि २ दुधौ (ब) भी मूल परवार जाति बाहरसे पाकर बसी है, इसके अन्य संघे भट्टारक श्रीरलकीर्तिदेवाः पौरपाटान्वये साधुदा हद प्रमास इसी लेखमें अन्यत्र मिलेंगे। मार्यावानी सुतश्च सौ प्रणमति नित्यं ।" परवार जातिका प्राचीन नाम इसमें भी मूर्ति प्रतिष्ठित करनेवाले पौरपाट अन्वयके हैं। । अब देखना चाहिए कि प्राचीन लेखोंमें इस जाति ___स्पष्ट मालूम होता है कि इन लेखोंमें 'पौरपाट' का नाम किस रूपमें मिलता है। मेरे सम्मुख परवारों या 'पौरपद' शब्द परवारों के लिए ही आया है क्योंकि बारा प्रतिष्ठित प्रतिमाओं और मन्दिरोंके जो थोड़ेसे लेख इन प्रांतोंमें जैनियोंमें परवार लोग ही ज्यादा है। फिर है, उनमें से सबसे पहला लेख अतिशय क्षेत्र ‘पचराई। भी अगर इस पर शंका की जाय कि पौरपाया पौरके शांतिनाथके मन्दिरका है जो वि० सं० ११२२ का पाट वंश परवार ही है, इसका क्या प्रमाण ? तो इसके है। उसका यह अंश देखिए लिए चन्देरीकी श्री ऋषभदेवजीकी मूर्तिका यह लेख पौरपरहान्वये राखे साधनाम्ना महेश्वरः । देखिए-- महेश्वररेष विव्यातस्तत्सुता परम) संशक संवत् ११०३४ वर्षे माघ सुदी ६ बुधौ (धे) अर्थात् पौरपट वंशमें महेश्वरके समान साहु महे- मूलसंघे भट्टारक श्री पद्मनन्दिदेव-शिष्य-देवेन्द्रकीर्ति श्वर थे जिनका पुत्र ध (म) नाम का था। पौरपाट अष्टशाखा श्राम्नाय सं० थपऊ भार्या पु तत्पुत्र दूसरा लेख चदेरीके मन्दिरकी पार्श्वनाथकी प्रतिमा सं० कालि भार्या श्रामिणि तत्पुत्र सं० जैसिंघ भार्या पर इस तरह है:-- महासिरि तत्पुत्र सं..............." "संवत् १२५२ फाल्गुन सुदि १२ सोमे पौरपाटा- इसी तरह का लेख देवगढ़ में है जिसका एक न्वये साधु यशहद रुद्रपाल साधु नाल भार्यायनि...... अश ही यहाँ दिया जाता है - पुत्र सोलू मीनू प्रणमति नित्यम् ।" "संवत् १४६३ शाके १३५८ वर्षे वैशाख बदि साहु सोलु भीमने स० १२५२ में यह प्रतिमा प्रति . ५ गुरौ दिने मूलनक्षत्रे श्री मूलसंघे बलात्कारगणे " सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये भट्टारक श्री प्रभाचन्द्रहित की थी और वे पौरपाट अन्वय या वंशके थे। देवा तन्छिष्य वादिवादीन्द्रभट्टारक श्री पदमनन्दिदेवा. पास पचराई वीर्षकी रिपोर्ट में छपा है। इस छिष्य श्री देवेन्द्रकीर्तिदेवाः पौरपाटान्यवे अष्टबर्दिया बार बारदासबीबी०ए० टीकमगढ़ने कपा ..- . . ... ... . . . . करके मेरे पास भेव विषा है। उसके नीचे रुपा है, यह संक्त शायर प्रतिलिपि करने 'पुरातत्वविमाग ग्वाविपरसे प्राप्य'। इस निबन्यके वाले ने गलत पर विषा है, ऐसा जान पाता है। अन्य प्रतिमा-सा भी उतना सा की पासेही हदेव हमें बाबू बाबूरामजी लि. की ग्राम पर है। जोंकी कापी सापवानीसे नहीं की गई पासे प्राहा है । इसकी जा पहुवती मार भी अमरना है। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ]ि . परवार मातिइवितास पर प्रकाश शाले पाहारदानदानेश्वर सिंघई सहमवतस्य भार्या नहीं रह जाता कि पौरपट्ट या पौरपाटा परवारोका ही अलसिरिकृतिसमुत्पन्न अर्जुन..." पर्यायवाची है। उक्त लेलोंमें 'पौरपाट' * साप 'अशाखा लगमग इसी समयका एक और सेल मानपुरा लिखा गया है और कि माउसखा परवार ही होते (चंदेरी) षोडशकारण यंत्र पर खुदा दुमा देखियेहै। इससे सिद्ध होता है कि पौरपाट' शब्द परवार' . १६८२ मार्गसिर वदि रखो म० ललितकीर्तिजातिके ही लिये प्रयुक्त किया गया है। पट्टे म० भी धर्मकीर्ति गुरुपदेशात् परवार धनामूर सा. अब एक और लेखाश देखिये जो पपौराजीके हठोले भार्या दमा (या) पुत्र दयाल भार्या केशरि भौहिरके मन्दिरके दक्षिण पावके मन्दिरकी एक मोजे गरीबे भालदास भायां सुभा......" प्रतिमा पर खुदा है। यह यन्त्र भी उन्ही मट्टारक धर्मकीर्तिके उपदेशसे ..........."संवत् १७१८ वर्षे फाल्गुने मासे कृष्णपक्षे स्थापित हुआ है जिन्होंने यजोनको पूर्वोक्त प्रतिमाको ........""भीमलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंद. प्रतिष्ठित कराया था । पर उसमें तो 'पौरपट्ट' खुदा है कुन्दाचार्यान्वये महारक श्री ६ धर्मकीर्तिदेवास्तपढे और इसमें 'परवार' । इससे मी यह स्पष्ट होता है कि भट्टारक भी ६ पद्मकीर्तिदेवास्तपट्टे महारक भी ६ पौरपट्ट और परवार एक ही है और यह लेख लिखनेसकलकीर्तिरुपदेशेनेयं प्रतिष्ठाकृता तद्गुरुरायोपाध्याय वालेकी इच्छा पर था कि वह चाहे पौरपट्ट या पौरपाट नेमिचन्द्रः पौरपट्टे अष्टशाखाभये धनामूले कासिम्ल लिखे और चाहे परवार । अर्थात् परवार शब्द ही गोत्रे साहु अधार भार्या लालमती............ संस्कृत लेखोंमें 'पौरपद्ध' बन जाता था। ___एक और लेख यूबोन जीकी एक प्रतिमा पर इस परवार और पोरवाड़ प्रकार है अब हमें यह देखना चाहिये कि इस 'पौरपाट' "सं० (१६) ५ माघ सुदी ५ भी मूलसंघे या 'पोरवाट' के सम्बन्धमें अन्यत्र भी कुछ जानकारी कुंदकुन्दाचार्यान्वये भ. यशकीर्ति पट्टेम० भी ललित- मिलतारपा नहा। यह साचत हा हमारा ध्यान सबस मिलती है या नहीं। यह सोचते ही हमारा ध्यान सबसे कीर्ति पट्टे भ० श्री धर्मकीर्ति उपदेशात पौरपदे बितिरा- पहले नाम साम्य के कारण वैश्योंकी एक और प्रसिद्ध मूर गोहिल गोत्र साधु दीन मार्या........." जाति पोरवाड़की ओर जाता है, जिसकी पावादी इस तरह के और भी अनेक लेख है जिनमें मर दक्षिण मारवाड़, सिरोही राज्य और गुजरातमें काफी और गोत्र भी दिये हैं। इससे इस विषय में कोई सन्द तादादमें है। कुछ लेखों और ग्रंथोंमें इसे भी परवार - जातिके समान पोरवाट मा पौरपाठ कहा गया है सामधारहीशका सं.1... एक पापा'पाठ' और 'पा' पा 'पाक' शब्द सवितपुरके मेनपावके पति व पावसापकी पासवस्व मूतिपर चुका है। उसमें महारतोंकी पर- मौगोविक नामों साव विभागके वर्ष में प्रयुक होते पासेही पारदोबासाहै। इसके लिये म्पा मोबहीदी और गोजप।लि सोस...रावासनियास पाक पौरपायाखायो विवा। सी. पी एस बरार, पृ. २४और का Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (बैसाख, पीर विm जैसे "करनवेल (जबलपुरके निकट) के एक शिलाभीमानी उसपाखारप पौरवासारच नाया। लेखमें प्रसंगवशात् मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा (सपाल, . दिवा गुराः मोवावे.बायुक्रवासिया।। बैरिमिह और विजयसिंहका वर्णन आया है जिसमें वायुपुतर उनको 'प्राग्वाट' का राजा कहा है। अतएव 'प्राग्वाट' . इसमे वायुक्ट अर्थात् वायड (पाटणके समीप ) मेवाइका ही दूसरा नाम रोना चाहिए । संस्कृत-शिलामें रहने वाली वैश्य-जातियोंके नाम बतलाए है-- लेखों तथा पुस्तकोंमें 'पोरवाई महाजनोंके लिए भीमाली, उसपाल (पोसवाल), पौरवाड़ ( पोरवाड़), 'प्राग्वाट' नामक प्रयोग मिलता है और वे लोग अपना नागर दिक्पाल (डीसावाल या दीसावाल ), गुर्जर निकास - मेवाड़के 'पुर' नामक कस्बेसे बबलाते हैं और मोद। जिसस सम्भव है कि प्राग्वाट देशके नाम पर वे अपनेयह बात विद्वानोंने मान ली है कि गुजरातकी को प्राग्वाट वशी कहते रहे हो।" 'पोस्वाट' जाति पोरवाढ़ ही है, वहांके पोरवाड़ भी हम विभिन्न प्रतिमा-लेखोंसे ऊपर सिद्ध कर चुके हैं अपनेको 'पोरपाट' या 'पोरवाट' मानते हैं। कि 'परवार' शब्दमें जो 'यार' प्रत्यय है वह 'वाट' या ऐसो दशामें यदि यह अनुमान किया जाय कि पार्ट' शब्दसे बना है जिसका प्रचलित अर्थ होता है पोरवाद और परवार मूलमें एक ही थे तो वह प्रत्युक्त रहनेवाले' । इस तरह 'पौरपाट' शब्दका अर्थ 'पोरके न होगा । और यह सिद्ध हो जाने पर कि 'पोरवाई' रानेवाले' होता है। मेरे ख्यालसे इसी पुर नामम और 'परवार' एक ही हैं, 'पोरवाड़ी का इतिहाम एक पौर' बन गया है और परवार और पोरवाड़ लोग मूलतरह से परवारों का ही इतिहास हो जाता है और में इसी 'पुर' के रहनेवाले थे। 'पौरपाट' का अर्थ पोरवाड़ोंकी उत्पत्ति जहाँसे हुई है वहात ही परवारोंकी 'पुरकी तरफने भी लिया जा सकता है । 'पुर' गाँव उत्पत्ति सिद्ध हो जाती है। अब हम यह देग्वेग कि जिसका कि ऊपर जिक्र है, अब भी मेवाड़में भीलवाड़े विद्वानोंका पोरवाड़ोंकी उत्पत्ति के विषयमें क्या कहना के पास एक कस्वा है जो किसी ममय बड़ा नगर था। कभी कभी शब्दोंके दुहरे रूप भी बना लिये जाते परकारों और पोरवाड़ोंका मूल स्थान है जैसे 'नीति' शब्दसे 'नैतिकता' । 'नीति' से 'नैतिक' पोवाड़ोंका पुराना नाम 'पौरपाट' पोरवाट' और बना और फिर उसमें भी 'ता' जोड़कर 'नैतिकता' प्राग्वाट मिलता है। इस सम्बन्धमें सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ बनाया गया यद्यपि 'नीति' और 'नैतिकता' के अर्थ महामहोपाध्याय पं० गौरीशंकर हीराचन्द श्रोझा अपने एक ही हैं। इसी तरह मालूम होता है 'पुर' से भी 'राजपूतानेका इतिहास' की पहिली जिल्दमें लिखने 'पौर' बनाकर उममें 'वाट' या 'पाट' लगा लिया गया जबकि पुराने 'वाट' यापाटलगा देनेसे भी . या व श्री विमला बोरलाई न्यास काम चल सकता था। विलित बीमातीमोनासादि नामक: Y परं यदि बुर का पैर में कर मीधा ही उसमें परसे लिया गया है। 'वाट' या 'पाट' प्रत्यय कोई दें तो पुरवास 'पुरकर . nn Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि ] परवार बातिक इतिहास पर प्रकाश या 'पुग्वार' शन्द बनता है जो 'परवार' शन्दके अधिक सामरके आसपास था । पर बघेरवाल आज कल निकट है। संभव है 'परवार' लोग अपने 'पोरयाई' बरारमें ही अधिक हैं। पल्लीवालोंका मूलस्थान 'पाली' कहलानेवाले भाइयोंसे पहले ही मेवाड़ छोड़ चुके हो मारवाडमें है जो अब य० पी० के अनेक जिलों में फैले पर बाद में बहुत दिनों तक सम्बन्ध बना रहा हो और हुए हैं। इसी तरह श्रीमाल, श्रोसवाल, मेड़वाल, नब जिम तरह लेखोमें पोरवाड़ 'पौरपाट' लिखे जातं चित्तौड़ा श्रादि जातियाँ हैं जिनके मूलस्थान राजस्थान रहे हों उसी तरह इन्हें भी 'पौरपाट' लिया जाता रहा में निश्चित हैं+। ऐसी दशामें परवारोंका भी मूलहो। पर बोलनालमें 'पुरवार' या 'परवार' ही बने स्थान मेवाड़मे होना संभव है । आज भी अपने देशको रहे हो। छोड़कर दुनियाँमरमें व्यापार निमित्त जानेकी जितनी इसके सिवाय एक संभावना और भी है। वह यहाशाचरबी बघेरवालथे। वे मांडलगढ़ में कि गुजराती और राजस्थानी भाषाओंमें शब्दके शुरू • पैदा हुए और शहदीन गौरीके पाक्रमबोंसे त्रस्त और बीचका 'उ' कार 'श्रो' कारमं बदल जाता है। होकर बहुत लोगों के साथ मानवेमें मा बसे थे। देखो अक्सर लोग 'बहुत' का उच्चारण 'बहोत' 'लुहार' का मेरी विदन्तनमानाका पृ. १२.३। पूर्वकालमें इसी 'लोहार' 'सुपारी' का 'सोपारी' 'मुहर' का 'मोहर' 'गुड़' तराके कारणोंसे जातियाँ बन जाती थीं। को 'गोड़' 'पुर' का 'पोर' करते हैं और लिग्वने भी हैं । ___+ इनमें 'नेमा' और 'गोखातारे' बातिको भी इस तरह सह जमें ही उस तरफके लोग 'पुरवार' या 'पुरवाट' को 'पोग्वार' 'पोरवाट' या 'पोरवाई' उच्चारण शामिल किया जासकता है। मालवा और सी.पी. करने लगे हों और एक ही जानि इस तरह दो बन गई में 'नेमा' वैष्णव और जैन दोनों हैं। परारमें ये 'नेवा' हो । कुछ भी हो पर यह बात निश्चित् है कि 'पौरपाट' कहलाते हैं और श्वेताम्बर जैन डायरेक्टरीके अनुसार शब्द जब बना तब वह 'पोरवाई का ही संस्कृत रूप १०E में गुजरातमें इनकी संख्या १.२ थी। सिर्फ मागहमें इनके कई हजार घर है। सूरत जिले में और माना गया। 'वैश्यवंशविभषण' नामक पुस्तक में जो बहुत उसके भासपास एक 'गोबारा' नामकी जाति पावाद पहले एग्लो श्रोरियण्टल प्रेम लखनऊमे छपी थी परवारों है जिसके बारेमें मेरा अनुमान है कि यही बुन्देलखबहमें का नाम 'पुरवार' छपा है । इससे मालूम होता है कि कर भाकर गोलाबारे' कहलाने लगी है। ये लोग अपनेको पत्रिक बताते है और वैश्य है । स्व. मुनि बुद्धिमागर परवारों के लिए 'पुरवार' शब्द भी व्यवहत होता था। सम्पादित जैन-धातु-पतिमा-ख-संग्रह' नामक पुस्तक परवार जातिका मूल राजस्थान में है, यह बात के पहले भाग ५.नं.के एक लेख में एक प्रतिमाके सुननेमें कुछ लोगोंको भले ही विचित्र मालम हो, पर स्थापकको गोलापास्तव्य' लिखा है जिससे मालूम जातियों के इतिहासका प्रत्येक विद्यार्थी जानता है कि होता कि 'गोवा' वामका कोई नगर था जिससे वैश्योंकी करीब करीब सभी जातियाँ राजस्थानसे ही गोवापरब, 'गोलाबारे और गोबसिगारे ये तीनों ही निकलीउशारणावरवालका मलस्थान 'बघेरा' समय समय पर निकले होंगे। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्व [बैसाख, पीरनिवाब सं. प्रवृत्ति राजस्थानी और मारवाड़ी लोगोंमें है उतनी जी ने और 'जैन-सम्प्रदाय-शिक्षा' के लेखक यति और किसीमें नहीं। श्रीपालजीने पोरवाड़ोंका मूल-स्थान 'पारेवा' या 'पाग' पोरवाड़ोंकी उत्पत्तिके संबंपकी कथाएँ और नगर बतलाया है मगर वह कहाँ पर है इसका कुछ गलत धारणाएँ पता नहीं दिया। संभव यही है कि 'पुर' सबका हो माग्वाट और पौरवाड़ोंकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें बिगड़कर 'पारा' या 'पारेवा' बन गया हो। नेक कल्पित कथाये 'श्रीमालीपुराण' और 'विमल- मेवाइसे बाहर फैलाब प्रबन्ध' आदि अन्योंमें मिलती है । परन्तु वे सब शब्दों- जातियों के एक स्थानसे दूसरे स्थानको जाने के के अर्थ परसे ही गढ़ी गई जान पड़ती हैं। जब लोग अनेक कारण होते हैं। उनमें मुख्य है आर्थिक कारण। किसी जातिके मूल इतिहासको भूल जाते हैं, तब कुछ असर प्राचीन समृद्ध नगर राजनीतिक उथलपुने कुछ कहने के लिए संभव असंभव कथायें रच डालते थलोंसे, आक्रमणकारियोंके उपद्रवोंसे और प्रकृति-प्रकोप है। उन्हें क्या पता कि मेवाड़का एक नाम 'प्राग्वाट' से उजड़ जाते हैं। जहाँ जीविकाके साधन नहीं रहते मी था और वहाँ कोई 'पुर' नामक नगर था। उदा- तब जातियाँ वहाँसे उठ कर दूसरे समृदिशाली नगरों या प्रान्तोंमें चली जाती है। वर्तमान स्थानकी अपेक्षा जब लक्ष्मीजीको भीमाल नगरको समृद्धिकी चिंता दूसरे स्थानोंमें लामकी अधिक प्राशासे मी गमन होता हुई, तब विष्णु भगवानने उनके मनकी बात जानकर है। अक्सर प्रतापी राजा नये नगर बसाते हैं और उनमें १० हजार यणिकोंको भीमाल नगरमें दाखिल किया। पुरुषार्थियोंको बुलाकर बसाते हैं। ऐसे ही किसी कारण तब उनमें से जो पूर्व दिशामें बसे, वे प्राग्वाट कहलाये। से पोड़वाड़ या परवार जातिने मेवाड़से बाहर कदम 'प्राम्' का अर्थ पूर्व होता है और वाटका दिशा, स्थान रखा होगा । जहाँ जहाँ जाकर ये बसे वहाँ वहाँ प्रादि । बस शब्दार्थ से ही कथा बन गई। इन्होंने अपना परिचय प्राग्वाट या पोरवाड़ विशेषणके गरज यह कि इस तरहको कथानों पर विश्वास साथ दिया और तमीसे ये इस नामसे प्रसिद्ध हुए। नहीं करना चाहिए । प्रायः सभी जातियों के सम्बन्धमें पचावती-पुरवार परवारों की एक शाखा इस तरहकी अद्भुत अद्भुत कथायें प्रचलित है। ऐसा जान पड़ता है कि प्राग्वाटों या पबाड़ोंका 'महाजन-वंश मुक्तावली' के लेखक यति रामलाल एक दल पद्मावती नगरीमें भी आकर बसा था । पीछे बुन वा मोबाची राज्यवंशके विषय में भी । र जब यह महानगरी उजड़ हो गई, और इस कारण उसे वहाँसे अन्यत्र जाना पड़ा तब उस दलका नाम पद्माऐसी ही एकच्या शब्द परसे गढ़ी गई है। पुल वती पोरवाड़' या 'पद्मावती पुरषार' हुआ । सबसे चौखुल्य पर सकता है और बुलुकका पर्व पद्मावती किसी समय बड़ी ही समृद्धिशाली नगरी होता है, मुमद। प्रशाली वे पाकिसी देशवाने भर पानी पर निशा दिलास सीसे चौबुल. : थी। खजुराहाके एक शिलालेखमें ! जो ईस्वी सन् उत्पादोगया। देखो इपिस पnि Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जित..] परवार जातिके इतिहास पर प्रकाश १०.१कारे इसकी समृद्धिकी अत्यन्त प्रशंसा की गई मतलब पद्मावती पोरवाइसे है जो इस समय एक है। उसे ऊँचे गगनचुंबी भवनोंसे सुशोभित अनुपम जुदी जाति है + । परवारों से दूर पंड जानेके कारण नगर बतलाया है, जिसके राज मार्गामें बड़े बड़े घोड़े ही कालान्तरमें इसका परवार सम्बन्ध टूट गया होगा। दौड़ते हैं, और जिसकी दीवारें चमकती हुई, स्वच्छ, पद्मावती पोरवादोंमें जिस तरह 'पवि' हुआ करते शुभ्र और प्राकारासे बाते करती हैं। उसी तरह परवारों में भी हैं । पहिले शायद इनसे ___ ग्वालियर राज्यका 'पदम पाँया' नामक स्थान वही काम लिया जाता था, जो अन्य जैनेतर जातियों में प्राचीन पद्मावतीके स्थान पर बसा हुआ है। यह बहुत ब्राह्मणोंसे लिया जाता है। समय तक नाग-राजाओंकी राजधानी रही है। परवारोंके मूल-गोत्रोंमें भी 'बामा' गोत्रका एक 'पद्मावती पोरवाई' परवारोंकी ही एक शाखा है, मूर 'पद्मावती' नामका है। जान पड़ता है इस मूर इस बातका प्रमाण पं० बखतराम जी कृत 'बुद्धिविलास' .. के लोग ही दूर चले जाने पर एक स्वतंत्र जातिके रूप नामक ग्रंथके 'भावकोत्पत्ति-प्रकरण' में भी मिलता है* में परिणत होगए होंगे । जो थोड़े लोग परवारोंके साथ सात सांप परमार व्हावे, रह गये, वे पद्मावती मूर वाले कहलाते हैं। जैसा कि तिनके तुमको नाम सुनाई। ऊपर कहा है यह नाम पद्मावती नगरीके नामसे ही मससा फुनि चौसक्खा, पड़ा होगा। सेर सक्ला नि है दो सक्ला । सोरठिया पर गांगज बानो, जातियोंके इतिहासमें ऐसी बहुत-सी जातियाँ है जो पहले एक बड़ी जातिके अन्तर्भूत गोत्र रूपमें थी और पदमावतिया ससम जामौ । अर्थात् परवार सात खाँपके -१ अठसखा. फिर पछि एक अलग जाति बन गई। २ चौसखा ३ छहसखा, ४ दो मखा, ५ सोरठिया, + दि.जैन डिरेक्टरीके अनुसार पावती पोर६ गांगज ७ और पदमावतिया। इनमें से पहले चार वादोंकी जन संख्या थी। इनका एक बया तो परवारोंके प्रसिद्ध भेद है ही जिनमें से अब केवल सौ दो सौ वर्ष पहले शायद बघेरवालोंके ही साथ अठसखा और चौसखा रह गये हैं और पदमावतियासे बरारमें जा बसा था जो भाषा वेष भादिमें विलकुल झिांसी-आगरा बाइन पर देवरा स्टेशनसे दूरपर दक्षिणी हो गया है। इससे उत्तरभारत पाखोंका इनके ग्वालियर राज्यमें। साय विवाह-सम्बन्ध टूट गया था, जो अब जारी किया * इसे मेरे मित्र वाल्या नेमिनाथ पामखने बहुत गया है। बरस पहिले वारसी डाउनके जैन मन्दिरसे लेकर भेजा हमारे गांवमें एक पारे परिवार है, अमरावती था। उस समय मैंने एक मोट भी बनवितेपी (भाग में भी एक पड़ेि हैं। अन्यत्र भी इनके घर होंगे। (क-२) में प्रकाशित किया था। इस समय एक सूचीमें कासा गोमा भूर भी पनाती पा मन्य मेरे सम्मुख नहीं है। इसलिए नहीं मिला है। कोश गोरके एक सूरका नाम 'मयावती सकता कि अन्य किस समयका बना हुआ है। बिम' भी है। गई। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ [बैसाख, बीरनिवare ___सोरठिया परवार स्का । पर इससे यह पता लगता है कि महा-कौशलमें 'सोरठिया पोरवाई' नामकी जाति गुजराती है। जबलपुर, नरसिंगपुर, सिवनी प्रादिकी तरफ परवार दो सोरठमें बसनेके कारण इसका यह नाम पड़ा है। इस स्थानास जाकर स्थानोंसे जाकर आबाद हुए है। जो सीधे बुन्देलखंउसे जातिमें जैन और बेष्णव दोनों धर्मों के अनुयायी हैं। अाये घे बुन्देलखंडी और जो गढ़ा (मबलपुरके पास) इन्हें परवारोंकी एक खाँप बतलाया है और इस तरफ से आये वे गढ़ावाले। गढ़ा पहले समृद्धिशाली नगर ये पोरवाङ ही माने जाते हैं, इससे भी परवार और था। उसके उजड़ जाने पर इन्हें नीचे की तरफ आना पोरवाड़ पर्यायवाची मालूम होते हैं। पड़ा होगा। ___ 'बुन्देलखंडी' और 'गढ़ायाले' यह भेद परवारोंकी जाँगड़ा परवार पड़ौसिन गहोई जातिमें भी है। वैश्य होनेके कारण यह . अब शेष रहे 'गांगज' सो मेरा ख्याल है कि जाति भी साथ साथ ही नई जगहोंमें श्राबाद हुई होगी। लिखने वाले की भूलसे यह नाम अशुद्ध लिखा गया है। गहोइयोंमें इन दोनों दलोंमें बेटी व्यवहार तक बन्द हो सभवतः यह 'जाँगढ़' होगा जो 'जाँगड़ा पोरवाड़ों' के गया था जो बड़े आन्दोलनके बाद अब जारी हुश्रा लिए प्रयुक्त हुआ है। जाँगड़ा पोरवाड़ बैष्णव और जैन दोनों हैं। परवालें और पोरपाड़ोंके पाकी उपभेद चम्बल नदीकी कायामें रमपुरा, मन्दसोर मालवा परवाराका सान खॉप ऊपर पतलाई जा चुकी हैं। तका होल्कर राज्यमें वैष्णव जाँगड़ा और बड़वाझ उनमेंसे दोसखे छहसखे समास होकर दो खाँपे अठ नीमाड़के आसपास तथा कुछ बरारम जैन जाँगझ सग्या और चौसना रह मई है । चौसखे भी अब अठरहते हैं जो सिर्फ दिगम्बर सम्प्रदायके ही अनुयायी हैं। सम्वों में मिल रहे हैं । तारनपंथी समैया उपजातिका जोधपुर राज्यका उत्तरी भाग जिसमें नागौर आदि जिक ऊपर किया जा चुका है। इसका सम्बन्ध भी परगने हैं 'जांगल देश' कहलाता था। शायद इमी अब परमारोंसे होने लगा है और अब सिर्फ एक रन्थके कारण ये जाँगड़ा कहलाये होंगे और मेवाइसे निकल रूपमें ही इसका अस्तित्व रह गया है। फार पहले उधर बसे होंगे। • श्री मणिबाल बकोर माई ग्यासके पास संवत् इनका रहन-सहन और आचार-विचार परवार १७० के पास पास का लिखा हुमा एक पाना है जातिसं बहुत कुछ मिलता-जुलता है। दूसरोंके हाथमे जिसमें राजौर जातिके । बड़ी सखा, २ बाहुली सला, स्वाने-पीनेका इन्हें भी बड़ा परहेज है। रंगरूपमें भी ये ५ चढसखा, "विसखा और रामसल ये पाँच परवारोंके समान है। अन्तमद बतलाये हैं। 'जैन-सम्प्रवास-शिवा' के अनुः सार इस जाति का उत्पत्ति-स्थान 'रामपुर' बतलाया बुन्देलखण्डी और गढ़ासल है। क्या पूर्वकाल में परवार मातिसे इस जातिका भी 'परवारोंका सबसे पिछला मेद बुन्देलखंडी और अब सम्बन्ध पाक 'पुर'काही दसरा नाम 'शबगढ़ावाल है जो पृथक् जातिके रूपमें परिशत न हो पुर महो? Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मि परवार नाविक तिहास पर जय प्रकाश हाँ पस्वासेंमें रस्से भी हैं जो 'विनकया' कहलाते च्यातियोंके समान बीसा और दस्सा ये दो मुख्य भेद हैं। उनमें भी नये और पुराने से दो भेद हैं। पुराने और हैं। प्राचीच लेखोंमें 'वहतमखा' और 'लघुथाखा' बिनेकया वैसे ही है जैसे श्रीमाली, हुमड़ आदि जाति- नामसे इनका उल्लेख मिलता है। परन्तु दस्सा कहला योंमें दस्सा है, अर्थात् उनमे विधवा-विवाह नहीं होता कर भी इनमें विधवा-विवाहकी चाल नहीं है और और पहले कभी हुआ था, इसका भी कोई प्रमाण नहीं पहले भी थी, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है। मिला। नये विनज्यों से भी इनका कोई सम्बन्ध नहीं धर्मों के कारण पड़े हुए पोरवाड़ोंके उक्त भेदोंके है। पुराने विनेकया कहीं २ अपनेको 'जैसवार' दो दो भेद और है, जैन और वैष्णव । जैनोंमें भी भी कहलाने लगे हैं, पर वास्तवमें जैमवारोंसे उनका मूर्तिपजक और स्थानकवासी है। कोई सम्बन्ध नहीं है । एक दल ऐमा भी है जो अपने- इनके सिवाय सरती, खंभाती, कपड़वं नी, अहमदाको चौसखा परवार कहता है । जान पड़ता है कि बादी, मांगरोली, भावनगरी, कच्छी आदि स्थानीय पचायत्ती दंड विधानको मस्ती और प्रायश्चिच देकर भेद हो गये हैं और इससे बेटी व्यवहार में बड़ी मुसी. शुद्ध करनेकी बंदी ही विनैकयों की उत्पत्ति के लिये जिम्मे बतें खड़ी हो गई है। क्योंकि ये सब अपने अपने वार है । पुराने विनैकयोंके विषयमें तो हमारा ख्याल स्थानीय गिरोहोंमें ही विवाह-सम्बन्ध करते हैं। है कि किसी समय किसी हुकुम-उदूली श्रादिके अप- ऐसा जान पड़ता है कि पोरवाड़ जाति पहले दिगगधमें ही ये अलग किये गये होंगे और फिर अल- कई प्रबन्धों और पुस्तकों में लिखा है कि माबू मख्यक होने के कारण लाचारीसे इन्हें अपने मूर गोत्रों के संसार प्रसिद्ध जैनमन्दिर बनवानेवाले महामात्य को अलग रख देना पड़ा होगा। वस्तुपाज-तेजपानकी माता बान-विधवा थीं। ये दोनों पोरवाड़ोंके तीन भेद हैं शुद्ध पोवाड़, सोरठिया पुत्र उन पुनर्विवाहसे प्राप्त हुए थे। इस बातको कोई पोरवाड़, और कंडुल या कपोल ।। जानता न था। पुत्रोंकी बोरसे एकवार तमाम वैश्य फिर इन सबमें गुजरात और राजपूतानेकी अन्य जातियोंको महाभोज दिया जा रहा था कि यह बात दिगम्बर जैन डिरेक्टरी ( सन् 1)के किसी जानकारकी तरफसे प्रकट कर दी गई। तब वो अनुसार विनैकेया परवारोंकी संख्या ३६५ और लोग भोज में शामिल रहे वे दस्सा कहलाये और जो चौसलोंकी १७.थी। उठकर चले गये वे बीसा । कहा जाता है कि उसी ततो राजप्रसादासमीपपुरनिवासतो वणिजः समय तमाम जाति में दस्सा-वीसा की ये दो दो तर्ने प्राग्वाटनाममो वः । तेनं भेदत्रयम् । पादौ शुद्ध हो गई। प्राकाराः। रितीपा:पुराएंगता । केचित्सौराष्ट्रप्राग्वाहा। ताम्बर जैन डिरेक्टरीके अनुसार बीसा पोरतपशिधाः दुत महास्थान विवामिताऽपि कोन मायाको संख्या १०० और इस्मा पोवादोंकी १२. प्राग्वाटा वभवः। का भी भोर सम्बई महातेको सर की सवारी -भीमावीमोनो शातिभेद के .. पेनका मत गबनाके अनुसार वैष्णव पोस्वाबोंकी संसा मोकालो । • की। सोरलिया वैचाइनसे बयान Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सास, बीर विषय म्बर सम्प्रदायको मी मानने वाली थी। 'नमि-निर्वाण' कोई पात्र ऐसा नहीं मिलता जो इनमें से किसी जाति दिगम्बर सम्प्रदायका श्रेष्ठ काव्य है। उसके कर्ता पं. का । ब्रामण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, नामसे ही सब वाग्भट अहिछत्रपुरमें उत्पन्न हुए थे । अहिच्छत्रपुर पात्र परिचित किये गये हैं। इससे मालूम होता है कि नांगौर (मारवाड) का प्राचीन नाम था । * गुजरा- उक्त कथा साहित्य जिस समय अपने मौलिक रूपमें तादिमें श्वेताम्बर सम्प्रदायका प्राधान्य था, इसलिए लिखा गया था, उस समय ये आतियाँ थी ही नहीं। वहाँ पोरवाड़ श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुयायी रहे और जैन साहित्यमें जातिका सबसे पहला उल्लेख मालवा बुन्देलखंड प्रादिमें दिगम्बर सम्प्रदायकी प्रधा- आचार्य अनन्तवीर्यने अपनी 'प्रमेयरन माला' नता थी इससे परवार और जांगड़ा पोरवाड़ दिगम्बर होरपनामक सजनके अनुरोधसे बनाई थी। इन हीरपके रहे। जातियोंमें धर्म-परिवर्तन और सम्प्रदाय-परिवर्तन पिताको उन्होंने बदरीपाल' वंशका सूर्य कहा है।। भी अक्सर होते रहे हैं। यह कोई वैश्य जाति ही मालम होती है। अनन्तवीर्यका परवार तथा अन्य जातियोंकी उत्पत्तिका समय समय विक्रमकी दमवीं शताब्दी है। जहाँ तक हम अब सवाल यह उठता है कि परवार जातिकी जानते हैं, जैन माहित्यमें जातिका यही पहला उल्लेख उत्पत्ति कब हुई ? इसका निर्णय करनेके लिए यह है। दूसरा उल्लेख महाराजा भीमदेव सोलंकीके सेनाजानना जरूरी है कि अन्य जातियां कब पैदा हुई? पति और आबके आदिनाथके मन्दिर के निर्माता बिम. अन्य जातियोंकी उत्पत्तिका जो समय है लगभग वही लशाह पोरवाड़का वि० सं० १०८ का है। इनकी समय परवार जातिकी उत्पत्तिका भी होगा। इसके लिए वशावलीमे इनके पहलेको भी तीन पीढ़ियों का उल्लेख पहले उपलब्ध सामग्रीकी छानबीन की जानी चाहिए। है । यदि प्रत्येक पीढ़ीके लिये २०-२५ वर्ष रख लियं भगवजिनसेनका 'आदि-पुराण' विक्रमकी दशमी जाँय तो यह समय वि० सं० १०२० के लगभग तक शताब्दीका ग्रन्थ है उसमें वर्ण-व्यवस्थाको खूब विस्तार पहुंचेगा। से चर्चा की गई है, परन्तु वर्तमान जातियोंका वहाँ जैन प्रतिमा-लेखोंमें प्रायः प्रतिमा स्थापित करने. कोई जिक्र नहीं है । जैनोका कथा साहित्य बहुत विशाल बालोका परिचय रहता है । दिगम्बर सम्प्रदायकी प्रतिहै। उसमें पौराणिक और ऐतिहासिक सैकड़ों स्त्री मात्रोंके तो अब तक बहुत ही कम लेख प्रकाशित हुए पुरुषोंकी कथाएँ लिखी गई है परन्तु उसमें भी कहीं हैं। * पहिचानपुरोल्पाः प्राग्वाटकुखशालिनः। बदरीपालवंशाखीयोमधुमविनितः'। बाहल सुतरचाके प्रबन्ध वाग्मटः कविः ॥ वर्तमान जातियों की रची हमें इस जातिका माम श्री भोकाबीके अनुसार अहिच्छत्रपुर नागौरका नहीं मिला। या तो पह गुम हो गई है या इस प्राचीन नाम था । बोबीके विवेका रामनगर भी महि- नामान्तर हो गया है। पहलाता है, जो प्राचीन तीर्थ है। परंतु वाग्भट जहाँ तक हम जानते है बाबू कामताप्रसादजी जागोमें ही उत्तम हुए होंगे, ऐसा मान पाता है। का एक बोगसा संग्रह और मो• हीराबासनीका जैन Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवार बातिके इतिहास पर कुछ प्रकाश श्वेताम्बर सम्प्रदायके विद्वानोंने अवश्य ही इम प्राग्वाट बणिकोंमें श्रेष्ठ कहा है। एक और शिलाओर बहुत ध्यान दिया है । उनके प्रकाशित किये हुए लेख दुबकुंड ( ग्वालियर ) गांवमें सं० ११४५ का है। कई हजार लेखोंको मैंने देखा है परन्तु उनमें भी कोई जिसमें वहाँके दिगम्बर जैन मन्दिरके निर्माताको लेख ग्यारहवीं शताब्दीके पहिनेका ऐसा नहीं मिला 'जावसपूर्विनिर्गतवणिवंश' का सूर्य कहा है। इसका जिममें किसी जातिका उल्लेख हो । अर्थ होता है पूर्वमें जायससे निकले हुए वैश्य वंशंका इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान जाति- प्रसिद्ध पुरुष । यह वह समय मालूम होता है जब याँ नौवीं-दसवीं शताब्दीमें पैदा हुई होनी चाहिएँ +। जातियोंको नाम प्राप्त हो रहा था अर्थात् उनके संघों और यही समय परवार जातिकी उत्पत्तिका भी होगा। या जत्थोंको उनके निकासके स्थानके नामसे अमिहित किया जाने लगा था । जातियोंकी उत्पत्तिके पहलेकी सामाजिक दक्षिण महाराष्ट्र और उससे और नीचेके भागके अवस्था-गोष्ठियाँ धर्मानुयायियोंमें तो उत्तर भारतके समान जाति-संस्था ग्यारहवीं मदीके कई लेख ऐसे मिले हैं जिनमें का विस्तार शायद हुआ ही नहीं। जैन शिलालेख मन्दिरों या प्रतिमाओंके स्थापित करनेवालोंको या तो सग्रहके शक स० १०४२ के न० ४६ ( १२६ ) मे केवल 'श्रावक' विशेषण दिया गया है या गोष्ठिक। चामुड नामक राजमान्यवणिक् की पल्ली देवमतीके इमीसं ऐसा मालम होता है कि जातियाँ निर्माण होनेके समाधिमरणका उल्लेख है । उसमें किसी जातिका पहले गोठयाँ थीं जिन्हे हम मंघ, या जत्थे कह सकते। निर्देश नहीं। शक १०५६ के लेख नम्बर ६८ (१५६) में चट्टिकव्वे नामक स्त्रीने अपने पति मल्लिसेहिकी सिरोही राज्यके कायन्द्रागाँवके श्वेताम्बर जैन निषद्या बनवाई। इसी तरह नं० ७८ (१८२), ८१ मन्दिरको एक देवकुलिका पर वि० स० १०६१ का लेख (१८६), ६२ (२४२), ३२६ (१३७) के भी हैं जिन में सबको सेहि (श्रेष्ठि) या व्यापारी ही लिखा है। इन है, जिसमें उसके निर्माताको 'भिल्लमालनिर्यातः प्राग्वाट से यह स्पष्ट है कि निदान विक्रमकी १३वीं शताब्दी पणिजांवरः' अर्थात् भिल्लमालसे निकाला हुआ " तक कर्नाटकमे वैश्यांकी विविध जातियाँ नहीं थीं। लेखसंग्रह ये वो ही संग्रह प्रकाशित हुए हैं। पहलेमें असगकविका महावीर चरित सं० ६१० (शायद मैनपुरी. एटा भादिके मन्दिरोंकी प्रतिमामोके लेख हैं शक संवत् ) चोल देशकी विरला नगरीमें बना है। और पिछलेमें श्रवणबेलगोजा और उसके समीपके ही असगने अपने पिता पटुमतिको केवल श्रावक लिखा लेखो। है। अर्थात चोल देशमें भी विक्रमकी ग्यारहवीं सदी + स्वर्गीय इतिहासज्ञ पं० चिन्तामणि विनायक तक वैश्योंकी वर्तमान जातियाँ नहीं थीं। . वैचने अपने 'मध्ययुगीन भारत में लिखा है कि विक्रमकी मुनि श्री बिनविजयजी सम्पादित 'प्राचीन और पाठवीं शताब्दी तक बामणों और पत्रियों के समान लेखसंग्रह केहि भागका ४२० 4 नवराज ।... वैश्योंकी सारे भारसमें एक ही जाति थी। एपिवामिया इंग्लिा नि । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वैसाख, बीरनिर्वाच सं०२४६६ स्थानों परसे जातियाँ बन जाने पर जब उनका प्रतिपादन करते हैं और अनुलोम-विवाहोंसे अर्थात् फैलाव हुआ और वे दूर दूर तक फैल गई, तब यह ऊपरके बर्ण बालोंका नीचैकी वर्णकी कन्याके साथ भी लिखा जाने लगा कि अमुक जातिका अमुक स्थान सम्बन्ध होनेसे वर्णसंकरता होती ही है और यदि 'जाति में उत्पन्न हुआ या रहने वाला । जिस तरह नेमि- संकरता' में जातिका अर्थ वर्तमान जातियाँ हैं, तो वे निर्वाणके कर्ता वाग्मटने अपनेको 'भडियपुरोत्पन: तो इन्द्रनन्दिके कथनानुसार उस समय थी ही नहीं। प्राग्वाटकुलाशाविना' लिखा है अथवा गिरनारपर्वतके श्रादिपुराणके मतसे तो वर्णसंकरताका अर्थ वृत्ति या नेमिनाथ मन्दिरकी सं० १२८८ की प्रशस्तिमें वस्तुपाल- पेशेको बदलना है, अर्थात् किसी वर्ण के अादमीका तेजपालको प्रवरितपुरवास्तम्प-भाग्याटाम्बयप्रसूत' अपना पेशा छोड़ कर दूसरे वर्णका पेशा करने लगना लिखा है । अर्थात् अणहिलपुरके निवासी प्राग्वाट है और उस समय इस संकरताको रोकना रानाका जातिके । इसके बाद और आगे चलकर जातियोंके धर्म था + । ग़रज़ यह कि जातियोंके स्थापित करने गोत्रादि भी लिखे जाने लगे। और वर्ण संकरताको मिटाने में कोई कारण-कार्य-मम्बन्ध जातियोंकी उत्पत्तिके समयके बारेमें अन्य समझमें नहीं आता है। मतोंका खण्डन एक और प्रमाण जातियोंकी प्राचीनताके विषयमें चौदहवीं सदीके महारक इन्द्रनन्दिने अपने नीति- यह दिया जाता है कि चकि आचार्य गुप्तिगुस परवार मारमें लिखा है कि विक्रमादित्य और भद्रबाहुके स्वर्ग- थे, कुन्दकुन्दस्वामी पल्लीवाल थे, उनके गुरु जिनचद्र गत होने पर जब प्रजा स्वच्छन्दचारिणी होगई तब चौसखे परवार, वज्रनन्दि गोलापर्व और लोहाचार्य जातिसंकरतासे डरनेवाले महर्द्धिकोंने सबके उपकारके लमच थे, इसलिए सिद्ध होता है कि कुन्दकुदाचार्यस लिए प्रामादिके नामसे जातियाँ बनाई , परन्तु इसके भी पहले जातियाँ थी । परन्तु जिम पटावलीके श्राधार लिए कोई विश्वासयोग्य प्रमाण नहीं है। विक्रम या सं यह बात कही जाती है उनकी प्रामाणिकतामें घोर भद्रबाहुका समय भी एक नहीं है । इसके सिवाय मन्देह है और वह भी चौदहवीं मदीसे पहलेकी नहीं जातियोंका संकर न हो जाय अर्थात् मिश्रण न होजाय, है। उसके कर्ताको शायद इसके सिवाय कोई धुन ही इसका अर्थ भी कुछ समझ नहीं आता है | जाति नहीं रही है, कि बड़े बड़े आचार्योंकी खास खास सकरताका अर्थ यदि वर्णसंकरता है तब तो प्राचीन .पादिपराण पर्व १६ खोक २४०।। जैनधर्म इसका विरोधी नहीं था, क्योंकि भगवजिनसन ___+स्वामिमा एत्तिमुकम्प यस्त्वया वृत्तिमाचरेत । अपने आदिपुराणमें अनुलोम-विवाहोंका स्पष्ट रूपसे सपायिवैनियंतची वसंकीविरम्यया । 1 एपिमाविमा ईलि जिद पृ. १५०...। -पर्व लोक २८ । स्व गते विकमा मदनादौ योगिनि। अर्थात् हुदा हुदा बोकी बो वृत्ति (पेश) प्रा स्वचारिलो बभूवुः पापमोदिताः । नियत की गई है, उसे छोड़कर दूसरे वर्षकी पत्ति करने तथा मोपकाराव जाति संकमीमिः। नगयेको राजा लोग रो, अन्यथा पर्यसंरता हो महर्दिक परंप प्रामामिला अपम् ।-नीतिसार। बावगी। --- -- - - Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण.] परवार बातिके इतिहास पर कुछ प्रकाश जातियोंमें खतौनी करदी जाय । उस बेचारेने यह वे किसी भी प्राँतके हों, यह गोत्र-परम्परा अखण्डरूपसे सोननेकी भी आवश्यकता नहीं समझी कि जिस सुदूर चली आ रही है । महाभारतके अनुसार मूल गोत्र चार कर्नाटकमे कुंदकुदादि हुए हैं वहाँ कभी पल्लीवाल, हैं-अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भृगु ॐ। इन्हींसे चौसखों और गोला पूर्वोकी छाया भी न पड़ी होगी। तमाम कुलों और लोगोंकी उत्पत्ति हुई है और आगे इसके सिवाय और किसी प्राचीन गुरु परम्परामें भी चलकर इनकी संख्या हजारों पर पहुंच गई है । गुरुओंकी इन जातियोंका उल्लेख नहीं। ज्यों ज्यों श्राबादी बढ़ती गई त्यो त्यों कुलों और परिजैन जातियोंकी उत्पत्तिकी सारी दन्त कथाश्रांमें वारोंकी संख्या बढ़ने लगी। किसी कुलमें यदि कोई प्राःय एक ही स्वर सुनाई देता है और वह यह कि विशिष्ट पुरुष हुआ, तो उसके नामसे एक अलग कुल अमुक जैनाचार्यने अमुक नगरके तमाम लोगोंको जैन या गोत्र प्रख्यात हो गया। उसके बाद आगे की पीढ़िधर्मकी दीक्षा दे दी और तब उस नगरके नामसे अमुक योमे और कोई हो गया, तो उसका भी जुदा गोत्र जातिका नाम करण होगया और उक्त सब श्राचार्य प्रसिद्ध होगया । इसी तरह यह संख्या बढ़ी है। पहली शताब्दी या उसके आम पासके बतलाये जाते हैं परन्तु ये सब दन्तकथाये ही हैं, और जब तक कोई नत्रियोंकी गोत्र परम्पराके विषयमें इतिहासज्ञोंका प्राचीन प्रमाण न मिले तब तक इनपर विश्वाम नहीं कथन है कि वह बीचमें शायद बौद्धकालमें विचित्र हो किया जा सकता। यह ठीक है कि कभी जत्थके जत्थे गई और उसके बाद जब वर्णव्यवस्था फिर कायम भी जैनी बने होंगे, परन्तु यह समझमें नहीं आना कि हुई, तो क्षत्रियोंने अपने पुरोहितोंके गोत्र धारण कर उनमें मभी जातियोंके ऊँच नीन लोग होंगे और वे सब लिये । अर्थात् पुरोहितका जो गोत्र था वही उनका हो के सब एक ग्रामके नामकी किमी जातिमें कैसे परिणत गया । विज्ञानेश्वरने मिताक्षरामें यही कहा है कि क्षत्रिहो गये होंगे। क्योंकि ऐसी प्रायः मभी जातियोमे जो सामगोत्र-प्रबर नहीं है. पुरोहितोंके जो है वही स्थानोंके नाममे बनी हैं जैनी-अजैनी दोनों ही धर्मोंके उनके हैं । परन्तु बहुतसे विद्वानोंका इस विषयमें मतलोग अब भी मिलते हैं। जैनी अजैनी भी बनते रहे हैं भेद है। वैश्योंके विषयमें भी यही कहा जाता है कि और अजैनी जैनी। उनकी गोत्र-परम्परा नष्ट हो चुकी थी और पुरोहितोंके गोत्र गोत्र उन्होंने भी ग्रहण कर लिये होंगे। परन्तु अग्रवाल परवार जातिके बारह गोत्र है, परवारोंके इतिहासके आदि जातियोंके गोत्र देखने से यह बात गलत मालूम लेखकके लिये जरूरी है कि गोत्रों के बारेमें भी वह लिखे। होती है। उनके गोत्र पुरोहितोंसे जुदे हैं। गोत्रोंके विषयमें कुछ लिखने के पहले हमे यह जानना बहुत-सी वैश्य जातियाँ ऐसी भी हैं जिनमें गोत्र चाहिये कि गोत्र चीज क्या है ? वैयाकरण पाणिनिने । गोत्रका लक्षण किया है 'मपत्वं पौत्रमभूति गोत्रम् । ॐ शांतिपर्व भन्माष २६ । अर्थात् पौत्रसे शुरू करके संतति या वंशजोंको गोत्र - गोवाणी सहमावि प्रयुताम्यवानि कहते हैं । वेद कालसे लेकर अब तक बामणोंमें, चाहे -प्रपरमंबरी। . Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निवाब सं.२०५० ही नहीं । श्रोसवाल आदि कुछ जातियां ऐसी हैं १० खोइल (जैतल ) जिनके गोत्र ग्रामों या पेशो प्रादिके नामसे पड़े है और ११ माडिल्ल (कासव ) बहुतोंके ऐसे अद्भुत हैं कि उनके विषयमें कुछ कल्पना १२ फागुल्ल (सिंगल) सिहल ही नहीं हो सकती। उनकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें तरह ऊपरकी सूची में परवारोंके और गहोइयोंके नौ गोत्र तरह की कथायें भी गढ़ ली गई हैं। बिलकुल एक जैसे है और अग्रवालोंके चार गोत मिलते परवारोंके गोत्र और उनका अन्य जातियोंके हुए हैं। गहोहयोंके परवारोंके ही समान बारह गोत्र हैं परंतु गोत्रोंसे मिलान अग्रवालोंके अठारह गोत्र है। हमारा अनुमान है कि परवारोंके गोत्र गोत्रकृत् गहोई कौन हैं ? मा वंशकृत् पुरुषोंके ही नामसे प्रारम्भ हुए होंगे और अग्रवालोंका थोड़ा परिचय ऊपर दिया जा चुका उनकी परम्परा बहुत पुरानी होनी चाहिए। है। अब हम परवारोंके अतिशय सामीप्यके कारण परवारों के बारह गोत या गोत्र हैं। इनमेसे कुछ गहोइयोंका थोड़ा परिचय देना ज़रूरी समझते हैं । गोत्र गहोइयों और अग्रवाल आदि जातियों जैसे हैं। संस्कृत लेखोंमें गहोई बशको 'गृहपति-वंश' लिखा इसका कारण शायद यह हो कि मूलमें ये एक ही रही गया है। गृहपतिसे गहवइ और फिर गहोई हो गया हो और आगे चलकर अलग हो गई हों। जो गोत्र है। बौद्ध ग्रंथोम गृहपति शब्द बहुत जगह वैश्यके मिलते नहीं है, भिन्न हैं, वे शायद अलग होने के बादके अर्थमें आता है * | हमारा ख्याल है कि जिस समय वैश्योंमें भेद नहीं हुए थे, आम तौरसे सभी वैश्य लोग आगे हम परवार, गहोई और अग्रवाल जातिके गहवई कहलाते होंगे, पीछे जातियोंके बनने पर एक गोत्र दे रहे हैं समूह गहवई या गहोई ही कहलाता रहा, उमने अपना परवार गहोई अग्रवाल नाम नहीं बदला जब कि दूसरे समूह नगर स्थानादिके नामोंसे आपको परिचित कराने लगे। १ गोहिल्ल गांगल गोभिल गहोइयोंका बुंदेलखण्डमें प्रवेश २ गोहल्ल गोइल, गोयल या गोल गोयल ३ बाछल्ल वाछिल वत्सिल गहोई जातिके पटिया एक दन्तकथा कहा करते हैं ४ कासिल कि पवाया या पद्मावती नगरीके कई द्वार थे। कासिल काछिल एक दिन अम्बिका देवी एक द्वार छक कर लेटी ५वासिल वासिल ६ भारिख भारल या भाल * देखो महाबोधिसमा द्वारा प्रकाशित दीपनि७कोछल्ल कोछिल काय पृ.१५, १४३, १५४ १०५ । पउमचरिय (२०. ८वामल्ल बादल ११) में गृहस्थ, गृही, संसारीके अर्थमें भी 'गाई' कोइल कोइल, कोहिल शब्द पाया है। - - Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि.] परवार जातिके विकास पर प्रकाया हुई थी। नगरको स्त्रियाँ उनको परवा किये बिना ऊपर• स्पष्ट प्रमाण है कि वर्तमान सरावगी गहोइयोंके - से निकल गई, परन्तु पटियोंके पूर्वज बीघा-पाडेकी श्रावक या जैन थे। पत्नी सम्मानपूर्वक बचकर निकली, इससे प्रसन्न होकर झाँसी, चिरगाँव आदिमें परवारों और गहोरयों में अम्बिकाने पाड़ेजीको स्वप्नमें कहा कि मैं अन्य स्त्रियों- पकी रसोईका व्यवहार अब तक है, यह भी इस बातका की अशिष्टताके कारण हम नगरीको नष्ट करने वाली सुबूत है कि पूर्वकालमें इन दोनों जातियोंमें पानता हूँ, तुमसे जितनी दूर भागा जा सके भाग जाओ। थी और इन दोनोंका मूल स्रोत एक ही होगा । पत्री आखिर पांडेजी अपने म्यारह शिष्यों के साथ भाग वति नगरीसे गहोइयोंके निकलनेकी दन्तकथा भी इस निकले। आगे उन्हीकी सन्तान गहोई हुए और पड़ेि बातको प्रष्ट करती है। जी की सन्तान पटिया । इस कथासे यह मालूम होता है परवारों, गहोइयों और अग्रवाल के गोतोको समर कि परवारों के समान गहोई भी पद्मावती छोड़कर नता इस बातका भी संकेत करती है कि पर्वमें वैश्य बुन्देलखंडकी तरफ श्राबाद हुए थे और इन दोनों जाति एक ही थी और ये सब भेद 'स्थानस्थितिवि जातियोंका बहुत पुराना सम्बंध है। पतः' बहुत बादमें हुए हैं। समस्त वैश्य जातियोंकी मौलिक एकता परवारोंके मूर गहोई और परवार जातिके नौ गोत्र एकसे होना ऊपर जो बारह गोत्र बतलाये गये हैं, उनके बहुत अर्थपर्ण है । हमारं बहुतसे पाठक शायद यह न बारह बारह मूर बतलाये जाते हैं । इस तरह सब मिला जानते होगे कि पूर्वकालमें गहोई भाई भी "जैनधर्मके कर १४४ मूर है। अनुयायी थे । इस जातिके बनाये हुए कई जैन मंदि- गोत-मरोका मिलान किये बिना परवारोंमें कोई रोका पता लगा है । इसके सिवाय गहोइयोंका एक विवाह सम्बन्ध नहीं होता है, फिर भी दुर्भाग्य देखिए मूर या आँकना 'सरावगी' नामका है, जो इस बातका कि इन मूर-गोतोंकी एक भी प्रामाणिक सूची उनके , पास नहीं है । एक तो उनके नाम ही अतिशय अपभ्रष्ट * प्रहार क्षेत्र (टीकमगढ़से १० मील पूर्व) में __ होगये है और दूमरे जो मूर एक सूचीमें एक गोत्रके श्रीशान्तिनाथकी तिमाके पासन पर एक लेख वि० सं०१२३०का है। उसमें 'ग्रहपतिवंशसरोहसहनरश्मि' अन्तर्गत है, वही दूमरी सूचीमें दूसरे गोत्रमें गिना गया (गहोई वंश रूपी कमलके सूर्य) देवपाखका वर्णन है । है। किसी गोत्रके मूर बाहरसे कम हैं और किसी जिन्होंने बाणपुर (महारके मोब) में सावन ज्यादा । डावडिम, रकिया, पद्मावती, कुत्रा, मास, नामका जैनमन्दिर बनवाया था और फिर जिनके खा खौना श्रादि मूर ऐसे हैं जो दो दो गोतोंमें आते हैं..। उत्सम पुरुषोंमेंसे एकने यह शान्तिनापका मन्दिर पन हमारे सामने इस समय मूर-गोतोंकी चार वाया और प्रतिष्ठा कमाई । पह लेख मो० हीराक्षाला सूचियां है एक बैनमित्रके पौष सुवी । सं० अंक जैन द्वारा नागरी प्रचारिणी-पत्रिका प्रकाशित हो में प्रकाशित पं० सम्बप्रसाद शास्त्रीकी भेजी हुई, दूसरी धुका है। दो मित्र सूचियाँ मापदीसंसबैममिर्च में Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त (साय, वीर निगाव सं०१५ इस बातका पता लगाने की भी कभी कोशिश नहीं की ही इनका नाम करण हुआ होगा । पावती, सकेसुर, मई है कि इस समय इन १४ मूरोंमें से कितने जीते बड़ेरिया, डेरिया, बैसाखिया, बहुरिया आदि मूरोंमें अगते हैं और कितनोका नाम शेष हो चुका है। ग्रामों या नगरोका प्रामास मिलता भी है। परवारोंके मूर और गहोइयोंके प्रकने इस समय इस विषयमें इससे और अधिक कुछ मी गहोइयोंमें भी मूर है, परन्तु उन्हें वे प्राँकने कहते . नहीं कहा जा सकता कि गोत्र प्रख्यात पुरुषों के नामसे स्थापित हुए हैं, और मूर गावों या खेड़ोंके नामसे । है। कहा तो यह जाता है कि प्रत्येक गोतके का बह , गोत्र और मूरोंके विषय में हमें यही मालूम होता है। मिला कर ७२ ऑक्ने है, परन्तु अब इनका परिवार । बढ़ कर सौके पास पहुंच गया है। इन आँकनीकी पोरवाड़ोंके गोत सूची देखनेसे मालूम होता है कि खेड़ों या गाँवोंके चूंकि परवार और पोरवाह हमारे ख्यालसे एक ही नामांसे इनका नामकरण हुआ होगा जैसे बड़ेरिया, है इसलिये हम पोरवाड़ोंके गोत्रों की भी यहाँ चर्चा कर मसिया, नगरिया, बजरंगढ़िया प्रादि । कुछ बाँकने देना चाहते हैं । पोरवाड़ोंके चौबीस गोत्र बतलाये जाते पेशोंके कारण भी बने हुए जान पाते हैं जैसे सोनी, है परन्तु उनमें गोत्र-परम्परा एक तरहसे नष्ट हो संधी प्रादि। गई है। जो चौबीस नाम मिलते हैं वे पुस्तकोंमें ही 'मर' का शुद्ध रूप 'मूल' होता है। मूरको एक लिखे हैं उनका कोई उपयोग नहीं होता है। गुजरातकी रूढ़ शब्द ही मानना पड़ता है जो गोत्रोंके अन्तर्गत तो प्रायः सभी जातियोंने अपने गोत भुला दिये हैं । वेदोंको बतलाता है और शायद उनसे मल गोत्रोंका यहाँ तक कि मारवाड़में जिन श्रोसवालों श्रीमालोंमें ही दोष होता है। किसी मूरमें पेशेकी गन्ध नहीं गोत्रोंका व्यवहार अब भी होता है, वे ही श्रोसवाल, मिलता श्रीमाल गुजरातमें श्राकर गोत्रोको बिलकुल ही भूल ...मूरोंके जो अपभ्रष्ट नाम हमे इस समय उपलब्ध म च चके हैं । इमी तरह पद्मावती पोरवाड़ोंमें भी गोत्र नहीं रहे है । कमसे कम उनका उपयोग नहीं किया जाता है, उनसे उनकी उत्पत्ति बिठाना कठिन है। यही ख्याल होता है कि गहोरयोंके समान म्बेड़ों या गांवों के नामोंमे माटर मोतीबाजी की मेवी हुई, और चौथी बा. क्या परिवार क्षत्रिय थे ? ममदासबी बी. ए हारा भेजी हुई सो डेबसौ वर्ष . वर्तमानकी अनेक वैश्य जातियाँ अपनेको क्षत्रिय हो तसिसित पिपसी सूीमें दो गोतोंमें तेरह * चौधरी, बा, धनदार, रतनावत, तेरी में न्यारह पाल, एक में इस और एकमें नौ धन्यौत, ६ मनावर्या, • बकरा, भावल्या, ' कामल्या, . सेठिया, अधिया, १२ वरवरस, जो गहोई पन्धु' के दिसम्बर को भूत, 11 फरक्या, १५ जमेपर्या, ।। मंडावर्या, बोलपमें श्रीयुत का वीसका विस्तृत स . मुनियां, बॉटचा, गलिया, २० मेसोटा विसमें प्रत्येक गोतकेयरनों पर विचार किया गया है। नवेपा, २९ वामगर, २३ मेहता २० बरख्या । --------- ----- Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परबार बातिके इतिहास पर एक प्रकास बतलाती है। यह सभव भी है । जैमा कि प्रारम्भमें वीर मन्त्री और सेनापति हुए हैं, जिससे यदि पोरवादीलिखा जा चुका है, बहुतसी वैश्य जातियां प्राचीन को क्षत्रिय कहा जाय तो अनुचित न होगा। गणों या संपोंकी अवशेष हैं और वे गण 'वार्ता- पोरवाड़ और परवार मूलमें एक ही है यह ऊपर शस्त्रोपजीवी' थे अर्थात् कृषि, गोपालन, वाणिज्य और सिद्ध किया जा चुका है। परन्तु परवारोंका इतिहास शस्त्र उनकी जीविकाके साधन थे। गणराज्य नष्ट हो अभी तक अन्धकारमें ही है। हम सिर्फ मंषु चौधरी जाने पर यह स्वामाविक है कि उन्हें शस्त्र छोड़ देने नामक परवार वीरको ही जानते हैं जिन्होंने नागपुरके पड़े और केवल कपि, गोपालन और वाणिज्य हो उन- भोसला राजाको श्रोरसे उड़ीसा पर चढ़ाई की थी और की जीविकाके साधन रह गये। कालान्तरमें अहिंसा जिनके वंशके लोग अब भी कटकमें रहते है।। की भावना तीव्र होने पर खेती करना भी उन्होंने छोड़ परवारों के इतिहासकी सामग्री दिया, जिसके साथ साथ गोपालन भी चला गया और तब उनकी केवल वाणिज्यवृत्ति रह गई । लेख समाप्त करने के पहले मैं अपने पाठकों के समक्ष यह निवेदन कर देना चाहता हूँ कि साधन इसके सिवाय इतिहासके विद्यार्थी जानते हैं कि सामग्रीकी कमीसे यह लेख जैसा चाहिये वैसा नहीं प्रख्यात गुसवंश मूलमें वैश्य ही था जिसमें समुद्रगुप्त, लिखा जा सका। मित्रोंका अत्यन्त प्राग्रह न होता तो चंद्रगुस जैसे महान् सबाट हुए हैं । सम्राट हर्ष वर्धन भी शायद मैं इसके लिखनेकी कोशिश भी न करता । वैश्य वंशके ही थे। ऐसी दशामें बहुतमी वैश्य जातियाँ लिखते समय जिन जिन साधन-सामग्रियोंकी कमी यदि अपनेको क्षत्रियोंका वंशज कहती हैं, तो कुछ अनुचित नहीं है । वृत्तियाँ तो सदा ही बदलती रही है। महसूस हुई, उनका उल्लेख भी मैं इसलिए यहाँ कर प्राग्वाटों या पोरवाड़ोंमें तेरहवीं सदी तक बड़े २ देना चाहता हूँ कि परवार-समाज यदि वास्तवमें अपना प्रामाणिक इतिहास तैयार करना चाहती है योद्धानोका पता लगता है। प्राचीन कालमें इस जाति तो इस ओर ध्यान दे और इस सामग्रीको लेखकोंके को 'प्रकटमल्ल' का विरुद मिला हुआ था। पाटण लिये सुलभ कर दे। नरेश भीमदेव सोलंकी (ई० स० १०२२-१०६२) के प्रसिद्ध सेनापति विमलशाह पोरवाड़ ही थे जिन्हें १ मूर-गोतावलीका शुद्ध पाठ-इस समय मूर द्वादशसुर त्राणछत्रोत्पाटक ( बारह सलतानोंका की गोतोंके जो पाठ मिलते हैं वे बहुत ही प्रष्ट है उनमें छीनने वाला ) कहा जाता था और जो श्रावके परस्पर विरोध भी है। इसलिए जरूरी है कि पुराने २ मसरा जगह जगहसे खोजकर संग्रह प्रसिद्ध श्रादिनाथके मन्दिर के निर्माता थे। इसी तरह लिख हुए मकसरा' जगह जगहस खाजकर संग्रह आबके जगत् प्रसिद्ध जैनमन्दिरोंके निर्माता वस्तुपाल किए जाँय और फिर उन सबका मिलान करके किसी तेजपाल (वि० सं० १२८८) भी पोरवाड़ ही थे, जो इतिहासा विद्वान्से एक शुद्ध पाठ तैयार कराया महाराजा वीरधवल बाघेलाके मन्त्री और सेनापति जाय । थे। ये जैसे वीर थे वैसे ही दाता और धर्मोद्योतक थे। २ प्रतिमा--लेख-संग्रह-प्रायः प्रत्येक पातु. इनके बादमें भी पोरवाड़ोंमें अनेक राजनीतिज्ञ और पाषाणकी प्रतिमाओं के मासन पर कुछ न कुछ लेख Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वैसाख, बोरविवार रहता है, जिसमें प्रतिमा स्थापित करने वालों और पटियों के कागज-पत्रोंका चन्वेषण-प्राचीन जनसाचार्यका उमेख अवश्य रहता है। उसमें संघ, कालमें बंशावलियों और कुलोंका इतिहास भाट-चारण गमा गच्छ, और जाति गोत्रादि भी लिखे रहते हैं। लोग रस्खा करते थे। प्रत्येक घरस इ. व्याह शादीके नवी-दसवीं शताब्दिसे इधरके ऐसे हजारों लेख संग्रह मौकों पर और दूसरे शुभ कार्यों पर बन्धी हुई दक्षिणा किए जा सकते हैं। कहीं कहीं उस समयके राजाओंका मिला करती थी। उसके बदलेमें वे लोग पीढ़ी दर सीमालेख मिल जाता है। मध्यकालीन इतिहास पर पीढ़ी यह काम किया करते थे। बुन्देलखण्ड में इन्हें इन लेखोंसे बहुत प्रकाश पड़ सकता है। इन लेखोंके 'पटिया' कहते हैं। वंशावलीको पट्टावली भी कहते प्रकाशित हो जाने पर वर्तमान सभी जातियोंका इवि- है। इन पट्टावलियोंके कारण ही शायद इनका नाम हास लिखा जा सकेगा, उन जातियोंका भी पता लगेगा 'पटिया' प्रसिद्ध हुआ है । इन लोगोंका अब पानेके जो पहिले जैन धर्म धारण करती थीं परन्तु अब छोड़ समान सम्मान नहीं रहा, इनको दक्षिणा भी लोग बैठी हैइससे जैनाचार्योंकी भी गणमाच्छादि-सहित नहीं देते, इसलिए अब यह जाति नष्ट प्राय है। गहोई एक सिलसिलेवार सूची समय-क्रमसे तैयार हो जायगी और परवार दोनों जातियोंके 'पटिया' हैं जिनमेंमें जो जैन साहित्य के इतिहासके लिए भी अत्यन्त उप- गहोइयोंके पटिये अब भी अपने पेशेसे किसी कदर योगी सिद्ध होगी। चिपटे हुए हैं। बन्धुवर सियारामशरण गुप्त के पत्र इनके लेखोंके समक्ष होने पर हम बड़ी श्रामानीसे से मालम हुआ कि गहोई जाति के पटिया कहते हैं कि बतला सकेंगे कि जातियोंका अस्तित्व कबसे है। इन- उनके पास 'गृहपतिवशपुराण' है जिसमें गहोइयाँका का विकास और विस्तार किस क्रमसे हुश्रा, अठसखा, इतिहास है परवारजातिके पटियोंका भी अभीतक अस्तित्व चौसखा दो सखा श्रादि भेद कब हुए, अमली गोत्र- है। बहुत सभव है कि उनके पास परवार वशके मम्बन्धम मूर आदि क्या थे, उनमें प्रसिद्ध और प्रभावशाली भी कोई पुस्तक हो । उनके पासके कागज़ पत्रो और परुष कौन कौन हए और किस किस जाति की बस्ती पुरानी बहियोंकी छानबीन करनी चाहिए। उनके पामस किन किन प्रांतोंमें और कब तक थी। और कुछ नहीं तो पुरानी वशावलियाँ, किवदन्तियाँ और ये लेस शुरूसे लेकर अब तक के संगृहीत किए मूर-गोत्रावलियाँ सग्रह की जा मकती हैं। मूगें और जाने चाहिए और सभी जातियों के होने चाहिएँ । इस खेड़ोंके सम्बन्धकी जानकारी भी उनसे मिल सकती है। कार्य में अन्य सब जातियोंका सहयोग भी वांछनीय विविध सामग्री-अनेक भारतीय और यरोपियन लेखकोंने जातियोंके सम्बन्धमें बीसों ग्रन्थ लिखे है, जो ३ लेख और दान-पत्रादि संग्रह-प्रतिमाश्रति अग्रेजीम हैं । मर्दुशुमारीकी रिपोटोंमें भी जाति भेद अतिरिक्त मन्दिरोंको दिए हुए दानोंके भी सैकड़ों लेख सम्बन्धी अध्याय रहते हैं. इसके सिवाय प्रत्येक जिले मिलते बहतसे इन्डियन एण्टिक्वेरी, एपिमाफिआइ के गजेटियरोंमें भी वहाँकी जातियों के विषयमें साधारण डिया आदिमें प्रकाशित हो चुके हैं। वे सब भी संग्रह मा इतिहास और किंवदन्तियाँ लिखी रहती हैं, ये मब किये जाने चाहिए। पुस्तके सग्रह की जानी चाहिए। हिन्दीमें प्रथक प्रथक ४ प्रन्थ-प्रशस्तियाँ और लिपि कराने वालोंकी जातियों पर और समग्र जातियों पर अनेक पुस्तकें प्रशस्तियाँ-प्रत्येक प्रन्थके अन्तमें जो लेखकोंकी लिखी गई है। कुछ पुराण भी उपयोगी हो सकते है! और ग्रन्थ लिखने वालोंकी प्रशस्तियाँ रहती हैं, उनमें इतिहासके अन्य ग्रन्थोंका संग्रह तो होना ही चाहिए। भी जातियोंका तथा दूसरी बातोंका परिचय रहता है। उनकी चर्चा करनेकी ज़रूरत नहीं। इन सबका संग्रह भी बहुत उपयोगी होगा। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाके कुछ पहलू (लेखक-पी० काका कालेलकर ) शरीर-धारण और दण्ड के लिये हिंसा अहिंसाका दूसरा पहलू था। अत्याचारी और गुनहगारको सजा न देकर केवल उसे दोषी जाहिर रिसा-अहिंसाका सवाल हमारे बचपनमें करकं ही संतोष मानना अहिंसाका तीसरा पहलू खाने-पीनेके संबंधमें ही उठता था। जब था। फिर "गुनहगारने गुनाह किया, हत्या करनेवैष्णवोंका दया धर्म और प्रेम-धर्म हमारे जीवनमें में वह सफल हुआ, या निष्फल हुआ, किन्तु दाखिल हुआ तब किसी भी व्यक्तिको अपने अम्तमें वह राजपुरुषोंके हाथमें आगया। अब क्रोधस या कठोर वचनसे दुःख पहुँचानेमें भी काननकी दहाई देकर हम उसका बदला लें यह हिंसा है और प्रिय और पथ्यवचनसे और सेवासे उचित १-या केवल उस दोषी ठहरा कर छोड़ सबको राजी रखने में अहिंसा है'-इतना हम यही अच्छा "१-यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न, स्थूल रूपसे समझ गये। या पहल, हमारे सामने आया। इसके बाद इस प्रश्नने एक नया ही रूप पकड़ा। 'जालिमको सजा देने के लिये, गुनहगार इससे आगे बढ़कर 'आत्मरक्षाके लिये भी को दण्ड देनेके लिये, भी हम हिंसाका आश्रय न हम किसीकी हत्या करें या न करें, कहीं पर प्रति करें-यह खयाल गांधीजीने हमारे सामने पेश हिंसाका प्रयोग करें या न करें-यह महत्वका किया । जलियानवाला बारा के बाद जो राष्ट्रव्यापी आन्दोलन गांधीजीने शुरू किया, उसमें यह प्रात्मरक्षणार्थ हिंसा खासियत थी कि गांधीजी जनरल डायरको सजा कुछ लोग यह कहते हैं कि पेट पालनेके लिये नहीं दिलाना चाहते थे। हिन्दुस्तानके पैसेसे जो पेन्शन डायरको मिलती थी उतनी बन्द करानेसे , जो हिंसा करनी पड़ती है उसे तो सदोष नहीं और सरकारके डायरका दोषी होना स्वीकार समझना चाहिये, कम-से-कम उमं क्षम्य तो करनेसे गांधीजीको संतोष था। इसी दृष्टि और समझना ही चाहिये। यह दृष्टि बहुतसे लोगोंकी वृत्तिको गांधीजीने देशसे भी स्वीकार कराया। है। अगर भरण-पोषणके लिये हिंसा जायक है, तो आत्मरक्षाके लिये वह जायज क्यों नहीं है ? अहिंसाके चार पहल ---यह सवाल स्वाभाविकतया उठता है। और निरामिष आहार करके पशु-पक्षियोंकी हिंसा प्रात्म-रक्षाका सवाल इतना गूह है कि प्रास्मन करना अहिंसाका एक पहलू था। कठोरताको रक्षण किसे कहें और आक्रमण किस कहें, इसका छोड़कर सभोंके साथ कोमलवासे पेश आना निर्णय बड़े बड़े धर्मज्ञ पंडित भी नहीं कर सकते। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ अनेकान्त [पैसाख, वीर-निर्वाण सं० २४६६. अगर एक सांप मेरे बगीचेमें या घरमें घुस जाये, होते हुए भी उसमें जीवनको कृतार्थता नहीं है। तो मैं उसे मारूं या नहीं ? न तो उसने किसीको हिंसाको स्थान होते हुए भी उसका ममर्थन नहीं हो काटा है, न किसी पर आक्रमण किया है। तो सकता। Violence is the fuct of Life, भी लोग उसे मार डालते हैं और कहते हैं कि Non-Violence is the Law of Life. Vioशायद वह काट ले, शायद वह आक्रमण करे। lence sometimes makes for Life, Non यह बात तो ऐसी ही हुई कि हलवाईकी violence is the fulfilment of Life. दूकानके सामने जो बच्चे खड़े हैं, वे मिठाई उठा- (हिंसा जीवनकी एक वास्तविकता है, अहिंसा कर खा जायेंगे इतनी संभावनाके लिये उन्हें पकड़ जीवनका धर्म है। हिसा कभी कभी जीवनको कर कैदमें भिजवा दिया जाये ! आज इङ्गलेण्ड निवाहती है, अहिंसामें जीवनकी परिपूर्णता है।) और जर्मनी-दोनों-आत्म रक्षाके लिये लड़ रहे ऐसी हालतमें जिस प्रकार हम यह प्रार्थना हैं। जापान भी शायद चीनसे आत्म-रक्षा ही के करते हैं कि "हे प्रभो ! हमें असत मे सतका और लिये लड़ रहा है। अंधकारसे प्रकाशकी ओर और मृत्युस अमृतकी गांधीजी कहते हैं कि आत्म-रक्षाका प्रयत्न भी ओर ले जाओ", उसी तरह हमें यह भी प्रार्थना अहिंसक पद्धतिसे ही करना चाहिये । अपवादके करनी होगी कि "हे भगवन, हमें हिंसा से अहिंसा रूपमें उनका इतना ही कहना है कि कायर बनकर की ओर ले जाओ"। प्रारंभ तो हिंसामें ही है, भागजाना और मनसे हिंसा करते रहना ज्यादा उसपर विजय पाकर हमें अहिंसाकी ओर बुरा है । इसकी अपेक्षा निर्भय और बहादुर बढ़ना है। होकर हिंसा करना भी अच्छा है। क्योंकि उस अहिंसाका प्रथम उदय रास्ते किसी न किसी दिन मनुष्य अहिंसा तक पहुँच जायगा। जब मैं सोचता हूँ कि इतिहास-पूर्वकालमें, जब कि मनुष्य-प्राणी अग्नि सुलगाना भी नहीं जानता जीवनमें हिंसा और अहिंसाका स्थान था और जब हाथीस भी बड़ी छिपकली जब मैं अहिंसाका विचार करने लगता हूँ, दुनिया में घूमती थी और बड़े बड़े अजगर गाय, दो मुझे गीताका वह वचन याद आता है, जहाँ बैल जितने बड़े जानवरोंको खा जाते थे तब भगवानने कहा है कि यह दुनिया सत और मनुष्य अपनी रक्षा किस अहिंसास कर सकता असत्, दोनों, बच्चोंसे बनी हुई है। दोनों था? वहाँ जीनेके लिये हिंसा अपरिहार्य ही थी ? भगवान्की ही विभूतियाँ हैं। उसी तरह जीवन अहिंसाका खयाल तक लोगोंको नहीं था। उस में हिंसा और अहिंसा दोनोंको स्थान है। किन्तु जमानेमें दिन-रात एक ही बात हर एकके दिलमें दोनोंमें यह भेद है कि हिंसाको जीवनमें स्थान उठती थी कि हम अपनी जान कैसे बचायें ? हमें Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ७ ] अहिंसाके कुछ पहलू [४६३ पाहार कैसे मिले १ औरोका खयाल करनेके वे मकान जलाने लगते हैं, वषाभी उन परगोली न दिन में ही नहीं। किन्तु ऐसे वायुमण्डलमें भी चनानेकी सलाह जो गांधीजी देते हैं और कहते हैं मावा के दिल में अपने बच्चोंके प्रति प्रथम अहिंसा कि ऐसी हालतमें चन्द शूरवीरोंको अपने प्राणों का खयाल पैदा हुआ, बादमें स्वार्थ-स्यागका और की परवाह न कर मतवाली जनवाके सामने बलिदानका। उस जमानेमें अगर हम सांप, सिंह, अपना बलिदान देनेके लिये जाना चाहिये, वे ही हाथी आदि जानवरोंसे बचनेक लिये अहिंसाका गांधीजी चोर और डाकुओंके साथ वैसा करनेकी ही प्रयोग करते, वो कौन जाने क्या नतीजा सलाह नहीं देते। उन्मत्त जनता चाहे जितनी आता? पागल क्यों न हो, आखिर वह समाजकी आज हम मांसाहारके बिना जी सकते हैं। प्रतिनिधि है। किन्तु चोर और डाकू समाजकी एक जमाना था जब मनुष्यको यह विश्वास ही न केवल विकृति ही हैं। इसलिये चारों और डाकुओं था कि मांसाहारकं बिना भी जिया जा सकता है। को समाज-प्रतिनिधि सरकारके द्वारा सजा दिल आज हम मानते हैं कि वनस्पतिको मार कर खाये वाना जायज माना जाता है। बिना हम जी ही नहीं सकते, और इस लिये हमें वनस्पतिकी हिंसाको हिंसा नहीं समझना स्वामाविक हिंसाका निग्रह चाहिये। अषजो लोग लूट-खसोट ही का धन्धा करते हैं, हिंसाके कुछ समाज-मान्य रूप आजीविकाका दूसरा कोई साधन जानते ही नहीं, उनके द्वारा जो हिसा होती है वह उसी कोदिकी इसी तरह आज हम सामाजिक जीवन हिंसा है, जो बिल्ली चूहेको मारते समय करती सुरक्षित करनेके लिये प्लंग आदि रोगोंके जन्तुओं है। बिल्लीको यह खयाल तक नहीं होता कि वह का नाश करनेमें कोई दोष नहीं देखते । मच्छरोंको चूहको दुःख दे रही है । इसी तरह खूट-खसोट और खटमलोंको मारते समय किसीको यह करने वाले लोग और मनुष्यका अपहरण करके खयाल नहीं होता कि ऐसा करनेका हमें कोई उसका धन छीनकर उसको छोड़ देनेवाले पठान अधिकार नहीं है। भी हिंसा-अहिंसाका खयाल ही नहीं कर सकते। गांधीजीने भी इस बातको स्वीकार किया है जिसकी समझ में हिंसाका दोष आ सकता है, कि राष्ट्र-राष्ट्र के बीच अहिंसाका पालन करनेका जिसके मनमें अहिंसाका उदय हो सकता है, उसी इतना आग्रही प्रचार करते हुए भी चोरों और के लिये सत्याग्रहका मार्ग है। हिटलर, मुसोलिनी लुटेरों के उपद्रवस बचनेका और उनपर अहिंसाका और स्टेलिन अपनी संहार-लीला भले ही चलाते प्रभाव डालनेका उनके पास कोई उपाय या हों; किन्तु वे भी अहिंसाको समझ सकते हैं। तरकीब नहीं है। श्रादमी जब मतवाले होकर इतना ही नहीं, किन्तु अहिंसासे प्रभावित भी हो किसी शहर में खून-खराबी करने लगते हैं, या सकते है । किन्तु शेर या भालूके खिलाफ हम Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त । वैसाख, वीर निर्वाण सं० २४६६. चाहे जितना सत्याग्रह क्यों न करें, वे हमारी बात करने में राजकीय परिस्थिति के कारण कामयाब समझ ही नहीं सकते। न हो सके, वो हिजरत करके अपनी शक्ति बढ़ानी घर में जब बिल्ली धुस जाती है तब हम उसे चाहिये और साथ साथ सरकारको भी ठीक करने बाहर जानेके लिये मुँह से नहीं कहते. किमीके की कोशिश करनी चाहिये। द्वारा सूचना भी नहीं देते, किन्तु उसे प्रयत्न पूर्वक जब तक ऐसा कोई इलाज हाथमें नहीं पाया भगा देते हैं। उसी तरह जो लोग स्वभावतः है, तब तक या तो सब तरहके कष्ट सहन कर लेने अत्याचारी हैं और जिनके पास दूसरा कोई पेशा चाहिये, सब तरहकी यन्त्रणायें बरदाश्त करनी ही नहीं है ऐसे लोगोंको सामाजिक संगठन-द्वारा चाहियें, या फिर आत्महत्या करनी चाहिये । रोकना बहुत ही जरूरी है और ऐसे रोकनेके प्रयत्नमें थोड़ी हिंसा भी हो जाय तो भी हम उसे सरकार जिम्मेवार है अहिंसा ही समझना चाहिये। कहा जाता है कि काठियावाड़के बहास्वटिया बागी लोग जब किसी राजास न्याय नहीं पा सरहद में क्या उपाय करें? सकते थे, तो निर्दय होकर उस राजाकी बेकसूर सरहद से जब मनुष्यके अपहरणको, जबर- रियायाको परेशान करते थे। अब जब सरहदकी दस्ती धर्मान्तर करानेकी और खून आदिकी खबरें मुसलमान प्रजासे हम बच नहीं पाते हैं, नब उनके हम सुनते हैं तब यह सोचने लगते हैं कि इसका साथ लड़नेकी अपेक्षा हमें अपनी सरकारको ही क्या इलाज करें? _____ तङ्ग करना चाहिये । राजाकं दोषके लिये जनतालोगोंके जान-मालकी रक्षा करनेका ठेका को दण्ड देना उतना न्याय नहीं है जितना कि जिसने लिया है वह सरकार इसका इलाज या तो जनताकं दोषके लिये राजाको दण्ड देना है। अगर कर नहीं सकती है, या करना नहीं चाहती है। देशी राजा हमें परेशान करते हैं, तो हम और अगर चाहती भी हो, तो उसके लिये काफी इसका इलाज ब्रिटिश सरकार को ही ठीक करके प्रयत्न नहीं करती है। ऐसी हालत में हमें क्या कर सकते है। अगर सरहदके मुसलमान हिन्दुओं करना चाहिये ? जवाब स्पष्ट है । यदि हम अपना का अपहरण करते हैं, तो उसका इलाज उन बलिदान दे सकते हैं तो शुद्ध अहिंसक बनकर मुसलमानोंसे बैर करनेसे नहीं होगा, किन्तु ऐसी प्रसन्नता से बलिदान दे दें। यदि यह हम न बनें, हालतको मंजूर रखने वाली सरकारको ही दण्ड तो अपनी जानको खतरे में डालकर जिस तरह देने से हो सकता है । तब जाकर सरकार अपने हो सके, अत्याचारोंका प्रत्यक्ष विरोध करना कर्तव्यको पहचानेगी। * सीखें। और अगर यह भी न कर सकें या ऐसा * सर्वोदय' के वर्तमान मई मासके १०वें अक से उद्धृत । - Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोटे राष्ट्रोंकी युद्ध-नीति (लेखक-श्रीकाका कालेलकर) चेन्टलरने कितना बड़ा अत्याचार किया है। इसीको प्रतिध्वनित करते हुए कहते हैं. Woe to wygoala anca por HUT the small nationalities that dreum उस देश पर उसने कब्जा कर लिया! नार्वेके लोगों of an independent existence.'( जो छोटे का कुछ भी कसूर नहीं था। उनका दोष एक ही छोटे देश आजाद रहना चाहते हैं उनकी कला है!) था कि वे पागल होनेसे इनकार करते थे। उनका हम भी जग अपने देशका इतिहास देखें। तटस्थ रहना न इंगलैंसको पमन्द था, न जर्मनी प्राचीनइतिहास नहीं, अंग्रेजोंके बागमनके बादका । को। जबरदस्त लोगोंका एक मिद्धान्त अंग्रेजीमें अंग्रेजों को अपनी फौज सिंधमें से लेजानी बहुत सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया गया है -- थी। सिद्ध मीरोंका स्वतंत्र मुल्क था। अंग्रेजोंको 'Those who are not with um, nre अपनी फौज सिंघमें से जाने का कोई अधिकार against us' (जो हमारे साथ नहीं हैं वे हमारे नही था । सिंधके मीरोंन अंग्रेजोंका कोई भी खिलाफ हैं । ) सत्ताभक्त इसीमें थोड़ा सुधार नुकसान नहीं किया। उन्होंने अंग्रेजोंसे कहा, करके कहते हैं-"Those who sure not under 'तुम्हारे झगड़में हमें नहीं पड़ना है। हमें तटस्थ us, uro ngninst us." (जो हमारे काबूमें नहीं ही रहना है। किन्तु अंग्रेजोंको अपनी फौज हैं वे हमारे दुश्मन हैं।) नार्वेक कठिन काल में लेही जानी थी उन्होंने कहा कि, 'अगर तुम भी चर्निल साहब उसकी हंसी करनेसे बाज नहीं हमारी आक्रमणकारी नीति में मदद नहीं करते, आए। आप कहते हैं कि 'हम जब कहते थे, तो तुम हमारे दुश्मन हो' अंग्रेजोंने सर चार्लस् तब तुम हमारे साथ नहीं हुए। तुमने तटस्थ रहना मंजूर किया । अब भुगतिये उसका फल !" नेपीयरको हुक्म दिया कि वह सिंधपर धावा बोलदे हिटलर भी उनसे कहता होगा, "तुम्हारा तटस्थ और उम सूबेपर हमेशाके लिये कब्जा भी करले । रहना हमारे लिये खतरनाक है। तुम तटस्थ रह अगर अंग्रेज जबरदस्ती अपनी फौज लेजाते हो नहीं सकते। इगलैंड आत्म-रक्षाके लिये तुम और सिंधके मीरोंसे कहते, 'माफ कीजिये, राजपर आक्रमण किये बिना नहीं रह सकता। देखो. नीतिमें न्याय-अन्याय हमेशा नहीं देखा जा ये सुरङ्ग तुम्हारे समुद्र में वे बोने लगे हैं। कहीं सकता। हमने जबरदस्ती तो की, किन्तु अब रही तुम्हारी तटस्थता ? यह दुनिया या तो ईश्वर हमा हमारा काम हो चुका है। आपका सिंध हड़प की रहे या शैतान की। इसमें तीसरा कोई भी करनेका हमें कोई कारण नहीं है। आप अपने रह नहीं सकता । या तो हमारे अधीन हो जाओ, देशमें अमन-चैनसे राज कर सकते हैं'-ता भी या फिर हमारे विरोधमें हो रहो।" हम उनकी बात समझ सकते। लेकिन बहाना तमाम दुनियाका शस्त्रवाद एक मुखसे मिलते ही--बल्कि असल बात तो यह थी कि कहता है, 'Woo to the mitries ! (तटस्थोंका बहाना नहीं; वरन मौका मिलते ही-सर चार्लस्, बुरा हाल है !) और दुनियाभर के तानाशाह नेपीयग्ने सिंधपर कब्जा कर लिया। पेचारा Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ७] छोटे राष्ट्रों युद्ध नीति फौजका अफसर ठहरा। 'Thoirs not to नहीं थे। नसीयवादी चीन देशके लोगोंने तोquestion why, Theirs not to ryake चन्द वीरोंने ही नहीं, किन्तु सारीकी सारी जनता reply. . ने-जी वीरता बताई है, उसे भविष्यका इतिहास ____ उसको बहुत बुरा लगा। लेकिन उसने सिंध आश्चर्यचकित होकर अंकित करेगा और उस पर कब्जा तो किया ही। जब उस सरकारको यह स्वीकार करना पड़ेगा कि दैववादमें ईश्वरयह लिखना था कि सिंध मेरे हाथमें आगया है, आगया , निष्ठा से कम शक्ति नहीं है। लेकिन केवल बहातो उसने लिपिस लाभ उठाकर अपने दिलका टी से कुछ नहीं होता । धन-जनकी बहुतायत, दर्द भी व्यक्त किया। I have Sind लिखने खन विज्ञानका वैभव और दंभ-मिश्रित प्रधार्मिक वृत्तिकी जगह उसने लिखा 1 huve Sind, इतनी तैयारी के बिना दुनियामें स्वतन्त्र रहना ही ___ कोई भी अंग्रेज, अमलदार या इतिहासकार, अशक्य-सा हो गया है। और अगर इतनी तैयारी इस अत्याचारका समर्थन नहीं कर सका है। है तो आपस में लड़े बिना चल ही नहीं सकता। चन्द निर्लज्ज लेखक लिखते हैं कि हमारे भत्या- शान्तिके दिनोंमें ये छोटे राष्ट्र आपसमें लड़ चारके फलस्वरूप सिंधके लोगोंको अच्छी राज । नहीं सकते, क्योंकि बड़े राष्ट्र उनका नियंत्रण करते व्यवस्था मिलगई, यही सिंध लूटनेका समर्थन है ! रहते हैं, और बड़ोंका कभी सवाल ही नहीं युरोपका वर्तमान युद्ध अभी खतम तो नहीं उठता । पोलण्ड बननेके लिये अलबत्ता लड़ हुआ है। अगर फ्रांस या इङ्गलेण्ड आक्रमणके सकते हैं। मगर पोलैण्डकं जैसा अनुभव कोई रास्ते और सख्तीको राजी खुशीसे बेलजियनोंसे भी राष्ट्र दो दफा नहीं ले सकता।। उनका देश ले लें, तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं है। तब छोटे राष्ट्रोंकी फौज किस कामकी ? हमें हिटलरके राक्षसी कृत्यका समर्थन क्लि-नी फौजके पीछे जो खर्च किया जाता है, वह किस कुल नहीं करना है। हमें तो इतना ही कहना है ९ कामका ? "कुत्ते की वाकन शिकारीकी मदद कि- 'युद्धातुराणां न नयो न लज्जा'-जो लिये," इसी न्यायस जेक-प्रजा और ऑस्ट्रीयन युद्धातुर होते हैं वे न धर्मको पहचानते हैं, न लोक- प्रजा नॉर्वे पर आक्रमण करनेके ही काम प्रा. लज्जाका नियन्त्रण जानते हैं। सकती है। एबेसीनियासे लेकर नार्वे तकका इतिहास जो क्या इमस बेहतर यह नहीं है कि ऊपर बताए हम अपनी प्रोग्वोंके सामने बनता देख रहे हैं. हुए राष्ट्रसप्तकको ही लड़नेका सारा ठेका देकर उससे सिद्ध होता है कि युद्धका रास्ता इङ्गलेण्ड बाकी सब के सब राष्ट्र अपनी अपनी फौज फ्रांस, जर्मनी, रूस, इटली, अमेरिका और जापान तोड़कर. या विसर्जन कर, अहिंसक नीतिका के लिये है। बाकीके जितने राष्ट्र हैं उनके लिये प्रयोग करें और अपना एक बड़ा अहिंसक संगठन फौज रखना और न रखना बराबर ही है। युद्ध करक हिंसावादको ही निर्वीय कर अलनेकी करके देशके बहादुर से बहादुर नवयुवकोंका कोशिश करें? युवकोंका नव दिनका बलिदान देकर गुलाम बनो, अब देखना यह है कि इसपर अमल कैसे हो अथवा “Thunk God we Furrender सकता है ? इस हिटलर-युद्धकं अन्तमें दुनियाक ( भगवानको धन्यवाद, हम शरण गय! । कहके सामने सबसे महत्वका सवाल यही रहेगा। बिना खड़े गुलाम बन जाओ। ऐवीसीनिया, स्पेन, - पोलण्ड आदि देशांके लोग कुछ कम बहादुर भवोदय' के वर्तमान मई मासके १०३ अंकमै उद्धृत । - Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन का स्थान (लेखक-श्रीहरिसस्य मट्टाचार्य B.A.,B.L.) अनुवादक-श्री रामेश्वरजी बाजपेई [भनेकान्त वर्ष ३ किरण २ में 'गीय विद्वानोंकी जैन साहित्यमें प्रगति" शीर्षक लेख छपा है, उसमें भी हरिसत्य भट्टाचार्यजीका परिचय दिया गया है। उन्हींके लिखित एक निबंधका यह हिन्दी अनुवाद पाठकोंकी सेवामें उपस्थित है। मूल लेख बगला भाषामें 'जिनवाणी' पत्रिका में प्रगट हुमा था, बादको उसका गुजराती में अनुवाद श्रीयुत् सुशील महोदयने स्वतंत्र रूपसे प्रकाशित किया था और फिर वह 'जिनवाणी' नामक ग्रन्थ में भी भट्टाचार्यजीके अन्य लेखों के गुजराती अनुवादोंके साथ प्रगट हुवा था । मुझे भट्टाचार्यजीका यह लेख बहुत पसंद आया और मेरे मित्र श्रीरामेश्वरजी वाजपेईको, जो कि जैनधर्मके परम अनुरागी है, अनुवाद करनेके लिये कहने पर उन्होंने काफी परिश्रम करके उसे सम्पन्न किया है। भाशा है पाठकोंको भी यह जरूर पसंद आएगा। यदि मेरा यह प्रयत्न पसंद पड़ा तो भविष्यमें भाचार्यजीके अन्य लेखोंका भी हिन्दी अनुवाद प्रकट करनेका प्रयत्न किया जायगा। अगरचन्द नाहटा] अतीतके दुर्भेद्य अन्धकारमें जितने भी है, अनेक पण्डितोंके मतानुसार वह परवर्ती तथ्य मौजूद हैं उनके प्रगट करनेके पक्षमें कालका प्रक्षेप-मात्र है। किन्तु तत्व-विचार क्रियाजो भी प्रयल आजतक तत्व-विद्गण करते आये काण्डके साथ एकत्र नहीं रह सकता, तत्व-विचार हैं, वे सब प्रशंसाके योग्य होते हुये भी कभी किस निर्दिष्ट निरूपण-योग्य समयमें अथवा किस कभी जिन घटना-समूहों या सामाजिक, विषयों शुभ मुहूर्तमें सहसा उठ खड़ा हुआ है, ऐसी का काल-निरुपण अङ्कपात-द्वारा--अर्थात ईसवी- बातोंक सोचनेका कोई भी हेतु नहीं है। जैन-धर्म सन्कं पहलेक हैं या उसके अन्तर्गत-नहीं किया पहलेका है या बौद्ध धर्म, इस विषयमें बड़ा जा सकता, उन्हें निरूपण करनेके प्रसङ्गमें प्रायः झगड़ा या वाद-विसम्वाद चल रहा है। किसी देखा जाता है कि विद्वद्गण बड़े भ्रममें पड़ जाया किसी पण्डितके गतस जैन धर्मकी उत्पत्ति बौद्धकरते हैं। वैदिक कर्मकाण्डके प्रति सबसे पहले धर्मम है, पक्षान्तरमें किसी किसीके मतसं जैन किस समय युक्ति-चालित समालोचना अवतरित धर्म बौद्ध धर्मसे भी प्राचीन है । इन वादहुई थी, विद्वान् लोग प्रायः उस समयको निर्दिष्ट- विसम्बादों के मध्य जो सत्यान्वेषणकी स्पृहा रूपमें निरूपण करते हुये आपसमें वादानुवाद ही वर्तमान है वह अवश्य ही सम्मानकं योग्य है। नहीं करते किन्तु लड़ तक बैठते हैं । वैदिक क्रिया- निःसन्देह जहाँतक अनुमान है, इन सब तोंका काण्ड और बहु-देववादके समीप कहीं कहीं जो अधिक अंश बहुधा रुचिकर होते हुये भी कंवल जो अध्यात्मवाद और तत्व-विचार देखनेमें माता मूल्यहीन ही नहीं किन्तु किसी भी देशके तत्व Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ] अनेकान्त [वैसाख, वीर निर्वाण सं० २४६६. - चिन्ता-विकाशके क्रमके विषयमें उत्पन्न हुई भ्रान्त- समक्ष प्रचार करना अवश्य ही गौरवमय प्रत था, धारणाकं अपर अवलम्बित जान पड़ता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है। हमारी समझमें इसके ___ कारण, विचार-वृत्ति, जब मनुष्य-प्रकृतिका अतिरिक्त उनलोगों ने तो कुछ भी नहीं किया। एक विशिष्ट लक्षण माना जाचुका है, तब यह मूलतत्वकी दृष्टिसे बौद्ध और जैनमत बुद्ध और निम्सन्देह कहा जा सकता है कि, मनुष्य समाज वर्द्धमानके जन्मकालके बहुत पहलेसे ही वर्तमान में चिरकालसं कुछ न कुछ अध्यात्मचिन्ता या था, अत: उपनिषद की तरहसे दोनों ही मत तत्वविचार होता ही चला आरहा है । यहाँतक कि प्राचीन कहे जासकते हैं। जिस समय समाज अर्थहीन क्रियाकाण्डकं बौद्ध और जैन मतको उपनिषद्के समकालीन जालमें फंसा हुआ जान पड़ता है उस अवस्थामें होनेका कोई निर्दशन नहीं मिल रहा, इसी कारणसे भी कुछ न कुछ अध्यात्म चर्चा बनी ही रहती है। इन दोनों मतोंको उपनिषद्की वरह प्राचीन वस्तुतः क्रियाकाण्डके सम्बन्ध ही में यह कहा जा नहीं कहा जा सकता, ऐसी युक्तियाँ कदापि समीसकता है कि क्रियाकाण्ड भी सामाजिक शैशवकी चीन नहीं हो सकती । स्पष्टवया उपनिषदें वेदोंके सोई हुई मूदताके ऊपर एक प्रकारकी आध्यात्मि- प्रतिकूल नहीं थी, इसीलिये उनकी शिष्यमण्डली. कताको अवधारणा है। सम्यक्पमें परिस्फुट न की संख्या सबसे अधिक थी। पहले पहल अवैहोने पर भी समाजको प्रत्येक अवस्थामें ही एक दिक गतसमूह किंचित रूपमें सन्देहपूर्ण थे, इसी. विचार-वृत्ति प्रचलित नीति-पद्धतिको अतिक्रम लिये उन्हें आत्मप्रकाशके लिये बहुत दिनों तक करनेकी तथा ऊँचेसे ऊँचे आदर्शकी ओर प्रतीक्षा भी करनी पड़ी; किन्तु अध्यात्मवादके आगे बढ़नेकी स्पृहारुपमें सदा बनी ही रहती है। रूपमें वे उपनिषदके समयमें मौजूद थे, इसमें कोई इसीलिये दर्शनोंका जन्मकाल-निरुपण प्रायः सन्देह नहीं है। चिन्ताशील महापुरुषोंने तत्वचर्चाअसाध्य होजाता है । जो लोग भिन्न भिन्न प्रसङ्गमें केवल उपनिषदोंके बताये हुए मार्ग ही को दर्शनों के प्रतिष्ठाता माने जाते हैं, उनलोगोंके पहले एकमात्र मार्ग नहीं समझा जबकि चिन्ता गति भी वे ही दर्शन-मत बीजरूपमें विद्यमान थे, यह वे रोक थी और तत्वलोचनाके फलस्वरूप अवैदिक कहनेमें अत्युक्ति न होगी। बौद्धमत बुद्धके द्वारा मार्ग भी आविष्कृत हो चुके थे। ऐसी दशामें एवं जैनमत महावीरसं पैदा हुआ है, यह भी एक अन्यान्य मतवादोंकी अपेक्षा उपनिषद मतवाद भी प्रकारको भ्रान्त धारण है। इन दोनों महापुरुषोंके कुछ ऐमा सहजबोध्य नहीं था कि यह अनुमान जन्मप्रहणकं बहुत पहलेसे बौद्ध तथा जैनशासनके किया जा सके कि सबसे पहले यही प्राविष्कृत मूलतस्व-समूह सूत्ररुपमें प्रचलित थे, उन तत्व- हुआ था। समूहोंको विस्तृतरूपमें प्रगट करके उनकी मधु- वैदिक या अवैदिक मतवादशेने यदि एक ही रखा तथा गम्भीरताको सर्व साधारण जनताके समयमें पैदा होकर कमशः उत्कर्ष लाम किया हो Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ] भारतीय दर्शनों में जैन-दर्शनका स्थान [४६९ तो उनके अन्दर बहुत से तत्व समान भी रह गये में हो दो चार बातें बतानी हैं । जैनमतके निर्देशके होंगे, ऐसा अनुमान असङ्गत नहीं हा सकता। लिए उसके माथ अन्यान्य मतवादोंकी तुलना अतएव भारतीय किसी भी विशिष्ट दर्शनके अध्य. नीचे लिखे गये ढङ्ग से ही की जा सकती है। यन करनेके ममय भारतवर्षके अन्यान्य प्रसिद्ध वस्तुत: जैमिनीय दर्शनको छोड़कर भारतवर्षके दर्शनोंकी तुलनाकी भी बहुत बड़ी आवश्यकता है। प्रायः सभी दर्शन खुले या छिपे रूपमें वेदोक्त बङ्ग देशमें जैन-दर्शनकी अधिक चर्चा या क्रियाकलापके अन्धविश्वासकं प्रति विद्वेषभावापन्न जैसा चाहिये वैसा उसका आदर न होने परभी देखे जाते हैं । सच पूछिये तोसंसारमें प्रायः सर्वत्र यह तो मानना ही पड़ेगा कि भारतवर्ष यावतीय अन्धविश्वासकं प्रति युक्तिवादके अषिराम संग्राम दार्शनिक मतवादोंमें इसका एक गौरवमय स्थान हो को दर्शनकं नामकी आख्या दी जो मकती है। अवश्य रहा है, और आज भी है । तत्वविद्याके वर्तमान प्रबन्धमें हमें भारतीय दर्शन-समूहोंको जो यावतीय अङ्ग इसमें विद्यमान होने के कारण जैन इसी दृष्टिकोणसे उनके प्रत्येक प्रधानतत्वोंकी दर्शनको एक सम्पूर्ण दर्शन मान लेनेमें कोई मत आलोचना करना है । स्मरण रहे भारतीय दर्शनभेद नहीं होना चाहिये । वेदोंमें तर्कविद्याका उप समूहोंका जो क्रम-विकास इस प्रबन्धमें दिखलाया देश नहीं है, वैशेषिक कर्माकर्म या धर्माधर्मको जायगा वह मात्र युक्तिगत Logical है, कालगत शिक्षा नहीं देता; किन्तु जैन-दर्शनमें न्याय, तत्व Choronological नहीं। अनन्तकल्प, अर्थहीन वैदिक क्रियाकाण्डोंविचार, धर्मविचार, धर्मनीति. परमात्मतत्व आदि का पूर्ण प्रतिवाद उपस्थित चार्वाक सूत्रों ही में सभी बातें विशदरूपमें विद्यमान हैं। जैनदर्शन प्राय: देखा जाता है। प्रत्येक समाजमें प्रतिवाद प्राचीनकालके तत्वानुशीलनका सचमुच एक अन करनेवाला एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय सदासे चला मोल फल है, क्योंकि जैन दर्शनको यदि छोड़ दिया आ रहा है, तदनुसार प्राचीन वैदिकसमाजमें भी जाय तो सारे भारतीय दर्शनोंकी आलोचना एक ऐसा सम्प्रदाय अवश्य था। वैदिक क्रियाअधूरी रह जोयगी, यह अकाट्य सत्य है। काण्डों पर भाषामे आक्रमण करना किसी समयमें किस ढङ्गसे जैन दर्शनकी आलोचना करनी भी कठिन बात न थी। असल बात नो यह है कि चाहिये. ऊपर बताया जा चुका है। हम लोगोंकी कोई भी विचारशील या तत्वका जाननेवाला बालोवना तुलानामूलक हुआ करती है और ऐसी मनुष्य बहुत दिनों तक ऐसे कर्मकाण्डोंमें सन्तुष्ट आलाचनायें निम्सन्देह एक कठिन विषय है, नहीं रह सकता । ऐसी दशा में प्रतिवाद करनेका सुतरां इस प्रकार की आलोचनाओंके लिये जबतक उच्छवास सारे यज्ञसम्बन्धीय विधि-विधानोंके प्रायः सभी भारतीय दर्शनोंके सम्बन्धमें पूरी अभि- लिये यदि एक निन्दाकर कारण बन जाय तो ज्ञता या जानकारी न हो सफलता प्रायः असम्भव इसमें आश्चर्य ही क्या हो सकता है। यही है। किन्तु हम तो इस प्रबन्धमें मूलतत्वकं विषय चार्वाकदर्शन है, वैदिक कर्मकाण्डोंका अविराम Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७.] अनेकान्त [वैसाख, वीरनिर्वाण सं० २६६४ मुंडक २७ प्रतिवाद, चार्वाक दर्शनको प्रतिवादका दर्शन थे। जिन उपनिषदोंको वेदोंका अंश माना जाता कहना चाहिये । प्रीक देशक सोफिष्ट सम्प्रदायकी है, उन्हीं उपनिषदों में भी यत्र-तत्र कर्मकाण्डोंके तरह चार्वाक-दर्शन भी इस बिराट् विश्व-ब्रह्माण्डके दोष बतालाये गये हैं । बहुत सं उदाहरणोंमें से विषयमें कभी कोई मतामत नहीं प्रगट करता, नीचेका एक यह भी है:तोड़ना, दोष, मढ़ देना और न मानना यही तो प्रवाहोते अढा यज्ञरूपा अष्टादशोचार्वाकदर्शनका सिद्धान्त है। प्रशंसा करना तो दूर, क्रमबरं येषु कर्म ऐतत् श्रेयो येऽअभिनन्दति किसी भी वस्तुको गाइदेना ही चार्वाकोंका एकमात्र मूढा जरा मृत्यु ते पुनरेवापि यान्ति । कार्य था। वेद परलोकको मानता था, चार्वाक उसे तात्पर्य यह हैअम्वीकार करता था । कठोपनिषद्की द्वितीय यज्ञसमह और उसके अष्टादश अङ्ग व कम बल्लीके छठे श्लोकमें इस प्रकारके नास्तिकवादका सभी अदृढ़ और नाशवान हैं। जो मूढ़ उन्हें श्रेय परिचय भी मिलता है मानकर पालन करने हैं वे पुनः पुनः जरा-मृत्युको न साम्परायः प्रतिभाति बालं- प्राप्त होते हैं। प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूडम् । किन्तु उपनिषद और चार्वाक मतमें जो प्रभेद अयं लोको नास्ति पर ईति मानी है वह यह है-उपनिषदोंमें एक ऊचे ऊचे और पुनः पुनवेंशमापद्यते मे ॥ महान महान सत्यका मार्ग दिखनानेके लिये उक्त श्लोकमें परलोकके प्रति विश्वासहीन कर्मकाण्डकी समालोचना की गई है, पर नास्तिक मनुष्यकं विषयमं ही ऐसा कहा गया है। कठोप- और चार्वाक केवल दोषान्वेषण और उन्हें बुरे निषदकी छठी पल्लीके द्वादश श्लोकमें इस प्रकार बतलानेक अतिरिक्त ओर कुछ भी नहीं करते थे। नास्तिकवादके दोष दिखलाये गये हैं। चार्वाक दर्शन विधिहीन निषेधवाद तथा वैदिक "मस्तीति अवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते" विधि-विधानोंकी निन्ना करना ही अपना एकमात्र कठोपनिषकी प्रथम बल्ली बीसवें श्लोक में उद्देश्य ममझता था। हाँ, यह तो अवश्य ही मानना भी परलोक अविश्वामी व्यक्तियोंकी ही भर्त्सना है- पड़ेगा कि मुक्तिवादको उत्पत्ति चार्वाक दर्शनस ही "येयम्प्रेते विचिकत्मा मनुष्योस्तीऽत्यके हुई थी और भारतवर्ष अन्यान्य दर्शनो द्वारा इस __नायमस्तीति चेके, युक्तिवादकी पुष्टि होती चली गई। वेद यज्ञसम्बन्धीय कर्मकाण्डोंका उपदेश दता नास्तिक चार्वाक मतकी तरह जैनदर्शन में भी है, किन्तु आस्तिकगण उन यज्ञ कर्मोकी निःसारता वैदिक कर्मकाण्ड की असारता पतलाई गई है, बतलाते हैं, और न केवल उनका खण्डन ही करते जैनदर्शनने खुलमखुल्ला वेदकं शासनको न मानते थे किन्तु उन विधानोंको जनताके समक्ष हाम्या- हुए नास्तिकोंकी तरह यज्ञादिकी निंदा भी अवश्य स्पद मानेमें भी किंचित्मात्र कुण्ठित नहीं होते की है, जहांवक अनुमान होता है, चार्वाक मतके Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३. किरण ] भारतीय दर्शनमें जैन-दर्शनका स्थान [४७१ साथ इसीसे उसकी ममता भी की जाती है। मतकी तरह बौद्ध-दर्शन भी अन्ध वैदिक क्रिया. किन्तु विचारपूर्वक यदि देखा जाय तो यह कहना कलापका विरोध करता है, किन्तु बौद्धोंका दोषाही पड़ेगा कि जैनदर्शन चार्वाक मतकी तरह रोप तर्क और युक्तिसे रहित नहीं कहा जा सकता। निषेधमय नहीं है, वरन एक सम्पूर्ण दार्शनिक बौद्धमतके अनुसार जीवनका दुःखमय अस्तित्व मतको सृष्टि करना ही इस जैन दर्शनका एकमात्र एकमात्र कर्मनिमित्तिक है, जो कुछ किया गया मुख्य उद्देश्य था। सबसे पहिले ध्यान देने की है और किया जारहा है उसीके द्वारा ही हमारी बात तो यह है कि चार्वाकमतकी घृणाके योग्य अवस्थाका निरूपण हुआ करता है। अमार और इन्द्रिय-सुख परमार्थताको जैनदर्शन बड़ी अवज्ञा अवस्तुका भोगविलास ही असावधान जीवगणोंके के साथ त्याग करता है । निःसार वैदिक क्रिया- हृदयमें मोह पैदा करता है, और उसी भोगकलापोंकी आवश्यकताओंको स्वीकार न करना लालसाके पीछे पीछे दौड़ते रहनेके कारण हम चार्वाक मतकं लिये चाहे असङ्गत न हो. पर उन लोग जन्म-जन्मान्तर तक इस जन्ममरणरूपी लोगोंने कभी विषयकी गम्भीरता पर ध्यान नहीं संसारचक्रसे कभी छुटकारा पानेमें समर्थ नहीं दिया और मनुष्य प्रवृत्तिके 'प्राय: उसी अंशकी होते । इस अविराम दुःख और क्लेशसे छुटकारा ओर खिचे रहे जोकि पशुमाव पूर्ण है। उनके पानेके लिये कर्मवन्धनको अवश्य तोड़ना चाहिये । विषय में यह कहा जा सकता है कि वैदिक यदि कर्मके अधिकारको अतिक्रम करना है, तो क्रियाकाण्डके द्वारा लालसा दमन होती थी और कुकर्मोको छोड़कर सुकर्माका अनुष्ठान, लालसाको बेरोक इन्द्रिय चरितार्थके मार्गमें काँटोंकी सृष्टि होती त्याग करने हुए सन्न्यासका अभ्यास, हिंसाके थी, इसीलिये वे उसे स्वीकार नहीं करते थे यदि उस बदले में अहिंसाके आचरणोंको अपनाना ही होगा। क्रियाका प्रतिवाद करना ही मुख्य उद्देश्य है तो प्रतिवादका ढग और ही किसी रूपमें होना उचित वैदिक कमोंके अनुष्ठानसे मात्र बहुतसं है, निःसार क्रियाकलापकं अन्ध-अनुष्ठान से . प्राणियोंका, जो कि निरपराध हैं, जीवन नाश ही मनुष्यकी विचार बुद्धि तथा तर्क वृत्तिका मार्ग नहीं होता, वरन् उन कर्मोके अनुष्ठान करनेवालोंके बंद हो जाता है, केवल इसी खयालसे प्रतिवाद अच्छे किये हुये कौके फलस्वरूप म्वर्गादि उचित समझा जाना चाहिये। पर बात तो यह है भोगमय स्थानमें भी अवश्य जाना पड़ता है, अतः कि इन्द्रियपरायण मनुष्य इस बातको नहीं वदिक क्रियाकलाप इसी प्रकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समझने, केवल इसीलिये बौद्धमतक अनुसार रूपमें जीवोंके दुःखपूर्ण जन्ममरणका एकमात्र अध्यात्मवादो जैनदर्शन चार्वाक मतको कोई कारण बन जाता है। इसीलिये बौद्धमतके अनु. स्थान नहीं देना चाहता। मार वैदिक कर्मकाण्डको त्याज्य माना गया है, चार्वाक मतकं बाद ही प्रसिद्ध बौद्ध दर्शनके और यही मूलसूत्र है। कर्मकाण्डके राज्यको यदि साथ जैन-दर्शनकी तुलना की जा सकती है। नास्तिक अतिक्रम करना है तो हिसाका त्याग अवश्य Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ] अनेकान्स ।वैसाख, वीरनिर्वाण सं० २४६६ - करना ही पड़ेगा। वैदिककर्मकाण्ड हिंसा-कलुषित जाँचकी दृष्टि से देखा जाय तो यह स्पष्टरूपमें होनेके कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यच रूपमें निर्वाणके प्रगट हो जायगा कि बौद्धमतको इम सुहावनी मार्गमें रोड़े अटकाने वाला है, इसीलिये वैदिक नीतिक ऊँचे महलकी नीव कितनी दुर्वल है। विधि-विधानोंका त्याग परमावश्यकीय हो जाता वेदके शासनको न माननेका उपदेश प्रहण योग्य है। यहाँ यह स्पष्ट हो रहा है, कि वेदके शासन- हो सकता है, अहिंसा या सन्यासका अनुष्ठान को न माननेके प्रसङ्गमें चार्वाक दर्शनसे मिलते- चित्तग्राही माना जा सकता है, कर्मवन्धनों के जुलते हुये, बौद्धदर्शनने चार्वाकोंकी इन्द्रिय तोड़नेका आदेश सारगर्भित स्वीकार किया जा परायणता प्रति दृढ़ताके साथ आक्रमण किया सकता है, किन्तु यदि बौद्ध दर्शनसे यह पूछा जाय है। वैदिक कर्मकाण्डको त्याग करते हुये कहीं कि हम क्या हैं, हमारा उद्देश्य और परमपद क्या लालसाके शिकार न बन जाय इसके लिये बड़ी है ? तो जो उत्तर कि बौद्ध-दर्शनकी ओर से सावधानीकी आवश्यकता है, इसी कठिन सयम हमें मिलेगा वह कदाचित बड़ा ही डरावना और सन्न्यासके द्वारा कोंकी जंजीरको तोड़ और रोंगटे खड़े कर देने वाला होगा। यदि यह डालना ही बौद्ध-दर्शनका मूल्यवान उपदेश है। उत्तर दिया जाता है, कि हम कुछ भी नहीं, ऐसी दशामें यह प्रश्न उठ खड़ा होता है तो क्या हम कर्मके बन्धनोंके कार ही जीव संसारमें केवल अन्धकार ही में भटक रहे हैं ? सारहीन दःख और क्लेशको भोगते हैं. जैन दर्शन भी इस महाशून्यता हो क्या जीवोंका चरमस्थान है ? बातको मुक्तकण्ठ से स्वीकार करता है । स्मरण और क्या उसी भांति पैदा करनेवाले महानिर्वाण रहे बौद्धमतके अनुसार जैन-दर्शन भी एक ओर और अनन्त कालकी महानिम्तब्धताको बुलाने जैसे वेदके विधानोंको नहीं मानता वेसे ही दुसरी लिये ही यह जीवन ठोर सन्यास व्रत ग्रहण करने ओर वह चार्वाककी इन्द्रियपगयणताकी भी हृदय हए जीवनके छोटे से छोटे(?) सुख तकको त्याग से घृणा ही किया करता है। अहिंसा और विरति. कर देगा? अनुष्ठानके योग्य हैं, इस बातको जैन और बौद्ध. दोनों ही समस्वरसे स्वीकार करते हैं, पर जैन मतकं यह जीवन प्रसार है, इसके अतिरिक्त जो अनुसार अहिंसा और विरतिका अनुष्ठान विशेष- कुछ भी है वह नहीं चाहिये, बौद्धदर्शनके इस रूपसे तीव्रभाव वाला अनुमान किया जाता है। निरात्मवादसे साधारण मनुष्य कभी सन्तुष्ट नहीं . हो सकतं, यह तो निश्चितरूपमें मानना ही पड़ेगा। कुछ भी हो, जैन-दर्शन और बौद्ध दर्शन में . किसी समय बौद्धदर्शनका प्रचार बहुत बड़े रूपमें बहुत कुछ समता होते हुए भी इन दोनोंमें बड़ा हुआ था, इसमें कोई सन्दह नहीं, किन्तु वह अन्तर मौजूद हैं। बौद्ध-दर्शनकी नींव उतनी दृढ़ उसकी निरात्मवादिताके कारण नहीं प्रसिद्ध "मध्यनहीं जितनी कि जैन-दर्शनकी है। पथ" अर्थान बुद्धके बताये हुए मध्यमार्गको सहज Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ] भारतीय दर्शनमें जैन-दर्शनका स्थान . [४७३ तपस्याके आकर्षणने ही जैनों तकको बौद्धमत और विश्व का उपादान "वह," मैं उमसे मिन्न प्रहण करनेमें प्रवृत्त किया था। मैं हूँ यह सभी नहीं, कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं, यह दिखलाई पड़ने अनुभव करते हैं, कौन इस बातको नहीं मममता वाला अनन्त जगत यद्यपि मुझसे अलग सा जान कि मैं केवल नि:सार छाया नहीं हूँ और सत्य हूँ। पड़ रहा है, वह भी उससे अलग स्वतन्त्र कोई सत्ता नहीं, एक अद्वितीय सत्ता-वह तुम हम आत्मा अनादि अनंत है यह तो उपनिषदोंकी चिदाचिद भाव उस 'सत्यस्य सत्यम्' से सम्पूर्ण हर एक पंक्ति में बड़े ही चमकने वाले रूपमें अङ्कित है । वेदान्त-दर्शन भी इस तत्वकी दिगन्त रूपसे अपृथक् ही हैं। मुखरित करनेवाली आवाजसं जोरोंके साथ वेदान्तका 'एकमेवाऽद्वितीय' वाला सिद्धान्त प्रचार कर रहा है। आत्मा है प्रात्मा सत्य है, निस्सन्देह बहुत गम्भीर और महान है, किन्तु वह सृष्ट पदार्थ नहीं किन्तु अनन्त है, अात्मा साधारण मनुष्यके लिये इतने ऊंचे भावका ग्रहण जन्म-जन्मान्तर ग्रहण करता चला आरहा है, एक कठिन विषय होजाता है। जीवात्मा एक सुख और दुःखका भोक्ता है, ऐसा अवश्य प्रतीय- सत्ता है, माधारण मनुष्य यह तो अवश्य अनुभव मान होता है, किन्तु यह सत्ता है, असीम ज्ञान करते है, किन्तु एक मनुष्यसे दूसरे मनुष्यमें और प्रानन्दके सम्बन्ध में भी उसे असीम और कोई भेद नहीं, मन, जड़ पदार्थ और अन्यान्य अनन्त ही समझना होगा। वेदान्तका यही मूल दग्व पड़नेवाली सभी वस्तुओंमें कोई भेद नहीं, प्रतिपाद्य विषय है। आत्माकी असीमता और इस बातको वे स्वीकार नहीं करना चाहते। अनन्तत्वको जैन-दर्शन भी स्वीकार करता है, यदि कोई ज्ञानी पुरुष ऐसा सिद्धान्त करना इसीलिये यहाँ जैन-दर्शन और वेदान्त-दर्शनमें चाहे कि वह दूसरे मनुष्यसे या अभ्याम्य अचे. किसी प्रकारका विरोध नहीं पाया जाता। तन और चेतन भावोंसे भी स्वतन्त्र है और यह बौद्ध-दर्शनके निरात्मवादक प्रति आक्रमण संसार चिदचित् अगणितभावोंसे परिपूर्ण है, तो और आत्माको अनन्त सत्ताको स्वीकार करनेके उसके इस सिद्धान्तको युक्तिहीन नहीं कहा जा कारण ही जैनगत और वेदान्तमत में कोई भेद सकता, हम भी यही कहना चाहते हैं कि ऐसे नहीं जान पड़ता, फिर भी ये दोनों एक नहीं है। सिमा सिद्धान्त कदापि युक्तिहीन नहीं होसकते, बल्कि वदान्तिक जीवात्माकी सत्ताको केवल स्वीकार ही संसारके अधिकांश मनुष्य इस प्रकारकं अनुभवनहीं करते, बल्कि दर्शन जगतमें वे और भी कुछ गम्य सुयोग्य सिद्धान्तों को ही ग्रहण किया करते आगे बढ़कर निर्भीकरूपमें जीवात्मा और परमात्मा हैं, इसीलिये प्रायः वेदान्तमतको बहुतसे लोग का अभेद प्रचार किया करते हैं। वेदान्तमतके ग्रहण नहीं करना चाहते । अनुसार यह चिदचिन्मय विश्व उसी एक और कपिलके प्रसिद्ध सांख्यदर्शनकं मनवादका भी अद्वितीय सत्ताका विकासमात्र है। "मैं," "वह" विचार यहाँ करना आवश्यक है । वेदान्तकी तरह Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४] अनेकान्त [वैसाख, वीर-निर्वाण सं० २४६६. - सांख्य भी आत्माके अनादित्व और अनन्तत्वको पवित्र आदर्श और पूर्ण झानवीर्य-मानन्दके अवश्य स्वीकार करता है, किन्तु सांख्य पात्माकं आधार एक पुरुष प्रधानके होनेका विश्वास एकत्वको नहीं मानता। सांख्य और वेदान्तमें और मनुष्यकी प्रकृति-सिद्ध षात है, गहरी देवसत्तामें भी एक पार्थक्य है, सांख्यमतके अनुसार पुरुष विश्वास ही का नाम यदि धर्म है तो धर्मके प्रति या आत्माके साथ मिले हुये रूपमं क्रिया करने विश्वास या धामिक होना ही मनुष्यकी प्रकृतिगत वाली अचेतना प्रकृतिके नामकी एक विश्व- बान हुई। ऐमा भी कहा जा सकता है कि ज्ञान, रचना करनेवाली शक्ति विद्यमान रहती है। इस वीर्य, पवित्रता मादि सभी बातोंमें हमलोग क्षुद्र, प्रकारसे आत्माके अनादित्व अनन्तत्व और ससीम और बँधे हुए हैं, ऐसी दशामें जिन सब और असीमत्वको सांख्य मानता है और उम बातोंमें हम अधिकार पाना चाहते हैं वे सभी मतकं अनुसार आत्मा अनेक है । कपिलक मता बातं जिसमें उज्ज्वल या पूर्णरूपसे विद्यमान हों, नुमार पुरुषसे स्वतन्त्र और पृथक एक अचेतन ऐसे शुद्ध और पवित्र प्रभु या परमात्माके प्रति प्रकृति है, पुरुषसे पृथक होते हुए भी वह थोड़ो यदि हम स्वभावतः विश्वास रखते हैं तो इसमें देरके लिये पुरुषसे मिली हुई जान पड़ती है, इस आश्चर्य ही क्या हो सकता है। विजातीय प्रकृतिके अधिकारसे आत्माको पृथक । टीकाकारोंकी व्याख्याको यदि छोड़ भी दिया रूपमें अनुभव करनेका नाम ही मोक्ष है। जाय तो स्पष्टरूपमें समझमें आजायगा कि सांख्य जैन-दर्शन भी आत्माकं अनन्तत्व और दर्शनमें ऐसे शुद्ध और पूर्ण परमात्माका कोई अनादित्वको मानता है। कपिल-दर्शनकी तरह स्थान नहीं है, ऐसे शुद्ध परमात्माके होने में जैन दर्शन भी स्वभावत: म्वतन्त्र प्रात्माको बन्धन विश्वास करनेकी जो जीवोंको म्वाभाविक प्रवृत्ति में लाने वाले एक विजातीय पदार्थका होना है भारतीय-दर्श नोमें उसी आकांक्षाको पूरी करने स्वीकार करता है। सांख्य मतकं अनुसार जैन की पूरी पूरी चेष्टा की गई है। मतमें भी आत्माको अनेक कहा गया है, साँख्य और जैन इन दोनो ही दर्शनोंके मतानुसार विजा सांख्यकी तरह योगदर्शन भी आत्माकी तीय पदार्थके सम्बन्धसं आत्माको पृथक करनेका सत्ता और अनेकत्वको स्वीकार करता है, किन्तु योगदर्शन थोड़ा मा और भी आगे बढ़कर नाम ही मोक्ष है। जीवात्माओंका अधीश्वर अनन्त प्रादर्शरूपी एक अब यहां देखना है कि, प्रत्येक मनुष्य अपने परमात्माको बतलाया है। यही योगदर्शन और जैन सामने अपने आप ऊँचे ऊँचा और बड़े बड़ा दर्शनमें समता पाई जाती है। योगदर्शनकी तरह एक आदर्श रखना चाहता है। भक्तों का विश्वाग जैनमत भी परमात्मरूपो प्रभुके अस्तित्व में है एक ऐसा पुरुष ईश्वर, प्रभु या परमात्मा है, विश्वास करता है, वह अहंत पद वाच्य है। जो कि पूर्णताका अनन्त आधार है। महान अहतरूपी ईश्वर जगतका सृष्टिकर्ता नहीं है, वह Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष, किरण . ] भारतीय दर्शनमें जैन-दर्शन का स्थान पूर्णताका अनन्त आदर्श शुद्ध और पवित्र परमा- णुओंका अनादि और अनन्त होना नहीं स्वीकार स्मा हैं, उसी अनन्त पवित्र और पूर्ण परमात्माकं किया। दिक्, काल और परमाणुओंकी प्रकृति बद्धजीव एकाग्र चित्तसे ध्यान करे । परमात्माके और लक्षण अलग अलग होते हुए भी वे समी सम्मुख होनेमें ही जीवोंकी उमनि होती है. पर- उसी एक अद्वीतीय विश्वप्रधानके विकार हैं, यह मात्माकी भावनासे हृदयां निर्मल ज्ञान और बंधे धारणा अनुभवगम्य न होते हुये भी सांख्य और हुए जीव एक नवीन प्राण और नये तेजको प्राप्त योगमतके अनुसार तत्वक रूपमें मानी गई है। होते हैं । जैन और पातञ्जल उभय दर्शन इसी वशेषिकदर्शनमें भी परमाणु दिक् और सिद्धान्तको मानने वाले हैं। कालका अनादि और अनन्तत्व म्वीकार किया ___ अब यहाँ कणादके बताये हुए वैशेषिकदर्शन गया है। की बात आती है। वैशेषिकदर्शनका स्थान यों प्रत्यक्षवादी चार्वाक मतके अनुसार कदाचित दिखलाया जा सकता है-पात्मा या परुष जो दिक् कालादिका स्वभाव निर्णय अनावश्यक समझ कर उसके प्रति उपेक्षाकी दृष्टि को गई कुछ भी अलग है. वही सर्वप्रासी प्रकृतिके अन्त है। दिक , कालादि हम लोगोंकी दृष्टिमें सत्य गेत है, यही मांख्य और यागदर्शनका सूक्ष्म प्रतीत होते हुए भी, शून्यवाद। वौद्ध उसे अवस्तुके अभिप्राय है। उनके मतानुसार सत् पदार्थमात्र आख्या ही देते आ रहे हैं। वेदान्तका सिद्धान्त विश्वप्रधानकं बीजरूपमें वर्तमान थे, इसीलिये ___ भी प्रायः इसी प्रकारका है। सांख्य और योगके कपिल और पतचलने आकाश. काल और परमाणुक तत्वनिणयमें विशेष ध्यान नहीं दिया। मतानुसार विक , काल ये अज्ञेय प्रकृतिके अन्दर ही छिपे हुए, माने जाते हैं। केवलमात्र कणाद उनके कथनानुसार यह सब प्रकृतिका विकृतरूप के मतमें ही दिक् काल और परमाणु-समूहोंका है. किन्तु ऐसी धारणा कोइ सहज बात नहीं है । नित्यत्व, सत्ता और स्वतन्त्रता म्वीकृत हुई है। साधारण मनुष्यकी दृष्टि दिक, काल, परमाणु जैनदर्शनमे भी, ठीक उसी प्रकार जैसे कि सभी अनादि हैं और स्वतन्त्र सत् पदार्थ हैं। वैशेषिकदर्शनमें, उन सबोंके अनादि और जर्मनदार्शनिक काण्टेका कहना है कि दिक् और अनन्तत्वको स्वीकार किया गया है । सुयुक्तिवादक काल मनके संस्कारमात्र हैं, किन्तु जहाँतक ये उपादेय फलममूह भारतीय-दशनोंके अङ्गीभूत अनुमान है, इस मतकी उन्होंने आद्योपान्त रक्षा विषय है। . नहीं कर पाई । मनसं दिक्-कालकी सत्ता न्यायदर्शनमें प्रायः युक्तियोंके प्रयोगसे ही पृथक् है । जहाँ तहाँ काण्टने भी यही बात कही काम लिया गया है। तकविद्याकी जटिल है। साथ हा डिमाकिटाससं लेकर आजकलक नियमावलि इसी दर्शनके अन्तर्गत है। हेतुज्ञानादि विषय गौतमदर्शन में विस्तृत रूपसे विशेष रूपसे वैज्ञानिक तक भी परमाणुओंके अनादित्व और वर्णन किये गये है। संसारके दार्शनिक तत्वसमूहों अनन्तत्वको स्वीकार करते आये हैं। किन्तु । किन्तु का समृद्ध-भण्डार जैन दर्शन ही है । तर्क कपिल पार पतञ्जलने दिक्, काल और परमा- तत्वादि भी इभी दर्शन में विशेषरूपसे Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वैसाख, वीर-निर्वाण सं० २४६६. - आलोचित हुए हैं । अतः इस विषयमें जैन और जिस प्रकार उपनिषदोंकी उत्पत्ति मानी जाती है, भ्यायदर्शनमें बहुत कुछ समता पाई जाती ठीक उसी प्रकार वेदशासन ओर कर्मकाण्डोंके है। किन्तु यदि यह कहा जाय कि न्यायदर्शनके विरुद्ध जैन तथा बौद्धदर्शनकी उत्पत्ति मानना अध्ययन करलेने पर जैनदर्शनकं अध्ययनकी चाहिये। हुएनसङ्गने जिन कारणों में जैनधर्मको आवश्यकता ही नहीं, तो यह एक बहुत बड़ी भूल बौद्ध धर्म अन्सर्गत माना है, वे यहाँ स्पष्टरूप से की बात होगी। कारण, ये दोनों दर्शन बहुत प्रगट हो रहे हैं। वे जिस समय यहाँ आये थे अंशोंमें मिलते-जुलते हुए भी एक दूसरेसे उस समय भारतवर्षमें बौद्धधर्म प्रबल हो सम्पूर्णतया पृथक पृथक हैं। म्याद्वाद और रहा था । हम लोगोंने पहले भी कहा है कि सप्ताङ्गीनय नामक प्रसिद्ध युक्तिवाद गौतमदर्शनमें अहिंसा और त्याग ये दोनों बौद्ध धर्मके मुख्य नहीं है, वह जैनदर्शनका ही गौरव है, इस बातको उपदेश हैं, वैदिक क्रिया कलापोंके विरुद्ध बौद्धोंका मानना ही पड़ेगा। जो युद्ध हो रहा था, उसमें आत्मरक्षा तथा आक्रमणके लिये अहिंसा और त्याग ये ही दो भारतीय दर्शन समूहों में जैन दर्शनका क्या प्रधान अस्त्र थे । और अवैदिक सम्प्रदायमात्र स्थान है। यह उपर्युक्त वर्णनसे वहुत कुछ स्पष्ट हो अहिंसा और त्यागकं पक्षपात में थे । वैदिक जाता है। बहुतोंका मत है कि जैनमत बौद्धमतके सार हिमालि पलक नाशशील मख अन्तर्गत है । लासेन और वेबर ने जैन धर्मकी प्राप्तिकं लिये ही अनुष्ठित हुआ करते थे। जैन सत्ताको म्वतन्त्ररूप से स्वीकार नहीं किया । यहाँ धर्मको भी वेदका शामन अमान्य था। जहाँतक तक कि ईसवी सन्कं सप्तम शताब्दीकं व्यक्ति अनुमान है, त्याग और अहिंसाको जैन समाजमें हुएनसङ्गने भी जैनधर्मको बोद्ध धर्मकी एक शाखा इमीलिये इतना ऊँचा म्थान दिया गया है। कदामात्र ही माना है । वीलर और जैकोषीक मता- चित इसी दृष्टिस बाहरी रूपमें जैनधर्म तथा नुसार जैनधर्म एक स्वतन्त्र धर्म है. और बौद्ध धर्म- बौद्ध धर्म एकसे प्रतीत होते थे, क्योंकि दोनों ही के पहले भी यह मत वर्तमान था ऐसा स्पष्टरूप वंदविधिको न माननेवाले तथा सन्न्यास और से स्वीकार किया गया है। कुछ भी हो हम लोग अहिंसाकं पक्षपाती थे। ऐसी दशामें शहरीरूपको इस पुराने तत्वकं विषय में किसी प्रकारका विवाद देवकर यदि कोई विदेशी पर्यटक इन दोनों धर्मोको नहीं करना चाहते, यह तो हम पहले ही कह चुके एकही वस्तु समझले तो इस विषयमें कोई हैं कि हम लोगोंका यह दृढ़ विश्वास है कि बोद्ध आश्चर्यकी बात न होगी। पर इससे यह प्रमातथा जैन धर्म उनके उस समय के प्रवर्तकगणाके णित नहीं होता कि ये दोनों धर्म तत्वत: एकही बहुत पहले ही से वतमान थे। बौद्धमत बुद्धदेवस हैं । इन दोनों धर्मोके प्राचार-समूह प्रायः एकसे उत्पन्न नहीं, उसी प्रकार जैनमत भी बर्द्धमानके होते हुये भी तत्वतः वे एक दूमरे से पूर्ण भिन्न द्वारा ही नहीं उत्पन्न हुआ। प्रविवादोंके कारण हो सकते हैं। दृष्टान्तके रूपमें कहा जा सकता है Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय वनों में जैव-दामका स्थान - कि संसारके क्षणिक सुख-शान्तिको त्याग करते इन सबोंकी सत्ता मानी जाती है। बौखोंका कहना हुये कठोर संयममय शुख जीवन व्यतीत करनेके है कि निर्वाण लाभ होते ही जीवशून्यमें विलीन फलस्वरूप मोक्ष लाभ होता है, भारतीय प्रत्येक हो जाता है, किन्तु जैन मतके अनुसार मुखजीव दर्शनको यही राय है, इसमें सन्देह नहीं, पर का अस्तित्व घिर-आनन्दमय है और वही सका प्रत्येक दर्शन एक दूसरेसे तस्वतः भिन्न ही है। सबा अस्तित्व हुआ करता है। यहां तक कि बौद्ध जैसे कि उत्तर तथा दक्षिण मेरुमंडल परस्पर दर्शनका कर्म भी जैनदर्शनके कर्मसे मिना वाविभिन्न हैं उसी तरह प्रीक देशीय सिमिक सम्प्र- चक ही हुवा करता है। दायके मूलसूत्र साईरेनके सम्प्रदायके मूलसूत्रोंसे पृथक् थे। फिर भी कोई दिन ऐसा था जबकि ___ उपर्युक कारणोंसे ही हम जैनधर्मको बौद्धदोनों सम्प्रदाय वालोंने सर्वत्यागको ही अपनी धर्मकी एक शाखा मानने के लिये तैय्यार नहीं हैं। अपनी पादर्श नीति मान रक्खा था। ऐसी दशामें बौद्धदर्शनकी अपेक्षा वो सांख्यदर्शनके साथ जैन च भाचारोंकी विभिन्नताको लक्ष्यमें रखते हुये, जैन , दर्शनका निकट सम्बन्ध अधिक रूपमें प्रतीत होता राम और बौद्ध धर्मको अपृथक् समझ लेना समीचीन . है। सांख्य और जैनदर्शन दोनों ही वेदान्तके नहीं होगा। वायरूपमें जैन तथा बौद्धधर्ममें जो अब अद्वैतवादको त्याग करते हुये, आत्माके बहुल्यको कुछ भी समता पाई जाती है उससे वे एक दूसरे. स्वीकार करते हैं। ये उभय दर्शन जीवातिरिक्त से उत्पन्न हुये हैं, ऐसा कभी प्रमाणित नहीं होता। 4 अजीव सत्वके पक्षमें पाये जाते हैं। फिर भी इन हाँ, यदि यह कहा जाय कि वैदिक सम्प्रदायके उभय दर्शनों में से कौनसा दर्शन किससे निकला निष्ठर क्रिया कलापोंके विरुद्ध उठ खडे होनेवाले है अथवा मूलतः इन दोनोंमें कहाँ समता है, यह युक्तिवाद ही इनके उत्पत्तिके एकमात्र कारण बतलाना कठिन होगा। साधारणतः यही देखने में वो अनुचित न होगा। आता है, कि सांख्य और जनदर्शनमें बहुत कुछ स्मता है, पर हैं ये दोनों ही एक दूसरेसे पूर्ण जैन तथा बौद्ध धर्मके तत्वोंकी यदि ठीक ठीक विमिना मालोचना की जाय तो यह स्पष्ट रूपमें प्रकट सबसे पहले यही देखनेमें आता है कि सांख्य. होजायगा कि ये दोनों धर्म एक दूसरेसे पूर्णतया दर्शनमें अजीव-तत्त्व या प्रकृति एक ही है, किन्तु पृषक है। बौदोंका कहना है कि शून्य ही एकमात्र जैन-दर्शनने पजीव-तस्वकी पांच संस्थायें की हैं तत्व है। जैनोंके मतानुसार सत्पदार्थ है एवं और उन पांच अजीवोंमें पुद्गनाख्य अजीब उसकी संख्यायें अगणित हैं। बौखमतके अनुसार असंख्यरूपमें विद्यमान हैं। अब इससे यही स्पष्ट मात्माका कोई भस्त्वित्व नहीं है, परमाणुका भी होता है कि सास्य दो तत्वोंको ही मानता है, पर कोई मस्तित्व नहीं, दिक्, काल, धर्म (गति) ये जैन बहु-तस्वोंका मानने वाला है और भी इन कुछ भी नहीं हैं, ईश्वर नहीं है, किन्तु नोंके मसमें दोनों दर्शनों में बहुतसे भेद हैं। सबसे बड़ा मैद Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेकान्त बिसाल, वीर विवि सं०१५॥ तो यह कि कपिल दर्शन अधिकांशमें चैतन्यवादी लेने ही से जगत विकाशन कार्य सम्भव हो सकता है और जैन-दर्शन विशेषरूपमें जड़वादी है। है। सांख्य दर्शनकी मालोचना करने वाले के हृदयमें पहले ही यह उदय होगा कि प्रकृति का स्वरूप क्या प्रकृतिमे पैदा होने वाले, तत्व समूहोंमें पहले है ? वह जड़ है या चैतन्य ? स्वभावतः प्रकृति तत्त्व, महतत्त्व-बुद्धितत्व हैं । ये जड परमाणु सम्पूर्णरूपमें जड़ है, यह नहीं कहा जा सकता। पत्थर या किसी प्रकारके जड पदार्थ नहीं हैं, जिम जड़-पदार्थ कहते हैं; साधारणतः वह प्रकृति बल्कि ये एक अध्यात्म पदार्थ हैं, अहङ्कार कहलाने की विकृत क्रियाका ही शेष परिणाम हुआ करता वाला दूसरा तत्व भी अध्यात्म पदार्थ ही है, तो फिर प्रकृति क्या है ? भिन्नभावापन्न गुण है, उसके बाद इन्द्रिय, पंचतन्मात्रा, इसी प्रकार समूहोंकी साम्यावस्था ही प्रकृतिका स्वरूप है। क्रमशः महाभूतोंकी सृष्टि देखनेमें आती है। यदि सांख्य दर्शनमें अस्पष्टरूपमे प्रकृतिके ये ही लक्षण प्रकृतिको सम्पूर्ण जड प्रकृति ही स्वीकार कर लिया बतलाये हैं। इन्द्रिय-गोचर जड़-पदार्थ विभिन्न जाय, तो प्रकृनिकी यह विश्व सृष्टि-क्रिया एक बे भाव वाले तीन गुणोंकी साम्यावस्था नहीं है। मतलब और समझमें न आनेवाला विषय बन यह तो सहज ही में समझमें आने वाली बात है। जाता है । महतत्व और अहकार अध्यात्म पदार्थ बहुमें जो कि एक है, वह नाना प्रकारके गुण पर्या- हैं, कपिलके मतसं ही स्पष्ट है कि कार्य और योंमें रहकर भी जब कि अपने एकत्वकी रक्षा कारण एक ही स्वभावके पदार्थ हैं। ऐसी दशामें करने में समर्थ है, वह अवश्य ही कोई जड पदार्थ पैदा हो चुकने वाले तत्व समूहों की तरह प्रसव न होकर कोई अध्यात्म पदार्थ होगा, यह सभी करने वाली प्रकृतिको अध्यात्म पदार्थ कहना कोई समझ सकते हैं, भूयो दर्शन या नत्व विचारमं युक्तिहीन बात नहीं हो सकती। यदि सचमुच भी यह सिद्ध होने योग्य बात है । ऐसी दशामें प्रकृति सम्पुर्णतः जड स्वभाव वाली है, तो जडविभिन्न भाषापम त्रिगुणात्मक प्रकृति के द्वारा यदि स्वभाव व पंचतन्मात्राके पैदा होनेके पहले क्यों जगद्विवर्त-क्रिया सम्पन्न होती है ऐसा स्वीकार और कैसे दो अध्यात्म पदार्थोंका समुद्भव होता कर लिया जाय, तो प्रकृतिको एक अध्यात्म है, यह समझके बाहरकी बात है। पदार्थ मानना ही पड़ता है, और भिन्न२ तीनों गुणें को उमी अध्यात्म पदार्थ प्रकृतिके स्वात्मविकाशके हो यदि प्रकृतिको अध्यात्म पदार्थ अनुमान तीन प्रकार भी मानना पड़ता है, । यदि प्रकृतिको कर लिया जाय, तो सभी बातें सुगम हो जाती हैं स्वभावतःएकान्त भिन्न तीन गुणोंका अचेतन संघर्ष इसमें कोई भी मन्देह नहीं। प्रकृति बीजरूपी मात्र विवेचन किया जाय तो प्रकृति के द्वारा किमी चित्पदार्थ है.इसके पूर्णरूपसे विकसित या विकाशभी पदार्थका पैदा होना संभव नहीं होता । सुतरां प्राप्त होनकी दशा में सबमं पहले भात्मज्ञाम और प्रकृतिको अध्यात्म पदार्थके रूपमें स्वीकार कर सत्यज्ञानकी भावश्यकता होती है। बुद्धितत्व और Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरम.] भारतीय दर्शनों में बैन-एसनका स्थान १४ महंकार तत्वकी उत्पत्ति भी इसीसे है। तदनन्तर में अजीव तत्त्व केवल संख्यामें ही एकसे अधिक प्रकृति अपने मात्मविकास के कारणस्वरूप आव. है, यही नहीं; बल्कि प्रत्येक अजीव तत्व भनात्म श्यकतानुसार क्रमशः इन्द्रिय, तन्मात्रा, कहे जाने स्वभाव है। उपर्युक्त कथनानुसार सांख्यके भजीच वाले जड़तत्वोंकी सृष्टि अपने आप ही करती रहती तत्व या प्रकृतिको तो अध्यात्म पदार्थके रूपमें परिहै। इस तरह प्रकृतिको अध्यात्मपदार्थ और उसमें णत किया जा सकता है। किन्तु जैन दर्शनके पैदा होनेवाले तत्वोंको प्रकृतिके स्वात्म-विकासका अजीव तत्व समूहोंको किसी भी प्रकारसे जीव साधन मान लेनेसे सांख्यकी बनाई हुई जगत- स्वभावापन्न नहीं बनाया जा सकता। जैनमतके विवर्त-क्रिया बहुत कुछ समझमें आजाती है। प्रकृ. अनुसार अजीव तत्त्र पंच संख्यक है-पुद्गलाख्य ति तत्वको अध्यात्म पदार्थक रूपमें मानना वस्तुतः जड़ परमाणु पुंज, धर्माख्य गतितत्व, अधर्माख्य अपरिहार्य है। प्राचीन कालमें भी प्रकृति अध्या- स्थैर्यतत्व, काल और आकाश । ये सब जड़पदार्थ स्मपदार्थक रूपमें न मानी गई हो ऐसा नहीं है। अथवा उमके सहायक हैं, यहाँ तक कि श्रात्माको कठोपनिषदकी तृतीय वल्लीके निम्न श्लोक नं० १०, भी जैन दर्शनने मस्तिकाय माना है याने परिमाण ११ में प्रकृतिको अध्यात्मस्वभावक रूपमें प्रकाश अनुसार आत्माका “कर्मज लेश्या" या वर्णभेद है। करने एवं उसके द्वारा सांख्य दर्शनको वेदान्त जैनदर्शनमें आत्मा अत्यन्त लघु पदार्थ और ऊर्द्धदर्शन में परिणत करनेकी जो चेष्टा की गई है वह गतिशील कहा जाता है। ये सब बातें सांख्यमतके सुस्पष्ट है: विरुद्ध हैं। हमने पहले ही कहा है कि सांख्य दर्शन बहुत कुछ चैतन्यवादके निकटवर्ती है, और जैन इन्द्रियेभ्यः परो झर्थ अर्थेभ्यश्च परो मनः । दर्शन प्राय: जड़वादकी ओर झुकता रहता है। मनसरचः परा बुदिबुद्धरास्मा महान् परः। __ जैनदर्शन सांख्य दर्शनसे विभिन्न है, सुतरा महतः परमम्पकमब्यक्ताव पुरुषः परः। सांख्य दर्शनसे जैनदर्शनकी उत्पत्ति नहीं मानी जा पुरुषान्न परं किचित् सा काष्ठा सा परा गतिः॥ सकती। बहतसे ऐसे विषय हैं कि जिनमें सांख्य और जैनदशेनमें परस्पर सम्पूर्ण विरोध है। उदाअर्थान-इन्द्रियोंसे अर्थ समूह श्रेष्ठ है, अर्थ हरणार्थ यह कहा जा सकता है कि सांख्यके मतासमूहोंसे मन श्रेष्ठ, मनसे बुद्धि श्रेष्ठ, बुद्धिसे मह खि श्रष्ठ, बुद्धिसे मह. नुसार प्रात्मा निर्विकार और निष्क्रिय है, किन्तु दात्मा, महदात्मासे अव्यक्त, अव्यक्तसे पुरुष, पुरुष जैनदर्शनका कहना है कि वह अनन्त उन्नति और से बढ़कर कोई भी वस्तु श्रेष्ठ नहीं, पुरुष ही शेष परिपर्णनाकी ओर झकने वाला अनन्त क्रिया-शक्ति सीमा हे और वही श्रेष्ठ गति भी है। का आधार है। जैन दर्शनका मत और ही कुछ है। जैन दर्शन हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि महित Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वैसास, बीरनिति सं०१६ पनि सुमुक्तिमूलक वर्शन है, और इसकी उत्पत्ति करते हुए एक तत्त्वबादकी मोर कुछ मप्रसर है, वैदिक कर्मकाण्डके प्रतिवादसे ही हुई थी। नास्तिक किन्तु जैनदर्शन तो नाबातकवादके अपर ही चार्वाक मारा इसके निकट कोई भी पावर पूर्णरूपसे प्रतिष्ठित है। नहीं। भारतीय अन्यान्य दर्शनोंकी तरह इसके भी अपने मूल सूत्र वत्व विचार और अपना मत- उपसंहारमें इतना ही कहना है कि जैनदर्शन प्रमात पाया जाता है। विशेष विशेष विषयोंमें बौद्ध, चार्वाक, वेदान्त, सांख्य, पातंजलि, न्याय, वैशेषिक दर्शनोंके सदृश जैनधर्म और वैशेषिक दर्शनमें भी इतनी होते हुए भी, एक स्वतन्त्र दर्शन है । वह अपनी समता पाई जाती है कि यह वेधडक कहा जा उत्पत्ति एवं उत्कर्ष के लिए अन्य किसी भी दर्शन सकता है कि इन दोनोंमें तत्वतः कोई प्रभेद नहीं। के निकट ऋणी नहीं है। भारतीय अन्यान्य परमाणु, विक, कान, गति, भात्मा प्रभृति तत्व. दर्शनोंके माथ. जैनदर्शन समता रखते हुए भी वह विचार इन. उभय दर्शनोंका प्रायः एक ही प्रकारका बहुतसे विषयों में सम्पूर्ण, स्वतन्त्र और सविशेष है, किन्तु साथ ही पार्थक्य भी कम नहीं है। रूप से अनोखा है.. बैशेषिक दर्शन बहुतत्व वादी, ईश्वरको स्वीकार Page #524 --------------------------------------------------------------------------  Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Register No L +328. विषय-सूची 1. श्रीम-स्मरण २. उपासनाका अभिनय [वे. पं० चैनमुखदासजी 1. श्रीपाल-चरित्र-साहित्यके सम्बन्ध में शेष ज्ञातव्य [श्री. अगरचन्द नाहटा .. परिसाका प्रतिवाद [श्री. पं० दरबारीबालाजी ५. प्रभा चन्दका तत्वार्थसूत्र [ सम्पादकीय ... १. परमाणु (कविता)-[पं० चैनसुखदासजी •. परवार जातिके इतिहास पर कुछ प्रकाश [ श्री पं० माथूरामजी प्रेमी ५. अहिंसा के कुछ पहन् [श्री काका कालेन कर ... १.बोरे राष्ट्रोंकी युद्धनीति [श्री. काका कालेलकर .... • भारतीय दर्शनों में जैन दर्शनका स्थान [ श्री. हरिसस्प भट्टाचार्य अनेकान्तके ग्राहक बनिये ___ जो सज्जन भनेकान्त' की पिछली किरण न लेकर नवीन किरण मई से ही ग्राहक बनना चाहते हैं । उन्हें सहर्ष सूचित किया जाता है. ये है कि वे १) रु० मनियाईरसे भिजवा देने पर ७ वी किरणसे १२ वी. किरण तकके ग्राहक बनाए जासकेंगे। उन्हें नवीन प्रकाशित किरणें ही में भेजी जाएँगी और जो ११) रु० के साथ चार आने पोस्टेजका अधिक भेज देंगे उन्हें समाधितन्त्र और जैन समाज-दर्पण दोनों उपहारी ." पुस्तकें भी भिजवाई जा सकेंगी। -व्यवस्थापक MAHAMARHAMALAMAATENAMRATALATAKnorAHINETRINAALANA वीर प्रेम ऑफ इण्डिया, कनॉट मर्कस, न्य देहली। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्येष्ठ-भाषाढ़ पारनि०सं०२४६६ । जून-जुलाई १९४० वार्षिक मूल्य ३० PARRORMISSLOADferouTHORSHIRSANEINDIMONITISHOROOMove सम्पादक संचालकजुमलकिशोर मुख्तार तनसुखराय जैन अधिष्ठाता वीर-सेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर) कनॉट सर्कस पो. बो० नं०४८ न्यू देहली। FOODavarreranceNOGEORIGINITORIGONDONDONDOPINIORRENE JODOHCOTTO DDEOLOG4வவவவலவனவைகவைட்மாவைவலடை फुलसे MIOFORTOFOTOFOKOFOTOFORORTOFOONOTO [श्री घासीराम जैन] चार दिनकी चाँदनीमें फूल ! क्योंकर फूलता है ? बैठकर सुखके हिडोले हाय ! निश दिन मूलता है ! आयगा जब मलय पावन आज जो हर्षा रही ले उड़ेगा सुख सुवासित, पाकर तुझे सुकुमार डाली, हाथ मल रह जायँगे माली कल वही हो जायगी बनेगा शून्य उपवन ! सौभाग्यसे बस हाय खाली! फिर बता इस क्षणिक जीवनमें अरे क्यों भलता है ? | देखकर लाली जगतफी काल नियदिन झूलता है। कर रहा गार नव नव आज जो तेरे लिये नित्य नित्य सजा सजाकर सर्वस्व करते हैं निछावर, गा रहा आनन्द-धुरपद कल वही पद घनमें प्रेम-वीणाको बजाकर । तेरे लिये फेंके निरंतर कालकी इसमें सदा रहती भरे प्रतिकूलता है। स्वार्थ-मय लीला जगतकी मूर्ख ! क्योंकर इखता है। आज तुम सुकुमारता में विश्वका नाटक क्षणिक है मग्न हो निश दिन निरंतर। पलटते हैं पट निरंतर एक क्षणभरमें अरे । आज जो है कल उसी मेंहो जायगा अति दीर्घ अन्तर। हो रहा। ल अंतर ! है यही जगरीत क्षण क्षण सूक्ष्म और स्थूलता है ।। है अभी अज्ञात इसमें "चन्द्र" क्या निर्मूलता है । चार दिनकी चांदनी में फूल क्योंकर फूलता है। SANOHOROSPITOREENSHIROINOLONDOORDIOSANDEENSATISEMOTORATORREARSE मुद्रक और प्रकाशक-अयोध्याप्रसाद गोयलीय maineCoineDEOGODDEDOHORITISGENowereaNOTESONSIBLEDIEDOil 0 440OHOST Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टाइटिल पर ४८१ ४७६ ४९४ ४९८ विषय-सूची १. फूलसे (कविता) [ श्री घासीराम जैन 'चन्द्र' २. पात्रकेसरि-स्मरण ३. धर्मका मूल दुःखमें छुपा है [श्री जयभगवान वकील ४. तामिल भाषाका जैन-साहित्य [प्रो. ए. चक्रवर्ती ५. जैनागमोंमें समय-गणना [श्री अगरचन्द नाहटा .६. यति-समाज [श्री अगरचन्द नाहटा ७. बावली घास [श्री हरिशंकर शर्मा ८. अर्थप्रकाशिका और पं० सदासुखजी [ पं० परमानन्दजी । ९. नियोंकी दृष्टि में बिहार [श्री पं० के. भुजबली शास्त्री १०. परिग्रहपरिमाणत्रसके दास दासी गुलाम थे श्री नाथूराम प्रेमी १५. अमर मानव [श्री सन्तराम बी.ए. १२. भूल स्वीकार [श्री सन्तराम बी. ए. १३. गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्ति [पं० परमानन्द १४. धर्म बहुत दुर्लभ है [श्री जयभगवान वकील '५१० ५१४ ५२१ ५२९ ५३३ ५३७ विनीत प्रार्थना पिछले माह प्रेसकी अव्यवस्था और प्रबन्ध आदिमें परिवर्तनके कारण 'अनेकान्त' प्रकाशित नहीं हो सका। हमारे लिये यह प्रथम अवसर है कि जब अनेकान्त अपने कपालु पाठकोंके पास निश्चित समय पर नहीं पहुँचा। अन्यथा हर माहकी अंग्रेजी २८ ता०को डिस्पैच हो जाता है। यह संयुक्त किरण लगभग प्रस्तुत पृष्ठों से दूनी होनी चाहिये थी किन्तु यथा समय मैटर ने मिलनेके कारण इतने ही पृष्ठोंकी यह संयुक्त किरण प्रकाशित की जा रही है। इन पृष्ठोंकी पूर्ति भागामी तीन किरणोंमें अवश्य कर दी जायगी ऐमी विनीत प्रार्थना है। -व्यवस्थापक Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SLA वर्ष ३ नीति-विरोध-प्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ।। सम्पादन-स्थान-वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो. बो० नं. ४८, न्य देहली किरण ८-९ ज्येष्ठ, श्राषाढ़-पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं०२४६६, विक्रम सं०१५६७ पात्रकेसरि-स्मरण भूभृत्पादानुवर्ती सन् राजसेवापरामुखः । संयतोऽपिच मोक्षार्थी भात्यसौ पात्रकेसरी।।-नगरतास्त्रक-शिबालेख०१५ जो राजसेवासे पराङ्मुख होकर-उसे छोड़कर-मोक्षके अर्थी संयमी मुनि बने हैं, वे पात्रकेसरी (स्वामी) भूभृत्पादानुवर्ती हुए-तपस्याके लिये गिरिचरणकी शरण में रहते हुए-खब ही शोभाको प्राप्त हुए हैं। महिमा सपात्रकेसरिगुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत् । पद्मावती सहाया त्रिलक्षणकदर्थनं कर्तुम् ॥ -अवयवेरगोन-शिलालेख नं०१७ जिनकी भक्तिसे पद्मावती (देवी) 'त्रिलक्षणकदर्थन करनेमें-बौद्धों द्वारा प्रतिपादित अनुमान-विषयक हेतुके त्रिल्पात्मक लक्षणका विस्तार के साथ खण्डन करने के लिये विलक्षणकदर्थन' नामक ग्रंथके निर्माण करने में-जिनकी सहायक हुई है, उन श्रीपात्रकेसरी गुरुकी महिमा महान् है-असाधारण है । भद्राकलंक-श्रीपाल-पात्रकेसरिणांगणाः। विदुषां हृदयारूढा हारायन्तेऽतिनिर्मलाः ॥-पादिपुराणे, विमसेनः भट्टाकलंक और श्रीपाल प्राचार्योंके अतिनिर्मल गुणों के साथ पात्रकेसरी प्राचार्य के प्रतिनिर्मल गुण भी विद्वानोंके हृदयों पर हारकी दयले प्रारुढ -विद्वजन उन्हें हृदयमें धारणकर अतिप्रसन्न होते तथा शोभाको पाते हैं। विप्रवंशामणीः सूरिः पवित्रः पात्रकेसरी। सजीयाजिनपादाजसेवनकमधुप्रतः॥-सुवर्णमचरित्रे, विद्यानन्दी पवित्रात्मा भीपात्रकेसरी सूरि जयवन्त हों-लोकहृदयों पर सदा अपने गुणोंका सिका जमाने में समर्थ हो-जो बामणकुलमें उत्पन्न होकर उसके प्रय नेता थे और (वादको) जिनेन्द्रदेव के पद-कमलोंका सेवन करने चाले असाधारण मधुमब (के रूपमें परिणत हुए) थे। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मका मूल दुःखमें बुपा है। [0-बी बबभगवान जैन बी.ए. एसएल. बी. वकीय जीवनकी दो मूल अनुभूति तृष्णा पूर्तिका स्थान नहीं, यह निर्दयी मरीचिका है। यह दूर दूर बने वाला है । यह नितान्त जोराव-कालमें जीवन ज्याल, अदुत, विस्मय अप्राय है । यह झूठी श्राशाके पाशोंसे वाग्ध बान्ध । कारी लीलामय दिखाई देता है और जगत । कर जीवनको मृत्युके घाट उतारता रहता है। भानन्दकी रङ्गभूमि । यहाँकी हरएक चीज सुन्दर, सौम्य और आकर्षक प्रतीत होती है। जी चाहता ___ यह जगत मृत्युसे व्याप्त है । सब ओर है कि यहाँ हिलमिल कर बैठे, हँस-हँस कर खेलें, क्रन्दन और चीत्कार है। लोक निरन्तर कालकण्ठ में उतरा चला जा रहा है। भमण्डल अस्थिपञ्जर रोष तोषसे लड़ें और छलक छलक कर उड़ जायें। से ढका है। पर, रुएडमुण्ड पहिने हुए कालका __ परन्तु ज्यों ज्यों जीवनको गति प्रौढताकी भोर अट्टहास उसी तरह बना है। यहाँ जीवन नितान्त बढ़ती है, यह रङ्गभूमि और उसको ललाम लीला अशरण है ।। डरावनी और घिनावनी मूर्ति धारण करती चली ___ यहाँ कोई चीज स्थायी नहीं, जो आज है वह जाती है। पद पद पर भान होने लगता है कल नहीं, अंकुर उदय होता है, बढ़ता है, पत्र जीवन दुःखमय है, जगत निष्ठुर और क्रूर है, पुष्पसे सजता है, हँसता है, ऊपर को लखाता है; यहाँ मनका चाहा कुछ भी नहीं, सर्व ओर परा परन्तु अन्तमें धराशायी हो जाता है । यहाँ भोगमें धीनता है, बहुत परिश्रम करने पर भी इष्टको प्राप्त रोग बसा है, यौवनमें जरा रहती है, शरीरमें नहीं और बहुत रोक थाम करने पर भी अनिष्टकी मृत्युका वास है। यहाँकी सब ही वस्तुएँ भयसे उपस्थिति अनिवार्य है। ढकी हैं। यह जगत निस्सार है, केवल तृष्णाका हुंकार है। उसीसे उन्मत्त हुघा जीवन अगणित बाधा, प्रौढ अनुभूति और धर्म मार्गअमित वेदना, असंख्यात भाघात-प्रघात सहता यह है प्रौढ अनुभूति, जो मानव समाजमें हुआ संसार-बनमे घूम रहा है, वरना यहाँ सन्तुष्टि- विवं सर्व मत्युना असं, सर्व मृत्युनामिपा का,सुख शान्तिका कहीं पता नहीं । वही अपूर्णता, बही तृष्णा,वही वेदना हरदम बनी है। यह लोक - हादशानुप्रे पम्मपद २०." * ममिमनिकाप-1 सूत महरि-वैराम्पयतका Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग, जिरवा ] ...धर्मका मुख दुःखमें बुगा है। धर्म-मार्गको आविष्कारक हुई है। कोई युग ऐसा भगवान् द्वारा बतलाई हुई द्वादश भावनाओंमें नहीं, कोई देश ऐसा नहीं जहाँ इस प्रौढ अनुभूति इस अनुभूतिका आलोक होता है। का उदय न हुआ हो और इसके साथ साथ जीवन यों तो यह अनुभूति समस्त धर्म-मार्गोंकी के अलौकिक आदर्श और तत्माप्ति के लिये धम- आधार है; परन्तु निवृत्ति परक दर्शनोंकी, श्रमणमार्गका जन्म न हुआ हो । वैदिक ऋषियोंकी यह संस्कृतिकी तो यह प्राण है। इसीलिये औपनिषदिक अनुभूति वैदिक साहित्योक्त यम, मृत्यु व काल संस्कृति, वेदान्त, बौद्ध और जैनदर्शनोंको समझने विवरणमें छुपी है। असुर लोगोंकी यह अनुभूति के लिये इसका महत्व अनुभव करना अत्यन्त प्रचण्ड भीषण रुद्र, और नाग सभ्यताके रूपमें . आवश्यक है। हम तक पहुँची है । लिंगायत लोगोंमें यह रुद्रकी पोरन मूर्ति और शिवके, ताण्डव नृत्यमें अङ्कित है ।। और बंगालदेशक तान्त्रिक लोगोंमें काली कराली ____ मनुष्य-जीवनमें चाहे वह मभ्य हो, या असचण्डी दुर्गाके चित्रमे चित्रित है । औपनिषदिक भ्य, धनी हो या निर्धन, पण्डित हो या मूढ, कालमें यही अनुभूति "ब्रह्म सत्य है और नाम-रूप पुरुष हो या स्त्री, यह अनुभूति जरूर किसी समय कर्मात्मक जगत असत्" है इस सत्यासत्यवादमें आती है और उसके उज्ज्वल लोकको भयानक बसी है। । यह अनुभूति आधुनिक वेदान्तदशनके भावोंसे भर देती है। उस पातक में वह सोचता मायावाद, तुच्छवादमें प्रकट है। । 'महाभारत' में यही अनुमति मेधावी ब्राह्मण पुत्रके विचारों में "मैं कौन हूँ ? क्या मैं वास्तवमें निरर्थक हैं ? गर्मित है । बौद्ध कालीन भारतमें बुद्ध भगवान पराधीन और निस्सहाय हूँ ? क्या मेरा यह ही द्वारा बतलाये हुये चार मार्य सत्योंमें * और वीर अन्तिम तथ्य है कि मैं मंगल-कामना करते हुये भी -- दुःखी रहूँ, आशा रखते हुए भी भाशाहीन बनें, * A. C. Das–Rigvedic Culture 1925 p. 396. जीवन चाहते हुए भी मृत्युमें मिल जाऊँ ? यदि अथर्ववे11 . वेद...10. R. G. Bhandarker Vausnavesin & Saurana दुःख ही मेरा स्वभाव है तो सुखकी कामना क्यों ? vesin 1928 pages 145-151... यदि यह जीवन ही जीवन है तो भविष्यको आशा $ R. Chanda The Indo Aryan Races 1916 क्यों ? यदि मृत्यु हो मेरा भन्न है तो अमृतकी pages 136-138.- ". भावना क्यों ? क्या यह कामना, आशा, भावना, र उप. .. मानो एक सम्नेतत् सब भ्रम है, मिथ्या है, मेरा इनसे कोई सम्बन्ध अपम्" कांचना-सा रोकी .. .. नहीं? क्या यह लोकं ही मेरा लोक है, जहाँ मामा-गति प्रो वा 1 . इच्छाओं का खून है, पुरुषार्थकी विफलता है ? * रोचविधान-महाति गा । चरायवन मध्याव ।। चंयुनिसार १५-२१. '.. श्रीमान्लामा हारकानुप्रेश। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .नेमात . . . .[पेड, पापा, बीर-निर्वास स्वासव स्थापन माना चाहता है। ऐसे ही दुःख... मार्ग निकाल लेता है, वह मार्ग पर चलकर सदाके. स्वर्व अनिष्ट नहीं; अविध का उत्पादक नहीं, यह लिये कृतकृस्प हो जाता है, पूर्ण हो जाता है, ममयवो अनिष्टकी चेतावनी है, जो प्राणोंको मेंच सेंच सुखका स्वामी हो जाता है । परन्तु जो दुखकी कर, हृदयको मसल मसल कर, मनको उपना कटुतासे डर कर चभे हुए शूलको तनस नहीं । पुथल कर निरन्तर मूलभाषामें पुकारता रहा. निकालता भीतर बैठे हुए रोगके कारणोंका बहिहै-"उठो, जागो, होशियार हो, यह जीवन इष्ट कार नहीं करता, वह निरन्तर दुःखका भोग जीवन नहीं। यह जीवनकी रुग्ण दशा है, वैभाविक करता रहता है। दशा है, पन्ध दशा है।" यह तो अनिष्ट निरोधका जो दुःख से डर कर दुःखका साक्षात् करना उद्यम है । जो यथा तथा जीवनको अनिष्टसे नहीं चाहता, उसके अनुभवोंसे प्रयोग करना नहीं निकाल कर इसमें स्थापन करना चाहता है। चाहता, उसकी सुझाई हुई समस्याओंको हल इसीलिये संसारके. सब ही महापुरुषोंने,. करना नहीं चाहता, उसके जन्म देने वाले कारणों जिन्होंने सत्य का दर्शन किया है। जिन्होंने अपने पर-उसका अन्त करने वाले उपायों पर विचार जीवन को अमर किया है, जिन्होंने अपने भादर्श करना नहीं चाहता, जो धर्म-मार्ग पर चल कर से विश्व हित के लिये धर्ममार्गको कायम किया है, उन कारणोंका मृलोच्छेद करना नहीं चाहता, जो इस दुःखानुभूतिको अपनाया है, इसके मानोकमें केवल दुःखानुभूतिको भुलानेकी चेष्टामें लगा है रहकर अन्तःशक्तियोंको भगाया है इसे श्रेयस और वह मूढ़ अपनी ठगाईसे खुद ठगा जाता है, कल्याणकारी का है । बार बार जन्म-मरण करता हुमा दुःखसे खेद जो दुःखसे अधीर नहीं होता, इससे मुँह नहीं खिम होता है। छुपाता, जो इसे सचे मित्र के समान अपनाता है, यदि जीवन और जगत्के रहस्योंको समझना इसके मनुभावों के साथ प्रयोग करता है, इसकी है, लोक और परलोकके मार्गोको जानना है तो पासको सुनता है, इसके पीछे पीछे बनता है, आत्माको प्रयोगक्षेत्र बनाओ, दुःख-अनुभवोंको वह जीवन-शत्रुपोंको पका लेता है, वह जन्ममरण प्रयोगके विषय बनामो, इनका मथन और मनन के रोगका विधान कर लेता है, वह दुःखसे सुखका करनेके लिये प्रात्मचिन्तवनसे काम लो। 8 (1) जैसे कमलका मूल पंको छुपा है, बसन्तका मूल हिममें छुपा है, ऐसे ही. धर्मका.मूल दुःख में छुपा है। () स्पति (O Blessed are the boor m spirit for ther पानीपत, ता. २६-५-१९४०" is the erdigdom of tičavert. Bleskied are they that thoinior hillsransfornet.in D i alist.Mathem.site: Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिल भाषाका जैनसाहित्य [खक-पोकेसर ए. पावती एम. ए. पाई. ई. एस, मिसिपल कुंभ कोषम् काग] . [अनुवादक-पं० सुमेरुवन्न बैन दिवाकर पावतीर्थ शासी, बी. ए. एसएस. बी. सिवनी ] नामिल साहित्य पर सरसरी निगाह डालनेसे बीचमें था । ऋग्वेद संहितामें भी हम ऋषभ तथा "" यह बात विदित होगी कि वह प्रारंभिक अरिष्टनेमिका उल्लेख पाते हैं, जिनमें पहले तो कालसे ही जैनधर्म और जैन-संस्कृतिसे प्रभावित जैनियोंके आदि तीर्थकर हैं और दूसरे बाबीसवें या। यह बात सुप्रसिद्ध है कि जैनधर्म उत्तर तीर्थकर जो श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। भारतमें ही उदित हुआ था, अतएव उसका आर्य जब हम संहिताओंके कालको छोड़कर प्राण संस्कृतिसे सम्बन्ध होना चाहिये । जैन लोग कब ग्रंथोंके कालमें प्रवेश करते हैं, सब हमें आर्य लोगों तो दक्षिणको गए तथा किस भांति उनका मूल के इस पृथकरणके विषयमें और भी मनोरंजक तामिन-वासियोंसे सम्बन्ध हुआ, ये समस्याएँ बातें मिलती हैं। इस समय तक आर्य लोग गंगा ऐसी हैं जो अब तक भी अन्धकारमें हैं । किन्तु को घाटी तक चले गए थे और उन्होंने राज्य इन प्रश्नों पर कुछ प्रकाश डाला जा सकता है, स्थापित किए थे तथा काशी, कौशल, विदेह और यदि हम इस बात पर अपना ध्यान दौड़ावें कि मगध देशोंमें अपना स्थायी निवास बनाया था। सिंधुकी घाटीमें भार्योकी अवस्थितिके आदिकालसे इन देशों में रहने वाले मार्य लोग प्राव: पौर्वात्य ही उन आर्य लोगोंमें एक ऐसा वर्ग था जो बलि- आर्य कहे जाते थे। ये सिंधु नदीकी सराई सम्बन्धी विधानका विरोधी था और जो भहिंसाके सिद्धांत कुल पांचाल देशोंमें बसने वाले पाश्चिमात्य मार्यों का समर्थक था। ऋग्मंदके मंत्रोंमें भी इस बातको से भिन्न थे । ये लोग पूर्वके प्रायोको अपनी प्रमाणित करने योग्य साक्षी विद्यमान है। ब्राह्मण अपेक्षा हीन समझ कर हीन दृष्टिसे देखते थे, तरुण शुनःसैफ की-जो विश्वामित्रके द्वारा बलि कारण उनने कुरु पांचालीय भायोंकी हस्ताका किये जानेसे मुक्त किया गया था, कथा एक मह- परित्याग किया था । पूर्वीय भाषाओं के बेचा यह स्व पूर्ण बात है। राजर्षि विश्वामित्र तथा वशिष्टका सुझाते हैं कि संभवतः गंगाकी तसई सम्बन्धी 'द्वन्तु संभवतः उस महान विरोधके प्रारंभको पूर्वीय भार्य माक्रमणकारी उन मायोकी प्रारंभिक बताता है जो मामण ऋषियों के द्वारा संचालितः बहरको सूचित करते हैं, जो सिधुकी सगाई बसी बलिदान-विधायक सम्प्रदाय तथा बीर-क्षत्रियों हुई आक्रमणकारी पाश्चिमात्य जातियोंसे पूर्वदिशा द्वारा संचालित बनिविरोपी महिसा सिद्धान्तके की चोर भगा दिए गए थे। इस प्रकार विचारों Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म बनेकान्त [ज्येष्ठ, भाषाद, बीर-निर्वाव सं०२४१५ का निश्चय करना आवश्यक है, जिससे दो भागों लोग यह मानते हैं, कि कुरु पांचालीय वैदिकोंके में विद्यमान कतिपय मौलिक भिन्नताओंको समझा द्वारा अत्यंत उस माने गए वाजपेय यज्ञके स्थानमें जा सके। प्रायोंके दो समुदायों के मध्य विद्यमान राजसूय या श्रेष्ठ है। कुछ मरण उन कारणों में राजनैतिक तथा सस्कृितिक भेदोंके सद्भावको से हैं जो पूर्वीय देशोंमें कुरु पांचालीय वैदिक ब्राह्मण-साहित्य स्पष्टतया बताता है । भनेक अव- ब्राह्मणोंका पर्यटन क्यों निषिद्ध है, इस विषयमें सरों पर पूर्वीय पार्योंके विरुद्ध पूर्वीय देशकी भोर बतलाए गए हैं। सेनाएँ ले जाई गई थीं । ब्राह्मण-साहित्यमें दो पंचविंशब्राह्मणके एक प्रमाणसे यह अनुमान अथवा तीन प्रधान बातोंका उल्लेख है, जो सांस्कृ- निकाला जा सकता है कि कुछ समय तक आर्योतिक भिन्नताके लिए मनोरंजक साक्षीका काम के क्रियाकाण्ड विरोधी दलोंका विशेष प्राबाल्य देती हैं। काशी, कौशल, विदेह और मगधके था और वे लोग इन्द्र याके, जिसमें बलि करना पूर्वीय देशोंमें व्यवहार करनेके सम्बन्धमें शतपथ भी शामिल था, विरुद्ध उपदेश करते थे। जो इन्द्रब्राह्मणमें पांचाल देशीय कट्टर ब्राह्मणोंको सचेत पूजा तथा यज्ञात्मक क्रियाकाण्डके विपरीत उपदेश किया गया है । उसमें बताया गया है कि कुरु देते थे, नन्हें मुंडित मुंड यतियोंके रूपमें बताया पांचाल देशीय ब्राह्मणोंका इन पूर्वीय देशोंमें जाना है। जब वैदिक दलके प्रभावसे प्रभावित एक बलसुरक्षित नहीं है, क्योंकि इन देशोंके आर्य लोग शाली नरेशके द्वारा 'इन्द्र यज्ञ' का पुनरुद्धार किया वैदिक विधि विधान-सम्बन्धी धर्मोको भूल गए हैं गया, तब इन यतियोंका ध्वंस किया गया और इतना ही नहीं कि उन्होंने बलि करना छोड़ दिया इनके सिर काट करके भेड़ियोंकी भोर फेंक दिये बल्कि उनने एक नए धर्मको प्रारंभ किया है, जिस गये थे। जैनेतर साहित्यमें वर्णित ये पाने विशेष के अनुसार पलि न करना स्वयं यथार्थ धर्म है। महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये पहिसाधर्मकी प्राचीनताकी ऐसे भवैदिक आर्योसे तुम किस सन्मानकी भाशा ओर संकेत करती हैं। कर सकते हो, जिन्होंने धर्मके प्रति पादर-सन्मान पप जैन साहित्यकी भोर देखिये, उसमें भाप का भाव छोड़ दिया है । इतना ही नहीं, वेदोंकी क्या पाते हैं ? ऋषभदेवसे लेकर महावीर पर्यन्त भाषासे भी जिन्होंने अपना सम्पर्क नहीं रक्खा है। चौबीस तीर्थकर हैं, जो सब क्षत्रियवंशके वे संस्कृतके शब्दोंका शुद्धता पूर्वक उचारण नहीं हैं। यह कहा जाता है कि प्रादि वीर्थकर भगवान कर सकते । उदाहरण के तौर पर संस्कृतमें जहां ऋषभने पहले अहिंसा सिद्धान्तका उपदेश दिया राता है वहाँ 'ज' का धारण करते हैं। था तथा तपश्चर्या अथवा योग द्वारा प्रात्मसिद्धी इसके सिवाय इन पूर्वीय देशोंके क्षत्रियोंने को मोर शानियोंका ध्यान आकर्षित किया था। सामाजिक महत्व प्राप्त कर लिया है, यहाँ तक कि इन जैन तीर्थंकरोंमें अधिकतम पूर्वीय देशोंसे अपमेको प्रामणसे बड़ा बताते हैं । क्षत्रियोंके. सम्बन्धित हैं । अयोध्यासे ऋषभदेव, मगधसे नेहत्व में सामाजिक गौरवके अनुरूप पूर्वीय पार्य महावीर और मध्यवर्ती बावीस वीर्षकका बहुधा Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PL-PIP .yie] तामिक जैनसाहित्य • उन देशास सम्बन्ध पालो कि विदेशों मौदाने शिवायो नामको यातका FFसम्मिलित हैं जिन्होंने मिसाभामें अपना संदेशगमममणाजौबारामावा मिल कालोग सा नादिया वह संस्कृति महीकि धीमत रूप उदाहरण है। जानकार हमके काली "संहलमाया भी। अमियकामारंभिक विकास्कीबातचीत शाली होने सूचित Fधार्मिक साहित्य प्राय प्राकृत भाषा में है जो किया किजिनकी कन्या कोतमायालयोगी, मसात्कालिक जनताको बोलवालकी भी यह किन्तुं शोकमान्य बहामा तीन Fiveपष्ट है कि इस दार दिमागमायक्मे महिनात्मका प्रतिकार किया मिना मिस हिसारे समायी धार्मिक सिद्धान्तको जनता में प्रकाशित करनेकामही हैं, क्योंकिवह दूसरे पक्ष में पुनले गये साथ हम प्रचलित भाषांकी बनाया है। . हैं चिन्तन्याहानियागाकि मार्मिक लिमिii... अब-हम उपमिकोलमैं प्रवेश करते हैं तबामाताको होते हुस सीजनविकसैिनिक दृष्टि 1. हम कुरु चालीय प्रज्ञा लियाकारण और यह संबंध नाँकानीका है। इस इस पूर्वीय आर्योंकी आत्म विद्यारूपी दो विपरीत बासकोटमकरसाहाकि नयनर जनपने पक्ष संस्कृतियों के सपने पुनार संपादेिखते हैं। उपनिपारिसर्जनानीका था तबाताबो सलाम कार्योमें पद सम्बन्धी अध्यामबादाविशेषकर कहाशत्रियोगिमाहिएतकिर जाते है यह ना स्थार्थ FYसेविंत्रित हैम कुक पाकाल देसी विधान इन नहीं होगा कि पूर्वीय आर्य लोक जो मक विधिके I विमरेशों दरबार में प्रामक्रियाकानीमज्ञान विरोधी तथा नमिनको तापकीरा पत्रिका, थे, में प्रवेश निमित्त प्रतीक्षा करते हुए देखे जाते हैं F अहिंसा सिद्धान्तमेरिकासकारो औससे उपनिषदकालीगणपसा असे माथाको बताता हो योनियोंके पूर्वज हास्यासम्मकलसमग IE'जनन्य होनालियाको पनिश्चम मौसमझौतासा नसरि सकेगौच मलेसिंचापक वा अतितीनिमित्त या वक्ते हुपमणो ने हैं। शाकया निपौवामाके हममें कीर चनियाद्वारा HF PITR प्रकारको समन्वयात्मक भावनीको बोतको संचालित दूरी विचारणामयालीले भने से VIEरामाजीक मानीत होते हैं औरापूर्वी या विन पिस किया तमं धुत या ग्रीकर उनके जिमखास माहवल्का संभवताक हो मोवाका यशाम स शसे कसे मानवम औरतायलाई पुरातनयज्ञलाया जाता है जिसने प्राचीन भारतीय संस्कृति Fगावधि मूलीसितिमिषित किए नई स्थानमा के निर्माण पूर्ण कार्य किया और वो मकुछ होकस्थिति वाली सोविकारखी गईयापौराणिहिन्दुस्तकहाशियाटों की गतस्मानियाकमावान शाम सापक उमापासेमायें समानिक लोक सहिष्णु Pिामानालयामीको समगीने में विधियोको अवतारको सममें शामिल लिसो मन्दिर मिर मर्गक विकासमबनानाको कामना की शादी को यह मितापरि विकानोनिहितीमा माहोगसिपाईकोबा शिकवितका Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त.. [ज्येष्ठ, भाषाढ़, बीर-निर्वाध सं०२४१५ उपदेश वे क्षत्रियवीर देते थे जो धनुष बाण लेकर उनकी रुचिके अनुसार भोजन कराया गया, भ्रमण करते थे और जिनका समाम संबंधी कार्यों कारण वे पके शाकाहारी नहीं थे । यह बातें से विशेष संबंध रहा करता था। अहिंसा सिद्धान्तका महत्व तथा उसकी प्रबलताको यह विषय प्रज्ञात है कि उनका अहिंसासे संबंध स्पष्टतया बताती हैं । ये बातें तामिल साहित्यमें भी कैसे हुआ, किन्तु यह बात सन्देह रहित है कि वे भली भाँति प्रति-विम्बित होती हैं, जब कि जैन लोग भहिंसा-सिद्धान्तके संस्थापक थे । ये क्षत्रिय दक्षिणकी ओर गये थे और उनने तामिल साहित्य नेता जहाँ कहीं जाते थे अपने साथ मूल अहिंसा के निर्माणमें भाग लिया था। प्रारंभिक जैनियोंने धर्मको ले जाते थे, पशु-बलिके विरुद्ध प्रचार अपने धर्म प्रचारका कार्य किया होगा, और करते थे तथा शाकाहारको प्रचलित करते थे। इसलिये वे देशके आदमनिवासियोंके माथ इन बातोंको भारतीय इतिहास के प्रत्येक अभ्यता निःसकोच भावसे मिले होंगे । आदिमानवामियों को स्वीकार करना चाहिये । यह बात भवभूतिके के साथ उनकी मैत्रीसे यह बात भी प्रगट होनी नाटक, उत्तर राम-चरित्रमे बाल्मिीकि-बाश्रमकं है। एक दृश्यमें वर्णित है। जनक और वशिष्ठ अतिथि जिन देशवासियोंके विरुद्ध आर्य लोगोंको के रूपमें आश्रम पहुँचते हैं । जब जनकका अति- संग्राम करना पड़ा था, वे दस्यू कहे जाते थे । थि सत्कार किया जाता है तब उन्हें शुद्ध शाकाहार यद्यपि अन्यत्र उनका निंदापूर्ण शब्दोंमें वर्णन कराया जाता है, आश्रम स्वच्छ और पवित्र किया किया गया है, किन्तु उनका जैन साहित्यमें कुछ जाता है किन्तु जब आश्रममें वशिष्ठ पाते हैं तब सम्मानके साथ वर्णन है । इसका एक उदाहरण एक मोटा गो-वत्स मारा जाता है । आश्रमका यह है कि वाल्मीकि रामायणमें जो बंदर और एक विद्यार्थी व्यंग्यके रूपमें अपने साथीसं पूछता राक्षसके रूपमें अलंकृत किए गए हैं, वे जैन रामाहै कि, क्या कोई व्याघ्र आश्रममें आया था । यणमें विद्याधर बताए गए हैं। जैनसाहित्यसे यह दूसरा छात्र वशिष्ठका अपमान पूर्ण शब्दोंमें बात भी नष्ट होती है कि आर्य वंशीय वीर उल्लेख करनेके कारण उसे भला बुरा कहता है। क्षत्रिय विद्याधरोंके यहाँकी राजकुमारियोंके साथ प्रथम विद्यार्थी क्षमा मांगता हुमा अपनी बातका स्वतंत्रतापूर्वक विवाह करते थे । इस प्रकारको इस प्रकार स्पष्टीकरण करता है कि मुझे ऐसा वैवाहिक मैत्री बहुत करके राजनैतिक एवं यौद्धिक अनुमान करना पड़ा कि आश्रममें कोई व्याघ्र कारणोंसे की जाती थी। इसने अहिंसा सिद्धान्त जैसा मांसाहारी जानवर अवश्य पाया होगा, को देशके मूल निवासियोंमें प्रचारित करनेका द्वार कारण एक मोटा ताजा गोवत्स गायब हो गया खोल दिया होगा। उत्तरसे तामिल देशकी ओर है। इस पर वह विद्यार्थी यह स्पष्ट करता है कि प्रस्थान करने एवं वहाँ अहिंसा पर स्थित अपनी राजऋषि तो पके शाकाहारी हैं अतः उनका उसी संस्कृतिका प्रचार करने में इस प्रकारके कारणकी प्रकार सत्कार होना चाहिये था किन्तु पशिष्ठको कल्पना करनी पड़ी होगी। कट्टर (वैदिक) मार्योंका Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण १] तामिल भाषाका साहित्य संप्रदाय तामील देशके मैदान में बहुत विलम्बसे ठहरे थे तथा अपने देशको वापिस जाना चाहते आया होगा, कारण यह बात हिन्दुधर्मके पश्चात थे, उनका यह वापिस जाना पांड्य नरेशको इष्ट कालवर्ती उस पुनरुद्धारसे पूर्णतया स्पष्ट होती है, नहीं था। अतः उन सबोंने समुदाय रूपसे एक जिसने दक्षिणमें जैनियोंकी प्रभुताको गिराया। रात्रिको पांड्य नरेशकी राजधानीको छोड़ दिया । __ साधारणतया यह कल्पना की जाती है कि, प्रत्येकने एकर ताड़ पत्र पर एक २ पद्य लिखा था चन्द्रगुप्त मौर्यके गुरु भद्रबाहुके समयमें जैनियोंने और उसको वहाँ ही छोड़ दिया था। इन पद्योंके दक्षिण भारतकी ओर गमन किया था और उत्तर समुदाय में "नालिदियर' नामक ग्रंथ बना है। यह भारतमं द्वादश वर्षीय भयंकर दुष्काल आने पर परम्परा कथन दक्षिण के जैन तथा अजैनोंको भद्रबाहु मंपर्ण जैन संघको दक्षिणकी ओर ले गए मान्य है। इससे इम बातका भी समर्थन होता है थे और उनका अनुसरण उनके शिष्य चन्द्रगुप्तने कि तामिल देश भद्रबाहुक जानेसे पूर्व जैन नरेश किया था एवं अपना राज्यासन अपने पुत्रको थे। अब स्वभावतः यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि, प्रदान किया था। वे कुछ समय तक मैमूर प्रांतमें वह कौनमा निश्चित काल था जब जैन लोग ठहरे। भद्रबाहु और चंद्रगुप्त ने श्रवणवेलगोलाके तामिल देशको ओर गए ? तथा ऐसा क्यों हुआ? चंद्रगिरि पर्वत पर प्राण त्याग किया तथा शेष परन्तु हमारे प्रयोजनके लिए इतना ही पर्याप्त है लोग तामिल देशकी ओर चले गए । इन बातोंको यदि हम यह स्थिर करने में समर्थ होते हैं कि, पौर्वात्य विद्वान् स्पष्टतया स्वीकार करते हैं, किन्तु ईसासे ४०० वर्ष पूर्वसे भी पहले दक्षिणमें जैनधर्म जैमा मैंने अन्यत्र कहा है,यह जैनियोंका दक्षिणकी का प्रवेश होना चाहिये । यह विचार तामिल ओर प्रथम प्रस्थान नहीं समझना चाहिये । यही विद्वानोंकी विद्वत्तापूर्ण शोधसं प्राप्त परिणामोंके बात तर्क संगत प्रतीत होती है कि, दक्षिणकी ओर अनुरूप है । श्री शिवराज पिल्ले "आदिम तामिइस आशासे गमन हुआ होगा कि सहस्रों साधुओं लोंके इतिहास में आदि तामिलवासियोंके सम्बन्ध को, बंधुत्व भावपूर्ण जातिके द्वारा हार्दिक स्वागत में लिखते हैंप्राप्त होगा। खारवेलकं हाथीगुफा वाले शिलालेख जमा कि मैं अन्यत्र बता चुका हूँ, आर्य में यह बात स्पष्ट होती है कि सम्राट् खारवेलके लोगोंके संपर्कमें आने के पूर्व द्रावेड़ लोग विशेषकर राज्याभिषेकके समय पांड्य नरेशने कई जहाज भौतिक मभ्यताके निर्माण करने, वैयक्तिक एवं भरकर उपहार भजे थे । खारवेल प्रमुख जैन- मामाजिक जीवनको अनेक सुविधाओंको प्राप्त सम्राट थे और पाड्यनरेश उसी धमके अनुयायी करने में लगे हुए थे, इसलिए स्वभावतः उनकी। थे; ये बातें तामिल-साहित्यके शिलालेखसे स्पष्ट जीवनियोंने भौतिक रंग स्वीकार किया और वे होती हैं। तामिल ग्रंथ 'नालिदियर" के सम्बन्धमें उस रूपमें तत्कालीन साहित्यमें प्रतिविम्बित हुई यह कहा जाता है कि, उत्तरमें दुष्कालके कारण धार्मिक भावना उस समय अविद्यमान थी और अष्ट सहस्र जैन साधु पांड्यदेशमें पाए थे, वहाँ वह उनमें पीछे उत्पन्न हुई थी। सब बातों एवं Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %E TRIPIN PALM ज्येष्ठ, भाषाह, बीर-नि: RAMESH परंपरकायनी पर विर विदित होता है। ऊहापोहोकाइस प्रकार दिसते . TEE बालोनाका प्रथम प्रकामारम्भालुमा, बालिका मा सर्भुित कारणों से कोई तब उसमें प्रथम समूहान और बौद्धामलोगोंकाRFभी विचारसीला विकास समाविषयक पत्रकार प्रतीत होता है समयसी परिमाणमें कथनको पूर्णनमा समस्या गंभीर निवासिक हो भी प्रतिज्ञासाकालिएबीहाणकर्मको पावर इंनाफारविचाक भयोगमा वह लो, पौरारिपकता अदिका संशयोंकी बहुधानितिका नया साहिएवं मास में उन तत्कालीन मनोधियों को त्यिक रचना निर्माणद्वारा अपनेको संतुष्ट अध्यन कर के लिए एक अभ्यास पेश, करेगा करमापा मिलबासी भोइस भावना यद्यपि का चामिल इतिहासको वाम घटनाओंको. प्रभावित प्रतीत होते हैं इससे उनकी राष्ट्री-प्रमाणित करत में असमर्थ है, तथापि वह परंपरा यताकों और रुस्मुखता हुई । और इस प्रकार राष्ट्रीयशान प्रतिनियत समयकी खास घटना दूससीकाल भाव और परिणाममें साहित्यिक रहा होनेकावारण जितनीय है। मुझे, अधिक सन्देह है.. जिसके परिचायक कुरम, बोन कारिफ्यम;' प्रादि कि कहीं आनहीं सदीका परम्परा कथन जैनियोंके... तात्कालिक मन्थ हैंहिन्दु लोग सबके बन्न। पूर्ववर्ती संगम आन्दोलनको हल्की पुनरावृत्ति तो, आएं और उनके भानसे गाष्ट्रीय मामृतिका नूतका नहीं है। हमारे पास इस - बावक प्रमाण है. कि द्वार खुला जिस भोगन्द्राविड़ोंका सोवासेपूर्ण वनतंही संगमके सस्थापनके लिये मद्धरा गये थे। जीवमा और झन माहित हुम हम बोन वे जैन वैयाकरण और विद्वान थे। वे दी शता संकीका उल्लेख किए बिना तामिल- साहित्य : बिक, कर्नाटक माँतीय संस्कृत वैयाकरया, जैसेन्द्र : सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कह सकते: तयिती व्याकरणकरचयिता, और सस्कृत व्याकरणके. साहित्य खासेकर पिछला उमा बीन संगमोत्री आठ प्रामाणिकरचमकारों में देवबंदि पख्यपादके. याकडेमी teaadies) का बल्लेखा करता, अनमतम शिष्य थे । यथार्थ में वह संगम अपने धर्स, है, जिनकी अधीनतामें तामिल साहित्यका प्रारमें संजाम जैन, साधुओं और विद्वानोंक महाः उभय हुआ है। 'संगमाची बहुसी काया तो विद्यालय के सिवाय अन्य नहीं हो सकता। इस , पौराशिनी में छुपी हुई पुस्तक संगम साहित्य अान्दोलनने मामिल देशमें संपम्के विचारको.. केनामसे मोनोजानें मालेमिंट: संग्रहदश कमि. पहिली बार उत्पन्न किया होगा। यह अधिक तामों आदि प्रमोसे मंगा-साहिकका रफललेखा संभव है कि सातवीं महीमें जैलियों का निदयता नहीं है। भानुनिक परिचमात्य विद्वानीका सह पूर्वक संहार करने के अनन्तर-सैदिक हिन्दु मसाजन परिणामीनिकालमा सका है कि कानपूरमी मारमण ने अपने अस्को सावस्थित र अयान किया। कामिया और किसी मस्तिष्कको होस और संगमों के सालार्थ जे -धर्म गुरुओं उप्र श्री शिवाकिपिजिनका मगर चलेका सामें संजाम हुसे होंसे ताकि हमने साहित्यकी किन ingat, संगम पार बिसयमें महिला प्रायणिकशा और दो # यह एक Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व, नियम तामिल भाषाका नसाहित्य जैनधर्म गुरुओंका संगम था, जिसने बहुत करके से संबंध रखने वाली प्राकृत भाषा उल्लेख उस नमूनेके अनुसार वैदिक पक्षको अपने साहि- करने का अवसर मिला था। तामिल व्याकरणमें त्यिक संगमकी कथा कलिकाका मागसप्रशासन प्र में इसका दिखाया । संगम् शब्दमे प्राचीन तामिल वासिनोकामालेख होनालीशेप महत्व की बात है । कारण अपरिचित होना ही उसकी बादकी उत्पत्तिको इसमें प्राकृत साहित्यका आदि प्रवेश एवं तामिल बताता है। उसके उत्तेजक कारण संगम नामधारी देशमें प्राकृत भापो लोगोंक गमनका ज्ञान होता साहित्य पर. लक्षित विचारको लादनका प्रयत्न एक है। इससे संबंधित एक बात और है कि कुछ प्रकारसे ज्वलंत और मिथ्या विषमतापूर्ण है। (१)" - संगम संग्रहोंसे नामांकित ग्रंथों में 'वाद विका __इसमें मैं जिस बातको जोड़ना चाहता हूँ वह त्तल' या सरलेखनाका वर्णन या जाता है । इम, है द्राविड़ संघका आस्तित्व जिसे दूसरे शब्दोंमें 'वादविकत्तल' का कुछ सजाओंने पालन किया मूल संघ भी कहते हैं और जो ईसासे १० वर्ष था और जिनका. अनुकरण उनके मित्रोंने किया पूर्व उस दक्षिण पाटलिपुत्रमें था । जो कुडेलोर था। जैनियोंसे सबंधित एक प्रधान धार्मिक क्रिया. अहातेका वर्तमान तिरुप्पाप्पुलियर ममझा जाता को सल्लेखना कहते है। जब कोई व्यक्ति रोग या है। इस द्राविड़ संघ के अधिनायक महान जैना. कष्ट से पीड़ित है और वह यह जानता है, कि मृत्यू चार्य श्री कुंदकुंद थे, जो सम्पूर्ण भारतवर्ष के द्वारा ममीप है और शरीरको औपधि देनमे काल व्यय अत्यन्त पज्य माने जाते हैं वज्र नन्दि द्वारा तामिल करना व्यर्थ है, नब वह अपने अवशिष्ट जीवनको नाडूमें तामिल संगमकं पुनरुद्धारका प्रयत्न श्री कुंद- ध्यान तथा प्राथनाम व्यतीत करनेका निश्चय कुंदाचार्यसे सबंधित आदि मूलसंघकी अवनतिको करता है वह मरण पर्यन्त श्राहार एवं औषधि बताता है। यह बात उन शोध खोजके विद्यार्थियोंकी स्वीकार नहीं करता। इस. क्रियाको 'सल्लखना' सूचनार्थ लिखी जाती है, जिनकी तामिल देशीय कहते हैं। सबने प्राचीन तामिल संग्रहोंने इसका नियों के प्रभाव-विषयक इतिहास में विशप रुचि हो। उल्लेख पाया जाता है । यहाँ इसे 'वादविकावल' ..इस प्रसंगी दूसरी मनोरंजक तथा उल्लेख- के नाममे कहा है । इसका महत्व याप बिल्कुल नीय बात प्राकृत भाषा और उसकी सब देशोंमें स्पष्ट है किन्तु इस शब्दकं उद्भव के विपयमें प्रचार की है। अगस्त्य कृत महान व्याकरण शाम्न . तनिक मन्दह है । जैनियोंने नामिल भाषामें जिस *. साहित्यका निर्माण किया और जिसके मार्थ का अवशिष्ट अंश समझे जाने वाले सूत्रों के संग्रह हमारा माज्ञान सम्बन्ध है रमका उल्लेख न करते में उत्तर प्रतिकी भाषाओं-संस्कृत भाषाओं पर हुए भी, ये सब बातें मिलकर हमें बलान- यह एक अध्याय है । उममें संस्कृत और अपभ्रंश विश्वास करने के लिये प्रवृत्त करती हैं कि, उपलब्ध भाषाका . उल्लेख करनेके अन्तर मब देशोंमें प्राचीनतम तामिल माहित्यम भी जैनियोंके प्रभाव " मूचक चिन्ह पाये जाते हैं। क्रमशः प्रचूलित पाइतम् नामकी भाषाका वर्णन है । हमें । पहले उत्तरके विचारशील नेताओं में विशेष रीति - जैन एण्टाके में प्रकाशिन अंग्रेजो लेख का अनुवाद । i'.EDIT - ttamat- ---- - -- Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में समय-गणना [ोखक-श्री भगरचन्द नाहटा] नागम भारतीय प्राचीन संस्कृति, साहित्य और का कुछ अाभास उदाहरण-द्वारा इस प्रकार व्यक्त " इतिहासके भंडार हैं । दार्शनिक और साहित्यिक किया गया है:दोनों विद्वानोंके लिये उनमें बहुत कुछ मननीय एवं प्रश्न-शक्ति सम्पन्न, स्वस्थ और युवावस्था वाला गवेषणीय सामग्री भरी पड़ी है । पर दुःखकी बात है कोई जलाहेका लड़का एक बाटोक पट्टसाड़ी-वस्त्रका कि भारतीय जैनेतर विद्वानोंने इन जैनागमोंकी अोर एक हाथ प्रमाण टुकड़ा-बहुत शीघ्रतासे एक ही झटके बिल्कुल ध्यान नहीं दिया । हाँ पाश्चात्य विद्वानोंमें से फाड़ डाले तो इस क्रिया में जितना काल लगता है से डाक्टर हर्मन जैकोबी आदि कुछ विद्वानोंने उनका क्या वही समयका प्रमाण है ?' वैदिक एवं बौद्ध साहित्यके साथ तुलनात्मक अध्ययन उत्तर--'नहीं, उतने कालको समय नहीं कह ज़रूर किया है और उसके फलस्वरूप अनेक नवीन सकते, क्योंकि संख्यात् तन्तुअोके इकडे होने पर वह तथ्य साहित्यप्रेमी संसारके सन्मुख लेखों तथा ग्रन्थोंके वस्त्र बना है, अतः जब तक उसका पहला तन्तु छिन्न रूपमें प्रकट किये हैं । इधर कुछ वर्षोंसे हमने कई जैना- नहीं होगा तब तक दूमरा तन्तु छिन्न नहीं होना । पहला गमोंका साहित्यिक दृष्टिकोणसे अध्ययन किया, उनको तन्तु एक कालमें टना है, दूमग तन्तु दूसरे कालमें, सिर्फ साहित्यक ही नहीं बल्कि विविध दृष्टियोंमे इस लिये उम मख्येय तन्तुओंको तोड़नेकी क्रिया वाला बहुमूल्य पाया । प्रत्येक विषयके विद्यार्थियोंको उनमें काल समय संज़क नहीं कहा जा सकता ।' कुछ न कुछ नवीन और तत्थ पूर्ण सामग्री मिल सकती प्रश्न-मितने ममयमें वह यवा पट्टसाटिकाके पहले है । उनमें कई विषय तो हमें तुलनात्मक दृष्टिसे बहुत तन्तुको तोड़ता है क्या उतना काल समय-संज्ञक ही महत्वपूर्ण प्रतीत हुए, अतः उनको साहित्य संसारके होता है ?' समक्ष रखते हुए विद्वानोंका ध्यान उस ओर आकर्षित उत्तर-'नहीं, क्योंकि पहसाटिका एक तन्तु संख्यात करना हमें परमावश्यक मालूम होता है। इस दृष्टि से, सूक्ष्म रोमोंके एकत्रित होने पर बनता है, अतः प्रस्तुत लेखमें, 'समयगणना' का जैसा रूप जैनागमोंमें तन्तुका पहला-ऊपरका रूाँ जब तक नहीं टूटता प्राप्त होता है उसे पाठकोंके सन्मुख रखा जाता है। तब तक नीचे वाला दूमरा रूआँ नहीं टूट सकता।' जैनदर्शनमें कालद्रव्यका सबसे सक्ष्म अंश 'समय' प्रश्न–'तब क्या जितने कालमें वह युवा पसाटिकाके है। समयकी जैसी सूक्ष्मता जैनागमोंमें बतलाई गई है। प्रथम तन्तु के प्रथम रोयेंको तोड़ता है उतना काल वैसी किसी भी दर्शनमें नहीं पाई जाती । इस सूक्ष्मता समय संजक हो सकता है ? Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44, किरव - जैनागमों में समय-गणना १ युग उत्तर-'नहीं,क्योंकि अनन्त परमाणु-सघातोंके एकत्रित ११ २ पक्षका १ मास होने पर वह रोयाँ बनता है। अतः रोयेका प्रथम १२ २ मासकी १ ऋतु परमाणु-संघात जब तक नहीं टूटता तब तक नीचे १३ ३ ऋतुओका १ अयन का सघात नही टूट सकता। ऊपरका संघात एक १४ २ अयनांका १ वर्ष कालम टूटता है, नीचेका सघात उमस भिन्न दुमरे १५ ५ वर्षीका कालमें । इस लिये एक रोये के टूटनेकी क्रियावाला १६ २० युगांकी १ शताब्दी काल भी समय सज्ञक नहीं हो सकता।' १७ १० शताब्दियों का एक हजार वर्ष अर्थात् एक रोये के टूटने में जितना समय लगता १८ १०० हजार वर्षाका १ लक्ष वर्ष है उससे भी अत्यन्त मूक्ष्मतर कालको 'ममय' कहते हैं। १६ ८४ लक्ष वर्षोंका। १ पाग जैनदर्शनमे मनुष्य अॉख बन्दकर बोलता है या पलके २० ८४ लक्ष पागका १ पर्व मारता है, इस क्रियाम लगने वाले कालम अमख्यात ( ७०५६०००००००००० वर्ष) समयका बीत जाना बतलाया गया है । २१ ८४ लक्ष पर्वाका १ त्रुटितॉग उपर्युक्त उदाहरणमे पाठकोंको जैनदर्शन के समयकी २२ ८४ लक्ष त्रुटितागांका ५ त्रुटिन सूक्ष्मताका कुछ अाभाम अवश्य मिल सकता है । ये २३ ८४ लक्ष टितांका। १ अड्डांग दृष्टान्त केवल विषयको बोधगम्य करने के लिये ही दिये २४ ८४ लक्ष अडडागांका १ अडड़ गये हैं । समयका वास्तविक स्वरूप तो कल्पनातीत है। २५ ८४ लक्ष अड्डोका १ अवांग अब समयके अधिक कालकी गणनाको संक्षेपस बतलाया २६ ८४ लक्ष अववागोंका जाता है। २७ ८४ लक्ष अवांका १ हुहुकांग १ निर्विभाज्य काल रूप १ समय २८ ८४ लक्ष हुहुकॉगोंका २ असंख्यात समयोंकी १ श्रावलिका २६ ८४ लक्ष हुहुकोका १ उत्पलाँग ३ संख्येय अावलिकोंका १ उश्वास (स्वस्थ युवाका) ३० ८४ लक्ष उत्पलांगोका उत्पल ४ संख्येय श्रावलिकोंका १ निश्वास ३१ ८४ लक्ष उत्तलोका १ पद्मोग ५ उश्वास युक्त निश्वासका १ प्राण ३२ ८४ लक्ष पाँगोका १पद्म ६ सात प्राणोंका १ स्तोक ३३ ८४ लक्ष पोका १नलितॉग ७ सात स्तोकोंका १ लव ३४ ८४ लक्ष नलितोगोंका १ नलित ८ ७७ लवोंका ३५ ८४ लक्ष नलितोका १ अर्थनिपूरॉग (इस प्रकार ३७७१ श्वासोच्छ्वासोंका एक मुहूर्त- ३६ ८४ लक्ष अर्थनिपरांगोंका १ अर्थनिपर २ घड़ी ४८ मिनिट-होता है) ३७ ८४ लक्ष अर्थनिपरीका १ अयुताग ६ ३० मुहूर्तोका १ अहोरात्र (दिन) ३८ ८४ लक्ष अयुतांगोंका १ अयुत १० १५ दिनोंका १पक्ष ३६ ८४ लक्ष अयुतोका १नयुतांग १अवव Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१६ TFIT RAH Kा ज्येष्ठ, भाषा परीक्षा ४० ४ लक्ष नयुताँगोंका १ नथुत ५५ लम्बाई-चौड़ाई एवं ऊँचाई वाला वाव भरनेकी पाली ४१ ४ लक्ष नयुतोका यु तोग . के समान गोलाकार ऐसे एक कुएँकी कल्पना की जाय, ४२ २४ लक्ष प्रयुताँगोंका र प्रयत : जिसकी गोल परिधिका नाप तीन योजनसे कुछ अधिक ४३ ८४ लक्ष प्रयुतोंका १ चलिकांग ' होता है। उसमें, सिर मुड़ाके बाद एक दिनके दो ४४ ८४ लक्ष चूलिकाँगोंकी १चलिकॉ. दिनके यावत् सात अहोरात्रि तक चढ़े हुए केशोंके ४५ ८४ लक्ष चलिकाओंकी १ शीर्षप्रहेलिकांग" टुकड़ीको ऊपर तक दबा दबा कर इस प्रकार भग ४६ ८४ लक्ष शीर्षप्रहेखिकागोंकी १ शीर्षप्रहेलिका जाय कि उनको न अग्नि जला सके, न वायु उड़ा सके ___ अंकोमें ७५६२६३२५३०७३०१०२४११५७६७३ और न वे सड़े या मलें--उनका किसी प्रकार विनाश ६६६७५६६६४०६२१८६६६८४८०८०१८३२९६ इनके न हो सके। कुएँ को ऐसा भर देने के बाद प्रति समय अागे १४० शून्य अर्थात् इस १६४ अंक वाली संख्या एक एक कैश-खंड़को निकाला जाय। जितने "समयमे को शीर्ष प्रहेलिका कहते हैं । संख्याका व्यवहार यहीं वह गोलाकार कुआँ खाली हो जाय--उसमें एक भी तक है । अब इससे अधिक संख्या वाले (असंख्यात केशका अंश ने बचे-उतने समयको व्यवहारिक वर्षों वाले ) पल्योपम और सामरोपमका स्वरूप दृष्टान्तों उद्धारपल्योपमं कहते हैं। . . . : ... से बतलाया जाता है। ऐसे दस कोड़ाकोंडी व्यवहारिक उद्धार पस्योपमका - श्रीपमिक काल प्रमाण दो प्रकारका होता है-' एक व्यवहारिक उद्धार सागरोपम होता है। इस पल्योपम एवं सागरोपम | पल्योफ्म तीन प्रकारका होता कल्पनासे केवल काल प्रमाणकी प्ररूपणाकी जाती है । है.-१ उद्धार पल्योपम, २ श्रद्धापल्योषम, ३ क्षेत्र सूक्ष्म उद्धार पल्योपमः-उसे उपर्युक्त कुएँको पल्योपम । उद्धार पल्योपम' दो प्रकार का होता है-- एकसे सात दिन तक के बढ़े हुए केशोंके असंख्य टुकड़े १ सूक्ष्म उद्धारपल्योपम, २ व्यवहारिक पक्ष्योपम । 'करके उनसे उसे उपयुक्त विधिसें भरकर प्रति समय ' ' व्यवहारिक उद्धार पल्योपम--एक योजन की एक एक केशखंड यदि निकाला जाय, तो इस प्रकार - जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में योजनका प्रमाण इस प्रकार निकाले जाने के बाद जब कुत्री सर्वथा खाली हो जाय, बनलाया गया है-- मनुष्योंका बाला, उनके भाई बाजारोंकी एके जीख, पुद्गल व्यका सूक्ष्मातिसूक्ष्म अन्श परमाणु कह- फिर क्रमसे आठ गुणित यकी, "यवर्मभ्य, ('उत्सेध ) लाना हैं, अनन्त सूक्ष्म परमाणुप्रीका एक व्यवहार पर- अंगुलं- । (उत्सेध ) अंगुलोको एक पाउं बारह माणु । अनन्त व्यावहारिक परमाणुओंको एक उष्ण अंगुलोंका एक बैत, चौबीस 'गुनको एक हाथ, श्रेणिया इस प्रकार क्रमशः पाठ मीठ गुणा वैद्धितः- अंतालीस अंगुलोंकी एक कुची, वयान गुलोंका शीतश्रेणिया, उघरेणु,त्रमाणु,स्थरेणु, देवगुरु उत्तरकुरुके एर्फ अ यो द, धनुष्य, युग, भूसला, नालिका युगलियोंका बालाय, हरिवर्षरम्यक वर्षके युगलियोंका अर्थात चार हाथोंकों मनुष्य, दो हजार धमण्योंका बालाय, हेमक्य ऐरणवयके अनुयोका बाला पूर्ण एक गी3 (वर्तमान कोस २ माईल चार गाउँका एक महाविदेहक्षेत्रके मनुष्योंको बालीन भैरत ऐरावत क्षेत्रके पोजन होता है। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बप ३, करव.] जैनागर्मि समयमाणमा उतने कालका एक सूक्ष्म उद्धार पल्योपम होता है। प्रति समय अपहरण करते हुए जितना समय लगे उसे ३ म्यवहार श्रद्धापश्योपमः-उपरोक्त कुएँको सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम कहते हैं। व्यवहारिक उद्धारके उपर्युक्त विधिसे भरकर दबे हुए दश क्रोडाकोड़ी पल्योपमका एक सागरोपम होता है। केशवण्डोम एक एक केशको सौ सौ वर्षों बाद निकाले पल्योपमके ६ भेदोंके अनुसार सागरोपमके भी ६ भेद जाने पर जब कुंश्रा खाली हो जाय तब उतने समयको हो सकते हैं । ऐसे दश कोड़ा फोड़ी सूक्ष्म श्रद्धा सागरोव्यवहारिक श्रद्धापल्यापम कहते हैं । पमोकी १ उत्सपिणी या १ अवसर्पिणी होती है । इन ४ सूक्ष्म अद्धापल्योपमः-पूर्वोक्त कुएँको १ दोनोको मिलाने से अर्थात् २० क्रोडाकोड़ी सागरोपमका दिनसे ७ दिन के बढ़े हुए केशोके असख्य टुकड़े करके एक काल चक्र होता है । इससे अधिक समयको अनंत पूर्ववत् विधिस दबा कर भर दिया जाय और फिर सौ काल कहते हैं। सौ वर्ष अनन्तर एक एक केशखंड निकाला जाय। इस प्रकार जैनागमोम वणित समयगणनाका जितने कालम वह कुश्रा खाली हो जाय, उतने काल संक्षेपस निरुपण किया गया है । यह निरुपण अनुयोगद्वार को सूक्ष्म श्रद्धापल्योपन कहते हैं। सूत्र एव जम्बूदीपप्रज्ञप्ति के आधारस लिखा गया है। ५ व्यवहार क्षेत्र पल्योपम-व्यवहार उद्धार जो फि मूल एव सपांग अथ माने जाते हैं ज्योतिष-करंड पल्योपमके केशोंने जितनं आकाश प्रदेशको स्पर्श पयन्ना और अन्य बाद के ग्रन्थोंमें इस निरुपणसे कुछ किया है, उतने आकाश प्रदेशोमेसे एक एकको प्रति तारतम्य भी पाया जाता है, पर लेख विस्तारके भयसे समयमे अपहरण करने में जितना काल लगे उसे व्यव- उसकी अालोचना यहाँ नहीं की गई। विशेष जाननेके हारिक क्षेत्र पल्योपम कहते हैं ( श्राकाशके प्रदेश केश- इच्छुक जिज्ञासुश्रोको 'लोकप्रकाश' एवं अर्हतदर्शनखण्डोंसे भी अधिक सूक्ष्म हैं। दीपिकादि ग्रन्थ देखने चाहिये । जैनागमोंमें वर्णित ६ सूचमक्षेत्रपन्योपमः-सूक्ष्म उद्धार पल्योपमके समय गणनाकी बौद्ध एवं वैदिक प्राचीन साहित्यसे केश खण्डोंसे जितने श्राकाश प्रदेशोंका स्पर्श हुश्रा हो तुलना करना आवश्यक है। श्राशा है साहित्यप्रेमी और जिनका स्पर्श न भी हुश्रा हो,उनमेंसे प्रत्येक प्रदेशसे इस ओर प्रयत्नशील होंगे । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति-समाज [बेखक-श्री अगरचन्द्र नाहटा] जैनागमों एवं कोषप्रन्थोंमें यति, साधु, मुनि, पालन करना 'असिधार पर चलनेके समान हो' " निर्ग्रन्थ, अनगार और वाचंयम आदि शब्द कठिन बतलाया गया है। कहीं कहीं 'लोहेके चने एकार्थबोधक माने गये हैं अर्थात् यति साधुका चबाने' का दृष्टान्त भी दिया गया है, और वास्तही पर्यायवाची शब्द है, पर आज कल इन दोनों वमें है भी ऐसा ही। जैनधर्म निवृत्ति प्रधान है,और शब्दोंके अर्थमें रात और दिनका अन्तर है । इस मनुष्य-प्रकृतिका झुकाव प्रवृत्तिमार्गकी ओर का कारण यह है कि जिन जिन व्यक्तियों के लिये अधिक है-पौद्गलिक सुखोंकी ओर मनुष्यका इन दोनों शब्दोंका प्रयोग होता है, उनके आचार- एक स्वाभाविक आकर्षण-सा है । सुतरां जैन सा. विचारमें बहुत व्यवधान हो गया है । जो यति ध्वाचारोंके साथ मनुष्य-प्रकृतिका संघर्ष अवश्यशब्द किसी समय साधुके समान ही आदरणीय म्भावी है। इस संघर्षमें जो विजयी होता है, वही था, आज उसे सुन कर काल-प्रभावसे कुछ और सच्चा साधु कहलाता है । समय और परिस्थिति ही भाव उत्पन्न होते हैं । शब्दोंके अर्थमें भी समय बहुत शक्तिशाली होते हैं, उनका सामना करना के प्रभावसे कितना परिवर्तन हो जाता है, इसका टेढ़ी खीर है। इनके प्रभावको अपने ऊपर न यह ज्वलन्त उदाहरण है। लगने देना बड़े भारी पुरुषार्थका कार्य है । अतः जैनधर्ममें साधुओंके आचार बड़े ही कठोर इस प्रयत्नमें बहुतसे व्यक्ति विफल-मनोरथ ही और दुश्चरणीय हैं । अतएव उनका यथारीति नज़र आते हैं । विचलित न होकर, मोरचा बाँध • अथ मुमुचुः श्रमणो यतिः॥ वासयमो कर डटे रहने वाले वीर बिरले ही मिलेंगे । भग. प्रती साधुरनगार ऋषिमुनिः, निम्रन्थो मितः। बतते वान् महावीरने यही समझ कर कठिनसे कठिन मोजायेति पतिः ( मोजमें यत्न करने वाला यति है)। आचार-विचारको प्रधानता दी है। मनुष्य प्रकृति यतं यमनमस्त्यस्य यती (नियमन, नियंत्रण रखने वाला जितनी मात्रामें पारामतलब है, उतनी ही मात्रामें यति है।) कठोरता रखे बिना पतन होते देर नहीं लगती । --अभिधानचिन्तामणि । आचार जितने कठोर होंगे, पतनमें भी उतनी ना (पु.) पति, साधु, नितेन्द्रिय संन्यासी देरी और कठिनता होगी। यह बात अवश्य है कि (ोपपातिक, सुपार्श्व, पाइप्रस महएणवो भा० २ उत्थानमें जितना समय लगता है, पतनमें उससे पृ० ४२०) कहीं कम समय लगता है फिर भी एक पैड़ीसे गिरे -- - Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व, वि .] यति-समान हुए मनुष्य और पचास पैड़ीसे गिरे हुए मनुष्यमें बौर और वैष्णवोंकी भाति अवस्था हुए बिना समयका अन्तर अवश्य रहेगा। नहीं रहती। पर यह भी तो मानना ही पड़ेमा कि अब साध्वाचारकी शिथिलताके कारणों एवं परिस्थितिने जैन मुनियों के प्राचारों में भी बहुत इतिहासकी कुछ पालोचना की जाती है, जिससे कुछ शिथिलता प्रविष्ट करादी। उसी शिथिलताका वर्तमान यति-समाज अपने आदर्शसे इतना दूर चरम शिकार हमारा वर्तमान यति-समाज है। क्यों और कैसे हो गया? इसका सहज स्पष्टीकरण इस परिस्थितिके उत्पन्न होने में मनुष्य प्रकृति हो जायगा; साथ ही बहुतसी नवीन ज्ञातव्य बातें के अलावा और भी कई कारण हैं जैसे (१) पाठकोंको जाननेको मिलेंगी। बारहवर्षीय दुष्काल, (२) राज्य विप्लव, (३) अ. भगवान महावीरने भगवान पार्श्वनाथके न्य धर्मों का प्रभाव, (४) निरंकुशता, (५) समयकी अनुयाइयोंकी जो दशा केवल दो मौ ही वर्षों में अनुकूलता, (६) शरीर-गठन और (७) संगठनहो गई थी, उसे अपनी आँखों देखा था । अतः शक्ति की कमी इत्यादि। उन्होंने उन नियमोंमें काफी संशोधन कर ऐसे प्रकृतिके नियमानुसार पतन एकाएक न होकर कठिन नियम बनाये कि जिनके लिये मेधावी क्रमशः हुआ करता है । हम अपने चर्मचक्षु और श्रमणकेशी जैसे बहुश्रुतको भी भगवान गौतमसे स्थूलबुद्धि मे उस क्रमशः होनेवाले पतनको कल्पना उनका स्पष्टीकरण कराना पड़ा है। सूत्रकारों ने भी नहीं कर सकते, पर परिस्थिति तो अपना उसे समयकी आवश्यकता बतलाई और कहा कि काम किये ही जाती है। जब वह परिवर्तन बोधप्रभु महावीरसे पहलेके व्यक्ति ऋजुप्राज्ञ थे और गम्य होता है, तभी हमें उसका सहसा भान होता महावीर-शासन कालके व्यक्तियोंका मानस उससे है-"अरे ! थोड़े समय पहले ही क्या था और बदल कर वक्र जड़की ओर अग्रसर हो रहा था । अब क्या हो गया ? और हमारे देखते देखते दो सौ वर्षों के भीतर परिस्थितिने कितना विषम ही ?" यही बात हमारे साधुओंकी शिथिलताके परिवर्तन कर डाला, इसका यह स्पष्ट प्रमाण है। बारेमें लागू होती है । बारह वर्षके दुष्काल आदि महावीरने वस्त्र परिधानकी अपेक्षा अचेलकत्वको कारणोंने उनके आचारको इतना शिथिल बना अधिक महत्व दिया, और इमी प्रकार अन्य कई दिया कि वह क्रमशः बढ़ते बढ़ते चैत्यवासके रूप नियमोंको भी अधिक कठोर रूप दिया। में परिणत हो गया। चैत्यवासको उत्पत्तिका समय भगवान् महावीरकी ही दूरदर्शिताका यह पिछले विद्वानोंने वीरसंवत् ८८२ में बतलाया है, सुफल है कि आज भी जैन साधु संसारके किसी पर वास्तवमें वह समय प्रारम्भका न होकर मध्य भी धर्मके साधुओंसे अधिक सात्विक और कठोर कालका है * । जैसा कि ऊपर कहा गया है कि नियमों-आचारोंको पालन करने वाले हैं। अन्यथा परिवर्तन बोधगम्य हुए बिना हमारी समझमें नहीं * उत्तराध्ययन सूत्र "केशी-गौतम-अध्ययन" पुरातत्वविद् श्री कल्याणविजयजीने भी प्रमारिपसूत्र वक चरित्र पांवोधनमें यही मत प्रकार किया है। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त ज्येष्ठ, प्राषाढ, वीर निर्वाण सं०२११६ भा सकता। मुनियोंकी कुछ नहीं चल सकी। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि भविष्य जब पतन या मम्राट संप्रति * के ममय में जैन मंदिरोंको उत्थानका होता है तब एक ही ओरसं पतन या संख्या बहुत बढ़ गई । मुनिगण इन मन्दिरोंको उत्थान नहीं होता, वह चारों ओर में प्रवेश कर अपने ज्ञान-ध्यान कायमें माधक ममझ कर वहीं अपना घर बना लेता है । यही बात जैनश्रमण- उत्तरने लग । वनको उपद्रवकारक ममझ कर, संस्था पर लागू है । जैनागमोंके अनुशीलन क्रमशः वहीं ठहरने एवं स्थायी रूपसे रहने लगे। पता चलता है कि पहले ज्ञानबल घटने लगा। इस कारण उन मन्दिरोंकी देखभाल का काम भा जंबुस्वामीसे कंवलज्ञान विच्छंद हो गया, भद्रबाहु उनके जिम्मे आ पड़ा, और क्रमशः मन्दिरोंके मे ११ मे १४ पूर्वका अथ, स्थूजिभद्ने ११ से १४ माथ उनका मम्पर्क इतना बढ़ गया कि ये मन्दिरों वाँ पूर्व मूल और वनस्वामिसं १० पूर्वका ज्ञान को अपनी पैतृक मम्पत्ति (बपौती) ममझने लगे। भी विच्छिन्न होगया है। इस प्रकार क्रमशः ज्ञान चैत्यवामका स्थलरूप यहींसे प्रारम्भ हुआ मालूम बल घटा और साथ ही साथ चारित्रको उत्कट पद्धता है। एक स्थानमें रहने के कारण लोकसंमर्ग भावनायें एवं आचरणायें भी कम होने लगीं । बढने लगा, कई व्यक्ति उनके बढ़ अनुयायी और छोटी-बड़ी बहुत कमजोरियोंने एक ही माथ श्रा 4 आ अनुरागी हो गये । इमीसे गच्छोंकी बाडाबन्दीकी दबाया। इन माधारण कमजोरियोंको नगण्य नींव पडी। जिम परम्परा कोई ममथ आचाय ममझ कर पहले तो उपेक्षा की जाती। पर एक दमा और उनके पृष्ठपोषक तथा अनुयायियांकमजोरी आगे चलकर-प्रकट होकर-पडोमिन की संख्या बढ़ी, वहा परम्पग एक स्वतन्त्र बहुत सी कमजोरियोंको बुना लानी है, यह बात गच्छरूपम परिणत हो गई: बहुतम गच्छोंक नाम हमारे व्यावहारिक जीवनमे स्पष्ट है । प्रारम्भ में तो स्थानोंक नामसे प्रसिद्ध हो गये । रुद्रमनीय, जिस शिथिलताको, माधारण समझकर अपवाद- मंडरक उपकैश इत्यादि इम वात के अच्छे उदा. मार्गके रूपम अपनाया गया था, वही श्रागे चल हरण हैं। कई उम परम्पराक प्रसिद्ध अाचार्यके कर राजमार्ग बन गई । द्वादश वर्षीय दुष्काल में किसी विशिष्ट कायम प्रसिद्ध हुर, जेमे खरतर, मुनियोंको अनिच्छासे भी कुछ दोषांके भागो तपा आदि । विद्वता आदि सद्गुणोंके कारण बनना पड़ा था, पर दुष्काल निवर्तनकं पश्चान भी उनके प्रभावका विस्तार होने लगा और राजउनमेंसे कई व्यक्ति उन दोषोंको विधान के कमें - म्वीकार कर खुल्लमखुल्ला पोषण करने लगे। उन * कहा जाता है सम्प्रनिने माधुओं की विशेष की प्रबलता और प्रधानताकं आगे मुविहिताचागे भक्तिपे प्रेरित होकर कई ऐसे कार्य किये जिससे उनको ___ इस सम्बन्धमें दिगम्बर मान्यताके लिये "अने- शुद्ध ग्राहार मिलना कठिन हुआ और गजाश्रयमे कान्त" वर्ष ३ किरण में देखें। शिथिलता भी पा घुमी। Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षे ३, किरव - यति-समाज दरबारों में भी उनकी प्रतिष्ठा जम गई । जनतामें तक नहीं मिलता था । पाटण उस समय उनका तो प्रभाव था ही, राजाश्रय भी मिल गया; बम केन्द्रस्थाने था । कहा जाता है कि वहां उस और चाहिये क्या था ? परिग्रह बढ़ने लगा, ममय चैत्यवासी चौरामी आचार्योंके अनग क्रमशः वह शाही ठाटबाट मा हो गया । गहो अलग उपाश्रय थे । सुविहितोंमें उम ममय श्री तकियोंके महारे बैठना, पान खाना, स्नान करना, वर्द्धमानमूरिजी मुख्य थे। उनके शिष्य जिनेश्वरशारीरिक सौन्दर्य बढ़ानके माधनोंका उपयोग, मूरिम जैनमुनियों की इननी मार्गभ्रता न देखी जैसे बाल रखना, सुगंधित तेल और इत्रफनेलादि गई, अतः उन्होंने गुरु जीसे निवेदन किया कि मेवन करना, और पुष्पमालाओंको पहनना श्रादि पाटण जाकर जनताको मच्च माधुत्व का ज्ञान विविध प्रकारके प्रागम-विरुद्ध आचरण प्रचलित कराना चाहिये, जिमसे कि धर्म, जो कि कंवल हो गये । बाहरके आडम्परोंमें ही माना जाने लगा है, वास्तविक रूपमें स्थापित हो सके। इन विचारों मुविहित मुनियोको यह बातें बहन अग्यसें. के प्रबल आन्दोलनमे उनमें नये माहमका सञ्चार उन्होंने सुधारका प्रयत्न भी किया, पर शिथिला- हुआ और वे १८ मुनियोंके माथ पाटण पधारे। चारियोंक प्रबल प्रभाव और अपने पर्ण प्रयन्त्र उम ममय उन्हें वहाँ ठहरनेके लिये स्थान भी अभावकं कारण मफल नहीं हो सके। ममथ नहीं मिला पर आखिर उन्होंने अपनी प्रतिभासे आचार्य हरिभद्रसूरिन भी अपने संबोध-प्रकरण स्थानीय गजपुरोहितको प्रभावित कर लिया, चत्यवाभियांका बहुत कड़े शब्दोंम विरोध किया और उमीकं यहाँ ठहरे । जैमा कि पहले मोचा है । इन प्रकरण चैत्यवानका म्वरूसिट माग गया था, चैत्यवामियों के माय विराध और प्रकट होना । प्रसिद्ध करावा. वारका मुठभेः अवश्यम्भावी थी उन लोगोन जिलेश्वरमेरे बिना नही फटना" । ममयकं परिवार पर मूरिजीके अाने का समाचार पनि ही जिम किमी होने पर हा काय हश्रा करते है। नाभी जयना प्रकारमे उन्हें लाछिन कर निर्गमित करानकी परा नही पक जाता, तब तक नहीं फटता । या. ठान ली। विरुद्ध प्रचार उनका पडला हथियार हवी शताब्दी में चैत्यवासियों का प्रावल्य इन बड था। उन्होंने अपन कई शिप्यों और आश्रित गया कि मुविहितोंको उतरन या ठहरनका स्थान व्यक्तियों को यह कहा कि तुम लोग मवत्र इम बानका प्रचार करो कि “यह माध अन्य गाजों के ___ * विशेष जानने के लिये देखें हरिभद्र मूरिजी छद्मवेशा गुप्तचर हैं, यहाँका प्रान्तरिक भेद प्राप्त रचित संवोध-प्रकरण, गणधरमाईशतक वृहद वृत्ति, कर राज्यका अनिष्ट करेंगे । अत: इसका यहाँ संघपटकवृनि श्रादि । पं० बेचरदामजी रचित, लैन रहना मंगलजनक न होकर उलटा भयावह ही है। माहित्य माँ विकार थवार्थी थयेली हानी' ग्रन्थप्रे भी जितनी शीघ्र ही मके इनको यहाँमे निकाल देना संबोध मस्तरीके आधारसे अच्छा प्रकाश डाला गया है। चाहिये। राष्ट्रके हितके लिये हमें इस बानका Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त _ [ज्येष्ठ, भाषा, बीर-निर्वावसं. स्पष्टीकरण करना पड़ रहा है ।" फैलते फैलते यह तपागच्छ आज भी विद्यमान हैं। वर्धनानसूरिजी बात तत्कालीन नृपति दुर्लभराजके कानों में पहुँची के शिष्य जिनेश्वरसूरिने दुर्लभराजकी समामें उन्होंने राजपुरोहितसे पूछा और उससे सच्ची (सं० १०७०-७५) चैत्यवासियों पर विजय प्राप्त वस्तुस्थिति जानने पर उनके विस्मयका पार न की, अतः खरे-सच्चे होने के कारण वह खरतर रहा, कि ऐसे साधुओंके विरुद्ध ऐसा घृणित और कहलाये और जगच्चन्द्रसूरिजीने १२ वर्षोंकी निन्दनीय प्रयत्न! आयंबिलकी तपश्चर्या की इससे वे तपा (सं. ___समयका परिपाक हो चुका था; चैत्यवासियों १२८५ ) कहलाये । इसी प्रकार अन्य कई गच्छों ने अन्य भी बहुत प्रयत्न किये, पर सब निष्फल का भी इतिहास है। हुए। इसके उपरान्त चैत्यवासियोंसे श्री जिनेश्वर- इसके बाद मुसलमानोंकी चढ़ाइयोंके कारण सूरिजीका शास्त्रार्थ हुआ, चैत्यवासियोंकी बुरी भारतवर्ष पर अशांतिके बादल उमड़ पड़े । उनका तरहसे हार हुई है । तभीसे सुविहिताचारियोंका प्रभाव श्रमण-संस्था पर पड़े बिना कैसे रह सकता प्रभाव बढ़ने लगा । जिनवल मसूरि, जिनदत्तसूरि, था ? जनसाधारणके नाकों दम था । धर्मसाधनामें जिनचन्द्रसूरि और जिनपतिसूरि, इन चार आचा- भी शिथिलता आ गई थी क्योंकि उस समय योंके प्रबलपुरुपार्थ और असाधारण प्रतिभासे चै- तो लोगोंके प्राणों पर संकट बीत रहा था । त्यवासियोंकी जड़ खोखली हो गई । जिनदत्तसूरि- फलतः मुनियोंके आचरणमें भी काफी शिथिलता जी तो इतने अधिक प्रभावशाली समर्थ आचार्य आगई थी। यह विषम अवस्था यद्यपि परिस्थिति हुए कि विरोधी चैत्यवासियोंमेसे कई प्राचार्य स्वयं के आधीन ही हुई थी, फिर भी मनुष्यकी प्रकृतिके उनके शिष्य बन गये। जिनपतिसूरिजीके बाद वो अनुसार एक बार पतनोन्मुख होनेके बाद फिर चैत्यवासियोंकी अवस्था हतप्रभाव हो ही गई थी, सँभलना कठिनता और विलंबसे होता है। अतः उनकी शक्ति अब विरोध एवं शास्त्रार्थ तो दूरकी शिथिलता दिन-ब-दिन बढ़न ही लगी। उस समय बात, अपने घरको संभाल रखनेमें भी पूर्ण यत्र तत्र पैदल विहार करना विघ्नोंसे परिपूर्ण ममर्थ नहीं रही थी, कई आत्मकल्याणके इच्छर था। यवनोंकी धाड़ अचानक कहींसे कहीं आपड़ती, चैत्यवासियोंने सुविहित मार्गको स्वीकार देखते देखते शहर उजाड़ और वीरान हो जाते । प्रचारित किया। उनकी परंपरासे कई प्रसिद्ध लूट खसोट कर यवन लोग हिन्दुओं के देवमन्दिरों गच्छ प्रसिद्ध हुए । खरतर गच्छक मूल-पुरुष को तोड़ डालते, लोगोंको बेहद सताते और भांति वर्धमानसूरिजी भी पहले चैत्यवासी थे । इसी भांतिके अत्याचार करते । ऐसी परिस्थिति में श्रावक प्रकार तपागच्छकं जगच्चन्द्रसूरिजीने भी क्रिया. लोग मुनियोंकी सेवा संभाल-उचित भक्ति नहीं उद्धार किया । इन्हींके प्रमिद्ध खरतरगच्छ तथा कर सकं, तो यह अस्वभाविक कुछ भी नहीं है। - विशेष वर्णनके लिये देखें, सं० १२९१ में शिथिलता क्रमशः बढ़ती ही गई, यहां तक रचित--"गणधर-साई-शतकपूर कि १६ वीं शताब्दीमें सुधारकी आवश्यकता आ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़ी! चारों ओरसे सुधारके लिये व्या आवाजें अपने गच्छके सुधार करनेका निश्चय कर लिया सुनाई देने लगीं। वास्तवमें परिस्थितिने क्रांति-सी और इसी उद्देश्य से वे जिनकुशनसूरिजीकी यात्रार्थ मचा दी। श्रावक समाजमें भी जागृति फैली। देरावर पधारे । पर भावी प्रबल है, मनुष्य सोचता सोलहवीं शताब्दीके पूर्वार्द्ध में प्रथम लोकाशाह कुछ है, होता कुछ और ही है। मार्ग ही में उनका (सं० १५३० ) ने विरोधकी आवाज उठाई, स्वर्गवास हो गया,मतः वे अपनी इच्छाको सफल कड़वाशाहने उस समयके साधुओंको देख वर्ष- और कार्यमें परिणत नहीं कर सके । उनके तिरोमान काल (१५६२ ) में शुद्ध साध्वाचारका भावके बाद उनके सुयोग्य शिष्य श्रीजिनचन्द्र सूरिपालन करना असंभव बतलाया और संवरी जीने अपने गुरुदेवकी अन्तिम आदर्श भावनाको श्रावकोंका एक नया पंथ निकाला, पर यह मूर्ति- सफलीभूत बनानेके लिये सं० १६१३ में बीकानेर में पूजाको माना करते थे । लोकाशाहने मूर्तिपूजाका क्रिया-उद्धार किया • । इसी प्रकार तपागच्छमें भी विरोध किया, पर सुविहित मुनियोंके शास्त्रीय मानन्दविमलसूरिजीने सं० १५८२ में, नागोरी प्रमाण और युक्तियोंके मुकाबले उनका यह विरोध तपागच्छके पार्श्वचन्द्रसूरिजीने सं० १५६५ में, टिक नहीं सका । पचास वर्ष नहीं बीते कि उन्हीं अचलगच्छके धर्ममूर्तिसूरिजीने सं० १६१४ में के अनुयायियों से बहुतोंने पुनः मूर्तिपूजाको स्वी- क्रिया-उद्धार किया। कार कर लिया ,बहुतसे शास्त्रार्थमें पराजित होकर सत्रहवीं शताब्दीमें साध्वाचार यथारीति सुविहित मुनियोंके पास दीक्षित होगये। सुविहित पालन होने लगा। पर वह परम्परा भो अधिक मुनियोंकी दलीलें शास्त्रसम्मत,प्रमाणयुक्त, युक्तियुक्त दिन कायम नहीं रह सकी,फिर उसी शिथिलताका और समीचीन थीं, उनके विरुद्ध टिके रहनेको आगमन होना शुरू हो गया; १६८० के दुष्कालका विद्वत्ता और सामर्थ्य विरोधियोंमें नहीं थी। भी इसमें कुछ हाथ था । अठारहवीं शताब्दीके इधर आत्मकल्याणके इच्छुक कई गच्छोंके पूर्वार्द्ध में शिथिलताका रूप प्रत्यक्ष दिखाई देने श्राचार्योंमें भी अपने अपने समुदायके सुधार करने लगा,खरतरगच्छमें जिनसूरिजीकं पट्टधर,जिनचन्द्र की भावनाका उदय हुआ; क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं सूरिजीने शिथिलाचार पर नियंत्रण करनेके लिये शास्त्रविहित मार्गका अनुसरण नहीं करता, लसका विशेष जाननेके लिये देखें हमारे द्वारा लिखित प्रभाव दिन-ब-दिन कम होता चला जाता है । खर- 'युग-प्रधान जिनचन्द्र सूरि' ग्रन्थ । तरगच्छके आचार्य श्री जिनमाणिकक्य सूरिजीने इस दुष्कालका विशद वर्णन कविवर समय * उदाहरणके लिये सं० १५५७ में लोंकामतसे सुन्दरने किया है, जो कि मेरे लेखके साथ श्री जिन बीनामत निकला जिसने मूर्तिपूजा स्वीकृत की । (धर्म- विजयजी द्वारा सम्पादिन 'भारतीय विद्या' के दूसरे सागर-रचित पदावली एवं प्रवचन परीपत)। जैनेतर अंकमें शीघ्र ही प्रगट होगा। इस दुष्कालके प्रभावसे समाजमें भी इस समय कई मूर्तिपूजाके विरोधी मत उत्पन्न हुई शिथिलताके परिहारार्थ समयसुन्दरणीने सं० निकले पर अन्तमें उन्होंने भी मूर्तिपूजा स्वीकार की। १६६२ में क्रिया-उदार किया था । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेका [बेड, पापड, बीर-निर्वाण सं०२४१५ सं० १७१८ की विजयादशमाको । कुछ नियम । श्यक है कि यद्यपि शिथिलाचार अपना प्रभाव बनाय । एक बातका स्पष्टीकरण करना यहाँ भाव- दिन ब दिन बढ़ा रहा था फिर भी उस समय . समय समय पर गच्छकी सुव्यवस्थाके लिये प्रस्थाका बहुत कुछ परिचय मिलता है । नं. ऐसे कई व्यवस्थापन सा और खरतर गच्छके व्यवस्थापन प्रकाशित होने के कारण उससे तत्कालीन प्राचार्योने जारी किये जिनमें से प्रकाशित व्यवस्थापनों परिस्थितिका जो तथ्य प्रकट होता है वह नीचे लिखा की सूची इस प्रकार है:-- जाता है:-- निनप्रभसूरि (चौदहवीं शताब्दी ) का 'व्यव- पतियों में क्रय विक्रयकी प्रथा जोर पर हो चली स्थापन' (प्र. जिनदत सुरि चरित्र--जयसागर सूरि थी, भावकोंकी भाँति ब्याज-बट्टेका काम भी जारी लि.) हो चुका था, पुस्तकें लिख लिख कर बेचने लगे थे। २ तपा सोमसुन्दर सूरि-रचित संविज्ञ साधु योग्य- शिक्षादिका भी क्रय विक्रय होता था। कुलकके नियम (प्र० जैनधर्म प्रकाश, वर्ष १२ अंक २ वे उद्भट उज्वल वेष धारण करते थे। हाथमें प०३) धारण करने वाले दंडके उपर दाँतका मोगरा और सं० १९८३ ज्येष्ट, पट्टनमे तपागच्छीय प्रानन्द नीचे लोहेकी साँव भी रखते थे। विमल सरिजीका 'मर्यादापट्टक' (प्र. जैनसरयप्रकाश ३ यति लोग पुस्तकों के भारको वहन करनेके वर्ष २ अङ्क ३ पृ० ११२) लिये शकट, उंट, नौकर मादि साथ लेते थे। ४ सं० १६.३ यु० जिनचन्द्रसूरिजीका क्रिया ज्योतिष वैद्यक प्रादिका प्रयोग करते थे; जन्म उद्धार नियम पत्र (प्र. हमारे द्वारा लि. युगप्रधान पत्रियां बनाते व भौषधादि देते थे। जिनचन्द्रसूरि ) धातुका भाजन, धातुकी प्रतिमादि रख पूजन ५ सं० १६४६ पो०,सु० १३ पत्तने हारविजय करते थे। सरिपट्टक ( जैनसत्य प्रकाश वर्ष २ अङ्क २ पृ० ७५) ६ सात भाठ वर्षमे छोटे एवं प्रशुद्ध जातिके ६ सं० १६७७ वै० सु० . सावलीम विजयदेव विजयदव बालकोंको शिष्य बना लेते थे, लोच करनेके विषयमें मरिका 'साधुमर्यादापट्टक' (३० जैनधर्म प्रकाश वर्ष एवं प्रतिक्रमणको शिक्षितता थी। ५२ पत्र : पृ०१७) • साध्वियोंको बिहारमें साथ रखते थे व ब्रह्मसं० १७११ मा० सु०१३ पत्तन, विजयसिंह वर्ष यथारीति पालन नहीं करते थे। सरि (प्र. जै० धर्म प्रकाश वर्ष ५२ अंक २ पृ. १५) परस्पर मगदा करते थे, एक दूसरेकी निन्दा सं० १०१८ मा० सु. ६ 'विजय उमारि करते थे। पट्टक' (जैन सत्यप्रकाश वर्ष २ अंक पृ. ३७८) . उपर्युक्त जिनचन्द्रसूरिखीका पत्र अप्रकाशित (अठारहवीं शताब्दीके पति और श्रीपूज्यों के पार हमारे संग्रह है। स्परिक पुओं तथा मारपीटके दो वृहद वर्णन हमारे इन मर्यादा-पटकोंसे तत्कालीन पति समाजकी संग्रहमें भी है) Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ जैनाचार्योका प्रभाव साधु एवं श्रावक संघ पर कर यतिनियोंको दीक्षा देना बन्द कर दिया। बहुत अच्छा था, अतः उनके नियंत्रणका बड़ा इनमें खरतर गच्छके जयपुर शाखा वाले भी एक भारी प्रभाव पड़ता था। उनके भादेशका उल्लंघन हैं। उन्नीसवीं शताब्दीके पूर्वाद्धमें तो यति लोग करना मामूली बात नहीं थी, उल्लंघनकारीको मालदार कहलाने लग गये । परिग्रहका बोझ एवं उचित दण्ड मिलता था। आज जैसी स्वच्छन्द- विलासिता बढ़ने लगी। राजसम्बन्धसे कई गांव चारिता उस समय नहीं थी। इसीके कारण सुधार जागीरके रूपमें मिल गये, हजारों रुपये वे ब्याज होनेमें सरलता थी। पर धरने लगे, खेती करवाने लगे. सवारियों पर अठारहवीं शताब्दीमें गच्छ-नेता गण स्वयं चढ़ने लगे,स्वयं गाय,भैंस,ऊँट इत्यादि रखने लगे। शिथिलाचारी हो गये, अतः सुधारकी ओर उनका संक्षेपमें इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि वे एक लक्ष्य कम हो गया। इस दशामें कई आत्मकल्या- प्रकारसं घर-गृहस्थीसे बन गये । उनका परिग्रह णेच्छुक मुनियोंने स्वयं क्रिया उद्धार किया । उनमें, राजशाही ठाट-बाट-सा हो गया । वैद्यक, ज्यो. खरतर गच्छी श्रीमवचन्द्रजी (सं० १७७७ ) तिष, मंत्र तंत्र में ये सिद्धहस्त कहलाने लगे और और तपागच्छमें श्रीसत्यविजयजी पन्यास प्रसिद्ध वास्तवमें इस समय इनकी विशेष प्रसिद्धि एवं हैं । उपाध्याय यशोविजयजी भी आपके सहयोगी प्रभावका कारण ये ही विद्याएँ थीं । अठारहवीं बने इस समयकी परिस्थितिका विशद विवरण शताब्दीकं सुप्रसिद्ध सुकवि धर्मवर्द्धनजीने भी उपाध्याय यशोविजयजीकं "श्रीमंधरस्वामी" अपने समयके यतियोंकी विद्वत्ता एवं प्रभावके विनती आदिमें मिलता है। विषयमें कवित्त रचना करके अच्छा वर्णन किया अठारहवीं शताब्दीकं शिथिलाचारमें द्रव्य है। रखना प्रारम्भ हुआ था। पर इस समय तक यति औरङ्गजेबकं समयसे भारतकी अवस्था फिर समाजमें विद्वत्ता एवं ब्रह्मचर्य आदि सद्गुणोंकी शोचनीय हो उठो, जनताको धन-जन उभय कमी नहीं थी। वैद्यक, ज्योतिष आदिमें इन्होंने प्रकारकी काफी हानि उठानी पड़ी । आपसी लड़ाअच्छा नाम कमाना प्रारम्भ किया । आगे चल इयोंम राज्यक कोष खाली होने लगे तो उन्होंने भी कर उन्नीसवीं शताब्दीसे यति-समाजमं दोनों प्रजास अनुचित लाभ उठा कर द्रव्य संग्रहकी ठान दुर्गुणों (विद्वत्ताकी कमी और असदाचार ) का ली। इससे जनसाधारणको आर्थिक अवस्था प्रवेश होने लगा। आपसी झगड़ोंने प्राचार्योंकी बहुत गिर गई; जैन श्रावकोंके पास भी नगद सत्ता और प्रभावको भी कम कर दिया। १८ वीं रुपयोंकी बहुत कमी हो गई । जिनके पास ५-१० शताब्दीके उत्तरार्द्धमें क्रमशः दोनों दुर्गुण बढ़ते हजार रुपये होते वे तो अच्छे साहूकार गिने जाते नजर आते हैं । वे बढ़ते बढ़ते वर्तमान अवस्थामें थे, साधारणतया प्राम-निवासी जनताका मुख्य उपस्थित हुए हैं । कई श्रीपूज्योंने यतिनियों का आधार कृषिजीवन था, फसलें ठीक न होने के दक्षिा करना व्यभिचारके प्रचारमें साधक समझ कारण उसका भी सहारा कम होने लगा, तब Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wara [ोड, माह, बीर-विवि सं०१५ श्रापक लोग, जो साधारण स्थितिके थे, पतियों के बहुत कम मिलते हैं) और वह घटने घटते वर्तपास ब्याज पर रुपये लेने लगे। अतः मार्षिक मान अवस्थाको प्राप्त हो गई। सहायताके कारण को श्रापक यतियों के वेलसे ___यतिममाजकी पूर्वावस्थाके इतिहास पर बन गये, कई वैयक-तंत्र-मंत्र भादि द्वारा अपने सरसरी तौरसे ऊपर विचार किया गया है। इस स्वार्थ साधनों में सहायक एवं उपकारी समझ उन्हें उत्थान-पतनकालके मध्यमें यतिसमाजमें धुरंधर मानते रहे, फलतः संघससा क्षीण-सी हो गई। विद्वान. शासन प्रभावक, राज्यसन्मान-प्राप्त अनेक यतियोंको संघसत्ता-द्वारा भून पतला कर पुन: महापुरुष हो गये हैं, जिन्होंने जैनशासनकी बड़ी कर्तव्य पथ पर भारुढ़ करनेकी मामय उनमें भारी सेवा की है. प्रभाव विस्तार किया है, अन्य नहीं रही। इमसे निरंकुशता एवं नेतृत्वहीनताके आक्रमणोंसे रक्षा की एवं लाखों जैनेतरोंको जैन कारण यति समाजमें शिथिलाचार म्वछंदतासे बनाया. हजारों अनमोल ग्रंथरबोंका निर्माण किया पनपने एवं बढ़ने लगा । गमिसमाजने भी रुख जिसके लिये जैन ममाज उनका चिर ऋणी बदल डाला । धर्मपचारके माथ माथ परोपकार रहेगा। अब यति ममाजकी वर्तमान अवस्थाका को उन्होंने स्वीकार किया. भाषक भादिके बामको अवलोकन करते हुए इमका पुन: उत्थान कैसे हो को वे पढ़ाई कराने लगे, जन्मपत्री बनाना, मुह. सकता है। इस पर मैं अपने विचार प्रकट करता दि बतलाना रोगों के प्रतिकारार्थ औषधोपचार हूँ । यद्यपि वर्तमान अवस्था * का वास्तविक चाल करने लगे जिनसे उनकी मान्यता पूर्ववत चित्र देने से तो लेखके अश्लील अथवा कुछ बातों बनी रहे। के कटु हो जानेका भय है एवं वह सबके सामने ___ उनकी विद्वताकी धाक राज दरबारों में भी ही है, अत: पिशद वर्णनकी आवश्यकता भी नहीं अच्छी जमी हुई थी, प्रस: राणामोंमे पन्हें अच्छा प्रतीत होती! फिर भी थोड़ा स्वरूप दिखलाये सन्मान प्राप्त था, अपने चमत्कारोंमे उन्होंने बिना भविष्यके सम्बन्धमें कुछ कहना उचित नहीं काफी प्रभाव बढ़ा रक्खा था । हम राज्य-सम्बन्ध होगा। एवं प्रभावके कारण स्थानकवासी मत निकला जो पहले साधु या मुनि कहलाते थे, वे ही तब उनके माधुषों के लिये इनोंने बीकानेर, जोध यति कहलाते हैं । पतनकी करीब करीब चरम पुर प्रादिसे ऐसे माज्ञापत्र भी जारी करवा दिये सीमा हो चुकी है । नो शास्त्रीय ज्ञानको अपना थे जिनसे वे उन राज्यों में प्रवेश भी नहीं कर सकें। आभूषण समझते थे, ज्ञानोपासना जिनका व्यसन १८ वी शताब्दी तक यति-समाज में जान सा था,वे अब पाजाविका,धनोपार्जन और प्रतिष्ठापासना सतत चालू थी, अतः उनके रचित बहुतमे ला अच्छे पच्छे अन्ध इस समय तक मिलते हैं; इसका संक्षेप में कुछ वर्णन कालरामजी बरदिया पर १९वीं शताब्दीसे झानोपासना क्रमशः घटती लिखित 'मोसवाल समाजको वर्तमान परिस्थिति' ग्रंथ चली (मतः इम शताब्दीके विद्वत्तापर्ण प्रन्थ में भी पाया जाता है। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-समाज रक्षाके लिये वैद्यक, ज्योतिष और मंत्र-तंत्रके शान (परिवटिमीवा, मरिमोमुखम्) को ही मुख्यता देने लगे हैं। कई महात्मा तो ऐमे कटेक सिक्यते सावं, बस्नेन परिवानवेत् ॥" मिलेंगे जिन्हें प्रतिक्रमणके पाठ भी पूरे नहीं पाते। एवं प्रन्यों की सुरक्षाकी व्यवस्था करते हुये गम्भीर शास्त्रालोचनके योग्य तो भव शायद ही लिखाकोई व्यक्ति खोजने पर मिले । क्रियाकाण्डोंको जो नबादचेत् स्थखात्रवेत् सत् शियितवन्धनात् । करवा सकते हों (प्रतिक्रमण, पोसह, पर्व-व्या 1- मूर्खहस्ते न वातमा एवं वदति पुस्तिका ॥ ख्यान-वाचन, तप ग्यापन एवं प्रतिष्ठाविधि ) वे अपने रचत बात भूपकेभ्यो विशेषतः । भब विद्वान गिने जाने लगे हैं। (उदकानियाचौरेभ्यो मूषकेम्पो हुताशनात् ।) जिस ज्ञानधनको उनके पूर्वजोंने बड़े ही कष्ट कष्टेन लिखितं शाश्वं यत्नेन परिपासचेत् ॥ सं लिख लिख कर संचित एवं सुरक्षित रखा, वे मुनि पाचारकी तो गंध भी नहीं रहने पाई; अमूल्य हस्तलिखित प्रन्थोंको सँभालते तक नहीं। पर अब हम उन्हें भावकों के कर्तध्यसे भी च्युत वे ग्रंथ दीमकोंके भक्ष्य बन गये, उनके पृष्ट नष्ट हो देखते हैं. तब कलेचा पाक उठता है, बुद्धि भी गये, सर्दी भादिसे सुरक्षा न कर सकनेके कारण कुछ काम नहीं देती कि हुमा क्या? भगवान महाप्रन्थोंके पत्र चिपक कर थेपड़े हो गये । (हमारे वीरकी वाणीको सुनाने वाले उपदेशकों की भी संग्रहमें ऐसे अनेक ग्रंथ सुरक्षित हैं)। मवीन क्या यह हालत हो सकती है ? जिस बातकी रचनेकी विद्वत्ता तो सदाके लिये प्रणाम कर बिदा सम्भावना तो क्या, कल्पना भी नहीं की जा स. हुई; पुराने संचित ज्ञानधनकी भी इतनी दुर्दशा हो कती, भाजपा हमारे सामने उपस्थित है। बहुतों रही है कि सहृदय व्यक्तिमात्रको सुन कर आंसू के तो न रात्रिभोजनका विचार, न अभय वस्तुबहाने पड़ रहे हैं । सहज विचार भाता है कि इन ओंका परहेज, न सामायिक प्रतिक्रमण वा क्रियाग्रंथोंको लिखते समय उनके पूर्वजोंने कैसे भव्य काण्ड और न नबकारसीका पता । पाज इनमें मनोरथ किये होंगे कि हमारे मस्त इन्हें पढ़ पढ़ कई व्यक्ति तो भाग-गांजा भादि नशैली चीजोंका कर अपनी प्रात्मा एवं संमारका सपकार करेंगे। संवन करते हैं, पाजारों में वृष्टि आदिका सौदा पर आज अपने ही योग्य वंशजोंके हाथ इन ग्रंथों करते हैं। उपायों में रसोई बनाते हैं, व्यभिचारका की ऐसी दुर्दशा देखकर पूर्वजोंकी स्वर्गस्थ मामा- बोलबाला है। प्रतएव जगतकी दृष्टिमें वे बहुत एं मन ही मन न जाने क्या सोचती होंगी? ------- नन्होंने अपने ग्रंथों की प्रशस्तियों में कई बातें ऐसी । .श्वेताम्बर समाजमें जिस प्रकार पति समाज है; लिख रखी हैं कि उन्हें ध्यानसे पढ़नेवाला कोई भी दिगम्बर समाजमें खगभग वैसे ही महारक प्रणालीका व्यक्ति ऐसा काम नहीं कर सकता। इतिहास प्रादि बामने के लिये चैनहितैपी में श्रीमाथाम जी प्रेमीका निबंध एवं बैनमित्र कार्यात सूरतसे "भमपृष्टिकटिग्रीवा, पारियोमुखम् । प्रास "भट्टारक-मीमांसा" ग्रन्थ पढ़ना चाहिये । Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ज्येष्ठ, भाषा, वीर निर्माण सं०२४५६ गिर चुके हैं । पंच महाव्रतोंका तो पता ही नहीं, यतिनियोंकी तो बात ही न पूछिये, उनके पतअणुव्रतधारी भावकोंसे भी इनमें से कई तो गये नकी हह हो चुकी है, उनकी चरित्रहीनता जैनबीते हैं। समाजके लिये कलंकका कारण हो रही है ! कहां तक कहें-विद्वत्ता भी गई, सदाचार भी "गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिकं न च वयः !" गया, इसीलिये स्थानकवासी एवं तेरह पन्थियोंकी महात्मा भर्तृहरिकी यह उक्ति सोलहों आने बन आई, वे उनके चरित्रोंको वर्णन कर अपने सत्य है। मनुष्यका आदर व पूजन उसके गुणों अनुयायियोंकी संख्या बढ़ाने लगे । जैनेतर लोग ही कारण होता है । गुणविहीन वही मनुष्य पद गुरुजीके चरित्रोंको लेकर मसखरी उड़ाने लगे। पद पर ठकराया जाता है। यतियोंका भी समाज जिनके पूर्वजोंने नवीन नवीन ग्रंथ रचकर अजैनों पर प्रभाव तभी तक रहा जब तक उनमे एक न को जैन बनाया, अपनी विद्वत्ता एवं आचार- एक गुण (चाहे ज्ञान हो, विद्वत्ता हो, वैद्यक हो; विचारक प्रभावसे राजाओं तथा बादशाहों पर मंत्रादिका ज्ञान अथवा परोपकारकी भावना हो) धाक जमाई, वे ही आज जैनधर्मको लाँछित कर अनेक रूपोंमें विद्यमान रहा । ज्यों ज्यों उन गुणोंक अस्तित्वका विलोप होता गया त्यों त्यों * इसीलिये राजपूताना प्रातीय प्रथम यति उनका आदर कम होने लगा । अन्तम आज जो सम्मेलन (संबंत १६६१, बीकानेर ) में निम्नलिखित हालत हुई है उसके वह स्वयं मुक्तभोगी हैं । न प्रस्ताव पास किये गये थे। खेद है उनका पालन नहीं तो उनको कोई भक्तिसे वंदन करता है, न कोई हो सका--(१) उद्भट वेश न रखना । (२) श्रद्धाकी दृष्टिसे उन्हें देखता है । गोचरीमे भी दवा भादिके सिवा जमीकन्द आदिके त्यागका भरसक पहले अच्छे अच्छे पदार्थ मिलते थे, आज बिना प्रयत्न करना (३) दवा आदिके सिवा पंच तिथियों भावकं, केवल पारपाटोके लिहाजस बुरीसे बुरी में हरी वनस्पति मादिके त्यागका भरसक प्रयत्न करना वस्तुएँ उन्हे बहराई जाती हैं । बानर में उनका (.) रात्रि भोजनके त्यागकी चेष्टा करना । (१०) तिरस्कार किया जाता है,कई व्यक्ति तो उनम् घृणा भावश्यकताके सिवाय रातको उपाश्रयसे बाहर न तक करते हैं । उनका आदर भक्तिशून्य और भाव होना (२०) अप्रेज़ी फैशनके बाल न रखना विहीन, केवल दिखावेका रह गया है, अतः उनका (२२) दीचित पतिको साग सब्जी खरीदनेके समय भविष्य कितना अन्धकारमय है, पाठक स्वयं उस बाजार न जाना ( २३ ) धूम्रपानका त्याग । (२४) की कल्पना कर लें। मुझे तो उनकी वत्तमान दशा साइकिल पर बैठ बाजार न घूमना । (पंच प्रतिक्रमण देखकर अतिशय परिताप है, हृदय बेचैन-मा हो के ज्ञाता न होने तक किसीको दीक्षा न देना । (२५) जाता है। अगर अदर भविष्यमें यह ममाज न पर्वतिथियों में प्रतिक्रमण अवश्य करना । इन प्रस्तावोंसे . सम्भला तो इमका कहाँ तक पतन होगा यह प्रगट है कि वर्तमानमें इन सब बातों के विपरीत प्रचार सोचा नहीं जा सकता । जैनधर्मका ज्ञान उनसे है, तभी इनका विरोध समर्थनकी भावश्यकता हुई। किनारे हो रहा है अतः मथेरणों की भांति ये अगर Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-समान जैनधर्मको भी छोड़ बैठे तो कोई माश्चर्य नहीं है। किया जाना चाहिये। जो मा साधारण मनि समाज इनसे असन्तुष्ट है, ये समाजसे । अतएव बनायें जायें वे पूरी मुस्तदीसे पालन किये करवाये सुधारकी परमावश्यकता है यह तो हर एक को जायें । जो विरुद्ध आचरण करें उन्हें वहिष्कृत कर मानना पड़ेगा । यतिसमाजकी यह दशा आँखों समाजसे उनका सम्बन्ध तोड़ दिया जाय, इस देखकर विवेकी यतियोंके हृदयमें पाजस ३५ वर्ष प्रकार कठोरतासे काम लेना होगा। जो पालन न पूर्व ही सामूहिक सुधारको भावना जागृत हुई थी, कर मकें वे दिगम्बर पंडितोंके तौर पर गृहस्थ खरतर गच्छके बालचन्द्राचार्यजी आदिके प्रयत्न बन जावें और उपदेशकका काम करें। के फलसे सं०१९६३ में उनकी एक कान्फ्रेन्स हुई एक विद्यालय,ब्रह्मचर्य आश्रम केवल यतिथी और उसमें कई अच्छे प्रस्ताव भी पास हुए शिष्योंकी शिक्षाके लिये खोला जाय । यहाँ पर थे यथा-(१) व्यावहारिक और धार्मिक शिक्षा अमुक डिग्री तक प्रत्येक यतिशिष्यको पढ़ना का सुप्रबन्ध (२) बाह्य व्यवहार शुद्धि (३) ज्ञानो• लाजिमो किया जाय, उपदेशक के याग्य पढ़ाईकी पकरणकी सुव्यवस्था (हस्तलिखित ग्रन्थोंका न मुव्यवस्था की जाय । उनसे जो विद्यार्थी निकलें बेचना (४) संगठन (५) यति डायरेक्टरी इत्यादि; उनके खर्च आदिका योग्य प्रबंध करके उन्हें पर प्रस्तावोंकी सफलता तभी है जब उनका ठोक स्थान स्थान पर उपदेशकों के रूप में प्रचार कार्य में ठोक पालन किया जाय । पालन होनेके दो ही मार्ग नियुक्त कर दें, ताकि उन्हें जं नधर्मको सेवाका हैं-(१) स्वेच्छा और (२) संघसत्ता । स्वेच्छामे सुयोग्य मिने । श्रावक ममाजका उममें काफी जो पालन करे वे तो धन्य हैं ही, पर जो न करें, महयोग होना आवश्यक है। हम अग्नी सद्उनके लिये संघसत्ताका प्रयोग करने लायक सुव्य- भावना एवं महायतास हो गिरे हुये वनिममाजको वस्थाका अभी तक अभाव ही है। ___ उन्नत बना सकते हैं, घणासे नहीं। उस कॉन्फ्रेंसका दूसरा अधिवेशन हुआ या आशा है कि जैनममाजके कर्णधार एवं नहीं, अज्ञात है। अभी फिर सं० १९९१ में बीका- उन्नतिकी महद् आकांना वाले विद्वान यति नेर राजपूताना प्रांतीय यति-सम्मेलन हुआ था श्रीपूज्य मार्गविचार-विनिमय द्वारा भविष्यको और उसका दूमरा अधिवेशन भी फलौदीमें हुआ निर्धारित करने में उचित प्रयत्न करेंगे। था, पर मभी कुछ परिणाम शून्य ही रहा । अस्तु। मैंने यह निबंध द्वेपयश या यतिममाजको __अब भी समय है कि युगप्रधान जिनचन्द्र नीचा दिखलाने की भावनामे नहीं लिखा । मेरे सूरिजीकी तरह कुछ सत्ता बलका भी प्रयोग हृदयम उनके प्रति सद्भावनाका जो श्रोत निरन्तर x देखें, हमारे द्वारा लिखित युगप्रधान जिन प्रभावित है उसके एवं उनकी अवनतिको देख चन्द्र सूरि' ग्रन्थ । उन्होंने जो साध्वाचार न पालन कर जो परिताप हुआ, उसकी मार्मिक पकारसे कर सके, उन्हें गृहस्थवेष दिलवा मधेरण बनाया जिससे विवश होकर ही इस प्रबंधको मैंने लिखा है। साधु-संस्था कलंकित न हो। आशा है पाठक इसे उमी दृष्टिसे अपनावेंगे और Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकाता , माप, वर विसं . यदि इसमें कोई कटु अथवा अयोग्य वाक्य नजर वर्णनमें मैं अपना महोभाग्य समझता हूँ। भाये तो उसे दुखित हृदयके दावानलको चिनारी यतिसमाज ही क्यों साधु समाजकी दशा भी समझ मुझे क्षमा करेंगे । एक स्पष्टीकरण और विचारणीय एवं सुधारयोग्य है। इस पर भी भी आवश्यक है कि इस लेख में जो कुछ कहा बहुत कुछ लिखा जा सकता है। समयका सुयोग गया है वह मुख्यताको लक्ष्य में रखकर ही लिखा मिला तो भविष्य में इन दोनों समाजों पर एवं है, अन्यथा क्या यति समाजमे और क्या चैत्य- इसी प्रकार जैनधर्मके क्रियाकाण्डोंमें जो विकृति वासियोंमें पहले भी बहुत प्रभावक आचार्य एवं . भा गई है, उस पर भी प्रकाश डालनेका विचार महान् पात्माएँ हुई हैं एवं अब भी कई महात्मा है। बड़े उच्च विचारोंके एवं संयमी हैं। इनको मेरा 'तक्या मोसवाब' से उत्कृत भक्तिभावसे वंदन है। उन महानुभावोंके गुण x जीवन के अनुभव बावली घास [लेखक-श्री हरिशंकर शर्मा ] नावले आदमी, बावले कुत्ते, बावले गीदड़, बावले सेर चायका पानी पीते । यहाँ तक कि बैसाख और बन्दर श्रादि तो मबने देखे सुने होंगे, परन्तु जेठमें भी उसे न छोड़ते थे । तिस पर भी तुर्ग यह कि 'बावली घाम' से बहुत कम लोग परिचित हैं । फिर मजे कटोरा-भर चायमें दूधका नाम नहीं । अगर भूलसे की बात यह है कि पशु पक्षी और मनुष्य तो बावने होकर चायमें एक चम्मच भी दूध पड़ जाय, तो वे उसे जीव-जन्तुओंकी जानके गाहक बन जाते हैं; परन्तु अस्वीकार कर दें । प्रकृति भला किसको क्षमा करने 'नवली घाम' मरते हुए को अमृत पिलाती है, और नमे वाली है ? पिताजी पर भी उसका कोप हुआ, और दुःखसे मुक्त कर वर्षों जिलाती है । एक सर्वथा सत्य उन्हें भयंकर :रक्तार्श (खुनी बवासीर ) से व्यथित घटनाके आधार पर आज हम पाठकोंको बावली घास होना पड़ा। यह घटना अबसे ३० वर्ष पहिले की है। का कुछ परिचय कराते हैं। मेरे पूज्य पिता (स्वर्गीय पं० नाथूराम शङ्कर शर्मा ) चायके बड़े आदी थे। उनकी यह टेव व्यसन पहले तो पिताजीके शौच-मार्गसे थोड़ा-थोड़ा खन तक पहुँच गई थी। वे सुबह-शाम दोनों वक्त श्राध श्राध अाया, फिर तिल्लियाँ अँधने लगीं। यहाँ तक कि वे Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावजी पास चारपाई पर पड़ गए । निर्बलता इद दरजे की हो गई। हालतमें भला नश्तर कैसे लगाया जाय १ जहाँ करवट पिताजीके घनिष्ट मित्र साहित्याचार्य प० पद्मसिंह शर्मा बदलनेमें दम निकलनेका अन्देशा हो, वहाँ कैसी चीरभी बीमारीका हाल सुनकर हरदुआगज मा गए । उस फाड़ !" शर्मा जीको सम्बोधित होकर बोला-"पडित समय हम लोगोकी चिंताका ठिकाना न था, तरह २ के साहब ! मैंने आपके दोस्तको बड़े गौरसे देखा, मरज इलाज-मुबालजे कराए गए । कनखल-निवासी वैद्यराज बहुत बढ़ गया है, मेरे बसकी बात नहीं रही । बाबूस्वर्गीय पं० रामचन्द्र शर्माने आयुर्वेदोक्त औषधियाँ दी, साहब, माफ करना, ऐसी हालत देख कर मेरा तो और भी कई प्रसिद्ध वैद्योकी चिकित्सा हुई; कितने ही कलेजा काँपता है. नश्तरका तो कोई सवाल ही नहीं। डाक्टरोंका ईलाज कराया गया; परन्तु खून बहना बन्द मैं भी खुदावन्द तालासे दुश्रा करूँगा कि वह इन न हुआ । पिताजीको परेशानी और कमजोरीका ठिकाना पडितजीको जलदसे जलद शफ़ा बख्शे । बस, इतना ही न रहा । उनका मोटा ताजा शरीर सूख कर काँटा बन मेरे इमकान में है । और कुछ नहीं । अच्छा, मैं जाता गया। करवट बदलने और बात करने में भी कष्ट होने हूँ, श्रादाब अर्ज ।" लगा। हम लोगोंकी चिंता निराशामें परिणित हो गई। जिस जर्राहके लिए श्री स्व. पद्मसिंह शर्माने स्वयं पिताजीको अच्छा होनेकी उम्मेद न रही । इतना ज़ोर दिया, जिसके नश्तरकी. रवानगी पर सारा बीसियों मिलने-जुलने वाले रोज पाते और बड़ी मन्द घर टकटकी लगाए बैठा था, जिसके दस्ते-मुबारिक पर वाणीम, अत्यंत उदासीनताके साथ, "जब तक सांस काफी भरोसा था, वह भी टका-सा जवाब देकर चलता तब तक अास" की लोकोक्ति सुनाकर चले जाते । बना । अब शर्मा जीके हृदयमें भी निराशाका समुद्र इस समय तक हम लोगोंमें अगर किसीका धैर्य नहीं उमड़ने लगा। उनकी भावुकता, जो अब तक धैर्य के छूटा था, तो वह थे पं० पद्मसिंह शर्मा । शर्मा जी सबको बन्धनसे जकड़ी पड़ी थी, आँखोंमें झलझला बाई । धैर्य बंधाते हुए बराबर प्रयत्नशील बने रहनेका प्रोत्सा- उन्होंने अपनेको बहुत कुछ सँभालते हुए, भरे हुए हन देते रहे । हमारे हृदय निराशासे भर चुके थे, केवल कण्ठसे कहा "भाई, अब हम लोगोंका फर्ज है बाहरी बचन-विलासमे प्राशावादिताकी झलक दिखाई कि 'कविजीको खूब सेवा करें और उन्हें जरा भी तकदेती थी, सो भी रोगीको यहकाने या दम-दिलासा देने लीफ़ न होने दें, जिससे जो टहल-चाकरी बन पड़े, के लिए। करनी चाहिए । फिर तो कविजीको सूरत भी..." कहते २ शर्माजीकी हिचकियाँ बंध गई, और हम सब बुरी तरह व्याकुल होने लगे । मेरी माता और हम सब बुरी तरह व्याकुल होने लगे। मेरी माताने तो चिन्ताके • अन्तमें प० पद्मसिंह शर्माके परामर्शसे एक मशहूर कारण कई दिनोंसे अन्न तक त्याग दिया था । वह जर्राह बुलाया गया। जर्राह पाया, मगर मरीजको देख पाँच-सात मुनक्के ( दाख) खाकर रात-दिन पिताजी कर उसके होश उड़ गए, अक्ल चकरा गई । कहने को चारपाई परडी रहती थीं।। लगा-"उफ, ऐमी कमज़ोरी! इतनी नकाहत ! Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ भवेकान्त डि, मापाडी-निवाब सं०१४॥ पिताजी जहाँ प्रसिद्ध कवि थे, वहाँ चिकित्सक भी मैं दस मील चल कर आया हूँ, जरा झांकी तो कर बड़े अच्छे थे । बड़े २ रोगोंका सफलतापूर्वक इलाज लेने दीजिए।" करना उनके लिये साधारण बात लोग उनसे चिकित्सा कराने आते रहते थे । उन्होंने चिकित्सा पटवारीजी पिताजीकी दशा देखकर दङ्ग रह गए। कार्यसे निर्वाह अवश्य किया; परन्तु धनी होनेकी बात वे उन्हें देखकर बैठकमें श्राए और बड़ी निराशापूर्वक कभी स्वानमें भी न सोची। उनकी बताई कौड़ियोंकी एक पुड़िया देते हुए बोले-“देखिये यह एक साधुकी दवास रोगी बराबर अच्छे होते रहते थे। उनकी फीस बताई हुई बूटी है, खूनी बवासीरको तुरंत आराम कर निश्चित न थी, जिसने जो दे दिया ले लिया, ग़रीबोंसे देती है । मैंने इसे कितने ही मरीज़ों पर आजमाया है, तो कुछ लेने ही न थे बल्कि उनकी दवा-दारू और पथ्य- सब अच्छे हो गए । यह ठीक है कि पण्डितजी बहुत की व्यवस्था भी उन्हें करनी पड़ती थी। इस सेवा-भावके कमज़ोर हैं, उनमें साँस ही साँस बाकी है, फिर भी कारण पिताजी बड़े लोक-प्रिय हो गये थे । किसान, परमात्माका नाम लेकर श्राप इस बूटीको उन्हें जरूर गरीब तथा अछूत लोग उन पर अपना पूरा अधिकार पिलाइये ।" मममते थे । पिताजी भी अमीरोंस पीछे बात करते, पटवारीजीको यह पुड़िया पं० पद्मसिंह शर्माने पहले गरीबोंकी कष्ट कथा सुनते थे । इसलिये बीमारीमे बड़े बेमनसे ली । खोलकर देखा, तो घास-फूस कूड़ाउनके भक्त दर्शनार्थियोंका तांता लगा रहता था। करकट ? अरे, यह क्या बवाल ? - * "नहीं, नहीं, बवाल नहीं, यह तो अमृत है । "क्यो भाई कैसे पाए, कहाँ रहते हो ?' सामने आप इस दवामेंसे दस माशे लेकर पन्द्रह-बीस काली खड़े हुए एक ग्रामीण भाईस पं० पद्मसिह शर्माने बड़ी मिर्च मिलवाइये और भग की तरह घोट पीस तथा उदासीनतासे पूछा। डेढ़ पाव जलमें छानकर अभी पिला दीजिए और इसी "पण्डितजीकी बीमारीका हाल सुनकर पाया हूँ.. तरह सु बह पिलाइए । तीन-चार दिन करके तो देखिए, का पटवारी हूँ सुना है, उन्हें बवासीरकी बीमारी है। परमात्माने चाहा, तो श्राराम हो जायगा ।" ग्रामीण -मोटे मोटे कपड़े पहने हुए उस आगन्तुकने उत्तर भाईने कहा। दिया। पं० पद्मसिह शर्माके निराश हृदयम एक बार "अरे भई ! अब पण्डितजीको क्या देखोगे ? दो- फिर आशाका सञ्चार हुआ, उन्होंने मेरे भाई एक दिन के मेहमान हैं। मिलने जुलनेसे उन्हे कष्ट स्वर्गीय उमाशङ्करजीस कहा- "लो इसे पीसो होता है । मैं सुबहसे अब तक लगभग ५० श्रादमियों और छानो। कभी-कभी ऐसी जड़ी-बूटी बड़ा काम को उनके पास जानेसे रोक चुका हूँ श्राप भी क्षमा कर जाती हैं, फिर यह तो एक साधुकी करें।"-शर्माजी बड़ी निराशा और दुःखसे बोले। बताई है ।" शामको दवाकी पहली मात्रा दी गई और ___ "नहीं साहब, मैं पण्डितजीके दर्शन करके लौट फिर सुबह पिलाई गई । इतने ही से खूनका वेग कुछ जाऊँगा । उन्होंने जीवन भर सबका भला किया है। कम हुआ । निपट निराशा-निशामें श्राशाकी किरण Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावजी पास दिखाई दी। उदामीनता घटी, चिन्तामें कमी हुई, फिरने लगेंगे, भूख खूब लगेगी, दस्त साफ आवेगा । माहसने फिर उद्योगशीलताकी बाँह पकड़ी। चार दिन यह दवा जरा सीसी करती है, उसकी फिक्र न करना । में खून आना बन्द हो गया । पिताजीको भी अपने एक बात और सुनिए, अब दवाके लिए मेरे पास आने जीवनकी प्राशा होने लगी, और उन्होंने अब उस का कष्ट न करें । वह तो आपके हरदुआगंजके पास ही घास-फूसको 'जीवन-मूरि' कहना शुरू किया। कपास, ज्वार, मक्के और बाजरेके खेतोंमें बहुत होती पुरियाकी आठ खुराकें चार दिनमें खतम हो गई। है। वहींसे ताजा उखड़वा मँगाइए और सुखाकर रख मैं तांगा लेकर पटवारीजीके पास पहुँचा, २१) रु. लीजिये । अभी तो कार्तिक ही है, आपको बहुत-सी और कुछ मिठाई उनके आगे रखकर निवेदन किया- पास मिल जायगी। यह गँवारू बूटी है। इधर गाँवके "दीवानजी अब पिताजी अच्छे हैं। खुन बन्द हो गया लोग इसे 'बावली पास' कहते हैं। इसका पौधा डेढ़ है, नींद आने लगी है, अब तो सिर्फ कमजोरी शेष है। फुट ऊँचा होता है, पत्तियाँ लम्बी लगती है, फलो मी थोड़ी दवा और दे दीजिए, बड़ी कृपा होगी। आपकी आती हैं, जिनमें बीज होते हैं।" सेवामें हम लोगोंकी तरफसे यह तुच्छ भेंट अर्पित है, अभिप्राय यह कि 'यावली घास' से पिताजी बिलकृपया स्वीकार करें।" कुल अच्छे हो गए । उनकी कृश काया फिर मोटी___ पटवारीजीकी प्रसनताका ठिकाना न रहा, वे साजी और तन्दुरुस्त दिखाई देने लगी । पूज्य शर्माजी बोले-"पण्डितजी अच्छे हो गए, मैंने सब कुछ भर सेरों घास उखड़वा कर अपने साथ ले गए । पिताजीने पाया। अब वे सैकड़ोंका भला करेंगे। ऐसे परोपकारी भी खूब प्रचार किया । मैं भी प्रतिवर्ष पचासों पैकेट जितने अधिक जीवें, उतना ही अच्छा । मैं वेद-हकीम मेजता रहता हूँ। जो मित्र या परिचित मिलता है, बरा' नहीं हैं। रुपए श्राप उठा लीजिए, मैं तो मुफ़्तमें यह बर उससे उसका जिक्र करता हूँ। अर्शके जिस रोगीको बांटता रहता हूँ । मेरा लगता ही क्या है । आठ आने वह दी गई, उसीको लाभ हुआ। में मनो घास इकट्ठा हो जाती है । आप चाहें, तो इस न जाने भगवती वसुन्धराके गर्भमें क्या-क्या विभमिठाई को मुहलेके बालकोंको बाँट सकते हैं, नहीं तो सियाँ छिपी पड़ी हैं । संसारमें प्रकृति माताकी व्यापकता इसे भी ले जाइए । मैं कुछ भी न लगा।" और विचित्रता समझने वाले बहुत थोड़े हैं, वे ही पटवारीजीका दो टक इन्कार देखकर फिर इसरार सच्चे ज्ञानी और पूरे पण्डित हैं। * (दीपकसे.) करनेकी मेरी हिम्मत न हुई | रुपये उठा लिए और लोहामण्डी ागरा] मिठाई बालकोंको बाँर दी। पटवारीजीने अबकी बार -- प्रचुर मात्रामें दवाई देते हुए कहा-“लीजिए, यह · यह घास पवार-कातिकमें ही होती है । इस बीस दिनको काफी होगी । इसीसे पण्डितजी चलने- साल जितनी इकट्ठी की गई थी, म सब बाँट दी गई। - Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थप्रकाशिका और पं०सदासुखजी [२०५० परमानन्द जैन शाखी] श्रीउमास्वातिके तत्वार्थ सूत्रकी हिन्दी लेप अपना उपयोगकी विशुद्धताके अर्थि तथा टीकाओंमें 'अर्थप्रकाशिका' अपना खास तथा संस्कृतके बोधरहित अल्पज्ञानिके तत्वार्थस्थान रखती है। इसमें प्राचीन जैन पन्थोंके अनु- सूत्रनिके अर्थ समझनके अथिं अपनी बुद्धिके सार सूत्रोंका स्पष्ट अर्थ ही नहीं दिया गया, बल्कि अनुसार लिखी है । परन्तु राजवार्तिकका अर्थ उनका विशद व्याख्यान एवं स्पष्टीकरण भी किया कहूँ कहूँ गोम्मटसार, त्रिलोकसारका अर्थ लेय गया है-सूत्रमें आई हुई प्रायः उन सभी बातोंका लिखा है । अपनी बुद्धिकी कल्पनाते इस प्रन्थमें इसमें यथेष्ट विवेचन है जिनसे तस्वार्थ के जिला- एक अक्षर हूँ नहीं लिखा है। जाकै पापका भय सुओंको तस्वार्थ विषयका बहुत कुछ परिज्ञान हो होयगा, अर जिनेन्द्रकी आज्ञाका धारने वाला जाता है । टीकाकी प्रामाणिकताके विषयमें पण्डित होयगा सो जिनेन्द्र के आगमकी आज्ञा बिना एक सदासुखदासजीके निम्न मद्गार खास तौरसे अवर स्मरणगोचर नहीं करेगा लिखना तो बणे ध्यान देने योग्य हैं । जिनसं स्पष्ट है कि इस टीका ही कैसे ? भर जे सूत्र आज्ञा छोड़ि अपने मनकी में जो कुछ विशेष कथन किया गया है वह सब मुक्ति ते ही अपने अभिमान पुष्ट करन• योग्य राजवार्तिक, गौम्मटमार और त्रिलोकमार आदि अयोग्य कल्पना करि लिखें हैं ते मियादृष्टि सूत्र.प्रन्थोंका आश्रय लेकर किया गया है-पंडितजीने द्रोही अनन्त संसार परिभ्रमण करेंगे"। अपनी ओरसे उसमें एक अक्षर भी नहीं लिखा इस टीकाकं अन्तमें दी हुई प्रशस्तिमे एक है। वे तो मूत्र विरुद्ध लिखने वालेको मिध्यादृष्टि बातका और भी पता चलता है और वह यह कि और मूत्रद्रोही तक बतलाते हैं। और ऐसा करने यह टीका अकेले पण्डित सदासुखदासजीकी ही की बहुत ही ज्यादा अनुचित समझते हैं, और कृति नहीं है, किन्तु दो विद्वानोंकी एक सम्मिलित इसलिये ऐमे सूत्रकी आज्ञानुसार वर्तने वाले तथा कृति है । इम बातको सूचित करने वाले प्रशस्तिके पाप भयसे भयभीत विद्वानोंके द्वारा अन्यथा अर्थ पद्य निम्न प्रकार हैंके लिखे जाने की सम्भावना प्रायः नहींके बराबर है । पंण्डितजीके वे उद्गार इस प्रकार हैं: चौपाई प्रकाशकाना देश भाषा बच- "पूरब मैं गंगा तट धाम, निका श्री राजवार्तिक नाम अन्धका अल्प मेश अति सुंदर आरा तिस नाम । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थप्रकाशितः सदासुननी तामैं जिन चेत्यालय से, परमेष्ठीसहायनी अमराव जैन थे। मापने अपने अग्रवाल जैनी बहु बसें ॥ १३ ॥ मिता कीरतबन्दजीके सहयोगसे ही जैन सिद्धान्त का अच्छा मान प्राप्त किया था और पाप • बहुजाता तिन मैं जु रहाय, बड़े धर्मात्मा सबन थे तथा उस समय नाम तासु परमेष्ठि सहाय । पारामें अच्छे विद्वान समझ जाते थे। जैनग्रन्थमें रुचि बहु करे, उन्होंने साधर्मी भाई जगमोहनदासकी मिथ्या धरम न चित में धरै ॥ १४ ॥ तत्त्वार्थ विषयके जाननेकी विशेष रुचिको देखकर दोहा स्वपरहितके लिये यह 'अर्थप्रकाशिका' टीका सब से पहले पाँच हजार श्लोक प्रमाण लिली थी सो तत्त्वारथ सूत्रकी, और फिर उसे संशोधनाविके लिये जयपुर रची वचनिका सार । प्रसिद्ध विद्वान पं० सदासुखदासजीके पास भेजा नाम ज अर्थ प्रकाशिका, था। पण्डित सदासुखजीन संशोधन सम्पादनादि गिणती पाँच हजार ॥१५॥ के साथ टीकाको पल्लवित करते हुए उसे वर्तमान सो भेजी जयपुर विय, ११ हजार श्लोक परिमाणका रूप दिया है और इसी यह टीका प्रायः पण्डिन सदासुखजीको नाम सदासुख जाय। कृति समझी जाती है। सो पुरण ग्यारह सहस, करि भेजी तिन पास ॥१६॥ भक्त परिचय परमे इनना और भी साफ सवैया ध्वनित होता है कि पण्डित सदासुखजीकी कृतियों (भगवती आराधना टीका आदि) का उस समय अग्रवाल कुल श्रावक कीग्तचन्द, पारा जैन प्रसिद्ध नगरों में यथेष्ट प्रचार हो चुका जुआरे माँहि सुवास । था और उनकी विद्वत्ता एवं टोका शक्तिका सिका परमेष्ठी सहाय तिनके सुत, तत्कालीन विद्वानों के हृदय पर जम गया था। यही पिता निकट करि शास्त्राभ्यास ॥१७॥ कारण है कि उक्त पण्डित परमेष्ठीसहायजीको कियो ग्रंथ निज पर हित कारण, तत्त्वाथसूत्रकी टीका लिखने और उसे जयपुर लखि बहु रुचि जग मोहनदास। पण्डित जीके पास संशोधनादिके लिये भेजनेकी प्रेरणा मिली । इतना ही नहीं, बल्कि उसमें यथेष्ट सत्त्वारथ अधिगम सु सदासुख, परिवर्धन करनेकी अनुमति भी देनी पड़ी है। तभी रास चहुँ दिश अर्यमकाश ,॥ १८॥ पंडित सदासुखजी उस टीकाको दुगनेसे मी भ. इन पञ्चोंसे स्पष्ट है कि भारा निकासी पंडित पिक विस्तृत करनेमें समर्थ हो सके हैं। Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेट [येड, पापड, वीर-निवार • इसका सम्पादनादि करनेमें पंडित सवा सो जिनवानि प्रसाद, सुनजीका पूरे दो वर्षका समय लगा था । और यह विक्रम संवत १९१४ में वैसास शुखा दशमी विषयते भए निरिच्छुक ॥५॥ रविवार के दिन पूर्ण हुई थी। जैसा कि प्रशस्तिके मापका जन्म विक्रम संवत १८२२ में अथवा निम्न पपसे प्रकट है: उसके लगभग हुभा जान पड़ता है। क्योंकि आप संवत् उगणी से अधिक, को रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी टीका विक्रम सं० चौदह आदितबार ॥ १९२० की चैत कृष्णा चतुर्दशीको पूर्ण हुई है और उस समय उसकी प्रशस्तिमें मापने अपनी आयु सुदि दशमी वैसाखकी, · ६८ वर्षको प्रकट की है। आपकी जन्म भूमि जयपूरण किया विचार ॥३॥ पुर है । उस समय जयपुर में राजा रामसिंहका यह टीका अपने विषयकी स्पष्ट विवेचक होने राज्य था । कहा जाता है कि पं० सदासुखदासजी के साथ साथ पढ़नेमें बड़ी ही रुचिकर प्रतीत होती राज्यके खजांची थे और आपको जीवन-निर्वाहक है। इसीसे इसके पठन-पाठनका जैनसमाजमें लिये राज्यकी ओरसे ) रु. माहवार मिला काफी प्रचार है। . करते थे। इन्हींसे आपका और आपके कुटुम्बका ___ इस टीकाके प्रधान लेखक पंडित सदासुखजी बडी पालन-पोषण होता था । इस विषयमें एक किम्बतेरापन्थ आम्नायके प्रबल समर्थक थे। आप दन्ती इस तरहसे भी कही जाती है कि आपको विक्रमकी १९ वीं २० वीं शताब्दीके बड़े अच्छे जयपुर राज्यसे ८) २० माहवार जिस समयसे विद्वान् हो गये हैं। आपका जन्म खण्डेलवाल मिलना शुरू हुआ था,वह उन्हें बराबर उसी तरह जातिमें हुआ था और आपका गोत्र 'कासलीवाल' से मिलता रहा उसमें जरा भी वृद्धि नहीं हुई । था। आप डेडराजके वंशज थे और आपके पिता एकबार महाराजाने स्वयं अपने कर्मचारियों भादि का नाम दुलीचन्द था, जैसा कि अर्थ प्रकाशिका के वेतनादिका निरीक्षण किया,तब राजाको मालूम प्रशस्तिकी निम्न पंक्तियोंसे प्रकट है: हुआ कि राज्यके खजांचीके सिबाय, चालीस वर्ष के असेंमें सभी कर्मचारियों के वेतनमें वृद्धि हुई है देडराजके वंश माहि, --वह दुगुना और चौगुना तक हो गया है । इक किंचित ज्ञाता। परन्तु खजाचीके वही पाठ रुपया हैं । अब दुलीचन्दका पुत्र, जानकर राजाको बहुत कुछ आश्चर्य और दुःख कासलीवाल विख्याता ॥४॥ हुआ । राजाने पंडितजीको बुलाकर कहा कि मुझसे भूल हुई है जो आज तक भापके वेतनमें नाम सवासुख कहें, किसी तरहकी वृद्धि नहीं हो सकी । इतने थोड़ेसे मात्मसुखका बहु इच्छुक । खर्च में भापके इतने बड़े कुटुम्बका पालन-पोषण Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवलिया और पं०सदासुखजी कैप होना होगा ? उत्तरमें पंडितजीने कहा कि रूप प्रो कार्य पराबर चालू रहा है वह शायद ही भापकी कपास. सब हो जाता है। तब राजाने देखनको मिलता। बड़े. प्राग्रहसे कहा कि मामापको जो भारत हो सो मांगलें, मैं उसे पूरा कर दूंगा और चाजसे पंडितजीकी जीवन-घटनाओंका और कौटुभापको वेतन २०) रु० माहवार मिला करेगा। म्बिक जीवनका यद्यपि कोई परिचय उपलब्ध इतना सब होने पर भी परम संतोषी पण्डित नहीं है तो भी जो कुछ टीका पन्थोंमें दी गई सदासुखदासजीन कहा कि यदि आप मेरी प्रार्थना संक्षिप्त प्रशस्ति मादिसे जाना जाता है उससे पं० स्वीकार करें तो मैं निवेदन करूँ, इस समय मैं जीकी चित्तवृत्ति, उनकी सदाचारता, मात्म-निर्मरत्नकरण्ड श्रावकाचारको टोका लिख रहा हूँ, यता, अध्यात्मरसिकता, पिता और सची स्वयं अपनी इस अस्थायी पर्यायका कोई भरोसा धार्मिकता पद पद पर प्रकट होती है । आपका नहीं है और मुझे किसी चीजको कोई आकांक्षा जिनवाणीके प्रति बड़ा भारी स्नेह था, और उसकी नहीं है । अतः भाजस में पाठ घंटे के बजाय ६ देश देशान्तरोंमें प्रचार करनेकी आवश्यकताको घटे ही खजांचीका काय किया करूंगा और वेतन माप बहुत ही ज्यादा अनुभव किया करते थे। भी भाप मुझे ८) रु० की बजाय ६) २० मासिक इसलिये भापका अधिक समय शास्त्र स्वाध्याय, ही दे दिया करें। तब राजान कहा कि कलसे सामायिक, तत्त्ववितवन पठन-पाठन और प्रथोंके आप खजांचीका काय ६ घण्टे ही किया करें, अनुवादादि कार्योंमें ही व्यतीत होता था । रत्नपरन्तु वेतन यदि आप अधिक नही लेना चाहते करण्ड श्रावकाचारकी टीकाके अवलोकनस पापके तो वह ८) रु०स किसी तरह भी कम नहीं किया सैद्धान्तिक अनुभवका कितना ही पता चल जाता जा सकता। है और साथ ही भापकी विचार पद्धत्तिका भी बहुत कुछ ज्ञान हो जाता है। यद्यपि इस टोकामें यदि यह घटना सत्य हो; तो इससे पण्डित कहीं कहीं पर चरणानुयोगकं विषयको उसके जीकी संतोषवृत्तिका और धार्मिक साहित्यकं पात्रकी सोमास कुछ घटा बढ़ाकर लिखा गय है, निर्माणका कितना अधिक अनुराग प्रतीत होता जो प्रायः पण्डितजीकी उदामीन चित्तवृत्तिका है, इसे बतलाने की जरूरत नहीं रहती । यदि भट्टा परिणाम जान पड़ता है। फिर भी स्वामी समन्तरकीय प्रथाके खिलाफ तेरहपन्थ दि० जैनसमाज भद्रकं रत्नकरण्ड श्रावकाचारका यह महाभाष्य में स्थापित न होता और इस तरहसे खासकर पंडितजीके विशाल अध्ययन, विद्वता और कार्यजयपुर राज्यके विद्वान् दिगम्बर साहित्यको अनु- तत्परताकी ओर संकेत करता है । यदि भाज वादादिसे अलंकृत कर इसका प्रचार न करते तो दिगम्बर समाज के विद्वानोंमें जैनसाहित्य उद्धार दि० जैन समाजमें धार्मिक ग्रन्थों के पठन-पाठनावि एवं प्रचारको उन जैसी लगन हो जाय तो निस्सका और उनके ग्रंथोंके टीका-टिप्पणादिके निमोण- न्देह.कुछ वर्षों में ही बहुत कुछ ठोस साहित्यका Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Man [ड, पापड, पीर- विram निर्माण होकर संसारमें उसका प्रभर किया जा भनेक तमोत्तम प्रन्योंकी सुसम भाषा पनि सकता है। का की है, और अनेक नवीन ग्रंथ भी बनाएँ है, परन्तु अभी तक देशदेशान्तरोंमें उनका जैसा पण्डित सदासुखदासजीके एक प्रधान शिष्य प्रचार होना चाहिये था वैसा नहीं हुआ है। और थे। उनका नाम था पन्नासाखाजी संघी। आपका तुम इस कार्यके सर्वथा योग्य हो, तथा जैनधर्मके उक्त पंडितजीसे विक्रम सं० १९०१ से १९०७ के मर्मको भी अच्छी तरह समझ गये हो, पतएव मध्यवर्ती किसी समयमें साक्षात्कार हुआ था । गुरुदक्षिणामें मैं तुमसे केवल यही चाहता हूँ कि पपिडतजीके सदुपदेश एवं प्रभावसे संघीजीकी जैसे बने तैसे इन ग्रंथोंके प्रचारका प्रयत्न करो। विचवृत्ति पलट गई और जैनधर्मके प्रन्थोंके वर्तमान समयमें इसके समान पुरयका और धर्मअभ्यासको भोर उनका चित्त विशेषतया उत्कंठित की प्रभावनाका और कोई दूसरा कार्य नहीं है।" हो उठा। उन्होंने यह प्रविया की, कि मैं माजसे यह कहनेकी बावश्यकता नहीं, कि पण्डितजीके रात्रिको १० बजे प्रति दिन पंडितजीके मकान पर सुयोग्य शिष्य संघीनीने गुरु दक्षिणा देने में जरा पहुँच कर जैनधर्मके ग्रंथोंका अभ्यास एवं परि- भी माना कानी नहीं की । और आपने अपने शीखन किया फहँगा । जब संघीजी अपनी प्रतिज्ञा जीवनमें राजवार्तिक, उत्तर पुराण आदि पाठ के अनुसार रात्रिको १० बजे पंडितजीके मकान प्रन्यों पर भाषा वर्षानकाएँ लिखी हैं और पर पहुंचे तब पण्डितजीने कहा कि भाप बड़े घर २०००० हजार श्लोक प्रमाण विद्वज्जम बोधक' के हैं-सुखिया हैं-अतः आपसे ऐसे कठिन पण- नामक ग्रंथका निर्माण भी किया है । इसके सिवाय का निर्वाह कैसे हो सकेमा ? उत्तरमै संघीजीने सरस्वती पूजा भादि कुछ पुस्तकें पद्यमें लिखी हैं। उस समय अपने मुँहसे तो कुछ भी नहीं कहा अन्य साधर्मी भाइयोंकी सहायतामे आपने जयपुर किन्तु जब तक पंडित सदासुखजी जीवित रहे तब में एक "सरस्वती भवन" की स्थापना की थी तक आप बराबर नियम पूर्वक उसी समय उनके जिससे बाहरसं ग्रंथोंकी मांग माने पर प्रन्योंकी पास पहुँचते रहे । पंडितजीक सहयोगसे अाफ्ने प्रतिलिपि कराकर भेज देते थे । सस कार्यको कितने ही सिद्धान्त ग्रंथोंका अवलोकन किया और भाप पंडितजीकी अमानत समझने थे, और उस जैनधर्मके तत्वोंका मनन एवं परिशीलन किया। का जीवन पर्यंत तक निर्वाह करते रहे। · पंडित सदासुखदासजीने अन्त समवमें अपने यपि परिडत सदासुखदासजीके मरण-समय शिष्य संधीजीस कहा कि-"अवमें इस अस्थायी पर्यायको छोड़कर विदा होता हूँ। मैंने तथा मेरे 10 पाकासबी संदीका परिचय. 'विजय पूर्व पर्ती पंडित टोडरमलजी, मन्नालालजी और बोष मुनित प्रथमतगती मत्तानासे खिमा गया जयचन्द्रजी श्रादि विद्वानों ने असीम परिश्रम करके देखो-पृ. ३ . । Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्यप्रकाशित रिप-सदासुब्बी का ठीक ठीक बोध नहीं हो सका है। परन्तु रन- हे भगवति वेरे परसाद, करतश्रावकाचारकी प्रशस्तिसे हमनी बात पर मरण समै मति होहु विषाद । निश्चित है कि रस्नकररड भाषकाचारकी पबनिका पंडितजीको अन्तिम कृति है। यह विक्रम संवत् पंच परम गुरुपद करि डोक, १९२० में चैत्र कृष्ण चतुर्दशी के दिन पूर्ण हुई है। संयम सहित लहूँ परलोक ॥ १४॥ उस समय पंडितजीकी उम्र ६८ वर्षकी हो चुको थी। इसके बाद माप अधिकसे अधिक दो-चार इन पर्योसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि परिखत वर्ष ही जीवित रहे होंगे। रत्नकरण्ड प्रावकाचार सदासुखदासजी अपने समाधि मरणके लिये की पापकी यह टीका जैनशाखोंका विशेष अनु- कितने उत्सुक थे। जरूर ही उनका मरण समाधि भव प्राप्त कर लेनेके बाद लिखी गई है, इसी पूर्वक हुमा है और उसके प्रसादसे के निसन्देह कारण इसमें दिए हुए वर्णनसे पंडितजी, उनकी सद्गतिको प्राप्त हुए होंगे । चित्तवृत्तिका और सांसारिक देह भोगोंसे वास्तविक उदासीनताका बहुत कुछ मामास पंरित सदासुखजीने जो साहित्य सेवा की है, मिल जाता है। उसमें समाधि भादिका जो महत्व और अपने अमूल्य समयको जिनवाणी मध्ययन पूण पर्णन दिया है उससे पण्डितजीकी समाधि- अध्यापन और टीका कार्यमें बितानेका जो प्रबन मरण-विषयक जिज्ञासा एवं भावनाका भी कितना किया है वह सब विद्वानोंके द्वारा अनुकरणीय है। ही दिग्दर्शन हो जाता है। और भगवती आराधना संस्कृत-प्राकृतके जैनप्रन्थोंका हिन्दी भाषामें अनुकी टीकाके अन्तके निम्न दो पद्योंसे, जिनमें वादादि कर जो जैनसमाजका उपकार वे कर गये समाधि मरणकी आकांक्षा व्यक्त की गई है, मेरे हैं वह बड़ा ही प्रशंसनीय और पादरणीय है। उपयुक निष्कर्षकी पुष्टि होती है: इससे जैनसंसारमें भापका नाम अमर हो गया है। इस समय तक मुझे भापको कृतियोंका पता मेरा हित होनेको और, चला है । संभव है और भी किसी प्रथकी बच ___निका लिखी गई हो या कोई स्वतन्त्र ग्रंथ बनाया दीखे नाँहि जगतमें ठौर । गया हो। प्रस्तुत 'मर्थप्रकाशिका' टीका और उस याः भगवति शरण जुगही, रस्नकरएड श्रावकाचारकी टोकाके अतिरिक्त जिन मरण पाराधन पाऊँ सही ॥ १३ ॥ पांच कृतियोंका पता और चना है। इस प्रकार • मठसठ परसपुमायुके, बीते तुक पाधार । शेष भाषु तब गरवते, बाहु यही मम सार ॥१० १-भगवतो भाराधना टीका, संवत १९०८ में -मस्ति, त्या भावाचारदीका। भादों सुदी दोपजको पूर्ण हुई। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्येष्ठ, भाषाए, बीड विवाद २-पण्डित बनारसीदासकं लाहकसमयसार दिया था उसे कार्य में परिशत करनेका अपना टीका भी कर्तव्य समझेगा, और तदनुसार जैन प्रन्थों का अनेक भाषामों में अनुवादादि कर प्रचार ३-नित्यनियम पूजा संस्कृतची टीका। करनेका जहर काई संगठित प्रयत्न करेगा। ऐसा ४ अकलंक स्तोत्रंको टीका। करके ही वह अपने उपकारीके ऋणसे उऋण हो सकंगा।। ५-तत्त्वार्थसूत्रको लघु टीका। वीर सेवामन्दिर सरसावा पिछली चार टीकाओंके सामने न होनेके ता०५-५-१९४० कारण उनके विषयमें रचना संवत् और प्रशस्ति आदिका कोई ठीक परिचय नहीं मिल सका। यह लेख श्रीमूलचन्द किसनदासजी कापरिकाके माशा हे समाज पंडितजीके उपकारको स्मरण दिगम्बर जैन पुस्तकालय' सूरतसे शीघ्र प्रकाशित होने करता हुमा उनके सेवा भावका श्रादर्श सामने वाली 'मर्थप्रकाशिका' टीकाके लिये प्रस्तावनाके रूपमें रक्खेगा और जिनवाणीके प्रचारका जो सन्देश लिखा गया है। उन्होंने अपने शिष्य पंडित पन्नालालजी संघीको Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनियोंकी दृष्टि में बिहार लेखक-पंडित के० भुजवली शास्त्री, विद्याभूषण, स. "जैनसिद्धान्तभास्कर" ] इस महत्वपूर्ण प्रस्तुत विषयका मैं दो भारहे हैं। इतना ही नहीं, सम्मेदशिखर, पावापुर दृष्टियोंसे विचार करूँगा, जिनमें पहली और राजगृहादि स्थानों पर जैनियोंने अतुल दृष्टि पौराणिक और दूसरी ऐतिहासिक होगी। द्रव्य व्यय कर बड़े-बड़े आलीशान मन्दिर जैनियों की मान्यता है कि वर्तमानकालमें निर्माण किये तथा धर्मशालाएँ आदि बनवाई है भारतक्षेत्रान्तर्गत प्रार्यखण्डमें एक दूसरेसे दीर्घ और प्रतिवर्ष हजारोंकी संख्यामें समूचे भारतकालका अन्तर देकर स्व-पर-कल्याणार्थ चौबीस वर्षसे जेनी यात्रार्थ वहाँ जाते हैं। जिस बिहार महापुरुष अवतरित हुए, जिन्हें जैनी तीर्थकरके प्रांतमें अपने परमपूज्य एक-दो नहीं बीस तीर्थनामसे सम्बोधित करते और पूजते हैं । इन करने दिव्य तपस्याके द्वारा कर्म-आय कर मोर तीर्थङ्करोंमें १९ वें तीर्थकर श्रीमल्लिनाथ, २०वें लाभ किया है, वह पावनप्रदेश जनी मात्रके तीर्थकर श्रीमुनिसुव्रत, २१ वें वीर्यङ्कर श्रीनमि. लिए कैसा आदरणीय एवं रसापनीय है-यह नाथ एवं २४ वें तीर्थकर श्रीमहावीरकी जन्म- यहाँ कहनेकी आवश्यकता नहीं । इतना ही भूमि कहलानेका सौभाग्य इसी बिहार प्रान्तको कहना पर्याप्त होगा कि एक श्रद्धालु जैनीके लिए है। मल्लिनाथ और नमिनाथकी जन्मनगरी इस विहारका प्रत्येक कण, जो तीर्थहरों एवं मिथिला, मुनिसुव्रतकी राजगृह तथा महावीर. अन्यान्य महापुरुषोंके चरणरजसे स्पृष्ट हमा की वैशाली है। चौबीस तीर्थदरों में से है, शिरोधार्य तथा अमिनन्दनीय है। इसकी श्रीनमिनाथ और १ ले श्री ऋषभदेवको छोड़-प विस्तृत कीर्ति-गाथा जैन-प्रन्थों में बड़ी श्रद्धासे कर शेष २२ तीर्थकर इसी बिहारसे मुक्त हुए हैं " जिनमेंसे २० तीर्थहरोंने तो वर्तमान हजारी- प्रथम तीर्थकर भी ऋषभदेव इक्ष्वाकुवंशीय बाग जिलान्तर्गत सम्मेदशिखर ( Parshwan- त्रिय राजकुमार थे । हिन्दपुराणोंके अनुसार ath hill ) से मुक्तिलाम किया है और शेष दो ये स्वयम्भू मनुकी पांचवीं पीढ़ीमें हुए बतलाये में से महावीरने पावासे तथा वासुपूज्यने चम्पा- गये हैं । इन्हें हिन्दू ' एवं बौद्ध ' शास्त्राकार भी से । सम्मेदशिखर, पावापुर और चम्पापुर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और युगके प्रारम्भ में जैन-धर्म(भागलपुर ) के अतिरिक्त राजगृह, गुणावा, का संस्थापक मानते हैं । हिन्दू अवतारोंमें यह गुलजारबाग (पटना) जैसे स्थानोंको भी जैनी रखो, भागवत ५१.५. देखो, न्यायविन्दु अपने अन्यान्य महापुरुषोंका मुक्तिस्थान मानते भ०३। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ अनेकान्त [ज्येष्ठ-आषाद, पीर-निर्वाण ० २४६६ पाठवें माने गये हैं और सम्भवतः वेदोंमें भी एवं श्री नेमिनाथ भादि कतिपय वीर्यवर्टीका इन्हींका उल्लेख मिलबा है। इन्हीं ऋषभदेवके उल्लेख मानते हैं । माधुनिक खोजमें जैनियोंज्येष्ठ पुत्र सम्राट भरतके नामसे यह देश भारत- के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीरके पूर्ववर्ष कहलाता है। बीसवें तीर्थकर श्री मुनिसुव्रत- गामी २३वें तीर्थकर भगवान् पार्श्वनाथको नायके कालमें ही मर्यादा-पुरुष रामचन्द्र एवं सभी इतिहासवेत्ता सम्मिलिवरूपसे ऐतिहासिक लक्ष्मण हुए थे । श्रीकृष्ण २२३ तीर्थङ्कर श्री व्यक्ति स्वीकार कर चुके हैं, जो भगवान् नेमिनाथ के समकालीन ही नहीं, बल्कि इनके महावीरसे प्रायः ढाईसौ वर्ष पहले हुए थे । बाजजाद भाई थे। अब कई विद्वान भगवान् अतएव भाधुनिक दृष्टिसे एक विशेष विश्वसनीय नेमिनाथको भी ऐतिहासिक व्यक्ति मानने लगे जैन इतिहास ई० पूर्व नवमी शताब्दीसे प्रारम्भ हैं। गुजरातमें प्राप्त ई० पूर्व लगभग ११ वीं हुआ था यह निर्विवादरूपसे माना जा सकता शताब्दीके एक ताम्रपत्रके माधार पर हिन्दू है। प्रस्तु, यह विषयान्तर है। अब आइये प्रस्तुत विश्वविद्यालय बनारसके सुयोग्य प्रोफेसर डाक्टर विषय पर।। प्राणनाथ विद्यालंकार तो इन्हें ऐतिहासिक व्यक्ति जैनियोंकी दृष्टिमें बिहार' इस विषयपर स्पष्ट घोषित करते हैं। बल्कि प्रोफेसर प्राणनाथ- ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करता हुआ मैं सर्वजी का कहना है कि मोहोनजोदारो' से प्रथम अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीरको ही उपलब्ध पाँचहजार पूर्वकी वस्तुओं में कई शिलाएँ लँगा। भगवान महावीरका जन्म आजसं २५३८ भी हैं जिनमें से कुछ में 'नमो जिनेश्वराय साफ वर्ष पूर्व चैत्र शु० त्रयोदशीके शुभ दिन वर्तमान बंकित मिलता है। मुजफ्फरपुर जिलेके वसाढ़ नामक स्थानमें हुमा यद्यपि भगवान पार्श्वनाथकं पूर्वके तीर्थहरोंके था, जिसका प्राचीन वैभवशाली नाम वैशाली बस्तित्वको प्रमाणित करनेके लिये हमारे पास था। भगवान् महावीरके श्रद्धेय पिता नृप सिद्धार्थ सबल ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नही फिर भी थे। ये काश्यपगोत्रीय इक्ष्वाकु अथवा नाथ या जैन-प्रन्थोंके कथन एवं आजसे लगभग ढाई. ज्ञातवंशीय क्षत्रिय थे । इनका विवाह वैशालीके तीन हजार वर्ष पूर्व निर्मित अवशेष तथा लिच्छिवी क्षत्रियोंके प्रमुखनेता राजा घेटककी शिलालेखादि से शेष तीर्थकरोंके अस्तित्वका पुत्री प्रियकारिणी अथवा त्रिशलाके साथ हुमा पता अवश्य चलता है। पल्कि कई विद्वान् था। राजा चेटक-जैसे संभ्रान्त राजवंशसे सिद्धार्थरामायण, महाभारतादि प्रन्थों में ही नहीं किन्तु यजुर्वेदादि सुप्राचीन वैदिक साहित्यमें जैन-धर्म का वैवाहिक सम्बन्ध होना ही इनकी प्रतिष्ठा ३ देखो, 'इण्डियन हिस्टारिकल क्वाटली' माग ७, न० २॥ और गौरवका ज्वलन्त निदर्शन है। जैनप्रन्थों में ४ देखो, कैकालीटोले वाला मथुरा-जैनस्तूप । ६ देखो, 'संक्षिप्त जैन इतिहास' प्रथम भागकी प्रस्तावना ५देखो, खण्डगिरि-उदयगिरि-सम्बन्धी हाथी-गुफाका और 'वेद पुराणादि ग्रन्थोंमें जैनधर्मका अस्तित्व' । ७देखो, 'उत्तरपुराण' पृ६०५ । शिलालेख। Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वष ३, किरण ८-९] जैनियों की दृष्टि में बिहार ५२३ - सिद्धार्थ नाथवंशके मुकुटमणि कहे गये हैं। जैनसंघ इसी नामसे अधिक परिचित था। यह भाधुनिक साहित्यान्वेषणसे प्रकट हुआ है कि निर्विवाद बात है कि भगवान महावीरके समय शात्रिक-क्षत्रियोंका निवास स्थान प्रधानतया वैशालीमें जैनियोंकी संख्या अत्यधिक थी। वैशाली (बसाढ़), कुण्डग्राम एवं वणियप्रामोंमें चीनयात्री हुएनस्वांग (सन् ६३५) के भारतयात्रा था । साथ ही, यह भी ज्ञात हुआ है कि नाथ- कालतक जैनियोंको संख्यामें वहां कमी नहीं हुई वंशीय क्षत्रिय कुण्ड प्रामसे ऐशान्य दिशामें अब थी, क्योंकि उन्होंने अपने यात्राविवरणमें स्पष्ट स्थित कोल्लागमें अधिक संख्यामें रहते थे। लिखा है कि वैशाली-राज्यका घेरा करीब एक वैशाली के बाहर निकट ही कुण्डमाम वर्तमान हजार मीलका था, वहाँकी जलवायु अनुकूल थी, था, जो संभवतः आजकलका वसुकुण्ड गाँव है। लोगोंका आचरण पवित्र और श्रेष्ट था, लोग जैनप्रन्थोंके कथनानुसार भगवान महावीरका धर्मप्रेमी थे, विद्याकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, और जन्म यही पर हुआ था । कोई कोई विद्वान जैनी बहुत सँख्यामें मौजूद थे । तीस वर्षकी कोल्लागको ही महावीर का जन्मस्थान बताते हैं। अवस्थामें भगवान महावीरने संसारसे विरक्त हो परन्तु यह बात दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों अपने आत्मोत्कर्षको साधने एवं संसारके जीवोंको सम्प्रदायोंकी मान्यताके प्रतिकूल है। नाशवंशीय सन्मार्गमें लगानेके लिये सम्पूर्ण राज्यवैभवको क्षत्रिय वजिप्रदेशीय प्रजातन्त्रात्मक राजसंघमें ठुकराकर जंगलका रास्ता लिया । दीन दुखियोंकी सम्मिलित थे । कौटिलीय अर्थशास्त्रसे स्पष्ट है प्रकार उनके उदार हृदयमें घर कर गयी और कि, प्रजातन्त्रीय राजसंघमें क्षत्रियकुलोंके मुखि. पकुलोक मुखि. उनकी सञ्ची संवा बजाने के लिये वे दृढप्रतिज्ञ याओंकी कौंसिल मुख्यकार्यकी थी और इस होगये । विशेष सिद्धिके लिये विशेष तपस्याकी कौंसिल के सदस्योंका नामोल्लेख राजाकं रूपमें होता था । यही कारण है कि भगवान महा. आवश्यकता होती है, यह बात निर्विवाद सिद्ध वीरके पिता सिद्धार्थकुंडपुरके राजा कहलाते थे। है। इसी लिये महावीरको बारह वर्षों तक घोर तपश्चरण करना पड़ा। क्योंकि तपश्चरण ही नाथवंशीय क्षत्रिय मुख्यतः जैनियोंके २३वें आन्तरिक मलको छाँटकर आत्माको शुद्ध, सुयोग्य तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथके अनुयायी थे। बाद एवं कार्यक्षम बना सकता है। इस दुर्धर तपश्चरणको जब भगवान महावीरके दिव्य कर-कमलोंमें की कुछ घटनामोंको ज्ञातकर रोंगटे खड़े होजाते जैनधर्मका शासनसूत्र आया तब वे नियमानुसार , र हैं। परन्तु साथ ही साथ आपके असाधारण उनके उपासक बनगये। बौद्धग्रन्थोंमें भगवान् धैर्य, अटल निश्चय, दृढ़ पात्मविश्वास, अगाध महावीर 'निग्गंथनाथपुत्त' के नामसे ही अधिक साहस एवं लोकोत्तर क्षमाशीलताको देखकर प्रसिद्ध हैं। इसका कारण यह है कि उस जमानेमें भक्तिसे मस्तक झुक जाता है और मुख स्वयमेव ८ देखो, 'कोहिस्य-रुषशास' का मैसूर संस्करण पूछ ४५५ ९ देखो, मिसेज स्टिबेन्सन का 'हार्ट बाफ निम्म' (लंडन) १० देखो, 'बंगाल विहार उड़ीसाके प्राचीन जैनस्मारक पर Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ज्येष्ठ-अषाढ़, वीर-निर्वाण सं० २४६६ स्तुति करने लग जाता है। बारह वर्षों के उप यथार्थ वस्तुस्थितिका बोध कराया, तत्वको तपश्चरणोंके बाद वैशाख शु० दशमी को जृम्भक समझाया, भूनें दूर को, कमजोरियां हटाई, गांवके निकट, ऋजुकूला नदीके किनारे सालवृक्षके आत्मविश्वास बढ़ाया, कदामह दूर किया, नीचे केवल ज्ञान अर्थात सर्वज्ञज्योतिको वे प्राप्त पाखण्डको घटाया, मिथ्यात्व छुड़ाया, पतितोंको हुए । इस प्रकार मुक्तिमार्गका नेतृत्व ग्रहण करने- उठाया, अत्याचारोंको रोका, हिंसाका घोर विरोध के जब भाप सर्वप्रकारसे उपयुक्त हुए तब जन्म- किया, साम्यवादको फैलाया और लोगोंको जन्मान्तरमें संचित अपने विशिष्ट शुभ संकल्पा. स्वावलम्बी बनानेका उपदेश दिया जात होता नुसार महावीरने लोकोद्वार के लिये अपना विहार है कि आपके विहारका प्रथम स्थान राजगृह के (भ्रमण ) प्रारम्भ किया । संसारी-जीवोंको निकट विपुलाचल और वैभार पर्वत आदि पंच सन्मार्गका उपदेश देने के लिये लगभग ३० वर्षो पहाड़ियोंका पुण्यप्रदेश था। उस समय राजगृहमें तक प्रायः समग्र भारतमें भविश्रान्त रूपसभापका शिशनागवंशका प्रतापी राजा श्रेणिक या बिम्बविहार होता रहा। खासकर दक्षिण एवं उत्तर सार राज्य करता था । श्रेणिक ने भगवान्की परिविहारको यह लाभ प्राप्त करनेका अधिक सौभाग्य पदों में प्रमुख भाग लिया है और उसके प्रभों पर प्राप्त है । विद्वानोंका कहना है कि इस प्रदेशका 'विहार' यह शुभ नाम महावीर एवं गौतम बुद्ध के बहुत से रहस्योंका उद्घाटन हुआ है। श्रेणिककी विहारकी ही चिरस्मृति है। जहाँ पर महावीरका रानी चेलना भी वैशालीके राजा चेटककी पुत्री थी। इसलिए वह रिश्तेमें महावीर स्वामीको शुभागमन होता था, वहाँ पशु-पक्षी तक भी मौसी होती थी। जैन ग्रन्थोंमें राजा श्रेणिक भाकृष्ट होकर आपके निकट पहुँच जाते थे। मापके पास किसी प्रकारकं भेद-भावकी गुञ्जायश भगवान महावीरकी सभाओंके प्रमुख श्रोताके रूप में स्मरण किये गये हैं। हाँ, एक बात और है नहीं थी। वास्तवमें जिस धर्ममें इस प्रकारकी और वह यह है कि बौद्ध ग्रन्थोंमें विम्बसार उदारता नहीं है वह विश्वधर्म-सार्वभौमिक-होने गौतम बुद्धके एक श्रद्धालु भक्तके रूपमें वर्णित हुए का दावा नहीं कर सकता । भगवान् महावीरकी हैं । प्रारम्भावस्थामें बिम्बसारका बुखानुयायी महती सभामें हिंसक जन्तु मी सौम्य बन जाते थे होना जैनग्रंथ भी स्वीकार करते हैं। अत: बहुत और उनकी स्वाभाविक शत्रुता भी मिट जाती कुछ सम्भव है कि बिम्बसार पहले गौतमबुद्धका थी। महावीर अहिंसाके एक अप्रतिम अवतार ही भक्त रहा हो और पीछे भगवान महावीरकी वजह थे. इस बातको स्वर्गीय बाल गङ्गाधर तिलक, से जैन धर्ममें दीक्षित हो गया हो। महात्मा गांधी और कवीन्द्र रवीन्द्र जैसे जैनेतर विद्वानों ने भी मुक्तकण्ठसे स्वीकार किया है। ११ देखो, 'भनेकान्त' वर्ष १ कि. १ में प्रकाशित और फिर भगवान महावीरने अपने विहारमें असंख्य स्वतन्त्ररूपसे मुद्रित मुख्तार श्रीजुगलकिशोरका 'भगवान् महावीर प्राणियों के प्रज्ञानान्धकारको दूर किया, उन्हें और उनका समय' शीर्षक निबन्ध । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ८-९] जैनियों की दृष्टिमें बिहार एक दृष्टि से विहारको यदि जैन-धर्मका उद्गम पांचों जैन धर्मावलम्बी सिद्ध होते हैं। लिखित स्थान माना जाय तो भी कोई ऐसा घोर विरोध प्रन्थों में ये सभी शासक धर्मात्मा, वीर एवं राजनहीं दिखता। क्यों कि इस समय जैन धर्मका जो नीतिपटु कहे गये हैं। इन राजाओंमें खासकर कुछ मौलिक सिद्धान्त उपलब्ध है, वह भन्तिम श्रेणिक या विम्बसारको जैनथोंमें प्रमुख स्थान तीर्थकर भगवान् महावीरके उपदेशका ही सार प्राप्त है, यह बात मैं पहले ही लिख चुका हूँ। समझा जाता है। हाँ, यह बात अवश्य है कि कुणिक या अजातशत्रु भी अपने समयका एक आपका सिद्धान्त अपने पूर्ववर्ती शेष तेईस तीर्थंकरों प्रख्यात प्रतापी राजा था । इसने बौद्ध धर्म से के सिद्धान्तकी पुनरावृत्ति मात्र है । जैनियोंकी यह असन्तुष्ट होकर जैनधर्मको विशेषरूपसे अपनाया दृढ श्रद्धा है कि अपने वन्दनीय चौबीस तीर्थङ्करों था। मालूम होता है कि इसीलिये बौखग्रंथोंमें यह के मौलिक उपदेश में थोड़ा भी अन्तर कभी नहीं दुष्कर्मों का समर्थक एवं पोषक कहा गया है। रहा है। ऐसी दशामें विज्ञ पाठक स्वयं विचार कर भगवान् महावीर का निर्वाण इसीके राज्य-कालमें सकते हैं कि जैनियोंकी दृष्टि में विहार कितना हुआ था । परन्तु एक बात जरूर है कि इस महत्वपूर्ण अग्रस्थान रखता है । अब मैं यहाँ पर कुणिक या अजातशत्रुके राज्याधिकारी होते ही संक्षेपमें इस बातका दिग्दर्शन करा देना चाहता हूँ इसका व्यवहार अपने पिता श्रेणिकके प्रति बुरा होने कि भगवान महावीरके उपरान्त इस विहार में लगा था। जैनग्रंथ कहते हैं कि पूर्व वैरके कारण शासन करनेवाले भिन्न भिन्न राजवंशोंका जैन- अजातशत्र अपने पिताको काठके पिंजरे में बन्दकर धर्मसे कहाँवक सम्बन्ध रहा है। उसे मनमाना दुःख देने लगा था। किन्तु पौद्ध शिशुनागवंश-ई० पूर्व छठी शताब्दी मे ग्रन्थोंसे पता चलता है कि इसने बुरा कार्य देवदत्त मगधराज्य भारतमें सर्वप्रधान था । इस प्रमुख नामक एक बौद्ध-संघ-द्वेषी साधुके पहकानेसे किया था। राज्यके परिचयसे ही भारतका एक प्रामाणिक इतिहास प्रारम्भ होता है । उस समय यहाँक नन्द-वंश-सर विन्सन्टस्मिथ, एम० ए० का कहना है कि नन्द राजा ब्राह्मण धर्मके द्वेषी शासनकी बागडोर शिशुनागवंशीय वीर क्षत्रियोंके पार जैनधर्मके प्रेमी थे। कैम्ब्रिज हिस्ट्री भी हाथमें थी। इस वंशके राजाओंने ई० पूर्व ६४५ इस बातका समर्थन करती है। नव नन्दोंके से ई० पूर्व ४८० तक यहां पर राज्य किया है। । मन्त्री तो निस्सन्देह जैनधर्मानुयायी थे । महाउत्तरपुराण, आराधना-कथाकोश और श्रेणिक- पनका मन्त्री कल्पक था, इसीका पुत्र परवती चरित्र आदि जैन ग्रंथोंसे इस वंशके शासकों- नन्द का मन्त्री रहा । अन्तिम नन्द सकल्व में से (१) उपश्रेणिक, (२) श्रेणिक (विम्बसार) १२ देखो, विशेष परिचय के लिये 'सक्षिप्त न इतिहास (३)कुणिक (अजातशत्रु),(४)(दर्शक, (५) उदयन ये माग २, खण्ड २ । १३ देखो, 'मली हिस्ट्री आफ इण्डिया' Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ज्येष्ठ-अषाढ़, वीर-निर्वाण सं० २४६६ - अथवा धननन्द था । इसका मन्त्री शकटार सी० एम० वर्डवुड और श्रीयुत स्वर्गीय जैन धर्मानुयायी था, जो अन्त में मुनि होगया काशीप्रसाद जायसवाल प्रमुख हैं।" ईसा की था । ५ वीं शताब्दी तकके प्राचीन जैन-प्रन्थ एवं बाद इसके पुत्र स्थूल भद्र और श्रीयक थे। स्थूल के शिलालेखों का कथन है कि जब उत्तरभारतभद्र जैन मुनि होगये थे और श्रीयक को मन्त्री में बारह वर्षोंका घोर दुर्भिक्ष पड़ा था तब पद मिला था। इसीका अपर नाम सम्भवतः चन्द्रगुप्त अन्तिम श्रुत केवली श्री भद्रवाहुके राक्षस था। यद्यपि उस समय भारतमें घननन्द साथ दक्षिणकी ओर चला गया और वर्तमान सबसे बड़ा राजा समझा जाता था फिर भी इसमें मैसूर राज्यान्तर्गत श्रवणबेल्गोल में-जहाँ अब इतनी योग्यता नहीं थी कि यह इतने विस्तत तक उसके नामकी यादगार है-मुनि के तौर पर राज्यको समुचित रीतिस संभाल लेता। फलतः रहकर अन्तमें वहीं पर वह उपवासपूर्वक स्वर्गाउधर कलिंगको ऐरवंशके एक राजाने इस सीन हुआ। श्रवणबेल्गोलकी स्थानीय अनुजीत लिया। इधर चाणक्यकी सहायतासे श्रुति भी भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तका सम्बन्ध चन्द्रगुप्त ने इसपर आक्रमण कर दिया। अन्त , - जोड़ती है। इतना ही नहीं; अनुश्रुति द्वारा श्रवणमें ई० पूर्व ३२६ में नन्द-वंशकी इतिश्री होगई। बेल्गोलकं साथ इन दोनोंका भी सम्बन्ध जुड़सा है। श्रवणबेल्गोलके दो पर्वतों में से छोटेका सर स्मिथके कथनानुसार इसने ही जैनियोंके नाम 'चन्द्रगिरि' है जो कि चन्द्रगुप्त नामक तीर्थ पंचपहाड़ीका निर्माण पटनामें कराया था। ' किसी महान व्यक्तिका स्मृति चिन्ह है। इसी पर मौर्य-चंच-जैन-साहित्य और शिला. एक गुफा भी है जिसका नाम 'भद्रबाहु' गुफा है । लखोंसे मौर्यसम्राट् चन्द्रगुप्त जैन-धर्मका परम- इसी पर्वत पर एक सुन्दर प्राचीन मन्दिर भी भक्त प्रमाणित होता है । इतिहास-लेखक दीर्घ- है, जिसका नाम 'चन्द्रगुप्तवस्ति' है। काल तक इस बात पर विश्वास करनेको तैयार सम्राट चन्द्रगुप्त का उत्तराधिकारी बिन्दुसार नहीं हुए। परन्तु अब इधर कुछ वर्षोंसे ऐति भी परिशिष्ट पर्व भादि जैन प्रन्थों से जैन धर्मा. हासिक विद्वानोंने बहुमतसे चन्द्रगुप्तका जैन वलम्बी मिद्ध होता है । जैन ग्रन्थों में इसका धर्मानुयायी होना स्वीकार कर लिया है। इन विद्वानोंमें मि० विन्सेन्ट ए० स्मिथ, मि० ई० दूसरा नाम सिंहमन मिलता है। बिन्दुसार अपने श्रद्धेय पिता के समान बड़ा प्रतापी था। इसकी थामस मि०विल्सन, मि० बी०लुईस राइस, स० विजयों का पर्ण वृत्तान्त उपलब्ध होने पर निस्सइम्साइक्लोपीडिया आफरिलीजन, मि० जार्ज न्देह इसे भी चन्द्रगुप्त और अशोक जैसे १४ देखो, 'भाराधना कथा कोश' भाग ३, पृष्ठ ७८-८१ । सम्राटोंकी श्रेणी में अवश्य स्थान मिल सकता है। १५ देखो, 'हिस्ट्री एण्ड लिटरेचर माक जैनिकम'। १६ देखो, 'मौर्य साम्राज्य के जैन वीर' पृष्ठ। ११८-१४८ । Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण] जैनियों की रष्टि में विहार बैनपंथ भी भाचार्य चाणक्यको सम्राट् बिन्दुसार श्रेणिक (बिम्बसार) और उसके पुत्र कुणिक का प्रधानमंत्री प्रकट करते हैं। बिन्दुसारके (अजातशत्रु ) के नामोंके साथ बनाई गयी है। स्वर्गस्थ होने पर ई० पूर्व २७२ में इसका पुत्र पर अशोकके २२ वें वर्षकी. 'भावरा' की प्रास्थिमें अशोक राज्यारूढ़ हुआ। कई विद्वानोंका मत है जिसमें उसके बौद्ध होनेके सष्ट प्रमाण हैं, उसकी कि सम्राट अशोस्ने अपनी प्रशस्तियोंमें जो पदवी केवल 'पियदसि' पायी जाती है, 'देवानाअहिंसा, सत्य, शील आदि गुणों पर जोर दिया पिय' नहीं। इसी बीचमें बह जैनसे बौख हुमा उससे प्रतीत होता है कि वह स्वयं जैनधर्मा- होगा । पर आजकल बहुत मत यही है कि वलम्बी रहा हो तो आश्चर्य नहीं। प्रो० कनका अशोक बौद्ध था। (जैन इतिहासकी पूर्व पीठिका) कहना है कि 'अहिंसाके विषयमें अशोकके जो जैनियों की वंशावलियों और अन्य अन्योंमें नियम हैं वे बौद्धोंकी अपेक्षा जैनियोंके सिद्धान्तों उल्लेख है कि अशोकका पौत्र 'सम्पति' था, से अधिक मिलते हैं। जैनग्रंथों में इसके जैन होनेका उसके गरु 'सहस्ति' प्राचार्य थे और वह जैनप्रमाण भी स्पष्ट उपलब्ध है। कवि कल्हणकी धर्मका बड़ा प्रतिपालक था। उसने 'फ्यिदसि' के 'राजतरंगणी' में अशोक द्वारा काश्मीरमें जैनधर्म- नामसे बहुतसी प्रशस्तियाँ शिलाओं पर का प्रचार किये जानेका वर्णन है। यही बात अंकित करायी थी । इस कथनके आधार पर अबुलफजलको 'आइने अकबरीसे भी विदित प्रो. पिशेल और मि० मुकर्जी जैसे विद्वानोंका होती है। कुछ विद्वानोंका मत है कि अशोक मत है कि जो शिलाप्रशस्तियाँ अब अशोकके पहले जैनधर्मका उपासक था, पश्चात बौद्ध नामसे प्रसिद्ध हैं, वे सम्भवतः 'सम्पति' ने होगया था। इसका एक प्रमाण यह दिया लिखवायी होंगी । पर सरविन्सेन्ट स्मिथकी जाता है कि अशोक के उन लेखोंमें जिनमें उसके राय इसके विरुद्ध है । वे उन सब लेखोंको स्पष्टतः बौद्ध होनेके कोई संकेत नहीं पाये जाते अशोकके ही प्रमाणित करते हैं। अशोकके बल्कि जैन सिद्धान्तोंके ही भावोंका आधिक्य है, समयमें सम्प्रति युवराज था और उसीने अपने राजाका उपनाम 'देवानापिय पियदसी' पाया जाता अधिकारसे अशोकको राजकोषमें से बौद्धहै। देवानां पिय' विशेषतः जैनप्रन्थोंमें ही राजा- संघको दान देनेका विरोध कर दिया था। की पदवी पायी जाती है। श्वेताम्बरी 'उवाई' सम्राट कुनालके शासनमें भी शासन-सूत्र उसी (औपपातिक ) सूत्रप्रन्थोंमें यह पदवी जैन राजा के हाथ में था । दशरथ के समय में भी वही वास्तविक शासक रहा । यही कारण है कि बहुल१७ देखो, 'राजाविलकथे' (कन्नड़) १८ देखो, 'य: शान्तजिनो राजा प्रयन्तो जिनशासनम्। से प्रन्थोंमें सम्प्रतिको ही अशोकका उत्तरा. शुष्कलेऽत्र वितस्ताको तस्तार स्तूपमंडले ॥०१ धिकारी लिख दिया है । जैन-साहित्यमें सम्पति१९ देखो, 'मली कंथ भाफ अशोक', थामख-कृत। का वही स्थान है जो बौख-साहित्यमें अशोक Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ भनेकान्त [येष्ठ-प्रवाह, वीर-निर्वाण सं० २४६६ का । उसने अपने प्रियधर्म को फैलाने के लिए यही संवरण करना पड़ता है। यह बात निर्विवाद बहुत प्रबल किया था। परिशिष्ट पर्वके कय- सिद्ध है कि राजगृह, पाटलिपुत्र भादि पुरातन मानुसार सम्प्रतिने अनार्य देशोंमें भी जैन-धर्म स्थानोंसे जैनधर्मका बहुत पुराना अभेद सम्बन्ध का प्रचार किया था। पानशाला-निर्माण आदि है। १९३७ के फरवरी महीनेमें पटना जंक्सनसे अनेक लोकोपकारक कार्य भी जैनधर्मके प्रचार एक मीलकी दूरी पर लोहनीपुर मुहल्लेमें जो दो में सम्प्रतिके पर्याप्त सहायक हुए हैं। दिगम्बर जैन मूर्तियाँ ग्वोदते वक मिली हैं उनके __वृहस्पतिमित्रको जीतकर मगधको वशमें लाने सम्बन्धमें पुरातत्वके अनन्य मर्मज्ञ स्वर्गीय डा. वाला सम्राट् खारवेल भी कट्टर जैन-धर्मावलम्वी काशीप्रसाद जायसवालका कहना है कि भारतथा। सारखेलने जैनधर्मकी बहुत बड़ी सेवा की वर्षमें आजतककी उपलब्ध मूर्तियोंमें ये सबसे थी। हाथीगुफा वाले शिलालेखमें खारवेलको प्राचीन हैं । जायसवाल महोदय इन मूर्तियोंको 'धर्मराज' एवं 'मिथुराज' कहा गया है। कलिंगके ईसासे ३०० वर्ष पूर्वकी मौर्यकालीन मानते हैं। कुमारी पर्वतपर खारवेल और उसकी रानीने कुलहा पहाड़ (हजारी बाग) श्राक्क पहाड़ अनेक मन्दिर तथा विहार बनवाये थे। खासकर (गया), पचार पहाड़ ( गया ) आदि स्थानों की सम्राट्के द्वारा निर्मित वहाँकी गुफाओंका मल्य खोज की बड़ी आवश्यकता है। संभव है इन अत्यधिक है'। स्थानोंकी खोजसे कुछ नयी बातें इतिहासको उपलब्ध हों। कुछ विद्वानोंका खयाल है कि कुलहा पादके विहारमें शासन करनेवाले गुप्तवंश पहाड़ भगवान् शीतलनाथ तीर्थकर की तपोभूमि मादि अन्यान्य राजाओंका जैनधर्मसे क्या संबंध रहा, इस बात को खुलासा करनेसे लेखका कलेवर विशेष बढ़ जायगा। इसलिये अपनी इस इच्छाका २२ देखो, 'जैन ऐन्टीकेरी' भाग ३, ने० १४१७-१८ २३ देखो, 'दिगम्मवरीय जैन गइरेक्री।' २० देखो, सत्यकेतु विद्यालहरका 'मौर्यसाम्राज्य का इतिहास। २१ देखो, विशेष विवरणके लिये 'सविप्तजैनइतिहास' भाग खंड। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह-परिमाण-बतके दासी-दास गुलाम थे [ लेखक-श्री पण्डित नाथूराम प्रेमी ] असारमें स्थायी कुछ नहीं । सभी कुछ सुवर्णादि । षण्ण धान्यं ब्रीद्यादि । कुप्प "परिवर्तनशील है। हमारी सामाजिक व्य- कुप्यं वस्त्रं । भण्ड भाण्डशन्देन हिंगुमरिवस्थाओंमें मी बराबर परिवर्तन होते रहते हैं, चादिकमुच्यते । द्विपदशब्देन दासदासीयद्यपि उनका ज्ञान हमें जल्दी नहीं होता। भृत्यवर्गादि । चउप्पय गजतुरगादयः जो लोग यह समझते हैं कि हमारी सामा. चतुष्पदाः । जाणाणि शिविकाविमानादिकं जिक व्यवस्था अनादिकालसे एक-सी चली आ यानं । सयणासणे शयनानि भासनानि च ।" रही है, वे बहुत बड़ी भूल करते हैं। वे जरा गह- अर्थात-खेल, वास्तु (मकान), धन (सोनाराईसे विचार करके देखें तो उन्हें मालूम हो जाय कि परिवर्तन निरन्तर ही होते रहते हैं, चांदी), धान्य (चावल आदि), कुप्य (कपड़े), हरएक सामाजिक नियम समयकी गतिके साथ भाण्ड (हींग मिर्चादि मसाले), द्विपद (दोपाये कुछ न कुछ बदलता ही रहता है। दास-दासी) चतुष्पद (चौपाये हाथी, घोड़े आदि) उदाहरणके लिए इस लेखमें हम दास-प्रथा यान (पालकी विमान आदि), शयन (विछोने की चर्चा करना चाहते हैं। प्राचीनकालमें सारे और आसन ये बाह्य परिप्रह हैं। देशोंमें दास-प्रथा या गुलाम रखनेका रिवाज · लगभग यही अर्थ पण्डित भाशाधरजी था। मारतवर्षमें भी था । इस देशके अन्य और आचार्य अमितगतिने भी अपनी टीकाओं प्राचीन ग्रन्थों के समान जैन-ग्रन्थोंमें भी इसके में किया है। इन दसमेंसे हम अपने पाठकोंका अनेक प्रमाण मिलते हैं। ध्यान द्विपद और चतुष्पद अर्थात दोपाये और जैनधर्मके अनुसार बाह्यपमिहके दस भेद हैं- चौपाये शब्दोंकी ओर खींचना चाहते हैं। ये बाहिरसंगा खेतं दोनों परिग्रह हैं । जिस तरह सोना, चांदी, वत्थं धणधण्णकुप्यभण्डानि । दुपय-चउप्पय-जाणा मकान, वस्त्र आदि चीन मनुष्यकी मालिकी णि वेव सयणासणे यहा १९१९ समझी जाती है, इसी तरह दोपाये और -भगवती आराधना चौपाये जानवर भी। चौपाये तो खैर, अब भी इसपर श्रीअपराजितसूरिकी टीका देखिए- मनुष्य की जायदाद में गिने जाते हैं, परन्तु पूर्व "बाहिरसंगा बाबपरिग्रहा: । खेतं कालमें दास-दासी भी जायदादके अन्तर्गत कर्षणाधिकरणं । वत्वं वास्तु-गृहपणं थे। पशुभोंसे उनमें यही भिन्नता थी कि उनके Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ज्येष्ठ-अषाद, वीर-निर्वाण सं० २४६६ %3 चार पांव होते हैं और इनके दो। पांचवें परिग्रह (Slave) है। इस समयके नौकरका वो स्वतन्त्र त्याग व्रतके पालनमें जिस तरह और सब व्यक्तित्व है। वह पैसा लेकर काम करता है, चीजोंके छोड़नेकी जरूरत है उसी तरह इनकी गुलाम नहीं होता। कौटिलीय अर्थशास्त्रमें गुलाम थी। परन्तु शायद इन द्विपदोंको स्वयं छूटनेका के लिये 'दास' और नौकर के लिये 'कर्मकर' शब्दोंअधिकार नहीं था। का व्यवहार किया गया है। दास पासियोंका स्वतन्त्र व्यक्तित्व कितना था, अनगारधर्मामृत अध्याय ४ श्लोक १२१ की इसके लिए देखिए टीकामें स्वयं पं० आशाधरने दास शब्दका अर्थ सचिता .पुणगंथा किया है--"दासः क्रयक्रीतः कर्मकरः ॥ वति जीवे सयं च दुखंति । अर्थात् खरीदा हुआ काम करने वाला 1 पं० पावं च तष्णिमि राजमल्लजीने लाटीसंहिताके छठे सर्गमें परिगिलं तस्स से होई ॥१९६२ लिखा है"सचित्ता पुणगंथा वधंति जीवेगंथा परिग्रहाः दासकर्मरता दासी दासी दास गोमहिण्यादयो घ्नन्ति जीवान् ___ क्रीता वा स्वीकृता सती। . स्वयं च इखिता भवन्ति । कर्मणि नियुज्य तत्संख्या व्रतशुद्ध्यर्थ मानाः कृष्यादिके पापं च स्वपरिगृहीतजीव कर्तव्या सानतिक्रमात् ॥१५०॥ छतासंयमनिमिर्च तस्य भवति ।" यथा दासी तथा दासः ....." -विजयोदया टीका अर्थात्,-दास-कर्म करने वाली दासियाँ अर्थात्-जो दासी-दास गाय-भैस आदि. चाहे वह ग्वरीदी हुई हों और चाहे स्वीकार की सचित्त ( सजीव ) परिग्रह हैं वे जीवोंका घात हुईं. उनकी संख्या भी व्रतकी शुद्धिके लिये बिना करते हैं और खेती आदि कामों में लगाये जाने अतिक्रमके नियत कर लेनी चाहिये । इसी तरह पर स्वयं दुखी होते है। इसका पाप इनके स्वीकार दासों की भी। करने वाले या मालिकोंको होता है। क्योंकि इससे मालूम होता है कि काम करने वाली मालिकोंके निमित्तसे ही वे जीव-वधादि करते हैं। दासियाँ खरीदी जाती थीं और उनमें से कुछ ___इससे स्पष्ट हो जाता है कि उनका स्वतन्त्र स्वीकार भी करली जाती थी । स्वीकृताका अर्थ व्यक्तित्व एक तरहसे था ही नहीं, अपने किये हुए शायद रखैल, होगा। 'परिग्रहीता' शब्द शायद पाप-पुण्यके मालिक भी वे स्वयं नहीं थे। अर्थात् इसीका पर्यायवाची है। इस तरहके बामपरिग्रहोंमें जो 'दास-दासी' परि- यशस्तिलक में श्रीसोमदेवसूरिने लिखा हैप्रह है उसका अर्थ जैसा कि आजकल किया वधू-वित्तस्त्रियौ मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तजने । जासा है 'नौकर नौकरानी' नहीं है, किन्तु गुलाम माता श्वसा तन्जेति मतिब्रस गृहाश्रमे ॥ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ८-९] परिप्रह-परिमाण-व्रतके वासी-दास गुलाम थे ५३१ अर्थात-पत्नी और वित्त-त्री को छोड़कर स्वामिनोऽस्यां दास्यां जातं अन्य सब स्त्रियोंको माता, पहिन और बेटी सम समातृकमदास विद्यात् । ३२ । मना गृहस्थाश्रमका ब्रह्म या ब्रह्मचर्याणुव्रत है। गृह्या घेत्कुटुम्मार्थचिन्तनी माता वित्तका अर्थ धन होता है, वित्त-श्री से तात्पर्य भ्राता भगिनी चास्याः दास्याः स्युः॥३३॥ धनसे खरीदी हुई दासी होना चाहिये । इसका -धर्मस्थीय तीसरा अधिकरण । अर्थ वेश्या भी किया गया है परन्तु अब मुझे ऐसा अर्थात्-यदि मालिकसे उसकी दासीमें प्रतीत होता है कि दासी अर्थ ही अधिक उपयुक्त सन्तान उत्पन्न हो जाय तो वह सन्तान और होगा। कोशों में वार-योषित, गणिका पण्यस्त्री उसकी माता दोनों ही दासतासे मुक्त कर दिये आदि नाम वेश्याकं मिलते हैं जिनके प्रम. जायें। यदि वह स्त्री कुटुम्बार्थचिन्तनी होनेसे की, बहुतोंकी या बाजारू औरत होता है, पर ग्रहण करली जाय, भार्या बन जाय तो उसकी धन-स्त्री या वित्त-स्त्री जैसा नाम कहीं नहीं मिला। - माता, बहिन और भाइयोंको भी दासतासे मुक्त कर दिया जाय। गृहस्थ अपनी पत्नी और दासीको भोगता इन सूत्रोंको रोशनीमें सोमदेवसूरिका ब्रह्माणुहुआ भी चतुर्थ अणुव्रतका पालक तभी माना जा व्रतका विधान अयुक्त नहीं मालूम होता। . सकता है, जब दासी गृहस्थकी जायदाद मानी स्मृति ग्रन्थों में दासोंका वर्णन पहुव विस्तारसे जाती हो । जो लोग इस व्रतकी उक्त व्याख्या पर किया गया है। नाक-भौंह सिकोड़ते हैं वे उस समयकी सामाजिक मनुस्मृतिमें सात प्रकारके दास बतलाये हैंव्यवस्थासे अनभिज्ञ हैं, जिसमें 'दासी' एक परि. ध्वजाहतो मुक्तदासो गृहजः क्रीतदत्रिमौ । ग्रह या जायदाद थी। अवश्य ही वर्तमान दृष्टि- पैत्रिको दण्डदासश्च सप्तैते दासयोनयः॥ कोणसे जब कि दास-प्रथाका अस्तित्व नहीं रहा है अर्थात-ध्वजाहत (संप्राममें जीता हुआ) और दासी किसीकी जायदाद नहीं है, ब्रह्माणुव्रतम भक्त-दास ( भोजनके बदले रहने वाला, गृहज) उसका ग्रहण निन्द्य माना जाना चाहिये। (वासी-पुत्र). क्रीत (खरीदा हुमा), दत्रिम कौटिलीय अर्थशास्त्रमें दासकल्प' नामक (दूसरे का दिया हुभा), पैत्रिक पुरखोंसे चला एक अध्याय ही है, जिससे मालूम होता है कि माया), और दण्डदास (दण्डके धनको चुकानेके दासीदास खरीदे जाते थे, गिरवी रक्खे जाते लिए जिसने दासता स्वीकारकी हो), मे सात थे और धन पाने पर मुक्त कर दिये जाते थे। प्रकार के दास हैं। दासियों पर मालिकका इतना अधिकार होता था याज्ञवल्क्यस्मृतिके टीकाकार विज्ञानेश्वर कि वह उनमें सन्तान भी. उत्पन्न कर सकता था। (१२ वीं सदी) ने पन्द्रह प्रकारके दास बतलाये और उस दशामें वे गुलामीसे छुट्टी पाजावी थीं। हैं, जिनमें अपर बतलाये हुए तो हैं ही, उनके ___४८-१५ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [व्येष्ठ-अबाद, वीर-निर्वाण सं० २४६६ - सिवाय जुएमें जीते हुए, अपने माप विके हुए, निवासी रामनाथ चक्रवर्तीने अपने पदमलोचन दुर्भिक्षके समय बचाये हुए आदि अधिक हैं। ये नामक सात वर्षको उनके दासको दुर्मिक्षश दास जो कुछ कमाते थे, उस पर उनके स्वामीका प्रम-वन न दे सकनेके कारण २) पण लेकर ही अधिकार होता था। राजचन्द्र सरकारको बेच दिया । यह सदैव सेवा पूर्वकालमें भारतवर्षमें दास-विक्रय होता था, करेगा। इसे अपनी दासीके साथ ब्याह देना । इसके अपेक्षाकृत आधुनिक प्रमाण भी अनेक ब्याहसे जो सन्तान होगी वह भी यही दास-दासी मिलते हैं कर्म करेगी। यदि यह कभी भाग जाय वो अपनी ईसा की चौदहवीं सदीके प्रसिद्ध भारतयात्री क्षमतासे पकड़वा लिया जाय । यदि मुक्त होना इब्नबतूताने बङ्गालका वन करते हुए लिखा चाहे तो २२ मन सीसा () और रसून (लशून १) है कि "यहाँ तीस गज लम्बा सूती वस्त्र दो देकर मुक्त हो जाय। दस्तावेज लिख दी कि दीनार में और सुन्दर दासी एक स्वर्ण दीनार- सनद रहे। में मिल सकती है। मैंने स्वयं एक अत्यन्त रूप. इन प्रमाणोंसे स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वकाल बती 'माशोरा' नामक दासी इसी मूल्यमें तथा में दास-दासी एक तरहकी जायदाद ही थे। मेरे एक अनुयायीने छोटी अवस्था का 'लूलू' खरीदे-बेचे जा सकते थे, वे स्वयं अपने मालिक न नामक एक पास दो दीनारमें मोल लिया था । थे, इसीलिए उनकी गणना परिग्रहमें की गई है। अर्थात उस समय दास दासी अन्य चीजोंके ही यह सच है कि अमेरिका-यूरोप आदि देशोंसमान मोल मिल सकते थे। के समान यहाँ गुलामों पर उतने भीषणअत्याचारबङ्गला मासिक 'भारतवर्ष' (वर्ष ११ खण्ड न होते थे जिनका वर्णन पढ़कर रोंगटे खड़े हो २ ६ पृ० ८४७) में प्रो. सतीशचन्द्र मित्र आते हैं और जिनको स्वाधीन करनेके लिए का 'मनुष्यविक्रय पत्र' नामक एक लेख छपा है। अमेरिका में (सन् १८६०) चार पाँच वर्ष तक जिसमें दो दस्तावेजों की नकल दी है- जारी रहने वाला सिविल-वार' हुआ था । फिर (१) प्रायः २५० वर्ष पहले बरीसालके एक भी इस घातसे इन्कार नहीं किया जा सकता कि कायस्थने ७ छोटे बड़े स्त्री-पुरुषों को ३१) रुपये- भारतवर्ष में भी गुलाम रखनेकी प्रथा थी और में बेचा था। यह दस्तावेज फाल्गुन १३१६ (बंगला उनकी हालत लगभग पशुओं जैसी ही थी। संवत) के 'ढाका रिव्यू' में प्रकाशित हुई है। (२) सन् १८५५ में ब्रिटिश पार्लमेंटने एक नियम बनादूसरी दस्तावेज १६ पौष १९९४ (ब० सं०) की कर इसे बन्द किया है। यद्यपि इनके अवशेष लिखी हुई है। उसका सार यह है कि, अमीराबाद अब भी कहीं कहीं मौजूद हैं। परगना (फरीदपुर-जिला) के गोयाला प्राम- गलामीका परिचय प्राप्त करने के लिए बकर टी. *देखो, काशीविद्यापीठ-वारा प्रकाशित 'इनबतूता की वाशिंगटनका 'भारमोदार' और मिसेज एच० वी० स्टो की भारतयात्रा' का पृष्ठ ३६१ । लिखी हुई 'राम काका की कुटिया' मादि पुस्तकें पढ़नी चाहिए। Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमर मानव [ लेखक-श्री सन्तराम पी०५० ] एक फौजी डाक्टर लिखता है,-"चिकित्सा- हमने उसे ईथरसे अचेत किया, उसका पेट शास्त्र ही रोगियोंकी प्राण-रक्षा नहीं कर चीरकर खोला, उसके छेदोंको सिंया और दूसरी सकता। कोई भी डाक्टर, जिसने युद्ध-क्षेत्रमें काम सभी आवश्यक बातें की। बड़े आश्चर्यकी पास किया है, यह बात जानता है। अनेक ऐसे मनुष्य है कि, वह जीता बच निकला। ईथरका असर दर देखने में आये हैं, जिनको दवा-दारू और शस्त्र. होते ही वह बड़े पलके साथ बोला-"मैं बिलकुल चिकित्सा बचानेमें सर्वथा विफल रही और घायल ठीक हूँ।" उसके निकट ही एक दर्जन दूसरे मनुष्य केवल अपनी इच्छाशक्तिसे ही तन्दुरुस्त र सिपाही भयङ्कररूपसे आहत पड़े थे। उनमें से एक होकर पुन: लड़नेके लिये क्षेत्रमें चले गये।" खम्भ की तरह उठकर बैठ गया। उसने भायोबाके सिपाहीको ध्यानपूर्वक देखा और खिलखिलाकर मैं एक उदाहरण देता हूँ । सन् १९१८ में हँस पड़ा । वह बोला,-"यदि यह इस कष्टमेसे शेरोथियरीके मोर्चेके पीछे एक अस्थायी अस्पताल- जीता निकल सकता है, तो मैं भीबच सकता हूँ।" में कई घायल सिपाही पड़े थे। उनमें आयोवाका एक आयरिशमैन भी था । एक गोली उसके उस दिनसे लेकर एक सप्ताह पीछेवक, जब मैं. दाहिने पार्श्वमें, हँसलीकी हड़ीके पीछेसे धुसी और बदलकर दूसरे सेक्षनमें चला गया, रोगी मुके उसके फेफड़े, डायाफ्राम ( Dmphromy प्रणाम कहने के बजाय यही कहा करतापित्तकोष और यकृतमेंस होकर निकल गयी थी। "डाक्टर ! मैं बिलकुल तन्दुरुस्त हो जाऊँगा, नेरी उसकी अंतदियोंमें १३ छेद हो गये थे, उनमेंसे कुछ चिन्ता न कीजिये।" वह एक ऐसा मानव दुहरे रम्ध थे। बन गया, जो मरेगा नहीं और उसने अपने इर्द-गिर्द के दूसरे घायलोंमें जीते रहनेका निश्चय मैंने पूछा-"क्या वह होश में था ?" कर दिया ! उसकी अवस्था कई बार बिगड़ी, "बिलकुल होशमें, और बातें करता था। तापमान बहुत ऊँचा हो गया, नाड़ी तेजीसे चलने जब हम उसके शरीरकी परीक्षा कर रहे थे और लगी और बड़े ही दुःखद लक्षण प्रकट हुए; परन्तु आपरेशनकी तैयारी हो रही थी, तो उसने इतने अपने पारपार होनेवाले चित्तभ्रमोंमें एकबार भी उच्च स्वरसे कहा, जिसे कि, अस्पतालमें मौजूद उसका यह विश्वास शिथिल न हुमा कि, मैं बना प्रत्येक सचेत मनुष्यने सुना,-"डाक्टर ! मैं बिल- हो जाऊँगा। कुल तन्दुरुस्त हो जाऊँगा, मेरी कुछ चिन्ता इसने यसके द्वारा सन्देश भेजने भारम्भ न कीजिये।" किये। वह नर्ससे कहता,-"भाप जाकर उस Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ अनेकान्त [ज्येष्ठ-अषाढ़, वोर-निर्वाण सं० १४६६ उदास लेटे हुए सिपाही से कहिये कि, मेरे शरीरके अनुप्राणित करते थे । अधिक शोचनीयरूपसे भीतर १३ से २० तक छेद हैं और मैं फिर भी आहत १२ व्यक्तियोंमेंसे चार मर गये; परन्तु सन्दुरुस्त होकर पुनः रण-क्षेत्रमें जाऊँगा ।" उस बाकी आठ इवने पूर्णरूपसे उसके प्रभावके नीचे व्यक्सेि कहिये, जो समझ रहा है कि, उसे आ गये कि, वे सबके सब उस महासंकटमेंसे पक्षाघात हो जायगा,-कि,-"यह युद्ध अभीवक बचकर निकल आये । डाक्टर और नरसें एक प्रारम्भ ही नहीं हुआ" और कहिये कि- समान अनुभव करती थी और इतने उच्च स्वरसे "जितनी जल्दी हो सके, वह अपने काम पर चला कि, जिसे सब कोई सुन सकता था, कहती थी,जाय।" एक अफसरका दायर्या पार्श्व छरें से उड़ "मैं बिलकुल तन्दुरुस्त हूँ।"-बादको जब वह गया था। उससे इसने कहा,-"जब तक आपकी आशावादी रोगी चङ्गा होकर अस्पतालसे चला छातीमें हृदयमें मौजूद है, आपको कुछ भी चिन्ता गया, एक सर्जन मिला । उसने मुझे बताया कि, नहीं करनी चाहिये । पाप जैसा नवयुवक बड़ेसे अस्पतालके वार्ड में प्रत्येक व्यक्ति विश्वास करता बड़ा कष्ट सहन करके भी जीता बच सकता है। था, कि उस आयरिशमैनने उसे मृत्युके मुखसे जब मैं चङ्गा होकर वापस घर जाऊँगा, तो अपने निकाला है। छोटे बच्चोंसे कहूँगा कि अस्पतालमें मैंने एक मास उस सिपाहीने मुझे सिखाया कि, हतोत्साहित की 'फरलो' की छुट्टी काटी है।" सिपाही मृत्यु-मुखकी ओर खिसकने लगता है विदाके दिन मैं उनको नमस्कार कहनेके लिये और पाशाके बिना दवा-दारू कुछ भी काम नहीं ठहर गया। मैंने कहा, डाक्टर ! मुझे अपना देती। मैं युद्धसे जो निशानियाँ लाया हूँ, उनमें पता बताते रहना, मैं आपको पत्र लिखूगा। इस एक चिट्ठी है, जो मोरमेंसे एक ऐसे सिपाहीकी प्रकार भापको मालूम हो जायगा कि, मैं कब लिखी हुई है, जो तन्दुरुस्त होकर पुनः अपनी अपनी रेजीमेंट में वापस जाता हूँ। वीर मनुष्य रेजीमेंटमें गया था । वह मैं यहां पूरीकी पूरी यहाँ लेटकर नरसोंसे सेवा कराते हुए जीवन नहीं उधृत करता हूँबिता सकता । डाक्टर! नमस्कार, मेरी कुछ चिन्ता डाक्टर ! मैं बिलकुल तन्दुरुस्त हूँ, मेरी कुछ न करना।" चिन्ता न कीजिये। ये भाशाजनक शब्द अनिवार्यरूपसे रोज (गृहस्वसे) दुहराये जाते थे और अस्पतालमें प्रत्येक व्यक्तिको Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूल स्वीकार [ लेखक-श्री सन्तराम बी० ए० ] शमेरिकामें डेलकारनेगी नामके एक सजन मुसकेके विना क्यों छोड़ रक्खा है? क्या भाप "लोगोंको मित्र बनाने और जनता को नहीं जानते कि, यह कानूनके विरुद्ध है ?" मैंने प्रभावित करनेकी कलाके विशेषज्ञ हैं। जन्होंने इस नरमीसे उत्तर दिया:-"हाँ, मैं जानता हूँ । परन्तु विषयपर कई उत्तम ग्रंथ भी लिखे हैं। दसरे लोगों में समझता था कि, यह यहाँ कोई हानि नहीं को अपने विचारका बनाना एक गुर वे यह बताते पहुंचायेगा।" "आप नहीं समझते थे! आप नहीं। है कि, यदि हम गलती पर हों, तो हमें अपनी समझते थे! आप क्या समझते हैं, कानूनको गलतीको मान लेना चाहिये। इससे दसरा व्यक्ति इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं हो सकती है कि शस्त्र डाल देता है। वे अपने जीवनकी एक घटना यह कुत्ता किसी गिलहरीको मार डाले अथवा इस प्रकार लिखते हैं, किसी बच्चेको काट खाये। अब इस बार तो मैं "यद्यपि मैं न्यूयाकके औद्योगिक केन्द्रमें रहता आपको छोड़ देता हूँ; परन्तु यदि मैंने फिर कभी हूँ, वो भी मेरे घरसे मिनटकी दूरीपर जंगली इस कुत्तेको यहाँ बिना तसमे और मुसकेके देख लिया, तो आपको जजके सामने पेश होना लकड़ीका एक छोटासा नैसर्गिक वन है, जहाँ पड़ेगा।" वसन्त ऋतुमें ब्लेकबैरीके सफेद फूलोंका वितान वन जाता है, जहाँ गिलहरियां घोंसले बनाकर मैंने विनीत भावसे उसकी आज्ञाका पालन बच्चे पालती हैं और जहाँ घोड़ा-घास घोड़ेके करनेका वचन दिया और मैंने आज्ञा-पालन सिरके बराबर लंबी उगती है। यह प्राकृतिक बन- किया-थोड़ी बार । परन्तु रेक्स मुसकेको पसन्द भूमि फ्रॉरिस्टपार्क कहलाती है। मैं बहुधा अपने नहीं करता था । और न मैं करता था। इसलिये कुत्ते, रेक्सके साथ इस पार्क में घूमने जाया करता हमने अवसर देखनेका निश्चय किया । कुछ समय हूँ। रेक्स एक स्नेही और निर्दोष कुत्ता है पाकी वक प्रत्येक बात मनोहर थी, परन्तु हम फिर पकड़े हमें क्वचित् ही कोई मनुष्य मिलता है। इसलिये गये। एक दिन तीसरे पहर रेक्स और मैं एक मैं रेक्सके गलेमें न तसमा बाँधता हूँ और न मुँह- पर्वतकेमाथे पर दौड़ रहे थे। वहाँ सहसा कानून पर मुसका। की विभूति कुम्मत घोड़े पर सवार देख पड़ा। ___एक दिन हमें पार्कमें एक घुड़सवार पुलिसमैन रेक्स मेरे आगे-आगे सीधा पुलिस अफसर के पीछे मिला । उसे अपना अधिकार दिखानेकी खुजली दोड़ा जा रहा थाइससे मुझे बड़ी व्याकुलता हुई। हो रही थी। उसने मुझे तीव्र भर्त्सना करते हुए मैं इसमें फँसता था, यह बात मुझे मालूम कहा,-"आपने कुत्तेको इस पार्कमें तसमे और थी। इसलिए मैंने पुलिसमैनके पास भारम्म Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [ज्येष्ठ-अपाद, वीर-निर्वाण सं० २४६६ करनेकी प्रतीक्षा नहीं की । मैंने भाप ही पहल करनेका एक ही मार्ग उसके पास रह गया और करदी। मैंने कहा-"अफसर महोदय, मापने वह था सदारभावसे दया दिखाना ।। मुझे अपराध करते हुए पकड़ लिया है । मैं अप- परन्तु मान लीजिये, मैंने अपनेको निर्दोष राधी हूँ। मेरे पास अपराध के समय किसी दूसरी सिद्ध करनेका यत्न किया होता-ठीक, क्या जगह होनेका कोई उन या बहाना नहीं । आपने मापने कभी पुलिसमैनके साथ वाद-विवाद गत सप्ताह मुझे चेतावनी दी थी कि, यदि तुम किया है ? इस कुत्तेको विना मुसका लगाये यहाँ लाये, तो परन्तु उसके साथ लड़ने के बजाय, मैंने स्वीतुम्हें जुर्माना हो जायगा ।" कार कर लिया कि, वह बिलकुल सच्चा है और मैं सरासर गलती पर हूँ । मैंने यह बात शीघ्रता पुलिसमैनने मृदुम्बरमें उत्तर दिया,-"हाँ, " से, स्पष्टवासे और उत्साहपूर्वक मानली, उसके ठीक है, मैं जानता हूँ कि, यहाँ जब कोई मनुष्य मेरा पक्ष लेने और मेरे उसका पक्ष लेनेसे मामला इर्द-गिर्द न हो, वो इस जैसे छोटे कुत्तेको खुला अनुकूलता पूर्वक समाप्त होगया । दौड़ने देने का प्रलोभन हो ही जाता है।" दूसरोंके मुखसे निकली हुई डोट-फटकार मैंने उत्तर दिया,-"निश्चय ही यह प्रलोभन सहन करनेकी अपेचा क्या प्रात्म-आलोचना है। परन्तु यह कानूनके विरुद्ध है।" सुनना अधिक सहज नहीं ? यदि हमें पता हो पुलिसमैनने प्रतिवाद करते हुए कहा,- कि, दूसरा मनुष्य हम पर बरसेगा, वो क्या यह "इस जैसा छोटा कुत्ता किसीको हानि नहीं अच्छा नहीं कि उसके बोलनेके पूर्व स्वयं ही पहुंचायगा ।" उसके हृदयकी बात कह दी जाय ? ___ मैंने कहा, 'नहीं, परन्तु हो सकता है कि, अपने सम्बन्धकी वे सब निन्दासूचक बातें वह किसी गिलहरीको मार डाले ।" कह डालिये, जो आप समझते हैं कि, दूसरा उसने मुझे बताया। "मैं समझता हूँ श्राप व्यक्ति आपसे कहने के लिए सोच रहा है, या इसे बहुत गम्भीर भावसे ले रहे हैं। मैं बताता हूँ कहना चाहता है, या कहनेका विचार रखता कि आप क्या करें। आप उसे वहाँ पहाड़ पर है और उन्हें उसे कहनेका अवसर मिलनेके दौड़ने के लिए छोड़ दिया कीजिये, जहाँ मैं से पूर्व ही कह दीजिये-और उसका क्रोध शान्त न देख सकूँ-और हमें इसकी कुछ याद ही न हो जायगा। सौ पीछे निन्नानवें दशाओं में वह रहेगी।" उदार और क्षमाशील भाव ग्रहण कर लेगा और आपकी भूलोंको यथासम्भव कम करके दिखवह पुलिसमैन होनेके कारण, महत्वाका लायगा-ठीक जिस प्रकार पुलिसमैनने कारनेगी भाव चाहता था । इसलिये जब मैं अपनेको . में अपनका और उनके कुत्ते के साथ किया । धिकारने लगा, तो अपनी प्रात्म-पूजाको पोषित -(गृहस्थसे) Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्ति [देखक-६० परमानन्द शादी] गाचार्य नेमिचन्द्र-विरचित गोम्मटसारके पठन तथा उनके कार्योंका वर्णन, क्रम स्थापन पौर पाठनका दिगम्बर जैनसमाजमें विशेष उदाहरण द्वारा स्वभाव निर्देशके अनन्तर २२वीं प्रचार है। इस ग्रन्थमें कितना ही महत्वपूर्ण गाथामें मूलकोंकी उत्तर प्रकृतियोंकी संख्याका कथन पाया जाता है, जो अन्य प्रन्थों में बहुत कम क्रमिक निर्देश किया गया है । इसके बाद अधिदेखनेमें आता है। इससे फरणानुयोगके जिज्ञासु- कार भरमें कहीं भी उत्तर प्रकृतियोंके क्रमशः नाम ओंको वस्तु तत्त्वके जानने में विशेष सहायता और स्वरूप आदिका कोई वर्णन न करके एकदम मिलती है । इस ग्रंथके दो विभाग हैं, एक जीव- बिना किसी पूर्व सम्बन्धके दर्शनावरणकर्मके नव काण्ड और दूसरा कर्मकाण्ड । इनमेंसे प्रथम भेदोंमेंसे पांच निद्राओंका कार्य २३, २४ और २५ काण्डकी रचना बहुत ही सुसम्बद्ध और त्रुटिरहित न०की तीन गाथाओं द्वारा बतला दिया गया है। है । किन्तु उसके उपलब्ध दूसरे काण्डके 'प्रकृति और इससे यह कथन सम्बन्ध विहीन तथा क्रम समुत्कीर्तन' नामक प्रथम अधिकारमें बहुत कुछ विहीन होनेके कारण स्पष्टतया असंगत जान त्रुटियाँ पाई जाती हैं, जिनके कारण उसकी रचना पड़ता है । २२वीं गाथाके अनन्तर तो मानावरण असम्बद्ध-सी हो गई है। अनेक विद्वानोंको उसके कर्मके पांच भेदों तथा दर्शनावरण कर्मके प्रथम विषयमें कितना ही सन्देह हो रहा है । मुद्वित प्रति चक्षु, अचनु आदि चार भेदों के नाम स्वरूपादिका को ध्यान पूर्वक पढ़नसे त्रुटियों और तज्जन्य वर्णन होना चाहिये था, तब कहीं पाँच निद्राओंके असम्बद्धताका बहुत कुछ अनुभव हो जाता है । कायका वर्णन संगत बैठता । परन्तु ऐसा नहीं है, यद्यपि संस्कृत और भाषा टीकाकारोंने उक्त अधि- और इसलिये यह स्पष्ट है कि यहां निद्राओंसे कारकी अपूर्णता एवं असम्बद्धताको बहुत-कुछ पर्वका कथन चित है। अंशोंमें दूर कर दिया है फिर भी उसकी मूल- (२) निद्र-विषयक २५ वी गाथाकं बाद विषयक-त्रुटियाँ अभी तक ज्योंकी त्यों बनी हुई हैं। २६ वी गाथामें बिना किसी सम्बन्धक मिध्यात्व पाठकोंकी जानकारीके लिये यहां उनमें से कुछ -:खास खास त्रुटियोंका दिग्दर्शन कराया जाता है:- 1 वह गाथा इस प्रकार है: (१) एक 'प्रकृति समुत्कीर्तन' नामक मधि- पंच जब दोषिण मडावीसं चउरो कमेण तेषग्दी । कारमें कर्मकी मूल भाव प्रकृतियों के नाम, पण, ते उत्तर सर्व वा हुग पवर्ग उत्तरा होति ॥२२॥ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ज्येष्ठ, मापार, वीर निर्वावसं. द्रव्यके तीन भेद किस तरह हो जाते हैं, यह टीकाकारोंने पूरा किया है। कथन किया गया है, न कि कयनको संगत (५) अंगोपांग-विषयक २८ वी गावाके बाद बनानेके लिये यह भावश्यक था. कि क्रन विहायोगति नामकर्म तथा छह संहननोंके नाम माप्त वेदनीयकर्म और मोहनीय कर्मके भेद-प्रमे दप्रभा और उनके स्वरूपका कोई उल्लेख न करके छह दादिका कथन किया जाता; और उसके बाद २६ संहनन वाले जीव किस किस संहननसे कौन कौन वीं गाथाको दिया जाता, जैसा कि संस्कृत और गतिमें उत्पन्न होते हैं इत्यादि वर्णन २९-३०-३१. भाषा टीकाकारान किया है। बिना एसा किय अब ३२ नं. की चार गाथायों में किया गया है। और सन्दर्भके साथ यह गाथा संगत मालूम नहीं होती वर्णन भी मात्र वैमानिक देवों तथा नारकियोंमें और अपनी स्थिति परसे इस बातको सूचित उत्पत्ति के नियमका निर्देश करता है तथा कर्म करती है कि उससे पहलेकी कुछ गाथाएँ वहाँ छूट भूमिको त्रियोंके अन्तके तीन संहननोंका हो उदय बतलाता है। शेष मनुष्य तिर्यंचोंमें कितने संहननों (३) दर्शनमोह-विषयक २६ वीं गाथाके बाद का उदय होता है ऐसा कुछ भी नहीं बतलाया चारित्र मोहनीय कर्मके २५ भेदों और भायु कमेके और न गुणस्थानों, कालों अथवा क्षेत्रोंकी दृष्टि से चार भेदोंका तथा नाम कर्मकी पिण्ड-अपिण्ड ही संहननोंका कोई विशेष कथन किया है । ऐसी प्रकृतियोंक उल्लेखपूर्वक गति-जातिविषयक त हालतमें उक्त चारों गाथाओंका वर्णन असंगत योंका कोई वर्णन न करके और शरीरके नामों तक होने के साथ साथ अधुरा और लॅडूरा जान पड़ता का उल्लेख न करके २७ वी गाथामें मौदारिकादि है। इन गाथाओंके पर्वमें तथा मध्य में भी कितना पांच शरीरोंके संयोगी भेदोंका कथन किया गया ही कथन छूटा हुआ मालूम होता है। है। इससे इस गाथाकी स्थिति भी २६ वी गाथा जैसी ही है और यह भी अपने पूर्व में बहुतसं कथन इन गाथाओंकी ऐसी स्थिति देखकर ही भाज के त्रुटित होनेको सूचित करती है। . से कोई २१ वर्ष पहले पं० अर्जुनलालजी सेठीने (४) २८ वीं गाथाको स्थिति भी उक्त दोनों 'सत्योदय' पत्रमें लिखे हुए अपने स्त्री-मुक्ति' नामक गाथाओं जैसी ही है, क्योंकि इसके पर्वम शरीर निबन्धमें कर्मकाण्डके उक्त 'प्रकृति समुत्कीर्तन' के वन्धन, संघात और सस्थान नामक भेद-प्रमंदों अधिकारको त्रुटि-पूर्ण एवं सदोष बतलाते हुए का तथा अंगों पांग नामके मौदारिकादि मुख्य संहनन-विषयक उक्त चारों गाथाभोंको क्षेपक तीन भेदोंका भी कोई वर्णन अथवा उल्लेख न करार दिया था और यह भी बतलाया था कि इन करके, इसमें मात्र शरीरके आठ अंगोंके नाम दिये का संकलन यहाँ पर अनुपयुक्त है। हैं और शेषको उपांग बतलाया है। बन्धनादिका मोटी मोटी त्रुटियोंके इस दिग्दर्शन परसे कोई उक्त सब कथन बादको भी नहीं किया गया है भी सहृदय विद्वान यह नहीं कह सकता कि नेमिऔर इसलिये यह सब यहाँ पर त्रुटित है, जिसे चन्द्र जैसे सिद्धान्त पक्रवर्ति विद्वान् प्राचार्य ने Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर, जि ] गोम्मटसार-काकी त्रुद्धि-पूर्ति अपने कर्मकाण्डको ऐसा त्रुटिपूर्ण बनाया होगा, नहीं पाई जाती और जिन्हें यथास्थान जोर देनेसे. खासकर ऐसी हालतमें जब कि उनका जीवकाण्ड कर्मकांडका सारा अधुरापन दूर होकर सब कुछ बहुत ही सुसंगत और सुव्यवस्थित जान पड़ता है, सुसम्बद्ध हो जाता है। शेष ८४ गाथाएँ उसमें अवश्य ही इसमें लेखकोंकी कृपासे कुछ गाथाएँ पहलेसे ही मौजूद हैं। इन ७५ गाथाभोंमें ७० छूट गई हैं। गाथाएँ तो कर्मकांडके उक्त प्रकृति समुत्कीर्तन हालमें मुझे प्राचार्य नेमिचन्द्र के 'कर्म प्रकृति', अधिकारमें उपयुक्त बैठती हैं और शेष ५ गाथाएँ नामक एक दूसरे प्रन्थका पता चला और इससे कर्मकाण्डकी ८०८ नंबरकी गाथाके बाद होनी उसको देखनेके लिये मेरी इच्छा बलवती हो चाहिये, क्योंकि इन ५ गाथाओंके बाद कर्मप्रकृति उठी। प्रयत्न करने पर श्रारा जैनसिद्धान्त भवन में जो दो गाथाएँ और दी हैं वे एक काण्डमें के अध्यक्ष पं० के. भुजबलीजी शास्त्रीके सौजन्यसे ८०९ और ८१० नम्बर पर पाई जाती हैं। मुझे इस प्रन्थकी एक दस पत्रात्मक प्रतिकी प्राप्ति अब वे ७५ गाथाएँ कौनसी हैं और उनमें से हुई, जो विक्रम संवत १६६९ की लिखी हुई है। कौन कौन गाथा कर्मकाण्डमें कहाँ पर ठीक बैठती इसमें कुल गाथाएँ १५९ हैं, परन्तु लिपिकर्ताने हैं उसे क्रमशः बतलाया जाता हैगाथाओंकी संख्या १६४ दी है जो कुछ गाथाओं कर्मकाण्डके 'प्रकृति समुत्कीर्तन' नामक प्रथम पर ग़लत अंक पड जानेका परिणाम जान पड़ता अधिकार में मंगलाचरणसे लेकर १५ नं० तक जो है, और यह भी हो सकता है कि ५ गाथाएँ गाथाएँ हैं वे सब 'कर्म प्रकृतिमें भी ज्योंकी त्यों लिखनेसे छूट गई हों, जिसका पता दूसरी प्रतियों पाई जाती हैं और यह बात दोनोंके एक ही प्रकरण के सामने आनेसे ही चल सकता है, अस्तु । होनेको सूचित करती है। १५वी गाथामें सप्तमंगों __इस प्रन्थ-प्रतिको देखने और कर्मकाण्डके द्वारा पदार्थोके श्रद्वानकी बात कही गई है, परन्तु साथ उसकी तुलना करने मेरे आनन्दका पार व सप्तभंग कौनसे हैं यह कर्मकाण्डसे मालूम नहीं नहीं रहा, क्योंकि मैंने जिन त्रुटियोंकी कल्पना की होता, कर्म प्रकृतिमें उनको सूचक निम्न गाथा दी थी वह सब ठीक निकली और उनकी पूर्तिका है जो १६३ नम्बर पर ठीक जान पड़ती है - मुझे सहज ही मार्ग मिल गया । इस प्रकरण ग्रंथ सिपास्थि स्थि उभयं अन्वतम्यं पुणो वि तत्तिदयं । परसे कर्मकाण्डका वह सब अधूरापन और असं- द ख सत्तमंग पावसबसेण संभवदि ॥१६॥ गतपन दूर हो जाता है जो अर्सेसे विद्वानोंको . कर्मकाण्डकी २००की गाथाके बाद, जिसका खटक रहा है । इस 'कर्म प्रकृति प्रकरणको १५९ ।। गाथानों से ७५ गाथाएँ ऐसी हैं जो नक्त काण्डमें नं. एक गाथाकं बढ़ जानेके कारण २१ हो जावा है, कर्म प्रकृतिमे निम्न पांच गाथाएँ और दी हैं, • 'ऐवक पा सरस्वति भवन' बम्बई में भी इस जिनमें कर्म बंधका विशेष एवं संगत वर्णन पाया पन्धकी एक प्रवि। . . . . जाता है:- . Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भात [बेड, भाषाद, बीर-विla tam जीवपएस कामपसा हु तपरिहीया। मंडपार पुरिसो घणं णिवारेह राबिना विल्यं । होति पदविवरभूवं संबंधो होइ णायन्यो ॥२२ तह अंतराव पणगं विषारय होइ बदी १५॥ अस्थि प्रणाईमूमो बंधो जीवस्स विविज्ञकम्मेण । कर्मकाण्डकी २२वी गाथाके बाद कर्म प्रकृतिमें तस्सोपएक जापा भाषो पुण राय-दोस-ममो ॥२॥ निम्न १२ गाथाएँ और पाई जाती हैं जिनसे उस भावेण तेण पुणरवि भव्ये बहुपुमाखा लग्गति । त्रुटिकी पूर्ति हो जाती है जिसका उल्लेख अपर पर दुप्पि प गतस य णिवडारेणुष्य जगति ॥२४॥ नं०१में किया गया है पहिमुहणियमयबोहणमाभिणि बोहियमणिदइंदियनं । एक समबपिबई कम्म जीवेण सत्तमेयंति। बहुवादि उग्गाहादिक कय छत्तीसा-तिसब भेदं ॥१०॥* परिणमा माउकम बंधं भूयाउ सेसेस ॥२५॥ भत्थादो पत्थंतरसुवखंभं भकति सुदणाणं । सो बंधो पउभेयो सायन्यो होनि सुत्तणिहिहो। भाभिणियोहियपुष्वं णियमेणिह साजं पमुहं . पपरिहि विअणुभाग परसबंधोहु उविहो कहियो ॥२६॥ मबहीयदिति मोही सीमागणेत्ति वरिणयं समये । ___ कर्मकाण्डकी २१वीं गाथाके बाद कर्मप्रकृतिमें भवगुणपाचयविहियं मोहि णाणत्तिणं विति nam निम्न पाठ गाथाएँ और पाई जाती हैं, जिनमें चितियमचितियं वा अद्धं चितिय मणेयमेयगयं । उक्त गाथोल्लेखित पाठ कर्मोंके स्वभाव विषयक मणपजवंति उपाइनं जाणह तं खु परखोए ॥३०॥ दृष्टान्तोंको स्पष्ट करके बतलाया है, और इसलिये संपुण्यं तु सम्मग्गं केवलमसवत्त सम्वभावगयं । ये सब वहाँ सुसंगत जान पड़ती हैं जोयानोयवितिमिरं केवलणाणं मुणेदव्यं ॥४णावावरयंकम्म पंचविहं होइ सुत्तणिदि। मदसदमोहिमणपज्जवकेवलवाणभावरणमेवं । जापरिमोपरिखितं कप्पश्यं छाययं होड ॥२८॥ पंचवयापं णाणावरणीय जाय जिणमण्विं ॥४२॥ दसणवावरणं पुण हि परिहारों हु शिवदुवारम्हि। जं सामरणं गहणं भावाणं णेव कटु मायारं । गावविहं पउ पुख्त्यवागिहि सुत्तम्हि ॥२६॥ अविसेसदूण भट्टे दसणमिदि भण्णदे समये ॥४॥* महुवितखग्गसरिसं दुविहं पुण होइ वेषणीयं तु । चक्खूण जं पयासह दीसह तं चक्स दस विति । सायासावविमिणं सुह-दुक्खं देह जीवस्स ॥३०॥ सेसिदियप्पयासो णायन्वो सो मक्खुत्ति ॥४४in मोहेह मोहणीयं जह मयिरा महब कोदवा पुरिसं। परमाणुभादियाई मंतिमखंधति मुत्तिदवाई। तं अस्वीस विमिण्णं णायन्वं निणु वदेसेण ॥३॥ तं प्रोहि सणं पुण जं पस्सइ ताइ पाचक्खं ॥१५ माउंचउप्पपारंणारय-तिरिन्छ मय सुरगईयं । बहुविहबहुप्पयारा उज्जोबा परिमियम्मि खेत्तम्मि। हरिवित्तपुरिससरिसे जीवे भवधारणं समस्यं ॥३॥ जोयालोयवितिमिरो जो केवलदसणुज्जोयो Mane चितं पसंदविचित्तं बाणा णाम णिवत्तणं णामं । इस चिन्ह पाली गाथाएँ गोम्मटसार जीवतेवा पशिव गणियं गइ नाइ-सरीर-माईय॥३३॥ काण्डमें क्रमशः नम्बर ३०५, १४, ३५, १०, गोदं कुनाम सरिसं पीपचकुलेसु पाषणे पच्छं। १, २, , , २३, २४, २५, पडरंजणाप करणे ऊभाषारो महा शेवगणो ॥३॥ २८१, २०१, २०२, २०४ पर उपयोती है। . Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिल गोम्मसार करनी त्रुरि-पति चक्नु पचालू गोही जबाबोषणामावावं। सिपुरविमेची बहसमारो हो। इले व भविस्तामो परवि सचावर पारपतिविरामरपईसु पावो मसो १० माधीवगिदिविदा विमणिराप तदेव पपलाया . सिबतिकहते चिमेगासमो मावं । विदा पयता एवं पवमेवं सवार 4 मारपतिरिषयरामरगईसु उप्पाग्यो मसो ॥१८ कर्मकाण्डकी २५ वी गाथाके अनन्तर कर्म- वेषमूखोरमपसिंगे गोमुखए पबोरपे । प्रकृतिमें निम्न दो गाथाएँ और हैं जिनसे उस सरिसीमापाचारयतिरिखबरामरगईलु विदि जीवं॥५॥ टिकी पूर्ति हो जाती है जिसका उल्लेख ऊपर फिमिरायचातणुमबहरिसराएण सरिसमो बोहो । नं०२ में किया गया है। क्योंकि इनमें से पहली पारयतिरिक्षमायुसदेवेसुष्पावणो कमसो ६०॥ गाथामें क्रमप्राप्त वेदनीयकर्मके साता-भसाता सम्म देससपबचरितमासारचरणपरिणामे । रूपमें दो भेदों और मोहनीयकर्मके दर्शन पादति वा कसाया उसोखसमसंखजोगमिदा ।।६१8 मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय ऐसे दो भेदोंका हस-रवि-भरदि-सोपं भयं जुगुका य इस्थि-वेयं । उल्लेख करके दूसरी गाथामें यह प्रकट किया है संयंतहा सब पदे यो कसावा ॥२॥ कि दर्शन मोहनीय बंधकी अपेक्षा एक मिथ्यात्व पापदि सपं वोसे रायदो काददि परपि दोसेण रूप ही है और उदय तथा सत्ताकी अपेक्षा मिध्वा. पायसीमा जम्हा तमा सो परिणया इस्यी ॥३॥ त्व, सम्यग्मिध्याव तथा सम्यक्प्रकृतिके भेदसे पुरुगुणनोगे सेव करेवि बोधम्हि पुरुवं कम्म । तीन भेदरूप हैं। और इसलिये इनके बाद २६ वीं पुरुउत्तमो व जहा तमहा सो परिणयो पुरिसो ॥९॥ गाथाका वह कथन संगत बैठ जाता है जिसका वित्थी येव पुमं गपुंसमो जयलिंगविदिरिगे। इतनं० २ में उल्लेख है: इटावम्गिसमाचगवेवणगायो पलुसचितो ॥१५॥ दुविहंदुभवणी सादमसाएं च वेषणीयमिदि। णारयतिरिपबरामरमानमिति परमेयं वे भाऊं। पुष दुवियष्पं मोरं समचारित्तमोहमिति ॥१२॥ णामं बादाबीसं पिंडापिडप्पमेवेश ॥१॥ बंचादिगं मिल्छ ग्दवं सत्तं पर विवि । णारबतिरिवमाणुसदेवगइत्ति पहवे गई दुधा । सबमोहं मिच्छ मिस्सं सम्मत्तमिदि बाथ ॥२३॥ इगिवितिचउपचक्या बाई पंचप्पवाहि ॥१०॥ कर्मकाण्डकी २६ वीं गाथाके बाद कर्मप्रकृति पोराबियवेगुब्धिपमाहारव तेगकामणसरीरं । में निम्न गाथाएँ और हैं जिनसे उस त्रुटिकी इदि पंच सरीरा खल वाण वियष्पं वियाणादि ॥६॥ पूर्ति हो जाती है जिसका उल्लेख ऊपर नं. ३ में कर्मकाण्डकी २७ नम्बरको गाथाके बाद दिया गया है: कर्मप्रकृतिमें चार गाथाएँ और हैं, जिनमें बंधनदुनिं चरितमोहं सायवेवणिपबोक्सापमिदि। संघात-संस्थान और अंगोपांगके भेदोंका उल्लेख परमं सोवियप विदिवं यवमेवमुहिर है। और जिनसे वह त्रुटि दूर हो जाती है जिसका प्रयंपासा पल्पसा हे संबस। उल्लेख ऊपर नं०४ में किया गया है । वे चारों हो मा माया बोले सोस कसा वे गाथाएं इस प्रकार हैं: Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२० [ज्येष, पाराह, बीर-गांव पंच प सदीरवंधणणामं प्रोसमाप देत. बस्स WRस बप प्रमाबाहायिलीसिया पाई। - भाहारतेजकरमणसरीरबंधण सुशालमिदं 1000 दिढकंचाणि रतिनीखिय शाम सांगणं ॥८॥ पंच संघावणामं चौरावि बह जाब नेउन जास्स फम्मस्स-उदए अपणोणमसंपत्तासंधीमो। पाहारसेनकम्मच सरीसंवादणाम मिcिon परसिर धाणिहर्ष संघसंपत्तसेव ॥१॥ समचारणिग्गोई सानी मामणं दुर . कर्मकाण्डकी ३१वीं गाथाके बाद कर्मप्रकृति में सठाणं पन्भेयं इदि गिरि बिणागमे भाव ७n. चार गाथाएँ और हैं, जिनमेंसे पहलीमें उन नरक पोराजियवेगुविवाहारवगुणमिदिमणिदं। , भूमियों के नाम देकर जिनके संहनन-विषयका अंगोवंगं तिविहं परमागमकुमणासाह ॥ . कषन ३१वीं गाथामें किया गया है, शेषमें संहनन· __ कर्मकाण्डकी २८ वीं गाथाके बाद कर्म प्रकृति विषयक कुछ विशेष वर्णन किया है-अर्थात में पाठ गाथाएँ और हैं, जिममें विहायोगति गुणस्थानोंकी दृष्टि से संहननोंका सामान्यरूपसे नाम कर्मके दो भेदोंका और छह मंहननों के नाम विधान करते हुए यह बतलाया है कि मिथ्यात्वादि तथा उनके स्वरूपका पृथक पृथक रूपसे निर्देश सात गुणस्थानोंमें छहों, अपूर्वकरणादि चार किया गया है। इसलिये जिनके अनन्तर उक्त गुणस्थानोंमें प्रथम तीन संहनन और क्षपकश्रेणी काण्डकी २९, ३०, ३१ नं० की ३ गाथाओंको के पाँच गुणस्थानों में पहला एक वनवृषभनाराच रखनेमे उनका कथन पूर्णरूपसे संगत हो जाता है संहनन ही होता है। विकल चतुष्कर्म-एकन्द्रिय, और फिर उन गाथामोंके क्षेपक होनेकी भी कोई दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीनों मेंकल्पना नहीं की जा सकती,और न वे क्षेपक कही असंप्राप्तासृपाटिका नामका छठा संहनन बताया जा सकती हैं। वे पाठों गाथाएँ इस प्रकार हैं:- है, असंख्यात वर्षकी युवाले देवकुरु-उत्तरकुरु दुविहं विहागणामं पसत्य अपसस्थगमण इदि णिवमा। आदि भोग मिया जोवोंमें प्रथम वनवृषभनाराच बज्जरिसहयारा वजाणाराम-पारायं ॥७॥ नामके संहननका विधान किया है और चतुर्थ, नह अद्धनारायं कीलियसंपत्तपुण्यसेवटं । पंचम तथा छटे कालमें क्रमसं छह, अंतके तीन इदि संहडणं चम्विह मणाइणिहणारिसे भणियं ॥७॥ और पास्त्रीरके एक संहननका होना बतलाया है। जस्म कम्मरस रवये पन्जमयं बहीरिसहणाराय। इसी तरह सर्व विदेह क्षेत्रों, विद्याबरक्षेत्रों, म्लेच्छ तस्संहडणं भणिवं वारिसणारापणाममिदि ॥७॥ खण्डोंके मनुष्य-तिर्यचों और नागेन्द्र पर्वतमे जससुषे वनामयं अहीणारायमेव सामवणं । आगेके तिर्यचोंमें छहों संहननके होनेका विधान रिसदो तस्वागणं णामेण प बजणारायं ॥॥ किया है । इस सब कथनके बाद उस काण्डकी जसरपे वजमा हाम्रो बजरहिवणारायं । ३२ नं० की गाथा पाती है, जिसमें कर्मभूमिकी रिसमोसं मशिषवं पाराबसरीरसंहरणं ॥७॥ खियोंके मन्तकं तीन संहननोंका कथन किया वाजविसेसेण रहिवा महीमो अबवितणारायं । गया है और यह स्पष्ट लिखा है कि उनके जस्सुक्ये तं भणियं णामेण तं अबणरावं ॥३०॥ आदिके लीन संहनन नहीं होते । और Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३, किरण गोम्मटसार-कर्म कारकी एक टि-पति इसलिये उसे किसी तरह भी प्रक्षिप्त नहीं कहा जा पंचप वरणस्येव पौवारिदारुणकिंगपणमिति । सकता, जिसे अक्षिप्त ठहराकर सेठीजीने अपने गंधं दुविहं णेयं सुगंधदुम्गंधमिदि जाण ॥min स्त्रीमुक्ति विषयकी पुष्टि करनी चाही थी । ३१ वीं तित्तं'कानुक्कसाय माविबमारमिदि पंचरसणामं । और ३२ वी गाथाओंके मध्य में इस सब कथन मउगं कास गुबहु सीदुर्ण णिहासमिदि ॥१५॥ वाली गाथाओंके जुड़नेसे संहनन विषयक वर्णन कासं पर वियध्यं चत्तास्थिाणुपुग्वि गुरुना । । का वह सब अधूरापन और लंडापन दूर हो पिरमाणु तिरिमाणु पराशुदेवासपुम्युत्ति ॥ जाता है जिसका ऊपर नं०५ में उल्लेख किया एका चोइस पिंडप्पणीमो परिणदा समाव। गया है। उक्त चारों गाथाएँ इस प्रकार हैं:- यतो (१) पिंडप्पमडीमो पडवीसं परणयिस्सामि॥१॥ धम्मा वसा मेघा अजणारिया तहेव मणबजा। भगुल्लाहुगं. उबघाद परमादं च बाय उस्सास । कही मधवी पुरवी सत्तमिया माधवी णामा ॥६॥ . भावाव उजोवं छप्पयडी अगुरुवाघुकमिति ॥३॥ मिच्छाऽपुण्यदुगा(खवा ? विसु सगचपणठाणगेसु कर्मकाण्डको ३३वीं गाथाके बाद कर्मप्रकृति में शिपमेण । - छह गाथाएँ और हैं, जिनमेंसे प्रथम दो माथाओं परमादियाथि पत्तिगि भोधेग विमेसदो गेषा ॥६॥ में नामकर्म को भवशिष्ट २२ अपिंड प्रकृतियों के विपनचके छठं, पढमं तु असंखपाउजीवेसु । नाम गिनाए हैं । दूमरी दो गाथाओंमें नामकर्मकी चरस्थे पचमछ? कमसोच्छत्तिगक संहडणा | उन्हीं अपिण्ड प्रकृतियोंका शुभ-अशुभ रूपसे सम्बविदेहेसु सहा विजाहरम्सक्खुमणुयतिरिएसु । विभाजन किया है--जिनमेंमें त्रस १२ौर स्थावर छस्सहरणा भगिया णागिदपरदो य सिरिएसु || प्रकृतियाँ १० हैं । और शेष दो गाथाओंमें नाम ___ कर्मकाण्डकी ३२ वीं गाथाके बाद कर्म प्रकृति कर्मको ९३ प्रकृतियोकं कथनकी ममाप्ति को सूचित में.५ गाथाएँ और हैं जिनमें नामकर्मको १४ पिण्ड करते हुए क्रमप्राप्त गोत्र और अन्तराम कर्मकी प्रकृतियोमेसे अवशिष्ठ वर्ण, रस, स्पर्श और प्रकृतियों को बतलाकर कमों की सब उत्तर प्रकृतियाँ आनुपूर्वी नामकी प्रकृतियोंका कथन करके पिण्ड- इस प्रकारसे १४८ होती हैं ऐसा निर्देश किया है। प्रकृतियोंके कथनको समाप्त किया गया है, और वे गाथाएं इस प्रकार है :साथ ही २८ अपिण्डप्रकृतियों के कथनकी प्रतिज्ञा तसथावरं च बादर सुहुमं पञ्जत तह अपन। करक उनमम आदिकी अगुरुलघु भादि ६ प्रक- परतेय सरीरं पुण साहारणसरीरं थिर भपिरं ॥३॥ तियोंका उल्लेख किया है। जिनमें भाताप और सुह-मसुह सुहग-दुब्भग-सुस्सर-दुस्सर तदेव बायया । उद्योत नामकी वे प्रकृतियां भी शामिल हैं जिनके पाविजमणाविज्ज जसमाजसवित्तिणिमिणतित्ययरं । उदयका नियम कर्मकाण्डकी ३३ वीं गाथामें बत- ससवादरपज्जत पत्तैयसरीरविरं सुहं सुहुगं । लाया गया है । और जिनके बिना ३३ वीं गाथाका सुस्तरमादिज्ज पुष जसकितिथिमिणतिस्थयरं कथन असंगत जान पड़ता है । वे गाथाएँ इस थावरसुहुमभपज साहारणसरीरं भथिर मणियं ।' प्रकार हैं: असुई दुम्भगदुस्सरणादिजधासकित्तित्ति..॥ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्बेड, चापार, पीर विद्रांडवं.२०६६ हरि वामपवडीयो वेगवदी उपबीच मिवि दुवि। तृतीय भवमें अथवा उसी भवसं मुक्तिको प्राप्त गोस भविद पंचवि अंतरावं . करता है और क्षायिक सम्यक्त्व बाला जीव वह वाबबाह भोगोवभोग वीरिक अंतराय विश्णे। उत्कृष्टरूपसे चतुर्थभवमें मुक्त होजाता है। इवि सम्पुलपयडीयो बडदाससपप्पमा हुँति ।।१०२ उपसंहार इन गाथाभोंके बाद १९ गाथाएँ (१०३ से १२० नम्बर की )वे ही हैं जो कर्मकाण्डमें ३४ से अपरके इस संपूर्ण विवेचन और स्पष्टीकरण ५१ नम्बर तक दर्ज है। शेष ३९ गाथामोंमेंसे ३२ परसे सहपय पाठकोंको जहाँ यह स्पष्ट बोध होता गाथाएँ (नं० १२१ से १५१ ) कर्म कांडके दूसरे है कि गोम्मटसारका उपलब्ध कर्मकाण्ड कितना अधिकारमें और दो गाथाएँ (नं० १५८,१५९ ) अधूग और त्रुटियोंसे परिपूर्ण है, । वहां उन्हें छठे अधिकार में पाई जाती हैं। बाकीको पांच यह भी मालूम हो जाता है कि त्रुटियोंको सहज गमवाएँ जो कर्मकांडमें नहीं पाई जाती और ही में दूर किया जा सकता है-अर्थात् उक्त ७५ उसके छठे अधिकारमें गाथा नं० ८८८ के बाद गाथाओंको, जो कि स्वयं नेमिचन्द्राचार्यकी कति त्रुटि न जान पड़ती हैं वे इस प्रकार हैं:- रूपसे अन्यत्र (कर्मप्रकृतिमें ) पाई जाती हैं और इंसगविमुदिविय संपरयातं तहेव सीखवदे। जो संभवतः किमी समय कर्मकाण्डसे छूट गई सयदीचारो सि फुलं पाणवजोगं व संवेगो ॥१५॥ अथवा जुदा पड़ गई हैं उन्हें, फिरसे कर्मकाण्डमें सचीदो चागतमा साहुसमाही तहेव णायन्या। यथा स्थान जोड़ देनेसे उसे पूर्ण सुससंगत और विजाव किरियं परिहंतापरिवबहुसुदे भत्ती ॥१५॥ सुसम्बद्ध बनाया जा सकता है । आशा है पक्षणवरमामती भावस्सपकिरिय अपरिहाणीय। विद्वान् लोग इस अनुसंधान एवं खोज परसे मगष्पहाव बाबु पक्षणवच्छतामिदि जाये ॥१५॥ समुचित लाभ उठाएँगे। और जो सबन कर्मएवेहि पसत्येसोबसमावेहि केवलीमूने। काण्डको फिरसे प्रकाशित करना चाहें वे उसमें तिववरखामाम्म चदि सो सम्मभूमिजो मधुसो उक्त ७५ गाथाओंको यथास्थान शामिल करके तित्त्वावरसत्तका विषमवे तम्मवे इसिज्मदिवं। उसे उसके पूर्ण संगत और सुसम्बद्ध रूपमें ही बाइसम्मको पुण समरसेण दुचउत्वमवे non प्रकाशित करना श्रेयस्कर सममेंगे साथ ही जिन्हें इस विषयमें अनुकूल या प्रतिकूल रूपसे कुछ भी इन गावामोंमें तीर्थंकर नामकर्मको हेतुभूत विशेष कहना हो वे अपने उन विचारों को शीघ्र षोडशकारण भावनाओंके नाम दिये है, और यह ही प्रकट करने की कृपा करेंगे। बताया है कि इन प्रशस्त भावनामों के द्वारा केवलीके पादमुखमें कर्मभूमिका मनुष्य तीर्थकर ता०२७-६-१० वीरसेवामन्दिर, सरसावा प्रकृतिका बंध करता है। साथ ही, यह भी बताया गया है कि तीर्थकर नामकर्मकी सत्तावाला जीव Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म बहुत दुलम है. [.मी अपमानवान व बी.ए., पापक.मी.कीय] यह जीवन दु:खी है: दुःखी रहना जीवनका उमेश नहीं:जिधर देखो, जीवन दुःखी है। यह समस्त जीवन, प्राल यह है कि क्या इस प्रकारका दुःखी जीवन जो चार महाभूतों-द्वारा प्रकाशको घेरकर शरीरवाला जीवनका अन्तिम ध्येय है ! मरणशील जीवन की बना है, रूप-संशा-कर्मवाला बना है, जो इन्द्रियोंसे जीवनकी पराकाष्ठा है? क्या जीवन इसीके लिये बना देखनेमें आता है, बुद्धिसे जाननेमें आता है, दुःखी है। -सीके लिये सता है? क्या इससे आगे ढूंढने के क्यों! लिए, इससे आगे बढ़ने के लिये जीवन में और कुछ इसलिये कि इसमें लगातार परिवर्तन है, लगातार नहीं ? अस्थिरता है, लगातार अनित्यता है, लगातार इष्टताका इनका उत्तर नफ्रीमें ही देना होगा। चूँकि जहाँ वियोग है। ___ यह आर्य सत्य है कि यह जीवन दुःखी है, वहाँ यह भी इसलिये कि इसका प्रादि भोलीभाली बाल्य-लीला आर्य सत्य है कि दुःखी रहना जीवनका उद्देश्य नहीं, में होता है, मध्य मदमस्त जवानीमें होता है, उत्कर्ष मरना जीवनका अन्त नहीं। जीवन इससे कहीं अधिक चिन्तायुक्त बुढ़ापे में होता है और अन्त निश्चेष्टकारी बड़ा है, ऊँचा है, अपूर्व है। मृत्युमें होता है। इस सत्यके निर्धारित करने में क्या प्रमाण है ? इसलिये कि यह प्रकृति-प्रकोपसे, अाकस्मिक उप- इसके लिये दो प्रमाण पर्याप्त है। एक स्वात्मअनुभूति द्रवोंसे सदा लाचार है । भूक-प्यास, गर्मी-सदों, रोग- दूसरा महापुरुष अनुभूति । व्याधिसे सदा व्यथित है । चिन्ता-विषाद, शोक-सन्ताप स्वात्मानमति की साक्षी:से सदा सन्तप्त है । अनिष्ट घटनात्रोंसे सदा त्रस्त है, नित्य नई निराशाओंसे सदा निराश है और मृत्युसे अन्तरात्मा इसके लिये सबसे बड़ा साक्षी है। सबसे सदा कायर है। बड़ा प्रमाण है । वह दुःखकी सत्ताको प्रारमतथ्य मान यह जीवन दुःखी है, इसके माननेमें किसीको कर कभी स्वीकार नहीं करता । वह बराबर इससे लड़ता विवाद नहीं। यह सर्व मान्य है, सब ही के अनुभव यता है । वह बराबर इसके प्रति प्रश्न करता रहता है, सिद्ध है। यह आर्य सत्य है, श्रेष्ठ सत्त्व है। शंकायें उठाता रहता है। इसीलिये वह इसकी निवृत्ति' के लिये, इससे मिल सत्ताके लिये सदा जिज्ञासावान् दीपनिकाय २२ वो मुत्ता बना है। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेवात वेड, पापार, बीर निर्वाय वह इसमें कमी आत्मविश्वास धारण नहीं करता। कर लेता, इसमें संतुष्ट होकर रह जाता, इसमें कृत्कृत्य यह सवा कहता रहता है-“दुःख प्रात्मा नहीं, पात्म- हो अपना अन्त कर लेता । परन्तु यह जीवन इतना स्वभाव नहीं, यह अनिष्ट है, अनाम है, याने मय है, न मम भावनाओं के सहारे, भावी भाशाओंके न मैं इसका हूँ, न यह मैं हूँ, न मैं यात्।। - सहारे, इष्ट इष्ट के सहारे बराबर चला ,जा रहा है, ___ वह इसके रहते कभी संतुष्ट नहीं होन, .कभी बरावरं जिन्दा है। कत्यकृत्य नहीं होता । यह इसके रहते जीवनमें सदा महापरुषोंकी साक्षी:किसी कमीको महसूस करता रहता है, किसी पूर्तिके ____ यदि यह जानना हो कि वह अप इष्ट कौनसा है, लिये भविष्यको श्रोर लखाता रहता है, किसी इष्टको उसका स्वरूप कैसा है, वह कहाँ रहता है, उसे पानेका भाषमाकी भाता रहता है, इसलिये वह सदा इच्छाधान् क्या मार्ग है, तो इसके लिये अन्तरात्माको टटोलना पाशावान् बना है। होगा । यदि अन्तरात्माको टटोलना कष्टसाध्य दिखाई वह दुःखके रहते नित्य नये नये प्रयोग करता दे तो उन महापुरुषों के अनुभवोंको अध्ययन करना रहता है, नये नये सुधार करता रहता है, नये नवे होगा जिन्होंने तमावरणको फाड़कर अन्तरात्मा मार्ग प्रहण करता है, इसीलिये वह सदा उद्यमशील को टटोला है, जिन्होंने तृष्णाके उमड़ते प्रवाहको रोक बना है। कर अपना समस्त जीवन सत्य-दर्शनमें लगाया है, . यह कहना ही मूल है कि जीवन इस दुःखी जीवन जिन्होंने भयरहित हो आत्माको मन्थनी, दुःखोंको पेय के लिये बना है, इस दुःखी जीवन के लिये रहा है। चिन्तवनको बलोनी बनाकर संसार सागरको मथा है, यह न इसके लिये बना है, न इसके लिये रहता है। जिन्होंने मायाप्रपञ्चको फाँदकर सत्यकी गहराईमें गोता यह तो उस जीवन के लिये बना है, उस जीवन के लिये लगाया है, जिन्होंने रागद्वेषको मिटाकर मौत और टिका है जो इसकी भावनाओंमें बसा है, इसकी कार्म अमृतको अपने वश किया है, जिन्होंने शुद्ध-बुद्ध हो माओंमें रहता है, जो अदृष्ट है, अज्ञेय है। दिव्यताका सन्देश दिया है, जो परम पुरुष, दिव्यदूत, यदि जीवन इतना ही होता जितना कि यह दृष्टि- देव. भगवान् अर्हत, तीर्थकर, सिद्ध प्राप्त श्रादि नामों गत है तो यह क्यों जिज्ञासावान् होता है क्यों प्राप्तसे से विख्यात् है, जो संसारके पूजनीय है। इस क्षेत्रमें अप्राप्तकी अोर, नीचेसे ऊपरकी ओर, यहाँसे वहाँकी इन्हीका वचन प्रमाण है। ओर, सीमितसे विशालकी मोर, बुरेसे अच्छकी ओर - अनित्यसे नित्यकी भोर, अपूर्णसे पूर्णकी ओर बढ़ने में .(4) भातः खलु साँचाहतधर्मा पाटस्मार्चस्व सलग्न होता ? चियापविषया प्रयुक्त उपदेष्टा । -न्यापदर्शन-वात्सायन टीका ..... इसमें जरा भी अतिशयोक्ति नहीं कि यदि जीवन (पा) येनासं परमैश्वयं परागंबसुखात्पर्य । इतना ही होता, तो जीव इसे सर्वस्व मान कर विश्वास. बोधरूम भतार्थोऽसावीश्वर पटुमिः स्मृतः ॥ * संयुक्तनिकाय २१.. -मासस्वरूप ॥२॥ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्हें बोड़कर साधारण जनसे इस तव्यका पता ये सब ही प्राणायक -सिद्धिका मान पचना ऐसा ही है जैसा कि अन्वेसे मार्यका पता भी स्वयं प्रात्मामें कुपा है। मामा लयं भाव है, सर्व पूछना । वह अण्डे में बन्द शावकके समान अन्धकारसे भावना है, स्वय मार्ग है. . व्याप्त है। वे स्वयं प्रकाशके इच्छुक हैं। उन्होंने इस मार्गका नाम सत्य है, कि यह मर्यको अन्तरात्माको अभी नहीं देख पाया है। उनका वचन अमृतसे मिला देता है । इसका नाम धर्म है चूंकि इस क्षेषमें प्रमाण नहीं हो सकता। यह जीवनको संसार दुःखसे उमार कर सुखमें घर देता ये सब ही प्राप्त जन एक स्वरसे उच्चारण करते है। यह नीचेसे उठाकर सर्वोच्चपदमें बिठा देता है। है कि जीवनका इष्ट इस जीवनसे बहुत ऊँचा है, बहुत यह असम्भव चीज नहीं, प्रत्येक हितेषी इसका साक्षात् महान् है, बहुत सुन्दर है, बहुत प्रानन्दमय है । वह कर सकता है। पाश्रो और स्वयं देखलो है। इष्ट सुखस्वरूप है, सुख पूर्णतामें है, पूर्णता श्रास्मामें ये सब ही प्रेरणा करते हैं "उठो, जागो, प्रमादको है, अतः आत्मा ही इष्ट है श्रात्मा ही प्रिय है, अात्मा त्यागो, सचेत बनो, सत्संगति करो, सत्यको पहिचानो, ही देखने, जानने और आसक्त होने योग्य है। . धर्मका आचरण करो *" देर करनेका समय नहीं, ये सब ही आश्वासन दिलाते हैं कि जीवन और जाते।" जीवनका इष्ट दो नहीं, दूर नहीं, मिन नहीं, एक ही है। -ऋग्वेद.१९९.२०मुराकउप०३-1-1-1 दोनों एक ही स्थानमें रहते हैं । केवल अन्तर अवस्था का है-इनमेंसे एक भोक्ता है, दूसरा केवल शाता है। -श्वेताश्वतर प०-६० (H1) "I and my fother are one." एक कर्मशील है दूसरा कृत्कृत्य है। जब आत्मा इस -Bible St. John. 10.30 अवस्थाकी महिमाको देख पाता है तो वह स्वयं महान् * (अ) तत्वानुशासन ॥३॥ हो जाता है m)"I am the way, the truth and the life" (१) स देवो यो अर्थ धर्म कामं सुददाति ज्ञानं च। : -Bible-St. John. 14.6. स ददाति थप अस्ति र अर्थः कर्म च प्राज्याःn | पा० उपु०,२-३.५. -बोधप्रामृत (संस्कृतछाया) २४ $ (4) "संसारदुःखतःसत्वान् यो परत्युत्तमे सुखे।" • "यो वे भूमा तत्सुखम् नापे सुखमस्ति, भूमैवसुखम्" . -करडनावका ॥८॥ -का० उप० ७.२३. (ब) सामिन वेद-प्रस्तावना ... म वा परे सर्वस्य कामाय सर्व प्रियं भवत्पात्मनस्तु + पायावी २-०१५ कामाय सर्व प्रियं भवति । भामा वा भरे सम्यः + अंगुत्तरनिकाय ३-१२ भोतव्यो मन्तम्यो निविण्यासितव्यः ॥" (अ) उतिहमाग्रत प्राप्य परान् नियोधत्" - उप०२.४... -43. उप..." (4) हा सुपर्णा सयुबा सखाया समानं वर्ष परिषस्य- . (मा) धम्मपद m८॥ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ [पेड, भापार, वीर-निपOni शंका समाधानका समय नहीं, मौत मुंह फाड़े खड़ी है, हमारे समान भद्धाबान, प्रभावान, कार्यकुशल हो जाता इससे पहले कि रोग शरीरको निकम्मा करे, बुढ़ापा है, परम सुखी होजाता है। वह फिर जन्ममरणमें मही शक्तियोंको जीणं करे, तुम अपने प्रापको धर्मसापनामें पड़ता। लगादो जो आत्माको जाने बिना, मौतको जीते धर्म मार्ग ग्रहण करनेकी कठिनताः-- बिना इस भव से विदा हो जाता है वह सदा यमका अतिथि बना रहता है। परन्तु कितने है जो इस धर्म मार्गको जानते हैं ? इस परिवर्तनशील जगमें एक ही चीज़ प्रविचन कितने है जो इसे जाननेकी सामर्थ्य रखते हैं ! कितने है, वह धर्म है । उसीकी शरण जा। सन्लक्ष्य इस (4) मां हि पार्थ पपामित्व येपि सः पापयोगपः का शिर है, सद्ज्ञान इसका नेत्र है और सदाचार इस सियो पेश्यास्तया रामास्वपि पान्ति पर गतिम् ॥ के पग है, इन तीनोंकी एकतासे ही इसकी सत्ता सुदृढ़ -गीता .... बनी है । यह सदा लक्ष्यको दृष्टि में गाड़कर, सद्ज्ञानसे (मा) गीता 17-६६ हेय उपादेयका विवेक करता हुआ उस पार चला (१) मुहका १५० ३.१.३. . जाता है। यह नाश होने वाली चीज नहीं, यह नित्य (ई) तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किंवा । है, ध्रुव है, शाश्वत् है। इस पर चलकर ही पूर्वमें भूत्यानितं य इह मास्मसमं करोति ।" मनुष्योने सिद्धिका लाम किया है। इस पर चलकर -मलामर ॥१०॥ मनुष्य भविष्य में सिद्धिका लाभ करेंगे। (3) I am the light of the world, he that ये सबही अचलपद पर खड़े हये अपने श्रादर्श- followeth me shall not walk in darkness, but shall have the light of life." द्वारा शिक्षा देते हैं, "यदि इष्ट जीवनकी कामना है, -Bible-St. John 8-12 उसके उत्कृष्ट स्वरूपको जानना है, उसके मार्गको (5) "He that hearth my word, and belie. समझना है तो हमारी ओर देखो. जो हमारा जीवन . veth on him that sent me hath everlasting वही इष्ट जीवन है, जो हमारा पद है, वही उत्कृष्ट पद life and shall not come into condemnation but is passed from death unto life," है, जो हमारा मार्ग है, वही सिद्धीका मार्ग है, जो हम " ___Bible-St. John 5-24 पर विश्वास लाता है, हमारे बतलाये हुये तत्त्वोंको (ए) "And whosoever livethi and believeth ठीक समझता है, हमारे चले हुए मार्ग पर चलता है, in me shall never die," वह पुनः अन्धकारमें नहीं पड़ता, वह इधर उधर नहीं -Bible-St. John. 11-26 भटकता, वह व्यर्थ ही शक्तिका हास नहीं करता । वह (ऐ) "If ye had known me, ye should have known my Father also...he that hath उत्तरायपन -1, मज्झिमनिकाप ६१वां सुत्त seen me hath seen the Father.... Believe me ....१४ केन उप०२.१. that I am in the Father and the Father in me. Verily verily I say unto you, he that believeth रायपन २३, १८-४४, सूत्रकृता १.८.१,६. ___on me, the works that I do, shallihe do also" * निर्मन्यप्रवचन 1.0 मझिमनिकाप-याँ सुत -Bible-St. John. Chapter 14. --------- - --- - -- Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि .] । जो इसे जानने की कोशिश करते हैं। जितने के सहारे ही अपनी जीवन-नौकाको चलाते हुए भागे है जो जानकर इसपर भद्धा लाते है ! कितने है जो चले जारहे हैं। इन्होंने दुःखकी समस्या समझने, सुख भद्धा लाकर इस पर चलते हैं ? कितने है जो चलकर का रहस्य मालूम करने, वर्तमान दशासे दूर लखाने, इष्टका माक्षात् करते हैं, मनोरथमें सफल होते है, दुःख वर्तमान जीवनसे मिल जीवनको लक्ष्य करने, रूढिक के विजेता होते हैं? मार्गको छोड़ अन्य मार्गको अपनाने की शक्तिका ही लोप बहुत विरले, कुछ गिने चुने मनुष्य-जो जीवन- कर दिया है। इन धर्मतत्त्वको समझने, धर्मतत्त्वमें लोकके उत्तङ्ग शिखर कहला सकते है ।। शेष समस्त श्रद्धा लाने, धर्म-मार्ग पर भासद होनेका सामर्थ्य ही जीवन-लोक पहाड़ी घाटियों के समान अन्धकारसे व्याप्त प्रास नहीं है । मनुष्य-जीवन ही ऐसा जीवन है, जिसमें है, पहाड़ी नदियों के समान शीघ्रतासे संसार-सागरकी दुःखानुभूतिके साथ दु:खसुखके रहस्यको समझने, ओर चला जा रहा है। उनके. कारणोंको मालूम करने, एक लक्ष्यको बोर ___ यह क्यों ? क्या शेष जीवन-शोक दुःखका अनुभव दुसरेको लक्ष्य बनाने एक मार्गको त्याग दूसरेको ग्रहण नहीं करता ? दुःखसे छुटकारा नहीं चाहता ! शेष करनेकी ताकत मौजूद है । मनुष्य जीवन ही हेयोपादेय जीवन-लोक दुःखका अनुभव ज़रूर करता है, दुःखसे बुद्धि, तर्क वितर्क-शक्ति उद्यम पुरुषार्थका क्षेत्र है।। छुटकारा भी चाहता है। परन्तु वह दुःखसे अपना मनुष्यभवमें ही धर्म-साधना सम्भव है । उद्धार करने में असमर्थ है । मनुष्यको छोड़कर समस्त ___जब मनुष्य-भवमें धर्मसाधना सम्भव है, तो मनुनप्राणियोंका जीवन-समस्त एकेन्द्रियलोक समस्त वनस्पति में धर्म-साधना क्यों नहीं ? मनुष्यका जीवन सुखी क्यों लोक, समस्त विकलेन्द्रिय लोक, समस्त पशुपक्षिलोक नहीं? सफल क्यों नहीं १ कृतार्थ क्यों नहीं मनुष्यगाढ़ अन्धकारसे ढका है, मोहसे ज्यात है, भय और जीवनमें भी इतना संवेश क्यों ? इतनी दुःख पीड़ा, दुःखसे ग्रस्त है । इन पर भयने, दुःखने इतना काबू क्यों इतना भेद भाव क्यों ? इतना संघर्ष क्यों ? पाया है कि यह भय और भयके कारणोंकी ओर, दुःख । निस्सन्देह मनुष्य-भवमें ही धर्मसाधना सम्भव है और दुःखके कारणों की ओर लखानेसे भी भयभीत है। इसीलिये यह उनकी ओरसे मुंह फेर कर रह गये है, ज परन्तु समस्त मनुष्य धर्म साधनाके योग्य नहीं, धर्मके आँख मूंदकर रह गये है, शान रोक कर रह गये हैं। । अधिकारी नहीं। इनमें से बहुतसे तो नाममात्रके ही मनुष्य है । प्राकृतिको छोड़कर वे शील शक्ति, प्राचार इसीलिये इनकी शानशक्ति, देखने भाननेकी शक्ति, ___ व्यवहार में पशु समान ही है, पशु समान ही बुद्धिहीन स्मरण रखनेकी शक्ति, कल्पना करने की शक्ति, सब ही . शानहीन है, जड़ और मूढ़ है। उनके ही समान स्व. आच्छादित होगई , खोईसी हो गई है। इन्होंने दुःख . को प्रोमल करने की चेष्टामें भानको ही प्रोमल कर .. छन्द और अनर्गल गतिसे चलने वाले है। उन्हें दीन दिया है, समस्त जानने वाली चीजोंको ही प्रोमल कर पवास्तिकाव ॥ दिया है, समस्त लोक और प्रात्माको ही प्रोमल कर कार्विवानुमे गोम्मटसार ( पीस) दिया है। ये यन्त्रकी भांति अभ्यस्त संस्कारों, संशात्रों * .प.१... Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा -निर्वाच ॥ और दुनियाका कुछ पता नहीं, भूत और भविष्यका . उच्छेद करना चाहते है, भय उत्पत्ति द्वारा भयको कुछ पता नहीं, उनके लिए वर्तमान क्षण ही काल है, निर्मूल करना चाहते हैं। वर्तमान जीवन ही जीवन है। . बहुतसे सात्विक बुद्धि है, सरल हृदय है, नम्रभाव ___ बहुतसे पशु-समान तो नहीं है, परन्तु दुद्धि , है, वे अपने सुख-दुखका विधाता अपनसे बाहिर,अपने पालसी और शक्तिहीन है । वे पशुसमान अचेत जीवन से भिन्न, अपनेसे दूर मानते हैं । षे उस सत्ताको समस्त को, पुरुषार्थहीन जीवनको सुखी मानते हैं। वे जान बम शक्ति, समस्त शन, समस्त सुख, समस्त पर्णताका कर पशु-समान अशानमागके अनुयायी बने । वे भण्डार जानते हैं । वे उसकी भक्ति उपासनासे, प्रार्थना निद्रा-तन्द्रामें पड़े हुए, सुरापाबमें झूमते हुए, नशैली र याचनासे दुखका प्रभाव, सुखका लाभ होना समझते वस्तुत्रोंके नशेमें ऊँघते हुए, दुःखको भुलानेमें लगे हैं। हा है। ये याशिक मार्गके अनुयायी हैं । ये अपनेको धर्मको जानने वाला, धर्म पर चलने वाला मानते हैं । परन्तु • बहुतसे विचारवान् है, रसिक और भावुक है, वे धर्म जानते हुए भी धर्म नहीं जानते, धर्म मानते परन्तु शक्तिहीन हैं, वे बिना पुरुषार्थ श्रानन्द भोगी हुए भी धर्म नहीं मानते. धर्म पर चलते हुए भी धर्म होना चाहते हैं, वे भोगमार्गके अनुयायी बने हैं । वे पर नहीं चलते। ये सब मिथ्यात्वसे पकड़े हुए हैं । विषयवासनामें सने हुए, संगीत-सुरासुन्दरीमें रमे हुए, मोह मायासे ठगे हुए हैं। . भाव-प्रास्वादनमें लगे हैं, दुःख-कारणोंको बहकानेमें ये वक्ष वनस्पति में, पशु-पक्षियोंमें, हवा पानीमें, लगे हैं। नदी पर्वतोंमें, बनखण्ड-देशभूमिमें, चान्दसूरजमें, ग्रहबहुतसे कुशाग्र बुद्धि हैं, बड़े पुरुषार्थी और उद्यमी नक्षत्रमें, अाकाश-कालमें, प्रकृति-विभूतिमें, परम शक्तिहैं, व्यवहार-कुशल और कर्मयोगी है; परन्तु बाह्यसुखी वान देवताका दर्शन करते हैं ।वे विशेष दिशाको हैं, अपनेसे बाहिर सुख दंडने वाले हैं, प्रपञ्चमें विश्वाम दिव्य दिशा, विशेष देशको दिव्य देश, विशेष कालको रखने वाले हैं, ये लोकको विजय करने में लगे है। दिव्यकाल, विशेष रूपको दिव्यरूप मानते हैं । ये विभिन्न वस्तुओंके जमा करनेमें लगे हैं। ये धन-धान्य विशेष भाषाको दिव्य भाषा, विशेष वाक्यको दिव्यकञ्चन-पाषाण, जर-ज़मीन, महलमाड़ी बटोरने में लगे वाक्य, विशेष वाक्य-सग्रहको दिव्य शास्त्र समझते हैं । है। वे स्वार्थसिद्धिमे विश्वास करने वाले हैं, वे सिद्धि- ये विशेष जानि वाले, विशेष कर्माचारी, विशेष रूपधारी मार्गकी शिष्टता-अशिष्टता में विश्वास करने वाले नहीं । को गुरु ग्रहण करते हैं। ये विशेष प्रकारका रूप धारण इममेखिए ये प्रापममें लड़ते-भिड़ते, कटते-मरते, लूटते- करना, विशेष भाषा बोलना, विशेष वाक्यका जप करना, ग्वसोटते गया तथा आगे बढ़ रहे हैं। वे व्यवहार मार्ग विशेष विधि अनुसार विशेष २ कर्म करना धर्म मानते के अनुयायी हैं, उद्योग-मार्गके अनुयायी हैं । ये हैं । इनमें भला देवता कहाँ ? दिव्यता कहाँ ? धर्म परिग्रह-दारा अपूर्णताका अन्त करना चाहते हैं, व्यवः कहाँ ? साय-द्वारा दुःखका अभाव करना चाहते हैं। ये 'शट ये सब अपनेसे बाहिर, अपनेसे भिन्न तत्त्वके भक्त प्रति शाठ्य' के अनुयायी है । वैर संशोधन द्वारा बैरका बने हैं, ये सब नाम, रूप,कर्मके उपासक बने हैं। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि . को दुखेम है देश-काल परिमित सलाके सेक्क बने हैं। के सब धर्मके धर्म तत्त्वकी सूक्ष्मता:खोममें धर्मामासके पीछे चलने वाले हैं, जलके लोभमें . मरीचिकाके पीछे दौड़ने वाले है, अमतके लोभमे . या धर्म-तत्व यद्यपि बहुत सीधा और. सरन, ससार-ननमें घूमने वाले हैं । ये सब धर्म हीन है। बहुत निकट और स्वाभित है। यह ऐसा ही सीधा है जैसे दीप-शिखा, ऐसा ही सरल है जैसे दीप-प्रकाश, इसका क्या कारण है ? जब सब ही जीव सुस्तके ऐसा ही निकट है जैसे दूधमें घी, ऐसा ही, स्वाभित है अभिलाषी है, सब ही सुखके लिए प्रयत्नसेल है, तो वे जैसे शरीरमै स्वास्थ्य । यद्यपि यह सर्वप्राप्य , सकल सुख मार्ग पर क्यों नहीं चलते १ उनकी दृष्टि धर्मको भेद भाव-रहित प्राणिमात्रमें मौजद है । यद्यपि इसीके और क्यों नहीं जाती ? वे धर्मका प्राचरण क्यों नहीं सहारे समस्त जीवनका विकास नीचे से ऊपरकी ओर से करते ? क्यों यह धर्म एक दकोसला है ? भ्रम है ! रहा है-शारीरिक जीवनसे सामाजिक जीवनकी ओर, दिल बहलानेकी वस्तु है ? केवल एक शुभ कामना है ! सामाजिकसे अार्थिककी ओर, प्रार्थिकसे मानसिककी धर्म वास्तविक है: भोर, मानसिकसे नैविककी ओर, नैतिकसे आध्यात्मिक की ओर-परन्तु इस तत्वका ज्ानना कठिन हो गया ' नहीं, धर्म ढकोसला नहीं, भ्रम नहीं, बहलानेकी है, इसके जाननेका जो साधन अन्तर्ज्ञान है, वह काम चीन नहीं, यह वास्तविक है । यह इतना ही वास्तविक में न श्रानेसे - अभ्यासमें न रहनेसे कुण्ठित होगया है, है जितना कि सुख और सुखकी भावना, पर्णता और मलीन हो गया है, खोया सा हो गया है, और जो पूर्णताकी भावना, अमृत और अमृतकी भावना। यदि इसके विपरीत तत्वको देखने जाननेका माधन है, वह सुख और सुखकी भावना वास्तविक है तो सुम्वका इन्द्रियज्ञान, बुद्धिज्ञान, स्वित्य प्रति अभ्यासमें लाने से मार्ग वास्तविक क्यों नहीं? कोई भावना ऐमी नही. अधिक अधिक तीक्ष्ण हो गया है। . . जिसका भाव न हो, कोई भाव ऐमा नहीं, जिसकी सिद्धी धर्मका तत्त्व कोई ऐसी बाह्य वस्तु नहीं जो इन्द्रियों का मार्ग से हो । जहाँ भावना रहती है, वहीं से दिखाई दे, बुद्धि से ममझमें आये, हाथ पावोंसे पकड़ उसका भाव रहती है, जहाँ भाव रहता है वहीं उसका में आये, रूपये-पैसेसे खरीदी जाए, यह अन्तरङ्ग वस्तु मार्ग रहता है। सुम्बकी भावना, पूर्णताकी भावना, है, तर्क और बुद्धिसे दूर है, हाथ और पाँवोंसे परे है । अमृतकी भावना आत्मामें बसी हैं । इसलिये सुखमयी यह जीवन में छुपा है, जीवनको विकल करनेवाली अनुतत्त्व, पूर्णतामयी वत्व, अमृतमयी तत्त्व भी आत्मामें भतिया छुपा है, जीवनको ऊपर उभारनेवाली भावरहता है। प्रात्मामे ही उसकी सिद्धीका मार्ग छुपा है। नाओमें छुम है। यह अत्यन्त महन है, यह समतासे परन्तु इस तस्वको समझने, इस मार्गको ग्रहण करनेमें दिखाई देने वाला है, अन्तानसे समझमें श्रानेवाला है दो कठिनाइयाँ है-१. धर्म तत्वकी सूक्ष्मता २. जीवन अनुभवी पशिडकावी इसे देख सकते हैं..। की विमूढता। उपगीता गिनिकाय · · * मामाभूत ॥१०॥ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ड, मापार, पीर सिंm इसीलिये अनेक विष जानने पर भी यह बतलाया नहीं यह मार्ग लक्ष्य में जरासी भान्ति होने से, जरामा जाता, अनेक प्रकार शास्त्रों के पढ़ने और मनन करनेसे प्रमाद होनेसे नीचेसे निकल जाता है। इसका पथिक भी यह दृष्टिमें नहीं आता है। इसका बोध बहुत दुर्लभ मोहके पैदा हो जानेसे प्राचारमें विषमता प्राजानेसे पथसे स्खलित हो जाता है। इस धर्मके मर्मको जाने बिना, जीवन उद्देश्यको .. धर्ममार्गपर कौन चल सकता है ? जानना, उद्देश-सिद्धिके मार्गको जानना, उत्थान उपायों " को जानना, शरीर, गृहस्थ, समाज और राष्ट्र प्रति जो निर्धान्त है, आस्तिक बुद्धि वाला है, जीवनकर्तव्यों को जानना, उनके अनुसार जीवनको बनाना. लक्ष्यको सदा दृष्टिमें रखनेवाला है, जो आध्यात्मिक नितान्त असम्भव है। जब लक्ष्यका ही पता नहीं,मंजिल जीवनको साध्य और अन्य समस्त जीवनको अर्थात् काही पता नहीं, तो मार्गका पता कैसे लग सकता है? शारीरिक, गृहस्थ सामाजिक, राष्ट्रिक, नैतिक जीवनको इसीलिए जीवनमें विविध प्रसंग प्रा पड़ने पर बहुत बार साधन मानने वाला है, जो मोक्ष पुरुषार्थको परम पुरुसाधारण जन ही नहीं बड़े बुद्धिमान भी कर्म-अकर्मके षार्थ और अन्य समस्त पुरुषार्थोंको सहायक पुरुषार्थ मामलेमें कर्तव्य विमूढ हो जाते हैं । उस वक्त यह समझने वाला है। जो समदृष्टि है, सब ही 'प्राणियोको निर्णय करना कि अमुक स्थिति में क्या करना चाहिये, अपने समान देखने वाला है जो समबुद्धि है। सब ही क्या नहीं करना चाहिये बहुत मुश्किल हो जाता है। अवस्थानोंमें एक समान रहने वाला है जो सुखके समय ___ यहाँ धर्म-तत्वको जानना दुर्लभ है, धर्म-मार्गको हर्षको और दुःखके समय विषादको पास नहीं होता निश्चित करना कठिन है, वहाँ धर्मतत्व पर श्रद्धा वह ही धर्ममार्ग पर चल सकता है। लाना, धर्म-मार्ग पर चलना और भी मुशकिल है, धर्म जो तत्व ज्ञानी है, आत्म अनात्मका भेद जानने का मार्ग बालाप्रसे भी अधिक नेहा है, हुर धारसे मी . हर वाला है। जो भावनामयी तत्वको प्रात्मा और नाम, अधिक वीक्ष्ण है। बहुत थोड़े हैं, जो धर्मको जानते है रूप, कर्मात्मक तत्वको अनात्म मानने वाला है, जो बहुत ही कम है जो इस पर श्रद्धा लाते हैं । बहुत हो विवेकशील है, हित अहितका विचार रखने वाला है, बिरले है जो इस पर चलते है. जिसके लिये न कुछ अच्छा है, न कुछ बुरा है । जो हित-साधक है वही अच्छा है, जो हित-बाधक है वही क. प. ३.२.३ बुरा है। जो प्रत्येक कर्मके अच्छेपन और बुरेपनको *"रोहिंमलदुर दोवि" हायानुप्रे केवल उसके अभिप्रायसे नहीं जाँचता, बल्कि उसके किसमेति ध्ययोज्यत्र मोहिता" फल, उसके परिणामसे जाँचने वाला है। जो विशाल-गीता - •(4)"पुरस्य पारा निखिता हुल्लया, दुर्ग या त , (1) "Because strait is the gate and narrow is the way which leadeth unto life, and few कोदन्धि" - .... there are that find it." (पा) चरायवर सूड..... ... .-Bible St. Matthew, 7.14. Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि है, अनेकान्ती है, प्रत्येक तत्वको, प्रत्येक पटनाको उन्नति करता हुमा खोकी उन्नतिको नहीं सकता, प्रत्येक पुरुषार्थको अनेक अपेचात्रोंसे देखने वाला है। जो अपने उठने के साथ दूसरोंको उठाता चलता है अनेक अपेक्षामोंसे समझने वाला है, जो सर्वप्राहक उभारता चलता है वही धर्म मार्म पर चल सकता है। है, जो अपनी दृष्टिको एकान्तमें डालकर संकीर्य नहीं जो जितेन्द्रिय है, वशी है, शान्त चित्त है, विषयों होने देता । जो स्वहित-परहित, व्यक्तिगत हित की प्रासक्तिसे लक्ष्यको नहीं भूलता, कषायोंकी तीव्रतासे स्मष्टिगत हित, वर्तमान हित, मावि हित सब ही हितों कर्तव्यको नहीं छोड़ता, बाधामोसे घबराकर धीरताको की अपेक्षासे पुरुषार्थके हेय उपादेयपनका निर्णय नहीं खोता, वही धर्म पर चल सकता है। करने वाला है, जो प्रशावान है, जो साध्य और साधन, जो प्रात्म-विश्वासी है, जो सहायता-बर्य बाह्य व्यवहार और निधयोंसे किसीकी भी उपेक्षा नहीं देवी देवताओंकी और नहीं देखता,उनके प्रति याचनाकरता, जो यथावश्यक अपने समय और शक्तिको सब प्रार्थना नहीं करता, उनके प्रति यश हवन, पूजां भक्ति में हो पुरुषार्थोंमें बाँटने वाला है। जो सदा अपनेको समय नहीं खोता, जो स्वयं प्रात्मशक्तियोंमें भरोसा स्थिति अनुरूप बनाने वाला है, वही धर्म-मार्ग पर चल रखने वाला है, हद संकल्प शक्ति वाला है, निर्भय है, सकता है। साहसी है, उद्यमी है, वही धर्ममार्ग पर चल सकता ___ जो निमोंही हैनाम-रूप-धर्मात्मक जगतमें रहता है। हुआ भी कभी उसको अपना नहीं मानता, कभी उसका जो सदा जागसक और सावधान है, जो अतिक्रम, होकर नहीं रहता, जो कमल समान सदा ऊपर होकर व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचारसे अपने मार्गको दूषित रहता है, सदा आत्महितका विचार रखता है। जो नहीं होने देता । जो निरंकार है, "मैं" और "मेरे" समस्त जगत, उसके समस्त पदार्थ, समस्त सम्बन्ध, के प्रपंचमें नहीं पड़ता; जो निष्काम है, निराकारी है, समस्त रीतिरिवाज, समस्त संस्थाप्रथा, समस्त विधि- जो कोई भी काम मान, मिथ्यात्व, निदानके वशीभन विधान, समस्त क्रियाकर्मको व्यवहार मानता है, पर होकर नहीं करता, जो अपने कियेका फल धन-दौलत, उठका साधन मानता है, साधन मानकर उनको पुत्र-कलत्र, मान-प्रतिष्ठा आदि किसी भी दुनियावी अर्थ ग्रहण करता है, रक्षा करता है, प्रयोग करता है, यथा- के रूपमें नहीं चाहता, जो अपनी समस्त शक्ति, समस्त श्यक उनमें हेरफेर करने. सधार करणेमें तत्पर रहता पुरुषार्य.समस्त जीवन, ब्रमके लिये अर्पण करता है. है, यथावश्यक सदा उन्हें स्पागने, पाहुति देनेमें समस्त विचार, समस्त वाणी, समस्त कर्म ब्रह्मके लिये तय्यार रहता है, वही धर्ममार्ग पर चल सकता है। होम करता है, वही धर्म-मार्ग पर चल सकता है। जो-अहिंसावान है, दयावान है, सबके हितमें जो कर्म-कुशल है, योगी है, जो बालक-समान अपना हित मानता है, सबके उबारमें अपना उद्धार एक बार ही चान्दको पकड़ना नहीं चाहता, जो सहायक मानता है; जो सबका हितैषी है, सबका मित्र है, जो शक्तियोंको बढ़ाता हुआ, विपक्ष शक्तियोंको घटाता पाप रहता है दूसरोंको रहने देता है, जो खुद स्वतन्त्र हुमा, भेणीबद्ध मार्गसे ऊपरको उठाता है, वही धर्म है, दूसरोकी स्वतन्त्रताका सादर करता है, जो अपनी मार्ग पर चल सकता है। Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ww , बाधा, बोड tarif . अर्थात् जो मष्टि , स्थित है, स्थिर धुदि मि और जीवन ही फोनसा है । इस इन्द्रिय-शानसे है, समदी है, योगी है, प्रतिक्ष्य-प्रथम-सवेग-अनु. मिन और शाने ही कोनसा है । इस लोकको छोड़ कर कम्पा गुण वाला है। निशंकितं आदि प्रष्ट अङ्ग वाला और किधर जाये इस जीवनको छोड़कर और किधर त्रिमूढता और अष्ट मद रहित है, त्रिशल्पसे खाली है, लखाये इस शानको छोड़कर और किसका सहारा ले ? मैत्री-प्रमोद-करुणा, माध्यस्थ भावसे भरा है, अविरोध इस तरह देखता जानता हुआ यह बहिरात्मा बना है। रूपसे धर्म-अर्थ-काम-पुरुषायोकी सेवा करने वाला है, यह नास्तिक बना है । अपसे विमुख बना है । बही धर्म-मार्ग पर चल सकता है, वही वास्तवमें जो इस प्रकार परासक्तिमें पड़ा है, परासक्ति में रत धर्मात्मा है, वही सुखका अधिकारी है। है परासक्ति में प्रसन्न है, उसके लिए दुःखको साक्षात् करना, दुखिके कारणोंको समझना, दुख-निरोधका लोक विमूह है: संकल्प करना, दुःख निरोधके मार्ग पर लगना बहुत जहाँ धर्म-तत्व इतना कम है, धर्म मार्ग इतना कठिन है * । जो इस प्रकार इन्द्रिय बोधको ही बोध कठिन... वहाँ यह लोक मन्या है, यहाँ देखने वाले मानता है, इन्द्रिय प्रत्यक्षको ही वस्तु मानता है, उसके बहुत थोड़े है। यहाँ जीवन अनादिकी भूलभान्तिसे लिये अदृष्टमें विश्वास करना, अदृष्ट के लिये उद्यम ढका है, अविद्यासे पकड़ा हुआ है, मोहसे प्रसा हुआ करना बहुत मुशकिल है। है, यह अपनेको भुसाकर परका बना हुआ है, अपनेको " न देखकर बाहिरको देख रहा है, अपकेको म टोलकर धर्मष्टि लोक रहिसे भिव है:बाहिरको रटोल रहा है, अपनेको पकड कर महिरको लोककी इस अष्टिमें और धर्मकी दृष्टि में बड़ा अंतर पकड़ रहा है। इसकी सारी सचि, सारी बासकि,सारी है-जमीन शास्मानका अन्तर है। इसमें यदि कोई शक्ति बाहिरकी ओर लगी हुई है, सारी इन्द्रियाँ बाहिर समानता है तो केवल इतनी कि दोनोंका अन्तिम उद्देश्य को खुली हुई है, सारी बुद्धि बाहिरमें धसी हुई है, सारे एक है-दुख-निवृत्ति, सुख-पामि । इसके अतिरिक्त अवयव बाहिरको फैले हुए । दोनों में विभिन्नवा ही विभिन्नताहै। दोनोंको मुख-दुख - इसके लिये इस दिखाई देने वाले लोकसे भिन की मीमांसा भिन्न है। दोनोका निदान भिन्न है। दोनों और लोक ही कौनसा है ? इस सुख दुःख पाले जीवन्से का निदान-साधन भिन्न है। दोनोंकी चिकित्सा मिन है -~~- दोनोकी चिकित्सा-विधि भिन्न है और दोनोंके स्वास्थ्यभवभूतो अब बोको बगुलेप विपस्सति मार्ग मित्र है। . पहिली रष्टि श्रामन्द, सुन्दरता, बैमष और शक्ति () "पराखि खानि स्तृवत् स्वयम्भूस्तस्मात् का पालोक बाह्य जगतमें करती है, दूसरी इनका . परा पश्यति नान्तदास्मन - 43. उप..... - (भा) पहिरास्मेन्धिबहारैरामनामपरामुः । 3. उप० २. ; वैत. उप० १. ६... स्फुरितः स्वात्मनो मेहमात्मत्वेगाम्यवस्यति ॥ * मोर प्राभूत ॥८ ॥ बोगसार ॥ .॥ -समाषितं . * मभिमनिकाप स सुस। Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चासोक अन्तरात्मामें करती है। पहिली बाख लोकको उचगति-नीचगतिके करने वाले मास महान् और पाशावान मानती है। दूसरी 'अन्सालोतको. संसारका हेतु है, पारमा सरका मोदक है, महान् और प्राशावान कराती है। पहिली पाखालोकके भात्मा से प्रात्याका मित्र है, बाराही मामीका प्रति कामना, आसक्ति, परिग्रहका व्यवहार करना हैx. सिखाती है। दूसरी बास लोकके प्रति प्रशमता, उदा. । पहिलेके लिए दाखका कारण बाम शक्तिका सीनता और त्यागका वाव बनाती है। . प्रकोप है, देवी-देवताओंका प्रकोप है, ईश्वरका प्रकोप पहिलीकी भावना है धन-धान्यकी प्राप्ति, सन्तानकी है, दूसरीके लिए दुःखका कारण स्वयं प्रामाको दूषित प्रालि, दीर्घ आयुकी प्राप्ति, प्रारोग्यकी प्राप्ति, पितृलोक वृचि है, उसकी अपनी विपरीत श्रद्धा, प्रशन प्रविधा, और स्वर्ग खोककी प्राप्ति । दूसरीकी भावना है सत् मोह-तृष्णा है। को प्राप्ति, शानकी प्राप्ति, उचताकी प्राप्ति, अनन्तकी प्राति, अक्षय सुखकी प्राप्ति, अमृतकी प्राप्ति, अपवर्ग धर्मका मार्ग लोक मार्गसे भिम की प्राप्ति । पहिली के लिए दुःख निवृत्तिका उपाय दुःखविस्मृति पहिली के लिये प्रश्न हल करनेका साधन, तत्व- है, प्रज्ञान है, निद्रा-तन्द्रा है, सुरापान है। दूसरीके निर्णय करने का प्रमाण इन्द्रिय-ज्ञान है, बुद्धि-जान है, लिए दुःख निवृतिका उपाय शान है; दुःख को साक्षात् दुसरीके लिये जाननेका साधन, निर्णमरनेका प्रमाण करना है, दुःख के कारणोंको बानना है, उन कारणोंका भन्ने , भुशान है। विच्छेद करना है। पहिलो के लिए जीवनका विधाता, मास्मासे भिन्न, पहिली के लिए दुःख निवृत्तिका उपाय बाम शमात्मासि बाहिर प्राकृतिक शक्ति है-शक्तियोंके अधि- क्तियों-देवी-देवताओं ईश्वरकी याचना-प्रार्थना है, ठाता देवी देवता है,देवी देवताओंके नायक ईश्वर है। पूजा वंदना है, भक्ति-उपासना है। दूसरी के लिए दुःख, दूसरीके लिए जीवनका विधाता-जीवनका अधिष्ठाता निवृत्तिका उपाय प्रात्म-विश्वास है, प्रात्म-पुरुषार्थ स्वयं प्रात्मा है, आत्माके ही शुभाशुभ भाव , शुभा- है, आत्म-शक्ति है। जो श्रात्माकी शरण जाता है, राम कर्म है । ये ही जीवनमें सुख दुःख, उत्थान-पतन प्रास्माके लिए ही सब कुछ समर्पण करता है, वह पर्व...... . दुख नहीं पता है। जो पास देवी देवताओंकी उपा१०.११. । अथर्व १३.१ । ... . .धम्मपद ॥ ११॥ सामायिकपाट ॥१०॥ (4) असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, समयसार ॥ १०॥ कोशिकी. उप. १.३, . सत्योमा मयुतं गमवि- उप०८.१४ उप. १.५, ७, वेताश्वतर. उप... (भा) भरतस्य देवधारयो भूषासम्" x गीता १.५ निवप्रयंचय ... -व. उप० १.५.१. शिक्षाप्रेम ॥ १॥ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ [ज्येष्ठ, भाषाद, वीर-निर्वाण ०२४१५ साना सना करता है, वह धर्म तत्वको नहीं जानता, वह देव- प्रकृति में विश्वाम रखने वाला प्रकृतिरूप हो जाता ताओंके पशुके समान है। है। पशुपक्षियोंकी अज्ञानमय भोगदशाको पमन्द करचे ___ पहिलोके लिये दुःख निवृत्तिका उपाय प्राकृतिक वाला पशु पक्षिरूप हो जाता है । देवताओंमें श्रद्धा विजय है, लौकिक विजय है । उसका साधन, वशीकरन रखने वाला देवतारूप, पितरोंमें श्रद्धा रखने वाला मन्त्रतन्त्र है वैज्ञानिक आविष्कार है। दूमरीके लिये भूतप्रेत रूप होजाता है। और अात्मामें श्रद्धा रखने दुःख-निवृत्तिका उपाय . आत्म-विजय है । उसका वाला श्रात्मस्वरूप होजाता है। माधन इन्द्रिय-संयम है, मन-वचन कायका वशीकरण इस तरह बाह्य दृष्टि वाला संसारकी ओर चला है, आध्यात्मिक शिल्प है। जाता है और अन्त दृष्टिवाला मोक्षकी ओर चला जाता पहिलीके लिये सुखका मार्ग इच्छावृद्धि है; परि- है। संमारका मार्ग और है और मोक्षका मार्ग और है। ग्रह-वद्धि है, भोगवृद्धि है । दुमरीके लिए सुग्वका मार्ग ममार-मार्गमे चलकर धन-दौलत की प्राप्ति हो इच्छात्याग है, परिग्रहस्याग है, भोगत्याग है। सकती है, परिग्रह अाइम्बर की प्राप्तिहो सकती है, भोग उपभोगकी प्राप्ति हो मकती है। बल वैभव की प्राप्ति पहिलीके लिए सुखका मार्ग अहकार, विज्ञान और विषयवेदनामें बमा है । दूमरीके लिये सुखमार्ग हो सकती है, मान मर्यादाकी प्राप्ति हो मकती है । साम्यता, अन्तर्ध्यान और अन्तर्लीनतामें रहता है। परन्तु पूर्णताकी प्राप्ति नहीं हो मकनी, मुग्व की प्राप्ति पहिलीका मार्ग प्रवृति मार्ग है । दूसरीका मार्ग नहीं हो सकती, अमृत की प्राप्ति नहीं हो सकती। ____धर्ममार्ग ही ऐसा मार्ग है जिस के द्वारा मनुष्य निवृत्ति-मार्ग है । पहिलीका फल संसार है, दूसरीका। लौकिक सुम्ब, लौकिक विभूति को प्राप्त होता हुआ फल मोक्ष है। अन्त में निर्माणसुख को प्राप्त कर लेता है। जो-जैमी श्रद्धा रखता है वैसी ही कामना करता यदि पर्णताकी इच्छा है तो सिद्ध पुरुषो की ओर है, जैसी कामना करता है वैसा ही मार्ग ग्रहण करता देख, यदि अक्षय सुम्स की अभिलाषा है तो निराकुल है, वैसा ही फर्म करता है, जैसा कर्म करता है वैसा ही मुखी पुरुषोंकी ओर देख । यदि अमृत की भावना है मंस्कार, वैसी ही शक्तिको उपजाता है, वैमा ही वह हो तो अमर पुरुषोंकी श्रोर देख । जो उनका मार्ग है उसे जाता है । ही ग्रहण कर। पथ यो अन्य देवताम् उपास्ते, अन्यो ऽसौ अन्यो. अम् अस्मीति, न स वेद, पथ परेच स देवानाम्' --वृक्ष० उप० १.४.१० (मा) श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छृद्धः स एष। (4) अथ खल्वाहः काममयः एवायं पुरुष इति, स सः-गीता १०.३. यथा कामों यवति, तस्कतुर्भवति यतऋतुर्भवति (इ) निरुतपरिशिष्ट २.६; तत्कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदपिसम्पयते । गोता ७.२१-२३, १. २५. -बृह. उप० ४-४-१. *धम्मपद ॥ ५॥ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरिशासन-जयन्ती-उत्सव इस वर्ष वीर-मेवामंदिरमें श्रावण कृष्णा भाषण बहुत ही प्रभावक एवं महत्वके हुए हैं। प्रतिपदा सा० २० जुलाई सन १९४० शनिवारको इन भाषणोंमें धीर-शासनके महत्वका दिग्दर्शन वीरशामन-जयन्तीका उत्मव गत वर्षसे भी अधिक कराने के साथ साथ उनके पवित्रतम शासन पर ममारोहके साथ मनाया गया । नियमानुसार अमल करने की ओर विशंप लक्ष दिया गया है । प्रभात फेरी निकली, झंडाभिवादन हुश्रा, मध्यान्ह वीर भगवान्के अहिंसा मादि खास सिद्धान्तोंका के समय गाजे बाजे के साथ जलस निकला और इस हंगमे विवेचन किया गया कि उससे उपफिर ठीक दो बजे पं० श्री. मवखनलालजी स्थित जनता बड़ी ही प्रभावित हुई । और सभीके अधिष्ठाता ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम चौरामी-मथुगके दिलों पर यह गहरा प्रभाव पड़ा कि हम वीरमभापमित्वमे जल्सेका प्रारम्भ हुआ और वह ५॥ शासनकी वास्तविक चर्यासे बहुत दूर हैं और बजे तक रहा । जल्ममें बाहरम सहारनपुर मुज उमे अपने जीवन में ठीक ठीक न उनार सकने के परनगर, देहली. मथग नकुड़ कैराना अभदुल्ला कारण ही इतनी अवनत दशाको पहुँच गये हैं। पुर, जगाधरी और नानौता आदि स्थानोंम अनेक अब कि वीरकी अहिमा और सत्य के एक अंशका सजन पधारे थे। पालन करनसे गांधीजी महात्मा हो गये और मंगलाचरण, निथि-महत्व और श्रागन पत्रों सारे संसारकी दृष्टिमें प्रतिष्ठाको प्राप्त हुए, तब का मार सुनानका अनन्तर सभामं भाषणादिका बीरके उन अहिमा और सत्य आदि मिद्धान्नोंका कार्य प्रारम्भ हुआ, जिसमें निम्न सज्जनोंने पूर्णतया पालन करके उन्हें अपने जीवनमें उतार भाग लिया--- कर अथवा वीरके नक्शे कदम पर चल करकेला. नाहरसिंहजी सम्पादक जैन प्रचारक संसारका ऐसा कौनसा प्रतिष्ठित पद है जिम हम सरमावा, चि. भारतचन्द्र, ओमप्रकाश, माल प्राप्त न कर सके । फिर भी हम वीरशामनके रामानन्दजी मायानाचार्य, प्रो धर्मचन्द्रजी, बा० रहस्यको भूले हुए हैं ---उनके अनेकान्न और स्याकौशलप्रमादजी,ला. हुलाशचन्दजी,"पं० रामनाथ- द्वाद सिद्धान्तसं अपरिचित हैं--इसी कारण इम जी वैद्य, पं० राजेन्द्रकुमारजी कुमरेश, पं० जगल- बीर-शामनका स्वयं आचरण नहीं करने और न किशोरजी मुख्नार, सौ० इन्द्रकुमारी हिन्दीरत्न' दूसरोंको ही करने देते हैं; मात्र उम अपनी बपौती शारदादेवी और सभाध्यक्ष पं० मक्खनलालजी। समझ कर ही प्रमन्न हो रहने हैं ! जो शामन भापणोंमें प्रो० धर्मचन्दजी, बाकौशलप्रमाद- संसारके ममस्त धाँसे श्रेपनम, अवाधित एवं जी, मुख्नार साहब और सभापति महोदयके सुखशान्तिका मूल है, जिससे दुनयाके सभी Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. L. 4328. विरोधोंका समन्वय हो सकता है तथा जो जीवा- लिये कटिबद्ध हो। स्माकी प्रगति एवं विकासका खास साधन है और भाषणोंका जनता पर अच्छा असर पड़ा और जिसका प्राश्रय पाकर अधमसे अधम मनुष्य एवं उसने अपनी भूल तथा गलतीको बहुत कुछ यहपशु-पक्षी तक सभी जीव अपनी आत्माका उत्थान सूस किया। कर सकते हैं उसमें हम अनाभिज्ञ रहें, उसे स्वयं भाषणोंके अतिरिक्त गायनोंका भी अच्छा अमलमें न जाएँ और न दूसरोंको ही उस पर मानन्द रहा। मा० रामानन्दजीका महावीरके अमल करने दें, यह कितनी बड़ी लज्जा एवं खेद जीवन सम्बन्धमें बहुत ही अच्छा गायन और की बात है ! ऐसी हालतमें हमारा अपनेको प्रभावक उपदेश हुा । वि० भरतचन्दका गायन वीरका अनुयायी उपासक या सेवक बतलाना बहुत ही सुन्दर एवं चित्ताकर्षक था । चि० भरतकितना हास्यजनक है उसे बतलानेकी जरूरत चन्दकी अवस्था इस ममय १३ वर्षकी है, इतनी नहीं रहती । वीर-शासनका सच्चा उपासक छोटीसी ययगे वह गायनकला में प्रवीण विद्वानकी या अनुयायी वही हो सकता है जो वीरके नक्शे भाँति मनोमोहक गाना गाता है। उसकी आवाज कदम पर चलता हो । अथवा उनके सिद्धान्तों बन ही मधुर और सुरीली है और वह एक होनपर स्वयं अमल करता हुआ दूसरोंको भी अमल हार बालक जान पड़ता है । उसका भविष्य उज्ज्वल करनेके लिये प्रेरित करता हो, और जो अमल हो यही हमारी भाषना है । इस तरह यह करनेको उद्यमी हो उन्हें सब प्रकारसे अपना सह- जल्सा बहुत ही शानदार एवं प्रभावक हुआ है। योग प्रदान करता हो और इस तरह तन मन धनसे बोरके सिद्धान्तोंका प्रचार करने करानेके -परमानन्द जैन शास्त्री वीर-सेवामन्दिरको सहायता हाजमें वीरसेवा मन्दिर सरसावाको निम्न सज्जनोंकी भोरले ४८ रु० की सहायता प्राप्त हुई है, जिसके लिये दातार महानुभाव धन्यवाद के पात्र है:-- २१) खा० मुरलीधर बनवारीलाल जैन कचौरा नि० इटावा (पिताश्रीके स्वर्गवासके समय निकाले हुए वानमेंसे) १५) बा• विश्वम्भरदास जिनेश्वरदास बगान भैंसी नि० मुज्जफरनगर ( वेदी प्रतिष्ठाके अवसर पर)। .) वाल्मन उग्रसैन जैन, जगाधरी नि० अम्बाला (पुत्र विवाहकी खुशीमें) २) बा. मनोहरवास ताराचन्द जैन भारती बदौत नि० मेरठ (विवाहकी खुशीमें) अधिष्ठाता-वीरसेवामंदिर' सरसावा, जि. सहारनपुर। 'वीर प्रेस ऑफ इण्डिया' कनॉट सर्कस न्यू देहली में छपा। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LENEGORING BALIMARATTERESTERIODOECTORTONESENTERTAINMENTLEME-MAGAGNOROTAOWEROATING श्रावण वीर नि.सं. AZINEER अगस्त १९४.. अनकान्त पं३, किरण १० वार्षिक मूल्य ३ रु. SITESTMENYETTINCINIANL E CTRICT TRIPAHEERINTENOLNONCOPIECOLOGYMITEDO0 Farwearnmetery weremrappan marATMaperma n e w .. AMSUTRIANRITrm ३ . . . . . .. .. .. . .. ANT . . . . . . Sr.. M KE SE... O MP HONSTRACT KOMAL Man. Patest . 76 COPa .. Vaand. . . anAPATRA PAHALAN Flet KESHARE NEER EASCHATANTRA SEL: RAM rain INir / darran 4 . . . Dat . . . 4Me KHARA FrankMONKE. A NAS ANTAR . .. H TTARA AMRAP A Hainik... .. U-N. . .. ...e .:" ... . .... t . rethio i .. . abhe . . . ..:. .'m.n urr . . ..AAppleyr AR hdX .. - .. d.. Kabira . Mandalusana m m aAMMinormonein.h i nebabeitattiatinian ire Miamar wala ......TAILS ....THEASEACHIONLO मचानकतनमुखराय जैन Yeaning५ ५.. P 4 Kherapan __ गलकिशोर सुनार अधिया नीर-शान्दिर मनमाया (मरिन) OKO कनाट गथम पा० यो य उनी । महक और वाराफ-अयोयाप्रसाद गोयलीय। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १. देवनन्दि-पूज्यपाद-स्मरण इम और हमारा यह सारा संसार-बा० सूरलमान वकील २३..क्या लिला संसारकी छद्र रचनामों में हैं.१-[श्रीललिताकमारी जैन विदुषी, प्रभाकर ५४ीका के पति-[श्रीरामकुमार 'स्नातक ५. मोकार-विचार-[भी अमृतलाल चंचल १६. सफेद पत्थर भयवा माल हृदय-दीपक से पहुंग का मतविचार-श्री एम. गोबिन्द पै ८. नवयुवकों को स्वामी विवेकानन्दके उपदेश-[अनु० डा० बी० एल० जैन पी० एच० डी० ९. सामिलामाषाका चैन साहित्य -[प्रो० ए० चक्रवर्ती एम. ए. आई. ई. एस. ... ५९७ १०.अहिंसा सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण प्रश्नावली-[विजयसिंह नाहर ... ... ६०५ ११. धीरोंकी अहिंसाका प्रयोग-[श्री महात्मा गांधी ... ... .... ६०७ १२. कुल और उच्च जाति [श्री. बी. एन. जैन ... ... ... टाइटिल ३ ५९६ संशोधन गत धूम-शुलाई मासकी संयुक्त किरण (E-1) में मुद्रित परिप्रह-परिमाण-बतके दासी-दास गुलाम थे' .इस देख करने में कुछ मदियां हो गई है, जिनमें से खटकने वाली चंद खास अशुदिनोंका संशोधन नीचे दिया जाता है। पाठकनन उसे अपनी अपनी प्रविमें बना बैं: काखम पमिके परिमाके खेत भड़ासास्यु १८-1 -प्रकाशक Page #606 --------------------------------------------------------------------------  Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानवीर रा० ब० सेट हीरालालजी, इन्दौर . LINK Nare 1. Py ...KAM KME MEA CINEMARY . 44.श्री TER AAAAS PAANhyanrotrLL THA RANI S श्रापनं ५५० जनंतर मम्मात्री बनिवमिटियां कान्ले जो. हाईमन्ना और लाहवारयो को ५ के लिए और 200 जनमान्दरो पुस्तकालयोको ६ माहक गन्ना अनेकान्त' अपनी ओग्मे भिजवान की उदारमा दमाई है। Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A BIRAM ITUIR देहली नीति-विरोष-ध्वंसी लोकव्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ ) सम्पादन-स्थान-वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि. सहारनपुर । वर्ष ३ । प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० बो० नं. ४८, न्य किरण १० श्रावण-पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं०२४६६, विक्रम सं० १९६७ देवनान्दि-दूज्यपादस्मरण यो देवनन्दि-प्रथमाभिधानो बुद्धचा महत्या स जिनेन्द्रबुधिः।। श्रीपूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुग यदीयं ।। -श्रवणबेलगोल शिम.. जिनका प्रथम नाम-गुरुद्वारा दिया हुआ दीक्षानाम-'देवनन्दी' था, जो बादको बुद्धि की प्रकर्षताके कारण "जिनेन्द्रबुद्धि' कहलाए, वे प्राचार्यश्री 'पूज्यपाद' नामसे इसलिये प्रसिद्ध हुए हैं कि उनके चरणोंकी देवताओं ने पाकर पूजा की थी। श्रीपूज्य गदोपतधर्मराज्यस्ततः सुराधीश्वरपूज्यपादः। यदीयवैदुष्यगुणानिदानी वदन्ति शास्त्राणि तदुद्धृतानि । धविश्वबुद्धिरयमत्र योगिभिः कृतकृत्यभावमविदुषकः। जिनवबभूव यदना चापहृत् स जिनेन्द्रबुद्धिरिति साधुवर्णितः ।।-अवरवेल्गोल शि००० १०८ ___ श्री पूज्यपादने धर्मराज्यका उद्धार किया था-लोकमें धर्मकी पुनः प्रतिष्ठा की थी-इसीसे भाप देवतात्रोंके अधिपति-द्वारा पूजे गये और 'पूज्यपाद' कहलाये । श्रापके विद्या विशिष्ट गुणोंको आज भी आपके द्वारा उद्धार पाये हुए-रचे हुए-शास्त्र बतला रहे है-उनका खलागान कर रहे है। श्राप जिनेन्द्रकी तरह विश्वबुद्धिके धारक समस्त शाखाविषयोंके पारंगत ये और कामदेवको जीतने वाले थे. इसीसे आपमें ऊँचे दर्जे के कृतकृत्यमावको धारण करने वाले योगियोंने आपको ठीक ही जिनेन्द्रबुद्धि' कहा है। श्रीरबपादमुनिरपतिमौषषर्वियादिदेहजिनदर्शनपूतगात्रः। यत्पादौतजवा-संस्पर्शप्रभावात् कालायसं किलं तदा कनकीपकार ।। --.शि.० १०० जो अद्वितीय औषध-ऋद्धिके धारक थे, विदेह-स्थित जिनेन्द्र भगवानकै दर्शनसे मिनका गात्र पवित्र Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ . अनेकान्त [भापब, बोर विद्रसं०२४ हो गया था और जिनके परख बोए जल गया भा, वे भीपज्यमाद मुनि जयवन्त हो-अपने गुणों को कबीना वीर्य करते । विदुषां वामना म यम् ॥-- जिनका पान-सम्पत्रिलपी व्याकरण-तीर्थ विद्वज्जनान करने वाला है, वे देवनन्दी कवियोंके--मीन संदर्म रखने वालोंक-तीर्थकर हैं, उनके विपक्में और अकि सा कहा जाय ?. अचिन्त्यमहिमा देवः सोभिकको सिविता। सदाब येन सिरपति साधुत्वं प्रविम्भिवाचा जिनके द्वारा--जिनके व्याकरणशास्त्रको लेकर--शब्द भले प्रकार सिद्ध होते हैं, वेदिवनन्दी अचिन्त्य महिमायुक्त देव है और अपना ति चाने वालोंके.दारा सदा बन्दना किये जाने के योग्य हैं। ....पूज्यपाद: सद्रामा पुनातु मम . व्याकरणार्णवो येन तीनों विस्तीर्णसद्गुणः ।। -पाशवपुराणे, रामचन्द्रः जो पज्योंके द्वाग भी सदा पूज्यपाद है, व्याकरण-समुद्रको तिर गये हैं और विस्तृत सद्गुणों के धारक हैं, वे श्री पूज्यपाद प्राचार्य मुझे सदा पवित्र करो--नित्य ही हृदयमें स्थित होकर पापोंसे मेरी रक्षा करो। अपा कुवन्ति यवतः काय-वाक्-चिचसंभवम् । कलंकमगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥-ज्ञानालवे, श्रीरामचन्द्र जिनके वनन प्राणियोंके काय, वाक्य और मनः सम्बंधी दोपोंको दूर कर देते है--अर्थात् जिनके वैद्यक-शाम के सम्यक् प्रयोगसे शरीरके, व्याकरणशास्त्रसे वचनके और समाधिशास्त्रसे मनके विकार दूर हो जाते है--उन श्रीदेवनन्दी श्राचार्यको नमस्कार है। न्यासं जैनेन्द्र संझं सकलबुधनुतं पणिनीयस्य भूयोन्यासं शब्दावतारं मनुजतविहितं वैद्यशास्त्र च करवा । यस्तत्त्वार्थस्य टीको व्यरचयदिह भात्यसौ पूज्यपाद स्वामी भूपालवन्धः स्वपरहितवचः पूर्ण इम्बोधवृत्तः ॥-नगरताल्लक शि• लेखनं० ॥ ___ जिन्होंने सकल बुधजनोंसे स्तुत 'जैनेन्द्र' नामका न्यास (व्याकरण) बनाया, पुनः पाणिनीय-व्याकरण पर 'शब्दावतार' नामका न्यास लिखा तथा मनुज-समाज के लिये हितरूप वैद्यक शास्त्र की रचना की और इन भबके बाद नत्यार्थ सूत्रको टीका ( सर्वार्थसिद्धि) का निर्माण किया, वे राजामोंसे वन्दनीय-अथवा दुर्विनीत राजाम पनित--स्वपर-हितकारी वचनों (ग्रन्थों के प्रणेता और दर्शन ज्ञान-चारित्रसे परिपूर्ण भीपूज्यपाद स्वामी (अपने गुणोस ) खूब ही प्रकाशमान है। जैनेन्द्र निजशब्दमागमतुलं सर्वार्थतिः परा सिद्धान्ते निपुणवमुघकविता जैनाभिषेकः स्वकः । छन्दः सूक्ष्मधियं समाधिशतकं स्वास्थ्यं यदीयं विदामाख्यातीह स पूज्यपादमुनिपः पूज्यो मुनीनां गयैः।-अवयवेलगोल शिल... जिनका 'जैनेन्द्र' (व्याकरण) शमशास्त्र में अपने अतुलित भागको 'सकार्यसिद्धि' (तत्वार्थटीका) सिद्धान्तमें परम निपुणताको, जैनाभिषेक' ऊँने दर्जेनी कविताको, बन्दसान मुखिकी बचाता (सनाचातुर्य) को और 'ममाधिशतक' जिनकी स्वात्मस्थिति (स्निपचना)ो संघारमें शिानों पर प्रकट करता है वे 'पूज्यपाद' मुनीन्द्र मुनियोंके गणोंसे पूजनीय हैं। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम और हमारा यह सारा संसार [ लेखक-बा० सूरजभान वकील । उत्थानिका भाकस्मिक घटनायें कोई कोई पुरुष भाग्यको ही सब कुछ मानकर, हमारा यह सारा संसार अनन्तानन्त प्रकारके जीवों उसके द्वारा ही सब कुछ होना स्थिर करके उसके और अनन्तानन्त प्रकारके अजीव पदार्थोसे भरा पड़ा विरुद्ध कुछ भी न हो सकनेका सिद्धान्त स्थिर कर लेते है । सब ही जीव और अजीव अपने स्वभाव और हैं और हसना, हिम्मत, कीशियनीर मुरुषाय सर्व ही शक्ति के अनुसार क्रिया करते रहते हैं, जिसका असर को व्यर्थ समझ बैठते हैं। जिस देश या जातिमें ऐसी उनके पास पासकी चीजों पर पड़कर उनमें भी तरह लहर चल जाती है वह नष्ट हो जाते हैं और गुलाम तरहका अलटन-पलटन होता रहता है। सूरज निकलता बन जाते हैं । अतः इस लेखके द्वारा इस बात के सम- है और छिपता है, पृथ्वी पर उसकी धूपके पड़नेसे मानेकी कोशिश की गई है कि भाग्य क्या है वह किस पानीकी माप बनकर हवामें मिल जाती है, कोई वस्तु प्रकार बनता है, उसकी शक्ति कितनी है और उसका सूखती है कोई मड़ती है। हवा चलनेसे सूखे पचे, कार्य क्या है। संसारके जीवों और अजीव पदार्थोके घास फूम और धूल-मिट्टी उड़कर कहींसे कहीं जा पड़ती साथ प्रत्येक जीवका संयोग किस प्रकार होता है और है। पानी भी बहता हुआ अपने साथ बहुत ची नोंको उस संयोगका क्या असर उस जीव पर पड़ता है। वह बहा ले जाता है और गला सड़ा देता है । भाग भी सयोग किस प्रकार मिलाया जा सकता है, किस प्रकार किसी वस्तु को जलाती है, किसीको पिघलाती है, किसी रोका जा सकता है और किस प्रकार उससे लाभ उठान को पकाती है और किमाको नर्म या कड़ी बना देती है। या उसकी पनियोंसे बचनेकी कोशिश की जा सकता है संसारके इन अजीव पदार्थोमे न तो शान है और न किस प्रकार आगे के लिये अपना भाग्य उत्तम बनाया कोई इच्छा या इरादा, न सुख दुख महसूस करनेकी जा सकता है और किस प्रकार बने हुए खोटे भाग्यको शक्ति ही है। वब इनमें न तो कोई कर्मबंधन ही होता है सुधारा जा सकता है। आशा है पाठक इस लेखको और न इनका कोई भाग्य ही बनता है। इस कारण श्राद्योपान्त पढ़कर ही इस पर अपनी मति स्थिर करेंगे दूसरे पदार्थोकी क्रियाओंसे इनमें जो अलटन पलटन और यदि उन्हें यह कथन लाभदायक तथा सबके लिये हो जाता है, वह प्राकस्मिक या इचफाकिया ही कहा हितकारी और वरूरी प्रतीत हो तो हर तरहसे इसके जाता है। जैसाकि कुछ ईट बाज़ारसे लाकर उनमें से प्रचारका यह करेंगे इसको सब तक पहुँचानेकी पूरी कबसे तो रोटी बनानेका चूला बना लिया, उसे कोशिश करेंगे। पूजाकी बेटी और कुषसे टकी फिरनेका पाखाना । इस Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · [आवय, बीर विषय सं० २४६ ३ ही प्रकार बाजारसे कुछ कपड़ा लाकर कुछकी टोपी, हैं, परन्तु उस बेचारेको तो इसका कुछ भी ध्यान नहीं गाड़ी की में बैठा जा रहा है, गाड़ीके चलने से बेहद गर्दा उड़ता जा रहा है, जिससे उसको भी बहुत दुख हो रहा है और उस रास्ते पर चलने वाले दूसरों को भी। गाड़ीके पहियोंकी रगढ़ और के पैरों की टापोंसे रास्ते में पड़े हुए अनेक छोटे छोटे जीव भी कुंचले जा रहे हैं। जिनके कुचलनेका इरादा गाड़ी वालेके मनमें बिल्कुल भी नहीं है, तब यह सब अकस्मात् ही तो होरहा है । २६० अनेकान्त कुछ की जी कान बना लिया । इस प्रकारके सब भेद ज़रूरत या अवसरके अनुसार ग्राकस्मिक या इतका किया ही होते रहा करते हैं । पहलेसे तो उनका कोई भाग्य बना हुआ होता ही नहीं, जिसके अनुसार यह सब घटनायें होती हो । dattant क्रियाका असर जैसा कि अजीब पदार्थों पर होता है वैसा ही जीवों पर भी होता है । जेठ- श्राषाढ़ के कड़ाके की धूप में छोटे छोटे कीड़े मर जाते हैं, तालाब का पानी सूख जाता है, जिससे उसकी सब मछलियाँ और अन्य भी जीव मर जाते हैं। बरसात की पूर्वी हवा चलनेसे फूलों और फलोंमें कीड़े पड़ जाते हैं, पानीके बरसनेसे अनेक प्रकारके कीड़े पैदा हो जाते है और लाखों करोड़ों मर भी जाते हैं; परन्तु जेठ श्राषाढ में कड़ी धूपका पड़ना, बरसात में पूर्वी हवाका चलना और पानीका बरसना, यह सब तो उन वस्तुनों के अपने स्वभावसे ही होता रहता है, किसी जीवके भाग्यसे नहीं होता। इस वास्ते उनसे जीवों पर जो असर पड़ता है वह तो अकस्मात् ही होता है । हवा, पानी, अग्नि आदि अजीब पदार्थोंमें तो ज्ञान नहीं, इच्छा नहीं, इरादा नहीं, इस कारण उनकी तो सब क्रियायें उनके स्वभावसे ही होती हैं, किन्तु जीवों की जो क्रियायें इच्छा और इरादेसे होती हैं उनसे भी दूसरी वस्तुओं पर ऐसे असर पड़ जाते हैं, ऐसे अलटनपलटन हो जाते हैं जिनकी न उनको इच्छा ही होती है और न इरादा ही । जैसे कि जंगलका एक हिरण शिकारीसे अपनी जान बचाने के वास्ते अंधाधुंध दौड़ा जा रहा है, परन्तु जहाँ जहाँ उसका पैर पड़ता जाता है वहाँ के पौधे घास पात और मिट्टी सब चूर चूर होते चले जा रहे हैं, छोटे छोटे जीव भी सब कुचले जारहे सब कुछ भाग्यसे ही होता रहना असंभव है यदि यह कहा जाय कि यह सब कुछ अचानक नहीं हुआ किन्तु उन जीवों के भाग्य से ही हुआ तो साथ ही इसके यह भी मानना पड़ेगा कि इन जीवोंके भाग्य ही गाडीको खीच कर यहाँ लाये । परन्तु गाड़ी वाले पर और गाड़ीके बैलों पर सड़क के इन जीवोंके भाग्य की जबरदस्ती क्यों चली ? इसका कोई भी सही जवाब न बन पड़ने से अकस्मात् ही इनका कुचला जाना मानना पड़ता है | कसाईने गायको मारकर उसका मांस बेच, अपने बाल बच्चोंका पेट पाला, तो क्या गाय के खोटे भाग्यने ही क्रसाईके हाथों गायके गले पर छुरा चलाया। डाकू साहूकारके घर डाका डाल कर उसको और उसके सब घर वालोको मारकर सब माल लूट लिया, तो क्या साहूकारका भाग्य ही डाकूको च कर लाया और यह कृत्य कराया ? तब तो न तो क्रसाईने ही कुछ पाप किया और न डाकूले हो कोई अपराध किया; बल्कि उल्टा गायके भाग्यने ही कसाई को गायके मारने के वास्ते मजबूर किया और साहूकार का भाग्य ही बेचारे डाकूको खींचकर लाया । यदि Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरिण .] हम और हमारा यह सारा संसार ऐसा ही माना जाये तब तो कोई भी किसी पापका करने पर भी बहुत ही सुहावने लगने लगे; तब मेरे भाग्यने वाला, अथवा अपराधी नहीं ठहरता है । तब तो राज्य ही तो वे सब पेड़ वहाँ उगाकर खड़े कर रखे थे। एक का सारा प्रबन्ध, अदालत और पुलिस, धर्मशास्त्र और पेड़ टुंड मुंड सूखा खड़ा था, वह मुझे अच्छा नहीं उपदेश सब ही व्यर्थ हो जाते है और बिल्कुल ही अँधा- लगा; तब मेरा कोई खोटा भाग्य जरूर था, जिसने धुंधी फैल जाती है। यह सूखा पेड़ खड़ा कर रखा था। फिर जहाँ मैं टेही यदि कोई यह कहने लगे कि सुख या दुख, जो बैठा वहाँ हजारों डांस मच्छर मुझे दिक्क करने लगे, कुछ भी मुझको होता है, वह सब मेरे ही अपने किये उनको भी मेरा खोटा भाग्य ही खींचकर लाया था । कर्मों का फल या मेरे अपने भाग्यका ही कराया होता लौटते समय रास्तेमें अनेक स्त्री पुरुष आते जाते दीख है, अकस्मात् कुछ नहीं होता । तो यह भी कहना होगा पड़े, जिनसे मन-बहलाव होता रहा; तब वे भी मेरे कि उम्र भर मैंने जो कुछ देखा, सूंघा, चखा, छुत्रा भाग्यके ही जोरसे वहाँ आ जा रहे थे। फिर भावादीमें या सुना, उससे थोड़ा या बहुत दुख-सुख मुझको श्राकर तो दोर डंगरों, स्त्री पुरुषों और बढ़े यच्चोंकी ज़रूर ही होता रहा है। इस वास्ते वे सब वस्तुएँ मेरे बहुतसी चहल पहल देखने में श्राई; तब यह सब दृश्य ही भाग्यसे संसारमें पैदा होती रही हैं। आज सुबह हो भी मेरे भाग्यने ही तो मेरे देखने के वास्ते जुटा रखे थे। जिस मोटरकी गड़गड़ाहटने मुझे जगा दिया वह मेरे एक कुत्ता भौंक भौंक कर मुझे डराने लगा और मेरा भाग्यसे ही चलकर उस समय यहाँ आई । उस समय पीछा भी करने लगा जिसको मैंने लाठीसे भगाया, मैं जाग तो गया परन्तु मुझे संदेह रहा कि सुबह हो उसको भी मेरे खोटे भाग्यने ही मेरे पीछे लगाया था। गई या नहीं। कुछ देर पीछे ही रेलकी सीटी सुनाई इसके बाद सूरज निकला तो मेरे भाग्यसे धूप फैली तो दी वह सदा ६ बजे श्राती है, इसलिये उससे मुझे मेरे भाग्यसे, फिर दिन भर जो मेरी आँखोंने देखा और सुबह होनेका यकीन होगया । तब मेरा भाग्य ही मेरा कानोंने सुना, संसारके मनुष्यों और पशु पक्षियोंकी वे सदेह दूर करने के लिये रेलको खींचकर लाया । उस सब क्रियायें भी मेरे ही भाग्यसे हुई; और केवल उस समय ठंडी हवा बड़ा श्रानन्द दे रही थी तब वह मी ही दिन क्या किन्तु उम्र भर जो कुछ मैंने देखा या मेरे भाग्यकी ही चलाई चल रही थी। मैं उठकर जंगल सुना, वह सब मेरे ही भाग्यसे होता रहा, मेंह बरसा को चल दिया, यस्तेमें लोगोंके घसे बोलने चालनेकी तो मेरे भाग्यसे, बादल गर्जा तो मेरे माग्यसे, बिजली आवाज़ आ रही थी। जिससे मेरा दिल बहलता था, चमकी तो मेरे भाग्यसे, पर्वा-पछवा हवा चली तो मेरे तब उनको भी मेरे भाग्यने ही जगाकर बोलचाल करा भाग्यसे, रातको अनन्तानन्त तारे निकले तो मेरे भाग्य रखी थी। रास्तेमें पेड़ों पर पक्षी तरह तरहकी बोलियाँ से। बोल रहे थे, जो बहुत प्यारी लगती थीं, तो उनको भी परसों रातको सोते सोते एकदम रोनेकी आवाज़ मेरे माग्यने ही यह बोलियाँ बोलनेके वास्ते कहीं कहाँसे आई जिससे मैं जाग गया, मालम हुआ कि कोई मर लाकर वहाँ इकट्ठा किया था। गया है, मैं बड़े मज़ेकी नींद सो रहा था, इस रोनेके कुछ रोशनी हो जाने पर रास्तेके दोनों तरफ्रके शोरसे मेरी नींद टूट गई, तब यह भी मानना पड़ेगा Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ शबेकाय कि मेरे खोटे भाग्य से ही पड़ोसीकी मौत हुई, जिससे रोनेका शोर उठा और मेरी नींद टूटी । मैं फिर सो गया और फिर एक भारी शोरके सबब जामना पड़ा; मालूम हुआ कि किसीके यहाँ चोरी होगई तब यह चोरी भी तो मेरे ही भाग्यने कराई जिससे शोर उठ कर मुझे जागना पड़ा । कई बार मैं देश-विदेश घूमने के लिये गया हूँ | मीटर या रेलमें सफर करते हुए जो भी मुसाफिर मुझे मिलते रहे हैं, उनको मेरा भाग्य ही कहीं कहीसे खींच लाकर सफ़र में मुझे मिलाता रहा है। कोई उतरता है, कोई चढ़ता है, कोई उठता कोई बैठता है, कोई खोता है कोई जागता है, कोई हँसता है, कोई रोता है, कोई लड़ता है कोई झगड़ता है, यह सब कर्तव्य भी मेरा भाग्य ही उनसे मेरे दिखाने के वास्ते कराता रहा है। रेलमें बैठे हुए पहाड़-जंगल नदी नाले, बाग बगीचे, खेत और मकान उनमें काम करते हुए स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े, ढोर-डंगर, जंगलों में फिरते हुए तरह तरह के जगली जानवर और उड़ते हुए पक्षी और भी जो जो दृश्य देखने में आये, वे सब मेरे ही भाग्यने मेरे देखने के वास्ते पहलेसे जुटा रखे थे 1 [ श्रावण, वीर निर्वाय सं० २४६६ तरह२ की कथा-कहानी जो पढ़ने में आई, वे सब घटनायें मेरे भाग्यने ही तो पुराने जमानेंमे कराई होंगी, जिससे वे पुस्तकों में लिखी जावें और मेरे पढ़ने में आवें । श्रब भी जो जो मामले दुनियाँमें होते हैं और समाचार पत्रों में छपकर मेरे पढ़ने में आते हैं या लोगबागोंसे सुनने में आते हैं वे सब मामले मेरा भाग्य ही तो दुनियाँ भरमें कराता रहता है, जिससे वे छपकर मेरे पढ़ने में आवे या लोगोंकी जबानी सुने जावें । फिर जिन जिन नगरोंमें में घूमता फिरा हूँ, वहाँके महल, मकान और दुकान, और भी जो जो मनमनभावनी वस्तु वहाँ देखने में आई, वे सब मेरे भाग्य ने ही तो वहाँ मेरे दिखाने के वास्ते पहले ही बना रखी थीं। ग़रज़ कहाँ तक कहूँ, उम्र भर जो कुछ मेरी आँखोंने देखा या कानों ने सुना, वह सब मेरे दिखाने या सुनानेके वास्ते मेरे भाग्यने ही किया और संसारके जीवों और अजीव पदार्थोंसे कराया । सच तो यह है कि बीते हुए जमाने की जो जो बातें पुस्तकों में पढ़ने में चाईराज पलटे, लड़ाइयाँ हुई, रामका बनवास, सीता का हरण, रावण से युद्ध, महाभारतकी लड़ाई, और भी इस प्रकार यदि कोई पुरुष दुनियां भरका सारा काम अपने ही भाग्य से होता रहना ठहराने लगे, यहाँ तक कि लाखों करोड़ों वर्ष पहले भी दुनियाका जो वृतान्त पुस्तकों में पढ़ने में श्राता है, उसको भी अपने ही भाग्यंसं हुआ बताने लगे, तो क्या उसकी यह बात मानने लायक हो सकती है, या एक मात्र पागलकी बड़ ठहरती है । इस तरह तो हर एक शख्स संसारकी समस्त रचनाओं और घटनाओं के साथ अपने भाग्यका सम्बन्ध जोड़ सकता है और उन सबका अपने भाग्यसे ह्री होना बतला सकता है; तब किसी भी एकके भाग्यसे उन सबके होने का कोई नियम नहीं बन सकता और न जीव जीव पदार्थों का कोई स्वतंत्र अस्तित्व या व्यक्तिवही रह सकता है। आकस्मिक संयोग कैसे मिल जाते हैं। कहावत प्रसिद्ध है कि एक बैलगाड़ी चली जा रही थी । धूपकी गर्मीस बचने के वास्ते एक कुत्ता भी उस गाड़ीके नीचे २ चलने लगा । चलते २ वह यह भूल गया कि गाड़ी अपनी ताकतसे चल रही है और मैं अपनी ताकतसे, न गाड़ी मेरी ताक्कतसे चल रही है और न मैं गाड़ीकी ताक़तसे, किन्तु गाड़ीके Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १, किरण १०] हम और हमारा यह सारा संसार नीचे नीचे चलने से मेरा उसका संयोग जरूर हो गया है। यह सब बातें भूलकर घमंडके मारे उसके दिमाग़ में ही समा गया कि यह गाड़ी भी मेरे ही सहारे क्ल रही है। इस ही प्रकार संसार में अनन्तानन्त जीव र श्रजीव सब अपनी २ शक्ति और स्वभाव के अनुसार ही कार्य करते हैं परन्तु एक ही संसार में उनके सब कार्य होते रहने से एक दूसरे से उनको मुठभेड़ होते रहना या संयोग मिलना लाज़िमी और ज़रूरी ही है । परन्तु इस तरह यह समझ बैठना कि उन सबके वे कार्य मेरे भाग्य से ही हो रहे हैं, बड़ी भारी भूल है । बाजार में तरह तरह के ऐसे खिलौने मिलते हैं जो चाची देने से तरह तरहके खेल करने लगते हैं । कोई दौड़ता है, कोई उछलता है, कोई कूदता है, कोई घूमता है, कोई नाचता है, कोई कलाबाजी करता है । अगर इन सबको चाबी देकर एकदम एक कमरे में छोड़ दिया जावे तो वे सब अपना अपना काम करते हुये एक दूसरेसे टकरा जायेंगे। जिससे कोई उथल जायेगा, कोई कार्य करनेसे रुक जायेगा, कोई उलटा पुलटा काम करने लग जायेगा, किसीकी कूक निकल जायेगी लेकिन यह सब खिलौने तो अपनी २ शक्ति श्रौर स्वभाव के अनुसार ही काम कर रहे थे । एक दूसरे से तो इनका कोई भी संबंध नहीं था । केवल एक ही कमरे में काम करते रहनेसे, श्रापसमें उनकी मुठभेड़ होगई और उनका खेल बखेल होकर ऐसी उथलपुथल हो गई जो उनके स्वभाव के बिल्कुल ही विरुद्ध थी इस ही प्रकार संसारके सब ही जीव अजीव अपनी २ शक्ति और स्वभाव के अनुसार इस दुनिया में काम करते हैं, जिनकी आपस में मुठभेड़ होजाना और उस मुठभेड़की वजहसे ही उनमें उथल-पुथल और खेलबखेल होते रहना भी लाजिमी और जरूरी हो है । २६६ ऐसी ही सब घटनायें श्राकस्मिक या इत्तफ़ाकिया कहलाती है। जो किसीके भाग्यकी कराई नहीं होती हैं । पानीसे भरे तालाब में ढेला मारनेसे एक गोल चक्करसा होजाता है और वह चक्कर अपने श्रास पासके पानीको टक्कर देकर दूसरा बड़ा चकर बना देता है । इसी तरह और भी बड़े बड़े चक्कर बनते बनते किनारे तक पहुँच जाते हैं। यदि इस ही बीचमें कोई दूसरा ढेला भी फेंक दिया जाय तो उसके भी चक्कर बनने लगेंगे और पहले चकरसे टकराकर उन पहले चक्करोंकी भी तोड़ने फौड़ने लगेंगे और खुद भी टूटने फूटने लगेंगे। इस ही प्रकार यदि सैंकड़ों ढेले एक दम उस तालाब में फैके जावें तो वे अलग अलग सैंकड़ों चक्कर बनाकर एक दूसरे से टकरावेंगे और सब चक्कर टूट फूट कर पानी में तहलकासा मचने लग जावेगा । यही हाल संसार के श्रनन्तानन्त जीवों और जीवोंकी क्रियाओंका है, जिनके सब काम इस एकही संसारमें होते रहने के कारण आपस में टकराते हैं और गड़बड़ पैदा होती है। यह सब मुठभेड़ या संयोग श्राकस्मिक या इत्तफ़ाकिया ही होता है, किसीके भाग्यका बाँधा हुआ नहीं होता है । तब ही तो सब ही जीव हानिकारक संयोग से बचने और लाभदायक संयोगोंको मिलानेकी कोशिश करते रहते हैं, यह ही सब जीवोंका जीवन है, इस ही में उनका सारा जीवन व्यतीत होता रहता है, इसीको हिम्मत या पुरुषार्थ कहते हैं, यही एक मात्र जीव और अजीव में भेद है । जीव पदार्थोंमें न हिम्मत है न इरादा, जो कुछ होता है वह उनके स्वभावसे ही होता रहता है । परन्तु जीवों में हिम्मत भी है और इरादा भी है। इस ही कारण वे भाग्य होनहार वा प्रकृतिके भरोसे नहीं बैठते हैं। जंगलके जीव भी खाना पानीकै लिये ढूंढ भाल करते हैं, इधर उधर फिरते हैं, Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवेकान्त [भादय, दीर निर्वाण सं०१६ धूप और बारिशसे बचनेकी कोशिश करते हैं और मारे कर ईट पत्थरके समान निर्जीव बन जाती है। जानेका भय होने पर दौड़-भाग कर या लड़ मिड़कर भाग्य क्या है और वह किस तरह अपने बचावका भी उपाय करते हैं। मनुष्य तो बिल्कुल ही उद्यम और पुरुषार्थका पुतला है, इस ही कारण बनता बिगड़ता है अन्य जीवोंसे ऊँचा समझा जाता है। वह पशु-पक्षियों यह हम हगिज़ नहीं कहते कि अबसे पहला कोई के समान अपना खाना-पीना दृढता नहीं फिरता है, जन्म ही नही है या जीवोंके पहले कोई कर्म ही नहीं है, कुदरतसे आप ही आप जो पैदा हो जाय उस ही को जिनका फल इस जन्ममें न हो रहा हो या जीवोंका काफी नहीं समझता है। किन्तु स्वयं सहसों प्रकारकी कोई भाग्य ही नहीं है । यह सब कुछ है। किन्तु खानेकी वस्तुएँ पैदा करता है, अनेक प्रकारके संयोग जितना उनका फल है, जितनी उनकी शक्ति है, उतनी मिलाकर और पका कर उनको सुस्वादु और अपनी ही मानते हैं, उनको सर्वशक्तिमान नहीं मानते, न प्रकृति के अनुकूल बनाता है, क्या खाना लाभदायक है यह मानते हैं कि सब कुछ उन ही के द्वारा होता है। और क्या हानिकारक, क्या वस्तु किस अवस्थामें खानी जीवके कर्म क्या है, उनका बंधन जीवके साथ किस चाहिये और क्या नहीं, इन सब बातोंकी जांच पड़ताल प्रकार होता है, उन कर्मोकी शक्ति क्या है और उनका करता है, धूप हवा और पानीसे बचनेके वास्ते कपड़े काम क्या है और भाग्य क्या है, किस तरह बनता है । बनाता है, मकान चिनता है, भाग जलाता है, पंखा इन सब बातोंकी जांच करनेसे ही काम चलता है. तब हिलाता है, रातको रोशनी करता है, पानीके लिये ही कुछ पुरुषार्थ किया जा सकता है और पुरुष बना कुआ खोदता है या नल लगाता है, धरती खोदकर जा सकता है। हजारों वस्तु निकाल लाता है और उनको अपने काम आजकलकी सायंसने यह बात तो भले प्रकार की बनाता है, अनेक पशु-पक्षियोंको पालकर उनसे भी सिद्ध कर दी है कि संसारमें जीव या अजीव रूप जो भी अपना कार्य सिद्ध करता है, और इस तरह अनेक पदार्थ है उनके उपादानका कभी नाश नहीं होता है प्रकारके उद्यम करते रहने में ही सारा जीवन बिताता और न नवीन उपादान पैदा ही होता है, किन्तु उनकी है। जितना जितना यह इस विषयमें उन्नति करता है पर्याय, अवस्था रूप अवश्य बदलता रहता है । लकड़ी जितना जितना यह संसारकी वस्तुओं पर काबू पाता जल कर राख, कोयला या धुंआं बन जाती है, उसमें जाता है उतना उतना ही बड़ा गिना जाता है । जो से नाश एक परमाणुका भी नहीं होता है। पानी गर्मी भाग्य या होनहारके भरोसे बैठा रहता है वह दुख पाकर भाप बन जाता है और सौ पानेसे जमकर बर्फ उठाता है जिस देश या जिस जातिमें यह हवा चल बन जाता है। एक ही खेतमें तरह तरह के फलों-फलों, जाती है जो भाग्यको सर्वशक्तिमान मानकर सब कुछ तरकारियों और अनाजोंके पेड़-पौदे और बेलें लगी उस ही के द्वारा होना मान बैठते है वह देश या जाति हुई है, जंगली झाड़ियाँ और घास फूस भी तरं २ के मनुष्यत्वसे गिरकर पशु समान हो जाती है दूसरोंकी उगे हुए हैं। यह सब एक ही प्रकारकी मिट्टी-पानीसे गुलाम बनकर खूटेसे गाँधी जाती है या जीवनहीन हो परवरिश पा रहे हैं और बढ़ रहे है । उस से मिट्टी Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - हम और हमारा सारा संसार पानीसे नीमका पेड़ बढ़ रहा है और उस ही से नींबू पलटन होता यता। नारंगी और प्राम-इमली का | भावार्थ यह है कि उस जीवोंका शरीर तो मिट्टी-पानी आदि अजीव ही मिट्टीपानीके परमाण नीमके पेड़ के अन्दर जाकर पदार्थोंका ही बना होता है, उसके अन्दर जो जीवात्मा नीम के पत्ते, फूल और फल बन जाते हैं और वे नारंगी होती है, उस ही में शन और राग-द्वेष, मान-माया, के पेड़ में जाकर नारंगीके फल फल और पचे बन जाते लोभ-क्रोध श्रादि भड़क, इच्छा, विषय-वासना हिम्मत हैं। फिर इन सहस्रों प्रकारकी बनस्पतिको गाय, बकरी, हौंसला, इरादा और सुख-दुखका अनुभव श्रादिक भैस, खाती हैं तो उन जैमा अलग २ प्रकारका शरीर होता है । परन्तु यह सब बातें प्रत्येक जीवमें एक समान बनता रहता है और मनुष्य खाता है तो मनुष्यकी देह नहीं होती है । किसीका कैसा स्वभाव होता है और बन जाती है और फिर अन्तमें यह सब वनस्पति, पशु किसीका कैसा; जैसाकि कोई गाय मरखनी होती है और और मनुष्य मिट्टीमें मिलकर मिट्टी ही हो जाते हैं, कोई असील । मनुष्य भी जन्मसे ही कोई किसी स्वभाव इस प्रकार यह आश्चर्यजनक परिवर्तन अजीब पदार्थों का होता है और कोई किसी स्वभावका । इससे यही का होता रहता है । यह चक्कर सदासे चला पाता है सिद्ध होता है कि पहिले जन्ममें जैसा दाँचा किसी और सदा तक चलता रहेगा। जीव के स्वभावका बन जाता है, वही स्वभाष वह मरने हम यह पहले ही कह चुके हैं कि संसारमें दो पर अपने साथ लाता है। प्रकार के पदार्थ हैं एक जीव और दूसरे अजीव । जीवों जीव और अजीव दोनों ही पदार्थोंमें, किसी काम का शरीर भी अजीव पदार्थोका ही बना होता है, इस को करते रहने से, उस कामको करते रहनेकी आदत ही कारण जीव निकल जाने पर मृतक शरीर यहीं पड़ जाती है । कुम्हार चाकको डंडेसे घुमाकर छोड़ देता प्रड़ा रहता है । जब समारकी कोई वस्तु नवीन पैदा है, तब भी वह चाक कुछ देर तक घूमता ही रहता है। नहीं होती है और न नष्ट ही होती है केवल अवस्था ही लड़के डोरा लपेटकर लट्ट को घमाते हैं, परन्तु डारा बदलती रहती है, ऐसा सायंसने अटल रूप सिद्ध कर अलग हो जाने पर भी वह लट्ट बहुत देर तक घना ही दिया है तब जीवोंकी बाबत भी यह ही मानना पड़ता करता है, पानीको हिलाने या उगलीसे घुमा देने पर है कि वे भी सदासे हैं और सदा तक रहेंगे । बेशक वह स्वयमेव भी हिलता या घूमता रहता है । साल भर पर्यायका पलटना उनमें भी जरूर होता रहेगा । जीवकी तक जो सन् सवत हम लिखते रहते हैं, नया साल भी एक पर्याय छूटने पर कोई दूसरी पर्याय ज़रूर हो लगने पर भी कुछ दिन तक वह ही सन् संवत लिखा जाती है और पहले भी उसकी कोई पर्याय ज़रूर थी जावा है । भाँग तम्बाकू आदि नशे की चीज़ या मिर्च, जिसके बूट जाने पर उसकी यह वर्तमान पर्याय हुई मिठाई, खटाई आदि खाते रहनेसे उनकी आदत पड़ है। अजीव पदार्थोंकी तरह जीवोंकी भी यह अलटन जाती है । ताश, चौपड़, शतरंज श्रादि खेलोंको बराबर पलटन सदासे ही होता चला आ रहा है और सदा तफ खेलते रहनेसे उनकी ऐसी आदत पड़ जाती है कि होता रहेगा । जीवोंकी जितनी जातियाँ संसारमें है जरूरी काम छोड़ कर भी खेलनेको ही जी चाहने लगता निको उनके भेद है उनही में उनका यह अलटन है। जिन बच्चों के साथ आता लाइ होता है उनका Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाषण, वीर निर्णावसं. स्वभाव ऐसा खराब हो जाता है कि उम्रभर सुधरना स्वभावोंका पुतला बन जाता है उनही अपने स्वभावोंको मुश्किल हो जाता है । खोटी संगत का भी बड़ा असर साथ लेकर वह मरता है और उनही को साथ लेकर वह होता है । जिस स्त्री को वेश्या बनकर कुशील जीवन दूसरा जन्म लेता है । यही उसका कर्मवंधन, स्वभावका बिताना पड़ता है, निर्लज्जता और मायाचार उसका ढाँचा या भाग्य है, जो वह अपने आन्तरिक भावों या स्वभाव हो जाता है । कसाई और डाक निर्दय हो जाते नीयतोंके अनुसार सदा ही बनता रहता है। हैं। पुलिस और फौजके सिपाही भी कठोर हृदय बन आज जो कपड़ा हमने पहना है, वह पाँच चार जाते हैं। जिनकी झूठी प्रशंसा होती रहती है उसको दिनके बाद मैला दिखाई देने लगता है । परन्तु क्या अपने दोष भी गुण ही दिखाई देने लगते हैं, नसीहतसे वह उसी दिन मैला हुआ है जिस दिन मैला दिखाई उसको चिड़ हो जाती है, यहाँ तक कि उसके दोष देता है ? नहीं, मैला तो वह उस दिन ही समयसे होना बताने वालों को वह अपना बैरी समझने लग जाता है। शुरू हो गया था जबसे उसको पहनने लगे थे, परन्तु ऐसा ही और भी सब बातोंकी बाबत समझ लेना शुरू २ में उमका मैलापन इतना कमती था कि दिखाई चाहिये। नहीं देता था, होते २ जब वह मैलाग्न बढ़ गया, तब इस प्रकार इस जन्ममें बने हुए हमारे स्वभावसे इस दखाई भी देने लग गया । ऐसे ही प्रत्येक समय जैसे २ जन्म में भी हमको सुख दुख मिलता है और अगले भाव जीवात्माके होते हैं; बुरी या भली जैसी नीयत जन्ममें भी । मरने पर दुनियाकी कोई चीज़, जीव या उसकी होती रहती है. वैमा ही रंग उस जीवात्मा पर अजीव, हमारे साथ नहीं जाती है । इस जन्मके हमारे चढ़ता रहता है । उसकी आदत या स्वभाव बनता सुग्व-दुखके सब सामान यहीं रह जाते हैं, अपनी जानमें रहता है। भी ज्यादा प्यारे स्त्री, पुत्र, इष्टमित्र और धन-सम्पत्ति सब यहीं रह जाती है, यहां तक कि हमारा शरीर भी ना भाग्य किस प्रकार सुधारा जा सकता है जिससे कि हमारा जीव बिल्कुलही एकमेक हो रहा था अपने ही हाथों डाली इन आदतों या सस्कारोंका यहीं रह जाता है । इसी कारण हमारे इस शरीरमें जो बिल्कुल ही ऐमा हाल होता है जैसा कि नशा पीकर आदतें पड़ गई थीं, जिनको हम अपनी ही श्रादतें माना पागल हुए मनुष्यका हो जाता है, वह सर्व प्रकारकी करते थे, वे श्रादते भी शरीरके साथ यही रह जाती हैं। उलटी-पुलटी क्रिया करता है, बेहदा बकता है और यही नहीं बल्कि जो जो याददास्त हमारे दिमाग़में हानि लाभ का खयाल भूल जाता है। परन्तु चाहे इकट्ठी होती रहती थीं, वे भी दिमागके साथ यहीं कितना ही तेज़ नशा किया हो तो भी कुछ न कुछ शान मम्मत हो जाती हैं । परन्तु मान माया, लोम-क्रोधादिक उसमें बाकी जरूर रहता है तब ही तो कोई भारी खौफ तरगे जो हमारी अन्तरात्मामें उठती रहती है, हमारी सामने आने पर सारा नशा उतर जाता है और भयभीत अन्तरात्मामें उनका संस्कार या पादत पड़कर, हमारी होकर अपने बचाव का उपाय करने लगता है। किसी अन्तरात्मामें उनका बंधन होकर मरने पर भी वे हमारे बड़े हाकिम प्रादिके सामने आ जाने पर भी नया दूर साथ जाती हैं । यह हमारा जीवात्मा जिस प्रकारके हो जाता है। और होशकी बातें करने लग जाता है। Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण .] हम और हमारा यह सारा संसार इस ही प्रकार बहुन बुरे कर्म-अधनमें फंसा हुआ जीव भी भला जो स्वभाव हमने अपना बना लिया है, जैसा कुछ कुछ न कुछ होश जरूर रखता है और अपनेको सुधार भी अपने किये कर्मोंका धन हमने अपने साथ बाँध सकता है। लिया है, उस स्वभावके ही अनुसार न नाचते रहें, किंतु बाह्य कारण मनुष्य के स्वभाव पर बड़ा असर उसको ही अपने काब में रखें और अपने ही अनुसार डालते हैं,इम ही से उसके सोये हुए संस्कार जागते हैं। चलावे । अश्लील तस्वीरें देखकर, अश्लील मजमून पढ़कर, अशलील बियोंकी संगतीमें बैठकर कामवासना जागत ___ भाग्यके ही भरोसे अपनेको छोड़ हो जाती है । गुस्सा दिलाने वाली बातें सुनकर क्रोष देने का खोटा परिणाम उठता है । शेरकी आवाज सुनकर ही भय हो जाता है। बहादुरीकी बातें सुनकर स्वयं अपने मनमे भी जोश आने जो लोग यह कहने लगते हैं कि हमारे भाग्यने लगता है। सुन्दर सुन्दर बस्तुओंको देखकर जो जैसा हमारा स्वभाव बना दिया है उसको हम बदल ललचाने लग जाता है। इस कारण हमको अपने नहीं सकते । हमको तो अपने भाग्यके ही अनुसार चलना भावोंको ठीक रखनेके वास्ते इस बातकी बहुत ज्यादा होगा, इस ही प्रकार संसारके जिन जीवो और अजीव ज़रूरत है कि हम ऐसे ही जीवों और अजीव पदार्थोंसे पदार्थोंसे हमारा वास्ता पड़ता है, जो कुछ हानि लाम संयोग मिला जिसमें हमारे भाव उत्तम रहें, बिगड़ने न होना है, जो कुछ भाग्यमें बदा है; वह तो होकर ही पावें और यदि किसी कारणसे हम अपनेको बुरी संगतिसे रहेगा, उसमें तो बाल बराबर भी फरक नहीं आ सकता नहीं बचा सकते हैं तो उस समय अपने मन पर ऐसा है, ऐसे लोग भाग्यके भरोसे हाथ पर हाथ धरकर तो कड़ा पहरा रखें कि हमारा मन उधर लगने ही नहीं बैठते हैं । उनके स्वभावका ढाँचा, उनके शरीरकी नपावे। प्रकृति, उनकी इन्द्रियों के विषय, मान-माया, लोभ मनुष्यको हर वक्त ही दो ज़बरदस्त ताकनोंका क्रोधादिक भड़क,राग और द्वेष, उनको चुपचाप तो नहीं सामना करना पड़ता है। एकतो संसार भरके अनन्ता. बैठने देता है इस कारण कामतो वे कुछ न कुछ करते नन्त जीव और अजीव जो अपने २ स्वभावके अनुसार ही रहते है, किन्तु ऐसे नशियालेकी तरह जो नथा पीकर कार्य करते रहते हैं, एक ही ससारमें हमारा और इन अपनेको सम्हालनेको कोशिश नहीं करता है, बल्कि नशे सबका कार्य होते रहनेसे हमसे उनकी मुठभेड़का होते की तरंगके मुवाफिक ही नाच नचानेके लिये प्रश्नेको रहना जरूरी ही है। उनमेंसे किसी समय किसीका ढीला छोड़ देता है । ऐसे भाग्यको ही सब कुछ मानने संयोग हमको लाभदायक होता है और किसीका वाले भी अपने मनकी तरंगोंके अनुसार नाच नाचते हानिकारक । इस वास्ते एकतो हमको हर वक्त ही इस रहते हैं और कहते रहते है कि क्या करें हमारा स्वभाव कोशिशमें लगे रहोकी जरूरत कि ससारके जीव ही ऐसा बना है। इस प्रकार यह लोग अपनी खोटी २ और अजीवोंके हानिकर संयोगोंसे अपनेको बचाते रहें कामनाओं, खोटी २ विषय वासनाओंमें ही फसे रहते और लाभदायक संयोगोंको मिलाते रहें। दूसरे, बुरा या है।बोध-मान-माया लोभ श्रादि जो भी जोश उठे या Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भावण, वीर निर्माण सं०२४६६ भड़क पैदा हो उस ही के अनुसार करने लग जाते हैं, ही डरकर अपना खोटा भाग्य प्राया समझकर चुपके आगे पीछेकी कुछ सोच नहीं करते, नतीजेका कुछ भी से उसके गुलाम बन जाते हैं। खयाल नहीं करते । बेधड़क सब कुछ पाप करते हुए उसकी सब ज़िम्मेदारी दैव या भाभ्यके ही सिर धरते हमारा जरूरो कर्तब्य रहते हैं। अपनेको तो निर्दोष मानते रहते हैं परन्तु हमको अच्छी तरह समझ लेना चाहिये और बुद्धि दूसरे लोग छोटेसे छोटा भी जो दोष करै उसका दोषी लड़ाकर जांच लेना चाहिये कि हमारे संबंधमें तीन उन ही को ठहराते हैं । दूसरोंके दोषोंका जिक्र कर करके शक्तियां काम कर रही हैं, एक तो हमारे पहले कर्म या उनकी बुई सब करते हैं और बड़े बनते रहते हैं। हमारी आत्माके पहले भाव, जिनसे अब तक बुरा भला जिस प्रकार नशेकी तरंगमें नशेबाज या पागल हमारी आदत या स्वभाव बनता रहा है; जो मरने पर अपने पागलपनमें अपनेको सारी दुनियाका राजा समझ भी हमारे साथ जाता है और कर्म-बन्धन या हमारे बैठता है, हानि-लाभ समझाने वालेको मारने दौड़ता है, स्वभावका ढाँचा, या भाग्य कहलाता है । दूसरे हमारी इस ही प्रकार ये भाग्यको सब कुछ मानने वाले भी श्रात्माकी असली ताकत जो हमारे इन कर्मों या स्वभाव अपनेको सबसे बड़ा समझने लगते हैं और दूसरोंको या भाग्यके द्वारा नष्ट होनेसे बच रही है। तीसरे संसार अंपनेसे घटिया मानकर अपनी बड़ाई गाने और दूसरों भरके सब ही जीव और अजीव जो अपने २ स्वभावके को घटिया बताने में ही असीम आनन्द मानने लग जाते अनुसार इस ही संसारमें काम करते हैं, इस कारण हैं। यह ही एक मात्र उनके जीवनका आधार हो जाता उनसे हमारी मुठभेड़ होना लाजमी और जरूरी ही है। है। इस कारण जिस प्रकार नशेबाज़ नशेकी तरंगमें इस कारण हमारा यह कर्तव्य है कि हम अपने उस आपसमें एक दूसरे पर हकुमत जताते हुए, आपसमें श्रामिक शानके द्वारा जो हमारे कमोंने नष्ट नहीं कर खब लड़ते हैं और जूतमपैजार होते हैं, इस ही प्रकार दिया है हम अपने सचित कर्मों पर या स्वभावके ढाँचे ये भाग्य पर ही निर्भर रहने वाले भीअापसमें एक दूसरे वा भाग्य पर भी काबू रखें, उसको अपनी बुद्धि के पर हकमत जताकर और आपसमें लड़ भिड़कर ही अनुमार ही चलाते रहें और ससारके जीव अजीव अपना जी खुशकर लेते हैं। किन्तु जिस प्रकार नशियाला पदार्थोंसे तो मुठभेड़ होती रहती है या हो सकती है उन या पागल किसी होश वालेको देखकर अव्वलतो गीदड़ पर भी पूरी २ दृष्टि रखें। उनमें अपने प्रतिकुलको भभकी दिखाता है, किन्तु होश वालेकी तरफसे ज़रा भी मिलाते रहनेकी और प्रतिकलसे बचते रहने की कोशिश सख्ती होने पर तुरन्त ही उसके श्राधीन हो जाता है करते रहें । यही पुरुषार्थ है जिसकी मनुष्यको हर वक्त और गुलाम बन जाता है, इस ही प्रकार भाग्य पर ज़रूरत है। इस ज़रूरी पुरुषार्थ के बिना तो मनुष्य निर्भर रहने वाले भी बड़े बननेका दावा कर करके मनुष्य ही नहीं है किन्तु, एक निर्जीव घासका तिनका आपसमें तो खूब लड़ते हैं, किन्तु गैरकी शकल देखते है जो बेइस्नियार नदीमें बहा चला जाता है। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या स्त्रियाँ संसारकी क्षुद्र रचनाओं में से हैं ? [खिका-श्री ललिताकुमारी जैन विदुषी प्रभाकर जयपुर] Tक बार मैंने किसी पुस्तकमें 'स्त्रियाँ ही अपने तौरसे बतला देना चाहती हूँ कि वे बहुत बड़ी गलती S.आपको अयोग्य समझती है। इस शीर्पक अथवा पर है । उनको अपने ये कायर और गन्दे विचार इसमे कुछ मिलता-जुलता प्रबंध पढ़ा था । उसका बिलकुल निकाल देना चाहिएँ। सारांश यही था कि सदियोंकी दासतासे स्त्रियोंका स्त्री प्रादि शक्ति है । स्त्री शक्तिके बिना दुनियाका श्रात्मबल और स्वाभिमान इस कदर कुचल दिया कोई भी काम सफल नहीं हो सकता । स्त्री सीता है, गया है कि अब वे स्वयं अपने आपको तुच्छ, शुद्र स्त्री पार्वती है, स्त्री दुर्गा है, स्त्री लक्ष्मी है, स्त्री सरऔर अयोग्य समझने लगी हैं । वे अपने जीवनसे स्वती है । संसारका हरएक कार्य शक्तिसे सम्पन्न होता घृणा करती हैं और उत्थानके मार्गमें बढ़नेके लिए है और वह शक्ति स्त्री ही का स्वरूप है! अपने आपको असमर्थ समझती हैं । उनके दिलोंमें विश्वमें जो सुन्दर और सुखकर है वह स्त्री ही यह अन्धविश्वास कूट कूट कर भरा हुआ है कि स्त्री का प्रकारान्तर है। जहां पुरुष जाति अपने, वीरता, जाति तिरस्कार और अपमानके लिए पैदा हुई है। धीरता, गम्भीरता, काठिन्य, शौर्य श्रादि गुणोंसे सम्पन्न उसका अलग अपना कोई अस्तित्व नहीं है । वह सच है, वहां स्त्री-जाति अपने सौंदर्य, कोमलता, लावण्य, मुच पुरुपोंके पैरकी जती है और इसीलिए स्त्री होना सेवा विनम्रता आदि गुणोंसे सुशोभित है । दोनों अपने या तो ईश्वरका अभिशाप है या पर्वोपार्जित पापोंकी अपने विशिष्ट स्वरूपोंमें समान है। कोई किसीसे कम या किसी बड़ी राशिका परिणाम है। ज्यादा नहीं हैं। संसारकी रचनामें और इसकी हर एक हमारे समाजमें अधिकांश स्त्रियां, अशिक्षित और स्थितिमें स्त्री और पुरुष का हाथ बिल्कुल बराबर है । बे पढ़ी है और उनके खयालात भी ऐसे ही बने हुए समुद्रकी विशालता नदियों के बल पर है फूल की सौरभक हैं। हमारे ऐसे ही विचारोंने श्राज हमको पददलित बना आधार कली है । सूर्यमें ज्योति छिपी है। चांदकी शोभा रक्खा है। जो महिलाएँ स्त्री-पर्यायको पाप कृत्योंका चन्द्रिकासे है । मेघकी शोमा बिजलीसे है । ऊंचे ऊंचे फल, या जघन्य और क्षुद्र समझती हैं उनको मैं स्पष्ट पहाड़ चोटीके बिना खण्डहर सरीखे हैं। श्रद्धा बिना Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अनेकान्त [ श्रावण, वीर निर्वाण सं० २४६६ चाँदको प्रकाशका कारण मानकर चाँदनीको अंधकार का स्वरूप मानता है और सूर्यको प्रभाका अवतार मानकर उसकी किरणोंको ज्योतिविहीन समझता है । ज्ञान भार स्वरूप 1 जमीन और आसमान, कलम और कागज, पेड़ और शाखा, उद्यान और वाटिका, फूल और पत्ती कहां तक कहें सृष्टिका कोई स्थल ऐसा नहीं है जहां स्त्री और पुरुष शक्तियाँ समान रूपसे काम न करती हो । और सब जाने दीजिये श्रात्माका चरम और उत्कृष्ट लक्ष्य कर्मोंका नाश करना है वह भी मुक्ति के रूपमें स्त्री ही के विशिष्ट स्वरूपमें स्थित है । ऐमी अवस्था में भी अगर महिलाएँ अपनी जाति को पाप कृत्योंका फल या दैवका श्रभिशाप समझती हैं तो यह उनकी भूल है । अगर स्त्री पर्याय में पैदा होना पाप कृत्योंका फल और श्रभिशाप है तो पुरुष पर्यायमें पैदा होना कभी पुण्य कर्मोंका फल और आशीर्वाद नहीं हो सकता: क्योंकि दोनों शक्तियाँ एक होकर काम करती हैं और दोनों शक्तियाँ एक-दूसरी शक्ति में दूध और पानीकी तरह मिली हुई हैं । एकका बुरा होना दूसरी का बुरा होना है और एकका अच्छा होना दूसरीका अच्छा होना है । महात्माजी लिखते हैं--"नगर स्त्रियाँ ईश्वरकी क्षुद्र हलके हर्जेकी रचनाओं में से हैं तो श्राप जो उनके गर्मसे पैदा हुए हैं अवश्य ही क्षुद्र हैं।” मेरा खयाल है पुरुष जातिकी श्रेष्ठता, उत्तमता श्रौर आदर्शता पर मेरी बहिनों को पूर्ण विश्वास है और उनको स्त्री पर्यायकी हीनता और अनुत्तमतासे पुरुष जातिका भी श्रनुनम होना कभी वांछित नहीं हो सकेगा । मैं उनमें प्रार्थना पूर्वक अनुरोध करूँगी कि पुरुप पर्यायके प्रति उनका जैसा विश्वास है वे उसें और भी मजबूत और पका बनालें परन्तु साथ ही अपनी जातिका सम्मान और इजत करना कभी न भूलें । वरना उनकी यह धारणा बालू पर भीत खड़ी करनेके बराबर उस मनुष्यकी धारणाके समान है जो यह तो हुई स्त्री पर्याय और पुरुष पर्यायी समानताकी बात | अगर मैं स्पष्ट और साफ कहूँ तो किसी किसी जगह स्त्री पर्यायकी उत्कृष्टता और आदर्श के श्रागे पुरुष पर्याय भी कुछ नहीं और उस समय पुरुष पर्याय स्त्री पर्यायके साथ कभी बराबरीका दावा पेश नहीं कर सकती । वह आदर्श है 'मातृत्वका आदर्श' जो पुरुष पर्याय में ढूंढने पर भी नहीं मिल सकता और स्त्री पर्याय मिलने पर ही प्राप्त किया जा सकता है। बड़े बड़े श्राचार्य, ऋषि, मुनि, महात्माश्र ने मातृत्व के आदर्शको महान् बतलाया है। यह मातृत्वा ही श्रादर्श है जिसने तीर्थकरों जैसे महान् श्रात्माओं को जन्म दिया, बड़े बड़े अवतारोंको पृथ्वीतल पर पैदा किया, बड़े बड़े ऋषि-मुनियोंके लिये अपना सुख त्याग किया । प० कृष्णकान्त मालवीय लिखते हैं- "स्त्री का सर्वश्रेष्ठ रूप माता है और सच मानो इससे मधुर, इससे सुखकर शब्द, इससे सुन्दररूप सृष्टि और संसारमें कोई दूसरा नहीं । संसारका समस्त त्याग, संसारका समस्त प्रेम, संसारकी सर्व श्रेष्ट सेवा, संसारकी सर्व श्रेष्ट उदारता एक माता शब्दमें छिपी पड़ी है ।" एक अशात महापुरुष लिखते हैं "हे माता ! तुम स्वर्गकी देवी हो, तुम मृत्यु लोकमें मनुष्योंका कल्याण करनेके हेतु माताके रूपमें अवतीर्ण हुई हो। सब लोग तुम्हारे अनन्त उपकारों के ऋणी हैं । तुम्हारे ऋणको कौन चुका सकता है ? Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ..] मासिक प्रसारकी रचनाओं में से हैं। हे माता ! भगवानसे हमारी यही याचना है कि वे और दूध देने वाली गाय-भैंसोंके समान समझा और हमें ऐसी शक्ति दें कि जिससे हम तुम्हारी सेवामें इसीके अनुसार उनको एकने दूसरेसे छीनने की कोशिश अपने इस जीवनको अर्पण कर सकें और भक्तिके की। इस कोशिश में बड़ी बड़ी लड़ाइयां हुई, मारका आँसुओंके जलसे तुम्हारे चरणोंका चिरकाल तक हुई, खूनके तालाब बहे और संसार सुखका स्थल न प्रक्षालन करते रहें।" रह कर दुःख दारिद्रय, क्लेश, अशान्ति, व्याकुलता 'जननी जीवनसे और हज़ारों ही विपदाओंका केन्द्र बन गया ! खेद है एक संस्कृत कवि लिखते हैं : कि यह अवस्था अब तक भी वैसी ही चली श्रारही है । "जननी परमाराध्या जननी परमागतिः । पुरुषोंने स्त्रियोंको जन्म दिया या स्त्रियोंने पुरुषोंको जननी देवता साक्षात् जननी परमोगुरुः ।। जन्म दिया ? यदि इस प्रश्न पर ज़रा भी विचार किया या की परयात्री च जननी जीवनस्य नः । जाय तो यही निर्णीत होना चाहिये कि स्त्रियोंने पुरुषों नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ को जन्म दिया और भारीसे भारी विपदाएं झेलकर 'जननी जीवनमे' उनका पालन किया। ऐसी हालतमें भी यह मानना कि मातृत्वके श्रादर्शकी प्रशंसामें ग्रंथ भरे पड़े हैं। स्त्रियाँ पुरुषों के लिये पैदाकी गई हैं कितना बेढंगा और सदियां चली जायें और उसका वर्णन समाप्त नहीं हो। हास्यासद खयाल है। इसलिये जैसे हम यह बड़ी क्या कोई ऐमा ज्ञानी, भाी, महात्मा, नारायण, श्रामानीसे मान लेते है कि स्त्रियाँ पुरुषोंके लिये पैदा चक्रवर्ती, बलभद्र, राजसूक अमीर, गरीब, बड़ेमे बड़ा की गई हैं वैसे यह भी क्यों नहीं मानलें कि पुरुष स्त्रियों और छोटेसे छोटा व्यक्ति है जो माताके उपकारके भार के लिये पैदा किये गये हैं । यद्यपि अनुभव और बुद्धिसे से न दवा जा रहा हो और क्या यह उसके किये हुए ठहरेगा तो यहा कि दोनोंको दोनोंते पैदा किया और दोनों उपकारका बदला वापस देनेका सैंकड़ो जन्मोंमें भी दोनोंके लिये पेदा हुये हैं। जैसे पुरुषोंको अपने उद्देश्य साहस कर सकता है ? ऐसी अवस्थामें अगर कोई व्यक्ति की मिद्धिके लिये स्त्रियोंकी आवश्यकता है वैसे स्त्रियों चाहे स्त्री हो चाहे पुरुष, शिक्षित हो या अशिक्षित को अपने उद्देश्यको सिद्धि के लिये पुरुषों की आवश्यकता उस स्त्रीपर्यायको नीच और जघन्य समझता है जिस में है। दोनों अपने जीवनकी उत्कृष्टता प्राप्त कर सकें दोनों मातृत्व जैसा सर्वोत्कृष्ट आदर्श विद्यमान है तो यह अपने जीवनको सार्थक और सफल बना सकें, दोनों उसकी क्षुद्रता है और कृतघ्नता है और स्वयं स्त्रियों अपने जीवन में महान् आदर्श उपस्थित कर सकें, का तो यह समझना बहुत ही अपमान, लज्जा और इसीलिये एक दूसरेका जन्म हुआ। ऐसी हालतमें यह कायरताका विषय है। समझना भयंकर भूल है कि स्त्रियाँ पुरुषोंकी गुलाम है, लोगोंकी इस धारणाने कि स्त्री जाति पुरुष जातिके दासी हैं, सेविका है और उनके ऐशो-आराम और लिये पैदा की गई है और वह उसके भोगनेकी एक सामारिक क्षुद्र सुखोपभोगके लिये पैदा हुई हैं। श्रीज़ है मनुष्य जातिका बहुत बड़ा अनिष्ट किया है। सागरण, इस तरह पुरुषोंने स्त्रियोंको.अपनी एक जायदाद Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P-wrLAMIN 3 दीपक के मतिर 4.warrioriAT तुम अन्धकार को हरने, तुम धीर तपस्वी बनकर, जीवन-घट मरने आये। चुपचाप बले जाते हो। या इस निराश जीवन में, या मृल्य मूक सेवा का, भाशा के मरने लाये ॥ सचमुच तुम प्रगटातेहो॥ प्रेमी पर बलि हो जाना, किस्मत में तेरी दीपक, परवानों को सिखलाया। क्या जलना ही जलना है। सच्चा गुरू बन कर पहले या पर हित जलने में हीतन अपना अहो जलाया । सुख का अनुभव करना है। सूरज को तुमसे ज्यादह, परहित सर्वस्व लुटाते, तेजस्वी कैसे माने । जग कहता तुम्हें दिवाना। वह अन्त तेज का, तुमको, पर तुमने ही रातों कोप्रारम्भ तेज का जाने ॥ है दिवस बनाना जाना ॥ यदि मौत खड़ी हो आगे, दीपक की नहीं शिखा यह, क्या बात भला है ग़म की। है बीज क्रांति का प्यारा। देखो, इस दीप-शिखा को, जो बढ़कर जला सकेगा, जलकर सोने सी चमकी ॥ जुल्मों का जङ्गल सारा॥ प्याले का मघु पी करके, है तेल जहाँ तक पाकी, तुम हँसते अजब हँसी हो। तब तक तुम बले चलोगे। कैसे हँसना है भाता? तनमें ताकत है जब तक, जब देह कहीं झुलसी हो॥ परहित में बढ़े चलोगे॥ "विघ्नों की आंधी में भी, आँधी का झोका भाकर, हँसना सीखो तुम पाणी।" चाहे तो तुम्हें बुझादे। यह शिक्षा देते सब को, पर जीते हुए तुम्हारे, दीपक ! तुम परे ज्ञानी ॥ ___प्रय को कैसे तुड़वादे ॥ Mumritariary २०-श्री रामकुमार 'स्नातक' SWIWIKIWLIN? हे दीपदेव ! भारत के आंगन में खुलकर चमको । जीने, मरने का सच्चा कुछ भेद बतादो हमको ॥ हम अपने लघु जीवन का कुछ मूल्य आँकना सीखें। दीपकसे मरने में जीवन-झांकी का दृश्य झांकना सीखें। HEGORIANBANOHOROFORGGAFOOPIONORMOORTGTONESEOFGHTOFOFOTOGROOFOSSION Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मोद्धार-विचार [.-श्री-अमृतवार ) यिने कहा "गुरुदेव! लाखों करोड़ों को ही हैं। जिस समय तू सद्गुणके वचनों पर वर्ष होगये मुझे इस संसार-सागरमें विश्वास करके 'महं प्रसास्मि' या 'मैं स्वयं ब्रह्मअवरत भटकते और गोते खाते हुए ! अब तो रूप हूँ' ऐसा ध्यान करेगा, तेरे मात्मासे अशुभ कृपाकर कोई ऐसा मार्ग बताइये, जिसका अवल- कर्मोकी बेड़ी कट जायगी; तेरी जन्म-मरणको देने म्बन कर मैं इस जन्म-मरणके विकराल बंधनसे बाली ललाट-पत्रिकाके चिन्दे चिन्दे हो जायेंगे मुक्ति पा सकूँ-छुटकारा पा सकूँ !" परमदयाल और तू उसी समय संसार सिन्धुसे पार होकर जगत-हितकारी श्री गुरु कहते हैं जीवन-मरण से मुक्त हो जायगा।। वास्तवमें भात्म-चितवन या पात्म-श्रद्धान एठो वा जन्म तो ए प्रमाण । ही एक ऐसी वस्तु है, जिसका मामय लेकर मनुष्य तारा जन्म-मरण को पागल कारे, इस भगाध संसार-सागरसे पार हो सकता है। सद्गुरु वचने विश्वास ससे ए मारे । क्यों ? इसीलिये कि जिसे हम परमात्मा कहते हैं, वह हमारे मात्मा ही का एक दूसरा रूप है । अर्थात हे मुमुद्ध!तू अपना स्वताका रूप जान, हमने अपने स्वरूपको न जाना, इससे हम 'हम' अर्थात मैं स्वयं सच्चिदानन्द रूप हूँ, देह, इन्द्रिय, बने रहे और परमात्मा जान गया इससे वह प्राण, मन, बुद्धि इन सबका साक्षी ऐसा प्रत्य 'परमात्मा' हो गया । परमात्मा बैठे थे, एक गात्मा हूँ; देहान्द्रियाविक जितनी थे बाह्य वस्तुएँ । यापक जिवन पास तुप मल्हा पूछ बैठा-भाखिर हममें और तुममें हैं, उनसे मेरा कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। देहका भेद किस बात का है जो हम तो साधारण मनुष्य वर्णाश्रमादिक धर्म व इन्द्रियोंका व्यवपिर बने रहे और भाप परमात्मा बन बैठे ? परमेश्वर तादिक धर्म ये दोनों ही मेरे स्वरूपसे पूर्ण अस- ने कहाम्बन्धित बातें हैं। मैं तो केवल शुद्ध चैतन्य रूप हूँ, ऐसा ज्ञान जिस समय भी तुझमें पूर्णरूपेण र सुमारे और मेरे में भी भेव है बाबा! हो जायगा, तू उसी पक जन्म-मरण पाशसे बनाना भेद बस तुमने यही इक खेद है वाया। छुटकारा पाकर स्वयं ज्योतिर्मय रूप परम-बम यही बात है ! हम संसारके माया मोह और परमात्मा हो जायगा । मनुष्य को भव भवमें भट- विषय कषायोंमें इस तरह फंसे हुए है कि हम काने वाले हेतु उसके द्वारा पार्जित उसके नाम अपने शरीर को ही अपना पास्मा मान बैठे हैं Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [भावण, वीर निर्वाण सं०२४६६ और दिन रात उसीकी सेवा-शुश्रुषा किया करते मुझे कैसे गृहोंमें उत्पन्न किया है ! मैं स्वर्गके हैं । इससे हमारे आत्माको मिध्यास्त्रका बंध होता उद्यानका पक्षी हूँ ! मैं अपने वियोगका हाल क्या है और यही मिथ्यात्व उसे अपना स्वरूपं जानने बताऊँ कि मैं इस मृत्यलोकके जालमें कैसे आ देनमें प्रतिपल बाधक होता रहता है । एक खो हुई फँसा !!.) यह बात, दूसरे हमारा प्रात्मा, जो स्फटिक मणि. जैसे ही हमारा यह आत्मा अपनी आत्मके समान शुभ और स्वर्गकी नदीके जलके समान निधिकी सुध पाकर, धातुभेदीके सदृश प्रशस्त पवित्र है, अनादि कर्म मलसे मलिन और उसके ध्यानाग्निके बलसे"मैं ही ब्रह्म हूँ-मैं हो शुद्धाबुद्ध मोटे पटलसे इस तरह भाच्छादित हो रहा है कि मुक्तस्वभाव, प्रकृत, अदृश्य, मन्तिवर्ती, अद्वितीय उसके दर्पणमें हमें अपना स्वरूप बिल्कुल भी आनन्दसागर, निराकार और निर्विकल्प परमात्मा नहीं दिखाई देता है, वरना, जो परमात्मा है वही हूँ," इस तरहके ध्यानमें भारूढ़ हो जायेगा, हम हैं और जो हम है, वही परमात्मा है । परमा- हमारे समस्त कर्म मल क्षय हो जायेंगे, हमारी नमा जानका भंडार है; हम भी अतुल ज्ञानके सम्पूर्ण स्वाभाविक शक्तियाँ सर्वतोभावसे विकसित ममुद्र हैं, परमात्मा शक्तिका खजाना है, हम भी हो जायेंगी और तैसे ही हम स्वच्छ तथा निर्मल असीम वीर्यके निधान हैं, अजर, अमर, अवि- स्थितिको प्राप्तकर परमानन्द परमात्मा हो जायेंगे। नाशी है, हम भी जरा, जन्म और मरण रहित शुद्ध बुद्ध परमात्मा हैं, पर इतना होने पर भी हम ध्यावाग्जिनेश भवतो भविया चान, कुछ नहीं हैं और अगर है भी तो एक जघन्यतम देहं विहाय परमात्मदशा ब्रान्ति । श्रेणीकं बहिरात्मा । ख्वाजा हाफ़िज़ कहते हैं- तीवानलादुपसभावमपास्य लोके, चामीकरस्व मचिरादिव धातुभेदाः । . फाश भी गोयमो प्रज़ गुफ़्त-ए-खुद दिल शादम । बंदा-ए-इश्क मो अङ्ग हर दो जहाँ प्राङ्गादम ॥ -श्रीमद्कुमुदचन्द्राचार्य कौको-कान्त मरा हेच मुलजिम न शिमात । आमाके स्वरूपका चिन्तवन ही परमात्मांका या रब ! अज़ मादरे-गेती बचे ताला जादम ॥ एकमात्र जगतप्रसिद्ध आराधन है । श्रीपज्यपाद ताचरे-गुलसने-कुसुम चे विहम शह-फिराक । स्वामी 'समाधितंत्रमें कहते हैंकिं दरी दामे गहे-हादसा उफ्तावम ॥ सर्वेन्द्रियाणि संयम्य स्ति मितेनान्तरात्मना । ( मैं खुल्लमखुल्ला कहता हूँ और अपने इस यत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्वं परमात्मनः । कथनसे प्रसन्न हूँ कि मैं इश्कका बन्दा हूँ और "सर्व इन्द्रियों को अपने अपने विषयों में जाते साथ ही लोक और परलोक दोनों के बंधनोंसे हुए रोक कर स्थिरीभूत मनसे घणमात्र भी अनुमुक्त हूँ। मेरी जन्मपत्रीके ग्रहों का फल. कोई भी भव करने वाले के जो स्वरूप मानकता है, सो हो ज्योतिषी न बता सका । हे ईश्वर ! सृष्टि. माताने परमात्माका स्वरूप है। इससे पता चलता है Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामोडविचार कि परमात्मा और भात्माम सिर्फ नाम मात्रका- चौदह जीवसमास हैं; न कोके क्षयोपशमसे दृष्टि मात्रका फर्क है। बकौल नाथ मा०- होने वाले लब्धिस्थान हैं, न कोके बंधस्थान हैं; इक नज़र का है बदलना, और इस जा कुछ भी न कोई उदयस्थान है न जिसके कोई स्पर्श, रस दरमियाने-मोजो कतरा गरे-दरिया कुछ नहीं। गंध, वर्ण शब्द आदि हैं, परन्तु जो चैतन्य स्वरूप है सो ही निरंजन मैं हूँ । २० । २१ । 'यहाँ और कुछ नहीं, केवल एक दृष्टि-मात्रका ___कर्मादि मलसे रहित ज्ञानमयी सिद्ध भगवान बदलना है। बंद और लहरमें कोई भेद नहीं, जैसे सिद्ध क्षेत्र में निवास करते हैं, वैसे ही मेरी दोनों नदीसे भिन्न और कोई वस्तु नहीं।" देह में स्थित परमब्रह्मको समझना चाहिए । २६ । प्रातः स्मर्णीय आचार्य देवसेनजी 'तत्वसार' जो नो कम और कर्मसे रहित, किंवलज्ञानादि में अपने शुद्धस्वरूपका वर्णन करते हुए कहते है- गुणोंस पूर्ण शुद्ध, अविनाशी, एक, आलम्बनअस्स णकोहो माणो माया खोहो व सल्ल बेस्सायो। रहित, स्वाधीन, सिद्ध भगवान हैं, सोही मैं हूँ ।२७ जाईजरा मरणं विययिरंजयो सो अहंभणियो णस्थि कलासंठाणं मग्गणगुणठाणजीवठाणायि । से पूर्ण हूँ, अमूर्तीक हूँ, नित्य हूँ. असख्यातप्रदेशी णय बद्धिबंधठाणा गोवयावाइया केई ॥२०॥ हूँ और देहप्रमाण हूँ, इस तरह अपनी आत्माको फास रस-स्व-गंधा सहादीया य जस्स णस्थि पुणो। सिद्धके समान वस्तुस्वरूपकी अपेक्षा जानना सुदो चेयण मावो पिरंगणो सो अहं भविभो ॥२१॥ चाहिये ।२८। . मलरहिनो णालमभो शिवसइ सिद्धीए जारिसो सिद्धो। अब जब आत्माकी परम स्वच्छ और निर्मल तारिमयो देहरयो परमोवंभो मुखेयब्बो ॥ २६ ॥ अवस्थाका नाम ही परमात्मा है और उस अवस्था गोफम्म कम्म रहिमो केवलवाणाइगुणसमिद्धो जो । को प्राप्त करना, अयोन परमात्मा बत्रा ही सब सोह सिद्धो सुद्धो णिच्चो एक्को गिराखंबोक ॥ २७॥ आत्माओंका अभीष्ट है तब आत्मस्वरूपका ही सिदोहं सुद्धोहं प्रणतणाणाहगुपसमिद्रोह । चितवन करना हमारा एक मात्र कर्तव्य है। देहपमायो णिच्चो असंखदेसो अमुत्तोय ॥ २८ ॥ पूज्यपाद स्वामीजी कहते हैंजिसके न क्रोध है, न मान है, न माया है, पर परास्मा स एषाहं योऽहं स परमस्ततः । न लोभ है, न शल्य है, न लेश्या है, न जन्म है, महमेव मयो पास्पो नान्यः कश्चिदितिस्थितिः । न जरा है, न मरण है, वही निरंजन कहा गया है, सोही मैं हूँ। १६ । अर्थात जो कोई प्रसिद्ध उत्कृष्ट प्रात्मा या न जिसके औदारिकादि पांच शरीर है; न परमात्मा है वह ही मैं हूँ तथा जो कोई स्वसंवेदनसमचतुरसादि ६ संस्थान हैं, न गति, इन्द्रिय गोचर मैं आत्मा हूँ सो ही परमात्मा है, इसलिये आदि चौदह मार्गणा हैं; न मिथ्यात्वादि चौदह जब कि परमात्मा और मैं एक ही हूँ, कब मेरे गुणस्थान हैं; न जीवस्थान अर्थात एकेन्द्रियादि द्वारा मैं ही पाराधन योग्य हूँ, कोई दूसरा नहीं। Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 我如果 अनेकां हैदराबाद निवासी ब्रह्मनिष्ठ श्रीराम गुरु कहते हैं जेने हे देव, सेतुं चैतम्प स्वयमेव । बीजो देव माने से कोई एम बन्धन सेवे होई ॥ अर्थात जिसको तू देव, चैतन्य, स्वयंप्रकाश आदि नाना नामोंसे पुकारता है, वह चैतन्यरूप देव तू स्वयं ही है। चैतन्य रूप देव तो मेरे मामा के सिवा कोई दूसरा ही है, ऐसा जो कोई मानता है, वह अज्ञानका बंदी होता है, ऐसा समझना चाहिये । अब प्रश्न होता है कि हम अपने आत्माका चिन्तवन किस तरहसे करें, क्योंकि न तो हमें आत्मा दिखाई हो देता है और कहते हैं कि न उसका कुछ रूप ही है ? यदि हम इस तरह से चिन्तवन करते हैं कि 'अहं मह्मास्मि' 'सोऽहम्' या 'एकोsहं निर्मज्ञः शुद्धो' तो हममें अहंकारका-सा समावेश होता है और भात्म-साधनाकी जगह श्रीमद्गुरु तारण तरण स्वामीजी महाराज भी अहंकारका थाना ठीक "मांजर काढून टाकलें अपने 'पडित पूजा' नामक प्रथमें कहते हैं तेथें ऊंट येऊन पड़ला" वाली मराठी कहावत होती है ? भावम ही है देव निरंजन, मातम ही सद्गुण भाई । धातम तीर्थं धर्म भातम ही तीर्थ ग्रात्म ही सुखदाई । आतमके पवित्र जलसे ही. करना अवगाहन सुखधाम यही एक गुरु, देव, धर्म, भूस और वीर्यको सतत प्रणाम । श्रीमदपरमहंस परित्राजकाचार्य ब्रह्मनिष्ठ श्री जयेन्द्र पुरीजी महाराज मंडलेश्वर इस विषय पर छ प्रकाश डालते हैं। वे कहते हैं " साधको ! भावना करो देह नहीं हूँ, “एवं इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि भी नहीं हूँ; अल्प परिच्छिन्न नहीं हूं, किन्तु सर्वान्तर्यामी साक्षी ब्रह्म ही मैं हूँ। 'अहं ब्रह्मास्मि' 'सोऽहं' '' इस गुरु मंत्रको हर वक्त अपने सामने रखो । इस मंत्र को एक बार समझकर अलंबुद्धि मत करो। बार बार इसके असली तत्वका अनुसंधान करो । यही भगवान की असली पूजा है। जैसा कि स्वामीजी बताते हैं "बार बार इसके असली तत्वका अनुसंधान करो" इस वाक्यांशसे हमें पूर्णरूपेण प्रकट होजाता है कि 'अहं ब्रह्मास्मि, या ऐसे ही दूसरे पद महंतायोतक नहीं है, वरन उनमें कुछ महत्वपूर्ण रहस्य छिपा हुआ है । अर्थात हे मैत्रेयी ! आत्मा ही देखने, सुनने, अपना आत्मचिन्तवन करते समय प्रत्येक मनुष्य - हिन्दी टीका 'तारनत्रिवेणी' [आवय, बीर निर्वाच सं० २०६६ भजन और निदिध्यास करने योग्य है, जिसे देखने, सुनने, समझने और अनुभव करनेसे सब कुछ जाना जाता है। प्रथश्रेष्ठ श्री बृहदारण्यकोपनिषद्, आत्मा क्या है और उसका क्या महत्व है, इस विषय पर बड़ी सूक्ष्मतासे विवेचन करता है। एक स्थल पर वह कहता है “खात्मा या अरे हव्यः स्रोतम्पो मन्तभ्यो निदिप्यासि तम्यो मैत्रेयात्मनो वा अरे दर्शनेन अक्सेन मत्याविज्ञाने नेद ं सर्वविदितम् । Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण १० ] का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह सिर्फ लिये हुए पदकं शब्दों के अर्थको जानने तक ही सीमित नहीं रहे, बरन् उसमें क्या रहस्य भरा हुआ है, इसका सबसे प्रथम मनन करनेका प्रयत्न करे । जैसे जैसे वह उस रहस्यकी तलीमें पहुँचता जावेगा, उसे ज्ञात होगा कि तैसे २ मैं प्रतिक्षण एक उत्तरोत्तर और अपूर्व आनन्दका अनुभव कर रहा हूँ । वास्तवमें आत्म-मनन वस्तु ही ऐसी है ! एक महात्मा कहते हैं परम ब्रह्म में जब रत होता मन-मधुकर मतवाला, सफेद पत्थर अथवा लाल हृदय सत्, चित्, धानन्दसे भर उठता, अन्तरतमका प्याला ! ज्ञानी चेतन ज्ञान कुबड में, खाता फिर फिर गोते; मदार और अशुभ कर्मवत पक्ष पक्ष चय होते । ५७७ लोग सांसारिक भ्रमजाल और मिध्यान्धकारमें फँसकर पागल हो रहे हैं, वरना मुक्तिका एक मात्र अमोघ और सरलसे सरल साधन प्रत्येक पुरुषका आत्मा तो उसके घटसे बाहिर सिर निकाल निकालकर अपने हार्थोके इशारे से उसको स्वरमें बुला बला कर कह रहा है- वयाँ ऐ शेख ! पर सुमनाए मा । शराबे खुर कि दर कौसर न बाशद ! ख्वाजा हाफ़िज़ ( ऐ शेख ! यहां मेरे शराब खाने में आ और उस मदिराका पान कर जो कि स्वर्ग में भी दुर्लभ है ! ) सफेद पत्थर अथवा लाल हृदय एक प्रसिद्ध कालेज में एक प्रख्यात प्रोफेसर रहते थे । उनके पास के नगरके मुख्य व्यक्तियों का एक डेपटेशन आया, किसी धर्मस्थानके आँगन में सङ्ग-मरमर लगानेके लिए चन्दा लेने ! प्रोफेसर साहेबने पूछा:-- “पहले भी काम चलता ही जा रहा है सङ्ग-मरमरकी क्या ज़रूरत है १" डेपटेशनने उत्तर दिया कि एक तो साधरण चबूतरेका फर्श सुन्दर मालूम नहीं होता, दूसरे जनताके पाँव खराब हो जाते हैं। "आप पहले जनताको तो सुन्दर बना लें" प्रोफेसर साहेबने अहसास भरे शब्दोंमें कहा--"जिस जनताको धूप 'और वर्षामें नंगे पाँव चलना फिरना पड़ता है, जिस जनताके अनेक सदस्योंको पेट भर कर रोटी नहीं मिलती, उसकी रूखी सूखी रोटी छीन कर हृदयोंका रक्त निचोड़ कर आप उन्हें सफेद पत्थर सा बना रहे हैं; यदि आप मुझसे पूछते हैं तो जहाँ जहाँ संगमरमर लगा हुआ है, उसे बेचकर उसका अनाज लेकर मखी जनताका पेट आपको भरना चाहिए ।" ( दीपकसे ) a Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृपतुंगका मतविचार [लेखक-श्री एम. गोविन्द वै] [इस लेखके लेखक श्री एम. गोविन्द पै मद्रास प्रान्तीय दक्षिणकनाड़ा जिलान्तर्गत मंजेश्वर नगरके एक प्रसिद्ध विद्वान् हैं । आप कनड़ी, संस्कृत तथा अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओंके पंडित हैं और पुरातत्त्व विषयके प्रेमी होनेके साथ-साथ अच्छे रिसर्च स्कॉलर हैं । जैनग्रन्थोंका भी आपने कितना ही अध्ययन किया है। 'अनेकान्त' पत्रके आप बड़े ही प्रेमी पाठक रहे हैं। एक बार इसके विषयमें आपने अपने महत्वके हृदयोद्गार संस्कृत पद्यों में लिखकर भेजे थे, जिन्हें प्रथम वर्षके अनेकान्तकी पूर्वी किरणमें प्रकट किया गया था। भापके गवेषणापर्ण लेख अक्सर अंग्रेजी तथा कनड़ी जैसी भाषाओंके पत्रोंमें निकला करते हैं। यह लेख भी मलतः कनड़ी भाषामें ही लिखा गया है और आजसे कोई बारह वर्ष पहले बेंगलरकी 'कर्णाटक-साहित्य परिषत्पत्रिका' में प्रकाशित हुआ था । लेखक महाशयने उक्त पत्रिकामें मुद्रित लेखकी एक कापी मुझे भेट की थी और मैंने मा० वर्द्धमान हेगडेसे उसका हिन्दी अनुवाद कराया था। अनुवादमें कुछ त्रुटियां रहनेके कारण बादको प्रोफेसर ए. एन. उपाध्याय एम. ए. के सहयोगसे उनका मशोधन किया गया । इस तरह पर यह अनुवाद प्रस्तुत हुआ, जिसे 'अनेकान्त' के दूसरे वर्पमें ही पाठकों के सामने रख देनेका मेरा विचार था; परन्तु अबतक इसके लिये अवसर न मिल सका । अतः अाज इसे अनेकान्तके पाटकोंकी सेवामें उपस्थित किया जाता है। इस लेख में विद्वानों के लिये कितनी ही विचारकी सामग्री भरी हुई है और अनेक विवादापन्न विषय उपस्थित किये गये हैं। जैसे कि नृपतुग नामक प्रथम अमोघवर्प राजाका मत क्या था ! ह जिमसेनादिक द्वारा जैनी हुमा यी कि नहीं ? राज्य छोड़ कर उसने जिनदीक्षा ली या कि नहीं है और प्रश्नोत्तररतमाला जैसे ग्रंथ उसीके रचे हुए हैं या किसी अन्यके ? विचारके लिये विषय भी अच्छ तथा रोचक हैं। प्राशा है इतिहासके प्रेमी सभी विद्वान् इस लेख पर विचार करनेका कष्ट उठाएँगे और अपने विचारको-चाहे वह अनुकूल हो या प्रतिकूल-युक्तिके साथ प्रकट करनेकी ज़रूर कृपा करेंगे, जिससे लेखके मूल विषय पर अधिक प्रकाश पड़ सके और वस्तु स्थितिका टीक निर्णय हो सके । जैन विशनोंको इस ओर और मी अधिकताके साथ ध्यान देना चाहिये ।-सम्पादक पतुंग,अमोघवर्ष,इत्यादि अनेक उपाधियों अथवा प्रकार बहुतसे विद्वानोंकी राय है । परन्तु इस ट गौण नामों से युक्त 'सर्व' नामका राष्ट्रकूट विषयको समर्थन करने वाले सभी आधार मेरे वंशज नरेश दिगम्बर जैनाचार्य श्री जिनसनसूरि विचारसें निर्बल मालूम पड़ते हैं । मैं अपने में जैनधर्मका उपदेश पाकर जैनी होगया, इस भालेपोंको संबके सामने रखता हूँ और इस Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नपतुंगका मतविचार २०॥ विषयमें विशेष जानने वालोंमे मेरी प्रार्थना है कि of Ellora) के 'दशावतार-देवालय' के एक वे इस संबन्धमें विशेष तर्क-वितर्क करके यथार्थ शिलालेखमें गोविन्दकं पूर्वज 'दन्तिवर्म तथा बातका निश्चय करें। 'इन्द्रराज' इन दोनोंका नाम रहने से • तथा सबसे पहिले राप्रकटवंशका संक्षिप्त परिचय प्राचीन लेखमालाके लेख नं० ६, ९, १३३, और दिय बिना तथा श्रीजिनमेनाचार्य और उनका १५६ में कही हुई वशावलीमें भी उनके नाम रहनेसे समय निर्णयक संबन्ध में थोड़ा बहुत कहे बिना उस दन्तिवमसे ही वंशावलीका दिखाना योग्य आगे चलने पर समझने में दिक्कत पड़ेगी । अतः समझकर वैमा किया गया है। चूंकि इनमेंमे तीसरे इन दोनों विषयोंको पहिले कह कर पश्चात इस 'गोविन्द' नामक नरेशने (ई० सन्. ७९४-८१४) लेखक मुख्यांश पर विचार किया जाना चाहिये। 'मही' और 'तापी' (तापती) के मध्यवर्ती 'लाट' (या 'लाल' अर्थात् गुजरात ) देशको वहाँके राष्ट्रकूटवंश राजास जीतकर उसे अपने छोटे भाई ( तृतीय ) 'इन्द्र' को दे दिया और उसे वहाँका राजा नियुक्त इम वंशके बहुतस राजाओंके शामनोंसे कर दिया। इससे यह विभक्त होकर इसकी प्रधान सबम पहिले 'गोविन्द' नामक नरेश हुआ यह शाखा 'दक्षिण-राष्ट्रकूटवंश' नामसे और गौण बात मालूम पड़ने पर भी, 'एलर-गुफा (Caves शाखा 'गुजरात-राष्ट्रकूट' नामसे प्रसिद्ध हुई। दन्तिवर्म १ गोविन्द । २ कर्क (कक)। ५ कृष्ण! (कन्नर) अकालवर्ष, शुभतुंग ४दन्तिदुर्ग (अन्तिवर्म, दन्तिग, खङ्गावक्षोक, रमेध) * E. H. D. Pg. 47. बारीय मंर यस्पतब हम मिजस्वामि (निजभ्रात्रा) (प्रा.ले. मा...) माता तु तस्य (गोविन्दस्य) ".."हारानः । सास्ता बभूवादभुतकीर्तिमृतिस्तातलोटेश्वरमंडलस्य । (मा .मा. ..) Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भाषण,धीर निर्माण १६१ ६ गोविन्द II .ध्रुवा(घोर) प्रभूतवर्ष निरूपम, धारावर्ष, कलिवल्लभ दक्षिण-शाखा ८ गोविन्द III (गोयिन्द) प्रभूतवर्ष, जगत्तुंग, श्रीवल्लभ, पृथ्वीवल्लभ (ई०स० ७९४८१४) ९शर्व अमोघवर्ष । नृपतुंग (ई०सन् ८१४-८७७) अविशयधवल (वीरनारायण) १० कृष्ण II (कार) अकालवर्ष, शुभतुंग (८७७-९१३) जगतुंग गुजरात-शाखा १ इन्द्र कर्क (क्क) 1 (अमोघवर्ष) ३ ध्रुव 11 (निरुपम) ४ अकालवर्ष (शुभतुंग) ५ ध्रुव II अतितुंग, निरुपम, धारावर्ष ६ (कृष्ण अकालवर्ष) ११ इन्द्र III (नित्यवर्ष) १४ बडेग (वडिग)। अमोघवष III १२अमोघवर्ष १३ गोविन्द (गभीन्दर) प्रभूतवर्ष निरुपम १५ कृष्ण III (कलर, इसिवकमर) १६ खोडिग अकालवर्ष नित्यवर्ष १८ इन्द्र v (ई०सन् ९८२ में मर गया) १७ कक II (ककाल) अमोघवर्ष, नपतुंग, वीरनारायण यह 'मसम्म राज्यः सदिवं विनिये..."छात्रा' तर होगा ? 'पंप-मारत' में (१-२३ इत्यादि) 'बदेग' (प्रा.ये मा० ० १५ और ११५) इस वाक्यके अनु- बह नाम है। सार पहामिषेकके पहिले ही मर गया मालूम पड़ता है। सोडिग (कोदिग) संभवतः कबर शब्द होगा। विंग (पहिग)-पह बहुशः कर्नाटक भाषाका यह बहुशः 'कोटु' (=किरीट ) से शायद 'कोहिग' नाम ही मादम पाता है। "बर्देन्दु पौडी"। (शब्द- (=किरीट) अर्थात् 'नरेश' (अथका 'अर्जुन') इस मणिवपंथ) से बने हुए 'गदेंग, (= प्रौड ) का रूपा- प्रकारका अर्थ हुमा होगा। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृपतुंग विचार - बेराट चन्द्रवंशके यदुकुल वाले हैं, ऐमा इन नरेशोंमें प्रत्येक नरेशके नामधेयों में क्या उनके निम्न लेखोंसे मालूम पड़ता है :- गौण नामों में एक सरहका परंपरा और क्रमबद्ध (१) ई० सन् ९३३ के शासनमें संबन्ध है यह तो भूलना नहीं चाहिये। जैसे - कि पंग सोमावर्ष................... इनके गोविन्द' नामबालेको 'जगतुंग' और 'प्रभूतवंशो चमूच भुवि सिन्धुनिमो पदूनाम् । वर्ष' इस प्रकारका गौण नाम है, 'कृष्ण' (कन्नर) (प्रा.ले. मा.नं. ) नाम वालेको 'शुभतुंग' और 'भकालवर्ष (२) ई० सन ९३७ के चित्रदुर्ग नं० ७६ के इस प्रकारका विशेष नाम है; 'ध्रुव' ( घोर ) नाम शासन में--- वालोंको 'निरूपम' और धारावर्ष ऐसा व्यपदेश ..........."यादवरातनम्वर ॥ है, 'कर्क' (कक) नामके व्यक्षियों को 'नृपतुंग' और यादवकुलदोडापखरूं। 'प्रमोघवर्ष' ऐसी उपाधि है। मेदिनि सुखविनाशदरपरि बसि ॥ इस कारणसे यह एक साकूत (सार्थक) अनुश्रीवसन्दन्तिगन् ........(E.C. Vol XI) मान होता है कि इस वंशावलीके, 'ध्रुव', नामक उस यदुवंशकं सात्यकी वगके लोग ही हैं, नरेशोंमें 'तुंग' यह परपदयुक्त गौण नाम नहीं यह बात उनके कुछ शासनोंमें पाई जाती है। देखा जानेसे अब तक मिले हुए उनके शासनादि ई. सं० ९४० के कोंमें वह न मिला इतना ही कह सकते हैं, परन्तु ग्दत्तदैत्यकुलकदलशान्तिहेतु उनको 'तुग' यह परपदान्वित नाम भी होगा, स्तत्रावतारमकरोत् पुरुषः पुराणः ॥ इस प्रकार कह सकते हैं । वैसे ही हमारे तद्वंशजा जगति सात्यकिवर्गभाज इस लेखके नायक नृपतुंगके 'नृपतुंग' 'प्रमोघस्तुंगा इति शितिभुजः प्रथिता बभूवुः॥ वर्ष' इस प्रकारके गौण नामोंका परिशीलन करने पर मालूम पड़ता है कि उसका नामधेय 'शव' इतना इसी श्लोकका उत्तरार्ध इनके ई० सं० ९५९ के - - ... शासनमें एक और रीति से इस प्रकार है ___* इस राष्ट्रकूटवंशके गुजरात शाखाके दूसरे 'ध्रुव' तद्वंशजाः जगति तुंगयशः प्रभावा को 'भतितुंग' ऐसा नाम भी था ('शुभतुगजोतितुंग... स्तुगा इति चितिमुजः प्रथिता बभवः प्रा.ले. मा० नं०४)। उस नामके और नरेशोंको (प्रा० ले० मा० नं० १३३) मी वहीं नाम रहा होगा। इससे इन नरेशोंके नामोंमें (अर्थात इनके भिवणबेलगुलके न० ६० के शासन ( E.C. गौण नामों में ) 'तुंग' इस पर-पदकं रहनेका क्या Vol. II) में 'राजन् साहसतुंग सन्ति बहवः श्वेतातकारण है सो मालूम पड़ता है । इसी तरहसे इनमें पत्रा नृपाः ।' ऐसा लेख है । इस 'साहसतुंग' नामका से ज्यादा कम सबको 'वर्ष' इस परपदका व्यपदेश नरेश राष्ट्रकूट वंशीय 'दन्तिदुर्ग' होना चाहिये, ऐसा है इस पर ध्यान देना चाहिये। उन शासनोंके उपोद्घातमें () कहा है। Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रावण,वीर विवांक ०२४ ही नहीं किन्तु इसी उपाधियुक्त इस वंशके उभय उपाधि मालूम पड़ती है । ( शल्पणिदर्पण शाखाओंके अन्य • नरेशोंके सदृश इसको भी Mangalore १८९९ पृ० १७१) 'कर्क (कक) ऐसा नाम होगा ।(क)यामी श्वेताश्व इन नामों के सिवाय इसे 'नरलोकचन्द्र' (क० ( 'कर्कः श्वेताश्वे........--) या 'श्वेत' ऐसा मा० ॥ २३) 'नीतिनिरन्तर' (II ९१)(कृतकरपमल्ल) अर्थ है । उसका उपाधि-अन्तर्गत 'भतिशय धवल' वल्लभ' (1६१ ) 'विजयप्रभूत' ( I. १४९; II यह नाम भले प्रकार दिखाई देनेसे हमारा यह १५३, III २३६, 'सरस्वतीतीर्थाक्तार' II २२५) ऊहापोह निराधार नहीं है। और 'प्रन्थान्त्य गद्य ऐसी उपाधियां थी, ऐसा इस नपतुंग (अमोघवर्ष) के और भी अनेक मालम पड़ता है। नाम या उपाधियां थी, यह बात कर्नाटक 'कवि- इस वंशके नरेशोंके शासनोंमें देवतास्तुति राजमार्ग' से तथा इसके शासनसे भी मालूम सम्बन्धी अतारिकापद्य इस प्रकार हैं-- पड़ती है :-- (१) सबोव्याहेबसा धाम पन्नामिकमकं कृतम् । (१) शर्व--ई० सन् ८६७के शासनमें (प्रा०ले. हररच यस्य कान्तेदुकलया कमांकृतम् ॥ मा० नं०४) __ यह हरिहर-स्तुति-सम्बन्धी श्लोक हैं; यह श्रीमहारानशर्वापः स्यातो रागामजदगुणैः । श्लोक ही इनके बहुतसे शासनोंमें मिलता हैअर्थिष यथार्थतां यः सममीटकनासिखधनोपेष. (२) जयन्ति ब्राह्मणः सर्गनिष्पतिमुदितात्मनः । वृद्धि निनाप परमाममोपवर्षामिधानस्य ॥ सरस्वती कृताभन्दा माः सामगोसया ॥ (२) नृपतुग-- कविराजमार्ग 1 ४४, १४६, II. (३) श्रीपरस्वत्युमामास्वामीसंश्लेषभूषितम् । ४२, ९८, १०५, III ९८, १०७, २०७, २१९, २३० भूतये भवतां भूपादनकरूपतात्रयम् ॥ और प्राचीन लेखमाला लेख नं० १३३ और प्रा. ले. मा० नं. ४, ५, ७८ और I. A. १५६ श्रादि। Vol XII. pp. 158, 181, 218. (३) अमोघवर्ष--कविराज मार्ग III १, दूसरी पंक्तिमें 'कम्+अलंकृतम्' इस प्रकार सन्धि २१७ आदि। कर लेना चाहिये । (क+शी' हेमचन्द्रका 'भनेकाय(४) अतिशयधवल-क० मा० . ५, २४, संग्रह' ५ कम् - तजे') इस प्रकारके अनेक पथ संस्कृत १४७; II. २७, ५३, १५१, III ११, १०६। कायों में हैं। माघ कविके 'शिशुपालवध काम्यके १९ (५) वीरनारायण--क० मा० । १०२, III सर्गमें बहुतसे हैं । उदाहरणार्थ१८। इसके नीचे दिये जाने वाले इसके समयके तस्यावदानैः समरे सहसा रोमहर्षिभिः । एक शासनमें इसे 'कीर्तिनारायण' ऐमा कहा है। सुरैरसि व्योमस्यैः सह सारो महर्षिमिः ॥ शब्दमणिदर्पणमें उद्धृत कन्द पद्यमें कहा प्रा. मा. और I. A. Vol. XII गया नृपतुंग यही होगा तो उसे वहाँ 'केदु P. 249 वोत्तरदेवं' ऐसा कहा जानेसे वह एक उसकी प्रा.ले.मा. और I. A., P. 264. Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३ मि. १०] १६३ (v) सजयति बगदुस्सय प्रवेश प्रथन परः करपल भो मुझरेः । इनमें से बहुतसे नरेशने जिनालयों को दान लसदष्टतपथः कथा के लक्ष्मीस्त न कक्षशाननतन्धसन्निवेशः।। भी दिया है, पर इससे इतना ही जाहिर होता है कि गिरिजाकपोल बिम्बा अपति विपचविचित्रता स भित्तिः । नृपतु गवामय-विचार त्रिपुरविजयिनः प्रियोपरोधाद्भुत मदनाभवदानशासने (2) नमस्यशिरविचन्द्र चामरचारवे । त्रैलोक्यनगरारम्भमूलस्तम्भाय शंभवे ॥ इत्यादि इनके अनेक शासनोंमें किसी प्रकारके देवतास्तुति-सम्बन्धी अथवा अन्य शिरोलेखकं बिना 'स्वस्ति' ऐसा वचनं ही आरम्भ में रहकर उसके पीछे ही लेख लिखा गया है, परन्तु इनका कोई भी लेख तथा शासन जिन स्तुति-सम्बन्धी शिरो लेखसे युक्त नहीं है । इसके पश्चात् दिया जाने बाला नृपतुगका शासन भी 'सवोव्यान' ऐमी हरिहर - स्तुति से ही प्रारम्भ होता है । इनके शासनों में तथा ताम्र पत्रों में भी बनाए हुए चिन्ह इस प्रकार हैं- ( १ ) शिव की मूर्ति (I. A. p. 156); पद्मासन से यक्कसपको पकड़े हुए शिव (1. A. pp. 179,263); शिवलिंग और नदि (I. A. pp. 22, 22, 255, 270 ); इत्यादि । इनमें पद्म सनसे गुरू और हाथसे सर्पों को उठाए हुए शिवमूर्ति राष्ट्रकूट शासनों में रूढिगत लाइन है, इस प्रकार विद्वानोंका अभिप्राय है (I. A. P. 179) 1 * प्रा० से० मा० नं० १३३, ११६ चित्रदुर्ग मं० ०१ (E.C. XI). † ऐसा Epigraphia Carnatica लेखमाला इत्यादिके अनेक ग्रामोंमें है और I. A. pp. 221, 222, 223, 224 इत्यादि । " वे सब धर्मोको समान दृष्टि से देखते थे । इससे वे जैनधर्मी थे, यह बात कही नहीं जा सकती । क्योंकि इनमें तीसरे गोविन्दने 'अशेष गंगमंडलाघिराज श्रीचाकिराज' की विज्ञापनाके अनुसार ई० सन ८१३ में एक जिनेन्द्र भवनको दान दिया है, यह बात एक शासन परसे दिखाई देती है । (I. A. pp. 13-16 ) उसी नरेशने ई० संन् ८०९ में वेदवेदांगनिष्णात ब्राह्मणको एक ग्राम दान दिया है, यह बात उसके एक ताम्रपत्र में है । (Mythic Society's Journal, Vol. XIv. No. 2, P. 88 ); और इसी ताम्रपत्रका शिरोलेख हरिहर स्तुति-सम्बन्धी ('मवोव्यात्' ऐसा ) श्लोक तथा इसीको मुद्राका चित्र शिवको मूर्ति मालूम पड़ता है। अब नृपतुंगके समय के एक शिलालेख (I.A pp. 218 219 ) का परिशीलन कीजिये И स्वस्ति ॥ सवोष्याद्वे बसा धाम पन्नानिकम संकृतम् । हरश्च यस्य कतिदुकखया कमलंकृतम् 請 ************** लब्धप्रतिष्टमचिराय कलि सुदूर मुसार्य शुद्धचरितैर्धरणीतलस्य ॥ कृत्वा पुनः कृतयुगक्रियमप्यशेषं । चित्रं कथं निरूपमः कलिवल्लभोभूत् ॥ ● यह 'निकपम कन्त्रिवल्लभ' पाने नृपतु का पितामह पहिला ध्रुव (घोर ) नामका है। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाषण, वीर निर्माण सं० प्रमतवर्ष गोविन्दराज शौर्येषु विक्रम "जगतुंग सूर्यग्रहण दिन समाप्त होजानेको कहनेमे वह इति श्रुतः .....अब स कीर्तिनारायणे वगति ॥ तिथि ई० सन् ८६६ के जन ता० १६ के दिन होती गरिनृपतिमुकुटमष्तिचरवत्सकला भुवमवजयविदितशीयः। है। वह साल नृपतुगंका राज्य मारकालका ५२ पंगांगमगधमानपत्रंगीशरचितोतिरावधवः॥ वाँ वर्ष कहा जानसे वह ई० स०८१५ में गद्दी पर स्वस्ति समधिगतपंचमहाशब्द-महाराजाधिराज. बैठा होगा। वैसे ही उनके अन्य शासनोंसे उसने परमेस्वरमधरक चतुलवधिवलयबाजपतसकलधरातल-प्रा- ई० म०८७७ नक यानी करीब ६२-६३ साल तक तिराम्याने कमंडलिकलाकटककठिसूत्र-कुण्डलकेयर-हा- प्रजा-परिपालन किया, ऐसा मालम पड़ता है। राभरबासंत.."मोषराम परचक्रपंचानन...... अतः इसके नामका ई० स० ८७० का शासन "यो । मनोहरं अभिमानमंदिरं रहवंशोदभवं सोरब नं ८९t | इसके अन्तिम सालमें लिखा गनखांदनं तिविजियपरे घोषणं सहजरपुरपरमेश्वरं गया होगा। इतना ही नहीं उस वक्त वह सिंहाश्रीनृपतुंगनामांकित-जमीवस्जभेन्द्रना चन्द्रादित्यर- सनासीन होगा, ऐमा उससे निष्पन्न होता है। कावं बरेग महाविष्णुवराज्यंबोलू उत्तरोत्तर राज्याभि- इसे गद्दी पर बैठते वक्त कमपे कम यानी १८ दिसनुत्तिरे शबनपकाला-तीतसंवत्सरंगल एलनर'. या २० सालका तो अवश्य होना चाहिये, इस तोबसेपटनेय व्ययमेव सवत्सरं प्रवतिसे श्रीमदमोघवर्ष प्रकार मानने पर इसका शासन समय समाप्तहोते नृपतुंग-नामांकितमा 'विजयराज्यप्रवर्द्धमानसंवत्सरंगल वक्त इस ८१ या ८३ वर्षसे ऊपरका होना चाहिये। अप्वत्तेरडं उत्तरोत्तर राज्याभिवृद्धिसनुत्तिरे अतिशय - इससे भी ज्यादा ही होना चाहिये न कि कम धवक्षनरेन्द्रप्रसादविंदममोघ वर्षदेव-पदपंकजभ्रमरं ... इतना कह सकते हैं। अतः इसके समयके ५२ वें ज्येष्ठ मासदमासेयुं पावित्यवारमाशिसूर्यग्रहणवन्दु ...... वर्षके शासनमें 'सवोव्यात्' इस प्रकारका हरिनागार्जुन बेसमे सिरिगाउंटनएल्गु पुदिदुदु ॥ हर-स्तुति-सम्बन्धी शिरोलेख रहनेसे तब तक यह शालिवाहन शक के ७८७ वष व्यतीत उसने जैनधर्मको प्रहण नहीं किया ऐसा कहने में होकर ७८८ के व्यय संवत्सरके ज्येष्ठ ब० ३० कोई भाक्षेप नहीं दीखता । हमारे अनुमानके अनु सार तब उसका करीब ७०-७२ तक अवस्था होनी यह 'प्रभूतवर्ष' (जगत्तंग) ऐसा गोविन्दराज चाहिये । यह शा० श० ७९७ में (ई० सम नपतुजका पिता है। ८७५) गद्दी अपने पुत्रको छोड़कर राज्यकारसं निवृत हुआ, इस प्रकार श्रीमान. के. बी. पाठक यह 'बहे' ऐसा शब्द 'बई' (बर्देन्दु प्रौढि) +E.C.. Vol. VIII., Pt. II (स्वस्त्यमोषउसीका रूपान्तर होगा? वर्षवल्लभमहाराजाधिराजपरमेश्वरमधारका पृथवीराज्यं * एस्ब रह, यह 'एल्लु' शब्द आधुनिक गेये........ सवर्षमेलनूरतोंमतोंमतनेष संवत्सरंकनडीमें नहीं, परन्तु तामिल, मलैयान भाषामें सर्व- प्रवर्तिसे........|| इस लेख में देवता-स्तुति शिववेक सामान्य है। नहीं है। Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष, नृपतुंगका मत विचार ५५ महाशयकी राय है । वह कौनसे आधारसे है, यह हुआ अथवा जैनधर्मी होनेसे ही उसने ऐसा मालूम नहीं होता। इतना ही नहीं सोरष शिला- किया, यह माननेका कोई कारण नहीं है। लेख न० ८५ (ई० स०८७७) के शासनमें इस इस वंशके लोगोंकी राजधानी 'मान्यखेट' अमोघवर्षको 'पृथिवी राज्यं गेये' ऐसा कहा जाने (Malkhed) नगर है । उसे इस नृपतुंगने ही से वही उस समय गद्दी पर रहा होगा इस प्रकार प्रथमतः अपनी राजधानी कर लिया था, इस दृढताके साथ मालूम पड़नेसे पाठक महाशयका प्रकार कीर्तिशेष डा. रा. गो. भंडारकरका कहना कहना ठीक मालूम नहीं पड़ता है। है (E. H. D. पृ० ५१ ) । 'कविराजमार्ग' के अतः ई० सन् ८७७ वें तक तो यह राज्यकार उपोद्घातमें श्रीमान् पाठक महाशयके कथनानुमार मे निवृत नहीं हुआ ऐसा कहना चाहिये। (पृ० १०) यह मान्यखेट नृपतुंगके प्रपितामह इसके पिता गोविंदके कुछ शासनोंसे ऐसा प्रथमकृष्णके कालसे ही इस वंशके लोगोंकी राजमालम होता है कि गोविन्दकं पिता ध्रव अथवा धानी था ऐसा मालूम पड़ता है। उसके पहिले घोरनरेश (निरुपम, धारा वर्षे, कलिवल्लभ ) ने उनकी राजधानी 'मयूरखंडि' ( वर्तमान बंबई अपने पुत्रके पराक्रम पर मोहित होकर अपने आधिपत्यके नासिक जिलाके 'मोरखंड') थी ऐसा जीवनकालमें ही उसे गद्दी पर बैठाकर श्राप राज्य- जान पड़ता है । कुछ भी हो, (वर्तमान धारवाड़ कारसे निवृत होना चाहा और यह बात उसे जिलाके अन्तर्गत ) 'बंकापुर' उनकी राजधानी सुनाने पर उसने उसे स्वीकार नहीं किया । आपके नहीं थी, यह बात दृढताके साथ कही जा सकती अधीन मैं युवराज्य ही होकर रहूँगा ऐसा कहा, हैइस प्रकार लिखा हुआ है । अतः राष्ट्रकूटवंशीय जिनसेनाचार्यकी परंपरा इस प्रकार पाई नरेशोंमे अपन बुढापेके कारण, या पराक्रमी पुत्र जाती है:की दिग्विजय आदि साहसकार्यसे खुश होकर या अपनी स्वच्छन्दतासे गद्दी छोड़नेका यह एक उदाहरण मिलता है। अतः नृपतुंग ई० सन् ८७७ वीरसेनाचार्य के अनन्तर अपनी उम्र ८० के अपर समझ कर राज्यकारसे निवृत हुभा होगा तो उसने अपने विनयसेन जिनसेन विवेकसे ही ऐसा किया होगा यह कहना चाहिये । ऐसा न कहकर अपना धर्म छोड़ कर जैनधर्मी गुणभद्र * कविराज मार्ग-उपोधात पृ० ।। इस परंपराके संबन्धमें इन्द्रनंदिके 'श्रुतावतार' में निम्न प्रकार कहा है -:* E.A.D.P. 49-50 (Mythic Society's Journal Vol. XIV, No. 2, P. 84) ●वि०२० मा.पु..., एलाचार्य दशरथ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाषण, वीर विव.. पागते शिपयपि तक पुनबिनपुरवासी। धर्मके मूल संघो । 'सेम' संघ वाले थे, इतना ही श्रीमानेजाचार्यों बभूम सिदान्त ७६ ॥ मालूम पड़ता है, पर कौनसे 'गण' के और कौन तस्प समीपे सब सिदान्तममात्य वीरसेंगगुरुः । से 'गच्छ' वाले थे सो मालूम नहीं पड़ता। वे उपरितमनिवन्धनाधिकारन लिने बहुराः 'देशीगणं' के होने चाहिये । ये 'पुन्नाट' वीरसेनका शिष्य जिनसेन था और वीरसेन गण वाले नहीं हैं, इस सम्बन्धमें जैन विद्वानों में का विनयसेन नामक बड़ा शिष्य भी था, यह बात अभिन्न विश्वास है। जिनसेनके प्रन्थोंसे पाई जाती है 'पुनाट' इस नामको गल भी 'सेन' संघकी मीवीरसेनमुनिपाइपयोग। एक शाखा है। इसी सेन संघके पुनाटगणछके श्रीमानभूहिनयसेनमुनिगरीयान् ॥ दूसरे 'जिनसेन' ने संस्कृतमें करीब ११००० श्लोक तबोदितेन जिनसेनमुनीश्वरेण । परिमित जैन 'हरिवंश' की रचना की है । उसे काव्यं व्यपावि परिवेष्टितमेघदूतम् ॥ पारर्वाभ्युदय ४,७१ उसमे शक सं०७०५ (ई. सन ७-३) में लिख कर पूर्ण किया है । उस समय राष्ट्रकूटवंशका __गुणभद्रके 'उत्तरपुराण' को प्रशस्तिमें इस मरेश श्रीकृष्णराजका पुत्र श्रीवल्लम नामका परंपराके सम्बन्धमें इस प्रकार कथन है : दूसरा गोविन्द गही पर था, यह बात उसकी वीरमेनाप्रणी वीरसेनमहारको बभौ ॥ ४ प्रशस्तिके निम्न पद्य से पाई जाती हैमुनिरबुजिनसेनो वीरसेनामुष्मात् ॥ ३॥ दशरथगुलामीत्तस्य धीमान् मधर्मा ॥१६॥ शाकेष्वन्दशतेषु समसुदिशा पंचोत्तरेपत्तरांम् । शिष्यः श्रीगुरुमबरिरगयो । रासीजगदिश्रुतः ॥१॥ पातौन्द्रायुधनाग्नि कृष्णनृपने श्रीवहभेदषिणाम् ॥१३॥ देवसेनाचार्यने अपने 'दर्शनसार' (ई० स० इस हरिवंशपुगणके कर्ता जिनसेनने अपने ९३४) में इस प्रकार कहा है: प्रन्थ के मंगलाचरण + में वीरसेन, जिनसेनासिरिवारसेशसिस्सो बिबसेको सपनसत्यविण्णाणी ॥३० चाया चार्योंकी इस प्रकार प्रशंसा की है:तस्स य सिस्सो गुणवं गुरुमदो दिव्वणाणपरिपुरणो॥३१. । इस मूलसंधकी शाखा इत्यादिके संबन्ध ये वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र दिगम्बर जैन श्रवणविजगुलके बहुतसै शासनोम उल्लेख है। 4. सि. भा० १५० २७ (E. C: Vol. II) 'भक्यो।' इन दोनोंका अर्थात् जिनसेन और वि०२० मा० पृ. दशरय दोनोंका शिष्य । ___*. सि. भा. १, २-३ पृ..। •संस्कृत छाया (पनि पुनमाया गुबी') श्रीवीरसेनशिष्यो जिनसेनः सकलशास्त्रविज्ञानी ॥३० . सि. मा. १, २-१. पृ०.४ तस्य शिष्यो गुगवान मुबमको विन्यज्ञानपरिपूर्ण + जै. सि. मा..,५०० Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३. किरण ..] नृपतुंगका मत विचार जितात्मपरखोकस्य कवीनां चक्रवतिनः ।। गुरु शिष्य दोनों के जीवित रहते वक्त वैसा कहना पीरसेनगुरोः कीतिरकलंकावभासते ॥..॥ अनुचित होगा। इस मंगलाचरणकी रचना करने वामिताभ्यलये तस्य जिनेन्द्रगुणसंस्तुतिः। वक्त वीरमैन स्वर्गवासी हो चुका होगा केवल स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्तिः संकीर्तयस्यसौ ॥॥ जिनमन मौजूद था ऐसा मालूम पड़ता है। पर्द्धमान पुराणोधदावित्योतिगभस्तयः । वैसे ही उसे 'स्वामी' इस प्रकार संबोधित करनेसे प्रस्फुरन्ति गिरीशान्तः स्फुटस्फटिकभितिषु ॥ ४२॥ वह उस वक्तका महाविद्वान् तथा बड़ा प्राचार्य होता हुमा प्रख्यात हुआ होगा। अत: वैसा कीर्तिये श्लोक 'हरिवंश' के आदि-भागमे हैं, जिस वान होने के लिये उस कीर्तिके कारणभूत अनेक के ११००० श्लोक लिखनेमें कममे कम ५ साल काव्योंकी उसने रचना की होगी। उस वक्त उसकी तो लगे होंगे। भतः जिनसेनने उसे शक सं० अवस्था कमसे कम २५ वर्ष तो अवश्य होगी इस ७००( ई० सन् ७७८ ) में लिखना प्रारंभ किया से कम तो सर्वथा नहीं होगी,यह बात निश्चयपूर्वक होगा ऐसा मालूम पड़ता है । तब वीरसेन कवि- कह सकते हैं। ऐसी अवस्थामें वह शक सं० चक्रवर्ती कहलाते थे, उसके पहिले उन्होंने अनेक ६७५ ( ई. सन् ७५३ ) के पहिले ही पैदा हुश्री काव्योंकी रचना की होगी; वैसे ही उनके शिष्य होगा। जिनमनने भी उसके पहिले संस्कृतमें 'वर्धमान- वीरसेनाचार्य के शिष्य हमारे जिनसेनने पुराण' तथा 'जिनेन्द्रगुणसंस्तुति' • नामका उपर्यत दो प्रन्थोंके मिवाय ® और भी काव्य लिखकर पूरा किया होगा। इस हरिवंशमें अनेक संस्कृत काव्योंको लिखा है, जिनमें मुख्य गुरु वीरसेनको 'स्वामी' कहे बिना उनके शिष्य -- जिनसेनको 'स्वामिनो जिनमनस्य' कहा जाने व्याख्या ई० सन् ८३७.८३८ में लिखी है; ई. स. ०७८-७३ के अन्दर लिखे गये 'हरिवंश' में उस * इस कायका नाम (पानिनन्द्रस्तुति ) है, कारणसे उसे 'स्वामी' ऐसा न कहा होगा; इसके ऐसा 'विद्रसमाला' में (१९२६) बनाया है, उसी प्रजाम उस माश्याको वीरसेनने लिखना प्रारंम किया का (जिनगुणस्तोत्र) नामसे पूर्वपुराण' की प्रस्तावनामें था, उसे पूर्ण करने पहिले ही उनका स्वर्गवास हो (पृ०५) उल्लेख है । ( 'पूर्वपुराण'-न्यायतीर्थ जानेसे उसे जिनसबने पूर्व किया ऐसा मालूम पड़ता शान्तिराज शास्त्रीका बांटक अर्थसहित मुद्रण-मैसूर है। ऐसा हो तो वीरसेनको 'स्वामी' क्यों नहीं कहा ? १९) दोनों अम्म अब तक मास नहीं। सविनसेको स्थानी' का लिये क्या बनेगुणसंस्तुति का अभिप्राय पार जिनेन्द्र पारण स सम्बन्ध में 'नवार्यसूलपाक्याला स्वामीति की स्तुति 'पाखाम्दष' काम्यसे है और वह उपलब्ध परिपव्यत' (गीतिसार) पचनका माधार देते है क्या सं० १९६६ में पकर प्रकाशित भी हो चुका (वि. १. मा. पृ. ११)। पर जिनसेनने तस्वार्थस्त्र पर है। -सम्पादक] - .- - - - - Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [भाषण, वीर निर्माण सं०२४१६ (=प्रभाव ) से बुदित हुई (=पैदा हुई ) वह १ उमास्वातिके 'तत्त्वार्थसूत्र' पर इस जिन 'जयधवला' 1 टीका, गुर्जर (गुजराती) नरेशके सेनके गुरु वीरसेनने 'जयघवला' नामको टीका शासनमें विद्यमान 'मटग्राम' नामके नगरमें शक लिखनी प्रारंभ की थी, जिसकी करीब २०००० सं० २९ (ई० स० ८३७-८३८) फाल्गुण श्लोकोंकी रचना करके उनके स्वर्गवासी होने शु० दशमीके दिन समाप्त हुई। पर जिनसेनने उसमें पुनः४०००० श्लोकोंको जोड़ अतः इस टीकाको समाप्त करते वक्त जिनकर ६००००श्लोकोंसे युक्त उस ग्रन्थको पूरा किया सेनकी अवस्था करीब ८४-८५ वर्षकी होनी x। उसे पूरा करनेके समय-संबन्धमें जिनसेननं चाहिये। उसके अन्तमें इस प्रकार कहा है: २ पार्श्वभ्युदयकाव्य-यह कविकुलगुरु इति श्रीवीरसेनीया टीका सूत्रार्थदर्शिनी । कालिदासके 'मेघदूत' काव्यके ऊपर समस्यापूर्ति मट्यामपुरे श्रीमद्गुर्वरायांनुपातिते ॥ के रूपमें रचा गया एक छोटासा काव्य है। इसमें जिनसेनने २३ वें तीर्थकर श्रीपार्श्वनाथ स्वामीकी फाल्गुने मासि पूर्वाड दशम्यां शकपडके। प्रवर्धमानपूजायां नन्दीश्वरमहोत्सवे ॥ कैवल्य-वर्णना बहुत अच्छो की है। इसमें ४ सर्ग हैं और उनमें कुल ३६४ वृत्त हैं । न्त्यिग्रन्थमें इस अमोघवर्ष राजेन्द्रप्राज्यराज्यगुणोदया। प्रकार कहा है:निष्टितमच्यं पायादकल्पान्तमनपिका ॥ इति विरचितमेतत्काव्यमावेष्टय मेघ । एकात्रषष्टिसमधिकससातादेषु शकनरेन्द्रस्य । बहुगुणमपदोषं कालिदासस्य काध्यं ॥ समतीतेषु समासा जयधवक्षा प्राभृतम्यास्या ॥1 मचिमितपरकाम्यं तिष्ठतादाशशांक । अर्थात-अमोघवर्ष नामक नरेशके प्राज्य मुवनमवतु देवस्सर्वधामोघवर्षः ॥४-०॥ (विस्तृत) राज्य (=राज्यभार) के गुण इससे यह काव्य अमोघवर्ष नामके एक x वीरसेन तथा बिनसेनने 'जयधवला' नामकी नरेशके समयमें रचा गया मालूम पड़ता है। इस जो टीका लिखी है यह उमास्वातिक तरवार्थमन्त्री काव्यको पढ़ते वक्त मालूम पड़ता है कि इसे कवि टीका नहीं है, किन्तु श्रीगुरुचराचार्य-विरचित 'कसाय- यह 'जयधवला' टीका सिद्धान्तग्रंथ कहलाती पाहु' (पायाभूत) नामके सूत्र ग्रन्थकी टीका है। है। इसकी पूर्णप्रति भव (दक्षिण कार जिंबाके) जान पड़ता है 'सूत्रावर्शिनी' पद परसे खेखक महा- 'मूडविदरी' नामक स्थान पर 'सिद्धान्तमंदिर' में है। शयको भ्रम हुमा है और उसने 'सूत्र' शब्दका अभि- यह प्रति कुछ समयके पहिले अपयवेबगुलके सिद्धान्तपाय गलतीसे उमास्वातिका तत्वार्थस्त्र समझ लिया मंदिर में थी और वहींसे 'मूडविदरी' को ले गये, इस -सम्पादक प्रकार प्रवणबेलगुलके शासनग्रन्थों के उपोषातमें कहा 1. सि. मा० ., . १०१२-१३ (E.C. Vol. II Introd. P.28 Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ वर्ष ३, किरण 10] नपतुंगका मतविचार ने अपनी मध्यमावस्थामें-अर्थात ४०-४५ वर्षके करके पश्चात आदिपुराण लिखना प्रारंभ किया पहिले ही लिखा होगा, यह बात उसकी वर्णना यह बात वास्तविक है; ऐसी अवस्थामें इसे उमने वैखरी इत्यादिसे मालूम पड़ती है । इसे जिनसेन- अपनी ८४-८५ वर्षको अवस्थाके पश्चात् लिखना ने ई० सन् ८०० से पहिले ही लिखा होगा; याने प्रारंभ किया होगा,पर वह इसे पूर्ण नहीं कर सका; नपतुंगके गद्दी पर आरूढ़ (ई० स०८१५) होनेके इमकं ४२ पर्व तथा ४३ वें पर्वके ३ श्लोक मात्र करीब १५ ( या ज्यादा ) वर्षोंके पहिले लिखा (याने कुल १०,३८० श्लोकोंको) लिखने पर वह होगा। (पर 'हरिवंश' में इस काव्यका जिक्र न जिनधामको प्राप्त हुआ । उस उन्नतावस्थामें भी श्रानेसे। यह ई० सन् ७७८-७८३ के पहिले नहीं १०,३८० श्लोकोंके लिखनेमें उसे १० वर्ष तो लगे वनकर पीछे लिखा गया ऐसा कहना चाहिये ।) हागे । उस वक्त उनकी ९५ वर्षके करीब तो ऐसी अवस्थामें इस 'पार्वाभ्युदय' में कहा गया अवस्था होनी चाहिये। ऐसी अवस्थामें उनका 'अमोघवर्ष' राष्ट्रकूट गुजरात-शाखाका दूसरा देहावसान ई. सन् ८४८ के आगे या पीछे हुआ 'कक' नामका अमोघवर्ष होगा क्या ? क्योंकि होगा। जिनसेनन अपनी 'जयधवला' टीकाको गुर्जरनरेश ४ जिनमेनके मरणानंतर उसके शिष्य गुणसे पालित मटग्राममें लिखकर समाप्त किया है। भद्रने इस ग्रंथमें करीब १०,००० श्लोकोंको जोड नपतुंगकी (या उसके पिता गोविन्दकी) राजधानी कर, करीब २०,००० श्लोक प्रमाण इस 'महापुराण' मान्यखेटमें या अन्य किसी जगहमें नही लिखा को समाप्त किया। अपनी रचना-समाप्ति-समय जानसे जिनमेनके पोषक राष्ट्रकूट वंशज गुजरात- के सम्बन्धमं वह उसकी प्रशस्तिमें । इस प्रकार शाखावाले शायद होंगे, इस शंकाको स्थान मिलता कहता है :है । अथवा 'पाश्चाभ्युदय' को जिनसनने अपनी अकालवर्पभूपाले पालयत्यखिलामिलाम् ॥३२॥ आयुकं ६० वर्ष पश्चात स्त्रय लिखा होगा तो उसमें कहा गया अमोघवर्ष इस लेखका नायक नृपतुंग श्रीमति लोकादित्ये ....................॥३३॥ ही होगा। चेलपताके चेलध्वजानुजे चेल केतनतनूजे । ३ आदिपुराण (अथवा पूर्वपुराण)-यह जैनेन्द्रधर्मवृद्धिविधायिनि.........॥३॥ जिनसनका अन्तिम ग्रन्थ है। जिनसनने अपने वनवासदेशमखिलं भुजति निष्कंटकं सुखं सुचिरं । गुरु वीरसनक स्वर्गारोहणानंतर उनसे नहीं पूरी -- -- ---- ------- की गई-बची हुई 'जयधवला' टीकाको स्वयं पूर्ण इसमें 'पादिपुराण' (अथवा 'पूर्वपुराण' ) की कुन श्लोकसंक्या १२,०००, 'उत्तरपुराण' की संख्या + हरिवंश' में 'जिनेन्द्रगुणसंस्तुति' रूपसे ...है, ये दोनों भाग मिलकर 'महापुराण' कहइसी काव्य ग्रंथका उल्लेख जान पड़ता है। लाता है। -सम्पादक जि. सि. मा० भाग १, पृ २६ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ भनेकान्त [भावय, वीर निर्वाण सं०२४१६ . तपितृनिजनामकृते ख्याते बंकापुरे पुरेष्वपि शकनृपकालाभ्यन्तरविंशत्यधिकाशतमिताब्दान्ते। यस्य प्रांशुनखांशुजालविसरदारान्तराधिर्भवत् । मंगलमहार्थकारिणि पिंगलनामनि समस्तजनसुखदे ॥३६ पादाम्भोज रजः पिशंगमुकुटप्रत्यारतयुतिः ॥ अर्थात्-राष्ट्रकूट वंशके (नपतुंगके पुत्र) संस्मर्ता स्वयममोघवर्षनृपतिः पूतोहमोत्यलं । अकालवर्ष नामक दुसरे कृष्णके शासन करते वक्त स श्रीमान् जिनसेमपूज्यभगवत्पादो जगन्मंगलम्।।१०॥ ( उसका सामन्त ) 'चल्ल पताक' नामक लोकादित्य इससं अमोघवर्षने जिनसेनको वन्दन करके जैनधर्मकी अभिवृद्धि कर्ता हुआ । 'वनवास + अपनेको अबही (='अद्य' ) धन्य माना यह देश पर शासन करते वक्त (उस वनवास देशमें) उम लोकादित्यके पिताके नाममे निर्मित 'बंकापुर बात मालूम पड़ती है, इसके सिवाय जिनसनसे जैनधर्मावलम्बन किया या स्वधर्म छोड़कर जिन(इस नामकी उमकी राजधानी ) में शक सं०८२० ( ई० स०८९७-८ ) में गुणभद्र ने 'उत्तरपुराण' सेनका शिष्यत्व प्रहण किया है, ऐसा अर्थ निक लता है या नहीं सो मैं नहीं जानता। इसके सिवाय लिखकर समाप्त किया। उसमें 'अद्य' यह शब्द रहनेसे जिनसेन और अमोघवर्षकै बीचमे एक समय परस्पर भेटका क्या नृपतुंग जैन था ? वर्णन मालूम पड़ता है, इससे ज्यादा अर्थ उसमें (अ) जिनमेन, गुणभद्रके काव्योंमें स्थित उल्लेख अनुमान करना ठीक नहीं मालूम होता है। ५. नपतुंगने जैनधर्मको स्वीकार किया, इम अथवा अमोघवर्प जिनसेनसे जैनदीक्षा लेकर बातको मानने वाले उमे जिनसेनद्वारा जिनधर्ममें उसका शिष्य हुआ होगा तो गुणभद्रने उसे दीक्षित हुआ विश्वास करते हैं उनके इस विश्वाम. स्पष्ट क्यों नहीं किया? इमी गुणभद्रन अपने 'उत्तर मंबन्धमे गुणभद्रकं 'उत्तरपुराण' का यह वृत्त पुराण'म बंकापरकं लोकादित्यको 'जैनेन्द्र धर्मवृद्धिही अन्य आधारोंमें प्रवल आधार है । इस विधायी' इम प्रकार नहीं कहा क्या ? अमोघवर्ष बातको भूलना नहीं । वह वृत्त इस प्रकार ने गुणभद्रकं खाम गुरुसे ही जैनधर्मका अवलंबन किया होगा तो उसे वैसे ही उल्लेख क्यों नहीं + बम्बई प्रान्तके उत्तर कन्नर जिलाके वनवासी।। किया ? और अमोघवर्ष अपने गुरुका शिष्य था, (in the Prasasti of the 'Uttar - तो वह अपना सधर्मी होनेसे गुणभद्र ने अपने purana') we are told that he (1. e. Nripatunga or Amoghavarsha 1) be- 'उत्तरपुराण को अपने सधर्मीके पुत्र अकालवर्षके came the disciple of Jinasena the well आस्थानमें या राजधानीमें अथवा उसके राज्यके known Jaina Author, who also bears किसी और स्थानमें न लिखकर उसके सामन्त testimony to the fact in tae Parsabh• राजलोकादित्यकी राजधानीमें क्यों लिखा ? yudaya) 1. A. pp. 216-217 (क. मा. उपो- - दधात प०६) ०सि०मा० १, ३, २०; वि०० मा० पृ० २१. - - - - - - Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३. निम्म ..] नपतुंगका मत विचार २. नपतुंगने ई० सन् ७९५-७९. के अन्दर 'पार्वाभ्युदय' काव्य जन्म लिया होगा, वैसे ही जिनसेनने ई० सन् इम काव्यके अन्तमें (४, ७०)-- ७५३ से पहिले ही जन्म लिया होगा, इससे 'भुवनमवतु देवस्सर्वदामोषवर्षः।' जिनसेन नपतुंगसे उमर में करीब ४२-४४ वर्ष इस प्रकार सिर्फ आशीर्वाद वचन ही है । बड़ा होगा । 'उत्तरपुराण' के श्लोकके अनुमार इससे यह काव्य पूर्ण करते वक्त अमोघवर्ष नामका नपतुंग-अमोघवर्षने जिनसेनको वंदन किया कोई नरेश था उसे जिनसेनने अपने कान्यमें उल्लेयह बात जिनसेनके अवसान के पहिले ही खित किया, इतना ही मालूम पड़ता है। इससे वह होनी चाहिये और वह ई० सन् ८४८ के पीछे अमोघवर्ष इस जिनसेन-द्वारा जैनधर्मी हुआ होनी चाहिये। जिनसेनने अपनी 'जयधवला' था--उसका शिष्य हुभा ऐसा अर्थ होता हो तो टीका को ई० सन ८३७ में पूर्ण किया उसके पहिले मैं नहीं जानता। ही उसे अमोघवर्ष-नपतुगन अपना गुरू बनाया परन्तु इस काव्यकी छपी हुई प्रति (Nirnaहोगा, तब उम कीर्तिदायि विषयको जिनसेन yasagara Press, Bombay : विक्रम स० अरने पवित्र ग्रन्थ-उस टीका-में व्यक्त किये १९६६ ) के प्रत्येक सगंके अन्तमें यह एक वि.अमोघवर्षराजेन्द्रप्राज्यराज्यगुणोदया' इतना ही गद्य है :कह सकता था क्या? अथवा अपने शिष्य अमोघ. "इत्यमोघवर्षपरमेश्वर-परमगुरु-श्रीजिनसेनाचार्यवर्षको राजधानीमें या उसके राज्यके अन्य विरचित-मेघदूतवेष्टितवेष्टिते पार्वाभ्युदये भगवत्कैवल्यस्थान पर उसे नहीं लिखकर 'गुर्जरायसे पालित' वर्णनं नाम (प्रथमः, द्वितीय, तृतीयः,चतुर्थः) सर्गः॥" मटग्राममें उसे लिखता क्या ? ___ इससे जिनसेन अमोघवष का गुरु था यह बात मालूम पड़ती है, पर यह रचना स्वयं जिनसेन ३. जिनसेन के अन्तिम ग्रन्थ 'आदिपुराण', ' की नहीं, बहुतसे समयकं पश्चात प्रक्षिप्त हुई में नृपतुग-अमोघवर्षका नाम नहीं है । यदि वैमा , होगी, यह बात निम्न लिखित कारणोंसे मालूम नरेश उसका शिष्य हुआ होता तो उसका नाम पड़ती है:जिनसेनने क्यों नहीं कहा सो समझमें नहीं १. यह काव्य कालिदासके 'मेघदूत' के ऊपर पाता। समस्या-पूर्तिके रूपमें रचा गया है । 'मेघदूत' में ४. गुणभद्रके 'उत्तरपुराण' में जिनसेनकी 'पूवमेघ', 'उत्तर मेघ' इस प्रकार दो भाग हैं उनके 'जयधवला' टीकामें तथा ' पार्वाभ्युदय' में अनुमार इसमें भी दो भाग होने चाहिये थे, पर 'श्रमोघवर्ष' ऐसा नाम देखा जाता है। राष्ट्रकूट इसमें वैसे न होकर केवल ४ सर्ग रक्खे गये हैं, वशक नरेश"शव' का 'शर्व' नाम तथा मुख्यतः जो न्यूनाधिक रूपमें विभाजित दिखाई देते हैं., 'अमोघवर्ष' नामसे विशेष प्रख्यात् 'नृपतुंग' . प्रथम सर्गमें 11 पच, दुसरेमें. ११८, .तीसरेमें ऐसे नामका बिलकुल प्रभाव क्यों? २७, चौथेमें 1, कुल पसंख्या ३३४ । Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ [श्रावण, वीर निर्माण सं०२४१६ और यह सर्गविभाग भी कथावस्तुमें दिखाई नहीं है । अथवा इस 'पार्श्वभ्युदय' को ही कंवलदेने वाले समन्वयके भावश्यकीय परिच्छेदोंके 'भगवत्कैवल्यवर्णन' नामांतर (इसके विषयानुसार) अनुकूल न रह कर 'मेघदूत' से समस्यापतिके दिया होगा तो सीन्तम गद्य में-"पार्वाभ्युदये लिये लिया गया पाद......ठीक न रह कर कृत्रिम भगवत्कैवल्यवर्णना प्रथमः,द्वितियः,इत्यादि)सर्ग:" रूपसे किया गया मालूम पड़ता है। इससे जिनसेन रहना चाहिये, जैम है वैसे रहनेका क्या कारण ने यह सर्ग-विभाग नहीं किया किन्तु उससे उपरान्त है ? इससे यह मालूम होता है कि प्रत्येक सर्गका के किसीने किया मालूम पड़ता है। इसके सिवाय अन्तिम गद्य जिनसेनका लिखा हुआ नहीं, और अनर्गल रूपसे बहने वाले ( ३६४ पद्योंसे युक्त) किसीका लिखा होगा। इस छोटेसे कथानक में मर्ग विभक्ति की आवश्य- ३. इम 'पार्वाभ्युदय' के ऊपर योगिराट् कता क्यों हुई सो मालूम नहीं पड़ता। पंडिताचार्यने व्याख्या लिखी है। इसने ई० सन् १३९९ मे रचे हुए 'नानार्थमाला' कोषका उल्लेख २. किसी काव्यमें अनेक सर्ग हों तो उन अपनी व्याख्यामे कई जगह पर किया है,इससे यह सोंके अन्तमें दिये हुए गद्यमें उस सगमें वर्णित टीकाकार बहुत पीछे हुआ मालूम पड़ता है; याने विषय को सूचना देन रूपसे कहनका रिवाज है, जिनसेनसे करीब ५५०-६०० वर्षोंसे पीछेका व्यक्ति अथवा उन सोंको कविने अन्यान्य नाम न दिया मालूम पड़ता है । इसने अपनी व्याख्याके प्रति हो तो अपने काव्यमें अमुक सर्ग समाप्त हुआ सर्गके अन्तिम स्थानमें अन्य व्याख्याताकी तरह कहने का रिवाज है । पर तमाम सर्गोका नाम एक व्याख्या जिस पर लिखी गई है उस काव्य के तथा रखनेका रिवाज कहीं है क्या ? इस काव्यके व्याख्याके नाम के साथ साथ-'इस्यमोघवर्षप्रत्येक सर्गके अन्तमें उम मर्गको 'भगवत्कैव परमेश्वरपरमगुरुश्री जिनसेनाचार्यविरचितमेघदूतवेष्टित. ल्यवर्णनं नाम' कहा है । अपने 'आदिपुराण' वेष्टिते पार्श्वभ्युदये तद्व्याख्यायां च सुबोधिन्याख्यायां के प्रत्येक सर्गमें उसकी वर्णनानुकूल पृथक् पृथक् २ भगवत्कैवल्यवर्णनं नाम प्रथमः ( द्वितीयः तृतीयः, समंजस नाम दिया हुआ होनेसे महाकवि चतुर्थः, सर्गः ) इस प्रकार दिया है । इसमें जिनसेन द्वारा सिफ पाश्र्वाभ्युदय में इस प्रकारका पाश्चाभ्यदय' और 'भगवनकैवल्यवर्णनं' के बीच दृष्टिदोष (Oversight) हो जाने की सम्भावना - "-"" में इसने अपनी व्याख्या का नाम भी कहा है, अतः (उदा०-दूसरे सर्गके आदिमें 'इतः पादवेष्टि- वह 'भगवतकैवल्यवर्णन' विशेषवाचिको ( उस तानि', तीसरे सर्गके आदिमें :'इतोर्धवेष्टितानि', चौथे काव्यका नाम तथा सर्गका नाम) इसने ही जोड़ा सर्गके प्रारंभमें 'इतः पादवेष्टितानि' इस प्रकार सूचना होगा,ऐसा व्यक्त होता है, वैसे ही अपनी व्याख्या है। अतएव इस काव्यको सर्गरूपसे उसने हो विमा- के अन्तिम गद्यमें अनावश्यक 'अमोघवर्षपरमेजित किया या व्यापाताने किया, · ऐसा मालूम वरपरमगुरूजिनसेनाचार्य' इस प्रकार पुन रुक्तिदोषका भी खयाल नहीं करके जोर जोरसे Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ..] नृपतुंगा मतविचार कहनसे मूल कान्यका सन्तिम गद्य भाग भी परन्तु इसके बराबर असंबद्ध दन्तकथा और इसके द्वारा ही जोड़ा हुआ मालूम पड़ना है । इस कोई नहीं। कारण, कालिदाससे जिनसेन कमसे बातको और दृढ़ करने वाला एक और प्रबल कम २०० वर्षों के करीब 1 पीछे हुमा, अथवा आधार है । वह यह है: 'मेघदूत' से 'पार्श्ववाभ्युदय' श्रेष्ठकाव्य कहला इस पंडिताचाचायने अपनी व्याख्यामें अपने नहीं सकता, उसे श्रेष्ट बनाने के उद्देश्यसे यह असं. से करीब ५५०-६०० वर्षों के पीछे इम'पावाभ्युदय' बद्ध जनश्रुति अपने अनुबंधमें घुसेड़कर पंडिताकी उत्पत्ति-सबन्धमें इस प्रकार कहा है कि काली- चार्यने जिनमेनको अन्तवादी बना दिया। इसके दास नामका 'कश्चित्कवि' 'मेघदून' नमक काव्य- सिवा इतिहासप्रमाण कोई मिलता नहीं; वैसे ही की रचना करके, मदोद्धर'होता हुआ 'जिनेन्द्राघि बकापुर अमोघवर्षकी राजधानी नहीं थी, यह बात सरोजेन्दिन्दिरोपम' * अमोघवर्षके राज्य पहिले ही कही जाचुकी है। इन सब कारणोंसे 'बंकापुर' में आया था, और उस अमोघवर्षको- यह मालूम पड़ता है कि पंडिता वार्यने लोगोंसे सस्वस्य जिनसेनर्षि विधाय परमं गुरुम् । कही हुई दन्तकथा पर विश्वास रखकर उसे दृढ सद्धर्म योतयंस्तस्थौ पितृवत्पातयन् प्रजाः ॥ करने के उद्देश्यसे अपने अनुबन्धमें घसड़कर उसके इस प्रकार वर्णित किया है । माथ ही, वहाँके आधारमे जिनसेन अमोघवर्षका गुरु था यह बात रहने वाले विद्वानों की निंदा करते हुये ( 'विदुषो- 'पार्श्ववाभ्युदय' के प्रतिसर्गके अन्तिम गद्य में वगणयैष') कालीदास के इस काव्यको अमोघवर्ष लिखकर और उसके सिवाय अपनी व्याख्याके के सामने पढ़ने पर, उसकी विद्याहंकृति निवारण प्रत्येक सर्गके अन्तिम गद्य में पुनः पुनः जोरसे करने के उद्देश्यसे और उसे 'सन्मोद्दीप्ति' पैदा कही होगी। अतएव यह मूलकाव्यकी सर्गान्तिम करानेकी इच्छास अपने 'सतीर्थ्य' विनयसेनसे गद्यरचना जिनसेनकी स्वतः रचना नहीं है, वह प्रेरित एक-पाठो जिनसेनने उस काव्यके प्रत्येक इस व्याख्याता पंडिताचार्य द्वारा या और किमीक चरणको क्रमशः प्रतिवृत्तमें वेष्टित करके इस 'पा- द्वारा जोड़ी गई होगी। इतिहासको दृष्टिमे उसकी वाभ्युदय' की रचना की,और फिर उसे आस्थानमें बातें जिनसेनके समयसे बहुत ही आधुनिक होने पढ़कर अपने काव्यमे ही कालिदासने प्रत्येक के कारण उसे निराधार समझ कर छोड़ना पड़ता श्लोकसे चरण चराकर (.'स्तेयात' ) 'मेघदूत' की है। रचना की है, ऐसा कहा बतलाया !! ई. सन् ६३४ के 'ऐहोने के शासबमें कानि. ___ * इस व्याख्याके अन्तिम गोंमें तथा अनुबन्धों में अथवा कान्यके प्रतिसर्गके अन्तिम स्थान पर जोड़े हुए गोंमें, इस काव्यमें (५,७.) विखाई देने वाले "सविजयता रविकीतिः कविताभितकाविलास 'अमोघवर्ष' नामके सिवाय उ.मका और कोई नामा- भारविक्रीतिः ।।" तर नहीं है। (मा.०मा०.०१) दासका नाम है Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६ प्राचीन भारतकी धर्म-समवृत्ति शामनसे मालूम पड़ती है। १ ३. गुप्तवंशीय नरेश 'समुद्रगुप्त' । (ई० स० इस सन्दर्भ में सुसंगत एक बात और कहना है। इस भारत भूमि पर पीछेके सभी नरेश तथा अन्य ३३०-३७५) स्वतः वैष्णव होते हुए भी, अपने धर्मके समान बौद्ध तथा जैनधर्मियों पर भी विशेष भी अपने राज्यमें अथवा अन्यत्र सभी जगह विद्यमान अन्य सब धर्मोको तथा अन्य धर्मानु. प्रेम रखता था; और उसे बौद्धमती 'वसुबन्धु' नाम के व्यक्ति पर विशेष प्रामर था; तो भी वह अपना यायियोंको अपने धर्मकं समान, समानष्टिसे पुरस्कृत करते थे । इतना ही नहीं, किन्तु उन लोगों स्वधर्म छोड़ कर बौद्ध नहीं हुआ । सिंहल देशके के मठ-मंदिरादि बनवाकर दान देते थे, इस बात नरेश मेघवर्णन अपने देशसे इसके राज्यमें स्थित को दिखलाने वाले इतिहासमें बहुतसे प्रमाण हैं, बुद्धगयकी तरफ जानेवाले यात्रियोंके हितार्थ वहाँ उनमसे दृष्टान्तरूपमें कुछ यहाँ दिये जाते हैं : स्वयं एक विहार बनाने के लिये इससे अनुमति १. मौर्य सम्राट अशोक (ई. स. पूर्व चाही तो इमने उसे दिया, ऐमा मालम पड़ता है। २७४-२३६) बौद्धधर्म स्वीकार करके बौद्ध हुआ, १. चालुक्यान्वयका सत्याश्रय नामके दूसरे यह बात ऐतिहासिक लोग जानते हैं, नो भी उसने पुलिकेशीने अपने परमाप्त 'रविकीर्ति' नामक काश्मीर देशमे मनातन धर्मका देव मंदिर बनवाकर ('सत्याश्रयम्य परमात्मवता ....... .."रविजीर्णोद्धार करवाया था, यह बात 'कल्हण' की कीर्तिना' दिगम्बर शाग्याके (और बहुशः 'नंदि' 'राजतरंगिणी' से मालूम पड़ती है संघके ) जैनपंडितको स्वयं बनवाकर दिये हुये अथावहदशोकाख्यः सत्यसन्बो वसुन्धराम् ॥१, १०॥ जिनालयमें उम रविकीर्ति-द्वारा रचित और जीर्ण श्रीविजयेशस्य विनिवार्य सुधामयं । उत्कीर्ण शिलालेख ( ई० सन ६३४) जिनस्तुति. निष्कलषेणारममयः प्राकारो येन कारितः ॥ १, १०१ ॥ संबन्धी पद्योंसे प्रारंभ होने हुये भी, उस सभायां विजयेशस्य समीपेच विनिर्ममे । पुलिकेशीके अन्य सभी लेख विष्णु-स्तुति-सम्बशान्तावसादः प्रसादाक्शोकेश्वरसंहितौ ॥ १,१०६ ॥ न्धी पद्योंसे ही प्रारंभ होते हैं, इतना ही नहीं २. जैनधर्मानुयायी कलिंगदेशका राजा I Men and thought in ancient महामेघवाहन खारवेल (ई० स० पू० सु० १६९ ) India, pp. 157-159. सनातन, बौद्ध, जैनधर्मी साधुओंको समानदृष्टि । . इस समुद्रातका ध्वज गरुडध्वज था; इसके उपर दिये हुए नृपतुगके शासनमें उसने अपनेको 'गरुडतथा गुरुभक्तिसे सत्कार करता था तथा अपने लांछन' कहा है, यह बात ध्यानमें खाना चाहिये । राज्यमे अन्यान्य धर्मोकी भी बिना भेद भावके उदा.-(१) वह शक सं०१३३ (ई०स०६१०) रक्षा किया करता था,यह बात 'उदयांगरि के एक का एक ताम्र पत्रके प्रारंभमें वराहरूपी विष्णुकी स्तुति + यह उदयगिरि' मोडू देश ( Orissa ) के जयति जसवन्दश्यामनीलोत्पलमः । 'कट' (Cuttack)मगरसे मील दूर पर है। Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण १०] नपतुंगका मत विचार वह विष्णुभक्त ही था और जैनधर्मावलम्बी नहीं गद्दी पर आये हुए कुमारपाल (ई० सन् ११४१हुआ यह बात इतिहाससे मालूम पड़ती है। ११.१ ) ने जन्मतः शैवधर्मी रहकर, अन्तमें ५. गुर्जर देशका नरेश सिद्धराज श्वेताम्बर हेमचन्द्र में जैनधर्म स्वीकार किया; परन्तु पश्चात जैनयति हेमचन्द्रमूरि पर विशेष श्रद्धा रखता था भी शिवभक्तिको भूला नहीं, यह बात श्वेताम्बर (ई० स० १०८७-११७१)। उसने अपनेको जैनयति जयसिंह सूरिसे रचित (ई० सन् १२३०) सन्तान न होनकी चिंतासे हिंदू और जैनधर्मक 'वस्तुपाल तेजःपाल प्रशस्ति' से मालूम पड़ती पवित्र क्षेत्रोंकी यात्रा उस हेमचन्द्रकं साथ करने है. इत्यादि । पर भी, स्वधर्मका-सनातनधर्मका-त्याग नहीं अतएव जो कोई नरेश (अथवा अन्य कोई) किया । उसे हेमचंद्र गुरुके समान था । उमकं स्वधर्मी के मिवाय परधर्म के यतियों या अन्य साथ हेमचंद्रने सोमेश्वर शिवक्षेत्रको यात्रा करते साधुओं (अथवा कवियों) की श्रेष्ठ विभूति पर वक्त, स्वयं जैन होते हुये भी, परधर्म पर विरोध आकर्षित होकर, उमे गुरुभावसे सत्कार करता है नहीं करते हुए बाँके शिवलिगका स्तवन किया, तो उससे वह अन्यपनीका शिष्य हुआ, या उमके यह बात प्रद्युम्नसूरिकृत 'प्रभावकचरित्र' (ईo- उपदेशमे उसने स्वधर्म त्यागकर उसका मत स्वीम० १२७७) 9 में है । उस सिद्धराज के पश्च न् कार किया इस प्रकार मान लेना कदापि ठीक धरणिधरनिरोधास्विचवक्त्रोवराहः॥ नहीं; पर प्रबल और समर्थक अन्य ऐतिहासिक (२) ई. स. १४१ (जनवरी ३१) के शासनमें . स्वतंत्राधार हों तो बिना संदेहकं स्वीकार कर (E. C.X. गोरिखिदनूरु न०५६) इसने सगमतीर्थ सकने हैं, क्योंकि गुर्जर कुमारपाल हेमचन्द्रकं में माघरा ॥ ौर्णिमा चन्द्रग्रहण दिन स्नान करके उपदेशसे जैनी हुआ था यह बात हेमचंद्र के ग्रंथों 'पेरियान' नामके ग्रामको सहिरण्य सोदक-पूर्वक से "कुमारपालश्चालुक्यो राजषिः परमाईतः"ब्राह्मणोंको दान दिया लिखा है। हेमचन्द्र के 'अभिधान चिंतामणि' (श्लोक ७१२) (३) इसके और एक ताम्र पत्रका ( प्रा० ० मा० से अन्य समकालीन और ईषत्कालान्तरकं ग्रंथोंसे नं० १५१) प्रथम श्लोक इस प्रकार है: साधारण प्रमाण मिलनेपर उस इतिहास-तथ्यको जयति जगतां विधातुधिविक्रमाकान्तसकलाभुवनस्य । ..." .. . ... नखांशुबटिलं पदं विष्णोः ॥ कौन नहीं स्वोकार सकता ? • सरिरथ तुष्टुवे तत्र परमात्मस्वरूपतः । (भागामी किरणमें समाह) नमाम चापिरीणेहि मुके परमकारखम् ॥३४॥ पत्र तत्र समये पया तथा। * पापातिस्म कुमारपालनृपति .........॥२४॥ योसिसोत्त्वमिधषा पथा तथा । जैन धर्ममुरीषकार............। बीतदोष मनुषः सद्भवा । ......"गुरुपके स्मरध्वंसिनम् ॥२२॥ ' नेक एव भगवयमोस्तु ते ॥३०॥ Gaekwad's Oriental Series. -N..x (प्रमापापरित पृ.११) 'हम्मीरमदमन' पृ.१०) Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो । नवयुवकोंको स्वामी विवेकानन्दके उपदेश [अनु० डा० बी. एल. जैन पी. एच. डी.] मेरे युवक मित्रो ! अपना शरीर और आत्मा बलवान बनायो । निर्बल और निर्वीर्य शरीरसे धर्मशास्त्रका अभ्यास करनेकी अपेक्षा तो खेल-कूदसे बलिष्ट बनकर, तुम स्वर्गके विशेष समीप पहुँच सकोगे। तुम्हारा शरीर मज़बूत होगा तब ही तुम शास्त्रोंको भली भांति समझ सकोगे । तुम्हारे शरीरका रुधिर ताज़ा, मज़बूत तथा अधिक तेजस्वी होगा, तब ही भगवानका अतुल बल और उनकी प्रबल प्रतिभा तुम अधिक अच्छी तरह समझ सकोगे । जब तुम्हारा शरीर तुम्हारे पैरों पर दृढ़तासे खड़ा रह सकेगा। तभी तुम अपने आपको भली भांति पहिचान सकोगे। उठो, जागृत होओ और अपनी उन्नतिका काम अपने ही हाथमें लो । इतने अधिक समय तक यह कार्य, यह अत्यन्त महत्वका कर्तव्य तुमने प्रकृति को सौंप रखा था । परन्तु अब उसे तुम अपने हाथ में लो। और एक ही सपाटे में इस समग्र साक्षात समुद्रको कूद जाओ। मानसिक निर्बलता ही अपने में प्रत्येक प्रकारके शारीरिक तथा मानसिक दुःखों को उत्पन्न करती है। दुर्बलता ही साक्षात् मरणरूप है। निर्षल मनके विचारोंको त्याग दो । हे युवको ! तुम हृदय-बल प्राप्त करो ! शक्तिवान बनो ! तेजस्वी बनो ! बलवान बनो ! दुर्बलताकी गाड़ी पर से उठ कर खड़े हो जाओ तथा वीर्यवान और मज़बूत बनो । सुदृढ़ता ही जीवन और निर्बलता ही मृत्यु है । मनोबल ही सुख सर्वस्व तथा .. अमरत्व है, दुर्बलता ही रोग, दुःख तथा मृत्यु है। ___ बलवान बनो ! तेजस्वी बनो ! दुर्वबलताको दूर फेंक दो ! आत्मशक्ति तुम्हारे पूर्वजोंकी सम्पति है। Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिल भाषाका जैनसाहित्य [ ले० प्रोफेसर ए. चक्रवर्ती एम. ए भाई. ई. एस. ] [ अनुवादक -- पं० सुमेरचन्द दिवाकर न्यायतीर्थ शास्त्री बी.ए. एलएल. बी. सिवनी ] टोल्काप्पियम् -- तामिल व्याकरणका यह प्रामाणिक ग्रंथ एक जैन विद्वानकी रचना समझा जाता है। इस विषय में कुछ विद्वानोंका विवाद है और लेखक के धर्मके सम्बन्ध में बहुतसे विचार किये जाते हैं । हम केवल अंतरंग साक्षीमूल कुछ बातोंका वर्णन करेंगे और इस विषयको पाठकों पर उनके अपने निर्णय के लिये छोड़ेगे । यद्यपि यह व्याकरणका ग्रंथ है, किन्तु श्रादि तामिल वासियोंकी समाज-विज्ञान विषयक वार्ताश्रोंकी यह खान है, धौर शोध-खोजके विद्वान श्रादि तामिल वासियों के व्यवहारों तथा रिवाजोंकी जानकारीके लिये मुख्यतया इसी ग्रंथ पर अवलवित रहते हैं। ऐतिहासिक शोध के विद्यार्थियोंने इससे पूर्णतया लाभ नहीं उठाया है यह एन्द्र के समान पुरातन व्याकरण शास्त्रों पर श्रव लवित समझा जाता है । जो प्राय संस्कृत-व्याकरणकी शौलीका उल्लेख करता है। यह व्याकरण विषय पर एक प्रमाणिक ग्रंथ समझा जाता है । तामिल भाषा के पिछले सभी ग्रन्थकार उसमें वर्णित लेखन-सम्बन्धी नियमोंका पूर्ण श्रद्धा के साथ पालन करते हैं। इस ग्रन्थके निर्माता, टोलकाप्पियम्, तामिल साहित्य के काल्पनिक संस्थापक श्रगस्त्य के शिष्य समझे जाते थे । इस ग्रन्थमें तत्कालीन ग्रंथकार पनंपारनार लिखित भूमिका है। उससे प्रमाणित होता है कि 'इंदिरम् निरैनीका टोलकाप्पियम्,' ऐन्द्र व्याकरणकी पद्धति परिपूर्ण टोलकाप्पियम् पाज्य राजा की सभा में पढ़ा गया था और श्रदङ्कोहाशान के द्वारा समर्थित हुआ था । डा० वर्नेलका मत है कि टोलकाप्पियम्का रचयिता जैन या बोद्ध था और यह निर्विवाद है कि वह प्राचीन तामिल लेखकोंमें श्रन्यतम है । उसी भूमिका में टोलकाप्पियमका महान् और प्रख्यात पाडिमयोन के रूप में उल्लेख है । टीकाकारने पाडिमयोन शब्दका इस प्रकार अर्थ किया है--" वह व्यक्ति जो तपस्या करें" । जैन साहित्य अध्ययन - कर्तात्रों I विद्यार्थियोंको यह भलीभांति विदित है कि 'प्रतिमा योग' एक जैन पारिभाषिक शब्द है और कुछ जैन मुनि प्रधान योगधारी कहे जाते थे । इस श्राधार पर एस० वायपुरी पिल्ले सदृश विद्वान अनुमान करते हैं कि टोल कापियम् का रचयिता जैनधर्मावलम्बी था । वही लेखक टोलकाप्पियमके उन सूत्रोंका उद्धरण देकर अपने निष्कर्ष को दृढ़ बनाता जिनमे जीवोंके द्वारा धारण की गई इन्द्रियों के आधार पर जीवोंके विभागका उल्लेख है । मरवियल विभागमें टोलकापियमूने घास और वृक्ष के समान जीवोंको, एकेन्द्रिय घोंघे के समान जीवों को, द्वाइन्द्रिय चींटी के समान जीवोंको त्रीइन्द्रिय केकड़े ( Crab ) के सदृश जीवोंको चौइन्द्रिय बड़े प्राणियोंके समान जीवोंको पंचेन्द्रिय और मनुष्य के समान जीवोंको छः इन्द्री बताया है । यह विज्ञान के जैन दार्शनिक सिद्धान्तका रूप है इसे बताना तथा इस पर जोर देना मेरे लिये आवश्यक नहीं है। जीवोंका यह विभाग संस्कृत और तामिल भाषाके जैन तत्व ज्ञान के Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६ सभी प्रमुख ग्रन्थों में पाया जाता है । मेरुमन्दिग्पुराण में है, वैसा एक अप्रसिद्ध तंत्र शास्त्रमें विद्यमान है,किन्तु और नीलकेशी जैसे दो प्रधान जैनदार्शनिक ग्रन्थों में इस सम्बन्धके पद्म पूरी तौर पर उद्धृत नहीं किये जाते जीवोंका इस प्रकार वर्णन है । यह अनुमान करना तर्कके लिये यह मान लेने पर भी कि उसका उल्लेख स्वाभाविक है कि यह जैनियों के जीव-विषयक ज्ञानका उम तन्त्र प्रथमें है, वह साक्षी संदेहास्पद होगी। यह उल्लेख करता है । इससे यह बात स्वतः सिद्ध होती है बात बताना यहां आवश्यक है कि इन्द्रियों के आधार पर कि ग्रन्थकार जैन तस्वञ्चानमें अति निपुण था । इस किया गया यह जीवोका विभाग अन्य दर्शनों अथवा निष्कर्षके समर्थनमे मुख्य साक्षी रूप एक दूमरी बात भारतको दूसरी विचार पद्धतियोमें नहीं पाया जाता है । है। उसके सम्बन्धमें शोधक विद्वानोंका ध्यान नही यह विशेष बान जैनदर्शनमें और केवल जैनदर्शनमें ही गया; किन्तु इस विषयमे विचार होना चाहिये । 3मी पाई जाती है । इस सम्बन्धमें विशेष वाद विवादको हम मरबियल के दूसरे सूत्रमें टोलकाप्पियम्ने मुदलनल और इस प्रकारकी शोधमे सुरुचि रखनेवाले सुयोग्य विद्वानोके 'वालीनल'--मूल और प्रारम्भिक प्रथ, गौण तथा लिये छोड़ते हैं । इस स्थितिमे हमारे लिये इतना लिखना संग्रहीत ग्रन्थके रूप में तामिल परम्पराके अनुमार माहित्य ही पर्याप्त है कि यह व्याकरणका ग्रन्थ जो कि अत्यन्त के ग्रन्थोंका विभाग किया है । जब वह मुख्य और मूल पुगनन तामिल ग्रन्थोमे एक है, प्रायः एक ऐसे जैन शास्त्र अर्थात् मुदलनलकी व्याख्या करता है, तब वह विद्वान द्वाग रचा गया था, जो मस्कृत व्याकरण और कहता है कि जो ज्ञान के अधिपति द्वारा कर्मोसे पूर्ण साहित्यमें समान रूपसे प्रवीण था । उम ग्रथकी रचना मुक्त होने पर प्रकाशित किया जाना है, वह कर्मक्षय के कब हुई, इस विषय में पर्याप्त विवाद है, किन्तु हमे उस बाद मर्वजके द्वाग प्रकाशित ज्ञान है । इस बात पर विवादमें भाग लेने की आवश्यकता नही है । जोर देनेकी आवश्यकता नहीं है कि जैन परम्पराके इम व्याकरण ग्रन्थगे इलुत्त (अक्षर ) सोल अनसार प्रायः प्रत्येक ग्रन्थकार अपने ज्ञान का आदि (शब्द) और पोरुल (अर्थ) नामके तीन बड़े अध्याय हैं स्रोत पर्वाचार्योको, और गणधरीके द्वारा समवशरण में प्रत्येक अध्यायमें ६ ल्यल (विभाग ) हैं और कुल धर्मका प्रतिपादन करनेवाले स्वय तीर्थकरांको बतावेगा। १६ १२ सूत्र हैं । यह तामिल भाषाके बाद के व्याकरण परन्तु जैन परम्परासे परिचित प्रत्येक निप्पद विद्वानको ग्रथोंकी जड़ है । संस्कृत व्याकरण के प्रतिकूल जिसमे यह स्पष्ट विदित हो जायगा, कि मूल ग्रन्थकी इम पहले और दूसरे ही अध्याय होते हैं, इसमे तीन अध्याय परिभाषामें पूर्ण ज्ञान के श्रादि स्रोत सर्वज्ञ वीतरागका हैं और तीमरा पोमल के विषयमें है । इस तीसरे अध्याय उल्लेख किया है । इन सब बातोंसे यह स्पष्ट होगा कि में व्याकरण के सिवाय अन्य बहुत विषय रहते हैं जिसमें प्रतिपक्षी विचारकी अपेक्षा लेखकका जैन होना अधिक प्रेम एव युद्धका वर्णन रहता है । इस प्रकार आदिद्रविड़ सभव है । जिन लोगों ने इस बात के निषेध करनेका लोगों के पुनर्गटनके लिये इसमे उपयोगी अनेक सकेत प्रयत्न किया है उन्होंने अपने कथनके समर्थनमे कोई पाये जाते हैं । गम्भीर युक्ति नहीं पेश की है । एक अालोचक इस बात यह कहा जाता है कि इस ग्रन्थकी पांच टीकाएँ हैं का उल्लेख करता है कि जीवका विभाग जैसा इस ग्रन्थ जो (१) ल्लम पर्नर (२) पराशिरियर ( ३ ) सनवरैयर Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष , किरण १०] सामिल भाषाका जैनसाहित्य (४) नश्चीनार्किनियर (५) कल्लादरेकी लिखी हुई बंदरगाह है, यहाँ के लोग मूमध्यसागरके अासपासके हैं इनमें से प्रथम लेखक सब टीकाकारों में प्राचीन है। यूरोपियन राष्ट्रोंके साथ समुन्नत सामुद्रिक व्यापार करते पश्चात्वी लेखकोंने आमतौर पर 'टीका कार' के नाम थे, तामिल भापाने वैदेशिक शब्द भंडारको महत्वपूर्ण से उसका उल्लेख किया है । परम्पराके अनुसार यह शब्द प्रदान किये थे, और तामिल देशके अनेक तामिल भाषाके व्याकरणका महान् ग्रन्थ द्वितीय संगम स्थानोंमें उपलब्ध रोमन देशीय स्वर्ण मुद्राएं रोमन कालका कहा जाता है । हमें विदित है कि विद्यमान साम्राज्य से सम्बन्धको सूचित करती हैं। इसके साथमें सब ही तामिल ग्रन्थ अंतिम तथा तृतीय मगम् कालके मोहन जोदरो, हरप्पाकी हालकी खुदाई और खोज कहे जाते हैं । अतः इस टोलकाप्षियम्को करीब २ आर्योकी पूर्ववर्ती सभ्यताको बनाती है और हमें उस संपूर्ण उपलब्ध तामिल साहित्यका पूर्ववर्ती मानना उच्च कोटिकी गभ्यताका ज्ञान कराती है, जो श्रादिचाहिये। द्रविड़ लोगोने प्राप्त की थी। जब तक हम इस श्रादिइस परंपरा को स्वीकार करना आश्चर्यकी बात द्रविड सस्कृति के पुनर्गठन के सम्बन्धम उचित साक्षी होगी, क्योंकि यह संभव नहीं है कि किमी भाषाके नहीं प्राप्त काले, तब तक नो ये सब बाने कल्पना ही अन्य ग्रन्थों के पूर्वमें उसका व्याकरण शास्त्र हो। रहेंगी। उपलब्ध तामिल साहित्य बहुधा तृतीय सगम वास्तवगे व्याकरण तो भाषाका एक विशान है, जिसमें कालका है, अतः अनेक ग्रन्थ, जिनके सम्बन्धमे हमें साहित्यिक रिवाज ग्रंथित किए जाने हैं; इसलिये वह विचार करना है, इस काल के होने चाहिये । यह समय उम भागामें महान् साहित्य के अस्तित्वको बनाता है। प्रायः ईमाम दो शताब्दी पूर्वम लेकर मातवीं मदी तक तामिल वैयाकरण भी इस बातको स्वीकार करते हैं । वे होगा। चूकि सगम या एकेडेमी एक मदेहापत्र बस्तु है पहिले साहित्यको और बाद में व्याकरणको बताते हैं। इसीलिये सगम शब्द नामिलकि इतिहासक काल विशेष इसलिय यदि हम इस परंपराको स्वीकार करते हैं कि को यातित करने के लिए एक प्रचलित शब्द है। टोलकासियम् सगमकालका मध्यवर्ती है तब हमें उसके श्रीयुत शिवराज पिल्लेके द्वारा सूचिन तामिल पूर्वमे विद्यमान् महान् साहित्यकी कल्पना करनी इंगी, माहित्य के प्राकृतिक, नैतिक और धामिक ऐसे जो किमी काग्णसे अब पूर्ण लुप्त हो गया है । यदि तीन मुगम काल भेद माने जा सकते हैं, हम द्रविड़ सभ्यताकी पूर्व अवस्था पर विचार करें, तो क्योकि ये व्यापकरूपसे तामिल साहित्यको उन्नति के इस प्रकारकी कल्पना बिल्कुल असंभव नहीं होगी। द्योतक हैं । कुरल और नानांदयार जैस नीति ग्रन्यांक अशोक ममय के लगभग तामिल प्रदेशमें चेरचोल और उत्तरवर्तीमाहित्यम बड़ी स्वतत्रताके माथ अवतरण पांड्य नामके तीन विशाल साम्राज्य थे । अशोक इन दिए गए हैं । अतः यह मानना एकदम मिथ्या नहीं साम्राज्योंकी विजयका कोई उल्लेख नहीं करता है। होगा, कि काव्यमादित्यकी अपेक्षा नैतिक माहित्य पर्वअशोक के साम्राज्य के पास पास ये मित्र राज्योकी सूची वर्ती प्रतीत होता है । इस नैतिक साहित्य समूहमे मे बताए गये हैं । इतिहास के विद्यार्थी इन बातोसे भली जैनाचार्योका प्रभाव विशेपर्गतिमे विदित होता है । भाँति परिचित हैं, कि तामिल देशमें बहुत सुन्दर कुरल और नालदियार नामके दो महान ग्रंथ उन Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०. भनेकान्त [भावण, पीर निर्वाण सं०२४६६ जैनाचार्योंकी कृति है जो तामिलदेशमें बस गए थे। किया है कि दक्षिण पाटलीपुत्रमें द्राविड़ संघ के प्रमुख करल-तामिल भाषी जनतामें प्रचारकी दृष्टि से श्री कुंदकुंदाचार्य थे । विचार करने पर 'कुरल' नामका नीतिग्रंथ तामिल अपना निर्णय प्राप्त करने के लिए हमें केवल इस साहित्य में, सबसे अधिक प्रधान है । इसकी रचना जिस परंपराका ही अवलंबन नहीं करना है। अपनी धारणा छंदमें की गई है, वह 'कुरलवेणबो' के नामसे प्रसिद्ध के प्रमाणमें हमारे पास समुचित अंतरंग तथा परिस्थिति है और तामिल साहित्यका खास छन्द है । 'कुरल' जन्य साक्षी ( Circumstantial evidence) शब्दका अर्थ दोहाविशेष ( Short ) है, जो वेण्या विद्यमान है। जो भी निष्पक्ष विद्वान् इस ग्रंथका नामक दोहेसे भिन्न है। यह तामिल साहित्यका अपर्व सूक्ष्मताके साथ परीक्षण करेगा, उसे यह बात छंद है । पुस्तकका नाम कुरल उसमें प्रयुक्त छन्दके पूर्णतया स्पष्ट विदित हो जायगी, कि यह ग्रंथ अहिंसाकारण पड़ा । यह अहिसा सिद्धान्त के आधार पर बनाया धर्मसे परिपर्ण है और इसलिये यह जैनमस्तिष्ककी गया है। संपूर्ण ग्रन्थमें अहिंसा धर्मकी स्तुति की गई है उपज होना चाहिये । इस विषय पर अभिमत व्यक्त और विपरीत बिचारोंको आलोचना की गई है । इस करने योग्य अधिकृत निष्पक्ष तामिल विद्वानोंने इस ग्रंथको तामिलवासी इतनी प्रधानता देते हैं कि वे इसके ग्रन्थके कर्तृत्वके सम्बन्धमें इसी प्रकारका अभिमत लिये विविध नामोंका प्रयोग करते हैं, जैसे उत्तर वेद, प्रगट किया है। किन्तु वैज्ञानिक शोधके आधार पर तामिल वेद, ईश्वरीय ग्रंथ, महान् सल्य, सर्व देशीय वेद किए गए निर्णयको बहुतसे तामिल विद्वान् स्वीकार इत्यादि । तामिल प्रान्तके प्रायः सभी सप्रदाय इस करना नहीं चाहते, इस विरोधका मूल कारण धार्मिक रचनाको अपनी २ बताते हैं । शैवोंका दावा है भावना है । हिन्दूधर्मके पुनरुद्धार काल में ( लगभग कि यह शैव लेखककी कृति है । वैष्णव लोग इसे सप्तम शताब्दिमें) जैनधर्म और हिन्दुओंके बनिसमर्थक अपनी बताते हैं। पोप नामक पादरी, जिनने इसका वैदिक धर्मका संघर्ष इतना अधिक हुआ होगा, कि अंग्रेजी-अनुवाद किया है, यहां तक कहता है कि यह उसकी प्रतिध्वनि अब तक भी अनुभवमें पाती है। ग्रंथ ईसाई धर्मसे प्रभावित हुए लेखककी रचना है। इस द्वन्द्वमें हिन्दू पुनरूद्धारकोंके द्वारा जैनाचार्योंकी भिन्न २ जातियाँ इस पथके कर्तृत्वके विषयमें एक दूसरे रचनाएं दूषित की गई, कारण उन हिन्दुओंका समर्थक से होड़ ले रही हैं। इससे ग्रंथकी महत्ता एवं प्रधानता नवदीक्षित पांड्य नरेश था । कहा जाता है कि इसके स्वतः प्रगट होती हैं। इस भांति विविध अधिकार फलस्वरूप अनेक जैनाचार्योंका प्राणान्त फांसीके द्वारा प्रदर्शकोंके मध्यमें जैनियोंका कथन है कि यह तो हुआ। हम इस बातका पूर्ण रीतिसे निश्चय करनेमें जैनाचार्यकी कृति है । जैनपरम्परा इस महान् ग्रन्थका असमर्थ है कि इसमें कितना इतिहास है और कितना सम्बन्ध कुंदकुंदाचार्य अपरनाम एलाचार्यसे बताती उर्वर मस्तिष्कका उत्पादन है परन्तु अब तक भी मदुरा है। कुंदकुंदाचार्यका समय ईमासे पूर्वको अर्धशताब्दी के मन्दिरोंकी मित्तियों पर जैनियोंकी हत्या वाली के उत्तर भाग और ईसवी सनकी पहली अर्धशताब्दीके कथाके चित्र विद्यमान है और अब भी प्रतिद्वन्दी धर्म पूर्व भागमें संनिहित हैं। हमने इस बात का उल्लेख (जैन धर्म ) का पराभव और विध्वंस बताने वाले Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष, किरय..] तामिल भाषाका नसाहित्य वार्षिक उत्सव मनाये जाते हैं । यह बात श्रादि-जैनों ध्यानपूर्वक देखता था, कि 'पिंग' (Whigs) लोगोंको के विषयमें तामिल विद्वानोंके दृष्टिकोणको समझने में उससे अधिक लाभ न हो । जबकि तामिल विद्वानोंकी सहायक होगी। इससे यह बात स्पष्ट है, कि वे इस साधारण मनोवृत्ति इस प्रकारकी हो, जब वैज्ञानिक एवं सूचना मात्रका विरोध करते हैं, कि महान् नीतिशास्त्र ऐतिहासिक शोधकी यथार्थ भावना शैशवमें हो, तब जैन विद्वानके द्वारा रचित होगा। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, कि तामिल साहित्य ___एक परम्पराके आधार पर इस प्रथके लेखक कोई नामकी कोई अर्थवान वस्तु हमारे पास न हो । अतः तिरुवल्लुवर कहे जाते हैं । तिरुवल्लुवरके सम्बन्धकी हम जैनसाहित्यके ऐतिहासिक वर्णनको पेश करने के काल्पनिक कथाके घटक आधुनिक लेखकोंकी कल्पनाके प्रयत्नमें असमर्थ हो जाते हैं। द्वारा जो बताया गया है। उससे अधिक उसके सम्बन्ध इस विषयान्तर बातको छोड़कर ग्रंथका परीक्षण में अज्ञात है । तिरुवल्लवरकी जीवनीके सम्बन्धमें अनेक करते हुए हमें स्वयं पुस्तकमें आई हुई कुछ उपयोगी मिथ्या बातें बताई गई हैं, यथा वह चाण्डालीका पुत्र बातें बतानी हैं । इस पुस्तकमें तीन महान विषय है। था । सभी तामिल लेखकोंका समकालीन एवं बन्धु था। (अरम् ) (धर्म) पोल (अर्थ) इनवम् इस बातका कथनमात्र इसके मिथ्यापनेको घोषित (काम) ये तीनों विषय विस्तारके साथ इस प्रकार समकरता है । किन्तु आधुनिक अधिक उत्साही तामिल झाये गये हैं, जिसके ये मूलभूत अहिंसा सिद्धान्तके विद्वानोंने उसे ईश्वरीय मस्तक तक ऊँचा उठाया साथ सम्बद्ध रहें। अतः ये संज्ञाएँ साधारणतया हिन्दू है, उसके नाम पर मंदिर बनाएँ हैं तथा ऐसे वार्षिक धर्मके ग्रन्थों में वर्णित संज्ञाओंसे थोड़ी भिन्न है, इस उत्सवोंका मनाना प्रारंभ किया है, जैसे हिन्दू देवताश्रों विषय पर ज़ोर देनेकी आवश्यकता नहीं है । हिन्दु धर्म के सम्बन्धमें मनाए जाते हैं। इसका लेखक एक हिन्दू की बादकी धार्मिक पद्धतियोंमें वेद-विहित पशुवलिकी देवता समझा जाता है, और यह रचना उस देवता क्रिया पूर्णरुपेण पृथक नहीं की जासकी कारण वे द्वारा प्रकाशित समझी जाती है । साधारणतया इस वैदिक धर्म-सम्बन्धी क्रियाकाण्ड पर अपलंवित है, प्रकारके क्षेत्रों में ऐतिहासिक अालोचनाके सिद्धान्तोंका इसलिये धर्म शब्दका अर्थ उनके यहां वर्णाश्रम धर्म प्रयोग कोई नहीं सोचेगा । यह बात तो यहाँ तक है, ही होगा, जिसका अाधार वैदिक बलिदान होगा । जैन, कि जब कभी ग्रन्थके प्रमेयके सूक्ष्म परीक्षणके फलस्व- बौद्ध तथा सांख्यदर्शन नामक तीन भारतीय धर्म ही रूप कोई बात सुझाई जाती है, तब वह धार्मिक जोश. वैदिक बलिदानके विरुद्ध थे। पुनरुद्धारके कालमें इन पूर्ण तीव्रताके साथ निषिद्ध की जाती है । अनेक श्रा- तीन दर्शनों के प्रतिनिधि पूर्व तामिल देशमें विद्यमान थे। लोचक नामधारी व्यक्ति, जिन्होंने इस महान् रचनाके ग्रंथके श्रादिमें ग्रंथकार 'धर्म' के अध्याय में अपना मत सम्बन्धमें थोड़ा बहुत लिखा है, इस प्रकारकी विचित्र इस प्रकार व्यक करते हैं, कि सहस्रों यज्ञोंके करनेकी बौद्धिक स्थिति रखने में सावधान रहे है जिस प्रकार अपेक्षा किसी प्राणीका बध न करना और उसे भक्षण 'सेमुअल जानसन' 'हाउस श्राफ कामन्स' की कार्यवाही न करना अधिक अच्छा और श्रेयस्कर है। यह एक ही को लिखते समय सावधान रहा था। वह इस बातको पद्य इस बातको बतानेको पर्याप्त है कि लेखक कभी भी Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भारण, वीरनिर्वाण सं०२४१६ - - याशिक बलिदानको चुपचाप सहन न करेगा । यह तो साहित्यमें प्रकाशित बातकी प्रतिध्वनि मात्र है क्योंकि सस्कृत के वाक्य 'अहिंसा परमोधर्म:' की व्याख्या है। इनमें के अनेक सिद्धान्त अहिंसाके प्रकाशमें पुनः मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि एक शैव विद्वान्ने समझाये गये और उन पर जोर दिया गया है। यहां उपर्युक्त पद्य का उद्धरण देकर यह सिद्ध करना चाहा केवल दो बातोंको बताना ही पर्याप्त है। यह बौद्धायन है कि ग्रंथकार वैदिक बलिदान रूप धर्मको मानने धर्मशास्त्र, चंकि परम्परागत वर्णाश्रम पर अवलम्बित है, वाले थे। परम्परागत चार जातियों और उनके कर्तव्योंका समर्थन शाकाहारका वर्णन करने वाले दूसरे अध्याय में करता है । धर्मकी इस व्याख्याके अनुसार कृषि कर्म प्रन्थकार स्पष्ट शब्दोंमें कसाईके यहाँसे मांस खरीदनेके अंतिम शूद्र वर्णके लिये ही छोड़ा गया है और इसलिये बौद्धोंके सिद्धान्तको घणित बताता है । बौद्ध लोग, जो कृषि-कर्मसे तनिक भी सम्बन्ध रखना ऊपरकी जातियों के अहिसा सिद्धान्तका नाम मात्रको पालन करते हैं, लिये निषिद्ध होगा। प्रत्युत् इसके कुरलके रचयिताने इस बातसे अपने आपको यह कहते हुए संतुष्ट करते व्यवसायोंमें कृषिको श्राद्य स्थान प्रायः इसलिये दिया हैं, कि उन्हें अपने हाथोंसे प्राणि बध नहीं करना है कि वह बेलालों अथवा वहाँके कृषकोंमें से एक है। चाहिये, कितु वे माँस विक्रय-स्थलस माँस खरीद सकते क्योंकि उसका कथन है-सर्वोत्कृष्ट जीविका कृषि-कर्म हैं । कुदरतके रचयिता इस बातको स्पष्टतया बताते हैं विषयक है, अन्य प्रकारके सब जीवनोपाय परावलम्बी कि कसाईके व्यवसायकी वृद्धिका कारण केवल माँस हैं, और इससे वे कृषि कर्मके बादमें आते हैं। यह बात की माँग है । कसाईका स्वार्थ केवल पैसा कमाना है संस्कृतके धर्मशास्त्रसे ली गई है, ऐसा कहना किसी और इसलिये वह विशेष व्यवसायको करता है, जो तरह भी गले नहीं उतर सकता । धर्मशास्त्रोंमें कथित मांग और खपतके सिद्धान्त पर स्थित है । इसलिए एक बात और मनोरंजक है । वह है गृहस्थोंके द्वारा भीजनके निमित्त प्राणी-हिसाका दायित्व प्रधानतया अतिथियोंके सत्कार के सम्बन्धमें । इस प्रकारके अतिथि तुम्हारे ही ऊपर है, न कि कसाई पर । जब कि वैदिक सत्कारमें स्थल गोवत्सके वधकी बात सदा विद्यमान रहती धर्म-विहित बलिदान और अहिंसा सिद्धान्तका सुलभ है। प्रौद्धायनके धर्मशास्त्रमें ऐसे जानवरों की सूची दी भाव बने माँमाहारके करनेकी बौद्धोंकी प्रवृत्तिका यहाँ गई है, जिनका वध अतिथि सत्कारके निमित्त किया स्पष्टतया निराकरण है, तब अपनयन अथवा पारिशैष्य जाना चाहिये। जो लोग वैदिक विधिको धर्म स्वीकार पद्धति के अनुमार यह स्पष्ट है कि ग्रंथमें निरूपित करते हैं, वे इस बात पर दृढ़ विश्वास करते हैं, कि यह मिद्धान्तसे समता रखने वाला जैनियोंका अहिंमा कार्य धर्मका मुख्य अंग है, और उसका पालन न करने सिद्धान्त ही है । एक विद्यमान् विख्यात् तामिल विद्वान से अतिथियों द्वारा शाप प्राप्त होता है। इस सम्बन्धमें का कथन है, कि यह ग्रंथ बौद्धायनके धर्मशास्त्रका शुद्ध कुरलके अध्यायको पढ़ने वाले प्रत्येक पाठकको निश्चय अनुवाद है । यद्यपि इस ग्रंथमें संस्कृत शब्दोंकी बहुलता होगा, कि हिंदुओंके धर्मशास्त्रोंमें कथित बातसे यहां है, और परंपरागत कुछ सिद्धान्तोंका वर्णन है, फिर धर्मका अर्थ बिल्कुल भिन्न है। इससे हमें इस कथनका भी यह निश्चय करना सत्य नहीं है कि यह संस्कृत परित्याग करना पड़ता है कि यह ग्रंथ तामिलश जनताके Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष २, किरण १० ] कल्याणके लिये किया गया धर्मशास्त्रोंका अनुवाद मात्र है। तामिल भाषाका जैनसाहित्य परिस्थितिजन्य साक्षीको श्रोर ध्यान देने पर हमें ये बातें विदित होती है, कि नीलकेशी नामक ग्रन्थका जैन-टीकाकार इस सरलतासे अवतरण देता है और जब भी वह श्रवतरण उद्धृत करता है, तब अवतरण के साथ लिखता है " जैसा कि हमारे शास्त्रमें कहा है" इससे यह बात स्पष्ट है कि टीकाकार इस तामिल भाषा में महत्वपूर्ण जैनशास्त्र समझता था । दूसरी बात यह है कि तामिल भाषा के श्रजैन विद्वान् कृत "प्रबोध - चन्द्रोदय" नामक ग्रन्थसे भी यही ध्वनि निकलती है । यह तामिल-रचना संस्कृतके नाटक प्रबोधचंद्रोदयके श्राधार पर बनी है, यह बात स्पष्ट है । यह तामिल ग्रन्थ चार पंक्ति वाले विरुत्तम छन्दमें लिखा गया है । यह नाटकके रूपमें है, जिसमें भिन्न-भिन्न धर्मोंके प्रतिनिधि रङ्ग-भूमि पर श्राते हैं । प्रत्येक अपने धर्मके सारको बताने वाले पद्यको पढ़ता हुआ प्रविष्ट होता है । जब जैन-सन्यासी स्टेज पर लाता है, तब वह कुरलके उस विशिष्ट पद्यको पढ़ता है, जिसमें अहिसा - सिद्धान्तका गुण-गान इस रूप में किया गया है, भोजनके निमित्त किसी भी प्राणीका बघ न करना सहस्रों यज्ञोंके करने की अपेक्षा अधिक अच्छा है। यह सूचित करना श्रसत्य नहीं है कि इस नाटककारकी दृष्टिमें कुरल विशेषतया जैन ग्रन्थ था, अन्यथा वह इस पद्यको निर्ग्रन्यवाद के मुखसे नहीं कहलाता । यह विवेचन पर्याप्त है। हम यह कहते हुए इस बहसको समाप्त करते हैं कि इस महान् नीति ग्रन्थकी रचना प्राय: एक महान् जैन-विद्वान्के द्वारा ईस्वी सन्की प्रथम शताब्दीके करीब इस ध्येयको लेकर हुई है, अहिंसा - सिद्धान्तका उसके सम्पूर्ण विविध रूपोंमें प्रतिपादन किया जाय । ६०३ यह तामिल प्रमथ, जिसमें तामिल साहित्य के पांडित्यका सार भरा है, तीन विभागों तथा १३३ श्रध्यायोंको लिये हुए है । प्रत्येक अध्याय में दस पद्य हैं। इस तरह दोहारूप में १३३० पद्य हैं। इसकी तीन अथवा चार महत्वकी टीकाएं हैं। इनमें एक टीका महान् टीकाकार नच्चिनारविकनियर रचित है । ऐसा अनुमान है कि वह जैन परम्परा के अनुसार है, किन्तु दुर्भाग्य है कि वह विश्व के लिये श्रलभ्य है । जो टीका अत्र प्रचलित है उसके रचयिता एक परिमेलअलगर हैं और यह निश्चयसे नच्चिनार क्किनियरकी रचनासे बादकी है, और यह उससे अनेक मुख्य बातोंके श्रर्थं करने में भिन्न मत रखती है। हाल ही में माणक्कुदवर-रचित एक दूसरी टीका छपी थी । तामिल साहित्यके अध्ययनकर्ताओं को आशा है कि महान नच्चिनारक्किनियरकी टीका प्राप्त होगी और प्रकाशित होगी, किन्तु श्रवतक इसका कुछ भी पता नहीं चला है । यह ग्रंथ प्रायः सम्पूर्ण यूरोपियन भाषाओं में अनुवादित हो चुका है। रेवरेण्ड जी. यू. पोपका अंग्रेजी अनुवाद बहुत सुंदर है। यह महान् ग्रन्थ इसके साथमें नालदियार नामका दूसरा ग्रन्थ, जिसका हम हाल ही में वर्णन करेंगे, तामिल देशीय मनुष्योंके चरित्र और श्रादर्शोंके निर्माण में प्रधान कारण रहे हैं । इन दो नीति के महान ग्रन्थोंके विषयमें डाक्टर पोप इस प्रकार लिखते हैं: "मुझे प्रतीत होता है कि इन पथोंमें नैतिक कृतज्ञताका प्रबल भाव, सत्यकी तीव्र शोध, स्वार्थ-रहित, तथा हार्दिक दानशीलता एवं साधारणतया उज्ज्वल उद्देश्य श्रधिक प्रभावक है। मुझे कभी-कभी ऐसा अनुभव हुवा कि मानों इनमें ऐसे मनुष्योंके लिये भडार रूपमें आशीर्वाद भरा है जो इस प्रकारकी रचनाओंसे Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ अनेकान्त अधिक आनन्दित होते हैं और इस तरह सत्यके प्रति क्षुधा और पिपासाकी विशेषताको घोषित करते हैं। वे लोग भारतवर्ष के लोगों में श्रेष्ठ हैं तथा कुरल एवं नालदी मे उन्हें इस प्रकार बनने में सहायता दी है ।" अब हमें अपना ध्यान पिछले उल्लिखित ग्रन्थ नादिया की ओर देना चाहिये । कुरल और नालदियार एक दूसरे के प्रति टीकाका काम करते हैं और दोनों मिलकर तामिल जनता के सम्पूर्ण नैतिक तथा सामाजिक सिद्धान्तके ऊपर महान् प्रकाश डालते है ।" नालदियार का नामकरण ठीक कुरल के समान उसके छन्दके कारण हुआ है। नालदियारका अर्थ वेगबा छन्दकी चार पंक्तियोंमें की गई रचना है । इस रचनायें चार सौ चौपाई हैं और इसे बेलालरवेदम् - कृषकों की बाइबिल भी कहते हैं । यह ग्रंथकारकी कृति नहीं है । परम्परा कथन के अनुसार प्रत्येक पद्य एक पृथक् जैन मुनिके द्वारा रचा गया है । प्रचलित परम्परा सक्षेपसे इम प्रकार है। एक समयकी बात है उत्तरमें दुष्काल पड़नेके कारण आठ हजार जैनमुनि उत्तरसे पांड्य देशकी ओर गये, जहांके नरेशोंने उनको सहायता दी । जब दुष्कालका समय बीत गया तब वे अपने देशको लौटना चाहते थे । किन्तु राजाकी इच्छा थी कि उसके दरबार में ये विद्वान बने रहें । अन्त में उन साधुयोंने राजाको कोई खबर न कर के गुप्त रूप से बाहर जानेका निश्चय किया। इस तरह एक रात्रिको समुदाय रूपसे वे सब खाना हो गये । दूसरे दिन प्रभात काल में यह विदित हुआ कि प्रत्येक साधुने अपने श्रासन पर ताड़ पत्र पर लिखित एक २ चौपाई छोड़ दी थी । राजाने उनको वैगी नदीमें फेकने की आज्ञा दी किन्तु जब यह विदित हुआ कि नदीके प्रभाव के विरुद्ध कुछ ताड़ पत्र तैरते हुये पाये गये और तट पर गये, तब राजाकी आज्ञा से वे संगृहीत किये [श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६ और इस संग्रहको नाल दियारके नामसे कहा गया। हम ऐसी स्थिति में नहीं हैं कि इस परम्परा कथनमें विद्यमान ऐतिहासिक सत्यके श्रंशकी जाँच करे । यदि हम इस परम्परा कथन पर विचार करें जो हमें इन आठ हजार जैन साधुयोंको भद्रबाहुके अनुयायियोंसे सबंधित करना होगा, जो उत्तर भारत में बारह वर्ष दुष्काल के कारण दक्षिण की ओर गये थे । ऐसी स्थिति में इस ग्रंथका निर्माण ईसवी सदीसे ३०० वर्ष पूर्व होना चाहिये | इस सम्बन्ध में हम कोई सिद्धान्त नहीं बना सकते । हम कुछ निश्चयके साथ इतना ही कह सकते हैं कि वह तामिल भाषा के नीति अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थोंमें एक है और प्रायः कुरलका समकालीन अथवा उससे कुछ पूर्ववर्ती है । बिखरे हुये चारसौ पद्य कुरलके नमूने पर एक विशिष्ट ढंग पर व्यवस्थित किये गये हैं । प्रत्येक अध्याय में दस पद्य हैं। पहला भाग श्ररम् (धर्म) पर है उसमें १३ अध्याय तथा १३० चौपाई हैं। दूसरे भाग पोल (अर्थ) में २६ अध्याय तथा २६० चौपाई हैं तथा 'काम' ( Love ) पर लिखे गये तीमरे विभाग में १० चौपाई हैं इस प्रकार ४०० पद्म तीन भागों में विभक्त है । इस क्रम के सम्बन्ध में एक परम्परा कहती है कि यह पांड्य नरेश उम्रपेरुबालुतिके कारण हुई किन्तु दूसरी परम्परा पदुमनार नामक जैन विद्वानको इसका कारण बताती है। तामिल भाषाके अष्टादस नीति ग्रन्थों में कुरल और नारदियाल अत्यन्त महत्व पूर्ण समझे जाते हैं इस ग्रन्थ में निरुपित नैतिक सिद्धान्त जाति अथवा धर्मके भेदों को भुलाकर सभी लोगोंके द्वारा माने जाते हैं। तामिल साहित्य के परम्परागत अध्ययनके लिये इन दोनों ग्रन्थोंका अध्ययन आवश्यक है। कोई भी व्यक्ति तब तक तामिल विद्वान कहे जानेका अधिकारी नहीं है जब तक कि वह इन दोनों महान् ग्रंथोंमें प्रवीण न हो । क्रमशः Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-सम्बंधी एक महत्वपूर्ण प्रश्नावली अहिसाका प्रश्न राष्ट्रीय दृष्टि से निःसन्देह एक बड़े ही महत्वका प्रश्न है । वह भारतके ही नहीं कन्तु अन्य देशोंके लिये भी जहाँ युद्धका दावानल धधक रहा है और धंधकने वाला है, आजकल गभीर विचारका विषय बना हुआ है । कांग्रेसने अहिसाकी नीतिको अंगीकार कर उसका हाल में जिस रूपसे परि. त्याग किया है और उस पर महात्मा गाँधीजीने कांग्रेससे अलग होकर अपना जो वक्तव्य दिया है, उससे इस प्रश्न पर अधिक गहराई के साथ विचार करनेकी और भी ज्यादा आवश्यकता हो गई है । जैनियोका अहिसा सिद्धान्तके विषय में खास दावा है और वे अपने धर्मको उसका मूल स्रोत बतलाते हैं, इसलिये उस की उलझनोंको सुलझाना उनका पहला कतव्य है । बड़ी खुशीकी बात है कि कलकत्तेके श्रीविजयसिंहजी नाहर श्रादि कुछ जैन सज्जनोंने जैनदृष्टि से इस विषय पर गहरा विचार करनेके लिये एक आन्दोलन उठाया है और एक पत्र द्वारा अपनी प्रश्नावलीको समाजके सैंकड़ों गणमान्य विद्वानोंके पास भेजा है। 'तरुण ओसवाल' में छापा है और दूसरे पत्रोंमें भी छपाया जा रहा है। आपका वह पत्र नीचे दिया जाता है । साथमें महात्मा गाँधीजीका वह विस्तृत भापण भी है. जिसका इस पत्रमें उल्लेख है और जिस पर खास तौरसे ध्यान देनेकी पत्र में प्रेरणा की गई है। आशा है 'अनेकान्त'के विज्ञ पाठक महात्माजीक परे भापणको गौरके साथ पढ़ेंगे और फिर जैनदृष्टि से उस प्रश्नावलीको हल करनेका पूरा प्रयत्न करेंगे, जो पत्र में दी हुई हैं। इससे देशके सामने जो प्रश्न उपस्थित है उसके हल होने में बहुत कुछ सहायता मिल सकेगी। -सम्पादक] कम यह पत्र आपकी मेवामें एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न योग न करें, यह सिद्धान्त अधूरा भौर पर ही रहेगा। ९ की चर्चा के विषय में भेज रहे हैं और इस छूटके जीवन के अमुक क्षेत्र में तो दिन रातके २४ घंटों में से लेनेकी क्षमा चाहते हैं। अमुक समय में ही अहिंसाका पालन और शेषमें हिंसा प्राज देश भर में इस बातकी चर्चा हो रही है कि की छूट, हमें तो यह केवल अंधा ज्ञानहीन धर्मपालन प्राया बाहरी आक्रमण या अन्दरूनी मगहोंसे देशको ही मालम होता है । इसमें कायरता भी मालूम होती और देशवासियों की रक्षा बिना फ़ौज-हथियारोंके और है। हमारा मतलब यह नहीं है कि कोई भी भादमी अहिंसक तरीकेसे हो सकती है या नहीं । जैसा कि पूर्ण हिसक रूपसे जीवन व्यतीत कर सकता है। यह प्रापको विदित है, आज पिछले २५ वर्षसे हिन्दुस्तान तो असम्भव सी बात है। क्योंकि जीवन के लिये हिंसा की भाजादीके लिये राजनैतिक क्षेत्रमें मी पहिंसाके किसी न किसी रूपमें अनिवार्य है, पर हिंसाको कुछ सिद्धान्तका प्रयोग हो रहा है। इसके पहले तक हमारे क्षेत्रों में ही सीमित कर देना और दूसरे क्षेत्रोंमें हिंसा तयाजमें अहिंसाधर्म व्यक्ति के निजी जीवन में और की प्रधानता और छूट मान लेना तो अहिंसाके मूल उसमें भी एक संकुचित दायरेमें सीमित रहा, पर यह पर भाषात करना है, हमारा ऐसा नपान है । ऐसी स्पष्ट है कि जब तक हिंसाके सिद्धान्तका हम हमारे स्थितिमें अहिंसा केवल एक विडम्बना मालूम होती है। व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन के सभी क्षेत्रों में उप- इस सिलसिले में हम आपका ध्यान महात्मा गाँधीके Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ भनेकान्त [भाषण, बीर निर्वाण सं०२४६ D 'वीरों की प्रतिसा' शीर्षक भाषणकी ओर आकर्षित भाशा है । प्रश्न इस प्रकार हैकरते है (यह भाषण अनेकान्तकी इसी किरण में अन्यत्र १-जैनधर्मके अनुसार अहिंसाकी क्या व्याख्या है ? प्रकाशित ) जिसमें हिंसाकी व्यापक और विशद,पर भापकी रायमें क्या मान जो व्याख्या की जाती है, साथ ही सुगम व्याख्या की गयी है। वह उससे मिल है? आपकी सम्मतिमें अहिंसा पान भारतवर्ष ही नहीं, सारे संसारका ध्यान की पूर्ण म्याख्या क्या है? अहिंसाके सिद्धान्तकी ओर गया है। ऐसे अवसर पर २-क्या यह सम्भव है कि बाहरके आक्रमण या पहिसाको परमधर्म मानने वाले हम जैनोंका एक अन्दरूनी झगड़ों, (जैसे हिन्दु-मुस्लिम दंगे, या विशेष उत्तरदायित्व हो गया है । हजारों वर्षोंसे- लूट मार ) से बिना हथियारों पा फौजके अहिंसापरंपरासे हम अहिंसाधर्मकी घोषणा करते रहें हैं और स्मक ढंगसे देशकी रसा हो सकती है? उसके लिये बहुतसे कष्ट भी सहे हैं । इसलिये आज ३-यदि ऐसा नहीं तो क्या आपकी रायमें अहिंसा जब अहिंसाके सिद्धान्तकी परीक्षाका और उसके विकास जीवनका सर्वव्यापी सिद्धान्त नहीं हो सकता? का समय पाया है, तब हमारा कर्तव्य हो जाता है ४-अहिंसात्मक ढंगसे देशकी रक्षाका प्रश्न हल हो कि हम इसकी प्रतिष्ठामें अपना सहयोग दें और स्पष्ट सकता है, तो किस तरीकैसे और क्यों कर ? तौर पर अपना मत दें। हम समझते हैं कि और कुछ -आपकी जानमें क्या जैनशास्त्रों या साहित्यमें न कर सकें तो अहिंसाकी सैद्धान्तिक चर्चा में तो हम ऐसे कोई उदाहरण हैं जब देश या राज्यकी रक्षाके अधिकारसे बोल ही सकते है। यदि हम आज इस लिये अहिंसात्मक उपाय काममें लाये गये हों। प्रश्नकी चर्चा में संसारके सामने वास्तवमें कुछ स्पष्ट ६ --क्या आपकी जानमें शास्त्रों में ऐसे भी उदाहरण हैं और निखित् राय रख सकें तो अहिंसाधर्मके प्रचारमें जब देश या धमकी रक्षाका प्रश्न उपस्थित होने थोडासा हाय बंटा सकनेके पुण्यके भागी भी हो सकेंगे। पर जैन प्राचार्योंने हिंसासे रक्षा करनेका आदेश इन सब बातोंको ध्यानमें रखकर हम नीचे लिखे दिया हो या भायोजन किया हो। कुछ प्रश्नों पर आपकी स्पष्ट और निश्चित राय चाहते हम आशा करते हैं कि जैसा भी हो, संक्षेपमें या है और आशा करते हैं कि आप हमें जितनी जल्दो हो विस्तारसे आप अपना उत्तर शीघ्र ही भेजनेकी कृपा सके, अपने उत्तरसे कृतार्थ करेंगे। हम यह पत्र सभी करेंगे। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि इस प्रश्नकी जैनसम्प्रदायोंके प्राचार्य, प्रख्यात् साधु, आगेवान चर्चा उठानेमें हमारा एक मात्र उद्देश्य अहिंसाके प्रचार श्रावक तथा जैनपत्रों के सम्पादकोंके पास भेज रहे हैं में तथा उनके प्रयोके बीचमें आई हुई बाधाओं को दूर और चाहते हैं कि पर्युषणपर्व तक सब उत्तरोंका करने में जितना हो सके उतना सहयोग देनेका है। संकलन करके प्रकाशित करें । यदि हमारी जानकारी बिनीत न होनेसे था भबसे किन्हीं महानुभावके पास यह पत्र ४८, इंडियन मिररस्ट्रीट विजयसिह नाहर खास तौरसे न पहुंचे तो भी यह उनकी नजरमें पाने कलकत्ता सिद्धराज ढड्डा वह अपना मत इस पर प्रकट करेंगे, ऐसी हमें भंवरमल सिंधी Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारों की अहिंसाका प्रयोग [ श्री महात्मा गांधी] (यह महात्मा गाँधीजीका वह भाषण है, जिसे उन्होंने गत २२ जनको वर्धामें गाँधी सेवा संघकी सभामें दिया था। इसमें उन्होंने अपना सारा हृदय उँडेल कर रख दिया है और अपने पचास वर्षके अनुभवको बहुत स्पष्ट शब्दोंमें जनताके सामने रक्खा है । अहिंसा-सम्बंधी प्रश्नावलीका जो पत्र पीछे प्रकाशित हुआ है उसमें इसी पर खास तौरसे ध्यान देने की प्रेरणा की गई है । यह पूरा भाषण पहिले 'सर्वोदय' में प्रकाशित हुआ था, अब इसी अगस्त मासके 'तरुण ओसवाल' में भी प्रकट हुआ है। 'तरुण श्रोसवाल' में जहाँ कहीं छपनेकी कुछ अशुद्धियाँ रह गई थीं, उन्हें 'सर्वोदय' परसे ठीक करके दिया जा रहा है। पाटकोंको यह पूरा भाषण गौर के साथ पढ़ना चाहिये । -सम्पादक] मेरी साधना अदरकी आवाजको श्रवण करता रहा हूँ। मैंने जाजूजीके पाम कुछ प्रश्न दियं । इसका हिसा' शब्द निषेध कारण यह है कि मेरे दिलमे भी अनेक तरह के जो अहिंसक है, उसके हाथमें चाहे कोई भी विचार आते रहते हैं। मैंन आज तक अहिंसा या उद्यम क्यों न रहे, उममें वह अधिक-से-अधिक ग्रामोद्योग जो विचार और काय-क्रन जगतकं अहिंमा लानकी को शश करेगा ही। यह तो वस्तु सामने रखे, उमका मतलब यह नहीं था कि मेरे स्थिति है कि बगैर हिंमाक कोई भी उद्योग चल पास कोई बन-बनाये सिद्धान्त पड़े हैं, या मैंन कोई नहीं सकता । एक दृष्टिग जीवन के लिये हिंसा अन्तिम निर्णय कर लिय हैं । परन्तु फिर भा, इस अनिवार्य मालूम होती है। हम हिंसाको घटाना विषयमे मेरे कुछ विचार तो है ही । पचाम वर्ष चाहते हैं, और हो मके तो उसका लोप करना तक मैंने एकही चीजकी साधना की है। ज्ञान-पूर्वक चाहते हैं। मतलब यह कि हम हिंसा करते हैं, विचार भले ही न किया हो, लेकिन फिर भी विचार परन्तु अहिंसाकी ओर कदम बढ़ाना चाहते हैं। तो होता हो रहा । उसे आप मेरी अन्तर-आवाज हिमाका त्याग करने की हमारी कल्पनामें से अहिंसा कहें या अनुभवका परिणाम कहें । जो कुछ है, निकली है । इमलिये हमें शब्द भी निषेधात्मक आपके सामने रखता हूँ। पचास साल तक उसी मिला हे । 'महिमा शब्द निपेधात्मक है। Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ भनेकात श्रिावण, वीर निर्वाण ०२४६६ - 'अहिंसा' की मर्यादित व्याख्या छोड़ ही देना है। जैसे वह शिकार कभी नहीं अर्थात जो अहिंसाको मानता है, वह जो करेगा। यानी जिनपे हिमाका विस्तार बढ़ता उद्योग करेगा, उसमें कम से कम हिमा करने का हो जाता है उन प्रवृत्तियोंम वह कभी नहीं पड़ेगा। प्रयत्न करेगा। लेकिन कल योग ही ऐसे हैं जो वह युद्धम नहीं पड़ेगा । युद्ध में शस्त्रास्त्र बनाने के हिंसा बढ़ाते हैं । जो मनुष्य स्वभावसे ही अहिंसक कारखानाम काम नहीं करेगा। उनके लिये नये नये है, वह ऐसे चन्द उद्योगोंको छोड़ ही देता है। शस्त्रोंकी खोज नहीं करेगा। मतलब, वह ऐमा कोई उदाहरणार्थ,यह कल्पना ही नहीं की जा सकती कि उद्योग नहीं करेगा, जो हिंसा पर ही आश्रित है वह कसाईका धन्धा करेगा । मेरा मतलब यह नहीं और हिंसाको बढ़ाता है। है कि मांसाहारी कभी अहिंसक हो ही नहीं सकता अत्र, काफी उद्योग ऐसे भी हैं, जो जीवनक मांसाहार दूसरी चीज़ है । हिंदुस्तान में थोडेसे लिये आवश्यक हैं; लेकिन वे बिना हिंसाकं चल ब्राह्मण और वैश्योंको छोड़कर बाकी सब तो ही नहीं सकते । जैसे खेतीका उद्योग है। ऐसे मांसाहारी ही हैं। लेकिन फिर भी, वे अहिंसाको उद्योग अहिमाम श्राजाते हैं। इसका मतलब यह परमधर्म मानते हैं। यहाँ हम मांसाहारीकी हिंसा नहीं है कि उनमें हिंसाकी गुंजाइश नहीं है, अथवा का विचार नहीं कर रहे हैं। जो मनुष्य मामाहारी वे बिना हिंसा के चल सकते हैं। लेकिन उनकी हैं, वे सारे हिंसावादी नहीं हैं । मैं यह कैसे कह बुनियाद हिंमा नहीं है और वे हिमाको बढ़ाते भी सकता हूँ कि मांसाहारी मनुष्य अहिंसक नहीं नहीं हैं। ऐसे उद्योगोंमे होने वाली हिमा हम होता ? ऐंड्र जसे बढ़कर अहिंमक मनुष्य कहाँ घटा सकते हैं और उसे अपरिहार्य हिंसाको हद मिलेगा ? लेकिन वह भी तो पहले मांसाहारी था। तक ले जा सकते हैं । क्यों कि आखिरी अहिंसा बादमें उसने मांसाहार छोड़ दिया। लेकिन जब हमारे हृदयका धर्म है। हम यह नहीं कह सकते माँसाहारी था, तब भी अहिंसक तो था ही। कि किसी उद्योगका अहिंसासे अनिवार्य सम्बन्ध छोड़ने पर भी, मैं जानता हूँ, कि कभी २ जब वह है। वह तो हमारी भावना पर निर्भर है। हमारा अपनी बहन के पास चला जाता था तब माँस खा हृदय अहिंसा होगा, तो हम अपने उद्योगमे भी लेता था, या डाक्टर लोग आग्रह करते थे तो भी अहिमा लाएंगे। खा लेता था। लेकिन उससे उसकी अहिंसा थोड़े अहिंसा केवल वाह्य वस्तु नहीं है। मान ही कम हो जाती थी ? इसलिये यहाँ पर हमारी लीजिये एक मनुष्य है, काफी कमा लेता है और अहिंसाकी व्याख्या परिमित है। हमारी अहिंसा सुखसे रहता है। किसीका कर्ज वगैरह नहीं करता, मनुष्यों तक ही मर्यादित है। लेकिन हमेशा दूसरोंकी इमारत और मिलकियत पर दृष्टि रखता है, एक करोड़के दस करोड़ करना हिंसक और अहिंसक उद्योग चाहता है, तो मैं उसे अहिंसक नहीं कहूँगा। ऐसा लेकिन मांसाहारी अहिंसक भी बाज चीज़ तो कोई धन्धा नहीं, जिसमें हिंसाहो ही नहीं। लेकिन Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किण्ण.] वीरोंकी मस्सिाका प्रयोग चन्द धन्धे ऐसे हैं जो हिमाको ही बढ़ाते हैं। पैसे नहीं देता था। देहाती समाज पर यह बन्धन अहिंसक मनुष्यको उन्हें वज्यं समझना चाहिये। लगा दिया था कि उसे अनाज दिया जाय । उसमें दुमरे अनक धोंमें अगर हिंसाके लिये स्थान है भी हिंसा काफी हो सकती थी। लेकिन सुव्यवस्थित तो अहिंसाके लिये भी है। हमारे दिलमें अगर समाजमें उसे न्याय मिलता था। और किसी अहिसा भरी हुई है तो हम अहिंसक वृत्ति मे उन जमानमें समाज सुव्यवस्थित था ऐसा मैं मानता धन्धोंको करें। हम उन उ द्योगोंका दुरुपयोग करें, हूँ। उस वक्त इन उद्योगों में हिंसा नहीं थी। यह बात दूसरी है। एक उदाहरण प्राचीन भारत की अर्थ-व्यवस्था मेरे इस विश्वासके काफी सबूत हैं । अपने . छुटपनमें जब मैं काठियावाड़के देहातोंमें जाता ___ मेरे पास कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। था तो लोगों में तेज था । उनके शरीर हट्टे-कट्टे थे । परन्तु मेरा ऐमा विश्वास है कि हिन्दुस्तान कभी आज वे निष्तेज हो गये हैं। घरमें दो बर्तन भी सुखी रहा है । उस जमानेमें लोग अपने अपने नहीं रहे । इस परसे मुझको ऐमा लगता है कि धन्धे परोपकार बुद्धिमे करते थे। उममें उदर निर्वाह किसी वक्त हमारा समाज सुव्यवस्थित था । उस तो ले लेते थे लेकिन धन्धा समाजके हितका ही वक्त उसका जीवन अहिंसक था । अहिंसक होता था। मेरा कुछ ऐमा खयाल है कि जिन्होंने जीवन के लिये आवश्यक सब उद्योग अच्छी तरह हिन्दुस्तानके गांवोंका निर्माण किया, उन्होंने समाज चलते थे । अहिंसक जीवन के लिये जितने उद्योग का संगठन ही ऐसा किया जिसमें शोषण और हिसाके लिये कमसे कम स्थान रहे । उन्होंने मनुष्य अनिवार्य हैं उनका अहिंसासे सीधा सम्बन्ध है। के अधिकारका विचार नहीं किया, उसके धर्मका शरार-श्रम विचार किया । वह अपनी परम्परा और योग्यता इसीमें शरीर-श्रम आ जाता है। मनुष्य अपने के अनुसार समाजके हितका उद्योग करता था। श्रमसे थोड़ी सी ही खेती कर सकता है। लेकिन उसमेंसे उसे रोटी भी मिल जाती थी, यह दूसरी अगर लाखों बीघे जमीनके दो चार ही मालिक बात थी। लेकिन उसमें करोड़ोंको चूसनेकी भावना हो जाते हैं, तो बाकीके सब मजदूर हो जाते हैं। नही थी । नामकी भावनाके बदले धमंकी भावना यह बगैर हिंसा नहीं हो सकता। अगर भाप थी। वे अपने धर्मका आचरण करते थे; रोटी तो कहेंगे कि वह मजदूर नहीं रखेंगे, यंत्रोंसे काम यों ही चल जाती थी। समाजकी सेवा ही मुख्य लेंगे; तो भी हिंसा आ ही जाती है। जिसके पास चीज थी। उद्योग करनेका उद्देश्य व्यक्तिगत नका एक लाख बीघा जमीन पड़ी है, उसे यह घमएड नहीं था। समाजका संगठन ही ऐसा था । उदाह- तो आ ही जाता है कि मैं इतनी जमीनका मालिक रणार्थ, गांवमें बढ़ईकी जरूरत होती थी। वह खेती हूँ। धीरे धीरे उसमें दूसरों पर सत्ता कायम के लिये औजार तैयार करता था, लेकिन गांव उसे करने का लालच पा जाता है। यत्रों की मदद से Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० अनेकान्त वह दूर दूरके लोगोंको भी गुलाम बना लेता है । और उन्हें इसका पता भी नहीं होता, कि वे गुलाम बन रहे हैं। गुलाम बनानेका ऐमा एक खूबसूरत तरीका इन लोगोंने ढूंढ लिया है। जैसे फोर्ड है । एक कारखाना बनाकर बैठ गया है। चन्द आदमी उसके यहाँ काम करते हैं। लोगोंको प्रलोभन दिखाता है, विज्ञापन निकालता है। हिंसक प्रवृत्तिका ऐसा मोहक रास्ता निकाल लिया है कि हम उसमें जाकर फँस जाते हैं और भस्म हो जाते हैं। हमें इन बातोंका विचार करना है कि क्या हम उसमें फँस जाना चाहते हैं या उससे बचे रहना चाहते हैं ? मेरा विशेष दावा अगर हम अपनी अहिमाको अविच्छिन्न रखना चाहते हैं और सारे समाजको अहिंसक बनाना चाहते हैं, तो हमें उसका रास्ता खोजना होगा । मेरा तो यह दावा रहा है कि मत्य, हिमा, वगैरह जो यम हैं, वे ऋषि मुनियों के लिये नहीं हैं। पुराने लोग मानते हैं कि मनुने जो [ श्रवण, वीर निर्वाण सं० २४६ वह अपने ब्रह्माण्डका बोझ अपने कंधे पर लिये फिरता है जो धर्म व्यक्तिके साथ खतम हो जाता है, वह मेरे कामका नहीं है । मेरा यह दावा है कि मारा समाज अहिंसाका आचरण कर सकता है और आज भी कर रहा है। मैंने इसी विश्वास पर चलने की कोशिश की है और मैं मानता हूँ कि मुझे उसमें निष्फलता नहीं मिली । अहिंसा समाजका प्राण है। बतलाये हैं वे ऋषि-मुनियोंके लिये हैं, व्यवहारी मनुष्यों के लिये नहीं हैं। मैंने यह विशेष दावा किया है कि हिंसा मामाजिक चीज़ है। मनुष्य केवल व्यक्ति नहीं है; वह पिण्ड भी है और ब्रह्माण्ड भी । वह अपने ब्रह्माण्डका बोझ अपने कंधे पर लिये फिरता है। जो धर्म व्यक्ति के साथ खत्म हो जाता है, वह मेरे कामका नहीं है। मेरा यह दावा है कि अहिंसा सामाजिक चीज है । केवल व्यक्तिगत चीज नहीं है। मनुष्य केवल offee नहीं है; वह पिण्ड भी है और ब्रह्माण्ड भी । मेरे लिये श्रहिंसा माजके प्राणके समान चीज़ है। वह सामाजिक धर्म है, व्यक्ति के साथ खतम होने वाला नहीं है। पशु और मनुष्य में यही तो भेद है। पशुको ज्ञान नहीं है मनुष्यको है । इम लिए हिंसा उसकी विशेषता है। वह समाज के लिए भी सुलभ होनी चाहिये । ममाज उसीके बल पर टिका है। किसी समाज में उसका कम विकास हुआ है, किसी में बेशी विकाम हुआ है। लेकिन उसके बिना समाज एक तगा भी नहीं टिक सकता। मेरे दावेमें कितना सत्य है, इसकी आप शोध करें। 1 आपका कर्तव्य मैं यह कहा करता हूं कि सत्य और अहिंसा से जो शक्ति पैदा हो जाती है उसकी तुलना किसी दूसरी शक्ति से नहीं हो सकती, क्या वह सच है ? इसकी शोध भी आपको करनी चाहिये। हमें उस शक्तिको साधना करके वह अपने जीवन में बितानी चाहिये । तत्र तो हम उसका प्रत्यक्ष प्रमाण दे सकेंगे। गाँधी-सेवा-संघका यह कर्तव्य है कि वह मेरे दावेका परीक्षण करे। क्या अहिंसा करोड़ों लोगोंके करने जैसी चीज हैं ? क्या हिंसा-अहिंसा का मिश्रण ही व्यहारके लिये जरूरी है ? क्या Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण १० ] हिंसा र असल सामाजिक धर्म है ? क्या हम उस पर डटे रहें; या उसे छोड़ दें ? इन सागे बातोंका निर्णय आपको करना है । हिंसाकी शक्ति अपने जीवन द्वाराप्रगट करना हमारा कर्तव्य है । ariat aहिसाका प्रयोग हमने आज तक हिंसाका प्रयोग नहीं किया हम यह कर्तव्य नहीं कर सके, इसका अनुभव कल हुआ । काँग्रेस महामंडलने ( हाई कमाण्ड ने) कल जो प्रस्ताव किया, उस परमे साफ़ है कि हम परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हुये । वह महामंडल लिये शर्म की बात नहीं है । वह तो मेरे लिये शर्म की बात है । मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि मेरी बात तीर जैमी सीधी उनके हृदय तक पहुँच सके । कांग्रेस में भी तो मैं मुख्य कार्यकर्ता रहा। उनके दिलों पर मैं अपना अमर नहीं कर सका। इसमें शर्म तो मेरा है। इसमें यह सिद्ध हुआ है कि आज तक जिमाका आश्रय लिया, वह सची श्रहिंसा नहीं थी । वह निःशस्त्रों की अहिमा थी । लेकिन मैं तो कहता हूँ कि हिमा बलवानोंका शस्त्र है । हमने आज तक जो कुछ किया, वह अहिंसाके नाम पर दूसरा ही कुछ किया । उसको आप और कुछ भी कह लीजिये; लेकिन अहिंसा नहीं कह सकते | वह क्या था, यह मैं नहीं बता सकता । वह तो आप काका साहब, बिनोबा या किशोरलाल से पूछें। वे बतावें कि हमने जो आज तक किया, उसे कौनसा नाम दिया जाय । लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि वह अहिंसा नहीं थी। मेरे नजदीक तो शस्त्रधारी भी बहादुरी में अहिंसक ६११ व्यक्तिकी बराबरी नहीं कर सकता। वह तो शस्त्र का महारा चाहता है, इसलिये वह अशक्त है । अहिमा अशक्तोंका शस्त्र नही है । मेरा दोष तो फिर आप पूछेंगे कि मैंने जनता मे उम शस्त्रका प्रयोग क्यों करवाया ? क्या उस वक्त मैं यह नहीं जानता था ? मैं जानता तो था । लेकिन उस वक्त मेरी दृष्टि इतनी शुद्ध नहीं हुई थी । अगर उस वक्त मेरी दृष्टि शुद्ध होतो, तो मैं लोगों से कहता कि 'मैं आपसे जो कुछ कह रहा हूँ, उसे श्राप अहिंसा न करें। आप अहिंसा के लिये लायक नहीं हैं; डरसे भरे हुये हैं। आपके दिल में हिंसा भरी हुई है। आप अंग्रेजों डरते हैं। अगर आप हिंदू हैं तो मुसलमान डरते हैं; अगर आप मुसलमान हैं तो तगड़े हिन्दुओंसे डरते हैं । इसलिये मैं जो प्रयोग आपसे करा रहा हूँ वह अहिंसा का प्रयोग नहीं है । सारा डरपोकोंका समाज है । उनमें से एक डरपोक आदमी मैं भी हूँ।" यह सब मुझे मा २ कह देना चाहिये था । मुझे यह कह देना चाहिये था कि 'हम प्रतिकार की जिस नीतिका प्रयोग कर रहे हैं वह हिंसा नहीं है।' मैंने गलत भाषाका प्रयोग किया। अगर मैं ऐसा न करता, यह करुण कथा, जो कल हुई, असम्भव थी । इसलिये मैं अपने आपको दोषी पाता हूँ हमारा हेतु शुद्ध था वह करुण कथा ता है, लेकिन फिर भी मुझे उस का दुःख नहीं है। हमने ग़लत प्रयोग भले ही किया हो, लेकिन शुद्ध हृदयमे किया। जो अहिंसा नहीं थी उसे श्रहिमा मानकर अपना काम किया । Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [भावण, वीर निर्वाण सं०२४६६ हमारा काम तो निपट गया लेकिन उसमेंमे एक कमजोर हो जाने पर गुण्डोंको मौका मिलेगा। अनुभव मिला । आज तक हमने जो किया, वह चोर हैं, डाकू हैं, वे हमारे घरों पर हमला करेंगे। डरके मारे किया । इसलिये सफलता नहीं मिली। हमारी लड़कियों पर आक्रमण करेंगे । अगर परन्तु हमारा हेतु शुद्ध था। इसलिमे अब भगवान हमारी अहिंसा बलवान की है, तो हम उन पर ने हमें बचा लिया। गलत नीतिको सही समझ कर क्रोध नहीं करेंगे । वे हमें पत्थर मारेंगे, गालियाँ हमने अधिकार-ग्रहण भी किया। वहाँ भी भहिंसा देंगे, तो भी हमें उनके प्रति दया रखनी चाहिये। की परीक्षा उतीर्ण नहीं हुये। तभीसे मुझे तो हम तो यही कहें कि ये पागलपनमें ऐसा कर रहे विश्वास हो गया था कि हमें अधिकार-पदोंका हैं। हमे उनके प्रति द्वेष न रखते हुए उन पर दया त्याग करना ही होगा। भगवान ने हमारी लाज करनी चाहिये और मर जाना चाहिए। जब तक रख ली। कभी न कभी हमें अधिकार-त्याग तो हम जिन्दा हैं, वे एक भी लड़कीको हाथ न लगा करना ही था। भगवानने हमें निमित्त दे दिया। सकें। इमी प्रयत्नमें हमें मरना है। किसीने हमको वहांसे निकाला नहीं। हममेंसे वर्किङ्ग कमेटीकी स्थिति बहुतेरोंके दिलोंमें अधिकारका मोह हो गया था। ___ इस प्रकार चार, डाकू ओर बातताया हमला कुछ लोगोंको थोड़ासा पैसा भी मिल जाता था। करें वो लोग माना रक्षण किस प्रकर करें, यह लेकिन कांग्रेसका हुक्म होते ही सब छोड़कर अलग प्रश्न पाया । कांग्रेस के महाजनों (हाई कमाण्ड) ने हो गये । साँप जैसे अपनी केचनी फेंक देता है देखा कि शान्ति-ना तो बन नहीं सकवी । फिर उसी तरह फेंककर अलग होगये। मान लिया कि कांग्रेस लागोंको क्या आदेश दे ? क्या कांग्रेस ये अधिकार-पद निकम्मे हैं, क्योंकि हमारे वहाँ मिट जाय ? इसलिए उन्होंने वह कल वाला बैठे रहने पर भी सरकारने हमें लड़ाई में शरीक प्रस्ताव किया । उन्होंने समझा कि सम्पूर्ण अहिंसा कर दिया, और हमें उसका पता भी नहीं चला। का प्रयोग दंशकी शक्ति के बाहर है। देशको फौज भगवान्ने ही लाज रखी, क्योंकि हम वहाँ रहते की जरूरत है। तो हमारी दुर्बलताका प्रदर्शन हो जाता। मेरे पास भी हमेशा पत्र पाते हैं कि 'अन्धाशुद्ध अहिंसक प्रयोगका मौका धध होने वाली है। तुम राष्ट्रीय सेना बनाओ, और उसके लिये लोगोंको भर्ती करो'। लेकिन मैं आज यह दूसरा मौका आया। यूरोपमें महा यह नहीं कर सकता। युद्ध शुरू हो गया। जगतको बलवान अहिंसाका : मेरी स्थिति प्रयोग दिखानेका मौका पाया । यह हमारी परीक्षा " का समय है। हम उसमें उत्तीर्ण नहीं हुए। आज मैंने तो अहिंसाकी ही साधना की है। मैं डरदेशको बाह्य आक्रमणसे डर नहीं है । मेरा खयाल पोक या और कुछ भले ही होऊँ लेकिन दूसरी है कि बाह्य आक्रमण नहीं होगा। लेकिन सल्तनत साधना नहीं कर सकता । पचास वर्ष तक मैंने Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ..] वीरोंकी अहिंसाका प्रयोग अहिमाकी ही उपासनाकी है । काँग्रेमकं द्वारा भी है। मैंने अभी कहा कि अहिंसा बलवानका शस्त्र मैं वही बात सिद्ध करना चाहता था। मैं चवन्नी है। बलवानका क्या, वह तो बलिष्ठका शस्त्र है। का सदस्य भी नहीं था, लेकिन मैं कहता था कि क्षमा तो वीरपुरुपका भूपण है; दुर्बलोंका नहीं । चवन्नी सदस्यम ज्यादा हूँ । क्योंकि काँग्रेमकं कार्य जबरदस्ती कोई चीज मान लेना दुर्बलता है । क्रमका नेतृत्व में करना था। मेरीनैतिक जिम्मेदारी इलिये मेरे कहनेसे वे मेरी बात मान लेते, तो चवन्नी-सदस्यमे बहुत अधिक थी । अब वह नैतिक वह दगाबाजी हो जाती । जो चीज़ मैं मानता हूँ बंधन भी कलम छोड़ कर आया हूं। क्योंकि अब वह अगर उनकी बुद्धिको मंजूर नहीं है, तो जो मैं अपना प्रयोग किसके द्वारा करूँ ? आज तक सच है वही उन्हें करना चाहिये । इस दृष्टिम तो काँग्रेसके द्वारा करता रहा। उन्होंने जो किया, वह ठाक ही किया है। कार्य-समिति और मैं अब हम सहधर्मी नहीं रहे आज तक काँग्रेसने मेरा साथ दिया। लेकिन परन्तु मेरी अहिंसक जवान अब उनकी बात जब वर्तमान महायद्ध शुरू हुआ और मैं शिमलासे का उच्चार नहीं कर सकती। अब तक तो वे सरकार लौटा, तभीसे बान कुछ दूमरी हो गई। शिमलामें से कहते थे कि "आप हमारी बात नहीं मानत, नो मैंने वाइसरायसे कहा था कि 'मेरी सहानुभूति हम भी नैतिक दृष्टिमं आपकी सहायता नहीं कर तुम्हारे लिये है। लेकिन हम तो अहिंसक हैं। हम मकते । आप अपने धर्मका जब तक पालन नहीं केवल आशीर्वाद दे सकते हैं। अगर हमारी अहिंसा करते, तब तक हम आपके साथ सहयोग नहीं कर बलवानोंकी अहिमा है, तो हमारे नैतिक आशीर्वाद सकते।" मेरी अमिक जबान काँग्रेमको तरफम से संमारमें आपका बल बढ़ेगा।' परन्तु मैंने देखा यह सब कह सकती थी। उसमें मेरी अहिंमाकं कि मेरे विचारोंस काँग्रेसके महाजन सहमत नहीं प्रयोगकं लिय सामान मौजूद था । आज वह नहीं हो सकते थे। उन्होंने अपना अलग प्रकारका है। अब तो कांग्रेसके महाजन और मैं सहधर्मी वक्तव्य निकाला । अगर वे मेरी नीति स्वीकारते, नहीं रहे । सकरके लोगोंने मुझमे पछा; उनसे भी तो कांग्रेसका इतिहास दूसरी ही तरह लिखा मैंने कहा कि तुम मेरा रास्ता लो। उन्होंने समझा जाता। कि वे मेरी सलाह पर नहीं चल सकते । उन्होंने ___ यदि मैं बलपूर्वक कहता कि मेरी ही नीति मारपीटका रास्ता उचित समझा । अब वे मेरे माननी चाहिये, तो राजेन्द्र बाबू, राजाजी और सहधर्मी नहीं रहे वही बात कलकं प्रस्तावमें स्पष्ट दूसरे सदस्य मान लेते । वे भी कह देते कि ठीक है, हुई है । सक्करमें भी कांग्रेस वाले हैं । उनको और तुम्हारे साथ चलेंगे। लेकिन यह धोखाबाजी हो कांग्रेसके महामंडलको मैं अपनी नीति पर नहीं जाती । उसमें अहिंसा नामको भी नहीं रहती। ला सका । इसलिये अलग हो गया । ऐसी यह अहिंसाका पहला लक्षण सचाई और ईमानदारी करुण कथा है। कांग्रेसके महामंडलने मुझमे कह Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६११ अनेकान्त [भावण, वीर निर्वाण सं०२१६ दिया कि हम अपनी मर्यादासे बाहर नहीं जा गांधी सेवा संघ क्या करे ? सकते । तुम्हें स्वतन्त्र कर देते हैं । तुम बलवानकी अहिंसाका प्रयोग करनेके लिये स्वतन्त्र हो।" आज तक गांधी सेवा संघने जो काम किया वह निकम्मा काम था; लेकिन सच्चे दिलसे किया हमारी दुर्बल अहिंसक नीति था । इसलिये बिल्कुल निष्फल नहीं हुआ। हम आज तक हमने जो अहिंसाकी साधनाकी, गलती कर रहे थे, लेकिन उसके पीछे धोखेबाजी उसमें यह बात रही कि हम अहिंसाके द्वारा अंग्रेजों नहीं थी। फिर भी जो कुछ किया, वह हमारा से सत्ता छीन लेंगे। हम उनका हृदय-परिवर्तन भूषण नहीं कहा जा सकता । आज परीक्षाका. नहीं करना चाहते थे । हमारे दिल में करुणा नहीं मौका आ गया। कांग्रेस महाजन तो उत्तीर्ण थी; क्रोध और द्वेष था । गालियां तो हममें भरी नहीं हुए । अब देखना है, गाँधी सेवा संघ क्या थीं। हम यह नहीं मानते थे कि उनका हृदय कर सकता है ? गांधी सेवा संघके लोग अगर बिगड़ा है, वे हमारी दयाके पात्र हैं । हम तो यही जनतामें अहिंसाकी जागृति कर सकेंगे, तो कांग्रेस मानते थे कि चोर और लुटेरे हैं । इनको अगर के महाजनोंको भी खशी होगी। काँग्रेमके लोग हम मार सकते तो अच्छा होता । इसी वृत्तिसे अगर महाजनोंसे कहेंगे कि आप क्यों कहते हैं कि हमने असहयोग और सवितय भंग किया । जेलमें अहिंसाका पालन नहीं हो सकता; हम तो अहिंसक जा कर बैठे; वहां नखरे किये। हैं और रहेंगे, तो कांग्रेमके महाजन नाचेंगे । आप लोग गाँधी सेवा-संघ मानने वाले हैं। आपमेंमें 'अहिंसा के नामका प्रभाव कुछ काँग्रेसमें हैं, कुछ नहीं हैं। मैं तो वहां नहीं परन्तु इसमें से भी कुछ अच्छा परिणाम निकल रहा । अब जिन लोगोंके नाम कांग्रेस के दफ्तरमें या । अहिंसा हमारी जबान पर थी। उसका दर्ज हैं, वे अगर अहिंसक हैं तो उन्हें कार्य-समिति कुछ शुभ परिणाम हुआ। थोड़ी-बहुत सफलता से कहना चाहिये कि हम अहिंमामें ही मानते हैं । मिल गयी। राम नामकं विषयमें हमने सुना है कि लेकिन यों ही कह देनेसे काम नहीं चलेगा। आपके राम नामसे हम तर जाते हैं, तो फिर स्वयं राम दिलोंमें सच्ची अहिंसा होनी चाहिये । इस तरह ही भाजावे तो क्या होगा ? अहिंसाके नाम ने भी की अहिंसा अगर कांग्रेस सदस्योंमें है, तो आल इतना किया; तो फिर अगर दर असल हममें सभी इन्डिया कांग्रेस कमेटीमें वे कहेंगे, कांग्रेसका महिंसा पा जावे, तो हम आकाशमें उड़ने लगेंगे। अधिवेशन होगा, उसमें भी कहेंगे कि हम तो जो शक्ति हिटलरके हवाई जहाजोंमें नहीं है, वह अहिंसक हैं । जब तक आप समझते हैं कि आप उड़नकी शक्ति हममें होगी। हमारा शब्द आकाश का अहिंसाका द् कांग्रेसमें चल सकता है, तब गंगाको भी भेदता हुमा चला जायगा। यह जमीन तक वहाँ रहें, नहीं तो निकल जायें । कांग्रेसका आसमान हो जायगी। धर्म एक रहे और आपका दूमरा, इससे कार्य नहीं Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ..] पीरोंकी हिंसाका प्रयोग हो सकता । तब तो हमको ऐलान कर देना चाहिये स्वभावसिद्ध कार्य ही स्वधर्म है कि हम लोगोंके प्रतिनिधि नहीं बन सकते। जो कुछ हम करें, वह धर्मकी भावनासे करें। दिली अहिंसा केवल भावुकतासे नहीं । मैं आज यहाँ बोलने अगर आप कांग्रेसमें रहकर अहिंसाका प्रचार आ गया हूँ। अपना धर्म समझ कर पाया हूँ । करना चाहते हैं, तो आपको खबरदार रहना मौन तो मेरा स्वभाव हो गया है । मौन मुझको होगा। आपकी अहिंसा सच्ची अहिंसा होनी मीठा लगता है । वह मेरा विनोद हो गया है। चाहिये । अगर मैं दिलसे भी किसी आदमीको मनुष्यका कर्तव्य भी जब स्वभाव-सिद्ध हो जाता मारना चाहता हूँ तो मेरी अहिंसा खतम है। मैं है, तो वही उस का विनोद हो जाता है । फिर शरीरसे नहीं मारता, इसका मतलब यही है कि मैं कर्तव्य क्या रहा ? वह तो उसका स्वभाव हो गया; दुर्बल हूँ । किसी आदमीको लकवा हो जाय तो आनन्द हो गया। अब तो मेरे लिए मौन स्वभाववह मार नहीं सकता । उसी तरहको मेरी अहिंसा सिद्ध हो गया है। इसी तरह अहिंसा हमारे लिए हो जाती है। अगर आप दिलसे भी अहिंसक हैं स्वभाव-सिद्ध हो जाना चाहिये । कर्तव्य जब तो कांग्रेसके महाजनोंसे कह सकते हैं कि हम तो स्वभाव-सिद्ध हो जाता है, तब वह हमारा स्वधर्म शुद्ध अहिंसाकै प्रयोगके लिए तैयार हैं। हो जाता है। भावुक न बनें उमी तरह आप दिन भर जो करेंगे, उसके साथ अहिंसाका तार चलता ही रहेगा । चाहे उस हालात में आपको अपना परीक्षण करना झूठे तर्क शास्त्र के आधार पर क्यों न हो, होगा, फ्रजरसे शाम तक आप जो जो कार्य आपके लिये अहिंसा ही परम धर्म होगा । झठे करेंगे, उसके द्वारा शुद्ध अहिंसाकी साधना करनी तर्क शास्त्रको ही माया कहते हैं । दूमरोंके लिए होगी। केवल दिखावेकं लिए नहीं, कंवल भावु वह माया है लेकिन हम जब तक उसमें फँसें हैं, कतासे नहीं। हम केवल भावक बनेंगे तो वहममें फँसेंगे । भावुकताके सिलसिलेमें मुझे एक किस्सा तब तक हमारे लिए वह माया नहीं है । हमारे लिए वह सत्य ही है। मैं जानता हूँ कि इस चरखे याद पाता है । मेरे पिताजीके पाम एक सज्जन पर ज्यों ज्यों एक तार कातता हूँ त्यों त्यों मैं स्वआया करते थे । बड़े भावुक थे, वहमी थे । जहाँ राज्यके नजदीक जाता हूँ। यह माया हो सकती किसीने छींक दिया कि बैठ गये उनके घरसे आने के लिए पांच मिनट लगते थे। लेकिन इन भाई है लेकिन वह मुझे पागलपनसे बचाती है । को पचास मिनट लग जाते थे । छींकोंके कारण आपको इस तरह अनुसंधान करना चाहिये । बेचारे रुक जाते थे । इसी तरह हम भावकतासे अहिंसक उपकरणके यज्ञ अहिंसाके नाम पर सभी कामोंसे हट सकते हैं। यह चरखा मेरे लिए अहिंसाकी साधनाका मैं ऐसा नहीं चाहता।हम सब ऐसे भावुक न बनें। औजार है। वह जड़ वस्तु है । लेकिन उसके साथ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६ जब अपनी चेतन वस्तु को मिला देता हूँ; तो लग गये; और तो भी मैं पूर्ण नहीं हुआ। लेकिन उसमेंसे जो मधुर आवाज निकलती है वह महि- यह हो सकता है कि कोई आदमी आज ही शुरू सक होती है । उसमें जो लोहा लगा है; उससे करे और जल्दी ही पूर्ण हो जाय । इसलिये मैंने खून भी हो सकता है । लेकिन मैंने इस चरखेमें पृथ्वीसिंहसे कह दिया कि तुम में हिंसक वीरता तो मनुष्यके हित के लिए उसे लगाया है । मैं उसकं थी। मुझमें तो यह भी नहीं थी। अगर तुम सच्चे सारे अंग स्वच्छ रखता हूँ। उसमेसे अगर मधुर दिलसे अहिंसाको अपनावोगे, तो बहुत जल्दी आवाज न निकले, तो वह हिसक चीज बन जाती सफल होगे; मुझसे भी आगे चले जाओगे। है। हमें तो अहिंसाका यज्ञ करना है । यज्ञकी . मैं सफल शिक्षक बनना चाहता हूं सामग्री बिल्कुल शुद्ध होनी चाहिये । खराब लकड़ी; खराव लोहा लगावेंगे तो रही चरखा मेरी अपेक्षा दूसरे लोग मेरे प्रयोगमें अधिक बनेगा। उसकी आवाज कणकटु होगी । यज्ञकी सफल हों तो मैं नाचूंगा। वे अगर मुझे हरा दें तो सामग्री ऐसी नहीं होती। मैं अपने आपको सच्चा शिक्षक समझूगा । इमी इस प्रकारके अनुसंधानसे अगर हम अपनी तरह मैं अपनी सफलता मानता आया हूँ । मैंने प्रत्येक क्रिया करेंगे, तो हमारी अहिंसाकी साधना लोगोंको जूते बनाना सिखाया है, अब ने मुझसे शुद्ध होगी। शुद्ध साधनाके लिए शुद्ध उपकरण आगे बढ़ गये हैं। यह प्रभुदाम तो खड़ा है। इसे भी चाहिये । चरखेको मैंने शुद्ध उपकरण माना जूते बनाना मैंन सिखलाया। इसकी इतनीमी उम्र है। जो मनः पूर्वक यज्ञ करता है, उसे यज्ञकी थी। यह मुझसे आगे बढ़ गया । दूसरा सैम था। सामग्री ही प्रिय लगती है। इसलिए मुझे चरखा वह कारीगर था। उसने तो वह कला हस्तामलकप्रिय है । उसकी आवाज मीठी लगती है। मेरे वत कर ली । वे मब मुझसे आगे बढ़ गये । लिये वह अहिंसाका संगीत है। क्योंकि मेरे दिल में चोरी नहीं थी । मैं जो कुछ जानता था सब उन्हें देनको अधीर था । उन्होंने आप मुझसे आगे बढ़ें मुझे हरा दिया, यह मुझे अच्छा लगता है। क्योंकि हमको पता नहीं कि इस तरहकी साधनाकं उसका यही मतलब है कि मैं सही शिक्षक हूँ। लिये किसे कितने वर्ष लगेंगे। किसीको हजार वर्ष अगर अहिंसाका भी मैं सही शिक्षक हूँ तो जो लग जायं तो कोई एक ही वर्ष कर लेगा । मुझे लोग मुझसे अहिंसा सीखते हैं, वे मुझसे आगे बढ़ यह अभिमान और मोह नहीं है कि मैंने पचास जायेंगे। मुझमें जो कुछ धरा है, वह सब मैं दे वर्ष तक साधना करली, इसलिये मैं जल्दी पूर्ण हगा देना चाहता हूँ। जो लोग आश्रममें मेरे साथ रहे और आप अभी शुरू कर रहे हैं, इसलिये आपको हैं जो दूसरे भी जो आज मेरे साथ रहते हैं, वे अधिक वक्त लगेगा। यह अभिमान मिथ्या है । मैं अगर मुझसे आगे नहीं बढ़ते तो इसका यह अर्थ तो अपूर्ण हूँ डरपोक हूँ। इसलिये मुझे इतने साल होता है कि मैं सफल शिक्षक नहीं हूँ। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41, किरण ..] वीरोंकी पाहिंसाका प्रयोग आप मेरे सह-साधक हैं भी नहीं है, तो वे कह देते हैं, 'हम क्या करें; हम मेरी यह इच्छा है कि भाप लोग अहिंसाकी आपका रास्ता नहीं ले सकते । मैंने जिस तरह साधनामें मुझसे भी आगे बढ़ जायें । क्योंकि पदाधिकार छोड़ दिया, उस तरह वे तो नहीं छोड़ सकते । मैं अहिंसाको अपनी व्यक्तिगत साधना मैं सिद्ध नहीं हूँ, पाप मेरे सइ-साधक हैं । मेरे भी समझता हूँ । वे तो नहीं समझते । पास अहिंसाका जो धन है, उसे मैं घर बांट देना चाहता हूँ। उसमें कसर नहीं करना चाहता । भापको अपने दिलमें सोचना चाहिये कि "यह मैंने काँग्रेस क्यों छोड़ी? जो कुछ हमें दे रहा है, उसका हम सारी भूमिम इस परमे श्राप ममझायेंगे कि मैंने कांग्रेम छः सिंचन करें। यह तो बूढ़ा हो गया है। हम तो साल पहले छोड़ दी, यह ठीक ही किया। उसकी तरुण हैं। हम इसके दिये ,हुए धनको बढ़ावेंगे!" अधिक सेवाको । उसी वक्त मैंने देख लिया कि इस तरह सोच कर आप मुझसे आगे बढ़ कांग्रेममें कई लोग ऐसे आ गये हैं, जो अहिंसाको जायेंगे तो मैं पापको आशीर्वाद दूंगा। नहीं मानते; जिनको अहिमाने स्पर्श भी नहीं किया है। मैं उनसे काम कैसे ले सकता था ? साथ माथ मैं अकेला नहीं हूँ मैंने यह भी देखा कि कई अहिंसाके पुजारी मैं जानना चाहता हूँ कि आपमें से कितने मेरे कांग्रेसके बाहर पड़े हैं। इसीलिये मैंने अलग हो साथ इस रास्ते चलनेको तैयार हैं ? अगर कोई जाना ही ठीक समझा । आज आप देखते हैं कि न आया तो मुझे अकेला भी चलना ही है । मैं मैंने सही काम किया। सत्तर साल का हो गया हूँ, तो भी बूढ़ा हो गया हूँ क्योंकि मैंने देख लिया कि मैं दूसरी तरहकी ऐसा तो नहीं समझना । और मैं कभी अकेला तो कोई सेवा नहीं कर सकता । सिवाय अहिंसाके हो नहीं सकता। और कोई नहीं नो, भगवान मेरे मुझमें दूसरी कोई शकि नहीं है । तब मैं वहाँ रह साथ रहेंगे। मुझे अकेलेपनका अनुभव कभी होता कर क्या करता ? मुझमें जो कुछ शक्ति है वह ही नहीं। अहिंसाकी ही शक्ति है । मैं अपनी अपूर्णता जानता पापकी अगर अहिंसाके मार्ग में श्रद्धा है, तो हूँ। मेरी अपूर्णता मुझसे अधिक कोई नहीं जानता । पाप अपना परीक्षण करें। कितने भादमी इस लेकिन फिर भी मनुष्य अभिमानी होता है। रास्ते चलनेको तैयार हैं, इसकी खोज करें । कांग्रेस इसलिये मैं जिन अपूर्णताओंको नहीं देखता, उन्हें वालोंको टटोलें । यह सबखोज मैं नहीं कर सकता। आप देख लेते हैं, और मैं प्रात्म-परीक्षण करता क्या आप कांग्रेसके महाजनोंको पहिसाकी शचि रहता हूँ, इसलिये मेरी जिन अपूर्णतामोंको भाप दे सकते हैं ? वे क्या करते; वे तो लाचार थे। नहीं देख सकते; उन्हें मैं देख लेता हूँ। इस तरह जब वे देखते हैं कि लोगोंमें अहिंसाकी एक बून्द दोनोंका जोड़कर लेता हूँ। Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त भावण, वीर निर्माण सं.२४६६ - शत्रु था। अहिंसा ही मेरा बल है असाधारण थे; रावण भी उनका भसाधारण मुझमें अहिंसाकी अपूर्ण शक्ति है, यह मैं Men ग्रता जानता हूँ; लेकिन जो कुछ शक्ति है वह अहिमाकी मेरे नजदीक तो वह सारी काल्पनिक कथा ही है । लाखों लोग मेरे पास आते हैं । प्रेमसे मुझे है। लेकिन उसमें सच्चा शिक्षण भरा पड़ा है। अपनाते हैं। औरतें निर्भय होकर मेरे पास रह हिटलर अपनी साधनामे निरन्तर जाप्रत है । उमके सकती है। मेरे पास ऐसी कौनसी चीज है ? केवल जीवनमें दूसरी चीजके लिये स्थान ही नहीं रहा अहिंसाकी शक्ति है और कुछ नहीं। अहिंसाकी है। करीब करीब चौबीम-घंटे जागता है । उसका यह शक्ति एक नयी नीतिके रूपमें मैं जगतको देना एक क्षण भी दूसरे काममें नहीं जाता। उसने ऐसे चाहता हूँ। उसको सिद्ध करने के लिये हम क्या कर ऐसे शोध किये कि उन्हें देखकर ये लोग दिमूढ़ रहे हैं इसका हिसाब हमें अभी दुनियाको देना रह जाते हैं। उसके टैंक आकाशमें चलते हैं और बाकी है। दुनियाम आज जो शांत प्रकट हो रही पानीमें भी चलते हैं। देखकर ये लोग दंग रह है, उसके सामने मैं हारूँगा नहीं। लेकिन हमें जाते हैं । उसने ऐसी बातें कर दिखाई जो इनके सचाई और सावधानीसे काम लेना होगा; नहीं ख्वाबमें भी नहीं थी। वह कितनी साधना कर तो हम हार जायेंगे। सकता है,चौबीस घंटे परिश्रम करने पर भी अपनी हिटलरकी शक्तिका रहस्य बुद्धि तीव्र रख सकता है । मैं पूछता हूँ, हमारी बुद्धि हम अपनी सारी शक्ति अहिंसाकी साधनामें कहा है। हम है कहाँ है ? हम जड़वत् क्यों हैं, कोई हमसे सवाल नहीं लगायेंगे, तो हम जीत नहीं सकते । हिटलरको पूछता है तो हमारी बुद्धि कुठित क्यों होजाती है ? देखिये । जिस चीजको वह मानता है, उसमें अपने हमारी बुद्धिमें तेजी हो सारे जीवनकी शक्ति लगा देता है। पूरे दिल और मैं यह नहीं कहता कि हम वाद-विवाद करें। पूरी श्रद्धासे उसीमें लगा रहता है । इसलिये मैं केवल वाद-विवादमें तो हम हारेंगे ही। हमें तो हिटलरको महापुरुष मानता हूँ। उसके लिये मेरे श्रद्धायुक्त बुद्धिकी शक्ति बतानी है। इसीका नाम मनमें काफी क़द्र है। वह शक्तिमान पुरुष है। आज शक्ति है । अहिंसाका अर्थ केवल चरखा चलाना राक्षस होगया है। जो जीमें आता है, सो करता नहीं है। उसमें भक्ति होनी चाहिये । अगर भक्तिके है; निरंकुश है। लेकिन हमें उसके गुणोंको देखना बाद हमारी बुद्धि तेजस्वी नहीं हुई, तो मान लेना चाहिये । उसकी शक्ति के रहस्यको पकड़ना चाहिये। चाहिये कि हमारी भक्तिमें त्रुटि है। हिटलरकी तुलसीदासजीने यह बात हमें सिखाई है। उन्होंने विद्याके लिये अगर बुद्धिका उपयोग है, तो हमारी रावणकी भी स्तुतिकी है। मेरे दिल में रावण के लिये विद्या के लिये बुद्धिका उससे कई गुना उपयोग है। भी आदर है। अगर रावणं महापुरुष न होता, तो हम यह न समझे कि अहिंसाके विकासमें बुद्धिका रामचन्द्र जीका शत्रु नहीं हो सकता था। रामचन्द्र उपयोग ही नहीं है। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . , किरण . वीरोंकी हिंसाका प्रयोग बुद्धिके उपयोग का क्षेत्र है। मैं यह नहीं कहता कि हम अपना कार्य छोड़ मापकी बुद्धिके उपयोगका क्षेत्र बताने के लिए दें। उमे तो भाग्रह पूर्वक चलाना ही है लेकिन मैंने ये प्रश्न बनाए । ये मौलिक प्रश्न हैं । उनका हम जागृत होकर काम करेंगे, तभी सिद्धि मिलेगी। उत्तर आप एक दिन में नहीं दे सकते । मैं यहाँ हमारी बुद्धि मन्द होगी तो हमारा काम बिगड़ने तक नहीं पहुँगा कि उन पर पुस्तक लिखं फिर भी, वाला है। मेरे दिमाग़में कुछ उत्तर तो हैं । मैं पुस्तक लेखक मेरा दर्द नहीं बन सकता । पुस्तक लेखक तो दूसरों को इस दृष्टिमं कल जो प्रस्ताव हुआ, वह आपको बनना है। मेरे पास इतनी फुरमत कहाँ है ? जो अध्ययन और खोजका मौका देगा। उम प्रस्ताव लोग अध्ययन और खोज करेंगे वे पुस्तक लिखेंगे। से हमारी आबोहवा दुरुस्त होनी चाहिये । हमें पुस्तक लिखना भी कम महत्वका काम नहीं है। इस बातकी खोज करनी चाहिये कि काँग्रेसके जैसे रिचर्ड ग्रेग हैं। वे मेरे पाससे सिद्धान्त ले महामण्डलको यह प्रस्ताव क्यों करना पड़ा? जो गये । अध्ययन और खोज करके पुस्तकें लिखते यह कहेगा कि महामण्डलके लोग डरपोक हैं, वह हैं । मैं जो कहनेको डरता था वह आज वह प्रेग देश-द्रोह करेगा । उन्होंने जो आबोहवा देखी कह रहा है । मैं तो कहता था कि चरखा हिन्दु. उसका वह प्रस्ताव प्रतिघोष है। मैं उस आबोस्तान लिए है । वह तो कहता है कि सारी इवाका प्रतिघोष नहीं हो सकता क्योंकि अहिंसा दुनियाका कल्याण चरखेमें और ग्राम उद्योगोंमे मेरी व्यक्तिगत साधना भी है। कांग्रेसकी वह भरा है । योरुप और अमेरिकाके लिए भी माधना नहीं है। मुझे तो उसीमें मरना है । अहिंसाकी साधनाका दूसरा रास्ता नहीं है।' काँग्रेस प्रतिनिधि मेरे जैसा नहीं कर सकते। ग्रेग कहता कि दूसरी तरहसे अहिंसक जीवन उनकी साधना अलग है। इसलिये अब न वे मेरे असम्भव है । मै कहनसे हिचकता था । लेकिन साथ चल सकते हैं, और न मैं उनके साथ चल वह तो बहादुर आदमी है । उपन निभय होकर सकता हूँ। उनके लिये मेरे दिलमें धन्यवाद है। कह डाला । मैंने इस तरह खोजबीन और अध्ययन इम बातका दुख भी है कि इतने दूर तक साथ नहीं किया है । अन्तनादने जो मुझे आदेश दिया चलने पर भी मैं उन पर अपना असर क्यों नहीं और प्रत्यक्ष अनुभवसे जो मैंने देखा, वह जगतक डाल सका ? उन्होंने मुझे अपना मार्ग-दर्शक माना सामने रखता गया। प्रेगके समान लेखबद्ध करके था। बडी श्रद्धास बाग डोर मेरे हाथमें दी थी। शास्त्र नहीं बनाया। उसकी बुद्धिने जो काम किया, फिर भी, मैं उनके दिलमें विश्वास नहीं पैदा कर क्या आपकी बुद्धि भी वह कर सकती है। " ! सका । इसका मुझे दर्द है। _ विपक्षी जो कहते हैं, उसका भनादर नहीं करना चाहिये । इनकी दृष्टि से उन प्रश्नोंका विचार रचनात्मक कार्यक्रमका महत्व करके उन्हें उनकी भाषामें सममाना हमारा काम भाप इस विषयकी शोध करें । हमें तो Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अनेकान्त [श्राडण, वीरनिर्वाण सं०२४६६ अहिंसाकी साधना वीरकं शस्त्र के रूपमें करनी है। ही नहीं था, उन्हें कानून-भंग बतलाया। उनसे बान बहुन बड़ी है। हम यह न समझे कि हमें मुझे कहना चाहिये था कि आज तक सरकार के जेल जानकी शक्ति बढ़ानी है। हमे तो यह बताना दण्ड के भयसे जो किया, वह पहले अपनी इच्छासे है कि रचनात्मक कार्यक्रम स्वराज्यका अविभाज्य करो। तब तुम्हें कानून-भंगका अधिकार प्राप्त होगा। अग है । हमने यह नहीं समझा कि चरखा हमें ईश्वरने मुझे ही क्यों चुना? स्वराज्य देगा । 'गाँधी कहना है इसलिए चरखा ___ वह सारी अधुरी अहिंसा थी। मेरा उसमें चला लो, उसमे गरीबको थोड़ा मा धन मिलता . डरपोकपव था। मैं अपने साथियोंको नाराज नहीं है' यही हमारी वृत्ति रही । अब आपमं यह करना चाहता था। साथियोंके डरसे कुछ करनेमे सिद्ध करने की शक्ति आनी चाहिये कि रचनात्मक कार्य ही स्वराज्य दे सकता है। इसका मतलब यह हिचकना हिंसा है । उसमे असत्य भरा है। मोती लालजी, बल्लभभाई और दूसरे लोग नाराज हो नही है कि आप रोज थोड़ासा, कात लें, दो चार जायंगे; यह डर मुझं क्यों रहा ? ये सब मेरी त्रुटियाँ मुसलमानोंके साथ दोस्ती करलं, अछूनोंमें मिलने थीं। उन्हें मैं तटस्थ होकर देखता हूँ। उनका जुलन लगें और समझ कि अब हम स्वराज्यकी प्रत्यक्ष दर्शन करता हूँ; क्योंकि मुझम अनासक्ति लड़ाईके लायक बन गये । आपको तो यही मानना चाहिये कि रचनात्मक कार्यक्रममे ही स्वर ज्य देने है। उन त्रुटियोंके लिये न तो मुझे दुख है, न पश्चाताप । जिस प्रकार मैं अपनी सफलता और की शक्ति है। रचनात्मक कार्यक्रमके बाद लड़ाई करनी है । ऐसी मान्यता आपकी नहीं हो सकती। शक्ति परमात्माकी ही देन समझता हूँ, उमीको अर्पण करता हूँ, उसी प्रकार अपने दोष भी उम कार्य-क्रममे ही स्वगज्यकी ताक़त है। भगवानकं ही चरणों में रखता हूँ । ईश्वरने मुझ मैंने उल्टा प्रयोग कराया जैसे अपूर्ण मनुष्यको इतने बड़े प्रयोगके लिये क्यों मैंने अहिंसाका प्रयोग इस देशमें उलटा किया। चना ? मैं अहंकारसे नहीं कहता । लेकिन मुझे दरअसल तो यह चाहिये था कि रचनात्मक कार्य विश्वास है कि परमात्माको गरीबांमे कुछ काम क्रमसे शुरू करता। लेकिन मैंने पहले मविनय भंग लेना था, इसलिये उमने मुझे चुन लिया। मुझसे और असहयोगका, जेल जानका कार्यक्रम रक्खा। मैंने लोगोंको यह नहीं समझाया कि ये तो बाद में अधिक पूर्ण पुरुष होता तो शायद इतना काम न आने वाली चीज है । इमलिये वे आन्दोलन कर सकना । पूर्ण मनुष्यको हिन्दुस्तानी शायद कामयाब न हो सके। पहचान भी न सकता । वह बेचारा विरक्त होकर गुफामे चला जाता । इसलिए ईश्वरन मुझ जैसे कानून-भंगका अधिकार अशक और अपूर्ण मनुष्यको ही इस देशके लायक मुझ नडियादका किस्मा याद आता है। समझा । अब मेरे बाद जो श्रायंगा, वह पूर्ण पुरुष रौलेट एक्ट सत्याग्रहके वक्तकी बान है । वहीं मैंन होगा। मैं कहता यह हूं कि वह पूर्ण पुरुष आप कबूल कर लिया था कि मेरी हिमालय जैसी भूल बनें । मेरी अपूर्णताओंको पूरा करें। हुई । जिन्होंने ज्ञानपूर्वक कानूनका पालन किया Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्च कुल और उच्च जाति - -- ऊँची जाति, पुराना कुल, पाप-दादोंसे पाया हुआ धन, पुत्र-पौत्र, रूपरंग आदिका जो अभिमान करता है, उसके बराबर कोई मूर्ख नहीं, क्योंकि इनके पानेके लिए, उसने कौनसी बुद्धि खर्च की । किसी बुद्धिमानने कहा है कि जो लोग बड़े घरानेके होनेकी डींग मारते है, वे उस कुत्ते के सदृश हैं, जो सूखी हड्डी चिचोड़ कर मगन होता है। महान् पुरुषके ये लक्षण है-१) जिसे दूसरेकी निन्दा बुरी लगती है और ऐसी बातको अनसुनी करके, किसीसे उसकी चर्चा नहीं करता । (२) जिसे अपनी प्रशंसा नहीं सुहाती, पर दूसरेकी प्रशंसासे हर्ष होता है (३) जो दूसरोंको सुख पहुँचाना अपने सुखसे बढ़कर समझता है (४) जो छोटोंसे कोमलता और दयाभाव तथा बड़ोंसे आदर-सत्कारके साथ व्यवहार करता है। ऐसे पुरुषको महापुरुष कहते हैं। केवल धन या ऊँचा कुल या जाति और अधिकारसे महानता नहीं आती। अनेक विद्वान् योग्य और देश हितैषी बुरुष जिनकी कीर्तिकी ध्वजा हजारों वर्षसे संसारमें फहरा रही है. प्रायः नीचे कुलमें उत्पच हुए थे । ऊँचे कुल और ऊँची जातिका होनेसे बड़ाई नहीं आती। प्रकृति पर ध्यान करो तो यही दशा जड़ खान तक चली गई है कि छोटी वस्तुओंमें बड़े रत्न होते हैं--देखो कमल कीचड़से, निकलता है, सोना मिट्टीसे, मोती सीपसे, रेशम कीड़ेसे, जहरमुहरा मेंडकसे, कस्तूरी मृगसे, भाग लकड़ीसे, मीठा राहद मक्खी से। -महात्मा बुद्ध [ीन बी. एस. वैवके सौजन्यसे] Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SECRETERNET kister Na.trisis श्री जैन प्राचीन साहित्योदार ग्रन्थावलीके जैन मन्त्र-तन्त्र और चित्रकलाके अभूतपूर्व प्रकाशन भगवन् मलिषेणाचार्य विरचित १. श्री भैरव पनावती कल्प पाद तिरंगे और पचास एक रंगे चित्र और बन्धुषेण विरचित टोका, भाषा.समेत साथमें है। इकतीस परिशिष्टोंमें श्री मल्लिषेण सूरि विरचित सरस्वतीकल्प, श्री इन्द्रनंदी विरचित पद्मावती पूजन, मक पावती कल्प, पद्मावती सहस्रनाम, पद्मावत्यष्टक, पद्मावती जयमाला, पद्मावती स्तोत्र, पद्मावती पडक, पद्मावती पटल वगैरह मंत्रमय कृतियां और गुजरात कालेजके संस्कृत प्राकृत भाषाके अध्यापक प्रो० अभ्यंकर द्वारा सम्पादिव होने पर भी मूल्य सिर्फ १५) रुपये रखा गया है। २. श्री महापाभाविक नव स्मरण पंचपरमेष्ठि मंत्रके चार यंत्र, श्रीभद्रबाहु स्वामी विरचित उपसर्गहर स्तोत्र, उनके अनेक मंत्र, कथा और सत्ताईस यंत्र समेत, श्रीमानतुंगाचार्य विरचित भयहर स्तोत्र उनके अनेक मंत्र संत्र और २१ यंत्र समेत, श्रीभक्तामरजी स्तोत्र, मंत्राम्नाय, कथाएँ, तंत्र, मंत्र और हरेक काव्य पर दो दो यंत्र कुल ९६ यंत्र समेत और भगवन सिद्धसेनदिवाकर विरचित श्रीकल्याणमंदिरजी स्तोत्र, उनके मंत्रा. माय और.४३ यंत्र, चित्र वगैरह मिलाके कुल ४१२ चारसौ बारह यंत्र चित्र दिया हुआ है,एक निका पाच रतल बजन होने पर भी मूल्य २५) रु० रखा गया है। ३. श्री मंत्राधिराज चितामग्गि श्रीचिन्ताणिकल्प, श्रीमंत्राधिराज का वगैरह श्री पार्श्वनाथ जी भगवानकं अनेक मंत्रमय स्तोत्र और ६५ यंत्र समेत मूल्य णा) . ४. श्री जैन चित्रकल्पद्वम् गुजरातकी जैनाश्रिन चित्रकलाके ग्यारहवीं सदी से लगाकर उन्नीमवीं मदी तक लाक्षणिक ॐ नमूनाओं का प्रतिनिधो संग्रह, जिसमें ३२० पूर्ण रंगी और एक रंगी चित्र हैं, माथों जैनाश्रिा चित्रकलाके विषयमें अमेरिका के प्रोत्राउनने, बड़ोदरा राज्यके पुरातत्वखातेका मुख्याधिकारी डा० होगनन्दु शास्त्रोनीने, गुजरातके सुप्रसिद्ध चित्रकार रविशंकर रावलने, रसिकलाल परीस्त्र, श्रीयुत माराभाई नवाब, प्रो० डॉलरराय मांकड़, प्रो. भंजुलाल मजमुदार और लेखनकलाके विपया विद्वर्य मुनिश्री पुण्यषिजयोके विद्वतापूर्ण लेख मी दिया है । यह ग्रन्थस्वर्गस्थ बड़ौदरा नरेश मयाजीराव गायकवाड़को. उनके हीरक महोत्सव पर समर्पित किया गया था मूल्य सिर्फ २५) क० ५. जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला मुनि जसवइ पिरचित मूल्य ५) ..६. श्री घंटाकरण-माणिभद्र-मंत्र-तंत्र कल्पादि संग्रह मूल्य ५) ७. श्रीजैन कल्पलता चित्र ६५ मूल्य ८) ८. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति और लेखन कला मूल्य ८). दूसरे प्रकाशनों के लिये सूचीपत्र मंगबाइये। प्राप्तिस्थान:-साराभाई मणिलाल नवाब, नागजीभूदरनी पोल, अहमदाबाद जीर मेस साफ हपिडया, कनाट सर्कस म्यू देखीमें कपा। Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BOOTYOYOMOHOM भाद्रपद वीर नि०सं० २४६६ सितम्बर १९४० ANGGALBLONTONG 16 TOMO FALO स्वतत्व fozy अनेकान्त relict प्रकाशक विश्व तत्त्व' अनेकांत वर्ष ३, किरण ११ वार्षिक मूल्य ३० 76.10 10 210104MY 1919 1 10 439 M 198 संचालक - तनमुराय जैन सडक जुगलकिशोर मुख्तार श्रीराम सरसावा (सहारनपुर) में कनोट सकस पी HOZILONOON SHONONOKAZION TEST मुद्रक और प्रकाशक - श्रयाध्याप्रसाद गायलीय 10T न्यू देहली। KONGONGAN SONG Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची . .. वीरसेन स्मरण १. तत्त्वाधिगममाष्य और अकलंक- (मो. जगदीशचन्द्र ... ; . गो. कर्मकारसकी त्रुटिपूर्ति लेखपर विद्वानों के विचार और विशेष सूचना-[सम्पादकीय ५. सिद्धसेनके सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक-[पं० परमानन्द २. गोम्मटसार कर्मकाराकी त्रुटि पूर्ति पर विचार-[प्रो. हीराबान ६. जैन-दर्शनमें मुक्ति-साधना-श्रीनगरचन्द नाहटा ७. भाग्रह (कविता)-[• प्रेससागर ८. नृपतुगका मत विचार-[भी एम. गोविन्द पै १. शिक्षा (कविता)-[4. प्रेमसागर १०. बैनधर्म-परिचय गीता जैसा हो-[श्री दौलतराम "मित्र" ... ११. माशा (कविता)-[श्रीरघुवीरशरण ... १२. विधानन्व-कृत सत्यशासन परीक्षा-[श्री पं० महेन्द्रकुमार ... १३. प्रो. अगदीशचन्द्र और उनकी समीधा-[सम्पादकीब १४. पण्डित-प्रवर पाशाधर-[श्री पं० माथूराम प्रेमी ६५ ६६६ निवेदन "अनेकान्त” की १२ वी किरण प्रकाशित होने पर कृपालु माहकोंका भेजा हुआ शुल्क पूरा हो जायगा। क्योंकि अनेकान्तके प्रत्येक प्राहक प्रथम किरणसे ही बनाये जाते हैं। अतः १२ वी किरण प्रकाशित होने के बाद "अनकान्त" का दिल्लीस प्रकाशन बन्द कर दिया जायेगा। मनकान्तके घाटेका भार ला० तनसुखरायजीन एक वर्ष के लिये ही लिया था, किन्तु उन्होंने दूसरे वर्ष भी इसे निभाया। अब अन्य दानो महानुभावोंको इसके संचालनका भार लेना चाहिये । ___ १० वी किरणमें रा० ब० सेठ हीरालालजीका चित्र देखकर कितनी ही संस्थानोंने उनकी ओरसे भेट स्वरूप अनेकान्त भेजने के लिये लिखा है। किन्तु हमें खेद है कि हम उनके भादेशका पालन न कर सके। क्योंकि मेठजोकी भोरसे अनकान्त जैनेतर संस्थानों और जैन मन्दिरोंमें चित्र . प्रकाशित होनेसे पूर्व ही भेटस्वरूप जाने लगा था। -व्यवस्थापक Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३ ॐ म् अनाकान नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यने कान्तः ॥ सम्पादन-स्थान- वीरमेवामन्दिर (ममन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि महारनपुर प्रकाशन -स्थान--- कनॉट मर्कम, पो० त्रो० न०४८, न्यू देहली भाद्रपद पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम म०१६६७ किरण ११ वीरसेन स्मरण शब्दब्रह्मेति शाब्दैर्गणधर मुनिरित्येव राद्धान्तविद्भिः, माक्षात्सर्वज्ञ एवेत्यवहितमनिभिः सूक्ष्मवस्तुप्रीतः ( प्रवीणैः ? ) । यां दृष्टो विश्वविद्यानिधिरिति जगति प्राप्तभट्टारखाख्यः, स श्रीमान् वीरसेनो जयति परमतध्वान्तभित्तंत्रकारः ॥ - धवला - प्रशस्ति । जिन्हें शाब्दिकों ( वैय्याकरणों) ने 'शब्दब्रह्मा' के रूपमें, सिद्धान्तशास्त्रियोंने 'गणधरमुनि' के रूपमें, सावधानमतियोंने 'साक्षात्सर्वज्ञ' के रूपमें और सूक्ष्मवस्तु-विज्ञोंने 'विश्वविद्यानिधि' के रूपमें देखा - अनुभव किया और जो जगतमें 'भट्टारक' नाममे प्रसिद्धिको प्राप्त हुए, वे परमताऽन्धकारको भेदने वाले शास्त्रकार-धवलादिके रचयिता - श्रीमान् वोरपेनाचार्य जयवन्त हैं -- विद्वदयों में सब प्रकार मे अपना सिक्का जमाए हुए हैं । प्रांमद्ध-सिद्धान्त गभस्तिमाली, समस्त वैय्याकरणाधिराजः । गुणाकरस्ता किंक चक्रवर्ती, प्रवादिसिहो वरवीरसेनः ।। - धवला, सहारनपुर- प्रति, पत्र ७१८ श्री वीरमेनाचार्य प्रसिद्ध सिद्धान्तों -- खण्डागमादिकों को प्रकाशित करने वाले सूर्य थे, समस्त Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भाद्रपद, बीर निर्वाण सं०२४१६ वैयाकरणके अधिपति थे, गुणों की खानि थे, ताकिकचकनी थे, और प्रवाविरूपी गोंके लिये सिंहसमान थे। श्रोवीरनेन इत्यात्त-भट्टारकपृथुप्रयः । स नः पुनातु पूतारमा वादिवृन्दारको मुनिः। लोकवित्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयं । वाग्मिता वाग्मिनो यस्य वाचा वाचस्पतेरपि । सिद्धान्तोपनिबन्धानां विधातुर्मद्गुरोश्चिरम् । मन्मनः सरसि स्थेयान्मृदुपादकुशेशयम् ॥ धवला भारती तस्य कोर्ति च शुचि-निर्मलाम् । धवलीकृतनिःशेषभुवनां तां नमाम्यहम् ।। -आदिपुराणे, श्रीजिनसेनाचार्यः जो भटारककी बहुत बड़ी ख्यातिको प्राप्त थे वे वादिशिरोमणि और पवित्रात्मा श्रीवीरसेन मुनि हमें पवित्र करो-हमारे हृदय में निवास कर पापोंसे हमारी रक्षा करो। जिनकी वाणीसे वागमी बृहस्पतिकी वाशीभी पराजित होती थी उन भट्टारक वीरसेनमें लौकिक-विज्ञता और कविता दोनों गुण थे। सिद्धान्तागमोंके उपनिबन्धों-धवनादि ग्रन्थों के विधाता श्री वीरसेन गुरुके कोमल चरण-कमल मेरे हरय-सरोवरमें चिरकाल तक स्थिर रहें। वीरसेनकी धवला भारती-धवला-टीकोकित सरस्वती अथवा विशुद्ध पाणी-और चन्द्रमाके समान निर्मल कीर्तिकी, जिसने अपने प्रकाशसे इस सारे संसारको धवलित कर दिया है, मैं वन्दना करता हूँ। तत्र वित्रासिताशेष-प्रवादि-मद-वारणः । वीर-संनापणी:रमेनभट्टारको बभौ ।।-उत्तरपुराणे, गुणभद्रः मूलसंधान्तर्गत सेनान्वयमें वीरसेनाके अग्रणी (नेता) वीरसेन भट्टारक हुए हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण प्रवादि. रूपी मस्त हाथियोंको परास्त किया था । तदन्ववाये विदुषांवरिष्ठः स्याद्वादनिष्ठः सकलागमज्ञः । श्रोवीरसेनोऽजनि तार्किक श्रीः प्रध्वस्तरागादिसमस्तदोषः ।। यस्य वाचा प्रसादेन ह्यमेयं भुवनत्रयम् ॥ मासीदष्टांगनैमित्तज्ञानरूपं विदा वरम् ॥ -विक्रान्तकौरवे, हस्तिमा: स्वामी समन्तभद्रके वंशमें विद्वानों में श्रेष्ठ श्री वीरसेनाचार्य हुए हैं, जो कि स्याद्वाद पर अपना दृढ़ निश्चय एवं प्राधार रखने वाले थे, तार्किकोंकी शोभा थे और रागादि सम्पूर्ण दोषोंका विध्वंस करने वाले थे। तथा जिनके वचनोंके प्रसादसे यह अमित भुवनत्रय विद्वानों के लिये भष्टा निमित्तज्ञानका अच्छा विषय हो गया था। Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थाधिगमभाष्य और अकलंक [ले०-प्रोफेसर जगदीशचन्द्र जैन, एम. ए.] मैंने "तत्वार्थाधिगमभाष्य और अकलंक" समर्थनमें मुख्तार साहबकी सबमे बलबती युक्ति 'नामका एक लेख फर्वरी १६४०के "अनेकान्त" यह है कि प्रस्तुतभाध्यमें षडव्यका कहीं भी एक (३-४ ) में लिखा था । इस लेख में यह बतलाया बार भी उल्लेग्व नहीं मिलता, जब कि अकलंकने गया था कि तत्वार्थराजवार्तिक लिखते ममय "यद्भाध्ये बहुकृत्वः पद्रव्याणि" लिख कर किसी अकलंकदेवकं सामनं उमास्वातिका स्वोपज्ञ नत्वा- दूसरे ही भाष्यकी ओर संकेत किया है, जिसमें धिगमभाष्य मौजूद था, और उन्होंने इस भाष्य- षड्द्रव्यका बहुत वार उल्लेख किया हो। इसी युक्ति का अपने ग्रन्थमें उपयोग किया है। शायद पं० के आधार पर मुख्तार साहबने मेरे दूसरे मुद्दोंको जुगलकिशोर जीको यह बात न अँची, और उन्होंने भी असंगत ठहरा दिया है-उन पर विचार करने मेरे लेखक अन्तमें एक लम्बी चौड़ी टिप्पणी लगा की भी कोई आवश्यकता नहीं समझी। दी । हमारी समझप इस तरह के रिमर्च-सम्बन्धी लेकिन यहाँ प्रश्न हो सकता है कि वह कौनसा जो विवादास्पद विषय हैं, उन पर पाठकों को कुछ भाष्य था, जिसको सामने रख कर अकलंकदेवने समयके लिये स्वतन्त्र रूपमें विचार करने देना रजवार्तिककी रचना की ? पूज्यपाद अथवा समन्तचाहिये । मम्पादकको यदि कुछ लिखना ही इष्ट भद्रक ग्रन्थों में तो ऐम किमी भाष्यका उल्लेख अब हो तो वह स्वतन्त्र लेखक रूपमे भी लिखा जा तक पाया नहीं गया । 'अर्हत्प्रवचनहृदय' नामक सकता है । साथ ही, यह आवश्यक नहीं कि लेखक कोई अन्य भाप्य या ग्रन्थ भी अब तक कहीं सुनने सम्पादकके विचारोंसे सर्वथा सहमत ही हो। में नहीं आया। यदि ऐम किसी भाष्यका अस्तित्व भस्तु, यह इम लेखका विषय नहीं है। हम यहाँ सिद्ध हो जाय तो यह कहा जा सकता है कि कंवल हमारे लेख पर जो "सम्पादकीय विचारणा" अकलंकके सामने कोई दूसरा भाष्य था । मतलब नामकी टिप्पणी लगाई गई है, उसीकी समीक्षा यह है कि मुख्तारसाहबके प्रस्तुन तत्वार्थभाध्यके करना चाहते हैं। अकलंक समक्ष न होने में जो प्रमाण हैं वे केवल पं०जुगलकिशोरजीका कहना है कि राजवार्तिक- इस तर्क पर अवलम्बिन हैं कि इसी तरह के वाक्यकारके सामने कोई दूसरा ही भाष्य मौजूद था, विन्यास और कथनवाला कोई दूसरा भाष्य रहा और इस भाष्यक पदोंका वाक्य-विन्यास और होगा, जो आजकल अनुपलब्ध है। लेकिन यह कथन सम्भवतः प्रस्तुत उमास्वातिके स्वोपन तत्वा- तर्क सर्वथा निर्दोष नहीं कहा जासकता । ाधिगमभाष्यके समान था । इस कथनके हम यहाँ यह बताना चाहते हैं कि राजवार्तिक Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भाद्रपद, पीर निर्वाण सं.२०१६ में उल्लिखित भाष्य श्वेताम्बर सम्प्रदाय-द्वारा मान्य क्या अर्थ है ? इसका नत्तर है कि यहाँ पंचत्त्व प्रस्तुत उतास्वातिके स्वोपक्षमाष्यको छोड़कर अन्य कहनेसे उमास्वातिका अभिप्राय पाँच द्रव्योंमे न कोई भाष्य नहीं। तथा इसमें षद्रव्यका उल्लेख होकर पांच अस्तिकायों में है। उमास्वाति कहना भी मिलता है। चाहते हैं कि अस्तिकायरूपमे पाँच द्रव्य हैं; काल श्वेताम्बर आगमोंमें कालद्रव्य-सम्बन्धी दो का कथन आगे चलकर 'कालरचेत्येके सूत्र में किया मान्यताओंका कथन आता है । भगवतीसूत्रमें जायगा। द्रव्योंके विषयमें प्रश्न होनेपर कहा गया है- कहनकी आवश्यकता नहीं कि हमारे उत्ता "कह भंते ! दया पवत्ता ! गोयमा ! छ दम्बा कथनका समथन स्वयं अकलंकको राजवार्तिकमें पत्ता । तं नहा-धम्मपिकाए जाव भद्धा समये"- किया गया है। वे लिखते हैं-"वृत्तौ पंचत्ववचननात् अर्थात द्रव्य छह हैं, धर्मास्तिकायस लेकर काल- पदव्योपदेशमाघात इति चेत्र अभिप्रायापरिज्ञानात द्रव्य तक। आगे चलकर कालद्रव्यके सम्बन्धमें (वातिक)-स्यान्मतं वृत्तावमुक्त (वुक ? )मवस्थितानि प्रश्न होने पर कहा गया है-"किमियं भंते कालो ति धर्मादानि न हि कदाचित्पंचव व्यभिचरंति (ये अक्षपाचही गोषमा जीवा चेव अजीवा चेव"अर्थात काल- रशः भाष्यकी पक्तियाँ हैं) इति ततः षड्व्याणीत्युद्रव्य कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं । जीव और अजीव पदेशस्य व्याघात इति । तत्र, किं कारणं ? अभिप्राया. बे दो ही मुख्य द्रव्य हैं। काल इनकी पर्यायमात्र परिज्ञानात् । अयमभिप्रायो वृत्तिकरणस्य-कालश्चेति है। यही मतभेद उमास्वातिने "कावरचेत्येके" सूत्र पृथग्द्रव्यलक्षणं कालस्य वयते । तदनपेशाविकृतानि में व्यक्त किया है । इसका यह मतलब नहीं उमा- पंचैव द्रव्याणि इति षड्व्योपदेशाविरोधः' । अर्थात स्वाति कालद्रव्यको नहीं मानते, उन्होंन कहीं भी वृत्तिम जो द्रव्यपंचत्वका उल्लेख है वह कालद्रव्य कालका खण्डन नहीं किया, अथवा उसे जीव- की अनपेक्षाम ही है । कालका लक्षण आगे चल मजीवकी पर्याय नहीं बताया। कर अलग कहा जायगा। ___ "कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषे- सिद्धन गणिने उमास्वातिके तत्त्वार्थाधिगम धार्थ "--भाष्यकी इस पंक्तिका भी यही अर्थ है भाष्य पर जो वृत्ति लिखी है, उसमें भी अकलंक कि "मजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः" सूत्रमें उक्त कथनका ही समर्थन किया गया है । सिद्धसेन 'काय' शब्दका ग्रहण प्रदेशबहुत्व बतानेके लिये लिखते हैं-"सत्यजीवस्वे कालः करमान निर्दिष्टः इति और कालद्रव्यका निषेध करने के लिये किया गया चेत् उच्यते-स स्वकीयमतेन व्यमित्याख्यास्यते द्रव्यहै । क्योंकि कालद्रव्य बहुप्रदेशी होनस (?) बक्षणप्रस्ताव एव । प्रमी पुनरस्तिकायाः व्याचिक्याकायवान् नहीं। इससे स्पष्ट है कि उमास्वाति काल सिताः । न च कालोऽस्तिकायः, एकसमयत्वात्"को स्वीकार करते हैं, अन्यथा उसका निषेध कैसा? अर्थात् यहाँ केवल पाँच अस्तिकायोंका कथन यहाँ प्रश्न हो सकता है कि फिर "धर्मादीनि न हि किया गया है । अजीव होने पर भी यहाँ कालका कदाचित्पंचत्वं व्यभिचरन्ति” इम भाष्यकी पंक्तिका उल्लेख इमलिये नहीं किया गया कि वह एक Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष, निय तात्याविगममान्य और आकर्षक समय वाला है उसका कथन 'कासवेस्बेके सूत्रमें उद्धृत करते हैं। किया जायमा। ___ "इति श्रीमदईयवचने तत्वार्थधिगमे स्मारवातिस्वयं भाष्यकारने "तस्कृतः कालविभागः" सूत्र वाचकोपशसूत्रमाध्ये भाज्यानुसारिएयां च टीचयां सिदकी व्याख्या में 'कालोऽनन्तसमयः वर्तनाविवरण इस्यु. सेवाणिविरचितायो भनगारागारिधर्मरूपकः सप्तमो कम्' मादि रूपस कालद्रव्यका उलंख किया है। ऽध्यायः" । इतना ही नहीं मुख्तारसाहबको शायद अत्यन्त यहाँ अर्हत्प्रवचने,तत्वार्थाधिगमे और उमाबा आश्चर्य हो कि भाष्यकारने स्पष्ट लिखा है-"सर्व- तिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये-ये तीनों पद सप्तम्यन्त पंचवं अस्तिकायावरोधात् । सर्व घट्वं पदण्यावरोधा- हैं। उमास्वातिवाचकोपन सूत्रभाष्यसे स्पष्ट है कि द"। वृत्तिकार सिद्धसेनने इन पंक्तियों का स्पष्टीकरण उमास्वातिवाचकका स्कोपन कोई भाष्य है। इसका करते हुए लिखा है--"तदेव पंचस्वभावं घट स्वभावं नाम तत्वार्थाधिगम है। इस अईत्प्रवचन भी कहा पड्मयसमन्धि तत्वात् । तदाह-सर्व पटकं पदम्पा- जाता है । स्वयं उमास्वातिने अपने भाष्यकी निम्न वरोधात् । पड़मम्माणि । कथं, उच्यते-पच धर्मादीनि कारिकामें इसका समथन किण हैकाजोत्येके"। इससं बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि तत्वार्थाधिगमाख्यं बहर्ष संग्रहं बघुप्रयं । उमास्वाति छह द्रव्योंको मानते हैं। छह द्रव्योंका वक्ष्यामि शिष्यहितमिममद्विचनैकदेशस्य ॥ स्पष्ट कथन उन्होंने भाष्य में किया है। पांच भस्ति- भागे चलकर तो मुख्तार साहबने एक विचित्र कायोंके प्रसंग पर कालका कथन इसीलिये नहीं कल्पना कर डाली है । भापका तर्क है, क्योंकि किया गया कि काल कायवान नहीं । भतएव राजवातिक बहुत जगह अशुद्ध छपा है, अतएव अकलंकने षद्रव्य वाले जिस भाष्यकी ओर संकेत राजवार्तिक में "उक्त हिपहप्रवचने" पाठ भी मशुद्ध किया है, वह उमास्वातिका प्रस्तुत तत्वार्थाधिगम है तथा 'महत्प्रवचन' के स्थान पर 'महत्प्रवचनभाष्य ही है । इस भाष्यका सूचन अकलंकन हृदय' होना चाहिये । कहना नहीं होगा इस कल्पना 'वृत्ति' शब्दसे किया है। का कोई भाधार नहीं। र्याद पं. जगलकिशोरजी ___ मुख्तार साहब लिखते हैं-"अर्हत्प्रवचन" का राजवार्तिककी किसी हस्तलिखित प्रतिसे उक्त पाठको तात्पर्य मूल तत्त्वाधिगमसूत्रसे है, तत्वार्थभाष्यस मिलान करनेका कष्ट उठाते तो शायद उन्हें यह नहीं।" अच्छा होता यदि पं० जुगलकिशोरजी कल्पना करनका भवसर न मिलता । मेरे पास इस कथनके समर्थनमें कोई यक्ति देते । आगे चल राजवार्तिकके भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट की प्रतिके कर आप लिखते हैं-"सिद्धसनगणिक वाक्यमें आधार पर लिये हुए जो पाठान्तर हैं, उनमें 'माई. अर्हत्प्रवचन विशेषण प्रायः तस्वार्थाधिगमसूत्रके प्रवचन' ही पाठ है। अभी पं. कैलाशचन्द्रजी लिये है, मात्र उसके भाष्यके लिये नहीं।" यहाँ शास्त्री बनारससे सूचित करते हैं कि “यहाँ की 'प्रायः' शब्दसे आपको क्या इष्ट है, यह भी स्पष्ट लिखित राजवार्तिकमें भी वही पाठ है जो मुद्रिवों नहीं होता। हम यहां सिद्धसंतगशिका वाक्य फिरसे है।" Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [भाद्रपद, वीर निर्वाण सं०२४१६ - इसके अतिरिक्त कुछ ही पहिले मुख्तार साहब और राजवार्तिकके तुलनात्मक उद्धरण देकर यह कह चुके हैं कि "अर्हत्प्रवचन विशेषण मूल तत्वार्थ- बता चुके हैं कि अनेक स्थानों पर भाष्य और सूत्रके लिये प्रयुक्त हुआ है" तो फिर यदि अकलंक राजवार्तिक अक्षरशः मिलते हैं । इनमें से बहुतसी देव "उकं हि महत्प्रवचने 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" बातें सर्वार्थसिद्धिमें नहीं मिलती, परन्तु वे राजकह कर यह घोषित करें कि अर्हत्प्रवचनमें अर्थात् वार्तिकमे ज्योंकी त्यों अथवा मामूली फेरफारसे दी तत्वार्थसूत्रमें ( स्वयं मुख्तारसाहबके ही कथना- गई हैं। नुमार ) "द्रव्यामया निर्गुणाः गुणाः" कहा है तो "कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषेधार्थ इसमें क्या आपत्ति हो सकती है ? 'अर्हत्प्रवचन' च"भाष्यकी इस पंक्ति को राजवातिकमें तीन वार्तिक पाठको अशुद्ध बताकर उसके स्थानमें अर्हत्प्रवचन- बनाई गईहैं-'अम्पन्सर कृतवार्थःकायशब्दः'; तदग्रहणं हृदय' पाठकी कल्पना करने का तो यह अर्थ प्रदेशावयवबहुत्वज्ञापनार्थ'; 'भद्धाप्रदेशप्रतिषेषार्थ च । निकलता है कि अर्हत्प्रवचनहृदय नामका कोई सूत्र कहना नहीं होगा कि वार्तिकको उक्त पंक्तियोंका प्रन्थ रहा होगा, तथा "व्याश्रया निर्गुणाः गुणाः" साम्य सर्वार्थमिद्धिकी अपेक्षा भाष्यसे अधिक है। यह सूत्र तत्वार्थसूत्रका न होकर उस महत्प्रवचन दूसरा उदाहरण-'नाणोः' सूत्रक भाष्यमें उमाहृदयका है जो अनुपलब्ध है। स्वातिन परमाणुका लक्षण बताते हए लिखा हैश्वेताम्बरग्रन्थोंमें आगमोंको निग्रंथ-प्रवचन 'अनादिरमध्यो हि परमाणुः'। सर्वार्थसिद्धिकार यहां अथवा अर्हत्प्रवचनके नामसे कहा गया है। स्वयं मौन हैं । परन्तु राजवातिकम देखिये-आदिमध्या उमास्वातिने अपने तत्वार्थाधिगमभाष्यको 'अह. न्तव्यपदेशाभावादिति चेन्न विज्ञानवत् (वार्तिक ) द्वचनैकदेश' कहा है, जैसा ऊपर आ चुका है। इसकी टीका लिखकर अकलंकने भाष्यकं उक्त वाक्य अहत्प्रवचनहृदय अर्थात अर्हत्प्रवचनका हृदय, का ही समर्थन किया है। इस तरहकं बहुतसे उदाएक देश अथवा सार । इस तरह भी अर्हत्प्रवचन- हरण दिये जा सकते हैं। हृदयका लक्ष्य भाष्य हो मकता है । अथवा अह- इसी तरह सूत्रोंक पाठभेद की बात है। 'बन्धे प्रवचन और अहत्प्रवचनहदय दोनों एकार्थक भी समाधिको पारिणामिको', 'म्याणि जीवाश्च' आदि हो मकते हैं। हमारी समझसे भाष्य, वृत्ति, प्रह- सूत्र भाष्यमे ज्योंकी त्यों मिलती हैं। उक्त विवेचन प्रवचन और अहत्प्रवचनहृदय इन सबका लक्ष्य की रोशनीम कहा जा सकता है कि अकलंकका उमास्वातिका प्रस्तुत भाष्य है। जब तक अर्हत्पव- लक्ष्य इसी भाष्यक सूत्रपाठकी ओर था। चनहृदय आदि किसी प्राचीन ग्रन्थका कहीं 'अल्पारम्भ परिग्रहत्वं' आदि सूत्रक विषयमें उल्लेख न मिल जाय, तब तक पं० जुगलकिशोरजी सम्भवतः कुछ मुद्रण सम्बन्धी अशुद्धि हो । शायद की कल्पनाओंका कोई आधार नहीं माना जा वही पाठ मूल प्रतिमें हो और मुद्रितम छूट गया सकता। हो। इसके अतिरिक्त यहां मुख्य प्रश्न तो एक हम अपने पहले लेखमें भाष्य, सर्वार्थसिद्धि योगीकरणका है जो माध्यमें बराबर मिल जाता है। Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष :, किरण "] 'गो० कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्ति' लेखपर विद्वानों के विचार और विशेष सूचना १२० ___ राजवार्तिककी अन्तिम कारिकाओंका प्रक्षिप्त नताओंसे हमारा अभिप्राय है जिनकी पर्चा तक बतानेका भी कोई आधार नहीं । भाष्य और राज- सर्वार्थसिद्धिमें नहीं। ऐसी हालतमें प्रस्तुतभाष्यको वार्निकको आमने-सामने रखकर अध्ययन करनेसे अप्रमाणिक ठहराकर उसके समान वाक्य-विन्यास स्पष्ट मालूम होता है कि दोनोंके प्रतिपाद्य विषयों और कथन वाले किसी अनुपलब्धभाष्यको सर्वथा में बहुत समानता है। दोनों ग्रन्थों में अमुक स्थल निराधार और निष्प्रमाण कल्पना करनेका अर्थ पर बहुतमी जगह बिलकुल एक जैसी चर्चा है। हमारी समझमें नहीं पाता । भाष्यकी भाषा, शैली दोनोंमें पंक्तियोंकी पंक्तियाँ अक्षरशः मिलती हैं। आदि देखते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि समानता सर्वाथसिद्धि और राजवार्तिकमें भी है। वह राजवार्तिक अथवा सर्वार्थसिद्धिके ऊपरसे परन्तु यहाँ भाष्य और राजवार्तिककी उन समा- लेकर बादमें बनाया गया है 'गो०कमकाण्डकी त्रुटिपूर्ति' लेखपर विद्वानोंके विचार और विशेष सूचना 'गोम्मटमार-कर्मकाँडकी त्रुटिपति' नामका प्रकृतिकी वमब गाथाएँ मिलतीहैं जिन्हें 'कर्मप्रकृति' जो लेख अनेकान्तकी गन संयुक्त किरण (२०५९) के आधार पर 'कर्मकाण्ड' में त्रुटित बतलाया गया में प्रकाशित हुआ है और जिस पर प्रो० हीरालाल. था। 'कर्मप्रकृति' की भी एक प्रति संवत् १५२७ जीका एक विचारात्मक लेख इसी किरणम, अन्यत्र की लिखी हुई मिली है, जिमकी गाथा-संख्या १६० प्रकाशित हो रहा है, उस पर दूमर भी कुछ विद्वानों है-अर्थात एक गाथा अधिक है और उस पर के विचार मंक्षिप्त में आए हैं नथा आरहे हैं, जिनसे भी पाराकी प्रतिकी तरह अन्थकारका नाम मालूम होता है कि उक्त लेख समाजमें अच्छी दिल- 'नेमिचन्द सिद्धान्तचक्रवर्ती' लिखा हुआ है । 'कमचम्पीके माथ पढ़ा जा रहा है । उनमम जो विचार प्रकृति' 'कर्मकाण्ड' का ही प्रारम्भिक अंश है । यह इम ममय मेरे मामन उपस्थित हैं उन्हें नीचे मब हाल उनकं आज ही ( २३ सिनम्बरको ) प्राप्त उद्धृत किया जाता है । माथ ही यह सूचना देते हुए पत्रमे ज्ञात हुआ है। वे जल्दी ही आकर इस हुए बड़ी प्रसन्नता होती है कि उक्त लेखक लेखक विषय पर एक विस्तृत लेख लिखेंगे, जिसमें पं० परमानन्दजी आज कल अपने घर की तरफ प्रोफेमर हीरालालजीक उक्त लेखका उत्तर भी होगा गये हुए हैं, उधर एक भंडारको देखते हुए उन्हें अत: पाठकोंको उसके लिये १२ वी किरणकी कर्मकांडकी कई प्राचीन प्रतियां मिली हैं जो शाह- प्रतीक्षा करनी चाहिये । विद्वानोंक विचार इस जहाँक राज्यकालकी लिखी हुई हैं और उनमें कम- प्रकार है: Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अनेकान्त [भानपद, वीर विर्वायसं.२०१६ १ न्यायाचार्य पं. महेंद्रकुमारजी जैन, त्रुटिपूर्तिका मुझे बहुत पसन्द आया है, उसके लिये शास्त्री, काशी धन्यवाद है।" "आपका लेख 'अनेकान्त' में देखा । आपका ४५० के० भुजबली जैन शास्त्री अध्यक्ष परिश्रम प्रशंसनीय है । यदि यह प्रयत्न सोलह जैनसिद्धान्त-भवन, आरापाने ठीक रहा और कर्मकाण्डकी किमी प्राचीन प्रतिमें भी ये गाथाएँ मिल गई तब कर्मकाण्डका "गोम्मटसार-सम्बन्धी प्रापका लेख महत्वअधूरापन सचमुच दूर होजायगा।" पूर्ण है।" २५० कैलाशचन्दनी जैन शास्त्री, ५ प्रोफेसर ए० एन उपाध्याय, एम. ए., स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी __ डी. लिट., कोल्हापुर"इसमें तो कोई शक ही नहीं कि कर्मकाण्डका “Yes, the additional verses of प्रथम अधिकार त्रुटिपूर्ण है। किन्तु 'प्रकृति' की Karm Kanda brought to light in गाथाएँ शामिल करनेमें अभी कुछ गहरे विचारको Anekant are interesting. Ifwe can जरूरत है। यह जांचना चाहिये कि 'कर्मप्रकृति' collate some more Mss, we might क्या स्वतन्त्र ग्रन्थ है ? 'कर्मकाण्ड'क्या पहलेसे ही couve to more reliable text of ऐसा बनाया गया था या बाद में उसमेंसे कुछ गाथाएँ Gommatasara." बुट गई । 'प्रकृति' की गाथाओंमें 'जीवकाण्ड' की -हो, कर्मकाण्डकी जो अतिरिक्त गाथाएँ भी कुछ गाथाएँ सम्मिलित होनसे अभी कोई भनेकान्त द्वारा प्रकाशमें लाई गई हैं वे चित्तानिश्चित राय नहीं दी जा सकती। आपका परिश्रम कर्षक हैं। यदि हम कुछ और हस्त लिखित प्रतिप्रशंसनीय है।" योंका समवलोकम-संपरीक्षण करें तो हम गोम्मट३५० रामप्रसादजी जैन शास्त्री, अध्यक्ष सारका अधिक विश्वसनीय मूल पाठ प्राप्त करनेमें ऐ० १० सरस्वती भवन, बम्बई- समथ हो सकेंगे।' "भापका लेख 'कर्मप्रकृति से 'कर्मकाण्ड' की -सम्पादक Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेनके सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक [ लेखक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री ] पताम्बर सम्प्रदायमें मिद्धमेन गणी नामक प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी भी स्वीकार करते हैं। 'एक प्रधान आचार्य हो गये हैं, जिनकी आपने हालमें प्रकाशित तत्त्वार्थसूत्रको अपनी उक्त मम्प्रदायों 'गंधहस्ती' नामस भी प्रसिद्धि है, हिंदी टीकाकी 'परिचय' नामक प्रस्तावनामें जा कि अमाधारण विद्वत्ताका द्योतक एक बहुत लिखा है कि:ही गौरवपूर्ण पद है । आप भागम-साहित्यके “सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिकके साथ सिद्धविशेष विद्वान थे और इतर दर्शनादि विपयोंमें भी सेनीय वृत्तिकी तुलना करनेसे इतना तो स्पष्ट जान अच्छा पाण्डित्य रखते थे। आपकी कृतिरूपसे पड़ता है कि जो भाषाका प्रासाद, रचनाकी विशदत इस समय एक ही ग्रंथ उपलब्ध है और वह है और अर्थका पृथकरण सर्वार्थसिद्धि और राजवाउमास्वातिक तत्त्वार्थ सूत्रकी बत्ति , जो उमा- तिकमें है वह मिद्धसेनीय वृत्ति में नहीं।" । स्वातिक ‘स्वोपज्ञ' कहे जाने वाले भाष्यको साथमं सिद्धसेन गणी हरिभद्रसे कुछ समय बाद हुए लेकर लिखी गई है और इमीसे उसे 'भाष्यानुमा- हैं। हरिभद्रका समय विक्रमकी ८वीं ९वीं शताब्दी रिणी' विशेषण दिया गया है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय निश्चित किया गया है। इससे सिद्धसेन गणीका में इमीको'गंधहस्तिमहाभाष्य' कहा जाता है। इसका समय प्रायः नवमी शताब्दी होता है । सर्वार्थसिद्धि प्रमाण प्रायः अठारह हजार श्लोक-जितना है। की रचना विक्रमको छठी शताब्दीके पूर्वार्द्धकी है, यह वृत्ति दो खण्डों में प्रकाशित भी हो चुकी है, यह निर्विवाद है। और राजवार्तिककी रचना प्रायः और श्वेताम्बर सम्प्रदायमें तत्त्वार्थसूत्र पर बनी हुई विक्रमकी सातवीं शताब्दीकी मानी जाती है । ऐसी अन्य सब वृत्तियों में प्रधान मानी जाती है । इतना हालतमें यह खयाल स्वभावसे ही उत्पन्न होता है कि सब कुछ होनेपर भी इस पृत्तिमें वह रचना-सौन्दय, जब सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक जैसी अतिविशद विषयकी स्पष्टता और वस्तुओं के अँचे तुले लक्षणोंक और प्रौढ टीकाएँ पहलेसे मौजूद थीं, तब सिद्धसेन साथ अर्थका पृथक्करण एवं गाम्भीर्य उपलब्ध नहीं गणी जैसे विद्वान्की टीका उनसे कहीं अधिक होता जो कि दिगम्बर सम्प्रदायकी पूज्यपाद- विशद, प्रौढ़ एवं विषयको स्पष्ट करने वाली होनी विरचित 'सर्वार्थसिद्धि' टीका और भट्टाकलंक- चाहिये थी । मालूम होता है यह स्त्र यान पं० देव विरचित 'राजवार्तिक' नामक भाष्यमें पाया सुखलालजीकं हृदयमें भी उत्पन्न हुआ है । और जाता है। इस बातको श्वेताम्बरीय प्रमुख विद्वान् इस परसे उन्होंने अपनी तत्त्वार्थसूत्रकी उस Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भाद्रपद, वीरनिर्वाण सं०२४६६ प्रस्तावनामें निम्न तीन कल्पनाएँ की हैं: इम वाक्यमें "सिद्धिविनिश्चयके जिस सृष्टि(१) "सर्वार्थमिद्धिकी रचना पूर्वकालीन परीक्षा-प्रकरणके विशेष वर्णनको देखनके लिये होने से सिद्धसेन समयमें वह निश्चय रूपमे प्रेरणा की गई है वह प्रकरण सिद्धिविनिश्चयके विद्यमान थी, यह ठीक है; परन्तु दूरवर्ती देश-भेद 'आगम' नामक सातवें प्रस्तावमें बहुत विस्तारके होने के कारण या किसी दूसरे कारणवश सिद्धसन साथ वर्णित है। जब सुदूर देश दक्षिणमें निर्मित को सर्वार्थसिद्धि देखने का अवसर मिला नहीं हुआ 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रंथ सिद्धसेन तक पहुँच जान पड़ता।" गया इतना ही नहीं बल्कि वह इतना प्रचार पा (२) "राजवार्तिक और श्लोकवार्तिकको गया था कि उस परसे शेष विषयको देखने तककी रचनाके पहले ही सिद्धमेनीय वृत्तिका रचा जाना योजना कर लेनकी प्रेरणा कीगई है, तब राजवाबहुत सम्भव है; कदाचित् उनसे पहले यह न रची तिक जैसे अधिक जनतोपयोगी ग्रंथका सिद्धसेन गई हो तो भी इमकी रचनाके बीच में इतना तो तक न पहुंचना कैसे अनुमानित किया जा सकता कमसे कम अन्तर है ही कि सिद्धसेनको राजवार्तिक है ? खाम कर ऐसी हालतम जब कि वह तत्त्वार्थऔर श्लोकवानिकका परिचय मिलनेका प्रसंग ही सूत्रका भाष्य लिखन बैठें, और उसी तत्त्वार्थसूत्र नहीं आया ।" पर रचे हुये उन अकलंकदेवकं भाष्यको प्राप्त करके __ (३) "इमके (सिद्धसेनीय वृत्तिमें सर्वार्थसिद्धि देखनका प्रयत्न न करें,जिनक असाधारण पाण्डित्य और राजवानिक समान जो भाषाका प्रासाद, एवं रचना-कौशलमे वे सिद्धिविनिश्चय-द्वारा रचनाकी विशदता और अर्थका पृथक्करण नहीं परिचिन हो चुके हों। पाया जाता उसके) दो कारण हैं । एक तो ग्रंथकार सर्वाथमिद्धिकी रचना तो राजवार्तिकसे एक का प्रकृतिभेद और दूमरा कारण पराश्रित शताब्दीस भी अधिक वर्ष पहले हुई है और रचना है।" सिद्धसेनके समयमें उसका उत्तर-भारतमें काफी __इन तीनों कल्पनाओंमें से प्रथमकी दो कल्प- प्रचार हो चुका था, सिद्धसेनको उसके देखनेका नाओंमें कुछ भी सार मालूम नहीं होता; क्योंकि प्रसंग ही नहीं आया ऐसा कहना युक्ति संगत अकलंकदेव सुनिश्चितरूपसे सिद्धसेन गणोके मालूम नहीं होता। आगे इस लेखमे स्पष्ट किया पूर्ववर्ती हुए हैं। सिद्धसेन गणोने उनके 'सिद्धि. जायगा कि सिद्धसेन गणीक सामने भाष्य लिखते विनिश्चय' प्रन्थका अपनी इस वृत्तिमें स्पष्टरूपसे समय उक्त दोनों दिगम्बरीय टीकाएँ मौजूद थीं, निम्न शब्दोंमें उल्लेख किया है:- और उन्होंने अपने भाष्यमें उनका यथोचित "एवं कार्यकारणसम्बन्धः समवायपरिणामनिमित्त- उपयोग किया है। निर्वतकादिरूपः सिद्धिविनिश्चय-सृष्टिपरिक्षातो योज- अब रही तीसरी कल्पना,उसमें जिन दो कारणों नीयो विशेषार्थिना दूषणद्वारेणेति ।” का वर्णन किया गया है उनमें से ग्रंथकार के प्रकृति-भाष्यत्ति १,३३, पृ० ३७ भेदका कुछ अाभास पं०सुखलालजीके इन शब्दोंमें Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ,किरण ] सिद्धसेनके सामने सर्वार्थसिदि और रानवार्तिक मिलता है-"सिद्धमन सैद्धान्तिक थे और आगम- किया गम है कि 'वाचक तो पूर्ववित हैं वे ऐसे शास्त्रोंका विशाल ज्ञान धारण करने के अतिरिक्त वे ( प्रमत्तगीत जैसे ) आर्षविरोधी वाक्य कैसे आगमविरुद्ध मालूम पड़ने वाली चाहे जैनी तर्क- लिख सकते है ? सूत्रसे अनभिज्ञ किमीन भ्रांतिसे सिद्ध बातोंका भी बहुत ही आवेशपूर्वक खंडन लिख दिये हैं अथवा किन्हीं दुर्विदग्धकोंन अमुक करने थे ।" और पराश्रित रचनाका अभिप्राय कथन प्रायः सर्वत्र विनष्ट कर दिया है । इसीसे भाष्यानुसार टीका लिखनका जान पड़ता है। भाष्य-प्रतियोंमें अमुकभिन्न कथन पाया जाता है, परन्तु भाष्यके अनुपार टीका लिखनेमें भाष्य जो अनार्ष है। वाचक मुख्य सूत्रका-श्वे. भागम रचनाके प्रामाद और अथपृथक्करण करनेमें क्या का उल्लंघन करकं कोई कथन नहीं कर सकते । बाधक है,यह कुछ समझ नहीं आया ! सिद्धमेन- ऐमा करना उनके लिये असम्भव है* इत्यादि।' न तो भाष्यकी वृत्ति लिखते हुए भाष्यमे अथवा इन्हीं सब प्रकृतिभेद, योग्यताभेद और लक्ष्यभाष्यक शब्दों पर उपलब्ध नहीं होने वाले कथन भेदको लिये हुये खींचातानी आदि कारणोंसे को भी खूब बढ़ाकर लिखा है, ऐमी हालतमें वह मिद्धसेनकी वृत्ति में भाषाका वह प्रासाद, रचनाकी माध्य रचनाकं प्रामाद और अर्थ के पृथक्करण करने वह विशदता और अर्थका वह पृथकरण एवं में कैसे बाधक हो सकता है ? फिर भी इन दोनों स्पष्टीकरण आदि नहीं प्रासका है जो सर्वार्थसिद्धि में मे प्रकृति-भेद उममें कुछ कारण जरूर हो और राजवार्तिकमें पाया जाता है । राजवार्तिक मकना है। अच्छा होता यदि इसके साथमें योग्यता- और सर्वार्थसिद्धिका मामने न होना इसमें कोई भेदको और जोड़ दिया जाना; क्योंकि मब कुछ कारण नहीं है। साधन सामग्रो के सामने उपस्थित होनेपर भी तद्रूप "सप्तचतुर्दशैकविंशतिरात्रिक्यस्तिन इति", योग्यताके न होने में वैमा कार्य नहीं हो सकता। नेदं पारमर्षप्रवचनानुसारिभाष्यं, किं तर्हि ? प्रमत्तगीतपरन्तु मुझे तो सिख मनीय वृत्ति के सूक्ष्म दृष्टिमे मेतत् । वाचको हि पूर्ववित् कथमेवं विधमार्षविसंवादि अवलोकन करने पर इसका सबसे जबर्दस्त कारण। निवघ्नीयात् ? सूत्रानवबोधादुपजातभ्रान्तिना केनापि यह प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थाधिगम भाष्यमें रचितमेतद्वचनकम्"। न कितनो ही बातें ऐसी पाई जाती हैं जो श्वेताम्बरीय --तत्त्वा० भाष्य० वृ०६,६, पृ० २०६ भागमके विरुद्ध हैं । सिद्धसेनने अपनी वृत्ति . "एतथान्तरद्वीपकभाष्यं प्रायो विनाशितं लिखते समय इस बातका खास तौरसे ध्यान रक्खा सर्वत्र कैरपि दुर्विदग्धकैयन पण्णवतिरन्तरद्वीपका है कि जो बातें भाष्यम भागमकाविरुद्ध पाई जाती भाष्येसु प्रयन्ते । अनार्ष चैतदभ्यवसीयते जीवाभिगहैं उन्हें किसी भी तरह भागमके साथ संग्रत बनाया मादिषु षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपकाध्यपनात्, नापि वाचक जाय, और जहां किसी भी प्रकार अपने बागम मुख्याः सूत्रोल्लंघनेनाभिदधस्यसम्माम्यमानत्वात् तस्मात् सम्प्रदायके साथ उनका मेल ठीक नहीं बैठ सका, सैदान्तिकपाशैविनाशितमिवमिति"। वहाँ इस प्रकारके वाक्य कह कर ही संतोष धारण --भाष्य वृ० ३ १६, पृ. २६७० Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त अब मैं कुछ अवतरणों द्वारा इस बात को स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक दोनों सिद्धसेन के सामने मौजूद थे और उन्होंने उनका अपनी इस भाष्य-वृत्ति में यथेष्ट उपयोग किया है। दोनों में से पहले सर्वार्थसिद्धिकी और उसके बाद राजवार्तिककी ऐसी कुछ लाक्षणिकादि पंक्तियाँ नीचे दी जाती हैं जिनका सिद्ध सेनने अपनी वृत्तिमें ज्योंके त्यों रूपसे अथवा कुछ थोड़ेसे शब्द-परिवर्तन के साथ उपयोग किया है: (१) रूपादिसंस्थानपरिणामा मूर्तिः । ०३२ सर्वार्थसिद्धि, ५, ४ मूर्तिर्हि रूपादिशब्दाभिधेया, सा च रूपादिसंस्थानपरिणामा । — भाष्यवृत्ति, ५, ३, पृ०३२३ धनुग्राहकसम्बन्धविच्छेदे वैक्लव्यविशेषः शोकः । __— सर्वार्थसिद्धि, ६, ११ अनुग्राहकस्नेहादिव्यवच्छेदे वैकम्यविशेषः शोकः । — भाष्यवृत्ति, ६, १२ परवादादिनिमित्तादाविज्ञान्तःकरणस्य तीव्रानुशय स्तापः । —सर्वार्थसिद्धि, ६, ११ अभिमतद्रव्यवियोगादिपरिभाव्या दाविश्वान्तःकरणस्थ तीव्रानुशयस्तापः । - भाष्यवृत्ति, ६, १२ अनुग्रहार्दीकृतचेतसः परपीडामात्मस्थामिवकुर्वतो ऽनुकम्पनमनुकम्पा । सर्वार्थसिद्धि, ६, १२ अनुग्रहबुद्धयाऽऽकृतचेतसः परपीडामात्मसंस्था मिव कुर्वतोऽनुकम्पनमनुकम्पा । - माण्यवत्ति, ६, १३ [भाद्रपद, वीरनिर्वाण सं० २४६६ रागोद्रेकात् प्रहासमिश्रोऽशिष्टवाक्प्रयोगः कन्दर्पः । — सर्वार्थसिद्धि ७, ३२ रागोद्रेकात् महासमिश्रोऽशिष्टवाक्प्रयोगः कन्दर्पः । -भाष्यवृत्ति ७, २७ अनुभूतप्रीति विशेषस्मृतिसमन्वाहारः सुखानुबन्धः । __सर्वार्थसिद्धि७, ३७ अनूभूतप्रीतिविशेषस्मृतिसमाहरणं चेतसि सुखानु बन्धः । - प्राध्यवृत्ति ०७, ३२ विशिष्टो नानाप्रकारो वा पाको विपाकः । - सर्वार्थसिद्धि ८, १२ कर्मणां विशिष्टो नानाप्रकारो वा पाको विपाकः । भाष्यवृत्ति, ८ १२ यत्कर्माप्राह विपाककालमौ पक्रमिकक्रियाविशेषसाम र्थ्यादनुदीर्णं बलादुदीर्योदयावलिं प्रवेश्य वैद्यते भात्रपनसादिवत् सा अविपाकनिर्जरा | सर्वार्थसिद्धि ८, १३ यत्पुनः कर्माप्राविपाककालमौपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यादनुदीर्णं बलादुदीर्योदयावलिकामनुप्रवेश्य वेचते पवसतिन्दुकाम्र फलपाकवत् सा स्वविपाकमा निर्जरा । - भाष्यवृत्ति, ८, २४ (२) विषयामर्थनिवृति चात्माभिप्रायेणा कुर्वतः पारः तन्त्र्याद्भोगनिरोधीऽकामनिर्जरा । दुपभोगादिरोधः प्रकामनिर्जरा । —राजवार्तिक, ६, १२ विषयानर्थनिवृत्तिमात्माभिप्रायेणाकुर्वतः पारतन्त्र्या --माध्यवृत्ति, ६, १३ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ११] सिद्धमेमके सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक विरोधिद्रव्योपनिपाताभिक्षचितवियोगानिष्टनिष्ठुर प्रभवः स्कन्ध परिणामः । धनादिरपि धर्माधर्माकाशअवसादिवाह्य साधनापेक्षपादसद्वद्योदयादुत्पद्यमानः पीडालक्षणः परिणामो दुःखमित्याश्यायते । विषयः । — राजवार्तिक, ६, ११ विरोधिद्रव्यान्तरोपनिपातामिलषितवियोगानिष्टश्रवादसद्वेयोदयापन्नः पीडालचणः परिणाम आत्मनो दुःखमित्यर्थः । - भाष्यवृत्ति, ६, १२ धर्मप्रणिधानात् क्रोधादिनिवृत्तिः शांतिः । - राजवार्तिक, ६, १२ धर्मप्रणिधाना क्रोधनिवृत्तिर्मनोवाक्कायैः शांतिः । — भाष्यवृत्ति, ६, १३ धाष्ट प्रायमसंबद्धबहुप्रलापित्वं मौखर्यम् । - भाष्यवृत्ति ५, २४ पृ०३६० प्रतिसेवनेति चत्वाभावः क्रियतरामि संबंधात् ॥३॥ यथा विगताः सेवकाः अस्माद ग्रामाहिसेवको ग्राम इति षत्वं न भवति तथा प्रतिगता सेवना प्रतिसेवनेति क्रियांतरामिसंबंधात् चत्वं न भवति । - राजवार्तिक ६, ४७ प्रतिगता सेवना प्रतिसेवना । क्रियायोगात्यये सत्युपसर्ग सब्ज्ञाभावात् पत्वाभावो ऽतिरिक्तवत् । - माध्यवृत्ति ६, ४६, पृ०२८६ इसी प्रकारके और भी बहुतसे अवतरण दिये जा सकते हैं, जिन्हें लेखवृद्धि के भयले यहाँ छोड़ा जाता है। हाँ, एक बात और भी यहाँ प्रकट कर - राजवार्तिक, ७, ३२ देने की है और वह यह कि ५ वें अध्यायके 'द्वयधिकादिगुणानां तु' सूत्रकी व्याख्या करते हुए पूज्यपाद और अकलंकने "विद्धस्स विद्धेय दुराधिपुराण" इत्यादि गाथा 'उक्तं च'रुपमे उद्धृत की है। सिद्धसेन ने भी इसी सूत्र के भाष्य की वृत्ति लिखते हुये उक्त गाथाको उद्धृत किया है और उसे पूर्वके तीन सूत्रोंके साथ इस सूत्रको लेकर 'सूत्र चतुष्टार्थक बतलाया है । परन्तु हरिभद्रने ऐसा न करके इससे पहले सूत्रको वृतिमें ही उक्त गाथाको उधृत किया है। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि सिद्धसेनको इस विषय में आचार्य हरिभद्रका क्रम पसन्द नहीं रहा किन्तु दिगम्बरीय व्याख्याओंका क्रम ठीक जचा है और इमीसे उन्होंने उसका अनुकरण किया है। चाय प्रायमसम्बासम्बद्ध बहुप्रलापित्वं मौखर्यम् । — भाष्यवृत्ति, ७, २७ राजवातिकको लाक्षणिक पंक्तियों के अतिरिक्त उसके वार्तिकोंकी अन्य व्याख्याको भी कहीं कहीं पर चलाया गया है जिसके कुछ उदाहरण निम्न प्रकार - आओ द्वेधा जादिमदनादिविकल्पात् ॥ ११ ॥ आयो वैखसिको बंधो द्विधा भिद्यते । कुतः आदिमदनादिमविकल्पात् । तत्रादिमान स्निग्धरूढगुणानिमित विद्युदुस्कानखधारा ग्नींमधनुरादिविषयः । अनादिरपि बैनसिकबंधो धर्माधर्माकाशानामेकशः त्रैविध्याव विधः । ६३३ — राजवार्तिक, ५, २४ fare: स्वभाव: प्रयोगनिरपेको विश्वसाबन्धः, सद्विधा आदिमदनादिमभेदात्, तत्रादिमान् विद्युदुक्का धराग्नीन्द्रधनुःप्रभृतिर्विषमगुणविशेष परिणतपरमाणु ऊपर के इन सब अवतरणों तथा इसी प्रकार के दूसरे अवतरणों में भी ध्यान खींचने वाला जो भारी सादृश्य पाया जाता है उसे यों ही आकस्मिक Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३१ अनेकान्त [भाद्रपद कार निर्वाण सं०२४६६ - नहीं कहा जा सकता । वह स्पष्ट बतला रहा है कि परन्तु खण्डन कोई कोई ही किया करता है। एक विद्वानकं भामने दूसरे विद्वानका प्रन्थ जरूर खण्डनके लिये दूसरो भी अनक बातों तथा सहारहा है। मर्वार्थमितिकार और राजवार्तिककारके यक मामग्रीकी आवश्यकता होती है, जिनकं प्रभाव सिद्धसेनसे पूर्ववर्ती होने की हालतमें, जैमा कि में अथवा अधूरेपनमें खण्डन नहीं बन सकता, ऊपर सिद्ध किया जा चुका है, यह अवश्य कहना और यदि खण्डन किया भी जाता है तो बह प्रायः होगा कि सिद्धमेनके सामने सर्वार्थाद्धि और उपहास जनक होता है । मिद्धमन यदि इस प्रकार राजवार्तिक दोनों ग्रंथ रहे हैं और उन्होंन अपनी के ग्वएडन कार्य में अधिक पड़ते और दिगम्बरोंके भाष्यत्तिमें उनका कितना ही उपयोग तथा माथ ज्यादा उलझते तो वे उस लक्ष्यम दूर जा अनुसरण किया है। और इमलिय नाम-धाम-विहान पड़ते और उसे वर्तमान रूपमें पूरा न कर पाते समान विरामतके किमी ऐसे टीका प्रथकी कल्पना जो भाष्यको श्वेताम्बरीय भागमके साथ संगत करना है जिस परम पूज्यपाद, अकलंक और बनानेका उनका रहा है। उम धुनमे वे मब कुछ सिखसेन तीनोंने ही अपनी अपनी टाकाओं में उक्त मुला मकते हैं। फिर भी ऐसा नहीं है कि सर्वार्थप्रकारकं कथनोंको अपनाया होगा उस वक्ततक कोरी मिद्धि तथा राजवानिककी मान्यनाओंका कोई कल्पना ही कल्पना कहा जायगा जब तक कि उसका खण्डन उन्होंने किया की न हो-यथावश्यक कुछ कोई स्पष्ट उल्लेखन बतलाया जावे अथवा तद्विषयक खण्डन तथा बालोचन जरूर किया है; चनांचे किसी पुष्ट प्रमाण और अनुमन्धानको मामने न पं० सुखलालजी भी अपनी उक्त प्रस्तावनामें रक्खा जाय । मात्र यह कह देना कि मिसेनने लिखते हैं-"मिदमनीय वृत्तिमें दिगम्बरीय सूत्र यदि सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिकको देखा होता पाठ-विरुद्ध कहीं कहीं ममालोचना दिखाई देती तो वे इनमें वर्णित श्वेताम्बर-भिन्न दिगम्बर है।...तथा कहीं कहींमर्वामिद्धि और राजवार्तिक मान्यताओंका खंडन किये बिना संतोष धारण नहीं में दृष्टिगोचर होने वाली व्याख्याओंका खंडन कर सकते थे, इसके लिये कोई पर्याप्त नहीं है। भी है।" ऐमी हालतम पंडित सुखलाल जीका उक्त दूसरे प्रन्थोंको देखना और उनका यथावश्यकता कथन भी कोरी कल्पना ही कल्पना जान पड़ता है। अपने प्रथमें उपयोग करना एक बात है और दूसरे ऊपरके सम्पर्ण विवेचन परसे, मैं समझना हूँ, के किसी मन्तव्यका खडन करना बिल्कुल दूमरी सहृदय पाठकोंको इम विषयमें कोई सन्देह नहीं बात है। दूमरे ग्रंथोंको देखकर उनका उपयोग रहेगा कि सिद्धसेन गणोके सामने सर्वार्थसिद्धि करने वालेके लिये यह कोई लाजिमी नहीं कि वह और राजवार्तिक दोनों प्रथ मौजूद थे तथा उन्होंने दूसरेके मन्तव्यका खंडन भी जरूर करे, चाहे वह अपनी भाष्यवनिमें इनका यथेष्ट उपयोग किया कैसी ही प्रकृतिका क्यों न हो। ६थ अनेक पढ़ते हैं है। और इसलिये पं० सुखलालजीने इस सम्बन्ध या कल्पना पं० सुखजानाजीने तत्वार्थमन्त्री में जो कल्पनाएँ की हैं वे समुचित नहीं हैं। अपनी हिन्दी टीकाकी प्रस्तावनामें की है। वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता० १०८-१९४० Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोम्मटसार कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्तिपर विचार । ले०-प्रो० हीरालाल जैन एम.ए. एलएल. बी. ] चाचार्य नेमिचन्द्रकृत कर्मकाण्डके सम्बन्धमें पं०पर- अपने ग्रंथम यथास्थान रखी थीं तो क्या परचात्के * मानन्दजी शास्त्राने अनेकांत,वर्ष ३,किरण १ लिपिकारों के प्रमादसे छुट गई, या टीकाकारोंने उन्हें में एक लेख लिखा है, जिसका सारांश यह है- जान बूझ कर छोर दिया ? यदि लिपिकारोंके प्रमादसे प्राचार्य नेमिचन्द्र-विरचित कर्मकाण्डके अनेक वे छुट गई होती तो टीकाकार अवश्य उस रावतीको प्रकरण व संदर्भ अपने वर्तमान रूपमें 'अधरे और लंड्रे' पकड़ कर उन गाथाओं को यथास्थान रख देते, और हैं। उन्हीं प्राचार्य द्वारा विरचित एक दूसरा ग्रंथ प्राप्त यदि वे प्रसग लिये अत्यन्त पावश्यक थीं तो वे जान हुआ है। जिसका नाम 'कर्म प्रकृति' है । इस कमः बझकर तो उन्हें छोड़ ही नहीं सकते थे। इस प्रथकी प्रकृतिकी १५६ गाथाओंम से गाथायें कर्मकाण्डमें टीकात्रों की परम्परा स्पयं उसके कर्ताके जीवन काल में मौजा ही है। शेष ०५ गाथाओंकी भी कर्म-काण्डम ही. ग्रंथकी रचना के साथ ही साथ प्रारम्भ हो गई थी। जोड देनेम उसका अधूरापन दूर हो जाता है। ये ५ कर्मकाण्डकी गाथा न० १०२ में प्राचार्य स्वयं कहते गाथाय सभवतः किसा ममय कम काण्डये छुट गई, हैं कि गोम्मटसूत्र ( गोम्मटमार) के लिखते ही वीरअथवा जुदा पदगई। श्रतएव जो मजन अब कर्मकाण्ड मातगड राजा गोम्मटराय (चामुणराय) ने उसकी को फिरसे प्रकाशित कराना चाहें वे उसमें उन १ कर देशो (टीका) डाली थी। यथागाथाओंको यथास्थान शामिल करके ही प्रकाशिन करें। गोम्मट मुत्तलिहण गोगटरायण जा कया दमी । ___ इस मनमें तीन बातें मुख्यत. विचारणाय ज्ञात सो रो चिरकाल गणमण य वीरमत्तंडी ।। होती है इसके कोई तीन मौ वर्ष पश्चात केशववर्णाने कर्मकावडम से ७५ गावामीका छुट जाना या गंम्मटमार वत्ति कनी में लिखा । फिर कर्नाटकवृत्तिके जदा पड़ जाना कब और कैसे सम्भव हो सकता है ? पापा संस्कृत टीका रची गई । इन टीकाओंमें २. उन गाथानोंके न रहनेसे कर्मकाण्डके उन चामुण्डरायकृत 'वेशी' का माश्रय लिया जाना प्रकरणों की अवस्था क्या है, तथा उन गाथामीको अनुमान किया जा सकता है। संस्कृत टीकाके निर्माणमें जोड़ने में क्या अवस्था व विशेषता उत्पन्न होती है? अनेक बहश्रत अनुरोधकों, महायकों और संशोधकोंग ३. कर्मप्रकृति ग्रन्थ किसका बनाया हुआ है, और हाथ बतलाया जाना है। माग और सहेस नामक उसका कर्मकाण्डपे क्या सम्बन्ध है? साधुओंकी प्रार्थनाय धर्मचन्दसूरि, अभय चन्द्र गणेश, १.यदि उक्त गाथाय कर्मकायके रचयिताने बाखा वी.पादि विद्वानोंके लिये यह टीका बिसी Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भाद्रपद, वीर निर्वाण सं० २४६६ पं० फुलचन्द्रजी शास्त्री व पं० हीरालालजी शास्त्रीके साथ किया, जिसका निष्कर्ष निम्न प्रकार पाया गया। कर्मकाडकी नं० १५ की गाथाम दर्शन ज्ञान व सम्यक्त्वका स्वरूप बतलाया गया है, और उसके अनन्तर १६वीं गाथामें उन्हीं जीव गुणोंका क्रम निर्दिष्ट किया गया है। अब इन दोनों गाथाओंके बीच 'मियास्थि' आदि सप्त भगियोंके नाम गिनाने वाली कर्म-कृतिक १६ गाथा डाल देनेसे ऐसा विषयान्तर हो जाता है जिसकी सार-ग्रंथों में गुंजायश नहीं । परिपूर्णता की दृष्टि तो यह भी कहा जा सकता है कि नयोंके नाम गिना देने मात्र क्या हुआ, उनके लगा भी बतलाना चाहिये था पर यहाँ आचार्य न्यायका ग्रन्थ तो रच नहीं रहे। उन्होंने १२ वीं गाथामें ज्ञान और दर्शनका सप्त भंगियोंसे निर्णय कर लेने मात्रका उल्लेख कर दिया है, जो हां यथेष्ट है। वहां सप्ल भंगियोंके नाम गिनवाने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । कर्मrrent २० वीं गाथामें आठ कर्मोंका नाम निर्देश किया गया है और २१ वीं गाथामें उदाहरणों द्वारा उन ठोंका कार्यं सूचित किया गया है। इन दोनों गाथाओं के बीच जीव प्रदेशों और कर्मप्रदेशों के सम्बन्ध आदि बतलाने वाली कर्म प्रकृतिकी २२ से २६ तककी पांच गाथायें न रहनेसे freeकी संगतिमें कोई त्रुटि तो नज़र नहीं भाती, प्रत्युत उन गाथाओंके डाल देनेसे विषय साकांच रह जाता है; क्योंकि कर्मप्रकृति को २६ वी गाथा प्रकृति यादि बंधके चार प्रकारके नाम निर्देशके साथ समाप्त होती है । उस क्रमसे तो फिर भागे चारों प्रकारके कन्धोंका क्रममे विवरण दिया जाना चाहिये था; किन्तु वहां आठ कर्मोंके कार्योंके उदाहरण दिये गये हैं। इस प्रकार वर्तमान रूपमें ३६ गई थी । त्रिविध-विद्या विक्यात विशालकीति सूरिने उस कृतिमें सहायता पहुँचाई और सर्व प्रथम उसका चाबले अध्ययन किया तथा निर्मथाचार्यवर्य त्रैविद्य चक्रवर्ती अभयचन्द्रने उसका संशोधन करके प्रथम पुस्तक बिसी । यथा । श्रित्वा कार्णाटिकीं वति वणिश्री केशवैः कृतिः (तिम्?) कृतेयमन्यथा किचित् विशाध्यं तद्वदुश्रतैः ॥ त्रैविद्यविद्याविख्यात विशालकीर्तिसूरिणा सहायोऽस्यां कृतौ चक्रेऽधीता च प्रथमं मुदा ॥ सूरेः श्रीधर्मचन्द्रस्या भयचन्द्रगणे शनः । लिलादि भन्यानां कृते कर्णाटवृत्तितः ॥ रचिता चित्रकूटे श्रीपार्श्वनाथालय मुना | साधु साङ्ग महेमाभ्यां प्रार्थितेन मुमुक्षुणा || निर्मथाचार्यवर्येण त्रैविद्यचक्रवर्तिना । संशोध्याभयचन्द्रेणा लेखि प्रथम पुस्तकः ॥ जहां यह टीका रची गई थी वह सम्भवतः वही चित्रकूट था जहाँ सिद्धान्ततत्वज्ञ एलाचार्यने धवला टीकाके रचयिता वीरसेनाचार्यको सिद्धान्त पढाया था। ऐसी परिस्थिति में यह संभव नहीं जान पड़ता कि उक्त टीकाके निर्माण कालमें व उसमे पूर्व कर्म काण्ड में से उसकी आवश्यक अंग भूत कोई गाथायें छूट गई हों या ख़ुदी पड़ गई हों। २. कर्मकाय ढके 'अधूरे व लंढरेपन' के पांच विशेष स्थल विद्वान लेखकने बतलाये हैं जो प्रकृति समुत्कीर्तन नामक प्रथम अधिकारकी २२ वीं और ३१ वीं गाथाओं अर्थात् नौ गाथाओंके भीतर के हैं। इनके अतिरिक्त और भी कुछ स्थल ऐसे बतलाये गये हैं जहां कर्म प्रकृतिकी गाथाओंको समाविष्ट करनेकी प्रावश्यकता लेखकको प्रतीत हुई है। मैंने इस महत्वपूर्ण विषयका विचार कर्मकाकी प्रतिको सामने रखकर अपने सहयोगी Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष, किरण 1] गोम्मटसार कर्मकापरकी त्रुटि पूर्ति पर विचार . . कर्मकाण्डकी २० वीं और 11वीं गाथा सुसंगत जान कर छोर दिया है। उनका अभिप्राय वा उम प्रतीत होती है । उनके बीच उक्त पांच गाथा डाखने भेद-प्रभेदोंका वर्णन कर देना रहा है जिसमें उन्हें अप से उनमें व्युत्क्रम उत्पन होता है। विशेषता दिखाई दी और जिनकी घोर पाठकों का ध्यान कर्मकारसकी माठ कर्मों के उदाहरण देने वाली २१ माकर्षित करना उगे पावश्यक बंचा ज्ञानावरव वी गाथाके पश्चात् २२ वीं गाथामें उन पाठों कोंकी और दर्शनावरणके भेद-प्रभेदोंका ज्ञान जीव कायरमें उत्तर प्रकृतियोंको संख्याका क्रमिक निर्देष किया गया भी कराया जा चुका है, जहां कर्म प्रकृतिको इन्हीं २ है जो बिस्कुल सुसगन है । उनके बीचमें कर्म प्रकृतिकी गावानों में से । गाथा पाचुकी हैं। उन सबकी यहां पाठकों के स्वभाव विषयक दृष्टान्तोंको स्पष्ट करके पुनरावृत्ति करनेकी अपेक्षा भाचार्यने केवल उन स्थलों बतलाने वाली २८ से १५ तफकी माठ गाथा मोंकी पर अपनी मगुखी रखी है जिनका ज्ञान उस सामान्य कोई विशेष प्रावश्यकता दिवाई नहीं देनी, खास कर प्ररूपणमे नहीं हो सकता था। निद्रादि बाण इसी जबकि उनके स्टान्त प्राचार्य २१ वी गाथामें दे चुके प्रकार है और इसलिये मात्र उन्हींका पहाँ वर्णन हैं। ये पाठ गाथायें २१ वी गापाके स्पष्टीकरणार्य टीका करना भाचार्यमे उचित समझा । इसमें कोई त्रुटि रूप भले ही मान ली जावे, किन्तु सार अन्धके मूलपाठ ज्याज करना अनावश्यक है। में उनकी गुंजाइश नहीं दिखाई देती। ठीक यही बात कर्मप्रकृतिकी उन दो गाथानों कर्मकाण्डकी २२ वीं गाथामें उत्तर प्रकृतियोंकी और १४ गाथानों व गायानों के विषयमें कही वा क्रमिक संख्या बता देनेके परचात २३ वी गाथामे एक सकती है जिनको क्रमशः कर्मकाण्डको २५ वीं, २६ दम पांच निद्रामोंका कार्य प्रारम्भ हो जाता है। यह वीं और २०वीं गाथाके पश्चात् रख देनेकी तनवीन की एक विशेष स्थल है जहां पं० परमानन्दनीको कर्मकाएर गई है। यथार्थतः उनसे सिवाय नाम निर्देष और की त्रुटि बहुत खटकी है, क्योंकि उनके मतानुसार सामान्य स्वरूप ज्ञानके कोई नया प्रकाश नहीं मिलता। विषयको पूरा और सुसंगत बनानेके लिये यहां उत्तर उनमें से सात गाथायें जीवकारडमें भा भी चुकी हैं। प्रकृतियों के नाम व स्वरूपका क्रमशः वर्णन होना चाहिये दर्शन मोहनीयमें बंध मिख्यास्वका और उदय तथा था और उसीमें निद्राका पथास्थान विवरण प्राता तब सत्त्व तीनोंका रहता है, अतः शेष दो प्रकृतियोंका ठीक था । इसी कमीकी ये कर्म प्रकृतिको ३० से ४८ अस्तित्व कैसे हो जाता है, इस विशेषताका ज्ञान तककी १२ गाथाओं द्वारा पूर्ति करते हैं । इस सम्बन्ध करानेके लिये कर्मकायसमें गाथा नं० २६ निवड कर्मकारतकी रचनाकी विशेषताकी भोर हमारा ध्यान की गई है, तथा पाँच शरीरोंसे संयोगी भेद कैसे बन नाता है, और सारे प्रन्धको देखते हुये हमें ऐमा प्रनीत जाने है, इस विशेषताको बतलाने के लिये गाथा नं. होता है कि यहां तथा भागामी त्रुटि पूर्ण जंचने वाले २० रखी गई है। मामकर्मकी प्रकृतियोंमें अग और स्थलों पर कर्ताका विचार स्वयं प्रकृतियोंके मेदोपभेदों उपांगका मेव किस प्रकार हुमा इस विशेषताको गिमानेका नहीं था । यह सामान्य कथन या तो उनकी दिखाने वाली गाथा . २८ रखी गई है। शेष भेदरखनामें भागे पीछे पाचुका है,या उन्होंने मे सामान्य प्रभेद तो सामान्य है, अतः जान बूझकर भी वे यहाँ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भाद्रपद, वीर निर्वाण सं०२४६६ रचयिता द्वारा ही छोड़े जा सकते हैं। किन्तु कर्मप्रकृतिकी गाथा मं०७५ में दो प्रकार कर्मकाण्डकी २१ से ३२ तककी माथाओं में किस की विहायोगति भी गिना दी गई है, जिसमे वहाँ संहनमसे जीव किस गतिमें जाता है, इसका विवरण शरीरसे लगाकर स्पर्श तककी संख्या १२ हो गई है। दिया गया है, और केवल उन्हीं बातोंको बसलाया अब यदि इन गाथाओंको हम कर्मकाण्डम रख देते है. गया है जिनके समझनेके लिये बंधादि अधिकार पर्यात तो गाथा नं० ४७ के वचनसं विरोध पड़ जाता है । नहीं हैं। यहाँ मनुष्यों और नियंचोंके किन संहननोंका इससे सुस्पष्ट है कि कर्मकाण्डके रचयिताको दृष्टिम इन उदय होता है, इसके बतलानेकी तो मावश्वकता ही गाथानों का क्रम नहीं है टीकाकारने भी विहायोगनि नहीं थी, क्योंकि उदय प्रकरणकी गाथा नं० २१४ से के दो भेदोंको छोड़ कर ही पचास भेद गिनाये हैं। ३०३ तककी गाथाओंमें तियंचों और मनुष्योंके उदय, अतएव इन गाथाओंको कर्मकाण्ड में रख देना उसमें अनुदय और उदयव्युच्छित्तिरूप जो प्रकृतियाँ बतलाई पूर्वापर विरोध उत्पन्न कर देना होगा। गई हैं उमीमे किस तियंचके या मनुष्यके कितने संह- कर्मकाण्डकी गाथा न. ३३ मे पानाप और नन होते हैं, इसका भी पता लग जाता है । नं० उचोत नामकी प्रकृतियाँक उदयका नियम बतलाया २६५ से २७२ तककी गाथा मोंमें जो गुणस्थानोंकी गया है जो अपनी विशेषता रम्वता है। शेष प्रकृतियों अपेक्षा उदयादिका कथन किया गया है, उससे किम में ऐसी कोई उल्लेम्वनीय विशेषता नहीं है । अतएव गुणस्थान तक कितने संहनन होते हैं; इभका मा पता कर्म प्रकृतिका नं० ८१ ग्ये ६१ नककी पाँच नथा १७ मे लग जाता है। यंत्रका दृष्टिः. भोगभूमिके क्षेत्रों में पहला १०२ नककी छर गाथाशों के रहने न रहनेमे कोई बडा संहनन होता है, इसका पता ३०२ और ३०३ नं. की प्रकाश व अन्धकार नहीं उत्पन्न होता । यही बान कर्म मे लग जाता है और पारिशेष न्यायम यह भी प्रकृतिकी शेष ११३६ ११७तकको पाँच गाथाओंके समझमें भाजाता है कि कर्म मिमें सभी सहनन विषयो कही जा सकती है. जिनमें कंवल तीर्थकर होते हैं। इसी क्षेत्र-व्यवस्थाकं उपरमे काल व्यवस्था प्रकृतिका बंध कगने वाली पांडश भावनामांके नाम भी ममममें आजाती है। अतएव कर्मप्रकृनिकी ७५ में गिनाये गये हैं और जिन्हें कर्मकाण्डकी गाथा नं. ८२ नकको पाठ व ८६ से ८ सकी चार गाथाओंके ८०८ के श्वात् जोड़नेकी नजवीज की गई है। यहाँ न रहनेमे कर्मकाण्डम कोई त्रुटि नहीं रहती। प्रसंगवश यहाँ कर्मप्रकृतिको एक गाथाके पाठ व संहननोंका उम गतियों से संबंध उपर्युक्त प्रकरणों में उसके अर्थका भी स्पष्टीकरण अनुपयुक्त न होगा । नहीं जाना जा सकता था, अतएव उस विशेषनाको गाथा नं०८७ में 'मिच्छापुब्व दुगादिमु' के स्थान पर बसलामा यहाँ प्रावश्यक था। अर्थसोकर्म व मागेके संख्याक्रमसे सामंजस्य बैठानेके ___एक बात और विशेष ध्यान देने योग्य है । कर्म- लिये 'मिच्छापुज्व-खवादिसु' ऐसा संशोधन पेश किया कारखकी गाथा मं०१७ में स्पष्ट कहा गया है किदेह गया है। किन्तु इस संशोधनके बिना ही 54 गाथा लगाकर स्पर्श तक पचास कर्मप्रकृतियाँ होती हैं- का अर्थ बैठ जाता है और सशोधित पाठसे भी अच्छा दहादी फासंता परणासा...। बैठता है वहाँ अपूर्वद्विकादिप अपूर्धादि उपशम श्रेणी Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व ३,किरण गोम्मटसार कर्मकाण्डकी श्रुटि पूर्ति पर विचार के चार और अपूर्वादि सपक श्रेणाके पाँच गुणस्थानों उस कृतिके सम्बन्धमें उत्पन्न होते हैं, जिनका समाधान का अभिप्राय है. जो सुमंगत बैठना है । ग्ववादि पाठ करना उसकी गाथानोंको कर्मकाण्ड में समाविष्ट कराने कर लेने नो विसंगनि उत्पन्न हो जाती है, क्योंकि की तजवाजमे पूर्व अत्यन्त आवश्यक था । हमें ऐसा अपूर्वादिका छोरकर तो खवादि पाँच गुणस्थान हो अनीन होना है कि वह 'कर्मप्रकृति' एक पीछे का संग्रह नही सकते ! है. जिसंग बहु भाग गोम्मटसारमे व कुछ गाथायें अन्य __ ३. अब हम इस विषयकी तीसरी विचारणीय बान इधर उधरमे लेकर विषयका सरल विद्यार्थी उपयोगी पर ध्यान देंगे। क्या कर्मप्रकृति ग्रंथ गोम्मटमारके परिचय करानेका प्रयत्न किया गया है। उसकी गोम्मटरचयिताका ही बनाया हुआ है ? पं० परमानन्दजीने मारके अतिरिक्त गाथाओंकी रचना शैली भादिकी सूक्ष्म इस विषय पर विशेष कोई प्रकाश डालनेकी कृपा नहीं जाँच पड़ताल में मी सम्भव है कुछ कर्तृत्वके सम्बन्धमें की । उन्होंने उस ग्रन्थ के विषयग निश्चयात्मक रूपरे सूचना मिल सके । यदि पर्याप्त पान बीनके पश्चात केवल यह कह दिया है कि "हावा मुझं प्राचार्य वह ग्रंथ सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द्रकी ही रचना सिद्ध नेमिचन्द्र के कमप्रकृति नामक एक दूसरे ग्रन्थका पता हो तो यह मानना पड़ेगा कि उसे प्राचार्यने कर्मकाण्ड चला है" । पर उन्होंने यह नहीं बनलाया कि इस की रचना के लिये प्रथम ढांचा रूप तैयार किया होगा। ग्रन्थके कर्तृत्वका निश्चय उन्होंने किस प्रकार, किन फिर उसकी मामान्य नाम व भेद प्रभेद भादि श्राधारों पर किया है। क्या गोम्मटपारकी अधिकाँश निर्देशक गाथाओंको छोड़ कर और उपयुक्त विषयका गाथाय नमो नम्वकर उप नमिचन्द्राचार्य रचिन कहा है विस्तार करके उन्होंने कर्मकाण्डकी रचना की होगी। या उनकी देखा हुई प्रनिग कर्ताका नाम नेमिचन्द्र दिया इस प्रकार न तो हमें कर्मकांड अधूरे व लंदरेपन हुआ है ? यदि प्रतिम कर्नाका नाम यह दिया हुआ है का अनुराव होता है. न ममे कभी उतनी गाथाओं तो क्या वे गोम्पटमारकं काये भिन्न कोई आगे पीछेके के छूट जाने व दूर पर जानेको सम्भावना जंचती है, मंग्रहकार नहीं हो सकने ? नेमिचन्द्र नामक और भी और न कमप्रतिक गांमिटमारके कर्ता द्वारा ही रचित मुनियों व प्राचार्योंका उल्लेख मिलता है। यदि वह कनि होने कोई पर्याप्त प्रमाण दृष्टि गोचर होते हैं। ऐसी गोम्मटसारकं कर्ताकी ही है तो वह अथ नक प्रसिद्धिा अवस्थाग उन गाथाओंके कर्मकांडमें शामिल कर देनका क्यों नहीं पाई ? क्या किन्ही ग्रन्थकारों या टीकाकारोंने प्रम्नाव हा बहा माहमिक प्रतीत होता है। इस ग्रंथका कोई :लेख किया है ? इस्यादि अनेक प्रश्न Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शनमें मुक्ति-साधना [ले० श्री भगरचन्द नाहटा,-सम्पादक "राजस्थानी"] भारतीय समग्र दर्शनोंमें जैन दर्शनका भी महत्वपूर्ण स्वीकार किया है । गीतामें समत्य के विषय में बहुत 'स्थान , तत्व शानका विचार इस दर्शनमें बड़ी सुन्दर विवेचन पाया जाता है । एवं कर्मफलकी हो सूक्ष्मतासे किया गया है। प्राचारोंमें 'अहिंसा' और श्रासक्तिका त्याग अर्थात् अनासक्तयोगको प्रधानता विचारोंमें 'अनेकान्त' इस दर्शनकी खास विशेषता है। दी है। इन दोनों साधनों के विषय में गीता और जैन इस लेखमें जैनदर्शनानुसार जीव और कर्मका स्वरूप दर्शनकी महती समानता व एकता है।। एवं सम्बन्ध बतलाकर मुक्ति और उसकी साधनाके जीवसे कर्मका सम्बन्ध कबसे और क्यों है ? कहा विषयमें विचार किया जायगा। नहीं जा सकता, क्योंकि वह राग द्वेष-रूप विकारी अनादि-अनन्त संसार चक्रमं जीव और अजीव दो परिणामों या भावोंसे होता है; यह ऊपर कहा ही जा मुख्य पदार्थ हैं। चैतन्य लक्षण-विशिष्ट जीव और चुका है; पर वह स्वर्ण और मिट्टी सम्बन्धके सदृश अचेतन-जड़-स्वरूप अजीव है। जीव असंख्यात् प्रदेश अनादिकालसे है, इतना होने पर भी जैसे स्वर्णको वाला, शाश्वत, अरूपी पदार्थ है, उसके मुख्य दो मिट्टीसे अलग किया जा सकता है, उसी प्रकार भेद है 'सिद्ध' और संसारी। सिद्धावस्था जीवका शुद्ध श्रात्मारूप स्वर्णसे कर्म-मिट्टी अलगकी जा सकती है, स्वरूप है, और संसारी अवस्था कर्म-संयोग जन्य और इस कार्य में जो जो बातें सहायक है उन्हें ही 'साधन' अर्थात् विकारी अवस्थाका नाम है। दृश्यमान पदार्थ कहते हैं एवं साधनोंका व्यवहारिक उपयोग ही 'साधना' सारे पुद्गल द्रव्यके नानाविधरूप हैं । जब श्रात्मा अपने कही जाती है। साधना करने वाला ही 'साधक' कहा स्वरूपसे विचलित होकर या भूलकर पुद्गल द्रव्य जाता है, और माधनाके चरम विकाश अर्थात इष्ट फल अर्थात् पर पदार्थोकी ओर प्रवृत्त होता है, भ्रमसे उन्हें प्राप्तिको 'सिद्धि' कहते हैं। अपना मान लेता है या उन पर आसक्त हो जाता है, जीवके विकारी भावोंकी विविधता एवं तरतमताके तभी आत्मामें राग भावका उदय होता है, राग-से कारण कर्म भी विविध प्रकार के होते हैं, अतः उनके देष उत्पन होता है, और इन राग-द्वेषरूप विकारी फलोंमें भी विविधता होना स्वाभाविक है । इसी विविधता भावोंसे प्रात्माके साथ कर्म पुद्गलोंका संयोग सम्बन्ध के कारण जीवों में पशु, पक्षी, मनुष्य, देव नारक भेद हो जाता है। राग-देषरूप चिकनाहटके अस्तित्वमें और उनमें भी फिर अनेक प्रकार कहे जाते हैं। कोई कर्मरज श्राकर जीवके साथ चिपट जाती है। जहाँ राजा, कोई रंक, कोई । 'डित कोई मूर्ख, कोई अल्पायु राग और द्वेष नहीं है, वहाँ पर पुद्गलोंके हजारों रूप कोई दीर्घायु, कोई रोगी कोई निरोगी कोई सुखी कोई सन्मुख रहने पर भी कर्म-बन्धन नहीं होता । इसीलिये दुखी इत्यादि असंख्य प्रकारको तरतमता और विविधता साधनामें समभावका महत्व सभी प्रास्तिक दर्शनोंने नजर आती है। वास्तवमें ये सारे खेल जीवके अपने ही Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैनवीन मुक्ति-साधना १५७ शात या अशात रूपसे अर्जित कोंके फन है । जिम उनका स्वरूप दृष्टान्त-वारा नीचे समझानेका प्रयत्न प्रकार जीव कर्म करनेमें स्वतन्त्र है, अर्थात् कर्म-फलका किया जाता है। प्रदाता ईश्वर नहीं है फल तो स्वाभाविक रूपसे प्राप्त एक सुन्दर सरोवरमें जल भरा हुआ है, समय हो जाते है। जिस प्रकार एक व्यक्ति मदिरा पान करता समय पर उसमें नवोन जल पाता रहे और वह परिहै तो वस्तु स्वभावके गुणसे नशेका आना स्वाभाविक पूर्ण भरा रहे । इसके लिये जलागमनके कई मार्ग रखे है प्रत्येक भातिके पदार्थ अपने अपने गुणोंकी अपेक्षा जाते हैं। जब हमें उस सरोवरको जलसे खाली करना सत् है, कस्तूरीमें गर्मी है अतः उम ग्वाते ही शरीर में होता है । तो प्रथम जलके आनेके मार्गको बन्द कर गग्मी अपने आप आ जाती है, जैमी वस्तु खाते हैं देते हैं और पुराने जलको गरमी द्वारा शोषण करके उसके गुण-दोष शरीरमें स्वाभाविक रूपसे अनुभूत होते या एंच कर निकाल डालना पड़ता है। जब ऐसी क्रिया हैं। देश काल, परिस्थिति, जल-वायु सारे पदार्थोके गुण की जाती है अर्थात् नवीन जल नहीं आने दिया जाता दोष स्वाभाविक रूपसे ही अनुभून होते रहते हैं, उमी और पुराने जलको बाहर फेंक दिया जाता है, तभी प्रकार कर्मका भी जीवके साथ जैसे रूप-स्वभावमें बंध वह खाली हो सकता है। यदि नवीन जल धानेके होता है, उससे उन कर्मों में तदनरूप फल प्रदानकी शक्ति मार्ग बन्द नहीं किये जाते तो चाहे कितना ही प्रयास उत्पन्न होती है, और जब जिम कर्मका उदय होता है, क्यों न करें सरोवर कभी खाली नहीं हो सकता । इधर तब वह अपने स्वभावानुमार फन उत्पन्न करता है। जल निकालने जायेंगे, उधर भरता रहेगा । फलतः ___ यह तो हुई जीव कर्मके सम्बधकी बात, अब यह इष्ट-सिद्धि नहीं होगी । इसी प्रकार जीवरूप सरोवरमें मम्बन्ध किस प्रकारसे अलग हो सकता है उस पर कर्मरूप जल भरा है। जब हमें जीवको काँसे मुक्त विचार करना है । जीपके साथ कमौके सम्बन्ध होनेके करना है, तो आवश्यक है कि हम कर्मके धानेके जितने भी मार्ग है जैन दर्शनमें उन्हें 'श्रासव' तत्व मार्गों रूप प्रास्रव द्वारोंको रोकें, और पूर्व बँधे हुये कहते हैं और कर्मके पानेके मार्गोका विरोध 'सवरतत्व' काँको तप-संयमादिके द्वारा बाहर निकाल कर फेंक दें कर्मोस सम्बन्ध हो जाना 'वन्ध तत्व' जिन कर्मों द्वारा या शोषित करदें। इससे नये कोका बँध होगा नहीं जीवसे कर्म विनास होते है, उन 'निर्जरा-तत्व' और और पर्वके कर्म भोगकर या तपादि सद्गुष्ठानोंसे नष्ट सम्पूर्ण रूपस स्वाभाविक अवस्था प्राप्त कर लेना कर देने पर जीवकी मुक्ति होना अनिवार्य एव स्वाभाअर्थात् कर्मोंसे मुक्ति हो जाना 'भोवतत्व' है । इस प्रकार विक है। जीव और अजीव दो मुख्य तस्वोंके साथ इन पाँच जेनदर्शनकी साधन प्रणालिये तत्त्वोंको जोड़ देनेसे तत्त्वोंकी सख्या ७ हो जाती है। अब यहाँ यह बतलाना आवश्यक है कि कर्मो के कहीं कर्म अासत्र तत्त्वके विशेष स्पष्टीकरण के लिये आगमन के मार्ग प्रास्त्रव-द्वार कौन कौनसे है, कैसे पुण्य और पाप इन दोनोंको पृथक् तत्त्व माना गया उनको रोका जाता है व पूर्व संचित कर्मोका शोषण है, इससे नव तत्त्व कहे गये हैं। इनमेंसे . हमें साधना किस प्रकार हो सकता है। इन बातोकी जानकारी व मार्गमें तीन तत्वोंकी जानकारी परमावश्यक है, अतः उसके अनुसार श्राचरण करना ही साधना है। Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अनेकान्त मालवद्वार - प्रधान १ राग और २ द्वेष ५ इन्द्रियाँ - कान, नाक, आँख, जिव्हा, शरीर के विषयोंकी इच्छा व श्रासक्ति - ४ कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ ( रोस, श्रहंकार, कपट, तृष्णा ) ५ श्रव्रत -- प्राणी हिंसा, मिथ्या बोलना, चोरी करना, मैथुन- कामभोग, परिग्रह- मुवश वस्तुओं का संग्रह ३ योग - मन, वचन, कायका शुभाशुभ व्यापार' शुभ योगसे पुण्य बंध होता है उससे शुभ फलोंकी प्राप्ति होती है और अशुभ योगसे पाप बँधता है । २५ क्रियायै - परिताप, प्राणबध द्वेष श्रादिकी प्रवृत्तियों ( लेख विस्तारभय से सबका विवरण नहीं दिया जा सका । विशेष जानने वालोंकी इच्छा वालोंको कर्म-ग्रन्थ तत्वार्थ सूत्रकी टीकाएँ और नवतत्व श्रादि ग्रन्थ देखने चाहियें ) संवर ३ गुप्ति - १ मनोगुप्ति दुष्ट संकल्प एवं अच्छे बुरे मिश्रित विचारोंका त्याग कर अच्छे अच्छे विचार रहना, ईश्वरका ध्यानादि । २ वचनगुप्ति - यद्वातद्वा न बोलकर मौन धारण करना । या सन्मार्गका उपदेश देना, प्रभुका भजन श्रादि । ३ काय गुप्ति - पाप कर्मोंसे कायाकी प्रवृति हटाकर परोपकार रूप प्रवृत्तियें करना, चंचल इन्द्रियों की प्रवृत्तियों का विरोध कर लेना अर्थात् उपर्युक्त तीनों योगोका निग्रह करना । ५ समिति - १ ईर्यासमिति किसी भी जन्तुको क्लेश न होएतदर्थं सावधानता पूर्वक चलना । भाषासमिति सत्य हितकारी परिमित और संदेह रहित बोलना । २ [ भाद्रपद, बीर निर्वाण सं० २४६६ एषणा समिति - जीवन-यात्रा में श्रावश्यक निर्दोष साधनों को जुटाने के लिये सावधानता पूर्वक प्रवृत्ति । श्रादान निक्षेप समिति - वस्तु मात्रको भलि भाँति देख व प्रमार्जित करके लेना या रखना । उत्सर्गसमिति--जहाँ जन्तु न हो ऐसे प्रदेशमें देख कर या प्रमार्जित करके ही मलादि श्रनुपयोगी वस्तुका डालना । गुप्ति में सत् क्रिया निषेध मुख्य है और समिति में सत्क्रियाका प्रवर्तन मुख्य है । १० धर्म- - क्षमा, मृदुता (नम्रता ) सरलता, निलमता सत्यता, संयम, तप त्याग, ममल त्याग, ब्रह्मचर्य । इससे संयम के सतरह प्रकार है -५ इन्द्रियोंका निपह ५ अवतका त्याग, ४ कषायोंका जप ३ योगोंका निग्रह । १२ भावनायें - श्रनुप्रेक्षा या गहरा चिन्तन १ अनित्य १ अमरगा ३ संसार ४ एकत्व ५. श्रन्यत्व ६ अशुचि७ श्राश्रव ८ संवर १ निर्जरा १० लोक ११ बोधिदुर्लभ र १२ धर्म, ये बारह भावनायें हैं । २२ परिषका सहना ३ ४ ५. क्षुधा तृषा, शीत उष्ण, दशमशक, नग्नत्व, अरति, स्त्री, चर्या, निषेध शय्या, आक्रोश; वध, याचना, श्रलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, प्रक्षा श्रज्ञान, और प्रदर्शन, ये २२ परिषद हैं । ४ चारित्र - १ सामायिक ( समभाव पूर्वक रहना ) २ छेदोपस्थापन (विशेष शुद्धि के लिये पुनः दीक्षा) ३ परिहार विशुद्धि ( विशेष तप प्रधान ) ४ सूक्ष्म संपराय ( क्रोधादि कषायका प्रभाव केवल सूक्ष्म लोभ रहना) ४यथाख्यात ( वीतराग भावकी प्राप्ति) Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैनदर्शव मुक्ति-साधना निर्जरा तस्वके प्रकार १ पर्वोक्त ५ तोको अपनी शकिके अनुसार अंशतः १ अनशन-श्राहारका त्याग, २ ऊनोदर क्षुधासे पालन करना अणुव्रत है जैसे निरपराधी जीवको कम भोजन करना, वृत्तिसक्षेप-विविध वस्तुओंके मारनेकी बुद्धिसे नहीं मारना, २.३ विशेष अनिष्टकारक लालचको कम करना, ४ रम त्याग-घी, दूध, दही, राजदण्ड व लोक निंदादोने वाला असत्य न बोलना व वैमी चोरी नहीं करना, ४ पर स्त्री गमनका त्याग, गुह, तेल, व पक्वानका त्याग और मधु, मांस, मक्खन व मदिराका सर्वथा त्याग । ५ कायक्लेश धनधान्यादिका परिमाण कर लेना. उससे अधिक न ठह गर्मी या विविध अामनादि द्वारा शरीरको कष्ट रखना। देना, ६ सेलीनता-अंगोपांग संकोच कर रहना, तीन गुण व्रत-१ चारों दिशाओंमें गमनागमनका एकान्तस्थानम संयत भावसे रहना। परिमाण दिग् बत, भोग और उपभोगकी वस्तुओंका परिमाण देशवत ३ अनावश्यक अनर्थ पापोंका त्याग ऊपर के ६ भेद बाह्य तपके हैं, श्राभ्यतरिक ६ भेद , अनर्थदण्डत्यागबत ओर ४ शिक्षाबत १ मामायिक ( नियत समय तक सम भावसे रहना) १ प्रायश्चित-दोष शोधन, २ विनय,३ वैयावृत्य २ देशावकालिक-पूर्व परिमाण जो जीवन भरके संवा, ४ स्वाध्याय-वाचना पृच्छना, परावर्तना। लिये किया है प्रत्येक दिन व समय के लिये संक्षेप, (आम्नाय ) अनुप्रेक्षा, धर्मोपदेशरूप, ५ ध्यान, ३ पोपध-उपवामपूर्वक शरीर विभपाका त्याग कर ६ उत्सर्ग-धनधान्य एवं शरादिका ममत्व हटाना धर्मम नसर होना ४ सुपात्र साधुत्रों श्रादिको दान। और कापायिक विकारों में तन्मयताका स्याग । जीवका कर्म बन्धनम मुक्त हो जाना ही 'मुक्ति' है, यहां पर लेख विस्तार भयमे मुख्य मेदोंका ही इम अवस्थाको प्राप्त होने पर प्रात्मा निर्लेप, निर्विकार निर्देश किया है इनमेंसे एक एक भेद भी अनेक प्रकार एवं अनन्त शक्तिको प्राप्त होता है। जीवका स्वभाव हैं, उन मबका स्वरूप जानने के लिये तत्वार्थसूत्र, ऊर्ध्वगती-गामी कहा जाता है । अतः बन्धन के कारण नवपदार्थ ज्ञानमार आदि ग्रन्थाका अध्ययन करना जीवका स्वभाव अाच्छादित था, वह मुक्त होते ही प्रगट चाहिये। होता है, और उमके कारण प्रात्मा सब देव लोकोंके सब माधकोंकी योग्यता एकसी नहीं होती, अतः कार जो स्फटिक रत्नकी मिद्ध शिला है उससे एक योग्यताके तारतम्यके अनुसार दो प्रकारकी साधना योजन के बाद लोकका अन्त आता है, वहाँ जाकर बतलाई गई हैं:-१ गृहस्थ और २ मुनि । इनमेसे निवास करना है । मुक्तावस्था प्राप्त श्रात्माएँ अपने ध्येय मुनियों के ५ व्रत होते हैं १ अहिंसा, २ त्याग, ३ .अचौर्य की सम्पूर्ण सिद्धि कर लेती हैं अतः वे 'सिद्ध' कहलाते ४ ब्रह्मचर्य ५ अपरिग्रह इन पांचो व्रतोको सम्पूर्ण रूपसे हैं। ऐसे सिद्ध अनन्त हैं, फिर भी अरूपी होनेके कारण पालन करना मुनिका धर्म है और अंशतः पालन करना न तो स्थानाभाव एवं भीड़ ही होती है और न शरीरके गृहस्थका धर्म है । गृहस्थके ब्रत १२ कहे जाते हैं, वे अभावके करण वहां जगह रुकनी है, एक ही स्थानमें इस प्रकार हैं: अनन्त आत्माओंके रहने पर भी एक दूसरेके लिये Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाद्रपद, पीर निबस. न्याधात उत्पन नहीं करते । मुक्ति हो जानेके बाद पुनः के अभाव में उनके कर्म बन्ध नहीं होते, और कर्मका संसारमें लौटनेका उनके कोई कारण विद्यमान नहीं सम्बन्ध न होनेसे वे संसारमें पुनः लौटते भी नहीं। रहता, प्रतः सादि अनन्त स्थितिको वे प्राप्त होजाते हैं। शुद्धावस्थाको प्राप्त करने पर सब प्रात्माएं एक समान शान, दर्शन चारित्र और अनन्त शक्ति उनके व्यस्त है, हो जाती हैं, उनमें न तो कोई उत्तम है और न कोई अतः सारे विश्वके त्रिकाल विषयको वे जानते हैं। नीच अर्थात बड़े छोटे-पनका भी कोई तारतम्य नहीं विश्व प्रपंच दुःखका घर है, उसके एकान्ताभावके रहता । प्रत्येक प्रात्माको जीवादि पदार्थोंका स्वरूप जान कारण मुक्त जीव अनन्त सहज स्वाभाविक सुखका कर अाखवका त्यागकर संयम और तप रूप संवर-निर्जरा अनुभव करते है। जिस प्रकार व्याधि दुःख है और द्वारा कर्मों के बन्धनको तोड़ मुक्ति-शुद्धावस्था प्राप्त करने उमके नष्ट हो जानेसे मनुष्य सहज सुखका अनुभव का यत्न करना चाहिये, यही जैन दर्शनकी साधनाका करता है, उसी प्रकार कर्मजन्य दुःखके नितान्ताभावमें परम लक्ष्य है। परम सुख प्राप्त हो जाता है । इन्छा, वासना, आसक्ति प्राग्रह ति-रस पीना बारम्बार ॥ टेक ॥ तिक्त भाव से रिक्त करेगा, मानस का भण्डार। सिन्धु यही है साम्य-सुधा का, करना इससे प्यार ।। शान्तिरस पीना बारम्बार ॥१॥ घल जावेगा पाप-मैल सब, कर स्नान सम्हार । कीर्ति विश्व में विस्तृत होगी, होगा सत् सत्कार ॥ शान्तिरस पीना बारम्बार ॥२॥ सेवक बन मध्यस्थ भावका, राग-द्वेष परिहार । उभय परिग्रहसे चेतन तू, ममता भाव निवार ॥ शान्तिरस पीना बारम्बार ॥३॥ कल-मल-हरण विमल-पद-कारण, करन भवार्णव पार । नित्य नियम से साधन करना, पाना "प्रेम" सुधार । अ० प्रेमसागर पंचरत्न "प्रेम" रीठी Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृपतुंगका मतविचार [मन लेखक-मी एम. गोविन्द ] (गत फिरवसे भागे) (आ) गणितसारसंग्रह जो ८ श्लोकोंको उद्धृत किया है, उनमें से अपने यह जैन गणितज्ञ 'वीराचाय' की कृति है, लेखके लिये जितना भावश्यक अंश है उतना यहाँ इस प्रकार श्रीमान पाठक महाशय (क०मा०भूमि- दिया जाता है:का प.६) ने कहा है; पर इसका नाम 'महावीरा- अखण्यं निजगरसार पस्यानंतचतुष्पम् । चार्य' है, यह बात कै. वा. श्रीशंकर बालकृष्ण नमस्तस्मै जिनेद्राप महावीराप वापिने ॥॥ दीक्षितके 'भारतीय ज्योतिः शास्त्र' मराठी ग्रंथ (पृ० श्रीमदामोधवर्षय येन स्वेटहिरिया ॥३॥ २३० ) से, तथा अलाहाबादसे प्रकाशित 'सरस्वती' विश्वस्तकान्तपस्य स्याहाहन्यापवाविनः । नामको हिन्दी मासिक पत्रिकाको जुलाई (१९२७) देवस्थ नृपर्नुगस्य वर्धता सस्य शासनम् ॥८॥ महीनकी संचिका (पृ० ७८३ ) से मालूम पड़ती "चका (पृ० ७६२) स मालूम पड़ता इममें 'वर्धताम्' (वृद्धिगत हो) इस प्रकार है। यह वराहमिहिराचाय' ( ई० स० ५०५) वर्तमान कालार्थ विध्याशी रूप प्रयोग करनेसे, यह और उमा ज्योतिष ग्रन्थोंके व्याख्याता 'भट्टा. प्रन्थ बहशः अमोघवर्ष-नपतुंग नामक किसी त्पल' ( ई० स० ९६७) के समय क बीचमें हुआ नरेशके शामनकालमें लिखा हुआ मालूम पड़ता होगा, इस प्रकार श्री पाठक महाशयन कहा है। है। पर राष्ट्रकूटवंशके नभय शाखाके नरेशोंमें (पृ०६) पर कोनसे आधारसे यह बात निर्णय 'अमोघवर्ष-नृपतुग' उपाधियोंमे युक्त नरेश की गई सो मालूम नहीं। यह गणित प्रन्थ होते बहतसं होगये हैं अतः इस अवतारिकामें कहा हुये और इसका कर्ता स्वयं गणितज्ञ होते हुयं भी , हुआ नपतुंग वही है यह कैसे कहा जा सकता है ? इसका रचना-समय इसमें नहीं कहा, यह बड़े इम आचार्यने अपन पन्थ रचनेका समय, स्थान पाश्चर्यकी बात है। अथवा अपने जिम राजाका नाम लिया उसके ___ इस 'गणितसारसंग्रह' की अवतारिका-प्रश पिताका नाम नहीं कहा, इममें इसके नृपतुंगको स्तिसे श्री पाठकने अपनं उपायान (पृ०७) में अपना नृपतुंग ममझ कर कहा हुआ श्री पाठक + वराहमिहिरका और महोत्पलाका समय श्री महाशयका वक्तव्य ठीक नहीं जंचता है। महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदीजीके 'गणकतरंगिणी' अथवा इम आचार्य नृपतुंगको अपने नामक संस्कृत ग्रन्धके भाधारसे कहा है उस ग्रन्थमें इस लेखका नपतुंग ममझकर निष्प्रमाणसे स्वीकार बीराचार्य (अथवा महावीराचार्य) का उल्लेख नहीं है। करने पर भी, इस काव्यमे कहा हुआ विध्वस्त' Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भाद्रपद. वीर निर्वाणसं.२०१६ - - शब्द कोई छोटी बात नहीं। 'विध्वस्तैकान्तपक्ष' गा? ऐमी अवस्था नृपतुंगनं एकान्त पक्षको का अर्थ 'एकान्तपक्ष' को समूल नष्ट करने वाला निर्मूल किया, इस प्राचाय वचन पर कैम है, 'एकान्तपक्ष' याने भागवत वैष्णव धर्म *। पर विश्वास कर सकते हैं ? इतिहासको एक तरफ़ यह नृगतुंपके किसी भी शासनम, उपके सम्बन्ध ढकलकर ही इसके कहे हुए वचन पर विश्वास में उसके समकालीन और कोई लिखे हुए लेखोंमे कर सकते हैं ? यदि विश्वास नहीं कर सकते और उसके सम्बन्धमें जिनमन-गुणभद्रादि द्वारा हैं तो इम नतुंगको 'स्याद्वाद-न्यायवादी' यानं कहे हुए वचनोंसे, तथा उसके सम्बन्ध अब तक 'जैनधर्मी' प्रतिपादन करने वाली बात पर कैसे उपलब्ध इतिहाससे, मुगल बादशाह औरंगजेबके विश्वास कर सकते हैं ? हिन्दू धर्म और हिन्दु मन्दिरोंको विध्वंस करने अथवा इस आचाय का अभिप्राय वैमा नहीं(तथा सुनी होकर शियाओंकी मसजिदोंको बर्बाद याने नपतुंगनं एकान्त पक्षको या एकान्त पक्षकरने) के समान इस नृपतुंगने किया या करवाया सम्बन्धी धर्ममन्दिरोंको या एकान्तपक्ष वालों या प्रयत्न किया, इस बातको सिद्ध करने वाले को विध्वंस किया यह अथ नहीं; पर अपने में तब कोई प्रमाण हैं क्या? अपने 'कविराजमार्ग' काव्यमें तक रहे हुए एकान्त पक्षके विश्वास-श्रद्धाका भी किसी प्रकारका समयविरुद्ध कार्य नहीं करना निमल करके, अर्थात एकान्त स्वधर्मका त्याग चाहिये ( १,१०४) इस तरह मुक्त कंठसे कहने करके, धर्मान्तरका ग्रहण करकं आपस्याद्वादन्यायवाला यह धर्म-विध्वंमके कार्यमें क्या हाथ डाले- वादी' जैन हा, यह अर्थ यदि उम आचार्य__* 'एकान्तपर्व' अथवा 'एकान्तधर्म का अर्थ वचनम निकलता है तो उम पर विचार करें। 'महाभारत' के 'शान्तिपर्व' ( मोक्षधर्म ) के 'नारा- इम नृपतुंगने जिनसनकं उपदेशमं जैन परोपाख्यान' में तथा 'श्रीमद्भगवद्गीता' में कहा दीक्षा ली हो तो वह जिनमेनक मरणके पहिले दुमा पहिंसाप्रधान भागवत वैष्णव धर्म है, इसे पांच ही होनी चाहिय-हमारे विचारमं ई०मब ८४८के मात्र' नाम भी है । (Vide Bhandarkar's पहले होनी चाहिये, उसके पोछे नहीं । पर इसके "Vaishnavism, Saivism and other शासनकालकं ५२ वें वर्ष ( ई० सन् ८६६) के minor religious systems"-Strassburg) पहिले दिये हुए शामन शिरोलेग्यमे यह हरिहरी इसके सम्बन्ध में 'गहापुराण' में (मध्याय १३१) भागवतमें वैष्णव धमके हरिहरों में भेद नहीं यह इस प्रकार कहा है : बात शांतिपर्व' के उसी 'नारायणोपाख्यान' (अभ्या. १६८ ) में कही है। "जो शकरको पूजा एकान्तेनासमो विष्णुर्यस्मादेषां परायणः । __महीं करते हुए मुझे पूजेंगे तो उनकी हानि होगी, वे तस्मादेकान्तिनः प्रोक्तास्तद्भागवतचेतसः। मेरे निग्रहके पात्र हैं।हम दोनों में भेद नहीं" ("श्रीकृष्णमियायामपि सर्वेषां देवदेवस्य स प्रियः । राज-बाणीविलास) नामकी महाभारतकी · कर्णाटक भापत्स्वपि तदा यस्य भक्तिरम्यभिचारिणी ॥ टीका; शान्ति पर्वमें 'मोषधर्म' पृ० २१८) - ---- --- --- - - - --- ---- -- -- Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृपतुंगका मत विचार भक्त मालूम पड़ता है-किन्तु जैनी था यह हुमा तो किसी जैनाचार्य के उपदेशसे ही होना मालूम नहीं पड़ता; वैसे ही उसी शासनके 'गा- चाहिये, इस विषयमें उसका उपदेशगुरु जिनसेन बोधन' 'कीर्तिनारायणो' 'महावितुवराज्यम्बोख' था इस प्रकार कुछ लोगोंका विश्वास है । पर इत्यादिसे यह वैग्णव था, यह बात स्पष्ट मालूम जिनसेन-द्वारा नृपतुंग जैनी हुभा, यह बात पड़ती है। इसके अन्तिम वर्षके (ई. सन् ८७७) 'गणितसारसंग्रह' में नहीं कही गई, अथवा जिनसोरब नं ८५, (E.C.Vol.Vill., pt.ll) शासन सेनके सिवाय अन्य जैनाचार्यके उपदेशसे नृपतुंग से भी, यह जैन था इस सम्बन्धमें कोई प्रमाण जैनी हुआ यह बात नहीं कही गई और जन्मतः नहीं मिलता । पर ई० म० ८७७ के पश्चात नृप- जैनी नहीं रहे नरेशको जैनी कहा गया। प्रशस्ति तुंग जैन क्यों नहीं बन सकता ? यह आक्षेप हो के अनेक पद्योंमें वह किसके उपदेशसे जैनधर्मी सकता है। पर यह बात हो भी मकती है और हुआ इस मम्बन्धमें भी एक दो बात लिखना उस नहीं भी; क्योंकि ई० स० ८७७ में नृपतुंगका देहा- प्रन्थकर्ताका कर्तव्य था। वसान हुआ हो, या राज्यकारसे निवृत होकर अतएव इस गणित ग्रंथकी प्रशस्तिमें कहा उमन वानप्रस्थाश्रमका ग्रहण किया हो, इसका हुमा वक्तव्य उस आचार्य-द्वारा स्वतः जाना हुआ निष्कर्ष अब तक नहीं हुआ, अनिश्चित ऐतिहा- सत्य नहीं किन्तु कर्णपरंपरासे सुनी हुई पातको सिक घटना परसे ऐमा ही था यह कहना ठीक लिख डाला मालूम पड़ता है। ऐतिहासिक दृष्टिमें नहीं। वह कैमी भी हो, इस प्राचार्यके वक्तव्य यह बात मूल्य नहीं रखती । 'पारीभ्यदय' के का विचार करने में कोई वाधा नहीं, क्योंकि 'देव- टीकाकारनं उस काव्यमें 'भुवनमवतु देवः सर्वदास्प नृपतुंगस्य वर्धतां तस्य शासनम्' इस प्रकार मोघवर्षः' इस प्रकारके एक आशीर्षचनसे इसके वक्तव्यसे वह नपतुंग उस वक्त शासन (बहुशः आप सुनी हुई जनश्रुतिका प्राधार लेकर) करते हुए व्यक्तिसे भिन्न राज्यभारसे निवृत्त बड़े भारी भतिशयोक्तिपूर्ण कथा-तन्तु-जालको ' (अर्थात पहिले शासन किया हुआ ) नरेश, यह बुना होगा ऐसा मालूम पड़ता है। पर योगिराट् अर्थ नहीं होना; पर ई० स० ८७७ तक नृपतुंग पंडिनाचार्य के समान यह (वीराचार्य) जिनसेन, जैन नहीं था यह बात हम पहिले अवगत कर नृपतुंगसे ५५०-६०० वर्षों के इधरका व्यक्ति नहीं हैं, (बहुशः) अनके समकालीन होगा, इस प्रकार __उम ममय जिनसेनाचार्य जैन मताप्रगए । आक्षेप करने पर, जिनसेन और उसके खास था; नृस्तुंगने एक बार भो उसे वन्दन किया होगा शिष्य और अमोघवर्ष-नृपतुंगकं शासनमें भी, तो उस पर इस नरेशकी श्रद्धा हो सकती है । ऐमी उसके समयानन्तर उसके पुत्र अकालवर्षके शासन अवस्थामें इस 'गणितसारसंग्रह' में उस जिन- में भी विद्यमान गुणभद्रस भी जो बात नहीं कही सेनका नाम क्यों नहीं ? नृपतुंग जन्मसे जन धर्मी गई उमको इम महावीराचार्यने कहा है तो उसे नहीं था यह बात सभी जानते हैं; यदि वह जैनी ऐतिहासिक तथ्य कैसे मान सकते हैं ? Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाद्रपद, वीर निर्वाण सं. २१) पर इस प्राचार्यसे कहा हुआ अमोघवर्ष- विवेकात्यावरान राज्ञेयं रस्नमाविका । वृपतुंग हमारे इस लेखका नायक न होकर, राष्ट्र रचितामोघवर्षेय मुधिया सदलंकृतिः ॥ कूटवंशका (अथवा अन्य किसी वंशका) और Several editions of this work have कोई नसी नामका नरेश होगा तो इस भाचार्य since been published in Bombay. It के कथन और इस नरेशके सम्बन्ध में तर्क-वितर्क is variously attributed to Sankara Charya, Sankarananda and a Svetaकरना इस लेखका उद्देश्य नहीं। inbara writer Vimala. But the royal (इ) प्रश्नोत्तररत्नमालिका authorship of the 'Ratnamala' is यह एक नीतिमार्गोपदेशी छोटासा संस्कृत Contırmed by a Thibetan translation of it discovered by Schiefner in which काव्य है । बम्बई 'निर्णयमागर' मुद्रणालयसे the author is represented to have प्रकटित काव्य मालाके सप्तम गुच्छकम यह been a kingand his Thibetan name, "Indian Anti as retranslated into Sanskrit by the quary' (Vol. XII.) में इस कविताके सम्बन्ध same scholar, is Amoghodaya, which में (पृ०२१८) इसमें ३. पद्य हैं ऐसा कहा है। इसे obviously stands for Amoghavarsha. प्रथमतः प्रकाशित करने वाले श्रीमान के.बी. This work was composed between Saka 797-99; in the foriner year पाठक महाशय मालूम पड़ते हैं, परन्तु 'कविराज Nripatunga abdicated in favour of मार्ग'के उपोद्घातमें इसका निर्देश करते वक्त his son Akalavarsha" इसमें कुल कितने पथ हैं सो लिखा नहीं, वैसे इनका यह विचार कहाँ तक ठीक है, इस ही उन्हें मिली हुई प्रतिक अन्तिम एक पद्यको सम्बन्धमे विचार करनंक पहिले, उस विचारउद्धत करनेके सिवाय उसमें और पद्योंको दिया सम्बन्धी कुछ पद्य यहाँ देना आवश्यक हैभी नहीं। उस उपोद्घातमें (पृ०९) इस कविताके प्रणिपत्य पईमानं प्रश्नोत्तररत्नमालिकां वये। सम्बन्धमें भाप कहते हैं: नागनरामरवन्धं देवं देवाधिपं वीरम् ॥१॥ "Nripatunga was not only a liberal patron of letters, but he is also कः खलु नालंक्रियते दृष्टादृष्टार्थसाधनपटीयान् । known as a Sanskrit author. A few कंठस्थितया विमलप्रश्नोत्तररत्नमालिक्या ॥ २॥ years ago I discovered a small Jaina ................................. work entitled " 'Prasnottara-ratna. इति कंठगता विमला प्रश्नोत्तर स्नमाबिकायेषाम् । mala' the Concluding verse of which owns Amoghavarsha as its author : ते मुक्ताभरणा अपि विभान्ति विहस्समाजेषु ॥ २८ इस मूल कविताका अंग्रेजी पचानुषाव-पुक्त मेरा काव्यमाला' ( Nirnay-Sagar Press) देख Canara High School Magazine, के संपादकने उसे प्रकट करनेके लिये संग्रहीत Mangalore Vol. II प्रथम अंक प्रकाशित। 'क' और 'ख' नामांकित हस्तलिखित प्रतियोमेसे Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृपतुगका मत विचार 'क' प्रतिका अन्तिम पद्य इस प्रकार दिया है- पंजरी" दोनों में नीतियोषक और धर्मबोधक तत्व रचिता सितपटगुरुवा विमता विमलेन रस्नमालेव। प्रत्येक पद्यसे टपकता है-अर्थात धर्म और नीतिका प्रश्नोत्तरमालेयं कठगता कं न भूपयति ॥ २६॥ पृथकरण इनकीकृतिमें रहना विश्वसनीय नहीं है। इसके अलावा 'ख' प्रतिका मन्तिम पद्य और (३) वैसे ही इस कवितामें भक्तियोषक वक्तव्य तरह है: नहीं है। किसी धार्मिक रीतिसे भी उपासनाविवेकायतराज्येन राज्ञेयं रस्नमालिका । सम्बन्धी बातें नहीं हैं। अत एव यह शंकराचार्यकी रचितामोघवर्षेण सुधिया सगंकृतिः ॥२॥ अथवा शकरानन्दकी कृति होगी यह कहना ठीक यह कृति श्रीमच्छंकराचार्यसे या उसके परम्परा नहीं। (४) साथ ही साथ इसके पारम्भमें या के शंकरानन्द यतिस रचित होगी ऐसी भी प्रतीति अन्तिम भागमें विष्णु अथवा शिवकी स्तुति भी है । इस कृतिकी पुरानी हस्त प्रतियोंमे वर्द्धमान - नहीं है और उनके नाम भी नहीं। इन सब बातों जिन स्तुति-सम्बन्धी पद्य न होंगे, और माथ ही से मालूम पड़ता है यह इन भाषायोंकी कति नहीं साथ उनमें अन्तिम पद्य ( 'विमल' श्वेताम्बर गुरु है। (५) इसके १२वें पधमेंनामका पाठान्तर भी, अमोघवर्ष नामका पाठान्तर 'नलिनीदलगतबललवतरक कि पौवनं धनमयापुः।' भी ) नहीं होंगे। इस कृतिमें रचनान्तर प्रक्षेप इस प्रकार है, शंकराचार्यको 'द्वादशपंजरी' के बहुत दिखाई देते हैं अतः शंकराचार्य तथा शंकरा- १०वें पद्य मेंनन्द भी इसके कर्ता नहीं होंगे क्योंकि: नलिनीदलगतसलिलं तरलं । (१) आत्मपरमात्मका ऐक्यत्वक सम्बन्धमें तहजीवितमतिशयचपलम् ॥ इममें चकार शब्द भी नहीं; (२) अथवा नीति ऐसा है । पर इससे इन दोनोंका कर्ता एक ही होगा बोध-सम्बन्धी हम एक छोटीसी कवितामें सिद्धान्त यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि नलिनीदल में स्थित तथा धर्मबोधनको हवा भी नहीं दीखती;पर शंकरा जलबिन्दुकी चंचलताका अपने जीवन, आयुष्य, चार्यकी छोटीसी कृति "द्वादशपंजरी' "चर्पट धनके साथ उपमा करनेकी रूढि सनातन, बौद्ध, 'काम्यमाला' सप्तम गुड्छक (पृ. १२१ और जैनधर्म शास्त्रों में बहुत पुरानी समयसे भारही है१२३) इन सब बातोंसे यह कविता इन आचार्योंकी कृति श्रीमान् पाठक महाशयने 'कविराजमार्ग' के नहीं है, यह बात निष्कृष्टरूपसे कह सकते हैं। उपोद्घातमें इस श्लोकको उद्धृन किया है वहाँ पर ऐसी अवस्थामें इमका कर्ता नपतुंग ही हो 'सुधिया' है, 'काम्यमाला' में प्रकटित काम्यमें यहाँ सकता है क्या ? श्रीमान् पाठक महाशय जैसे 'सुधियां' है। 'सुधिया' ('सुधि'शब्दका तृतीयक वचन) विद्वान भी इसे नृपतुगकी कृति मानते हैं, पर कहने के बदले 'सुधियाम्' ( उसी शब्दकी षष्टी विभकि निम्नलिखित कारणोंसे उनका अभिप्राय ठीक का बहुवचन ) कहना ठीक मालूम पड़ता है। मालूम नहीं पड़ताः Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भाद्रपद, वीर निव सं. २०१५ (१) उपर्युक 'काव्यमाला' में कही हुई 'ख' होगा ऐसा मालूम पड़ता है। हस्त प्रतिमें 'विवेकायकराज्येन' इस एक ही पद्य के (३) इम कविताके २रे और २८ वें पद्योंमें सिवाय अन्य २८ पच और 'क' हस्त प्रतिके सभी दिखाई देने वाला 'विमल' शब्द केवल निर्मल २९ पद्य संस्कृत 'आर्या' छन्दमें हैं, परन्तु 'ख' प्रति इतना अर्थसे युक्त गुणवाचक नहीं, किन्तु कविने का यह एक अन्तिम पद्य हो 'अनुष्टुभ्' नामका अपने नामके श्लेषसे उमका उपयोग किया श्लोक है-यह क्यों ? नृपतुंगने अन्य २८ पद्योंको होगा, यह बात शीघ्र मालूम पड़ जाती है। अनः आर्या छन्दमें रचकर, भाप विवेकसे राज्यभार कविका नाम 'विमल' ही होना चाहिये। त्यागकर पश्चात इस कविताको रचना करते हुए (४) नपतुंग शक सं०७९७ ( ई० सन् ८७५) यहीं एक पध'अनुष्टम्' श्लोकमें क्यों रचा ? इतनी में अपने पुत्र अकालबर्षको अपनी गद्दी पर बैठा छोटीसी कवितामें दो तरहकं छन्दोंकी क्या जरूरत कर आप राज्यभारमे निवृत हुआ, इस प्रकार थी पर 'क' प्रतिके अंतिम पृष्ठोंमें इसका कर्ना भीमान पाठक महाशयका कहना है, पर ऐसे 'बिमल' नामक श्वेताम्बर गुरु कहा है, इसी बातको निष्कृष्ट वक्तव्य के सम्बन्धमें आपने कोई आधार कहनेवाला पद्य उस कृतिके अन्य सब पद्योंकी तरह नहीं दिया । यह वक्तव्य ठीक नहीं मालूम पड़ता; प्रार्या छन्दमें रह कर, कृतिके रचनासमन्वयके क्योंकि ई० स० ८७५-७६ के कुछ शासनोंमे नृपसाथ सुसंगत है, अत एव मूल कृतिका अंतिम पद्य तुगके पुत्र अकालवर्ष नामक कृष्ण का नाम होते इस 'क' प्रतिकी अंतिम 'आर्या' ही होनी चाहिये हुए भी वह नरेश था यह बात नहीं, युवराज होते और इस कविताका रचिता उसमें कहा हुआ हुये अपने पिता नृपतुगके राज्यके दक्षिण भागका 'विमल' ही होना चाहिये ऐमा मुझे मालूम पड़ता प्रतिनिधि था यह बात है । राजधानी मान्यहै। (२) इस कविताके पहिले दूसरे और २८३ खेटमें तब नृपतुंग गद्दी पर था, यह बात स्पष्ट पद्योंमे इसका नाम 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' कहा है। इसके सिवाय ई० स०८७७ के सोरब नं० ८५ है. 'क' प्रतिके अंतिम पद्यके प्रथम चरणमें इसे वें शासनमे भी तब नपतुंग गद्दी पर था ऐसा 'रत्नमाला' के साथ तुलना किया है, उसके द्वितीय लिखा है और यह बात पहिले भी कही जा चकी चरणमें इसका नाम कहते वक्त 'रत्नमाला' इस है। अतएव ई० स० ८७ तक नृपतुंगने राज्य प्रकार पुनरुक्ति नहीं करते हुये प्रश्नोत्तरमाला त्याग नहीं किया, यह बात व्यक्त होती है। कहना समंजस है । पर 'ख' प्रतिके अंतिम (५) इस 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' के तिब्बत 'मनुष्टम्' श्लोकमें इसे 'रनमालिका' कह कर भाषाके अनुवादमें इसका कर्ता 'अमोघोदय' नाम 'प्रश्नोत्तर' नामके प्रधान पूर्व पदको ही छोड़ का राजा कहा है; इसी बातके आधारसे श्रीमान दिया है। अतः इस काव्यके अंतके वक्तव्य तथा पाठक महाशयने उसे अमोघवर्ष कहा है; परन्तु 'ख' प्रतिके अंतिम पथके वक्तव्यमें परिवर्तन दिखाई यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि-(१) 'ख' प्रतिके देनेसे 'ख' प्रतिका अंतिम पध मूल प्रतिमें नहीं : I. A., Vol. XII P. 220. Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृपतुंगका मत विचार अन्तिम पद्य के अनुसार इम कविताके कर्ता लिखा होगा, उसमें यह श्लोक रहा भी होगा। अमोगवर्षने विवेक राज्य त्याग किया लिखा है, परन्तु समके राज्यत्यागके सम्बन्धमें ठीक आधार पर तिब्बन भाषाके अनुवादमें उमके कर्ताने गज्य प्राप्त होने नक, आगन्तुक किसी श्लोकके ऊपर त्याग किया लिखा हो मो उम बातको पाठक विश्राम रख कर उसे ऐतिहासिक तथ्य समझकर महाशयने कहा नहीं; उप अनुवादमें वैम नहीं स्वीकार करना मुझे ठीक नहीं मालूम पड़ता। लिखा हो तो अमोघवर्ष और अमोघोदय ये दोनों विवेकास्यक्तराज्येन' यह श्लोक ऐतिहासिक तथ्य एक ही व्यक्ति थे ऐमा कहना कैसे ? इन दोनों को कहता है, इस प्रकार निष्प्रमाण स्वीकार करने 'अमोघ' यह पर्व पद रहनेके कारण ये दोनों पर भी इममे नपतुंगनं जैनधर्मका अवलंबन किया एक ही व्यक्ति थे इस प्रकार बिना प्रबल प्राधार यह अर्थ नहीं होता; विवेकसे राज्यमार त्याग के कोई कहे तो उमे स्वीकार नहीं किया जा किया लिखा है, वह विवेकोदय उसे जैनधर्मसे मकता। हुआ यह बात नहीं। ई० स० ८१५ से ७७ तक अतः इम कविताका कर्ता श्वेताम्बर जैन करीब ६२-६३ वर्ष तक राज्यशासन किये हुए इसे गुरु विमल' के मिवाय अन्य कोई नहीं यह नपर्नु- उस वक्त ८०-८२ वर्षसे कम न हुए होंगे, उस गकी कृति नहीं है यह बात मुझे ठीक मालूम पड़ती वृद्धावस्थामें यह राज्यभारसे निवृत्त हुभा हो तो है। इस विमलसूरिन कर्नाटक भापामें क्या काव्य वह विवेक नैर्गिक है। इसके पहिले इसके पितारचना की है ? 'कविराजमार्ग' में कहा हुआ मह ध्रुवराजने राज्य भारमे निवृत होना चाहा था 'विमल' ('विमलोदय, नागार्जुन.....। २९) नाम यह बात पहिले कही जा चुकी है। का व्यक्ति क्या यही होगा ?-इम मम्बन्धमें (ई) कविराजमार्ग विद्वान लोगोंको विचार करना चाहिये। ___ 'विवेकात्त्यक्तराज्येन' * यह श्लोक इम यह एक कर्नाटक अलंकार प्रन्थ है । यह कवितामें प्रक्षिप्त किया गया होगा, इतना ही मैंने नृपतुंगकी स्वयं कृति है या उमके प्रास्थानक कहा है, वह नपतुंगरचित अन्य किसी संस्कृत किसी कविन उसके नामसे रचना की हो, इस मन्थमें नहीं होगा, यह वान मैंने नहीं कही। पर मम्बन्धमें विद्वानोंमें भिन्नाभिप्राय हैं। यदि यह वह स्वयं या जमके सम्बन्धमें और कोई काव्य ग्रन्थ नृपतुंगको स्वयं कृति है तो इसमें इसकी ___®ग्स नृपतुंगका पितामह राज्य भारसे निवृत अवतारिका दो कंद पद्योंमें (अपने इष्ट देवता) विष्णुकी स्तुति की है । इमसे तो यह राजा स्वयं होना चाहता था उस वक्त उसके पुत्रने उसे स्वीकार वैष्णव सिद्ध होता है। भागवत वैष्णव धर्ममें नहीं करते हुये वैसा होने नहीं दिया था, वैसे ही नृप तुंगके राज्य त्याग करना चाहते वक्त उसके पुत्रने अपने . हरि-हर समान हैं यह बान पहिले कही जाचुकी है। पूर्वजोंकी पद्धतिका अनुकरण करते हुये उसे वहीं स्वी. इस काव्यके तृतीय परिच्छेदके ८१,१०, १ कारा होगा, ऐसा मुझे मालूम पड़ता है। 1 0,५४० के पोंका परिशीलन करें। Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाइपद, वीर निवाब सं०२५॥ %3 इस काव्यके प्रथम भागमें ही विष्णुस्तुति अपनी कवितामें जगह जगह पर क्यों नहीं बखेर स्पष्ट रहते हुए भी उस तरफ ध्यान नहीं देते हुए, दिया है। श्रीमान् पाठक महाशयका इसके 1९० और III नृपतुंग राजा होनेम कवि नहीं था यह बात १८ इन दो पद्योंके माधारसे यह कहना कि नहीं; क्योंकि भारतवर्षमें शासन करने वाले बहुत"Two verses which praise Jina,reflect से नरेश स्वयं कवि थे; यदि वैसा न हो तो the religious opinions of the author" 'राजशेखर'की (ई०स०करीब ८८०-९२८के बीचमें) (क० मा० उ०पू०.) ठीक नहीं है; क्योंकि 'काव्यमीमांसा' के .-"राजा कविः कविसमानं इन दोनों में IE० को इस कविकी स्वतन्त्र रचना विवधीत । राजनि कवी सर्यो लोकः कविः स्यात् ॥" कहने के बदले 'व्यवहित दोष' निदर्शन करनेके लिये इस वाक्यका वक्तव्य स्वप्नकी बातें नहीं होगा और किसी काव्यसे लिया हुआ दृष्टान्त मालूम क्या ? इस बात को और स्पष्ट करने के लिये कुछ पड़ता है, III १८वा पद्य इनसे ही रचा गया कन्द उदाहरण दिये जाते हैं -(१) सोड्डल देवकी पद्य हुआ होगा । सकल धर्मोको समान दृष्टिसे (ई० स० ११ वां शतक) 'उदयसुन्दरी कथा' में । सरकार करने वाले इस कन्द पद्यकी रचना करनसे "कवीन्द्ररष विक्रमादित्य-श्रीहर्ष-मुंज-भोजदेवादि ही वह जैन था यह कहना असंगतहे इसके सिवाय भूपाल:" लिखा है, (२) श्रीहर्षवर्धनने (ई० स० कोई भी कवि अपने इष्टदेवताकी स्तुति ग्रन्थारम्भमें ६०६-६४७) संस्कृतमें 'प्रियदर्शिका', 'रत्नावली' ही करता है, बीचमें या अन्य जगह जगह पर नहीं करता है। बहुशः I ७८ वा पद्य जैन धर्म-सम्बन्धी जैनियों में भी किसी प्रकारका धर्मभेद नहीं था पद्य होना चाहिये । इससं क्या ? कविक विचारमें इस बातकी मामतुगाचार्य-कृतपवित्र 'भक्तामरस्तोत्र' धर्मभेद है क्या ? जिस धर्ममें अच्छी बात हो उस नामक जिनस्तुति ही साक्षी है:प्रहण करना कविका धर्म नहीं है क्या ? अच्छी "स्वामव्ययं विभुमचिस्यमसंख्यमाचं। बात अपने धर्ममें हो तो अच्छी, अन्य धर्ममें हो ब्रह्माणमीश्यरमनतमनंगकेतुम् ॥ तो अच्छी नहीं, यह भेद कवियोंमें है क्या ? इमके योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेक। सिवाय कविराज मार्गके I १०३-१०४ नं० के शामस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥ २४ ॥ पद्योंमें इसने 'समयविरुद्ध' दोष मम्बन्धी प्रस्ताव बुद्धस्त्वमेव विभुधाचितबुद्धियोधात् । में कपिल (सांख्य ), सुगत (बौद्ध), कणचर (= करणाद, वैशेषिक ) लोकायत्तिक ( नास्तिक ) स्वं शंकरोसि भुवनत्रयशंकरस्वात् ॥ इस्यादि मत-सम्बन्धी उद्गार उन उन मागभेदके पातासि धीर शिवमार्गविविधानाद। अनुगुण होने चाहियें। उन उन समयसूत्रों के व्यक्तं स्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोसि" ॥ २१ ॥ विरुद्ध नहीं होने चाहियें, यह बान इमने नहीं कही - Gaekrad's Oriental Series, No. I P. 5+. क्या ? ऐसे व्यक्तिने जिनस्तुति-सम्बन्धी पयोंको Ibid. No. XI P. 150. Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृपतुंगका मत विचार और 'नागानन्द' नामके ३ नाटक लिखे हैं; जैन होते हुए भी इनमें प्रतिफलित धर्म छन कवियों (३) समुद्रगुप्तके ( ई० स० ३३०-३७५ ) के पोषकों का स्वधर्म है, कवियों का स्वधर्म नहीं अलाहाबाद स्तम्भको प्रशस्तिसे वह 'कविराज' था, इस बातको कौन नहीं जानता ? (२) ई० स० तथा गान्धर्वविद्यामें भी विशारद मालूम पड़ता १२३० में जयसिंह सूरि नामकं श्वेताम्बर कवि है। इतना ही नहीं उसके समयके बहुतमे सिकोंमें रचित 'हम्मीरमदमर्दन' नाटकमें * जिनस्तुति भी उसके सिंहासनमें सुखासीन होते हुये वीणा या जैनधर्म-सम्बन्धी किसी बातका जिक्र किया बजानेका चित्र है। (४) 'भूलोकमल्ल' उपाधि हो नहीं । उसमें उसने लिखा है:यक्त ( ई० स० ११२६-११३८ ) चालुक्य वंशके "स्तंभतीर्थनगरी गरीयो रस्नाकुरस्य त्रिभुवन नरेश तृतीय मोमेश्वरने 'मानमोल्लास' अथवा विभविनम्र-मौलि मुकुटमणि किरण-धोरणी-पौत'अभिलाषितार्थ चितामणि' नामका संस्कृत ग्रंथ चरणारविन्दस्य पृन्दारकपदविक्रमचस्कृतिपरिपाकजुट लिखा है, इत्यादि । कदष्टदनुतनुनविजयभीमीमस्य श्रीभीमेश्वरस्य यात्रा तो भी 'कविराज मार्ग' नृपतुंगकी स्वयं कृति ............श्री वस्तुपालकुखकाननकेलिसिंहेन भीमता नहीं है औ उनके नामसे दूसरे किसीने उसे रचा जयसिंहेन" होगा ऐसा समझा जाय तो उससे हानि क्या? इस नाटकके अन्तमें नायकसे की गई शिव(१) कन्नड कविश्रेष्ठ आदिपंप तथा रमकवि स्तुति साक्षात शैव कवि द्वारा रचित मालूम पड़ती जैन थे इस बातको कौन नहीं जानता। परन्तु है। उस प्रार्थनासे प्रसन्न होकर शिवने प्रत्यक्ष हो पंपके विक्रमार्जुन विजय' नामक 'पंपभारत' को फर नायकके भरत वाक्यको पूर्ति कर दिया लिखा तथा रनक 'गदा युद्ध' को क्या कोई जैन कविकृत है; (३) होयसलवंशी वीरवल्लालका ( ई० स० कह सकता है ? इनमें उन कवियोंने अपने , ११७३-१२२०) आश्रित् कन्नड जैन कवि जन्नने पोषक नरेशोंक स्वधर्मका अनुकरण करते हुए और 'यशोधरचरित' तथा 'अनन्तनाथ पुराण' जैन उसके अनुगुणरूप विष्णुस्तुति, शिवस्तुति काव्य रचने पर भी राजाके लिये रचित चन्नरायइत्यादि से अपना प्रन्थारम्भ करते हुये,उस धर्मको पदणके १७९ वें (ई० स० ११९१ ) ताम्रशामन धोरणामें ही उनकी आद्यन्त रचना करनस ये की अवतारिकामें दिया हुना संस्कृत श्लोक विष्णु समप्र बैष्णव धर्ममय हैं । आप जैन होते हुए भी स्तति सम्बन्धी है, और उत्पलमालामें विष्णुकी उन कवियोंने अपने काव्योंमें अपने धर्मको बात बराहावतारकी स्तति है। वैसे ही इसके द्वारा ली है क्या ? अतः इनके रचयिता कवियोंने स्वतः रचित तरिकरे ४५ वें (ई० स० ११९७ ) शामन S 'Men and thought in ancient India' के आदि पद्यमें 'ममृतेश्वर' नामक शिवकी तथा pp. 171-172, Gaekwad's Oriental Series No. X $ Ibid, pp. 154-155. + E.H. D.P.67. पृ० १ और २६ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ अनेकान्त दुसरे पथमें हरिहरकी स्तुति है । इत्यादि । अत एव इस 'कविराजमार्ग' का कर्ता नृपतुंग नहीं है; उसके आस्थानके किसी कवि द्वारा रचित है, उसकी अत्रतारिका में विष्णुस्तुतिसे, निर्दिष्ट धर्म नृपतुंगका स्वधर्म ही होना चाहिये रचयिताका स्वधर्म नहीं होगा । 'कविराजमार्ग' के अवतारिका-पद्य विष्णुस्तुति-सम्बन्धी नहीं हैं, उन पद्योंमें नृपतंगने अपना ही वर्णन किया होगा इस प्रकार कोई आक्षेप करेंगे तो, वह आक्षेप निराधार है। इस आक्षेपको निम्न लिखित कारणों से निवारण कर सकते हैं, 'कविद्वारा अपने कथानायकको या अपनेको अपने इष्टदेवता के साथ तुलना करते हुये अथवा इष्ट देवताको अपने कथानायक के नामसे या अपने नाम से उल्लेख करते हुये स्तुति करने की रूढि बहुत पुराने समय से कर्नाटक तथा संस्कृत काव्यों में है। उदाहरण: १ 'भास' महाकविके 'प्रतिज्ञायौगन्धरायण' नाटकी आदि की महासेन ( = स्कन्द) स्तुतिमें उसके मुख्य पात्रोंके नाम हैंपातु वासवदत्तायो महासेनोतिवीर्यवान् । वत्सराजस्तु नाम्ना सशक्तिरान्धरायणः ॥ १ ॥ 'अपने 'पंचरात्र' नाटकमें नान्दीकी कृष्णस्तुतिमें नाटक पात्रोंके नाम दिये गये हैं द्रोणः पृथिव्यर्जुनमीमदूतो । यः कर्णधारः शकुनीश्वरस्य ॥ + 'जन का शासनसंग्रह ' ( 'कर्नाटककाव्यकलानिधि' नं०३४ मैसूर) । [भाद्रपद, वीर निर्वाण सं० २०१६ दुर्योधनो भीष्मयुधिष्ठरः स पायाद्विरागुत्तरगोभिमन्युः ॥१॥ तारिकाकी विष्णु स्तुति में अपने पोषक चालुक्य (२) आदिपने 'विक्रमार्जुनविजय' की अव अरिकेसरिकी विष्णु के साथ तुलना की है ........... 'उदास ना । रावणनाद देवनेम गीगरिकेसरि सौपकोटियं ॥ १ ॥ (३) रन्नने अपने 'गदायुद्ध' में अपने पोषक चालुक्य नरेश तैलप आहब मल्लकी ( ई० स० ९७३९९७) विष्णु के साथ तथा शिव, ब्रह्म, सूर्य, इत्यादि देवताओंके साथ तुलना करते हुये काव्य का प्रारम्भ किया है 'आदिपुरुषं पुरुषोत्तमनी चालुक्यना । रायण देवीनीगेमागे मंगलकारण मुरसवंगलं ॥ १ ॥ (४) श्रवणबेलगोलकी गोमटेश्वर महामूर्तिके ( ई० स० ९८१) प्रतिष्ठापक चामुंडरायके गुरु नेमि'चन्द्रने अपने 'त्रिलोकसार' नामके प्राकृत प्रथमें अपने इष्ट तीर्थकर ३३वें ( २२वें ) ? 'नेमिनाथजिन ' के नामको अपना नाम 'नेमिचन्द्र' से उल्लेख करते हुये उनकी स्तुति श्लेषसे कही है गोविन्दसिंहामणिकिरण कस्ता वरुण चरण यह किरयां । विमलयरणेमिचंदं तिहु वय चंदं यमं सामि"* ॥ (५) आदिपपने अपने धर्म ग्रन्थ कन्नड 'आदिपुराण' (ई०स०९४१-४२) के २रे आश्वास से 'बल गोविन्दशिखामणिकिरणकलापारुणचरणनख किरणम् विमक्षतरनेमिचन्द्रं त्रिभुवन चन्नमस्यामि ॥ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , किरण "] नृपतुंगका मत विचार “१५५ अन्तिम प्राश्वास तक प्रत्येक आश्वासके प्रथम नपतुंगके समयके ई. स. ८६६ के शासनसे वह पयोंमें अपने जिनदेवको अपनी उपाधि 'सरस्वती वब तक जैन नहीं हुआ इतना ही नहीं किन्तु मणिहार' नामसे ही कहा है-इत्यादि विष्णुभक्त होना चाहिये, पह बात व्यक्त होती है। उसने महाविष्णुवराज्यबोल,(महाविष्णु राज्य नृपतुंग जैन नहीं था के समान)राज्य शासन करता था ऐसा लिखा है। (१) जिनसेन तथा गुणभद्रने अपने प्रन्थोंमें जैनधर्मके द्वादश चक्रवर्तियोंमेंसे किसीकी भी नृपतुंग जैनधर्मावलंबी हुआ यह बात कही नहीं । उपमा नहीं दीक्षा गुणभद्र के उत्तरपुराणके उस एक श्लोकसे भी वह (५) अमोघवर्ष-नृपतुंग नामके बहुतसे अर्थ नहीं निकलता। राजा हो गये हैं, 'गणितसारसंग्रह' में कहा हुभा (२) दिगम्बर जैनियों के 'सेन' गणको पट्टा- नपतुंग यही होगा तो उसका जन्मधर्म एकान्तवलीमें कहे हुए प्रत्येक गुरुके सम्बन्धमें उससे पक्ष याने वैष्णव धर्म था यह बात और भी दृढ किया गया विशेष कार्यों का उल्लेख उसके नामके होती है। अन्यथा इस पक्षमें कहा हुघा वक्तव्य साथ है । उसमें जिनसेनके सम्बन्धमें इतना ही इतिहासदृष्टिसे असंगत होनेसे उस पर विश्वास कहा है नहीं किया जा सकता। धवल महाधवन-पुराणादि सकसप्रन्थकर्तारः श्री- (६) 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' नृपतुंगकी कृति जिनसेनाचार्याणाम्" (जै. सि भा.. I. I. 4. ३१) नहीं है, उसमें कहा हुआ "विवेकात्त्यक्तराज्येन' (३) जिनसेनने अपनी कृतियोंमें कहीं पर भी श्लोक उसकी मूल रचना नहीं है, अर्वाचीन मैं नृपतुंगका गुरु हूँ यह नहीं कहा अथवा अपने प्रक्षेप किया गया होगा अथवा उस श्लोकके वक्तव्य नामकं साथ नृपतुंगका नाम भी नहीं कहा। को सत्य समझने पर भी, उससे नृपतुंगने अपने (४) जिनसेन ई० स० ८४८ के उपरान्त विवेकसे राज्य त्याग दिया अर्थ होता है न कि नहीं होगा । नपतुंग जिनसेनसे मतान्तर हो गया जैन धर्मका अवलंबन करनेसे वैसा किया या वह हो तो उसके पहिले ही होना चाहिये; परन्तु विवेक उसे जैनधर्मसे प्राप्त हुआ यह अर्थ उदा.- श्रवणबेल्गुनका गोम्मटेश्वरप्रतिष्ठापक सर्वथा नहीं हो सकता है। चामुंडरायका प्रथम गुरु 'अतितसेनाचार्य के सम्बन्ध विष्णु अपने अनेक अवतारों में चक्रवति या यह इस पहावलीमें इस प्रकार है: बात 'श्रीमद्भागवत' इत्यादि पुराणोंसे मालूम पाती है 'दक्षिण-मथुरानगरनिवासि पत्रियवंशशिरोमणि- उदा-दशरथराम, ऋषभचक्रवर्ती, प्रथुचक्रवती, परिणत्रीलिंगकर्नाटदेशाधिपतिचामुण्डराय-प्रतिबोधक इत्यादि ) जैन धर्मके द्वादश चक्रवर्तियोंके नाम रखने बाहुबलिप्रतिबिम्ब गोम्मटस्वामिप्रतिष्टाचार्य श्रीमजितसेन. 'भजितपुराण' में करे हैं (कर्नाटककाव्यकलानिधि भट्टारकाणाम्" (०सि०भा० ... पृ. ३८) पृ. १३) Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [माद्रपद, बीर निर्वाच सं० २०५६ (७) 'कविराजमार्ग' का कर्ता नृपतुंग हो धर्म नहीं छोड़ा मालूम पड़ता है। अथवा उसके भास्थानका और कोई हो, उसमें (९) ई० सन् ८७७ के पश्चात इसका देहावप्रतिफलित धर्म नृपतुंगका धर्म ही होना चाहिये, सान हुआ हो, अथवा यह राज्य-भारसे निवृत्त कर्ता अन्य होने पर भी उसका नहीं; अतएव हुआ हो, इस बातको निष्कृष्ट करनेके लिये योग्य उसकी अवतारिकाके पोंमें कही हुई विष्णु- साधन नहीं है। इसका पुत्र तथा इसके अनन्तर स्तुतिसे नृपतुंग वैष्णव था यह बात भली भांति गद्दी पर पाया हुआ 'अकालवर्ष' नामका दूसरा व्यक्त होती है। कृष्ण (कमर ) अपने पूर्वजोंके धर्ममें रहसे नप(८) सोरब शि० लेख न०८५ (ई० स० तुंग आमरणान्त अपने पूर्वजोंके भागवत वैष्णव ८७७ ) में इस नृपतुंगका (और उसके शासनके धर्मका अवलंबी ही होना चाहिये । अपने अन्तिम अन्तिमवर्षेका) शासन, इस राष्ट्रकूटवंशके (इसके समयमें भी उसने जैनधर्मका अवलंबन नहीं पहिले राज्य करने वाले ) अन्य नरेशोंके शासनके किया। समान है । इससे भी उसने अपने पूर्वजोंका शिक्षा ५ जो चाहो सुख जगत में राग-द्वेष दो छोड़। बन्ध-विनाशक साधु-भिय, समतासे हित जोड़॥ A अपना अपने में लखो, अपना-अपना जोय । ___अपने में अपना लखे, निश्चय शिव-पद होय ॥ श्री क्रोध बोध को क्षय करत, क्रोध करत वृष-नाश। भमा अमिय पीते रहो, चाहो आत्म-विकाश ॥ - प्रेमसागर पञ्चरत्न (प्रेम) रीठी 1 1 Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैनधर्म-परिचय' गीता-जैसा हो [ले.-श्री दौलतराम 'मित्र', इन्दौर ] जाता हिन्दूधर्मका एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। कौरव- बोल उठे कि-"जैनियोंके भण्डारमें गीताके समान " पाडव-युद्ध-घटनाको लेकर गीतामें जीवन कोई अन्य हो तो दिखलाना चाहिये,नहीं तो उन्हें गीताकी प्रायः सभी समस्याओंके हल करनेका प्रयल किया धर्मका अनुयायी होकर हिन्दूसभामें शामिल होना गया है। इस विशेषताके कारण गीता इतनी लोक- चाहिये ?" प्रिय हो गई है कि दुनियाकी प्रायः सभी भाषाओंमें जैनधर्म-अन्य-प्रचारके लिये अभीके पिछले दिनोंमें उसके अनुवाद मौजद हैं। भी बहुत कुछ प्रयल हुए, परन्तु वे पार नहीं पड़ पाये। जो सच्चे धार्मिक है,वे सभी अपने अपने धर्म ग्रन्थ- पार नहीं पड़ पानेका कारण लेखकोंकी अयोग्यता न. का प्रभाव फैलाने-प्रचार करने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु और और कारण हैं। परन्तु प्रचार उसीका होता है जो सर्वसाधारण-जन- पहिला प्रयत्न, पं०राजमल जीने किया, "पंचाध्यायो" सुलभ और सुबोध होता है । गीता-प्रचारकोंने इन अन्य संस्कृतमें लिखा, दो अध्याय भी पर नहीं हो दोनों बातोंका अच्छा उपयोग किया है। पाये । अगर यह अन्य पूरा लिखा गया होता तो इसके गीताप्रचारको देखकर श्राजके हम जैन लोगोंका सामने गीता फीकी दिखाई देती। फिर भी जितना भी ध्यान जैनधर्म-प्रचारके लिये श्राकर्षित होने लगा लिखा गया है उतना ही बहुत महत्व रखता है। है। परन्तु जैसा हिन्दूधर्मका सार अथवा जीवनकी दूसरा प्रयत्न पं०टोडरमलजीने किया, "मोक्षमार्गप्रायः सभी समस्याओंका हल एक जगह गीतामें इकहा प्रकाशक" ग्रंथ ढूंढाड़ी-हिन्दीमें लिखा, यह मी अधरा किया गया है, वैसा जैनधर्मका सार एक जगह इकट्ठा रहा। किया हुश्रा नहीं है। यही कारण है कि जैनधर्म-प्रचारके तीसरा प्रयल पं० गोपालदासजी बरैयाने किया, लिये जैनधर्मका परिचय कराने वाले एक ऐसे ग्रन्थकी "जैनसिद्धान्तदर्पण" ग्रन्थ हिन्दीमें लिखा, यह भी जरूरत है जो हो-"गीता जैसा"। पूरा नहीं हुआ। बहुतसे महत्वपूर्ण ग्रन्थोंके होते हुए भी गीता-जैसा थे तीनों ही प्रयत्न सर्वसाधारण-जनोपयोगी ग्रन्थ ग्रन्थ हमारे यहाँ संग्रह किया हुआ न होनेसे आज बनानेके थे। प्रमाण ये हैहमें समय समय पर दूसरे धार्मिकोंके कुछ आक्षेप भी पं० राजमल्लजी पंचाध्यायीमें लिखते हैंसहन करना पड़ रहे हैं। उस दिन कोल्हापुर में हिन्दू- मत्रान्तरंगहेतुचपि भावः कवेशिखतरः। धर्मपरिषदके अधिवेशनमें महादेव शास्त्री दिवेकर हैतोस्तथापि साध्वी सर्वोपकारिखी बुद्धिार Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ अनेकान्त [भाद्रपद, बीर निर्वाण सं०२१॥ सापि जीवनोक पोतुं कामोर्ष दिसुगमोक्त्या। दानवीर धनिकोका भी हमारे समा नमें टोटा नहीं है। विल्सी तस्य ने तापमुपकः मेषान् । अब शेष रहे विद्वान लोग । सो-प्राजका जमाना अर्थ-अन्य बनानेमें यद्यपि अन्तरंग कारण कविका उपयोगितावादका है । किसी बातकी उपयोगिता (श्रावअति विशुद्ध भाव है तथापि उस कारणका भी कारण श्यकता) विज्ञानोपकरणों के द्वारा सिद्ध कर देने पर हो सब जीवोंका उपकार करने वाली साधुस्वभाव वाली लोग उसे अधिकांशमें अपनाने को तैयार होते हैं। हमारे बुद्धि है।॥ ५॥ सम्पूर्ण जनसमूह धर्मको सरलरीतिसे समाजमें ऐसे पंडित ( जो जिनसिद्धांत शास्त्रके जानकार सुनना चाहता है, यह बात सर्व विदित है । उसके लिए हैं.और ऐसे प्रोफेसर भी हैं जो विज्ञानोपकरणोंके जानकार वह प्रयोग (ग्रंथावतार-योजना) श्रेष्ठ है। हैं, परन्तु ये दोनों महानुभाव मिलकर ही ऐसे ग्रंथका इसी प्रकार पं० टोडरमल जी मोक्षमार्गप्रकाशकमें निर्माण कर सकते हैं, एक एक नहीं । क्योंकि एक लिखते है दूसरेके विषयका बहुत ही कम जानकार हैं। "करि मंगल करिहों महामन्ध कानको काव। इस प्रकार सामग्री सब मौजूद है । जिस दिन इस बातें मिले समाज सुन पा विजपा राज ॥" उद्देश्यको लेकर पंडितों और प्रोफेसरोंका सम्मेलन हो ५. गोपालदासजीने भी श्री जैनसिद्धान्त-दर्पणमें जायेगा उस दिन ग्रन्थ तैयार हुआ समझिये | जरूरत लिखा है है ऐस सम्मेलनकी शीघ्र योजना की। गत्वा वीरबिनेन सर्वज्ञमुक्तिमार्गनेतारम् । यदि दस हज़ार रुपये खर्च करके भी हम ऐसा गाव-प्रबोधनाचं वैनं सिदान्त-दर्पणं बो" मूलग्रन्थ (हिन्दी और अंग्रेजीम) तैयार करा सकें तो प्रस्तु-अब हमें यह देखना है कि गीता-जैसा समझ लेना चाहिये कि वह बहुत ही सस्ता पड़ा। जिनधर्म-विषयक ग्रंथ बनाने और प्रचार करनेके लिये मेरी समझमें यह काम "वीरसेवामन्दिर, सरकिस किस सामग्रीकी श्रावश्यकता है ? वह सामग्री यह है- सावा" के मिपुर्द होगा तो पार पड़ सकेगा। अन्यथा १ जिन-सिद्धान्त-शास्त्र। नाम भले ही हो जाय, काम होने वाला नहीं । २ विद्वान लोग। अर्थात्-जो कुछ भी अन्य तंत्रोंमें अच्छी अच्छी ३ पाश्चात्य विज्ञानोपकरणोंकी खरीदारी तथा ग्रंथ उक्तियाँ दृष्टिगोचर हो रही है वे सब जिनागमसे उठा का लिखाईपाई आदिकालय धना ली गई है। (राजवातिक) जिनसिद्धान्तशास्त्र के विषयमें दावेके साथ कहा जयति अगति क्लेशावेशप्रपंच-हिमांशुमान् । जा सकता है कि यह सामग्री हमारे पास काफ़ी है ।x वित-विषमैकांत-प्यान्त-प्रमाण-नारामान् ॥ x बल्कि यहाँ तक कहा जाता है कि- पतिपतिरबो यस्यान्यान् मताम्बुनिधर्मवान् । सुनिखित कः परतंत्रयुक्तियु, स्वमत-मतवस्तीयां नामा परे समुपासते ॥ स्फुरति पाः काबनसूचिसम्पदः। अर्थात्-जिनागमके एकएक बिन्दुको लेकर वैष वा पूर्वमहाबोस्थिता, अनेक दार्शनिक अपना अपना मत बखानते हुए उसी बगलामा बिनवाक्यविभुषः । जिनशासनकी उपासना करते हैं। Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राशा ले०-श्री रघुवीरशरण अग्रवाल एम.ए. "घनश्याम"] अपि भाशे ! त जगदाधार। तेरे बिन सब शून्य जगत है। सभी जगह तब भाव-भगत है । पूर्व कार्यके तू पाजाती। कर्ता को है धीर बंधाती॥ बनाती क्या क्या नये विचार । अयि आशे ! तु जगदाधार ॥ नई उमझोंका युवकोंकी । नई कल्पनाका बालाकी ॥ अभिलाषाका वृद्ध जनोंकी । सुख-निद्राका बाल-गणोंकी । हमेशा करती है विस्तार । अयि भाशे ! तू जगदाधार ॥ (२) भिन्न रूपसे सबके मनमें । भूमण्डलके हृदयस्थलमें । कैसे कैसे काम कराती। भित्र भिन्न परिणाम दिखाती ॥ भिन रखती सबसे व्यवहार । अयि भाशे ! तू जगदाधार ॥ चातककी उस तृषित तानमें । चीणाके सुरमयी गानमें ॥ वकराजके लोम-पाशमें । विरह-विपीड़ित नारि-श्वासमें ॥ सदा तू करती है संचार । अषि प्राशे ! तू जगदाधार ॥ पथिक मार्ग चलता तव बल पर। पतिव्रता रहती निज व्रत पर ।। धर्म, अर्थ औं काम मोक्षके। सब साधन तेरे सँजोगके । सभीको देती है साधार। अयि प्राशे ! तू जगदाधार ॥ कभी राज-महलोंमें रहती । कभी गरीबीके दुल सहती ॥ श्रमी कृषकके कभी खेतमें। मई-जूनकी ल गर्मीमें ॥ सुख पाती औ' दुःख अपार । अपि भाशे ! तू जगदाधार । Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यानन्द - कृत सत्यशासनपरीक्षा [ ले० – न्याय दिवाकर न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जैन शास्त्री, काशी] जैनहितैषी (भाग १४ अङ्क १०-११ ) में, उसके तत्कालीन सम्पादक पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार - द्वारा 'सत्यशासन-परीक्षा' ग्रन्थका परिचय कराया गया है । उसीमें इसे विद्यानन्द-कृत भी बतलाया है । मुझे वहं परिचय पढ़कर जैनतार्किक - शिरोमणि विद्यानन्दकी इस कृतिको देखने की उत्कट इच्छा हुई। मेरी इच्छाको मालूम करके, जैन सिद्धान्तभवन श्रा के अध्यक्ष सुयोग्य विद्वान् पं० भुजबलीजी शास्त्रीने तुरन्त ही 'सत्यशासनपरीक्षा' की वह प्रति मेरे पास भेज दी । इसका विशेष परिचय निम्न प्रकार है:प्रतिपरिचय - - इस प्रतिमें १३४६ इंच साइज़के कुल २६ पत्र है । एक पत्रमें एक श्रोर १२ पक्तियाँ तथा एक पंक्ति में करीब ५० अक्षर हैं। लिखावट नितान्त श्रशुद्ध है। ग्रन्थके मध्य में कहीं भी ग्रन्थकर्ताका नाम नहीं है। ग्रन्थ अपूर्ण है । क्योंकि श्रारम्भ में ही "इह पुरुषाद्वैत शब्दात विज्ञानात चित्रा द्वैतशासनानि चार्वाक बौद्धसेश्वर-निरीश्वर-सांख्य- नैयायिक-वैशेषिक-भाट्टप्रमाकरशासनानि तत्वोपच्ल वशासनमनेकान्तशा सनब्चेष्यकशासनानि प्रवर्तन्ते" इस वाक्य द्वारा इसमें पुरुषा द्वैत श्रादि १२ शासनों की परीक्षा करनेकी प्रतिज्ञा की गई है । परन्तु प्रभाकर के मत के निरूपण तक ही ग्रंथ उपलब्ध हो रहा है। प्रभाकरके मतका निरूपण भी उसमें अधूरा ही है। तत्वोपप्लव शासनकी परीक्षा तथा ग्रन्थका सर्वस्व अनेकान्तशासन-परीक्षा तो इसमें है ही नहीं । यह ग्रन्थ खंडित भी मालूम होता है; क्योंकि पुरुषाद्वैत की परीक्षा के बाद क्रमानुसार इसमें 'शब्दाद्वैतपरीक्षा' होनी चाहिए, पर शब्दाद्वैतकी परीक्षाका पूराका पूरा भाग इसमें नहीं है । पृ० ६ पर जहाँ पुरुषाद्वैतकी परीक्षा समाप्त होती है, एक पंक्तिके लायक स्थान छोड़ कर 'विज्ञानाद्वैत परीक्षा' प्रारम्भ हो जाती है । मालूम होता है कि शब्दाद्वैतपरीक्षा वाला भाग छूट गया है। इस ग्रंथका मंगल श्लोक यह है विद्यानन्दादि (धि) पः स्वामी विद्वद्देवो जिनेश्वरः । ये (यो)खोकैकहितस्तस्मै नमस्तात् सात्म (स्वात्म) लब्धये ॥ ग्रन्थकी विद्यानन्द-कर्तृ कता– (१) यद्यपि बौद्धदर्शन में दिग्नागकृत श्रालम्बनपरीक्षा, त्रिकालपरीक्षा; धर्मकीर्तिविरचितसम्बन्ध परीक्षा; कल्याणरक्षितकी श्रुतिपरीक्षा; धर्मोत्तर की प्रमाणपरीक्षा आदि परीक्षान्त नाम वाले प्रकरणोंके लिखने की प्राचीन परम्परा है, शान्तरक्षितका तत्त्वसंग्रह तो बीमों परीक्षाओं का एक विशाल संग्रह ही है । परन्तु जैनदर्शन में केवल तार्किकप्रवर विद्यानन्दने ही प्रमाणपरीक्षा, आस परीक्षा, पत्रपरीक्षा आदि परीक्षान्त नाम वाले प्रकरणों का रचना शुरू किया है, और दि० तार्किक क्षेत्रमें उन्हीं तक इसकी परम्परा रही है । यद्यपि पीछे भी श्राचार्य श्रमितगति श्रादिने 'धर्मपरीक्षा' श्रादि परीक्षान्त तात्त्विक ग्रंथ लिखे हैं पर दि० तर्कप्रधान ग्रंथोंमें परीक्षान्त नाम वाले ग्रंथ विद्यानन्दके ही पाए जाते हैं। श्वे० प्रा० उपाध्याय यशोविजय जीने 'अध्यात्ममतपरीक्षा' तथा Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३, किरण विद्यानन्ध-कृत सत्वशासनपरीषा " देवधर्मपरीक्षा-जैसे तर्कशैलीके तात्विक ग्रन्थ लिखे होनी है । ब्रह्माद्वैत श्रादि प्रकरणों में बृहदारण्यक भाष्यहै। 'सत्यशासनपरीक्षा का परीक्षान्त नाम भी अपनी वार्निक ( सम्बन्धवार्तिक श्लोक १७५-८१ ) श्रादिके विद्यानन्द-कर्तृकताकी ओर संकेत कर ही रहा है। प्रमाश्चिावदिष्ट चेचनु दोषो महानवम्' इत्यादि वे ही (२) जिस प्रकार प्रमाणपरीक्षा' के मंगलश्लोक श्लोक इसमें उद्धत किए गए है जो कि अष्टसहसी में 'विद्यानन्दा जिनेश्वराः' पद जिनेन्द्र के केवलज्ञान (पृ० १६२ ) में पाए जाने है। समवायके खंडनमें और अनन्तसुखको तो विशेषण बन कर सूचित करता प्राप्तपरीक्षाकी शैली शन्दतः तथा अर्थतः पूरी छाप ही है तथा साथ ही साथ ग्रंथकर्ताके नामका भी स्पष्ट मारती है। इन सब विद्यानन्दके अपने ही ग्रंथोंका इस निर्देश कर रहा है उसी प्रकार सत्यशामन-परीक्षाके तरहका तादात्म्य भी 'सत्यशासनपरीबा' के विद्यानन्द मंगलश्लोकका 'विद्यानन्दाधिपः' पद भी उक्त दोनों की कृति होनेमें परा परा साधक होता है । कार्योंको कर रहा है । जिस प्रकार मंगलश्लोकके (४) विद्यानन्दके ही अष्टसहस्री तथा प्रमाणपरीक्षा अनन्तर 'पथ प्रमाणपरीक्षा' लिखकर प्रमाणपरीक्षा श्रादि प्रथोमें तत्वोपप्लवकी समीक्षा बादको देखी जाती प्रारम्भ होती है ठीक उसी प्रकार मंगलश्लोकके बाद है। इसमें भी तत्वोपप्लवकी परीक्षा बादको करनेकी 'प्रथ सत्पशासनपरीक्षा की शुरूआत होती है । यद्यपि प्रतिज्ञा कीगई है। 'अर्थ' शब्दसे ग्रन्थ प्रारम्भ करनेको परम्परा श्रापस्तम्ब ग्रन्थका बिम्ब-प्रतिबिम्ब भावश्रौतसूत्र, पातञ्जल-महाभाष्य तथा ब्रह्मसूत्र आदि ग्रन्थोंमें सत्यशासनपरीक्षा के मूल प्राधार स्वयं विद्यानन्दके पाई जाती है परन्तु मानश्लोकके अनन्तर 'अर्थ' शब्द ही अष्टसहस्त्री तथा प्राप्तपरीक्षा ग्रंथ है । जिनमें से ग्रंथ प्रारम्भ करना विद्यानन्दके ग्रंथों में देखा जाता है, श्रष्टसहस्रीका तो पद पद पर सादृश्य है । और यही शैली श्रा० हेमचन्द्र आदिने भी प्रमाणमीमांमा, का भी समवायके खण्डनमें पूरा पूरा सादृश्य है। इसका काव्यानुशासन श्रादिमें अपनाई हैं। इस तरह विद्यानन्द प्रतिबिम्ब प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र,प्रमेयरत्नकर्तृकरूपसे सुनिश्चित प्रमाणपरीक्षाकी शैलीसे इसका माला श्रादि ग्रन्थों पर पूरा पूरा पड़ा है। इन ग्रंथोंमें इस प्रारम्भ श्रादि देखनेसे ज्ञात होता है कि यह कृति भी के अनेकों वास्य जैसे के तैसे शामिल कर लिए गए हैं। विद्यानन्दकी है। (३)उपलब्ध ग्रन्थका अान्तरिक निरीक्षण करनेके बाद विषयपरिचयइसमें कोई भी ऐसा अवतरण-वाक्य नहीं मिलता जिसका सबसे पहले परीक्षाका लक्षण करते हुए लिखा है कर्ता निश्चितरूपसे विद्यानन्दका उत्तरकालवर्ती हो। इसकी कि "इयमेव परीचयो यस्येदमुपपद्यते न वेति विचार" शैली तथा विषयनिरूपण की पद्धति बिलकुल अष्टसहस्रीसे अर्थात् 'इस वस्तु में यह धर्म बन सकता है या नहीं, इस मिलती है। कहीं कहीं तो इतना शब्द-साम्य है कि पढ़ते विचारका नाम ही परीक्षा है। पढ़ते यह भ्रम होने लगता है कि 'अष्टसहस्री पढ़ रहे हैं सत्यशासनपरीक्षाका तात्पर्य बताया है-'शासनोंके या सत्यशासनपरीक्षा ? इस तरह बहुतसे स्थलोंमें तो सत्यत्वकी परीक्षा-कौन शासन सत्य है तथा कौन असत्य' यह अष्टसहस्त्रीके मध्यम संस्करणके समान ही प्रतीत सत्यका परिष्कृत लक्षण करते हुए लिखा है कि-"इद Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ না [भाद्रपद, बीर निर्वाण सं. २०१९ मेव हि सत्यशासनस्य सत्यत्वं नाम यत् दृष्टेष्टाविरुदत्वम्' 'पषा पत्राविसंवादः तथा तत्र प्रमाणता' यह कारिकांश अर्थात् शासनोंकी सत्यताका अर्थ है, उनका प्रत्यक्ष तथा अकलंकदेवका नाम निर्देश करके ही उद्धृत किया है। अनुमानसे बाधित नहीं होना । प्राचार्यमहोदयने सत्यता- अष्ट सहस्री (पृ० १५६ ) का 'महि करोति कुम्म की इसी सीधी-सादी कसौटी पर क्रमशः सभी दर्शनोंको कुम्भकारो दण्डादिना, मुक्ते पाणिनौवनमित्यादिकसा है। उन्होंने दर्शनोंकी परीक्षा करते समय पहले क्रियाकारकभेदप्रत्यक्ष प्रान्तं ..' इत्यादि अंश ज्योंका सभी दर्शनोंका प्रामाणिक पूर्वपक्ष रखा है । फिर त्यों ग्रन्थमें शामिल है । अन्तमें ब्रह्माद्वैतपरीक्षाका पहले उसे प्रत्यक्ष-बाधित बता कर अन्तमें अनुमानसे उपसंहार करते हुए लिखा है किबाधित सिड करके उस उस दर्शनकी परीक्षा समाप्त की ब्रह्माविद्याप्रमापायात् सर्ववेदान्तिना(ना) वचः । है। इन परीक्षाओंका कुछ परिचय निम्न प्रकार है:- भवेत्प्रलापमानत्वाचावदे()विपरिचताम् ॥ १ ब्रह्माद्वैतपरीक्षा-इसके पूर्वपक्षमें बृहादारण्य- ब्रह्माद्वैतं मतं सत्यं न स्टेष्टविरोधतः । कोपनिषत् (२।३।५) 'भारमावारेऽयं दृष्टव्यः', ब्रह्मसूत्र न च तेन प्रतिपः स्याद्वादस्पेति निश्चितम् ॥ (१११२)का 'जन्माणस्य यता', गीता (१५। १ ) का २ शब्दादेतपरी-इसका भाग प्रथमें नहीं है। 'अवमूलमधः शाखमरवत्थं प्राहुरूपयम्' इत्यादि अनेकों विज्ञानाद्वैतपरी-इसका निरूपण भी प्राचीन ग्रंथोंके अवतरण दिए गए हैं। उत्तर पक्षमें श्रष्टसहस्रीके सातवें परिच्छेदसं बहुत कुछ मिलता जुलता समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसाके दूसरे अध्यायकी कान्त- है। इममें श्रष्टशती (अष्टसहस्री पृ०२३४) में उदधृत परेऽपि इत्यादि ५-६ कारिकाएँ उद्धृत है । अकलङ्क- 'यतया या घटामुपैति तदहं दृष्ट्वापि न श्राधे' यह देवके न्यायविनिश्चयकी "इन्द्रजालादिषु प्रान्ति" यह वाक्य उद्धत है। कारिका (नं० ५१), कुमारिलके मीमांसा-श्लोकवार्तिक विज्ञानाद्वैतका पूर्वपक्ष समाप्त करते हुए ये श्लोक (पृ.१६८) की 'अस्तिमालोचनाशानम्' यह कारिका का लिखे हैं, जो किसी जैनतर्कप्रथमें उद्धृत नहीं हैंभी प्रमाणरूपमें उद्धृत है। अष्टशती ( का० २७) का नावनिर्न सजिलं न पायको न मा गगनं न चापरम् । 'भातशब्दः स्वाभिधेयप्रस्थनीकारमार्थापेकः पम्पूर्वा विश्वनाटकविलाससारिणी संविध(द)व पतितोविजृम्भयति खबखपरत्वापहेत्यभिधानवत्' यह प्रसिद्ध अनुमान भी " एकसंविधि(दि)विभाति भेदधी:नीलपीतसुखदुःखरूपिणी। अद्वैतके खण्डनमें उपस्थित किया गया है। निम्ननामीयमुञ्चतस्तनी नीति चित्रफलकेसमे इति ।। अविद्याको अनिवचनीय कह करके भी उसके स्व उत्तरपक्षमें समन्तभद्र के युक्तथानुशासनकी 'अनर्षिरूपका निरूपण करनेवाले अद्वैतवादीको स्ववचनविरोध कासाधनसाध्यधीश्वेद" इत्यादि कारिका प्रामणरूपमें दूषण देते हुए उसके अनेक दृष्टान्त दिए हैं। यथा- उद्धृत कीगई है । अन्तमें उपसहार करते हुएलिखा हैपावजीवमहं मौनी प्रमचारी च मत्पिता। प्रमाणाभावतः सर्व विज्ञानातिनां वचः । माता मम मवेदण्या स्मराभोऽनुपमो भवान् । भवेत्प्रलापमात्रत्वाचावयं विपबिताम् ॥ अकलंक देवके सिद्धिविनिश्चय (पृ० ६५) का ज्ञानातं न सत्यं स्याद् दृष्टेष्टाभ्यां विरोभतः। Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, निय ] विद्यानन्द-कृत सत्यशासनपरीक्षा न तेन प्रतिपः स्वाहादसे (दस्य) ति निश्चितम् ॥ सत्योंके स्वरूप,तथा मोक्षके सम्यक्त्व श्रादि पाठ अंगोंका ४ चाकिमतपरीक्षा- इसके पूर्वपक्षमें सबसे पहले बहुत सुन्दर विवेचन किया है। मोक्षके शून्यरूपका सुगतो यदि सर्वज्ञः कपिलो नेति का प्रमा'इस कारिकाके वर्णन करते हुए अश्वघोषकृत सौन्दरनन्द काव्य (१६ । द्वारा सर्वश पर श्राक्षेप करके अन्त में तर्क और आगमकी २८-२६ ) के ये श्लोक उद्धृत किए हैनिःसारता दिखाते हुए महाभारतका यह श्लोक उद्धत दोपो यथा निवृतिमभ्युपेतो नैवानि गति नान्तरितम् किया है दिशं न काचिद्धिविशंन काशिस्नेहपयात केवलमेतियांतिम्। तको प्रतिष्ठःतयो विमिना नासौ मुनिर्यस्य वचप्रमाणं। जिनस्तथा निर्व तिमभ्युपेतो नैवावधि गच्छति मान्तरितम् धर्मस्य तत्वं निहितं गुहाया महाजनो येन गतः सपन्था॥ विशं न काशिद्विविशं न काजिमोवण्यात् केवलमेतियांतिम् यह समस्त पूर्वपक्ष अष्टसहस्री (पृ० ३६ ) के मोक्षके उपायोंमें सिर और दाढीका मुंडाना, कषाय समान ही है। वस्त्रका धारण करना तथा ब्रह्मचर्यका पालन आदि अन्तमें अग्निहोत्रादिको बुद्धि और पुरुषार्थशून्य उल्लेखित है। ब्राह्मणों की श्राजीविकाका साधन कहकर विषय-भोगोंको उत्तरपक्ष अष्टसहस्रीको शैलीसे ही लिखा गया है। छोड़ने वालोंकी निपट मूर्खता बताते हुए लिखा है कि- इसमें लधीयस्त्रयकी 'यथैकं मित्र देशार्यान्' कारिका "यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् नास्ति मृत्योरगोचरः। (श्लोक न०३७) उदधृत की है। अन्तमें खंडन करते करते खोजकर बौद्धोंको लिखा है कि-ये हेयोपादेय भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ विवेकसे रहित होकर केवल अनापशनाप चिल्लाते हैंभनिहोत्रं त्रयी वेदाः त्रिदण्डं भस्मगुगठनम् । "तथा - सौगतो हेयोपादेयरहितमहीका केवलं बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः ॥” इत्यादि विक्रोशति इत्युपेक्षामहति" यही वाक्य अष्टसह सीमें उत्तरपक्षमें यशस्तिलक उत्तरार्ध (१० २५७ ) लिम्वा है। बात यह है कि धर्मकीर्तिने दिगम्बरों के लिये तथा प्रमयत्नमाला ( ४१८) म उद्यत श्रीक श्रादि शब्दोंका प्रयोग करते हुए प्रमाणवार्तिक तदहर्जस्तनेहातो रसोदृष्टेर्भवस्मृतेः। (३॥ १८२) में लिखा है कि-'एतेनैव बदहीका पकिभूतानन्वयनात् सिद्धः प्रकृतिशः सनातनः । शिवरनीलमाकुलम् । प्रजपन्ति ।........."पाक पंक्ति यह कारिका तथा समन्तभद्र के युक्त्यनुशामनकी में धर्मकीर्ति के शब्द उन्हींको धन्यवादके साथ वापिस 'मांगवद्भुतसमागमे शः, यह कारिका (श्लोक नं०३५ किए गए हैं । इसमें समन्तभद्रकी श्रासमीमांसा तथा प्रमाणरूपमें पेश कीगई है । अन्तमें उपसंहार करते युक्त्यनुशासनके अनेकों पद्य प्रमाणरूपसे उद्धृत कर हुए वैसा ही श्लोक लिखा है खंडनको अधिकसे अधिक मुगठित किया है। न चार्वाकमतं सत्यं दृष्टादृष्टेटबापतः । स्कंधकी सिद्धि में सर्वार्थसिद्धि में उद्धृत 'णिस्स न च तेन प्रतिपः स्याद्वादश्वे (दस्य)ति निश्चितम् ॥ णिवेण दुराधिएण' यह गाथा भी उद्धृत की है। ५ ताथागतमतपरीक्षा-इसके पूर्वपक्षमें रूपादि अन्तमें सुगतमतको दृष्टेष्टबाधित बताकर सुगतमतपांच स्कंधोंके लक्षण, दुःखसमुदाय आदि चार आर्य परीक्षा समाप्त की है। Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भाद्रपद, बीर निवांश सं०२१५ साल्वमतपरीपा-इसके पर्वपक्षमें पच्चीस तत्वों- ...१० भादृ-प्रभाकरमतपरीक्षा-पूर्वपक्षमें भाटों के शानकी महत्ता बताते हुए माठरवृत्ति (पृ. ३८) द्वारा ग्यारह पदार्थों का स्वीकार करनेका स्पष्ट कथन है, में दिया गया यह श्लोक उद्धृत किया है जो किसी प्राचीन तर्कग्रन्थमें नहीं देखा जातापंचविंशतिवयो पत्र हुनाश्रमे रतः। ___"मीमांसकेषु ताबद् भाहा भणन्ति-पृथिव्यसेजो मी मुंडी शिजी केशी मुज्यते नात्र संशयः॥ वायुविकाजाकाशारममनाराब्दतमांसि इत्येकादशैव पदा ः ।" सहन ठीक अष्टसहस्रो-जैसा ही है। प्रभाकर नव पदार्थ ही मानते हैं-"द्रव्यं गुणः • वैशेषिकमतपरीक्षा-इसके पूर्वपक्षमें मोक्षके क्रिया जातिः संख्या सादृश्यशक्तयः । समवायामश्चेति साधन बताते हुए लिखा है कि-शेष पाशुपतादिदीचा नव स्युः गुरुदर्शने" भागुण क्रिया आदिको स्वतन्त्र प्राण-जटाधारण-त्रिकाबमस्मोद्धूलनावितपोऽनुष्ठानवि पदार्थ नहीं मानते। ऐपश्चा " ____ भाट जातिका और व्यक्तिमें सर्वथा तादात्म्य मान वैशेषिकके अवयवीका खंडन करते हुए उसे कर मी जातिको नित्य और एक मानते हैं। इसका 'अमूल्यदानायी'-बिना कीमत दिए खरीदने वाला खंडन करते हुए हेतुबिन्दुकी अर्चटकृत टीकामें उद्धृत लिखा है । यह पद धर्मकीर्तिके ग्रंथोंमें पाया जाता है। निम्न कारिकाएँ भी प्रमाणरूपमें पेश की गई हैं:इसकासमवायके खंडन वाला प्रकरण प्राप्तपरीक्षा' तावास्यं चेन्मतं जातेयक्तिजन्मन्यजातता । के साथ विशेष सादृश्य रखता है। और इमीका प्रति- नाशेऽनाशकेनेष्टेः तहमानन्वयो न किम् ॥ इत्यादि बिम्ब प्रमयकमलमातण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रक समवाय बस सामान्यका खडन अधरा ही है । आगेका खंडनमें स्पष्ट देखा जाता है। ग्रंथ नहीं मिलता। नैयायिकमतपरीक्षा-वैशेषिक और नैयायिकों इसमें श्रागे भट्ट जयराशिसिंहकृत 'तत्त्वोपप्लवसिह में कोई खास भेद न बताते हुए वैशेषिकमतके साथ ग्रंथमें प्ररूपित तत्वोपप्लव सिद्धान्तको परीक्षा होगी । ही साथ इसकी भी लगे हाथ परीक्षा कीगई है । इसके अष्टसहस्री आदिकी तरह ही इसमें यह परीक्षा अत्यन्त पूर्वपक्षमें भक्तियोग, क्रियायोग तथा शानयोगका वर्णन विशद होनी चाहिए । है। भक्तियोगसे सालोक्य मुक्ति, क्रियायोगसे सारूप्य यहां तक तो ग्रंथका खंडनात्मक माग ही है। और सामीप्य मुक्ति, तथा शानयोगसे सायुज्य मुक्तिका भागेका 'अनेकाम्तशासनपरीचा' भाग, जो ग्रन्थका प्राप्त होना बहुत विस्तारसे बताया है। उत्तरपक्षमें मंडनात्मक भाग है और काफी विस्तारसे लिखा गया विपर्यय, अनध्यवसाय पदार्थोंको सोलहसे अतिरिक्त मानने होगा, इसमें उपलब्ध ही नहीं है। का प्रसंग दिया है । सोलह पदार्थों के खंडनका यही तर्कग्रन्थोंके अभ्यासी विद्यानन्द के अतुल पाण्डित्य, प्रकार प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि ग्रंथोंमें भी देखा जाता तलस्पर्शी विवेचन, सूक्ष्मता तथा गहराईके साथ किए है। अन्तमें, उपसंहार करते हुए लिखा है कि- जाने वाले पदार्थों के स्पष्टीकरण एवं प्रसनभाषामें गंथे "संसर्गहानेःसाहानेयोगवचोखिजम् । भवेत्मसाप..." गए युक्ति जालसे परिचित होंगे। उनके प्रमाणपरीक्षा, Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ११] पत्रपरीक्षा और श्राप्तपरीक्षा प्रकरण अपने अपने विषय के बेजोड़ निबन्ध है। ये ही निबन्ध तथा विद्यानन्द के अन्य ग्रंथ श्रागे बने हुए समस्त दि० श्वे० न्यायग्रंथोंके आधार भूत हैं। इनके ही विचार तथा शब्द उत्तरकालीन दि० श्वे० भ्यायग्रन्थों पर अपनी अमिट छाप लगाए हुए हैं । यदि जैनभ्याय के कोशागार से विद्यानन्दके ग्रन्थों को अलग कर दिया जाय तो वह एकदम निष्प्रभ-सा हो जायगा । उनकी यह सत्यशासनपरीचा ऐसा एक तेजोमय रत्न है जिससे जैनन्यायका आकाश दमदमा उठेगा । यद्यपि इसमें आए हुए पदार्थ फुटकररूपसे उनके सहसी आदि ग्रन्थों में खोजे जा सकते हैं पर इतना सुन्दर और व्यवस्थित तथा अनेक नए प्रमेयोंका सुरुचिपूर्ण संकलन, जिसे स्वयं विद्यानन्दने ही किया है, श्रन्यत्र मिलना सम्भव है । विद्यानन्द- कृत सत्यशासनपरीचा १९२ मैं आशा करता हूँ कि जैनसिद्धान्तभवनके सुयोग्य अध्यक्ष इसकी मूल प्रतिका पता लगाएँगे । अन्य भंडारोंमें भी इस ग्रन्थरत्नकी प्रतियाँ मिलेंगी। शास्त्ररसिकोंको हम श्रोर लक्ष्य अवश्य देना चाहिए . जब इसकी पूर्ण प्रति उपलब्ध हो जाय तब इसका सुन्दर सस्करण माणिकचन्द्रग्रन्थमाला या अन्य ग्रंथमालाओं को अवश्य ही प्रकाशित करना चाहिए। यदि दुर्भाग्यसे यह ग्रन्थ अभ्य भवडारोंमें अधूरा ही मिले तो समझ लेना चाहिए कि यह विद्यानन्दस्वामीकी अंतिम कृति है । पर मात्र मौजूदा प्रतिके भरोसे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता; क्योंकि इसमें बीचमें भी कई जगह पाठ छूटे हैं और सम्भव है कि अंतमें भी नकल अधूरी रह गई हो। यदि पूरा ग्रंथ न मिले तब उपलब्ध भाग ही प्रकाशित होना चाहिए, इससे अनेकों प्रमेयौका खुलासा परिशान किया जा सकेगा । Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा [सम्पादकीय सके पाठक योक जगदीशचन्द्रजी जैन एम. ए. एक लेख लिखा, जो 'अनेकान्त की गत ४ थी फिरत बोडेल परिचिती-उनके कुछ लेखोंको में प्रकाशित हो चुका है। ' ये पद युके हैं। बाप यू. पी० के एक इस लेखमें प्रोफेसरसाहबने विद्वानोको विशेष किरन विधान है। एम. एक के बाद रिसर्चका विचार के लिये प्रामन्वित किया था। तदनुसार मैंने भी कापस करके जिये तक अप बोलपुरके अपना विचार सम्पादकीय-विचारणा' के नामसे सविनिममें एक रिसर्च स्कॉलरके रूपमें रहे हैं। प्रकट कर दिया था-४ पेजके लेखके अनन्तर ही ५ इमार सिंघी जैनमधमाला' के संचालक मुनि पेजकी अपनी 'विचारणा' को भी रख दिया था-, किापियाजीकी बोरसे श्रापको 'प्रजवार्तिक' के सम्पा- जिसमें प्रोफेसर साहबकी मान्यताको आधारभूत युक्तियों दनका कार्य सौंपा गया था, जिसका आपने अपने को सदोष बतलाते और उनका निरसन करते हुए यह पिछले लेखमें उल्लेख किया है, और जो बादको स्थगित स्पष्ट किया गया था कि उन मुद्दों परसे यह बात फलित रहा है। आजकल आप बम्बईके रूहया कालिजमें नहीं होती जिसे प्रो० साहन्न सुझाना चाहते हैं। साथ ही, प्रोफेसर हैं। राजवार्तिक पर कुछ काम करते समय विद्वानोको इस विषय पर अधिक प्रकाश डालनेके लिये आपकी यह धारणा होगई है कि- १ उमास्वातिके प्रेरित भी किया था। तत्वार्यपत्र पर श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जो भाष्य प्रचलित अपने अामन्त्रणको इतना शीत्र सफल होते देखकर, है तथा 'स्वोपच' कहा जाता है वह स्वोपज्ञ ही है अर्थात् जहाँ प्रो० साहबको प्रमन्न होना चाहिये था वहाँ यह स्वय मूलसूत्रकार उमास्वातिकी रचना है; २ राजवार्तिक देखकर दुःख तथा खेद होता है कि इतनी अधिक लिखते समय अकलंकदेवके सामने यही भाष्य मौजूद संयत भाषामें लिखी हुई गवेषणापूर्ण विचारणा'को था, ३ अकलंकदेव इस भाष्य तथा मूल तत्त्वार्यसूत्र के पढ़कर भी श्राप कुछ अप्रसन्न हुए है ! अपनी इस कर्ताको एक व्यक्ति मानते थे, और . उन्होंने अपने अप्रसन्नताको अपने उस लेखके प्रारम्भमें ही व्यक्त किया राजकार्तिक में इस भाष्यका यथेष्ट उपयोग किया है, , जो 'सम्पादकीय-विचारणाकी समीक्षा' के रूपमें इतना ही नहीं बल्कि इसके प्रति 'बहुमान' भी प्रदर्शित लिखा गया है तथा इसी किरणमें अन्यत्र प्रकाशित हो किया है। चुनांचे अपनी इस धारणा अथवा मान्यताको रहा है और जिसे प्रो० साहबने अपना वही पुराना दूसरे विद्वानोंके ( जो ऐसा नहीं मानते ) गले उतारनेके "तत्त्वार्थाधिगमभाष्य और अफलंक" शीर्षक दिया है। लिये आपने 'तत्वार्थाधिगमभाष्य और अकलंक'नामका मालूम नहीं आपकी इस अप्रसन्नताका क्या कारण है ? Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो अगदीशचन्द्र और उसकी समीचा से सकता है कि अनी जिम मान्यता अधक धारणाको प्रो० साहब सम्पादकको विचारक नहीं मानते 10 उम श्राप सहन ही दूसरे विद्वानोंके गले उतारना चाहते थे विद्वानों में परिगणित नहीं करते जिन्हें आपने अपने लेख उसमें उक्त 'विचारणा के कारण स्पष्ट बाधाका उप. पर विचार करने के लिये आमन्त्रित किया है । अथवा स्थित होना आपको जंच गया हो और यही बात उसे अपने लेखका वह पाठक तक भी नहीं समझते आपकी अप्रमत्र ताका कारण बन गई हो । अस्तु, जिमके विचाराऽधिकारको अपने लेखके उक्त आपके वे अप्रसन्नता-सूचक वाक्य, जिन्हें लेखके साथ वाक्यमें स्वयं स्वीकार किया है । यदि ऐसा कुछ संगत अथवा उसका कोई विषय न होने पर भी आपको भी नहीं है तो फिर 'सम्पादकीय विचारणा' पर अपनी चित्तवृत्ति के न रोक सकनेके कारण देने पड़े है उक्त आपत्ति और अप्रसन्नता कैसी ? अथवा और साथ ही यह लिखना पड़ा है कि “यह इस लेखका सम्पादकके विचाराधिकार पर इस प्रकारका नियन्त्रण विषय नहीं है", इस प्रकार हैं: कैसा कि वह किसीके लेख पर विचार न करके स्वतन्त्र "शायद पं० जगलकिशोरीको यह बात न अँची, लेख लिखा करे और यदि इनमेसे कोई बात प्रो. और उन्होंने मेरे लेखके अन्तमें एक लम्बी-चौड़ी टिप्पणी साहबके ध्यानमें रही है तो कहना होगा कि आपके लगा दी। हमारी ममझसे इस तरहके रिमर्च-सम्बन्धी उस लेखका ध्येय स्वतन्त्र विचार नहीं था-विचारका जो विवादास्पद विषय है, उन पर पाठकोंको कुछ समय मात्र आडम्बर अथवा प्रदर्शन था । और इसलिये तब के लिये स्वतन्त्ररूपसे विचार करने देना चाहिये। श्रापकी प्रसन्नताका कारण यही हो सकता है जिसकी सम्पादकको यदि कुछ लिखना ही इष्ट हो तो वह स्वतंत्र सम्भावनाको ऊपर कल्पना कौगई है । ऐसे कारणका लेख के रूपमें भी लिखा जासकता है । साथ ही, यह होना निःमन्देह एक विचारक तथा विचारके लिये श्रावश्यकता नहीं कि लेखक सम्पादकके विचारोंसे दूमरे विद्वानोंको श्रामत्रित करने वालेके लिए बड़ी सर्वथा सहमत ही हो।" ही लजाको बात होगी । बाकी यह बात कब किसने इन वाक्यों परसे जहाँ यह स्पष्ट है कि प्रो० साहब आवश्यक बतलाई है कि "लेखक सम्मादकके विचारोंसे को उक्त 'सम्पादकीय विचारणा' नागवार (अरुचिकर) सर्वथा सहमत ही हो" ! जिसके निषेधको प्रो० साहकको मालूम हुई है वहाँ यह स्पष्ट नहीं है कि उमसे पाठकोंके ज़रूरत पड़ी है, सो कुछ भी मालम नहीं हो सका । स्वतन्त्ररूपसे विचार करने में कौनसी बाधा उपस्थित हो यदि ऐसी कोई बात आवश्यक हो तो सम्पादक ऐसे गई है--उसने तो पाठकोंके विचारक्षेत्रको बढ़ाया है लेखको छापे ही क्यों ? और क्यों टीका-टिप्पणी अथवा और उनके सामने समुचित विचारमें सहायक और अधिक नोट लगानेका परिभम उठाए ? परन्तु बात ऐसी नहीं सामग्री रक्खी है। क्या समुचितक्चिारमें सहायक अधिक है। वास्तबमें जब किसी सावधान सम्पादकको यह बात सामग्रीका जुटाया जाना अथवा जानकार विद्वानोंके जंच जाती है कि लेखका अमुक अंश भ्रममूलक है द्वारा विचारका जल्दी प्रारम्भ कर दिया जाना रिसर्च और वह जनतामें किसी भारी भ्रान्ति अथवा ग़लतसम्बन्धी अथवा किसी भी विवादास्पद विषयके विचारमें फहमीको फैलाने वाला है तो वह अपने पाठकों को कोई बाधा उत्पन्न करम ! कदापि नहीं । तब क्या उससे सावधान कर देना अपना कर्तव्य सममता है. Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त और यदि समय, शक्ति तथा परिस्थिति सब मिलकर उसे इजाजत देते हैं तो वह उसी समय उस पर अपना नोट या टिप्पणी लगाकर यथेष्ट प्रकाश डाल देता है, और इस तरह अपने अनेक पाठकों को भूलभुलैयाँके एकान्तगर्तमें न पड़कर विचारका सही मार्ग अंगीकार करने के लिये सावधान कर देता है। मैं भी शुरूसे इसी नीतिका अनुसरण करता आ रहा हूँ । लेखोंका सम्पादन करते समय मुझे जिस लेखमें जो बात स्पष्ट विरुद्ध, भ्रामक, त्रुटिपूर्ण, ग़लतफ़हमीको लिये हुए अथवा स्पष्टीकरण के योग्य प्रतिभासित होती है और मैं उस पर उसी समय यदि कुछ प्रकाश डालना उचित समझता हूँ और समयादिककी अनुकूलताके अनुसार ढाल भी सकता हूँ तो उस पर यथाशक्ति संयतभाषा में अपना (सम्पादकीय ) नोट लगा देता हूँ । इससे पाठकों को सत्यके निर्णयमें बहुत बड़ी सहायता मिलती है, भ्रम तथा ग़लतियाँ फैलने नहीं पातीं त्रुटियों का कितना ही निरसन हो जाता है और साथ ही पाठकों की शक्ति तथा समयका बहुतसा दुरुपयोग होनेसे बच्च' जाता है । सत्यका ही सब लक्ष्य रहने से इन नोटोंमें किसीकी कोई रू-रिश्रायत अथवा अनुचित पक्षापक्षी नहीं की जाती और इसलिये मुझे कभी कभी अपने अनेक श्रद्धेय मित्रों तथा प्रकाण्ड विद्वानोंके लेखों पर भी नोट लगाने पड़े हैं। परन्तु किसीने भी उन परसे बुरा नहीं माना; बल्कि ऐतिहासिक विद्वानोंके योग्य और सत्यप्रेमियोंको शोभा देने वाली प्रसन्नता ही व्यक्त की है । और भी कितने ही विचारक तथा निष्पक्ष विद्वान मेरी इस विचार पद्धतिका अभिनन्दन करते श्रा रहे हैं । [ भाद्रपद, वीर निर्वाण सं०२४५६ कारण कुएँ में गिरनेके सन्मुख हो अथवा उसके गिरनेकी भारी सम्भावना हो तो उसे सावधान करके गिरनेसे न रोका जाय, बल्कि गिरने दिया जाय और बादको उसके उद्धारका प्रयत्न किया जाय ! मुझे तो हतोत्माह न होने देनेके खयाल से अपनाई गई यह नीति बड़ी ही विचित्र तथा बेढंगी मालूम होती है और इनमें कुछ भी नैतिकता प्रतीत नहीं होती। इस तरह तो कभी कभी उस मनुष्यके उद्धारका अवसर भी नहीं रहता जिसके उद्धारकी बात बाद में की जाने को होती है, और गिरनेसे उद्धारके वक्त तक गिरने वालेको जोहानि उठानी पड़ती है तथा बादको उद्धारकार्यमें अपेक्षाकृत जो भारी परिश्रम करना पड़ता है वह सब अलग रह जाता है । मेरी दृष्टिमें तो यह देखते और जानते हुए कि किसी अन्धे अथवा बेखबर मनुष्य के रास्ते में कुँद्रा या खड्ड है और यदि उसे शीघ्र सावधान न किया गया तो वह उसमे गिरने ही वाला है, समय तथा शक्ति के पास में होते हुए भी, उसे सावधान न करके चुप बैठे रहना एक प्रकारका अपराध है, इसीलिये मैं इस नीतिको पसन्द नहीं करता । मेरे विचारसे ऐसा करना सम्पादकीय कर्तव्य से च्युत होनेके बराबर है। जिन लेखकोंका ध्येय वास्तवमें सत्यका निर्णय है और जो इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये हृदयसे विद्वानोंको विचारके लिये श्रामन्त्रित करते हैं, उनके लिये ऐसी अनुसन्धान प्रधान टिप्पणियाँ हतोत्साह के लिये कोई कारण नहीं हो सकतीं। वे उनका अभिनन्दन करते तथा उनसे समुचित शिक्षा ग्रहण करते हुए अपनी लेखनीको श्रागेके लिये और अधिक सावधान बनाते हैं, और इस तरह अपने जीवन में बहुत कुछ सफलता प्राप्त करते हैं । परन्तु जिन लेखकोंका उक्त ध्येय ही नहीं है, जो यों ही अपनी मान्यताको दूसरों पर लादना चाहते श्रौर विचारकका अभिनय करते हैं, उनका ऐसी मार्मिक टिप्प थियोंसे हतोत्साह होना स्वाभाविक है, और इसलिये उसकी ऐसी विशेष पर्वाह भी न की जानी चाहिये । श्रस्तु । अब मैं प्रो० साहबकी उस समीक्षाको परीक्षा करता हूँ जो उन्होंने उक्त 'सम्पादकीय विचारणा' पर लिखी है, और उसके द्वारा यह बतला देना चाहता हूँ कि वह कहाँ तक निःसार है। (भगली किरण में समाप्त) हाँ, ऐसे भी कुछ विद्वान् हैं जो मेरी इस नोट-पद्धति को पसन्द नहीं करते । उनकी राय में नोटसे लेखक हतोत्साह होता है और इसलिये लेखके किमी अंशपर से यदि कोई भारी भ्रांति अथवा ग़लतफ़हमी भी फैलती हो तो उसे उस समय फैलने दिया जाय, नोट लगा कर उसके फैलनेमें रुकावट न की जाय―, बादको उसका प्रतिकार किया जाय - अर्थात् कुछ दिन पीछे उस फैली हुई भ्रान्तिको दूर करनेका प्रयत्न किया जाय। इसका स्पष्ट आशय यह होता है कि यदि कोई मनुष्य बेखबरीके Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडितप्रवर आशाधर [0-श्री नाथूरामजी प्रेमी] धर्मामृत'प्रन्थके कर्ता पण्डित माशाधर एक बहुत उनका जैनधर्मका अध्ययन भी बहुत विशाल बड़े विद्वान हो गये हैं। मेरे खयालमें दिगम्बर था। उनके प्रन्थोंमे पता चलता है कि अपने समय सम्प्रदायमें उनके बाद उन-जैसा बहुश्रुत, प्रतिभा- के तमाम उपलब्ध जैनसाहित्यका उन्होंने अवशालो, प्रौढ़ प्रन्थकर्ता और जैनधर्मका उद्योतक गाहन किया था। विविध प्राचार्यों और विद्वानों दुसरा नहीं हुआ।न्याय,व्याकरण, काव्य, अलंकार, के मत-भेदोंका सामंजस्य स्थापित करने के लिए शब्दकोश,धर्मशास्त्र,योगशास्त्र,वैयक आदि विविध उन्होंने जो प्रयत्न किया है वह अपूर्व है । वे विषयों पर उनका पसाधारण अधिकार था । इन कार्य संदील नहु विक्रयेत' के मानने वाले थे, सभी विषयों पर उनकी अस्खलित लेखनी चली है इसलिए उन्होंने अपना कोई स्वतन्त्र मत तो कहीं और अनेक विद्वानोन चिरकाल तक उनके निकट प्रतिपादित नहीं किया है; परन्तु तमाम मतभेदोंको अध्ययन किया है। उपस्थित करके उनकी विशद चर्चा की है और फिर ___ उनकी प्रतिभा और पाण्डित्य केवल जैनशानों उनके बीच किस तरह एकता स्थापित होसकती है, तक ही सीमित नहीं था, इतर शास्त्रोंमें भी उनकी सो बतलाया है। अबाध गति थी। इसीलिए उनकी रचनाओंमें पंडित आशावर गृहस्थ थे, मुनि नहीं। पिछले यथास्थान सभी शास्त्रों के प्रचुर उद्धरण दिखाई जीवनमें वे संसारसे उपरत अवश्य हो गये थे, पड़ते हैं और इसीकारण अष्टांगहृदय, काव्यालंकार, परन्तु उसे छोड़ा नहीं था, फिर भी पीछेके ग्रन्थअमरकोश जैसे ग्रंथों पर टीका लिखनेके लिए वे कर्ताओंने उन्हें सरि और आचार्यकल्प कह समर्थ होसके । यदि वे केवल जैनधर्मकं ही विद्वान् कर स्मरण किया है और तत्कालीन भट्टारकों और होते तो मालव-नरेश अर्जुनवर्माके गुरू बालसर- मुनियोंने तो उनके निकट विद्याध्ययन करनेमें भी स्वती महाकवि मदन उनके निकट काव्यशास्त्रका कोई संकोच नहीं किया है। इतना ही नहीं मुनि मध्ययन न करते और विन्ध्यवर्माके संधिविप्रह- उदयसेनने उन्हें 'नव-विश्वचषु' और 'कलिकालिदास' मन्त्री कवीश विल्हण उनको मुक्त कण्ठसे प्रशंसा और मदनकीर्ति यतिपतिने 'प्रज्ञापुंज' कहकर अभिन करते। इतना बड़ा सन्मान कंवल साम्प्रदायिक नन्दित किया था। वादीन्द्र विशालकीर्तिको उन्होंने विद्वानोंको नहीं मिला करता । वे केवल अपने न्यायशास्त्र और भट्टारकदेव विनयचन्द्रको धर्मअनुयायियोंमें ही चमकते हैं, दूसरों तक उनके शास्त्र पढ़ाया था। इन सब बातोंसे स्पष्ट होता है शानका प्रकाश नहीं पहुंच पाता। कि वे अपने समयके अद्वितीय विद्वान थे। Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भाद्रपद, बीर निर्वाय सं०२४ = ___ उन्होंने अपनी प्रशस्तिमें अपने लिए लिखा है माश्चर्य नहीं, जो उन्हें धाराके 'शारदा-सदन' के कि 'बिनधर्मादपा पो नखकानपुरेऽवसत्' अर्थात् जो अनुकरण पर ही जैनधर्मके उदयकी कामनासे जैनधर्मके उदयके लिए धारानगरीको छोड़कर श्रावक-संकुल नालछेके उक्त चेत्यालयको अपना नलकच्छपुर (नालछा ) में आकर रहने लगा। विद्यालय बनानेकी भावना उत्पन्न हुई हो। जैनउस समय धारानगरी विद्याका केन्द्र बनी हुई थी। धर्मके उद्धारकी भावना उनमें प्रबल थी। वहाँ भोजदेव, विन्ध्यवर्मा, अर्जुनवर्मा जैसे ऐसा मालूम होता है कि गृहस्थ रह कर भी विद्वान् और विद्वानोंका सन्मान करने वाले राजा कमसे कम 'जिनसहस्रनाम' की रचनाके समय वे एकके बाद एक हो रहे थे । महाकवि मदनकी संसार-देहमोगोंस उदासीन हो गये थे और उनका 'पारिजात-मब्जरी' के अनुसार उस समय विशाल मोहावेश शिथिल हो गया था। हो सकता है धारानगरीमें ८४ चौराहे थे और वहाँ नाना दिशा- कि नन्होंने गृहस्थकी कोई उस प्रतिमा धारण कर भोंसे आये हुए विविध विद्याओंके पण्डितों और ली हो, परन्तु मुनिवेश तो उन्होंने धारण नहीं कला-कोविदोंकी भीड़ लगी रहती थी। वहां किया था, यह निश्चय है । हमारी ममझमें मुनि 'शारदा-सदन' नामका एक दूर दूर तक ख्याति होकर वे इतना उपकार शायद ही कर सकते जितना पाया हुमा विद्यापीठ था। स्वयं पाशाघरजीने कि गृहस्थ रह कर ही कर गये हैं। धारामें ही व्याकरण और न्यायशास्त्रका अध्ययन अपने समयके तपोधन या मुनि नामधारी किया था। ऐसी धाराको भी जिस पर हर एक लोगोंके प्रति उनको कोई श्रद्धा नहीं थी, बल्कि विद्वानको मोह होना चाहिये पण्डित भाशाघरजीने एक तरहकी वितृष्णा थी और उन्हें वे जिनशासन जैनधर्मके ज्ञानको लुप्त होते देखकर उसके उदयकं को मलिन करनेवाला समझते थे, जिसको कि लिए छोड़ दिया और अपना सारा जीवन इसी उन्होंने धर्मामृतमें एक पुरातन श्लोकको उद्धृत कार्यमें लगा दिया। करके व्यक्तकिया हैवे लगभग ३५ वर्षके लम्बे समयतक नालछामें पण्डितैष्टिारित्रैः बठरैस तपोधनैः। ही रहे और वहाँके नेमि-चैत्यालयमें एकनिष्ठतासे शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मल मलिनीकृतम् ॥ जैनसाहित्यकी संवा और ज्ञानकी उपासना करते पण्डितजी मूलमें मांडलगढ़ (मेवाड़) के रहने रहे । उनके प्रायः सभी ग्रन्थोंकी रचना नालछाके वाले थे । शहाबुद्दीन सोरीकं आक्रमणोंसे त्रस्त उक्त नेमि चैत्यालयमें ही हुई है और वहीं वे होकर अपने चारित्रकी रक्षाके लिए वे मालवाकी अध्ययन अध्यापनका कार्य करते रहे हैं। कोई ---. प्रभो भवानभोगेषु निर्विरयो दुःखमीरकः । चतुरशीतिचतुष्पथसुरसदनप्रधाने "सकलादिगम्त- एष विज्ञापयामि त्वां शरण्यं करणार्यवम् ॥३॥ रोपगतानेकविधसहएयकलाकोविदरसिकसुकविसंकुले. अद्य मोहग्रहावेशौषिल्यास्किश्चिदुन्मुखः । -पारिजातमंजरी -निमसहस्त्रनाम Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पखितप्रवर पसापर राजधानी धारामें बहुत-से लोगोंके साथ पाकर बना होगा। क्योंकि इसका कोख सं० १३०० में बस गये थे। वे व्याघेरवाल या बघेरवाल जातिके बनी हुई भनगारधर्मामृतटीकाको प्रशस्तिमें है थे जो राजपूतानेकी एक प्रसिद्ध वैश्यजाति है। १९९६ में बने हुए जिनयाकल्पमें नहीं है। यदि यह उनके पिताका नाम सजवण, माताका श्रीरत्री, सही है तो मानना होगा कि भाशाधरजीके पिता पत्नीका सरस्वती और पुत्रका छाड़ था । इन १२९६ के बाद भी कुछ समय तक जीवित रहे होंगे चारके सिवाय उनके परिवार में और कौन कौन थे, और उस समय वे बहुत ही वृद्ध होंगे । सम्भव है इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। कि उस समय उन्होंने राज-कार्य भी छोड़ दिया हो। मालव-नरेश पर्जुनवर्मदेवका भाद्रपद सुदी१५ पण्डित आशाधरजीनं अपनी प्रशस्तिमें अपने बुधवार सं० १२७२ का एक दानपत्र मिला है, पुत्र छाहड़को एक विशेषण दिया है, "रजिमशनजिमके अन्तमें लिखा है--"रचितमिदं महासान्धिः भूपतिः' अर्थात जिसने राजा अर्जुनवर्माको प्रसन्न रामा सबखणसंमतेन राजगुरुणा मदनेन । अर्थात किया । इससे हम अनुमान करते हैं कि राजा यह दानपत्र महासान्धिविप्रहिक मंत्री राजा सलख- सलखणके समान उनके पोते छाहड़को भी अर्जुनणकी सम्मतिसे राजगुरु मदनने रचा। इन्हों अर्जन- वर्मदेवने कोई राज्य-पद दिया होगा । अक्सर वर्माकं राज्यमें पं० श्राशापर नालछामें जाकर रहे राजकर्मचारियोंके वंशजोंको एकके बाद एक राज्यथे और ये राजगुरू मदन भी वही हैं जिन्हें पं० कार्य मिलते रहते हैं। पं० माशाधरजी भी कोई आशाधरजीने काव्य-शास्त्रकी शिक्षा दी थी। इससे राज्य पद पा सकते थे परन्तु उन्होंने उसकी अपेक्षा अनुमान होता है कि उक्त राजा सलखण ही संभव जिनधर्मोदयके कार्य में लग जाना ज्यादा कल्याणहै कि पाशाधरजीके पिता सल्लक्षण हों। कारी समझा। जिम समय यह परिवार धारामें आया था उनके पिता और पुत्रके इस सन्मानसे स्पष्ट उस समय विन्ध्यवर्माके सन्धिविग्रहके मंत्री होता है कि एक सुसंस्कृत और राज्यमान्य कुल में ( परराष्टमचिव ) विल्हण कवीश थे । उनके बाद उनका जन्म हुआ था और इसलिए भी बालकोई आश्चर्य नहीं जो अपनी योग्यताकं कारण सरस्वती मदनोपाध्याय जैसे लोगोंने उनका शिष्यत्व स्वीकार करनेमें संकोच न किया होगा । सलक्षणने भी वह पद प्राप्त कर लिया हो और वि० सं० १२४९ के लगभग जब शहाबुद्दीन सम्मानसूचक राजाकी उपाधि भी उन्हें मिली हो । गोरीने पृथ्वीराजको कैद करके दिल्लीको अपनी पण्डित आशाधरजीने 'अध्यात्म-रहस्य' नामका राजधानी बनाया था और उसी समय उसने प्रन्थ अपने पिताकी मालासे निर्माण किया था। अजमेर पर भी अधिकार किया था, तभी पण्डित यह प्रन्थ वि० सं० १२९६ के बाद किसी समय आशाधर मांडलगढ़ छोड़कर धारामें आये होंगे। अमेरिकन मोरियंटल सोसाइटीका जर्नल था. उस समय वे किशोर होंगे, क्योंकि उन्होंने " और प्राचीन लेखमाला भाग 1 पृ०६-। व्याकरण और न्यायशास्त्र वहीं आकर पढ़ा था। Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वीर निर्वावसं.२५ यदि उस समय उनकी उम्र १५-१६ वर्षकी रही हो काव्यमर्मत्रताको प्रकट करती है। इसीके समयमें तो उनका जन्म वि० सं० १२३५ के पासपास महाकवि मदनकी 'पारिजातमंजरी' नाटिका हुमा होगा। उनका अन्तिम उपलब्ध प्रन्य (अन- बसन्तोत्सवके मौके पर खेली गई थी। इसीके गार-धर्म-टीका) वि० सं० १३०० का है। उसके राज्य-कालमें पं० पाशाधर नालछामें जाकर रहे बाद वे और कब तक जीवित रहे, यह पता नहीं। थे। इसके समयमें तीन दान-पत्र मिले हैं। एक फिर भी निदान ६५ वर्षकी उम्र तो उन्होंने अवश्य मांडूमें वि०सं०१२६० का,दूसरा भरोंच में १२७० का पाई थी और उनके पिता तो उनसे भी अधिक और तीसरा मान्धातामें १२७२ का । इसने दीर्घजीवि रहे। गुजरातनरेश जयसिंहको हराया था।। अपने समयमें उन्होंने धाराके सिंहासन पर देवपाल-अर्जुनवर्माके निस्संतान मरने पर पांच राजाओंको देखा यह गद्दी पर बैठा। इसकी उपाधि साहसमल्ल थी । इसके समयकं सं० १२७५, १२८६ और समकालीन राजा १२८९ के तीन शिलालेख और १२८२ का एक विन्ध्यवर्मा-जिस समयमें वे धारामें पाये दानपत्र मिला है। इसीके राज्यकालमें वि० सं० उस समय यही राजा थे ।ये बड़े वीर और १२८५ में जिनयज्ञ-कल्पको रचना हुई थी। विद्यारसिक थे। कुछ विद्वानोंने इनका समय वि० ५ जैतुगिदेव-(जयसिंह द्वितीय) यह देवपाल सं० १२१७ से १२३७ तक माना है। परन्तु हमारी का पुत्र था। इसके समयके १३१२ और १३१४ के समझमें वे १२४६ तक अवश्य ही राज्यासीन रहे दो शिलालेल मिले हैं। पं० आशाधरने इसीके हैं जब कि शहाबुद्दीन गोरीके त्राससे पण्डित राज्य-कालमें १२९२ में त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र १२९६ में आशाधरका परिवार धारामें भाया था। अपनी सागारधर्मामृत-टीका और १३०० में अनगारधर्माप्रशस्तिमें इसका उन्होंने स्पष्ट उल्लेख किया है। मृत-टोका लिखी। सुभटवर्मा यह विन्ध्यवर्माका पुत्र था और बड़ा वीर था । इसे सोहड़ भी कहते हैं । इसका प्रन्थ-रचना राज्यकाल वि० सं १२३७ से १२६७ तक माना वि० सं० १३०० तक पं०आशाधरजीने जितने जाता है। परन्तु वह १२४९ के बाद १५६७ तक प्रन्थोंकी रचना की उनका विवरण नीचे दिया होना चाहिए । पण्डित आशाधरके उपलब्ध प्रन्थ जाता हैमें इस राजाका कोई उल्लेख नहीं है। अर्जुनवर्मा-यह सुभटवर्माका पुत्र था और . । प्रमेपरत्नाकर-इसे स्याद्वाद विद्याका निर्मल बड़ा विद्वान् कवि और गान-विद्यामें निपुण था। 2 " प्रसाद बतलाया है। यह गय प्रन्थ है और बीच इसकी 'अमरुशतक' पर 'रससंजीविनी' नामकी विन्ध्यवर्मा जिसकी गद्दीपर बैठा था, उस टीका बहुत प्रसिख है जो इसके पांडित्य और अजयवर्माके माई अपमीवर्माका यह पौत्र था । Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनि ] पंडितमवर भाशावर बोचमें इसमें सुन्दर पद्य भी प्रयुक्त हुए हैं। अभी पहले शोलापुरसे अपराजितसूरि और अमितगति सक यह कहीं प्राप्त नहीं हुआ है। की टीकाओंके साथ प्रकाशित हो चकी है। जिस २ भरतेश्वराभ्युदय-यह सिद्धपङ्क है । अर्थात् प्रति परसे वह प्रकाशित हुई है उसके अन्त के कुछ इसके प्रत्येक सर्गके अन्तिम वृत्तमें 'सिद्धि' शब्द पृष्ठ खो गये हैं जिनमें पूरी प्रशस्ति रही होगी। भाया है । यह स्वोपज्ञ टीका सहित है। इसमें टोपदेश टीका-प्राचार्य पूज्यपादके सुप्रसिद्ध प्रथम वीर्थकरके पुत्र भरतके अभ्युदयका वर्णन ग्रन्थकी यह टीका माणिकचन्द जैन-प्रन्थमालाके होगा। सम्भवतः महाकाव्य है। यह भी अप्रा- तत्त्वानुशासनादि-संग्रहमें प्रकाशित हो चुकी है। कभपाबचतुर्विशतिका-टीका-भूपालकविकं प्रज्ञानदीपिका-यह धर्मामृत (सागार-अन- सिद्ध स्तोत्रकी यह टीका अभी तक नहीं मिली। गार)की स्वोपज्ञ पंजिका टीका है। कोल्हापुरके जैन पाराधनासार टीका-यह प्राचार्य देवसेनके मठमें इसकी एक कनड़ी प्रति थी, जिसका उपयोग आराधनासार नामक प्राकृत पन्थकी टीका है। स्व. पं० कल्लापा भरमापा निटवेन सागारधर्मा- अमरकोष टीका-सुप्रसिद्ध कोषको टीका । मृतकी मराठी टीकामें किया था और उसमें अप्राप्य । टिप्पणीके तौर पर उसका अधिकांश छपाया था। क्रियाकलाप-बम्बईके ऐ० पन्नालाल उसी के माधारस माणिकचन्द-प्रन्थमाला द्वारा सरस्वती-भवनमें इस ग्रंथकी एक नई लिखी हुई प्रकाशित सागारधर्मामृत सटीकमें उसकी अधि- अशुद्ध प्रति है, जिसमे ५२ पत्र हैं,और जो १९७६ काँश टिप्पणियाँ दे दी गई थीं। उसके बाद निट• श्लोक प्रमाण है । यह ग्रन्थ प्रभाचन्द्राचार्यके क्रियावेजीसे मालूम हुआ था कि उक्त कनडी प्रति जल- कलापके ढंगका है। ग्रंथमें अन्त-प्रशस्ति नहीं है। कर नष्ट हो गई ! अन्यत्र किसी भण्डारमें अभी प्रारम्भके दो पद्य ये हैंतक इस पंजिकाका पता नहीं लगा। जिनेन्द्रमुन्मूलितकर्मबन्धं प्रणम्य सन्मार्गकृतस्वरूप । राबीमती विमलंभ-यह एक खण्डकाव्य है अनन्तबोधाविमवं गुणोघं क्रियाकलापं प्रकटं प्रवचये ॥१॥ और स्वोपाटीकासहित है। इसमें राजमतीके योगिध्यानैकगम्यः परमविशदग्विश्वरूपः सतच । नेमिनाथ-वियोगका कथानक है । यह भी अप्राप्य स्वान्तस्थे मैव साध्यं तदमनमतयस्तत्पदण्यानबीनं, चित्तस्थैर्य विधातुं तदनवगुणमामगादामरागं, ५ मध्यात्म-रहस्य-योगाभाष्यका प्रारम्भ करने तत्पूनाकर्म कर्मच्छितुरमति यथा मूत्रमासूत्रयन्तु ॥२॥ वालोंके लिये यह बहुत ही सुगमयोगशास्त्रका १२ काव्यालंकार-टीका-अलंकारशास्त्रके सुप्रग्रंथ है । इसे उन्होंने अपने पिताके प्रादेशसे लिखा सिद्ध प्राचार्य रुद्रटके काव्यालंकार पर यह टीका था। यह भी अमाप्य है। लिखी गई है। अप्राप्य । मूलाराधना-टीका-यह शिवार्य की प्राकृत साबनामस्वतम-सटीक-पण्डित भाशाघर भगवती आराधनाकी टीका है जो कुछ समय का सहस्रनाम स्तोत्र सर्वत्र सुलभ है । छप भी Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भावपद, वीर निर्वाण सं०१४॥ चुका है। परन्तु उसकी स्वोपक्ष टीका अभी तक गार और अनगार दोनोंकी टीका पृथक् पृथक् दो मंत्राप्य है । बम्बईके सरस्वती भवनमें इस सहन- जिल्दोंमें प्रकाशित हो चुकी है। नामकी एक टीका है परन्तु वह श्रुतसागरसूरिकृत इन २० प्रन्योंमेंसे मूलाराधना-टीका, इष्टोपदेश टीका, सहस्रनाम मूल (टीका नहीं), जिनयज्ञकल्प निमयशकल्प-सटीक-जिनयज्ञकल्पका दूसरा मून ( टीका नहीं), त्रिषष्ठिस्मृति, धर्मामृतके नाम प्रतिष्ठासारोद्धार है। यह मूल मात्र तो पंडित सागार अनगार भागोंकी भव्य-कुमुदचन्द्रिकाटीका मनोहरलालजी शास्त्री द्वारा सं० १९७२ में प्रका- और नित्यमहोद्योत मूल (टीका नहीं ) ये ग्रन्थ शित हो चुका है। परन्तु इसकी स्वोपमा टीका प्रकाशित हो चुके हैं और क्रियाकलाप उपलब्ध अप्राप्य है। इस ग्रंथको पण्डितजीने अपने धर्मा- है। भरताभ्युदय, और प्रमेयरत्नाकरके नाम मृतशास्त्रका एक अंग बतलाया है। सोनागिरके भट्टारकजीके भण्डारको सूचीमें अबसे पत्रिषटिस्मृतिशास-सटीक-यह ग्रंथ कुछ लगभग २८ वर्ष पहले मैंने देखे थे । संभव है वे समय पूर्व माणिकचन्द्र-प्रन्थमालामें मराठी अनु. वहांक भण्डारोंमें हों। शेष प्रन्थोंकी खोज होनी वादसहित प्रकाशित हो चुका है । संस्कृत टीकाके चाहिए। हमारे खयालमे आशाधरजीका माहित्य अंश टिप्पणीके तौरपर नीचे दे दिये गये हैं। नष्ट नहीं हुआ है । प्रयत्न करनेसे वह मिल निस्थमहोबोत-यह स्नानशास्त्र या जिनाभिषेक सकता है। अभी कुछ समय पहले पण्डित पन्नालालजी सोनी रचनाका समय द्वारा संपादित "अभिषेकपाठ-संग्रह" में श्रीश्रुतसागरसूरिकी संस्कृतटीकासहित प्रकाशित हो चुका पहले लिखा जा चुका है कि पण्डित श्राशा धरजीकी एक ही प्रशस्ति है जो कुछ पद्योंकी १. रत्नत्रय-विधान-यह ग्रंथ बम्बईके ऐ० ५० न्यूनाधिकताके साथ उनके तीन मुख्य प्रथोंमें सरस्वती-भवनमें है । छोटासा ८ पत्रोंका ग्रंथ है। मिलती है। इसका मंगलाचरण जिनयज्ञकल्प वि० सं० १२८५ में, सागारश्रीवईमानमानम्य गौतमादीच सद्गुरुन् । भाशावरविरचित पूजापाठ' नामसे लगभग रत्नत्रयविधि पश्ये यथाम्नायां विमुक्तये ॥ चारसौ पेजका एक ग्रन्थ श्री नेमीशा प्रादप्पा उपाध्ये, १८ अष्टांगहक्योचोतिनी टीका-यह आयुर्वेदा उद्गाव (कोल्हापुर ) ने कोई २० वर्ष पहले प्रकाशित चार्य वाग्भटके सुप्रसिद्ध ग्रंथ वाग्भट या अष्टांग- किया था। परन्तु उसमें माशाधरकी मुश्किलले दो चार हृदयकी टीका है और अप्राप्य है। बोटी कोटी रचनायें होंगी. शेष सब वसा 11-२० सागार और मनगार-धर्मास्तकी भव्य- और जो हैं वे उनके प्रसिद्ध ग्रंथोंसे ली गई जान पाती अमुवचन्त्रिका टीका-माणिकचन्द्रग्रन्थमालामें सा- है। है। रोकी हैं। Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३, किरण ] पण्डितप्रवर पाशापर धर्मामृत-टीका १२९६ में और अनगारधर्मामृत- है भइनकीर्ति-प्रबन्ध' नामका एक प्रबन्ध है। टीका १३०० में समाप्त हुई है । जिनयज्ञकल्पकी उसका सागश यह है कि मदनकीर्ति वादीन्द्र प्रशस्तिमें जिन दस ग्रन्थोंके नाम दिये हैं, वे विशालकीर्तिके शिष्य थे । वे बड़े भारी विद्वान थे। १२८५ के पहले के बने हुए होने चाहिएं । उसके चारों दिशाओंके वादियोंको जीतकर उन्होंने बाद सागारधर्मामृत टीकाकी समाप्ति तक अर्थात 'महाप्रामाणिक-चूड़ामणि' पदवी प्राप्त की थी। १२९६ तक काव्यालंकार-टीका, सटीक सहस्रनाम, एक बार गुरुके निषेध करने पर भी वे दक्षिणा सटीक जिनयज्ञकल्प, सटीक त्रिषष्टिस्मृति, और पथको प्रयाण करके कर्नाटकमें पहुंचे। वहाँ विद्धनित्यमहोद्योत ये पांच ग्रंथ बने । अन्तमें १३०० त्प्रिय विजयपुरनरेश कुन्तिभोज उनके पाण्डित्य तक राजीमती-विप्रलम्भ, अध्यात्मरहस्य, रत्नत्रय- पर मोहित हो गये और उन्होंने उनसे अपने विधान और अनगारधर्म-टीकाकी रचना हुई। पूर्वजोंके चरित्र पर एक प्रन्थ निर्माण करनेको इम तरहम मोटे तौरपर प्रन्थ-रचनाका समय कहा । कुन्तिभोजकी कन्या मदन-मञ्जरी सुलेखिका मालूम हो जाता है। ___ थी। मदनकीर्ति पद्य-रचना करते जाते थे और त्रिषष्टिस्मृतिकी प्रशस्तिमे मालूम होता है कि मञ्जरी एक पर्दे की बाड़में बैठकर उसे लिखती वह १२९२ में बना है। इष्टोपदेश टोकामें समय जाती थी। नहीं दिया। कुछ समयमें दोनोंके बीच प्रेमका आविर्भाव सहयोगी विद्वान् हुआ और वे एक दूसरेको चाहने लगे। जब राजा १ पविडत महावीर-ये वादिराज पदवीमे को इसका पता लगा तो उसने मदनकीर्तिको षष विभूषित पं० धरमेनके शिष्य थे। पं०पाशाधरजी करनेकी आज्ञा दे दी । परन्तु जब उनके लिए ने धारामें आकर इनमें जैनन्द्र व्याकरण और कन्या भी अपनी महेलियोंके साथ मरनेके लिए जैन न्यायशास्त्र पढ़ा था। तैयार हो गई, तो राजा लाचार हो गया और ___२ उदयमेन मुनि-जान पड़ता है, ये कोई उसने दोनोंको विवाह-सूत्रमें बाँध दिया । मदनवयोज्येष्ठ प्रतिष्ठित मुनि थे और कवियोंके सुहृद् कीर्ति अन्त तक गृहस्थ ही रहे और विशालकीर्ति थे। इन्होंने पं० श्राशाधरजीको 'कलि-कालिदाम' द्वारा बार बार पत्रोंमे प्रबुद्ध किये जाने पर भी कहकर अभिनन्दित किया था। टमम मम नहीं हुए। यह प्रबन्ध मदनकीर्तिस मदनकीति पतिपति-ये उन वादीन्द्र विशाल- कोई मौ वर्ष बाद लिखा गया है। इससे सम्भव के शिष्य थे जिन्होंने पण्डित आशाधरसे न्याय- है इसमें कुछ अतिशयोक्ति हो अथवा इसका शास्त्रका परम भन प्राप्त करके विपक्षियोंको जीता अधिकांश कल्पित ही हो परन्तु इसमें सन्देह नहीं था। मदनकीर्तिके विषयमें राजशेखरसूरिके 'चतु- कि मदनकीर्ति बड़े भारी विद्वान और प्रतिभाशाली विशति-प्रबन्ध' में जो वि० सं० १४०५ में निर्मित कवि थे । और इसलिये उनके द्वारा की गई हुआ है और जिसमें प्रायः ऐतिहासिक कथायें दी भाशाधरकी प्रशंसाका बहुत मूल्य है। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भाद्रपद, बीर निर्वाब सं०२४॥ श्रीमदनकीर्तिकी बनाई हुई 'शासनचतुर्विंश- हो गये हैं। उनमें विद्यापति बिल्हण बहुत प्रसिद्ध तिका' नामक ५ पत्रोंकी एक पोथी हमारे पास है। हैं, जिनका बनाया हुमा विक्रमांकदेव-चरित है। जिसमें मंगलाचरणके एक अनुष्टुपु लोकके अति- यह कवि काश्मीरनरेश कलशके राज्यकालमें वि० रिक ३४ शार्दूलविक्रीड़ित वृत्त हैं और प्रत्येकके सं० १११९ के लगभग काश्मीरसे चला था और अन्तमें 'दिग्वासमा शासन' पद है । यह एक जिस समय वह धारामें पहुँचा उम समय भोजदेव प्रकारका तीर्थक्षेत्रों का स्तवन है जिसमें पोदनपुर की मृत्यु हो चुकी थी। इसमें वे आशाधरके प्रशंसक बाहुबलि, श्रीपुर-पार्श्वनाथ, शंख-जिनेश्वर, दक्षिण नहीं हो सकते । भोज की पांचवीं पीढ़ीके राजा गोमट्ट नागद्रह-जिन, मेदपाट ( मेवाड़) के नाग- विन्ध्यवर्मा के मंत्री विल्हण उनसे बहुत पीछे हुए फणी ग्रामके जिन, मालवाके मङ्गलपुरके अभि- हैं। चौर-पंचासिका या बिल्हण-चरितका कर्ता नन्दन जिन मादिकी स्तुति है । मङ्गलपुरवाला बिल्हण भी इनमें भिन्न था । क्योंकि उसमें जिस पद्य यह है वैरिसिंह राजाकी कन्याशशिकलाके साथ बिल्हणश्रीमन्मालवदेशमंगलपुरे म्लेच्छप्रतापागते का प्रेम सम्बन्ध वर्णित है वह वि० सं० ९०० के भग्वा मूर्तिरयोमियोजितशिराः सम्पूर्ण सामायौ। लगभग हुआ है । शार्ङ्गधर पद्धति, सूक्तमुक्तावली बस्योपद्रवनाशिनः कलियुगेऽनेकप्रभावैर्युतः, आदि सुभाषित-संग्रहोंमें बिल्हण कविके नामसे स श्रीमानमिनन्दनः स्थिरयतं दिग्याससा शासनं ३n बहुतसे ऐसे श्लोक मिलते हैं जो न विद्यापति बिल्हणके विक्रमाकदेवचरित और कर्णसुन्दरी - इस में जोग्लेच्छोक प्रतापका श्रागमन बतलाया नाटिकामें हैं और न चौर-पंचासिकामें। क्या है, उससे ये पं० श्राशाधरजीके ही समकालीन आश्चर्य है जो वे इन्हींमंत्रिवर बिल्हण कविके हों। मालूम होते हैं । रचना इनकी प्रौढ़ है। पं० श्राशाधरजीकी प्रशंसा इन्हींनकी होगी। अभी तक इनका ____ मांडूमें मिले हुए विन्ध्यवर्मा के लेखमें इन और कोई प्रन्थ नहीं मिला है। बिल्हणका इन शब्दोंमें उल्लेख किया है "विन्ध्यवर्म. विल्हण कवीश-बिल्हण नामके अनेक कवि नृपतेः प्रसादः। सान्धिविग्रहकबिम्हणःकवि।" अर्थात बिल्हण कवि विन्ध्यवर्माका कृपापात्र और परराष्ट्र इस प्रतिमें लिखनेका समय नहीं दिया है सचिव था। परन्तु दो तीनसौ वर्षसे कम पुरानी नहीं मालूम होती। ५-६० देवचन्द्र-इन्हें पण्डित आशाधरजीने जगह जगह भार उड़ गये हैं जिसमें बहुतसे पच पूरे व्याकरण-शास्त्र में पारंगत किया था। नहीं पड़े जाते। -वादीन्द्र विशालकीर्ति- ये पूर्वोक्त मदनकीति xश्रीजिनप्रभसूरिके 'विविध-तीर्थकरुप' में भवन्ति के गुरू थे। ये बड़े भारी वादी थे और इन्हें देशस्थ अभिनन्दनदेवकल्प'नामका एक कप है जिसमें पण्डितजीने न्यायशास्त्र पढ़ाया था । सम्भव है, ये अभिनन्दनजिनकी भग्न मूर्तिके जुड़ जाने और अतिशय धारा या उज्जैनकी गहीके भट्टारक हों। प्रकट होनेकी क्या दी है। (मागामी किरणमें समाप्त) Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रान्तिकारी ऐतिहासिक पुस्तकें [ले. अयोध्याप्रसाद गोयलीब ] १. राजपूतानेके जैनवीर बतीत गौरवके एक का चित्र अंकित हुए बिना पढ़ने के लिये हाव भरकालेजेकी मरहेगा । ऐसा कौन भमागा मारतवासी होगा है। मदोंकी बात जाने दीजिये भीक और कायर । जो अयोध्याप्रसादजी गोयनीयकी लिखी भारतकी भी इसे पढ़ते पढ़ते मूंछों पर साब न देने लगे तो करीब साढ़े बाईस सौ वर्ष पुरानी इस सारगर्मित हमारा जिम्मा। राजपूतानेमें जैनवीरोंकी तलवार, और सच्ची गौरव-गाथाको सुनकर सहित न कैसी चमकी ? जैनवीरोंने सरसे कफन बाधकर होगा।' पृष्ठ १७३ ५० छह माना। भाववाइयोंके घुटने क्योंकर टिकवाये । धर्म और ३. हमारा उत्थान और पतनपेशके लिये कैसे कैसे अभूतपूर्व बलिदान किये, “चान्द" के शब्दोंमें-"इस पुस्तकमें महाभारत यही सब रोमांचकारी ऐतिहासिक विवरण ३५२ से लेकर सन् १२०० ईस्वी तकके भारतीय इतिहास ठोंने पहिये त्रि, मूल्य फेवल दो र एक महिपत्ती गई है। मारपत्सित्य परि में जो त्रुटिया उत्पन्न हो गई थी और जिनके २. मौर्य साम्राज्यके जैनवीर- कारण उनको विदेशियों के सम्मुख पदानत होना __ भूमिका-लेखक साहित्याचार्य प्रो० विश्वेश्वर- पड़ा उन पर मार्मिकता के साथ विचार किया गया नाथ रेणके शब्दोंमें-"इस पुस्तककी भाषा मनको है। पुस्तक पठनीय है और भत्यन्त सुलभ मूल्यमें फड़काने वाली, युक्तियां सप्रमाण और प्रास तथा बेची जाती है ।" "विश्वामित्र' लिखता हैविचारशैली साम्प्रदायिकतासे रहित समयोपयोगी "पस्तककी भाषा सजीव और दृष्टिकोण सुन्दर और पहै। हमें पूर्ण विश्वास है कि इस एक है। यह काफी उपयोगी पुस्तक है।" "भारत" कहता बार पायोपान्त पढ़ लेनेसे केवल जैनोंके ही नहीं है- लेखककी लेखनी में पोज और प्रवाह पर्याप्त प्रत्युत भारतवासी मात्रके इतपटपर अपने देशकै मात्रामें है।" पृ० १४४ मूल्य छह पाना । स्फूर्तिदायक जीवनज्योति जगाने वाली पुस्तकें ४. अहिंसा और कायरता मू-एक माना ७. क्या जैन समाज जिन्दा है ? मू०एक माना ५. हमारी कायरताके कारण , , ८. गौरव-गाथा . " " ६. विश्वप्रेम सेवाधर्म , ६. मैन-समाजका हास क्यों ? "छह पैसा यदि यह पुस्तकें आपने नहीं देखी हैं तो माज ही मंगाइये, मन्दिरों, पुस्तकालयों साधुनोंको भेटस्वरूप दीजिये, उपहार में बाटिये । जैनेवरों में बांटिये । व्यवस्थापक-हिन्दी विद्यामन्दिर, पो. पो० न०४८, न्यू देहली। Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registered. No. L. 4328. श्री जैन प्राचीन साहित्योद्धार ग्रन्थावलीके जैन मन्त्र-तन्त्र और चित्रकलाके अभूतपूर्व प्रकाशन भगवन् मल्लिषेणाचार्य विरचित १. श्री भैरव पद्मावती कल्प चाठ तिरंगे और पचास एक रंगे चित्र और बन्धुषेण विरचित टीका, भाषा समेत साथमें इकतीस परिशिष्टों में श्री महिलषेण सूरि विरचित सरस्वती कल्ल, श्री इन्द्र गंदी विरचितपद्मावती पूजन, रक पद्मावती कल्प, पद्मावती सहस्रनाम, पद्मावत्यक, पद्मावती जयमाला, पद्मावती स्तोत्र, पद्मावती दंडक, पद्मावती पटल वगैरह मन्त्रमय कृतियां और गुजरात कालेज के संस्कृत प्राकृत भाषा अध्यापक to अभ्यंकर द्वारा सम्पादित होने पर भी मूल्य सिर्फ १५) रुपये रखा गया है । २. श्री महाप्राभाविक नव स्मरण पंचपरमेष्ठीमंत्र के चार यंत्र, श्राभद्रबाहु स्वामी विरचित उपसर्गटर स्तोत्र, उनके अनेक मंत्र, कथा, और मसाईम यंत्र समेन, श्रीमानतुंगावाय विरचित भर सो उनके अनेक मंत्र तंत्र और: २१ यंत्र समेत, श्रीभक्तामरजी स्तोत्र, मंत्राम्नाय कथाएँ, तंत्र, मंत्र और हरेक कार यंत्र कुल ९६ यंत्र ममेव और भगवन् सिद्धन दिवाकर विर चैन श्रीकल्याणमंदिर के मंत्रम्नाय और ४३ यंत्र, चित्र' वगैरह मिला के कुल ४१२ चारमो बारह यंत्र चित्र दिया हुआ है, एक प्रतिका पांच रतलं वजन होने पर भी मूल्य २५) रु० रखा गया है। ३. श्री मंत्राधिराज चिंतामणि श्री चिन्तामणि ल्प, श्री मंत्राधिराज वल्प वगैरह श्री पार्श्वनाथजी भगवान के अनेक मंत्रमय स्तोत्र और ६५ यत्र समेत मूल्य ७१) म ४. श्री जैन चित्रकलदुम् Sairat जैनाश्रित चित्रकला के ग्यारहवीं सदी में लगाकर उन्नीसवीं सदी तक के लाक्षणिक नमूनाका प्रतिनिधसंग्रह, जिस ३२० पुर्ण रंगो ओर एक रंगी चित्र हैं, माया जैना चित्रकला विषय अमेरिका के प्रोनाउने, बडोदरा राज्य के खाने का मुख्याधिकाराद्वारा नन्द शास्त्रजन, गुजरात के सुप्रसिद्ध चित्रकार रविशंकर रावलन, रसिकताले परीन्च, श्रीयुत सागलाई नवाब, प्रो० डॉलरराय मोड़, प्रा मंजुवान मजनुदार और लेखकला विषय मुनिश्री | पुण्यविजयोकं विद्वतापूर्ण लेख भी दिया है। यह स्वस्थ वड़ोदरा सरेश सयाजीराव गायकवाड़को उनके हरक महोत्सव पर समर्पित किया गया था मूल्य लिफ २५ ) रु० .५. जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला मुनि जसवड विरचित मूल्य ५) ६. श्री घंटाकरण - माणिभद्र-मंत्र-तंत्र कलादि संग्रह मूल्य ५ ) ७. श्रीजेन कल्पलता चित्र ६५ मूल्य ८) ८. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति और लेखन कला मूल्य ८) दूसरे प्रकाशनोंके लिये सूचीपत्र मंगवाइये । प्राप्तिस्थान :- साराभाई मणिलाल नत्राब, नागजीभूदरनी पोल, अहमदाबाद VARARE वीर प्रेस आफ इडिया, कनॉर सर्कस, न्यू देहली । Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ReemmameremeARIRORANSPIROINORINDORImmoreamparampainment पारिवन,कार्तिक सं०२४६६ । वर्ष ३, किरण १२ र अक्टूबर १९४० अक्टूबर १९४० जागा वार्षिक मूल्य ३. EMEDALNDABINDRAFONEFIOGINOORIGINOORNSIDHOOZOOGLOGISTEREDOTOE1 CATEIOHere FORDOI rror - .. SCI . ASTRA - य या स्कान - A strolon" ... Rom ROSS FIDENT NAYASATHORE: A GE E RS HAR CHATANAMA AP CATE . भार , 31 14 meanesamasuman R egianRCH T CATE RISHNA . .. ..sairavNDO houd. .' RAJSTARSHANMEN HERE i . m . i TA PRESEARSahapy - -- POSTAYA IRCRA Patieth REMI ... BISH SHARE THENA RWANI NARAYAN MAMIndition KAHAarosa XTEHEARREAKTA NAHATE E h. y RAHEY HAM 4 RAAT+2 Synt CH TALAYAR an M SACPreryth :* H e .. .... ALS tatmaneya Cader ' 1'.tamaAIAH . .. .ww.naya44 Relbaniar mom POSEDWONITORIOTISOLATIOOPERTONEPALORDERIALORDEMIOLOGame संचालक। जुगलकिशोर मुख्तार तनसुखराय जैन अधिष्ठाता पीर-सेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर)। नॉट सकस पो• बो० नं०४८ न्यू देहली।। BammercameramaANDMRATOMETRONITORIANDADAKIRANDIRGANOHaas. मुद्रक और कासा-मोवापसादगावलीय Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ... ६९७ १. जिनसेन-स्मरण .... पृष्ठ ६४ २. श्रीभद्रबाहु स्वामी-म० ले मुनि श्री चतुरविजय अनु० पं० परमानन्द ... ६७८ ३. शिक्षित महिलाओंमें अपव्यय-[श्री ललिताकुमारी ६८५ ४. प्रथम स्वहित और बादमें परिहित क्यों ? [श्री दौलतराम मित्र ५. भाभार और धन्यवाद, भनेकान्तका आगामी प्रकाशन, मेरी आन्तरिक इच्छा [सम्पादकीय ६. पण्डितप्रवर आशाधर [ श्री पं० नाथूराम प्रेमी ७. ऊँच-नीध-गोत्र विषयक चर्चा [ श्री बालमुकुन्द पाटोदी ७०७ ८. मेंडकके विषय में शंका [श्री दौलतराम मित्र ७१८ ९. तामिल भाषाका जैन साहित्य [मू० ले० प्रो० ए. चक्रवर्ती अनु०पं० सुमेरचन्द दिवाकर १७. प्रो० जगदीशचन्द और उनकी समीक्षा [ सम्पादकीय ११. वीरसेवामंदिर-विज्ञप्ति अधिष्ठाता १२. गो० कर्मकांडकी त्रुटि पूर्ति के विचार पर प्रकाश [ पं० परमानन्द शास्त्री ... ७२१ ७२९ वीरसेवा मन्दिर को सहायता हालमें बा० विश्वम्भरदासजी जैन गार्गीय, झाँसी ने, वीरसेवामन्दिरमें पधार कर उसके कार्यों पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उसे. १०) ककी सहायता प्रदान की है, जिसके लिए आप धन्यवाद के पात्र है। अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर सरसावा, जि. सहारनपुर। Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३ ॐ म नीति-विरोध-वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यने कान्तः || जि० सहारनपुर सम्पादन-स्थान - वीरसंवामन्दिर (समन्तभद्राश्रग), सरसावा, प्रकाशन -स्थान- कनॉट सर्कस, पो० बो० न०४८, न्यू देहली श्रश्विना कार्तिक वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम स०१६६७ जिनसेन- स्मरण जिनसेनमुनेस्तस्य माहात्म्यं केन वरार्यते । शलाकापुरुषाः सर्वे यद्वचोवशवर्तिनः ॥ किरण १२ - पार्श्वनाथचरितं वादिराज सूरिः सम्पूर्ण शलाकापुरुष जिनके वचन के वशवर्ती हैं-- जिन्होंने महापुराण लिखकर ६३ शलाका पुरुषोंको (उनके जीवन वृतान्तको ) अपने अधीन किया है—उन भी जिनसेनाचार्यका माहात्म्य कौन वन कर सकता है ? कोई भी नहीं । याऽमिताऽभ्युदये पार्श्वजिनंन्द्रगुणसंस्तुतिः । स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्तिसंकीर्त्तयत्यसो || -- हरिवंशपुराणे, जिनसेनः 'पाश्वभ्युदय' काव्य में पावजिनेन्द्रकी जो अपूर्व गुणसंस्तुति है, वह श्री जिनसेन स्वामीकी कीर्तिका आज भी संकीतन-खला-गान कर रही है। पदि सकलकवीन्द्र - प्रोक्तसूक्त प्रचार श्रवण- सरस चेतास्तत्त्वमेव सखे ! स्याः । कविवर जिनसेनाचार्य वक्तारविन्द - प्रणिगदित-पुराणाकर्णनाभ्यं कर्णः । --कश्चिदज्ञातकविः हे मित्र ! यदि तुम सम्पूर्ण कवि श्रेष्ठोंकी सूक्तियोंके प्रचारको सुन कर अपना हृदय सरस बनाना चाहते हो, तो कविवर जिनसेनाचार्य के मुख कमल द्वारा कथित पुराणको सुननके लिये कानोंको समीप लाभो - 'आदिपुराण' को ध्यानपूर्वक सुनो। Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रभिद्रवाह स्वामी [ लेखक - मुनि श्री चतुरविजयजी ] ( अनुवादक - पं० परमानन्द जैन शास्त्री ) तत्त्वार्थरत्नौघविलोकनार्थं सिद्धान्तसौधान्तरहस्तदीपाः दोनोंकी उलझी हुई जीवन घटनाओंके सुलझाने के लिये ही मेरा यह प्रयास है । 1 निर्युक्तयो येन कृताःकृतार्थस्तनोतु भद्राणि स भद्रबाहु : - मुनिरत्न, अममचरित्र श्री भद्रबाहुस्वामी समर्थ तत्ववेत्ता हो गये हैं। इनकी साहित्य-सेवा जैन समाजको गौरवास्पद बनाती है, जैनागमों को अलंकृत करने वाली उनकी रची हुई नियुक्तियों को देखकर विद्वज्जन मंत्रमुग्ध हो जाते हैं । ऐसे महापुरुष के जीवन - सम्बन्ध में दो शब्द लिखने का आज सुअवसर प्राप्त हुआ, और वह भी आसन्नोपकारी श्रीविजयानन्द सूरीश्वर जैसे पुनीत महात्मा के शताब्दीस्मारक ग्रन्थ* के लिये, यह बात मुझे अत्यन्त श्रानन्द प्रदान करती है । श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, सभी कोई श्रीभद्रबाहुको मानते हैं, और दोनों ही पक्षके अनेक विद्वानों द्वारा थोड़े-बहुत फेरफार के साथ लिखा • हुआ इनका जीवनचरित्र संख्याबद्ध प्रन्थोंमें देखने में आता हैं और जैनसमाजका अधिकांश भाग उससे परिचित होनेके कारण उसको यहाँ बतलाने की वश्यकता नहीं । परन्तु भद्रबाहु नामके दो व्यक्ति भिन्न भिन्न समयोंमें हो गये हैं, उन ● इसी 'जन्म शताब्दीस्मारक ग्रन्थ' में यह लेख गुजराती भाषा में मुद्रित हुआ है,और उसी परसे उसका यह अनुवाद किया गया है। - अनुवादक आज तक उपलब्ध जैनवाङ्मयकी ओर दृष्टि दौड़ाने से किसी भी स्थल पर दूसरे भद्रबाहुका उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता । पूर्वकालीन ↑ यह कथन श्वेताम्बर जैन वाङ्मयकी दृष्टिसे जान पड़ता है; क्योंकि दिगम्बर जैन वाङ्मयमें बराबर दो भद्रबाहु का उल्लेख मिलता है। - अनुवादक * वंदामि भद्दबाहुँ पाईणं चरमसयलसुयनाणि । सुत्तस्स कारगमिसि दसासु कप्पे य ववहारे ॥ दशात स्कंध चूर्णि पी० ४, १०० पंचकल्पभाष्य- संघदास गणि, पी०४, १०३ अनुयोगदायिनः सुधर्मस्वामिप्रभृतयो यावदस्य भगवतो. नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामिनश्वर्तुदशपूर्व घरस्याचार्यस्तान् सर्वानिति । - शीलांकाचार्य, आचारांगवृत्ति अरहंते वंदिता चउदसपुव्वी तहेव दसपुवी । एक्कारअंग सुत्तधार सव्वसाहू य ॥ ०१ इस गाथा में दशपूर्वी वगैरहको नमस्कार करने से नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वी नहीं हैं, ऐसा मालूम होता है और इसीलिये टीकाकार शंका उठा Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण १२] ग्रन्थकार तो एक ही व्यक्ति मानकर हर एक प्रसंगको पंचम श्रुतकंवली के नाम पर ही बतलाते हैं परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि देखते हुए और अनेक इतर साधनों द्वारा सूक्ष्मावलोकन करते हुए आधुनिक विद्वानोंको भद्रबाहु नामके दो भिन्न व्यक्ति मालूम होते हैं । श्रीभद्रबाहु स्वामी ता है कि – 'भद्रबाहुस्वामिनश्चर्तुदशपर्वरत्वाद्दशपर्वधरादीनां न्यूनत्वात् कि तेषां नमस्कारमसौ करोति ? परन्तु उस समय ऐतिहासिक साधनों की दुर्लभता होनेके कारण पारंपरिक प्रघोष के अनुसार नियुक्ति कारको चतुर्दश पूर्व धरत्वको कल्पना कर यथामति शंकाका समाधान करता है । वह अप्रस्तुत होने से यहाँ नहीं लिखा जाता । दशवैकालिकस्य च निर्युक्तिश्चतुर्दशपर्व विदा भद्रबाहुस्वामिना कृता । मलयगिरी, पिण्डनिय वृित्ति श्रस्य चाती गम्भीरार्थतां सकलसाधुवर्गस्य नित्योपयोगितच विज्ञाय चतुर्दशपूर्वधरेण श्रीभद्रबाहु स्वामिना तद्व्याख्यानरूपा 'श्रभिनिबोहियनाणं सुअनाणं चैव श्रहिनाण च, इत्यादि प्रसिद्धयथरूपा निर्युक्तिः । - मलधारी हेमचन्द्रमुरि-विशेषावश्यकवृ० देखो इतिहासप्रेमी मुनि कल्याणविजय जी द्वारा लिखी हुई 'वीर-निर्वाण-संवत् श्रौर जैन कालगणना ' नामकी हिन्दी पुस्तक, तथा न्या० व्या० तीर्थं पं० बेचरदास जीवराज द्वारा संशोधित पूर्णचन्द्राचार्य विरचित उपसभ्गहरं स्तोत्र लघुवृत्ति - जिनसूरमुनिरचित प्रियकरनृपकथा समेत — में की प्रस्तावना ( शारदा विजयग्रन्थमाला, भावनगर द्वारा प्रकाशित) । ६७३ here भद्रबाहु श्री यशोभद्रसूरिके शिष्य थे, चतुर्दशपूर्वधर (पंचमश्रुतके वली ) थे, मौर्यवंशीय चन्द्रगुप्त के समय में हुए थे, और उन्होंने वीर निर्वाण दिवस मे १७० वें वर्ष में देवलोक प्राप्त किया था । इनके जीवन विषयमें मेरी धारणाके अनुसार प्राचीनमे प्राचीन उल्लेख परिशिष्टपर्व में दृष्टिगोचर होता है। उसमें श्री स्थूलभद्रको पूर्वकी वाचना देनकी हक़ीक़त है परन्तु नियुक्ति वगैरह प्रन्थों तथा वराहमिहरके सम्बन्ध में नाम निशान भी नहीं हैं। यदि निर्य क्तियाँ वगैरह उनकी कृति होतीं तो समर्थ विद्वान् श्रीहेमचन्द्राचार्य उनका उल्लेख किये बिना नहीं रहते | दूसरे भद्रबाहु विक्रमकी छठी शताब्दी में हो गये हैं, वे जाति ब्राह्मण थे, प्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहर इनका भाई था; परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि वे किसके शिष्य थे । नियुक्तियाँ यादि सवकृतियाँ इनके बुद्धिवैभव में उत्पन्न हुई हैं । प्राचीन मान्यता के अनुसार नियुक्तिकारको चतुर्दशपूवधर कहा जाता है, परन्तु आवश्यक + चन्द्रगुप्त का राज्यारोहणकाल वीर निर्वाणसे १५५ वें वर्ष मे है । देख े, परिशिष्टपर्व सर्ग ८ वै का निम्नलिखित श्लोक -- एवं च श्रीमहावीरमुक्तेर्वर्षशते गते । पंचपंचाशदधिके चन्द्रगुप्तोऽभवनृपः ॥ t वीरमोक्षाद्वर्षशते सप्त्यप्रे गते सति । भद्रबाहुरपि स्वामी ययौ स्वर्ग समाधिना ॥ परि० स०९, श्लोक ११२ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पारिवन, बीर निर्माण सं०२४॥ % नियुकिकी २३० वी गाथामें भी वनस्वामीका. चौदस सोलसवासा चोदसवीसुत्तरा य दुरिणसया । और २३२ वी गाथामें अनुयोगपृथकरणसम्बन्धमें अट्ठावीसा य दुवे पचेव सया य चोप्राला ॥ २३६ ।। भार्यरक्षितका उल्लेख आता है । पचे सया चुलसीओ छच्चेव सया नवुत्तरा हुंति । ___ इसके बाद निन्हवपरक वणन करते हुए नाणुप्पत्तीए दुवे उप्पना निबुए सेसा ॥ २४०॥ महावीर निर्वाणमे ४०९ वर्ष पीछे बोटिक ( दिग -गाथा इत्यादि म्बर) मतकी उत्पत्ति बतलाई है। वह इस प्रकार अर्थ-(१) भगवान महावीरको केवलज्ञान उत्पन्न होनसे १४वर्ष पीछे श्रावस्ती नगरी जमालो बहुरय पएस अब्वत्त सामुच्छा दुग तिगे अबद्धियाँ वेव। प्राचार्य पे बहुरत निन्हव हुा । (२ ) भगवानकी एएसि निग्गमणं वोच्छ अहाणुपुञ्चीए ।। २३५ ॥ ज्ञानोत्पत्ति के पश्चात १६३ वर्षे ऋषभपुर नगरमें बहुरय जमालिपभवा जीवपएसा य तीसगुताओ। तिष्यगुप्त आचार्यमे छेल्ला प्रदेशमें जीवत्व मानने अव्वत्तासाढ़ामो सामुच्छे अस्समिताभो ॥ २३६॥ वाला निन्हव हुमा । (३) भगवान के निर्वाण के गंगाओ दोकिरिया छल्लुग्ग तेरासियाण उप्पत्ती। २१४ वर्ष पीछे श्वेताम्बिका नगरीमें आषाढाचार्यसे थेराय गोठ्ठमाहिल पुट्ठमबद्धं परूविति ॥ २३७ ॥ अव्यक्तवादी निन्हव हुपा । (४) भगवानके सावत्थी उसमपुर सेयंबिया मिहिल उल्लुग्गतीरं । निर्वाणक २२० वर्ष पीछे मिथिला नगरीमें अश्वपुरिमंतरजिया दसरह वीरपुर च नयराई ॥२२॥ मित्राचार्य सामुच्छेदिक निन्हव हुआ ।(५) निर्वाणमे २२८ वष में उल्लुकाके तट पर गंगाचार्यसे • वीर निर्वाण संवत् ४६६ (विक्रम सं० २६) द्विक्रिय निन्हव हुआ ।(६) निर्वाणम ५४४ वर्ष में वज्रका जन्म, वीर नि० सं० ५०४ (वि० सं० पीछे अंतरंजिका नगरीम षडल काचार्यमे त्रैगशिक ३४ ) में दीक्षा, वी० निर्वाण सं० ५४८ ( वि० सं० निन्हव हुआ। ( ७ ) निर्वाण । ५८५ वर्ष पीछे ७८ ) में युगप्रधानपद और वी. नि० स० ५८४ दशपुर नगरमें स्पृष्टकर्मक प्ररूपक स्थविर गोष्ठा(वि० सं० ११४ में स्वर्गवास हुआ था। माहिलमं अद्धिक निन्हव हुआ । (८) और वीर नि० सं० ५२२ ( वि० स० ५२ ) में जन्म, आठवां बोटिक (दिगम्बर) निन्हव रथवीरपुर वीर नि० सं० ५४४ (वि० स०७४ ) मे दीक्षा, वीर नगर में भगवान के निर्वाण ६०९ वर्ष पीछे हमा। नि० सं० ५८४,-(वि० स० ११४ में युग प्रधानपद इस प्रकार भगवानकं कंवलज्ञान उत्पन्न होने के और वी० नि० स० ५६७ (वि० स १२७ ) में स्वर्गस्थ पीछे दो, और निर्वाण पीछे छह ऐमे आठ हुए थे। माथरी वाचनानुमार वी० नि० सं० ५८४ में निन्हव हुए। स्वर्गवास माना जाता है। ___इससे भी नियंक्तिकार भद्रबाहुस्वामीकं पंचम* आगमोदय समितिद्वारा मलयगिरिकृत टीका- भूतकेवलीमे भिन्न होनेका निश्चय होता है, क्योंसहित मुद्रित प्रतिमें ये गाथाएँ क्रमशः ७६६, ७७३ नं० कि पूर्व समयमें हुआ व्यक्ति भविष्यमें होने वालेके पर पाई जाती। --अनुवादक वास्ते 'अमुक वर्ष अमुक हुआ' ऐसा प्रयोग नहीं Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण । श्रीभद्रबाहु स्वामी करता, इसलिये नियुक्तिकार भद्रगहुका समय वीर उपलब्ध होते हैं। उनमें अन्तका प्रन्थ खगोल निर्वाणसं १७० वर्ष बाद नहीं हो मकता । शास्त्रका व्यावहारिक ज्ञान कराने वाला 'पंचसिद्धाश्री संघतिलक सूरिकृत सम्यक्त्वमप्ततिका न्तिका' है। उममें उसका रचनाकाल शक संबन वृत्तिक, श्री जिनप्रभसूरिकन 'उपसर्गहरं' स्तोत्र ४२७ बताया है। वृत्ति तथा मेरुतुंगाचार्यकृत प्रबन्ध चिन्तामणि देखो, उमकी निम्न लिम्वित आर्यावगैरह श्वेताम्बरोय ग्रन्थोंमें भद्रबाहुका प्रखर सप्ताश्विवेदसंख्यं शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ । ज्योतिषी वराहमिहरके भाई के तौर पर वर्णन किया अर्धस्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्यदिवसाये ॥ है। वराहमिहरके रचे हुए चार प्रन्थ इस समय वराहमिहरका समय ईस्वी सन्की छठी शताब्दी है (५०५ से ५८५ तक)। इमसे भद्रबाहुका * तत्थ य च उदस विज्जाठाणपारगो छक्कम्म• समय भी छठी शताब्दी निर्विवाद सिद्ध होता है । मम्मविऊ 'पयईए' मद्दों 'भद्दबाहू' नाम 'माहणो श्री भद्रबाह स्वामी निर्यक्ति वगैरह किमी भी हत्था । तस्स य परमपिम्म सरिसीरुहमिहरो वराह- प्रथमें अपना रचनाकाल नहीं बताते हैं; मात्र मिहरो नाम सहोयरो। कल्प सूत्रमें-संघति० सम्यक्त्व सप्त० वराहमिहरका जन्म उजैनके आस पास हुआ था। समयस्स भगवो महावीरस्स जाव सपदुक्खइसने गणितका काम ई. सन् ५०५ में करना प्रारम्भ पहीणस्स नववाससयाई विइकताई. दसमस्सय किया था और इसके एक टीकाकारके कथनानसार वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ । उसका ई० स०५८७ में मरण हुअा था । * वायांतरे पुण अयं ते राउए संवच्छरे काले -प्रो० ए० मेक्डानल्ड-संस्कृत साहित्यका इतिहास ५६४ गच्छइ । (सूत्र १४८) + बहत्संहिता ( जो १८६४-१८६५ की इस वाक्यका अर्थ कल्पसूत्रके टीकाकार भिन्नBibiothicn Indiea में कर्नने प्रसिद्ध की है भिन्न रीतिमे उत्यक्ष करते हैं। परन्तु ठीक हकीकत तो और Journal of Asiatic Society की ऐमो मालूम होती है कि उस समय विक्रम सम्वत् ५१० चौथी पुस्तकमें इसका अनुवाद हुआ है। इसी चालू होगा, और उस विक्रमके राज्यारोहण दिवससे तथा ग्रन्थकी भट्टोत्पलनी टीका के साथकी नई श्रावृत्ति १८६५. सम्वत्सरको प्रवृत्तिदिवससे गणना सम्बन्धी मत भेद ९७ में एस० द्विवेदीने बनारसमें प्रसिद्ध की है)। होगा। श्री महावीर प्रभुके निर्वाणसे ४७० वर्ष में विक्रम होराशास्त्र (जिसका मद्रासके सी० आयरने १८८५ राजा गद्दी पर बैठा, उसके बाद १३ में वर्ष में सम्वत्सर में अनुवाद किया है)। लघुजातक (जिसके थोड़े प्रवर्तीया था, इसलिये विक्रम सम्वत्में ४७० जोड़नेसे वीर भागका वेबर और जेकोबीने १८७२ में भाषान्तर किया सं०९८० श्राता है और ४८३ जोड़नेस ३६३ वर्ष आता है) और पंचसिद्धान्तिकाको बनारसमें थोवो और एस. है। इस बातके समर्थन के लिए देखो, कालिकाचार्यकी द्विवेदीने १८८८ में प्रसिद्ध किया है और उसके मोटे परम्परामें होने वाले श्रीभावदेवसूरि द्वारा संचत कालिभाग का अनुवाद भी किया है। काचार्यको कथाको निम्नलिखित गाथाएं Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ अनेकान्त इस प्रकार उल्लेख देखने में भाता है, यह बात खास ध्यान में रखने योग्य है । हम इस ग्रन्थको यदि इनकी प्राथमिक कृतिकं रूपमें मानले, तो श्राचार्यश्रीने अपनी १५ वर्ष लगभगकी किशोर अवस्थामें प्रन्थरचना की शुरुआत की होगी ओर - तेहि नाराबले बराहमिहरवंतरस्स दुचिट्ठ माऊणसिरपास सामिणो 'उवसग्गहर' थवणं काऊरासचकर पेसिय - सघति० - सम्यक्त्वस ० इस वर्णन की तरफ लक्ष्य खींचने से वराह मिहरके अवसान ( ई० सं० ५८५ ) के चार पाँच वर्ष बाद तक आचार्यश्री जीवित रहे होंगे, ऐमा मन तो इनको कुल आयु १२५ वर्ष से ऊपर और १५० के बीच की निर्धारित की जा सकती है । परन्तु इतनी लम्बी आयु के लिये शंकाको ठीक स्थान मिलता है। वराहमिहरने ई० स०५०५ से गणितका काम करना प्रारम्भ किया और वह ई० स० ५८७ तक जीवित था, उसने लगभग १५-२० वर्षकी अवस्था में यदि कार्य प्रारम्भ किया हो तो उसकी उम्र भी १०० वर्ष से ऊपर की कल्पित की जा सकती है । श्री भद्रबाहु उससे बीस तीस वर्ष बड़े हों तो उपर्युक्त आयुका मेल बराबर बैठ जाता है । परन्तु प्रबन्धचिन्तामणिकार ( मेरुतुंगाचार्य ) इनको [आश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६ लघुबन्धुका विशेषण देता है । इससे उम्र सम्बन्धी शंका फिर विशेष मजबूत हो जाती है। विकमरज्जरम्भा पुरन सिरिवीरनिव्वुइ मणिया । सुन मुणिवेद्य (४७०) जुत्तं विक्कमकालाउ जिराकानं विक्कमरज्जाणतर तेरसबासेसु ( १३ ) वच्चरपती । सिरवी मुक्खो सा चउसयतेसीइं (४८३) वासा उ जिरा मुक्खा च वरिसे (४) पण मरओ दूसम उयसजाओ अरया चसय गुणसी (४७६) वासेहि विक्रमं वासं ॥ वीर निर्माण संवत् ९८० ( वाचनांतर ९९३ ) वर्षमे देवगिरिण क्षमा श्रमणन पुस्तक लिखवाने की प्रवृत्ति प्रारम्भ की, उस समय उसने यह स्थविरावली ( पट्टावली ) बनाई है, ऐसा भी मानने आता है । परन्तु यह मान्यता दोष रहित नहीं है। दूसरेके किये हुए ग्रन्थ में दूसरे के प्रकरण वगैरह को जोड़ने में उस ग्रन्थकी महत्ताको हानि पहुँचती है, ऐमा कार्य शिष्ट पुरुष कभी भी नहीं करते । थोड़े समय के लिये हम स्थविरावलिको देवर्द्धिगरणक्षमाश्रमण कृत मान भी लें तो फिर उसके अन्त में दी हुई - सुत्तथरयणभरिये खमदममद्दवगुणेहि संपुरणे । देवड्डि खमासमणे कासवगुते पणिवयामि || इस गाथाकी क्या दशा होवे ? कोई भी विद्वान स्वयं अपने लिये ऐसे शब्दों को क्या उच्चारण करेगा ? इसलिये यह गाथा जरूर अन्यकृत माननी पड़ेगी। श्रीभद्रबाहुनामानं जैनाचार्य कनीयांसं सोदरम् । - प्रबन्धचि ० सर्ग ५ * एतत्सूत्रं श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैः प्रक्षिप्तमिति क्वचित् पर्यषणाकल्याव चूर्णी, तदभिमात्रेण श्रीवीरनिर्वाणात नवशताशीतिवर्षातिक्रमे सिद्धान्तं पुस्तके न्यसद्भिः श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैः श्रीपर्यषएकल्पस्यापि वाचना पुस्तके न्यस्ता तदानीं पुस्तक लिखन कालज्ञापनायेतत् सूत्रं लिखितमिति । - कल्पदीपिका ( सं० १६७७) जयविजय Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर, किक्षा] श्रीमद्रास्वामी पुरा प्रन्थ कोई रचे (बनावे ) और बीचमें ऋषिभाषित नियुक्ति प्रकरण अन्य जोड़े तथा उसके लिये उल्लेख तीसरा ८ पिंड व्यक्ति करे तो यह क्या सम्भवित मालूम होता ९ोष , है ? इसलिये मेरी धारणाकं अनुमार तो मूल ग्रंथ १० समक्त , और उसकी अन्य गाथा तक स्थविरावली यह सब नियुक्ति तथैव मूल ग्रन्थ भी खुदके बनाये हुएहैंएक ही व्यक्ति (दूमरे भद्रबाहु ) की रचना है। ११ बृहत्कल्प ! प्रन्थकार उपयुक्त गाथा लिखकर पट्टावलीको १२ व्यवहार समाप्ति करता है, इस कारण वह स्वयं श्रीदेवर्द्धि- १३ दशाश्रुतस्कंध x गणि क्षमाश्रमणका शिष्य है, सतानीय है या अन्य १४ भद्रबाहुसंहिता वशका है, इसके लिये अधिक ऊहापोह करनेकी १५ प्रहशान्ति स्तोत्र आवश्यकता है। १६ उवसग्गहरं स्तोत्र के इनके रचे हुए ग्रन्थ • इस समय उपलब्ध नहीं । १ आचारांग नियुक्ति + येनैषा पिण्डनियुक्तियुक्तिरम्याविनिर्मिता। २ सूत्रकृतांग , द्वादशांगविदेतस्मै नमःश्रीभद्रबाहवे ॥ ३ दशवकालिक ,, -मलयगिरि, पि.नि.व. ४ उत्तराध्ययन, * श्रीकल्पसूत्रममृत विबुधोपभोगयोग्यं५ आवश्यक , जरामरणदारुण दुःखहारि। ६ सूर्यप्राप्त , येनोद्धृतमतिमतामथितात् श्रुताब्धेः अपनी रची हुई नियुक्तियों के नाम ग्रन्थकार श्रीभद्रबाहुगुरवे प्रणतोऽस्म तस्मै । स्वय इसप्रकार बतलाते हैं -क्षेमकीर्ति वृहत्कल्पका आवस्सय दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे । हाल में जो मंगलके निमित्तपषण पर्वमें पांच सुयगडे निज्जुत्ति वोच्छामि तहा दसाणं च ॥ जाता है वह कल्पसूत्र इस ग्रन्थका पाठवा अध्ययन है, कप्पस्स य निज्जुत्ति ववहारस्स य परमणिउस्स। इस विषयमें निश्चित प्रमाण नहीं। सूरियपन्न तीए वोच्छ इसिभासियाण च ॥ तथान्यां भगश्चिके सहितो भद्रबाहवीम् । आवश्यक निगा०८२,८३ इत्यादि कथन होनेसे इन्होंने स्पष्ट संहिता रची है यह + यह नियुक्ति इस समय उपलब्ध नहीं । देखो, ठीक, परन्तु हाल में जो भद्रबाहुसंहिता नामकी पुस्तक निम्नलिखित उल्लेख छपी है वह इन भद्रबाहुकी बनाई हुई नहीं है। अस्या नियुक्तिरभूत् पूर्व श्रीभद्रबाहुसूरिकृता। यह ग्रंथ संस्कृत पद्यबद्ध है, इसका त्रुटित कलिदोषात् साउनेशत् ब्याचक्षे केवलं सूत्रम् ॥ भाग हमारे देखनेमें पाया है, सम्पूर्ण ग्रन्थ कितने मलयगिरि -सुर्यप्रचप्ति। श्लोकप्रमाण होगा यह नहीं कहा जा सकता। Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अनेकान्त [पारिवन, वीर निर्वाण सं०२४१६ १७ द्वादशभाव-जन्मप्रदीप इन सब प्रन्थोंमें नियुक्तियां मुख्यस्थान रखती हैं। १८ वसुदेवहिडी के इनका जन्म, दीक्षा, अवसानममय तथा शिष्यादिसंतति-जाननेके लिये मेरी दृष्टिमें आन के यह ग्रन्थ मूल प्राकृत भाषामें रचा हुआ सवा वाले प्रन्थों में कोई स्थल या साधन प्राप्त नहीं लाख श्लोक प्रमाण था ऐसा सुप्रसिद्ध हेमचन्द्राचार्य के होते । आगमके भभ्यासी और इतिहासके वेत्ता . गुरुदेव देवचन्द सूरि बतलाते हैं कि कोई नवीन तत्त्व बाहर लावेंगे तो हम जैसों के वंदामि भहबाहुँ जेण य अइरसिघबहुकहाकलिय। ऊपर उनका महान् उपकार होगा, ऐसी आशा रइयं सवायलक्खं चरिथं वसुदेवरायस्स ॥ रखकर विराम लेता हूँ। शान्तिनाथचरित्र, मंगलाचरण चरितममलमेतन्तमदासुन्दरीय भवतु शिवनिवासतथा श्री हंसविजयजी जैन लायब्रेरीकी ग्रंथमाला प्रापक भक्तिभाजाम् ॥ २४६॥ तरफ से छपाई हुई नर्मदा सुंदरीकथाके अन्तमे-- हाल में उपलब्ध वसुदेवहिण्डी तो संघदामक्षमा इति हरिपितृहिण्डेभद्रबाहुप्रणीते विरचितमिह श्रमणने आरभ की थी और धर्मसेनगणी महत्तरने पूरी लोकश्रोत्रपात्रैकपेयी की थी, उससे यह भिन्न होगी । Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षित महिलाओंमें अपव्यय लेखिका-श्री ललिताकुमारी जैन विदुषी 'प्रभाकर' 1 नरेबड़े अर्थ शासवेत्ता कहते हैं कि एक कौड़ी भी कभी अपने कर्तव्य और हितकी भोर विचार नही निरर्थक खर्च करना अपने भास्मा, कुटुम्ब, देश करेगा। उसे ऐसा करने की फुरसत ही कहाँ है? किन व समाजमे विद्रोह करना है। असजमें यह है भी खर्च करते करते जब उसके पास अपनी और अपने विक्कुल सस्य और सट । अपव्यय (फिजल खर्च) कुटुम्बकी अनिवार्य जरूरतोंके लिए भी पैसा न चा जहाँ तक इसका सासारिक धन-सम्पति ओर रुपये पैसे रहा तो अन्याय पर उतर पड़ता है। वह दाव जग से सम्बन्ध है अपने और समाज दोनों ही के लिए एक जाने पर दूसरोंका माज हाप करने में भी नहीं चूकता अमिशाप है । अपव्ययमे मनुष्य अनावश्यक भोग- और यदि कुछ चालाक हुआ तो विविध ख कपरव विलासको ओर प्रवृत्ति करता है, खोटो खोटी भादते षड्यन्त्रोंसे दूसरेकी सम्पत्ति हरण करनेकी चेष्टा करता डाल लेता है, इन्द्रियोंको बेलगाम घोडेकी तरह निर- है। वह चोरीके लिए पिस चलायमान करता है और र्थक विषयोंकी ओर दौड़ने के लिए विवश करता है उसके प्रयत्न करने में पकड़ा जाकर धर्म, समाज व तथा पाप और वासनाके लिए नये नये रास्ते खोजता कानून तीनों ही का अपराधी ठहरता है । बोकमें रहता है। निन्दा होता है और परलोक में बड़ी बड़ी यातनाएँ अपव्ययी मनुष्य जरूरतके लिए खर्च नहीं करता सहनेको मिलता है। बल्कि खर्च करने के लिए नयी नयी अनावश्यक जरूरतें इसी तरह समाजके लिये भी अपव्यय बड़ा अनिष्टपैदा करता है। ऐसा देखा गया है कि फिजूल खर्च कर है । एकको अपव्यय करते हुए देखकर तया करने वाला न किसी समय अपनी एक जरूरतको फिजूलखर्चासे नानावाहियात विनोद एवं रंगरेलियां पूर्ण हुई देखता है वो तुरन्त उसके मनमें यह खयाल करते हुए देखकर समाबके दूसरे व्यक्ति के मनमें भी पैदा होता है कि खर्च करनेके लिए अब वह कौनसी वैसी हो चाह पैदा होती है। एक दूसरेके मनमें ईण्या जरूरत पैदा करे । इस तरह वह सदा कुछ न कुछ खर्च और जलन के भाव पैदा होते हैं। बड़ी बड़ी लड़ाइयाँ करने ही की धुनमें रहता है। वह कभी अपने भापको हो जाती हैं। पार्टीबन्दियाँ हो जाती हैं। एक दूसरे शान्त एवं स्वस्थ अनुभव नहीं करेगा । उसके दिमागमें घमंड को चूर चूर करनेकी चेष्टा करता है और दूसरा नयी नया इच्छाएं और उनको पूरा करने के लिए अप- अपने बरप्पन और शान शौकतको सुरक्षित रखनेके व्ययकी चाल चलित हुमा करेंगी । पर स्थिर होकर जिए चिन्तित रहता है । तथा इसी कसाकसीमें रुपया Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [मारिवन, वीर निर्वाण सं०२५५५ पानीकी तरह बहाना पड़ता है इससे व्यक्तियों का भी होता जारहा है, शिक्षित महिला-समाजमें फिजूलखी पतन होता है और उनसे बनने वाले समाजको भी के नये नये तरीके ईजाद होते जा रहे है। यह तो सच पति पहुंचती है। यदि मनुष्य अपने पैसेको अपने ही रही कि पुरानी चाल वाली माताओं व बहनोंमें कुछ निरर्वक और कुछ स्वार्थोंमें न खर्च करके समाज व देश ऐसे संस्कार पड़े हुए हैं कि वे पुरानी वालोंको चाहे के हितोंकी रक्षा के लिए उसका उपयोग करे तो फिर वे कितनी ही खर्चीली क्यों न हों और चाहे उनमें होने किसीकी धन-सम्पत्तिसे भापसमें जलन या ईयाके भाव वाले खाये उनके घर कितने ही तबाह क्यों न हो पैदा होनेका अवसर हीन भावे । अपव्ययसे समाजमें जाएँ पर यह उन्हें छोड़ने के लिए किसी भी तरह तैयार पाप और अन्यायका प्रसार होता है तथा दुर्गुणोंकी नहीं है; पर हमारी भाज कलकी बहनों में उनकी अपनी इदिहोती है। जो पैसा उपयोगी और उत्तम कार्यों में ही चर्या में ऐसे छोटे छोटे सैंकड़ों ही निरर्थक अपव्यय बगना चाहिए था वह वाहियात और व्यर्थकी शान- के मार्ग पैदा हो गये हैं जिनसे भलीसे भली और शौकतमें खर्च किया जाता है। इससे समाज कमजोर सम्पन्न से सम्पन्न गृहस्थीका भी चकनाचुर हुए बिना चौर पुम बना रहता है । जिस समाजमें वाहियात नहीं रह सकता । इन वाहियात खर्चामे पुरुषोंके गाड़े किसानों की जाती है वह दूसरे समाजोंके सामने- पसीनेसे कमाये हुए धमका ही नाश नहीं होता है मुकाबलेमें खड़ा नहीं रह सकता और हर बातमें उसको बल्कि हमारी गृह देवियोंका सुन्दर जीवन भी भोग बीचा देखना पड़ता है। उसका अपमान और तिर- विलास और फैशनके साँचे में इस तरह डान दिया स्कार करना दूसरेके लिए एक खेलसा हो जाता है। जाता है कि वह न तो उनके अपने मतलबका ही क्योंकि समाजकी उन्नतिके बहुतसे उपायों में एक मुख्य रहता है और न समाज व देशके अर्थका ही। माय उसमें रहने वाले व्यक्तियोंकी धन-सम्पत्ति और भाज कनकी बहनों में यदि पुरानी चालके गहनों उसका समुचित उपयोग भी है । एक अर्थ शास्त्रविधा का शौक कुछ कम हुआ तो नयी चालके गहनोंका विशारद पंडितने किसी जगह लिखा था कि किसी शौक उससे भी अधिक बढ़ गया । गोखरू बंगड़ीके समाज या देशकी शक्ति और बलको मापनेका यन्त्र स्थान पर सोनेकी चूड़ियां पहनी जाने लगीं। बाली उसमें रहने वाले व्यक्तियोंकी सम्पत्ति का उपयोग है। और कानके छल्लोंकी जगह नये नये इयरिंग काममें अगर उनकी सम्पत्तिका उपयोग उत्तम और समयो- लिये जाने लगे। सरमें पात व चौरकी जगह विविध पयोगी कार्योंमें होता है तो वह समाज भी उन्नत एवं रंगरंजित विज दिखाई देने लगी, जो रोज रोज या म्यवस्थित है और यदि उसका उपयोग अनुचित रूपसे तो टूटती रहें और यदि बदकिस्मतीमे साबुत रह जायें होता है तो उस समाजकी भीत भी बाल रेत पर खड़ी तो फैशन बदल जानेसे बेकार जायें । गले में सोनेकी है जो जब कभी धक्का देकर गिराई जा सकती है। कंठीके विना तो गलेकी शोभा ही नहीं । रिस्टवाच और इसी अपव्ययके अवगुणसे हमारी माधुनिक जीरोपावरके चश्मेका शौक तो ऐसा बड़ा है कि उसकी शिषित बहनें भी रहित नहीं है। यह देखनेमें माता कोई हद नहीं । पौर अफसोस तो यह है कि घदीसे है कि ज्यों ज्यों माधुनिक सम्पता और शिक्षाका प्रसार समयका सदुपयोग रत्तीभर नहीं किया जाता और Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष 1, किरण २] शिक्षित महिनामों में अपम्पय चश्मेसे आंखोंका सर्वनाश करके भी उसका शौक पूरा पालेका अफगान स्नो इस्तेमाल करते करते मैं तो पक किया जाता है। कुछ लिखनेकी भावन हो और मौके चुकी इस बार रातके लिए पाम्सको कीम और बेमौके छ लिखनेका काम पड़ जाता हो सोबात नहीं पर दिममें लगानेके लिए पान्ड्स वेनिशिंग झीम जागा।' पारकर पेन बेबमें जरूर सुशोभित होना चाहिए। मेंहदीका इस बेडके रवैये में कमी होना तो दूर रहा कि हमारे स्थान क्यूटेक्सने लिया । नाकमें नथकी जगह पर बाजारू घरोंकी नडोंको खोखला करनेके लिए इसकी चक्रवृद्धि कांटोंने काजा किना । रोज काममें पाने वाली जुल्फे ज्याजको तरह दिन दूनी और चौगुनी बदवारी हो रही बंगाल बहार, हेयर माइल, भूतनाथ तेल, कामिनिया है। समाजका भला चाहने वाले नेतामोंने हमारे बहार तेल, ले लन्दनका बना कोकोनट हेयर प्राइन, सामाजिक फिजून खचों पर गला फाड़ फाड़कर ताला जुल्फे बहार, लक्मसोप, पियर्स सोप, गोडरेज, हम्माम, बगानेकी कोशिश की तो इधर हमारी शिक्षित देवियोंने सनलाइट सोप, हेयर क्रीम, हिमानी स्नो, हवाइर स्नो, अपने मेक अप करनेके खर्च को बेशुम्मार बढ़ा दिया को पोण्ड्स काम, कोल्ड क्रीम, वेसलीन,तरह तरह के सेक्ट, उससे भी खतरनाक और बेकाबका हो रहा है। यदि बवरडर, गुलामी पाउडर, ट्य पाउडर, ऐसी सैंकड़ों ही हिसाब लगाकर देखा जाय तो भाजकी पढ़ी लिखी कमसे कम उपयोगी और अधिक अधिक खर्चीली साधारणसे साधारण हैसियय वाखी बहनका सिर्फ चीजोंका स्टेशनके मालगोदाममे भाने वाली गाड़ीमें बालों और मुँहके मेकअप करनेके खचों में कमसे कम जुते हुए बैनोंकी तरह भार ढोते ढोते घरके आदमियोंकी १०) ११) रु. माहवार तो तेन, साबुन, क्रीम प्रादि पीठ पर बल पड़ गये, पैरों फफोले हो गये और पाकिट चीजों में ही पड़ जाता है। पैसोंसे विद्वेष करने लगा, पर हमारी गृह देवियों के द्वारा इसके अतिरिक्त कपड़े खत्तोंका खर्च देखिए ! मौके-बेमौके, असमय, दिन और रात जब कभी मेंट साड़ियाँ ? उफ ? एक से एक बड़कर नित नयी पहनने हुई, पुरुषोंके माय बरते जाने नाते - "देखिये न को चाहिएँ । माज एक सादी खरीदी गई और कल जो पाउडरका डिब्बा माज दो रोज़पे खाली पड़ा है ? और यदि उसकंडिजायनका फैशन बदल गया तो उसमें इस बार कोटेका एयर स्पन पाउडर जाइएगा, बड़ी रुपये जो खर्च हुए वे सब बेकार गये। हैसियतके तारीफ सुनी है उसकी ।' 'अरे मुब ! जा वो तेरे अनुसार एक एक साड़ीमें १०) १५)२५) ३०) १०) बापूजी बाजार जा रहे हैं, उनसे कह, पाते समय आज १.०) और इससे भी अधिक रुपया खर्च होता है। विलायती दूध पाउडर और क्रोम, स्नो, विवेलिन भाजकल जारजटकी साड़ियोंका ऐसा सिलसिला बंधा हेयर बाइल और कोई अच्छा सा विनायता सोप है कि हर एकके घरमें इस पांच साड़ियां खरीदी हो जल लेते पावें । पहले ही देशी तेल-साबुन लाकर जाती हैं। इन साड़ियों में पैमा तो अधिक खर्च होता रख दिया किसी कामका नहीं।' 'अजी सुना है बालोंके ही है साथ ही इन्हें पहन कर बहनें अपने खास लिए विठेक्स औप नाखूनों के लिए क्यूटेक्स बड़ा भन्छा प्राभूषण लज्जासे भी बेखबर हो जाती हैं। सलके, रहता है फिर वह जापानी हेयर क्रीम औ स्यूलनका पेटीकोट, जम्पर भादिमें रोज नयी नयी कांट छाँट चलती ज्विल्टन क्यों काममें लिया जाय।' 'देखिएजी पाटन रहती हैं जिनमें कीमती कपड़ा और सजावटका सामान Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [पारिवन, वीर निर्वास सं.२०१६ वोस होता ही है, साथमें दरजीको दुगुनी तिगुनी बना हटी। कितना भाराम रहा! बाजारू चाट, नमकीन सिखाई और देनी पड़ती है, वरना वे तत्काल ही ईजाद मिठाई भादिसे पुरानी पद्धति वाली माताओं को इतनी हुए फैशमसे रहित रह बायें हाथमें कपसे कम 1)1) नफरत है कि वे उनका नाम तक नहीं लेती किन्तु परेका एक रेशमी रुमान चाहिए जो एक बार पसीने भाजकल वाली बहनों में इनका शौक ऐसा बड़ा है कि पोछने पर उस्टरके काम लिया जाने लगे और कर दे इनको बहुत ही मज़ोज़ समझ कर खाती हैं और कमलों की शोभाके लिए तुरन्त ही ताजा स्माल के लिये धर्म तथा धन दोनों ही से हाथ धो बैठनी है। भार जारी हो जाय । कपड़ों में जी खोल कर तरह घरमें काम करनेको नौकर चाकर हैं और समाज तरह के विलायती सेन्ट अँडेल दिए जाते हैं, जिनकी सेवा, देश सेवा तथा साहित्य सेवासे जगन नहीं। कीमत भारी मारी होती है और उपयोग रंचमात्र नहीं मादमी सोये भी तो किनना 'सोये । पादासे ज्यादा इसके अलावा सीमें काम पाने वाले बढ़ियामे बढ़िया घंटे रातम और २ घटे दिनमें समझ लीजिए । ३ घंटे स्वेटर, गुलबन्द, बुर्राव, दस्ताने आदिका ऐसा अनावश्यक भोजन करने प्रादिक और निकाल दीजिए । बचे हुए पर्च बड़ा है कि हर जाड़ेमें प्रति घर १००) ५०) रु. २ घंटों में अब करे तो क्या करें ? बस रेडियो और खर्च होता ही है। वास्तवमें देखा जाय तो महिलाओं ग्रामोफोन ! जो उन रसिक बहनोंको इश्क और ऐय्याशी ने जो इनका उपयोग करना शुरु किया वह पर्दासे के गन्दे गाने सुनाते रहें और उनके दिल और दिमाग बचनेके लिए नहीं किन्तु केवल फैशनके लिए किया को दूषित करने रहें । फिर ग्रामोफोनके रेकार्ड नित है।हा, यह खुशीकी बात है कि अब अधिकांश बहनें नये नये चाहिएँ । एक रेकार्ड एक बार सुना और वह इन चीज़ोंको हायसे बुन कर कामम लेने लगी हैं। तवियतमे उतर गया। एक एक रेकार्ड होना भी इससे खर्च भी कम करना पड़ता है और चीज़ भी चलाऊ चाहिए कमसे कम २॥) ३) का । वरना वह स्पष्ट तैयार होती है। आवाज़ नहीं दे। अगर महिने में .. रेकार्ड भी नये हमारी नये युगकी बहनोंको खाने पीनेका वस्तुना खरीद लिए जाते हो नो २१) ३०) रुपये माहवारका में भी अनावश्यक खर्च करना पड़ता है और साथ ही तो यही खर्च पल्ले बँध गया । दिन भर चक चक जरूरी संयमका भी ध्यान नहीं रक्खा जाता | सुबह करने वाले रेडियो में जो बिजली खर्च हुई वह तो उठे चायका एक कप जल चाहिए । नाश्ता करनेके शायद खयालम पाती ही नहीं है। और फिर दिन भर लिए धरम कौन चीज़ बना कर रखें । हाथ बनाना रेडियो और रेकार्ड के निराकार गानोंको सुनकर भी तो सीखा ही कहाँ । फिर वही बाजारपे लिखी विस्कुट तबियत उब उठी तो शामको सिनेमाकी सैर होती है। ब्रिटेनिया बिस्कुट के डिब्बे मंगाये जाते हैं, जिनमें शुद्धता हैसियतके अनुसार १) २) ० का टिकट खरीदा जाता और संयमको तो लात मार दी ही जाती है किन्तु रुपया है। साथमै रसिक सखी-सहेलियोंका होना भी श्रावपैसा भी मिट्टीकी तरह बरतना पड़ता है। कोई मेहमान श्यक होता है वरना अकेलेमें कोई दिक्षमाया बाजारसे मिठाई मंगाली गयी। पैसे खर्च हुए तो चस्पी नहीं । उनके टिकटोंका भार भी अपने ही पुरुषोंकी बसे और उनकी खुदकी रसोई में धुमाधोरीसे ऊपर लेना होता है। Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३ किरण १२] शिक्षित महिनाभोंमें अपव्यय इस तरहके सैंकड़ों ही अनावरक और निरर्थक रखने लायक इधर उधर चौमासेमें चमकने वाले खर्च है, जो दिन पर दिन हमारी शिक्षित बहनों में बई अगियेकी तरह दिखाई दे रहा है वह भी हम इस वानखकी तरह बढ़ रहे हैं । जिनको यदि रोका न गया तरह नष्ट भ्रष्ट कर हमारे देशको सम्पत्तिका क्या कतई तो वे सचमुच हमारे घरोंको जल्दी ही भस्ममात् कर दिवाला निकाल बैठे, जो एक दिन जरूरी भोजन-वर देंगे। पुरुष गतदिन परिश्रम कर गर्मी, सर्दी, बरसात, मिलना भी दुर्लभ हो जाय ? इस पर हमारी शिक्षित धूप, भूख, प्यास, गुलामी प्रादिकी कठिन वाधाएँ सह बहनोंको खूब गौरके साथ विचार करना चाहिये और कर बड़ी मुश्किल से रुपया पैदा करें और हम शीघ्र ही अपने अपने अनावश्यक तथा फैशनकी पूर्ति बहनें भासानीके साथ हमारे पणिक भानन्दके लिए के लिये किये जाने वाले खर्चीको घटाकर तथा बन्द उसको खर्च करदें। यह हमारे लिए कितने भारी कलक करके अपनी, अपने समाजकी और अपने देशको और शर्मकी बात है। अफसोस तो यह है कि हमारे देश उमतिमें अबसर होना चाहिये । यही इस समय में जो कुछ था वह तो पहले ही विदेशियोंने निकान उनका मुख्य धर्म और वास कर्तव्यकर्म है। लिया किन्तु जो थोड़ा बहुत तन और पेटकी लाज Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम स्वहित और बादमें परहित क्यों ? [ लेखक - श्री दौलतराम 'मित्र' ] धर्मादेशोपदेशाभ्यां कर्तव्योऽनुग्रहः परे । नात्मव्रतं विहायास्तु तत्परः पररक्षणे ॥ - पंचाध्यायी, २-८०४ अर्थात -- धर्मका आदेश और धर्मका उपदेश देकर दूसरों पर अनुग्रह (उपकार) करना चाहिये । परन्तु आत्म व्रतको - आत्माकं हितकी बातको - छोड़कर दूसरोंके रक्षण में उन्हीं के हितसाधन मेंतत्पर नहीं रहना चाहिये । दहिदं कादव्वं जइ सक्कइ परहिंदं च कादव्वं । दहिदपरहिदादो आदहिदं सुट्ठ कादव्वं ॥ --- ग्रन्थान्तर- पंचा० २-८०२ अर्थात- आत्महित ( अपना हित ) मुख्य कर्तव्य है । यदि सामर्थ्य हो तो परहित भी करना चाहिये । आत्महित और परहितका युगपत प्रसंग उपस्थित होने पर दोनोंमेंसे आत्महित श्रेष्ठ है, उसे ही प्रथम करना चाहिये । यह एक आदेशरूप श्रगमका कथन हैं, अतएव इसमें, ऐसा क्यों करना चाहिये, इस 'क्यों' कं संतोष लायक खुलासा नहीं है। और इस 'क्यों'रू पी दरबानको संतोष कराए बिना यह किसी बातको भीतर - गले नीचे उतरने नहीं देता । श्रतएव इस लेखमें इसी 'क्यों' का खुलासा करना है । खुलासा यह है कि आत्मप्रबोधविरहादविशुद्धबुद्धेर अन्य प्रबोधनविधि प्रति कोऽधिकारः । सामर्थ्यमस्ति तरितुं सरितो न यस्य तस्य प्रतारणपरा परतारणोक्तिः ॥ कर्तुं यदीच्छसि पर प्रतिबोधकार्य श्रात्मानमुन्ननमते ! प्रतिबोधय त्वं । चक्षुष्मतैव पुरमध्वनि याति नेतुम् अन्धेन नान्ध इति युक्तिमती जनोक्तिः ॥ - आत्मप्रबोध ४-५ अर्थ (पद्य) - 'आत्म-बोधसं शून्य जनोंको नहि परबोधनका अधिकार तरण कलासे रहित पुरुषका यथा तरण शिक्षण निःसार जो अभीष्ट पर-बोधन तुमको तो आत्मन् ! हो निजज्ञानी नेत्रवान अन्धेको खेता, नहि अन्धा, यह जग जानी" इससे यह बात स्पष्ट होजाती है कि किमीका प्रथम तिर जाना या ज्ञानी हो जाना यद्यपि स्वहिन हुआ, तथापि वह है परहितके साघनरूप - उसमें महायक; और ऐसा स्वहित-निरत व्यक्तिडी परहित करने में समर्थ हो सकता है जो खुद ही रास्ता भला हो वह दूसरोंको रास्ते पर क्या लगा सकता है ? हित-अहित क्या हैं, और उनके कारण क्या हैं, इस पर विचार करें: - Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरक १२] यह तो सभी जानते हैं कि सुख 'हित' हैं और दुःख 'अति' है अतएव इनके कारण बतलाते हैं" सर्व परवशं दुःखं सर्व आत्मवश सुखम् । वदतीति समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ॥” - अमितगति योगसार ३-१२ अर्थात- जो परवश (पराधीन ) होना है वह सब दुःख है, और जां स्ववश (स्वाधीन ) होना है वह सब सुख है, यह सुख-दुःखका संक्षिप्त लक्षण है । और इसलिये आत्माक साथ कर्मका जो दृढ़ बन्धन है । जिसने आत्माको मूलत: पराधीन कर रक्खा है वह सब दुःखरूप है, और उस बन्धन से जितना जितना छुटकारा मिलना ( मुक्त होना) है वह सब सुखरूप है। कर्मबन्ध होनका कारण बतलाते हैंसत्सु रागादिभावेषु बन्धः स्यात्कमणां बलात् । तत्पाकादात्मनो दुःखं तत्सिद्धः स्वात्मनो बधः ॥ — पंचा० २-०५७ प्रथम स्वहित और बाहुमें परहित क्यों ? अर्थात्-रागादिक भावोंके होने पर अवश्य कर्मबन्ध होता है और उस कमबन्धकं फलसे आमाको दुःख होता है, इसलिए रागादिक भावों में *“दुःखोवर्कमिङ्काऽहितं सुखरसोदकेँ हितं तयंताम्" । - श्रात्मप्रबोध, ३२ सर्व परवशं दुःखं सर्व आत्मवशं सुखम् । एतद्वद्यात्समासेन लक्षणं सुख दुःखयोः ॥ - मनुस्मृति ४-१६ 1 राग-द्वेष दोनों साथी हैं, जैसा कि पचाध्यायीके निम्न वाक्यसे प्रकट है " यद्यथा न रतिः पचे विपक्षेप्यरति बिना । मारतिर्वा स्वपक्षेपि तद्विपचे रतिं विना ॥ २-५४३ ६६१ अपने आत्माका घात होता है, यह बात सिद्ध है।। आत्मेतरागिणामंगरक्षणं यन्मतं स्मृतौ । तत्परं स्वात्मरक्षायाः कृतं नातः परत्र यत् ॥ . - पंचा० २-०१६ अर्थात - आत्मा मे भिन्न दूसरे प्राणियोंके शरीर की रक्षाका जो विधान स्मृतिशास्त्र में है, वह केवल अपनी ही रक्षाके लिये हैं, इससे वस्तुतः दूसरोंकी रक्षाकी बात कुछ नहीं है । भावार्थ - रागादिक मात्र ही परहसा और और स्वहिसा अथवा पर श्रहित और स्व-अहित होनक कारण हैं। और भस्पष्ट कहा हैअर्थाद्रागादयो हिसा चास्त्यधर्मो व्रतच्युतिः । अहिसा तत्परित्यागो व्रत धर्मोऽथवा किल ॥ - पंचा० २०७५५ अर्थात- रागादिक भाव ही हिंसा है, अधर्म है, व्रतच्युति है । और रागादिक-त्याग ही अहिसा है, धर्म है, व्रत है । श्रप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ - पुरुषार्थसि० ४४ अर्थात- रागादिक भावोंका उत्पन्न न होना ही निश्चितरूप से अहिंसा है, और उन्हीं रागादिक भावकी जो उत्पत्ति है वह हिंसा है, ऐसा जिनसिद्धान्तका संक्षिप्त रहम्य है I सर्वतः सिद्धमेवैतद् व्रतं बाह्यं दयाऽङ्गिषु । व्रतमन्तः कषायारणां त्यागः सैवात्मनि कृपा || -- पंचा० २-७१३ +" परदवर वदि विरधो मुच्चेह विविह्नकम्मेहिं । एसो जिाउयदेमो समासदो बंध-मुक्स्वस्स ॥" मोक्षपाहुड १३ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्स [पाश्विन, वीर निर्वाण सं०२४१६ ___ अर्थात-यह बात सब प्रकारसे सिद्ध है कि अर्थात-उम मावद्ययोग ( अन्तर्बाह्य हिंसक प्राणियों पर दया करना 'बाह्यव्रत है' और कपायों उपयोग ) के अभाव होनका नाम ही निवृत्ति का (रागादिकोंका) त्याग करना अंतर्बत है । तथा कहलाती है, उमीका नाम व्रत है । यदि मावद्ययोग यही अन्तर्वत निजात्मापर दयाभाव कहलाता है। की निवृत्ति अंश (अणु ) रूपमे है तो व्रत भी इमी 'अन्तवत' को 'इद्रिय निरोधसंयम' अंश (अणु ) रूपम है, और यदि मावद्ययोगकी और 'बाह्यवत' का 'प्रागिरक्षणमयम' भी कहते निवृत्ति वंश ( महान् ) रूपम है ना बन भी हैं। यथा माश ' महान ! रूपम है। सत्यमक्षार्थसम्बन्धाज्जानं नाऽसयमाय तत् । भावाथ -वक पालकजन दो प्रकारकं हैं, तत्र रागादिबुद्धिर्या सयमस्तनिरोधनम् ।। अणुत्रा पालक गृहस्थ है जिनकी 'उपासक' त्रसस्थावरजीवानां न वधायोद्यत मनः । सज्ञा है, और महान् व्रतकं पालक वनस्थ हैं जिनकी न वचो न वपुः कापि प्राणिसंरक्षणं स्मृतम् ।। 'माधक-माधु'संज्ञा है । -पंचा० २, ११२२-२३ तीन गुप्ति, पाँच ममिति. दस धर्म, बारह अर्थान-इन्द्रिय और पदार्थक सम्बन्धसे जो अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजय, पाँच चारित्र, और ज्ञान होता है वह असंयम नहीं करता है। किन्तु बारह प्रकारक तप, ये अंतवत प्रधान या निवृत्ति इन्द्रिय और पदार्थक सम्बन्ध होने पर उम पदार्थ प्रधान महा- 4 अंग हैं। जो राग द्वेष परिणाम होते हैं वे ही असंयमको औषधि. बाहर, ज्ञा माधन और अभय, इन करने वाले हैं। उन राग-द्वेष रूप परिणामोंको - :-- गृहस्थ के व्रतको 'अणुवत' कहनेमे यह नहीं रोकना ही 'इन्द्रिय-निराध-संयम' है । तथा त्रम समझना चाहिये कि-अणुवनी गृहस्थको हिंसा स्वरूप और स्थावर जीवोंको मारनेके लिये मन वचन पांच पाप अणुप्रमाण अंशम करनेकी तो मनाई है और कायकी कभी प्रवृत्ति नहीं करना ही 'प्राणि संरक्षण' शेष अंशमें करनेकी छुट्टी है । ऐसा समझ लेने या प्रगट संयम है। होनेसे तो हम दो तरहसे अपना भहित कर बैठेंगे । ___ एक खुलासा और है कि अहिंसाधर्म-व्रत एक तो हम पंच पाप करने में अधिकांशमें प्रवृत्त हो के पालक दो तरहके होते हैं । यथा - तस्यामावोनिवृत्तिः स्याद् व्रतं चार्थादिति स्मृतिः । नहीं करेगा, जिससे कि हमारा न मालूम कितने प्रसंगों आयेंगे, दूसरे राजन्यायालय हमारी जबानका एतबार अंशासाप्पंशतस्तसा सर्वतः सर्वतोरि तत् ॥ पर प्रहित हो जाना संभव है। अतएव हमें पंच पार्पोसे --पंचा०२-०५५२ कमसे कम राज-कानुनकी मंशाके अनुसार तो बराबर दर्शन, ज्ञान और चारित्र 'बन्धके कारण नहीं, (सर्वांशमें ) बचना ही चाहिये । ऐसा करनेमे हम किंतु बंधका कारण राग है। राज-कानून भंगका फल (दर) भी नहीं पायेंगे और (देखो, पु० सि. रखोक २१२ से २१५) हमारी राजन्यायालय में वचन-साख मी कायम रहेगी। Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण १२] प्रथम स्वहित और बादमें परहित क्यों ? चार दानोंक द्वारा दूसरों के प्राकृतिक ग परजनकृत भी अर्थपुरुषार्थमें गर्भित है। अब जरा सोचिये दुःख (कष्ट) दूर करना-उनकी महायता करना- तो, क्या यह पुरुषार्थ यूं ही-सहज हो -सिद्ध हो याने जीवोंकी दया पालना, तथा धर्म, अर्थ | और जाता है ?-इसके लिये लौकिक धर्म (लोकसमर्थित काम इस त्रिवर्गका अविरोधरूपसे मेवन करना राजधर्म-राजनियम ) का पालन करना पड़ता है बाह्य ब्रत-प्रधान या प्रवृत्ति-प्रधान अणुधर्मकं तब कहीं जाकर यह सिद्ध होता है। अंग हैं। गृहस्थकं ऊपर इधर तो लौकिकधर्म पालनकी ये महान और अणु यों हैं कि-जहाँ अन्तः जिम्मेदारी और उधर पारलौकिकधर्म पालनकी व्रत-प्रधान या निवृत्ति प्रधान धर्मका अनुष्ठाता जिम्मेदारी है। जैमा कि कहा हैसाधु (वनस्थ ) अपनी ओरसे किसीको दुःख सर्व एव हि जैनानां प्रमाण लौकिको विधिः । ( कष्ट) नहीं पहुंचा करके-किमीके प्रति मोशमे यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतवृषणम् ॥ अप्रशस्त और अधिकांश प्रशस्त रागद्वेष नहीं -यशस्तिलक करक--अपना और दूसरोंका हित संपादन करता सर्व एव विधिजैनः प्रमाणं लौकिकः सतां । है, वहाँ बाह्य व्रतप्रधान या प्रवृत्ति प्रधान धर्मका यत्र न व्रतहानिः स्यात्सम्यक्त्वस्य च खंडनं ॥ अनुष्ठाता उपासक (गृहस्थ ) दूसरोंक प्रति -रस्नमाला १५ अधिकांशमें प्रशस्त रागद्वेष करके अपना और द्वौ हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । दूसरोंका हित-अहित दोनों संपादन करता है। लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः॥ उदाहरण लीजिये --यशस्तिलक (१) मनुष्यममाज के विषयमें उदाहरण- भावार्थ-गृहस्थसे लौकिक या राजनियम धर्म (पारलौकिकधर्म= सम्यक्दर्शन, ज्ञान, ऐम स्वीकार कराना अथवा ऐमा राजशासन चारित्र-वीतरागता ), अर्थ और कामका अविरोध स्थापित कराना कि जो धर्मको दूषण लगाने वाला रूपमं मेवन करने वाले गृहस्थका जीवन ऐम न हो। अनेक जटिल प्रसंगोंका-समस्याओंका-ममुदाय कितनी जटिल समस्याएँ हैं ! यही कारण है है, जिनमें प्रशस्त राग-द्वेष किए बिना जीवन निर्वाह कि अणुधर्म पालक गृहस्थकं लिए एक ऐसा जीवननहीं हो सकता है। मार्ग निश्चित किया गया है कि जिम पर चलनेमे मित्रोंका प्राप्त करना और उनकी वृद्धि करना . वह दोनों जिम्मेदारियोंके विरोधरूपी खतरेसे बच "विद्या भूमि हिरण्य-पशु-धान्य-भांडीपस्कर-मित्रा- जाता है । वह मार्ग है, शिष्ट (लोक या राजनियम दीनामर्जनमर्जितस्य विवर्धनमः ।" पालक ) जनोंका अनुग्रह करना और दुष्ट (बद(वात्स्यायन, कामसूत्र २.६) नियती लोक या राज-नियम-तोड़क)जनोंका निग्रह "यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः ।" करना, चाहे वे कोई हों, बम इसीका नाम है -सोमदेव-नीतिवाक्यामृत १ प्रशस्त राग-द्वेष । Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [पारिवन, वीरनिर्वाण सं०२११६ साधुजन लौकिक जिम्मेदारीसे रहित हैं. श्रत होने योग्य ) जीवोंको बतलाऊ-बही मनुष्य एव उनके लिए शत्रु-मित्र दोनों बराबर हैं, उन्हें अगले जन्ममें तीर्थकर होकर साधु अवस्था धारण किसीमे राग-द्वेष नहीं है। ___ करके फलस्वरूप वीतराग (निष्पक्ष ) सर्वज्ञ, और (२) पशु-समाजके विषयमें उदाहरण- हितोपदेशक होता है। एक चूहे पर बिल्ली झपटी, गृहस्थने बिल्लीको अब ममझमें आ जाना चाहिये कि जिन्होंने अघातक मार मारकर चूहेको छुड़ाया, गृहस्थ की स्वहित प्राप्त किया है, अथवा जिन्होंने वीनरागता. यह प्रवृत्ति चूहे के प्रति अधिकांशम प्रशस्तराग और पूर्वक हितको दख-जान लिया है और अनुभव बिल्ली के प्रति प्रशस्त द्वेषरूप हुई । इसी प्रकार एक कर लिया है, वे ही हितोपदेशक' होने के पण कुत्ता बिल्लीक ऊपर झपटा, गृहस्थन बिल्लीको अधिकारी हैं। छुड़ाया,गृहस्थकी यह प्रवृत्ति बिल्लीके प्रति अधिकांश अतएव ऐसा नहीं समझा जाय कि जैनागममें मे प्रशस्तराग और कुत्ते के प्रति प्रशस्तद्वेष रूप हुई। परहितका स्थान गौण और जैनागमोक्त माधु____ यहां पर अगर पूछो कि माधुजन दानके द्वारा चरित्र निम्न कोटिका है । बल्कि यह स्पष्ट कहा सहायता तो नहीं कर मकते, सो तो ठीक; परन्तु गया है कि - क्या उनमे अनुकम्पा-वृत्ति भी नहीं है ? तो उत्तर “साधारणा रिपौ मित्रे साधकाः स्वपरार्थयोः । यह है कि उनमअनुकम्पावृत्ति जरूर है,परन्तु उनकी साधुवादास्पदीभताः साकारे साधकाः स्मृताः॥" वृत्ति सवाशमें अप्रशस्त और अधिकांशमें प्रशम्न -प्रात्मप्रबोध, ११२ राग-द्वेषरहित, अंतर्मुखी होनेम वह ऐमें ममयमें अर्थात-जो शत्रु-मित्रमें समान है-मित्रोंमे दुःग्वी-कष्टो-जीवोंकी दशा पर अनकम्पापूर्वक राग और शत्रुओंसे द्वेष नहीं करते-अपन और "वस्तुस्वरूप-विचार" की ओर झक जाती है। परकं प्रयोजनको मिद्ध करनेवाले हैं, और माधवाद ___ इस प्रकार यहाँ आकर यह स्पष्ट हो जाता है के स्थान हैं-सब लोग जिनकी प्रशंसा करते है, कि जो परहित ( दूसरोंके माथ प्रशस्त रागादिक वे 'सा' अक्षरके वापरूप 'माधक' अथवा नहीं करना) है, उसम स्वहित ममाया हुआ है,और 'साधु' है। वह स्वयं प्रथम हो जाता है। सर गुरूदाम बनर्जीन अपने "ज्ञान और आगमम यहाँ तक बतलाया है कि जो मनष्य कर्म" नामक ग्रन्थ में स्वार्थ (स्त्रहित ) और परार्थ पूर्वभवमें दर्शनविशुद्धि, मार्गप्रभावना, प्रवचन- (पहित) की व्याख्या करते हुए बहुत कुछ लिखा ५ बत्मलत्व आदि सोलह भावना भाता है-यह है, जिमका सागंश यह है कि हमारा स्वार्थ भाता है कि कब मेरे रत्नत्रयकी ( मम्यग्दर्शन. परार्थ विरोधी नहीं, बल्कि परार्थक साथ मम्पर्ण म० ज्ञान, मच्चारित्रकी ) शुद्धि हो और कब मैं रूपसे मिला हुआ है। खुद म्वार्थसिद्ध किए बिना शुद्धिका मार्ग (मोक्षका मार्ग ) मम्पर्ण भव्य (मुक्त हम परार्थ सिद्ध नहीं कर सकते। मैं अगर खद असुखी हूँगा तो मेरे द्वारा दूसरोंका सुखी होना लोक या रा ननियम तोड़नेवाले अपने पुत्रोतकको कभी सम्भव नहीं।। प्राण दण्ड-जैमा निग्रह करने के अनेक उदाहरण पुराणों आशा है, इतने विवेचनसे उक्त 'क्यों' रूप में पाये जाते हैं। शंकाका कुछ समाधान होगा। Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय १ श्राभार और धन्यवाद 'अनेकान्त' एक वर्ष चल कर घाटेकं कार‍ बन्द हो गया था और कुछ वर्ष तक बन्द रहा था, यह बात किमी छिपी नहीं है । सन १९३८ में जब लाग्न सुखराम जी न्यू देहलो, वीरशामन जयन्तीक शुभअवसर पर सभापतिको हैसियतमे वीरसेवामन्दिर मे मरसावा तशरीफ लाए और आपके साथ माही नवयुवक भाई अयोध्याप्रसादजी गोयलीय भी पधारे, तब आप दोनों ही सज्जनोंन वीरमंत्रामन्दिर कार्यों को देखकर 'अनेकान्त के पुनः प्रकाशनकी आवश्यकताको महसूस किया, लाला जीने पत्रकं घाटेकी जिम्मेदारीको अपने ऊपर लिया और गोयलीय जीनं पूर्ववत् प्रकाशक के भारको अपने ऊपर लेकर प्रकाशन तथा व्यवस्था सम्बन्धी चिन्ताओं का मार्ग साफ़ कर दिया, और इम तरह मुझे फिर से 'अनेकान्त' को निकालने के लिये प्रोत्साहित किया । तदनुमार दो वर्ष में यह पत्र बराबर ला तनसुखराज के संचालाकत्व और भाई अयोध्याप्रमादजी गोयलीयके व्यवस्थापकत्व में आनन्द के साथ प्रकाशित होता आ रहा है। दो वर्ष के भीतर पत्रको जो घाटा रहा वह मत्र लालाजीनं उठाया और गोयलीयजी को अपने आफिसवर्क के अतिरिक्त श्रोवरटाइममें प्रेम तथा प्रुफादिकी व्यवस्थादि विषयक जो दिन रात भारी परिश्रम उठाना पड़ा उसे आपने खसी ने उठाया । इम तरह आप दोनों सज्जनोंकी बदौलत 'अनकान्त' को दो वर्षका नया जीवन प्राप्त हुआ, इसके लिये मैं आप दोनों सज्जनोंका बहुत आभारी हूँ और आपको हार्दिक धन्यवाद भेट करता हूँ । आपके इस निमित्त को पाकर कितनोंको लेख लिखन की प्रेरणा हुई, कितने नये लेख लिखे गये, कितनी नई खोजें हुई, कितनी विचार जागृति उत्पन्न हुई, कितन ठोस साहित्यका निर्माण हुआ और उससे समाजको क्या कुछ लाभ पहुँचा, उम सबको बतलाने की जरूरत नहीं, यहाँ संक्षेपमें इतना ही कहना है कि उम सबका मुख्य श्रेय आप दोनों सज्जनों को हैजो अच्छे कामोंका निमित्त जोड़ते हैं वे ही प्रधानतया श्रेयके भागी होते हैं - और इसलिये आप समाजकी ओरसे भी विशेष धन्यवाद के पात्र हैं । यहाँ पर मैं उन उदार परोपकारी सज्जनोंका आभार प्रदर्शित किये बिना भी नहीं रह सकता जिन्होंने अपनी ओर से अजैन संस्थाओं - स्कूलों, कालिजों तथा पब्लिक लायब्रेरियों आदिको 'अनेकान्त' फ्री (त्रिना मूल्य) भिजवाया है, और इस तरह अनेकान्त- साहित्यको दूसरों तक पहुँचा कर उसके प्रचार में सहायता पहुँचाई हैं, इतना हो नहीं बल्कि 'अनेकान्त' के घाटेकी रकमको कम करने में सहयोग देकर उसके संचालकादिके उत्साहको बढ़ाने में भी मदद की है । अस्तु इस पुण्य कार्यमें सबसे अधिक महयोग श्रीमान दानवीर रा० ब० सेठ हीरालालजी इन्दौरने प्रदान किया है - श्रापने ५००) रु० की रकम देकर १५० अजैन संस्थाओं को एक वर्ष और १०० जैन मन्दिरों- पुस्तकालयों को छह महीने तक 'अनेकान्त' भिजवानेकी उदारता दिखलाई है। शेष मज्जनोंमेसे चार नाम यहाँ और भी खाम तौर से उल्लेखनीय हैं(१) ला० कुट्टनलालजी मैदे वाले देहली, जिन्होंने सबसे पहले ५१) रुपये देकर इस परोपकार एवं सत्महयोगकं कार्यमें पेश क़दमी की, (२) श्रीमन्न सेठ लक्ष्मीचन्द जो भेलमा ने १०१) रु० (३) जैन नवयुवक सभा जबलपुर, ने ३०) रु० ( ४ ) सेठ गुलाबचन्दजी टोग्या इन्दौर ने २५) रु० देकर संस्थाओंको पत्र फ्री भिजवाये । इस अवसर पर मैं अपने उन लेखक महानुको कभी नहीं भूल सकता, जिन्होंने समय समय पर अपने महत्व के लेखों द्वारा मेरी, अनेकान्तको और समाजकी सेवा की है। आपके सहयोग के विना मैं कुछ भी नहीं कर सकता था । 'अनेकान्त' को इतना उन्नत उपादेय तथा स्पृहणीय बनाना यह सब आपके ही परिश्रमका फल है । Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भारिखन, वीर निर्वाण सं०२४१५ - और इसलिये मैं आपका सबसे अधिक आभार उमे मिल कर उठा लेवें, अथ ग हमके संचालनके मानता हूँ। इन सज्जनों में बा० सूरजभानजी वकोल लिये ममाज का एक सुव्यवस्थित बोर्ड नियत हो पं नाथूरामजी 'प्रेमी', बा• जयभगवानजी वकील, जात्र, जिम में यह पत्र मर्वथा परराखपेक्षा न रहेपं० परमानन्दजी शास्त्री, न्यायाचार्य पं. महेन्द्र- किसीकी किमी भी कारणवश सहायता बन्द हा कुमारजी, बा० अगरचन्दजी नाहटा, पं रतनलाल- जान पर हमका जीवन खतरेम न पड़ जाय और जो संघवी, भाई अयोध्याप्रमादजी गोयलीय, इसे अपना जीवन संकट टालने के लिये इधर-उधर पं. भगवत्स्वरूपजी 'भगवत्', व्याकरणाचार्य पं. भटकना न पड़े इस स्वावलम्बी बनन तथा घाटम वंशीधरजी, बा० माईदियालजी बो. ए., प्रो० मुक्त रहनेका परा प्रयत्न किया जाय और इम जगदीशचन्दजी एम. ए., प० कैनाशचन्दजो शास्त्री क्रमशः 'कल्याण' की कोटिका पत्र बनाया जाय । पंताराचन्दजी दर्शनशास्त्री ओर भाई बालमुकन्द- साथ ही, इसका प्रकाशन भी मम्पादनकी तरह जी पाटोदीकं नाम खाम तौरसे उल्लेख योग्य हैं। वीरसेवामन्दिर मरमावासे हो बराबर होता रहे, आशा है ये सब मज्जन आगेको इमसे भी अधिक जो इसके लिये उपयक्त तथा गौरवका स्थान है । उत्साहक साथ 'अनेकान्त' की संवाम तत्परर हेंगे, समाजको माली हालत,धर्म कार्योंम उपके व्यय और और दूसरे सुलेखक भी आपका अनुकरण करेंगे। उसके श्रीमानोंकी उदार परिणतिको देखते हुए यह २ अनेकान्तका आगामी प्रकाशन सब उसके लिय कुछ भी नहीं है । मिर्फ थोडामा 'अनेकान्त' को गत ११वा किरण में व्यवस्थापक योग इस तरफ देन-दिलाने की जरूरत है. जिमके अनेकान्तने जो सचना निकाली थी उसके अनुमार इम लिये अनेकान्तक प्रमियाँको ग्वामतौरमे प्रय किरणके बाद में अनेकान्तका देहलांस प्रकाशन बन्द हो करना चाहिय । मेरा रायमें बोड जैनी किसी बड़ा रहा है। अतः इस पत्रक अागामी प्रकाशनकी एक स्कीममे पहल अनकान्त के कुछ महायक बनाए बड़ी समस्या सामने है । व्यवस्थापकाकी सूचनाको जावें और उनके १००), ५०) तथा २५) तीन पढ़कर मेरे पास पं० मुन्नालाल नी जैन वैद्य मलकापुर ग्रेड रक्खे जाएँ । कमसे कम १५ मज्जन सौसौकी (बरार) का एक पत्र पाया है, जिसम उन्होंने २० सज्जन पचाम पचामको और २० सज्जन 'अनेकांत' के संचालन और उसके घाटेके भारको पच्चीम पञ्चीम रुपएकी सहायता करने वाले र्याद उठानेकेलिये अपनको पेश किया है और लिखा है कि मिल जाए तो अनकान्त कुछ वर्षोंक लिए घाटेकी स्वीकारता मिलने पर वे अपन श्रीमहावीर प्रिटिंग चिन्तासे मुक्त हो सकता है और इस असेंमें वह प्रेसम अनेकान्तके योग्य नये टाइपों आदिकी व्यवस्था फिर अपने पैरों पर भी आप खड़ा हो सकता है । कर दंगे और पत्रको सुन्दरता नथा शुद्धता के साथ यदिइम किरणकं प्रकाशित होनमे १५दिन के भीतर छापकर प्रकाशित करनेका पूरा प्रयत्न करेगे । इस १५ नवम्बर नक मुझे ऐसे महायकों की ओरसे प्रशमनीय उत्साह के लिये श्राप निःसन्देह धन्यवादक एक हजार रुपयकी महायताक वचन भी मिल गये पात्र हैं । अस्तु, अभी अापस पत्रव्यवहार चल रहा है, तो मैं वीरसेवामन्दिर मे ही अनेकान्तके चौथे कुछ समस्याएं हल होनको बाकी हैं, जैसा कुछ अन्तिम वर्षका प्रकाशन शुरु कर दूंगा। आशा है अनेकान्त निर्णय होगा उसकी सूचना निकाली जायगी। कं प्रेमी इम विषयकी महत्ताका अनुभव करते हुए ३ मेरी आन्तरिक इच्छा शीघ्र ही इस ओर याग दन-दिलानम पेशकदमी मेरी आन्तरिक इच्छा तो यह ह कि 'अनकान्त' करेंगे और मुझे अपनी सहायताके वचनसे शीघ्र के घाटेका भार समाज के किमी एक व्यक्ति पर न ही सूचित करने की कृपा करेंगे। रक्खा जाय, बल्कि समाजके कुछ उदार सज्जन Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडितप्रवर पाशाधर [0-श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी ] (गत किरणसे आगे ) -भट्टारक विनयचन्द्र-इष्टोपदेशकी टीकाके है-"रचितमिदं राजगुरुणा मदुनेन ।' मदन गौड़ अनुसार ये सागरचन्द्र मुनीन्द्र के शिष्य थे और ब्राह्मण थे। पण्डित पाशाधरजीने इन्हें काव्य-शास्त्र इन्हें पण्डितजीन धर्मशास्त्र का अध्ययन कराया पढ़ाया था। था। इन्हींके कहनेसे उन्होंने इष्टोपदेशकी टोका। -पंडित बाजाक-इनकी प्रेरणासे पण्डितजीने बनाई थी। प्रति दिनके स्वाध्यायके लिए त्रिषष्टिस्मृति-शास्त्रकी ___-महाकवि महोपाध्याय-हमारा अनुमान है रचनाकी थी। इनके विषयमें और कुछ नहीं कि ये विन्ध्यवर्माकं संधिविग्रहिक मंत्री बिल्हण मालूम हुआ। कवीशके ही पुत्र होंगे। 'बाल-सरस्वती' नामसे २०-हरदेव-ये खण्डेवाल श्रावक थे और ये प्रख्यात थे और मालवनरेश अर्जुनवर्माके गुरु अल्हण-सुत पापा साहुके दो पुत्रों बहुदेव और थे। अर्जुनवर्माने अपनी अमरुशतककी संजीविनी पद्मसिंहमेंसे बहुदेवके पुत्र थे । उदयदेव और टीकामें जगह नगह 'यदुक्तमुपाध्यायेन बाला सरस्वत्या- स्तम्भदेव इनके छोटे भाई थे। इन्हींको विज्ञप्तिसे परमाग्नामदनेन' लिखकर इनके अनेक पद्य उद्धृत पंडितजीने अनगारधर्मामृतकी भव्यकुमुदचंद्रिका किये हैं। उनसे मालूम होता है कि मदनका कोई टीका लिखी थी। अलंकार-विषयक प्रन्थ था। महाकवि नदनको पारि- 1 महीचन्द्र साहु-ये पौरपाट वंशके अर्थात जानमंजरी नामकी एक नाटिकाथी,जिसके दो अंक परवार जातिके समुद्धर श्रेष्ठीके लड़के थे हैं। इनकी • धारकी 'कमाल मौला' मसजिदके पत्थरों पर खदे प्रेरणासे सागारधर्मामृतकी टीकाकी रचना हुई थी हुए मिले हैं। अनुमान किया जाता है कि शेष और इन्हींने उसकी पहली प्रति लिखी थी। अंकोंके पत्थर भी उक्त मसजिदमें कहीं लगे होंगे। १२ धनचन्द्र--इनका और कोई परिचय नहीं पहले यह नाटिका महाराजा भोजदेवद्वारा स्थापित दिया है। सागार-धर्मटीकाकी रचनाके लिये इन्होंने शारदा-सदन नामक पाठशालामें उत्कीर्ण करके भी नपरोध किया था। . रक्खी गई थी और वहीं खेली गई थी। अर्जुन- पौरपाट और परवार एक ही हैं, इसके लिए वर्मदेवके जो तीन दान-पत्र मिले हैं, वे इन्हीं देखिए मेरा लिखा हुआ 'परवार जातिके इतिहास पर मदनोपाध्यायके रचे हुए हैं । उनके अन्तमें लिखा प्रकाश' शीर्षक विस्तृत लेख, जो 'परवारबन्धु' और .* देखिये आगे प्रशस्तिके ६-७ वै पद्यकी व्याख्या। 'अनेकान्त' में प्रकाशित हुआ है। Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आश्विन, वीर निर्वाणा सं० २०६६ १३ केल्हस--ये खण्डेलवालवंशके थे और इन्होंने जिन भगवानकी अनेक प्रतिष्ठायें कराके प्रतिष्ठा प्राप्त की थी । सूक्तियों के अनुरागसे अर्थात सुन्दर कवित्वपूर्ण रचना होनेके कारण इन्होंने 'जिनयज्ञ- कल्प' का प्रचार किया था । यज्ञकल्पकी पहली प्रति भी इन्होंने लिखी थी। जो एक श्रेष्ठ मार्ग था, उसे छोड़कर मैं बहुत काल तक भटकता रहा, अन्तमं बहुत थक कर किसी तरह काललब्धिवश उसे फिर पाया । सो अब जिनवचनरूप क्षीरसागर से उद्धृत किये हुए धर्मामृत I ( आशाधर के धर्मामृनशास्त्र ? ) को सन्तोषपूर्वक पी पीकर और विगतश्रम होकर मैं अहं भगवानका दास होता हूँ ॥ ६४ ॥ १४ बीनाक -- ये भी खण्डे बाल थे। इनके पिता का नाम मह और माताका कमलश्री था । इन्होंने त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र की सबसे पहली प्रति लिखी थी। मिध्यात्व-कर्म-पटल से बहुत काल तक ढँकी हुई मेरी दोनों अांखें जो कुमार्ग में हो जाती थीं, आशाधर की उक्तियोंके विशिष्ट अंजनसे स्वच्छ ६ गई और इसलिए अब मैं सत्पथका आश्रय लेता हूँ ।। ६५ ।। इसी तरह पुरुदेवचम्पूके अन्त में अखिोंके बदले अपने मन के लिए कहा है— farerrari कलुषे मम मानसेऽस्मिन् आशाधरोक्तिकतकप्रसरैः प्रसत्रे । कवि ईददास - मुनिसुव्रत काव्य, पुरुदेवचम्पू और भव्यजनकंठाभरणके कर्ता हैं। पं० जिनदास शास्त्रीके खयाल से ये भी पण्डित आशाघर के शिष्य थे । परन्तु इसके प्रमाण में उन्होंने जो उक्त प्रन्थोंके पद्य उद्धृत किये हैं उनसे इतना ही मालूम होता है कि आशाधरकी सूफियोंसे और ग्रन्थोंसे उनकी दृष्टि निर्मल हो गई थी। वे उनके साक्षात शिष्य थे, या उनके सहवास में रहे थे, यह प्रकट नहीं होता । पण्डित आशाधरजीने भी उनका कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। अब उन पद्योंपर विचार कीजिए। देखिए मुनिसुव्रत काव्य के अन्त में कहा हैधावन्कापथसंभृते भववने सम्मार्गमेकं परम् त्यक्त्वा श्रतितरश्चिराय कथमध्यासाच कालादमुम् । सद्धर्मामृतमुद्धृतं जिनवचः चीरोदधेरादरात्, अर्थात - मिध्यात्व की कीचड़ मे गँदले हुए मेरे इस मानममें जो कि अब आशाधरकी सूक्तियों की निर्मलीकं प्रयोगसं प्रसन्न या स्वच्छ हो गया है । भव्यकण्ठाभरणमें भी आशाधरसूरिकी इसी तरह प्रशंसा की है कि उनकी सूक्तियाँ भवभीरु गृहस्थों और मुनियोंके लिए सहायक हैं। इन पद्योंमें स्पष्ट ही उनकी सूक्तियों या उनके सद्ग्रन्थों का ही संकेत है जिनके द्वारा अद्दासजीको पायं पाथमितः श्रमः सुखपथं दासो भवाम्यर्हतः ॥ ६४॥ सन्मार्ग की प्राप्ति हुई थी, गुरु-शिष्यत्वका नहीं । मिथ्यात्यकर्मपटलैश्चिरमावृते मे युग्मे दृशेः कुपथपाननिदानभूते । श्राशाधरोक्तिज्ञ सदंजनसंयोगे - हो, चतुर्विंशति-प्रबन्ध की कथाको पढ़ने के बाद हमारा यह कल्पना करनेको जो अवश्य होता है कि कहीं मदनकीर्ति ही तो कुमार्गमं ठोकरें खाते खाते अन्त में आशाधरकी सूक्तियों से अर्हद्दास न बन गये हों। पूर्वोक्त प्रन्थ में जो भाव व्यक्त किये ६१८ अनेकान्त रच्छीकृते पृथुलसत्पथमाश्रितोऽस्मि ॥ ६५ ॥ अर्थात- कुमार्गों से भरे हुए संसाररूपी बनमें Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, रिण ] पंडितप्रवर भाशाधर - - - गये हैं, उनसे इस कल्पनाको बहुत कुछ पुष्टि मिलती "व्याने वासवंशसरोजसकाव्यामृतोपरसपानसुत्सगात्रः है। और फिर यह अर्हदाम नाम भी विशेषण सारणस्य समयो नविश्वधराशायो जैमा ही मालूम होता है । सम्भव है उनका विजयता कविकालिदासः" ॥१॥ वास्तविक नाम कुछ और ही रहा हो। यह नाम इत्यदयसेनमुनिना कविसुहदा योऽभिनन्दितः प्रीत्या । तो एक तरहकी भावुकता और विनयशीलता ही "प्रज्ञापुंजोऽसी" ति च पोऽभिहितो प्रकट करता है। मदनकीर्तिपतिपतिना rut इस मम्बन्धमें एक बात और भी नोट करने म्लेच्छेशेन। सपादनाविषये मासे सुबत्तपतिलायक है कि बहदासजीकं प्रन्थों का प्रचार प्रायः त्रासाहिन्ध्यनरेन्बदोपरिमस्फूर्जस्त्रिवगौजसि । कर्णाटक प्रान्तमे ही रहा है जहां कि वे चतुर्विश- प्रासो मातवमण्डले बहुपरीवारः पुरीमावसन् तिप्रबन्धकी कथा अनुसार सुमार्गसे पतित होकर यो धारामपठजिनममितिवारशास्त्र महावीरवः ॥२॥ रहने लगे थे। मत्पथपर पुनः लौटने पर उनका "माशावरत्वं ममि विद्धि सिद्ध निसर्गसौवर्षमजर्षमायें । वहीं रह जाना सम्भव भी जंचता है। सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थे परं वाच्यमयं प्रपत्रः" ॥६॥ इतना सब लिख चकन बाद अब हम पं० इत्युपश्लोकितो विद्विहणेन कबीशिना । आशाधरजीके अन्तिम प्रन्थ अनगारधर्मामृत श्रीविण्यभूपतिमहासान्धिविप्रहिकेण यः ॥ ७॥ टीकाकी अन्त्य प्रशस्ति उद्धृत करके उसका श्रीमदर्जुनभुपालराज्ये श्रावकसंकुले । भावार्थ भी लिख देते है जिसके आधार पर जिनधर्मोदयाथै यो नलकछपुरेऽवसत् ॥८॥ पर्वोक्त सब बातें कही गई हैं। यह उनकी मुख्य यो दाख्याकरणाधिपारमनयच्छुषमाणात कान्, प्रशस्ति है, अन्य ग्रंथोंकी प्रशस्तियाँ इसीमें कुछ षटतीपरमासमाप्य न यतः प्रत्यर्षिनः केऽधिपन् । पा कम ज्यादा करके बनी हैं । उन न्यूनाधिक मूलाराधना-टीका ( शोलापुर ) जिस प्रति परसे पद्योंको भी हमने टिप्पणीमे दे दिया है और आगे प्रकाशित हुई है, उममें प्रशस्तिके ये चार ही पद्य मिले चलकर उनका भी अभिप्राय लिख दिया है। हैं और मम्पादक ५० जिनदाम शास्त्रीने प्रशस्तिको अपर्ण लिखा है । शायद आगेका पत्र गायब है। मुख्य प्रशस्ति त्रिषष्टिस्मतिशास्त्रकी प्रशस्ति में प्रारम्भके दो पद्यों श्रीमानस्ति सपादलक्षविषयः शाकम्भरीभूषण- के बाद व्याघेरवाल' श्रादि पद्य न होकर 'म्लेच्छेशेन' स्तन श्रीरतिधाम मण्डलकरं नामास्ति दुर्ग महत्। आदि पाँचवाँ पद्य है । उसके बाद 'श्रीमदर्जुनभूपाल' भाररन्यामुदपादि तत्र विमलव्याघ्र रवालान्वया- आदि आठवाँ और फर 'योद्राग्व्याकरणाब्धि' आदि पीसलपणतो जिनेन्द्रसमयश्रद्धालुराशाधरः ॥॥ नवाँ पद्य दिया है। सरस्वस्यामिवात्मानं सरस्वत्यामजीजन । म्लेच्छेशेन साहिबुदीनतुरुष्कराजेन ।-भव्यकुमुद. पः पुत्रं काहढं गुण्यं रंजितार्जुनभूपतिम् ॥२॥ चन्द्रिका टीका । -- -- Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाविन, पीर निवार 77 ऽस्खलितं न येन जियाग्दीप पधि प्रांहिताः । राजीमतीविनम्भ' नाम नेमीश्वरानुगम् । पोल्या काव्यसुधा पता रसिकेष्वापुर प्रतिहीं न केutns मत खबडकाव्यं यः स्वयंकृतनिबन्धनम् ॥१२॥ स्थावावविधाविशदप्रसाद प्रमेयरस्नाकरनामधेयः। प्रादेशारिपतुर यास्मरहस्य नाम यो व्यधात् । तकंप्रबन्धो निरवचपचपीयूषपूरोवहति स्म यस्मात् ॥१०॥ शास्त्र प्रसवगम्भीरं प्रियमारब्धयोगिनाम् ॥ १३॥ सिद्धपकं भरतेश्वराभ्युदयसत्काव्यं निबन्धोज्ज्वलं, यो मूलाराधनेष्टोपदेशादिषु निबन्धम् । बस्त्रविद्यकवीग्यमोदनसहं स्वोयसे भीरचत् । व्यवत्तामरकोषे च क्रियाकलापमुजगौ ॥ १४ ॥ बोईद्वाक्परसं निवन्धरुचिरं शायं च धर्मामृतं, रौददस्य न्यधाकाव्यालकारस्य निबन्धनम् । निर्माय न्यदधान्मुमुधुविदुषामानन्दसान्द्रे हदि ॥१॥ सहस्रनामस्तवनं सनिबन्धं च योहताम् ॥ १९॥ * त्रिषष्टिस्मतिकी प्रशस्तिमे इस पद्यका नम्बर सनिबन्ध यश्च जिनयज्ञकल्पमरीरचंत् । पाँच है । उसके आगे नीचे लिखे पद्य हैं त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र यो निबन्धाजंकृतं ध्यधात् ॥ १६॥ धर्मामृतादिशास्त्राणि कुशाग्रीयधियामिव । योहन्महाभिषेका विधि मोहतमोरविम् । यः सिद्धथक महाकाव्य रसिकानां मुदेऽतृजत् ॥ ६॥ चक्रे नित्यमहोपोतं स्नानशास्त्र जिनेशिमाम् ॥ १॥ सोहमाशाधरः कण्ठमलकर्त सधर्मिणाम् । रत्नत्रयविधानस्य पूजामाहात्म्यवर्णकम् । पश्चिकालंकृतं ग्रंथमिम पुण्यमरीरचम् ॥ ७॥ खत्रयविधानाख्यं शावं वितनुते स्म यः ॥१८॥ क्वार्षमन्धिः क मद्धीस्तैस्तथाप्येततं मया। इस पद्यके आगे जिमयज्ञकल्पमें नीचे लिखे पुण्यैः सभ्यः कथारनान्युद्धृत्य प्रथितान्यतः ८ पद्य दिये हैंसंक्षिप्यतां पुराणानि नित्यस्वाध्यायमिद्धये । प्राच्यानि संचर्च्य जिनप्रतिष्ठाशास्त्राणि दृष्ट्वा व्यवहारमैन्द्र ।। इति पण्डितजाजाकाद्विशप्तिः प्रेरिकात्र मे ॥६॥ श्राम्नायविच्छेदतमच्छिदेयं ग्रंथः कृतस्तेन युगानुरूपः।।१८ यच्छद्मस्थतया किञ्चिदत्रास्ति स्खलितं मम । खाण्डिल्यान्वयभपणाल्हणसुतः सागारधर्मे रतो, तत्संशोध्य पठन्त्वेनं जिनशासनभाक्तिकाः ॥ १० ॥ वास्तव्यो नलकच्छनारु नगरे कः परोपक्रियाम् । महापुराणान्तस्तत्त्वसंग्रहं पठतामिमं । सर्वज्ञार्चनपात्रदानममयोद्योतप्रतिष्ठापणीः, त्रिषष्टिस्मृतिनामानं दृष्टिदेवी प्रसोदतु ॥ ११ ॥ पापासाधुरकारयत्पुनरिमं कृत्वोपरोध मुहुः ॥ १६॥ प्रमारवंशवाधींन्दुदेवपालनपात्मजे । विक्रमवर्षसपंचाशीतिद्वाशदशशतेष्वतीतेपु, श्रीमजैतु गिदेवेऽमिस्थाम्नावन्तीमवत्यलम् ॥ १२ ॥ प्राश्विनसितान्त्यदिवसे साहसमल्लापराख्यस्य । नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमिचैत्यालयेऽसिधत् । श्रीदेवपालनृपतेः प्रमारकुलशेखरस्य सौराज्ये, ग्रंथोऽयं द्विनवद्वय कविक्रमार्कसमात्यये ॥ १३॥ नलकच्छपुरै मिद्धोग्रन्थोय नेमिनाथचैत्यगृहे ॥२०॥ खाण्डिल्यवंशे महणकमलश्रीसुतः सुदृक् । धीनाको वर्धता येन लिखितास्याद्यपुस्तिका ॥ १४ ॥ अनेकाईप्रतिष्ठाप्तप्रतिष्ठैः केल्हणादिभिः । है इसके आगे राजीमती' और 'आदेशात्' श्रादि सद्यः सूक्तानुरागेण पठित्वायं प्रचारितः ॥ २१ ॥ दो पद्य सागारधर्मामत और जिनयज्ञकल्पकी प्रशस्तियोंमें नन्द्यात्खाण्डिल्यवंशोत्थः केल्हणोन्यासवित्तरः । नहीं है। लिखितो येन पाठार्थमस्य प्रथमपुस्तकम् ॥ २२॥ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व, किरण ] परिखतप्रवर पाशाधर मायुर्वेदविवामिष्टं व्यक्तु वाग्भटसंहिताम् ।। नमकछपुरे श्रीमोमिचैत्यासवेऽसिधत् । अष्टादयोगोतं निबन्धममृजब यः ॥ uf विक्रमाब्दशतेष्वेषा त्रयोदशसु कार्तिके ॥ ३ ॥ सोहमाशाघरोकार्ष टीकामेतां मुनिप्रियाम् । स्वोपशधर्मामतोक्तयतिधर्मप्रकाशिनीम् ॥ २०॥ शाकंभरीभषण सपादलक्ष । देशमें लक्ष्मीसे शब्दे चार्थे च पत्किंचिदनास्ति स्खलितं मम । भरा परा मण्डलकर नामका किला था। वहां बमस्थभावात् संशोध्य सूरयस्तत् पठन्स्विमाम् ॥२१.नसकछपुरे पौरपौरस्त्यः परमार्हतः। इसके स्थान पर सागारधर्मामृतमें निम्न निनयज्ञगुणौचिस्यकृपादानपरायणः ॥ २२॥ श्लोक हैंखंडिल्यान्वयकल्याणमाणिक्यं विनयादिमान् । नलकच्छपुरे श्रीमन्नैचैत्यालयेऽसिधत् । साधुः पापामिधः श्रीमानासीत्पापपराक्मुखः ॥२३॥ टीकेयं भव्यकुमुदचन्द्रिकेत्युदिता बुधैः ॥ २०॥ सत्पुत्रो बहुदेवोऽभवापः पितृभरतमः। षण्णवद्धय कसंख्यानविक्रमांकसमात्यये । वितीयः पनसिंह पमाजिगितविग्रहः ॥२४॥ सप्तम्यामसिते पौषे सिद्धेयं नंदताच्चिरम् ॥ २१॥ बहुदेवात्मजाश्चासन् हरदेवः स्फुरद्गुणः। श्रीमान् श्रेष्ठिसमुद्धरस्य तनयः श्रीपौरपाटान्वयउदयी स्तम्भदेवश्च त्रयस्त्रवर्गिकाताः ।। २५ ॥ व्योमेन्दुःसुकृतेन नन्दतु महीचन्द्रो यदभ्यर्थनात् । मुग्धबुद्धिप्रबोधार्य महीचन्द्रेण साधुना । चक्रे श्रावकधर्मदीपकमिमं ग्रन्थं बुधाशाधरो धर्मामृतस्प सागारधर्मटीकास्ति कारिता ॥ २६ ॥ ग्रन्थस्यास्य च लेखितोऽपि विदधे येनादिमः पुस्तकः ॥२२ तस्यैव यतिधर्मस्य कुशाग्रीयधियामपि । इष्टोपदेश-टीकाकी प्रशस्तिमें नीचे लिखे तीन पद्य हैंसुदुर्बोधस्य टीकार्य प्रसादः क्रियतामिति ॥ २७ ॥ विनयेन्दुमुनेर्वाक्याद्भव्यानुग्रहहेतुना । हरदेवेन विज्ञतो धनचन्द्रोपरोषतः । इष्टोपदेशटीकेयं कृताशाधरधीमता ॥ २ ॥ पंडिताशाधारश्चक्रे टीका चोदतमामिमाम् ॥ २८ ॥ उपशम इव मूर्तः सागरेन्दुमुनीन्द्राविद्वद्धिर्भव्यकुमुदचन्द्रिकेत्याख्ययोदिता। दजनि विनयचन्द्रः सच्चकोरैकचन्द्रः । द्विष्ठाप्याकल्पमेषास्ता चिन्यमाना मुमुक्षुभिः ॥२६॥ जगदमतसगर्भाशस्त्रसन्दर्भगर्भः प्रमारवंशवार्थीन्दुदेवपालनपात्मने। शुचिचरित वरिष्णोर्यस्य धिन्वंति वाचः ॥ श्रीमज्जैतुगिदेवेसिस्थाम्नाऽवन्तीनऽवत्यनम् ॥३०॥ जयन्ति जगतीवन्द्या श्रीमन्नेमिजिनांद्वयः। रेणवोऽपि शिरोराज्ञामारोहन्ति यदाश्रिताः ।।३।। + यह पद्य सागारधर्मामत--टीका में और जिनयज्ञकल्पमें ११ नम्बर के बाद दिया है। +-1 सपादलक्षको भाषामें सवालख कहते हैं । नागौर * इसके बदले सागारधर्मामृत-टोकामें नीचे लिखा (जोधपुर) के अासपासका प्रदेश सवालख नामसे हुश्रा पद्य है। प्रसिद्ध है । वहां पहले चौहान राजाओंका राज्य था। सोऽहमाशाधरो रम्यामेतां टीका व्यरीरचम्। फिर सांभर और अजमेरके चौहान राजाओंका सारा धर्मामृतोक्तसागारधर्माष्टाध्यायगोचराम् ॥१८॥ देश सपादलक्ष कहलाने लगा, और उसके सम्बन्धसे Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [पारिवन, वीर निर्वास सं०२४१५ बघेरवाल वंशमें श्री सल्लक्षण नामक पिता और होजाने पर सदाचार-नाशके डरसे जो बहुतसे भीरत्नी मातासे जैनधर्ममें श्रद्धा रखने वाले पण्डित परिजनों या परिवार के लोगोंके साथ बिन्ध्यवर्मा भाशाधरका जन्म हुआ।१ राजाकं मालव मण्डल में आकर धारानगरीमें बम अपने आपको जिस तरह सरस्वती(वाग्देवता) गया और जिमने वादिराज पण्डित धरमनके शिष्य में प्रकट किया उमी तरह जिसने अपनी पत्नी शहाबुद्दीन ग़ोरी ही है। इसने वि० सं० १२४६ (ई० सं० सरस्वतीमें छाहड नामक गुणी पुत्रको जन्म दिया, ११६२ ) में पृथ्वीराजको हराकर दिल्लीको अपनी राजजिमने मालव-नरेश अर्जुनवर्मदेवको प्रमन्न धानी बनाया था। उमी वर्ष अजमेरको भी अपने किया । २ अधीन करके और अपने एक सरदारको सारा कारबार कवियोंके सुहृदय मेन मुनिद्वारा जो प्रीनि- सौंपकर वह गज़नी लौट गया था । शहाबुद्दीनने पूर्वक इन शब्दोंद्वारा अभिनन्दित किया गया- पृथ्वीराज चौहानसे दिल्लीका सिंहासन छीनते ही बघेरवाल वश-सरोवरका हंस, मल्लक्षणका पुत्र, अजमेर पर धावा किया होगा; क्योंकि अजमेर भी पध्वीगजके अधिकाग्में था और उमी समय सपादलक्ष काव्यामृतके पानमे तृप्त, नय-विश्वचक्षु, और कलिकालिदास पण्डित आशाधरकी जय हो।" देश उमके अत्याचारोंमे व्याप्त हो रहा होगा। इसी ममय और मदनकीर्ति यतिपतिने जिसे 'प्रज्ञापुंज' कहकर अर्थात् विक्रम सवत् १२४६ के लगभग प० श्राशाधर अभिहित कियो। ३-४ मांडलगढ़ छोड़कर धागमें श्राये होंगे। अनगारधर्मामृतकी मुद्रित टीकामें विन्ध्यभूपतिका म्लेच्छ नरेशके द्वारा सपादलक्ष देशके व्याप्त १.११ पास खुलासा 'विजयवर्म मालवाधिपतिः' किया है; परन्तु चौहान राजाओंको 'मपादलक्षीय नृपति' विशेषण दिया हमारे अनुमानसे लिपिकारके दोषसे अथवा प्रूफजाने लगा । साँभरको ही शाकंभरी कहते हैं । माँभर मंशोधककी श्रमावधानीस ही 'विन्ध्यवर्मकी जगह 'विजझील जो नमकका अाकार है, उस ममय मवालख देश यम' हो गया है । परमारवंशकी वंशावलियों और की मिगार थी,अर्थात् साँभरका राज्य भी तब सवालग्वमे शिलालेखोंमें विन्ध्यवर्माका 'विजयवर्मा' नामान्तर नहीं शामिल था। मण्डलकर दुर्ग अर्थात् मांडलगढ़ का किला मिलता । श्रीयुक्त लेले और कर्नल लुअर्डने विन्ध्यवर्माका इस समय मेवाड़ राज्यमें है, परन्तु उस समय मेवाड़का समय वि० सं०१२१७ से १२३७ तक निश्चित किया है; मारा पूर्वीय भाग चौहानों के अधीन था। चौहान राजा. परन्तु प० अाशाधर जीके उक्त कथनस कमसे कम ओंके बहुतसे शिलालेख वहां पर मिले हैं । पृथ्वीराजके १२४९ तक विन्ध्यवर्माका राज्यकाल माना जाना ममय तक वहाँके अधिकारी चौहान रहे हैं । अजमेर जब चाहिए । उक्त विद्वानोंने विन्ध्यवर्मा के पुत्र और उत्तरामुसलमानोंके कब्जेमें आया तब माँडलगढ़ भी उनके धिकारी सुभटवर्मा ( सोहड़) का समय १२३७ से १२६७ हाथ चला गया। तक माना है, परन्तु सुभटवर्मा १२३७ में राजा था, धर्मामृतकी टीकामें इस म्लेच्छराजाको "साहि. इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है, वह १२४६ के बाद ही बुद्दीन तु रुष्क" बतलाया है। यह गजनीका बादशाह राजपद पर पाया होगा। Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण १२] पंडितप्रवर आशावर पं० महावीर जैनेन्द्र प्रमाण - शास्त्र और जैनेन्द्र रूपसे न चलाया हो और ऐसे कौन हैं जिन्हें काव्यसुधा पिला करके रमिकों में प्रतिष्ठा न प्राप्त कराई हो ॥ ९ ॥ (इस श्लोक की टीका में पं० श्रशाधरजीने जुदा जुदा विषयोंका अध्ययन करनेवाले अपने शिष्यों के नाम भी देदिये हैं। उन्होंने पण्डित देवचन्द्रादिकी व्याकरण, वादीन्द्र विशालकीर्त्यादिको न्यायशास्त्र, भट्टारक विनयचन्द्र आदिको धर्मशास्त्र और बालमरस्वती महाकवि मदनादिको काव्यशास्त्रका अध्ययन कराया था 1 जिसने (आशा धरने) 'प्रमेयरत्नाकर' नामका तर्क-प्रन्थ बनाया, जो स्याद्वादविद्याका निर्मल प्रसाद है और जिसमेंसे सुन्दर पद्योंका पीयूष ( अमृत ) प्रवाहित होता है । १० ॥ जिमने 'भरतेश्वराभ्युदय' नामका सत्काव्य, जो निबन्धोज्ज्वल अर्थात् स्वोपज्ञ टीकासे स्पष्ट है, त्रैविद्य कविराजको प्रसन्न करनेवाला है, सिद्धचक है, अर्थात जिसके प्रत्येक सर्गके अन्तिम पद्यमें 'सिद्धि' शब्द आया हैं, अपने कल्याणके लिए रचा । जिसने जिनागमसंभूत धर्मामृत नामका शास्त्र, 'निबन्धरुचिर, अर्थात् ज्ञानदीपिका नामका पञ्जिका टीका सुन्दर बनाकर मुमुक्षु विद्वानोंके हृदय में अतिशय आनन्द उत्पन्न किया || ११ ॥ जिमने श्रीनेमिनाथविषयक 'राजमती- विप्रलंभ' नामक खण्ड काव्य स्वोपज्ञ टीकासे युक्त बनाया || १२ || जिसने अपने पिता की आज्ञासे योगशास्त्र का अध्ययन आरम्भ करने वालोंके लिए प्यारा और प्रसन्न गम्भीर अध्यात्मरहस्य नामक शास्त्र बनाया || १३ || व्याकरण पढ़ा || ५ ॥ विन्ध्यवर्मा के सान्धिवैग्रहिक मन्त्री (फॉरेन सैक्रेटरी) बिल्हण कविराजने जिसका इस प्रकार स्तुति की " हे आशावर हे आर्य, मरस्वतीपुत्रता से तुम मेरे साथ अपनी स्वाभाविक सहोदरता ( भाईपन ) और अन्वर्थ मित्रता समझो। ( 'मरस्वतीपुत्रता' पद है। अर्थात जिस तरह तुम सरस्वतीपुत्र हो उसी तरह मैं भी हूँ । शारदाक उपासक होनेसे दोनों सरस्वतीपुत्र तो थे ही, साथ ही आशाधरकी पत्नीका नाम सरस्वती था और उससे छाहड़ नाम का पुत्र था । उस सरस्वती पुत्र आशाधरको सरम्बती-पुत्रता प्राप्त थी । उधर मेरा अनुमान है कि बाल-सरस्वती महाकवि मदन भी बिल्हण के पुत्र होंगे, इसलिए उन्हें भी सरस्वती पुत्र कहा जा सकता है । इस रिस्तेसे बिल्हणने आशाधरको सहोदर भाई कहा है ) ।। ६-७ ।। जो अर्जुनवर्मदेव के राज्य-कालमे नछ कच्छपुर में जो श्रावकों के घरोंसे सघन था जैनधर्मका उदय करने के लिए जाकर रहा ॥ ८ ॥ जिसने शुश्रूषा करने वाले अपने शिष्यों में ऐसे कौन हैं जिन्हें व्याकरण समुद्रके पार न पहुँचाया हो, ऐसे कौन हैं जिन्हें षट्दर्शन के तर्कशस्त्रको देकर प्रतिवादियोंपर विजय प्राप्त न कराई हो, ऐसे कौन हैं जिन्हें जिन-वचनरूपी दीपक ( धर्मशास्त्र ) ग्रहण कराके धर्म-मार्गमे निरतिचार -- f नलकच्छपुरको इस समय नालछा कहते हैं । यह स्थान धार ( मालवा ) से १० कोसकी दूरी पर है । व भी पर श्रावकों कुछ घर हैं, जैनमन्दिर भी हैं । ७०३ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [माश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६ जिसने मूलाराधना (भगवतीभाराधना ) पर, जिसने वाग्भट संहिताको स्पष्ट करनेके लिए इष्टोपदेश (पूज्यपादकृत ) आदिपर और अमर- आयुर्वेदकं विद्वानोंके लिए इष्ट 'अष्टांगहृदयोधोत' कोशपर टोकायें लिखीं और 'क्रियाकलाप' को नामका निबन्ध ( टीका-ग्रन्थ ) लिखा ॥ १९॥ रचना की। (आदि शब्दकी टीकामें आराधनासार ऐसा मैं आशाधर (जिमका परिचय ऊपर (देवसेन कृत) और भूपाल चतुर्विशतिका आदि दिया जा चुका है ) धर्मामृतकं यतिधर्मको प्रकाशित की भी टीकायें बनाने का उल्लेख किया है। ) ॥१४॥ करनेवाली और मुनियोंको प्यारी यह टीका जिसने रुद्रटाचार्यके 'काव्यालङ्कार' की टीका रचता हूँ ॥२०॥ बनाई और स्वोपज्ञ टीका सहित जिनसहस्र नाम यदि इसमें छमस्थताके कारण शब्द-अर्थका बनाया ॥ १५॥ कुछ स्खलन हुआ हो, तो धर्माचार्य और विद्वान जिसने जिनयज्ञकल्पदीपिका नामक टीका उसे सुधार कर पढ़ें ॥ २१ ॥ सहित 'जिनयज्ञकल्प' और सटीक त्रिषष्टि-स्मृति. नलकच्छपुर ( नालछा ) में गृहस्थोंके अगुए, शास्त्र' की रचना की ॥ १६ ॥ परम आर्हन, जिनपजा-कृपादानपरायण, सोनाजिसने अर्हत् भगवानकी अभिषेक सम्बन्धी माणिक-विनयादिसे युक्त, पापोंसे पराङ्मुख,खण्डेविधिके अन्धकारको दूर करने के लिए सूर्यके सदृश लवाल वंशके पापा नामक माहूकार हैं ॥२२-२३॥ 'नित्य-महोद्योत' नामका स्नानशास्त्र बनाया ॥१७ उनके दो पुत्र हैं, पहले पिताकी गृहस्थीके भारको संभालनेवाले बहुदेव और दूसरे लक्ष्मीवान पद्मसिंह जिसने रत्नत्रय-विधानकी पूजा और ॥२४॥ बहुदेवके तीन पुत्र हैं-हरदेव, उदयदेव माहात्म्यका वर्णन करनेवाला 'रत्नत्रय-विधान' और स्तंभदेव । ये तीनों धर्म, अर्थ, कामका साधन नामका शास्त्र बनाया ॥१८॥ करनेवाले हैं ।। २५॥ माहू महीचन्द्रने बालबुद्धियों • पहले भ्रमवश यह समझ लिया गया था कि को समझानेके लिए धर्मामृतशास्त्र के सागार-धर्मकी अमरकोशकी जो पं० आशाधरकी लिखी टीका है, टीका बनवाई और उसी धर्मामृतके यतिधर्म उसका नाम 'क्रियाकलाप' होगा । इस विषयमें 'विद- (अनगारधर्म) पर भी जो कुशाप्रबुद्धिवालोंके द्रलमाला' के लेखका अनमरण करके प्रायः सभी लिए भी दुर्बोध्य है, टीका बना दीजिए, इस प्रकार विद्वानोंने इस ग़ल्तीको दुहराया है । यहाँ तक कि पं० को हरदेवकी विज्ञप्ति और धनचन्द्र के अनुरोधसे पन्नालालजी सोनीने भी अपने अभिषेकसंग्रहकी भमिका पण्डित आशाधरने यह क्षोदक्षमा (विचारसहा ) में यही माना है । साहित्याचार्य पं० विश्वेश्वरनाथ रेउ टीका बनाई ॥ २६-२८ ॥ भी अपने पिछले ग्रंथ 'राजा भोज' में 'अमरकोशकी विद्वानोंने इसे भव्यकुमुदचन्द्रिका नाम दिया। क्रियाकलाप-टीका' लिख गये हैं । वास्तवमें क्रिया-कलाप ये दोनों सागार-अनगार-टीकायें कल्पकालपर्यंत पं० श्राशाधरका एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है और उसकी एक रहें और मुमुक्षुजन इनका चिन्तन, अध्ययन करते हस्तलिखित प्रति बम्बईके सरस्वतीभवनमें मौजूद है। रहें ॥ २९ ॥ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व ३, किरण ] पंडितप्रवर पाशाधर परमारवंश-समुद्रकं चन्द्रमा श्री देवपाल श्री नेमिनाथ-चैत्यालयमें यह ग्रंथ वि० सं० १२९२ राजाके पुत्र जैतुगिदेव जब अपने खगबलस अव. मे सिद्ध हुआ ।। १२-१३ ।। खण्डेलवालवंशके महण न्तीका पालन कर रहे हैं तब यह टीका नलकच्छ- (पिता) और कमलश्री (माता) के पुत्र सदृष्टि पुरके श्रीनेमिनाथ चैत्यालयमें वि० सं० १३०० घीनाककी वृद्धि हो, जिसने इस ग्रन्थको पहली कार्तिक सुदी पचभी मोमवारकं दिन समाप्त प्रति लिखी ॥ १४ ॥ हुई ॥ ३० ३१॥ ___इम मुख्य प्रशस्तिसे अधिक जो पद्य अन्य जिनयज्ञकल्पकी प्रशस्तिका भावार्थ प्रन्थोंकी प्रशस्तियोंमें हैं, उनका भी मार्गश आगे प्राचीन प्रतिष्ठाशास्त्रोंकी अच्छी तरह चर्चा करके दे दिया जाता है। मुल पद्य मुख्य प्रशस्तिके नीचे आलोचना करके और इन्द्रमम्बन्धी व्यवहारको टिप्पणीके तौर पर दिये जा चुके हैं। देखकर आम्नायविच्छेदरूप अन्धकारको नष्ट करने त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्रकी प्रशस्तिका भावार्थ वाला यह युगानुरूप ग्रन्थ उसने बनाया ॥ १८ ॥ - खण्डेलवाल वंशक भूषण, अल्हण के पुत्र, श्रावक जिसने धर्मामृतादि शास्त्र कुशाग्र बुद्धिवालोंके धर्ममें रत, नलकच्छपुरके रहनेवाले, परोपकारी, लिय और सिद्धयक महाकाव्य (भरतेश्वराभ्युदय) जिनपूजा, पात्रदान, और समयोद्योतक प्रतिष्ठा रमिकोंके आनन्दकं लिये लिखा ॥६॥ उसी करनेवालोंमें अगुए, पापा साहू ने बारबार अनुरोध आशाधरने सहधर्मियोंके कण्ठको अलंकृत करनेके करके यह बनवाया ॥१९॥ आश्विन सुदी १५ वि० लिए यह पञ्जिका टोकायुक्त पवित्र ग्रन्थ रचा सं० १२८५ को परमारकुलशेखर देवपालके सुराज्य ॥७॥ कहाँ तो आर्ष ( महापुगणरूप ) समुद्र में, जिनका दूसरा नाम साहसमल्ल है, यह ग्रंथ और कहाँ मेरी बुद्धि, तो भी सज्जनोंके लिए मैंने नलकच्छपुरके नेमि-चैत्यालयमें सिद्ध हुआ ॥२०॥ उममेंस कथा रत्नोंको उद्धृत करके इम शास्त्रमे बहुत-सी प्रतिष्ठायें करानवाले केल्हणादिने सूक्तियों प्रथित कर दिया है ॥८॥ प्रनिदिनके स्वाध्यायके या सुभापितकं अनुरागसे पढ़कर इसका जल्दी ही लिए पुराणोंको संक्षिप्त कर दीजिये, पं० जाजाककी प्रचार किया। खण्डेलवाल वंशके ये न्यासवित् इस विज्ञप्तने मुझे प्रेरित किया ।। ९ ।। इसमें मेरी केल्हण प्रसन्न रहें जिन्होंने इसकी यह पहली प्रति छद्मस्थताके कारण यदि कुछ स्खलन हुआ हो तो पाठ करने के लिए लिखी ॥ २१-२२ ॥ जिनशासनभक्त उमको सुधार कर पढ़ें॥१०॥ इस महापुराणके अन्तस्तत्वसंग्रहके पढ़नेवालों पर सागारधर्मामृत-टीकाकी प्रशस्तिका सम्यग्दृष्टि देवी प्रसन्न हो ॥ ११ ॥ परमारवंश-समुद्रके चन्द्रमा देवपाल राजाके पुत्र जैतुगिदेव जब अपनी तलवारके जोरसे अवन्ती यह भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका नलकच्छपुरके (मालवा) पर शासन कर रहे हैं तब नलकच्छपुरके नेमि-चैत्यालयमें पौष वदी सप्तमी सं० १२९६ को भावार्थ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [पारिवन, वीर निर्वाण सं०२४६१ समान हुई ॥२०-२१ ॥ पौरपाट (परवार ) वंशरूप कि वहाँके पाटोदीजीके मन्दिर में भूपालचतुर्विभाकाशका चन्द्रमा और समुद्धर श्रेष्ठीका पुत्र शतिकाकी टोका और जिनयज्ञकल्प सटीक महीचन्द्र प्रसन्न रहे, जिसकी प्रार्थनासे प्राशाधरने मौजद हैं। पहले प्रन्थमे १४ पत्र और ४०० श्लोक यह श्रावकधर्मका दीपक ग्रंथ बनाया और जिसन हैं। उनका प्रारंभ इस प्रकार होता हैइसकी पहली प्रति लिखी ॥ २२॥ प्रणम्य जिनमज्ञानां सज्ञानाय प्रचल्यते। आशाधरो जिनस्तोत्रं श्रीमपाजकवेः कृति ॥१॥ इष्टोपदेश-टीकाकी प्रशस्तिका अन्तमे लिखा हैभावार्थ उपशम इव मूर्तिः पूतकीर्तिः स तस्मा दजनि विज(न)यचन्द्रः सचकोरैकचन्द्रः । विनयचन्द्र मुनिके कहनेसे और भव्योंपर दया । जगदमतसगर्भाः शाखसन्दर्भगर्भाः करके पं० श्राशाधरने यह इष्टोपदेश-टीका बनाई। शुचि चरितसहिश्नो (वरिष्णो यस्य धिन्वन्ति वाचः साक्षात् उपशमकी मूर्तिके तुल्य सागरचन्द्र मुनीन्द्रके शिष्य विनयचन्द्र हुए जो सज्जन चकोरोंके लिए विनयचन्द्रस्यार्थमित्याशावरविरचिता भूपाजचतुर्विचन्द्र हैं, पवित्रचरित्र हैं और जिनकी वाणी शतिजिनेन्द्रस्तुनेष्टीका परिसमाप्ता। ममतसगर्भा और शास्त्रसन्दर्भगर्भा है। दूसरे ग्रंथमे १०२ पत्र हैं और श्लोक संख्या २५०० है । उमका प्रारंभ इस प्रकार होता है__ जगद्वन्ध श्री नेमिनाथकं चरणकमल जयवन्त नत्वा परापरगुरुमन्दधियामर्थनत्वसंवित । हो, जिनके पाभयसे धूल भी राजाओंके सिर पर विधेल्पशो निबन्ध स्वकृतेर्जिनयज्ञकल्पस्य ॥ चढ़ती है ॥३॥ अन्तमें लिखा हैपरिशिष्ट इत्याशाधरदृब्धे जिनपज्ञकल्पनिबन्ध कल्पदीपक नाग्नि षष्ठोध्यायः ॥ उक्त लेखके छप चुकने के बाद मैं अपने कुछ हत्याशाधर विरचितो जिनयज्ञकल्पनिबन्धो कल्प. पुराने काराजात देख रहा था कि उनमें स्व० पं० दीपको नाम समाप्तः । संवत् १४१५ शाके १३६० वर्ष पन्नालालजी वाकलीवाल को भेजी हुई कुछ अन्य माघ वदि = गुरुवासरे । प्रशस्तियां मिलीं, जो उन्होंने जयपुर के कई पुस्तक भंडारोंसे नकल करके भेजी थीं । उनसे पता चला * यह लेख 'दि. जैन पुस्तकालय' सूरतसे शीघ्र प्रकाशित होने वाली 'सागार धर्मामृत-भाषा-टीका' की भूमिकाके लिये लिखा गया है। -लेखक Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊंच नीच-गोत्र-विषयक चर्चा लेखक-श्री बालमुकुन्द पाटोदी जैन, 'जिज्ञासु'] ज्योतिष आदि मीखकर विद्यागुणोंकी वृद्धि में अपनी नानकान्तके इसी वर्ष की दूसरी किरणमें, मैंने अपने उन्नति किया करते हैं और कोई यम-नियम, तप-संयम, - उपयुक्त शीर्षक वाले लेम्बमें 'मनुष्योंमे क्या, ज्ञान-ध्यान-स्वाध्यायादि समारोच्छेदक अनुष्ठानोंको मंपूर्ण साँमारिक जीवों में अपने अच्छे बुरे आचरण के करके धर्माचरणों में अपनी उन्नति किया करते है। और आधार पर ही ऊँनता अथवा ऊँचगोत्रोदय तथा इस तरह सहस्रों प्रकारके कार्योंमें अपनी उन्नति करके नीचसा अथवा नीच गोत्रोदय हैं,' इस प्रकार चर्चा की अपने अपने नियम के(वृद्ध बढ़े) हुये अथवा बड़े कहलाते थी, अब हम दूमरे लेखमें मैं उसे कुछ विशेष रूप हैं; जैसे वयोवृद्ध, धनवृद्ध, गुणवृद्ध या विद्यावृद्ध, देता हूँ और इस विषय में अपनी ममम तथा अनेक बुद्धिवृद्ध, और धर्मवृद्ध आदि । और जो इन उपयुक्त विद्वानोंके लेखोंके अध्ययन-मनन परमं बने हुए अपने विषयों में अवनत होते हैं वे हीन तथा छोटे कहलाते हृदयके भावको और अधिक स्पष्टताके माथ व्यक्त करता है । यह सहस्रों प्रकार के विषयों ( कार्य, कला, विद्या आदि ) की उन्नति, अवनति ही ऊँच नीच गोत्र को दय है । गोत्र कमके अगणित भेद है। ऊँच-नीचगोत्रकर्मोदय क्या है ? मुमुक्षु-भावनासे ओत-प्रोत हृदयों वाले हमारे सपूर्ण संसारके जीव और विशेष करके मनुष्य प्राचार्योंने श्रात्मा के अन्य कार्योंकी उन्नति-अवनतिके अपनी अपनी यथासभव और यथाशक्ति उन्नति करने विषयमें लिखनेको अप्रयोजनमत समझ कर उसकी के सदैव इच्छुक रहा करते हैं और उन्नति करते भी उपेक्षा की और प्रधानतया आत्माकी प्रयोजनमत केवल रहते हैं। कोई स्वास्थ्य के नियमोंका पालन करके धार्मिक उन्नति के विषय में ही जिसका कि वे अभ्यासकर बहुत काल तक जीते रहने में अपनी उन्नति करने हैं, रहे थे, गहरी छान, बीन, खोज तलाश,तर्कवितर्क आदि कोई बहुत धन कमा कर धनवृद्धि में अपनी उन्नति करनेमें ही अपनी सारी शक्ति लगादी और अगणित करते हैं; कोई नानापकारको युकियाँ सीखकर और साहित्यका निर्माण कर डाला। बताकर तथा कठिनसे कठिन कार्यको भी सरलतापूर्वक जिन आचरणोंसे जन्म-मरणरूप संसार-भ्रमणकी करलेनेकी तरकीबें ( उपाय ) सोच सोच कर अपनी वृद्धि ( उन्नति ) होती है, उन आचरणोंको त्याग करके बुद्धिको वृद्धि में उन्नति करते है और कोई नानाप्रकार उनके विरुद्ध अहिंसा, सत्य, शील,सयमादि अाचरणोंको की कवाएँ-विद्याएँ, जैसे चित्रकारी, राग, वाद्य, वैद्यक अंशरूपसे तथा पूर्णरूपसे पालन करने और अपने Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४५६ आपको उन पाचरणोंमय बना देनेको 'धार्मिक उन्नति' चरण कम होने वाले प्राणीकी अपेक्षा नीच गोत्रका भी करना कहते हैं। यह धार्मिक उन्नति प्रत्येक मनुष्यकी उदय है । और प्रत्येक प्राणीकी भिन्न भिन्न प्रकारकी होती है और इस धार्मिक उन्नतिको एक दूसरे प्रकारसे भो नित्य-निगोदसे निकलते ही यह धार्मिक उन्नति प्रारम्भ बतलाया जा सकता है और वह यह कि, इस धार्मिक हो जाती है । उदाहरण के लिये तीन मनुष्योंको लीजिये, उन्नति के भी असल्यान स्थान हैं, परन्तु समझने के जिनमेंसे एक तो देवगुरु-धर्मकी श्रद्धापूर्वक अष्ट मूल लिये यहाँ केवल एक शत स्थानोंकी कल्पना कीजिये । गुणोंका पालन करता है; दूसरा पंच अणुव्रतों और एक प्राणाने तो सिर्फ पांच स्थान तक उन्नति की है, सप्त शोलवतोंके अनुष्ठानम लीन रहता है, और तीसरा दूभरेने पैतानी न स्थान तक, तीसरेने पनपन स्थान तक, अहिंसादि ब्रतोंके अनुष्ठानपूर्वक सप्तम प्रतिमानकके चौथेने पिच्यानवे स्थान तक उन्नति की है । जिसने पांच आचरणको लिये हुए पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करता है। स्थान तक उन्नति कीहै उसके अपनेस नीचे के स्थानोकी इनमसे पहलेकी बाबत कहना होगा कि उसने दूसरे- अपेक्षा ऊँच गोत्रका उदय है और अपने ऊपर वाले तीसरेकी अपेक्षा कम धार्मिक उन्नति की, दूमरेने पहलेसे पैत्तालीम प्रादि स्थानों वाले प्राणियोंकी अपेक्षा नीच अधिक और तीसरेसे कम उन्नति की,और तीसरेने पहले गोत्रका उदय है । जिसने पंतालीम स्थानोंतक उन्नति की तथा दूसरे दोनोंकी ही अपेक्षा अधिक धार्मिक उन्नति है उसके अपने पॉच आदि स्थान वाले प्राणियोंकी की। इस धार्मिक उन्नतिको दूसरे शब्दोंमें यं भी बतलाया अपेक्षा ऊँच गोत्रका उदय है और अपनेसे ऊपर के जा सकता है कि, पहले मनुष्यके अदर दूमरे तथा पचपन आदि स्थानों वाले प्राणियोकी अपेक्षा नाच तीसरेके मुकाबिलेमें धर्माचरण कम और असंयमाचरण गोत्रका उदय है। इसी तरहम जिमने पचपनस्थान तक अधिक है, अतः दूमरे तथा तीमरे की अपेक्षा इमके नीच उन्नति की है वह अनेसे नीचे के पैमालीम आदि स्थान गोत्रका उदय है। तीसरे मनुष्य के अन्दर पहले नथा वाले प्राणियोंकी अपेक्षा ऊंचा है-बड़ाहै -और अपने दूमरे के मुकाबिलेमें असंयमाचरण कम और धर्माचरण से ऊपरके पिच्यानवें श्रादि स्थान वाले ईश्वरत्वको प्राप्त अधिक है अतः पहले और दूमर की अपेक्षा इमके ऊँच हुये श्रात्माओम नीचा हे-छोटा है और जिमने पिच्यानवे गोत्रका उदय है । और तीमरे मनुष्य के अन्दर पहलेकी स्थान तक उन्नति की है वह अपने से नीचे वाले पचपन अपेक्षा तो असंयमाचरण कम और धर्माचरण अधिक आदि स्थान वाले प्राणियोंकी अपेक्षा बड़ा है ऊंचा है है अतः पहलेकी अपेक्षा इसके ऊँच गोत्रका उदय है तथा अपनेसे ऊपर वाले स्थान वालोंकी अपेक्षा छोटा है और तीसरेकी अपेक्षा धर्माचरण कम और असंयमा- इस तरह पर प्रत्येक प्राणाके अन्दर किसी एक अपेक्षा चरण अधिक है, अतः तीसरेकी अपेक्षा इसके नीच से ऊँच गोत्रका उदय है, और किसी दूसरी अपेक्षासे गोत्रका भी उदय है । इस तरह पर प्रत्येक मनुष्य और नीच गोत्रका उदय है-अर्थात् अपनी २ अलग २ प्रत्येक प्राणीके अपनेसे असयमाचरण अधिक और अपेक्षासे प्राणी मात्रमें बड़ापना और छोटापना दोनो धर्माचरण कम होने वाले प्राणीकी अपेक्षा ऊच गोत्रका धर्म पाये जाते हैं। इस कारण ऊंचगोत्री कहलाना भी उदय है और अपनेसे धर्माचरण अधिक और असंयमा- अपने २ धार्मिक सदाचरणोंको श्रादि लेकर नाना Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, दिन ] , . ऊंच-नीच-गोत्र-विषयक वर्ग ... विषयोंकी उन्नतिकी मीमा बनलाने का एक तरहका गोत्र' कहते हैं। और नीचे आचरणको 'नीच गोत्र' प्रकार है,और नीचगोत्री कहलाना भी अपने २ असंयमा- कहते हैं । इस गाथामें "संतानक्रमेणागत" पद पड़ा चरणोंकी उन्नति (वृद्धि) को श्रादि लेकर नाना हुवा है, जो जीवके अपने स्वयं के आचरणका विशेषण विषयोंकी अवनतिकी हदको कह कर समझाने का एक है; यह पद जीवके अपने स्वयं के आचरणका विशेषण तरहका तरीका है। होनेसे इसका अर्थ अपने पिता प्रपितादिकोंके कुलकी गायोक्त ऊँचनीचगोत्रका सर्वागी अर्थ । परिपाटीमे चला आया हुआ आचरण नहीं हो सकता; बल्कि जीवके अपने स्वयके पूर्व पूर्व आचरणों के संमार-स्थित प्रात्माके अन्दर गोत्र कम नामका भी संस्कार-जन्य इच्छामे उत्पन्न संतानरूप अपर-अपर एक धर्म है, जिसका आत्मा के सम्यक् चारित्रकी अाचरण होता है। इसलिये "संतान-क्रमेणागतजीवाउन्नति होनेस सम्बन्ध है । यह गोत्रकर्म, अग्रवाल, चरणस्य गोत्रमिति संज्ञा" इस गाथार्धका साफ अर्थ खडेलवाल, परवार आदि, और गोयल, सिंहल, वत्मल, हुश्रा-"पर्व पर्वके आचरणोंके संस्कार-जन्य इच्छासे मोनी, सेठी, पाटोदी, काशलीवाल आदि; तथा ब्राह्मण, उत्पन्न अपर-अपर पाचरणोंके संतानक्रमसे आये हुये क्षत्रिय, वैश्यादि; मूलसघ, सेनमंघ श्रादि और दूसरे जीवके अपने स्वयंके आचरणकी गोत्र संज्ञा है" । भी अनेक गण-गच्छादि भेद-प्रभेदोंको लिये हुए मनुष्य यहाँ जीवके अपने स्वयंके आचरणोंके संतानक्रमको समूहोंके बतलाने वाले संसारके सांकेतिक और व्यवहारिक और समझ लेना चाहिये । नीचे उसीका स्पष्टीकरण गोत्रधर्मोंस सर्वथा भिन्न है। इसके जैन सिद्धान्तमें किया जाता है:ऊंच गोत्र और नीच गोत्र ऐसे दो भेद माने गये हैं, इस प्रत्येक जीवात्माके अदर पाचरणोंकी दो प्रकारकी कारणस यह अात्माका स्वतन्त्र धर्म न रह कर सापेक्ष धारायें बहती हैं -एक अधोधारा और दूसरी ऊर्ध्वधारा। धर्म हो जाता है । अर्थात् नीच गोत्र के सद्भावमें ऊँच बहती हुई परिणामोंकी अर्ध्वधाराको जब कोई बुरा का होना और ऊंच गोत्रके मद्भावमें नीच गोत्रका कारण मिल जाता है तो उस बुरे कारणका निमित्त पाहोना तथा नीच गोत्र के अभाव में ऊच गोत्रका न होना कर ऊर्ध्वधाराका प्रवाह मुड़कर अधोरूपमें बहना प्रारम्भ और ऊंच गोत्रके अभाव में नीच गोत्रका न होना, इस हो जाता है और बहतेर अधोस्थानके अंत तक वह धारा प्रकारकी व्यवस्था वाला धर्म हो जाता है । इसका वर्णन पहुँच जाती है, और यदि बीचमें ही उसे कोई अच्छा श्री गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी गाथा न० १३ मं किया कारण मिल गया तो वह उस अच्छे कारणका निमित्त गया है, जिसकी संस्कृत छाया इस प्रकार है पाकर पुनः अधःसे ऊर्ध्वरूपमें बहने लगती है और संतानक्रमेणणागत-जीवाचरणस्य गोत्रमिति संज्ञा। यहते २ ऊर्ध्वस्थानके अन्तको प्राप्त हो जाती है, तथा उपचं नावं चरणं उच्चैींच्चैर्भवेत् गोत्रम् ॥१३॥ आत्माको अपने शुद्ध-बुद्ध-सिद्धस्वरूपमें विराजमान इसका अर्थ बिलकुल साफ़ है और वह यह है कर देती है । इसी तरहसे बहती हुई परिणामोंकी कि-जीवके अपने स्वयके ( कि पिता-प्रपितादिकोंके) अधोधाराको जब कोई अच्छा कारण मिल जाता है तो आचरणकी 'गोत्र' संज्ञा है, ऊंचे आचरणको 'ऊँच उस अच्छे कारणका निमित्त पाकर उस अधोधाराका Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० अनेकान्त प्रवाह मुड़कर ऊर्ध्वरूपमें बहने लगता है और बहते २ ऊर्ध्वस्थानके अन्त तक वहां घारा पहुँच जाती है, और यदि बीचमें ही उसे कोई बुरा कारण मिल गया तो वह उस बुरे कारणका निमित्त पाकर पुनः ऊर्ध्वसे अधोरूपमें बहने लगती है और बढ़ते बढ़ते अधःस्थान के अन्तको प्राप्त हो जाती है और आत्माको अपने निगोदके अविनाशी पर्याय ज्ञानमें स्थापन कर देती है । अर्थात् प्रत्येक आत्मा के अन्दर दो प्रकारके परिणाम होते हैं, एक संयमाचरणरूप परिणाम और दूसरे असंयमाचरणरूप परिणाम । काल-लब्धिका निमित्त पाकर जब यह आस्मा नित्य निगोदसे निकलता है तब अहिंसा, सत्य, शीलादिके अभ्यास साधनका अच्छा निमित्त पाकर इसके परिणाम संयमाचरणरूप होने लगते हैं। जब एक परिणाम संयमाचरणरूप होता है तब उसका निमित्त पाकर उसके संस्कारसे, उसकी संतानरूप, उससे ऊपरका, ऊँचा तीसरा परिणाम होता है; जब तीसरा परिणाम होता है तब उसका निमित्त पाकर, उसके संस्कारसे, उसकी संतानरूप, उससे ऊपर का ऊँचा चौथा परिणाम होता है। इस तरह पर पूर्व २ परिणामोंके संस्कारसे उनका सन्तान दर सन्तानरूप उत्तर- उत्तर परिणाम ऊँचेसे ऊँचे संयमाचरण रूप ( यदि बीचमें कोई हिंसा झूठ चौर्यादिके अभ्यास-साधन का निमित्त नहीं मिला तो ) ''चले जाते हैं और होते होते अन्तमें उच्चताकी सीमाको प्राप्त कर लेते हैं और श्रात्माको अपने सच्चिदानन्दरूप मोक्ष स्वभाव में स्थित कर देते हैं। [आश्विन, वीर निर्वाय सं० २०६६ रूप होने लगते हैं। जब एक परिणाम, श्रसंयमाचरण रूप होता है तब उसका निमित्त पाकर, उसके संस्कारसे उसकी संतान-रूप, उससे गिरता हुआ, नीचेका दूसरा परिणाम होता है । जब दूसरा परिणाम होता है तब उसका निमित्त पाकर, उसके संस्कार से, उसकी संतानरूप, उससे गिरता हुआ नीचे का तीसरा परिणाम होता है। जब तीमरा परिणाम होता है तब उसका निमित्त पाकर, उसके संस्कारसे, उसकी संतानरूप, उससे गिरता हुआ, नीचेका चौथा परिणाम होता है। इस तरह पूर्व पूर्व परिणामों के संस्कारसे, उनकी सतान दर संतानरूप, उत्तर उत्तर परिणाम, नीचेसे नीचे श्रसंयमाचरणरूप (यदि बीच में कोई श्रहिंमा-मत्य - शीलादिके अभ्यास arathi अच्छा निमित्त नहीं मिला तो ) होते चले जाते हैं, और होते होते अन्तमें नीचताकी सीमाको प्राप्त कर लेते हैं और आत्माको अपने अविनाशी स्वरूप वाले निगोद के पर्यायज्ञानमें स्थापन कर देते हैं । इसी तरह पर जब यह श्रात्मा मुनिपद धारण करके और ग्यारहवें गुण स्थानको प्राप्त होकर वहाँसे गिरता है तब प्रमाद, कषाय, असत्य, कुशीलादिके अभ्यास-साघन का बुरा निमित्त पाकर इसके परिणाम असंयमाचरण यहाँ पर परिणामोंके संतान दरसंतान रूपसे श्रीरूप में गिरने, और उर्ध्वरूप में चढ़नेको दृष्टान्तों द्वारा स्पष्ट किया जाता है किसी मनुष्यको दुःसंगति के कारण जूवा खेलने का व्यसन लग गया । और वह अपने मित्र जुवारियों में जाकर प्रति दिन जुवा खेलने लगा । जब अपना सारा धन जूवे में हार गया तो उसे फिर जत्रा खेलने के लिये धनकी श्रावश्यकता हुई तब उसने सोचा कि चोरी द्वारा धन प्राप्त करके जूवा खेलना चाहिये, ऐसा सोच कर वह चोरी करने लगा और चोरी में धन प्राप्त कर करके जुवा खेलने लगा । जब चोरी करने में अतिशय निपुण हो जाने के कारण चोरीमें उसे पर्यास धन मिलने लगा तो जुवा खेलनेमें हार जाने के उपरान्त भी उसके पास धन बचने लगा और बहुतसा Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊँच नीच-गोत्र-विषयक पर्च धन उसके पाम हो गया । एक दिन वह किमी वेश्याके की अवस्था होने पर सम्यग् दर्शनको प्राप्त होकर योग्यता द्वारके सामने होकर जा रहा था कि उसके एक जुवारी प्राप्त होने पर मुनिव्रत धारण करके और अपने परिणामों मित्रने उसे आवाज़ देकर वहाँ बुला लिया, जब वेश्या को मन्तान दर सन्तानरूप उतरोचर ऊँचेसे ऊंचे और का उससे साक्षात् हुग तो वेश्याने अपने हाव भाव. विशुद्ध बनाता हुश्रा और समय प्रति समय विशुद्धताकी कटाक्षोंसे उसे अपने में अनुरक्त कर लिया और वह वृद्धि करता हुश्रा अपनी परिणामधाराको अर्ष रूपमें वेश्या सेवन करने लगा। तथा चोरी द्वारा पर्याप्त धन बहाता हुश्रा केवलज्ञानको प्राप्त कर लेता है और ला ला कर वेश्याको देने लगा । वेश्या-सेवनमें विषया- अन्तमें सम्पर्ण कर्मोंसे सर्वथा मुक्ति लाभ करके अपने नन्दकी वृद्धि के लिये मदिरा-पानका चस्का भी वेश्या शुद्ध-बुद्ध सिद्ध स्वरूपमें जा विरागता है। ने उसे लगा दिया और वह रात दिन मदिराके नशे में इस तरह पर मेरा विचार है कि जीवके अपने स्वयं के चूर रहने लगा । मदिराके नशेमें खाद्य- एकके कारण से दूसरे और दूसरेके कारण से तीसरे होने अखाद्यका विचार भी उसे न रहा और वह वेश्याके वाले शुभाऽशुभ आचरण को ही संतानक्रमसे पाया साथ मांसादि अखाद्य वस्तुओंको भी भक्षण करने हुश्रा जीवका श्राचरण कहते हैं। यदि मेरा उपयुक्त लगा । जब माम-भक्षणकी उसे श्रादत हो गई तो विचार जिनागमसे विरुद्ध नहीं है तो क्या मैं यह कह वह माम प्राप्तिके लिये जगलादिमें जाकर विचारे सकता हूँ कि इससे गोत्र कर्मोदयके सम्बन्ध गणवे दीन अनाथ एवं कायर पशुओंका वध (शिकार ) भी हुये सम्पूर्ण दोषोंका अपहार हो जावेगा ! गोत्र करने लगा और मार मार कर उन्हें खाने लगा तथा व्यवस्था प्रकृति-विकाशके विरुद्ध है, वह सार्वति अतिशय कर परिणामी हो गया । कर परीणामी हो जाने और चतुर्गतिके सारे जीवों पर लाग होने वाली नहीं है, और नशे में चूर रहनेके कारण वह परस्त्रियोंके साथ वह केवल मनुष्यों और मनुष्योमें भी केवल मारतवादिलों बलात्कार भी करने लगा और बल पर्चक उनका सतीत्व के व्यवहारानुसार बनी है, इत्यादि और मी जो दोष हरण करके अतिशय व्यभिचारी और लोकनिध हो गोत्र-कर्म-व्यवस्था पर लगाये जाते हैं, वे सब दोष श्री गया। इस तरह पर एक जना व्यमनके लग जानेके गोमसार कर्मकाण्डकी १३ वीं गाथाका उपयुक्त अर्थ कारण उसके मन्नान दर सन्तानरूप चौर्यादि व्यसनों मानने पर दूर हो सकेंगे, यदि सब दोष दूर हो सकेंगे तो के सेवनकी इच्छा और कांचनाले परिणाम होनेके २३ वीं गाथाका उपर्युक्त अर्थ ही सर्वाङ्गी अर्थ कहकारण वह सातों व्यसनोंका सेवन करने वाला अतिशय लाएगा। अस्तु । पापी, भ्रष्ट और परिणामोको नीचे गिराने वाला दुर्गति- संक्षेपमें गोमट्टसार कर्मकाण्डकी १३ वीं गाथाकी पात्र हो गया। व्याख्या करने और यह बतलाने के बाद कि 'ऊँच-नीच इसी तरहसे एक जीव अपनी शुभ काललब्धिको गोत्र कर्मोदय क्या है ?", अब मैं चारों गतियोंके जीवोंमें पाकर नित्य निगोदसे निकलता है और अपने ऊँचेसे गोत्रकर्मके उदयकी कुछ व्याख्या करना चाहता हूँ। ऊँचे विशुद्ध परिणामोंको करता हुआ मनुष्य पर्याय देवोंमें ऊँच-नीच गोत्रोदय धारण करता है। मनुष्य पर्याय धारण करके आठ वर्ष जेनसिद्धान्तमें, देवोंमें जो ऊँच गोत्रका सदर Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेकान्त [पारिवन, वीर निर्वाय सं०२४ बतलाया है वह मनुष्यसमूहकी अपेक्षासे है, उसका देवोंमें गोत्रोदय माननेसे,जैनागममें जो देवोंमे उचगोत्रोयह भाव नहीं है कि उनमें नीच गोत्रका उदय है ही दय कहा है उससे विरोध नहीं प्रासकता; क्योंकि वह नहीं। जब किसी हीन शक्ति के मुकाविलेमें उनमें उच्च सामान्यतया मनुष्यसमूहकी अपेक्षास देवसमूहमें उब गोत्रका उदय है तो किसी महान् शक्ति के मुकाबिलेमें गोत्रका उदय है, इसी अपेक्षास कहा हुआ जान पड़ता उनमें नीच गोत्रका उदय भी होना चाहिये । क्योंकि है। यहाँ अपेक्षा-भेदका स्पष्टीकरण न करके गुप्त गोत्र धर्म सापेक्ष धर्म है। जिनागममें भी देवोंमे चार रख लिया गया है । विचार करनेमे यहाँ उपयुक्त प्रकार मूलभेद और इन्द्र सामाजिक, त्रामसत्रिशत् श्रादि अपेक्षा ही ठीक बैठती है और वही युक्ति संगत प्रतीत उत्तर भेद माने गये है, जो उनमें परस्पर उञ्चगोत्र व होती है। नीच गोत्रका होना सिद्ध करते हैं । इसके अतिरिक्त मनुष्योंमें ऊँच नीच गोत्रोदय पंचमगुणस्थानसे लेकर चौदहवें गणस्थान वाले मनप्योंकी अपेक्षा उनमें नीचगोत्रका उदय है। मिथ्यादृष्टि जिनागमम, मनुष्योमें जो सामान्यतया ऊँच व मनुष्योंकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि देवोंमे उच्च गोत्रका उदय नीच दोनों गोत्रोंका उदय बतलाया गया है वह अपने है। चतुर्थ गुणस्थानी मनुष्योंकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि अपने सदाचरण दुराचरणके आधार पर परस्परकी असुर कुमारादि पापाचारी देवोंम नीच गोत्रका उदय अपक्षा से है । भोग भामके मनुष्यों के जो केवल उच्च है। चतुर्थ व पंचम गुणस्थानी तिर्यचौकी अपेक्षा भी गोत्रका उदय बतलाया है वह उनकी मंदकषायरूप असुरकुमारादि पापी मिध्यादृष्टि देवोमे नीच गोत्रका उच्च प्रवृत्ति की अपेक्षासे है । भोगमिके मनष्योंकी उदय है । चतुर्थ गुणस्थानी सम्यग्दृष्टि,व तीर्थकर प्रकृति अपेक्षा यहाँ कर्मभूमिके अधिकांश मनुष्यों में नीच बद्ध सम्यक्त्वी नारकियों की अपेक्षा भी असुर कुमारादि गोत्रका उदय है । भोगभाममें भी कई मनभ्य सम्यक दुराचारी और मिथ्यादृष्टि देवोंम नीच गोत्रका उदय है। दृष्टि है तथा कई विशेष मद कषाय वाले हैं तथा कई पंचमगुणस्थानी तिर्यचौकी अपेक्षा चतुर्थगुणस्थानी मनुष्य कम मंद कषाय वाले हैं और मिथ्यादृष्टि भी हैं देवोंमें नीच गोत्रका उदय है । चतुर्थ गुणस्थानी अतः वहाँ भी उनमें परस्परकी अपेक्षा ॐन गोत्र व तिर्यचों और चतुर्थगुणस्थानी व तीर्थकरप्रकृतिबद्ध नीच गोत्रका उदय होना सिद्ध है। अर्थात् विशेषमद सम्यक्त्वी नारकियोंकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टिदेवोंमें उच्च कषायवाले और सम्यग्दृष्टि मनुष्यों की अपेक्षा कममन्द गोत्रका उदय है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि तिर्यंचों, व कषायवाले और मिथ्यादृष्टि जीव नीच गोत्रोदयवाले परकियों के सम्यक्त्वसे सम्यग्दृष्टि देवोंका तद्रूप सम्य- है और कममंद कषाय वाले तथा मिथ्यादृष्टि मनुष्योंकी क्व विशेष निर्मल होता है । और सामान्यतया तिर्यंच अपेक्षा सम्यक्दृष्टि और विशेषमंद काय वाले मनुष्य समूह और नारकी समूहकी अपेक्षा देव समूहमें ऊँच उच्च गोत्रोदय युक्त है। सामान्यतया देवोंकी अपेक्षा गोत्रका उदय है ही। इस तरह पर विचार करनेसे देवों मनुष्योंमें नीच गोत्रका उदय है तथा तिर्यंचों व नारमें नानादृष्टिकोणकी अपेक्षा उच्च व नीच गोत्रोदय कियोंकी अपेक्षा मनुष्योंमें उच गोत्रका उदय है। प्रत्यब सिद्ध है। मेरे विचारसे उपर्युक्त रीतिके अनुसार विशेषतया भोग भूमिके चतुर्थ गुणस्थानी मनुष्योंकी. Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण १२] अपेक्षा कर्म भूमि चतुर्थ गुणस्थानी मनुष्योंमें अग्ने अपने सम्यक्त्वकी निर्मतानुसार उच्च व नीच दोनों गोत्रोंका उदय है, मिथ्यादृष्टि असुरकुमारदि पापाचारी देवोंकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि मनुष्यों में उच्च गोत्रका उदय है । चतुर्थ गुणस्थानी देवोंकी अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी मनुष्यों में अपने अपने सम्यक्त्वकी निर्मलतानुसार ऊँच नीच दोनों गोत्रोंका उदय है। चतुर्थगुण स्थानी तिचों व नारकियों की अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी मनुष्यों में उच्च गोत्रका उदय है । चतुर्थगुणस्थानी देवोंकी अपेक्षा पंचम गुणस्थानीमे लेकर चतुर्थदश गुणस्थानी तक मनुष्यों में ऊँच गोत्रका उदय है । देव ऋषिदेवकी अपेक्षा श्रष्टम प्रतिमाधारी मनुष्यों में उच्च गोत्रका, चतुर्थगुणस्थाना मनुष्यों में नीचगोत्रका और पचम गुणस्थानी मनुष्यों में उच्च गोत्रका उदय है । सम्यकदृष्टि व तीर्थंकर प्रकृतिबद्ध नारकियोंको अपेक्ष मिथ्यादृष्टि मनुष्यों में नीच गोत्रका और चतुर्थ गुणस्थानी मनुष्यों में उच्च गोत्रका उदय है। चतुर्थ व पचम गुणस्थानी तिची अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी मनुष्यों में नीच गोत्रका उदय है। पंचम गुणस्थानी तिचोंकी अपेक्षा पंचम गुणस्थानी मनुष्यों में उच्चगोत्रका उदय है । इम तरह पर व्यक्तिगत रूपसे तिर्यच और नार कियों के मुक्काविले में भी मनुष्यों में नीच गोत्रता अनुभव गोचर होती है । ऊँच-नीच गोत्र विषयक चर्चा श्रामें ऊँच-नीच गोत्रोदय श्रीविद्यानन्दादि जैनाचार्योंने श्रद्धात श्रायके क्षेत्राय', जात्या', कर्मा', चारित्रार्य, दर्शनार्य आदि भेद किये हैं और "उच्चगोत्रोदय श्रादि गुणवाले जो हों ' है" यह का लक्षण किया है । यहाँ आयको क्षेत्र - जाति-कर्म आदिका विशेषण दिया जाना 012 इस बात को बतलाता है कि उपर्युक्त श्रार्य अपने अपने क्षेत्र, जाति, कर्म श्रादि एक एक रूपसे ही श्रार्य हैंदूसरे रूपोंसे या पूर्ण रूपसे श्रार्य नहीं । श्रर्थात् उनमें अधिकाँश रूपसे या अल्पांश रूपसे श्रार्यत्वकी न्यूनता है । यह बात इस प्रकार भी कही जा सकती है कि, कोई मनुष्य तो केवल क्षेत्ररूपसे ही आर्य है अन्य जात्यादि चारों रूपोंसे आर्य नहीं । अर्थात् केवल श्राय क्षेत्र में उत्पन्न होनेके कारण श्रार्य है, अन्य कारणोंसे नहीं, वह व्यभिचार जात है, कर्म ( जीविका ) म्लेच्छों जैसे माँम विक्रयादि करता है, दर्शन चारित्रका उसमें नाम नहीं । कोई आर्य क्षेत्र में उत्पन्न होने और ब्राह्मण क्षत्रियादि होनेके कारण श्रार्य है अन्य कारणोंसे श्रार्य नहीं, वह जीविका म्लेच्छों की सी मद्य विक्रयादि करता है, दर्शन चारित्र उसमें बिल्कुल नहीं । कोई क्षेत्र में उत्पन्न होने, ब्राह्मण-क्षत्रि वैश्यादि होने, खेती श्रादि सावद्यकर्म, कपड़ेका व्यापार आदि अल्प सावद्यकर्म मणिमुक्तादिका व्यापार आदि साद्य कर्म करने वाला होनेके कारण श्रार्य हैं - श्रन्य कारणोंसे श्राय' नहीं, दर्शन चारित्रको वह नहीं धारण कर रहा है। कोई आय क्षेत्र में उत्पन्न होने, शुद्ध जाति होने अल्प सावद्य या सावध कर्म करने वाला होने और चारित्र धारण करने वाला होनेके कारण आर्य है -- अन्य कारण से श्राय' नहीं, वह शुद्ध दर्शन वाला नहीं । अन्य कोई पाँचों प्रकारसे श्रार्य है अर्थात् श्रार्य क्षेत्रम उत्पन्न होने, शुद्ध जाति होने, श्रसावध कर्म करने वाला होने, चारित्रवान् होने और सम्यग्दर्शन वाला होने के कारण आर्य है । इन सब श्रयमें जो केवल एक प्रकारसे श्राय' है, जिसमें श्रावकी अधि काँश रूपसे न्यूनता है, वह अधिकांश रूपसे असंयम भाव वाला होने और अत्यल्पांशरूपसे संयमभाव वाला Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: 018 होनें अथवा 'पूर्णाशरूपसे श्रसंयमभाववाला होने और संयम भाव वाला न होने के कारण नीच गोत्र वाला है | उसके बीच गोत्रका उदयं है । इसलिये उसमें अधिकाँशरूपसे श्रार्यत्वकी न्यूनता होने के कारण “बच्चाचरणरूप उच्चगोत्रोदय आदि गुण वाला श्र है" यह लक्षण नहीं घटता । और जो एकसे अधिक प्रकारखे श्रार्य है, जिसमें अल्पशिरूपसे श्रार्य लकी न्यूनता है अथवा पूर्णा शरूप से श्रायत्वकी प्रादुर्भूति है, वह अल्पशिरूपसे असयमभाव वाला न होने और अधिकांशरूपसे संग्रमभाव वाला होने व पूर्णेशरूप से संयम भाव वाला होने के कारण ऊँच गोत्र वाला है । उसके ऊँच गोत्रका उदय है । इसलिये उसमें आर्यत्व की अल्पांशरूपसे न्यूनता अथवा पूर्णा शरूप में आर्यत्व की प्रादुर्भूत होने के कारण उपर्युक्त श्रार्य का लक्षण घट जाता है। जिसमें असंयम भाव अधिक और संयम भाव कम है उसे श्रसंयम की अधिकता की अपेक्षा नीच गोत्री ही कहेंगे और जिसमें संयमभाव अधिक व पूर्ण है और असंयमभाव कम अथवा नहीं है उसे संयमकी अधिकता वा पूर्णताकी अपेक्षा ॐच गोत्री ही कहेगे । अर्थात् मनुष्य में जितने अंशोंम असंयम भाव है, उतने अँोंमें उसके नीच गोत्रका उदय है और जितने अशों में समभाव है उतने शोंमें उसके उच्च गोत्रका उदय । इस तरह पर प्रत्येक मनुष्य प्राणीमं दोनों गोत्रोंका उदय समय समय पर पाया जाता है। म्लेच्छों में ऊँच-नीच गोत्रोदय यद्यपि भी विद्यानंदाचार्यने नीच श्राचरणरूप नीचगोत्रोदय श्रादि लक्षण वालोंको म्लेच्छ कहा है तथापि उनमें उच्च गोत्रोदय मी कहा जा सकता है । उच्च गोत्रोदय पाया भी जाता है । यद्यपि उच्चाचरण अनेकान्त [ आश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६ रूप उच्चगोत्रोदय श्रादि गुणवाले क्षेत्रादि पाँचों प्रकारके श्रार्यत्वकी पूर्णताको प्राप्त हुये श्रायकी अपेक्षा उनमें नीच गोत्रका उदय ही पाया जाता 1 तथापि उनमें म्लेच्छों म्लेच्छोंकी अपेक्षा परस्पर में, उच्च गत्र और नीच गोत्र भी पाया जाता है । उदाहरणके लिये जिन्हें हम म्लेच्छ समझते हैं उनमें सुना जाता है कि एक बादशाह ऐसे त्यागी हुये हैं जो राज्य कोषसे एक पैसा भी अपने भरण पोषण के लिए न ले कर किसी दूसरे प्रकारसे -- अपने स्वयं शरीरसे परिश्रम करके -- श्राजीविका करते थे और अपना व अपनी रानीका भरण पोषण करते थे दूसरे एक अपने शरीर से भी अतिशय निस्पृह और दयालु महानुभाव उनमें हुये हैं, जो अपने शरीर के व्रणोंमें पड़े हुए क्रमियों ( कीड़ों) को व्रणोंमेंसे गिर जाने पर भी उठा उठा कर पीछे उन व्रणों में ही रख लिया करते थे । और तीसरे एक ऐसे दानी बादशाह भी उनमें हो गये हैं जो दीन दुखियोंकी पुकारको बहुत ही गौर ना करते थे और उन्हें बहुत ही अधिक धन दानमें दिया करते थे। आज भी उनमें अनेक दानी, त्यागी, सत्य वादी, दयालु और अपनी इन्द्रियों पर काबू रखने वाले मौजूद हैं, जिनकी उदारता, सहायता और परोपकारता श्रादिसे कितने ही लोग उपकृत हुए हैं और हो रहे हैं। अनेक गरीब तो उनकी कृपासे लक्ष्मापति तक बन गये हैं। इस प्रकार इन म्लेच्छों की उदारता, दानशीलता निस्पृहता आदि उच्च गोत्ररूप उच्चाचरणके कई दृष्टान्त दिये जा सकते हैं नीच गोत्ररूप नीचाचरणोंके दृष्टान्तोंके लिखने की तो यहां कोई श्रावश्यकता ही नहीं क्यों कि असमर्थों पर इनके किये हुये हजारों जुल्म प्रसिद्ध ही हैं, और श्राज भी ये लोग नाना प्रकार के अगणित श्रमानुषिक, जुल्म गरीबों पर किया ही करते Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर, निया) अपनी-गोत्र-विषयक हैं। इस तरह पर इनके परस्परकी अपेक्षा और आर्यस्व गुणस्थानी नारकीके नीच गोत्रका उदय है की न्यूनताको प्राप्त हुये क्षेत्रादि अपर्ण पार्योंकी क्योंकि नारकीके मम्यक्त्वसे मनुष्यका तद्रूप अपेक्षा भी नीच गोत्र और उच्च गोत्र दोनों के उदय इन मम्यक्त निर्मल होता है । मिध्यादृष्टि तिचकी म्लेच्छोंमें सिद्ध है। अपेक्षा सम्यक्त्वी नारकीके उस गोत्रका उदय है। म्लेच्छोंमें उपयुक्त प्रकारसे उच्च गोत्रोदय तथा इसी सम्यक्त्वी तिर्यचकी अपेक्षा सम्यक्त्वी नारकीके तरह पर अपूर्ण पार्योम भी नीच गोत्रोदय मानने पर नीच गोत्रका उदय है क्योंकि नारकीके सम्यक्त्वसे विद्यानन्द स्वामीके आर्य म्लेच्छ विषयक स्वरूप कथनसे तिर्थचका तद्रूप सम्यक्त्व अपेक्षाकृत अच्छा विरोध भी नहीं पा सकता, क्योंकि उन्होंने पार्योंमें, होता है। उच्च गोत्रोदय, आर्यत्वके क्षेत्रादि रूपोंकी, और उच्चा- इसके अतिरिक्त नारकियोंमें परस्परकी अपेक्षा चरणोंकी अधिकताको अपेक्षा कहा है तथा म्लेच्छोमें मे भी उप व नीच गोत्रका उदय पाया जाता है। नीच गोत्रोदय, नीचाचरणोंकी अधिकताकी अपेक्षा सातवें नरकके नारकियोंसे ऊपरके नारकियों के कहा है । ऐसा मेरा विचार है। उत्तरोत्तर ऊँच गोत्रका है तथा उपरके नारकियोंसे नीचे के नारकियों के नीचका उदय है। मिध्यादृष्टि नारकियों में ऊँच-नीच गोत्रोदय नारकीकी अपेक्षा सम्यग् दृष्टि नारकीके उपगोत्रका. जैन मिद्धान्तमें नारकियोंमें ओ नीच गोत्रका उदय उदय है । सम्यक्त्वी नारकीकी अपेक्षा मुनि हो कहा है वह उनके विशिष्ट पापोदयकी अपेक्षा और देव मकने वाले, केवली हो मकने वाले, और तीर्थकर मनुष्यादिके मुकाविलेमें हीन होनेकी अपेक्षास कहा है, हो मकने वाले नारकियोंके उत्तरोत्तर उप गोत्रका परन्तु इसका यह प्रयोजन नहीं है कि उनमें ऊंच गोत्रका उदय है। इस तरह पर नारकियोंमें पाव नीच उदय है ही नहीं । विचार करने पर उनमें अपेक्षाकृत दोनोंका उदय पाया जाता है । इस ऊँचना-नीचता ऊंच व नीच दोनोंका उदय विद्यमान है, ऐसा प्रतीत से इनकार नहीं किया जा सकता। होता है । सामान्यतया देव-मनध्य-तिर्यचौकी अपेक्षा तो तियचोंमें ऊँच-नीच गोत्रोदय उनमें नीच गोत्रका उदय है ही, परन्तु व्यक्तिगत रूपसे मिथ्यादृष्टि असुर कुमारादि पापाचारी देवोंकी जिनागममे तिर्यचोंके जो नीच गोत्रका उदय अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी, तीर्थकर व प्रकृतिवद्ध बतलाया गया है उसे देव मनुष्योंकी अपेक्षा नारकीके उच्च गोत्रका उदय है। चतुर्थ गुणम्थानी समझना चाहिये, उसे उनमें स्थायी रूपसे मान देवकी अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी नागकीके नीच लेना सत्यतासे इनकार करना है, उनमे परस्परमें गांत्रका उदय है, क्योंकि नारकीसे देवका तप ऊँच नीचता प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होती है। पशुभोंमें सम्यक्त निर्मल होता है । मिध्यादृष्टि मनुष्यको सिंह, शादूल, हाथी, भरव, वृषभ आदि ऊँचे और अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी नारकीके उच्च गोत्रका अच्छे समझे जाते हैं, तथा मर्प, वृश्चिक, शृगाल, उदय है । चतुर्थ गुणस्थानी मनुष्यको अपेक्षा चतुर्थ बिडाल आदि नीचे और बुरे समझ जाते हैं। Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भारियन, वीर निर्वाव सं०२५५ पक्षियोंमें हंस मयूर, तोता,मैना, कोकिला सारसादि का उदय है। इस तरह पर नाना दृष्टिकोणोंसे और ऊँचे और अच्छे समझे जाते है तथा काक, कुक्कुट, नाना अपेक्षाओंसे तियचों भी उच्च व नीच गृब, उलूक, चील, चिमगादड़ आदि नीचे और दोनों गोत्रोंका उदय दृष्टिगोचर होता है। बुरे समझे जाते हैं । पशु-पक्षियोंम यह अच्छा व इस प्रकार ऊँच व नीच दोनों गात्रोदय, देव, बुरा तथा ऊँचा व नीचा समझा जाना क्या है ? मनुष्य, नरक, तियेच, इन चारों गतियों के प्राणियों यह ऊँच गोत्रोदय व नीच गोत्रोदय ही है । जैन में प्रत्यक्ष अनुभव गोचर होते हैं। भाचार दृष्टि से मिथ्याष्टि असुरकुमारादि पापाचारी देवोंकी अपेक्षासम्यकदृष्टि तिर्यचोंमें व पचम ___इसमें लेखकके मन्तव्य गुणस्थानी तिर्यचों में उस गोत्रका उदय है। (१) खडेलवाल, अग्रवाल, परवार, पाटोदी चतुर्थ गुणस्थानी देवों की अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी संठी, मानौ, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, दिगम्बर तिर्यचों में नीच गोत्रका उदय है क्योंकि तिर्यचक श्वेताम्बर,(मुलसंघ मेनसंघ अर्धफालक संघ और सम्यक्त्वसे देवोंका मम्यक्त्व निर्मल होता है। गणगच्छादि गोत्र कम नहीं है । ये कंवल भिन्न भिन्न चतुर्थ गणस्थानी देवोंकी अपेक्षा पंचम गणस्थानी प्रकारकं मनुष्य ममूहोंको बतलाने वाले संकेत तिय चों में उच्च गोत्रका उदय है मिथ्यादृष्टि मात्र है। मनुष्यों की अपेक्षा चतुर्थ व पंचम गणस्थानी (२) अपनी लौकिक व धार्मिक प्रत्येक विषयको तिय चोंमें ऊँच गोत्रका अय है । सम्यक्त्वी उन्नति अवनतिको 'गौत्रकम' कहते हैं। मनुष्योंकी अपेक्षा सम्यक्त्वी तिर्य चोंमें नीच (३) लौकिक विद्याओं जैसे यंत्र विद्या, गोत्रका उदय है, क्योंकि तिय चोंके सम्यक्त्व गायन, वाह्य, युद्ध, वैद्यक, ज्योतिष आदि विद्याओं से मनुष्योंका सम्यक्त्व निर्मल होता है । को उन्नति अवनति भी गोत्र कर्म ( लौकिक) के सम्यक्त्वी मनुष्योंकी अपेक्षा पंचम गुणस्थानी ही भेद हैं। तिय चोंमें उच्च गोत्रका उदय है । पचम गुणस्थानी (४) जैनमिद्धान्तमें विवक्षित गोत्रकर्म मनुष्यों की अपेक्षा पंचम गुणस्थानी तिर्य धोंमें संयमा-चरण असंयमाचरणकी उन्नति अवनति नीच गोत्रका उदय है, क्योंकि तिर्य चोंके व्रतसे रूप है। मनुष्योंका व्रत ऊंचे दर्जेका होता है । मिथ्या दृष्टि (५) गोम्मटमार-कर्मकाण्डकी १३ वीं गाथा नारकीकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि व चतुर्थ व पंचम का वह आशय नहीं है जो आमतौरमं लिया जाता गणस्थानी तिर्यंचोंमे उबगोत्रका उदय है । सम्यक्त्व है। उसमें पड़े हुए 'मन्तानक्रमेणागत' विशेषणम नारकीकी अपेक्षा सम्यक्त्वी तिर्यचोंमे उच्च गोत्रका अपने ही, आचरणकी परम्परा विवक्षित है-पिता उदय है, क्योंकि नारकीके सम्यक्त्वसे तिर्यचका पितादिकं आचरणकी नहीं। तद्रूप सम्यक्स्व निर्मल होता है । सम्क्त्वो नारको (६) जीवका अपना स्वयंका आचरण ही की अपेक्षा पंचम गुणस्थानी तिर्य चमें उच्च गोत्र अपना गोत्र कर्म है। Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिव २] ऊँच-नीच-गोत्र-विषयक . . (७) अपने पिता प्रपितादिकोंसे भाया हुवा विद्वानों से विनम्र प्रार्थना आचरण अपना गोत्रकर्म नहीं है । इस लेखमें ऊँच-नीच गोत्रकर्मोदय पर जो (८) चारों गतिके जीवों में ऊँच व नीच दोनों कुछ भी लिखा गया है, वह अनेक विद्वानोंके गोत्र गोत्रकर्मों का उदय प्रत्यक्ष सिद्ध व अनुभव कर्मविषयक लेखादिकोंके अध्ययन-मनन परसे बना गोचर है। हुश्रा केवल मेरा अपना विचार है । मैं जिनागमका (९) इस लेख में सिद्ध किये हये प्रत्येक अभ्यासी और जानकार स्वल्प भी नहीं हैं, केवल प्राणीके ऊँच-नीच गोत्रकोदयसे और जिनागममें नाम मात्रको स्वाध्याय कर लेता हूँ, इसलिये दवा वर्णित देवोंमें उच्च मनष्योंमें ऊँच व नीच, व करके विद्वान लोग वात्सल्य भाव पूर्वक बतलावें नारकी तिर्यंचोंमें, नीच गोत्र कर्मोदयसे विरोध कि यह लेख जिनागमसे कितना अनुकूल व कितना नहीं है। प्रतिकूल है, ताकि मैं अपने विचारोंमें सुधार (१०) अपने अपने ऊँचे व नीचे आचर.. कर सकू। णानुमार समय समय प्रति ऊँच व नीच गोत्र विचार-स्वातनयके कारण, इस लेख में मुझसे कर्मका रसानुभव होता रहता है। अत्युक्तियाँ अथवा अन्योक्तियां भी बहुत हुई (११) गोत्रकर्म संसारस्थ आत्माका सापेक्ष अन्योक्तियोंको बतलानका जरूर कष्ट उठायें, इस होंगी, अतः कृपा कर उन मेरी अत्यक्तियों और धर्म है। प्रकार समाजके सभी विद्वानोंसे मेरी विनम्र (१२) गोत्र कर्मोदय स्थायी नहीं है। आदि, प्रार्थना है । Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेंडकके विषयमें एक शंका [ले -श्री दौलतराम 'मित्र'] चेन्द्रिय तिर्षच जातिके जीव लिंगकी दृष्टिमे इम श्लोकको टीकामें खुलासा किया गया है 7 गर्भज और अगर्भज (समूर्च्छन ) दोनों कि-जिस प्रकार मंडककं चूर्णमे पीछे बहुतम प्रकारके होते हैं ऐसा गोमट्टसार-जीवकाण्डको मंडूक उत्पन्न हो जाते हैं उसी प्रकार अशुभ गाथा नं०७९ से जाना जाता है। (पाप-बन्धक ) क्रियाकं चर्ण ( हानी ) में शुभ परन्तु सवाल यह है कि उनमेंसे मेंडक-वर्गके (पुण्य बन्धक ) क्रियाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। जीव गर्भज हैं या समूछन ? (३) 'मेडक तो ऐमा विचित्र जन्तु है. और प्रमाण तो इसी बातके मिलते हैं कि यह जीव अपने जन्मका ऐमा सुन्दर नाटक दिखलाता है कि समूर्छन हैं । देखिय लोग दंग रह जाते हैं। किसी मेंडकका चूर्ण बनाकर (१) "जीवे दादुर ( मेंडक ) बरमे तोय। और बारीक कपडेमे छान कर शीशीमें बन्द कर सुन बानी सरजीवन होय ।।" १४॥ लीजिये । वर्षातम उम चर्णको पानी बरसते ममय यह प्राचार्य अचलकीर्ति कृत संस्कृत विषापहार जमीन पर डाल दीजिये, तुरन्त हो छोटे २ मेंडक का भाषापद्यानुवाद परमानन्दजो कृत है। कूदन लगेंगे।' इसमें बतलाया है कि-हे भगवन् ! जिस प्रकार पानी बरसन पर मेडक सरजीवन हो जाते -पंरघुनदन्दन शर्मा, अक्षर विज्ञान पृ०२२ हैं-मरे मंडक पीछे जी उठते हैं-उसी प्रकार (४) देखने में आता है कि यदि आज वर्षात आपकी वाणी सुन कर भव्य जीव नवजीवन हो जाय तो कल ही मटीले जलाशयों में (जैस (ज्ञान-चेतना, सम्यक्त्व ) प्राप्त कर लेते हैं *। पोखरे, तालाब कच्चे कुएं आदि ) दो प्रकारके मेंडक (२) द्वितीया दोषहानिः स्यात् काचित् मंडक चणवत पाये जावेंगे। एक तो दो दो सेर वजनके बड़े बड़े आत्यंतिकी तृतीयात्तु गुरू-लाघव-चिन्तया" और दूसरे तीन तीन माशं तक छोटे २ । कारण यह जान पड़ता है कि जिन मेडकोंके मृतक शरीर --यशोविजय (श्वे) अध्यात्मसार 1-४॥ अक्षय ( पूरे) रह कर मिट्टीमें दब गये उनकं तो किन्चसदर्शनं हेतुः संविचारित्रयोर्द्वयोः । बड़े २ मेडक बन जाते हैं, और जिनके मृतक शरीर सम्यग विशेषणस्योधयंहा प्रत्ययजन्मनः ॥ के टुकड़े टुकड़े हो गये उनके छोटे २ मेंडक बन -पंचाग्याषी, २-015 जाते हैं। Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेंडकके विषय में एक शश (१) यदि कोई कहे कि अंडे गर्भज होते हैं, उनमें गर्भज जीवोंके समान शुक्र-शोणित-द्वारा मेंडकके अंडे देखे गये हैं, तो उत्तर यह कि अंडों संतानोत्पत्ति करनेकी योग्यता नहीं होती। अंडोंमें फर्क है, अंडे गर्भज (रजवीर्यज) और (६) ऐसी मुर्गियाँ मौजूद हैं, जो बिना मुर्गे समूर्छन दोनों प्रकारके होते हैं। जैसा कि पंडित का संयोग किए अंडे देती हैं, पर वह अंडे सजीव बिहारीलाल जी चैतन्य-रचित "बृहद् जैन शब्दार्णव' नहीं होते। (पृ० २७७ ) में लिखा है कि इस प्रकार यह प्रमाणित होता है कि मेंडक "नोट ३-अंडे दो प्रकारके होते हैं, गर्भज समूर्छन है, गर्भज नहीं है। और ममूर्छन । सोप, घांघा, चींटी (पिपिलिका) मेंडकके विषयमें-यहां पर एक खास वार्ता मधुमक्षिका, अलि (भौरा ), बर्र, ततईया, आदि ( कथा ) विचारणीय है। वह यह कि-भगवान बिकलभय ( द्वोन्द्रिय, बान्द्रिय, चतुन्द्रिय ) जीवोंके महावीरकी पूजा करनकी इच्छासे राजगृही-समय अंड समूर्छन ही होते हैं, जो गर्भमे नत्पन्न न हो शरणकं रास्ते गमन करता हुआ एक मेंडक हाथीके कर उन प्राणियों द्वरा कुछ विशेष जातिकं पुद्गल पावके नीचे दब जानसे मर कर देव हुआ । स्कंधोंकं सग्रहीत किए जाने और उनके शरीरके इस कथा पर कुछ सवाल उठते हैंपसेव या मुखकी लार (ठीवन ) या शरीरकी (१) अगर वह मेंडक सम्यग् दृष्टि (४ गु०) उष्णता आदिकं सयोगसे अंडाकारसे बन जाते हैं। था तो उसका गर्भज और संज्ञी होना आवश्यक या कोई समूच्र्छन प्राणीके समूच्छंन अंडे योनि है (लब्धिसार गा. २)। परन्तु मेंडक गर्भज द्वारा उनकं उदरसे निकलते हैं, परन्तु वे उदर में नहीं है, समूर्छन है। भी गर्भज प्राणियोंके समान पुरुषकं शुक्र और (२) अगर वह मेडक मिध्यादृष्टि (३ गु०) स्त्रियों के शोणितसे नहीं बनते । क्योंकि समूर्च्छन था तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि तीसरा गुणप्राणी सब नपुंसक लिंगी ही होते हैं। और न वे स्थान रहते मरण नहीं होता है। योनिसे सजीव निकलते हैं, किंतु बाहर भान पर (गो. जी. २३-२४) जिनके उदरसे निकलते हैं उनको या उसी जातिके (३) अगर वह मेंडक मिध्यादृष्टि (१ गु०) अन्य प्राणियोंकी मुखलार आदिकं संयोगसे उनमें था तो उसके समवशरणमें जाकर तमाशा देखनेकी जीवोत्पत्ति हो जाती है।" इच्छा तो हो सकती है, परन्तु जिन पूजा करनेकी __ "नोट ४-समूच्र्छन प्राणी सर्व ही नपुंमक इच्छा नहीं हो मकती है। लिंगी होने पर भी उनमें नर मादीन अर्थात पुलिंगी मच बात तो यह है कि कथाएँ दो प्रकारको स्त्रीलिगी होनकी जो कल्पना की जाती है,वह केवल होती हैं, एक ऐतिहासिक दूमरी कल्पित । किसी उनके बड़े छोटे मोटे पतले शरीराकार और स्वभाव प्रबोध-प्रयोजन पोषणकं लिये कथाएँ कल्पित भी शक्ति और कार्यकुशलता आदि किमी न किमी गुण की जाती हैं। कहा है - विशेषकी अपेक्षासे की जा सकती है। वास्तवमें "प्रथमानुयोग विर्षे जे मूल कथा है ते तो जैसी Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त हैं वैसी ही निरुपित हैं। अगर तिन विषे प्रसंग पाय व्याख्यान हो है, सो कोई तो जैसाका तैसा हो है, कोई प्रन्थकर्ताका विचारके अनुसार होय, परन्तु प्रयोजन अन्यथा न हो है।" "बहुरि प्रसँग रूप कथा भी ग्रंथकर्ता अपने विचार अनुसार कहे जैसे “धर्मपरीक्षा" विषें मूर्खनिको कथा लिखी, सो एही कथा मनोबेग कही थी, ऐसा नियम नाहीं; परन्तु मूर्खपनाको ही पोषती कोई बार्ता कही, ऐसा अभिप्राय पोषे है । ऐसे ही अन्यत्र जानना ।" ( मोक्षमार्ग प्र०, पं० टोडरमलजी ) अतएव कल्पित कथाओंके साथ साथ सिद्धातों की संगति नहीं बैठ सकती है । सिद्धान्तोंकी संगति तो उन्हीं कथाओं के साथ बैठेगी जो ऐतिहासिक होंगी । मेरा ऐसा ख्याल है कि दृष्टान्त प्रामाणिक चीज है क्योंकि वह प्रत्यक्ष हो चुका है । दृष्टांतों परसे तो सिद्धान्त बने हैं, जैसे उच्चारणोंपर से व्याकरण बना | अथवा दृष्टांत ( अंतमें दिखाई देने वाली चीज़ ) और सिद्धांत ( अंतमें सिद्ध होने वाली चीज ) एक ही चीज तो है । ककी कथा कल्पित जान पड़ती है। उसका यही उद्देश्य नजर आता है कि जिनपूजा के फलसे [ आश्विन, वीर निर्वाच सं० २०१६ तिर्येच भी देव हो सकता है तो मनुष्य की तो बात ही क्या ? और भी ऐसी कथाएँ हैं जैसे सुदृष्टि सुनारकी कथा | कथानक यों है कि - अपनी खीने मैथुन करते ममय सुदृष्टि सुनार को, उसके वक्र नामक शिष्यने जो कि सुदृष्टिकी स्त्री 'विमलामे लगा हुआ था- व्यभिचार करना था, मार डाला | मर कर वह अपनी ही स्त्रीके गर्भ में आगया । जन्मा और बड़ा होने पर जातिम्मरण हो जानेसे उपन सब बात जानी, तब उसे वैराग्य हो आया। मुनि दीक्षा ली, और तपस्या करके मोक्ष चला गया । - अब देखिये, सिद्धान्तसे तो इसका मेल ( संगति) नहीं बैठता है; क्योंकि सिद्धान्त तो यह है किएक तो सुनार दूसरा व्यभिचारज, दोनों तरहसे शूद्र होने से वह मोक्ष नहीं जा सकता । परन्तु प्रयोजन (उद्देश्य से इसका मेल बराबर बैठता है । उद्देश्य यह दिखानेका था कि देखो, संसार कैसा विचित्र है कि पिता खुद ही अपना पुत्र भी हो सकता है और स्त्री का पति भी उसका पुत्र बन सकता है ! आशा है, इस मेंडक सम्बन्धी शंका पर कोई सज्जन जरूर प्रकाश डालेंगे । Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिल भाषाका जैनसाहित्य ले०-प्रोफेयर ए. चक्रवर्ती, एम.ए. भाई ई. एस., [अनुवादक-पं० सुमेरचन्द दिवाकर न्यायतीर्थ शास्त्री बी. ए., एलएन. बी., सिवनी] [१०वी किरण से आगे] कछ विद्वानों का कहना है कि वह ग्रन्थ आठवीं नादियार सातवीं सदीके बादका होना चाहिए। ७ सदीका होना चाहिए,कारण उसके एक या दो यह तर्क भी त्याज्य है, कारण वे जैन विद्वान, जो पद्योंमें 'मुत्तरियर' शब्द पाया जाता है। उनके संस्कृत तथा तामिल इन दोनों भागोंमें निपुण ये, कथनका आधार यह है कि यह 'मुत्तरियर' शब्द सम्भवतः पुरातन संस्कृत सूक्तियोंसे सुपरिचित थे, पल्लवराज्यकं भीतर रहने वाले एक छोटे नरेशको जिन्हें भर्तृहरिन अपने ग्रंथमें शामिल किया है। घोषित करता है। यह परिणाम केवल इस एक यदि आप यह माने कि नादियारके लिए जिम्मेदार शब्दके साथ की अल्प शाब्दिक साक्षीके आधार पर जैन मुनिगण कुंदकुंदाचार्य के नेतृत्व वाले द्राविड़ है । इसके सिवाय और कोई साक्षी नहीं है, जिससे संघके सदस्य थे, तब भी इम रचनाको प्रथम इस नरेशका नन जैन साधुओंमें सम्बन्ध स्थापित शताब्दीके बादका सिद्ध नहीं किया जा मकता। किया जाय, जो इन पद्योंके निर्माणके वास्तव में इस प्रसंगम यह उल्लेख करना उचित है कि तामिल जिम्मेदार थे। इसके सिवाय 'मुत्तरियर' शब्दका भाषाकी प्रख्यात टीकाओंमें बहुत प्राचीन-कालसे अर्थ 'मुक्ता-नरेश', जो पाँड्य नरेशोंको सूचित नालदियारके पद्य उद्धृत हुए पाए जाते हैं। इन करता है, भी भली भांति किया जा मकना है। दो महान् अन्थोंके सिवाय नीतिक अटादशमन्थोंमें पुरातन इतिहास में यह बात प्रसिद्ध है, कि पांड्य सम्मिलित दूसरे ग्रंथ (यथा 'अररिचारम्देशमें मुक्ता-अन्वेषण एक प्रधान उद्योग था, और सद्गुण मार्गका सार, 'पलमोलि सक्तियां, ईलाति पांड्य-तटोंमें विदेशोंको मोती भेजे जाते थे। यह आदि मूलतः जैन आचार्योंकी कृतियाँ हैं । इनमेंसे सचित तथा स्वाभाविक बात है कि जैन मुनिगण हम संक्षेपमें कुछ पर विचार करेंगे। पांड्यवंशीय अपने संरक्षकका गुणानुवाद करें। १. अग्नरिचारम्-'मधर्म-म ग-मार' के एक दूमरी युक्ति और है, जिसमें यह प्रन्थ ईमाकी रचयिता निरुमुनादियार नामक जैन विद्वान हैं। पिछली शताब्दियोंका बताया जाता है । विद्वानोंका यह अंतिम संगमकालमें हुए थे। इस महान् प्रन्य अभिमत है कि हम प्रन्थके अनेक पद्योंमें भत हरि में ये जैनधर्ममें सम्बन्धित पंच मदाचारके के संस्कृत ग्रंथकी प्रतिध्वनि पाई जाती है । सिद्धान्तोका वर्णन करते हैं, यद्यपि ये मिद्धान्त भर्तृहरिका नीतिशतक लगभग ६५० ईसवी में रचा दक्षिणके अन्य धर्मोम भी पाए जाते हैं । इन गया था । अतः यह कल्पना कि जाता है, कि सिद्धान्तों को पंचत्रत कहते हैं, जो चरित्र-सम्बन्धी Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२२ अनेकान्स [ आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४५६ पांच नियम हैं, और जो गृहस्थ तथा मुनियोंके सुगंधित काष्ट, चन्दन तथा मधुके सुगन्धपूर्ण लिए आवश्यक हैं। ये अहिंसा, अस्तेय, सत्य, संग्रहको घोषित करता है। ग्रन्थकं इस नामकरणका ब्रह्मचर्य तथा परिमित परिप्रह कहे जाते हैं । ये कारण यह है कि इसके प्रत्येक पद्य में ऐसे ही सुरसदाचार-सम्बन्धी पंचव्रत कहे जाते हैं,और अरने- भिपूर्ण पाँच विषयोंका वर्णन है । इम ग्रन्थका मूल रिचारम् नामक ग्रन्थमें इनका वर्णन है। जैन है । प्रन्थकारका नाम कणिमेडैयार है जिनकी २. पलमोलि अथवा सूक्तिएँ-इसके रचयिता विद्वत्ता सबके द्वारा प्रशंमित है । यह संगम साहिमुनरुनैयार-भरैयनार नामक जैन हैं। इसमें नाल- त्यकं अष्टादश लघुग्रंथों में अन्यतम है। लेखकके दियारके समान वेणवा वृत्तमें ४०० पद्य हैं । इममें सम्बन्धमें केवल इनना ही मालूम है कि वह माकाबहुमूल्य पुरातन सूक्तियां हैं, जो न केवल सदाचार यनारका शिष्य तथा तामिलाशिरियरका पुत्र हे,जो के नियम ही बताती हैं बल्कि बहुत अंशमं मदुरा संगमके सदस्य थे । साधारणतया वे ग्रंथ लौकिक बुद्धित्तासे परिपूर्ण हैं। तामिलके नीति- यद्यपि उन अष्टादशलघग्रन्थों में शामिल किए जाते हैं विषयक अष्टादश ग्रन्थों में कुरल, नालदियारकं किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है, कि वे उमी शताब्दी बाद इसका तीसरा नंबर है।। के हैं। ये अनेक शताब्दियोंक होने चाहिएँ । हम ३. इस अष्टादश प्रथ-समुदायमें सम्मिलित कुछ दृढ़ताके साथ इतना ही कह सकते हैं, कि ये "तिनैमालैनरैम्वतु" नामका एक और प्रन्थ हैं दक्षिण भारतमें हिन्दूधर्मके पुनरुद्धार कालके जिसका रचयिता है कणिमेदैयार । यह जैन पूर्ववर्ती हैं । अत: इनका ममय सातवीं सदीक लेखक भी संगमके कवियोंमे अन्यतम हैं । यह पूर्वका होना चाहिए । प्रन्थ श्रृंगार तथा युद्ध के सिद्धान्तोंका वर्णन अब हम काव्य-साहित्यका वर्णन करेंगे। महाकरता है तथा पश्चातवर्ती महान् टीकाकारोंक काव्य और लघुकाव्यक भेदस काव्य-साहित्य दो द्वारा इस ग्रंथके अवतरण बखूबी लिए जाते प्रकारका है । महाकाव्य संख्यामें पांच हैं-चितारहे हैं। नचिनार्जिनियार तथा अन्य प्रन्थकारोंने मणि, शिलप्पडिकारममणिमेखले, वलयापति और इस ग्रन्थक अवतरण दिए हैं। कुंडलकेशि । इन पांच काव्योंमें चिंतामणि,सिलप्प___ ४.इस समुदायका एक प्रन्थ 'नानमणिकांडगे' डिकारम, और वलैतापति तो जैन लेखकोंकी कृति अर्थात् रस्नचतुष्टय-प्रापक है । इसके लेखक जैन हैं और शेष दो बौद्ध विद्वानोंकी कृति हैं। इन पांच विद्वान विलम्बिनथर हैं। यह वेण्बा छन्दमें है, मेंस केवल तीन ही अब उपलब्ध होते हैं; कारण जो अन्य ग्रन्थों में प्रसिद्ध है । प्रत्येक पद्य में रत्नतुल्य वलैगपति तथा कुंडलकेशि तो इस जगतसे लुप्त सदाचारके नियम चतुष्टयका वर्णन है और इमीसे हो गए हैं । टीकाकारों द्वारा इधर-उधर उद्धृत इसका नाम नानमणिकडिगे है। कतिपय पद्योंके सिवाय इन ग्रंथोंके सम्बन्ध में कुछ ५.इसके बाद एलाति तथा दूसरे ग्रंथ भाते हैं भी विदित नहीं है । प्रकीर्णक रूपमें प्राप्त कतिपय एनाति शब्द इलायची, कपूर, ईरीकारसू नामक पद्योंसे यह स्पष्ट है कि 'वलयापति' जैन ग्रन्थकार Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष, किरण १२] तामिज भाषाका बैन साहित्य के द्वारा रचित था। कथाका क्या ढाँचा था,लेखक हित्यके ममय-निर्णयमें सीमालिंगका काम देनेवाला कौन था और वह कब विद्यमान था, ये सब बातें समझा जाता है। उसके लेखक चेरके युवराज हैं,जो केवल कल्पनाकी विषय रह गई है। इसी प्रकार लंगोवडिगल' नामके जैन मुनि हो गए थे। बौद्ध प्रन्थ कुंडलकशिक लेखक अथवा उसके समय यह महान् प्रथ साहित्यिक रिवाजोंके विषयमें के सम्बन्धम भी कुछ ज्ञात नहीं है । नीलकशि ग्रंथमे प्रमाणभूत गिना जाता है और बादके टीकाकारांके उद्धृत पद्योंम यह स्पष्ट होता है कि कुण्डलकेशि द्वारा इमी रूपमें उद्धृत किया जाता है। इसका एक दार्शनिक ग्रंथ था, जिसमें वैदिक तथा जैन सम्बन्ध नगरपुहार, कावेरिपूमपट्टणमके, जो चोल दर्शन जैसे अन्य दर्शनोंका खण्डन करके बौद्ध राज्यको राजधानी था, महान वणिक परिवारसे दर्शनको प्रतिष्ठित करनेकी कोशिश की गई है। बताया जाता है । करणकी नामकी नायिका इसी दुर्भाग्यस इन दोनों महाकाव्योंकी उपलब्धिकी कोई वैश्य वंशकी थी और वह अपने शील तथा पति आशा नहीं है । प्रकाण्ड तामिल विद्वान डा. वी. भक्तिके लिए प्रख्यात थी । चुंकि इस कथामें पांड्य स्वामिनाथ अय्यरकं प्रशंसनीय परिश्रमसं केवल राज्यकी राजधानी मदुरामें नपुर (anklet) तीन अन्य ग्रन्थ ही इस समय उपलब्ध हैं । यद्यपि अथवा शिलम्बु बेचनका प्रसंग है, इसलिए यह काव्योंकी गणनामें चिंतामणिका गौरवपूर्ण स्थान दुःखान्त रचना नूपुर अथवा शिलम्बुका महाकाव्य है, क्योंकि उस ग्रंथराजकी मर्वमान्य साहित्यिक कही जाती है। चूंकि इम कथामें तीन महाराज्यों कीर्ति है, परन्तु इमम यह कल्पना नहीं की जा का सम्बन्ध है अत: लेखक, जो चेर-युवराज्य है, सकती कि यह गणना ऐतिहासिक क्रम पर अव- पुहार, मदुरा तथा वनजी नामकी तीन बड़ी लम्बित है । प्रायःवलैयापति एवं कुंडलकेशि नामक राजधानियोंका विस्तारके साथ वर्णन करता है, लुप्त ग्रन्थ दूसरोंकी अपेक्षा ऐतिहासिक दृष्टिमं जिनमेंसे वनजी चेरराज्यकी राजधानी थी। पूर्ववर्ती जान पड़ने हैं, किन्तु इन प्रयांक विषयमं इम ग्रंथके रचियिता लंगोबडिगल् चेरलादन कुछ भी विदित नहीं है, अतः हम निश्चयपूर्वक कुछ नामक चेर नरेशके लघ पुत्र थे, जिसकी राजधानी भी नहीं कह सकते हैं। अवशिष्ट तीन ग्रंथोंमे वनजी थी । ल्लंगोवाडिगल चेरलादनके पश्चात होने शिनप्पडिकारम् तथा मणिमेकलै परम्पराके द्वारा वाले नरेश शेनगुटटुवनका अनुज था; इसीसे समकालीन बनाए जाते हैं, किन्तु चिंतामणि प्रायः उसका नाम लंगोवाडिगल अर्थान छोटा युवराज पश्चात्तवर्ती है । मण मेकले के बौद्ध ग्रंश होनेके था। जब वह मुनि हुए तब उन्हें जंगोवाडिगल कारण हम अपनी आलोचनामें उसे स्थान नहीं दे कहते थे, 'अडिगल' शब्द मुनिका उल्लेख करने सकते, यद्यपि कथाका सम्बन्ध शिलप्पडिकारम वाला एक सम्मानपूर्ण शब्द है । एक दिन जब से है जो कि स्पष्टतया जैन प्रन्थ है। यह साधु युवराज वन जी नामकी राजधानीमें स्थित शिजम्परिकारम्-'नपुरका महाकाव्य' अत्यन्त जिनमन्दिरमें थे, वब कुछ पहाड़ी लोग उनके पास महत्वपूर्ण तामिल ग्रंथ है, कारण वह तामिल सा- गए और उनने उस पाश्चर्यकारी दृश्यका वर्णन Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भारिवन, वीर निर्वाण सं०२४१५ किया, जिम उनन देखा था और जो करणको मुख्य बंदरगाह था और वह चोलनरेश करिकालकी नामकी नायिकासे मम्बन्धिन था । उनने पर्वत पर राजधानी था । व्यापारका मुख्य केन्द्र होने के कारण एक नाका, जिमका एक स्तन नष्ट हो गया था, राजधानीमें बहुनमे विशाल व्यापारिक भवन थे। किम प्रकार देग्य ; किम तरह उसके समक्ष इन्द्र इनमें मासत्तवन नामका एक प्रख्यात व्यापार भाया और क्रिम भात कोवलन नामक उमका था जो व्यापारियों के शिरोमणियोंके उज्ज्वल परि. पति देवक रूपमें उमम मिला और अन्तमें किम वारका था। उसका पुत्र कोवलन था, जो कि इम प्रकार इन्द्र उन दोनों को विमानमें बैठाल कर ले कथाका नायक है । वह उमी नगरकं मनायकन याः यसब बातें चम्के यवराजके ममक्ष उसके नाम दसरे महान व्यापारीकी कन्या कएणकीके मित्र और मणि ने कलैके प्रख्यात लेखक कुलवाणि- साथ विवाहा गया था । कोवलन और उसकी गन् शान नाम कवको मौजूदगामें कही गई। पत्नी करणको एक बड़े पैमाने पर निर्मित स्वतंत्र इम मित्रन नायक नया नायिका का पूर्ण कथा कहा भवनमे अपनी मामाजिक प्रतिष्ठा के अनुमार कुछ और वह राजषिके द्वारा बड़ो रुचिसे सुनी गई। काल तक बड़े ठाठ-बाट तथा अानन्दकं माथ शाट्टनके द्वारा कथित इस कथामें नोन मुख्य रहने थे, गृहस्थों के नियम तथा श्राचार के अनुसार वथा मूल्यवान सत्य हैं जिनमें रानपिन बढ़त उनकी प्रवृत्ति थी और उनका आनन्द पात्रभूत दिलचस्पी ली। पहला, अगर एक नरेश मत्यके गृहस्थों तथा मुनियों का अत्यधिक आदर-सत्कार मार्गसे तनिक भाविवनित होता है तो वह अपनी करने में था। बनीतिमत्ताके प्रमाणवरूप अपन तथा अपन जब कि वे अपने जीवनको इस प्रकार सुखसे राज्यके ऊपर मंकट लाएगा; दूसरा, शीक मार्ग बिता रहे थे, तब कोवलनको एक अत्यन्त सुन्दरी पर चलने वाली महिला नवं वल मनुष्योंक द्वारा तथा प्रवीण माधवी नामको नर्तकी मिली, वह प्रशंमित एवं पूजित होती है किन्तु देवों तथा उम पर श्रामक्त होगया और उसके अनुकूल मुनियों के द्वारा भी; और नीमरे कोकी गनि बर्तन लगा, और इसीलिये वह अपना अधिकांश इस प्रकारकी है कि उसका फल अवश्यंभावी . , समय माधवीक साथ व्यतीत करता था, जिससे जिमम काई भी नहीं बच सकना और व्यक्तिकं उसकी धर्मपत्नी करणकीको महान् दुःख होना पूर्व कर्मोका फल अागामीकालम अवश्य भोगना था। इस बिलामता पूर्ण जीवन में उमने प्रायः पड़ेगा। इन तीन अविनाशा मत्योंका उदाहरण सब संपत्ति स्वाहा कर दी,किन्तु करणक'ने अपना देनेके लिये राजर्षिने मनुष्यजानिक कल्याणकं दुःख कभी भी प्रकट नहीं किया और वह उसके लिये इस कथाकी रचना करने का कार्य किया। प्रति उसी प्रकार भक्त बनी रही जिस प्रकार कि इस शिलप्पदिकारम अथवा न पुर (चरणभूषण) वह अपने वैवाहिक जीवनकं प्रारंभमे थी। सदा के महाकाव्यमें पहला दृश्य चालकी राजधानी की भाँति इन्द्रोत्सवका त्यौहार अथवा प्रसंग पुहारमें है। यह कावरी नदीक मुखपर स्थित आया। कोवलन अपनी प्रेयसीक साथ उत्सवमें Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष , वि .] तामिल भाषाका नसाहित्य सम्मिलित होने के लिये समुद्र तट पर गया। जबकि राजधानीको छोड़कर मदुराके लिये रवाना हो बे एक कोने में बैठे थे, कोवलनने माधवीके हाथमे गया। मार्गमें वह कावेरीके उत्तरतटकी भोर स्थित वीणा ले ली और वह प्रेमकी कुछ मधुर गीति- जैन साधुमोंके एक पाश्रममें पहुँचा। उस पाश्रममें काएँ बजाने लगा। माधवीको तनिक शंका हुई कि उनको कौडा नामकी साध्वी मिली, जो उन दोनोंके उसके प्रति कोवलनका प्रेम कम हो रहा है। साथ चलनेको इसलिए बिल्कुज राजी थी, कि उसे किन्तु जब उसके हाथमे माधवीने वीणा लेकर पांड्यन राजधानी मदुरामें स्थित महान् जैनअपना गीत प्रारंभ किया, तो कोवलनको इम आचार्यों से मिलनेका सौभाग्य प्राप्त होगा। ये तीनों बातका संदेह होने लगा कि माधवीका गुम रूपमे मदुराकी ओर रवाना होगये । कावरी नदीको पार किसी अन्य व्यक्तिके साथ सम्बन्ध है । इस पार- करने के उपरांत जब कौलवन् और उसकी सी एक स्परिक संदेहसे उनमें जुदाई हो गई, और तलाबके तटपर बैठे, तब अपनी दुष्टा प्रेयसीके साथ कोवलन एक सम्माननीय गृहस्थके रूपमें फिरमे वहां भ्रमण करने वाले एक दुर्जनने कोवलन और जीवन प्रारम्भ करनेके पवित्र संकल्पको लेकर उसकी पत्नीका बहुत तिरस्कार किया । इससे पूर्ण गरीबीकी अवस्था में घर लौटा । उसको शोल- उनकी साध्वी मित्र कौडो उत्तेजित हो उठी और वती पत्नीन, उसकी अतात उच्छं खलवृत्ति पर उसने इनको शृगाल बननका शाप दिया । परन्तु क्षोभ व्यक्त करनेके स्थानमें उम स्नेहके साथ कोवलन एवं करणकीकी हार्दिक प्रार्थनामों पर धीरज बँधाया, जो शीलवती महिलाके अनुरूप उस शापमें यह परिवर्तन किया गया कि वे अपने था, और उसके निजके व्यवसायको पुनः पूर्वरूपको एक वर्षमें प्राप्त कर लेंगे। प्रारंभ करके जीवन प्रारंभ करने सम्बन्धी निश्चय इम लम्बी यात्राके कष्टोंको भोगते हुए वे मदुरा को प्रोत्साहित किया। उसके पास तो दमड़ी भी के समीप पहुँचे, जो पांड्यन राजधानी थी। अपनी नहीं बची थी कारण जब वह अपनी प्रेयसी माधवी पत्नी करणकीको कौण्डीके पास और उसकी में आसक्त था, तब वह अपना सर्वस्व स्वाहा कर जिम्मेदारी पर सौंपकर कौवलनने नगरमें प्रवेश चुका था। किन्तु उसकी पत्नीके पास दो चार किया, ताकि वह उह उचित स्थानका निश्चय करे, भूषण विद्यमान थे । वह स्त्री उनको देनेको तैयार जहाँ पर व्यवसाय प्रारम्भ करेगा। जब कौवान थी, यदि वह उनको बेचकर प्राप्तकर द्रव्यसे अपना अपने मित्र मादलनके साथ नगरमें अपना समय व्यवसाय प्रारम्भ करनेमें पूंजी लगानेकी सावधानी व्यतीत कर रहा था, तब कौण्डीकरणकीको माधरी करे । किन्तु वह अपनी राजधानीमें अब बिल्कुल नामकी साघस्वभाव वाली वहाँकी भेड़ पराने भी नहीं ठहरना चाहता था। इससे उसने इन चरण वाली के यहां छोड़ना चाहती थी। जब कौवलन भूषणोंको पाड्यन राजधानी मदुरामें जाकर बेचने नगरसे वापिस भाया, तब वह और उसकी सी का निर्णय किया । किसीको भी परिज्ञान हुए अयरवाड़ी लाए गए और वे उस गड़रियेकी बीके पिना वह उसी रातको अपनी पत्नीके साथ पोज यहां ठहराए गए। उस गड़रिया सीसी सड़की Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२६ भनेकान्त [पारिवन, बीर निर्वाण सं०२४१५ करणकी की सेवा के लिये नियुक्त हुई जो कि अपने स्थित करण कोको अपने ऊपर कहान संकटके पति-सहित उस पायरपाडोमें प्रतिष्ठित मेहमान सूचक अनेक अपशकुन दिखाई पड़े। जब गड़रियन थी। कष्टों तथा क्षतियोंके कारण दुःखी होता हुआ माधरी वैगई नदीमें स्नान करने गई तव नगरसे कौवलन अपनी लोकेपाससे विदा होकर चरण भूष. लौट कर आन वाली एक गड़रियनस कोवलनका णोंमेंसे एकको बेचनेके लिए नगरी लौटा । जब वह हाल विदित हुमा, जो रानीके चरण भूषण चुरानं प्रधान बाजारकी सड़क पर पहुंचा, तब उसे एक के अपराध राजाज्ञाके अनुसार मार डाला गया स्वर्णकार मिला। उसने अपने आपको राजाके द्वारा था। जब यह समाचार करणकीने सुना तब वह संरक्षित स्वर्णकार बतलाया और उससे कहा कि ऋद्ध हुई अपने हाथमें दूसरा चरण भूषण लेकर मेरे पास रानीके पहनने योग्य एक चरण भूषण नगरमें घुसी ताकि वह राजाके समक्ष अपने पति के है। उसने उससे उसका मूल्य जाँचनेको कहा। निर्दोषपनेको सिद्ध करे । राजमहलमें पहुंच कर वह सुनार उसका मूल्य जांचना चाहता था, अतः करणकीन द्वारपालकं द्वारा यह समाचार पहुँचवाया स्वामीने उस भूषणको उसे दे दिया। उस दुष्ट कि मैं राजासे मिलना चाहती हूँ ताकि अपने पतिकी स्वर्णकारने अपने मनमें कोवलनको ठगनकी बात निर्दोषताको सिद्ध कर सकूँ, जो उचित जांचके सोची और उससे पासके परमें ठहरने को कहा बिना ही फांसी पर टांग दिया गया है। उसने और यह बचन दिया कि मैं राजासे इस विषयमें राजाको बतलाया कि मेरे पतिकं पाससं गृहीत सौदा काँगा, कारण वह चरण-भूषण इतना चोरीकं ममझे गये मेरे चरण भूषणके भीतर मूल्यवान है कि केवल महारानी ही उसका मूल्य जवाहरात थे, किन्तु महारानीके चरण-भूषणमें दे सकेगी। इस प्रकार बेचारे कोवलिनको अकेला भीतरकी ओर मोती थे । जब कण्णकीके चरण छोड़ कर वह उस चरण-भूषणको लेकर राजाके भूषणको तोड़ कर राजाको यह बात दिखाई गई, पास पहुंचा और उसनं बात बदल कर यह कहा तब राजानं वैश्योंक एक कुलीन वंशके निर्दोष कि कोवलन एक चोर है, उसके पास रानीकंपासका व्यक्तिका कठोरता पूर्वक प्राणहरण करनेकी भयंकर एक चरण-भूषण है, जो कुछ दिन पूर्व राजमहलस भूलको पहचाना। वह चिल्ला उठाकि दुष्ट सुनारने चोरी गया था। कोई विशेष जांच किए बिना ही मुझसे मूर्खता पूर्ण यह भयंकर भूल कराई है और राजाने माझा देदी कि चोरको फांसी देदी जाय वह राज्यासनमे गिरकर मूर्छित हो गया एवं तथा तत्काल ही चरण-भूषण ले लिया जाय । दुष्ट तत्काल ही प्राण-हीन हो गया। अपने पतिकी स्वर्णकार राजाके कर्मचारियोंके साथ लौटा, निर्दोषताको सिद्ध करनेके अनन्तर अत्यन्त क्षोभ जिन्होंने मूर्ख राजाकी माझाका अक्षरशः पालन तथा क्रोधमें करणकीने सम्पूर्ण मदुरा नगरको शाप किया, और इस तरह विदेशमें अपना जीवन दिया कि वह भग्निसे भस्म हो जाय और उसने भारम्भ करने के उद्योगों कोवलनको अपने प्राणोंसे अपना बाम स्तन काट कर अपने शापके साथ हाथ धोना पड़ा । इस भर्सेमें गड़रियेको खोके घरमें नगरकी भोर फेंक दिया शापने अपना काम किया Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण तामिन भाषाका जैनमाहित्य और वह नगर जल कर भस्म हो गया । मदुराकी आकांक्षाकं अनुमार उसने इस शील देवीके लिए देवीसे यह बात जान कर कि यह सब उसके एक मन्दिरका निर्माण कराना चाहा। इस उद्देश्यसे पूर्वोपार्जित कर्मोंका परिणाम है तथा यह सान्त्वना- वह अपने मन्त्रियों एवं सेनाओं के साथ हिमालय प्रद बात जान कर कि वह एक पक्ष में देवरूपमें की ओर गया ताकि वहाँसे एक चट्टान लाकर अपने पतिमे मिलेगी, करणकी मदुरा छोड़ कर करणकीकी मूर्ति बनवाए और उसे उसके नामसे पश्चिमकी ओर मलेन्दुकी ओर चली गई। बनवाए हुए मन्दिमें प्रतिष्ठिन करें। मार्गमें अनेक तिरुच्चेन्गुणरम नामक पर्वत पर चढ़कर वह आर्य नरेशोंने उसके साथ प्रति द्वंदिता की,जिनको वेनगै वृक्षकी छायामें चौदह दिन प्रतीक्षा करती चेर-नरेशने हराया और वे र राजधानीमें कैदीके रही तब एक दिन उसके पति कोवलनके देवरूपमें रूपमें लाये गये। घेर राजधानीमें उसने करणकीके दर्शन हुए, जो उसे अपने विमान में स्वर्ग ले गया, नाम पर एक मन्दिर बनवाया और प्रतिष्ठा जहां वह स्वयं देवोंके द्वारा पूजित था। इस प्रकार महोत्सव कराण, जिसके अनुसार शीलकी देवी मदुरेम्काँडम नामका दूसरा अध्याय पूर्ण होता है। करणकीकी मूर्ति पूजाके लिये मन्दिर में स्थापित की इसके अतन्तर तीमरे भागमें, जो वंजिक गई । इस बीचमें कोवलन एवं करणकीके माता काण्ड कहलाता है, चेरकी राजधानी वंजिका वर्णन पिता अपने बच्चोंके भाग्यका हाल सुककर सब है। जिन पहाड़ी लोगोंने करणकीको उमके पति सम्पत्ति छोड़कर साधु बन गए। जब चेर नरेश द्वारा दिव्य विमानमें बिठा कर ले जाए जानेके सेनगुट्टवनने शील देवताकी पूजा-निमित्त मन्दिर महान दृश्यको देखा, उनने अपनी झोपड़ियोंमे बनवाया, तब आर्यावर्तके अनेक नरेशों; मालवाके कुरवेकूट, नामक उमंग पूर्ण नतनक रूपमें इस नरेश और लंकाधीश गजवाहने, जो सब उस घटनाको मनाया । इसके अनन्तर इन व्याधोंने समय चेर-राजधानीमें थे, अपनी २ राजधानीमें अपने राजा संनगुटुवनका यह पाश्चय-जनक घटना इसी प्रकारके मन्दिर कणकीके लिये बनवाने का बतलाना चाहा और इसके लिये हर एकने राजाके निश्चय किया और यह चाहा इसी प्रकारसे उसकी लिये उपहार लेकर राजधानीकी ओर प्रस्थान पूजाकी प्रवृत्ति की जाय, ताकि वे भी शीलाके मषि किया । वहाँ वे चेर नरेशम मिले, जो कि उस देवताका आशीर्वाद प्राप्त कर सकें। इस प्रकार समय अपनी महागनी ओर छोटे भाई के साथ करणकीकी पूजा प्रारम्भ हुई जिससे पूजकोंकी चतुरंग सेनाकं मध्यमे स्थित था। जब राजाने यह सर्वसम्पत्ति एवं समृद्धिकी प्राप्ति हुई । इस प्रकार कथा सुनी कि किस प्रकार कोवलन मदुरामें मारा शिलप्परिकारम्की कथा पूर्ण होती है । इसके तीन गया, किस प्रकार करणकोके शापस नगर भस्म महा खंड हैं और कुल अध्याय तीस हैं। इस प्रन्ध हो गया और किस प्रकार पांड्यनरेशका प्राणान्त पर प्रदियारकुनमार-रचित एक बड़े महत्वकी टीका हुमा, तब वह करणकीकी महत्ता और शीलसे विद्यमान है। इस टीकाकारके सम्बन्धी कुछ भी अत्यन्त प्रभावित हुमा । अपनी महारानीकी ज्ञात नहीं है । चूंकि नचिनारम्किनियर नामक Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ भनेकान्त [पारिवन, वीर निव सं०२१॥ पश्चात कालीन दूसरा टीकाकार इस टीकाकारका चाहिये । इस बात पर सभी एक मत नहीं है, किंतु सोख करता है इससे हम इतना ही कह सकते हैं जो इस विषयमें भिन्न मत हैं, वे महावंशमें वर्जित कि वह नविनारम्किनियरसे पूर्ववर्ती होना चाहिये। गजवाहु द्वितीयके अनेक शताब्दी पीछेके कालमें इस ग्रन्थको महत्व पूर्ण टीकासे यह स्पष्ट है कि वह इसे खेंचते हैं। मिस्टर लोगन (Logan) अपनी टीकाकार एक महान विद्वान हुआ होगा। वह मलावार डिस्ट्रिक्ट मेनुअलम अनेक महत्वकी बातें गायन, नृत्यकला, तथा नाचशास्त्रके सिद्धान्तोंमें बताते हैं जिनसे कि हिन्दू धमके प्रवेशसे पहले अत्यन्त निपुण था, यह बात इन विषयोंको स्पष्ट मलावारमे जैनियों का प्रभाव व्यक्त होता है कि करने वाली टीकासे स्पष्ट विदित होती है इस नपुर इस समय काल निर्णयकी बातमें हमारी साक्षात रुचि (चरण भूषण ) वाले महाकाव्यमें दक्षिण भारतके नहीं है अतः हम इस बातको इतिहासके विद्वानोंके इतिहासमें दिलचस्पी रखने वाले विद्वानों के लिये लिए छोड़ते हैं। हमारी रायमें इस प्रन्थका द्वितीय बहुत कुछ ऐतिहासिक सामग्री विद्यमान है। शताब्दी वाले गजवाहुमं सम्बन्ध स्थापित करनेकी कनकास भाई पिल्लेके ससयसे जिन्होंने १८०० वर्ष बात सर्वथा असम्भव नहीं है। किन्तु हम एक पूर्वके सामिलजन" नामका ग्रंथ लिखा अब तक महत्वपूर्ण बात पर जोर देना चाहते हैं । सम्पूर्ण यही प्रन्य तामिल देशके अनुसंधानक छात्रोंके प्रन्थमें हम अहिंसा सम्बन्धी सिद्धान्तोंका स्पष्टीपरिज्ञान एवं पथप्रदर्शनके लिए कारण रहा है। किरण एवं उस पर विशेष जोरसे वर्णन पाते हैं सोलौनके नरेश गजवाहु बंजी राजधानीमें राजकीय तथा कहीं २ इस सिद्धान्तके अनुसार मन्दिर अतिथियों में से एक थे, यह बात प्रन्यके कालनिर्णय पूजाका भी उल्लेख पाया जाता है। इस समयके के लिए मुख्य बताई गई है। बौद्ध प्रन्थ महावंशके लमभग सम्पूर्ण तामिल देशमें पुष्पोंसे पूजा प्रचलित अनुसार ये गजबाहु ईसाकी दूसरी शताब्दीके कहे थी। इसे "पुष्पकी" अर्थात् पुष्पोंमे बलि कहते हैं। जाते हैं। इस बातके आधार पर आलोचकोंका यह 'बलि' शब्द तो यझोंमें होने वाले बलिदानको अभिमत है कि चेर-नरेश सेनगुट्टवन और उनके बताता है और पुष्प बलिका अर्थ टीकाकार पुष्पोंसे भाई लंगोबडिगल ईसाके लग भग १५० वर्ष पश्चात् ईश्वरकी पूजा करना बताते हैं। हुए होंगे, पतः यह मन्थ उसी कालका समझा जाना Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी 'समीक्षा' [ सम्पादकीय ] १ अब मैं प्रो० साहबकी उस समीक्षा की परीक्षा करता हूँ जो उन्होंने उक्त 'सम्पादकीय - विचारणा' पर लिखी है और उसके द्वारा यह बतला देना चाहता हूँ कि वह कहाँ तक निःसार है: ( सम्बन्ध वाक्य) प्रो० साहब ने अपनी मान्यता एव धारणाको सत्य सिद्ध करने और उसे दूसरे विद्वानोंके गले उतारने के लिये अपने पूर्व लेख ( अनेकान्त वर्ष ३, किरण ४) में जिन युक्तियों (मुद्दों) का आश्रय लिया था उन्हें श्रापने चार भागों में बाँटा था । अर्थात् - ( १ ) प्रथम भाग के चार उपभागों में कुछ दिगम्बर श्वेताम्बर सूत्रपाठोंका उल्लेख करके यह नतीजा निकाला था कि -" इत्यादिरूपमें राजवार्तिकमें तवार्थसूत्रोंके पाठभेदका अनेक स्थलों पर उल्लेख किया गया है। इससे यह बात स्पष्ट है कि उनके सामने कोई दूसरा पाठ अवश्य था, जिसे अकलंकने स्वीकार नहीं किया ।" (१) दूसरे भाग में स्वयं ही यह शंका उठाकर कि " सूत्रपाठ में भेद होने का जो अकलकने उल्लेख किया है उससे यही सिद्ध होता है कि उनके सामने कोई दूसरा सूत्रपाठ था, जिसे दिगम्बर लोग न मानते थे लेकिन इससे यह नहीं कहा जासकता कि वह सूत्रपाठ तत्वार्थाधिगम भाष्यका ही था । संभव है वह अन्य कोई दूसरा ही पाठ रहा हो।" और साथ ही यह बतलाकर कि अकलंक के सामने पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि मौजूद थी तथा उन्होंने सर्वार्थसिद्धिको सामने रख कर ही राज वार्तिकको लिखा है, ” शब्दसादृश्यको लिये हुए कुछ तुलनात्मक उदाहरण यह सिद्ध करनेके लिये दिये थे कि 'राजवार्तिककारने उमास्वातिके तत्त्वार्थाधिगमभाष्यका भी काफी उपयोग किया है। और उनके द्वारा अपनी इस दृष्टि एवं धारणाको व्यक्त किया था कि जो बातें सर्वार्थसिद्धिमें नहीं अथवा सक्षेपसे पाई जाती है और भाष्य में हैं अथवा कुछ विस्तारसे उपलब्ध होती हैं, वे सब राजवार्तिक में प्रस्तुत श्वेताम्बरीय भाष्यसे ही ली गई हैं। (३) तीसरे भाग में “ इतना ही नहीं" इन शब्दों के साथ एक कदम आगे बढ़कर यह भी प्रतिपादन किया था कि "राजवार्तिककारने तत्वार्थ भाष्यकी पक्तियाँ उठा कर उनकी वार्तिक बनाकर उन पर विवेचन किया है । उदाहरण के लिये 'श्रद्धासमयप्रतिषेधार्थं च ' यह भाष्यकी पंक्ति है ( ५- १); इस अद्धाप्रदेशप्रतिषेधार्थ च' वार्तिक बनाकर इस पर कलंकका विवेचन है ।" साथ ही, यह सूचना भी की थी कि इसी तरह अकलकदेवने भाष्य में उल्लिखित काल, परमाणु श्रादिकी मान्यताओं पर भी यथोचित विचार किया है । और उनसे अपने कथन की संगति बैठानेका प्रयत्न किया है । अवश्य ही कहीं विरोध भी किया है ।" और फिर ( तदनन्तर ही ) यह Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०३० अनेकान्त नतीजा निकाला था। कि - "इससे ऊपरकी ( नं० २ में वर्णित ) शंकाका निरसन हो जाता है, और इससे मालूम होता है कि कलंकके सामने कोई दूसरा सूत्र पाठ नहीं था, बल्कि उनके सामने स्वयं तस्वार्थ भाष्य मौजूद था, जिसका उपयोग उन्होंने वार्तिक अथवा वार्तिक के विवेचनरूपमें यथास्थान किया है ।' (४) चौथे भागमें कुछ उद्धरणों को तीन उपमार्गों (क, ख, ग ) में इस प्रतिज्ञा के साथ दिया था कि, "उनमें कलकदेवने भाष्य के अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख किया है, इतना ही नहीं उसके प्रति बहुमान का भी प्रदर्शन किया है ।" उनमें से पहला उद्धरगा है "उक्तं हि अप्रवचने 'द्रव्याश्रया निर्गुणागुणा इति;" दूसरा उद्धरण है - "कालोपसंख्यानमिति चेन वक्ष्यमाणलक्षणत्वात्स्यादेतत कालोऽपि कश्चिदजीवपदार्थोऽस्ति तचास्ति यद्भाष्ये बहुकृत्वः षड् द्रव्याणि इत्युक्तं श्रतोस्योपसंख्यानं कर्तव्यं इति ? नन्न, किं कारणं वक्ष्यमाणलक्षणत्वात् ।" और तीसरा उद्धरण है राजafrica न्तिम कारिकाका, जो ग्रन्थके अन्त में 'उक्तंच’रूपसे दी हुई ३२ कारिकाओंके अनन्तर ग्रन्थकी मासि को सूचित करने वाली है । यद्यपि वह मुद्रित प्रतिमें नहीं पाई जाती परन्तु पूना आदिकी कुछ हस्तलिखित प्रतियों में उपलब्ध है और वह इस प्रकार है- " इति तस्वार्थसूत्राणं भाष्यं भाषितमुत्तमैः । यत्र संनिहितस्तर्कः म्याथागमविनिर्णयः ॥” इस तरह पिछले दो उद्धरणों में प्रयुक्त हुए 'भाष्ये' और 'माध्यं' पदोंका वाच्य ही उक्त श्वेताम्बरीय तस्वार्था - [आश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६ होता है ।" साथ ही, यह भी बतलाया था कि श्वेतास्वर विद्वान् सिद्धसेनगणि भी इस (भाष्य ) का 'ईत्प्रवचन नाममे उल्लेख करते हैं ।" और प्रमाण में मिसनकी तत्वार्थवृत्तिका यह वाक्य उद्धृत किया था - " इति श्रीमदर्हस्प्रवचने तवार्थाधिगमें उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये भाष्यानुसारिएयां च टीकार्या सिद्धसे नगणिविरचितायां अनगारागारिधर्म प्ररूपकः सप्तमोSध्याय: । " गमभाष्य सुझाया था और पहले उद्धरण में प्रयुक्त हुए 'प्रवचने' पदके विषय में स्पष्ट लिखा था कि "यहाँ प्रवचनसे तत्वार्थ भाष्यका ही अभिप्राय मालूम र अन्तमें उक्त कारिकाका यह अर्थ देकर कि "उत्तम पुरुषोंने तत्वार्थ सूत्रका भाष्य लिखा है, उसमें तर्क मनिहित है और न्याय ग्रागमका निर्णय है" यह नतीजा निकाला था कि "कलंकदेव तो तस्वार्थाधिगम भाष्यंसं अच्छी तरह परिचित थे, और वे तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य के कर्ताको एक मानते थे ।" प्रो० साहब के इम युक्ति- जाल से वह बात सिद्ध होती है या कि नहीं जिसे आप सिद्ध करके दुमरीके गले उतारना चाहते है, इतनी बानका विचार करने के लिये ही उक्त 'सम्पादकीय विचारणा' लिखी गई थी; जैसाकि उसके शुरूके निम्न प्रस्तावना वाक्य से भी प्रकट है— "यह सब बात जिम आधार पर कही गई है अथवा जिन मुद्दों आदि (उल्लेखों) के बल पर सुझाने की चेष्टाकी गई है उन परसे ठीक -बिना किमी विशेष बाधा – फलित होती है या कि नहीं, यही मेरी इस विचारणाका मुख्य विषय है ।" और इसलिये 'विचारणा' में प्रो० साहब की उक्तियोंकी जाँच करके उन्हें सदोष एवं बाधित मिद्ध करते हुए इतना ही बतलाया गया था कि उनके आधार पर प्रो० साहब जो नतीजा निकालना चाहते हैं वह नहीं निकाला जा सकता। इसके अतिरिक्त 'विश्वा Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व, किरणार] प्रो जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा रणा' में अपनी ओरसे कोई खास दावा उपस्थित नहीं चौथे भागमें सबसे पहले "उक्तं हि मईपचने" इत्यादि किया गया--अपनी तरफसे किसी नये दावेको पेश वाक्यको उद्धृत करके जो यह बतलाया था कि "यहाँ करके साबित करना उसका लक्ष्य ही नहीं रहा है । 'अर्हत्प्रवचन' से 'तत्त्वार्थभाष्य का ही अभिप्राय मालम ऐसी हालतमें विचारणाकी समीक्षा लिखते हुए प्रो० होता है," और इसकी पुष्टिमें सिद्ध सेनगणिके एक माहबको उचित तो यह था कि वे उनमें उन दोषोंका वाक्यको उद्धृत किया था उम सब पर विचार करते भले प्रकार परिमार्जन करते जो उनकी युक्तियों पर हुए मैंने जो अपनी 'विचारणा' प्रस्तुत की थी वह सब लगाये गये हैं--अर्थात् यह सिद्ध करके बतलात कि इस प्रकार है-- वे दोष नहीं दोषाभाष हैं, और इमलिये उनकी युक्तियाँ "'उक्त हि बर्हस्प्रवचने दम्याश्रया निर्गुणा गुणा अपने साध्यको मिद्धि करने के लिये निर्बल और अममर्थ इति' यह मुद्रित राजवार्तिकका पाठ जरूर है; परन्तु नहीं किन्तु मबल और समर्थ हैं । परन्तु ऐमा न करके, इसमे उल्लिखित 'अहत्यवचन' से तत्त्वार्यमाष्यका ही श्रप्रो० साहबने 'विचारणा' की कुछ बातोंको ही अन्यथा भिप्राय है ऐमा लेखक महोदयने जो घोषित किया है वह रूपमे पाठकोंके सामने रखनेका प्रयत्न किया है और कहाँसे और कैसे फलित होता है यह कुछ समझमें नहीं उसके द्वारा अपनी समीक्षाका कुछ रग जमाना चाहा अाता । इस वाक्यम गुणोंके लक्षणको लिये हुए जिस है, जिमका एक नमूना इस प्रकार है सूत्रका उल्लेख है वह तत्वााधिगमसूत्रके पाँचवें अध्याय "श्रागे चलकर तो मुख्तार माहबने एक विचित्र का ४० वाँ मूत्र है, और इसलिये प्रकटरूपमें 'अर्हत्यकल्पना कर डाली है । अापका तर्क है, क्योंकि राज. वचन'का अभिप्राय यहाँ उमास्वातिके मूल तत्वार्थाधि. वार्तिक बहुत जगह अशुद्ध छपा है, अतएव राज- गममत्रका ही जान पड़ता है-तत्त्वार्थभाष्यका नहीं । वातिक में "उक्तं हि महत्प्रवचने" श्रादि पाट भी अशुद्ध मिद्धसेनगणिका जो वाक्य प्रमाणमें उद्धृत किया गया हैं; तथा 'अर्हत्यवचन' के स्थान पर 'अहत्यचनहृदय' है उसमें भी 'हत्पश्चन' यह विशेषण प्राय: तत्त्वार्थाहोना चाहिये।" धिगमसत्रके लिये प्रयुक्त हुश्रा है--मात्र उसके भाष्यके इस वाक्यमें यह प्रकट किया गया है कि लिये नहीं । इसके मिवाय, राजवातिक उक्त वाक्यसे मैंने यह दावा किया है कि "क्तहि 'अहस्प्रवचने पहले यह वाक्य दिया हुआ है-"अहस्प्रवचनहृदयादिषु द्रव्याश्रया निगुणाः गुणाः' यह पाठ अशुद्ध है गुणोपदेशात् ।" और तत्सम्बन्धी वार्तिक भी इस तथा 'अर्हत्पचन' के स्थान पर 'अहत्यचन हृदय' रूपमें दिया है-"गृणाभावादयु किरिति चेन्नाईस्प्रव होना चाहिये, और अपने इस दावेको मिछु चनहृदयादिषु गुणोपदेशात् ।" इससे उल्लेखित ग्रन्थका करने के लिये सिर्फ यह य क्ति दी है कि "क्योकि राज- नाम 'महत्प्रवचनहृदय' जान पड़ता है, जो उमास्वातिवार्तिक बहुत जगह अशुद्ध छपा है।" परन्तु मैंने कर्तृकसे भिन्न कोई दूसरा ही महत्वका ग्रन्थ होगा | अपनी 'विचारणा', जिसे पाठक देख सकते हैं, कहीं बहुत सभव है कि 'पहप्रवचनहृदये' के स्थान पर भी उक्त रूपका दावा नहीं किया और न उक्त तर्क ही 'महत्प्रवचने' छप गया हो । इस मुद्रित प्रतिके अशुद्ध उपस्थित किया है। प्रो० साहबने अपनी युक्तियोंके होनेको प्रोफेसर साहबने स्वयं अपने लेखके शुरूमें स्वी. Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [पारिवन, बीर निर्वावसं.२०१६ कार भी किया है। अतः उक्त वास्यमें भाईयवचने' पद हैं। यदि गुण भी कोई तत्व होता तो उसके विषय के प्रयोगमात्रसे यह नतीजा नहीं निकाला जासकता कि को लेकर मूननयके तीन भेद होने चाहिये थे-तीसरा अकलंकदेवके सामने वर्तमानमें उपलब्ध होने वाला मूलनय गुणार्थिक होना चाहिये था-परन्तु वह तीसरा श्वेताम्बर-सम्मत तत्वार्थभाष्य मौजद था, उन्होंने नय नहीं है । अतः गुणाभाव के कारण (द्रव्य के लिये) उसके अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख किया है और उसके गुणपर्यायवान् ऐमा निर्देश ठीक नहीं है, समाधानरूपमें प्रति बहुमान भी प्रदर्शित किया है।' अकलंकदेवने तो कहा गया है---"तत्र किं कारणं महत्प्रवचनहृदयादिषु इस भाष्यमें पाये जाने वाले कुछ सूत्रपाठीको श्रार्षविरो- गुणोपदेशात्" । अर्थात् यह अापत्ति ठीक नहीं, क्योंकि धी-अनार्य तथा विद्वानोंके लिये अपाह्य तक लिखा है। 'महत्प्रचनहद' आदि शास्त्रोंमें गुणका उपदेश पाया तब इस भाष्यके प्रति, जिसमें वैसे सूत्रपाठ पाये जाते जाता है । इसके अनन्तर ही उन शास्त्रों के दो प्रमाण हो, उनके बहुमान-प्रदर्शनकी कथा कहाँ तक ठीक हो निम्न रूपसे उद्धृत किये गये हैं, जिनमेंसे एकके साथमे सकती है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं।" प्रमाण ग्रन्यकी सूचनाके रूपमे बही 'महत्प्रवचने' पद लगा हुआ है और दूसरेके साथमें पूर्व ग्रन्थसे भिन्न ताका इससे स्पष्ट है कि विचारणामें उक्त प्रकारका कोई द्योतक 'अन्यत्र' पद जुड़ा हुआ है । दावा अथवा तर्क उपस्थित नहीं किया गया है । 'पहप्रवचनवदये के स्थान पर 'महप्रवचने के अपनेकी "उक्त हि महप्रवचने द्रव्याश्रया निगण गणा इति" छंभावना जरूर व्यक्त की गई है परन्तु निश्चितरूपसे यह "अन्यत्र चोक्तंनहीं कहा गया कि 'महत्प्रवचने' पाठ अशुद्ध है, जिससे वह दावेकी कोटिमें आ जाता–सम्भावना व गुण इति दवयिधाणं दम्ववियारोप पज्जयो भणियो। सम्भावना ही होती है, उसे दावा नहीं कह सकते । और तेहि अणणं इन्वं अजुदवसिब हदि णि॥१॥ इति संम्भावनाकी कल्पनाका कारण भी यह नहीं है कि इनमेसे पहला प्रमाण, कथनक्रमको देखते हुए, "राजवार्तिक बहुत जगह अशुद्ध छपा है" जिसे मेरे भाईप्रवचनहृदयका और दूसरा उन शास्त्रोमसे किसी बिना कहे भी मेरी ओरम इस बातको मिद्ध करनेके एकका है जिनका ग्रहण 'महत्प्रवचनहृदयादिषु' इस लिये हेतुरूपमें प्रस्तुत किया गया है कि उक्त "अहस्प्र. पदमें 'मादि' शब्दके द्वारा किया गया है। वचने' पाठ अशुद्ध है; बल्कि यह कारण है किराजवार्तिकके "गुणाभावादयु क्तिरितिचेचाहत्प्रवचन- "गुणा इति संशा तंत्रान्तराणां, पाहताना त हृदयाविषुगुणोपदेशात्" इस वार्तिक (५, ३७, २) के द्रव्य पर्यायवेति द्वितयमेव सत्वं मतबद्वितयमेव तद्भाष्यमें यह बहस उठा कर कि 'गुण यह संज्ञा अन्य योपदेशात् । ब्रम्मार्थिकः पर्यायार्थिक इति हावेव मूलशास्त्रोंकी है, श्रहंतोंके शास्त्रोंमें तो द्रब्य और पर्याय भयो । पदि गुणोपि कचिस्पात, तविषयेण मूबनयेन इन दोनोंका उपदेश होनेसे ये दो ही तत्व हैं, इसीसे तृतीयेन भवितव्यं । न चास्यसावित्पतो गुणभावात्, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो मूल नय माने गये गुणपर्यापवदिति निर्देशो न युज्यते । Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि .] प्रो. जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा दूसरे प्रमाण में दी हुई गाथा 'सर्वार्थसिद्धि' में भी प्रोफेसर जैसे विद्वानों के लिये ऐसा करना शोभा भी नहीं 'उक्तं च'रूपसे पाई जाती है और इससे वह कुन्दकुन्दा. देता । अस्तु । दि-जैसे प्राचीन श्राचार्योंके किसी ग्रन्थको गाथा जान अब देखना यह है कि समीचामें अन्य प्रकारसे क्या पड़ती है। ऐसी हालतमें कथनके पूर्वापर-सम्बन्धको कुछ कहा गया है। मेरी (सम्पादकीय) 'विचारणा' का देखते हुए, 'महंस्त्रवचने' के स्थान पर 'महप्रवचन- जो अंश ऊपर उद्धृत किया गया है उसकी अन्तिम हृदये' पाठके होनेकी बहुत बड़ी संभावना है, इमी एक पंक्तियोंमें भाष्य के प्रति अकलंकके बहुमान-प्रदर्शनकी कारणसे मैंने इस संभावनाको कल्पना की थी, जिसे बात पर जो आपत्तिकी गई है उसका तो समीक्षा में कहीं समीक्षामें प्रकट भी नहीं किया गया ! और यहाँ तक कोई विरोध नहीं किया गया, जिससे मालम होता है लिख दिया गया है कि "इस कल्पनाका कोई आधार प्रो॰साहक्ने मेरी उस आपत्तिको स्वीकार कर लिया है। नहीं!! साथ ही,यह बात भी कह दी गई हैकि 'यदि मैं शेष अंशकी समीक्षाको क्रमशः ज्योंका त्यों नीचे दिया किसी हस्तलिखित प्रति परसे उक्त पाठको मिलान करने जाता है। साथ ही, पालोचनाको लिये हुए उसकी का कष्ट उठाता तो मुझे शायद वैसी कल्पना करनेका परीक्षा भी दी जाती है, जिससे पाठकोंको उसका मूल्य अवसर ही न मिलता,' जो उक्त विवेचन तथा आगेके भी साथ साथ मालूम होता रहे:स्पष्टीकरणकी रोशनीमें निरर्थक जान पड़ती है। क्योंकि समीचा- "मुख्तारसाहब लिखते हैं-'अई. कुछ हस्तलिखित प्रतियोंमें वही पाठ होने पर भी कथन प्रवचनका तात्पर्य मूलतत्वार्थाधिगमसूत्रसे है, तत्वार्थ के पूर्वाऽपरसम्बन्ध परसे जो नतीजा निकाला गया है भाष्यसे नहीं।" अच्छा होता.१० जुगलकिशोरजी इस उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ सकता । तब 'अहत्प्रवचन' कथनके समर्थन में कोई यक्ति देते।" पद अहत्प्रवचनहृदये' का ही संक्षिप्त रूप कहा जामकता १ परीचा-यहाँ डबल इनपटेंड कामाज़ के भीतर है । बाको प्रो० साहबने अपने लेखमें वर्तमानके मुद्रित जो वाक्य दिया है और जिसका मेरी ओरसे लिखा राजवार्तिको खुद ही अधिक अशुद्ध बतलाया था, इस- जाना प्रकट किया है वह उस रूपमें मेरा वाक्य न हो लिये मैंने सायमें यह भी लिख दिया था कि “इस कर प्रो० साहब के साँचे में ढला हुआ वाक्य है, जिसे मुद्रित प्रतिके अशुद्ध होनेको प्रोफेसरसाहबने स्वयं कुछ काट-छाँट करके रखा गया है-इस बातको अपने लेखके शुरूमें स्वीकार भी किया है;" परन्तु पाठक 'विचारणा'की कार उद्धृत की हुई पंक्तियों पर ऐसा तर्क नहीं किया था कि "क्योंकि राजवार्तिक से सहज ही मालूम कर सकते हैं। अन्यत्र भी वाक्यों बहुत जगह अशुद्ध छपा है अतएव"....।" के उद्धृत करनेमें इस प्रकारकी काट छाँट की गई है, इस एक नमूने और उसके विवेचनपरसे साफ जो प्रामाणिकता एवं विचारको दृष्टिसे उचित मालम प्रकट कि समीक्षामें सम्पादकीय विचारणाको गलतरूप नहीं होती। इस काट-छाँटके द्वारा मेरे वास्यके शुरूका से प्रस्तुत करनेका भी आयोजन किया गया है, जिससे "प्रकटरूपमें" जैसा आवश्यक अश भी निकाल दिया 'समीक्षा'समीक्षा-पदके योग्य नहीं रहती और न समीक्षक है, जो इस बातको सूचित करने के लिये था कि 'हत्यका उसमें कोई सदुद्देश्य ही कहा जासकता है। साथ ही वचन' का अभिप्राय प्रकटरूपमें (बाह्य दृष्टिसे) मूल. Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकास . [भारियन, बीर निव सं०२४॥ तत्वार्थाधिगम सूत्रका जान पड़ता है, सर्वथा नहीं। क्या इष्ट है, यह भी स्पष्ट नहीं होता।" ( इसके बाद श्राभ्यन्तर अथवा साहित्यके पर्वापरसम्बन्धकी दृष्टिसे सिद्धसेनगणिकाः वह वाक्यं फिरसे दिया है, जो प्रो० विचार करने पर वह 'अहंपचनहृदय' का वाचक जान साहबके चौथे भागको युक्तियोंका उल्लेख करते हुए पडता है, जिसके स्थान पर वह या तो गलत छपा है ऊपर उद्धत किया जाचुका है।) और या उसके लिये संक्षिप्त रूपमें प्रयुक्त हुआ है, जैसा परीषा-उक्त वाक्यमें प्रयुक्त हुए "मात्र कि ऊपर जाहिर किया जाचुका है। उसके भाष्य के लिये नहीं" इन शब्दों परसे 'प्रायः' रही कथनके समर्थनमें कोई युक्ति न देनेकी शब्दके इष्टको सहज ही में समझा जासकता है । वह शिकायत, वह बड़ी ही विचित्र जान पड़ती है ! वह बतलाता है कि 'महत्प्रवचन' विशेषण, जो 'तत्वार्थाकथन तो 'विचारणा' में पुक्ति देनेके अनम्तर ही धिगम' नामक सूत्रके ठीक पूर्व में पड़ा है वह अधिकांश "इसलिये प्रकटरूपमें" इन शब्दोंसे प्रारम्भ होता है। में अपने उत्तरवर्ती विशेष्य ( तत्वार्थाधिगम ) के लिये "उक्तहि महत्प्रवचने 'इम्यानया निर्गुणा गुणा' इति," ही प्रयुक्त हुआ है। क्योंकि दूसरे नम्बर पर पड़े हुए इस वाक्यमें गुणोंके लक्षणको लिये हुए जिस सूत्रका भाष्य' का "उमास्वातिवाचकोपजसूत्र" यह विशेषण उल्लेख है वह चूंकि तत्वार्थाधिगमसूत्रके पांचवें अध्या- भाष्य शब्दके साथ जुड़ा हुआ है और तीसरे नम्बर पर यका ४० वा सूत्र है, इसलिये प्रकटरूपमें 'महत्पव- पड़ी हुई 'टका' के दो विशेषण-भाष्यानुसारिणी' और चन' का अभिप्राय यहाँ उमास्वातिके मूलतत्वार्थाधि- 'सिद्धसेनगणिविरचिता'-उसी टीकायां पदके श्रागे-पीछे गमसूत्रका जान पड़ता है, यह कथन क्या प्रो. साहब लगेहुए हैं। इस तरह उक्त वाक्यमें मूल तत्त्वार्थाधिगम की समझमें युक्तिविहीन है ? यदि है तो ऐसी समझ सूत्र,भाष्य और टीका तीनों ग्रन्थों के मुख्य विशेषणोंकी की बलिहारी है ! और यदि नहीं तो कहना होगा कि अलग अलग व्यवस्था है। मूल सूत्र और भाष्यका एक समीक्षा में युक्ति न देनेकी शिकायत करके 'विचारणा' ही प्रन्थकर्ता माने जानेकी हालतमें मूलसूत्र (तस्वार्थाको गलतरूपमें प्रस्तुत किया गया है। धिगम) के 'अहस्पवचन' विशेषणको वहाँ कथंचित् ___ यहाँप र इतना और भी जान लेना चाहिये कि भाष्यका विशेषण भी कहा जासकता है--सर्वथा नहीं। 'विचारणा के शुरू में जो यह पछा गया था कि राज परन्तु इसका यह श्राशय नहीं कि जहाँ भी 'अर्हत्प्रवचन' वार्तिक के उक्त वाक्यमें उल्लेखित 'अईयवचन' से का उल्लेख देखा जाय वहाँ उसे तत्वार्थाधिगमसूत्रका तत्वार्थभाष्यका ही अभिप्राय है-मूलसूत्रका नहीं,ऐसा .. प्रस्तुत भाष्य समझ लिया जाय । ऐना समझना निताजो प्रो० साहबने घोषित किया है वह कहाँसे और कैसे' न्त भ्रम तथा भूल होगा । इसी अनेकान्तका द्योतन फलित होता है ? उसका समीक्षामें कोई उत्तर अथवा · करनेके लिये उक्त वाक्यमें 'प्रायः'' तथा 'मात्र' जैसे समाधान नहीं है। शब्दोंका प्रयोग हरा है। जो कथनके पर्यापरसम्बंध । २ समीप-"सिद्धसेनगणिके वाक्यमें अहत्यचन परसे भले प्रकार समझा जासकता है। विशेषण प्रायः तत्वार्थाधिगमसूत्रके लिये है, मात्र समीचा-"यहाँ [सिद्धसेनगणि के उक्त वाक्यमें] उसके भाष्यके लिये नहीं ।" यहाँ प्रायः शब्दसे आपको अहत्पवचने, तत्त्वार्थाधिगमे और उमास्वातिवाचकोपच Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व, मिण १] . मो. जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा सूत्रमाष्ये-ये तीनो पद सप्तम्यन्त है । उमास्वाति- 'तत्त्वार्थाधिगम नामके अहत्यवचनमें, उमास्वातिवाचकोपचसूत्रभाष्यसे स्पष्ट है कि उमास्वातिवाचकका वाचकोपज्ञसूत्रभाष्यमें, और भाष्यानुसारिणी टीकामें, स्वोपज कोई भाष्य है। इसका नाम तत्वार्थाधिगम है। जोकि सिद्धसेनगणि-विरचित है, अनगार (मुनि) और इसे अहत्प्रवचन भी कहा जाता है। स्वयं उमास्वातिने अगारि (गृहस्थ) धर्मका प्ररूपक सातवाँ अध्याय समाप्त अपने भाष्यकी निम्न कारिकामें इसका समर्थन किया हुश्रा ।' और इसलिये प्रो० साहनका 'पखवचने आदि तवार्थाधिगमाख्यं महर्य संग्रहं बघुप्रथं । तीन ससभ्यन्त पदोंको एक ही ग्रन्थ 'भाव्य का वाचक वपयामि शिष्यहितमिममहंदवनैकदेशस्य ॥" समझना और यह बतलाना कि भाष्यका नाम 'तत्वार्था धिगम' है और उमीको 'अर्हत्पवचन' भी कहा जाता है, १ परीक्षा-यह ठीक है कि 'अर्हत्पवचने' आदि नितान्त भ्रममूलक है । भाष्यका नाम न तो 'तत्त्वार्थातीनों पद सप्तम्यन्त है; परन्तु सप्तम्यन्त होने मात्रसे धिगम' है और न 'अहत्पवचन', 'तत्वार्थाधिगम' मूलक्या सिद्ध होता है ? यह यहाँ कुछ बतलाया नहीं गया ! सूत्रका नाम है और 'अर्हत्यवचन' यहाँ 'अहत्प्रवचनयदि सप्तम्यन्न होने मात्र प्रो० साहबको यह बतलाना संग्रह' के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है, जो कि मूलतत्वार्थ इष्ट हो कि जो जो पद सप्तम्यन्त हैं वे सब एक ही अन्य सूत्रका ही नाम है; जैसाकि रॉयल एशियाटिक सोसाके वाचक है तो क्या उक्त वाक्यमें प्रयक्त हए दूसरे इटी कलकत्ता द्वारा संवत् १६५६ में प्रकाशित तत्वार्याससम्यन्त पदों-'टीकायो' श्रादिका वाच्य भी श्राप धिगमसूत्रके निम्न संधिवाक्यसे प्रकट हैएक ही ग्रन्थ बतलाएँगे? यदि ऐसा न बतलाकर टीका को भाष्यमे अलग ग्रन्थ बतलाएंगे तो फिर टीका और "इति तत्वार्थाथिगमास्येऽहंस्त्रवचनसंग्रहे देवगतिभाष्यसे भिन्न मूल 'तत्त्वार्थाधिगम' सूत्रको वहाँ अलग प्रदर्शनो नाम चतुर्थोऽध्यायः समासः।" ग्रन्थरूपसे उल्लेखित बतलाने में क्या आपत्ति हो सकती है ? सिद्धसेनकी तत्वार्थवत्तिमं तो मूलमत्र, सत्रका तत्वार्थसत्रके इस संस्करण में, जो बहुतसी ग्रंथ. भाष्य और भाष्यानुमारिणी टीका तीनों ही शामिल हैं प्रतियों के आधार पर भाष्य-सहित मुद्रित हुआ है, सर्वत्र और तीनों ही की समातिको लिये हुए मप्तम अध्यायका संधिवाक्यों में 'तत्वार्थाधिगम' और 'अर्हत्प्रवचनसंग्रह' उक्त संधिवाक्य (पुष्पिका ) है। ऐमा भी नहीं कि ये दोनों ही नाम मूलसूत्रके दिये हैं । तत्वार्थसत्रकी जिस सप्तम अध्यायका जो विषय 'अनगारागारि-धर्मप्ररुपण' सटिप्पण प्रतिका परिचय मैंने अनेकान्तके वीरशासनाङ्क' बतलाया है वह मूलसूत्रका विषय न होकर भाष्य तथा में दिया था उसमें भी मर्वत्र 'इति तस्याधिगमेहब. टीकाका ही विषय हो । ऐमी हालतमें 'तत्त्वार्थाधिगमे पचनसंग्रहे प्रथमो (द्वतीयो, तृतीयो.") ऽध्यायः' पदको उसके 'महप्रवचने' विशेषण-सहित मूलतत्त्वार्थ- रूपसे मूलसूत्रके लिये इन्हीं दोनों नामोंका प्रयोग किया सूत्रका वाचक न मानना युक्तिशन्य जान पड़ता है। है । खुद सिद्धसेनगणिकी टीकामें भी दूसरे अनेक वास्तवमें उक्त वाक्यका अर्थ इस प्रकार है- स्थानों पर जहाँ भाष्यका नाम भी साथमें उल्लेखित Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भारिवन, वीर निर्वाण सं०२४१५ नहीं है, इन्हीं दोनों नामोंका मूलसूत्रके लिये प्रयोग भाष्यका नहीं-भाष्यका परिमाण तो उससे कई गुणा पाया जाता है, जिसके दो नमूने इस प्रकार है- अधिक है । ग्रन्थके बहुअर्थ और लघु (अल्पाक्षर) "इति सत्याधिगमेऽईप्रवचनसंग्रहे भाष्ानुसारिण्यां विशेषण भी उसके सूत्रग्रंथ होने को ही बतलाते हैं, अतः तत्वार्यटोकापा(वृत्तौ)संवर(मोर) स्वल्पविरूपको नवमो इम विषयमं कोई संदेह नहीं रहता कि 'तत्वार्याधिगम' (दशमो)ऽध्यायः ।" और 'अहस्प्रवचनसग्रह' ये दोनों मूल तत्वार्थसूत्रके ही इसके अतिरिक भाष्यकी जिस कारिकाको प्रो० नाम है-उसके भाष्यके नहीं। साहबने अपने कथनकी पुष्टिमें प्रमाणरूपसे पेश किया और इसलिये राजवार्तिक के उक्त वाक्यमें प्रयुक्त है उसमें भी 'तत्त्वार्याधिगम' यह नाम मूल सूत्रग्रंथ : हुए ‘भर्हस्प्रवचने' पद परसे प्रो० साहबने जो यह (बहर्थ लघुग्रंथ ) का बतलाया है और साथ ही उसे नतीजा निकालना चाहा था कि उससे तत्वार्थमाष्यका 'अहंदचनैकदेशका संग्रह' बनलाकर प्रकारान्तरसे ही अभिप्राय है वह नहीं निकाला जा सकता, और न उसका दूसरा नाम 'अहत्प्रवचनसंग्रह' भी सूचित किया उसके आधार पर यह फलित ही किया जा सकता है है-भाष्यके लिये इन दोनों नामोंका प्रयोग नहीं किया कि 'अकलकदेवके सामने वर्तमानमें उपलब्ध होनेवाला है, जैसा कि प्रो० साहब समझ बैठे हैं ! चुनाँचे खुद श्वेताम्बर-सम्मत तत्वार्थभाष्य मौजूद था और उन्होंने प्रो० साहबके मान्य विद्वान् सिद्धसेन गणि भी इस ससके द्वारा उमके अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख किया है कारिकाकी टीकामें ऐसा ही सूचित करते हैं,वे 'तत्वार्थाधिगम' को इस सत्रग्रन्थकी अन्वर्थ (गौण्याख्या ) तथा उसके प्रति बहुमान भी प्रदर्शित किया है।' खेद संशा बतलाते हैं और साफ़ तौरसे यहाँ तक लिखते हैं ना है कि प्रो० साहबको इतना भी विचार नहीं पाया कि कि जिस लघुग्रन्थ के कथनकी प्रतिज्ञाका इसमें उल्लेख राजवार्तिकके उक्त वाक्यमें जिस सूत्र ('द्रव्याश्रया है वह मात्र दोसौ श्लोक-जितना है । यथाः निगुणा गुणाः' ) का उल्लेख है वह भाष्यकी कोई "तत्त्वार्थोऽधिगम्यतेऽनेनास्मिन् वेसि तस्वार्थाधिगमः, पंक्ति न हो कर मूलतत्वार्थसूत्रका वाक्य है, और इसलिये प्रकटरूपमें 'हत्प्रवचन' का यदि कोई दसरा इपमेवास्य गौण्याख्या नामेति तत्वार्थाधिगमाख्यस्तं, बह्वयं सच ब्रहः बहुविपुलोऽर्थोऽस्येति बहर्थः सप्त अर्थ लिया जाय तो वह उमास्वातिका मूलतत्वार्थाधिपदार्थनिर्यवएताबाश्च शेयविषयः । संग्रहं समासं, जघु गमसत्र होना चाहिये, न कि उसका भाष्य ! फिर उस ग्रंथ श्वोक्यतपमान।" अर्थ तक तो उनकी दृष्टि ही कहाँ पहुँचती, जिसका स्पष्टीकरण ऊपर परीक्षा नं. २ में और उसके पूर्व दोसौ श्लोक जितना प्रमाण मूलग्रंथका ही है, किया जा चुका है। बहुत सभव है कि प्रथम लेखके • 'उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये' इस प्रकारसे लिखते समय प्रो० साहबके सामने राजवार्तिक और भाष्यका नाम साथमें उल्लेख करने वाला पद सातवें सिद्धसेनकी टीका न रहकर उनके नोटम ही रहे हो अध्यायको छोड़ कर अन्य किसी भी अध्यायके अन्तमें तथा साथमें पं० सुखलालजीकी हिन्दी टीकाकी प्रस्तानहीं पाया जाता है। वना भी रही हो और उन्हीं परसे आपने अपने लेखका Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मो.जगदीशचन्द्र पौर उनकी समीक्षा संकलन किया हो, और समीक्षाके समय भी उन ग्रन्थों और प्रकलंकके कथनकी दृष्टि प्रकलंकके साथ । को देखनेकी ज़रूरत न समझी हो। इसीसे आप अपनी मेरी कथनदृष्टिसे, जो बात आपत्तिके योग्य नहीं, समीक्षामें कोई महत्वका कदम न उठा सके हों और अकलंककी कथन दृष्टि से वही आपत्ति के योग्य हो प्रापकी यह सब समीक्षा महज उत्तरके लिये ही उत्तर जाती है तब अकलंक मेरी कथनहष्टिसे अपना लिखे जानेके रूपमें लिखी गई हो। कथन क्यों करने लगे ? उसकी कल्पना करना __. समी--"इसके अतिरिक्त कुछ ही पहिले ही निरर्थक है। पकलंकके कथनकी दृष्टि उनके मुख्तार साहब कह चुके हैं कि "अईत्यवचन' विशेषण उस वार्तिक तथा वार्तिकके भाष्यमें संनिहित है मूल तत्वार्थसूत्रके लिये प्रयुक्त हुआ है" तो फिर यदि जिसका उल्लेख ऊपर 'विचारणा' को उद्धृत अकलंकदेव "उक्त हि माधवचने 'इम्यानया निगुणा करनेके अनन्तर की गई विवेचनामें किया गया है । गुणाः" कहकर यह घोषित करें कि अहंपचनमें उसके अनुसार 'अर्हत्प्रवचन' से अकलंकका अभिप्राय अर्थात् तत्वार्थसत्रमें ( स्वयं मुख्तारसाहबके ही कथना- 'अहत्प्रवचनहृदय' का जान पड़ता है-उमास्वातिके नुसार ) "इण्याश्रया निर्गुणा गुणाः" कहा है तो तत्वार्थसूत्रका नहीं | उमास्वाति के 'गुणपर्यायवदाम्य' इसमें क्या आपत्ति हो सकती है ? 'अर्हत्प्रवचन' पाठ इस सूत्रमें पाए हुए 'गुण' शब्दके प्रयोग पर तो वहाँ को अशुद्ध बताकर उसके स्थानमें 'हत्प्रवचनहृदय' यह कहकर आपत्ति की गई है कि 'गुण' संशा अन्य पाठकी कल्पना करनेका तो यह अर्थ निकलता है कि शास्त्रोंकी है,आईतों के शास्त्रों में तो द्रव्य और पर्याय इन अर्हत्प्रवचनहृदय नामका कोई सूत्रग्रन्थ रहा होगा, तथा दोनोंका उपदेश होनेसे ये ही दो तत्त्व है, इसीसे द्रव्या"वपाश्रया निर्गुणा गुणाः" यह सूत्र तत्वार्थ सूत्रका न र्थिक और पर्यायार्षिक ऐसे दो मूल नय माने गये है। होकर उस अईप्रवचनहृदयका है जो अनुपलब्ध है।" यदि 'गुण' भी कोई वस्तु होती तो उसके विषयको ने परी-यहाँ भी डबलइन्वटेंड कामाजके भीतर कर मूलनयके तीन भेद होने चाहिये थे; परन्तु तीसरा दिये हुए मेरे वाक्यको कुछ बदल कर रखा है और मूलनय (गुणार्थिक ) नहीं है । अतः गुणोपदेशके वह तबदीली उससे भी बढ़ी चढ़ी तथा अनर्य-कारिणी है अभावके कारण सूत्रकारका द्रव्य के लिये गुणपर्यायवान् जो इसी वाक्यको इससे पहलेकी समीक्षा (नं० १) में ऐसा निर्देश करना ठीक नहीं है । और फिर इस देते हुए कीगई थी । शुरुका वह 'प्रकटरूपमें' अंश आपत्तिके समाधानमें कहा गया है कि वह इसलिये इसमेंस भी निकाल दिया गया है जो मेरे कथनकी दृष्टि ठीक नहीं है क्योंकि 'अर्हत्मवचन हृदय' श्रादि शास्त्रों में को बतलाने वाला था और जिसकी उपयोगिता एवं गुणका उपदेश पाया जाता है, और इसके द्वारा यह आवश्यकतादिको परीक्षा नं १ में बतलाया जा चुका सूचित किया गया है कि 'अईत्प्रवचनहृदय' जैसे है। अस्तु, मेरा वाक्य जिस रूपसे ऊपर उद्धत 'विचा- प्राचीन ग्रन्थों में पहलेसे गुणतत्त्वका विधान है, उमारण में दिया हुआ है उसे ध्यानमें रखते हुए, इस स्वातिने वहींसे उसका ग्रहण किया है, इसलिये उनका समीक्षाका अधिकांश कथन अविचारित रम्य जान यह निर्देश अप्रामाणिक तथा आपत्तिके योग्य नहीं है। पड़ता है। वास्तवमें मेरे कथनकी दृष्टि मेरे साथ है प्रमाणमें दो शास्त्रोंके वाक्योंको उद्धृत किया है, Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .10 [भारिखन, वीर निर्णय जिनमेंसे एक तो मुख्यतया नाम लेकर उल्लेखित लिए इस प्रकारके कथनमें कोई सार नहीं कि 'अई. 'प्रवचनादय' का और दूसरा 'आदि' शब्दके द्वारा प्रवचनहृदय नामका कोई अन्य अब तक कहीं सुनने उल्लेखित किसी अन्य ग्रन्थका होना चाहिये । साथ ही में नहीं पाया अथवा उसका कहीं पर उल्लेख नहीं ये दोनों ग्रंथ उमास्वातिसे पूर्ववर्ती होने चाहिये; तभी मिलता ।' राजवातिकमें उसका स्पष्ट उल्लेख है इनके द्वारा उक्त आपत्तिका परिहार हो सकता है। और वह कुछ कम महत्वका नहीं है। इससे पहले यदि पहले वाक्य के साथ प्रमाणग्रंथकी सूचनाके रूपमें 'अहं. अर्हत्प्रवचनहृदयका नाम नहीं सुना गया तो वह अब तप्रवचने' पद लगा हुआ है, जिसका मूलरूप या तो सुना जाना चाहिये । सैकड़ों महत्वके ग्रंथ रचे गये हैं, उसके पूर्ववर्ती भाष्य और वार्तिक के अनुसार 'अहत्प्रव- जिनके आज हम नाम तक भी नहीं जानते और जो चनहृदये' है और या वह उसके लिये प्रयुक्त हुश्रा उम- नष्ट हो चुके अथवा लुप्तप्राय हो रहे हैं, उनमेसे कोई का संक्षिप्त रूप है । इस ग्रंथका जो वाक्य उधत किया ग्रंथ यदि कहीं उल्लेखित मिल जाय या उपलब्ध हो है वह "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" है । यह वाक्य जाय तो क्या उसके अस्तिस्वसे महज इसलिये इनकार यद्यपि उमास्वातिके तत्वार्थसत्रमें पाया जाता है। परन्तु किया जासकता है कि उसका नाम पहलेसे सुनने में वह मूलतः उमास्वातिके तस्वार्थसत्रका नहीं हो सकता; नहीं आया था ? यदि नहीं तो फिर उक्त प्रकारके क्योंकि उमास्वातिकी सत्ररचना पर उठाई गई उक्त कथनका क्या नतीजा, जो प्रो० साहयकी समीक्षामें अापत्तिका परिहार उन्हीं के शास्त्रवाक्यसे नहीं किया अभ्यत्र (लेखके शुरूमें) प्रकीर्णक रूपसे पाया जाता जा सकता-वह असंगत जान पड़ता है। ऐमी हालत है ? ऐसे ग्रंथोंका तो कुछ भी अनुसन्धान मिलने परमें यह मानना होगा कि उमास्वातिने अपने ग्रन्थमें सुराग़ चलने पर-उनकी खोजका पूरा प्रयत्न होना उक्त वाक्यका संग्रह 'अहत्प्रवचनहृदय' ग्रन्थ परसे चाहिये। किया है। उनका तत्वार्थसूत्र अर्हत्प्रवचनका एक- समीचा-"श्वेताम्बर ग्रन्थों में श्रागमोंको निथदेशसंग्रह होनेसे, इसमें आपत्तिकी कोई बात भी नहीं प्रवचन अथवा अर्हत्प्रवचन के नाससं कहा गया है । है । और इसलिये 'भहस्प्रवचने' पदको महस्प्रवचन- स्वयं उमास्वातिने अपने तत्त्वार्थाधिगमभाष्यको 'पहहृदये' पदका अशुद्धरूप अथवा सक्षिप्तरूप कल्पना वचनैकदेश' कहा है, जैसा ऊपर आ चुका है । बहकरने पर जो अर्थ निकलता है उसे निकलने दीजिये, प्रवचनहदय अर्थात् महत्मवचनका हृदय, एक देश इसमें भयकी कोई बात नहीं है; क्योंकि उक्त कल्पना अथवा सार । इस तरह भी अर्हत्प्रवचनहृदयका लक्ष्य निरर्थक नहीं है । अकलंकदेवने बहुत स्पष्ट शब्दोंमें भाष्य हो सकता है । अथवा अहमवचन और अहस्प'बहत्प्रवचनहृदय' प्रथके अस्तित्वकी सूचना की है। वचनहृदय दोनों एकार्थक भी हो सकते हैं। हमारी उनके 'महत्वाचनहरयादिषु पदमें प्रयुक्त हुए 'पादि' समझमे भाष्य, वृत्ति, अईत्यवचन और अहत्यवचनहृदय शब्दसे और दो शास्त्रोंके वाक्योंको प्रमाणमें उद्धृत इन सबका लक्ष्य उमास्वातिका प्रस्तुत भाष्य है । जब करनेसे उसकी स्थिति और भी स्पष्ट हो जाती है, और तक अर्हत्प्रवचनहृदय श्रादि किसी प्राचीन ग्रन्थका कहीं वह अति प्राचीन सूत्रग्रंथ जान पड़ता है । और इस- उल्लेख न मिल जाय, तब तक पं० जुगलकिशोरजीकी Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..किरण ] मो.जगदीरान और उनकी समी. कल्पनाश्रीका कोई आधार नहीं माना जा सकता।" अपने प्रथम लेख में प्रस्तुत किया था और जिन्हें, आपकी २ परीक्षा-समीक्षाके इस अंशमें कुछ भी सार युक्तियोंका परिचय देते हुए,ऊपर(भाग नं. में)उद्धत मालूम नहीं होता। इसमें अधिकाँश बातें ऐसी हैं जिन किया जा चुका है, वे श्वेताम्बर-सम्मत प्रस्तुत भाष्यके पर ऊपरकी परीक्षाओंमें काफ़ी प्रकाश डाला जा चुका उल्लेख नहीं है, यह बात सम्पादकीय विचारणामें स्पष्ट है अथवा उन परीक्षाओंकी रोशनीमें जिनकी आलोचना की जा चुकी है । स्पष्ट करते हुए राजवार्तिकको अन्तिम करके उन्हें सहज ही में निःसार प्रमाणित किया जा कारिकाके उल्लेख-विषयमें जो युक्तियां दी गई श्री उन सकता है । इमलिये उन पर पुनः अधिक लिस्वनेकी पर इस समीक्षामें कोई आपत्ति नहीं की गई, जिससे ऐसा जरूरत नहीं; यहाँ संक्षेपरूपमे इतना ही कह देना मालूम होता है कि प्रो० साहबने उन्हें स्वीकार कर पर्याप्त होगा कि-दिगम्बर ग्रन्थोंमें भी भागमोंके लिये लिया है-अर्थात् यह मान लिया है कि उस अन्तिम अर्हस्प्रवचन जैसे नामोंका उल्लेख है, 'ऊपर आ चुका कारिकामें प्रयुक्त हुए 'भाष्य" पदका अभिप्राय राजवाहै' इन शब्दों के द्वारा 'तस्वार्थाधिगमाख्यं नामको जिस तिक नामक तत्वार्थभाष्यके सिवा किसी दूसरे भाष्यका कारिकाकी ओर संकेत किया गया है उसमें 'तत्वार्थाधि- नहीं है । दूसरे उल्लेखको इष्टसिद्धि के लिये असंगत और गम' नामके मूलमन्थको, 'अहद्वचनैकदेश' कहा है- असमर्थ बतलाते हुए जो युक्तियां दी गई थीं उनसे भाष्यको नहीं, अहत्प्रवचनहृदयका लक्ष्य भाष्य किसी अभी तक प्रो० साहबको संतोष नहीं हुश्रा, इसलिये प्रकार भी नहीं हो सकता-वह मूलसूत्र ग्रंथ है और उनकी समीक्षाका इस लेखमें आगे चल कर विशेष उमास्वातिके तत्वार्थसूत्रसे पहलेका रचा होना चाहिए, विचार किया जायगा; साथमें 'वृत्ति' का जो नया 'अर्हत्प्रवचन'का प्रयोग यदि 'अहत्यवचनहृदय' के स्थान उल्लेख समीक्षामें उपस्थित किया गया है उस पर भी पर संक्षेपरूपमें किया गया हो तो दोनों एकार्थक भी विचार किया जायगा, और इस सब विचार-द्वारा यह हो सकते हैं, अन्यथा नहीं; 'अहत्प्रवचनहृदय' श्रादि दो स्पष्ट किया जायगा कि भाष्य और वृत्ति दोनोंके उल्लेख प्राचीनग्रयोंका स्पष्ट उल्लेख अकलंक के राजवार्तिकमें इष्टसिद्धि के लिये उन्हें प्रस्तुत भाष्यके उल्लेख बतलाने मिल रहा है, इसलिये "जब तक कहीं उल्लेग्व न मिल के लिये-पर्याप्त नहीं हैं। बाको अर्हप्रवचन और अहं. जाय तब तक प० जुगलकिशोरजीकी कल्पनाओंका त्प्रवचनहृदयके उक उल्लेखोंके विषयमें ऊपर यह स्पष्ट कोई आधार नहीं माना जा सकता" यह कथन कोरा किया ही जा चुका है कि वे प्रस्तुत भाष्य तो क्या, प्रलाप जान पड़ता है। उमास्वातिके मूल तत्वार्थसूत्रके भी उल्लेख नहीं हैं। अब रही प्रोफेसर साहबकी ममझकी बात, श्रापकी यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता समझके अनुसार राजवार्तिक में जहाँ कहीं भी भाष्य,वृत्ति, हूँ कि 'प्रवचन'का अर्थ श्रागम है ("पागमो सिद्धतो अहत्यवचन और अहत्पवचनहृदय इन नामोंका उल्लेख पवयणमिदि एबहो"-धवला ) और इसलिये 'अहंहै उन सबका लक्ष्य उमास्वातिका ( उमास्वातिके नाम प्रवचन' का अर्थ हुआ अदागम-जिनागम प्रादि । पर चढ़ा हुआ ) प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य है। परन्तु यह अहत्प्रवचनको कलंकदेवने जिनप्रवचन, जैनप्रवचन, समझ ठीक नहीं है। भाज्यके जिन दो उल्लेखोको मापने प्राईतप्रवचन, आईतनागम और परमागम बैसे नामों Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 090 अनेकान्त [आश्विन, वीरनिर्णय सं० २०६६ इस कथन में विरोध आाएगा जिसमें भाग्य, वृत्ति, ब्रावचन और अर्हस्यप्रवचनहृदय इन सबका एक लक्ष्य उमास्वातिका प्रस्तुत भाष्य बतलाया गया है। अस्तु । ऊपरकी इन सब परीक्षाओं परसे स्पष्ट है कि प्रोफेसर साहब की समीक्षाओं में कुछ भी तथ्य अथवा सार नहीं है, और इसलिये वे चौथे भागके 'क' उपभाग में दी हुई अपनी प्रधान युक्ति का समर्थन करने और उस पर की गई सम्पादकीय विचारणाका कदर्थन करके उसे सस्य अथवा अयक ठहराने में बिल्कुल ही असमर्थ रहे हैं। 'ग' उपभागकी युक्ति अथवा मुद्दे पर जो विचारणा की गई थी उसकी कोई समीक्षा आपने की ही नहीं, और इसलिये उमे प्रकारान्तरसे मान लिया जान पड़ता है, जैसा कि पहले जाहिर किया जा चुका है। अब रही 'ख' उभाग के मुद्दे (युक्ति) की बात, प्रो० साहबने राजवार्तिकसे "कालोपसंख्यानमिति चेच यचय माणलचणत्वात् — स्थादेतत् कालोऽपि कमिदजीवपदार्थोऽस्ति यद्भाष्ये बहकृत्वः पद्द्रव्याणि इत्य ुकं, श्रवोऽस्योपसंख्यानं कर्तव्य इति ? तन, किकारचं वयमायल उणत्वात्, " इन अंशको उद्धृत करके यह प्रतिपादन किया था कि अकलकदेवने इसमें प्रस्तुत श्वेताम्बरीय भाष्यका सष्ट उल्लेख किया है। इस पर श्रापत्ति करते हुए मैंने अपनी जो 'विचारणा' उपस्थित की थी वह निम्न प्रकार है: -- उल्लेखित किया है और उसे 'श्रहंत्पोक्त' 'अनादिनिधन' जैसे विशेषणोंसे विशेषित करते हुए यहाँ तक लिखा है कि वह संपूर्ण शानोंका श्राकर है-कल्प, व्याकरण, छंद और ज्योतिषादि समस्त विद्यानोंका प्रभव (उत्पाद) उसीसे है । जैसा कि नीचे के कुछ अवतरणोंसे प्रकट है "आईते हि प्रत्रचने ऽमादिनिधने ऽहंदादिभिः यथा का अभियानदर्शनातिशयप्रकाशैरवद्योतितार्थसारे रूढा एताः (धर्मादयः) संज्ञा शेषाः ।" ०१८ " तस्मिन् जनप्रवचने निर्दिष्टोऽहिंसादिलो धर्मइत्युच्यते ।” — पृ०२३१ "आता भगवता प्रेोके परमागमेप्रतिषिद्धः प्राणिबधः" "आर्हतस्य प्रवचनस्य परमागमस्वमसिद्धं तस्य पुरुषकृतित्वे सति प्रयुक्तेरिति तम्र, किं कारणं १ अतिशय ज्ञानाकरत्यात् ।" "स्वाम्मतसम्पत्रापि अतिशयज्ञानावि दृश्यन्ते पारद ज्योतिषादीनि ततोनैकान्तिकस्यात् नायं हेतुरिति । व । किं कारणं १ अत एव तेषां संभवात् । श्रार्हतमेव प्रवचनं तेषां प्रभवः ।” "आईसमेव प्रवचनं सर्वेषां प्रतिशयज्ञानानां प्रभव इति श्रद्धामाश्रमेतत् न युक्तिचममिति । तत्र ..... । तथा सर्वातिशयज्ञानविधानस्वात् जैनमेव प्रवचनं भाकर इत्यवगम्यते ।" -१०२३५ ऐसी हालत में कलंककी दृष्टिसे 'प्रवचन ' श्रथवा श्रातप्रवचनका वाक्य प्रस्तुत श्वेताम्बरीय भाष्य नहीं हो सकता । इन अवतरणों में श्राए हुए श्रईत्प्रवचन के उल्लेखों को भी प्रो० साहब यदि उक्त भाष्य के ही उल्लेख समझते हैं तो कहना होगा कि यह समझ ठीक नहीं है -- सदोष है । और यदि नहीं सम ते तो उनकी यह प्रतिज्ञा बाषित ठहरेगी अथवा उनके • "चौथे नम्बर के 'ख' भागमें राजवार्तिकका जो अवतरण दिया गया है उसमें प्रयुक्त हुए " यद्भाष्ये बहु कृत्यः षड्व्याणि इत्युक्त" इस वाक्यमें जिस भाष्य का उल्लेख है वह श्वेताम्बर सम्मत वर्तमानका भाष्य नहीं हो सकता; क्योंकि इस भाष्यमें बहुत बार तो क्या एक बार भी 'बढ्ङ्गव्याणि' ऐसा कहीं उल्लेख अथवा विधान नहीं मिलता। इसमें तो स्पष्ट रूप से पाँच ही Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३,किरण १२१ प्रो. जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा मानेगये हैं, जैसाकि पांचवें अध्याय के 'द्रव्याणि हैं-और तीसरे सूत्रके भाष्यमें यहांतक लिखते जीवाश्च' इस द्वितीय सूत्रके भाष्यमें लिखा है- हैं कि ये द्रव्य नित्य हैं तथा कभी भी पांचकी "एते धर्मादयश्चत्वारो जीवाश्च पंचद्रव्याणि च संख्यासे अधिक अथवा कम नहीं होते,और उनकी मवन्तीति" और फिर तृतीय सूत्रमें श्राप हुप इस बातको सिद्धसेनगणि इन शब्दोंमें पुष्ट करते 'अवस्थितानि' पदकी व्याख्या करतेहुम इसी बात है कि काल किसीके मतसे द्रव्य है परन्तु उमास्वाति को इस तरहपर पुष्ट किया है कि-"न हि कदाचि- वाचकके मतसे नहीं, वेतो द्रव्योंकी पांचही संख्या संचत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति" अर्थात् ये द्रव्य मानते हैं, तब प्रस्तुत भाष्यमें षड्द्रव्योंका विधान कभी भी पांचकी संख्यासे अधिक अथवा कम नहीं कैसे होसकता है । औरषद्रव्योंका विधान मानने होते । सिद्धसेन गणीने मी उन तीसरे सूत्रकी पर उक्त वाक्यों को असत्य अथवा अन्यथा कैसे अपनी व्याख्यामें इस बातको स्पष्ट किया है और सिद्ध किया जासकता है ? परन्तु स्पष्ट शब्दोंमें लिखा है कि, 'काल किसीके मतसे द्रव्य है परन्तु ऐसा कुछ भी न बतलाकर प्रोफेसर साहबने प्रस्तुत उमास्वाति वाचक के मवसे नहीं, वे दो द्रव्योंको विषयको यों ही घुमा-फिराकर कुछ गड़बड़में डालने पांच ही संख्या मानते हैं। यथा- की चेष्टा की है, और जैसे वैसे मेरी विचारणाके "कालश्चेकीयमतेन द्रव्यमिति वक्ष्यते, वाचक- उत्तरमें कुछ-न-कुछ कहकर निवृत्त होना चाहा है। मुख्यस्य पंचेवेति । विचारका यह तरीका ठीक नहीं है। अस्तु, अब मैं ऐसी हालतमें यह स्पष्ट है कि अकलंकदेवके क्रमशः इस विषयकी भी समीक्षाओं को लेता हूँ मामने कोई दूसरा ही भाष्य मौजूद था। और परीक्षा द्वारा उनकी निःसारताको व्यक मेरी इस विचारणाको सदोष ठहराने और करता है। अपने अभिमतको पुष्ट करने अथवा इस अतको समीक्षा-"श्वेताम्बर भागमोंमें कालद्रव्यसत्य सिद्ध करने के लिये कि राजवाविकके र सम्बन्धी दो मान्यताओंका कथन आता है। भगवाक्यमें जिस भाष्यका उल्लेख है वह श्वेताम्बर- वतीसूत्रमें द्रव्योंके विषयमें प्रश्न होने पर कहा सम्मत वर्तमानका भाष्य ही है, इसकी खास जरूरत गया है-"कइणं भंते ! दव्या पमता! गोयमा ! थी कि प्रोप्साहब कमसे कम तीन प्रमाण भाष्यसे छ दव्वा पनत्ता । तं जहा-धम्मस्थिकाए जाव गेसे उद्धृत करके बतलाते जिनमें “पद्व्याणि' श्रद्धासमये” अर्थान् द्रव्य छह है, धर्मास्तिकायसे जेसे पढ़ प्रयोगोंके द्वारा छह द्रव्योंका विधान लेकर कालद्रव्य वक । आगे चलकर कालद्रव्यके पायाजावा हो; क्योंकि "बहुकृत्वः' (बहुत बार) पद सम्बन्धमें प्रश्न होने पर कहा गया है-"किमियं का वाच्य कमसे कम तीन बार तो होना ही चाहिए। भते कालोति पचुच्चइ ? गोयमा जीवा चेव साथही, यह भी बतलानेको जरूरत थी कि जन अजीचा चेव" अर्थात् कालद्रव्य कोई स्वतन्त्र द्रव्य भाष्यकार दूसरे सूत्रके भाष्यमें द्रव्योंकी संख्या नहीं। जीच और अजीव ये दो ही मुख्य द्रव्य है। म्वयं पांच निर्धारित करते हैं इसे गिनकर बतलाते काल इनकी पर्यायमात्र है। यही मतभेद उम्मस्वाति Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांत अश्विन, वीरनिर्वाण सं० २४६६ ने “कालश्चेत्येके" सूत्र में व्यक्त किया है। इसका अथवा उसे जीव अजीव की पर्याय नहीं बताया" यह मतलब नहीं उमास्वाति कालद्रव्यको नहीं मानते, निरर्थक जान पड़ता है। उन्होंने कहीं भी कालका खण्डन नहीं किया,अथवा समीक्षा-"कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुतत्वार्थउसे जीव अजीवकी पर्याय नहीं बताया।" मद्धासमयप्रतिषेधार्थ च" भाष्यकी इस पंक्तिका ६ परीक्षा-'कालश्चेत्येके' सूत्र में क्या मत- भी यही अर्थ है कि “अजीवकाया धर्माधर्माकाशभेद व्यक्त किया गया है, इसके लिये सबसे अच्छी पुद्गलाः" सूत्र में 'काय' शब्दका ग्रहण प्रदेशबहुत्व कसौटी इसका भाष्य हैं, और वह इस प्रकार है- बताने के लिये और कालद्रव्यका निषेध करने के 'एके त्वाचार्या व्याचक्षते कालोऽपि द्रव्यमिति।' लिये किया गया है। क्योंकि कालद्रव्य बहुप्रदेशी इसमें सिर्फ इतना ही निर्देश किया है कि 'कोई होनेसे (१) कायवान् नहीं। इससे स्पष्ट है कि उमाकोई प्राचार्य तो काल भी द्रव्य है ऐसा कहते हैं। स्वाति काल को स्वीकार करते हैं, अन्यथा उसका अर्थात् कुछ आचार्यों के मतसे धर्म, अधर्म, आकाश, निषेध केसा ? यहां प्रश्न हो सकता है कि फिर पुद्गल और जीव इन पांच द्रव्योंके अतिरिक्त काल “धर्मादीनि न हि कदाचित्संचत्वं व्यभिचरन्ति" भी छठा द्रव्य है, जिसका स्पष्ट आशय यह होता इस भाष्यकी पंक्तिका क्या अर्थ है ? इसका उत्तर है कि ग्रन्थकार के मत से काल कोई पृथक द्रव्य है कि यहां पंचत्त्व कहनेसे उमाम्बातिका अभिप्राय नहीं है, और इसलिये उनकी ओर से इस ग्रन्थ में पांच द्रव्योंसे न होकर पांच अस्तिकार्योंसे है। छह द्रव्यों का विधान किया गया है, ऐसा नहीं कहा उमास्वाति कहना चाहते हैं कि अस्तिकायरूपसे जा सकता । यदि सूत्रकार के मत से काल कोई पांच द्रव्य हैं; काल का कथन आगे चलकर खतंत्र द्रव्य न होकर जीवअजीव की पर्याय मात्र है. 'कालश्चेत्येक' सूत्रसे किया जायगा। और इसी मत को इस सूत्र में, दूसरे मत को परीक्षा--यह समीक्षा बड़ी ही विचित्र दूसरों का बतलाते हुए, व्यक्त किया गया है तो फिर जान पड़ती है। इसमें भाष्यकी एक पंक्तिका अर्थ यह कसे कहा जा सकता है कि इस सूत्र के रच- देते हा जब एक ओर यह बतलाया गया है कि यिता उमास्वाति काल को 'द्रव्य' मानते हैं अथवा 'काय' शब्द का ग्रहण कालद्रव्यका निषेध करनेक उन्होंने द्रव्य रूप से कालका खण्डन नहीं किया ? लिये किया गया है जो कि छठी समीक्षा में द्रव्य नित्य होता है, धौव्य रूप होता है और दिये हुम इसकथनके विरुद्ध है कि 'कहीं भी कालका द्रव्यार्थिक नयका विषय होता है, ये सब बातें उस खण्डन नहीं किया" तब दूसरी ओर यह कहा गया व्यवहार काल में घटित नहीं होती जिसे स्वतंत्र है कि "उमास्वाति कालको स्वीकार करते हैं और सत्तारूप न मानकर जीव अजीव की पर्याय मात्र उसके लिये "अन्यथा उसका निषेध केसा ?" इस कहा जाता है। यहां द्रव्यत्व रूप से कालके विचार नई यतिका आविष्कार किया गया है !! जिसके का प्रसंग चल रहा है, और इसलिये यह कहना द्वारा प्रो० साहब शायद यह सुझाना चाहते हैं कि "उन्होंने कहीं भी काल का खण्डन नहीं किया, कि जिसका कोई निषेध करता है वह वास्तव में Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण १२१ प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा उसको स्वीकार करता है और इसलिये जो जिस रूपमें उद्धृत कीगईहै वह नित्यावस्थितान्यरूपाणि' का निषेध (खण्डन ) नहीं करता वह वास्तव में इस तृतीय सूत्रमें आए हुए 'अवस्थितानि' पदके उसका खण्डन (अस्वीकार ) किया करता है !! भाष्यकी है। इससे पहले द्रव्याणि जीवाश्च'इस द्वितीय अनेकान्तके पाठकों को इस से पहले शायद ऐसी सूत्रके भाष्यमें लिखाहै एते धर्मादयश्चत्वारो जीवानई युक्तिके आविष्कार का अनुभव न हुआ हो! श्व पंचद्रव्याणि च भवन्तीति" अर्थात धर्म, अधर्म, परन्तु खेद है कि प्रो० साहब अपने लेख में सर्वत्र आकाश, पुद्गल ये चार तो अजीवकाय(जीवाइस नवाविष्कृत युक्ति एवं सिद्धान्त पर अमल स्तिकाय) और पांचवे जीव (जीवास्तिकाय) मिला करते हुए मालूम नहीं होते ! और इसलिये इसके कर 'पांचद्रव्य' होते हैं-पांचकी संख्याको लिये हुग लिखने अथवा निर्माण में जरूर कुछ भूल हुई ध्रौव्यत्वका विषयरूप द्रव्य होते हैं । यहां द्रव्य होते जान पड़ती है। इसी तरह एक स्थान पर आप हैं, अस्तिकाय होतेहैं अथवा पंचास्तिकाय होते हैं लिखते हैं कि 'काय' शब्द का ग्रहण प्रदेशबहुत्व ऐसा कुछ न कहकर जो खास तौरसे 'पंचद्रव्य होते बताने के लिये किया गया है" और फिर उसके हैं' ऐसा कहागया है उसका कारण द्रव्योंकी इयत्ता अनन्तर. ही यह लिखते हैं कि "कालद्रव्य बहुप्रदेशी बतलाना-उनकी संख्याका स्पष्टरूप में निर्देश करना होने से कायवान नहीं।" ये दोनों बातें भी परस्पर है। इसकी पुष्टि अगले सूत्रके अवस्थितानि पदके विरुद्ध हैं, क्योंकि सूत्र में 'काय' शब्द का प्रयोग भाष्यमें यह कहकर कीगई है कि "न हि कदाचिप्रदेशबहुत्व को बताने के लिये हुआ है और काल संचत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति अर्थात् ये द्रव्यको प्रो० साहब बहुप्रदेशी लिखते हैं तब वह द्रव्य कभी भी पांचकी संख्याका और भूतार्थता कायवान क्यों नहीं ? और यदि वह कायवान् (स्वतत्व) का अतिक्रम नहीं करते-सदाकाल अपने नहीं है तो फिर उसे 'बहुप्रदेशी' क्यों लिखा गया? स्वतत्व तथा पाचकी संख्यामें अवस्थित रहते हैं। यहां जरूर कुछ गलती हुई जान पड़ती है। मैं इसका सष्ट आशय यह है कि नतो इनमें से कोई चाहता था कि इस ग़लतीको सुधार दूं परन्तु द्रव्य कभी द्रव्यत्वसे च्युत होकर कम होसकता है मजबूर था; क्यों के प्रो० साहब का भारीअनुरोध था और न कोई दूसरा पदार्थ इनमें शामिल होकर कि उनका यह लेख बिना किसी संशोधनादिके द्रव्य बनमकता तथा द्रव्योंकी संख्याको बढासकता ज्यों का त्यों छापा जाय । इसीसे मैंने लेख में 'बहु- है। और इसलिये भाष्यकार का अभिप्राय यहां प्रदेशी होने से' के आगे ब्रेकट में प्रभात लगा अरितकायों की संख्यासे न होकर द्रव्योंकी संख्या दिया था, जिससे यह गलती प्रेस की न समझली से हीहै। इसीसे सिद्वसेन गणिने भी अपनी टीकामें जाय। अस्तु। द्रव्य के नवादि भेदोंकी आलोचना करतेहुए लिखा अब देखना यह है कि प्रो साहबने शंका उठाकर है-“कालश्चकीयमनेन द्रव्यमिति वक्ष्यते वाचकमुउसका जो समाधान किया है वह कहांतक ठीक है। ख्यस्य पंचवेति", अर्थान काल किसीके मतसे द्रव्य शंकामें भाष्यकी जो पंक्ति कुछ गलत अथवासंस्कारित है ऐसा कहा जायगा परन्तु उमास्वाति वाचक के Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त अश्विन, वीरनिर्वाण सं० २४६६ मतसे नहीं, वेतो पांच ही द्रव्य मानते हैं। साथ ही, परिज्ञानात्।श्रयमभिप्रायो वृतिकरणस्य-कालश्चेति आगे चलकर यह भी बतलाया है कि 'द्रव्याणि' पृथग्द्रव्यलक्षणं कालस्य वक्ष्यते। तदनपेक्षादिकृतानि पद द्रव्यास्तिक (द्रव्याथिक) नयके अभिप्राय को पंचव द्रव्याणि इति षड्द्रव्योपदेशाविरोधः" । लिये हुए है पर्यायसमाश्रयण की दृष्टिसे नहीं है, अर्थात् वृत्ति में जो द्रव्यपंचत्त्वका उल्लेख है वह द्रव्यास्तिक नयको ध्रौव्य इष्ट होताहै,उत्पाद विनाश कालद्रव्य की अनपेक्षासे ही है। कालका लक्षण नहीं। नित्यता के होनेपरइन द्रव्योंकी इयत्ताका निर्धा- आगे चलकर अलग कहा जायगा। रणअवस्थित शब्दके उपादानसे होताहै। चूंकि जग- परीक्षा-राजावार्तिक में 'वृत्ति के नामोल्लेखत सदाकाल पंचारितकायात्मक है और काल इन। पूर्वक जो पंक्तियां उद्धृत की गई हैं और जिन्हें पंचास्तिकायों की पर्याय है, इसलिए द्रव्य पांचही। प्रोष्साहबने “अक्षरशः भाष्यकी पंक्तियां” बतलाया होतेहैं-कमती बढती नहीं, इसी संख्यानियमके है वे अक्षरशः भाष्य की पंक्तियां नहीं हैं। प्रस्तुत अभिप्रायको 'अवस्थित' शब्द लिये हुए है । यथा-- भाष्य में उनका रूप है-"अवस्थितानि च, न हि "द्रव्याणीति द्रव्यास्तिनयाभिप्रायेण, नतु पर्नायस कदाचित्पंचत्वं भूतार्थत्वंच व्यभिचरन्ति” इसमें माश्रयणान · द्रव्यास्तिको हि धौव्यमेवेच्छति, नो " “धर्मादीनि'पदकातोप्रभावहै और'च'तथा भूतार्थत्वं' सादविनाशी, ...न कदाचित्पंचत्वं व्यभिचरन्ति, पद अधिक है । इतने पर भी प्रोत्साहब दोनों को तद्भावाव्ययतायां सत्यामियत्तेषां निर्धार्यतेऽवस्थित अक्षरश: एक बतलाने का साहस करते हैं, यह शद्रोपादानात्,पञ्चव भवन्त्येतानि न न्यूनान्यधिका आश्चर्य तथा खेद की बात है !! वृत्ति और भाष्यके नि वेति संख्यानियमोऽभिप्रेतः मर्वदा पंचास्तिकाया - अवतरणों के इस अन्तर पर से तथा वृत्तिमें आगे त्मकत्वाज्जगतः कालस्य चेनत्पर्यायत्वादिति"। 'कालश्च' इस सूत्रका उल्लेख होनेसे तो यह स्पष्ट __ऐसी हालत में प्रो साहब ने शंका का जो जाना जाता है कि राजवार्तिक में जिस वृत्तिका समाधान किया है वह भाष्यकारके आशय के अवतरण दियागया है वह प्रस्तुत भाष्य न साथ संगत न होने के कारण ठीक नहीं है। होकर कोई जुदी ही वृत्ति है, जिसमें आगे चलकर (८) समीक्षा-"कहने की आवश्यकता नहीं मूलसूत्र “कालश्च" दिया है न कि 'कालश्चेत्येके । कि हमारे उक्त कथनका समर्थन स्वयं अकलंककी मूलसूत्रका दिगम्बरसम्मत 'कालश्च' रूप होनेकी राजवार्तिकमें किया गया है। वे लिखते हैं- हालतमें जब आगे वृत्तिमें उसके द्वारा कालका वृत्तौ पंचत्ववचनान् षड्व्योपदेशव्याघात इते स्वतंत्र द्रव्यके रूपमें उल्लेख है तब तीसरे सूत्रकी चेन्न अभिप्रायापरिज्ञानान् (वार्तिक)-स्यान्मतं व्याख्या में 'पंचत्व' के वचन-प्रयोग से वृत्तिवृत्तावमुक्त (वुक्त ? )मवस्थितानि धर्मादीनि न हि कारका वह अभिप्राय होसकता है जिसे अकलंककदाचित्रचत्वं व्यभिचरंति ( ये अक्षरशः भाष्यकी देवने अपने राजावार्तिकमें व्यक्त किया हैपंक्तियां हैं) इति ततः पड्व्याणीत्युपदेशस्य 'कालश्चेत्येक' ऐसा सूत्र होनेकी हालत में नहीं व्याघात इति । तन्न, किं कारणं । अभिप्राया- होसकता। अतः मातवीं समीक्षा में दिये हुए प्रो० Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण १२ / प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा ४५ कोई समर्थन नहीं होता । ६. समीक्षा - " सिद्धसेन गणिने उमास्वाति के तत्त्वार्थाधिगमभाष्य पर जो वृत्ति लिखी है, उसमें भी अकलंकके उक्त कथनका ही समर्थन किया गया है । सिद्धसेन लिखते हैं- "सत्यजीवत्वे कालः कस्मान्न निर्दिष्टः इति चेत् उच्यते-सत्वेकीयमतेन द्रव्य मित्याख्यास्यते द्रव्यलक्षणप्रस्ताव एव । अमी पुनरस्तिकाया: व्याचिख्यासिताः । न च कालोऽस्तिकायः, एकसमयत्वात् " - अर्थात् यहां केवल पांच अस्तिकायका कथन किया गया है। जीव होने पर भी यहां कालका उल्लेख इसलिये नहीं किया गया कि वह एक समय वाला है। उसका कथन 'कालश्चेत्येके' सूत्र में किया जायगा ।” साहबके कथन का राजवार्तिक की उक्त पंक्तियों से लक्षण - प्रस्ताव में किया जायगा । वहां तो इन अस्तिकायोंका कथन किया गया है। काल 'अस्तिकाय' नहीं है; क्योंकि वह एकसमयबाला है। ऐसी हालत में सिद्धसेन के इस कथनसे अकलंडदेवके उक्त कथनका कोई समर्थन नहीं होता। और जब राजवार्तिकके कथनका ही समर्थन नहीं होता, जिसे प्रोफेसर साहब ने अपने कथन के समर्थन में पेश किया है, तब फिर प्रोफेसर साहबके उस कथम का समर्थन तो कैसे हो सकता है जिसे आपने ६ परीक्षा - सिद्धसेन गणिकी वृत्तिके उक्त कथन से कलङ्कदेवके उस कथनका कोई समर्थन नहीं होता जो मवीं ममीक्षामें उद्धृत है। अकलङ्क के कथन की दिशा दूसरी और सिद्धसेन के कथन की दिशा दूसरी है । सिद्धसेन की उक्त वृत्ति “नित्याव स्थितान्यरूपाणि” सूत्रकी न होकर प्रथम मूत्र "जीचकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला.” की है, और उसमें सिर्फ यह शङ्का उठाकर कि 'अजीव होने पर भी' कालका इस सूत्र में निर्देश क्यों नहीं किया गया ? सिर्फ इतना ही समाधान किया गया है कि "काल तो किसी के मत से ( उमास्वा विके मतसे नहीं ) द्रव्य है*, जिसका कथन आगे द्रव्य * समाधानके इस प्रधान अशको प्रोफेसर साहब ने अपने उस अनुवाद अथवा भावार्थ में व्यक्त ही नहीं किया जिसे आपने 'अर्थात् ' शब्दकं साथ दिया है। समीक्षा में उपस्थित किया है ? खासकर ऐसी हालत में जबकि परीक्षा नं०८ के अनुसार अकल के कथन से भी उसका समर्थन नहीं होसका । १० समीक्षा - "स्वयं भाष्यकारने "तत्कृत. काल विभाग: " सूत्रकी व्याख्या में "कालोऽनन्त समयः वर्तनादिलक्षण इत्युक्तम्” आदिरूपसे कालद्रव्यका उल्लेख किया है। इतना ही नहीं मुख्तार साहबको शायद अत्यन्त आश्चर्य हो कि भाष्यकारने स्पष्ट लिखा है - "सर्व पञ्चत्त्वं अस्तिकायावरोधात् । स पट्त्वं षड्द्रव्यावरोधात्” । वृत्तिकार सिद्धसेनने इन पंक्कियोंका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है- "देव पञ्चस्वभावं षट्स्वभावं षड्द्रव्यसमन्वितत्त्वात् । तदाह-सर्वं षट्कं पद्रव्यावरोधात् । पद्रव्याणि कथं, उच्यते - पञ्च धर्मादीनि कालश्चेत्येके” । इस से बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि उमास्वावि छह द्रव्योंको मानते हैं । यह द्रव्यों का स्पष्ट कथन उन्होंने भाष्यमें किया है। पांच च्य स्विकार्यो के प्रसंग पर कालका कथन इसीलिये नहीं किया गया किं काल कायवान नहीं । अतएव अकलक ने षड्द्रव्य वाले जिस भाष्यकी ओर संकेत किया है, यह उमास्वातिका प्रस्तुत तत्वार्थाधिगम भाष्य ही है। Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त इस भाष्यका सूचन अकलङ्क ने "वृत्ति" शब्दसे किया है। 99 १० परीक्षा - भाष्यकार ने " इत्युक्तम्” पदके साथ जिस वाक्यको उद्धृत किया है वह भाष्य में इससे पहले उक्त न होनेके कारण किसी अन्य प्राचीन प्रन्थसे उद्घृत जान पड़ता है, और उसके उद्धृत करने का लक्ष्य उस व्यवहार कालको बतलाने के सिवा और कुछ मालूम नहीं होता जिसको लक्ष्य करके ही "तत्कृतः काल विभाग: " यह सूत्र कहा गया है। इसीसे उक्त वाक्यके श्रनन्तर लिखा है - " तस्य विभागो ज्योतिषारणां गतिविशेषकृतश्चारविशेषेण हेतुना" और सूत्रके भाष्यकी समाप्ति करते हुए लिखा है - "एवमादि - र्मनुष्यक्षेत्रे पर्यायापन्नः कालविभागो ज्ञेय इति ।" इससे यहां मुख्य (परमार्थ) काल अथवा द्रव्यदृष्टिसे कालके विधानका कोई अभिप्राय नहीं है, और इस लिये इस उल्लेख परसे प्रोफेसर साहबका श्रभिमत सिद्ध नहीं हो सकता । अब रही आपके दूसरे उल्लेखकी बात, मुझे तो उसे देखकर कुछ भी आश्चर्य नहीं हुआ । उसमें भाष्यकार द्वारा विधान रूपसे "षद्रव्याणि” ऐसा कहीं भी नहीं लिखा गया है। भाष्यके उस अंश में उल्लेखित वाक्योंकी जो दृष्टि है उसे अच्छी तरह समझने के लिये उसके पूर्वाश और पश्चिमांश दोनोंको सामने रखनेकी जरूरत है । अतः उन्हें नीचे उधृत किया जाता है । श्रश्विन, वीरनिर्वाण सं० २४६६ ( पश्चिमांश ) " यथैता न विप्रतिपत्तयोऽथ चाभ्यवसायस्थानान्तराख्येतानि तद्वन्नयबादा इति ।” (पूर्वाश) “अत्राह - एवमिदानीमेकस्मिन्नऽर्थेष्यवसायनानात्वान्ननु विप्रतिपत्तिप्रसङ्ग इति । श्रत्रोच्यते यथा सर्व एकंसद विशेषात् । सर्वं द्वित्वं जीवाजीवात्मकत्वात् । सर्वं त्रित्वं द्रव्यगुणपर्याया वरोधान् । सर्व चतुष्टयं चतुर्दर्शन विषयावरोधात्।” 1 यहां पर नयवादका प्रसंग है - नेगमादि नयोंका विषय परस्पर विरुद्ध नहीं है-एक वस्तुमें सामान्यविशेषादि धर्म परस्पर विरोध रूपसे रहते हैंइस बातको स्पष्ट किया गया है। किसीने प्रश्न किया कि जब एक पदार्थको आप नाना अध्यवसाय (विज्ञनभेदों) का विषय मानते हैं तो इससे तो विप्रतिपत्ति ( विरुद्धप्रतीति) का प्रसंग आता है। इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि जैसे संपूर्ण जगत सत्की अपेक्षा सतकी दृष्टि से अवलोकन करने वालों की अपेक्षा एक रूप है, वही जीव अजीव की अपेक्षासे दो रूप है, द्रव्यगुण- पर्यायकी अपेक्षा तीन रूप है, चक्षु श्रचतु आदि चारदर्शनोंका विषय होनेकी अपेक्षासे चार रूप है, पंचास्तिकायकी अपेक्षासे पांचरूप है और षड्द्रयों की अपेक्षा - पट द्रव्यों की दृष्टिसे अवलोकन करने वालों की अपेक्षा-पद्रव्यरूप है । इस प्रकार एक जगत वस्तु में उपादीयमान ये एक-दो-तीन-चार-पांच-छह रूपात्मक अवस्थाएँ जेसे विरुद्ध प्रतोति को प्राप्त नहीं होतीं ये अभ्य वसाय के स्थानान्तर हैं, वैसे ही अभ्यवसायकृत नयवाद परस्पर विरोध को लिए हुए नहीं हैं। षट्द्रव्य किस दृष्टि से यहां विवक्षित हैं इसबात को सिद्धसेन ने ही अपनी उस वृति में स्पष्ट कर दिया है जिसे प्रो० साहब ने उदधृत किया है 1 वे कहते हैं पांच तो 'धर्मादिक' और छठा 'कालश्चेत्येके' सूत्रका विषय 'काल' । इससे भाष्यकार की मान्यता के सम्बन्ध में कोई नया विशेष उत्पन्न नहीं होता जिसका विचार ऊपर की परीक्षाओं Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण १२१ प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा में न किया जानुका हो। सिद्धसेन गणि जो यह शिलावाक्य में पाया जाता है, जो वहां क कहते हैं कि काल किसी के मतसे द्रव्य है परन्तु टीका की प्रशस्ति पर से उद्धृत जान पड़ता हैउमास्वाति वाचक के मत से नहीं, वे तो पांच ही तस्येवशिष्यश्शिवकोटिसूरिस्तपोलतालम्बनदेहयष्टि। द्रव्य मानते हैं उसका उनके ऊपर के स्पष्टीकरण संसारवाराकरपोतमेतत्सत्वार्थसूत्रं तदलंचकार । में कोई विरोध नहीं आता-वे उसके द्वारा अब (शि० नं० १०५) यह नहीं कहना चाहते कि भाष्यकार उमास्वाति इस तरह मेरी उक्त विचारणा' पर जो छह द्रव्य मानते हैं अथवा छह द्रव्यों का विधान समीक्षा लिखी गई है उसमें कुछ भी सार नहीं है, करते हैं। भाष्यकार ने यहां आगमकथित दुमरी और इसलिये उससे प्रोफेसर साहब का वह मान्यता अथवा दूसरों के अध्यवसायकी दृष्टि से अभिमत सिद्ध नहीं हो सकता जिसे वे सिद्ध ही 'षड्व्य' का उल्लेखमात्र किया है। ऐसी करना चाहते हैं अर्थात यह नहीं कहा जासकता हालत में यह कहना कि "उमास्वाति (श्वे० सूत्रपाठ कि अकलंक के सामने उमास्वाति का श्वेताम्बरनथा भाष्यके तथाकथित रचयिता) छह द्रव्योंको सम्मत भाष्य अपने वर्तमान रूप में उपस्थित था मानते हैं। छह दव्योंका स्पष्ट कथन उन्होंने भाष्यमें और अकलंक ने उसका अपने वार्तिक में उपयोग किया है" कुछ भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता। तथा उल्लेख किया है बल्कि यह स्पष्ट मालूम होता फिर यह नतीजा तो उससे केसे निकाला जासकता है कि अकलंकके सामने उनके उल्लेखका विषय है कि-"अकलंकने षडद्रव्य वाले जिस भाष्य की कोई दमरा ही भाष्य मौजूद था, और वह उन्हीं ओर संकेत किया है वह उमास्वाति का प्रस्तुत का अपना 'राजवर्तिक-भाष्य' भी हो सकता है । तत्वार्थाधिगमभाष्य ही है" ? क्यों कि एकमात्र क्योंकि उसमें इससे पहले अनेकवार 'पएणामपि "षड्द्रव्यावरोधात्” पद अकलंक के “यद्भाष्ये द्रव्याणां, षडत्र द्रव्याणि' षडद्रव्योपदेशः' इत्यादि बहुकृत्वः षड्व्याणि इत्युक्तं" इस वाक्य में आप रूप से छह द्रव्यों का उल्लेख आया है, और हुए “बहुकृत्वः षड् द्रव्याणि" पदों का वाच्य नहीं स्वकीय भाष्य की बातको लेकर सूत्र पर शंका हो सकता । अकलंक के ये पद भाष्य में कमसे उठाने की प्रवृत्ति अयत्र भी देखी जाती है, जिस कम तीन वार 'षड्द्रव्याणि" जसे पदों के उल्लेख का एक उदाहरण स्वभावमार्दवं च सूत्रके भाष्यका को मांगते हैं। और न यही नतीजा निकाला निम्न वाक्य है-"ननु पूर्वत्र व्याख्यातमिदं पुनर्भजासकता है कि 'इस (प्रस्तुत) भाष्य का मृचन हणमनर्थकं सूत्रेऽनुपात्तमिति कृत्वा पुनरिदमुअकलंक ने 'वृत्ति' शब्द से किया है। वृत्ति का च्यते ।" इससे पूर्व के, " अल्पारंभपरिग्रहत्वं अभिप्राय किसी दूसरी प्राचीनवृत्ति अथवा उस मानुषस्य" सूत्र की व्याख्या में मार्दव' प्रानुका टीका से भी हो सकता है जो स्वामी समन्तभद्र था, इसी से शंका को वहां स्थान मिला है। अन्तु । के शिष्य शिवकोटि प्राचार्य-द्वारा लिखी गई थी यह तो हुई प्रो० साहब के पूर्व लेख के और जिसका स्पष्ट उल्लेख श्रवणबेल्गोल के निम्न नम्बर ४ की बात, जो तीन उपभागों (क, ख, ग) Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांत {आश्विन, वीरनिर्वाण सं० २४६ में बँटा था और आपकी युक्तियों में सर्वप्रधान यह भी लिखा था किपा, अब लेख के शेष तीन नम्बरों अथवा भागों “यहां पर एक बात और भी जान लेने की है को भी लीजिये, जिनका परिचय इस लेखके शुरू और वह यह है कि श्री पूज्यपाद आचार्य सर्वार्थमें-परीक्षारम्भ के पूर्व-विचारणा के लक्ष्यको सिद्धि में, प्रथम अध्यायके १६ वे सूत्र की व्याव्यक्त करते हुए, दिया जा नुका है। नं.१ ख्या में, "क्षिप्रानिःसृत' के स्थानपर 'क्षिप्रनिःसृत' में तत्त्वार्थसूत्रों के कुछ पाठभेद का पाठभेदका उल्लेख करते हुए लिखते हैंराजवार्तिक में उल्लेख बता कर यह नतीजा “अपरेषां क्षिप्रनिःसृत इति पाठः । त एवं निकाला गया था कि 'अकलंक के सामने कोई वर्णन्ति-श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दमवगृह्यमाणं मयूरस्य दूसरा सूत्रपाठ अवश्य था जिसे अकलंक ने वा कुररस्य वेति कश्चित्प्रतिपद्यते।" स्वीकार नहीं किया' इस बात को अङ्गीकार करते जिस पाठभेद का यहां "अपरेषां” पदक हुए मैंने अपनी 'विचारणा' में लिखा था- प्रयोगके साथ उल्लेख किया गया है वह 'स्वोपज्ञ' ___ "इसमें सन्देह नहीं कि अफलंकदेव के सामने कहे जाने वाले उक्त तत्त्वार्थभाष्य में नहीं है, तत्वार्थसूत्र का कोई दूसरा सूत्रपाठ जरूर था, और इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि पूज्यपादके जिसकेकुछ पाठोंको उन्होंनेस्वीकृत नहीं किया। इससे सामने दूसरोंका कोई ऐसा सूत्रपाठ भी मौजूद अधिक और कुछ उन आवतरणों परसे उपलब्ध था जो वर्तमान एवं प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य के सूत्रनहीं होता जो लेखके नं० १ में उद्धृत किये गये पाठ से भिन्न था। ऐसा ही कोई दूसरा सूत्रपाठ हैं। अर्थात् यह निर्विवाद एवं निश्चित रूपसे नहीं अकलंकदेव के सामने उपस्थित जान पड़ता है, कहा जा सकता कि अकलंकदेव के सामने यही जिसमें “अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवं मानुतत्त्वार्यभाष्य मौजूद था । यदि यही तत्त्वार्थभाष्य षस्य" ऐसा सूत्रपाठ होगा 'स्वभावमार्दव' की मौजूद होता तो उक्त न० १ कंघ' भागमें जिन दो जगह 'स्वभावमार्दवाजवं च' नहीं । इसी तरह सूत्रोंका एक योगीकरण करके रूप दिया है उनमें “बन्ने समाधिको पारिणामिकौ” सूत्रपाठ भी से दूसरा सूत्र ‘स्वभावमार्दवं च' के स्थान पर 'स्व- होगा,जिसके “समाधिकौ" पदकी आलोचना करते भावमार्दवार्जवं च' होता और दोनों सूत्रोंके एक हुए और उसे 'आर्षविरोधि वचन' होनेसे विद्वानों योगीकरणका वह रूप भी तब 'अल्पारंभपरिप्रहत्वं केद्वारा अग्राह्य बतलाते हुए "अपरेषां पाठः” लिखा स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्ये ते' दिया जाता; है- यह प्रकट किया है कि दूसरे ऐसा सूत्रपाठ परन्तु ऐसा नहीं है।" मानते हैं। यहां “अपरेषां" पदका वेसा ही प्रयोग इसके अलावा अकलंक से पहले तत्वार्थसूत्र. है जैसा कि पूज्यपाद आचार्यने ऊपर उद्धृत के अनेक सूत्रपाठों के प्रचलित होने और उनपर किये हुए पाठभेद के साथ में किया है। परन्तु अनेक छोटी-बड़ी टीकाओं के लिख जाने की इस 'समाधिकौ' पाठभेद का सर्वार्थसिद्धिमें कोई बात को स्पष्ट करते हुए मैंने अपनी 'विचारण' में. उल्लेख नहीं, और इससे ऐसा ध्वनित होता है Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा कि सर्वार्थसिद्धिकार प्राचार्य पूज्याद मामले कथन वर्तमानके दिगम्बर श्वेताम्बर सूत्रपाठोंके प्रस्तुत तत्वाथभाष्य अथवा तत्त्वार्थभाष्यका शेष साथ सम्बद नहीं है। इसमें स्पष्ट है कि पहले वतमानरूप उपस्थित नहीं था, जिसका 'स्वो तत्त्वार्थसूत्रके अनेक सूत्रपाठ प्रचलित थे और वे पज्ञ भाष्य' होनको हालत में उपस्थित होना बहुत अनेक प्राचार्य परम्पराओंसे सम्बन्ध रखते थे। कुछ स्वाभाविक था, और न वह मूत्रपाठ ही उप- छोटी बड़ी टोकाएँ भी तत्त्वार्थसूत्र पर कितनी ही स्थित था जो अकलंक के सामने मौजूद था और लिखी गई थी, जिनमें में बहुतसी ल्म हो चुकी है जिसकं उक्त सूत्रपाठको वे 'प्राविरोधी' तक और वे अनेक सूत्रों के पाठभेदोंको लिये हुए थीं। लिखते हैं, अन्यथा यह संभव मालूम नहीं होता ऐमी हालतमें लेखक नं. ३ में प्रोफेमरसाहव कि जो श्राचाय एकमात्रा तकके साधारण पाठ- ने उक्त शंकाका निरसन होना बतलाते हुए, जो भेदका तो उल्लेख करें वे ऐसे वादापन्न पाठभेद- यह नतीजा निकाला है कि "अकलंकके सामने को बिल्कुल ही छोड़ जावें। कोई दूसरा सूत्रपाठ नहीं था, बल्कि उनके सामने _ सिद्धसन गणिको टीकामें अनेक :स सूत्रों स्वयं तत्त्वाथभाष्य मोजूद था" वह समुचित का उल्लेख मिलता हे जो न तो प्रस्तुत तत्त्वाय प्रतीत नहीं होता।" भाष्यमें पाये जाते हैं और न वतमान दिगम्बरीय इस सब 'विचारणा'की समीक्षा में प्रोफेसर अथवा सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठोंमे ही उपलब्ध साहब सिर्फ इतना ही लिखते हैं:होते हैं । उदाहरणकं लियं "कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनु- ११ समीक्षा-"इसी तरह सूत्रोंके पाठभेद ज्यादीनामेकैकवृद्धानि" सूत्रको लीजिये, सिद्धमन की बात है ।" 'बन्धे समाधिकौ पारिणमिको, लिखते हैं कि इस सूत्रमें प्रयुक्त हुए 'मनुष्यादीनाम्' 'द्रव्याणि जीवाश्च' आदि सूत्र भाष्यमें ज्यों की पदको दुमरे ( अपरे) लोग 'अना' बतलाते हैं त्यों मिलती हैं । उक्त विवेचनकी रोशनीमें कहा और साथ ही यह भी लिखते हैं कि कुछ अन्य जा सकता है कि अकलंकका लक्ष्य इसी भाष्यके जन जो 'मनुष्यादीनाम्' पदको तो स्वीकार करते सूत्रपाठकी ओर था। हैं वे इम सूत्र के अनन्तर "अतान्द्रियाः केवजिनः" 'अल्पारम्भपरिग्रहत्वं' श्रादि सूत्रके विषयमें यह एक नया ही सूत्रपाठ रखते हैं । यह सब सम्भवतः कुछ मुद्रण सम्बन्धी अशुद्धि हो । शायद * "अपरेऽतिविसंस्थुलमिदमालोक्य भाष्यं विष- वही पाठ मूल प्रतिमें हो और मुद्रितमें छूट गया बणाः सन्तःसूत्रे मनुष्यादिग्रहणमनार्षमिति संगिरन्ते"। हो । इसके अतिरिक्त यहाँ मुख्य प्रश्न तो एक इदमन्तरालमुपजीव्यापरे वातकिनः स्वयमुपरभ्य सूत्र- योगीकरणका है जोभाष्यमें बराबर मिल जाता है।" मधीयते-'अतीन्द्रियाः केवजिनः' येषां मनुष्यादीनां यह शंका वही है जिसे प्रो० साहबने खुद ही माणमस्ति सूत्रेऽनन्तरे त एवमाहुः-मनुष्यग्रहणात् सत्रपाठभेदोंके अपने नतीजे पर उठाया था और जिसे केवखिनोऽपि पंचेन्द्रियप्रसक्तः अतस्तवपवादार्थमतीत्ये- प्रो० साहबके पूर्व लेखका परिचय देते हुए नं. २ में न्द्रियाणि केवलिनो वर्तन्त इत्यास्मेयम् ।" दिखलाया जा चुका है। Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० अनेकान्त ११ परीक्षा — उक्त विस्तृत विचारणाकी यह समीक्षा भी क्या कोई समीक्षा कहला सकती है ? इसे तो सहृदय पाठक स्वयं समझ सकते हैं। यहां पर मैं सिर्फ इतना ही बतला देना चाहता हूँ कि जब श्री पूज्यपाद, अकलंक और सिद्धसेन के सामने दूसरे कुछ विभिन्न सूत्रपाठोंका होना पाया जाता है तथा "त एवं वर्णयन्ति "," मनुष्यादिग्रहणमनार्प - मितिसंगिरन्ते” जैसे वाक्योंके द्वारा उन पर दूसरी टीका रचे जानेका भी स्पष्ट आभास मिलता है और इस पर समीक्षा में कोई आपत्ति नहीं को गई, तब अमुक सूत्रोंके प्रस्तुत भाष्य में मिलने मात्र से, जिसमें एक योगीकरणकी बात भी आजाती है, यह कैसे कहा जा सकता है कि "कलंकका लक्ष्य इसी भाष्यकं सूत्रपाठकी ओर था ?" क्या प्रो० साहबके पास इस बात की कोई गारण्टी हैं कि अमुक सूत्र उन दूसरे सूत्रपाठोमे नहीं थे ? यदि नहीं, तो फिर उनका यह नतीजा निकालना कि "ककलंका लक्ष्य इसी भाष्यकं सूत्रपाठकी ओर था" कैसे संगत हो सकता है ? ऐसा कहनेका तब उन्हें कोई अधिकार नहीं । उनके इस कथन मे तो ऐसा मालूम होता है कि शायद प्रो० साहब यह समझ रहे हैं कि सूत्रों परसे भाष्य नहीं बना किन्तु भाष्य परसं सूत्र निकले हैं और सूत्रपाठ भाष्य के साथ सदैव तथा सर्वत्र नत्थी रहता है ! यदि ऐसा है तो निःसन्देह ऐसी समझकी बलिहारी है !! [ प्राश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६ प्रतियो में 'अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य" और स्वभावमार्दवं च "येदोनों सूत्र अपने इसी रूपमें पाये जाते हैं, टीकाओं में भी इनके इसी रूपका उल्लेख है और इनके योगीकरणका वह रूप नहीं बनता जो प्रस्तुत माध्यमे उपलब्ध होता है । इसके सिवाय जब प्रो० साहब के पास भाण्डारकर इन्स्टिटयूटकी प्रतिके आधार पर लिये हुए राजवार्तिक के पाठान्तर हैं और पं० कैलाशचन्द्र जी की माफत बनारसका प्रतिके पाठों का भी अपने परिचय प्राप्त किया है तब कम से कम अपनी उन प्रामाणिक प्रतियां के आधार पर ही आपको यह प्रकट करना चाहिये था कि उनमे उन दोनों मूत्र के क योगीकरणका वही रूप दिया है जो प्रस्तुत श्वेताम्बरीय भाष्य में पाया जाता है। ऐसा न करके 'संभवत:' और 'शायद' शब्दों का सहारा लेते हुए उक्त कथन करना आपत्तिमे बचनेके लिये व्यर्थकी कल्पना करनेके सिवाय और कुछ भी अर्थ नहीं रखता । आपत्ति बचनेका यह कोई तरीका नहीं और न इसे समीक्षा ही कह सकते हैं । प्रो० साहब के लेख के चौथे नम्बर के 'ख' भाग पर विचार करने के अनन्तर मैने उनके लेख के नं २ पर, जिसका परिचय भी शुरू में दिया जा चुका है, जो 'विचारणा' लिखी थी वह इस प्रकार है : रही “अल्पारम्भपरिग्रहत्वं" आदि सूत्रकी मुद्रणसम्बन्धी अशुद्धिकी बात, यह कल्पना आपत्ति से बचनेके लिये बिल्कुल निरर्थक जान पड़ती है; क्योंकि दिगम्बर सूत्रपाठकी सैंकड़ो हस्तलिखित "ऐसी हालत में यह स्पष्ट है कि अकलंक देव के सामने कोई दूसरा ही भाष्य मौजूद था । जब दूसरा ही भाष्य मौजूद Its तब लेख के नं० २ में कुछ अवतरणों की तुलना पर से जो नतीजा निकाला गया अथवा सूचन किया गया है वह सम्यक प्रतिभासित नहीं होता - उस दूसरे भाष्य Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, १२ में भी उम प्रकारके पदोंका विन्यास अथवा वैसा कथन हो सकता है । अवतरण में परम्पर कहीं कहीं प्रतिपाय विषय सम्बन्धी कुछ मतभेद भी पाया जाता है, जैमा नं० २ के 'क' -'ख' भागों को देखने से स्पष्ट जाना जाता है। ख-भाग में जब तत्त्वाथ भाष्य का सिदो के लिये चार नरकों तक और उरगों (मप) के लिए पाँच नरक तक उत्पत्ति का विधान है, तब राजवार्तिक का उरगों के लिये चार नरक तक और सिंहोंके लिये पाँच नरको तक की उत्पत्ति का विधान है। यह मतभेद एक दूसरे के अनुकरण को सूचित नहीं करता, न पाठ-भेद की किसी अशुद्धि पर अवलम्बित है; बल्कि अपने अपने सम्प्रदायक सिद्धान्त-भेदको लिये हुए है । राजवार्तिक का नरक में जीवोके उत्पादादि सम्बन्धी कथन 'तिलोय पण्णत्ती' आदि प्राचीन दिगम्बर ग्रन्थों के आधार पर अवलम्बित है ।" * प्रो० जगदीश चन्द्र और उनकी समीक्ष इसके उत्तरमे प्रो० साहवकी समीक्षाका रूप मात्र इतना ही है १२ समीक्षा -- "हम अपने पहले लेम्बमें भाष्य, सर्वार्थसिद्धि और राजवानिकों तुलनात्मक उद्धरण देकर यह बता चुके हैं कि अनेक स्थानों पर भाष्य और राजवार्तिक अक्षरशः मिलते हैं । इनमें से बहुत सी बातें सर्वार्थमिद्धम नहीं मिलतीं * देखो जैन सिद्धान्तभास्करक पूर्व भागकी तीसरी किरण में प्रकाशित 'तिलोयपण्णत्ती' का नरक विषयक प्रकरण (गाथा २८५, २८६ श्रादि), जिसमें वह विषय बहुत कुछ वर्णित है जो लेखीय न०२ के अनेक भागांमें उल्लेखित राजवार्तिक के वाक्योंमें पाया जाता 1 ०११ परन्तु वे राजवार्तिकमं ज्यों की त्यों अथवा मामूली फेर फारसे दी हुई हैं।" १२ परीक्षा - इस समीक्षा में 'विचारणा' पर क्या प्रापत्ति की गई हैं और अपने पूर्व लेख से अधिक क्या नई बात खोजकर रक्खी गई है ? इसे पाठक महज ही में समझ सकते हैं। यदि "अनेक स्थानों पर भाष्य और राजवार्तिक अक्षरश: मिलते हैं" तो इसका यह अर्थ यह कैसे हो सकता है कि राजवार्तिक में वे सब बातें ज्योंकी त्यों अथवा मामूली फेर-फार के साथ भाष्य से उठा कर रखली गई है ? खास कर ऐसी हालत में जब कि कलंक मे पहले तत्वार्थसूत्र पर अनेक टीकाएँ बन चुकी थीं, कुछ उनके सामने मौजूद भी थों और प्रस्तुत श्वेताम्बरीय माध्य को प्रो० साहब अभी तक स्वयं मूल सूत्रकार उमास्वाति श्राचार्य का बनाया हुआ 'स्वोपज्ञ भाग्य' सिद्ध नहीं कर सके हैं ? दिगम्बर उसे 'स्वापज्ञ' नहीं मानते और इन पंक्तियों का लेखक हो मानता है, जिसकी 'विचारणा' को आप समीक्षा करने बैठे हैं। यहाँ पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि मेरी विचारणा के "उस दूसरे माध्य में भी उस प्रकार के पदों का विन्यास अथवा वैसा कथन हो सकता है" इस वाक्य को लेकर प्रो० साहब ने अपने इस ममीक्षा लेख के शुरू में यहाँ तक लिखने का साहस किया है "मुख्तार साहब के प्रस्तुत तस्वार्थ भाष्य के कलंक के समक्ष न होनेम जो प्रमाण हैं वे केवल इसतर्क पर अवलम्बित हैं कि इसी तरह के वाक्य विन्यास और कथन वाला कोई दूसरा भाष्य रहा होगा, जो श्राजकल Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकात [मारिवन, वीरनिर्वाण सं०२५५० अनुलब्ध है। लेकिन यह तर्क सर्वथा निर्दोष नहीं कहा प्रतिषेधार्थमिह कायग्रहणं क्रियते ।" इससे स्पष्ट है जा सकता।" कि उक्त वार्तिक सर्वार्थमिद्धिके शब्दों पर ही अपना ___ मैंने इस प्रकारका कोई तर्क नहीं किया और न आधार रखता है. और इसलिये यह कहना कि मेरे सारे प्रमाण केवल इस तर्क पर अवलम्बिन है, यह भाष्यको 'मद्वासमयप्रतिषेधार्थ च' इस पंक्तिको बात मेरी (सम्पादकीय) 'चिारणा' स दे। कर प्रकाश उक्त वार्तिक बनाया गया हे कुछ सगत मालूम नहीं की तरह स्पष्ट है । इतने पर भी प्रो० साहवका उक्त होता । ऊपरकं मम्पूर्ण विवेचनको रोशनीमें वह लिखना दसरेके वाक्यका दुरुपयोग करना ही नहीं, और भी असंगत जान पडता है। बल्कि भारी ग़लत बयानीको लिये हुए है, और इस इस 'विचारणा' पर प्रो० साहबन पानी लिये बड़ा ही दुःसाहसका काम है । अपनी ममीक्षाका ममीक्षामें जो कुछ लिखा है वह सब इस प्रकार हैरंग जमाने के लिए अपनाई गई यह नीति प्रोफेभर १३ ममीक्षा-कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुस्वार्थम जैसे विद्वानोंको शोभा नहीं देती। हमी प्रकारका एक द्धासमय प्रतिषेधार्थ च' भाष्यकी इम पंक्तिकी राजऔर वाक्य भी आपने मेरे नाममे अपने समीक्षालेखके वार्तिकमें तीन वार्तिक बनाई गई हैं-'अभ्यंन्तरशुरूमें दिया है, जो कुछ गलत सूचनाको लिये हुए है; कृतवार्थः कायशब्दः': 'तद्ग्राणं प्रदेशावयवबहुत्वज्ञा. और इसलिये ठीक नहीं है। पनार्थ,' 'मद्वाप्रदेश प्रतिषेधार्थ च'। कहना नहीं होगा प्रोफेसरसाहबके लेखके तृतीय भाग (नं० ३) कि वार्तिककी उक्त पंक्तियोंका साम्य मर्वार्थसिद्धि की, जिसका परिचय भी शुरूमें दिया जाचुका है, की अपेक्षा माध्यमे अधिक है। दूमरा उदाहरणअालोचना करते हुए मैंने जो 'विचारणा' उपस्थित 'नाणोः'-सूत्रके माध्यमे उमास्वानिन परमाणु का की थी वह इस प्रकार है: लक्षण बताते हुए लिखा है--'भनादिरमध्यो कि "इसी तरह भाष्यकी पक्तिको उठाकर वार्निक परमाणुः । सर्वामिद्धिकार यहाँ मौन हैं । परन्तु बनाने आदिकी जो बात कही गई है वह भी कुछ राजवातिकम देखिये-मादिमध्यान्तव्यपदेशाभावाठीक मालूम नहीं होती । अकलंकने अपने राज- दितिचेन्न विज्ञानवत ( वार्तिक ) इमकी टीका वार्तिकमें पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिका प्राय: अनुसरण लिखकर अकललन भाष्यक उक्त वाक्यका ही किया है। सर्वार्थसिद्धि में पांचवें अध्यायकं प्रथम समर्थन किया है। इस तरहकं बहुतसं उदाहरण सूत्रकी व्याख्या करते हुए लिखा है--"कालो पचयते, दियं जा सकते हैं।" तस्य प्रदेशप्रतिषेधार्थमिह कायग्रहणम् ।" इसी बात .. १३ परीक्षा-'विचारणा' में उपस्थित विचार को व्यक्त करते हुए तथा कालके लिये उसके पर्याय का कोई उत्तर न देकर, यहाँ भाष्यकी जिस पंक्ति नाम 'अदा' शब्दका प्रयोग करते हुए राजबार्तिक परमे जिन तीन वार्तिकोंक बनानेकी बात कही में एक वार्तिक "श्रद्धाप्रदेशप्रतिषेधार्थ च" दिया है गई है वह समुचित प्रतीत नहीं होती; क्योंकि और फिर इसकी व्याख्यामें लिखा है--"भद्धाशम्दो "अभ्यन्तरकृतेवार्थ कायशब्द" इम वार्तिककी भाष्य निपातः कालवाची सवयमाववरणः तस्य प्रदेश की उक्त पंक्ति परसं जरा भी उपलब्धि नहीं होती, Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३ रिस १२ 1 प्रत्युत इसके, सर्वार्थसिद्धि में "यथा शरीरं पुद्गलवग्य प्रचयात्मकं तथा धर्मादिष्वपि प्रदेश प्रचयापेचया कायाहव काया इति" इस वाक्य के द्वारा जो भाव व्यक्त किया गया है उसीको लेकर उक्त वार्तिक बना है। दूसरा वार्तिक सर्वार्थसिद्धि के "किमर्थ: कायशब्दः ? प्रदेश बहुत्वज्ञापनार्थ: " इन शब्दों पर बना और तीसरा वातिक सर्वार्थसिद्धि परसे कैसे बना, यह बात ऊपर उद्धृत 'विचारणा' में दिखलाई ही जा चुकी हैं। ऐसी हालत मे उक्त तीनों वार्तिकों का सब से अच्छा बुद्धिगम्य आधार सर्वार्थमद्धि हो सकती हैं न कि भाष्य की उक्त पंक्ति । राजवार्तिक की तीन पंक्तियों में जब एक पंक्ति ही भाष्य परमं उपलब्ध नहीं होती तब भाष्यकं साथ उसका अधिक साम्य कैसे हो सकता है ? और कैसे उक्त पंक्ति पर तीन वार्तिकांक बनने की बात कही जा सकती है ? हाँ, समीक्षा-लेखकी समाप्ति करते हुए प्रो० साहबने यह भी एक घोषणा की है कि“समानता,सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक में भी है । परन्तु यहां भाष्य और राजवार्तिककी उन समानताओंसे हमारा अभिप्राय है जिनको चर्चा तक सर्वार्थसिद्धन नही ।" इस परसे हर कोई प्रो० साहब से पूछ सकता है कि भाष्यकी पंक्ति परसे जिन तीन वार्तिकांक बनाये जानेकी बात कही गई है उनके विषय की चर्चा क्या सर्वार्थसिद्धि में नहीं है ? यदि हैं तो फिर उक्त घोषणा अथवा विज्ञप्ति कैसी ? प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा अब रही परनागु के लक्षण की बात, भाष्य पर से जो लक्षण उद्धृत किया गया है वह भाष्य में उस रूपसे नहीं पाया जाता । भाष्य के अनुसार उसका रूप है – 'अनादिरमध्योऽप्रदेशो हि परमाणुः । ३ नहीं मालूम प्रो० साहबने 'अप्रदेश:' पद का परित्यागकर अधूरा लक्षण क्यों उद्धृत किया ? प्रदेशों के कथनका तो खास प्रसंग ही चल रहा था और परमाणुके उनका निषेष करने के लिये ही 'नायो:' सूत्र का अवतार हुआ था, उसी प्रदेश- निषेधात्मक पद को यहाँ छोड़ दिया गया, यह आश्चर्य की बात है ! अस्तु; सर्वार्थसिद्धि में प्रकरणानुसार "श्रणोः प्रदेशा न सन्ति" इस वाक्य के द्वारा परमाणु க் प्रदेशों का ही निषेध किया है, बाकी परमाणुओं का लक्षण अथवा स्वरूप "प्रणवः स्कन्धाश्च" सूत्र की व्याख्या में दिया है, जो इस प्रकार हैं "सौम्यादात्मादय श्रात्ममध्या आस्मान्ताश्च" । साथ ही, इम की पुष्टि में 'उक्तं च' रूपसे "अतादि प्रत्तम " नाम की एक गाथा भी उद्धृत की है, जो श्री कुन्दकुन्दाचायक 'नियमसार' की २६वीं गाथा है। अकलंक ने भी गाथा- सहित यह सब लक्षण इसी सूत्र की व्याख्या में दिया है । 'नायो' सूत्र की व्याख्या में परमाणु का कोई लक्षण नहीं दिया । प्रो० साहब ने जो वार्तिक उद्धृत किया है वह और उसका भाष्य इस शंका का समाधान करने के लिये अवतरित हुए हैं कि परमाणु के आदिमध्य और अन्तका व्यपदेश होता है याकि नहीं ? यदि होता है तो वह प्रदेशवान् ठहरेगा और नहीं होता है तो खर विषाण की तरह उसके अभाव का प्रसंग आएगा? ऐसी हालत में यह समझना कि सर्वार्थसिद्धिकार ने परमाणु का लक्षण नहीं दिया अथवा वे इस विषय में मौन रहे हैं और अकलंक ने उक्त भाष्य का अनुसरण किया है, नितान्त भ्रममूलक जान पड़ता है । Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oku अनेकान्त उपसंहार मैं हूँ प्रो० साहब के समीक्षा लेखकी अत्र ऐसी कोई खास बात अवशिष्ट नहीं रही जो आलोचना के योग्य हो और जिसकी आलोचना एवं परीक्षा न की जा चुकी हो। अतः मैं विराम लेता हुआ उपसंहाररूप सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि कार के इस संपूर्ण विवेचन एव परीक्षण परसे जहाँ यह स्पष्ट है कि मेरी 'सम्पादकीय विचारणा' मे प्रो० साहबके पूर्व लेखको कोई खास बात विचारसे छूटा नहीं थी अथवा छोड़ी नहीं गई थी उनके लेख के चारों भागों के सभी मुद्दों पर यथेष्ट विचार किया गया था और इसलिये अपने समीक्षा-लेखके शुरू में उनका यह लिखना कि "मी युक्ति (प्रस्तुत भाष्य में षट् द्रव्योंका विधान न मिलने मात्रकों बात) के आधार पर मुख्तारसाहबने मेरे दूमरे मुद्दोंको भी असंगत ठहरा दिया है उन पर विचार करने की भी कोई श्रावश्यकता नहीं समझी" मरासर ग़लत बयानीको लिये हुए है, वहां यह भी स्पष्ट है कि प्रो० साहबकी इम समीक्षा में कुछ भी - रत्ती भर भी सार नहीं है, गहरे विचारके साथ उसका कोई सम्बाध नहीं, वह एकदम निष्प्राण- बेजान और समीक्षा पदके अयोग्य समीक्षाभास है । इसीसे 'सम्पादकीय विचारणा'को सदोष ठहराने में वह सर्वथा श्रममर्थ रही है | और इसलिये उसके द्वारा प्रो० माहत्रका वह श्रभिमत सिद्ध नहीं हो सकता जिसे वे मिद्ध करके दूसरे विद्वानोंके गले उतारना चाहते थे अर्थात् (१) तत्वार्थ सूत्रका प्रस्तुत श्वेताम्बरीय [आश्विन, वीरनिर्वाय सं० २४३६ भाष्य अपने वर्तमानरूप में कलकके सामने मौजूद था श्र फलंकदेव उससे अच्छी तरह परिचित थे, (२) अकलंकने अपने राजवार्तिक में उसका यथास्थान उपयोग किया है, (३) अकलंक ने 'अहस्प्रवचने', 'भाष्ये' और 'मध्यं' जैसे पदके प्रयोगद्वारा उस भाष्य के अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख किया है, (४) अकलंक उसे 'स्वोपज्ञ' स्वीकार करते थे - तत्वार्थसूत्र और उसके भाप के कर्ताको एक मानते थे, और (५) अकलं कने उसके प्रति बहुमानका भी प्रदर्शन किया है, इनमें से कोई भी बात सिद्ध नहीं होती। साथ ही, यह भी स्पष्ट है कि प्रो० साहबकी लेखनी बहुत ही श्रसावधान है वह विषयका कुछ गहरा विचार करके नहीं लिखती, इतना ही नही, किन्तु दूसरोके कथनों को ग़लत रूपम विचारके लिये प्रस्तुत करता है और ग़लत तथा मन-माने रूप में दूसरोंके वाक्योंको उद्धृत भी करती है। ऐसी असावधान लेखनीके भरोसे पर ही प्रो० साहब 'गजवार्तिक' जैसे महान् ग्रथका सम्पादन-भार अपने पर लेने के लिये बचत हो गये थे, यह जान कर बड़ा ही श्राश्रर्य होता है !! अन्तमें विद्वानोंस मेरा मादर निवेदन है कि वे इस विषय पर अपने खुले विचार प्रकट करने की कृपा करें और इस सम्बन्ध में अपनी दूसरी खोजोंको भी व्यक्त करें, जिससे यह विषय और भी ज्यादा स्पष्ट होजाय । इत्यलम् वीरसेवा मन्दिर, मरसावा, ता० १८-१०-१६४० Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिरकी विशति वीरसेवामन्दिरकी विज्ञप्ति 'समंतभद्रभारती'की प्रकाशन-योजना छपाईतथा जिल्द बँधाई भी अव्वल नम्बरकी होगी । स्वामी समन्तभद्र के जितने भी ग्रंथ इस समय इस तरह इस प्रथराजकके सर्वाग सुन्दर; अत्यन्त __उपयोगी और दर्शनीय बनानेका पूरा प्रयल किया उपलब्ध हैं उन सबका एक बहुत बढ़िया संस्करण जायगा। 'समन्तभद्रभारती' के नामसे निकालनेका विचार स्थिर किया गया है। इस प्रन्थमें स्वामीजीके सब पाठकोंको यह जानकर बड़ी प्रसन्नता होगी पथोंका मूलपाठ अनेक प्राचीन प्रतियोंपरसे खोजकर * कि ग्रंथराजका कार्य प्रारम्भ हो गया है-कुछ रक्खा जायगा साथमें हिन्दीअनुवाद भी अपनी खास विद्वानान बिल्कुल सेवाभावसे-स्वामी समन्तभद्र विशेषताको लिए हुए होगा । उसे पढ़ते हुए मल के ऋणसे कुछ उऋण होनेके खयालसे इसके मन्थको सिरिटमें कोई अन्तर नहीं पड़ेगा, उसकी । . एक एक ग्रंथक अनुवाद कार्यको बांट लिया है। धारा भी नहीं टूटेंगी; और जो अर्थ शब्दोंकी तहमें पं.बंशाधरजो व्याकरथाचार्यने बहत स्वतम्भ छिपा हुआ है अथवा रहस्यके रूयमें पर्दे के भीतर स्तोत्र' का, पं० फूलचंदजो शालीन 'युक्तनुशासननिहित ह वह सब प्रकट तथा स्पष्ट होता चला का, पं० पन्नालालजी साहित्याचार्यन 'जिनशतक, जायगा । और व्यर्थका विस्तार भी नहीं होने पाएगा नामकीस्तुति विद्याका और न्यायाचार्य पं० महेंद्र टीकाओं में उपलब्ध होने वाली कठिन पदोंकी सस्वत कुमारजीन 'देवागम' नामक प्राप्तमीमांसाका टिप्पिणियाँ भी फुटनोटसके रूपमें रहेंगी । हिन्दीकी अनुवाद करना सहर्ष स्वीकार किया है--कई नई उपयोगी टिप्पणियाँ भी लगाई जायेंगी । और विद्वानोंने अपना अनुवाद- कार्य प्रारम्भ भी कर इन सबके अतिरिक साथमें ही बड़ी महत्वपूर्ण दिया है । अवशिष्ट 'रस्नकरण्डक' नामक उपासखोजपूर्ण प्रस्तावना होगी, जिसमें मूल अथोंके विष- काध्ययनका अनुवाद मेरे हिस्से में रहा है, प्रस्तावना पादिक पर यथेष्ठ प्रकाश डाला जायगा-स्वामी तथा जोवन चरित्र लिखने का भारभी मेरे ही अपर समन्तभद्र का जीवन चरित्र होगा। पूरा शब्दकोश रहेगा, जिसमें मेरे लिये अनुवादकों तथा दूसरे होगा और पद्यानुकणिका आदिके अनेक उपयोगी विद्वानोंका सहयोग भी पांछनीय होगा। वीरसेवा परिशिष्ट भी रहेंगे । कागज बहुत पुष्ट तथा अधिक मन्दिर के कुछ विद्वान परिशिष्ट तैयार करेंगे, और समय तक स्थिर राने वाला लगाया जायगा और यह दृढ़ प्राशा है कि प्रोफेसर ए.एन. उपाण्यावजी Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भारियन, बीर निर्वावसं०१, एम. ए., डी. लिट. अंग्रेजीमें भूमिका लिख देनेकी था, अब पाठकोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि भी कृपा करेंगे, और भी जो विद्वान इम पुण्य एक मित्र महोदय के अश्वासन पर उसके प्रकाशन कार्यमें किसी भी प्रकारसे अपना महयोग प्रदान का कार्य शीघ्र प्रारम्भ होने वाला है और उसमें करेंगे वह सब सहर्ष स्वीकार किया जायगा और यह खास विशेषता रहेगी कि लक्षणों का हिन्दी में मैं उन सबका हृदयसे आभारी हूँगा । जहाँ जहाँके सार अथवा अनुवाद मा प्रकट किया जायगा, शास्त्र भण्डारोंमें उक्त ग्रन्थोंको प्राचीन शुद्ध प्रतियां जिससे यह महान ग्रन्थ, जो धवला जैजी बड़ो हों अथवा इनसे भिन्न ममन्तभद्र 'जोििद्ध बड़ी चार जिल्दों में प्रकाशित होगा, सभी के तथा तत्वानुशासन' जैसे ग्रन्थ उपलब्ध हो उन्हें लियं उपयोगी साबित होगा- प्रत्यक स्वाध्यायखोज कर विद्वान लोग मुझे शीघ्र ही निम्न पते प्रेमी इस से यथेष्ट लाभ उठा सकेगा- और सभी पर सूचित करनेकी कृपा करें। मंदिरों तथा लायब्रेरियों में इसका रक्खा जाना आवश्यक समझा जायगा । इमकी विशेष योजना (२) 'जैनलक्षणावली का प्रकाशन ___ तथा प्रत्येक जिल्द (खण्ड) के मूल्यादि की सूचना जिस 'जैनलक्षणावली' अर्थात् लक्षणात्मक बाद को दी जावेगी। जैन पारिभाषिक शब्दकोश का काम वीरमेवा मन्दिर में कई वर्ष से हो रहा है और जिसका एक नमूना पाठक अनेकान्त के वीरशामनाङ्क में जुगलकिशोर मुख्तार देख चुके हैं, उसके प्रकाशन का कार्य आर्थिक अधिष्ठाता 'वीरसेवा मन्दिर, सहयोग न मिलने के कारण एक साल से स्थगित सरमावा जि. सहारनपुर Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मो० कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्तिके विचार पर प्रकाश [लेखक--पं० परमानन्द जैन शात्री] मैंने 'गोम्मटसार कर्मकारतकी त्रुटि-पूर्ति' नामका विद्वानोंने स्पट शब्दों में कर्मकाण्डके प्रथम अधिकारका - एक लेख लिखा था, जो अनेकान्तकी गत- त्रुटि-पूर्ण होना तथा कर्मकावरका अधूरापन स्वीकार संयुक्त किरण नं. १ में प्रकाशित हुआ है। इस लेख भी किया । उदाहरण के तौर पर पं० साशचन्द्रजी में मुद्रित कर्मकाबडके पहले अधिकार प्रकृतिसमुत्को-शानी प्रधानाध्यापक स्पाहाद महाविद्यालय काशी तन' को त्रुटिपूर्ण बतलाते हुए, 'कर्मप्रकृति' नामक एक लिखते है कि--"इसमें तो कोई शक ही नहीं कि कर्म दूसरे अन्धके माधारपर जो गोम्मटसारके कर्ता नेमि- काण्डका प्रथम अधिकार त्रुटि-पूर्ण "। और उक्त चन्द्राचाय का ही बनाया हुमा मालूम हुआ था, मैंने विद्यालय के न्यायाध्यापक न्यायाचार्य पं. महेन्द्र उक्त अधिकारकी त्रुटि-पूर्ति करनेका प्रथम किया था, कुमारजी शास्त्री लिखते हैं कि- "यदि यह प्रयत्न और यह दिखवाया था कि ७५ गाथाएँ जो कर्मप्रकृतिमें सौलह पाने ठीक रहा और कर्मकाण्डकी किसी प्राचीन कर्मकाण्डके वर्तमान अधिकारसे अधिक हैं और किसी प्रतिमें भी ये गाधाएं मिल गई तब कर्मकाण्डका समय कर्मकाण्डसे छूट गई अथवा जुवा पड़ गई है, अधुरापन सचमुच दूर हो जायगा"। उन्हें कर्मकाण्डमें यथास्थान जोर देनेसे सहन ही में परन्तु प्रो. हीराबालजी अमरावतीको मेरा उक्त उसकी त्रुटि-पूर्ति हो जाती है और वह सुसंगत तथा लेख नहीं जंचा' और उन्होंने उसपर भापत्ति करते हुए सुसंबद्ध बन जाता है क्योंकि यह संभव नहीं है कि अपना विचार एक स्वतन्त्र लेख द्वारा प्रकट किया है, एक ही अन्धकार अपने एक अन्य अथवा उसके एक जो अनेकान्तकी गत 1वी किरण में मुद्रित हो चुका भागको तो सुसंगत और सुसम्बद बनाए और उसी है। इस लेख में पापने यह सिद्ध करनेकी चेष्टाकी है कि विषयके दूसरे ग्रन्थ तथा दूसरे भागको असंगत और (१) धर्मकारसे ७५ गाथाभोंका छूट जाना या बुवा असम्बद्ध रहने दे। साथ ही, यह भी व्यक्त किया था पर जाना संभव नहीं, (३) कर्मकाण्ड अधूरा न होकर कि कर्मकाण्डके इस प्रथम अधिकारके त्रुटिपूर्ण होनेको पूरा और सुसम्बद है; और (६) कर्मप्रकृति ग्रंथका दूसरे भी अनेक विद्वान् परसे अनुभव करते भारहे हैं गोम्मटसारके कर्ता द्वारा रचित होनेका कोई प्रमाण और उनमेंसे पं० अर्जुनखान सेठीका नाम खास तौर नहीं, वह किसी दूसरे नेमिचन्द्र की रचना हो सकती से उनके कथनके साथ उल्लेखित किया था । मेरे इस है। चुनाँचे इन सब बातोंका विवेचन करते हुए, मापने लेखको पड़कर अनेक विद्वानोंने उसका अभिनन्दन अपने का जो सार मन्तिम पैरेग्राफमें दिया है वह किया तथा अपनी हार्दिक प्रसनता पक्ष की, और कई इस प्रकार है:-- Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F अनेकान्त '[आश्विन वीर निर्वाच सं० २०६६ की प्रति परसे जो कोई असावधान लेखक कापी करे यह उस एक पंक्तिकेापक खाली स्थानको नहीं दोष सकता, और इस तरह फिर उसकी प्रति परसे यह कल्पना भी सहज नहीं होती कि बीचका भाग किसी तरह छूट गया है। "इस प्रकार न तो हमें कर्मकाण्ड में अधूरे व लंदूरे पनका अनुभव होता है, न उससे कमी उतनी गाथाके छूट जाने व दूर पर जाने की सम्भावना जंचती है, और न कर्मप्रकृति के गोम्मटसारके कर्ता द्वारा ही रचित होने के कोई पर्याप्त प्रमाण दृष्टिगोचर होते हैं । ऐसी अवस्थामें उन गाथाओंके कर्मकाण्ड में शामिल कर देनेका प्रस्ताव हमें बड़ा साहसिक प्रतीत होता है ।" अब मैं प्रोफेसर साहबकी उक्त तीनों बातों पर संक्षेप में विचार करता हुआ कुछ विशेष प्रकाश डालता हूँ और उसके द्वारा यह बतखाना चाहता हूँ कि प्रो० माहवका विचार इस विषय में ठीक नहीं हैः- १ ) पश्चात् के लिपिकारों द्वारा ७५ गाथाओंका मूलग्रंथसे छूट जाना कोई असंभव नहीं है । जिन विद्वानोंको प्राचीन और अर्वाचीन ग्रंथ-प्रतियोंको देखनेका अवसर मिला है ये इन लिपिकारोंकी कर्तृतसे मली भाँति परिचित है, और अनेक बार उस पर प्रकाश डालते रहते हैं। इसका एक ताजा उदाहरण न्यायाचार्य पं० महेन्द्र कुमारजी के 'सत्य शासन-परीक्षा' विषयक लेख भी मिलता है, जो अनेकान्तकी गत ११वीं किरच में ही प्रकाशित हुआ है। इस लेख में उन्होंने लेखमें यह स्पष्टरूपसे प्रकट किया है कि ग्रंथमें 'शब्दाद्वैत' की परीक्षाका पूरा प्रकरण छूटा हुआ है, 'पुरुषाद्वैत' की समाप्ति पर एक पंक्तिके लायक स्थान छोड़कर 'विज्ञा. नाईत' की परीक्षा प्रारम्भ कर दीगई है, जब कि दोनों के मध्य में मप्र राजाईत' की परीक्षा होना चाहिये थी। धारा की जिस प्रति परसे उन्होंने परिचय दिया है उसमें एक पंकिके करीब जो स्थान छुटा हुआ है वह इस बातको सूचित करता है कि मध्यका भाग नहीं लिखा जा सका, जिसका कारण उस अंशके पत्रोंका त्रुटित हो जाना आदि ही हो सकता है। आरा प्रोफेसर साहबने यह लिखा है कि - "यदि लिपिकारों के प्रमादमे वे ( गाथाएँ) छूट गई होतीं तो टीकाकार अवश्य उस ग़लतीको पकड़ कर उन गाथाओं को यथास्थान रख देते, और यदि वे प्रसंगके लिये अत्यन्त आवश्यक थीं तो वे जान बूझकर तो उन्हें छोड़ ही नहीं सकते थे ।" यह ठीक है कि कोई टीकाकार जान बूझकर ऐसा नहीं कर सकता, परन्तु यदि उस टीकाकार को टीकामे पहले ऐसी ही मूल ग्रन्थ प्रति उपलब्ध हुई हो जिसमें उक्त गाथाएँ न हों और त्रुटित गाथाओंको मालूम करनेका उसके पास कोई साधन भी न हो तो फिर वह टीकाकार उन त्रुटित गाथाओं की पूर्ति कैसे कर सकता है ? फिर भी, कर्मकाण्ड के प्रस्तुत टीकाकारने उन गाथाओं के विषयी पूर्ति अन्य ग्रन्थों परले की है और उस पूर्ति परसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वह वहां उस विषयको त्रुटित समझता था; क्योंकि उसका वह कथन प्रकृत गाथाकी व्याख्या न होकर कथनका पूर्वापर सम्बन्ध मिलाने की दृष्टिको जिये हुए है। यदि मूल ग्रंथमें कथन सुसम्बद्ध होता तो संस्कृत टीकाकार के लिये त्रुटित गाथाओं वाले विषयको अपनी काम देने की कोई जरूरत नहीं थी। एक उदाहरण द्वारा मैं इस विषयको और भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। और वह यह है कि श्री अमृतचन्द्राचार्य और जयसेनाचार्य दोनोंने 'समय-सार' तथा 'प्रवचन-सार' की टीकाएँ लिखी हैं, जिनमेंसे अमृतचन्द्र की टीकाएँ पहलेकी बनी हुई हैं। परन्तु दोनों प्राचार्यों Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष किरण ] गोकर्मकांडकी त्रुटि पर्तिके विचार पर प्रकाश की टीकाओं में मूल गाथानों की संख्या एक नहीं है। 'चिरकालं' पदके आगे पीछे भाशीर्वादात्मक कोई अमृतचन्द्राचार्यको समय-सार टीकासे जयसेनाचार्यकी पद भी नहीं है। संभव है कि इसका मूलरूप कुछ समय-सार टीका में २८ गाथाएँ अधिक है, और अमृत- दूमरा ही रहा हो और यह अन्तमें किसी चन्द्राचार्य की प्रवचनसार टीकासे जयसेनकी प्रवचन-सार प्रकारसे प्रक्षिप्त होकर कर्मकाण्डमें रक्खी गई हो। टीकामें २२ गाथाएँ अधिक है। अब प्रश्न होता है कि चामुण्डरायकी बनाई हुई वैमी कोई टीका इमसमय यदि वे गाथाएँ जो जयसेनाचार्य की टोकामें अधिक उपलब्ध नहीं है और न उक्त गाथाके आधारके पाई जाती हैं मून ग्रन्थकी गाथाएँ है तो क्या फिर अतिरिक्त दूसरा कोई स्पष्ट प्रमाण ही उसके प्राचार्य अमतचन्दने उन्हें जान बूझकर छोड़ दिया है ? रचे जानेका देखने में आता है। थोड़ी देरके लिये और यदि जान बूझकर नहीं छोड़ा तो उन्हें अपनी यदि यह मान भी लिया जाय कि चामुंडरायने. टीकामे क्यों नहीं दिया ? और यदि वे गाथाएँ लिपि- उसी समय गोम्मटसार कम काण्ड पर कोई टीका कारोंसे छूट गई थीं तो क्यों उनकी पूर्ति नहीं की? लिखी.थी तो भी यह कैसे कहा जा सकता है कि. और यदि वे मूल ग्रंथको गाथाएं नहीं हैं तो जयसेना- ३००-४०० वर्षके पीछे बनो हुई केशववर्णीकी चार्यने उन्हें क्यों मूलग्रंथ की गाथा प्रकट किया ? इन कनडीटीका बिल्कुल उमीके आधार पर बनी हैप्रश्नोंके उत्तर परमे ही प्रोफेसर साहब के उक्त कथनका उन्हें वह देशी टीका प्राप्त थी और उसमें उस वक्त सहज-समाधान हो जाता है। तक कोई अंश त्रुटित नहीं हुआ था ? अथवा इस ___ कर्मकाण्डसे गाथाभोंके न छूटने की एक युक्ति लम्बे चौड़े समयकं भीतर उस देशी टीकाकी प्रति प्रोफेसर साहबन यह भी दी है कि-गोम्मटसार और सरी मूल प्रतियोंमें, जो केशववर्णीको की टोकाकी परम्परा उसके कर्ताक जीवनकाल में अपनी टीका के लिये प्राप्त हुई थी, मूल पाठ अविही, ग्रन्थकी रचनाके साथ साथ ही प्रारम्भ हो कल रूपमे चला पाया था और उसमें किसी भी गई थी अर्थात् चामुण्डरायने उसकी देशी (टीका) कारणवश कोई गाथा त्रुटिन नहीं हुई थी ? प्रस्तुत कर डाली थी, उममं कोई ३०० वर्ष पश्चात् केशव- संस्कृत टीका तो कंशववर्णीकी टीकासे कोई१५०वर्ष वर्णीन कनड़ी टीका लिखी और फिर कनड़ी टीका बाद बनी है। क्योंकि इसके कर्ता नमिचन्द्र भट्टारक के पाधार परमे वह 'जोवतत्त्वप्रबोवनी' टीका ज्ञानभूषण के शिष्य थे और ज्ञानभूषणका अस्तिलिखी गई, जिम टीकाकी प्रशस्तिकं कुछ वाक्य त्व वि० सं० १५७५ तक पाया जाता है * । तथा आपने उद्धृत किये हैं। चामुण्डराय द्वारा देशीके कंशववर्णीकी टीका.शक सं० १२८१ (वि० सं० लिखे जानेको एक गाथा भी मापन उद्धृत --- की है, जो कर्मकाण्ड में अंतिम गाथाके रूपसं सं० ११.५ में ज्ञानभूषण भट्टारकको ज्ञाना. दर्ज है, और जो अपनी स्थिति परमे बहुत कुछ विकी एक प्रति ब्रह्म तेजपानने लाकर मेंट की थी, ऐसा संदिग्ध जान पड़ती है। क्योंकि उसमे प्रयुक्त हुए मुख्तारसाहबके ऐतिहासिक खातोंके रजिष्टरपरसे मालूम 'बा' पदका कोई सम्बन्ध व्यक नहीं होता और होता है। Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [भाषिन, पीरनिर्वावसं. १४१६ ) में बनकर समाप्त हुई थी। ऐसी हालतमें कितनी कितनी उत्तर प्रकृतियाँ हैं यह बतलाते हुए वह अनुमान करना निरापद् नहीं हो सकता कि उत्तर प्रकृतियों की कुल संख्या १४८ दी है; परन्तु इन टीकाओंमें चामुण्डरायकृत देशीका माश्रय इन १४८ प्रतियों में से बहुत कम प्रकृतियों के लिया गया है। बाकी यह कल्पना नो प्रोफेसर नामादिकका वर्णन दिया है, और जो वर्णन दिया साहबकी बड़ी ही विचित्र जान पड़ती है कि- है वह अपने कथनके पूर्व सम्बन्ध के बिना बहुत "जहाँ (जिस चित्रकूटमें ) यह ( संस्कृत ) टीका कुछ खटकता हुआ जान पड़ता है, इस बातको रची गई थी वह संभवतः वही चित्रकूट था जहाँ मैंने अपने पूर्व लेखमें विस्तारके माथ प्रकट किया सिदान्ततस्वज्ञ एनाचायने 'धवला' टीकाके रच- था। एक प्रन्थकार खास प्रकृतियों का अधिकार बिता वीरसेनाचार्यको सिद्धान्त पढ़ाया था, ऐसी लिखने बैठे और उममें सब प्रकृतियों के नाम तक परिस्थितिमें यह संभव नहीं जान पड़ता कि उक्त भी न देवे यह बात कुछ भो जो को लगती हुई टीकाके निर्माणकालमें व उससे पूर्व कर्मकांडमें से मालूम नहीं होती। प्रकृति-विषयक जो अधिकार उसकी भावश्यक अंगभूत कोई गाथाएं छुट गई पंचसंग्रह प्राकृत, पंच संग्रह संस्कृत और धवलादि हों या जुदी पड़ गई हों"! क्योंकि वह चित्रकूट ग्रंथोंमें पाये जाते हैं उन सबमें भी कर्मकी १४८ भाज भी मौजूद है, आज यदि कोई वहाँ बैठकर प्रकृतियोंका नामोल्लेख पूर्वक वर्णन पाया जाता अन्य बनाने लगे तो क्या उसके सामने वह सब है। इससे मुद्रित कर्मकांडके उक्त अधिकारमें दफ्तर अथवा साधन सामग्री-मय शास्त्रमंडार सम्पूर्ण उत्तर प्रकृतियोंका वर्णन न होना जरूर मौजूद होगा, जो एलाचार्य और वीरसेनके ही उसके त्रुटित होनेको सूचित करता है। प्रोफे. समयमें था ? यदि नहीं तो एलाचार्यके और वीर- सर साहबने इस बात पर कोई खास लक्ष्य न देकर सनसे कोई सातसौ वर्ष पीछे टीका बनाने वाले जैसे तैसे यह बतलानेकी चेष्टा की है कि यदि उक्त नेमिचन्द्र के सामने वह सब दफ्तर अथवा शास्त्र- गाथाएँ इस प्रन्थमें न रहें तो कोई विशेष हानि भंडार कैसे हो सकता है ? यदि नहीं हो सकता नहीं। कहीं तो आपने यह लिख दिया है कि तो फिर उस चित्रकूट स्थान पर इस टीकाके अमुक "गाथाओंकी कोई विशेष आवश्यकता बनने मात्रसे यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह दिखाई नहीं देती," कहीं यह कह दिया है कि जिस कर्मकाण्डको टीका है उसमें उसके बननेसे अमुक "गाथाएँ २१ वी गाथाके स्पष्टीकरणार्थपहले कोई गाथाएँ त्रुटित नहीं हुई थीं। अतः टीकारूप भले ही मान ली जावें किन्तु सारप्रन्यके पहली बात जो प्रोफेसर साहबने विरोधमें कही है मूलपाठमें उनकी गुंजाइश नहीं दिखाई देती," वह युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होती। कहीं यह भी लिख दिया है कि अमुक "गाथाओं (२) मुद्रित कर्मकाण्डके प्रथम अधिकार के न रहनेसे कोई बड़ा प्रकाश व अन्धकार नहीं 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' में कर्मको मूल पाठ प्रकृतियोंके उत्पन्न होता," कहीं यह सूचित किया है कि नामादिक दिये हैं और प्रत्येक मूलप्रकृतिकी अमुक गाथाका माशय अमुक गाथासे निकाला Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष, निण १२] गोकर्मकांडको बुद्धि पूर्तिके विचार पर प्रकारा जा सकता है-परिशेष न्यायमे अमुक गाथाका लगा कर स्पर्श तक पचाश कर्म प्रकृतियां होती भाशय लिया जा सकता है, और हैं। " जैसा कि प्रोफेसर साहबने समझ लिया एक स्थान पर यहाँ तक भी लिखा है कि "यहां है, बल्कि कथनका आशय यह है कि देहसे स्पर्श तथा आगामी त्रुटि-पूर्ण अँचने वाले स्थलों पर पर्यंत जो प्रकृतियां होती हैं उनमेंमें ५० प्रकृतियाँ कर्ताका विचार स्वयं भेदोपभेदोंके गिनानेका यहाँ पुद्गनविपाकीके रूपमें प्रहणकी जानी नहीं था। वह मामान्य कथन या तो उनकी रचना चाहिये । शरीरमं सशं पर्यंत प्रकृतियों की संख्या में आगे पीछे आचुका है या उन्होंने उसे सामान्य जरूर ५२ होती है और उनमें विहायोगतिकी जानकर छोड़ दिया है"। परन्तु यह कहीं भी प्रशस्त-अप्रशस्तके भेदमे दो प्रकृतिणं भी शामिल हैं; नहीं बताया कि उक्त गाथाओंको ग्रन्थमें त्रुटित परन्तु ये दोनों प्रकृतियां कर्मकाण्डकी ४९-५०० मानकर शामिल कर लेनमें क्या विशेष बाधा की गाथाओंमें जीवविषाकी प्रकृतियोंकी संख्यामें उत्पन्न हो सकती है ? सिर्फ एक स्थल पर थोड़ा- गिनाई गई हैं। इस विशेष विधानके अनुसार सा विरोध प्रदर्शित किया है, जो वास्तवमें विरोध उन ५२ प्रकृतियोंमेंसे इन दो प्रकृतियोंको, जो कि न होकर विरोध-सा जान पड़ता है और जिसका उम वर्गकी नहीं हैं-पुद्गलविपाकी नहीं हैंस्पष्टीकरण इस प्रकार है: निकाल देने पर शेष प्रकृतियाँ ५० ही रह जाती हैं, ___ कर्मकांडमें 'देहादी फासंता परणासा' नामकी जिनकी गणना पुद्गलविपाकी प्रकृति में की गई एक गाथा नं ४७ पर है, जिसमें पुद्गलविपाकी है। चनांचे कर्मप्रकृति प्रन्थके टिप्पणमें भी, जो ६२ प्रकृतियों की गणना करते हुए देहसे स्पर्श सं० १५२७ की लिखी हुई शाहगढ़की प्रति पर पर्यंत नामकर्मकी जो प्रकृतियाँ हैं उनमेंसे पचास पाया जाता है, ऐसा हो आशय व्यक्त किया गया प्रकृतियोंके ग्रहण करनेका विधान है । इस गाया है। यथा:को लेकर प्रोफेसर साहब यह आपत्ति करते हैं- देहादिस्पर्शपयंतप्रकृतीनां मध्ये विहायोगति ब्यावस्थ ___ "कर्मकांडकी गाथा नं०४७ में स्पष्ट कहा है शेषपंचाशत् प्रकृतीनां संख्याऽत्र वाक्ये विवपिता" कि देइस लेकर स्पर्श तक पचास प्रकृतियाँ होती हैं इससे स्पष्ट है कि गाथा नं. ४७ के जिस किन्तु कर्मप्रकृतिको गाथा नं० ०५ में दो प्रकारकी भाशयको लेकर प्रोफेसर साहबने जो भापत्ति विहायोगति भी गिना दी गई है, जिससे वहां खड़ी की है वह उसका आशय नहीं है और शरीरसे लगाकर स्पर्श तककी संख्या ५२ हो गई इसलिये वह भापति भी नहीं बन सकती। है, अब यदि इन ( ७५ से २ तक) गाथाओंको यहां पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना हम कर्मकांड में रख देते हैं तो गाथा नं०४७ के चाहता हूँ कि प्रोफेसर साहबने गोम्मटसारको वचनसे विरोध पड़ जाता है।" जिस अर्थमें सार प्रन्थ समझा है उस अर्थमें वह यह आपकी भापत्ति ठीक नहीं है क्योंकि सार अन्य नहीं है, वह वास्तव में एक संग्रह ग्रंथ है, गाथा नं० ४७ में यह नहीं कहा गया कि-"देहसे जिसे मैं 'गोम्मटसार संग्रह प्रन्थ है' इस शीर्षकरें । Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०६२ अनेकान्त अपने लेख (अनेकान्त वर्ष ३, किरण ४,१०२९७) में विस्तार के साथ प्रकट भी कर चुका हूँ। मूल ग्रन्थ में भी 'गोम्मटलंगहसुस' नामसे ही उसका उल्लेख है । उसमें अनेक गाथाएँ दूसरे ग्रन्थों पर से संग्रह की गई हैं और अनेक गाथाओंको कथन-प्रसंगको दृष्टिसे पुन: पुन: भी देना पड़ा है। इसलिये 'कर्मप्रकृति' की उन ७५ गाथाओं में से यदि कुछ गाथाएँ 'जीवकाण्ड' में या चुकी हैं तो इससे उनके पुनः कर्मकाण्ड में आजाने मात्र मे पुनरावृत्ति जैसी कोई बाधा उपस्थित नहीं होती; क्योंकि कर्मप्रकृति की गाथाको छोड़कर कर्मकाण्ड में दूसरी भी ऐसी गाथाएँ पाई जाती हैं जो पहले जीव काण्ड में श्रा चुकी हैं, जैसे कर्मकाण्ड के 'त्रिकरणचूलिका' नामके अधिकारकी १७ गाथाओं में से ७ गाथाएँ पहले ataresमें आचुकी हैं। इसके सिवाय, खुद कर्मकार में भी ऐसी गाथाएँ पाई जाती हैं जो कर्मoresमें एक से अधिक स्थानों पर उपलब्ध होती हैं। उदाहरण के लिये जो गाथाएँ १५५ नं० मे १६२ नं० तक पहले वा चुकी हैं वे ही गाथाएँ पुनः नं० ९१४ मे ९२१ तक दी गई हैं। और कथनों की पुनरावृत्तिकी तो कोई बात ही नहीं, वह तो अनेक स्थानों पर पाई जाती है। उदाहरणके लिये गाथा नं० ५० नामकर्मकी जिन २७ प्रकृतियों का उल्लेख है उन्हे ही प्रकारान्तर से नं०५१की गाथा में दिया गया है। ऐसी हालत में उन ७५ गाथाओं मैं कुछ गाथाओं पर पुनरावृतिका आरोप लगा - : [ चाश्विन, वीरनिर्वाय सं० २०१६ कर यह नहीं कहा जा सकता कि वे कर्मकाण्डकी गाथाएँ नहीं हैं अथवा उनके कर्मकाण्ड में शामिल होनेसे कोई बाधा आती है। $ वे ७ गाथाएँ जीवनकांडमें नं० ४७, ४८, ४३, १०, १३, १६, १७, पर पाई जाती हैं; और कर्मकांड में To cao, sis, sai, 405, 210, 811, 412 M उपलब्ध होती हैं । चूंकि हाल में 'कर्मकाण्ड' को ऐमी प्रतियाँ भी उपलब्ध हो गई है जिनमें वे सब विवादस्थ ७५ गाथाएँ मौजूद हैं जिन्हें 'कर्मप्रकृति' पर से वर्तमान मुद्रित कर्मकाण्डके पाठ में शामिल करने के लिये कहा गया था, और उन प्रतियोंका परिचय आगे इस लेख में दिया जायगा, अतः इस नम्बर पर मैं और अधिक लिखने की कोई जरूरत नहीं समझता । ( ३ ) जिस कर्मप्रकृति ग्रन्थके आधार पर मैंने ७५ गाथाओंका कर्मकाण्ड में त्रुटित होना बतलाया था उसमें मैंने गोम्मटमारको अधिकांश गाथाओं को देखकर कर्ताका निश्चय नहीं किया था बल्कि उसमें कर्ताका नेमिचन्द्र सिद्धान्ती, नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव ऐसा स्पष्ट नाम दिया हुआ है । सिद्धान्तदेव नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती से भिन्न दूसरे नहीं कहलाते । इसके सिवाय, हाल में शाहगढ़ जि० सागर के सिंघईजी के मन्दिर से 'कर्मप्रकृति' की सं० १५२७ की लिखी हुई जो एकादशपत्रात्मक सटिप्पण् प्रति मिली है, उसकी अन्तकी पुष्पिका कर्ताका नाम स्पष्टरूप से नेमिचन्द्रमिद्धान्तचक्रवर्ती दिया हुआ है और साथ ही उसे कर्मniser प्रथम अंश भी प्रकट किया है जिससे दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हो जाती हैं—एक तो यह कि कर्मप्रकृति नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ति की ही कृति है और दूसरी यह कि वह नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की कोई भिन्नकृति नहीं है बल्किवह उनकी प्रधानकृति कर्मकाण्डका ही प्रथम अंश है और इसलिये मैंने जिस कर्मप्रकृति के आधारपर मुद्रित कर्मकाण्ड में Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व, निय] गोकर्मकारकी बुद्धि-पतिके विचार पर प्रकाश ७५ गाथाओंका त्रुटिन होना बताया था उसमें शाहगढ़के उस मंदिर-भण्डारसे कर्मकाण्डकी अब कोई सन्देह बाको नहीं रहता। कर्मप्रकृतिकी भी एक प्रति मिली है, जो अधरी है और जिसमें उस प्रतिका वह अतिम अंश, जिसके साथ मन्थ. शुरूके दो अधिकार पुरे और तीसरे अधिकारकी प्रति समाप्त हो जाती है। इस प्रकार है-- कुल ४० गाथाओं में से २५ गाथाएँ हैं । यह अन्य "इति भीनेमिचन्द्रसिद्धान्तवाकयतिविरचितकर्म- प्रति बहुत जीर्ण-शीर्ण है,हाथ लगानेसे पत्र प्राय टूट कारस्य प्रथमशः समास: शुभमनु लेखकपाठकयोः जाते हैं । इसका शेष भाग इसी तरह टूट-टाट कर अथ संवत् १५२० वर्षे माधवदी। रविवासरे।" नष्ट हुआ जान पड़ता है । इसके पहले 'प्रकृति यहाँ पर इम कमप्रकृतिको प्रतिकी विशेषताके समुत्कीर्तन' अधिकारमें भी १६० गाथाएँ हैं, सम्बन्धमें इतना और भी नोट कर देना आवश्यक प्रत्येक गाथा पर बजग अलग न न देकर अधि. है कि इसकी टिप्पणियों में सिय प्रयि मयि और कारके अन्तमें १६० नं० दिया है। इस प्रकरण में 'धम्मा-पंसा-मेघा' इन दो गाथाओंको प्रक्षिप्त मात भी उक्त कर्मप्रकृति वाली ७६ गाथाएँ (५+१) सूक्षित किया है और उन्हें सिद्धान्तगाथा बताया ज्योंकी त्यों पाई जाती हैं। है, जिनमें में 'सिय भत्यि पत्यि' नामकी गाथा कर्मकांडकी एक दूसरी प्रति, जिसकी पत्र कुन्द कुन्दाचार्य के 'पंचास्तिकाय' की १४ नं. की संख्या ५३ है और जो सं० १७०४ में मुगल बादगाथा है। साथ ही,इस प्रकरणकी कुल गाथाभोंकी शाह शाहजहाँके राज्यकालमें लिखी हुई है अपने संख्या १६० दी है अर्थात पारा-सिद्धान्त भवनको घर पर ही पिताजीके संग्रहमे उपलब्ध हुई है। प्रतिसे इसमें निम्न एक गाथा अधिक है: यह संस्कृतटीका-साहिन है । इसमें कर्मकाण्डका प्रथम अधिकार ही है, गाथा संख्या १६० दी है पराज-रस-गंध फासा-चपउइग-सत्त सम्ममित्त । और इसमें भी वे ७६ गाथाएँ ज्योंकी त्यों पाई होतिबंधा-बंधक पथ-पब संवाद-सम्म। जाती हैं। संस्कृत टीका शानभूषण-सुमविकीर्ति यहां पर यह बात भी नोट कर लेनेकी है कि की बनाई हुई है। इसके अन्तके दो अंश नीचे कर्मप्रकृतिकी यह प्रति जिस सं० १५२७ की लिखी दिये जाते हैं.हुई है उमी वक्त के करीबकी बनी हुई नमिचन्द्रा- ति सिद्धांतज्ञानावर्तिमीनेमिचन्द्रविरचित. चार्यकी 'जीवतत्वप्रबोधनी' नामको संस्कृत टीका कर्मकांडस्य टीका समासं (सा)" है, जिसके वाक्योंको प्रोफेसर साहबन उद्धृत किया है और यह कल्पनाकी है कि उम का वर्तमान "भूबसचे महासाधुलचमीचंद्रो यतीश्वरः । में उपलब्ध होने वाला पाठ पूर्व-परम्पराका पाठ तस्य पादस्य वीरेंदुर्विदुडो विश्ववेवितः ॥ १॥ है। और इससे यह मालूम होता है कि कर्मकांडके तवववे दयामोधिानभूषो गुणाकरः । प्रथम अधिकार में उक्त ७५ गाथाएँ पहलेस हो टोक हि कर्मकांडस्य च सुमतिकीर्तियुक् ॥ २॥" संकलित और प्रचलित हैं। Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त पाश्विन, वीर निर्वास सं०२४१॥ "भट्टारक श्रीशानभूषणनामाकिता सूरिसुमति- लखनमें कुछ भी मार मालूम नहीं होता किकीतिविरचिता कर्मकांडटीका समाप्ता ॥ ॥ संवतु “यदि वह कृति ( कर्मप्रकृति ) गोम्मटसारके कर्ता १७०४ वर्षे जेठ बदि १४ रविदिवसे सुभक्षित्रे की ही है तो वह अब तक प्रमिद्धिमें क्यों नहीं श्रीमूलसंधे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे श्री भाई।"वह काफी तौरमे प्रसिद्धि में आई जान पड़ती आचाये कुंदाकुंदान्वये श्रीब्रह्मजिनदास उपदेने है । इस विषयमें मुख्तार साहब (मम्पादक धर्मापुरी प्रस्थाने मालवदेने पातिसाहि मुगल 'अनेकान्त')मे भी यह मालूम हुआ है कि उन्हें बहुत श्री साहिजहाँ ।" से शास्त्र भण्डारों में कमप्रकृति नामसे कर्मकाण्डक कर्मकांडकी तीसरी प्रति पं० हेमराजजीकी प्रथम अधिकारको प्रतियोंको देखनेका अवमर भाषोटीकासहित, तिगोड़ा जि० सागर के मंदिरकं मिला है। शास्त्रभंडारसे मिली है, जो संवत १८२९ की इस मम्पर्ण विवेचन और प्रतियों के परिचयकी लिखी हुई है, पत्र संख्या ५४ है । यह टीका भी रोशनी परमे मैं ममझना हूँ इम विपयमें अब कोई कर्मकाण्डकं प्रथम अधिकार 'प्रकृतिममकीतन'की सन्देह नहीं रहेगा कि कर्मकाण्डका मुद्रित प्रथम है और इसमें भी १६० गाथाएँ हैं जिनमें उक्त ७६ अधिकार जरूर त्रुटित है, और इलिये प्रोफेसर गाथाएँ भी शामिल हैं। साहबन मेरे लेख पर जो आपत्तिकी है वह किसी कर्मप्रकृतिकी अलग प्रतियों और कर्मकाण्डकी तरह भी ठीक नहीं है । आशा है प्रोफेसर साहब उक्त प्रथमाधिकारकी टीकाओं परसं यह स्पष्ट का इमसे समाधान होगा और दूसरे विद्वानों कि कर्मकाण्डकं प्रथम अधिकारका अलग रूपमें हृदयम भी यदि थोडा बहुत सन्देह रहा होतो वह बहुत कुछ प्रचार रहा है। किसीन उसे 'कर्मप्रति भी दूर हो सकेगा। विद्वानोंको इस विषय पर के नामसे किसीने 'कमकाण्डक प्रथम अंश'के नामसं अब अ' : अब अपनी स्पष्ट सम्मति प्रकट करनेकी जरूर और किसीने 'कर्मकाण्ड' के ही नामसे उल्लेखित कृपा करना चाहिय । किया है। ऐसी हालतमें प्रोफेसर साहबकं इस वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०२१-१०-१९४० Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन इस १२वी किरणके साथ 'अनेकान्त' के कृपालु ग्राहकों द्वारा भेजा हुआ शुल्क समाप्त हो गया है। अब देहली से 'अनेकाँत' का प्रकाशन बंद किया जा रहा है । अतः 'अनेकान्त' के सम्बंधमें अब पत्र व्यवहार उसके सम्पादक पं. जगलकिशोरजी मुख्तार अधिष्ठाता 'वीरमवामंदिर सरसावा जि०सहारनपुर से करना चाहिये । इन दो वर्षों में अनेकांत-व्यवस्था सम्बंधी जो अनेक भूल हुई हैं उनके लिये में क्षमा प्रार्थी हूं। विनीत-- अ०प्र० गोयलीय व्यवस्थापक Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registered. No: L. 4328 क्रान्तिकारी ऐतिहासिक पुस्तकें ले० अयोध्यामसाद गोपलीय ] १. राजपूतानेके जैनवीर-- प्रतीत गौरवके एक अंशका चित्र अंकित हुई पढ़ने के लिये हाथ भरके कलेजे की जरूरत बिना न रहेगा। ऐसा कौन अभागा भारतवाने है। मदोंकी बात जाने दीजिये भीरु और कायर होगा जो अयोध्याप्रसादजी गोयलीयकी लिए भी इसे पढ़ते पढ़ते मूंछों पर ताव न देने लगें तो भारतकी करीब साढ़े बाईससौ वर्ष पुरानी। हमारा जिम्मा । राजपूतानम जैनवीरोंकी तलवार सारगर्मित और सभी गौरव-गाथाको सुनम कैसी चमकी ? धनवीरोंन सरसे कफन बाधकर उत्माहित न होगा।" पृष्ठ १७३ मू० छह पाना. मातताइयोंके घुटने क्योंकर टिकवाये ? धम और ३. हमारा उत्थान और पतन- . देशके लिये कैसे कैसे अभूतपूर्व बलिदान किये, "चान्द"के शब्दों में--"इस पुस्तकमें महाभार यही सब रोमांचकारी ऐतिहासिक विवरण ३५२ से लेकर मन १२०० ईस्वी तक भारतीय इतिहा पृोंमें पढ़िये । मचित्र, मूल्य केवल दो रुपया। पर एक बाली में जो टियाँ उत्पन्न हो गई थी और जिन १. मौर्य साम्राज्यके जैनवीर-- कारण उनको विदेशियोंके सन्मुख पदानत होनं '. भूमिका-लेखक साहित्याचार्य प्रो० विश्वेश्वर- पड़ा उन पर मार्मिकताके साथ विचार किया गया नाथ रेटके शब्दों में--"इस पुस्तककी भाषा मनको है। पुस्तक पठनीय है और अत्यन्त सुलभ मूल्य फड़काने वाली, युक्तियाँ सप्रमाण और ग्राह्य तथा बेची जाती है।" "विश्वामित्र' लिखवा हैविचारशैली साम्प्रदायिकतासे रहित समयोपयोगी “पुस्तककी भाषा सजीव और दृष्टिकोण सुन्द और न है । हमें पूर्ण विश्वास है कि इसे एक है। यह काफी उपयोगी पुस्तक है ।" "भार बार बायोपान्त पढ़ लेनेसे केवल जैनोंके ही नहीं कहता है--"लेखकको लेखनीमें भोज और प्रमा प्रत्युत भारंववासी मात्रकहत पटपर अपन देशके पर्याप्त मात्रामें है।" पृष्ठ १४४ मू० छह माना। स्फूर्तिदायक जीवनज्योति जगाने वाली पुस्तकें ४. अहिंसा और कायस्ता मूल्य एक पाना ७. क्या जैन समाज जिन्दा है । मू० एक पाना २. हमारी कायरताके कारण " " ८. गौरवगाथा " " ६. विश्वप्रेम सेवाधर्म " " ..जैन समाजका हास क्यों ? "बह पैसा। यदि यह पुस्तकें पापने नहीं देखी हैं तो भाजही मंगाइये, मन्दिरों, पुस्तकालयों, साधुषों मेठम्वरूप दीजिये, उपहारमें बाटिये अनेतरोंमें पदिये। व्यवस्थापक-हिन्दी विद्यामन्दिर, पोषो० न०४८, न्यू देहनी । वीर प्रेस बाइविख्या, बारसर्वसन्सी । Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर पुस्तकालय काल नं. लेखक मरतार ,जालावर संस)