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धर्मकी विशेषता
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उजाया गया कि युद्ध में मरने वालोको स्वर्ग प्राप्त होता यह एक जरूरी धर्म सिद्धान्त होगया, पति के साथ जल है, होते २ यही रूदि प्रचलित होकर धर्म सिद्धान्त बन• मरनेवाली ऐसी स्त्रियोकी कवर (समाधि) भी पूजी गई है और मनस्मृति जैसे हिन्दूधर्म ग्रन्थमें यहाँतक जाने लगी परन्तु जैनधर्म किसी तरह भी इस कृत्यको लिख दिया गया है कि युद्ध में मरनेवालोंके लिये मरण धर्म नहीं मान सकता है, किन्तु बिल्कुल ही अमानुषिक संस्कारों की भी ज़रूरत नहीं, उनकी तो वैसे ही शुभगति और राक्षसी कृत्य ठहराकर महा पाप ही बताता है। हो जाती है । परन्तु जैनधर्म ऐसी उल्टी बातको हरगिज़ चाहे सारा भारत इस कृत्यकी बड़ाई गाता हो परन्तु नहीं मान सकता है, युद्ध महा-कषायसे ही होनेके जैनधर्म तो इसकी बड़ी भारी निंदा ही करता है। कारण और दूसरोंको मारते हुए ही मरनेके कारण इस ही प्रकार किसी ममय विशेषरूपसे युद्ध मादिमें युद्ध करते हुए मरनेवाला तो अपने इस कृत्यसे किसी लगजाने के कारण लोगोंको पूजन भजन प्रादिका समय प्रकार भी ऐसा पुण्य प्राप्त नहीं कर सकता है जिससे न मिलनेमे उस समय के लिये पूजन भजन श्रादिका उसको अवश्य ही स्वर्गकी प्राप्ति हो, किन्तु महा हिंसाके यह कार्य कुछ ऐसे ही लोगोंको सौंप दिया गया था जो भाव होने के कारण उसको तो पापका ही बंध होगा और शास्त्रोंके ही पठन पाठनमें और पूजापाठमें ही अधिक दुर्गतिको ही प्राप्त होगा। हाँ, यह ठीक है कि संसारमें लगे रहते थे और ब्राह्मण कहलाते थे या कहलाने वह वीर समझा जायगा और यशको ज़रूर प्राप्त होगा। लगे थे। होते होते लोग इस विषयमें शिथिलाचारी
ईस ही प्रकार किसी समय एक एक पुरुषकी होगये और श्रागेको भी पूजा पाठ आदिका कार्य उन अनेक स्त्रियाँ होने के कारण इस भारत भूमिमें स्त्रियाँ ही लोगोंके जिम्मे होगया। पंजन-पाठ, जप-तप और अपने चारित्रमें अत्यन्त शंकित मानी जाने लगी थीं। ध्यान आदि धार्मिक सब ही अनुष्ठान लोगोंकी तरफ़मे 'स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्यभाग्यं देवो न जानाति कुतो इन ही ब्राह्मणोंके द्वारा होकर पुण्यफल इनका उन मनुष्यः' स्त्री-चरित्रकी बुराईमें ऐसे २ कथनोंसे सब ही लोगोंको मिलना माना जाने लगा जिनसे अपनी फीस शास्त्र भरे पड़े है । उस ही समय स्त्रियाँ पैरकी जूतीसे लेकर ये ब्राह्मण लोग यह अनुष्ठान करें। यही रूढ़ी भी हीन मानी जाने लगी थीं । तब पुरुषके मरने पर अबतक जारी है और धर्मका सिद्धान्त बनगई है, परन्तु उसकी स्त्री खुली दुराचारिणी होकर अपने पति के नामको जैनधर्म किसी सरह भी ऐसा सिद्धान्त माननेको तय्यार बट्टा लगावे इस इरसे पुरुषोंने अपनी जबरदस्तीसे नहीं हो सकता है। वह तो पाप पुण्य सब अपने ही स्त्रियोंको अपने मृतक पतिके साथ जल मरनेका महा भावों और परिणामों द्वारा मानता है। मैं खाऊँगा तो भयानक रिवाज जारी किया था और यह आन्दोलन मेरा पेट भरेगा दूसरा खायगा तो दूसरेका, यह हर्गिज उठाया गया था कि जो स्त्री अपने पति के साथ जल नहीं हो सकता है कि खाय कोई ओर पेट भरे दूसरका, मरेगी वह अवश्य स्वर्ग जावेगी और इस पुण्यसे पूजा पाठ कर कोई और उसका पुण्य मिले दूसरेको । अपने पतिको मी चाहे वह नरक ही जानेवाला हो अपने ऐसी मिथ्या बातें जैनधर्म किसी तरह भी नहीं मान साथ स्वर्ग ले जायगी। फल इस आन्दोलनका यह सकता है। हुआ कि धड़ाधड़ खियां जीती जन मरने लगी और हिन्दुओंमें ग्रामणों द्वारा सब ही धार्मिक अनुष्ठान