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अनेकान्त
[भाषिन, पीरनिर्वावसं.
१४१६ ) में बनकर समाप्त हुई थी। ऐसी हालतमें कितनी कितनी उत्तर प्रकृतियाँ हैं यह बतलाते हुए वह अनुमान करना निरापद् नहीं हो सकता कि उत्तर प्रकृतियों की कुल संख्या १४८ दी है; परन्तु इन टीकाओंमें चामुण्डरायकृत देशीका माश्रय इन १४८ प्रतियों में से बहुत कम प्रकृतियों के लिया गया है। बाकी यह कल्पना नो प्रोफेसर नामादिकका वर्णन दिया है, और जो वर्णन दिया साहबकी बड़ी ही विचित्र जान पड़ती है कि- है वह अपने कथनके पूर्व सम्बन्ध के बिना बहुत "जहाँ (जिस चित्रकूटमें ) यह ( संस्कृत ) टीका कुछ खटकता हुआ जान पड़ता है, इस बातको रची गई थी वह संभवतः वही चित्रकूट था जहाँ मैंने अपने पूर्व लेखमें विस्तारके माथ प्रकट किया सिदान्ततस्वज्ञ एनाचायने 'धवला' टीकाके रच- था। एक प्रन्थकार खास प्रकृतियों का अधिकार बिता वीरसेनाचार्यको सिद्धान्त पढ़ाया था, ऐसी लिखने बैठे और उममें सब प्रकृतियों के नाम तक परिस्थितिमें यह संभव नहीं जान पड़ता कि उक्त भी न देवे यह बात कुछ भो जो को लगती हुई टीकाके निर्माणकालमें व उससे पूर्व कर्मकांडमें से मालूम नहीं होती। प्रकृति-विषयक जो अधिकार उसकी भावश्यक अंगभूत कोई गाथाएं छुट गई पंचसंग्रह प्राकृत, पंच संग्रह संस्कृत और धवलादि हों या जुदी पड़ गई हों"! क्योंकि वह चित्रकूट ग्रंथोंमें पाये जाते हैं उन सबमें भी कर्मकी १४८ भाज भी मौजूद है, आज यदि कोई वहाँ बैठकर प्रकृतियोंका नामोल्लेख पूर्वक वर्णन पाया जाता अन्य बनाने लगे तो क्या उसके सामने वह सब है। इससे मुद्रित कर्मकांडके उक्त अधिकारमें दफ्तर अथवा साधन सामग्री-मय शास्त्रमंडार सम्पूर्ण उत्तर प्रकृतियोंका वर्णन न होना जरूर मौजूद होगा, जो एलाचार्य और वीरसेनके ही उसके त्रुटित होनेको सूचित करता है। प्रोफे. समयमें था ? यदि नहीं तो एलाचार्यके और वीर- सर साहबने इस बात पर कोई खास लक्ष्य न देकर सनसे कोई सातसौ वर्ष पीछे टीका बनाने वाले जैसे तैसे यह बतलानेकी चेष्टा की है कि यदि उक्त नेमिचन्द्र के सामने वह सब दफ्तर अथवा शास्त्र- गाथाएँ इस प्रन्थमें न रहें तो कोई विशेष हानि भंडार कैसे हो सकता है ? यदि नहीं हो सकता नहीं। कहीं तो आपने यह लिख दिया है कि तो फिर उस चित्रकूट स्थान पर इस टीकाके अमुक "गाथाओंकी कोई विशेष आवश्यकता बनने मात्रसे यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह दिखाई नहीं देती," कहीं यह कह दिया है कि जिस कर्मकाण्डको टीका है उसमें उसके बननेसे अमुक "गाथाएँ २१ वी गाथाके स्पष्टीकरणार्थपहले कोई गाथाएँ त्रुटित नहीं हुई थीं। अतः टीकारूप भले ही मान ली जावें किन्तु सारप्रन्यके पहली बात जो प्रोफेसर साहबने विरोधमें कही है मूलपाठमें उनकी गुंजाइश नहीं दिखाई देती," वह युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होती।
कहीं यह भी लिख दिया है कि अमुक "गाथाओं (२) मुद्रित कर्मकाण्डके प्रथम अधिकार के न रहनेसे कोई बड़ा प्रकाश व अन्धकार नहीं 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' में कर्मको मूल पाठ प्रकृतियोंके उत्पन्न होता," कहीं यह सूचित किया है कि नामादिक दिये हैं और प्रत्येक मूलप्रकृतिकी अमुक गाथाका माशय अमुक गाथासे निकाला