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________________ अनेकान्त ज्येष्ठ, भाषा, वीर निर्माण सं०२४५६ गिर चुके हैं । पंच महाव्रतोंका तो पता ही नहीं, यतिनियोंकी तो बात ही न पूछिये, उनके पतअणुव्रतधारी भावकोंसे भी इनमें से कई तो गये नकी हह हो चुकी है, उनकी चरित्रहीनता जैनबीते हैं। समाजके लिये कलंकका कारण हो रही है ! कहां तक कहें-विद्वत्ता भी गई, सदाचार भी "गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिकं न च वयः !" गया, इसीलिये स्थानकवासी एवं तेरह पन्थियोंकी महात्मा भर्तृहरिकी यह उक्ति सोलहों आने बन आई, वे उनके चरित्रोंको वर्णन कर अपने सत्य है। मनुष्यका आदर व पूजन उसके गुणों अनुयायियोंकी संख्या बढ़ाने लगे । जैनेतर लोग ही कारण होता है । गुणविहीन वही मनुष्य पद गुरुजीके चरित्रोंको लेकर मसखरी उड़ाने लगे। पद पर ठकराया जाता है। यतियोंका भी समाज जिनके पूर्वजोंने नवीन नवीन ग्रंथ रचकर अजैनों पर प्रभाव तभी तक रहा जब तक उनमे एक न को जैन बनाया, अपनी विद्वत्ता एवं आचार- एक गुण (चाहे ज्ञान हो, विद्वत्ता हो, वैद्यक हो; विचारक प्रभावसे राजाओं तथा बादशाहों पर मंत्रादिका ज्ञान अथवा परोपकारकी भावना हो) धाक जमाई, वे ही आज जैनधर्मको लाँछित कर अनेक रूपोंमें विद्यमान रहा । ज्यों ज्यों उन गुणोंक अस्तित्वका विलोप होता गया त्यों त्यों * इसीलिये राजपूताना प्रातीय प्रथम यति उनका आदर कम होने लगा । अन्तम आज जो सम्मेलन (संबंत १६६१, बीकानेर ) में निम्नलिखित हालत हुई है उसके वह स्वयं मुक्तभोगी हैं । न प्रस्ताव पास किये गये थे। खेद है उनका पालन नहीं तो उनको कोई भक्तिसे वंदन करता है, न कोई हो सका--(१) उद्भट वेश न रखना । (२) श्रद्धाकी दृष्टिसे उन्हें देखता है । गोचरीमे भी दवा भादिके सिवा जमीकन्द आदिके त्यागका भरसक पहले अच्छे अच्छे पदार्थ मिलते थे, आज बिना प्रयत्न करना (३) दवा आदिके सिवा पंच तिथियों भावकं, केवल पारपाटोके लिहाजस बुरीसे बुरी में हरी वनस्पति मादिके त्यागका भरसक प्रयत्न करना वस्तुएँ उन्हे बहराई जाती हैं । बानर में उनका (.) रात्रि भोजनके त्यागकी चेष्टा करना । (१०) तिरस्कार किया जाता है,कई व्यक्ति तो उनम् घृणा भावश्यकताके सिवाय रातको उपाश्रयसे बाहर न तक करते हैं । उनका आदर भक्तिशून्य और भाव होना (२०) अप्रेज़ी फैशनके बाल न रखना विहीन, केवल दिखावेका रह गया है, अतः उनका (२२) दीचित पतिको साग सब्जी खरीदनेके समय भविष्य कितना अन्धकारमय है, पाठक स्वयं उस बाजार न जाना ( २३ ) धूम्रपानका त्याग । (२४) की कल्पना कर लें। मुझे तो उनकी वत्तमान दशा साइकिल पर बैठ बाजार न घूमना । (पंच प्रतिक्रमण देखकर अतिशय परिताप है, हृदय बेचैन-मा हो के ज्ञाता न होने तक किसीको दीक्षा न देना । (२५) जाता है। अगर अदर भविष्यमें यह ममाज न पर्वतिथियों में प्रतिक्रमण अवश्य करना । इन प्रस्तावोंसे . सम्भला तो इमका कहाँ तक पतन होगा यह प्रगट है कि वर्तमानमें इन सब बातों के विपरीत प्रचार सोचा नहीं जा सकता । जैनधर्मका ज्ञान उनसे है, तभी इनका विरोध समर्थनकी भावश्यकता हुई। किनारे हो रहा है अतः मथेरणों की भांति ये अगर
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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