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जैवधर्मकी विशेषता
निकलेगा ही ।
'जो लोग बुद्धिसे काम न लेकर एकदम अलौकिक शक्तियोंकी कल्पना कर लेते हैं वे यदि मनुष्य भक्षी होते हैं तो वे इन अलौकिक शक्तियों अर्थात् अपने कल्पित देवी देवताओं को भी मनुष्यकी ही बलि देकर प्रसन्न करनेकी कोशिश करते हैं । श्रवसे कुछ समय पहले अमरीका महाद्वीपमें ऐसे भी प्रान्त थे जहाँके निवासी अपने प्रान्तके बड़े देवताको हज़ारों मनुष्योंकी बलि देकर खुश करना चाहते थे, परन्तु बलिके वास्ते एकदम हज़ारों मनुष्योंका मिलना मुश्किल था, इस कारण अनेक प्रान्तवालोने मिलकर यह सलाह निकाली, कि बलि देने के समय से कुछ पहले हम लोग श्रापसमें युद्ध किया करें, इस युद्धमें एक प्रान्तके जो भी मनुष्य दूसरे प्रान्त वालोंकी पकड़में श्राजावें वे सब बलि चढ़ा दिये जावें । बस यह युद्ध इस ही कार्यके वास्ते होता था, हार जीत या अन्य कुछ लेने देनेके वास्ते नहीं । इस प्रकारकी बलि देना जब कुछ समय तक जारी रहता है तो मनुष्यों में मनुष्यका मांस भक्षण करना छूट जानेपर भी देवताको बलि देना बहुत दिन तक बराबर जारी रहता है, मनुष्य अपनी लौकिक प्रवृत्तियोंमें तो समयानुकूल जल्द ही बहुत कुछ हेर फेर करते रहते हैं परन्तु देवी देवताओंकी पूजा भक्ति और अन्य भी धार्मिक कार्यों में परिवर्तन करनेसे डरते रहते हैं । इन कायको तो बहुत दिनों तक ज्योंका त्यों ही करते रहते हैं, यही कारण है कि भारतवर्ष में भी मनुष्यका मसि खानेवाले न रहने पर भी बहुत दिनों तक जहाज श्रादि चलाते समय मनुष्यकी बलि देना बराबर जारी रहा। सुनते हैं कि कहीं किसी देशमें कोई समय ऐसा भी रहा है जब श्रापने ही पुत्र श्रादिककी बलि देकर भी देवताको प्रसन्न करने की चेष्टा की जाती थी। जब वि
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चार बुद्धिसे कुछ काम ही न लेना हो, तब तो जो कुछ भी किया जाय उसमें आश्चर्य ही क्या हो सकता है। जो न हो वह ही थोड़ा है।
मनुष्यकी बलि के बाद गाय, घोड़ा, बकरा, आदि पशुओंकी बलिका जमाना आया जो अबतक जारी है। हाँ इतने जोरोके साथ नहीं है जितना पहले था। मुसलमानी धर्म तो विदेशी धर्म है, उसको छोड़कर जब हम अपने हिन्दू भाइयोंके ही धर्मपर विचार करते हैं तो वेदोंमें तो यज्ञके सिवाय और कोई विधान ही नहीं मिलता है जिसमें भाग जलाकर पशु पक्षियोंका होम करना होता है । श्रस्तु वेदोंको तो लोग बहुत कठिन बताते हैं इसी कारण बहुत ही कम पढ़े जाते हैं परन्तु मनुस्मृति तो घर घर पढ़ी जाती है और मानी भी जाती है, उसमें तो यहांतक लिखा हुआ है कि पशु पक्षी स यज्ञके वास्ते ही पैदा किये जाते हैं। यशके वास्ते विद्वान ब्राह्मणोंको स्वयम् अपने हाथसे पशु पक्षियांका अध करना चाहिये, यह उनका मुख्य कर्म है । इस हीम ईश्वरकी प्रसन्नता और सबका कल्याण है।
जैनधर्म इसके विपरीत इस प्रकारके सब ही अनुष्ठानों को महा अधर्म और पाप ठहराता है। किसी जीव की हिंसा करने या दुख देनेमें कैसे कोई धर्म या पुण्य हो सकता है, इस बातको विचार बुद्धि किसी प्रकार भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हो सकती है। न ऐसा कोई जगतकर्त्ता ईश्वर या देवी देवता ही हो सकता है। जो जीवोंकी हिंसासे प्रसन्न होता हो। इसके सिवाय जैनधर्म तो पुकार २ कर यही शिक्षा देता है कि तुम्हारी भलाई बुराई जो कुछ भी हो रही है या होने वाली है, वह सब तुम्हारे अपने ही कर्मों का फल है। तुम्हारे कर्मों का वह फल किसी भी टाले नहीं टल सकता, न कोई सुख दे सकता है और न दुख ही इस कारण अपने