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________________ पति-समाज रक्षाके लिये वैद्यक, ज्योतिष और मंत्र-तंत्रके शान (परिवटिमीवा, मरिमोमुखम्) को ही मुख्यता देने लगे हैं। कई महात्मा तो ऐमे कटेक सिक्यते सावं, बस्नेन परिवानवेत् ॥" मिलेंगे जिन्हें प्रतिक्रमणके पाठ भी पूरे नहीं पाते। एवं प्रन्यों की सुरक्षाकी व्यवस्था करते हुये गम्भीर शास्त्रालोचनके योग्य तो भव शायद ही लिखाकोई व्यक्ति खोजने पर मिले । क्रियाकाण्डोंको जो नबादचेत् स्थखात्रवेत् सत् शियितवन्धनात् । करवा सकते हों (प्रतिक्रमण, पोसह, पर्व-व्या 1- मूर्खहस्ते न वातमा एवं वदति पुस्तिका ॥ ख्यान-वाचन, तप ग्यापन एवं प्रतिष्ठाविधि ) वे अपने रचत बात भूपकेभ्यो विशेषतः । भब विद्वान गिने जाने लगे हैं। (उदकानियाचौरेभ्यो मूषकेम्पो हुताशनात् ।) जिस ज्ञानधनको उनके पूर्वजोंने बड़े ही कष्ट कष्टेन लिखितं शाश्वं यत्नेन परिपासचेत् ॥ सं लिख लिख कर संचित एवं सुरक्षित रखा, वे मुनि पाचारकी तो गंध भी नहीं रहने पाई; अमूल्य हस्तलिखित प्रन्थोंको सँभालते तक नहीं। पर अब हम उन्हें भावकों के कर्तध्यसे भी च्युत वे ग्रंथ दीमकोंके भक्ष्य बन गये, उनके पृष्ट नष्ट हो देखते हैं. तब कलेचा पाक उठता है, बुद्धि भी गये, सर्दी भादिसे सुरक्षा न कर सकनेके कारण कुछ काम नहीं देती कि हुमा क्या? भगवान महाप्रन्थोंके पत्र चिपक कर थेपड़े हो गये । (हमारे वीरकी वाणीको सुनाने वाले उपदेशकों की भी संग्रहमें ऐसे अनेक ग्रंथ सुरक्षित हैं)। मवीन क्या यह हालत हो सकती है ? जिस बातकी रचनेकी विद्वत्ता तो सदाके लिये प्रणाम कर बिदा सम्भावना तो क्या, कल्पना भी नहीं की जा स. हुई; पुराने संचित ज्ञानधनकी भी इतनी दुर्दशा हो कती, भाजपा हमारे सामने उपस्थित है। बहुतों रही है कि सहृदय व्यक्तिमात्रको सुन कर आंसू के तो न रात्रिभोजनका विचार, न अभय वस्तुबहाने पड़ रहे हैं । सहज विचार भाता है कि इन ओंका परहेज, न सामायिक प्रतिक्रमण वा क्रियाग्रंथोंको लिखते समय उनके पूर्वजोंने कैसे भव्य काण्ड और न नबकारसीका पता । पाज इनमें मनोरथ किये होंगे कि हमारे मस्त इन्हें पढ़ पढ़ कई व्यक्ति तो भाग-गांजा भादि नशैली चीजोंका कर अपनी प्रात्मा एवं संमारका सपकार करेंगे। संवन करते हैं, पाजारों में वृष्टि आदिका सौदा पर आज अपने ही योग्य वंशजोंके हाथ इन ग्रंथों करते हैं। उपायों में रसोई बनाते हैं, व्यभिचारका की ऐसी दुर्दशा देखकर पूर्वजोंकी स्वर्गस्थ मामा- बोलबाला है। प्रतएव जगतकी दृष्टिमें वे बहुत एं मन ही मन न जाने क्या सोचती होंगी? ------- नन्होंने अपने ग्रंथों की प्रशस्तियों में कई बातें ऐसी । .श्वेताम्बर समाजमें जिस प्रकार पति समाज है; लिख रखी हैं कि उन्हें ध्यानसे पढ़नेवाला कोई भी दिगम्बर समाजमें खगभग वैसे ही महारक प्रणालीका व्यक्ति ऐसा काम नहीं कर सकता। इतिहास प्रादि बामने के लिये चैनहितैपी में श्रीमाथाम जी प्रेमीका निबंध एवं बैनमित्र कार्यात सूरतसे "भमपृष्टिकटिग्रीवा, पारियोमुखम् । प्रास "भट्टारक-मीमांसा" ग्रन्थ पढ़ना चाहिये ।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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