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[त्र, बीर-निर्वाण सं०२४॥
तदर्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन ॥३॥ नाम-स्थापना-अन्य-भावतस्तन्या:" का होता है। उनके-समतों -अर्यभदायको-निरचषरूप
प्रमाणे द्वे ॥६॥ कपिविशेषको-सम्यग्दर्शन करते हैं।'
'प्रमाण दो है। यह उमास्वातिके द्वितीय सूत्रके साथ मिलता जुलता यहाँ दोको संख्याका निर्देश करनेसे प्रमाणके भागमहै। दोनोंकी अक्षर संख्या भी समान है-वहाँ तत्त्वार्थ- कथित प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों भेदोंका संग्रह किया श्रद्धानं' पद दिया है तब यहाँ तदर्थश्रद्धान' पदके द्वारा
गया है। यह उमास्वातिके १०वें सूत्र "तलामाणे" के बडी श्राशय व्यक्त किया गया है। भेद दोनोंमें कथन- साथ मिलता-जलता है, परन्तु दोनोंकी कयनशैली और शैलीका है। उमास्वातिने सम्यग्दर्शनके लक्षणमें प्रयुक्त कथनक्रम भिन्न है। इसमें प्रमाणके सर्वार्थसिद्धि-कथित हए 'तत्त्व' शब्दको श्रागे जाकर स्पष्ट किया है और 'स्वार्थ' और परार्थ नामके दो भेदोंका भी समावेश हो प्रभाचन्द्रने पहले 'तत्त्व' को बतला कर फिर उसके जाता है। अर्थश्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया है और इस तरह
नयाः सप्त ॥७॥ कथनका सरल मार्ग अंगीकार किया है । कथनका यह
. . 'नय सात है।' शैली-भेद आगे भी बराबर चलता रहा है।
यहाँ मातकी संख्याका निर्देश करनेसे नयोंके प्रातदुत्पत्तिर्विधा ॥४ 'उस-सम्यग्दर्शन-की उत्पत्ति दो प्रकारसे है।' '
और गम कथित नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुमूत्र, शब्द, यहां उन दो प्रकारोंका-आगमकथित निसर्ग और
समभिरूढ और एवंभूत ऐसे मात भेदोंका संग्रह किया
गया है । उमास्वातिने नयोंका उल्लेख यद्यपि 'प्रमाणअधिगम भेदोंका-उल्लेख न करके उनकी मात्र सचना
नयैरधिगमः' इस छठे सूत्रमें किया है परन्तु उनकी की गई है। जबकि उमास्वातिने 'तनिसर्गादपिगमावा'
*मात संख्या और नामोंका सूचक सत्र प्रथम अध्याय इस तृतीय सूत्रके द्वारा उनका स्पष्ट उल्लेख कर दिया
के अन्तमें दिया है । यहाँ दूसरा ही क्रम रखा गया है
और उक्त छठे सूत्रके आशयका जो स्त्र यहाँ दिया है नामादिना तन्न्यासः ।।५।।
वह इससे अगला पाठवा सूत्र है। 'नाम मादिके द्वारा उनका-सम्यग्दर्शनादिका तथा जीवादि सचोंका-न्यास (निशेष) होता है- म्यवस्था खेताम्बरीय सूत्रपाठ और उसके माध्यमें नयों पर और विभाजन किया जाता है।'
की मूल संख्या नैगम, संग्रह व्यवहार, सूत्र और ___ यहाँ 'आदि' शब्दसे स्थापना, द्रव्य और भावके शब्द, ऐसे पांच दो है, फिर नैगमके दो और शब्द नवग्रहणका निर्देश है। क्योंकि आगममें न्यास अथवा नि साम्पत, सममिल, एवंमत ऐसे तीन भेद किये गये क्षेपके चार ही भेद किये गये हैं और वे षट्खण्डाग- है, और इस तरह नयके पाठ भेद किये है। परन्तु मादि मूल ग्रंथोंमें बहुत ही रूढ़ तथा प्रसिद्ध है और पं० सुखखासजी अपनी तस्वार्थसूत्रकी टीकामे यह स्पष्ट उनका बार बार उल्लेख पाया है। और इसलिये इस स्वीकार करते है कि जैनागमों और दिगम्बरीष ग्रंथों सूत्रका भी वही प्राशय है जो उमास्वातिके पाँचवें सूत्र की परम्परा क सात नयों की ही है।