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________________ अनेकान्त (बैसाख, वीर विसं.२० शीलसप्तकं च ॥७॥ व्रत-शीलादिकके भी पाँच पाँच ही प्रतीचारोंका अपना 'सात शीब भी भावोंके पुर।' कम रक्खा है, इसलिये सम्यग्दर्शनके शेष अतीचारोंका सप्त शीलके नामोंमें भी प्राचार्योंमें परस्पर कुछ प्रशंसा-संस्तवमें अन्तर्भाव कर लेना चाहिये। यहाँ मत भेद है.। उमास्वातिने अपने 'दिग्देशानदण्ड' 'शंकामाः' पद पर पाठका अंक दिया है, इससे भी नामक सूत्रमें उनके नाम दिग्विरति, देशविरति, अन- आठ अतीचारोंका ही ग्रहण जान पड़ता है। यंदण्डविरति, सामायिक, पोषधोपवास, उपभोगपरिभोग. बंधाक्ष्योव्रतानां ॥९॥ परिमाण, अतिथिसंविभाग दिये हैं जब कि कुन्दकुन्दा- बंध सादिक मतोंके प्रतीचार है।' चार्यने चारित्र माभूतमें देशवतका प्रहण न करके सप्तम यहाँ 'बूतानां पदके द्वारा अहिंसादिक सब व्रतो. स्थान पर 'सल्लेखना' का विधान किया है । इसी तरह का और 'पादि' शब्दके द्वारा उनके पृथक पृथक और भी थोड़ा थोड़ा मतभेद है । यहाँ संभवतः कुन्द- अतीचारोंका संग्रह किया गया है। परन्तु उनकी कुन्द प्रतिपादित गुणवत-शिक्षावतात्मक सप्त शीलोंका संख्याका किसी रूपमें भी उल्लेख नहीं किया है। यह ही उल्लेख जान पड़ता है, क्योंकि आगे संन्यास सूत्र बहुत ही संक्षिप्त-सूचनामात्र है। इसमें उमास्वा. ( सल्लेखना ) का कोई अलग विधान न करके १० वें तिके २५ से ३२ अथवा ३६ नम्बर तक सूत्रोंके विषय. सूत्र में उसके प्रतीचारोंका उल्लेख किया गया है। का समावेश किया जा सकता है। शंकायाः सम्यग्दृष्टरतीचाराः॥८॥ मित्रस्मृत्याद्याः संन्यासस्य ॥१०॥ 'संका मादि सम्यग्दर्शनके प्रतीचार है।' "मित्रस्पति मादि संन्यास ( सोखना) के मतो यहाँ प्रतीचारोंकी संख्याका निर्देशन होनेसे श्रादि' चार हैं।' शब्दद्वारा जहाँ उमास्वाति-सूत्र-निर्दिष्ट काँक्षा, विचि- यहाँ भी अतीचारोंकी संख्याका कोई निर्देश नहीं कित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा, अन्यदृष्टि संस्तव इन चार किया। 'आदि' शब्दसे सुखानुबन्ध, निदान नामके अतीचारोंका ग्रहण किया जा सकता है वहाँ सम्यग्द- अतीचारोंका और क्रम-व्यतिक्रम करके यदि ग्रहण शनके निःशंकित अंगको छोड़कर शेष सात अंगोंके किया जाय तो जीविताकाँक्षा तथा मरणाकांक्षाका भी प्रतिपक्षभूत कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगृहन, ग्रहण किया जा सकता है, जिन सबका उमास्वातिके अस्थितीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना नामके 'जीवितमरणाशंसा' इत्यादि सूत्रमें उल्लेख है। दोषों-प्रतीचारों का भी ग्रहण किया जा सकता है। स्वपरहिताय स्वस्यातिसर्जनं दानं ॥११॥ सर्वार्थसिद्धि में अष्ट अंगोंके प्रतिपदभूत आठ प्रतीचार 'अपने और परके हित के लिये अपनी वस्तुका होने चाहिये, ऐसी शंका भी उठाई गई है और फिर त्याग मना दान है। उसका समाधान यह कहकर कर दिया है कि ग्रन्थकारने यह सूत्र उमास्वातिके 'मनहाय खल्याविसों लो, वाचायीका शासनमेद, गुचवत और खेताम्बरीव सूत्रपाके अनुसार ये सूत्र नं०१० सिलामत प्राप. से।। ... से प्रारंभ होते है और करें। THEN
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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