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________________ प्रमाचा सल्लाये सूत्र वाच' इस सूत्रके समकक्ष है। दोनोंका नाशय एक ही उत्तरा मष्ट चत्वारिशच्छता ॥ ४॥ है । इस सूत्रका 'स्वपरहिताय' पद उमास्वातिके 'धनु- 'उत्तर प्रहतियाँ एक्सी अपवावीस है। ग्रहार्थ' पदसे अधिक स्पष्ट ज्ञान पड़ता है। __ज्ञानावरणकी ५, दर्शनावरणकी, वेदनीयकी २, इति प्रभाचन्द्रविरचिने तत्वार्थसूत्रे सप्तमो- मोहीयको २८, श्रायुकी ४, नामकी ६१, गोत्रकी २ ध्यायः ॥७॥ और अन्तरायकी ५ प्रकृतियाँ मिलकर उत्तर प्रकृति'इस प्रकार प्रभाचप्रविरचित तत्वार्थसूत्रमें योंकी संख्या १४८ होती है। उमास्वातिने मूल प्रकृतिसातवा मध्याय समाजमा।' योंके नामाऽनन्तर उत्तर प्रकृतियोंकी संख्याका निर्देशक जो स्त्र 'पंचनवापटाविंशति' इत्यादि दिया है उसमें आठवाँ अध्याय नाम कर्मकी उचर प्रकृतियोंकी संख्या १२ बतलाते हुए उत्तर प्रकृतियोंकी कुल संख्या १७ दी है। नामकर्मकी मिथ्यादर्शनादयो बंधहेतवः ॥१॥ उत्तरोत्तर प्रकृतियोंको भी शामिल करके उत्तर 'मिथ्यावर्शन भादि बन्धके कारण है।' प्रकृतियोंकी कुल संख्या १४८ हो जाती है । उन्हीं यहाँ 'श्रादि' शब्दसे आगम-कथित उन अविरत, सब उचर प्रकृतियोंका यहाँ निर्देश है। प्रमाद, कषाय और योग नामके बन्धहेतुअोंका संग्रह ज्ञानावरणादित्रयस्यांतरायस्य च त्रिंशत्सागकिया गया है, जिनका उमास्वातिने भी अपने हमी रोपमकोटीकोट्यः पराध्या (परा!) स्थितिः ॥५॥ अध्यायके पहले सूत्रमें नामनिर्देशपूर्वक मंग्रह किया है। शानावरवादि तीन कर्मों की पौर अन्तराषकी चतुर्धा बन्धाः ॥२॥ उस्कृष्ट स्थिति तीम कोडा कोडी सागरकी है। 'बन्ध चार प्रकारका होता है।' यह सूत्र उमास्वातिके 'प्राविस्तिसृजामन्तरायस्प' यहाँ चारकी संख्याका निर्देश करनेमे पागम- इत्यादि सूत्रके समकक्ष है और उसी आशयको लिये निर्दिष्ट प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेशबन्ध नामके चारों हुए है। बन्धोंका संग्रह किया गया है। और इसलिये यह सूत्र मोहनीयस्य सप्ततिः ॥६॥ और उमास्वातिका 'प्रातिस्थित्यमागप्रवेशास्तविधयः' 'मोहनीय कमेको उहाट स्विति सतरफोडाकोटी सत्र दोनों एक ही प्राशयको लिये हुए हैं। सागर की है। मूलप्रकृतयोऽष्टौ ॥३॥ __ उमास्वातिके सूत्रमें 'सततिः' पद पहले और 'मूल प्रकृतियाँ पाठहै। 'मोहनीयस्प' पद बादमें है। भागम-कथित कर्मोकी मूल पाठ प्रकृतियाँ ज्ञाना त्रयविशदेवायुषः ।। वरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, प्रायु, नाम 'माधुर्मकी नकट स्थिति तेतीस ही सागर की है। और गोत्र है, और इसलिये इस सूत्रका वही प्राशय है यह सूत्र उमास्वातिके 'अपवित्सागरोपमालाजो उमास्वातिके 'पायो शानदार' इत्यादि पुष' सूत्रके समान है। इसमें प्रयुक्त हुभा ‘एवं गन्द सत्रका है। "' उमरा है। m .
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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