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________________ अनेकान्त _ [ज्येष्ठ, भाषा, बीर-निर्वावसं. स्पष्टीकरण करना पड़ रहा है ।" फैलते फैलते यह तपागच्छ आज भी विद्यमान हैं। वर्धनानसूरिजी बात तत्कालीन नृपति दुर्लभराजके कानों में पहुँची के शिष्य जिनेश्वरसूरिने दुर्लभराजकी समामें उन्होंने राजपुरोहितसे पूछा और उससे सच्ची (सं० १०७०-७५) चैत्यवासियों पर विजय प्राप्त वस्तुस्थिति जानने पर उनके विस्मयका पार न की, अतः खरे-सच्चे होने के कारण वह खरतर रहा, कि ऐसे साधुओंके विरुद्ध ऐसा घृणित और कहलाये और जगच्चन्द्रसूरिजीने १२ वर्षोंकी निन्दनीय प्रयत्न! आयंबिलकी तपश्चर्या की इससे वे तपा (सं. ___समयका परिपाक हो चुका था; चैत्यवासियों १२८५ ) कहलाये । इसी प्रकार अन्य कई गच्छों ने अन्य भी बहुत प्रयत्न किये, पर सब निष्फल का भी इतिहास है। हुए। इसके उपरान्त चैत्यवासियोंसे श्री जिनेश्वर- इसके बाद मुसलमानोंकी चढ़ाइयोंके कारण सूरिजीका शास्त्रार्थ हुआ, चैत्यवासियोंकी बुरी भारतवर्ष पर अशांतिके बादल उमड़ पड़े । उनका तरहसे हार हुई है । तभीसे सुविहिताचारियोंका प्रभाव श्रमण-संस्था पर पड़े बिना कैसे रह सकता प्रभाव बढ़ने लगा । जिनवल मसूरि, जिनदत्तसूरि, था ? जनसाधारणके नाकों दम था । धर्मसाधनामें जिनचन्द्रसूरि और जिनपतिसूरि, इन चार आचा- भी शिथिलता आ गई थी क्योंकि उस समय योंके प्रबलपुरुपार्थ और असाधारण प्रतिभासे चै- तो लोगोंके प्राणों पर संकट बीत रहा था । त्यवासियोंकी जड़ खोखली हो गई । जिनदत्तसूरि- फलतः मुनियोंके आचरणमें भी काफी शिथिलता जी तो इतने अधिक प्रभावशाली समर्थ आचार्य आगई थी। यह विषम अवस्था यद्यपि परिस्थिति हुए कि विरोधी चैत्यवासियोंमेसे कई प्राचार्य स्वयं के आधीन ही हुई थी, फिर भी मनुष्यकी प्रकृतिके उनके शिष्य बन गये। जिनपतिसूरिजीके बाद वो अनुसार एक बार पतनोन्मुख होनेके बाद फिर चैत्यवासियोंकी अवस्था हतप्रभाव हो ही गई थी, सँभलना कठिनता और विलंबसे होता है। अतः उनकी शक्ति अब विरोध एवं शास्त्रार्थ तो दूरकी शिथिलता दिन-ब-दिन बढ़न ही लगी। उस समय बात, अपने घरको संभाल रखनेमें भी पूर्ण यत्र तत्र पैदल विहार करना विघ्नोंसे परिपूर्ण ममर्थ नहीं रही थी, कई आत्मकल्याणके इच्छर था। यवनोंकी धाड़ अचानक कहींसे कहीं आपड़ती, चैत्यवासियोंने सुविहित मार्गको स्वीकार देखते देखते शहर उजाड़ और वीरान हो जाते । प्रचारित किया। उनकी परंपरासे कई प्रसिद्ध लूट खसोट कर यवन लोग हिन्दुओं के देवमन्दिरों गच्छ प्रसिद्ध हुए । खरतर गच्छक मूल-पुरुष को तोड़ डालते, लोगोंको बेहद सताते और भांति वर्धमानसूरिजी भी पहले चैत्यवासी थे । इसी भांतिके अत्याचार करते । ऐसी परिस्थिति में श्रावक प्रकार तपागच्छकं जगच्चन्द्रसूरिजीने भी क्रिया. लोग मुनियोंकी सेवा संभाल-उचित भक्ति नहीं उद्धार किया । इन्हींके प्रमिद्ध खरतरगच्छ तथा कर सकं, तो यह अस्वभाविक कुछ भी नहीं है। - विशेष वर्णनके लिये देखें, सं० १२९१ में शिथिलता क्रमशः बढ़ती ही गई, यहां तक रचित--"गणधर-साई-शतकपूर कि १६ वीं शताब्दीमें सुधारकी आवश्यकता आ
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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