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[पौर, वीर वि
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कराये जानेकी रूढ़ी जोरोंके साथ प्रचलित होजानेपर है जैसे इनके गुणवान माता पिताओंका था। इस यह भी सदी होगई कि ईश्वर या किसी भी देवी देवता- अंधेरको भी जैनधर्म किसी तरह नहीं मान सकता है, को यहाँ तक कि नवग्रह श्रादिको भी जो कुछ भेंट इस कारण जैन शास्त्रोंमें श्रीश्राचार्योंको इस बातका करना हो तो वह बामणको दे देनेसे ही ईश्वरको या भारी खंडन करना पड़ा है और सिद्ध करना पड़ा है देवी देवताको पहुँच जाती है, फिर इस बातने यहाँतक कि मनुष्य जाति सब एक है, उसमें भेद सिर्फ दत्तिकी जोर पकड़ा कि मरे हुए मनुष्यको अर्थात् पित्रोंको भी वजहसे ही हो जाता है । जो जैसी वृत्ति करने लगता जो कुछ खाना कपड़ा, खाट पीदा, दूध पीनेको गाय, है वह वैसा ही माना जाता है। जन्मसे यह भेद किसी सवारीको घोड़ा आदि पहुँचाना हो वह ब्राह्मणोंको देनेसे तरह भी नहीं माने जा सकते हैं । श्रादिपुराण, पनही पित्रोंके पास पहुँच जायगा, चाहे वे पितर कहीं हों, पुराण, उत्तरपुराण, धर्मपरीक्षा, वरांगचरित, और किसी लोकमें हो और चाहे जिस पर्यायमें हो। यहाँ तक प्रमेयकमलमार्तडमें ये सब बातें बड़े जोरके साथ कि वे सब चीजें ब्रामणके पर रहते हुए भी और ब्राह्मण सिद्ध की गई है। जैसा कि अनेकान्त वर्ष २, किरण बाय उनको भोगा जाता देखा हुआ भी यह ही में विस्तार के साथ इन ग्रन्थोंके श्लोकों सहित दिखाया माना जाने लगा कि वे पित्रोंको पहुँच गई हैं। जैनधर्म गया है। ऐसी अंध श्रद्धाको किसी तरह भी नहीं मान सकता है। गुणहीन ब्रामणोंने अपनी जन्मसिद्ध प्रतिष्ठा कायम किन्तु माननेवालोंकी बुद्धि पर प्राथर्य करता है। रखनेके वास्ते अपने अपने बाप दादा आदि महान् __ ऐसे महा अंधविश्वासके जमानेमें बिना किसी पुरुषाओंकी बड़ाई और जगतमें उनकी मानमर्यादाका प्रकारके गुणों के एकमात्र ब्राह्मण के घर पैदा होनेसे बड़ा भारी गीत गाना शुरू करदिया, हरएकने अपने ही ऐसा पज्य ब्राह्मण माना जाना जैसे उसके पढ़े लिखे पुरुषात्रोको दूसरोंसे अधिक प्रतिष्ठित और माननीयसिद्ध और पूजा पाठ श्रादि करनेवाले पिता और पितामह करनेके सिवाय अपनी प्रतिष्ठा और पूजाका अन्य कोई ये कोई भी प्राथर्यकी बात नहीं हो सकती है। फल मार्ग ही न देखा । जिससे उनके आपसमें भी देषाग्नि इसका यह हुआ कि बायका घर पैदा होनेवालोंको भड़क उठी और एक दूसरेसे घृणा होने लग गई। हमारे किसी भी प्रकारके गुण प्राप्त करनेकी जरूरत न रही। पुरुषा तो ऐसे पूज्य, पवित्र और धर्मनिष्ट ये कि अमुक बिल्कुल ही गुणहीन दुराचारी और महामूर्ख भी ग्रामण के पुरुषाओंके साथका मोजन भी नहीं देते थे, इससे के घर पैदा होनेसे पूज्य माना जाने लगा और अबतक आपसमें एक दूसरेके हाथका भोजन खाना और बेटी माना जाता है। उनके गुणवान पिता और पितामह व्यवहार भी बन्द होगया और बामणोंकी अनेक जाकी तरह इन गुणाहीनोंको देनेसे भी उसही तय एवर तियां बन गई, जिनका एक दूसरेसे कुछ भी वास्ता और सब ही देवताओंको भेंट पूजा पहुँच जाना माना न रहा। अपने अपने पुरुष्पोंकी बड़ाई गा-गाकर जाता है, किसी बातमें मी को फरक नहीं माने पाया अपनी जातिको उँग और दूसरोकी जातिको नीचा है।इन गुणहीनोका भी वही गौरव, वही पूजा प्रतिष्ठा सिद्ध करना ही एकमात्र इनमें गुण या गा। . . और रबर और देवी देवताओंका एजेंटपना बना हुआ किसी प्रकार के गुरु मात किये बिना कसलेही