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________________ व, किरण प्रमाचन्द्रका सन्चार्यसूत्र तैरधिगमस्तत्स्वाना होता है, इसलिये क्षायिक' कहा जाता है। 'उन-प्रमाणों तथा नयों के द्वारा तत्वोंका पविधोऽवधिः ॥१२॥ विशेष ज्ञान होता है। 'अवविज्ञान का भेदरूप है। इस सूत्रमें 'प्रमाणनवैः' को जगत 'ते' पदके प्रयोग यहां छहकी सख्याका निर्देश करनेसे अवधिशन से जहाँ सूत्रका लाघव हुआ है वहां तवानां पद कुछ के अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अव. अधिक जान पड़ता है । यह पद उमास्वातिके उक्त छठे स्थित और अनवस्थित ऐसे छह भेदोंका ग्रहण किया सूत्रमें नहीं है फिर भी इस पदसे अर्थ में स्पष्टता जरूर गया है,जो सब क्षयोपशमके निमित्तसे ही होते हैं । भवश्रा जाती है। प्रत्यय अवधिज्ञान जो देव-नारकियोंके बतलाया गया है सदादिभिश्च ॥९॥ वह भी क्षयोपशमके बिना नहीं होता और छह भेदोंमें 'सत् मादिके द्वारा भी तत्वोंका विशेष ज्ञान होता उसका भी अन्तर्भाव हो जाता है, इसीसे यहाँ उसका पृथक रूपसे ग्रहण करना नहीं पाया जाता। यह सूत्र यहां 'श्रादि' शब्दसे संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, उमास्वातिके 'पयोपशमनिमित्तः पवियापः शेषाखा अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व नामके सात अनुयोग इस २२ । सूत्रके साथ मिलता-जुलता है। द्वारोंके ग्रहणका निर्देश है; क्योंकि मत्-पूर्वक इन अनु द्विविधो मनःपयेयः ॥१३॥ योगदारोंकी पाठ संख्या श्रागममें रूढ़ है-पटवण्डा 'मनः पर्वयज्ञान दो भेदरूप है।' गमादिकमें इनका बहुत विस्तारके साथ वर्णन है । इम यहां दोकी सख्याके निर्देश द्वारा मनः पर्ययके सत्रका और उमास्वाति के 'सत्संख्यादि' सूत्र नं० ८ का ऋजमति और विपुलमति दोनों प्रसिद्ध भेदोका संग्रह एक ही श्राशय है। किया गया है और इसलिये इमका वही श्राशय है जो मित्यादीनि [पंच] ज्ञानानि ॥१०॥ उमास्वानिके पविपुलमती मनःपर्ययः' इस सूत्र नं. 'मति भादिक पांच शान हैं।' २३ का होता है। यहाँ 'श्रादि' शब्दके द्वारा श्रुत, अवधि, मनःपयंय अखंडं केवलं ॥ १४॥ और केवल, इन चार ज्ञानोका संग्रह किया गया है, केवलज्ञान अखंड स्योंकि मति-पर्वक ये ही पाँच ज्ञान आगममें वर्णित है। -उसके कोई भेद-प्रभेद क्षयोपशम [क्षय हेनवः ॥११॥ नहीं है।' 'मत्यादिक ज्ञान पयोपशम-पय हेतुक है।' इम सूत्रके प्राशयका कोई सूत्र उमास्वाति के मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, ये चार ज्ञान तो तत्वार्थसूत्रमें नहीं है। मतिज्ञानाबरणादि कर्म प्रकृतियोंके क्षयोपशमसे होते है, समय समयमेका पत्वारि ॥१५॥ इसलिये 'क्षायोपशामिक' कहलाते हैं और केवलज्ञान 'कभी कभी एक जीवमें बुगपत् चार शाम होते है। ज्ञानावरणादि-घातियाकर्म-प्रकृतियोंके क्षयस उत्पन्न केवलज्ञानको बोड़ कर शेष चार शान एक स्थान स।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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