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________________ वैवधर्मी विशेषता - अप परुषांत्रीकी मानमर्यादाके अधिकार प्राप्त करनेकी गया, जगह जगह के भंगा इस हो कार्यके लिये मंदिरों यह बीमारी महामारीकी तरह क्षत्रियोंमें भी फैली, उनमें में जमा होने लग गये। देखो अविचारिताके कारण भी अपने अपने पुरुषाओंकी बड़ाई गानेसे भेदभाव कहाँसे कहाँ मामला पहुँच गया और धर्मस्वरूप म्यासे पैदा होगया और अनेक जातियाँ होकर वैमनस्य बढ़ सा बनगया । ब्राह्मणोंने अपनी विलक्षणता, बहाई गया । यही बीमारी फिर वैश्योंको भी लगी और होते और प्रतिष्ठा कायम रखनेके वास्ते अपने हाड मासके होते शूद्रों में भी पहुंच गई जिसका फल यह हुआ कि शरीरको महान् शुद्ध और पवित्र स्थापित कर, दूसरोंकी अब हिन्दुओंकी चार हज़ार जातियाँ ऐसी हैं जिनमें छूतसे अलग रहना शुरू करदिया, यदि किसी भलसे आपसमें रोटी बेटी व्यवहार नहीं होता है और सब ही कोई उनके शरीर या वस्त्रको दे तो महान पातक होगुण नष्ट होकर एकमात्र यह भेदभाव कायम रखना ही जावे, तुरन्त ही दोबारा स्नान करें, कपड़े धोयें और धर्म कर्म रह गया है। यही वर्णाश्रमधर्म कहलाता है आचमन कर और तुलसी पत्र प्रादि चबाने के द्वारा जिसका हिन्दुओंको भारी मान है बिना किसी प्रकारकी अपनेको पवित्र बनावें, किसीके भी हाथका न सावे, शास्त्र विद्या या धर्म कर्मके जब एक मात्र ब्राह्मणके घर अपने ही हाथसे पकाकर खावें । इस प्रकार प्रात्मशुद्धि जन्म लेनेसे ही पूज्यपना और पुरुषाओंके सब अधिकार का स्थान शरीरशुद्धिने लेलिया और यही एकमात्र धर्म मिलने लग गये, यजमानोंसे ही जीवनकी सब ज़रूरतें बन गया। परी होने लग गई, किसी प्रकारकी भी श्राजीवकाकी परन्तु गृहस्थीके वास्ते स्वपाकी इना बहुत कोई जरूरत न रही तो ब्राह्मणोंको बिल्कुल ही बेफ़िकरी कठिन है, इस कारण लाचार होकर फिर कुटुम्म वालों होगई और बेकार पड़े रहने के सिवाय कुछ काम न रहा। के हाथका और फिर अपनी जाति वालोंके हाथका भी परन्तु प्रापसमें स्पर्दाका होना तो ज़रूरी ही था। हम खाना शुरू होगया । दूर प्रदेशमें जाना पड़ा तो उसके दूमरोंसे अधिक पूज्य माने जावें, यह खयाल पाना तो लिये दूधमें श्रोमने हुए आटेसे जो खाना बने उसको लाजमी ही था, इसके सिवाय अपने ब्राह्मणपनेको बाहर लेजानेको भी खुल्लम करनी पड़ी। फिर कहीं २ चत्रिय और वैश्योंसे पृथक् जाहिर करते रहना भी बिना दूधमे उसने एक मात्र धीमें पकाया पकवान भी जरूरी था,ठाली और वेकार तो थे ही इस कारण किसी बाहर ले जाना जायज़ होगया। प्रात्म शुद्धिका सब नदी या तालाबके किनारे जाकर खूब अच्छी तरह मामला इटकर जब एक शरीर शुद्धि और खानपानकी मल मलकर अपने शरीरको धोते रहने, नित्य अच्छी छत अकृत ही एक मात्र धर्म रह गया तो इसकी बड़ी तरा पो धोकर धीत वस्त्र पहनने, शरीर पर चन्दन देखभाल रहने लग गई । जो कोई त बातके इन और मस्तकपर तिलक लगानेमें ही बिताने लगे। खाली नियमोंको तोड़े वही धर्म प्रा माना गया और एक दम वो पेही दिन कैसे विवावे, इस कारण भंग घोट घोटकर अलग कर दिया गया । बामणोंकी भनेक मातियाँ है. पीना, परस और मुल्फ्रेका दम लगाना और बेसुध जिनमें गौड़ आदि कुछ जातियोंके सिवाय बाकी सब होकर पड़े रहना, यह ही उनके धर्मा अंग बन गया, जायियाँ मांस खानेको धर्म विरुद्ध नहीं समकती है। यहाँ कति धर्म मंदिरोंमें नित्य यही काम होने लग- इन मांसाहारियोंमें भी जो अधिक धर्मनिष
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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