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________________ (बैसाख, पीर निवाब सं. २०१८ कोटी कोटिकी निवृत्यर्थ जान पड़ता है। 'तपसे निर्जरा भी होती है। नामगोत्रयोविंशतिः ॥८॥ यह सूत्र और उमास्वातिका दूसरा सूत्र दोनों प्रायः 'नाम और गोत्र कर्मको उत्कृष्ट स्थिति बीस कोग एक ही है-वहाँ 'च' शब्दका प्रयोग है तब यहाँ उस कोरी सागरकी है। के स्थान पर 'अपि' शब्दका प्रयोग है। अर्थमें कोई __यह सूत्र उमास्वातिके 'विशतिनामागोत्रयोः' सूत्र भेद नहीं । तपसे संवर और निर्जरा दोनों ही होते हैं, यह के बिल्कुल समकक्ष है। परन्तु यह सूत्र नम्बर ७ पर 'च' और 'भपि' शब्दोंके प्रयोगका अभिप्राय है। होना चाहिये क्योंकि ८ नम्बर पर होने के कारण इस उत्तमसंहननस्यांतर्मुहूर्तावस्थापि ध्यान ॥३॥ में वर्णित स्थिति पूर्व सूत्रके सम्बन्धानुसार २० सागरकी 'उत्तम संहननवालेके ध्यान अन्तर्मुहूर्त पर्यत हो जाती है-२० कोडाकोडी सागरकी नहीं रहती- अवस्थित रहने वाला होता है।' और यह सिद्धान्त शास्त्रके विरुद्ध है। ध्यान अन्तरंग तपका एक भेद है, वह ज्यादासे इति श्रीवृहत्प्रभाचंद्रविरचिते तत्वार्थसूत्रे अष्ट- ज्यादा अन्तर्मुहूर्त-एक मुहूर्त-पर्यन्त ही स्थिर रहने मोभ्याय ॥८॥ वाला होता है,और वह भी उत्तम संहनन वालेके । हीन 'इस प्रकार भी बृहत्प्रभाचंद्र विरचित तरवार्थ सूत्र सहननवालेका ध्यान किसी भी विषय पर एक साथ इतनी में पाठवां अध्याय समाक्ष हुमा।' देर तक नहीं ठहर सकता। उमास्वातिका 'उत्तमसंहनन स्यैकाप्रचिन्तानिरोधोध्यानमान्तर्मुहात' यह २७वास नववाँ अध्याय सूत्र भी इसी श्राशयका है । विशेषता इतनी ही है कि उमास्वातिने 'एकाग्रचिन्तानिरोधः' पदके द्वारा ध्यानका गुप्त्यादिना संवरः ॥१॥ 'गुप्ति बादिके द्वारा संवर (कर्मास्सवका निरोधी स्वरूप भी माथमें बतला दिया है। होता है।' तचतुर्विधं ॥४॥ यहाँ 'आदि' शब्दसे समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परि वह ध्यान चार प्रकारका है।' यहाँ चारकी संख्याका निर्देश करनेसे श्रागमप्रमिद्ध पहजय और चारित्र नाम के आगम कथित सवर-भेदोंका उनके उपभेदों-सहित सग्रह किया गया है, और इस बात, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल ऐसे चारों भेदोंका मग्रह लिये इस सूत्रका विषय बहुत बड़ा है। उमास्वातिका किया गया है । उमास्वातिका इसके स्थान पर 'भात. 'सगुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचरित्रः' नामका सत्र रोधय॑सुक्तामि' सूत्र है, जो ध्याननामोंके स्पष्ट इसी आशयका स्पष्टतया व्यंजक है। उनके तत्त्वार्थ- उल्लेखको लिये हुए है। सत्रमें राति आदिके उपभेदोंका भी अलग अलग सूत्रों आद्य संसारकारणे ॥५॥ में निर्देश किया गया है, जब कि यहाँ वैसा कुछ भी परे मोक्षस्य ॥६॥ नहीं है। * श्वेताम्बरीय समपाम् :ध्यानम्' सबके अंशको तपसा निर्जराऽपि ॥२॥ ____ २० वा सूत्र और 'आमुहूर्तात' को २८ वा पत्र बत. ति। बाया है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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