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________________ बैवधर्मकी विशेषता के बाबको, बस्त्रोंको और शरीरको सब ही को सुंदर सकते हैं वे जितना २ उनका मोह घटता । उसनार बनाये रखनेके वास्ते झाड़ना, पोंछना, लीपना, पोतना स्नानको और शरीरकी सफाईको स्यागते जाते है। यहाँ और धोना यह सब काम करना उसके लिये ज़रूरी तक कि मुनि होने पर तो स्नान करना और शरीर पोना है। जिनमें जीव हिंमा ज़रूर होती है परन्तु गृहस्थीके पोछना बिल्कुल ही त्याग देते हैं। यही नहीं वे तो यही ये सब कार्य उसके लिये जरूरी होने पर भी किसी जाकर कमण्डलुके जिस पानीसे गुदा साफ़ करते है। तरह मी धर्म कार्य नहीं होसकते हैं, तो यह सब त्यागने उस ही से हाथ धोकर फिर मिट्टी श्रादि मलकर किसी योग्य हो, जो संसारी और गृहस्थी होने के नातेसे ही दूसरे शुद्ध पानीसे हाथोंको पवित्र करना भी जरूरी नहीं जलगे हो रहे हैं। इस ही कारण ज्यों ही वह गृहस्थी समझते हैं। उन ही अपवित्र हाथोंसे शास्त्र तकको कृते किंचित्मात्र भी पापोंका त्याग शुरू करता है, अणुव्रती रहते हैं। कारण कि शरीरकी शुद्धि धर्म नहीं है और न बनकर दूसरी प्रतिमा ग्रहण करता है, तब ही से उमको हाड मांससे बने शरीरकी शुद्धि हो ही सकती है। धर्म स्नानक त्यागका भी उपदेश मिलने लग जाता है। तो एकमात्र प्रात्मशुद्धि करता ही है जो राग देष अब्बल तो भोगोपभोग परिमाण व्रतमें उसको शरीरके श्रादि कषायों और इन्द्रियों के विषयोंको दूर करनेसे ही श्रमार प्रादिके त्यागमें स्नानको भी एक प्रकारका इंद्रि- होती है । तब ही तो जैनधर्ममें दस लक्षण कथनमें योगा व्यमन और भोग बताकर कुछ र समयके लिये शौच धर्म मात्रको शरीर शुद्धि न बताकर प्रात्माको त्यागनेको कहा गया है । फिर प्रोषधोपवामके दिन तो कषायोंम शुद्ध करना और विशेषकर लोभ कषायका अवश्य ही स्नान और शरीर श्रृङ्गारका त्यागना ज़रूरी निर्मूल करना ही शौचधर्म बताया है । संसारकी वस्तु. ठहराया है। इस ही प्रकार ज्यो २ वह इंद्रियोंके विषय ओम ग्लानि करना भी जुगुप्सा नामकी कषाय ठहराऔर हिंसाके त्यागकी तरफ बढ़ता जाता है। इन्द्रिय या है और जैनधर्मका श्रद्धान करनेके वास्तं शुरूमें ही संयम और प्राण सयम करने लगता है त्यो २ वह श्रद्धानके अंगस्वरूप चिकित्सा अर्थात् ग्लानि न करना लान करना भी छोड़ता जाता है । यहाँ तक कि मुनि ज़रूरी बताया है। विशेषकर जैनधर्मके मुनि और साधु होने पर तो वह स्लान या अन्य किसी प्रकार शरीरको जिनका तन अत्यन्त ही मालन रहता है, जो आँखों धोना पंछना या साफ़ करना या बिल्कुल ही छोड़ देता और दाँतों तकका मैलनहीं छुड़ाते हैं और न ही जा. है। स्नान करना या अन्य किसी प्रकार शरीरको शुद्ध कर अपने हाथ ही मटियाते हैं उनसे किसी भी प्रकारकी रखना किसी प्रकार भी पारमार्थिक धर्मका कोई अंग घृणा न करना, उनको किसी भी प्रकार अपवित्र या नहीं हो सकता है वह एक मात्र इन्द्रियोंका विषय और अशुद्ध न समझना किन्तु राग देष और विषय कषायोंके शरीरका मोह ही है जो गृहस्थियोंको इसी कारण करना मैलसे रहित होकर अपनी आत्माको शुद्ध करनेके लिये जहरी होता है कि वे अपनी इन्द्रियों के विषयोंको और शरीरका ममत्व छोड़ प्रात्म ध्यानमें लगे राने वाले शरीरके मोहको त्यागने में असमर्थ होते हैं। लाचार शरीरसे मैले कुचले इम साधु मुनियोंको ही परम पवित्र और मोहके कारण बेबस हो रहे है। परन्तु जो इन्द्रियोंके और युद्ध समझना सिखाता है। विषयको और मोहको पाप साकार त्यामलों में समर्थ हो मनुष्यों का जीवन का साधन दो प्रकारका होतrt,
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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