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अनेकान्त
[पौष, बीर मित्रांक सं० २०५९
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की पूजा बंदनासे बिल्कुल ही विलक्षण है। लोकमें भिन्न २ परिस्थितियोंके कारण समय २ पर तरह २ की विलक्षण रीतियाँ जारी होती हैं, जैसे कि श्राजकल हिन्दुस्थानमें स्वदेशी वस्तुनोंके ग्रहण और विदेशी वस्तुओं के त्याग और विशेष कर हाथके कते सूतसे हाथसे बने हुए ही वस्त्र पहनने का भारी श्रान्दोलन हो रहा है । होते २ ऐसी ऐसी रीतियाँ हो बहुत समय तक जारी रहने पर विचार शून्य लोगोंके वास्ते धर्मका अंग बनजाती हैं और उनकी ज़रूरत न रहने पर भी, यहाँ तक की हानिकर हो जाने पर भी वह नहीं छोड़ी जाती हैं। धर्म समझकर तब भी उनकी पालना हो होती रहती है अन्य सब ही धर्म जो बिना विचार आँख मींचकर ही माने जाते हैं उनमें ऐसी २ अनेकों रूढ़ियाँ धर्मका रूप धारण कर लेती हैं, यहाँतककी इन रूढ़ियों का संग्रह ही एक मात्र धर्म हो जाता है । जो बिल्कुल ही बेज़रूरत यहाँ तक कि हानिकर होजाने पर भी सेवन की जाती हैं और धर्म समझी जाती है। जैनधर्म ऐसी रूढ़ियोंके माननेको लोक मूढ़ता बताकर सबसे प्रथम ही उनके त्यागका उपदेश देता है । यहाँ तक कि जैनधर्मका सच्चा श्रद्धान होना ही उस समय ठहराया है जब कि मूढ़ता या अविचारिता छोड़कर प्रत्येक बात को बुद्धिसे विचार कर ही ग्रहण किया जावे और सब ही अलौकिक रूढ़ियोंको जिन्होंने धर्म का स्वरूप ग्रहण कर लिया हो, परन्तु धर्मका तथ्य उनमें कुछ भी न हो बिल्कुल भी ग्रहण न किया जावे। मूढ़ दृष्टि होना अर्थात् बिना विचारे किसी रूढिको धर्म मान लेनेको तो जैनधर्ममें महादोष बताया है जिससे भदान तकका भ्रष्ट होना ठहराया है।
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अशरण समझकर और किसी भी अलौकिक शक्ति कां भय न कर एक मात्र अपने ही कर्मोके ठीक रखने की कोशिश में लगे रहो, यही एकमात्र तुम्हारा कर्तव्य है। रागद्वेष ही एक मात्र जीवके शत्रु है, ये ही उसके विभाव भाव हैं जिनसे इसको दुख होता है और संसार में भ्रमण करना पड़ रहा है। जितना २ भी कोई जीव रागद्वेषको कम करता है उतना २ ही उसको सुख मिलता है और बिल्कुल ही राग द्वेष दूर होने पर उसका सारा विभाव भाव दूर होकर उसका असली स्वभाव प्रकट होजाता है और परमानन्द प्राप्त होजाता हैं। इस ही कारण प्रत्येक जैनीको अपने अन्दर वैराग्य मात्र लाने के वास्ते परमवीतराग परमात्मानोंकी, और जो इस परम वीतरागताकी साधनामें लगे हुए हैं ऐसे साधुयोंकी उपासना करते रहना जरूरी है, यही जैनियोंकी पूजा भक्ति है जो उनके वीतरागरूप गुणों को याद कर कर अपने भावों में भी वीतरागता लानेके वास्ते की जाती है। इस प्रकार जैनियोंकी और अन्य धर्मियोंकी पूजा भक्ति में भी धरती आकाशका अंतर है। अन्यमती रागी देवी देवताओंकी पूजा करते हैं और जैनी वीतरागियोंकी । श्रन्यमती अपने लौकिक कार्योंकी सिद्धि के वास्ते और अपने राग द्वेषको पूरा करानेके वास्ते उनको पूजते हैं और जैनी लौकिक कार्योंका रागद्वेष छोड़ उनके समान अपने अंदर भी वीतरागता लाने के वास्ते ही उनका गुणानुवाद गाता है, यही उनकी पूजा है । वह अपने इष्ट देवोंको प्रसन्न करना नहीं चाहता है, न वे किसीके किये प्रसन्नया अप्रसन्न हो ही सकते है, क्योंकि वे तो परम बीतरागी हैं। इस कारण जैनी तो उनके बीतरागरूप गुणोंको याद कर अपने में भी वीतरागताका उत्साह पैदा करनेकी कोशिश करता है, यही उसकी पूजा बंदना है जो अन्यमतियों
किसी समय राष्ट्रोंमें महायुद्ध छिड़जाने पर लोगोंको युद्धके लिये उत्साहित करनेके लिये यह अान्दोलन