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________________ पति-समान जैनधर्मको भी छोड़ बैठे तो कोई माश्चर्य नहीं है। किया जाना चाहिये। जो मा साधारण मनि समाज इनसे असन्तुष्ट है, ये समाजसे । अतएव बनायें जायें वे पूरी मुस्तदीसे पालन किये करवाये सुधारकी परमावश्यकता है यह तो हर एक को जायें । जो विरुद्ध आचरण करें उन्हें वहिष्कृत कर मानना पड़ेगा । यतिसमाजकी यह दशा आँखों समाजसे उनका सम्बन्ध तोड़ दिया जाय, इस देखकर विवेकी यतियोंके हृदयमें पाजस ३५ वर्ष प्रकार कठोरतासे काम लेना होगा। जो पालन न पूर्व ही सामूहिक सुधारको भावना जागृत हुई थी, कर मकें वे दिगम्बर पंडितोंके तौर पर गृहस्थ खरतर गच्छके बालचन्द्राचार्यजी आदिके प्रयत्न बन जावें और उपदेशकका काम करें। के फलसे सं०१९६३ में उनकी एक कान्फ्रेन्स हुई एक विद्यालय,ब्रह्मचर्य आश्रम केवल यतिथी और उसमें कई अच्छे प्रस्ताव भी पास हुए शिष्योंकी शिक्षाके लिये खोला जाय । यहाँ पर थे यथा-(१) व्यावहारिक और धार्मिक शिक्षा अमुक डिग्री तक प्रत्येक यतिशिष्यको पढ़ना का सुप्रबन्ध (२) बाह्य व्यवहार शुद्धि (३) ज्ञानो• लाजिमो किया जाय, उपदेशक के याग्य पढ़ाईकी पकरणकी सुव्यवस्था (हस्तलिखित ग्रन्थोंका न मुव्यवस्था की जाय । उनसे जो विद्यार्थी निकलें बेचना (४) संगठन (५) यति डायरेक्टरी इत्यादि; उनके खर्च आदिका योग्य प्रबंध करके उन्हें पर प्रस्तावोंकी सफलता तभी है जब उनका ठोक स्थान स्थान पर उपदेशकों के रूप में प्रचार कार्य में ठोक पालन किया जाय । पालन होनेके दो ही मार्ग नियुक्त कर दें, ताकि उन्हें जं नधर्मको सेवाका हैं-(१) स्वेच्छा और (२) संघसत्ता । स्वेच्छामे सुयोग्य मिने । श्रावक ममाजका उममें काफी जो पालन करे वे तो धन्य हैं ही, पर जो न करें, महयोग होना आवश्यक है। हम अग्नी सद्उनके लिये संघसत्ताका प्रयोग करने लायक सुव्य- भावना एवं महायतास हो गिरे हुये वनिममाजको वस्थाका अभी तक अभाव ही है। ___ उन्नत बना सकते हैं, घणासे नहीं। उस कॉन्फ्रेंसका दूसरा अधिवेशन हुआ या आशा है कि जैनममाजके कर्णधार एवं नहीं, अज्ञात है। अभी फिर सं० १९९१ में बीका- उन्नतिकी महद् आकांना वाले विद्वान यति नेर राजपूताना प्रांतीय यति-सम्मेलन हुआ था श्रीपूज्य मार्गविचार-विनिमय द्वारा भविष्यको और उसका दूमरा अधिवेशन भी फलौदीमें हुआ निर्धारित करने में उचित प्रयत्न करेंगे। था, पर मभी कुछ परिणाम शून्य ही रहा । अस्तु। मैंने यह निबंध द्वेपयश या यतिममाजको __अब भी समय है कि युगप्रधान जिनचन्द्र नीचा दिखलाने की भावनामे नहीं लिखा । मेरे सूरिजीकी तरह कुछ सत्ता बलका भी प्रयोग हृदयम उनके प्रति सद्भावनाका जो श्रोत निरन्तर x देखें, हमारे द्वारा लिखित युगप्रधान जिन प्रभावित है उसके एवं उनकी अवनतिको देख चन्द्र सूरि' ग्रन्थ । उन्होंने जो साध्वाचार न पालन कर जो परिताप हुआ, उसकी मार्मिक पकारसे कर सके, उन्हें गृहस्थवेष दिलवा मधेरण बनाया जिससे विवश होकर ही इस प्रबंधको मैंने लिखा है। साधु-संस्था कलंकित न हो। आशा है पाठक इसे उमी दृष्टिसे अपनावेंगे और
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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