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________________ होलीका त्यौहार [सम्पादकीय ] मारतके त्यौहारों में होली भी एक देशव्यापी मुख्य भी एक कदम अथवा दंग होता है। 'होलीकी कोई स्यौहार है। अनेक धर्म-समाजोंमें इसकी जो दाद फर्याद नहीं यह लोकोक्ति भी इसी भावको पुष्ट कथाएँ प्रचलित है वे अपनी अपनी साम्प्रदायिक दृष्टिको करती है, और इसलिये इस त्यौहारको अपने असली लेकर मिन मिल पाई जाती है। यहाँ पर उन सबके रूप में समता और स्वतन्त्रताका रूपक ही नहीं किन्तु विचारका अवसर नहीं है। होलीकी कथाका मूलरूप एक प्रतीक कहना ज्यादा अच्छा मालूम होता है। क्यों न रहा हो, परन्तु यह त्यौहार अपने ममय भी इसके लिये अच्छा चना गया है. जो स्वरूपपरसे ममता और स्वतन्त्रताका एक प्रतीक जान कि वसंत ऋतुका मध्यकाल होनेसे प्रकृतिके विकासका पड़ता है अयवा इसे सार्वजनिक (सी-खुशी एवं प्रसन्न यौवन-काल है। प्रकृति के इस विकाससे पदार्थ पाठ बनेके अभ्यासका देशव्यापी सक्रिय अनुष्ठान कहना लेकर हमें उसके साथ साथ अपने देश-राष्ट्र एवं चाहियो आत्माका विकाम अथवा उत्थान मिद्ध करना ही इस अवसरपर हरएकको बोलने, मनका भाव व्यक्त चाहिये । उसीके प्रयत्नस्वरूप-उसी लक्ष्यको सामने रख करने, स्वांग-तमा नृत्य गानादिके रूपमें यथेष्ट चेष्टाएँ कर-यह त्योहार मनाया जाता था, और तब इसका करने, भानन्द मनाने और मानापमानका खयाल छोड़- मनाना बड़ा ही सुन्दर जान पड़ता था। परन्तु खेदो करपाड़ाई-बोटाई अथवा ऊँचता नीचताकी कल्पना- कि आज वह बात नहीं रही! उसका वह लक्ष्य अथवा अन्य व्यर्थका संकोच त्यागकर-एक दूसरेके सम्पर्क में उद्देश्य ही नहीं रहा जो उसके मूल में काम करता था! भानेको स्वतन्त्रता होती है। साथ ही, किसीके भी उसके पीछे जो शुभ भावनाएँ दृष्टिगोचर होती थीं और रंग गनने, पुन उड़ाने, हँसी मजाक करने तथा अप्रिय गिनें लेकर ही वह लोकमें प्रतिष्ठित हुआ था उन सब खाएँ करने चादिको स्वेच्छापूर्वक खुशीसे सहन किया का माज अभाव है!! आज तो यह त्यौहार इंद्रियमातारापनी तौहीन(मानहानि प्रादि समझकर उस विषयोंको पार करने का प्राधार अथवा चिसकी जपन्यपर कोषका भाव नहीं लाया जाता,न अपनी पोजीशनके योको प्रोजन देनेका साधन बना हुआ है, जो विजनेका फोोपाल ही सताता है, और यो एक किम्पति और राष्ट्र दोनोंके ही पतनका कारण हैप्रकारले समता-गनशीलताका अभ्यास किया जाता स्यौहार के रूपमें उसका कोई भी महान् व सामने है।बायो कहिये कि इसके द्वारा राष्ट्र के लिये नहीं है। इसीसे होलीका वर्तमान रूप विकृत कहा जाता विगत ऐसे राग देपादि मूलके अनुचित भेद-भावोंको है, उसमें पास न होनेसे वह देखके लिये मारली बसमयके लिये भुलाया जाता है- उन भुलाने और इसलिये उसे उसके वर्तमान रूपमें मानना उचित सन जलाने तकका उपक्रम एवं प्रदर्शन किया जाता नहीं है। उसमें शरीक होना उसके विकत सपको पुर है-और इस तरा राष्ट्रीय एकताको बनाये रखने करना है। अपवा राष्ट्रीय समुत्थानके मार्गको साफ करनेका यह पनि समता और स्वतन्त्रताके विद्यन्त पर
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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