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: अनेकान्त
[पौष, बीर निर्वाचः सं०२११३
शिक्षा देता है, जिसने धर्म-साधन में अभी: कदम भी नहीं रक्खा है उसको भी जैनधर्म तो सर्व प्रकार नशोंसे दूर रहना जरूरी बताता है।
नदी या तालाब परसे स्नान करके आते हैं तो मार्गमें बड़ा विचार इस बातका रखते है कि कोई उनके शरीर या से न छू जाय और यदि कोई छू जाता है तो तुरन्त वापिस जाकर नहाते हैं। यदि भोजन बनाने के वास्ते कोई मछली या अन्य कोई माँस उनके पास हो तो उससे वे अपवित्र नहीं होंगे, किन्तु किसीके छू जानेसे जरूर अपवित्र हो जायेंगे। इस ही प्रकार माँस मछलीके पकाने से उनकी रसोई अपवित्र न होगी, न मांस मच्छी खानेसे उनको कोई अपवित्रता श्रावेगी, परन्तु उनकी रसोई बनाई और खाते समय अगर कोई मनुष्य चाहे वह ब्राह्मण ही हो परन्तु उनकी जातिका न हो अभी स्नान करके श्राया हो, कपड़े भी पवित्र हों, तो भी यदि वह मनुष्य उनकी रसोईके चौकेकी हद के अन्दर की धरतीको भी छू दें, तो वह रसोई भ्रष्ट होकर खाने योग्य
न रहेगी।
“जैनधर्म ऐसी बातोंसे कोसों दूर है। भंग, धतूरा, चरस और गाँका आदि मादक पदार्थ जो बुद्धिको भ्रष्ट करने वाले हैं उनको तो कुव्यसन बताकर जैन-धर्म सब से पहले ही उनके त्यागने की शिक्षा देता है, जो वस्तु मनुष्यको मनुष्य नहीं रहने देती उसकी विचार शक्ति को Tag करती है, उसका सेवन करना तो किसी प्रकार भी धर्म नहीं हो सकता है। ऐसी वस्तु सब ही मनुष्यों को त्यागने योग्य हैं, परन्तु कैसे श्राश्चर्य की बात है कि हिंदुओं के बहुतसे त्यागी और साधु वैरागी तो जरूर ही इन मादक पदार्थों का सेवन करते हैं। और गृहस्थी लोग भी उनकी संगतिसे यह कुब्यसन ग्रहण करने लग जाते हैं । सब हिंदू मंदिरोंमें यह व्यसन जोर शोर से चलता रहता है, ऐसे व्यसनियोका जमघट उनके मंदिरोमें लगा रहता है । इसके विपरीत जैनधर्स ऐसी बातों को पाप बताता है और ऐसी संगतिमे भी दूर रहनेकी
अब रही स्नान और शरीर शुद्धिकी बात, यह भी हिंदूधर्ममें ही धर्म माना जा सकता है। जैनधर्म में नहीं; जैनधर्म तो श्रात्म शुद्धिको ही धर्म ठहराता है और उस ही के सब साधन सिखाता है। शरीर को तो महा अशुद्ध और अपवित्र बताकर उसके प्रति अशुचि भावना रखना ज़रूरी ठहराता है । मनुष्यका यह शरीर जो हाड माँस रुधिर श्रादिसे बना है, बिष्टा सूत्र बलराम और पीप श्रादिकी जो थैली है वह तो सात समुद्रोंके पानीखे धोने पर भी पवित्र नहीं हो सकता है। किन्तु इसके छूनेसे तो पवित्र जल भी अपवित्र हो जाता है, इस कारण स्नान करना किसी प्रकार भी धर्म नहीं हो सकता है । पद्मनन्दि पचीसी में तो श्राचार्य महाराजने श्रनेक हेतुनोंसे स्नान करनेको महापाप और अधर्म ही ठहराया है । परन्तु गृहस्थी लोगोंको जिस प्रकार अपनी नाजीविका वास्ते खेती, व्यापार, फ़ौजी नौकरी और कारीगर श्रादि अनेक ऐसे धंधे करने जरूरी होते हैं जिनमें जीव हिंसा अवश्य होती है, इस ही से वे सावध कर्म कहलाते हैं। जिस प्रकार गृहस्थी को अपने रहनेके मकानको फाड़ना बुहारना और लीपना पोतना जरूरी होता है यद्यपि मकानकी इस सफाईमें भी जीव हिंसा ज़रूर होती है परन्तु गृहस्थीके लिये यह सफाई रखना भी जरूरी है। ऐसा ही अपने कपड़ों और शरीरको धोना और साफ़ रखना भी उसके लिये जरूरी है। शरीर उसका वास्तवमें महा निंदनीय और अपवित्र पदार्थोंका बना हुआ है परन्तु उससे उसका मोह नहीं छूटा है, ऐसा ही अपने कपड़ों और मकानसे भी मोह नहीं छूटा है. और न इन्द्रियोंके विषय ही छूटे हैं। इस कारण मकान