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________________ प्रमाचन्द्रका तत्वार्यसूत्र कोई अशुद्धियों रह गई हो तो उन्हें विज्ञ पाठक सूचित 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्ररूप करनेकी कृपा करें, जिससे उनका सुधार हो सके। सनातन मोक्ष-मार्ग जिससे-जिसके उपदेशसे-प्रकट अनुवादको मूल सूत्रादिके अनन्तर अनुवादके हुआ है उस अच्युत वीरकी मैं चन्दना करता हूँ।' रूपमें ही रक्खा गया है व्याख्यादिके रूपमें नहीं। इस ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय मोक्षमार्ग है, उस और उसे एक ही पैरेग्राफमें सिंगल इनवर्टेडकामाज़ सनातन मोक्षमार्गका जिनके उपदेश द्वारा लोकमें प्रावि. के भीतर देदिया गया है, जिससे मूलको मूलके रूपमें र्भाव हुआ है-पुनः प्रकटीकरण हुआ है-उन अमरही समझा जा सके । जहाँ कहीं विशेष व्याख्या, स्पष्टी- अविनाशी वीर प्रभुका उनके उस गुणविशेषके साथ करण अथवा तुलनाकी ज़रूरत पड़ी है वहां उस सब वन्दन-स्मरण करके यहां यह व्यक्त किया गया है कि को अनुवादके अनन्तर भिन्न पैरेग्राफोंमें अलग दे इस ग्रंथके प्रतिपाद्य विषयका सम्बंध वीरप्रभुके उपदेशसे दिय.. है- उसीके अनुमार सब कुछ कथन किया गया है। इस प्रकार यह मूल ग्रन्थ और उसके अनुवादादिक सत्रारम्भ को देनेकी पद्धति है, जिसे यहां अपनाया गया है।. सम्यग्दर्शनाऽवगमवृत्तानि मोक्षहेतुः॥१॥ ग्रन्थारंभसे पूर्व का अंश 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्जाम और सम्यक्चारित ॥ ॥ॐ नमःमिद्धं । अथ दशसूत्री लिख्यते। की तीनों मिले हुए-मोका साधन है।' 'एँ, ॐ, सिद्ध को नमस्कार । यहाँ (अथवा अब) __ यह मूत्र और उमास्वातिके तत्वार्थसूत्रका पहला सूत्र दीनी एकही टाइप और एक ही प्राशयके हैं । अक्षरदशसूत्र लिखा जाता है।' यह प्रायः लिपिकर्ता लेग्बकका मगलाचरण के सख्या भी दोनोकी १५.१५ ही है । वहाँ शान, चारित्र और मार्ग शब्दोका प्रयोग हुआ है तब यहाँ उनके माथ ग्रंथका नामोल्लेख पूर्वक उसके लिखनेकी प्रतिजा एवं सूचनाका वाक्य है। हो सकता है कि यह स्थान पर क्रमशः अवगम, वृत्त और हेतु शन्दोका प्रयोग वाक्य प्रकृत ग्रंथप्रतिके लेम्बक पंरतनलालकी खटकी हुआ है, जो ममान अर्थ के ही द्योतक है। जीवादिसप्ततत्त्वं ॥२॥ कृति न हो बल्कि उम ग्रंथ प्रतिमें ही इम रूपस लिया 'जीव भादि सात तत्व है।' ही जिम पर में उन्होंने यह प्रति उतारी है। मूल प्रथ यहाँ 'पादि' शब्दस अजीय, पासव, बन्ध, संवर, के मंगलाचरणादि के माथ हमका मम्बन्ध नहीं है । निर्जरा और मोक्ष ऐसे छह तत्त्वोंके ग्रहणका निर्देप है, पहला अध्याय क्योंकि जैनागमम जीव सहित इन तत्त्वोंकी ही 'सप्ततत्त्व' मूलका मंगलाचरण मजा है । यह सूत्र और उमास्वातिका ४था सूत्र दोनों एकार्थ-वाचक हैं। उममें सानों तत्त्वीके नाम दिये गये सदृष्टिज्ञामवृत्तारमा मोक्षमार्गः मनासनः । हैं तब इममें 'श्रादि' शब्दमे शेष छह मद तत्त्वोंका भाविरासीचतो वंदे तमहं वीरमच्चतं ॥१॥ संग्रह किया गया है, और इलिये इसमें अक्षरोंको ग्रन्थप्रतिमे 'दशसूत्र' एसा अगुख पाठ है। सख्या अल्प हो गई है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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